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उपसंहार

प्रेमचदं और बाल्जाक दोनों दो भाषाओ,ं दो समाजों और दो अनभु वों के लेखक हैं। ‘गोदान’
और ‘ककसान’ उपन्यास अलग-अलग समय में कलखे गए हैं और इनमें कचकित स समाज कर परपरे खा भ
अलग है, क्योंकक समाज पररवत सतनश ल होत सा है अत सः अलग-अलग समय में समाज कर परपरे खा भ
अलग-अलग होग । इसके साथ इसकर संभावना त सब और भ अकिक हो जात स है जब समय के साथ-
साथ सत्ता में भ पररवत सतन हो चक
ु ा होत सा है, परन्त सु प्रेमचदं और बाल्जाक दोनों ह लेखकों ने अपने-
अपने उपन्यासों में पािों के माध्यम से ककसान ज वन में मल्ू यों के ह्रास एवं उनकर संघषतमय अवस्था
को रे खांककत स ककया है।

साकहत्य कर प्रायः सभ कविाओ ं में ककसान ज वन को रे खांककत स ककया जात सा रहा है।
समकाल न साकहत्य में उपन्यास कविा में भ ककसानों के ज वन संघषत को महत्वपर्ू त स्थान कमला है।
इन उपन्यासों में प्रायःककसान कर समस्याओ ं त सथा संघषों को ह कवषयवस्त सु कगनाया जात सा रहा है।
वत सतमान दौर में भ ककसान समस्या का प्रश्न कथा साकहत्य का ज्वलंत स प्रश्न है। प्रेमचंद और बाल्ज़ाक
के समय का ककसान अपन मल
ू भत सू आवश्यकत साओ ं कर पकू त सत के कलए सघं षत कर रहा था। उनकर
कस्थकत स इत सन दयन य थ कक संपन्न वगत उनका हर त सरह से शोषर् करना चाहत सा था।

प्रेमचन्द देश कर कवशाल जनत सा, खेकत सहर देश के श्रकमक और ककसानों कर महागाथा कलखने
वाले भारत स य साकहत्यकार रहे हैं। प्रेमचन्द हमें आज और अकिक प्रासंकगक ककसान ज वन के सदं भत में
भ लगत से हैं। प्रेमचन्द का कजत सना कवरोि आज हो रहा है उससे अकिक अपने ज वन काल में भ हुआ
था। सह अथों में देखा जाए त सो ककसान ज वन के कचत सेरे होने के कारर् आज भ हमें उत सने ह नव न
लगत से हैं, कजत सने कल थे। प्रेमचन्द कृ त स ‘गोदान’ के कथा साकहत्य में मध्यवगत भ है, लेककन के न्र य
कस्थकत स ककसान-जनत सा कर ह है। यहााँ ककसानों का ज वन सघं षत ह के न्र य कवषय है। ककसान कजस
शोषर् के कशकार थे, उस शोषर् के पेच दा त संि, उसकर जकिल प्रकिया और उसकर भयानक पररर्कत स

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का कचिर् प्रेमचन्द ने ककया है। इनके कथा साकहत्य के लगभग सभ नायक ककसान ह रहे हैं। ककसान
ज वन के कवकभन्न परप, ज वन संघषत और मकु ि संघषत में लगे ककसान के कवकभन्न परप कदखाई देत से हैं।
इनके यहााँ ककसान ज वन समग्रत सा में कचकित स होत सा है।

कथा साकहत्य में ककसान को के न्र में रखकर बाल्जाक ने वास्त सकवकत सा और आकांक्षाओ ं का
कलात्मक कचिर् कर उपन्यास कर कवकशष्ट यथाथतवाद परम्परा का कनमातर् ककया है। उनका ककसानों
से प्रेम और सहानभु कू त स साफ कदखाई देत स है, जब ककसान संघषत करत से हुए हारने के बावजदू ज त सत से हैं
और सामंत सवाद हारत सा है। उनकर रचना ‘ककसान’ को ककसान ज वन का ‘ट्रैकजक महाकाव्य’ कह
सकत से हैं। ककसानों को राज्य, चचत त सथा अन्य जम दारों को अनेक प्रकार के कर देने पड़त से थे और
सामंत स अत्याचार को सहना पड़त सा था। एक दृकष्ट से ककसानों के असंत सोष का मख्ु य कारर् सामंत सों
द्वारा कदए जा रहे कष्ट एवं असकु विाएाँ थ ।

दोनों लेखकों ने अपने उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासों कर कथा ह नहीं बत साई है, बकल्क
एक ऐसे यथाथत का कचिर् ककया है जो वत सतमान यगु का सच भ है। प्रेमचन्द और बाल्ज़ाक आज भ
उत सने ह प्रासंकगक है कजत सने अपने दौर में रहे हैं, बकल्क ककसान ज वन कर उनकर पकड़ और समझ को
देखत से हुए उनकर प्रासंकगकत सा और अकिक बढ़ जात स है। ककसान कर दृकष्ट से अगर इन दोनों रचनाकारों
के कथा साकहत्य को यकद पनु ः देखा जाए त सो कई अथों में ये लोग गााँि से भ आगे कर सोच रखत से
हुए कदखाई देत से हैं। ककसान ज वन के यथाथतवाद कचिर् में प्रेमचन्द और बाल्ज़ाक साकहत्य में अनठू े
और लाजवाब रचनाकार रहे हैं।

आज पवू त से लेकर वत सतमान समय त सक ककसानों कर कस्थकत स में ज्यादा पररवत सतन नहीं कदखत सा।
प्रेमचंद और बाल्ज़ाक ने अपने समय के ककसानों कर कजन कस्थकत सयों को रे खांककत स ककया था कहीं न
कहीं वह कस्थकत सयााँ आज भ मौजदू हैं। भारत स हो या फ्ांस ककसान आज भ समस्याओ ं से ग्रस्त स हैं,

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लगात सार उनके आत्महत्या करने कर सचू नाएाँ हमें प्रकत सकदन प्राप्त होत स हैं। दोनों ह जगहों पर ककसानों
कर संख्या सवातकिक थ और इनकर दशा कनम्न और सोचन य थ ।

आज एक लम्ब अवकि व्यत स त स होने के बाद भ ककसानों कर दशा में कसफत नाममाि का ह
अंत सर कदखाई देत सा है। ककसान माि के समृद्ध होत से हैं। भमू ंडल करर् के दौर में कृ कष पर आिकु नक
त सकन कर बहुराष्ट्ट्र य कंपकनयों के माध्यम से जो इस देश में आत स हैं उसे कृ कष का प्रचार-प्रसार त संि उन
ककसानों त सक पहुचाँ ाने में लाचार नजर आत सा है, यह गंभ र और कवचारर् य कवषय है। यह एक
सवतकवकदत स त सथ्य है कक ग्राम र् अथतव्यवस्था का मख्ु य आिार कृ कष है और कृ षकों कर मख्ु य आय का
सािन खेत स है। ककसानों कर खश
ु हाल कर बात स सभ करत से हैं और उनके कलए योजनाएं भ बनात से हैं
ककंत सु उनकर मल
ू भत सू समस्या ज्यों-कर-त्यों बन रहत स है।

इसे कवडंबना ह कहा जाएगा कक ग्राम र् जन-ज वन और ककसानों कर समस्या पर आजकल


हमारे साकहत्यकारों और पिकारों का कम ह ध्यान जात सा है। बड़ त सेज से हो रहे शहर करर् के
बावजदू आज ककसानों कर दशा दयन य है और खेत स -बाड़ एवं पशपु ालन ह उनकर रोज़ -रोि का
मख्ु य जररया है। सम्पर्ू त कवश्व में वात सावरर्, मौसम, जम न, अनाज, खेत स -बाड़ के त सौर-त सर के आकद में
इत सन कवकवित सा (जो हमार कृ कष सस्ं कृ कत स का कनमातर् करत से हैं) है कक यकद हम कृ कष को उद्योग त सथा
ककसान को समृद्ध बनाना चाहें त सो यह कोई ककठन कायत नहीं है। लेककन गलत स सरकार न कत सयों के
कारर् कवश्व में कफर से खाद्यान्न संकि और महगं ाई पैदा हो रह है। इसका मल
ू कारर् यह है कक
सम्पर्ू त कवश्व में कवकास और बढ़ोत सर के अंत सर को ठ क से समझा नहीं जा रहा है।

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