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ह द नाटक का इ तहास

ाचीन ह द नाटक
ह द सा ह य म नाटक का वकास आधु नक युग म ही
आ है। इससे पूव ह द के जो नाटक मलते ह, वे या
तो नाटक य का ह अथवा सं कृत के अनुवाद मा या
नाम के ही नाटक ह, य क उनम ना कला के त व
का सवथा अभाव है, जैसे नेवाज का ‘शकु तला’, क व
दे व का ‘दे वमाया पंच’, दयराम का ‘हनुम ाटक’ राजा
जसव त सह का ‘ बोधच च ोदय’ नाटक आ द।
रीवां नरेश व नाथ सह का ‘आन द रघुन दन’ नाटक
ह द का थम मौ लक नाटक माना जाता है। जो
लगभग 1700 ई. म लखा गया था, क तु एक तो उसम
जभाषा का योग आ है, सरे वह रामलीला क
प त पर है। अतः वह भी आधु नक ना कला से
सवथा र है। ह द सा ह य के आ द और म य युग म
ग अ य त अ वक सत थ त म था और
अ भनयशाला का सवथा अभाव था। अ तु, ह द
सा ह य के आ द और म य युग म ना कला का
वकास न हो सका, जब क ह द लेखक के स मुख
सं कृत क ना कला अ य त वक सत और उ त
अव था म व मान थी। आधु नक युग म ह द नाटक
का स पक अं ेजी से था पत आ। अं ेज लोग
ना कला और मनोरंजन म अ य धक च रखते थे
और सा ह य म नाटक क रचना भी भूत मा ा म हो
चुक थी। इसके साथ ही इस युग म ह द -ग भी थर
हो गया और उसम अ भ ंजना श का भी वकास हो
गया। इस लए ह द -ना कला को पनपने का समु चत
अवसर इसी युग म आकर ा त आ।

आधु नक ह द नाटक
आधु नक काल क अ य ग - वधा के ही समान
ह द नाटक का भी आर भ प म के संपक का फल
माना जाता है। भारत के कई भाग म अं ेज ने अपने
मनोरंजन के लए ना शाला का नमाण कया
जनम शे सपीयर तथा अ य अं ेजी नाटककार के
नाटक का अ भनय होता था। उधर सर व लयम जो स
ने फोट व लयम कॉलेज म सं कृत के ‘अ भ ान
शाकु तलं’ के ह द अनुवाद के अ भनय क भी ेरणा
द । इस बीच ‘अ भ ान शाकु तलं’ के कई ह द
अनुवाद ए जनम राजा ल मण सह का अनुवाद आज
भी मह वपूण माना जाता है। सन् 1859 म भारते
हर के पता बाबू गोपालच ने ‘न ष’ नाटक
लखा और उसको रंगमंच पर तुत कया। इधर पारसी
नाटक क प नयां नृ य : संगीत धान, नाटक को बड़े
धूम-धड़ाके से तुत कर रही थी जससे सु च स प
तथा सा ह यक गुण के खोजी ह द -सा ह यकार ु ध
थे। इस सबसे े रत होकर भारते बाबू ने जनता क
च का प र कार करने के लए वयं अनेक नाटक
लखे और अ य लेखक को ना सा ह य क रचना के
लए ो सा हत कया।

अ ययन क सु वधा क से ह द -ना कला के


वकास को चार काल म बाँटा जा सकता है :

(१) भारते युगीन नाटक : 1850 से 1900 ई.


(२) वेद युगीन नाटक : 1901 से 1920 ई.
(३) साद युगीन नाटक : 1921 से 1936 ई.
(४) सादो र युगीन नाटक : 1937 से अब तक

भारते -युगीन नाटक

ह द म ना सा ह य क पर परा का व न भारते
ारा होता है। भारते युग नवो थान का युग था।
भारते दे श क सामा जक, धा मक, राजनी तक और
आ थक दशा से आहत थे। अतः सा ह य के मा यम से
उ ह ने समाज को जा त करने का संक प लया।
समाज को जगाने म नाटक सबसे बल स होता है।
भारते ने इस त य को पहचाना और नैरा य के
अ धकार म आशा का द प जलाने के लए य नशील
ए। युग- व क भारते ने अनू दत/मौ लक सब
मलाकर स ह नाटक क रचना क , जनक सूची इस
कार है :
(1) व ासु दर (1868), (2) र नावली (1868),
(3) पाख ड वखंडन (1872), (4) वै दक हसा
हसा न भव त (1873),
(5) धनंजय वजय (1873), (6) ेम जो गनी,
(1874), (7) स यह र (1875), (8) मु ारा स
(1875),
(9) कपूर मंजरी (1876), (10) वष य वषमोषधम्
(1876), (11) ी च ावली (1875), (12) भारत-
दशा (1876),
(13) भारत जननी (1877) (14) नीलदे वी
(1880), (15) लभ-ब धु (1880), (16) अ धेर
नगरी (1881), (17) सती ताप (1884)।

मौ लक नाटक

भारते जी क मौ लक कृ तय म वै दक हसा हसा न


भव त, ेमयो गनी, वष य वषमोषधम्, च ावली,
भारत दशा, नीलदे वी, अंधेर नगरी तथा सती ताप ह।
वै दक हसा हसा न भव त, ेम यो गनी और पाख ड
वखंडन म धा मक ढ़य और वड बना से त
समाज के पाख ड, आड बर, ाचार आ द का
नाटक य आ यान आ है। ‘वै दक हसा हसा न
भव त’ म ऊपर से सफेदपोश दखने वाले धमा मा के
साथ ही त कालीन दे शी नरेश और मं य के भचार
क पोल खोली गयी है। अपने युग क धा मक थ त के
त जो ती आ ोश नाटककार म है, वही उसक
अपूण ना टका ‘ ेमयो गनी’ म तुत आ है। ‘पाख ड
वखंडन’ म ह के स त-मह त क हीन दशा का
च ण आ है। इस कार धा मक पाख ड का ख डन
करना ही इन नाटक का मूल वर रहा है।

भारते -युग म अं ेज ने ब त से राजा से उनका


शासन छ न कर उनका रा य अपने अधीन कर लया
था। अं ेज क इस नी त क शंसा पर गुलामी के भय
के क प रक पना ‘ वष य वषमौषध म्’ हसन म
साकार हो उठ है। दे शो ार क भावना का संघष
भारते जी के ‘भारत जननी’ और ‘भारत दशा’ म घोर
नराशा के भाव के साथ तुत होता है। ‘भारत दशा’
म भारत के ाचीन उ कष और वतमान अधःपतन का
वणन न न ल खत पं य म मलता है :

रोअ सब म ल, आव भारत भाई।


हा हा! भारत दशा न दे खी जाई।।

भारते ने राजनी तक संघष क पृ भू म पर


नौकरशाही क अ छ आलोचना करते ए ‘अंधेर नगरी’
हसन लखा है। ‘अ धेर नगरी’ के चौपट राजा को
फांसी दलाकर नाटककार कामना करता है क कभी
इस अयो य राजा क तरह नौकरशाही भी समा त होगी
और दे श के कुशासन क समा त होगी। अं ेज के
शासन से दे श मु क कामना ही ‘नील दे वी’ नाटक म
ऐ तहा सक पृ ठभू म पर उभरती है। साथ ही त कालीन
समाज म ती ता से उठ रहे ‘नारी वातं य’ के प
वप के को भी तुत कया है।

‘‘च ावली’ और ‘सती ताप’ ेम क कोमल


अ भ ंजना से अ भभूत नाटक ह। च ावली म
ई रो मुख ेम का वणन है। ‘सती ताप’ म भी प त-
ेम का अनुकरणीय उ जवल आदश है। इस कार
भारते के नाटक म भी ेम धारा तथा शृंगा रक
मोहकता का वातावरण बना रहा है।

अनू दत और पा त रत नाटक

भारते ने अं ेजी, बंगला तथा सं कृत के नाटक के


हद अनुवाद भी कए, जनम र नावली ना टका,
पाख ड वखंडन, बोध-चं ोदय, धनंजय- वजय, कपूर
मंजरी, मु ा रा स तथा लभ ब धु आ द ह। अं ेजी से
कए गए अनुवाद म भारते क एक वशेषता यह भी
है क उ ह ने उसम भारतीय वातावरण एवं पा का
समावेश कया है। सभी नाटक म मानव- दय के भाव
क अभ के लए गीत क योजना क है। इन
नाटक का अनुवाद केवल ह द का भ डार भरने क
से नह कया गया ब क ह द नाटक के त व म
अपे त प रवतन के लए दशा- नदश करने के उ े य
से कया गया। पांत रत नाटक म ‘ व ा सु दर’ और
‘स य ह र ’ नाटक आते ह। ‘ व ासु दर’ म ेम
ववाह का समथन करते ए भारते मां-बाप के
आशीवाद को अ नवाय मानते ह। ‘स य ह र ’म
सामा जक वकृ तय से ऊपर उठ कर स य के आदश
से अनु ा णत होने का आ ान कया है।
ना -शा के ग भीर अ ययन के उपरा त भारते ने
‘नाटक’ नब ध लख कर नाटक का सै ा तक ववेचन
भी कया है। सामा जक एवं रा ीय सम या को
लेकर-अनेक पौरा णक, ऐ तहा सक एवं मौ लक नाटक
क रचना ही नह क , अ पतु उ ह रंगमंच पर खेलकर
भी दखाया है। उनके नाटक म जीवन और कला, सु दर
और शव, मनोरंजन और लोक-सेवा का सु दर सम वय
मलता है। उनक शैली सरलता, रोचकता एवं
वभा वकता के गुण से प रपूण है। भारते अ तीय
तभा के धनी थे। सबसे बड़ी बात यह है क वे अ त
नेतृ व-श से यु थे। वे सा ह य के े म ेरणा के
ोत थे। फलतः अपने युग के सा ह यकार और नाटक
तथा रंगमंच क ग त व धय को भा वत करने म सफल
रहे। इसके प रणाम व प तापनारायण म ,
राधाकृ ण दास, लाला ी नवास, दे वक न दन ख ी
आ द ब सं यक नाटककार ने उनके भाव म ना
रचना क । यह भी वचारणीय है क भारते म डल के
नाटककार ने पौरा णक, ऐ तहा सक, सामा जक,
चर धान राजनै तक आ द सभी को टय के नाटक
लखे। इस युग म लखे गये नाटक प रमाण और वै व य
क से वपुल ह। यहाँ मु य धारा का प रचय
तुत हैः

(क) पौरा णक धारा : इसक तीन उपधाराएं : (1)


रामच रत स ब धी, (2) कृ णच रत स ब धी तथा
(3) अ य पौरा णक आ यानक स ब धी ह।
रामच रत स ब धी नाटक म दे वक न दन ख ी-कृत
‘सीताहरण’ (1876) और ‘रामलीला’ (1879),
शीतला साद पाठ -कृत ‘रामच र नाटक’
(1891) उ लेखनीय ह। कृ ण च रत स ब धी
नाटक म अ बकाद ास-कृत ‘ल लता’ (1884),
ह रहरद बे-कृत ‘महारास’ (1885) और
‘क पवृ ’ तथा सूयनारायण सह कृत ‘ यामानुराग
ना टका’ (1899) उ लेखनीय ह। कृ ण-प रवार के
य के च र से स ब धी नाटक म च शमा-
कृत ‘उषाहरण’ (1887), का तक साद ख ी-कृत
उषाहरण (1892) और अयो या सह उपा याय-कृत
‘ ु न- वजय’ (1893) तथा ‘ मणी प रणय’
(1894) ह। पौरा णक आ यानक से स ब धी
गजराज सह-कृत ‘ ोपद हरण’ (1882), ी
नवासदास-कृत ‘ द च र ’ (1888), बालकृ ण
भ -कृत ‘नल-दमय ती वयंवर’ (1895) और
शा ल ाम लाल-कृत अ भम यु (1898) स ह।
(ख) ऐ तहा सक धारा : ऐ तहा सक नाटक-धारा
‘नीलदे वी’ से ार भ होती है। ऐ तहा सक नाटक म
ी नवासदास-कृत ‘संयो गता वयंवर’ (1886),
राधाचरण गो वामी-कृत ‘अमर सह राठौर’ (1895)
और राधाकृ ण दास-कृत ‘महाराणा ताप’ (1896)
ने वशेष या त ा त क ।
(ग) सम या- धान धारा : भारते ने अपने
सामा जक नाटक और हसन म नारी सम या को
जस ढं ग से उठाया था, वह उनके म डल के सभी
नाटककार पर छाया रहा। ाचीन आदश के
अनु प उनम प त न ा क त ा क गयी और
नवीन भावना के अनु प, बाल- ववाह- नषेध,
पदा- था का वरोध और वधवा- ववाह तथा ी-
श ा का समथन कया गया। ी राधाचरणदास-कृत
‘ ः खनी बाला’ (1880), तापनारायण म -कृत
‘कलाकौतुक’ (1886), बालकृ ण भ -कृत ‘जैसा
काम वैसा प रणाम’ (1913), काशी नाथ ख ी-कृत
‘ वधवा ववाह’ (1899) बाबू गोपालराम गहमरी-कृत
‘ व ा वनोद’ आ द नाटक नारी-सम या को के -
ब मानकर लखे गये। इन सम या- धान नाटक
का मूल वर समाज-सुधार है। इस युग म जो ती
संघष सामा जक तर पर सुधारवाद क भावना से हो
रहा था, वैसा इस काल के नाटक म नह दखाई
दे ता। इनम नाटक के नाम पर सम या का वणन
मा आ है। पफर भी इनम सामा जक जाग कता
मु य ई है। इसम संदेह नह क ये अपने इसी
व प म आगे के नाटक के लए कड़ी या आधार
रहे।
(घ) ेम- धान-धारा : री तकाल क शृंगा रक
वृ भारते  : युग क क वता म ही नह नाटक
म भी दे खने को मल जाती है। ेम- धान रोमानी
नाटक म ी नवास दास-कृत ‘रणधीर ेममोहनी’
(1877), कशोरीलाल गो वामी-कृत ‘मयंक मंजरी’
(1891) और ‘ ण यनी प रणय’ (1890), खड् ग
बहा रम ल-कृत ‘र त कुसुमायुध’ (1885) शा ल ाम
शु ल-कृत लाव यवती’ सुदशन (1892) तथा
गोकुलनाथ शमा-कृत ‘पु पवती’ (1899) उ लेखनीय
ह। य प इन नाटक म उपदे श क भी सव भरमार
है जनम समय का स पयोग, वे या से घृणा, छोटे -
बड़े के भेद क थता, भा यवाद म व ास आ द
वषय पर भी उपदे श दये गये ह, पफर भी इन
नाटक क वषय-व तु तथा अ भ ाय रोमां टक ह।
(च) रा ीय हसन धारा : रा ीय और ं या मक
नाटक क पर परा ‘नीलदे वी’, ‘भारत दशा’ आ द
ारा चलायी गयी थी। उसका मूल कारण सां कृ तक
और रा ीय से उप थत स ां त-काल ही था।
ा य और पा ा य सं कृ त क टकराहट से
नवजागरण का आलोक वक ण हो रहा था। भारते
युगीन नाटककार ने इस जागरण को अ भ
करने के लए हसन को चुना। इस युग म रा ीय
वचारधारा को उजागर करने वाले, खड् गबहा र
म ल-कृत ‘भारत आरत’ (1885), अ बका दास
ास-कृत ‘भारत-सौभा य’ (1887), गोपाल राम
गहमरी-कृत ‘दे श-दशा’ (1892), दे वक न दन
पाठ -कृत ‘भारत हरण’ (1899) आ द नाटक
वशेष उ लेखनीय ह। इन नाटक म दे श क
त कालीन दशा का च ख चा गया है। आलो य
युग के अनेक सफल हसन म से बालकृ ण भ -
कृत ‘जैसा काम वैसा प रणाम’ (1877) और ‘ चार
बड बना’ (1899), वजयान द पाठ -कृत ‘महा
अंधेर नगरी’ (1893), राधाचरण गो वामी-कृत ‘बूढ़े
मुंह मुहासे’ (1886), राधाकृ ण दास-कृत ‘दे शी
कु तया वलायती बोल’ आ द हसन को वशेष
स ा त ई। नवीन वैचा रक आलोक के
फल व प इन हसन म ाचीन ढय , घसी ई
पर परा और अंध- व ास पर ं य कया गया है
तथा समाज के महंत और कु टल जन पर हार
कये गये ह।
आलो य युग के नाटक सा ह य का अवलोकन करने पर
यह प होता है क इस युग के नाटक वषयवै व य म
पूण ह। भारते युग के नाम से अ भ हत इस सं ां त
काल म अनेक युग यथा-कर, आल य, पार प रक
फूट, म पान, पा ा य-स यता का अ धानुकरण,
धा मक अंध व ास, पाखंड, छु आ-छू त, आ थक शोषण,
बाल ववाह, वधवा- ववाह, वे या गमन आ द को
नाटक का वषय बनाया गया। ऐसा नह है क कसी
एक नाटक म इनम से एक या दो बात को लया गया
हो, पर अवसर पाते ही सभी बात एक ही नाटक म
गु पफत ई ह। इससे कथानक म भले ही श थलता
आ गई हो कतु जनजीवन क वसंग त अव य प हो
जाती है। नाटक म धान प से समाज म ात
अशां त और ता का च ण आ है। नाटककार
अपने युग के त बड़े सजग दखाई पड़ते ह। उ ह ने
भारत का अधःपतन अपनी आंख से दे खा था। चार
ओर ढ़ त, न य और मान सक दासता म
जकड़ी ई जनता, पा ा य स यता का षत भाव,
राजनी त, दय वदारक आ थक अव था आ द ने
उनके दय म सुधारवाद और रा ीय वचार का उ े क
कया। फल व प नाटक म रा ीय जीवन को उ त
बनाने के अनेक उपाय संके तत ए ह। इनक वाणी म
नवो दत भारत क आकां ा का वर त व नत
होता है।

शा ीय से भारते -कालीन नाटक सं कृत-


ना शा क मयादा क र ा करते ए लखे गये।
साथ ही पा ा य ना शा का भाव भी इन पर
ल त होता है। पा ा य े जडी क प त पर ःखा त
नाटक लखने क पर परा भारते के ‘नीलदे वी’ नाटक
से ार भ ई। इस युग के नाटक एक ओर पारसी
क प नय क अ ीलता और फूहड़पन क त या
थे, तो सरी ओर पा ा य और पूव क स यता क
टकराहट के प रणाम। इस लए उनम अ वचा रत
पुरानापन या अ वचा रत नयापन कह नह है।
अ भनेयता क से ये नाटक अ य धक सफल ह।
भारते और उनके सहयोगी वयं नाटक म भाग लेते
थे और ह द रंगमंच को था पत करने के लए उ सुक
थे। नाटक के मा यम से जनता को वे जागरण का और
आने वाले युग का स दे श दे ना चाहते थे। इसी कारण
भारते -काल म वर चत ये नाटक सु ढ़ सामा जक
पृ भू म पर अव थत थे।

अनू दत तुत संदभ म भारते युगीन, नाटक पर


वचार कर लेना भी समीचीन होगा। इस युग म सं कृत,
बंगला तथा अं ेजी के सु स नाटक के ह द म
अनुवाद कए गए। अनुवाद क पर परा भी भारते से
ही ार भ ई थी जसक चचा पीछे क जा चुक है।
उनके अ त र भी अनेक लेखक सं कृत, बंगला और
अं ेजी के नाटक अनू दत करने म संल न रहे।

सं कृत

भवभू तः

(१) उ र रामच रत-दे वद तवारी (1871),


न दलाल, व नाथ बे (1891), लाला सीताराम
(1891)।
(२) मालती माधव : लाला शा ल ाम (1881), लाला
सीता राम (1898)।
(३) महावीर च रत : लाला सीताराम (1897)।

का लदासः

(१) अ भ ान शकु तला : न दलाल व नाथ बे


(1888)।
(२) माल वका न म  : लाला सीताराम (1898)।

कृ ण म

बोध च ोदय : शीतला साद (1879),


अयो या साद चौधरी (1885)।

शू क

मृ छक टक : गदाधर भ (1880), लाला सीताराम


(1899)।

हष

र नावली : दे वद तवारी (1872), बालमुकु द सह


(1798)।

भ नारायण

वेणीसंहार : वाला साद सह (1897)।


बंगला

माइकेल मधुसूदन द ः

(१) प ावती : बालकृ ण भ (1878)।


(२) श म ा : रामचरण शु ल (1880)।
(३) कृ णमुरारी : रामकृ ण वमा (1899)।

ा रकानाथ गांगुली : वीरनारी-रामकृ ण वमा


(1899)।

राज कशोर दे  : प ावती : रामकृ ण वमा (1888)।

मनमोहन वसुः सती : उ दत नारायण लाल (1880)।

अं ेजी
शे सपीयर

(१) मरचट आफ वे नस (वे नस के ापारी) : आया


(1888)।

(२) द कॉमेडी आफ एरस ( मजालक) : मु शी इमदाद


अली, भूल भुलैया : लाल सीताराम (1885)।

(३) एज यू लाइक इट (मनभावन) : पुरो हत गोपीनाथ


(1896)।

(४) रो मयो जू लयट ( ेमलीला) : पुरो हत गोपीनाथ


(1897)।

(५) मैकबैथ (साहसे साहस) : मथुरा साद उपा याय


(1893)।
जोजेफ एडीसनः केटो (कृता त) : बाबू तोता राम
(1879)

भारते -युगीन नाटककार क अनू दत रचनाएं केवल


उनक अनुवाद वृ का ही द दशन नह कराती, वरन्
सामा जक जीवन के उ यन के ल य को भी कट
करती ह। अनुवादक उन रचना के मा यम से व तुतः
एक ना ादश तुत करना चाहते थे और उन नै तक
त व के त भी जाग क थे जो नव-जागरण म
सहायक थे। इस कार भारते -युगीन इन नाटक क
वषय व तु म वै व य मलता है। रामायण और
महाभारत के संग को लेकर पौरा णक नाटक
ब तायत से लखे गये। इसी संदभ म ऐसे नाटक क
सं या भी पया त कही जा सकती है जो नारी के सती व
और प त ता के आदश से स ब धत है। सामा जक
नाटक म भी वषयव तु का वै व य और व तार मलता
है। इस काल म मु य प से अनमेल ववाह, वधवा
ववाह, ब ववाह, म पान, वे या गमन, नारी वातं य
आ द सम या पर वचार कया है। क तु युगीन
स दभ के त इस कार क जाग कता के बावजूद
अनुभू त क ती ता और ना श प क व श ता के
अभाव म इस युग का ना सा ह य कोई मह वपूण
सा ह यक दे न नह दे सका। पफर भी ना रचना और
रंगमंच के लए जैसा वातावरण इस युग म बन गया था,
वैसा ह द सा ह य के कसी काल म स भव नह आ।

वेद युगीन नाटक

भारते के अन तर सा ह य का जो सरा उ थान आ,


उसके मुख ेरणा-के महावीर साद वेद थे।
ह द नाटक के ऐ तहा सक वकास- म म पं. महावीर
साद वेद का योगदान भारते क तुलना म इतना
नग य है क नाटक के े म वेद -युग को अलग से
वीकार करना और मह व दान करना औ च यपूण
तीत नह होता है। भारते के अवसान के साथ नाटक
के ”◌ास के ल ण दखाई दे ने लगते ह। अपने युग क
सम या को ना प दान करने का जो अद य
साहस भारते युग के लेखक म दखाई पड़ा था उसके
दशन वेद -युग म नह होते। इसके कई कारण थे।
थम तो ह द के नाटककार म नाटक के सू म नयम
एवं व धय क योजना क मता न थी। सरे, नाटक
के इस उदयकाल क सामा जक थ त व ोभ पैदा
करने वाली थी। इस वृ त ने कुछ कर बैठने क ेरणा
तो द क तु भाव और वचार को घटना के साथ
कला मक ढं ग से नयो जत करने के लए मान सक
स तुलन नह दान कया। तीसरे, आय समाज के
आ दोलन के लेखक पर सुधारवाद जीवन और
शा ाथ शैली का भाव पड़ा जो न य ही नाटक के
कला मक वकास म बाधक आ। चौथे, पा ा य
‘कॉमेडी’ के अंधानुकरण के कारण भारते के उपरा त
ह द सा ह य म हसन क वृ भी पनप उठ ।
हसन क वृ ने सा ह यक एवं कला मक
अ भनयपूण नाटक क रचना म ाघात उप थत
कया। पांचव, वेद -युग नै तकता और सुधार का युग
था। नै तकता और आदश के त थापन म उनक
कोण सं कृत के नाटककार क भां त उदारवाद था
अतएव भारते -युग क नवीनता परवत युग के वभाव
के अनुकूल न थी। अतः कठोर नी तवाद अथवा
आदशा मक बु वाद के फल व प वेद -युग,
भारते -युग क पर परा को अ सर नह कर सका।

उपयु सभी कारण के फल व प आलो य युग म


मौ लक नाटक क सं या अ य प है अनुवाद-काय पर
अ धक बल रहा है। मौ लक नाटक म सा ह य क दो
धाराएं मुख ह :

(1) सा ह यक नाटक (शौ कया रंगमंच),


(2) मनोरंजन धान नाटक ( ावसा यक पारसी
रंगमंच)

सा ह यक ना धारा को वक सत करने के उ े य से
अनेक नाटक मंड लय क थापना क गई जेसे याग
क ‘ ह द नाटक म डली’, कलक े क नागरी नाटक
मंडल’ मुज फरनगर क ‘नवयुवक स म त’ आ द।
इनम ‘ ह द ना -स म त’ सबसे अ धक पुरानी थी। सन्
1893 ई. म यह ‘रामलीला नाटक मंडली’ के पम
था पत ई थी। इसके सं थापक म मुख थे : पं डत
माधव शु ल जो वयं अ छे अ भनेता और रंगकम थे
और ज ह ने रा ीयता चेतना चार- सार के लए
नाटक को सश मा यम बनाया था। क तु ह द
रंगमंच समु चत साधन और संर ण के अभाव म तथा
जनता क स ती च के कारण अपने उ े य म सफल
नह हो पाया। फलतः नाटक का सा ह यक प ही
सामने आया। सं या क म आलो यकाल म लखे
गये नाटक कम नह ह क तु मौ लक नाटक के नाम पर
ऐ तहा सक पौरा णक संग को ही नाटक म या
कथोपकथन म प रव तत कर दया गया। अ ययन क
सु वधा के लए आलो य युग के नाटक को
न न ल खत वग म वभा जत कया जा सकता है :
पौरा णक, ऐ तहा सक, सामा जक उपादान पर र चत
नाटक, रोमांचकारी नाटक, हसन और अनू दत नाटक।

पौरा णक नाटक

दय क वृ य क स व क ओर उ मुख करने का
यास भारते -युग के नाटक म ब त पहले से होता आ
रहा था। वेद -युग से इन वृ य के उ कष के लए
पौरा णक आ यान का नःसंकोच हण कया गया।
आलो य युग म पौरा णक नाटक के तीन वग दे खने को
मलते ह : कृ णच रत-स ब धी, रामच रत स ब धी तथा
अ य पौरा णक पा एवं घटना से स ब धत। कृ ण
च रत स ब धी नाटक म राधाचरण गो वामी कृत
‘ ीदामा’ (1904), ज न दन सहाय-कृत ‘उ व’
(1909), नारायण म -कृत ‘कंसवध’ (1910), शव
न दन सहाय-कृत ‘सुदामा।’ (1907) और बनवारी
लाल-कृत ‘कृ ण तथा कंसवध’ (1910) को वशेष
या त ा त है। रामच रत-स ब धी नाटक म
रामनारायण म -कृत ‘जनक बड़ा’ (1906) गरधर
लाल-कृत ‘रामवन या ा’ (1910) और गंगा साद-कृत
‘रामा भषेक’ (1910), नारायण सहाय-कृत ‘रामलीला’
(1911), और राम गुलाम लाल-कृत ‘धनुषय लीला
(1912), उ लेखनीय ह। अ य पौरा णक घटना से
स ब धत नाटक म महावीर सह का ‘नल दमय ती’
(1905), सुदशनाचाय का ‘अनाथ नल च रत’ (1906),
बांके बहारी लाल का ‘सा व ी ना टका’ (1908),
बालकृ ण भ का ‘बेणुसंहार’ (1909), ल मी साद
का ‘उवशी’ (1907) और हनुमंत सह का ‘सती च रत’
(1910), शवन दन म का ‘शकु तला’ (1911),
जयशंकर साद का ‘क णालय (1912) ब नाथ भ
का ‘कु वन दहन’ (1915), माधव शु ल का
‘महाभारत-पूवा र्’ (1916), ह रदास मा णक का
‘पा डव- ताप’ (1917) तथा माखन लाल चतुवद का
‘कृ णाजुन-यु (1918) मह वपूण ह।

इन नाटक का वषय पौरा णक होते ए भी पारसी


रंगमंच के अनु प मनोरंजन करने के लए हास-
प रहास, शोखी और छे ड़छाड़ के वातावरण का ही
आधार हण कया गया है।
ऐ तहा सक नाटक

पौरा णक नाटक के साथ ही इस काल म कुछ


ऐ तहा सक नाटक भी लखे गए जनम : गंगा साद गु त
का ‘वीर जय माल’ (1903), शा ल ाम कृत ‘पु व म’
(1905), वृ दावन लाल वमा का ‘सेनाप त ऊदल’
(1909), कृ ण काश सह कृत ‘प ा’ (1915),
ब नाथ भ कृत ‘च गु त’ (1915), ह रदास मा णक-
कृत ‘संयो गता हरण’ (1915), जयशंकर साद का
‘रा य ी’ (1915) और परमे रदास जैन का ‘वीर
चूड़ावत सरदार’ (1918) मह वपूण ह। इन नाटक म
साद के ‘रा य ी’ नाटक को छोड़कर और कसी भी
नाटक म इ तहास-त व क र ा नह हो सक ।

सामा जक-राजनै तक सम यापरक नाटक


वेद -युग म भारते -युग क सामा जक-राजनी तक
और सम यापरक नाटक क वृ का अनुसरण भी
होता रहा है। इस धारा के नाटक म ताप नारायण
म -कृत ‘भारत दशा’ (1903) भगवती साद-कृत
‘वृ ववाह’ (1905), जीवान द शमा-कृत ‘भारत
वजय’ (1906), दत शमा-कृत ‘कंठ जनेऊ का
ववाह’ (1906), कृ णान द जोशी-कृत ‘उ त कहां से
होगी’ (1915), म ब धु का ‘ने ो मीलन' (1915)
आ द कई नाटक गनाए जा सकते ह। ना कला क
से वशेष मह व न रखते ए भी ये नाटक, समाज
सुधार और नै तकवाद जीवन से यु ह।

वसा यक से लखे नाटक

इस युग म पारसी रंगमंच स य रहा जसके लए


नर तर रोमांचकारी, रोमानी और धा मक नाटक लखे
जाते रहे। पारसी नाटक क प नय के पम वसायी
रंगमंच का सार भारते -युग म ही हो चुका था। इस
काल म ‘ओ र जनल थये कल क पनी’, ‘ व टो रया
थये कल क पनी’, ‘ए फेड थये कल क पनी’,
‘शे सपीयर थटे कल क पनी’, ‘जु बली क पनी’ आ द
कई क प नयां 'गुलबकावली’, ‘कनकतारा’, ‘इ दर सभा’,
‘ दलफरोश’, ‘गुल फरोश’, ‘य द क लड़क ’, जैसे
रोमांचकारी नाटक खेलती थ । रोमांचकारी रंगमंचीय
नाटककार म मोह मद मयाँ रादक’, सैन मयाँ
‘जराफ’, मु शी वनायक साद ‘ता लब’, सैयद महद
हसन ‘अहसान’, नारायण साद बेताब’, आगा मोह मद
ह ’ और राधे याम ‘कथावाचक’ उ लेखनीय ह। इनम
राधे याम कथावाचक और ‘बेताब’ ने सु चपूण
धा मक-सामा जक नाटक भी लखे, क तु पारसी
रंगमंच का सारा वातावरण षत ही रहा, जसने वेद -
युग म ना लेखन क धारा को कुं ठत कर दया।
हसन

इस काल म अनेकानेक वतं हसन भी लखे गये।


अ धकांश हसन लेखक पर पारसी रंगमंच का भाव
है, इस लए वे अमया दत एवं उ ष्ंखल ह। हसनकार
म बदरीनाथ भ एवं जी. पी. ीवा तव के नाम
सवा धक उ लेखनीय ह। भ जी के ‘ मस अमे रका’,
‘चुंगी क उ मीदवारी’, ‘ ववाह व ापन’, ‘लबड़ध ◌ ध ’
आ द श -हा यपूण हसन ह। जी.पी. ीवा तव ने
छोटे -बड़े अनेक हसन लखे ह। इन हसन म सौ व
और मयादा का अभाव है।

अनू दत नाटक

मौ लक नाटक क कमी वेद -युग म अनू दत नाटक


ारा पूरी क गई। सामा जक तथा राजनी तक अशा त
के इस वातावरण म लेखक को ह द नाटक-सा ह य
क हीनता प दखाई दे ती थी। अतः कुछ थोड़े
उदा वाद पर परा के लोग का यान सं कृत नाटक
क ओर गया, पर तु अ धकांश का अ ययन बंगला तथा
पा ा य नाटक क ओर ही अ धक था।

सं कृत से लाला सीताराम ने ‘नागान द’, ‘मृ छक टक’,


‘महावीरच रत’, ‘उ ररामच रत’, मालती माधव’ और
‘माल वका न म ’ और स यनारायण क वर न ने
‘उ ररामच रत’ का अनुवाद कया। अं ेजी से
शे सपीयर के नाटक ‘हेमलेट’, ‘ रचड’ तीय’,
‘मैकवेथ’ आ द का ह द म अनुवाद भी लाला सीताराम
ने कया। फांस के स नाटककार ओ लवर’ के
नाटक को ल ली साद पांडेय और गंगा साद
ीवा तव ने अं ेजी के मा यम से अनू दत कया।
बंगला नाटक का अनुवाद तुत करने वाल म
गोपालराम गहमरी मरणीय ह। उ ह ने ‘बनवीर’
‘ब ुवाहन’, ‘दे श दशा’, ‘ व ा वनोद’, ‘ च ागंदा’ आ द
बंगला नाटक के अनुवाद कये। बंगला नाटक के अ य
समथ अनुवादक रामच वमा तथा प नारायण पांडेय
ह। उ ह ने गरीशच घोष, जे लाल राय,
रवी नाथ ठाकुर, मनमोहन गो वामी, योती नाथ
ठाकुर तथा ीरोद साद के नाटक का अनुवाद कया।
पांडेय जी के अनुवाद बड़े सफल ह, उनम मूल नाटक
क आ मा को अ धक सुर त रखने का य न कया
गया है।

इसी कार भारते -युग तथा साद-युग को जोड़ने वाले


बीच के लगभग 25-30 वष म कोई उ लेखनीय नाटक
नह मलता। भले ही साद-युगीन नाटककार क
आर भक ना कृ तयाँ वेद -युग क सीमा म आती
ह पर तु आगे चलकर उनक ना कृ तय म जो
वै श आता है, वह उ ह वेद -युग के लेखक से
पृथ क् कर दे ता है। वेद -युग म ह द रंगमंच वशेष
स य नह रहा। इस युग म ब नाथ भ ही
अपवाद व प एक ऐसे नाटककार थे, ज ह ने नाटक य
मता का प रचय दया है क तु इनके नाटक भी पारसी
क प नय के भाव से अछू ते नह ह। उनम उ कृ
सा ह यक त व का अभाव है।

साद-युगीन नाटक

साद का आगमन ना रचना म ा त ग तरोध को


समा त करने वाले युग- वधायक के प म आ।
उ ह ने एक व क के प म क वता, नाटक तथा
नबंध आ द सभी े म युग का त न ध व कया।
डॉ. गुलाबराय का कहना है, ‘ साद जी वयं एक युग
थे।’ उ ह ने ह द नाटक म मौ लक ां त क । उनके
नाटक को पढ़कर लोग जते लाल के नाटक को भूल
गये। वतमान जगत के संघष और कोलाहलमय जीवन
से ऊबा आ उनका दय थ क व उ ह व णम आभा से
द त र थ अतीत क ओर ले गया। उ ह ने अतीत के
इ तवृ म भावना का मधु और दाश नकता का रसायन
घोलकर समाज को एक ऐसा पौ क अवलेह दया जो
ास क मनोवृ को र कर उसम एक नई सां कृ तक
चेतना का संचार कर सके। उनके नाटक म जे लाल
राय क सी ऐ तहा सकता और र व बाबू क -सी
दाश नकतापूण भावुकता के दशन होते ह।

साद क आर भक ना कृ तयां : स जन
(1910), ‘क याणी प रणय (1912), ाय त
(1912), क णालय (1913) और रा य ी (1918),
वेद -युग क सीमा के अंतगत आती ह। साद के इन
नाटक म उनका पर परागत प तथा योग म भटकती
ई ना ही मुखता से उभर कर सामने आती है।
नाटक रचना का ार भक काल होने के कारण इन
कृ तय म साद क ना कला का व प थर नह
हो पाया है, वह अपनी दशा खोज रही है। यह दशा उ ह
वशाख (1921), अजातश ु (1922), कामना
(1927), जनमेजय का नागय (1926) क दगु त
(1928), एक घूँट (1930), च गु त (1931) और
ुव वा मनी (1933) म ा त ई। इन नाटक म साद
जी ने अपनी गवेषणा श और सू म का प रचय
दया।

‘स जन’ का कथानक महाभारत क एक घटना पर


आधा रत है। इस नाटक म साद जी ने पर परागत
मा यता को वीकार करते ए भारते -कालीन
ना - णाली को अपनाया है। ‘क याणी : प रणय’ भी
साद का ार भक यास है, जसका अंतभाव उ ह ने
बाद म ‘च गु त’ के चतुथ अंक के प म कया है।
‘क णालय’ बंगला के ‘अ म ा र अ र ल छं द’ क शैली
पर लखा गया गी त-ना है। ‘ ाय त’ ह द का
थम खांत मौ लक पक है। श प- वधान क
से साद ने इसम सव थम पा ा य ना - श प को
अपनाने का यास कया है। सही अथ म ‘रा य ी’
साद का थम उ कृ ऐ तहा सक नाटक है। ‘ वशाख’
साद क पूववत और परवत नाटक म एक वभेदक
रेखा है। इनका कथानक साधारण होते ए भी दे श क
त कालीन राजनै तक धा मक और सामा जक
सम या क अभ से ओत ोत है य प साद
के अ धकांश नाटक ऐ तहा सक ही ह पर तु इ तहास क
पी ठका म वतमान क सम या को वाणी दे ने का
वचार साद ने सव थम इसी नाटक म कया है।
भू मका म वे लखते ह मेरी इ छा भारतीय इ तहास के
अ का शत अंश म से उन कांड घटना का द दशन
कराने क है ज ह ने हमारी वतमान थ त को बनाने म
ब त यास कया है। और वह वतमान थ त परतं
भारत के राजनै तक सामा जक प रवेश से जुड़ी ई थी।
अपनी स ा को थानयी बनाये रखने के लए टश
शासन ारा भारतीय म फूट डालने के लए अपनाये
गये सा दा यकता, ांतीयतावाद के हथक डे साद से
छपे नह थे। अतः इ तहास क पी ठका पर उ ह ने
वतमान के इन को यथाथ क से उठाते ए
सम वयवाद आदश समाधान तुत कये। युगीन
सा दा यक भाव को आ मसात करते ए साद ने
अपने नाटक म ा ण-बौ धा मक संघष को
पा यत कया है। ‘जनमेजय का नागय ’ नाटक आय
और नागज त तथा आय-नाग-संघष क पृ भू म म रचा
गया है। ‘अजातश ’ु म आय जनपद का पार प रक
संघष परो प म युगीनसा दा यक संघष का ही
त प है। इस कार अपनी इन ौढ़ कृ तय म साद
ने जातीय, े ीय तथा वैय क भेद को मटाकर
ापक रा ीयता का आ ान कया है। इस से
‘ क दगु त’ और ‘च गु त’ वशेष प से उ लेखनीय
ह। ‘कामना’ और ‘एक घूंट’ भ को ट के नाटक ह।
इनक कथाव तु ऐ तहा सक नह है। क य क से
भी ये भ ह। इनम साद ने भौ तक वला सता का
वरोध कया है। ‘कामना’ म व भ भाव को पा प
म तुत कया गया है, इस लए उसे तीक नाटक कहा
जा सकता है। ‘एक घूट’ एकांक है और उसम साद ने
यथाथ और आदश क थ त, जीवन का ल य और
ी-पु ष क ेम-भावना के सामंज य को च त कया
है। ‘धु्रव वा मनी साद क अ तम कृ त है। अ य
नाटक म साद वशेष प से राजनै तक के
यथाथ से जूझते रहे ह, पर तु ‘ ुव वा मनी’ म सामा जक
जीवन क वतमान युगीन नारी सम या पर बौ क
वचार वमश कर यथाथ का प रचय दया है। नारी-
जीवन क इस सामा जक सम या के त साद का
आकषण वतमान नारी-आ दोलन का ही प रणाम है।
आज के समाज म नारी क थ त, दासता क ृंखला
से उसक मु , व श प र थ तय म पुन ववाह क
सम या को बड़े साहस, संयम, तक और वचार एवं धम
क पी ठका पर थत करके इस नाटक म सुलझाया
गया है।

प है क साद जी ने ह द नाटक क वहमान् धारा


को एक नए मोड़ पर लाकर खड़ा कया। वे एक स म
सा ह यकार थे। उनके दय म भारतीय सं कृ त के त
अगाध ममता थी। उ ह व ास था क भारतीय सं कृ त
ही मानवता का पथ श त कर सकती है। इसी कारण
अपने नाटक ारा साद जी ने भारतीय सं कृ त के
भ प क झांक दखाकर रा ीय आ दोलन के
साथ-साथ अपने दे श के अधुनातन नमाण क पी ठका
भी तुत क है। भारते ने अपने नाटक म जस
ाचीन भारतीय सं कृ त क मृ त को भारत क सोई
ई जनता के दय म जगाया था, साद ने नाटक म
उसी सं कृ त के उदा और मानवीय प पर अपनी
भावी सं कृ त के नमाण क चेतना दान क । पर यह
समझना भी भूल होगी क उ ह ने केवल भारतीय
सं कृ त के गौरव-गान के लए ही नाटक क रचना क ।
व तुतः उनका ना सा ह य ऐ तहा सक होते ए भी
सम-साम यक जीवन के त उदासीन नह है, वह
य को लेकर मुखर है और उनम लोक-सं ह का
य न है, रा के उ ोधन क आकां ा है।

साद से पूव सा ह यक नाटक का अभाव था। जस


समय भारते ने नाटक-रचना क शु आत क , उनके
सामने पहले से न त, त त ह द का कोई रंगमंच
न था, अतः उ ह ने सं कृत, लोकनाटक एवं पारसी
रंगमंच शैली क व भ रंगपर परा को सुधारवाद
यथाथ क य के अनु प मोड़ दे ने का तु य यास
कया। साद के युग तक नाटक म पारसी रंग श प का
व प नधा रत हो चुका था, अतः पारसी रंगमंच क
अ तरंजना, चम कार, फूहड़ता, शोखभाषा, चुलबुले
संवाद, शेरोशायरी के घ टयापन क त या म साद
ने अपने ऐ तहा सक, रा ीय नाटक क रचना क ।
दाश नकता, सां कृ तक बोध, उदा क पना, का मय
अलंकृ त, ह भाषा का व यास उनक उपल ध था।
पफर भी सा ह यक और कला मक वै श होते ए
भी साद म ना श प के अनेक दोष दखाई दे ते ह।
एक त य यह है क कारा तर से उ ह ने अ तरंजना क
ढ़ को क चत प रवतन के साथ हण कया। यह
प रवतन मुखतः शे सपीयर के जीवन-बोध, एवं
रंग वधान के भाव व प ही आया था। शे सपीयर का
रोमानी बोध एवं नय तवाद संभवतः भारतीय युगीन
प रवेश के कारण भी वतः उ त होकर साद क
चेतना पर छा गया था। इ ह कारण से साद मूलतः
क व, दाश नक तथा सं कृ त के जाग क समथक थे।
जीवन के अनु प उ ह ने अपने नाटक क रचना
व छ दतावाद ना - णा लय को आधार बनाकर
क पना, भावुकता, सौ दय- ेम, अतीत के त अनुराग,
उ चादश के त मोह तथा शैली श प क व छ दता
आ द को हण कया। क तु ऐसे सा ह यक नाटक के
अनु प रंगमंच ह द म नह था इस लए अ य सभी
य से सफल होते ए भी साद के नाटक अ भनय
क से सफल नह हो सके। इधर ह द रंगमंच के
े म नए योग हो रहे ह जससे आज के रंगकम ,
साद के नाटक को चुनौती के प म वीकार करने
लगे ह। उनके नाटक को इसी लए सवथा अ भनेय नह
कहा जा सकता, य क उनम से कुछ छु टपुट प से
उनके जीवन काल म ही खेले गये थे। पफर भी आकार
क वपुलता, य क भरमार, च र -बा य और
वल ण य-योजना उनके नाटक को रंगमंच के लए
अ त क ठन बना दे ती है।

आधु नक ह द नाटक सा ह य के वकास म जयशंकर


साद के बाद ह रकृ ण ेमी को गौरवपूण थान दया
जाता है। साद-युग म ‘ ेमी’ ने ‘ वण- वहान’ (1930),
‘र ाब धन’ (1934), ‘पाताल वजय’ (1936),
‘ तशोध’ (1937), ‘ शवासाधना’ (1937) आ द
नाटक लखे ह। इनम ‘ वण वहान’, गी तना है और
शेष ग नाटक। साद ने जहाँ ाचीन भारत का च ण
करते ए स य, ेम, अ हसा व याग का संदेश दया,
वहाँ ेमी जी ने मु लम-युगीन भारत को ना - वषय के
प म हण करते ए ह -मु लम एकता था पत
करने का य न कया। दे श के उ थान और संगठन के
लए इनके नाटक रा ीय भावना का चार करने वाले
ह। ेमी जी साद क पर परा के अनुयायी ह। पर तु
उ ह ने साद जी क भां त अपने नाटक को सा ह यक
और पा ही न रखकर उनको रंगमंच के यो य भी
बनाया है। सा ह यकता और रंगमंचीयता का सम वय है
उनके नाटक क वशेषता है। उ ह ने सं कृत ना
पर परा का अनुसरण न करके पा ा य ना कला को
अपनाया है। इन नाटक के कथानक सं त एवं
सुग ठत, च र सरल एवं प , संवाद पा ानुकूल एवं
शैली सरल व वभा वक है।

उपयु मुख ना कृ तय के अ त र आलो य युग


म धा मक-पौरा णक और ऐ तहा सक नाटक क रचना
अ य धक ई। इन नाटक म कला मक वकास वशेष
प से नह आ, क तु युग क नवीन वृ य से
भा वत होकर कई नाटककार ने अपनी रचना म
नवीन कोण को अपनाया। धा मक ना धाराके
अ तगत कृ ण च रत-राम च रत, पौरा णक तथा अ य
स त महा मा के च र को लेकर रचनाएं तुत क
गइंर्। इस धारा क उ लेखनीय रचनाएं ह : अ बकाद
पाठ कृत ‘सीय- वयंवर’ (1918), रामच रत
उपा याय-कृत ‘दे वी ौपद ’ (1921), राम नरेश
पाठ कृत ‘सुभ ा’ (1924) तथा ‘जय त’ (1934),
गंगा साद अरोड़ा-कृत ‘सा व ी स यवान’ गौरीशंकर
साद-कृत- ‘अजा मल च र नाटक’ (1926),
पू रपूणान द वमा-कृत ‘वीर अ भम यु नाटक’ (1927),
वयोगी ह र-कृत (1925), ‘छ यो गनी’ (1929) और
‘ बु यामुन’ अथवा ‘यामुनाचाय च र ’ (1929),
जग ाथ साद चतुवद -कृत ‘तुलसीदास’ (1934)
ल मीनारायण गग-कृत’ ी कृ णावतार’, कशोरी दास
वायपेयी-कृत ‘सुदामा’ (1934), ह रऔध-कृत ‘ ुन
वजय ायोग’ (1939), सेठ गो व ददास-कृत ‘क ’
(1936) आ द। रा ीय चेतना क धानता होने के
कारण धा मक नाटक म भी रा ीयता का च ण आ।
नाटक म अ त-नाटक य और अ त-मानवता का
ब ह कार कया गया है। ाचीन ढ़य और मा यता
को पूण प से हटाने क चे ा क गयी है। इस कार
क रचना म नाटककार ने ायः कथाव तु ाचीन
सा ह य से लेकर उसी पुराने ढांचे म नई बु वाद
धारा तथा वचारधारा के अनुसार आधु नक युग
क सम या को उनम पफट कर दया है।

साद युग म इ तहास का आधारलेकर अनेक मह वपूण


रचनाएं तुत क गई। इस समय के नाटककार क
इ तहास क ओर वशेष प से गई य क यह युग
पुन थान और नवजागरणवाद वृ य से अनु ा णत
था। फलतः जन साधारण म अपने गौरवपूण इ तहास
तथा अपनी महान सां कृ तक चेतना का संदेश दे ना इन
नाटककार ने अपना क समझा। इस काल क गौण
ऐ तहा सक कृ तय म गणेशद इ -कृत ‘महाराणा
सं ाम सह’ (1911), भंवरलाल सोनी-कृत ‘वीर कुमार
छ साल’ (1923), च राज भ डारी-कृत ‘स ाट’
अशोक (1923) ानच शा ी-कृत ‘जय ी’ (1924)
ेमच द-कृत ‘कबला’ (1928), जने र साद भायल-
कृत ‘भारत गौरव’ अथात् ‘स ाट च गु त’ (1928)
दशरथ ओझा-कृत ‘ च ौड़ क दे वी’ (1928) और
यदश स ाट अशोक (1935), जग ाथ साद
म ल द-कृत ‘ ताप त ा’ (1929), चतुरसेन शा ी-
कृत ‘उपसग’ (1929) और ‘अमर राठौर’ (1933)
उदयशंकर भ -कृत ‘ व मा द य’ (1929) और ‘दाहर
अथवा सधपतन’ (1943), ा रका साद मौय : कृत
‘हैदर अली या मैसूर-पतन’ (1934), धनीराम ेम-कृत
‘वीरांगना प ा’ (1933) जगद श शा ी-कृत ‘त शला’
(1937) उमाशंकर शमा-कृत ‘महाराणा ताप’ आ द
को वशेष या त ा त ई है। इन नाटककार ने
आदशवाद वृ के बावजूद वभा वकता का बराबर
यान रखा और क पना और मनो व ान क सहायता से
ाचीन काल क घटना और च र को वाभा वकता
के साथ च त करने क चे ा क । पुरानी मा यता
तथा अ तलौ कक वणन के थान पर वा त वक कथा-
व तु को योग म लाया गया है। इन च र म संघष का
भी समावेश आ। सारांश यह है क इन नाटक के
कथानक महत् ह, च र सभी दाश नक और आदशवाद
ह, शैली क व वपूण और अ तरं जत है और नाटक का
वातावरण संगीत और का पूण है। ये ना -कृ तयां
ह द ना -कला वकास का एक मह वपूण चरण पूरा
करती ह।

इस युग म पौरा णक और ऐ तहा सक नाटक क


पर परा का मह वपूण थान तो रहा ही है, इसके
अतर सामा जक नाटक क रचना भी ब तायत से
ई है। सामा जक नाटक म व भरनाथ शमा
‘कौ शक’ कृत ‘अ याचार का प रणाम’ (1921) और
‘ ह द वधवा नाटक’ (1935), ‘ ेमच द-कृत ‘सं ाम’
(1922) ई री साद शमा-कृत दशा (1922),
सुदशन-कृत ‘अंजना’ (1923), ‘आनरेरी मै ज े ट’
(1929), और ‘भयानक’ (1937), गो व दव लभ प त-
कृत ‘कंजूस क खोपड़ी’ (1923) और ‘अंगरू क बेट ’
(1929), बैजनाथ चावला-कृत ‘भारत का आधु नक
समाज’ (1929), नमदे री साद ‘राम’-कृत
‘अछू तो ार’ (1926), छ वनाथ पांडेय-कृत ‘समाज’
(1929), केदारनाथ बजाज-कृत ‘ बलखती ‘ वधवा’
(1930), जमनादास मेहरा-कृत ‘ ह क या’ (1932),
महादे व साद शमा-कृत ‘समय का फेर’, बलदे व साद
म -कृत ‘ व च ववाह’ (1932) और ‘समाज सेवक’
(1933) रघुनाथ चौधरी-कृत ‘अछू त क लड़क या
समाज क चनगारी’ (1934), महावीर बेनुवंश-कृत
‘परदा’ (1936), बेचन शमा ‘उ ’-कृत ‘चु बन’ (1937)
और ड टे टर’ (1937), रघुवीर व प भटनागर-कृत
‘समाज क पुकार’ (1937), अमर वशारद-कृत ‘ यागी
युवक’ (1937) च का साद सह-कृत ‘क या व य
या लोभी पता’ (1937) आ द उ लेखनीय ह। इन
नाटक म सामा जक वकृ तय  : बाल ववाह, वधवा-
ववाह का वरोध, नारी वतं ता आ द का च ण करते
ए उनके उ मूलन का यास गोचर होता है। इन
नाटक म समु त समाज क थापना का यास कया
गया है, भले ही ना कला क से ये नाटक
उ चको ट के नह ह।

आलो य युग म शृंगार- धान नाटक का ायः ास हो


गया था। थोड़ी ब त तीकवाद पर परा चल रही थी,
क तु उसक ग त ब त धीमी थी। तीक का मह व
व तुतः सांके तक अथ म है। इस अव ध म साद क
‘कामना’ के प ात् सु म ान दन प त-कृत यो ना’
(1934) इस शैली क उ लेखनीय रचना है। इसम पंत
क रंगीन क पनामयी झांक का मनोरम व प
होता है। इसके अ त र एक ना -धारा ं य- वनोद
धान नाटक को लेकर थी। इसको मुख प से
समाज क ु टय , ढ़गत वचार अथवा कसी
वशेष क वल ण वृ य पर चोट करने के लए
तुत कया जाता है। इस कार से कसी भी सम या
पर कया आ हार ऊपर से तो साधारण सा तीत
होता है। क तु त नक भी यान दे ने पर उसके पीछे
छपा आ अथ-गा भीय प हो जाता है। हा य- ं य
धान नाटक म जी.पी. ीवा तव का ‘ मदार आदमी’
(1919) गड़बड़ झाला (1919), नाक म दम उपफ
जवानी बनाम बुढ़ापा उपफ मयां का जूता मयां के सर
(1926) भूलचूक (1928), चोर के घर छछोर (1933)
चाल बेढव (1934), सा ह य का सपूत (1934), वामी
चौखटान द (1936) आ द स ह। जनता म इन
नाटक का खूब चार आ पर तु रस और कला क
से ये न नको ट क रचनाएं ह। इस युग म क तपय
गी त-नाटक क भी रचना ई। इसम मुख ह :
मै थलीशरण गु त का ‘अनघ’ (1928) ह रकृ ण ेमी-
कृत ‘ वण वहान’ (1937) भगवतीचरण वमा-कृत
‘तारा’, उदयशंकर भ का म यगंधा (1937) और
व म (1938) आ द उ लेखनीय है। ‘ वण वहान’
म जीवन क ब हरंग व था क ओर अ धक यान
दया गया है और अ य म आ त रक या- ापार का
च ण है। भाव धान होने के कारण इन नाटक म
काय- ापार तथा घटना च क कमी मलती है।
भावा तरेक ही भाव-ना क ाणभूत वशेषता है।
इस कार साद-युग ह द नाटक के े म नवीन
ां त लेकर आया। इस युग के नाटक म रा ीय जागरण
एवं सां कृ तक चेतना का सजीव च ण आ है क तु
रंगमंच से लोग क हट गयी थी। जो नाटक इस युग
म रचे गये उनम इ तहास त व मुख था और रंगमंच से
कट जाने के कारण वे मा पा नाटक बनकर रह गए।
क य के तर पर वे दे श क त कालीन सम या क
ओर अव य लखे गये क तु उनम आदश का वर ही
मुख रहा। पफर भी इ तहास के मा यम से अपने युग
क यथाथ सम या को अं कत करने म वे पीछे नह
रहे।

सादो र-युगीन नाटक

सादो र-युगीन नाटक अ धका धक यथाथ क ओर


उ मुख दखाई पड़ते ह। पर तु भारत के सामने एक
व श उ े य था रा क वाधीनता क ा त और
वदे शी शासक के अ याचार से मु ा त करना,
फल व प ापक तर पर पुन थान एवं पुनजागरण
क लहर फैल गई। इस समूचे काल म पुनजागरण क
श य का भाव होने के कारण चेतना के तर पर
भावुक, आवेशा मक, आदशवाद , वृ य से आ ांत
होना नाटककार के लए वाभा वक था। यही कारण है
क सादो र काल तक क चत प रवतन के साथ
सभी रचनाकार क मूलतः आ था, मयादा एवं
गौरव के उ चादश से मं डत रही। भारते ने अपनी
अ त ं यश एवं समाज- व ेषण क पैनी से
सामा जक यथाथ का च ण कया पर तु उनक मूल
चेतना सुधारवाद आ ह का प रणाम होने के कारण
आ थामूलक थी। वेद युग म भी दो दशक के
अनवरत सा ह यक अनुशासन आदशवाद मयादा एवं
नै तकता के कठोर ब धन के कारण यथाथ के वर
म म पड़ गए। साद युगीन नाटक क मूलधारा भी
रा ीय एवं सां कृ तक आदश चेतना से स ब धत थी
पर तु खल पा क चा र क बलता तथा सद्
पा क जीवन च र -सृ म यथाथ चेतना को नकारा
नह जा सकता। 19व शता द म प मी ना सा ह य
म इ सन् एवं शॉ ारा व तत यथाथवाद ना ा दोलन
ने भारतीय ना सा ह य क ग त व धय को भी े रत
एवं भा वत कया। ल मी नारायण म ने सम या
नाटक का सू पात करके बु वाद यथाथ को त त
करने का दावा कया है। पर तु स ांत एवं योग म
पया त अ तर पाते ए हम दे खते ह क एक ओर
वैचा रक धरातल पर कृतवाद सुलभ जीवन के
ां त ंजक स ब ध उभरते ह, वह सरी ओर
समाधान खोजते ए पर परा के त भावुकता- स
भी पाई जाती है। ‘भावा मकता और बौ कता’ का
घपला होने के कारण उनके नाटक का मूल वर यथाथ
से बखर जाता है। वतं ता ा त से पूव अ य युगीन
सामा जक सम या के साथ रा क मु का
सभी नाटककार क चेतना पर छाया आ था। वाधीन
भारत से उ ह अनेक कार क मीठ अपे ाएं थ , पर तु
वड बना यह है क वाधीनता ा त के बाद जीवन
सम या से आ ांत, बो झल और ज टल हो उठा।
प रवेश के दबाव से ही यथाथ बोध क शु आत ई।

ल मीनारायण म ने अपने नाटक का लेखन साद-


युग म ही ार भ कया था। उनके अशोक (1927),
सं यासी (1829), ‘मु का रह य’ (1932), रा स का
म दर (1932), ‘राजयोग’ (1934), स र क होली
(1934), ‘आधी रात’ (1934) आ द नाटक इसी काल
के ह। क तु म जी के इन नाटक म भारते और
साद क ना धारा से भ वृ यां गोचर होती
ह। जैसा क पहले संकेत कया जा चुका है क भारते
और साद-युग के नाटक का कोण मूलतः रा ीय
और सां कृ तक था। य प इस युग के नाटक म
आधु नक यथाथवाद धारा का ा भाव हो चुका था।
तथा प ाचीन सां कृ तक आदश के ारा रा ीयता का
उ ोष इस युग के नाटककार का मुख ल य था। अतः
उसे हम सां कृ तक पुन थान क कह सकते ह,
जनम ाचीन सां कृ तक मू य और नयी यथाथवाद
चेतना म सम वय और स तुलन प रल त होता है।
म जी नयी चेतना के योग के अ त माने जाते ह।
डॉ. वजय बापट के मतानुसार नयी बौ क चेतना का
व नयोग सव थम उ ह के तथाक थत सम या नाटक
म मलता है। इस बौ क चेतना और वै ा नक का
ा भाव बीसव शता द म प मी च तक के भाव
से आ था। डार वन ारा तपा दत वकासवाद
स ा त, फायड के मनो व ेषण स ा त और
मा स के ा मक भौ तकतावाद स ा त ने यूरोप
को ही नह , भारतीय जीवन प त को भी भा वत
कया जसके फल व प जीवन म आ था और ा
क बजाय तक को ो साहन मला। प म म इस कार
क बौ क चेतना ने सम या नाटक को ज म दया।
उह क ेरणा से म जी ने भी ह द नाटक म
भावुकता, रसा मकता और आन द के थान पर तक
और बौ कता का समावेश कया। साथ ही है क
बु वाद कोण अपनाते ए भी वे पर परा-मोह से
मु नह हो पाए। युगीन मू यगत अ त वरोधी चेतना
समान प से उनके येक नाटक म दे खी जा सकती
है। इनके नाटक का के य वषय ी-पु ष स ब ध
एवं से स है। रा ो ार, व - ेम आ द के मूल म भी
म जी ने काम भावना को ही रखा है, जो प रतृ त के
अभाव म अपनी द मत वृ को दे श सेवा आ द के प
मअभ करती है और ायः इस कार प रत त’
के साधन जुटा लेती है।
म जी के नाटक के साथ ह द -नाटक के वषय और
श प दोन म बदलाव आया है। म जी के सभी
नाटक तीन अंक के ह। इनम इ सन क ना प त
का अनुसरण कर कसी भी अंक म बा तः कोई य
वभाजन नह रखा गया है य प य-प रवतन क
सूचना य -त अव य दे द जाती है। ेम, ववाह और
से स के े म वघ टत जीवन मू य क अ भ
के लए म जी ने श पगत नवीनता को अपनाया है।
पा सम या के स ब ध म तकमूलक वाद- ववाद करते
ए दखाई दे ते ह। काय- ापार के अभाव से इनके
नाटक म ता आ गई। जसके फल व प
भावा व त ख डत हो गई। रसा मकता, भाव व त
के थान पर बौ क आ ोश और उ ेजना ही इनके
नाटक म धान है। ले कन भावुकता के कारण इनके
नाटक का श पगत गठन भा वत आ है। इस
अ त वरोध के रहते ए भी इनके नाटक अकला मक
नह कहे जा सकते।

उपे नाथ ‘अ क’ उन नाटककार म ह ज ह ने


सादो र काल म ना पर परा को नभ क और
बु नयाद यथाथ क मु ा दान क । काल- म के
अनुसार उनके मुख नाटक ह : ‘जय-पराजय’ (1937),
वग क झलक’ (1938, ‘छठा बेटा’ (1940), ‘कैद’
(1943-45), ‘उड़ान’ (1943-45), ‘भंवर’ (1943),
‘आ द माग’ (1950), ‘पैतरे’ (1952), ‘अलग-अलग
रा ते’ (1944-53), ‘अंजो द द ’ (1953-54), ‘आदश
और यथाथ’ (1954) आ द। अ क के ायः सभी
नाटक म वक सत ना -कला के दशन होते ह। व तु-
व यास क से इनके नाटक सुग ठत, वाभा वक,
स तु लत एवं चु त बन पड़े ह। उ च म य वग य समाज
क ढ़य , बलता , उनके जीवन म ात
‘कृ मता’, दखावे और ढ ग का पदाफाश करना उनके
नाटक का मूलभूत क य है। यह क य समाज के थूल
यथाथ से स ब धत है। क य क थूलता और सतही
ग तशील यथाथवा दता ही अ क के नाटक क सीमा
है, तथा प व छ दतावाद वृ के स मोहन से ह द
नाटक को मु करने का ेय भी उ ह को ा त है।
उनक वशेषता इस बात म है क उ ह ने जीवन और
समाज को एक आलोचक क से दे खा है। इनके
अनेक नाटक मं चत तथा रे डयो पर सा रत हो चुके ह।
इनका योगदान ह द नाटक और रंगमंच के लए एक
वशेष उपल ध है।

आलो य-युग म कुछ पुराने खेमे के नाटककार यथा :


सेठ गो ब ददास, ल मी नारायण म , ह रकृ ण ेमी,
गो व द व लभ पंत, उदयशंकर भ , जग ाथ साद
‘ म ल द’ आ द भी ना सा ह य को समृ करते रहे।
सेठ गो व ददास के ‘कण’ (1942), श श गु त (1942)
आ द पौरा णक नाटक और ‘ हसा और अ हसा’
(1940), स तोष कहाँ (1941) आ द सामा जक
नाटक क रचना क । ह रकृ ण ेमी के ‘छाया’ (1941)
और ब धक (1940), सामा जक नाटक ह। दोन
नाटक म आ थक शोषण एवं वषमता का यथाथ
मुख रत है। ऐ तहा सक नाटक म ‘आ त’ (1940),
व भंग (1940), वषपान (1945), साँप क सृ ,
उ ार आ द उ लेखनीय ह। ‘अमृत-पु ी’ (1978),
नवीनतम ऐ तहा सक नाटक ह। गो ब द व लभ पंत ने
आलो य युग म ‘अ तःपुर का छ (1940), ‘ स र
ब द ’ (1946) और ‘यया त’ (1951) नाटक क
रचना क । प त जी ने ‘कला के लए कला’ क भावना
से े रत होकर नाटक क रचना अव य क है, क तु
उनके नाटक उ े य से र हत नह ह। उ ह ने जीवन क
गहरी उलझन एवं सम या को बड़ी सू मता से
च त कया है। पंत ने य प साद-युग क पर परा
का नवाह कया है, क तु उनके परवत नाटक म
सामा जक चेतना अ धका धक मुखर होती गई है।
ल मीनारायण म ने ‘ग ड़ वज’ (1945), ‘नारद क
वीणा’, ‘व सराज’ (1950) ‘दशा मेघ (1950),
‘ वत ता क लहर’ (1953), ‘जगदगु ’, च ूह
(1953), क व भारते (1955), ‘मृ यु× य’ (1958)
च कूट, अपरा जत, धरती का दय आ द नाटक क
रचना क । सभी नाटक म वतमान युग के श त
य क सम या , उनक संशया मक मनः थ त,
उनक कुंठा और मान सक वकृ तय का वाभा वक
और मनो व ेषणा मक च ण कया गया है।
उदयशंकर भ के नाटक म ‘राधा’ (1961), ‘अ तहीन-
अ त’ (1942) ‘मु पथ’ (1944) ‘शक वजय’
(1949), कालीदास (1950) ‘मेघ त’ (1950),
व मोवशी (1950), ‘ ां तकारी’ (1953), ‘नया
समाज’ (1955), पावती (1962), म यगंधा (1976),
आ द ह। भ जी के ऐ तहा सक और पौरा णक नाटक
क मूल ेरणा रा ीयता है। इसम इ तहास और मथक
के बीच म यथाथ और सम या का अहसास भी दखाई
दे ता है। सामा जक नाटक के मा यम से भ जी ने
वतमान जीवन के गत एवं समाजगत संघष एवं
सम या का यथाथ च ण कया है। जग ाथ साद
म ल दका ‘समपण’ (1950) और ‘गौतम न द’
(1952) या त ा त रचनाएं ह। इनके अ त र कई
अ य सा ह यकार ने भी नाटक के े म अवतरण
कया, क तु उ ह वशेष सफलता नह मली। इनम
बैकु ठनाथ गल, वृ दावनलाल वमा, सीताराम
चतुवद , चतुरसेन शा ी, जग ाथ साद म ल द आ द
उ लेखनीय ह।
इसी काल म वतं ता के बाद ह द नाटक म प रवतन
क एक नई थ त दखाई दे ती है। सादो र नाटक के
पहले चरण म यथाथवाद वृ से अनु ा णत आ
और उसके साथ ही सम यामूलक नाटक का आ वभाव
आ। क तु वतं ता के बाद सामा जक यथाथ और
सम या के त जाग कता के साथ-साथ नाटक के े
म क य और श प के कई नए आयाम उभरे। इसके
अतर थूल यथाथ के त नाटककार के कोण
म भी अ तर आया।

युगीन प रवेश के ऐ तहा सक संदभ म पाँचव दशक


तक जीवन के सम या संकुल होने पर भी आम जनता
क थ त म सुधार और प रवतन आने क अभी धुँधली
सी आशा दखाई दे रही थी पर तु छठे दशक के बाद से
मीठे मोहक सपने वालू क भीत क भां त ढह गए,
प रवेश का दबाव बढ़ा, मोहास भंग ई और आज
प रवेशगत यथाथ अ धक नंगा होकर सामने आ रहा है।
यथाथ बोध का सही अ भ ाय मोहभंग क इस या
से ही जोड़ा जा सकता है। जगद श च माथुर, ल मी
नारायण लाल आ द नाटककार ने अपनी ऐ तहा सक
एवं सामा जक रचना ारा कुछ सीमा के साथ
यथाथ का प रचय दया। ‘जगद शच माथुर’ के
चार नाटक का शत ए ह : ‘कोणाक’ (1954), ‘पहला
राजा’ (1969), शारद या तथा ‘दशरथन दन’। इन
नाटक म मशः मा स एवं फायड के भावसू को
आ मसात करते ए छायावाद रोमानी कथा थ तय
क सृ करने म माथुर क यथाथवाद एवं
आदशवाद , क पना तथा व छ दतावाद भावुकता को
एक साथ हण करती है। प रणामतः उनके नाटक म
अ त न हत सम याएं जीवन के यथाथ को ा या यत
करते ए भी यथाथवाद कला श प म तुत नह ई
ह। सम या का व ेषण एवं वकास बौ क एवं
ता कक या ारा े रत नह है। कोणाक म कलाकार
एवं स ा के संघष क सम या धमपद के ता कक
उपकथन के मा यम से व े षत ई ह। पर तु
‘शारद या’ एवं ‘पहला-राजा’ क सम याएं ग तशील
एवं ”◌ासशील मू य के संघष क भू म पर अवत रत
होते ए भी बौ क एवं ता कक या के अभाव म
यथाथवाद कला क से हमारी च तन श को
उ नह करती य क माथुर का वशेष बल
आ त रक अनुभू तय एवं मानवीय संवेदना को जगाने
पर है। फल व प उ ह ने का ा मकता एवं रसो कष
के साधन का सहारा लया है। अपनी वचारधारा के
अनु प ही जगद श चं माथुर ने नाटक य कला को
सं कृत एवं लोकना तथा यथाथवाद मंच क
वशेषता से अ भमं डत कया है। का -त व,
अलंकरण एवं रस प रपाक से स ब ध त त व उ ह ने
सं कृत नाटक से हण कए ह। संघष, अ त का
त व पा ा य यथाथवाद नाटक श प का भाव है।
सं ेप म, एक ऐसे मंच क प रक पना पर उनका यान
के त रहा है जो ब मुखी हो, एक ही शैली म सी मत
नह हो, भ - भ सामा जक आव यकता और
चेतना का प रचायक हो।

वतं ता के बाद ह द नाटक ने पा ा य भाव से जो


नये आयाम हण कए उनक थम अ भ धमवीर
भारती के ‘अ धायुग’ म कट ई है। प म म दो
महायु के बाद नाटक के े म क य और श प के
अनेक योग ए। इसके साथ ही यु क प र थ तय
के कारण जीवन मू य म भी जो बड़ा भारी प रवतन
आया उसक अ भ भी नाटक म ई। भारत म
समाना तर सामा जक प र थ त तो नह आई क तु
प म क वचारधारा का उस पर भाव पड़े बना न
रहा। नई क वता और नई कहानी उससे अनु ा णत थी
ही, ह द नाटक को भी उससे एक दशा मली। ऐसी
थ त म आधु नक भाव-बोध को उजागर करने का
यास आऔर धमवीर भारती, ल मी नारायण लाल,
मोहन राकेश आ द नाटककार ने उसम मह वपूण
भू मका नभाई।

डॉ. धमवीर भारती के ‘अ धा युग’ (1955) गी त-नाटक


ने ह द गीत ना -पर परा को एक नया मोड़ दया है।
इसम नाटककार ने महाभारत के यु को अनी त,
अमयादा और अ र्-स य से यु माना है। इसी लए
उ ह ने इस काल को अ धायुग कहा है। इस नाटक म
मथक य प त ारा वगत और आगत का सम वय
कर, नर तरता म आ था उ प करने का सघन यास
‘भारती’ ने कया है। इसम अ त ववाद दशन क प
झलक मलती है। ‘अ धायुग’ के अ त र सु म ान दन
प त के ‘रजत शखर’, ‘ श पी’ और ‘सौवण’ म संगह
ृ ीत
गी तना , गरजाकुमार माथुर का ‘क पा तर’, सृ क
सांझ और अ य का -नाटक’ म संगह
ृ ीत स ा त
कुमार के पांच गी तना -सृ क साँझ, लोह दे वता,
संघष, वकलांग का दे श और बादली का शाप तथा
य तकुमार के गी तनाटक ‘एक क ठ वषपायी’
(1963) आ द भी वशेष उ लेखनीय ह। डॉ. ल मी
नारायण लाल के ह : ‘अ धा कुआँ’ (1955), ‘मादा
कै टस’ (1959), ‘तीन आँख वाली मछली’ (1960),
‘सु दर रस’, ‘सूखा सरोवर’ (1960), र कमल
(1961), ‘रात रानी’ (1962), ‘दपण’ (1963)’
‘सूयमुख’ (1968), ‘कलंक ’, ‘ म टर अ भम यु’
(1971), ‘कर यू’ (1972) आ द। ‘अ धा कुआँ’ म
आ थक संघष के कारण उ प ा य-जीवन के
सामा जक और पा रवा रक का च ण है। ‘मादा
कै टस’, ‘सु दर रस’, ‘सूखा सरोवर’ और ‘र कमल’
उनके तीक नाटक ह। ‘तोता मैना’ नाटक टे कनीक के
नये योग को तुत करता है। यह नाटक लोकवृ पर
आधा रत है। ‘दपण’ और ‘रातरानी’ सम या नाटक ह।
दपण म मनु य को अपने वा त वक प क तलाश म
भटकते ए दखाया गया है। ‘कलंक ’ नाटक म अनेक
ज टल यथा स ां त कालीन लोकचेतना को तुत
करना, आज के समय म भी कमका ड, अ ध व ास,
दे खना, यथाथ का सामना करने से कतराना आ द को
लोकरंगमंचीय सं कृ त, अ भ ंजनावाद ना -संरचना
म तुत कया गया है। ‘सूय-मुख’ म महाभारत-यु के
बाद क घटना ली गयी है। इस नाटक पर ‘अ धायुग’
और ‘कनु या’ क प छाप है। ‘ म टर अ भम यु’ और
‘क यू’ आधु नक जीवन क संवेदना को लेकर लखे
गये वचारो ेजक नाटक ह। डॉ. लाल अपने चार ओर
के प रवेश और युग जीवन के त सजग ह। उनका
ल य समाज क व पता को संयम और तक के साथ
च त कर समाज को बदलते जीवन-मू य और नै तक
मानदं डो से अवगत कराना है।

ह द नाटक म ां तकारी प रवतन लाकर ‘मोहन


राकेश’ ने एक नये युग क थापना क है। उनका
‘आषाढ़ का एक दन’ (1956), ‘लहर के राजहंस
(1963) तथा ‘आधे-अधूरे’ (1969) नाटक न य ही
ऐसे आलोक त भ ह जो सु र भ व य म भी ह द -
नाटक को एक नवीन ग त- दशा दान करते रहगे।
मानवीय स ब ध म वघटन के कारण टू टते ए
के आ यंतर यथाथ का च ण करना इन नाटक का
के य क य एवं मूल वर है। ‘आषाढ़ का एक दन’
क व का लदास और उसक बाल-सं गनी म लका के
ेम और संघष क कथा पर आधा रत है। का लदास
अपने प रवेश एवं म लका से कट जाने के कारण
जीवन के नये अथ क तलाश म नकल पड़ता है। ‘लहर
के राजहंस’ अ घोष के स महाका ‘सौ दरान द’
पर आधा रत है। इस नाटक म न द सु दरी और गौतम
दोन से नरपे हो जाने के बाद अलगाव क थतम
आंत रक स य क तलाश करने के लए चल पड़ता है।
उनका जीवन-बोध अ त ववाद क वैचा रक भू मका
पर ही उभरा है। राकेश क का यह यथाथ जीवन-
अथ क खोज तक ही सी मत है। कसी प रण त तक
प ंचना राकेश का अभी भी नह है। इसी कारण उनके
सम त नाटक का समापन कसी न त अ त पर प ंच
कर नह होता। ‘आधे-अधूरे’ ारा आधु नक जीवन से
सा ा कार कराया गया है, इसम महानगर के म यम
वग य प रवार का च ण है। आज के प रवार क टू टन
और चुक गये आपसी स ब ध को नाटक म बड़े सश
ढं ग से तुत कया गया है। अ तु, राकेश ने अपनी
ना -सृ म अ त न हत यथाथ को पकड़ने क चे ा
क है। सभी नाटक रंगमंचीय स भावना से पूण है।
साद जी के बाद सवा धक सश नाटककार हम
राकेश को कह सकते ह। उ ह ने अतीत के सघन कुहासे
और अपने समसाम यक जीवन के अ धे-ग लयार म
भटक कर सभी तर पर अपनी ना कला को पूणतया
आधु नक रखा है।

मोहन राकेश के बाद जस नाटककार के त व ास


जागता है, वह है ‘सुरे वमा’। उनके नाटक म ‘ ोपद ’,
‘सूय क अ तम करण से पहली करण तक’, ‘आठवां
सग’ आ द उ लेखनीय ह। थम नाटक म आधु नक
नारी क मनः थ त का च ण पुराने मथक- तीक के
मा यम से बड़ी सफलतापूवक कया गया है। ‘सूय क
अ तम करण से पहली करण तक’ का आधार छ
इ तहास ह, पर इसम लेखक ने एक पौ षहीन के
ववाह ब धन म पड़ी नारी क शा त सम या को
आधु नक भाव-बोध के साथ उठाने का यास कया है।
आठवाँ सग’ का लदास के जीवन और लेखन पर
आधा रत है और उसका क य लेखक य वातं य क
आधु नक चेतना को उजागर करता है।

व था के संदभ म समाज एवं के बा एवं


आंत रक यथाथ का च ण करना नये नाटककार के
नाटक का के य क य लगता है। जमोहन शाह के
‘ शंकु’, ानदे व अ नहो ी के ‘शुतुरमुग’, सव र दयाल
स सेना के ‘बकरी’ आ द नाटक म स ा के छ और
पाखंडो का ही पदाफाश कया है। अधुनातन नाटककार
मु ारा स, ल मीकांत वमा, म ण मधुकर, शंकर शेष
और भी म साहनी भी मशः अपने नाटक ‘योअस-
फेथ-फु ली’, ‘त आ’, ‘मरजीवा’, ‘रोशनी एक नयी है’,
‘रसग धव’, ‘एक और ोणाचाय’ तथा ‘हानूश’ के मा यम
से इ ह से जूझ रहे ह। इ ह ने जहाँ एक ओर वग-
वैष यो क चेतना को जा त करके व था के
ासशील प का यथाथ च ण कया है वह स ा के
दबाव म पस रहे आम आदमी क क ण नय त और
उससे उ प सं ास का भी पायन कया है। इस तरह
नाटक सीधे ज दगी क शत से जुड़े और उनक
वषमता के साथ जूझते क यं णा उसके
भीतर यथाथ को रंग-मा यम से तुत करने का बीड़ा
उठाते ह। बदलाव क चेतना और आकुलता को उजागर
करने के सश क य से ही ह द के रचना मक ना
के लए शुभार भ क थ त मानी जा सकती है। नये
नाटककार स यदे व ‘ बे, रमेश उपा याय, रामे र ेम,
शरद जोशी, ग रराज, सुशील कुमार सह, बलराज
पं डत, मृ ला गग, सुदशन चोपड़ा नये नाटक लखकर
आंत रक यथाथ बोध क संपु म योग दे रहे ह। अभी
हाल ही म कुछ नाटक का शत ए ह :
भात कुमार भ ाचाय का ‘काठ महल’, गंगा साद
वमल का ‘आज नह कल’, यदश काश का ‘स य
सांप’, रमेश ब षी का ‘वामाचरण’, भगवतीचरण वमा
का ‘वसीयत’, इ जीत भा टया का ‘जीवन द ड’ सुदशन
चोपड़ा का ‘काला पहाड़’ शव साद सह का ‘घा टयां
गूंजती ह’ नरेश मेहता का ‘सुबह के घ टे ’ ानदे व
अ नहो ी का ‘नेफा क एक शाम’ अमृतराय क
‘ व दय क एक झलक’ गो व द चातक का’ अपने
अपने खूंटे’ व पन कुमार अ वाल का ‘लोटन’,
व णु भाकर का ‘टगर’, सुरे वमा का ‘ ोपद ’ और
‘आठवाँ सग’ भी म साहनी का ‘क बरा खड़ा बाजार म’,
राजे साद का ‘ ती तय के बाहर’ और ‘चेहर का
जंगल’ आ द। इन नाटक म जो सामा य वृ यां उभर
कर आई ह वे इस कार ह : आकार म छोटे , वतमान
जीवन से उनका स ब ध, व तुवाद का ाधा य,
अ धकांश मनोवै ा नक और सम या मक, रंगमंचीय
संकेत का बा य संकलन य के पालन क वृ
आ द। इनम से अ तमन क स चाइय को नकार कर
तट थता का मुखौटा लगा लेने का उपदे श दे ने वाले
नाटककार कहां तक सफल हो पायगे, इसका सही
मू यांकन उनक आने वाली कृ तय से ही लग सकेगा।

कसी भी रचना क स पूणता क य और श प के


सानुपा तक कला मक संयोजन म न हत रहती है।
ह द नाटक म इन दोन त व के बीच तालमेल क
थ त पर य द वचार कया जाए तो ह द के ब त कम
नाटक इस तर तक ऊंचे उठ पाते ह। जब तक रंग जगत
म वे सफल नह होते, उ ह अथवान सा बत नह कया
जा सकता। यह एक सुखद संयोग है क ह द रंगमंच
ापक तर पर रा ीय रंगमंच क भू मका म याशील
है। आज के ह द नाटक क उपल ध पर वचार कया
जाए तो यह न कष नकलता है क ह द नाटक ने
अपनी नरथकता और कलाहीनता के घेरे को तोड़कर
उ लेखनीय सजना मकता ा त करने क दशा म
कदम बढ़ाया है। और अब ना लेखन केवल सतही
सामा जक उ े यपरकता के आसपास च कर नह
काटता ब क गहरी या मूलभूत मानवीय अनुभू त या
थ तय का स धान करता है। इन नाटक क सबसे
बड़ी वशेषता यह है क वे जीवन और समाज क
वसंग तय को उभारते ह, पीड़ा सं ास और
अजनबीपन के बीच आज के मानव क दयनीय नय त
को रेखां कत करते ह। वतं ता के बाद नाटक
आधु नक युग बोध के साथ ही जुड़ता नह दखाई दे ता,
वरन् रंग श प के त अ धक जाग क भी हो गया है।

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title= ह द _नाटक_का_इ तहास&oldid=9222" से लया गया
Last edited ३ years ago by an anonymous user

साम ी CC BY-SA 3.0 के अधीन है जब तक अलग से उ लेख


ना कया गया हो।

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