You are on page 1of 107

जलती च ान

eISBN: 978-81-2883-539-1
© काशाधीन
काशक: डायमंड पॉकेट बु स ( ा.) ल .
X-30 ओखला इंड टयल ए रया, फेज-II
नई िद ी-110020
फोन: 011-40712100, 41611861
फै स: 011-41611866
ई-मेल: ebooks@dpb.in
वेबसाइट: www.diamondbook.in
सं करण: 2016
जलती च ान
लेखक : गुलशन नंदा
जलती च ान
रे लगाड़ी ने जब सीतापुर का टेशन छोड़ा तो राजन देर तक खड़ा उसे देखता रहा। जब अंितम
िड बा सगनल के करीब पहच ँ ा तो उसने एक लंबी साँस ली। अपने मैले व को झाड़ा, सर के
बाल संवारे और गठरी उठाकर फाटक क ओर चल पड़ा।
जब वह टेशन के बाहर पहच ँ ा तो र शे वाल ने घूमकर आशा भरे ने से उसका वागत
िकया। राजन ने लापरवाही से अपनी गठरी एक र शा म रखी और बैठते हए बोला-‘सीतलवादी’।
तुरंत ही र शा एक छोटे से रा ते पर हो लया, जो नीचे घाटी क ओर उतरता था। चार ओर
हरी-भरी झािड़याँ ऊँची-ऊँची ाचीर क भांित खड़ी थ । पि य के झुड ं एक ओर से आते और दसरी

ओर पंख पसारे बढ़ जाते, जस पर राजन क ि िटक भी न पाती थी। वह मन-ही-मन स हो
रहा था िक वह थान ऐसा बुरा नह -जैसा वह समझे हए था।
थोड़ी ही देर म र शा काफ नीचे उतर गई। राजन ने देखा िक य - य वह आगे बढ़ रहा था-
ह रयाली आँख से ओझल होती जा रही है। थोड़ी दरू जाने पर ह रयाली िबलकु ल ही ि से ओझल
हो गई और याही जैसी धरती िदखाई देने लगी। कटे हए माग के दोन ओर ऐसा तीत हो रहा था-
मानो काले देव खड़े ह ।
थोड़ी दरू जाकर र शे वाले ने चौराहे पर र शा रोका। राजन धीरे से धरती पर पैर रखते हए
बोला-‘तो या यही सीतलवादी है?’
‘हाँ, बाबू.... ऊपर चढ़ते ही सीतलवादी आरं भ होती है।’
‘अ छा!’ और जेब से एक पया िनकालकर उसक हथेली पर रख िदया।
‘लेिकन बाबू! छु ा नह है।’
‘कोई बात नह , िफर कभी ले लूँगा। तुम भी यह हो और शायद मुझे भी इ ह पवत म रहना
हो।’
‘अ छा बाबू! नंबर चौबीस याद रखना।’
राजन उसक सादगी पर मु कराया और गठरी उठाकर ऊपर क ओर चल िदया।
जब उसने सीतलवादी म वेश िकया तो सव थम उसका वागत वहाँ के भ कते हए कु ने
िकया-जो शी ही राजन क नेह भरी ि से भािवत हो दमु िहलाने लगे और खामोशी से उसके
साथ हो लए। रा ते म दोन ओर छोटे-छोटे प थर के मकान थे- जनके बाहर कु छ लोग बैठे िकसी-
न-िकसी धंधे म संल थे। राजन धीरे -धीरे पग बढ़ाता जा रहा था मानो सबके चेहर को पढ़ता जा
रहा हो।
वह िकसी से कु छ पूछना चाहता था-िकंतु उसे लगता था िक जैसे उसक जीभ तालू से िचपक
गई है। थोड़ी दरू चलकर वह एक ौढ़ यि के पास जा खड़ा हआ-जो एक टू टी सी खाट पर बैठा
ह का पी रहा था। उस ौढ़ यि ने राजन क ओर देखा। राजन बोला‒
‘म कलक े से आ रहा ह।ँ यहाँ िबलकु ल नया ह।ँ ’
‘कहो, म या कर सकता ह?
ँ ’
‘मुझे कंपनी के द तर तक जाना है।’
‘ या िकसी काम से आए हो?’
‘जी! व स मैनज
े र से िमलना है। एक प ।’
‘अ छा तो ठहरो! म तु हारे साथ चलता ह।ँ ’ कहकर वह ह का छोड़ उठने लगा।
‘आप क न क रए-केवल रा ता...।’
‘क कैसा... मुझे भी तो ूटी पर जाना है। आधा घंटा पहले ही चल दँगू ा।’ और वह कहते-
कहते अंदर चला गया। तुरंत ही सरकारी वद पहने वापस लौट आया। जब दोन चलने लगे तो
राजन से बोला-‘यह गठरी यह छोड़ जाओ। द तर म ले जाना अ छा नह लगता।’
‘ओह... म समझ गया।’
‘काक !’ उस मनु य ने आवाज दी और एक बुिढ़या ने झरोखे से आकर झाँका-‘जरा यह अंदर
रख दे।’ और दोन द तर क ओर चल िदए।
थोड़ी ही देर म वह मनु य राजन को साथ लए मैनज
े र के कमरे म पहच
ँ ा। प चपरासी को दे
दोन पास पड़े बच पर बैठकर उसक ती ा करने लगे।
चपरासी का संकेत पाते ही राजन उठा और पदा उठाकर उसने मैनज
े र के कमरे म वेश िकया।
मैनज
े र ने अपनी ि प से उठाई और मु कु राते हए राजन के नम कार का उ र िदया।
‘कलक ा से कब आए?’
‘अभी सीधा ही आ रहा ह।ँ ’
‘तो वासुदेव तु हारे चाचा ह?’
‘जी...!’
‘तु हारा मन यहाँ लग जाएगा या?’
‘ य नह ! मनु य चाहे तो या नह हो सकता।’
‘हाँ यह तो ठीक है-परं तु तु हारे चाचा के प से तो तीत होता है िक आदमी जरा रं गीले हो।
खैर... यह कोयले क च ान शी ही तु ह कलक ा भुला दगी।’
‘उसे भूल जाने को ही तो म यहाँ आया ह।ँ ’
‘अ छा-यह तो तुम जानते ही हो िक वासुदेव ने मेरे साथ छः वष काम िकया है।’
‘जी...!’
‘और कभी भी मेरी आन और कत य को नह भूला।’
‘आप मुझ पर िव वास रख-ऐसा ही होगा।’
‘मुझे भी तुमसे यही आशा थी। अ छा अभी तुम िव ाम करो। कल सवेरे ही मेरे पास आ जाना।’
राजन ने ध यवाद के प चात् दोन हाथ से नम कार िकया और बाहर जाने लगा।
‘परं तु राि भर ठहरोगे कहाँ?’
‘यिद कोई थान...।’
‘मकान तो कोई खाली नह । कहो तो िकसी के साथ बंध कर दँ।ू ’
‘रहने दी जए-अकेली जान है। कह पड़ा रहग
ँ ा-िकसी को क देने से या लाभ।’
मैनज
े र राजन का उ र सुनकर मु कराया और बोला-‘तु हारी इ छा!’
राजन नम कार करके बाहर चला गया।
उसका साथी अभी तक उसक राह देख रहा था। राजन के मुख पर िबखरे उ ास को देखते
हए बोला-
‘ य भैया! काम बन गया?’
‘जी-कल ातःकाल आने को कहा है।’
‘ या िकसी नौकरी के लए आए थे?’
‘जी...!’
‘और वह प ?’
‘मेरे चाचा ने िदया था। वह कलक ा हैड ऑिफस म काफ समय इनके साथ काम करते रहे
ह।’
‘और ठहरोगे कहाँ?’
‘इसक िचंता न करो-सब ठीक हो जाएगा।’
‘अ छा-तु हारा नाम?’
‘राजन!’
‘मुझे कुं दन कहते ह।’
‘आप भी यह ।’
‘हाँ-इसी कंपनी म काम करता ह।ँ ’
‘कैसा काम?’
‘इतनी ज दी या है? सब धीरे -धीरे मालूम हो जाएगा।’
‘अब जाओ-जाकर िव ाम करो। रा ते क थकावट होगी।’
‘और आप।’
‘ ूटी!’
‘ओह... मेरी गठरी?’
‘जाकर काक से ले लो- हाँ-हाँ वह तु ह पहचान लगी।’
‘अ छा तो कल िमलूँगा।’
‘अव य! हाँ, देखो िकसी व तु क आव यकता हो तो कुं दन को मत भूलना।’
काक से गठरी ली और एक ओर चल िदया। वह गाँव को इस ि से देखने लगा िक राि
यतीत करने के लए कोई थान ढू ँढ सके। चाहे पवत क कोई गुफा ही य न हो। वह आज बहत
स था। इस लए नह िक उसे नौकरी िमलने क आशा हो गई थी, ब क इन पवत म रहकर शांित
भी पा सकेगा और अपनी आयु के शेष िदन कृित क गोद म हँसते-खेलते िबता देगा। वह कलक ा
के जीवन से ऊब चुका था। अब वहाँ रखा भी या था! कौन-सा पहलू था, जो उसक ि से बच
गया हो। सब बनावट-ही-बनावट-झूठ व म कार क मंडी!
वह इ ह िवचार म डू बा ‘वादी’ से बाहर पहच
ँ गया। उसने देखा-थोड़ी दरू पर एक छोटी-सी नदी
पहािड़य क गोद म बलखाती बह रही है। उसके मुख पर स ता-सी छा गई। वह ज दी-ज दी पैर
बढ़ा नदी के िकनारे जा पहच
ँ ा और कपड़े उतारकर जल म कू द पड़ा।
नान के प चात् उसने व बदल डाले और मैले व को गठरी म बाँध, नदी के िकनारे -
िकनारे हो लया।
सूय देवता िदन भर के थके िव ाम करने सं या क मटमैली चादर ओढ़े अंधकार क गोद म मुँह
िछपाते जा रहे थे। राजन क आँख म न द भर-भर आती थी। वह इतना थक चुका था िक उसक
ि चार ओर िव ाम का थान खोज रही थी। दरू उसे कु छ सीिढ़याँ िदखाई द । वह उस ओर
शी ता से बढ़ा।
वे सीिढ़याँ एक मंिदर क थ -जो पहािड़य को काटकर बनाया गया था और बहत पुराना तीत
होता था। वह सीिढ़य पर पग रखते हए मंिदर क ओर बढ़ा- परं तु चार-छः सीिढ़याँ बढ़ते ही अपना
साहस खो बैठा। गठरी फक वह सीिढ़य पर लेट गया, थकावट पहले ही थी- लेटते ही सपन क
दिु नया म खो गया।
डू बते हए सूय क वे बुझती िकरण मंिदर क सीिढ़य पर पड़ रही थ । धीरे -धीरे सूय ने अपनी
उन िकरण को समेट लया। ‘सीतलवादी’ अंधकार म डू ब गई-परं तु पूव म िछपे चं मा से यह सब
कु छ न देखा गया। उसने मुख से घूघ
ँ ट उतारा और अपनी रजत िकरण से मंिदर क ऊँची दीवार को
िफर जगमगा िदया। ऐसे समय म न ने भी उनका साथ िदया। मंिदर क घंिटयाँ बजने लग -परं तु
राजन िन ा म म उ ह सीिढ़य पर सो रहा था।
अचानक वह न द म च क उठा। उसे ऐसा लगा-मानो उसके व थल पर िकसी ने व पात
िकया हो। अभी वह उठ भी न पाया था िक उसके कान म िकसी के श द सुनाई पड़े-‘ मा क रए-
गलती मेरी है। म शी ता म यह न देख सक िक कोई सीिढ़य पर सो रहा है। मेरा पाँव आपके
व थल पर पड़ गया।’
राजन ने पलटकर देखा-उसके स मुख एक स दय क ितमा खड़ी थी। उस सुंदरी के हाथ म
फूल थे-जो शायद मंिदर के देवता के चरण को सुशोिभत करने वाले थे। ऐसा ात होता था-मानो
चं मा अपना यौवन लए हए धरती पर उतर आया हो।
राजन ने ने झपकाते हए सोचा-कह वह व न तो नह देख रहा। परं तु यह एक वा तिवकता
थी।
राजन अब भी मोहाछ -सा उसी क ओर देखे जा रहा था। सुंदरता ने मम भेदी ि से राजन
क ओर देखा और सीिढ़याँ चढ़ते-चढ़ते मंिदर क ओर चल दी। उसके पांव म बंधी पाजेब क
झंकार अभी तक उसके कान म गूजँ रही थी और फूल क सुगध ं वायु के धीमे-धीमे झ के से अभी
तक उसे सुग ं धत कर रही थी।
न जाने वह िकतनी देर तक इ ह मीठी क पनाओं म डू बा सीिढ़य पर बैठा रहा। अचानक वही
न-झुन उसे िफर सुनाई पड़ी। शायद वह पूजा के प चात् लौट रही थी। राजन झट से सीिढ़य पर
लेट गया। धीरे -धीरे पाजेब क झंकार समीप आती गई। अब वह सीिढ़य से उतर रही थी तो न जाने
राजन को या सूझी िक उसने सीिढ़य पर आंचल पकड़ लया। लड़क ने आंचल ख चते-ख चते मुँह
बनाकर कहा-‘यह या है?’
राजन कु छ देर उसे चुपचाप देखता रहा, िफर बोला‒
‘शायद पाँव से ठोकर तु ह ने लगाई थी।’
‘हाँ, यह गलती मेरी ही थी।’
‘केवल गलती मानने से या होता है।’
‘तो या कोई द ड देना है?’
‘द ड, नह तो... एक ाथना है।’
‘ या?’
‘ जस कार तुमने मंिदर जाते समय अपना पाँव मेरे व थल पर रखा था-उसी कार पाँव
रखते हए सीिढ़याँ उतर जाओ।’
‘भला य ?’
‘मेरी दादी कहती थी िक यिद कोई ऊपर से फाँद जाए तो आयु कम हो जाती है।’
‘ओह! तो यह बात है-परं तु इतने बड़े संसार म एक-आध मनु य समय से पहले चला भी जाए
तो हािन या है?’
इतना कहकर वह हँसते-हँसते सीिढ़याँ उतर गई-राजन देखता-का-देखता रह गया-पाजेब क
झंकार और वह हँसी देर तक उसके कान म गूजँ ती रही।

**
ातःकाल होते ही राजन मैनज
े र के पास पहच
ँ गया-
वह पहले से ही उसक ती ा म बैठा हआ था-उसे देखते ही बोला-‘आओ राजन! म तु हारी ही
राह देख रहा था।’
िफर सामने खड़े एक पु ष से बोला-
‘माधो! यही है वह युवक, जसक बात अभी म कर रहा था।’ और राजन क ओर मुख फेरते
हए बोला-‘राजन इनके साथ जाओ-ये तु ह सब काम समझा दगे। आज से तुम इस कंपनी म एक सौ
पये वेतन पर रख लए गए हो।’
‘म िकस कार आपका ध यवाद क ँ ?’
‘इसक कोई आव यकता नह - पर तु देखो- काय काफ ज मेदारी का है।’
‘इसके कहने क कोई आव यकता नह -म अ छी कार समझता ह।ँ ’ कहते हए राजन माधो के
साथ बाहर िनकल गया।
थोड़ी दरू दोन एक टीले पर जाकर क गए-माधो बोला-
‘राजन! यह वह थान है-जहाँ तु ह िदन भर काम करना है।’
‘और काम या होगा-माधो?’
‘यह सामने देखते हो- या है?’
‘मजदर...
ू सन क थै लय म कोयला भर रहे ह।’
‘और वह नीचे!’ माधो ने टीले के नीचे संकेत करते हए पूछा।
राजन ने नीचे झुककर देखा-एक गहरी घाटी थी-उसके संगम म रे ल क पट रय का जाल िबछा
पड़ा था।
‘शायद कोई रे लवे टेशन है।’
‘ठीक है-और यह लोहे क मजबूत तार, जो इस थान और टेशन को आपस म िमलाती है,
जानते हो या है?’
‘टेलीफोन!’
माधो ने हँसते हए कहा-‘नह साहबजादे! देखो म समझाता ह।ँ ’
माधो ने एक मजदरू से कोयले क थैली मंगवाई ं और उसे तार से लपेटते हए भारी लोहे के
कु ड से लटका िदया- य ही माधो ने हाथ छोड़ा थैली तार पर य भागने लगी-मानो कोई व तु हवा
म उड़ती जा रही हो-पल भर म वह नीचे पहच ँ गई-राजन मु कु राते हए बोला-‘सब समझ गया-यह
कोयला थै लय म भर-भरकर तार ारा टेशन तक पहच ँ ाना है।’
‘केवल पहच
ँ ाना ही नह -ब क सब िहसाब भी रखना है और सांझ को नीचे जाकर मुझे बताना
है-म यह कोयला मालगािड़य म भरवाता ह।ँ ’
‘ओह! समझा! और वापसी पर थै लयाँ मुझे ही लानी ह गी।’
‘नह इस काय के लए गधे मौजूद ह।’
राजन यह उ र सुनते ही मुँह फेरकर हँसने लगा और नाक सकोड़ता हआ नीचे को चल िदया।
माधो के कहने के अनुसार राजन अपने काम म लग गया। उसके लए यह थै लय का तार के
ारा नीचे जाना-मानो एक तमाशा था-जब थैली नीचे जाती तो राजन य महसूस करता-जैसे कु डे के
साथ लटका हआ दय घािटय को पार करता जा रहा हो, वह यह सब कु छ देख मन-ही-मन मु करा
उठा-परं तु काम करते-करते जब कभी उसके स मुख राि वाली वह स दय ितमा आ जाती तो वह
गंभीर हो जाता-िफर यह सोचकर िक उसने कोई व न देखा है- भला इन अंधरे ी घािटय म ऐसी
सुंदरता का या काम? सोचते-सोचते वह अपने काम म लग जाता।
काम करते-करते चार बज गए-छु ी क घंटी बजी-मजदरू ने काम छोड़ िदया और अपने-अपने
व उठा द तर क ओर बढ़े।
‘तो या छु ी हो गई?’ राजन ने एक से पूछा।
‘जी बाबूजी-परं तु आपक नह ।’
‘वह य ?’
‘अभी तो आपको नीचे जाकर माधो दादा को िहसाब बतलाना है।’
और राजन शी ता से र ज टर उठा घािटय म उतरती हई पगडंडी पर हो लया-जब वह टेशन
पहचँ ा तो माधो पहले से ही उसक राह देख रहा था-राजन को यह जानकर स ता हई िक पहले ही
िदन िहसाब माधो से िमल गया-िहसाब देखने के बाद माधो बोला-
‘राजन, आशा है िक तुम इस काय को शी ही समझ लोगे।’
‘उ मीद पर तो दिु नया कायम है दादा!’ राजन ने सामने रखे चाय के याले पर ि फकते हए
उ र िदया और िफर बोला-‘दादा इसक या आव यकता थी? तुमने तो बेकार क उठाया।’ कहते
हए चाय का याला उठाकर फटाफट पी गया।
माधो को पहले तो बड़ा ोध आया, पर बनावटी मु कान होठ पर लाते हए बोला-‘क काहे
का-आ खर िदन भर के काम के प चात् एक याला चाय ही तो है।’
‘दादा! अब तो कल ातः तक क छु ी?’ राजन ने खाली याला वापस रखते हए पूछा।
‘ य नह -हाँ, देखो यह सरकारी वद रखी है और यह रहा तु हारा गेट पास-इसका हर समय
तु हारे पास होना आव यक है।’
‘यह तो अ छा िकया-वरना सोच रहा था िक ितिदन कोयले से रं गे काले मेरे व को धोएगा
कौन?’
एक हाथ से ‘गेट पास’ और दसरेू से व उठाते हए वह द तर क ओर चल पड़ा-कंपनी के
गेट से बाहर िनकलते ही राजन सीधा कुं दन के घर पहच
ँ ा-कुं दन उसे देखते ही बोला-
‘ य राजन! आते ही झूठ बोलना आरं भ कर िदया?’
‘झूठ-कैसा झूठ?’
‘अ छा बताओ रात कहाँ सोए थे?’
‘रात? वग क सीिढ़य पर?’
‘ वग क सीिढ़य पर!’
‘हाँ भाई! वह पहाड़ी वाले मंिदर क सीिढ़य पर।’
‘तो य कहो न।’
यह सुनते ही कुं दन जोर-जोर से हँसने लगा और राजन के और समीप होते हए बोला-‘ वग क
सीिढ़य से ही लौट आए या भीतर जाकर देवताओं के दशन भी िकए।’
‘देवताओं के तो नह -परं तु एक सुंदर फूल के अव य ही।’
‘िकसी पुजारी के हाथ से सीिढ़य पर िगर पड़ा होगा।’
‘य ही समझ लो-अ छा काक कहाँ ह?’
‘तु हारे लए खाना बना रही ह।’
‘परं तु...।’
‘राजन! अब य न चलेगा, जब तक तु हारा ठीक बंध नह होता-तु ह भोजन यह करना होगा
और रहना भी यह ।’
‘नह कुं दन! ऐसा नह हो सकता।’
‘तो या तुम मुझे पराया समझते हो?’
‘पराया नह -ब क तु हारे और समीप आने के लए म यह बोझ तुम पर डालकर तुमसे दरू नह
होना चाहता-म चाहता हँ िक अपने िम से िदल खोलकर कह भी सकूँ और सुन भी सकूँ ।’
‘अ छा तु हारी इ छा-परं तु आज तो...!’
‘हाँ-हाँ य नह , वैसे तो अपना घर समझ जब चाहँ आ टपकूँ ।’
‘ सर-आँख पर... काक भोजन शी लाओ।’ कुं दन ने आवाज दी और थोड़े ही समय म काक
भोजन ले आई-दोन ने भरपेट भोजन िकया और शु वायु सेवन के लए बाहर खाट पर आ बैठे-
इतने म मंिदर क घंिटयाँ बजने लग -राजन िफर से मौन हो गया-मान घंिटय के श द ने उस पर
जाद ू कर िदया हो-उसके मुख क आकृित बदली देख कुं दन बोला-‘ य राजन, या हआ?’
‘यह श द सुन रहे हो कुं दन!’
‘मंिदर म पूजा हो रही है।’
‘मुझे ऐसा तीत हो रहा है-जैसे यह श द मेरे कान म बार-बार आकर कह रहे ह -इतने संसार
म यिद एक-आध मनु य समय से पहले चला भी जाए तो हािन या है?’
‘अजीब बात है।’
‘तुम नह समझोगे कुं दन! अ छा तो म चला।’
‘कहाँ?’
‘घूमने-मेरे व यह रखे ह।’
‘और लौटगे कब तक?’
‘यह तो नह जानता। मौजी मनु य ह।ँ न जाने कहाँ खो जाऊँ?’
कहते-कहते राजन मंिदर क ओर चल पड़ा और उ ह सीिढ़य पर बैठ ‘सुंदरता’ क राह देखने
लगा। जरा सी आहट होती तो उसक ि चार ओर दौड़ जाती थी।
और वह एक थी िक जसका कह िच नह था, बैठे-बैठे राि के नौ बज गए। मंिदर क घंिटय
के श द धीरे -धीरे राि क नीरसता म िवलीन हो गए। उसके साथ ही थके हए राजन क आँख भी
झपक गई।ं

**

दसरे
ू िदन जब राजन काम पर गया तो सारा िदन यह सोचकर आ चय म खोया रहा िक वह
पुजा रन एक व न थी या स य।
आ खर वह कौन है? शायद उस राि क घटना से उसने सायंकाल क पूजा पर आना छोड़
िदया हो। तरह-तरह के िवचार उसके म त क म घूमने लगे। वह सोच रहा था, कब छु ी क घंटी
बजे और वह उ ह सीिढ़य पर जा बैठे। उसे पूरा िव वास था िक वह यिद कोई वा तिवकता है तो
अव य ही पूजा के लए आएगी।
अचानक ही िकसी श द ने उसे च का िदया, ‘राजन, या हो रहा है?’
यह कुं दन का क ठ वर था।
‘कोयल क दलाली म मुँह काला।’
‘बस एक ही िदन म घबरा गए।’
‘नह कुं दन घबराहट कैसी? परं तु तुम आज...।’
‘जरा सर म पीड़ा थी। द तर से छु ी ले आया।’
‘परं तु तुमने अभी तक यह नह बतलाया िक या काम करते हो?’
‘काम लो सुनो। यह सामने जो ऊँची च ान एक गुफा-सी बना रही है।’
‘हाँ।’
‘बस उ ह के बाहर सारे िदन बैठा रहता ह।ँ ’
‘ या पहरा देने के लए?’
‘तु हारा अनुमान गलत नह ।’
‘ या भीतर कोई सोने या हीर का खजाना है?’
‘सोने, हीर का नह ब क िवषैली गैस का, ज ह अि से बचाने के लए बड़ी सावधानी
रखनी पड़ती है। िदयासलाई, सगरे ट इ यािद िकसी भी व तु को भीतर नह ले जाने िदया जाता। यिद
चाहँ तो मैनजे र तक क तलाशी ले सकता ह।ँ ’
‘िफर तो तु हारी पदवी मैनज
े र से बड़ी है।’
‘पदवी तो बड़ी है भैया, परं तु आयु छोटी।’
और दोन जोर-जोर से हँसने लगे। कुं दन हँसी रोककर बोला-‘ य राजन आज क रात भी
वग क सीिढ़य पर बीतेगी?’
‘आशा तो यही है।’
‘देखो... कह पूजा करते-करते देवता बन बैठे तो हम गरीब इंसान को न भुला देना।’ वह
मु कु राता हआ फाटक क ओर बढ़ गया। राजन अपने काम क ओर लपका और िफर से कोयले
क थै लय को नीचे भेजना आरं भ कर िदया।
आ खर छु ी क घंटी हई। ितिदन क तरह माधो से छु ी पाकर राजन सीधा कुं दन के यहाँ
पहच
ँ ा। कपड़े बदलकर होटल का रा ता लया। उसने अपने भोजन का बंध वहाँ के सराय के होटल
म कर लया था। वहाँ उसके कई साथी भी भोजन करते थे।
आज वह समय से पहले ही मंिदर पहच ँ गया और सीिढ़य पर बैठा उस पुजा रन क राह देखने
लगा। पूजा का समय होते ही मंिदर क घंिटयाँ बजने लग । हर छोटी-से-छोटी आहट पर राजन के
कान सतक हो उठते थे। परं तु उसके दय म बसने वाली वह पुजा रन लौटकर न आई! न आई!!
पर उस मन का या करे ? कैसे समझाए उसे?
वह ितिदन साँझ के धुध
ँ ले काश म पूजा के समय ितिदन सीिढ़य पर जा बैठता था। इसी
कार पुजा रन क राह देखते-देखते चार िदन बीत गए। वह न लौटी। धीरे -धीरे राजन का म एक
िव वास-सा बन गया िक वह व न था, जो उसने उस राि म उन सीिढ़य पर देखा था।
एक िदन सं या के समय जब वह सीिढ़य पर लेटा आकाश म िबखरे घन खंड को देख रहा था
तो आपस म िमलकर भांित-भांित क आकृितयां बनाते और िफर िबखर जाते थे, तो िफर उसके
कान म वही न-झुन सुनाई पड़ी। आहट हई और वयं पुजा रन धीरे -धीरे पग रखती हई सीिढ़य पर
चढ़ने लगी।
आज भी उसके हाथ म फूल थे। उसने ितरछी ि से राजन क ओर देखा और मु कु राती हई
मंिदर क ओर बढ़ गई।
वह सोचने लगा, यह तो म नह स य है।
यह जाँचकर वह ऐसा अनुभव करने लगा, मानो उसने अपनी खोई संप पा ली हो और बेचन
ै ी
से उसके लौटने क ती ा करने लगा। उसक ि ऊपर वाली सीढ़ी पर िटक हई थी और कान
पायल क झंकार को सुनने को उतावले हो रहे थे। आज वह उसे अव य रोककर पूछेगा। परं तु
या?
वह सोच रहा था िक उसके कान म वह न-झुन गूज ँ उठी, पुजा रन राजन के समीप पहच
ँ ते ही
एक पल के लए क गई। एक बार पलटकर देखा और िफर सीिढ़याँ उतरने लगी। राजन क ज ा
तालू से िचपक गई थी, परं तु जब उसने इस कार जाते देखा तो बोल उठा, ‘सुिनए!’
वह क गई। राजन शी ता से सीिढ़याँ उतरते हए उसके िनकट जा पहच
ँ ा। वह चुपचाप खड़ी
राजन के मुख क ओर अचल नयन से देख रही थी।
‘ या तुम यहाँ पूजा के लए ितिदन आती हो?’
‘ या तुम ितिदन यहाँ बैठकर मेरी राह देखते हो?’
‘राह? नह तो, परं तु यह तुमने कैसे जाना?’
‘ठीक वैसे ही जस तरह तुम यह जान गए िक म यहाँ ितिदन आती ह।ँ ’
‘परं तु तुम तो चार िदन से यहाँ नह आय ।’
‘तुम मेरी राह नह देखते तो यह सब कैसे जान गए?’
‘ ितिदन इधर घूमने आता ह।ँ कभी देखा नह तो सोचा िक तुमने आना छोड़ िदया और वह भी
शायद मेरे कारण।’
‘भला वह य ?’
‘आँचल जो पकड़ लया था।’
‘तुम समझते हो िक म डर गई।’ कहकर वह दबी हँसी हँसने लगी।
राजन उसे यूँ हँसते देख बोला-‘इसम हँसने क या बात है? आ खर पूजा तो ितिदन होती है।’
‘पूजा! वह तो म रोज करती ह,ँ परं तु मेरा देवता तो मंिदर को छोड़ अपनी भट मेरे घर पर वयं
हण करने आते ह। हाँ! कभी भूले से म घर पर न होऊँ और वह िनराश लौट जाएँ तो मुझे यहाँ तक
आना पड़ता है। समझे!’
राजन मौन खड़ा रहा। उसके कहे हए श द पर िवचार कर रहा था। वह उन श द का अथ भली
कार समझ भी न पाया था िक वह चल दी। राजन उसे रोकते हए बोला-
‘ या तु हारा नाम पूछ सकता ह?
ँ ’
‘पावती।’
‘और म राजन।’
इतने म बादल क एक गरज सुनाई दी। पावती ने एक बार आकाश क ओर देखा और िफर
राजन क ओर देखकर बोली-
‘तो या तुम सारी रात इ ह सीिढ़य पर लेटे ही िबता देते हो?’
‘जी।’
‘तु हारा कोई घर नह है?’
‘नह ।’
‘तु ह जाड़ा नह लगता?’ आ क ठ से उसने पूछा।
‘जाड़ा? यह सामने पहाड़ क च ान देखती हो? यह भी युग-युग से बाहर खुली हवा म खड़ी
कृित का सामना कर रही ह। मनु य तो या कभी भगवान को भी इन पर दया नह आती।’
‘परं तु आप यह य भूल जाते ह िक वह िशलाएँ ह, जो प थर क बनी ह और दसरी
ू ओर माँस-
म जा से बना हआ मनु य है।’
‘म भी तो िशला से कम नह ह।ँ ’
‘केवल शरीर को ही िशला बना लेने से काम नह चलता। दय भी िशला के समान होना
चािहए।’
यह कहती-कहती पावती चली गई। वह बहत समय तक बैठा हआ सोचता रहा, ‘ठीक तो
कहती है, यिद दय िशला के समान न हो तो शरीर िशला बनाने से या लाभ?’
िबजली चमक । कई बार बादल क गड़गड़ाहट सुनी। राजन ने देखा चार ओर काली घटा
िघरती आ रही थी। दर-द
ू रू तक कु छ िदखाई न देता था। चार ओर स ाटा छाया हआ था। घर के
झरोख के अंदर जलते हए दीय का काश यह सूचना दे रहा था िक ‘सीतलवादी’ के लोग अभी
सोए नह ।
राजन ने सोचा िक आज क रात कुं दन के घर पर ही िबताई जाए। वायु क गित ती होती जा
रही थी। वह शी ता से ‘वादी’ क ओर लपका। बादल क गूज ँ पहािड़य से टकराकर गूजँ उठती
थी। नदी का जल वायु के थपेड़ से उछल-उछलकर खलवाड़ कर रहा था। राजन ने गाँव क ओर
देखा। तूफान के डर से सब झरोखे बंद हो चुके थे।
सीतलवादी म अंधरे ा छा चुका था। उसी समय छ टे पड़ने लगे थे। मंिदर के ार अब तक खुले
ही थे, शायद मंिदर के देवताओं को इस तूफान का कोई भय न था। वह शी ता से लौटा और मंिदर
क सीिढ़याँ चढ़ने लगा, परं तु अभी ऊपर पहचँ ा भी न था िक पुजारी ने ार बंद कर लए।
राजन ने आवाज लगाई, पर इस कोलाहल म वह उसके कान तक ही रह गई। राजन मंिदर के
बंद ार के साथ िचपककर खड़ा हो गया। मंिदर क घंिटयाँ वयं ही बज रही थ । वषा के छ टे वायु
क तेजी से उछलकर मंिदर क सीिढ़य और बरामदे के बड़े प थर को नान करा रहे थे, तािक
भगवान के घर के िकसी कोने म धूल न रह जाए। ‘राजन, राजन’ कोई उसे पुकार रहा था। वह यह
सोचकर आ चय म पड़ गया िक इस तूफान म उसे खोजने वाला कौन है? कुं दन के सवाय उसे
जानता ही कौन था। राजन...।
उसका यहाँ या काम? एक बार िफर ‘राजन-राजन’ क पुकार सुनाई दी। तुरंत ही उसने िकसी
छाया को सीिढ़य से ऊपर आते देखा। राजन भागता हआ उसके पास पहच
ँ ा और िच ाया-
‘कौन हो तुम?’
‘ या तुम ही राजन हो?’
िबजली क चमक म राजन ने देखा िक पूछने वाला एक अजनबी है, जसे उसने आज से पहले
कभी नह देखा था। वषा से बचाव के लए उसके सर पर एक सन क थैली रखी थी। पहले तो
राजन घबरा-सा गया, परं तु िफर संभलते हए बोला-
‘हाँ, म ही राजन ह।ँ ’
‘तो च लए हमारे साथ।’
‘कहाँ?’
‘ठाकु र बाबा बुला रहे ह।’ और ‘सन’ क एक थैली राजन को पकड़ा दी। राजन थैली सर पर
डालकर चुपचाप उसके साथ हो लया। सारे रा ते वह यही सोच रहा था िक ठाकु र बाबा ह कौन?
पहले तो राजन को घबराहट हई, परं तु जब वह अजनबी गाँव म पहच ँ ा तो राजन को कु छ धीरज
हआ। थोड़ी देर म वे दोन एक प थर के बड़े मकान के सामने आकर क गए। अजनबी से संकेत
पाकर, उसने आँगन म वेश िकया। सामने एक सफेद दाढ़ी वाला पु ष उसक ती ा कर रहा था।
राजन ने झुककर णाम िकया। उसने मु कु राते हए पूछा, ‘ या तु ह राजन हो?’
‘जी, परं तु।’
‘िचंता क कोई बात नह , म हँ ठाकु र बाबा। ‘सीतलवादी’ का ब चा-ब चा मुझे जानता है। या
कोई परदेसी हो?’
‘यहाँ कंपनी म नौकर ह।ँ ’
‘तो इस कार तूफान म।’
‘अभी रहने का बंध नह है।’
‘सराय जो है। बहत कम दाम पर।’
‘परं तु म एकांत ि य ह।ँ भीड़ म मेरी साँस घुटने लगती है।’
‘अ छा तुम िव ाम करो। कपड़े भीग रहे ह। रामू।’
उ ह ने आवाज दी और पहले मनु य ने अंदर वेश िकया।
‘देखो! एक धोती-कु ता इ ह दे दो, िपछवाड़े का कमरा भी।’
राजन ठाकु र बाबा का संकेत पाते ही रामू के साथ हो लया। दोन एक छोटे से कमरे म पहच
ँ े,
जो न जाने कब से बंद पड़ा था। हर ओर धूल जमी पड़ी थी। रामू धोती-कु ता भी ले आया और
िकवाड़ बंद कर वापस लौट गया। राजन ने रामू से अ धक पूछताछ करना ठीक न समझा। परं तु िफर
भी यह सोचकर असमंजस म पड़ा हआ था िक ठाकु र बाबा ने उसे यहाँ य बुलाया है? वह उसका
कौन है? यिद परदेसी ही समझ कर अित थ रखा है तो उ ह ने उसे पहले देखा कहाँ? खैर िफर भी
इस भयानक रात म आसरा देने वाले का भला हो।
उसने भीगे व उतार सामने फैला िदए और वयं धोती-कु ता पहन पास िबछी खाट पर लेट
गया। राजन क आँख म भरी न द उड़ चुक थी-वह शीत के मारे काँप रहा था।
अचानक िकवाड़ धीरे से खुला और िकसी के अंदर आने क आहट हई-राजन च क उठा। सामने
उसने देखा-हाथ म याला लए पावती खड़ी मु करा रही थी-वह भ च का-सा रह गया-उसके दाँत
जोर-जोर से बजने लगे।
राजन को यूँ घबराहट म देख पावती बोली-
‘डरो नह , यह चाय है-देखो शीत के मारे तु हारे दाँत बज रहे ह।’
‘परं तु तुम-यह ठाकु र बाबा-यह चाय?’
‘भगवान का तो नह , परं तु एक ाणी का दसरे
ू ाणी के लए मन पसीज ही उठा।’
‘अ छा, तो वह ाणी तुम हो?’
‘जी।’
‘और यह ठाकु र बाबा।’
‘मेरे दादा ह। जब मने तु हारे बारे म इ ह कहा तो इ ह ने तुरंत रामू को तु ह बुलाने भेज िदया।’
‘ओह! तो बात यूँ है, परं तु तुम।’
‘एक च ान पर दया जो आ गई-लो चाय पी लो, ठ ड दरू हो जाएगी।’
राजन ने काँपते हाथ से चाय का याला पावती के हाथ से ले लया और बोला-‘ या मुझे देवता
समझकर भट दी जा रही है?’
‘देवता नह , मनु य समझकर-देवताओं पर तो फूल चढ़ाए जाते ह।’
‘तो या मनु य उन फूल के यो य नह ?’
‘नह , उसे दी जाती है केवल चाय’ कहती पावती ार क ओर बढ़ी।
‘पावती!’ राजन ने पुकारा।
‘अब िव ाम कर लो’ और िकवाड़ बंद करके चली गई।
थोड़ी देर तो राजन सोचता रहा, िफर उसे लगा जैसे अंदर-ही-अंदर कु छ भर उठा, जैसे उसके
व न साकार हो उठे ह। उसने आज वह पाया है, जसक कभी उसने क पना भी न क थी।
दो
कंपनी के द तर के सामने मजदरू क एक लंबी लाइन लगी हई थी। लाइन म खड़े मजदरू अित
स तीत हो रहे थे, कारण आज वेतन िमलने का िदन था। आज सबके घर अ छे -से-अ छा
भोजन बनेगा। घर वाले भी इनक राह देख रहे ह गे, य िक आज उनके जीवन क आव यकताओं
के पूरी होने का िदन था। चाँदी के चंद स के, जैसे मजदरू का जीवन बस इ ह म दबा पड़ा है।
राजन सबक मुखाकृितय को देख रहा था-सामने से कुं दन आता िदखाई पड़ा। वह भी आज
बहत स था। िनकट आते ही बोला, ‘ य राजन? तु ह भी कु छ िमला।’
‘नह तो।’
‘ य तु ह आव यकता नह ?’
‘आव यकता? इसक आव यकता ही तो एक िनधन का जीवन है।’
‘तो िफर जाओ अपना िहसाब कर आओ।’
‘िहसाब अभी से? आज मुझे यहाँ आए केवल पं ह िदन ही हए ह।’
‘तो या हआ? यहाँ वेतन हर पं ह िदन के बाद िमलता है, यह रईस क कोठी नह , मजदरू
क ब ती है।’
‘सच?’ यह कहता हआ राजन खड़क क ओर बढ़ा और अपना काड जेब से िनकाल खजांची
के सामने जाकर रख िदया-थोड़ी देर म दस-दस के पाँच नोट लए कुं दन के पास लौट आया।
‘आज बहत स हो।’
‘ य नह ह गे? आज पगार िमली है।’
‘कलक ा भेजगे या?’
‘नह , अभी तो होटल का िबल चुकाना है।’
‘और या?’
‘कलक ा से एक चीज मंगवानी है।’
‘हम भी तो सुन।’
‘आने पर बताऊँगा।’
‘तुम जानो तु हारा काम, परं तु एक बात का यान रखना-मँगवाना वही, जसक आव यकता
हो-जमाना जरा नाजुक है।’
‘अ छा कुं दन तुम चलो, म जरा कटीन हो आऊँ।’
राजन कुं दन से िवदा होते ही कंपनी क कटीन म गया और एक चॉकलेट ले ठाकु र बाबा के घर
क ओर हो लया। आज उसे ठाकु र के घर रहते सात िदन बीत चुके थे। कई बार राजन ने वहाँ से
जाने को कहा, पर ठाकु र बाबा साफ इंकार कर देते और कहते-‘जब तक तु ह कंपनी का वाटर
नह िमलता, हम तु ह प थर क ठोकर नह खाने दगे।’ राजन को िव वास था िक इसम अव य
पावती का हाथ है। उसका आकषण ही उसे उनका बोझ बनने के लए िववश कर रहा था।
पावती के सवाय बाबा के इस संसार म कोई न था। पावती के िपता इस कंपनी के मैनज े र रह
चुके थे। एक िदन खान क छानबीन करते समय एक च ान के फट जाने से उनक मृ यु हो गई,
तब से वह बाबा के संग अकेली रह रही थी। कंपनी ने इ ह रहने का थान व जीवन-भर क ‘गारं टी’
दे रखी थी। बाबा पावती क हर बात मान लेते थे, परं तु वह अपने िनयम के बड़े प के थे-उ ह ने
जमाना देखा था। अतः राजन और पावती सदा उ ह क हाँ-म-हाँ िमलाते। अ धकतर उनका समय
पूजा-पाठ म ही बीतता था। जीवन क यही भट वह पावती को भी देना चाहते थे। जब तक वह पूजा
न करे , बाबा उसे खाने को न देते, परं तु वह यह सब कु छ बड़ी स ता से करती थी। इस लए दोन
के जीवन क घिड़याँ बड़ी खुशी से बीत रही थ ।
दसरी
ू ओर राजन के िनयम कु छ और ही थे। पूजा-पाठ से तो वह कोस दरू भागता, परं तु
भगवान से िवमुख न था। वह भगवान को घूस देने का आदी नह था, ब क उसके लए िदए हए
जीवन को काम म लाना चाहता था। उसे िव वास था िक भगवान ने उसे इस संसार म कोई बड़ा
काय करने को भेजा है। उसको पूण करना ही उसक स ची पूजा है। उसे मंिदर म घंटे बजाकर या
चढ़ावा चढ़ाकर स नह िकया जा सकता। कलक ा म उसने कई सेवा के काय करने का य न
िकया, परं तु द र ता सदा ही उसके बीच बाधा बनकर आ खड़ी हई।
राजन इ ह िवचार म डू बा घर पहच
ँ गया, परं तु पावती वहाँ न थी। राजन ने जाते ही बाबा के
पाँव छु ए और अपना पहला वेतन उनके चरण म रख िदया-बाबा ने सवा पया भगवान के साद का
रखकर बाक लौटा िदए तथा आशीवाद देते हए बोले, ‘भगवान क कृपा- ि सदा तु हारे पर बनी
रहे बेटा, म यही कहता ह।ँ ’
‘पावती कहाँ है बाबा?’
‘मंिदर गई होगी।’
राजन यह सुनते ही ौढ़ी क ओर बढ़ा।
‘ य कहाँ चले?’
‘होटल, भोजन के लए।’
यह कहता हआ राजन बाहर क ओर हो लया, परं तु उसे आज भूख कहाँ? वह तो पावती से
िमलने को बेचन
ै था। वहाँ से सीधा मंिदर पहच
ँ ा और सीिढ़य के पीछे खड़ा पावती क ती ा करने
लगा। जब सीिढ़याँ उतर पावती राजन के समीप से गुजरी तो राजन ने उसे पकड़ते हए अपनी ओर
ख चा। पावती भय के मारे चीख उठी, परं तु राजन ने शी ता से उसके मुँह के आगे हाथ रख िदया
और बोला-‘म राजन ह।ँ ’
‘ओह! म तो डर गई थी। अभी चीख सुन दो-चार मनु य इक े हो जाते तो।’
‘तो या होता? कह देते िक आपस म खेल रहे थे।’
‘काश! यह स य होता।’
‘म समझा नह ।’
‘यही िक आपस म खेल सकते।’
‘तो अब या हआ है?’
‘होना या है, बचपन कहाँ से लाएँ?’
‘बचपन? तो या यौवनाव था खेलने क नह ।’
‘तो यौवन म भी खेला जाता है?’
‘ य नह , परं तु दोन म भेद है।’
‘कैसा भेद?’
‘यही िक बचपन म मनु य अपने हाथ िम ी के घर बनाता है और खेलने के प चात् अपनी
ठोकर से उसे तोड़-फोड़ देता है परं तु युवाव था के खेल म िम ी के एक-एक कण को बचाने के
लए अपने जीवन क बाजी लगा देनी होती है। यिद िफर भी वह टू ट जाए तो उसक आँख क न द
िमट जाती है। िब तर पर पड़ा छटपटाता रहता है। जीवन क वह िनराशा आँख क राह आँसू बनकर
बह िनकलती है।’
‘यह तो किवय क बात है। यौवन का एक-एक पल अमू य होता है। इसे खेल-कू द म खो
िदया तो आयु-भर पछताना पड़ेगा। बाबा कहते ह-बचपन खेल-कू द और यौवन पूजा-पाठ म िबताना
चािहए।’
‘और बुढ़ापा खाट पर।’ राजन ने पावती क बात पूरी करते हए कहा। इस पर दोन हँस पडे़।
राजन िफर बोला-
‘परं तु म तु हारे बाबा क बात म िव वास नह करता।’
‘कल के ब चे हो! तुम भला बाबा क बात या समझो।’
‘तुम तो समझती हो?’
‘ य नह , तुमसे अ धक। यह सब बाबा ने ही तो सखाया है-समय पर उठना, समय पर सोना,
पूजा-पाठ, घर का काम-काज...।’
‘और कभी-कभी मुझसे बात करना।’
‘हाँ, परं तु वह तो बाबा ने नह सखाया।’
‘ वयं ही सीख गई ं न। इसी कार बढ़ती यौवनाव था म कई ऐसी बात ह, जो कोई नह
सखाता, ब क मनु य वयं ही सीख जाता है।’
‘तो या मुझे और भी कु छ सीखना है?’
‘बहत कु छ।’
‘परं तु मुझे और कु छ नह सीखना।’
‘वह य ?’
‘इस लए िक बाबा ने कहा है िक अंधकार के प चात् कु छ सीखना नह चािहए, ब क घर
पहच
ँ ना चािहए।’
‘ओह! बात म भूल ही गया।’
और दोन घर क ओर चल पड़े। रा ते म राजन बोला-
‘पावती! जानती हो आज कंपनी से मने पहला वेतन पाया है।’
‘मुँह अब खुला।’
‘अवसर ही कब िमला, खेल-कू द क बात जो आरं भ हो गई थी।’
‘तो या वह इससे अ धक आव यक थी। वहाँ कह िदया होता तो मंिदर म तु हारे नाम का
साद ही...।’
‘वह काय तो तु हारे बाबा कर चुके।’
‘आ खर बाबा क ही मानी, म होती तो कहते म इन बात म िव वास नह रखता।’
बात -ही-बात म दोन घर पहच
ँ गए। बाबा पहले ही ती ा म थे। देखते ही बोले-
‘कब से आरती के लए राह देख रहा ह।ँ ’
‘बाबा! दीनू क चाची िमल गई थी और बात म देर हो गई...।’
‘और राजन तुम खाना खा आए?’
‘जी! अभी सीधा होटल से आ रहा ह।ँ ’
बाबा और पावती ने आरती आरं भ क , राजन को भी िववश हो उनका साथ देना पड़ा। आरती
के प चात् जब पावती बाबा के साथ रसोईघर क ओर गई तो राजन होठ पर जीभ फेरते हए अपने
कमरे म आ लेटा। भूख के मारे पेट पीठ से लगा जा रहा था और पेट म चूहे उछल-कू द कर रहे थे।
आज बाबा से झूठ बोला िक वह भोजन कर चुका है।
वह यह सोच ही रहा था िक िकवाड़ खुले और पावती ने अंदर वेश िकया-उसके हाथ म
िगलास था।
‘यह या?’
‘दध।’

‘िकस लए?’
‘तुम भूखे हो न।’
‘तु ह िकसने कहा?’
‘तु हारी आँख ने-तुमने बाबा से झूठ कहा था न!’
‘हाँ पावती... और तुम भी तो...।’
‘हाँ राजन आज से पहले म कभी झूठ नह बोली-न जाने...।’
‘कोई बात नह , यौवन के उ ास म अकसर झूठ बोलना ही पड़ता है।’
‘अ छा, अ छा दधू पी लो, म चली...।’
‘ठहरो तो-देखो, तु हारे लए म कु छ लाया ह।ँ ’
‘चॉकलेट!’ पावती ने स ता से हाथ बढ़ाया और कु छ समय तक चुपचाप खड़ी रही, आँख
छलछला आई।ं
राजन घबराते हए बोला, ‘ य या हआ?’
‘यूँ ही बाबूजी क याद आ गई-बचपन म वह भी मुझे हर साँझ को कटीन से चॉकलेट लाकर
िदया करते थे।’
‘ओह...! अ छा यह आँसू प छ डालो और लो...।’
‘परं तु तुमने बेकार पैसे य गँवाए?’
‘एक चव ी क तो है।’
‘चव ी-चव ी से ही तो पया बनता है, और हाँ-तुम तो कह रहे थे िक कलक ा से एक चीज
मँगाई है।’
‘हाँ पावती, िम टो वाय लन-एक अं ेजी साज मुझे बजाने का बहत शौक है।’
‘और मुझे नृ य का।’
‘सच! तुम नाच भी सकती हो?’
‘ य नह , परं तु केवल अपने देवता के सामने।’
‘मनु य के लए नह ?’
‘नह इनम या रखा है?’
‘तो इन बेजान िनज व प थर म या रखा है?’
‘राजन यह तुम नह समझ सकते।’
‘पारो! ओ पावती!’ बाबा क आवाज सुनाई दी। वह तुरंत ही भागती हई कमरे से बाहर चली
गई। राजन ने दधू का िगलास उठाया और उसे पीने लगा। पावती शायद श कर िमलाना भूल गई थी,
परं तु राजन के लए िमठास काफ थी, पावती के हाथ ने जो छु आ था।

**
दसरी
ू सायंकाल ठीक पूजा के समय राजन मंिदर क सीिढ़य पर पहच ँ गया। जब तक छु ी के
प चात् वह पावती से िमल नह लेता, उसे चैन नह आता था। वह उससे ेम करने लगा था और उसे
िव वास था िक पावती भी उसे दय से चाहती है।
राजन जब कभी उसे अपना ेम जताना चाहता था तो वह पूजा और देवताओं के िक से ले
बैठती। वह जानता था िक वह जो कु छ अनुभव करती है या तो समझती नह अथवा वयं मुख से
कह नह सकती।
उसने िन चय िकया, आज कु छ भी हो वह उसके दय को टटोलेगा।
वह इ ह िवचार म म ेम के मधुर व न देख रहा था िक पायल क न-झुन ने उसे च का
िदया। पावती मु कु राती हई सीिढ़य से उतर रही थी।
तो आज भी उसने राजन को सीिढ़य पर पाया।
राजन उसे देखते ही बोला-‘नदी िकनारे चलोगी?’
‘ य ?’
‘घूमने।’
‘ऊँ ह-ँ देर हो जाएगी।’
‘आज पहली बार कहा है, सोचा था-मना नह करोगी।’
‘अ छा चलती ह-ँ परं तु देर...।’
‘वह म जानता ह,ँ तुम चलो तो।’
दोन नदी क ओर चल िदए।
राजन बोला-‘एक बात पूछूँ?’
‘ या?’
‘यह ितिदन पूजा के फूल अपने देवताओं पर चढ़ाती हो, उससे तु ह या िमलता है?’
‘बहत कु छ।’
‘िफर भी?’
‘मन क शांित।’
‘ या तु ह िव वास है, यह फूल देवता वीकार कर लेते ह?’
‘ य नह , ापूवक जो कु छ चढ़ाया जाता है, वह वीकाय ही है।’
‘यह सब कहने क बात ह-जानती हो इन फूल का या होता है?’
‘ या?’
‘प थर के देवताओं के चरण म पड़े-पड़े अपने स दय को खो देते ह।’
‘परं तु कु छ पाकर।’
‘ या?’
‘शांित अथवा अंत।’
‘अंत ही कहो-स दय का अंत...।’
‘तो!’ पावती कहती-कहती क गई।
राजन कहे जा रहा था-‘इन फूल क तरह तु हारा यौवन स दय भी समा हो जाएगा, मन
मुरझा जाएगा, िफर तुम कहोगी-मेरा मन शांत हो गया।’
‘तो या मुझे मुरझाना होगा।’
‘हाँ पावती! अगर तुम यूँ ही प थर से िदल लगाती रह तो एक िदन तु ह भी मुरझाना ही होगा।
जीवन अिपत ही करना है तो िकसी मानव को ही दो, जो तु ह मुरझाने न दे।’
‘तो या मनु य कभी देवता जैसा हो सकता है?’
‘ य नह , पुजारी चाहे तो मनु य को भी देवता बना सकता है।’
‘तो देवता और मनु य म अंतर ही या है?’
‘मनु य समय के ढाँचे म ढलता रहता है, जहाँ उसके दय म आग है वहाँ दद भी है। आज वह
देवता का प है तो कल शैतान भी हो सकता है। परं तु तु हारे देवता जो कल थे, वही आज भी
प थर के प थर।’
‘तो िफर इंसान से प थर ही भले।’
राजन से जब कोई उ र न बन पड़ा तो मौन हो गया। बात -ही-बात म दोन यूँ खो गए िक वे
जान भी न पाए िक कब अंधकार छा गया। दोन चुपचाप जा रहे थे। शीतल पवन पावती के बाल से
खेल रही थी, वह बार-बार चेहरे पर आ-आकर िबखर जाते थे। वह हर बार अपनी कोमल उं ग लय
से उ ह हटा देती थी। परं तु एक हवा का झ का था, जो उसे बराबर तंग िकए जा रहा था और अंत म
पावती को ही हार माननी पड़ी। लट उसके चेहरे पर आकर जम गई। राजन ने मु कु राते हए अपने
हाथ से हटा िदया और इस तरह पीछे क ओर िबछा िदया िक वायु के लाख यतन करने पर भी वह
माथे पर िफर न आई।
‘तु हारे हाथ म जाद ू है।’ पावती ने उसक ओर देखते हए कहा।
‘हाथ म नह , िदल म।’
‘कैसा जाद?’

‘ ेम का, पावती या तु हारे िदल म भी ेम बसता है?’
‘ य नह ? और जस िदल म ेम न हो वह िदल ही या?’
‘तो तु ह भी िकसी-न-िकसी से अव य ेम होगा।’
‘है तो-बाबा से, भगवान से और... और।’
‘और मुझसे?’ राजन पावती के समीप होकर बोला।
‘तुमसे।’ कहकर वह काँप गई।
‘हाँ पावती! अब मुझसे भेद कैसा। म तु हारे मुख से यही सुनने को बेचन
ै था।’ कहते-कहते
राजन ने उसका हाथ अपने हाथ म ले लया।
पावती काँप रही थी-वह लड़खड़ाती बोली-
‘ ेम? कैसा ेम? राजन यह तुम?’
‘अपने मन क कह रहा ह-ँ मेरी आँख म देखो, इनम तु ह जीवन क एक झलक िदखाई देगी।’
‘राजन मुझे कु छ िदखाई नह देता-िफर तुम कहना या चाहते हो?’
‘तु हारे िदल क कहानी, जो तु हारी पुत लय म लख गई है, वह मुझे सब कु छ बता रही है।’
पावती मौन होकर उसे देखने लगी-राजन उस पर झुकते हए बोला-
‘देखो-इन दो याल म ेम रस छलक रहा है। तु हारे दय क यह धड़कन बार-बार मेरे कान
म कह रही है िक तुम राजन क हो।’
पावती यह सुनते ही िच ाई-
‘राजन।’ और वह गाँव क ओर भागने लगी-राजन ने उसे रोकना चाहा, परं तु वह न क -उसने
पुकारा भी, पर कोई उ र न िमला।
राजन िकनारे के एक प थर पर बैठ गया और अपने कहे पर िवचारने लगा-कह पावती यह सब
अपने बाबा से तो नह कह देगी। यिद कह िदया तो वह उ ह मुँह कैसे िदखाएगा? इसी िवचार म
डू बा-डू बा आधी रात तक वह वह बैठा रहा।
जब वह घर पहच ँ ा तो हर ओर स ाटा छाया हआ था-सब सो चुके थे। वह धीरे -धीरे अपने कमरे
म पहच
ँ ा और चुपचाप अपने िब तर पर लेट गया, परं तु न द न आई।
ातःकाल जब वह अपने कमरे से बाहर िनकला तो आँगन के उस पार बरामदे म पावती खड़ी
पालतू चकोर को बाजरा खला रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लया, पर राजन धीरे -
धीरे बढ़ता हआ उसके पास आ पहच ँ ा। पावती िबना कु छ सुने मुँह मोड़कर अंदर चली गई। राजन को
इस बात पर बहत ोध आया और वह ज दी-ज दी पैर उठाता बाहर चला गया। उसने िन चय
िकया िक जैसे भी हो आज उसे अलग रहने का बंध करना ही होगा, आ खर कब तक दसर ू के घर
रहेगा। कंपनी पहच
ँ ते ही वह मैनज
े र से िमला, उसने िव वास िदलाया िक उसे शी ही कोई मकान
िदला देगा।
सारा िदन वह बेचनै सा रहा। उसे रह-रहकर पावती पर ोध आ रहा था। आ खर उसने िकया
ही या था, वह उससे िबगड़ गई।
सायंकाल जब वह घर लौटा तो बाबा घर पर न थे। राजन धीरे -धीरे पग रखते हए अपने कमरे
तक पहचँ ा। पावती अकेली बैठी थी। वह बेचन
ै िदखाई देती थी। राजन को देखते ही उसने अपनी
आँख झुका ल ।
राजन दबी आवाज म कहने लगा-‘पावती! म जानता हँ िक तुम मुझसे हो और मेरे कारण
दख
ु ी भी हो। आज ातःकाल ही मैनज े र से िमला ह।ँ पूजा क छु ि य के प चात् मकान िमल
जाएगा। लाचारी है, नह तो कब का चला गया होता।’
यह सुनकर भी पावती मौन रही। जब राजन ने इस पर भी कोई उ र न पाया तो नाक सकोड़ता
हआ बाहर चला गया और मंिदर क सीिढ़य पर जा बैठा। आज वह ोधाि म जल रहा था।
आज भी ितिदन क तरह मंिदर क घंिटयाँ बज रही थ , देवताओं के पुजारी हाथ म पूजा के
पु प तथा था लय म जलते हए दीप लेकर मंिदर क ओर जा रहे थे, राजन क ि बार-बार
सीिढ़य पर पड़ती, परं तु पावती के पाँव न देख पाता। उसे िव वास था, वह अव य आएगी, य िक
राजन उससे है और वह ती ा िकए जा रहा था।
पावती क ती ा ही उसक पूजा थी।
परं तु वह न आई। आज पूजा पर य न आई, यह सोचकर उसके म त क म भांित-भांित के
िवचार आने लगे। कह उसे मुझसे घृणा तो नह । नह ... ऐसा नह हो सकता। यह सोचते ही वह
बरामदे क ओर बढ़ा और वहाँ से सारे मंिदर क ओर नजर घुमाई, परं तु पावती को न देख पाया।
मंिदर म पहले से भी अ धक सजावट थी। शायद पूजा क तैयारी हो रही थी। कल से उसक भी दो
िदन क छु ि याँ थ और वह अकेला होगा। आज उसे मंिदर के देवता भी उदास खड़े िदखते थे, मानो
वह भी अपनी पुजा रन क ती ा म ह ।
कल क तरह राजन आज भी घर देरी से लौटा। घर म सब सो चुके थे। वह धीरे -धीरे अपने
कमरे तक पहच ँ ा और चुपचाप अंदर चला गया। काश होते ही उसने देखा िक सामने िबछावन पर
फूल फैले हए थे।
उसके मुख क आकू ित स ता म िवलीन हो गई। वह िब तर के पास गया वह फूल म पड़ा
एक प पाया, राजन ने झट से उसे उठा लया और पढ़ने लगा।
‘आशा करती हँ तुम मुझे यूँ अकेला छोड़कर न जाओगे।
-पावती’
राजन ने प ेमपूवक दय से लगा लया और उसी शै या पर लेट गया।
ातःकाल पूजा क छु ी थी। उसने चाहा िक आज देर तक सोएगा, परं तु बेचन ै दय को चैन
कहाँ, तड़के ही उठ बैठा। बाहर अभी काफ अंधरे ा था, आकाश पर सतारे चमक रहे थे। राजन ने
थोड़ा िकवाड़ खोला और बाहर झांकने लगा। आँगन म ठाकु र बाबा खड़े शायद कह जाने क तैयारी
म थे। आज पूजा के िदन वह मुँह अंधरे े ही नदी नहाने जा रहे थे। रामू भी उनके साथ था।
जब दोन बाहर चले गए तो राजन शी ता से बाहर आ गया और ौढ़ी के िकवाड़ खोल अंदर
देखने लगा। दोन शी ता से नदी क ओर बढ़े जा रहे थे, जब वे काफ दरू िनकल गए तो राजन ने
ठं डी साँस ली और दबे पाँव पावती के कमरे म पहच
ँ ा।
िकवाड़ खुले पड़े थे और पावती संसार से बेखबर मीठी न द सो रही थी। राजन चुपके से उसके
िब तर के समीप जा का।
ातःकाल क शीतल वायु खड़क से आ-आकर पावती के बाल से खलवाड़ कर रही थी।
आज भी उस िदन क तरह उसक लट उसके माथे पर आ रही थ । राजन से न रहा गया और लट
सुलझाने लगा। माथे पर उं ग लय का छू ना था िक पावती च क उठी। राजन को अपने समीप देखकर
घबरा-सी गई तथा लपक कर पास रखी ओढ़नी गले म डाल ली।
‘शायद तुम डर गई?
ं ’ राजन ने उसे घबराए हए देखकर कहा।
‘नह तो... परं तु।’
‘बात यह हई िक आज न द समय से पहले खुल गई। सोचा बाबा कथा कर रहे ह गे चलकर दो
घड़ी उनके पास हो आऊँ, परं तु वे चले गए।’
‘नदी नान को गए ह गे। पूजा का यौहार है। हाँ तु ह आज कथा क या सूझी?’
‘समय बदल रहा है, लोग देवताओं को छोड़ इंसान पर फूल चढ़ाने लगे ह, तो मने सोचा आज
म भी जरा देवताओं क लीला सुन लूँ।’
पावती लजा कर बोली-‘कह सुनते-सुनते देवता बन बैठे तो?’
‘तो या? फूल चढ़ाने तो ितिदन आया करोगी।’
‘न बाबा, मेरे फूल मुरझाने के लए नह , यह तो उसे भट ह गे जो मुरझाने न दे।’
‘कोई हण करने वाला िमला भी?’
‘ऊँ ह।ँ ’
‘पावती! आज रात न जाने कोई भूले से मेरे िबछावन पर फूल रख गया। पहले तो म देखते ही
असमंजस म पड़ गया।’
‘सो य ?’
‘यूँ लगता था मानो मुझे डाँट रहे ह परं तु जब म उनके समीप गया तो जानती हो उ ह ने या
कहा।’
‘यही िक इतनी देर से य लौटे?’
‘नह ... पहले तो वह मु कराए और िफर बोले-राजन! हम यूँ अकेला छोड़कर न जाना।’
‘चलो हटो!’ पावती ने लजाते हए उ र िदया और उठकर बाहर जाने लगी। राजन रोकते हए
बोला-
‘जानती हो, लखने वाले को लेखनी न िमली तो कोयले क का लमा से ही लख िदया।’
‘अ छा आपक ि वा तिवकता को न पहचान सक ।’
‘तो या?’
‘हाँ वह का लमा न थी, ब क िकसी के ने से िनकला काजल था।’
राजन ने बात बदलते हए पूछा-‘नदी नान करने चलोगी?’
‘तु हारे संग!’ इतना कहकर जोर-जोर से हँसने लगी।
‘इसम हँसने क या बात है? यािन हम दोन नह जा सकते तो जाओ अकेली।’
‘ऊँ ह।ँ ’
‘अकेली भी नह , िकसी के साथ भी नह , या अनोखी पहेली है।’
‘नह , नह मुझे जाना ही नह ।’
‘अरे आज तो पूजा है।’
‘हाँ राजन, पूजा का नृ य देखना हो तो आज...।’
‘तो तुम नाचोगी या?’ वह बात काटते हए बोला।
‘हाँ परं तु देवताओं के स मुख।’
‘तो इंसान या करगे?’
‘लुक-िछपकर मंिदर के िकवाड़ से झाँकगे।’
‘यिद अंदर आ गए तो?’
‘तो या? देवताओं को णाम कर कह कोने म जा बैठगे।’
‘नतक नृ य म बेसुध हो कह देवताओं को छोड़ मनु य क ओर न झुक जाएँ।’
‘असंभव! शायद तु ह ात नह िक पायल क न-झुन, मन के तार और देवताओं क पुकार म
एक ऐसा खंचाव है, जसे तोड़ना मनु य के बस का नह । मनु य उसे नह तोड़ पाता।’
‘तो दय को बस म रखना, कह भटक न जाए।’
‘ओह शायद बाबा आ गए!’ पावती संभलते हए बोली। ौढ़ी के िकवाड़ खुलने का श द
हआ। राजन तुरंत अपने कमरे क ओर लपका। पावती ने अपनी ओढ़नी संभाली और बरामदे म
लटके बंद चकोर को बाजरा खलाने लगी। अब राजन कमरे से िछपकर उसे देख रहा था।
बाबा को देखकर पावती ने नम कार िकया।
‘ या अब सोकर उठी हो?’ बाबा ने आशीवाद देते हए पूछा।
‘जी, आज न जाने य आँख देर से खुली।’
‘पूजा का िदन जो था। गाँव सारा नहा-धोकर यौहार मनाने क तैयारी म है और बेटी क आँख
अब खुली।’
‘अभी तो िदन चढ़ा है बाबा!’ वह झट से बोली।
‘परं तु नदी नान तो मुँह अंधरे े ही करना चािहए।’
‘घर म भी तो नदी का जल है।’
‘न बेटा! आज के िदन तो लोग कोस पैदल चलकर वहाँ नान को जाते ह। तु हारे तो घर क
खेती है। शी जाओ, तु हारे साथ के सब नान करके लौट भी रहे ह गे।’
‘बाबा! िफर कभी।’
‘तुम सदा यही कह देती हो, परं तु आज म तु हारी एक न सुनूँगा।’
‘बाबा!’ उसने नेह भरी आँख से देखते हए कहा।
‘ य ? डर लगता है?’
‘नह तो।’
‘तो िफर?’
बाबा का यह न सुन पावती मौन हो गई और अपनी ि फेर ली, िफर बोली-‘बाबा सच
कह?
ँ ’
‘हाँ-कहो।’
‘शम लगती है।’ उसने दाँत म उं गली देते हए उ र िदया।
बाबा उसके यह श द सुनकर जोर-जोर से हँसने लगे और रामू क ओर मुँह फेरकर कहने लगे-
‘लो रामू-अब यह य से भी लजाने लगी, पगली कह क , घाट अलग है, िफर भी यिद
चाहती हो तो थोड़ी दरू कह एकांत म जाकर नान कर लेना।’
‘अ छा बाबा! जाती ह,ँ परं तु जब तक एकांत न िमला नहाऊँगी नह ।’
‘जा भी तो-तेरे जाने तक तो घाट खाली पड़े ह गे।’
‘हाँ-लौटूँ गी जरा देर से।’
‘वह य ?’
‘मंिदर म रात को पूजा के लए सजावट जो करनी है।’
‘और फल?’
‘पुजारी से कह रखे ह।’
पावती ने सामने टँगी एक धोती अपनी ओर ख ची-बाबा ने बरामदे म िबछी एक चौक पर
बैठकर इधर-उधर देखा और कहने लगे-‘ या राजन अभी तक सो रहा है?’
‘देखा तो नह -उसक भी आज छु ी है।’ पावती ने धोती कंधे पर रखते हए उ र िदया।
ँ ा, उसके हाथ म वही रात वाले फूल थे।
बाबा ने राजन को पुकारा-वह तुरंत आँगन म जा पहच
‘पावती उसे देखते ही एक ओर हो ली।’
राजन ने दोन को नम कार िकया।
‘म समझा शायद सो रहे हो।’
‘नह तो मंिदर जाने क तैयारी म था।’
‘तो या तुमने भी पूजा आरं भ कर दी।’
‘जी, आपके संग का तो भाव होना ही था।’
‘तो हम समझ िक हमारे संग से प थर भी िवत हो उठे । जाओ भगवान तु हारा क याण करे ।’
राजन ने एक बार और णाम िकया और हाथ म फूल लए ौढ़ी से बाहर हो लया। बाहर
आते ही वह एक ओर िछप गया। उसक ि ार पर िटक थी। थोड़ी ही ती ा के बाद ौढ़ी के
िकवाड़ खुले और पावती हाथ म धोती लए बाहर आई। उसने चार ओर घूमकर देखा, जब उसे
िव वास हो गया िक वहाँ कोई नह , तो नदी क ओर चल दी। राजन वह खड़ा रहा। जाते-जाते
पावती ने दो-तीन बार मुड़कर देखा और िफर शी ता से आगे बढ़ने लगी। जब वह ओट म हई तो
राजन उसका पीछा करने लगा।
पीछा करते-करते वह मंिदर तक जा पहचँ ा। पावती सीिढ़य के पास पल-भर क , उ ह खाली
देख मु कराई और नीचे मंिदर क ओर उतर गई। घाट पर अभी तक लोग नान कर रहे थे। राजन
वह खड़ा पावती को देखता रहा। य ही वह नदी के िकनारे -िकनारे चलने लगी तो वह भी िशलाओं
के पीछे िछपा-िछपा उसी ओर बढ़ने लगा। पावती य वाले घाट पर भी न क और एकांत क
खोज म बढ़ती गई। राजन बराबर उसका पीछा कर रहा था। थोड़ी ही देर म वह घाट से काफ दरू
िनकल गई और नदी म पड़े प थर पर पग रखती हई दसरी ू ओर चली गई। राजन शी ता से एक
बड़े प थर के पीछे िछप गया और पावती को देखने लगा।
पावती नदी क ओर मुख िकए उछलती लहर को देख रही थी। समीप ही एक छोटी-सी नाव
पड़ी थी। नािवक का कह दरू तक कोई िच नह था, य जान पड़ता था, जैसे उसे यह एकांत थान
मन भा गया हो।
पावती ने एक बार चार ओर देखा-एक लंबी साँस ली और नदी िकनारे बैठ अपने पाँव जल म
डाल िदए, परं तु तुरंत ही िनकाल लए, शायद जल अ यंत शीतल था। वह उठ खड़ी हई और अपने
बाल को खोल डाला। जब उसने जोर से अपने सर को झटका िदया तो लंब-े लंबे बाल हवा म
लहराने लगे। उसने अ छी तरह से धोती को अपनी गदन पर लपेट लया तथा नीचे के व उतार
उस िशला पर फक िदए, जसके पीछे खड़ा राजन सब देख रहा था। राजन ने झट से सर नीचे कर
लया। जब धीरे -धीरे उसक ि ऊपर उठी तो पावती क लंबी-लंबी उं ग लयाँ उसक चोली के
बंधन खोल रही थ ।
तभी राजन के पैर का दबाव एक प थर पर पड़ा। प थर धड़धड़ाता हआ नीचे क ओर जा िगरा।
पावती च क पड़ी, उसका मुँह पीला पड़ गया। राजन को देखते ही उसका पीला मुँह लाज के मारे
आस हो उठा। सर झुकाए काँपती-सी बोली, ‘राजन तुम... तुम... तुम यहाँ।’
‘हाँ पावती! मने बहत चाहा िक म न आऊँ, पर क नह सका पावती! म समझ नह पाया िक
यह मुझे या हो गया?’ कहते-कहते वह चुप हो गया। राजन प थर के पीछे से िनकला और पावती
क ओर बढ़ने लगा। अभी उसने पहला ही पग उठाया था िक पावती िच ाई-‘राजन!’
‘राजन’ श द सुनते ही वह क गया। पावती ने उसी समय एक प थर उठाया और बोली-‘यिद
एक पग भी मेरी ओर बढ़ाया तो इसी प थर से तु हारा सर फोड़ दँगू ी।’
राजन सुनकर मु कराया, िफर बोला-‘बस इतनी सी सजा, तो लो म उप थत ह।ँ ’
यह कहकर वह िफर बढ़ने लगा। पावती ने प थर मारना चाहा, परं तु उसके हाथ काँप उठे और
प थर वह धरती पर िगर पड़ा। जब राजन को करीब आते देखा तो वह घबराने लगी। शी ता से पाँव
पानी म रख वह नदी म उतर गई। राजन व सिहत नदी म कू द पड़ा। पावती मछली क भांित जल
म इधर-उधर भागने लगी। अंत म राजन ने पावती को पकड़ लया और बाहपाश म बाँध जल से
बाहर ले आया। पावती क पुत लय म त णाई छा गई थी। उसने एक बार राजन क ओर देखा, िफर
लाज के मारे आँख झुका ल । वह अभी तक राजन के बाहपाश म बँधी थी।
राजन ने पूछा-‘पावती! तु ह यह या सूझी?’
‘सोचा िक तु ह तो लाज नह -म ही डू ब म ँ ।’
‘तुम नह जानती पावती... म तो तुमसे भी पहले डू ब चुका ह।ँ ’
‘ या हवा म?’
‘नह तु हारी इन मद भरी आँख के अथाह सागर म, जनसे अभी तक ेम रस झर रहा है।’
‘राजन!’ कहते-कहते उसके ने झुक गए। राजन ने काँपते हए उसे सीने से लगा लया।
नदी के शीतल जल म दोन बेसुध खड़े एक-दसरे ू के िदल क धड़कन सुन रहे थे। पावती का
शरीर आग के समान तप रहा था। य - य नदी क लहर उसके शरीर से टकरात , भीगी साड़ी
उसके शरीर से लपटती जाती। राजन ने धीरे से पावती के कान म कहा-‘शमाती हो।’
‘अब तो डू ब चुक राजन!’
‘देखो तु हारा आँचल शरीर को छोड़कर लहर का साथ दे रहा है।’
‘िचंता नह ।’
‘तु ह नह , मुझे तो है।’
‘वह य ?’
‘कह िफर से मेरा सर फोड़ने क न सोच लो।’
‘चलो हटो, िनल ज कह के!’
‘पावती...!’
‘ह।ँ ’
‘तु हारे चार ओर या है?’
‘जल-ही-जल!’
‘ या इतना जल भी तु हारे शरीर क जलती आग को बुझा नह पाया?’
‘आग, कैसी आग?’
‘ ेम क आग।’ और इसके साथ ही राजन, पावती के और भी समीप हो गया। राजन के गम-
गम वास ने पावती के मुख पर जमे जलकण को िमटा िदया। पावती क आँख म एक ऐसा उ माद
था, जो राजन को अपनी ओर ख चता जा रहा था। वह बेसुध सी मौन खड़ी थी। उसके कोमल गुलाबी
ह ठ राजन के होठ से िमल जाना चाहते थे, परं तु मुख न खुलता था। राजन से न रहा गया, य ही
वह अपने ह ठ उसके करीब ले जाना चाहा, पावती िच ाई-‘राजन्।’
राजन च का-उसके हाथ पावती के शरीर से अलग हो गए-राजन बोला-‘ या है?’
‘वह देखो सामने।’ वह हाथ से संकेत करती हई बोली।
राजन ने घूमकर देखा-चार ओर जल के सवाय कु छ न था, वह िफर बोला-‘ या है पारो?’
पर यह श द उसक जबान पर आते-आते क गए। उसने देखा िक पावती उससे काफ दरू
खड़ी मु करा रही थी। पावती बोली-‘धरती छोड़ अब या जल म ही रहने का िन चय कर लया
है?’
‘जी हाँ, मछ लयाँ जल म रहना पसंद करती ह।’
‘मछ लयाँ तो रहना पसंद करती ह, परं तु िशकारी का जल म या काम?’
‘िशकारी बेचारा या करे , मछली को बाहर ख चते-ख चते वयं ही जल म खंच गया।’
‘िबना िकसी फंदे के?’
‘नह तो, इस बार तो ऐसा फंदा पड़ा िक मछली तथा िशकारी दोन उसम फंस गए।’
‘कैसा फंदा?’
‘ ेम का।’
‘अब यहाँ से जाओ भी, तु ह तो हर समय िद गी ही सूझती है।’
‘तु ह जाना है तो जाओ, म तो नान करके आऊँगा।’
‘परं तु बाहर कैसे िनकलूँ?’
‘लाज लगती है? िनल ज बन जाओ।’
‘तु हारी तरह।’
‘और नह तो डू ब मरो, नदी सामने ही है।’
पावती मौन हो गई और कातर ि से राजन क ओर देखने लगी। उसका िवचार था िक शायद
वह नेह भरी ि देख राजन को उस पर दया आ जाए, परं तु वह वहाँ से न िहला। आ खर पावती
बोली-‘राजन! तु ह मुझसे ेम है न?’
‘है तो।’
‘तो मेरी इतनी-सी भी बात नह मानोगे?’
‘ या?’
‘यहाँ से चले जाओ।’
‘न भाई तु हारे ही संग चलगे।’
‘म तो कभी नह जाऊँगी।’
‘देखो पावती, म एक उपाय बताता ह-ँ हम दोन क बात रह जाएगी।’
‘कहो।’
‘म नदी म मुँह फेर सूय क पहली िकरण देखता हँ और तुम बाहर िनकल व बदल लो।
बदलते ही मुझे पुकार लेना, इस कार तुम व भी बदल लोगी और हमारा साथ भी न छू टेगा।’
‘परं तु तुम पर िव वास क ँ ?’
‘एक बार करके देख लो।’
‘तो ठीक है।’
‘परं तु एक शत पर।’
‘वह या?’
‘मंिदर तक हम दोन नदी के रा ते चलगे... तैर कर।’
‘नह उस नाव से।’
‘मुझे वीकार है।’
और राजन ने मुख फेर लया-उसने गुनगुनाना शु कर िदया-पावती कु छ ण तो चुपचाप खड़ी
रही, िफर धीरे -धीरे पग रखते हए नदी के बाहर जा पहच
ँ ी और व उठा शी ता से प थर के पीछे
हो ली। भीगे व उतार साड़ी पहन ली। राजन अब तक मुँह फेरे मजे से गुनगुनाता जा रहा था और
पावती क पुकार क ती ा कर रहा था। थोड़ी देर बाद उसने पावती को आवाज दी-उ र िमला
‘अभी नह ।’
कु छ देर चुपचाप रहने के प चात् राजन ने िफर कहा-‘म तो शीतल जल म अकड़ा जा रहा हँ
और तुमने अभी तक कपड़े भी नह बदले।’
पावती ने िफर भी कोई उ र नह िदया, पल भर क चु पी के प चात् राजन ने िफर
पुकारा-‘पावती!’ और तुरंत ही मुँह फेरकर देखा-पावती शी ता से लौटी जा रही थी।
राजन यह देखते ही आग-बबूला हो गया और जल से बाहर िनकल पावती के पीछे हो लया।
शी ही उसके समीप पहचँ कर ोध म बोला-‘तो या िकसी के िव वास को य ही तोड़ा जाता है?’
‘तु ह िव वास क पड़ी है और वहाँ बाबा मुझे गाली दे रहे ह गे।’ इतना कहकर पावती िफर
तेजी से बढ़ने लगी।
‘तो झूठ य बोला था?’
‘अपनी जान छु ड़ाने के लए।’
‘तो मुझे यह पता न था िक तुम मुझे एक पागल समझती हो। ठीक है... मुझे तु ह रोकने का
अ धकार ही या है?’ यह कहकर राजन उ ह पैर से नदी क ओर लौट गया। पावती ने के श द
म उसे पुकारा भी। परं तु उसने सुनी-अनसुनी कर दी और न पीछे घूमकर ही देखा।
जब वह पहले थान पर पहच ँ ा तो नदी क लहर उसी कार उतनी भरती जा रही थ , य िक
उनसे खलवाड़ करने वाला संगी तो जा चुका था।
राजन के भीगे व से अब तक पानी बह रहा था। उसने हाथ से पानी िनचोड़ा और वैसे ही
धरती पर औंधे मुँह लेटा रहा-शायद व सुखाने के िवचार से। उसका शरीर ठं ड के मारे काँप रहा
था, आँख लाल हो रही थ । ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वर आया हो। उसका सर भारी सा हो गया
था।
नदी के जल क कलकल, धूप क गम और भीगे व उसे िव वास-सा िदला रहे थे िक अभी
उसम चेतना शेष है। अचानक वह च क उठा और शरीर समेट कर बैठ गया। उसके व कु छ सूख
चले थे। ठं ड भी पहले से कम हो चुक थी। उसने नदी क ओर देखा, िफर िकनारे खड़ी नाव क ओर
ि डाली-देखते ही भ च का-सा रह गया। शी ता से उठ खड़ा हआ और नाव क ओर लपका।
नाव पर पावती सर ऊँचा िकए बैठी थी। वह बोल उठा-‘पावती! तुम।’
पावती राजन क ओर एकटक देखती रही और राजन के न का उ र िदया उसके आँसुओं
ने।
राजन यह सब देखकर याकु ल-सा हो उठा और काँपते वर म बोला-‘तुम यहाँ बैठी या कर
रही हो?’
‘तु हारी ती ा।’
‘वह य ?’
‘नदी के रा ते मंिदर तक साथ जो जाना है।’
राजन को अहसास हआ मानो संसार भर का आनंद आज भगवान ने उसी के अंतर म उड़ेल
िदया हो। उसक भटकती हई िनगाह म आशा क िकरण झलक उठी। वह नाव को नदी म धकेल
वयं भी उसम सवार हो गया।
नाव अपने आप जल के वाह क ओर बढ़ने लगी। राजन ने पावती को ेमपूवक गले लगा
लया। दोन खामोश थे, शायद उनक खामोशी देख नदी क लहर भी खामोश हो चुक थी। परं तु
दोन के दय म हलचल-सी मची हई थी।
पावती ने राजन का हाथ अपने हाथ म ले लया और उसक उं ग लय से खेलने लगी। राजन
अपनी उं ग लयाँ उसके होठ तक ले गया। पावती मु कु राती रही, िफर तुरंत ही उसने मुँह खोल
उं गली को जोर से दाँत तले दबा लया। राजन िच ा उठा और झट से हाथ ख च उं गली को मुँह म
रख चूसने लगा।
पावती ने हाथ अपनी ओर ख चा और बोली-
‘लाओ ठीक कर दँ।ू ’ कहकर हथेली से सहलाने लगी।
राजन हँस पड़ा और बोला-
‘यह भी खूब रही-पहले काट खाया, अब मरहम लगाने चली हो।’
‘राजन तु ह या पता िक इस कार काटने और िफर उसी को सहलाने म िकतना रस आता है
हम औरत को।’
राजन ने इसका कोई उ र न िदया-केवल मु करा िदया।
पावती सशंक सी होती हई बोली-
‘अरे ! तु हारे हाथ तो यूं जल रहे ह जैसे वर हो गया हो।’
‘तुमने अब जाना?’
‘तो या।’
‘यह तो जाने िकतने समय से यूँ ही जल रहे ह।’
‘और कु छ दवा ली?’
‘दवा? इसक दवा तो तुम हो पावती।’
‘म और दवा? तब तो इलाज अपने आप हो गया, परं तु यह वर कैसा?’
‘ ेम का’ कहकर उसक उं ग लयाँ अपनी गम हथे लय म दबा ल ।
‘तु ह तो ेम के सवा कु छ आता ही नह ।’
इतना कहकर वह चुप हो गई।
नाव धीरे -धीरे नदी के बहाव म वतः ही बढ़ी जा रही थी। दपु हरी क धूप म पावती के सुनहरे
बाल चमक रहे थे।
राजन तो उसी के चेहरे व बाल क सुंदरता को अपलक नयन से िनहार जा रहा था। पावती ने
मुख ऊपर उठाया। आँख से आँख िमलते ही लजा-सी गई, िफर मुँह नीचे करके कहने लगी, ‘ वर
िकतने कार का होता है, यह तो म जानती नह , परं तु इतना अव य सुना है िक होता भयानक है।’
‘यह तो तुमने ठीक सुना है। भयानक ऐसा िक पीछे जसके पड़ जाए, छोड़ने का नाम तक नह
लेता।’
‘लो बात -ही-बात म हम मंिदर तक पहच
ँ गए।’
‘इतनी ज दी... अ छा तो नाव िकनारे बाँध दो।’ यह कहते हए राजन ने पतवार हाथ म लेकर
नाव तट पर लगा दी। उतरते ही दोन मंिदर क ओर बढ़ने लगे। सीिढ़य के समीप पहच ँ ते ही पावती
क गई और कहने लगी-
‘समझ म नह आता या क ँ ?’
‘ऐसी या उलझन है?’
‘राि को मंिदर म पूजा है, पुजारी सजावट के लए राह देख रहा होगा-और घर म बाबा।’
‘यही न िक हम देर हो गई।’
‘हाँ यही तो।’
राजन कु छ समय तो चुप रहा, िफर बोला, ‘सुनो!’
‘ या?’
‘बाबा से जाकर कह देना, मंिदर क सजावट हो गई।’
‘झूठ बोलूँ?’
‘नह यह सच है।’
‘तो या मंिदर...’
‘यह सब तुम मुझ पर छोड़ दो।’
‘तुम पर!’
‘िव वास... य नह -अ छा तो म चली। हाँ, मंिदर अव य सजाना।’
‘मंिदर सजाते समय देवताओं से आशीवाद ले ही लूँगा।’
‘शायद तुम यह नह जानते िक जब तक म न जाऊँ, देवता िकसी क ओर आँख उठाकर भी
नह देखते।’
‘और यिद हम आ गए और देवताओं ने अपने ने मूँद लए तो?’
‘देखा जाएगा।’ पावती से बड़ी लापरवाही से कहा और घर क ओर भागी।
य - य घर करीब आ रहा था, पावती के िदल क धड़कन बढ़ती जा रही थी। वह भय से काँप
रही थी, बाबा के स मुख इतना बड़ा झूठ कैसे बोलेगी? यह सोचते-सोचते घर तक वह पहच ँ गई।
ौढ़ी म कदम रखते ही चुपके से उसने झाँका। सामने कोई न था। वह शी ता से आँगन पार कर
अपने कमरे म जाने लगी। अभी वह िकवाड़ के करीब पहच ँ ी ही थी िक बाबा क पुकार ने उसे च का
िदया-वह बरामदे म बैठे ती ा कर रहे थे।
‘इतनी देर कहाँ लगा दी?’
‘ नान को जो गई थी।’
‘ नान म या इतनी देर।’
‘वहाँ से मंिदर भी तो जाना था।’
‘सीधी मंिदर से आ रही हो या?’
‘जी बाबा सजावट ऐसी हई िक जसे देखते ही आप आ चय म पड़ जाएँ।’
‘तु हारे नृ य क या मंिदर क ?’
‘मंिदर क ।’
‘परं तु रामू भी तो अभी पुजारी से िमलकर आया है।’
‘तो या कहा इसने?’
‘िक पावती तो सवेरे से आई ही नह ।’
‘आई नह ?’ पावती कु छ चुप हो गई और बाबा के मुख क ओर देखने लगी, जो अपने उ र
क ती ा कर रहे थे। पावती बाबा को देख यूँ बोली-
‘ओह! अब समझी।’
‘ या?’
‘बाबा सच कह!ँ ’
‘कैसा सच?’
‘पुजारी ने इस लए कहा था िक कह आप मुझे बुला न ल और उसक सजावट अधूरी रह
जाए।’
‘पगली कह क ! भला म ऐसा य करने लगा?’
‘उसने तो यही सोचा होगा, बाबा!’
‘अ छा सोचा! जरा-सा झूठ बोलकर दो घंटे से मुझे बेचन
ै कर रखा है।’
‘बाबा आपको मालूम है िक वह मेरे िबना मंिदर का काम िकसी दसरे
ू से नह करवाता और न
ही िकसी पर िव वास करता है।’
‘तब तो दोन ने िमलकर मंिदर म िबलकु ल प रवतन कर िदया होगा।’
‘हाँ बाबा।’
‘तब तो मंिदर क सजावट अभी देख आऊँ।’
‘न बाबा, ऐसी या ज दी है-हमेशा देखने वाली व तु कु छ ती ा के प चात् ही देखनी
चािहए।’
‘ऐसा लगता है जैसे तु ह आज ‘सीतलवादी’ को जगमगा देना हो।’
‘राि आने के पहले या कहा जा सकता है?’
‘अ छा-भोजन करो। म रामू से पूजा क तैयारी करवा देता ह।ँ ’
‘था लयाँ साफ करनी ह गी। दीय के लए घी क ब याँ और।’
‘तुम िचंता न करो, म सब कराए देता ह।ँ ’
बाबा ने रामू को पुकारा और पावती ने कमरे म वेश िकया। य - य सायंकाल का समय
समीप आ रहा था, पावती का िदल बैठा जा रहा था। न जाने मंिदर म या हो रहा होगा। पुजारी अपने
मन म मुझे गा लयाँ दे रहा होगा। यिद राजन ने भी कु छ न िकया तो शाम को बाबा या कहगे? इ ह
िवचार म डू बी पावती सायंकाल क ती ा करने लगी। इधर पूजा क सब साम ी तैयार हो गई।
उसने कई बार चाहा िक वह सब कु छ रामू ारा मंिदर म राजन को कहलवा भेज,े परं तु साहस न
पड़ा।
आ खर साँझ हो गई।
य - य अंधरे ा बढ़ रहा था, य - य सीतलवािदय के मुख पर उ ास क िकरण चमकने
लगी और लोग मंिदर क ओर चल पड़े। इधर पावती ंगार म म थी। आज उसने अपने को खूब
सजाया परं तु उसका दय अ ात आशंका से धड़क रहा था, यिद मंिदर क सजावट न हई तो वह
बाबा को या उ र देगी।
आज तो वह बड़ी आशाएँ दय म लए हए मंिदर जाने क तैयारी कर रही थी। जब वह नृ य के
लए देवताओं के स मुख आएगी और पास बैठा पुजारी उसे घूर-घूरकर ताकेगा तो या वह नृ य
कर सकेगी? यही िवचार आ-आकर उसको खाए जाते थे।
वह यह सोच रही थी िक उसके कान म बाबा क आवाज सुनाई दी-उसने झट से ंगार दान बंद
िकया और साड़ी का प ू ठीक करते-करते कमरे से बाहर आ गई। बाबा उसे सजा-धज देख
मु करा पड़े। पावती ने ल जा के मारे मुँह फेर लया। बाबा रह न सके, तुरंत ही उसे ेमपूवक गले
से लगा लया। उनके ने म ममता के आँसू उमड़ आए। वे उसे देख ऐसे स हो रहे थे, जैसे माली
अपने बढ़ते हए पौध को देख स हो उठता है। पावती ने पास खड़े रामू से दश ु ाला ले बाबा को
ओढ़ा िदया। एक हाथ म फूल क टोकरी तथा दसरे ू म पूजा क थाली ले बाबा के साथ मंिदर क
ओर बढ़ चली। रामू भी उसके पीछे -पीछे हो लया।
बाबा व रामू दोन स िच िदखाई दे रहे थे।
और-
पावती के मुख पर उदासी और घबराहट थी।
य ही वे आबादी से िनकलकर मंिदर क ओर बढ़ने लगे, पावती के मुख पर उदासी क रे खाएँ
स ता म बदल गई।ं मंिदर क दीवार तथा चबूतरे काश से जगमगा रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो
संसार भर का काश िकसी ने इन पहािड़य म एकि त कर िदया हो। मंिदर म मनु य का कोलाहल
सुनाई पड़ रहा था। य - य मंिदर करीब आ रहा था, पावती के िदल क धड़कन बढ़ती जा रही थी।
वह समझ नह पा रही थी िक यह या हो रहा था उसे।
अब तो वह मंिदर म शी पहच
ँ ने के लए बेचन
ै हो उठी। न जाने आज उसक आँख या देखने
वाली ह?
थोड़ी देर म तीन मंिदर आ पहच
ँ े। बड़े ार पर लोग क काफ भीड़ थी। पावती ने बाबा का हाथ
थामा और उन सीिढ़य क ओर ले गई, जहाँ से वह ितिदन मंिदर जाती थी। यह माग आम लोग के
लए न था, केवल पुजारी तथा नदी को जाने वाले लोग ही इधर से आते-जाते थे। उन सीिढ़य पर भी
दीये जल रहे थे।
राजन ने शायद इस िवचार से जला रखे थे िक यह वह रा ता है, जहाँ दोन का थम िमलन
हआ था।
जब तीन सीिढ़य के करीब पहच ँ े तो पावती क गई। सीिढ़य पर फूल क क लयाँ िबछी हई
थ । पावती ने एक जलता दीया उठाया और अपनी पूजा क थाली के अ य दीये जला लए और
थाली उठाकर मंिदर क सीिढ़य पर चढ़ने लगी। उसके कोमल गुलाबी तलवे उन फूल क क लय
पर पड़ रहे थे, जो राजन ने उसक राह म िबछा रखी थ । वह अपनी दिु नया म खो गई। उसे कोई
यान न रहा िक उसके बाबा भी उसके साथ-साथ आ रहे ह। बाबा भी मौन थे। वे सोचने लगे, पावती
शायद देवताओं क दिु नया म खो गई है।
परं तु पावती के िदल म तो आज दसरीू ही धुन थी। पहले जब वह सीिढ़य पर चढ़ती तो उसे यूँ
लगता था, जैसे देवता उसे अपनी ओर ख च रहे ह , परं तु आज उसे सवा राजन के िकसी दसरे
ू का
यान न था। इन सीिढ़य पर िबछी एक-एक कली आज उसे राजन क याद िदला रही थी। जब वह
बरामदे म पहच ँ ी तो स ता से फूली न समाई। कारण, मंिदर क सजावट म कोई कसर न छोड़ी गई
थी। ‘सीतलवादी’ क हवा भी फूल क महक से भर उठी। मंिदर काश से जगमगा रहा था।
अचानक पावती के िवचार का ताँता िकसी आवाज ने तोड़ िदया। ये उसके बाबा थे, जो पुजारी
तथा कंपनी के मैनज
े र से बात म संल थे। मैनज
े र ने शायद आज पहली बार पावती को देखा था।
‘यह मेरी पावती है...।’ बाबा ने मु कु राते हए मैनज
े र से, जो अब तक पावती को टकटक बाँधे
देख रहा था, कहा। मैनज े र ने हाथ जोड़कर उसे नम ते क , परं तु उ र म पावती घबरा-सी गई।
उसके हाथ के हए थे। तुरंत ही उसने फूल क टोकरी बाबा को और थाली रामू के हाथ म देते हए
अपने हाथ उठाए और मु कु राते हए नम ते का उ र िदया।
यह सब कु छ इस तरह से हआ िक तीन जोर से हँस पड़े। पावती लाज के मारे गुलाबी ओढ़नी
और पूजा क साम ी लेती हई मंिदर क ओर जाने लगी। उसके कान म पुजारी के श द पड़े। वह
मैनज
े र और बाबा से कह रहा था-
‘आज यह सब कु छ जो आप देख रहे ह, पावती क कृपा से हआ।’
सुनकर पावती के मन म गुदगुदी-सी उठी और उसने मंिदर म वेश िकया। घंिटयाँ बड़े जोर से
बज रही थ । उसने मंिदर के अंदर वाले कमरे म जाकर पूजा क साम ी एक ओर रख दी। िफर
अलमारी से घुघ
ँ िनकाल पैर म बाँध लए और उस गीत क धुन को मुँह से गुनगुनाने लगी, जस
पर उसे नृ य करना था। वह उठी और िकवाड़ के पीछे से मंिदर म बैठे लोग को झाँकने लगी।
उसक आँख केवल राजन को देखना चाहती थ , परं तु वह कह भी िदखाई नह िदया। मैनज
े र
और उसके बाबा भी एक ओर बैठे पूजा क ती ा कर रहे थे। जब कह भी राजन न िदखाई पड़ा तो
पावती उदास-सी हो गई। आ खर वह इतनी सजावट के बाद चला य गया? वह तो कहता था िक
नृ य म अव य देखँगू ा।
पावती को िकसी के आने क आहट सुनाई दी। उसने पलटकर देखा, पुजारी सामने खड़ा था, जो
उसे देखते ही बोला-
‘ य पावती... या देर है? पूजा का समय तो हो गया।’
‘ओह! तो म अभी आई।’ पावती उ र देते हए पूजा वाली थाली क ओर बढ़ी। जाते-जाते क
गई और पुजारी से कहने लगी-
‘जानते हो, जसने यह सारी सजावट क है, वह कहाँ है?’
‘तु हारा मतलब राजन से... वह तो चला गया।’
‘ य ?’
‘म या जानूँ-कहता तो था िक पूजा के समय तक आ जाऊँगा।’
‘परं तु िदखाई तो नह दे रहा।’
‘भीड़ म न मालूम कह जा बैठा हो, तुम ज दी करो।’
यह कहता हआ पुजारी बाहर चला गया-पावती ने पूजा क थाली उठा ली और उसम पूजा के
लए फल रख बाहर जाने लगी। अभी उसने पहला कदम उठाया ही था िक िपछले िकवाड़ से कोई
अंदर आया।
पावती ने मुड़कर देखा-राजन खड़ा था। दोन ने एक-दसरे
ू को देखा, आँख िमल और झुक गई।ं
राजन ने पावती क ओर गुलाब का फूल बढ़ाया और उसक आँख म आँख डु बाता-सा खड़ा रह
गया।
‘यह या?’ पावती ने पूछा।
‘ ेम क भट।’
‘तो या यह कम था जो तुमने मेरे लए िकया।’
‘वह तो तु हारे देवताओं को स रखने के लए था।’
‘और यह?’
‘यह अपनी स ता के लए।’
‘अ छा तो लाओ।’
पावती के हाथ खाली न देखकर राजन बोला-
‘इन फूल म रख दँ ू या?’
‘न... न... यह तो पूजा के फूल ह, जो देवताओं पर चढ़ाए जाएँग।े ’
‘तो या यह फूल इस यो य भी नह िक साथ रख िदया जाए।’ राजन ने कु छ-कु छ िबगड़ते हए
कहा और अपना हाथ पीछे ख च लया।
पावती समझ गई और मु कराते हए बोली-
‘नह , ऐसी बात तो नह , परं तु हर व तु अपने थान पर ही शोभा पाती है।’
‘तो इसका थान...।’
‘मेरे बाल म।’ पावती राजन क बात काटते हए बोली और घूमकर अपना सर उसक ओर
कर िदया। राजन ने ेम से वह फूल उसके बाल म ख स िदया और उसे एक बार चूम लया। पूजा
क घंटी बजी तो दोन च क उठे । राजन मु कु राता हआ एक ओर चला गया। पावती पूजा क थाली
ले बाहर क ओर बढ़ी। जाते-जाते एक ण के लए क , घूमकर कन खय से राजन को देखा।
राजन अभी मु कराता खड़ा था।
पावती धीरे -धीरे डग भरती देवता क मूित क ओर बढ़ी, धरती पर फूल िबछे हए थे-परं तु िफर,
उसके पैर डगमगा रहे थे। उसके दय क धड़कन उसे भयभीत कर रही थी, जैसे उसने कोई बड़ा
पाप िकया हो। मूित के करीब पहच ँ कर उसने थाली नीचे रख दी तथा फूल उठाकर देवताओं के
चरण म अिपत करने लगी।
उसके हाथ काँप रहे थे।
य ही वह देवताओं के सामने झुक पुजारी ने राग अलापना आरं भ कर िदया। उसके साथ ही
सब लोग देवताओं के सामने झुक गए। पावती धीरे -धीरे ऊपर उठी, परं तु आज उसे ऐसा लगा रहा था
जैसे देवता उसे ोध क ि से देख रहे ह ।
मंिदर क जगमगाहट शायद आज उसे स न कर सक ।
राग के अलाप के साथ-साथ पावती ने नृ य आरं भ कर िदया। नृ य के म य उसने घूमकर
देखा... दशक के सर देवता के स मुख झुके थे, परं तु दरू िकवाड़ के साथ खड़े राजन के मुख पर
वही मु कराहट थी। एक बार िफर दोन क ि िमल गई और पावती बेचन ै हो उठी और उसने
आँख मूँद ल ।
वह ढोलक और अलाप के राग के साथ-साथ नृ य करती रही। न जाने आज राजन के ने म
ऐसा या था िक मंिदर के देवता-गीत का अलाप, ढोलक व घुघँ ओं क नझुन कोई भी उसक
आँख से राजन क सूरत को दरू न कर पाती थी और वह नाचे जा रही थी।
उसके पाँव क गित ढोलक के श द और राग के अलाप के साथ-साथ बढ़ती गई-मंिदर गूज

उठा।
आज से पहले पावती ने कभी ऐसा नृ य नह िकया था। उसे ऐसा मालूम हो रहा था जैसे वह
केवल राजन के लए ही नृ य कर रही है।
उसने और भी उ साह से नाचना आरं भ कर िदया।
वह राजन का यान छोड़ अपने आपको देवता के चरण म अिपत करना चाहती थी।
परं तु...।
उसके एक ओर तो राजन खड़ा मु करा रहा था और दसरी
ू ओर देवता ोध से पावती को देख
रहे थे।
शायद आज मनु य तथा देवता का संघष हो रहा था।
राजन क मु कु राहट बता रही थी िक आज वह अ यंत स है।
इधर घुघ
ँ ओं क नझुन और ती होती गई। सीतलवादी क हवा ने तूफान का प हण कर
लया। वायु क ती ता से घंिटयाँ अपने आप बजने लग । फूल क क लयाँ देवता के चरण म से
उड़कर िकवाड़ क ओर जाने लग । क लय ने उड़कर जब राजन के कदम चूमे तो वह समझा,
सफलता मेरे चरण चूम रही है।
पुजारी ने राग का अलाप समा कर िदया, परं तु पावती क पायल क झंकार अभी तक उठ
रही थी। सब लोग सर उठा झंकार को सुनने लगे। सबक ि पावती के कदम के साथ नाच रही
थी।
बाबा और पुजारी असमंजस म पड़े हए थे िक आज पावती को या हो गया?
मंिदर क दीवार पर जलते हए िचराग रम झम कर उठे थे। पायल क बढ़ती हई झंकार उसके
लए एक तूफान सािबत हई, लोग के दय काँप उठे । वायु ने भी जोर पकड़ा, बाबा अपना थान
छोड़ पावती क ओर बढ़े।
और पावती को देखा वह िक नाच-नाचकर चूर हो चुक थी। शरीर पसीने म तर था-िफर भी वह
धुन म नाचे जा रही थी। अपने आप म इतना खो चुक थी िक बाबा क पुकार भी न सुन पाई।
बाबा ने दो बार करीब से पुकारा। अंत म नाचते-नाचते वह देव मूित के चरण पर िगर गई।
बाबा पुकार उठे -‘पावती!’
और उसके साथ ही पुजारी, बाबा, मैनज
े र आिद उसक ओर बढ़े-परं तु राजन अब भी दरू खड़ा
मु करा रहा था।
राजन ने एक ि मंिदर क ऊँची दीवार पर डाली और मंिदर से बाहर चला गया-बाहर
भयानक तूफान था। बादल आकाश म छा गए थे। राजन धीरे -धीरे उस तूफान म मंिदर क सीिढ़याँ
उतर रहा था।
उसे लग रहा था, जैसे उसके अंदर बैठा कोई कह रहा है आज इंसान ने देवता पर िवजय पाई है।
इंसान हआ है िवजयी और देवता हआ है परा जत।
तीन
ितिदन क तरह राजन आज भी अपने काय म संल था। छु ी होने म अभी दो घंटे शेष थे।
आज चार रोज से उसका मन िकसी काम म नह लग रहा था। इसका कारण वह मकान था, जो
मैनज
े र ने राजन को कृपा प म िदलाया था और राजन को लाचार हो, पावती का साथ छोड़ना पड़ा
था।
एक-न-एक िदन तो उसे छोड़ना ही था।
यह सोच-सोचकर वह मन को धीरज देता था और काम म जुट जाता था। उसे हर साँझ को
बेचन
ै ी से इंतजार होता, जब वह छु ी के बाद मंिदर क सीिढ़य पर पावती से िमलता।
आज भी वह इस धुन म पावती क ती ा कर रहा था, पावती ने उसे आज नाव क सैर का
वचन िदया था। वह ितिदन पूजा के फूल म एक लाल गुलाब का फूल भी लाती और जब मु कराते
हए राजन को भट करती तो वह उसे ेमपूवक उसी के बाल म लगा देता। दोन फूले न समाते थे।
य - य छु ी का समय िनकट आ रहा था, राजन क बेचन
ै ी बढ़ती जा रही थी। इतने म सामने
से कुं दन आता िदखाई िदया। राजन काम छोड़ उसक ओर लपका और बोला-
‘सुनाओ भाई! आज इधर कहाँ?’
‘तु ह तो समय ही नह -मने सोचा... म ही िमलता चलूँ।’
‘तुम जानते हो भैया म छु ी के प चात् घूमने चला जाता ह।ँ जब लौटता हँ तो थका-हारा
िब तर पर पड़ जाता ह।ँ ’
‘कम से कम अपनी कु शल- ेम का समाचार तो देते रहा करो। यिद अकेले न होते तो इसक
आव यकता न रहती।’
‘तुम समझते हो मेरा कोई नह ।’
‘कौन है जो... ओह! ठाकु र बाबा-उ ह तो म भूल ही गया और बात -बात म यह भी भूल ही
गया िक मैनज
े र साहब ने तु ह बुलाया है।’
‘मुझे?’
‘हाँ-यही कहने तो आया था।’
‘तो इस लए हाल पूछा जा रहा था।’
‘राजन हम एक ही समय म दो काम कर लया करते ह। तु हारी तरह नह -काम यहाँ हो रहा है
और मन नदी के िकनारे -िफर दोन -के-दोन अधूरे।’
इस पर दोन खल खलाकर हँसने लगे। कुं दन हाथ मलता ूटी पर चला गया और राजन
मैनज
े र के कमरे क ओर।
जब वह मैनज
े र के कमरे से बाहर िनकला तो बहत स था। उसके हाथ म एक बड़ा-सा
पासल था, जसम उसका यार ‘िमंटो वायलन’ था। पहले तो हरीश ने उसे िफजूलखच पर डाँटना
चाहा-परं तु यह सोचकर िक शौक का कोई मू य नह , मौन हो गया। एक युवक शायद दसरे
ू युवक
के िदल को शी ही पहचान गया था।
छु ी होने म शायद अभी एक घंटा बाक था। कब छु ी हो और वह पावती के पास पहच
ँ े। उसे
िव वास था िक वह यह ‘िमंटो वायलन’ देख स ता से उछल पड़ेगी और जब वह उसे बजाएगा तो
वह उस धुन पर नाच उठे गी।
इ ह िवचार म खोया-खोया काम कर रहा था िक मैनज े र व माधो वहाँ आ पहच
ँ े। राजन ने दोन
को नम कार िकया। मैनज
े र राजन के समीप होकर बोला-
‘राजन आज छु ी जरा देर से होगी।’
राजन के सर पर मानो कोई व िगर पड़ा हो। उसके चेहरे का रं ग फ का पड़ गया। फटी ि
से हरीश को देखने लगा। राजन को य देख दोन आ चय म पड़ गए। िफर माधो ने पूछा-
‘ य राजन! तिबयत तो ठीक है?’
‘तिबयत...!’ वह संभल कर बोला-‘हाँ...हाँ ठीक है। कु छ और ही सोच रहा था।’
‘तुम तो जानते ही हो िक कल काम बंद रहेगा। तार पर थै लय के थान पर िबजली से चलने
वाला एक बड़ा टब लगवाया जाएगा। वह एक ही बार म कोयले क दस थै लय को नीचे ले
जाएगा।’
‘तो िफर!’
‘आज जतना कोयला है, वह सब नीचे पहच ँ ा दो। ातःकाल मालगाड़ी जाती है। यह करीब दो
घंटे का काम होगा, इसके बदले कल िदन भर छु ी, अब तो स हो न?’
‘जी...!’ राजन ने धीरे से उ र िदया, वह वह खड़ा रहा। उसे यह भी पता न चला िक दोन
कब चले गए। उसके मन म बार-बार यही िवचार उ प हो रहा था िक पावती राह देखेगी। जब वहाँ
न पहच ँ ेगा तो िनराश होकर घर लौट जाएगी। उसने घूमकर एक ि कोयले के ढेर पर डाली।
उसके मुँह से यह श द िनकल पड़े-‘इतना ढेर, दो घंटे का काम-केवल दो घंटे का?’ अचानक
उसका चेहरा तमतमा आया और वह मजदरू क ओर बढ़ा और उ ह काम के लए कहा-िफर वयं
ही बेलचा उठा कोयले को थै लय म भरने लगा। मजदरू ने भी मन से उसका साथ िदया। इस कार
वह सब िमलकर काम करने लगे। सबके हाथ मशीन क भांित चल रहे थे। सारे िदन क थकावट का
उन पर कोई असर न था। आज वह घंट का काम िमनट म समा करना चाहते थे।
दसरी
ू ओर माधो अचंभे म था िक आज थै लयाँ इतनी तेजी से य आ रही ह? अभी एक
समा भी न हो पाती तो झट से दसरी ू जा पहच ँ ती। वह यह सोचकर आ चयचिकत था िक आज
इतनी फुत कैसी? परं तु बेचारा माधो या जाने िक यार क मं जल तक पहच
ँ ने के लए मनु य कैसे
फुत ला हो उठता है?
मैनज
े र का अनुमान गलत था परं तु िफर भी सबने िमलकर काम दो घंटे म समा कर लया।
काम के बाद मजदरू इस लए स थे िक दो घंटे के प चात् उ ह पूरे िदन क छु ी है। परं तु राजन
के लए यह दो घंटे भी िकतने क मती थे। उसने काम क समाि पर अपने कपड़ को झाड़ा और
र ज टर उठा टेशन क ओर देखा। सूरज डू ब चुका था-अभी उसे िहसाब िमलाने भी जाना था। नीचे
जाने को भी समय चािहए, पहले तो उसने सोचा न जाऊँ, परं तु िफर अपनी ज मेदारी का यान आते
ही ऐसा न कर सका। आ खर उसने जाने का िन चय कर ही डाला।
अचानक उसे कु छ सूझा और वह क गया। पासल एक मजदरू को देते हए बोला-‘इसे जरा मेरे
घर छोड़ देना।’
राजन ने दोन हाथ से तार के साथ लटके कड़े को मजबूती से पकड़ लया, सब मजदरू
आ चय म थे िक उसे या सूझी। राजन थोड़ी देर म थैली क तरह नीचे जाने लगा। एक-दो मजदरू
उसे रोकने को भागे भी परं तु वह हवा के समान िनकल गया। नीचे गहरी और पथरीली घािटयाँ देख
उसे घबराहट हई और उसने अपनी आँख मूँद ल । जब उसने आँख खोल तो अपने आपको एक रे ल
के िड बे म पाया। शरीर दद के मारे चकनाचूर हो रहा था। राजन ने हाथ म पकड़ा र ज टर माधो क
ओर बढ़ाया-जो उसक मूखता पर हँस रहा था।
िहसाब िमलाने के बाद राजन सीधा मंिदर क ओर चल िदया।
अंधरे ा हो चुका था, परं तु उसे आशा थी िक शायद पावती उसक ती ा कर रही होगी। परं तु
जब वह वहाँ पहच ँ ा तो उसे िनराश होना पड़ा। उसने चार ओर देखा-पावती वहाँ नह थी, यह सोच
िक शायद मंिदर म हो। जब वह सीिढ़य पर चढ़ने लगा तो उसके कदम अक मात् सामने कु छ
देखकर क गए।
सीिढ़य पर लाल गुलाब क पंखिु ड़याँ िबखरी हई थ और िकसी ने लंबी ती ा के बाद ोध म
तोड़कर वहाँ फक दी थ ।
राजन, धरती क ओर झुका और ेमपूवक िबखरी क लयाँ चुनने लगा-बटोरकर घर क ओर
चल पड़ा-असफलता क चोट से आहत-सा।
सारी रात वह सो न सका- य ही सोने क कोिशश करता, उसे पावती का यान आ जाता। न
जाने वह या सोचेगी? उसे रह-रहकर मैनज
े र पर ोध आ रहा था।
उसके साथी आनंद से सो रहे थे-शायद उ ह अगले िदन क छु ी क बहत स ता थी, परं तु
राजन क आँख म न द कहाँ।
जब आधी रात तक वह सो न सका तो िब तर को छोड़ उसने कलक ा से आया पासल खोला।
थोड़ी देर बाद एक चमकदार ‘िमंटो वायलन’ बाहर िनकालकर तार ठीक करने लगा। तार तो ठीक
हए, पर मन म भरी यथा और आवेग वाय लन के खंचे तार म फूट उठे । सारी रात वह वायलन
बजाता रहा।
ातःकाल उसे काम पर तो जाना नह था। वह नान आिद के प चात् शी ही बाबा के घर जा
पहच
ँ ा, पावती बरामदे म खड़ी बाबा से बात कर रही थी, उसे देखते ही मुँह फेरकर अंदर चली गई।
बाबा नम कार का उ र देते हए बोले-‘राजन! तुम तो यहाँ का रा ता ही भूल गए।’
‘नह बाबा, समय ही नह िमला।’
‘अब समय य िमलने लगा, नया मकान कैसा है?’
‘बस, सर िछपाने को काफ है, अपनी किहए, तिबयत कैसी है?’
‘हमारी िचंता न िकया करो बेटा! जैसी पहले थी, वैसी अब भी है-पावती क तो सुध लो।’
‘ य , उसे या हआ?’ राजन ने घबराते हए पूछा।
‘होना या है, जब से तुम गए हो, उदास रहती है। तुम थे तो बात म समय कट जाता था, अब
सारा िदन बैठे करे भी या?’
‘ओह! परं तु गई कहाँ? अभी तो...।’
‘शायद अंदर गई है।’
राजन ने एक-दो बार इधर-उधर देखा और िफर कमरे क ओर बढ़ा। पावती अंदर पलंग पर
बैठी शू य ि से ार क ओर देख रही थी। राजन को देखते ही उसने मुँह फेर लया।
राजन समझ गया िक पावती नाराज है-परं तु वह उसे समझाएगा, उसक िववशता सुनकर वह
ठे गी-िफर वह उसे मनाएगा। बोला-‘अकेली बैठी या कर रही हो?’
‘नाव क सैर।’
‘वाह खूब, मुझे मालूम न था िक तुम हवा म भी नाव चला सकती हो।’
‘और मुझे या पता था िक तुम झूठे भी हो।’
राजन मु कराता हआ उसके पास जा खड़ा हआ और हाथ से उसक ठोड़ी अपनी ओर फेरते हए
बोला-
‘पावती! मने आज जाना िक ोध के आवेश म तुम और भी सुंदर िदखाई देती हो।’
पावती थोड़ा मु कु राई,ं िफर बोली-‘चलो हटो, बात तो यूँ बदलते हो िक कोई कु छ न कह
सके।’
‘पावती सच मानो कल छु ी दो घंटे देर से हई।’
‘भला वह य ?’
‘काम अ धक था, नह तो...।’
‘नह तो या? घंट ती ा करनी पड़ी।’
‘जो ती ा म आनंद है, वह िमलन म नह है।’
‘यह बेतुक बात तुम ही जानो- य आज काम पर नह गए।’
‘छु ी है।’
‘काहे क ?’
‘जब मुझे पता चला िक मेरे न जाने से तुम नाराज होकर चली गई हो तो मने आज सारा िदन
तु हारे पास रहने के लए ही सब कु छ िकया।’
‘तुमने कैसे जाना िक म नाराज होकर चली आई।’
‘इसक सा ी, वह क लयाँ ह, जो िनराशा के आवेश म मसल दी गई थ ।’
और राजन ने जेब से मुरझाई हई गुलाब क क लयाँ िनकाल कर सामने रख द । पावती उनको
देखकर बोली, ‘तो तुम मंिदर गए थे?’
‘इसी िवचार से िक तुम मेरी राह देख रही ह गी।’
‘ओह! सच? और राजन मुझे भी बाबा का यान न होता तो शायद सारी रात यूँ ही ती ा म
िबता देती।’
‘सच, एक बात कह,ँ मानोगी!’
‘ या?’
‘मेरा िवचार है िक आज सीतलवादी क घािटय और आसपास के थान म घूमा जाए-मेरे साथ
चलोगी?’
‘परं तु बाबा...।’
‘उ ह म मना लूँगा।’ यह कहता हआ राजन बाबा के पास गया। वे अब तक बरामदे म बैठे हए
थे। पावती भी धीरे -धीरे आने लगी। बाबा राजन को देखते ही बोले-‘आज काम से छु ी ले रखी है
या?’
‘नह तो, आज सरकारी छु ी है।’
‘तो िफर अभी से कहाँ चल िदए... य पावती? राजन को मा कर िदया?’
पावती उ र म मु करा दी और बाबा िफर राजन से बोले-
‘बेटा खाना खाकर चले जाना।’
‘आज मा चाहता हँ बाबा, मुझे बाहर जाना है।’
‘कह परदेस?’
‘परदेस तो नह ... सोचा आज थोड़ी सीतलवादी क सैर क जाए। सुना है सामने क पहाड़ी म
एक बडे़ महा मा का आ म है।’
‘हाँ राजन मन तो मेरा भी करता है, परं तु अब इन बूढ़ी हि य म वैसी शि नह रही।’
‘तो बाबा म चली जाऊँ?’ पावती झट से बोल उठी।
‘तु हारे बस क बात नह । पहाड़ी या ा है।’ राजन ने मु कु राते हए उ र िदया।
पावती को इस उ र पर बहत ोध आया, िबगड़कर बोली, ‘शायद तुम नह जानते हो िक म
इ ह पहािड़य क गोद म पली ह।ँ ’
बाबा दोन क बात सुन रहे थे, बोले-‘झगड़ा काहे का राजन ठीक कहता है। तु ह साथ लए वह
कहाँ जाएगा?’
‘जाता ही कौन है!’ कहकर पावती ो धत हो अंदर चली गई।
बाबा ने राजन से पूछा-‘ या अकेले जा रहे हो?’
‘जी!’
‘तो िफर तु ह पावती को ले जाने म या एतराज है?’
‘एतराज तो कु छ नह ... यही सोचा िक...।’
‘वह इतनी कोमल नह , जतनी तुम समझ बैठे हो। बेटा उसका है भी कौन, जो उसे साथ ले
जाए। िफर कोई सखी-सहेली भी नह , जससे दो घड़ी हँस-खेल ले।’
‘जैसी आपक आ ा।’
राजन पावती के कमरे म गया। वह ोध म तनी बैठी थी। राजन ने उसक बाँह पकड़ी और
कहने लगा-‘चलो न देर हो रही है।’
‘मुझे नह जाना।’
‘तुम तो कु छ नह समझत । यिद बाबा के सामने यूँ न कहता तो जानती हो वे या समझते?’
‘अ छा जी, हो बड़े समझदार! बात बनाना तो कोई तुम से सीखे। अ छा तो तुम बाबा से बात
करो, म कपड़े बदलकर आई।’
थोड़ी ही देर म पावती एक सुंदर सी साड़ी पहने आँगन म आ खड़ी हई। उसे देख दोन मु करा
िदए। जब बाबा ने भोजन को कहा तो दोन ने कह िदया-‘भूख नह है।’ बाबा भली-भांित जानते थे
िक दोन को स ता के मारे भूख नह लग रही। अतः उ ह ने आलू के परांठे जबरद ती साथ झोले
म डाल िदए, दोन हँसते-कू दते पहािड़य क ओर चल पड़े। रा ते म राजन ने अपने घर से ‘िमंटो
वायलन’ भी साथ ले ली। इस साज को देख पावती का मन स ता से नाच उठा।
राजन पावती को पहले उस थान पर ले गया, जहाँ वह काम करता था। मैनज े र व माधो वहाँ
खड़े काम करवा रहे थे। आज तार पर नया टब लटक रहा था। कु छ बाहर से आए हए लोग िबजली
क तारे आिद लगा रहे थे। राजन नई मशीन को देख स हआ और एक ओर खड़ा होकर सब कु छ
पावती को समझाने लगा। पावती सुन तो कु छ न रही थी, केवल टकटक बाँधे उसके चेहरे क ओर
देख रही थी। राजन कु छ ककर कहने लगा-
‘कु छ समझी भी िक यूँ ही बोले जा रहा ह।ँ ’
‘हाँ राजन, सब सुन रही ह।ँ ’
‘बोलो, भला या समझी?’
‘ या... समझी, यही िक तुम अ छा बोल लेते हो। बोलने लगते हो तो माथे से पसीने क बूँद
िगरने लगती ह।’ कहते-कहते पावती चुप हो गई, परं तु राजन हँस पड़ा, पावती ने भी उसका साथ
िदया।
अचानक दोन चुप हो गए। राजन ने देखा, मैनज े र व माधो सामने खड़े ह और इनक िबना
मतलब क हँसी सुन दोन असमंजस म ह। राजन ने दोन को णाम िकया और उसके साथ पावती ने
भी हाथ जोड़ िदए। मैनज
े र पावती के समीप होकर नम कार का उ र देते हए बोला-‘शायद पूजा के
िदन इ ह देखा है?’
‘जी ठाकु र बाबा के साथ।’
‘ओह अब समझा!’ मैनज
े र ने राजन क बात को काटते हए कहा।
पावती मु करा दी।
‘शायद आज पहली ही बार इस ओर आई हो?’
‘जी... बाबा से कई बार कहा, परं तु वह टाल देते थे। आज राजन इस ओर आ रहा था, सोचा-म
यह सब कु छ देखती ही आऊँ।’
‘अव य... बाबा ने मुझे ही कहला भेजा होता... खैर म तो आज काम म ह,ँ कहो तो माधो को
साथ भेज दँ।ू ’
‘आप क न कर-राजन जो साथ है।’
‘इसम क काहे का और िफर राजन भी तो नया है।’
राजन पहले ही जला हआ था, तुरंत बोल उठा-
‘मैनजे र साहब! जो आनंद खोज म है वह शायद ाि म नह ।’ और िफर मैनज
े र साहब से
आ ा ले पावती के साथ ऊपर क ओर बढ़ गया।
मैनज
े र और माधो खड़े ही देखते रह गए। जब वे दोन दरू िनकल गए तो मैनज े र माधो से
बोला-‘न जाने ठाकु र बाबा को या सूझी िक उ ह अकेले म यूँ भेज िदया-िफर दोन का मेल ही
या?’
‘मुझे भी दाल म कु छ काला मालूम होता है-देखने वाले अंधे नह । दोन िमलकर दसर
ू क
आँख म धूल झ कना चाहते ह।’
मैनज
े र चुप रहा-अब तक उसक आँख उ ह क ओर लगी हई थ और पावती का सुंदर चेहरा
उसके सामने घूम रहा था।
राजन और पावती च ान के पास जाकर के, जहाँ कुं दन क ूटी थी। कुं दन दोन को देख
बहत स हआ।
राजन ने कुं दन से पूछा-
‘भैया आ ा हो तो च ान को अंदर से देख लूँ।’
‘वहाँ या रखा है... अंधरे ा-ही-अंधरे ा... परं तु... तुम आज इधर कैसे आ िनकले?’
‘आज जरा सामने पहाड़ म उस आ म को देखने जा रहे ह, जसके बारे म तुम कहा करते थे।’
‘परं तु इतनी दरू जाओगे कैसे?’
‘इसी लए तो कहा था िक च ान से जाने दो। यहाँ से करीब भी है।’
‘तुम समझते नह , वह रा ता बहत भयानक है। उसके पीछे बा द भरा पड़ा है, यहाँ से जाने क
िकसी को भी आ ा नह ।’
‘अ छा भाई चार कदम और चल लगे।’
‘देखो एक तरक ब मुझे सूझी है।’
‘ या?’
‘ठहरो...’ और थोड़ी दरू खड़े एक मनु य को कु छ समझाने लगा, िफर दोन को पास बुला उस
मनु य को संग कर िदया। दोन उसके पीछे -पीछे जाने लगे। तीन एक ढलान उतर, रे ल क पटरी के
पास पहचँ कर क गए। छोटे-छोटे गाड़ी के िड बे पटरी पर चल रहे थे। राजन जो कोयला नीचे
टेशन तक भेजता था, वह इ ह िड ब ारा अंदर क खान से टेशन तक पहच ँ ाया जाता था। उस
मनु य ने उ ह उन िड ब म बैठ जाने को कहा, जो कोयला छोड़ खाली वापस लौट रहे थे। उसक
बात सुन दोन असमंजस म पड़ गए और उसक ओर देखने लगे।
‘हाँ-हाँ, घबराओ नह -इस रा ते से तुम थोड़ी ही देर म पहाड़ी पार कर लोगे।’
पावती ने राजन क ओर देखा और िफर बोली-
‘परं तु...।’
‘शायद तुम डरने लग -अंधरे ा अव य है, पर डर क कोई बात नह -हमारा तो ितिदन का काम
यही है।’
‘और िफर म भी तो साथ ह।ँ ’ राजन ने उस मनु य क बात को पूरा करते हए कहा।
‘तो या तुम मुझे डरपोक समझते हो?’ पावती बोली और उछलकर खाली िड बे म जा बैठी।
उसक पहल देख राजन हैरान हआ और -िमंटो वायलन उसे पकड़ा कर आप भी िड बे म जा
बैठा। पावती िड बे म बेधड़क बैठ गई पर उसका मन बैठा जाता था। धीरे -से उस आदमी से पूछने
लगी-‘तो अंदर काफ अंधरे ा होगा!’
‘यूँ जानो एक अंधरे ी रात।’
राजन पावती का यह न सुन हँसने लगा और हँसी को रोकते हए बोला-‘काश! अंधरे ी रात
के बदले चाँदनी रात होती।’
उस मनु य ने कहा-‘तो चाँद ला दँ।ू ’
पावती यह सुन झट से बोली-‘वह कैसे?’
‘लप से, हमारे पास अंदर ले जाने वाले लप भी ह।’
राजन बोला-‘उसक या आव यकता है?’
‘ य नह ।’ पावती ने उ र म कहा और िफर उस आदमी से बोली-‘भाई यिद क न हो
तो...।’
‘म समझ गया, अभी लाया’ और वह लप के लए एक ओर को भागा। लप का नाम सुन पावती
को ढाढस बंधा और वह उसक ती ा करने लगी। परं तु उसके लौटने से पहले िड बे चल पड़े। ये
देख उसका चेहरा िफर उतरने लगा, परं तु राजन उसक इस हार पर स था, बोला-
‘ य चाँद नह िमला?’
‘इसम मजाक कैसा? या तु ह लप क कोई आव यकता ही नह ?’
‘िबलकु ल नह , म तो उजाले क अपे ा अंधरे े को अ धक चाहता ह।ँ ’
‘वह य ?’
‘इस लए िक चाँद हम दोन को साथ देखकर जलता है।’
‘और अंधरे ा...?’
‘हम यूँ देखकर अपनी काली चादर म हम िछपा लेता है, तािक िकसी क बुरी ि हम दोन पर
न पड़ जाए।’
‘िफर भी चाँदनी अंधरे े से अ छी है।’
‘सो कैसे?’
‘अंधरे े म मनु य जलता है, परं तु चाँदनी सदा ही शीतलता और चैन पहच
ँ ाती है।’
‘जलन मनु य को ऊपर उठाने म सहारा देती है, परं तु ठं डक तथा चैन मनु य को कायर बनाते
ह।’
‘तो िफर खूब जल , तु ह भी ऊपर उठने का अवसर िमल जाएगा।’
‘और तुम...?’
‘हम कायर या डरपोक ही भले।’
िड बे अब पूरी र तार पकड़ चुके थे। कटी हई पहािड़य के बीच वह तेजी से जा रहे थे। थोड़ी-
थोड़ी देर के बाद राजन और पावती उछलकर एक-दसरे ू से टकरा जाते और िफर ढ़तापूवक िड बे
के िकनार को पकड़ लेते। पावती ने थोड़ी दरू पर एक अंधरे ी सुरंग को अपनी ओर बढ़ते देखा तो
भय के मारे उसका दय काँपने लगा। उसने राजन क ओर देखा तो उसके मुख से यह तीत होता
था, जैसे आने वाली अंधरे ी गुफा क उसे कोई िचंता ही नह । य - य सुरंग समीप आती गई-पावती
सरककर राजन के पास हो गई। जब गाड़ी ने सुरंग म वेश िकया तो चार ओर अंधरे ा छा गया।
पावती िच ा उठी और डर के मारे राजन क गदन म दोन बांह डालकर उससे जोर से लपट
गई।
बंद पहाड़ी म पटरी पर चलते िड ब का शोर जोर से गूज
ँ रहा था। राजन ने उसे सीने से लगा
लया, दोन के वास तेजी से चल रहे थे। दोन चुपचाप थे, परं तु गाड़ी का वर दोन के िदल क
धड़कन से ताल िमला रहा था।
जब िड बे सुरंग से बाहर िनकले तो दोन चुपचाप एक-दसरे
ू से दरू बैठे हए थे। राजन के होठ
पर एक शरारत भरी मु कु राहट थी, परं तु पावती सर झुकाए बैठी थी। शायद यही काश उसे खाए
जा रहा था और वह यही चाह रही थी िक अंधरे ा िफर उसे अपनी काली चादर म िछपा ले, परं तु एक
उजाला था, जो उसक ि को ऊपर उठने ही न दे रहा था। पावती के चेहरे को हाथ से राजन ने
अपनी ओर िकया और कहने लगा-‘ य चाँद िमला?’
‘िमला तो...!’ पावती ने राजन क ओर देखते हए कहा और उसक सजल आँख से आँसू
छलक पड़े।
‘कहाँ था?’
‘मेरे पास।’ पावती ने नेह भरी ि से राजन को देखा और उसे ख चकर उसका सर अपनी
गोद म रख लया, न जाने िकतनी देर यौवन फूल क गोद म सोया रहा। अचानक दोन च क उठे ।
गाड़ी के िड बे क गए, यहाँ ही उन िड ब क मं जल का अंत था, परं तु राजन और पावती क
मं जल अभी दरू थी।
राजन पावती के साथ सामने सीमट के बने जंगल तक पहच ँ ा और वहाँ खड़े मनु य को कंपनी
का पास िदखाया। पावती को देख उसने अ धक पूछताछ करना ठीक न समझा और ल ट म चढ़ने
क आ ा दे दी। इसी ‘ ल ट’ से मनु य को पहाड़ी क चोिटय तक पहचँ ाया और लाया जाता था।
िबजली के बटन दबाते ही ल ट गहरी और भयानक घािटय को पार करने लगी। दोन सलाख
के कमरे म बंद हवा म उड़ने लगे। थोड़ी देर म इतनी बुलदं ी पर पहच
ँ गए िक सचमुच बादल के
टु कड़ से खेलने लगे। दोन ने जीवन म पहली बार अनोखी व तु देखी थी, जसे देख-देखकर दोन
के मन स ता से भर उठते थे। बादल क नमी के कारण दोन के शरीर ठ डे हो रहे थे। राजन ने
पावती को अपने बाहपाश म लया। पावती ने अपनी बांह को उसके गले म डालते हए कहा-
‘आ खर मुझे लए कहाँ जा रहे हो?’
‘इस संसार से दर।’

‘ य ?’
‘तािक तु हारे देवता तु हारा पीछा न कर सक।’
‘वह तो सब थान म पहच
ँ सकते ह और इतनी दरू ले जा सकते ह, जो मनु य क शि से
बाहर है।’
‘हाँ, मनु य उतनी दरू लेकर तो नह जा सकता, परं तु एक बार हाथ पकड़कर राह भी नह
छोड़ता।’
‘ या मालूम छोड़ ही दे।’
‘तो वह मनु य न होकर शैतान होता है।’
राजन ने अपने ह ठ उसके गाल पर रख िदए। पावती ने हाथ ख च लया और पलटकर राजन
क ओर एकटक देखने लगी, अचानक एक बादल के टु कड़े ने दोन को घेर लया। पावती अवसर
देख शी ता से नीचे बैठ परे हो गई। राजन धुध
ँ म पावती को टटोलने लगा। पावती ल ट क
सलाख से लगी जोर-जोर से हँस रही थी। जब धुध
ँ ने पावती को घेर लया तो राजन ने शी ता से
उसे पकड़ लया। उसके यासे ह ठ पावती के मुख तक पहच ँ ही गए। परं तु पावती को यह अ छा न
लगा। बोली-‘राजन, इतना अ हड़पन अ छा नह ।’ और यह कहते हए जहाँ पावती क आँख म
कृि म ोध था-वहाँ नेह भी। एकबारगी राजन को देखा और आँख झुका ल ।
‘शायद तुम मुझे डाँटना चाहती हो।’
‘हाँ, परं तु अब िवचार बदल िदया है।’
‘वह य ?’
‘तरस आ गया।’
‘तरस और मुझ पर।’
‘तुम पर नह , तु हारे नेह पर।’ लजाते हए पावती ने मुँह फेर लया। राजन पास आकर धीरे से
उसके कान तक मुँह ले जाकर बोला-
‘तो मान लूँ िक तुम मुझसे ेम करती हो।’
पावती नीचे घािटय क ओर संकेत करते हए बोली-‘वह गहराइयाँ देख रहे हो?’
‘हाँ।’ ‘यिद तुम जानना चाहते हो िक गहराइय म या- या है तो कैसे जानोगे?’
‘नीचे उतर जाऊँगा।’
‘इस कार यिद तुम मेरे िदल क गहराइय म उतर जाओ तो सब जान जाओगे।’
‘उतर तो जाऊँ, परं तु बाहर से तुमने िदल का ार बंद कर लया तो।’
‘तो या हआ, अंधरे े म पड़े जला करना। शायद तु ह ऊपर उठने का मौका िमल सके।’
और एक शरारत भरी मु कान पावती के ह ठ पर खेल गई।
इतने म ल ट एक सीमट के चबूतरे पर आकर क गई। दोन ने संतोष क साँस ली। एक ओर
ऊँची-ऊँची भयानक चोिटयाँ और दसरी ू ओर उतनी ही नीची घािटयाँ। सीतलवादी के पथरीले मकान
दरू से ऐसे तीत हो रहे थे, जैसे एक कतार म छोटे-छोटे खलौने रखे ह । मंिदर के ऊँचे गु बद और
उसके साथ बलखाती नदी साफ िदखाई दे रही थी। बादल के टु कड़े इक े हो शायद आकाश को ढँक
लेना चाहते थे, अ ुत य था, जसम भय और सुंदरता दोन िछपे हए थे।
आ म आिद देखने के बाद जब दोन महा मा के दशन के लए चले तो महा मा के चेल ने उ ह
रोक िदया। महा मा उस समय पूजा कर रहे थे। उस समय उ ह कोई भी नह िमल सकता था।
दोन अपना-सा मुँह लए आ म से बाहर आ गए, सामने चौड़ी-चौड़ी च ान क कतार देख
वहाँ चलने का िन चय िकया। सफेद च ान ऐसी लग रही थ जैसे संगमरमर का फश। पावती
उछलती हई वहाँ जा पहच ँ ी और च पल उतारकर उन पर चलने लगी, ठ डे प थर पर चलते हए वह
एक अलौिकक आनंद अनुभव कर रही थी।
सामने खड़े राजन से बोली-
‘आओ देखो कैसा आनंद आ रहा है।’
‘तुम आनंद लो, म खाना खाता ह।ँ मुझे तो भूख लगी है।’
‘तो या हम प थर खाएँग!े ’
‘नह आलू के परांठे।’
पावती यह सुनते ही राजन क ओर आई और िड बे से िनकाले हए परांठे उसके हाथ से छीन
लए। ‘हाँ, आलू के परांठे...!’ और इतना कह राजन के पास जा बैठी।
दोन िमलकर खाने लगे। भूख तो पहले ही दोन को खूब लगी थी-िफर पावती के हाथ के
परांठे... राजन उन पर टू ट पड़ा। जब वह शंसा करता तो पावती मन-ही-मन मु कराती और उसके
चेहरे क ओर मं -मु ध होकर देखने लगती। जब िड बा खाली हो गया तो राजन ने ऊपर देखा तो
देखता रह गया।
पावती अभी पहला ही कौर लए उसक ओर देख रही थी।
राजन बोला-‘तुम तो...!’
‘तुमने खा लया तो समझो म भी खा चुक ।’
‘नह पावती! मुझसे भूल हो गई-तु हारे हाथ के बने परांठ ने मुझे इतना होश म भी न रखा िक
तुम भूखी हो।’
‘सच कहती हँ मुझे भूख नह है।’
‘यह कैसे हो सकता है, तुम मुझसे िछपा रही हो।’
‘यिद हो भी तो तुम या कर सकते हो?’
‘अभी घाटी जाकर तु हारे लए खाना ले आऊँ।’
‘सच?’
‘ य नह , यिद तुम कहो तो आकाश के तारे भी तोड़ लाऊँ।’
‘तो एक बात कह?
ँ ’
‘ या?’
‘िमंटो वायलन बजाओ।’
‘परं तु साथ म तु ह नाचना होगा।’
‘इन पहाड़ पर।’
‘हाँ, कृित ने तु हारे आने से पहले ही च ान का फश िबछा रखा है।’
पावती ने एक ि उन सफेद च ान पर डाली और राजन ने ‘िमंटो वायलन’ के तार छे ड़ िदए।
पावती नंगे पाँव उन च ान क ओर बढ़ी। उसे ऐसा लगा, जैसे वयं देवता बादल पर आ ढ़ हो
उसका नृ य देखने आ रहे ह । य ही उसने पथरीली फश पर पैर रखा-मानो पाजेब क झंकार गूज

उठी।
वह वायलन क धुन के साथ-साथ नृ य करने लगी।
आज वह मंिदर के बंद देवताओं को छोड़ कृित क गोद म नाच रही थी। राजन भी िमंटो
वायलन बजाता उसके साथ-साथ जाने लगा। अंितम च ान पर वह क गई और तेजी से नाचने
लगी। राजन क उं ग लयाँ भी वायलन के तार पर तेजी से थरक रही थ । दोन एक-दसरे
ू क ताल
म खो गए।
अचानक वायलन का तार टू ट गया। तार के टू टते ही पावती का पाँव िफसला और वह नीचे जा
िगरी। राजन िच ाया-‘पावती... पावती’, परं तु पावती क एक चीख सुनाई दी और स ाटा छा
गया। राजन तेजी से नीचे पहच
ँ ा, पावती प थर पर पड़ी कराह रही थी। सर से र बह रहा था।
राजन के पाँव तले क धरती िनकल गई। वह बहत घबराया। िफर शी ता से उसे अपनी बांह म
उठा लया, पावती मूिछत हो गई थी। चार ओर बादल क धुध
ं छा रही थी। राजन पथरीली च ान से
पग बढ़ाता आ म क ओर चल िदया। य ही वह आ म के करीब पहच ँ ा, लोग के गाने का श द
उसे जोर से सुनाई पड़ने लगा। जब उसने आ म म वेश िकया तो महा मा के चेले भजन गा रहे थे।
िकसी ने भी उनक ओर नह देखा। मूिछत पावती अब भी उसक बांह म थी।
उसने थोड़ी दरू बैठे आदमी का यान अपनी ओर आकिषत कर पुकारा। परं तु उसने भी कोई
उ र नह िदया जैसे उसने देखा ही नह और सुनी-अनसुनी कर दी। राजन के ोध का पारावार न
रहा, वह जोर से िच ाया-‘महा मा जी!’
सब मौन हो गए। चिकत हो उसे देखने लगे। राजन यह कहते हए ‘कहाँ ह तु हारे गु ? कहाँ ह
तु हारे महा मा?’ अंदर क ओर बढ़ने लगा। एक मनु य आगे बढ़कर उसे रोकते हए बोला-
‘कल ातःकाल तक वह िकसी से नह िमल सकते।’
‘परं तु मुझे अभी िमलना है। म एक पल भी ती ा नह कर सकता। िकसी के जीवन का न
है।’
राजन झट से उसे हटाकर आगे बढ़ गया, सब िच ाए-‘ऐसा मत करो।’ परं तु राजन न माना
और सामने गुफा क ओर बढ़ता ही गया। गुफा के अंदर से काश बाहर आ रहा था। राजन ने सीधा
अंदर ही वेश िकया। सामने एक प थर के आसन पर महा मा आँख मूँदे बैठे थे। राजन ने धीरे -धीरे
तीन-चार बार पुकारा-‘गु देव... गु देव’, पर तु कोई उ र न पाया। वह कु छ और समीप हो गया
और जोर से िच ाया, ‘महा माजी...।’
महा मा ने ने खोले और एक कड़ी ि से राजन को देखा। िफर ि पावती के चेहरे पर
जाकर जम गई। राजन लड़खड़ाते हए बोला-
‘मजबूरी थी गु देव! आपक पुजा रन के जीवन का न था। आप इसे शी ही जीवन दान
कर। दे खए यह मूिछत पड़ी है।’
‘ या हआ?’ महा मा गंभीर वर म बोले।
‘च ान से पाँव िफसल गया और िगर पड़ी।’
‘आज क तप या शायद िकसी का जीवन बचाने को ही है।’
‘जी... इसी आशा से तो आपके पास आया ह।ँ ’
महा मा अपने आसन से उठे । राजन ने उनका संकेत पाते ही नीचे िबछी चटाई पर पावती को
लटा िदया। महा मा ने एक व से बहते हए र को साफ िकया... थैली से कोई दवाई िनकाल
उसक चोट पर लगा दी, र बहना तुरंत बंद हो गया। उसके प चात् उ ह ने एक जड़ी बूटी िनकाली
और पावती को सुँघाई, िफर वापस अपने आसन पर बैठते हए बोले-‘अभी थोड़ी देर म होश आ
जाएगा।’
‘म आपका अनु ह जीवन भर न भूलूँगा। यिद आप सहायता न करते तो म ठाकु र बाबा को
जीवन भर मुँह नह िदखा पाता...।’
‘कौन ह ठाकु र बाबा?’
‘पावती के दादा-यह उनक अमानत है।’
‘मालूम होता है तुम दोन का आपस म ेम है।’
‘ ेम! गु देव यह तो मेरे ाण ह।’
‘पर तु छाया के पीछे दौड़ने से या लाभ?’
‘म समझा नह गु देव!’
‘तुम दोन का संबध
ं असंभव है।’
‘यह आप या कह रहे ह?’
‘म नह ... ब क तु हारे म त क क रे खाएँ यह बता रही ह।’
‘गु देव!’
‘तु हारे ेम का प रणाम।’
‘ या गु देव?’
‘िनराशा, जलन और तड़प।’
‘तो या मेरे ेम का यही अंजाम होगा।’
‘तु हारी आँख क पुत लयाँ यही बता रही ह िक यह जलन और तड़प, तु हारे ेम क िनशानी
छोड़ जाएगी, सारा संसार उसम जलेगा-बस यही होगा तु हारे ेम का प रणाम।’
‘परं तु म अपने ेम को भा य क इन रे खाओं से ऊपर मानता ह।ँ ’
इतने म अपने ेम क ‘उफ’ सुनाई दी और दोन ने उसक ओर घूमकर देखा। वह चैत य हो
चुक थी। दोन उसके पास गए, राजन ने महा मा को णाम िकया और तुरंत ही पावती को सहारा
देते हए गुफा से बाहर ले आया। सब लोग दोन को देख चिकत रह गए।
राजन आ म से िनकलते ही ल ट क ओर बढ़ा, थोड़ी दरू एक बालक खड़ा उनक ओर हाथ
बढ़ा रहा था। उसके हाथ म कोई व तु थी, जो बादल क धुध
ं के कारण िदखाई नह दे रही थी। दोन
उसक ओर बढ़े। बालक के हाथ म ‘िमंटो वायलन’ था, जसे झट से राजन ने लया और नीचे
फकने को बढ़ा, पावती ने उसक बाँह पकड़ते हए कहा-‘यह या कर रहे हो राजन?’
‘यिद आज यह न होता तो तु ह यह चोट न लगती।’
‘तुम मुझे बहत चाहते हो न?’
‘हाँ।’
‘िफर मेरी चोट क दवा-दा का बंध भी तु ह ने िकया।’
‘हाँ तो।’
‘इसी कार तार टू टने से ‘िमंटो वायलन’ को चोट लगी है, तो या इसे फक दोगे। ठीक नह
करवाओगे। इसे भी तुम बहत चाहते हो न?’
‘परं तु तु हारे से अ धक नह ।’ यह कह राजन पावती को सहारा देेते हए ‘ ल ट’ क ओर बढ़ा।
थोड़ी ही देर म दोन ल ट म बैठ सीतलवादी क ओर उड़ने लगे। बादल ने चार ओर से उ ह
एक बार िफर घेर लया। पावती अपना सर राजन क गोद म रखकर लेट गई। जब बादल क
गजन तथा िबजली क चमक िदखाई पड़ती तो अपना मुँह उसक गोद म िछपा लेती, परं तु राजन
चुपचाप बैठा सीतलवादी क ओर देख रहा था। पावती उसके मुरझाए चेहरे को देख सोचने लगी,
शायद बाबा से डर लग रहा है िक यह या कहगे? उसने अपना हाथ राजन क ठोड़ी तक ले जाते
हए उसे बुलाया। राजन ने मुँह नीचे कर गोद म पड़ी उन दो आँख को देखा और बोला-
‘ य - या है?’
‘िकस िचंता म हो?’
‘िचंता, िचंता कैसी?’
‘देखो, िछपाओ नह । कोई बात अव य है- या बाबा से डर रहे हो?’
‘नह तो।’
‘िफर या है? या सोच रहे हो इतनी गंभीरता से?’
‘अपने भा य क रे खाओं को पढ़ रहा ह।ँ ’
‘कैसे?’
‘वह आ म वाले महा मा कहते थे... िक तु हारे ेम म सवाय तड़प और जलन के अलावा
कु छ नह है और जलन भी ऐसी िक एक िदन वह जलन सारे संसार को जलाएगी।’
‘तु ह तो सुनकर स होना चािहए। जब जलोगे नह तो ऊपर उठोगे कैसे?’
‘पगली!’ और राजन ने अपने हाथ उसक आँख पर रख िदए और िफर से ‘सीतलवादी’ क
ओर देखने लगा।
जब दोन घर पहचँ े तो राजन का िदल डर के मारे बैठा जा रहा था। पावती क दशा देख बाबा
या कहगे? या िफर भी उसके साथ आने दगे उसे? यह सोचते हए राजन ने भीतर वेश िकया
और पावती को ले धीरे -धीरे कमरे क ओर बढ़ने लगा।
बाबा ने जब पावती को देखा तो पहले घबराए और दोन को खूब डाँटा, परं तु जब वृ ांत सुना
तो उ ह कु छ धीरज हआ। जब उ ह ने यह सुना िक गु देव ने वयं अपने हाथ से दवा-दा िकया तो
स हए िक चलो इसी बहाने पावती ने एक महापु ष से सेवा का दान लया।
बाबा ने गम दधू मंगवाकर पावती को िपलाया और उसके पास बैठ उसे यार से सुलाने लगे।
बाहर बादल क गड़गड़ाहट ने राजन को च का िदया। अब तक वह सामने खड़ा पावती क ओर
देख रहा था। उसने अपना ‘िमंटो वायलन’ उठाया और बाबा को नम कार कर एक ि पावती पर
फेरता हआ कमरे से बाहर हो लया। सफेद बादल ने अब काली का प धारण कर लया था और
धीमी-धीमी बूँद पड़ रही थ । राजन ज दी-ज दी कदम बढ़ाता अपने घर क ओर जा रहा था, परं तु
उसक आँख के सामने अब भी पावती क मु कु राती सूरत घूम रही थी।

चार
आज छु ी का अलाम समय से पहले ही बज गया, कंपनी का गेट खुलते ही मजदरू अपने-अपने
घर क ओर ज दी-ज दी जाने लगे। आज ठं ड अ धक थी। ‘सीतलवादी’ क ऊँची-ऊँची च ान बफ
से ढक हई थ । सुबह क सुनहरी िकरण सफेद बफ को मानो चूम रही थ और इस चुंबन के भाव
से बफ हई जा रही थ । धूप िनकलने से हवा और ठ डी लगती थी, जो सीतलवािदय को कंपाए जा
रही थी। सद से बचने के लए लोग ने मोटे-मोटे गम कोट पहन रखे थे।
मजदरू क भीड़ को चीरता हआ राजन भी शी ता से अपने घर क ओर जा रहा था। परं तु
लगता था, जैसे वह सबसे कु छ िभ है। ितिदन क तरह आज भी वह एक कमीज म था, मानो सद
का कोई भी भाव उस पर न हो रहा हो। समा ध थ-सा वह चला जा रहा था।
जब राजन ने अपने घर का ार खोला तो सामने खाट पर माधो को देख आ चय म पड़ गया।
आज माधो पहली बार उसके घर पर आया था। उसे चुप तथा आ चय म देख माधो खाट से उठा और
कहने लगा-‘ य राजन जाड़ा कैसा है?’
‘मजेदार, यह बफ ली च ान, यह सुंदर य। परं तु आप इस समय।’
‘मने सोचा... आज खुली हवा क बजाए बंद कमरे म ही िहसाब हो जाए तो कैसा रहे।’
‘अ छा-परं तु काम तो आज कु छ हआ ही नह -िफर िहसाब कैसा?’
‘बस घबरा उठे -म तो मज़ाक म कह रहा था। परं तु यह समझ म नह आता िक तुम काम से इस
कार घबराते य हो?’
‘म और काम से-नह दादा, म काम से घबराने वाला नह ।’
‘बस, छु ी के बाद जब िहसाब के लए जाना होता है-तभी तु ह ज दी मचती है- य कह जाना
होता है?’
‘हाँ दादा! हर साँझ, मेरा मतलब साँझ क सैर मेरे जीवन का ऐसा अंग है, जसे म सहज ही
छोड़ नह पाता।’
‘अकेले िक कोई साथी भी है?’
‘एक साथी है।’
‘वह कौन?’
‘ कृित।’
माधो राजन का उ र सुन हँस पड़ा और िफर खाट पर बैठ गया। राजन को उसका बैठना अ छा
न लगा। बनावटी मु कराहट लाते हए बोला-‘ या दादा चाय िपओगे?’
‘ य नह , िफर आज के िदन कौन इंतजार करे गा?’
राजन यह सुनते ही बाहर गया और दो कप चाय होटल से लेकर वापस लौटा। दोन चाय पीने
लगे। राजन ने तीन-चार घूटँ म ही याला पी डाला, परं तु माधो, आनंद ले-लेकर पी रहा था। मन-ही-
मन म राजन ोध म जल रहा था िक कब यह जाए और वह अपनी पुजा रन के पास पहच ँ े। परं तु
िक माधो था जाने का नाम ही नह ले रहा था और कोई ऐसी बात शु कर देता, जो राजन को रोके
रखती।
अंत म हारकर राजन ने उससे आ ा माँगी-माधो मु कु राते हए खाट से उठा और बोला-
‘ओह! म तो भूल ही गया, तु ह घूमने जाना है, परं तु इस जाड़े म।’
‘आज जाड़ा और बफ ही मेरी साथी ह।’
जब माधो चला गया तो राजन ने अपना ‘िमंटो वायलन’ उठाया और धीरे -धीरे पग रखता हआ
झट से बाहर हो लया। चार ओर िकसी को न देख मंिदर क ओर बढ़ा। वह थोड़ी दरू गया होगा िक
एक पेड़ के पीछे छु पा माधो बाहर िनकला और उसके पीछे हो लया। मंिदर क सीिढ़य क थोड़ी दरी

पर अचानक माधो क गया। पावती सीिढ़य क ओर जा रही थी। बड़ी उ सुकता से वह उसे देखने
लगा। ऐसी बफ ली और शीतल साँझ को। सारी ‘सीतलवादी’ म दो मनु य ह, जो अपने िनयम को
तोड़ नह सकते। एक अपनी सैर को तथा दसरी ू अपनी पूजा को।
माधो का संदेह एक वा तिवकता म बदल गया, िफर वह संदेह भरी ि से पावती के कदम
को देखने लगा, जो बफ से ढक सीिढ़य पर चढ़ने से डगमगा रहे थे। अभी वह दो-चार सीिढ़याँ भी
न चढ़ने पाई थी िक िकसी साज के बजने का श द सुनाई पड़ा। यह वायलन का ही श द था। पावती
वह क गई और हाथ के फूल उ ह सीिढ़य पर रख उस ओर बढ़ी। इतने म माधो आँख बचा उन
सीिढ़य तक जा पहच ँ ा और फूल अपने हाथ म उठा नीचे झाँक पावती क ओर देखने लगा, जो दरू
बफ ली चादर पर बैठे राजन क ओर चली जा रही थी, राजन एक ढलान पर बैठा वायलन बजा रहा
था। जब वह राजन के समीप पहच ँ गई तो माधो ने पूजा के फूल उठाए और ‘सीतलवादी’ क ओर
लौट गया।
पावती जब राजन के करीब पहच ँ ी तो अचानक उसके हाथ ‘वायलन’ पर क गए और वह
उसक ओर देखने लगा। पावती के पास एक लाल गुलाब था। राजन ने ‘िमंटो वायलन’ एक िकनारे
रख िदया और वयं आगे आ पावती के हाथ से फूल ले उसके बाल म ख स िदया। लाल फूल तथा
लाल शाल उस बफ ले थान पर एक अनोखी शोभा दे रहे थे। दोन के गम-गम वास का धुआ ं
हवा म उड़ रहा था। िफर उड़ते-उड़ते आपस म िमल गया। दोन यह देखकर मु करा उठे और राजन
बोला-
‘पावती! सुना है जाड़ म फल कु हला जाते ह।’
‘हाँ तो।’
‘िफर यह फूल कहाँ से आया?’
‘ ेम के फूल कभी नह कु हलाते और िफर यह...।’ पावती जोर-जोर से हँसने लगी। राजन
उसक यह हरकत देख अचंभे म पड़ गया। थोड़ी देर बाद उसे यूँ हँसते देख बोला-
‘इसम हँसी क या बात है?’
‘तु हारी फूल क पहचान देख।’ और िफर वह हँसने लगी, राजन कु छ संदेह म पड़ गया। िफर
तुरंत ही वह बाल से उतार उसे देखने लगा। वह कपड़ का बना हआ था। वा तिवकता और नकल
म कोई अंतर नह दीख पड़ता था। जब उसने फूल से ि उठा पावती क ओर देखा तो वह स ता
के मारे फूली नह समा रही थी।
राजन ने फूल दोबारा उसके बाल म लगा िदया और आनंद िव ल हो पावती को अपने गले से
लगा लया। पावती क ि जब राजन के व पर पड़ी तो बोल उठी-‘यह या?’
‘ य या है?’
‘इतना जाड़ा और शरीर पर एक ही कु ता।’
‘यह भी न हो तो कोई अंतर नह पड़ता।’
‘यिद तु ह कु छ हो गया तो।’
‘तु हारे होते जाड़ा इतना साहस नह कर सकता िक मुझे छू भी ले।’
‘तो या म क बल हँ अथवा कोट, जो मुझे ओढ़ लोगे?’
‘तु ह तो देखते ही जाड़ा दरू हो जाता है। यिद ओढ़ लूँ तो शरीर जलने लगे।’
‘तो म आग ह।ँ ’
राजन बफ ली ढलान पर बैठ गया और पावती का हाथ ख च उसे अपने समीप िबठा लया।
पावती शाल संभालते हए बोली-
‘कैसी होती है यह िमठास?’
राजन ने चुंबन के लए अपने ह ठ बढ़ाए और कहा-‘ऐसी’। परं तु पावती ने िकनारे से बफ उठा
उसके मुँह पर रख दी, िफर हँसते-हँसते मुँह फेर लया। राजन ने उसे जोर से ख चा, परं तु बफ क
ढलान पर िफसल गया। पावती भी लड़खड़ाती हई उसके साथ नीचे क ओर लुढ़क पड़ी।
अब राजन जोर से हँस रहा था और पावती डर के मारे िच ा रही थी। जब थोड़ी ही देर म
दोन लुढ़कते हए बफ के ढेर पर िगरे और पावती ने देखा तो राजन उस पर झुका मु करा रहा था।
िकसी क आँख म कोई उलाहना न था। उन आँख म था नेह भरा उ ास।
राजन बफ के ढेर से उठा और पावती को भी हाथ पकड़कर उठाया। दोन उसी ढलान पर िफर
से चढ़ने लगे। सूय अ ताचल म जा चुका था, परं तु अभी अंधरे ा होने म कु छ देर थी। दोन िबलकु ल
चुप थे। बीच-बीच म एक-दसरे
ू को देख भर लेते थे।
पावती ने जब घर के आँगन म पाँव रखा तो बाहर कोई न था। जाड़े के कारण सब िकवाड़ बंद
थे। पावती ने बरामदे म पहच ँ कमरे का िकवाड़ खोला। बाबा जलती अंगीठी के पास बैठे कोई
पु तक पढ़ रहे थे। उ ह ने ऐनक नाक से हटाई और बोले-
‘ य पावती जाड़ा कैसा है?’
‘बहत है बाबा।’
‘आज तो मंिदर म भीड़ कम होगी।’
‘जी, यह ही कोई दो-चार इने-िगने मनु य।’
बाबा कु छ देर म चुप हो गए। पावती शाल उतार सामने रखने को बढ़ी और अचानक क गई।
अंगीठी पर फूल पड़े थे, जो वह पूजा के लए मंिदर ले गई थी। पावती सर से पाँव तक काँप गई।
‘माधो आया था, शायद उसके हाथ म थे।’ बाबा ने ऐनक िड बे म बंद करते हए कहा और
पावती को आग के समीप आने का संकेत िकया। पावती डरते-डरते अंगीठी के करीब आ बैठी और
बाबा क ओर आ चयपूवक देखने लगी। बाबा िफर कहने लगे-
‘कल मैनज
े र हरीश ने बुलाया है।’
‘ य ?’
‘शाम क चाय पर।’
‘पहले तो कभी।’
‘तु हारे िपता के थान को संभालने के कारण वह हमारे समीप आने से झझकता रहा।’
‘ या कोई खास बात है, तो...।’
‘यूँ ही जरा दो घड़ी िमल बैठने को माधो कहता था और तु ह साथ लाने क खास ताक द क
है।’
‘मुझे! न बाबा मेरा वहाँ या काम?’
‘काम हो न हो, जाना अव य है और िफर आज पहली बार उसने बुलाया है-यिद हम न गए तो
वह या सोचगे।’
‘परं तु साँझ को मंिदर भी तो जाना है।’
‘एक िदन घर के ठाकु र को ही फूल चढ़ा देना।’
यह कहकर बाबा कु स से उठकर बाहर जाने लगे। पावती चुप बैठी जलती आग के शोल को
देख रही थी। आग के अंगारे क तपन से उसका मुख लाल हो रहा था। वह सोच म थी िक बाबा से
या कहे। उसे कु छ भी तो सूझ नह रहा था।

**

दसरी
ू साँझ ठाकु र बाबा पावती को साथ लए ठीक समय पर हरीश के घर पहच ँ गए, पावती
आज भी अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहने थी। हरीश व माधो पहले से ही उसक ती ा म थे और उ ह
देख अ यंत स हए। इनके अित र दो यि वहाँ और बैठे थे, जो वादी म िकसी खोज के बारे
म आए थे। उनका िवचार था िक इन पहािड़य म कह -न-कह तेल है, परं तु बहत खोज के बाद
उनको कोई िच अभी तक न िमला था। हरीश ने दोन का प रचय बाबा और पावती से कराया।
इनम से एक तो पावती के िपता के गहरे िम थे। अतः चाय के साथ-साथ बहत देर तक उनक ही
बात होती रह ।
चाय के बाद बाबा उन दो अित थय को ले बाहर गैलरी म जा बैठे और दरू से पहाड़ी क चोटी
पर जमी बफ को देखने लगे। पावती कु स छोड़ दसरे
ू कमरे म चली गई और दीवार पर लगे िच
को यानपूवक देखने लगी। सामने मेज़ पर सजे फूलदान को देख वह क व अपने कोमल हाथ से
फूल को छू ने लगी। य ही उसने उसम लगे लाल गुलाब को छु आ तो उसके कान म िकसी का
वर सुनाई पड़ा।
‘शायद तु ह फूल से बहत ेम है?’ पावती च क उठी। घूमकर देखा तो हरीश खड़ा था। पावती
ने अपनी साड़ी को सामने से ठीक करते हए उ र िदया-‘जी।’ और अपनी उं ग लयाँ फूल से हटा
मेज़ के िकनारे रख ल । हरीश ने लाल फूल फूलदान से तोड़ा और मु कराते हए पावती को भट
िकया। पावती ने एक बार हरीश को देखा। हरीश ने कांपते हाथ से फूल ख चते हए कहा, ‘ठहरो म
वयं लगा देता ह।ँ ’ य ही उसने फूल पावती के बाल म लगाया िक मंिदर क घंिटयाँ बजने लग ।
पावती काँप उठी। फूल बाल से िनकलकर धरती पर आ िगरा। हरीश ने झुककर फूल उठा लया
और बोला-
‘ य या हआ?’
‘यूँ ही देवता का मरण हो आया।’
‘जी, साँझ क पूजा। मने समझा शायद मेरे फूल लगाने...।’
‘नह तो!’ और पावती ने मु कराते हए हरीश के हाथ से फूल ले लया और दोन गैलरी म जा
ठहरे । पावती के कान म मंिदर क घंिटय के श द गूज
ं रहे थे और मन म राजन का यान।
अित थय को िवदा करने के बाद हरीश स तापूवक वापस अपने कमरे म जा पहच ँ ा और
सामने रखी कु स पर बैठ मन-ही-मन मु कराने लगा। आज वह स था। बार-बार उसके सामने
पावती क सूरत घूम रही थी। अगर वह जानता िक वे लोग इतने िदलच प ह तो वह इतना समय
इनसे दरू य रहता। िदन-रात कंपनी के काम के सवाय कु छ सूझता ही न था, परं तु आज उसे
नीरस जीवन म एक आशा क झलक दीख पड़ी। वह सोच ही रहा था िक उसक ि फूल पर पड़ी,
जो सामने धरती पर िगर पड़ा था। वही फूल उसने पावती के हाथ म िदया था। यह देखते ही वह कु छ
िनराश-सा हो गया िक यह फूल वह साथ नह ले गई। यह न रह-रहकर हरीश के म त क म
च कर काटने लगा। दो घड़ी क स ता के बाद वह उदास सा हो गया। या स ता दो घड़ी क ही
थी? या वह सदा यूँ स नह रह सकता? उसे ऐसा अनुभव हआ, जैसे उसने कु छ पाकर खो
िदया हो। उसी समय सामने, दरवाजे से माधो ने वेश िकया।
‘ य सरकार यह खामोशी कैसी?’
‘ह,ँ नह , अभी सबको नीचे छोड़कर आ रहा ह।ँ ’
‘ य आज का ो ाम कैसा रहा?’
‘बहत अ छा।’
‘परं तु िफर आपके मुख पर उदासी य ?’
‘उदासी-नह तो, ब क आज म स ह-ँ बहत स ।’
‘वह तो आपको होना ही चािहए। आज क साँझ तो खूब अ छी बीती होगी।’
‘तुम ठीक कहते हो माधो, परं तु िदन-रात कंपनी के काम म इतना त ीन हो गया िक कभी इस
ओर यान नह गया।’
‘कभी-न-कभी आप लोग को इनसे िमलना चािहए। िवचार बदलना, िमल-जुल के उठना-बैठना,
यह मनोरं जन मनु य के जीवन के लए अ यंत आव यक है।’ माधो कह रहा था।
‘माधो, म भी इस एकाक जीवन से घबराने लगा ह,ँ धन-दौलत, मन सब कु छ है, परं तु िफर भी
नीरसता है।’
‘इसका हल केवल एक ही है।’
‘वह या?’
‘शादी।’
हरीश जोर-जोर से हँसने लगा। िफर ककर बोला, ‘वाह माधो! तुमने भी खूब कही, परं तु यह
नह जानते िक जीवन साथी मेल का न हो तो एक बोझ-सा बन जाता है। ऐसा बोझ जो उठाए नह
उठता।’
‘तो इसम सोचने क या बात है। अपने मेल का साथी ढू ँढ ल।’
‘ या इस कोयले क खान म?’
‘जी सरकार इस काली च ान म संसार भर के खजाने छु पे पड़े ह।’
‘इतने वष जो तुम इन च ान से सर फोड़ते रहे, कभी कु छ देखा भी।’
‘ य नह सरकार, वह देखा है जस पर सारी ‘सीतलवादी’ को नाज है।’
‘कौन?’
‘पावती...।’
पावती का नाम सुनते ही मानो हरीश पर एक िबजली सी िगर गई। वह फटी-फटी आँख से
माधो को देखने लगा। उसे ऐसा महसूस हआ जैसे माधो वयं नह ब क उसका अपना िदल बोल
उठा हो। माधो कु छ समीप आकर बोला-
‘ या वह आपक दिु नया नह बदल सकती है?’
‘यह तुमने कैसे जाना?’
‘आपक यह बेचन
ै ी, उदासी से भरा चेहरा और यह साँझ का समारोह, सब कु छ बता रहा है।’
‘म भी तो कु छ सुनूँ।’
‘शायद मेरा अनुमान ठीक न हो-अ छा आ ा।’
‘कहाँ चल िदए?’
‘अपने घर।’
‘हम यूँ ही अकेला छोड़कर।’
‘किहए?’
‘ या वह मान जाएँग?
े ’ हरीश ने झझकते हए पूछा।
‘कौन?’
‘ठाकु र बाबा।’
हरीश के मुख से यह उ र सुनकर माधो मु कु राया और बोला-
‘ य नह , उसके भा य खुल जाएँगे और िफर माधो चाहे तो या नह कर सकता।’
‘माधो तु ह म एक िम के नाते यह सब कु छ कह रहा ह।ँ ’ और हरीश ने लजाते हए अपना मुँह
फेर लया। माधो मु कु राता हआ बाहर चला गया।

**

दसरी
ू साँझ काम के समा होते ही माधो ठाकु र बाबा के घर पहच
ँ ा। वह बरामदे म बैठ माला के
मनके फेर रहे थे। माधो को देखते ही उठ खड़े हए और उसे कमरे म ले गए। बाहर अभी तक ठं डी
हवा चल रही थी। कैसा जाड़ा था उस रोज।
‘किहए तिबयत तो अ छी है?’ माधो ने कु स पर बैठते हए कहा।
‘जरा सद के कारण खाँसी है।’
और इसी कार कु छ देर तक दोन म इधर-उधर क बात होती रह । ठाकु र बाबा ने पहले साँझ
क चाय और दो अित थय क बहत शंसा क । उ र म माधो ने दो-चार श द हरीश क ओर से
बाबा के कान म डाल िदए।
बाबा ने जब चाय मंगाने को कहा तो वह उठकर बोला-
‘क न कर, बस आ ा...।’
‘ऐसी या ज दी है?’
‘काम से सीधा इसी ओर चला आया था। जाड़ा अ धक हो रहा है। घर पर जलाने के लए
कोयला भी रा ते से लेना है।’
‘परं तु चाय।’
‘यह तो अपना ही घर है, िफर कभी सही...’ नम कार करता हआ माधो बरामदे से िनकल
आया। ोढ़ी तक छोड़ने के लए बाबा भी साथ आए। माधो ने एक-दो बार मकान म ि घुमाई
और बोला-
‘पावती कहाँ है?’
‘जरा मंिदर तक गई है।’
‘इस जाड़े म...?’
‘साँझ क पूजा के लए कैसी भी मजबूरी य न हो, वह अपने देवता पर फूल चढ़ाने अव य
जाती है।’
‘लगन हो तो ऐसी, परं तु ठाकु र बाबा कह उसक ‘लगन’ िन चत भी है।’
‘पावती क लगन!’ बाबा ने आ चयचिकत हो पूछा, जैसे माधो ने कोई अनोखा न कर िदया
हो और िफर बोले-‘माधो यह तुम या कह रहे हो? अभी उसक उ ही िकतनी है?’
‘वह िकतनी ही बड़ी य न हो जाए, आपक आँख म तो ब ची ही रहेगी। परं तु अब उसके हाथ
पीले कर दो, वह सयानी हो चुक है।’
‘इतनी ज दी या है और िफर उसके लए अ छा-सा वर भी तो देखना होगा।’
‘तो अभी से देखना शु क रए-तूफान और यौवन का कोई भरोसा नह , िकसी भी समय सर से
उतर सकता है।’
‘ठाकु र को िकसी भी तूफान का भय नह ।’
‘अनजान मनु य को अवसर बीतते पछताना पड़ता है।’
‘आ खर ऐसा तक तुम य कर रहे हो?’
‘ठाकु र बाबा, आप यह तो अ छी कार जानते ह िक म एक सच बोलने वाला मनु य ह,ँ जो
सोचता हँ मुँह पर कह देता ह।ँ ’
‘तो अब कहना या चाहते हो?’
‘यही िक पावती का यूँ अकेले साँझ को मंिदर जाना ठीक नह ।’
‘इसम बुरा ही या है?’
‘आपको यक न है िक पावती मंिदर म है।’
‘तुम पहे लयाँ य बुझा रहे हो, साफ-साफ कहो न।’
‘आजकल पावती के फूल देवता पर नह मनु य पर भट होते ह।’
‘नामुमिकन-और देखो माधो! म पावती को तुमसे अ धक समझता ह।ँ उसके बारे म अशुभ
िवचार सोचना भी पाप है, समझे।’ कहते-कहते बाबा आवेश म आ गए। उनक साँस तेजी से चलने
लगी।
‘आप तो यूँ ही िबगड़ गए, बात म बात बढ़ गई। मुझे या लेना इन बात से। अ छा नम कार।’
और माधो ौढ़ी से बाहर िनकल गया।
बाबा चुपचाप वहाँ खड़े रहे। माधो उनके िदल म आग सी भड़का कर चला गया था। वह धीरे -
धीरे बरामदे म पहचँ े। त तपोश पर बैठ सोचने लगे। उनके सामने पावती क मुखाकृित और माधो के
कहे हए श द गूज ँ रहे थे। पावती देवता को छोड़ मनु य के आगे झुक सकती है-उ ह िव वास न हो
पाता था और िफर ‘सीतलवादी’ म ऐसा हो भी कौन सकता है। उ ह ने अपने मन को काफ समझाने
का य न िकया, परं तु माधो क बात रह-रहकर उ ह अशांत कर देती थी।
जब अधीर हो उठे तो अपना दश ु ाला ओढ़ मंिदर क ओर हो लए। ौढ़ी से िनकलकर उ ह ने
एक बार चार ओर देखा और िफर आगे बढ़े। सारी ‘सीतलवादी’ आज नदी के तूफान से गूज ँ रही
थी। पहाड़ी पर बफ िपघलने से नदी म जल अ धक था। यह बढ़ता जल शोर-सा कर रहा था, जो
साँझ क नीरवता म बढ़ता ही जा रहा था। ठाकु र बाबा के मन म भी कोलाहल-सा मच रहा था। िदल
बेचनै -सा हो रहा था। वह शी ता से पग बढ़ाते मंिदर क ओर बढ़े जा रहे थे। उ ह लग रहा था, जैसे
तूफानी नदी उनके अंत थल म कह दहाड़ उठी हो।
मंिदर पहच
ँ ते ही जब वह सीिढ़य पर चढ़ने लगे तो पाँव काँप रहे थे। साँझ के अंधरे े क का लमा
भयभीत कर रही थी, मानो िकसी अंधरे ी गुफा म वेश कर रहे ह । मंिदर क आरती का वर सुनाई
दे रहा था।
बाबा ने देवता को णाम िकया और सबके चेहर को देखने लगे। सब लोग आँख मूँदे आरती म
म थे। जब उ ह ने देखा िक पावती वहाँ नह है, तो उनके पाँव के नीचे क मानो धरती िनकल गई।
उनके मन म माधो के श द घर कर गए। वह चुपचाप मंिदर के बाहर नदी क ओर सीिढ़याँ उतरने
लगे, नदी का जल च ान से टकरा-टकराकर छलक रहा था, मानो बाबा को माधो के श द याद
िदला रहा हो-‘यौवन और तूफान का या भरोसा, िकसी भी समय सर से उतर सकते ह।’
जैसे ही ठाकु र बाबा ने सीिढ़य से नीचे कदम बढ़ाया िक उनके कान म िकसी के हँसने का वर
सुनाई पड़ा-िन चय ही पावती का वर था। वह शी ता से सीिढ़य के पीछे िछप गए। उसके साथ
राजन था। दोन को यूँ देखकर बाबा का िदल जल उठा। पावती ने राजन को हाथ से ऊपर क ओर
ख चा।
‘कहाँ चल द ?’ राजन ने कते हए पूछा और कहा, ‘देवता के पास िफर कब दशन ह गे?’
‘कल साँझ, परं तु तुम कब आओगे?’
‘जब तुम बुलाओगी।’
‘मुझसे िमलने नह , बाबा से िमलने।’
‘यूँ तो आज भी चलता, परं तु देर हो चुक है।’
‘तो िफर कल।’
‘पहले तुम आना-तो िफर देखा जाएगा।’
पावती राजन का हाथ छोड़ सीिढ़याँ चढ़ गई, राजन खड़ा उसे देखता रहा। जब वह ि से
ओझल हो गई तो वह नीचे उतरने लगा। बाबा बहत ो धत थे। उनक िपंड लयाँ काँप रही थ । पहले
तो उ ह ने सोचा िक राजन को दो-चार वह सुना द, परं तु कु छ सोचकर क गए। उसके जाने के बाद
वे तुरंत ही घर क ओर चल िदए।

**

अंधरे ा काफ हो चुका था। बाबा अपने कमरे म च कर काट रहे थे। उनका मुख ोध से लाल
था। उसी समय पावती ने कमरे म वेश िकया। कमरे म अंधरे ा था। उसने िबजली के बटन दबाए।
काश होते ही वह सर से पाँव तक काँप गई। आज से पहले उसने बाबा को कभी इस दशा म नह
देखा था। उनक आँख म नेह के थान पर ोध था। उ ह ने पावती को देखा और मुँह फेरकर
अंगीठी के पास जा बैठे।
‘आज यह अंधरे ा कैसा है?’ पावती काँपते कंठ से बोली।
‘अंधरे ा-ओह, परं तु तु हारे आने से तो काश हो ही जाता है।’
‘यिद म घर न लौटा तो अंधरे ा ही होगा?’
‘इस लए मेरी आँख का काश तो तुम ही हो।’
‘वह तो म जानती ह,ँ आज से पहले तो कभी आप।’
‘इस लए िक आज से पहले म अनजान था।’
‘िकससे?’
‘उस चोर से, जो मेरी आँख के काश को मुझसे छीन लेना चाहता है।’
‘यह सब आज या कह रहे ह आप?’
‘ठीक-ठीक कह रहा हँ पावती, जो योित मने अपने हाथ जलाई है, या तुम चाहती हो िक वह
सदा के लए बुझ जाए?’
‘कभी नह , परं तु म समझी नह बाबा।’
‘मुझे केवल इतना ही कहना है िक कल शाम को पूजा घर पर ही होगी।’
और यह कहकर वह दसरे ू कमरे म चले गए। पावती सोच म वह पलंग के िकनारे बैठ गई।
उसक आँख पथरा-सी गई।ं वह बाबा से यह भी न पूछ सक िक य ? जैसे वह सब समझ गई हो,
परं तु यह सब बाबा कैसे जान पाए। आज साँझ तक तो उनक बात से कु छ ऐसा आभास न होता था।
उसके मन म भांित-भांित के िवचार उ प हो रहे थे। जब राजन क सूरत उसके सामने आती तो वह
घबराने-सी लगती और भय से काँप उठती। न जाने वह िकतनी देर भयभीत और शंिकत वह बैठी
रही। कु छ देर म रामू क आवाज ने उसके िवचार का तांता भंग कर िदया। वह उठकर दसरे
ू कमरे
म चली गई। बाबा भोजन के लए उसक ती ा म थे।
दसरी
ू साँझ पूजा के समय जब मंिदर क घंिटयाँ बजने लग तो पावती का िदल बैठने लगा।
बाबा बाहर बरामदे म बैठे माला जाप कर रहे थे और पावती अकेले मंिदर क घंिटय का श द सुन
रही थी। उसके हाथ म लाल गुलाब का फूल था। रह-रहकर उसे राजन क याद आ रही थी। सोचती
थी शायद राजन मंिदर के आसपास उसक ती ा म च कर काट रहा होगा।
घंिटय क आवाज धीरे -धीरे बंद हो गयी। चार ओर अंधरे ा छा गया परं तु पावती वह लेटी अपने
िदल म अपनी उलझन को सुलझाती रही।

**

ातःकाल सूरज क पहली िकरण बाबा के आँगन म उतरी तो ौढ़ी का दरवाजा खुलते ही
सबसे पहले राजन ने अंदर वेश िकया। बाबा उसे देखते ही जल उठे । बैठने का संकेत करते हए
बोले-‘कहो आज ातःकाल ही।’
‘सोचा िक ठाकु र बाबा के दशन कर आऊँ।’
‘समय िमल ही गया। सुना है, आजकल हर साँझ मंिदर म पूजा को जाते हो।’
‘जी शायद पावती ने कहा होगा।’
‘कु छ भी समझ लो।’
‘पावती तो ठीक है न?’
‘ य उसे या हआ?’
‘मेरा मतलब है िक आज उसे मंिदर म नह देखा।’
‘हाँ, उसने मंिदर जाना छोड़ िदया है।’
‘वह य ?’ राजन ने अचंभे म पूछा।
‘इस लए िक उन सीिढ़य पर पावती के पग डगमगाने लगे ह।’
‘तो या वह अब मंिदर नह जाएगी।’
‘कभी नह ।’
थोड़ी देर ककर बाबा बोले-‘राजन तुम ही सोचो, अब वह सयानी हो चुक है और मेरी सबसे
क मती पूँजी है। उसक देखभाल करना तो मेरा क य है।’
‘ठीक है, परं तु आज से पहले तो कभी आपने।’
‘इस लए िक आज से पहले मंिदर म लुटेरे न थे।’
बाबा का संकेत राजन समझ गया। ोध से मन-ही-मन जलने लगा, परं तु अपने को आपे से
बाहर न होने िदया। उसका शरीर इस जाड़े म भी पसीने से तर हो गया था। वह मूितवत बैठा रहा।
बाबा उसके मुख क आकू ित को बदलते देखने लगे।
‘ य यह खामोशी कैसी?’ बाबा बोले।
‘खामोशी, नह तो’ और कु स छोड़ राजन उठ खड़ा हआ।
‘पावती से नह िमलगे या?’
‘देर हो रही है, िफर कभी आऊँगा।’ इतना कह शी ता से ौढ़ी क ओर बढ़ने लगा। बाबा ने
उसे गंभीर ि से देखा और िफर आँख मूँदकर माला जपने लगे।
पावती, जो दरवाजे म खड़ी दोन क बात सुन रही थी, झट से बाबा के पास आकर बोली-
‘बाबा!’
बाबा ने आँख खोल । माला पर चलते हाथ क गए। सामने पावती खड़ी उनके चेहरे क ओर
देख रही थी। ने से आँसू छलक रहे थे। बाबा का िदल नेह से उमड़ आया। वह ेमपूवक उसे गले
लगा लेना चाहते थे-परं तु उ ह ने अपने को रोका और सोच से काम लेना उिचत समझा। कह ेम
अपना क य न भुला दे। पावती बोली-‘बाबा यह सब राजन से य कहा आपने। वह मन म या
सोचेगा?’
‘जो इस समय तुम सोच रही हो। आ खर मेरा भी तुम पर कोई अ धकार है।’
‘िबना आपके मेरा है ही कौन। िफर जो आपको कहना था वह मुझसे कह िदया होता, िकसी
दसरे
ू के मन को दख ु ाने से या लाभ?’
‘दसरे
ू ने तो मेरी इ जत पर वार करने का य न िकया है।’
‘नह बाबा, वह ऐसा नह । िकसी ने आपको संदेह म डाला है।’
‘म समझता ह,ँ मुझे अ धक मेल-जोल पसंद नह ।’
पावती ने आगे कोई बात नह क और िनराश अपने कमरे म लौट गई। वह समझ न पाई िक
आ खर िकसने कहा और कहा भी तो या कहा?’
िदन भर उसे राजन क याद सताती रही। वह मन म या सोचता होगा। वह िकसी आशा से
सुबह ही घर म आया था और चला भी चुपचाप गया। य न िमल सक वह उसे, परं तु कोई उपाय
भी तो न सूझता था। साँझ होते ही उसने बाबा से मंिदर जाने को पूछा, परं तु वह न माने और यार से
समझाने लगे। पावती ने बाबा क सब बात सुनी, पर य ही उसे राजन का यान आता उसका यान
िवच लत होने लगता।
दो िदन बीत गए, परं तु पावती न सो सक और न ही भर पेट भोजन कर पाई। इस बीच म न ही
राजन आया और न ही कोई समाचार िमला।
तीन िदन बाद उसक आँख झपक गई।ं उसने व न म राजन को रोते-कराहते देखा। भय से वह
उठ खड़ी हई। उसके मुँह से कोई श द नह िनकल रहा था। उसे ऐसे सुनाई पड़ा-जैसे कोई पुकार रहा
हो। वह और भी घबराई, भयभीत-सी अंधरे े क ओर इधर-उधर देखने लगी। बाहर क खड़क खुली
थी। उसे लगा, मानो लोहे क सलाख से कोई इधर-उधर झाँक रहा है। वही पुकार सुनाई दी। आवाज
कु छ पहचानी हई मालूम हई। पावती ने यान से देखा, अरे यह तो राजन है। पावती को कु छ धीरज
हआ। वह िब तर से उठ दबे पाँव खड़क क ओर बढ़ी। डर के मारे उसक साँस अब तक फूल रही
था।
‘राजन! तुम इतनी रात गए?’ पावती ने धीमे वर म पूछा।
‘ या क ँ मन को बहत समझाया...’
‘यिद िकसी ने देख लया तो...।’
‘धीरज से काम लो और ौढ़ी तक आ जाओ।’
‘ ौढ़ी तक!’ पावती ने घबराते हए कहा।
‘हाँ, म भी तो इस अंधरे े म...’
‘परं तु बाबा साथ वाले कमरे म सो रहे ह, यिद जाग गए तो?’
‘घबराओ नह ज दी करो।’ राजन का वर काँप रहा था। राजन िफर बोला-‘समय न न
करो-साहस से काम लो।’
‘अ छा तुम चलो, म आई।’
राजन नीचे उतर गया। पावती चुपके से दरवाजे के पास गई, जो बाबा के कमरे म खुलता था,
िफर अंदर झाँक । बाबा सो रहे थे, पावती ने अपनी शाल कंधे पर डाली और कमरे से बाहर हो गई।
जब उसने ौढ़ी का दरवाजा खोला तो राजन लपक कर भीतर आ गया और दरवाजे को
दोबारा बंद कर िदया। दोन एक-दसरे
ू के अ यंत समीप थे। उसी समय पावती क कोमल बांह उठ
और राजन के गले म जा पड़ । दोन के साँस तेजी से चल रहे थे और अंधरे ी ौढ़ी म दोन के िदल
क धड़कन एक गित से चलती हई एक-दसरे ू म समाती रही। बाहर हवा क साँय-साँय तथा भ कते
कु का श द आ-आकर ौढ़ी के बड़े दरवाजे से टकरा रहा था।
‘इतनी सद म केवल एक कु ता!’ पावती उससे अलग होते हए धीमे वर म बोली।
‘तु हारे शरीर क गम महसूस करने के लए। या बाबा ने मेरे बारे म तुमसे कु छ कहा है?’
‘नह तो।’
‘तुम मुझसे िछपा रही हो। या वह यह सब जान गए?’
‘हाँ राजन, जरा धीरज से काम लेना होगा।’
‘जानती हो, इतनी रात गए म यहाँ य आया ह?
ँ ’
‘ य ?’ पावती के वर म आ चय था।
‘तु हारी आ ा लेन।े ’
‘कैसी आ ा?’
‘म साफ-साफ बाबा से कह देना चाहता हँ िक हम दोन एक-दसरे
ू से ेम करते ह।’
‘नह राजन, अभी तु ह चुप रहना होगा।’
‘तो या?’
‘दो-चार िदन बीतने पर म वयं बाबा से कह दँगू ी।’
‘यिद वह न मान तो?’
‘तो।’ पावती के मुँह से िनकला ही था िक आँगन म िकसी क आहट सुनाई पड़ी। िकवाड़ खोल
राजन तुरंत वापस चला गया। पावती काँपते हाथ से कु डा बंद कर रही थी िक िदयासलाई के
काश के साथ ही िकसी क गरज सुनाई दी। पावती के हाथ से कु डा छू ट गया। हाथ म िदयासलाई
लए बाबा खड़े थे। उनके ो धत ने से मानो अंगारे बरस रहे थे। वह पावती क ओर बढ़े। पावती
आगे से हट गई। हवा क तेजी से ौढ़ी के िकवाड़ खुल गए। बाबा ने बाहर झाँक कर देखा, दरू
कोई शी ता से जा रहा था और भ कते कु े उसका पीछा कर रहे थे।
बाबा ने िकवाड़ बंद कर िदए और पलटकर पूछा-
‘कौन था?’
पावती ने कोई उ र न िदया और सर नीचा िकए चुपचाप खड़ी रही। बाबा कदम बढ़ाते कमरे म
लौटने लगे, पावती भी सर नीचा िकए धीरे -धीरे पग बढ़ाते उनके पीछे हो ली।
जब दोन कमरे म पहच
ँ े तो बाबा ने पूछा-
‘कौन था वह?’
‘राजन!’ पावती ने कांपते वर म उ र िदया।
‘वह तो म जानता ह,ँ परं तु इतनी रात गए यहाँ या लेने आया था?’
‘मुझसे िमलने।’
बाबा ने मुँह बनाते हए कहा और िफर ोध म बोले-‘ या यह भले आदिमय का काम है।’
‘बाबा वह िववश था।’
‘पावती!’ बाबा जोर से गरजे और पास पड़ी कु स का सहारा लेने को हाथ बढ़ाया, परं तु
लड़खड़ाकर धरती पर िगर गए। पावती तुरंत सहारा देने बढ़ी, पर बाबा ने झटका दे िदया और दीवार
का सहारा ले उठने लगे। वह अब तक ोध के मारे काँप रहे थे। उनसे धरती पर कदम नह रखा जा
रहा था। किठनाई से वह अपने िब तर पर पहचँ े और धड़ाम से उस पर िगर पड़े। पावती उनके
िब तर के समीप जाने से घबरा रही थी। धीरे -धीरे कमरे के दरवाजे तक गई और धीरे से बाबा को
पुकारा-उ ह ने कोई उ र न िदया। वह चुपचाप आँख फाड़े छत क ओर टकटक बाँधे देख रहे थे।
पावती वह दहलीज पर बैठ गई। उसक आँख से आँसू बह-बहकर आँचल िभगो रहे थे।
न जाने िकतनी देर तक वह बैठी आँसू बहाती रही, जब बाबा क आँख लग गय तो वह उठी
और िवि -सी अपनी खाट क ओर बढ़ी। िफर खड़क के िनकट खड़ी होकर सलाख से बाहर
देखा-चार ओर अंधरे ा छा रहा था। सोचने लगी-िकतना सा य है मेरे अंदर और बाहर फैले इस
अंधकार म।
कभी उसे लगता था िक जैसे सब कु छ घूम रहा है, धरती, दीवार और आकाश म िछटके तारे
सब कु छ काँप रहा है, सब कु छ उजड़ जाना चाहता है।
न जाने य एक कार क आशंका से उसका रोम-रोम काँप उठा था। वह समझ नह पाई थी
िक वह या करे । एक ओर उसके बाबा का वा स य उसे पुकार रहा था और दसरी
ू ओर था राजन
के णय का हाहाकार!
न जाने िकतनी देर तक वह खड़क के पास खड़ी आकाश म िबखरे उन तार को देखती रही।
उसे लगा जैसे तारे , तारे न होकर आँसुओं क तरल बूँद ह, ज ह वह अकेले गत तीन िदन से कमरे
म चुपचाप बहाती रही।
उसे लगा जैसे उसका सारा शरीर ढीला पड़ता जा रहा है और अब एक पल भी वहाँ खड़ी न रह
सकेगी। उसक साँस जोर-जोर से चलने लगी। वह हाँफती-सी चारपाई पर आ पड़ी।
पाँच
य ही रामू ने चमड़े का बैग लए ौढ़ी म वेश िकया, उसके पाँव िकसी क आवाज सुनकर
क गए-वह राजन था, जो उसे धीमे-से पुकार रहा था। राजन अपना थान छोड़ रामू के समीप आ
गया।
‘बाबा क तिबयत कैसी है?’ राजन ने धीरे से पूछा।
‘कु छ समझ म नह आता-हालत िदन-पे-िदन िबगड़ती जा रही है। डॉ टर ने अपना बैग लाने को
कहा था, जरा ज दी।’
‘अ छा!’
रामू जब अंदर गया तो राजन भी उस कमरे क खड़क तक पहच ँ जसम बाबा बीमार पड़े थे।
चार ओर अंधरे ा छा रहा था। खड़क बंद थी, ब ी का काश, शीश को लाँघ बरामदे म आ रहा
था। राजन ने एिड़याँ उठा, एक कोने म खड़े हो छु पकर अंदर क ओर देखा-पावती बाबा के समीप
खड़ी थी। उसक आँख म आँसू थे। डॉ टर ‘इंजे शन’ क तैयारी कर रहा था। मैनज े र हरीश व
माधो एक कोने म खड़े थे। डॉ टर ने धीरे से पावती को कु छ कहा और वह शी ता से बाहर आ गई।
राजन अंधरे े म दीवार के साथ लगकर खड़ा हो गया और पावती को देखने लगा, जो रसोईघर के
िकसी बतन म जल ले जा रही थी। राजन ने चाहा िक उसे बुलाये, परं तु साहस न कर सका।
इंजे शन के प चात जब डॉ टर और दसरे
ू लोग बाहर जाने लगे तो राजन तुरंत ही बाहर चला
गया तािक उसे कोई देख न ले।
बरामदे म जब पावती डॉ टर के हाथ धुला रही थी, तो हरीश ने पूछा-‘डॉ टर साहब! कैसी
तिबयत है?’
‘िदल पर कोई गहरा आघात हआ है।’ डॉ टर ने तौ लए से हाथ सुखाते हए उ र िदया। पावती
से कहने लगा-
‘ य बेटा, या कोई...’
‘नह , ऐसी कोई बात नह हई-ना जाने दो िदन से बार-बार पूछने पर भी कोई उ र नह देते।’
‘घबराने क कोई बात नह , अ छा मैनज
े र।’
‘अ छा रामू जरा बैग उठा लाना।’
हरीश और डॉ टर दोन बाहर क ओर चले गए-रामू भी बैग लए उसके पीछे हो लया। पावती
हाथ म जल का लोटा लए चुपचाप उनक ओर देखती रही। थोड़ी ही देर बाद हरीश लौट आया और
पावती को धीरज देने लगा, िफर बाबा के कमरे म गया-बाबा एकटक हरीश क ओर देखने लगे।
माधो बाबा के पास बैठा च मच से बाबा के मुँह म चाय डाल रहा था। हरीश ने बाबा से जाने क
आ ा ली और माधो को उनके पास थोड़ी देर ठहरने के लए कहता गया।
हरीश के जाने के बाद पावती रसोईघर म भोजन तैयार करने चली गई और माधो बाबा के
समीप बैठा उनके मुँह क ओर देखने लगा। बाबा भी चुपचाप उसक ओर देखे जा रहे थे। थोड़ी देर
बाद उ ह ने ार बंद करने का संकेत िकया और उसे अपने पास आ बैठने को कहा।
‘पावती कहाँ है माधो?’ उखड़े वर म बाबा ने पूछा।
‘रसोईघर म शायद भोजन बना रही है।’
‘रामू से कह िदया होता।’
‘वह डॉ टर साहब को छोड़ने गया है।’
‘बहत ज दबाज है, भला डॉ टर को बुलाने क या आव यकता थी। हरीश भी या सोचता
होगा?’
‘आप उनक िचंता न कर, वह भी आपका बेटा है, ब क वह तो पावती से नाराज हो रहा था,
िक पहले मुझे सूचना य नह दी गई।’
‘बेटा बुढ़ापे का भी कोई इलाज है-अब तो िदन पूरे हो चुके।’
‘ऐसा न किहए ठाकु र साहब! पावती के होते आपको ऐसी बात नह सोचनी चािहए।’
पावती का नाम सुनते ही बाबा िफर गहरे िवचार म खो गए। माधो ने कते- कते पूछा-‘ठाकु र
साहब एक बात पूछूं?’
बाबा ने ि ऊपर उठाई और माधो क ओर देखा-संकेत से ही उसे पूछने को कहा।
‘ऐसी या बात है, जो आप इतने परे शान ह?’
‘परे शान, नह तो।’
‘आप मुझसे छु पा रहे ह। या आप मुझे अपना नह समझते?’
‘ऐसी तो कोई बात नह माधो, परं तु कभी-कभी सोचता हँ िक मेरे बाद पावती का या होगा,
उसका सहारा?’
‘पहले तो आपने कभी ऐसी बात न सोची थ ।’
‘परं तु जीवन का या भरोसा, िफर अब वह सयानी भी तो हो गई है।’
‘उसके हाथ पीले कर दी जए, एक िदन तो उसे परायी होना ही है। यह काम आप अपने ही
हाथ ...’
‘यही तो म सोचता हँ माधो!’
‘तो शुभ काम म देरी कैसी?’
‘अभी वर क खोज करनी होगी।’
‘यह बात तो है ही-हाँ, आपका हरीश के बारे म या िवचार है?’
बाबा हरीश का नाम सुनते ही आ चय से माधो क ओर देखने लगे और िफर बोले, ‘हरीश,
कैसी बात कर रहे हो माधो?’
‘ य ? मने कोई अपराध िकया है या?’
‘कहाँ हरीश माधो! कहाँ मेरी पावती।’
‘ओह तो या आप हरीश को पावती के यो य नह समझते।’
‘कौन नह चाहता िक उसक बेटी ऊँचे कु ल क बह बने, िफर पावती जैसी बेटी-आज पावती
का िपता जीिवत होता, तो दर-द
ू रू से लोग यौता लेकर आते।’
‘तो अब या कमी है-आपका खानदान, शान तथा मान तो वही है।’
सुनकर बाबा क आँख म एक कार क चमक आई और िमट गई। िफर बोले, ‘परं तु माधो
आजकल खानदान तथा मान को कौन देखता है। सबक िनगाह लगी रहती है धन क ओर।’
‘परं तु हरीश बाबू तो ऐसे नह ह।’
‘िकसी के दय को तुम या जानो?’
‘सच ठाकु र साहब-आपक पावती वह बहमू य र न है, जसे संसार-भर के खजाने भी मोल
नह ले सकते।’
‘तो या हरीश मान जाएगा?’
‘यह सब आप मुझ पर छोड़ दी जए। पावती जैसे बेटी आपक , वैसी मेरी।’
इतने म कमरे का िकवाड़ खुला और पावती ने मंिदर के पुजारी के साथ भीतर वेश िकया।
माधो बाबा से आ ा ले सबको नम कार कर बाहर चला गया।
माधो सीधा वहाँ से हरीश के घर पहचँ ा और सारा समाचार हरीश से कहा। हरीश क स ता
का िठकाना न था। रात बहत बीत चुक थी, माधो तो सूचना देकर घर चला गया, परं तु हरीश िवचार
क दिु नया म खो गया। उसके सामने िनरं तर पावती क सूरत घूम रही थी। स ता से पागल हो रहा
था वह।
दसरी
ू साँझ हरीश जब माधो को साथ ले बाबा के घर पहच ँ ा, तो यह जान उसे अ यंत दःु ख हआ
िक बाबा क तिबयत िगरती जा रही है। पावती ने उ ह बताया िक वह पुजारी से बहत समय तक
बात करते रहे। बात करते-करते ही उ ह दौरा पड़ा और मूिछत हो गए। दवा देने से तुरंत होश म आ
गए। वह और पुजारी सारी रात उनके पास बैठे रहे। पुजारी अब भी उनके पास है।
मैनजे र हरीश व माधो शी ता से बाबा के कमरे म गए और पावती बरामदे म ख भे का सहारा
ले बाबा के कमरे क ओर देखने लगी। बाबा क बीमारी का कारण वही है, यह सोचकर उसक
आँख म आँसू भर-भर आते थे। बाबा को िकतना चाहती है, यह उसी का दय जानता था, परं तु मुँह
से कु छ न कह पाती थी। उसके जी म आता िक बाबा से लपट जाए और कहे-बाबा मुझे गलत न
समझो। आपक हर बात के लए ाण भी दे सकती ह,ँ परं तु यह सब कु छ िकससे कहे। बाबा के
समीप जाते ही घबराती थी। िकसी के बाहर से आने क आहट हई। उसने झट से आँसू प छ डाले।
सामने खड़ा पुजारी उसे देख रहा था।
‘पावती िबिटया, मन इतना छोटा य कर रही हो?’
‘कु छ समझ म नह आता केशव काका! बाबा को या हो गया है?’
‘घबराओ नह बुढ़ापा है, दो-चार रोज म ठीक हो जाएँग।े ’
सुनकर पावती फूट-फूटकर रोने लगी। केशव ने धीरज बँधाते हए कहा-‘िह मत न हारो, तु ह
तो उनका जीवन हो।’
‘काका! तुम नह जानते िक यह सब मेरे ही कारण हआ है।’
‘म सब जानता ह-ँ उ ह ने कल रात मुझसे सब कु छ कह िदया।’
‘तो बाबा से जाकर कह दो-तु हारी पावती को िबना तु हारे संसार म कु छ नह चािहए। वह
अपने बाबा क स ता के लए संसार के सब सुख को भी ठु करा सकती है।’
अभी यह श द उसक जुबान पर ही थे िक माधो शी ता से बाहर िनकला। उसके चेहरे पर
हवाइयाँ उड़ रही थ । उसे यूँ देख दोन घबरा गए।
‘ य माधो, ठाकु र साहब?’ केशव के हाँफते होठ से िनकला।
‘जरा तिबयत अ धक खराब है।’
पावती शी ही रसोईघर क ओर भागी और केशव बाबा के कमरे क ओर। बाबा का हाथ
हरीश के हाथ म था और वे आँख बंद िकए मूिछत पड़े थे। केशव और हरीश चुपचाप एक-दसरे
ू को
देखने लगे। दोन के चेहर पर िनराशा झलक रही थी।
थोड़ी ही देर म माधो डॉ टर को लए आ पहच
ँ ा। डॉ टर के ‘इंजे शन’ से उ ह कु छ होश आया।
डॉ टर ने केशव को चाय के लए संकेत िकया। केशव ने दो-चार घूटं चाय उनके मुँह म डाली।
बाबा ने एक नजर सबक ओर दौड़ाई। सब चुपचाप उनक ओर देख रहे थे। बाबा ने केशव से
धीमे वर म पूछा, ‘पावती कहाँ है?’
पावती दरवाजे क ओट म खड़ी आँसू बहा रही थी। बाबा के मुँह से अपना नाम सुनते ही च क
उठी। साड़ी के प ू से आँसू प छ, धीरे -धीरे बाबा क ओर बढ़ी। बाबा पावती को देख ह ठ पर एक
ह क सी मु कान ले आए, यार से अपना हाथ उसक ओर बढ़ाया। वह उनके पास जा बैठी और
अपने प े से उनके माथे पर आए पसीने को प छने लगी। बाबा ने उसका हाथ रोका और यार से
अपने ह ठ पर रख चूम लया। पावती ने बहत धीरज बाँधा, परं तु वह आँसुओं को न रोक पाई।
‘पगली कह क ! अभी तो तु हारे िवदा होने म बहत िदन ह। अभी तो बारात आएगी। शहनाइयाँ
बजगी-तू द ु हन बनेगी। जब डोली म बैठेगी तो जी भरकर रो लेना।’ बाबा ने कते- कते कहा।
‘बाबा!’ कहते-कहते पावती बाबा क छाती से लपट गई और बोली-‘बाबा मुझे कु छ नह
चािहए। मुझे तो मेरा बाबा चािहए। म संसार क सब इ छाएं अपने बाबा पर यौछावर कर सकती ह।ँ
मुझे गलत मत समझो बाबा। मेरा इस संसार म सवाय आपके और भगवान के कोई नह ।’
बाबा ने नेह भरा हाथ पावती के सर पर फेरा और सामने खड़े लोग से बोले-‘तुम सब मेरे मुँह
को य देख रहे हो! तुमम से मेरी पावती के आँसू प छने वाला कोई नह ? बेचारी रो-रोकर बेहाल
हो रही है।’
केशव आगे बढ़ा और पावती को वहाँ से उठाकर चुप कराने लगा-िफर धीरे से उसके कान म
बोला-
‘पावती, तु ह ऐसा नह करना चािहए-बाबा क तिबयत वैसे ही ठीक नह ।’
पावती चुप हो गई, आँसू प छ डाले, िफर बाबा क ओर देख मु कु राई।ं उसे स देख बाबा के
ह ठ पर मु कान क प रे खाएं खंचकर िमट गई।ं पल भर के लए सब बाबा को देखने लगे।
कमरे म नीरवता होने से बाहर क तेज वायु का साँय-साँय श द सुनाई दे रहा था। बाबा ने संकेत से
हरीश को अपने पास बुलाया। हरीश बाबा के एक ओर बैठ गया।
बाबा बोले-‘आज यह अंधरे ा कैसा रामू?’
‘ओह! साँझ हो गई।’ रामू ने उ र देते हए ब ी का बटन दबाया-कमरे म काश हो गया।
‘ खड़िकयाँ भी बंद कर रखी ह।’ बाबा बोले।
‘बाहर कु छ आँधी का जोर है और जाड़ा भी अ धक ह।’
‘खोल दो रामू! कभी-कभी यह आँधी और तूफान भी िकतने भले मालूम होते ह।’
रामू ने डॉ टर क ओर देखा-डॉ टर ने खोलने का संकेत िकया तो रामू ने तुरंत ही बाहर वाली
खड़क खोल दी। तूफान का जोर बढ़ रहा था। हवा क तेजी के कारण खड़क के िकवाड़ आपस म
टकराने लगे। बाबा क ि उन िकवाड़ पर और िफर सामने खड़े लोग पर पड़ी। सबने देखा-बाबा
के मुख पर एक अजीब-सी थरता-सी छा गई। जसे देखते ही सबके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लग ।
पावती धीरे से बाबा के पास बैठ गई-केशव और रामू भी बाबा के समीप हो गए। डॉ टर जरा हटकर
इंजे शन क तैयारी करने लगा।
‘पावती बेटी, केशव काका जादगरू ह-देखा, तुझे रोती को झट से चुप करा िदया।’ बाबा के
श द बहत धीमे वर म िनकल रहे थे।
‘हाँ बाबा।’
‘जहाँ मने इसे पाल-पोसकर बड़ा िकया, वहाँ केशव ने इसे गुण से सजाया है। मेरे बाद केशव
काका को अपने बाबा से कम न समझना।’
‘बाबा! आप यह या कह रहे ह?’
‘बेटा मेरे कहने अथवा न कहने से या... देखो तूफान का जोर बढ़ रहा है। भला म या तुम इसे
या रोक सकते ह?’
रामू ने खड़क बंद करनी चाही, परं तु बाबा ने संकेत से उसे रोक िदया। उनके मुख क
आ टित थोड़ी-थोड़ी देर म बदलने लगी। डॉ टर ने देखा, उनका वास क गया था। मुख से टू टे-
फूटे श द ही िनकल रहे थे। वह ‘इंजे शन’ क सूई लेकर आगे बढ़ा, परं तु बाबा ने हाथ रोक िदया
और काँपते हए बोले-
‘रहने दो डॉ टर... अब इन सबका या होगा-दरू जा रहा ह।ँ ’
िफर बाबा चुप हो गए-उनक बदलती हई आँख सबको देख रही थ । बाबा ने पावती का हाथ
पकड़कर हरीश के हाथ म दे िदया और बोले-
‘हरीश अब पावती तु हारी अमानत है। म तो जा रहा हँ देखो इसके आँसू न बहे।’
बाबा का वर वह क गया, खड़क के िकवाड़ एक-बारगी ही जोर से बजे। पावती िच ाई
और बाबा से लपट कर जोर-जोर से रोने लगी। सबक आँख से आँसू बह िनकले। केशव ने पावती
को बाबा से अलग िकया और च र से उनका मुँह ढक िदया। पावती एक ओर सहम कर खड़ी हो
गई। उसके बहते आँसू गाल पर जमकर रह गए।
दसरे
ू िदन जब राजन को बाबा के चल बसने क सूचना िमली तो उसे बहत दःु ख हआ। सबसे
अ धक रं ज उसको इस बात का था िक अंितम समय उनके दशन भी न कर सका।
वह तुरंत बाबा के घर पहच
ँ ा-केशव, माधो, हरीश और कंपनी के कु छ लोग भी वहाँ मौजूद थे।
राजन भी चुपचाप एक ओर जाकर बैठ गया, सामने पावती मूित सी बनी बैठी थी। उसने एक बार
राजन को देखा-आँख िमलते ही मुँह नीचा कर लया।
कंपनी का अलाम बजते ही सबने केशव से आ ा ली और जाने लगे, परं तु राजन बैठा रहा।
हरीश ूटी जाते समय राजन से बोला-
‘काम पर जाते समय पहले मेरे द तर म िमल लेना।’
‘बहत अ छा।’ राजन ने उ र िदया।
हरीश के चले जाने पर राजन िचंता म पड़ गया िक ऐसी या बात थी, जसके लए उसे बुलाया
गया है और वह िवचारता हआ सामने बैठी पावती को देखने लगा, जो अब तक मूित के समान बैठी
थी।
‘पावती नान कर लो।’ केशव ने पावती से कहा।
‘आप पहले कर ल, य िक आपको मंिदर जाना होगा।’
‘म तो नदी पर...’
‘नदी पर या जाना है, पूजा का समय हो चुका है।’
‘अ छा तो।’
यह कहते हए उठकर केशव नान के लए चला गया। राजन तथा पावती एक-दसरे ू को
चुपचाप देख रहे थे। राजन कु छ कहना चाहता था, परं तु श द उसक ज ा तक ही आकर क जाते।
थोड़ी देर बाद वह बोला-‘पावती, यह सब कैसे हआ?’
‘भगवान के िकए म मनु य का या वश है।’
‘मुझे साँझ को सूिचत कर िदया होता, आ खर म भी तो कु छ था।’
‘यहाँ अपना ही होश िकसे था, जो िकसी को सूिचत करती।’
‘अंितम बार बाबा के दशन तो हो जाते।’
पावती चुप हो गई। राजन ने भी कु छ न कहा, चुपके से उठकर चल िदया।
‘जा रहे हो?’
‘हाँ पावती! काम पर देरी हो रही है। या तुम अब यहाँ अकेली रहोगी?’
‘नह तो, केशव काका जो पास ह।’
‘पावती! म कु छ कहने यो य तो नह , परं तु मेरे लायक कोई सेवा हो तो भूल न जाना।’
यह कहते हए राजन ौढ़ी क ओर बढ़ा। पावती अब भी उसी क ओर देख रही थी।

**

राजन जब मैनज
े र के कमरे म पहच
ँ ा तो माधो भी वह मौजूद था। राजन को देखते ही हरीश
बोला-
‘राजन! मने तु ह एक आव यक काम से यहाँ बुलाया है।’
‘किहए।’
‘दो-चार िदन के लए तु ह सीतलपुर टेशन जाना होगा।’
‘ या िकसी काम से?’
‘वहाँ कु छ मशीन आई ह, उ ह मालगाड़ी से लदवाकर यहाँ लाना है। यूँ तो माधो भी चला जाता,
परं तु उसके जाने से इधर का काम क जाता है।’
‘िकतने िदन का काम है।’
‘यूँ तो पं ह िदन का काम है, परं तु टेशन मा टर से कहकर शी ही करवा िदया जाएगा।’
‘ या कोई और...।’
‘ य ?’ हरीश ने माथे पर बल चढ़ाते हए पूछा।
‘यूँ ही... कु छ नह , मेरा िवचार था, खैर चला जाऊँगा, जब आप आ ा दगे म चला जाऊँगा।’
हरीश के माथे पर पड़े बल िमट गए और राजन आ ा लेकर बाहर चला गया। वह िकसी भी
दशा म पावती से दरू जाना न चाहता था, परं तु मन क बात िकससे कहे और उसक सुनने वाला था
भी कौन?
राजन ितिदन काम समा होने पर पावती के पास जाता। मैनज े र, माधो आिद भी वहाँ मौजूद
होते। उनके होते वह भी बुत-सा बना चटाई पर बैठ जाता और पावती से अकेले म न िमल पाता,
जब वह पावती के उदास चेहरे को देखता तो उसक आँख म आँसू आ जाते। िफर मन-ही-मन
सोचता, अ छा हो यह सब लोग यहाँ से चले जाएं और म दो घड़ी अकेले म बैठ पावती से एक-दो
बात कर लूँ, परं तु कोई घड़ी भी ऐसी न होती जब दो-चार लोग वहाँ मौजूद न ह ।
इसी कार चार िदन बीत गए। राजन न ही पावती को कु छ कह सका और न ही कु छ सुन
सका। िकतना बेबस था वह। हरीश, माधो, केशव उसे घूर-घूरकर देखते, परं तु वह उधर यान न
देता। जब वह पावती क उदासी को देखता तो याकु ल हो उठता, सोचता कह नई प र थित म वह
बदल न जाए। ऐसे िवचार उसे भयभीत कर देते, परं तु उसका दय न मानता।
उधर पावती अपनी नई प र थित को देखकर चुप थी। चार ओर तूफान था परं तु वह शांत थी।
उसे िकसी का कोई भय न था। हरीश, माधो, केशव और न जाने िकतने ही लोग ितिदन आते और
चले जाते, परं तु पावती को िकसी क जरा भी याद न थी। यहाँ तक िक राजन क उप थित भी
उसके िवचार को भंग न कर सक । अब वह चलती-िफरती मूित के समान थी, जसके िवचार म
हर समय एक योित-सी जगमगाती हो। उसम उसे अपने बाबा क त वीर िदखाई देती और वही उसे
मानो ख चते-ख चते कह दरू ले जाती, जहाँ वह अपने देवता को णाम करती और मन-ही-मन
मु करा देती।
एक रात सोने से पहले जब वह अपने िब तर पर इ ह िवचार म खोई पड़ी थी तो िकसी ने
उसको थपथपाया-यह केशव था, जो मु कु राते हए उसके समीप जा बैठा और कु छ फल देता हआ
बोला-
‘यह तु हारे लए लाया ह।ँ ’
‘ओह केशव दादा! मंिदर से लौट आए?’
‘हाँ, भोजन कर चुक या?’
‘मुझे भूख नह दादा।’
‘देखो पावती-कहो तो म सुबह के बदले साँझ को भोजन कर लया क ँ ! दो बार तो खा नह
सकता और तुम अकेली होने से कभी बनाती हो तथा कभी भूख न लगने का बहाना कर चू हा तक
नह जलात ।’
‘नह दादा, सच कहती ह,ँ भूख नह ।’
‘पावती! तुम तो अपनी सुध भी खो बैठी हो, लो कु छ खा लो।’
पावती ने केशव के हाथ से फल लए और खाने लगी, केशव उसे नेह भरी ि से देखने
लगा।
‘पावती आज िफर माधो आया था।’
‘सुनो दादा! अब म इन सबसे दरू रहना चाहती ह।ँ ’
‘संसार म रहकर संसार वाल से दरू नह रहा जा सकता बेटी।’
‘परं तु म संसार म रहते हए भी सबसे दरू रहग
ँ ी।’
‘कैसे? और िफर बाबा को िदया हआ वचन कैसे पूरा होगा?’
‘भगवान से लगन लगाकर। बाबा क यही इ छा थी न दादा।’
‘हाँ तो ी का भगवान उसका पित ही होता है।’
‘तो म अपने देवता से याह क ँ गी-उसके चरण म रहकर उसके गुण गा-गाकर सबको
सुनाऊँगी।’
‘पर जानती हो भगवान कभी स न ह गे।’
‘सो य ?’
‘इस लए िक मनु य को सदा संसार म मनु य क तरह ही रहना चािहए। मनु य वही है जसके
दय म दसर
ू के लए ममता हो।’
‘तो आप सब मुझे मनु य से दरू करना चाहते ह।’
‘ऐसा हम य करने लगे?’
यह सुनते ही केशव काका चुप हो गए और पावती क ओर देखते रहे। पावती के मुख पर
अजीब शांित थी, परं तु दय म तूफान-सा उठ खड़ा हआ। केशव काका संभालते हए लड़खड़ाते
श द म बोले-
‘पावती यह भी संसार क एक रीत है, जसके अंतगत राजन एक मनु य होते हए भी मनु य
कहलाने यो य नह । र म और समाज के िनयम के सामने मनु य को झुकना ही पड़ता है।’
‘यह िनयम बनाया िकसने?’
‘भगवान ने बेटी! एक-दसरे
ू के तुम यो य भी नह हो। वह एक मजदरू और तुम एक अफसर
क लड़क -वह एक अछू त और तुम ा ण-वह एक ना तक और तुम देवता क पुजा रन-नह तो
बाबा ही य रोकते।’
‘तो या मुझे अपना ब लदान देना होगा?’
‘हाँ पावती! इस शरीर का, जो संसार म बनाया हआ एक भगवान का खलौना है-वही इसे ले
जा सकता है जो इसके यो य समझा जाए।’
‘तो दय क लगन एक ढ ग हई और यह स चे ेम क कहानी एक कोरा व न?’
‘िदल को वही जीत सकता है जसक स ची लगन हो और लगन केवल देवता से ही हो सकती
है, मनु य से नह ।’
‘वह य ?’
‘ य िक मनु य के दय म ेम के साथ-साथ झूठ, धोखा, पंच और वाथ भी बसा है।’
‘परं तु राजन ऐसा नह काका! वह अपने ाण दे देगा! मेरी दी हई आशाओं के सहारे वह जी
रहा है।’
‘चकोर चाँद तक पहचँ ने के लए भले ही िकरण का सहारा ले, परं तु वह िकरण कभी उसे चाँद
तक नह पहचँ ा सकत ।’
‘तो उसे उस चकोर क भांित फड़फड़ाते हए ाण देने ह गे।’
‘संसार म सदा ऐसा होता आया है। जब िववशताओं म फंस जाए तो भगवान का सहारा ले उसे
हर तूफान का सामना करना पड़ता है।’
‘तो मनु य दसर
ू को स करने के लए अपने अरमान का खून कर दे?’
‘हाँ पावती! अपने लए तो हर कोई जीता है, परं तु िकसी दसरे
ू के लए जीना ही जीवन है।’
पावती चुप हो गई। न जाने िकतनी ही देर बैठी जीवन क उलझन को मानो सुलझाती रही। उधर
केशव दादा सोने के लए गए। चार ओर स ाटा छाया हआ था। इस स ाटे म मानो आज भय के
थान पर शांित िछपी हई थी। बाबा के जाने के बाद वह पहली राि थी, जो पावती को न भा रही थी।
वह अपने िब तर से उठ, खड़क के समीप जा खड़ी हई और उसे खोल लया।
बाहर अंधरे ा छाया हआ था। धुनक हई ई के समान बफ िगरती िदखाई दे रही थी। पहाड़ी क
ऊँचाई पर लगी ‘सचलाइट’ का काश घूम-घूमकर बफ ढक ‘वादी’ को जगमगा रहा था। घूमता
हआ काश जब खड़क से होते हए पावती के चेहरे पर पड़ता तो उसक आँख मूंद जात । िफर
आँख खुलते ही उसक ि जाते हए काश के साथ-साथ ऊँची सफेद चोिटय पर जा कती और
उसे ऐसा अनुभव होता मानो वह ऊँचाई क ओर उड़ती जा रही हो और रह-रहकर वे श द उसके
कान म गूजँ ते-‘अपने लए तो हर कोई जीता है दसर
ू के लए जीना जीवन है।’
उसने खड़क बंद करने को हाथ बढ़ाया, पर न जाने या सोच उसे खुला छोड़ िदया और अपने
िब तर पर जा लेटी।
उसक आँख म न द न थी। वह टकटक बाँधे खड़क से िगरती बफ को देखे जा रही थी।
उसे भी अपने बाबा का वचन पूरा करना था। उसे इस संसार म एक मनु य क तरह जीना है
और देवता क लगन उसका स चा जीवन। वही उसे शांित तथा सुख का रा ता िदखाता है।
दरू कह कोई उस अंधरे ी और बफ ली राि म बाँसुरी क तान छे ड़ रहा था। पावती उस धुन म
खो सी गई।

छः
दसरी
ू साँझ ठीक पूजा के समय मंिदर क सीिढ़य पर िफर से पाजेब क झंकार सुनाई दी। आज
एक अस के बाद पावती अपने देवता के लए जा रही थी। सीिढ़य पर आज उसके पग धीरे -धीरे बढ़
रहे थे। वह दय कड़ा कर मन म देवता का यान धर ऊपर जाने लगी। पूजा के फूल म से एक
लाल रं ग का गुलाब नीचे िगरा। पावती के उठते हए कदम अपने आप क गए। वह घबरा-सी गई,
नीचे झुक फूल उठाने लगी, परं तु उसका हाथ पड़ने से पहले ही वह फूल िकसी राही के पाँव तले
आकर मसला गया। पावती ने कड़ी ि से उस राहगीर को देखा-जो एक साधु था और िफर कदम
बढ़ाती सीिढ़याँ चढ़ गई।
सद के कारण मंिदर म भीड़ बहत कम थी। अंदर वेश करते ही पावती ने एक बार चार ओर
देखा। दीवार पर लगी त वीर तथा देवमूित सब उदास लगते थे... मानो उनक पुजा रन के िबना
उनक दिु नया सुनसान थी। धीरे -धीरे वह देवमूित क ओर बढ़ी। केशव काका उसको देखते ही
मु कराए और साद क थाली एक बुिढ़या के हाथ म देते हए बोले-
‘आओ पावती-पूजा क थाली लाना भूल गय या?’
‘हाँ काका-फूल जो लाई ह।ँ ’ िफर पास खड़ी बुिढ़या को देखने लगी, जो टकटक बाँध उसके
चेहरे को देख रही थी। केशव यूँ अनजान नजर से दोन को एक-दसरे ू को देखते हए पाकर बुिढ़या
से बोला-
‘मेरी बेटी पावती आज बहत िदन के बाद पूजा को चली आई।’
‘ओह िचरं जीव रहो बेटी!’ लड़खड़ाते श द म बुिढ़या ने उसे आशीवाद िदया और बाहर चली
गई। पावती ने एक बार उसे देखा, िफर देवता क तरफ मुड़ी।
‘जानती हो कौन थी?’ केशव ने थाली म रखे दीये म जोत डालते हए पूछा।
‘नह तो।’ पावती ने फूल देवता के चरण म अिपत िकए और ज ासु क भांित उसक ओर
देखने लगी। केशव ने थाली बढ़ाई। पावती ने दीये क जोत जला दी। साम ी का धुआ
ं पावती के
चेहरे पर लाते हए वह बोला-
‘राजन क माँ।’
‘माँ!’ पावती के मुँह से िनकला और वह आ चयचिकत केशव क ओर देखने लगी।
केशव थाली नीचे रखता हआ बोला-‘ य या हआ?’
‘मुझे... कु छ भी तो नह ... परं तु यह यहाँ?’
‘थोड़े ही िदन हए आई है। ितिदन पूजा को आती है। कह रही थी-शायद राजन बाहर जा रहा
है।’
यह सुनकर पावती के दय को ठे स-सी लगी। वह पूछना चाहती थी-कहाँ जा रहा है वह... पर
श द मुँह म ही रह गए।
य ही राजन क माँ को धीरे -धीरे सीिढ़याँ उतरते देखा वह उस ओर लपक , परं तु उसके पैर
अचानक क गए और वह मुंडेर क ओट म िछप गई। सीिढ़य पर मुँह मोड़ राजन खड़ा था। पावती
अपने को रोक न सक । चोरी-चोरी उसने नीचे झाँका। माँ अपने बेटे क आरती उतार रही थी। राजन
ने अपनी माँ के पैर छु ए और सीिढ़य पर मसले फूल को उठा लया। पहले फूल क ओर और िफर
मंिदर क ओर देखने लगा, पावती िफर से ओट म हो गई। न जाने िकन-िकन बात को याद कर
उसक आँख से आँसू बह िनकले।
थोड़ी देर बाद जब उसने नीचे देखा तो राजन दरू जा रहा था। वह मुंडेर से बाहर आ गई और
उसे देखने लगी। दरू कंपनी का टक खड़ा था। शायद कह बाहर जा रहा था। िकसी के आने क
आहट पर उसने आँसू प छ डाले। केशव समीप आते हए बोला-
‘ य पावती, या देख रही हो?’
‘दरू बफ से ढक च ान को।’
‘ओह! आज ‘वादी’ क काली पहािड़यां सफेद हो गय ।’
‘हाँ काका, तुम कहते थे राजन अछू त है और ना तक भी।’
‘हाँ तो।’
‘तो उसक माँ ितिदन पूजा करने य आती है?’
‘उसका अपना िव वास है। िफर भगवान का ार तो हर मनु य के लए खुला है और मंिदर के
पट तो तु हारे बाबा ने ही अछू त के लए खोले थे।’
‘हाँ काका, यिद उ ह अछू त से घृणा होती तो वह राजन को अपने घर रखते ही य ?’
‘हाँ!’ काका कु छ दबे वर म बोले।
‘वा तव म हम दरू करने के लए भगवान नह ब क इंसान है, यह समाज है और उसके बनाए
हए िनयम।’
‘पावती! संसार को चलाने के लए इन सामा जक रीित- रवाज का होना आव यक है, हम
इनको मानना पड़ेगा।’
‘परं तु मनु य इ ह तोड़ भी तो नह सकता।’
‘हाँ, यिद तोड़ने से उसक भलाई हो तो...।’
‘मेरी तथा राजन क भलाई तो इसी म है-हम और से या?’
‘तुम भूल रही हो-हम इस संसार म अकेले नह जी सकते-न ही दसर
ू का सहारा लए िबना
आगे बढ़ सकते ह।’
‘हम िकसी का सहारा नह चािहए।’
‘तो जानती हो इसका प रणाम?’
‘ या?’
‘राजन का अंत।’
‘नह काका।’ पावती चीख उठी।
‘यह कंपनी से िनकाल िदया जाएगा। हरीश उसे घृणा क ि से देखेगा। पढ़ा- लखा तो है नह ,
दर-दर क ठोकर खाता िफरे गा और बूढ़ी माँ के लए िकसी िदन संसार से चल बसेगा।’
‘ऐसा न कहो काका।’
‘कहने या न कहने से या होता है? एक िनधन का जीवन तो एक छोटा-सा बुलबुला है, जो
जरा से थपेड़े से भी टू ट सकता है। वह सब कु छ तु ह अपने लए नह , ब क राजन तथा उसक बूढ़ी
माँ के लए करना है। इस ब लदान का नाम ही स ची लगन है।’
‘तो काका म अपना िदल प थर के समान कर लूँगी। म उसे न होते नह देख सकती। म
उसके जीवन म एक काली छाया नह बनना चाहती।’
‘पावती, दसरे
ू के लए जीना ही तो जीवन है। वही ेम स चा है जो िनः वाथ हो, जैसे पतंगे का
दीप िशखा के ित, चकोर का चाँदनी तथा भ का भगवान के ित।’
पावती चुप हो गई। केशव ने नेह से भरा अपना हाथ कंधे पर रखा और उसे देख मु कराया।
िफर बोला-
‘जाड़ा अ धक होता जा रहा है, अब तुम चलो-आज म शी आ जाऊँगा।’
पावती ने दश
ु ाला अ छी कार से ओढ़ते हए उ र म ठोड़ी िहला दी और सीिढ़याँ उतर गई।
वह सीिढ़याँ उतरती नीचे क ओर जा रही थी और उसे लग रहा था जैसे िवगत जीवन क एक-
एक बात चलिच क भाँित उसके सामने आकर िमटती जा रही थी।
उसे लगा-जैसे उसके िदल म कह कु छ िछप गया है, धीरे -धीरे कु छ साल रहा है। उसका गला
ँ ध गया है। जन सीिढ़य पर कभी वह हँसी िबखेरती आती थी और िदल म लाती थी राजन से
िमलने क उमंग! अरमान!... उ ह सीिढ़य पर झर रहे थे उसक आँख से त तरल आँसू! और
िदल म भरी थी दा ण यथा! ऐसी टीस, जसे वह िकसी कार सह नह पा रही थी।
वह बार-बार आंचल से आँसू प छती, धीरे -धीरे पग उठाती सीिढ़याँ उतरती घर क ओर जा रही
थी।

सात
‘चार वैगन तो लोड हो गए।’
राजन ने सीतलपुर के टेशन मा टर क मेज़ पर लापरवाही से कु छ कागज रखते हए कहा और
पास पड़ी एक कु स पर बैठ गया। टेशन मा टर ने कोई उ र न िदया। वह तार क िटकिटक म
संल था। राजन चुपचाप बैठा उसके चेहरे को देखता रहा। थोड़ी देर चुप रहने के बाद टेशन
मा टर ने अपना सर उठाया और अपनी ऐनक कान पर लगाते हए बोला-
‘जरा तार दे रहा था, अ छा तो चार ‘लोड हो गए।’
‘जी, परं तु और िकतने ह?’
‘केवल दो-इतनी भी या ज दी। अभी तो दस ही िदन हए ह।’
‘तो इतने कम ह या? घर म माँ अकेली है और...’
‘और घरवाली भी।’
‘अभी वयं अकेला ह।ँ ’
‘तो तुम अभी अिववािहत हो? अ छा िकया जो अब तक िववाह नह िकया, नह तो परदेस म
इन जाड़ क रात म रहना दभरू हो जाता है।’
‘वह तो अब भी हो रहा है। सोचता ह,ँ काम अधूरा छोड़ भाग जाऊँ, परं तु नौकरी का िवचार
आते ही चुप हो जाता ह।ँ ’
‘हाँ भैया, नौकरी का यान न हो तो हम इस जाड़े म यूँ बैठे रात-िदन य जुटे रह-देखो, शादी
तो तु हारे मैनज
े र क है और मुसीबत हमारी।’
‘शादी हमारे मैनज
े र क ! आप या कह रहे ह?’ राजन ने अच भे से पूछा-मानो उसके कान ने
कोई अनहोनी बात सुन ली हो।
‘हाँ-हाँ तु हारे मैनज
े र क ।’
‘हरीश क ?’
‘हाँ... तो या तु ह मालूम नह , आज ातः से बधाई क तारे देते-देते तो कमर दोहरी हो गई
है।’
‘नह , ऐसा नह हो सकता। इतना अंधरे ...।’
‘यह या कह रहे हो राजन। शादी और अंधरे ?’
अभी टेशन मा टर के मुँह से यह श द िनकले ही थे िक फायरमैन कमरे म आया और
बोला-‘डॉन मैसे जर आ गया।’
टेशन मा टर ने तुरंत ही मेज पर पड़ी झंिडयाँ उठाई ं और बाहर चला गया। राजन वह बुत बना
खड़ा रहा। कह उसके साथ छल तो नह हआ-यह सोच वह काँप उठा, िफर धीरे -धीरे पग बढ़ाता
बाहर ‘ लेटफाम’ पर आ गया। चार ओर धुध ं ऊपर उठने लगी। लेटफाम पर खड़ी गाड़ी के िड बे
साफ िदखाई देने लगे। इंजन क सीटी बजते ही गाड़ी ने लेटफाम छोड़ िदया। य - य गाड़ी क
र तार बढ़ती गई, राजन के िदल क धड़कन भी तेज होती गई। वह चुपके से टेशन मा टर के पास
आ खड़ा हआ, जो गाड़ी को ‘लाइन लीयर’ दे रहा था। जब गाड़ी का अंितम िड बा िनकल गया तो
राजन बोला-‘बाबूजी, म ‘वादी’ जा रहा ह।ँ ’
‘इस समय? तु हारे होश िठकाने ह।’
‘मुझे अव य जाना है... म आपको कैसे समझाएं।’ वह बेचन
ै ी से बोला।
‘सड़क बफ से ढक पड़ी है। र शा जा नह सकता और कोई रा ता नह । जाओगे कैसे?’
‘चलकर।’
‘पागल तो नह हो गए हो, इस अंधरे ी रात म जाओगे? अपनी न सही अपनी बूढ़ी माँ क तो
िचंता करो-वह िकसके आसरे जएंग?े ’
टेशन बाबू क बात सुन उसने नाक सकोड़ी और चुप हो गया। टेशन बाबू उसके पागलपन
पर दबी हँसी हँसते-हँसते द तर क ओर बढ़ गया। राजन िववशता के धुएँ म घुटता-सा पटरी पार
कर माल िड ब के पास जा पहच ँ ा और थोड़ी दरू चलती आग के पास जाकर ठहरा। िफर िच ाया-
‘श भू... श भू!’
सामने िड बे म से एक अधेड़ उ का मनु य हाथ म ह का लए बाहर िनकला और राजन को
देखने लगा। राजन के मुख पर जलती आग अपनी लाल-पीली छाया डाल रही थी। उसक आँख से
मानो शोले िनकल रहे थे। राजन को इस कार देख पहले तो वह घबराया परं तु िह मत करके पास
पहच
ँ ा।
‘श भू!’ ोध से राजन िच ाया।
‘जी’ श भू के काँपते हाथ से ह का नीचे धरती पर आ िगरा।
‘हरीश क शादी हो रही है।’
‘मैनज
े र साहब क -िकससे?’
‘म या जानूँ... म भी तो आप ही के साथ आया ह।ँ ’
‘मुझे अभी वापस लौटना है।’
‘अभी! न र शा, न गाड़ी। इस अंधरे ी रात म जाओगे कैसे?’
‘जैसे भी हो मुझे अव य जाना है।’
ोध के कारण राजन उस जाड़े म पसीने से तर हो रहा था और बेचनै ी के कारण अपनी
उं ग लय को तोड़-मरोड़ रहा था। पास बहती नदी का श द सायंकाल क नीरसता को भंग कर रहा
था। उसके कारण उसक बेचन ै ी बढ़ती जा रही थी। अचानक वह िच ाया-
‘श भू सुनते हो नदी का शोर।’
‘हाँ राजन बाबू, नदी म बाढ़ आ रही है।’
‘बाढ़ नह पगले, यह तूफान मेरे िदल के उठते तूफान को रोकने आया है।’
‘म समझा नह , कैसा तूफान?’
‘यह पानी म उठती तेज लहर मुझे शी ही ‘सीतलवादी’ तक पहच
ँ ा दगी।’
‘नदी के रा ते जाना चाहते हो इस तूफान म? सीतलवादी पहच
ँ ो अथवा न पहच
ँ ो, वग अव य
पहच
ँ जाओगे।’
‘श भू!’ राजन आवेश म िच ाया। श भू चुप हो गया। राजन िफर बोला, धीरे से-
‘िकनारे एक नाव खड़ी है, उसे ले जाऊँगा।’
‘राजन बाबू! म तु ह कभी नह जाने दँगू ा।’
‘तुम मुझे रोक सकते हो श भू, परं तु मेरे अंदर उठते तूफान को कौन रोकेगा।’ यह कहकर
राजन ने गहरी साँस ली और नदी क ओर चल िदया। श भू खड़ा देखता रहा। उसने चार ओर
घूमकर देखा-वहाँ कोई न था, जसे वह मदद के लए पुकारे , चार ओर अंधकार छा रहा था। उसक
ि जब घूमकर राजन का पीछा करने लगी तो वह नजर से ओझल हो चुका था। श भू राजन को
पुकारते हए उसके पीछे दौड़ने लगा।
राजन सीधा नदी के िकनारे जा का। दर-द
ू रू तक जल िदखाई दे रहा था और प थर से टकराते
जल का भयानक शोर हो रहा था, मानो आज प थर भी इस तूफान क चपेट म आकर कराह रहे ह ।
परं तु एक तूफान था िक बढ़ता ही चला जा रहा था। य ही राजन ने िकनारे रखी एक छोटी-सी नाव
का र सा खोला, श भू ने पीछे से आकर उसक कमर म हाथ डाल िदए और रोकते हए बोला,
‘राजन बाबू! काल के मुँह म जाओगे। तुम आ मह या करने जा रहे हो, जो िक भारी पाप है। तुम
मान जाओ! ातः तड़के ही...।’
राजन ने एक जोर का झटका िदया-श भू दरू जा िगरा।
राजन ने उसके िनराश चेहरे पर एक दया भरी ि डाली और बोला-
‘श भू! तू मुझे काल के मुँह से बचाना चाहता है, परं तु तू या जाने िक मेरा वहाँ न जाना मृ यु
से भी बढ़कर है। िचता के समान भयानक और जीते जी जलने वाला काल! अ छा श भू! जीिवत
रहा तो िफर िमलूँगा।’
राजन ने नाव जल म धकेल दी और उसम बैठ गया। श भू उठा, िकनारे जा खड़ा हो उसे देखने
लगा। नाव लहर के थपेड़ से िहलती-डु लती दौड़ती जा रही थी। तूफान का जोर बढ़ रहा था। श भू
क आँख से आँसू बह िनकले।
थोड़ी ही देर म नदी क लहर ने नाव को कह -का-कह पहच ँ ा िदया। राजन नाव को िकनारे -
िकनारे चलाने का य न करता, परं तु पानी का बहाव बार-बार उसे मझधार क ओर ले जाता।
बहाव उधर होने के कारण नाव क गित तेज हो गई और धीरे -धीरे राजन के काबू से बाहर होने
लगी। राजन ने जोर से नाव का िकनारा पकड़ लया और सर घुटन म दबा नाव को भगवान के
भरोसे छोड़ िदया। न जाने िकतनी बार नाव भँवर म डगमगाई और पानी उछल-उछलकर उसके सर
से टकराया, परं तु वह नीचा सर िकए बैठा रहा।
राजन ने धीरे से जब अपना सर उठाया तो दरू ‘वादी’ के झरोखे से काश िदखाई दे रहा था।
पानी का जोर पहले से कु छ धीमा हो चुका था, परं तु नाव अब भी पूरी तरह से न संभल पाई थी। कटे
हए पेड़, जानवर के शरीर आिद व तुएं नाव के दोन ओर बहे जा रहे थे।
य - य नाव काश के समीप आने लगी, राजन के िदल क धड़कन तेज होने लगी। जब दरू
आकाश म उसने आितशबाजी फटते देखी तो उसका िदल फटने लगा। वह आहत सा उन िबखरते
हए रं गीन सतार को देखने लगा, जो हरीश क शादी का संदेश ‘वादी’ क ऊँची चोिटय को सुना
रहे थे।
अचानक नाव एक लकड़ी के तने से टकराई और उलट गई, राजन ने उछलकर तने को पकड़
लया और तैरकर जल से बाहर आने का य न करने लगा। थोड़े ही यास के बाद वह तने पर जा
बैठा, जो जल म सीधा पड़ा था। राजन ने देखा िक वह तना एक िकनारे के पेड़ का था, जो तूफान के
जोर से िगरकर जल क लहर म नान कर रहा था। राजन ने साहस से काम लया। धीरे -धीरे उस
पर चलकर िकनारे पर पहचँ गया।
उसने भीगे व िनचोड़े और वादी क ओर चल िदया। रा ता अभी तक बफ से ढँका हआ था।
जब वह मंिदर के पास पहच
ँ ा तो वहाँ कोई भी न था। मंिदर के िकवाड़ बंद थे। काश केवल झरोख
से बाहर आ रहा था। राजन ने एक बार हरीश के घर को देखा, जो काश से जगमगा रहा था, िफर
अपने घर क ओर चल िदया।
घर का ार खोला तो माँ राजन को देख च क उठी। उसके िवचार को भाँप गई। िफर टू टे श द
म बोली-
‘राजी-तू... आ... गया... यह... कपड़े?’
‘माँ मेरे कपड़े िनकालो, मुझे पावती क शादी म जाना है। यह तो भीग गए ह।’
‘अभी तो आया है, िव ाम तो कर, अपनी जान...।’
‘नह माँ, मुझे जाना है। तू या जाने म िकस तूफान का सामना करता आया यहाँ पहच
ँ ा ह।ँ ’
‘वह तो म देख रही ह,ँ जरा आग के पास आ जा, म तेरे कपड़े लाती ह,ँ अभी तो शादी म देर
है।’
‘ज दी करो माँ-मुझे एक-एक पल दभर
ू हो रहा है’ यह कहते हए वह जलती अंगीठी के पास
जा खड़ा हआ। माँ भय से काँपती हई दरवाजे से बाहर आ गई और बरामदे म रखे संदक
ू से राजन
के व का एक जोड़ा िनकाले दबे पाँव ार क ओर बढ़ी। वह बार-बार मुड़कर खुले ार को
देखती िक कह राजन बाहर न आ जाए। उसने शी ता से बाहर का ार बंद कर िदया।
कुं डा लगाते ही उसके कान म शहनाई का श द सुनाई पड़ा। उस श द के साथ ही राजन
िच ाया-‘माँ!’
‘आई बेटा!’
उसने आँचल से हाथ बाहर िनकाला और कुं डे म ताला डाल िदया। िफर शी ता से पग बढ़ाती
कमरे म पहचँ ी। राजन अपने थान पर खड़ा उसक ती ा कर रहा था। दोन क आँख िमल , दोन
ही चुपचाप शहनाई क आवाज सुनने लगे, राजन ने कान म उं ग लयाँ देते हए कहा-
‘सुन रही हो माँ! यह आज मेरी मृ यु को पुकार रही है।’
‘पागल कह का! कु छ सोच-समझकर मुँह से श द िनकाला कर, पहले कपडे़ बदल।’
माँ ने मुँह बनाते हए कहा, परं तु साथ ही भय से काँप रही थी। राजन ने व ले लए और
लटकते हए क बल क ओट म बदलने लगा। माँ एक बतन म थोड़ा जल ले आग पर रखने लगी।
‘यह िकस लए’-राजन बाहर आते ही बोला। उसके कान अब तक शहनाई क ओर लगे हए थे।
‘तु हारे लए थोड़ी चाय।’ अभी वह कह भी नह पाई थी िक राजन बाहर िनकल गया। माँ बतन
को वह छोड़ शी ता से राजन के पीछे आँगन म आ गई। राजन को दरवाजे क ओर बढ़ते देख
बोली-
‘राजन!’
आवाज सुनकर वह क गया और घूमकर माँ क ओर देखा।
‘राजन! म जानती हँ तू इतनी रात गए इस तूफान म य आया है। परं तु बेटा तु ह वहाँ नह
जाना चािहए।’
‘भला य ?’
‘इसी म तुम दोन क भलाई है।’
‘भलाई-यह तो िनधन क कमजो रयाँ ह, जनका वह िशकार हो जाता है। नह तो आज िकसी
क िह मत थी, जो मेरे ेम को इस कार पैर तले र द देता?’
‘मनु य क मनु यता इसी म है िक सब कु छ देखते हए िवष का घूटँ पी ले।’
‘िकसी के घर म आग लगी है और तुम कहती हो िक चुपचाप खड़ा देखता रहे?’
‘आग लगी नह -लग चुक है। सब कु छ जलने के प चात् खबर नह तो और या कर सकोगे।’
‘म आग लगाने वाले से बदला लूँगा।’
‘तो तु हारा ेम स चा ेम नह , एक भूख है-जो तु ह िपशाच बनने के लए िववश कर रही है।
स चा ेम आ मा से होता है, इस न वर शरीर से नह ।’
‘मेरी यह जलन, तड़प, बेचन
ै ी और आँसू- या यह सब धोखा है माँ?’
‘हाँ-सब धोखा है। तेरे ेम को िकसी ने नीलाम नह िकया, ब क तू वयं अपने ेम को भरी
सभा म नीलाम करने जा रहा है। यह ेम क नह ब क तेरी मनु यता और उस माँ क नीलामी
होगी, जसक कोख म तूने ज म लया है।’
‘माँ!’ राजन ोध से िच ाया। उसके ने से शोले बरस रहे थे। राजन ने दाँत पीसते हए एक
बार उधर देखा और िफर आकाश क ओर देखने लगा, जहाँ आितशबाजी के रं गीन सतारे टू ट रहे
थे। बेचन
ै ी से बोला-
‘माँ! देख उधर आकाश म िबखरते मेरे िदल के टु कड़ को-देख, म आज नह कूँ गा। श भू ने
भी मुझे रोकना चाहा था, परं तु कु छ न कर सका। भगवान ने राह म कई संकट ला खड़े िकए, परं तु
वे भी मेरा कु छ न कर सके। आज मुझे कोई भी न रोक सकेगा-न िकसी के आँसू और न िकसी क
ममता।’
‘परं तु शायद तू नह जानता िक माँ के आँसुओं म भगवान से अ धक बल है।’
‘तो िफर इस शरीर म भगवान का नह , ब क राजन का िदल है।’
यह कहते ही वह दरवाजे के करीब पहच ँ ा और कुं डे म ताला लगा देख क गया। एक कड़ी
ि माँ पर फक , िफर हथौड़ा लेकर कुं डे पर दे मारा। कुं डा ताला सिहत नीचे आ िगरा। वह िवि
सा एक िवकट हँसी हँसते हए बाहर िनकल गया। माँ खड़ी देखती रह गई।
राजन शी ता से हरीश के घर क ओर बढ़ा जा रहा था। लंबा रा ता छोड़ वह बफ के ढेर के
ऊपर से जाने लगा। उसके कान म माँ क पुकार आ रही थ , जो शायद उसका पीछा कर रही थी
और ‘राजी-राजी’ िच ा रही थी। उसका शरीर काँप रहा था, पाँव लड़खड़ा रहे थे। बफ पर
िफसलते ही वह संभल जाता और पाँव जमाने का य न करता। शहनाइय और आितशबा जय का
शोर बढ़े जा रहा था। जब आितशबाजी आकाश पर फटती तो धमाके के साथ राजन के िदल पर
चोट-सी लगती। ऐसा लगता जैसे उसके िदल पर कोई हथौड़े से वार कर रहा हो।
अचानक उसे माँ क आवाज सुनाई दी और िफर नीरवता छा गई। दो-चार कदम चलकर राजन
के पाँव क गए और उसके कान माँ क आवाज पर लग गए।
‘माँ लौट गई या?’
उसका िदल न माना और वह घूमकर अंधरे े म माँ को खोजने लगा। बफ क सफेदी दर-द ू रू तक
िदखाई दे रही थी, परं तु माँ का कोई िच न था। दो-चार कदम वापस चलकर उसने यानपूवक देखा
तो आने वाली राह पर एक थान पर बफ के बड़े-बड़े टु कड़े िगरकर ढेर सा बना रहे थे। वह भय से
चीख पड़ा और उस ओर लपका।
उसके हाथ तेजी से बफ उठाकर िकनारे पर फक रहे थे। जब बफ हटाकर उसने माँ को बाहर
िनकाला तो उनका शरीर बफ के समान ठ डा हो रहा था। उसने माँ को हाथ से उठा लया और उ ह
कदम से वापस अपने घर लौट आया। आग अब तक जल रही थी। उसने शरीर को गम पहच ँ ाने के
लए माँ को आग के समीप लटा िदया और उसके हाथ अपने हाथ से मलने लगा। उसने एक-दो बार
माँ को पुकारा भी, परं तु वह खामोश थी। जब काफ देर तक शरीर म गम न आई तो वह डरा और
एकटक माँ क आँख म देखने लगा-वे पथरा चुक थ । िफर अपने कान उसके िदल के समीप ले
गया और ‘माँ-माँ’ पुकार उठा।
माँ तो सदा के लए जा चुक थी, उसक साँस सदा के लए बंद हो चुक थी। कमरे क दीवार
से टकराकर यह श द गूजँ रहे थे।
‘तु हारा ेम एक धोखा है, एक भूख है, जो तु ह जानवर बनने को िववश कर रहा है। लगन
आ मा से होती है, इस न वर शरीर से नह ।’
वह माँ के मृत शरीर से लपटकर रोने लगा।

**

जब राि के अं धयारे म वह बफ के सफेद फश पर अपनी माँ क िचता लगा रहा था-तब सारी
‘वादी’ रं गर लय म म थी। बारात के बाजे बज रहे थे और नीले आकाश पर उसके िदल के टु कड़े
रं गीन सतार के प म िबखर रहे थे। उसक आँख से आँसुओं क धारा बह रही थी। आज भी
उसके हर संकट म दःु ख बटाने वाला कुं दन उसका हाथ बटा रहा था। वह कभी राजन को और कभी
उस जगमगाते घर क ओर देखता-जहाँ पावती क शादी हो रही थी।
दसरी
ू साँझ जब हरीश के घर के सामने पावती क डोली क तो मजदरू का एक ज था
नाचता-गाता पीछे आ रहा था। माधो थैली से पैसे िनकाल उस समूह पर यौछावर करता और जब
वह उन पैस को उठाने दौड़ते तो वह फूला न समाता। स भी य न होता-सफलता का सेहरा भी
उसी के सर पर था।
डोली का पदा उठा तो पावती बाहर आई। कु छ याँ, जो शायद हरीश के घर से आई हई थ ,
द ु हन के समीप आ गई ं और उसे अंदर क ओर ले जाने लग । माधो ने थै लय से कु छ पैसे िनकाले-
कहार क ओर हाथ बढ़ाया तो च क उठा-उसके मुँह से िनकला-‘राजन’ और हाथ वापस लौटा
लए। डोली के सारे कहार म राजन भी एक था, जसके मुख पर उदासी के बादल छाए हए थे।
राजन का नाम सुनते ही हरीश मुड़ा-जाती हई द ु हन के कदम भी पल भर के लए क गए। सबके
मुख पर हवाइयाँ सी उड़ने लग । हरीश संभलते हए बोला-‘आओ राजन! तुम कब आये?’
‘मैनज
े र साहब-आप चाहे मुझे अपनी शादी म न बुलाते, परं तु पावती क शादी म मुझे आना ही
था-डोली म कंधा कौन देता।’
‘हाँ, य नह तु हारा अपना घर है, जब जी चाहे आओ ना। इस ब ती म और है ही कौन,
जससे दो घड़ी बैठ अपना मन बहलाओगे।’
‘इसी लए तो काम अधूरा छोड़कर चला गया। कह काका यह न कह िक पावती का अपना भाई
नह , डोली उठाने राजन भी न आया।’
भाई का नाम सुनते ही हरीश घबराकर माधो क ओर देखने लगा। माधो ल जत-सा हो दसरीू
ओर देखता हआ बाक कहार को एक ओर ले जा पैसे देने लगा। य ही द ु हन के पाँव अंदर क
ओर बढ़े-हरीश राजन से बोला-‘भैया अंदर चलो।’
िफर दोन चुपचाप द ु हन के पीछे जाने लगे। नई द ु हन को ऊपर वाले कमरे म ले जाया गया
और हरीश राजन को साथ ले नीचे गोल कमरे म जा बैठा। उसने एक नौकर से राजन के लए खाना
लाने को कहा, परं तु राजन ने इंकार कर िदया।
‘ य राजन, मुँह भी मीठा नह करोगे?’
‘आप तो मुझे ल जत कर रहे ह मैनज
े र साहब! भला म इस घर का कैसे खा सकता ह?
ँ ’
‘यह तो पुराने िवचार ह, आज के जमाने म अब इन बात का कोई अथ नह रह गया है।’
‘पुराने िवचार पर िव वास तो मुझे भी न था, परं तु अब तो अपने आप पर भी न रहा।’
‘राजन, संसार म मनु य कई बा जयाँ हारकर ही जीतता है।’
‘मन को बहलाना है मैनज
े र साहब-िकसी तरह बहलाया जाए-वरना िकसक हार और िकसक
जीत।’
इतने म माधो भी आ पहच ँ ा और एक तीखी ि राजन पर डालते हए हरीश के पास जा बैठा।
राजन थोड़ी देर चुप रहने के बाद उठा और हरीश से जाने क आ ा माँगी, परं तु वह रोकते हए
बोला-‘ या पावती से नह िमलोगे?’
राजन ने कोई उ र न िदया... परं तु उसक आँख म िछपे आँसुओं से हरीश भाँप गया और
सीिढ़य पर खड़ी एक ी को संकेत िकया। राजन आ चयपूवक हरीश को देखने लगा और िफर
धीरे -धीरे पग उठाता ऊपर क ओर जाने लगा।
जब उसने द ु हन के सुस जत कमरे म वेश िकया तो सामने सुंदर कपड़ म पावती को देख
उसक आँख म िछपे मोती छलक पड़े, ज ह वह पी गया और चुपचाप पावती को देखने लगा, जो
लाज से अपना मुख घूघ ँ ट म िछपाए दसरी
ू ओर िकए बैठी थी। वह अपने िवचार म आज इतनी डू बी
बैठी थी िक उसे िकसी के आने क आहट सुनाई न दी।
राजन ने धीरे से झझकते हए पुकारा-‘पावती!’
पावती काँप-सी गई और मुँह पर घूघँ ट क ओट से राजन को एक ितरछी नजर से देखा। उसे
अकेला देख उसने घूघ
ँ ट चेहरे से हटाया और चुपचाप उसे देखने लगी। पावती द ु हन के प म
पूिणमा के च मा के समान लग रही थी। उसक भोली और उदासी से भरी सूरत को देख राजन का
िदल डू ब
गया... िफर संभलते हए बोला-
‘पावती तु ह देखने चला आया... कु छ देर से पहच
ँ ा।’
‘देर से... कब आए?’ वह धीरे से बोली।
‘कल रात।’
‘रात को... िकसी ने कहा तो नह ।’
‘रात पहच
ँ ा तो सही... परं तु तु हारे यहाँ न पहच
ँ सका।’
‘बाबा तो थे ही नह ... िफर तु ह भी न देखा... जानते हो सारी रात फूल के िबछौने मेरे
आँसुओं ने सजाए।’
‘बजती शहनाइयाँ तो मने भी सुन और आकाश पर फटते रं गीन सतारे देख म तो स ता से
पागल हआ जा रहा था... पर यह सब मने दरू से
देखा... मुझे भी तो िकसी क िचता जलानी थी।’
‘राजन!’ पावती के िदल म एक हक-सी उठी।
‘हाँ... पावती! माँ क िचता! वह मुझे छोड़कर सदा के लए इस संसार से चली गई है।’
‘यह सब कैसे हआ?’
‘कई बार सोचा... एक बार तु ह देख लूँ... परं तु भा य को वीकार न था।’
‘म उनसे िमली थी राजन।’
‘कब?’
‘ जस साँझ उ ह ने तु हारी आरती उतारी थी।’
‘पावती! रात को जब म जलती िचता के िकनारे खड़ा आकाश पर जलते सतारे देख रहा था
तो मुझे वही महा मा िदखाई पड़े... जो कहते थे... तु हारे ेम म सवाय ‘जलन’ और ‘तड़प’ के
कु छ नह और म मु करा िदया था।’
‘राजन! अब इन सब बात को भूलना होगा।’
‘इसी लए तो आज म तुमसे कु छ माँगने आया ह।ँ ’
‘ या?’
‘तु हारी इन आँख म मान और नेह- जसम ेम क झलक हो... जलते हए अंगार को अब
केवल जल क आव यकता है।’
‘तु ह भी एक वचन देना होगा।’
‘कहो।’
‘आज से इन आँख म आँसुओं के थान पर मु कु राहट िदखाई दे।’
अभी वह बात पूरी कर भी न पाई थी िक हरीश ने अंदर वेश िकया... पावती ने झट से घूघ
ँ ट
ओढ़ अपना मुँह घूघँ ट म िछपा लया... हरीश मु कराते हए बोला-‘कहो राजन... या बात चल रही
है? तु ह घर पसंद आया िक नह ?’
‘देवता का गृह तो वग होता है... वग भी िकसी को पसंद न हो? हाँ मैनज
े र साहब... आपको
इस वग म एक बात का यान रखना होगा।’
‘ या?’
‘पावती उदास न होने पाए।’
यह श द राजन के मुँह से इस भोलेपन से िनकले िक हरीश अपनी हँसी रोक न सका... राजन
हाथ बाँधता बाहर को जाने लगा।
जाते-जाते बोला-‘मैनज
े र साहब... हम अछू त सही... परं तु नीच नह ... िनधन अव य ह...
परं तु िदल इतना तंग नह रखते... जहाँ तूफान क तरह जूझना जानते ह... वहाँ झरन क तरह बह
भी पड़ते ह, िफर भी मनु य ह और मनु य से गलती होना संभव है।’
दोन बाहर चले गए... पावती ने िछपी-िछपी आँख से उस दरवाजे को
देखा... जहाँ थोड़ी देर पहले राजन खड़ा उससे बात कर रहा था।
कंचन सामने खड़ी भाभी को देख मु करा रही थी। वह हरीश क छोटी बहन थी।
‘आओ कंचन!’ पावती ने यार से उसे अपने पास बुलाया।
‘मने सोचा सब अ छी कार से देख ल तो म भाभी के पास जाऊँ।’
‘तो इस लए इतनी देर से वह बैठी हो।’
‘हाँ भाभी... म तो आनंदपूवक सबक बात सुन रही थी और सोच रही थ , कु छ नह ।’
‘ या सोच रही थी-अपनी भाभी से भी न कहोगी?’
‘म सोच रही थी भाभी! कल जब मेरी शादी होगी तो या मेरी ससुराल वाले भी यूँ ही शंसा
करगे?’
‘ य नह ... और जरा मौका आने दो-तु हारे भैया से कह तु हारी शादी शी ही करवा दँगू ी।’
‘भाभी, अभी से भैया का रौब देने लगी हो।’ और वह खल खलाकर हँस पड़ी। पावती लजा-सी
गई। कंचन उसका मुँह ऊपर उठाती हई बोली-‘हाँ भाभी अब भैया पर तु हारा ही अ धकार है-हम तो
सब सेवक ह-कहो या आ ा है?’
इतने म मौसी क भारी-सी आवाज ने कंचन को पुकारा। वह जाने को उठी-पावती ने उसका
हाथ पकड़ लया और बोली-‘हमारी आ ा न सुनोगी?’
‘कहो भाभी।’
‘तुम मत जाओ-आज हम दोन इक ी सोएंगी।’
‘ य ?’
‘अकेले म भय लगता है।’
‘इस अंधरे ी रात से या भइया से।’
िफर वह मुँह म उं ग लयाँ दबा के शरारत भरी हँसी हँसने लगी। पावती लजा सी गई-मौसी क
पुकार िफर सुनाई दी और कंचन भागती नीचे उतर गई।
सीिढ़य पर िकसी के पैर क आहट हई-पावती ने अपने आपको समेटकर घूघ
ँ ट से िछपा लया।
हर वर पर उसका िदल काँप उठता था। य - य पैर क आहट समीप होती गई, वह अपने शरीर
को सकोड़ती गई। अचानक छत क ब ी बुझ गई, उसके साथ ही कोने क मेज़ पर रखा ‘लै प’
कािशत हो गया। पावती क जान-म-जान आई और म त क पर क पसीने क बूँद बह पड़ ।
‘शायद तुम डर गई?
ं ’ हरीश का वर था।
थोड़ी देर कने के बाद वह बोला-
‘सोचा सामने क ब ी जला दँ,ू कह घूघ
ँ ट म अंधरे ा न हो।’
वह िफर भी चुपचाप रही-हरीश समीप आकर बोला-
‘ या हमसे ठ गई हो?’ और धीरे से पावती का घूघ
ँ ट उठा िदया।
‘जानती हो द ु हन जब नये घर म वेश करे तो उसका नया जीवन आरं भ होता है और उसे
देवता क हर बात माननी होती है।’
‘परं तु म आज अपने देवता के िबना पूछे ही िकसी को कु छ दे बैठी।’
‘िकसे?’
‘राजन को।’ वह काँपते वर म बोली।
‘ या?’
‘ नेह और मान जो सदा के लए मेरी आँख म होगा।’
‘तो तुमने ठीक िकया-मनु य वही है जो डू बते को सहारा दे।’
‘तो समझूँ, आपको मुझ पर पूरा िव वास है।’
‘िव वास! पावती मन ही तो है, इसे िकसी ओर न ले जाना, तुम ही नह , ब क आज मेरे िदल
म भी राजन के लए नेह और मान है। कभी सोचता हँ िक म उसे िकतना गलत समझता था।’
‘परं तु जलन म वह आनंद का अनुभव करता है-कहता था... सुख और चैन मनु य को िनक मा
बना देता है, ‘जलन’ और ‘तड़प’ मनु य को ऊँचा उठने का अवसर देते ह।’
‘पावती! म भी आज तु ह वचन देता हँ िक उसे उठाना मेरा काम ही नह , ब क मेरा क य
होगा।’
पावती ने नेह भरी ि से हरीश क ओर देखा-हरीश के मुख पर अजीब आभा थी। उसे लगा
िक िनिवड़ अंधकार म काश क रे खा फूट पड़ी थी।
आठ
राजन शी ता से सीिढ़याँ चढ़ता ऊपर वाले कमरे म जा पहच
ँ ा। भीतर जाते ही तुरंत ही क
गया-पावती सामने खड़ी मेज पर चाय के बतन सजा रही थी। राजन को देखते ही मु कु राई ं और
बोली-
‘आओ राजन!’
‘मैनज
े र साहब कहाँ ह?’ राजन ने पसीना प छते हए पूछा।
‘आओ बैठो हम भी तो ह, जब भी देखो मैनज
े र साहब को ही पूछा जाता है।’
‘परं तु...।’
‘वह भी यहाँ ह, या बहत ज दी है?’
‘जी वा तव म बात यह है िक’ वह कहते-कहते चुप हो गया।
अभी वह जी भर देख न पाया था िक साथ वाले दरवाजे से हरीश ने अंदर वेश िकया। राजन
कु स छोड़ उठ खड़ा हआ।
‘कहो राजन, सब कु शल है न?’
‘जी, परं तु वह जो कलुआ क बह है न।’
उसी समय पावती सामने दरवाजे से टे उठाए भीतर आई।
‘तो या हआ कलुआ क बह को!’
‘ब चा’, और यह कहते-कहते उसने शरमाते हए आँख नीचे झुका ल ।
‘ब चा? वह तो अभी चार न बर म कमा रही थी।’
‘जी-काम करते-करते।’
‘तो इस लए बार-बार तुम शरमा रहे थे। मने सोचा न जाने या बात है?’ पावती ने हाथ बढ़ाया
और चाय का याला हरीश के समीप ले गई। हरीश बोला, ‘पहले राजन।’
‘उसका तो यह अ धक खांड वाला है।’ और मु कु राते हए दसरा
ू याला राजन क ओर बढ़ाया-
राजन िहचिकचाया।
‘केवल सादी चाय, तु ह भाती है-िफर तु ह अभी बहत काम करना है-कलुआ क बह को
अ पताल भी पहच
ँ ाना है।’
सब हँस पड़े-राजन ने काँपते हाथ से याला पकड़ लया और ज दी-ज दी चाय पीने लगा।

**
आज उसे नए घर म आए तीन मास हो चुके थे-इस बीच म वह िकतनी ही पहे लयाँ, चुटकु ले
और पु तक अपने पित से सुन चुक थी। कु छ यहाँ क और कु छ पहाड़ के दसरी
ू ओर बसी हई
दिु नया क ।
यह सोच पावती के होठ पर मु कान िफर नाच उठी।
अचानक वह दरवाजे पर माधो को खड़ा देख काँप गई और झट से ओढ़नी सर पर सरकाई, वह
यह जान भी नह पाई िक माधो कब से खड़ा उसे देख रहा था।
‘कु शल तो है पावती!’ वह एक अनोखी आवाज म बोला।
‘माधो काका, आओ, जरा आराम करने को बैठी थी।’
‘जरा मैनज
े र साहब से िमलना था।’
‘वह तो अभी कंपनी गए ह। राजन आया था, कलुआ क बह क तिबयत खराब हो गई थी।’
‘राजन ने मुझे कह िदया होता-उ ह य बेकार म क िदया।’
‘तो या हआ-उनका भी तो कु छ क य है।’
‘पावती बुरा न मानो तो एक बात कह।ँ ’
‘ या बात है?’ पावती सतक हो गई।
‘राजन का इस घर म अ धक आना ठीक नह -िफरनीच जाित का भी है।’
‘काका!’ वह िच ाई और ोध म बोली-‘काका जो कहना है उसे पहले सोच लया करो।’
‘मने तो सोच-समझकर ही कहा है और कु छ अपना क य समझकर- या क ँ , िदन-रात लोग
क बात सुन-सुनकर पागल हआ जाता ह।ँ कहने क हद होती है-तु ह भी न कहँ तो िकसे कह।ँ ’
‘मैनज
े र साहब से, उनके होते हए मुझे िकसी क मदद क आव यकता नह ।’
‘उनक मयादा भी तो तुम ही हो। जब लोग तु हारी चचा कर तो उनका मान कैसा? लोग तो
यहाँ तक कहते ह िक मैनज
े र साहब दहेज म अपनी प नी के िदल बहलावे को भी साथ लाए ह। और
तो और, यहाँ तक भी कहते सुना है िक तुम अपने पित क आँख म धूल झ क रही हो।’
‘काका!’ पावती िच ाई।
पावती कु छ देर मौन रही, िफर माधो के समीप होते हए बोली-
‘तो काका, सब लोग यही चचा कर रहे ह?’
‘मुझ पर िव वास न हो तो केशव दादा से पूछ लो, और िफर राजन का तुमसे नाता या है?’
‘मनु यता का।’
‘परं तु समाज नह मानता और िकसी के मन म या िछपा है, या जाने?’
‘मुझसे अ धक उनके बारे म कोई या जानेगा?’
‘परं तु धोखा वही लोग खाते ह, जो आव यकता से अ धक िव वास रखते ह।’ यह कहते हए
माधो चल िदया।
वह इ ह िवचार म डू बी साँझ तक यूँ ही बैठी रही। उधर हरीश लौटा तो उसे यूँ उदास देख
असमंजस म पड़ गया, पूछने पर पावती ने अकेलेपन का बहाना बता बात टाल दी और मु कराते हए
हरीश को कोट उतारने म सहायता देने लगी।
‘तो कलुआ क घरवाली क गोद भरी है!’ वह जीभ होठ म दबाते हए बोली।
‘हाँ, पु हआ है और आ चय है िक ऐसी दशा म भी काम पर जाती है।’
‘तो आप उसे आने य देते ह?’
‘हम तो नह , ब क उसका पेट उसे ले आता है।’
‘कह तिबयत िबगड़...।’
‘िबलकु ल नह -वह तो यूँ लगती है जैसे कु छ हआ ही नह ।’
‘तो अभी तक आप अ पताल म थे?’
‘नह तो, वहाँ से म और राजन दरू पहाड़ क ओर चले गए थे।’
‘पहाड़ म? यह शौक कब से हआ?’
‘पावती वा तव म हम िकसी खोज म ह। इन पहाड़ म कह -न-कह तेल है। इसका पता िमल
जाए तो मान जीवन ही सफल हो जाए और सच पूछो तो इसम अ धक हाथ राजन का है।’
‘वह या जाने इन बात को?’
‘मेरे साथ रहते भी तो उसे आज तीन मास हो गए ह। प थर क पहचान तो उसे ऐसी हो गई है
िक घंट पहाड़ म खोज करता रहता है, और हाँ, कल दोपहर वह मुझे ऐसे थान पर ले जा रहा है,
जहाँ प थर शायद हमारा भा य खोल द।’
‘कौन-सा थान है वह?’
‘उस थान का तो मुझे अभी तक पता नह । राजन ने ही देखा है। वही कल मुझे ले जा रहा है।’
‘तो हमारे जाने के प चात् यहाँ कोई भूत आते ह।’
‘हाँ तो’ और पावती हरीश के पास सरक गई।
‘तो अब कौन आया था?’
‘माधो काका।’
माधो का नाम सुन हरीश हँस पड़ा और बोला-‘वह भी तो िकसी भूत से कम नह - या कहता
था?’
‘आपको पूछ रहा था, शायद कोई काम हो।’
हरीश ने अपना बायाँ हाथ पावती क कमर म डाला और दाय हाथ से उसक ठोड़ी अपनी ओर
करते हए बोला-
‘वह तो होते ही रहते ह-छोड़ो इन बात को।’ िफर दोन बाहर आ जंगले पर खड़े हो गए।
मंिदर म पूजा के घंटे बजने लगे। पावती के िदल म भी उथल-पुथल मची हई थी। जब हरीश क
आवाज उसने सुनी तो च क उठी।
‘तु ह तो बीते िदन क याद आ रही होगी?’
‘जी’-उसने कु छ मदहोशी म उ र िदया।
‘तुम भी तो कभी हर साँझ देवता क पूजा को जाती थी।’
‘वह तो मेरा एक िनयम था।’
‘तो उसे तोड़ा य ?’
‘आपसे िकसने कहा-म तो अब भी पूजा करती ह।ँ ’
‘कब?’
‘हर समय, हर घड़ी-मेरे देवता तो मेरे सामने खड़े ह।’
‘तो तुम मेरी पूजा करती हो-न फूल, न जोत, न घंिटयाँ।’
‘जब िदल िकसी क पूजा कर रहा हो तो ये फूल, यह जोत, यह घंिटयाँ सब बेकार ह।’
‘पावती आज म वािपस आ रहा था तो राजन के हाथ म एक बड़ा सुंदर फूल देखा-तु हारे लए
लाने को मन चाहा।’
‘लाल रं ग का गुलाब होगा।’
‘तुमने कैसे जाना?’
‘उसे यह फूल बहत अ छा लगता है।’
‘परं तु जब मने उससे माँगा तो उसने अपने हाथ से मसल डाला।’
‘वह य ?’
‘कहने लगा यह फूल सुंदर है-इसम सुगध
ं नह ।’
हरीश ने देखा िक पावती सुनते ही उदास-सी हो गई है और िक ह गहरे िवचार म डू ब गई है।
उसने अपनी बांह का सहारा िदया और बोला-
‘चलो पावती, साँझ हो गई, घर म अंधरे ा है।’

**

दसरे
ू िदन हरीश जब द तर गया तो न जाने य पावती का िदल भय से धड़कने लगा। आज
ातःकाल से ही उसका िदल बैठा जा रहा था। उसे लगता था जैसे कोई बहत बड़ी दघु टना होने वाली
हो। वह माधो से, काका से और सब ब ती वाल से डरने-सी लगी। आज तो वह राजन से भयभीत
हो रही थी।
परं तु राजन इन तूफान और संदेह भरी दिु नया से दरू मु कराता हआ हरीश के साथ-साथ पहाड़ी
पगडंिडय पर जा रहा था। आज दोन अ यंत स थे-मानो उ ह अपनी मं जल िमल गई हो। वह इसी
धुन म मु कराते बढ़े जा रहे थे।
जब वह पहाड़ी के दसरी
ू ओर पहच ँ े तो र से के पुल के समीप जा के। राजन ने दसरी
ू ओर
वाली पहाड़ी क ओर हाथ से संकेत िकया, जहाँ वे प थर िमले थे।
राजन मु कराता हआ पुल को पार कर दसरी ू ओर जा का और हरीश को देखने लगा। हरीश
र से का सहारा लए धीरे -धीरे पुल से जा रहा था। अचानक हरीश का पाँव िफसला और दसरे
ू ही
ण वह नीचे जा िगरा। राजन घबरा गया और िकंक यिवमूढ़ खड़ा नीचे देखने लगा।
‘यह या?’
अभी तक उसके कान म हरीश क वह भयानक चीख गूज ँ रही थी, जो िगरते समय मुँह से
िनकली थी। वह िच ाया और शी ता से नीचे उतर गया। हरीश का सर फट चुका था। काले प थर
र से लाल हो रहे थे। शरीर इस बुरी दशा म घायल हो चुका था िक प थर का िदल भी देखकर
िववण हो गया।

**

राजन एक पुतले क भांित चुपचाप ‘वादी’ क ओर बढ़ा जा रहा था, मानो कोई जीिवत लाश
जा रही हो। उसके म त क म लाख हथौडे़ एक साथ चोट लगा रहे थे। उसके व लह से लथपथ हो
रहे थे। आकाश पर उड़ी चील चार ओर मंडराती-सी िदखाई दे रही थ ।
पावती ने जब आकाश पर चील के झु ड को मंडराते देखा तो भय से काँपने लगी और भागकर
जंगले के पास जा खड़ी हई। सामने चौबेजी के आँगन म माधो उनसे बात कर रहा था-समीप ही
केशव बैठा था। पावती को देखते ही बाहर आ गया और नीचे से ही बोला, ‘तु ह ही देखने आ रहा
था।’
‘अ छा हआ तुम आ गए। अकेले म न जाने य आज कु छ भयभीत-सी होने लगी ह।ँ ’
‘शायद आकाश पर का लमा छाने से कह आँधी का जोर है।’
‘न जाने आज इतनी चील आकाश म य मंडरा रही ह।’
‘कह कोई जानवर मर गया होगा...।’ अभी वह कह भी न पाया था िक कंपनी क ओर से
शोर-सा सुनाई िदया। चौबे और माधो भी आ गए और सब उस ओर देखने लगे।
शोर बढ़ता जा रहा था।
ज था समीप आ गया। वह ज था मजदरू का था, जो राजन के पीछे -पीछे चला आ रहा था।
उनके शोर म एक भयानक तूफान था, जो सारी ‘वादी’ म छा रहा था। सबने राजन को आ चय-भरी
ि से देखा और सब कु छ समझ गए, परं तु यह कोई न पूछ सका िक यह कैसे हआ! सबने पथराई
ि से उस शव को देखा, जसे राजन ने मकान से बाहर वाले सीमट के चबूतरे पर रख िदया था।
पावती का साँस कने लगी, शरीर ठं डा हो गया। उसने अपने पित के शव को देखा और िच ा
उठी। िफर तुरंत ही पित के मृत शरीर से लपट गई। केशव और चौबेजी अभी तक अच भे म पड़े
थे, परं तु माधो ोध व घृणा-भरी ि से राजन क ओर बढ़ा।
माधो सामने एक दीवार क ओर आ खड़ा हआ। राजन ने य -ही अपना मुख ऊपर िकया, माधो
ने जोर से एक थ पड़ उसके मुँह पर दे मारा। अभी वह संभल भी न पाया था िक माधो ने दो-चार
थ पड़ जमा िदए और साथ ही मु क और ध क क बौछार आरं भ कर दी। राजन बेबस लड़खड़ाता
हआ धरती पर जा िगरा। ज थे से िकसी क आवाज ने माधो के हाथ रोक िदए। सब लोग क ि
उसक ओर गई। यह कुं दन था जो दाँत पीसता हआ ोध म माधो क ओर देख रहा था और कह रहा
था।
‘मनु यता का दावा करने वाल इस ‘गरीब’ से इतना तो पूछा होता िक यह सब कैसे हआ?
कोयले क खान म काम करते-करते शायद तुम सब लोग के िदल भी प थर और काले हो गए ह,
जनम र के थान पर का लख बसने लगी है।’
पल-भर के लए नीरवता छा गई। कोई भी मुँह नह खोल सका-जैसे सब उसके कहे पर अमल
कर रहे ह । घर पहच
ँ ते ही कुं दन ने राजन को िब तर पर लटा िदया। िफर गम अंगीठी से कपड़ा गम
कर उसके ज म को सकने लगा-राजन क आँख म आँसू भर आए, वह बोला-
‘कुं दन शायद यह भी मेरे ेम क कोई परी ा है।’
‘तुम तो पागल हो गए हो। मेरी मानो तो यहाँ से कह दरू चले जाओ। जो जीवन बचा है, उसे यूँ
य समा िकए देते हो।’
‘कुं दन तू समझता है म शायद इन पहाड़ी बटेर से डर गया हँ और यह मुझे चैन से न जीने दगे-
परं तु मुझे िकसी का भी डर नह । यह लोग मुझे चाहे जतना बुरा य न समझ, परं तु पावती तो मुझे
कभी गलत न समझेगी।’
‘राजन तुम भूल कर रहे हो-बुरा समय पड़ने पर छाया भी तो साथ नह देती।’
‘कुं दन, अभी तूने इस िदल को परखा नह । तू या जाने जब माधो मुझ पर बरस रहा था तो
पावती के िदल पर या बीत रही थी, परं तु बेचारी समाज के ठे केदार के स मुख कु छ बोल न
सक ।’
‘राजन अब तुम इस संसार को छोड़ दसरे ू संसार म जा पहचँ े हो, जसे पागल क दिु नया कहते
ह, परं तु पागल होने से पहले थोड़ा िव ाम कर लो तो अ छा ही होगा।’
यह कहते हए उसने राजन पर क बल ओढ़ा िदया और बाहर जाने लगा। राजन उसे देखकर
मु कराया और बोला-
‘कुं दन यिद म पागल हँ तो भी बुरा नह ।’
कुं दन ने दरवाजे के दोन िकवाड़ बंद करने को ख चे और बाहर जाने से पहले बोला-
‘भाई! म तो केवल इतना ही जानता हँ िक धरती पर रहने वाला जब पि य को देख आकाश
पर उड़ने का य न करता है तो लड़खड़ाकर ऐसा िगरता है िक उसका रहना भी दभर
ू हो जाता है।’
उसके जाने के बाद राजन देर तक बंद दरवाजे को देखता रहा। उसके सामने बार-बार एक
सूरत आती, जसके चेहरे पर यह न लखा था िक अब उसका या होगा? िफर वह सोचने लगता
िक कह वह भी तो मुझे गलत नह समझती, िफर वह पागल-सा हो उठता।
आ खर वह दोपहर को उठा और धीरे -धीरे मकान से बाहर आ हरीश के घर क ओर जाने
लगा। ‘वादी’ म सवाय ब च के कोई िदखाई नह देता था। सब अपने-अपने काम पर गए हए थे।
जब वह पावती के घर पहच ँ ा तो घर म वह अकेली थी। उसे देखते ही वह झट से अंदर चली
गई। जब वह सीिढ़याँ चढ़ दरवाजे के समीप पहच ँ ा तो पावती ने अंदर से दरवाजा बंद कर लया और
बेचन
ै हो दरवाजे का सहारा ले खड़ी हो गई।
राजन बंद दरवाजे के समीप जाकर धीरे -से बोला-
‘पावती! सबके सामने मने आना ठीक न समझा, दघु टना पर मुझको बहत दःु ख है।’
पावती चुप रही। राजन दबी आवाज म िफर बोला-
‘शायद तुम मुझसे नाराज हो-िकसी ने मौका भी तो नह िदया िक सब कु छ तुमसे कह सकूँ ।’
‘मुझे कु छ नह सुनना। तुम यहाँ से चले जाओ।’
यह श द राजन के िदल म काँट क तरह चुभ।े उसे लगा जैसे िकसी ने उसके माथे पर हथौड़ा
मारा हो। वह िफर बोला, ‘पावती! तुम भी तो कह दसर
ू क बात म नह आ गई।ं ’
दरवाजा खोल पावती आँख म आँसू लए खामोश-सी राजन को देखने लगी। ‘अब या रखा है
यहाँ।’ वह टू टे हए श द म बोली-‘तु हारी अि अभी बुझी नह , परं तु यहाँ तो सब राख हो चुका
है।’
‘यह तुम या कह रही हो पावती?’
‘तु ह यिद अपने ेम पर इतना नाज था तो शादी क रात डोली को कंधा देने क बजाय मेरा
गला घ ट िदया होता, िकसी दसरे
ू के घर तो आग न लगती।’ वह रोते हए बोली।
‘तो तु ह िव वास हो गया िक मेरा ेम केवल एक धोखा था।’
‘अब इन बात को कु रे दने से या लाभ? अब मुझे अ धक न सताओ, मुझे िकसी से कोई लगन
नह -यहाँ से चले जाओ।’
राजन पर मानो िबजली-सी िगर पड़ी। उसने दरवाजे को जोर से ध का िदया, दरवाजा खुल
गया। पावती च ककर एक ओर देखने लगी-राजन उसक ओर बढ़ा। पावती ने काँपते हए कदम पीछे
हटाए।
‘जानती हो संसार म सबसे बड़ा धोखा िव वास है, जसका दसरा
ू नाम है औरत।’
‘परं तु यह... तुम मुझे इस कार य देख रहे हो?’
‘औरत को पढ़ने का यतन कर रहा ह।ँ तुम संसार को धोखा दे सकती हो, पित को धोखे म रख
सकती हो, परं तु उस िदल को नह , जसने सदा तु ह चाहा है।’ ‘यह तुम-यह तुम...।’
‘इस िदल क कह रहा हँ जसके तार तु हारे िदल के तार से जुड़े ह-और कोई भी तोड़ नह
सकता।’ पावती भयभीत हो पीछे हटने लगी, परं तु राजन लपक कर बोला, ‘इन आँख से बनावटी
आँसू प छ डालो, यह तु हारे नह इस समाज के आँसू ह। आओ इस समाज से कह दरू भाग चल।’
‘राजन! होश म तो हो।’ वह संभालते हए बोली। परं तु उसके श द म भय काँप रहा था।
‘हाँ-डरो नह । स चे ेमी समाज से दरू ही रह सकते ह।’
‘ ेम-कैसा ेम, मुझे िकसी से कोई ेम नह ।’
‘यह तु हारा िदल नह बोल रहा है, तु हारे िदल क धड़कन अब भी मेरा नाम ले रही है। देखो
तु हारी आँख म मेरी ही त वीर है।’
यह कहते ही वह आगे बढ़ा और उसका हाथ ख चा-पावती ने झटके से अपना हाथ छु ड़ाया और
बोली-
‘शायद तुम पागल हो गए हो, इतना तो सोचो िक म तु हारे मा लक क अमानत ह।ँ एक िवधवा
ह।ँ ’
‘तु ह यह बात शोभा नह देत -यह सब अंधिव वास क बात ह, िदल क दिु नया इसे नह
मानती।’
पावती भय के मारे दीवार से जा लगी।
राजन िफर उसक ओर लपका। पावती ोध से िच ाई-
‘राजन मा लक से नह तो भगवान से डरो। यिद भगवान का भी कोई भय नह तो उस मासूम से
डरो- जसक म माँ बनने वाली ह,ँ आ खर तु हारी भी तो कोई माँ थी।’ माँ का नाम सुनते ही राजन
खड़ा हो गया। उसने अपनी ि धरती म गड़ा दी। पावती अपने को संभालते हए एक कोने म चली
गई।
राजन अब पावती क ओर न देख सका। उसे अब उससे भय-सा लगने लगा। वह चुपचाप धीरे -
धीरे पग उठाता हआ सीिढ़याँ उतरने लगा। अंितम सीढ़ी पर ककर एक बार मन-ही-मन पावती को
णाम िकया और दबी आवाज़ म बोला-
‘ध य हो देवी! मा करो! तु ह म समझ न सका।’
राजन जब बाहर िनकला तो ब च क एक भीड़ उसक ती ा कर रही थी। उसे इस हालत म
देख सब हँसने लगे।
घर पहच
ँ कर उसने कु छ आव यक व तुएँ एक बैग म डाल -वह वहाँ से कह दरू चला जाएगा।
वह आज परा जत हआ था और एक िनल ज क भांित वहाँ नह रहना चाहता था। अब उसके ेम म
कलंक का ध बा पड़ चुका था। उसने बैग उठाया और अंितम बार घर क ओर देखा, िफर तुरंत
बाहर िनकल आया। आज वह सारी वादी से भयभीत था। उसने देखा दरू तक कोई न था। वह
‘सीतलपुर’ जाने वाले रा ते पर हो लया।
य -ही वह मंिदर क सीिढ़य के पास से िनकला, उसके पाँव वह क गए। न जाने या
सोचकर उसने अपना बैग सीिढ़य पर रख िदया और धीरे -धीरे मंिदर तक पहच
ँ ा। मंिदर म कोई न
था। शायद केशव भी िकसी काम से ब ती गया हआ था।
राजन आँख म आँसू भरे देवता के स मुख जा खड़ा हआ।
आज जीवन म पहली बार वह मंिदर म रो रहा था और उसका म तक भी पहली बार देवता के
सामने झुका था। अचानक वह च क उठा और शू य ि से देवता क ओर देखने लगा। देवता उसे
हँसते हए िदखाई िदए। इंसान-तो-इंसान भगवान भी आज उसका उपहास कर रहे ह।
वह बेचन
ै हो उठा। उसी समय हॉल म उसे एक गूज
ँ -सी सुनाई दी, शायद यह आकाशवाणी थी।
‘आओ... अब झूठे ेम का आसरा य नह लेते, जस पर तु ह अिभमान या भरोसा था-अब
िगड़िगड़ाने से या होगा?’
उसने चार ओर ि घुमाई, वहाँ कोई न था। केवल हँसी और कहकह का श द सुनाई दे रहा
था।
उसे संसार क हर व तु से घृणा होती जा रही थी। ‘वादी’ का हर प थर एक शाप, िचमनी का
उठा हआ धुआ ं एक तूफान, हर इंसान एक झूठ का पुतला और िकरण जलती हई अि िदखाई देने
लगी... मानो सारी ‘वादी’ एक धधकती हई वाला म वाहा हो रही है। वह इ ह िवचार म डू बा
हआ कुं दन के घर जा पहच ँ ा। कुं दन वहाँ न था। काक िब तर पर पड़ी कराह रही थी। राजन को
देखते ही बोली, ‘जरा भीतर से लहाफ तो उठा लाओ।’
वह चुपचाप अंदर चला गया। कमरे म कोई रोशनदान अथवा खड़क न होने के कारण अंधरे ा
था। वह टटोलता-टटोलता अंदर बढ़ा और हाथ से लहाफ उठाने लगा। अचानक उसने लहाफ छोड़
िदया।
शैतान को इंसािनयत से या? वह भीतर य चला आया-उसे काक से हमदद य ? उसे
िकसी से या वा ता?
वह पागल क भांित सोचता हआ लहाफ छोड़ शी ता से बाहर आने लगा। अंधरे े म िकसी व तु
से राजन के सारे व भीग गए। झुँझलाया हआ बाहर िनकला। यह िम ी का तेल था। काक
घबराहट म उसे देख रही थी िक वह बाहर चला गया।
वह भागता हआ कुं दन के पास जा पहच ँ ा-कुं दन उसे इस दशा म देखकर घबरा गया। राजन का
साँस फूल रहा था। उसने टू टे हए श द म कहा-
‘कुं दन-काक बहत बीमार है, शी जाओ, कह ...।’
‘परं तु ूटी...।’
‘कुं दन यिद म पागल हँ तो भी बुरा नह ।’
कुं दन ने बंदक
ू राजन को दे दी और नीचे क ओर भागने लगा।
परं तु यह तेल क बदबू कैसी है?
यह सोच वह एक ण के लए क गया और काँप उठा।
राजन शैतान क तरह उसे देख रहा था। बंदक
ू क नली उसके सीने पर थी।
‘राजन! यह या?’
‘कुं दन! तुम मेरे िम हो न। इस लए कहता ह-ँ जतनी ज द भाग सको भाग जाओ। एक
भयानक तूफान आने वाला है।’
‘राजन!’ कुं दन उसक ओर बढ़ते हए बोला।
‘देखो कुं दन! यिद आगे कदम बढ़ाया तो गोली से उड़ा िदए जाओगे।’
कुं दन आ चयचिकत खड़ा था िक राजन ने बंदक
ू क सतह पर िदयासलाई को सुलगाया और
अपने व म आग लगा दी। कुं दन िच ाया और लड़खड़ाते प थर क भांित नीचे जाने लगा।
उसके कान म भयानक हँसी गूज
ँ रही थी-राजन क अंितम हँसी।
जलते हए राजन ने च ान क उस गुफा म वेश िकया, जसम िवषैली गैस और बा द भरा
हआ था।
कंपनी म हाहाकार मच गया, मजदरू अपनी जान बचाने के लए प थर क तरह लड़खड़ाते-
िगरते-टकराते नीचे आ रहे थे। उनके ऊपर ऊँची च ान के फटते हए प थर नीचे िगर रहे थे। राजन
के िदल को कु चलने वाले अरमान और सीने म सुलगने वाले आँसू एक-एक करके फूट रहे थे।
कोलाहल से वायुमड ं ल गूज
ँ रहा था, अंधरे ा बढ़ता जा रहा था, ‘वादी’ क हजार माताएं अपने लाल
को पुकार रही थ ।
ातःकाल जब ‘सीतलवादी’ को सूरज क पहली िकरण ने छु आ तो एक बढ़ता हआ ज था
खान क ओर जा रहा था। चीख व पुकार के थान पर अब सबके मुख पर शांित के िच िदखाई दे
रहे थे। हर मनु य स तीत होता था।
केशव यह देख शी ता से सीिढ़याँ उतरने लगा। सब लोग पागल क तरह बढ़े जा रहे थे।
केशव ने भीड़ म एक मनु य से कारण पूछा तो वह बोला-
‘बस बढ़ते जाओ-कंपनी को करोड़ पए का लाभ होगा-लाख मजदरू काम पर लग जाएँग।े
वह हजार क आबादी, लाख क हो जाएगी और यह ब ती एक बड़ी ब ती बन जाएगी।’
केशव भी ज थे के साथ हो लया।
उसक नजर लोग के सर पर होती हई पहाड़ी के दसरी
ू ओर िनकलते हए एक च मे पर क ।
यह तेल का च मा था जसक खोज संसार वाल को एक अस से थी और जो खान के फट जाने से
अपनी गहराइयां छोड़ बाहर आ गया था।

नौ
एक झु ड उस उबलते हए ‘च मे’ के िनकट खड़ा था और उसके समीप एक ओर हटकर
पावती िनिनमेष ि से उस ‘च मे’ को देख रही थी। माधो, चौबे जी और कई कंपनी के अफसर भी
पास म ही खड़े थे। सबक आँख म आँसू थे। पावती के ँ धे कंठ से फूट पड़ा अ फुट वर-
‘राजन! आ खर तु हारा असफल ेम... तु हारे मन क ‘जलन, तड़प’ संसार के लए एक
वरदान बन गई।’ कहकर कु छ देर तक एकटक चुपचाप उस च मे क ओर देखती रही। िफर अपने
दोन हाथ जोड़कर आकाश क ओर देखकर बोली-
‘हे जगदी वर! यह या हो गया? यह च मा है या राजन के कु चले अरमान! ...सुलगते आँसू!
जो आज ‘च मा’ बनकर इन च ान क छाती चीरकर फूट िनकले ह?’ कहते-कहते उसक आँख
छलछला आय ।
तभी उसे लगा जैसे उसके अंत थल म बैठा कोई बोल उठा-‘हाँ पावती! यह सच है, यही ेम
अमर है ेम...उसके एकांत उ सग का सा ी रहेगा... यह च मा! और सामने खड़ी वह
मौन...जलती च ान।’

***

You might also like