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गणाधीश जो ईश सर्वां गुणांचा। मना श्रेष्ठ धारिष्ट जीवीं धरावे।

मुळारंभ आरंभ तो निर्गुणाचा॥ मना बोलणे नीच सोशीत जावें॥


नमूं शारदा मूळ चत्वार वाचा। स्वयें सर्वदा नम्र वाचे वदावे।
गमूं पंथ आनंत या राघवाचा॥१॥ मना सर्व लोकांसि रे नीववावें॥७॥

मना सज्जना भक्तिपंथेचि जावें। देहे त्यागितां कीर्ति मागें उरावी।


तरी श्रीहरी पाविजेतो स्वभावें॥ मना सज्जना हेचि क्रीया धरावी॥
जनीं निंद्य तें सर्व सोडू नि द्यावें। मना चंदनाचे परी त्वां झिजावे।
जनीं वंद्य ते सर्व भावे करावे॥२॥ परी अंतरीं सज्जना नीववावे॥८॥

प्रभाते मनी राम चिंतीत जावा। नको रे मना द्रव्य ते पूढिलांचे।


पुढे वैखरी राम आधी वदावा॥ अति स्वार्थबुद्धी नुरे पाप सांचे॥
सदाचार हा थोर सांडूं नये तो। घडे भोगणे पाप ते कर्म खोटे।
जनीं तोचि तो मानवी धन्य होतो॥३॥ न होतां मनासारिखें दु:ख मोठे ॥९॥

मना वासना दुष्ट कामा न ये रे। सदा सर्वदा प्रीती रामीं धरावी।
मना सर्वथा पापबुद्धी नको रे॥ दुःखाची स्वयें सांडि जीवी करावी॥
मना धर्मता नीति सोडूं नको हो। देहेदु:ख ते सूख मानीत जावे।
मना अंतरीं सार वीचार राहो॥४॥ विवेके सदा स्वस्वरुपीं भरावें॥१०॥

मना पापसंकल्प सोडू नि द्यावा। जनीं सर्वसूखी असा कोण आहे।


मना सत्यसंकल्प जीवीं धरावा॥ विचारें मना तुंचि शोधुनि पाहे॥
मना कल्पना ते नको वीषयांची। मना त्वांचि रे पूर्वसंचीत के ले।
विकारे घडे हो जनी सर्व ची ची॥५॥ तयासारिखे भोगणें प्राप्त जाले ॥११॥

नको रे मना क्रोध हा खेदकारी। मना मानसीं दु:ख आणूं नको रे।
नको रे मना काम नाना विकारी॥ मना सर्वथा शोक चिंता नको रे॥
नको रे मना लोभ हा अंगिकारू। विवेके देहेबुद्धि सोडू नि द्यावी।
नको रे मना मत्सरु दंभ भारु॥६॥ विदेहीपणें मुक्ति भोगीत जावी॥१२॥
मना सांग पां रावणा काय जाले। मना सर्वथा सत्य सांडूं नको रे।
अकस्मात ते राज्य सर्वै बुडाले॥ मना सर्वथा मिथ्य मांडूं नको रे॥
म्हणोनी कु डी वासना सांड वेगीं। मना सत्य ते सत्य वाचे वदावे।
बळे लागला काळ हा पाठिलागी॥१३॥ मना मिथ्य तें मिथ्य सोडू नि द्यावें॥१९॥

जिवा कर्मयोगे जनीं जन्म जाला। बहू हिंपुटी होईजे मायपोटी।


परी शेवटीं काळमूखीं निमाला॥ नको रे मना यातना तेचि मोठी॥
महाथोर ते मृत्युपंथेचि गेले। निरोधें पचे कोंडिले गर्भवासी।
कितीएक ते जन्मले आणि मेले॥१४॥ अधोमूख रे दु:ख त्या बाळकासीं॥२०॥

मना पाहतां सत्य हे मृत्युभूमी।


जितां बोलती सर्वही जीव मी मी॥
चिरंजीव हे सर्वही मानिताती।
अकस्मात सांडू निया सर्व जाती॥१५॥

मरे एक त्याचा दुजा शोक वाहे।


अकस्मात तोही पुढे जात आहे॥
पुरेना जनीं लोभ रे क्षोभ त्याते।
म्हणोनी जनीं मागुता जन्म घेते॥१६॥

मनीं मानवा व्यर्थ चिंता वहाते।


अकस्मात होणार होऊनि जाते॥
घडें भोगणे सर्वही कर्मयोगे।
मतीमंद तें खेद मानी वियोगें॥१७॥

मना राघवेंवीण आशा नको रे।


मना मानवाची नको कीर्ति तूं रे॥
जया वर्णिती वेद-शास्त्रे-पुराणें।
तया वर्णितां सर्वही श्लाघ्यवाणे॥१८॥
“मध्यमा” वह शब्द जिन का उच्चारण ना हो जिन्हें कोई सुन ना सके जैसे नाम जाप किया जाता है ।
“पश्यन्ती” पश्यन्ति में शब्दों को देखा जाता है । जैसे मंत्र दृष्टा ऋषि महर्षियों ने मंत्रों को देखा ।

https://theholisticcare-com.translate.goog/four-stages-of-sound-para-pasyanti-madhyama-vaikhari/?
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October 15, 2007 0 Comments Kundalini Yoga by Swami Shivananda

The Vedas form the sound-manifestation of Ishvara. That sound has four divisions,— Para which finds manifestation only in Prana, Pasyanti which finds
manifestation in the mind, Madhyama which finds manifestation in the Indriyas, and Vaikhari which finds manifestation in articulate expression.

Articulation is the last and grossest expression of divine sound-energy. The highest manifestation of sound-energy, the primal voice, the divine voice is
Para. The Para voice becomes the root-ideas or germ-thoughts. It is the first manifestation of voice. In Para the sound remains in an undifferentiated
form. Para, Pasyanti, Madhyama and Vaikhari are the various gradations of sound. Madhyama is the intermediate unexpressed state of sound. Its seat
is the heart.

The seat of Pasyanti is the navel or the Manipura Chakra. Yogins who have subtle inner vision can experience the Pasyanti state of a word which has
colour and form, which is common for all languages and which has the vibrating homogeneity of sound. Indians, Europeans, Americans, Africans,
Japanese, birds, beasts—all experience the same Bhavana of a thing in the Pasyanti state of voice or sound. Gesture is a sort of mute subtle language.
It is one and the same for all persons. Any individual of any country will make the same gesture by holding his hand to his mouth in a particular
manner, when he is thirsty. As one and the same power or Shakti working through the ears becomes hearing, through the eyes becomes seeing and so
forth, the same Pasyanti assumes different forms of sound when materialised. The Lord manifests Himself through his Mayaic power first as Para Vani
in the Muladhara Chakra at the navel, then as Madhyama in the heart and then eventually as Vaikhari in the throat and mouth. This is the divine
descent of His voice. All the Vaikhari is His voice only. It is the voice of the Virat Purusha. — SRI SWAMI SIVANANDA A DIVINE LIFE SOCIETY

https://bharatdiscovery.org/india/श्रीमद्भागवत_महापुराण_एकादश_स्कन्ध_अध्याय_12_श्लोक_14-21

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: द्वादशोऽध्यायः श्लोक 14-21 का हिन्दी अनुवाद

इसलिये उद्धव! तुम श्रुति-स्मृति, विधि-निषेध, प्रवृत्ति-निवृत्ति और सुनने योग्य तथा सुने हुए विषय का भी परित्याग करके सर्वत्र मेरी ही भावना करते हुए समस्त प्राणियों के आत्मस्वरूप
मुझ एक की ही शरण सम्पूर्ण रूप से ग्रहण करो; क्योंकि मेरी शरण में आ जाने से तुम सर्वथा निर्भय हो जाओगे । उद्धवजी ने कहा—सनकादि योगेश्वरों के भी परमेश्वर प्रभो! यों तो मैं
आपका उपदेश सुन रहा हूँ, परन्तु इससे मेरे मन का सन्देह मिट नहीं रहा है। मुझे स्वधर्म का पालन करना चाहिये या सब कु छ छोड़कर आपकी शरण ग्रहण करनी चाहिये, मेरा मन इसी
दुविधा में लटक रहा है। आप कृ पा करके मुझे भलीभाँति समझाइये । भगवान श्रीकृ ष्ण ने कहा—प्रिय उद्धव! जिस परमात्मा का परोक्षरूप से वर्णन किया जाता है, वे साक्षात् अपरोक्ष—प्रत्यक्ष ही
हैं, क्योंकि वे ही निखिल वस्तुओं को सत्ता-स्फू र्ति—जीवन-दान करने वाले हैं, वे ही पहले अनाहत नादस्वरूप परा वाणी नामक प्राण के साथ मूलाधार चक्र में प्रवेश करते हैं। उसके बाद
मणिपूरक चक्र (नाभि-स्थान) में आकर पश्यन्ती वाणी का मनोमय सूक्ष्मरूप धारण करते हैं। तदनन्तर कण्ठदेश में स्थित विशुद्ध नामक चक्र में आते हैं और वहाँ मध्यमा वाणी के रूप में
व्यक्त होते हैं। फिर क्रमशः मुख में आकर हृस्व-दीर्घादि मात्र, उदात्त-अनुदात्त आदि स्वर तथा ककारादि वर्ण रूप स्थूल—वैखरी वाणी का रूप ग्रहण कर लेते हैं । अग्नि आकाश में उष्मा
अथवा विद्युत् के रूप से अव्यक्त रूप में स्थित है। अब बलपूर्वक काष्ठ मन्थन किया जाता है, तब वायु की सहायता से वह पहले अत्यन्त सूक्ष्म चिनगारी के रूप में प्रकट होती है और फिर
आहुति देने पर प्रचण्ड रूप धारण कर लेती है, वैसे ही मैं भी शब्दब्रम्हस्वरूप से क्रमशः परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में प्रकट होता हूँ । इसी प्रकार बोलना, हाथों से का
करना, पैरों से चलना, मूत्रेन्द्रिय तथा गुदा से बल-मूत्र त्यागना, सूँघना, चखना, देखना, छू ना, सुनना, मन से संकल्प-विकल्प करना, बुद्धि से समझना, अहंकार के द्वारा अभिमान करना,
महतत्व के रूप में सबका ताना-बाना बुनना तथा सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण के सारे विकार; कहाँ तक कहूँ—समस्त कर्ता, करण और कर्म मेरी ही अभिव्यक्तियाँ हैं । यह सबको जीवित
करने वाला परमेश्वर ही इस त्रिगुणमय ब्रम्हाण्ड-कमल का कारण है। यह आदि पुरुष पहले एक और अव्यक्त था। जैसे उपजाऊ खेत में बोया हुआ बीज शाखा-पत्र-पुष्पादि अनेक रूप धारण
कर लेता है, वैसे ही कालगति से माया का आश्रय लेकर शक्ति-विभाजन के द्वारा परमेश्वर ही अनेक रूपों में प्रतीत होने लगता है । जैसे तागों के ताने-बाने में वस्त्र ओतप्रोत रहता है, वैसे
ही यह सारा विश्व परमात्मा में ही ओतप्रोत है। जैस सूत के बिना वस्त्र का अस्तित्व नहीं है, किन्तु सूत वस्त्र के बिना भी रह सकता है, वैसे ही इस जगत् के न रहने पर भी परमात्मा रहता
है; किन्तु यह जगत् परमात्मास्वरूप ही है—परमात्मा के बिना इसका कोई अस्तित्व नहीं है। यह संसार वृक्ष अनादि और प्रवाह रूप से नित्य है। इसका स्वरूप ही है—कर्म की परम्परा तथा इस
वृक्ष के फल-फू ल हैं—मोक्ष और भोग।

https://kalchiron-blogspot-com.translate.goog/2020/12/para-pashyanti-madhyama-vaikhari-four.htm

धर्म में "वाणी" की चार "परतें" हैं।


1. वैखरी : वह जिसमें हम रोजमर्रा की बातों पर चर्चा करते हैं। उत्पत्ति - इन्द्रियाँ
2. मध्यमा : जिसे हम महत्वपूर्ण आधिदैविक विचार करने के बाद उच्चारित करते हैं। उत्पत्ति - मानस/बुद्धि
3. पश्यन्ति: वाणी जो हमारी प्रकृ ति के सबसे गहरे मूल से उत्पन्न होती है। उत्पत्ति - अहंकार
4. परा : वह वाणी जो सीधे चेतना से आती है। ऋषि। पुरुष. आत्मा. यह वाणी प्रकृ ति के परे से आती है।

https://sanskritastronomy.com/vaikhari-madhyama-pashyanti/
इस ब्रह्मांडमें चार प्रकार की वाणी है । वैखरी , मध्यमा , पश्यंती ओर परावाणी ।

https://vaigyanik-bharat.blogspot.com/2010/06/blog-post_5586.html

ध्वनि तथा वाणी विज्ञान : सात सुरों का भारतीय संसार


चत्वारि वाक्‌परिमिता पदानि
तानि विदुर्व्राह्मणा ये मनीषिण:
गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति
तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥
ऋग्वेद १-१६४-४५
अर्थात्‌वाणी के चार पाद होते हैं, जिन्हें विद्वान मनीषी जानते हैं। इनमें से तीन शरीर के अंदर होने से गुप्त हैं परन्तु चौथे को अनुभव कर सकते हैं। इसकी विस्तृत व्याख्या करते हुए
पाणिनी कहते हैं, वाणी के चार पाद या रूप हैं-
१. परा, २. पश्यन्ती, ३. मध्यमा, ४. वैखरी

(१)वाणी की उत्पत्ति (२) वाणी की अभिव्यक्ति (३) स्वर विज्ञान

https://sanskritdocuments.org/marathi/documents/manshk_all_sa.html

श्री दासानुदास कृ त संस्कृ त अनुवाद

मराठी मूळ मनाचे श्लोक, शब्दार्थ, श्लोकार्थ

डाॅ सुन्दर हट्टंगडी कृ त इंग्लिश अनुवाद ॥

॥ जय जय रघुवीर समर्थ ॥

https://groups.google.com/g/bvparishat/c/u7kKM2oE99g/m/YHaE30pdBQAJ?utm_medium=email&utm_source=footer

वैदिक युग के ऋषियों ने वाणी को चार भागों में बाँटा है- (1) वैखारी वाणी (2) मध्यमा वाणी (3) पश्यंती वाणी और (4) परा वाणी।

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