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Holistic Healing

Prevention Is Always Better Than Cure

य ीय पदाथ तथा पा  प रचय

श◌्रौत- मा य म व वध योजन के लये पा क आव यकता होती है । जस कार कु ड बनाया जाता है, उसी कार इन
य -पा को न त वृ के का से, नधा रत माप एवं आकार का बनाया जाता है । व ध पूवक बने य -पा का होना य क
सफलता के लये आव यक है । नीचे कुछ य -पा का प रचय आव यक है । नीचे कुछ य -पा का प रचय दया जा रहा है ।
इनका उपयोग व भ य म, वभ शाखा एवं सू - ंथ के आधार पर दया जाता है ।
वेद म इनका उ लेख इस कार मलता है-

(1)अ नहो हवाणी


अ नहो हवाणी एक कार क सूची का ही नाम है । यह बा मा ल बी, आ हंसमुखी और चार अंगलु गत वाली होती है । इसम
ुवा से आ य लेकर अ नहो कया जाता है, जससे यह अ नहो -हवणी कही जाती है-
यशच कपाला न चाऽ गहो हवण च शूप च कृ ण जनं च श या चोलूखलं च मुसलं च ष चोपला चैता न वै दश य ायुधा न…
(तै.सं.1.6.8)

(2)अ त ा पा
सोमा भषव काल म द ण शकट के पास तीन पा , ऐ पा , सौयपा । इस पा -समूह को ही अ त ा भी कहा जाता है ।
का यायन ौतसू म ातः कालीन य म अ त ा को हण करने का उ लेख मलता है-
ातः सवनेऽ त ा ा गृही वा (का. ौ.14.1.26)
धु्रवसद म त तम म त ा गृही वा (का. ौ.14.2.1 वीयाय)
इ य त ा ं वा षोड शनं वावे ते (बौ. ौ.14.8)

(3)अदा य पा
यह सोमरस रखने का गूलर क लकड़ी का बना एक पा है, जो अ न ोम आ द याग म यु होता है । सोम के साथ अदा य नाम
उ लखत होता है-
य े सोमादा यं नाम जागृ त त मै ते सोम सोमाय वाहा (मै ा.सं. 1.3.4)

अथातोऽ शवदा ययोरेव हणम् । अ दा यौ ही य ुपक पयते, औ बरे नवे पा े णमदा यपा म् (बा. ौ.14.12)

(4) अ तधानकट
यह एक अधच ाकार य -पा है, गाहप य आ न पर प नी-संयाज (कमका ड- वशेष) करने के समय अ वयु ारा अपने और
यजमान-प नी के बीच रखा जाता है, उसी समय दे वप नय का आवाहन होता है । यह बारह अँगल
ु ल बा, छः अंगल
ु चौड़ा पा
होता है, जैसा क कहा गया-
अ तथानकटस वधच ाकारो ादशा लः ।

(5)अ
यह एक नोकदार (ती णमुख) वाले ड डे के आकार का तथा एक हाथ ल बा उपकरण है, जो वे दका-खनन के काम आता है । अ
क तुलना व से भी क गयी –
जो वाऽअ ः । (शत. ा.6.3.1.3.9)
अ ाममा वार मा ी बोभयतः णमृदं च अ तवे ा नदधा त । अ या हर त ऋ यासम मख य शरः इ त -
बौ. ौ.9.1.2. यजुवेद सं हता पाराश ांक

(6)अर ण-मंथन
अ नहो ी, जससे ौता न को कट करता है, उसे अर ण कहते ह । इसके चार अंग होते ह- अधरा ण उ रार ण, ओ वली और ने
। अधरार ण पर म थी रखकर अ न-मंथन कया जाता है । म थी म उ रार ण (ल बा का ) का टु कड़ा काटकर काम म लेते ह । इस
म थी को दबाने के लए ओवली (12 अँगल
ु ल बा का ) यु करते ह । मंथन म उपयोग म आने वाली डोरी को ने कहते ह ।
वापा प यौ रशनेअरणी अ धम थनःशकलोवृषणौ (शत. ा. 3.6.3.1()
यह सब मलकर अर ण-मंथन का उपकरण पूरा होता है ।
(7) अवट
कूप और गत के अथ म यु कया गया है । उखा नमाण के स बंध म इसका ववेचन होता है-
(यजु.11.61 उपट भा.)
हे अवट गत! अ त तदे वी पृ थ ाः सध थे सह थाने उप रभागे वा वां खनतु
-यजु.11.61
मही. भा. तदवटं प र ल खत (शत. ा. 3.8.1.4)

(8) अ स-
छे दने और वदारण काय म यु होने वाली लोहे कही नुक ली शलाका को ‘अ स’कहते ह । शतपथ ा ाण म व को ही अ स
कहा गया है- व ोवाऽअ सः (शत. ा. 3.8.2.12)
अ स वै शास इ याच ते (शत. ा.3.8.1.4)

(9) आ य
त त घृत क आ य कहा गया है । ुवा पा से ुची म लेकर आ य होम कया जाता है ।
रस प को भी आ य कहा गया है- रस आ यम् (शत. ा. 3.7.1.13)
दे वगण आ य से ही संतु होते ह-
एत ै जु ं दे वाना यदा यम् (शत.1.7.2.1)
अख ड हवन म सूया त के बाद के येक हर म मशः आ य, सतू, धाना और लाजा से हवन करने को कहा गया है-
आ यसू धानालाजानामेकै जुहो त (का. ौ.2(.4.32)

(10) आ य थाली
याग म आ य रखने के पा को आ य थाली कहते ह । आ य थाली म से व ु ा आ य जु म आठ ुवा उपभृत म और चार ुवा
ुवा म भरने को कहा गया है-
ुवेणा य हणं चतुजु ा . . . . । अ ावुपभू त. . । ुवया व जु वत ( का०- ो० 2.7.9.10.15)

(11)आ द य - ह
आ द य ह त थाता नाम ऋ वज् से स बंध है, जो ोणाकलश से सोम को आ द य ह म लेकर होम करते ह-
होमाय त थाता आ द यपा े ोणकलशशा पयामगृहीतेऽसीते गृही वा दे व याननुजुहो त (यजु.8.1 उ.भा.)
अ मे तृतीय सवनगता आ द य हा दमं ा उ य ते (यजु.8.1 मही.भा.)
आ द य ह रस-यु ही रहता है- अथैष सरसे हो यदा द य हः (कौषी. ा.16.1) आ द य ह से याग करने से गाय क वृ होती
है-
आ द य हं (अनु) गावः ( जाय ते) (तै .सं.6.5.1(.1)

(12)आस द
आसन या आ य फलक के अथ म यु ई है । औ बर, ख दर आ द का क मूँज क डोरी से बीनी ई खटौली को आस द
कहते ह । वाजपेय याग और स ामणी याग म यजमान को इस पर बठाकर उनका अ भषेक कया जाता है । अ न ोम याग म
धमपा रखने के लए धमास द और सोमपा रखने के लए सोमास द होती है । अ नचयन याग म इस पर उखा रखी जाती है ।
उ ाता राजा आ द को बठाकर अ भषेक करने क आस द उ ाता-आस द राजास द आ द कही जाती है-
पुर ता ा ास द वदास ां चतर ाड् याम् -का. ौ. 16.5.5 ।
आस द पर अ ध त होने क मह ा ा ण ंथ म द गयी है-
इयं वा आस या हीद सवमास म् अथात् यह आस द है, य क इस पर सब कुछ आस (रखा आ) है । (शत. ा. 6.7.1.12)

(13)इड़ापा ी
अधवयु, याग के बाद शेष बचे ह वदरर को इड़ापा ी म रखकर होता को दे ते ह । इड़ा पा ी म शेष इस को इडा कहते ह ।
होता ारा मं पाठ के अन तर ऋ वज् और यजमान इडा भ ण करते ह-
इडाहो े दाया वसृजन् द णाऽ त ाम त । (का. ौ. 3.4.5)
इडापा ी एक हाथ ल बी, छह अंगल ु चौड़ी एवं बीच म गहरी होती है ।

(14) इ का
अ नचयन के संग म इ का (ईट ) का योग होता है । च -संरचना ईट के मा यम से क जाती है । ट- नमाण क म म
राख का म ण उ चत होता है । च त- नमाण म वकृ त, भंग और अधपक ट के योग को न ष कहा गया है-
न भ न कृ णामुप यात् । (शत. ा. 8.7.16)
(15)उखा
म क बनायी मंजूषा को उखा कहते ह । अ नहो ी वनीवाहन कम म रखा पा म अ न को लेकर वास म जाते ह । उखा पा म
अंग यण भी होता है । उखा पा म अ न क थापना करके उसका भरण करना उखा संभरण कहलाता है-
उखा संभरणम याम् । (का. ौ.16.2.1 )
शतपथ ा. के अनुसार उखा क ऊँचाई, ल बाई और चौड़ाई एक ादे श (बा ल त) क होती है-
तां ादे शमा ीमेवो वाम् करो त । (शत. 6.5.2.8 )
इसे य क मूधा ( सरा) भी कहा गया है- शर एम ज य य खा (का.सं. 196 )

(16) उपभृत्
यह जु के नाप और आकार क अ थ (पीपल) का क बनी एक ुची है । जु का आ य समा त होने पर इसके आ य को जु
म लेकर आ त द जाती है-
आ युपभृत (का. ौ. 1.3.3.6)
आ य थाली म से चार ुवा आ य जु म आठ ुवा उपभृत म और चार ुवा धु्रवा म रखने का वधान है । जु के उ र म उपभृत
और उसके उ र म ुवा पा रखे जाते ह ।
वा प यम म भी इसे एक ु च भेद कहा गया है-
आ थे य ा पा भेदे ु च (वा.पृ 1233 )
पा ण यां जु ं प र ोपभृ या धानम् (आ .गृ.1.10.9 )

(17) उपयमनी
उपयमनी अ न- थापन करने का म का एक पा है । चातुमा य याग म अ वयु और त थाता गाहप य अ न म से इन पा
म अ न नकालकर उ रवेद और आहवनीय म अ न का थापन करते ह । जु से बड़े आकार क एक ुची भी उपयमनी
कहलाती है । उपयमनी से धमपा म आ य लेने का कहा गया है-उपयम या स च त धम (का. ौ. 26.6.1 )
वाच प यम् म इसका स बंध अ याधान स बताया गया है- अ याधाना सकतादौ ।
-वा.पृ. 1282
उपयमनी पक पय त (शत. ा. 3.5.2.1 )
उपयमनी प नवप त (का. ौ. 5.4.18 )

(18)उपयाम
उपयाम याग का का न मत एक ह पा है, जो सोम आ द व रखने के उपयोग म आता है- य ा े ह पे पा भेदे (वा.पृ. 1283
)
यजुवेद म उपयाम श द अनेक बार उ ल खत आ है- उपयाम गृहीतोऽ स -यजु. 7.4
वातं ाणेनापानेने ना सके उपयाममधरेण…. (युज. 25.2)
यही त य सं हता म भी उ ले खत है- उपयाममधरे णौ ेन (मै ा.सं.3.15.2)

(19) उपवेष (धृ )


यह य का एक का पा है । इसका आकार आगे से पंजे का और पीछे डंडे जैसा तथा नाप से एक हाथ ल बा होता है । अ नहो ी
इसका उपयोग खर क अ न को इधर-उधर हटाने म करते ह- अ ार वभजनरथे का े (वा.पृ. 1330। )
स उपवेषमादने धृ रसी त (शत. ा. 1.2.1.3 । )
धृ रसी युपवेषमादायापा न इ य रान् ाच. करो त (का. ौ. 2.4.25)
उपवेषोऽ ारापोहन समथ ह ताकृ त का म (का. ौ. 2.4.25 का.भा. )
पलाश शाखा के मूल को काटकर उपवेष नमाण करने को कहा गया है- मू पवेषं करो त का. ौ.4.2.12

(20)उपसजनी
ताँबे क जस बटलोई म याग के लए जल लया जाता है, जल स हत वह पा उपसजनी कहलाता है । उपसजनी (जलपा ) को
गाहप य अ न पर तपाना उपसजनी अ ध यण कहलाता है-
उपसजनीर ध य त का. ौ. 2.5.1 ।
इसके बाद इस इ वयु के नकट लाने को कहा गया है- उपसजनी राज य यः का. ौ.2.5.12

(21)उपांशु ( ह)
जन पा को हाथ म लेकर य -काय स प कया जाता है, उ ह ह कहते ह-
त दे नं पा वगृहणत् त माद् हा नाम-शत. ा. 4.1.3.5 अ वयु उपांशु ह से या क काय (सोमा त) करते ह-उपांशु यजुषा-
मै9ा. सं. 3.6.5 उपांशु ह को म से शु करके हवन करना चा हए-
उ रा पांशु जु यात् – क प. क.सं. 42.1 याग के बाद भी उसका स माजन कया जाता है- उपांशु हं वा पा माजन कुयात् – यजु.
7.3 मही. भा. । उपांशु सवन (ब ा को ) उपांशु ( ह) के नकट रखा जाता है ।

(22) उलूखल
उलूखल ह व प पदाथ को कूटने का एक का -पा है । पुरोडाश नमाण के न म जौ या ी ह भी इसी से कूटा जाता है ।
धा या दक डनसाधने का यमे पा े त च य यपा भेदःवा.पृ. 137( । का यायन ौत सू म उलूखल-मुसल का उ लेख मलता है-
ृ ीतमू वृ ं – का. ौ. 17.513
उलूखलमुसले वयमातृणामु रेणार नमा ेऽ औ बरे ादे श मा े चतुर मुलूखलं म यड् गह
अथोलूखलमुसलेऽ उपदधा त(शत. ा. 7.5.1.12)

(23) ऋतु ह
अ न ोम याग म ऋतु ह नामक उपयाम पा का समानयन कया जाता है? ऋतु ह से सोम रसा त द जाती है । इस काय के
ऋ वज् अ वयु और त थाता होते ह । ऋतु क सं या बारह है । अतएवं ऋतु ह से बारह सोम आ तयाँ सम पत क जाती
ह-ऋतु है रत ..
(का. ौ.9.13.1)
ादश वै मासा संव सर य त मात् ादशगृहणीयात् (शत. ा. 4.3.1. 5)
ऋत् ह से ातः सवन म आ तय का वधान है- ऋतु हैः ातः सवनमृतुमत ।
मै ा सं. 4.6.8
ऋतु ह क उ प सोम-पानक इ के साथ ई बताया गया है- सोमपा इ य सजाता यद् ऋतु हाः । क प. क. सं. 44.2
ऋतु ह पा से आ त दे ने पर ा णय क वृ होना बताया गया है-ऋतृपा मेवा वेकशफं जायते ।(शत. ा. 4.5.5.8)
(24) कर भपा
चातुमा य याग म त थाता जौ के आटे का कर भपा बनाता है । इसका आकार डम जैसा और नाप अंगु पव जतना होता है
। इनक सं या यजमान क जा (स तान) से एक अ धक रखी जाती है- तेषां कर भपा ा ण कुव त याव तो गृ ाः
मु ताव येकेना र ा न । (शत. ा. 2.5.2.14)
पूवे ुद णा नौ न तुषाम भृ यवानां कर भपा करणम् । याव तो यजमानगृ ा एका धका न ।(का. ौ. 5.3.2.3)

(25) कुश (दभ)


कुश का योग या क कृ य म वशेषतः कया जाता है । चार दशा म कुशक डका आ तरण एवं जल ो ण के न म
इसका योग होता है । शोधन-कारक होने के कारण इसे जल प भी माना गया है- आपो ह कुशा शत. ा. 1.3.1.3 । कुश का
पयायवाची श द दभ माना गया है । दभ को म युशमन करने वाला कहा गया है । दभ का औषधीय योग है- उभयं
दे तद य भा आप होता ओषधय या ।शत. ा. 7.2.3.2
अपां वा एतदोषधीन तेजो य भाः काठ.सं. 30.10
दभ क शु ता या क कृ य म मह पूण होती है- ते ह शु मे याः । शत. ा. 7.3.2.3

(26) ह पा
जन पा म हवन साम ी या व पदाथ रखे जाते ह, उ ह ह कहा गया है । सोमा भषव काल म नचोड़ ए सोम को एक करने के
लए इस ह पा को छ े के नीचे रखा जाता है- यद् गृ त त माद् हः (शत. ा. 10.1.1.5)
य तं (य म्) ह◌र्ै गृ त तद् हाणां हाणां ह वम् । (ऐत. ा. 3.9)
इनका प व ो ण करने के बाद इसे हण कर सोमा त द जाती है-तान् पुर तात् प व य गृहणात् ते हा अभवन्- तै त. ा.
1.4.1.1

(27) चमस होतृ अ छावाक्, उ ातृ


चमस य ीय सोमप को कहते है- पलाशा दका जाते य यपा भेदे त ल णभेदा दकं य पा । सोमपानपा भेदे च- वा. पृ.
2895 ।
त चा वशेषेऽ प स त चतुर ं यात् ”चमसेनापः णय त” इ तका. ौ.2.311 का.भा. । अ छावाक् होता का सहकारी ऋ वज् होता
है । इनके ारा उपयोग म लाए जाने वाले अ छावक् चमस और उ ाता एवं अ वयु के नाम पर मशः उ ातृ चमस एवं चमसा वयु
यु कये जाते ह ।
सोम य त ा यमसोऽ य त ा सोमः तोम य तोम उ थानां हं वा गृही वा चमसं ।(बौधा. ौ. 14.2)
अ छावाकचमसमेवैते यः समुप य भ य त ।(बौध. ौ. 7.20)

(28) चम (कृ णा जन, श ल आ द)


या का काय म चम का व वध योग पाया जाता है । इनका योग मु यतः आसतरण के प म कया जाता है । फल पर
बछाकर उनक र ा क जाती थी । चम पर सोम को प थर से कूटते थे तथा उसके रस को नकालते थे । गाय, मृग, मेष, ा आ द
के चम का उ लेख य -काय म आ है- ा चमारोह त-य .ु 10.5 उ.भा. । पौणमासयाग म अ वयु कृ णा जन को हाथ म लेकर
व वध याएँ करते ह- कृ णा जनादानम् – का. ौ. 2.4.1 ।
चम से चमस बनाकर भी या क-काय स प होते ह- अथ हो णां चमसान यु य त । (शत. ा. 4.2.1.31)
कृ ण मृग के चम को कृ णा जन और ा या सह के चम को शा ल कहा जाता हैः कृ णा जनमाद े-शत. ा. 1.1.4.4. । मृ योवा
एषवणः । य छ ल ।
(तै . ा. 1.7.8.1)

(29) चा वाल
चातुमा य या अ न ोम याग क वे दका से उ र क ओर चा वाल बनाया जाता है । यह एक वशेष य कु ड होता है, जसक नाप
32324 अंगल ु है । इसका उ लेख का यायन ौ यायन ौतसू म अनेक थान पर मलता है-
यामादाय चा वलं ममीते- का. ौ. 5.3.19 ।
वदद न र त चा वो हरहत का. ौ. 5.3.23 ।
चा वालो कराव तरेण स चरः का. ौ.1.3.41 ।
वाच प यम् म इसका एक अथ है- उ रवेद म तूप का थान उ रवे े भृ तूपे वा.पृ.2912

(30)जू
याग म ह व र् अ पत करने के न म यु होने वाली ुची को जु कहते ह । यह पलाश का क , एक अ र न (बा मा नाप
क आगे म चार अंगल ु गतवाली और हंसमुखी होती है- य ये ुगा ये पा भेदे सा च प ना घ टता वा.पृ. 3142 ।
पालाशी जु -का. ौ. 1.3.35 । पणयमी जु ः तै.सं. 3.5.7.2 । इसे य का मुख और ुलोक क उ प कारक कहा गया है-
जु वैय मुखम् मै ा1 सं. 3.1.1 । जु े ह घृताची ौज मना । (काठ.मं. 1.11)

(31) द ड
अ न ोम याग म यजमान को चय पूवक जीवन यापन करते ए प र मण करना पड़ता था, इस लए उस समय द डधारण का
वधान आ मर ाथ कया था- द डोदे वता! हे वन पते वृ ावयव द ड, उ य व उ तो भव । ऊ वोभू वा अंह सः पापात् मा मां पा ह
र । त कालाव ध यते यजु.4.1 ( मही.भा. । याग म यजमान का मुँह के बराबर तक ऊँचाई वाला औ बर का का द ड धारण
कराया जाता है- मुखस मतमा बरं द डं य छ त का. ौ. 7.4.1 । द ड को व का तीक माना गया है- व रो वै द डो
वर तायै (शत. ा. 3.2.1.32)

(32)द व
यह वकङ् कत का क बनी ई और कलछु ल के आकार क होती है । चातुमा य याग म इसी से ह व प व क आ तयाँ द
जाती ह- द ाऽऽद े पूणादव त (का. ौ.5.6.10)
अ नहो ं च वा अ वा वा द वहोमः क ः (का. ौ.5.6.3( का.भा.)
एष खलु वै या ह तो यद् द व (मै ा.सं.1.1(.16)

(33) ोणकलश
ोणकलश म सोमरस छाना जाता है । यह वक त का का म य म गतवाला और चार ओर प र ध वाला होता है । इसक ल बाई
अठारह अँगल ु रहती है-
ु और चौड़ाई बारह अँगल

अ त र ं वा एतत् ा ाणं य ोण कलशः (क प. क.सं. 44.9)


आहवनीयं ग छ यादाय ाव ोणकलश सोमपा ा ण का. ौ.8.7.4 ।
ोणकलश य वश दा भधानात् सोमपा श दे न हपा ा ण गृ तेका. ौ.8.7.4 का.भा. ।
ुचशाच म चमसा मे वाय ा न च मे ोणकलश मे… ।
(यजु. 18.21)

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