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जयियाल गोयन्दका (जन्म : सन् 1885 - वनधन : 17 अप्रैल 1965) श्रीमद्भगिि् गीता के अनन्य
प्रचारक थे। िे गीताप्रेस, गीता-र्िन (ऋषीकेश, स््िगाभ श्रम), ऋवषकुल ब्रह्मचयाभ श्रम (चूरू) आवि
के सींस्थापक थे।
अनुक्रम
1 जीिनी
2 सेठ जयियाल गोयन््िका िारा स््थावपत प्रकल्प
o 2.1 गोविन््ि-र्िन-कायाभ लय, कोलकाता
o 2.2 गीताप्रे स-गोरखपु र
o 2.3 गीतार्िन, स््िगाभ श्रम ऋवषकेश
o 2.4 श्री ऋवषकुल ब्रह्मचयाभ श्रम, चू रू
o 2.5 गीतार्िन आयु िेि सीं स््थान
3 सन्दर्भ
4 इन्हें र्ी िे खें
5 बाहरी कवड़यााँ
जीवनी
जयियाल गोयन्दका का जन्म राजस्थान के चुरू में ज्येष्ठ कृष्ण 6, सम्वत् 1942 (सन् 1885) को
श्री खूबचन्द्र अग्रिाल के पररिार में हुआ था। बाल्यािस्था में ही इन्हें गीता तथा रामचररतमानस ने
प्रर्ावित वकया। िे अपने पररिार के साथ व्यापार के उद्दे श्य से बाीं कुड़ा (पविम बींगाल) चले गए।
बींगाल में िु वर्भक्ष पड़ा तो, उन्होींने पीवड़तोीं की सेिा का आिशभ उपत्मस्थत वकया।
उन्होींने गीता तथा अन्य धावमभक ग्रन्ोीं का गहन अध्ययन करने के बाि अपना जीिन धमभ-
प्रचार में लगाने का सींकल्प वलया। इन्होींने कोलकाता में "गोविन्द-र्िन" की स्थापना की। िे
गीता पर इतना प्रर्ािी प्रिचन करने लगे थे वक हजारोीं श्रोता मींत्र-मुग्ध होकर सत्सींग का लार्
उठाते थे। "गीता-प्रचार" अवर्यान के िौरान उन्होींने िे खा वक गीता की शु द्ध प्रवत वमलनी िू र्र
है । उन्होींने गीता को शु द्ध र्ाषा में प्रकावशत करने के उद्दे श्य से सन् 1923 में गोरखपुर में गीता
प्रेस की स्थापना की। उन्हीीं विनोीं उनके मौसेरे र्ाई हनुमान प्रसाि पोद्दार उनके सम्पकभ में आए
तथा िे गीता प्रेस के वलए समवपभत हो गए। गीता प्रेस से "कल्याण" पवत्रका का प्रकाशन शुरू
हुआ। उनके गीता तथा परमाथभ सम्बींधी लेख प्रकावशत होने लगे। उन्होींने "गीता तत्व वििेचनी"
नाम से गीता का र्ाष्य वकया। उनके िारा रवचत तत्व वचन्तामवण, प्रेम र्त्मक्त प्रकाश, मनुष्य
जीिन की सफलता, परम शाीं वत का मागभ, ज्ञान योग, प्रेम योग का तत्व, परम-साधन, परमाथभ
पत्रािली आवि पु स्तकोीं ने धावमभक-सावहत्य की अवर्िृत्मद्ध में अर्ूतपूिभ योगिान वकया है ।
गोशवन्द-र्वन-कायाभलय, कोलकाता
गीताप्रेस-गोरखिुर
कोलकातामें श्री सेठजी के सत्सींगके प्रर्ािसे साधकोींका समूह बढ़ता गया और सर्ीको
स््िाध्यायके वलये गीताजीकी आिश्यकता हुई, परन््तु शुद्ध पाठ और सही अथभकी गीता सुलर् नहीीं
हो रही थी। सुलर्तासे ऐसी गीता वमल सके इसके वलये सेठजीने स््ियीं पिच्छे ि, अथभ एिीं
सींवक्षप्त टीका तैयार करके गोविन््ि-र्िनकी ओरसे कोलकाताके िवणक प्रेससे पााँ च हजार प्रवतयााँ
छपिायीीं। यह प्रथम सीं स््करण बहुत शीघ्र समाप्त हो गया। छ: हजार प्रवतयोींके अगले
सींस््करणका पुनमुभद्रण उसी िवणक प्रेससे हुआ। कोलकातामें कुल ग्यारह हजार प्रवतयााँ छपीीं।
परन््तु इस मुद्रणमें अनेक कवठनाइयााँ आयीीं। पुस््तकोींमें न तो आिश्यक सीं शोधन कर सकते थे ,
न ही सींशोधनके वलये समुवचत सुविधा वमलती थी। मशीन बार-बार रोककर सींशोधन करना
पड़ता था। ऐसी चेष्टा करनेपर र्ी र्ूलोींका सिभथा अर्ाि न हो सका। तब प्रेसके मावलक जो
स््ियीं सेठजीके सत्सींगी थे, उन््होींने सेठजीसे कहा – वकसी व्यापारीके वलये इस प्रकार मशीनको
बार-बार रोककर सुधार करना अनुकूल नहीीं पड़ता। आप जैसी शुद्ध पुस््तक चाहते हैं , िैसी
अपने वनजी प्रेसमें ही छपना सम्र्ि है । सेठजी कहा करते थे वक हमारी पुस््तकोींमें, गीताजीमें
र्ूल छोड़ना छूरी लेकर घाि करना है तथा उनमें सुधार करना घािपर मरहम-पट्टी करना है ।
जो हमारा प्रेमी हो उसे पुस््तकोींमें अशुत्मद्ध सुधार करनेकी र्रसक चेष्टा करनी चावहये। सेठजीने
विचार वकया वक अपना एक प्रेस अलग होना चावहये , वजससे शुद्ध पाठ और सही अथभकी गीता
गीता-प्रेवमयोींको प्राप्त हो सके। इसके वलये एक प्रेस गोरखपुरमें एक छोटा-सा मकान लेकर
लगर्ग 10 रुपयेके वकरायेपर िैशाख शुक्ल 13, रवििार, वि. सीं. 1980 (23 अप्रैल 1923 ई0) को
गोरखपुरमें प्रे सकी स््थापना हुई, उसका नाम गीताप्रे स रखा गया। उससे गीताजीके मुद्रण तथा
प्रकाशनमें बड़ी सुविधा हो गयी। गीताजीके अनेक प्रकारके छोटे -बड़े सींस््करणके अवतररक्त
श्रीसेठजीकी कुछ अन््य पु स््तकोींका र्ी प्रकाशन होने लगा। गीताप्रेससे शुद्ध मुवद्रत गीता, कल्याण,
र्ागित, महार्ारत, रामचररतमानस तथा अन््य धावमभक ग्रन््थ सस््ते मूल्यपर जनताके पास पहुाँ चानेका
श्रेय श्रीजयियालजी गोयन््िकाको ही है । गीताप्रेस पुस््तकोींको छापनेका मात्र प्रेस ही नहीीं है
अवपतु र्गिान की िाणीसे वन:सृत जीिनोद्धारक गीता इत्याविकी प्रचारस््थली होने से पुण्यस््थलीमें
पररिवतभत है । र्गिान शास््त्रोींमें स््ियीं इसका उि् घोष वकये हैं वक जहााँ मेरे नामका स््मरण, प्रचार,
र्जन-कीतभन इत्यावि होता है उस स््थानको मैं कर्ी नहीीं त्यागता।
गीताजी के प्रचारके साथ ही साथ सेठजी र्गित्प्रात्मि हे तु सत्सींग करते ही रहते थे। उन््हें एक
शाीं वतवप्रय स््थलकी आिश्यकता महसूस हुई जहााँ कोलाहल न हो, पवित्र र्ूवम हो, साधन-र्जनके
वलये अवत आिश्यक सामग्री उपलब्ध हो। इस आिश्यकताकी पूवतभके वलये उत्तराखण्िकी पवित्र
र्ूवमपर सन् 1918 के आसपास सत्सींग करने हे तु सेठजी पधारे । िहााँ गींगापार र्गिती गींगाके
तटपर िटिृक्ष और ितभमान गीतार्िनका स््थान सेठजीको परम शात्मन्तिायक लगा। सुना जाता है
वक िटिृक्ष िाले स््थानपर स््िामी रामतीथभने र्ी तपस््या की थी। वफर क्या था सन् 1925 के
लगर्गसे सेठजी अपने सत्सींवगयोींके साथ प्रत्येक िषभ ग्रीष्म-ऋतुमें लगर्ग 3 माह िहााँ रहने
लगे। प्रात: 4 बजेसे रावत्र 10 बजेतक र्ोजन, सन््ध्या-िन््िन आविके समयको छोड़कर सर्ी
समय लोगोींके साथ र्गित् -चचाभ , र्जन-कीतभन आवि चलता रहता था। धीरे -धीरे सत्सींगी
र्ाइयोींके रहनेके वलये पक्के मकान बनने लगे। र्गित्कृपासे आज िहााँ कई सुव्यित्मस्थत एिीं र्व्य
र्िन बनकर तैयार हो गये हैं वजनमें 1,000 से अवधक कमरे हैं और सत्सींग, र्जन-कीतभनके
स््थान अलग से हैं । जो शुरूसे ही सत्सींवगयोींके वलये वन:शुल्क रहे हैं । यहााँ आकर लोग
गींगाजीके सुरम्य िातािरणमें बैठकर र्गित् -वचन््तन तथा सत्सींग करते हैं । यह िह र्ूवम है जहााँ
प्रत्येक िषभ न जाने वकतने र्ाई-बहन सेठजीके साविध्यमें रहकर जीिन््मुक्त हो गये हैं । यहााँ आते
ही जो आनन््िानुर्ूवत होती है िह अकथनीय है । यहााँ आने िालोींको कोई असुविधा नहीीं होती;
क्योींवक वन:शुल्क आिास और उवचत मूल्यपर र्ोजन एिीं राशन, बतभन इत्यावि आिश्यक सामग्री
उपलब्ध है ।
जयियालजी गोयन््िका पवित्रताका बड़ा ध्यान रखते थे। वहीं सासे प्राप्त वकसी िस््तुका उपयोग नहीीं
करते थे। आयुिेविक औषवधयोींका ही प्रयोग करते और करनेकी सलाह िे ते थे। शुद्ध आयुिेविक
औषवधयोींके वनमाभ णके वलये पहले कोलकातामें पुन: गीतार्िनमें व्यिस््था की गयी तावक
वहमालयकी ताजा जड़ी-बूवटयोीं एिीं गींगाजलसे वनवमभत औषवधयााँ जनसामान््यको सुलर् हो सकें।
सन्दर्भ
जयियाल गोयन्दकाजी गोविन्द र्िन कायाभ लय के सींस्थापक थे। गीताप्रेस, गोविन्द र्िन कायाभ लय
का एक प्रवतष्ठान है । उक्त वलत्मखत बातें उन व्यत्मक्तयोीं से प्राि हुई हैं जो उनके जीिनकाल में
साथी रहे थे।