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नया पथ जुलाई-सितंबर 2020
नया पथ जुलाई-सितंबर 2020
सं थापक
िशव वमा
संपादक य परामश
असग़र वजाहत पु तक चचा-1
सपं ादक
वष 34 : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
मुरली मनोहर साद िसंह / चंचल चौहान
आलोचना सवं ाद
दिलत िवमश संबंिधत कुछ पु तक पर चचा : चंचल चौहान / 112
मख
ु ौट से लड़ती कहानी-आलोचना: अंिकत नरवाल / 121
कथेतर : या ा वृतांत
'सैर कर दिु नया क ग़ािफ़ल' : अिन कुमार / 129
िवशेष मरण
श द और सगं ीत के वर-साधक रमेश रंजक : अजय िबसा रया / 135
किव रामे र शातं और उनक किवताएं : नीरज िसहं / 147
सपं ादक य
पु तक चचा क अहिमयत
सचू ना ांित के इस दौर म पढ़े िलखे लोग का अिधक समय फ़े सबक ु , हाट्सऐप और सोशल मीिडया के तमाम
अ य उपकरण पर लगता है। इस ि थित को, इस दौर क कोिवड-19 क महामारी ने और अिधक िवकट कर िदया
य िक सभी उ के लोग को इस महामारी ने ज़बरन इन मा यम से जोड़ िदया। आिफ़स, कूल, कालेज सभी इ ह
नये मा यम से काम चला रहे ह। बड़ी कंपिनयां, राजनीितक पािटयां, अनेक सगं ठन वीिडयो कां स के मा यम से
अपनी बैठक, सेिमनार (‘वेिबनार’) और अ य सामिू हक काम, यहां तक िक रोज़मरा क व तुओ ं क ख़रीदारी का
काम भी घर से ही चला रहे ह। पु तकालय म जा कर पु तक पढ़ने का परंपरागत ढरा अब समा ाय हो गया है।
बहत सी िकताब भी िडिजटल हो गयी ह, इटं रनेट के मा यम से कह भी, िकसी भी व त बैठकर या लेटे लेटे उन
िकताब को पढ़ा जा सकता है।
यह सब होते हए भी काग़ज़ पर छपी िकताब का िसलिसला जारी है। बड़ी तादाद म लेखक और िचतं क
सि य ह। वे अपने मन क बात, अपना ान और अपनी सवं ेदना का इज़हार करने के िलए छपी िकताब को ही
मा यम बनाना पसदं कर रहे ह। जहां िडिजटल मचं पर िवचारधारा मक सघं ष चल रहा है, वह छपी िकताब के
मा यम से भी िवचार का यह घमासान जारी है। इसी घमासान क एक बानगी पेश करने के मक़सद से नया पथ का
यह अंक 'पु तक चचा' पर कि त िकया गया है। कोिशश यह क गयी है िक इधर के दो चार बरस म कािशत
िकताब पर चचा कि त हो, सभी िवधाओ ं क , और सािह येतर भी, कुछ िकताब शािमल क जाय िजससे इस दौर
के रचनाकार और िवचारक के मा यम से य सामािजक यथाथ क पहचान क जा सके । इन िकताब के मा यम
से इस दौर के बहिवध िवमश क झलक भी इस चचा म समािहत है।
िपछले कुछ बरस म देश क राजनीित पर जो ताक़त झठू े आ ासन , िम या मजाल और झासं से
अवाम को गमु राह करके हावी हो गयी ह, वे जन और जनतं के िलए बरु े िदन लाने म मशगल ू ह। उनक मल ू
िवचारधारा फ़ासीवादी है, देशी िवदेशी िव ीय पजंू ी ने फ़ासीवाद क मौजदू ा राजनीितक सरं चना को अपार धनबल
से लैस कर िदया है, इस धनबल से उसने अपने िलए मानवससं ाधन भी अपार मा ा म जटु ा िलये ह। इस समयउसके
पास दलबदल कराने के िलए भी धन क कमी नह है। शानदार पाट आिफ़स हर िज़ले म इस धनबल से ही बने ह,
चनु ावी ि याओ ं पर उसक पकड़ अ य राजनीितक सगं ठन के मक़ ु ाबले कह बेहतर है। मतदाता सचू ी म प न के
िहसाब से भारी, बथू के िहसाब से भारी बना िदये ह और इसी तरह क परू ी सरं चना फ़ासीवादी ताक़त ने तैयार
कर ली है। इसिलए इन ताक़त को काडरिवहीन राजनीितक दल िशक त देने म कामयाब नह हो पा रहे ह।
स ा के नशे म चरू इन फ़ासीवादी ताक़त के शासन म मिहलाओ,ं दिलत और अ पसं यक पर
अ याचार म इस दौरान लगातार बढ़ोतरी हई है। य तो भाजपा शािसत उ र देश म शायद ही कोई िदन ऐसा हो
जब इस तरह के अ याचार क ख़बर न आती हो, मगर 14 िसतंबर 2020 के िदन हाथरस के पास एक गावं म
उ नीस वष य दिलत मिहला के साथ बला कार और िहसं ा क जो बबर घटना हई, उसने तो मानवता को शमसार
ही कर िदया। उस मिहला क मौत 29 िसतबं र को िद ली के सफ़दरजंग अ पताल म हई, उ तर देश पिु लस ने उस
मिहला का शव प रवारजन को स पे बग़ैर रात म ही उसके गांव के बाहर जला िदया, परू ी दिु नया ने उस वीिडयो को
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देखा, िफर उमड़ा ितरोध का सैलाब, परू ी दिु नया ने इस बबरता क िनंदा क और हाथरस क इस ’िनभया’ के िलए
याय क आवाज़ बल ु दं क । सवं ेदनाहीन फ़ासीवादी ताक़त के नेतृ व और शासन ने ह यार का प िलया। यह है
भाजपा नेतृ व का असली चेहरा, चाल और च र । ऊंची जाितय के लोग क पंचायत को कुछ भी करने क छूट
दी गयी, दिलत पीिड़ता के प रवार से सहानभु िू त रखने वाल पर चलाया दमन च ।
देश क शासन यव था का ऐसा कोई खभं ा नह है, िजसम फ़ासीवादी तं न घसु ा हो, सवं ैधािनक
सं थाओ,ं ानिव ान के सं थान पर उसने परू ी तरह क ज़ा कर िलया है। लोकतं िदखावे भर के िलए है। इधर
महामारी ने और मनमाने ढगं से लागू क गयी तालाबदं ी ने भी ग़रीब शोिषत अवाम और म यवग व छोटे उ ोग
धधं को तबाह कर िदया, लेिकन बड़े कारपोरे ट घरान और अंतररा ीय िव ीय पंजू ी को मदं ी क भयंकर चपेट से
कोरोनाकाल ने उबार िलया। परू ी पजंू ीवादी दिु नया म उ पाद के िलए मागं का सक ं ट पहले ही था िजसे कोरोनाकाल
से पहले 'महामदं ी' कहा जा रहा था, मगर इस दौर म उ पादन के ठप होने से मज़दरू ी क बचत हो गयी, ऑिफ़स का
ख़च भी बच गया और उ पाद भी धीरे धीरे महगं े दाम पर िबकने लगे। पंजू ीवादी अथशा ी इस 'पनु ज वन' से खश ु
ह। एक ओर सरकार क ओर से अ छा ख़ासा पैकेज हािसल कर िलया, दसू री ओर सबसे बड़ी उ पादक शि
यानी मज़दरू वग पर कुछ भी ख़च नह करना पड़ा। जब धानमं ी ने देश को नसीहत दी िक 'कोरोना काल को
अवसर म बदल लो' तो बीजेपी शािसत कई रा य ने ऐसे म क़ाननू बना िलये, िजनसे कारपोरे ट घराने मनमाने तौर
पर मज़दरू क छंटनी कर सकते ह। क सरकार ने भी इसी तरह का क़ानून बना िलया। प क नौकरी देने का
िसलिसला तो बहत पहले लगभग सभी े म ख़ म हो चक ु ा था, इसिलए असगं िठत मज़दरू क तादाद म ही
बेतहाशा बढ़ोतरी होती रही, तालाबंदी के दौरान जो जन सैलाब महानगर से गांव जाने के िलए उमड़ा था, वह इस
स चाई का माण है। उनक कमाई बंद हो गयी थी, मगर गोदाम म पहले से ही बना हआ माल भरा पड़ा था,
उसक खपत इस दौरान हो जाने से कारपोरे ट पजंू ी को दोहरा लाभ िमल गया। कोरोना काल उनके िलए वरदान
सािबत हआ, ग़रीब के िलए व पात।
मज़दरू के िख़लाफ़ मक़ाननू म सश ं ोधन करने के बाद क सरकार ने िकसान को कारपोरे ट घरान के
अधीन करके उनके शोषण म इज़ाफ़ा करने के मक़सद से तीन क़ाननू पा रत कर िलये, िजनका ितरोध आजकल
जारी है। अब तक के रवैये से लगता है िक फ़ासीवादी िवचारधारा से लैस क सरकार शायद ही िकसान क मांग
माने य िक वह महामारी को भी 'अवसर' के प म इ तेमाल करने के फ़लसफ़े म यक़ न रखती है। आदं ोलन के
दबाव म आकर िकसान संगठन से िमलकर बातचीत ज़ र क है, मगर क़ानून वापस लेने का उसका कोई इरादा
नह िदखता।
ऐसे माहौल का असर सािह यकार क सवं ेदना को, या समाजशाि य क चेतना को न छुए, यह सभं व
नह । इस सबक जानकारी हम िकताब से ही िमल सकती है, य िक िकताब ान और सवं ेदना क वाहक होती ह,
मानवस यता को समृ करने म उनका ऐितहािसक योगदान रहा है, हमेशा रहेगा। समाज म चल रहे वैचा रक सघं ष
क तसवीर भी इ ह म िदखायी देती है। इसीिलए पु तक चचा क अहिमयत हमेशा रहेगी।
मराठी के मशहर जनकिव अ नाभाऊ साठे का यह ज मशती वष है। इस अंक म हम उ ह मरण करते
हए उन पर एक लेख छाप रहे ह और यह अंक उ ह क मृित का समिपत कर रहे ह।
इस अविध म हमारे बीच कई सािह यकार, कलाकार, लेखक नही रहे। नया पथ क ओर से किपला
वा यायन, राहत इदं ौरी, पिं डत जसराज, इ ािहम अ काज़ी, मक ु ंु द लाठ समेत उन सभी को भावीभीनी ाजं िल।
मुरली मनोहर साद िसंह
चंचल चौहान
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ज मशता दी मरण
समाजवादी िवचारधारा के ब
अ नाभाऊ उन नेताओ ं और कायकताओ ं के सपं क म आने वाले पहले यि थे, जो इस तरह के सामािजक
आंदोलन के मा यम से आ म-जाग क हए थे। उनसे, अ नाभाऊ को सामािजक असमानता और अ याय के
िख़लाफ़ सघं ष के बारे म पता चला। इसी तरह उ ह दिु नया भर के कामकाजी लोग के शोषण और उ पीड़न तथा
उनके िव सघं ष क जानकारी िमली। सी ांित और वहां के िमक के समाजवादी रा य क ि थित के बारे म
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भी पता चला। उस समय, क यिु न ट पाट ारा मज़दरू आंदोलन म िमक क वैचा रक जाग कता बढ़ाने के िलए
कॉ. आर. बी. मोरे , कॉ. बी. टी. रणिदवे, कॉ. एस. वी. देशपाडं े आिद नेता मा सवादी-लेिननवादी िवचारधारा पर
िमक का एक टडी सकल चलाते थे। इस अ ययन मडं ल से कामगार का पहला कै डर िनकला। िजसम कॉ.
सालवी, कॉ. शक ं र नारायण पगारे , कॉ. िकसन खवले, कॉ. सरतापे आिद थे। बाद म, उनके साथ, कॉमरे ड
अ नाभाऊ ने भी भाग लेना शु कर िदया।
इसी लेबर कप म कायकताओ ं के साथ िमलकर अ नाभाऊ को अ र का ान हआ। वह पर उ ह ने मराठी
भाषा म शाि दक प से क, ख, ग सीखा। ( य िक अ पृ यता के कारण उ ह बचपन म ही कूल छोड़ना पड़ा था)
वणमाला क पहचान के बाद, उ ह ने शु म दक ु ान के नामफलक, िफ़ म के पो टर पढ़ना शु िकया। बाद म, वे
लेिनन के जीवन च रत, सी ांित के िस लेखक मैि सम गोक का उप यास, मा,ं सी ांित का इितहास,
िमक सािह य मडं ल ारा मराठी मे कािशत मा स-एंगे स का क यिु न ट घोषणाप , िमक आंदोलन से
िनकलने वाली मंबु ई कामगार सा ािहक पि का आिद पढ़ना शु िकया। इसी तरह वे कायकताओ ं से देश-िवदेश
क मौजदू ा प रि थितय को समझने लगे। इससे अ नाभाऊ क राजनीितक, सामािजक तथा वैचा रक समझ बढ़ने
लगी।
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आंदोलन था। उसे अंतररा ीय राजनीित का प रचय भी था। दिु नया म िजस िजस देश मे सा ा यवाद, पंजू ीवाद,
फ़ासीवाद और मेहनतकश जनता के शोषण के िख़लाफ़ मिु सघं ष चल रहा था, उसका भाव यहां के आदं ोलन
म िदखायी देने लगा था। सा ा यवाद, पंजू ीवाद और फ़ासीवाद का ितरोध समय समय पर क यिु न ट ारा िकया
जा रहा था।
इन सबका असर अ नाभाऊ क िवचारधारा पर िदखायी देने लगा था और उनम एक िव ि िवकिसत होने
लगी थी। 1936 म पेन म फ़ासीवाद उभरना शु हआ और इसके िख़लाफ़ सघं ष शु हआ। उसक रपोट
क यिु न ट पि काओ ं मे छपने लगी, उ ह अ नाभाऊ िनयिमत प से पढ़ते थे। इसे पढ़ने और कामरे ड के साथ
चचा करने के बाद 1939 म, उ ह ने पेन के फ़ासीवाद के िख़लाफ़ पहला ‘ पैिनश पोवाडा’ (यानी लोकगीत का
एक प िजसे गायन क लोकशैली म तुत िकया जाता है), िलखा, िजसे लेकर मबंु ई के िमल वकस यिू नयन क
ओर से मज़दरू के बीच कई काय म आयोिजत िकये गये थे। लोग ने पहली बार अ नाभाऊ को किव के प म
पहचाना और सराहा।
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के साथ और िनदशन म तमाम कलाकार एक साथ आने क वजह से लाल बावटा कलापथक मबंु ई म मज़दरू के
बीच बहत लोकि य हो गया।
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नाटक म हािशये पर धके ले गये समाज का िच ण िकया। वे अपने गीत , पोवाडे, लोक नाटक से मािलक- िमक
सबं धं , पजंू ीवादी लोकतं , मज़दरू और िकसान के शोषण, धोखाधड़ी आिद पर हार करते। अपने बहचिचत
‘मबंु ई लावणी’ म, उ ह ने पूंजीपित, अमीर और ग़रीब के जीवन म अ यिधक असमानता को दशाया है।
जग बदल घालनू ी घाव, (दिु नया बदल दे..) सागं नू गेले मला भीमराव, (कह चले भीमराव) गीत म
अ नाभाऊ कहते ह, ‘पजंू ीपितय ने हमेशा लटू ा है, धमाध ने छला है’, गीत म जाित और वग के शोषण के
िख़लाफ़ डॉ. बाबासाहब आंबडे कर के नाम पर, वे दिलत को चोट करने के िलए कहते ह। कॉ. अ नाभाऊ क
कहािनया,ं उप यास के नायक और नाियकाएं भी िव ोही और सघं षशील ह। उ ह ने दिलत , शोिषत , िमक और
उपेि त लोग के नायक को अपने सािह य म स मानीय थान देने का बड़ा मौिलक काम िकया है। उनके उप यास
‘फ़क रा’ का नायक ि िटश सा ा यवािदय के िख़लाफ़ िव ोह करता है। उ ह ने इस िस उप यास को
डॉ.बाबासाहेब आंबडे कर के उ लेखन के िलए समिपत िकया था। उप यास ने सव े सािह य के िलए कई
सरकारी परु कार भी जीते। इसके अलावा, इ टा क मदद से, उस समय मराठी िफ़ म उ ोग के िस
अिभनेताओ ं के साथ ‘फ़क रा’ नामक िफ़ म बनायी गयी थी।
जनकिव कॉ. ग हाणकर ने िफ़ म फ़ाइनस कॉरपोरे शन से िव ीय कज़ लेकर इसका िनमाण िकया था।
अ नाभाऊ और जाने-माने पटकथा लेखक वाजा अहमद अ बास ने इसक पटकथा िलखी थी और उसे कुमार
चं शेखर ारा िनदिशत िकया गया था। इसके अलावा उनके कुछ उप यास पर भी देश म िफ़ म बनी ह। उनका
उप यास, िच ा मबंु ई के नािवक के िव ोह क पृ भिू म पर िलखा गया है और नाियका भी एक िव ोही है।
अ नाभाऊ के सोिवयत स जाने से पहले यानी 1961 म इसका सी म अनवु ाद छपा था।
अ नाभाऊ साठे न के वल एक सािहि यक यि थे, बि क एक क युिन ट कायकता भी थे, िज ह अ सर
ि िटश और कां ेस अिधका रय के ोध और दमन का सामना करना पड़ता था। कभी-कभी, उ ह भिू मगत रहना
पड़ता था और जेल म डाल िदया जाता था। उनके कई लोक नाटक पर भी सरकार ारा ितबंध लगा िदया गया
था। अ नाभाऊ एक कत यिन प कार भी थे। वे दिलत-शोिषत और मेहनतकश क ददु शा को पढ़ने के िलए
क यिु न ट पाट क , मशाल, लोकयु , यगु ातं र और अ य सा ािहक पि काओ ं के िलए िनयिमत प से िलखते थे।
वे पु तक और िफ़ म समी ा भी िलखते थे। 1943 म मंबु ई म थािपत ‘इिं डयन पीपु स िथएटर
असोिसएशन’ (इ टा) क थापना म भी सहायक थे। 1949 म वे इ टा के रा ीय अ य भी रहे।
कॉमरे ड अ नाभाऊ ने मराठी म दिलत और िव ोही सािह य क वैचा रक न व रखी है। आधिु नक
मा सवादी िवचारक एंटोिनयो ा शी क , जो प रभाषा थी ‘जैिवक बिु िजवी’ वह अ नाभाऊ पर भी लागू होती
है। मराठी के िस िव ोही सािह यकार बाबरु ाव बागल ु उ ह महारा का मैि सम गोक कहते थे।
सयं ु महारा आंदोलन और इसके िनमाण म, अ नाभाऊ के लाल बावटा कलापथक और उनके
सहयोगी कॉ. अमर शेख़ तथा कॉ. ग हाणकर ने भी अपना बहमू य योगदान िदया। लेिकन िजन जनवादी
सािह यकार ने अपने लेखन और गीत के मा यम से देश और दिु नया म पीिड़त , मज़दरू , का तकार , दिलत-
शोिषत के शोषण के िख़लाफ़ आवाज़ उठायी, उ ह तथाकिथत सािहि यक तथा सं कृ ित के ठे केदार, त कालीन
और वतमान अिधका रय ने नज़रअदं ाज़ िकया।
उपे ा क वजह
महारा म, पी. एल. देशपांडे, कुसमु ा ज, (सािह यकार) यशवंतराव च हाण के नाम पर अकादिमयं ां और
सरकारी सं थाएं थािपत क जाती ह, अख़बार म मरण िदन मनाया जाता है, िवशेष अंक िनकालते ह, चैनल पर
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चचा क जाती है। लेिकन िजनक वजह से सयं ु महारा अि त व म आया उन कॉ. अमर शेख़, कॉ. अ नाभाऊ
साठे का ज म शता दी वष आया और चला गया, लेिकन न तो शासक और न ही तथाकिथत महान सपं ादक ने
उ ह याद िकया। इस तरह इन तीन जन कलाकार क घोर उपे ा क गयी।
कॉ. अ नाभाऊ, अमर शेख़ और ग हाणकर के िह से म आयी उपे ा का मु य कारण यह है िक ये सभी
लोकशाहीर यानी जनकिव िन न समझी जाने वाली जाितय , धम और वग से आये थे। दसू रा कारण यह है िक वे
उ च जाित-वग और शासक के िख़लाफ़ क यिु न ट के प म एक मज़बतू भिू मका िनभा रहे थे। यक़ नन यह सच
इनके िलए गले क हड्डी है। यही वजह है िक मबंु ई-महारा और देश के मेहनतकश लोग और लोक कलाकार
क ओर से इन तीन क मृित म जन-कलाकार का सयं ु मारक मबंु ई म खड़ा िकया जाना चािहए। इस ज म
शता दी वष का अ छा प रणाम तभी सािबत होगा, जब हम अ नाभाऊ साठे , अमर शेख़ और द ा ग हाणकर के
ांितकारी िवचार को दैिनक सघं ष के मा यम से अमल म लाय। यही एकमा कॉमरे ड अ नाभाऊ साठे को
ांितकारी अिभवादन होगा।
मो. 9819996029 / 9322025263
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वैचा रक चचा
नया पथ : जल
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है। सािव ीबाई क मल ू मराठी रचनाओ ं के अ ययन पर दिलत समी क बजरंग िबहारी सािव ीबाई क किवताओ ं
का िव े षण करते हए िलखते ह िक सािव ीबाई क िचतं ाएं ता कािलक से यादा दरू गामी व पवाली ह, वे
वा तिवकताओ ं से ही किवता रचना चाहती ह, इसिलए उनक किवताएं उन क पनामयी व भावक ु किवताओ ं से
अलग ह िजनम ी व नलोक क परी क तरह आती है। उनके िलए यह एक गभं ीर व िचतं ाजनक है िक
सािव ीबाई को िकस तरह से पढ़ा जाये, य िक वे सािव ीबाई के लेखन को अि मतावादी या िवमशवादी एजडे
तक सीिमत कर देने से जो ऐितहािसक-सािहि यक ित होती है, उससे लेखन को बचाना चाहते ह। इसिलए वे
सािव ीबाई को एक कविय ी क तरह िव े िषत करते ह, उनक किवता म आये छंद से लेकर का य प व
िवषयव तु के चयन के सामािजक आधार पर िव तृत िव े षण करते ह। वे उनक किवताओ ं के मा यम से ‘ ा
किव’ क अवधारणा को सामने रखते ह, िजसके िलए कुछ पवू वत शत थ , इसे वे सतं परंपरा क ‘ ान’ क
अवधारणा से भी जोड़ते ह, िजससे शा के समक साधारणजन व लोकपरंपरा म िवकिसत ‘ ान’ क परंपरा से
जोड़ते ह।2 इन किवताओ ं म शत का सबं धं जीवन के स य, िशव व संदु र के मह व क उिचत या या से है, जो
यापक मानव समाज व सृि को घृणा, छुआछूत और भेदभाव से मु एक ा के प म देखने के िलए े रत
करती है। िवमश व दिलत िचतं न के िवकास के कारण ही फुले दपं ित के लेखन, समक ान और या या क ओर
अकादिमक जगत उ मख ु हआ, िजसे मिु क यापक अवधारणा से जोड़ने के उप म म रजनी ितलक जैसी
रचनाकार यापक पाठक वग के िलए उपल ध कराती ह।
रजनी ितलक के सपं ादन म कािशत िकताब, सािव ीबाई फुले रचना सम सािव ीबाई के मह वपणू
रचना मक व ऐितहािसक द तावेज़ को एक जगह एकि त कर जनसामा य के िलए उपल ध कराती है। ये रचनाएं
नयी ऐितहािसक ि से िव ेषण के नये रा ते खोलती ह, िजनसे दिलत िचतं न को यापक सामािजक सदं भ म
समझने म मदद िमलती है। अपने एक सा ा कार म रजनी ितलक इस िकताब को सपं ािदत करने व कािशत करने
क ेरणा का सारा ेय सामािजक व दिलत आदोलन क सघं षमय भिू म को देती ह िजनसे वे यि गत जीवन
सघं ष के िलए भी िवचारधारा मक शि ा करती रह । रजनी ितलक आंदोलन के यांि क व प से बचते हए
इस बात के िलए सावधान करती ह जो मह वपणू वैचा रक लेखन के सामािजक उपयोग व वै ािनक ि कोण
िवकिसत करने के थान पर इस तरह के जननायक को पजू नीय देवी-देवता बनाकर अंधभि करना िसखाते ह।
इससे सघं ष करता जनमानस वैचा रक-मानिसक प से सबल होने के थान पर पवू वत जड़ और िपछड़ा बना रहता
है। आज इस बात को रे खांिकत िकया जाता है िक दिलत िचंतन म िश ा व ान अिजत करने क ि या को
मह वपणू र न माना जाता है। दिलत समाज क ि थित बदलने के िलए फुले और आंबेडकर का िचंतन भी इसिलए
है चिंू क इन िचतं क ने िशि त होने व नये ान को ा करने के िलए दिलत समाज को जा त िकया। फुले मानते थे
िक सामािजक आदोलन को सफल बनाने के िलए िश ा व ान के नये अवयव के िलए यासरत रहना पड़ेगा।
सािव ीबाई का लेखन मल ू प से मराठी भाषा म उपल ध है और िजसे सािह य व समी ा के इितहास
क धरोहर के प म दिलत िचतं न क आधारभिू म माना जाता है। इसिलए सािव ीबाई इस िचतं न क आधारिशला
रखने वाली जन-नाियका के प म पढ़ी जाती ह। उनका लेखन सािह य व इितहास के पृ म अनदेखा नह िकया
जा सकता बि क यह गभं ीर समी ा व पनु रावलोकन क अपे ा रखता है। इन रचनाओ ं का मल ू मराठी भाषा से
िहदं ी म अनवु ाद शेखर पवार ारा िकया गया और रजनी ितलक ारा इसका सपं ादन सव थम सन् 2017 म
कािशत हआ तथा यह भी यान देने वाली बात है िक इसका काशन ‘द मािजनलाइ ड पि लके शन’ ारा िकया
गया। सािव ीबाई ारा इन रचनाओ ं को कब िलखा गया, इनक सिु नि त जानकारी िहदं ी अनवु ाद म नह िमलती,
परंतु कुछ किवताओ ं के अंत म लेखन वष िदया गया है या सािव ीबाई ारा िलखे कुछ प व भाषण म विणत
घटनाओ ं के मा यम से मोटेतौर पर समय का अनमु ान लगाया जा सकता है। जैसे आरंिभक किवता ‘समपण’ के
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अंत म समय सन् 1854 िदया गया है। इस किवता म वे िलखती ह िक सबक कृ पा व अगाध नेह के कारण ही वे
िलख रह ह, इसिलए यह ‘का यमाला’ वे अपने समदु ाय के पाठक व उनके नेह को समिपत करती ह। वे इसे
इितहास म दज करने वाले द तावेज़ क तरह नह िलखत , बि क जनसामा य के िलए आसानी से पढ़ी-सनु ी जाने
वाली रचनाओ ं क ेणी म रखती ह। वतमान सािह य-समी ा प ित के वल इितहास के द तावेज़ बनाकर
का यकृ ितय के सािहि यक–रचना मक व प का कह न कह अवमू यन करती रही है। सािव ी क किवताएं भी
लोक परंपरा का िह सा ह। उनक किवताओ ं के बारे म एक जगह बताया गया है िक जोितबा को समिपत किवताएं
बावनकशी सं ह म ‘52 बहर ’ क लंबी किवता के प म शािमल ह, इन रचनाओ ं म उ ह ने जोितबा के ित ेम,
स मान कट करते हए अपनी भावा मक अिभ यि क है तथा इसके साथ ही उनके यि व व िवचार का
िव तृत वणन भी िकया है। इनम जोितबा के सपं णू जीवन के सघं ष को श दब िकया गया है। इस कार इन
रचनाओ ं व किवताओ ं म अिभ य जातीय उ पीड़न के सदं भ दिलत सािह य के िवकास के िलए सै ांितक दान
करते ह। दिलत समी क बजरंग िबहारी के एक आलेख म इसके बारे म िव तृत जानकारी िमलती है। सािव ीबाई
फुले(1831-97) के दो का य-सं ह— एक, का य फुले(1854) तथा दसू रा, सबु ोध र नाकर(1891) मराठी भाषा
म कािशत हए। एक सं ह म जीवनसाथी फुले के ित ेमपवू क कृ त ता ज़ािहर क गयी है व दसू रे म उनक
ामािणक जीवनी दी गयी है।3
रजनी ितलक ारा सपं ािदत सािव ीबाई फुले रचना सम िकताब को तीन भाग म िवभािजत िकया
गया है। पहले भाग म सािव ीबाई फुले रिचत ‘किवताए’ं ह, िज ह दिलत सदं भ से जड़ु ी किवताएं कहना चािहए।
दसू रे भाग को ‘का य-फुले’ शीषक िदया गया है। इन किवताओ ं के नीचे इनका मल
ू काशन वष सन् 1854 िदया
हआ है। इसी म जोितबा को िलखे कुछ प का भी उ ह ने सक ं लन िकया है िजनम दिलत समाज के साथ होने वाले
अ यायपणू यवहार व घटनाओ ं का उ लेख है। िवशेषकर दिलत ि य के साथ समाज का सक ं ण यवहार व
दिलत समाज क अनिभ ता सामने आती है। सािव ीबाई दिलत ी के साथ होने वाले अ याय के िलए दिलत
समाज क सीमाओ ं का भी िववेचन करती ह और उनके सम इसका एकमा उपाय ‘नयी व आधिु नक िश ा’ है,
िजसके परु ोधा अं ेज़ ह। इस ान को वे ा णवाद का सामना करने का हिथयार मानती ह। िकताब का तीसरा और
अंितम भाग सािव ीबाई के भाषण का सक ं लन है, िजनम वे दिलत समाज को िशि त करने का दािय व गभं ीरता
से िववेिचत करती ह तथा उनके उ थान के िलए समाज म या िभ न िभ न यसन को छोड़ने व उनसे दरू रहने के
िलए े रत करती ह। दिलत समाज म पु ष को आल य यागने व प रि थतय से हारकर हाथ पर हाथ रखकर
बैठने के थान पर म करने का मह व समझाती ह।
सािव ीबाई का लेखन ऐितहािसक मह व इसिलए भी रखता है य िक यह ि िटश उपिनवेशवाद के दौर
म िलखा गया, िजसे रा ीय चेतना के उ थान का काल भी माना जाता है। वे जातीय उ पीड़न के ित सजग ी थ
इसिलए उ ह ने धािमक सरं चना के भीतर पोिषत अधं िव ास, पाखडं , ढ ग व कमकाडं के िख़लाफ़ िलखा, िज ह
आधार बनाकर ि य व अछूत मानी जाने वाली जाितय के ित शोषण, भेदभाव व उ पीड़न िकया जाता था।
रा ीय चेतना के इस दौर म जब ि य क िश ा व उ ार का सवाल सामने आया तब दिमत जाितय का उ थान
देश के कई िह स म वलतं बनता जा रहा था। यह वीकृ त त य है िक उस समय सभी जाितय क ि यां
अपने तरीक़े से लड़ रह थ और िश ा को ी के सामािजक उ थान के िलए सबसे अहम व आव यक मान रही
थ । लेिकन िश ा व शैि क ि याओ ं के मायने सबके िलए अलग-अलग ढगं से काम कर रहे थे। अं ेज़ी िश ा
ा करने वाला उ च वण, िवशेषकर जो आिथक प से भी सं ांत था, िजसे कुछ इितहासकार ने भ वग भी
कहा है, अपनी मातृभाषाओ ं के ित िजतना सचे था उतना ही अं ेज़ी िश ा ा करने के िलए जाग क था।
उसके िलए मातृभाषा और मातृभिू म रा ीय तीक बनाये जा रहे थे—ऐसा रा ीय आदं ोलन, सािहि यक रचनाओ ं
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और प -पि काओ ं म कािशत लेख के मा यम से िकया जा रहा था। देश भाषा और भारत भिू म के िलए िचिं तत
यह वग अपने इितहास, सं कृ ित और जड़ को औपिनवेिशक ताक़त के िव प रभािषत कर रहा था िजसे बां ला
म बंिकमचं च ोपा याय के लेखन से लेकर िहदं ी म भारतदु यगु व उसके बाद के यगु म भी देखा जा सकता है।
िहदं ी नवजागरण के दौर म भाषा, समाज और ी के अतं :सबं धं को समझने के िलए ी दपण पि का के कुछ
अंक के सपं ादन को देखा जा सकता है, िजनम ि य क सामािजक ि थित को यान म रखते हए िजन सधु ार
काय को आव यक बताया गया है, वे मु यधारा और सवण समाज क सां कृ ितक समझ का प रचायक ह। जैसे
ी धम, पित ता धम आिद पर लेख व कई िट पिणयां ह, साथ ही िवधवा ी, प र य ा तथा नीच जाितय क
ददु शा पर िचंता भी य क गयी है। भारतवािसय को ी िश ा के मह व के ित जाग क करते हए पि म क
सं कृ ित, अं ेज़ी भाषा व िश ा से होने वाली हािन के बारे म िव तार से िलखा गया है।4 इसम भारतीयता के िजस
े मवक म ी क नयी छिव को िनिमत िकया जा रहा था वह भारतीय समाज क िविभ न सरं चनाओ ं म मौजदू
िवभेदीकरण क सटीक या या कर पाने म असमथ थी। भारतीय रा क वह छिव िव टो रयन समाज क तरह
परंपरागत सं कार के िनवाह को आदश बनाकर चल रही थी, िजसक समी ा पवू बनाम पि म क िढ़गत
'बाइनरी' के े मवक म भी क गयी है।
दिलत मत क समी ा इस दौर के परू े लेखन के ित िभ न ि दान करती है। वतमान दिलत िचतं न
सािव ीबाई के लेखन को प तौर पर जातीय भेदभाव व शोषण के सदं भ म प रभािषत करता है। वे समाजसधु ारक
ह, कविय ी ह, जोितबा से े रत ह और उनके ित आभार य करते हए िश ा के मह व पर का य रचती ह,
िजसम जातीय सदं भ म िश ा के िविश मायने ह :
णाम जोितबा...
जोितबा महान
शू -अितशू , अं यज
तु हारे अनठू े ान को पाकर अपने को इसं ान के प म पाते…
...
ान क रोशनी है, जानकारी क ताक़त है
सनु उपदेश तु हारा
हम अपना वािभमान जगाते। 5
इसी तरह मनु मृित व मनवु ाद के िव एक किवता म ान के िति त मानदंड को चनु ौती देते हए िलखती ह :
मनु कहे--
...
मनु मृित ा ण को देती आदेश/ कहे मनु मृित खेती न क िजए/ और उपदेश देती/ खेती कर जो
लोग, जो हल चलावे/ वे होते ह मढ़ू बे-अ ल
...
ज म ले जो शू म/ वह पाप है उनके पवू ज म का/ इस ज म म चु ा कर सब शू / सािव ी खोले
पोल मनु क िवषमता क कुिटल रचना/ रीित- रवाज, परंपराओ ं पे ठ पा/ इन अमानवीय कृ य का
षड्यं / रचा है धतू क चाल ने।6
एक अ य किवता म खेती को वे सव े मानती ह – म के साधन व पेट भरने के िलए, पर इनके साथ िश ा व
ान को समय रहते आ मसात करने पर भी बल देती ह।7
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िश ा का अिभ ाय दिलत समाज के िलए अपनी सामािजक ि थित को ठीक तरह से समझना व उसक
या या करना भी था, इसिलए सािव ीबाई शू होने का अिभ ाय और जातीय इितहास, पवू ज आिद के बारे म भी
िलखती ह। िश ा के मा यम से वे मिु पथ िनिमत करना चाहती थ , िजसम ि य को गल ु ामी क सं कृ ित से मिु
िमले, वे घर-ससं ार, प रवार, कामकाज व म क भी या या करती ह िजससे ि यां े रत हो सक तथा ी के
िलए िनधा रत संरचनाओ ं को नये ढंग से देख व यापक आंदोलन का िह सा बन। 'शू का श दाथ', 'शू का दद',
'परिनभर शू ' आिद किवताओ ं म वे अपने िवचार िनभ कता से य करती ह।
िश ा के व प और भाषा के सबं धं म सािव ीबाई व जोितबा के मत औपिनवेिशकता का िवरोध कर
रही रा व भारतीयता क अवधारणा से अलग थे। वे अं ेज़ी-राज क नीित व क़ाननू क शसं ा, इस अथ म करती
ह िजसका लाभ उठा कर दिमत वग िश ा के मा यम से अपनी सामािजक ि थित को सधु ारने का यास करे ।
ा ण -परु ोिहत के ारा िसखायी ग़लु ामी क सं कृ ित को बढ़ावा देने वाली दिक़यानसू ी परंपराओ ं को छोड़ कर व
वग-नरक के आतंक से मु होकर जीवनयापन कर। भा य के भरोसे बैठने के बजाय व अकम यता के थान पर
नयी जागृित व चेतना के साथ कमपथ पर अ सर होने के िलए भी े रत करती ह। ‘अं ेज़ क स ा’ नामक किवता
म वे प तौर पर य करती ह िक पेशवाओ ं क स ा अब समा हई और अं ेज़ क स ा म नये अवसर िविध-
क़ाननू समझ कर जातीयता के आधार पर दिमत-शोिषत वग को अपने िहत को पहचानना होगा। वे िलखती ह :
ा ण-परु ोिहत के षड्यं जाल/ अिव ा अ ानता के कारण शू जन का/ बहत िकया शोषण-
दमन, अ याय और अ याचार/अपने ही जाल म फंसकर बेमौत मरी पेशवायी शासन देखो अब
अं ेज़ क स ा आयी
...
ा ण परु ोिहत और पेशवाओ ं के / शासन का ख़ा मा हआ/ मनु मृित क मृितयां खाक हई/ं
शू जन को सताने वाले बबाद हए/ सयाने अं ेज़ का राज हआ ारंभ
...
देखो अब अं ेज़ का रा य है/ शू को िमलेगी ान क छावं / अं ेज़ क स ा क छतरी से/ शू
अितशू को िमलेगी थोड़ी आज़ादी/ शू िवरोधी ू र शासक क स ा का/ समा हआ काला
अ याय।8
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वैचा रक चचा
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बारे म समय-समय पर सकारा मक या नकारा मक िट पिणयां करते ह। हर च र अपने प को मज़बतू ी से रखता
है। वे किव या उप यासकार का अपना नह , पा का प होता है। यह एक तरह से हमारे जीवन का ही ितिबबं
होता है, िजसम हमारे अपने जीवन म आने-जानेवाल के बारे म एक ि थर,जड़ मत नह होता, बदलता रहता है।
इसके िवपरीत पे रयार इस पु तक म राम या सीता या दसू रे च र का आपस म एक दसू रे के बारे म एक िवशेष
प रि थित म कथन का अलग-अलग थान पर अलग-अलग तरह क बात िस करने के िलए उपयोग करते ह
और एक िनि त-िनधा रत ल य तक पहचं ते ह। इस ि या म वे कई बार उलझ जाते ह। उदाहरण के िलए, रावण
के बारे म ऐसी बहत सी अतं िवरोधी बात वे एकसाथ सामने रखते ह। एक ओर रावण स जन-स च र है, िजसने
िकसी मिहला को उसक अनमु ित के बग़ैर छुआ तक नह , दसू री तरफ़ वे यह भी बताते ह िक वह सीता को उठाकर
ले जाने के िलए झोपड़ी तक आया था और उसे गोद म उठाकर ले जा रहा था। या िबना छुए िकसी ी को इस
तरह उठाकर ले जाया जा सकता है, यह कृ य या उसक इ छा को कट करता है, या उसक उसी छिव को
ेिपत करता है, िजसे पे रयार हम िदखाना चाहते ह? या इसम सीता क सहमित कट होती है? यह अंतिवरोध
राम के बारे म भी दीखता है। एक तरफ़ राम का सीता के च र पर सदं हे करना, राम क कमज़ोरी बताया जाता है,
दसू री ओर वे यह भी िस करते ह िक सीता च र हीन थी। िफर रावण जब सीता से कहता है िक 'आओ हम
िमलकर आनंद उठाय, तो वे सबु कने य लगती ह? यह सीता क च र हीनता है या उसक िववशता, अिन छा,
भय? यहां लगता है िक अपनी बात को िस करने क उ ह ज दी थी। शायद अिधक धैय से, अिधक त या मकता
का सहारा लेकर वे अपने उ े य तक पहचं सकते थे।
बहरहाल महाका य , बड़ी रचनाओ ं क समय के साथ नयी सािहि यक और समाजशा ीय या याएं
वाभािवक प से सामने आती ह। पे रयार क भी यह एक राजनीितक-सामािजक या या है। उनका अपना एक
बड़ा राजनीितक ल य था,जो उ ह ने अपने जीवनकाल म एक हद तक हािसल िकया। उ ह ने तिमलनाडु क
राजनीित को सवण वच व से मु िकया। यह काम िपछड़ को 27 ितशत आर ण देने के बाद उ री भारत म भी
बड़ी हद तक हो सका। इस अथ म उनक अपनी या या सफल रही। रामायण उनके िलए महाका य नह , आय -
ा ण को उ चासन पर बैठाये रखने म स म एक थं था, िजसने िवड़ च र को लािं छत िकया। उ ह ने महससू
िकया िक 90 ितशत िनर र तिमल, दा य भाव से रामायण से जड़ु े ह। इसका कारण वे रामायण पर आधा रत
तिमल क ब रामायण को मानते थे,िजसने तिमल मानस को बनाने म बड़ी भिू मका अदा क (शायद उसी कार,
िजस तरह िहदं ीभाषी देश म वा मीिक क रामायण से हज़ार गनु ा अिधक तुलसीकृ त रामच रतमानस ने क )। इस
कारण वे क ब क भी तीखी आलोचना करते ह, मगर उनक आलोचना का मु य िनशाना वा मीिक रामायण है।
एक लबं ,े किठन और सतत सघं ष के बाद पे रयार इस उ े य म राजनीितक प से अपे ाकृ त अिधक सफल रहे
और तिमल वािभमान पैदा करने म िकसी हद तक स म। यह साठ से भी अिधक वष से िहंदी के वच व को
चनु ौती देने के प म कट हो रहा है, जो इन रा य के सां कृ ितक वच व का िवरोध है। दि ण भारत म िहदं ी
वच व के िवरोध का सबसे मज़बतू गढ़ तिमलनाडु है, इसका एक बड़ा कारण पे रयार का यापक भाव है।
तिमलनाडु क िवड़ राजनीित म आज चाहे, िजतनी िवसंगितयां ह , उसने कां ेस क सवण राजनीित को रा य से
हमेशा के िलए अपद थ कर िदया। इस प रवतन क मु य ेरणा पे रयार और उनक यह िकताब थी। एक और अथ
म यह रामायण क इस नयी या या क राजनीितक-सामािजक वैधता पर मोहर लगाता है,भले ही उसक
सािहि यक-अकादिमक वैधता ांिकत करना उसका ल य न रहा हो। बाक़ दो ंथ को भी साथ म पढ़ तो
िनि त प से पे रयार एक िववेकस मत समाज क थापना चाहनेवाले नेता के प म सामने आते ह। उ ह ने अपने
जीवनकाल म अपना ि कोण िहदं ीभाषी समाज के सामने रखने म सक ं ोच नह िकया था। उ ह ने उ री भारत क
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अनेक या ाएं क थ और अपना ि कोण रखा था। इस दौरान उ ह ने स ची रामायण तथा अपने िविभ न लेख के
काशन क अनमु ित भी दी थी।
उनक दसू री दो िकताब से उनक बौि क गहराई और िववेचन ि अिधक सामने आती है। जाित
सम या और िपतृस ा बहत िव तार से भारत और िवशेषकर तिमलनाडु के सदं भ म जाित क सम या क िविभ न
परत उघाड़ती है। पे रयार बताते ह िक जाित क सम या ने हम िकस कार अनसु धं ान, तक और िवचार से रोका है।
िविभ न थाओ,ं परंपराओ,ं देवताओ,ं धम, जाित ने हम िकस तरह मानवीय िववेक से वंिचत िकया है, लोग को
सवाल करने के हक़ से रोका है। इन सब पर यह पु तक िव तार से काश डालती है। वे कहते ह िक तक और
िववेक ही आगे बढ़ने का एकमा रा ता है। जो िदमाग़ सोच नह सकता, वह िववेकहीन है,जो सोचने क मता
होते हए भी नह सोचता,वह बबर है। वे मिहलाओ ं को लेकर प रवतनकारी सोच रखते थे। उ ह अमक ु क प नी क
तरह नह , बि क एक अलग यि के प म िचि त िकया जाये, इस पर बल देते थे। उ ह पित-प नी श द पर भी
ऐतराज़ था। िववाह को वे दो प के बीच साहचय का अनबु धं मानते थे। जहां लिगक समानता तथा ी-पु ष के
बीच यवहार म समानता सभं व नह , वहां िजसे 'पिव वैवािहक जीवन' से बधं ना कहते ह,उससे ी को बाहर
आकर पु ष क गल ु ामी को अ वीकार करते हए एकल जीवन जीने का िनणय लेना चािहए। दरअसल, ि य को
अपने आि त रखने, उ ह अपने िनयं ण म रखने के िलए ही सती व और ेम पी गणु क आव यकता बतायी
गयी है। िकस कार दो जाितय के बीच वैवािहक सबं ंध को बनने से रोकने के िलए तिमलनाडु म े मानी जाने
वाली जाित और इससे नीची मानी जानेवाली जाित के बीच सबं धं से उ प न सतं ान को दोयम दजा िदया जाता
था, वे यह भी सोदाहरण बताते ह।
जाित क और भी कई पत को वे खोलते ह, िजनम ा ण े ता को सरु ि त रखकर बेहद चतुराई से
अ य जाितय को उनसे हीनतर बताना भी शािमल है। े ता का यह िकटाणु िकस कार अ य जाितय म भी वेश
कर गया है, कै से एक ही जाित म े और अ े का भेद पनप गया है, इसक भी वे तिमल जाित के सदं भ म िवशेष
प से या या करते ह। वे बताते ह िक कुछ वंिचत म यह सोच बन गयी है िक अगर वे रोज़ नहायगे, िसर पर
ितलक लगायगे, शराब और मासं को नह छुएगं े तो उनक ि थित सधु र जायेगी, उ ह अ पृ य नह माना जायेगा।
यह खदु को धोखा देते हए यह सोचना है िक इस तरह दसू र को भी धोखा िदया जा सकता है। वे जाितगत आर ण
को एक वरदान मानते थे िजससे समान नाग रक के समाज का िनमाण होता है। वे जाित यव था का नाश चाहते थे
और कहते थे िक ऐसा करने वाल को धम के न होने का भय नह सताना चािहए। जाित,धम, वेद, ई र सभी को
न िकया जाना चािहए। ये एकदसू रे से इस तरह अिभ न प से जड़ु े ह िक इनम से िकसी को भी अलग करना या
सबको अलग-अलग न करना सभं व नह है। इस मायने म और हर मायने म वे आबं ेडकर को अपने सबसे क़रीब
पाते ह।
इस पु तक म उनके जीवन का वषवार लेखा (जो बाक़ दो िकताब म भी इसी कार उपल ध है) के
अलावा लिलता धारा, टी. थमराईक न, वी.गीता तथा एस वी राजदरु का एक सयं ु लेख पे रयार को समझने म
अिधक मदद करता है।
तीसरी पु तक, धम और िव ि है। इसम िवषय से इतर भी कुछ और लेख शािमल ह, मगर जो इस
िकताब को िभ न बनाता है, वह ई र, दशन और धम के बारे म पे रयार का ि कोण है। एक बात जो मेरे जैसे लोग
क जानकारी म नयी है,वह यह है िक तिमल म ई र के िलए कोई श द नह है। 'कांत जी' श द है ,मगर इसके बारे
म वे बताते ह िक कुछ िव ान क राय म यह श द ई र के िलए है, मगर इसे यह अथ िमले भी अिधक समय नह
हआ है। उनके अनसु ार जब कोई तिमल 'कांत जी' श द बोलता है तो उसम भी एक तरह से ई र का नकार ही
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शािमल होता है। 'कांत जी' श द का अपना कोई वाय अथ नह है। यह तिमल पर थोपा गया श द है। उनके
अनसु ार सच तो यह है िक के वल तिमल थं म ही नह , बि क वेद म भी ई र क अवधारणा नह िमलती, मगर
आय ही इस देश म ई र क धारणा लेकर आये। आज से दो हज़ार वष पहले भी माना जाता था िक ािनय और
बिु मान को ई र क ज़ रत नह । ई र क अवधारणा अपने आप म वै ािनक सोच के रा ते म बड़ी बाधा है।
मनु यरिचत यह ई र हमेशा उ च वण का ही होता है, ऐसा य ? अवतारवाद के बारे म उनका कहना है िक ई र
को अपने सदं श े लोग तक पहचं ाने के िलए अपने वाहक क या ज़ रत? उसे वाणी के मा यम से अपना सदं ेश
पहचं ाने क भला या आव यकता? यह भी िवचारणीय है िक लोग को ई र क आव यकता ही या है? या
समाज क याण और लोक यवहार उसके बग़ैर सभं व नह ? अब तक लोग बीमा रय और सम याओ ं के िनवारण
को ई र क मज़ मानते थे, मगर तब भी यवु ा अव था म अिधकांश लोग मृ यु को ा हो जाते थे। जीवन के
अनेक े म हई गित के कारण ही अब लोग क आयु बढ़ी है। यह ई र क नह , मनु य क देन है। आज िजन
मनु य के पास बेहतर बौि कता है, तािककता है, गहन िवचार मता है, जो अनभु वज य जीवन जी सकते ह, ऐसे
लोग को भला ई र क ज़ रत ही या? ई र और धम को अतीत म बनाने वाले लोग का कहना था िक आप
ग़रीब क मदद कर और आपको इसका लाभ वग म िमलेगा, परंतु आधिु नक िव ान कहता है िक आिखर दिु नया
म गरीब लोग हो ही य ? ग़रीबी होनी ही नह चािहए। अतीत म ग़रीब क मौजदू गी क चाहे जो कारण रहे ह ,
लेिकन मौजूदा समाज म िकसी को ग़रीब नह होना चािहए।
वे इस बात के प धर थे िक एक लोकतांि क रा य का आधार बिु म ा और वतं ता होना चािहए
जबिक धम और धमशा के िनमाण का एकमा उ े य बौि कता और आज़ादी को न करना और लोग को
मखू और दास बनाये रखना है। धम उस समय चलन म आया, जब आदमी आिदम अव था म था- कमोबेश
जानवर क तरह। िजस कार लोग भतू - ेत और आ माओ ं से भयभीत रहते थे, ठीक वही डर धम और
धािमकशा भी पैदा करते थे। ये धम हमारी बौि कता को ही न नह करते बि क हमारे च र को भी ित
पहचं ाते ह। इनक वजह से हमारी ईमानदारी, ेम, एकता क मता आिद भािवत होती है। हमारे िवकास पर असर
पड़ता है, िव ान को नक़ ु सान पहचं ता है और अ ान को बढ़ावा िमलता है। ज़ािहर है िक पे रयार एक अलग ि
क मांग करते ह, तक और िववेक को सव च थान देते ह। नाि तकतावाद क मांग करते ह मगर अब िवड़
राजनीित भी इस मामले म ढ़ नह रही। उसम भी काफ़ झोल पैदा हो चक ु े ह।
सामा यत: राजनीितक कायकता और नेता दशन क बात करने म स म नह होते, मगर पे रयार का एक
सदु ीघ या यान इस बारे म है।
सपं ादक, मोद रंजन ने तीन पु तक को तैयार करने-करवाने म काफ़ प र म िकया है और बहत सी
बारीिक़य म गये ह और ामािणक अनवु ाद उपल ध करवाने क कोिशश क है। स ची रामायण का अं ेज़ी से
िहदं ी अनवु ाद पहले अजक सघं से जड़ु े लोकि य सामािजक कायकता ललई िसहं ने कािशत करवाया था, िज ह
कभी उ र भारत के पे रयार के नाम से भी जाना जाता था। इसका अं ेज़ी अनवु ाद िक ह रामाधार ने (सभं वतः वे
रहे ह , जो कभी िदनमान से जड़ु े थे) िकया था। उस अनवु ाद का िमलान करने पर पता चला िक कई थान पर
इसके अनवु ादक- काशक ने अपनी भावनाओ ं का समावेश भी कर िदया है। पनु ः परू ी पु तक का नया और सटीक
अनवु ाद, तिमल भाषा के श द के सही भावाथ को समझने के िलए तिमलभािषय से िनरंतर सपं क कर बहत
अ छा अनवु ाद उपल ध करवाना एक चनु ौती थी, िजसे अनवु ादक म से एक अशोक झा ने परू ी ितब ता से पणू
िकया। कई लोग के अनवु ाद म एक पता लाना भी एक जिटल चनु ौती थी और कोई अनवु ाद िहदं ी क
वाभािवकता को न न करे , यह भी एक बड़ा काम था। तमाम अनवु ादक और सपं ादक ने इस काम को बड़े
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प र म से परू ा िकया है। इसके िलए उ ह साधवु ाद। िन य ही इन पु तक म य िवचार से सहमित-असहमित
अलग चीज़ है लेिकन ऐसे िवचार का िहदं ी के ससं ार म आना और आते रहना बहत ज़ री है। लोकि य तर पर
यह काम कभी मा सवािदय ने काफ़ लगन से िकया था। िववेक के काम को आगे बढ़ाने का यह िसलिसला आगे
भी जारी रहना चािहए, वरना िहदं ीभाषी े म जो यापक जड़ता और अधं िव ास फै ले ह और सां दाियक
राजनीित िजस कार अपने उफान पर है, उसके िव कोई नया िवचार मज़बतू ी से सामने नह आ पायेगा।
मो. 9810892198
पु तक संदभ
1. स ची रामायण : ई. वी. रामा वामी पे रयार, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
2. जाित यव था और िपतृस ा : ई. वी. रामा वामी पे रयार, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
3. धम और िव ि : ई. वी. रामा वामी पे रयार, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
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ु ाई-िसतंबर 2020
वैचा रक चचा
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इस िदशा म आगे आय । यह आंबेडकर थे िज ह ने गोलमेज़ स मेलन (1931-32) के दौरान आरि त सीट के
साथ दिलत के िलए अलग िनवाचक मडं ल का ताव रखा था। िसतबं र 1932 म पनू ा पै ट के बाद, दिलत को
वरीयता देने क नीित के प म आर ण को भारत सरकार अिधिनयम, 1935 म शािमल िकया गया। 1943
म,आबं डे कर ने वायसराय क कायकारी प रषद के सद य के प म, इस ाथिमकता नीित को कोटा म त दील कर
िदया।
तेलतुंबड़े िदखाते ह िक आर ण शासक वग के हाथ म एक हिथयार बन गया है, लेिकन इसका
मतलब यह कदािप नह है िक यह वाभािवक प से बरु ा है और इसे छोड़ िदया जाना चािहए। वे मानते ह िक
आर ण सिं वधान म जाित के संर ण का बहाना बन गया। दोन िकताब म तेलतंबु ड़े क िचतं ा का एक मख ु िबंदु
‘वग और जाित के अंतिवरोध’ ह िज ह अपने जीवन के अंितम दो दशक म डॉ. आंबडे कर ने सबं ोिधत िकया था।
भारतीय समाज क िविश ता ऐसी है जहां वग क गितशीलता जाित क परत से और अिधक जिटल है, उसने
काल मा स को भी झकझोर कर रख िदया था। आ यजनक प से, दोन आंदोलन - सा यवाद और दिलत
सि यता- म िकसी समान और साझे उ े य क खोज नह हो सक । इसके िलए वे दोन क िखच ं ाई करते ह। वे
आधार और अिधरचना के पक को लेने के िलए क यिु न ट को िज़ मेदार ठहराते ह, हालांिक यह असगं त लग
सकता है। उ ह ने बंबई क कपड़ा िमल के उदाहरण को उ तृ िकया है जहां िमक पर क यिु न ट िनयं ण के
बावजूद, अ पृ यता का अ यास जारी रहा। साथ ही वे आंबडे करवािदय को भी भिू म आंदोलन म भाग नह लेने
के िलए दोषी ठहराते ह जो आर ण क तुलना म अिधक लाभकारी मागं सािबत होने वाली हो सकती थी। भिू म पर
हक़दारी दिलत को स म बनाने म एक कारगर उपाय सािबत होती।
वे यह भी सवाल उठाते ह िक दिलत पर अ याचार के मामल म हम क़ाननू ी याय और सामािजक
अ वीकृ ित दोन एक साथ कै से हािसल कर सकते ह? दसू रे ल य को हािसल करना असभं व सा है य िक इस बात
क सभं ावना बहत कम है िक ऊंची जाितय के लोग वयं क िनंदा करने के िलए आगे आयगे। एक जाितवादी
समाज म न ही इस बात क नैितक प ता है और न ही इस तरह क आ मिनंदा उन लोग के भौितक और बौि क
िहत पर कोई फ़क़ डालेगी जो समाज के कताधता होने का दावा करते ह। मानव अिधकार कायकताओ ं के सामने
यह एक उलझन है िक वे इस बात पर तो ज़ोर दे सकते ह िक रा य सवं ैधािनक ावधान का पालन करे , परंतु वे
नाग रक को सवं ैधािनक नैितकता का पालन करने पर मजबरू नह कर सकते ह। एक सि य सामािजक कायकता
के तौर पर तेलतंबु ड़े कई मानव अिधकार आंदोलन म शािमल रहे ह। उ ह यह समझ है िक भारतीय गणतं को
आकार और िदशा उसक परंपरागत ‘ रपि लक ऑफ़ का ट (जाित का गणतं )’ दे रहा है। यहां आकर िकताब के
शीषक का अथ खल ु ता है।
इसके साथ ही वे हम यह उपाय सझु ाते ह िक एक नाग रक के तौर पर हम इस आपरािधकता क जड़ को
कै से कमज़ोर कर सकते ह, कै से इस आपरािधकता के िख़लाफ़ काम कर सकते ह। रा य हम कई कार क
सामािजक सरु ाएं देता है और हमारे क याण के िलए बहत कुछ करता है। रा य के इस प क यावहा रक
उपयोिगता को यान म रखते हए हम तािकक और आलोचना मक या या से कै से यह देख िक दिलत के मामले
म हम कहां खड़े ह और हम या करना है? दरअसल, उनक पु तक, रपि लक ऑफ़ का ट इस बात पर ज़ोर देती
है िक हम जाित यव था और वग णािलय के सदं भ म भारतीय रा य क कृ ित और आचरण का िनरंतर
आकलन और अ ययन कर। अगर सिं वधान ारा िनिमत रा य भारत के लोग क सं भतु ा का ितिनिध व करता
है तो हम यह भी देख िक यह सं भतु ा िकस प म अिभ य होती है। मसलन, या रा य सामािजक याय को
साथक तरीक़े से लागू करना चाहता है या के वल औपचा रकता का िनवहन करने का इ छुक है। यह एक मह वपणू
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अंतर है और तेलतंबु ड़े चाहते ह िक हम इस पर यान द। सरकार के औपचा रक िनणय से भी कुछ प रणाम हािसल
िकये जा सकते ह और इन सभी को ितर कार क ि से देखना भी ठीक नह है।
आज के नवउदारवाद के बढ़ते भाव के चलते रा य ने अपनी क याणकारी भिू मका का संकुचन िकया
है और जनता एवं रा य के बीच नए िक़ म के सघं ष उपजे ह। तेलतंबु ड़े कहते ह िक रा य का उ े य के वल टकराव
और सघं ष को िनयंि त कर शांित क थापना करना नह हो सकता, रा य को यह भी समझना होगा िक टकराव
इसिलए हो रहे ह य िक समाज म आिथक असमानता और सामािजक सक ं णता है तथा सं कृ ित व इितहास के
े म सघं ष क ि थितयां उ प न हो गयी ह। इसका हल यह नह है िक असहमित के वर के दबाया जाये या
टकराव के कारण पर चचा ितबिं धत कर दी जाये। रा य को खल ु ी और जनतांि क बहस को ो साहन देना
चािहए।
जब जनतांि क दायरे िसकुड़ते ह तो वे ऊपर और नीचे – दोन जगह अपना भाव िदखाते ह। इधर
िपछले कुछ वष म नाग रकता के गणु का पतन हआ है, भीड़ अफ़वाह से िहसं ा क ओर आकिषत होने लगी है
िजससे कुछ बहत ही ददनाक घटनाएं हई ह। तेलतंबु ड़े इसक तह म जाने का यास करते ह। भारत म भीड़ के इस
िहसं क और आ यजनक दशन को 'िलिं चगं ' कहा गया है। इस भीड़-भाड़ के मा यम से कई लोग क जान गयी
है। तेलतंबु ड़े आ य य करते ह िक कृ ण, बु , अशोक और महा मा गांधी के इस देश म इस तरह के उप व
और भयावह घटनाएं कै से सभं व हई ह? तेलतुंबड़े ने िदखाया है िक मनु य क ह या मनु य के ारा हो रही है
िजसम जाित से उपजी घृणा दिलत को िशकार बनाती है। यह 'िलिं चंग' अ पसं यक समदु ाय के सद य के
िख़लाफ़ भी धम के आधार पर क जाती है। वे इस िकताब म 'िलिं चगं ' क घटनाओ ं से िनपटने म रा य क
सं थाओ ं क भिू मका को ज़मीनी तर पर पिु लस-नौकरशाही-नेताओ ं क सांठगांठ के प म सामने लाते ह। इसी
बात को आगे बढ़ाते हए तेलतंबु ड़े कहते ह िक ऐसा लगता है िक यायपािलका म लोग क आिख़री उ मीद भी
ग़ायब हो रही है और कुछ स मानज़नक अपवाद को छोड़कर अदालत हमेशा ग़रीब , आिदवािसय , दिलत और
मसु लमान के िख़लाफ़ प पाती रही ह। इस सदं भ म लेखक का मानना है िक एक िलचं वाली भीड़ क िवशेषताएं-
नैितक धािमकता क अपनी आसान धारणा और अपनी िन प ता के बारे म िव ास, सहज प से उ प न नह
होती ह, बि क यह सब एक िवशेष राजनीित के तहत उ ह कई वष के योग और अवलोकन से प रपणू एक
रणनीित क अिभ यि के प म स प िदया जाता है जो मु य प से दिलत और अ पसं यक को सबक़
िसखाने से जड़ु ी िमसाल के मा यम से होती है।
भारत क आज़ादी क लड़ाई अलग अलग समहू के िलए अलग अलग अथ सधं ान करती है। एक
कां ेसी के िलए इसका जो आशय होता है, वह एक आबं ेडकरवादी के िलए नह हो सकता है। मज़दरू आदं ोलन से
जड़ु े लोग एवं मा सवािदय के िलए इसका आशय िभ न होता है। डॉ. आंबडे कर के योगदान के बारे म भारत
सिहत दिु नया म जो राय बनी है, उसम उनके ारा जाित-उ मल ू न के यास, दिलत को सघं िटत और िशि त करने
क अपील तो है ही, वे एक राजमम के प म याद िकये जाते ह। भारत के सिं वधान को प देने म उनक
िवल ण भिू मका थी।
तेलतुंबड़े रे खांिकत करते ह िक वे जो कर रहे थे, उसके प रणाम के बारे म वे प थे और दिलत,
आिदवासी, िपछड़ी जाितय , मिहलाओ ं और अ पसं यक , ग़रीब जनता और उनक भावी पीिढ़य के िलए उनके
अि तीय योगदान पर सदं हे नह िकया जा सकता है। हो सकता है िक इन समहू को वग सघं ष या ऐितहािसक
भौितकवाद जैसे नु ख़े क तरह कोई जादू क छड़ी नह दी गयी हो, लेिकन आंबडे कर ने यि क ग रमा का
आ ासन देकर सभी के बीच भाईचारे को बढ़ावा देकर एक सामािजक-आिथक ांित क शु आत क है। 25
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नवंबर 1949 को सिं वधान के अंितम मसौदे पर चचा को छोड़कर, आंबडे कर ने संिवधान क खिू बय पर कहा था
िक यह एक अ छा सिं वधान सािबत हो सकता है, लेिकन यह सिं वधान का यवहार करने वाले लोग क गणु व ा
पर िनभर करे गा। इसी के साथ आंबडे कर सिं वधान क सभं ािवत िनंदा के बारे म जानते थे, ख़ासकर क यिु न ट
ारा, य िक वे सवहारा वग क तानाशाही के िस ातं के आधार पर एक सिं वधान चाहते थे। उनके अनसु ार
क यिु न ट इसिलए सिं वधान क िनंदा करते ह य िक यह ससं दीय लोकतं पर आधा रत है। इस तरह से इस
पु तक म लेखक घटनाओ ं और आंदोलन के बीच िदलच प घटनाओ ं का खल ु ासा करते हए सचू ना और िव े षण
क एक बृहत या या दान करता है, िजस पर, अ सर अनसु धं ान के सबं िं धत े के िवशेष का यान नह
जाता है। इस काम म, लेखक पाठक के साथ यह साझा करते ह िक एक ांित का सपना देखने के िलए, जो
दिलत और सवहारा वग के एक सि मिलत वग ारा सघं ष के मा यम से आगे बढ़ने क वकालत करता है। यह
पु तक उन सभी को अव य पढ़नी चािहए जो जाित और वग के मु म िच रखते ह।
अब बात करते ह दसू री िकताब, भीमराव रामजी आंबेडकर : भारत और सा यवाद क । यह िकताब दो
िह स म है। पहले िह से म तेलतंबु ड़े ने एक लबं ी भिू मका िलखी है और दसू रे िह से म एक अधरू ी पाडं ु िलिप है जो
डॉ. आंबडे कर के कागज़ात म िमली थी। इसे 1950 के दशक म िलखा बताया जाता है। इसम बहत सी वे बात ह
जो रपि लक ऑफ़ का ट म कही गयी ह, लेिकन इसका एक नवीन प र े य भी है िक सा यवाद और डॉ.
आंबडे कर क वैचा रक के बीच कोई साझा भिू म िवकिसत क जा सकती है? यह अब तक सभं व नह हआ तो
उसके या ऐितहािसक और मनो-राजनीितक कारण रहे ह? इधर हाल के वष म िव त जगत, सावजिनक बहस-
मबु ािहस एवं सोसल मीिडया म, छा सघं चनु ाव से लेकर पतली पिु तकाओ ं एवं लेख के मा यम से
बिु जीिवय का एक बड़ा तबक़ा आरोप लगाता है िक मा सवाद का आंबेडकर से कोई सवं ाद नह रह गया
है। एक सीमा के बाद वे यहां तक कहने लगते ह िक इसके बीच कोई सवं ाद सभं व ही नह है। तेलतंबु ड़े इसक
धि जयां उड़ा देते ह।
इसके िलए तेलतुंबड़े तीन काम करते ह। आंबेडकर क वैचा रक या ा का इितहास बताना, मा सवाद
से उनक मठु भेड़ और अतं म दोन क बीच समझ थािपत करने वाली साझा कायवािहय क सचू ी तुत करना।
अपनी लगभग 67 मिु त पृ क तावना म आंनद तेलतंबु ड़े ने उस वैचा रक काई को साफ़ करने का काम िकया
है जो आंबडे कर और मा सवादी हलक़ के बीच जम गयी है। इस काई पर या तो लोग िफसल कर िगर पड़ते ह या
उ ह इसके नीचे उ ह आंबडे कर क वह राजनीितक भावभिू म नह िदखायी पड़ती है िजस पर चलकर म, जाित
और जोतने वाली ज़मीन का मु ा हल हो सकता है। इसके िलए उस ऐितहािसक अनभु व को या याियत करते ह
िजसे मज़दरू , ग़रीब िकसान और मिहलाओ ं ने अनभु व िकया है।
डॉ. आंबडे कर क िकताब, भारत और सा यवाद उनके काग़ज़ात म अपणू पांडुिलिप के प म िमली
थी। इसम िहंदू समाज यव था और उसके तीक पर चचा क गयी है। इसम डॉ. आंबडे कर का लेखन उनके पहले
के लेखन से सरल और प है। सभं वत: सिं वधान सभा के वाद-िववाद , आज़ाद भारत म अ पृ य जन क दशा
और उनके राजनीितक भिव य पर वे पहले क अपे ा यादा सोच-समझ पा रहे थे।
िजस नवउदारवाद क चचा वे अपनी िपछली िकताब म कर रहे थे, उसे यहां थोड़ा िव तार देते ह और
उसको समझने के िलए एक िखड़क उपल ध कराते ह। वे िलखते ह िक दिु नया लगातार और तेज़ी से बदल रही है ।
इसके सार को उन ढांच क मदद से नह समझा जा सकता है, िजनसे इसके िपछले सं करण के साथ जझू ा गया
था। यह 'वाद' के वल काश तंभ जैसे तो हो सकते ह लेिकन जनता को उन किठन प रि थितय के बीच से ही
अपने िलए रा ते िनकालने ह गे िजन प रि थितय म वह रह रही है। इस एहसास के पैदा होने पर पहचानवादी िजद
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समा हो जानी चािहए। तेलतुंबड़े आंबडे करवािदय एवं मा सवािदय को वाभािवक िम मानते ह लेिकन यह
तभी सभं व है जब आपस म िव ास पनपे। वे िलखते ह िक भारत के दिलत के कंधे से कंधा िमलाये बग़ैर कोई
ांित सभं व नह हो सकती है और मेहनतकश जनता के यापक तबक़ ारा उ ह अपनाये बग़ैर जाित का िवनाश
सभं व नह है । इसी के साथ क यिु न ट को यह समझना चािहए िक दिलत के साथ हाथ िमलाने का दािय व उनके
ऊपर है और यह मेल स चा और िकसी भी चनु ावी गिणत से परे होना चािहए । दिलत को भी यह महससू करना
होगा िक जातीय पहचान पर आधा रत राजनीित उ ह के वल अिधक टुकड़ म बांटेगी और उनका टुकड़ म बंट
जाना शासक वग के खेमे म खिु शयां लेकर आयेगा । उनक मिु का माग जाित के पास नह है बि क वग य
एकता ही उ ह मु करा पायेगी । क यिु न ट को यह भी समझना चािहए िक ांित िकसी एक िबदं ु तक सीिमत
नह है बि क यह एक ि या है। ांितकारी रणनीित को सचं ािलत करने वाली तमाम नीितयां इसी ांित का
िह सा ह।
1927 से लेकर भारत क सिं वधान सभा म आने से पहले के डॉ. आंबडे कर के लेखन को, कोई यिद
सरसरी तौर पर देख,े तो पायेगा िक भारतीय समाज यव था, िहदं ू धम और उसके अदं र अ पृ य क ि थित पर न
के वल िलख और बोल रहे थे बि क उनके िलए राजनीितक भागीदरी क ज़ोरदार पैरवी भी कर रहे थे। भारत क
सिं वधान सभा क बहस म भाग लेने, उसे प देने म मह वपणू भिू मका िनभाने के दौर म ही उ ह ने भारत क
सामािजक यव था को सवं ैधािनक नैितकता से चािलत होने का व न देखा था। 4 नवंबर 1948 को उ ह ने ीक
इितहासकार ोट को उ तृ करते हए शासन और संिवधान के बीच संबंध क या या के िलए 'सवं ैधािनक
नैितकता’ पर बल िदया और कहा िक िकसी भी समाज को इसे वत: िवकिसत करना होता है। अभी भी हमारे
लोग यानी भारतीय जन को इसे सीखना है। उ ह ने कहा िक भारत म लोकतं ऊपरी िछड़काव भर है, वह भारत
जो मल ू प से अलोकतांि क है।
अपनी अधरू ी पांडुिलिप म वे कहते ह िक वाधीनता एक वतं सामािजक यव था के िलए आव यक
है। यहां पर डॉ. आंबडे कर दो कार क वाधीनताओ ं क बात करते ह : नाग रक वाधीनता और राजनीितक
वाधीनता। डॉ. आंबडे कर क िचतं ा थी िक िहदं ू समाज यव था िजस सीमा तक इन िस ातं को मा यता दान
करती है, उसी सीमा तक वह वतं कही जा सकती है। इसके बाद वे िहंदू समाज यव था के मल ू भतू िस ांत ,
िविश ताओ ं और तीक का वणन करते ह। अपने पवू वत लेखन क तरह वे इस पांडुिलिप म अकादिमक प र म
के साथ उपि थत ह, लेिकन पहले क अपे ा भाषा काफ़ सरल है, शायद वे इसे एक लोकि य लेिकन मह वपणू
पाठ के प म िवकिसत करना चाहते थे।
मो. अजय कुमार : 9415159762 , और रमाशंकर िसंह : 738045713
पु तक संदभ
रपि लक ऑफ़ का ट : िथंिकंग ए वािलटी इन द टाइम ऑफ़ िनयोिलबरल िहदं ु व : आनंद तेलतुंबड़े,
नवयान, नयी िद ली, 2020
भीमराव रामजी आबं ेडकर : भारत और सा यवाद : आनंद तेलतुंबड़े, ले टवड, नयी िद ली, 2019
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वैचा रक चचा
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िनजी राजनीितक सं करण िनिमत कर रही थी। िविभ न ांत (पंजाब म अकाली दल, क मीर म पीडीपी-नेशनल
का स, उ र देश म बसपा का बहजनवाद) ने बहसं यकवाद क राजनीित को ही यापक वीकृ ित िदलाने म न
के वल बड़ी भिू मका अदा क बि क संघ क बहसं यकवाद क राजनीित को एक ज़मीनी आधार महु यै ा कराया।
िकताब म अभय कुमार दबु े ने मोटे तौर पर छह मख ु राजनीितक आ थाओ ं को ािं कत करने पर बल
िदया है िजसके आधार पर बहसं यकवाद से सघं ष क रणनीित तैयार क जाती है। पर वह रणनीित अब समय के
साथ आ मघाती तथा यथाथ क अव ा करने वाली सािबत होने लगी है। पहली आ था यह है िक भारत म िहदं ू
भले बहसं यक ह , पर भारत एक सामािसक सं कृ ित है और मै ीपणू सामािसकता िववाद से परे है। दसू री आ था
यह है िक भारत का बहलतावाद िहदं ु ववादी एकता को परा त कर देगा। तीसरी आ था यह िक भारतीय
सेकुलरवाद का काम अ पसं यक क र ा करने से जड़ु ा है। चौथी आ था यह िक दु ा णवाद से कमज़ोर
जाितय का सघं ष अंततः लोकतं क र ा करने म समथ होगा। पांचवी आ था यह िक भारतीय सिं वधान सभी
अितवादी िवचारधाराओ ं (सा यवाद, जाितवादी उ ता, िहदं ु व) को म यमाग पर चलने के िलए मज़बरू कर देगा।
छठी आ था यह िक सेकुलर, उदार, वामपथं ी िचतं न े है तथा िहदं ु ववादी बौि कता हेय व हीन है और इसीिलए
उनके बारे म पढ़ने-समझने क ज़ रत भी नह है। परू ी पु तक म इ ह छह राजनीितक िव ास क सघन पड़ताल
क गयी है और यह दावा िकया गया है िक इन आ थाओ ं का ईमानदारी से सामना करके ही िहदं ु ववादी राजनीित
क बनावट व सफलता के इितहास को समझा जा सकता है। िहदं ु ववादी राजनीित के आंत रक िवकास म व
उहापोह को समझने के िलए भी इन आ थाओ ं पर गभं ीर पनु िवचार करना होगा। तभी हम उस ‘पॉिलिटकल
करे टनेस’ के जाल से अपने को आज़ाद कर सकगे िजसम िवचारधारा मक आ ह तो बहत ती ह पर यथाथ क
रोशनी म यथाथ के मू यांकन के बौि क यास िवरल ह। आज़ादी के बाद भारतीय इितहास, समाज व राजनीित के
बारे म िनिमत इन आ थाओ ं का उ लेख करने के बाद लेखक ने पु तक म (िजसे वह िनबधं कहता है) आज़ादी से
पहले क िहदं ु ववादी एकता, चनु ाव से ज म लेते बहसं यकवाद, भारतीय बहलतावाद के बारे म िवमश
आ थाओ ं के सक ं ट, ा णवाद िवरोधी व कां ेसी धमिनरपे ता क सम या, सामािसक सं कृ ित के अंतिवरोध
तथा िहदं ू वोट बक तैयार करने क राजनीितक ौ ोिगक का िव तार से िववेचन िकया है। पु तक िहदं ु व क
राजनीितक शि के िव तार का ेय िहदं ु ववादी िवचारक -नेताओ ं को दान करने के थान उसका ऐितहािसक-
समाजशा ीय मू यांकन इस कार करती है िक िहदं ु व क िवजय बहत वाभािवक तथा वीकाय तीत होने
लगती है। ऐसा लगता है जैसे भारतीय इितहास लगातार सां दाियक-बहसं यवादी राजनीित क कामयाबी के िलए
उफन रहा था और िहदं ु व क राजनीित के िलए िहदं ु व कम भारतीय धमिनरपे ता व चनु ावी गणनशा िज़ मेदार
है।
पर लेखक के ारा उठाये म यह मह वपणू है िक सघं िवरोिधय ने सघं प रवार-भाजपा को
देखने क ि को स र के दशक म ही य जड़ीभतू कर रखा है! सघं ने एक सीमा तक बहलतावाद को आ मसात
कर िलया है और वह बहलतावाद को िहदं ू एकता के माग म बाधक नह समझता है। इसी कार वह आर ण,
कमज़ोर जाितय क स ा म िह सेदारी, िशया मसु लमान को जोड़ने, सिं वधान के ित िन ावान होने जैसे कई
रणनीितक यास को सफलतापवू क अजं ाम दे चक ु ा है, जबिक सघं िवरोधी सघं के बारे म स र के दशक क परु ानी
समझ के आधार पर उसक आलोचना करते ह। इस कार सघं से सघं ष करने के िलए व ी फ़ै शन के दबाव म कई
राजनीितक अवधारणाओ ं का सहारा िलया जाता रहा िजससे सघं के िव तार को रोकना असभं व था। के वल चनु ावी
जय-पराजय पर सघं के िहदं ु व क जय-पराजय नह िनभर करती है। कई चनु ाव को हारने के बावजदू सघं -भाजपा
का जनाधार बढ़ता रहा है और इसिलए सघं क राजनीित क काट के वल चनु ाव जीतने म नह बि क दीघकालीन
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वैचा रक अिभयान म िनिहत है।
पु तक म औपिनवेिशक व उ र औपिनवेिशक काल म सरकारी यास के ारा िहदं पू न के बोध को
पु ता करने के यास का िव तृत िववेचन िकया है। लेखक ने यह थापना रखी है िक म ययुगीन ि थितय तथा
औपिनवेिशक बौि क अिभयान -- दोन से िहदं ू आ मछिव को लगातार गढ़े जाने क ि या को बल िमला है
तथा िविभ न जनगणना सबं धं ी यास , औपिनवेिशक क़ाननू तथा आज़ादी के बाद के क़ाननू ने भी ‘एकजटु िहदं ू
समदु ाय’ क क पना को बल दान िकया है। भारत के चौथे वायसराय लाड मेयो ने वष 1871 म जब पहली
जनगणना करायी तभी लोग को न के वल आिधका रक तर पर चतवु ण यव था म िवभािजत िकया गया बि क
िबखरे हए, असंब तथा पर पर सघं षरत िहदं ू समदु ाय को पहली बार आिधका रक तौर पर बोध कराया िक वे िहदं ू
ह। जनगणना और िहदं पू न के बोध म सबं धं बना। जनगणना के मा यम से कई िन नजाितय ने उ चजाित ख़ासकर
ि य होने का दावा िकया तािक वे ि िटश फ़ौज म यवु क को रोज़गार िदला सक और जनगणना म दज जानकारी
के आधार पर ि ज होने का गौरव ा कर सक। आज़ादी के आंदोलन के दौरान भी िहदं ू एकता व िहदं पू न के बोध
को हवा िमली। 1937-47 के दौरान कां ेस-मिु लम लीग के सबं धं म जो िगरावट व टकराव दज हए, उसके पीछे
कां ेस के ‘एक पाट वाद’ को िज़ मेदार माना जा सकता है िजसने लीग को मसु लमान म यह म फै लाने का
अवसर िदया िक जब पराधीन भारत म िहदं ू कां ेस िकसी कार का समझौता नह कर रही है तो आज़ाद भारत म
तो मसु लमान को वह हािशये पर डाल देगी। आगे चलकर िहदं ू अि मता का बोध वतं भारत के क़ाननू से भी
िनिमत हआ। िहदं ओ ु ं के िलए बने क़ाननू जैसे िहदं ू िववाह क़ाननू (1955) और िहदं ू उ रािधकार क़ाननू (1956)
ने िहदं ओ
ु ं के पारं रक िववाह व दसू रे सामािजक क़ाननू क िविवधता को समा कर िदया और उ ह एक िहदं ू
प
समदु ाय क तरह िचि त िकया िजसम बौ ,जैन, िसख को भी सि मिलत कर िलया। इस कार लेखक के अनुसार,
सावरकर क ‘पु यभिू म व िपतृभिू म’ को भारतीयता का आधार बनाने क थीिसस को क ीय क़ाननू ने अपना
िलया। समाजशा ी दीपंकर गु के हवाले से लेखक ने बताया है िक िजसे हम िहदं ू बहमत मानते ह वह इ ह
क़ाननू क देन है और उदारतावादी लोकतं ने इसक रचना क है। इनके बनने के बाद अदालत म सारे मक़ ु दमे व
िववाद िहदं ू धमसमदु ाय क मृित-परंपरा व उसक िवशेषताओ ं के क म रखकर िहदं ु व के एजडे को मज़बतू करते
रहे ह।
पर िहदं ू एकजटु ता को उ र-औपिनवेिशक क़ाननू म ढूढ़ं ने क अपनी सीमाएं भी ह। पहली बात तो यह
है िक ये क़ाननू िकसी भी स य, आधिु नक देश क पहचान ह िजसम शा -परंपरा के थान पर िलिखत क़ाननू ी
सिं हताओ ं का अि त व सभं व होता है। चिंू क वे नये क़ानून िकसी धािमक समदु ाय के सभी सद य पर लागू होते ह
इसिलए उनके िसफ़ उसी के आधार पर बहसं यकवाद पैदा होने के ख़तरे को देखना िववेक कम हड़बडी अिधक है।
भारत म धमिनरपे ता तभी सभं व हो सकती थी जब यहां क बहसं यक िहंदू आबादी को शा व धािमक परंपरा
के थान पर आधिु नक क़ाननू के दायरे म लाया जाता। इ ह क़ाननू से ि य , िन नजाितय को अिधकार ा हए
ह और इ ह के बल पर िहदं ू आ मपहचान बि क एक ‘धमिनरपे देश के आधिु नक नाग रक’ क पहचान अिधक
पु ता हई है। बहसं यकवाद गितशील क़ाननू के मा यम से बने धािमक एकताबोध पर नह िनभर करता है
बि क वह िहदं ू सं कृ ित के कुछ त व जैसे उपासना क तरीक़े , िमथक के राजनीितकरण, ितशोधमल ू क
मानिसकता, सं याबल के मह व को समझने और तक-िववेकवाद से घृणा करने क बिु नयाद पर िटका होता है।
म ययुग के कई राजा-सामतं इन गितशील क़ाननू के अि त व म आने से पहले अपने राजकाज के सचं ालन म
िहदं ू गौरव क वैचा रक का इ तेमाल करते रहे ह। इसी कार लेखक ने आज़ाद भारत क नेह सरकार को िजस
कार से िहदं पू न के बोध से त बताया है वह भी िजरहतलब थापना है। यह धमिनरपे रा य-रा क थापना
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म नेह के योगदान के मह व को अनदेखा करती है िजसम नेह ने िहदं ओ ु ं को धमिनरपे ता के बोध से प रिचत
कराने का यवि थत शासक य-राजक य यास िकया था। उसे के वल यह कहकर ख़ा रज नह िकया जा सकता िक
नेह एक िहदं ू क तरह िहदं ू सं थाओ ं व िहदं ू सां कृ ितक जीवन को बदलने का यास कर रहे थे। नेह क
ाथिमकता म जीवन के हर े का धमिनरपे ीकरण करना शािमल था और इसके िलए यह आव यक था िक देश
के आम नाग रक को धािमक था-परंपरा के अनसु ार जीवन जीने क बा यता से मिु िदलायी जाये। नेह क
धमिनरपे ता म सवधमसमभाव ही नह बि क वै ािनक ि का चार सार अिभ न िह सा था और इस िदशा म
आधिु नक क़ाननू सिं हताओ ं को बल दान कर उ ह ने कई िनणायक क़दम उठाये थे। ितस पर अगर कोई यह तक दे
िक नेह िहदं ू होने का लाभ उठाकर िहदं ू धािमक जीवन को बदल रहे थे तो इस तक से बहस करना बेकार है
य िक यह त कालीन ि थितय म समाजवाद, गांधीवाद तथा पि मी आधिु नकता के भाव से िमलकर बने
उ चिशि त मानस के उदारतावादी िचंतन को भी वतमान िहदं ु व के उभार के िलए दंिडत करना चाहता है।
अभय कुमार दबु े क इस पु तक म कई थान पर चनु ावी जोड़तोड़ व सोशल इजं ीिनय रंग क राजनीित
के मा यम से बहसं यकवादी िहदं ु व को रोकने के यास क िवफलता को भी उजागर िकया गया है। उ र भारत म
ख़ासतौर पर यपू ी व िबहार म बसपा के जाटववाद, सपा के यादववाद क वा तिवकता को उ ह ने पहचानने पर ज़ोर
िदया है और कहा है िक ये दल िकसी कार के बहजन क राजनीित का ितिनिध व नह करते, बि क ख़ास जाित
-समहू क नमु ाइदं गी पर िटके ह। ग़ैर-यादव व ग़ैर जाटव राजनीित पर यान देकर भाजपा ने अितिपछड़ व
अितदिलत को अपने प म करने म सफलता हािसल क है। उसने कई छोटी जाितवादी पािटय से गठबंधन कर
यह सदं शे सा रत कर िदया है भाजपा के वल ा ण-बिनया क पाट न होकर वह उन सभी कमज़ोर जाितय के
िलए राजनीितक िवक प है िज ह सपा-बसपा-राजद आिद म स मानजनक थान नह िमला। इसी कार सेकुलर
दल ने मिु लम के वोट को जादईु ताक़त क तरह देखा िजसे अपने प म कर वे चनु ाव जीतने को लेकर
आ मिव ास से भर जाते थे। पर लेखक ने िविभ न चनु ावशाि य व राजनीितवै ािनक के शोध के हवाले से
िदखाया है िक इस िक़ म क सेकुलरवादी राजनीित ने उ चजाित के िहदं ओ ु ं को इस बात के िलए ो सािहत करना
बदं कर िदया िक उ ह भी सेकुलर राजनीित म िह सा लेना चािहए। सेकुलर राजनीित अपनी िहदं िू वरोधी छिव तैयार
िकये जाने के ख़तर से बेपरवाह बनी रही। उधर भाजपा ने ग़ैर यादव-ग़ैर जाटव जाितय को अपने साथ जोड़कर
तथा सवण का शि शाली वोटबक तैयार कर चनु ाव म मिु लम वोट का पासा पलटने वाली ताक़त को
िछ निभ न कर िदया। लेखक के श द म, ‘िजस तरह राजनीित क यावहा रक ज़मीन पर सेकुल र म का कूट अथ
मिु लिम म (सु नीइ म) हो गया, उसी तरह सामािजक याय का कूट-अथ यादिव म और आंबेडकरवाद का कूट
अथ जाटविव म हो गया।’
अपनी परू ी सरं चना म बहत िवचारो जे क बहस से भरी यह पु तक इसी पर आकर समा होती है
िक दिलत, दिलत चेतना, ा णवाद, आंबडे कर-फुले-पे रयार िवचारधारा, फ़ासीवाद, सामािजक याय और
बहजनवाद जैसी ेिणय क हमारी लोकतांि क राजनीित के िलए कोई उपयोिगता बची है? लोकतं को िहदं ु व के
आघात से बचाने के िलए लेखक यह अपील करता है िक हम उन ढांचागत प रवतन को समझना होगा िजनके बल
पर िहदं ु व क परू ी राजनीित तेज़ी से फै लती चली गयी। हालािं क यह पु तक िहदं ु व का िवरोध करने वाले
राजनीितक िवचार क सीमा को कट करती है, लेिकन कोई ठोस वैचा रक समाधान तािवत करने म इसक भी
िच नह है। हम अिधक से अिधक लेखक के कुछ िव े षण से कुछ नतीजे अव य िनकाल सकते ह। जैसे यह िक
सामािजक याय क राजनीित के वल जाटव या यादव जैसी जाितय तक सीिमत नह रहनी चािहए और उसे
बहसं यक िपछड़ी जाितय को वीकार करना होगा। सेकुलर राजनीित को मिु लम वोट पर यादा ज़ोर देने के
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थान पर तथाकिथत सां दाियक ढंग का चनु ावी आचरण करने वाले िहदं ू वोट को िफर से अपने प म करना
होगा। या बहलतावाद के आधार पर िहदं ओ ु ं क राजनीितक एकजटु ता को असभं व समझने के म से हम मु होना
पड़ेगा और म-मु होने से ही िहदं ु व के वैचा रक िक़ले को तोड़ा जा सकता है। अ पसं यकवाद से जड़ु ी
‘पॉिलिटकल करे टनेस’ से मिु भी ज़ री है तािक इस सच को पहचाना जा सके िक अ पसं यक म भी िशया
मिु लम व िसख का बड़ा िह सा बहसं यकवाद के साथ सहयोग कर रहा है। कुल िमलाकर यह पु तक िहदं ु व
क राजनीित के बारे म हमारी समझ को गहरा बनाने के िलए िहदं ु विवरोधी राजनीित क यवहा रक व वैचा रक
सम याओ ं का बारीक़ अ ययन ततु करती है। यह सेकुलर-उदार राजनीित को आ मघाती म से िघरा हआ
िदखाती है और उसके म-िनवारण का बौि क यास करती है।
अब हम िभ न िन कष दान करने वाली और िभ न िवषयव तु पर कि त एक अ य पु तक पर चचा
कर सकते ह िजसक लेखन शैली इस पु तक से िमलती है। यह है वष 2012 म कािशत ि िटश मा सवादी
िवचारक पैरी एंडरसन क पु तक, द इिं डयन आइिडयोलॉजी। इसम भी भारत क वतमान ददु शा के कारण क
समी ा के िलए गाधं ी के राजनीितक योग , नेह क िवफलताओ ं व िवभाजन के अमानवीय फ़ै सले का स त
िव े षण िकया गया है। िहदं ू भारत के िनमाण क ि या को समझने के िलए इितहास को जांचा-परखा गया है।
वतमान म भारत म िविभ न िक़ म के राजनीितक-सामािजक सक ं ट इतने गहरा रहे ह िक जो िवदेशी राजनीित-
वै ािनक भारत का अ ययन कर रहे ह वे भारत क वातं यो र लोकतांि क या ा क सफलता के दाव को
चनु ौती दे रहे ह। वतं भारत म लोकतं के कामयाब होने के दाव को ि िटश िवचारधारा और िहदं ु ववादी
ि कोण, दोन से चनु ौती िमल रही है। िजन पु तक के मा यम से ये काम िकये जाते रहे ह, उनक न तो पहले कोई
कमी थी और न आज कोई कमी है। पेरी एंडरसन ने अपनी पु तक, द इिं डयन आइिडयोलॉजी के मा यम से भी यही
काम िकया है।
एंडरसन िति त पि का, यू ले र यू के सपं ादक रहे ह। अपनी पु तक म उ ह ने भारत म लोकतं
क ि थरता, बहसां कृ ितक एकता-सिह णतु ा और भारतीय राज- यव था क िन प धमिनरपे ता को ‘द
आइिडया आफ इिं डया’ के क ीय िवचार क तरह ततु करने के दाव क सीमाएं तुत करने का काम करते-
करते उ ह लगभग ख़ा रज कर िदया है। उ ह ने लोकतं , सिह णतु ा, धमिनरपे ता को मु यधारा का िवमश यानी
‘इिं डयन आइिडयोलॉजी’ माना और इसक सीमाएं कट करने के उ े य से अपनी पु तक िलखी है। यह पु तक
भारत के बारे म पांच बड़ी थापनाओ ं को तुत करने का दावा करती है। पहली, भारत क एकता-अखडं ता का
िकसी छह हज़ार वष के कालखडं म फै ला होना एक म है। दसू रा, गांधी के ारा रा ीय आंदोलन म धम का
योग िवनाशकारी सािबत हआ। तीसरा, भारत के िवभाजन के िलए अं ेज़ नह बि क कां ेसी नेतृ व िज़ मेदार
था। चौथा, वतं ता के बाद नेह के शसं क के दाव के िवपरीत नेह क िवरासत बहत सिं द ध व
अंतिवरोधपणू है। पांचवा, जाितगत िवषमताएं भारतीय लोकतं को कमज़ोर नह बि क सश बनाती ह।
पु तक म गांधी के बारे म कड़ा आलोचना मक रवैया मौजूद है। उनके िविभ न राजनीितक योग म
उनक ग़लितय व समझौतापर ती के माण तलाशे गये ह। उदाहरण के िलए, उनके िकसान आंदोलन पर भी
िच लगाते हए यह त य बताया गया है िक गाधं ी ने बारादोली (गजु रात) म उन इलाक़ म िकसान के बीच
आंदोलन िकया जो रै यतवाड़ी यव था के अधीन थे और उ ह ने ज़मीदारी यव था के अंतगत आने वाले गांव म
आंदोलन का इसिलए समथन नह िकया तािक कह कां ेस से ज़म दार का वग नाराज़ न हो जाये। पैरी एंडरसन ने
भारतीय रा को मल ू तः िहदं ू धम से सचं ािलत होता हआ बताया है िजसम आ ड फ़ोसज़ पेशल पावर ऐ ट
(AFSPA) जैसे जनिवरोधी क़ाननू भी क मीर, नागालड, िमज़ोरम, पंजाब आिद देश म लगाये जाते ह जहां िहदं ू
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धम का वच व नह है।
यह िकताब तीन अ याय म िवभािजत है- इिं डपडस, पािटशन और रपि लक। पैरी एडं रसन ने भारत
क उदार-धमिनरपे अवधारणा को के वल भारतीय स ाधारी वग क आ ममु ध सोच बताया है, िजसका यथाथ से
सबधं नह है। इस िकताब क िववादा पद थापनाओ ं का जवाब देने के िलए 2015 म एक और िकताब कािशत
क गयी -- द इिं डयन आइिडयोलॉजी- ी र पांसज़े टू पैरी एंडरसन। इस िकताब म तीन लोग ने पैरी एंडरसन क
थापनाओ ं क कड़ी आलोचना करते हए लेख िलखे। ये तीन िव ान थे- सदु ी ो किवराज, िनवेिदता मेनन और पाथ
चटज । इसम सबसे िदलच प व कठोर अकादिमक तरीक़े से िनवेिदता मेनन ने पैरी एडं रसन के उठाये सवाल का
जवाब िदया है। उनका मत है िक भारत क वतं ता, उसक धमिनरपे अवधारणा तथा उसक नेह वादी िवरासत
पर सवाल उठाना कोई मौिलक िवचार नह है बि क वह ि िटश िवचारधारा व सोच का ही िव तार है। यह इितहास
लेखन के उस ‘कि ज कूल’ के िनकट है िजसम माना जाता है िक ि िटश सा ा य ने अपने उपिनवेश के
आधिु नक करण म सहायता दान क थी। भारतीय के राजनीितक िचतं न के मक़ ु ाबले ‘ ेत सा ा य’ को िव के
िलए िहतकर माना जाता था। इसी कार भारत क आज़ादी को भारतीय के सघं ष का प रणाम नह माना जाता है।
यह कहा जाता है िक भारत म अं ेज़ ने ही िविभ न िक़ म क राजनीितक सं थाओ ं का िवकास िकया और िफर
अंतरा ीय ि थितय के कारण उ ह भारत को वतं करना पड़ा। इस कार भारत क वतं ता दो कारण पर िनभर
थी और वे दोन भारतीय के यागमय सघं ष से िनरपे थे। एक था अं ेज़ के ारा ितिनिधक राजनीितक
सं थाओ ं (representative institutions) का िवकास और दसू रा था अंतरा ीय पटल पर सा ा यवादी देश
ारा अं ेज़ क स ा को चनु ौती। आज़ादी के बाद के भारतीय इितहास के ित भी ऐसा ही नकारवादी रवैया मौजदू
है। भारत क धमिनरपे ता व भौितक िवकास क उपलि धय को नकारने के िलए इसे मल ू प से एक ‘िहदं ू टेट’
के प म िचि त िकया जाता है और 2014 म भाजपा क पणू बहमत से सरकार बनने के बाद इस धारणा को और
बल िमलने लगा है। पैरी एंडरसन ने भारतीय रा य को ‘कनफ़ै शनल टेट’ का नाम िदया है। यानी ऐसा रा य िजसम
के वल एक सं दाय का मह व होता है और यह कै थोिलक धम के भाव वाले यरू ोपीय देश से िनकला हआ श द
है। िनवेिदता मेनन िलखती है, ‘भारत म अिधकाश ं िहदं ओ
ु ं के वोट ग़ैरिहदं वू ादी पािटय म िवभािजत होते रहे ह।
मोदी को भी िहदं ु व के बजाय िवकास के मु पर बार-बार लौटना पड़ता है। यह कहना भी ग़लत है िक जो भाजपा
को अपना मत देते ह, वे सभी िहदं ु व के प धर ह। इसिलए भारत को मल ू प से िहदं ू टेट कह देना समझदारी का
काम नह है।’ भारत के िवभाजन के िलए कां ेस, नेह या गांधी को परू ी तरह िज़ मेदार ठहराना अनैितहािसक
सोच है। भारत के िवभाजन के अपराध को के वल कां ेस के ऊपर थोपने वाले यह नह जानते ह िक साइ स,
िफ़ल तीन और आयरलड म भी िवभाजन क घटना को अजं ाम िदया गया है और वहां न तो नेह मौजदू थे, न
कां ेस।
इस कार क पु तक भारतीय िवचारधारा (इिं डयन आइिडयोलॉजी) क खोज करने का दावा करते-
करते ि िटश िवचारधारा के पाले म चली जाती ह। उनके मा यम से िजस उपिनवेशवादी ‘ि िटश िवचारधारा’ का
चार- सार होता है, वह िहदं ु ववादी वैचा रक के साथ िमलकर इस धारणा का खडं न करती है िक भारत ने
सफलतापवू क धमिनरपे ता को लागू िकया है और वह आधिु नक िक़ म के रा य-रा के बल पर राजनीितक
वतं ता को बनाये रखने म स म है। िहदं ु व क िवचारधारा भी भारतीय धमिनरपे ता, सिह णतु ा व वतं ता
आंदोलन क सामिू हक उपलि धय के ित गहरी िवतृ णा से भरी हई है। उसम भी माना जाता है िक सघं -भाजपा ही
िपछले साठ वष क ऐितहािसक ग़लितय को सधु ारने का काम बेहतर िवज़न के साथ कर सकते ह। दसू री ओर,
ि िटश-औपिनवेिशक वैचा रक भी हर िनि त अंतराल पर सामने आती है िजसम भारत के वतं ता आंदोलन के
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नायक , वातं यो र भारत क वतं राजनीितक या ा तथा उसके सं थािनक िवकास क आलोचना के नाम पर
उसे के वल धम-सं दाय से जड़ु ी चेतना का िव तार माना जाता है। भारतीय समाज म यरू ोप जैसी धमिनरपे ता,
उदार लोकतं व नाग रक चेतना का िव तार न िदखने पर भारत के लोकतं क सफलता पर लगाने का यास
िकया जाता है। भारत म िहदं ू व मिु लम झगड़ को गहरे स यतागत मतभेद का प रणाम बताकर उ ह िकसी साझे
रा वाद के ितकूल बताया जाता है जबिक सच यह है िक सां दाियकता परू ी तरह से आधिु नक सम या है और
इसके ज म के िनणायक कारण आधिु नक िक़ म के रा -रा य के उदय क प रि थितय म िनिहत ह। आशीष नंदी
और िविपन चं ा ने िव तारपवू क पहले ही इस बारे म लेखन िकया है िजस पर आज अिधक यान देने क
आव यकता है। कुल िमलाकर एंडरसन क पु तक िकस परु ानी औपिनवेिशक समझ पर आधा रत है, इसका
िव तार से िववेचन इसी पु तक क िति या म कािशत, द इिं डयन आइिडयालाजीः ी र पांसज़े टु पैरी एंडरसन
नामक पु तक म िकया गया है।
मो. 9711312374
पु तक संदभ
1. िहंदू एकता बनाम ान क राजनीित : अभय कुमारे दुबे, वाणी काशन, नयी िद ली, 2019
2 . इिं डयन आइिडयोलॉजी : पैरी एडं रसन, वस लंदन, 2012
3. द इिं डयन आइिडयोलॉजी- ी र पांसेज़ टु पैरी एडं रसन : पाथ चटज , सदु ी ो किवराज, िनवेिदता मेनन,
द ओ रयंट लैक वान, 2015
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का य चचा
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सरं चना अलग तरह क है, अतः उसको दिलत िवमश से अलग करके देखा जाना चािहए।
इन बारह ी-किवय क किवताएं पढ़ते हए लगता है िक आिदवासी ी-किवता के क म कृ ित,
जातीय सं कृ ित और अलग अलग समदु ाय क भाषा को बचाने क िचतं ा मख ु है। साथ ही, यह किवता िवकास
क अवधारणा और योजनाओ ं के काया वयन म हो रहे भेदभाव पर भी लगातार सवाल उठाती है। आिदवासी ी-
किवता िसफ़ िवचार के तर पर ही काम नह कर रही है । यादातर किव िहंदी के अलावा अपनी भाषा म अ ययन
भी कर रही ह और उसम िलख भी रही ह । कई किव एि टिव ट ह और जनआंदोलन से जड़ु ी ह। सं कृ ित के
सवाल तो लगभग सभी ी किवय ने अपने अपने तर पर उठाये ही ह। ये सारे सवाल एक दसू रे से जड़ु े ह। भाषा
का सवाल सं कृ ित का सवाल भी है :
जाकर बताओ सब को / कुड़ख है मेरी मातृभाषा।
इसी किवता म डॉ. ांिस का कुजरू आगे कहती ह:
भाषा है समाज का मे दंड
बचाता है जो समाज क सं कृ ित
बचाता है जो अपन क पहचान
समझो सभी कुड़ख भाई बहनो !
भाषा के इस गढ़ू रह य को
भाषा गयी ,पहचान गयी, अि मता गयी
इसी तरह सषु मा असरु कहती ह िक 'पहाड़ का घर खतम हो रहा है। भाषा भी नह रहेगी तो / गीत का मेला कहां
लगेगा।' पहाड़ और भाषा के ख़ म होने क िचतं ा िवकास क ि याओ ं पर भी सवाल उठाती है। इसी किवता म
आगे सषु मा कहती ह िक 'हमने बनाया था लोहा / अब उसी लोहे से कंपनी वाले / धरती कोड़ कोड़ लह बहा रहे
ह / उसी लोहे से मार रहे ह / रो रहे ह असरु सारे ।'
उ वला योित ित गा क किवता ‘िशकारी दल अब आते ह’ क पंि यां ह :
िवकास के नये माड स के प म
िदखाते ह स ज़ बाग़
िक कै से परु ाने जजर जंगल
का भी हो सकता है कायाक प
िक एक कोने म पड़े
सनु सान उपेि त जंगल भी
बन सकते ह
िव तरीय व य उ ान
जहां पर होगी
िव तरीय सिु वधाओ ं क टीमटाम
और रहेगी िवदेशी पयटक क रे ल-पेल
और कै से घर बैठे खायगी
शेर-हाथी और भालू क
अनिगन पु त।
आिदवासी ी-किवता म िवकास के मॉडल को लेकर बार बार सवाल उठाये गये ह । इसी मॉडल ने उ ह उनक ही
ज़मीन से िव थािपत कर डाला है। डॉ. शािं त खलखो क एक िदलच प किवता है, ‘वै ीकरण’ । कुछ पिं यां
यह:
हमारे बीच म घसु गया है ये ‘करण’
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औ ोगीकरण, शहरीकरण, सं कृ तीकरण,
इन सबसे हम ह परे शान
इससे िनकलना नह है आसान
बहत बड़े बड़े ह ये ‘करण’
बाज़ारीकरण, उदारीकरण, वै ीकरण
ये 'करण' हम िनगल रहा
तन मन को परू ा ही लील रहा।
जिसतं ा के रके ा क किवता एक िजरह करती किवता है । िवकास के मॉडल और िव थापन के सवाल
पर जिसतं ा क अनेक चिचत किवताएं ह। 'पहाड़ पर उगे असं य बांस का रह य' म एक तरह क फ़टेसी भी है
और नाटक यता भी। इसम ितरोध को, बि क कहना चािहए िक सीधे सघं ष को सनु ा जा सकता है।
म कु आ म सो रहा था
अचानक ज़मीन िहलने लगी
देखा ज़मीन का एक टुकड़ा
जेसीबी मशीन के पजं पर था
अपनी ज़मीन के टुकड़े के साथ
म भी लटका था मशीन पर
तब महससू हआ मझु े
अपनी ज़मीन सिहत उखड़ जाने का दद।
इसी किवता के अंत म वािचका कहती है िक 'इस बार बांस बाज़ार नह जायगे / वे हाथ म तीर धनषु बनगे।' और
इसी से उसे पहाड़ पर उगे असं य बांस का रह य समझ म आता है। ेस कुजरू भी अपनी किवता – ‘एक और
जनी-िशकार’ म भी इसी तरह के सीधे सघं ष क बात कहती है : 'म बनंगू ी एक बार और / िसनगी दई / बाधं गंू ी
फटा /और कसेगी िफर से / बेतरा क गांठ / और होगा / झारखडं म / िफर एक बार / एक जबरद त जनी-िशकार।'
वंदना टटे ने अपनी किवता, 'पके धान के खेत से दरू ' म सलवा जड़ु म के डर का सवाल भी उठाया है। उ ह उ मीद
है िक यह डर दरू होगा और िफर से घोटुल म हसं ी गजंू ेगी।
कहना न होगा िक आिदवासी िवमश एक तर पर आिदवासी समाज के िवकास के मॉडल का िवमश
भी है । वदं ना टेटे को इसीिलए यह िचतं ा भी है िक 'नह जान पायगे मेरे ब चे / बा रश से पहले य चीिटयां / अपने
अंडे िलये भागती ह।'
2. लछमिनया का चू हा
िव ासी ए का का यह पहला किवता सं ह है । ए का ने िलखा है िक 'सं ह का यह नाम रखने क ेरणा उनको
गावं म चू हा फंू कती ि य से िमली। कभी कभी एक पिं , एक िबबं या एक आ ज़वशन बता देता है िक किव
कहां से देख रहा है, या देख रहा है और उसके देखने का ि कोण या है।' वंदना टेटे ने ए का क किवताओ ं क
भिू मका म यह सवाल उठाया है िक 'किवता के बारे म परू ी परंपरा क और रामचं शु ल क जो समझ है,
आिदवासी किवता क समझ उससे अलग है। य िक आिदवासी समाज का तो परू ा जीवन ही का या मक है।'
वंदना टेटे का मत है िक 'किवता िसफ़ रस क अनभु ूित, सदंु रता का अथ बताने और मा मनु य के रागा मक संबंध
क र ा के िलए नह होती।’ वह असल म सदंु रता और असदंु रता क प रिध से बाहर समचू ी सृि क अिभ यि
होती है । वंदना को लगता है िक हम िसफ़ मनु य क भाषा जानते ह, इसिलए सृि के अ य त व क किवता को
नह समझ पाते। उनको लगता है िक आिदवासी समाज और ग़ैरआिदवासी समाज म किवता क समझ को लेकर
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 37
यही मल ू अंतर है। आिदवासी किवता व तुतः किठन और जिटल जीवन सघं ष क किवता है । यहां उसे लगातार
भख ू , कॉरपोरे ट कंपिनय से, फ़ौजी सगं ीन से और सलवा जडु ू म जैसे सरकार ारा ायोिजत िहसं क समहू से हर
से
पल संघष करना पड़ रहा है। कॉरपोरे ट घराने फ़ौज और सलवा जडु ू म जैसे पालतू िहसं क समहू के ारा
आिदवािसय को लगातार उनके जल, जगं ल और ज़मीन से बेदख़ल करने म जटु े ह। इन उ पीड़न और सघं ष के
य परू ी आिदवासी किवता म देखे जा सकते ह।
िव ासी ए का क किवता म अ सर एक छ न सी छोटी कहानी मौजूद होती है। एक य मौजदू
होता है। उसम पा अपने नाम के साथ दािख़ल होते ह। सं ाओ ं क ऐसी उपि थित शहरी किवता म अ सर नह
होती और अगर होती है तो वहां पा का नाम िकसी नाटक य योजन को पूरा कर रहा होता है। ए का क किवता
म पा सहज ही अपने नाम के साथ आता है , अपने सारे सख ु दखु के साथ। सख ु मितया का सख ु है, तो उसका दख
ु
भी है। उसक गठरी म, 'भनु ा चना, उबला हआ सरई/ और इमली बीज िमला / मीठा महआ / और ढ सा रोटी' है तो
इस गठरी के बोझ से सख ु मितया क कमर झक ु जाने का दख
ु भी है। 'भखू ' किवता म भख ू क भयावह त वीर है, पर
िबना िकसी बलाघात के या िबना िकसी अितशयोि और शोर के । भयावहता को िकसी अितशयोि क ज़ रत
नह होती। इस बरजोर भख ू म - 'लोग भखू ,े गाय बैल भखू ,े शेर भख
ू ा।' शेर दहाड़ता है। िम ी के घर के आसपास
च कर काटता है। इससे प रवार के लोग तो भयभीत ह ही लेिकन, भख ू से बेहाल होकर बाड़ा तोड़ कर बारहािसघं ा
भी बाहर िनकल आया है। और इसी भयावह य म बधु ना बाहर िनकल कर शेर का अधखाया िशकार उठा लाता
है। सतझरी यानी स ाह भर चलती बा रश क गयी है । बधु ना वयं गमु समु है लेिकन आसपास िजसने भी इस
घटना के बारे म सनु ा, वह कहता है िक बधु ना बड़ा बहादरु है। इस भयावह और ू र िवडंबना को ए का िकतने
सहज ढगं से लगभग एक छोटी सी कथा क तरह अपनी किवता म कह देते ह। ए का क किवता व तुतः
आिदवासी समाज क िवडंबनाओ ं क किवता है। उसम सहजता है। उसके आ ज़वशन कई बार अचिं भत कर देते
ह। 'बया का घोसला', 'ग दना', 'ज़हर और ज़हरीली हवा' जैसी किवताओ ं म िवडंबनाओ ं को पकड़ने क ए का क
मताओ ं को देखा जा सकता है। ‘बचाना है आिदवािसय को’ म यं य क कचोट को महससू िकया जा सकता है:
आिदवासी न होते
तो कै से होता वागत
नेताओ ं का
कौन बजाता तािलयां भीड़ बढ़ाकर
कौन करता करमा और शैला नृ य।
इसके साथ ही इन आिदवािसय का हमारे शहरी और तथाकिथत स य समाज के िलए और या या उपयोग ह, वे
भी ए का ने िगना िदये ह। एक तो इ ह खबू सरू त पिटंग म बदला जाता है। इन पर शोध होते ह। इनके िवकास क
और इनके सरं ण और सवं धन क बात होती ह। लेिकन िवडंबना यह है िक दस बरस बाद जब जनगणना होती है,
तो इनक जनसं या कम हो जाती है। इन बहतेरी योजनाओ ं के िलए आिदवािसय को बचाकर रखना ज़ री है।
यह बहत छोटा सा सं ह अपने म बहत कुछ समेटे है। इसको पढ़ते हए हम िसफ़ आिदवासी समाज क
सम याओ,ं सख ु -दख
ु और िवडंबनाओ ं को ही नह जानते ह, इससे हमारे तथाकिथत स य समाज के च र क भी
कलई उतरती है।
जड़ क ज़मीन
जड़ क ज़मीन जिसतं ा के रके ा क किवताओ ं का दसू रा सं ह है, जो अपनी किवताओ ं के अं ेज़ी अनवु ाद के
साथ कािशत हआ है। इसके ा कथन म जिसंता ने अपनी मां के बारे म िलखा है िक उ ह ने अपना गांव कभी
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इसिलए नह छोड़ा य िक अपने गांव क ज़मीन से उनका वािभमान जड़ु ा है। और इसम वृहद् आिदवासी समाज
क जल-जगं ल-ज़मीन-ज़मीर और ज़बु ान के सघं ष का सार िदखता है मझु े। यानी यह सघं ष िसफ़ जल, जंगल और
ज़मीन तक नह , बि क ज़मीर और ज़ुबान का सघं ष भी है। गांव और शहर के बीच के सबं ंध और ं को तलाशने
और रे खािं कत करने क कोिशश इस परू े सं ह म िदखायी देती है। अपने इस सं ह के बारे म जिसतं ा ने िलखा है िक
'जंगल, फूल, नदी, पहाड़, ी, गांव, शहर सबसे जुड़ी सवं ेदनाओ ं का सं ह म अपने इस सं ह को मानती ह।ं ' यह
सही है िक कृ ित क उपि थित लगातार जिसतं ा क किवता म बनी रहती है लेिकन इस सं ह के क म शहर क
बेचनै ी मौजदू है। शहर को लेकर ‘यह कह इसी शहर म’, ‘ शहर और गाय’, ‘शहर क नस म’, ‘शहर क नाक’,
‘शहर क बेचनै ी’ जैसी किवताएं तो ह ही, साथ ही अ य कई किवताओ ं म भी शहर िकसी न िकसी प म मौजदू
है :
आधी रात क बेचैनी म
पसीने से भीगा यह शहर
उठे गा एक िदन
और मांगने लगेगा तुमसे
अपना सक ु ून
अपना पहाड़
अपना असली चेहरा।
शहर से सवं ाद करती यह किवता मझु े लगता है िक इस सं ह क क ीय थीम है। जिसतं ा को महससू होता है िक
शहर का वतमान चेहरा उसका वा तिवक चेहरा नह है। कम से कम वह चेहरा नह है जो शहर का होना चािहए।
इसिलए उसको लगता है िक एक िदन ऐसा आयेगा जब यह शहर सारे दरवाज़ को तोड़कर, अपने असली चेहरे क
तलाश म या ा पर िनकल जायेगा। जब तुम उससे यह सवाल करोगे िक वह तु ह छोड़ कर य जा रहा है, तो वह
पलटकर तमु से पछू े गा:
लाख आिव कार िकये तमु ने
पर तु हारी कोख से
य ज म नह लेता
कोई बु , कोई िबरसा मडंु ा ?
तमु दलील दोगे
‘आिख़र आदमी को स य िकसने बनाया?’
वह कहेगा
'एक पेड़ िकसी आदमी को
बु बना सकता है
कोई जंगल
िकसी को िबरसा मंडु ा
तो िफर तु हारी ज़ रत या है ?
यह िसफ़ शहर के वतमान व प पर ही उठाया गया सवाल नह है। यह स यता के वतमान व प पर भी उठाया
गया सवाल है। एक तर पर स यता समी ा। किवता म यह िचंता भी है िक ऐसे ही शहर लगातार बनाये जायगे
िजनम हर तर पर बहलता को न करके एकसापन थािपत कर िदया जाये।
एक कुनबा िनकल पड़ता है
िफर कोई नया शहर तैयार करने क कवायद पर
िजन पर थोपी जा सके
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 39
ऐसी िवरासत को सभं ालने क िज़ मेदारी
या िफर कोई ऐसी कोख ढूंढने का जतन
जो एक ही चेहरा
एक ही िवचार
एक ही यवहार वाले ब च को
पैदा करने को अिभश हो।
यह जैसे हमारी परू ी शहरी स यता पर क गयी िट पणी है जो कृ ित क और सं कृ ित क बहलता को न करके
एकसापन थोपने क कोिशश म लगी है। तानाशाही इसक कोख म मौजदू है। जिसतं ा क किवता क एक बड़ी
खबू ी यह है िक वह िसफ़ िवि टम या उ पीिड़त यि क किवता नह है, वह एक लड़ते हए आदमी क , एक
जझु ा समाज क किवता है । इसिलए उसम हर मु े पर लगातार चलती िजरह भी है और लड़ने वाले समाज के
य भी ।
जिस ता क एक छोटी-सी किवता, ‘िखड़क ’ उसके अपने वभाव और ि को भी प कर देती है।
किवता क अंितम पंि यां ह :
यह िखड़क िसखाती है मझु े
अंदर रहते हए
कै से देखा जाता है बाहर।
यह किवता अंदर को छोड़ कर बाहर िनकल जाने क नह , बि क अंदर रहते हए बाहर को देखने क किवता है।
जहां हर तरह के अ याय के िख़लाफ़ सब एक साथ िनकल पड़ते ह।
मो. 9424579277
पु तक संदभ
1. किव मन: जनी मन : आिदवासी ी किवताएं : स.ं वंदना टे टे, राधाकृ ण काशन, िद ली, 2019
2. लछमिनया का चू हा : िव ासी ए का, यारा के रके ा फाउंडेशन, रांची, 2018
3. जड़ क ज़मीन : जिस ता के रके ा, भारतीय ानपीठ. नयी िद ली, 2018
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का य चचा
एक अ छे किव क साम य
मुकेश कुमार
1. मनु यता के ऋतुरैण म किवता का ी म
एक अ छे किव क साम य के वल इतनी नह होती िक वह जो िदख रहा है उसे सवं ेदनशीलता के साथ सश
भाषा के ज़ रये भावशाली ढंग से य कर सकता है और उसके उस अथ को रचता एवं प रभािषत करता है जो
सामा य क नज़र म नह आता। उसक साम य क परी ा एक से अिधक मोच पर होती है। उसे िवचार ,
सवं ेदनाओ ं और सं ेषण, हर ितमान पर खरा उतरना होता है। इसीिलए अ छी किवता भी बह तरीय होती है, वह
चालू महु ावर को तोड़कर कहन का नया अंदाज़ रचती है। वह अपनी भाषा या गढ़न से के वल चम कृ त नह करती,
कोई कौतहू ल या खश ु नमु ा एहसास ही पैदा नह करती बि क पाठक के अंदर एक बेचनै ी को भी ज म देती है। वह
देश और काल दोन का अित मण करती है, उनके आरपार देखती है और वतमान को अतीत एवं भिव य से
जोड़ती भी चलती है।
िशरीष कुमार मौय इसीिलए एक सश किव ह य िक वे बखबू ी ये काम करते रहे ह। उनके पहले के
किवता सं ह को िहदं ी जगत म जैसी वीकृ ित िमली, वह इसका माण है। उनका नया किवता सं ह, ऋतरु ै ण इस
िव ास को और भी पु ता करता है िक एक किव के प म उनक या ा नये माग का अ वेषण करते हए िनरंतर
आगे बढ़ रही है। ऋतरु ै ण म उ ह ने ऋतुओ ं के आवागमन को एक नयी ि के साथ देखा और तुत िकया है। यह
नयी ि गहरी मानवीय संवेदनाओ ं और सामािजक सरोकार से िनिमत है। यह ि उनम पहले नह थी ऐसा नह
है। इस ि के दशन वे अपनी पवू क किवताओ ं म भी कराते रहे ह लेिकन जब हम उसे िहदं ी सािह य म ऋतु वणन
क परंपरा के सदं भ म देखते ह तो िफर से हम एक नयेपन का अनुभव होता है :
किव अपनी िम ी से पछू ो
चैत म गेहं कटेगा िक नह ?
जेठ म तु हारे भीतर का गुलमोहर
िखलेगा िक नह ?
उदाहरण के िलए, िहदं ी सािह य वसतं ऋतु के गणु गान से भरा पड़ा है। वसतं को ऋतुराज कहा गया है और उसक
शान म बहत कुछ िलखा गया है। मगर ऋतरु ै ण का रचियता वसतं से िख न नज़र आता है :
तु हारा वसतं यह
भारत का लोकतं है
म उस राह पर
ज़हरखरु ानी के बाद भी बचा हआ
कोई मसु ािफ़र।
और
मंहु म दबी हई थैली िवकट ज़हर क
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 41
िदल म कमीनगी है पर थोबड़े वसतं के
वह तो वसतं को एक छलावे क तरह देखता है और उसे सीधे लाघं कर ी म म चला जाना चाहता है। िशिशर
उसके िलए गहरे सघं ष का तीक है, य िक ऋतओ ु ं को वह पहाड़ के सदं भ म देखता है और पहाड़ पर जाड़ का
जीवन भारी ज ोजहद से भरा होता है। िशिशर के बाद इसीिलए वह ी म म उ लिसत होता है, उसके वागत के
िलए त पर नज़र आता है :
िशिशर मेरा मा यम है
जलती लकिड़य क लपट िशिशर म
मेरा वसतं है
ी म म राह पर थोड़ी छांव
घर लौटने पर ठंडा पानी और ि य चेहरे प रजन के
मेरे जीवन म रोज़ उतरने वाले वसतं ह
ऋतरु ै ण िढ़ के मतु ािबक़ चै म मायके क याद और भाई क ती ा म गाया जाने वाला गीत है, लेिकन इसका
एक अथ ऋतओ ु ं का बदलना भी है। अगर हम इ ह िबंब क तरह ल तो किवता सं ह म हम इन सबके िविभ न प
देखने को िमलते ह :
िशिशर क रात
वसतं क मृित म कोई रोता है
उसे वसतं क उ मीद और व न म
होना चािहए
पर वह रोता है
बस यही तो मेरे मु क म ऋतरु ै ण होता है।
यह हम किव क िवचार- ि को समझने का मौक़ा भी िमलता है। वह ऋतुओ ं को िवलािसतापणू जीवन जीने वाले
एक छोटे से वग के मन बहलाव के प म नह देखता, जो िक रीितकाल के किवय म चरु ता से पाया जाता है,
इसके िवपरीत वह मेहनतकश वग और ऋतओ ु ं के संबंध के ं को उभारते हए एक सघन तनाव रचता है। कहा जा
सकता है िक िशरीष अपने किवता-कम म क पनाशील होते हए भी का पिनकता से अिधक यथाथ पर अवलिं बत
किवताएं रचते ह :
वह जो गंध उठती है
िवकट जैिवक
गलते-सड़ते हए प से ढक धरती पर
यारी है िक नह ?
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जबिक मनु यता के वसतं होने थे।
और
कपटराज-नीित और िवकट समाज के
इस समय म
आपको याद िकया जा सकता है
थक कर घर जाने के िलए
या िकसी और समय म जाकर
मर जाने के िलए।
यहां िशरीष ितरोध क सै ांितक गढ़ते हए िदखते ह। यह कहना शायद यादा सही हो िक उनक किवता म
िवचार तो है मगर इससे यादा कह उनके िवचार के अंदर किवता अवि थत है। यह छन तौर पर नह है और न
नारे बाज़ी के प म ही। यह एक चेतनासपं न किव का जाग क ह त ेप है। और हां, वे ऐसा करते हए किवता के
रस को न के वल बचाये रखते ह, बि क एक नये तरह का आ वाद गढ़ते भी ह ।
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 43
इसके पहले िकतना जानलेवा इतं ज़ार
िकया मेरा, पर यह और भी अ छा होता
िक मेरे और उसके सिखयापे से
िचढ़ने क जगह
इसे भी मेरे बराबर मे करते
ये ेम किवताएं उस परंपरा को एक दसू रे तर पर भी ख़ा रज करती ह। तु ह यार करते हए, सक
ं लन क किवताओ ं
म यार वायवीय या का पिनक ही नह है, वह वा तिवक है और उसम मांसलता भी उतनी ही है िजतनी व थ ेम
म होती है और िजतनी होनी चािहए। 'सासं क लड़खड़ाहट' ऐसी ही किवता है :
एक दसू रे के मंहु म
जब हम गड़ु क तरह घल ु रहे होते
हमारी सासं भी घल ु रही होत एक दसू रे म
किवताएं ऐसे बहत से य रचती ह िजनम ेमी- ेिमका के बीच क ेम ड़ाओ ं को िचि त िकया गया है। आप
चाह तो इ ह ेम-लीलाएं कह सकते ह। इनम आपसी बातचीत क अंतरंगता अ ु त है और वह एक नये तरह का
छंद रचती चलती है। छे ड़छाड़, िठठोिलयां, मान-मनौ वल और ढेर सारी मृितय का आपसी सवं ाद, चाहे वह
व तुओ ं के साथ हो या यि य के साथ, ेम के अ य प को उ ािटत करता हआ जान पड़ता है।
इन किवताओ ं म एक मादक गधं महससू क जा सकती है। ेम क मादकता इनम इस क़दर पगी हई है
िक पाठक उसके असर से बचा नह रह सकता। लेिकन ये कह से अ ील नह होत , वे मांसल ेम के वणन म
एक सीमा पर जाकर क जाती ह, वह भी यह बताये िबना िक यही सीमा है। हालाँिक अ ीलता तो देखने-पढ़ने
वाले के िदमाग़ म होती है, मगर अ ीलता क सक ं ण प रभाषा म बंधे पाठक भी बग़ैर परे शान हए इन किवताओ ं
का आनंद ले सकते ह और ेम क मादकता को महससू कर सकते ह। उनक किवता, 'काली िमच' को ले
लीिजए :
इनसे काला जादू हो सकता है
मने यह तो नह सनु ा
मगर तमु ने एक बार
मेरी पीठ के ितल को
अपनी जीभ से सहलाते हए उ ह
काली िमच जैसा ज़ र बताया था
तु ह याद है िक नह
मेरे कहे के जवाब म वह बोली
मेरे वाद म डूबे हए तमु ने
यार करते हए मझु से
या- या नह कहा
पर तु हारी यह काली िमच
44 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
ठहरकर रह गयी मेरी याद म।
इस किवता सं ह क सबसे अ छी बात यह है िक इसम छोटे-छोटे जीवनानभु व म िछपे ेम को सहज-सरल ढंग से
श द म बांधा गया है। ेम इसम एक िनमल नदी क तरह वाभािवक ढगं से बहता हआ लगता है। किव को मालमू
है िक छोटी-छोटी बात म िकतना ेम िछपा होता है और िजसक अकसर लोग, यहां तक िक ेमीजन भी
मह वहीन मानकर उपे ा कर देते ह।
वा तव म यह किवता सं ह िक़ से-कहािनय और िफ़ म म गढ़े गये ेम के आ यान के बर स नया
नरै िटव गढ़ता है। इसम ेम के ऐसे कई नये िबबं ह, नये िच ह, नये रंग ह जो िब कुल अनदेख,े अनची हे थे,
लेिकन िजनक पहचान करना बहत ज़ री था।
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 45
िव ास का र ता बनाना होता है। यह महससू करके िलख देने से यादा क मांग करता है :
शपू णखा,
तमु से कहं तो या
तमु तो ब ची ही थ
मेरी ब ची क उमर क
दिु नया बेटी, देखो,
अब तक नह बदली
अब भी िवकट ही है
हर या ा क कामना क
न हा-सा डैना उठा,
एक न हा रोआं कांपा
िक छूटने लगते ह तीर
चार िदशाओ ं से
वे अपने िचर-प रिचत छंद और िश प के साथ श द को िपरोती ह, उ ह नये मायने देती ह। इस म म वे अपने
िवशाल श द-भंडार क तरफ़ भी बरबस हमारा यान ख चती ह। अनािमका के पास अपनी िविश भाषा है, िजसम
गावं -गवं ई के श द वैसे ही चले आते ह जैसे शहर म आकर बसे लाख मज़दरू , वे घुले-िमले ह, एक दसू रे से
बितयाते हए से लगते ह। वे गव से तने हए भी ह और िवन ता से झक
ु े हए भी। वे अपनी पीड़ा भी य करते ह
और साहस भी।
उनक भाषा क ख़ास बात है यही है िक वह ामीण जीवन से समृ हई है। महु ावरे और लोकोि यां
आिद उसम भरी पड़ी ह, जो जहां एक ओर किवताओ ं को एक नयी छटा दान करती ह वह पाठक से एक नये
तर पर तादा य भी थािपत करती ह :
याद कर बढ़ू ी कहावत-
इतना भई धीरे या बोलना,
आप बोल और कमरबदं सनु े
बोल, मंहु खोल ज़रा डटकर,
इतनी बड़ी तो नह है न दिु नया क कोई भी जेल
िक आदमी क आबादी समा जाये
और जो समा भी गयी तो
वह जेल के भीतर झन-झन-झन
बोलगी हथकिड़यां
ऐसे जैसे बोलती ह कमरधिनयां
िमल-जल ु कर मसू ल चलाते हए।
इस सं ह म दो और चीज़ यान ख चती ह। एक तो िव थापन बि तय म रहने वाली ि य पर कई उपखडं म
िलखी उनक किवताएं और दसू री, िनभया को िलखी किवताओ ं क शृखं ला। िव थापन ब ती क औरत के
िविभ न िच उनके सघं ष, आ मिव ास और पीड़ा सबको बयान करते ह। मसु ीबत के बीच कै से रा ता चनु ना है
इसका िववेक भी इनम य होता है। मसलन,
ौढ़ाओ ं के फु ल, ेत- याम के श के
ठीक बीच बीच जहां पड़ता है सेनरु
ऐसा ही तो बीच का रा ता,
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होता है अितथ के बीच कह
जहां न िदन होता है, न ही रात!
न घरमहु ां राग, न क र वैराग!
एक-दसू रे के जएु ं चनु त ,
बीनती जीवन के सारे खटराग-
जानती ह औरत बीच का रा ता
साम-दाम दडं -भेद से गज़ु रता!
िनभया पर िलखी किवताएं तो बहत मािमक ह। वे िनभया को अपने आसपास के पंचत व म हर जगह देखती ह। वे
उसे खदु म, अपनी बेटी म और हर औरत म देखती ह। खेत म, माटी म, पौध म हवाओ ं म, हर जगह िनभया के
होने को महससू कराती हई,ं उसके ी व को, उसके ेम और उसक जीवटता को एक नये अंदाज़ म बयान करती
ह:
जब भी चलती थी काितक म हवा
कनकनाती हई
पछू ती थी िनभया
सगं -सगं मेरी लगी
एक ढेर कपड़े पछीटती
ऐ अ मा, य है नदी इतनी ठंडी-
या बफ़ से इसने यार िकया था कभी?
कुल िमलाकर अनािमका का यह सं ह पानी क तरह बहती किवताओ ं से बना है, इसम पानीदार ी छिवयां ह जो
पानी क मह ा को रे खांिकत करती ह।
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ह। वे एक जाग क किव ह इसिलए समाज म घट रही तमाम वृि य को दज करते ह, उनके अथ तलाशते ह।
प कार-किवय पर वाभािवक तौर पर ता कािलता हावी हो जाती है। इसीिलए समकाल उनक किवताओ ं म भरा
पड़ा है। लेिकन यह उनक कमज़ोरी नह , शि है। वे अपने समय को बहत क़रीब से देखते और िश त से महससू
कर पाते ह और ता कािलता को भी काल के िवराट फलक पर अवि थत कर पाते ह। इसीिलए ि यदशन
सां दाियक राजनीित, धम के गोरखधंध और तमाम तरह के छल- पंच को बेिहचक अपनी किवताओ ं का िवषय
ही नह बनाते बि क बेबाक़ से उनम अपने िवचार भी ज़ािहर करते ह। उनम वैचा रक प ता और ढ़ता दोन
देखी जा सकती ह :
वे कभी अयो या से और कभी गजु रात से पहचं ना चाहते ह िद ली
इितहास और इसं ािनयत क उड़ाते ह िख ली
और डरते ह, रा ता न काट जाये इसं ाफ़ क कोई िब ली
देवताओ! अगर तमु अपने भ को िसखा सके थोड़ी सी मनु यता,
थोड़ा सा अपने ऊपर सश ं य करना,
तब वाक़ई अधम हारे गा, तु हारे तािवत धम क होगी जय।
सं ह म किवताओ ं के िविवध रंग देखने को िमलते ह। कई सं मरणा मक किवताएं बहत बांधने वाली ह। वीरे न
डंगवाल क मृ यु पर िलखी गयी किवता एक ऐसी ही किवता है :
तु हारी किवताएं बची हई ह िजनम इस अहकं ार को ठोकर मारने का साहस है
और पाने-खोने के खेल से परे
जीवन क वह सहज मिहमा िजसे चहू े कुतर नह पायगे।
इसी से बनता है भरोसा िक उजले िदन आयगे
मगर वह उजला िदन नह था किव हमारे , रचियता हमारे ,
हर दु च के पार जा चक ु े ा हमारे ।
इसी तरह कृ ित से जड़ु ी उनक किवताएं ह, िजनम वे कह उस पर रीझते ह, चम कृ त होते ह और कह िफर फ़ौरन
उसके साथ अपने सबं धं को प रभािषत करते हए खीझते भी ह :
एक ि लक के साथ झरना कै मरे म क़ै द हो गया
एक लैश के साथ नदी जड़ हो गयी
12 मेगािप सल वाले कै मरे म समा गयी
पहाड़ को परू ा पैक करना सभं व नह था इसिलए उसके टुकड़े-टुकड़े िकये गये
इस सं ह म उनक कई लंबी शृख ं लाब किवताएं ह, उ ह क सं या अिधक है। कहा जा सकता है िक इस सं ह
क एक पहचान ये किवताएं भी ह। 'ये भी ेम किवताए'ं , 'कुछ और मनोभाव', 'दख ु ', 'जानवर से हम माफ़ मागं नी
चािहए', 'यह जो काया क माया है', 'सोचने के कई तरीक़े होते ह', 'एक िहदं ू क किवताए'ं , 'जब आततायी मारे
जाते ह', 'रोिहत वेमल
ु ा के िलए' आिद का उ लेख िकया जा सकता है। 'लव िजहाद' भी एक ऐसी किवता है।
लड़िकयां तरह-तरह से बचाये रखती ह अपना मे ।
िचिड़य के पख
ं म बाधं कर उसे उड़ा देती ह
निदय म िकसी दीये के साथ िसरा देती ह
िकताब म िकसी और क िलखी हई पंि य के नीचे
एक लक़ र ख चकर आ त हो जाती ह।
ि यदशन क शैली घमु ावदार या जिटल नह है, वे िबंब और पक के च कर म भी बहत नह पड़ते, जो कुछ
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लोग को उनक किवताओ ं क कमज़ोरी भी लग सकती है, मगर सीधे सं ेषण के िलहाज़ से इसे एक बड़ी िवशेषता
के तौर पर देखी जानी चािहए। उनक किवताएं सरल ह, बोधग य ह।
मो. 9811818858
पु तक सदं भ
1. ऋतुरैण : िशरीष कुमार मौय, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
2. तु ह यार करते हए : पवन करण, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
3. पानी को सब याद था : अनािमका, राजकमल काशन, नयी िद ली, 2019
4. यह जो काया क माया है : ि यदशन, राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2020
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का य चचा
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म म पैदा हए। इन सं ह म पहला अिवनाश िम का है, च सठ सू सोलह अिभमान कामसू से े रत।
अिवनाश िम उन यवु ा लेखक म ह िजनक भाषा, िजनके अदं ाज़ का म मरु ीद रहा ह।ं िजस दौर म सवं ेदना से
सू मताएं लगातार िनवािसत क जा रही ह, वे अपने लेखन म जैसे उनका पुनवास ही नह , िव तार करने पर तुले
हए ह। वे किवता िलख, आलोचना िलख या िकसी और तरह का ग - उनको पढ़ना अ सर सख ु द लगता है।
िन सदं हे , एक तरह क अ खड़ िववादि यता भी उनके भीतर िदखती है िजसका नक ु लापन सभं वतः बहत सारे
लोग को चभु ता हो, लेिकन उनका ग और उनका प दोन िहदं ी लेखन क शोभा और शि बढ़ाते ह।
लेिकन उनका यह सं ह एकािधक बार पढ़ने के बावजदू कई वजह से मझु े कुछ फ का, कुछ भटका
हआ, मेरी अपे ाओ ं से कुछ कम सवं ेदनिसिं चत नज़र आया। या अिवनाश ने जानबझू कर इसे ऐसा रहने िदया?
या वे शीषक से यान ख चने के खेल म अपनी किवताओ ं को उस शीषक क प रिध म बांधे रखने क मजबरू ी के
िशकार हो गये? िहदं ी सािह य-समाज क बह सतू क पनाशीलता से उपजी अ प मृित म, कामसू एक ऐसी
विजत िकताब क तरह दज है जो यौन-सबं धं का सख ु लेने के तरीक़े िसखाती है। अिवनाश 64 सू के नाम पर 64
किवताएं और िफर 16 अिभमान के नाम पर 16 और किवताएं इस सं ह म जोड़ते ह। लेिकन अगर इस िकताब का
नाम हटा िदया जाये और इनके शीषक बदल िदये जाय तो या इन किवताओ ं का वा ता कामसू के िकसी त व या
उसक िकसी मृित से है?
ख़दु िकताब क भिू मका म अिवनाश इसका जवाब देते ह- ' 'च सठ सू ’ शीषक खडं म समायी
किवताओ ं और कामसू का सबं ंध बस इतना ही है िक इनका किव कामसू और ेम म िब कुल एक ही समय
डूबा हआ रहा।'
इस कै िफ़यत क ही उंगली पकड़ कर चल तो आप उ मीद कर सकते ह िक इस सं ह म ेम और
दैिहकता के अनभु व से बधं ी किवताएं ह गी। बेशक, वे ह भी, लेिकन यादातर किवताएं इस अनुभव का सं ेषण
करने क जगह उनको बस दज करके रह जाती ह। जैसे अिवनाश िजस अनभु व म अपने ‘डूबे होने’ का दावा कर रहे
ह, वह उनक किवता म य नपवू क - उनके भािषक कौशल के सहारे ही - दािख़ल हो पा रहा है। हालािं क भिू मका म
ही वे एकािधक जगह यह उ लेख करते ह िक ये किवताएं ‘िलखी नह गयी ह, आयी ह और हई ह।’ ‘मगं लाचरण’
म वे िलखते ह, ‘मेरे िलए अब ाथना करने / और तु हारे नाम के / दहु राव के बीच / कोई दरु ाव नह है / मेरे
ाथना र / तु हारे नाम के वणिव यास को चमू ते ह / मेरी आकां ा है िक / सतत ाथना म ही रह।ं ’
दरअसल, यह परू ा सं ह बहत छोटी-छोटी किवताओ ं से बना है - आती-जाती सांस क तरह - लेिकन
उतना सहज नह है। कुछ किवताओ ं म खेल है, कुछ म है, कुछ म बौि क तक है, इन सबम सवं ेदना का पश
भी है, लेिकन अतं तः ये किवताएं ेम क िकसी गहरी सवं ेदना, दैिहकता क िकसी ऊ मा या िकसी ं के सं ेषण
म कुछ पीछे छूट जाती ह। िन सदं हे अिवनाश इनसे बेहतर िलखते रहे ह।
अिवनाश के ही लगभग हमउ सधु ांशु िफ़रदौस का सं ह, अधरू े वांग के दरिमयान, इस यवु ा किवता
क सभं ावना और साम य को नये िसरे से उजागर करता है। िफर से याद आता है िक इन यवु ा किवय के पास बहत
समथ और ांजल भाषा है, ेम को लेकर अपने पवू वत किवय से कह यादा िन और अकंु ठ अिभ यि है,
अपने समय क कशमकश भरी समझ भी है और किवता म सभं व हो सकने वाले उपकरण क बेहतर पहचान भी।
सधु ांशु के पास एक चीज़ और यादा है जो उनके समकालीन दसू रे किवय म कम िदखायी देती है - कृ ित के उन
अिभराम प क उपि थित जो जीवन और किवता दोन से दरू हए जा रहे ह। उनक किवता जैसे शु से अंत तक
तरह-तरह के सैर - लड के प - से बनी है। इन किवताओ ं क भाषा कई जगह िब कुल शा ीय हो उठती है िजसम
अपनी तरह क समृ सवु ास है। जैसे वे बहत सारे देखे-अनदेख-े खोते हए य क हमारे िलए पनु रचना कर दे रहे
ह, उ ह बचा रहे ह। कह -कह तो वे िब कुल िवल ण हो उठते ह- ‘मछिलय से महकती- / झ गरु क रािगनी से
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सजी पनू म के ओस-भीगे बाल को झटकती भादो क यह ज़रखेज रात / य लगता है िक िदयरा म गभाये हए धान
से देखते ही फूट कर िनकल आयेगा बाल / म म पड़ने लगा है इस ख़राबे म शाम क दु हन का अगं राग / अभी देर
है- / िनशीथ को शु करने म अिभसार’।
लेिकन िफ़रदौस कृ ित के किव नह ह। और न ही कृ ित इतने वतं प म इन किवताओ ं म आती है।
वह लगभग हमेशा कृ ित को उपादान बना कर या िफर उससे आगे जाकर कुछ ऐसा कहने क कोिशश करते ह
िजसका वा ता जीवन से हो- चाहे वह ाचीन क मृित हो या समकालीन का अनभु व। उनको धीरे -धीरे पढ़ते हए
हम पाते ह िक वे समय क व ताओ-ं िवडंबनाओ ं को भी ठीक से पहचानते और पकड़ते ह। बेशक, उनको पढ़ते
हए यह उदास करने वाला ख़याल भी आता है िक एक तरह का अके लापन ही नह , यथताबोध भी कभी कभी इन
किवताओ ं म चपु चाप दािख़ल हो जाता है- ‘सल ु झाते-सल
ु झाते आिख़रकार / इतने उलझ गये ह सारे समीकरण /
िक िज़ंदगी गोया मजंू क र सी हो गयी है / उसके जीवन म न कोई ेम बचा है न ती ा / वह ख़दु ही महससू करने
लगा है ख़दु क यथता’। यह उदासी, यह अके लापन इन किवताओ ं म बार-बार दबे पांव आता है। कह वे िलखते
ह, ‘आज क रात तो मेरे साथ / मेरी परछाई ं भी नह है’, कह ‘औधं े पड़े आकाश ने / सीधे महंु लेते आदमी से
कहा: / िकतने अके ले हो तमु / एक फुसफुसाहट हई / तुम भी तो! / िफर दोन हसं ने लगे।'
या यह बहत िनजी दख ु है? किव का िनचाट एकालाप? या इसका कोई सावजिनक प भी है। किव
को ेम क बात करते-करते िकसी तानाशाह क याद य आ जाती है? अचानक हम पाते ह िक अपनी िनजता म
िब कुल डबडबाया सा यह किव अपने समकालीन यथाथ के ित भी बहत सजग और सवं ेदनशील है और उसके
पास कई ऐसी किवताएं ह जहां जीवन और समाज और िसयासत को लेकर गहरी बेचनै ी, िशकायत, सवाल
सबकुछ है, कह -कह सघं ष करने क इ छा भी। शायद िनजता म सावजिनकता का जो अित मण हमारे समय म
हआ है, उसने यह ि थित रहने ही नह दी है िक कोई किव ेम क बात करते-करते अपने प रवेश को भल ू सके ।
एक गड्डमड्ड यथाथ के बीच हम पल-पल बदलती दिु नया को और उसके साथ अपने र ते को पहचानने म
हलकान हए जाते ह।
िनशातं का तीसरा किवता सं ह, जीवन हो तमु मल ू तः ेम किवताओ ं का सं ह है। लगभग सवं ाद क
तरह िलखी गयी इन किवताओ ं म वाचक बदलते रहते ह, लेिकन ेम क कोमलता, उदा ता, ती ता और उसका
स , उसके ं भी- लगभग एक-सी कोमल सवं ेदनशीलता के साथ अिभ य हए ह। हालांिक ेम को िकसी नये
परु ाने दौर से िकतना जोड़ कर देखा जाये, यह बहसतलब है, लेिकन वाट्सऐप और फ़े सबक ु के आभासी ससं ार के
बीच बहता और कई अंतरंग कथाएं कहता यह ेम कई मायन मे इस आधिु नक समय का है। यहां ेयसी ि य का
सबं ल है, वह कूटी से आती-जाती है, लेिकन नायक के एक आवाज़ देने पर िफर भी चली आती है। ेम म हमेशा
क तरह बहत कुछ अनिभ य है िजसे किवता म भी अनिभ य क तरह ही दज िकया गया है। यह सं ह कई
छोटी-बड़ी किवताओ ं से िमलकर बना है िज ह पढ़ते हए बरबस यह ख़याल भी आता है िक इस भागते-दौड़ते समय
म भी ेम सभं व होता है और ेम किवता सभं व होती है। यह खयाल भी आता है िक इस दौर म बहत सारी किवता
ऐसी िलखी जा रही है िजसे आसानी से ेम किवताओ ं के ख़ाने म डाला जा सकता है। यह सब जोड़ने के बाद यह
िलखने क इ छा ज़ र होती है िक िनशातं क ये किवताएं अ छी और सवं ेदनशील होने के बावजदू वह जादू नह
जगात जो कई ेम किवताएं हमारे भीतर पैदा करती रही ह।
िहदं ी म हाल के वष म पचास के पार जाकर भी यवु ा बने रहने क जो वृि िवकिसत हई है, उसे भल ू
जाय तो अिनल करमेले व र लेखक ह और उनक किवताओ ं से िहदं ी का ससं ार सपु रिचत है। इस साल सेतु
काशन से आया उनका सं ह, बाक़ बचे कुछ लोग अपने समय, समाज और अपनी किवता के ित सजग एक
प रप व किव के प म उनक पहचान को कुछ और पु ता करता है। बीतते और बदलते समय के बीच िनजी और
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सावजिनक जीवन क िवडंबनाओ ं पर उनक नज़र है िजसे वे उनक किवता म बहत सहजता के साथ दज करते ह।
‘जीवन म समेटी हई चालािकय से / एक बेहद सख ु ी इसं ान’ बन गये अपने क़रीबी िम का िज़ करते हए वे
लगभग अचक ू ढगं से इस सख ु का खोखलापन पकड़ते ह, ‘उसके पास एक सं ांत नैितकता थी / िजसके भीतर
लड़िकय को पाने क वािहश थ / लेिकन उनका सावजिनक इज़हार मना था / और म अपने इस बयान से कभी
नह डरा / िक मझु े ख़बू सरू त लड़िकयां पसदं ह / वह पाठ्य-पु तक और जानका रय से भरा हआ था / उ ह के
उधार िलये श द का कवच पहन कर / िनकलता था शहर म / उसक स जनता और क़ायदे के चच आम थे / मेरे
िलए महिफ़ल थी ग पबाज़ क / जहां आवारिगयां िलखती थ अपना रोज़नामचा।’
दरअसल, अिनल करमेले क किवता मल ू तः उस म यवग य-क़ बानमु ा शहर क किवता है जहां घर
बचे हए थे, हालांिक उनक हताशाएं बड़ी हो रही थ , लड़के बेरोज़गार थे, ेम विजत मगर ा य फल था,
लड़िकयां सहमी-शमायी सी िनकलती थ और बहत सारी मजबू रय के बावजदू जीवन सादा-सरल और जीने यो य
था। हालांिक इसको वे हमेशा िकसी रोमानी ढंग से याद नह करते- इसक लाचा रयां, इसक बेचारगी, इसक
बे ख़ी, इसके अभाव और इन सबसे पैदा होने वाले िव ू प भी उनक किवता म अलि त नह रह जाते। लेिकन
दरअसल जो गज़ु र जाता है, जब वह मृित बन जाता है तो उसक चभु न ग़ायब हो जाती है, बि क धीरे -धीरे वह
अनमोल लगने लगता है। बहरहाल, वह जीवन- और उस जीवन क बहत सारी िनशािनयां- अब एक बीते हए दौर
क कहािनयां ह, यह जाना-पहचाना ख़याल इस सं ह म कई जगह, कई प म िदखता है। टेली ाम क यव था
ख़ म होने पर िलखते हए वे याद करते ह िक जीवन म िकतनी सारी चीज़- जो बहत ठोस और लगभग अप रहाय
सी लगती थ - कै से धीरे -धीरे गायब होती चली गय ।
लेिकन अिनल करमेले क किवता उस माहौल का अित मण भी करती है, अपना एक अलग ससं ार
रचती है, जैसे छोटे शहर म भी उन िदन तरह-तरह के सां कृ ितक-वैचा रक समहू हआ करते थे और अपना अलग
ससं ार बना-बसा लेते थे। इस ससं ार म उनक कलागत सवं ेदना है, उनक खर राजनीितक ि है, धम और स ा के
दु च पर सीधी नज़र भी है। ‘देवताओ ं को सोने दो’ किवता क शु आत तो अ ु त है- ‘जब बहत ज़ रत थी
मनु य को देवताओ ं क / वे िन ा म थे अपनी आरामगाह म / नमु ाइदं े अपने सा ा य के िव तार के िलए / वोिटंग
मशीन तक गाय को ख च लाये थे / वे बता रहे थे / हमारी सोने क िचिड़या रह चक ु े इस देश म / अब बहत
अ छा समय आ गया है / अब कोई दिलत, कोई ग़रीब नह बचा / ि यां अभी भी शमसार थ / ब चे अभी भी
फुटपाथ पर, लेटफ़ॉम पर, होटल म काम करते थे / णू परी ण म लगे हए थे धधं ेबाज़ / बेरोज़गार को गाय
बचाने क िज़ मेदारी दे दी गयी थी / अ पसं यक मारे जा रहे थे / ग़रीब और मजलमू क होली जला कर / अमीर
िदवाली मना रहे थे।’
हालांिक कभी-कभी ऐसा भी लगता है िक िजस वैचा रक िश ण ने अिनल करमेले को यह ती ण
समझ दी, उसी ने वह रोमानी आशावाद भी िदया जो कभी-कभी इन किवताओ ं के कुछ िह स को ' लीशे' म
बदलता है- ‘हम दिु नया बचानी होगी’ या ‘हमे बढ़ाना होगा आपसी ेम’ जैसी पंि यां चाहे िजतनी भी सच ह ,
लेिकन कुछ सपाट और बार-बार दहु रायी जान पड़ती ह। यह दघु टना किव क दसू री किवताओ ं म भी ल य क जा
सकती है, हालािं क इसके बावजदू उनको पढ़ना हमेशा सख ु द लगता है य िक उनके पास जीवन क अदं नी
कशमकश के बीच बनने वाली बेचिै नय को समझने वाली ि और पकड़ने वाली भाषा है।
तो अिवनाश िम , सधु ांशु िफरदौस, िनशातं और अिनल करमेले के ये वे चार सं ह ह जो मझु े यह
िट पणी िलखने के िलए महु यै ा कराये गये। या इन सं ह को पढ़ते हए इस दौर क किवता को लेकर कुछ िन कष
िनकाले जा सकते ह?
पहला िन कष तो यही है िक यह किवता राजनीितक-वैचा रक आ ह से बहत बधं ी नह है। यानी स र-
नया पथ : जल
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अ सी के दशक म िजस तरह किवता पर जनप ीय होने का राजनीितक दबाव था, वह शायद इस किवता पर नह
है। इसम वे सामािजक-सामिू हक ितब ताएं नह ह जो एक समय किवता के िलए लगभग अप रहाय मानी जाती
थ । िन नम यवग य से म यवग य होती िहदं ी प ी के दख ु और अभाव िजस राजनीितक सघं ष और उससे हािसल
बराबरी क किवता का आधार बनाते थे, उसे जैसे आज क किवता कुछ परु ानेपन क चीज़ मानती है। बराबरी का
व न यहां भी है, लेिकन उसम िनजता क छायाएं यादा ह। यह मनु य क ग रमा का स मान करने वाली किवता
है, लेिकन िकसी आंदोलन के उ ोष से यादा वह ितरोध का मानवीय वर रचने पर यक़ न करती है। लेिकन यह
भी सच है िक इस दौर क यादतर किवताएं पजंू ी, बाज़ार और सचू ना ािं त के कंध पर सवार बहत अ ील और
सतही िक़ म के मनोरंजन उ ोग के बीच क उन सामािजक िवडंबनाओ ं को पकड़ने म नाकाम रही ह जो इ क सव
सदी के िज म पर कई नासरू क तरह िदखायी पड़ती ह। िजन कुछ किवय म िफर भी यह िवडंबना पकड़ म आती
है, उनम आर चेतन ांित, सजं य कंु दन, िवहाग वैभव के नाम त काल याद आते ह।
दसू री बात यह िक इन वष म यह किवता यादा नागर हई है। देश और समाज म भी गांव का अनपु ात
घटा है, किवता म भी। गावं अगर है भी तो उसम एक आधिु नक चेतना क उपि थित है।
तीसरी बात- इस दौर क किवता परु ाने समय क तरह ेम के उ लेख से सकुचाती नह है। ेम अगर
सांस लेने क तरह सहज न भी हो तो जीवन म एक वीकाय त य है और उसम कामना का त व भी शािमल है।
बि क इस दौर म शायद बहत अ छी ेम किवताएं िलखी गयी ह जो अ सर ेम-किवता क िकसी प रभाषा का
अित मण करती हई एक बड़ी मानवीय, उदा , राजनीितक और कभी-कभी आ याि मक किवता म भी बदल
जाती है। गीत चतवु दी, अबं र आर पाडं ेय ऐसी बड़ी किवता रचने वाले हमारे समय के िविश किव ह। इस म म
कुमार अनपु म या शायक आलोक जैसे किवय को भी याद िकया जा सकता है जो िनजी अनभु व के संसार को
कभी-कभी उसक अ ु त ऐ ं ीयता म रचते ह और कभी-कभी िक ह दसू रे उदा आशय म। बेशक, कई बार अंबर
पांडेय क श द बहलता का या वाद से बाधा भी बन जाती है। उनके अलावा ऐसा थोड़ा सा जादू वी सोनकर के
पास िदखता है। कुछ परु ाने पड़ते किवय को इसम शािमल कर तो आशतु ोष दबु े और चं भषू ण को भी उनक सू म
ि के िलए अलि त करना उनके साथ नह , इस िट पणी के साथ अ याय करना है।
चौथी बात- और जो शायद यादा मह वपणू बात है- यह किवता ी अि मता के ित कह यादा
सजग और सावधान किवता है। इि फ़ाक़ से यह वह समय है जब ी पहले से कह यादा वतं है, वह घर क
दहलीज यादा आसानी से फलांग रही है, परंपरा क ज़ंजीर िबना िहचक के तोड़ रही है और बहत सारे मू य और
आदश पर इस तरह सवाल उठा रही है िक घर क दीवार थरथराती िदखायी पड़ रही ह। मगर यही वह समय भी है
जब ि यां सबसे यादा िपट रही ह। उनक ख़रीद-फ़रो त हो रही है, र त म उनके साथ धोखा हो रहा है, उनका
यौन उ पीड़न हो रहा है। यह अनायास नह है िक इस दौर क सबसे स ची और ईमानदार, सबसे उ लिसत और
सबसे उदास किवता भी मिहलाओ ं ने िलखी है। बि क इस दौर क किवता क ितिनिध और सबसे िविवधतापूण
वर ि यां ही रचती ह। इनम एक तरफ़ मोिनका कुमार जैसी कविय ी है जो बहत सघन वैचा रकता से अपनी
किवताएं बनु लेती है, तो दसू री तरफ़ बाबषु ा कोहली है जो जैसे धरती-आकाश से अपने िबंब चनु ती हई कई जादईु
किवताएं िलख डालती है। तीसरी तरफ़ शभु म ी है- सबको अगं ठू ा िदखाने, सबकुछ तोड़फोड़ देने पर आमादा,
कह -कह बहत सटीक और कभी-कभी बहत सपाट भी, लेिकन अ सर बनी-बनायी सरिणय को बहत तीखेपन से
ठोकर मारने वाली। बहत अ छी और खर कवियि य क यह सचू ी यह ख़ म नह होती। शैलजा पाठक,
अनरु ाधा िसहं , लीना म हो ा राव, देवयानी भार ाज, रि म भार ाज, सजु ाता, ितभा किटयार, पनू म अरोड़ा, िच
भ ला, िविपन चौधरी, िवमलेश शमा, िु त कुशवाहा, िनवेिदता शक ल, कलावंती िसहं समु न, सदु शन शमा, सीमा
सगं सार, जोशना बनज आडवाणी जैसी कई कवियि यां ह जो लगातार का य-अनभु व का ि ितज िव तृत कर रही
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ह। िन सदं हे यह सचू ी आधी रहने को अिभश है- कई नाम छूटने अव यंभावी ह। बि क यह भी जोड़ना चािहए िक
इस ी अनभु व को कई पु ष वर ने भी समृ िकया है। पवन करण के किवता सं ह इस िलहाज से उ लेखनीय
ह।
इन सबके अलावा िहदं ी किवता म जो बहत खर आिदवासी और दिलत वर ह, उनको अलग से
रे खांिकत िकये जाने क ज़ रत है। िनमला पतु ुल, जिसंता के रके ा, अनजु लगु नु , मसु ािफ़र बैठा जैसे किव इस चचा
म छोड़ िदये जाय तो चचा कुछ अधरू ी रह जाती है।
हालािं क िफर दहु राने क ज़ रत है िक यह सारी का या मकता इतने शोर-शराबे के बीच घिटत हो रही
है िक इसके ठीक से मू यांकन के िलए ज़ री अवकाश- या शांित- िकसी आलोचक के िलए सहज-सभं ा य नह
है। दसू री बात यह िक इसे िहदं ी सािह य क किवता और परंपरा के बीच रखकर िकस तरह देखा जा सकता है?
यानी क़रीब अ सी बरस पहले, तार स क के साथ जो ‘नयी राह के अ वेषी’ आये थे, उनक बनायी या उनसे
अलग लीक कहां बढ़ रही है? अगर बीते पचास बरस का ही िहसाब लगाय तो साठ के दशक के मोहभंग और स र
के दशक म न सली िव ोह के साथ उभरी िहदं ी किवता िकतना बदली है और उनके ितिनिध वर क हम कै से
िशना त कर सकते ह? अ ेय, कंु वर नारायण, के दानाथ िसहं , के दारनाथ अ वाल, शमशेर-मिु बोध, नागाजन, ु
ि लोचन, रघवु ीर सहाय, ीकांत वमा, सव र दयाल स सेना, भवानी साद िम , धिू मल, लीलाधर जगड़ू ी, िव णु
खरे , मगं लेश डबराल, आलोक ध वा, असद ज़ैदी जैसे किवय से होती हई देवी साद िम , कुमार अंबजु और एक
दौर के सजं य चतवु दी तक पहचं ी किवता उसके बाद िकस ओर बढ़ रही है? कह ऐसा तो नह िक हम िकसी नयी
िहदं ी क खश ु फ़हमी म परु ाने का य अनभु व को ही दहु रा रहे ह? या वे उपमान परु ाने नह पड़ रहे िजनके बीच आज
क िहंदी किवता बन रही है? अगर यह नयी और नये दौर क किवता है तो उसक पहचान और उसके मू यांकन के
नये िनकष या ह? उनम िकतना हमारा समय िदखता है, िकतनी नयी सवं ेदना या उसका रण िदखायी पड़ते ह?
इस िट पणी को इन सवाल के बीच छोड़ना ही िफलहाल समीचीन लग रहा है।
मो. 9811901398
पु तक संदभ
1. च सठ सू सोलह अिभमान कामसू से े रत: अिवनाश िम , राजकमल काशन, नयी िद ली, 2019
2. अधरू े वांग के दरिमयान: सधु ांशु िफ़रदौस, राजकमल काशन, नयी िद ली, 2020
3. बाक़ बचे कुछ लोग: अिनल करमेले, सेतु काशन, नोएडा, 2020
4. जीवन हो तुम: िनशांत, सेतु काशन, नोएडा, 2020
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का य चचा
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देते ह।
गीत चतवु दी बारहा कही गयी बात को नये ढगं से कहने क चेतना के भी किव ह। क पना और िचतं न
के िबना ऐसा हो पाना सभं व नह है। पहली ही किवता का िफर से उदाहरण :
तमु बहेिलय के बतु म फूल मत चढ़ाया करो
इससे िचिड़य के पंख म दद बढ़ता है
यिद भाव या िवचार के तर पर देख तो कोई नयी बात नह है। अ याचा रय के ित ा का भाव न रखने क बात
कही गयी है य िक ऐसा करने से पीिड़त जन को दःु ख होता है। लेिकन बात िजस ढंग से कही गयी है वह अनोखी
है। हमारे समय का सम त राजनीितक प र य इन दोन पिं य म सहसा उभरकर सामने आ जाता है।
गीत चतुवदी म कुछ नया करने क तड़प है। कुछ नये ढगं से कहने क छटपटाहट है। लेिकन इस पर वे
अपनी शालीनता का आवरण डाले रहते ह। इस आवरण को उ ह ने िव किवता डूबकर पढ़ने के म म पाया है।
इसिलए उनक किवता का वर यरू ोपीय सं ांतता के िनकट खड़ा िदखायी पड़ता है] लेिकन भाषायी ढांचा िहदं ी का
अपना है। ठे ठ भारतीय। इस सं ह को के वल सपाट लेिकन अपने पंजे म दबोच लेने वाले वा य के िलए ही नह ,
उन नयी उपमाओ ं के िलए भी ज़ र पढ़ना चािहए, िजस पर किव लगातार काम कर रहा है। ‘ ठी हई’ किवता म वे
कहते ह :
धाग से ज़ म देती, खजं र से िसलती है।
वह मझु से ऐसे बात करती है,
जैसे गलत क पर फूल रखती है।
पहले खडं म ऐसी सिू य के िश प म िलखी बहधा किवताएं ह, लेिकन म य खडं क किवताओ ं का िमज़ाज
दसू रा है। संत क -सी सहजता यहां भी है, लेिकन किवता का समचू ा वैभव किवता के िकसी एक खडं म नह ,
उसक समचू ी सरं चना के मा यम से कट होता है। इस खडं क अिधकांश किवताओ ं का िमज़ाज उनके दोन
पवू वत सं ह से िमलता है। ये रचाव के सख ु और समृि से भरी हई किवताएं ह। यहां दःु ख है भी तो इतने
कला मक और दाशिनक तरीक़े से, मानो वह अभी हो। गीत ने अपने जीवन के प न को इन किवताओ ं म सीधे
उतार िदया है। जो बात इन किवताओ ं के मा यम से उभरती है वह यह िक किव होना कोई िवशेष दािय व है, िक
उसम सवं ेदना और ान का िवशेष त व होता है। वह लौिकक य को अलौिकक ि से देखता है। इस खडं म
कुछ अपे ाकृ त लबं ी किवताएं किव- यि व के ित अित र आ य से भर देती है। गीत िनि त तौर पर
िचतं नशील किव ह। उनम ण िवशेष के अिजत अनभु व को तरु ं त किवता म पलट देने क अपे ा धीरे -धीरे
क पना के मा यम से िवकिसत करने क इ छा साफ़ िदखायी पड़ती है। इसिलए यिद ू रता या यातना भी है तो वह
बहत ही सयं त तरीक़े से उपि थत होती है। वे ू रताओ ं से इस हद तक सतं िक़ म क नफ़रत करते ह िक उसक
आंच भी अपनी किवता म आने नह देते। ‘उस समय’ किवता क इन पंि य को ज़रा देख :
उस समय
मने अचरज िकया िक हम कै से मनु य ह :
िजससे नफ़रत करते ह, उसे मार देते ह
िजससे यार, उसे कर देते ह डठं ल से अलग।
प थर क मरू त पर फूल चढ़ाते ह और
फूल जैसे लोग को प थर से मारते ह।
ग़ौर क िजए िक किव आ य कर रहा है, नफ़रत या ोध नह । ‘ दय एक खोया हआ महा ीप है’ म भी िलखते ह :
‘हर आदमी मकड़ी है/ अपनी पहचं क प रिध म जाल बनु ने म मस फ़’। यहां भी दःु ख है, यातना या छटपटाहट
नह । मन के उमड़ते भाव पर भाषा का कड़ा पहरा है। अपनी एक किवता म वे अपना प रचय कुछ य देते ह :
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‘अके ले म खदु से बड़बड़ाता और समहू म सबसे चपु इनसान’। उनका पहरा जलते हए य के वणन म भी नह
उठता। वे अपनी बेचैिनय क िहफ़ाज़त करते ह, ‘अतं तः ख़दु किव को करनी होती है/ अपनी बेचिै नय क
िहफ़ाज़त’ और उसे बहकने नह देते। वे मृ यु के दःु खद ण म भी जीवन क ओर देखने वाले किव ह। ‘पल
ु िगरने
से मरे आदमी के घर म’ भी वे देखते ह :
मातम से भरे उस कमरे म
दो चीज़ अब भी मु कुरा रही थ :
मरने वाले क त वीर।
रोने वाली क गोद म दो माह का ब चा।
इस सं ह म मझु े एक ही ऐसी किवता ‘उपहास के बाद’ िमली िजसम गीत ने अपने मि म और सयं त वभाव को
खोया है, िजसम उनक झंझु लाहट पर कोई पहरा नह है। वह बेलाग तरीक़े से कट हआ है।
सं ह के तीसरे और अंितम खडं म भी पहले और दसू रे क तरह 27 किवताएं ह। सरं चना म ये िनहायत
छोटी-छोटी किवताएं गहरे बोध से ज मी ह। िचतं न के सतत म म अिजत बोध। गीत चतवु दी के इस सं ह को
पढ़ते हए किवता पर िव ास और गहरा होता है। उ ह ने िहदं ी किवता को नयी पहचान दी है। इसक तसदीक़ सं ह
के अतं म क गयी ‘ मख ु शि तय ’ से भी क जा सकती है। सबसे अ छी लगी सं ह के िब कुल अतं म पाठक
के नोट्स के चार ख़ाली प ने इसी शीषक से छोड़ने क यिु । काशक और किव दोन ने पाठक को स मान िदया,
यह हमेशा याद रखने वाली बात है।
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िजनक न द ख़राब होती है – ऐसी आवाज़ से।
सवं ेदन-शू य नागर और किथत सं ांत स यता पर यह वैचा रक आघात है, लेिकन यह सबकुछ ‘अंडरटोन’ से बंधा
हआ है। इधर समकालीन किवता के एक धड़े ने ‘अंडरटोन’ को रचने म गहरी िदलच पी िदखायी है। िबखरे
िव यास, उ जे नाहीन भाषा, य राजनीितक घटना म से िवलगाव और किवता के यरू ोपीय वर से अपनी
भाषा को समृ करने म उसने महारथ हािसल क है। या इसे िहदं ी समाज का अपने समकालीन किवय के ित
उपे ा के फल व प िलया गया िनणय कह सकते ह? इसका ज़वाब तो वे किव ही दे पायगे। एक िब कुल िभ न
सदं भ म महेश वमा ने अपनी एक किवता, ‘इस समय’ म कहा है : ‘सरु ऊंचा होते ही फटने लगेगी आवाज़’।
गजु रे समय म, िवशेषकर बीसव शता दी के का य-िचतं न म, िवशेष का सामा यीकरण सािहि यक
बहस का क ीय िचंतन हआ करता था। लगता है उसे अब यागने क तैयारी िदखायी पड़ रही है। इसके थान पर
िवशेष का और िवशेषीकरण कला मक िचंतन के इस प के क म आ गया है। इस पर नये िसरे से िवचार होना
चािहए। या महेश इस ओर से िब कुल उदासीन ह? ऐसा नह है। उनक किवता ‘हरा रंग’ क इन पिं य के देखने
से इसका आभास भी िमलता है :
जब मेरी किवता जाने के िलए उठी तब मने उसके लबादे पर यान िदया
उस पर अलक ं ारपणू ढंग से कढ़ाई क गयी थी
उसम क ड़ ने बारीक छे द कर िदये थे
वह जैसे सफ़े द काग़ज़ के मैदान म चलकर खो गयी
घटनाओ ं और य का पनु रािव कार करने क अ ु त मता महेश वमा के पास है। इसिलए रोज़मरा के अनभु व भी
उनक किवता म आकर िब कुल नये और अनोखे हो जाते ह। सं ह क शीषक किवता म इस रोज़ के अनभु व को
पकड़ने क उनक सू म िनरी ण ि के जादू से भला कौन बच सकता है :
िकसी चीज़ को रखने क जगह बनाते ही धल ू
क जगह भी बन जाती, शयन क का पलगं
लगते ही उसके नीचे सोने लगी थी मृ यु क
िब ली
ऐसे छोटे-छोटे अनभु व-वृ को रखने के बाद वे कहते ह िक ‘कोई गीत था तो यह था’। यह जीवन के ित गहरे
िव ास से पैदा हआ है।
महेश वमा के इस सं ह के बीच म 21 ग किवताएं है। इनम से कुछ किवताएं – 'जनदशन', 'शेर
दागना', 'मछिलया'ं , 'नीला', 'परु ाना', 'गु सा', 'अनवु ाद' - िनि त तौर पर इस सं ह क उपलि ध कही जायगी।
'िपता' किवता के गु सैल िपता, जो अब अश हो गये थे, को लेकर ये पिं यां हम अज़ीब ढगं से िवत कर देती ह
– ‘कभी कभी गु साने के उनके चेहरे क उपमा अब दे पा रहा हं िक जैसे तलवार चलने म एक क ध का बनना और
हवा म सोख िलया जाना’। इसी तरह क किवता ‘परु ाना’ भी है। इसम एक किव के रचना मक सघं ष, ख़ासकर कुछ
नया करने म परु ाने से बचने क क़वायद और परु ाने के आ जाने से उ प न ं को बेहतरीन तरीक़े से उ ह ने पकड़ा
है। इस किवता को पढ़े िबना इस ं -भाव को नह समझा जा सकता।
ग किवता के बाद क कुछ किवताएं भी इस सं ह को िवशेष बनाती ह। किव क उदासी और उ णता
दोन के ही दशन इन किवताओ ं म होते ह। यहां वा य क चमक से अपने पाठक को चिकत कर देने क कला
अपे ाकृ त कम है, बि क किवता का समचू ा वैभव श द, पंि , और परू ी सरं चना के दौरान और उसके बाद भी
िमलता है, िमलता रहता है। ‘श दशः’ किवता म वे अपनी किवता क ि या का िज़ भी करते ह। अनभु ूत स य
को अपने िचतं न से लगातार मांजते रहने के कारण महेश क ये किवताएं अ यंत िनखर उठी ह। मझु े लगता है िक
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िव किवता क चमक से च िधयाये पाठक को आकिषत करने के िलए पवू भाग, यानी ग किवता से पहले क
किवताए,ं यिद उनका पीआरओ ह, तो ये अिं तम किवताएं उनक मता का पणू दशन ह िजनम अपने पाठक को
भाव-िवभोर और भाव-िव ल कर देने क कला है। ‘का िश प’ इस ि से उनक बेहतरीन किवता है। इसके
अलावा भी परू े सं ह म, 'िपता बा रश म आयगे', 'कुस ', 'शू ितगं ', 'लोहा और समु ', 'नसीहत', ' वीकार', 'अतं
क ओर से', 'जाना' जैसी कुछ उ लेखनीय किवताओ ं के िलए भी इस सं ह को ज़ र पढ़ना चािहए। कई किवताएं
पढ़ते हए पवू ज किव क याद आना भी वाभािवक है। महेश ने तो ‘पवू ज किव’ शीषक से एक िदलच प किवता
िलखी भी है।
महेश वमा क इन किवताओ ं को कलावाद और गितशीलता क परु ानी बहस से समझना मिु कल है।
वैसे इन दोन के बीच जो दीवार थ , वे लगातार ढही ह। म नह जानता िक यह अ छा हआ या बरु ा। या वह
यांि क बहस थी? या अबके जीवन ने उसके थगन को जायज़ क़रार िदया है? पता नह वह सचमचु क दीवार थी
या वैचा रक र पात के अहं से े रत थी? तो या ि लोचन के उस िस सॉनेट का अब कोई अथ नह रह गया
िक ‘िहदं ी क किवता, उनक किवता है िजनक सासं को आराम नह था, और िज ह ने सारा जीवन लगा िदया
क मष को धोने म समाज के ’। महेश वमा और गीत चतुवदी क इन किवताओ ं के पढ़ने क राह म ि लोचन और
नागाजनु के उठाये हए सवाल बार-बार खड़े हो जाते ह। हालांिक मेरा यह ढ़ िव ास है िक किवता का बहलतावाद
िकसी एक िच से िनदिशत कभी नह हआ और न होगा। लेिकन बहस ज़ री है।
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उठाया है, वह इस किवता क खबू सरू ती है। इसम ोताओ ं को क म रखा गया है। संगीत पर कि त किवताओ ं म
अिधकतर सरु और किव के हण-भाव के पार प रक सबं धं और उसक ि या होती है। लेिकन अपने से इतर
ोता के हण-भाव और उसके भीतर िनिमत संसार को पकड़ना एक नया ही कोण है। इसिलए मने कहा िक अ ण
देव इस सं ह म मल
ू तः एक सवं ेदनशील और वैचा रक से समृ दशक-किव के प म सामने आते ह। उनके देखने
म सोचना और सोचते हए देखना एक साथ चलता रहा है। एक छोटी-सी किवता, ‘पेपर वेट’ म इसे देखा जा सकता
है :
उसका वज़न
काग़ज़ को इधर-उधर िबखरने से रोकता है
भार से वह
काग़ज़ को कुचलता नह कभी भी
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िव तार सावकािलक और सावदेिशक है। इन किवताओ ं को हमारे समय क बेचनै ी और तनाव क ितिनिध
किवताएं कहना चािहए। किवताएं कै से समाज, राजनीित और मन-मि त क़ के कोन और दरार को उघाड़ती ह,
यिद इसका जायज़ा लेना हो तो इस सं ह क किवताएं ज़ र पढ़नी चािहए। समय के छ , पाखडं और भावक ु ता के
भीतर छुपी वृि य पर चेतन ािं त िजस तरह से हमला करते ह वह अ ु त है। म परू े यक़ न और िज़ मेदारी से कह
रहा हं िक वे हमारे समय के उन िवरले किवय म ह िजनक किवताएं पढ़ते हए िपछले तीस साल क बदलती
दिु नया को समझने और उसम खदु क ि थित पर िवचार करने क ि िवकिसत होती है।
चेतन ािं त भारतीय किवता के भ य ासाद म धसं ते भी ह और वहां से अपनी रचना मक- ि
िवकिसत भी करते ह। लेिकन कुछ अत ि य या मु ध होकर ‘वाह’ कहलाने लायक़ रचने क का या मक-इ छा
उनके भीतर िबलकुल नह है। रघवु ीर सहाय अ सर याद आते ह – ‘स नाटा छा जाये म जब किवता सनु ा कर उठूं,
वाह वाह वाले िनराश हो घर जाय।’ चेतन ांित म भी ज़बद त िखलदं ड़ापन है। और भाषा भी बेहद साफ़ और
िनिणत। सं ह का शीषक ही अपना मंत य प कर देता है। वे हमारे समय क वीरता से िवचिलत ह, य िक वीरता
आ मण करने और सहं ार करने का नाम है, जबिक िजसे कायर कहा जाता है वह दरअसल जीवन का समथक है।
यह पावर िड कोस का िभ न कोण है। इसीिलए वे देशभ को सबं ोिधत करते हए ‘देशभ हे’ शीषक किवता म
िलखते ह :
सपाट सोच, इकहरा िदमाग, िदल प थर ।
सैकड़ साल से ठहरी हई काई ऊपर ।
बेरहम सोच क ख़दु कश िनगहबानी से फ़रार ।
तमु जो िफरते हो िलये सर पे क़दीमी तलवार ।
तमु को मालमू भी है व कहां जाता है ।
और इस व से इनसान का र ता या है ।
पावर िड कोस चेतन ांित क किवता का क ीय वर है। इस शि -सरं चना के िनमाण के कारणीभतू त व -
मदवाद, जाित, धन, धम और उपभो ा-व तुओ ं पर उनक नज़र गहरी है। इस शि -सरं चना के अजन के आकषण
म दरू -दराज के गांव और क़ ब से महानगर म िखचं े चले आते लोग के व न और उनके जीवन-यथाथ क वे
अनदेखी नह करते। चिंू क ि थितयां उनके सामने खरु दरु ी, नगं ी और अपने वा तिवक आकार म ह, इसिलए उसे
रखने क भाषा भी खरु दरु ी और लगभग अिभधा मक है। अिभधा मक होते हए लंबी सांस ख चकर बरती हई भाषा।
‘वरना’, ‘किवता के भले के िलए’, ‘का य-या ा’ जैसी किवताओ ं म उ ह ने अपनी किवता संबधं ी मा यताओ ं को
रखा है। ‘किवता के भले के िलए’ म वे िलखते ह :
आओ अब ये कर
िक सरु ि त ऊब से िनकली
बिु -तरंग को
रोक
और किवता को सािह य-क-र-िम-य के चगं ल
ु से िनकाल।
चेतन ािं त न के वल 'सरु ि त ऊब' से किवता को िनकालने का आ ान करते ह बि क अपनी किवता को िनकालते
भी ह। मदवाद और ीवाद के नये सं करण पर कि त जो किवताएं उ ह ने िलखी ह, वे हमारे समय से सअ ु िलटी
को समझने का एक ज़ री अ याय ह। चार खडं म िवभािजत इस सं ह के तीसरे खडं म नयी ी को प रभािषत
करने के म म िलखी किवताएं ह। ये ि यां खाप पंचायत , बेधने वाली ि य , बला कार क आकां ा पाले घमू
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रहे हर उ के मद , धमाचाय , नैितकता के नाम पर ी को दीवार के भीतर बदं करने वाली इ छाओ ं के सामने
अपनी देह-भाषा, अपने व न और इराद के साथ तमाम जु म को झेलती हई लेिकन ितकार करती हई साकार
खड़ी ि यां ह। वे इ ह ि य क ओर से कहते ह :
अपने हल, अपने खरु पे, अपने फावड़े, अपनी लाइससी बदं क
ू ,
बांह क मछिलयां, जांघ का जांगर, मंछू ,
अपने बेिसर के लोथ िश -यो ा लड़क को लेकर
तू जा यहां से
िनकल, समेट अपना पसारा
('अब मन क मेहनत कर ताऊ')
ऐसी फटकार, लताड़ और मदवाद का पानी उतार उसे शिमदा भाव से भर देने वाली गज़ब क धारदार किवताएं
उ ह ने िलखी ह। इस फटकार भाव म ी का आ म-स मान और अपनी देह के ित स मान का भाव भी कट
हआ है। ‘यहां ज स िबकती है’ इस ि से उ लेखनीय किवता है। सीएए के िवरोध म यवु ा ि य ने िजस क़दर
ितरोध को अंजाम िदया, वह इस किवता के मह व को मािणत करता है। इसी म वे िलखते ह – ‘जहां भी कोई
बेडौल ख़तरा कुलबल ु ाता है/ बचाने को एक ज स आ ही जाती है।’ हालांिक उनक यह किवता उ ितरोध के
बहत पहले िलखी गयी है। मदवाद को वे कै से नगं ा और अपमािनत करते ह इसे देखने के िलए ‘इनके ऊपर हसं ो’
किवता ज़ र पढ़नी चािहए। इसम उ ह ने ऑनर िकिलगं के नाम पर अपनी लड़िकय क ह या कर जेल म बंद
गव ले िपताओ ं पर उसी तरह हसं ने का ताव रखा है जैसे ब चे सकस म भालू का खेल देखकर हसं ते ह।
चेतन ांित समय क खर आलोचना यिद अपनी किवताओ ं म करते ह तो इस समय के आने के
कारण पर भी नज़र रखते ह। इसिलए उनक आलोचना एकागं ी नह लगती। ‘सीलमपरु क लड़िकया’ं उनक
िस किवता है जो पहले सं ह म है। इस सं ह म सीलमपरु के लड़क पर भी इसी शीषक से एक किवता है
िजसम उन राजनीितक और सामािजक प रि थितय को समझने क कोिशश क गयी है िजसने बाद के समय को
गढ़ा। धम और राजनीित के संबंध को समझने के िलए वे न बे के दशक के पहले के ठहराव और उससे ज मे
खालीपन, मीिडया और कारपोरे ट पंजू ी के िनदशन म उतरे बाज़ार के गठजोड़ क बारीक़ िशना त करते ह। लेिकन
यिद चेतन ािं त क किवताओ ं क भाषा पर बात नह हई तो किवताओ ं पर बात अधरू ी ही रह जायेगी। भाषा से
खेलने और ील और मखमली और अनकहे को साधती मौन-धीर-गंभीर भाषा के ित उनका आ ोश न के वल
िस ांत प म आया है बि क यह उनक किवता का वैभव भी है। इस पर यादा कुछ न कहते हए के वल दो छोटे
उ रण :
हर सड़क का नाम वदेशी ? जी सािहब कर िदया
हर तरफ ह काम वदेशी ? जी मािलक कर िदया
औरत साड़ी म िनकल ? ओ ेरी, जी भेज द
साथ म िसदं रू क िडिबयाएं भ ? जी, भेज द
मझु से अपने वाथ िछपाते नह बनते
अपने लालच-लोभ म धाड़ से कह देता हं
िज ह सनु कर सलीक़े / अवाक रह जाते ह
(भय- वाह)
जाने य
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पर यह मझु े यादा घातक लगता है
िक दाबे बैठे ह और धीरे धीरे छोड़ रहे ह
(सीधी सड़क-टेढ़ी सड़क)
सं ह के अंितम खडं म ेम से सबं िं धत किवताएं ह। ‘ ेम से सबं िं धत’ इसिलए कहा िक इसम ेम तो है लेिकन वह
चिलत ेम किवताओ ं से िबलकुल अलग है, य िक इसम भी भाव और प रवेश का सतत सघं ष जारी रहता है।
इस सं ह म के वल एक किवता, ‘ब ची और बढ़ू ा पेड़’ फ़ै टेसी-परक है। यार म भी पावर िड कोस क िशना
करने क आकां ा चेतन ांित को सतत जाग क किव िस करने के िलए काफ़ है। चेतन ांित क ये किवताएं
अपने पाठक को मु ध नह करत , उ ह आलोचन-सपं न और िववेक-सपं न बनाती ह। इसके िलए वे स यता के
अंधरे े कोन का सामना करते ह। स यता पी फोड़े के ऊपर क पपड़ी को उघाड़ देते ह। अब इसम खनू और मवाद
िनकले तो इसे किव का नह स यता का दोष मानना चािहए।
मो 9850313062
पु तक सदं भ
1. ख़ुिशय के गु चर : गीत चतुवदी , ख़ पि लके शंस ा. िल., िद ली, 2019
2. धूल क जगह : महेश वमा, राजकमल काशन ा.िल., नयी िद ली, 2018
3. उ र पैगंबर : अ ण देव, राजकमल काशन ा.िल., नयी िद ली, 2020
4. वीरता पर िवचिलत : आर चेतन ांित, राजकमल काशन ा.िल., नयी िद ली, 2017
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का य चचा
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क बलता िलये हए। शभं ु ने खाने म ‘मैकडोना ड बगर’ और पीने म ‘ च रे ड वाईन’ का िज़ अपनी किवताओ ं
म िकया है। यानी भोग-उपभोग पर बल है और उपभो ा सं कृ ित का बोलबाला है, इस जादईु ससं ार म। इस जादईु
ससं ार का ि टीक है शभं ु यादव का का यसं ह, साध रहा है जीवनिनिध ।
इस ‘इं लोक’ ने लोग को िमत कर रखा है। ‘आमजन के सपन म मनोहारी द तक’ दे रहा है। (वही,
पृ -84) मज़दरू को लोग के मानस पटल से बेदख़ल कर रहा है यह, - 'लेिकन इस वंचियता को नह पता है/ मेरे
िदमाग़ के अंदर , जहा/ं उसका होना घिटत हो रहा है/ उसे िकसी अ य बल-परत ने आ घेरा है' (वही, पृ -78)
नतीजतन मज़दरू के दःु ख उसके िदमाग़ क न से ग़ायब हो रहे ह, -'िलखी जानी जो मज़दरू - यथा कथा/ िफर से
िदमाग़ के न पर लाने म/ िफ़लहाल, नाकामयाब म' (वही, पृ -73) यानी आज के मनु य का मज़दरू तक
थानांतरण होने ही नह िदया जा रहा है। यही ि थित िकसान के साथ भी घिटत हो रही है। लोग उसके बारे म गढ़े
गये खश ु हाली के िमथ म फंसे ह। एक आम धारणा बना दी गयी है िक ' मेरे देश क धरती का िकसान / खश ु हाल
आबाद है, / चौपाल म बैठ/ फुरसत से ह का गड़ु गड़ु ाता है/ खेलता है चौपड़'(वही, पृ -12) जबिक स चाई इसके
उलट है। उसक हालत ख़ ता है और वह ख़दु कुशी कर रहा है। िकसान के सबं धं म बनाये गये इस िमथ को तोड़ने
का काम शभं ु क किवता करती है। उ मायाजाल म फंसे यि क दगु ित भी शभं ु यादव क किवता म है।
‘कपालि या’ उनक ऐसी ही किवता है, िजसम एक ‘नया आदमी आसमान मख़ ु ाितब’ मोबाईल टावर के ‘अंितम
िसरे पर पहचं कर ‘आनंिदत’ था, बौराया, भल ू ा अपनी चेतना’(वही, पृ -14) बदहवासी म उससे ऊपर वाला
िकनारा छूट जाता है और वह 'लौह तंभ के बीच से अटकता-पटकता/ धरती आ िगरा धड़ाम, खनू म-खनू ,
िच '(वही, पृ -11) यह इस िवकास क िवसगं ित है, िजसके िशकार बहत लोग हो रहे ह। उ ‘इं लोक’ म देशी-
िवदेशी यापारी बहत सि य नज़र आते ह। इनक वजह से न के वल मज़दरू बेदख़ल हए ह वरन् कृ ित समेत लोक
के प भी बेदख़ली का िशकार हो, य-पटल से ग़ायब होते जा रहे ह। ‘वहां बाग़ रहता था’ नामक किवता इसी
ओर इशारा करती है। िजस बाग़ म बचपन का आनंद किव ने िलया था, दीवार फांद कर घसु जाना और तरह-तरह
क चीज़ का ‘कचरी बेल, खरबजू े और तरबजू ’े का ‘मीठा मल ु ायम वाद’ और ‘सद धपू म बेर का आनंद लेना,
वह बाग़ अब उजड़ चक ु ा है
। ‘उजाड़ वाला बाग़ कहे जाने वाली/ उस धरती के , पेड़ कट चकु े ह/ मोल कर भेज
िदये गये ह शहर को'(वही, पृ -44) अब 'देशी-िवदेशी अं ेज़ देखे गये ह वहा/ं जहां बाग़ रहता था'(पृ -44)
इ ह के अनसु ंगी ‘ितलकधारी माला-भंडार पहने’ कमकांडी और िढ़वादी महान आ माएं ह, जो
लोग को िमत कर रही ह। किव शभं ु यादव ने ‘गीता एकमा रा ता है’ और ‘उसने नया कुछ कहा या’
किवताओ ं म इसी म को िचि हत िकया है। नये और परु ाने दोन तरह के म से त यि , े ता के इन
ितमान से त यि , ‘महानगरीय पीड़ा’ भगु तता हआ आज िद ली का हािशया है। यथाथ के अनेक ख़ास
प को हमारे सामने रखते हए शभं ु यादव ने उ मायावी संसार क असगं ित को उजागर िकया है।
शभं ु यादव क तरह ही किव जवाहर लाल जलज क किवताओ ं म भी भमू डं लीकरण क चनु ौती, ग़रीब
आदमी, मज़दरू -िकसान और ामीण लोक िचतं ा के क म है। उनका हाल-िफ़लहाल आया का य-सं ह, रहगं ा
उ ह श द के साथ इस बात का गवाह है। जलज जी ने नये े ता प के बढ़ते दबदबे, उसक बढ़ती एक पता
और क ीयता का िवरोध अपनी किवताओ ं म िकया है। एक किवता ‘कृ त न महासागर’ म वे बताते ह िक जो नदी
समु के पास आयी है उसका वह वजदू ही िमटा देता है, - 'िमटा देते हो तुम/ उसका नाम -िनशान तक/ हमेशा-
हमेशा के िलए/...िकतना अ छा होता िक/ बना रहता उसका भी अि त व'(रहगं ा उ ह श द के साथ, पृ -27)
इसी तरह ‘दिु नया यह सरू ज का िव ापन’ किवता म सरू ज का एक अलग ही तीकाथ है, 'सरू ज उग आता है
अचानक/ िकसी महापु ष क तरह' और खो जाती है 'सघं षरत तार क मनमोहक दिु नया/ और दहक रहा होता है-/
एक तमतमाता हआ इितहास पु ष सरू ज/ तारे कह नह होते/ उनके इितहास क िकताब म' (वही, पृ -30) सरू ज
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यहां सवस ावाद का तीक है। िजसके चलते तार क दिु नया ही कह खो जाती है। बहलता और िवक ीयता ख़ म
हो जाती है। एक क ीय चमक दमक न जाने िकतन क पहचान को ख़ म कर उ ह य पटल से ही ग़ायब कर रही
है। उ पीिड़त करते हए हािशये पर तो धके ल ही रही है। किव क इ छा है िक उनक भी पहचान बनी रहे और समु
जैसे महा क के सामने उसका अि तव भी बचा रहे। भमू डं लीकरण का प भी कुछ ऐसा ही है। किव जलज ने उसे
भतू कहा है। उनक एक किवता है ‘भमू डं लीकरण का भतू ’। यह भतू कुछ यादा ही ख़तरनाक है, भतू सीधे भी होते
ह (ऐसी कहािनयां िलखी भी गयी ह) पर 'यह ऐसा भतू है/ जो पसदं करता है सवार होना/ िसफ़ मज़दरू , िकसान,
मजबरू इसं ान/ और अस आम जनता पर ही'(वही, पृ -49) ‘भतू ’ श द म परु ाने सा ा यवाद का भी सक ं े त िछपा
है, य िक इसका भी वही ल य है जो पहले का था। यानी ‘िव तारवादी अिभयान’(वही, पृ -49) इस अिभयान म
जो सल ं न ह उ ह किव ने ‘कुबेर के वंशज’ कहा है – 'नह सोचते कुबेर के वंशज/ िक जो मज़दरू ह/ दीन हीन
िकसान ह/ वे भी ह इसं ान' (वही, पृ -29) वे इनको पशु बनाने पर तुले हए ह। किव के मतु ािबक़ हमारे देश का ग़रीब
आदमी ऐसा ही है जैसे बैल होते ह – 'देखा है कभी यान से उन बैल को/ जो लादे हए कंध पर/ िज़ मेदा रय का
जआ ु '( वही, पृ -31) यह ग़रीब आदमी का िविश ीकरण है जो हमारे इस दौर ने कर िदया है। ये यथाथ का ख़ास
प है। बैल का घिन सबं ंध िकसान से सदैव रहा है, और किव जलज क किवताओ ं म िकसान क िचंता
मख ु ता िलये हए है। इसी सं ह म उ ह ने िकसान पर गीत भी िलखा है और छंदमु किवता भी। लेिकन दोन ही
तरह क किवताओ ं म िवचार क मख ु ता है। ‘िपसा जा रहा है िकसान’ गीत म िचतं ा य हई है िक 'देखो, अब
कंगाल िकसान सचमचु ही है िवकट तबाह/ त अभाव म रहता है हर धनहीन िकसान यहा'ं (वही पृ -113) और,
‘िकसान’ नामक किवता म उसके म का ‘मनु यता’ के िलए मह व रे खांिकत करते हए िकया गया है िक ‘ य
नह आंका जाता है?/ उसके मसा य अवदान का सही मू य'(पृ -53) ऐसी किवताओ ं म िवचार के सीधे ‘कहन’
के ज़ रये एक सामा य यथाथ क उपि थित पायी जाती है। कला मकता क कमी ज़ र खटकती है, पर यापक
सरोकार क नह । उनके सरोकार क जड़ ‘हलाल होते पेड़’ तक जाती ह – 'आदमी है िक /बना हआ है जीवधा रय
म महान/ चतुर, कुशल, बिु मान/ कर रहा है हलाल/ एक एक पेड़'(पृ -55)
महानता या े ता के ये प िव तारवादी रवैया अि यार करते हए ाकृ ितक प को ही
न नह कर रहे ह, वरन् लोक को भी तबाह कर रहे ह – ' लोक अब तबाह है/ व खदु गवाह है’(वही, पृ -72)
इस अमानवीय कृ य के बर स किव को किवता पर, उसक मता पर परू ा यक़ न है। ‘म किवता ह’ं म किव वयं
किवता के मख ु से कहलवाता है िक 'नह मार पाता है मझु े ू र महाकाल/ म रहती हं जीिवत हर काल, हर हाल/
बचाने के िलए जझू ती मनु यता के ाण'(वही, पृ -57) किवता वा तव म वह सृजना मक शि है जो सवकािलक
और ाणदाियनी है। किवता–कि त बहत सारी का य-रचना किव जलज ने क है, वे किवता क अि मता क
पहचान कराने वाले किव भी ह।
किवता को ल य कर हरे राम समीप ने भी कई किवताएं िलखी ह। उनके हाल-िफ़लहाल आये का य-
सं ह का नाम ही है, श द के सामने। श द किवता या रचना क लघतु म इकाई भले ही हो, पर वह अिनवाय और
मलू इकाई है। कई किवय ने श द को किवता ही कहा है, िजसम ि लोचन शा ी का भी नाम िलया जाता है।
उनका तो एक किवता-सक ं लन ही है, श द। समीप जी के िलए भी वह किवता और उससे आगे बढ़कर अिभ यि
का पयाय है। वे भी श द क शि से प रिचत ह – 'श द ने बचायी थी/ यह सदंु र मानव स यता/... श द ने बनाया
है सदैव/ िनबल को सबल/ िनज व म फंू के ह ाण।'(वही, पृ -11) पर इन िदन तो ि थित ऐसी हो गयी है िक उसके
अि त व पर ही सक ं ट आन पड़ा है –'आज भटक रहे ह श द/ भय व असरु ा के बीहड़ म'(पृ -16) इससे तो िफर
भी वे कभी न कभी िनकल आयगे, पर सबसे बड़ा संकट तो यह है िक वे ग़लत हाथ म पड़ गये ह। वे न िसफ़
'बाज़ार म िबक रहे ह' वरन् ' बाबाजी के कमडं ल म रखे ह श द' और िज ह 'ई रीय साद' क तरह बाटं ा जा रहा
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है।(वही, पृ -17) यानी वे यापार और िढ़वाद के िशकार हो रहे ह।
हरे राम समीप ने हमारे जीवन म बढ़ते बाज़ार के दख़ल और उसके दु भाव को अपनी किवताओ ं म
मखु ता से जगह दी है। उनक ाथिमकता भी साधारण जन जीवन ही है जो मज़दरू , िकसान और गांव से बना है।
किव के अनसु ार इसम भख ु मरी का वास है – 'भख
ू / चारे क तरह खा रही है िज़दं िगया/ं चपर चपर'(वही, पृ -37)
ब च से लेकर बड़े तक इसक िगर म ह। कह ‘भख ू से बेबस’ ब चा चौक पर तरह तरह का सामान बेचने पर
मजबरू है( पृ -25), तो कह उसे 'बेचा गया/भख ू के बदले / महानगर से' और उलटे ' रोटी उसको चबा रही है'(वही,
पृ -27)। यही हालत िकसान क भी है। 'भख ू क र सी/ कसते कसते' उसके गले पर ‘ठहर ही गयी है(वही, पृ -
24) और, मज़दरू क रोज़ी-रोटी का कोई िठकाना ही नह है। उसे तो मु बाज़ार के हवाले कर िदया गया है। जगह
जगह उग आये ह ‘लेबर चौक’, जहां पहचं ने के िलए ज दबाज़ी म लग जाता है सबु ह सबु ह मज़दूर – 'करे पहचं ने
क ज दी वह/लेबर चौक पर िबक जाने को / सबसे पहले'(वही, पृ -30) इतना ही नह , बाज़ार क ऐसी स ा तो
कभी नह िदखी हमारे यहा।ं धंधबे ाज़ क नज़र गांव पर पड़ी 'तो नये माल क तरह / उसने खबू गांव को बेचा/ बड़े-
बड़े बाज़ार म / अंतरा ीय मिं डय म'(वही, पृ -36) वा तव म बाज़ारी-स ा क बेचनै अिभ यि है हरे राम
समीप क किवता, य िक ‘ लोबल ि ंग मैिजक’ पर उसी का क ज़ा है। (वही, पृ -79)
बाज़ार यहां अके ले ही इतना शि शाली नह हो गया है। उसके अनसु गं ी राजनेताओ ं का इसम बड़ा हाथ
है। एक ख़ास तरह क रानजनीितक शि इसके प म लगी है। इस ‘लगन’ पर किव राके श रे णु ने काफ़ किवताएं
िलखी ह जो उनके का यसं ह, इसी से बचा जीवन म नज़र आती ह। राजनीितक किवताएं राके श रे णु क का य-
रचना का ख़ास पहलू ह। वे ‘राजनेता : एक’ और ‘राजनेता : दो’ म बताते ह िक 'महज़ एक आढ़ितये क सध' बन
राजनेता ' लगातार र दते ह हमारी उ मीद के खेत'(इसी से बचा जीवन, पृ -47-48) वे ‘ माट’ हो गये ह – 'नेता
कब के हो गये माट'। वे इतने माट हो गये ह िक जब वा तिवक दिु नया म कुछ दे नह पाते तो हम आभासी दिु नया
म ले जाते ह और 'आभासी िवकास /आभासी रोज़गार' का म बनाये रखते ह।(वही, पृ -40) इस आभासी दिु नया
का एक सच ‘उ र स य’ भी है। राके श जी ने ‘उ र स य: एक’ और ‘उ र स य: दो’ नामक किवताएं िलखी ह।
किव के अनसु ार आज हम ऐसे मानस लोक म पहचं ा िदया गया है जहां 'सच एक मरीिचका है' जो वा तव म सच है
वह तो अस य लगता है और अस य ही स य है – 'रामनाम स य है/ मौत का तरीक़ा सच है/ मारना खदेड़ना –
बतंगड़/ वह सच नह '(वही, पृ -41) यहां तक िक 'आ मह या करने वाले का बयान' तक सच नह है।(वही, पृ -
42) यह एक ऐसी राजनीित है जो हम बहकाने के िलए सदु रू अतीत-गौरव का पाठ पढ़ाती है। एक ऐसी े ता के
आभािसत काल म पहचं ा देती है जहां से िनकलना बहत मिु कल है। सदु रू अतीत क े ता के अनेक िमथ हमारे
बीच म चिलत ह। किव राके श रे णु ने अपनी किवता ‘उ र स य: दो’ म उनके अनेक प को िचि त िकया है।
जैस,े ‘हम शांिति य ह’, ‘िविवधता म एकता वाले’, ‘दिलत, ि यां, वंिचत,, सब बराबर यहा,ं असहमित का
आदर परंपरा हमारी’, इ यािद। 'हज़ार साल पहले/ हमने िदये दु ह श य कौशल/ आणिवक शि रही हमारे पास/
हमने ही बनाये िवमान, राके ट, िमसाइल/ पहले-पहल/ िकया सदैव सव े / े ता हमारी रही ातीत'(वही, पृ -
43-44) इतने सारे आ यान -िकवदिं तय को इस अंदाज़ म किव ने रखा है िक आज के ठोस हालात से टकराकर
उनका उलट पाठ होने लगता है। यानी िजसे सच बनाकर पेश िकया जा रहा है, यवहार म कह िदखता ही नह ।
यही ‘उ र स य’ है। इस उ र स य के झांसे म फंसने वाल क कमी नह है हमारे देश म। अतीतो मख ु ता बढ़ी है
और ज़ािहर है, धािमकता भी। किव के अनसु ार 'उस यगु म कुछ न होगा धम के िसवा/ के वल एक रंग उगेगा'(वही,
पृ -45) और यह भी ि थित है िक कुछ लोग ऐसे ह जो इस इस रंग म नह रंगगे, और मर जाना पसंद करगे। यानी
िजनका ज़हन जनवादी है उसी क बिल चढ़ा दी जायेगी – 'वे जो रंग न पायगे/ उस एक पिव रंग म/ वे कािफ़र
देश ोही/ ओढ़ा िदया जायेगा उन पर एक रंग'(वही, पृ -46)
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‘उ र स य’ का एक अथ यह अतीतो मख ु ता भी है और एक पता भी। कई लोग ने तो इसे नवयथाथ
का पयाय ही बता िदया है। पर यह उसका एक प ही है पयाय नह । नवयथाथ के प तो अतीत से लेकर वतमान
और भिव य तक फै ले ह। यह ज़ र है िक उसके अतीत से जड़ु े प बहत मायने रखते ह। जहां अतीत क े ता के
प उभरे ह, उसी के साथ-साथ उसके िवरोधी प, उसके उ पीिड़त प भी उभर कर सामने आये ह – ी, दिलत
इ यािद।
ी को लेकर राके श रे णु ने कई किवताएं िलखी ह िजनम उनक िविवध ि थितय के वणन िच ण के
ज़ रये इस समहू क बह तरीयता को अिभ यि िमली है। ‘ ी: एक’, दो, तीन, चार, पाच ं , छह उनक किवताएं ह।
इसके अलावा अ सरा एक, दो तीन भी ि य क पीड़ा और उनक मिु क बात कहती ह। किव को ी धरती सी
लगती है। वाचक शैली म वे बताते ह िक ी से ही सबने सृजन क कला सीखी है – ' या पृ वी, जल/ अकास,
बतास ने सीखा/ िसरजना ी से'(पृ -15) ी को ही वे ेम का पयाय बताते ह, और उसक तकलीफ़ को समझने
के िलए वयं ी होना चाहते ह, तािक पु ष ारा िकये गये उसके ित अ याचार और पु ष क ी-िवरोधी
मानिसकता को सही से महससू कर सक। वे बताते ह िक 'म ी होना चाहता ह/ं अपने पु ष के िकये का सतं ाप
झेलना है मझु /े अपनी ि य का दःु ख/ हमारी सं कृ ित क सड़न कौन झेलगे ा?/ जो तमु नह , म नह / म ी होना
चाहता ह'ं (वही, पृ -21) इसी म अ सराओ ं का दःु ख भी शािमल है जो इं लोक वाली ह। अ सराओ ं को इस
नज़ रये से हमारी परू ी सािहि यक परंपरा म नह देखा गया है। वे अ सर भो या के प म ही िचि त क गयी ह या
ऋिष-मिु नय के यान भंग करने के साधन प म आयी ह। किव ने इस े लोक से अ सराओ ं क मिु का सपना
देखा है – 'वह तोड़ती बेिड़यां/ अपने अ त यौवन से/ अनािद काल से मज़बतू / िपतृस ा यव था क बेिड़या/ं वह
मु होती है'(वही, पृ -78)
राके श रे णु क किवताओ ं म एक ख़ास तरह क सामिू हकता पायी जाती है। उनक अंतव तु म भी,
सा य-िवधान म भी और उनके कहने के ढंग म भी। यानी अनेक समहू - प पर उ ह ने िलखा है और साथ ही
उनके भीतर क बह तरीयता को भी उ ािटत िकया है। इन म कृ ित प से लेकर िविभ न मानव समहू और ेम के
प तक शािमल ह। कृ ित को लेकर उ ह ने ‘लहर’ एक, दो, तीन से लेकर छह तक किवताएं िलखी ह, िजनम
बादल, वषा इ यािद बह प को िचि त िकया है। उनके यहां कृ ित के प अ सर ेरणा पद शि प म आये
ह। और जहां तक ेम का सवाल है, वह एक सकारा मक मू य के प म किव के यहां कट हआ है। कृ ित क
तरह ही ेम एक, दो, तीन, चार किवताओ ं म आया है। जहां ेम का शीषक नह है वहां भी वह आया है, जैसे
‘ि य से बचा रहा ेम पृ वी पर/ ेममय जो है/ ि य ने रचा'(वही, पृ -16) इस घृणा के दौर म ेम अपने आप म
ही एक सकारा मक मू य है। ेम कुछ नह सबं धं -भावना ही है, और सबं धं म जो अपनापन िनिहत है वह
जीवनदाियनी होता है, 'बचा रहे अपनापन/ बचा रहेगा जीवन/ अपनी परू ी गरमाहट के साथ'(वही, पृ -35) इस तरह
किव राके श रे णु क किवताओ ं म महज़ वतमान क िवसगं ितयां ही नह ह वरन अतीत क िवसगं ितय के साथ
भिव यो मख ु ता भी है, जहां वे देखते ह िक 'आदमी से आदमी/ िमलकर गा रहा है'(वही, पृ -105)
मो. 9818877429
पु तक संदभ
1. साध रहा जीवन िनिध : शंभु यादव, लोकोदय काशन, 2018
2. रहंगा उ ह श द के साथ : जवाहर लाल जलज, लोकोदय काशन, 2017
3. श द के सामने : हरेराम समीप, िकताबगंज काशन, 2019
4. इसी से बचा जीवन : राके श रेणु, लोकिम , 2019
70 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
का य चचा
उ दोन का यांश समकालीन िहदं ी किव और किवता के तेवर को प करते ह। साथ ही, िव समय म किव
और किवता क ितब ता भी तय करते ह। जब किव पछू ता है, ‘पाटनर तु हारी पॉिलिट स या है?’ तो खल
ु े तौर
पर लेखक क राजनीितक प धरता का सवाल उठाता है। वा तव म किव क राजनीितक समझ ही उसक
सामािजक चेतना का िनधारण करती है। दिलत किव भी आज अपनी प धरता, अपनी पहचान को वाणी दे रहे ह,
यहां कुछ दिलत किवय के सं ह के मा यम से दिलत रचनाशीलता का आकलन करना इस लेख का मक़सद है।
78 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
का य चचा
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 79
म रजै ट हआ तो तेरे हाथ से
धैय के िस के छूटे थे
तेरी नौकरी लगी तो मेरे मन म
कै से लड्डू फूटे थे
...
आपस म ज़ म का दद-शहद िपया करते थे
मैनेज नह करते थे हम र त को
िजया करते थे
अब तू रोता है तो मझु े शक होता है
तू हसं ता है तो मझु े सािज़श क बू आती है
पता भी नह लगता और तेरी टूटन
मेरा ज बन जाती है
पाठक र त के मैनजे होने क बात जब किवता म पढ़ता है तो अपने म होने वाले इस बदलाव को महससू करने
लगता है। जब इस बदलाव के कारण क पड़ताल करता है तो वह पाता है िक उसका ‘म’ का त व अचानक
मह वपणू हो गया है। किव िवनय िव ास ने मनु य के वाथ हो जाने क इस ख़तरनाक वृि को अपनी
किवताओ ं का क य बनाया है। किवताओ ं के शीषक से ही इस वृि का पता चल जाता है। जैसे ‘म म म’, ‘म
आदमी नह ’, ‘दिु नया ... मेरी दिु नया’ आिद। ‘म आदमी नह ’ किवता का यह अंश देिखए :
होिशयारी से अपने को इस तरह जोड़ता हं
िक पार पहचं ते ही सबसे पहले
पल
ु तोड़ता हं
एक अ य का याश
ं , किवता ‘दिु नया... मेरी दिु नया’ से देिखए :
हवा उतनी ही िजतनी मेरी सांस म रहे
रौशनी वही
जो मझु पर पड़े
अंधरे ा उतना ही िजतना
परछाई ंबने मेरी
मेरे कान म जो गजूं सके
उसके अलावा कहां है सगं ीत
जो नाम नह लेती मेरा
वह आवाज़ गगंू ापन नह तो और या है
लगता है दिु नया म जैसे खदु गज़ का जलवा है। यि अपने अहं को लेकर िकतना आ ामक हो गया है, ये
किवताएं इसक बानगी भर है। हर बात म ‘म’ को ाथिमकता चािहए। ‘सफलता का इि तहार म’ से लेकर
‘तर क़ का छोटा-सा मिसया’ तक किव क िनगाह म है :
रोटी-पानी-कपड़े-मकान क सम या तो हल हो गयी:
अब शोटी-वानी-शपड़े-वकान म उलझा हं
सच पछू ो तो तर क़ इसी को कहते ह
इस का य-सं ह क एक िवशेषता के प म ी सबं धं ी किवताओ ं को परखा जा सकता है। नयी ी किव क
चेतना म अिकंत है। हसं ती हई लड़क , काम पर सबु ह-सबु ह जाती हई लड़क , पु ष से िपटती ी, पु ष को
चनु ौती देती ी, अपने ेमी से जलाकर या िगराकर न मारने क गहु ार करती ी का ेिमका- प आिद िविवध
80 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
छिवय -िबबं के मा यम से किव िवनय िव ास ने मानो ी-गाथा ही रच दी है। ‘सनु ो मद ’ किवता क पंि यां
देख :
म हसं ी तो तमु ने मेरे िलए रोने के इतं ज़ाम कर िदये
रोयी तो कहने लगे- हसं ी वरदान है
क तो बोले- चलो
चली तो कहने लगे- कना सीखो
चपु रही तो बोले- बोलो
बोली तो कहने लगे- चपु रहो
कपड़े पहने तो बोले- उतारो
उतारे तो कहने लगे- बेशम
िफर भी तु ह िशकायत है िक म
तु हारी बात नह सनु ती!
आलोचक िव नाथ ि पाठी िवनय िव ास क किवताओ ं के सदं भ म िलखते ह, 'घोर अंधरे े म थोड़ी-सी भी रौशनी
भावी जीवन क अपार सभं ावना का मानो आ ासन देती हो। घोर िनराशा और उसम य त िबखरे हए मानवीय
सबं धं के आलोक एक-दसू रे के भाव को ती कर देते ह। इन सबको अपनी किवता म िलए हए िवनय िव ास
शायद इसिलए धानतः ेम के किव ह। कारण यह िक दरू तर और असभं व होती जाती आ मीयता के सक ं ट काल
म ेम आ मीयता दान करता है। वह जीवन को अभतू पवू साथकता और ताज़गी देकर उसे जीने लायक़ बना देता
है।' इस किवता-सं ह क ेम किवताओ ं म, ‘शायद उसको ेम हआ था’, ‘आिख़र ऐसा या है तुमम’, ‘छुअन’,
‘कसके आयी याद’, ‘आगमन’ आिद उ लेखनीय ह। ेिमका के ‘आगमन’ का भाव िकतना खबू सरू त है िक
िम ी भी महकने लगती है। किव का िबबं िवधान देिखए :
थकान क दिु नया म
महक उठी िम ी
स नाटे म चहचहाने लगी ख़श ु ी
प म ह रयाली क तरह
रोम-रोम म भर गयी: हवा क लहर
ग़ायब हो गया सहसा
लओ ू ं का चलना और सड़क का िपघलना
जैसे उदािसय -भरे मौसम म
बरगद क छावं गनु गनु ायी हो
...अ छा...ये तमु आयी हो!
आज़ादी और उससे जड़ु े मू य को हमने भल ु ा िदया है। सां दाियकता क राजनीित ने हमारे सामािजक सौहाद के
ताने-बाने को िवि छ न कर िदया है। कोई भी सवं ेदनशील मनु य भारतीय समाज क इस प रणित से दख ु ी हो सकता
है। देश के िलए शहीद होने वाल ने शायद ही ऐसा सोचा होगा। अपने परु ख क सामािजक सौहाद क िवरासत को
नह बचा पाने पर किव अपना ोभ य करता है। ‘हम तेरे वा रस ह बाप’ू किवता म किव बापू से कहता है िक
‘तमु ने प थर म देशभि जगा दी थी/हमने देशभि को पथरा िदया’। ‘ये आज़ादी वो आज़ादी’ किवता म
आज़ादी के मायने बदल जाने को लि त िकया जा सकता है। यह बदलाव िकतना भयानक है, आप इसे समझ :
आज़ादी है चाहे जब कूट दो या कुट जाओ
लटू लो या लटु जाओ, डरा दो या डर लो।
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 81
नैितकता जीते जाओ, ख़ाली पेट को बजाओ,
या उ लू बनाओ जेब म करोड़ भर लो।
इसं ान को बना दो िहदं ू या मसु लमान
या बना डालो सामान इ तेमाल कर लो।
िवपदा से मरो या सिु वधा से, आज़ादी
है िक भखू से मरो या यादा खाके मर लो।
‘उदािसय भरे मौसम म बरगद क छांव’ के किव ह िवनय िव ास, तो अपनी किवताओ ं म ितब ि कोण
रखनेवाले एक मह वपणू किव ह भरत साद । पक ु ारता हं कबीर उनक चनु ी हई किवताई है। किव भरत साद ने
इस का य-सं ह म कबीर जैसे अनेक किवय , महापु ष का उ लेख िकया है। उ ह ने इन किवताओ ं के मा यम से
भारतीय मनीषा क ासिं गकता को रेखांिकत करने का उप म िकया है। का य-सं ह पकु ारता हं कबीर म शहीद-ए-
आज़म भगत िसहं , रव नाथ, नागाजन, ु ेमचदं पर किवताएं ह। इस सं ह क किवता पढ़ते हए हम मिु बोध क
बार-बार याद आती है। कह सकते ह िक मिु बोध क किवता ‘अंधरे े म’ का भावना मक िव तार इन किवताओ ं म
िमलता है। क य ही नह , भाषा और शैली म भी मिु बोध क छाप िदखती है। ‘उठाना चाहता हं एक मु ी धल ू ’
किवता का यह अशं दे ख सकते ह :
मेरे आसपास, क़दम-क़दम पर
अनमोल पाठशालाएं खलु ी हई ह
कह खेत, कह बरगद तो कह च ान
अ यापक क तरह सिदय से
हम पाठ पढ़ा रहे ह
िध कार है मझु े
माया के च कर म उलझे हए कान
शोर के अलावा और कुछ सनु ते ही नह ।
िफर मिु बोध क किवता ‘मझु े क़दम-क़दम पर’ का यह अंश देिखए :
मझु े क़दम-क़दम पर
चौराहे िमलते ह
बाह फै लाये!
एक पैर रखता हं
िक सौ राह फूटती,
म उन सब पर से गज़ु रना चाहता ह,ं
बहत अ छे लगते ह
उनके तजबु और अपने सपने...
मिु बोध ही नह , िनराला क किवता और उनक गितशीलता को किव ने अपनी किवताओ ं म अिभ य िकया
है। िनराला क किवता ‘िभ क ु ’ अपने नये सं करण, ‘वह चेहरा‘ के प म इस का य-सं ह म थान पाता है।
का यांश य है :
उसक उ छ:-सात साल है ज़ र
मगर वह ब चा नह है
कूड़ा-करकट क सफ़ाई-दफ़ाई के ित
वह आ य क हद तक फुत ला है...
82 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
...
हबह अपनी ही तरह टूटा झाड़ लेकर
वह लेटफ़ाम पर कठपतु ली क तरह नाचता िफरता है
किव क स दय-चेतना के प रसर म तथाकिथत हािशये पर फक िदया गया समाज, प र य रे ड लाइट ए रया,
कूड़ाखोर, म सअ ू र ह,ं ईटवाली
ं भी है। यव था का िशकार यह समाज, मनु य व क ग रमा से मह म है। किव ने
अपनी सवं ेदना और आ मीयता से ऐसे यि और समाज को पाठक क िनगाह म मह वपणू बना िदया है।
भरत साद क किवताओ ं पर कोई िनणय देने से पहले हम पि म के किव-आलोचक एिलयट क
का य सबं धं ी मा यताओ ं को एक बार याद करने क ज़ रत महससू हो रही है। ‘परंपरा और वैयि क ा’ िनबंध
म एिलयट कहते ह िक किवय को किवता क परंपरा का ान होना चािहए। उनके अनसु ार ‘परंपरा का मू यांकन’
सािह य क सृजना मकता के िलए आव यक है। समी य का य-सं ह का नामकरण ‘पक ु ारता हँ कबीर’ म िहदं ी-
का य परंपरा का का या मक मू यांकन है।
किव ने भिू मका म िलखा है : ‘यह किवता ाय: िति या, ितरोध, मोचा या प धरता का रचना मक
अंदाज़ है, िकंतु इस दल ु भ अंदाज़ का असल रह य अनभु ूित क अतल गहराइय म उ िे लत अलौिकक, अि तीय,
वलतं भाव ह। कोई कह सकता है िक भाव का समयब या समयातीत तानाबाना ही किवता है...।’ किव किवता
क िविश ता के ित सचेत है, वह िलखता है िक ‘किवता क पहली शत है- मौिलकता, नयापन, ताज़गी। यह
मौिलकता ाय: गढ़ू ाथ क होती है, भंिगमा क होती है और कभी-कभी के वल का य-िश प क । यिद यह
मौिलकता तीन प (अथ, अदं ाज़, और िश प) म सध उठे तो अचानक ही दीघ आयु क किवता का ज म हो
जाता है।’
किवता या किवकम व तुतः श द, अथ और मम क अंत:ि या है। श द म नये अथ भरना किवकम
है, लेिकन बाज़ार पर आि त सामािजक यव था ने हमारी सवं ेदना को भोथरा कर िदया है। ‘ तीक बन कर कौन
मरता है’ किवता का यह अंश देिखए :
कहां रह गये ह श द के अथ
बड़े-से-बड़े अथ, अब अथ कहां रहे
िसर से पांव तक िभगो दे जो श द
ऐसे श द के मम अब कहां खो गये ह
नज़र म ‘नज़र’ अब नज़र नह आती
ग़ायब है चेहर म से चेहरा
चु पी का अथ िकसी को सनु ायी कहां देता है
झकु े हए हाथ न उठते ह, न उठाते ह।
किव जन सामा य क पीड़ा को वाणी देता है। स ा के दमन के हर प से वह हम पहचान कराता है। चाहे वह श द
क स ा ही य न हो? यव था के गभ म िहसं ा पलती है। किव ‘इ यािद’ किवता म श द क स ा और िहसं ा को
उजागर करता है। किव का श द-िवधान हम िहसं ा के सू म प क पहचान कराता है :
उपे ा क मार से छटपटाते
सैकड़ श द म से एक है (इ यािद)
िकसी के मंहु से सनु ते ही
िहसं ा क आहट सनु ायी देने लगती है
िहटलरशाही क बू उड़ने लगती है
लगता है जैसे ण-भर म
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 83
असं य लोग का क़ ल कर िदया गया हो
...
इस श द क छाया पड़ते ही
आदमी दिु नया से ग़ायब हो जाता है
भलु ा िदया जाता है उसका जीवन-सं ाम
तोड़ सको तो तोड़ दो इस श द का ितल म
इस का य-सं ह म किव ने अपने समय और समाज को लेकर गहरी िचंता और कशमकश को वाणी दी है। किव के
अनसु ार यह व त समाज म या िवसगं ित और िव ू पता से मठु भेड़ करने का है। ‘िसर उठाओ, बंध’ु किवता म
किव कहता है : ‘सामने नाचते अंधकार से / नज़र चरु ा लेने का व त नह है यह’। म यवग य वाथपरता और
कायरता को किव िध कारता है तािक हमम जीवन और समाज के ित अपने उ रदािय व का बोध हो सके । अपने
को सरु ि त रखने क अवसरवादी मानिसकता और क छप वृित का उ ाटन ‘मझु े बचाओ किवता’ म हआ है :
जीवन भर अनेक मौक़ पर
लड़ने से, अड़ने से बचा बचाकर
हमने अ तरा मा क अतल गहराई म
असरु ा का बीज बो िदया
हाय रे जानलेवा वाथ
धम क स ा और उसक वा तिवकता हमसे पारंप रक मा यताओ-ं िव ास क जांच क मांग करती है। बिल क
था का समथन कोई भी स य समाज नह कर सकता है। सिदय से धम के नाम पर हो रहे अ याचार किव को
अ वीकार ह। अपनी किवता, ‘कामा या मिं दर के कबतू र’ म वे कहते ह :
हर साल क तरह इस साल भी
तािं क के हाथ बिल चढ़ गये ब चे
यह सिदय क परंपरा है
मां कामा या देवी को पि य के ब च का
तरोताज़ा खनू ही पसदं है
...
ह या क स ा यहां सिदय से क़ायम है
िहसं ा क खेती लहलहा रही है वष से
काल रात िदन तांडव नृ य करता है
चलते-िफरते मदु यहां खनू पीकर जीते ह
पढ़ी-िलखी भड़े यहां जीवन भर सड़ती ह।
रघवु ीर सहाय ने किव-कम को राजनीित-कम माना था। देश म सां दाियक राजनीित और लोकतािं क-मू य के
पतन को किव ने अपनी किवता का िवषय बनाया है। गौरी लक
ं े श क ह या क गयी थी, य िक कुछ िफ़रकापर त
को उनक गितिविध आहत करती थी। गौरी लक ं े श क शहादत को समिपत किवता का शीषक है- ‘मौत का नया
पता’। उसक कुछ पंि यां आपक नज़र ह :
मौत अब तु हारी सांस पर दावा करती
त हारी धड़कन को छीनती हई आयेगी
यह मौत तु हारे हर सही क़दम के िख़लाफ़
िनणायक फ़ै सले क तरह आयेगी।
84 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
म सीखता हं ब च से जीवन क भाषा का य-सं ह के किव ह : आलोक कुमार िम ा। यह का य-सं ह ‘ कूल क
या ा’ क का या मक अिभ यि है। किवता म वृ ातं या आ यान के सं ेषण और भाव के सं ेषण म अतं र होता
है। यह अंतर कथा और किवता क भाषा म िदखता है। का यानभु िू त के सं ेषण म हर बार कुछ कहा जाये, यह
ज़ री नह । कभी तो किव के वल एक भाव, य, छिव आपके सामने रखकर चपु हो जाता है। हम पाठक- ोता
अपने िहसाब से उसे देखने-समझने के िलए वतं होते ह। इस सदं भ म किव आलोक क ‘पणू , संदु र, लाजवाब’
शीषक किवता देिखए :
क ाम
जब हो जाता हं पानी
ब चे बन जाते ह मछली
और तैर जाते ह मझु म
इस छोर से उस छोर तक
जब म बन जाता हं हवा
वो घल ु जाते ह मझु म
बनकर खश ु बू और
फै ल जाते ह हर तरफ़
...
इस तरह
रहकर हमेशा साथ
करते ह वो मझु े
पणू
सदंु र और
लाजवाब
इस किवता म क ा के प रवेश को य िकया गया है। क ा म अ ययन-अ यापन क ि या म या आ मीयता
को अनेक िबंब के मा यम से तुत िकया गया है। यह आ मीयता क ऊ मा जो आलोक कुमार िम ा क
किवताओ ं म िमलती है, यह उनके अ यापक य-जीवानभु व क उपज है। किव अपने समय, समाज और प रवेश को
अपनी किवता म रचता है। यह रचना हमारी समझ को प र कृ त करती है। दिु नया को देखने के नज़ रये को और
सवं ेदनशील बनाती है। आलोक क किवता को समझने के िलए हम एक बार पनु ः ब चा बनना पड़ता है। ऐसा नह
िक आलोक क किवताओ ं म समकालीन राजनीित, स ा-शासन क िवसगं ित, िवभाजन क राजनीित क उपे ा
है। िश ा यव था भी राज, समाज म या बीमारी से त है। ‘सािज़श’ किवता देिखए :
हज़ार कूल
लाख िश क िशि काएं
करोड़ िकताब
अरब पय का बजट
असं य यास
कहने को
क म ब चा
पर असल म
उ ह मनचाहे सांचे म
ढालने क कोिशश
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 85
राज समाज क
आलोक अपनी किवताओ ं के मा यम से कूल और उसके प रवेश का जीवंत िच तुत करते ह। किवता के
बहाने किव कूल के वातावरण को एक नये ढंग से देखने-समझने का हम अवसर उपल ध कराते ह। वे िश ा,
िश क, पढ़ना, पढ़ाना जैसे पारंप रक श द के नये मायने हमारे सामने पेश करते ह। किवता म कुछ नया जड़ु ता है
तभी वह किवता कहलाने क अिधकारी बनती है। इन किवताओ ं म ‘गु कु हार िश य कंु भ’ जैसी पारंप रक
मा यताओ ं को पनु ः जाच
ं ने-परखने क कोिशश है तो खेती-िकसानी का नया पक गढ़ने क कोिशश भी आप देख
सकते ह। ‘क ा म चाक’ किवता का यह अंश देिखए :
क ा म चल रही है चाक
पर यान रहे
िम ी नह ह ब चे
कु हार नह है िश क
दरअसल दोन म
दोन सने ह कुछ-कुछ
एक दसू री किवता ‘म करता हं खेती’ का अंश देिखए :
म करता हं खेती
जोतता हं मन को
क फाल से
स चता हं उसे
ेम, समता, वतं ता
क धार से
बोता हं अ र के बीज
िवचार के पानी म िभगोकर
अवसर क खाद
डालता हं हर दम
िछड़क कर तक काटता हं
उग आये िवकार को
इस तरह
लहलहा उठता है ान
ब च म िनिहत
सभं ावना क िम ी म
आलोक क किवता हमारी ढ़ हो गयी िश ण-प ित को चनु ौती देती तीत होती है। ‘हट जाता हं दायरे से’
किवता म िश क क भिू मका िजस आदश ि थित को य करती है, वह हम वतमान िश ा- यव था क
िवसगं ित पर िवचार करने को िववश करती है। यही किवता क उपलि ध हो सकती है िक वह आपको झकझोर के
रख दे। कूल-क ा म एक िश क क भिू मका या होनी चािहए, किव के श द म देिखए :
म िश क हं
पर आपको या लगता है
िक म पढ़ाता हं
या िक ब च के िदमाग़ म
ान और िवशेष ता भरता हं
86 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
नह , िब कुल नह
म तो बस उ ह
थान, समय, स मान और
मौक़ा देता हं
उनके अंतस म धसं े
ितभा के बीज को
अकं ु रत करने के िलए
हटाता हं यवधान
डालता हं थोड़ा अपनेपन का ताप
ेम का जल, समय क खाद
और िफर हट जाता हं
उनके दायरे से
िजससे वे फल-फूल सक
अगर िश क इस रीित से अपनी क ाओ ं म पढ़ाते ह , तो ब चे का िखलना लािज़मी है। किव कहता है :
मौक़ा िमलते ही ब चे खल ु ते ह
िकसी पोटली क तरह
और िबखर जाते ह क ा म
बनकर खश ु बू
महका देते ह आसपास क नीरसता को
वे फै ल जाते ह हवा क तरह
घलु जाते ह रग-रग म
जीवन बनकर
आलोक क किवता कूल और उसके प रवेश को अपने का यानभु िू त का क बनाती है। इस का य-सं ह म ‘ऋिष
वैली कूल म‘ शीषक से तीन किवताएं ह। किवताओ ं क भाव- यजं ना से प होता है िक किव के मानस पर इस
कूल के वातावरण का ज़बद त भाव पड़ा है। पाठक अपनी सिु वधा के िलए कह सकते ह िक किव के आदश
कूल क क पना का आधार ऋिष वैली कूल हो सकता है। इसक वजह को आपसे साझा करता है किव अपनी
किवताओ ं म। किवता ‘ऋिष वैली कूल म-1’ म किव आपको कूल के अहाते म ले जाता है और िदखाता है :
सब अलग है यहां
इमारत, सोच, लोग और
उनके तरीक़े भी
यहां कुछ पढ़ाया नह जाता
बस उगाया जाता है
देकर
नेिहल पश का ताप
अवसर क खाद
जड़ु ाव का पानी
और िफर
सभं ावनाओ ं क ज़मीन पर
लहलहा उठते ह ब चे
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 87
किव का आदश कूल देख लेने के बाद अब वतमान यथाथ ि थित से भी िमल लेते ह। एक किवता का शीषक है
‘िमड-डे-मील से ठीक पहले’, इसम ब चे और उनक भख ू का सदं भ आता है। जैसा िक हम पता है िक िमड-डे-
मील का ावधान ग़रीब ब च को यान म रखकर बनाया गया है। भख ू के कारण मील के पी रयड तक ब चे पढ़ने
-समझने क मता खो देते ह। भारत के भिव य के िलए यह ासद है। एक दसू री किवता है िजसम एक ब ची
कूल फ़ स जमा नह कर पाने का कारण अपने िश क से साझा करना चाहती है लेिकन य तता के कारण िश क
उस ब ची क बात नह सनु ता है। किवता के मम तक किव हम पहचं ा देता है :
अब वह कमरे से बाहर जाने लगी
पर जाते-जाते दे गयी: सीख
यह कहकर िक-
आिख़र मझु से ज़ री या काम है?
किव आलोक अपनी किवताओ ं के मा यम से हम िश ा- यव था क वतमान ि थित मे -ब- कराता है, साथ
ही उस बदलाव क ओर सक ं े त करता है िजससे यह यव था बेहतर हो सके । 'बोता हं अ र के बीज' के किव क
सफलता इसम है िक वह ‘जोतता है मन को क फाल से’।
मो. : 7042855380/ 9250296372
पु तक सदं भ
1. धूप ितजोरी म नह रहती : िवनय िव ास, नयी िकताब काशन, नयी िद ली, 2019
2 . पुकारता हं कबीर : भरत साद, अमन काशन, कानपरु , 2019
3. म सीखता हं ब च से जीवन क भाषा : आलोक कुमार िम ा, बोिध काशन, जयपरु , 2019
88 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
उप यास चचा
कभी कभी ऐसा होता है िक िकसी उप यास को पढ़ना रोचक होता है, लेिकन जैसे ही आप उसका मू यांकन करने
बैठ, किठनाई आ जाती है। रोचक और सरल-सी लगनेवाली रचना अचानक अथ के तर पर जिटल हो जाती है।
`आिख़र इसे कै से समझ?’- यह सवाल सामने आ जाता है । राजू शमा के उप यास, क़ ल ग़ैरइरादतन के साथ भी
यही होता है । थम या तो लगता है िक यह उप यास एक अपराध-कथा है और सटीक प से कह, तो एक
ह या-कथा, लेिकन जैसे जैसे इसक कहानी आगे बढ़ती है वैस-े वैसे पाठक को लगता है िक वह एक ऐसे
इं जािलक भवन म आ गया है िजसके मु य ार पर जो नेम लेट लगी है वह कुछ सक ं े त कर रही है, मगर भीतर के
य कुछ अलग ह। दसू रे श द मे कह तो यहां ऐसी अपराध कथा है िजसम अपराध करने वाला तो शरीफ़ बदमाश
लगने लगता है और याय करनेवाली सं थाएं खलनायक क तरह हो जाती ह। खलनायक भी ऐसा जो ऊपरी तौर
पर पिव क मािनंद है लेिकन उसका अंतर िवकृ ितय से भर गया है। आप कहगे यह तो उलटबांसी है। िकंतु यह
उलटबांसी है तो भी या हज़ है? या मा कबीर या नाथपंथी योगी ही उलटबांसी रचते थे? हमारे समय म भी तो
उलटबांसी रचनेवाले ह।
यह उप यास यही तीित कराता है िक िफ़लहाल जो भारतीय तं है उसके यथाथ को उलटबांसी ही
सामने लाती है। िजसे आप याय क ितमिू त (या यायमिू त)) समझते ह वही सबसे बड़ा अ यायी है और जो
िवकास करने का दावा कर रहा है वही िवनाश पु ष है। नाथपंथी योिगय और कबीर क उलटबांिसय को अभी
तक का यशैली समझा गया है। कम से कम िव िव ालय म ऐसे ही उनक या या क गयी है, लेिकन उ ह ने जो
बयान िकया वह िसफ़ का यस य नह था। वह एक यगु स य भी था। सावयगु ीन यगु स य। उलबांिसय का युगस य
उनके रचनाओ ं के पवू भी मौजदू था, रचनाकाल के दौरान भी था और आज भी है। बस कबीर और नाथपिं थय ने
उसे य करने क एक का या मक शैली ईजाद क । क़ ल ग़ैरइरादतन हमारे उलटबांसीमय वतमान को ितिबंिबत
करता है।
अब ज़रा उप यास क तरफ़ लौट।
या ऐसा हो सकता है िक अपराध कोई करे और सज़ा िकसी और को िमले? या बेगनु ाह ही अपराधी
करार िदया जाये? या ऐसा होने क आशक ं ा हो? होना तो नह चािहए। य िक चाहे कै सा भी यायतं हो िनद ष को
सज़ा नह होगी; भले ही दस गनु ाहगार छूट जाय। यही माना जाता रहा है। आिख़र हर देश म यायतं कुछ मू य पर
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आधा रत होता है। एक सिं वधान होता है जो सै ांितक तर पर यह सिु नि त करता है िक अ याय न हो। पर या
यावहा रक तर पर यह सभं व हो पाता है? आज भारत ही नह दिु नया के कई देश म यायतं क धि जयां उड़
रही ह। िजन सं थाओ ं पर यह दािय व था (और कहने को अभी भी है) िक उनका यवहार भी ऐसा हो रहा है जैसे वे
इसं ाफ़ के आवरण म बेइसं ाफ़ करने पर तल ु ी ह। िवधाियका, कायपािलका और याय पािलका- िजन पर आधिु नक
रा का ढांचा िटका माना जाता है, न िसफ और पथ यतु हो गयी ह बि क अ यायी ताक़त क सहयोगी बन
गयी ह। आज कोई जन ितिनिध इसिलए नह बनता है िक जनता के िहत क देखभाल करे गा (या करे गी) बि क
िनिहत वाथ के िसिं डके ट म शािमल हो जाये इसिलए जन ितिनिध चनु ा जाना चाहता है। राजनीितक दल भी धीरे
धीरे और कमोबेश कॉरपोरे ट क तरह हो गये ह जो िकसी अ य कॉरपोरे ट क मदद भी करते ह और उनसे उनक
ित िं ता भी होती है।
और यायपािलका और कायपािलका क तो मत ही पूिछए। वे भी राजनीितक आक़ाओ ं को सतं ु करने
म लगी ह। कहने को यायपािलका वंतं है लेिकन िकतनी? आम जन इसे रोज़ ही महससू कर रहा है। राजू शमा
का उप यास, क़ ल ग़ैरइरादतन भारतीय नौकरशाही और यायपािलका म आयी और बढ़ती जा रही िगरावट को
साफ़ साफ़ लि त करता है। िज़ला तर पर नौकरशाही िकस तरह दबाव , लालच और ाचार म आकंठ डूबती
जा रही है और सरकारी अिधकारी धीरे धीरे मश: दलाल के प म प रवितत होते जा रहे है – इसको यह रचना
बड़ी गहराई से िदखाती है। और ऐसा भी नह है िक अिधकारी जान बझू कर ऐसा कर रहे ह। उनके ऊपर दबाव भी
ऐसे ह िक फ़ज़ चीज़ करने को िववश होना पड़ता है तािक नौकरी चलती रहे। एक दबाव तो ऊपरी स ा का होता है
जो नौकरशाही के सामने ऐसे ऐसे ल य रखती है िक वह आक ं ड़ेबाज़ी का खेल करके ही अपने को रा य स ा के
सामने कुशल और स म सािबत कर सकती है। अगर सरकार िवकास करने का दावा करती है तो अिधकारी यही
िदखाने म जी जान लगा देता है िक `िवकास हो गया’ या `घर घर पहचं ’ गया।
दसू रा दबाव राजनीितक होता है। यानी िजस पाट क रा य स ा है उसके सामने झक ु कर और उसके
आगोश म पड़कर ही अिधकारी अपने को सरु ि त समझता है। और एक बार जब वह अपने को सरु ि त महससू
करने लगता है तो उसक अपनी िल साएं बढ़ जाती ह और वह धीरे धीरे खदु अपना एक वाथयु तं िवकिसत
कर लेता है या ऐसा करने क कोिशश करता है।
राजू शमा, जो खदु भारतीय शासिनक सेवा म रहे ह, नौकराशाही के तं को बखबू ी जानते ह। इस
उप यास म वतमान भारतीय नौकरशाही के उस ढांचे को सामने लाया गया है जो भीतर से नैितक तर पर घिटया
और खिलत हो गया है। इसमे क ीय पा सदाकांत अनक ु ू ल शा ी है, िजसे उप यास म मु य प से कांत कहा
गया है, हालािं क उसक प नी पायल उसे कुछ यार से और कुछ यं य से सैडी कहती है। अब भला सैडी भी अपनी
प नी को एक यार भरा नाम य नह देगा? सो वह उसे जोई कहके बल ु ाता है। कांत का एक दो त है जो सरकारी
अिधकारी भी है। नाम है मक ु ुं द, िजसे कांत िमक नाम से संबोिधत करता है। िमक एक बेहद धतू , कुिटल और
अिधकारी है। वह अपनी प नी अपे ा के नाम से एक एनजीओ भी शु कर देता है और कांत को बताये िबना या
उसके धोखे म रखकर उसके मा यम से सरकारी ांट भी हड़प लेता है।
वैसे तो कातं एक ईमानदार अिधकारी है। पर या वह भी आिख़र तक एकदम िन कलषु रह पाता है?
वह सीधे सीधे ाचार तो नह करता लेिकन अनजाने या असावधानी से उससे एक क़ ल हो जाता है। जारा
अफ़रोज़ नाम क छोटे तर क सरकारी कमचारी का। और इस ह या के शक म पकड़ा जाता है िमक । हालांिक
िमक है लेिकन यह क़ ल उसने नह िकया है। या कांत उसक मदद करे गा? आिख़र जारा क मृ यु तो उसके
हाथ हई है? लेिकन नह । कांत िमक क मदद नह करता बि क तर क़ पाकर रा य क राजधानी म चला जाता
है।
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वैसे तो कांत उस तरह का नह है जैसा िमक है लेिकन वह नौकरशाही मे सीिढ़यां चढ़ते चढ़ते
आिख़रकार नैितक खलन का िशकार हो जाता है और उन व स जी क कोई मदद नह पर पाता जो दिलत ,
आिदवािसय और समाज के कमज़ोर तबक़ के िलए सघं षरत ह और िगर तार होकर जेल क हवा खा रहे ह।
उनको ज़मानत भी नह िमलती। वह कै लाश जी नाम के उस श स के आगे पीछे डोलता रहता है जो िहदं वू ादी सघं ी
है और पाखडं ी भी। हालांिक वह मश: कै लाश से दरू होता जाता है लेिकन व स जी से भी परू ी तरह जड़ु नह पाता
िजनको वह अपना आदश मानता है। य ? इसिलए िक कै रयर यारा है।
यह उप यास यह भी िदखाता है िक हमारी परू ी रा य यव था ऐसी होती जा रही है िजसम इसं ाफ़ नाम
क चीज़ धीरे धीरे नेप य म जा रही है। हक़ मांगनेवाली सं थाओ ं और उनसे जड़ु े लोग को अवमिू यत और
बदनाम िकया जाता है। ऐसा चा रत कराया जाता है िक वही असली गनु हगार ह, अपराध उ ह ने िकये ह। व स जी
को यायालय भी क़सरू वार क तरह देखता है। या यह सब वतमान भारतीय यायव था भी नह कर रही है?
क़ ल ग़ैरइरादतन म इन सबको लेकर एक गहरा मथं न है। इसके पा के मन म उप यासकार िजस तरह
वेश करता है, उनके धतू व चालाक मनोभाव को कट करता है वह पाठक को कई थल पर ठहरा देता है।
इसिलए िक वे ठंडे होकर इनको समझ सक िक मनु य-मन के िकतने तर ह। उप यासकार ने कबीर क
उलटबािसय के अलावा नामदेव ढसाल और बट ट े क किवताओ ं का योग िकया है तािक यह रचना िसफ़
यथाथवादी न रह जाये और एक का यानभु िू त भी बन जाये।
यह एक राजनीितक उप यास है जो अपराध कथा के लबादे म ढंका हआ है।
पु तक संदभ
1. क़ ल ग़ैर इरादतन : राजू शमा, सेतु काशन, नोएडा, 2020
2. वैधािनक ग प : चंदन पांडे, राजकमल काशन, नयी िद ली, 2020
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उप यास चचा
ज़िकया मशहदी का लघु उप यास पारसा बीबी का बघार 2018 म िद ली म एजक ु े शनल पि लिशगं हाउस से
कािशत हआ। यहां म इसी लघु उप यास का प रचय कराना चाहती ह।ं खदु ज़िकया मशहदी का कहना है िक इस
उप यास के ज़ रये वे उस औरत क तलाश म िनकली ह िजसको वे 'पारसा बीबी' का नाम देती ह, िजसको वे कई
पीिढ़य से देख रही ह, और हर नयी पीढ़ी म उसका प बदलता गया, िफर भी वह अपने मल ू के साथ मौजदू है.
उप यास के ा कथन म वे िलखती ह :
पारसा बीबी क कहानी सचमचु मेरी अपनी दादी ने सनु ायी थी, और मेरी वािलदा (मां) ने आधे घघंू ट के नीचे
मु कुरा कर कहा था, ख़दु ा का शु है हमारे घर म घी क कमी नह है. और बस. लेिकन उस व त बहत से घर
म घी क कमी थी और पारसा बीिबय क बहतायत... मेरी न ल चॉकलेट क जगह घर के बने शकरपारे और
गाजर का हलवा खाती और गिु ड़य से खेला करती थी. अब म ब च को मोबाइल और लैपटॉप पर गे स खेलते
और कुछ सरू त म अ ील िफ़ म देखते हए देख रही ह।ं इस भीड़ म, टे नोलॉजी क इस तर क़ म पारसा बीबी
कहां है? उसम िकतनी त दीिलयां आय ? मने बड़ी लगन और यान के साथ उसे ढूंढ़ा और िजस प म पाया,
उसे यहां उतारने क कोिशश क है।
यह दिु नया य ही चलती है िवशेषत: औरत क दिु नया—अपनी सु त-र तार बेदारी और रे डीकल फ़े िमिन ट
आदं ोलन के बावजदू पारसा बीबी का सघं ष आमतौर से रसोईघर और घर सभं ालने तक ही सीिमत रहता है। वे
औरत जो आंदोलन करती ह और सड़क , चौक और फ़ुटपाथ पर दशन करती ह, शाम को घर लौट कर अपने-
अपने यारे पित और िजगर के टुकड़ के िलए पारसा बीबी बन जाती ह। घर जा कर वे 'अरहर क सनु हरी सनु हरी
दाल' बघारती ह िजसक स धी ख़श ु बू से आसपास के घर सगु िं धत हो जाते ह। कह उनक ख़िू बय और सघु ड़पन
का गणु गान िकया जाता है, कह देवी बना कर पजू ी जाती ह। या िफर इसका उलट भी होता है। अगर बघार जल
जाये तो? इस फूहड़पन पर वे गािलयां भी खाती ह, लात घसंू े भी।
घर के ‘सरु ि त’ पिव वातावरण और घर के बाहर असरु ि त समाज म कभी देवी और कभी डायन के
े म म जड़ी हई ये औरत आिख़र ऐसा या कर िक इन दो पर परिवरोधी पहचान के े म से िनकल कर जीती-
जागती ह ती बन जाय? ऐसा या कर िक पु ष धान नैितकता के पैमाने और अपे ाओ ं को बदल डाल तािक
के वल इसं ान बनी रह सक? अपनी सारी शि और कमज़ोरी के साथ समाज म वे भी इसी तरह वीकार क जाय
जैसे पु ष को वीकारा जाता है? इससे ज मी घटु न म, जो के वल उ ह के िलए िविश है, वे कौन सा तरीक़ा
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अपनाय िक उनक िज़ंदगी म भी थोड़े सक ु ू न और थोड़ी फुरसत क कुछ ऐसी घिड़यां मय सर आ जाय िजनम वे भी
अपनी पसदं के काम कर सक? चाहे सैर-सपाटा हो, चाहे कागज़-क़लम, या िकताब, या श से िच उके र—कुछ
भी—जो भी जी म आये। आज़ादी क भावना के साथ। सक ु ू न और एका ता के कुछ पल।
नारी-जाग कता के िविभ न आयाम म िव ोही औरत का सघं ष शायद अपने िह से क इ ह कुछ
घिड़य के िलए रहा होगा तािक वे अपने िलए समाज म कोई थान, कुछ ित ा कमा सक।
हमारे देश म 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ' को एक लो ि य नारा बनाया गया है, िजसका चार- सार
सरकार बड़े पैमाने पर औरत के सशि करण के िलए कर रही है। लेिकन ज़ािहर है इस नारे क श दावली म ही यह
इशारा िनिहत है िक हमारे समाज म औरत क सम या ‘बराबरी’ के दज से कह यादा ‘अि त व’ क है। अभी
कुछ साल पहले (5 िसतंबर 2017) िनडर सहाफ़ गौरी लक ं े श को गोली मार दी गयी। िसफ़ इसिलए िक उसके पास
अपनी एक आवाज़ थी, वह एक आज़ाद और बेबाक राय क मािलक थी, उसे समाज पर आलोचना मक नज़र
डालना आता था और वह अपनी राय को य करना जानती थी। उ ही िदन सोशल मीिडया पर िकसी ने उ नारे
पर तज़ं कसा था—
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ. पढ़ िलख कर यादा बोले तो गोली से उड़ाओ।
तो यह है हमारा समाज िजसने बहत ‘तर क़ ’ कर ली है, और औरत को अपनी पसदं क िज़ंदगी चनु ने
क बहत सी ‘आज़ािदया’ं दे दी ह। उनक ये आज़ािदयां बधं ी हई ह।
टकराव और वगसघं ष क इस दिु नया का एक अजब पहलू यह है िक जाग कता और ज ोजहद िजतनी
बढ़ती है, समाजी दबाव का जाल उतना ही पेचीदा होता जाता है, कसता जाता है। ख़ासतौर से जाग क और बेदार
-ज़हन मिहलाएं ख़दु को ऐसे दलदल के बीच फंसा पाती ह िजसम से िनकलने क हर कोिशश उ ह और अिधक
गहराई म धसं ा देती है। उनके िलए दलदल का यह जाल िकसने रचा? य रचा? उनक गल ु ामी से कौन से िहत पल
रहे ह? इन सवाल के जवाब शोषण क िजस य था तक ले जाते ह उसक नज़र म औरत क जाग कता इसी
तरह का एक बड़ा ख़तरा है जैसा िक ग़रीब , दिलत , आिदवािसय , बि क अ याय झेल रहे हर वग के महकूम क
जाग कता ख़तरा बन जाती है। ऐसे म सघं ष—अि त व क जगं —तो जारी रहेगा ही।
ये और ऐसे ही सवाल शायद उन सबको सताते ह जो आंख खोल कर दिु नया क लीला देखते ह।
ज़िकया मशहदी का उप यास, पारसा बीबी का बघार मने इसी सश ं य के साथ पढ़ना शु िकया िक देखंू औरत के
अि त व और आज़ादी के बिु नयादी सवाल को वे िकस नज़र से देखती ह, िवशेषत: इसिलए भी िक उ री भारत
क हम सब औरत क तरह ज़िकया मशहदी ने भी समाज क कड़ी कमान के तीर जैसी परंपराओ ं और पाबिं दय म
रह कर अपने िलए अपने िह से का एक गोशा तराशा है। अपना गोशा तामीर करने म अ सर या क़ मत अदा
करनी पड़ती ह, अपनी शना त बनाने म िकतना ख़नू पसीना एक करना पड़ता है, उसक भी एक अलग कहानी
होती है जो यादातर अनकही रह जाती है। लेिकन यही या कम है िक औरत अपने-अपने गोशे तराश रही ह—
अपने िह से का एक आसमान िजसम वे आज़ादी से उड़ान भरती ह।
समाज के जलते हए सवाल को ज़हन म रखे िबना सािह य को पढ़ना मेरे नज़दीक व त-गज़ु ारी क
ि या से यादा कुछ नह । और व त-गज़ु ारी ही करनी हो तो आख ं का तेल टपकाने के बजाय बाक़ दिु नया क
तरह तफ़रीह के यादा आसान और स ते रा ते य न अपनाये जाय? पढ़ना एक संजीदा काम है, ज़हन के िज़ंदा
होने का सबतू है। यह हमारे सामािजक जीवनयापन से सीधा सरोकार रखता है। हम यादा सवं ेदनशील, यादा
दािनशमदं बनाता है। इसीिलए अ छे सािह य क जु तजू अपने आप म एक िजहाद बन जाती है। कोई अ छी
िकताब िमल जाये तो वह ऐसी ही है जैसे रे िग तान म भटकते यासे मसु ािफ़र को पानी का च मा नज़र आ जाये।
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ज़िकया मशहदी जैसे अदीब क तहरीर हमारे िलए ऐसा ही आब-ए-हयात बन जाती ह। इसम शक नह िक ज़िकया
मशहदी उदू िफ़ शन क बहत मोतबर आवाज़ ह। उनक कोई कहानी जब भी पढ़ी तो उसने बेचनै भी िकया,
मस र भी— य िक वे महज़ कहानी नह िलखत , बि क हमारे समाज के िकसी न िकसी पहलू पर एक बेदार
ज़हन और सवं ेदनशील अदीब का र -ए-अमल पेश करती ह। वे सोचना िसखाती ह, और इतनी िह मत और
हौसला रखती ह िक मां जैसी पेचीदा और परंपरा को तोड़ती कहािनयां िलख सक। उनक तहरीर क खिू बयां एक
िज़ंदा िफ़ शन म िज़ंदा समाज क तीक बन जाती ह।
पारसा बीबी का बघार उ र भारत के म यम वग के मिु लम घराने के बदलते हए मू य और सघं ष क
कहानी है। मू य म त दीली क र तार और ि या को िदखाने के िलए ज़िकया मशहदी ने चार पीिढ़य क
औरत को तजमान ु बनाया है—मु य पा (क़मर), उस क दादी और अ मा, और बाद म ख़दु उस क बेिटयां
रज़वाना और इमराना। दादी तो िहदं ो तान म औरत के हज़ार साल के अतीत क नमु ाइदं ा ह िजनके नज़दीक
औरत का बिु नयादी काम अपनी ससरु ाल म बे-ज़बान ग़ल ु ाम बन कर रहना है, और क़मर क अ मा अपनी सास क
क पना के मतु ािबक़ जीने क कोिशश म उ गज़ु ारती ह। अलब ा बाक़ औरत अपने अपने समय म जीती ह और
उनके रवैये बदलते हए ज़माने के साथ आने वाली त दीिलय का ितिबंब ह। िश ा, कै रयर, मल ु ाज़मत, शादी,
पदा, फ़ै शन, घर से िनकलने क आज़ादी वग़ैरह ऐसे बिु नयादी मामले ह िजनसे हर घर ख़ानदान का वा ता पड़ता है।
क़मर और उसक बेिटय क कहानी म ज़िकया मशहदी इ ह मामल के हवाले से यह िदखाती ह िक ये बदलाव
िकस तरह के ह, उनके कौन से पहलू और प रणाम ह।
प है िक उप यास क िवषय-व तु नयी नह है, यह तो उनका कहानी सनु ाने का अदं ाज़ है जो हम बाधं
कर रखता है और दो पीिढ़य पहले के म यमवग य मिु लम प रवार के रहन-सहन और जीवन मू य से प रिचत
कराता है। िमसाल के तौर पर, जब न ही क़मर क मामी पहली बार उसक दो चोिटयां बनाती ह, तो दादी भला बरु ा
कहती ह। अ मा वैसे तो सास के सामने िबलकुल िम ी क मरू त ह लेिकन अपने मायके वाल को बरु ा-भला सनु ना
उ ह दख ु ी कर जाता है. वे क़मर को समझती ह:
हमारे व त म लड़िकय को मांग नह िनकालने देते थे। बग़ैर मांग िनकाले एक चोटी बंधा करती
थी... तो बेटा तु ह तो मागं िनकालने क इजाज़त है। य दो चोिटय क िज़द करके दादी क डाटं सनु ती हो
और ममु ानी को बरु ा कहलवाती हो।
इस िह से को पढ़ा तो जैसे ज़हन के िकसी गोशे म झमाका सा हआ। यह तो दादी का ज़माना नह , ख़दु
हमारे बचपन क कहानी है, जब हमारी चोटी बांधते हए अ मी ने यह बात बतायी थी िक उनके ज़माने म शरीफ़
लड़िकयां मांग नह िनकाला करत थ । साथ ही यह भी याद आया िक लड़िकय के िलए बाल कटवाना िकतनी
बड़ी बरु ाई थी। म शायद सातव दज म पढ़ती थी जब हमारी सं कृ त क टीचर ने कटे हए बाल वाली एक लड़क
को बाल ख च-ख च कर पीटा था और पीटते हए कहा था िक इस फ़ै शन को आग लगे, तुम लोग पढ़ने नह , फ़ै शन
िदखाने आती हो... िफर ह म िदया था िक कल से रबन डालकर दो चोटी बाधं कर आना। वह हमारी लास क
एकमा लड़क थी िजसके बाल कटे थे। बाक़ सब अनश ु ािसत पारसा बीबी थ और लाल रबन डाल कर दो
चोटी बनाकर कूल जाती थ ।
पढ़ते-पढ़ते यह भी याद आया िक औरत क आज़ादी और बदलते हए मू य और रवैय पर इिं तज़ार
हसैन क एक कहानी पढ़ी थी—'महल वाले'। इस कहानी म पारंप रक मिु लम प रवार म एक बाप ने आधिु नकता
िदखाते हए उ तानी बल ु ा कर बेटी को घर म ही पढ़ाया था तो ख़ानदान भर म इसे एक बग़ावत का क़दम समझा
गया था। लेिकन जब बेटी ने नयी काट के गले का जंपर सी कर पहना तो उसक मां क न द उड़ गय और उसने
झटपट बेटी के हाथ पीले करा िदये। यही बेटी जब मां बनी तो अपनी मां क तरह तंग-नज़र नह थी। उनके िमयां पढ़े
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-िलखे आधिु नक िवचार के आदमी थे। उ ह ने अपनी बेटी को सािहि यक पि का, इ मत तक मंगाने क इजाज़त
दी थी, और जब बेटी के नाम का रसाला डाक से आया तो मोह ले-भर म इस बेग़रै ती के चच हए िक महल वाल
क बेटी का नाम एक रसाले पर िलख कर आया है जो अजनबी अप रिचत लोग के हाथ से होता हआ पहचं ा है।
यानी यह परदे के िख़लाफ़ बात थी, लड़क का नाम भी पते पर िलखा जाये। आधिु नक ख़यालात के माता-िपता ने
इस जहालत को नज़रअंदाज़ कर िदया था, लेिकन जब मां को एक िदन बेटी के तिकये के नीचे िछपा हआ इ मत
चग़ु ताई क कहािनय का सक ं लन िमला तो उसक भी न द उड़ गय और उसने अपने शौहर से कहा िक कोई
अ छा सा र ता देखकर अब लड़क के हाथ फ़ौरन पीले कर देने चािहए। ज़ािहर है िक यह कहानी 'मिु लम
अिभजात वग क इसी कशमकश क कहानी थी िक बदलते हए मू य को िकस हद तक क़बल ू िकया जाये। अपने
व त के रोशनख़याल लोग भी, आने वाले समय के बदलते हए मू य को वीकार नह कर पाते और अपने ब च
क नज़र म सक ं ण िवचार वाले सािबत हो जाते ह। यह ऐसी हक़ क़त है जो हर ज़माने पर खरी उतरती है। ज़िकया
मशहदी के उप यास म भी यही कशमकश जा-ब-जा नज़र आती है। क़मर, जो तालीमया ता है, कूल म पढ़ाती है,
और िजसने एक आधिु नक ि कोण अपनाते हए अपनी बेिटय को आधिु नक िश ा और िवचार के साथ जीना
िसखाया है, कई बार यह महससू करती है िक वह ख़दु अपनी मां क तरह तंग-नज़र होती जा रही है।
यह कहानी बज़ािहर क़मर और उसक बेिटय क िज़ंदगी, उनक सम याओ ं और सघं ष क कहानी है।
लेिकन यह एकहरी या सपाट िब कुल नह है, बि क इन पा के वसीले से दरअसल म यम वग के बदलते हए
मू य और िज़दंगी क अ कासी क गयी ह। इसके अित र गंगा-जमनु ी तहज़ीब म िविभ न समदु ाय के आपसी
र त को भी ज़िकया मशहदी ने मािहराना सतं लु न के साथ कहानी म िपरोया है। क़मर क सहेली मीरा को बेिटयां
पैदा करने के सबब अपनी ससरु ाल म िजन तकलीफ़ से गज़ु रना पड़ा और उसक िज़ंदगी का बहत दख ु द अंत हआ,
वह िहदं ु तानी औरत क अिधक बड़ी सम याओ ं को यादा गहराई से रे खांिकत करता है।
कई पीिढ़य के िवचार और मू य म पर परिवरोध और टकराव क इस कहानी म िविभ न रंग और
लक र को ज़िकया मशहदी ने कामयाबी से उके रा है। यह एक यादगार और िदलच प रचना है िजसम गज़ु रे ज़माने
का नो टाि जया भी है और बदलते हए दौर म औरत के अि त व और उ मीद का ऐसा पैग़ाम भी जो हमारी उंगली
पकड़ कर हम आिह तगी से मु तक़िबल क क ती म सवार करा देता है और य एक नये सफ़र का आग़ाज़ होता
है।
मो. 9899920284
पु तक सदं भ
पारसा बीबी का बघार : ज़िकया मशहदी, एजुकेशनल पि लिशंग हाउस, िद ली, 2018
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कहानी चचा
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बहत गहराई से उजागर िकया है। बावन साल क उ म पित क मृ यु होने के बाद सोस मा चच म पसरे जाित दंश
के िख़लाफ़ अपनी आवाज़ बल ु दं करती है। चच म जाित के दशं के कारण का पता लगाने के िलए वह अपनी बहन
के घर जाती है, उसक बहन बहत ही कम उ क नन को दु काराती, फटकारती और सज़ा देती है य िक उस नन
ने इशु मसीह क मिू त को प छ डाला और पिव जल के याले और मोमब ी दान को छुआ। अपनी बहन के इस
आचरण से आहत होकर सोस मा चच जाना छोड़ देती है। ईसाइय के मोह ले से िनकाले जाने और तमाम तरह क
ताड़ना सहने के बाद भी सोस मा चच क स ता को ख़ा रज कर देती है। छह साल बाद सोस मा क िम आया
जब आइ ए एस बनकर वापस अपनी ब ती म आती है तो उसे पता चलता है िक फ़ादर और चच का िवरोध करते
हए सोस मा ने अपने घर म दम तोड़ िदया। ईसाई धम का नकार,चच क स ता का नकार और मानवीयता क
ित ा इस कहानी का मु य वर है।
नरू ज़हीर क यह ख़ािसयत है िक वे अपनी कहािनय म ऐसे ी पा क भी रचना करती ह जो पु ष
धान समाज ारा िनधा रत िढ़य और रवायत म बंध कर जीवन जीती ह और इस ि या म वे लगातार टूटन
का िशकार होती ह। 'त हाई भोजी' कहानी म ज़रीना है जो लदं न कूल आफ़ इकनॉिम स से पीएचडी करने के बाद
फ़ोड फ़ाउंडशन क ो ाम डायरे टर है, िजसका प रवार उसी क कमाई पर ऐश कर रहा है। यह प रवार पहले
तलाक़शदु ा औरत से शादी करने के िख़लाफ़ था लेिकन जब उ ह अ छा खाना पीना, रहने को बड़ा घर िमल जाता
है तो यही प रवार ज़रीना का गणु गान करने लगता है। ज़रीना साठ साल क उ म नौकरी से रटायर होने के बाद
अपनी आपबीती िलखती है और अमरीका म रह रही अपनी बेटी नरिगस को मेल कर देती है। अपनी िज़ंदगी क
ं को तोड़ने क कोिशश क ं ।’ कहानी पाठक
दा तां बताती हई वह िलखती है, ‘खदु को तोड़ने से बेहतर है, म साच
को बने बनाये सांच से बाहर िनकाल कर अपने िलए नये सांचे बनाने क ओर ले जाती है। ‘नाियका अिभसा रका’
क सलीमा पु षवादी समाज से ब ीस वष बाद अपनी आज़ादी पाकर खश ु होती है। अपनी इस खशु ी का इज़हार
वह क थक नृ य के मा यम से करती है। 'ज़ री माल' कहानी का क ीय पा नीरजा कसर से पीिड़त है। िकसी बस
म उसके इलाज क फ़ाइल गमु हो जाती है। उस फ़ाइल म रपोट, ए सरे वग़ैरह ह और उसी के िहसाब से नीरज़ा का
इलाज होना है। नीरजा के पित सधु ाकर को जब यह पता चलता है तो वह बौखला जाता है। वह इतना आ म त
और अहक ं ारी है िक कसर से पीिड़त बीमार प नी क फ़ाइल तलाशने के िलए हाथ पैर भी नह मारता। नरू ज़हीर ने
इस कहानी म आटो र शा के ाइवर का एक सकारा मक च र गढ़ा है। ाइवर को जब पता चलता है िक नीरजा
कसर जैसी भयानक बीमारी से त है तो वह अपना रोज़ा खोलने क बात भल ू कर तेज़ी से ऑटो बस टड क
ओर मोड़ता है। जब नीरजा मि जद म अज़ान क आवाज़ सनु कर उससे कहती है िक ‘मेरे पास फल ह बाबा, आप
रोज़ा तोड़ लीिजए’, तो वह कहता है, ‘रोज़ा तो आपके फल से तोड़ंगा लेिकन फ़ाइल िमलने के बाद।’ जब फ़ाइल
िमल जाती है तो नीरजा को बस ाइवर क बात याद हो आती है िक ’ज़ री माल सभं ाल कर रखना चािहए और
जान तो सबसे ज़ री माल है, सभं ाले रहना।’ तब उसे एहसास होता है िक उसक िज़ंदगी ही सबसे ज़ री माल है
िजसे उसे पु ष क ू र मानिसकता से बचा कर रखना है। एक सकारा मक च र को लेकर िलखी गयी यह कहानी
हम एक ऐसे िबंदु पर ले जाती है जहां संक णता और अहम यता के आगे मानवीयता और उदारता क जीत होती है।
'च कर िघ नी' कहानी तलाक़ के दश ं को झेलती सक ना क कहानी है िजसका शौहर उसे चार बार
तलाक़ देकर पांचवी बार िनकाह करना चाहता है। कहानी इ त, हलाला, तलाक़, िनकाह जैसे सवाल से गज़ु रती
हई क़ुरआन के ‘सरु ा-ए- िन सा‘ जैसे अ याय पर बिु नयादी सवाल खड़े करती है। कहानी यह रे खांिकत करती है
िक मिु लम समाज को भी अपने भीतर या कुरीितय जैसे तीन तलाक़, बह िववाह आिद पर वै ािनक ि कोण
अपनाना होगा और अपनी सोच से इन कुरीितय को बाहर िनकालना होगा ।
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सं ह क ये कहािनयां भारतीय मिु लम प रवार के अंद नी प रवेश म ि य क ि थितय को परू ी
जिटलता के साथ सामने लाती ह। साथ ही मिु लम प रवार म धािमकता और जड़ता िकतने गहरे तक समायी हई
है, सकं लन क कहािनयां इस ओर भी नज़र डालती ह। 'सड़क चलने लगी', 'दर बदर', 'मामल ू ी लड़क ’ जैसी
कहािनयां मिु लम प रवेश म ि य क ि थितय को नये कोण से देखने क पेशकश करती ह। कहािनय के पा
समय और प रि थितय के दबाव झेलते हए उस माहौल को बदलने क कोिशश म लगे रहते ह जो इन कहािनय
क एक ख़ािसयत है।
नरू ज़हीर पु ष धान समाज म ि य क ि थितय को मानवीय क णा क भावभिू म पर य करने
वाली कथाकार ह। उनक कहािनय के योरे और उनके कहानी कहने का अंदाज िवशेष प से उ लेखनीय है। वे
अपनी कहािनय म प रवेशगत ि थितय और पा क मनोदशाओ ं और कहानी के योर का ऐसा जीवंत और
मािमक वणन करती ह िक पाठक अनायास ही उनक कहािनय से बंध जाता है। वे बहत छोटे छोटे य और
सवं ाद के मा यम से कहानी का ऐसा तानाबाना बनु ती ह िक कहानी पाठक को उसक अपनी कहानी लगती है।
उनक कहािनय के कथानक सघन और िव वसनीय लगते ह। इस सक ं लन क कहािनयां मिु लम ि य को साच ं
म ढलने के िलए नह , बि क इन सांच से बाहर िनकलने और अपने िलये नये सांचे बनाने क तरफ़ भी इशारा
करती ह। जैसा िक मा स ने कहा था, दाशिनक ने तरह तरह से दिु नया क या या क है जबिक सवाल उसे
बदलने का है।’
आज के दौर म ऐसे कथाकार भी समकालीन कहानी म सि य ह जो जन आंदोलन से जड़ु े रहे और इस
आदं ोलन के साथ जो वैचा रक मज़बतू ी उ ह ने हािसल क , उस वैचा रक मज़बतू ी के साथ वे कहानी के े म
सि य ह। अंजली देशपांडे एक ऐसा नाम है िजनक कहािनय म वैचा रकता और सवं ेदना का अदभतु सामजं य है।
वे अपने कहानी सक ं लन, अंसारी क मौत क अजीब दा तान म पिु लसतं के आतंक क कहानी कहती ह।
कहानी म एक ोफ़े सर अंसारी है िजसम नक़ली िदल लगा हआ है। वह सफ़ू सगं ीत सनु ने के िलए अपनी प नी के
साथ एक सभा म जाता है और जब वह सरु ा जांच से गज़ु रता है तो वहां लगी मशीन से 'बीप' क आवाज़ सनु ायी
देती है। पिु लस उसे मानव बम समझ कर पकड़ लेती है। ोफ़े सर असं ारी और उसक प नी पिु लस वाल को सफ़ाई
देते ह िक वह आतंकवादी नह है, उसक छाती म नक़ली िदल लगा हआ है और जो तार देख रहे ह, वह िदल को
चाज करने वाली तार है, िकसी बम क नह । लेिकन पिु लस वाले उसक एक नह सनु ते और अंतत: उसक मौत हो
जाती है। कहानी पिु लस के काम करने के तौर तरीक़ और उसके आंतक को सामने लाती है। कहानी म अंजली
देशपांडे ने एक सदं भ को िलया है, एक ोफ़े सर ारा अपनी प नी सिहत सफ़ ू सगं ीत सनु ने जाना और पिु लस क
िगर त म आ जाना। इस सदं भ को अजं ली देशपाडं े हमारे आज के यापक प रवेश से जोड़ देती ह। पिु लस का
आंतक और एक सीधे सादे आदमी को मानव बम समझने क सोच, कहानी का क ीय वर बन जाते ह। यह
कहानी पिु लस तं और उनक कायशैली पर बहत बड़े सवाल खड़े करती है।
कहानी म सां दाियक सोच का एक धरातल है तो सां दाियक सोच का दसू रा धरातल उनक कहानी,
'भलू ' म देखने को िमलता है। 'भलू ' कहानी ेम-कहानी है, लेिकन इस ेम म िहदं ु तान के बंटवारे व मसु लमान के
ित भेदभाव के कई सगं समािहत ह जो कहानी को ताक़त देते ह। कहानी ीपाद और तसनीम जहान के ेम
सदं भ क है, िजससे कहानी क क ीय सवं ेदना बनती है। दोन कॉलेज म पढ़ते थे और इसी दौरान दोन म ेम
हआ। बटं वारे के दौरान तसनीम जहान कराची चली जाती है य िक उसके िपता रज़ाकार थे। तसनीम जहान के
पािक तान जाने के बाद ीपाद िहदं ु तान म रह जाते ह। इन दोन क शादी नह हो पाती। हालांिक ीपाद तसनीम
जहान से शादी करने के िलए कलमा पढ़ने को भी तैयार हो गये थे लेिकन उनक बहन छाया नह चाहती थी िक
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उसके भाई क शादी एक मिु लम लड़क से हो। अपनी बहन के इस यवहार से ीपाद ने उनसे अपना नाता ख़ म
कर िलया था। इस नाते के ख़ा मे के मलू म एक कारण और भी था और वह यह िक उसके बहनोई ने ही तसनीम के
िपता के बारे म पुिलस को ख़बर दी थी और उ ह िगर तार करवाया था। उ के आिख़री पड़ाव पर जब छाया क
बेटी आशा के यास से उन दोन क मल ु ाक़ात होती है तो वह मलु ाक़ात बेहद उदास और सपाट सी होती है।
कहानी इस ेम सगं के मा यम से िहंदु तान के बटं वारे को एक भल ू के प म याद करती हई कई सवाल हमारे
सामने खड़े करती हई एक िविश ट कहानी बन जाती है । कहानी के बीच बीच म िवभाजन के दौरान हए दगं व
रा वाद, मिु लम के ित वैमन य ,खल ु े िदमाग़ के लोग ारा भी दगं े करवाने, पािक तान के ित मज़ु ािहर का
मोह भंग जैसे कई ऐसे संग ह जो पर पर गथंु े हए ह। ये सभी सगं कहानी के क य को एक राजनीितक आयाम देते
ह।
सघं षशील ि य के सघं ष को कहानी म िचि त करने को कहानी के एक मु य वर के प म देखा
जा सकता है । उनक कहानी, 'हक़' को सघं षशील ि य क सोच और सरोकार को सामने लाने वाली कहानी के
प म देखा जा सकता है। कहानी ओिनमा और जैसन पथु पु ली के सबं धं क कहानी है, लेिकन उनके सबं धं के
साथ साथ असम आंदोलन को क म रखती हई त कालीन राजनीित को सामने लाती है। एक लंबे समय तक
असम म आंदोलन चला; इस आंदोलन म असम म बाहरी लोग , ख़ासतौर पर बां लादेश से आये लोग को बाहर
िनकालने के िलए कोिशश हई ं। कहानी क ओिनमा असम आंदोलन से गहराई से जड़ु ी है। वह एक पि का म जैसन
पथु पु ली के लेख को पढ़कर भािवत होती है िजसम असम के आंदोलन को जन आंदोलन कहा जाता है।
लेिकन जब उसे यह पता चलता है िक जैसन पथु पु ली एक बगं ाली है तो ओिनमा क सोच बदल जाती है। वह उसे
असम आंदोलन के िवरोधी के प म देखने लगती है। कहानी असम आंदोलन से जड़ु े अनेक तक से गज़ु रते हए इस
िन कष तक पहचं ती है िक ‘आंदोलन से कोई हल नह िनकला वही छा शासक बन गये।’ कहानी सवाल करती
है िक या पु के मीनार पर नौकाओ ं से वसल ू ी करने वाल का आंतक कम हआ था? या या पु के
िकनारे अपने हो गये थे? या या बाह रय से छुटकारा िमल गया था? कहानी म एक दसू रा तर ओिनमा के सबं ंध
का भी है जो बचपन म अपना घर, अपना हक़ छोड़कर िनकल गयी थी। आदं ोलन क िवफलता के साथ ही उसे
लगता है िक उसे अपना हक़ नह छोड़ना चािहए था। इस तर पर कहानी को एक नयी ऊंचाई िमलती है। अंजली
देशपांडे ने इस कहानी के क य के मा यम से आ ामक रा वाद के िजन भाव का रे खांकन िकया है, वे आज के
समय म और भी यादा सघन हो गये ह।
अंजली देशपांडे क 'असमान कहानी' ि य के वजदू और उनके वािभमान क कहानी है। कहानी म
ज़द चेहरे और बदरंग वचा वाली ी को धधं े वाली समझ कर एक पु ष ारा नोट िदखाकर लालच िदया जाता है
िक वह उसके साथ चले। नोट देखते ही ी का वािभमान जागृत हो जाता है और बात यहां तक बढ़ जाती है िक
दोन पिु लस टेशन पहचं जाते ह। ी चाहती है िक पिु लस उसक िशकायत दज करे लेिकन ऐसा हो नह पाता
और अंतत: र ना उस यि को पुिलस क मौजदू गी म एक ज़ोरदार थ पड़ मारती है। कहानी सवं ेदना के तर पर
र ना के साथ खड़ी होकर ी िवमश के तमाम दायर से अपने आप को मु करती हई ी के गौरव को क म
लाती है ।
अंजली देशपांडे क कहानी, 'रामचं जी का लचं ' रामलीला के पा के ित भि भाव तथा इस
भि भाव के ितकार क कहानी है। रामलीला के राम को अपने अपने घर म भोजन कराने क होड़ सी लगी
रहती है। तमाम औरत क तरह दीपा भी चाहती है िक रामलीला म राम का अिभनय करने वाला पा उसके घर म
भोजन करे , लेिकन उसके पास इतना व नह है िक वह दीपा के घर आ सके । कहानी म स या, राम के नाम से
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चली आ रही यव था का िवरोध करती हई कहती है िक ‘क़सरू हमारा है। हम ही भल ू गये थे िक आपने शबं क
ू क
ह या क है, हमारी िबसात या?’ कहानी म ि य ारा रामलीला म राम का अिभनय करने वाले पा को पजू ने,
उनके ित अपनी भि य करने के कई सगं ह जो कहानी को जीवंत और अथवान बनाते ह ।
आज क कहानी ामीण प रवेश म या पजंू ी और उससे उ प न िवसगं ितय के ऐसे अनठू े िच पेश
कर रही है जो कहानी क यापकता को बढ़ाते ह। यव था ारा िवकास का जो मॉडल पेश िकया जा रहा है आज
क कहानी उसे परू ी तरह नकार देती है । कै लाश बनवासी के कहानी-सं ह, किवता पेिटंग पेड़ कुछ नह क कहानी,
'िवकास क पतगं ' इस ि से उ लेखनीय कहानी है। इस कहानी म कै लाश बनवासी ने सहजता के साथ वतमान
शासनतं म एक सीिनयर इजं ीिनयर के जीवन के सदं भ को सवं ेदना मक तर पर सामने रखा है। कहानी के िवकास
देवांगन को जब आिथक मदं ी के कारण नौकरी से िनकाल िदया जाता है, तब उसके जीवन म सक ं ट का दौर शु
होता है। वह तमाम यास करता है िक िकसी तरह उसका जीवन सामा य प से चल सके , लेिकन ऐसा होता नह
है। वह चनु ाव भी लड़ता है और चनु ाव म हारने के बाद िफर से पाट आिफ़स म इस उ मीद से काम करने लगता है
िक कभी उसे भी कोई न कोई बड़ा पद सरकार म िमल ही जायेगा।
कहानी म कै लाश बनवासी ने िवकास देवांगन के च र के बारीक़ रे श को कला मक तरीक़े से ततु
करते हए यह सवाल उठाया है िक इस मदं ी के दौर म य ि के टर को करोड़ पय म ख़रीदा जा रहा है और
िवजय मा या क िकंग िफशर कंपनी म सैकड़ कमचारी हड़ताल य कर रहे ह और य उसका मािलक
मालदीव, मा रशस, िसगं ापरु , पटाया म सदंु रय के बीच कै लडर के िलए त वीर िखचं वाता है ? और य अरबपित
मािलक के जीवन म इस मदं ी का असर नह हआ? कै लाश बनवासी ने इस कहानी म िजन जीवन सदं भ को
उठाया है , वे आज क यव था से ही उपजे ह, जो बेहद दख ु दायक और ासद ह। इस कहानी का भाव इसिलए
भी यादा पड़ता है य िक इसम देश के लोग पर थोपी गयी मदं ी के कारण तबाह होती िज़ंदगी क त वीर देखने
को िमलती है। अपने जीवन को बेहतर बनाने क लालसा िवकास को पाट आिफ़स म ले जाती है जहां से भी उसे
िनराशा ही हाथ लगती है लेिकन एक सपना उसके मन म अभी भी पल रहा है िक शायद कभी उसे भी सफलता
हािसल हो। कहानी का यह मािमक अतं कहानी को एक नयी ऊंचाई पर ले जाता है।
कै लाश बनवासी ने ‘झांक ’ कहानी म हमारे आज के समय के िश ातं को पहचानने के कई सू िदये
ह। िश ातं िकस तरह पंजू ी और मनु ाफ़ा बटोरने वाले एक बहत बड़े जाल म बदल चक ु ा है, कहानी इस का
खल ु ासा करती है। मेिडकल कॉलेज का सरगना राठी, मेिडकल कॉलेज क सहायता से करोड़ का कारोबार करता
है। कहानी म ऐसे कई य मौजदू ह जो वतमान िश ा यव था के ढांचे को कठघरे म खड़ा करते ह। कूल टीचर
धीर िम ा साढ़े तीन लाख पये डोनेशन देकर अपने बेटे को डटल कॉलेज म दािख़ला िदलाना चाहता है।
मेिडकल सं थान क भ यता व चकाच ध को देखकर हैरान भी रह जाता है। उसके मन म यह सवाल भी उठता है
िक राठी के सं थान क नयी िबि डंग बनाने वाले मज़दरू के मन म यहां पढ़ रहे ब च को देखकर यह ख़याल
आता होगा िक काश हमारे ब चे भी यहां पढ़ सकते । इस िबंदु पर आकर कहानी नये अथ खोलती है।
समकालीन कहानी अपने समय क राजनीित के अंतिवर धी व प को पहचानने म और उसे य
करने म परू ी तरह स म है । कै लाश बनवासी क कहािनयां इसक एक िमसाल ह। उनक कहािनय क एक खबू ी
यह है िक वे िबना राजनीितक िवषय के भी अपने समय क राजनीितक कहािनयां बन जाती ह। िकसी भी कहानी म
िकसी भी तरह का राजनीितक सदं भ नह है, लेिकन उनक कहािनयां राजनीित म आम आदमी क ासद ि थितय
को सवं ेदना मक तर पर सामने रखती ह। ‘किवता, पेिटंग पेड़ कुछ नह ’ कहानी के पा चाहे वह कूल टीचर
नंिदता हो या उसके पसठ वष य िपता जी ारा अपने सामने ही गल ू र के पेड़ को लेकर िलखी गयी किवता हो, ये
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सब धम और सं दाय क राजनीित करने वाले राजनीित के सामने कुछ नह ह। यह कहानी का एक प है लेिकन
कहानी का दसू रा प भी है और वह है िक स ता का िवरोध करने के िलए पिटंग और किवता से बढ़कर दसू रा कोई
औजार नह है। कहानी क साथकता तब और भी बढ़ जाती है जब िपता जी अपनी किवता म यह िलखते ह, ‘ई र
के नाम पर / ई र के भ ने नह / काट िगराया है तु ह ई र क सेना ने / िज ह नह मालमू ितल-ितल कटने क
पीड़ा / और उजड़ जाने का दद।’
इसी तरह ‘बड़ी ख़बर’ कहानी म मीिडया चैनल के ारा नक़ली ख़बर के सारण से नफ़रत का माहौल
पैदा करना लोग क मानिसकता को एक ख़ास िदशा क ओर ले जाने का सक ं े त है। बक म चैक जमा कराने गया
यि देखता है िक बक के प रसर म लगा टीवी बड़ी ख़बर के प म ‘सिजकल ाइक के बाद सकते म है पाक’,
‘कब तक बचेगा पाक’,’सीमावत गांव म पाक ने दागे मोटार’, 'हमारी सेना हर हमले का जवाब देने म स म’
जैसी उ जे क और सनसनीपणू ख़बर का सारण कर लोग के ज़ेहन म ज़हर फै ला रहा है, लेिकन उस यि के
िलए ये सब ख़बर, ख़बर नह ह। उसके िलए तमाम झठू के बावजदू बक म अपने काम से आये लोग के ब चो का
खेल खेलना ख़बर है। तमाम घृिणत ख़बर के बीच ब च के खेलने के सहज आनदं को बचाये रखने क कोिशश
करती हई यह कहानी पाठक को ऐसे मक़ ु ाम तक ले जाती है जहां पाठक के िलए मीिडया क बड़ी ख़बर से
अिधक बड़ी ख़बर ब च का खेलना बन जाती है।
कै लाश बनवासी अपनी कहािनय म एक आम आदमी के मन म पािक तान को लेकर जो िखचं ाव और
अलगाव है, उसे य करते ह। िपछले कुछ समय से हमारे देश म पािक तान को लेकर एक ऐसा माहौल बनाया
गया िक आम आदमी भी उस माहौल से अछूता नह रहा और अनजाने ही उसे पािक तान क हर चीज़ से एक
नफ़रत सी हो गयी । िहदं ु तान पािक तान का ि के ट मैच एक खेल नह , एक तरह से यु क तरह होता है और
देश क अिधकांश आबादी इस खेल को एक जनु नू और बदले क भावना से देखती है। िहदं ु तान िकसी भी सरू त
म पािक तान से हारे , यह इस देश के लोग को देखना क़बल ू नह है। िक े ट मैच म पािक तान क हार के बाद
कहानी के ज गू को मसु लमान को जलाने म असीम सख ु हािसल होता है। मैच देखते देखते िकस तरह उनम एक
सां दाियक सोच समा जाती है कै लाश बनवासी ने अपनी कहानी, 'चक दे इिं डया' म बखबू ी सामने रखा है। इस
घृणा पद माहौल के बीच कै लाश बनवासी ने इस कहानी म रािश शु ला और आिसफ़ क ेमकथा को भी िपरोया
है जो कहानी को एक सकारा मक िबंदु क ओर ले जाता है। िहदं ू मिु लम सबं धं को ाणवान और सौहादयु
बनाने के िलए िजस सवं ेदनशीलता क ज़ रत है, वह कहानी म एक अंत:सिलला क तरह मौजूद है और वही
कहानी क ताक़त है। कै लाश बनवासी क ि इस यव था के दमनच क ओर भी जाती है और इस च को वे
अपनी कहािनय म कई तर पर पातं रत करते ह। 'वाइ टै जगतरा' कंपिनय ारा िकसान क ज़मीन हड़पने तथा
िकसान के दमन व सघं ष क कहानी है। कहानी का जगन उस पा का ितिनिध है जो ामीण िवकास के नाम पर
ाचार करता है और गांव क राजनीित म क ीय भिू मका िनभाते हए स ता के सू को अपने हाथ म रखता है।
यह कहानी ामीण ारा अपने हक़ क लड़ाई क आवाज़ को बल ु दं करते हए पाठक क चेतना को एक नया
िव तार देती है।
कै लाश बनवासी हमारे समय के उन रचनाकार म से ह जो अपने रचना मक अनभु व को अपने प रवेश
से सबं करते ह और कहानी क संवेदना म इस तरह िपरोते ह िक कहािनयां पाठक क चेतना को गहराई से
भािवत करती ह। सं ह क अिधकांश कहािनय के य पर पर जड़ु े रहते ह । सवं ाद को प रि थितय के
अनक ु ू ल ढालने को कै लाश बनवासी क कहानी कला क एक िवशेषता के प म देखना चािहए । इन तीन
सकं लन क कहािनय क एक खबू ी यह भी है िक ये कहािनयां हमारे समय के सरोकार को गहराई से सामने रखते
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हए कहानी लेखन क नयी इबारत िलखती ह। ये कहािनयां रा य क भिू मका, रा वाद और अंधरा वाद व
सां कृ ितक रा वाद के फ़क़ क पहचान को लेकर भी सतक ह। इन सकं लन के मा यम से आज क कहानी िकस
ु ाम तक आन पहचं ी है, इसका अंदाज़ा सहजता से लगाया जा सकता है।
मक़
फोन : 9873225505
पु तक संदभ
1. सयानी दीवानी : नूर ज़हीर , राधाकृ ण काशन ा0 िल0, 2020
2. अंसारी क मौत क अजीब दा तान : अंजली देशपांडे, सेतु काशन, नोएडा, 2019
3. किवता पेिटंग पेड़ कुछ नह : कै लाश बनवासी, सेतु काशन, नोएडा, 2020
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 105
कहानी चचा
िव ू प यथाथ क त वीर के िभ न लस
( चार कहानी सं ह के हवाले से)
बलवंत कौर
मनोज पांडेय और अिनल यादव समकालीन कहानी के दो ऐसे नाम है िज ह ने न िसफ़ प और अंतव तु के तर
पर कहानी म यापक तोड़फोड़ क है, बि क कहानी लेखन का अपना एक अलग महु ावरा भी गढ़ा है। 2020 म
अिनल यादव क लबं ी कहानी, गौसेवक छपी तथा मनोज पांडेय का नया कहानी सं ह, बदलता हआ देश
कािशत हआ। अपनी कहन म ये दोन िकताब िबलकुल िभ न धरातल पर ह, लेिकन अपनी अतं व तु के तर पर
ये दोन एक दसू रे क परू क ही ह। मनोज पांडेय िजस बदले हए देश का िबबं लोककथाओ ं क शैली म इस सं ह म
गढ़ रहे ह, उस बदले हए देश क वा तिवक सरू त गौसेवक म देखी जा सकती है। बदलता हआ देश मनोज पांडेय
का चौथा कहानी सं ह है। इस सं ह म बारह कहािनयां ह जो लोककथाओ ं के ढांचे म, बहत चटु ीली भाषा म
समकालीन राजनीित क स ा-सरं चना को तुत करती ह। इस सं ह का आकषण िजतना इसका क य है उससे
अिधक इसका प िव यास है। यह प िव यास बहत नया नह है। अलग अलग देश काल म अिभ यि के एक
औजार के प म इसका बखबू ी इ तेमाल िव के अनेक रचनाकार ने िकया है। कहानी का िव यास िसफ़ बा
सरं चना मा नह होता बि क जीवन और उसके अंतिवरोध को, िवडंबनाओ ं को समझने का एक रचना मक
मा यम भी होता है। इसिलए कहानी म इसक साथकता इसम है िक प या िव यास का योग कहानीपन को
खिं डत न करे । इस सदंभ म बदलता हआ देश एक साथक योग है य िक यहां कहानीपन और पठनीयता कह भी
बािधत नह होती।
बदलता हआ देश, कहानी सं ह म देश क नयी गढ़ी जा रही अवधारणा और नये राजा क लीलाओ ं
के मा यम से यव था पर हार िकया गया है। सं ह क बारह कहािनयां यव था के वे बारह सू ह िजनके सहारे
यव था, ‘सबका साथ सबका िवकास’ जैसे िमथ रचती है। इस सं ह म मनोज पांडेय ने िजस वणदेश क क पना
क है, उस वणदेश का परू ा तानाबाना धम से िनयंि त है। िवधिमय को यहां रहने क अनमु ित नह य िक वे भी
अपने पवू ज क तरह जरायम पेशा, िहसं क और अपराधी माने जाते ह। अगर इसके बावजदू कोई िवधम वणदेश
म रह जाये तो उसका शु ीकरण िकया जाता है या िफर उसक तरह तरह से ह या करवा दी जाती है, य िक
िवधिमय क ह या पर सज़ा का ावधान इस वणदेश म नह है। सीमाओ ं पर श ओ ु ं से िघरा होने के बावजदू
वणदेश सीना ताने खड़ा रहता है। तीन ध ना सेठ परू े वणदेश म िश ा से लेकर हर तरह क यव था के िनयामक
ह। इस वणदेश म एक ऐसे राजा क क पना है िजसे जा क िचतं ा म िदन रात न द नह आती, जो कपड़े बदल
बदल कर देश क उ नित और िवकास क योजनाएं बनाता है, िजसका मानना है िक गल ु ामी और जहालत से
िनकलने के िलए देश को बाय हाथ से काम लेना चािहए, आधिु नक िवकास के िलए िव थापन होना अिनवाय है,
बेरोज़गारी वणदेश क कोई सम या नह , बि क कािहली के सं कार ह। इसिलए अचार बनाना, पकौड़े तलना
जैसी कलाओ ं को पनु ज िवत करना चािहए, िकसान को आ मह या से बचाने के िलए उनक ज़मीन ध नासेठ को
दे देनी चािहए। और सबसे मह वपणू बात, इस देश म राजा का मानना है िक भिव य नाम क कोई चीज़ होती ही
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ु ाई-िसतंबर 2020
नह , भिव य मा म है। राजा कहता है- 'भिव य अतीत म बदलता है, इसिलए अतीत भिव य म भी बदल सकता
है। बि क अतीत ही हमारा भिव य है। जब तक उसका राज रहेगा, हम इस िसहं ासन से कोई िहला नह सकता;
बि क यह वह सू भी है िजससे हम इितहास के दाग़-ध ब को हमेशा-हमेशा के िलए साफ़ कर सकगे। हम भिव य
म नह , इितहास म अमर होना है'। दरअसल, वणदेश का यह पक इितहास और वतमान क उस ासदी से
िनकला है िजस ासदी को देखना-झेलना आम आदमी क िववशता है, लेिकन सजग रचनाकार क भाषा हर देश
काल म इस तरह के वणदेश और उनके राजाओ ं क लीला को अिभ य कर ही देती है। कोई भी राजा इितहास
क पाठ्य पु तक म भले ही बदलाव कर दे या अपने वतमान को इितहास क पाठ्य-साम ी म दज करवा ले,
लेिकन उसक गाथाए/ं लीलाएं सािह य म अ योि / पक/ यं य आिद क श ल म दज हो ही जाती ह। सं ह क
कहानी, ‘पीछे चलो, भिव य कह नह है’ म राजा के आदेश से िवधम भाषा के श द का चलन बंद कर िदया
जाता है। लेिकन रचनाकार इन बधं न को िनर त करने के िलए िकतने सृजना मक हो जाते ह, यह मनोज पांडेय के
कहानी सं ह म देखा जा सकता है। कह सकते ह, सं ह के िनरंकुश किवय क तरह मनोज पाडं ेय ने भी अिभ यि
पर अक ं ु श के इस यगु म यह शैली ईजाद क है, िजस शैली म स ा और ताक़त क सरं चना क एक एक परत याज़
के िछलके क तरह उतरती नज़र आने लगती है। लेिकन कहानी म इस तरह के राजनीितक पाठ क अपनी सीमाएं
भी होती ह। इस बात का अंदेशा हमेशा मौजदू रहता है िक अ यिधक समसामियकता और ज़ािहर ितिबंब अ सर
उस कहानी को कालसीमा का अित मण नह करने देते। मनोज पांडेय का यह सं ह इस अंदेशे का िकतना
अित मण कर पायेगा यह तो आने वाला व ही बतायेगा।
नगरवधएु ं अख़बार नह पढ़त (कहानी सं ह), यह भी कोई देस है महाराज (या ा-वृतातं ) तथा सोनम
गु ा बेवफ़ा नह है (लेख सं ह) जैसी िकताब के लेखक अिनल यादव क अगली िकताब, गौसेवक है। गौसेवक
एक लंबी कहानी है। मनोज पांडेय के बदले हए देश क वा तिवक त वीर इस लंबी कहानी म देखी जा सकती है।
मनोज पांडेय क लोक कथा शैली के िवपरीत गौसेवक जिटल यथाथवादी सरं चना क कहानी है जो पहली नज़र म
देखने पर आिदवासी धामा चेरो क कहानी लगती है। धामा चेरो, जो कूल के िदन से ही अपने समदु ाय के िलए
राशन काड बनवाने के िलए य नशील है तािक पिु लस और न सिलय के सघं ष म वह अपनी पहचान िस कर
सके , लेिकन कूल के ि ंिसपल क राजनीित का िशकार होकर वह ताड़ना के क पुिलस थाने तक पंहच जाता
है। बाद म पिु लस और न सिलय के संघष क राजनीित से बचने के िलए और अपनी राजनीितक मह वाकां ा परू ी
करने के िलए वह उस थानीय राजनीित का िह सा बन जाता है जहां गौ-त करी से लेकर ‘मसु लमान मार िगराना’
रा वादी होने क पहचान मानी जाती है। लेिकन वा तिवकता म यह िसफ़ धामा चेरो क कहानी नह बि क उस
सामािजक-राजनीितक ि या क कहानी है िजसम देश क मु य धारा से होते हए यह सां दाियक राजनीित धीरे
धीरे इन िपछड़े अंचल म वेश कर रही है। इस प म यह यह कहानी न सल भािवत आिदवासी इलाक़े म
िवकास के राजनीितक समीकरण से होती हई, गौसेवा के नाम पर होने वाले अवसरवाद तथा स ा के िलए उस
अवसरवाद के सां दाियक राजनीित म त दील होने क बहपरतीय कथा है।
गौसेवक एक प कार के नज़ रये से िलखी गयी है जो आिदवासी इलाक़े म बन रहे बांध क
वा तिवकता से प रिचत होने के िलए आता है। पहले ही य म वाचक का प रचय अपने को गौसेवक कहने वाले
धामा चेरो से होता है। धामा चेरो न िसफ़ वाचक को िवकास के नाम पर सिदय से बनाये जा रहे बांध क
राजनीितक ि थित से प रिचत करवाता है बि क उस े म न सिलय और पिु लस के बीच िपसते तािड़त होते
गांव वाल से भी सा ा कार करवाता है। चिंू क वाचक प कार है इसिलए जो िदखाया/बताया जा रहा है वह सब तो
वह देख ही रहा है लेिकन जो नह िदखाया बताया जा रहा वह सब भी वाचक के अनुभव का िह सा बन जाता है।
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इसिलए बांध और उससे जड़ु ी सारी ि थितय , त य और सचू नाओ ं से भरी जानकारी होने के बाद भी उसे लगता है
इन सारी ि थितय से इतर भी बहत कुछ है िजसका बयान वह अपनी ‘देह पर देवताओ ं क सवारी झेलने वाले
ओझा और बैगा' क मदद से कर सकता है, धामा चेरो जैसे िवकास चाहने वाले से नह । कहानी का अंत भी िस
कर देता है िक लालच क राजनीित नफ़रत क राजनीित म कै से त दील हो जाती है। राजनीित म अपनी
मह वकां ा के िलए धामा चेरो हर वह यो यता रखता है जो िकसी भी नेता म होनी चािहए। गौसेवा के नाम पर गौ-
त करी करना, फ़ौज म भत के नाम पर आिदवासी लोग से पैसा वसल ू ना, फ़ै टरी म मज़दरू क हड़ताल खलु वाने
के िलए फ़ै टरी बधं क से पैसा ले धरना- दशन करवाना आिद आिद। लेिकन कहानी का सबसे मह वपणू िह सा
वह है जो वह करना चाहता है-- स ाधारी पाट को खश ु कर िवधानसभा का िटकट पाने के िलए मसु लमान को
मारना चाहता है, य िक स ाधारी पाट एक िहदं ू रा वादी पाट है, िजसका मानना है—'िजस पाट के िख़लाफ़
चनु ाव लड़ रहे हो उसे वोटर को लालच देकर जीतने का बहत परु ाना अनभु व है। लालच से लालच क काट नह हो
सकती। नफ़रत कह बहत अिधक शाि शाली चीज़ है...', यह नफ़रत आज क राजनीित का थायी महु ावरा बन
गयी है। वतमान राजनीित का अधं रे ा प , िजसने राजनीित को ही नह देश को भी बदल िदया है। मनोज पाडं ेय के
कहानी सं ह का बदला हआ देश यही है, जहां राजा िवधिमय क ह या पर सज़ा नह , चनु ावी िटकट इनाम म देता
है। स ा क यह सरं चना िजस 'िहदं ू रा ' के सपने को परू ा करने क कोिशश कर रही है वह वाथ और लालची
यि य के ारा ही सभं व हो सकती है । धामा चेरो जैसे गौसेवक ऐसी ताक़त के िलए हिथयार का काम करते ह।
लेिकन इन ताक़त के मसं बू े आम आदमी क सजगता और ितरोध के सम कमज़ोर िस होते ह। कहानी म बैगा
के च र और ‘मसु लमान को मार िगराने' से बचाने क उसक त परता कथा को उस िबदं ु पर ले आती है जहां
मनु यता के सम सां दाियक राजनीित परािजत होती है। बैगा का कथन िक ‘गाय-गौ तो ठीक था लेिकन अब
आदमी का ब चा हतोगे तो कै से बरदा त होगा। कौन कहेगा ये ठीक काम है। कह दे कोई हमारे रहते ये नह होने
पायेगा...' वतमान राजनीित के अंधरे े म भी यिद हम िशकायत करने के बजाय आम आदमी भी बैगा क तरह ‘हमारे
रहते ये नह हो पायेगा कहना और करना शु कर द तो कोई देश का इितहास भगू ोल बहत सहजता से नह बदल
पायेगा। गौसेवक कहानी अपनी सश अतं व तु के साथ-साथ अपनी सश कथा-भाषा के िलए भी भिव य म याद
क जायेगी। जैसा िक नामवरिसहं ने कभी नयी कहानी के सदभं मे कहा था िक 'भाषा का सवाल के वल कुछ श द
के छोड़ने और लेने तक ही सीिमत नह है। सवाल नयी वा तिवकता के अनु प उतनी ही यथात य कठोर,चु त,
सवं ेदनशील, सजीव भाषा के िनमाण का है'। और इस सदंभ म बारीक़ यौर से रची, वणन क अ ु त कारीगरी से
यु अिनल यादव क कथा-भाषा नये राजनीितक यथाथ क जिटलता को बहत सू मता से उ ािटत करती है।
समकालीन कहानी लेखन म कई पीिढ़यां एक साथ सि य ह। इन सि य रचनाकार म चरण िसहं पिथक तथा
ह रयश राय मह वपणू नाम ह। दो बहन, चरण िसहं पिथक का चौथा कहानी सं ह है। इससे पहले पीपल के फूल,
बात यह नह तथा गौ का लैपटॉप और गोक क भस नामक कहानी सं ह कािशत हो चक ु े ह। उनक दो
कहािनय , ‘दो बहन’ तथा ‘कसाई’ पर िफ़ म का िनमाण भी हो चक ु ा है। चरण िसहं पिथक क कहािनयां लोक
कथाओ ं के ढाच
ं े से ससु ि जत सहज ामीण बोध क कहािनया ं ह। लेिकन इस ामीण बोध म गावं और वहां के
समाज का कोई गौरव-गान नह है। बि क यहां एक तरफ़ नाते- र त क राजनीित, आर ण के नाम पर िनरादर और
समदु ाय क टकराहट है तो दसू री तरफ़ सहज ई या, ेम, वैमन य, िहसं ा, लालसा आिद से ससु ि जत ससं ार है। कह
सकते ह िक ेमचदं क तरह ही यह इनसाइडर क िलखी हई कहािनयां ह, िकसी आउटसाइडर क नह । लेिकन
चरणिसहं पिथक का गांव ेमचदं वाला गांव नह है। यह नया गांव है िजसम परंपरागत प से िफरनेवाली के प म
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ु ाई-िसतंबर 2020
दािलय क एक दिु नया है, तो दसू री तरफ़ जाित और िलगं आधा रत सरं चना के वच व क दिु नया है और तीसरी
तरफ़ नये तरह के जातीय समीकरण, िजसम आर ण के नाम पर जातीय टकराव ह और अिधकार और स मान क
लड़ाई के नाम पर िहसं ा का शासन है। ‘मछंू ’ कहानी म इसी तरह क आर ण क राजनीित और उस राजनीित के
नाम पर होने वाली िहसं ा को देखा जा सकता है। गजू र एस.टी.वग म आर ण क मागं कर रहे थे और मीणा अपने
कोटे के आर ण को िकसी क़ मत पर बांटने को तैयार नह थे। लेिकन इस जातीय टकराहट का ख़ािमयाज़ा रामराज
जैसे िनरीह यि को चक ु ाना पड़ता है। गजू र उसे मीणा समझ और मीणा उसे गजू र समझ िहसं ा और लटू पाट करते
ह। दरअसल, इस तरह के जातीय समहू के िलए आर ण समान अिधकार का सघं ष नह बि क फ़ायदे और
सिु वधाओ ं के बटं वारे क लड़ाई है । इसीिलए सामािजक प से अपने से कमतर जाित समहू के िलए अपमान और
िवतृ णा का भाव, 'चमार के परु खे भी कभी गये ह फ़ौज म...' जैसी भाषा म देखा जा सकता है। इसी कार ‘मग़ु ा’
कहानी म अफ़सर तक मा टर गंगा राम को जाित के आधार पर अपमािनत करने से परहेज़ नह करता - 'एससी/
एसटी वाल ने हर िडपाटमट क बड बजा रखी है। रज़वशन से नौकरी िमल जाती है। काम के नाम पर गल ु स पा।
कुछ कहो तो एससी क धमक देते ह'। अफ़सर ही नह , यिद दिलत भी इस यव था का अगं बन शोषण
और अ याय करते ह तो चरण िसंह पिथक पॉलिट ली करे ट होने के च यूह म फंसे िबना उसक ('मग़ु ा' कहानी
म फूलबाबू के प म) आलोचना करते भी िदखायी देते ह। राजनीित और धम के शासन से सचं ािलत ू र और
अमानवीय छल पंच, आ था के नाम पर ी शरीर को िमि कयत मानने वाले समाज क अनेक परत चरण िसहं
पिथक क कहािनय म देखी जा सकती ह। इस सदभं म उनक कहानी, ‘कसाई’ को िवशेष प से देखा जा सकता
है जहां ताक़त क लालसा और राजनीित क चाल न िसफ़ र सबं धं क ह या का कारण बनती ह, बि क धम
और आ था का आडंबर उस ामीण समाज म ‘कसाई’ को एक अमतू प म बदल दोिषय को आजीवन मु
िवचरने का मौक़ा भी दे देता है। धम और राजनीित का यह सबं धं समाज म ताक़त क संरचना सदैव बनाये रखने म
सिदय से अहम भिू मका िनभाता है। इस तरह क सरं चना गांव और शहर दोन म देखी जा सकती है। चरण िसहं
पिथक का तो मानना है िक यह सब पहले गांव से शहर म गया है। अपने एक सा ा कार म वे कहते ह, 'सारी चचा,
राजनीित, राजनीितक दावं , चार...ये सब गावं म पहले होते ह, क म बाद म पहचं ते ह। राजनीित क शु आत
गांव म ही होती है गांव से िद ली राजनीित का एक ही फामट है।'
चरण िसहं पिथक क सवािधक चिचत और िस कहािनयां वे ह िज ह उ ह ने लोककथा िश प म
िलखा है। लेिकन लोककथा का यह ढांचा इितहास और वतमान क शोषणकारी, अमानवीय स ाओ ं क
सरं चनाओ ं को िछपाने या ढांकने का काम नह करता बि क उन सरं चनाओ ं को अिधक भावी ढगं से उघाड़ने का
काम करता है। इसीिलए कहानी, ‘कै से उड़े िचिड़या’ म िचड़ा और िचड़ी के सगं के मा यम से ीजीवन के
सिदय के सतं ाप और िपतृस ा के सम परािजत होने के दद को देखा जा सकता है। इसी कार 'पीपल के फूल’
कहानी म िवकास क अवधारण और मानव और कृ ित के सबं ंध को नये प म देखा जा सकता है। दरअसल,
चरण िसहं पिथक का रचना संसार िहसं ा और ू रताओ ं के अमानवीय सा ा य क िविभ न परत से रचा सािह य है
जो पाठक को िकसी िन कष पर नह ले जाता, बि क अपने आसपास घिटत होने वाली रोज़मरा क थानीय
ामीण घटनाओ ं और ि थितय को कथा क सरं चना म बनु कर पाठक के सामने रख देता है। इसिलए इन
कहािनय म राजनीितक प से सही होने या न होने क कोई ज ोजहद भी नज़र नह आती है।
चरण िसहं पिथक के िवपरीत ह रयश राय का लेखन शहरी म यमवग य जीवन पर कि त है िजसम
1990 के बाद के सामािजक आिथक और राजनीितक बदलाव को कहानी के ढांचे म अिभ य करने क
कोिशश क गयी है। वे मानते ह िक यही वे ताक़त ह जो समाज तथा जीवन को सचं ािलत भी करती ह और
नया पथ : जल
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सवािधक भािवत भी करती ह। अपने छठे कहानी सं ह, िकस मक ु ाम तक क भिू मका म वे िलखते ह, 'मेरे िलए
कहानी घटनाओ ं या सदभं का िसलिसला नह है, बि क घटनाओ ं और सदभं के मल ू म जीवन को सचं ािलत
करने वाली जो ताक़त ह, उन ताक़त क सोच और यवहार से बदलते समय को सामने लाना है अपने सरोकार के
साथ, अपनी सोच के साथ और अपनी िविवधता के साथ...।' बदलाव के इस दौर ने मानवीय सबं धं और
सां कृ ितक मू य को सवािधक बदल िदया है। सां कृ ितक मू य का बदलाव असमानता के समाज क संरचना
करता है। यह असमानता चाहे िलंग आधा रत हो या िफर धािमक आधार पर हो। िकस मक ु ाम तक सं ह क
कहािनयां इसी असमानता को उ ािटत करती कहािनयां ह। इन कहािनय के पा अपने भीतर इन असमानताओ ं से
लड़ते हए इनसे मु होने क कोिशश करते नज़र आते ह। चाहे ‘चील’ कहानी क ाची सोनकर हो या ‘उ ह बाघ
खा जाये’ क देवयानी । दोन अपनी अपनी प रि थतय और अनभु व के अनु प अपनी मिु का माग तलाशने
क कोिशश करती ह। एक िववाह न करने का िनणय करके अपने अि व को िपतृस ा मक चील से बचाने का
िनणय लेती है और दसू री पा रवा रक दािय व के बोझ (िजसम िपता क देखभाल भी शािमल है) से मु हो िववाह
करने के िनणय म मिु का अथ तलाशती है । दो अलग अलग कहािनयां और दो िबलकुल िवपरीत ि थितयां
लेिकन दोन जगह अपने डर , दबाब , कंु ठाओ,ं उलझन और समाज ारा गढ़ी प रभाषाओ ं से मु हो िनणय तक
पहचं ने क ज ोजहद। मिु क प रभाषा और मु होने क ि या दोन कहािनय म अलग अलग है। इन
कहािनय के ी च र क अिनणय से िनणय तक पहचं ने क या ा '80 के दशक के ी च र क याद िदलाती
है, लेिकन यह देखना िदलच प होगा िक ससं ाधन , सिु वधाओ ं और उ च िश ा के अवसर होने के बावजदू
म यवग य समाज क नैितकता का ढांचा अभी तक नह बदला। इसिलए अपने भीतर सघं ष करती ी आज भी
कहािनय म देखी जा सकती है।
नव दशक के बाद धम, राजनीित और बाज़ार के मेल से एक नये कार के समाज का िनमाण हआ।
समाज और राजनीित म बहसं यकवाद के वच व का एक नया आ यान पैदा हआ िजसने समाज म सक ं णतावाद
और िहसं क वृितय को बढ़ावा िदया। इस सक ं ण मनि थित को ह रयश राय ने ‘इससे बेहतर ही’ तथा ‘आिसया
नरू ी गमु समु ’ है जैसी कहािनय म उभारा है। ‘इससे बेहतर ही’ कहानी के डॉ. अिं बका साद इसिलए बैचने ह
य िक सोसाइटी के िनयम के िव जा कर राजनीित और बहसं यक के हक़ म मिं दर का िनमाण हो रहा है। वह
दसू री तरफ़ ‘आिसया नरू ी गमु समु है’ क आिसया जो ताउ समाज ारा िनिमत मिु लम गढ़तं से बचने क कोिशश
करती रही, अंतत: उसी म सक ं ु िचत होने के िलए िववश क जाती है। राजनीितक वच व और उसक िवचारधारा
धीरे धीरे सं थान के सवं ैधािनक और से यल ु र ढांचे को बदलती जा रही है। इसे ‘आिसया नरू ी गमु समु है’ कहानी
म डॉ. अमृत लाल वाच पित के आने के बाद के बदलाव के प म देखा जा सकता है। उनके आने के बाद 'सं थान
के काय महु त देखकर िकये जाने लगे, सं थान मे आये िदन हवन होने लगे । शाम को योग क लास होने लग '। ये
बदलाव आज धीरे धीरे िकस िदशा म जा रहे ह इसे कहने क आव यकता नह । आिसया नरू ी जैसे न जाने िकतने
लोग को इस इन सक ं णताओ ं का ख़ािमयाज़ा भगु तना पड़ता है।
ह रयश राय क कहािनयां वैचा रक ितब ता क कहािनयां ह। कहानी को जिटल बौि क ढांचे म
अनाव यक प से ढालने क कोिशश वे नह करते य िक अपने समय क जिटलताओ ं को क म लाना ही
उनका मु य सरोकार है। इसिलए इन कहािनय म िश प क अपे ा अंतव तु पर अिधक बल रहता है और इसी को
वे रचना के भावशाली होने का कारण भी मानते ह। सं ह क भिू मका म वे इस सदंभ म िलखते ह, 'मेरी कोिशश
रहती है िक म अपनी इन कहािनय म जीवन के गहरे आवेग और मनोवेग को पकड़ सकंू और यथाि थित बनाये
रखने वाली शि य और समाज को आगे ले जाने वाली ताक़त के बीच के अंतिवरोध को रे खांिकत कर सकंू । मेरा
110 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
मानना है िक कहािनयां ऐसी होनी चािहए जो हमारी अनभु ूितय को अिधक सवं ेदनशील बनाय, हमारी समझ के
दायरे को िव तृत कर। म तक और िवचार के आधार पर कहानी िलखने के प म नह ह।ं तक और िवचार कहानी
म समािहत होकर आये, तभी रचना भावशाली है।'
मो. 9868892723
पु तक संदभ
1. बदलता हआ देश : मनोज कुमार पांडेय, राजकमल काशन, नयी िद ली, 2020
2. गौसेवक :अिनल यादव, राजकमल काशन, नयी िद ली2020
3. दो बहन : चरण िसहं पिथक, राजकमल काशन, नयी िद ली, 2020
4. िकस मुकाम तक : ह रयश राय, काशन सं थान, नयी िद ली, 2019
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 111
आलोचना सवं ाद
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प करने के िलए शरणकुमार िलंबाले के स दयशा के , उ ह के ारा पेश, सारत व को यहां देना चाहता हं ।
उ ह ने िलखा :
दिलत सािह य के मू यांकन के िलए िन निलिखत कसौिटयां िनि त क जा सकती ह :
(1) कलाकार को अपने अनभु व के साथ ईमानदार होना चािहए।
(2) कलाकार के अनभु व का सावजनीकरण होना चािहए।
(3) कलाकार के अनभु व म देश क सीमा पार करने क शि होनी चािहए।
(4) कलाकार का अनभु व िकसी भी काल म ताज़ा लगना चािहए।
(दिलत सािह य का स दयशा , पृ. 21)
यहां ‘कलाकार ’ से उनका आशय ‘लेखक ’ से है, सगं ीतकार या िफ़ म और रंगमचं के अिभनेताओ ं पर या
िच कला पर ये कसौिटयां लागू नह होत । अपने स दयशा को उ चार सू म बाधं कर शरणकुमार िलबं ाले
अंत म ‘सवण’ समी क से अपना पथ अलग बताते हए कहते ह, िक ‘अपना पथ अलग है। अपनी िदशा अलग
है। तब अपने पथ पर चलना और अपनी िदशा क खोज करना इसम ही अपनी सभी शि ख़च करनी चािहए’।
(वही) िवचारधारा के तर पर िलबं ाले जी आंबडे कर और मा स के सम वय के हामी ह। सही ऐितहािसक समझ तो
यही है िक 'मिु कभी अके ले म नह िमलती/ यिद वह है तो सबके साथ है।' (मिु बोध)
उ चार सू ीय स दयशा ीय कसौिटय पर बारीक़ से ग़ौर कर तो यह समझने म देर नह लगेगी िक ये
कसौिटयां उसी समी ा-िचतं न क ितिबंब है िजसे वे ‘सवण’ समी ा कहते ह। पहली कसौटी अनभु व क
ईमानदारी है, इसे हमारे आधिु नकतावादी दौर म सभी ग़ैरदिलत लेखक ने ‘अनभु िू त क ामािणकता’ कह कर पेश
िकया था, महान मा सवादी िचतंक एंगे स ने जो मा स के सहयोगी सहचर थे और ज मना उ च वग के थे इस
‘ईमानदारी’ क कसौटी का उ लेख िम ना काउ क को 25 नवंबर 1885 को िलखे एक प म िकया था, जो
उ ह ने अपने समय व अपने देश म िलखे जा रहे दिलत सवहारा उप यास पढ़ने के बाद िलखा था। एक दसू रे प म
भी जो िमस हाकनैस को अ ैल 1888 म िलखा था, ईमानदार िच ण को यथाथवादी रचना के िलए एक कसौटी के
प म पेश िकया था। िहदं ी के महान मा सवादी किव िचतं क मिु बोध ने भी जो ज मना मराठी ा ण थे अपने
स दयशा ीय लेखन म ‘ईमानदारी’ क इस कसौटी पर बहत िव तार से िलखा, उनक रचनावली के खडं -4 म
उनके पांच लेख इसी कसौटी पर ह, ‘घृणा क ईमानदारी’,’कलाकार क यि गत ईमानदारी’(तीन लेख क
सीरीज़), ‘ यि गत ईमानदारी और कला’। इनम से पहला लेख हर दिलत लेखक को ज़ र पढ़ना चािहए य िक
दिलत लेखन म ‘घृणा’ एक कला मक मू य है, यह सवण क सिदय क घृणा का ितशोध है िजसे मू य के प
म पहली बार दिलत सािह य ने रचा है, यह आ य क बात है िक इसे अपने स दयशा ीय िचंतन म न शरणकुमार
िलबं ाले ने शािमल िकया न ओम काश वा मीिक ने, (इसिलए िफलहाल इस अंत ि पर मेरा कापीराइट समझा
जाये।)
शरणकुमार िलबं ाले क ‘सावजनीकरण’ नामक दसू री कसौटी को भी बारीक़ से देख तो सािह य का
कोई भी सजग पाठक समझ जायेगा िक यह सवण का यशा के रस-िस ांत का ‘साधारणीकरण’ ही है िजसे
िलबं ाले जी ने अपने श द म कसौटी बनाकर पेश िकया है, पा ा य का यशा म अर तू के ‘िवरे चन िस ांत’ से
हमारे िहदं ी ा यापक ने इसे पु िकया है, मा सवादी िचंतक ने ‘यथाथवाद’ क बहस म इसे शािमल िकया है,
सवण के महापू य किव तुलसीदास भी ‘सरु स र सम सब कहं िहत होई’ यानी ‘सावजनीकरण’ को रचना क
कसौटी मानते थे। इससे यह प है िक शरणकुमार िलबं ाले क कसौिटयां घमू िफर कर भारतीय और पा ा य
स दयशा से ही िनकल कर आ रही ह, कोई मौिलक शोध नह हो पाया है। ओम काश वा मीिक तो अपनी
िकताब म, भारतीय और पा ा य दोन ही कसौिटय को ख़ा रज करते ह : ‘िहदं ी सािह य का स दयशा सं कृ त
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और पा ा य स दयशा पर आधा रत है। इसिलए उसक कसौिटयां दिलत सािह य के मू यांकन म अ म सािबत
होती ह।’ (पृ. 45) मगर शरणकुमार िलबं ाले उसी स दयशा क साधारणीकरण क कसौटी को अपना रहे ह।
िलबं ाले जी क तीसरी और चौथी कसौटी को एक साथ इस तरह कहा जा सकता है िक दिलत सािह य
को ‘देश-काल’ को अित िमत करना चािहए। यह कसौटी हर महान सािह य पर लागू होती रही है। यह एक पहेली
भी है, मा स के सामने भी यह पहेली थी िक य हम मानव स यता के बचपन म रचे गये ीक सािह य और
सिदय पहले के अनेक देशकाल म रचे गये सािहि यक ंथ आज भी मोहते ह, सामािजक यव थाओ ं के बदल
जाने पर स दय के पैमाने, हमारे आचारिवचार, हमारे िनयम क़ाननू और हमारी सोच म आमल
ू चल
ू प रवतन आने के
बावजूद हम परु ाने देशकाल क रचनाओ ं को पढ़ते और सराहते ह। इसी अनभु व से यह कसौटी बनी है िक महान
सािह य वह होता है जो अपने देशकाल का अित मण करता है। लेिकन यह कसौटी तो सवसमावेशी हई, दिलत
सािह य के िलए यह सवण वाली कसौटी ही तो िलबं ाले जी सझु ा रहे ह। इससे यह िन कष िनकालना या ग़लत
होगा िक मराठी दिलत सािह य के सामने अभी भी एक वैचा रक चनु ौती बनी हई है िक उस सािह य का
आलोचनाशा या हो जो पारंप रक सवण आलोचनाशा से िभ न हो और जो िकसी दिलत िचतं क लेखक ारा
रिचत हो य िक िकसी ग़ैरदिलत ारा रचा गया आलोचनाशा उस सवं ेदना क तह तक पहचं ही कै से पायेगा?
कह ऐसा तो नह िक आलोचना के अलग ‘टू स’ तलाश करने क िज़द ही िम याचेतना पर िटक हो जबिक
जीवन यवहार म योग म आने वाले ‘टू स’ इस तरह क ‘दिलत’ और ‘सवण’ कोिट म नह बंटे ह, रोज़मरा क
भािषक सरं चनाएं और बोली बानी भी ‘दिलत’ और ‘सवण’ कोिट म नह बटं ी ह। मझु े लगता है िक इसीिलए
अलग से एक नयी कोिट क खोज सभं व नह हो पा रही, य िक दिलत म यवग क िश ा दी ा भी उ ह ोत से
हई िजनसे ‘सवण’ लेखक क । इसिलए िचतं न क उसी सीमा के भीतर कुछ नया खोजने क कोिशश दिलत
लेखक करते हए िदखायी देते ह।
िहदं ी दिलत सािह य के िलए स दयशा क रचना क कोिशश मरहम ओम काश वा मीिक ने क , वे
भी बहपिठत िव ान और ितभाशाली दिलत लेखक थे, उनक पु तक का नाम भी वही है, दिलत सािह य का
स दयशा जो उनक ितभा का माण है। उनक िकताब का एक ही अ याय जो िकताब के शीषक को ज टीफ़ाइ
करता है बहत सं ेप म दिलत सािह य को जांचने परखने के िलए कसौिटयां िनधा रत करता है। मगर अफ़सोस, वे
कसौिटयां भी नयी और अलग नह ह। मु य प म वे कसौिटयां दिु नया भर के जनवादी आलोचक ारा ‘ पवाद’
के िखलाफ़ िकये गये सघं ष का सारसं ेप ह, िसफ़ श द नये कर िदये ह, मसलन अं ेज़ी के 'कंटट’ को ‘आशय’
और ‘फ़ाम’ को ‘आकार’ नाम दे िदया है :
इस िस ांत िन पण के बाद वे भी जनवािदय क तरह पवाद का खडं न करते ह और उसी तरह कंटट को मख ु ता
देते ह। मराठी लेखक डा. म. न. वानखेड़े का जो उ रण वे देते ह, वह इसी क पिु करता है। इस तरह ओम काश
वा मीिक मु यतया मा सवादी स दयशा क अवधारणाओ ं को अपनाते ह, सदंु रता व तु म है या देखने वाले क
नज़र म, यानी वह िवषयगत है या िवषयीगत। ओम काश जी सही ही इस स दयशा ीय बहस म भौितकवादी प
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लेते ह। लेिकन उनका यथाथवादी स दयशा मौिलक नह है, सिदय से चले आ रहे वगसघं ष म जो स दयशा ीय
मा यताएं और धारणाएं भौितकवािदय ने हम िवरसे के तौर पर दी ह, वे ही उ ह ने पेश कर दी ह, वे सारे सािह य
क या या म इ तेमाल क जा रही ह, दिलत सािह य के िलए अलग से कोई स दयशा नह बन पाया है। यह
आकि मक नह है िक ओम काश वा मीिक के इस अ याय का समापन ज मना ा ण, एक मा सवादी
आलोचक मैनेजर पांडेय के उ रण से होता है और अपने िवचार क पिु के िलए।
‘दिलत सािह य का स दयशा ’ से संबिं धत उ दो वतं पु तक के अलावा एक पु तक और देखने
का मौक़ा िमला, यह पु तक है आर. डी. आनदं क , दिलत सािह य का नया स दयशा (प रक पना, 2019)।
इसी िवषय पर सपं ािदत पु तक म से दो और देखने को िमल :
1.दिलत सािह य का स दयशा . स.ं डा. मु ना ितवारी (भारती, 2013)
2. अि मतामल ू क सािह य का स दयशा , स.ं डा. कमानंद आय (The Marginalised Publication, 2018)
ये सपं ािदत पु तक मु य प से दिलत सािह य पर आयोिजत करवाये गये सेिमनार म पेश िकये गये
आलेख पर आधा रत ह और एके डेिमक नज़ रये से तैयार क गयी ह। बंधे बंधाये ढांचे म ये लेख यादातर दिलत
सािह य या अि मतामल ू क सािह य म िनिहत आ ोश व अ य भाव क अिभ यि क या या भर करते ह। इसी
तरह दसू री पु तक भी दिलत सािह य पर कि त एक सािह यशा रचने क बालसल ु भ कोिशश ह, उनम िकसी नये
स दयशा क रचना नह , जैसा िक ठीक ही बजरंगिबहारी ितवारी ने आर. डी. आनंद क पु तक क भिू मका म
कहा है िक ‘मेरे ख़याल से इस िकताब को स दयशा से यादा आलोचनाशा क िकताब मानना उिचत है।’ (पृ.
7) डा. मु ना ितवारी ने भी अपनी सपं ादक य भिू मका म प िलखा हे, 'यह पु तक दिलत स दयशा बनाने का
दावा नह करती'...। लेिकन इन कोिशश का भी एक मह व है। इन तमाम लेख से पता लगता है िक दिलत और
सवण लेखक क एक भारी तादाद इन कोिशश म शािमल है िजसके िलए दिलत सािह य मानो एक चनु ौती है
िजसके भा य के िलए एक नये आलोचनाशा का आिव कार करना है, कमोबेश यह आकुल इ छा शरणकुमार
िलबं ाले से ले कर आर. डी. आनंद तक के रचनाकम म झलकती है। शरणकुमार िलबं ाले अपनी पु तक का अंत
िजन वा य म करते ह, उनम सवण के आलोचनाशा से अलग रा ते क खोज क वही इ छा िनिहत हैः ‘अपना
पथ अलग है। अपनी िदशा अलग है। तब अपने पथ पर चलना और अपनी िदशा क खोज करना, इसम ही अपनी
शि ख़च करनी चािहए’। (पृ.121)
डा.आर. डी. आनंद इससे आगे जाकर िसफ़ सािह यशा क अलग िदशा क खोज तक खदु को
सीिमत नह रखते, वे इस खोज को सामािजक बदलाव यानी ािं त क िदशा क खोज तक ले जाते ह, जो िक
वै ािनक प म सही भी है, उसी से स दयशा भी बदलेगा। वे मौजदू ा यव था क जांच परख करके उसके
शोषणपरक च र को बेलाग तरीके ़ से पेश करते ह और ांित के िलए आबं डे कर के िवचार और मा स के िवचार
से लैस दिलत और गै़रदिलत शोिषत क एकजटु ता का व न सजं ोते ह, इस तरह वे एक िदशा क खोज करते ह
जो आलोचनाशा म भी बदलाव लायेगी।
यहां यह समझना ज़ री है िक सारे दिलत लेखक क तरह ही डा. आर. डी. आनदं अपने ज मना वण
को अित िमत करके एक आधिु नक आिथक कै टेगरी के िहसाब से ‘िन नम यवग’ म पांत रत हो गये ह। इसिलए
उसी वग क उस िवचारधारा को भी आ मसात कर बैठे ह िजसे ‘सविनषेधवाद’ कहा जाता है जो साठो री दौर म
अकिवता क ‘एं ी यंग जेनरे शन’ म उपजा था। अंतर इतना है िक डा. आनंद क घोिषत ितब ता ‘सवहारा’ व
‘दिलत’ के ित है और इस शोषणपरक सामािजक यव था से मिु ही उनका व न है। अकिवता के दौर म यह
ितब ता नदारद थी। डा. आनदं म इसीिलए एक अतं िवरोध है। यव था से मिु के िलए, एक वै ािनक सोच
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िलये हए वे सारे दिलत , वंिचत और शोिषत क िवशाल एकता के प धर ह। वे िलखते ह:
जाित यव था आमने सामने क लड़ाई नह है। यह एक यव था है। उस यव था के आधार को तोड़ना होगा।
आधार को तोड़ने के िलए सभी जाितय के गितशील और ािं तकारी सािथय को साथ लेना होगा। यिद दिलत
अके ला रहता है और िव षे से काम लेता है तो कमज़ोर होता जायेगा। (पृ. 247)
वे यह भी सलाह देते ह िक ‘...गु साया मत करो। हम दो ती करनी सीखनी होगी’। यह सही सोच है। लेिकन पु तक
का अंत परू ी तरह गु साये हए सविनषेधवादी एं ी यंगमैन क िवचारधारा से होता है जो आंबडे कर से ले कर उनके
रचे सिं वधान को, ससं द को, सारे क यिु न ट व पािटय को पीटता जाता है। मझु े लगता है िक उन पर उस उ वादी
क यिु न म क वह चेतना हावी है जो िन नम यवग य वामचेतना मानी जाती है िजसे लेिनन ने अपनी िस पु तक
म ‘बचकाना मज़’ कहा था और िजसक वैचा रक िगर त म अनेक खेम म बंटे न सली पु हमारे यहां ह।
स चाई तो यह है िक मौजूदा समाज के वगिवभाजन और वणिवभाजन को समझते हए समाज के
िवकास क अगली मिं ज़ल का िनधारण करना होता है और उस मिं ज़ल को हािसल करने के िलए दो त वग क
यापक एकता बनाने का मसा य य न करना होता है, ससं द के भीतर, ससं द से बाहर, सभी सामािजक े म,
हर गली, नु कड़ पर, सभी सरं चनाओ ं म, और सािह य व स दयशा व ान के सभी भाग िवभाग म भी यह
सघं ष चलता है, बक़ौल कबीर, ‘सार सार को गिह रहै, थोथा देय उड़ाय।’ िकताब के अंत म गु साये डा. आनंद
सलाह देते ह िक ‘छ ’ आंबडे करवािदय से और ‘छ ’ मा सवािदय से बच कर रहो, मगर यह नह बताते िक
एक एक यि क परख करने और िफर ‘स चे’ होने का माणप कौन देगा? वे यहां तक कहते ह िक
‘क यिु न ट्स के घर म जाकर देखो िक वह सवहारा सं कृ ित को जीता है िक नह , उसके ब चे क यिु न ट च र
हािसल िकये िक नह ।...’ या आनंद जी के पास इतनी बड़ी इं पे शन टीम है िक वह इस देश के सारे क यिु न ट
के घर म ज़बरन घसु कर उनके आदेश को अमली जामा पहना सके !! यि यि पर आधा रत नज़र से तो अपने
अलावा सारे ही दोषी पाये जा सकते ह, सवशु तो सोना, चांदी, लोहा आिद धातएु ं भी नह होत तो आदमी क
या िबसात, िफर ऐसा पारखी कहां से लायगे जो सभी इसं ान को और सभी धातओ ु ं क शु ता तय करे !! डा.
आनदं अपनी पु तक का अतं इसी तरह क नसीहत से करते ह:
मा सवाद को हम छ लोग से सीखने क ज़ रत नह है। मा सवाद उन पंडे-पजु ा रय क ज़ रत नह है।
मा सवाद बेहदे लोग क ज़ रत नह है। मा सवाद क ज़ रत ग़रीब , मज़लमू , दिलत व शोिषत क ज़ रत
है; इसिलए मा सवाद के िलए हम िकसी का इतं ज़ार नह करना चािहए। मा सवाद आंबेडरकरवाद क ज़ रत
है। छ मा सवािदय से लड़कर मा सवाद को मु कराओ, य िक मा सवाद ही आंबेडकरवािदय को शोषण
से मु करा सकने म स म है।
यहां आ ान लोग को छकने का है जबिक पृ. 247 पर गु सा न करने क और सबको साथ लेने क , दो त बनाने
क अपील थी। गु से म िकताब का अतं करने से भाषा भी ‘ज़ रत’ से यादा गड़बड़ा गयी! स दयशा क खोज
भी ग़ायब हो गयी।
इस िवषय पर दो सपं ािदत पु तक का भी उ लेख मने ऊपर िकया है, एक डा. मु ना ितवारी ारा
सपं ािदत, दिलत सािह य का स दयशा , दसू रा, डा. कमानंद आय के सपं ादन म, अि मतामल ू क सािह य का
स दयशा । जैसािक मने ऊपर बताया है, दोन सक ं लन म इसी िवषय पर आयोिजत सेिमनार म पेश िकये गये
लेख को एक जगह पु तक प म कािशत करा िलया गया है। दोन म ही अकादिमक िक़ म के आलेख ह, िकसी
वैचा रक क खोज का यास नह है। कमानंद आय क पु तक म दिलत, आिदवासी, ी और अ य
अि मतामल ू क िवमश जैसे ांसजडर तक को शािमल िकया गया है और इसम शािमल लेखक भी कमोबेश इ ह
िवमश के बीच के ही ह। इन िवमश के िव तार को समझने म यह सक ं लन मददगार है, लेिकन इनके िलए कोई
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वैचा रक ईजाद नह क गयी है, अकादिमक िववरण ह, ख़ासतौर से कािशत रचनाओ ं के बारे म ही िवमश को
रखा गया है। अपवाद के तौर पर इसम दामोदर मोरे का लेख बहत ही मह वपणू है और नये स दयशा क रचना
क परू ी सभं ावनाओ ं को दशाता है।
डा. मु ना ितवारी का सक
ं लन मु य प से सवण शोधािथय या ा यापक के लेख का िपटारा है, जो
शायद दिलत के साथ सहानभु ूित रखते ह , लेिकन लेखन म उनके सं कार क , उनक परंपरावादी सोच क झलक
हर जगह िमलती जाती है। इसम डा. िव नाथ साद ितवारी क तो ित यावादी सोच भी मौजदू है जो दिलत
समाज के िलए सबसे अिधक घातक है। वे अपने ‘दो श द’ म ही एक ा ण उपदेशक क तरह महीन तरीक़े से
दिलत लेखक को तरह तरह के उपदेश दे डालते ह िजनम सबसे महीन उपदेश यह है िक दिलत लेखक को
राजनीित से दरू रहना चािहए, राजनीित उ ह ‘रंगांध बनायेगी’(पृ.9), दिलत लेखक के ‘आचरण’ को अपिव कर
देगी, ‘अथात वही सख ु वादी, उपभोगवादी आचरण’। दिलत लेखक को वही पिव तावादी ा णवादी उपदेश िक
‘सतं न को कहा सीकरी स काम?’ या तल ु सी क मंथरा क तरह क चेतना का चार िक ‘चेरी छांिड़ न होउब
रानी’। इसम वे अपनी खदु क भगवा रंग क राजनीित से ा ‘सख ु वादी, उपभोगवादी आचरण’ िछपा जाते ह। 'पर
उपदेस कुसल बहतेरे/ जे आचरिहं ते नर न घनेरे।।'
उ सक ं लन म सबसे पहला लेख डा. मैनजे र पांडेय का है और मह वपणू है, परू ी सह-अनभु िू त से
िलखा हआ। वे यह भी जानते ह और ईमानदारी से वीकारते ह िक सवण ारा िलखे सािह य म उनके ज मजात
सं कार और चेतना-अंश के अवशेष बने रहते ह, दिलत लेखक िजस तरह सिदय क गल ु ामी क चेतना के बारे म
सचेत होते ह तो उनके लेखन म अिभ य वेदना का व प ामािणक होता है, उसक नक़ल क जा सकती है
लेिकन कह कुछ ऐसा ज़ र छूट जाता है, जो दिलत चेतना से बने स दयशा क आलोचना ि से पहचाना जा
सकता है। यह देखना िदलच प होगा िक मैनजे र पांडेय के इसी लेख म दिलत का प लेते हए वे एक पारंप रक
ा ण क तरह िलख बैठते ह िक ‘शू को जब देववाणी सं कृ त पढ़ने क ही छूट नह थी, तब वे उसम अपने
जीवन के बारे म सािह य कै से रच सकते थे?’ (पृ. 23) इस लेख म इसी पृ पर आगे जहां भी ‘सं कृ त’ का उ लेख
है, उसके साथ ‘देववाणी’ जड़ु ा हआ है, या मैनेजर पाडं ेय मा सवादी होकर देवी देवताओ ं म आ था रखते ह,
अगर नह तो इसं ान क भाषा ‘देववाणी’ कै से हो गयी? यह हर ा ण के सं कार म बैठा हआ है िक सं कृ त
‘देववाणी’ है और िलिप ‘देवनागरी’ है, के रल के ा ण कहते ह िक के रल ‘देवभिू म’ है! मा सवािदय क
आलोचना करते हए डा. मैनजे र पांडेय वयं ईमानदारी से यह वीकार करते ह िक जाितवादी सं कार के ‘ भाव से
मु होना सहज और सरल नह है... वह उनके िचंतन और लेखन म जाने-अनजाने गु या कट प म मौजदू
रहता है।’
दिलत स दयशा क तलाश म िलखे इस अपार सािह य का अ ययन न तो सभं व है और न अब
उसक ज़ रत ही लगती है य िक सारी कोिशश दिलत के िलखे रचना मक सािह य के िलए आलोचना शा
तैयार करने क ह जबिक िश ा दी ा से जो ान और बोध लेखक को िमला है, उसी का दायरा और उसी क
मैथडोलॉजी उ ह िकसी नयी वैचा रक क गहरी तलाश करने से रोकती है। शौिकया उस पुराने दायरे को ही ‘दिलत
सािह य का स दयशा ’ कहने क हड़बड़ी म इस तरह के बौि क लगे ह।
दरअसल, गंभीर िचंतन से लैस दिलत लेखक के बीच और बहत से ग़ैरदिलत लेखक के बीच यह स य
प है िक सामािजक बदलाव के बग़ैर अके ले सािह य म नयी िदशा क खोज सभं व नह । िव सािह य म आये
बदलाव पर वै ािनक नज़र से िवचार कर तो यह प होगा िक वे बदलाव समाज के आंदोलन क देन थे। भारत
के सािह य म आये बदलाव पर भी यही बात सच बैठती है। दिलत सािह य मराठी म या अ य भाषाओ ं म तभी
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लेखक क चेतना का िह सा बना जब दिलत ने अपने अिधकार के िलए सघं ष करना शु िकया। बाबा साहेब
आबं डे कर के िवचार पर भी गहन िवचार-िवमश क ज़ रत भी इसीिलए महससू क गयी। सामािजक आदं ोलन
और दिलत सािह य के आपसी संबंध को उजागर करने वाली एक िकताब, िपछले िदन बजरंग िबहारी ितवारी क ,
के रल म सामािजक आदं ोलन और दिलत सािह य (नवा ण, जनवरी 2020) चचा के क म आयी है, इसी तरह
दिलत मिु के सघं ष से जड़ु े बहत से सवाल पर सोशल मीिडया पर िलखे लेख का एक सक ं लन इितहास रतन
लाल का आया है, वंिचत भारत : सश ं य, सवाल और सघं ष (द मािजनलाइ ड पि लके शन : 2019) ये दोन
िकताब भी दिलत मिु के आदं ोलन से सरोकार रखने वाले लेखक क शोधपरक चेतना का उ पाद ह, इन पर
चचा होनी ही चािहए।
पहले बजरंग िबहारी ितवारी क िकताब पर अपने िवचार तुत करना चाहंगा। इस पु तक का बड़ा
िह सा के रल के सामािजक आंदोलन पर कि त है जो ज़ािहर करता है िक यह पु तक िकतने शोधपरक म से
िलखी गयी है। बजरंग िबहारी मलयाली नह है, िकंतु के रल के दो तीन सदी के सामािजक यथाथ को, िवशेषकर
वहां क वणवादी सरं चनाओ ं को वै ािनक नज़ रये से िव ेिषत करने के िलए उ ह ने अकूत साम ी जटु ायी है। मेरी
िदलच पी इस िकताब म यह देखने क रही, िक िकस तरह दास यव था हर देश और हर काल म उसी िवचारधारा
को ज म देती है िजसे म अपने आलोचना मक लेखन म " लासीकल िवचारधारा' कहता आया ह,ं िजसका वच व
ीक दास समाज म लेटो, अर तू के समय से भी पहले के रचनाकार म िदखायी देता है, िजसम दास को अपने
अधीन बनाये रखने के िलए िमथक का सृजन होता है, भा यवाद और ई र से अनमु ोिदत गल ु ामगीरी का फ़लसफ़ा
समाज म फै ला िदया जाता है, ा णवाद उसी लासीकल िवचारधारा का भारतीय सं करण है, उसी को ईसाई
शासक के समय म 'चेन ऑफ़ बीइगं ' के नाम से जाना गया। के रल क दास यव था का सटीक िच ण बजरंग
िबहारी क पु तक म है, उससे मिु के िलए कौन कौन से आंदोलन हए, यह िववरण भी है, क यिु न ट आंदोलन के
उ व और िवकास का इन आंदोलन से या र ता है, दिलत समाज क मिु के िलए मा सवादी िवचारधारा से
लैस सरकार ने या क़दम उठाये, या या किमयां रह गय , इन सब त य का ससु गं त हवाला पु तक म है, दास
क वेदना, उनका आ ोश समय समय पर िकस तरह दिलत सािह य के प म के रल म य हआ, उस
अिभ यि को सारी िवधाओ ं म ितिबिं बत होते हए देखा जा सकता है, यह पु तक इस तरह के रल के सामािजक
आंदोलन और सािह य के बीच के र ते को या याियत करती है।
सामािजक याय से जुड़े आंदोलन का लेखाजोखा लेने वाली एक अ य पु तक, वंिचत भारत,
इितहासिवद् रतन लाल क आयी है। वे िद ली िव िव ालय के िहदं ू कालेज म ा यापक ह, उनक पु तक उनके
समय समय पर प -पि काओ ं म और सोशल मीिडया पर िलखे लेख का सचं यन है, उ ह ने इन लेख को दो
िह स म बांटकर एक तरतीब दे दी है, पहला खडं 'वैचा रक ' का है, दसू रा खडं 'समसामियक ' का है। 'वैचा रक '
खडं म गांधी, आंबडे कर, कै लाश साद जायसवाल, सांकृ यायन और रामधारी िसहं 'िदनकर' पर िवचारो जे क
िट पिणयां है, 'समसामियक ' के कई लेख दिलत िवमश पर ह, कुछ िबहार क राजनीित, िश ा यव था आिद
अलग अलग िवषय पर ह। रतन लाल का नज़ रया भी दिलत और वाम के सम वय का है, बि क दिलत,
आिदवासी, अ पसं यक तथा ओबीसी के सम वय का है य िक वे जानते ह िक शोिषत विं चत भारत क मिु
इन सबके साझा आंदोलन से ही होगी। दिलत और ओबीसी के सम वय के िलए वे कहते ह िक आंबेडकर ने
सिं वधान क रचना करते समय 'जमात' के िहत का ख़याल रखा, िसफ़ अनसु िू चत जाितय और जनजाितय तक के
िहत तक अपनी सोच को सीिमत नह िकया, रतनलाल के श द म,
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ु ाई-िसतंबर 2020
पायगे। उ ह ने हज़ार िवखिं डत जाितय और समदु ाय को वग म त दील िकया, अथात SC, ST, OBC और
सबक सरु ा के िलए सिं वधान म ावधान िकये --(देख OBC के िलए ARTICLE 340, SC के िलए
ARTICLE 341और ST के िलए ARTICLE 342) डॉ. आब ं ेडकर ने सिं वधान म सबसे पहले OBC
के िलए ावधान िकया। अथात डॉ. आंबडे कर ने जमात के अिधकार सरु ि त िकये, िजसम जाितयां सि निहत
थ । (पृ. 31)
रतनलाल का इरादा नेक है, वे ओबीसी को यह भरोसा िदलाना चाहते ह िक आंबेडकर ने सबसे पहले उनका यान
रखा, सिं वधान के अनु छे द क तरतीब को अपने इरादे के अनक ु ू ल उ तृ करके इसे पु िकया। वैसे मलू सिं वधान
म खडं 16 आर ण के ावधान क यव था करता है जो अनु छे द 330 से शु होता है। सबसे पहले लोकसभा
और िवधानसभाओ ं म अनसु िू चत जाित व जनजाित के िलए आर ण क यव था क गयी, इसी म ऐ ं लोइिं डयन
समदु ाय के िलए भी आर ण क यव था है, ओबीसी के िलए नह थी। अनु छे द 338 म अनसु िू चत जाितय ,
जनजाितय व ओबीसी क दशा जानने के िलए ' पेशल ऑफ़ सर' क िनयिु का ावधान बाबा साहेब ने िकया
था, िजसम सश ं ोधन करके बाद म 'कमीशन' के गठन का ावधान कर िदया गया, िफर एक और सश ं ोधन करके मल ू
म से 'अनसु िू चत जनजाित' हटाकर अलग से उनके िलए एक दसू रा अनु छे द 338ए जोड़ िदया गया। मल ू सिं वधान
म 'अनसु िू चत जाितय और अनसु िू चत जनजाितय ' के िहत को एक साथ ही रखा गया था। उसके बाद अनु छे द
339 म सिं वधान के पा रत होने के दस साल बाद जनजाितय के हालात जानने के िलए एक कमीशन क िनयिु
क यव था क गयी थी, और िजस अनु छे द 340 का उ लेख रतन लाल ने ओबीसी के िलए िकया है, उसम भी
कमीशन के गठन का ही ताव है, वह सबसे पहले नह , उसी म म है, यानी अनसु िू चत जाित, जनजाित और
ओबीसी व अ य आिथक प से िवप न समदु ाय। इसके बाद के अनु छे द 341 व 342 सचू ी तैयार करने के बारे म
है, यानी िकस जाित को अनसु िू चत जाित और िकसे अनसु िू चत जनजाित माना जाये। बाबा साहेब से एक चक ू यह
भी हो गयी िक उ ह ने इन शोिषत दिलत िह स के िलए नौक रय म आर ण को मल ू सवं ैधािनक अिधकार नह
बनाया, अनु छे द 16 म आर ण देने या न देने का अिधकार क और रा य के हाथ स प िदया, उसी का फ़ायदा
उठाकर बीजेपी आर एस एस के अधीन रा य जैसे उ राखडं नौक रय म आर ण को ख़ म कराने म कामयाब हो
गये और सु ीम कोट भी कोई राहत नह दे पाया। बीजेपी सरकार िनजीकरण के मा यम से और अब सु ीम कोट के
आदेश क आड़ म नौक रय म आर ण ख़ म करने पर परू ी तरह आमादा है, मनु मृित पर आधा रत 'िहदं ू रा '
बना डालने का एजडा तेज़ी से लागू हो रहा है िजसके िवरोध म आंबडे कर परू ी तरह खड़े रहे।
रतन लाल िजस तरह अपने लेख से दिलत तथा ओबीसी को एकजटु ता म बांधने क कोिशश करते ह,
उसी तरह इस गठबधं न म मिु लम समदु ाय को भी शािमल करने क वािहश का इज़हार करते ह! वे सही कहते ह
िक 'मसु लमान क ि थित और दिलत क ि थित म समानता है। इसिलए सीधे राजनीितक ह त ेप के िलए दिलत
और मिु लम को सहयोग के साथ एक िदशा म बढ़ना चािहए।' (पृ. 53) इसी गठजोड़ म वे 'वामपंथ' को भी शािमल
करते ह, जो िक सही नज़ रया है। वे िलखते ह िक 'दिलत राजनीित और वामपथं म एक ख़ास समानता है। दोन
प रवतन और शोषणमु त समाज बनाने क राजनीित म िव वास करते ह। इसिलए उ ह अंतिवरोधी तो क़तई नह
कहा जा सकता।' (पृ.131) इसी यथाथवादी समझदारी से वे दिलत, ओबीसी, मिु लम, वामपंथ के एक महागठबंधन
क सिद छा अपने लेखन म य त करते ह! इसे वैचा रक के आधार पर कि पत करना बिु जीिवय के िलए
आसान है, (इसिलए लेखक के बीच यह एकता परू ी तरह देखी जा सकती है,) मगर उसे राजनीित म अमली जामा
पहनाना बहत ही मिु कल है, इससे भी शायद रतन लाल वािकफ़ ़ ह गे। इसका एक मख ु कारण शायद दिलत
नेतृ व के बजू आकरण
ु म िनिहत है, वे सपं न होते ही म यवग म प रणत होकर उसी क िवचारधारा आ मसात
करके अवसरवाद के िशकार होते आये ह, जगजीवन राम से लेकर, मायावती, पासवान और रामराज उफ़ उिदतराज
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ु ाई-िसतबं र 2020 / 119
तक, दि ण के ा णवादिवरोधी सधु ारक से े रत दल भी, इज़ारे दार पंजू ी क िहत साधक बड़ी राजनीितक
सरं चनाओ ं के ही सहयोगी बनते ह, वाम मोच के नह । रतन लाल के वै ािनक फ़ामले
ू से 'सोशल इजं ीिनय रंग' करने
क पहल शायद इसीिलए दिलत सपं न नेतृ व नह करता, अंतरा ीय िव ीय पंजू ी के वच व से उपजे नवउदारवादी
आिथक शोषणतं से भी वह बेख़बर है, उससे साझा सघं ष करने के िलए वह वामदल के साथ नह आता, भले ही
वामपंथ मायावती जैसे नेतृ व को धानमं ी के चेहरे के प म पेश करने क कोिशश करे , यह एक यथाथ है, शायद
कटु यथाथ।
मो. 9811119391
पु तक संदभ
1. दिलत सािह य का स दयशा : शरणकुमार िलंबाले : वाणी काशन, नयी िद ली, 2000
2. दिलत सािह य का स दयशा : ओम काश वा मीिक, : राधाकृ ण काशन, नयी िद ली, 2001.
3. दिलत सािह य का नया स दयशा : आर. डी. आनदं , प रक पना, िद ली, 2019
4. दिलत सािह य का स दयशा . स.ं डा. मु ना ितवारी, भारती पि लशस, फ़ैज़ाबाद, 2013
5. अि मतामूलक सािह य का स दयशा , स.ं डा. कमानंद आय, मािजनलाइ ड पि लके शन, नयी िद ली, 2018
6. के रल म सामािजक आंदोलन और दिलत सािह य : बजरंग िबहारी ितवारी, नवा ण, ग़ािजयाबाद,
़ 2020
7. वंिचत भारत : संशय, सवाल और संघष : रतन लाल, मािजनलाइ ड पि लके शन, नयी िद ली, 2019
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ु ाई-िसतंबर 2020
आलोचना सवं ाद
राके श िबहारी ने अपनी जनवरी, 2020 म कािशत पु तक भमू डं लो र कहानी के अंतगत तेईस कहािनय का
चयन करते हए उनम दज हए समकाल को उभारा है। इन तेईस कहािनय म रिव बल ु े क ‘लापता न थू उफ़ दिु नया
ना माने’, त ण भटनागर क ‘दादी, मु तान और टच एंड गो’, वंदना राग क ‘ यालनामा’, मोह मद आ रफ़ क
‘चोर िसपाही’, िवमलचं पांडेय क ‘उ र देश क िखड़क ’, िकरण िसहं क ‘सझं ा’, अनजु क ‘अंगरु ी म डंसले
िबया निगिनया’, अपणा मनोज क ‘नीला घर’, मनोज कुमार पांडेय क ‘पानी’, आकां ा पारे कािशव क
‘िश ट+कं ोल+ऑ ट=िडलीट’, राके श िम क ‘िपता रा िपता’, पु षो म अ वाल क ‘नाकोहस’, जय ी
रॉय क ‘कायातं र’, पक ं ज िम क ‘कफ़न रीिम स’, आशतु ोष क ‘अिगन असनान’, राके श दबु े क ‘कउने
खोतवा म लक ु इल’ू , पंकज सबु ीर क ‘चौपड़े क चड़ु ैल’, योिगता यादव क ‘ग़लत पते क िच यां’, ा क
‘म नत टेलस’, िसनीवाली क ‘अधजली’, कै लाश वानखेड़े क ‘ज ट डांस’, य ा क ‘बा रश का देवता’ और
रि म शमा क ‘बंद कोठरी का दरवाज़ा’ नामक कहािनयां शािमल ह। इन कहािनय म से यिद एक-आध को छोड़
द, तो लगभग यही कहािनयां अ ण होता के यहां भी सदं िभत ह। हालािं क उनके यहां कहािनय क अिधकता इतनी
यादा है िक उसके िव तृत मू याक ं न का अवसर यनू पड़ गया है। राके श ने इस सीमा का यान रखते हए के वल
तेईस कहािनय को चनु ा है, जो सटीक जान पड़ता है। वे ‘भमू डं लो र’ श द को इस तरह या याियत करते ह –
‘भमू डं लीकरण क शु आत के बाद का समय, िजसे मने भमू डं लो र समय कहा है, को िपछले समय से अलग करने
म तकनीक और सचू ना ांित क बड़ी भिू मका है।’ अथात् राके श के िलए वह समय भमू डं लो र समय है, िजसम
सचू ना ांित हई। इस समय क दसू री िवशेषताएं िगनाते हए वे बताते ह, ‘गित, सक ं ु चन और यज़ू न इस समय के
ऐसे अिनवाय ल ण ह, जो लगभग मू य क तरह वीकार कर िलये गये ह। ान का सचू ना म, रचना मकता का
उ पादन म, उपलि ध का जीत म, गित का गित म, व तु का उ पादन म, यि का उपभो ा म और सबं धं का
सभं ािवत ाहक म रड्यूस हो जाना भी इस समय क बड़ी िवशेषता है।’ इन कहािनय क िववेचना के दौरान
यादातर भमू डं लो र समय संबंधी उनक उ मा यताएं ही खल ु कर सामने आयी ह।
राके श ने कहानी आलोचना के िलए डायरी, प आिद जैसी कुछ नयी प ितय का भी योग िकया है।
उनके यहां कुछ कहािनय ('सझं ा', 'चौपड़े क चड़ु ैल', 'म नत टेलस' आिद) क िवशेषताएं कम, किमयां यादा
मख ु रत हई ह। यह यह उठता है िक एक रचनाकार िजन कहािनय को अपने समय क े कहािनयां िस
करने के िलए चनु रहा है, वह वयं ही उनम दोषारोपण य कर रहा है? पु तक के सामा य पाठक को भी यह म
उलझा सकता है। या यह कहािनय क पवू म हो चक ु अ यिधक शसं ा क वजह से हआ है या िफर इसके कुछ
दसू रे कारण ह? इसका प ीकरण भी न आमख ु म िमलता है, न सदं िभत लेख म ही।
दसू री ओर, अ ण होता के िलए जो कहानी मह वपणू और िविश है, वही राके श के िलए एक
असफल कहानी बन जाती है। एक ऐसा ही सदं भ अनजु क कहानी ‘अंगरु ी म डंसले िबया निगिनया’ के सबं धं म
देखा जा सकता है। जहां अ ण होता मानते ह, ‘आव यक फै लाव अनजु के कथालेखन का वभाव नह है।
वणना मकता के नाम पर सबकुछ बता देने क ज ोजहद यह कहीनाकार नह करता। यह कहानीकार िवषय या
अंतव तु के आधार पर अपनी शैली को ईज़ाद करता है।’ इसके िवपरीत राके श क मान तो, ‘जाितवाद क
वच ववादी राजनीित के वजवाहक का मिहमामडं न करने वाली कुि सत मश ं ाओ ं को स चते हए गितशील
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कहलाने क लेखक य यशाकां ा इस कहानी क असफलता का सबसे बड़ा उदाहरण है। बरहम बाबा क लाश के
स मख ु अ पताल-किमय का ितरोध हो या बसनी का उस लाश पर थक ू ना, बसनी क मजबरू ी को छ ितरोध
के प म दशाने क कोिशश हो या िफर शीषक म यु गीत को दिलत ब ती म बजाने क नासमझ चालाक , इ ह
िवष से भरे घट के महंु पर दधू का लेप लगाने क नाकाम कोिशश क तरह ही देखा जाना चािहए, जो अपने
अंतिवरोधी गणु -धम के कारण हर क़दम पर सहज ही कहानी म उजागर होते चलते ह।’
यह अंतिवरोध के वल इस कहानी को लेकर नह है, बि क दसू रे कहानीकार को लेकर भी ऐसा ही कुछ
देखा जा सकता है। हालािं क येक आलोचक को अपने िववेक के अनसु ार कहानी-मू याक ं न का अिधकार होता
है, िकंतु पाठक के िलए यह सम या बन जाती है िक वे िकस िबनाह पर कहानी को परख। यिद एक तर पर
मू यांकन के िलए उ ह वयं ही कहानी-पाठ म उतरना है, तो िफर इन आलो य पु तक क ओर वे य आय?
दसू रा, कहानी-आलोचना के िलए यावहा रक मू यांकन प ित का योग ही राके श ने िकया है। िकसी िस ांत-
िनमाण या िफर उसे यु करने म न उ ह ने िच ही ली है और न ही शायद उनका यह अभी रहा है। िफर या
कहानी आलोचना ‘िजतने महंु उतनी बात’ ही बनकर नह रह जायेगी? राके श कह -कह कहानी क प रभाषाएं तो
अव य गथंू ते चलते ह। जैसे एक जगह वे िलखते ह, ‘कहानी न परू ी हक़ क़त होती है न परू ा फ़साना। यथाथ और
क पना का तकस मत सहमेल ही कहानी म सामािजक, राजनीितक और भावना मक यथाथ क पनु रचना क ठोस
ज़मीन तैयार करता है। हक़ क़त और फ़साने के िम ण का सही अनपु ात और उन दोन का अंत:संबंध िमल कर
कहानी क सफलता तय करते ह।’
हां, राके श ने कहािनय का मू याक ं न करते हए अव य ही एक तट थ आलोचक का प रचय िदया है। कहानी म
‘क पना’ और ‘यथाथ’ के बीच क फांक उ ह ने न के वल पहचानी ह, बि क उनक तीखी आलोचना भी क है,
जो इधर क समी ाओ ं से नदारद ह। पु तक क यही िवशेषता हम इसे पढ़ने के िलए े रत करती ह।
इसी साल कािशत हई रोिहणी अ वाल क पु तक कथालोचना के ितमान कई अथ म एक िभ न
आ वाद क आलोचना मक या ा है। चार िह स , मशः आमख ु , आधार, परंपरा और प रिश म बटं ी यह
िकताब न बे के बाद क पीढ़ी के कथाकार - राज दानी, योग आहजा, मनोज पड़ा, िकरण िसहं , मनोज कुमार
पांडेय, वीण कुमार, अ पना िम , नीला ी िसहं आिद क कहािनय का मू यांकन करती है। इसका एक बड़ा
िह सा चं धर शमा गल ु रे ी, जैन , कमले र, मिु बोध आिद क कहािनय क परंपराओ ं पर भी िवचार करता है।
इस िकताब के क म मिु बोध के ‘स यता-समी ा’ िस ांत क अनगु जंू है। आमख ु म मिु बोध क कहािनय का
आलोचना मक पाठ शािमल होना भी शायद इसी अनगु जूं क उपि थित के िलए हआ है। य इस िकताब के शीषक
से सामा यतः यह अनमु ान सहज ही लगाया जा सकता है िक इसम िक ह ितमान को सै ािं तक प से थािपत
िकया गया होगा। िकंत,ु रोिहणी के िलए ‘ ितमान’ यहां दरअसल ‘ ि ’ के पयाय के प म आया है। उ ह ने
कहािनय के पा से संवाद करते हए िजस अंतरंग बातचीत का इस िकताब म योग िकया है, वही उनके ितमान
ह। य आमख ु म शािमल अनेक सिू यां ितमान के पयाय क तरह देखी जा सकती ह। कुछ उदाहरण देिखए :
1. मेरे तई ंवही कहानी े है जो मेरे भीतर तीन अलग तर पर जीते पाठक-आलोचक-रचियता को
एक साथ गथंू कर कहानी क एक वतः सपं णू इकाई भी बना देती है और साथ ही उस कहानी के
समानातं र धड़कते जीवन क पनु पड़ताल क सवं ेदना भी देती है।
2. कहानी क साथकता सवं ाद का मज़बतू पल
ु बनाने म है।
3. अ छी कहानी लोभ और िल साओ ं के पागलख़ाने म क़ै द ‘आ मबोध’ को मु करने क
ज ोजहद है।
4. अ छी कहानी आलोचना के एक पाठ ारा सिु नि त कर िदये गये प के साथ कभी ि थर नह
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रहती। उसक साथकता अपने को सफलतापवू क पढ़वा ले जाने म नह , पाठक के भीतर रचनाकार
क ताब भर कर जीवन क िशना त और सृजन करने क ेरणा बनने म है।
ऐसी ही अनेक थापनाएं लेख के बीच से आकर कहािनय के सबं धं म कुछ िनि त पैमाने तय करने क कोिशश
करती ह।
रोिहणी ने अपने लेख के सहारे उन कहािनय को तलाशा है, जो वतमान समाज क न के वल उ ोषणाएं
करती ह, बि क ठहरकर उनसे पार पाने का संबल भी बनती ह। सवथा यह िकताब कहािनय से सवं ाद करते हए ही
िवकिसत हई है। कहािनय के िजतने अिधक पाठक ह गे, उतने ही अिधक सवं ाद ह गे; िफर ये सवं ाद िजस ि से
कहानी को परख-पढ़ रहे ह गे, वही ितमान वीकर कर िलये जायगे। यह िकताब इसी तक क पैरवी करती है।
सनु ने म यह तक भले ही बड़ा लोकतांि क व कृ ित-िहतैषी िदखता हो, िकंतु इससे यह क़तई तय नह होता िक
कहानी म वे कौन-से त व ह जो सव उसक लोकि यता या िसि का कारण बनते ह या बन सकते ह।
आलोचना एक टे ट के साथ के वल एक अंतरंग बातचीत भर नह है; न ही वह टे ट के साथ अपनी चगु ली
गांठने क छूट या श दबाज़ी। वह बहत सीधे और साफ़ अथ म ‘ रयिलि टक यथाथ’ और ‘िफ़ शनल यथाथ’ के
बीच क फाक ं पर हाथ रख देने क िनमम कायवाही है। यह कायवाही कृ ित म दज हए सामािजक सरं चना के ताने-
बाने म आने वाली अड़चन को उघाड़कर रख देती है। यह िकताब सवं ाद क ि से पढ़ी जानी चािहए, ितमान
के िपपासु यहां से य -के - य लौटगे।
सजं ीव कुमार क 2019 म कािशत पु तक िहदं ी कहानी क इ क सव सदी : पाठ के पास / पाठ से
परे कहानी पढ़ंत क कुछ पा रभािषक िनयमाविलयां बनाने के साथ-साथ इधर क मह वपणू कहािनय पर भी गभं ीर
िवचार करती है। यह िकताब मल ू तः िकसी भी कहानी को पढ़ते हए इस िवषय पर ख़ासा ज़ोर देती है िक या उसे
अपने मल ू प म कहानी ही होना था या िफर वह कोई िनबधं , या यान और अनिु चतं ना मक डायरी अंश भी हो
सकती थी? आमख ु को छोड़कर कुल तेईस आलेख म बंटी इस पु तक म से आठ आलेख (‘गांव जो उजड़ गया
शहर जो बसा नह ’, ‘चिु पय के साथ एक संवाद’, ‘जो सल ु झ जाती है गु थी’, ‘कै से का भी अपना या है’, ‘वे
भल ू ी दा ता’ं , ‘कहन क वापसी-1,2,3’) शु प से कहानी-आलोचना क अपनी पा रभािषक श दावली ईजाद
करने क ओर उठाया गया सधा क़दम है। हालािं क, बाक़ बचे पं ह आलेख भी के वल यावहा रक आलोचना के
नमनू े नह ह, बि क वहां भी कहानी कै से बनती है और य वे इस दौर क मख ु कहािनय म शमु ार हो सकती ह,
जैसे बराबर िव े िषत हए ह। यहां िव े िषत हई कहािनय म अिनल यादव क ‘दंगा भेिजयो मौला’, उदय
काश क ‘मोहनदास’, मनोज कुमार पांडेय क ‘पानी’, िकरण िसहं क ‘ ौपदी पीक’, चदं न पांडेय क ‘भल ू ना’,
राके श ितवारी क ‘कठपतु ली थक गयी’, अवधेश ीत क ‘चांद के पार एक चाभी’, टेकचदं क ‘घड़ीसाज़’,
पकं ज िम क ‘सदरा’, नीला ी क ‘रंगमहल म नाची राधा’, मनीषा कुल े क ‘कठपतु िलया’ं , िशवमिू त क
‘कु ची का काननू ’, योग आहजा क ‘मिसया’, ाद चं दास क ‘धोखा’ और देव क ‘नालदं ा पर िग ’
नामक कहािनयां शािमल ह। कहानी आलोचना के िलए उ ह ने या मक, प र या मक, अंकन, कहन, प रिणत-
प , ि या प और तुतीकरण जैसे श द को पा रभािषक श दावली म ढालकर कहानी पढ़ने के कुछ सू
तैयार िकये ह। वे प रिणत-प , ि या प और तुतीकरण को समझाने के िलए इ ह क1, क2 एवं ख म बांटकर
एक गिणत क तरह कहानी पर अपनी िट पणी करते हए िलखते ह, ‘इन तीन के बग़ैर कोई कहानी बन नह
सकती। तो िफर सरं चना के तर पर फ़क़ िकस चीज़ से पड़ता है? फ़क़ इससे पड़ता है िक सापेि क मह व क ि
से कहानी म इन तीन क ि थित या है, यानी कहानी क जान इनम से िकसम या िकस-िकसम बसती है।’ इसके
िलए उ ह ने सात तरह क कहािनय क सचू ी भी तैयार क है।
सजं ीव के िलए कहानी क दिु नया हमारे िलए जिटल आयाम को खोलने का काम करती है। वे मानते
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ह, ‘कहानी क बनायी समानांतर दिु नया से अपनी दिु नया म लौटते ह तो हमारे पास इस दिु नया के िलए एक अलग
िनगाह होती है, इसके कई अनदेखे या उपेि त या धधंु ले या ढक
ं े तपु े पहलू हमारे िलए अिधक प हो उठते ह।’
यही बहधा कोई भी सफल कहानी हमारे िलए कर सकती है। वह हम हमारे आसपास पसरे समाज को देखने क
हमारी चेतना म इज़ाफ़ा करती है।
सजं ीव क इस पु तक म नामवर िसहं क कहानी आलोचना रह-रहकर लौटती है। वे नामवर क पु तक
कहानी नयी कहानी से कहानी आलोचना के सू ढूढ़ं लाते ह और िफर उ ह अपनी या या से नतू न करते ह।
सजं ीव कहानी के िलए ‘अक ं न’ को ज़ री मानते हए िलखते ह, ‘परु ानी कथाओ ं से आधिु नक कहानी-उप यास
िजस यथाथवाद क ज़मीन पर अलग होते ह, उसक शु आती मांग ही रही है, स याभास एवं सभं ा यता। कहानी
जीवन जैसी तीत हो और इस म म डाले िक आप स यकथा पढ़ रहे ह, इसके िलए ज़ री है िक अंकन का
सहारा िलया जाये।’
सजं ीव अपनी यावहा रक आलोचना के दौरान भी िनणयवादी आलोचक होने से बचे ह। उ ह ने
कहािनय का चयन करते हए इस बात का परू ा यान रखा है िक उनम कहानी अपने िविवध प के साथ खल ु कर
सामने आये।
हालांिक, अपनी तामाम खिू बय के बावजदू इस पु तक के शीषक को लेकर म पैदा होता है। या
िकसी भी सदी के के वल दो शु आती दशक ही उसके सम मू यांकन का रा ता खोल सकते ह? सभं वतः नह ।
एक िभ न अथ म यह िकताब इ क सव सदी के थान का रा ता तो बन सकती है, िकंतु उसके सपं णू वजदू का
मू याकं न नह । अभी कहानी अगले आठ दशक म जाने कौन-कौन से मोड़ लेगी? यही इस िकताब क दख ु ती रग
है। उ मीद है, अपने अगले सं करण म लेखक इस ओर यान दगे।
वैभव िसहं क हाल ही म कािशत पु तक कहानी : िवचारधारा और यथाथ िपछले तीस वष के दौरान
िलखी गयी कहािनय पर िवशेषतः चचा करती है। साथ-साथ कहानी क सदु ीघ परंपरा से हािसल हई उपलि धय
को भी टटोलती है। उनके यहां कहािनय म यथाथ के ित लगातार बढ़ती िच िवशेषतः दज हई है। कुल तीन
िह स , मशः ‘कहानी और समकालीनता’, ‘कहानी क परंपरा’, ‘कहानी : िवचार और अवधारणा’ म बटं ी यह
पु तक िवमश के नाम पर न बे के बाद चलायी गयी ेणीब आलोचना का िवप रचती है। इस पु तक म उदय
काश, िशवमिू त, अिखलेश, योग आहजा, मनोज पड़ा, सजं य कंु दन, अ पना िम , वंदना राग, गीतांजिल ी,
सारा राय, महेश कटारे , शेखर जोशी, शैलये आिद-आिद रचनाकार क कहािनयां िववेिचत होती देखी जा सकती
ह। इन रचनाकार क कहािनय पर कोई समी ा मक िट पिणयां यहां नह है, बि क िपछले दशक म समाज िजस
िवशेष प रपाटी म बदलता गया है, उसक या या के िलए इनक कहािनयां िव ेिषत हई ह।
यहां वैभव के िलए आलोचना का ेमचदं ीय महु ावरा ही सव म है, जो अपने पाठक को सल ु ाता नह
है, बि क उनक चेतना को मशाल क तरह जला देता है तािक उ ह इसक रोशनी म अपने शोषण का सपं णू गिणत
साफ़-साफ़ चमकता नज़र आये। इधर के साल म जब से बाज़ार ने दिु नया के सपाट होने का म फै लाया है, तब से
सािह य भी ोड ट म त दील हो गया है। रचनाकार के िलए ‘जनकि त ितब ता’ िकसी आिदम मनोवृि का
पयाय बनती जा रही है। उ ह ‘कलाओ ं क अनठू ी भ यता के बाज़ारवादी आयोजन ’ म सज-धजकर बैठी मिू त म
अपना आदश िदखायी देता है। ऐसे म स ती लोकि यता से भरा उ िे जत मनोवृि आधा रत सािह य ही उनके िलए
ग रमायु आदश बन जाता है। इससे एक ओर जहां सािह य क अपनी इमेज कम होती है, वह पाठक के िलए भी
वह मा एक ोड ट बनता चला जाता है। वा टर बजािमन के श द म कह तो ऐसा सािह य ‘मैकेिनकल
री ोड शन’ भर होता है, िजसका मनु य क ग रमा और वतं ता को उ ेिजत करने वाली साि वक मनोवृि य से
कोई सबं धं नह होता। ऐसा सािह य िलखने वाले लेखक ज दी ही काल त हो जाते ह। वैभव िलखते ह, ‘सफल
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कथाकार वह नह है जो ग रमा यतु , पीले, बीमार मानवीय चेहरे िदखाये बि क वह है जो ग रमा व वतं ता खो
देने क बाहरी-भीतरी ि थितय को कहानी म उभार दे।’ हालािं क, आलोचक और रचनाकार के सामने सदा ही
यह चनु ौती रही है िक कला क सफलता के पैमान को कै से तय कर? यह कै से तय कर िक ससं ार क सफल कथाएं
कौन-सी रही ह? कौन नह ? वैभव मानते ह, ‘ससं ार क सफलतम कथाएं वे रही ह िज ह ने कोरे नीरस उपदेश के
गड्ढ म िगरे बग़ैर जीवन क सारी ह रयाली तथा उसके सख ू पे न को कथापा के मा यम से कट िकया है।’
य तो येक रचना िकसी-न-िकसी मू य के ित ितब होती ही है, िकंतु कई बार वह िकसी तयशदु ा
ऐजडे को च रताथ करने म इतना ज़ोर लगा देती है िक कथा-िव यास तक िवखिं डत हो जाता है। सहज िदखायी देने
वाला यथाथ भी हवाई लगने लगता है। िफर या यथाथ को अिभ य करना इतना आसान और सहज है िक कोई
भी उसे अिभ य करके संसार के सफलतम लेखक म शमु ार हो सके ? सभं वतः नह । अ सर सीधी लक र ख चना
यादा मिु कल होता है, भले ही वह िकतना भी सहज य न लगता हो।
यहां यह सवाल पूछा जाना चािहए िक या यथाथ क अिभ यि एक स चे रचनाकार के िलए
आव यक है? िनःसदं हे , अगर एक रचनाकार सचमचु ईमानदार है तो यथाथ को अिभ य करने का जोिख़म
उठाना उसक िनयित होती है। जोिख़म से बचाव और रचनाशीलता का िनवाह एक साथ सभं व नह होता है।
हालांिक अब जोिख़म से बचने वाला लेखन चलन म है, पर वह िकतना उपयोगी है, इसका फ़ै सला इितहास
आसानी से कर देगा।
दसू री ओर, ‘िवचारधारा’ बनाम ‘िवचाराधारा-मिु ’ के तमाम सवाल भी आलोचना क पसोपेश म रहे
ह। आलोचना के सामने हमेशा ही एक सक ं ट यह भी रहा है िक वह यह तय करे िक एक आदश रचना म रचनाकार
क कौन-सी मू य- ि होनी चािहए? यह तय करना एक ह के सू ीकरण जैसा होगा, िकंतु िफर भी उसम मनु य क
सामािजक-सां कृ ितक िचतवृि य क पहचान करने यो य िववेक संप नता अव य होनी चािहए। राजशेखर बहत
पहले ‘कारिय ी’ व ‘भाविय ी’ ितभाओ ं का िव ेषण करते हए सभी का यान लगभग इसी ओर िदलवा रहे थे।
दसू रा, िकसी रचना म वैि क एवं प रवेशगत राजनीितक प र य पर पैनी ि भी इसी तरह क यो यताओ ं म िगनी
जा सकती है। तीसरा, जीवन मू य म आ था से जड़ु ाव भी रचना और रचनाकार क ितब ता म होना चािहए।
हालांिक, वैभव क मान तो, ‘िवचारधारा से य प से सचं ािलत लेखन क उ तथा भाव अ सर कम होता
है य िक वहां रचना मकता से समझौता िकये जाने का ख़तरा होता है। लेिकन िवचारधारा क अ वीकृ ित या
अ िचकर अितरे क के बावजदू िवचारधारा िफर भी सािह य-कला का पीछा नह छोड़ती, न ही सािह य-कला
िवचारधारा से पणू िनरपे हो जाने क अव था को ा कर पाती है। वह इसिलए िक चिंू क परू ा समाज ही िकसी-न
-िकसी प म वै यू िस टम पर िटका होता है, इसिलए कहानी या तो उसी मू य यव था का िव तार करती है, या
उसक आलोचना तुत करती है। वा टर बजािमन के ही श द का सहारा लेकर कह तो कहा जा सकता है िक
'कलाएं के वल आलोचनाओ ं को पैदा नह करती ह, बि क वयं आलोचना मक कम क तरह होती ह।
कहानीकार का यथाथ अंततः इसी मू य- णाली का अंग होता है।...यह भी समझना ज़ री है िक के वल
िवचारधारा के बल पर अ छी कहानी नह िलखी जा सकती।’ बहत पहले रामिवलास शमा ने भी कहा था िक
सािह य के वल िवचार नह है, बि क वह भावबोध भी है और इिं यबोध भी। िवचार परु ाने भी पड़ जाते ह और यगु
के अनसु ार सीिमत भी हो जाया करते ह, लेिकन इिं यबोध सबसे िटकाऊ होता है।
यिद यान से देख तो सािह य म िवचारधारा का सारा झगड़ा ि कोण से जुड़ा हआ मालमू पड़ता है।
कभी-कभी लेखक का ि कोण िवचारधारा क ितब ता से जड़ु कर भावशू य हो जाया करता है। िकंतु यह
कहकर हम िवचारिवहीन सािह य के ित सहमत नह हो सकते। सािह य का िवचारधारा से अनायास ही संबधं बन
जाता है। हालािं क, बहतायत म िवचारधारा क अितशयता भी कथा के वाह म बाधक बनती है। इससे िफ़ शन के
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वैचा रक लेख म बदलने का ख़तरा तो अव य रहता है, िकंतु िफर भी िवचार से सािह य क मिु का माग सदैव ही
उसे श द-चम कार क ओर ले जाता है। सािह य क बड़ी शि , जो मनु य क चेतना को िवकिसत करने और उसे
अिधक संवेदनशील बनाने क है, वह िवचार-मिु म नह है, बि क कला के िवकास क सम त ि या िवचार के
अंतगफनु पर ही िनभर करती है। िजस रचना म यह अंतगफन ु नह होगा, वह िनःसदं हे कूल के होमवक जैसा ही
होगा। वैभव कहािनय पर िवचार करते हए इसे ही समझाते ह। उनक मान तो कहािनयां कूल का होमवक नह ह।
‘अ छी कहािनयां आज भी वही ह िज ह पढ़ना कूल का होमवक करने या िज़ मेदारी क तरह न लगे बि क
िजनम भरपरू िक़ सागोई हो। कहानी पढ़ना वयं म काम न हो बि क मनु य िजन ढेर काम म य त रहता है,
कहानी पढ़ने के बाद उ ह परू ा करने म आसानी हो। उनम गप, िवट, मौज-म ती और मािनयत के गणु मौजदू ह ।
जो हमारे जीवन म बचे-खचु े आराम के पल को भी बोिझल न बना द। जो हम समाज के बारे म इस मिु कल ढगं से
सचेत न कर िक हम यह मान ल िक समाज के बारे म सचेत होने क ि या बड़ी जिटल होती है। उ ह पढ़कर ऐसा
नह लगना चािहए िक हमारा समाज अबझू पहेली है और हमारी कहािनयां उसे सल ु झाने के ऐितहािसक िमशन पर
िनकली ह और हमारा काम उस िमशन म योगदान देना है। कहानी िकसी रह यमय घड़ु सवार जैसी न लगे जो िकसी
पहाड़ पर सरपट भागा चला जा रहा है। एक सफल कहानी वह है जो हमारे भीतर च र का बोध पैदा करती है।’
दरअसल, सािह य अपने से आंख िमलाने क ईमानदार कोिशश है। यहां वैभव क अ छी कहानी-सबं धं ी धारणा से
इतर भी सोचा जा सकता है और बहत सभं व है िक समकालीन कहानीकार उनके इस महु ावरे से परहेज़ कर।
दसू री ओर, आलोचना के सामने अपनी सािहि यक िवधाओ ं के िवकास म क सटीक अिभ यि को
पहचानने का भी सक ं ट रहा है। किवता को लबं े समय तक का यशा ीय टूल से िववेिचत िकया जाता रहा है और
अवकाश पा िलया गया है। िकंतु इधर कथा के कट हो जाने पर उसके मू यांकन के ितमान अभी तक ि थर नह
हए ह। यह सवाल लगातार बना ही रहता है िक कहानी या होती है? या वे आधिु नकता म कट हई कोई नायाब
और नयी चीज़ है या िमथक क श ल म बहत पहले से ही हम उ ह सनु ते-पढ़ते आये ह? या वह कुछ िनि त
पा -प र थितय व घटना म का िवकास म मा है या िफर िकसी िवशेष अंत ि से यु एक परू ा रचना-
िव यास उसम िनिहत होता है? वह ख़ास प से चयिनत घटनाओ ं व प रि थितय क सभं ावनाओ ं का सटीक जोड़
तो नह है? वैभव िलखते ह, ‘कहािनयां कभी चाकू या िप तौल नह होती ह जो िकसी िनशाने क तरफ़ उठी हई
होती ह, बि क वे मै नीफ़ाइगं लास हो सकती ह जो बहत-सी सवं ादी-वादी-िववादी वृि य से बने समाज के
अंतरंग व बिहरंग को कट करती ह।’
िफर सवाल यह है िक इस तरह िक कहािनय म यथाथवाद के या अथ हो सकते ह? वैभव मानते ह,
‘कहािनय म यथाथवाद का मतलब यथाथ को उलट-पलटकर देखने, उसके धाग को उधेड़ने-िसलने, पजु को
खोलने-कसने क वतं ता है। िहंदी कहानी क िवकास या ा भारतीय सािह य म यथाथवाद के िवकास के साथ
आरंभ हई है।’ अब सवाल उठता है, कहानी म य जगत् क यथाथवादी अिभ यि क ि या या हो सकती
है? वैभव िलखते ह, ‘ य जगत् से भािवत न होने, उसे अंितम न मानने और उसक जकड़न से मु रहने से
कहानी म भी यथाथ क ाि क बेहतर सभं ावनाएं िनिहत होती ह। इस कार स य को अिजत करने क इ ह दोन
ि याओ ं पर कहानी िनभर होती है िजसम एक ओर वै ािनक ि का योग होता है तो दसू री ओर लेखक का
िविश अंतःकरण होता है जो हर अनभु व स य को अपने तरीक़े से हण कर उसे कहानी म य करता है। कहानी
के वल िनजी भावबोध व सामािजकता के बीच सतं ुलन नह है, बि क कहानी वै ािनक-व तुवादी ि तथा िविश
अंतःकरण के बीच का सतं ुलन भी है।’
वैभव सािह य पर आधिु नकता के भाव का आकलन करते हए इनके सबं धं क भी िशना त करते ह।
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उनके यहां यह सवाल बार-बार आता है िक ‘सािह य और आधिु नकता’ कै से एक दसू रे से जड़ु े ह? यह सविविदत है
िक आधिु नकता ने यि वाद, िश ा, ी- वतं ता और शहरी समाज के उदय को आधिु नकता के बड़े ल ण के
तौर पर पहचाना था । इसके कारण ही दिु नया म तमाम िवमश उपजे थे और सािह य के िकसी क ीय पाठ के बजाय
उसके अनेक बह तरीय पाठ िकये जाने लगे। सािह य को अिभ यि देने वाले महा यान भी बदले। एक समय
मा सवाद िजस तरह महा यान का प धारण िकये था, वह भी दसू रे अनश ु ासन से चनु ौती पाने लगा। यही वह
समय था जब दिु नया ने क के रड्यूस होने का ज मनाया, िकंतु पंजू ी िफर क ीय भिू मका म चली आयी। आज
िवमशवाद के चलताऊ श द समकालीनता पर थोपे जा रहे ह। वैभव मानते ह, ‘आज कहानी को यवु ा या
समकालीन कहानी के नाम से पक ु ारा जाता है। िवमशवाद भी चलताऊ श द है जबिक िवमश म के वल दिलत- ी
सािह य ही आता है। यादा अ छा तो होगा िक अ य िवधाओ ं को यान म रखते हए इस सािह य-यगु को
'िविवधतावाद' के नाम से पक
ु ारा जाये य िक आज का यगु भले ही बाज़ार के कारण अपनी सां कृ ितक बहलता
को खो रहा हो और यव थाएं इसं ान के सक ं ट को कम न कर पा रही ह पर वही यगु कई े व सं कृ ितय से
उपजी ितभाओ ं को सामने ला रहा है। भारतीय लोकतं स ा के शीष पर बैठे चदं नाम से भले ही अब भी
पहचाना जाता है, लेिकन राजनीितक एकािधकारवाद के ख़तर के बावजूद िफ़लहाल ज़मीनी तर पर जारी
भागीदारीमलू क ि याओ ं से भी पहचाना जाने लगा है। स ा और िवमश म ितभागी होने और बहलतामल ू क
प र य रचने क यह आकां ा कथाओ ं तथा अ य सािह य-िवधाओ ं म िवषयगत तथा िवचारगत बहलता के प
म कट हो रही है। कोई अगर वैचा रक ढंग से सक ं ण या बौि क अनदु ारता का िशकार नह है तो वह
उ लासपवू क हाथ फै लाकर इन वृि य का वागत करे गा।’
वैभव क मान तो, सम त सामािजक बाधाओ ं के बावजदू हम भल ू ना नह चािहए िक लोक यवहार
और मयादा को े जीवन आदश मानने क बात तो हर समाज कहता है, पर एक कहानीकार इस आदश का
अित मण करके ही े तम रच पाता है। उसक सफलता ल मण रे खाओ ं को लांघने और दीवार म सध लगाकर
उनके पार जाने म ही िनिहत होती है। इस पु तक म वैभव का यही समाजशा ीय पैमाना उनके कहानी-मू यांकन
का आधार रहा है।
उ पु तक के अ ययनोपरांत यह कहा जा सकता है िक अब कहानी-आलोचना के िलए सबसे
िनणायक समय आन खड़ा हआ है। उसे यावहा रक व सै ांितक, दोन ही मोच पर िह मत व जवाबदेही के साथ
लड़ना है। यह समय के वल िकसी कहानी के प म खड़ा होने का नह , बि क उसके भीतर िछपे मख ु ौट से लड़ने
का भी है। ये िकताब उसका रा ता श त करती अव य महससू होती ह।
मो. 9466948355
पु तक सदं भ
1. भूमंडलीकरण, बाज़ार और समकालीन कहानी : अ ण होता, ने शनल पि लशस, जयपुर, 2019
2. भूमंडलो र कहानी : राके श िबहारी, आधार काशन, पचकुला, 2020
3. कथालोचना के ितमान : रोिहणी अ वाल, आधार काशन, पचकुला, 2020
4. िहंदी कहानी क इ क सव सदी : पाठ के पास/पाठ से परे : संजीव कुमार, राजकमल काशन, िद ली, 2019
5. कहानी : िवचारधारा और यथाथ : वैभव िसहं , वाणी काशन, नयी िद ली, 2020
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कथेतर : या ा वृतांत
1. िसयाहत
मलयालम किव ओ. एन. वी. कु प क मृ यु के बाद उनक ांजिल म जगह-जगह लगे पो टर और पान, ताड़ी
क दक ु ान पर हो रही चचा को देखकर लेखक महससू करता है िक एक किव क पहचं िकतनी हो सकती है :
‘बीकौज़ ही वाज़ ए पोयट ऑफ़ ओिडनरी मैन िवद ओिडनरी आइिडयास’। ये पंि यां ताड़ी क दक ु ान पर बैठे हए
लोग से लेखक को उस जनकिव के बारे म सनु ने को िमलती ह। आप अदं ाज़ा लगा सकते ह िक उस सं कृ ित म
किव और उसके पाठक का या संबधं है! आलोक रंजन इन सबके मा यम से वहां के लोग के सां कृ ितक जीवन
को िदखाते ह। आलोक रंजन ने अपनी या ाओ ं के दौरान देखा िक के रल म लोग िसफ़ अपने बारे म ही नह , बि क
कृ ित के बारे म भी सोचते ह और जंगल के भीतर रहने वाले जानवर क सरु ा के बारे म भी सोचते ह। ऐसा
पवू र भारत म भी देखने को िमलता है। के रल का मरायरू चदं न क लकड़ी के िलए िस है और वहां जाने के
बाद लेखक को पता चलता है िक रहीम के दोहे वाली बात िमथक य है िक 'चदं न िवष यापत नह िलपटे रहत
भजु ंग'। वहां पहचं कर लेखक ने जाना िक चदं न के पेड़ पर सापं होते ही नह । रहीम के दोहे क बात सनु कर वहां के
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लोग खबू हसं ।े आलोक रंजन ने दि ण भारत के िस समु तट गटंु ू र, क याकुमारी, कोवलम, वकला, ओम
आिद का भी बड़ा ही मनोरम य पाठक के स मख ु उके रा है। पढ़ते हए ऐसा लगता है िक सचमचु सारे समु तट
सामने ही िव मान ह। ईसाई धम को लेकर लेखक के मन का पवू ह तब दरू हो जाता है जब वे के रल के एक क़ बे
म ईसाई धम को क़रीब से देखते ह।
दि ण से उ र भारत क रे ल या ा के समय वे बताते ह िक रे ल म आरि त सीट पर लोकल सवा रय
का अनारि त िटकट लेकर बैठना उ र भारत के जैसा ही है, िकंतु उ र भारतीय नवयवु क क लफंगई और
छे ड़छाड़ वहां कह नह है। यहां तक िक पवू र भारत म भी नह । के रल के साथ साथ ही आलोक रंजन आं
देश, कनाटक और तिमलनाडु के जीवन और सं कृ ित का िच ण करते ह। वे एन.एच.-49 के अंितम छोर पर
तिमलनाडु रा य के अंतगत पड़ने वाले धनु कोिट नामक ब ती जो िक भीषण च वाती तूफ़ान के कारण अब
खडं हर हो चकु है, क या ा भी करते ह।
'तेरा' गांव के रहने वाले 22 वष य सगु ु से योता पाकर लेखक आिदवासी गांव म एक मेहमान क तरह
वेश करते ह और वहां सगु ु क मां के हाथ का परोसा हआ खाना उसी रवायत के साथ पाते ह जैसे हर जगह क
मां िखलाती है। ‘तेरा’ गांव क या ा एक ऐसी किठन या ा थी िजसम अनेक पहाड़, नदी और जंगल पार करके खेत
खिलहान के रा ते हािथय के झंडु से बचते पैदल भी रा ता तय करना पड़ा था। आलोक रंजन ‘तेरा’ गांव के
आिदवासी जीवन का, उनके रहन सहन का,आित य का, खेल-नृ य का मोहक िच ण करते ह। वहां के लोग क
आ मीयता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है िक वहां से लौटने के समय जब जीप नह िमली तो गांव के
लोग दगु म रा त को पार करते हए इ ह सकुशल नदी तक छोड़ने साथ-साथ आये थे।
आलोक रंजन उ री कनाटक क भी या ा करते ह और होसपेट(ह पी), ऐहोल, बीजापरु , बादामी, क
या ाओ ं का वणन करते ह। कृ णदेव राय के िवजय नगर सा ा य के ह पी पहचं कर वहां के सयू दय का िच उके रते
ह। वहां से भालओ ु ं के अभयार य को देखने के िलए आलोक रंजन 60 िकमी. आने जाने क अ ु त रोमांचकारी
साइिकल या ा करते ह। इन सारे अनभु व को पढ़ते हए ही रोमांच हो आता है। आलोक रंजन ने दि ण भारत क
एक मक ु मल त वीर पेश क है। जैसा देखा, जैसा महससू िकया िबलकुल वैसी ही त वीर। या ाकार के िलए यह
एक ज़ री बात होती है िक या ा के दौरान वे वहां क सं कृ ितय का िनरपे िच ण कर िबना िकसी पवू ह के
और आलोक रंजन ने इसे बेहतर ढंग से िनभाया है।
2. दूर दुगम दु त
उमेश पतं क दरू दगु म दु त कहने को तो पवू ह के पार पवू र क या ा है लेिकन वे उ र भारत के े तावादी
पवू ह से मु नह हो सके ह। लेखक टू र ट क भांित ही पवू र के बारे म पवू ह से ा सश ं य, भय एवं
अहक ं ार से हमेशा िसत रहते ह। पवू र के बारे म यादातर बात लेखक ने पवू र क या ा करने वाले अपने
सािथय , अंकुर और राजन, से ा जानका रय के आधार पर िलखी ह। लेिकन पवू र के बारे म बताये गये
तथाकिथत इितहास क पड़ताल करना आव यक नह समझा। या ा आरंभ करने के समय ेन म पवू तर भारत के
उस लड़के का जो िक अ छी ख़ासी िहदं ी बोल रहा था, उ र भारतीय लोग के साथ शािमल न होना, अलगाववाद
के कारण नह था बि क उसक अपनी शांित भंग न हो, इस कारण था। पवू र का जीवन बहत शािं ति य है और
यहां के जीवन म ख़लल मु य भिू म के लोग और वहां क सेना डालती है िजसे वे बाहरी कहते ह।
उमेश पंत न जाने य अपनी परू ी या ा के दौरान भय और सश
ं य से त िदखते ह। उनके इस भय का
कारण पूव र के बारे म या किथत अलगाववाद क ामक समझ है। लेखक पवू र के बारे म अनजान ह, यह
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वीकार तो करते ह लेिकन उनके भय के कारण उनके पवू ह ही ह, उसी भय के कारण ही शाम यादा हो जाने के
कारण वे अके ले कामा या मिं दर देखने नह जाते और बस से उतर जाते ह। बाद म दो त अक ं ु र के आ जाने के बाद
वे ओला टै सी म बैठकर मिं दर देखने जाते ह। गवु ाहाटी के जीवन को लेखक बड़े ही अचिं भत भाव से देखते ह
िजसक उ र भारत म क पना ही नह क जा सकती। ि य के ित वहां वैसा पवू ह नह है, जैसा उ र भारत म
देखने को िमलता है। यहां क मिहलाओ ं के आ मिव ास को लेखक कुछ इस तरह से कलमब करते ह : ‘सड़क
पर शांित माच करते हए भी उनके चेहरे पर वही आ मिव ास िदखता है, जो रात के आठ बजे िसटी बस म बेखौफ़
चढ़ते-उतरते हए। यहां सड़क मिहलाओ ं को एक अ य डर का आवरण अपने चेहरे पर ओढ़ने को मजबरू नह
करत । उनके होठ पर िकतनी गहरी िलपि टक है इससे सामने वाल क नज़र पर कोई असर नह होता’। वा तव
म, िसफ़ इस मामले म ही नह , हर मामले म सपं णू पवू र भारत सपं णू उ र भारत से यादा गितशील है। और
इसका ेय यहां क माताओ ं को जाना चािहए िज ह ने यहां के पु ष को बचपन से ही इसं ान बनना िसखाया।
लेखक ने पवू र को समझने के िलए दो बार या ा क । पहली या ा लगभग 20 िदन क रही िजसम वे
गवु ाहाटी, िशलागं , तेज़परु , तवागं , जोरहाट, माजल ु ी, का सफ़र करते ह। लेिकन पवू र क सां कृ ितक िविवधता
इतनी िवशाल है िक कुछ महीन के बाद लेखक पवू र को जानने के िलए दसू री बार या ा करते ह िजसम वे
गवु ाहाटी से िदमापरु , कोिहमा, िकि वमा, िकसामा, जक ू ो वैली, इ फ़ाल, आिद जगह का सफ़र करते ह। लेखक
ारा यादातर वे ही जगह देखी गयी ह, जो दरू दरू के पयटक देखने आते ह। जैसे िक मावलीलॉ ग गांव, ट ि ज,
चेरापंजू ी, बां लादेश से सटा डावक बाडर, माजल ु ी नदी ीप, जक ू ो वैली इ यािद। लेिकन इन सब जगह क या ा
करके आप पवू र भारत क सं कृ ित को क़रीब से नह जान सकते, हां ऊपर ऊपर से िसफ़ देख भर सकते ह। परू ी
या ा म लेखक के अंदर हमेशा एक आशक ं ा, एक भय बैठा रहता है, िक कह उ ह कोई ठग न ले, कोई नक़ ु सान न
पहचं ा दे। जबिक पवू र ने इसके उलट उनका आ मीय वागत िकया। ी-पु ष क सीमा के परे लोग ने इ ह
भटकने पर हमेशा सही रा ता बताया। यह ही पवू र क ख़ास बात है। िन छल जीवन िजसम उन सबके िलए
भरपरू यार है जो उन जैसे ही िन छल ह। पवू र के बारे म लेखक ने यहां के लोग के बजाय यादातर उन लोग के
ज़ रये जाना जो खदु उ र भारत से ह िजनम इनके कुछ दो त, रा ते म िमले लोग, टै सी के ाइवर आिद ह, जो
पवू र के बारे म अपनी-अपनी राय रखते ह। इन जगह क खबू सरू ती के साथ-साथ यहां रहने वाले लोग भी वैसे
ही मन से भरपरू खबू सरू त ह।
िकताब म िदये गये सदं भ से इस बात का सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है िक इसे िलखने म िकस
कार के सदं भ का सहारा िलया गया है। पु तक म िदये गये पवू र भारत का यादातर इितहास इटं रनेट या
िव क पीिडया से िलया गया है, िजनक ामािणकता सदैव सिं द ध बनी रहती है। अ छा होता यिद लेखक खदु से
पवू र के इितहास, सं कृ ित, समाज आिद के बारे म िलखी े लेखक क बेहतर िकताब पढ़कर जाता और यहां
के दरू -दराज़ म रहने वाले लोग से बात करके यहां के जन-जीवन को जानने का यास करता।
3. िशमला डायरी
आलोक रंजन के िसयाहत क ही तरह मोद रंजन उ र भारत के जन-जीवन और सं कृ ित को िशमला डायरी के
मा यम से सामने लाते ह। मोद रंजन क िशमला डायरी मा डायरी नह है। पांच खडं म िलिखत डायरी के प म
यह पु तक डायरी के साथ-साथ ही किवता, कहानी, आलोचना, िट पिणयां और िहमाचल के मौिखक इितहास का
अनोखा द तावेज़ भी है। पहाड़ क ओर लोग ायः घमू ने-िफरने या शांित क तलाश म जाते ह। मोद रंजन पहाड़
क ओर व न क तलाश म गये थे, न िक िहमालय म मिु पाने के िलए, जैसािक धािमक वृि के लोग जाते ह।
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ु ाई-िसतबं र 2020 / 131
इन पहाड़ से ही वे अपने लेखक य और प कार जीवन के सघं ष का आरंभ करते ह। तेरा गांव म जैसे सगु ु ने
आलोक रंजन को वहां क दिु नया से ब करवाया था, वैसे ही यहां मडं ी शहर के रहने वाले सै नी अशेष ने मोद
रंजन को जीवन क वा तिवकताओ ं से अवगत कराया। अपने िहमाचल वास के बारे म मोद रंजन िलखते ह िक
‘यह कहानी मेरे िहमाचल वास तक सीिमत है भी नह । इसके िसरे हमारे समय क उन िवडंबनाओ ं से भी जड़ु ते ह,
जो बहसं यक आबादी क नैसिगक आज़ादी छीन रही ह और उ ह एक अंतहीन दौड़ म शािमल रहने के िलए
िववश कर रही ह। यह िशमला डायरी उसी के तीकार को दज़ करने िक एक कोिशश है’।
िशमला वास के दौरान प कार बनने से पवू मोद रंजन अपने गहन अ ययन को जारी रखते हए
लगातार कुछ न कुछ पढ़ते रहते ह और उन पर अपनी िट पिणयां दज़ करते ह। मसलन, मोद रंजन 2005 म ही
प का रता के िघनौने प को उजागर करते हए कहते ह, ‘प का रता का परू ा माहौल इस तरह का है िक जीना है तो
िकसी न िकसी का पालतू बनना ही पड़ेगा- अब यह आप पर िनभर करता है िक इस ेणीब पालतू शृख ं ला म
आप वयं को कहां-िकतना ऊपर या नीचे िफ़ट कर पाते ह! यह पेशा बेहद तेज़-तरार, शाितर पालतुओ ं के
आिधप य म है’। कहना न होगा िक आज के समय म प कार चाटुकार हो गया है और प का रता चाटुका रता।
लेिकन मोद रंजन तब भी अिडग ह और उ ह यह चाटुका रता वीकाय नह । 15 वष पवू कही हई लेखक क यह
बात िकतनी सटीक और स य है, इसका अंदाज़ा हम आज क प का रता को देखते हए सहज ही लगा सकते ह।
प का रता का तर अब कहां है, यह िकसी से छुपा नह है- ‘दसू री ओर, दैिनक भा कर के िलए नये यरू ो मख ु के
साथ म िकसी क़ मत पर काम करने के िलए तैयार नह । उसने द तर वाइन करते ही सभी प कार को संबोिधत
करते हए कहा था : ‘काम करना हो तो कर, नह तो अभी बाहर जाय। अभी के अभी 2-2 हज़ार पर 10 रपोटर रख
िलये जायगे। ...शहर को फ़ोकस कर। लड़िकय के िबंदास फ़ोटो लाय। पा रचचाएं कर। चमकते चेहर क । यह नह
िक िकसी एससी/एसटी क फ़ोटो ले आय..’। यह 15 वष पवू दज डायरी क बात है। सघं ष ऐसे ही सघं ष नह कह
िदया जाता। सघं ष क ये मृितयां लेखक के मन म ऊभ-चभू मचाती रहती ह। हर स चे लेखक के साथ ये
मनःि थितयां आती ह : ‘िदमाग़ म कई जुमले क ध रहे ह : सड़क िकनारे पकौड़ी बेचने से लेकर इस देश को चलाने
तक कुछ और भी कर सकता ह,ं डॉ टर ने तो कहा नह िक प कार ही बन।ंू ...मझु े मख ू बनाते हए आप यह समझ
िक म एकदम मख ू ह,ं इससे बड़ी मख ू ता या हो सकती है? ...िववाद फै लाना चाहते हो तो खरा-खरा सच िलख दो,
बस। सच से यादा िववादा पद कुछ नह होता।... प का रता म सफल होने का एक नु ख़ा : चु पा बनो। प -
िवप म कुछ भी बोलने से परहेज़ रखो’।
मोद रंजन इन सब प रि थितय से हार नह मानते और अगली सबु ह िफर से कमर कस कर तैयार हो
जाते ह। प का रता के सघं ष के इ ह िदन , मशहर िहदं ी दैिनक, दैिनक भा कर के थानीय सपं ादक के ारा,
िबहारीपन के ऊपर िकये गये ट ट 'यह िबहारी कहां जा रहा है' के मा यम से मोद रंजन समाज के हर े म या
े ीयता के वच व क ओर इशारा करते ह। अपनी डायरी के मा यम से मोद रंजन यि , प रवार और समाज के
सदं भ म प रवार म या भारतीय सामतं ी मानिसकता को दशाते ह, जो हमारे देश क नस-नस म या है। 1 मई,
मज़दरू िदवस के िदन घास पर िखले छोटे छोटे सफ़े द फूल के िबंब के मा यम से वे मज़दरू जीवन क ऊजा को
महससू करते ह। प नी ारा बेटी के कान-छे दन जैसी ग़ैरज़ री परंपरा का पा रवा रक तर पर िवरोध इनके सश
ी िवमश को दशाता है। अपने इ ह िवचार के मा यम से वे ई रीय धारणा के बर स वै ािनक और वा तिवक
सोच पर ज़ोर देते ह।
डायरी के दसू रे खडं म मोद रंजन ने कई किवताएं और एक कहानी िलखी है। ये किवताएं आधिु नक
जीवन सघं ष और िवमश के म य गोते लगाते एक आधिु नक मनु य क जीवन गाथाएं ह, िजनके मा यम से वे इस
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समाज म सिदय से या जात-पांत, छुआछूत और धािमक कु थाओ ं पर बड़े ही दाशिनक तरीक़े से हार करते ह।
उनक किवताओ ं म प रवार एक पतवार क तरह हमेशा उनके साथ मौजदू िमलता है। इनक किवताओ ं म
राजनीितक यं य भी खबू देखने को िमलता है ... 'िशमला म िहमपात' किवता म मोद रंजन िलखते ह :
ठंड बढ़ रही है
बादल को पक ु ार रहे देवदार
आज बफ़ िगरे गी
धोती म िलपटे बापू
इिं दरा ने भी नह डाला प लू
हाय इ ह तो ठंड लगेगी
आज बफ़ िगरे गी
डायरी म 'रामक रत क रीढ़' नाम से प का रता के जीवन को बेबाक़ से िचि त करने वाली एक िदल छू लेने वाली
कहानी है।
डायरी का तीसरा खंड आलोचना को समिपत है िजसम समकालीन किवय के दारनाथ िसहं , राजेश
जोशी, मंगलेश डबराल, लीलाधर जगड़ू ी, पवन करण, गगन िगल, िमिथलेश ीवा तव, कुलराजीव पंत, अनपू
सेठी और अ य लेखक पर िट पणीपरक लेख ह। अपनी आलोचना म मोद रंजन िहमाचल म िहदं ी क दशा एवं
िदशा पर गंभीर िवचार करते ह। कहना न होगा िक ये िट पिणयां इन रचनाकार के गढ़ू रचनाकम और यि व को
उ ािटत करती ह।
डायरी के चौथे खडं म समाचार प के िलए िलखी गयी िट पिणयां ह िजनके मा यम से मोद रंजन ने
िशमला म हए नाटक के मंचन, सगं ोि य और अ य सािहि यक गितिविधय का आकलन िकया है।
पांचव खडं म मोद रंजन िहमाचल के उन दगु म े क या ा करके िहमाचल के मौिखक इितहास को
सजं ोने का यास करते ह िजनक भौगोिलक ि थित, समाज- यव था और सं कृ ित दिु नया के अ य िह स से
अलग है। ये इलाक़े भारी बफ़बारी के कारण साल म लगभग आठ महीने दिु नया के अ य िह स से कटे रहते ह।
इनम िक नौर, लाहौल पीित और चबं ा के पांगी े मख ु ह। इन े म मु यतः बौ धम चिलत है लेिकन
साथ ही ाचीन काल से चला आ रहा बहदेववाद भी उतना ही भावी है। यहां का बहदेववाद आधिु नक िहदं ू धम
से अलग है तथा िहमालय क िविश आिदवासी परंपराओ ं का िह सा है। लेखक ने इन े के दजन थानीय
लोग से लबं ी बातचीत क तथा उनके मा यम से उन लोग के सामािजक और सां कृ ितक जीवन क िविश ताओ ं
को दज िकया है। मौिखक इितहास के इस खडं म चार सा ा कार के प म उस सपं णू े के जन-जीवन को
िसलिसलेवार पेश करने का यास िकया है। पु तक का मौिखक इितहास वाला यह खडं काफ़ रोचक लगता है।
िन य ही यह लेखक क अ य सं कृ ितय के ित जाग कता को दशाता है। और हम सबको यह जानना भी
चािहए िक मु य भिू म से दरू पवतीय े के लोग का जीवन कै सा होता है, जैसे िक िक नौर म बह-पित था पायी
जाती है। साथ ही इन सा ा कार के मा यम से महायान के िव ास , वंिचत समदु ाय के ित उसके नज़ रये तथा बह
-पित था म ि य क दयनीय ि थित का भी पता िमलता है। इन सा ा कार म इन े म बने जोमो गो पा म
िभ िु णय पर लगी पाबंदी और कमकांड क भी चचा है। िशमला डायरी वा तव म सािह य क एक उपलि ध है।
यह एक लेखक य जीवन के सघं ष और उसके सािहि यक अवदान का इ पाती द तावेज़ है।
इन सभी लेखक ने अपनी रचनाओ ं के मा यम से भारतवष के अलग-अलग े क सं कृ ितय को
िदखाने का साथक यास िकया है। तमाम जोिख़म और बाधाओ ं को उठाकर इन लेखक ने भारत के िविभ न
समाज और सं कृ ितय का िच ण करके उनम एक पता तलाशने का जो सराहनीय यास िकया है उसके िलए ये
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साधवु ाद के यो य ह। इनक रचनाएं आगे आने वाली पीिढ़य के िलए िन य ही ेरणा का काय करगी और जीवन
को अनेक आयाम म देखने और उ ह वीकार करने का माग श त करगी।
मो. 9435298492
पु तक संदभ
1. िसयाहत : या ाएं ख़ म नह होत : आलोक रंजन, भारतीय ानपीठ, नयी िद ली, 2018
2. दूर दुगम दु त (पूव ह के पार पूव र क या ा) : उमेश पतं , राजकमल काशन, नयी िद ली, 2020
3. िशमला डायरी: मोद रंजन, मािजनलाइ ड पि लके शन, िद ली, 2019
।
.
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िवशेष मरण
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अपनी शैली बना द, िकसी दसू रे क शैली को छू द तो वह अपनी हो जाये। रमेश रंजक ऐसे ही किव ह।’2
नवगीतकार का दावा था िक उ ह ने छायावादी (उ रछायावादी भी) भावबोध, भाषा और िश प से
गीत को मु िकया। लेिकन आप ग़ौर कर तो पायगे िक भावबोध से उनका आशय दर असल िवषयगत िव तार से
है। अिधकाश ं गीत म अब तेज़ी से बढ़े म यवग क नवीन जीवन-ि थितय के , सामािजक िवसगं ितय के और
उनके बीच ं त यि -मानस के िबबं दीख पड़ते ह, मगर यह कहना शायद ग़लत न होगा िक उनका ीटमट
ायः रोमानी ही है। ये गीत क य (िवषय) के तर पर तो समय के यथाथ को अिभ य करने का यास करते ह,
िकंतु यथाथ क अिभ यि का वर काफ़ हद तक रोमानी ही बना रहता है। यथाथ को देखने क ि म रोमािनयत
बरक़रार रहती है। जन-जीवन म गहरी पैठ से बनी यथाथ- ि , जो रोमानी भावबोध को तार तार कर डाले, के दशन
रमेश रंजक जैसे कुछ ही गीतकार म होते ह। यह रंजक जी क अपनी शैली को िचि त िकया जा सकता है;
उदाहरणाथ देिखए :
चला आया िदन जमाई-सा
इसे या द
कर कै से भाल पर टीका
टक के िबन
चला आया िदन3
या िफर देिखए :
सख ु हई कनपटी मकान क
आख ं खल ु ी अधं े दालान क
गज़ु र गयी िकरन चपत मारकर
अनबुहरे आंगन को पार कर
...
नंगी हो गय चारपाइयां
अलस भरी चिू ड़यां बज
घलु ी-घल ु ी िम ी म नान कर
कलमंहु अंगीिठयां सज
सिपत धिू मल मीनार पर
बैठ गया स नाटा हार कर4
या
प छ पसीना
ली अंगड़ाई
थक ि याओ ं ने
स प िदये
मीठे सबं ोधन
खल ु ी भजु ाओ ं ने
जोड़ गया सदं भ मनचला मौसम हरा-भरा5
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कुछ भी पका देने से हार बैठा 'स नाटा’ और ‘शृगं ार के थान पर पसीना प छ थक हई ि या को भजु ाओ ं म लेना’
ऐसे िबबं ह, जो रोमानी भावबोध वाले म यवग य रचनाकार के यहां ायः अनपु ि थत िमलगे। अभाव के बीच भी
िज़ंदगी को भरपरू जी लेने वाला िमक-वग या िन न म यवग रंजक जी क रचनाओ ं का क िबंदु है। उनक का य-
ि इन वग (वा तिवकता के धरातल पर एक ही वग) के जीवन-यथाथ क गहरी समझ से िवकिसत हई है। रचना
का सवं ेदन-िबदं ु चाहे जीवन-ि थितय से जड़ु ा हो या कृ ित के प-स दय से, किव क का य- ि उसम प रलि त
होती है :
लहर पर रोशनी िगरी पानी म पड़ गयी दरार।
चादं ी क
एक अरगनी बांध गयी कांपते कगार।6
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मेरे पास।11
लेिकन, यह ि थित बराबर नह बनी रहती, कृ ित का वैभव किव क थकन, यास और मन क शु कता को दरू कर
देता है :
थकन भरे सपन के िसरहाने
चदं नी हवा उतरी
यास के िसवाने पर ढुलक गयी
ऋतओ ु ं क रस-गगरी
पोर-पोर भीज गयी चनु री िहयतल क ।12
वेदना, क णा और सवं ेदना का यह म किव क ितब ता को अ य ऊजा दान करता है, ितब ता िज़द म
त दील होने लगती है :
िलख रही ह वे िशकन
जो भाल के भीतर पड़ी ह
वेदनाएं जो हमारे
व के ऊपर गड़ी ह
बंध!ु जब-तक
दद का यह ोत-सावन नह टूटेगा
हरापन नह टूटेगा।13
आम जन के साथ खदु क पहचान रंजक को उनके दख ु -दद क भीतरी सतह तक ले जाती है और आ म-शैली म
वे उसक अिभ यि करते ह। नवगीत वाले दौर म भी यह ितब ता प िदखायी पड़ती है और जब वे
जनगीत का सजन करते ह, तब भी नवगीत के दौर क कला मकता बरक़रार रहती है। दरअसल, रंजक िकसी
आदं ोलन से ऊपरी तौर पर भािवत नह होते। आदं ोलन उनक रचना मक- ि और ितभा को नये-नये ि ितज
दान करते ह। तभी नागाजनु जैसे िस ह त किव कहते ह : ‘िम ी बोलती है कल ही िमली, ऐसी जानदार, इतनी
जीवनधम । इस कार फड़कती, कड़कती, धड़कती रचनाएं एक साथ। बार-बार पढ़ने-गनु गनु ाने लायक़ ह।’14
रमेश रंजक क का य- ितभा जीवन के िविवध आयाम का िविवध कला मक प म सं पश करती
है। िविभ न जीवन-ि थितय और सघं ष के अनेकिवध प को उ ह ने कला मक स दय के साथ अिभ य िकया
है। यह कला मक स दय गढ़ा हआ नह है, यह किव क रागा मकता से उ ू त है। िवषय चाहे ेम हो या आिथक
अभाव के बीच क मन:ि थित या िफर यव था के िव सघं ष और िव ोह, किव ‘िवचार’ को ‘भाव’ बनाकर ही
य करता है। कह देने क कोई ज दबाज़ी नह है, इसिलए गव ि यां, मसीहाई मु ा, उपदेश, उ ोधन, नारे बाज़ी
से वाह-वाह लटू ने या तािलयां िपटवाने वाली अिभ यि य से रंजक दरू ही रहते ह। उनके यहां सवं ेदना और
अनभु िू त अ यंत सहज और आ मीय प म तुित पाती ह। जीवन-यथाथ का गहरा बोध और कला- प क
िनरंतर साधना उनके गीत को पाठक- ोता के मन म देर तक गजंू ते रहने का साम य दान करते ह।
सबसे पहले हम ेम-सबं धं ी कुछ गीत पर िनगाह डालते ह। िकशोरवय क ेमानभु ूित क यंजना किव
ने का यशा ीय उपादान के मा यम से इस कार क है :
छंद सरीखी गठन देह क
मनमोहनी पंि -सी िचतवन
अलंकार उभरे यौवन के
पढ़-पढ़ रीझ गया भावकु मन
भाषा थी
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जानी-पहचानी
शैली थी अनजान तु हारी।15
देह-गठन के िलए ‘छंद’, िचतवन के िलए ‘मनमोहनी पिं ’, यौवन के उभार के िलए अलक ं ार का योग और
जानी-पहचानी ‘भाषा’ म शैली के िभ न होने से िवल णता को य करना, िन सदं हे , ा य है। लेिकन, यही
किव जब काल के अज वाह के बीच िचर मरणीय बने पल को ‘जल- वाह के थम जाने’ और ‘दपण म िबबं
के रम जाने’ से इस तरह अिभ य करता है िजस कार गितशील ि या का कोई ि टल फ़ोटो ाफ़ अलबम म
हमेशा के िलए सरु ि त हो गया हो, तो श द क िमत यियता, ‘थमे’ और ‘रमे’ क अपारंप रक और दःु सा य तक ु
क योजना उसक साधना के उ चतर तर का सक ें त करती है। ऐसी पिं यां िनराला के गीत क कसावट का
मरण कराती ह :
वे पल
थमे जल-से थमे
रमे जैसे
िबंब दपण म रमे
वे पल16
िनराला क एक किवता है, ‘मौन’, िजसम दो ेिमय (या सिदय ) के िनकट िकंतु मौन बैठने का आ ह है।
सांसा रक झमेल के बीच कुछ न कहते-सनु ते हए समीप बैठे यगु ल के अपनी अपनी मनःि थितय से जझू ने-उबरने
क प रणित ‘मौन मधु हो जाय’ क इ छा म होती है। अ ेय भी ‘हरी घास पर ण भर’ म शहर क आपाधापी के
बीच यगु ल के मौन ही कृ ित के एक नमनू े-मा ा को महससू ने से सृि के रागा मक बोध क अिभ यि क गयी है।
रमेश रंजक के यहां भी एक युगल है, वातं यो र भारत का एक यगु ल; िकंतु यह यगु ल एक-दसू रे से मौन रहकर
कुछ महससू करने का रोमानी अनरु ोध नह करता; यह ि थितय से टूटा हआ यगु ल है, जो कुछ कहने क ि थित म
है ही नह , जो अपने ‘भीतर’ के टूटने-िबखरने को िकसी भी तरह य नह होने देना चाहता, जो एक दरू ी को
बनाये-बचाये रखना चाहता है; िकंतु उसके िलए यह सब कर पाना सभं व नह हो पाता। देिखए, रंजक इसे िकस
सिं ता से अिभ य करते ह :
दू रय के पास
बैठे रहे हम-तमु
बेवजह ही जल-सतह
छू आदतन
एक सजं ीदा हवा-से
बहे हम-तमु
....
क य सारा कह गये
अनकहे हम-तमु
ढहे हम-तमु
दीखते अनढहे हम-तमु
दू रय के पास17
गीितका य क मख ु िवशेषताओ ं म ‘भाव क ती ता’ और श द क िमत यियता तथा मै ी का िवशेष थान है।
रंजक के गीत म ‘सांकेितकता’ का गणु पया पाया जाता है और वे ख़ासे संि िबंब देने के साथ साथ भाव क
दु हता से साफ़ बच िनकलते ह, यानी भाव क ती ता पाठक या ोता के िलए अिधक बौि क यायाम के बाद
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हािसल िकये जाने वाली चीज़ नह रहती। उनका एक गीत है, ‘ग़रीब क यौनार’। ज देश म लड़क के िववाह
के अवसर पर ‘राजा जनक बनायी योनार’ गीत गाया जाता है, िजसम जनक क ‘ योनार’ यानी ‘भोज’ क
भ यता का बयान होता है। ज म योनार म आ हपवू क, ायः इनाम-भट के पैसे देते हए आ हपवू क परोसा-
िखलाया जाता है। ऐसी ही एक योनार म बचपन म शरीक होने का अवसर िमला था। यह योनार एक भड़भजू े
प रवार क बारात के वागत म थी। भोजन करते हए कड़ाक क आवाज़ के साथ धातु के दांत के बीच आने का
अहसास हआ, यह एक िस का था। पिू ड़य -कचौिड़य म िस के भरे गये थे। जो जानकार थे, वे पहले ही उनके
टुकड़े करके िस के िनकाल लेते थे और अिधक िस क के िलए अिधक खाते जाते थे। ख़ैर, तो हम रंजक के गीत
क योनार क चचा कर रहे थे। यह ग़रीब क योनार है, िजसम यंजन क बहतायत या, पया मा ा भी नह हो
सक है। इस पर मा-याचना-सी करती हई लड़क क मां समधी से िनवेदन कर रही है िक या बताय हम पर कै सी
िवपि पड़ी हई है। िववाह जैसे अवसर के िलए ‘िबपत’ का योग अ यंत मािमक है और घोर यथाथ का यंजक
भी। दोन फ़सल क कमाई 'लगनु ' और 'दरवाजे'़ क र म पर ख़च हो गयी है। िवदाई के समय भट िकये जाने वाले
खाडं -कटोरे के िलए अगली फ़सल का बीज भी बेचा जा चक
ु ा है :
अरहर सारी गयी लगनु म, सरस दरव जे पै,
खांड-कटोरा म समधी जी! धरौ बीज कौ नाज,
सचाई खोल,ंू हरे -हरे ! सचाई खोलंू डर लागै
ऐसी िबपत परी महाराज...18
मगर यह बात पु ष नह , ी ही कह सकती है। बेटी का घर ज़ र बस रहा है, िकंतु उसका अपना घर सकं ट म है।
कहते हए डर भी है, य िक प रवार का वािभमान और पु ष क अह म यता आहत हो सकती है। इसका नतीजा
कुछ भी हो सकता है। जो भी हो, उसका ख़ािमयाज़ा तो आिख़रकार ी को ही भगु तना है। अब देिखए, राजमजू रन
क होली :
रंग के भाग िठठोली िलखी है
प के भाग म चीर
अपने तो भाग मजरू के भाग ह
भाल पै याम लक र
सजनवा! भाल पै याम लक र
गारे के पांय, पसीने कौ अंचरा,
सीस पै धल ू के बाल,
सजनवा! हमकौ न भावै गुलाल।19
‘िबरहा’ क धनु पर आधा रत इस गीत म अिभजात और अिभजात-वग क भ डी नक़ल करने वाले म यवग क
योहार -उ सव के ित सनातन, एकांगी और वग-िनरपे ि को अ यंत सांकेितक प से तोड़ा गया है। उसके
रंग- प वाली स दयािभ िच के िव िमक स दयबोध को रखा गया है। िनराला क ‘तोड़ती प थर’ के
समानांतर। यहां न क णा क आकां ा है- ‘देखा मझु े उस ि से जो मार खा रोयी नह - और न ही ू र समाज पर
हार का व न - ‘लीन होते कम म िफर य कहा/म तोड़ती प थर।’ यहां तो मज़दरू के भा य म काली लक र
िलखने वाली यव था का यथाथ-बोध है और है अिभजातवग य अिभ िचय के ित अ वीकार का भाव, य िप
िनणायक प म नह । इसे अनासि नह कहा जा सकता, मन तो होली मनाने का है, िकंतु उस तरह से नह , जैसे
सपं न लोग मनाते ह। अपनी ि थितयां वे नह है, िकंतु जो ह, उनका भरपरू वीकार यानी वा तिवकता-बोध और
तदनसु ार अपना अलग ही भावबोध इस गीत म िदखायी पड़ता है।
िन न और िन नम यवग म परंपराओ ं को िनभाने रहने क िववशता और िज़द उनके आिथक आधार को तोड़कर
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ु ाई-िसतंबर 2020
रख देती है, सामािजक मयादा और उसके ित सवं ेदनशीलता के नाम पर िकये जाने वाले ये काम प रवार को कहां
पहचं ा देते ह, इसक मािमक और कला मक अिभ यि ‘घरनी का गीत’ म इस तरह हई है :
सजन तैन इतने भात दये
सपन मेरे पतझर पात भये
फुलवा क पख ं रु ी-सी मोिहनी जवानी
आंसओु ं क गैल गयी खोखले गमु ानी
उभरी नस नहर क नाई ं
हाड़ िपरात गये।20
‘सपन का पतझर के प े हो जाना’ िन य ही अ यंत सदंु र क पना है। ऊपर उ तृ तीन गीत म यथाथबोध ी के
मा यम से आया है। ी-प को ी के िनजी जीवन तक न सीिमत रखकर रंजक उसे सपं णू सामािजक-सां कृ ितक-
आिथक ि थितय म दख़ल देने तक िव तार देते ह। किवता म यथाथ-बोध ायः पु ष के ारा ही अिभ यि पाता
है। रंजक को यह ेय देना होगा िक इस िवषय म भी उ ह ने ी को पु ष के समक खड़ा कर िदया है।
रमेश रंजक क ितब ता ऐसे ही लोग के िलए है, जो तमाम हाड़-तोड़ म के बावजदू इसं ानी िज़ंदगी
जीने क ि थित म नह ह :
िगरवी ह सारी उ मीद
िदन का चैन रात क न द
कज़ पसीने पर हावी ह आख ं चढ़ी थकान क
इतनी भर िज़ंदगी बची इसं ान क ।21
यह बदहाली दैवीय कोप से नह , बि क यव था क देन है। वह यव था, जो लोकतं के नाम पर चल रही है,
पर िजसम ‘तं ’ म पैठे लोग हर तरह क हरकत के बावजदू फूल-फल रहे ह और ‘लोक’ उनका िशकार बन रहा
है। रंजक इस ‘लोक’ को सावधान करते ह :
बचकर कहां चलेगा पगले चार ओर मचान है
हर मचान पर एक िशकारी, आंख म शैतान है।
हवा धलू म बटमारीपन, छाया क तासीर गरम
सरमायेदार के कपड़े, पहने घूम रहा मौसम
न ी-नाल क ज़ंजीर, ह रयल टहनीदार िनयम
यायाधीश पहाड़ मौन ह, खा-पीकर र ती रक़म
स ा के जंगल क प ी-प ी बेईमान है।22
इस बेईमान यव था म आम आदमी क परे शानी इस हद तक पहचं रही है :
इत वक ल उत थानेदारी
लोह पीवत है
दोन तरफ़ गांठ के गाहक
बड़ी मसु ीबत है
ू - यास पटवारी है गयी है।23
इनके मारे भख
िकसान के जीवन म ‘पटवारी’ क भिू मका के बारे म सभी जानते ह। पटवारी के ब ते और उसक नाप-जोख ने न
जाने िकतने िकसान का जीवन बेहाल कर डाला। यहां ‘भख
ू - यास के पटवारी हो जाने’ क यजं ना असीम िव तार
पा जाती है। िकसान के बाद अब िन नम यवग और वेतनभोगी कामगार क ि थित देिखए। बढ़ती महगं ाई, िनयत
पगार और हर जगह र त या लटू -खसोट के चलते उनका जीवन दभू र होने लगा है :
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अबक यह बरस
बड़ा तरस-तरस बीता
दीवार नह पतु , रंग नह आये
एक-एक माह बाधं , ख च-ख च लाये
अब क यह बरस24
‘दीवार नह पतु ’ से दीपावली और ‘रंग नह आये’ से होली के उ सव न मना पाने क यंजना यात य है।
अभाव तता के बीच गृह थ यि क ि थित शोचनीय बन गयी है :
िदन का दख ु भल ू ंू
तो झल ू ,ंू झल
ू े शाम के
टूट गये नंगे पांव म
कांटे काम के
हवा पसीने से कतराती
हसं ी उदासी से
छूट गये ह जैसे लगते-लगते फासं ी से
खाली पेट कर रहे दशन
चार धाम के 25
इन हालात ने जीवन के ित सारे उमगं -उ लास को भंग कर िदया है :
सबु ह ि ज क सि ज़य -सी
सामने आती
रोज़ िचकनी शाम
पािलश-सी उतर जाती
न द आने लगी िक़ त म
टूट कर िदन हो गये बे वाद
बहत म कुछ हो गया अपवाद26
तथा
मेरा बदन हो गया प थर का
‘सोनजहु ी-से’ से हाथ तु हारे
लकड़ी के हो गये
हमारे िदन फ के हो गये
न शा बदल गया सारे घर का27
लेिकन, ये ि थितयां किव को अवसाद म नह ले जात । वह इनसे िनकलने क उ मीद रखता है। उसक आ था है
िक अधं कार िचरजीवी नह है :
िनगल रहा है कफ़न रात का सं या के सनु हरी बदन को
िकरन क चनु री उढ़ा दे अपने गीत के बचपन को
गा जब तक ये घन कजरारे , शिश है बादल के िपछवारे
हो न िनराश िकरन के पथ पर कब तक अिं धयारा छायेगा28
य िक किव का ढ़ िव ास है िक यिद आदमी-आदमी के बीच का र ता मज़बतू है, यिद यथाथ का ज़मीनी
आकलन है, यिद समय क ासदी का सवं ेदन है और यिद रागा मकता शेष है तो किव क कलम िजजीिवषा क
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पहचान कर लेगी और उसक किवता िज़ंदगी क जीत के न के वल गीत गायेगी, बि क प र य को प रवितत करने
क चेतना जागृत कर देगी :
कलम िबकती नह है िसफ़ उसक
जड़ु ा है जो ज़म से, आदमी से
उसी ने चेतना को न क दी है
दखु ी है जो समय क ासदी से
रंग म राग है तो िज़ंदगी है
कलम म आग है तो िज़ंदगी है।29
दख
ु का बोध कराने वाली किवता अब नाकाफ़ लगती है। दख ु िजनके कारण ह, उनके चेहरे पहचानना भी
आव यक है। जाित, परंपरावाद और धम के रा ते ये दख
ु जन-जीवन म आये ह। बाटं ने वाली ये शि यां ही
प रवतनकामी जनता को लाचार और बेबस बना रही ह, मारक ि थितय क ओर ठे ल रही ह। रंजक इ ह बेनक़ाब
कर जनता को आगाह करते ह :
मारने को हम गूंगी मौत
दु मन क फ़ौज है तैयार
हमको मारने को।
एक दु मन, जाित का परचम िलये
बांधकर तमग़े
हमारे सगं ठन पर मारता है चोट
दसू रा आधा धसं ा है लीक म
लीक को ही मानता है ओट
तीसरे के हाथ म है धम क तलवार
हमको मारने को।30
ि थितयां कै सी भी ह , उ ह बदला जा सकता है। यह आशा ही मनु य को भय से बाहर िनकालती है। प रवतन तभी
सभं व है, जब भय से मिु िमलती है। और, भय से मिु तभी सभं व है, जब एकाक न रहकर अपने जैसे दसू र के
साथ सवं ाद हो, िबखरी हई शि पंजु ीभतू हो :
डर के आगे आग जलाओ
क ावर श द को लाओ
िफर देखो
अपनी ज़मीन का
िकतना बड़ा िजगर लगता है
तमु को नाहक डर लगता है31
वतमान यव था खदु को ‘लोकतं ’ कहती है, पर इस लोकतं का िनयं ण ‘बड़े लोग ’ के हाथ म है। उनके िलए
जनता क अहिमयत िसफ़ वोट पाने के िलए है, िजससे स ा ा कर वे भय का वातावरण बना सक और अपने
वाथ क पिू त कर सक। ऐसी तानाशाही को जनता संगिठत होकर ही ख़ म कर सकती है :
कह नह होती सनु वाई
िकतना ही िच लाओ भाई
फै ली चार ओर तबाही
लोकतं म तानाशाही
िबना सगं ठन के न िगरे गी, यह काली च ान।32
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ु ाई-िसतबं र 2020 / 143
और
एका म भारी ताक़त है एका म बैठे करतार।
एका क आवाज़ उठे तौ थर-थर कापं जाय सरकार।।33
‘सगं ठन’ या ‘एका’ तभी होगा जब मानवीय अि मता का बोध होगा। देश म करोड़ मज़दरू -िकसान िसफ़ दो जनू
क रोटी कमाने म झ क िदये गये ह। रंजक यव था, िजसक एक ितिनिध सरकार भी है, के इस दु च को भेदने
और जनता को मानवोिचत ग रमा का सा ा कार कराने का यास करते ह :
रोटी इतनी िबखरा दी है इधर-उधर
िजसे जुटाने म ही लग जाये िदन भर
रात थकन को देकर हम सतं ोष कर
िसफ़ पेट भरने क खाितर िजय-मर
बैल नह ह, हमको सानी निहं चइये
निहं चइये सरकार सयानी निहं चइये।34
मानवीय अि मता का बोध मनु य क रीढ़ को सीधा कर देता है। वह झुकना बदं करता है और अपनी शि को
महससू करने लगता है :
तन गयी ह रीढ़ जो मजबरू थ ग़म से
हाथ बाग़ी हो गये चालाक मरहम से
अब न बहकाओ, छलावा, छलिनय म बह गया है
और आदमक़द हमारा िज म लोहा बन गया है।35
वंिचत वग म अपनी ि थित का बोध उनम नयी चेतना का सचं ार करता है और वे वग भेद को अ वीकार कर अपने
अिधकार के ित जाग क होते ह। उनके िलए सघं ष का रा ता चनु ते ह। याणगीत क धनु पर रंजक इसे इस तरह
य करते ह :
ये आदमी क खाइयां
बढ़ा रही लड़ाइयां
बटं ी हई ज़मीन से
क हई मशीन से
एक आग आ रही है -मु यां कसे हए
जवान गीत गा रही है – मु यां कसे हए36
स यक् चेतना का अब सार हो रहा है। सीने म अव हवा सार पाकर तूफ़ान म बदल रही है। चेतना का यह
सार अव य ही सामािजक सरं चना को प रवितत कर डालेगा, ऐसी किव क आ था है। प रवतन यकायक नह
होता, धीरे -धीरे दीघकाल म होता है, िकंतु िवराट कालगित के छोटे-से अंश म रहनेवाले लोग, ख़ासकर म यवग य
बिु जीवी वग के लोग, उसे ची ह नह पाते और ऐसी आ था का ायः मज़ाक़ ही उड़ाते ह। मगर, चेता और किव
इससे डोलते नह , वे अपनी आ था के ित ढ़ िव ास, ा और ितब ता रखते ह, उसे िनरंतर अिभ यि देते
ह:
ये तफ़
ू ां िकसी के न रोके के गा
के गा तो मिं ज़ल का होके के गा
ये तफ़ू ां नयी सरज़म चाहता है
ज़म पर नया आदमी चाहता है
नयी आग इसं ा म ढल के रहेगी
ज़माने क हालत बदल के रहेगी37
य िप इस गीत म ‘नमामी शमीशान िनवाण पं, िवभंु यापकं वेद व प’ं क लय को आधार बनाया गया है,
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पर श द-योजना से इसे याणगीत का प दे िदया गया है :
18 मई 1951 को िनराला से दारागजं म मल ु ाक़ात का िववरण देते हए अ ेय ने िलखा है, ‘इसके बाद िनराला ने
चार-छः वा य कहे उनसे म आ यचिकत रह गया। उ ह याद करता हं तो आज भी मझु े आ य होता है िक िहदं ी
का य-रचना म जो प रवतन हो रहा था, उसक इतनी खरी पहचान िनराला को थी... िनराला ने कहा, ‘तुम जो
िलखते हो वह मने पढ़ा है... तुम या करना चाहते हो वह हम समझते ह... वर क बात तो हम भी सोचते थे।
लेिकन असल म हमारे सामने सगं ीत का वर रहता था और तु हारे सामने बोलचाल क भाषा का वर रहता है...
ऐसा नह है िक हम बात को समझते नह ह। हमने सब पढ़ा है और हम सब समझते ह। लेिकन हमने श द के वर
को वैसा मह व नह िदया, हमारे िलए सगं ीत का वर ही माण था।’
सगं ीत से श द के वर क तरफ़ क यह या ा बढ़ती ही गयी और चाहे श द के वर बहत कम किवय
ने ही साधे ह , पर धीरे धीरे सगं ीत के वर किवता से छूटते गये। रमेश रंजक ने अपनी किवता म श द और सगं ीत,
दोन के वर को साधा है और इस तरह परंपरा का छोर थामे हए आधिु नकता को परू ी तरह आ मसात करने का
यास िकया है। साठो री किवता म यह काम करने वाले कुछ ही किव ह, िजनम रमेश रंजक का मह वपणू थान
है।38
रंजक जी क का य-या ा लबं ी है, उसके बहत से प इस लेख म नह आ सके ह।
आजकल पाठक इतने लबं े लेख को देखकर ही परे शान हो उठते ह। इतने ही पृ म बात और भी कही जा सकती
थ , िकंतु रंजक के का य का वैिव य और स दय अ छी तरह सामने आ सके ऐसी इ छा ने लेख म उ रण क
सं या बढ़ा दी है। आशा है, रंजक क किवता के िनयिमत पाठक मा करगे और नये पाठक उनक का य- ितभा
का सीधे आकलन करने म स म ह गे। िहदं ी म क तन क परंपरा बहत गहरी जड़ जमाये हए है, इसिलए कुछे क
किवय तक ही चचाएं सीिमत रहती ह। िहदं ी किवता सागर का बहलांश सामािजक के िलए लु ाय रह जाता है।
े किव भी टार चारक , महतं क तिनय क कृ पा- ि के अभाव म उपेि त रह जाते ह या अपेि त मह व ा
नह कर पाते। इधर तो सािह य के अपने अनश ु ासन को इतना गौण मान िलया गया है िक सािह य क समी ा म
उसके कला मक स दय पर अंत म दो-चार सपाट-सी पंि यां देकर इित ी हो जाती है। रंजक ने एक गीत म किव
क इस यथा को अिभ य िकया है :
जाने िकन िसरिफरे अभाव म
र ी के भाव िबक गये ह हम
बेमौसम।
....
सोचा था तैर कर समंदु र क लहर पर
नाम िलख गये ह हम
िकतना म।39
लहर पर नाम तो िन सदं हे िलखा है रमेश रंजक ने, िकंतु तट पर बैठे आलोचक को ‘सनु हरे शैवाल ’ से फ़ुसत हो,
तो लहर के थपेड़े खाय और उन पर िलखे रंजक के नाम पढ़!
मो. 9219701949
संदभ :
1. उपा याय, महेश स.ं ; ‘एक मह वपणू किव स मेलन’; परदे के पीछे ; उ ावना, ग़ािज़याबाद; थम सं करण 2019
2. वही, लैप से
3. रंजक, रमेश; गीत स.ं 48; हरापन नह टूटेगा; अ र काशन, िद ली-1974; पृ. 76
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4. रंजक, रमेश; ‘घर म सबु ह’ शीषक गीत; गीत िवहग उतरा; आ माराम ए ड स स, िद ली-1969; पृ. 27
5. वही; ‘गीत िवहग उतरा’ शीषक गीत; पृ. 13
6. वही; ‘कांपते कगार’ शीषक गीत; पृ. 20
7. उपा याय, डा. महेश-सपं ादक; ‘नदी क आग’ शीषक गीत; परदे के पीछे (रंजक के जन आदं ोलनधम गीत);
उ ावना, ग़ािज़याबाद; थम सं करण 2019
8. रंजक, रमेश; गीत स.ं 62; हरापन नह टूटेगा; अ र काशन, िद ली-1974; पृ. 94
9. वही; गीत स.ं 57; पृ. 89
10. वही; गीत स.ं 53; पृ. 82
11. रंजक, रमेश; ‘गगन भर ण’ शीषक गीत; गीत िवहग उतरा; आ माराम ए ड स स, िद ली-1969; पृ. 11
12. वही; ‘याद एक पल क ’ शीषक गीत; पृ. 41
13. रंजक, रमेश; गीत स.ं 60; हरापन नह टूटेगा; अ र काशन, िद ली-1974; पृ. 92
14. उपा याय, महेश स.ं ; ‘आ मिनवेदन’; परदे के पीछे ; उ ावना, ग़ािज़याबाद; थम सं करण 2019
15. रंजक, रमेश; ‘सरस ि वेणी’ शीषक गीत; गीत िवहग उतरा; आ माराम ए ड स स, िद ली-1969; पृ. 36
16. रंजक, रमेश; गीत स.ं 1; हरापन नह टूटेगा; अ र काशन, िद ली-1974; पृ. 15
17. वही; गीत स.ं 21; पृ. 43
18. रंजक, रमेश; ‘ग़रीब क यौनार’ शीषक गीत; उपा याय, महेश स.ं ; परदे के पीछे ; उ ावना, ग़ािज़याबाद, थम स.ं
2019; पृ. 90
19. वही; ‘राजमजू रन क होली’ शीषक गीत; पृ. 88
20. वही; ‘घरनी का गीत’ शीषक गीत; पृ. 100
21. वही; ‘अक ं ु श अभाव के ’ शीषक गीत; पृ. 30
22. वही; ‘जंगल का गीत’ शीषक गीत; पृ. 60
23. वही; ‘कचहरी के मारे का गीत’ शीषक गीत; पृ. 92
24. रंजक, रमेश; गीत स.ं 16; हरापन नह टूटेगा; अ र काशन, िद ली-1974; पृ. 33
25. वही; गीत स.ं 18; पृ. 39
26. वही; गीत स.ं 20; पृ. 42
27. वही; गीत स.ं 34; पृ. 57
28. रंजक, रमेश; ‘िकरन के पथ पर’ शीषक गीत; उपा याय, महेश स.ं ; परदे के पीछे ; उ ावना, ग़ािज़याबाद; पृ. 27
29. वही; ‘कमल का गीत’ शीषक गीत; पृ. 84
30. वही; ‘दु मन क फ़ौज’ शीषक गीत; पृ. 74
31. वही; ‘डर के आगे’ शीषक गीत; पृ. 79
32. वही; ‘दमन क च क ’ शीषक गीत; पृ. 45
33. वही; ‘रमेश रंजक क आ हा’; पृ. 116
34. वही; ‘बैल नह ह’ शीषक गीत; पृ. 42
35. वही; ‘िज म लोहा’ शीषक गीत; पृ. 75
36. वही; ‘आग का गीत’ शीषक गीत; पृ. 52
37. वही; ‘...लावा फूटेगा’ शीषक गीत; पृ. 55
38. अ ेय; ‘बसतं का अ दतू ’ शीषक लेख; स.ं िव ाधर शु ल; लेखन-5 (िनराला मृित अंक) जनू , 1999; इलाहाबाद;
पृ. 275
39. रंजक, रमेश; ‘सोचा था’ शीषक गीत; गीत िवहग उतरा; आ माराम एढं ससं , िद ली-1969; पृ. 32
146 / नया पथ : जल
ु ाई-िसतंबर 2020
िवशेष मरण
नया पथ : जल
ु ाई-िसतबं र 2020 / 147
िलया। शांत जी जब पटना िव िव ालय से िहदं ी म एम.ए. कर रहे थे, तभी देश क वामपंथी राजनीित म एक नयी
उ वादी धारा अि त व म आयी। उसक तरफ़ आकृ होकर उ ह ने एम.ए. क पढ़ाई बीच म ही छोड़ दी। एक लबं ी
अविध तक वे उसी धारा के साथ जड़ु े रहे। आगे चलकर उस अितवामपंथी धारा से उनका मोहभंग हो गया। कुछ
िदन तक तट थ रहने के बाद अतं तोग वा वे जनवादी लेखक सघं के साथ जड़ु े और िफर अपने जीवन के अिं तम
िदन तक उसी के साथ जड़ु े रहे।
शांत जी के का य-ससं ार म अपने जीवन क मल ू भतू आव यकताओ ं क पिू त के िलए अहिनश सघं ष
करते लोग ह, अधं रे े को िमटाने और एक नया सरू ज उगाने के िलए य नशील लोग ह, भारी जनसमथन से स ा क
कुस पर बैठने के बाद जनतांि क मू य क धि जयां उड़ाते आज के राजनेता ह, बु , सक ु रात, गांधी और
मा स के िवचार के मख ु ौटे लगाये स ा क चाकरी करते तथाकिथत िस ांतवादी दलाल के समहू ह और उनके
सामिू हक उ पीड़न का सामिू हक-सगं िठत ितकार करते उ पीिड़त वग के लोग भी ह। इन किवताओ ं म भगू ोल क
िविवधता है तो इितहास क िविवधता भी है। इनम सावन क घनघोर वषा है, ी म का ताप है और शरद क हाड़
कंपाती ठंड भी है। िवयतनाम भी है, दि ण अ का भी है, बां ला देश भी है, लेिनन का स भी है और माओ का
चीन भी। लेिनन भी ह, पा लो ने दा भी ह, बजािमन मोलाइसे भी ह और जनकिव नागाजन, ु जनवादी शायर
शमशाद सहर और उ र छायावाद के अ यंत िति त किव आरसी साद िसहं भी। इनम अलग-अलग आय-ु वग
के ी-पु ष भी ह और प नी, ेयसी तथा ब चे भी। इनम यि ह, धु ापीिड़त प रवार ह और अपनी सम याओ ं
से लड़ता-हारता समाज भी है। इनम उड़ीसा म सां दाियक फ़ासीवादी समहू ारा िज़ंदा जला िदये गये फ़ादर ाहम
टस और उनके ब चे भी ह और भोपाल गैस काडं पीिड़त लोग भी। और तो और, मानवेतर ाणी भी ह इन
किवताओ ं म। इतनी सारी िविवधताओ ं के वावजदू शांत जी क किवताएं उनक बल और प जनप धरता के
कारण अगर 'पाग चढ़े धागे' क मािनंद नज़र आती ह तो इसे न तो अितरंिजत कहा जा सकता है और न ही
अ वाभािवक। एक ितब ांितचेता किव क रचनाओ ं से िनिमत यह का य-ससं ार उसका विनिमत और
सिु निमत का य-ससं ार है।
सदी का सयू ा त सं ह के आरंभ म किव ने ग और किवता—दोन ही के मा यम से अपनी रचना-
ि या को प करने का यास िकया है। 'आ मक य' के अंतगत उ ह ने िलखा है: 'मेरी समझ यह है िक कोई भी
बात या घटना मेरे ज़ेहन म आलोिड़त-िवलोिड़त होकर जब दबाव बनाती है तब सहसा किवता ज म ले लेती है।
इसीिलए मने अपनी एक किवता म िलखा है - 'पाक चढ़े धागे क तरह/ जब कोई बात पक जाती है/ तब किवता
ज म लेती है ।' शांत जी क किवताओ ं के सदं भ म उनक इस बात का मतलब उनक िवचारसपं नता से िलया
जाना चािहए। िनिववाद प से उनक किवताएं िवचारसपं न किवताएं ह। उ ह पढ़ने के बाद उनक िवचारधारा को
लेकर कोई संशय या सवाल नह खड़ा िकया जा सकता।
शांत जी क किवताओ ं म आज़ाद भारत म कमज़ोर वग क ि थित म लगातार ास होते जाने के
कारण उ प न गहरा ोभ और आ ोश आ ंत ि गोचर होता है। उनक एक किवता 'आिख़र कब तक' क इन
पंि य को इस सदं भ म देखा जा सकता है: ‘लोग प चास खाइय को पार करने के बाद / मझु से पछू ते ह सवाल /
और वही सवाल म आपसे भी पछू ना चाहता ह/ं िक आज़ादी का अथ या है / भख ू ? / बीमारी?/ दवा के बग़ैर घटु
-घटु कर मरना / या झेलना अराजकता / आतंक / लटू मार / खल ु ा यिभचार?’ ये सवाल किव क लगभग सभी
किवताओ ं क पृ भिू म म िव मान ह। एक अ य किवता 'भोपाल गैसकांड' क पंि यां ह: ‘हम सचमचु म बंद ह /
एक बड़े गैस चै बर म / जहां घटु -घटु कर हमारे ाण छूटते रहते ह / हम अब भी गल ु ाम ह देशी-िवदेशी महा भओ ु ं
के / और हम आज़ादी के िलए / बड़ी क़ मत चक ु ानी है।’ इन सवाल से टकराते हए किव िजन िन कष तक
पहचं ता है, उनसे किव क प धरता पु भी होती है और प भी। वह ायः सभी घटनाओ ं क पड़ताल वग य
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ि कोण से करता है, यहां तक िक वसतं ागमन के भाव का भी। उसका मानना है िक जब तक िशिशर क हाड़
कपाने वाली ठंड के अतं का आभास नह होने लगता, तब तक काहे का वसतं ! सं ह क 'वसतं पच ं मी का िदन'
शीषक किवता क िन निलिखत पंि य को इस सदं भ म देखा जा सकता है- 'ओ वसतं ! / अभी बहती है बफ़ ली
हवा / िदशाओ ं म छायी है िठठुरन/ दीन-दिु खय के कापं ते ह हाड़-मासं / आबालवृ दबु क जाते ह रजाई म /
सरे शाम /....अभी तो िशिशर का पाला / फै लाता है अग-जग म कसाला / ओ वसतं !' शांत जी क किवताओ ं म
यह िन ात समझ जगह-जगह अिभ य हई है िक 15 अग त 1947 को भारत को राजनीितक आज़ादी भले ही
िमल गयी, इस देश के दिलत- शोिषत वग क मिु अभी भी नह हई है और वह काम अपने आप होगा भी नह ।
उसके िलए अनवरत सघं ष करना होगा। इसके िलए सघं षरत वग म अपनी जीत का सक ं प और उसके ित भरोसा
बना रहना चािहए; प रवतनकामी चेतना के साथ ितब ता का भाव बना रहना चािहए। इस वैचा रक ितब ता
का बयान करने वाली 'मेरी किवता', 'राही', 'मझु े मत करो यार', 'िनपट अके ला' जैसी कई किवताएं इस सं ह म
शािमल ह। 'राही' किवता म किव का कहना है: ‘ओ राही / िकतने हाथ हए साथ / िकतने गये / िकतन के ारा तुम
छले गये / सोच मत / होना नह हत भ-मख ु लान / सदु ी सयू -सा बलना-िवहसं ना / पीना है िवष तु ह / अमृत-रस
देना है / ओ राही !’
शांत जी के किव के िलए आिख़र आज़ादी का मतलब या है? किव ने इस सवाल का कोई सीधा
और प उ र तो नह िदया है, लेिकन उसने अपनी कई किवताओ ं म यह बतलाने का यास िकया है िक समाज
के साधनिवहीन, बिु नयादी सिु वधाओ ं से वंिचत लोग के िलए जीवन का अथ बदलना चािहए, जीने क सरू त
बदलनी चािहए। 'मझु ाया चेहरा' किवता म एक ऐसे यि क चचा क गयी है िजसक अन याही जवान बेटी पता
नह य एक िदन ज़हर पी कर सोयी ही रह गयी थी, िजसका एकलौता बेटा दवा के अभाव म दम तोड़ चक ु ा था
और िजसक प नी बेटे के िवयोग और अथाभाव म लगभग न नाव था म पित का साथ छोड़ गयी थी। ऐसी दमघ टू
जानलेवा ि थित म िकसी के चेहरे पर िखले गल ु ाब-सी हसं ी कै से िदखलायी पड़ सकती है! इसी तरह 'सावन क
एक सांझ', 'फ़ ल गडु ', 'तु हारे िव ' , ‘आिख़र कब तक' आिद किवताओ ं म देश क र गटे खड़े कर देने वाली
ि थितय का अ यतं यथाथ और आ ोशपणू िच ण िकया गया है। आज़ादी के बाद देश के नीित िनयंताओ ं क
कारगज़ु ा रय से किव काफ़ यिथत िदखलायी पड़ता है: 'समु नत होता देश / िविनवेश का वेश / छंटनी त
मज़दरू / कल-कारख़ाने होते बंद / बेरोज़गार क बढ़ती क़तार / यवु ावग होता बेकार / घृणा का होता सार / र ते
चलते तार-तार / तंग-तबाह िकसान / खाद-बीज-पानी का दाम / छूते आसमान / िवदेशी सं भओ ु ं का बढ़ता
ह त ेप / गल ु ामी क ओर अ सर होता देश'।
देश क ददु शा के िलए िज़ मेदार शि य ने जनता का यान वा तिवक सम याओ ं से भटकाने के
िलए अं ेज़ के समय का आज़माया हआ नु ख़ा ही अपनाया, यानी धम-जाित-भाषा और े वाद के नाम
पर जनता को आपस मे लड़वाने क लगातार कोिशश क । सातव दशक क शु आत के साथ ही देश म एक तरफ़
मोहभंग क शु आत हई तो दसू री तरफ़ जनता को बांटने और आपस म लड़ाने क ितकड़म क । वतं ता ाि के
बाद सां दाियकता क जो आग लगभग ठंडी पड़ गयी थी, वह िफर से सल ु ग उठी और िफर धीरे -धीरे उसका सार
होता चला गया। आज सां दाियकता सबसे बड़ी और गभं ीर सम या बन चक ु है। शातं जी ने इसक गभं ीरता को
बहत िश त से समझा है। इस िवषय पर कि त उनक तीन किवताएं—‘कुछ भी नह बचेगा शेष’, ‘वे लोग’
और ‘ओ मेरे िम ’—इस सं ह म शािमल ह। इन किवताओ ं म किव ने धम के स चे मानवीय व प क या या
क है और लोग को पर पर एकताब रहते हए देशिवरोधी-जनिवरोधी ताक़त क पहचान करने और उनके िव
िनणायक संघष करने क आव यकता को रे खांिकत िकया है। ‘कुछ भी नह बचेगा शेष’ किवता क इन पंि य म
अतं िनिहतमम पश सदं ेश क ासिं गकता और मह व को इस सदं भ म देखा जा सकता है: ‘धम क क णा आख ं
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म झांको / उसे पढ़ो / उसे समझो /मंिदर-मि जद से अलग है वह / िग रजाघर- गु ारे से भी अलग है इसीिलए /
धम को बाटं ो मत / आदमी को बाटं ो मत / नह तो / कुछ भी नह बचेगा शेष / सब कुछ भ म हो जायेगा / घृणा
क आग म / अपनी सं कृ ित—अपना देश।’ किव ने अपनी इ ह भावनाओ ं को अ य एक मु क के प म भी
अिभ य िकया है: ‘इस देश क पहचान िमटाने चले कुछ लोग / इसं ान को हैवान बनाने चले कुछ लोग / मज़हब
का ग़लत अथ समझाने चले कुछ लोग / िफर खनू क निदय म डुबोने चले कुछ लोग।’ ऐसी मनु यिवरोधी सोच के
प रणाम को भी किव के एक अ य मु क म िदखलाया है: ‘भीड़ म ऐसे खड़े ह लोग / आप अपने से डरे ह लोग /
आग नफ़रत क जलायी जा रही / खौफ़ से िसहरे हए ह लोग।’ प है िक किव इस तरह क कोिशश म मिु तला
लोग को न के वल देशिवरोधी और मानवता का दु मन मानता है बि क उनके मसं बू के ित अपना िवरोध भी
दज करता है। रामे र शांत एक सचेत ितब किव ह। वे यह भलीभांित जानते ह िक जब तक बहदलीय
राजनीितक णाली वाली इस लोकतांि क यव था के थान पर वगसघं ष पर आधा रत यव था प रवतन नह
होगा और शासन पर वा तिवक उतपीिड़त वग का अिधकार नह होगा, तब तक शोिषत-पीिड़त वग क मिु का
सपना अधरू ा ही रहेगा। िफर भी लोकतािं क यव था क तमाम सीमाओ ं के बावजदू अगर स ा पर क़ािबज़
राजनीितक नेतृ वक ा समहू भरसक ईमानदारी से यास करे तो बहसं यक जनसमदु ाय क ि थित म बहत कुछ
सधु ार हो सकता है । शा त जी के किव का मानना है िक आज़ादी के सात दशक के बाद भी ऐसा नह हआ। स ा
पर क़ािबज़ शि य ने जनिहत को दरिकनार करते हए स ा का परू ी तरह दु पयोग िकया और उसे भोगा। इसीिलए
किव का आ ोश ऐसी ताक़त क न के वल प पहचान करता है बि क उनके िव हर तर पर सघं ष करने क
आव यकता पर ज़ोर देता है। 'ओ नये वष' शीषक किवता म उसने प प से इस सदं भ म अपनी बात कही है:
'मेरे ारा चनु े हए लोग / मझु े ठगते रहे / गदह क तरह रकते/ और एक-दसू रे को लतारते रहे / मेरे सामने एक
नौटंक खेली जाती रही / और म तमाशबीन बना / सबकुछ देखता रहा अहिनश / उ लओ ु ं के दल ने थाम ली है
रोशनी / इसीिलए फै लता रहा अंधकार परू े वष'। एक अ य किवता 'सकस' म भी लगभग यही भाव य हआ है।
इसी सदं भ को किव ‘शु हो जायेगी एक और नयी किवता’ म आगे बढ़ाते हए कहता है: ‘सच, ये कुछ कर नह
पाये / कुछ कर नह पायगे / कुछ करना भी नह था इ ह /*** इसीिलए / अब समझने लगा हं / िक इन नार और
इन झंड के पीछे / बनैले सअ ू र िछपे ह / जो मेरी देह और अंत रय को / िचथरा-िचथरा करते रहते ह '। इसीिलए
किव अपनी इस समझ को अमली जामा पहनाने के िलए जनता और जनतं के इन दु मन के िव एक िनणायक
सघं ष क आव यकता महससू करता है।
किव रामे र शांत अपने आरंिभक राजनीितक जीवन म उ और अितवामपंथी िवचारधारा के भाव
म रह चक ेु थे। उस राजनीित क अपनी खिू बयां-ख़ािमयां थ , अपने अतं िवरोध थे, िजनके कारण वे उसके साथ
बहत दरू तक नह चल सके । दरअसल, वे यि गत दु साहिसक कारवाइय क जगह भारतीय ांित क
नेतृ वक ा ताक़त —मज़दरू -िकसान वग —क अगवु ाई म बहसं यक जनसमदु ाय क यापक एकता और
सामिू हक-सगं िठत सघं ष के प धर थे। इसीिलए वे चाहते थे िक सम त दिलत-शोिषत और उ पीिड़त वग के लोग
िमलजुलकर यव था प रवतन क लड़ाई लड़ और िनणायक जीत हािसल कर। सं ह क कई किवताओ ं म उ ह ने
अपनी इस भावना को श द म िपरोया है। 'ज़ री है' शीषक किवता म वह परु ज़ोर लहजे म आ ान करता है: 'ओ
सािथयो, आओ / हम इन कुहेिलकाओ ं से लड़ / इ ह व त करने के िलए / ढेर सारी लकिड़यां बटोर / इक ा कर /
आओ / हम एक तीली जलाय / आग सल ु गाय / य िक / देह क िठठुरन िमटाने के िलए / ज़ री है / ढेर सारी
लकिड़य का सल ु गना / ज़ री है / बहत-बहत ज़ री है ।' इसी तरह का आ ान किव 'िचिड़या' किवता म भी
करता है: ' ओ िचिड़या! तुम आओ / एकजटु हो चहचहाओ / मु आकाश म िवचरो-गाओ / िहंसक मनपु ु को /
अपनी ती ण च च से बेधो / अपनी र ा करो / ओ िचिड़या! ओ िचिड़या!! ओ िचिड़या!!!' एक अ य किवता
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'गमु नाम िमका के नाम पाती' क इन पंि य को भी इस सदं भ म देखा जा सकता है: 'तुम आओ िक हम एक-दसू रे
को सहलाय-दल ु राय / तमु और म हम बन जाय / िबखरी हई शि य को जोड़ / बाधा-ब धनिवहीन जग का सपना
रचे सजाय / अपने पांव क बेिड़यां तोड़ / अवरोध क अ ािलकाएं ढाह-िगराय / एक नया सरू ज उगाने के िलए '।
इस तरह सदी का सयू ा त सं ह के अतं गत रामे र शातं जी के किव क राजनीितक चेतना का
मक ु मल िवकास- म िदखलायी पड़ता है । सगं ज़ र अलग-अलग ह, लेखन- म म प अंतराल भी है,
लेिकन किव क राजनीितक चेतना म कह भी न तो ठहराव है, न ही िकसी तरह का भटकाव। उसक आ था और
ितब ता सदैव अप रवितत रही है। उसने लगातार अपने समय और समाज के अतं िवरोध को रे खािं कत िकया है,
उन पर सवाल खड़े िकये ह और उनके समाधान भी सझु ाये ह—सामिू हक-सगं िठत िनणायक सघं ष के प म। बड़ी
बात यह है िक प राजनीितक ितब ता क बार- बार आवृि के बावजदू इन किवताओ ं म मम पश
सवं ेदनशीलता का कह से भी अभाव नह है। इसके िवपरीत 'िचिड़या' जैसी किवता म तो किव क सहानभु िू त और
सवं ेदना तब अ यंत ऊंचाई पर पहचं जाती है जब वह िचिड़या के सघं ष को औिच यपणू बतलाते हए कहता है िक
तमु ने तो िकसी मनपु ु को अपनी च च से अकारण नह िवधं ा है, िकसी को अकारण दख ु नह पहचं ाया है? किव
सामतं ी-पंजू ीवादी यव था ारा शोिषत, उ पीिड़त और छले गये लोग के ित आ ंत सहानभु िू त से भरा नज़र
आता है। वह िनद ष च प ी क ह या से यिथत, ु ध और आ ोिशत आिदकिव वा मीिक क तरह िनरीह,
अिधकारवंिचत और सिदय से सताये गये दिलत-उ पीिड़त लोग के ित सहानभु ूित से भरा और उनके मिु -
सं ाम म सहभािगता हेतु परू ी तरह ितब िदखलायी पड़ता है।
किव रामे र शांत ने जनकिव बाबा नागाजनु क तरह अपने समय के सु िस यि य पर भी
कई किवताएं िलखी ह। बाबा के यहां ऐसी किवताओ ं क सं या बहत यादा है। चिंू क शांत जी ने बाबा क तरह
िवपल ु प रमाण म लेखन नह िकया है, इसिलए वाभािवक प से उनके यहां ऐसी रचनाओ ं क सं या कम है।
सदी का सयू ा त म इस तरह क कुल छः रचनाएं शािमल ह जो लेिनन, पा लो ने दा, नागाजन, ु आरसी साद
िसहं , बजािमन मोलाइसे और शमशाद सहर को क म रखकर िलखी गयी ह। 'महान लेिनन के ित' शीषक किवता
म किव ने लेिनन को िपता कह कर सबं ोिधत िकया है और उनक ही एक बात का हवाला देते हए वैसे लोग पर
हार िकया है जो बात-बात म लेिनन को उ तृ करते ह और उनके िवचार के ितकूल आचरण करते ह। किव
महान लेिनन को सबं ोिधत करते हए कहता है िक 'ओ िपता! / अब सजग-सचेत हो गया है / सघं षशील जन-
समदु ाय / उफन रहा है जन-सैलाब / गाते हए तु हारा जयगान / हर तरह के हार से वह हो गया है सावधान / नह
होगा वह िव िमत-िवमु ध / िवफल ह गे श ओ ु ं के सम त वा जाल / न हो जायगे उनके िवषबझु े शर-
सधं ान।' इसी तरह 'पा लो ने दा' शीषक किवता म किव उ ह एक अ छे आदमी और एक अ छे किव के प म
देखता है जो एक अ छे समाज क क पना म जीता था। किव कहता है िक अपने भलेपन म ने दा ने िचली के
लोकतांि क ढंग से िनवािचत थम क यिु न ट रा पित सा वाडोर आये दे के सहयोगी के प म वग-सहयोग और
शांितपणू सह-अि त व क नीित पर चलने क भल ू क थी लेिकन ितगामी शि य ने उनको धोखा िदया और
अपने कुच वभाव के अनु प िव ासघात िकया। किव इस किवता के मा यम से अपने देश के पा लो ने दाओ ं
को सचेत करने का यास करता है और कहता है िक वे भी 'ग़रीबी हटाओ' जैसे लोकलभु ावन नार से परहेज़ कर,
वरना उनका ह भी पा लो ने दा जैसा ही हो सकता है। शेष चार किवताए,ं िजनम से अिख़री तीन ग़ज़ल के प
म ह, मशः नागाजन, ु आरसी बाब,ू बजािमन मोलाइसे और शमशाद सहर के ित ापणू भावािभ यि यां
ह । किव नागाजनु के ित उसक भावना देिखए - 'वह जनकिव था / जन-जन का किव/ जनता क आकां ाओ ं क
तसवीर / अपनी किवताओ ं म उतारता था / उनक पीड़ाओ ं के गीत गाता था / किवताएं उसक जन-जन क आंख
क पतु िलयां थ ।' इसी तरह उसक ि म किववर आरसी साद िसहं एक वािभमानी सतं क तरह ह, िजनम
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वसतं क -सी ताज़गी है। शहीद बजािमन मोलाइसे और शायर शमशाद सहर को भी इसी तरह बहत भावक ु तापवू क
याद िकया गया है। इस तरह बाबा और शातं जी क इन यि कि त किवताओ ं म वृि के िलहाज से काफ़
समानता है, बावजदू इसके उनके बीच एक मह वपणू अंतर भी है। नागाजनु जी ने जहां अपने समय के नायक —
रव नाथ टैगोर, महा मा गाधं ी, लेिनन, गीतकार शैल जैसे लोग पर ा और स मान के भाव य करनेवाली
किवताएं िलखी ह, वह मोरारजी देसाई, इिं दरा गांधी, बाल ठाकरे जैसे लोग के जनिवरोधी कृ य पर कठोर
यं या मक हार करनेवाली किवताएं भी िलखी ह। शांत जी के यहां यह चीज़ नह िमलती। उ ह ने अपने समय
के नायक का सकारा मक मू याक ं न करते हए उ ह सादर स मानपवू क मरण िकया है और उ ह अपनी ाजं िल
िनवेिदत क है, गोिक शांतजी क किवताओ ं का मु य वर समाज के वंिचत-उ पीिड़त वग क मिु क
प धरता का है, तथािप उ ह ने कितपय अ य िवषय पर भी बहत मन से िलखा है। 'ब चे', 'चील', 'गाछ', 'गम क
दोपहर', 'वसतं ', ' यार-1 और 2', 'रे शमी याद', 'िखलने दो', 'याद का साया', 'भगवान' आिद इसी तरह क
किवताएं ह । इनम 'याद का साया' एक ेम किवता है तो 'भगवान' यं य किवता। 'ब चे' और 'िखलने दो' भी बहत
सदंु र रचनाएं ह। किव क यह िवशेषता मौसम और ऋतओ ु ं पर िलखे गये उसके गीत म भी प िदखलायी पड़ती
है।
किव रामे र शांत अपनी का यभाषा के िलहाज से भी एक िविश किव ह। िजस तरह
उनक किवताओ ं के िवषय उनके ाम- ांतर से लेकर अंतररा ीय प रवेश तक फै ले हए ह, उसी तरह उनक
का यभाषा म भी िहदं ी के साथ ही सं कृ त, अं ेज़ी, अरबी, फ़ारसी के लोक चिलत श द का अ यंत वाभािवक
समावेश िदखलायी पड़ता है। यहां तक िक मगही, अिं गका और बि जका िमि त ल मार बेगसु रै या बोली के
'अंत रयां, क आ, क ह, ह रयर, सु ी गाय' जैसे श द भी उनक भाषा म िदखलायी पड़ते ह। िनि त प से,
रामे र शांत अपने दौर के अ यंत ितभाशाली और मह वपणू किव ह जो अपनी वैचा रक ितब ता और
साथक रचना-कम के कारण हमेशा सादर मरण िकये जाते रहगे ।
मो. : 9431685639
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