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अध्याय पंद्रह

महाप्रभु द्िारा सािवभौम भट्टाचायव के घर पर


प्रसाि स्िीकार करना

श्रील भहिहवनोद ठाकुर ने अपने अमृत-प्रवाि-भाष्य में इस अध्याय का सारांश इस प्रकार हदया िै : रर्यात्रा
उत्सव के बाद श्री अद्वैत आचायथ प्रभु ने पष्ु पों तर्ा तल
ु सी दल से श्री चैतन्य मिाप्रभु की पजू ा की। बदले में श्री चैतन्य
मिाप्रभु ने भी र्ाल में बचे फूलों तर्ा तल
ु सीदल से अद्वैत आचायथ की पजू ा योऽहस सोऽहस नमोऽस्तु ते (आप जैसे भी
िों-मैं आपका आदर करता ि)ाँ मन्त्र पढ़कर की। इसके बाद अद्वैत आचायथ प्रभु ने श्री चैतन्य मिाप्रभु को प्रसाद ग्रिण
करने के हलए आमंहत्रत हकया। जब श्री चैतन्य मिाप्रभु तर्ा उनके भिों ने नन्दोत्सव मनाया, तब मिाप्रभु ने
ग्वालबाल का वेश धारण हकया। इस तरि यि उत्सव अत्यन्त उल्लासपणू थ रिा। इसके बाद मिाप्रभु तर्ा उनके भिों
ने हवजयदशमी उत्सव मनाया-वि हदन हजस हदन भगवान् रामचन्द्र ने लंका को जीता र्ा। इसमें सारे भि भगवान्
रामचन्द्र के सैहनक बन गये और श्री चैतन्य मिाप्रभु ने िनमु ान के आवेश में हवहवध हदव्य आनन्ददायक कायथकलाप
कर हदखाये। तत्पिात् मिाप्रभु तर्ा उनके भिों ने हवहवध अन्य उत्सव सम्पन्न हकये।

इसके बाद श्री चैतन्य मिाप्रभु ने सभी भिों से बंगाल लौि जाने को किा। उन्िोंने हनत्यानन्द प्रभु को बंगाल में
प्रचार-कायथ के हलए भेजा तर्ा उनके सार् रामदास, गदाधर दास तर्ा अन्य कुछ भिों को भी भेजा। इसके बाद श्री
चैतन्य मिाप्रभु ने बड़ी नम्रता सहित श्रीवास ठाकुर के िार् अपनी माता के हलए र्ोड़ा-सा जगन्नार्जी का प्रसाद तर्ा
उनका वस्त्र भेजा। जब मिाप्रभु ने राघव पहडित, वासदु वे दत्त, कुलीन ग्राम के हनवाहसयों तर्ा अन्य भिों को हवदाई
दी तो उन्िोंने उनके हदव्य गणु ों की भरू र-भरू र प्रशंसा की। रामानन्द वसु तर्ा सत्यराज खान ने कुछ प्रश्न पछ
ू े और श्री
चैतन्य मिाप्रभु ने उन्िें आदेश हदया हक सभी गृिस्र् भिों को हनरन्तर भगवन्नाम का कीतथन करने वाले वैष्णवों की
सेवा में िी लगना चाहिए। उन्िोंने खडि के वैष्णवों को भी हनदेश हदया। इसी तरि सावथभौम भट्टाचायथ तर्ा
हवद्यावाचस्पहत को भी उपदेश हदया और भगवान् रामचन्द्र के चरणकमलों में दृढ़ श्रद्धा के हलए मरु ारर गप्तु की प्रशसं ा
की। वासदु वे दत्त की हवनीत प्रार्थना पर हवचार करते िुए उन्िोंने यि हसद्ध हकया हक भगवान् श्रीकृ ष्ण समस्त बद्धजीवों
का उद्धार करने में समर्थ िैं।

तत्पिात् जब श्री चैतन्य मिाप्रभु सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर प्रसाद ग्रिण कर रिे र्े, तो सावथभौम के दामाद
अमोघ ने उनकी आलोचना करके पररवार में उत्पात खड़ा कर हदया। अगले िी हदन उसे हवसहू चका रोग (िैजा) िो
गया। तब श्री चैतन्य मिाप्रभु ने दया करके उसे बचाया और उसे भगवान् कृ ष्ण के नाम-कीतथन के प्रहत जाग्रत हकया।

साियभौम-गृहे भुञ्जन्स्ि-वनन्दकममोघकम् ।

अङ्गी-कुियन्स्फुटां चक्रे गौरैः स्िां भि-िश्यताम् ॥1॥

सावथभौम-गृि-े सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर; भञ्ु जन–् प्रसाद ग्रिण करते समय; स्व-हनन्दकम-् उनकी हनन्दा
करने वाले व्यहि को; अमोघकम-् अमोघ नामक; अङ्गी-कुवथन–् स्वीकार करके ; स्फुिाम-् प्रकि हकया; चक्रे–बनाया;
गौरः-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; स्वाम-् अपने आपको; भि-वश्यताम-् अपने भिों का कृ तज्ञ।

अनुिाद

जब श्री चैतन्य महाप्रभु साियभौम भट्टाचायय के घर पर प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, तब अमोघ ने उनकी
आलोचना की। वफर भी महाप्रभु ने अमोघ को स्िीकार करके वदखला वदया वक िे अपने भिों के वकतने
कृतज्ञ हैं।

जय जय श्री-चैतन्य जय वनत्यानन्द ।

जयाद्वैत-चन्द्र जय गौर-भि-िृन्द ॥2॥

जय जय-जय िो; श्री-चैतन्य-श्री चैतन्य मिाप्रभु की; जय-जय; हनत्यानन्द हनत्यानन्द प्रभु की; जय अद्वैत-
चन्द्र-अद्वैत चन्द्र प्रभु की जय िो; जय-जय िो; गौर-भि-वृन्द-श्री चैतन्य मिाप्रभु के भिों की।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु की जय हो! वनत्यानन्द प्रभु की जय हो! अद्वैतचन्द्र की जय हो तथा चैतन्य
महाप्रभु के समस्त भिों की जय हो!
जय श्री-चैतन्य-चररतामृत-स्रोता-गण ।

चैतन्य-चररतामृत—याूँर प्राण-धन ॥ 3 ॥

जय-जय जय; श्री-चैतन्य-चररतामृत-श्रोता-गण-श्री चैतन्य चररतामृत के श्रोताओ ं की; चैतन्य-चररतामृत-


चैतन्य चररतामृत; यााँर-हजनका; प्राण-धन-प्राण तर्ा आत्मा।

अनुिाद

श्री चैतन्य-चररतामृत के श्रोताओ ं की जय हो, वजन्होंने इसे अपना प्राण तथा आत्मा मान रखा है।

एइ-मत महाप्रभु भि-गण-सङ्गे ।

नीलाचले रवह’ करे नत्ृ य-गीत-रङ्गे ॥4॥

एइ-मत-इस प्रकार; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; भि-गण-सङ्गे-अपने भिों के सार्; नीलाचले रहि’-
नीलाचल, जगन्नार् परु ी में ठिरकर; करे -हकया; नृत्य-गीत-रङ्गे–अहत प्रसन्न िोकर गायन तर्ा नृत्य।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ परु ी में रहते हुए अपने भिों के साथ वनरन्तर कीतयन और नतयन का
आनन्द लेते रहे।

प्रथमािसरे जगन्नाथ-दरशन ।

नृत्य-गीत करे दण्ड-परणाम, स्तिन ॥5॥

प्रर्म-अवसरे हदन के आरम्भ में; जगन्नार्-दरशन-प्रभु जगन्नार् के दशथन करके ; नृत्य-गीत करे -नृत्य और
गायन हकया; दडि-परणाम-दडिवत् प्रणाम हकया; स्तवन-प्रार्थना (स्तुहत) की।

अनुिाद

वदन आरम्भ होते ही श्री चैतन्य महाप्रभु ने मवन्दर में भगिान् जगन्नाथ के अचायविग्रह के दशयन वकये,
उन्हें नमस्कार वकया, उनकी स्तुवत की और उनके समष नाचा-गाया।

‘उपल-भोग’ लावगले करे बावहरे विजय ।


हररदास वमवल’ आइसे आपन वनलय ॥ 6॥

उपल-भोग लाहगले-उपल भोग लगाते समय; करे बाहिरे हवजय-वे बािर खड़े रिे; िररदास हमहल’-िररदास
ठाकुर से हमलकर; आइसे-वापस आये; आपन हनलय-अपने घर को।

अनुिाद

मवन्दर में जाने के बाद, श्री चैतन्य महाप्रभु उपलभोग के समय मवन्दर के बाहर रहते थे। तब िे
हररदास ठाकुर से वमलने जाते और वफर अपने वनिासस्थान लौट आते थे।

तात्पयय

दोपिर के समय जब भोग-वधथन-खडि नामक स्र्ान में उपलभोग अहपथत हकया जाता, तब श्री चैतन्य मिाप्रभु
महन्दर के बािर चले जाते। बािर जाने के पवू थ वे गरुड़ स्तम्भ के पास खड़े िोकर नमस्कार और प्रार्थना करते र्े। बाद में
हसद्धबकुल जाते, जिााँ िररदास ठाकुर रिते र्े। िररदास ठाकुर से भेंि करने के बाद वे काशी हमश्र के घर लौि आते
जिााँ पर वे रि रिे र्े।

घरे िवस’ करे प्रभु नाम सङ्कीतयन ।

अद्वैत आवसया करे प्रभुर पूजन ॥7॥

घरे वहस’-अपने कमरे में बैठकर; करे -करते; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु नाम सङ्कीतथन-माला पर जप; अद्वैत-
अद्वैत आचायथ ने आकर; आहसया-आकर; करे –की; प्रभरु पजू न-मिाप्रभु की पजू ा।

अनुिाद

महाप्रभु अपने कमरे में बैठकर माला पर जप करते और अद्वैत प्रभु िहाूँ पर महाप्रभु की पज
ू ा करने
आया करते।

सुगवन्ध-सवलले देन पाद्य, आचमन ।

सिायङ्गे लेपये प्रभुर सगु वन्ध चन्दन ॥8॥


स-ु गहन्ध-सहलले सगु हन्धत जल; देन–हदया; पाद्य-पााँव धोने के हलए जल; आचमन-मख
ु धोकर; सवथ-अङ्गे-
सारे शरीर पर; लेपये-लगाया; प्रभरु –मिाप्रभु के ; स-ु गहन्ध चन्दन–सगु हन्धत चन्दन।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु की पूजा करते समय अद्वैत आचायय उन्हें मुूँह तथा पाूँि धोने के वलए सुगवन्धत
जल वदया करते। वफर अद्वैत आचायय महाप्रभु के पूरे शरीर में सुगवन्धत चन्दन का लेप वकया करते।

गले माला देन, माथाय तल


ु सी-मञ्जरी ।

योड-हाते स्तवु त करे पदे नमस्करर’ ॥9॥

गले-गले में; माला-माला; देन–पिनाते; मार्ाय–हसर पर; तुलसी-मञ्जरी-तुलसी मंजरी; योड़-िाते-दोनों िार्
जोड़कर; स्तहु त करे -स्तहु त करते; पदे-चरणकमलों पर; नमस्करर’-नमस्कार करके ।

अनुिाद

श्री अद्वैत आचायय महाप्रभु के गले में फूल की माला और वसर पर तुलसी की मंजरी चढ़ाया करते
थे। वफर हाथ जोडकर उन्हें नमस्कार करते और उनकी स्तवु त करते थे।

पूजा-पात्रे पुष्प-तल
ु सी शेष ये आवछल ।

सेइ सब लिा प्रभु आचाये पूवजल ॥10॥

पजू ा-पात्रे-पजू ा के फूल और तल


ु सी दल वाली प्लेि पर; पष्ु प-तल
ु सी-पष्ु प और तुलसी; शेष-शेष (बाकी); ये
आहछल-जो कुछ विााँ र्े; सेइ सब-वे सब; लिा-लेकर; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; आचाये पहू जल-अद्वैत आचायथ की
पजू ा की।

अनुिाद

इस तरह अद्वैत आचायय द्वारा पूजे जाने के बाद श्री चैतन्य महाप्रभु थाल में बचे फूलों तथा तल
ु सी
मंजरी एिं जो कुछ सामग्री बची होती, उससे अद्वैत आचायय की पूजा करते।

“योऽवस सोऽवस नमोऽस्तु ते” एइ मन्त्र पडे।


मुख-िाद्य करर’ प्रभु हासाय आचायेरे ॥11॥

यः अहस-आप जो कुछ भी िैं; सः अहस-आप विी िैं; नमः अस्तु ते–मैं आपको नमस्कार करता ि;ाँ एइ मन्त्र
पड़े-यि मंत्र पढ़ते; मख
ु -वाद्य करर’–मख
ु में कुछ ध्वहन करके ; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु िासाय-िाँसाते; आचायेरे-अद्वैत
आचायथ को।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु “आप जैसे भी हो, हो। लेवकन मैं आपको नमस्कार करता हूँ”-इस मन्त्र का
उच्चारण करके अद्वैत आचायय की पज
ू ा करते थे। इसके अवतररि भी महाप्रभु अपने मूँुह के भीतर कुछ
ध्िवन करते, वजससे अद्वैत आचायय को हूँसी आ जाती।

एइ-मत अन्योन्ये करे न नमस्कार ।

प्रभुरे वनमन्त्रण करे आचायय बार बार ॥12॥

एइ-मत-इस प्रकार; अन्योन्ये-एक दसू रे को; करे न-करते र्े; नमस्कार–सादर नमस्कार; प्रभरु े –श्री चैतन्य
मिाप्रभु को; हनमन्त्रण-हनमंत्रण; करे -देते र्े; आचायथ-अद्वैत आचायथ; बार बार-बारम्बार।

अनुिाद

इस तरह अद्वैत आचायय तथा श्री चैतन्य महाप्रभु एक-दूसरे को सादर नमस्कार करते थे। तब अद्वैत
आचायय श्री चैतन्य महाप्रभु को बारम्बार अपने यहाूँ आने का वनमन्त्रण देते।

आचायेर वनमन्त्रण—आियय-कथन ।

विस्तारर’ िवणयाछे न दास-िन्ृ दािन ॥13॥

आचार हनमन्त्रण-अद्वैत आचायथ का हनमंत्रण; आियथ-कर्न-आियथजनक कर्ा; हवस्तारर’–बिुत स्पष्ट रूप


से; वहणथयाछे न-वणथन हकया िै; दास-वृन्दावन-वृन्दावन दास ठाकुर।

अनुिाद
श्री अद्वैत आचायय का वनमन्त्रण दूसरी अद्भुत कथा है। इसका विस्तृत स्पि िणयन िृन्दािन दास
ठाकुर ने वकया है।

पनु रुवि हय, ताहा ना कै लूँु िणयन ।

आर भि-गण करे प्रभुरे वनमन्त्रण ॥14॥

पनु ः-उहि–दोिराना; िय-िै; तािा-वि; ना-निीं; कै लाँ-ु मैंने हकया; वणथन-वणथन; आर भि-गण-अन्य भि;
करे -करते; प्रभरु े -श्री चैतन्य मिाप्रभु को; हनमन्त्रण-हनमंत्रण।

अनिु ाद

चूँूवक अद्वैत आचायय के वनमन्त्रण का िणयन श्रील िृन्दािन दास ठाकुर कर चुके हैं, अतएि मैं इस
कथा को नहीं दुहराऊूँ गा। वकन्तु मैं यह कहूँगा वक अन्य भिों ने भी महाप्रभु को वनमन्त्रण वदये।

एक एक वदन एक एक भि-गृहे महोत्सि ।

प्रभु-सङ्गे ताहाूँ भोजन करे भि सब ॥15॥

एक एक हदन-प्रहतहदन; एक एक भि-गृि-े एक के बाद दसू रे भि के घर में; मिोत्सव–मिोत्सव; प्रभ-ु सङ्गे–


श्री चैतन्य मिाप्रभु के सार्; तािााँ-विााँ; भोजन-भोजन; करे –हकया; भि-भिों ने; सब-सभी।

अनुिाद

प्रवतवदन एक के बाद दूसरा भि श्री चैतन्य महाप्रभु तथा अन्य भिों को भोजन के वलए वनमन्त्रण
देता और अपने यहाूँ उत्सि मनाता।

चारर-मास रवहला सबे महाप्रभु-सङ्गे ।

जगन्नाथेर नाना यात्रा देखे महा-रङ्गे ॥16॥

चारर-मास-चार मास; रहिला-रिे; सबे-सारे भि; मिाप्रभ-ु सङ्गे–श्री चैतन्य मिाप्रभु के सार्; जगन्नार्ेर-
भगवान जगन्नार् के ; नाना यात्रा-कई यात्रा उत्सव; देख-े उन्िोंने देखे; मिा-रङ्गे–अत्यन्त आनन्द के सार्।

अनिु ाद
सारे भि लगातार चार मास तक जगन्नाथ पुरी में रहे और उन्होंने बडे ही उत्साह के साथ भगिान्
जगन्नाथ के सारे उत्सि मनाये।

कृष्ण-जन्म-यात्रा-वदने नन्द-महोत्सि ।

गोप-िेश हैला प्रभु लिा भि सब ॥ 17॥

कृ ष्ण-जन्म-यात्रा-कृ ष्ण जन्म का उत्सव; हदने-के हदन पर; नन्द-मिोत्सव-कृ ष्ण के हपता नन्द मिाराज द्वारा
आयोहजत उत्सव; गोप-वेश िैला–ग्वाल बाल की वेशभषू ा अपनाई; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; लिा–लेकर; भि
सब-सभी भिों को।

अनिु ाद

भिों ने कृष्ण जन्मािमी उत्सि भी मनाया, वजसे नन्द महोत्सि भी कहा जाता है। इस अिसर पर
श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके भिों ने ग्िालों का िेश धारण वकया।

दवध-दुग्ध-भार सबे वनज-स्कन्धे करर’ ।

महोत्सि-स्थाने आइला बवल ‘हरर’ ‘हरर’ ॥18॥

दहध-दग्ु ध-दिी एवं दधू के ; भार–पात्र; सबे–वे सब; हनज-स्कन्धे-अपने कन्धों पर; करर’-रखकर; मिोत्सव-
स्र्ाने-मिोत्सव स्र्ान पर; आइला-आये; बहल िरर िरर–“िरर िरर” बोलते िुए।

अनुिाद

ग्िालों का िेश धारण करके तथा कंधे में बहूँगी पर दूध तथा दही के बतयन लेकर सारे भि ‘हरर’
‘हरर’ का उच्चारण करते हुए महोत्सि-स्थल पर आये।

कानावि-खुवटया आछे न ‘नन्द’-िेश धरर’ ।

जगन्नाथ-माहावत हिाछे न ‘व्रजेश्वरी’ ॥19॥

कानाहि-खहु िया-कानाइ खहु िया; आछे न-िै; नन्द-वेश धरर’–नन्द मिाराज का वेश धारण करके ; जगन्नार्-
मािाहत-जगन्नार् मािाहत; ििाछे न-र्ा; व्रजेश्वरी-माता यशोदा।
अनुिाद

कानाइ खुवटया ने नन्द महाराज का िेश बनाया और जगन्नाथ माहावत ने माता यशोदा का िेश बना
वलया।

आपने प्रतापरुद्र, आर वमश्र-काशी ।

साियभौम, आर पवडछा-पात्र तुलसी ॥20॥

आपने प्रतापरुद्र-राजा प्रतापरुद्र स्वयं; आर-और; हमश्र-काशी-काशी हमश्र; सावथभौम-सावथभौम भट्टाचायथ;


आर-और; पहड़छा-पात्र तल
ु सी-पहड़चापात्र तल
ु सी, महन्दर का अध्यक्ष।

अनिु ाद

उस समय काशी वमश्र, साियभौम भट्टाचायय तथा तुलसी पवडछापात्र समेत राजा प्रतापरुद्र भी िहाूँ
उपवस्थत थे।

इूँहा-सबा लिा प्रभु करे नृत्य-रङ्ग ।

दवध-दुग्ध हररद्रा-जले भरे सबार अङ्ग ॥21॥

इाँिा-सबा लिा-उन सबको लेकर; प्रभ-ु भगवान् चैतन्य मिाप्रभु ने; करे नृत्य-रङ्ग-प्रसन्न िोकर नृत्य हकया;
दहध-दिी; दग्ु ध-दधू ; िररद्रा-िल्दी; जले-जल से; भरे -सरोबार कर हदये; सबार-उन सबके ; अङ्ग–शरीर।

अनुिाद

सदैि की तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने उकलासपिू यक नृत्य वकया। सारे लोग दूध, दही तथा हकदी के
पीले जल से सराबोर हो गये।

अद्वैत कहे,—सत्य कवह, ना कररह कोप ।

लगुड वफराइते पार, तबे जावन गोप ॥22॥

अद्वैत किे-अद्वैत आचायथ ने किा; सत्य कहि-मैं सत्य किता ि;ाँ ना कररि कोप-कृ पया क्रुद्ध न िो; लगड़ु -
िंिा; दडि; हफराइते पार—यहद आप घमु ा सकते िो; तबे जाहन-तब मैं समझेंगा; गोप-ग्वाल बाल।
अनुिाद

तभी श्रील अद्वैत आचायय ने कहा, “आप नाराज न हों। मैं सच कह रहा ह।ूँ यवद आप इस लाठी को
चन्द्राकार रूप में घुमा सको, तो मैं समझेंगा वक आप ग्िाले हो।”

तबे लगुड लिा प्रभु वफराइते लावगला ।

बार बार आकाशे फेवल’ लुवफया धररला ॥ 23 ॥

तबे-तब; लगड़ु -छड़ी; लिा-लेकर; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु हफराइते लाहगला-घमु ाने लगे; बार बार-बारम्बार;
आकाशे-आकाश में, फे हल’–फें कते िुए; लहु फया-उन्िोंने हफर; धररला-पकड़ हलया।

अनिु ाद

अद्वैत आचायय की चुनौती को स्िीकार करके श्री चैतन्य महाप्रभु ने बडी-सी लाठी ली और िे उसे
चारों ओर घुमाने लगे। िे बार-बार लाठी को आकाश में उछालते और वगरते समय पकड लेते।

वशरे र उपरे , पृष्ठे, सम्मुखे, दुइ-पाशे ।

पाद-मध्ये वफराय लगडु , देवख’ लोक हासे ॥24॥

हशरे र उपरे हसर के ऊपर; पृष्ठे-पीठ के पीछे ; सम्मख


ु े-सामने; दड़ु -पाशे-दोनों ओर; पाद-मध्ये दोनों पााँवों के
बीच; हफराय-चारों ओर घमु ाया; लगड़ु -छड़ी को; देहख’–देखकर; लोक िासे-सारे लोग िाँसने लगे।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु अपनी लाठी को घुमाते और उछालते और कभी-कभी अपने वसर पर ले जाते ,
कभी पीठ पीछे , कभी सामने, कभी बगल में और कभी दोनों पाूँिों के बीच। यह देखकर सारे लोग हूँसने
लगे।

अलात-चक्रेर प्राय लगुड वफराय ।

देवख’ सिय-लोक-वचत्ते चमत्कार पाय ॥25॥


अलात-चक्रेर-जलती मशाल का चक्र; प्राय-की भााँहत; लगड़ु हफराय-छड़ी को घमु ाइ; देहख’–देखकर; सवथ-
लोक-सभी लोग; हचत्ते–मन में; चमत्कार पाय-अत्यन्त चहकत िो गये।

अनिु ाद

जब श्री चैतन्य महाप्रभु लाठी को अवग्नबाण ( अलातचक्र ) की तरह घुमा रहे थे, तो देखने िालों के
हृदय चमत्कृत हो गये।

एइ-मत वनत्यानन्द वफराय लगुड।

के बवु झबे ताूँहा बूँहार गोप-भाि गढ़ू ॥26॥

एइ-मत-इस प्रकार; हनत्यानन्द–हनत्यानन्द प्रभु ने; हफराय लगड़ु -छड़ी को घमु ाइ; के -कौन; बहु झबे-समझेगा;
तााँिा-विााँ; िार–उन दोनों का; गोप-भाव-ग्वाल-भाव; गढ़ू -बिुत गिरा।

अनुिाद

वनत्यानन्द प्रभु ने भी लाठी घुमाई। कौन समझ सकता है वक िे ग्िालों के भाि में वकतने गहरे डूब
गये थे?

प्रतापरुद्रे र आज्ञाय पवडछा-तुलसी ।

जगन्नाथेर प्रसाद-िस्त्र एक लिा आवस ॥ 27॥

प्रतापरुद्रेर-राजा प्रतापरुद्र की; आज्ञाय-आज्ञा पाकर; पहड़छा-तल


ु सी–महन्दर का अध्यक्ष तल
ु सी; जगन्नार्ेर-
भगवान जगन्नार् का; प्रसाद-वस्त्र-उपयोग हकया िुआ वस्त्र; एकएक; लिा–लेकर; आहस-आया।

अनिु ाद

महाराज प्रतापरुद्र की आज्ञा पाकर मवन्दर का वनरीषक तुलसी भगिान् जगन्नाथ के उतारे िस्त्रों में
से एक िस्त्र ले आया।

बहु-मूकय िस्त्र प्रभु-मस्तके बावन्धल ।

आचायायवद प्रभरु गणेरे पराइल ॥28॥


बिु-मल्ू य-बिुत मल्ू यवान; वस्त्र-वस्त्र; प्रभ-ु मस्तके -श्री चैतन्य मिाप्रभु के हसर पर; बाहन्धल-लपेि हदया;
आचायथ-आहद-अद्वैत आचायथ आहद; प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु के ; गणेरे-साहर्यों पर; पराइल-रखा।

अनिु ाद

यह बहुमूकय िस्त्र श्री चैतन्य महाप्रभु के वसर पर लपेट वदया गया। अद्वैत आचायय आवद दूसरे भिों
ने भी अपने वसरों पर इसी तरह िस्त्र लपेट वलये।

कानावज-खुवटया, जगन्नाथ, दुइ-जन ।

आिेशे विलाइल घरे वछल यत धन ॥29॥

कानाहज-खहु िया–कानाइ खहु िया; जगन्नार्–जगन्नार् मािाहत; दइु -जन-दो व्यहि; आवेश-े प्रेमावेश में;
हवलाइल-बााँि हदया; घरे –घर पर; हछल–र्ा; यत-सभी; धन-धन।

अनुिाद

कानाइ खुवटया वजसने भािािेश में नन्द महाराज का और जगन्नाथ माहावत वजसने माता यशोदा
का िेश धरा था, घर में सवं चत सारे धन को बाूँट वदया।

देवख’ महाप्रभु बड सन्तोष पाइला ।

माता-वपता-ज्ञाने दुहूँ े नमस्कार कै ला ॥ 30॥

देहख’–देखकर; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; बड़-बिुत; सन्तोष–सन्तोष; पाइला–पाया; माता-हपता-ज्ञाने-
माता-हपता मानकर; दाँिु -े दोनों को; नमस्कार कै ला-नमस्कार हकया।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु यह देखकर अत्यन्त सन्तुि हुए। उन्होंने उन दोनों को अपना वपता तथा माता के
रूप में स्िीकार करके नमस्कार वकया।

परम-आिेशे प्रभु आइला वनज-घर ।

एइ-मत लीला करे गौराङ्ग-सन्ु दर ॥ 31॥


परम-आवेश–े मिान् भावावेश में; प्रभ–ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु आइला–लौि गये; हनज-घर–अपने हनवास स्र्ान
को; एइ-मत-इस प्रकार; लीला-लीलाएाँ; करे –कीं; गौराङ्ग-सन्ु दर-श्री चैतन्य मिाप्रभ।ु

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु परम आिेश में अपने वनिासस्थान पर लौट आये। इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु
ने, जो गौरांग सुन्दर के नाम से जाने जाते थे, विविध लीलाएूँ कीं।

विजया-दशमी—लङ्का-विजयेर वदने ।

िानर-सैन्य कै ला प्रभु लिा भि-गणे ॥ 32॥

हवजया-हवजय; दशमी-दशमी; लङ्का-हवजयेर हदने-लंका पर हवजय पाने का उत्सव हदन; वानर-सैन्य-वानर


सेना; कै ला-बनाई; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; लिा भि-गणे-सभी भिों को लेकर।

अनुिाद

लंका पर श्री रामचन्द्र की विजय का उत्सि, विजयादशमी मनाने के वदन श्री चैतन्य महाप्रभु ने
अपने सारे भिों को िानर सैवनकों का िेश धारण कराया।

हनुमानािेशे प्रभु िृष-शाखा लिा ।

लङ्का-गडे चवड’ फेले गड भाङ्वगया ॥ 33 ॥

िनमु ान-् आवेश-े िनमु ान के भाव में; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु वृक्ष-शाखा लिा-एक वृक्ष की बड़ी शाखा
लेकर; लङ्का-गड़े-लंका के हकले पर; चहड़-चढ़कर; फे ले-तोड़ हदया; गड़-हकले को; भाङ्हगया-ध्वस्त करके ।

अनिु ाद

हनुमान के आिेश में श्री चैतन्य महाप्रभु ने एक विशाल िृष की शाखा ले ली और लंका गढ़ की
दीिालों पर चढ़कर िे उसे तहस-नहस करने लगे।

‘काहाूँरे राव्णा’ प्रभु कहे क्रोधािेशे ।

‘जगन्माता हरे पापी, माररमु सिश


ं े ॥ 34॥
कािााँरे राणा-दष्टु रावण किााँ िै; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; किे-किा; क्रोध-आवेश-े क्रोध में आकर; जगत-्
माता-जगत् माता; िरे -अपिरण हकया; पापी-पापी; माररम-ु मैं मारूाँगा; स-वंशे-उसके सारे पररवार सहित।

अनिु ाद

हनुमान के भािािेश में श्री चैतन्य महाप्रभु ने क्रुद्ध होकर कहा, कहाूँ है िह धूतय रािण? उसने
जगन्माता सीताजी का अपहरण वकया है। अब मैं उसे तथा उसके सारे पररिार को मार डालगूूँ ा।”

गोसाविर आिेश देवख’ लोके चमत्कार ।

सिय-लोक ‘जय’ ‘जय’ बले बार बार ॥ 35॥

गोसाहिर-श्री चैतन्य मिाप्रभु का; आवेश-भावावेश; देहख’–देखकर; लोके –सभी लोग; चमत्कार–चहकत रि
गये; सवथ-लोक-सभी लोग; जय जय-जय जयकार; बले-बोलने लगे; बार बार-बारम्बार ।

अनुिाद

सारे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु का आिेश देखकर अचवम्भत हो गये और बारम्बार “जय हो! जय
हो!” का घोष करने लगे।

एइ-मत रास-यात्रा, आर दीपािली ।

उत्थान-द्वादशी यात्रा देवखला सकवल ॥ 36॥

एइ-मत-इस प्रकार; रास-यात्रा-भगवान् कृ ष्ण का रास-नृत्य; आर-और; दीप-आवली–दीपावली का हदन जब


हदयों की पैंहियााँ जलाई जाती िैं; उत्र्ान-द्वादशी-यात्रा-उत्र्ान द्वादशी उत्सव; देहखला सकहल-उन सबने भाग हलया।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु तथा उनके सारे भिों ने रास-यात्रा, दीपािली तथा उत्थान द्वादशी इन सभी
उत्सिों में भाग वलया।

तात्पयय
दीपावली उत्सव काहतथक मास (अक्िूबर-नवम्बर) की अाँधेरी रात (अमावस्या) में पड़ता िै। रासयात्रा अर्ाथत्
भगवान् कृ ष्ण का रासनृत्य उसी मास की पहू णथमा की रात्री को िोता िै। उत्र्ान द्वादशी उसी मास के शक्ु ल पक्ष की
एकादशी के एक हदन बाद पड़ती िै। श्री चैतन्य मिाप्रभु के सारे भिों ने इन सारे उत्सवों में भाग हलया।

एक-वदन महाप्रभु वनत्यानन्दे लिा ।

दुइ भाइ युवि कै ल वनभतृ े िवसया ॥ 37॥

एक-हदन-एक हदन; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु हनत्यानन्दे लिा-हनत्यानन्द प्रभु को लेकर; दईु भाइ–दोनों
भाइयों ने; यहु ि कै ल-आपस में हवचारहवमशथ हकया; हनभृते वहसया–हकसी एकान्त स्र्ान में बैठकर।

अनिु ाद

एक वदन श्री चैतन्य महाप्रभु तथा वनत्यानन्द प्रभु दोनों भाइयों ने एकान्त स्थान में बैठकर परस्पर
विचार-विमशय वकया।

वकबा युवि कै ल दुहूँ े, के ह नावह जाने ।

फले अनमु ान पाछे कै ल भि-गणे ॥ 38॥

हकबा यहु ि कै ल-क्या हवचार-हवमशथ हकया; दिाँु -े उन दोनों ने; के ि नाहि जाने-कोई निीं जानता; फले-उसके
पररणाम से; अनमु ान-अनमु ान; पाछे -बाद में; कै ल-लगाया; भि-गणे-सभी भिों ने।

अनुिाद

यह कोई नहीं जान पाया वक दोनों भाइयों ने परस्पर क्या बातें कीं, वकन्तु बाद में सभी भिों ने
अनमु ान लगा वलया वक उनका विषय क्या था।

तबे महाप्रभु सब भिे बोलाइल ।

गौड-देशे याह सबे विदाय कररल ॥ 39॥

तबे मिाप्रभ-ु उसके बाद श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; सब-सभी; भिे - भिों को; बोलाइल–बल
ु ाया; गौड़-देशे-
बंगाल में; ग्राि-लौि जाओ; सबे-सब को; हवदाय कररल-हवदा दी।
अनुिाद

इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने सारे भिों को बुलाकर उनसे बंगाल िापस जाने के वलए कहा। इस
तरह उन्होंने उन सबको विदा वकया।

सबारे कवहल प्रभु—प्रत्यब्द आवसया ।

गुवण्डचा देवखया याबे आमारे वमवलया ॥40॥

सबारे उन सबको; कहिल-किा; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु प्रहत-अब्द-प्रहत वषथ; आहसया-आकर; गहु डिचा-
गडु िीचा महन्दर का उत्सव; देहखया-देखकर; याबे-तम्ु िें जाना चाहिए; आमारे हमहलया-मझु े हमलने के बाद।

अनिु ाद

सारे भिों को विदा करते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु ने उनसे प्राथयना की वक िे प्रवत िषय उन्हें देखने
जगन्नाथ पुरी िापस आते रहें और गुवण्डचा मवन्दर की सफाई देखें।

आचायेरे आज्ञा वदल कररया सम्मान ।

‘आ-चण्डाल आवद कृष्ण-भवि वदओ दान' ॥41॥

आचायेरे-अद्वैत आचायथ को; आज्ञा हदल-आज्ञा दी; कररया सम्मान-अहत सम्मान सहित; आ-चडिाल-सबसे
नीच व्यहि (चाडिाल) को भी; आहद-आहद; कृ ष्ण-भहि-कृ ष्ण-भहि का; हदओ-दो; दान-दान।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने अत्यन्त सम्मानपूियक अद्वैत आचायय से प्राथयना की, “आप अधम से अधम
व्यवियों (चण्डालों) को भी कृष्ण-भवि रूपी चेतना प्रदान करें ।”

तात्पयय

श्री चैतन्य मिाप्रभु का यि आदेश उनके सभी भिों के हलए िै। कृ ष्ण-भहि िर एक के हलए उपलब्ध िै, यिााँ
तक हक चडिालों जैसे अधम लोगों के हलए भी। श्री अद्वैत तर्ा हनत्यानन्द प्रभु से आगे चलने वाली परम्परा में इस
आदेश का पालन िमें करना चाहिए और हबना भेदभाव के हवश्वभर में कृ ष्ण-भहि का हवतरण करना चाहिए।
ब्राह्मणों से लेकर हनम्नतम स्तर के चडिालों तक के मनष्ु यों के हवहभन्न प्रकार िैं। इस कहलयगु में, िर व्यहि
को कृ ष्णभावनामृत का ज्ञान हदये जाने की आवश्यकता िै, चािे वि हकसी भी पद पर हस्र्त क्यों न िो। यिी आज की
सबसे बड़ी आवश्यकता िै। िर व्यहि को इस भौहतक अहस्तत्व की वेदना का अनभु व िो रिा िै। यिााँ तक हक
अमरीकी सीनेि में भी संसार की ददु श
थ ा का अनभु व हकया जाता िै, हजससे 30 अप्रैल 1974 का हदन प्रार्थना हदवस के
रूप में हनयत कर हदया गया िै। इस तरि िर एक को समाज में अवैध सम्बन्ध, मासं ािार, जआ
ु तर्ा नशा करने से
उत्पन्न िुई कहलयगु की ददु श
थ ा का अनभु व िो रिा िै। अब समय आ गया िै हक अन्तराथष्रीय कृ ष्णभावनामृत संघ के
सदस्य हवश्वभर में कृ ष्ण-भहि का हवतरण करें और इस तरि श्री चैतन्य मिाप्रभु के आदेश का पालन करें । मिाप्रभु ने
िर एक को गरुु बनने का आदेश हदया िै (चैतन्य-चररतामृत, मध्य7.128)-आमार आज्ञाय गरुु िा तार ‘एइ देश।
प्रत्येक नगर तर्ा प्रत्येक गााँव के िर व्यहि को श्री चैतन्य मिाप्रभु की हशक्षाओ ं से आलोहकत हकया जाना चाहिए।
कृ ष्ण-भहि का हवतरण हबना हकसी भेदभाव के हकया जाना चाहिए। इस तरि समचू ा हवश्व शान्त तर्ा सख
ु ी बनेगा
और िर व्यहि श्री चैतन्य मिाप्रभु की महिमा का गान करे गा, जैसी हक उनकी इच्छा िै।

चडिाल शब्द का अर्थ िै कुत्ता खाने वाला व्यहि, जो मनष्ु यों में सबसे हनम्न माना जाता िै। श्री चैतन्य
मिाप्रभु के वरदान से चडिाल भी कृ ष्णभावनामृत का लाभ उठा सकता िै। कृ ष्ण-भहि हकसी एक जाहत की बपौती
निीं। श्री चैतन्य मिाप्रभु द्वारा हदये गये इस मिान् वरदान को कोई भी प्राप्त कर सकता िै। िर व्यहि को इसे प्राप्त करने
तर्ा सख
ु ी बनने का अवसर हदया जाना चाहिए।

इस श्लोक में आया दान शब्द भी मित्त्वपणू थ िै। जो भी कृ ष्ण-भहि के हवतरण में लगता िै, वि दानी व्यहि िै।
पेशेवर लोग धन के बदले श्रीमद्भागवत सनु ाते िैं और कृ ष्ण-भहि की चचाथ करते िैं। वे ऐसी उच्च हदव्य सम्पहत्त का
हवतरण िर हकसी को निीं कर सकते। के वल शद्ध
ु भि िी, हजनका ध्येय के वल कृ ष्ण-सेवा िै, दान के रूप में ऐसे
हदव्य अमल्ू य वरदान का हवतरण कर सकते िैं।

वनत्यानन्दे आज्ञा वदल,— ‘याह गौड-देशे ।

अनगयल प्रेम-भवि कररह प्रकाशे ॥42॥

हनत्यानन्दे-हनत्यानन्द प्रभु को; आज्ञा हदल-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने आज्ञा दी; ग्राि गौड़-देशे-गौड़ देश बंगाल को
जाओ; अनगथल-हबना रोक िोक के ; प्रेम-भहि-प्रेमाभहि का; कररि प्रकाशे-प्रकाश करो।
अनुिाद

तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने वनत्यानन्द प्रभु को आज्ञा दी, “आप बंगाल जाओ और वबना वकसी
प्रवतबन्ध के कृष्ण-भवि अथायत् कृष्णभािनामृत का प्राकट्य करो।”

तात्पयय

इस तरि श्री चैतन्य मिाप्रभु ने हनत्यानन्द प्रभु को आदेश हदया हक सारे बगं ाहलयों को भहि प्रदान करें ।
भगवद्गीता (9.32) में भगवान् ने किा िै :

मां हि पार्थ व्यपाहश्रत्य येऽहप स्यःु पापयोनयः ।

हस्त्रयो वैश्यास्तर्ाशद्रू ास्तेऽहप याहन्त परां गहतम् ।।

“िे पृर्ा-पत्रु , जो मेरी शरण में आते िैं, वे भले िी हनम्न जन्म वाले–हस्त्रयााँ, वैश्य तर्ा शद्रू -क्यों न िों, वे परम गन्तव्य
तक पिुचाँ सकते िैं।” जो भी कृ ष्णभावनामृत अगं ीकार करता िै और हनयमों का पालन करता िै, वि भगवद्धाम वापस
जा सकता िै।

श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने अपने अनभु ाष्य में हलखा िै, “प्राकृ हतक सिहजया नामक तर्ाकहर्त
भि हनत्यानन्द प्रभु को सामान्य मनष्ु य मानते िैं। उन्िोंने यि अफवाि फै लाई हक मिाप्रभु ने हनत्यानन्द प्रभु को उड़ीसा
से के वल इसहलये बगं ाल वापस जाने का आदेश हदया हक वे विााँ जाकर हववाि करें और बच्चे उत्पन्न करें । यि
हनत्यानन्द प्रभु के प्रहत सचमचु मिान् अपराध िै।”

ऐसा अपराध पाषडि बहु द्ध किलाता िै। ये अपराधी हनत्यानन्द प्रभु को अपने जैसे एक सामान्य मनष्ु य मानते
िैं। वे यि निीं जानते हक हनत्यानन्द प्रभु हवष्ण-ु तत्त्व स्वरूप िैं। हनत्यानन्द प्रभु को सामान्य मनष्ु य मानना
कुणपात्मवाहदयों नाम से पिचाने जाने वाले मानहसक तकथ वाहदयों का कायथ िै। ये लोग अपने आपको भौहतक शरीर
मान बैठते िैं, जो हक तीन भौहतक तत्त्वों का र्ैला मात्र िोता िै ( कुणपे हत्रधातक
ु े )। वे सोचते िैं हक उन्िीं की तरि
हनत्यानन्द प्रभु का भी शरीर भौहतक र्ा और इहन्द्रयतृहप्त के हलए हमला र्ा। जो भी इस प्राकर से सोचता िै, वि नरक
के घोरतम क्षेत्र में जाने का पात्र िोता िै। जो लोग काहमनी तर्ा कंचन के पीछे भागते िैं, जो अत्यन्त स्वार्ी िैं और
व्यापारी वृहत्त रखते िैं, वे अपने उवथर महस्तष्क से अनेक वस्तएु ाँ खोज सकते िैं और प्रामाहणक शास्त्रों के हवरुद्ध कुछ
भी कि सकते िैं। वे अबोध लोगों को ठगकर धन कमाने का धधं ा करते िैं और अपने धधं े को आधार देने के हलए ऐसे
िी अपराधपणू थ विव्य देते रिते िैं। वास्तव में हनत्यानन्द प्रभु श्री चैतन्य मिाप्रभु के अश
ं ावतार िोने के कारण
सवाथहधक दयालु अवतार िैं। न तो उन्िें सामान्य मनष्ु य समझना चाहिए, न िी प्रजापहतयों में से एक, हजन्िें ब्रह्मा ने
सन्तान उत्पन्न करके वंशों को बढ़ाने का आदेश हदया र्ा। हनत्यानन्द प्रभु को इहन्द्रयतृहप्त के कारणस्वरूप निीं समझे
जाने चाहिए। यद्यहप पेशेवर तर्ाकहर्त उपदेशक प्रचारक इसका समर्थन करते िैं, हकन्तु हकसी भी प्रामाहणक शास्त्र से
इसकी पहु ष्ट निीं िोती। वास्तव में सिहजयों तर्ा कृ ष्ण-भहि के अन्य पेशेवर हवतरकों के ऐसे विव्यों का कोई आधार
निीं िै।

राम-दास, गदाधर आवद कत जने ।

तोमार सहाय लावग’ वदलु तोमार सने ॥43॥

राम-दास-राम दास; गदाधर-गदाधर दास; आहद–तर्ा अन्य; कत जने-कुछ लोग; तोमार-आपके ; सिाय–
सिायक; लाहग’–के रूप में; हदल-ु मैं देता ि;ाँ तोमार सने-आपके सार्।

अनुिाद

वनत्यानन्द प्रभु को रामदास, गदाधर दास तथा अन्य कुछ सहायक वदये गये। श्री चैतन्य महाप्रभु ने
कहा, “मैं इन्हें आपकी सहायता के वलए दे रहा हूँ।

मध्ये मध्ये आवम तोमार वनकट याइब ।

अलवषते रवह’ तोमार नृत्य देवखब' ॥44॥

मध्ये मध्ये-बीच बीच में; आहम-मैं; तोमार हनकि-आपके हनकि; याइब- जाऊाँगा; अलहक्षते रहि’-अदृश्य
रिकर; तोमार नृत्य-आपका नृत्य; देहखब-मैं देखाँगू ा।

अनुिाद

“मैं बीच-बीच में आपको देखने आया करूूँगा। मैं अदृश्य रहकर आपका नृत्य देखा करूूँगा।”

श्रीिास-पवण्डते प्रभु करर’ आवलङ्गन ।

कण्ठे धरर’ कहे ताूँरे मधरु िचन ॥ 45 ॥


श्रीवास-पहडिते–श्रीवास पहडित को; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु करर’-करके ; आहलङ्गन-आहलगं न; कडठे
धरर’-उनके गले में बााँिे िालकर; किे-किा; तााँरे-उनको; मधरु वचन–मधरु वचन।

अनिु ाद

तत्पिात् श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीिास पवण्डत का आवलगंन वकया और उनके गले में बाूँहे डालकर
उनसे मधुर िचन कहे।

तोमार घरे कीतयने आवम वनत्य नावचब ।

तवु म देखा पाबे, आर के ह ना देवखब ॥46॥

तोमार घरे -आपके घर में; कीतथन-े कीतथन के समय; आहम-मैं; हनत्य-हनत्य; नाहचब-नृत्य करूाँगा; तुहम-आप;
देखा पाबे-देख सकोगे; आर-अन्य; के ि-कोई; ना देहखब-न देख पाएगा।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने श्रीिास ठाकुर से प्राथयना की, “आप वनत्य संकीतयन करना और इतना समझ
रखना वक आपकी उपवस्थवत में मैं भी नत्ृ य करूूँगा। आप यह नत्ृ य देख सकोगे, वकन्तु अन्य लोग नहीं देख
सकें गे।

एइ िस्त्र माताके वदह’, एइ सब प्रसाद ।

दण्डित्करर’ आमार षमाइह अपराध ॥47॥

एइ वस्त्र-यि वस्त्र; माताके हदि’–मेरी माता शचीदेवी को दे देना; एइ सब प्रसाद-यि सब जगन्नार् प्रसाद;
दडिवत् करर’-दडिवत् प्रणाम करके ; आमार-मेरा; क्षमाइि-क्षमा करवा देना; अपराध-अपराध।

अनुिाद

“इस जगन्नाथ प्रसाद को और इस िस्त्र को लो। इन्हें मेरी माता शचीदेिी को जाकर दे देना। उन्हें
प्रणाम करने के बाद उनसे प्राथयना करना वक िे मेरा अपराध षमा कर दें।

ताूँर सेिा छावड’ आवम कररयावछ सन्यास ।


धमय नहे, करर आवम वनज धमय-नाश ॥48॥

तााँर सेवा छाहड़’–उनकी सेवा छोड़कर; आहम-मैंन;े कररयाहछ–स्वीकार हकया; सन्यास-संन्यास; धमथ निे-यि
मेरा धमथ निीं िै; करर–हकया िै; आहम-मैंन;े हनज धमथ-नाश-अपने धमथ का नाश।

अनुिाद

“मैंने अपनी माता की सेिा छोडकर संन्यास धारण कर वलया है। िास्ति में मुझे ऐसा नहीं करना
चावहए था, क्योंवक ऐसा करके मैंने अपना धमय नि वकया है।

ताूँर प्रेम-िश आवम, ताूँर सेिा-धमय ।

ताहा छावड’ कररयावछ बातल


ु ेर कमय ॥49॥

तााँर प्रेम-वश-उनके स्नेि के वशीभतू िोकर; आहम-मैं; तााँर सेवा-उनकी सेवा; धमथ–मेरा धमथ; तािा छाहड़’–उसे
छोड़कर; कररयाहछ-मैंने हकया; बातल
ु ेर कमथ-पागल का कायथ।

अनुिाद

“मैं अपनी माता के प्रेम के अधीन हूँ और मेरा धमय है वक बदले में मैं उनकी सेिा करूूँ। लेवकन ऐसा
करने के बदले मैंने सन्ं यास ग्रहण कर वलया। वनस्सन्देह, यह पागलपन है।

बातुल बालके र माता नावह लय दोष ।

एइ जावन’ माता मोरे ना करय रोष ॥50॥

बातल
ु बालके र-एक पागल पत्रु की; माता-माता; नाहि-निीं; लय-स्वीकार करती; दोष-दोष; एइ जाहन’-यि
जानकर; माता-माता ने; मोरे -मझु पर; ना करय रोष-क्रोध निीं हकया।

अनुिाद

“एक माता अपने पागल बेटे से रुि नहीं होती। यह जानते हुए मेरी माता मुझ पर रोष नहीं करतीं।

वक काय सन्यासे मोर, प्रेम वनज-धन ।

ये-काले सन्यास कै ल,ूँु छन्न हैल मन ॥51॥


हक काय-क्या प्रयोजन; सन्यासे–सन्ं यास धमथ में; मोर-मेरा; प्रेम-स्नेि; हनज-धन–मेरा वास्तहवक धन; ये-काले-
हजस समय; सन्यास कै ल-ाँु मैंने संन्यास स्वीकार हकया; छन्न-हवहक्षप्त; िैल-िो गया र्ा; मन–मन।

अनिु ाद

“मुझे इस संन्यास को स्िीकार करने तथा अपने धनस्िरूप मातृप्रेम की बवल देने से कुछ भी
प्रयोजन नहीं था। िास्ति में जब मैंने संन्यास स्िीकार वकया, उस समय मुझ पर पागलपन सिार था।

नीलाचले आछों मुवि ताूँहार आज्ञाते ।

मध्ये मध्ये आवसमु ताूँर चरण देवखते ॥52॥

नीलाचले आछों-नीलाचल, जगन्नार् परु ी में हनवास; महु ि-मैं; तााँिार आज्ञाते-उनके आदेश के अन्तगथत; मध्ये
मध्ये-बीच बीच में; आहसम-ु मैं जाऊाँगा; तााँर-उनके ; चरण देहखते-चरणकमलों के दशथन करने।

अनुिाद

“मैं यहाूँ जगन्नाथ पुरी (नीलाचल) में उनके आदेशों का पालन करने के वलए रुका हुआ हूँ। वकन्तु
बीच-बीच में मैं उनके चरणकमलों का दशयन करने आता रहूँगा।

वनत्य याइ’ देवख मुवि ताूँहार चरणे ।

स्फूवतय-ज्ञाने तेंहो ताहा सत्य नावह माने ॥53॥

हनत्य साइ’–प्रहतहदन जाकर; देहख-दशथन करता ि;ाँ मुहि-मैं; तााँिार चरणे-उनके चरणकमल; स्फूहतथ-ज्ञाने-मेरी
उपहस्र्हत अनभु व करके ; तेंिो-वे; तािा–उसे; सत्य नाहि माने-सत्य निीं मानती।

अनिु ाद

“िास्ति में मैं रोज ही िहाूँ अपनी माता के चरणकमलों का दशयन करने जाता हूँ। यद्यवप उन्हें मेरी
उपवस्थवत का आभास होता है, पर िे इसे सत्य नहीं मानतीं।

एक-वदन शाकयन्न, व्यञ्जन पाूँच-सात ।

शाक, मोचा-घण्ट, भिृ -पटोल-वनम्ब-पात ॥54॥


लेम्बु-आदा-खण्ड, दवध, दुग्ध, खण्ड-सार ।

शालग्रामे समवपयलेन बहु उपहार ॥55॥

एक-हदन-एक हदन; शाहल-अन्न–शाहल धान का पका िुआ चावल; व्यञ्जन-पकवान; पााँच-सात-पााँच-सााँत;


शाक-साग, पालक; मोचा-घडि-के ले के फूलों की तरकारी; भृष्ट-तली; पिोल–पिोला सहब्जयााँ; हनम्ब-पात-नीम वृक्ष
के पत्रों से; लेम्ब-ु हनबं ;ू आदा-खडि-अदरक के िुकड़ों; दहध-दिी; दग्ु ध-दधू ; खडि-सार-खािं ; शालग्रामे-शालग्राम के
रूप में भगवान् हवष्णु को समहपथलेन-समहपथत हकया; बिु उपिार–बिुत से अन्न उपिार।

अनिु ाद

“एक वदन मेरी माता शचीदेिी ने शालग्राम विष्णु को भोजन अवपयत वकया। उन्होंने शावल धान से
पकाया चािल, तरह-तरह की तरकाररयाूँ, पालक, के ले के फूलों की बनी कढ़ी, नीम की पवत्तयों के साथ
तले पटोल, नींबू समेत अदरक के टुकडे, दही, दूध, खांड तथा अन्य पकिान अवपयत वकये।

प्रसाद लिा कोले करे न क्रन्दन ।

वनमाइर वप्रय मोर-ए-सब व्यञ्जन ॥56॥

प्रसाद लिा–प्रसाद लेकर; कोले-अपनी गोद में; करे न क्रन्दन-रो रिी र्ी; हनमाइर–हनमाइ को; हप्रय–हप्रय; मोर-
मेरे; ए-सब व्यञ्जन-यि सब प्रकार का भोजन।

अनुिाद

“अपनी गोद में भोजन लेकर तथा यह याद करके मेरी माता रो रही थीं वक यह भोजन तो मेरे वनमाइ
को अत्यन्त वप्रय है।

वनमावि नावहक एथा, के करे भोजन ।

मोर ध्याने अश्रु-जले भररल नयन ॥57॥

हनमाहि-हनमाइ; नाहिक एर्ा-यिााँ उपहस्र्त निीं िै; के करे भोजन-इस भोजन को कौन खाएगा; मोर ध्याने-
मेरा इस प्रकार ध्यान करने पर; अश्र-ु जले-आाँसओ
ु ं से; भररल नयन-आाँखें भर आई।ं
अनुिाद

“मेरी माता सोच रही थीं, “यहाूँ पर वनमाई नहीं है। इस सारे भोजन को कौन ग्रहण करे गा?’ जब िे
मेरे बारे में इस तरह सोच रही थीं, तो उनकी आूँखो में आूँसू भर आये।

शीघ्र याइ’ मुवि सब कररनु भषण ।

शून्य-पात्र देवख’ अश्रु कररया माजयन ॥58॥

शीघ्र-शीघ्र; याइ’–जाकर; महु ि-मैंन;े सब-सब; कररनु भक्षण-खा हलया; शन्ू य-पात्र देहख’–खाली बतथन
देखकर; अश्र-ु आाँस;ू कररया माजथन-अपने िार्ों से पोंछे ।

अनिु ाद

“जब िे इस तरह सोचकर रो रही थीं, तो मैं जकदी से िहाूँ गया और सब भोजन ग्रहण कर वलया।
थाल को खाली देखकर उन्होंने अपने आूँसू पोछ डाले।

‘के अन्न-व्यञ्जन खाइल, शून्य के ने पात?।

बालगोपाल वकबा खाइल सब भात? ॥59॥

के -कौन; अन्न-व्यञ्जन खाइल-अन्न-भोजन खा गया िै; शन्ू य के ने पात-बतथन खाली क्यों िैं; बाल-गोपाल-
बाल गोपाल भगवान् ने; हकबा खाइल-क्या खा हलया िै; सब भात-सारा भात।

अनुिाद

“तब िे आियय करने लगीं वक वकसने सारा भोजन खा वलया। यह थाल खाली क्यों है?' उन्हें यह
आियय हुआ वक कहीं बालगोपाल ने तो नहीं खा वलया।

वकबा मोर कथाय मने भ्रम हिा गेल! ।

वकबा कोन जन्तु आवस’ सकल खाइल? ॥ 60 ॥

हकबा-अर्वा; मोर कर्ाय-जब मैं ऐसा सोच रिी र्ी; मने-मन में; भ्रम ििा गेल-मझु े भ्रम िुआ; हकबा-
अर्वा; कोन जन्तु कोई पश;ु आहस’–आकर; सकल खाइल-सब कुछ खा गया।
अनुिाद

“िे आियय करने लगीं वक थाल में पहले से भोजन था भी या नहीं। वफर उन्होंने सोचा वक हो सकता
है कोई पशु आकर सारा भोजन खा गया हो।

वकबा आवम अन्न-पात्रे भ्रमे ना बावडल!’ ।

एत वचवन्त’ पाक-पात्र यािा देवखल ॥61॥

हकबा-अर्वा; आहम-मैं; अन्न-पात्रे-अन्न पात्र में; भ्रमे-भ्रम से; ना बाहड़ल-कुछ निीं रखा; एत हचहन्त'-यि
सोचकर; पाक-पात्र-रसोई के पात्र; यािा देहखल-जाकर देखे।

अनिु ाद

“उन्होंने सोचा वक, ‘हो सकता है गलती से मैंने थाल में भोजन रखा ही न हो।’ इस तरह सोचते हुए िे
रसोई-घर गई ं और िहाूँ बतयनों को देखा।

अन्न-व्यञ्जन-पूणय देवख’ सकल भाजने ।

देवखया सश
ं य हैल वकछु चमत्कार मने ॥ 62॥

अन्न-व्यञ्जन-पणू -थ भात और तरकारी से भरे र्े; देहख’–देखकर; सकल भाजने-सभी पात्र; देहखया-देखकर;
सश
ं य िैल–संशय िुआ; हकछु-कुछ; चमत्कार–आियथ; मने-मन में।

अनुिाद

जब उन्होंने देखा वक सारे बतयन अब भी चािल तथा तरकारी से भरे हैं, तो उनके मन में कुछ सन्देह
हुआ और िे अचवम्भत हुई।ं

ईशाने बोलािा पुनैः स्थान लेपाइल ।

पुनरवप गोपालके अन्न समवपयल ॥ 63 ॥

ईशाने-ईशान सेवक को; बोलािा–बल


ु ाकर; पनु ः-पनु ः; स्र्ान-स्र्ान; लेपाइल-साफ करवाया; पनु रहप-दोबारा;
गोपालके –गोपाल को; अन्न-अन्न (भात और तरकारी); समहपथल-समहपथत हकया।
अनुिाद

“इस तरह आिययचवकत होकर उन्होंने अपने नौकर ईशान को बल


ु ाया और उस स्थान की वफर से
सफाई कराई। तब उन्होंने गोपाल को दूसरी थाल अवपयत की।

एइ-मत यबे करे न उत्तम रन्धन ।

मोरे खाओयाइते करे उत्कण्ठाय रोदन ॥ 64॥

एइ-मत-इस प्रकार; यबे-जब कभी; करे न-करती र्ी; उत्तम रन्धन-उत्तम भोजन पकाना; मोरे -मझु े; खाओयाइते-
हखलाने के हलए; करे -करती र्ी; उत्कडठाय-बित हचन्ता में; रोदन-रोदन।

अनिु ाद

“अब जब भी िे कोई अच्छा भोजन बनाती हैं और मुझे िह भोजन वखलाना चाहती हैं, तब िे
उत्कण्ठािश रोने लगती हैं।

ताूँर प्रेमे आवन’ आमाय कराय भोजने ।

अन्तरे मानये सख
ु , बाह्ये नावह माने ॥65॥

तााँर प्रेमे-उनके प्रेम से; आहन’–लाकर; आमाय-मझु े; कराय भोजने–भोजन कराया; अन्तरे -अपने अन्दर;
मानये-वे अनभु व करती िैं; सख
ु -सख
ु ; बाह्ये-बािर से; नाहि माने–निीं मानतीं।

अनुिाद

उनके प्रेम के िशीभूत होकर मैं िहाूँ भोजन करने के वलए जाता हूँ। मेरी माता ये बातें भीतर-भीतर
जानती हैं और सख
ु ी होती हैं, वकन्तु बाहर से िे इन्हें नहीं मानती।

एइ विजया-दशमीते हैल एइ रीवत ।

ताूँहाके पुवछया ताूँर कराइह प्रतीवत ॥66॥

एइ हवजया-दशमीते-हपछली हवजयदशमी वाले हदन; िैल–िुई; एइ रीहत-ऐसी घिना; तााँिाके –उनको; पहु छया-
पछू कर; तााँर-उन्िें; कराइि-कराना; प्रतीहत–हवश्वास।
अनुिाद

“ऐसी घटना वपछली विजयादशमी के वदन घटी। तुम उनसे इस घटना के बारे में पूछ सकते हो और
उन्हें विश्वास वदलाना वक मैं सचमुच िहाूँ जाता हूँ।”

एतेक कवहते प्रभु विह्वल हइला ।

लोक विदाय कररते प्रभु धैयय धररला ॥ 67॥

एतेक कहिते-यि किकर; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु हवह्वल िइला–हवह्वल िो गये; लोक हवदाय कररते-भिों
को हवदा करने के हलए; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; धैयथ धररला-धैयथ रखा।

अनिु ाद

यह सब कहते हुए श्री चैतन्य महाप्रभु विह्वल हो गये, वकन्तु भिों की विदाई पूरी करने के उद्देश्य से
उन्होंने धैयय धारण कर रखा।

राघि पवण्डते कहेन िचन सरस ।

‘तोमार शुद्ध प्रेमे आवम हइ’ तोमार िश’ ॥ 68॥

राघव पहडिते-राघव पहडित को; किेन–किे; वचन–शब्द; स-रस-बिुत मधरु ; तोमार-तम्ु िारी; शद्ध
ु प्रेमे-शद्ध

भहि से; आहम िइ’-मैं ि;ाँ तोमार—तम्ु िारे ; वश–वश (कृ तज्ञ) में।

अनुिाद

इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु राघि पवण्डत से मीठी िाणी में बोले, मेरे प्रवत तुम्हारा प्रेम शुद्ध है,
वजसके वलए मैं तम्ु हारा कृतज्ञ हूँ।”

इूँहार कृष्ण-सेिार कथा शुन, सिय-जन ।

परम-पवित्र सेिा अवत सिोत्तम ॥ 69॥

इाँिार–इनकी; कृ ष्ण-सेवार-कृ ष्ण सेवा की; कर्ा-कर्ाएाँ; शनु -सनु ो; सवथ-जन-सभी लोग; परम-पहवत्र-परम
पहवत्र; सेवा–सेवा; अहत-अत्यन्त; सवथ-उत्तम-सवथश्रेष्ठ।
अनुिाद

तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने सबसे कहा, “सुनो! तुम लोग राघि पवण्डत द्वारा की गई शुद्ध कृष्ण-भवि
के बारे में सनु ो! राघि पवण्डत की सेिा परम शुद्ध तथा सिोत्तम है।

आर द्रव्य रहु–शुन नाररके लेर कथा ।

पाूँच गण्डा करर’ नाररके ल विकाय तथा ॥70॥

आर द्रव्य रिु-अन्य पदार्ों के अलावा; शनु -जरा सनु ो; नाररके लेर कर्ा-नाररयल भेंि करने की कर्ा; पााँच
गडिा करर’–पााँच गंिा के मल्ू य पर; नाररके ल–नाररयल; हवकाय-बेचा जाता िै; तर्ा-विााँ।

अनिु ाद

“अन्य िस्तुओ ं के अवतररि उसके द्वारा नाररयल भेंट वकये जाने के बारे में सुनो। एक नाररयल पाूँच
गण्डे में वबकता है।

िावटते कत शत िृषे लष लष फल ।

तथावप शुनेन यथा वमि नाररके ल ॥71॥

वाहिते-उसके उद्यान में; कत शत-हकतने सैंकड़ों; वृक्षे-वृक्ष िैं; लक्ष लक्ष फल-लाखों फल; तर्ाहप-तर्ाहप;
शनु ेन–सनु ते िै; यर्ा-जिााँ; हमष्ट नाररके ल-मीठे नाररयल िैं।

अनुिाद

यद्यवप उसके पास पहले से सैंकडों िृष तथा लाखों फल हैं, वकन्तु वफर भी िह उस स्थान के विषय
में सनु ने के वलए अत्यवधक उत्सक
ु रहता है, जहाूँ मीठा नाररयल वमलता हो।

एक एक फलेर मूकय वदया चारर-चारर पण ।

दश-क्रोश हैते आनाय कररया यतन ॥72॥

एक एक फलेर–प्रत्येक फल का; मल्ू य-मल्ू य; हदया-देकर; चारर-चारर पण-प्रत्येक फल का चार पण (एक पण


बीस गंिा के बराबर िोता िै); दश-क्रोश-बीस मील दरू ; िैते–से; आनाय–लाकर; कररया यतन-बड़े पररश्रम से।
अनुिाद

“िह बीस मील दूर स्थान से भी नाररयल को यत्नपूियक लाता है। और हर नाररयल के वलए चार पण
चुकाता है।

प्रवत-वदन पाूँच-सात फल छोलािा ।

सुशीतल कररते राखे जले डुबाइिा ॥73॥

प्रहत-हदन-प्रहत हदन; पााँच-सात-पााँच-सात; फल-फल; छोलािा-छीलकर; स-ु शीतल कररते-उन्िें ठंिा करने के
हलए; राखे-रखता िै; जले–पानी में; िुबाइिा-िुबोकर।

अनिु ाद

“प्रवतवदन पाूँच-सात नाररयल छीलकर उन्हें शीतल बनाये रखने के वलए जल के भीतर रखा जाता
है।

भोगेर समय पुनैः छुवल’ संस्करर’ ।

कृष्णे समपयण करे मख


ु वछद्र करर’ ॥74॥

भोगेर समय-भोग लगाने के समय; पनु ः पनु ः; छुहल’–छीलकर; संस्करर’–साफ करके ; कृ ष्णे-भगवान् कृ ष्ण
को; समपथण-भोग; करे -लगाता िै; मख
ु -चोिी पर; हछद्र करर’–हछद्र करके ।

अनुिाद

“भोग लगाते समय नाररयलों को वफर से छीला जाता है और साफ वकया जाता है। उनमें ऊपर से
छे द करने के बाद उन्हें कृष्ण को अवपयत वकया जाता है।

कृष्ण सेइ नाररके ल-जल पान करर’ ।

कभु शून्य फल राखेन, कभु जल भरर’ ॥75 ॥

कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; सेइ-उस; नाररके ल-जल-नाररयल का जल; पान करर’-पीकर; कभ-ु कभी-कभी; शन्ू य-
खाली; फल राखेन-फल को रख देते िैं; कभ-ु कभी-कभी; जल भरर’-जल से भरे रिते िैं।
अनुिाद

“इन नाररयलों का जल कृष्ण पीते हैं और कभी-कभी नाररयलों का जल वनकालकर उन्हें पूरी तरह
से खाली कर वदया जाता है। कभी-कभी इन नाररयलों में जल भरा रहता है।

जल-शून्य फल देवख’ पवण्डत–हरवषत ।

फल भाङ्वग’ शस्ये करे सत्पात्र पूररत ॥ 76 ॥

जल-शन्ू य-जल के हबना; फल-फल; देहख’–देखने से; पहडित-राघव पहडित; िरहषत-अहत प्रसन्न; फल
भाङ्हग’–फल को तोड़कर; शस्ये गदू े के सार्; करे –बनाता िै; सत-् पात्र-अन्य र्ाली; परू रत-भरता िै।

अनिु ाद

“जब राघि पवण्डत देखता है वक नाररयलों का जल पी वलया गया है, तो िह अत्यन्त प्रसन्न होता
है। तब िह नाररयल तोडकर गरी वनकालता और उसे वकसी अन्य थाल पर रख देता है।

शस्य समपयण करर’ बावहरे धेयान ।

शस्य खािा कृष्ण करे शन्ू य भाजन ॥77॥

शस्य-गदू ा; समपथण करर’-समपथण करके ; बाहिरे –महन्दर के बािर; धेयान-ध्यान करता िै; शस्य खािा-गदू ा
खाकर; कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; करे -करते िैं; शन्ू य-खाली; भाजन-वि र्ाली।

अनुिाद

“गरी चढ़ाने के बाद िह मवन्दर द्वार के बाहर ध्यान करता है। इस बीच भगिान् कृष्ण सारी गरी
खाकर थाल को ररि छोड देते हैं।

कभु शस्य खािा पुनैः पात्र भरे शांसे ।

श्रद्धा बाडे पवण्डतेर, प्रेम-वसन्धु भासे ॥ 78॥

कभ-ु कभी-कभी; शस्य खािा-गदू ा खाकर; पनु ः–पनु ः; पात्र-प्लेि; भरे -भर देते िैं; शांसे-गदु े से; श्रद्धा-श्रद्धा;
बाड़े-बढ़ जाती िै; पहडितेर-राघव पहडित की; प्रेम-हसन्ध-ु प्रेम-सागर में; भासे-तैरने लगता िै।
अनुिाद

“कभी-कभी गरी खाने के बाद कृष्ण थाल को नई गरी से भर देते हैं। इस तरह राघि पवण्डत की
श्रद्धा बढ़ती जाती है और िह प्रेम के सागर में तैरता रहता है।

एक वदन फल दश संस्कार कररया ।

भोग लागाइते सेिक आइल लिा ॥79॥

एक हदन-एक हदन; फल-फल; दश-दस; संस्कार कररया-साफ करने के बाद; भोग लागाइते-भोग लगाने के
हलए; सेवक-सेवक; आइल-आया; लिा-लेकर।

अनिु ाद

“एक वदन ऐसा हुआ वक एक नौकर अचायविग्रह पर चढ़ाने के वलए लगभग दस वछले हुए नाररयल
लाया।

अिसर नावह हय, विलम्ब हइल ।

फल-पात्र-हाते सेिक द्वारे त’ रवहल ॥80॥

अवसर नाहि िय-समय निीं र्ा; हवलम्ब िइल-देर िो गई र्ी; फल-पात्र-फलों का पात्र; िाते-िार्ों में; सेवक-
सेवक; द्वारे द्वार पर; त’–हनस्सन्देि; रहिल-रिा।

अनुिाद

“जब नाररयल लाए गये , उस समय उन नाररयलों को चढ़ाने के वलए समय न था, क्योंवक पहले ही
काफी विलम्ब हो चुका था। अतएि िह नौकर नाररयलों के पात्र को पकडे हुए दरिाजे पर ही खडा रहा।

द्वारे र उपर वभते तेंहो हात वदल ।

सेइ हाते फल छुवडल, पवण्डत देवखल ॥81॥

द्वारे र उपर-द्वार के ऊपर; हभते-छत पर; तेंिो–उसने; िात हदल-अपना िार् छुआ; सेइ िाते-उसी िार् से; फल
छुहिल-फल को छुआ; पहडित-राघव पहडित ने; देहखल-देखा।
अनुिाद

“राघि पवण्डत ने देखा वक उस नौकर ने दरिाजे के ऊपर की छत छुई है और उसी हाथ से नाररयलों
को छुआ है।

पवण्डत कहे,—द्वारे लोक करे गतायाते ।

तार पद-धवू ल उवड’ लागे उपर वभते ॥82॥

पहडित किे-राघव पहडित ने किा; द्वारे -द्वार के बीच से; लोक-साधारण लोग; करे -करते िैं; गतायाते-आना
और जाना; तार-उनके ; पद-धहू ल-पैरों की धहू ल; उहड़’-उड़कर; लागे-लगती िै; उपर-ऊपर; हभते-छत को।

अनिु ाद

“तब राघि पवण्डत ने कहा, 'लोग इस दरिाजे से लगातार आते -जाते रहते हैं। उनके पैरों की धूल
उडकर छत को छूती है।

सेइ वभते हात वदया फल परवशला ।

कृष्ण-योग्य नहे, फल अपवित्र हैला ॥83॥

सेइ हभते-उसी छत पर; िात हदया-अपना िार् छूकर; फल-फल; परहशला-छुआ; कृ ष्ण-योग्य निे-कृ ष्ण को
भेंि करने योग्य निीं; फल-फल; अपहवत्र िैला-अपहवत्र िो गया िै।

अनुिाद

“तुमने दरिाजे के ऊपर की छत छूकर नाररयलों का स्पशय वकया है। अब ये कृष्ण पर चढ़ाने लायक
नहीं रह गये, क्योंवक ये दूवषत हो गये हैं।’

तात्पयय

श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर का किना िै हक राघव पहडित कोई ऐसे-वैसे हसरहफरे मनष्ु य निीं र्े,
हजन्िें सफाई की धनु सवार र्ी। वे संसारी व्यहि निीं र्े। हनम्न चेतना िोने पर जब कोई व्यहि हकसी भौहतक वस्तु को
आध्याहत्मक मान लेता िै, तो वि भौमइज्यधी: किलाता िै। राघव पहडित कृ ष्ण के सनातन दास र्े और वे हजतनी
वस्तएु ाँ देखता र्े, वे सब भगवान् की सेवा से सम्बहन्धत िोती र्ीं। वे िमेशा इसी हदव्य हवचार में िूबे रिते र्े हक वि
िर वस्तु को हकस तरि कृ ष्ण की सेवा में लगाये। कभी-कभी कुछ नौहसहखए तर्ा हनम्न स्तर के भि भौहतक शहु द्ध
और अशहु द्ध के धरातल पर राघव पहडित का अनक
ु रण करने का प्रयत्न करते िैं। हकन्तु ऐसे अनक
ु रण से काम चलने
वाला निीं िै। जैसाहक चैतन्य-चररतामृत (अन्त्यलीला 4.174) में किा गया िै- भद्राभद्रवस्तज्ञु ान नाहिक 'प्राकृ ते'।
हदव्य धरातल पर न तो कुछ उच्च िै, न हनम्न, न िी शद्ध
ु िै, न अशद्ध
ु । भौहतक धरातल पर अच्छे तर्ा बरु े में अन्तर
हकया जाता िै, हकन्तु आध्याहत्मक धरातल पर िर वस्तु समान गणु वाली िोती िै।

‘द्वैते’ भद्राभद्रज्ञान, सब–’मनोधमथ’।

‘एइ भाल, एइ मन्द’-एइ सब ‘भ्रम’।

“भौहतक जगत् में अच्छे और बरु े का हवचार मानहसक तकथ िी िै। अतएव यि किना हक 'यि अच्छा िै और यि बरु ा
िै'—यि सब भल
ू िै।” (चैतन्य-चररतामृत, अन्त्य 4.176)

एत बवल’ फल फेले प्राचीर लङ्वघया ।

ऐछे पवित्र प्रेम-सेिा जगवत्जवनया ॥84॥

एत बहल’-यि किकर; फल फले-फलों को फें क हदया; प्राचीर लङ्हगया-सीमा की दीवार के पार; ऐछे -ऐसी;
पहवत्र-पहवत्र; प्रेम-सेवा-प्रेम सेवा; जगत् हजहनया-सारे जगत् को जीतकर।

अनुिाद

“राघि पवण्डत की सेिा ऐसी थी। उन्होंने उन नाररयलों को नहीं वलया, अवपतु उन्हें दीिार से बाहर
फेंक वदया। उनकी यह सेिा अनन्य प्रेम पर आवश्रत है और यह सारे जगत् को जीतने िाली है।

तबे आर नाररके ल संस्कार कराइल ।

परम पवित्र करर’ भोग लागाइल ॥85॥

तबे-तत्पिात;् आर-दसू रे ; नाररके ल-नाररयल; संस्कार कराइल-कािकर साफ हकये; परम पहवत्र करर’–उन्िें
शद्ध
ु रखने में अत्यन्त सावधानी बरतकर; भोग लागाइल-भोग लगाया।
अनुिाद

“इसके बाद राघि पवण्डत ने दूसरे नाररयल मूँगिाये, उन्हें साफ कराया और वछलिाया और बडी ही
सािधानी से अचायविग्रह को खाने के वलए अवपयत वकया।

एइ-मत कला, आम्र, नारङ्ग, काूँठाल ।

याहा याहा दूर-ग्रामे शुवनयाछे भाल ॥86॥

एइ-मत-इस प्रकार; कला-के ले; आम्र-आम; नारङ्ग-नारंहगयााँ; कााँठाल-कििल; यािा यािा-जो कुछ; दरू -
ग्रामे-दरू हस्र्त गााँवों में; शहु नयाछे -उन्िोंने सनु ा; भाल–अच्छा।

अनिु ाद

“इस तरह उन्होंने उत्तम के ले, आम, नारंगी, कटहल तथा दूर-दूर के गाूँिों से वजन-वजन उत्तम फलों के
विषय में सुना—सबको एकत्र वकया।

बहु-मूकय वदया आवन’ कररया यतन ।

पवित्र सस्ं कार करर’ करे वनिेदन ॥87॥

बिु-मल्ू य-ऊाँची कीमत; हदया-देकर; आहन’–लाकर; कररया यतन-बड़ी सावधानी से; पहवत्र--पहवत्र; संस्कार
करर’–छीलकर; करे हनवेदन-अचाथहवग्रि को भोग लगाया।

अनुिाद

“ये सारे फल दूर-दूर के स्थानों से काफी ऊूँ ची कीमत देकर एकत्र वकये गये। वफर उन्हें बडी
सािधानी तथा सफाई से काटकर राघि पवण्डत ने उन्होंने अचायविग्रह को अवपयत वकया।

एइ मत व्यञ्जनेर शाक, मूल, फल ।

एइ मत वचडा, हुडुम, सन्देश सकल ॥88॥

एइ मत-इस प्रकार; व्यञ्जनेर-सहब्जयों का; शाक-शाक (पालक); मल


ू -मल
ू ी; फल-फल; एइ मत-इस प्रकार;
हचड़ा-हचवड़ा; िुड़म-हपसा चावल; सन्देश-हमठाइयााँ; सकल-सभी।
अनुिाद

“इस तरह राघि पवण्डत बडी सािधानी तथा ध्यान से पालक, अन्य सवब्जयाूँ, मूली, फल, वचउडा,
चूवणयत चािल तथा वमठाईयाूँ तैयार करते।

एइ-मत वपठा-पाना, षीर-ओदन ।

परम पवित्र, आर करे सिोत्तम ॥89॥

एइ-मत-इस प्रकार; हपठा-पाना–हमठाई, खीर; क्षीर-ओदन-क्षीर; परम पहवत्र-परम पहवत्र; आर-और; करे -वे
करते िैं; सवथ-उत्तम-सवोत्तम स्वाहदष्ट ।

अनिु ाद

“उन्होंने पीठा, पाना, खीर तथा प्रत्येक िस्तु को बडे ही ध्यान से पकाई और पकाते समय इतनी
सफाई रखी वक भोजन उत्तम कोवट का तथा स्िावदि बने।

काशवम्द, आचार आवद अनेक प्रकार ।

गन्ध, िस्त्र, अलङ्कार, सिय द्रव्य-सार ॥10॥

काशहम्द-काशम्दी (एक प्रकार का अचार); आचार-अन्य अचार; आहद-आहद; अनेक प्रकार–अनेक प्रकार
के ; गन्ध–सगु न्ध; वस्त्र-वस्त्र; अलङ्कार-आभषू ण; सवथ-सब; द्रव्य-वस्तओ
ु ं में; सार–उत्तम।

अनुिाद

“राघि पवण्डत काशवम्द जैसे सभी प्रकार के अचार भी भोग लगाते। उन्होंने विविध सुगवन्धयाूँ,
िस्त्र, गहने तथा अच्छी से अच्छी िस्तएु ूँ अवपयत कीं।

एइ-मत प्रेमेर सेिा करे अनुपम ।

याहा देवख’ सिय-लोके र जुडाय नयन ॥91॥

एइ-मत-इस प्रकार; प्रेमेर सेवा-प्रेममयी सेवा; करे -करते िैं; अनपु म-अहद्वतीय; यािा देहख’–हजसे देखकर; सवथ-
लोके र-सभी लोगों के ; जड़ु ाय-प्रसन्न िो जाते िैं; नयन-नेत्र।
अनुिाद

“इस तरह राघि पवण्डत अवद्वतीय विवध से भगिान् की सेिा करते। उन्हें देखकर सारे लोग अत्यन्त
सन्तिु होते।”

एत बवल’ राघिेरे कै ल आवलङ्गने ।

एइ-मत सम्मावनल सिय भि-गणे ॥92॥

एत बहल’-यि किकर; राघवेरे-राघव पहडित का; कै ल आहलङ्गने-उन्िोंने आहलंगन हकया; एइ-मत-इस


प्रकार; सम्माहनल-सम्मान हकया; सवथ-सब; भि-गणे-भिों का।

अनिु ाद

इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने दयापूियक राघि पवण्डत का आवलंगन वकया। महाप्रभु ने अन्य
सभी भिों का भी इसी तरह सम्मान वकया।

वशिानन्द सेने कहे कररया सम्मान ।

िासदु ेि-दत्तेर तवु म कररह समाधान ॥ 93 ॥

हशवानन्द सेने–हशवानन्द सेन को; किे-किा; कररया सम्मान-सम्मानपवू थक; वासदु वे -दत्तेर–वासदु ेव दत्त का;
तहु म-तमु ; कररि-रखो; समाधान-ध्यान।

अनुिाद

महाप्रभु ने वशिानन्द सेन से भी आदरपूियक कहा, “िासुदेि दत्त का ठीक से ध्यान रखना।

परम उदार इूँहो, ये वदन ये आइसे ।

सेइ वदने व्यय करे , नावह राखे शेषे ॥ 94॥

परम उदार–परम उदार; इाँिो-वि; ये हदन-प्रहतहदन; ये आइसे–जो कुछ उसे हमलता िै; सेइ हदने—उसी हदन;
व्यय करे -खचथ कर देता िै; नाहि-निीं; राखे-रखता; शेषे कुछ शेष।

अनिु ाद
“िासुदेि दत्त अत्यन्त उदार है। उसे प्रवतवदन वजतनी आमदनी होती है, उसे िह खचय कर देता है। िह
कुछ भी बचाकर नहीं रखता।

‘गहृ स्थ’ हयेन इूँहो, चावहये सञ्चय ।

सञ्चय ना कै ले कुटुम्ब-भरण नावह हय ॥ 95 ॥

गृिस्र्-गृिस्र्; ियेन-िै; इाँिो-वि (वासदु ेव दत्त); चाहिये सञ्चय-कुछ धन बचाना चाहिए; सञ्चय ना कै लेधन
बचाए हबना; कुिुम्ब-भरण-पररवार का पालन-पोषण; नाहि िय–सम्भव निीं िै।

अनिु ाद

“गृहस्थ होने के कारण िासदु ेि दत्त को कुछ धन बचाना चावहए। वकन्तु िह ऐसा नहीं करता,
इसवलए उसके वलए अपने पररिार का भरण-पोषण कर पाना अत्यन्त कवठन है।

इहार घरे र आय-व्यय सब-तोमार स्थाने ।

‘सर खेल’ हिा तुवम कररह समाधाने ॥ 96 ॥

इिार-वासदु वे दत्त का; घरे र–पाररवाररक मामलों के ; आय-व्यय-आय और व्यय; सब-सब; तोमार स्र्ाने
तम्ु िारे स्र्ान पर; सर खेल ििा–प्रबन्धक िोकर; तुहम-तमु ; कररि समाधाने-व्यवस्र्ा करो।

अनुिाद

“कृपया िासुदेि दत्त के पाररिाररक मामलों पर ध्यान दें। उनके व्यिस्थापक बनकर समुवचत प्रबन्ध
करो।

तात्पयय

वासदु वे दत्त तर्ा हशवानन्द सेन अड़ोस-पड़ोस में रिने वाले र्े, हजसे अब कुमारिट्ट या िाहलसिर किते िैं।

प्रवत-िषे आमार सब भि-गण लिा ।

गुवण्डचाय आवसबे सबाय पालन कररया ॥ 97॥


प्रहत-वषे प्रहत वषथ; आमार-मेरे; सब-सब; भि-गण लिा-भिों के सार्; गहु डिचाय-गहु डिचा उत्सव पर
सफाई; आहसबे-तमु आओगे; सबाय-िर एक का; पालन कररया-पोषण करने।

अनिु ाद

“तुम लोग हर िषय आना और मेरे सारे भिों को अपने साथ गुवण्डचा उत्सि में लाना। मेरी यह भी
विनती है वक उन सबका भरण-पोषण करना।”

कुलीन-ग्रामीरे कहे सम्मान कररया ।

प्रत्यब्द आवसबे यात्राय पट्ट-डोरी लिा ॥ 98॥

कुलीन-ग्रामीरे -कुलीन ग्राम की हनवाहसयों को; किे-किा; सम्मान कररया-सम्मानपवू थक; प्रहत-अब्द-प्रहत वषथ;
आहसबे–कृ पया आओ; यात्राय रर्यात्रा उत्सव पर; पट्ट-िोरी–रे श्मी रस्सी; लिा–लेकर।

अनुिाद

इसके बाद महाप्रभु ने कुलीन ग्राम के सारे वनिावसयों को आदरपूियक आमवन्त्रत वकया वक िे
प्रवतिषय आयें और रथयात्रा उत्सि के समय भगिान् जगन्नाथ को खींचे जाने के वलए रे शमी रस्सी लायें।

गुणराज-खाूँन कै ल श्री-कृष्ण-विजय ।

ताहाूँ एक-िाक्य ताूँर आछे प्रेममय ॥ 99॥

गणु राज-खााँन-गणराज खान ने; कै ल–हकया; श्री-कृ ष्ण-हवजय-श्रीकृ ष्ण हवजय नामक ग्रन्र्; तािााँ-विााँ; एक-
वाक्य-एक वाक्य; तााँर-इसका; आछे -िै; प्रेम-मय-कृ ष्ण-प्रेम से पणू थ।

अनिु ाद

वफर श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “कुलीन ग्राम के श्री गुणराज खान ने श्रीकृष्णविजय नामक एक
ग्रंथ रचा है, वजसमें लेखक के कृष्ण-प्रेम को प्रकट करने िाला एक िाक्य है।”

तात्पयय
श्रीकृ ष्णहवजय बगं ाल में हलखा गया प्रर्म काव्यग्रर्ं माना जाता िै। श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर किते
िैं हक यि पस्ु तक बााँग्ला शकाब्द 1395 (1473 ई.) में हलखी गई। यि 7 वषों में पणू थ िुई (1402 शकाब्द में)। यि
सरल भाषा में हलखी गई र्ी, हजसे अधथहशहक्षत बंगाली परुु ष तर्ा हस्त्रयााँ भी पढ़ सकते र्े। यिााँ तक हक कम पढ़े-
हलखे सामान्य व्यहि भी इस पस्ु तक को पढ़ और समझ लेते र्े। इसकी भाषा अहधक अलंकारमयी निीं िै और काव्य
किीं-किीं सनु ने में मधरु भी निीं िै। यद्यहप दोिे में चौदि मात्राएाँ िोनी चाहिए, हकन्तु किीं 16 तो किीं 12 या 13
मात्राएाँ भी िैं। इसमें प्रयि
ु कुछ शब्द के वल स्र्ानीय लोग िी समझ सकते र्े, हकन्तु आज भी यि पस्ु तक इतनी
लोकहप्रय िै हक कोई भी पस्ु तक-भंिार इसके हबना पणू थ निीं िै। जो कृ ष्णभावनामृत में प्रगहत करना चािते िैं, उनके
हलए यि पस्ु तक अत्यन्त मूल्यवान िै।

श्री गणु राज खान सवोत्कृ ष्ट वैष्णवों में से एक र्े और उन्िोंने सामान्य लोगों के समझने के हलए श्रीमद्भागवत
के दशम तर्ा एकादश स्कन्धों का अनवु ाद हकया र्ा। श्रीकृ ष्णहवजय नामक पस्ु तक की प्रशसं ा श्री चैतन्य मिाप्रभु ने
बिुत की र्ी और यि समस्त वैष्णवों के हलए अत्यन्त मल्ू यवान िै। श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने गणु राज
खान के पररवार का इहतिास तर्ा वंश-वृक्ष हदया िै। जब आहदशरू नामक एक बंगाली सम्राि कान्यकुब्ज अर्वा
कन्नोज से पिली बार यिााँ आया, तो वि अपने सार् पााँच ब्राह्मण और पााँच कायस्र् लेता आया र्ा। चाँहू क सम्राि के
सार् उनके हनजी सहं गयों का िोना आवश्यक माना जाता िै, अतः ये ब्राह्मण राजा को उच्चतर आध्याहत्मक हवषयों में
तर्ा कायस्र् अन्य सेवाओ ं में सिायता प्रदान करने के हलए उनके सार् आये र्े। उत्तरी भारत में कायस्र्ों को शद्रू
माने जाते िैं, हकन्तु बंगाल में इन्िें उच्च जाहत के माने जाते िैं। यि त्य िै हक बंगाल में ये कायस्र् उत्तरी भारत से,
हवशेषतया कान्यकुब्ज (कन्नौज) से आये र्े। श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर किते िैं हक कान्यकुब्ज से आने
वाले कायस्र् उच्च जाहत के लोग र्े। इनमें से दशरर् वसु एक मिापरुु ष र्े और उसकी तेरिवीं पीढ़ी में गणु राज खान
िुए।

उनका असली नाम मालाधर वसु र्ा, लेहकन बंगाल के सम्राि ने उन्िें खान की उपाहध प्रदान की। इस तरि वे
गणु राज खान किलाये। भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर ने गणु राज खान की वंशावली इस प्रकार दी िै-(1) दशरर् वस;ु
(2) कुशल; (3) शभु शंकर; (4) िसं ; (5) शहिराम (बागाडिा), महु िराम (माइनगर) तर्ा अलंकार (बंगज); (6)
दामोदर; (7) अनन्तराम; (8) गणु ीनायक तर्ा वीणानायक। बारिवीं पीढ़ी में भगीरर् तर्ा तेरिवी पीढ़ी में मालाधर
वसु अर्ाथत् गणु राज खान िुए। श्री गणु राज खान के 14 पत्रु र्े, हजनमें से दसू रे पत्रु लक्ष्मीनार् वसु को सत्यराज खान
की उपाहध प्राप्त िुई। उसका पत्रु रामानन्द वसु र्ा; अतएव वि पन्द्रिवीं पीढ़ी में िुआ। गणु राज खान सप्रु हसद्ध धनवान
व्यहि र्े। आज भी उनके मिल, हकला तर्ा महन्दर अहस्तत्व में िैं, हजनसे िम अनमु ान लगा सकते िैं हक गणु राज
खान के पास हकतनी सम्पहत्त र्ी। श्री गणु राज खााँन बल्लाल सेन द्वारा प्रारम्भ की गई नकली कुलीनता की कभी
परवाि निीं करते र्े।

“नन्दनन्दन कृष्ण–मोर प्राण-नाथ” ।

एइ िाक्ये विकाइनु ताूँर िंशेर हात ॥100॥

नन्द-नन्दन कृ ष्ण-नन्द मिाराज का बेिा कृ ष्ण; मोर प्राण-नार्–मेरे प्राणनार्; एइ वाक्ये-इस वणथन के कारण;
हवकाइन-ु मैं हबक गया; तााँर-उसके ; वंशेर िात-वंशजों के िार्।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “नन्द महाराज के पुत्र श्रीकृष्ण मेरे प्राणाधार हैं।’ मैं इसी िाक्य से
गुणराज खान के उत्तरावधकाररयों के हाथों वबक गया हूँ।

तात्पयय

यिााँ हजस श्लोक के अंश का उल्लेख िै, वि परू ा श्लोक इस तरि िै :

एक-भावे वन्द िरर योड़ करर’ िात ।

नन्दनन्दन कृ ष्ण–मोर प्राण-नार् ॥

“मैं िार् जोड़कर नन्द मिाराज के पत्रु कृ ष्ण की वन्दना करता ि-ाँ वे मेरे प्राणनार् िैं।”

तोमार वक कथा, तोमार ग्रामेर कुकुर ।

सेइ मोर वप्रय, अन्य-जन रहु दूर ॥101॥

तोमार-तम्ु िारा; हक कर्ा-क्या किें; तोमार-तम्ु िारे ; ग्रामेर-गााँव का; कुकुर-एक कुत्ता; सेइ-वि; मोर-मझु े; हप्रय–
अहतहप्रय; अन्य-जन-अन्यों का; रिु दरू -क्या किना।

अनिु ाद
“तुम्हारे वलए तो क्या कहना, तुम्हारे गाूँि का रहने िाला कुत्ता भी मुझे अत्यन्त वप्रय है। तो वफर
अन्यों के बारे में तो कहना ही क्या?”

तबे रामानन्द, आर सत्यराज खाूँन ।

प्रभुर चरणे वकछु कै ल वनिेदन ॥102॥

तबे-इसके बाद; रामानन्द-रामानन्द वस;ु आर-और; सत्यराज खााँन-सत्यराज खान; प्रभरु चरणे-श्री चैतन्य
मिाप्रभु के चरणकमलों पर; हकछु-कुछ; कै ल-हकया; हनवेदन-हनवेदन।

अनिु ाद

इसके बाद रामानन्द िसु तथा सत्यराज खान दोनों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों में कुछ प्रश्न
वनिेदन वकये।

गृहस्थ विषयी आवम, वक मोर साधने ।

श्री-मुखे आज्ञा कर प्रभ–ु वनिेवद चरणे ॥ 103 ॥

गृिस्र्-गृिस्र्; हवषयी-भौहतकतावादी व्यहि; आहम-मैं; हक-क्या; मोर साधने-आध्याहत्मक जीवन में मेरी
प्रगहत की प्रहक्रया; श्री-मुखे-आपके मख
ु से; आज्ञा कर-कृ पया आज्ञा करो; प्रभ-ु मेरे प्रभ;ु हनवेहद चरणे-मैं आपके
चरणकमलों पर हनवेदन करता ि।ाँ

अनुिाद

सत्यराज खान ने कहा, “हे प्रभु, गृहस्थ तथा भौवतकतािादी व्यवि होने के कारण मैं आध्यावत्मक
जीिन में आगे बढ़ने की विवध नहीं जानता। इसीवलए मैं आपके चरणकमलों की शरण स्िीकार करता हूँ
और प्राथयना करता हूँ वक आप मुझे आदेश दें।”

प्रभु कहेन,—’कृष्ण-सेिा’, ‘िैष्णि-सेिन’ ।

‘वनरन्तर कर कृष्ण-नाम-सङ्कीतयन’ ॥ 104॥


प्रभु किेन–मिाप्रभु ने उत्तर हदया; कृ ष्ण-सेवा-कृ ष्ण की सेवा; वैष्णव-सेवन-वैष्णवों की आज्ञा का पालन करते
िुए; हनरन्तर हनरन्तर; कर-करो; कृ ष्ण-नाम-सङ्कीतथन-कृ ष्ण-नाम का संकीतथन।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने उत्तर वदया, “तुम वनरन्तर कृष्ण के पवित्र नाम का कीतयन करो और जब भी
सम्भि हो, उनकी तथा उनके भि िैष्णिों की सेिा करो।”

सत्यराज बले,—िैष्णि वचवनब के मने? ।

के िैष्णि, कह ताूँर सामान्य लषणे ॥105॥

सत्यराज बले-सत्यराज खान ने किा; वैष्णव-एक वैष्णव को; हचहनब के मने-मैं कै से पिचानाँगा; के वैष्णव-
कौन वैष्णव िै; कि-कृ पया किो; तााँर-उसके ; सामान्य लक्षणे-सामान्य लक्षण।

अनुिाद

यह सुनकर सत्यराज ने कहा, “मैं िैष्णि को कै से पहचान सकता हूँ? कृपया मुझे बतायें वक िैष्णि
कौन होता है? उसके सामान्य लषण क्या हैं?”

प्रभु कहे,–“याूँर मुखे शुवन एक-बार ।

कृष्ण-नाम, सेइ पूज्जय,—श्रेष्ठ सबाकार” ॥106॥

प्रभु किे-चैतन्य मिाप्रभु ने उत्तर हदया; यााँर मख


ु े-हजसके मख
ु में; शहु न-मैं सनु ता ि;ाँ एक-बार-एक बार; कृ ष्ण-
नाम-भगवान् कृ ष्ण का पहवत्र नाम; सेइ पज्ू य-वि पजू नीय िै; श्रेष्ठ सबाकार–सभी मनष्ु यों में श्रेष्ठ।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “जो भी व्यवि कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार भी उच्चारण करता है ,
िह पूज्जय है और सिोच्च मानि है।

तात्पयय
श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ठाकुर किते िैं हक एक बार कृ ष्ण का पहवत्र नाम लेने से िी मनष्ु य पणू थ बनता िै
और उसे वैष्णव के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसकी पहु ष्ट श्रील रूप गोस्वामी अपने उपदेशामृत (5) में करते िैं :
कृ ष्णेहत यस्य हगरर तं मनसाहद्रयेत । पहवत्र नाम में ऐसी श्रद्धा के सार् मनष्ु य कृ ष्णभावना में जीवन का प्रारम्भ कर
सकता िै, हकन्तु एक सामान्य व्यहि इतनी श्रद्धा के सार् कृ ष्ण के पहवत्र नाम का उच्चारण निीं कर सकता। मनष्ु य
को कृ ष्ण के पहवत्र नाम को हदव्यता के स्वरूप, पणू थ परुु षोत्तम भगवान् के सार् एक समान िोने के रूप में स्वीकार
करना चाहिए। जैसाहक पद्म परु ाण में किा गया िै : “कृ ष्ण के पहवत्र नाम कृ ष्ण से अहभन्न िै और यि हचन्तामहण रत्न
की तरि िै।। कृ ष्ण-नाम हनतान्त हदव्य एवं शाश्वत रूप से भौहतक कल्मष से मि
ु ध्वहन में कृ ष्ण का साकार रूप िै।”
इस तरि मनष्ु य को समझना िोगा हक “कृ ष्ण” नाम तर्ा स्वयं कृ ष्ण अहभन्न िैं। ऐसी श्रद्धा के सार् मनष्ु य को नाम-
कीतथन करते रिना िोगा।

नया भि शद्ध
ु भि के भहिमय अवयवों को निीं समझ सकता। हकन्तु जब वि भहि में लगता िै, हवशेषतया
अचाथहवग्रि की पजू ा करता िै और प्रामाहणक गरुु के आदेशानसु ार चलता िै, तब वि शद्ध
ु भि बन जाता िै। कोई भी
व्यहि ऐसे भि से कृ ष्णभावना के हवषय में श्रवण करने का लाभ उठा सकता िै और इस तरि धीरे -धीरे शद्ध
ु बन
सकता िै। दसू रे शब्दों में, कोई भी भि जो यि मानता िै हक भगवान् का नाम भगवान् से अहभन्न िै, वि शद्ध
ु भि िै,
भले िी वि अभी कहनष्ठ अवस्र्ा में क्यों न िो। उसकी सगं हत से अन्य लोग भी वैष्णव बन सकते िैं।

जो व्यहि के वल िरर के अचाथहवग्रि की पजू ा श्रद्धापवू थक करता िै, हकन्तु भिों तर्ा अन्यों को समहु चत आदर
निीं देता, वि भौहतकतावादी भि किलाता िै। इसकी पहु ष्ट श्रीमद्भागवत (11.2.47) में िुई िै :

अचाथयामेव िरये पजू ां यः पजू ा श्रद्धयेिते ।

न तद्भिे षु चान्येषु स भिः प्राकृ तः स्मृतः ॥

हकन्तु ऐसे कहनष्ठ भि की सगं हत से भी मनष्ु य भि बन सकता िै। श्री चैतन्य ने सनातन गोस्वामी को हशक्षा
देते समय किा र्ा :

श्रद्धावान् जन िय भहि अहधकारी ।

‘उत्तम’ ‘मध्यम’ ‘कहनष्ठ’–श्रद्धा-अनसु ारी ॥

यािार कोमल-श्रद्धा, से ‘कहनष्ठ’ जन ।


क्रमे क्रमे तेंिो भि िइबे ‘उत्तम’ ॥

रहत-प्रेम-तारतम्ये भि-तरतम ।

“हजस व्यहि ने दृढ़ श्रद्धा प्राप्त कर ली िै, वि कृ ष्णभावनामृत में अग्रसर िोने का असली पात्र िै। श्रद्धा के अनसु ार
उत्तम, मध्यम तर्ा कहनष्ठ भि िोते िैं। हजसमें प्रारहम्भक श्रद्धा िोती िै, वि कहनष्ठ अहधकारी या नौहसहखया भि
किलाता िै। हकन्तु कहनष्ठ भि भी गरुु द्वारा हनधाथररत हवहध-हवधानों का कड़ाई से पालन करते रिने पर उच्च भि बन
सकता िै। अतः कृ ष्ण में श्रद्धा और अनरु ाग के आधार पर यि जाना जा सकता िै हक कौन मध्यम-अहधकारी िै और
कौन उत्तम-अहधकारी। ( चैतन्य-चररतामृत, मध्य 22.64, 69, 71)

इस तरि यि हनष्कषथ हनकलता िै हक एक कहनष्ठ अहधकारी भी कहमथयों तर्ा ज्ञाहनयों से बेितर िै, क्योंहक उसे
भगवान् के पहवत्र नाम के कीतथन में पणू थ हवश्वास रिता िै। एक कमी या ज्ञानी हकतना भी मिान् क्यों न िो, वि भगवान्
हवष्ण,ु उनके नाम या उनकी भहि में श्रद्धा निीं रखता। कोई धाहमथक रीहत से हकतना िी उन्नत क्यों न िो, हकन्तु यहद
वि भहि में प्रहशहक्षत निीं िै, तो आध्याहत्मक धरातल पर उसे कोई श्रेय निीं हमल सकता। गरुु द्वारा हनधाथररत हवहध-
हवधानों के अनसु ार अचाथहवग्रि की पजू ा में लगा रिने वाला कहनष्ठ भि भी कमी तर्ा ज्ञानी से श्रेष्ठ िोता िै।

“एक कृष्ण-नामे करे सिय-पाप षय ।

नि-विधा भवि पूणय नाम हैते हय ॥ 107॥

एक कृ ष्ण-नामे-कृ ष्ण का एक पावन नाम; करे -कर सकता िै; सवथ-पाप-सभी पाप-फलों का; क्षय-नाश; नव-
हवधा–नौ हवहधयााँ; भहि-भहि की; पणू थ–पणू थ; नाम िैते-पावन नाम का कीतथन करने मात्र से; िय-िै।

अनिु ाद

“कृष्ण के पवित्र नाम का एक बार कीतयन करने मात्र से मनुष्य सारे पापी जीिन के सारे फलों से छूट
जाता है। पवित्र नाम का कीतयन करने से मनुष्य भवि की निों विवधयों को पूरा कर सकता है।

तात्पयय

नौ प्रकार की भहि (नवधा भहि) का उल्लेख श्रीमद्भागवत (7.5.23-24) में िुआ िै :

श्रवणं कीतथनं हवष्णोः स्मरणं पादसेवनम् ।


अचथनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्महनवेदनम् ॥

इहत पंसु ाहपथता हवष्णो भहििेन्नवलक्षणाः ।

हक्रयेत भगवत्यद्धा तन्मन्येऽधीतमत्तु मम् ॥

सनु ना, कीतथन करना, पहवत्र नाम, रूप, लीलाओ,ं गणु ों और संहगयों का स्मरण करना, समय, स्र्ान तर्ा कताथ
के अनसु ार सेवा करना, अचाथहवग्रि की पजू ा करना, प्रार्थना करना, स्वयं को सदा कृ ष्ण का सनातन सेवक समझना,
भगवान् के सार् मैत्रीभाव स्र्ाहपत करना तर्ा उन्िें सवथस्व समहपथत करना भहि की प्रहक्रयाएाँ िैं। भहि के ये नौ कायथ
जब कृ ष्ण को सीधे समहपथत हकये जाते िैं, तब वे जीवन की सवोच्च उपलहब्ध िोते िैं। यिी प्रामाहणक शास्त्रों का
हनणथय िै।”

जिााँ तक के वल एक बार कृ ष्ण के पहवत्र नाम लेने से सभी पाप-फलों से मि


ु िो जाने का प्रश्न िै, मनष्ु य को
भगवन्नाम का कीतथन हनरपराध भाव से करना चाहिए। तब के वल एक बार भगवन्नाम का जप जीव को सारे पाप-फलों
से मि
ु करने के हलए पयाथप्त िै। हनरपराध भाव से जप करने वाला ऐसा व्यहि अत्यन्त मित्त्वपणू थ एवं पजू नीय िै।
हनस्सन्देि श्रवण, कीतथन इत्याहद भहि की नवों हवहधयााँ भगवान् के पहवत्र नाम का हनरपराध कीतथन करने से तुरन्त प्राप्त
की जा सकती िैं।

इस सन्दभथ में श्रील जीव गोस्वामी अपनी पस्ु तक भहि-सन्दभथ (173) में किते िैं- यद्यहप अन्या भहिः कलौ
कतथव्या, तदा कीतथनाख्य-भहिसयं ोगेनैव। भहि की नवों हवहधयों में से कीतथन अत्यन्त मित्त्वपणू थ िै। इसीहलए श्रील
जीव गोस्वामी का आदेश िै हक अचथन, वन्दन, दास्य, सख्य आहद अन्य हवहधयों को तो सम्पन्न करना िी चाहिए,
हकन्तु उनके पिले और बाद में पहवत्र नाम का कीतथन िोना चाहिए। इसीहलए िमने अपने सारे के न्द्रों में यि हवहध
आरम्भ की िै। अचथन, आरहत, भोग, समपथण, अचाथहवग्रि अलंकरण के पिले और बाद में भगवान् के पहवत्र नाम का
कीतथन-िरे कृ ष्ण, िरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, िरे िरे / िरे राम, िरे राम, राम राम, िरे िरे -हकया जाता िै।

दीषा-पुरियाय-विवध अपेषा ना करे ।

वजह्वा-स्पशे आ-चण्डाल सबारे उद्धारे ॥108॥

दीक्षा-दीक्षा; परु ियाथ-दीक्षा से पिले का कायथ; हवहध-हवहध-हवधान; अपेक्षा-पर हनभथरता; ना-निीं; करे -करती
िै; हजह्वा-जबान; स्पशे-स्पशथ करके ; आ-चडिाल–एक चाडिाल भी; सबारे प्रत्येक का; उद्धारे -उद्धार करती िै।
अनुिाद

“न तो दीषा लेने की आिश्यकता है न दीषा के पूिय के आिश्यक कृत्य करने की। मनुष्य को
के िल होठों पर पवित्र नाम लाना होता है। इस प्रकार अधम से अधम व्यवि (चण्डाल) का भी उद्धार हो
जाता है।

तात्पयय

श्रील जीव गोस्वामी ने अपनी पस्ु तक भहि-सन्दभथ (283) में दीक्षा की व्याख्या की िै।

हदव्यं ज्ञानं यतो दद्यात्

कुयाथत् पापस्य सङ्क्षयम् ।

तस्मात् दीक्षेहत सा प्रोिा

देहशकै स्तत्त्वकोहवदैः ॥

“दीक्षा वि हवहध िै, हजससे मनष्ु य हदव्य ज्ञान को जाग्रत कर सकता िै और अपने सारे पापकमों के फलों का क्षय कर
सकता िै। प्रामाहणक शास्त्रों के अध्ययन में पिु व्यहि इस हवहध को दीक्षा नाम से जानता िै।” दीक्षा के हवधानों की
व्याख्या िररभहि-हवलास (2.3-4) तर्ा भहि- सन्दभथ (283) में की गई िै :

हद्वजानामनपु ेतानां स्वकमाथध्ययनाहदषु

यर्ाहधकारो नास्तीि स्याच्चोपनयनादनु ।

तर्ात्रादीहक्षतानां तु मन्त्रदेवाचथनाहदषु

नाहधकारोऽस्त्यतः कुयाथदात्मानं हशवसंस्ततु म् ॥

“भले िी कोई ब्राह्मण कुल में उत्पन्न क्यों न िुआ िो, वि दीक्षा तर्ा जनेऊ के हबना वैहदक कमथकाडि सम्पन्न निीं
कर सकता। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी मनष्ु य दीक्षा तर्ा यज्ञोपवीत सस्ं कार के बाद िी ब्राह्मण बनता िै। ब्राह्मण
के रूप में दीहक्षत िुए हबना वि ठीक से पहवत्र नाम की पजू ा निीं कर सकता।”
वैष्णव हनयमों के अनसु ार मनष्ु य को ब्राह्मण रूप में दीहक्षत िोना चाहिए। िररभहि-हवलास (2.6) में हवष्णु
यामल का हनम्नहलहखत उद्धरण हदया गया िै :

अदीहक्षतस्य वामोरु कृ तं सवं हनरर्थकम् ।

पशयु ोहनमवाप्नोहत दीक्षाहवरहितो जनः॥

“प्रामाहणक गरुु से दीक्षा प्राप्त हकये हबना मनष्ु य के सारे भहि-कायथ व्यर्थ जाते िैं। हजस व्यहि की ठीक से दीक्षा निीं
िुई रिती, वि पनु ः पशु योहन को प्राप्त िो सकता िै।”

िररभहि-हवलास (2.10) में आगे भी उद्धरण िै :

अतो गरुु ं प्रणम्यैवं सवथस्वं हवहनवेद्य च ।

गृिणीयाद्वैष्णवं मन्त्रं दीक्षापवू थ हवधानतः ॥

“प्रामाहणक गरुु की शरण में जाना िर मनष्ु य का धमथ िै। उसे अपना तन, मन तर्ा बहु द्ध–सब कुछ देकर गरुु से वैष्णव
दीक्षा लेनी चाहिए।”

भहि-सन्दभथ (298) में तत्त्व सागर का हनम्नहलहखत उद्धरण हमलता िै :

यर्ा काञ्चनतां याहत कास्यं रसहवधानतः ।

तर्ा दीक्षाहवधानेन हद्वजत्वं जायते नृणाम् ॥

“जब कासं े को पारे से स्पशथ कराया जाता िै, तो वि रासायहनक हक्रया द्वारा सोने में बदल जाता िै। इसी तरि हवहधवत्
दीक्षा िोने पर व्यहि में ब्राह्मण के गणु आ जाते िैं।”

परु ियाथ हवहध की व्याख्या करते िुए िररभहि-हवलास (17.11-12) में अगस्त्य-संहिता के हनम्नहलहखत
श्लोक उद्धतृ हकये गये िैं :

पजू ा त्रैकाहलकी हनत्यं जपस्तपथणमेव च ।

िोमो ब्राह्मणभहु िि परु िरणमच्ु यते ॥

गरु ोलथब्धस्य मन्त्रस्य प्रसादेन यर्ाहवहध ।


पञ्चाङ्गोपासनाहसदध्् यै परु िैतहद्वधीयते ॥

“प्रातः, दोपिर तर्ा सायंकाल अचाथहवग्रि का पजू न, िरे कृ ष्ण मन्त्र का कीतथन, तपथण, अहग्न-यज्ञ तर्ा ब्राह्मणों को
भोजन कराना चाहिए। ये पााँचों कायथ परु ियाथ किलाते िैं। गरुु से दीक्षा लेते समय पणू थ सफलता प्राप्त करने के हलए
पिले इन परु ियाथ कायों को सम्पन्न करना चाहिए।”

परु ः शब्द का अर्थ िै “पिले” और चयाथ का अर्थ िै “कायथ।” इन कायों के आवश्यक िोने के कारण िी िम
अन्तराथष्रीय कृ ष्णभावनामृत संघ में हशष्यों को तरु न्त दीहक्षत निीं करते। दीक्षा के पवू थ छ: मास तक हशष्य को पिले
आरती तर्ा शास्त्रों की कक्षाओ ं में भाग लेना िोता िै, हवहध-हवधानों का पालन करना िोता िै और अन्य भिों की
संगहत करनी िोती िै। जब वि परु ियाथ-हवहध में वस्तुतः अग्रसर िो जाता िै, तब स्र्ानीय महन्दर-अध्यक्ष दीक्षा के
हलए उसकी सस्ं तहु त करता िै। ऐसा निीं िै हक हनयमों को परू ा हकये हबना हकसी को सिसा दीहक्षत हकया जा सके ।
जब वि िरे कृ ष्ण मन्त्र का प्रहतहदन सोलि माला जप करके , हनयमों का पालन करके तर्ा कक्षाओ ं में उपहस्र्त रिकर
उन्नहत करता िै, तब अगले छि मिीनों में उसका यज्ञोपवीत कर हदया जाता िै।

िररभहि-हवलास (17.4-5, 7) में किा गया िै ।

हवना येन न हसद्धः स्यान्मन्त्रो वषथशतैरहप ।

कृ तेन येन लभते साधको वाहञ्छतं फलम् ॥

परु िरण सम्पन्नो मन्त्रो हि फलधायकः।

अतः परु हष्क्रयां कुयाथत् मन्त्रहवत् हसहद्धकङ्क्षया ॥

परु हष्क्रया हि मन्त्राणां प्रधानं वीयथमच्ु यते ।

वीयथिीनो यर्ा देिी सवथकमथसु न क्षमः।

परु िरणिीनो हि तर्ा मन्त्रः प्रकीहतथतः ।।

“परु ियाथ हवहध को सम्पन्न हकये हबना इस मन्त्र का सैंकड़ों वषों तक कीतथन करने पर भी पणू थता प्राप्त निीं की जा
सकती। हकन्तु हजसने परु ियाथ हवहध का पालन हकया िै, उसे सरलता से सफलता प्राप्त िो सकती िै। अपनी दीक्षा की
पणू थता चािने वाले को चाहिए हक पिले वि परु ियाथ हवहध का पालन करे । परु ियाथ हवहध वि जीवनी शहि िै, हजससे
मन्त्रोच्चार में सफलता प्राप्त िोती िै। इस जीवनी शहि के हबना कुछ भी निीं हकया जा सकता। इसी तरि परु ियाथ
हवहध की जीवनी शहि के हबना कोई मन्त्र हसद्ध निीं िोता।”

श्रील जीव गोस्वामी ने अपने ग्रन्र् भहि-सन्दभथ (283-84) में अचाथहवग्रि की पजू ा और दीक्षा के मित्त्व का
वणथन इस प्रकार हकया िै :

यद्यहप श्रीभागवत-मते पञ्चरात्राहद-यत् अचथन-मागथस्य आवश्यकत्वं नाहस्त तद् हवनाहप शरणापत्याहदनाम् एकतरे णाहप
परुु षार्थ-हसद्धेरहभहितत्वात,् तर्ाहप श्रीनारदाहद-वतथमानसु रहद्भः श्रीभगवता सि सम्बन्ध-हवशेषम् दीक्षा-हवधानेन श्री-
गरुु -चरण सम्पाहदतम् हचकीषाथहद्भः कृ तायां दीक्षायामचथनमवश्यं हक्रयेतैव।

यद्यहप स्वरूपतो नाहस्त, तर्ाहप प्राय: स्वभावतो देिाहदस्म्बन्धेन कदथयशीलानां हवहक्षप्तहचत्तानां जनानां
तत्तत्सक
ं ोचीकरणाय श्रीमदऋ
् हष-प्रभृहतहभ रत्राचथनमागे क्वहचत् क्वहचत् काहचत् काहचन् मयाथदा स्र्ाहपताहस्त।

“श्रीमद्भागवत का मत िै हक अचाथहवग्रि की पजू ा की प्रहक्रया वास्तव में आवश्यक निीं िै। ठीक उसी तरि हजस तरि
पंचरात्र तर्ा अन्य शास्त्रों द्वारा हनधाथररत आदेशों का पालन करना आवश्यक निीं िै। भागवत का आदेश िै। हक
अचाथहवग्रि की पजू ा सम्पन्न हकए हबना भी मनष्ु य हकसी अन्य भहि- हवहध से मानव जीवन को परू ी तरि सफल बना
सकता िै, जैसे भगवान् के चरणों पर उनके संरक्षण के हलए स्वयं को समहपथत करने मात्र से। हफर भी, श्री नारद तर्ा
उनके उत्तरवहतथयों के मागथ पर चलने वाले वैष्णव, गरुु द्वारा दीहक्षत िोकर, उनकी कृ पा प्राप्त करके भगवान् से हनजी
सम्बन्ध जोड़ने का प्रयास करते िैं और इस परम्परा में दीक्षा के समय भिों को अचाथहवग्रि-पजू ा शरू
ु करनी पड़ती िै।

“यद्यहप अचाथहवग्रि-पजू ा आवश्यक निीं िै, भहि के मागथ पर चलने वाले अहधकांश व्यहियों की भौहतक
बद्ध हस्र्हत को देखते िुए इस कायथ में लगना आवश्यक िो जाता िै। उनकी शारीररक एवं मानहसक हस्र्हतयों पर
हवचार करने पर िमें ज्ञात िोता िै हक ऐसे प्रत्याहशयों का चररत्र अशद्ध
ु और उनके मन उत्तेहजत िोते िैं। अत: इस
भौहतक हस्र्हत को सधु ारने के हलए मिहषथ नारद तर्ा अन्यों ने अलग-अलग समय पर अचाथहवग्रि-पजू ा के हलए
हवहवध प्रकार के हवहध-हवधानों की संस्तहु त की िै।”

इसी प्रकार रामाचथन-चहन्द्रका में किा गया िै :

हवनैव दीक्षां हवप्रेन्द्र परु ियाथ हवनैव हि ।

हवनैव न्यासहवहधना जपमात्रेण हसहद्धदा ॥


“िे ब्राह्मणों में सवथश्रेष्ठ, दीक्षा प्रारहम्भक सस्ं कार या सन्ं यास आश्रम स्वीकार हकये हबना भी, मनष्ु य भगवान् के पहवत्र
नाम का कीतथन करने मात्र से भहि में पणू थता प्राप्त कर सकता िै।”

दसू रे शब्दों में, िरे कृ ष्ण मिामन्त्र का कीतथन इतना प्रबल िोता िै हक यि औपचाररक दीक्षा पर हनभथर निीं
करता, हकन्तु यहद कोई दीहक्षत िोता िै और पंचरात्र हवहध (अचाथहवग्रि-पजू ा) का पालन करता िै, तो शीघ्र िी उसकी
कृ ष्ण-चेतना जाग्रत िो जायेगी और भौहतक जगत् से उसकी पिचान शीघ्र समाप्त िो जायेगी। जो हजतना िी भौहतक
पिचान से मि
ु िोता िै, वि उतना िी आत्मा की गणु ात्मक रूप से परमात्मा से समानता का अनभु व कर सकता िै।
जब मनष्ु य परम पद हस्र्त िोता िै, तब वि भगवान् के पहवत्र नाम तर्ा भगवान् में अहभन्नता समझ सकता िै।
अनभु हू त की इस अवस्र्ा में भगवान् के पहवत्र नाम अर्ाथत् िरे कृ ष्ण मन्त्र की पिचान हकसी भौहतक ध्वहन से निीं की
जा सकती। यहद कोई व्यहि िरे कृ ष्ण मिामन्त्र को भौहतक ध्वहन मानता िै, तो उसका पतन िो जाता िै। भगवान् के
पहवत्र नाम को साक्षात् भगवान् स्वीकार करके उसकी पजू ा और कीतथन करना चाहिए। इसहलए मनष्ु य को प्रामाहणक
गरुु के हनदेशन में शास्त्रों के आधार पर सम्यक् रीहत से दीक्षा लेनी चाहिए। यद्यहप भगवान् के पहवत्र नाम का कीतथन
बद्ध तर्ा मि
ु दोनों प्रकार के जीवों के हलए समान रूप से उत्तम िै, हकन्तु बद्धजीवों के हलए यि हवशेष रूप से
लाभप्रद िै, क्योंहक कीतथन करके जीव मि
ु िो सकता िै। जब नाम-कीतथन करने वाला व्यहि मि
ु िो जाता िै, तो वि
भगवद्धाम वापस जाकर पणू थ हसहद्ध को प्राप्त िोता िै। चैतन्य-चररतामृत (आहद 7.73) के शब्दों में,

कृ ष्णमन्त्र िइते िबे ससं ारमोचन ।

कृ ष्णनाम िइते पाबे कृ ष्णेर चरण ॥

“के वल पहवत्र कृ ष्ण-नाम का कीतथन करने से मनष्ु य को भौहतक संसार से महु ि हमल सकती िै। िरे कृ ष्ण मन्त्र के
कीतथन मात्र से मनष्ु य भगवान् के चरणकमलों का दशथन प्राप्त कर सकता िै।”

भगवान् के पहवत्र नाम का हनरपराध कीतथन दीक्षा-हक्रया पर आहश्रत निीं िै। यद्यहप दीक्षा परु ियाथ या परु िरण
पर आहश्रत िै, लेहकन भगवन्नाम का वास्तहवक कीतथन परु ियाथ हवहध अर्ाथत् हनयामक हवहध-हवधानों पर हनभथर निीं
करता। यहद हनरपराध भाव से कोई एक बार भी पहवत्र भगवन्नाम का उच्चारण करता िै, तो उसे सारी सफलता प्राप्त
िोती िै। भगवन्नाम का कीतथन करते समय जीभ को चलते रिना चाहिए। नाम-कीतथन करने मात्र से िी मनष्ु य का तरु न्त
उद्धार िो जाता िै। हजह्वा तो सेवोन्मख
ु -हजह्वा िै अर्ाथत् यि सेवा से हनयंहत्रत िोती िै। हजसकी जीभ भौहतक वस्तओ
ु ं
के आस्वादन तर्ा उनके हवषय में बातें करने में लगी रिती िै, वि अपनी जीभ का उपयोग परम अनभु हू त के हलए निीं
कर सकता।

अतः श्रीकृ ष्णनामाहद न भवेद् ग्राह्यहमहन्द्रयैः ।

सेवोन्मख
ु े हि हजह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥

“भौहतक इहन्द्रयों से मनष्ु य भगवान् के पहवत्र नाम या उनके रूप, कायथ तर्ा लीलाओ ं को निीं समझ सकता। हकन्तु
जब कोई वास्तव में भहि में लग जाता िै और अपनी हजह्वा का उपयोग करता िै, तब उसे भगवान् की अनभु हू त िोती
िै।” चैतन्य-चररतामृत (मध्य 17.134) के अनसु ार :

अतएव कृ ष्णेर ‘नाम’ ‘देि’ ‘हवलास’ ।

प्राकृ तेहन्द्रय-ग्राह्य निे, िय स्वप्रकाश ॥

“इन कुहडठत भौहतक इहन्द्रयों के द्वारा भगवान् के हदव्य नाम, उनके रूप, कायथ तर्ा लीलाओ ं को निीं समझे जा
सकते। वे तो स्वतंत्र रूप से व्यि िोते िैं।”

अनषु ङ्ग-फले करे सस


ं ारे र षय ।

वचत्त आकवषयया कराय कृष्ण प्रेमोदय ॥ 109॥

अनषु ङ-फले सार् िी सार् पररणाम के रूप में; करे -करता िै; ससं ारे र क्षय-भौहतक बद्धावस्र्ा का अन्त; हचत्त-
हवचार; आकहषथया-आकहषथत करके ; कराय-कराता िै; कृ ष्णे-भगवान् कृ ष्ण के ; प्रेम-उदय-हदव्य प्रेम की जागृहत।

अनुिाद

“भगिान् के पवित्र नाम के कीतयन द्वारा मनष्ु य भौवतक कामों के बन्धन का विनाश करता है। इसके
बाद िह कृष्ण के प्रवत अत्यवधक आकृि होता है और इस तरह सुप्त कृष्ण-प्रेम का उदय होता है।

आकृविैः कृत-चेतसां स-ु मनसामुच्चाटनं चांहसाम्

आचण्डालममूक-लोक-सुलभो िश्यि मुवि-वश्रयैः ।

नो दीषां न च सवक्रयां न च परु ियाां मनागीषते


मन्त्रोऽयं रसना-स्पृगेि फलवत श्री-कृष्ण-नामात्मकैः ॥110॥

आकृ हष्टः-आकषथण; कृ त-चेतसाम-् साधु परुु षों का; स-ु मनसाम-् परम उदार मन वालों का; उच्चािनम् नाश
करने वालों का; च–तर्ा; अंिसाम-् पाप-फलों का; आ-चडिालम-् चाडिालों का भी; अमक
ू -गगू ों के अहतररि; लोक-
स-ु लभः-सभी लोगों के हलए सल
ु भ; वश्यः–पणू थ हनयन्ता; च-तर्ा; महु ि-हश्रयः–महु ि का ऐश्वयथ; न उ-निीं; दीक्षाम-्
दीक्षा; न-निीं; च-भी; सत-् हक्रयाम-् पडु य कमथ; न-निीं; च-भी; परु ियाथम-् दीक्षा से पिले के हवहध-हवधान; मनाक्-र्ोड़े;
ईक्षते–हनभथर िै; मन्त्रः-मन्त्र; अयम-् यि; रसना-हजह्वा; स्पृक्-स्पशथ करना; एव–मात्र; फलहत-फलता िै; श्री-कृ ष्ण-नाम-
आत्मकः-भगवान् कृ ष्ण के पावन नाम से हनहमथत।

अनिु ाद

“भगिान् कृष्ण का पवित्र नाम अनेक सन्त एिं उदार लोगों के वलए अत्यन्त आकषयक है। यह सारे
पापों का संहार करने िाला है और इतना शविशाली है वक गैंगों के अवतररि, जो इसका उच्चारण नहीं कर
सकते, अधम से अधम व्यवि, चण्डाल तक के वलए यह सहज उपलब्ध है। कृष्ण का नाम मुवि के ऐश्वयय
का वनयामक है और यह कृष्ण से अवभन्न है। जीभ से नाम का स्पशय करते ही तरु न्त उसका प्रभाि पडता है।
नाम-कीतयन दीषा, पण्ु यकमय या दीषा के पिू य पालन वकये जाने िाले परु ियाय वनयमों पर आवश्रत नहीं है।
पवित्र नाम इन सारे कायों की प्रतीषा नहीं करता। िह स्ियं में पयायप्त है।

तात्पयय

यि श्लोक श्रील रूप गोस्वामी कृ त पद्यावली (29) में प्राप्य िै।

“अतएि याूँर मुखे एक कृष्ण-नाम ।

सेइ त’ िैष्णि, कररह ताूँहार सम्मान” ॥111॥

अतएव–इसहलए; यााँर मख
ु े-हजसके मख
ु में; एक-एक; कृ ष्ण-नाम-कृ ष्ण का पावन नाम; सेइ त’ वैष्णव-वि
वैष्णव िै; कररि-दो; तााँिार-उसको; सम्मान-सम्मान।

अनिु ाद
अन्त में श्री चैतन्य महाप्रभु ने उपदेश वदया, “जो व्यवि हरे कृष्ण मन्त्र का कीतयन करता है, िह
िैष्णि माना जाता है, अतएि तुम उसका पूरी तरह से सम्मान करना।”

तात्पयय

श्रील रूप गोस्वामी अपनी पस्ु तक उपदेशामृत में किते िैं-कृ ष्णेहत यस्य हगरर तं मनसाहद्रयेत दीक्षाहस्त चेत्
प्रणहतहभि भजन्तम् ईशम।् हजस व्यहि को प्रामाहणक गरुु दीक्षा प्राप्त िो चक
ु ी िै और जो श्रद्धापवू थक नाम जपते िुए
तर्ा गरुु के आदेशों का पालन करते िुए हदव्य पद पर हस्र्त िै, उसका उन्नत भि को सम्मान करना चाहिए। श्रील
भहिहवनोद ठाकुर की हिप्पणी िै हक गृिस्र्ों के हलए वैष्णवों की सेवा करना सवाथहधक आवश्यक िै। उसे इस बात पर
हवचार निीं करना िोता हक वि वैष्णव दीक्षा-प्राप्त िै अर्वा निीं। दीहक्षत िोकर भी मनष्ु य मायावाद-दशथन से कलहु षत
िो सकता िै, हकन्तु जो व्यहि भगवान् के पहवत्र नाम का हनरपराध कीतथन करता िै, वि इस तरि कलहु षत निीं िो
सकता। समहु चत दीक्षा-प्राप्त वैष्णव अपणू थ िो सकता िै, हकन्तु जो व्यहि भगवान् के पहवत्र नाम का कीतथन करता िै,
वि सब प्रकार से पणू थ िै। भले िी वि नया भि क्यों न िो, उसे शद्ध
ु अनन्य भि मानना पड़ेगा। गृिस्र् का धमथ िै हक
ऐसे अनन्य वैष्णव को आदर प्रदान करे । यिी श्री चैतन्य मिाप्रभु का उपदेश िै।

खण्डेर मुकुन्द दास, श्री-रघुनन्दन ।

श्री-नरहरर,—एइ मुख्य वतन जन ॥ 112॥

खडिेर-खडि नामक स्र्ान; मक


ु ु न्द-दास-मक
ु ु न्द दास; श्री-रघनु न्दन–श्री रघनु न्दन; श्री-नरिरर-श्री नरिरर; एइये;
मख्ु य–मख्ु य; हतन–तीन; जन-व्यहि।

अनिु ाद

इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने खण्ड नामक स्थान के तीन वनिावसयों-मुकुन्द दास, रघुनन्दन तथा
श्री नरहरर की ओर ध्यान वदया।

मुकुन्द दासेरे पुछे शचीर नन्दन ।

‘तवु म—वपता, पत्रु तोमार-श्री-रघुनन्दन? ॥113॥


मक
ु ु न्द दासेरे-मक
ु ु न्द दास को; पछु े -पछ
ू ा; शचीर नन्दन–शची माता के पत्रु ने; तहु म-तमु ; हपता–हपता; पत्रु -पत्रु ;
तोमार-तम्ु िारा; श्री-रघनु न्दन-श्री रघनु न्दन।

अनिु ाद

इसके बाद शची-पुत्र श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुकुन्द दास से पूछा, “तुम वपता हो और तुम्हारा पत्रु
रघुनन्दन है। ऐसा ही है न?

वकबा रघुनन्दन—वपता, तुवम–तार तनय? ।

वनिय कररया कह, याउक सश


ं य’ ॥ 114॥

हकबा-अर्वा; रघनु न्दन-रघनु न्दन; हपता-हपता; तुहम-तमु ; तार-उसके ; तनय-पत्रु ; हनिय कररया–हनिय करके ;
कि-किो; याउक सश
ं य-मेरा सश
ं य नष्ट िो जाए।

अनुिाद

“अथिा श्रील रघुनन्दन तुम्हारा वपता है और तुम उसके पुत्र हो? कृपा करके मुझे असली बात
बताओ, वजससे मेरा सन्देह दूर हो जाए।”

मुकुन्द कहे,—रघुनन्दन मोर ‘वपता’ हय ।

आवम तार ‘पुत्र’,—एइ आमार वनिय ॥115॥

मक
ु ु न्द किे-मक
ु ु न्द दास ने उत्तर हदया; रघनु न्दन--मेरा पत्रु , रघनु न्दन; मोर-मेरा; हपता-हपता; िय-िै; आहम-मैं;
तार-उसका; पत्रु -पत्रु ; एइ-यि; आमार-मेरा; हनिय–हनणथय।

अनिु ाद

मुकुन्द ने उत्तर वदया, “रघुनन्दन मेरा वपता है और मैं उसका पुत्र हूँ। यही मेरा वनिय है।

आमा सबार कृष्ण-भवि रघुनन्दन हैते ।

अतएि वपता–रघुनन्दन आमार वनविते ॥116॥


आमा सबार–िम सबकी; कृ ष्ण-भहि-कृ ष्ण-भहि; रघनु न्दन िैते-रघनु न्दन के कारण; अतएव–इसहलए;
हपता–हपता; रघनु न्दन-रघनु न्दन; आमार हनहिते-मेरा हनणथय।

अनिु ाद

“रघुनन्दन के कारण हम सबको कृष्ण-भवि प्राप्त हुई है, इसवलए मेरे विचार में िही मेरा वपता है।”

शुवन’ हषे कहे प्रभु–“कवहले वनिय ।

याूँहा हैते कृष्ण-भवि सेइ गुरु हय” ॥ 117॥

शहु न’–सनु कर; िषे-अत्यन्त िषथ में; किे प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; कहिले हनिय तमु ने ठीक किा िै;
यााँिा िैते–हजससे; कृ ष्ण-भहि-कृ ष्ण-भहि; सेइ-वि व्यहि; गरुु िय-गरुु िै।

अनुिाद

मुकुन्द दास से यह उवचत वनणयय सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर इसकी पुवि की, “हाूँ, यह
सही है। जो कृष्ण-भवि को जाग्रत करता है, िह वनवित रूप से गुरु है।”

भिे र मवहमा प्रभु कवहते पाय सख


ु ।

भिे र मवहमा कवहते हय पञ्च-मख


ु ॥ 118॥

भिे र महिमा-भि की महिमा; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु कहिते-बोलकर; पाय सख


ु –प्रसन्न िोते िैं; भिे र
महिमा-भि की महिमा; कहिते-बोलने के हलए; िय-िो गये; पञ्च-मख
ु -पााँच मख
ु वाले।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भिों की मवहमा का बखान करने से अत्यन्त सख


ु ी थे। जब िे उनकी
मवहमा का िणयन कर रहे थे , तो मानो उनके पाूँच मुख हो गये हों।

भि-गणे कहे,—शुन मुकुन्देर प्रेम ।

वनगूढ़ वनमयल प्रेम, येन दग्ध हेम ॥119॥


भि-गणे किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने अपने भिों को बताया; शनु -कृ पया सनु ो; मक
ु ु न्देर प्रेम-मक
ु ु न्द का भगवत्
प्रेम; हनगढ़ू -बिुत गिरा; हनमथल-हनमथल; प्रेम-प्रेम भाव; येन-जैसे; दग्ध-शद्ध
ु ; िेम–सोना।

अनिु ाद

तब महाप्रभु ने अपने सारे भिों को बतलाया, “कृपा करके मुकुन्द के भगित्प्रेम के विषय में सुनें।
यह अत्यन्त गहरा और शुद्ध प्रेम है और इसकी उपमा के िल शुद्ध वकये गये सोने से ही दी जा सकती है।

बाह्ये राज-िैद्य इूँहो करे राज-सेिा ।

अन्तरे कृष्ण-प्रेम इूँहार जावनबेक के बा ॥120॥

बाह्ये-बािर से; राज-वैद्य-राज वैद्य; इाँिो-वि; करे -करता िै; राज-सेवा-सरकारी सेवा; अन्तरे -हृदय में; कृ ष्ण-
प्रेम-कृ ष्ण-प्रेम; इाँिार-मक
ु ु न्द दास के ; जाहनबेक-जान सकता िै; के बा-कौन ।

अनुिाद

“बाहर से मुकुन्द दास सरकारी नौकरी में लगा राज-िैद्य प्रतीत होता है, वकन्तु भीतर से उसमें कृष्ण
के प्रवत अगाध प्रेम है। भला उसके प्रेम को कौन समझ सकता है?

तात्पयय

जब तक श्रीकृ ष्ण चैतन्य मिाप्रभु प्रकि निीं करते हक भगवान् की सेवा में लगा कौन व्यहि मिान् भगवद्भि
िै, तब तक इसे कौन समझ सकता िै ? इसीहलए चैतन्य-चररतामृत (मध्य 23.39) में किा गया िै- तााँर वाक्य, हक्रया,
मद्रु ा हवज्ञेि ना बझु य–हवद्वान से हवद्वान व्यहि भी वैष्णव के कायथकलापों को निीं समझ सकता। वैष्णव भले िी हकसी
सरकारी नौकरी में या पेशे में लगा रिे हजससे बािर से लोग उसकी हस्र्हत को निीं समझ पाते , हकन्तु भीतर से वि
हनत्यहसद्ध वैष्णव अर्ाथत् शाश्वत रूप से मि
ु वैष्णव िो सकता िै। मक
ु ु न्द दास बािर से राजवैद्य र्े, हकन्तु भीतर से वे
परम मि
ु परमिसं भि र्े। श्री चैतन्य मिाप्रभु इसे भलीभााँहत जानते र्े, हकन्तु सामान्य लोग इसे जान निीं पाये,
क्योंहक वैष्णव के कायों तर्ा उसकी योजनाओ ं को सामान्य व्यहि समझ निीं सकते। हकन्तु श्री चैतन्य मिाप्रभु तर्ा
उनका प्रहतहनहध हकसी भि के हवषय में िर बात जानते िैं, भले िी भि ऊपर से सामान्य गृिस्र् तर्ा पेशेवर व्यापारी
क्यों न लगता िो।
एक वदन म्लेच्छ-राजार उच्च-टुङ्वगते ।

वचवकत्सार बात्कहे ताूँहार अग्रेते ॥ 121॥

एक हदन-एक हदन; म्लेच्छ-राजार-महु स्लम राजा का; उच्च-िुङ्हगते-उच्च स्र्ान पर; हचहकत्सार बात-् ईलाज
की बात; किे-कि रिा र्ा; तााँिार अग्रेते—उसके समक्ष।

अनुिाद

“एक वदन राजिैद्य मुकुन्द दास मुसवलम राजा के साथ ऊूँ चे आसन पर बैठकर ईलाज के विषय में
बात कर रहा था।

हेन-काले एक मयूर-पच्ु छे र आडानी ।

राज-वशरोपरर धरे एक सेिक आवन’ ॥ 122॥

िेन-काले—इस समय; एक-एक; मयरू -पच्ु छर-मयरू पंखों का; आड़ानी-पख


ं ा; राज-हशर-उपरर-राजा के हसर के
ऊपर; धरे -पकड़ रखा; एक-एक; सेवक-सेवक ने; आहन’–लाकर।

अनिु ाद

“वजस समय राजा और मुकुन्द दास बातें कर रहे थे, उस समय एक नौकर मोर के पख
ं ों का बना
पंखा लाया, वजससे राजा के वसर की धूप से रषा की जा सके । फलतैः िह राजा के वसर के ऊपर उस पंखे
को पकडे रहा।

वशवख-वपच्छ देवख’ मुकुन्द प्रेमाविि हैला ।

अवत-उच्च टुङ्वग हैते भवू मते पवडला ॥ 123 ॥

हशहख-हपच्छ-मयरू -पंख; देहख’–देखकर; मक


ु ु न्द-मक
ु ु न्द दास; प्रेम-आहवष्ट िैला–प्रेमावेश में आ गया; अहत-
उच्च-बिुत ऊाँचे; िुङ्हग–स्र्ान; िैते–से; भहू मते-भहू म पर; पहड़ला–हगर गया।

अनुिाद
“मोर के पंख से बने पंखे को देखकर मुकुन्द भगित्प्रेम में आविि हो गया और िह उस उच्च आसन
से भूवम पर वगर पडा।

राजार ज्ञान,—राज-िैद्येर हइल मरण ।

आपने नावमया तबे कराइल चेतन ॥ 124॥

राजार ज्ञान-राजा ने सोचा; राज-वैद्येर–राजवैद्य की; िइल मरण मृत्यु िो गई; आपने–स्वय;ं नाहमया--नीचे
उतरकर; तबे-उसे; कराइल चेतन-िोश में लाया।

अनिु ाद

“राजा डर गया वक राजिैद्य की मृत्यु हो गई, फलतैः िह स्ियं नीचे उतर गया और उसे होश में ले
आया।

राजा बले—व्यथा तुवम पाइले कोन ठावि? ।

मुकुन्द कहे,—अवत-बड व्यथा पाइ नाइ ॥125॥

राजा बले-राजा ने किा; व्यर्ा-ददथ; तहु म पाइले-तमु ने पाया िै; कोन ठाहि-किााँ; मक
ु ु न्द किे-मक
ु ु न्द ने उत्तर
हदया; अहत-बड़ व्यर्ा-बिुत अहधक ददथ; पाइ नाइ-मैंने निीं पाया िै।

अनुिाद

“जब राजा ने मुकुन्द से पूछा, “तुम्हें कहाूँ ददय है?’ तो मुकुन्द ने उत्तर वदया, 'मुझे अवधक ददय नहीं है।’

राजा कहे,—मुकुन्द, तुवम पवडला वक लावग’? ।

मुकुन्द कहे, राजा, मोर व्यावध आछे मृगी ॥126॥

राजा किे-राजा ने पछू ा; मुकुन्द–िे मक


ु ु न्द; तुहम पहड़ला-तमु हगर गये; हक लाहग’-हकस कारण; मक
ु ु न्द किे-
मक
ु ु न्द ने उत्तर हदया; राजा-मेरे हप्रय राजा; मोर-मझु े; व्याहध-रोग; आछे -िै; मृगी–हमगी।

अनुिाद
“जब राजा ने पूछा, “हे मुकुन्द, तुम क्यों वगरे ?’ तो मुकुन्द ने उत्तर वदया, ‘हे राजन,् मुझे वमरगी नामक
रोग है।’

महा-विदग्ध राजा, सेइ सब जाने ।

मुकुन्देरे हैल ताूँर ‘महा-वसद्ध’-ज्ञाने ॥ 127॥

मिा-हवदग्ध-अत्यन्त बहु द्धमान; राजा-राजा; सेइ-वि; सब जाने-सब कुछ। जानता िै; मक


ु ु न्देरे—मक
ु ु न्द पर;
िैल–र्ा; तााँर-उसका; मिा-हसद्ध-ज्ञाने–सम्पणू थ भि के रूप में अनमु ान।

अनिु ाद

अत्यवधक बवु द्धमान होने के कारण राजा सारी बात जान गया। उसके अनमु ान से मुकुन्द अत्यन्त
असाधारण, महान, मुि पुरुष था।

रघुनन्दन सेिा करे कृष्णेर मवन्दरे ।

द्वारे पुष्कररणी, तार घाटे र उपरे ॥128॥

कदम्बेर एक िष
ृ े फुटे बार-मासे ।

वनत्य दुइ फुल हय कृष्ण-अितस


ं े ॥ 129॥

रघनु न्दन-रघनु न्दन; सेवा करे -सेवा करता िै; कृ ष्णेर महन्दरे -भगवान् कृ ष्ण के महन्दर में; द्वारे -द्वार के हनकि;
पष्ु कररणी–एक सरोवर “पष्ु करनी’; तार–इसके ; घािेर उपरे –ति पर; कदम्बेर-कदम्ब पष्ु पों के ; एक वृक्षे–एक वृक्ष पर;
फुिे-हखलते िैं; बार-मासेबारि मास; हनत्य-प्रहतहदन; दइु फल-दो फूल; िय-िोते िैं; कृ ष्ण-अवतंसे-कृ ष्ण की सजावि
के हलए।

अनुिाद

“रघुनन्दन भगिान् कृष्ण के मवन्दर में वनरन्तर सेिारत रहता है। मवन्दर के प्रिेश द्वार के वनकट एक
सरोिर है, वजसके तट पर एक कदम्ब का िृष है, जो कृष्ण की सेिा के वलए वनत्य दो फूल देता है।”

मुकुन्देरे कहे पनु ैः मधरु िचन ।


‘तोमार कायय—धमे धन-उपाजयन ॥ 130॥

मक
ु ु न्देरे-मक
ु ु न्द को; किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; पनु ः–दोबारा; मधरु वचन-मधरु शब्द; तोमार कायथ-
तम्ु िारा कायथ; धमे धन-उपाजथन–भौहतक एवं आध्याहत्मक धन कमाना।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु पुनैः मुकुन्द से मीठी िाणी में बोले, “तम्ु हारा कायय भौवतक तथा आध्यावत्मक
दोनों सम्पवत्त अवजयत करना है।

रघुनन्दनेर कायय—कृष्णेर सेिन ।

कृष्ण-सेिा विना इूँहार अन्य नावह मन ॥131॥

रघनु न्दनेर कायथ-रघनु न्दन का कायथ; कृ ष्णेर सेवन-भगवान् कृ ष्ण की पजू ा करना; कृ ष्ण-सेवा हवना-कृ ष्ण पजू ा
के अहतररि; इाँिार—उसका; अन्य-अन्य; नाहि-निीं िै; मन-इरादा।

अनुिाद

“रघुनन्दन का यह भी कायय है वक िह सदैि भगिान् कृष्ण की सेिा में लगा रहे। भगिान् कृष्ण की
सेिा के अवतररि उसका अन्य कोई मन्तव्य नहीं है।”

नरहरर रहु आमार भि-गण-सने, ।

एइ वतन कायय सदा करह वतन जने’ ॥132॥

नरिरर-नरिरर; रि-उसे रिने दो; आमार-मेरे; भि-गण-सने-अन्य भिों के सार्; एइ हतन कायथ-ये तीन कतथव्य;
सदा-सदा; करि-करो; हतन जने-तमु तीन व्यहि।

अनुिाद

तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने नरहरर को आदेश वदया, “मैं चाहता हूँ वक तुम मेरे भिों के साथ यहीं रहो।
इस तरह तुम तीनों भगिान् की सेिा के वलए ये तीनों कायय सदैि करते रहना।”

तात्पयय
श्री चैतन्य मिाप्रभु ने तीन व्यहियों के हलए तीन अलग-अलग कायथ हनधाथररत हकये। मक
ु ु न्द के हलए धन
अहजथत करके धमथ का पालन करने, नरिरर के हलए अपने भिों की सेवा में लगे रिने और रघनु न्दन को महन्दर में
भगवान् की सेवा करते रिने का कायथ सपु दु थ हकया। इस तरि एक व्यहि महन्दर में पजू ा करता िै, दसू रा अपना हनयत
कमथ करके ईमानदारी से धन कमाता िै और तीसरा भिों के सार् कृ ष्णभावनामृत का प्रचार करता िै। ऊपर से ये तीनों
प्रकार के सेवा-कायथ पृर्क् लगते िैं, हकन्तु वास्तव में िैं निीं। जब कृ ष्ण या श्री चैतन्य मिाप्रभु के न्द्र-हबन्दु िोते िैं, तब
िर कोई भगवान् की सेवा के हलए हवहभन्न कायों में लग सकता िै। यिी श्री चैतन्य मिाप्रभु का हनणथय िै।

साियभौम, विद्या-िाचस्पवत,— दुइ भाइ ।

दुइ-जने कृपा करर’ कहेन गोसावि ॥ 133॥

सावथभौम-सावथभौम भट्टाचायथ; हवद्या-वाचस्पहत–हवद्या वाचस्पहत; दइु भाइ–दोनों भाई; दइु -जने दोनों को; कृ पा
करर’-अिैतक
ु ी कृ पा करके ; किेन–किा; गोसाहि-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी अहैतक


ु ी कृपािश साियभौम भट्टाचायय तथा विद्यािाचस्पवत–इन दोनों
भाइयों को वनम्नवलवखत आदेश वदये।

‘दारु’-जल’-रूपे कृष्ण प्रकट सम्प्रवत ।

‘दरशन’-‘स्नाने’ करे जीिेर मुकवत ॥ 134॥

दारु-लकड़ी; जल-जल; रूपे–के रूपों में; कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; प्रकि-प्रकि िुए; सम्प्रहत-वतथमान समय में;
दरशन-देखने से; स्नाने स्नान करने से; करे –हकया; जीवेर मक
ु हतबद्ध आत्माओ ं की महु ि।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “इस कवलयुग में कृष्ण दो रूपों में-काठ तथा जल के रूप में प्रकट हुए
हैं। इस तरह बद्धजीिों द्वारा काठ का दशयन करके और जल में स्नान करके मुि होने में िे सहायक हैं।

‘दारु-ब्रह्म’-रूपे—साषात्श्री-परुु षोत्तम ।
भागीरथी हन साषात् ‘जल-ब्रह्म’-सम ॥ 135॥

दारु-ब्रह्म-रूपे-लकड़ी के रूप में ब्रह्म; साक्षात-् साक्षात;् श्री-परुु षोत्तम भगवान् जगन्नार्; भागीरर्ी-गंगा नदी;
िन-िै; साक्षात-् साक्षात;् जल-ब्रह्म-सम-जल रूप में ब्रह्म।

अनुिाद

“भगिान जगन्नाथ काठ के रूप में साषात् भगिान् हैं और गंगा नदी जल के रूप में साषात्
भगिान् है।

तात्पयय

वेदों का आदेश िै- सवं खहल्वदं ब्रह्म-िर वस्तु पणू थ परुु षोत्तम भगवान् अर्ात् परम ब्रह्म की शहि िै। परस्य
ब्रह्मणः शहिस्तर्ेदमहखलं जगत-् िर वस्तु परम ब्रह्म की शहि की अहभव्यहि िै। चाँहू क शहि तर्ा शहिमान अहभन्न
िैं, अतएव िर वस्तु कृ ष्ण अर्वा परम ब्रह्म िै। भगवद्गीता (9.4) से इसकी पहु ष्ट िोती िै :

मया ततहमदं सवं जगदव्यिमहू तथना ।

मत्स्र्ाहन सवथभतू ाहन न चािं तेष्ववहस्र्तः ॥

“मेरे अव्यि रूप से यि सारा ब्रह्माडि व्याप्त िै। सारे जीव मझु में हस्र्त िैं, हकन्तु मैं उनमें निीं ि।ाँ ”

कृ ष्ण अपने हनहवथशेष पिलू द्वारा सारे ब्रह्माडि में फै ले िुए िैं। चाँहू क प्रत्येक वस्तु भगवान् की शहि की
अहभव्यहि िै, अतएव भगवान् अपनी हकसी भी शहि द्वारा अपने आपको प्रकि कर सकते िैं। भगवान् इस यगु में
जगन्नार् के रूप में काठ के माध्यम से और गंगा नदी के रूप में जल के माध्यम से प्रकि िुए िैं। इसहलए श्री चैतन्य
मिाप्रभु ने सावथभौम भट्टाचायथ तर्ा हवद्यावाचस्पहत–दोनों भाइयों को भगवान जगन्नार् जी तर्ा गंगा नदी की पजू ा
करने का आदेश हदया।

साियभौम, कर ‘दारु-ब्रह्म’-आराधन ।

िाचस्पवत, कर जल-ब्रह्मेर सेिन ॥ 136॥


सावथभौम-िे सावथभौम; कर-लग जाओ; दारु-ब्रह्म-लकड़ी रूप ब्रह्म की; आराधन-पजू ा; वाचस्पहत-और
वाचस्पहत आप; कर-करो; जल-ब्रह्मेर-जल में प्रकि परम ब्रह्म की; सेवन-पजू ा।

अनिु ाद

“हे साियभौम भट्टाचायय , आप जगन्नाथ पुरुषोत्तम की पूजा में अपने आपको लगाओ और हे
िाचस्पवत, आप माता गगं ा की पूजा करो।”

मुरारर-गुप्तेरे प्रभु करर’ आवलङ्गन ।

ताूँर भवि-वनष्ठा कहेन, शुने भि-गण ॥ 137॥

मरु ारर-गप्तु ेरे-मरु ारर गप्तु को प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु करर’ आहलङ्गन-आहलंगन करके ; तााँर-उसकी; भहि-
हनष्ठा-भहि में श्रद्धा; किेन–किा; शनु े भि-गण-सभी भिों ने सनु ा।

अनुिाद

तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने मुरारर गुप्त का आवलगं न वकया और उससे भवि-वनष्ठा के विषय में बातें
कीं। इसे सारे भिों ने सनु ा।

पूिे आवम इूँहारे लोभाइल बार बार ।

परम मधुर, गुप्त, व्रजेन्द्र कुमार ॥ 138॥

पवू े-पिले; आहम-मैं; इाँिारे -उसको; लोभाइल-उकसाया; बार बार-बारम्बार; परम मधरु -बिुत मधरु ; गप्तु -िे
गप्तु ; व्रजेन्द्र-कुमार-भगवान् कृ ष्ण, नन्द मिाराज के पत्रु ।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “इसके पूिय मैं मुरारर गुप्त को कृष्ण की ओर आकृि होने के वलए
बारम्बार प्रेररत करता रहा। मैंने उससे कहा, ‘हे गप्तु , व्रजेन्द्र कुमार श्रीकृष्ण अत्यन्त मधुर हैं।

स्ियं भगिान्कृष्ण—सिाांशी, सिायश्रय ।

विशुद्ध-वनमयल-प्रेम, सिय-रसमय ॥139॥


स्वयम् भगवान् कृ ष्ण-स्वयं भगवान् कृ ष्ण; सवथ-अंशी-अन्य सबके स्रोत; सवथ-आश्रय-सभी शहियों के
भडिार; हवशद्ध
ु -हवशद्ध
ु ; हनमथल-हनमथल; प्रेम-प्रेम; सवथ-रस-मय-सभी रसों से पणू थ।

अनिु ाद

“कृष्ण पूणय पुरुषोत्तम भगिान् हैं, समस्त अितारों के उद्गम तथा सारी िस्तुओ ं के स्रोत हैं। िे विशुद्ध
वदव्य प्रेम रूप हैं और समस्त आनन्द के आगार हैं।

सकल-सद्गुण-िृन्द-रत्न-रत्नाकर ।

विदग्ध, चतरु , धीर, रवसक-शेखर ॥140॥

सकल-सब; सत-् गणु -हदव्य गणु ; वृन्द-समिू ; रत्न-रत्न; रत्न-आकर-रत्नों की खान; हवदग्ध-बहु द्धमान; चतरु -
दक्ष; धीर-शान्त; रहसक-शेखर-सभी हदव्य रसों के स्वामी।

अनुिाद

“कृष्ण समस्त वदव्य गुणों के आगार हैं। िे रत्नों की खान के तुकय हैं। िे हर बात में दष हैं , अत्यन्त
बवु द्धमान एिं धीर हैं और िे समस्त वदव्य रसों की पराकाष्ठा हैं।

मधुर-चररत्र कृष्णेर मधरु -विलास ।

चातुयय-िैदग्ध्य करे याूँर लीला-रस ॥141॥

मधरु -चररत्र-मधरु चररत्र; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण का; मधरु -हवलास-मधरु लीलाएाँ; चातयु थ-दक्षता; वैदग्ध्य-
बहु द्धमत्ता; करे -प्रकि करते िैं; यााँर–हजनकी; लीला-लीलाओ ं का; रस-रस।

अनिु ाद

“उनका चररत्र अत्यन्त मधुर है और उनकी लीलाएूँ मधुर हैं। िे बुवद्ध में दष हैं। इस तरह िे सारी
लीलाओ ं एिं रसों का आनन्द लूटते हैं।’

सेइ कृष्ण भज तुवम, हओ कृष्णाश्रय ।

कृष्ण विना अन्य-उपासना मने नावह लय ॥142॥


सेइ कृ ष्ण-उन कृ ष्ण भगवान् की; भज तहु म-तमु सेवा में लगो; िओ कृ ष्ण-आश्रय-कृ ष्ण का आश्रय लो; कृ ष्ण
हवना-कृ ष्ण के हबना; अन्य-उपासना-अन्य कोई पजू ा; मने नाहि लय-मन को निीं भाती।

अनिु ाद

तब मैंने मुरारर गुप्त से अनुरोध वकया वक, “तमु कृष्ण की पूजा करो और उनकी शरण में जाओ।
उनकी सेिा के अवतररि मन को अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता।’

एइ-मत बार बार शुवनया िचन ।

आमार गौरिे वकछु वफरर’ गेल मन ॥143॥

एइ-मत-इस प्रकार; बार बार-बारम्बार; शहु नया वचन-इन शब्दों को सनु कर; आमार गौरवे-मेरे प्रभाव के
कारण; हकछु-कुछ; हफरर’ गेल-बदल गया; मन-उसका मन।

अनुिाद

‘तरह िह बारम्बार मुझे सुनता रहा। मेरे प्रभाि से उसका मन छ बदला।

आमारे कहेन,—आवम तोमार वकङ्कर ।

तोमार आज्ञाकारी आवम नावह स्ितन्तर ॥144॥

आमारे किेन-उसने मझु े किा; आहम-मैं; तोमार हकङ्कर--आपका दास; तोमार आज्ञा-कारी-आपका
आज्ञाकारी; आहम-मैं; नाहि-निीं ि;ाँ स्वतन्तर–स्वतंत्र।

अनुिाद

“तब मुरारर गप्तु ने उत्तर वदया, 'मैं आपका सेिक और आज्ञािाहक हूँ मेरा स्ितन्त्र अवस्तत्ि नहीं है।’

एत बवल’ घरे गेल, वचवन्त’ रावत्र-काले ।

रघुनाथ-त्याग-वचन्ताय हइल विकले ॥ 145॥

एत बहल’-यि किकर; घरे गेल-अपने घर गया; हचहन्त'-यि सोचते िुए; राहत्र-काले-रात को; रघनु ार्- भगवान्
रामचन्द्र; त्याग–छोड़कर; हचन्ताय–हवचार से; िइल हवकले-हवह्वल िो गया।
अनुिाद

“इसके बाद मुरारर गुप्त घर गया और रातभर सोचता रहा वक िह वकस तरह रघुनाथ अथायत् भगिान्
रामचन्द्रजी का साथ छोड सके गा। इस तरह िह विह्वल हो गया।

के मने छावडब रघुनाथेर चरण ।

आवज रात्र्ये प्रभु मोर कराह मरण ॥146 ॥

के मने छाहड़ब-मैं कै से छोिूंगा; रघनु ार्ेर चरण-भगवान् रघनु ार् के चरणकमल; आहज रात्र्ये-रात को; प्रभ-ु िे
भगवान् रघनु ार्; मोर–मझु े; कराि मरण मृत्यु दे दो।

अनिु ाद

“इसके बाद मुरारर गुप्त ने भगिान् रामचन्द्र के चरणकमलों की प्राथयना की। उसने प्राथयना की वक
उसके वलए रघुनाथ के चरणकमल को त्याग पाना सम्भि नहीं होगा, अतएि रात में उसकी मृत्यु हो जाए।

एइ मत सिय-रावत्र करे न क्रन्दन ।

मने सोयावस्त नावह, रावत्र कै ल जागरण ॥147॥

एइ मत-इस प्रकार; सवथ-राहत्र-सारी रात; करे न क्रन्दन-रोता रिा; मने-मन में;

सोयाहस्त नाहि-शाहन्त निीं; राहत्र-सारी रातभर; कै ल–हकया; जागरण-जागता रिा।

अनुिाद

“इस तरह मरु ारर गुप्त रातभर रोता रहा। उसके मन में शांवत नहीं थी, अतैः िह सो नहीं सका और
रातभर जागता रहा।

प्रातैः-काले आवस’ मोर धररल चरण ।

कावन्दते कावन्दते वकछु करे वनिेदन ॥148॥

प्रात:-काले-प्रात: काल; आहस’-आकर; मोर-मेरे; धररल-पकड़ हलए; चरण-चरण; काहन्दते काहन्दते–हनरन्तर


रोते िुए; हकछु करे हनवेदन-कुछ हनवेदन हकया।
अनुिाद

“प्रात: काल मुरारर गुप्त मुझसे वमलने आया। मेरे चरण पकडकर रोते हुए वनिेदन वकया।

रघुनाथेर पाय मुवि िेवचयाछों माथा ।

कावढ़ते ना पारर माथा, मने पाइ व्यथा ॥149॥

रघनु ार्ेर पाय-भगवान् रघनु ार् के चरणकमलों पर; महु ि-मैंन;े वेहचयाछों-बेच हदया िै; मार्ा-हसर; काहढ़ते-
कािने के हलए; ना पारर-मैं सक्षम निीं ि;ाँ मार्ा-मेरा हसर; मने-मेरे मन में; पाइ व्यर्ा-बिुत पीड़ा िोती िै।

अनुिाद

“मुरारर गप्तु ने कहा, ‘मैं ने अपना वसर रघुनाथ के चरणों में बेच वदया है। अब उसे मैं िापस नहीं ले
सकता, क्योंवक इससे मुझे अत्यवधक पीडा होगी।

श्री-रघुनाथ-चरण छाडान ना याय ।

ति आज्ञा-भङ्ग हय, वक करों उपाय ॥ 150 ॥

श्री-रघनु ार्-चरण-भगवान् रामचन्द्र के चरणकमल; छाड़ान ना याय-छोड़े निीं जा सकते; तव-आपकी;


आज्ञा-आज्ञा; भङ्ग-भंग; िय–िोती िै; हक-क्या; करों-करूाँ; उपाय-उपाय।

अनुिाद

“मुझसे रघुनाथ के चरणकमलों की सेिा छोडी नहीं जाती। साथ ही मैं ऐसा नहीं करता, तो आपकी
आज्ञा भंग होती है। मैं क्या करूूँ?’

ताते मोरे एइ कृपा कर, दयामय ।

तोमार आगे मृत्यु हउक, याउक संशय ॥151॥

ताते-अतः; मोरे -मझु पर; एइ–यि; कृ पा-कृ पा; कर-करो; दया-मय-िे दयामय; तोमार आगे-आपके समक्ष;
मृत्यु िउक-मझु े मरने दो; याउक संशय-और सभी संशय दरू िो जायेंगे।

अनिु ाद
“इस तरह मुरारर गुप्त ने मुझसे वनिेदन वकया, ‘आप दयालु हैं, इसवलए आप मुझ पर यह कृपा करें :
मुझे अपने सामने मर जाने दें, वजससे मेरे सारे सश
ं य समाप्त हो जाएूँ।’

एत शुवन’ आवम बड मने सख


ु पाइलूँु ।

इूँहारे उठािा तबे आवलङ्गन कै लुूँ ॥152 ॥

एत शहु न’-यि सनु कर; आहम-मैंन;े बड़-अत्यन्त; मने-मन में; सख


ु -सख
ु ; पाइलाँ-ु पाया; इाँिारे -उसको; उठािा-
उठाकर; तब-तब; आहलङ्गन कै लाँ-ु मैंने आहलंगन।

अनिु ाद

“यह सनु कर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ। तब मैंने मुरारर गप्तु को उठाकर उसका आवलंगन वकया।

साधु साधु, गुप्त, तोमार सुदृढ़ भजन ।

आमार िचनेह तोमार ना टवलल मन ॥ 153॥

साधु साध-ु तम्ु िारी जय िो; गप्तु -मरु ारर गप्तु ; तोमार-तम्ु िारा; स-ु दृढ़-सदृु ढ़; भजन-भजन; आमार-मेरे; वचनेि–
अनरु ोध पर भी; तोमार-तम्ु िारा; ना िहलल-निीं हवचहलत िुआ; मन–मन।

अनिु ाद

“मैंने उससे कहा, “हे मुरारर गुप्त, तुम्हारी जय हो! तुम्हारी पूजा-विवध अत्यवधक सुदृढ़ है—यहाूँ तक
वक मेरे अनुरोध पर भी तुम्हारा मन नहीं बदला।

एइ-मत सेिके र प्रीवत चावह प्रभु-पाय ।

प्रभु छाडाइलेह, पद छाडान ना याय ॥ 154॥

एइ-मत-इस प्रकार; सेवके र-सेवक का; प्रीहत–प्रेम; चाहि-िोना चाहिए; प्रभ-ु पाय-भगवान् के चरणकमलों में;
प्रभु छाड़ाइलेि-भले िी भगवान् छोड़ दें; पद-भगवान् के चरणकमल; छाड़ान ना याय-छोड़े निीं जा सकते।

अनुिाद
“भगिान् के चरणकमलों पर सेिक का ऐसा ही प्रेम होना चावहए। यहाूँ तक वक भगिान् भी छुडाना
चाहें, तो भी भि उनके चरणकमलों का आश्रय नहीं छोड सकता।

तात्पयय

प्रभु शब्द इसका सचू क िै हक भगवान् की सेवा भिों द्वारा हनरन्तर की जानी चाहिए। भगवान् श्रीकृ ष्ण मल

प्रभु िैं। हफर भी अनेक भि भगवान् रामचन्द्र से अनरु ि रिते िैं और मरु ारर गप्तु ऐसी अनन्य भहि का ज्वलन्त
उदािरण िै। वि भगवान् रामचन्द्र की पजू ा श्री चैतन्य मिाप्रभु के किने पर भी छोड़ने को तैयार निीं र्ा। भहि की
एकहनष्ठा ऐसी िै, जैसाहक चैतन्य चररतामृत (अन्त्यलीला 4.46-47) में किा गया िै :

सेइ भि धन्य, ये ना छाड़े प्रभरु चरण ।

सेइ प्रभु धन्य, ये ना छाड़े हनजजन ॥

ददु वै े सेवक यहद याय अन्य स्र्ाने ।

सेइ ठाकुर धन्य तारे चल


ू े धरर’ आने ॥

भगवान् से अिूि सम्बन्ध िोने से भि हकसी भी हस्र्हत में भगवान् की सेवा निीं त्यागता। जिााँ तक भगवान्
का सम्बन्ध िै, यहद भि छोड़ना भी चािे तो भगवान् उसके बाल पकड़कर पनु ः खींच लाते िैं।

एइ-मत तोमार वनष्ठा जावनबार तरे ।

तोमारे आग्रह आवम कै लुूँ बारे बारे ॥155 ॥

एइ-मत-इस प्रकार; तोमार-तम्ु िारी; हनष्ठा-दृढ़ श्रद्धा; जाहनबार तरे -समझने के हलय; तोमारे -तम्ु िें; आग्रि-
आग्रि; आहम कै लाँ-ु मैंने हकया; बारे बारे -बारम्बार।

अनुिाद

“मैंने भगिान् के प्रवत तुम्हारी दृढ़ श्रद्धा की परीषा करने के वलए ही तुमसे भगिान् रामचन्द्र की
भवि छोडकर कृष्ण की पूजा करने के वलए बारम्बार अनुरोध वकया था।’

साषात् हनमु ान्तवु म श्री-राम-वकङ्कर ।


तुवम के ने छावडबे ताूँर चरण-कमल ॥ 156॥

साक्षात-् साक्षात्; िनमु ान-् िनमु ान; तहु म-तमु ; श्री-राम-हकङ्कर-श्री राम का सेवक; तुहम-तमु ; के ने-क्यों;
छाहड़बे-छोड़ो; तााँर-उनके ; चरण-कमल-चरणकमलों को।

अनुिाद

“इस तरह मैंने मुरारर गुप्त को बधाई देते हुए कहा, ‘वनस्सन्देह तुम हनुमान के अितार हो, फलतैः तुम
भगिान् रामचन्द्र के सनातन दास हो। तो वफर तमु भगिान् रामचन्द्र तथा उनके चरणकमलों की पूजा क्यों
त्यागो?”

सेइ मुरारर-गप्तु एई—मोर प्राण सम ।

इूँहार दैन्य शुवन’ मोर फाटये जीिन ॥157॥

सेइ मरु ारर-गप्तु -वि मरु ारर गप्तु ; एइ–यि; मोर प्राण सम-मेरे जीवन के समान; इाँिार-उसकी; दैन्य-हवनम्रता;
शहु न’–सनु कर; मोर-मेरा; फािये-हवचहलत िोता िै; जीवन-जीवन।

अनिु ाद

श्री चैतन्य ने आगे कहा, “मैं इस मुरारर गुप्त को अपने प्राण के समान मानता हूँ। जब मैं उसकी
दीनता सुनता हूँ, तो मेरा जीिन विचवलत हो जाता है।”

तबे िासुदेिे प्रभु करर’ आवलङ्गन ।

ताूँर गुण कहे हिा सहस्र-िदन ॥158 ॥

तबे-तब; वासदु वे े-वासदु वे को; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; करर’ आहलङ्गन-आहलंगन करके ; तााँर गणु -उसके
सद्गणु ; किे वणथन करने लग गये; ििा–िोकर; सिस्र-वदन-िजारों मख
ु ों से।

अनुिाद

इसके बाद महाप्रभु ने िासुदेि दत्त का आवलंगन वकया और उसकी मवहमा का िणयन इस तरह करने
लगे मानो उनके हजार मुख हों।
वनज-गुण शुवन’ दत्त मने लज्जजा पािा ।

वनिेदन करे प्रभुर चरणे धररया ॥159॥

हनज-गणु -अपने गणु ; शहु न’–सनु कर; दत्त-वासदु ेव दत्त ने; मने-मन में; लज्जा पािा–लहज्जत अनभु व करते
िुए; हनवेदन करे –हनवेदन हकया; प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु के ; चरणे धररया-चरणकमल पकड़कर।

अनुिाद

जब चैतन्य महाप्रभु ने उसकी मवहमा का िणयन वकया, तो िासुदेि दत्त तुरन्त मन में व्याकुल और
लवज्जजत हो उठे । तब उन्होंने महाप्रभु के चरणकमल छूते हुए यह वनिेदन वकया।

जगत्ताररते प्रभु तोमार अितार ।

मोर वनिेदन एक करह अङ्गीकार ॥ 160॥

जगत् ताररते-सारे ससं ार को तारने के हलए; प्रभ-ु मेरे प्रभ;ु तोमार-आपका; अवतार–अवतार; मोर-मेरा;
हनवेदन–हनवेदन; एक-एक; करि अङ्गीकार कृ पया स्वीकार करो।

अनिु ाद

िासदु ेि दत्त ने महाप्रभु से कहा, “हे प्रभ,ु आप समस्त बद्धजीिों का उद्धार करने के वलए अितररत
होते हैं। मेरी आपसे एक विनती है, वजसे मैं चाहता हूँ वक आप स्िीकार करें ।

कररते समथय तुवम हओ, दयामय ।

तुवम मन कर, तबे अनायासे हय ॥ 161॥

कररते-करने के हलए; समर्थ–समर्थ; तहु म-आप; िओ-िैं; दया-मय-िे दयामय; तहु म मन कर-यहद आप चािें;
तबे-तब; अनायासे-हबना कहठनाई के ; िय-यि सम्भव िो जाता िै।

अनुिाद

“हे प्रभ,ु आप जो चाहें सो करने में समथय हैं और वनस्सदेह आप दयालु हैं। यवद आप चाहें तो
आसानी से सब कुछ कर सकते हैं।
जीिेर दुैःख देवख’ मोर हृदय विदरे ।

सिय-जीिेर पाप प्रभु देह’ मोर वशरे ॥162॥

जीवेर-सभी बद्धात्माओ ं का; दःु ख देहख’–दःु ख देखकर; मोर-मेरा; हृदय-हृदय; हवदरे -फि जाता िै; सवथ-
जीवेर-सभी जीवों के ; पाप-पाप फल; प्रभ–ु मेरे हप्रय प्रभःु देि’-िाल दो; मोर हशरे -मेरे हसर पर।

अनुिाद

“हे प्रभ,ु समस्त बद्धजीिों के किों को देखकर मेरा वदल फटता है ; अतएि मेरी प्राथयना है वक आप
उनके पापकमों को मेरे ऊपर डाल दें।

जीिेर पाप लिा मुवि करों नरक भोग ।

सकल जीिेर, प्रभु, घुचाह भि-रोग ॥ 163 ॥

जीवेर-सभी बद्धात्माओ ं का; पाप लिा-पाप फल लेकर; महु ि-मैं; करों-करूाँगा; नरक–नारकीय जीवन का;
भोग-भोग; सकल जीवेर-सभी जीवों का; प्रभ-ु मेरे हप्रय प्रभ;ु घचु ाि-कृ पया समाप्त कर दें; भव-रोग-भौहतक रोग।

अनिु ाद

“हे प्रभ,ु सारे जीिों के पापों को अपने ऊपर लादकर मुझे वनरन्तर नरक भोगने दें। वकन्तु आप उनके
रुग्ण भौवतक जीिन को समाप्त कर दें।”

तात्पयय

श्रील भहिहसद्धान्त सरस्वती ने इस श्लोक पर अपनी िीका इस प्रकार से दी िै। “पािात्य देशों में ईसाई लोग
हवश्वास करते िैं हक उनके गरुु ईसा मसीि अपने हशष्यों के सारे पापों को नष्ट करने के हलए प्रकि िुए। इस कायथ के
हलए ईसा मसीि प्रकि िुए और हफर अन्तधाथन िो गये। हकन्तु यिााँ िम देखते िैं हक श्री वासदु वे दत्त ठाकुर तर्ा श्रील
िररदास ठाकुर इस दृहष्टकोण से ईसा मसीि की तल
ु ना में लाखों गनु ा अहधक उन्नत िैं। ईसा मसीि ने के वल अपने
अनयु ाहययों को उनके पापकमों के फलों से मि
ु हकया, हकन्तु वासदु ेव दत्त तो यिााँ सारे ब्रह्माडि के िर जीव के पापों
को स्वीकार करने के हलए तैयार िै। इसहलए वासदु वे दत्त की तल
ु नात्मक हस्र्हत ईसा मसीि की हस्र्हत से लाखों गनु ा
बेितर िै। वैष्णव इतना उदार िोता िै हक बद्धजीवों को भौहतक अहस्तत्व से उबारने के हलए वि सारे संकि सिने को
तैयार रिता िै। श्रील सदु ेव दत्त स्वयं हवश्व-प्रेम स्वरूप िै, क्योंहक वि अपना सवथस्व त्याग करने और भगवान् की सेवा
में पणू थत: लगने के हलए तैयार र्ा।

श्रील वासदु वे दत्त भलीभााँहत जानते र्े हक श्री चैतन्य मिाप्रभु आहद भगवान् िैं। वे माया-मोि से परे साक्षात्
परम ब्रह्म र्े। ईसा मसीि ने अपनी दया से अपने अनयु ाहययों के पापफलों को हनस्सन्देि समाप्त कर हदया, हकन्तु इसका
अर्थ यि निीं िै हक उन्िोंने उन्िें भौहतक अहस्तत्व की पीड़ा से परू ी तरि से मि
ु करा हदया। हकसी व्यहि को उसके
पापों से एक बार छुड़ाया जा सकता िै, हकन्तु ईसाइयों में प्रर्ा िै हक वे पापों को कबल
ू करते िैं और पनु ः पाप करते
िैं। इस तरि पापों से मि
ु िोकर पनु ः पाप करने से मनष्ु य भौहतक अहस्तत्व की पीड़ा से मि
ु निीं िो सकता। रोगी
व्यहि राित के हलए वैद्य के पास जाता िै, हकन्तु अस्पताल से लौिने पर गंदी आदतों के कारण उसे हफर रोग पकड़
सकता िै। इस तरि यि भौहतक अहस्तत्व चलता रिता िै। श्रील वासदु ेव दत्त बद्धजीवों को भौहतक अहस्तत्व से परू ी
तरि छुिकारा हदलाना चािते र्े, हजससे वे पनु ः पापकमथ करने का अवसर न पा सकें । श्रील वासदु वे दत्त तर्ा ईसा
मसीि में यिी अन्तर िै। पापों के हलए क्षमादान प्राप्त करना और हफर पनु ः पाप करना बिुत बड़ा अपराध िै। ऐसा
अपराध स्वयं पापकमथ से भी बढ़कर िै। वासदु वे दत्त इतने उदार र्े हक उन्िोंने श्री चैतन्य मिाप्रभु से प्रार्थना की हक वे
बद्धजीवों का सारा अपराध उनके ऊपर लाद दें, हजससे बद्धजीव शद्ध
ु िो सकें और भगवद्धाम लौि सकें । यि प्रार्थना
कपि भाव से रहित र्ी।

वासदु वे दत्त का उदािरण न के वल इस जगत् में, अहपतु सारे ब्रह्माडि में अहद्वतीय िै। यि सकाम कहमथयों या
दहु नयावी ज्ञाहनयों के तको के परे िै। बहिरंगा शहि द्वारा मोहित िोने तर्ा अल्पज्ञान के कारण लोग एक-दसू रे से ईष्याथ
करते िैं। इसी कारण वे सकाम कमथ में फाँ सते िैं और मानहसक तकथ के द्वारा इस सकाम कमथ से बचना चािते िैं। फलतः
न तो कमी, न िी ज्ञानी शद्ध
ु िो पाते िैं। श्रील भहिहसद्धान्त ठाकुर के शब्दों में ऐसे लोग कुकमी तर्ा कुज्ञानी िैं।
इसहलए मायावाहदयों तर्ा कहमथयों को दयावान वासदु ेव दत्त की ओर ध्यान देना चाहिए, जो अन्यों के हलए नरक दशा
के कष्ट भोगने के हलए तैयार र्े। न िी वासदु ेव दत्त को संसारी परोपकारी या लोकहितैषी समझना चाहिए। वे न तो
ब्रह्मज्योहत में हवलीन िोना चािते र्े, न िी उन्िें भौहतक सम्मान या यश में रुहच र्ी। वे उपकाररयों, दाशथहनकों तर्ा
सकाम कहमथयों से बिुत ऊपर र्े। वे सवथश्रेष्ठ परुु ष र्े, जो बद्धजीवों पर दया हदखाना चािते र्े। यि उनके हदव्य गणु ों
की अहतशयोहि निीं िै। यि एकदम सिी िै। वस्ततु ः वासदु वे दत्त की कोई बराबरी निीं िो सकती, वे पणू थरूपेण
वैष्णव-परद:ु खद:ु खी अर्ाथत् दसू रों के दःु ख सिते देखकर द:ु खी िोने वाले र्े। ऐसे शद्ध
ु भि के प्राकि्य मात्र से समग्र
ससं ार शद्ध
ु िो जाता िै। हनस्सन्देि, उनकी हदव्य उपहस्र्हत से सारा जगत् महिमामहडित िोता िै और सारे बद्धजीव भी
महिमामंहित िोते िैं। जैसाहक नरोत्तम दास ठाकुर ने पहु ष्ट की िै, वासदु वे दत्त श्री चैतन्य मिाप्रभु के आदशथ भि िैं :

गौराङ्गेर सङ्हग-गणे, हनत्यहसद्ध करर’ माने

से याय व्रजेन्द्रसतु -पाश ।

जो भी श्री चैतन्य मिाप्रभु के जीवनकायथ को परू ा करता िै, उसे हनत्यमि


ु समझा जाना चाहिए। वि हदव्य
व्यहि िोता िै और इस भौहतक जगत् का निीं िोता। परू ी जनता के उद्धार में लगा ऐसा भि स्वयं श्री चैतन्य मिाप्रभु
के समान दयालु िोता िै :

नमो मिावदान्याय कृ ष्णप्रेमप्रदाय ते ।

कृ ष्णाय कृ ष्णचैतन्यनाम्ने गौरहत्वषे नमः ॥

ऐसा व्यहि वास्तव में श्री चैतन्य मिाप्रभु का प्रहतहनहधत्व करता िै, क्योंहक उसका हृदय सदैव बद्धजीवों के
प्रहत करुणा से ओतप्रोत रिता िै।

एत शुवन’ महाप्रभरु वचत्त द्रविला ।

अश्रु-कम्प-स्िरभङ्गे कवहते लावगला ॥164॥

एत शहु न’-यि सनु कर; मिाप्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु का; हचत्त-हृदय; द्रहवला-हपघल गया; अश्र-ु अश्र;ु कम्प-
काँ पन; स्वर-भङ्गे-स्वर काँ पन; कहिते-बोलने; लाहगला-लगे।

अनुिाद

जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने िासदु ेि का यह कथन सनु ा, तो उनका हृदय अत्यन्त द्रवित हो उठा।
उनकी आूँखो से आूँसू बहने लगे और िे काूँपने लगे। िे कवम्पत स्िर में बोले।

“तोमार विवचत्र नहे, तुवम—साषात्प्रह्लाद ।

तोमार उपरे कृष्णेर सम्पण


ू य प्रसाद ॥ 165 ॥
तोमार-तमु में; हवहचत्र निे-यि आियथजनक निीं; तहु म-तमु ; साक्षात् प्रह्लाद-प्रह्लाद मिाराज का अवतार;
तोमार उपरे -तुम्िारे ऊपर; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण की; सम्पणू -थ सम्पणू थ; प्रसाद-कृ पा।

अनिु ाद

िासुदेि दत्त को महान् भि स्िीकार करते हुए महाप्रभु ने कहा, “ऐसा कथन तवनक भी
आिययजनक नहीं है, क्योंवक तुम प्रह्लाद महाराज के अितार हो। ऐसा लगता है वक भगिान् कृष्ण ने तुम्हें
सम्पूणय कृपा प्रदान कर दी है। इसमें सन्देह नहीं है।

कृष्ण सेइ सत्य करे , येइ मागे भत्ृ य ।

भृत्य-िाञ्छा-पवू तय विनु नावह अन्य कृत्य ॥ 166 ॥

कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; सेइ-वे; सत्य करे –सत्य करते िैं; येइ-जो कुछ; मागे-मााँगता िै; भृत्य-सेवक; भृत्य-
वाञ्छा-सेवक की मनोकामना पहू तथ–परू ी हकये; हवन-ु हबना; नाहि-निीं; अन्य-अन्य; कृ त्य कतथव्य।

अनुिाद

“शुद्ध भि अपने स्िामी से जो भी माूँगता है , उसे भगिान् कृष्ण अिश्य ही प्रदान करते हैं, क्योंवक
उनके पास अपने भि की इच्छा पूरी करने के अवतररि कोई अन्य कतयव्य नहीं रहता।

ब्रह्माण्ड जीिेर तुवम िावञ्छले वनस्तार ।

विना पाप-भोगे हबे सबार उद्धार ॥167॥

ब्रह्माडि–ब्रह्माडि के ; जीवेर-सभी जीवों का; तुहम वाहञ्छले–यहद तमु चािो; हनस्तार-उद्धार; हवना-हबना; पाप-
भोगे-पापकमथ को भोगकर; िबे-िोगा; सबार-प्रत्येक का; उद्धार-उद्धार।

अनुिाद

“यवद तुम चाहते हो वक ब्रह्माण्ड के अन्तगयत सारे जीिों का उद्धार हो जाये, तो तुम्हारे द्वारा पापकमों
का कि भोगे वबना ही उनका उद्धार वकया जा सकता है।

असमथय नहे कृष्ण, धरे सिय बल ।


तोमाके िा के ने भुञ्जाइबे पाप-फल? ॥168॥

असमर्थ निे-असमर्थ निीं िै; कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; धरे -रखते िैं; सवथ बल-सभी शहियााँ; तोमाके –तम्ु िें; वा–
तब; के ने-क्यों; भञ्ु जाइबे-भोगने देंगे; पाप-फल-पापकमथ का फल।

अनुिाद

“कृष्ण अषम नहीं हैं, क्योंवक उनके पास सारी शवियाूँ हैं। भला िे अन्य जीिों के पापकमों के
फलों का कि तुम्हें क्यों भोगने देंगे?

तवु म याूँर वहत िाञ्छ’, से हैल ‘िैष्णि’ ।

िैष्णिेर पाप कृष्ण दूर करे सब ॥ 169॥

तहु म–तमु ; यााँर–हजसका; हित वाञ्छ’–हित चािो; से-वि; िैल-तरु न्त िो जाता िै; वैष्णव-भि; वैष्णवेर-
वैष्णव का; पाप-सिज पापी जीवन; कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; दरू करे -दरू करते िैं; सब-सब।

अनुिाद

“तमु वजस वकसी का वहत चाहते हो, िह तरु न्त िैष्णि हो जाता है। और कृष्ण सारे िैष्णिों को उनके
विगत पापकमों से मुि कर देते हैं।

तात्पयय

श्री चैतन्य मिाप्रभु ने यिााँ वासदु वे दत्त को बतलाया हक कृ ष्ण सवथशहिमान िोने के कारण सारे बद्धजीवों का
तरु न्त िी भौहतक जगत् से उद्धार कर सकते िैं। श्री चैतन्य मिाप्रभु के किने का सारांश यि र्ा हक, “तमु समस्त प्रकार
के जीवों की हबना भेदभाव के महु ि चािते िो। तमु उन सबके सौभाग्य के प्रहत हचहन्तत िो। मेरा किना िै हक तम्ु िारी
प्रार्थना मात्र से िी ब्रह्माडि के सारे जीव महु ि पा सकते िैं। तुम्िें उन लोगों के पापकमों को अपने ऊपर लेने की
आवश्यकता निीं िै। अत: उनके पापमय जीवनों के हलए तमु क्यों कष्ट सिो। हजसे भी तम्ु िारी दया प्राप्त िोती िै, वि
तरु न्त वैष्णव बन जाता िै और कृ ष्ण सारे वैष्णवों का उनके हवगत पापकमों के फलों से उद्धार कर देते िैं।”
भगवतग् ीता (18.66) में भी कृ ष्ण ने वचन हदया िै :

सवथधमाथन्पररत्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।


अिं त्वां सवथपापेभ्यो मोक्षहयष्याहम मा शचु ः॥

“सारे धमों को त्यागकर मेरी शरण में आओ। मैं तम्ु िें सारे पापफलों से मोक्ष हदला दगाँू ा। तमु िरो निीं।”

श्रीकृ ष्ण की शरण में जाते िी मनष्ु य वैष्णव बन जाता िै। भगवद्गीता के इस श्लोक में कृ ष्ण वचन देते िैं हक वे
अपने भि को उसके पापमय जीवन के सारे फलों से छुिकारा हदला देंगे। यि सच िै हक पणू थतया शरणागत वैष्णव
भौहतक दषू ण की चपेि में कभी भी निीं आता। इसका अर्थ यि िुआ हक उसे पहवत्र या अपहवत्र हवगत कमों का फल
निीं भोगना पड़ता। पापमय जीवन से मि
ु िुए हबना वि वैष्णव निीं बन सकता। दसू रे शब्दों में, यहद कोई वैष्णव िै,
तो उसके पापमय जीवन का हनहित रूप से अन्त िो जाता िै। पद्म परु ाण के अनसु ार :

अप्रारब्ध फलं पापं कूिं बीजं फलोन्मख


ु म् ।

क्रमेनैव प्रलीयेत हवष्णभु हिरतात्मनाम् ॥

“पापमय जीवन में पापमय कमों के हलए सप्तु फलों की हवहभन्न अवस्र्ाएाँ भोगनी िोती िैं। पापमय फल प्रभाव हदखाने
की प्रतीक्षा करते रि सकते िैं ( फलोन्मख
ु ), वे सप्तु रि सकते िैं ( कूि), अर्वा बीज की-सी अवस्र्ा में ( बीज) रि
सकते िैं। हकसी भी हकस्से में, भगवान् हवष्णु की भहि में प्रवृत्त िोने पर ये सभी प्रकार के पापों के फल हवलप्तु िो जाते
िैं।”

यवस्त्िन्द्र-गोपमथ िेन्द्रमहो स्ि-कमय-

बन्धानुरूप-फल-भाजनमातनोवत ।

कमायवण वनदयहवत वकन्तु च भवि-भाजां

गोविन्दमावद-परुु षं तमहं भजावम ॥ 170॥

य:-वे जो (गोहवन्द); त–ु हकन्त;ु इन्द्र-गोपम-् इन्द्रगोप नाम का लाल रंग का छोिा कीड़ा; अर् वा-अर्वा भी;
इन्द्रम-् स्वगथ का राजा इन्द्र; अिो-ओि; स्व-कमथ-अपने सकाम कमों के ; बन्ध–बन्धन; अनरू
ु प के अनसु ार; फल-फलों
का; भाजनम-् भोगना; आतनोहत–प्रदान करता िै; कमाथहण-सभी सकाम कमथ और उनके फल; हनदथिहत–नष्ट कर देता िै;
हकन्तु हकन्त;ु च–हनिय िी; भहि-भाजाम-् भहि में लगे लोगों का; गोहवन्दम-् भगवान् गोहवन्द को; आहद-परुु षम-्
आहद परुु ष; तम-् उनको; अिम-् मैं; भजाहम-नमस्कार करता ि।ाँ
अनुिाद

“मैं उन आवद भगिान् गोविन्द को सादर नमस्कार करता हूँ, जो प्रत्येक व्यवि-स्िगय के राजा इन्द्र से
लेकर छोटे से छोटे कीट ( इन्द्रगोप) तक–के किों तथा कमों के भोग को वनयवन्त्रत करते हैं। यही भगिान्
भवि में लगे व्यवि के सकाम कमय को नि करते हैं।’

तात्पयय

यि उद्धरण ब्रह्म-संहिता (5.54 ) से हलया गया िै।

तोमार इच्छा-मात्रे हबे ब्रह्माण्ड-मोचन ।

सिय मुि कररते कृष्णेर नावह वकछु श्रम ॥ 171॥

तोमार इच्छा-मात्रे–मात्र तम्ु िारी इच्छा से; िबे-िोगा; ब्रह्माडि-मोचन-ब्रह्माडि का उद्धार; सवथ-प्रत्येक की;
मि
ु कररते-मि
ु करने के हलए; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण का; नाहि-निीं िै; हकछु-कुछ भी; श्रम-प्रयास।

अनुिाद

“तम्ु हारी सच्ची इच्छा-मात्र से ब्रह्माण्ड के सारे जीिों का उद्धार हो जायेगा, क्योंवक कृष्ण को
ब्रह्माण्ड के जीिों को मुवि देने के वलए कुछ करना नहीं पडता।

एक उडुम्बर िृषे लागे कोवट-फले ।

कोवट ये ब्रह्माण्ड भासे विरजार जले ॥ 172॥

एक उिुम्बर वृक्ष–े एक उिुम्बर वृक्ष में; लागे-लगते िैं; कोहि-फले-लाखों फल; कोहि-लाखो; ये-जो;
ब्रह्माडि–ब्रह्माडिों की; भासे-तैरते िैं; हवरजार–हवरजा नदी के ; जले-जल में।

अनुिाद

“वजस तरह उडुम्बर िृष में करोडों फल लगते हैं, उसी तरह विरजा नदी के जल में करोडों ब्रह्माण्ड
तैरते रहते हैं।

तात्पयय
हवरजा नदी भौहतक जगत् को आध्याहत्मक जगत् से अलग करने वाली नदी िै। हवरजा नदी की एक ओर
ब्रह्मलोक का तेज तर्ा असंख्य वैकुडठ लोक िैं और दसू री ओर यि भौहतक जगत् िै। यि समझना िोगा हक हवरजा
नदी का इस ओर का भाग कारणसागर में तैरने वाले भौहतक ग्रिों से भरा िै। यद्यहप हवरजा नाम आध्याहत्मक तर्ा
भौहतक जगत् की सीमा-रे खा बताने वाला िै, हकन्तु हवरजा नदी भौहतक शहि के आहश्रत निीं िै। फलतः यि तीनों
गणु ों से रहित िै।

तार एक फल पवड’ यवद नि हय ।

तथावप िृष नावह जाने वनज-अपचय ॥ 173॥

तार-वृक्ष का; एक फल-एक फल; पहड़’-हगरकर; यहद-यहद; नष्ट िय-नष्ट िो जाये; तर्ाहप-तर्ाहप; वृक्ष-वृक्ष;
नाहि जाने-निीं जानता; हनज-अपचय-अपनी िाहन।

अनुिाद

“इस उडुम्बर िृष में करोडों फल लगते हैं, अतएि यवद एक फल वगरकर नि हो जाए, तो भी िष

को वकसी प्रकार की षवत का अनभ
ु ि नहीं होता।

तैछे एक ब्रह्माण्ड यवद मि


ु हय ।

तबु अकप-हावन कृष्णेर मने नावह लय ॥ 174॥

तैछे-इसी प्रकार; एक ब्रह्माडि–एक ब्रह्माडि; यहद-यहद; मि


ु िय-मि
ु िो जाता िै; तब-ु तर्ाहप; अल्प-िाहन–
बिुत र्ोड़ी िाहन; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण का; मने-मन; नाहि-बिुत गम्भीरता से निीं लेता।

अनिु ाद

“इसी तरह यवद जीिों के मुि हो जाने से एक ब्रह्माण्ड ररि भी हो जाए, तो भी कृष्ण के वलए यह
मामूली बात है। िे इसे गम्भीरता से नहीं लेते।

अनन्त ऐश्वयय कृष्णेर िैकुण्ठावद-धाम ।

तार गड-खाइ—कारणावब्ध यार नाम ॥ 175 ॥


अनन्त-असीम; ऐश्वयथ-ऐश्वयथ; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण का; वैकुडठ-आहद-धाम-असख्ं य वैकुडठ धाम; तार-
वैकुडठ लोक के ; गड़-खाइ-जल के चारों ओर; कारण-अहब्ध-कारण सागर; यार-हजसका; नाम-नाम िै।

अनिु ाद

“सम्पूणय आध्यावत्मक जगत् कृष्ण का ऐश्वयय है, वजसमें असंख्य िैकुण्ठ लोक हैं। सागर को िैकुण्ठ
लोक के चारों ओर की जल की खाई माना जाता है।

ताते भासे माया लिा अनन्त ब्रह्माण्ड ।

गड-खाइते भासे येन राइ-पण


ू य भाण्ड ॥ 176 ॥

ताते-इस जल में; भासे-तैरती िै; माया–भौहतक शहि माया; लिा-लेकर; अनन्त-अनन्त; ब्रह्माडि-ब्रह्माडि;
गड़-खाइते-पानी से हघरकर; भासे-तैरता िै; येन-जैसे; राइ-पणू थ भाडि-सरसों के बीजों से भरा घड़ा।

अनुिाद

“उस कारण सागर में माया तथा उसके अनन्त भौवतक ब्रह्माण्ड वस्थत हैं। वनस्सन्देह, माया तो राई के
बीजों से भरे तैरते हुए पात्र के समान लगती है।

तार एक राइ-नाशे हावन नावह मावन ।

ऐछे एक अण्ड-नाशे कृष्णेर नावह हावन ॥ 177॥

तार–इसका; एक-एक; राइ-नाशे-सरसों के बीज की िाहन; िाहन-िाहन; नाहि-निीं; माहन-मानी जाती; ऐछे —
इस प्रकार; एक-एक; अडि–ब्रह्माडि के ; नाशे-नष्ट िोने पर; कृ ष्णेर-कृ ष्ण की; नाहि िाहन-िाहन निीं िै।

अनिु ाद

“यवद इस तैरते पात्र के करोडों बीजों में से एक बीज नि हो जाए, तो यह हावन उकलेखनीय नहीं है।
इसी तरह यवद एक ब्रह्माण्ड नि हो जाए, तो भगिान् कृष्ण के वलए इसका महवि नहीं है।

सब ब्रह्माण्ड सह यवद ‘माया’र हय षय ।

तथावप ना माने कृष्ण वकछु अपचय ॥ 178॥


सब ब्रह्माडि–सभी ब्रह्माडिों; सि–सहित; यहद यहद; मायार-भौहतक शहि का; िय क्षय-नाश िोता िै; तर्ाहप
तर्ाहप; ना-निीं; माने-मानते; कृ ष्ण-भगवान् कृ ष्ण; हकछु-कुछ; अपचय-िाहन।

अनिु ाद

“एक ब्रह्माण्ड रूपी बीज की बात जाने दें, यवद सारे ब्रह्माण्ड तथा भौवतक शवि (माया) भी विनि
हो जाएूँ, तो भी कृष्ण इस षवत की परिाह तक नहीं करते।

कोवट-कामधेनु-पवतर छागी यैछे मरे ।

षडू-ऐश्वयय-पवत कृष्णेर माया वकबा करे ? ॥ 179॥

कोहि-करोड़ों; काम-धेन-ु कामधेनु गाय; पहतर–स्वामी की; छागी–एक बकरी; यैछे-जैसे; मरे –मर जाती िै; षि्-
ऐश्वयथ-षि्-पहत-छ: ऐश्वयों के स्वामी; कृ ष्णेर-कृ ष्ण की; माया-बाह्य शहि; हकबा-क्या; करे -कर सकती िै।

अनुिाद

“यवद एक करोड कामधेनुओ ं के मावलक की एक बकरी खो जाए, तो उसे इस हावन की परिाह नहीं
होती। कृष्ण छहों ऐश्वयों से पण
ू य हैं। यवद सम्पण
ू य भौवतक शवि (माया) विनि हो जाए, तो इससे उनको कौन
सी षवत पहुूँचने िाली है?”

तात्पयय

श्रील भहिहवनोद ठाकुर ने 171 से 179 तक के श्लोकों की व्याख्या करते िुए बतलाया िै हक यद्यहप इन
श्लोकों का अर्थ अत्यन्त सरल िै, हकन्तु इसका तात्पयथ को समझना र्ोड़ा कहठन िै। सामान्यतया बद्धजीव भौहतक
बहिरंगा शहि द्वारा लभु ाये जाने पर कृ ष्ण को भल
ू जाते िैं। फलतः वे कृ ष्णबहिमथख
ु अर्ाथत् कृ ष्ण के सार् सम्बन्ध से
रहित किलाते िैं। जब ऐसा जीव भौहतक शहि के सीमा क्षेत्र में आता िै, तब उसे भौहतक शहि द्वारा उत्पन्न हकये गये
असख्ं य भौहतक ब्रह्माडिों में से हकसी एक में भेज हदया जाता िै, हजससे बद्धजीवों को भौहतक जगत् में अपनी इच्छाएाँ
परू ी करने का अवसर हमल सके । अपने कमों का फल भोगने की उत्सक
ु ता के कारण बद्धजीव भौहतक जीवन की
हक्रयाओ-ं प्रहतहक्रयाओ ं के बन्धन में फाँ स जाते िैं। फलतः उन्िें अपने कमथफल का सख
ु -दःु ख भोगना पड़ता िै। हकन्तु
यहद बद्धजीव कृ ष्णभावनाभाहवत िो जाता िै, तो उसके पाप तर्ा पडु यकमथ पणू थतया हवनष्ट िो जाते िैं। भि बन जाने
मात्र से कमथ के सारे फलों से वि मि
ु िो सकता िै। इसी तरि भि की इच्छामात्र से बद्धजीव महु ि प्राप्त कर सकता िै
और कमथ के फलों को लााँघ सकता िै। चाँहू क िर व्यहि इस तरि मि
ु िो जाता िै, तो यि हनष्कषथ हनकाला जा सकता
िै हक भि की इच्छा के आधार पर िी भौहतक जगत् का अहस्तत्व िोता िै अर्वा निीं िोता। हकन्तु अन्ततोगत्वा
भि की निीं, अहपतु पणू थ परू
ु षोत्तम भगवान् की इच्छा से िी भौहतक सृहष्ट का पणू थ संिार िोता िै। हकन्तु इससे उनकी
कोई क्षहत निीं िोती। करोड़ों कामधेनओ
ु ं के स्वामी को एक बकरी की िाहन खलती निीं। इसी तरि भगवान् कृ ष्ण
भौहतक तर्ा आध्याहत्मक ब्रह्माडिों के स्वामी िैं। यि भौहतक जगत् उनकी सृहष्ट का के वल एक चौर्ाई भाग िै। यहद
भि की इच्छानसु ार भगवान् सृहष्ट का हवनाश कर भी दें, तो वे इतने ऐश्वयथवान िैं हक इस क्षहत की उन्िें परवाि निीं
रिती।

जय जय जह्यजामवजत दोष-गृभीत-गुणां

त्िमवस यदात्मना समिरुद्ध-समस्त-भगैः ।

अग-जगदोकसामवखल-शक्त्यिबोधक ते

क्िवचदजयात्मना च चरतोऽनच
ु रे वन्नगमैः” ॥ 180॥

जय जय-कृ पया अपनी महिमा हदखाएाँ; जहि-कृ पया हवजय करें ; अजाम-् अज्ञान, माया; अहजत-िे अजेय
परुु ष; दोष-दोष; गृभीत-गणु ाम-् हजससे गणु स्वीकार हकये जाते िैं; त्वम-आप; अहस-िैं; यत-चाँहू क; आत्मना-आपकी
हनजी अन्तरंगा शहि से; समवरुद्ध-से यि
ु ; समस्त-भगः-सभी प्रकार के ऐश्वयथ; अग-अचर; जगत-् चर; ओकसाम-् देि
में बद्धजीव; अहखल–सभी; शहि-शहि के ; अवबोधक-स्वामी; ते-आप; क्वहचत् कभी-कभी; अजया–बाह्य शहि
से; आत्मना-स्वय;ं च-और; चरतः-(अपनी दृहष्ट से) लीलाएाँ प्रकि करते िुए; अनचु रे त् पहु ष्ट करते िैं; हनगमः-सभी वेद।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु कहते रहे, “हे प्रभु, हे अवजत, हे समस्त शवियों के स्िामी, आप समस्त चर तथा
अचर प्रावणयों के अज्ञान को दूर करने के वलए कृपया अपनी अन्तरंगा शवि प्रकट कीवजए। अपने अज्ञान
के कारण िे सभी दोषपण
ू य बातों को स्िीकार कर लेते हैं, वजससे भयानक वस्थवत प्रकट हो जाती है। हे प्रभु,
अपनी मवहमा प्रकट करें ! आप इसे आसानी से कर सकते हैं, क्योंवक आपकी अन्तरंगा शवि बवहरंगा शवि
से परे है और आप समस्त ऐश्वयय के आगार हैं। आप भौवतक शवि के भी प्रदशयनकताय हैं। आप िैकुण्ठ में
अपनी लीलाएूँ करते रहते हैं, जहाूँ आप अपनी सुरवषत अन्तरंगा शवि प्रकट करते हैं और कभी-कभी
बवहरंगा शवि को उस पर दृविपात करके प्रकट करते हैं। इस तरह आप लीलाएूँ प्रकट करते हैं। िेदों द्वारा
आपकी इन दोनों शवियों की पवु ि होती है और िे उनसे प्रकट होने िाली लीलाओ ं को स्िीकार करते हैं।”

तात्पयय

यि श्लोक श्रीमद्भागवत (10.87.14) से हलया गया िै। यि श्रहु तगणों अर्ाथत् महू तथमान वेदों की प्रार्थनाओ ं में से
िै, हजससे वे भगवान् की महिमा का वणथन करते िैं।

भगवान् की तीन शहियााँ िैं-अन्तरंगा, बहिरंगा तर्ा तिस्र्ा। जब बद्धजीवो को भगवान् की हवस्मृहत के कारण
दहडित हकया जाता िै, तब बहिरंगा शहि भौहतक जगत् की सृहष्ट करती िै और जीवों को उसके हनयन्त्रण में रख हदया
जाता िै। भौहतक प्रकृ हत के तीन गणु जीव को हनरन्तर भय की अवस्र्ा में रखे रिते िैं। भयं हद्वतीयाहभहनवेशतः
हनयहन्त्रत बद्धजीव बहिरंगा शहि द्वारा हनयहन्त्रत िोने के कारण सदा भयभीत बना रिता िै। फलत: बहिरंगा शहि
(माया) को जीतने के हलए बद्धजीव को सदैव सवथशहिमान भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिए, हजससे माया अपनी
शहियााँ प्रकि न कर सके , हजनसे तारे चर तर् अचर जीव बाँधे रिते िैं। इस प्रकार प्रार्थना करने से मनष्ु य सदा के हलए
भगवान् का साहन्नध्य प्राप्त करने के हलए पात्र बन जायेगा और इस प्रकार भगवत-् धाम लौिने का अपना उद्देश्य परू ा
कर सके गा।

एइ मत सिय-भिे र कवह’ सब गुण ।

सबारे विदाय वदल करर’ आवलङ्गन ॥181॥

एइ मत-इस प्रकार; सवथ-भिे र—सभी भिों के ; कहि’–वणथन करके ; सब गणु -सभी सदग् णु ों का; सबारे प्रत्येक
व्यहि को; हवदाय हदल-हवदा दी; करर’ आहलङ्गन-आहलंगन करके ।

अनुिाद

इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु अपने भिों के सद्गुणों का बखान एक-एक करके करते रहे। इसके बाद
उन्होंने सबका आवलगं न वकया और उन्हें विदा कर वदया।

प्रभरु विच्छे दे भि करे न रोदन ।


भिे र विच्छे दे प्रभुर विषण्ण हैल मन ॥182॥

प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु से; हवच्छे द-े हबछड़ने के कारण; भि-सभी भि; करे न-करने लगे; रोदन-रोदन; भिे र-
भिों से; हवच्छे द-े हबछड़ने के कारण; प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु का; हवषडण-उदास; िैल–िो गया; मन–मन।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु से आसन्न विछोह के कारण सारे भि रोने लगे। महाप्रभु भी भिों के विछोह के
कारण वखन्न थे।

गदाधर-पवण्डत रवहला प्रभरु पाशे ।

यमेश्वरे प्रभु याूँरे कराइला आिासे ॥183॥

गदाधर-पहडित-गदाधर पहडित; रहिला-रिे; प्रभरु पाशे-श्री चैतन्य मिाप्रभु के सार्; यमेश्वरे -यमेश्वर में प्रभु श्री
चैतन्य मिाप्रभ;ु यााँरे-हजनको; कराइला-कराया; आवासे–हनवास।

अनुिाद

गदाधर पवण्डत श्री चैतन्य महाप्रभु के पास रहे। उन्हें यमेश्वर में रहने के वलए स्थान वदया गया।

तात्पयय

यमेश्वर जगन्नार् महन्दर के दहक्षण-पहिम में हस्र्त िै। गदाधर पहडित विीं रिे और विााँ पर एक छोिा-सा
बगीचा तर्ा रे तीला ति िै, हजसे यमेश्वर िोिा किा जाता िै।

पुरी-गोसावि, जगदानन्द, स्िरूप-दामोदर ।

दामोदर-पवण्डत, आर गोविन्द, काशीश्वर ॥ 184॥

एइ-सब-सङ्गे प्रभु िैसे नीलाचले ।

जगन्नाथ-दरशन वनत्य करे प्रातैः-काले ॥185॥

परु ी-गोसाहि-परमानन्द परु ी; जगदानन्द-जगदानन्द; स्वरूप-दामोदर-स्वरूप दामोदर; दामोदर-पहडित-दामोदर


पहडित; आर-और; गोहवन्द-गोहवन्द; काशीश्वर-काशीश्वर; एइ-सब-ये सभी मिाशयों; सङ्गे–के सार्; प्रभ-ु श्री चैतन्य
मिाप्रभ;ु वैस-े रिे; नीलाचले–जगन्नार् परु ी में; जगन्नार्-दरशन- भगवान जगन्नार् के दशथन करते िुए; हनत्य-प्रहतहदन;
करे -करते र्े; प्रातः-काले-प्रात:-काल।

अनिु ाद

श्री चैतन्य महाप्रभु जगन्नाथ पुरी, नीलाचल में परमानन्द पुरी, जगदानन्द, स्िरूप दामोदर, दामोदर
पवण्डत, गोविन्द तथा काशीश्वर के साथ रहे। श्री चैतन्य महाप्रभु वनत्य ही प्रातैःकाल जगन्नाथजी का दशयन
करने जाते।

प्रभ-ु पाश आवस’ साियभौम एक वदन ।

योड-हात करर’ वकछु कै ल वनिेदन ॥186॥

प्रभ-ु पाश-श्री चैतन्य मिाप्रभु की उपहस्र्हत में; आहस’-आकर; सावथभौम-सावथभौम भट्टाचायथ; एक हदन-एक
हदन; योड़-िात करर’–दोनों िार् जोड़कर; हकछु-कुछ; कै ल–हकया; हनवेदन-हनवेदन।

अनुिाद

एक वदन साियभौम भट्टाचायय हाथ जोडे हुए चैतन्य महाप्रभु के समष आये और उनसे एक प्राथयना
करने लगे।

एबे सब िैष्णि गौड-देशे चवल’ गेल ।

एबे प्रभुर वनमन्त्रणे अिसर हैल ॥ 187॥

एबे-अब; सब-सब; वैष्णव-भि; गौड़-देशे-बंगाल को; चहल’ गेल-लौि गये िैं; एबे–अब; प्रभरु -श्री चैतन्य
मिाप्रभु के ; हनमन्त्रणे-हनमंत्रण के हलए; अवसर िैल–अवसर िै।

अनुिाद

चूूँवक सारे िैष्णि बगं ाल िापस चले गये थे, अतएि यह अच्छा अिसर था वक महाप्रभु वनमन्त्रण
स्िीकार कर लेंगें।

एबे मोर घरे वभषा करह ‘मास’ भरर’ ।


प्रभु कहे,—धमय नहे, कररते ना पारर ॥188॥

एबे–अब; मोर घरे -मेरे घर पर; हभक्षा–भोजन; करि–स्वीकार करें ; मास भरर’–एक मास के हलए; प्रभु किे-श्री
चैतन्य मिाप्रभु ने किा; धमथ-धमथ; निे-निीं िै; कररते-करना; ना पारर-मैं समर्थ निीं।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “कृपया एक मास तक मेरे यहाूँ भोजन करने का वनमन्त्रण स्िीकार
करें ।” महाप्रभु ने उत्तर वदया, “ऐसा सम्भि नहीं है, क्योंवक यह संन्यासी धमय के विरुद्ध है।”

साियभौम कहे,—वभषा करह वबश वदन ।

प्रभु कहे, —एह नहे यवत-धमय-वचह्न ॥189॥

सावथभौम किे-सावथभौम भट्टाचायथ ने किा; हभक्षा करि-भोजन स्वीकार करें ; हबश हदन–बीस हदन के हलए; प्रभु
किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; एि निे-यि निीं िै; यहत-धमथ-हचह्न-एक सन्ं यासी का धमथ।

अनुिाद

तब साियभौम ने कहा, “तो वफर बीस वदनों के वलए वनमन्त्रण स्िीकार करें ।” वकन्तु श्री चैतन्य
महाप्रभु ने उत्तर वदया, “यह सन्ं यास आश्रम का धमय नहीं है।”

साियभौम कहे पुनैः,—वदन ‘पञ्च-दश’ ।

प्रभु कहे,—तोमार वभषा ‘एक’ वदिस ॥ 190॥

सावथभौम किे-सावथभौम भट्टाचायथ ने किा; पनु ः-दोबारा; हदन पञ्च-दश-पन्द्रि हदन; प्रभु किे–मिाप्रभु ने उत्तर
हदया; तोमार हभक्षा-आपके घर पर भोजन; एक हदवस-के वल एक हदन।

अनुिाद

जब साियभौम भट्टाचायय ने पुनैः पन्द्रह वदन तक भोजन करने के वलए आग्रह वकया, तो महाप्रभु ने
कहा, “मैं आपके घर के िल एक वदन भोजन ग्रहण करूूँगा।”

तबे साियभौम प्रभरु चरणे धररया ।


‘दश-वदन वभषा कर’ कहे विनवत कररया ॥191॥

तबे-तत्पिात;् सावथभौमसावथभौम भट्टाचायथ; प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु के ; चरणे धररया-चणकमल पकड़कर;
दश-हदन-दस हदन के हलए; हभक्षा कर–भोजन करने को; किे-किा; हवनहत कररया-हवनहत की।

अनुिाद

तब साियभौम ने महाप्रभु के चरण पकड वलए और विनयपूियक कहा, “कम-से-कम दस वदनों तक


तो भोजन अिश्य ग्रहण करें ।”

प्रभु क्रमे क्रमे पाूँच-वदन घाटाइल ।

पाूँच वदन ताूँर वभषा वनयम कररल ॥192॥

प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु क्रमे क्रमे-धीरे धीरे ; शनै शनै; पााँच-हदन-पााँच हदन तक; घािाइल-कम कर हदया;
पाञ्च-हदन-पााँच हदन के हलए; तााँर-उनका; हभक्षा-भोजन का हनमंत्रण; हनयम कररल-हनयमपवू थक स्वीकार कर हलया।

अनुिाद

इस तरह धीरे -धीरे महाप्रभु ने अिवध को घटाकर पाूँच वदन दी। इस तरह िे महीने में लगातार पाूँच
वदनों तक भट्टाचायय के वनमन्त्रण को स्िीकार करते रहे।

तबे साियभौम करे आर वनिेदन ।

तोमार सङ्गे सन्यासी आछे दश-जन ॥ 193॥

तबे-तत्पिात;् सावथभौम-सावथभौम भट्टाचायथ ने; करे -हकया; आर-अन्य; हनवेदन-हनवेदन; तोमार सड़े-आपके
सार्; सन्यासी-संन्यासी; आछे -िैं; दश-जन-दस व्यहि।

अनुिाद

इसके बाद साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “हे प्रभु, आपके साथ दस संन्यासी हैं।”

तात्पयय
सन्ं यासी को न तो स्वयं अपने हलए भोजन बनाना चाहिए, न िी हकसी भि के घर कई हदनों तक लगातार
भोजन ग्रिण करना चाहिए। श्री चैतन्य मिाप्रभु अपने भिों के प्रहत अत्यन्त दयालु तर्ा वत्सल र्े। तो भी उन्िोंने
सावथभौम के घर लम्बा हनमन्त्रण स्वीकार निीं हकया। स्नेिवश उन्िोंने मिीने में के वल पााँच हदनों का हनमन्त्रण स्वीकार
हकया। मिाप्रभु के सार् रिने वाले दस संन्याहसयों के नाम र्े-(1) परमानन्द परु ी, (2) स्वरूप दामोदर, (3) ब्रह्मानन्द
परु ी, (4) ब्रह्मानन्द भारती, (5) हवष्णु परु ी, (6) के शव परु ी, (7) कृ ष्णानन्द परु ी, (8) नृहसिं तीर्थ, (9) सख
ु ानन्द परु ी
तर्ा (10) सत्यानन्द भारती।

परु ी-गोसाविर वभषा पाूँच-वदन मोर घरे ।

पिू े आवम कवहयाछों तोमार गोचरे ॥194॥

परु ी-गोसाहिर-परमानन्द परु ी का; हभक्षा–भोजन का हनमंत्रण; पााँच-हदन-पााँच हदन; मोरे घरे -मेरे घर पर; पवू े-
पिले; आहम-मैंन;े कहियाछों-किा िै; तोमार गोचरे –यि आप को मालमू िै।

अनुिाद

तब साियभौम भट्टाचायय ने वनिेदन वकया वक परमानन्द परु ी भी उनके घर पाूँच वदन का वनमन्त्रण
स्िीकार करें गे। इसका वनणयय महाप्रभु के समष पहले ही हो चुका था।

दामोदर-स्िरूप,—एइ बान्धि आमार ।

कभु तोमार सङ्गे याबे, कभु एके श्वर ॥195॥

दामोदर-स्वरूप-स्वरूप दामोदर गोस्वामी; एइ-यि; बान्धव आमार-मेरा अत्यन्त घहनष्ट हमत्र; कभ-ु कभी-कभी;
तोमार सङ्गे-आपके सार्; याबे-आयेंगे; कभ-ु कभी-कभी; एके श्वर-अके ला।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “दामोदर स्िरूप मेरा घवनष्ठ वमत्र है। कभी िह आपके साथ आयेगा
और कभी अके ले।

आर अि सन्यासीर वभषा दुइ दुइ वदिसे ।


एक एक-वदन, एक एक जने पूणय हइल मासे ॥196॥

आर-अन्य; अष्ट-आठ; सन्यासीर-संन्याहसयों का; हभक्षा–भोजन का हनमंत्रण; दइु दइु हदवसे-दो दो हदन
प्रत्येक; एक एक-हदन-एक एक हदन; एक एक जने-एक व्यहि; पणू थ–पणू थ िोगा; िइल-िोगा; मासे–मास।

अनुिाद

“अन्य आठ संन्यासी दो-दो वदन का वनमन्त्रण स्िीकार करें गे। इस तरह पूरे महीने प्रवतवदन के वलए
काययक्रम रहेगा।

तात्पयय

मिीने के तीस हदनों में श्री चैतन्य मिाप्रभु सावथभौम भट्टाचायथ के घर पााँच हदन, परमानन्द परु ी गोस्वामी पााँच
हदन, स्वरूप दामोदर चार हदन तर्ा आठ अन्य संन्यासी दो-दो हदन हनमन्त्रण स्वीकार करें गे। इस तरि तीस हदन परू े िो
जायेंगे।

बहुत सन्यासी यवद आइसे एक ठावि ।

सम्मान कररते नारर, अपराध पाई ॥197॥

बिुत सन्यासी-बिुत से संन्यासी; यहद-यहद; आइसे-आते िैं; एक ठाहि-इकट्टे; सम्मान कररते नारर-मैं उनका
उहचत सम्मान निीं कर सकता; अपराध पाइ-मैं अपराधी बनाँगू ा।

अनुिाद

“यवद सारे संन्यासी एकसाथ आयेंगे, तो मैं उनका समुवचत सत्कार नहीं कर पाऊूँ गा और मैं अपराधी
बनूँगू ा।

तुवमह वनज-छाये आवसबे मोर घर ।

कभु सङ्गे आवसबेन स्िरूप-दामोदर ॥198॥

तहु मि-आप; हनज-छाये-अके ले; आहसबे-आयें; मोर घर–मेरे घर पर; कभ-ु कभी-कभी; सङ्गे-आपके सार्;
आहसबेन-आयेंग;े स्वरूप-दामोदर-स्वरूप दामोदर गोस्वामी।
अनुिाद

“कभी आप अके ले मेरे घर आयेंगे और कभी स्िरूप दामोदर के साथ।”

प्रभरु इङ्वगत पािा आनवन्दत मन ।

सेइ वदन महाप्रभुर कै ल वनमन्त्रण ॥199॥

प्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु की; इङ्हगत-स्वीकृ हत; पािा-पाकर; आनहन्दत-अत्यन्त आनहन्दत; मन-मन; सेइ
हदन-उसी हदन; मिाप्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु को; कै ल-हकया; हदया; हनमन्त्रण-हनमंत्रण।

अनुिाद

जब श्री चैतन्य महाप्रभु ने इस प्रबन्ध की पवु ि कर दी, तो भट्टाचायय अत्यन्त प्रसन्न हुए और तरु न्त
उसी वदन महाप्रभु को अपने घर आने को वनमवन्त्रत वकया।

‘षाठीर माता’ नाम, भट्टाचायेर गवृ हणी ।

प्रभुर महा-भि तेंहो, स्नेहेते जननी ॥ 200॥

षाठीर माता-षाठी की माता; नाम-नामक; भट्टाचायेर गृहिणी-सावथभौम भट्टाचायथ की पत्नी; प्रभरु -श्री चैतन्य
मिाप्रभु की; मिा-भि–एक मिान् भि; तेंिो-वि; स्नेिते े-स्नेि-वश; जननी-एक माता की भााँहत।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय की पत्नी षाठी की माता कहलाती थीं। िे श्री चैतन्य महाप्रभु की महान् भविन
थीं। िे माता के समान स्नेवहल थीं।

घरे आवस’ भट्टाचायय ताूँरे आज्ञा वदल ।

आनन्दे षाठीर माता पाक चडाइल ॥ 201॥

घरे आहस’–घर आकर; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ ने; तााँरे–उनको; आज्ञा हदल-आज्ञा दी; आनन्दे-पणू थ
सन्तोष सहित; षाठीर माता-षाठी की माता; पाक चड़ाइल-पकाने लगी।

अनिु ाद
घर लौटकर साियभौम भट्टाचायय ने अपनी पत्नी को आदेश वदया, तो उनकी पत्नी षाठीर माता बडे
ही आनन्द से भोजन पकाने लगीं।

भट्टाचार गहृ े सब द्रव्य आछे भरर’ ।

येबा शाक-फलावदक, आनाइल आहरर’ ॥ 202॥

भट्टाचायेर गृि-े सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर; सब द्रव्य-सब प्रकार की सामग्री; आछे -र्ी; भरर’-भरपरू ; येबा-
जो कुछ; शाक-पालक; फल-आहदक-फल आहद; आनाइल-वे लाये; आिरर’-इकट्टे करके ।

अनिु ाद

साियभौम भट्टाचायय के घर में खाद्य पदाथय का सदैि सग्रं ह रहता था। वजतनी पालक, तरकाररयाूँ,
फल इत्यावद की आिश्यकता थी, उतनी लाकर संग्रह कर वदया गया।

आपवन भट्टाचायय करे पाके र सब कमय ।

षाठीर माता—विचषणा, जाने पाक-ममय ॥203॥

आपहन स्वय;ं भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ ने; करे -व्यवस्र्ा की; पाके र–पकाने के ; सब कमथ-सब काम की;
षाठीर माता-षाठी की माता; हवचक्षणा–अहत अनभु वी; जाने-जानती र्ीं; पाक-ममथ–पकाने की कला।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय भोजन पकाने में अपनी पत्नी की सहायता करने लगे। उनकी पत्नी षाठीर माता
अत्यन्त अनुभिी थीं और िे अच्छा भोजन बनाना जानती थीं।

पाक-शालार दवषणे—दुइ भोगालय ।

एक-घरे शालग्रामेर भोग-सेिा हय ॥204॥

पाक-शालार दहक्षणे-रसोई के दहक्षण की ओर; दइु भोग-आलय-भोग लगाने के दो कमरे ; एक-घरे –एक कमरे
में; शालग्रामेर-भगवान् शालग्राम के ; भोग-सेवा–भोग लगाने का; िय-र्ा।

अनिु ाद
रसोई-घर के दवषण की ओर भोजन अपयण करने के दो कमरे थे , वजनमें से एक में शालग्राम नारायण
को भोग लगाया जाता था।

तात्पयय

िैवदक अनुयायी एक पत्थर की बवटया के रूप में शालग्राम वशला अथायत् नारायण-विग्रह की पूजा
करते हैं। आज भी भारत में हर ब्राह्मण अपने घर में शालग्राम वशला की पूजा करता है। िैश्य तथा
षवत्रयगण भी ऐसी पूजा करते हैं, लेवकन ब्राह्मण के घर में यह अवनिायय है।

आर घर महाप्रभरु वभषार लावगया ।

वनभृते कररयाछे भट्ट नतू न कररया ॥ 205॥

आर घर-दसू रा कमरा; मिाप्रभरु -श्री चैतन्य मिाप्रभु को; हभक्षार लाहगया-भोजन कराने के हलए; हनभृते
कररयाछे -एकान्त स्र्ान में बना; भट्ट-सावथभौम भट्टाचायथ द्वारा; नतू न कररया-अभी अभी बनाया गया।

अनुिाद

दूसरा कमरा श्री चैतन्य महाप्रभु को भोजन कराने के वलए था। यह कमरा एकान्त में था और इसे
भट्टाचायय ने अभी नया नया बनिाया था।

बाह्ये एक द्वार तार, प्रभु प्रिेवशते ।

पाक-शालार एक द्वार अन्न पररिेवशते ॥206 ॥

बाह्ये-बािर; एक द्वार–एक द्वार; तार-इस कमरे का; प्रभु प्रवेहशते-श्री चैतन्य मिाप्रभु के प्रवेश के हलए; पाक-
शालार–रसोई का; एक द्वार-एक दसू रा द्वार; अन्न-अन्न, भोजन; पररवेहशते-परोसने के हलए।

अनुिाद

यह कमरा इस तरह बना था वक श्री चैतन्य महाप्रभु के वलए बाहर से जाने के वलए के िल एक
दरिाजा था, जो बाहर की ओर खुलता था। दूसरा दरिाजा रसोई घर के साथ लगा था, वजससे भोजन
लाया जाता था।
बवत्तशा-आवठया कलार आङ्गवटया पाते ।

वतन-मान तण्डुलेर उभाररल भाते ॥ 207॥

बहत्तशा-आहठया-बहत्तशा आहठया नामक; कलार–के ले के वृक्ष का; आङ्गहिया-हवभाहजत हकए हबना; पाते-
पत्ते पर; हतन-तीन; मान-मान (एक हनहित वजन); तडिुलेर-चावल के ; उभाररल-िाल हदये; भाते-पकाया िुआ भात।

अनुिाद

सियप्रथम के ले के बडे पत्ते पर तीन मान ( लगभग 6 पौंड) पकाया चािल परोसा गया।

तात्पयय

श्री चैतन्य मिाप्रभु के हलए जो भोजन तैयार हकया गया, उसका वणथन यिााँ से शरू
ु िोता िै। कहवराज गोस्वामी
द्वारा हदया गया यि वणथन बतलाता िै हक वे अवश्य िी भोजन बनाने और परोसने में दक्ष रिे िोंगे।

पीत-सुगवन्ध-घृते अन्न वसि कै ल ।

चारर-वदके पाते घृत िवहया चवलल ॥208॥

पीत-पीले; स-ु गहन्ध–सगु हन्धत; घृते-घी के सार्; अन्न-भात; हसि-हमला िुआ; कै ल–हकया; चारर-हदके –
चारों ओर; पाते-पत्ते (पत्र); घृत-घी; वहिया चहलल-चनू े तर्ा बिने लगा।

अनुिाद

तब पूरे चािल में इतना पीला सुगवन्धत घी डाला गया वक िह पत्ते से बाहर बह चला।

के यापत्र-कलाखोला-डोङ्गा सारर सारर ।

चारर-वदके धररयाछे नाना व्यञ्जन भरर’ ॥ 209॥

के या-पत्र-के या पौधे का पत्ता; कला-खोला–के ले के वृक्ष का पत्ता; िोङ्गा-िोंगे; सारर सारर-एक के बाद एक;
चारर-हदके -चारों हदशा में; धररयाछे -रखे र्े; नाना-नाना प्रकार के ; व्यञ्जन-पकवान; भरर’- भरकर।

अनुिाद
के ले की छाल तथा के या की पवत्तयों के बने अनेक दोने थे। इन्हें विविध तरकाररयों से भरकर पत्तल
के चारों ओर रख वदया गया।

दश-प्रकार शाक, हनम्ब-हति-सख्ु त-झोल ।

मररचेर झाल, छाना-बड़ा, बहड़ घोल ॥ 210॥

दश-प्रकार शाक-दस प्रकार के साग; हनम्ब-हति-सख्ु त-झोल-नीम की कड़वी पहत्तयााँ हमलाकर बनाया गया
सख्ु त नाम का ‘सपू ’; मररचेर झाल–काली हमचथ से बना तीखा पकवान; छाना-बड़ा-भनु े दिी से बना नमथ 'के क'; बहड़
घोल-तली दाल के िुकड़ों का मट्ठा।

अनवु ाद

व्यजं नों में दस प्रकार की पालक, कड़वी नीम की पहत्तयों का बना शोरबा (सख्ु त), काली हमचथ का बना तीखा
व्यजं न, छाना-बड़ा, बड़ी घोल र्े।

दग्ु ध-तम्ु बी, दग्ु ध-कुष्माडि, वेसर, लाफ्रा ।

मोचा-घडि, मोचा-भाजा, हवहवध शाक्रा ॥211॥

दग्ु ध-तम्ु बी-दधू में पकाया गया सीताफल; दग्ु ध-कुष्माडि–दधू में पकाया िुआ कि; वेसर-बेसन से बना
पकवान; लाफ्रा-कई सहब्जयों का हमश्रण; मोचा-घडि-उबले िुए के ले के फूल; मोचा-भाजा-तले िुए के ले के फूल;
हवहवध-नाना प्रकार की; शाक्रा-तरकाररयााँ।

अनवु ाद

व्यंजनों में दग्ु ध-तम्ु बी, दग्ु ध-कुष्माडि, वेसर, लाफ्रा, मोचा-घडिा, मोचा-भाजा तर्ा अन्य तरकाररयााँ र्ीं।

वृद्ध-कुष्माडि-बड़ीर व्यञ्जन अपार ।

फुलबड़ी-फल-मल
ू हवहवध प्रकार ॥212॥

वृद्ध-कुष्माडि-बड़ीर-पके कद्दू में हमहश्रत तली दाल के छोिे िुकड़े; व्यञ्जन-पकवान; अपार-असीम; फुल-
बड़ी-एक अन्य प्रकार की दाल से हमहश्रत छोिे िुकड़े; फल-फल; मल
ू -जिें; हवहवध प्रकार–हवहवध प्रकार के ।
अनवु ाद

अनेक प्रकार की वृद्धकुष्माडि बड़ी, फुलबड़ी, फल तर्ा हवहवध कन्द र्े।

नव-हनम्बपत्र-सि भृष्ट-वाताथकी ।

फुल-बड़ी पिोल-भाजा, कुष्माडि-मान-चाकी ॥ 213॥

नव-नए उगे िुए; हनम्ब-पत्र-नीम के पत्ते; सि–के सार्; भृष्ट-वाताथकी-भनु ा िुआ बैंगन; फुल-बड़ी-िल्की बड़ी;
पिोल-भाजा-तली िुई पिोल सब्जी; कुष्माडि-कद्दू के ; मान–सीताफल के ; चाकी-गोल िुकड़े।

अनवु ाद

अन्य व्यंजनों में नीम की नई सख


ु ाई पहत्तयों से हमला बैंगन, िल्की बड़ी, सख
ू ा पिोल तर्ा कुम्िड़े के बने पेठे
र्े।

भृष्ट-माष-मद्गु -सपू अमृत हनन्दय ।

मधरु ाम्ल, बड़ाम्लाहद अम्ल पााँच छय ॥ 214॥

भृष्ट-तली िुई; माष-उड़द की दाल; मद्गु -मंगू की दाल; सपू -सपू ; अमृत-अमृत को; हनन्दय–मात करके ; मधरु -
अम्ल-मीठी चिनी; बड़-अम्ल-तली दाल से तैयार हकया खट्टा पकवान; आहद-आहद; अम्ल-खट्टा; पााँच छय-पााँच-
छ: प्रकार का।

अनवु ाद

तली उड़द की दाल तर्ा मंगू की दाल का शोरबा अमृत से भी बढ़कर र्ा। मीठी चिनी के सार् िी पााँच-छ:
प्रकार के खट्टे व्यंजन र्े, हजनमें बड़ाम्ल मख्ु य र्ा।

मुद्ग-बडा, माष-बडा, कला-बडा वमि ।

षीर-पुवल, नाररके ल-पवु ल आर यत वपि ॥ 215॥


मद्गु -बड़ा-माँगू दाल से बना तला िुआ वड़ा; माष-बड़ा-उड़द दाल से बना तला िुआ वड़ा; कला-बड़ा-के ले से
बना तला िुआ वड़ा; हमष्ट–अहत मधरु ; क्षीर-पहु ल-खीर से बनी हमठाई; नाररके ल-पहु ल–नाररयल बफी; आर-और;
यत–प्रकार; हपष्ट–बहफथ यााँ।

अनुिाद

मूूँग की दाल, उडद की दाल तथा मीठे के ले के बडे बने थे और मीठे चािल की बफी, नाररके ल की
बफी तथा अन्य अनेक बवफययाूँ थीं।

काूँवज-बडा, दुग्ध-वचडा, दुग्ध-लक्लकी ।

आर यत वपठा कै ल, कवहते ना शवक ॥216॥

कााँहज-बड़ा-खट्टे चावल के जल से बने वड़े; दग्ु ध-हचड़ा-दधू में हमहश्रत मीठे चावल; दग्ु ध-लक्लकी-दधू और
वड़े से बना एक अन्य चािने वाला पदार्थ; आर-और; यत–नाना प्रकार की; हपठा-हमठाईयााँ; कै ल-बनाए; कहिते-वणथन
करने में; ना शहक-मैं अक्षम ि।ाँ

अनिु ाद

कांजी बडा, दुग्ध-वचडा, दुग्ध लक्लकी तथा विविध वमठाईयाूँ


ं थीं, वजनका िणयन करने में मैं अषम
हूँ।

घृत-वसि परमान्न, मृत्कुवण्डका भरर’ ।

चाूँपाकला-घनदुग्ध-आम्र ताहा धरर ॥ 217॥

घृत-हसि परम-अन्न-घी से हमहश्रत मीठे चावल; मृत-् कुहडिका भरर’-हमट्टी की िांिी भरकर; चााँपा-कला-एक
प्रकार का के ला; घन-दग्ु ध-गाढ़ा दधू ; आम्र-आम का गदू ा; तािा-वि; धरर–शाहमल करके ; उसके समेत।

अनुिाद

घी वमलाकर मीठे चािल को वमट्टी के पात्र में डाला गया और उसमें चाूँपाकला, औटाया
ं दूध तथा
आम वमला वदया गया।
रसाला-मवथत दवध, सन्देश अपार ।

गौडे उत्कले यत भक्ष्येर प्रकार ॥218॥

रसाला-स्वाहदष्ट; महर्त-मर्ा िुआ; दहध-दिी; सन्देश-सन्देश हमठाई; अपार-असीम; गौड़े-बंगाल में; उत्कले-
उड़ीसा में; यत-सभी; भक्ष्येर–खाद्य; प्रकार-प्रकार।

अनुिाद

अन्य व्यंजन थे—अत्यन्त स्िावदि लस्सी तथा तरह-तरह की सन्देश वमठाइयाूँ। िास्ति में बगं ाल
तथा उडीसा में उपलब्ध सभी विवभन्न खाद्यों को तैयार वकया गया था।

श्रद्धा करर’ भट्टाचायय सब कराइल ।

शुभ्र-पीठोपरर सूक्ष्म िसन पावतल ॥ 219॥

श्रद्धा करर’-अत्यन्त श्रद्धा सहित; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ ने; सब कराइल-सब तैयार करवाई;ं शभ्रु -
सफे द; पीठ-लकड़ी की एक चौकी; उपरर-ऊपर; सक्ष्ू म-मिीन; वसन-कपड़ा; पाहतल-हबछाया।

अनिु ाद

इस तरह भट्टाचायय ने अनेक प्रकार के व्यंजन तैयार वकये और तब उन्होंने श्वेत काठ की चौकी पर
महीन िस्त्र वबछा वदया।

दुइ पाशे सुगवन्ध शीतल जल-झारी ।

अन्न-व्यञ्जनोपरर वदल तुलसी-मञ्जरी ॥ 220॥

दइु पाशे-दोनों ओर; सगु हन्ध–सगु हन्धत; शीतल-शीतल; जल-झारर–जल के घड़े; अन्न-व्यञ्जन-उपरर-भात
और तरकाररयों के ऊपर; हदल-रखी; तल
ु सी-मञ्जरी-तल
ु सी मंजरी।

अनुिाद

भोजन की थाली के दोनों ओर सुगवन्धत शीतल जल से भरे घडे थे। चािल के ढेर के ऊपर तल
ु सी
की मंजररयाूँ रखी गई थीं।
अमृत-गुवटका, वपठा-पाना आनाइल ।

जगन्नाथ-प्रसाद सब पथ
ृ क्धररल ॥ 221॥

अमृत-गहु िका-अमृत गहु िका हमठाई; हपठा-पाना-खीर तर्ा वड़े; आनाइल-लाये; जगन्नार्-प्रसाद-भगवान्
जगन्नार् का प्रसाद; सब-सब; पृर्क् धररल-अलग रखी।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने भगिान जगन्नाथ पर अवपयत वकये गये कई प्रकार के व्यंजनों को भी


सवम्मवलत कर वलया था। इनमें अमृत गवु टका, खीर तथा के क सवम्मवलत थे। इन्हें अलग रखा गया था।

तात्पयय

यद्यहप जगन्नार्जी का अवहशष्ट भोजन भी भट्टाचायथ के घर आया र्ा, हकन्तु उसे घर पर बनाये गये व्यजं नों से
पृर्क् रखा गया र्ा। कभी-कभी ऐसा िोता िै हक प्रसाद को पयाथप्त भोजन में हमलाकर हवतररत हकया जाता िै, हकन्तु
सावथभौम भट्टाचायथ ने जगन्नार्जी के प्रसाद को पृर्क् िी रखा। उन्िोंने हवशेषत: मिाप्रभु की तहु ष्ट के हलए िी ऐसा
हकया।

हेन-काले महाप्रभु मध्याह्न कररया ।

एकले आइल ताूँर हृदय जावनया ॥222॥

िेन-काले-इस समय; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु मध्याह्न कररया-दोपिर का हनयत कमथ समाप्त करके ; एकले-
अके ले; आइल-आये; तााँर–सावथभौम भट्टाचायथ का; हृदय-हृदय; जाहनया-जानकर।

अनिु ाद

जब सारी िस्तुएूँ तैयार हो गई,ं तो श्री चैतन्य महाप्रभु दोपहर का कायय समाप्त करने के बाद िहाूँ
अके ले ही आये। िे साियभौम भट्टाचायय के हृदय की बात जानते थे।

भट्टाचायय कै ल तबे पाद प्रषालन ।

घरे र वभतरे गेला कररते भोजन ॥ 223॥


भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ ने; कै ल–हकया; तबे—उसके पिात;् पाद प्रक्षालन-चरणों को धोकर; घरे र
हभतरे –कमरे के भीतर; गेला–प्रहवष्ट िुए; कररते भोजन-भोजन करने के हलए।

अनिु ाद

जब साियभौम भट्टाचायय महाप्रभु के पाूँि धो चुके, तो महाप्रभु दोपहर भोजन करने कमरे में प्रविि
हुए।

अन्नावद देवखया प्रभु विवस्मत हिा ।

भट्टाचाये कहे वकछु भङ्वग कररया ॥ 224॥

अन्न-आहद देहखया-अन्न की व्यवस्र्ा देखकर; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; हवहस्मत ििा-चहकत िोकर;
भट्टाचाये किे-भट्टाचायथ को किा; हकछु—कुछ; भङ्हग-सक
ं े त; कररया-करके ।

अनुिाद

इतना बृहत आयोजन देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु कुछ विवस्मत थे, अतैः िे कुछ संकेत करके
साियभौम भट्टाचायय से कुछ बोले।

अलौवकक एइ सब अन्न-व्यञ्जन ।

दुइ प्रहर वभतरे कै छे हइल रन्धन? ॥225॥

अलौहकक-असामान्य; एइ--यि; सब-सब; अन्न-व्यञ्जन-भात एवं सहब्जयााँ; दइु प्रिर हभतरे -छः घडिे के
भीतर; कै छे -कै से; िइल रन्धन-पकाने का काम समाप्त हकया गया।

अनिु ाद

“यह अत्यन्त असामान्य है! चािल तथा तरकाररयों को छह घंटे के भीतर वकस तरह पका वलया
गया?

शत चुलाय शत जन पाक यवद करे ।

तबु शीघ्र एत द्रव्य रावन्धते ना पारे ॥226॥


शत चल
ु ाय–एक सौ चल्ू िों पर; शत जन-एक सौ लोग; पाक यहद करे –यहद पकाने लगे; तब-ु हफर भी; शीघ्र
इतनी जल्दी; एत द्रव्य-इतने व्यंजन; राहन्धते ना पारे -निीं पकाए जा सकते ।

अनिु ाद

“यवद सौ आदमी सौ चूकहों में भोजन पकाते, तो भी इतने सारे व्यंजनों को इतने कम समय में न बना
कृष्णेर भोग लागािाछ,—अनुमान करर ।

उपरे देवखये याते तुलसी-मञ्जरी ॥ 227॥

कृ ष्णेर भोग लागािाछ–आपने कृ ष्ण को भोग लगा हदया िै; अनमु ान करर-मैं आशा करता ि;ाँ उपरे –भोजन के
ऊपर; देहखये-मैं देखता ि;ाँ याते-क्योंहक; तल
ु सी-मञ्जरी-तल
ु सी के फूल।

अनुिाद

“मेरा अनुमान है वक कृष्ण को पहले ही भोजन अवपयत वकया जा चुका है, क्योंवक थालों के ऊपर
मुझे तुलसी मंजररयाूँ वदखती हैं।

भाग्यिान्तवु म, सफल तोमार उद्योग ।

राधा-कृष्णे लागािाछ एतादृश भोग ॥ 228 ॥

भाग्यवान् तहु म-आप भाग्यशाली िैं; स-फल-सफल; तोमार-आपको; उद्योग-प्रयास; राधा-कृ ष्णे-राधा और
कृ ष्ण को; लागािाछ-लगाया िै; एतादृश–ऐसा; भोग-भोग।

अनुिाद

“आप अत्यन्त भाग्यिान हैं और आपका पररश्रम सफल है , क्योंवक आपने राधा-कृष्ण को इतना
अद्भुत भोजन प्रदान वकया है।

अन्नेर सौरभ्य, िणय–अवत मनोरम ।

राधा-कृष्ण साषावतहाूँ कररयाछे न भोजन ॥ 229॥


अन्नेर सौरभ्य-पके भात की सगु हन्ध; वणथ-रंग; अहत मनोरम-अत्यन्त आकषथक राधा-कृ ष्ण-राधा और कृ ष्ण;
साक्षात-् साक्षात;् इिााँ–यि सब; कररयाछे न भोजन-भोजन कर हलया िै।

अनिु ाद

“चािल का रंग इतना आकषयक है और इसकी सुगन्ध इतनी उत्तम है, मानो राधा तथा कृष्ण ने
साषात् इसे ग्रहण वकया है।

तोमार बहुत भाग्य कत प्रशंवसब ।

आवम–भाग्यिान,् इहार अिशेष पाबे ॥ 230॥

तोमार-आपका; बिुत-बिुत; भाग्य-सौभाग्य; कत-हकतनी; प्रशंहसब–प्रशंसा करूाँ; आहम-मैं; भाग्यवान–्


भाग्यशाली; इिार-इसके ; अवशेष-अवशेष; पाब-पाऊाँगा।

अनुिाद

“हे वप्रय भट्टाचायय , आप बडे भाग्यशाली हो। मैं आपकी वकतनी प्रशंसा करूूँ? मैं भी अत्यन्त
भाग्यशाली हूँ वक इस भोजन का अिवशि ग्रहण कर रहा हूँ।

कृष्णेर आसन-पीठ राखह उठािा ।

मोरे प्रसाद देह’ वभन्न पात्रेते कररया ॥ 231॥

कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण के ; आसन-पीठ-बैठने का स्र्ान; राखि-अलग रखो; उठािा-उठाकर; मोरे -मझु े; प्रसाद
प्रसाद; देि’–दो; हभन्न-हभन्न; पात्रेते-पत्तल में; कररया–परोसकर।

अनिु ाद

“कृष्ण का आसन उठाकर एक ओर रख दो; तब मुझे एक अलग पत्तल में प्रसाद दो।”

भट्टाचायय बले—प्रभु ना करह विस्मय ।

येइ खाबे, ताूँहार शक्त्ये भोग वसद्ध हय ॥ 232॥


भट्टाचायथ बले-भिाचायथ ने किा; प्रभ-मेरे प्रभ: ना कर हवपरा.आप चहकत न िों; येइ खाबे-जो कोई खाएगा;
तााँिार शक्त्ये-उनकी कृ पा से; भोग-भोग; हसद्ध िय-बनाया गया िै।

अनिु ाद

साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “हे प्रभ,ु यह उतना आिययजनक नहीं है। यह सब उनकी शवि तथा
दया से ही सम्भि हो सका है, वजन्हें यह भोजन करना है।

उद्योग ना वछल मोर गृवहणीर रन्धने ।

याूँर शक्त्ये भोग वसद्ध, सेइ ताहा जाने ॥ 233॥

उद्योग-पररश्रम; ना हछल-निीं हकया; मोर--मेरी; गृहिणीर-मेरी पत्नी का; रन्धने-पकाने में; यााँर शक्त्ये—
हजनकी शहि से; भोग हसद्ध-भोजन पकाया गया िै; सेइ-वे; तािा जाने-इसे जानते िैं।

अनुिाद

“मेरी पत्नी तथा मैंने भोजन बनाने में कोई विशेष प्रयास नहीं वकया। वजनकी शवि से यह भोजन
तैयार हुआ है, िे सब कुछ जानते हैं।

एइत आसने िवस’ करह भोजन ।

प्रभु कहे,—पूज्जय एई कृष्णेर आसन ॥ 234॥

एइत आसने-इसी आसन पर; वहस’–बैठकर; करि भोजन-आप भोजन करें ; प्रभु

किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; पन्ू य-पज्ू य; एइ–यि; कृ ष्णेर आसन-कृ ष्ण का

अनिु ाद

“अब कृपा करके इस स्थान पर बैठे और भोजन करें ।” चैतन्य ने उत्तर वदया, “यह स्थान पूजनीय है,
क्योंवक इसका उपयोग द्वारा हो चुका है।”

तात्पयय
हशष्टाचार के अनसु ार जो वस्तएु ाँ कृ ष्ण द्वारा उपयोग में लाई गई िोती िैं, उनका उपयोग अन्य हकसी द्वारा निीं
हकया जाना चाहिए। इसी तरि गरुु द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तओ
ु ं का भी अन्य द्वारा उपयोग निीं हकया जाना
चाहिए। यि हशष्टाचार िै। कृ ष्ण या गरुु द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तएु ाँ पज्ू य िैं। हवशेषतया उनके बैठने या भोजन करने
के स्र्ान का प्रयोग अन्य हकसी द्वारा निीं हकया जाना चाहिए। भि को चाहिए हक सावधानी से इसका पालन करे ।

भट्ट कहे,—अन्न, पीठ,—समान प्रसाद ।

अन्न खाबे, पीठे िवसते काहाूँ अपराध? ॥ 235॥

भट्ट किे-सावथभौम भट्टाचायथ ने किा; अन्न–अन्न; भोजन; पीठ-आसन के ; समान-समान; प्रसाद-भगवान् का


प्रसाद; अन्न खाबे-आप भोजन करें गे; पीठे वहसते-उस आसन पर बैठने में; कािााँ अपराध-अपराध किााँ िै ?

अनुिाद

भट्टाचायय ने कहा, “भोजन तथा बैठने का स्थान-दोनों ही भगिान् की कृपा के तुकय हैं। यवद आप
उवच्छि भोजन कर सकते हैं, तो इस स्थान पर आपके बैठने में कौन-सा अपराध है?”

प्रभु कहे,—भाल कै ले, शास्त्र-आज्ञा हय ।

कृष्णेर सकल शेष भत्ृ य आस्िादय ॥236 ॥

प्रभु किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; भाल कै ले-आपने ठीक किा िै; शास्त्र-आज्ञा िय-शास्त्रों का आदेश िै;
कृ ष्णेर सकल शेषकृ ष्ण द्वारा छोड़ा िुआ सब कुछ; भृत्य-सेवक; आस्वादय-ले सकता िै।

अनुिाद

तब चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “हाूँ, आपने ठीक कहा है। शास्त्रों का आदेश है वक भि कृष्ण द्वारा
छोडी गई वकसी भी िस्तु का आस्िादन कर सकता है।

त्ियोपयुि-स्त्रग्गन्ध-िासोऽलङ्कार-चवचयताैः ।

उवच्छि-भोवजनो दासास्ति मायां जयेम वह ॥ 237॥


त्वया-आप द्वारा; उपयि
ु –उपयोग में लाई गई;ं स्रक्-फूलों की मालाएाँ; गन्ध-चन्दन लेप जैसे सगु हन्धत पदार्थ;
वासः-वस्त्र; अलङ्कार-आभषू ण; चहचथताः-से सजाए गये; उहच्छष्ट–उहच्छष्ट भोजन (प्रसादी); भोहजनः-खाने से;
दासाः-सेवक गण; तव-आपकी; मायाम-् माया को; जयेम-जीत सकते िैं; हि-हनिय िी।

अनुिाद

“हे प्रभ,ु आपको अवपयत की गई ं मालाएूँ, सगु वन्धत पदाथय , िस्त्र, गहने तथा अन्य िस्तएु ूँ बाद में
आपके सेिकों द्वारा काम में लाई जा सकती हैं। इन िस्तुओ ं को ग्रहण करने तथा आपका उवच्छि भोजन
खाने से हम माया को जीत सकें गे।”

तात्पयय

यि उद्धरण श्रीमद्भागवत (11.6.46) का िै। िरे कृ ष्ण आन्दोलन में िरे कृ ष्ण मिामन्त्र का कीतथन, भावावेश में
नाचना तर्ा भगवान् को भोग लगाए गये भोजन का आस्वादन करना बिुत िी मित्त्वपणू थ िै। कोई भले िी हनरक्षर
अर्वा हसद्धान्त समझने में असमर्थ क्यों न िो, हकन्तु यहद वि ये तीनों बातें करता िै, तो हनहित रूप से हबना हकसी
देरी के वि मि
ु िो जाता िै।

यि श्लोक उद्धव ने भगवान् कृ ष्ण से किा र्ा। यि उद्धव गीता प्रवचन के समय की बात िै। उस समय द्वारका
में कुछ उत्पात िुआ र्ा, हजससे भगवान् कृ ष्ण ने इस भौहतक जगत् छोड़कर वैकुडठ जाने का हनणथय हकया। उद्धव इस
पररहस्र्हत को समझ गये र्े और वे पणू थ परू
ु षोत्तम भगवान् से बातें कर रिे र्े। उपयथि
ु श्लोक इसी बातचीत का एक
अंश िै। इस जगत् में कृ ष्ण की लीलाएाँ प्रकि लीलाएाँ किलाती िैं और वैकुडठ लोक में उनकी लीलाएाँ अप्रकि
लीलाएाँ किलाती िैं। “अप्रकि” से िमारा अहभप्राय यि िै हक वे िमारी आाँखों के समक्ष प्रकि निीं िोती िैं। ऐसा निीं
िै हक भगवान् की लीलाओ ं का अहस्तत्व निीं िोता। हजस तरि सयू थ हनरन्तर प्रकाहशत िोता रिता िै, उसी तरि ये
लीलाएाँ भी हनरन्तर चलती रिती िैं, हकन्तु जब सयू थ िमारी आाँखों के सामने िोता िै, तो िम हदन (प्रकि) किते िैं और
जब सामने निीं िोता, तो रात (अप्रकि) किते िैं। जो लोग रात की सीमाओ ं से ऊपर िैं, वे सदैव वैकुडठ लोक में रिते
िैं, जिााँ उनके हलए भगवान् की लीलाएाँ हनरन्तर प्रकि रिती िैं। ब्रह्म-संहिता द्वारा (5.37-38) इसकी पहु ष्ट िोती िै :

आनन्दहचन्मयरसप्रहतभाहवताहभ-

स्ताहभयथ एव हनजरूपतया कलाहभः ।


गोलोक एव हनवसत्यहखलात्मभतू ो

गोहवन्दमाहदपरुु षं तमिं भजाहम ॥

प्रेमाञ्जनच्छुररतभहिहवलोचनेन

सन्तः सदैव हृदयेषु हवलोकयहन्त ।

यं श्यामसन्ु दरमहचन्त्यगणु स्वरूपं

गोहवन्दमाहदपरुु षं तमिं भजाहम ॥

“मैं उन आहद भगवान् गोहवन्द की पजू ा करता ि,ाँ जो अपने धाम गोलोक में राधा के सार् हनवास करते िैं, जो उनके
आध्याहत्मक स्वरूप के सदृश िैं और साक्षात् ह्लाहदनी शहि िैं। उनकी संहगनी उनकी सहखयााँ िैं, जो साक्षात् उनके
शरीरस्वरूप िैं और सदैव आनन्दमय आध्याहत्मक रस से ओतप्रोत रिती िैं। मैं उन आहद भगवान् गोहवन्द की पजू ा
करता ि,ाँ जो श्यामसन्ु दर िैं-अहचन्त्य असख्ं य गणु ों से यि
ु साक्षात् कृ ष्ण िैं, हजनका दशथन शद्ध
ु भिगण अपनी आाँखों
में प्रेम का अंजन लगाकर अपने-अपने हृदयों के भीतर करते िैं।”

तर्ाहप एतेक अन्न खाओन ना याय ।

भट्ट किे,—जाहन, खाओ यतेक ययु ाय ॥238॥

तर्ाहप-तर्ाहप; एतेक-इतना अहधक; अन्न-भोजन; खाओन-खाना; ना याय-सम्भव निीं िै; भट्ट किे-
भट्टाचायथ ने किा; जाहन–मैं जानता ि;ाँ खाओ-आप खा सकते िो; यतेक–हकतना अहधक; ययु ाय-सम्भव िै।

अनवु ाद

तब श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा, “यिााँ इतना भोजन िै हक उसे खा पाना असम्भव िै।” भट्टाचायथ ने उत्तर हदया,
“मैं जानता िाँ हक आप हकतना खा सकते िैं।”

नीलाचले भोजन तहु म कर बायान्न बार ।

एक एक भोगेर अन्न शत शत भार ॥239॥


नीलाचले-जगन्नार् परु ी में; भोजन-भोजन ग्रिण; तहु म-आप; कर-करते िो; बायान्न बार-बावन बार; एक एक
भोगेर–प्रत्येक भोग का; अन्न-पकवान; शत शत भार-सैंकड़ों बाहल्ियााँ।

अनवु ाद

जगन्नार् परु ी में हदन-भर में आप कम-से-कम 52 बार भोजन करते िैं और एक-एक बार में आप प्रसाद से
भरी सैंकड़ों बाहल्ियााँ ग्रिण करते िैं।

द्वारकाते षोल-सिस्र महिषी-महन्दरे ।

अष्टादश माता, आर यादवेर घरे ॥ 240॥

द्वारकाते-द्वारका धाम में; षोल-सिस्र-सोलि िजार; महिषी–राहनयााँ; महन्दरे -मिलों में; अष्टादश माता-अठारि
माताएाँ; आर-और; यादवेर घरे -यदु कुल के घर में।

अनवु ाद

द्वारका में आपके सोलि िजार मिलों में सोलि िजार राहनयााँ िैं। विााँ अठारि माताएाँ, अनेक हमत्र तर्ा
यदवु ंश के अनेक सम्बन्धी भी िैं।

व्रजे ज्जयेठा, खुडा, मामा, वपसावद गोप-गण ।

सखा-िृन्द सबार घरे वद्वसन्ध्या-भोजन ॥241॥

व्रजे-वृन्दावन में; ज्येठा-हपता के बड़े भाई; खड़ा-हपताजी के छोिे भाई; मामा-माताजी के भाई; हपसा-मौहसयों
के पहत; आहद-आहद; गोप-गण-गोप-गण; सखा-वृन्द-सैंकड़ों सखा-हमत्र; सबार-उन सबके ; घरे –घरों में; हद्व-सन्ध्या-
हदन में दो बार; भोजन-भोजन।

अनुिाद

“िृन्दािन में भी आपके ताऊ, चाचा, मामा, फूफा तथा अनेक ग्िाले हैं। िहाूँ गोप-वमत्र भी हैं और
आप उन सबके घरों में प्रात: और सांयकाल दो बार भोजन करते हैं।”

तात्पयय
द्वारका में भगवान् कृ ष्ण की अठारि माताएाँ र्ीं—यर्ा देवकी, रोहिणी आहद। इसके अहतररि वृन्दावन में
उनकी पालक माता यशोदा र्ीं। भगवान् कृ ष्ण के दो चाचा भी र्े, जो नन्द मिाराज के भाई र्े। जैसाहक बृित् श्री श्री-
राधा-कृ ष्णगणोद्देश दीहपका (32) में श्रील रूप गोस्वामी ने किा िै- उपनन्दोऽहभनन्दि हपतृव्यौ पवू थजो हपतुः- “नन्द
मिाराज के ज्येष्ठ भाई उपनन्द तर्ा अहभनन्द र्े।” इसी तरि उसी श्लोक में नन्द मिाराज के छोिे भाइयों के भी नाम
हदये िुए िैं। हपतृव्यौ तु कनीयासं ौ स्यातां सन्नन्द-नन्दनौ–“सन्नन्द तर्ा नन्दन (अर्वा सनु न्द और पाडिव) कृ ष्ण के
हपता नन्द मिाराज के छोिे भाई र्े।” इस पस्ु तक में श्रीकृ ष्ण के मामाओ ं के नामों का भी वणथन हमलता िै (श्लोक 46)
: यशोधर-यशोदेवसदु ेवाद्यास्तु मातल
ु ा:–“यशोधर, यशोदेव तर्ा सदु वे -ये कृ ष्ण के मामा र्े।” “राधा-कृ ष्णगणोद्देश
दीहपका (38) में कृ ष्ण के फूफाओ ं के भी नामों का उल्लेख िुआ िै, जो नन्द मिाराज की बहिनों के पहत र्े–मिानीलः
सनु ीलि रमणावेतयोः क्रमात-् मिानील तर्ा सनु ील कृ ष्ण के फूफा र्े।”

गोिधयन-यज्ञे अन्न खाइला रावश रावश ।

तार लेखाय एइ अन्न नहे एक ग्रासी ॥ 242॥

गोवधथन-यज्ञे-गोवधथन पजू ा उत्सव में; अन्न–अन्न; खाइला-आपने खाया; राहश राहश–ढेरों; तार-उसकी;
लेखाय-तल
ु ना में; एइ–यि; अन्न-भोजन; निे-निीं; एक ग्रासी–एक ग्रास भी।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “आपने गोिधयन पूजा के अिसर पर वजतने ढेरों चािल खाया था,
उसकी तुलना में यह अकपमात्र एक कौर भी नहीं है।”

तवु म त’ ईश्वर, मुवि षद्रु जीि छार ।

एक-ग्रास माधुकरी करह अङ्गीकार ॥ 243 ॥

तहु म-आप; त’-हनस्सन्देि; ईश्वर–पणू थ परू


ु षोत्तम भगवान;् महु ि-मैं; क्षद्रु जीव-एक तच्ु छ जीव; छार–बेकार;
एक-ग्रास-एक ग्रास; माध-ु करी-जैसे मधमु हक्खयााँ कट्ठा करती िैं; करि–कृ पया करो; अङ्गीकार–स्वीकार।

अनिु ाद
“कहाूँ आप पूणय पुरूषोत्तम भगिान,् और कहाूँ मैं एक षद्रु तम जीि! अतएि आप मेरे घर में अकप
मात्रा में भोजन ग्रहण कीवजए।”

तात्पयय

संन्यासी से आशा की जाती िै हक वि प्रत्येक गृिस्र् के यिााँ से र्ोड़ा-र्ोड़ा भोजन संग्रि करे अर्ाथत् उसे
खाने के हलए हजतना चाहिए उतना िी ले। यि प्रर्ा माधक
ु री किलाती िै। माधक
ु री शब्द माधक
ु र से बना िै, हजसका
अर्थ िै “मधु संग्रि करने वाली मक्खी।” महक्खयााँ िर फूल से र्ोड़ा-र्ोड़ा मधु एकत्र करती िैं और यि मधु एकत्र
िोकर छत्ता बन जाता िै। संन्याहसयों िो चाहिए हक िर गृिस्र् के यिााँ से र्ोड़ा-र्ोड़ा लें और उतना िी खाएाँ, हजससे
शरीर का पोषण िो सके । संन्यासी िोने के कारण श्री चैतन्य मिाप्रभु सावथभौम भट्टाचायथ के घर से र्ोड़ा भोजन ले
सकते र्े और भट्टाचायथ यिी अननु य-हवनय कर रिे र्े। अन्य अवसरों पर मिाप्रभु ने हजतना भोजन हकया र्ा, उसकी
तल
ु ना में भट्टाचायथ का भोजन एक कौर भी निीं र्ा। भट्टाचायथ यिी बात मिाप्रभु से किना चाि रिे र्े।

एत शुवन’ हावस’ प्रभु िवसला भोजने ।

जगन्नाथेर प्रसाद भट्ट देन हषय-मने ॥ 244॥

एत शहु न’-यि सनु कर; िाहस’–मस्ु कुराकर; प्रभु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु वहसला भोजने–भोजन करने बैठ गये;
जगन्नार्ेर-भगवान जगन्नार् का; प्रसाद–प्रसाद; भट्ट-सावथभौम भट्टाचायथ ने; देन िषथ-मने-अहत प्रसन्न िोकर हदया।

अनुिाद

यह सुनकर श्री चैतन्य महाप्रभु हूँसने लगे और खाने के वलए बैठ गये। भट्टाचायय ने अवत प्रसन्न होकर
सबसे पहले उन्हें जगन्नाथजी का प्रसाद वदया।

हेन-काले ‘अमोघ,’—भट्टाचायेर जामाता ।

कुलीन, वनन्दक तेंहो षाठी-कन्यार भताय ॥ 245॥

िेन-काले-ठीक उसी समय; अमोघ–अमोघ; भट्टाचायेर जामाता–भट्टाचायथ का दामाद; कुलीन–कुलीन वंश में
जन्मा; हनन्दक-हनन्दक; तेंिो-वि; षाठी-कन्यार भताथ-सावथभौम भट्टाचायथ की पत्रु ी षाठी का पहत।

अनिु ाद
उसी समय भट्टाचायय की पुत्री षाठी का पवत अथायत् उनका जामाता अमोघ आया। यद्यवप िह उच्च
ब्राह्मण कुल में जन्मा था, वकन्तु िह वनन्दक था।

भोजन देवखते चाहे, आवसते ना पारे ।

लावठ-हाते भट्टाचायय आछे न दुयारे ॥ 246 ॥

भोजन-भोजन; देहखते चािे वि देखना चािता र्ा; आहसते ना पारे न आ सका; लाहठ-िाते-िार् में छड़ी
लेकर; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; आछे न-र्े; दयु ारे द्वार पर।

अनिु ाद

अमोघ चाहता था वक महाप्रभु को भोजन करते देखे, वकन्तु उसे अन्दर जाने नहीं वदया गया।
भट्टाचायय दरिाजे पर लाठी लेकर अपने घर की रखिाली करते रहे।

तेंहो यवद प्रसाद वदते हैला आन-मन ।

अमोघ आवस’ अन्न देवख’ करये वनन्दन ॥247॥

तेंिो-वे (भट्टाचायथ); यहद-जब; प्रसाद हदते-प्रसाद दे रिे र्े; िैला-िो गये; आन-मन-असावधान; अमोघ–
अमोघ; आहस-आकर; अन्न देहख’–भोजन देखकर; करये हनन्दन-हनन्दा करने लगा।

अनुिाद

वकन्तु ज्जयोंही भट्टाचायय प्रसाद वितरण करने लगे और थोडे असािधान हुए, त्योंही अमोघ भीतर आ
गया। भोजन की मात्रा देखकर िह वनन्दा करने लगा।

एइ अन्ने तप्तृ हय दश बार जन ।

एके ला सन्यासी करे एतेक भषण! ॥ 248॥

एइ अन्ने-इतने भोजन के सार्; तृप्त िय–सन्तष्टु िो सकते िैं; दश बार जन–कम से कम दस से बारि लोग;
एके ला-अके ले; सन्यासी-यि संन्यासी; करे -करता िै; एतेक-इतना; भक्षण-भोजन।

अनिु ाद
“इतना भोजन तो दस-बारह लोगों को तुि कर सकता है, लेवकन यह सन्ं यासी तो अके ले ही इतना
सारा खा रहा है।”

शुवनतेइ भट्टाचायय उलवट’ चावहल ।

ताूँर अिधान देवख’ अमोघ पलाइल ॥ 249॥

शहु नतेइ–सनु कर; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; उलहि’ चाहिल-अपनी दृहष्ट उसकी ओर िाली; तााँर-उनका;
अवधान-ध्यान; देहख’-देखकर; अमोघ–अमोघ; पलाइल–भाग गया।

अनिु ाद

जब अमोघ ने यह कहा, तो साियभौम भट्टाचायय ने उसकी ओर घूरकर देखा। भट्टाचायय का रुख


देखकर अमोघ तुरन्त भाग गया।

भट्टाचाये लावठ लिा माररते धाइल ।

पलाइल अमोघ, तार लाग ना पाइल ॥ 250 ॥

भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; लाहठ लिा-लाठी लेकर; माररते-मारने के हलए; धाइल-दौड़े; पलाइल- भाग
गया; अमोघ–अमोघ; तार-उसको; लाग ना पाइल-पकड़ न सके ।

अनुिाद

भट्टाचायय लाठी वलए उसके पीछे -पीछे उसे मारने के वलए दौडे, वकन्तु अमोघ इतनी तेजी से वनकल
भागा वक भट्टाचायय उसे पकड न पाये।

तबे गावल, शाप वदते भट्टाचायय आइला ।

वनन्दा शुवन’ महाप्रभु हावसते लावगला ॥ 251॥

तबे-उस समय; गाहल–गाली देते िुए; शाप हदते-शाप देते िुए; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; आइला–लौि
आये; हनन्दा शहु न’–हनन्दा सनु कर; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु िाहसते लाहगला-िाँसने लगे।

अनिु ाद
तब भट्टाचायय अपने दामाद को गाली देने लगे और शाप देने लगे। जब भट्टाचायय लौटे , तो उन्होंने
देखा वक श्री चैतन्य महाप्रभु उनके द्वारा की गई अमोघ की आलोचना सनु कर हूँस रहे थे।

शुवन’ षाठीर माता वशरे -बक


ु े घात मारे ।

‘षाठी राण्डी हउक’—इहा बले बारे बारे ॥ 252॥

शहु न’-यि सनु कर; षाठीर माता-षाठी की माता; हशरे –हसर पर; बक
ु े –वक्षस्र्ल पर; घात मारे -िार् मारने लगी;
घाठी राडिी िउक-शाठी को हवधवा िोने दो; इिा बले–यि किने लगी; बारे बारे -बारम्बार।

अनिु ाद

जब भट्टाचायय की पत्नी षाठी की माता ने इस घटना को सनु ी, तो िह यह कहकर तरु न्त अपना वसर
तथा छाती पीटने लगी, “यह षाठी को राूँड (विधिा) हो जाने दो!”

दुहूँ ार दुैःख देवख’ प्रभु दुहूँ ा प्रबोवधया ।

दुहूँ ार इच्छाते भोजन कै ल तुि हिा ॥ 253॥

दिाँु ार दःु ख देहख’–दोनों का दःु ख देखकर; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; दिाँु ा प्रबोहधया-दोनों को शान्त करके ;
दिाँु ार इच्छाते-उन दोनों की मजी से; भोजन कै ल-भोजन हकया; तष्टु ििा–पणू थतया तष्टु िोकर।

अनुिाद

पवत-पत्नी दोनों के शोक को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें सान्त्िना वदलाने का प्रयास वकया।
महाप्रभु ने उन दोनों की इच्छापूवतय के वलए प्रसाद ग्रहण वकया और िे अत्यन्त तुि हुए।

आचमन करािा भट्ट वदल मुख-िास ।

तुलसी-मञ्जरी, लिङ्ग, एलावच रस-िास ॥ 254॥

आचमन करािा-मख
ु , िार् और पैर धोने के हलए श्री चैतन्य मिाप्रभु को जल देकर; भट्ट–सावथभौम भट्टाचायथ
ने; हदल मख
ु -वास-कुछ सगु हन्धत मसाले हदये; तुलसी-मञ्जरी-तल
ु सी के फूल (मंजरी); लवङ्ग-लौंग; एलाहच–
इलायची; रस-वास-हजस से लार िपकने लगती िै।
अनुिाद

जब श्री चैतन्य महाप्रभु खा चुके, तो भट्टाचायय ने उनके मुूँह, हाथ तथा पाूँि धल
ु ाये और उन्हें
सगु वन्धत मसाले, तल
ु सी-मंजररयाूँ, लिगं तथा इलायची खाने को दी।

सिायङ्गे पराइल प्रभुर माकय-चन्दन ।

दण्डित् हिा बले सदैन्य िचन ॥ 255॥

सवथ-अङ्गे–सारे शरीर पर; पराइल-लगाया; प्रभरु –मिाप्रभु के ; माल्य-चन्दन-फूलों की माला तर्ा चन्दन का
लेप; दडिवत् ििा–दडिवत् प्रणाम करके ; बले–किा; स-दैन्य-हवनम्रता सहित; वचन–शब्द।

अनिु ाद

वफर भट्टाचायय ने श्री चैतन्य महाप्रभु को फूल-माला पहनाई और उनके शरीर पर चन्दन का लेप
वकया। नमस्कार करने के बाद भट्टाचायय ने विनयपूियक इस प्रकार वनिेदन वकया।

वनन्दा कराइते तोमा आवननु वनज-घरे ।

एइ अपराध, प्रभ,ु षमा कर मोरे ॥ 256 ॥

हनन्दा कराइते–मात्र हनन्दा कराने के हलए; तोमा-आपको; आहनन-ु मैं लाया; हनज-घरे -अपने घर पर; एइ
अपराध-यि अपराध; प्रभ-ु मेरे प्रभ;ु क्षमा कर-कृ पया क्षमा करें ; मोरे -मेरा।

अनुिाद

“मैं आपको अपने घर आपकी वनन्दा कराने के वलए ही लाया। यह बहुत बडा अपराध है। मैं इसके
वलए षमाप्राथी हूँ।”

प्रभु कहे,—वनन्दा नहे, ‘सहज’ कवहल ।

इहाते तोमार वकबा अपराध हैल? ॥257॥

प्रभु किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; हनन्दा निे-हनन्दा निीं; सिज-ठीक; कहिल-उसने किा; इिाते-इसमें;
तोमार-आपका; हकबा-क्या; अपराध-अपराध; िैल–र्ा।
अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “अमोघ ने जो कुछ कहा है, िह सही है, अतएि यह वनन्दा नहीं है। इसमें
आपका क्या अपराध है?”

एत बवल’ महाप्रभु चवलला भिने ।

भट्टाचायय ताूँर घरे गेला ताूँर सने ॥ 258॥

एत बहल’-यि किकर; मिाप्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभःु चहलला भवने-अपने हनवासस्र्ान पर लौि गये;
भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; तााँर घरे -उनके घर; गेला-गये; तााँर सने-उनके सार्।

अनिु ाद

यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु िहाूँ से चलकर अपने घर िापस आये। साियभौम भट्टाचायय भी उनके
साथ-साथ गये।

प्रभु-पदे पवड’ बहु आत्म-वनन्दा कै ल ।

ताूँरे शान्त करर’ प्रभु घरे पाठाइल ॥ 259॥

प्रभ-ु पदे-श्री चैतन्य मिाप्रभु के पााँव में; पहड़’-हगरकर; बिु-बिुत; आत्म-हनन्दा कै ल-अपनी हनन्दा की; तााँरे-
उनको; शान्त करर’–शान्त करके ; प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; घरे पाठाइल-घर वापस भेज हदया।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने महाप्रभु के चरणों पर वगरकर आत्म-वनन्दा में अनेक बातें कहीं। तब महाप्रभु
ने उन्हें शान्त वकया और उन्हें घर िापस भेज वदया।

घरे आवस’ भट्टाचायय षाठीर माता-सने ।

आपना वनवन्दया वकछु बलेन िचने ॥ 260 ॥

घरे आहस’–घर लौिकर; भट्टाचायथ-सावथभौम भट्टाचायथ; षाठीर माता-सने-षाठी की माता के सार्; आपना
हनहन्दया-अपने आपको कोसते िुए; हकछ-कुछ; बलेन वचने-शब्द किे।
अनुिाद

अपने घर लौटकर साियभौम भट्टाचायय ने षाठी की माता से परामशय वकया। वफर अपनी वनन्दा करते
हुए िे इस प्रकार बोले।

चैतन्य-गोसाविर वनन्दा शुवनल याहा हैते ।

तारे िध कै ले हय पाप-प्रायवित्ते ॥ 261॥

चैतन्य गोसाहिर-श्री चैतन्य मिाप्रभु की; हनन्दा-हनन्दा; शहु नल-मैंने सनु ी; यािा िैते–हजससे; तारे वध कै ले-
उसका यहद वध हकया जाए; िय-िो जाए; पाप-प्रायहित्ते-पाप-पणू थ कमथ का प्रायहित्त िै।

अनिु ाद

“वजस व्यवि ने श्री चैतन्य महाप्रभु की वनन्दा की, यवद उसका िध कर वदया जाए, तो उससे
पापकमय का प्रायवित्त हो सकता है।”

तात्पयय

वैष्णव की हनन्दा के हवषय में स्कन्द परु ाण का हनम्नहलहखत उद्धरण िररभहि-हवलास में प्राप्त िोता िै :

यो हि भागवतं लोकमपु िासं नृपोत्तम ।

करोहत तस्य नश्यहत अर्थधमथयशः सतु ाः ॥

हनन्दां कुवथहन्त ये मढू ा वैष्णवानां मिात्मनाम् ।

पतहन्त हपतृहभः साधं मिारौरव संहज्ञते ॥

िहन्त हनन्दहत वै द्वेहष्ट वैष्णवान्नाहभनन्दहत ।

क्रुध्यते याहत नो िषथ दशथने पतनाहन षि् ॥

माकथ डिेय तर्ा भगीरर् की इस वाताथ में किा गया िै, “िे राजन,् जो मिाभागवत का उपिास करता िै, उसके
पडु यकमों का फल, उसका ऐश्वयथ, उसका यश तर्ा उसके पत्रु नष्ट िो जाते िैं। सारे वैष्णव मिान् आत्मा िोते िैं। जो भी
उनकी हनन्दा करता िै, वि मिारौरव नामक नरक में जा पड़ता िै। उसके सार् उसके पवू थज भी आते िैं। जो कोई वैष्णव
का वध करता िै या उसकी हनन्दा करता िै और जो कोई वैष्णव से ईष्याथ करता िै या उस पर क्रुद्ध िोता िै अर्वा जो
कोई वैष्णव को देखकर नमस्कार निीं करता या िषथ का अनभु व निीं करता, वि हनहित रूप से नरक में हगरता िै।”

िररभहि-हवलास (10.314) में द्वारका मािात्म्य का हनम्नहलहखत श्लोक प्राप्त िोता िै :

करपत्रैि फाल्यन्ते सतु ीव्रयथमशासनैः ।

हनन्दां कुवथहन्त ये पापा वैष्णवानां मिात्मनाम् ॥

प्रह्लाद मिाराज तर्ा बहल मिाराज की वाताथ में यि किा गया िै, “जो पापी लोग मिान् आत्मा ऐसे वैष्णवों
की हनन्दा करते िैं, उन्िें यमराज अत्यन्त कठोर दडि देते िैं।”

भहि-सन्दभथ (313) में भगवान् हवष्णु की हनन्दा करने के हवषय में जीव गोस्वामी ने हनम्नहलहखत कर्न हदया
िै :

ये हनन्दहन्त हृषीके शं तद्भिं पडु यरूहपणम् ।

शतजन्माहजथतं पडु यं तेषां नश्यहत हनहितम् ॥

ते पच्यन्ते मिाघोरे कुम्भीपाके भयानके ।

भहक्षताः कीिसङ्घेन यावच्चन्द्रहदवाकरौ ।

श्रीहवष्णोरवमाननाद् गरुु तरं श्रीवैष्णवोल्लङ्घनम् ॥

तदीयदषू कजनान्न पश्येत् परुु षाधमान् ।

तैः साधं वञ्चकजनैः सिवासं न कारयेत् ॥

“जो भगवान् हवष्णु तर्ा उनके भिों की हनन्दा करता िै, वि अपने सौ जन्मों में अहजथत पडु य को खो देता िै। ऐसा
व्यहि कुम्भीपाक नरक में सड़ता िै और जब तक सयू थ तर्ा चााँद का अहस्तत्व रिता िै, तब तक कीड़ों द्वारा कािा
जाता िै। अतएव भगवान् हवष्णु तर्ा उनके भिों की हनन्दा करने वाले व्यहि का माँिु तक निीं देखना चाहिए। ऐसे
व्यहियों का संग करने का कभी भी प्रयास निीं करना चाहिए।”

आगे भी जीव गोस्वामी अपने भहि-सन्दभथ (265) में श्रीमद्भागवत (10.74.40) का प्रमाण देते िैं :
हनन्दां भगवतः शृडवसं ् तत्परस्य जनस्य वा ।

ततो नापैहत यः सोऽहप यात्यधः सक


ु ृ ताच्यतु ः ॥

“यहद भगवान् या भगवान् के भि की हनन्दा सनु कर मनष्ु य विााँ से तरु न्त िि निीं जाता, तो वि अपनी भहि
से पहतत िो जाता िै।” इसी प्रकार हशवजी की पत्नी सती श्रीमद्भागवत (4.4.17) में किती िैं :

कणौहपधाय हनरयाद्यदकल्प ईशे

धमाथहवतयथसहृ णहभनथहु भरास्यमाने ।

हछन्द्यात् प्रसह्य रुशतीमसतीं प्रभि


ु े-

हजह्वामसनू हप ततो हवसृजेत् स धमथः ॥

“यहद कोई हकसी गैरहजम्मेदार व्यहि द्वारा धमथ के स्वामी तर्ा हनयन्ता की हनन्दा िोते सनु ता िै, तो उसे चाहिए हक वि
अपने कान बन्द कर ले और यहद उसको दडि निीं दे सकता, तो विााँ से चला जाये। हकन्तु यहद वि उसका वध कर
सकता िो, तो उसे चाहिए हक बलपवू थक उसकी जीभ काि ले और अपराध करने वाले को मारने के बाद अपना भी
प्राण त्याग दे।”

वकम्िा वनज-प्राण यवद करर विमोचन ।

दुइ योग्य नहे, दुइ शरीर ब्राह्मण ॥ 262 ॥

हकम्वा-अर्वा; हनज-प्राण-मैं अपने प्राण; यहद-यहद; करर हवमोचन-त्याग दें; दइु -ये दोनों कमथ; योग्य निे-योग्य
निीं; दइु शरीर-दोनों शरीर; ब्राह्मण-ब्राह्मण के िैं।

अनिु ाद

साियभौम भट्टाचायय ने आगे कहा, “अथिा यवद मैं अपने प्राण त्याग हूँ, तो इस पापकमय का
प्रायवित्त हो सकता है। वकन्तु इनमें से दोनों विचार उपयुि नहीं हैं, क्योंवक दोनों शरीर ब्राह्मणों के हैं।

पुनैः सेइ वनन्दके र मुख ना देवखब ।

पररत्याग कै लूँ,ु तार नाम ना लइब ॥ 263 ॥


पनु ःदोबारा; सेइ-उस; हनन्दके र-हनन्दक का; मख
ु –मख
ु ; ना-निीं; देहखब-देखाँगू ा; पररत्याग-त्याग; कै लाँ-ु मैं
करता ि;ाँ तार-उसका; नाम-नाम; ना-निीं; लइब-लाँगा।

अनिु ाद

“इसके बजाए, मैं उस वनन्दक का अब वफर कभी मुंह तक नहीं देखूूँगा। मैं उसका पररत्याग कर रहा
हूँ और उससे सम्बन्ध तोड रहा हूँ। अब मैं उसका नाम तक नहीं लूूँगा।

षाठीरे कह—तारे छाडक, से हइल ‘पवतत’ ।

‘पवतत’ हइले भताय त्यवजते उवचत ॥ 264॥

षाठीरे कि–षाठी को कि दो; तारे छाड़क-उसे छोड़ दे; से िइल-वि िो गया िै; पहतत-पहतत; पहतत िइले–
जब कोई पहतत िो जाता िै; भताथ-ऐसे पहत को; त्यहजते-त्याग देना; उहचत-कतथव्य िोता िै।

अनुिाद

“मेरी पुत्री षाठी से कहो वक िह अपने पवत से सम्बन्ध तोड ले , क्योंवक िह पवतत हो चुका है। जब
पवत पवतत हो जाय, तो पत्नी का कतयव्य है वक िह उससे सम्बन्ध-विच्छे द कर ले।”

तात्पयय

श्रील सावथभौम भट्टाचायथ ने हवचार हकया हक यहद अमोघ को मार िाला जाए, तो ब्राह्मण का वध करने का
पापफल भोगना पड़ेगा। उसी कारण से भट्टाचायथ के हलए आत्मित्या भी करना उहचत निीं र्ा, क्योंहक वे भी ब्राह्मण
र्े। चाँहू क इन दोनों में से भट्टाचायथ कुछ भी स्वीकार निीं कर सकते र्े, इसीहलए उन्िोंने अमोघ से अपना सम्बन्ध तोड़
देने और उसका मख
ु कभी न देखने का हनिय हकया।

जिााँ तक ब्राह्मण के शरीर का वध करने की बात िै, ब्रह्म-बन्धु जो ब्राह्मण हपता से जन्मा िै, हकन्तु ब्राह्मण-
गणु ों से हविीन िै, उसके बारे में श्रीमद्भागवत (1.7.53) का हनम्नहलहखत आदेश िै :

श्री भगवान् उवाच

ब्रह्मबन्धनु थ िन्तव्य आततायी वधािथणः ।


“भगवान् कृ ष्ण ने किा, 'ब्रह्म-बन्धु का वध निीं करना चाहिए, हकन्तु यहद वि आततायी िै, तो उसका वध अवश्य
कर देना चाहिए।”

श्रील श्रीधर स्वामी ने श्रीमद्भागवत के इस श्लोक की िीका करते िुए स्मृहत से उद्धरण हदया िै :

आतताहयनमायान्तमहप वेदान्तपारगम् ।

हजघासं न्तं हजघासं ीयान्न तेन ब्रह्मिा भवेत् ॥

“यहद आततायी वेदान्त का बिुत बड़ा हवद्वान िो, तो भी अन्यों का वध करने की ईष्याथ के कारण उसका वध कर देना
चाहिए। ऐसी दशा में ब्राह्मण का वध करना पाप निीं िै।”

श्रीमद्भागवत (1.7.57) में यि भी किा गया िै :

वपनं द्रहवणादानं स्र्ानाहन्नयाथपणं तर्ा ।

एष हि ब्रह्मबन्धनू ां वधो नान्योऽहस्त दैहिकः ॥

“ब्रह्म-बन्धु के हलए हजन दडिों की संस्तहु त की गई िै वे िैं—हसर के बाल मंिु ा देना, उसकी सम्पहत्त छीन लेना तर्ा
उसे उसके घर से हनकाल देना। उसके शरीर का वध करने के हलए कोई आदेश निीं िै।”

सावथभौम भट्टाचायथ की पत्रु ी षाठी के हलए यि सलाि दी गई हक वि अपने पहत से अपना सम्बन्ध त्याग दे।
इसके हवषय में श्रीमद्भागवत (5.5.18) का किना िै-न पहति स स्यान्न मोचयेद्यः समपु ेत मृत्यमु –् “जो अिल मृत्यु से
अपने आहश्रतों को मोक्ष न हदला सके , वि पहत निीं किला सकता।” यहद मनष्ु य कृ ष्णभावनाभाहवत निीं िै और
आध्याहत्मक शहि से हविीन िै, तो वि जन्म-मृत्यु के चक्र से अपनी पत्नी की रक्षा निीं कर सकता। फलतः ऐसा
व्यहि पहत निीं माना जा सकता। पत्नी को कृ ष्णभावनामृत में प्रगहत करने के हलए अपना जीवन तर्ा सवथस्व कृ ष्ण
को अहपथत कर देना चाहिए। यहद वि कृ ष्णभावनामृत का पररत्याग करने वाले पहत से अपना सम्बन्ध तोड़ लेती िै, तो
वि हद्वजपहत्नयों, अर्ाथत् यज्ञ सम्पन्न करने में व्यस्त ब्राह्मणों की पहत्नयों के पदहचह्नों का अनसु रण करती िै। ऐसी
पत्नी की अपने पहत से सम्बन्ध हवच्छे द करने के हलए भत्सथना निीं की जानी चाहिए। इस प्रसंग में श्रीकृ ष्ण ने
श्रीमद्भागवत (10.23.31-32) में हद्वज-पहत्नयों को हवश्वास हदलाया िै :

पतयो नाभ्यसयू ेरन् हपतृभ्रातृसतु ादयः ।


लोकाि वो मयोपेता देवा अप्यनमु न्वते ॥

न प्रीतयेऽनरु ागाय ह्यङ्गसङ्गो नृणाहमि ।

तन्मनो महय यञ्ु जाना अहचरान्मामवाप्स्यर् ॥

“मेरी हप्रय हद्वजपहत्नयों, तुम सब हवश्वस्त रिो हक तुम्िारे लौिने पर तुम्िारे पहत तम्ु िारा हतरस्कार निीं करें गे, न िी
तम्ु िारे भाई, पत्रु अर्वा हपता तम्ु िें स्वीकार करने से इनकार करें गे। चाँहू क तमु मेरी भि िो, अतः न के वल तम्ु िारे
सम्बन्धी प्रत्यतु सामान्यजन तर्ा देवगण भी तमु से सन्तष्टु रिेंगे। मेरे हलए हदव्य प्रेम शारीररक सम्बन्ध पर हनभथर निीं
करता, प्रत्यतु हजस हकसी का मन मझु में मग्न िै, वि अहतशीघ्र, हनहित् रूप से मेरे शाश्वत संगी के तौर पर मेरे पास
आयेगा।”

पवतं च पवततं त्यजेत् ॥ 265॥

पहतम-् पहत को; च-और; पहततम-् पहतत को; त्यजेत–् छोड़ देना चाहिए।

अनुिाद

“यवद पवत पवतत हो जाए, तो उससे सम्बन्ध तोड लेना चावहए।”

तात्पयय

यि उद्धरण स्मृहत शास्त्र का िै। जैसाहक श्रीमद्भागवत (7.11.28) में किा गया िै :

सन्तष्टु ालोलपु ा दक्षा धमथज्ञा हप्रयसत्यवाक् ।

अप्रमत्ता शहु चः हस्नग्धा पहतं त्वपहततं भजेत् ॥

“जो पत्नी सन्तष्टु रिती िै, जो लालची निीं िोती, जो दक्ष िै और धमथ के हसद्धान्त जानती िै, जो हप्रय तर्ा सत्य
भाषण करती िै और मोिग्रस्त निीं िोती, जो सदैव स्वच्छ रिती िै और स्नेिमयी िै, उसे अपने उस पहत की
आज्ञाकाररणी िोना चाहिए जो पहतत निीं िै।”

सेइ रात्रे अमोघ काहाूँ पलािा गेल ।

प्रातैः-काले तार विसवू चका-व्यावध हैल ॥ 266 ॥


सेइ रात्रे-उसी रात; अमोघ–सावथभौम भट्टाचायथ का दामाद, अमोघ; कािााँ–किााँ; पलािा गेल–भाग गया;
प्रातः-काले-प्रात:काल; तार-उसको; हवसहू चका-व्याहध-िैजे का संक्रामक रोग; िैल–िो गया।

अनिु ाद

उस रात को साियभौम भट्टाचायय का दामाद अमोघ भाग गया और प्रातैः होते ही िह हैजे से ग्रस्त हो
गया।

अमोघ मरे न—शुवन’ कहे भट्टाचायय ।

सहाय हइया दैि कै ल मोर कायय ॥ 267॥

अमोघ मरे न-अमोघ मरणासन्न िै; शहु न’-यि सनु कर; किे भट्टाचायथ-भट्टाचायथ ने किा; सिाय िइया-सिायक
िो रिा िै; दैव-भाग्य; कै ल–हकया; मोर-मेरा; कायथ-कतथव्य।

अनुिाद

जब भट्टाचायय ने सुना वक अमोघ हैजे से मर रहा है, तो उन्होंने सोचा, “यह दैि की कृपा है वक जो मैं
करना चाह रहा हूँ िही हो रहा है।”

ईश्वरे त’ अपराध फले तत-षण ।

एत बवल’ पडे दुइ शास्त्रेर िचन ॥ 268॥

ईश्वरे -पणू थ परू


ु षोत्तम भगवान् की; त’-हनस्सन्देि; अपराध-अपराध का; फले-फल देता िै; तत-क्षण-तत्काल;
एत बहल’-यि किकर; पड़े-पढे; दइु -दो; शास्त्रेर वचन-शास्त्रों के उद्धरण।

अनिु ाद

जब कोई पूणय पुरुषोत्तम भगिान् के प्रवत अपराध करता है, तो कमय तुरन्त प्रभाि वदखाता है।” यह
कहकर उन्होंने शास्त्रों से दो श्लोक सुनाये।

महता वह प्रयत्नेन हस्त्यश्व-रथ-पवत्तवभैः ।

अस्मावभययदनष्ठु ेयं गन्धिैस्तदनवु ष्ठतम् ॥ 269॥


मिता-बिुत बड़ा; हि-हनहित रूप से; प्रयत्नेन–प्रयास से; िहस्त–िार्ी; अश्व-घोड़े; रर्-रर्; पहत्तहभः-पैदल
सैहनकों से; अस्माहभः–िम से; यत-् जो कुछ; अनष्ठु ेयम-् प्रबन्ध करना िै; गन्धवैः-गन्धवो से; तत्व ि; अनहु ष्ठतम-् कर
हदया गया िै।

अनुिाद

“वजस कायय को हाथी, घोडे, रथ तथा पैदल सैवनकों को एकत्र करके बडे ही प्रयत्न के साथ हमें
करना पडता, उसे गन्धिो ने पहले ही सम्पन्न कर वलया है।”

तात्पयय

यि उद्धरण मिाभारत (वनपवथ 241.15) का िै। जब सारे पाडिव वनवास कर रिे र्े, तब भीमसेन ने यि बात
किी र्ी। उस समय कौरवों तर्ा गन्धवो के बीच लड़ाई िुई र्ी। कौरव सैहनक कणथ के सेनापहतत्व में लड़ रिे र्े, हकन्तु
गन्धवो के सेनापहत ने अपनी श्रेष्ठ सैहनक शहि के कारण सारे कौरवों को बन्दी बना हलया र्ा। उस समय दयु ोधन के
महन्त्रयों तर्ा सेनापहतयों ने मिाराज यहु धहष्ठर से सिायता करने की प्रार्थना की। इस प्रकार की प्रार्थना सनु ने पर भीमसेन
ने पाडिवों के प्रहत दयु ोधन के पवू थ नृशंस दष्ु कृ त्यों का स्मरण करके ये वचन किे र्े। भीमसेन को यि उहचत लगा हक
दयु ोधन अपनी सेना समेत बन्दी बना हलया गया। इसी को यहद पाडिवों को करना पड़ता, तो उन्िें काफी प्रयत्न करना
पड़ता।

आयुैः वश्रयं यशो धमां लोकानावशष एि च ।

हवन्त श्रेयांवस सिायवण पस


ुं ो महदवतक्रमैः ॥ 270॥

तात्पयय

आयःु -जीवन की अवहध; हश्रयम-् ऐश्वयथ; यशः-यश; धमथम-् धमथ; लोकान-् सम्पहत्त; आहशषः-सौभाग्य; एव–
हनिय िी; च–तर्ा; िहन्त-नाश करता िै; श्रेयांहस-सौभाग्य; सवाथहण-सब; पसंु ः-मनष्ु य के मित-् मिान् आत्माओ ं के ;
अहतक्रमः-उल्लंघन से।

अनिु ाद
“जब कोई व्यवि वकसी महापुरुषों के साथ दुव्ययिहार करता है, तो उसकी आयु, ऐश्वयय, कीवतय, धमय,
धन तथा सौभाग्य सभी नि हो जाते हैं।”

तात्पयां

यि मिाराज परीहक्षत से शक
ु देव गोस्वामी का कर्न िै (श्रीमद्भागवत 10.4.46)। इसमें कृ ष्ण की बिन
(योगमाया) को मारने के प्रयास का वणथन िै, जो कृ ष्ण-जन्म से पवू थ माता यशोदा की पत्रु ी के रूप में पैदा िुई र्ी।
योगमाया तर्ा कृ ष्ण एक समय पैदा िुए र्े। वसदु वे योगमाया को ले आये और उसके स्र्ान पर कृ ष्ण को रख आये
र्े। जब वि मर्रु ा लाई गई और कंस ने उसे मारने का प्रयास हकया, तब वि उसके िार् से छूि गई और उसका वध
निीं िो पाया। तब उसने कंस को बतलाया हक उसके शत्रु कृ ष्ण का जन्म िो चक
ु ा िै। इस पर कंस बौखला गया और
उसने अपने असरु संहगयों से परामशथ हकया। जब यि बड़ा षि्यन्त्र चल रिा र्ा, तब शक
ु देव गोस्वामी ने यि श्लोक
किा। वे ईहगत
ं करते िैं हक असरु अपने दष्ु कमों के कारण अपना सवथस्व खो देता िै।

मिद-् अहतक्रम शब्द का अर्थ िै, “भगवान् हवष्णु तर्ा उनके भिों से ईष्याथ।” यि शब्द मित्त्वपणू थ िै। मित्
शब्द मिापरुु ष का सचू क िै, जो भि िो सकता िै या स्वयं भगवान् िो सकते िैं। भगवान् की सेवा में हनरन्तर लगे रिने
के कारण भिगण भगवान् के िी तल्ु य मिान् बन जाते िैं। भगवद्गीता (9.13) में भी भगवान् कृ ष्ण ने मित् शब्द की
व्याख्या की िै :

मिात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृ हतमाहश्रताः ।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भतू ाहदमव्ययम् ॥

“िे पृर्ा-पत्रु , जो मोिग्रस्त निीं िैं, ऐसे मिापरुु ष दैवी प्रकृ हत के संरक्षण में रिते िैं। वे हनरन्तर भहि में लगे रिते िैं,
क्योंहक वे मझु े आहद अव्यय पणू थ परुु षोत्तम भगवान् के रूप में जानते िैं।”

भगवान् तर्ा उनके भिों से ईष्याथ करना असरु के हलए शभु निीं िै। ऐसी ईष्याथ से वि अपना सवथस्व, जो
उसके हलए हितकारक समझा जाता िै, खो देता िै।

गोपीनाथाचायय गेला प्रभ-ु दरशने ।

प्रभु ताूँरे पवु छल भट्टाचायय-वििरणे ॥ 271॥


गोपीनार्ाचायथ-गोपीनार् आचायथ; गेला–गये; प्रभ-ु दरशने-श्री चैतन्य मिाप्रभु के दशथन करने; प्रभ-ु श्री चैतन्य
मिाप्रभ;ु तााँरे–उनको; पहु छल–पछू ा; भट्टाचायथ-हववरण सावथभौम भट्टाचायथ के घर का िालचाल।

अनिु ाद

उसी समय गोपीनाथ आचायय श्री चैतन्य महाप्रभु का दशयन करने आये, तो महाप्रभु ने उनसे
साियभौम भट्टाचायय के घर में घट रही घटनाओ ं के बारे में पूछा।

आचायय कहे,—उपिास कै ल दुइ जन ।

विसवू चका-व्यावधते अमोघ छावडछे जीिन ॥ 272॥

आचायथ किे-गोपीनार् आचायथ ने किा; उपवास-उपवास; कै ल–हकया; दइु जन-दोनों ने; हवसहू चका-व्याहधते-
िैजे के रोग से; अमोघ–अमोघ; छाहड़छे जीवन-मरने वाला िै।

अनुिाद

गोपीनाथ आचायय ने महाप्रभु को बतलाया वक पवत-पत्नी दोनों ही उपिास पर हैं और उनका दामाद
अमोघ हैजे से मर रहा है।

शुवन’ कृपामय प्रभु आइला धािा ।

अमोघेरे कहे तार बुके हस्त वदया ॥ 273॥

शहु न’-यि सनु कर; कृ पा-मय-कृ पाल;ु प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु आइला–आये; धािा-दौड़कर; अमोघेरे-अमोघ
को; किे-किा; तार-उसकी; बक
ु े –छाती पर; िस्त हदया-अपना िार् रखकर।

अनिु ाद

ज्जयोहीं महाप्रभु ने सुना वक अमोघ मरणासन्न है, िे तुरन्त जकदी-जकदी उसके पास दौडे गये। वफर
अमोघ की छाती पर अपना हाथ रखकर िे इस प्रकार बोले।

सहजे वनमयल एइ ‘ब्राह्मण”-हृदय ।

कृष्णेर िवसते एइ योग्य-स्थान हय ॥ 274॥


सिजे–स्वभाव से; हनमथल-हनमथल; एइ–यि; ब्राह्मण-हृदय-ब्राह्मण का हृदय; कृ ष्णेर-भगवान् कृ ष्ण के ; वहसते-
बैठने के हलए; एइ-यि; योग्य-स्र्ान-योग्य स्र्ान; िय-िै।

अनिु ाद

“ब्राह्मण का हृदय स्िभाि से शुद्ध होता है, अतैः कृष्ण के िास करने के वलए यह उपयुि स्थान
होता है।”

‘मात्सयय’-चण्डाल के ने इहाूँ िसाइले ।

परम पवित्र स्थान अपवित्र कै ले ॥ 275॥

मात्सयथ-द्वेष; चडिाल-चांिाल को; के ने-क्यों; इिााँ–यिााँ; वसाइले-बैठने हदया; परम पहवत्र-परम पहवत्र; स्र्ान-
स्र्ान को; अपहवत्र-अपहवत्र; कै ले–तमु ने हकया।

अनुिाद

“उसमें तुमने ईष्याय रूपी चण्डाल को भी स्थान क्यों वदया? इसी के कारण तुमने अपने अत्यन्त
पवित्र स्थान, हृदय को भी दूवषत कर वदया है।”

साियभौम-सङ्गे तोमार ‘कलुष’ हैल षय ।

‘ककमष’ घुवचले जीि ‘कृष्ण-नाम’ लय ॥ 276 ॥

सावथभौम-सङ्गे–सावथभौम की सगं हत से; तोमार तुम्िारा; कलषु -कल्मष; िैल क्षय-अब समाप्त िो गया िै;
कल्मष-कल्मष; घहु चले–समाप्त िोने पर; जीव-जीव; कृ ष्ण-नाम-िरे कृ ष्ण मिामंत्र; लय-जप सकता िै।

अनिु ाद

“वकन्तु साियभौम भट्टाचायय की संगवत से तुम्हारा सारा ककमष घुल चुका है। जब मनुष्य के हृदय का
सारा ककमष धुल जाता है, तब िह हरे कृष्ण महामन्त्र का कीतयन कर सकता है।”

उठह, अमोघ, तुवम लओ कृष्ण-नाम ।

अवचरे तोमारे कृपा कररबे भगिान् ॥ 277॥


उठि-उठो; अमोघ–अमोघ; तहु म-तमु ; लओ-जप करो; कृ ष्ण-नाम-भगवान् कृ ष्ण का पावन नाम; अहचरे –
अहत शीघ्र; तोमारे -तमु पर; कृ पा-कृ पा; कररबे-करें गे; भगवान–् पणू थ परू
ु षोत्तम भगवान।्

अनिु ाद

“अतएि हे अमोघ, तुम उठो और हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करो! यवद तुम ऐसा करोगे, तो कृष्ण
अिश्य ही तुम पर कृपां करें गे।”

तात्पयय

परम सत्य की अनभु हू त तीन अवस्र्ाओ ं में की जाती िै—हनहवथशेष ब्रह्म, परमात्मा तर्ा पणू थ परुु षोत्तम
भगवान।् ये तीनों एक िी सत्य िैं, हकन्तु ब्रह्म, परमात्मा तर्ा भगवान् तीन हवहभन्न पिलू िैं। ब्रह्म को जानने वाला
ब्राह्मण किलाता िै और जब ब्राह्मण भगवान् की भहिमयी सेवा में लग जाता िै, तब वि वैष्णव किलाता िै। जब
तक मनष्ु य पणू थ परुु षोत्तम भगवान् को निीं जान लेता, तब तक हनहवथशेष ब्रह्म की उसकी अनभु हू त अपणू थ रिती िै। भले
िी कोई ब्राह्मण नामाभास के पद पर िरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करे , हकन्तु वि शद्ध
ु ध्वहन निीं िोती। जब वि ब्राह्मण
भगवान् के सार् अपने सनातन सम्बन्ध को समझते िुए उनकी सेवा करता िै, तो उसकी भहि अहभधेय किलाती िै।
जब वि इस अवस्र्ा को प्राप्त कर लेता िै, तो वि भागवत या वैष्णव किलाता िै। इससे सहू चत िोता िै हक वि
कल्मष तर्ा भौहतक आसहि से मि
ु िो चक
ु ा िै। इसकी पहु ष्ट भगवद्गीता (7.28) में भगवान् कृ ष्ण ने की िै :

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पडु यकमथणाम् ।

ते द्वन्द्वमोिहनमथि
ु ा भजन्ते मां दृढव्रताः ।।

“हजन्िोंने इस जन्म में तर्ा पवू थजन्म में पडु यकमथ हकया िै, हजनके पापकमथ समल
ू नष्ट िो चक
ु े िैं और जो मोि के द्वन्द्व से
मि
ु िैं, वे संकल्पपवू थक मेरी सेवा करते िैं।”

कोई ब्राह्मण हकतना िी बड़ा हवद्वान क्यों न िो, हकन्तु इसका अर्थ यि निीं िै हक वि भौहतक कल्मष से मि

िै। हकन्तु ब्राह्मण का कल्मष सत्त्वगणु मय िोता िै। भौहतक जगत् में तीन गणु िैं—सतो, रजो तर्ा तमोगणु और ये सभी
कल्मष की हवहभन्न श्रेहणयााँ मात्र िैं। जब तक ब्राह्मण ऐसे कल्मष को लााँघकर शद्ध
ु भहि के पद को प्राप्त निीं करता,
तब तक उसे वैष्णव के रूप में स्वीकार निीं हकया जा सकता। एक हनहवथशेषवादी परम सत्य के हनहवथशेष ब्रह्म पिलू से
अवगत िो सकता िै, हकन्तु उसके कायथकलाप हनहवथशेष धरातल पर िोते िैं। कभी-कभी वि भगवान् के रूप ( सगणु
उपासना) की कल्पना करता िै, हकन्तु ऐसे प्रयास उसे पणू थ साक्षात्कार प्राप्त करने में सिायता निीं कर पाते ।
हनहवथशेषवादी अपने आपको ब्राह्मण मान सकता िै और वि सत्त्वगणु ी भी िो सकता िै, हकन्तु इतने पर भी वि
भौहतक प्रकृ हत के एक ना एक गणु से बद्ध रिता िै। इसका अर्थ यि िै हक वि तब भी मि
ु निीं िै, क्योंहक गणु ों से
पणू थतया शद्ध
ु िुए हबना महु ि प्राप्त निीं की जा सकती। हकसी भी िालत में मायावाद दशथन मनष्ु य को बद्ध बनाये रखता
िै। यहद कोई उहचत दीक्षा द्वारा वैष्णव बन जाता िै, तो वि स्वतः ब्राह्मण बन जाता िै। इसमें कोई सन्देि निीं िै।
इसकी पहु ष्ट गरुड़ परु ाण से िोती िै :

ब्राह्मणानां सिस्रेभ्यः सत्रयाजी हवहशष्यते ।

सत्रयाजीसिस्रेभ्य: सवथवेदान्तपारगः ।

सवथवेदान्तहवत्कोि्या हवष्णभु िो हवहशष्यते ॥

“िजारों ब्राह्मणों में से कोई एक यज्ञ करने के योग्य िोता िै। ऐसे कई िजार योग्य ब्राह्मणों में से कोई एक वेदान्त दशथन
से पणू थतः अवगत िोता िै। ऐसे करोड़ों हवद्वान वेदाहन्तयों में कोई एक हवष्ण-ु भि िो सकता िै। और विी सवाथहधक
पजू नीय िै।”

पणू थतया योग्य ब्राह्मण िुए हबना आध्यात्म-हवज्ञान में प्रगहत निीं की जा सकती। असली ब्राह्मण कभी भी
वैष्णवों से ईष्याथ निीं करता। यहद वि ऐसा करता िै, तो वि अपणू थ नौहसहखया माना जाता िै। हनहवथशेषवादी ब्राह्मण
सदैव वैष्णव हसद्धान्तों का हवरोध करते िैं। वे वैष्णवों से ईष्याथ करते िैं, क्योंहक उन्िें अपने जीवन का लक्ष्य ज्ञात निीं
रिता। न ते हवदःु स्वार्थगहतं हि हवष्णमु ् । हकन्तु जब एक ब्राह्मण वैष्णव बन जाता िै, तो उसका द्वन्द्व समाप्त िो जाता
िै। यहद वि ब्राह्मण वैष्णव निीं बनता, तो उसका ब्राह्मण-पद से पतन िो जाता िै। इसकी पहु ष्ट श्रीमद्भागवत (11.5.3)
द्वारा िोती िै-न भजहन्त अवजानहन्त स्र्ानादभ्र् ष्टाः पतन्त्यधः।

इस कहलयगु में िम वास्तव में देख सकते िैं हक अनेक तर्ाकहर्त ब्राह्मण वैष्णवों से ईष्याथ करते िैं। कहल के
कल्मष से ग्रस्त ऐसे ब्राह्मण अचाथहवग्रि पजू ा को काल्पहनक मानते िैं- अच्र्ये हवष्णौ हशलाधीगरुु षु नरमहतवैष्णवे
जाहतबहु द्धः। ऐसा दहू षत ब्राह्मण भगवान् के रूप की ऊपर ऊपर से कल्पना कर सकता िै, हकन्तु वास्तव में वि महन्दर
के अचाथहवग्रि को पत्र्र या काष्ठ का बना मानता िै। इसी तरि ऐसा कल्मष-ग्रस्त ब्राह्मण गरुु को सामान्य मनष्ु य
मानता िै और जब कृ ष्णभावनामृत आन्दोलन हकसी को वैष्णव बनाता िै, तो वि हवरोध करता िै। ऐसे अनेकों
ब्राह्मण िमसे यि किकर लड़ने का प्रयास करते िैं, “आप हकसी यरू ोहपयन या अमेररकन को ब्राह्मण कै से बना सकते
िैं? ब्राह्मण तो के वल ब्राह्मण कुल में उत्पन्न िो सकता िै।” वे इस बात पर हवचार िी निीं करते हक प्रामाहणक शास्त्रों
में किीं भी ऐसा निीं किा गया। भगवान् कृ ष्ण द्वारा भगवद्गीता (4.13) में हवशेष रूप से किा गया िै-चातवु थयं मया
सृष्टं गणु कमथहवभागशः–भौहतक प्रकृ हत के तीनों गणु ों तर्ा उनके हलए हनयत कमथ के अनसु ार िी मानव समाज के चार
वषों की सृहष्ट मेरे द्वारा िुई िै।”

इस तरि ब्राह्मण जाहतप्रर्ा की उपज निीं िै। वि तो के वल योग्यता के बल पर िी ब्राह्मण बनता िै। इसी तरि
वैष्णव भी हकसी जाहत से सम्बहन्धत निीं िोता, प्रत्यतु उसकी उपाहध उसके द्वारा की जाने वाली भहि से हनधाथररत
िोती िै।

शुवन’ ‘कृष्ण’ ‘कृष्ण’ बवल’ अमोघ उवठला ।

प्रेमोन्मादे मत्त हिा नावचते लावगला ॥ 278॥

शहु न’–सनु कर; कृ ष्ण कृ ष्ण-कृ ष्ण का पावन नाम; बहल’–किकर; अमोघ हठला–अमोघ उठ खड़ा िुआ;
प्रेमोन्मादे-कृ ष्ण के प्रेमावेश में; मत्त ििा-उन्मत्त िोकर; हचते लाहगला-नाचने लगा।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु की िाणी सुनकर तथा उनका स्पशय पाकर, रणशय्या में पडा अमोघ उठ खडा
हुआ और कृष्ण के पवित्र नाम का शीतयन करने लगा। इस तरह िह प्रेमोन्मत्त होकर नाचने लगा।

कम्प, अश्रु, पुलक, स्तम्भ, स्िेद, स्िर-भङ्ग ।

प्रभु हासे देवख’ तार प्रेमेर तरङ्ग ॥ 279॥

कम्प–कााँपना; अश्र-ु अश्र;ु पल


ु क-रोमांच; स्तम्भ-जड़ िोकर; स्वेद-पसीना; स्वर-भङ्ग-स्वर का लड़खड़ाना;
प्रभु िासे-श्री चैतन्य मिाप्रभु िाँसने लगे; देहख’-देखकर; तार-अमोघ की; प्रेमेर तरङ्ग-प्रेम की तरंगें।

अनुिाद

प्रेमोन्मत्त होकर नाचते समय अमोघ में सारे भािलषण-यथा कम्पन, अश्र,ु पल
ु वकत होना, स्तम्भ,
स्िेद तथा स्िरभगं प्रकट हो आये। इस प्रेम-तरंगों को देखकर श्री चैतन्य महाप्रभु हूँसने लगे।
प्रभुर चरणे धरर’ करये विनय ।

अपराध षम मोरे , प्रभु, दयामय ॥280॥

प्रभरु चरणे-श्री चैतन्य मिाप्रभु के चरणकमल; धरर’-पकड़कर; करये-हकया; हवनय-हनवेदन; अपराध-अपराध;


क्षम–कृ पया क्षमा करो; मोरे -मेरे; प्रभ-ु िे प्रभ;ु दया-मय-दयामय।

अनुिाद

अमोघ महाप्रभु के चरणकमलों पर वगर पडा और विनीत भाि से बोला, “हे दयामय प्रभु, कृपया
मेरा अपराध षमा करें ।”

एइ छार मुखे तोमार कररनु वनन्दने ।

एत बवल’ आपन गाले चडाय आपने ॥ 281॥

एइ छार मख
ु -े इस घृहणत मख
ु से; तोमार-आपकी; कररन-ु मैंने की; हनन्दने-हनन्दा; एत बहल’—यि किकर;
आपन-अपनी; गाले–गालों पर; चड़ाय-र्प्पड़ मारा; आपने–स्वयं।

अनिु ाद

अमोघ ने न के िल महाप्रभु से षमा-दान माूँगा, अवपतु िह यह कहकर अपने गालों पर चपत लगाने
लगा, “मैंने इसी मुूँह से आपकी वनन्दा की है।”

चडाइते चडाइते गाल फुलाइल ।

हाते धरर’ गोपीनाथाचायय वनषेवधल ॥ 282॥

चड़ाइते चड़ाइते-बारम्बार चपत लगाकर; गाल-गाल; फुलाइल-सजु ा हदया; िाते धरर’-उसके िार् पकड़कर;
गोपीनार्-आचायथ-गोपीनार् आचायथ ने; हनषेहधल-रोका।

अनुिाद

अमोघ अपने गालों पर तब तक चपत लगाता रहा, जब तक उसके गाल सूज नहीं गये। अन्त में
गोपीनाथ आचायय ने उसके हाथ पकडकर उसे रोका।
प्रभु आश्वासन करे स्पवशय' तार गात्र ।

साियभौम-सम्बन्धे तवु म मोर स्नेह-पात्र ॥ 283 ॥

प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; आश्वासन करे -आश्वासन हदया; स्पहशथ'–स्पशथ करके ; तार-उसके ; गात्र-शरीर को
सावथभौम-सम्बन्धे-सावथभौम भट्टाचायथ के सार् सम्बन्ध िोने के कारण; तुहम-तमु ; मोर-मेरे; स्नेि-पात्र-स्नेि-पात्र।

अनुिाद

इसके बाद श्री चैतन्य महाप्रभु ने उसके शरीर का स्पशय करते हुए उसे यह कहकर शान्त वकया, “तुम
मेरे स्नेह-पात्र हो, क्योंवक तमु साियभौम भट्टाचायय के दामाद हो।

साियभौम-गृहे दास-दासी, ये कुक्कुर ।

सेह मोर वप्रय, अन्य जन रहु दूर ॥284॥

सावथभौम-गृि–े सावथभौम भट्टाचायथ के घर के ; दास-दासी–दास-दाहसयााँ; ये कुकुर-एक कुत्ता भी; सेि-वे सब;


मोर-मझु े; हप्रय–अहत हप्रय; अन्य जन-अन्य लोगों की; रिु दरू -क्या बात करें ।

अनिु ाद

“साियभौम भट्टाचायय के घर का हर प्राणी मुझे अत्यन्त वप्रय है- यहाूँ तक वक उनके दास-दावसयाूँ
तथा उनका कुत्ता भी। तो भला उनके सम्बवन्धयों के विषय में क्या कहूँ?”

अपराध’ नावह, सदा लओ कृष्ण-नाम ।

एत बवल’ प्रभु आइला साियभौम-स्थान ॥ 285॥

अपराध’ नाहि-अपराध न करो; सदा-सदा; लओ-जपो; कृ ष्ण-नाम-िरे कृ ष्ण मिामंत्र; एत बहल’-यि किकर;
प्रभ-ु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु आइला–आये; सावथभौम-स्र्ान–सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर।

अनुिाद

“अरे अमोघ, अब तुम सदैि हरे कृष्ण महामन्त्र का जप करना और आगे कोई अपराध न करना।”
अमोघ को इस तरह उपदेश देकर श्री चैतन्य महाप्रभु साियभौम के घर गये।
प्रभु देवख’ साियभौम धररला चरणे ।

प्रभु ताूँरे आवलङ्वगया िवसला आसने ॥ 286 ॥

प्रभु देहख’-श्री चैतन्य मिाप्रभु को देखकर; सावथभौम सावथभौम भट्टाचायथ ने; धररला चरणे-उनके चरण पकड़
हलए; प्रभु श्री चैतन्य मिाप्रभु ने; तााँरे–उनका; आहलङ्हगया-आहलंगन करके ; वहसला आसने-अपने आसन पर बैठ
गये।

अनुिाद

महाप्रभु को देखते ही साियभौम भट्टाचायय ने उनके चरणकमल पकड वलए। महाप्रभु भी उनका
आवलगं न वकया और वफर बैठ गये।

प्रभु कहे,—अमोघ वशशु, वकबा तार दोष ।

के ने उपिास कर, के ने कर रोष ॥287॥

प्रभु किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; अमोघ हशश-ु अमोघ बच्चा िै; हकला-क्या; तार दोष-उसका दोष; के ने-
क्यों; उपवास कर–उपवास कर रिे िो; के ने-क्यों; कर रोष-आप क्रुद्ध िैं।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु ने यह कहकर साियभौम को शान्त वकया, “आवखर आपका दामाद अमोघ एक
बच्चा है। अतएि इसमें उसका क्या दोष? आप क्यों उपिास कर रहे हो और गुस्सा क्यों कर रहे हो?”

उठ, स्नान कर, देख जगन्नाथ-मुख ।

शीघ्र आवस, भोजन कर, तबे मोर सख


ु ॥288॥

उठ-उठो; स्नान कर-स्नान करो; देख-दशथन करो; जगन्नार्-मख


ु -भगवान् जगन्नार् के मख
ु के ; शीघ्र आहस-
शीघ्र लौिकर; भोजन कर–भोजन करो; तबे मोर सख
ु -तभी मझु े खश
ु ी िोगी।

अनुिाद
“उठो और स्नान करो। वफर जाकर जगन्नाथजी के मुख का दशयन करो। तब लौटकर अपना भोजन
करो। तभी मैं प्रसन्न होऊूँ गा।”

ताित्रवहब आवम एथाय िवसया ।

याित्ना खाइबे तुवम प्रसाद आवसया ॥289॥

तावत-् तब तक; रहिब-रिुगाँ ा; आहम-मैं; एर्ाय-यिााँ; वहसया–बैठा; यावत-् जब तक; ना खाइबे–निीं खाओगे;
तहु म-आप; प्रसाद-जगन्नार् भगवान् का प्रसाद; आहसया–यिााँ आकर।

अनिु ाद

“जब तक आप लौट करके जगन्नाथजी का प्रसाद ग्रहण नहीं कर लेते, तब तक मैं यहीं रुका
रहूँगा।”

प्रभ-ु पद धरर’ भट्ट कवहते लावगला ।

मररत’ अमोघ, तारे के ने जीयाइला ॥290 ॥

प्रभ-ु पद-श्री चैतन्य मिाप्रभु के चरणकमल; धरर’-पकड़कर; भट्ट-सावथभौम भट्टाचायथ; कहिते लाहगला-किने
लगे; मररत’ अमोघ–अमोघ मर गया िोता; तारे -उसको; के ने-क्यों; जीयाइला-जीहवत हकया।

अनुिाद

श्री चैतन्य महाप्रभु के चरणकमलों को पकडकर भट्टाचायय ने कहा, “आपने अमोघ को क्यों
वजलाया? यवद िह मर गया होता तो अच्छा हुआ होता।”

प्रभु कहे,—अमोघ वशशु, तोमार बालक ।

बालक-दोष ना लय वपता, ताहाते पालक ॥291॥

प्रभु किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; अमोघ हशश-ु अमोघ बच्चा िै; तोमार बालक-आपका पत्रु ; बालक-दोष-
बालक का दोष; ना लय-निीं स्वीकार करता; हपता-हपता; तािाते-उसका; पालक-पालक।

अनिु ाद
श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा, “अमोघ तो बच्चा है और आपका पुत्र है। वपता अपने पुत्र के दोष पर
ध्यान नहीं देता, विशेष करके तब जब िह उसका पालक हो।”

एबे ‘िैष्णि’ हैल, तार गेल ‘अपराध’ ।

ताहार उपरे एबे करह प्रसाद ॥292 ॥

एबे-अब; वैष्णव िैल-वैष्णव बन गया िै; तार-उसका; गेल-चला गया िै; अपराध-अपराध; तािार उपरे —
उसके ऊपर; एबे-अब; करि प्रसाद-दया हदखाओ।

अनिु ाद

“अब िैष्णि बन जाने से िह अपराधरवहत हो चुका है। अब आप वनैःसक


ं ोच भाि से उस पर कृपा
कर सकते हैं।”

भट्ट कहे,—चल, प्रभु, ईश्वर-दरशने ।

स्नान करर’ ताूँहा मुवि आवसछों एखने ॥293 ॥

भट्ट किे-भट्टाचायथ ने किा; चल–जाओ; प्रभ-ु मेरे पत्रु ; ईश्वर-दरशने–भगवान् जगन्नार् का दशथन करने; स्नान
करर’–स्नान करके ; तााँिा-विााँ; महु ि-मैं; आहसछों-लौि आऊाँगा; एखने–यिााँ।

अनुिाद

साियभौम भट्टाचायय ने कहा, “हे प्रभु, चवलए, जगन्नाथजी का दशयन करने चवलए। मैं स्नान करने के
बाद िहाूँ जाऊूँ गा और तब लौटूूँगा।”

प्रभु कहे,—गोपीनाथ, इहावि रवहबा ।

इूँहो प्रसाद पाइले, िाताय आमाके कवहबा ॥294॥

प्रभु किे-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने किा; गोपीनार्-गोपीनार्; इिाहि रहिबा-कृ पया यिााँ रिो; इाँिो–सावथभौम
भट्टाचायथ ने प्रसाद पाइले-जब वे प्रसाद ग्रिण कर ले ; वाताथ-समाचार; आमाके कहिबा-मझु े सहू चत करो।

अनिु ाद
तब श्री चैतन्य महाप्रभु ने गोपीनाथ से कहा, “तुम यहीं रुको और मुझे सूवचत करना जब साियभौम
भट्टाचायय प्रसाद ग्रहण कर चुके।”

एत बवल’ प्रभु गेला ईश्वर-दरशने ।

भट्ट स्नान दशयन करर’ कररला भोजने ॥ 295॥

एत बहल’-यि किकर; प्रभु श्री चैतन्य मिाप्रभ;ु गेला–चले गये; ईश्वर-दरशने-भगवान जगन्नार् का दशथन
करने; भट्ट सावथभौम भट्टाचायथ ने; स्नान दशथन करर’–स्नान तर्ा भगवान जगन्नार् का दशथन करके ; कररला भोजने–
भोजन हकया।

अनिु ाद

यह कहकर श्री चैतन्य महाप्रभु भगिान् जगन्नाथ का दशयन करने चले गये। साियभौम भट्टाचायय ने
स्नान वकया, भगिान जगन्नाथ का दशयन वकया और वफर िे भोजन ग्रहण करने के वलए अपने घर लौट
आये।

सेइ अमोघ हैल प्रभरु भि ‘एकान्त’ ।

प्रेमे नाचे, कृष्ण-नाम लय महा-शान्त ॥296 ॥

सेइ अमोघ-विी अमोघ; िैल–िो गया; प्रभरु –श्री चैतन्य मिाप्रभु का; भि-भि; एकान्त–दृढ़; प्रेमे नाचे-
प्रेमावेश में नाचने लगा; कृ ष्ण-नाम लय-िरे कृ ष्ण मिामंत्र जपने जगा; मिा-शान्त-अहत शान्त िोकर।

अनुिाद

इसके बाद अमोघ श्री चैतन्य महाप्रभु का शुद्ध भि बन गया। िह प्रेम में नाचता और शान्त भाि से
भगिान् कृष्ण के नाम का जप करता।

ऐछे वचत्र-लीला करे शचीर नन्दन ।

येइ देखे, शुने, ताूँर विस्मय हय मन ॥ 297॥


ऐछे -इस प्रकार; हचत्र-लीला-हवहवध लीलाएाँ; करे -कीं; शचीर नन्दन–शची माता के पत्रु ; येइ देख–े जो कोई
देखता िै; शनु े-सनु ता िै; तााँर-उसका; हवस्मय-चहकत; िय िो जाता िै; मन–मन।

अनिु ाद

इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने अपनी विविध लीलाएूँ सम्पन्न कीं। जो भी उन्हें देखता या सुनता है,
िह विवस्मत हुए वबना नहीं रहता।

ऐछे भट्ट-गृहे करे भोजन-विलास ।

तार मध्ये नाना वचत्र-चररत्र-प्रकाश ॥ 298॥

ऐछे -इस प्रकार; भट्ट-गृि-े सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर; करे -कीं; भोजन-बलास–भोजन की लीला; तार मध्ये-
उस लीला के मध्य; नाना-नाना प्रकार की; हचत्र-ररत्र-लीलाएाँ; प्रकाश–हदखाई।

अनुिाद

इस तरह श्री चैतन्य महाप्रभु ने साियभौम भट्टाचायय के घर में भोजन करने का आनन्द उठाया। इसी
एक लीला के अन्तगयत अनेक अद्भुत लीलाएूँ प्रकट हुई।ं

साियभौम-घरे एइ भोजन-चररत ।

साियभौम-प्रेम याूँहा हइला विवदत ॥ 299॥

सावथभौम-घरे -सावथभौम भट्टाचायथ ने घर पर; एइ-ये; भोजन-चररत-भोजन-लीलाएाँ; सावथभौम-प्रेम-सावथभौम


भट्टाचायथ का प्रेम; यााँिा-जिााँ; िइला-िो गया; हवहदत–सवथज्ञात।

अनिु ाद

ये श्री चैतन्य महाप्रभु की लीलाओ ं के विवशि लषण हैं। इस तरह महाप्रभु ने साियभौम भट्टाचायय के
घर पर भोजन वकया और महाप्रभु के प्रवत साियभौम का प्रेम विख्यात हुआ।

तात्पयय

जैसाहक शाखा हनणथयामृत में किा गया िै :


अमोघपहडितं वन्दे श्रीगौरे णात्मसात्कृ तम् ।

प्रेमगद्गदसान्द्राङ्गं पल
ु काकुलहवग्रिम् ॥

“मैं उन अमोघ पहडित को नमस्कार करता ि,ाँ हजन्िें श्री चैतन्य मिाप्रभु ने अपना बना हलया। इसके फलस्वरूप वे
हनरन्तर प्रेम में मग्न रिते र्े और गदगद वाणी तर्ा रोमांच द्वारा भाव लक्षण प्रकि करते र्े।”

षाठीर मातार प्रेम, आर प्रभुर प्रसाद ।

भि-सम्बन्धे याहा षवमल अपराध ॥ 300॥

षाठीर मातार प्रेम–षाठी की माता का प्रेम; आर-और; प्रभरु प्रसाद-श्री चैतन्य मिाप्रभु की कृ पा; भि-
सम्बन्धे-भि के सार् सम्बहन्धत िोने के कारण; यािा–जिााँ; क्षहमल अपराध-श्री चैतन्य मिाप्रभु ने अपराध क्षमा कर
हदया।

अनुिाद

इस तरह मैंने साियभौम की पत्नी षाठी की माता के प्रेम का िणयन वकया है। मैंने श्री चैतन्य महाप्रभु
की महान् कृपा का भी िणयन वकया है, वजसे उन्होंने अमोघ के अपराध को षमा करके प्रदवशयत वकया।
उन्होंने अमोघ का भि के साथ सम्बन्ध होने के कारण ऐसा वकया।

तात्पयय

अमोघ अपराधी र्ा, क्योंहक उसने मिाप्रभु की हनन्दा की र्ी। फलस्वरूप वि िैजे से मरने िी वाला र्ा।
रोगग्रस्त िोने के बाद अमोघ को अपने अपराधों से मि
ु िोने का अवसर प्राप्त निीं िो पाया, हकन्तु मिाप्रभु को
सावथभौम भट्टाचायथ तर्ा उनकी पत्नी दोनों अत्यन्त हप्रय र्े। उनके सम्बन्ध के कारण िी श्री चैतन्य मिाप्रभु ने अमोघ
को क्षमा कर हदया। इस तरि वि मिाप्रभु से दहडित िोने के बजाय मिाप्रभु की दया के कारण बचा हलया गया। यि
सब श्री चैतन्य मिाप्रभु के प्रहत सावथभौम भट्टाचायथ के अिल प्रेम के कारण िुआ। बािर से अमोघ सावथभौम भट्टाचायथ
का दामाद र्ा और सावथभौम उसका पालन कर रिे र्े। फलत: यहद अमोघ को क्षमा निीं हकया जाता, तो उसके दडि
से सावथभौम सीधे प्रभाहवत िोते । अमोघ की मृत्यु से अप्रत्यक्ष रूप से सावथभौम भट्टाचायथ की मृत्यु िो गई िोती।

श्रद्धा करर’ एइ लीला शनु े येइ जन ।


अवचरात्याय सेइ चैतन्य-चरण ॥ 301॥

श्रद्धा करर’–श्रद्धा तर्ा प्रेम सहित; एइ लीला-यि लीला; शनु े-सनु ता िै; येइ जन-जो कोई व्यहि; अहचरात-्
अहत शीघ्र; पाय-पाता िै; सेइ-वि; चैतन्य-चरण-भगवान् चैतन्य के चरणकमल।

अनुिाद

जो कोई श्रद्धा तथा प्रेम से श्री चैतन्य महाप्रभु की इन लीलाओ ं को सुनता है, उसे तुरन्त ही महाप्रभु
के चरणों में शरण वमलेगी।

श्री-रूप-रघुनाथ-पदे यार आश ।

चैतन्य-चररतामृत कहे कृष्णदास ॥ 302॥

श्री-रूप-श्री रूप गोस्वामी; रघनु ार्–श्रील रघनु ार् दास गोस्वामी के ; पदे-चरणकमलों पर; यार–हजसकी ;
आश–आशा; चैतन्य-चररतामृत-चैतन्य चररतामृत पस्ु तक; किे-वणथन करता िै; कृ ष्णदास-श्रील कृ ष्णदास कहवराज
गोस्वामी।

अनिु ाद

श्री रूप तथा श्री रघुनाथ के चरणकमलों की प्राथयना करते हुए और सदैि उनकी कृपा की इच्छा
रखते हुए उन्हीं के पदवचह्नों पर चलते हुए मैं कृष्णदास श्री चैतन्य-चररतामृत कह रहा हूँ।

इस तरि श्रीचैतन्य-चररतामृत मध्यलीला के पन्द्रिवें अध्याय का भहिवेदान्त तात्पयथ पणू थ िुआ हजसमें
सावथभौम भट्टाचायथ के घर पर मिाप्रभु के भोजन करने का वणथन िुआ िै।

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