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ह द नाटक का इ तहास
ाचीन ह द नाटक
ह द सा ह य म नाटक का वकास आधु नक युग म ही
आ है। इससे पूव ह द के जो नाटक मलते ह, वे या
तो नाटक य का ह अथवा सं कृत के अनुवाद मा या
नाम के ही नाटक ह, य क उनम ना कला के त व
का सवथा अभाव है, जैसे नेवाज का ‘शकु तला’, क व
दे व का ‘दे वमाया पंच’, दयराम का ‘हनुम ाटक’ राजा
जसव त सह का ‘ बोधच च ोदय’ नाटक आ द।
रीवां नरेश व नाथ सह का ‘आन द रघुन दन’ नाटक
ह द का थम मौ लक नाटक माना जाता है। जो
लगभग 1700 ई. म लखा गया था, क तु एक तो उसम
जभाषा का योग आ है, सरे वह रामलीला क
प त पर है। अतः वह भी आधु नक ना कला से
सवथा र है। ह द सा ह य के आ द और म य युग म
ग अ य त अ वक सत थ त म था और
अ भनयशाला का सवथा अभाव था। अ तु, ह द
सा ह य के आ द और म य युग म ना कला का
वकास न हो सका, जब क ह द लेखक के स मुख
सं कृत क ना कला अ य त वक सत और उ त
अव था म व मान थी। आधु नक युग म ह द नाटक
का स पक अं ेजी से था पत आ। अं ेज लोग
ना कला और मनोरंजन म अ य धक च रखते थे
और सा ह य म नाटक क रचना भी भूत मा ा म हो
चुक थी। इसके साथ ही इस युग म ह द -ग भी थर
हो गया और उसम अ भ ंजना श का भी वकास हो
गया। इस लए ह द -ना कला को पनपने का समु चत
अवसर इसी युग म आकर ा त आ।
आधु नक ह द नाटक
आधु नक काल क अ य ग - वधा के ही समान
ह द नाटक का भी आर भ प म के संपक का फल
माना जाता है। भारत के कई भाग म अं ेज ने अपने
मनोरंजन के लए ना शाला का नमाण कया
जनम शे सपीयर तथा अ य अं ेजी नाटककार के
नाटक का अ भनय होता था। उधर सर व लयम जो स
ने फोट व लयम कॉलेज म सं कृत के ‘अ भ ान
शाकु तलं’ के ह द अनुवाद के अ भनय क भी ेरणा
द । इस बीच ‘अ भ ान शाकु तलं’ के कई ह द
अनुवाद ए जनम राजा ल मण सह का अनुवाद आज
भी मह वपूण माना जाता है। सन् 1859 म भारते
हर के पता बाबू गोपालच ने ‘न ष’ नाटक
लखा और उसको रंगमंच पर तुत कया। इधर पारसी
नाटक क प नयां नृ य : संगीत धान, नाटक को बड़े
धूम-धड़ाके से तुत कर रही थी जससे सु च स प
तथा सा ह यक गुण के खोजी ह द -सा ह यकार ु ध
थे। इस सबसे े रत होकर भारते बाबू ने जनता क
च का प र कार करने के लए वयं अनेक नाटक
लखे और अ य लेखक को ना सा ह य क रचना के
लए ो सा हत कया।
ह द म ना सा ह य क पर परा का व न भारते
ारा होता है। भारते युग नवो थान का युग था।
भारते दे श क सामा जक, धा मक, राजनी तक और
आ थक दशा से आहत थे। अतः सा ह य के मा यम से
उ ह ने समाज को जा त करने का संक प लया।
समाज को जगाने म नाटक सबसे बल स होता है।
भारते ने इस त य को पहचाना और नैरा य के
अ धकार म आशा का द प जलाने के लए य नशील
ए। युग- व क भारते ने अनू दत/मौ लक सब
मलाकर स ह नाटक क रचना क , जनक सूची इस
कार है :
(1) व ासु दर (1868), (2) र नावली (1868),
(3) पाख ड वखंडन (1872), (4) वै दक हसा
हसा न भव त (1873),
(5) धनंजय वजय (1873), (6) ेम जो गनी,
(1874), (7) स यह र (1875), (8) मु ारा स
(1875),
(9) कपूर मंजरी (1876), (10) वष य वषमोषधम्
(1876), (11) ी च ावली (1875), (12) भारत-
दशा (1876),
(13) भारत जननी (1877) (14) नीलदे वी
(1880), (15) लभ-ब धु (1880), (16) अ धेर
नगरी (1881), (17) सती ताप (1884)।
मौ लक नाटक
अनू दत और पा त रत नाटक
सं कृत
भवभू तः
का लदासः
कृ ण म
शू क
हष
भ नारायण
माइकेल मधुसूदन द ः
अं ेजी
शे सपीयर
सा ह यक ना धारा को वक सत करने के उ े य से
अनेक नाटक मंड लय क थापना क गई जेसे याग
क ‘ ह द नाटक म डली’, कलक े क नागरी नाटक
मंडल’ मुज फरनगर क ‘नवयुवक स म त’ आ द।
इनम ‘ ह द ना -स म त’ सबसे अ धक पुरानी थी। सन्
1893 ई. म यह ‘रामलीला नाटक मंडली’ के पम
था पत ई थी। इसके सं थापक म मुख थे : पं डत
माधव शु ल जो वयं अ छे अ भनेता और रंगकम थे
और ज ह ने रा ीयता चेतना चार- सार के लए
नाटक को सश मा यम बनाया था। क तु ह द
रंगमंच समु चत साधन और संर ण के अभाव म तथा
जनता क स ती च के कारण अपने उ े य म सफल
नह हो पाया। फलतः नाटक का सा ह यक प ही
सामने आया। सं या क म आलो यकाल म लखे
गये नाटक कम नह ह क तु मौ लक नाटक के नाम पर
ऐ तहा सक पौरा णक संग को ही नाटक म या
कथोपकथन म प रव तत कर दया गया। अ ययन क
सु वधा के लए आलो य युग के नाटक को
न न ल खत वग म वभा जत कया जा सकता है :
पौरा णक, ऐ तहा सक, सामा जक उपादान पर र चत
नाटक, रोमांचकारी नाटक, हसन और अनू दत नाटक।
पौरा णक नाटक
दय क वृ य क स व क ओर उ मुख करने का
यास भारते -युग के नाटक म ब त पहले से होता आ
रहा था। वेद -युग से इन वृ य के उ कष के लए
पौरा णक आ यान का नःसंकोच हण कया गया।
आलो य युग म पौरा णक नाटक के तीन वग दे खने को
मलते ह : कृ णच रत-स ब धी, रामच रत स ब धी तथा
अ य पौरा णक पा एवं घटना से स ब धत। कृ ण
च रत स ब धी नाटक म राधाचरण गो वामी कृत
‘ ीदामा’ (1904), ज न दन सहाय-कृत ‘उ व’
(1909), नारायण म -कृत ‘कंसवध’ (1910), शव
न दन सहाय-कृत ‘सुदामा।’ (1907) और बनवारी
लाल-कृत ‘कृ ण तथा कंसवध’ (1910) को वशेष
या त ा त है। रामच रत-स ब धी नाटक म
रामनारायण म -कृत ‘जनक बड़ा’ (1906) गरधर
लाल-कृत ‘रामवन या ा’ (1910) और गंगा साद-कृत
‘रामा भषेक’ (1910), नारायण सहाय-कृत ‘रामलीला’
(1911), और राम गुलाम लाल-कृत ‘धनुषय लीला
(1912), उ लेखनीय ह। अ य पौरा णक घटना से
स ब धत नाटक म महावीर सह का ‘नल दमय ती’
(1905), सुदशनाचाय का ‘अनाथ नल च रत’ (1906),
बांके बहारी लाल का ‘सा व ी ना टका’ (1908),
बालकृ ण भ का ‘बेणुसंहार’ (1909), ल मी साद
का ‘उवशी’ (1907) और हनुमंत सह का ‘सती च रत’
(1910), शवन दन म का ‘शकु तला’ (1911),
जयशंकर साद का ‘क णालय (1912) ब नाथ भ
का ‘कु वन दहन’ (1915), माधव शु ल का
‘महाभारत-पूवा र्’ (1916), ह रदास मा णक का
‘पा डव- ताप’ (1917) तथा माखन लाल चतुवद का
‘कृ णाजुन-यु (1918) मह वपूण ह।
अनू दत नाटक
साद-युगीन नाटक
साद क आर भक ना कृ तयां : स जन
(1910), ‘क याणी प रणय (1912), ाय त
(1912), क णालय (1913) और रा य ी (1918),
वेद -युग क सीमा के अंतगत आती ह। साद के इन
नाटक म उनका पर परागत प तथा योग म भटकती
ई ना ही मुखता से उभर कर सामने आती है।
नाटक रचना का ार भक काल होने के कारण इन
कृ तय म साद क ना कला का व प थर नह
हो पाया है, वह अपनी दशा खोज रही है। यह दशा उ ह
वशाख (1921), अजातश ु (1922), कामना
(1927), जनमेजय का नागय (1926) क दगु त
(1928), एक घूँट (1930), च गु त (1931) और
ुव वा मनी (1933) म ा त ई। इन नाटक म साद
जी ने अपनी गवेषणा श और सू म का प रचय
दया।
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