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मध्य वर्ग, जो असलियत में अमीर है मनु जोसेफ, पत्रकार और उपन्यासकार Tue, 18 Dec 2018 09:52

इस महीने चमक-दमक वािी कई शाददयाां हुईं, जजसने मध्यवर्ीय भारतीयों के एक तबके को खासा नाराज ककया। उनकी लशकायत है कक ये
आयोजन काफी भव्य और भड़कीिे रहे । जब दे श ‘कृषि सांकट’ से जझ
ू रहा हो, तो कफर शाददयों में भिा इतने पैसे कैसे खचग ककए जा सकते
हैं? उल्िेखनीय है कक शहरी मध्य-वर्ग महज अपने लिए खाना पकाने, अपनी र्ाड़ड़याां चिाने और कुत्तों को घम
ु ाने के लिए ही र्रीबों को नौकरी
पर नहीां रखता, बजल्क उनका इस्तेमाि खुद से अमीर तबकों को घेरने के लिए एक ‘नैततक सहारे ’ के रूप में भी करता है । इस वर्ग की मानें ,
तो अमीर ‘इस र्रीब मुल्क में बहुत ही अलशष्ट हैं’।
यहाां तक कक कुछ िोर् वे ददन भी याद ददिा रहे थे, जब शादी-समारोहों पर पलु िस के छापे पड़ा करते थे। उस वक्त दे श में अन्न की इतनी
कमी हो र्ई थी कक आयोजनों में ककतना खाना परोसा जाए, इसकी भी सीमा तय कर दी र्ई थी। मर्र अब भारतीयों को मानो अय्याशी
करने की छूट लमि र्ई है - शहरी मध्य वर्ग के चचढ़े होने की यही वजह है ।

मर्र क्या भारत के इस सबसे बड़े तबके यानी र्रीब और खरबपतत, अरबपतत, करोड़पतत व दे श के शीिग एक फीसदी में शालमि िोर्ों में कोई
अांतर है ? क्या ईमानदार ‘आडांबरहीन’ भारतीयों के लिए ‘स्कोडा’ र्ाड़ी ठीक उसी तरह ददखावा नहीां है , जजस तरह वांचचत तबकों के लिए ‘मेबैक’
र्ाड़ी? दरअसि, करोड़पतत ही राष्र की अांतरात्मा माने जाते हैं , या कफर कम से कम वे िोर्, जो आमदनी के मामिे में शीिग के एक फीसदी में
शुमार हैं। उनका मानना है कक भारत तो इतना र्रीब है कक यहाां के पररवारों की मालसक आमदनी दो िाख रुपये भी नहीां है! उनकी मानें , तो
सांयम से जीना इस साधनहीन मल्
ु क में अलशष्ट हरकत के समान है । ठीक इसी तरह, यह ऊपरी मध्य वर्ग भी र्रीबों की नजर में अमीर है ,
क्योंकक अतत-धनाढ्य के आभामांडि को तो वे दे ख भी नहीां पाते। नोटबांदी के बाद षवश्िेिक इसी को नहीां परख पाए थे , और सरकार का यह
कदम लसयासत के नजररए से इसलिए िोकषिय साबबत हो र्या, क्योंकक औसत मतदाताओां ने अपनी आांखों से इन अमीरों का दि
ु भ
ग पतन
दे खा।
अतत-धनाढ्य िोर्ों की शाददयों की खबर िेने वािे मध्य वर्ग के िोर्ों को पहिे अपने चर्रे बान में झाांकना चादहए कक वे खुद र्रीबों के सामने
ककतने अलशष्ट नजर आते हैं। आम धारणा यही है कक इनकी सांपषत्त सावगजतनक नहीां हो पाती, मर्र कई ऐसी चीजें हैं, जो र्रीबों की नजरों से
तछपी भी नहीां रहतीां। असि में , यही वर्ग र्रीबों को धन-सांपदा और षवदे शी सांस्कृतत, दोनों की याद ददिाता है , और यही कारण है कक इस वर्ग
को राजनीततक रूप से र्रीब तबकों से अचधक अनदे खा ककया जाना चादहए। क्या यह सच नहीां है कक औसत भारतीय अरबपतत सिमान खान
से कहीां अचधक जुड़ाव महसस
ू करता है , जबकक ददल्िी के ‘सादर्ी पसांद’ बौद्चधकों से उस तरह नहीां जुड़ पाता, जजसकी एकमात्र कफजूिखची वह
रकम होती है , जो उसके माता-षपता ने कॉिेज की ड़डग्री हालसि करने में खचग की होती है ?
हमारी राजनीतत की धारा इसी र्ांदिे नािे से र्ुजरती है । असि में, भारत की लसयासत र्रीबों के िततशोध की राजनीतत है , िेककन यह िाांतीय
पूांजीपततयों को उतना परे शान नहीां करती, जजतना वैजश्वक भारतीयों को, जो पजश्चमी यूरोपीय दशगन और ‘पीपि’ के पेड़ के नीचे लमिे ज्ञान,
दोनों में षवश्वास रखते हैं। हािाांकक इसे पूरी तरह से भारतीयों पर ही िार्ू नहीां ककया जा सकता।
षवश्व के सबसे ताकतवर शख्स (अमेररकी राष्रपतत डोनाल्ड रां प) के उदय और दतु नया भर में दक्षिणपांथ के उभार, यहाां तक कक ब्रेजजजट वोट
ने भी यही साबबत ककया है कक औसत मतदाता बौद्चधकों को पसांद नहीां करता। यह नापसांदर्ी इतनी ज्यादा है कक यदद कोई बौद्चधक
समझदारी की बात भी कहता है , तो मतदाता उस समझदारी पर ही सवाि उठाने िर्ता है । मैं यहाां िोर्ों को मूखग नहीां समझ रहा। असलियत
में वे कुछ िोर्ों से दस
ू रों की तुिना में कहीां अचधक नफरत करते हैं। और यही वह वजह है कक कुछ बौद्चधक अपने एजक्टषवज्म के लिए वहाां
शरण िेना चाहते हैं, जहाां उन्हें ज्यादा पसांद ककया जाता है ।
यहाां आप यह तकग दे सकते हैं कक कोई भी र्रीब आपके और हे िीकॉप्टरों में घूमने वािे अरबपततयों के बीच आसानी से अांतर बता सकता है ।
इस तकग से मेरा भी इनकार नहीां है , कफर भी ककसी र्रीब शख्स को यह बताने में मुझे खुशी लमिेर्ी कक ‘मेरे दोस्त, अमीरी एक स्पेक्रम
यानी वणग-क्रम है ’। मर्र क्या र्रीबी को भी स्पेक्रम कह सकते हैं? यह क्रम आांकड़ों का हो सकता है , तो क्या र्रीब बने रहने की अवस्था भी
यही क्रम है ?
राजनीतत में पहचान कभी भी वणग-क्रम नहीां होती। यह अक्सर दो-र्ण
ु ों से लमिकर बनती है , चाहे उनमें दोि ही क्यों न हो! मसिन, स्त्री-परु
ु ि,
श्वेत-अश्वेत, अमीर-र्रीब आदद। हमारे दे श में एक ऐसा समय भी था, जब दे श का मध्य वर्ग र्रीबों की तरह व्यवहार ककया करता था। हममें
से कई राशन की दक
ु ानों में र्ए ही होंर्े। कई ने उसी स्कूि में पढ़ाई की होर्ी या लसनेमा हॉि में कफल्में दे खी होंर्ी, जहाां र्रीब भी मौजूद
होते थे। यहाां तक कक हमने समान राजनीततक दि को भी वोट ददया है । मर्र आज, हम अमीरों की तरह कहीां ज्यादा व्यवहार करने िर्े हैं।
हर इांसान हमेशा इसी सवाि का सटीक जवाब जानना चाहता है कक ‘सामने वािा शख्स दे श में अमीर है या र्रीब’?
एक सोच यह है कक भारत के अमीर र्रीबों को सजससडी दे ते हैं। मर्र जैसा कक पूवग मुख्य आचथगक सिाहकार अरषवांद सुब्रमण्यम ने 2015 के
आचथगक सवे में बताया था कक भारत में सजससडी का िाभ अमीरों को ज्यादा लमिता है , क्योंकक वे सस्ती बबजिी, जनोपयोर्ी सेवाओां और
खाद्यान्न का अचधक उपभोर् करने की जस्थतत में होते हैं। इसके अिावा, र्रीबों को दी जाने वािी कम मजदरू ी के रूप में भी मध्य वर्ग को
सजससडी लमिती है । लिहाजा, एक र्रीब दे श में मध्य वर्ग होना दरअसि, भारी ररयायत के साथ अमीर होना ही है ।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
दबाि में प्रणाली की प्रभािशीलता (प्रभात खबर)
19/12/18-डॉ िाईिी रे ड्डी पूिव गिनवर, आरबीआइ

भारत में आचथगक सुधारों की शुरुआत विग 1991 के भर्


ु तान सांतुिन सांकट के समय से हुई. इन सुधारों में मौदिक नीतत के सांचािन में स्वायत्तता के
एक स्तर के आधार पर राजकोिीय जस्थरता, षवत्तीय िेत्र में षवतनयलमतीकरण (डीरे र्ुिेशन) के अिावा सरकारी ऋण कायगक्रम का बाजारीकरण, बैंककां र्
षवतनयमन के वैजश्वक मानकों को अपनाना तथा पूांजी बाजार, बीमा एवां पें शन के लिए पथ
ृ क षवतनयमन तनकायों की स्थापना भी शालमि थी.

इस सुधार िकक्रया की कई ऐसी षवशेिताएां थीां, जो राजकोिीय, मौदिक तथा षवत्तीय िेत्र की नीततयों के लिहाज से र्ौरतिब हैं: पहिी, सरकार ने षवत्तीय
एवां वैदेलशक िेत्र के सांबांध में अपना िाचधकार आरबीआइ षवतनयामकों एवां बाजारों के हाथ छोड़ ददया. आरबीआइ ने पररचािन सांबांधी स्वयत्तता हालसि
की, अपनी नीततयों को सरकार से सांबद्ध ककया तथा सांरचनात्मक पररवतगनों के मामिों में सरकार के साथ घतनष्ठ सहयोर् रखते हुए काम करना
आरां भ ककया. स्वचालित मुिीकरण (मोनेटाइजेशन) तथा षवतनमय तनयांत्रण की समाजप्त की तरह कई बार ऐसा भी हुआ कक इन चीजों पर अमि पहिे
शुरू हुआ और उन्हें वैधातनक स्वीकृतत बाद में लमिी.

दस
ू री, षवत्तीय िेत्र के सुधारों के सांबांध में आरबीआइ ने सरकार के सिाहकार के रूप में सकक्रय भूलमका तनभाना शुरू ककया. तीसरी, जैसे-जैसे सुधार
परवान चढ़े , सरकार ने पररचािन स्तर पर समन्वयन का कायग पूांजी बाजारों पर दे खरे ख के लिए स्थाषपत एक कमेटी को सौंप ददया, जजसके अध्यि
आरबीआइ र्वनगर तथा सांयोजक षवत्त मांत्रािय के सांयक्
ु त सचचव होते हैं. राजकोिीय िाचधकाररयों से बातचीत कर आरबीआइ का बैिेंस शीट समद्
ृ ध
करते हुए नीततर्त सुधारों की िभावशीिता बढ़ायी र्यी.

मर्र षवतनयमन के मामिों में नरलसम्हन कमेटी की वह िमुख अनश


ु स
ां ा नहीां मानी र्यी कक बैंकों पर दोहरा तनयांत्रण नहीां होना चादहए. सरकार ने
अभी भी षवत्तीय िेत्र के सावगजतनक उपक्रमों की षवशेिाचधकार िाप्त स्वालमनी बन इस षवतनयामक की िभावशीिता घटा रखी है . विग 2008 में रघुराम
राजन कमेटी की अनुशस
ां ाओां एवां 2010 में श्रीकृष्ण कमेटी की ररपोटग के साथ ही सुधारों के सांबांध में सरकार का नजररया बदि र्या. सुधारों के सांबांध
में सामान्य सोच पर आरबीआइ का िभाव घट र्या और उसकी जर्ह एक नये ढाांचे ने ग्रहण िे िी.

विग 2010 में षवत्त मांत्री की अध्यिता में षवत्तीय जस्थरता और षवकास पररिद् (एफएसडीसी) की स्थापना के साथ ही षवत्तीय सुधारों के िेत्र में
समन्वयन का कायग सीधे सरकार के हाथ आ र्या. इस पररिद् के अन्य सदस्यों में आरबीआइ के र्वनगर, सरकार के चार सचचव, मुख्य आचथगक
सिाहकार तथा षवलभन्न षवतनयामक तनकायों के चार िमख
ु शालमि हैं. इस पररिद् को षवत्तीय षवकास, षवत्तीय जस्थरता, षवत्तीय सािरता, षवत्तीय
समावेशन और सवागचधक िमुख रूप से अांतर षवतनयामकीय समन्वयन का उत्तरदातयत्व दे ददया र्या.

आरबीआइ एक्ट में सांशोधन कर जून 2016 में भारत में एक नये मौदिक नीतत ढाांचे हे तु षवधायी स्वीकृतत िार्ू की र्यी. मौदिक नीतत का िाथलमक
उद्दे श्य अब षवकास िक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए मूल्य जस्थरता कायम रखना हो र्या और आरबीआइ को इस नये ढाांचे के पररचािन की जजम्मेदारी
दी र्यी.

एफएसडीसी सरकार को षवत्तीय िेत्र के षवकास तथा जस्थरता हे तु जजम्मेदार बनाती है . उभरते बाजारों की अथगव्यवस्थाओां के अांतर्गत षवत्तीय िेत्र की
अजस्थरता राजनीततक अजस्थरता के साथ सह-अजस्तत्व बनाये रखती है. इसलिए जब सरकार स्वयां ही अजस्थर हो, तो उसे षवत्तीय अजस्थरता से तनबटने
में ददक्कतें पेश आती हैं. यदद सेंरि बैंक (ररजवग बैंक) तथा षवतनयामकों का सरकार के साथ सही तािमेि न हो, तो एक समन्वयक के साथ ही
षवतनयलमत तनकायों की स्वालमनी होने की वजह से वह उन्हें तनष्िभावी बना दे ती है .

सरकार द्वारा षवत्तीय िेत्र, खासकर बैंक जमा रालशयों को सांसदीय तनर्रानी के बर्ैर ही बजट के षवस्ताररत अांर् की तरह इस्तेमाि करने की परां परा
रही है . राजकोिीय दबाव में षवतनयामक एवां सरकारी स्वालमत्व के षवतनयलमत के बीच के सांबांधों को िभाषवत करने की िमता होती है , जजसके
राजकोिीय तनदहताथग बाद में िकट होते हैं. पूवग में ररजवग बैंक के बहुतेरे उद्दे श्य हुआ करते थे और ड़डप्टी र्वनगर मौदिक नीतत तनमागण से घतनष्ठ रूप
से जड़
ु े होते थे. नयी व्यवस्था के तहत षवत्तीय जस्थरता की चचांताओां पर िकट रूप से षवचार नहीां ककया जाता. यहाां तक कक वैदेलशक िेत्र के सांबांध में
भी षवत्तीय जस्थरता के सरोकारों को मौदिक नीतत के उद्दे श्यों में शालमि नहीां ककया जाता.

तो क्या एक सांपूणग सेवाएां दे नेवािे सेंरि बैंक के साथ अांततनगदहत ढां र् से जुड़ी समन्वयक की भूलमका भुिा दे ने की वजह से अब एक खतरा आ खड़ा
हुआ है ? क्या एक सांपूणग सेवाएां दे नेवािे सेंरि बैंक (आरबीआइ) के साथ मौदिक नीतत कमेटी (एमपीसी) के सह-अजस्तत्व से एक पहचान का सांकट आ
खड़ा हुआ है ?

मौदिक नीतत का सांचरण अब भी बैंककां र् िणािी पर तनभगर है , जजसमें सावगजतनक िेत्र के बैंकों का दबदबा कायम है . मौदिक नीतत वािे यह मानते हैं
कक यह व्यवस्था वस्तु तथा बाजार उन्मुखी िोत्साहनों एवां तनरुत्साहनों के ितत िततकक्रया करती है . मर्र सावगजतनक िेत्र के बैंक व्यापक सावगजतनक
दहतों को ध्यान में रखते हुए मौदिक नीतत सांकेतों के ितत िततकक्रया दे ते हैं.

मौदिक नीततर्त बयान के बाद षवत्त मांत्री आवश्यक रूप से सावगजतनक िेत्र के बैंकों के पदाचधकाररयों को सांबोचधत ककया करते हैं , ताकक उन्हें उनकी
अर्िी कारग वाइयों के लिए ददशा-तनदे श ददये जा सकें. इस िकार, मौदिक नीतत के सांचरण हे तु सरकारी स्वालमत्व के बैंकों की अहलमयत के कारण एक
‘स्वतांत्र’ मौदिक नीतत का असर भोथरा हो जाता है .

चूांकक सावगजतनक िेत्र के बैंकों का शासन सरकार तनदे लशत ही है , अतः बैंकों का षवतनयमन ढाांचा उनके स्वालमत्व के ितत तनरपेि नहीां रह पाता है .
राजकोिीय िाचधकारी बैंककां र् िणािी का इस्तेमाि कुछ सरकारी कायगक्रमों के कक्रयान्वयन हे तु करते हैं और इस काम में एक षवतनयामक के रूप में
आरबीआइ सर्
ु मता िदान करता है . कानून के अनुसार, बैंकों के खचे काटकर उनके पास बाकी बचे अचधशेि से सुरक्षित कोि में ददया जानेवािा अांश
भर्
ु तान करने के बाद सरकार को ददये जानेवािे िाभाांश का भर्
ु तान ककया जाता है . पर हाि में इस िकक्रया पर भी राजकोिीय सरोकारों का असर
पड़ता ददखता है .
(अनव
ु ाद: षवजय नांदन)


The ambiguity of reservations for the poor- 22.1.19

The 103rd Constitution Amendment Act introducing special measures and reservations for ‘economically weaker
sections’ (EWS) has been perceived as being obviously unconstitutional. This article is sceptical of such a reading and
takes the view that a constitutional challenge to the amendment will take us into unclear constitutional territories. The
strongest constitutional challenge might not be to the amendment itself but to the manner in which governments
implement it. There is no foregone conclusion to a potential challenge and we would do well to start identifying the core
constitutional questions that arise. To be clear, I am here concerned only with questions that arise within constitutional
law.

Special measures
Article 15 stands amended enabling the state to take special measures (not limited to reservations) in favour of
EWS generally with an explicit sub-article on admissions to educational institutions with maximum 10%
reservations. The amendment to Article 16 allows 10% reservations (and not special measures) for EWS in public
employment and does so in a manner that is different from reservations for Scheduled Caste/Scheduled Tribes and
Other Backward Classes. The amendment leaves the definition of ‘economically weaker sections’ to be
determined by the state on the basis of ‘family income’ and other economic indicators. Also critical to this
amendment is the exclusion of SC/STs, OBCs and other beneficiary groups under Articles 15(4), 15(5) and 16(4)
as beneficiaries of the 10% EWS reservation.
A good point to start the consitutional examination is the Supreme Court’s view on reservations based purely on
economic criteria. Eight of the nine judges in Indra Sawhney (November 1992) held that the Narasimha Rao
government’s executive order (and not a constitutional amendment) providing for 10% reservations based purely
on economic criteria was unconstitutional. Their reasons included the position that income/property holdings
cannot be the basis for exclusion from government jobs, and that the Constitution was primarily concerned with
addressing social backwardness.

Basic structure doctrine


However, the decision in Indra Sawhney involved testing an executive order against existing constitutional
provisions. In the current situation, we are concerned with a constitutional amendment brought into force using
the constituent power of Parliament. The fact that we are not concerned with legislative or executive power means
that the amendment will be tested against the ‘basic structure’ and not the constitutional provisions existing before
the amendment. The pointed question is whether measures based purely on economic criteria violate the ‘basic
structure’ of the Constitution? I do not think it is a sufficient answer to say that ‘backwardness’ in the Constitution
can only mean ‘social and educational backwardness’. Citing the Constituent Assembly debates is not going to
take the discussion much further either. It is difficult to see an argument that measures purely on economic criteria
are per se violative of the ‘basic structure’. We can have our views on whether such EWS reservations will
alleviate poverty (and they most certainly will not), but that is not really the nature of ‘basic structure’ enquiry.
Providing a justification for these measures as furthering the spirit of substantive equality within the Indian
Constitution is not very difficult.
Economic criteria (if seen as poverty) forms the basis for differential treatment by the state in many ways and it
would be a stretch to suddenly see it as constitutionally suspect when it comes to ‘special measures’ and
reservations in education and public employment. Poverty inflicts serious disadvantages and the prerogative of the
state to use special measures/ reservations as one of the means to address it (however misplaced it might be as a
policy) is unlikely to fall foul of the ‘basic structure’ doctrine.
A challenge to the amendment may lie in the context of Article 16 by virtue of shifting the manner in which
reservations can be provided in public employment. Under Article 16(4), reservations for backward classes
(SC/STs, OBCs) are dependent on beneficiary groups not being ‘adequately represented’ but that has been omitted
in the newly inserted Article 16(6) for EWS. The amendment through Article 16(6) ends up making it easier for
the state to provide reservations in public employment for EWS than the requirements to provide reservations for
‘backward classes’ under Article 16(4). In a sense that is potentially a normative minefield for the Supreme Court.
On the one hand, it is confronted with the reality that ‘backward classes’ like SC/STs and OBCs are
disadvantaged along multiple axes and on the other, it is now far more difficult for the state to provide
reservations to these groups compared to the EWS. The response might well be that ‘representation’ is not the aim
of EWS reservation and questions of ‘adequacy’ are relevant only in the context of representation claims like
those of the backward classes under Article 16(4).

Questions and challenges


In many of the responses to the amendment, breaching the 50% ceiling on reservations has been cited as its
greatest weakness. It is hard to see the merit of that argument because the amendment by itself does not push the
reservations beyond 50%. While it might be a ground to challenge the subsequent legislative/executive actions,
the amendment itself is secure from this challenge. But even beyond this narrow technical response, the 50%
ceiling argument is far from clear. In Indra Sawhney, the majority of judges held that the 50% ceiling must be the
general rule and a higher proportion may be possible in ‘extraordinary situations’. Fundamentally this argument
stems from an unresolved normative tension in Indra Sawhney. While committing to the constitutional position
that reservations are not an ‘exception’ but a ‘facet’ of equality, the majority in Indra Sawhney also invokes the
idea of balancing the equality of opportunity of backward classes ‘against’ the right to equality of everyone else.
When governments implement the EWS reservations and push quotas beyond 50%, the Supreme Court will be
forced to confront this normative tension. If reservations further equality, what then are the justifications to limit it
to 50% when the identified beneficiaries constitute significantly more than 50%? The answer to that question
might lie in Indra Sawhney’s position that the constitutional imagination is not one of ‘proportional
representation’ but one of ‘adequate representation’. However, as discussed above, if abandoning the ‘adequacy’
requirement per se is upheld for EWS reservations, the basis for a 50% ceiling becomes unclear.
While the constitutional amendment by itself might survive the ‘basic structure’ test, the hardest test for governments
will be the manner in which they give effect to the amendment. The definition of ‘economically weaker sections’ will be
a major hurdle because the political temptation will be to go as broad as possible and include large sections of citizens.
But broader the definition, greater will be the constitutional risk. For example, if beneficiaries are defined as all those
with family income of less than ₹8 lakh per annum, it must necessarily fail constitutional scrutiny. To justify that an
individual ‘below poverty line’ and another with a family income of ₹8 lakh per annum belong to the same group for
purposes of affirmative action will involve constitutional jugglery at an unprecedented level. But then, the history of our
constitutional jurisprudence has prepared us well for such surprises.
The gap within: on inter-State disparities 24.01.19
India, as the world’s fastest-growing major economy, may well be catching up with the richer economies in terms of
absolute size. But economic convergence within the country remains a distant dream as poorer States continue to lag
behind the richer ones in economic growth. A report from the rating agency Crisil found that the inter-State disparities
have widened in recent years even as the larger economy grows in size and influence on the global stage. Many low-
income States have experienced isolated years of strong economic growth above the national average. Bihar, in fact, was
the fastest-growing State this year among the 17 non-special category States evaluated by the report. But they have still
failed to bridge their widening gap with the richer States since they have simply not been able to maintain a healthy
growth rate over a sustained period of time. Richer States like Gujarat, for instance, have been able to achieve sustained
economic growth and increase their gap over other States. The report found that there was a slight, albeit weak,
convergence in the per capita income levels of the poorer and richer States between fiscal years 2008 and 2013, but the
trend was reversed in the subsequent years. Between fiscal years 2013 and 2018, there has been a significant divergence
rather than convergence in the economic fortunes of the poorer and richer States. This was the result of richer States
continuing to show strong growth while the poorer States fell behind. In fact, only two of the eight low-income States in
2013 had growth rates above the national average over the next five years. On the other hand, six out of the nine high-
income States recorded rates higher than the national average during 2013-18.

What explains the divergence in the economic fortunes of States? The report suggests that, at least during fiscal year
2018, government spending may be what boosted gross domestic product growth in the top-performing States,
particularly in Bihar and Andhra Pradesh whose double-digit growth rates have come along with a burgeoning fiscal
deficit. The impact of greater spending was that 10 of the 17 States breached the 3% fiscal deficit limit set by the Fiscal
Responsibility and Budget Management Act. Many other big-spending States, however, have not managed to achieve
growth above the national average. Punjab and Kerala, which are at the bottom of the growth table, are ranked as
profligates by the report. This suggests that the size of public spending is probably not what differentiates the richer
States from the poorer ones. Other variables like the strength of State-level institutions, as gauged by their ability to
uphold the rule of law and create a free, competitive marketplace for businesses to thrive, and the quality of public
spending could be crucial determinants of the long-run growth prospects of States.

A reckless experiment: on gene-edited babies24.01.19


Editing the ‘human germline’ is an exercise fraught with unknown risks
The saga of the Chinese scientist who created the world’s first gene-edited babies last November has forced
researchers everywhere to take a hard look at the ethics of gene-editing. Chinese authorities have since
condemned the researcher, He Jiankui, with a government report this week saying he violated both ethics and
laws. But though Mr. He’s actions drew international outrage, they weren’t revolutionary in technological terms.
Editing DNA to correct disease mutations has been possible for a while now, which means others can also do
what Mr. He did. The promises of such gene-editing are boundless; over a dozen clinical trials are currently on to
treat diseases like HIV, multiple myeloma and other forms of cancer, using the Crispr-Cas9 editing system. But
none of them involve editing the so-called human germ-line; instead, they have restricted themselves to fixing
genetic flaws in sick adults. In contrast, Mr. He deactivated a gene in two human embryos, which means that the
changes he made could be inherited by the next generation. In doing so, he violated the widely held ethical
consensus that it is too early for germline editing, for we simply don’t know enough yet about the risks of such
fiddling.
One pitfall of embryo gene-editing is that it is not as precise as we need it to be today. Studies have shown that the
technology can result in unintended mutations, which in turn can cause cancers. Then there is the danger of mosaicism,
in which some cells inherit the target mutation, while others don’t. To be sure, the error-rates of Crispr are falling with
each passing year. But we aren’t in the clear yet. What is more, even when gene-editing becomes fool-proof, the
decision to edit embryos will still be a weighty one. This is because, today, scientists are far from understanding how
exactly individual genes influence phenotypes, or the visible traits of people. Every gene likely influences multiple traits,
depending on the environment it interacts with. This makes it hard to predict the ultimate outcome of an embryo-
editing exercise without decades of follow-up. This uncertainty became evident in Mr. He’s experiment, in which he
sought to immunise a pair of twins from HIV by tinkering with a gene called CCR5. The problem is that while protecting
against HIV, a deactivated CCR5 gene can also make people more susceptible to West-Nile Fever. Every gene influences
such trade-offs, which scientists barely understand today. This is why several scientific societies have advised abundant
caution while fiddling with the human germline. In a 2017 report, the U.S.’s National Academies of Sciences, Engineering,
and Medicine said such an intervention would be defensible only in very rare situations, where no alternative exists. The
He Jiankui incident shows it is time to translate these advisories into regulations. Unless this happens, the Crispr
revolution could well go awry.

Moving away from 1% 24.01.19


Sluggish health spending can be reversed with a substantial increase in the allocation for health
in the Union Budget
India’s neighbours, in the past two decades, have made great strides on the development front. Sri Lanka,
Bangladesh and Bhutan now have better health indicators than India, which has puzzled many. How could these
countries make the great escape from the diseases of poverty earlier than their much bigger neighbour? India’s
health achievements are very modest even in comparison to large and populous countries such as China, Indonesia
or Brazil.

Clear trends
Therefore, it is imperative to understand why India is not doing as well as these countries on the health front.
Looking at other developed and transitional economies over many years, two important trends can be discerned:
as countries become richer, they tend to invest more on health, and the share of health spending that is paid out of
the pocket declines. Economists have sought to explain this phenomena as “health financing transition”, akin to
demographic and epidemiologic transitions. The point to be noted is that similar to these transitions, the health
financing transition is not bound to happen, though it is widespread.
As with the other two transitions, countries differ in terms of timing to start the transition, vary in speed with
which they transition through it, and, sometimes, may even experience reversals. Economic, political and
technological factors move countries through this health financing transition. Of these, social solidarity for
redistribution of resources to the less advantaged is the key element in pushing for public policies that expand
pooled funding to provide health care. Out-of-pocket payments push millions of people into poverty and deter the
poor from using health services. Pre-paid financing mechanisms, such as general tax revenue or social health
insurance (not for profit), collect taxes or premium contributions from people based on their income, but allow
them to use health care based on their need and not on the basis of how much they would be expected to pay in to
the pooled fund.
Hence, most countries, which includes the developing ones, have adopted either of the above two financing
arrangements or a hybrid model to achieve Universal Health Care (UHC) for their respective populations. For
example, according to the World Health Organisation’s recent estimates, out-of-pocket expenditure contributed
only 20% to total health expenditure in Bhutan in 2015 whereas general government expenditure on health
accounted for 72%, which is about 2.6% of its GDP. Similarly, public expenditure represents 2%-4% of GDP
among the developing countries with significant UHC coverage, examples being Ghana, Thailand, Sri Lanka,
China and South Africa.

Low spending, interventions


Unlike these countries, India has not invested in health sufficiently, though its fiscal capacity to raise general
revenues increased substantially from 5% of GDP in 1950-51 to 17% in 2016-17. India’s public spending on
health continues to hover around 1% of GDP for many decades, accounting for less than 30% of total health
expenditure. Besides low public spending, neither the Central nor the State governments have undertaken any
significant policy intervention, except the National Health Mission, to redress the issue of widening
socioeconomic inequalities in health. But the NHM, with a budget of less than 0.2% of GDP, is far too less to
make a major impact. And worryingly, the budgetary provision for the NHM has decreased by 2% in 2018-19
from the previous year.
Last year, the Union government launched the Pradhan Mantri Jan Arogya Yojana with much fan-fare but only
₹2,000 crore was allocated to this so called ‘game-changer’ initiative. This assumes importance as the National
Health Policy 2017 envisaged raising public spending on health to 2.5% of GDP by 2025. Certain key indicators
suggest that public health expenditure has stagnated since the National Democratic Alliance came to power in
2014.
As a percentage of GDP, total government spending (Centre and State) was a mere 0.98% in 2014-15 and 1.02%
in 2015-16. Although the revised estimate of government expenditure for 2016-17 and budget estimate for 2017-
18 show an apparent increase in allocation (1.17 and 1.28%, respectively), actual expenditure might turn out to be
quite less. This could be explained by looking at the difference between the revised allocation and actual
expenditure for the years 2014-15 and 2015-16. Actual expenditure dropped by 0.14 and 0.13 percentage points,
respectively.
Assuming that the trend did not change in the last couple of years, India’s public expenditure on health would be
around 1.1% even in 2017-18. This ‘sticky public health spending rate’ of 1%, which does not increase despite
robust economic growth for years, is partly due to a decline in the Centre’s expenditure, which fell from 0.40% of
GDP in 2013-14 to 0.30% of GDP in 2016-17 (As per 2018-19 budget allocation, 0.33% of GDP).

Increase allocation
If this sluggish public health spending has to be reversed, there is a need for a substantial increase in the allocation
for health in the forthcoming Union Budget. However, the rise in government health spending also depends on
health spending by States as they account for more than two-thirds of total spending.
Hence, both the Centre and States must increase their health spending efforts, which would reduce the burden of
out of pocket expenditure and improve the health status of the population. Else, the 2019 Budget would also see
public health spending sticking at 1% of GDP. This would mean India, would, without doubt, miss the 2025
target, and thereby fail to achieve UHC in a foreseeable future.
Soumitra Ghosh is Assistant Professor, Centre for Health Policy, Planning and Management, School of Health
Systems Studies, Tata Institute of Social Sciences, Mumbai
िाांछित तत्िों पर जल्द नकेल कसने के ललए प्रत्यपवण की लांबी प्रक्रिया खत्म
होनी चाहहए JWed, 06 Feb 2019 05:00 AM (IST)
भारत में घपिा-घोटािा या अन्य कोई अवैध-अनुचचत काम कर षवदे श में तछपने वािों को स्वदे श िाने के
लिए कूटनीततक र्ततषवचधयों को र्तत दे ना समय की माांर् है , िेककन इसी के साथ उन उपायों पर भी र्ौर
ककया जाना चादहए जजससे ित्यपगण में कम से कम समय िर्े। यह इसलिए आवश्यक है , क्योंकक
अचधकतर मामिों में षवदे श में जा तछपे िोर्ों को भारत िाने में कहीां अचधक समय िर् जाता है ।
तन:सांदेह यह राहतकारी है कक बब्रटे न के र्ह
ृ मांत्री ने षवजय माल्या को भारत ित्यषपगत करने की अनम
ु तत
दे दी, िेककन अभी यह तय नहीां कक वह भारत के हाथ कब िर्ें र्े।
षवजय माल्या बब्रटे न के र्ह
ृ मांत्री के आदे श के खखिाफ वहाां के उच्च न्यायािय में अपीि करें र्े। यदद उच्च
न्यायािय ने तनचिी अदाित के आदे श को सही पाया तब जाकर उनका भारत आना सतु नजश्चत हो
सकेर्ा। हािाांकक इसके आसार न के बराबर है ैैैां कक उच्च न्यायािय तनचिी अदाित के आदे श में कोई
हे रफेर करे र्ा, िेककन अभी यह नहीां कहा जा सकता कक वह अपना फैसिा कब सन
ु ाएर्ा? दे खना यह भी
होर्ा कक बब्रदटश उच्च न्यायािय के आदे श के बाद षवजय माल्या भारत आने से बचने के लिए कोई जतन
करते है ैैैां या नहीां? ध्यान रहे कक वह भारत आने से बचने के लिए ककस्म-ककस्म के बहाने र्ढ़ते रहे
है ैैैां। यही काम पांजाब नेशनि बैैैैांक में घोटािे के आरोपी नीरव मोदी और मेहुि चोकसी भी कर रहे
है ैैैां।
जहाां नीरव मोदी यह रार् अिाप रहे कक उन्हें भारत में खिनायक की तरह दे खा जा रहा वहीां मेहुि
चोकसी यह बहाना पेश कर रहे कक वह एांटीर्ुआ से भारत तक का िांबा हवाई सफर नहीां कर सकते।
षवडांबना यह है कक कई बार इस तरह की बहानेबाजी को सांबांचधत दे शों की अदाितें महत्व दे ने िर्ती
है ैैैां।
यह एक तथ्य है कक बब्रटे न की अदाितों ने भारत में वाांतछत कई तत्वों को इस आधार पर ित्यषपगत करने
से मना कर ददया कक यहाां की जेिों की दशा अच्छी नहीां है । एक ओर जहाां बब्रटे न जैसे दे श है ैैैां , जहाां का
ित्यपगण सांबांधी तांत्र कुछ ज्यादा ही जदटि है वहीां दस
ू री ओर सऊदी अरब और सांयुक्त अरब अमीरात जैसे
दे श है ैैैां जो वाांतछत शख्स की पहचान स्थाषपत होने और उसकी कारर्ुजारी का षववरण लमिते ही उसे
ित्यषपगत कर दे ते है ैैैां। इसके अततररक्त कुछ ऐसे भी दे श है ैैैां जो ित्यपगण के मामिे में एक तरह से
मनमाना रवैया िदलशगत करते है ैैैां।
पुरुलिया काांड में वाांतछत ककम डेवी का पुतर्
ग ाि से ित्यपगण नहीां हो पा रहा है तो इसीलिए, क्योंकक वहाां की
सरकार भारत की चचांता समझने के बजाय अपने आपराचधक अतीत और छषव वािे नार्ररक की दहफाजत
को ज्यादा अहलमयत दे रही है ैै। यह सही है कक पुतर्
ग ाि सरीखे यूरोपीय दे श मानवाचधकारों को कहीां
अचधक अहलमयत दे ते है ैैैां, िेककन इसका यह मतिब नहीां कक वे इसके नाम पर अपराचधयों का बचाव
करें । जरूरी केवि यह नहीां है कक पत
ु र्
ग ाि सरीखे दे शों के ितत सख्त कूटनीतत का पररचय ददया जाए,
बजल्क यह भी है कक ित्यपगण की िकक्रया को आसान बनाने के लिए अांतरराष्रीय मांचों पर आवाज भी
उठाई जाए ताकक ऐसा कोई कानून बन सके जजससे वाांतछत तत्व बहानेबाजी कर ित्यपगण से बचने न
पाएां।
सारधा-रोज वैिी जैसे घोटािों की ऐसी जाांच न हो जजसमें पीड़ड़तों को राहत न
लमि सके jPublish Date:Wed, 06 Feb 2019 07:44 AM (IST)
राजीि सचान ]: हजारों करोड़ रुपये के चचटफांड घोटािों की सीबीआइ जाांच को िेकर ममता और मोदी
सरकार के बीच तछड़े घमासान पर सुिीम कोटग के फैसिे के बाद दोनों पि जो मन में आए वह दावा कर
सकते है ैैैां, िेककन ऐसा दावा कोई नहीां कर सकता कक उन िाखों िोर्ों के मन में उम्मीद की कोई
ककरण जर्ी होर्ी जजन्हें सारधा और रोज वैिी नामक चचटफांड कांपतनयों ने िूटा। एक आांकड़े के अनुसार
इन दोनों चचटफांड कांपतनयों ने करीब 22 िाख िोर्ों के िर्भर् 20 हजार करोड़ रुपये हड़प ककए। इन
ददनों भिे ही सारधा घोटािे की जाांच को िेकर कोिकाता से िेकर ददल्िी तक बवाि मचा हुआ हो,
िेककन इस घोटािे से बड़ा घोटािा रोज वैिी कांपनी ने अांजाम ददया था। ये दोनों कांपतनयाां हजारों करोड़
रुपये की िूट इसलिए आसानी से कर सकीां, क्योंकक उन्होंने तमाम नेताओां के साथ मीड़डया के भी कई
िोर्ों को अपने धनबि से सांतुष्ट रखा।
सारधा घोटािा 2013 में ही सतह पर आ र्या था। ममता सरकार ने इस घोटािे की जाांच के लिए षवशेि
जाांच दि का र्ठन ककया। इस जाांच दि के िमुख वही राजीव कुमार थे जो इस समय कोिकाता के
पुलिस आयुक्त है ैैैां और जजनसे सीबीआइ की पूछताछ को िेकर कोहराम मचा। जब षवशेि जाांच दि से
जाांच को नाकाफी बताकर सीबीआइ जाांच की माांर् हुई तो ममता सरकार ने ऐसी ककसी जाांच का षवरोध
ककया, िेककन मई 2014 में सि
ु ीम कोटग ने यह दे खते हुए सीबीआइ जाांच के आदे श ददए कक इस घोटािे का
दायरा पजश्चम बांर्ाि के बाहर पड़ोसी राज्यों में भी फैिा हुआ है ।
चकांू क सि
ु ीम कोटग ने सारधा के साथ अन्य चचटफांड कांपतनयों की भी जाांच जरूरी बताई थी इसलिए रोज
वैिी कांपनी भी सीबीआइ जाांच के दायरे में आई। जल्द ही यह पता चिा कक रोज वैिी कांपनी ने तो कहीां
अचधक िोर्ों को ठर्ा है । यह सही है कक बीते चार सािों में सारधा और रोज वैिी घोटािे में कई िोर्ों
की चर्रफ्तारी हुई है और कई िोर् जेि भी र्ए है ैैैां, िेककन कोई नहीां जानता कक इन दोनों घोटािों की
जाांच कब तक जारी रहे र्ी? इस बारे में तो दरू -दर तक कोई खबर ही नहीां कक इन दोनों कांपतनयों की ठर्ी
का लशकार हुए िाखों िोर्ों को ककसी तरह की कोई राहत कब लमिेर्ी?
हािाांकक सारधा और रोज वैिी कांपतनयों के सांचािकों की तमाम सांपषत्तयाां जसत की जा चक
ु ी है ैैैां, िेककन
अभी तक इन कांपतनयों की सांपषत्तयाां बेचकर ठर्ी के लशकार हुए िोर्ों को राहत दे ने की कोई कोलशश होती
नहीां ददख रही है । इस तरह के घोटािों की वैसी जाांच का कोई मतिब नहीां जजसमें पीड़ड़त िोर्ों को राहत
लमिने की कोई सूरत न नजर आए। हो सकता है कक सीबीआइ जाांच सही ददशा में हो, िेककन क्या इसकी
अनदे खी कर दी जाए कक वह अभी तक वे दस्तावेज भी हालसि नहीां कर सकी है जो राजीव कुमार ने
षवशेि जाांच दि के िमुख के नाते सारधा कांपनी के मुखखया सुदीप्त सेन और उसकी सहयोर्ी दे वजानी
मुखजी से हालसि ककए थे।
सीबीआइ की मानें तो दे वजानी ने यह स्वीकार ककया था कक षवशेि जाांच दि ने उसके पास से एक िाि
डायरी और पेन ड्राइव समेत कुछ दस्तावेज जसत ककए थे। यह है रानी की बात है कक सीबीआइ अभी तक
वह िाि डायरी और पेन ड्राइव की ही तिाश कर रही है । माना जाता है कक इसी िाि डायरी और पेन
ड्राइव के बारे में जानकारी हालसि करने के लिए सीबीआइ कोिकाता के पुलिस आयुक्त राजीव कुमार से
पूछताछ करना चाह रही थी। ममता सरकार ने ऐसा नहीां करने ददया और सीबीआइ अचधकाररयों को ही
बांधक बना लिया।
यदद इस बात में ततनक भी सच्चाई है कक कोिकाता के पलु िस आयक्
ु त राजीव कुमार सारधा घोटािे के
सब
ु त
ू दबाए बैठे है ैैैां तो सीबीआइ को उनसे पछ
ू ताछ करने के साथ उन्हें चर्रफ्तार करने का भी अचधकार
होना चादहए। कफिहाि सि
ु ीम कोटग ने सीबीआइ को यह आदे श ददया है कक वह उनसे लशिाांर् में पछ
ू ताछ
तो कर सकती है , िेककन चर्रफ्तार नहीां कर सकती। जजस मामिे की जाांच सि
ु ीम कोटग के आदे श पर हो
रही है उसकी िर्तत और साथ ही उसकी दशा-ददशा से उसे पररचचत होना चादहए। हो सकता है कक वह
पररचचत हो, िेककन इतना ही पयागप्त नहीां। इन घोटािों का पटािेप होता हुआ भी ददखना चादहए। तन:सांदेह
पटािेप तभी होर्ा जब ठर्ी का लशकार हुए िाखों िोर्ों को उनका मूिधन हालसि हो जाए। यदद कोई यह
सुतनजश्चत करने वािा नहीां है कक ऐसा यथाशीघ्र हो तो कफर सीबीआइ जाांच का कोई मतिब नहीां है । जो
जाांच पीड़ड़त िोर्ों को राहत न दे सके उससे तो केवि घोटािेबाज ही सांतुष्ट हो सकते है ैैैां।

सीबीआइ की सुस्त जाांच के मामिे में मोदी सरकार की भी जवाबदे ही बनती है । यह सामान्य बात नहीां
कक चार साि बीत चक
ु े हैं, िेककन सीबीआइ अभी तक सारधा घोटािे की तह तक भी नहीां पहुांची है । आज
अर्र सीबीआइ को िेकर षवपिी दि केंि सरकार पर हमिा कर रहे है ैैैां तो इसके लिए वह खद ु भी
जजम्मेदार है , क्योंकक उसके कायगकाि में इस जाांच एजेंसी की छषव और साख, दोनों को धक्का िर्ा है ।
यह दे खना दयनीय है कक मोदी सरकार ने न तो पलु िस सध
ु ार में कोई ददिचस्पी िी और न ही सीबीआइ
को वास्तव में सिम एवां भरोसेमांद जाांच एजेंसी बनाने में , िेककन इसका यह मतिब नहीां कक षवपिी नेता
ममता सरकार के साथ खड़े होकर सही कर रहे है ैैैां। वास्तव में वे तो राजनीततक अवसरवाद का तनकृष्ट
उदाहरण पेश कर रहे है ैै
ै ां। इनमें वह राहुि र्ाांधी भी हैं जो एक समय यह कह रहे थे कक जजन िोर्ों ने
सारधा घोटािे को अांजाम ददया उन्हें ममता जी बचा रही है ैैैां। क्या राहुि र्ाांधी और अन्य षवपिी नेता
यह दे खकर उत्सादहत हैं कक ममता बनजी सीबीआइ अचधकाररयों को बांधक बनाने वािी पुलिस के साथ
धरने पर बैठने में सांकोच नहीां कर रही है ैैैां? क्या उन्हें यह दे खकर आनांद की अनुभूतत हो रही है कक
ममता दीदी इसके लिए हरसांभव जतन कर रही है ैैैां कक अलमत शाह से िेकर योर्ी आददत्यनाथ के
हे िीकॉप्टर पजश्चम बांर्ाि की धरती पर उतरने न पाएां?
अर्र सांषवधान के साथ सांघीय ढाांचे की रिा इसी तरह होती है तो कफर छीछािेदर कैसे होती है ? अर्र
सारधा घोटािे से ममता बनजी का कोई िेना-दे ना नहीां तो कफर वह कोिकाता के पुलिस आयुक्त का
बचाव अपने ककसी कायगकताग की तरह क्यों कर रही है ैैैां? इससे भी र्ांभीर सवाि यह है कक एक पुलिस
आयुक्त उनके साथ धरने पर बैठकर क्या कहना चाह रहा है ?

‘असतो मा सद्गमय’ धमवछनरपेक्ष प्रार्वना साांस्कृछतक विरासत की बड़ी र्ाती


सांस्कृत परां परा से आती है J Publish Date:Tue, 05 Feb 2019 05:00 AM (IST)
[ प्रो. छनरां जन कुमार ]: दे श भर के 1,125 केंिीय षवद्याियों में सभी धमग के छात्रों के लिए सांस्कृत श्िोक
‘असतो मा सद्र्मय’ वािी िाथगना की अतनवायगता मौलिक अचधकारों का उल्िांघन है या नहीां, इसे िेकर
जबिपुर के एक वकीि ने र्त विग सुिीम कोटग में चन
ु ौती दी थी। याचचका में कहा र्या है कक केंिीय
षवद्याियों में िाथगना का दहस्सा यह श्िोक एक धमग षवशेि से जुड़ा धालमगक सांदेश है । सांषवधान के
अनुच्छे द 28(1) के अनुसार सरकार द्वारा सांचालित ककसी भी षवद्यािय या सांस्थान में ककसी भी षवलशष्ट
धमग की लशिा नहीां दी जा सकती, इसलिए इस पर रोक िर्ाई जानी चादहए। याचचका में यह भी कहा र्या
है कक िाथगना के बजाय बच्चों में वैज्ञातनक सोच षवकलसत की जानी चादहए जजससे छात्रों में बाधाओां और
चन
ु ौततयों के ितत व्यावहाररक दृजष्टकोण की िवषृ त्त षवकलसत होती है । बहस के दौरान यह बात भी उठी कक
षववाददत सांस्कृत श्िोक दहांद ू धमग से जड़
ु े बह
ृ दारण्यक उपतनिद से लिया र्या है और इसलिए यह धमग
षवशेि से जड़
ु ा हुआ है । सि
ु ीम कोटग के दो जजों की पीठ ने मामिे को अब सांषवधान पीठ को सौंप ददया
है ।
िलसद्ध अमेररकी राजनीतत षवज्ञानी सैमुअि हदटांर्टन ने िर्भर् ढाई दशक पहिे ‘क्िैश ऑफ
लसषविाइजेशांस’ में कहा था कक शीत युद्ध के बाद िोर्ों की साांस्कृततक एवां धालमगक पहचान ही सांसार में
सांघिों का मुख्य कारण होर्ी। वैजश्वक पररिेक्ष्य में हदटांर्टन के लसद्धाांत की अपनी सीमाएां हैं, िेककन
भारत के सांदभग में साांस्कृततक सांघिों की बात एक हद तक सही है । हािाांकक इसकी शुरुआत हदटांर्टन की
घोिणा के बहुत पहिे से हो र्ई थी। खासतौर से भारत की स्वाधीनता के बाद इसे भिीभाांतत रे खाांककत
ककया जा सकता है , जजसका साकार रूप हमारे बौद्चधक और शैिखणक षवमशों में स्पष्ट दे खा जा सकता
है । जजसमें एक तरफ वामपांथी और पजश्चम से िभाषवत तथाकचथत उदारवादी बुद्चधजीवी थे तो दस
ू री ओर
वे िोर् जो इस दे श की लमट्टी और सांस्कृतत के माध्यम से अपनी पहचान बनाना चाहते थे। इस दस
ू रे
पि में र्ाांधी जी की परां परा से जुड़े िोर्ों के अततररक्त षवलभन्न अन्य धाराओां के बुद्चधजीवी शालमि थे।
दरअसि केंिीय षवद्याियों में िाथगना पर उठा यह षववाद इसी साांस्कृततक-बौद्चधक सांघिग से जुड़ा नया
वाकया है । इस षववाद-मुकदमे में सांषवधानिदत्त मूि अचधकार के उल्िांघन का सवाि उठा है । वैसे दे खा
जाए तो िाथगना एवां अध्यात्म और वैज्ञातनक सोच के बीच सांबांध के साथ-साथ इस दे श के बौद्चधक षवमशग
की ददशा सदहत कुछ अन्य मुद्दे भी इससे जुड़े हैं ।

यह सही है कक अनुच्छे द 28(1) के अनुसार सरकार द्वारा सांचालित कोई भी सांस्थान ककसी भी षवलशष्ट
धमग की लशिा नहीां दे सकता, िेककन ‘असतो मा सद्र्मय, तमसो मा ज्योततर्गमय, मत्ृ योमागमत
ृ ां र्मय’,
जजसका अथग है , ‘मुझे असत्य से सत्य की ओर िे चिो, मुझे अांधकार से िकाश की ओर िे चिो, मुझे
मत्ृ यु से अमरता की ओर िे चिो’ केवि इसलिए धालमगक नहीां हो जाता कक यह दहांदओ
ु ां के उपतनिद से
उद्धत
ृ है । सॉलिलसटर जनरि तुिार मेहता ने कोटग में ठीक ही कहा कक ‘असतो मा सद्र्मय’ धमगतनरपेि
है । यह सावगभौलमक सत्य के वचन हैं जो सभी धमागविांबबयों पर िार्ू होते हैं। मेहता ने यह दिीि भी दी
कक सि
ु ीम कोटग के ितीक चचन्ह पर भी सांस्कृत में ‘यतो धमगस्ततो जय:’ लिखा है जो श्रीमदभर्द्र्ीता से
उद्धत
ृ है । इसका मतिब यह तो नहीां हुआ कक सि
ु ीम कोटग धालमगक है ।

मेहता का तकग सही है , नहीां तो भारत का राष्रीय आदशग वाक्य सत्यमेव जयते भी एक धालमगक वाक्य हो
जाएर्ा, क्योंकक यह मुांडकोपतनिद से लिया र्या है । और तो और हमारा राष्रीय ितीक-चचन्ह अशोक स्तांभ
भी धालमगक हो जाएर्ा, क्योंकक सत्यमेव जयते अशोक स्तांभ के नीचे अांककत है । ज्ञातव्य है कक सम्राट
अशोक द्वारा बनवाए इस लसांह स्तांभ में यह आदशग वाक्य मूि रूप से नहीां है । इस वाक्य को राष्रीय
ितीक-चचन्ह में अिर् से जोड़ा र्या। इसे पांड़डत नेहरू, डॉ. आांबेडकर और अन्य नेताओां ने 26 जनवरी,
1950 को स्वीकारा था। कफर जजस श्िोक की िाथगना पर षववाद हो रहा है वह कोई धालमगक लशिा नहीां है
और उसे काांग्रेस सरकार के समय शरू
ु ककया र्या था।

कोई िबुद्ध समाज अपनी र्ौरवशािी षवरासत को नकार कर आर्े नहीां बढ़ सकता। िलसद्ध अश्वेत
चचांतक मारकस र्ावी लिखते हैं कक अपने अतीत, मूि और सांस्कृतत के ज्ञान के बबना व्यजक्त एक जड़हीन
पेड़ की तरह है । चकूां क भारतीय साांस्कृततक षवरासत की बड़ी थाती सांस्कृत परां परा से आती है तो इसे कैसे
छोड़ ददया जाए? कफर इस षवरासत के िर्ततशीि, मानवतावादी और धमगतनरपेि तत्वों को ही अपनाने की
बात की जा रही है , षवशुद्ध धालमगक ितीकों को नहीां। याचचका के तकग को अर्र मान लिया जाए तो
स्कूि-कॉिेजों में पढ़ाए जा रहे दहांदी या अन्य भारतीय भािाओां के पाठ्यक्रम से महान भजक्त सादहत्य को
ही बाहर कर दे ना पड़ेर्ा, जजसे दे सी-षवदे शी षवद्वानों, यहाां तक कक माक्सगवादी सादहत्यकारों और चचांतकों ने
भी मुक्त कांठ से सराहा है ।

िाथगना के षवरुद्ध याचचका में ददया एक अन्य तकग कक यह वैज्ञातनक सोच में बाधक है , भी सही नहीां है ।
सभी धमों में िाथगना पर जोर ददया जाता है , िेककन इसका अथग वहाां कमग और वैज्ञातनक सोच से षवमुख
होना नहीां है । यहाां िाथगना ककसी षवशेि वस्तु के लिए न होकर अपनी आत्मा और अांत:शजक्त को जार्त

करने के लिए, स्वयां के पररष्कार के लिए है । और यह परू े स्कूिी कायगक्रम और समय का अत्यांत छोटा
दहस्सा है । कफर आज की जदटि होती जा रही जजांदर्ी में जब बच्चे, ककशोर और युवा आजत्मक रूप से
कमजोर होकर कई तरह की षवकृततयों का लशकार हो रहे हैं उस जस्थतत में ‘असतो मा सद्र्मय’ जैसी
पांजक्तयाां उनमें आत्मषवश्वास और नैततक शजक्त का सांचार कर सकती है ैैैां।

दरअसि आजादी के बाद से हमारा साांस्कृततक, बौद्चधक और शैिखणक षवमशग जाने-अनजाने वामपांथी और
पजश्चमी िभाव से आतांककत अांग्रेजीपरस्त िोर्ों के चांर्ुि में चिा र्या था, जहाां भारतीय तत्वों के ितत
उपेिा या हीनता का और पजश्चमी चीजों के ितत श्रद्धालमचश्रत भय का भाव होता है । इसी भाव के कारण
हम आज भी चाणक्य को भारत का मैककयावेिी कहते हैं तो कालिदास को भारत का शेक्सषपयर और
समुिर्ुप्त को भारत का नेपोलियन, जबकक कािक्रम, िततभा और उपिजसधयों-तीनों ही दृजष्टयों से चाणक्य,
कालिदास और समुिर्ुप्त ऊपर हैं। इसी मानलसकता के कारण सादहत्य के माध्यम से भारतीय पररवेश में
कानून की र्ुजत्थयों को समझने के लिए ककसी भारतीय कृतत की जर्ह है री पॉटर को पाठ्यक्रम में शालमि
ककया जाता है । समय आ र्या है कक इस साांस्कृततक-बौद्चधक सांघिग में हम अपने साांस्कृततक अतीत की
र्ौरवशािी जड़ों से जुड़ें। इसी में हमारा भषवष्य है ।

केंद्रीय विद्यालयों में असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योछतगवमय जैसी प्रार्वना


पर आपवि J; Thu, 31 Jan 2019 05:00 AM (IST
शांकर शरण ]: सुिीम कोटग की सांषवधान पीठ अब इस पर षवचार करे र्ी कक केंिीय षवद्याियों में बच्चों
को सांस्कृत में िाथगना करना उचचत है या नहीां? असतो मा सद्र्मय तमसो मा ज्योततर्गमय और कुछ
अन्य िाथगनाओां पर आपषत्त जताने वािी याचचका पर सि
ु ीम कोटग के एक न्यायाधीश ने कहा, चकांू क असतो
मा सद्र्मय तमसो मा ज्योततर्गमय जैसी िाथगना उपतनिद से िी र्ई है इसलिए उस पर आपषत्त की जा
सकती है और इस पर सांषवधान पीठ षवचार कर सकती है । क्या इसका यह अथग है कक उपतनिद
आपषत्तजनक स्रोत हैं और उनसे बच्चों को जोड़ना या पढ़ाना उपयक्
ु त नहीां है ?
शॉपेनहावर, मैक्स मि
ू र या टॉल्सटॉय जैसे महान षवदे शी षवद्वानों ने भी यह सन
ु कर अपना लसर पीट
लिया होता कक भारत में असतो मा सद्र्मय, तमसो मा ज्योततर्गमय जैसी िाथगना पर आपषत्त की जा रही
है । इस आपषत्त पर भारतीय मनीषियों का दख
ु ी और चककत होना स्वाभाषवक है । उपतनिदों को मानवता की
सवोच्च ज्ञान धरोहर माना जाता है । वास्तषवक षवद्वत जर्त में यह इतनी जानी-मानी बात है कक उसे
िेकर ददखाई जा रही अज्ञानता पर है रत होती है । मैक्स वेबर जैसे आधतु नक समाजशास्त्री ने म्यूतनख
षवश्वषवद्यािय में अपने िलसद्ध व्याख्यान ‘पॉलिदटक्स एज ए वोकेशन’ में कहा था कक राजनीतत और
नैततकता के सांबांध पर सांपूणग षवश्व सादहत्य में उपतनिद जैसा व्यवजस्थत चचांतन स्रोत नहीां है ।
आज यदद डॉ. भीमराव आांबेडकर होते तो उन्होंने भी माथा ठोक लिया होता। ध्यान रहे कक मूि सांषवधान
के सभी अध्यायों की चचत्र-सज्जा रामायण और महाभारत के षवषवध िसांर्ों से की र्ई थी। ठीक उन्हीां
षवियों की पष्ृ ठभूलम में जजन पर सांषवधान के षवषवध अध्याय लिखे र्ए। उस मूि सांषवधान पर सांषवधान
सभा के 284 सदस्यों के हस्तािर हैं। ददल्िी के तीन-मूततग पुस्तकािय में उसे दे खा जा सकता है ।
उपतनिद जैसे षवशुद्ध ज्ञान-ग्रांथ तो छोड़ड़ए, धमग-ग्रांथ कहे जाने वािे रामायण और महाभारत को भी
सांषवधान तनमागताओां ने त्याज्य या सांदभगहीन नहीां समझा था। उनके उपयोर् से कराई र्ई सज्जा का
आशय ही इन ग्रांथों को अपना आदशग मानना था।
सांषवधान के भार् 3 यानी सबसे अहम माने जाने वािे मूि अचधकार वािे अध्याय की सज्जा भर्वान
राम, सीता और िक्ष्मण से की र्ई है । अर्िे महत्वपूणग अध्याय भार् 4 की सज्जा में श्रीकृष्ण द्वारा
अजुन
ग को र्ीता के उपदे श ददए जाने का दृश्य है । यहाां तक कक भार् 5 की सज्जा ठीक उपतनिद के दृश्य
से की र्ई है जजसमें ऋषि केपास लशष्य बैठकर ज्ञान ग्रहण करते ददख रहे हैं। यह सब महज सजावटी
चचत्र नहीां थे, बजल्क उन अध्यायों की मूि भावना (मोदटफ) के रूप में सोच-समझ कर ददए र्ए थे। इस
पर कभी कोई मतभेद नहीां रहा।
शायद आज हमारे न्यायषवदों को भी इस तथ्य की जानकारी तक नहीां है कक मि
ू सांषवधान दहांद ू धमग-ग्रांथों
के मोदटफ से सजाया र्या था। इसे महान चचत्रकार नांदिाि बोस ने बनाया था, जजन्होंने रवीांिनाथ टै र्ोर
से लशिा पाई थी। िर्ता है कक बहुतेरे वकीि भी यह नहीां जानते कक सांषवधान की मूि िस्तावना में
‘सेक्यि
ु र’ और ‘सोशलिस्ट’ शसद नहीां थे। इन्हें इांददरा र्ाांधी की ओर से थोपे र्ए आपातकाि के दौरान
छि-बि पव
ू क
ग घस
ु ा ददया र्या था।
हमारा अज्ञान जैसे बढ़ रहा है उसे दे खते हुए है रत नहीां कक मूि सांषवधान की उस सज्जा पर भी आपषत्त
सुनने को लमिे और उस पर न्यायािय षवचार करता ददखे। ऐसे तकग ददए जा सकते है ैै ै ां कक एक
सेक्युिर सांषवधान में दहांद ू धमग-ग्रांथों का मोदटफ क्यों बने रहना चादहए? उन सबको हटाकर सांषवधान को
सभी धमग के नार्ररकों के लिए सम-दशगनीय ककस्म की कानूनी ककताब बना दे ना चादहए। आखखर, जब
उपतनिद को ही आपषत्तजनक माना जा रहा है तब राम और कृष्ण तो दहांदओ
ु ां के सािात भर्वान ही हैं।
ऐसी जस्थतत में सांषवधान में उनका चचत्र होना सेक्युिररज्म के आदशग के लिए नाराजर्ी की बात हो सकती
है । यह पूरा िसांर् हमारी भयांकर शैक्षिक दर्
ु तग त को दशागता है । स्कूि-कॉिेजों से िेकर षवश्वषवद्याियों तक
हमारी महान ज्ञान-परां परा को बाहर रखने से ही यह जस्थतत बनी है । हमारे बड़े-बड़े िोर् भी भारत की
षवश्व िलसद्ध साांस्कृततक षवरासत से पररचचत तक नहीां हैं। उपतनिद जैसे शद्
ु ध ज्ञान-ग्रांथ को मजहबी
मानना अज्ञानता को ददखाता है । जबकक रामायण को भी मजहबी नहीां, वैजश्वक साांस्कृततक धरोहर माना
जाता है । तभी इांडोनेलशया जैसे मजु स्िम दे श राम-िीिा का नाट्य राष्रीय उत्साह से करते हैं।
अभी जो जस्थतत है उसमें सांषवधान पीठ इस आपषत्त को सांभवत: खाररज कर दे र्ी। इस पर दे श -षवदे श में
होने वािी कड़ी िततकक्रयाओां से उन्हें समझ में आ जाएर्ा कक उन्होंने ककस चीज पर हाथ डािा है । पर यह
अपने-आप में कोई सांतोि की बात नहीां। यदद हमारी दर्
ु तग त यह हो र्ई कक हमारे एिीट अपनी महान
ज्ञान-परां परा से ही नहीां, बजल्क अपने हालिया सांषवधान की भावना तक से िापरवाह हो र्ए हैं तो हम
तनजश्चत ही ददशा भटक र्ए हैं। तब वह ददन दरू नहीां जब सांषवधान, कानून और लशिा को और र्तग में
डािा जाएर्ा।
भारत में यहाां की मूि धमग-ज्ञान-सांस्कृतत परां परा के षवरोध का मूि दहांद-ू षवरोध में है । इस िसांर् को
राष्रवादी जजतना ही भुना िें , उन्हें समझना चादहए कक सदै व अपनी पाटी, चन
ु ाव और सत्ता की झक में
डूबे रहने से भारतीय धमग-सांस्कृतत और लशिा की ककतनी हातन होती र्ई। उन्हें इसकी कभी परवाह नहीां
रही। आज जो सरकारी स्कूिों में उपतनिद पर आपषत्त कर रहे हैं कि वे रामायण, महाभारत और
उपतनिद को सरकारी पुस्तकाियों से भी हटाने की माांर् करने िर्ें तो है रत नहीां। इस दर्
ु तग त तक पहुांचने
में हमारे सभी दिों का समान योर्दान है । उनका भी जजन्होंने अज्ञान और वोट-बैंक के िािच में दहांद-ू
षवरोचधयों की माांर्ों को स्वीकार करते हुए सांषवधान तथा लशिा को दहांद-ू षवरोधी ददशा दी। साथ ही, उनका
भी जजन्होंने उतने ही अज्ञान और भयवश उसे चप ु चाप स्वीकार ककया। केवि सत्ताधारी को हटाकर स्वयां
सत्ताधारी बनने की जुर्त में िर्े रहे । यही करते हुए षपछिे छह दशक बीते और हमारी लशिा-सांस्कृतत,
कानून और राजनीतत की दर् ु तग त होती र्ई है ।
केवि दे श के आचथगक षवकास पर सारा ध्यान रखते हुए तमाम बौद्चधक षवमशग ने भी वही वामपांथी अांदाज
अपनाए रखा। इसी का िाभ उठाते हुए दहांद-ू षवरोधी मतवादों ने स्वतांत्र भारत में धीरे -धीरे साांस्कृततक,
शैक्षिक, वैचाररक िेत्र पर चतुराईपूवक
ग अपना लशकांजा कसा। उन्होंने कभी र्रीबी, षवकास, बेरोजर्ारी, जैसे
मुद्दों की परवाह नहीां की। अनुभवी और दरू दशी होने के कारण उन्होंने सदै व बुतनयादी षवियों पर ध्यान
रखा। यही कारण है कक आज भारत का मध्य-वर्ग ददनों-ददन अपने से ही दरू होता जा रहा है । इसी को
षवकास और उन्नतत मान रहा है। केवि समय की बात होर्ी कक षवशाि ग्रामीण, कस्बाई समाज भी उन
जैसा हो जाएर्ा, क्योंकक जजधर बड़े िोर् जाएां, पथ वही होता है। जजन्हें इस पर चचांता हो उन्हें इसे दिीय
नहीां, राष्रीय षविय समझना चादहए। तद्नरू
ु प षवचार करना चादहए। अन्यथा वे इसके समाधान का मार्ग
कभी नहीां खोज पाएांर्े। दिीय पिधरता का दष्ु चक्र उन्हें अांतत: दर्
ु तग त ददशा को ही स्वीकार करने पर
षववश करता रहे र्ा। जो अब तक होता रहा है और जजसका दष्ु पररणाम यह द:ु खद िसांर् है ।

पयागप्त नहीां यह रिा बजटरक्षा विशेषज्ञ delhi@prabhatkhabar.in


षपछिे कई साि से बजट में हर बार रिा बजट के सबसे ज्यादा होने की बात तो आती है , िेककन यह
आकिन भी सामने आता है कक रिा के लिए वह बजट नाकाफी होता है . षपछिे कई विों से ऐसा होता
चिा आ रहा है . पूवग िधानमांत्री राजीव र्ाांधी के कायगकाि में सबसे ज्यादा रिा पर खचग हुआ था, िेककन
उसके बाद की सरकारों में रिा बजट जरूरत से कम ही रहा है .
यह बात सही नहीां है कक इस बार का रिा बजट अब तक का सबसे बड़ा है , बजल्क हर साि का रिा
बजट अपने षपछिे साि के मक
ु ाबिे कुछ ज्यादा ही रहता है .
यह तो एक परां परा है . अर्िे साि का बजट इस बार से भी ज्यादा हो जायेर्ा. इसमें कोई चौंकानेवािी
बात नहीां है . हािाांकक, इस बार रिा बजट पहिी दफा तीन िाख करोड़ रुपये के पार भिे ही चिा र्या हो,
िेककन कफर भी यह नाकाफी है . क्योंकक सवाि बजट के बड़ा होने का नहीां है , बजल्क पयागप्त होने का है .
रिा बजट के कुछ पैमाने होते हैं. एक तो यह कक राष्रीय जीडीपी का वह ककतना िततशत है. षपछिे
12-15 साि से यह िततशत तनरां तर चर्रता जा रहा है .
अमेररका अपनी जीडीपी का छह िततशत रिा पर खचग करता है , तो पाककस्तान भी ढाई से तीन िततशत
खचग करता है . चीन भी िर्भर् इतना ही खचग करता है . वहीां भारत रिा बजट कम करते-करते अब 1.6
िततशत खचग पर आ र्या है . यानी हमारी जीडीपी तो बढ़ रही है , िेककन उस दहसाब से रिा बजट कम हो
रहा है . इस एतबार से दे खें, तो अब तक का यह सबसे कम रिा बजट माना जायेर्ा.
हािाांकक, इसका कोई पैमाना नहीां है कक जीडीपी के आकार में रिा बजट ककतना होना चादहए, तो कुछ
षवशेिज्ञ मानते हैं कक यह तीन िततशत से कम नहीां होना चादहए. जादहर है , यह दे खना होता है कक रिा
सांबांधी चन
ु ौततयाां ककतनी बड़ी या छोटी हैं. भारत की चन
ु ौततयाैेैां के दहसाब से मौजूदा रिा बजट पयागप्त
नहीां है . यह बेहद अफसोस की बात है .
महत्वपूणग बात यह है कक भारत ने रिा साजो-सामान बनाने के लिए अपनी कोई बड़ी व्यवस्था नहीां
बनायी है , इसलिए भारत को हचथयार और साजो-सामान तनयागत करना पड़ता है .
साजो-सामान तनयागत करने के इतने सख्त और िांबी िकक्रया होती है कक भारतीय सेना के पास सामान
आते-आते उसकी तकनीक पुरानी पड़ जाती है . पहिे सरकार यह तय करती है कक सेना को क्या चादहए,
िेककन उसका तनयागत करने के लिए जब ऑडगररांर्-टें डररांर् होती है , तो यह िकक्रया बहुत िांबी यानी कुछ
साि तक खखांचती चिी जाती है . इसका बेहतरीन उदाहरण राफेि सौदा है , जजसे खरीदने का मामिा
तकरीबन डेढ़ दशक पुराना है .

हमारे पड़ोस में जजस तरह की अजस्थरता का माहौि बना हुआ है , उसमें हमारी चन ु ौततयाां बहुत ज्यादा हैं.
इन चन ु ौततयों के लिए हमारे खचग भी ज्यादा होने चादहए, जो कक नहीां हैं. हर बजट में सरकार एक िाइन
डाि दे ती है कक अभी इतना रिा बजट है , जरूरी पड़ी तो इसे बढ़ाया भी जा सकता है .
इसका मतिब साफ है कक सरकार को पता है कक रिा बजट को बढ़ाये जाने की जरूरत है , िेककन वह
बढ़ायेर्ी नहीां. सरकार यह कब समझेर्ी कक रिा साजो-सामान के लिए बाद में बजट बढ़ाने का कोई
औचचत्य नहीां है , क्योंकक यह राशन बजट नहीां है .
मान िीजजए कक आपके घर में आटा या चावि कम हो जाये, तो आप फौरन बोिेंर्े कक अभी बाजार से
िेकर आते हैं, तब खाना बनेर्ा, िेककन जरा सोचचए, अर्र हमारे दश्ु मन यिर्ार कर दें और हमारे पास
िड़ने के लिए हचथयार और साजाैे-सामान नहीां होंर्े, तो दश्ु मन से क्या आप यह कहें र्े कक भई रुको
अभी हम हचथयार खदी कर आते हैं, तब िड़ेंर्े?
सरकार को यह क्यों नहीां समझ में आता कक उसे अपना घर सुरक्षित रखने के लिए पयागप्त मात्रा में
हचथयार और साजो-सामान होना चादहए!
िततददन आधतु नक होते समय में जजस तरह की तकनीकें षवकलसत हो रही हैं, वे एक तरफ चन
ु ौततयों को
बढ़ा रही हैं, तो दस
ू री तरफ सैन्य साजो-सामान के अत्याधतु नक होने की माांर् भी कर रही हैं.
दरअसि, एक खास तरह का र्ित रें ड हमने दे खा है कक हमारी कोलशश यह रही है कक सैतनकों की
भततगयाां करते रहो, यानी ज्यादा बड़ी सेना हो, िेककन यह सोच नहीां रही है कक इतनी बड़ी सेना आखखर
िड़ेर्ी कैसे, जब उसके पास आधतु नक हचथयार पयागप्त मात्रा में नहीां होंर्े? भारतीय सेना में बहुत सारे
उपकरण विों परु ाने हैं और इसे आधतु नक उपकरण मह ु ै या कराना सख्त जरूरी है . इसके लिए हमें अपनी
जीडीपी का ढाई से तीन िततशत खचग करना होर्ा, जो कक अभी सांभव नहीां ददख रहा है . रिा बजट को
िेकर फैसिे िेनेवािे िोर्ों में नीततयों का अभाव ददखता है .
अभी जो रिा बजट पास हुआ है , एक आकिन के मुताबबक, इसका करीब अस्सी िततशत तो सैन्य
उपकरणों की दे ख-रे ख, सैतनकों की तनख्वाह और रोज के जरूरी खचों व रे तनांर् आदद में ही खत्म हो जाता
है . इसमें कोई शक नहीां कक भारतीय सैतनक जोशीिे हैं , िेककन िड़ाई के मैदान में लसफग जोश से नहीां िड़ा
जा सकता, उसके लिए हचथयार भी चादहए.
सैतनकों का मनोबि आधतु नक हचथयारों से बढ़ता है . सेना पर ज्यादा खचग हमारी अथगव्यवस्था के लिए भी
जरूरी है , क्योंकक अर्र आधतु नक हचथयारों से िैस सीमा पर खड़ी सेना से दे श के िोर् सुरक्षित महसूस
करते हैं, तो वे दे श के भीतर ज्यादा जोश से काम करते हैं और दे श तरक्की की राह पर चि पड़ता है .
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधाररत)

बबना गठबांधन की एकता Updated Date: Feb 6 2019 5:57AM prbhat khabar

बीती 19 जनवरी को ही वे सब कोिकाता में एक मांच पर इकट्ठा हुए थे. ममता बनजी की बुिायी रै िी के
मांच से उन सबने मोदी के नेतत्ृ व वािे एनडीए को केंि की सत्ता से उखाड़ फेंकने का आह्वान ककया था.
रषववार को कोिकाता में नाटकीय घटनाक्रम के बाद एक बार कफर वे लमि कर मोदी सरकार को कोसने,
उसे िोकतांत्र, सांघीय स्वरूप और सांवैधातनक सांस्थाओां को नष्ट करनेवािा बताने में कोई कसर नहीां छोड़े. वे
सब ममता बनजी के पीछे खड़े होकर मोदी के खखिाफ एकजुट ददखने की कोलशश कर रहे हैं.
षपछिे डेढ़-दो साि से ऐसी ही जस्थतत बनी हुई है . काांग्रेस समेत भाजपा षवरोधी कई िेत्रीय दि 2019 के
आम चन ु ाव में मोदी को परास्त करने के लिए एकजट ु होने की कोलशश करते रहे हैं. महार्ठबांधन बनाने
की चचागएां जब-तब होती रहीां. षवपिी नेताओां के ददल्िी डेरों से िेकर िाांतीय राजधातनयों के सरकारी बांर्िों
तक बैठकों के दौर चिते रहे . महार्ठबांधन बनाने की पहिी बड़ी कोलशश िािू यादव की पहि पर डेढ़
साि पहिे पटना रै िी में हुई थी.
उत्तर िदे श के दो धरु -षवरोधी दिों, सपा और बसपा के एक साथ आने की जमीन उसी पहि से बननी शुरू
हुई थी. पटना रै िी से बड़े-बड़े एिान हुए थे. उसके बाद से महार्ठबांधन बनने की चचागओां को र्तत लमिी
थी, हािाांकक िेत्रीय दिों के अांतषवगरोधों ने उसकी सांभावनाओां पर सवाि भी खब
ू िर्ा ददये थे.
षवपिी दिों को एक और बड़ा अवसर मई 2018 में लमिा, जब कनागटक चुनाव में भाजपा सत्ता कसजाने में
नाकाम हुई और कुमारस्वामी के नेतत्ृ व में काांग्रेस-जनता दि (सेकुिर) की सरकार बनी.
कुमारस्वामी का शपथ ग्रहण समारोह भाजपा के खखिाफ षवपिी दिों का बड़ा जुटान बना. वह मांच
षवपिी नेताओां के लिए न केवि उत्साहवधगक था, बजल्क एकता के ितीक रूप में कुछ अद्भुत दृश्य बहुत
ददनों तक मीड़डया में छाये रहे थे.
सोतनया और मायावती की स्नेदहि आलिांर्न वािी बहुिचाररत तस्वीर बेंर्िुरु के उसी मांच की है . िर्
रहा था कक मायावती का पुराना काांग्रेस षवरोध अब ततरोदहत हो जायेर्ा. उसी मांच पर सपा अध्यि
अखखिेश यादव ने बसपा नेता मायावती का बड़े आदर से स्वार्त ककया था. पटना से साांकेततक रूप में
शरू
ु हुई उनकी दोस्ती उसी ददन सावगजतनक हुई थी.
बेंर्िरु
ु के उसी मांच पर बांर्ाि के परु ाने राजनीततक शत्रु माकपा नेता सीताराम येचरु ी और तण
ृ मि
ू काांग्रेस
की ममता बनजी भी मौजद ू थीां. एक-दसू रे को फूटी आांख न दे खनेवािे ये नेता उस ददन मस्
ु कराते हुए
आमने-सामने भी हुए. वहाां और भी िेत्रीय नेता थे, जजनका जोश बता रहा था कक उन्हें भाजपा को
सताच्युत करने के लिए एकता का सूत्र लमि र्या है .
जजस तरह पटना की रै िी के बाद महार्ठबांधन की सांभावना धलू मि होती र्यी, उसी तरह बेंर्िरु
ु के
षवपिी जमावड़े से तनकिे एकजुटता के सांदेश भी जल्दी से उिटे सांकेत दे ने िर्े. सोतनया र्ाांधी के
र्िबदहयाां डािनेवािी मायावती काांग्रेस पर हमिावर होती र्यीां.

राजस्थान, मध्य िदे श और छत्तीसर्ढ़ के चन


ु ावों में तािमेि न हो पाने के बाद मायावती के लिए काांग्रेस
‘साांपनाथ’ हो र्यी. माकपा और तण
ृ मूि को तो खैर साथ आना ही नहीां था, सोतनया से ममता की बाद की
मुिाकातें भी सुतनजश्चत नहीां कर सकीां कक उनकी पादटग यों में तािमेि होर्ा.
इन रै लियों, मि
ु ाकातों का षवपि की नजर से एक ही सख
ु द पररणाम तनकिा कक उत्तर िदे श में सपा-बसपा
का र्ठबांधन हो र्या. भाजपा को हराने की ददशा में यही एक महत्वपण
ू ग बात हुई.

इसके अिावा टीआरएस नेता चांिशेखर राव और तेिुर्ु दे शम के चांिबाबू नायडु ने षवपिी एकता की जो
पहि की, वह ककसी नतीजे तक नहीां पहुांची. तेिांर्ाना में तेिुर्ु दे शम, काांग्रेस और वाम दिों ने लमि कर
चन
ु ाव िड़ा, िेककन नाकामयाब रहे . इस ियोर् की षवफिता के बाद काांग्रेस अब तेिुर्ु दे शम से दरू ी बना
रही है . सांकेत हैं कक वह आांध्र में उसके साथ लमि कर िोकसभा चन
ु ाव नहीां िड़ेर्ी.

अपने अांतरषवरोधों, िेत्रीय समीकरणों और काांग्रेस से परु ाने बैर के कारण अब तक भाजपा षवरोधी दि
राष्रीय स्तर पर ककसी एकता का आधार तैयार नहीां कर सके. आम चन
ु ाव सामने है . कोई र्ठबांधन बन
पायेर्ा, इसके आसार नहीां ददखते. इसके बावजद
ू इन दिों में 2019 के चन
ु ाव में भाजपा को धि
ू चटाने की
तीव्र िािसा ददखती है .

सबको अपने राजनीततक अजस्तत्व के लिए भाजपा ही बड़ा खतरा ददख रही है . इसलिए वे एकजुटता
ददखाने, एक मांच पर आने और भाजपा-षवरोध के लिए सामूदहक मुद्दा तिाशने का कोई भी मौका नहीां
छोड़ना चाहते हैं.

ममता बनजी की षवपिी रै िी को एक महीना भी नहीां हुआ कक षवपिी दिों के लिए कोिकाता कफर एक
ऐसा अवसर िे आया, जब वे लमि कर मोदी सरकार के खखिाफ अपनी एकजट ु ता ददखा सकते थे. सारधा
घोटािे के लसिलसिे में वहाां के पुलिस कलमश्नर से पूछताछ करने सीबीआइ क्या पहुांची, ममता बनजी ने
मोदी सरकार के खखिाफ नया मोचाग खोि ददया.

वह ‘सांघीय ढाांचे को ध्वस्त करने’ का आरोप िर्ाकर धरने पर क्या बैठीां कक पूरा षवपि ममता के समथगन
में और मोदी सरकार के षवरुद्ध एक सरु में बोिने िर्ा. कई दिों के बड़े नेता कोिकाता जाकर उनके
धरना-मांच में शरीक हो आये और कई ने अपने र्ढ़ से ही मोदी सरकार के खखिाफ हुांकार भरी.
करीब बाईस राजनीततक पादटग याां मोदी सरकार के खखिाफ और ममता बनजी के समथगन में इस समय
बयान दे रही हैं. इनमें काांग्रेस समेत षवलभन्न राज्यों के बड़े दि शालमि हैं.

ममता के मामिे में बीजू जनता दि ने भी भाजपा षवरोधी तेवर ददखाये हैं. िर्ता है कक भाजपा के
षवरुद्ध व्यापक मोचाग तैयार है , िेककन वास्तव में कोई मोचाग तैयार नहीां है. ममता के पि में खड़े सारे
नेता उन्हें अपना नेता मानने को कतई तैयार नहीां होंर्े.

इस तथ्य के बावजद
ू भाजपा के लिए 2019 का सांग्राम आसान नहीां है . उत्तर िदे श में काांग्रेस के अिर्
मैदान में उतरने के बावजद
ू सपा-बसपा के र्ठबांधन से िड़ाई बहुत कदठन हो चक
ु ी है . बबहार में नीतीश के
कारण एनडीए मजबूत भिे ददखता हो, षवरोधी र्ठबांधन को कमजोर नहीां आांकना चादहए.

इसके अिावा कुछ राज्यों में भाजपा की काांग्रेस से सीधी िड़ाई है और उन राज्यों में 2014 के बाद से
काांग्रेस मजबूत हुई है . ककसी सांयुक्त मोचे या र्ठबांधन के बबना भी भाजपा षवरोध के स्वर तीव्र हो रहे हैं.
षवपि इन षवरोधी सुरों को तेज बनाये रखना चाहता है . कफिहाि यही स्वर उनकी एकजट ु ता है .

िहटव कल खेती को बढािा दे ने के ललए नीछतयाां लाए सरकार

कृषि जोत लसकुड़कर अव्यावहाररक बन रही हैं और परां परार्त कृषि अिाभकारी हो रही है । ऐसे में वदटग कि
खेती ने फसि उर्ाने के एक आकिगक तरीके के रूप में ध्यान आकृष्ट करना शुरू कर ददया है । कृषि की
इस अनोखी िणािी में पौधों को दीवारों से जुड़ी अिमाररयों पर रखे कांटे नरों में या उर्ाया जाता है या िांबे
फ्रेम या षपिर पर टाांर्ा जाता है । इससे पौधों को अपनी पूरी ऊांचाई तक बढऩे और हर पौधे तक िकाश
को पहुांचने की पयागप्त जर्ह लमिती है । छतों, बािकनी और शहरों में बहुमांजजिा इमारतों के कुछ दहस्सों
में फसिी पौधे उर्ाने को भी वदटग कि कृषि के ही एक दहस्से के रूप में दे खा जाता है । हािाांकक इसके
सबसे अच्छे नतीजे तब लमिते हैं, जब ऐसी खेती इमारत के भीतर या पॉलि हाउस में की जाती है । इनमें
पयागवरण की दशाओां को तनयांबत्रत ककया जा सकता है । वदटग कि कृषि का बतु नयादी उद्दे श्य कम से कम
जर्ह में ज्यादा से ज्यादा सांख्या में पौधे उर्ाना है । इसमें िैततज की तरह ऊध्र्वाधर जर्ह का इस्तेमाि
ककया जाता है ।

हािाांकक अभी भारत में फसिें उर्ाने का यह तरीका शुरुआती चरण में ही है । मर्र यह अन्य कई दे शों में
काफी िर्तत कर चक
ु ा है । षवशेि रूप से उन दे शों में , जहाां जमीन की उपिसधता कम है । इस बात में कोई
सांदेह नहीां है कक बड़े आकार और वजनी फसिें इस तरह की खेती के लिए उपयुक्त नहीां हैं। िेककन ऊांचे
मूल्य और छोटे आकार की बहुत सी फसिें आसानी से ऊध्र्वाधर ढाांचों में उर्ाई जा सकती हैं। वदटग कि
खेती करने वािे ज्यादातर उद्यमी िेदटस, ब्रोकिी, औिधीय एवां सुर्ांचधत जड़ी-बूदटयाां, फूि और साज-सज्जा
के पौधे, टमाटर, बैर्न जैसी मझोिी आकार की फसिें और स्रॉबेरी जैसे फि उर्ाते हैं।
सांरक्षित पयागवरण में अिमाररयों में रे में मशरूम की वाखणजज्यक खेती वदटग कि खेती का सबसे आम
उदाहरण है । उच्च तकनीक वािी वदटग कि खेती का एक अन्य सामान्य उदाहरण दटश्यू कल्चर है । इसमें
पौधों के बीजों को टे स्ट ट्यूब में लसांथेदटक माध्यम में उर्ाया जाता है और कृबत्रम िकाश और पयागवरण
मह
ु ै या कराया जाता है । वदटग कि फामग में उर्ाए जाने वािे उत्पाद बीमाररयों, कीटों और कीटनाशकों से
मक्
ु त होते हैं। आम तौर पर इनकी र्णु वत्ता बहुत बेहतर होती है , इसलिए उनके दाम भी ज्यादा लमिते हैं।
इस समय वदटग कि कृषि मख् ु य रूप से बेंर्िरु
ू , है दराबाद , ददल्िी और कुछ अन्य शहरों में होती है । यहाां
उद्यलमयों ने शौककया तौर पर वदटग कि खेती की शरु
ु आत की थी, िेककन बाद में व्यावसातयक उद्यम का
रूप दे ददया। इन शहरों में बहुत से उद्यमी हाइड्रोपोतनक्स और एयरोपोतनक्स जैसे जानी-मानी िणालियों
का इस्तेमाि कर रहे हैं। हाइड्रोपोतनक्स में पौधों को पानी में उर्ाया जाता है । इस पानी में आवश्यक
पादप पोिक लमिे होते हैं। एयरोपोतनक्स में पौधों की जड़ों पर केवि लमचश्रत पोिक तत्त्वों का तछड़काव
ककया जाता है । र्मिे में िर्े पौधों के मामिे में आम तौर पर लमट्टी की जर्ह पिागइट, नाररयि के रे श,े
कोको पीट, फसिों का फूस या बजरी का इस्तेमाि ककया जाता है ।
हािाांकक वदटग कि कृषि के कुछ पेचीदा पहिू भी हैं । ये ददक्कतें मामिे पर तनभगर करती हैं और इसलिए
उनसे हर मामिे के आधार पर तनपटा जाना चादहए। इनमें से एक चन
ु ौती पौधों के लिए पयागप्त िकाश
सुतनजश्चत करना भी है । अर्र उस इमारती ढाांचे की इकाइयों में पयागप्त मात्रा में सूरज की रोशनी उपिसध
नहीां है तो कृबत्रम िकाश की व्यवस्था की जानी चादहए ताकक पौधों की सामान्य वद्
ृ चध हो सके। इसमें
एिईडी बल्ब और ट्यूब मददर्ार साबबत हो सकते है , जजनकी िार्त अब काफी कम हो र्ई है । इमारत के
अांदर के पौधों तक सूरज की रोशनी पहुांचाने के लिए िकाश परावतगकों का भी इस्तेमाि ककया जा सकता
है ।
परार्ण एक अन्य चन
ु ौती है , षवशेि रूप से क्रॉस पॉलिनेटड फसिों के मामिे में । इस पर ध्यान दे ने की
जरूरत है । इनडोर फॉमग में परार्ण कीट नहीां होते हैं , इसलिए परार्ण हाथ से करना होता है । इसमें िार्त
आती है और समय भी खचग होता है । अब बहुत से उद्यमी इस उद्दे श्य के लिए वदटग कि फॉलमिंर् इकाइयों
में मधम
ु क्खी पािन करते हैं। मधम
ु क्खी पािन से शहद और मोम, िोपोलिस और रॉयि जेिी जैसे महां र्े
उपोत्पाद िाप्त होते हैं, जजसे बेचकर अततररक्त आमदनी अजजगत की जा सकती है ।
भारत में वदटग कि फॉलमिंर् के मामूिी िसार की मुख्य वजहों में से एक शोध एवां षवकास मदद का अभाव
है । वदटग कि खेती की तकनीक को बेहतर बनाने और िार्त कम करने के लिए मुजश्कि से ही कोई
सांस्थार्त शोध चि रहा है । वदटग कि खेती के समथगक भारतीय कृषि अनस
ु ांधान पररिद के सहायक
महातनदे शक टी जानकीराम कहते हैं कक खेती की इस िणािी को िोकषिय बनाने के लिए ऐसे शोध की
तत्काि जरूरत है । सरकारी और तनजी दोनों िेत्रों को शोध एवां षवकास केंि स्थाषपत करने के बारे में
षवचार करना चादहए ताकक वदटग कि खेती को िोत्सादहत ककया जा सके। इससे इस कृषि िणािी के
आचथगक, पयागवरण और अन्य िाभ हालसि ककए जा सकेंर्े। कृषि उपज की बड़ी मात्रा को शहरों में भेजने
से यातायात जाम और वाहन िदि
ू ण समेत जदटि समस्याएां पैदा हो रही हैं। इसके अिावा इन उपजों को
भेजने की भारी मािभाड़ा िार्त आती है । इसे मद्दे नजर रखते हुए शहरों को अपनी जरूरत के एक दहस्से
की आपूततग स्थानीय उत्पादन से करनी चादहए। इसलिए सरकार को वदटग कि कृषि को बढ़ावा दे ने के लिए
नीततयाां िानी चादहए।

तेि षवपणन कांपतनयााँ : ददग न जाने कोय web dubiya


पेरोि-डीजि का षवपणन (माकेदटांर्) करने वािी सरकारी तेि कांपतनयों की खस्ता षवत्तीय हाित के लिए सरकार
दोिी है , क्योंकक कांपतनयों को महाँर्े आयाततत खतनज तेि का पररशोधन कर उन्हें दे श में सस्ते भाव पर बेचना
पड़ता है । सरकार ने दे श में बेचे जाने वािे पेरोि, डीजि, खाना पकाने की र्ैस व घासिेट के दाम बहुत ही घटे हुए
स्तर पर बााँध रखे हैं। इससे तेि कांपतनयों को होने वािे घाटे की 44 िततशत की पतू तग ऑइि बॉण्ड जारी करके
करती है ।

शेि 56 िततशत घाटे में से 33 िततशत की पतू तग तेि एवां र्ैस उत्खनन व आयात करने वािी कांपतनयााँ करती हैं।
अब षवश्व बाजार में खतनज तेि के भाव 125 डॉिर ितत बैरि हो जाने से िर्ता है कक तेि
कांपतनयों का अपूररत घाटा 40 अरब डॉिर के आस-पास पहुाँच सकता है , क्योंकक दे श में
पेरोि-डीजि की मााँर् तेजी से बढ़ रही है । खाना पकाने की र्ैस की मााँर् भी जोर-शोर से बढ़
रही है
ये कांपतनयााँ हैं- तेि एवां िाकृततक र्ैस आयोर् (ओएनजीसी), र्ैस अथॉररटी ऑफ इांड़डया लि. (जीएआईएि या र्ैि)
एवां ऑइि इांड़डया लि. (ओआईएि)। शेि 23 िततशत घाटा षवपणन करने वािी कांपतनयााँ अथागत इांड़डयन ऑइि
(आईओएि), भारत पेरोलियम (बीपीआईएि) एवां दहन्दस्
ु तान पेरोलियम (एचपीसीएि) बदागश्त करती हैं। इससे उनकी
मािी हाित िर्ातार कमजोर होती जा रही है ।

इन कांपतनयों की मख्
ु यतया तीन मााँर्ें हैं- एक, तेि षवपणन कांपतनयों को सरकार की नीतत के तहत जो 23-24
िततशत घाटा उठाना पड़ रहा है वह घटकर 12-13 िततशत हो जाए, इसलिए केंि सरकार 44 िततशत घाटे के बजाय
50 िततशत घाटे के बराबर ऑइि बॉण््स जारी करे । दो, सरकार दे श में पेरोि-डीजि, र्ैस व केरोलसन के भाव
बढ़ाए।

पेरोि व डीजि के भाव में आांलशक वद्


ृ चध षपछिे विग फरवरी माह में तब की र्ई थी, जब षवश्व बाजार में खतनज
तेि के भाव 65 डॉिर ितत बैरि थे और अब भाव 125 डॉिर ितत बैरि के आस-पास पहुाँच रहे हैं एवां तीन, दे श में
पेरोि-डीजि पर िवेश शल्
ु क, वेट आदद कर मल्
ू यानस
ु ार आरोषपत ककए र्ए हैं।

ये शल्
ु क खत्म ककए जाएाँ। अर्र शल्
ु क खत्म नहीां होते तो कम से कम मल्
ू य के आधार पर शल्
ु क न िर्ाया जाए।
केंि के साथ ही साथ राज्य सरकारों ने भी पेरोलियम उत्पादों पर भारी कर िर्ाकर अपनी कमाई अथागत कर
राजस्व बढ़ाने का साधन बना लिया है । दे श में इन उत्पादों पर कर का भार 40 िततशत से अचधक है । इसी वजह से
आम नार्ररकों को दे श में पेरोि व डीजि के भाव अचधक भारी महसस
ू होते हैं।

इस तरह दे खा जाए तो महाँर्े भाव पर आयात ककए जाने वािे खतनज तेि से होने वािे घाटे की पतू तग के लिए तेि
कांपतनयों के पास कोई साधन नहीां है ।
उभरती अथगव्यवस्था वािे दे श में पेरोि-डीजि की खपत में तेज वद्
ृ चध होती ही है । पर पता
नहीां, आम भारतीय इनकी खपत में कोर-कसर करने के ितत अचधक उत्सादहत क्यों नहीां है
सरकार सबलसडी की पतू तग के लिए ऑइि बॉण््स जारी करती है । और कांपतनयााँ िर्ातार मााँर् करती आ रही हैं कक
इन बॉण्डों को एसएिआर (साांषवचधक लिजक्वड़डटी रे शो) की श्रेणी दी जाए ताकक बैंकों की इन बॉण्डों में ददिचस्पी बढ़े
एवां बॉण्ड बाजार में ऑइि बॉण्डों का कामकाज बढ़े ककां तु सरकार उनकी इस मााँर् से भी सहमत नहीां है ।

एसएिआर के तहत बैंकों को अपनी जमा रकमों की 25 िततशत रालश सरकारी िततभतू तयों व सरकारी बॉण्डों में
रखना पड़ती है । इसलिए जजन बॉण्डों में एसएिआर पात्रता है उन्हीां को खरीदने में बैंकों की ददिचस्पी बनी रहती है ।
षपछिे विग षवत्तमांत्री तेि कांपतनयों के घाटे की 57 िततशत की पतू तग ऑइि बॉण्डों से करने पर राजी हो र्ए थे ककां तु
इस विग वे पन
ु ः मक
ु र र्ए एवां कह रहे हैं कक 57 िततशत के घाटे की आपतू तग केंिीय मांबत्रमांडि की स्वीकृतत से ही
हो सकती है और मांबत्रमांडि ने अभी तक यह स्वीकृतत नहीां दी है ।
अब षवश्व बाजार में खतनज तेि के भाव 125 डॉिर ितत बैरि हो जाने से िर्ता है कक तेि कांपतनयों का अपरू रत
घाटा 40 अरब डॉिर के आस-पास पहुाँच सकता है , क्योंकक दे श में पेरोि-डीजि की मााँर् तेजी से बढ़ रही है । खाना
पकाने की र्ैस की मााँर् भी जोर-शोर से बढ़ रही है और ऐसा ही हाि केरोलसन का है । सरकारी सहायता (सबलसडी)
की वजह से दे श में पेरोि व डीजि के भाव वैजश्वक भाव की ति
ु ना में बहुत सस्ते हैं।

उभरती अथगव्यवस्था वािे दे श में पेरोि-डीजि की खपत में तेज वद्


ृ चध होती ही है । पर पता नहीां, आम भारतीय
इनकी खपत में कोर-कसर करने के ितत अचधक उत्सादहत क्यों नहीां है । 1 विग 2006-07 में तेि कांपतनयों का घाटा
49 हजार करोड़ रु. का था, जो 2007-08 में बढ़कर 77 हजार करोड़ रु. हो र्या। षवश्िेिकों का अनम
ु ान है कक विग
2008-09 में यह बढ़कर 2 िाख करोड़ से अचधक हो जाएर्ा।

इस बढ़े -चढ़े घाटे का कारण षवश्व बाजार में खतनज तेि के भाव बढ़ने के साथ दे श में डॉिर की ति
ु ना में रुपए के
भाव घटना है । कांपतनयों को अब अचधक रुपए दे कर डॉिर खरीदना पड़ रहे हैं जजससे उनका घाटा बढ़ रहा है और
इस घाटे की परू ी पतू तग न हो पाने से तेि षवपणन कांपतनयों का राजस्व तेजी से घट रहा है एवां षवस्तार व षवकास
के लिए उनके सामने धन के अभाव की समस्या खड़ी हो र्ई है एवां घाटा हर सीमा को िााँघ रहा है ।

यह सही है कक दे श में तेि आयात की िार्त वैजश्वक भावों की ति


ु ना में कुछ कम है , क्योंकक (1) कुि खपत का
20 िततशत तेि व र्ैस का उत्पादन दे श में होता है एवां (2) सोषवयत रूस व कुछ खाड़ी दे शों से दे श में सस्ते भाव
पर तेि लमिता है ककां तु दे श में तेि की बढ़ती खपत ने सब र्खणत र्ड़बड़ा ददए हैं। इसी वजह से अिैि 2007 में
तेि की आयात दर 65.48 डॉिर ितत बैरि थी, जो अब बढ़कर 99.75 डॉिर ितत बैरि हो र्ई है ।

इसीलिए दे श में तेि का षवपणन करने वािी कांपतनयों की षवत्तीय हाित बदतर हो रही है । महाँर्े खतनज तेि का
बढ़ता आयात एवां डॉिर के मक
ु ाबिे रुपए के घटते मल्
ू य की वजह से चािू खाते (आयात-तनयागत के खाते) का घाटा
तेजी से बढ़ रहा है । विग 2007-08 की चौथी ततमाही (जनवरी से माचग) में चािू खाते के घाटे में 2 अरब डॉिर की
वद्
ृ चध हो र्ई। दे श के तनयागत की ति
ु ना में आयात 80 अरब डॉिर अचधक है , क्योंकक विग 2007-08 में आयात 27
िततशत बढ़कर 236 अरब डॉिर हो र्या। इसमें खतनज तेि का आयात िततशत अचधक है ।

यह जस्थतत डॉिर एवां खतनज तेि के बढ़ते हुए भाव से बनी है । ऐसे में सरकार के सामने ऊपाय यही है कक दे श में
पेरोलियम उत्पादों के भाव बढ़ाएाँ एवां उन पर सबलसडी समाप्त करें । ककां तु षवधानसभाओां के चन
ु ाव एवां कफर आम
चुनाव के पररिेक्ष्य में सरकार के लिए यह तनणगय िेना कदठन है । कफर इस तनणगय से दे श में मि
ु ास्फीतत व महाँर्ाई
बढ़े र्ी एवां दे श की षवकास दर अवरुद्ध होर्ी, जो सरकार के दहत में नहीां है ।

लिहाजा, तेि षवतरण करने वािी कांपतनयों की हाित अभी और खस्ता बनना ही उनके भाजय में बदा है । खतनज
तेि के भाव घटने की कोई सांभावना नहीां है एवां रुपया तभी मजबत
ू बनेर्ा, जब दे श में डॉिर की आवक बढ़े र्ी।
अभी आवक बढ़ने की कोई सांभावना नहीां है । इसलिए तेि षवपणन कांपतनयों को बहुत कुछ सहना शेि है ।

मत तोड़ो सांघीय ढाांचा


पजश्चम बांर्ाि में जजस तरह सीबीआइ और िदे श सरकार के बीच टकराव की जस्थतत बनी है , उसने
हमारे सांघीय ढां ैाचे को सांकट में िा ददया है । सारदा चचटफांड मामिे में सीबीआइ का पूछताछ के लिए
कोिकाता पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के घर पर पहुांचना और उसके बाद पुलिस का सीबीआइ
अफसरों को दहरासत में िेना और कफर सीबीआइ अफसरों की सरु िा में स्थानीय पलु िस को छोड़कर
सीआरपीएफ की तैनाती करना भषवष्य के लिए बेहतर सांकेत नहीां हैं। राजनीतत में मतभेद और मनभेद
अपनी जर्ह हो सकते हैं, िेककन केंि और राज्य का इस तरह से आमने-सामने आ जाना कहीां न कहीां
सांवैधातनक सांकट जैसी जस्थतत है । दे श का सांघीय ढाांचा केंि के साथ ही राज्यों को स्वायत्तता िदान
करता है । सांषवधान में दोनों की भूलमका तनधागररत है । केंि राज्यों के भीतर एक सीमा तक ही दखि दे
सकता है । राज्यों के लिए भी जरूरी है कक वे भी केंि के साथ ररश्तों में सद्भावनापण
ू ग रवैया अपनाएां।

सीबीआइ केंि के अधीन कायग करती है , उसे राज्यों में कारग वाई करने का अचधकार है । िोकसभा में र्ह

मांत्री राजनाथ लसांह ने भी केंि सरकार की शजक्तयों का हवािा दे ते हुए कहा कक दे श के ककसी भी
दहस्से में जस्थततयाां सामान्य बनाए रखने के लिए जरूरी कदम उठाने का सांषवधान के तहत केंि को
अचधकार है । िेककन पजश्चम बांर्ाि में जो घटनाक्रम हुआ, उससे पहिा सवाि यही उठता है कक क्या
सीबीआइ को पुलिस के इतने बड़े अचधकारी पर कारग वाई करने से पहिे राज्य सरकार को भरोसे में
िेने की जरूरत नहीां थी? सवाि इसलिए भी खड़ा होता है , क्योंकक पजश्चम बांर्ाि सरकार ने सीबीआइ
के सीधे दखि पर रोक िर्ाई हुई है । ऐसे में केंि सरकार और सीबीआइ की जजम्मेदारी बनती है कक
वह राज्य के अचधकारों का सम्मान करे । सवाि राज्यों के इस रवैये पर भी उठता है कक आखखर ऐसी
क्या वजह हुई कक कुछ र्ैर-भाजपा शालसत राज्यों ने सीबीआइ के सीधे दखि पर रोक िर्ा दी।

कठघरे में सीबीआइ की कायगशैिी भी है । उसकी सकक्रयता षवपिी राज्यों में ही क्यों ज्यादा ददखाई
दे ती है ? क्या इसके राजनीततक मायने नहीां तिाशे जाएांर्े? वैसे भी सीबीआइ पर राजनीततक तौर पर
काम करने के आरोप िर्ते रहे हैं। षवपिी नेता केंि सरकार पर सीबीआइ के दरु
ु पयोर् का आरोप
िर्ाते रहे हैं। खुद भाजपा भी षवपि में रहकर ऐसे आरोपों को दोहराती रही है । आज जब वह सत्ता में
है , तब यह आरोप उसके ऊपर िर् रहे हैं। बेहतर हो कक सीबीआइ अपनी चर्रती िततष्ठा को ध्यान में
रखे और ईमानदारी और तनष्पिता के साथ काम करे । राज्यों की भी जजम्मेदारी है कक वह सांघीय
व्यवस्था को सीधे चुनौती दे ने से बचें । अर्र आपको केंि की ककसी कारग वाई पर एतराज है तो आप
उचचत फोरम पर अपनी बात रख सकते हैं। वजह साफ है , दोनों के ऊपर दे श के सांघीय ढाांचे को बचाए
रखने का बराबर जजम्मा है । दोनों को एक-दस
ू रे के अचधकारों का सम्मान करना होर्ा। यही दे श का
सांषवधान भी कहता है । ऐसे में केंि या राज्य सरकारें सांषवधान के षवपरीत जाकर काम नहीां कर
सकती हैं। केंि और राज्यों के बीच ररश्ते जजतने मधरु होंर्े, हमारा िोकतांत्र उतना ही ज्यादा मजबूत
बनकर उभरे र्ा।

Unedifying episode: On Kolkata stand-off


The Supreme Court has defused the situation, but concerns remain over
stand-off in Kolkata
In its ostensibly even-handed intervention in the stand-off between the Central and
West Bengal governments over the manner of investigation of the Saradha Chit Fund
case, the Supreme Court has de-escalated political tensions, at least for now. The
decision allowed both sides in the face-off to claim “moral victory” — even if it was
West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee who was forced to climb down from the
aggressive posture she took in denying the Central Bureau of Investigation room to
question Kolkata Police Commissioner Rajeev Kumar. However, while ordering him
to cooperate with the CBI in “neutral” Shillong, the Court restrained the CBI from
taking any coercive action against Mr. Kumar. The Police Commissioner and his
Special Investigation Team investigating the chit fund case had been served a number
of notices to appear before the CBI before it sent a team to his house in Kolkata. While
Ms. Banerjee may have reason to believe that the timing of the CBI’s operation was
politically motivated, her government’s response — manhandling and detaining the
CBI officials — was shocking and inexcusable. In the polarised political atmosphere,
her belligerence expectedly secured the backing of a large number of Opposition
parties, and even had the Congress rally around her during an impromptu sit-in protest.
However, in attempting to obstruct the CBI action in a court-ordered investigation, Ms.
Banerjee once again demonstrated that she is prone to taking arguments over
administrative procedures to the streets. A decade ago, she burnished her credentials as
the Opposition leader who would dethrone the Left Front combine in West Bengal
with her agitation over the Singur land acquisition. But her attempt now to bring the
State, where she heads the government, to a grinding halt speaks poorly of her political
maturity. Ms. Banerjee is free to read political motives into the actions of a Central
agency — but she must conduct that fight politically and by heeding her
responsibilities as a Chief Minister. To hold a dharna in aid of an officer who is
required for questioning does her no credit.
There are bound to be questions whether this matter should have been escalated to
such an unpleasant level. The CBI says there was no proper response to the earlier
summonses it sent to the Police Commissioner, and alleges that he could have
destroyed evidence that was initially gathered by the Special Investigation Team that
he had supervised in the initial stage of the probe. But it is doubtful whether
descending on a senior officer’s residence on a Sunday evening with a large team of
officers was the right course of action for the CBI, as it was liable to be interpreted as a
high-handed attempt to browbeat and embarrass the State government. The only way
the CBI can escape this impression is by showing that it was justified in demanding
the questioning of Mr. Kumar and establishing proof of its suspicions about his role in
covering up the scam.

Cracks in the framework


With the systematic weakening of institutions, the government risks
pushing all resistance to the streets
The Government of India has reportedly suppressed its own data on current
employment, or rather job loss, in the country. It has, thereby, compromised the
autonomy and the standing of the National Statistical Commission. This is the latest
instalment in the rather sordid story of institutional decay in India, overseen by the
leaders of the Bharatiya Janata Party (BJP). This is not to suggest that previous
governments did not undermine institutions. The internal Emergency imposed on the
country from 1975 to 1977 initiated the process. The government tried to tame
bureaucrats as well as the highest court in the land. Postings and appointments were
manipulated to suit the ruling dispensation. The BJP government has, however, earned
the dubious distinction of sabotaging the autonomy of several political institutions in
rapid succession.
Necessary checks
Institutional decay occasions worry because it affects ordinary citizens in disastrous
ways. All governments, even those which have been democratically elected, betray an
inexorable will to power. Expectedly, expansion of government power violates
constitutional rights to freedom, equality and justice. The only way citizens can be
protected against any arbitrary and unlawful exercise of power is by limiting the power
of government. Liberal democrats, always sceptical of state power, have tried to
contain dramatic surges of power by charting out of constitutions and institutional
design. Institutions, as the embodiment of formal and informal rules, assure citizens
that the government exercises power according to some norms that enable as well as
regulate state capacity.
This makes for good political sense when we remember that most human activity is
structured by systems of rules — take the intricate and rule-bound game of chess or
cricket. Relationships, households, the economy, society, the games we play and do
not play take place and develop within the framework of rules. Human beings are
social, but we cannot be social unless we know what is expected of us, and what we
should do or not do. Without rules that govern relationships — for example, the norm
that friendship is based on trust— we will not know what is worthwhile and what is
not, what is preferable and what should be avoided, and what is appropriate and what
is expedient.
The Canadian political philosopher Charles Taylor has argued in his famous
work, Sources of the Self (1989), that institutions embody ‘strong evaluations’. We
learn to discriminate between right and wrong, better and worse, and higher and lower.
These evaluations are not judged subjectively by our own desires or impulses.
Institutions, which stand independently of us, give us standards that allow us to
evaluate. Following Taylor, we can rightly wonder why political power should be
exercised, implemented and executed without rules. Assertions of political power
adversely affect our interests and our projects. We should be in a position to judge
when this power is exercised fairly or unfairly. Rules in a democracy assure us that
justice is synonymous with fairness.
Moreover, rules make our worlds predictable. We know what the boundaries of the
freedom of expression are, we know that if the police arrests us tomorrow, we have the
right to appoint a lawyer and appeal to the judiciary. Without institutions and rules our
life would be chancy, unpredictable and fickle. We would inhabit a space empty of
certainties, expectations, aspirations and evaluations.
Rules, not whims
In a democracy, individuals are governed by institutions, and not by men. If we do not
live in an institutional universe, we will be at the mercy of capricious individuals.
Democrats would rather be administered by a system of rules we can scrutinise and
evaluate. Of course, rules can be, and are, unfair. But at least we can struggle against
rules. We do not have to commit murders to get the ruling dispensation out of power.
We might have to carry out a thousand peaceful demonstrations, approach the courts,
lobby our legislative representatives, engage in civil disobedience, or withhold our
vote. In a world stamped by the decline of institutions and the exercise of arbitrary
power, the only way to dislodge a government is through violence.
The present government has tampered with institutions by appointing its own people to
positions of authority, and by using the Enforcement Directorate, Income Tax
authorities, the Central Bureau of Investigation and the police as bulldozers to flatten
out any site of opposition. In civil society, human rights organisations have been
pulverised by blockage of funds, raids and arrests. The shameful way in which human
rights activists have been incarcerated without a shred of evidence testifies to the
subversion of the rule of law. The ultimate aim of government action is to dismantle
institutions, and the delicate relationship of checks and balances among them. This
bodes ill for democracy.
The development contravenes the spirit of the freedom struggle. As far back as the
1928 Motilal Nehru constitutional draft, the leadership of the national movement opted
for constitutionalism to abridge unpredictable use of power, and grant basic rights to
citizens. On November 4, 1948, B.R. Ambedkar, responding to criticism of the draft
Constitution in the Constituent Assembly, clarified that the Constitution provided but a
framework for future governments. But: “If things go wrong under the new
Constitution, the reason will not be that we have a bad constitution. What we will have
to say is that Man was vile.” The Indian Constitution established major political
institutions, Parliament, executive and the judiciary, laid out the relationship between
them, provided for judicial review, and codified political and civil rights. The
constitutional framework does not provide thick or substantive conceptions of how we
shall think, and in what we shall believe. It provides us with a thin framework that
guarantees constitutional morality, or respect for the Constitution as the basis of
political life.
Today the ruling party wants to legislate a thick conception of the good. We are
instructed to worship the nation, respect the cow, glorify the coercive arm of the state,
and listen on bended knees to leaders. Frankly the discourse is reminiscent of the
naïve, and often crude, nationalist scripts authored and acted out by the film star
Manoj Kumar in the 1960s. We can avoid watching his films without fear of
harassment, but we cannot defy the government without being abused and subjected to
violence of the pen and tongue.
Upending the balance
The government arrests civil society activists who engage with policy, and vigilante
groups attack individuals who dare transport cattle, legitimately, from one part of India
to another. Immediately the sympathies of the police and magistrates, some sections of
the media and public opinion swing towards the perpetrator, not the victim. The
leaders of our ruling dispensation seem to have no respect for the rule of law, nor for
the rules that regulate speech in public spaces.
Ultimately institutionalised power that is subject to regulation, and that can withstand
the scrutiny of the political public, is meant to protect citizens. Unfortunately, in the
India of today institutions are used to protect the ruling class, and its sins of omission
and commission. The people who rule us should know that when the relationship
between citizens and the state is governed not by institutions but by
individuals, politics takes to the streets. And then a thousand revolts happen. We pay
heavily for institutional decline.
Neera Chandhoke is a former Professor of Political Science at Delhi University

A series of unfortunate missteps


Kerala rains 2018

Fixing the federal fallout of the Kerala flood relief funding row requires
care
The differences between the Kerala and Central governments over the denial of
external assistance to rebuild the State after the devastating floods of August last year
surfaced again last month, in the Kerala Governor’s policy speech in the Assembly as
well as the statements of a Kerala Minister at the Pravasi Bharatiya Divas in Varanasi.
Governor Justice P. Sathasivam had said that the Kerala government had requested
the Centre to enhance its borrowing limit to mobilise additional resources for
rebuilding the flood-hit State. “We are still awaiting a favourable response from the
Central government in this regard,” he added. Minister K.T. Jaleel, who represented
Kerala at the conclave, complained that he was not allowed to raise the issue there.
The bitterness over the flood money still persists.
Competitive federalism, in the context of interaction with foreign countries, promoted
by Prime Minister Narendra Modi, has proved to be a double-edged
sword. Kerala Chief Minister Pinarayi Vijayan now stands accused of violating rules
regarding the seeking of foreign assistance. He remains unclear on how to make up for
the shortfall, of several crores. The Central government is unable to provide the funds
while Kerala has been stopped in its tracks from seeking resources from abroad, either
from the Kerala diaspora or from friendly foreign governments.
The present situation is a result of a series of errors of judgment and
misunderstandings on both sides. Mutual political suspicion and a lack of appreciation
of the complexities of the international situation have brought about a confrontation.
The Chief Minister may have even made diplomatic and tactical misjudgments.
Diplomatic trajectory
India had no qualms about receiving foreign assistance for disaster management till
2004. But when India’s aspiration for permanent membership of the UN Security
Council met with strong resistance, New Delhi hit upon the idea of forcing a vote in
the General Assembly. The game plan was to secure a two-thirds majority and then
attempt to embarrass the permanent members into supporting the expansion of the
Security Council. The two false presumptions were that India would win the required
number of votes and that the Security Council would wilt under pressure from the
General Assembly. In fact, many Assembly members were opposed to the veto even
for the existing permanent members and had no interest in creating more permanent
members with veto. India thought that it could win over the other countries if it was
seen to be helping them in emergencies rather than seeking such assistance for itself.
The tsunami of 2004 and the threat of piracy in the Indian Ocean provided India an
opportunity to test its new posture. Everybody was grateful, but it made no difference
to India’s claim to permanent membership. There were other factors too which
militated against India’s claim. The Modi government decided, however, to lay down
the rules regarding foreign assistance in order to bring some clarity to the situation.
The rules, which were framed in 2016, clarified that India would not solicit any
assistance but would receive relief assistance, even as cash, from individuals,
charitable institutions and foundations. If cash were to be offered bilaterally by foreign
governments, the matter would be considered on a case-by-case basis. Even before the
extent of the damage was fully known, I had urged the Central government in early
August 2018 to make a suitable amendment to the rule as the damage in Kerala was
beyond the capacity to handle it. Needless to say, nobody responded at that stage.
The UAE’s offer
The saga of the offer by the United Arab Emirates (UAE) began well when the Prime
Minister was informed by the UAE authorities that relief assistance was being put
together as a special gesture, which the Prime Minister reciprocated with a warm reply
of gratitude. But the Kerala Chief Minister’s announcement that the UAE would
provide ₹700 crore, made on the same day as the Central government’s announcement
of a provision of ₹500 crore, opened a Pandora’s box. It appeared as though the UAE
was more generous than New Delhi was to Kerala and that the Central government
was not empathetic to Kerala’s plight because of political considerations. Moreover,
the source of the information was supposed to have been an Indian businessman in the
UAE. An embarrassed UAE government then asked its Ambassador in New Delhi to
deny that there was any specific offer of ₹700 crore.
An immediate consequence was a reluctance by other governments to make any offer
of bilateral assistance. No one could answer the question whether any offer from other
governments would be accepted. When the Thai Ambassador in Delhi was stopped
from being at a ceremony to hand over relief goods to an Indian official, the world was
convinced that India would not accept resources. The issue was politicised as one
between the Bharatiya Janata Party and the ruling CPI(M) in Kerala.
It was against this backdrop that Kerala put forward an unwise proposal to despatch its
Ministers abroad to collect donations. This was unacceptable in the context of the
policy that had crystallised after the floods in Kerala and the Central Government
having refused permission for Ministers other than the Chief Minister to travel to
countries. Apart from the ignominy of soliciting donations, there was a clear likelihood
of receiving very little by way of cash donations. The possibility of loans from the
International Monetary Fund and the World Bank became distant as the Centre refused
to raise the limits on loans from these global organisations that a State government
could take. The emergence of the Sabarimala crisis further eroded the credibility of the
State Government and much of the empathy over the flood damage was also lost.
The Prime Minister had always maintained that marshalling of resources is the
responsibility of the Union government according to the Constitution. Now the only
option before Kerala is to demand more funding from the Centre to make up the
shortfall. Undoubtedly, the situation is a tragedy of errors caused by an inadequate
familiarity with decision making and the complexity of international relations.
India is a federal state, but unitary in nature when it comes to national security and
foreign policy. Individual States may have some advantages in dealing with some
countries in their neighbourhood, but they will do well not to transgress the thin line
when it comes to managing international relations. Now it will take longer for trust to
be established to have competitive federalism work again.
T.P. Sreenivasan, a former diplomat, is Chairman, Academic Council and Director,
NSS Academy of Civil Services. He is also Director General, Kerala International
Centre, Thiruvananthapuram

Risks to global growth


Instead of resorting to nationalism and unilateral action, countries
should strengthen the multilateral framework
On the surface, the world economy remains on a steady trajectory. Many developed
economies are operating close to their full potential with unemployment rates at
historical lows.
Yet, headlines do not tell the whole story. Beneath the surface, a worrisome picture of
the world economy emerges. The newly released World Economic Situation and
Prospects for 2019 illustrates how rising economic, social and environmental
challenges hamper progress towards the United Nations Sustainable Development
Goals. There are many risk factors that could inflict significant damage on longer-term
development prospects. Over the past year, trade policy disputes have escalated, and
financial vulnerabilities have increased as global liquidity tightens.
Should such a downturn materialise, the prospects are grim. Global private and public
debt is at a record high, well above the level seen in the run-up to the global financial
crisis. Interest rates remain very low in most developed economies, while central bank
balance sheets are still bloated. With limited monetary and fiscal space, policymakers
around the globe will struggle to react effectively to an economic downturn. Given
waning support for multilateral approaches, concerted actions — like those
implemented in response to the 2008-09 crisis — may be difficult to arrange.
Even if global growth remains robust, its benefits do not reach the places they are
needed most. Incomes will stagnate or grow only marginally this year in parts of
Africa, Western Asia, Latin America and the Caribbean. Many commodity exporters
are still grappling with the effects of the commodity price collapse of 2014-16. The
challenges are most acute in Africa, where per capita growth has averaged only 0.3%
over the past five years. Given rapid population growth, the fight against poverty will
require faster economic growth and dramatic reductions in income inequality.
Most importantly, the transition towards environmental sustainability is not happening
fast enough. The nature of growth is not compatible with holding the increase in the
global average temperature to well below 2°C above pre-industrial levels. In fact, the
impacts of climate change are becoming more widespread and severe. The frequency
and intensity of extreme weather events are increasing, damaging vital infrastructure
and causing large-scale displacement. The human and economic costs of such disasters
fall overwhelmingly on low-income countries.
Many of the challenges are global in nature and require collective and cooperative
policy action. Withdrawal into nationalism and unilateral action will only pose further
setbacks for the global community, especially for those already in danger of being left
behind. Instead, policymakers need to work together to address the weaknesses of the
current system and strengthen the multilateral framework.
The writer is the UN Chief Economist and Assistant Secretary-General for Economic
Development

एनआरसी पर केंद्र को डाांट


वरे च्च न्यायािय के रुख से साफ है कक वह असम में राष्रीय नार्ररक पांजजका के समय पर पूरा कराने को (एनआरसी)
िेकर बबल्कुि दृढ़ है । उसने चुनाव ्यूटी में केंिीय सशस्त्र बिों की भूलमका को दे खते हुए दो सप्ताह तक राष्रीय
नार्ररक पांजजकाका कायग रोकने सांबांधी र्ह
ृ मांत्रािय की अपीि पर जजस तरह सरकार को डाांट िर्ाई है , उसका इसके
अिावा कोई अथग हो ही नहीां सकता। सवोच्च न्यायािय ने षपछिे 24 जनवरी को हुई सुनवाई में ही साफ कर ददया था
कक एनआरसी की िकक्रया पूरी करने की अांततम ततचथ 31 जुिाई 2018 से आर्े नहीां बढ़ाई जाएर्ी। वैसे भी असम में
वास्तषवक नार्ररकों की पहचान का काम विो से राजनीतत की भें ट चढ़ा हुआ है । षवदे शी घुसपैदठयों को बाहर तनकािने
के नाम पर सन अस्सी और नसबे के दशक में आांदोिन हुए, समझौते हुए पर तनदान नहीां तनकिा। असम के मूि
तनवालसयों की लशकायत है कक बाांजिादे श से आए िोर्ों को हर िकार का अचधकार लमि र्या है , जजसके कारण उन्हें
कदठनाइयाां हो रही है । आज उनकी कई पीढ़ी तनकि चुकी है , जजसमें पहचान करना आसान नहीां है । इसलिए सवोच्च
न्यायािय ने कुछ दस्तावेजों को आधार बनाकर काम करने की अनम
ु तत दी थी। 24 जनवरी को भी उसके समि चुनाव
का का मामिा आया था। उसने राज्य सरकार, एनआरसी समन्वयक और तनवागचन आयोर् को यह सुतनजश्चत करने को
कहा था कक आर्ामी आम चुनाव से राष्रीय नार्ररक पांजी तैयार करने का काम धीमा न पड़े। इसके बावजूद यदद र्हृ
मांत्रािय कफर यही तनवेदन िेकर र्ई तो न्यायािय का उसके खखिाफ दटप्पणी करना स्वाभाषवक था। जो सूचनाएां आ
ां ा होते हुए भी अपने को नार्ररक साबबत करने के लिए कार्जात पेश
रहीां हैं उनके अनुसार अनेक पररवार मूि बालशद
नहीां कर पा रहे हैं। खासकर अनपढ़ बुजर्
ु ग िोर्ों के लिए यह असांभव सा है । इस कारण पूरे असम में ऐसे िोर्ों के
अांदर यह आशांका है कक पता नहीां उनके साथ क्या होर्ा? अर्र एक बार एनआरसी जारी हो जाए तब भी ऐसे िोर्ों की
पहचान के लिए अवसर रहना चादहए। उसके तरीके तनकािे जा सकते हैं। सवोच्च न्यायािय ने भी नार्ररक पांजजका
मसौदा के लिए दावेदारों की ओर से पाांच और दस्तावेजों के इस्तेमाि की इजाजत दे ते हुए कहा था कक र्ित व्यजक्त
को शालमि करने के बजाए उचचत व्यजक्त को बाहर करना बेहतर होर्ाइस आधार को स्वीकार नहीां ककया जा सकता -
है ।

महहलाओां के ललए खतरा ट्रै क्रिक्रकांग (भारत डोगरा)


नवरी 2019 में जारी हुई सांयुक्त राष्र सांघ की जिोबि रै कफककांर् ररपोटग 2018 ने बताया है कक वैसे तो अनेक तरह की
रै कफककांर् षवश्व स्तर पर िचलित है , पर इनमें यौन शोिण के लिए मदहिाओां व िड़ककयों की रै कफककांर् सबसे अचधक
है । इस तरह की अांतरराष्रीय रै कफककांर् की चर्रफ्त में आई अचधकाांश मदहिाओां को अमेररका, पजश्चमी व दक्षिण यूरोप

ु ार रै कफककांर् के दजग मामिों में षवश्व स्तर पर वद्


और मध्यपूवग िेत्र में पहुांचाया जाता है । आांकड़ों के अनस ृ चध हो -
रही है ।हाि के विो में यौन शोिण के लिए होने वािी रै कफककांर् की वद्
ृ चध का एक अन्यकारण यह है कक अब
पोनरे ग्राफी कफल्मों, वीड़डयो आदद के बनाने के लिए भी बहुत सी मदहिाओां व बच्चों की रै कफककांर् हो रही है ।यरू ोप में
कुछ स्थानों पर ऐसी जजन मदहिाओां को छुड़ाकर आश्रय र्ह
ृ ों में पहुांचाया र्या, उनके बीच ककए र्ए अनस
ु ांधान से पता
चिा कक उनका दख
ु ददग बहुत- र्हरा है । िांदन स्कूि ऑफ हाईजीन एांड रॉषपकि मेड़डलसन के लिए कैथी जजमरमैन ने
‘‘मुस्कान पर डाका’ ररपोटग लिखी है । इसके अनुसार इनमें से 95 िततशत मदहिाओां को शारीररक व यौन (व िड़ककयों)
दहांसा सहनी पड़ी थी, 60 िततशत में अनेक शारीररक समस्याएां व इनफेक्शन उत्पन्न हो चुकी थी, 95 िततशत ड़डिेशन
से पीड़ड़त थीां व 38 िततशत में आत्महत्या जैसे षवचार िवेश कर चुके थे। िोडोना ह्यूजस ने अपने अध्ययन में बताया .
है कक पोनरे ग्राफी की कफल्में तैयार करने के लिए भी बड़ी सांख्या में षवदे शी बच्चों व मदहिाओां को यरू ोप के कुछ षवशेि
िेत्रें में िाया जा रहा है । िातषवया में जस्थत एक केंि के बारे में उन्होंने बताया है कक इसमें पोनोग्राफी व वेश्यावषृ त्त के
कामों में 2000 मदहिाओां व बच्चों को फांसाया र्या। यदद इस तरह के मात्र एक अ्डे में इतनी मदहिाओां व बच्चों को
फांसाया र्या तो इससे समस्या की व्यापकता का अांदाजा िर्ाया जा सकता है । सेक्स टूररज्म के नाम पर थाईिैंड,
ब्राजीि, नीदरिैंड, कफिीपीांस में बड़ेबड़े अ्डे बने हैं-, जहाां षवशेि तौर पर पयगटक यौन सांबांधों के लिए या अश्िीि शो
दे खने के लिए जाते हैं व इन बड़े अ्डों में बहुत रै कफककांर् होती है । यहाां िायअनेक अपराध माकफया सकक्रय होते हैं। :
आज षवश्व में ऐसी िाखों मदहिाएां या िड़ककयाां हैं , जजन्हें उनकी इच्छा के षवरुद्ध वेश्यावषृ त्त, पोनरे ग्राफी व यौन शोिण
में धकेि ददया र्या है । यह वे मदहिाएां व ककशोर आयु की िड़ककयाां हैं, जजन्हें उनकी आचथगक तांर्ी व अन्य मजबूररयों
का िाभ उठाकर एक ओर तो तरहतरह से बहकाया र्या या भ्रम में रखा र्या। जापान के सांदभग में यहाां के ही एक -
पूवी एलशया से जापान की सेक्स इांडस्री के -अनुसांधानकताग सीया मोररता ने अपने शोध पत्र में बताया है कक दक्षिणी
लिए कुछ दशकों के दौरान5 िाख से 10 िाख बच्चों व मदहिाओां को िाया र्या। अध्ययन में इस रै कफककांर् को कई
अरब डािर के मन
ु ाफे का व्यापार बताया र्या है , जबकक इसमें षवदे शी मदहिा ‘‘र्ुिामों’ की जस्थतत इतनी बुरी रही कक
उनमें से अनेक ने आत्महत्या कर िी। इस व्यापार को बढ़ाने के लिए षवश्व स्तर पर अरबों डािर उपिसध हो रहे हैं।
कुि लमिाकर यह कहा जा सकता है कक दलसयों हजारों साधनसांपन्न अपराधी व सफेदपोश अपराधी इस अवैध व्यापार -
से जुड़े हैं। इस रै कफककांर् को कम करने के लिए अचधक अांतरराष्रीय सहयोर् की जरूरत है । कई ियास केवि इन
मदहिाओां को छुड़ाकर इन्हें अपने मूि दे श में भेज दे ने तक सीलमत हैं। इस तरह छुड़ाई र्ई कई मदहिाएां कफर से
चर्रोहों के चांर्ुि में फांस सकती हैं। कुछ स्थानों से छुड़ाई र्ई मदहिाओां के लिए शेल्टर बनाए र्ए पर यहाां मदहिाओां
को बहुत कम समय तक रखा जाता है । इतने कम समय में उन्हें जोर जुल्म व अत्याचार-से उत्पन्न तनाव से उबरने
का अवसर नहीां लमि पाता है । अनेक तनधगनता व शोिण से िभाषवत िेत्रों में या युद्ध व र्ह
ृ युद्ध से तबाह हुए िेत्रों
में रै कफककांर् के एजेंट षवशेि तौर पर सकक्रय हैं। इन समद
ु ायों पर षवशेि ध्यान दे ते हुए यहाां की मदहिाओां को सहायता
पहुांचाना व रोजर्ार के अवसर पांहुचाना भी बहुत जरूरी है । कुछ दे शों में वेश्यावषृ त्त के बड़े अ्डों को सरकारी सहमतत से
इस आधार पर षवकलसत ककया र्या है कक इससे पयगटन को बढ़ावा लमिेर्ा। पर इनका यह पि तछपा कर रखा जाता है
कक इनके कारण रै कफककांर् को बढ़ावा लमिता है । पयगटन की यह सोच मूितअनुचचत है व इसे चाहे बाहरी तौर पर :
ककतने ही आकिगक रूप में िस्तुत ककया जाए पर इसका समग्र असर मदहिाओां व ककशोररयों के बढ़ते उत्पीड़न के रूप
में ही होता है ।

रोजगार पर राजनीछत
ध्य िदे श के मुख्यमांत्री के रूप में शपथ िेने के बाद ही कमिनाथ ने कहा था कक सरकारी सहायता िाप्त उद्योर्ों को
70 िततशत नौकरी स्थानीय िोर्ों को दे नी होर्ी। उस समय कुछ िोर्ों को इसके राष्रव्यापी राजनीतत तनदहताथग के
मद्दे नजर शायद यह िर्ा होर्ा कक मध्य िदे श सरकार इस ददशा में आर्े नहीां बढ़े र्ी, िेककन ऐसे िोर्ों का अनुमान
र्ित तनकिा। कमिनाथ ने अपने चुनावी घोिणापत्र का हवािा दे ते हुए ट्षवटर पर लिखा कक हमने राज्य सरकार -
द्वारा पोषित शासकीय योजनाओां, कर छूट और अन्य सहायता िाप्त सभी उद्योर्ों में-70 िततशत रोजर्ार मध्य िदे श
के िोर्ों को दे ना अतनवायग कर ददया है । मध्य िदे श सरकार के इस फैसिे के दो पहिू हैंएक सांवैधातनक और दस
ू रा -
राजनीततक। पहिी बात तो यह है कक सरकारी सहायता िाप्त उद्योर्ों को भी राज्य की व्यापक पररभािा के तहत राज्य
का ही दहस्सा माना जा सकता है । इसलिए ककसी राज्य सरकार को अर्र यह िर्ता है कक वहाां की सेवाओां में वहाां के
स्थानीय िोर्ों का पयागप्त ितततनचधत्व नहीां है , तो वह उनके दहतों के सांरिण के लिए आरिण का िावधान कर सकती
है । इसके बावजूद नौकररयों की इस सीमा पर सवाि उठाया जा सकता है । यही नहीां, इसे उस सांघीय भावना के खखिाफ
भी माना जा सकता है , जजसमें भारतीय राज्य की एकात्मक िवषृ त्त पर जोर है । वास्तषवक पररवतगन को रे खाांककत करने
में सांघवाद के ितत व्यावहाररक दृजष्टकोण को तभी सफि माना जा सकता है , जब सामाजजक और राजनीततक धराति
पर उसे समथगन लमिे। मख्
ु यमांत्री कमिनाथ की इस घोिणा को मध्य िदे श के भीतर भिे ही समथगन लमि जाए, िेककन
दस
ू रे राज्यों में समथगन लमिना मजु श्कि होर्ा। मीड़डया ररपोटरे के मत
ु ाबबक कमिनाथ ने कहा था कक बबहार, उत्तर िदे श
जैसे राज्यों के िोर्ों के कारण मध्य िदे श में स्थानीय िोर्ों को नौकरी नहीां लमि पाती है । यह सोच सांघीय ढाांचे में
जड़
ु े राज्यों और वहाां के िोर्ों के बीच भावनात्मक एकता षवकलसत करने में सहायक नहीां होर्ी। यही कारण है कक उस
समय दिर्त आधार से उठकर भाजपा, जदय,ू राजद और सपा ने बयान की आिोचना की थी। उि और बबहार में
अपनी जमीन मजबत
ू करने में िर्ी काांग्रेस के लिए यह परे शानी का सबब बन सकता है , अर्र कोई राजनीततक दि या
सामाजजक सांर्ठन इस मसिे को उठा दे ।

नागररकता विधेयक को लेकर राजनीछतक दलों में राष्ट्ट्रीय हहतों की अनदे खी नहीां होनी
चाहहए

यह ठीक नहीां कक तीन तिाक सांबांधी षवधेयक की तरह से नार्ररकता सांबांधी षवधेयक पर भी पि-षवपि के बीच
कोई सहमतत बनती नहीां ददख रही है । इसका बड़ा कारण षवलभन्न दिों की ओर से अपने-अपने राजनीततक दहतों
को जरूरत से ज्यादा अहलमयत ददया जाना है । चकूां क आम चन
ु ाव करीब आ र्ए है ैैैां इसलिए यह स्वाभाषवक है
कक राजनीततक दि अपने चन
ु ावी दहतों की चचांता करें , िेककन इस कोलशश में राष्रीय दहतों की अनदे खी नहीां होनी
चादहए।
नार्ररकता सांशोधन षवधेयक पर षवपि की आपषत्त का एक बड़ा आधार यह है कक आखखर इसमें पाककस्तान,
बाांजिादे श और अफर्ातनस्तान के दहांद,ू लसख, बौद्ध, जैन, ईसाई, पारसी समद
ु ाय के िोर्ों को ही भारतीय नार्ररकता
दे ने का िावधान क्यों है और मजु स्िम समद
ु ाय के िोर्ों को बाहर क्यों रखा र्या है ? सैद्धाांततक तौर पर यह
आपषत्त उचचत नजर आती है , िेककन व्यवहाररक तौर पर दे खें तो इसका औचचत्य नहीां नजर आता कक
अफर्ातनस्तान, बाांजिादे श और पाककस्तान के बहुसांख्यकों को वैसी ही ररयायत दी जाए जैसी इन दे शों के
अल्पसांख्यक समद
ु ाय के िोर्ों को दे ने की व्यवस्था की र्ई है ।
सभी को एक समान नजर से दे खने की माांर् करने वािे षवपिी दि इसकी अनदे खी नहीां कर सकते कक उक्त
तीनों दे शों से िताड़ड़त होकर भारत की राह दे खने वािे मूित: वहाां के अल्पसांख्यक ही होते है ैैै,ां न कक
बहुसांख्यक। वे इस तथ्य को भी ओझि नहीां कर सकते कक बाांजिादे श से होने वािी अवैध घस ु पैठ के कारण
पजश्चम बांर्ाि और असम के साथ पूवोत्तर के अन्य राज्यों के तमाम इिाकों का सामाजजक सांतुिन ककस तरह
र्ड़बड़ा र्या है । आदशगवादी लसद्धाांत जमीनी हकीकत से मेि भी खाने चादहए। यह कोई तकग नहीां हुआ कक भारत
दक्षिण एलशया का बड़ा दे श है और उसे उन सभी को शरण दे नी चादहए जो इस दे श में बसना चाहता है । भारत का
सांषवधान भारत के िोर्ों पर िार्ू होता है , बाहर के नार्ररकों पर नहीां और यह तय करना दे श षवशेि का अचधकार
है कक वह ककसे शरण दे और ककसे नहीां?
आखखर षवपिी दिों के साथ इस षवधेयक का षवरोध करने वािे अन्य िोर् यह क्यों नहीां दे ख पा रहे है ैैैां कक
बाहरी िोर्ों की घुसपैठ और खासकर बाांजिादे लशयों की अवैध बसाहट से असम की सांस्कृतत ककस तरह खतरे में पड़
र्ई है । क्या सुिीम कोटग के आदे श पर जो राष्रीय नार्ररकता रजजस्टर तैयार हुआ उसका एक बड़ा मकसद असम
की मूि सांस्कृतत को बचाना नहीां है ? यह सही है कक असम और पूवोत्तर के कुछ अन्य राज्यों में नार्ररकता
षवधेयक का षवरोध हो रहा है , िेककन इसकी वजह वह नहीां है जजसे षवपिी दि बयान कर रहे है ैैै।ां
असम और अन्य राज्यों में इस षवधेयक का षवरोध तो इस आशांका के चिते हो रहा है कक अर्र पड़ोसी दे शों के
अल्पसांख्यकों को उनके यहाां बसा ददया र्या तो उनकी सांस्कृतत खत्म हो जाएर्ी? बेहतर हो कक केंि सरकार पूवोत्तर
के उन िोर्ों और समूहों की चचांताओां को दरू करे जो नार्ररकता षवधेयक का षवरोध कर रहे है ैैैां। तन:सांदेह उसे
षवपिी दिों से भी व्यापक षवचार-षवमशग करना चादहए ताकक बीच का कोई रास्ता तनकि सके। राजनीततक
पररपक्वता का पररचय ददया जाए तो ऐसा हो सकता है ।

ताललबान के समक्ष अमेररका का समपवण, चन


ु ी हुई अिगाछनस्तान सरकार पर िाए
सांकट के बादल

ब्रह्मा चेलानी ]: अफर्ातनस्तान के लिए अमेररका के षवशेि दत


ू जािमे खिीिजाद ने कतर में तालिबान के
साथ जो िस्ताषवत समझौता ककया उसे ऐसे दे खा जाना चादहए मानो अमेररका ने एक आतांकी सांर्ठन के समि
समपगण कर ददया है । असि में अमेररकी इततहास की सबसे िांबी िड़ाई पर षवराम िर्ाने के लिए राष्रपतत
डोनाल्ड रां प इतने व्यग्र हो चिे हैं कक उन्हें कुछ भी मांजूर है । अफर्ातनस्तान में अमेररका को फांसे हुए 17 साि
से अचधक हो चिे हैं। ऐसे में अमेररका तालिबान के साथ जजस समझौते के िारूप पर सहमत हुआ है उसमें उसने
दश्ु मन की अचधकाांश शतें मान िी है ैैैां।
तालिबान की सबसे बड़ी माांर् यह थी कक अमेररकी फौजें अफर्ातनस्तान से परू ी तरह वापस चिी जाएां
और उसे काबि
ु की सत्ता में साझेदारी भी लमिे। इन माांर्ों पर भी अमेररका ने मह
ु र िर्ा दी। बदिे में इस
आतांकी सांर्ठन ने अमेररका से एक तरह का फजी वादा ही ककया कक वह अफर्ान धरती पर दस
ू रे आतांकी धड़ों
को पैर नहीां जमाने दे र्ा। हािाांकक यह बात अिर् है कक तालिबान को अफर्ातनस्तान में पहिे से ही
आइएसआइएस की तर्ड़ी चन
ु ौती लमि रही है । इस ‘िारूप’ समझौते से दहांसा और भड़कने की आशांका है जजससे
चन
ु ी हुई अफर्ान सरकार भी अजस्थर हो सकती है । तथाकचथत ‘शाांतत समझौता’ एक तरह से अफर्ान मदहिाओां
पर अत्याचार की तरह होर्ा, क्योंकक तालिबान उन पर वही मध्यकािीन कायदे थोपेर्ा जैसा उसने 1996-2001 के
दौरान अपने तनमगम शासन में ककया था। बीते कुछ वक्त में वहाां मदहिाओां और अन्य नार्ररक अचधकारों के मोचे
पर हुई िर्तत की जस्थतत उिटने की आशांका बिवती हुई है ।
अमेररका ने अफर्ातनस्तान में जैसी शाांतत िकक्रया का वादा ककया था उसके उिट उसने काबि
ु को भरोसे
में लिए बर्ैर और उसके परामशग के बबना ही तालिबान के साथ सांभाषवत समझौता कर लिया। इसके बाद उसने
अफर्ान राष्रपतत अशरफ र्नी को इसके बारे में समझाने की कोलशश की जबकक र्नी तालिबान को िेकर शांकािु
रहे हैं और उन्होंने अमेररका को आर्ाह भी ककया कक वह तालिबान के समि समपगण की जल्दबाजी न ददखाए।
ां टन ने अपने ‘िमुख रिा सहयोर्ी’ भारत को
इस िस्ताषवत करार में काबुि को तो अांधेरे में रखा ही र्या, वालशर्
भी भरोसे में िेने की जहमत नहीां उठाई।
राष्रपतत पद सांभािते ही रां प ने वादा ककया था कक वह अफर्ातनस्तान में अमेररका के लिए खराब हो रहे
हािात को पिट दें र्े, िेककन दो साि बाद ही उन्हें हकीकत समझ आ र्ई कक वहाां अमेररका की नहीां, बजल्क
इस्िालमक कट्टरपांचथयों की ही जमीन मजबूत हो रही है । असि में रां प उस काम को पूरा करना चाहते हैं जजसकी
पहि उनके पूवव
ग ती बराक ओबामा ने की थी, िेककन वह अांजाम तक नहीां पहुांच पाई। यह पहि थी तालिबान के
साथ समझौता करने की। तालिबान के साथ सीधे वाताग की सुषवधा के लिए ओबामा ने इस िड़ाकू सांर्ठन को
कतर की राजधानी दोहा में कूटनीततक लमशन शुरू करने की अनुमतत भी ददिा दी। साथ ही 2013 में पाांच कट्टर
तालिबानी िड़ाकों को जवाांतेनामो बे जेि से ररहा भी ककया। इसके पीछे अमेररका की मांशा अपने एक सैतनक की
ररहाई ही नहीां, बजल्क तालिबान के साथ वाताग के लिए मांच तैयार करना था। तब तालिबान ने वाताग के लिए अपने
पाांच साचथयों की ररहाई को पूवग तनधागररत शतग बना ददया था। इन पाांचों को अमेररका के ददवांर्त सीनेटर जॉन
मैकेन ने ‘कट्टरपांचथयों में भी कट्टर’ करार ददया था।
अमेररकी रुख में नरमी से तालिबान का हौसिा और बढ़ा है । हो सकता है कक वह अपनी आतांकी
र्ततषवचधयों को और ज्यादा धार दे । पूरे अफर्ानी समाज की तो छोड़ड़ए, तालिबान समूचे पश्तून समुदाय का ही
ितततनचधत्व नहीां करता। इनमें से अचधकाांश पाककस्तानी हैं जजन्हें पाककस्तान की कुख्यात एजेंसी आइएसआइ ने
ही िलशक्षित ककया है। अमेररकी रवैये में बदिाव से यही सांदेश जा रहा कक वह अफर्ान यद्
ु ध से आजजज आ
चक
ु ा है और सम्मानजनक तरीके से षवदाई के लिए बेसब्र है । इस पष्ृ ठभलू म में िस्ताषवत समझौता न केवि
तालिबान के उभार पर मुहर िर्ाता है , बजल्क उसके सांरिक पाककस्तान के लिए भी एक बड़ी कूटनीततक जीत है ।
पाककस्तान ने ही इस समझौते में बबचौलिये की भलू मका तनभाई है ।
पाककस्तान पर अमेररकी भरोसा घटता जा रहा है , ऐसी धारणा के उिट िस्ताषवत समझौता और उसे जल्द
अांततम रूप दे कर िार्ू करने की अमेररकी हड़बड़ी यही दशागती है कक अमेररका के लिए पाककस्तानी सेना और
आइएसआइ की उपयोचर्ता बनी हुई है । इस तरह सीमा पार आतांकवाद को सांरिण दे ने के बदिे पाककस्तान
कूटनीततक िाभ कमा रहा है ।
नैततकता को ताक पर रखकर अमेररका तालिबान के साथ जजस सौदे बाजी की ददशा में कदम बढ़ा रहा है
उससे उसका यह सांददजध रवैया भी जादहर होता है कक िर्ातार आतांकी हमिों के बावजूद अमेररका की षवदे शी
आतांकी सांर्ठनों की सूची में तालिबान का नाम आखखर क्यों नहीां जोड़ा र्या? पाककस्तान जस्थत तालिबान के
सीमा पार दठकानों को तनशाना बनाने को िेकर भी अफर्ातनस्तान में अमेररकी सैन्य लमशन के हाथ एक तरह से
बाांध ददए र्ए। इस तरह तालिबान को कुचिने के बजाय अमेररका ने उसे कफर से खड़ा होने और अफर्ातनयों को
आतांककत करने का अवसर दे ददया।
अमेररका के लिए वक्त का पदहया घम
ू कर कफर वहीां आ र्या है । अि कायदा की तरह तालिबान भी उन
जजहादी समह
ू ों में था जजन्हें सीआइए ने िलशक्षित कर 1980 के दशक में सोषवयत सांघ के खखिाफ इस्तेमाि ककया
था। समकािीन षवश्व इततहास में सबसे बड़ा आतांकी हमिा झेिने के बाद अमेररका ने अफर्ातनस्तान में मौजद

तालिबान और उसके िमख
ु आतांककयों को नेस्तनाबद
ू करने का फैसिा ककया था, मर्र अब अपनी सम्मानजनक
षवदाई के फेर में वह अफर्ातनस्तान को उन्हीां क्रूर हाथों में सौंपने के लिए तैयार है जजनके खखिाफ उसने 17 साि
पहिे जांर् छे ड़कर सत्ता से बेदखि ककया था।
ताजा घटनाक्रम भारत के लिए भी व्यापक तनदहताथग वािा है जजसके बारे में अमेररका के पूवग रिा मांत्री
जजम मैदटस ने कहा था कक उसने अपनी उदार मदद से अफर्ान िोर्ों के ददि में खास जर्ह बनाई है ।
पाककस्तान तालिबान और अन्य आतांकी समूहों का समथगक है जजन्हें वह अफर्ातनस्तान और भारत के खखिाफ
इस्तेमाि करता आया है । अर्र अमेररकी फौज खासकर आतांक षवरोधी बि पूरी तरह अफर्ातनस्तान से िौट जाते
हैं तो ककसी भी अषिय जस्थतत में हस्तिेप कर हािात सुधारने के लिए अमेररका के पास कोई र्ुांजाइश नहीां रह
जाएर्ी।
अर्र पाककस्तान की मदद से तालिबान कफर से अफर्ातनस्तान की सत्ता पर काबबज हो जाता है तो 2002
से भारत द्वारा अफर्ातनस्तान को दी र्ई तीन अरब डॉिर से अचधक की मदद के फायदे भी धीरे -धीरे खत्म होते
जाएांर्े। एक ओर जहाां अमेररका नई ददल्िी के साथ रणनीततक भार्ीदारी बढ़ा रहा है वहीां षवरोधाभासी ढां र् से
भारत की अफर्ान नीतत में ईरान और रूस की भूलमका की अनदे खी कर रहा है । अफर्ातनस्तान में अपने दहतों
की रिा के लिए भारत को हरसांभव उपाय करने होंर्े, अन्यथा कश्मीर घाटी सदहत भारत की सुरिा बुरी तरह
िभाषवत होर्ी।

िक्त की पक
ु ार, मस्ु स्लम समाज में जड़ें जमा चुकी जाछत व्यिस्र्ा की विसांगछतयाां दरू
होनी चाहहए
ररजिान अांसारी ]: मुसिमानों के बीच अल्िामा इकबाि की यह उजक्त बेहद मशहूर है , ‘एक ही सफ में खड़े हो र्ए
महमूद व अयाज, न कोई बांदा रहा न कोई बांदा नवाज।’ दरअसि जब भी मुसिमानों में र्ैर-बराबरी का सवाि
उठता है तब इसी उजक्त के जररये सभी िोर्ों के बराबर होने का दावा ककया जाता है और कफर असमानता के
सारे सवाि कहीां र्म
ु हो जाते हैं। एक ऐसे समय जब मजु स्िमों में भी जाततवादी सोच अपनी र्हरी पैठ बना चक
ु ी
है तब सवाि है कक बराबरी का यह दावा ककतना दरु
ु स्त है ? क्या वाकई मजु स्िमों की जातत व्यवस्था, दस
ू रे धमों
की जातत-व्यवस्था से परे है ? यह सवाि इसलिए भी कक दहांद ू धमग में सवणों और दलितों के बीच के मतभेद तो
एक राष्रीय मुद्दा बन जाते है ैैैां, िेककन मजु स्िम समाज में जड़ें जमा चक
ु ी इस जातत व्यवस्था की षवसांर्ततयाां
शायद ही िकाश में आ पाती हैं।
दे खा जाए तो मजु स्िमों में बराबरी का लशर्फ
ू ा महज मजस्जद और शरीयत से जड़
ु े मसिों तक ही सीलमत है ।
अन्यथा जाततवादी मानलसकता की बेड़ड़यों में पूरा मुजस्िम समाज ही जकड़ा हुआ है । कुछ हद तक तथाकचथत
बराबरी ददखाने की कोलशश भी होती है तो ऐसा केवि धालमगक कारणों से ही सांभव हो पाता है , िेककन हर लिहाज
से षपछड़े मुजस्िम अर्ड़े मुजस्िमों की उपेिा के लशकार ही होते रहे हैं। यही वजह है कक इन दो वर्ों के बीच
अभी तक भरोसेमांद सामाजजक ररश्ते कायम नहीां हो सके हैं। बेटी-रोटी का ररश्ता तो दरू , षपछड़े मुसिमान अर्ड़ों
की उपेिा का लशकार होते रहे हैं। दस
ू रे शसदों में कहें तो षपछड़े मुसिमानों की एक बड़ी आबादी थोड़े से अर्ड़े
मुसिमानों के कारण षवकलसत नहीां हो सकी है ।
2011 की जनर्णना के मत
ु ाबबक दे श में 14.2 फीसद मजु स्िम हैं। एक अध्ययन के अनस
ु ार दे श की िर्भर् 80
फीसद मजु स्िम आबादी षपछड़ी जातत से आती है वहीां ककसी राज्य षवशेि में तो यह आांकड़ा राष्रीय औसत से भी
अचधक है । बबहार में तो 85 फीसद से अचधक मुजस्िम षपछड़े हैं। ये सामाजजक, आचथगक और राजनीततक तीनों ही
रूप से षपछड़े रहे हैं। ‘दलित मजु स्िम’ की सांकल्पना इसी का एक पहिू है ।
र्ौरतिब है कक मजु स्िमों को दो बड़े वर्ों मसिन-अशरफी और र्ैर-अशरफी में बाांटा र्या है । अशरफी यानी सवणग
मुजस्िमों में मुर्ि, सैयद, शेख और पठान आते हैं और शेि सभी जाततयाां षपछड़ी यानी र्ैर-अशरफी के तहत आती
हैं। हािाांकक इस्िाम में जातत व्यवस्था की कोई सांकल्पना नहीां है , िेककन मौजूदा व्यवस्था पररजस्थततजन्य कही
जा सकती है । जातत के आधार पर भेदभाव और सामाजजक बदहष्कार की समस्या इसी का एक पहिू है । सच्चर
कमेटी, मांडि आयोर् और सतीश दे शपाांडे की ररपोटग ने भी मुजस्िमों में मौजूद इसी जातत व्यवस्था के कारण
षपछड़ों के बबर्ड़ते हािात की तरफ सांकेत ककए है ैैैां।
आचथगक रूप से भी षपछड़े मुसिमान िर्ातार षपछड़ते जा रहे हैं। र्रीबी और बेरोजर्ारी की समस्याएां इनमें अपनी
जड़ें जमा चक
ु ी है ैैैां। आचथगक रूप से कमजोर होने के कारण इनमें लशिा का घोर अभाव दे खा जा सकता है ।
हािाांकक दे श के महज 57 फीसद मुजस्िम ही सािर हैं, िेककन षपछड़े मुसिमानों की बात करें तो मुजस्िमों की
कुि सािरता में उनकी भार्ीदारी चचांताजनक जस्थतत में है । यही कारण है कक सरकारी सेवाओां में अर्ड़े मुजस्िमों
का बोिबािा है । सरकारी सेवाओां में षपछड़ों की जो भी भार्ीदारी है उनमें उनकी मौजूदर्ी छोटे पदों पर ही दे खी
जाती है ।
शैिखणक रूप से षपछड़े होने की वजह से इनमें कोई बड़ा राजनीततक नेतत्ृ व भी षवकलसत नहीां हो पाया है । यही
वजह है कक षपछड़े मुजस्िम राजनीततक रूप से अदृश्य सामाजजक समूह बनकर रह र्ए है ैैैां। एक अध्ययन के
मुताबबक दे शभर के कुि मुजस्िम षवधायकों में षपछड़ों की भार्ीदारी िर्भर् 30 फीसद ही है । उदाहरण के तौर पर
राज्य षवशेि की बात करें तो आजादी के बाद से विग 2010 तक बबहार में 255 मुजस्िम षवधायक बने जजनमें
केवि 70 ही षपछड़े वर्ग से थे। कमोबेश यही हाि केंि की राजनीतत में है । िर्भर् तीन चौथाई मुजस्िम साांसद
सामान्य वर्ग के होते हैं, जबकक दे श की मुजस्िम आबादी में तीन चौथाई से भी अचधक दहस्सेदारी षपछड़ों की है ।
ऐसे में यह राजनीततक षपछड़ापन जहाां मुजस्िमों की सामाजजक व्यवस्था की पोि खोिता है वहीां उन सभी
लसयासी दिों की नीयत पर भी सवालिया तनशान िर्ाता है जो दबे-कुचिों के दहमायती होने का दम भरते रहे हैं।
षपछड़े मजु स्िमों में कोई भी बड़ा राजनीततक नेतत्ृ व षवकलसत नहीां होने की वजह से वे उच्च वर्ों के उम्मीदवारों
को ही हमेशा अपना ितततनचध चन
ु ने के लिए मजबरू होते रहे हैं। लिहाजा जहाां एक तरफ अर्ड़े मजु स्िम हर
लिहाज से सशक्त होते रहे , वहीां षपछड़े मजु स्िम कमजोर होते चिे र्ए। तनरां तर अनदे खी और उपेिा के कारण
आज उनकी जस्थततग ैांहद-ू दलितों से भी दयनीय हो र्ई है । यही कारण है कक दलित मजु स्िम अपने ही समाज के
अांदर उच्च वर्ों के शोिण के खखिाफ आांदोिनरत हैं। पव
ू ी उत्तर िदे श और बबहार में ‘पसमाांदा मजु स्िम महाज’ का
अर्ड़े मुजस्िमों और उिेमाओां के खखिाफ षवरोध-िदशगन इसी का एक पहिू है । षवडांबना है कक 21वीां सदी में भी
षपछड़े मुजस्िमों को असमानता, उत्पीड़न और भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है । नासूर बन चक
ु ी इस
जाततवादी मानलसकता से मुजस्िम समाज को आजादी ददिाने और दे श के िोकताांबत्रक मूल्यों को बनाए रखने के
लिए यह जरूरी है कक उनके सवािों और आवाज को सामने िाया जाए।
आज षपछड़े मुजस्िमों के लिए एक ऐसा मांच षवकलसत करने की जरूरत है जो अन्यायपूणग सामाजजक सांरचना के
खखिाफ िड़ सके और षपछड़ों के लिए एक सम्मानपूणग जर्ह समाज में सतु नजश्चत कर सके। राष्रीय अल्पसांख्यक
आयोर् और राष्रीय धालमगक और भािाई अल्पसांख्यक आयोर् द्वारा ‘दलित मुजस्िमों’ को उनके दहांद ू समकिों के
साथ अनुसूचचत जातत की श्रेणी में शालमि ककए जाने की लसफाररश इसी का एक पहिू है । सरकार को भी इस
ददशा में सकारात्मक पहि करनी चादहए। आज जब भारत षवज्ञान, सच
ू ना िौद्योचर्की और आचथगक षवकास में
िर्ातार अपना परचम िहरा रहा है तब यह ठीक नहीां कक मस
ु िमानों का एक बड़ा तबका अभी भी दजी, नाई,
ससजी षवक्रेता आदद जैसे पेशों में ही उिझा हुआ है । जब तक समाज को इस जाततवादी मानलसकता से आजादी
नहीां लमि जाती तब तक षपछड़े और पसमाांदा मुसिमानों को ‘न्याय’ का इांतजार रहे र्ा।

सस्ससडी का बोझ अनम


ु ान से अधधक रहने के आसार

षपछिे शुक्रवार को पेश अांतररम बजट में षवत्त विग 2018-19 के कुछ अनुमानों को सांशोचधत ककया र्या है , जजन्हें
िेकर कुछ िोर् सवाि उठा सकते हैं। िेककन ऐसे िोर्ों को सरकार का जवाब यह है कक षवत्त मांत्रािय के पास
ऐसे सयोरे और आांकड़े उपिसध हैं , जो उसे ये आांकड़े जारी करने का भरोसा दे ते हैं। यह बयान आश्वस्त करने
वािा होना चादहए। आखखरकार ये सांशोचधत आांकड़े सरकार के लिए राजकोिीय घाटे के अपने सांशोचधत िक्ष्य को
हालसि करने में अहम होंर्े। यह िक्ष्य षवत्त विग 2018-19 के लिए सकि घरे िू उत्पाद (जीडीपी) का 3.4 फीसदी
है । इसके बावजद
ू इन आांकड़ों की हकीकत की पड़ताि उपयोर्ी साबबत हो सकती है । सबसे पहिे हमें दे श में
िमख
ु सजससडी पर खचग को दे खना चादहए। खाद्य सजससडी का सांशोचधत अनम
ु ान षवत्त विग 2018-19 के लिए 1.71
िाख करोड़ रुपये है , जबकक इसका बजट अनम
ु ान 1.69 िाख करोड़ रुपये पेश ककया र्या था। अांतररम बजट से
पहिे नवांबर 2018 तक का खाद्य सजससडी का मालसक आांकड़ा उपिसध था। इस आांकड़े के अनस
ु ार अिैि से
नवांबर तक खाद्य सजससडी का बबि 1.42 िाख करोड़ रुपये या करीब 17,800 करोड़ रुपये िततमाह था। अर्र यह
मानकर चिते हैं कक चािू षवत्त विग के शेि चार महीनों में खाद्य सजससडी की औसत मालसक दर यही बनी रही
तो कुि खाद्य सजससडी बबि बढ़कर 2.14 िाख करोड़ रुपये पर पहुांच जाएर्ा। यह अांतररम बजट के सांशोचधत
अनुमान से करीब 42,000 करोड़ रुपये अचधक होर्ा।
उवगरक सजससडी के भी दो अहम दहस्से हैं। अांतररम बजट दशागता है कक यूररया सजससडी का सांशोचधत अनुमान षवत्त
विग 2018-19 के लिए 44,985 करोड़ रुपये है । यह बजट अनुमान 44,989 करोड़ रुपये से मामूिी कम है । अिैि से
नवांबर 2018 के दौरान यूररया सजससडी पर खचग 33,294 करोड़ रुपये रहा है , यानी हर महीने 4,162 करोड़ रुपये।
अर्र चािू विग के शेि चार महीनों में भी खचग इसी दर से बढ़ा तो कुि यूररया सजससडी बबि बढ़कर 49,941 करोड़
रुपये पर पहुांच जाएर्ा, जो अांतररम बजट में ददए र्ए सांशोचधत अनुमान के आांकड़े से करीब 4,956 करोड़ रुपये
अचधक होर्ा।
इसी तरह पोिण आधाररत उवगरकों का सजससडी बबि 2018-19 के सांशोचधत अनुमानों में 25,090 करोड़ रुपये
ददखाया र्या है , जो एक साि पहिे बजट अनुमानों में ददए र्ए आांकड़े के समान है । िेककन इस मद पर अिैि-
नवांबर 2018 की अवचध में 20,152 करोड़ रुपये पहिे ही खचग हो चक
ु े हैं यानी हर महीने 2,159 करोड़ रुपये। अर्र
विग के शेि चार महीनों में खचग इसी रफ्तार से बढ़ा तो पोिण आधाररत उवरग कों की सजससडी का सािाना बबि
बढ़कर 30,228 करोड़ रुपये पर पहुांच जाएर्ा। यह अांतररम बजट में पेश ककए र्ए सांशोचधत अनुमान से 5,138
करोड़ रुपये अचधक होर्ा।
अांतररम बजट में पेरोलियम सजससडी बबि का सांशोचधत अनुमान 24,833 करोड़ रुपये है , जो इसी विग के बजट
अनुमान 24,933 करोड़ रुपये से कम था। चािू षवत्त विग के दौरान कच्चे तेि की कीमतें तेजी से बढ़ी थीां, इसलिए
रसोई र्ैस और केरोलसन के सजससडी बबि बढऩे चादहए। असि में चािू षवत्त विग के पहिे आठ महीनों में
पेरोलियम सजससडी पर 23,142 करोड़ रुपये का खचग आने का अनम
ु ान है यानी हर महीने 2,893 करोड़ रुपये का
खचग आया है । अर्र चािू षवत्त विग के शेि चार महीनों में पेरोलियम सजससडी का खचग इसी रफ्तार से बढ़ा तो
कुि बबि बढ़कर 34,713 करोड़ रुपये पर पहुांच जाएर्ा। यह अांतररम बजट के सांशोचधत अनम
ु ान से 9,880 करोड़
रुपये अचधक होर्ा।
सांशोचधत अनम
ु ानों के मुताबबक इन िमख
ु सजससडी पर 2018-19 के दौरान कुि 2.66 िाख करोड़ रुपये खचग होंर्े।
यह रालश बजट अनम
ु ान 2.64 िाख करोड़ रुपये से मामि
ू ी अचधक है । अर्र आप अिैि से नवांबर 2018 के दौरान
इन सजससडी पर आए खचग के आधार पर पूरे साि के खचग का अनुमान िर्ाएांर्े तो पाएांर्े कक खचग 0.62 िाख
करोड़ रुपये अचधक रह सकता है । िमुख सजससडी का वास्तषवक बबि 3.28 िाख करोड़ रुपये तक पहुांच सकता है ,
जबकक इनका सांशोचधत अनुमान 2.64 िाख करोड़ रुपये ही है ।
यह बात ध्यान दे ने िायक है कक इन सजससडी पर खचग के मालसक आांकड़े तनयांत्रक एवां महािेखा परीिक (सीएजी)
हर महीने जारी करता है । तनस्सांदेह सीएजी के आांकड़े ऑड़डट नहीां ककए हुए और अस्थायी हैं। इसके अिावा यह
भी सांभव है कक बीते महीनों के खचग की रफ्तार हर मामिे में िार्ू न हो। बजट बनाने वािों की सच ू नाओां और
आांकड़ों तक ज्यादा पहुांच होती है । इनसे उन्हें सांशोचधत आांकड़े जारी करने का भरोसा लमिने की सांभावना है । यह
सांभव है कक राजकोिीय घाटे के आांकड़े पर इसके असर को कुछ मदों में सांैश ां ोचधत अनम
ु ानों की तुिना में कम
खचग करके बेअसर कर ददया जाए। या इस खचग के एक दहस्से को अर्िे साि तक टाि ददया जाए? िेककन िमुख
सजससडी पर ही सांशोचधत अनुमान के मुकाबिे 0.62 िाख करोड़ रुपये अचधक खचग होने से सरकार के राजकोिीय
मजबूती के कायगक्रम की र्ुणवत्ता पर िततकूि असर पड़ेंर्े।

चीन-जापान की करीबी और भारत की दरू ी

अमेररका और चीन के कारोबारी युद्घ की बातों के बीच हम एक अहम घटना पर ध्यान नहीां दे पाए हैं।
षपछिे कुछ ददनों में चीन और जापान के तनावपण
ू ग राजनीततक ररश्तों की बफग कुछ हद तक षपघिती नजर आई
है और उनके बीच व्यापाररक और आचथगक ररश्तों में नई जान आ रही है । चीन के िधानमांत्री िी कछयाांर् मई
2018 में जापान की यात्रा पर र्ए थे। वह एक शुरुआत थी जजसके बाद अक्टूबर 2018 में जापानी िधानमांत्री चीन
र्ए। यह 11 विग में पहिा मौका था जब कोई जापानी िधानमांत्री चीन र्या था। दोनों पिों के तनावपूणग ररश्तों में
नरमी की शुरुआत तब हुई जब अमेररका के रां प िशासन ने व्यापाररक मसिों पर इन दोनों दे शों को तनशाना
बनाना शुरू कर ददया। चीन के लिए जापानी उद्योर् एवां व्यापार का महत्त्व यह है कक अमेररकी बाजारों और
उन्नत तकनीक तक उसकी पहुांच िर्ातार सीलमत होती जा रही है । उधर जापान कुछ सीमाओां के साथ एक
आकिगक षवकल्प बना हुआ है । हाि के ददनों में हुआवेई का जापानी दरू सांचार बाजार से बाहर होना ऐसी ही एक
घटना है ।
चीन और जापान के ररश्तों में तनाव नई सहस्रासदी के आर्मन के समय िेत्रीय और सुरिा मसिों को
िेकर हुआ। सन 2012 में षववाददत सेंकाकू द्वीप को िेकर हािात बहुत नाजुक हो र्ए थे। विग 2012 में चीन में
जापानी एफडीआई 740 करोड़ डॉिर के उच्चतम स्तर पर पहुांचा था िेककन अर्िे कुछ विों में इसमें चर्रावट आई
और यह 2016 में 310 अरब डॉिर रह र्या। सािाना सवेिणों की बात करें तो अचधक से अचधक जापानी कांपतनयाां
चीन से बाहर तनकिने पर षवचार कर रही थीां जबकक वहाां षवस्तार करने की इच्छा रखने वािी कांपतनयाां बहुत
कम थीां। दोनों दे शों के बीच अत्यांत तनावपण
ू ग ररश्तों के कारण जापान ने अपना तनवेश चीन के अिावा अन्य
िेत्रों में फैिाना शरू
ु ककया। यही वह वक्त था जब जापान ने भारत की ओर ध्यान ददया। यह ध्यान सरु िा
साझेदार के रूप में भी था और जापानी व्यापार और तनवेश के केंि के रूप में भी। तेजी से षवकलसत होती
भारतीय अथगव्यवस्था को चीन के समतल्
ु य पेशकश वािा बाजार माना जाने िर्ा। भारत में जापानी एफडीआई
2006-07 के 8.5 करोड़ डॉिर से बढ़कर 2016-17 में 470 करोड़ डॉिर हो र्या। चीन में कुि लमिाकर 10,000 करोड़
डॉिर की जापानी पांज
ू ी है । भारत में यह केवि 2,500 करोड़ डॉिर है । अब जबकक चीन एक बार कफर जापानी
तनवेश के लिए उपयक्
ु त केंि बनकर उभर रहा है तो कहा जा सकता है कक भारत पर हालशये पर चिे जाने का
खतरा मांडरा रहा है । चीन में जापानी एफडीआई 2017 में सध
ु रकर 320 करोड़ डॉिर हो र्या और माना जा रहा है
कक इसमें आर्े और सुधार होर्ा। जापान के बाह्य व्यापार सांर्ठन (जेरो) के एक अचधकारी के मुताबबक, 'हमारा
मौजूदा तनष्किग यह है कक जापनी कारोबार चीन में तनवेश को िेकर आर्े और सकारात्मक रहे र्ा।'
जापान-चीन व्यापार में भी विग 2012 के बाद आई चर्रावट अब पिटी है और सुधार दे खने को लमि रहा
है । 2017 में यह करीब 30,000 करोड़ डॉिर रहा। भारत-जापान व्यापार में हाि के विों में चर्रावट आई है और यह
2012-13 के 1,850 करोड़ डॉिर से घटकर 2016-17 में मात्र 1,350 करोड़ डॉिर रह र्या। इसी अवचध में भारतीय
तनयागत 610 करोड़ डॉिर से कम होकर 380 करोड़ डॉिर रह र्या। जापान का कारे ाबारी जर्त चीन की मेड इन
चाइना 2025 पहि को एक बड़े अवसर के रूप में दे खता है । इस पहि में 10 िेत्रों को चचजह्नत ककया र्या है
जजनमें कृबत्रम मेधा, रोबोदटक्स, इिेक्रॉतनक व्हीकि और क्वाांटम कांप्यूदटांर् आदद शालमि हैं। चीन का िक्ष्य सन
2025 तक इन तमाम िेत्रों में अच्छी काबबलियत हालसि करने का है । जापान इन िेत्रों में पहिे ही अहम
काबबलियत हालसि कर चक
ु ा है । हाि ही में जापान की रोबोट तनमागता कांपनी यासकावा और चीन की वाहन
कांपनी चेरी ने इिेजक्रक वाहन तनमागण को िेकर समझौता ककया है । नैशनि पैनासोतनक के शाांघाई जस्थत शोध
एवां षवकास केंि ने चीन की अिीबाबा और बायडू से कनेक्टे ड ड़डवाइस और नई पीढ़ी के वाहनों के इांस्ूमें ट पैनि
बनाने के लिए समझौता ककया है । अमेररकी और पजश्चमी यूरोप के दे श जहाां मेड इन चाइना पहि को अपने
तकनीकी दबदबे के लिए चन
ु ौती के रूप में दे ख रहे हैं, वहीां जापान का रुख इसके उिट है । भारत के पास इसके
समतुल्य अवसर नहीां है ।
सन 2013 में जापान ने चीन की बेल्ट ऐांड रोड पहि का षवरोध ककया था। परां तु 2015 में उसने र्ुणवत्तापूणग
बुतनयादी ढां ैाचे में सहयोर् के साथ िततकक्रया दी और एलशया तथा अफ्रीका के दे शों में षवत्तीय सहायता का
व्यवहायग तथा पारदशी षवकल्प उपिसध कराया। सन 2017 में भारत और जापान ने लमिकर एलशया-अफ्रीका
इकनॉलमक ग्रोथ कॉररडोर (एएईजीसी) की घोिणा की ताकक एलशया और अफ्रीका के दे शों में बुतनयादी षवकास को
सांयक्
ु त फांड़डांर् की जा सके। बहरहाि, जन ां े आबे ने इसके लिए चीन का हाथ
ू 2018 में जापान के िधानमांत्री लशज
थाम लिया। अक्टबरू 2018 में उनकी चीन यात्रा के दौरान ऐसी 50 पररयोजनाओां की घोिणा की र्ई। इनमें थाईिैंड
की एक रे ि पररयोजना भी शालमि थी। जापान अब बेल्ट रोड पहि में चीन के साथ है ।
जापान का कारोबारी जर्त भारत में तनवेश के माहौि को िेकर भी चचांततत रहता है । भारत-जापान
बबज़नेस िीडसग की हालिया सांयक्
ु त ररपोटग में जापानी पि ने भारत सरकार से माांर् की कक वह जीएसटी व्यवस्था
को सुसांर्त और र्ततशीि बनाए तथा उससे जुड़ी िकक्रयाओां को भी ठीक करे । इसके अिावा कर व्यवस्था को
सुधारने, उसमें आांतररक स्तर पर तनरां तरता िाने आदद जैसी बातें भी कही र्ईं। इसमें मास्टर फाइि की जरूरतों
की समीिा, श्रम सुधारों को मजबूत बनाना और उनमें सांशोधन करना, डेटा स्थानीयकरण को िेकर तनयमों को
सहज कर डेटा का मुक्त िवाह सुतनजश्चत करना, बुतनयादी षवकास को बढ़ावा दे ना, पररयोजनाओां की बोिी िकक्रया
में सुधार, पारदलशगता िाना, कानूनी और सांस्थार्त ढाांचों के िवतगन में तनरां तरता उत्पन्न करना, िशासतनक
िकक्रयाओां के आम तनयमों का षवकास करना और उनका ड़डजजटिीकरण करना आदद तमाम बातें शालमि हैं। आज
चीन में एफडीआई को िेकर कोई बहुत बेहतर शतों की पेशकश नहीां है िेककन इसके बावजूद जापान को भारत के
बजाय चीन तथा दक्षिण पव
ू ी एलशया के दे शों के साथ कारोबार करना ज्यादा रास आ रहा है , उसे इसमें अचधक
सहजता महसस
ू हो रही है ।

(िेखक पूवग षवदे श सचचव और वतगमान में सीपीआर के वररष्ठ फेिो हैं। िेख में िस्तुत षवचार पूरी तरह तनजी हैं।)

Ayodhya and the challenge to equality


The Ram temple issue remains a metaphor for Muslim disenfranchisement
In elections to three State Assemblies of Madhya Pradesh, Rajasthan and Chhattisgarh late last
year, candidates of the Muslim faith won 11 of the 520 seats in play. That would seem a modest
tally, by no means evidence of disproportionate political influence.
The myth of a pampered minority, though, refuses to die. On the campaign trail last
November, Prime Minister Narendra Modi accused the Congress party of pressuring Supreme
Court judges, on pain of impeachment, to delay a final decision on the Ayodhya title suit. The
charge stems from a lineage of propaganda invented by the Bharatiya Janata Party (BJP), which
holds the Congress guilty of the cynical politics of Muslim appeasement.
Secularism in India has been variously characterised, though few of these have done
justice to the vigour with which the issue was debated in the Constituent Assembly. In the
aftermath of Partition, seen as the outcome of the community-based template of political
competition introduced under British rule, secularism was an article of faith across the
ideological spectrum, though only in a limited definition as a seamless sense of national identity.
A superfluity
Minority representation was discussed at length and set aside as a superfluity. There
was no case for assured representation on communal lines, since the guarantees of equality before
the law and access to public services and employment would ensure fair outcomes for all.
Ananthasayanam Ayyangar put it thus, addressing an interlocutor from the minority
community in the Constituent Assembly: “I am a Hindu and if you allow me to represent you, I
will come to you at least every four (sic) years. Similarly a Muslim man can come to Hindus.
Ultimately, we will all come together.” For Sardar Patel, the possibility of both separate communal
electorates and assured representation was unthinkable, no less than an incentive for certain
citizens to “exclude” themselves and “remain perpetually in a minority”.
Equality embraced the right to be different, though not a difference in rights.
Exceptions would be granted only where classes of citizens were known to have suffered a deficit
of social and cultural capital on account of discrimination through history. The construct of a
“minority” segued into a notion of social and educational backwardness, remediable over
generations through procedures of affirmative action.
These were formulations steeped in unwitting upper caste privilege, a sense that the
Constituent Assembly — elected on a very narrow franchise and voided of its more eloquent
minority spokespersons by Partition — spoke for a true nationalism at risk of dilution by sectarian
demands.
A narrower identity
In the real world of dislocation and trauma, Partition witnessed a number of local
vigilante efforts to inscribe a narrower identity on the incipient nation. The surreptitious
introduction of idols into the Babri Masjid at Ayodhya, where a dispute over building rights on an
adjacent site had simmered since the late19th century, was one such act, though by no means the
only one.
It is on record that Prime Minister Jawaharlal Nehru wrote insistently to the Chief
Minister of Uttar Pradesh at the time, Govind Ballabh Pant, insisting that the idols smuggled into
the Babri Masjid should be removed. Less known is his suggestion in a 1949 letter to the Minister,
Mehr Chand Khanna, of a wider problem involving the expropriation of a number of Muslim
places of worship.
Nehru’s insistence on the reversal of these intrusions gradually receded from the
attention span of governments at the State and local levels. Ayodhya, like numerous other
incidents from the time, would have faded into the distant recesses of memory had not
the politics of waning upper caste hegemony and the decline of the Congress provided occasion
for it to spark back to life.
If equality was a constitutional promise impossible to reconcile with upper caste
hegemony, identity was a serviceable alternative. From about the 1980s, the seamless spirit of the
Indian nation that was so much a concern of the Constituent Assembly, gave way, at least in
electoral competition, to the construct of a nation of multiple identities, contending for influence
over the whole.
The U.P. strategy
From its birth in the 1980s, the Ayodhya campaign has been a metaphor for a minority
faith’s disenfranchisement. And nowhere is this story told more eloquently than in India’s largest
State, Uttar Pradesh, where Muslims constitute over 19% of the total population, and hold a mere
24 seats in a 403 member Legislative Assembly. This tally from the 2017 election is the lowest
since 1991, when Muslim representation in a somewhat larger State Assembly, prior to the hill
districts being hived off, stood at 21.
That year, when the BJP first won power in U.P., marked the prelude to the climactic
act of destruction at Ayodhya. But political energies were spent once the offending 16th century
monument was effaced. The BJP was unable to mobilise the same fervour in elections that
followed, never gaining a majority of its own till the sweep of 2017.
Analysis by the Trivedi Centre for Political Data, at Sonipat’s Ashoka University,
shows that the BJP’s electoral strategy in U.P. was built on a 60 versus 40 calculation. With
Muslims and two other caste groupings — Yadavs and Jatavs — making up roughly 40% of the
State’s electorate, the BJP strategy targeted the remaining 60%. Key to the BJP’s sweep of the
U.P. elections was its success in drawing in a critical mass of votes from strata that had reason to
feel aggrieved at their exclusion from the dominant coalitions shaping politics post-Ayodhya.
Too loose a standard
The endless turmoil caused by Ayodhya compels a reexamination of other
fundamentals of the Constitution. Articles 27 and 28 have been read as reproducing, though in a
weaker fashion, the guarantee of secular statecraft of the U.S. First Amendment, which prohibits
the establishment of any religion by law.
Though the Indian state is enjoined to neutrality, religion is allowed an active role in
the public sphere under Article 25, which assures every citizen the freedom to “profess, practise
and propagate” any faith.
By definition, every religion enters the fray with a claim to universality; no religion is
willing to accept a domain of application limited in time and space. The unfettered exercise of
Article 25 rights in this sense puts the general will at risk of being bent to a majoritarian assertion.
The restraint of “public order” mandated by the Constitution is too loose a standard to prevent the
intrusion into politics of religious majoritarianism.
In his recent book, A People’s Constitution, Rohit De speaks of how in the early years
of Indian independence, “electoral minorities”, i.e., communities of caste and religion that were
unlikely to “represent themselves through electoral democracy”, were overrepresented in litigation
invoking the writ jurisdiction of newly established constitutional courts. Clearly, the Ayodhya
petition claiming the restitution of a monument commandeered in the name of another faith was
one such instance.
With electoral compulsions now acquiring increasing urgency, the BJP government
has demanded that the Supreme Court unfetter a large part of the land held in trust pending a final
settlement of the case. Party spokesmen have also mused aloud about issuing an ordinance as an
act of executive will to preempt an adverse judicial finding. This attempt to dismantle the last
remaining restraint to the majoritarian will is sure to fuel a new fervour in the upcoming general
election, putting further pressure on the institutions of governance and challenging their capacity to
uphold constitutional integrity.
Sukumar Muralidharan teaches at the school of journalism, O.P. Jindal Global
University, Sonipat

Trump and his generals


For all their discord, no one appears to know how to manage chaos at a
time of U.S. retreat
Not even U.S. President Donald Trump’s worst enemies would deny that he has
fulfilled many election campaign foreign policy promises, including opting out of international
agreements on climate change, the Iran nuclear accord and the Trans-Pacific Partnership, the
relocation of the U.S. embassy to Jerusalem, and pressurising allies to pay more for joint defence.
A matter for surprise then, is that another Trump campaign pledge, to end the ‘endless wars’ and
bring American troops abroad back home, specifically to withdraw U.S. forces from Syria and
Afghanistan, is met with denunciation and open or indirect obstruction from both civilian and
military circles.
The opposition within
This opposition, marked by some high-level resignations such as Secretary of Defence
James Mattis — which have been accorded hero-martyr status by the media — has been provoked
by Mr. Trump’s decision to repatriate some 2,000 forces from Syria and around 7,000, which is
around half the total number, from Afghanistan. Mr. Trump’s moves are condemned as isolationist
and favouring the ‘enemies’ of the U.S., especially Russia and Iran. Regarding Afghanistan, his
opposition was not astute enough to perceive that the drawdown was a necessary prelude to direct
negotiations with the Taliban. The objectors also imply that Israel is exposed to greater danger, a
cause certain to enjoy bi-partisan favour. General Mattis, in his resignation letter, wrote he was
leaving “because you have the right to have a Secretary of Defense whose views are better aligned
with yours.” It is amazing that it took him two years to detect any mis-alignment.
No proposal to draw down the U.S. military presence abroad will be acceptable to Mr.
Trump’s critics, because the American military-industrial complex referenced by President Dwight
Eisenhower in 1961 still holds the civilian authority in thrall, and since World War l, U.S. foreign
policy has been totally militarised. To every international problem, Washington has only two
responses: the application of sanctions, and the threat or use of force.
Mr. Trump is vilified as isolationist by the mainstream media, evidence that the neo-
imperial spirit and god-given right to hold military hegemony is deeply internalised in the entire
U.S. establishment. So also is the Francis Fukuyama prediction that “the end point of mankind’s
ideological evolution [is the] universalisation of Western liberal democracy as the final form of
human government.” Insinuations about a sellout foreshadow whatever contact Mr. Trump wishes
to make with the only world power that can incinerate the U.S., though every previous U.S. leader
held talks with his Russian counterpart to make the world a safer place. This has less to do with
Special Counsel Robert Mueller’s interminable inquiry about Russian collusion, and more with the
imagining of America’s role in the world. The New York Times writes of a “world order that the
U.S. has led for 73 years since the Second World War”, accusing Mr. Trump of reducing that
“global footprint needed to keep that order together”. The same theme is dutifully echoed by
compliant European allies such as Germany’s Chancellor Angela Merkel, who in July 2018
bewailed that under Mr. Trump the U.S. could not be relied upon to “impose order”. But whose
order?
Mr. Trump is wrong in asserting that the U.S. destroyed the Islamic State (IS) in Syria,
not only because there are some remnants of it left, but because while U.S.-coalition aircraft have
dropped ordnance from several thousand feet and killed innumerable civilians in the process, the
actual fighting against the IS has been done by Kurds in northeast Syria, and the Assad
government, Russians, Iranians and Hezbollah elsewhere. The small U.S. contingent of about
2,000 serves to train and supply the Kurds, constrain the Turks and obstruct progress towards a
peace settlement. As elsewhere, the Americans are ready to fight till the last local soldier. Mr.
Trump has the support of Congress, media and the military on a tough line on Iran — again, a
campaign promise — but in West Asia, Mr. Trump outsources local action to allies such as Saudi
Arabia, turning a blind eye to its criminal activities in Yemen and also the murder of journalist
Jamal Khashoggi.
In the process of demonising Mr. Trump, accountability, responsibility and civilian
oversight are discarded, while people in uniform and in the shadows — the ubiquitous U.S.
intelligence services — are raised on lofty pedestals, encouraging dissidence. To no surprise, Mr.
Trump’s announcements have resulted in a flurry of alarmist reactions. As demanded by the media
and Congress, the U.S. National Aeronautics and Space Administration cancelled meetings with its
Russian counterpart, and an end to U.S.-Russia collaboration in space appears probable. The
Pentagon now reports that China seeks expansion by “military and non-military means” and
military bases in Pakistan, Cambodia, and elsewhere that the American public have never heard of.
The Pentagon concludes that China is “developing the capacity to dissuade, deter, and defeat a
potential third-party [read, U.S.] intervention in regional conflicts”. With a second summit
between Mr. Trump and North Korean Supreme Leader Kim Jong-un in the offing, the media is
predictably cautioning against any reduction of U.S. forces in South Korea as a result of any U.S.-
North Korean détente, with head of the American Joint Chiefs of Staff, General Joseph Dunford,
weighing in to predict that China “probably poses the greatest threat to our nation by about 2025”.
Last word with Iran
The last word rests with Iran, regarded as an enemy by both Mr. Trump and his
domestic adversaries. When U.S. Secretary of State Mike Pompeo claimed in January that “when
America retreats, chaos often follows”, Iran’s Foreign Minister Mohammad Javad Zarif countered
by tweeting, “Whenever and wherever US interferes, chaos, repression, and resentment follow.”
No one in the United States is listening.
Krishnan Srinivasan is a former Foreign Secretary

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