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लेिक पररचय - प्रेमचंद का जन्म बनारस जजले के लह्मी नामक ग्राम में हुआ था | इनका वास्तववक
नाम धनपतराय था | हहन्दी कहानी और उपन्यास साहहत्य में प्रेमचंद अपना ववशिष्ट स्थान रखते है
उन्होंने लगभग 300 से भी अधिक कहानियााँ और 12 उपन्यास शलखे हैं।उन्होंने कई पत्र पत्रत्रकाओं का
संपादन ककया |उनके द्वारा खोली गई प्रेस से हं स नामक पत्रत्रका भी ननकाली |
प्रमुि रचिाएाँ - सेवासदन ,प्रेमाश्रय ,रं गभूशम ,ननममला ,कायाकल्प गबन कममभूशम ,गोदान (उपन्यास )
कहानी संकलन – पूस की रात , दो बैलों की कथा , बड़े घर की बेटी ,प्रेम-पच्चीसी, प्रेम तीथम,
सप्तसरोज, प्रेरणा और प्रमोद, पंचपरमेश्वर आहद
भाषा -िैली - प्रेमचंद एक ऐसे उपन्यासकार एवं कहानीकार है जजनकी रचनाओं में सरल, सहज और
स्पष्ट भाषा-िैली हदखाई दे ती है उनकी कहाननयों की लोकवप्रयता से हहन्दी -उदम ू शमश्रश्रत मुहावरे दार भाषा
का बहुत बड़ा हाथ रहा है उन्होंने वणामत्मक िैली को भी अपनाया है ।प्रेमचंद की भाषा पत्रों के अनुसार
पररवनतमत हो जाती है
महान उपन्यासकार प्रेमचन्द द्वारा सन 1924 में शलखी गई ितरं ज के खखलाड़ी कहानी में वाजजद
अली िाह के िासनकाल के समय का वणमन बताया गया हैं |यह ऐनतहाससक पष्ृ ठ भूसम की कहािी है
|
वाजजद अली िाह लखनऊ और अवध के नवाब थे जजनका िासन काल सन 1847से 1856 तक रहा।
कहानी में उसी समय का वणमन ककया गया है | उस पतनिील समाज में लखनऊ के लोग घोर ववलाशसता
में डूबे रहते थे इसी समय अंग्रेजों ने भी भारत में िासन ककया। यह हहन्दी साहहत्य के इनतहास का
आधुननक काल था जजसके पूवम रीनतकाल में साहहत्य रचना राजदरबारों तक सीशमत हो गई थी। इस
समय कववयों को राज दरबारों में आश्रय प्राप्त था जो राजाओं की चाटुकाररता में कववताएं शलखते थे।
रीनतकाल के बाद हहन्दी साहहत्य के आधुननक काल में खड़ी बोली गद्य का आववभामव हुआ। इस समय
के प्रमुख लेखकों में प्रेमचन्द ने सवमप्रथम यथाथमवाद को अपने उपन्यासों और कहाननयों में स्थान हदया।
उनका यथाथमवाद तत्कालीन राजनीनतक, सामाजजक, आश्रथमक पररजस्थनतयों से प्रभाववत था।
कहािी का उद्दे श्य – इस कहानी का मुख्य उद्दे श्य यह कक व्यजतत को अपने िौक या आदतों के
गुलाम नहीं होना चाहहए| | गुलामी के कारणों के प्रनत हमेिा सचेत रहना चाहहए | जजस प्रकार युद्ध
के मैदान में बचाव और आक्रमण का महत्त्व होता है उसी प्रकार ितरं ज का खेल खेलने के शलए खखलाड़ी
को अपनी अतल और समय दोनों का प्रयोग करना पड़ता है | यहद शमरजा और मीर जैसे लोग अपनी
अतल दे ि के बचाव में लगाते तो दे ि को गुलामी से बचाया जा सकता था |
कहािी का सारांश - ितरं ज के खखलाड़ी की रचना प्रेमचन्द ने 1924 में की थी, जजसमें वाजजद अली
िाह के िासन काल की पररजस्थनतयों के यथाथम का श्रचत्रण है । कहानी में राजा और प्रजा सभी बटे र-
प्रेमचंद के साहहत्य में कथा-शिल्प और कथा-वस्त,ु दोनों ही में समाज और साहहत्य की इस त्रबगड़ती
हुई पररजस्थनत का प्रभाव हदखता है । ितरं ज के खखलाड़ी भी तत्कालीन भारत
की पररस्थनतयों को श्रचत्रत्रत करती हुई, प्रेमचंद की एक साथमक कहानी है , जजसमें एक तरि प्रेमचंद ने
ववलाशसता तथा अय्यािी में डूबे सुप्त (सोए हुए ) जनजीवन को पुनः जागरूक होने का सन्दे ि हदया
है और दस
ू री तरि रीनतकालीन साहहत्य के, समाज से कटे हुए चररत्र का यथाथमवादी लेखन के रूप में
एक ववकल्प प्रस्तुत करने का प्रयत्न ककया गया है |
शतरं ज के खिलाड़ी कहािी में निहहत सशक्षा या सन्दे श
प्रेमचंद द्वारा शलखी इस कहानी से यह सीख शमलती है कक ककसी भी वस्तु का िौक होना अच्छी
बात है , ककन्तु वहीीँ िौक रोजाना की लत बन जाए तो उसके व्यजततगत, पाररवाररक एवं सामाजजक
रूप से भयंकर पररणाम होते हैं |कहानी के प्रमख
ु पात्र शमरजा और मीर ितरं ज के खेल में जब दोनों
के बीज इतनी तकरार हो गई कक बात खानदान और रईसी तक पहुाँच गई दोनों के पास कटार और
तलवार थी ,दोनों ने एक दस
ू रे की जान ले ली | कहानी की प्रासंश्रगकता यह है कक मनुष्य को हर ऐसी
3. ितरं ज के खेल में प्रत्येक खखलाड़ी के अश्रधकार में कुल ककतनी मोहरे होती है -
क. 10
ख. 12
ग. 14
घ. 16
उत्तर – घ 16
11. त्रबना युद्ध ककए लखनऊ पर अंग्रेजों का कब्र्ा करना तया बताता है –
क. वह समाज पूरी तरह से पनतत हो चुका था |
शतरं ज के खिलाड़ी(कहािी)
वाजजदअली िाह का समय था। लखनऊ ववलाशसता के रं ग में डूबा हुआ था। छोटे -बड़े, गरीब-अमीर सभी ववलाशसता
में डूबे हुए थे। कोई नत्ृ य और गान की मजशलस सजाता था, तो कोई अिीम की पीनक ही में मजे लेता था।
जीवन के प्रत्येक ववभाग में आमोद-प्रमोद का प्राधान्य था। िासन-ववभाग में, साहहत्य-क्षेत्र में , सामाजजक अवस्था
में, कला-कौिल में, उद्योग-धंधों में, आहार-व्यवहार में सवमत्र ववलाशसता व्याप्त हो रही थी। राजकममचारी ववषय-
वासना में, कववगण प्रेम और ववरह के वणमन में , कारीगर कलाबत्तू और श्रचकन बनाने में, व्यवसायी सुरमे, इत्र ,
शमस्सी और उबटन का रोजगार करने में शलप्त थे। सभी की आाँखों में ववलाशसता का मद छाया हुआ था। संसार
में तया हो रहा है , इसकी ककसी को खबर न थी। बटे र लड़ रहे हैं। तीतरों की लड़ाई के शलए पाली बदी जा रही
है । कहीं चौसर त्रबछी हुई है ; पौ-बारह का िोर मचा हुआ है । कही ितरं ज का घोर संग्राम नछड़ा हुआ है । राजा से
लेकर रं क तक इसी धन ु में मस्त थे। यहााँ तक कक िकीरों को पैसे शमलते तो वे रोहटयााँ न लेकर अिीम खाते
या मदक पीते। ितरं ज, ताि, गंजीफ़ा खेलने से बुद्श्रध तीव्र होती है , ववचार-िजतत का ववकास होता है , पेंचीदा मसलों
को सुलझाने की आदत पड़ती है । ये दलीलें जोरों के साथ पेि की जाती थीं (इस सम्प्रदाय के लोगों से दनु नया
अब भी खाली नहीं है )। इसशलए अगर शमरर्ा सज्जादअली और मीर रौिनअली अपना अश्रधकांि समय बुद्श्रध
तीव्र करने में व्यतीत करते थे, तो ककसी ववचारिील परु
ु ष को तया आपवत्त हो सकती थी? दोनों के पास मौरूसी
जागीरें थीं; जीववका की कोई श्रचत
ं ा न थी; कक घर में बैठे चखौनतयााँ करते थे। आखखर और करते ही तया? प्रातःकाल
दोनों शमत्र नाश्ता करके त्रबसात त्रबछा कर बैठ जाते, मुहरे सज जाते, और लड़ाई के दाव-पेंच होने लगते। किर
खबर न होती थी कक कब दोपहर हुई, कब तीसरा पहर, कब िाम ! घर के भीतर से बार-बार बुलावा आता कक
खाना तैयार है । यहााँ से जवाब शमलता- चलो, आते हैं, दस्तरख्वान त्रबछाओ। यहााँ तक कक बावरची वववि हो कक
कमरे ही में खाना रख जाता था, और दोनों शमत्र दोनों काम साथ-साथ करते थे। शमरर्ा सज्जाद अली के घर में
कोई बड़ा-बूढ़ा न था, इसशलए उन्हीं के दीवानखाने में बाजजयााँ होती थीं। मगर यह बात न थी शमरर्ा के घर के
और लोग उनसे इस व्यवहार से खुि हों। घरवालों का तो कहना ही तया, मुहल्लेवाले, घर के नौकर-चाकर तक
ननत्य द्वेषपूणम हटप्पखणयााँ ककया करते थे- बड़ा मनहूस खेल है । घर को तबाह कर दे ता है । खुदा न करे , ककसी को
इसकी चाट पड़े, आदमी दीन-दनु नया ककसी के काम का नहीं रहता, न घर का, न घाट का। बरु ा रोग है । यहााँ तक
कक शमरर्ा की बेगम साहबा को इससे इतना द्वेष था कक अवसर खोज-खोजकर पनत को लताड़ती थीं। पर उन्हें
इसका अवसर मुजश्कल से शमलता था। वह सोती रहती थीं, तब तक बाजी त्रबछ जाती थी। और रात को जब सो
जाती थीं, तब कही शमरर्ाजी घर में आते थे। हााँ, नौकरों पर वह अपना गुस्सा उतारती रहती थीं- तया पान मााँगे
हैं? कह दो, आकर ले जायाँ। खाने की िुरसत नहीं है ? ले जाकर खाना शसर पर पटक दो, खायाँ चाहे कुत्ते को
खखलायें। पर रूबरू वह भी कुछ न कह सकती थीं। उनको अपने पनत से उतना मलाल न था, जजतना मीर साहब
से। उन्होंने उनका, नाम मीर त्रबगाड़ू रख छोड़ा था। िायद शमरर्ाजी अपनी सिाई दे ने के शलए सारा इलजाम मीर
साहब ही के सर थोप दे ते थे।
एक हदन बेगम साहबा के शसर में ददम होने लगा। उन्होंने लौंडी से कहा- जाकर शमरर्ा साहब को बुला लो। ककसी
हकीम के यहााँ से दवा लायें। दौड़, जल्दी कर। लौंडी गयी तो शमरर्ाजी ने कहा- चल, अभी आते हैं। बेगम साहबा
शमरर्ा- जी हााँ, चला तयों न जाऊाँ ! दो ककस्तों में आपकी मात होती है ।
मीर- जनाब, इस भरोसे न रहहएगा। वह चाल सोची है कक आपके मुहरे धरे रहें और मात हो जाय। पर जाइए,
सुन आइए। तयों खामख्वाह उनका हदल दख
ु ाइएगा?
शमरर्ा- अरे यार, जाना पड़ेगा हकीम के यहााँ। शसर-ददम खाक नहीं है , मुझे परे िान करने का बहाना है ।
मीर- हरश्रगर् नहीं, जब तक आप सुन न आयेंगे, मैं मुहरे में हाथ ही न लगाऊाँगा।
शमरर्ा साहब मजबरू होकर अंदर गये तो बेगम साहबा ने त्योररयााँ बदलकर, लेककन कराहते हुए कहा- तम्
ु हें ननगोड़ी
ितरं ज इतनी प्यारी है ! चाहे कोई मर ही जाय, पर उठने का नाम नहीं लेते ! नौज, कोई तुम-जैसा आदमी हो !
शमरर्ा- तया कहूाँ, मीर साहबा मानते ही न थे। बड़ी मुजश्कल से पीछा छुड़ाकर आया हूाँ।
बेगम- तया जैसे वह खुद ननखट्टू हैं, वैसे ही सबको समझते हैं। उनके भी तो बाल-बच्चे हैं; या सबका सिाया कर
डाला?
शमरर्ा- बराबर के आदमी हैं; उम्र में, दजे में मुझसे दो अंगल
ु ऊाँचे। मुलाहहर्ा करना ही पड़ता है ।
बेगम- तो मैं ही दत्ु कारे दे ती हूाँ। नाराज हो जायाँगे, हो जायाँ। कौन ककसी की रोहटयााँ चला दे ता है । रानी रूठें गी,
अपना सुहाग लेंगी। हररया; जा बाहर से ितरं ज उठा ला। मीर साहब से कहना, शमयााँ अब न खेलेंगे; आप तिरीि
ले जाइए।
शमरर्ा- हााँ-हााँ, कहीं ऐसा गजब भी न करना ! जलील करना चाहती हो तया? ठहर हररया, कहााँ जाती है ।
बेगम- जाने तयों नहीं दे ते? मेरा ही खून वपये, जो उसे रोके। अच्छा, उसे रोका, मुझे रोको, तो जानूाँ?
शमरर्ा घर से ननकले, तो हकीम के घर जाने के बदले मीर साहब के घर पहुाँचे और सारा वत्त
ृ ांत कहा। मीर साहब
बोले- मैंने तो जब मुहरे बाहर आते दे खे, तभी ताड़ गया। िौरन भागा। बड़ी गुस्सेवर मालूम होती हैं। मगर आपने
उन्हें यों शसर चढ़ा रखा है , यह मन
ु ाशसब नहीं। उन्हें इससे तया मतलब कक आप बाहर तया करते हैं। घर का
इंतजाम करना उनका काम है ; दस
ू री बातों से उन्हें तया सरोकार?
शमरर्ा- लेककन बेगम साहबा को कैसे मनाऊाँगा? घर पर बैठा रहता था, तब तो वह इतना त्रबगड़ती थीं; यहााँ बैठक
होगी, तो िायद जजंदा न छोड़ेंगी।
मीर- अजी बकने भी दीजजए, दो-चार रोज में आप ही ठीक हो जायेंगी। हााँ, आप इतना कीजजए कक आज से जरा
तन जाइए।
मीर साहब की बेगम ककसी अज्ञात कारण से मीर साहब का घर से दरू रहना ही उपयुतत समझती थीं। इसशलए
वह उनके ितरं ज-प्रेम की कभी आलोचना न करती थीं; बजल्क कभी-कभी मीर साहब को दे र हो जाती, तो याद
हदला दे ती थीं। इन कारणों से मीर साहब को भ्रम हो गया था कक मेरी स्त्री अत्यन्त ववनयिील और गंभीर है ।
लेककन जब दीवानखाने में त्रबसात त्रबछने लगी, और मीर साहब हदन-भर घर में रहने लगे, तो बेगम साहबा को
बड़ा कष्ट होने लगा। उनकी स्वाधीनता में बाधा पड़ गयी। हदन-भर दरवाजे पर झााँकने को तरस जातीं।
उधर नौकरों में भी कानािूसी होने लगी। अब तक हदन-भर पड़े-पड़े मजतखयााँ मारा करते थे। घर में कोई आये ,
कोई जाये, उनसे कुछ मतलब न था। अब आठों पहर की धौंस हो गयी। पान लाने का हुतम होता, कभी शमठाई
का। और हुतका तो ककसी प्रेमी के हृदय की भााँनत ननत्य जलता ही रहता था। वे बेगम साहबा से जा-जाकर कहते-
हुजरू , शमयााँ की ितरं ज तो हमारे जी का जंजाल हो गयी। हदन-भर दौड़ते-दौड़ते पैरों में छाले पड़ गये। यह भी
कोई खेल कक सुबह को बैठे तो िाम कर दी। घड़ी आध घड़ी हदल-बहलाव के शलए खेल खेलना बहुत है । खैर, हमें
तो कोई शिकायत नहीं; हुजूर के गुलाम हैं, जो हुतम होगा, बजा ही लायेंगे; मगर यह खेल मनहूस है । इसका
मह
ु ल्ले में भी जो दो-चार परु ाने जमाने के लोग थे, आपस में भााँनत-भााँनत की अमंगल कल्पनाएाँ करने लगे- अब
खैररयत नहीं। जब हमारे रईसों का यह हाल है , तो मुल्क का खुदा ही हाकफ़ज है । यह बादिाहत ितरं ज के हाथों
तबाह होगी। आसार बुरे हैं।
राज्य में हाहाकार मचा हुआ था। प्रजा हदन-दहाड़े लूटी जाती थी। कोई िररयाद सुननेवाला न था। दे हातों की सारी
दौलत लखनऊ में खखंची आती थी और वह वेश्याओं में , भााँडों में और ववलाशसता के अन्य अंगों की पूनतम में उड़
जाती थी। अंग्रेज कम्पनी का ऋण हदन-हदन बढ़ता जाता था। कमली हदन-हदन भीगकर भारी होती जाती थी। दे ि
में सुव्यवस्था न होने के कारण वावषमक कर भी वसूल न होता था। रे जीडेंट बार-बार चेतावनी दे ता था, पर यहााँ तो
लोग ववलाशसता के निे में चूर थे, ककसी के कानों पर जाँू न रें गती थी।
खैर, मीर साहब के दीवानखाने में ितरं ज होते कई महीने गुजर गये। नये-नये नतिे हल ककये जाते; नये-नये ककले
बनाये जाते; ननत्य नयी व्यूह-रचना होती; कभी-कभी खेलते-खेलते झौड़ हो जाती; त-ू तू मैं-मैं तक की नौबत आ
जाती; पर िीघ्र ही दोनों शमत्रों में मेल हो जाता। कभी-कभी ऐसा भी होता कक बाजी उठा दी जाती; शमरर्ाजी
रूठकर अपने घर चले जाते। मीर साहब अपने घर में जा बैठते। पर रात भर की ननद्रा के साथ सारा मनोमाशलन्य
िांत हो जाता था। प्रातःकाल दोनों शमत्र दीवानखाने में आ पहुाँचते थे।
एक हदन दोनों शमत्र बैठे हुए ितरं ज की दलदल में गोते खा रहे थे कक इतने में घोड़े पर सवार एक बादिाही
िौज का अिसर मीर साहब का नाम पूछता हुआ आ पहुाँचा। मीर साहब के होि उड़ गये। यह तया बला शसर
पर आयी ! यह तलबी ककस शलए हुई है ? अब खैररयत नहीं नजर आती। घर के दरवाजे बंद कर शलये। नौकरों से
बोले- कह दो, घर में नहीं हैं।
सवार- काम तुझे तया बताऊाँगा? हुजूर में तलबी है । िायद िौज के शलए कुछ शसपाही मााँगे गये हैं। जागीरदार हैं
कक हदल्लगी ! मोरचे पर जाना पड़ेगा, तो आटे -दाल का भाव मालम
ू हो जायगा !
सवार- कहने की बात नहीं है । मैं कल खुद आऊाँगा, साथ ले जाने का हुतम हुआ है ।
सवार चला गया। मीर साहब की आत्मा कााँप उठी। शमरर्ाजी से बोले- कहहए जनाब, अब तया होगा?
शमरर्ा- वल्लाह, आपको खूब सूझी ! इसके शसवाय और कोई तदबीर ही नहीं है ।
इधर मीर साहब की बेगम उस सवार से कह रही थी, तुमने खूब धता बताया।
उसने जवाब हदया- ऐसे गावहदयों को तो चटु ककयों पर नचाता हूाँ। इनकी सारी अतल और हहम्मत तो ितरं ज ने
चर ली। अब भूल कर भी घर पर न रहें गे।
दस
ू रे हदन से दोनों शमत्र मुाँह अाँधेरे घर से ननकल खड़े होते। बगल में एक छोटी-सी दरी दबाये, डडब्बे में श्रगलौररयााँ
भरे , गोमती पार की एक पुरानी वीरान मसजजद में चले जाते, जजसे िायद नवाब आसफ़उद्दौला ने बनवाया था।
रास्ते में तम्बाकू, श्रचलम और मदररया ले लेते, और मसजजद में पहुाँच, दरी त्रबछा, हुतका भरकर ितरं ज खेलने बैठ
जाते थे। किर उन्हें दीन-दनु नया की किक्र न रहती थी। ककश्त, िह आहद दो-एक िब्दों के शसवा उनके मुाँह से और
कोई वातय नहीं ननकलता था। कोई योगी भी समाश्रध में इतना एकाग्र न होता होगा। दोपहर को जब भख
ू मालम
ू
होती तो दोनों शमत्र ककसी नानबाई की दक ू ान पर जाकर खाना खाते, और एक श्रचलम हुतका पीकर किर संग्राम-
क्षेत्र में डट जाते। कभी-कभी तो उन्हें भोजन का भी ख्याल न रहता था।
इधर दे ि की राजनीनतक दिा भयंकर होती जा रही थी। कम्पनी की िौजें लखनऊ की तरि बढ़ी चली आती थीं।
िहर में हलचल मची हुई थी। लोग बाल-बच्चों को लेकर दे हातों में भाग रहे थे। पर हमारे दोनों खखलाडड़यों को
इनकी र्रा भी कफ़क्र न थी। वे घर से आते तो गशलयों में होकर। डर था कक कहीं ककसी बादिाही मल ु ाजजम की
ननगाह न पड़ जाय, जो बेकार में पकड़ जायाँ। हजारों रुपये सालाना की जागीर मुफ्त ही हजम करना चाहते थे।
एक हदन दोनों शमत्र मसजजद के खंडहर में बैठे हुए ितरं ज खेल रहे थे। शमरर्ा की बाजी कुछ कमजोर थी। मीर
साहब उन्हें ककश्त-पर-ककश्त दे रहे थे। इतने में कम्पनी के सैननक आते हुए हदखायी हदये। वह गोरों की िौज थी,
जो लखनऊ पर अश्रधकार जमाने के शलए आ रही थी।
मीर- तोपखाना भी है । कोई पााँच हजार आदमी होंगे कैसे-कैसे जवान हैं। लाल बन्दरों के-से मुाँह। सूरत दे खकर
खौि मालम
ू होता है ।
मीर- आप भी अजीब आदमी हैं। यहााँ तो िहर पर आित आयी हुई है और आपको ककश्त की सूझी है ! कुछ
इसकी भी खबर है कक िहर नघर गया, तो घर कैसे चलेंगे?
शमरर्ा- जब घर चलने का वतत आयेगा, तो दे खा जायगा- यह ककश्त ! बस, अबकी िह में मात है ।
मीर- िहर में कुछ न हो रहा होगा। लोग खाना खा-खाकर आराम से सो रहे होंगे। हुजरू नवाब साहब भी ऐिगाह
में होंगे।
दोनों सज्जन किर जो खेलने बैठे, तो तीन बज गये। अबकी शमरर्ा जी की बाजी कमजोर थी। चार का गजर बज
ही रहा था कक िौज की वापसी की आहट शमली। नवाब वाजजदअली पकड़ शलये गये थे , और सेना उन्हें ककसी
अज्ञात स्थान को शलये जा रही थी। िहर में न कोई हलचल थी, न मार-काट। एक बूाँद भी खून नहीं श्रगरा था।
आज तक ककसी स्वाधीन दे ि के राजा की पराजय इतनी िांनत से, इस तरह खन ू बहे त्रबना न हुई होगी। यह वह
अहहंसा न थी, जजस पर दे वगण प्रसन्न होते हैं। यह वह कायरपन था, जजस पर बड़े-बड़े कायर भी आाँसू बहाते हैं।
अवध के वविाल दे ि का नवाब बन्दी चला जाता था, और लखनऊ ऐि की नींद में मस्त था। यह राजनीनतक
अधःपतन की चरम सीमा थी।
शमरर्ा- जनाब जरा ठहररए। इस वतत इधर तबीयत नहीं लगती। बेचारे नवाब साहब इस वतत खून के आाँसू रो
रहे होंगे।
शमरर्ा- ककसी के हदन बराबर नहीं जाते। ककतनी ददम नाक हालत है ।
मीर- हााँ, सो तो है ही- यह लो, किर ककश्त ! बस, अबकी ककश्त में मात है , बच नहीं सकते।
शमरर्ा- खुदा की कसम, आप बड़े बेददम हैं। इतना बड़ा हादसा दे खकर भी आपको दःु ख नहीं होता। हाय, गरीब
वाजजदअली िाह !
मीर- पहले अपने बादिाह को तो बचाइए किर नवाब साहब का मातम कीजजएगा। यह ककश्त और यह मात !
लाना हाथ !
बादिाह को शलये हुए सेना सामने से ननकल गयी। उनके जाते ही शमरर्ा ने किर बाजी त्रबछा दी। हार की चोट
बुरी होती है । मीर ने कहा- आइए, नवाब साहब के मातम में एक मरशसया कह डालें। लेककन शमरर्ा की राजभजतत
अपनी हार के साथ लुप्त हो चुकी थी। वह हार का बदला चुकाने के शलए अधीर हो रहे थे।
िाम हो गयी। खंडहर में चमगादड़ों ने चीखना िुरू ककया। अबाबीलें आ-आकर अपने-अपने घोसलों में श्रचमटीं। पर
दोनों खखलाड़ी डटे हुए थे, मानो दो खून के प्यासे सूरमा आपस में लड़ रहे हों। शमरर्ाजी तीन बाजजयााँ लगातार
मीर साहब का िरजी वपटता था। बोले- मैंने चाल चली ही कब थी?
शमरर्ा- मुहरा आप कयामत तक न छोड़ें, तो तया चाल ही न होगी? िरजी वपटते दे खा तो धााँधली करने लगे।
मीर- धााँधली आप करते हैं। हार-जीत तकदीर से होती है , धााँधली करने से कोई नहीं जीतता?
तकरार बढ़ने लगी। दोनों अपनी-अपनी टे क पर अड़े थे। न यह दबता था न वह। अप्रासंश्रगक बातें होेेने लगीं ,
शमरर्ा बोले- ककसी ने खानदान में ितरं ज खेली होती, तब तो इसके कायदे जानते। वे तो हमेिा, घास छीला
करते, आप ितरं ज तया खेशलएगा। ररयासत और ही चीज है । जागीर शमल जाने से ही कोई रईस नहीं हो जाता।
मीर- तया? घास आपके अब्बाजान छीलते होंगे। यहााँ तो पीहढ़यों से ितरं ज खेलते चले आ रहे हैं।
शमरर्ा- अजी, जाइए भी, गाजीउद्दीन है दर के यहााँ बावरची का काम करते-करते उम्र गुजर गयी आज रईस बनने
चले हैं। रईस बनना कुछ हदल्लगी नहीं है ।
मीर- तयों अपने बुजुगों के मुाँह में काशलख लगाते हो- वे ही बावरची का काम करते होंगे। यहााँ तो हमेिा बादिाह
के दस्तरख्वान पर खाना खाते चले आये हैं।
मीर- जबान साँभाशलये, वरना बुरा होगा। मैं ऐसी बातें सुनने का आदी नहीं हूाँ। यहााँ तो ककसी ने आाँखें हदखायीं कक
उसकी आाँखें ननकालीं। है हौसला?
दोनों दोस्तों ने कमर से तलवारें ननकाल लीं। नवाबी जमाना था; सभी तलवार, पेिकब्ज, कटार वगैरह बााँधते थे।
दोनों ववलासी थे, पर कायर न थे। उनमें राजनीनतक भावों का अधःपतन हो गया था- बादिाह के शलए, बादिाहत
के शलए तयों मरें ; पर व्यजततगत वीरता का अभाव न था। दोनों जख्म खाकर श्रगरे , और दोनों ने वहीं तड़प-तड़पकर
जानें दे दीं। अपने बादिाह के शलए जजनकी आाँखों से एक बूाँद आाँसू न ननकला, उन्हीं दोनों प्राखणयों ने ितरं ज के
वजीर की रक्षा में प्राण दे हदये।
अाँधेरा हो चला था। बाजी त्रबछी हुई थी। दोनों बादिाह अपने-अपने शसंहासनों पर बैठे हुए मानो इन दोनों वीरों
की मत्ृ यु पर रो रहे थे !
चारों तरि सन्नाटा छाया हुआ था। खंडहर की टूटी हुई मेहराबें, श्रगरी हुई दीवारें और धल
ू -धस
ू ररत मीनारें इन लािों
को दे खतीं और शसर धुनती थीं।
पररभाषाः- एक समान अथम बताने वाले िब्दों को पयामयवाची िब्द कहते हैं।
प्रत्येक िब्द की स्वतंत्र सत्ता होती है और उसका एक ननजश्चत अथम होता है। अतः एक िब्द
दस
ू रे िब्द का स्थान नहीं ले सकता है । िब्दों के अथों में और प्रयोग में कभी-कभी अंतर
इसी प्रकार यि और कीनतम - ‘यि‘ जीते जी प्राप्त होता है और ‘कीनतम‘ मरणोंपरांत प्राप्त होती
है।
पयाायिाची शब्दः
असरु - - दनज
ु , दानव, दै त्य, राक्षस, यातध
ु ान, ननशिचर, ननिाचर, रजनीचर।
अनप
ु म - अपव
ू ,म अनोखा, अद्भत
ु , अनठ
ू ा, अद्ववतीय, अतल
ु ।
अमत
ृ - पीयष
ू , सध
ु ा, अशमय, जीवनोदक।
आाँख - नेत्र, लोचन, नयन, चक्षु, दृग, अक्षक्ष, अम्बक, दृजष्ट, ववलोचन।
यमुना- सूयस
म ुता, सूयत
म नया, काशलन्दी, , कृष्णा ।
दःु ख - पीड़ा, व्यथा, कष्ट, संकट, िोक, तलेि, वेदना, यातना, खेद
पजडडत - सध
ु ी, ववद्वान ्, कोववद, मनीषी
पथ्
ृ वी- इला, भूशम, धरा, धरती, धरणी, वसुधा, वसुन्धरा
वक्ष
ृ - तरु, द्रम
ु , पादप, ववटप, पेड़
महादे व - िम्भु, ईि, पिुपनत, शिव, महे श्वर, िंकर, चन्द्रिेखर, हर, त्रत्रलोचन
राजा - नप
ृ , महीप, नरपनत, नरे ि, भूपनत, सम्राट्।
पररभाषा - वे िब्द जो परस्पर ववपरीत आिय अशभव्यतत करें , ववलोम िब्द कहलाते हैं।
ववलोम िब्दों को ववरूद्धाथी या ववपरीताथमक िब्द भी माना जाता है।
हहन्दी भाषा में कुछ ऐसे िब्द होते हैं, जजनके एक से अश्रधक अथम होते हैं। ये िब्द
ववशभन्न प्रसंगों में वातयों में प्रयुतत होकर अलग-अलग अथम दे ते हैं। ये िब्द अनेकाथी िब्द
कहलाते हैं।
वर - श्रेष्ठ, दल्
ू हा, वरदान
जब ककसी वातय में प्रयोग ककए िब्दों के स्थान पर उसी भाव को प्रकट करने के शलए केवल
एक िब्द का प्रयोग ककया जाता है तो इसे अनेक िब्दों के शलए एक िब्द कहते है जैसे –
उपकार करने वाला में तीन िब्द है इसके स्थान पर एक िब्द उपकारी का प्रयोग करके उसी
भाव या अथम को अशभव्यतत कर सकते है | या कह सकते है कक कम से कम िब्दों में
अश्रधक से अश्रधक ववचारों या िब्द समूह को अशभव्यतत करना |
वातयखडड एक िब्द
इसके अलावा
हहन्दी में ऐसे अनेक िब्द है , जजनका उच्चारण मात्रा या वणम के कारण समान प्रतीत
होता है , ककन्तु अथम शभन्न या अलग होता है । इन िब्दों में सुक्ष्म अंतर होता है , ये उच्चारण
एवं वतमनी की दृजष्ट से इतने शमलते-जुलते है कक प्रयोगकताम उन्हें एक ही मान बैठते हैं,
जबकक उनका उथम एक-दस
ू रे से पूणत
म ः शभन्न होता है । ककन्तु इन्हें अनेकाथी िब्द नहीं माना
जाता है।
उदाहरणः-
अंस - कंधा
अशल - भ्रमर
आली - सखी
कुल - वंि
कूल - ककनारा
अननल - हवा
अनल - अजनन
प्रसाद - भवन
सर - तालाब
िर - बाण, तीर
हहन्दी भाषा में बहुत बड़ी संख्या में पयामयवाची िब्द पाए जाते हैं परन्तु उनमें थोड़ा
बहुत अन्तर अवश्य होता है । इस प्रकार के सक्ष्
ु म अंतर वाले ककन्तु पयामयवाची प्रतीत होने
वाले कुछ - हहन्दी िब्द-युनम इस प्रकार है ।
अश्रधक - आवश्यकता
आवश्यक - जरूरी
उत्साह - जोि
साहस - हहम्मत
1. पयामय या पयामयवत ् युनम (शमलते-जुलते अथम वाले िब्द युनम) - ऐसे युनमों में दोनों
अंि परस्पर पयामयवाची या पयामय होते है जैसे -
बड़े-बढ़
ू े = बड़े (बड़ी आयु के) $ बढ़
ू े (बड़ी आयु के)
2. ववपरीताथमक यनु म (ववलोम िब्द यनु म) - ऐसे यनु म के दोनों पद परस्पर ववपरीताथमक
िब्द या ववपरीत शलंग होते हैं। जैसे -
साथमक ननरथमक
चाय वाय
भीड़ भाड़
पतंग वतंग
अड़ोसी पड़ौसी
ठीक ठाक
लकड़ी वकड़ी
ध्वन्यात्मक या अनुकरण मूलक िब्द- मनुष्य अथवा पिु-पक्षक्षयों द्वारा अनेक प्रकार की
ध्वननयों को व्यतत ककया जात है । इन ध्वननयों को हहन्दी में प्रायः िब्द युनम द्वारा ही
शलखा व बोला जाता है। जो िब्द पहला होता है , वहीं दस
ू रा भी रहता है ।
5. उद्येश्य परक िब्द यनु म- इस प्रकार के िब्द युनम ककसी उद्येश्य वविेष को लेकर बनाए
जाते हैं। उद्येश्य धनात्मक भी हो सकता है और ऋणात्मक भी। इस प्रकार युनम कई तरह
के होते हैं।
प्यास-पानी भूख-भोजन