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पतंजलि योग सूत्र नोट्स

 इकाई -१
 महर्षि पतंजर्ि का परिचय-  द्रष्टा- दृश्य र्िरुपिम-
 योग सत्रू एवं उसके भाष्यकािों का परिचय  प्रकृर्त परुु ष सयं ोग –
 र्चत्त की भूर्मयााँ –  अष्टांग योग सर्ं क्षप्त परिचय-
 र्चत्त की वर्ृ त्तयााँ -  आसि प्रािायाम की अवधाििा एवं
 र्चत्त वृर्त्त र्ििोधोपय- र्सर्द् –
 ईश्वि का स्वरुप एवं ईश्वि प्रर्िधाि-  प्रत्याहाि की अवधाििा एवं इसकी र्सर्द्-
 समार्ध एवं उसके प्रकाि  इकाई -४
 संप्रज्ञात समार्ध  धाििा, ध्याि एवं समार्ध परिचय –
 र्चत्त र्वक्षेपास्ते अन्तिाय-  संयम एवं इसकी र्सर्द्-
 र्चत्त प्रसादि के उपाय –  तीि प्रकाि के र्चत्त परििाम-
 इकाई -२  भूत जय, इर्न्द्रय जय एवं उिकी र्सर्द् –
 योगािश
ु ासिम की अवधाििा –  र्ववेक ज्ञाि र्िरुपिम
 योग िक्षि एवं इसके परििाम-  कै वल्य
 समार्ध के प्रकाि –  पांच प्रकाि के र्सर्द् एवं जत्यांति परििाम

 इकाई -३  र्िमािि र्चत्त की अवधाििा –
 र्ियायोग की अवधाििा-  कमि के चाि प्रकाि-
 क्िेश का र्सद्ांत –  वासिा की अवधाििा एवं
 दुखवाद की अवधाििा-  बाह्य पदार्ि की अवधाििा
महलषि पतंजलि का परिचय-
महर्षि पतंजर्ि

 परिचय  जीवन- यौगिक जीवन


 समय  योि गवद्या में योिदान
 जन्म
 िचनाये

परिचय

 पतञ्जगि योिसत्रू के िचनाकाि


 जो छः दर्शनों ;न्याय, वैर्ेगिक, साांख्य, योि, मीमाांसा, वेदान्त में से एक है।
 भाितीय सागहत्य में पतञ्जगि के गिखे हुए ३ मख्ु य ग्रन्थ गमिते हैः
 -योिसत्रू , अष्टाध्यायी पि भाष्य औि आयवु ेद पि ग्रन्थ।
 कुछ गवद्वानों का मत है गक ये तीनों ग्रन्थ एक ही व्यगि ने गिखेय अन्य की धािणा है गक ये
गवगभन्न व्यगियों की कृगतयााँ हैं।
 पतञ्जगि ने पागणगन के अष्टाध्यायी पि अपनी टीका गिखी गजसे महाभाष्य का नाम गदया
 महाभाष्य
ा़ ; समीक्षाए गटप्पणीए गववेचना, आिोचना।

समय
इनका काि कोई २०० ई पू माना जाता है।
प्राचीन भारत में पतंजलि नाम के अनेक आचार्य हो चक
ु े है। लिलभन्न कािों में हुए पतंजलि नामक
आचार्ो का संक्षेप में लििरण इस प्रकार है-

 योिसत्रू के िगचयता
 व्याकिण महाभाष्य िगचयता
 गनदानसत्रू िगचयता
 पिमाथशसाि- आगद र्ेि पतांजगि
 साांख्याचायश पतजां गि
 आयवु ेद प्रविा पतजां गि
 कोर्काि पतजां गि
 िोहर्ास्त्रकाि के रूप में एक अन्य पतजां गि
िामभद्र दीक्षीत -
सत्रू ागण योिर्ास्त्रे वैद्यकर्ास्त्र च वागतशकागन ततः।
कृत्वा पतांजगिमगु नः प्रचाियामासा जिगददां त्रातमु ।् ।
अर्ाित -
‘‘पतांजगि मगु न ने इन जित की िक्षा के गिए योििास्त्र मे सत्रू औि वैद्यक र्ास्त्र मे वागतशको की
िचना कि उनका प्रचाि गकया।’’

ई.पू. र्ितीय शताब्दी में


महाभाष्य के िचगयता पतञ्जगि कार्ी. मण्डि के ही गनवासी थे। मगु नत्रय की पिांपिा में वे अगां तम
मगु न थे।
पागणनी के पश्चात् पतञ्जगि सवशश्रष्ठे स्थान के अगधकािी परुु ि हैं।
द्रर्वड़ देश के सक
ु र्व िामचन्द्र दीर्क्षत के अिस
ु ाि
आगद र्ांकिाचायश के दादािरुु आचायश िौड़पाद पतञ्जगि के गर्ष्य थे गकांतु तथ्यों से यह बात पष्टु
नहीं होती है।

प्राचीन गवद्यािण्य स्वामी नेअपने ग्रथां श्र्क


ां ि गदगववजय में आगद र्क
ां िाचायश में िरुु िोगवदां पादाचायश
को पतञ्जगि का रुपाांति माना है।
इस प्रकाि उनका सांबांध अद्वैत वेदाांत के साथ जड़ु िया।
मख्
ु य रूप से दो पतंजर्ि .
1.पतजां गि एवां 2. पतजां गि
व्याकिण भाष्यकाि चिक सांगहता प्रगतसांस्कताश औि योि र्ास्त्र गवर्यक उस ग्रांथ का िगचयता
गजसका कगतपय सदां भश पतजां गि के नाम से दािशगनक सागहत्य में उद्धतृ गमिते है।
पतंजर्ि एक व्यर्ि है जो िाजा पुष्यर्मत्र के समकार्िक है, योगसत्रू काि पतंजर्ि ,
भाष्यकाि पतंजर्ि से अत्यंत प्राचीि है।
द्वापर के अंत में होने वाले महाभारतकार तथा ब्रह्मसूत्रकार वेदव्यास से भी प्राचीन है।

जन्म
आगदर्ेि जी का पतांजगि के रूप में जन्म कथा
माता - िोगणका नामक की एक योगिनी
अगां तम सयु श अर्घयशदान देते समय अजां िी में छोटे सपश के रूप में गििे औि तिु ां त मानवाकाि रूप िे
गिया।
उसका नाम िखा - पतंजर्ि
पत-् गििता हुआ/गििा हुआ
-अजां गि तपशण/किति
िोगणका के किबद्ध प्राथशना के कािण भी पतांजगि नाम पडा
योग सत्रु काि पतंजर्ि को प्रायः सभी आचायो िे स्र्ाि स्र्ाि पि
र्ेिावताि, फगणपगत,अनन्त इत्यागद कहा है।
शेषावताि /िागिाज प्रर्सर्द् के कािि

 कश्मीि के नािू जागत के ब्रह्मणो के बीच जन्म


 अदभतू र्ास्त्र ज्ञान , गवगवध भािाओ ां के प्रकाण्ड पगण्डत
 र्ेिनाि के समान श्वेतत्व, जो कगष्मरियो मे प्रायः देखा जाता है
 सम्पणू श योि र्ास्त्र मे ईश्वि प्रगणधान के अगतरिि एकमात्र देवता समापगि का गवधान-
अन्नत! -प्रयत्नर्ैगथल्यानन्तसमापगिभ्याम!् !’’2/47
 अथाशत- उि आसन प्रयत्न की गर्गथिता से औि अन्नत‘पिमात्मा’ में मन ििाने से गसद्ध
होता है।
 साांख्य र्ास्त्र मे जो महत्व श्रीकृष्ण का है वही योिर्ास्त्र में पतजां गि का है।
जीवि- यौर्गक जीवि
प्राचीन काि के पतजांगि मगु न का महाभाष्य िगचयता होना भी एक गवगचत्र रूप में गदखिाया िया
है।
गजसके अनसु ााि पतांजगि मगु न को िेर्नाि का अवताि मानकि कािी में एक बावडी पि पागणनी
मगु न के समक्ष सपश रूप में प्रकट होना बतिाया िया है।
पार्ििी मुर्ि से संवाद
पागणनी मगु न घबिाकि ‘‘को भवान’’ के स्थान पि ‘‘कोभशवान’् ’ बोिते है।
सपश उिि देता है- सपोऽहम’् ।
पागणगन मगु न पछ
ु ते है ‘िे फः कुतो ितः’।
सपश उति देता है- ‘तव मख
ु ’े ।
इसके पश्चात् सपश के आदेिानसु ाि एक चादि की आड ििा दी ियी।

उसके अांदि से र्ेिनाि पतांजगिमगु न अपने हजािे मख


ु से एक साथ सब प्रश्नों को उिि देने ििे। इस
प्रकाि सािा महाभाष्य तैयाि हो िया ।
सपश की आज्ञा गवपिीत चादि उठााने से ब्रह्मण के सािे कािज जि िये
उसको दखु ी देख एक यक्ष वक्ष
ृ पि बैठा पिोंपि भाष्यको गिखकि उनके पास फें क गदयें। उनमें कुछ
पिे बकिी खा ियी ।
इसीगिए महाभाष्य में असांिगतयाां गमिती है।

योग र्वद्या में योगदाि


ु ों -आगधभौगतक, अध्यागत्मक व आगधदैगवक से पणु शतः मि
गत्रगवध दख ु हो अपने मि
ू सगचचदान्नद
आत्म स्वरूप में गस्थगत के गिए
योि के मि
ू आधािभतू ग्रथां योिसत्रु की िचना
अष्टाांि योि का क्रमबद्ध वैज्ञागनक वणशन
यम,गनयम,आसन,प्रणायाम,प्रत्याहाि,धािणा,ध्यान एवां समागध।
सावशभौगमक योि अनर्
ु ासन का सिि सत्रु ों में उपदेर् ।
कुि 195 सत्रु ों , 4 पादों में व्यवगस्थत योिगवज्ञान रूप योि दिशन का प्रगतपादन।

 समागध पाद -51


 साधन पाद - 55
 गवभगू त पाद - 55
 कै वल्य पाद- 34
‘‘योिेन गचिस्य पदेन वाचाां मिां ििीिस्य च वैद्यके न ।
योऽपाकिोंतां पिविां मगु ननाां पतांजगिां प्राजांगििानतोऽगस्म।।’’
अर्ाित-्

 गचि.र्गु द्ध के गिए योि ; योिसत्रू


 वाणी.र्गु द्ध के गिए व्याकिण ; महाभाष्य
 औि र्िीि.र्गु द्ध के गिए वैद्यकर्ास्त्र; चिकसांगहता ,
देनेवािे मगु नश्रेष्ठ पातजां गि को प्रणाम !
योग सुत्र के भाष्यकाि

 व्यास जी - योि भाष्य


 वाचश्पगत गमश्र ‘9वीं र्ताद्वी’’- तत्वगवर्ािदी
 भोजिाज ’’11वीं ’’ - भोजवगृ त
 गवज्ञान गभक्षु ‘‘14वीं’’- योिवागतशक
 स्वामी गववेकानन्द ‘‘19वीं ’’ - िाजयोि
योग सूत्र एवं उसके भाष्यकािों का परिचय -
र्वर्वध भाितीय दशििों के बीच योग दशिि का स्र्ाि अत्यन्त महत्वपूिि है। योि का स्वरूप अत्यन्त
व्यापक है पिन्तु इसकी मौगिक अवधािणा दािशगनक एवां आध्यागत्मक है। ऐगतहागसक दृगष्ट से योि गवज्ञान का
गवकास कई खण्डों में हुआ है, जो प्राचीन उपगनिदों, श्रीमद्भिवद्गीता तथा पातांजगि योिसत्रू ों में गनगहत योि के
आधािभतू ज्ञान से िेकि तदनन्ति कािीन गहन्द,ू जैन, बौद्ध, सफ ू ी तथा गसक्ख आगद धमों के दािशगनक गवचािों
के माध्यम से गवगवध रूप में गवकगसत होता हुआ योि का ज्ञान आधगु नक काि में स्वामी गववेकानदां , श्री अिगवदां ,
महात्मा िाधां ी आगद गवचािकों के प्रयास के स्वरूप में गदखाई देता है। वस्ततु ः योि भाितीय दर्शन का साि है।
यह एक सगु वगदत तथ्य है गक भाितीय दर्शन का चिम िक्ष्य प्रागणयों को गत्रगवध दःु खों से सदा के गिये छुटकािा
गदिाना ही है। दःु खों की यह आत्यांगतक गनवृगि, मगु ि, मोक्ष, कै वल्य, अपविश, गनःश्रेयस,् गनवाशण औि पिमपद
इत्यागद पदों से अगभगहत की िई है। इसकी गसगद्ध के गिये प्रायः हम सभी भाितीय दर्शन (चावाशक औि मीमाांसा
के अगतरिि) पदाथों के र्द्ध ु ज्ञान को गकसी न गकसी प्रकाि से अपरिहायश उपाय मानते हैं श्रगु तयों ने भी ‘ऋते
ज्ञानान्न मगु िः’ का तथ्य स्वीकृ त गकया। पदाथश के इस र्द्ध ु ज्ञान को गवगभन्न दर्शनों में तत्वज्ञान, सम्यक् ज्ञान,
तत्व साक्षात्काि, पिम ज्ञान, आत्मज्ञान औि गववेक ख्यागत इत्यागद नाम से गदये िये हैं। इस र्द्ध ु ज्ञान का एक
रूप तो वह है जो बगु द्ध की िद्ध
ु सागत्वक वृगि के द्वािा प्राप्त गकया जाता है तथा दसू िा तथा उिम रूप वह है, जो
वृगिहीन गस्थगत में आत्मा का अपिोक्ष अनभु व होता है। इनमें से प्रथम प्रकाि का तत्वज्ञान साांख्य योि में ‘गववेक
ख्यागत’ के नाम से प्रगसद्ध है औि गद्वतीय प्रकाि का तत्व दशिि योग शास्त्र में ‘असम्प्प्रज्ञात योग’ के िाम से
र्वख्यात है।दोनों प्रकाि के र्द्धु ज्ञान को प्राप्त किने की प्रगक्रया बड़ी जगटि है। इस उभयस्तिीय प्रगक्रया का
िचनात्मक स्वरूप ही पतांजिी योि दर्शन में वगणशत है।
र्ोग दर्यन, साधकों के लिर्े परम उपर्ोगी र्ास्त्र है , इनमें अन्र् दर्यनों में खण्डन- मण्डन के लिना िहुत
सरितापिू यक कम र्ब्दों में र्ोग के लसद्धान्त का लनरूपण लकर्ा गर्ा है। इस ग्रंथ पर अि तक संस्कृ त एिं लहन्दी
और अिग- अिग भाषाओ ं में भाष्र् और लिकाएँ लिखी जा चक ु ी है। भोज िृलि और व्र्ास के अनिु ाद भी
लहन्दी भाषा में कई स्थानों से प्रकालर्त हो चक ु े है। इसके अलतररक्त ‘पातंजि र्ोग प्रदीप’ नामक ग्रथं के स्िामी
ओमानन्द का लिखा हुआ भी प्रकालर्त हो चक ु ा है, इसमें व्र्ास भाष्र् एिं भोज िृलि के अलतररक्त अन्र् र्ोग
लिषर्क र्ास्त्रों के भी िहुत से प्रमाण संग्रह करके एिं उपलनषद् एिं श्रीमद्भगिद्गीता आलद सदग्र् ंथों तथा दसू रे
दर्यनों के साथ भी समन्िर् करके गं््रथों को िहुत उपर्ोगी िनार्ा गर्ा है।

योग भाष्यकाि व्यास – योिर्ास्त्र के इगतहास में पतांजगि के पश्चात् गजस कृ गत का नाम सवाशगधक प्रगसद्ध है,
वह है व्यास द्वािा िगचत व्यास भाष्य। अध्येताओ ां की दृगष्ट में योिसत्रू की भाांगत योिभाष्य भी अतीव महत्वपणू श
एवां प्रामागणक कृ गत है। योि दर्शन का र्ास्त्रीय तथा व्यावहारिक उभयगवध स्वरूप- गनरूपण योिभाष्य के आधाि
पि गकया जाता है। इस भाष्य की प्रगसगद्ध ‘योि भाष्य’ , ‘पातांजि भाष्य’ औि ‘साांख्य प्रवचन भाष्य’ आगद
नामों से है।

योि सत्रू का परिचय -इसमें चाि पाद हैं – 1. समालधपाद, 2. साधनपाद, 3. लिभलू तपाद, 4. कै िल्र्पाद । इन
सभी का सांगक्षप्त वणशन इस प्रकाि है –
1. समार्धपाद – पहिे पाद में योि के िक्षण, स्वरूप औि उसकी प्रागप्त के उपायों का वणशन किते हुए
गचि की वृगियों के पाचां भेद औि उनके िक्षण बताये हैं। वहाां सत्रू काि ने गनद्रा को भी वृगि गविेि के
अतां िशत माना है। (योिसत्रू 1/10) तथा गवपयशय वृगि का िक्षण किते समय उसे गमथ्या ज्ञान बताया िया
है। अतः साधािण तौि पि यही समझ में आता है गक दसू िे पाद में ‘अगवद्या’ ा़ के नाम से गजस प्रधान क्िेर्
का वणशन गकया िया है। (योिसत्रू 2/4), वह, औि गचि की गवपयशय वृगि दोनों एक ही है। पिन्तु िांभीिता
पवू शक गवचाि किने पि यह बात ठीक नहीं मािमू होती है। द्रष्टा व दर्शन की एकतारूप अगस्मता क्िेर्
के कािण का नाम ‘अगवद्या’ है।
प्रधानतया योि के तीन भेद माने िये हैं- एक सगवकल्प दसू िा गनगवशकल्प , तीसिा गनबीज। इस पाद में गनबीज
समागध का उपाय प्रधानतया पि वैिावय को बताकि (योिसत्रू 1/18) उसके बाद दसू िा सिि उपाय ईश्वि की
र्िणािगत को बतिाया है। (योिसत्रू 2/23), श्रद्धािु आगस्तक साधकों के गिये यह बड़ा ही उपयोिी है।
उपयशि ु तीन भेदों में से सम्प्रज्ञात योि के दो भेद हैं उनमें से जो सगवकल्प योि है वह तो पवू ाशवस्था है, उसमें
गववेक ज्ञान नहीं होता। दसू िा जो गनगवशकल्प योि है, गजसे गनगवशचाि समागध भी कहते हैं वह जब गनमशि हो जाता
है। (1/47) उस समय उसमें गववेक ज्ञान प्रकट होता है। वह गववेक ज्ञान परुु ि ख्यागत तक हो जाता है। (योिसत्रू
2/28, 3/35) जो गक पिवैिावय का हेतु है। (योिसत्रू 1/16) क्येागां क प्रकृ गत औि परुु ि के वास्तगवक स्वरूप का
ज्ञान होने के साथ ही साधक की समस्त िणु ों में औि उनके कायों में आसगि का सवशथा अभाव हो जाता है। तब
गचि में कोई वृगि नहीं िहती, यह सब सवशवगृ ि गनिोध रूप गनबीज समागध है। (1/51) इसी को असम्प्रज्ञात तथा
धमशमेघ समागध (योिसत्रू 4/29) भी कहते हैं। इसकी गवस्तृत व्याख्या की िई है। गनबीज समागध ही योि का
अगां तम िक्ष्य है। इसी से आत्मा की स्वरूप प्रगतष्ठा या यों कहें गक कै वल्य गस्थगत होती है। (योि सत्रू 4/34)।

समार्धपाद में वर्िित र्वषय एवं सूत्र सख् ं या र्िम्प्ि प्रकाि से है –


 ग्रांथ के आिांभ की प्रगतज्ञा, योि के िक्षण औि उसकी आवष्यकता का प्रगतपादन 1- 4

 गचि की वृगियों के पाांच भेद एवां उसके िक्षण 5- 11

 अभ्यास औि वैिावय का प्रकिण 12-16


 समागध का गविय 17-22
 ईश्वि प्रगणधान एवां उसके फि का कथन 23-29
 गचि के गवक्षपों, उनके नार् का औि मन की गस्थगत के गिये गभन्न- गभन्न उपायों का वणशन / 30-
40
 समागध के फि सगहत अवान्ति भेदों का वणशन 41-51

2. साधिपाद –
इस दसू िे पाद में अगवद्यागद पाचां क्िेिों को समस्त दःु खों का कािण बताया िया है क्योंगक इनके िहते हुए मनष्ु य
जो कुछ कमश किता है वे सस्ां काि रूप में अतां ःकिण में इकट्ठे होते िहते हैं। उन सस्ां कािों के समदु ाय नाम ही कमाशिय
है। इस कमाशिय के कािण भतू - क्िेर् जब तक िहते हैं तब तक जीव को उनका फि भोिने के गिये कई प्रकाि
की योगनयों में बाि- बाि जन्मना औि मिना पड़ता है एवां पाप कमश भोिने के गिये घोि निकों की यातना भी सहन
किनी पड़ती है। पण्ु य कमों फि जो अचछी योगनयों की ओि सख ु भोि सांबांधी सामग्री की प्रागप्त है, वह भी गववेक
की दृगष्ट से दःु ख ही है। (योिसत्रू 2/15) अतः समस्त दःु खों का सवशथा अत्यन्त अभाव किने के गिये क्िेिों को
मिू से नष्ट किना पिमावश्यक है। इस पाद में उनके नार् का उपाय गनष्चि औि गनमशि गववेक ज्ञान को योिसत्रू
2/26 तथा उस गववेक ज्ञान की प्रागप्त का उपाय योि सांबांधी आठ अांिों के अनष्ठु ान को योि सत्रू 2/28 में बताया
िया है।
साधि पाद में वर्िित र्वषय एवं सत्रू सख् ं या र्िम्प्ि प्रकाि है –
  गक्रयायोि के स्वरूप औि फि का गनरूपण / 1- 2
  अगवद्यागद पाांच क्िेिों का वणशन / 3-9
  क्िेिों के नार् का उपाय एवां उसकी आवश्यकता का प्रगतपादन /10-17
  दृष्य औि दृष्टा के स्वरूप का तथा दृष्य की साथशकता का कथन / 18-22
  प्रकृ गत-परुु ि के अगवद्याकृ त सांयोि का स्वरूप एवां उसके नार् के उपायभतू अगवचि गववेकज्ञान
का गनरूपण / 23-27
  गववेक ज्ञान की प्रागप्त के गिये अष्टाांि योि के अनष्ठु ान की आवष्यकता, आठों अांिों के नाम
तथा उनमें से पाांच बाह्य अांिों के िक्षण औि उनके गवगभन्न अवान्ति फिों का वणशन / 28-55
3. र्वभूर्तपाद –
इस तीसिे गवभगू तपाद में धािणा, ध्यान औि समागध – इन तीनों का एकगत्रत नाम ‘सांयम’ बतिाकि गभन्न- गभन्न
ध्येय पदाथों में सयां म का गभन्न- गभन्न फि बतिाया है। उनको योि का महत्व गसगद्ध औि गवभगू त भी कहते है
। इस पाद के 3/37, 3/50, 3/51 एवां 4/29 में उनको समागध में गवर्घनरूप बताया है। अतः साधक को भि ू कि
भी गसगद्धयों के प्रिोभन में नहीं पड़ना चागहए।
गवभगू तपाद में वगणशत गविय एवां सत्रू सख्ां या गनम्न प्रकाि से है –
  धािणा, ध्यान औि समागध इन तीनों अांिों के स्वरूप प्रगतपादन / 1-3
  गनबीज समागध के बगहिांि साधनरूप सयां म का गनरूपण / 4-8
  गचि के परिणामों का गविय /9-12
  प्रकृ गत जगनत समस्त पदाथो के परिणाम का गनरूपण / 13-15
  फि सगहत गभन्न- गभन्न सांयमों का वणशन / 16-48
  गववेक ज्ञान औि उसके पिम फिस्वरूप कै वल्य का गनरूपण /49-55
कै वल्यपाद –
इस चौथे पाद में कै वल्यावस्था प्राप्त किने योवय गचि के स्वरूप का प्रगतपादन गकया िया है। (यो0स0ू 4/26)
अतां में धमशमेघ समागध का वणशन किके (योिसत्रू 4/29) उसका फि क्िेर् औि कमों का सवशथा अभाव (यो0स0ू
4/30) तथा िणु ों के परिणाम-क्रम की समागप्त । अथाशत् पनु जशन्म का अभाव बताया िया है। (यो0स0ू 4/32)
एवां परुु ि को मगु ि प्रदान किके अपना कतशव्य पिू ा कि चक ु ने के कािण िणु ों के कायश का अपने कािण में गविीन
हो जाना अथाशत् परुु ि से सवशथा अिि हो जाना िणु ों की कै वल्य गस्थगत औि उन िणु ों से सवशथा अिि होकि
अपने रूप में प्रगतगष्ठत हो जाना ही कै वल्य गस्थगत बतिाकि (यो0स0ू 4/34) ग्रन्थ की समागप्त की िई है।
कै वल्यपाद में वर्िित र्वषय एवं सूत्र संख्या र्िम्प्ि प्रकाि से है –
  गसगद्धयों की प्रागप्त के पाांच हेतओ ु ां का तथा जात्यन्ति परिणाम का गविय / 1-5
  ध्यानजगनत परिणाम की सस्ां काि र्न्ू यता (गनिाियता) का प्रगतपादन एवां योिी के कमों की
मगहमा / 6-7
  साधािण मनष्ु यों की कमश फि प्रागप्त के प्रकाि का वणशन /8-11
  अपने गसद्धान्त का यगु िपणू श प्रगतपादन /12-24
  गववेक ज्ञान का गविय व धमशमेघ समागध तथा कै वल्य अवस्था का गनरूपण /25-34
महगिश पतांजगि के अनसु ाि मानवीय प्रकृ गत (भौगतक तथा आगत्मक) के गभन्न तत्वों के गनयांत्रण द्वािा पणू शता प्रागप्त
के गिये गकया िया गवगधपवू शक प्रयत्न ही योि है। भौगतक र्िीि, सगक्रय इचछा .र्गिऔि समझने की .र्गििखने
वािे मन को गनयत्रां ण के अदां ि िाना आवश्यक है। पतांजगि ने कुछ ऐसे अभ्यासों पि बि गदया है गजनसे
.िािीरिक गवकृ गत की गचगकत्सा हो सकती है औि र्िीि की मिीनता दिू की जा सकती है। जब इन अभ्यासों से
हमें अगधक र्गि, दीघशकािीन यवु ावस्था, .िािीरिक स्वस्थता औि दीघशजीवन प्राप्त हो जाय, तो इनका प्रयोि
आध्यागत्मक गवकास के गिये किना उगचत है। इससे मानव जीवन के चिम िक्ष्य कै वल्य या मोक्ष को प्राप्त गकया
जा सके िा। गचि की र्द्धु , र्ागां त एवां एकाग्रता के गिये अन्य गवगधयों को भी उपयोि में िाया जाता है। पतांजगि
का मख्ु य िक्ष्य आध्यागत्मक गसद्धान्त का प्रगतपादन नहीं, अगपतु गक्रयात्मक रूप से यह सक ां े त किना है गक
सांयमी जीवन के द्वािा गकस प्रकाि मोक्ष प्राप्त गकया जा सकता है ।

लचत्त की भूलमयााँ –
महगिश व्यास जी ने योि भाष्य में गचि में मख्ु य पाांच भगू मयो का वणशन गकया है जो – गक्षप्त, गवगक्षप्त, मढ़ू एकाग्र
एवां गनरुद्ध अवस्था वािा है |
१. मूढ़ – इसमे तमो िणु प्रधान , सत्व, एवां िजोिणु िौण होता है |व्यगि में तमो िणु ी भाव एवां िक्षण गदखाई
देते है जैसे- मढ़ू ता, जड़ता, आिस्य, प्रमाद, मोह, िाि अज्ञानता आगद |
२.र्क्षप्त- इसमे िजो िणु प्रधान , सत्व एवां तमो िणु िौण होता है | व्यगि में िजो िणु ी भाव एवां िक्षण देखे
जाते है जैसे – चांचिता, क्रोध, आवेर्, दःु ख, अगस्थिता आगद |
३.र्वर्क्षप्त- इसमे सतोिणु प्रधान, िज एवां तमो िणु िौण होता है | व्यगि में सतोिणु ी भाव एवां सतोिणु ी
गक्रयायो से यि ु देखा जाता है जैसे – दया, करुना, मगु दता, पिोपकाि आगद |
व्यगि धमश- अधमश , पाप-पण्ु य आगद के गवचाि किते हुए सतोिणु ी मािश में चिने का प्रयत्न किता है |
४.एकाग्र- इसमें सतो प्रधान , िज एवां तम वृगि मात्र िह जाते है | यह अवस्था योि के गिए अत्यांत उपयि ु
होती है , व्यगि का मन आगद इगन्द्रय एकाग्र एवां गनयांगत्रत सतोिणु ी भाव में होते है , वैिावय एवां ज्ञान से यि ु
गचि होते है |
५.र्िरुद् – इस अवस्था में कोई भी िणु नहीं िह जाते है , गत्रिनु ागतत अस्वस्था वािा हो जाता है |यह
अवस्था योगियों की होती है , पि वैिावय से यि
ु समागध भाव में गनत्य गस्थत होता है | द्रष्टा भाव में गस्थत होता
है |१/३|
लचत्त की वलृ त्तयााँ –
चित्त में वचृ त्तयों के प्रवाह बने रहने पर बुचि वचृ ि के साथ एकरूप हु आ पुरुष स्वयं को वचृ ियों के अनुरूप
ही सख ु ी – दुखी आचद अवस्था में दे खिा है ! -वत्तृ ि सारूप्यत्तितरत्र !१/४!
ये वचृ त्तयााँ मुख्यिः पांि है! जो चलिष्ट और अचलिष्ट स्वाभाव वािी है ! ये है – प्रमाण, चवपयय य, चवकल्प. चनद्रा
और स्मचृ ि !
-वि
ृ यः पञ्चतय्यः त्तलिष्टात्तलिष्टाः !१/५!
प्रिाणत्तवपयययत्तवकल्पत्तिद्रास्ितृ यः !१/६!

प्रमाण वलृ त्त का स्वरुप


प्रमाण वचृ त्तयााँ िीन है – प्रत्यक्ष,अनुमान और आगम !-प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणाचन !१/७!

 प्रत्यक्ष – इचरद्रयों के द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान(अनुभव) में आने वािे !


 अनुमान- प्रत्यक्ष पदाथो पर आधाररि िकय िथ्यों से चकसी अरय वस्िु का ज्ञान होना !
 आगम – वेद ,शास्त्रों और यथाथय वक्ता पुरुषो के विन आगम है !

लवपयिय वलृ त का स्वरुप


जो उस वस्िु के स्वरुप में प्रचिचठिति नह है ऐसा चमथ्या ज्ञान चवपयय य है !
-त्तवपयययो त्तिथ्याग्यािंतद्रूपपप्रत्ततष्ठि ् !१/८!

13.लवकल्प वलृ त्त का स्वरुप


जो शब्द और ज्ञान के अनुसार उभरिी है ऐसी चित्त वचृ ि जो चवषय गि वस्िु से शुरय है! वह चवकल्प
वचृ त्त है !-शब्दज्ञािािपु ती वस्तश
ु न्ू यो त्तवकल्पः !१/९!

14.लनद्रा वलृ त्त का स्वरुप


जो वचृ त्त अभाव के ज्ञान का अविंबन (ग्रहण) करने वािी है , वह चनद्रा वचृ ि है !
-अभावप्रत्ययािम्बिा वत्तृ ित्तिद्रय ा !१/१०!

15. स्मलृ त वलृ त्त का स्वरुप


पहिे अनुभव चकये गए चवषय का चिपा न रहना अथाय ि प्रकट हो जाना, स्मचृ ि वचृ त्त है ! -
अिभ
ु तू त्तवषयासंप्रिोषः स्ित्तृ तः !१/११!

लचत्त वलृ त्त लनिोधोपय-


16.अभ्यास – वैिाग्य से वलृ त्तयों का लनिोध
वचृ त्तयों के प्रवाह के मुख्य दो कारण है , १.चित्त में जमा संस्कारो से प्रेरणा , २. बाह्य चवषयों से सुख भोग
कामना आचद के कारण इचरद्रयों का बाह्य चवषयों से संयोग !
अिः चित्त वचृ त्तयों के चनरोध के उपाय भी इरही दोनों वचृ त्त प्रवाहों के कारणों को समाप्त करने के
दो साधन है – १.अभ्यास और २. वैराग्य ! -अभ्यासवैराग्याभ्यां तत्तन्िरोधः !१/१२!

कमय संस्कारो से प्रेररि िंिि मन को एक स्थान पर चस्थर करने का बार बार प्रयत्न करना अभ्यास है
!- तत्र त्तस्ितौ यत्िौअभ्यासः !१/१३!

17.अभ्यास का दृढ होने का उपाय


यह अभ्यास चनयचमि ,चनरं िर , सत्कार पवू य क और दीर्य कि िक करने से दृढ होिा है ! - स त ु
दीर्यकाििैरन्तययसत्कारासेत्तवतो दृढभत्तू िः !१/१४!

18.अपि-वैिाग्य का स्वरुप
जैसा की पवू य में स्पष्ट चकया गया है सुख की अनुभचू ि कराने वािे चनचमत्तो के प्रचि राग नामक लिेश
होिा है , अिः सख ु – भोग आचद के नाना प्रकार के िौचकक – परिौचकक सभी से राग रचहि ( िष्ृ णा का
न होना ) प्रथम अपर – वैराग्य है ! यिा- दृष्तािश्र
ु त्तवकात्तवष्यत्तवतष्ृ णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यि ्
!१/१५!
पि-वैिाग्य का स्वरुप -तत्परं परू यु वैतष्ृ ्यि ् !१/१
ु ष््यातेर्ण
अब अपर – वैराग्य के पश्चाि जब साधक की चवषय कमना का आभाव हो जािा है और उसके चित्त का
प्रभाव सामान रूप से अपने ध्येय के अनुभव में एकाग्र हो जािा है ! िब प्रकृचि – पुरुष चवषयक चववेक
ज्ञान प्रकट होिा है !(प.यो.सु.-३/३५) अब साधक की िीनो गुणों में और उनके कायो में चकसी प्रकार की
जरा चकंचिरमात्र भी िष्ृ णा नह रहिी (प.यो.सु-4/२६) वह सवय था आप्तकाम हो जािा है!(प.यो.सु-२/२७)
एसी रागरचहि अवस्था को पर- वैराग्य कहिे है !

ईश्वि का स्वरुप एवं ईश्वि प्रलणधान-


ईश्वि का स्वरुप
क्िेर्कमशगवकार्यैपशिामृष्टः पुरुिगविेर् ईश्विः !१/२४!
अर्ाित –जो क्िेर्(पञ्च क्िेर्), कमश एवां गवपाक से सवशथा िगहत है वह गवर्ेि परुु ि ही ईश्वि है |
उसके र्वशेषताए-
 तत्र गनिगतर्यां सवशज्ञबीजम् !१/२५! – वह सवशज्ञता का बीज है |
 पवू िे ामगप िरुु ः कािेनानवचछे दात् !१/२६!- वह िरुु ओ ां का िरुु एवां काि की सीमा से पिे है |
 तस्य वाचकः प्रणवः!१/२७!- उसका वाचक प्रणव ओमकाि है |
 तज्जपस्तदथशभावनम् !१/२८!
 ततः प्रत्येक्चेतनागधिमोप्यन्तिायाभावश्च !१/२९!
ईश्वि प्रलणधान-
ईश्वप्रशगनधानाद्वा !१/२३!
वह िरुु ओ का भी आगद िरुु सवशज्ञता का बीज , जो काि की सीमा से पिे है वैसे क्िेर्,कमश,गवपाक
औि आर्य से सवशथा िगहत गवर्ेि परुु ि ईश्वि को सम्पणू श भाव से समगपशत हो (उसके वाचक प्रणव का
उस भाव से जप किने ) से भी र्ीघ्र योि में गसगद्ध को प्राप्त हुआ जा सकता है | इससे योि अांतिाय का
भी नार् हो जाता है |
समालध एवं उसके प्रकाि
सम्प्प्रज्ञात(सबीज) समालध के प्रकाि -
इस प्रकार अभ्यास वैराग्य आचद साधनों से चजसकी समस्ि बाह्य वचृ त्तयां क्षीण हो िुकी है ,एसे स्फचटक
मचण के भािी चनमय ि चित्त का जो ग्रहीिा(पुरुष) , ग्रहण( अंिःकरण और इचरद्रयां) िथा ग्राह्य(पंिभि
ू और
चवषयों) में चस्थि हो जाना और िदाकार हो जाना है यही सम्प्प्रज्ञाि समाचध है !
ृ रे त्तभजातस्येव िण ेर्ग्यहीतर्ग्
-क्षीणवि ृ हणर्ग्ाहयेषतु त्स्िजितासिापत्तिः!१/४१!
असम्प्प्रज्ञाि समाचध के िार प्रकार है चविकय चविार , आनंद और अचस्मिानग
ु ि समाचध !

-त्तवतकयत्तवचारािन्दात्तस्ितारूपािर्ु िात्संप्रज्ञातः !१/१७!


सम्प्प्रज्ञाि योग के ध्येय पदाथय िीन मने गए है – १.ग्राह्य (चवषय), २.ग्रहण(इचरद्रय ), ३.ग्रचहिा (बुचि )
समालध के लवषय –

ू ;
सचविकय- चनचवय िकय – महाभत
सचविार- चनचवय िार – तन्िात्रायें ;
सलवतकि-लनलवितकि समालध
जब स्थिू पदाथय को िक्ष्य बनाकर उसके स्वरुप को जानने के चिए योगी अपने चित्त को उसमे िगिा है
है िब पहिे पहि होने वािा अनुभव में वस्िु के नाम , रूप और ज्ञान के चवकल्प का चमश्रण रहिा है !
अथाय ि उसके स्वरुप के साथ – साथ नाम और प्रिीचि की भी चित्त में स्फुरणा रहिी है ! अिः इस समाचध
को सचविकय/ सचवकल्प समाचध कहिे है !

इसके बाद शब्द और प्रिीचि की स्मचृ ि के भिी भािी िप्त ु हो जाने पर , स्वरुप से शरू य हु ई के सदृश्य
केवि ध्येय मात्र को प्रत्यक्ष करने वािी चित्त की चस्थचि चनचवय िकय समाचध है !-स्ित्तृ तपररशद्ध
ु ौ
य काय!४३!
स्वरूप्शन्ू येवाियिात्रत्तिभायसा त्तित्तवत

सलवचाि-लनलविचाि समालध
इसी प्रकार सक्ष्ू म पदाथो में की जाने वािी सचविार और चनचवय िार समाचध है !-एतयैव सत्तवचारा त्तित्तवचय ारा
च् सक्ष्ु ित्तवष्या व्या्याता !१/४४!

इस समाचध के सक्ष्ू म ध्येय चवषय है !

सक्ष्ू म चवषय चनम्प्न प्रकार से है – सक्ष्ू ित्तवषयत्वं चात्तिङ्र्पययवसािि ् !१/४५!

पथ्ृ वी,जि,अचग्न,वायु,और
आकाश
(गंध, रस,रूप,स्पशय ,और
शब्द ) + मन
अहंकार

महत्तत्त्व

प्रकृचि

ये सभी समाचध में लयोचक बीज रूप से चकसी न चकसी ध्येय पदाथय को चवषय करने वािी चित्त वचृ त्त का
ू य वचृ ियो का पण
अचस्त्तत्व सा रहिा है ! अिः सम्प्पण ू य िः चनरोध न होने के कारण कैवल्य िाभ नह हो पािा
है और ये सबीज समाचध कहिािे है !-ता एव सबीजः सिात्तधः !१/४६!
चनचवय िार समाचध में साधक प्रवीणिा प्राप्त कर िेने पर रजो गुण और िमो गुण का आवरण क्षीण हो जािा
है सिोगुण की प्रधानिा हो जािी है , चजससे चित्त अत्यंि चनमय ि हो जािा है ! इससे योगी एक ही काि में
समस्ि पदाथय चवषयक यथाथय ज्ञान हो जािा है !-त्तित्तवचय ावैशारद्येध्यात्म्प्रसादः! १/४७!

ऋतम्प्भिा प्रज्ञा का स्वरुप व महत्व

उस समय योगी की बुचि (प्रज्ञा), ऋिंभरा (सत्य ) को धारण करने वािी हो जािी है !इस चस्थचि में चकसी
ू य िः समाप्त हो जािे है ! साधक
भी चवषय में भ्राचरि का िेश मात्र भी नह रहिा ! अचवद्या,संशय,चवपयय य भी पण
सत्य ही दशय न, ग्रहण व प्रकट करिा है !-ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा !1/४८!

श्रवण और अनम ु ान से होने वािी बुचि की अपेक्षा यह बुचि चभरन चवषय वािी है , लयोचक यह चवशेष रूप
से अथय का साक्षात्कार करने वािी है !
-श्रत
ु ािि
ु ािप्रग्याभ्यािन्यत्तवषया त्तवशेषाियत्वात ् !१/४९!
मनष्ु य जो कुि भी अनुभव करिा है , जो कुि भी चिया करिा है , उन सबके संस्कार अरिः कारन में
इकट्ठे हु ए रहिे है, इस प्रकार इस बुचि से उत्त्परन संस्कार अरय दुसरे संसार में भटकने वािे संस्कारो को
चवचनष्ट करने वािा है ! -तज्जः संस्कारोन्यसंस्कारप्रत्ततबन्धी !१/५०!

असम्प्प्रज्ञात(लनबीज) समालध का स्वरुप

जब ऋिंभरा प्रज्ञा से उत्त्परन उच्ि संस्कारो से भी आसचक्त न रहने से उन संस्कारो का भी चनरोध हो जािा
है , िब सुध – बुध का ही चनरोध हो जािा है ! इस चस्थचि में चित्त की कोई भी वचृ ि शेष नह रहिा !सभी
संस्कारो के बीज समाप्त हो जाने से चनबीज समाचध कहिे है ! -तस्यात्तप त्तिरोध े सवयत्तिरोधात्तन्िबीजः
सिात्तधः !१/५१!
पुरुष चकसी बाह्य दृश्य का द्रष्टा नह रहिा और शुि स्वरुप में अवचस्थि हो जािा है !
त्तवरािप्रत्ययाभ्यासपवू ःय संस्कारषेशोन्यः !१८!
साधक जब पर वैराग्य को प्राचप्त हो जािी उस समय स्वाभाव से चित्त संसार की और नह जािा ! वह उनसे
अपने आप उपरि हो जािा है ! पर वैराग्य में चववेक ख्याचि रूप अंचिम वचृ त्त भी चनरुि हो जािी है इस
चस्थचि को चवराम प्रत्यय कहिे है ! जब प्रकृचि संयोग का आभाव हो जािा है िब द्रष्टा का अपने स्वरुप
में चस्थचि हो जािी है ! इसी का नाम कैवल्य है !
भवप्रत्ययो त्तवदेहप्रकृत्ततियािाि ् !!1/१९!

लचत्त लवक्षेपास्ते अन्तिाय-


योि गसगद्ध के मािश में आने वािे गचत गवक्षेप रूप नौ अन्तिाय है गजसका ईश्वि प्रगणधान से नार् हो जाता है
ये नौ अन्तिाय इस प्रकाि है -
1. योग बाधक ( अन्तिाय )
व्यगधस्त्यानसर्
ां यप्रमादािस्यागविगतभािागन्तदर्शनािब्धभगू मकत्वानवगस्थतत्वागन
गचिगवक्षेपास्तेन्तिायाः!१/३०!
दखु दौमशनस्याङ््वमेजयत्वश्वासप्रश्वासा गवक्षेपसहभवु ः !१/३१!

1. व्यार्ध- - धातु , िस औि किणों के गविमता से उत्त्पन्न हुए ज्वि आगद व्यागध कहिाती है |
2. सत्याि-गचि की अकमशण्यता अथाशत इचछा होने पि भी गकसी कायश को किने की सामथ्यश न होना |
3. सश ं य- - योि साधना / गसगद्ध के गविय में
4. प्रमाद- समागध के साधनों के अनष्ठु ान न किना |
5. आिस्य - गचि अथवा र्िीि के भािी होने के कािण ध्यान न ििाना |
6. अर्विर्त – गवियों में तृष्णा बनी िहना अथाशत गवियेगन्द्रय-सयां ोि से गचि की गवियों में तृष्णा होने से वैिावय
का आभाव |
7. भ्रार्न्तदशिि – गमथ्या ज्ञान ( योि के साधनों तथा उनके फि को गमथ्या जानना )|
8. अिब्ध-भर्ू मकत्व – समागध भाव को न पाना |
9. अिवर्स्र्तत्व – – समागध भाव को प् कि भी उसमे गचि का न ठहिना अथाशत ध्येय का साक्षात किने से
पवू श ही समागध का छूट जाना |
उपयशि
ु नौ गवर्घन एकाग्रता से हटाने वािे है औि गचि की वृगियों के साथ होते है , उनके आभाव में नहीं होते |
इस कािन गचि के गवक्षेप योि के मि , योि के अन्तिाय औि योि के प्रगतपक्षी कहिाते है |
इिके सार् होिे वािे ५ अन्य प्रर्तबध ं क इस प्रकाि है -
1) दुःख - गत्रगवध दःु ख का होना |(आध्यागत्मक, आगधभौगतक एवां आगधदैगवक दःु ख)
2) दौमििस्य - इचछा की पगू तश न होने पि मन में क्षोभ होना |
3) अन््मेजयत्व - र्िीि के अांिो का काांपना |
4) श्वास - गबना इचछा के बहाि के वायु का नागसका द्वािा अन्दि आना |
5) प्रश्वास - गबना इचछा के भीति के वायु का नागसका – गछद्रों द्वािा बाहि गनकिना | ये गवक्षेपो के साथ होने
वािे उपगवक्षेप अथवा उपगवर्घन है |
इन सभी का इश्वि प्रगणधान से नार् होकि र्ीघ्र समागध की गसगद्ध होती है |
व्याख्या –
योि मािश में आने वािे गवगभन्न प्रकाि के बाधाओ को मख्ु यत: र्ािीरिक- मानगसक दो स्ति के अनसु ाि
समझ सकते है गजनमे र्ािीरिक के अन्तिित – व्यागध,आिस्य,दःु ख (नाना गवध दख ु ो से उत्त्पन्न र्ािीिक
कष्ट / िोि आगद ), अन्वमेजयत्व, श्वास,प्रर्ावास मख्ु य है | आज के गवकगसत भौगतक गवज्ञान के यिु में भी
नाना प्रकाि के गनत्य नए िोि उत्पन्न होते जा िहे गजनके उपचाि में एिोपैथी आगद गवगभन्न प्रकाि के
गचगकत्सा प्रणािी गनिांति जटु े हुए है | गफि भी िोिी की सख्ां या औि भी बढ़ती जा िही है , गचगकत्सािय
उतनी ही खोिने की आवश्यकता होती है पि िोि का स्थायी उपचाि का सिि प्राकृ गतक पद्धगत का समगु चत
ज्ञान-गवज्ञान अब भी सब तक उपिब्ध नहीं है | जबगक हम देख सकते है योि सत्रू में महगिश पतांजगि न
के वि योि से जीवन के पिम िक्ष्य की प्रागप्त हेतु / समाधी गसगद्ध हेतु ही के वि उपाय की चचाश नहीं किते
विन समस्त मनष्ु यों के गिए उपयोिी एवां प्रथम आवश्यक व्यागध आगद कष्टों से गनवृगत हेतु सवश साधािण
एवां सििता से उपिब्ध गनर्ल्ु क उपाय बताते है | गजसके सम्यक अभ्यास से सहज ही इन सभी बधोप से
मि ु हो स्वास्थ््य के साथ – साथ योि के गदव्य अवस्था की प्रागप्त कि सकते है |
महगिश पतजां गि कहते है -
“ ततः प्रत्येक्चेतिार्धगमोप्यन्तिायाभावश्च !१/२९!”
अथाशत – इश्वि प्रगणधान से अपनी आत्मा स्वरुप का बोध एवां गचत गवक्षेप रूप अन्तिायों का नार् होता
है |
-अथाशत व्यागध आगद समस्त योि अांतिाय का नार् का सिितम उपाय ईश्विप्रगणधान है | ईश्वि का
र्िणािगत एवां उसके गदव्य नाम प्रणव का जप , ध्यान गजससे उसी भाव की प्रागप्त होती है | यह भौगत
गवज्ञान के गवद्यतु ् चम्ु बकीय गसद्धाांत के सामान अपने गचि के एक भाव से उत्पन्न जैव गवद्यतु ् चम्ु बकीय
क्षेत्र ब्रह्माण्ड से वे सभी आवश्यक तत्व खीच िेती है जो स्वास्थ्य के गिए उपयोिी है औि उन सभी
गवजातीय तत्वों को बहाि गनकिने की व्यवस्था बनती है जो हागनकािक है गजससे सहज उन व्यागध
आगद का नार् होकि आत्म स्वरुप का भी बोध हो जाता है |
प्राकृलतक लचलकत्सा में “राम-नाम तत्ि ” द्वारा लचलकत्सा का िणयन लजससे असाध्र् तक रोगों का
लनिारण |
महात्मा गाँधी द्वारा प्रलतपालदत – “लनत्र् प्राथयना का प्रभाि ” |
प्राकृगतक गचगकत्सा में िोिों के मख्ु य कािन र्ािीि मे गवजातीय द्रव्य का इकठ्ठा होना मना िया है | इस
अनसु ाि पञ्च तत्त्व से बनी इस र्ािीि में इसके असतां ि ु न उत्पन्न व्यागध आगद के गनवािण हेतु इसका
उगचत सांतिु न आवश्यक है जो | योि सत्रू के अनसु ाि गवर्ेि परुु ि (ईश्वि) जो की क्िेर्, कमश आगद से
सवशथा मि ु होने के कािन सहज ही उसके सागनध्य मात्र से तत्वों का पनु संति ु न हो जाने से सभी िोि –
र्ोक आगद समाप्त हो जाते है |
योि सत्रू में महगिश पतांजगि इसके आिावा अन्य कई उपाय का वणशन किते है गजसके वणशन अििे सत्रू
में है |
योि अतां िाय को दिू किने के गिए अन्य औि कई उपाय है (इश्वि प्रगणधान के अिावा ) वे है –एक तत्त्व का
अभ्यास, मैत्री-करुणा-मगु दता-उपेक्षा का सखु दख
ु ागद गवियों में भाव ,प्राण वायु के धािण –गवधािण ,गदव्य गवियों की
अनभु गू त, र्ोक िगहत प्रवृगत, वीतिाि का ध्यान, स्वप्न गनद्रा ज्ञान अविम्बन , या अपनी रूगच अनसु ाि इष्ट के ध्यान
से भी गचत गस्थि होता है
महर्षि पतंजर्ि योग सत्रू में अन्य उपाय का उपदेश देते हुए कहते है -
1. गवर्घनों को दिू किने के गिए एक तत्त्व अभ्यास
तत्पगतिेधाथशमक
े तत्त्वाभ्यासः!१/३२!
अथाशत – उसके नार् हेतु एक तत्त्व का अभ्यास किना चागहय | गवक्षेप तथा उपगवक्षेपो को दिू किने के गिए गकसी
एक ईष्ट तत्व में गचि को बाि-बाि ििाना चागहय अथाशत गकसी अगभमत एक तत्व द्वािा गचि की गस्थगत के गिए
यत्न किना चागहए | इस प्रकाि एकाग्रता के उदय होने पि सब गवक्षेपो का नार् हो जाता है |
2. र्चत्त प्रसादि के उपाय
मैत्रीकरुणामगु दतोपेक्षाणाां सख
ु दख
ु पण्ु यापण्ु यगवियाणाभां ावनातगश्चिप्रसादनम् !१/३३!
अथाशत- गमत्रता (प्रेम), करुणा(दया),मगु दता(हिश), उपेक्षा(उदासीनता) इन चािो को क्रम से सगु खयो में , दगु खयो में ,
पण्ू य वािो में औि पागपयों में व्यव्हाि किना चागहय | इससे गचत का प्रसाद होता है |
3. प्राण वायु से गचि सगु द्ध
प्रचछदगन्वशधाणाशभ्याां वा प्राणस्य!१/३४!
अथाशत – नागसका द्वािा प्राण वायु को बाहि फे कने ,िोकने औि धािण किने से दोिों का नार् होकि गचि
गस्थि होता है |
प्राणायाम रूप प्रभावर्ािी अभ्यास |
2. गदव्य गवियों के अनभु गू त से गचि गस्थिता प्रेिणा
गवियवती वा प्रवृगतरुत्पन्ना मनसः गस्थगतगनबन्धनी!१/३५!

3. र्ोक िगहत प्रवृगत से मन गस्थिता


गवर्ोका वा ज्योगतष्मती!१/३६!
4. वीतिाि गविय से गचि गस्थिता
वीतिािगवियां वा गचिम् !१/३७!

5. स्वप्न गनद्रा ज्ञान अविांबन से गस्थिता


स्वपनगनद्राज्ञानािम्बनां वा !१/३८!

6. रूगच अनसु ाि इष्ट ध्यान से गस्थिता


यथागभमतध्यानाद्वा!१/३९!
गचि गस्थिता से पिमाणु से महत्त्व वर्ीकाि
पिमाणपु िममहत्त्वन्तोस्य वर्ीकािः!१/४०!
क्षीणिृिरे लभजातस्र्ेि मणेग्रहय ीतृग्रहणग्राहर्ेषतु त्स्िजनतासमापलििः!१/४१!
इस प्रकाि गजसकी िाजस-तामस वगृ त्ियाां क्षीण होिई है (एसे स्वचछ गचि की ) उिम जाती
(अगत – गनमशि ) स्फगटक मगण के सामान अगस्मता इन्द्रीय स्थि ू भतू ागद पदाथश तथा तन्मात्रा तक
सक्ष्ू म गवियो में एकाग्र गस्थत होकि उन्ही के स्वरुप को प्राप्त हो जाना समापगि (तदाकाि होना
)है |

लचत्त प्रसादन के उपाय –


 र्चत्त प्रसाधि के उपाय –

vFkkZr~ lq[kh] nq%[kh] iq.;kRek] ikikRek ;s pkjksa


ftuds Øe ls fo’k; gSa ,slh fe=rk] n;k] izlUurk vkSj mis{kk dh Hkkouk ls fpRr
LoPN ¼izLkUu½ gks tkrk gSA
योगानश
ु ासनम की अवधािणा –
अथ योगानुशासनम |१/१|

योग िक्षण एवं इसके परिणाम-


योि का िक्षण महगिश पतांजगि ने प्रथम अध्याय के दसु िे सत्रू में “योगर्श्चत्तवृर्तर्ििोधः |१/२|” के रूप में
बताए है अथाशत गचि के वृगियों का सवशथा रुक जाना ही योि / योि की अवस्था है |
तथा हम जानते है की महगिश पतांजगि ने गचि के वृगियों के मख्ु य पाांच प्रकाि जो गक्िष्ट एवां अगक्िष्ट होते है |
ये पाांच वृगियााँ है -
प्रमाण, गवपयशय, गवकल्प, गनद्रा एवां स्मृगत !
योग का परिणाम
महगिश पतांजगि योि के परिभािा “योगर्श्चत्तवृर्तर्ििोधः |१/२|” के पश्चात् अििे सत्रू में गचि वृगियो के
गनिोध हो जाने पि उस योि का परिमाण बताते हुए कहते है – तदा द्रष्टु: स्वरूपेवस्थानम|१/३|
अथाशत – तब द्रष्टा अपने वास्तगवक मि
ू स्वरुप में गस्थत हो जाता है | गजसे महगिश व्यास जी ने “योिः समागध
” अथाशत योि को समागध अवस्था वािा परिणाम बताया है |
लियायोग की अवधािणा-
समस्त प्रपांचो कमाशर्यों एवां सांस्काि आगद जगनत दख
ु ो का मि
ू कािण अगवद्या आगद पञ्च किेर् है ,
अत: उसके नास के गिए औि क्रमर्: उसे क्षीण किके समागध (योि की अवस्था) प्रागप्त हेतु गक्रया योि
का अभ्यास किना चागहए |
 िप:स्वाध्यायेश्वरप्रचणधानाचन चियायोग:|२/१||
 vFkkZr~ ri] Lok/;k; vkSj bZ’oj 'kj.kkxfr
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 समाचध भावनाथय :लिेशिनुकनाय थयश्च |२/२||


चिया योग समाचध + लिेश क्षय
 rs çfrçlogs;k% lw{ek%!२/१०!
इन दुखो को समाप्त करने के चिए इसके मि ू कारण अचवद्या आचद लिेशो को चियायोग या ध्यान द्वारा
(è;kugs;kLrn~o`Ùk;%!२/११!) िमशः सक्ष्ु म करके साधना द्वारा नष्ट करने योग्य है ! अथाय ि उसका
नाश करे !

क्िेश का लसद्ांत –
पंच क्िेशो के कािण अलवद्या का स्वरुप
दुखों का कारण द्रष्टा दृश्य का संयोग होना है और उस संयोग का कारण अनाचदचसि अचवद्या है ! अचनत्य,
अपचवत्र ,दुःख और अनात्म में चनत्य , पचवत्र, सख ु और आत्म भाव की अनुभचू ि ही अचवद्या है !चजसके
कारण द्रष्टा प्रकृचि के रूपों को दे खिा है बुचि वचृ ि के अनुरूप दुखों को अनुभव करिा है !

vfuR;k·'kqfpnq%[kk·ukRelq fuR;'kqfplq[kk··Re[;kfrjfo|k!२/५!
िथा अचवद्या से िार अवस्थाओ वािे, िार अरय किेशो की उत्पचत्त होिी है !

vfo|k {ks=eqÙkjs"kka çlqIrruqfofPNékksnkjk.kke~!२/4!

vfo|k·ÉLerkjkx}s"kkfHkfuos'kk% i´p Dys'kk%!२/३ !

-चाि अवस्था वािे शेष क्िेशो का स्वरुप


अचस्मिा,राग ,द्वे ष और अचभचनवेश ये लिेश िार अवस्थाओं वािे है -

2-n`Xn'kZu'kDR;ksjsdkRersokELerk!२/६!
दृक शचक्त और दशय न शचक्त इन दोनों का एकरूप सा हो जाना अचस्मिा है !
अथाय ि – दृक शचक्त = प्रकृचि (जड़)और दशय न शचक्त = द्रष्टा(िेिन) , यद्यचप ये दोनों सवय था चभरन और
चविक्षण है िथाचप अचवद्या के कारण दोनों की एकिा हो रही है यही द्रष्टा – दृश्य संयोग कहा गया है , इस
अचस्मिा के कारण द्रष्टा का शि ु स्वरुप का अनभ
ु व नह होिा है !

3-lq[kkuq'k;h jkx%!२/७!
सख ु के प्रिीचि के पीिे रहने वािा लिेश राग है ! अथाय ि जब कह चकसी अनुकूि पदाथय में सुख की
प्रिीचि हु ई या होिी है , उसमें और उसके चनचमत्तों में उसकी आसचक्त (प्रीिी ) हो जािी है , यही राग है !

4-nq%[kkuq'k;h }s"k%!२/८!
दुःख के प्रिीचि के पीिे रहने वािा लिेश द्वे ष है ! मनष्ु य को जब कभी भी जी चकसी प्रचिकूि
पदाथय में दुःख की प्रिीचि हु ई या होिी है , िो उसमे उस के चनचमत्तों में उसका द्वे ष हो जािा है !

5-Lojlokgh fonq"kks·fi rFkk :<ks·fHkfuos'k%!२/९!


जो परम्प्परागि स्वाभाव से ििा आ रहा है , एवं जो मुढ़ों की भािी चववेकशीि परु
ु षों में भी चवद्यमान दे खा
जािा है , वह मरण भय रूप लिेश अचभचनवेश है !
िोटे से िोटे जीव भी मरण से डरकर अपनी रक्षा का उपाय करिा है ! इससे पवू य जरम की चसचि होिी
लयोंचक यचद मरण दुःख पहिे अनुभव चकया हु आ नह होिा िो उसका भय कैसे होिा ? यह मरण भय
अभिनिवेश
क्िेश अलस्मता िाग द्वेष अलभलनवेश
लिेशो के rअवस्थाये प्रसुप्त( _ ) िनु (....) चवचिरन (↓) उदार(↑)
4 चवचभरन १ ↑ − _ ↓
अवस्थाओं २ _ ↑ ↓ _
की
उदाहरण ३ _ ↓ ↑ −
िाचिका ४ ↓ _ _ ↑
साधक ↓ - -- - - ↑
जीवों के अरिः करण में इिना गहरा बैठा हु आ है की मुखय के जैसा ही चववेकशीि पर भी इसका प्रभाव
चदखिा है !

कमि संस्कािों व दख
ु ों का मूिकािण क्िेश
 उपययुक्त पंि लिेश ही कमों के संस्कारो की जड़ और महान दुखों के कारण है ! किेशमि ू क
कमय संस्कारों का समुदाय दृष्ट(विय मान ) और अदृष्ट ( भचवष्य में होने वािे ) दोनों प्रकार के ही
जरमों में भोग जाने वािा है ! Dys'kewy% dekZ'k;ks n`"Vkn`"VtUeosnuh;%!२/12!

 lfr ewys rf}ikdks tkR;k;qHkksZxk%!2/13!


मूि (लिेश ) के चवद्यमान रहने िक , उस कमाय शय का पररणाम पुनजय रम,आयु और भोग होिा रहिा है !

दख
ु वाद की अवधािणा-
हेय( नाश योग्य दुःु ख)-
सबके सब कमिफि दुखरूप है
ifj.kkerkilaLdkjnq%[kSxqZ.ko`fÙkfojksèkkPp nq%[keso lo± foosfdu%!२/१५!
सभी कमय भोगो में िीन प्रकार के दुःख ( पररणाम दुःख , िाप दुःख , और संस्कार दुःख ) चवद्यमान रहने
से और िीनों गुणों के वचृ त्तयों में परस्पर चवरोध होने के कारण चववेकी के चिए सब के सब कमय फि दुःख
रूप है !

पररणाम + िाप + संस्कार दुख = 𝑨𝒍𝒍 𝑫𝒖𝒌𝒉

 पररणाम दुःख – स्थि ू दृचष्ट से भोग काि में सुखप्रद प्रिीि होने वािा कमय चवपाक , का भी पररणाम
दुःख ही है ! बहु ि अचधक मीठा स्वाद के कारण खाने से बीमार पड़कर प्रत्यक्ष कष्ट , पीड़ा व
अनेक हाचन उठाना!
अत्यचधक भोग से थक कर भोगने की शचक्त का समाप्त होने पर भी िष्ृ णा का बनी रहिी है इससे
वह भोग रूप सुख भी दुःख ही है !
इचरद्रयों और पदाथो के सम्प्बरध से मनुष्य को चकसी प्रकार के भोग में सुख की प्रिीचि होिी है ,
िब उसमे राग- आसचक्त अवश्य हो जािी है ! आसचक्त वश उस भोग प्राचप्त के चिए अच्िे – बुरे कमों
को करिा है ! चजसका भी कमय फि अवश्य ही भोगना पड़िा है ! भोग्य वास्िु प्राचप्त में असमथय होने
या चवर्न आने पर द्वे ष होिा है ! िथा प्राचणयों की चहंसा के चबना भोग की चसचि भी नह होिी !
अिः राग , द्वे ष, और चहंसा आचद का पररणाम अवश्य ही दुःख है !
 िाप दुःख – सभी प्रकार के भोग रूप सुख चवनाश शीि है , उनसे चवयोग होना सुचनचश्चि है , अिः
भोगकाि में उनके चवनाश की संभावना से भय के कारण िाप दुःख बना रहिा है !
 संस्कार दुःख- चजन – चजन भोगो में मनुष्य को सुख अनुभव होिा है , उसका अनुभव उसके
अनभ ु व के संस्कार ह्रदय में जम जािे है ! जब उन भोग सामचग्रयों से चवयोग होिा है ! िो उसके
स्मचृ ि से महान दुःख अनुभव होिे है !इसके आिावा भोग संस्कार भोगासचक्त की वचृ ि में कारण
होने से जरम जरमारिर में भी दुःख के हे िु है !
 गुण वचृ त्त चवरोध – सिोगुण का कायय प्रकाश, ज्ञान और सुख ,िमो गुण का कायय अंधकार , अज्ञान
और जड़िा है , रजो गुण का कायय िंिििा व दुःख है ! इस प्रकार िीनो गुणों के कायो में परस्पर
अत्यंि चवरोध है ! और कोई भी कायय करिे समय रयन ू ाचधक िीनो गुण चवद्यमान होने से सुख-
दुःख, हषय – शोक सदे व ही चवद्यमान रहिे है !
इस प्रकार चववेकी के दृचष्ट में सभी कमय चवपाक दुखरूप है !

gs;a nq%[keukxre~!2/16!
अथाित आने वािे जो दुःख है वे नाश करने योग्य है , लयोचक जो चपििे अनेको जरमो में दुःख भोगना था वो िो
भोग चिया गया अब उसकी चिंिा का कोई प्रयोजन नह और जो अभी िि रहा है वे भी भोग दे कर समाप्त हो
जाने वािे है अिः उसके उपाय की भी आवश्यकिा नह ! चकरिु भचवष्य में आने वािे दुखो का नाश करना
आवश्यक किय व्य है , इसचिए वे हे य (नाश करने योग्य )कहा गया है !
इन दुखो को नष्ट करने के चिए सवय प्रथम उसके कारण को जानना होगा , िब उसको नष्ट करने
का उपाय हो सकिा है! कारण लया है ?

3-हेय हेत-ु
इन दुखो का कारण द्रष्टा और दृश्य का संयोग होना है -æ"Vk`n`';;ks% la;ksxks gs;gsrq%!2/17!
अथाित -

द्रष्टा दृश्य के संयोग से उत्त्परन होने वािे ित्व एवं िम है-


पुरुष प्रकृनत (srt)

B
सतोगुण

r
A रजोगण

r तमोगण

5Tnm
M(मि) 5Gin 5Kin
(शब्द,श्पशश,रूप,रस,गंध )
सतोगुण रजोगुण
5Pmb (आकाश,वायु,अग्नि,जल,पथ्ृ वी)
r r

दृश्य का गण ु - उस दृश्य प्रकृचि का स्वभाव प्रकाश (सिोगुण) ,चिया(रजोगुण) व चस्थचि (िमोगुण) है ,


उसका प्रकट रूप 5 महाभि ू , और इचरद्रयां आचद है! पुरुष के चिए भोग और मुचक्त का संपादन करना ही
उसका उद्दे श्य है !
-çdk'kfØ;kÉLFkfr'khya HkwrsÉUæ;kReda HkksxkioxkZFk± n`';e~!2/18!
उसके मख्
ु य भेद है - त्तवशेषात्तवशेषत्तिङ्र्िात्रात्तिङ्र्ात्ति र्णु पवायत्तण!2/१९!
 लवशेष – पथ्ृ वी आचद ५ महाभि
ू +१०ज्ञानकमेंचद्रये+ १मन =१६
 अलवशेष- ५ िरमात्रायें + १अहंकार = ६
 लिंगामात्र – उपयय ुक्त २२ ित्वों के कारण महि(बुचि) =१
 अलिंग – १ मि ू प्रकृचि (िीनो गण ु ों की साम्प्यावस्था )अव्यक्त = १
कुि तत्व = २४
द्रष्टा का स्वरूप
æ"Vk n`f'kek=% 'kq)ks·fi çR;;kuqi'¸k%!2/20!
अथाित- द्रष्टा ज्ञानस्वरूप िैिरयमात्र , स्वभाव से शुि है , चफर भी बुचि के सम्प्बरध से बुचि वचृ त्त
के अनुरूप दे खने वािा है!
दृश्य के स्वरूप की साथय किा लया है?– rnFkZ ,o n`';L;kRek!2/21!
दृश्य का स्वरुप द्रष्टा के चिए ही है ये उसे भोग और चनज स्वरुप के दशय न करा करके मुचक्त के उद्दे श्य
को चसि करने के चिए है !

ू य कर चदया , उस पुरुष के चिए प्रकृचि नाश प्राप्त होिे हु ए भी नष्ट नह
चजसका भोग और मुचक्त कायय पण
होिी लयोचक अरय दूसरो के चिए भी वही समान है !
- कृrkFk± çfr u"VeI;u"Va rnU;lkèkkj.kRokr~!2/22!
4-तस्य हेत-ु
संयोग का कािण अलवद्या,संयोग अभाव से कैवल्य
 दुःख का कारण द्रष्टा- दृश्य संयोग है , िो इस संयोग का स्वरुप लया है ? अथाय ि िब पुरुष का
कैसा भाव होिा है ?
LoLokfe'kDR;ks% Lo:iksiyfCèkgsrq% la;ksx%!२/23!
ु ष प्रकृचि का स्वामी है अथाय ि वह(प्रकृचि) उसके चिए ही समचपय ि रहिी है,अिः पुरुष को प्रकृचि के
परु
चिए स्वामी शलि युक्त कहा और प्रकृचि को पुरुष का स्व याचन अपना कहा है, जब िक इस भाव से
पुरुष प्रकृचि के नाना रूप को दे खिा है िब िक भोगो कोप भोगिा रहिा है ! जब दशय न से चवरक्त हो कर
अपने स्वरुप को दे खिा है , उसको जान िेने पर संयोग की कोई आवश्यकिा न रहने से उसका आभाव
हो जािा है ! यही पुरुष की कैवल्य अवस्था है !

 उस संयोग का कािण क्या है ?


उस संयोग का कािण है – अलवद्या !
सविथा असंग चनचवय कार िैिरय पुरुष का जड़ प्रकृचि के साथ संबंध अनाfn चसि अचवद्या से ही है ,
वास्िव में नह है ! rL; gsrqjfo|k!2/24!

अचवद्या = अपने स्वरुप का अनाचद चसि अज्ञान |

इसचिए अपने स्वरुप ज्ञान से इसका नाश हो जािा है और उसके बाद प्रयोजन न रहने पर वह ज्ञान
भी शांि हो जािा है ! यही पुरुष का कैवल्य है !

 िाँचू क जब अचवद्या = 0, िब पुरुष - प्रकृचि संयोग समाप्त ! इससे जरम मरण आचद सभी अज्ञान जचनि
दुःखो का सदा के चिए अत्यंि आभाव हो जािा है ! पुरुष अपने स्वरुप में चस्थि हो जािा है इसी
अवस्था को कैवल्य कहिे है !rnHkkokRla;ksxkHkkoks gkua rn~n`'ks% dSoY;e~!2/25!

द्रष्टा- दृश्य लनरुपणम-


द्रष्टा का स्वरूप -
æ"Vk n`f'kek=% 'kq)ks·fi çR;;kuqi'¸k%!2/20!
अथाित- द्रष्टा ज्ञानस्वरूप िैिरयमात्र , स्वभाव से शुि है , चफर भी बुचि के सम्प्बरध से बुचि वचृ त्त
के अनुरूप दे खने वािा है!
दृश्य के स्वरूप की साथय किा लया है?– rnFkZ ,o n`';L;kRek!2/21!
दृश्य का स्वरुप द्रष्टा के चिए ही है ये उसे भोग और चनज स्वरुप के दशय न करा करके मुचक्त के उद्दे श्य
को चसि करने के चिए है !

ू य कर चदया , उस पुरुष के चिए प्रकृचि नाश प्राप्त होिे हु ए भी नष्ट नह


चजसका भोग और मुचक्त कायय पण
होिी लयोचक अरय दूसरो के चिए भी वही समान है ! - कृrkFk± çfr u"VeI;u"Va
rnU;lkèkkj.kRokr~!2/22!

परु
ु ष प्रकृनत (srt)

B
सतोगुण

r
A रजोगण

r तमोगुण
5Tnm
M(मि) 5Gin 5Kin
(शब्द,श्पशश,रूप,रस,गंध )
सतोगुण रजोगण

5Pmb (आकाश,वायु,अग्नि,जल,पथ्ृ वी)
r r

दृश्य का गण ु - उस दृश्य प्रकृचि का स्वभाव प्रकाश (सिोगुण) ,चिया(रजोगुण) व चस्थचि (िमोगुण) है ,


उसका प्रकट रूप 5 महाभि ू , और इचरद्रयां आचद है! पुरुष के चिए भोग और मुचक्त का संपादन करना ही
उसका उद्दे श्य है !
-çdk'kfØ;kÉLFkfr'khya HkwrsÉUæ;kReda HkksxkioxkZFk± n`';e~!2/18!
उसके मख्
ु य भेद है - त्तवशेषात्तवशेषत्तिङ्र्िात्रात्तिङ्र्ात्ति र्णु पवायत्तण!2/१९!
 लवशेष – पथ्ृ वी आचद ५ महाभि
ू +१०ज्ञानकमेंचद्रये+ १मन =१६
 अलवशेष- ५ िरमात्रायें + १अहंकार = ६
 लिंगामात्र – उपयय ुक्त २२ ित्वों के कारण महि(बुचि) =१
 अलिंग – १ मि ू प्रकृचि (िीनो गुणों की साम्प्यावस्था )अव्यक्त = १
कुि तत्व = २४
प्रकृलत परु
ु ष संयोग –
æ"Vk`n`';;ks% la;ksxks gs;gsrq%!2/17!
अथाित

द्रष्टा दृश्य के संयोग से उत्त्परन होने वािे ित्व एवं िम है-

पुरुष प्रकृनत (srt)

B
सतोगुण

r
A रजोगुण

r तमोगुण
5Tnm
M(मि) 5Gin 5Kin
(शब्द,श्पशश,रूप,रस,गंध )
सतोगुण रजोगुण
5Pmb (आकाश,वाय,ु अग्नि,जल,पथ्ृ वी)
r r

दृश्य का गण ु - उस दृश्य प्रकृचि का स्वभाव प्रकाश (सिोगुण) ,चिया(रजोगुण) व चस्थचि (िमोगुण) है ,


उसका प्रकट रूप 5 महाभि ु ष के चिए भोग और मुचक्त का संपादन करना ही
ू , और इचरद्रयां आचद है! परु
उसका उद्दे श्य है !
-çdk'kfØ;kÉLFkfr'khya HkwrsÉUæ;kReda HkksxkioxkZFk± n`';e~!2/18!
उसके मख्
ु य भेद है - त्तवशेषात्तवशेषत्तिङ्र्िात्रात्तिङ्र्ात्ति र्णु पवायत्तण!2/१९!
 लवशेष – पथ्ृ वी आचद ५ महाभि
ू +१०ज्ञानकमेंचद्रये+ १मन =१६
 अलवशेष- ५ िरमात्रायें + १अहंकार = ६
 लिंगामात्र – उपयय ुक्त २२ ित्वों के कारण महि(बुचि) =१
 अलिंग – १ मि ू प्रकृचि (िीनो गुणों की साम्प्यावस्था )अव्यक्त = १
कुि तत्व = २४
द्रष्टा का स्वरूप
æ"Vk n`f'kek=% 'kq)ks·fi çR;;kuqi'¸k%!2/20!
अथाित- द्रष्टा ज्ञानस्वरूप िैिरयमात्र , स्वभाव से शुि है , चफर भी बुचि के सम्प्बरध से बुचि वचृ त्त
के अनुरूप दे खने वािा है!
दृश्य के स्वरूप की साथय किा लया है?– rnFkZ ,o n`';L;kRek!2/21!
दृश्य का स्वरुप द्रष्टा के चिए ही है ये उसे भोग और चनज स्वरुप के दशय न करा करके मुचक्त के उद्दे श्य
को चसि करने के चिए है !

ू य कर चदया , उस पुरुष के चिए प्रकृचि नाश प्राप्त होिे हु ए भी नष्ट नह
चजसका भोग और मुचक्त कायय पण
होिी लयोचक अरय दूसरो के चिए भी वही समान है ! - कृrkFk± çfr u"VeI;u"Va
rnU;lkèkkj.kRokr~!2/22!
4-तस्य हेत-ु
संयोग का कािण अलवद्या,संयोग अभाव से कैवल्य
 दुःख का कारण द्रष्टा- दृश्य संयोग है , िो इस संयोग का स्वरुप लया है ? अथाय ि िब पुरुष का
कैसा भाव होिा है ?
LoLokfe'kDR;ks% Lo:iksiyfCèkgsrq% la;ksx%!२/23!
ु ष प्रकृचि का स्वामी है अथाय ि वह(प्रकृचि) उसके चिए ही समचपय ि रहिी है,अिः पुरुष को प्रकृचि के
परु
चिए स्वामी शलि युक्त कहा और प्रकृचि को पुरुष का स्व याचन अपना कहा है, जब िक इस भाव से
ु ष प्रकृचि के नाना रूप को दे खिा है िब िक भोगो कोप भोगिा रहिा है ! जब दशय न से चवरक्त हो कर
परु
अपने स्वरुप को दे खिा है , उसको जान िेने पर संयोग की कोई आवश्यकिा न रहने से उसका आभाव
हो जािा है ! यही पुरुष की कैवल्य अवस्था है !

 उस संयोग का कािण क्या है ?


उस संयोग का कािण है – अलवद्या !
सविथा असंग चनचवय कार िैिरय पुरुष का जड़ प्रकृचि के साथ संबंध अनात्तद चसि अचवद्या से ही है ,
वास्िव में नह है ! rL; gsrqjfo|k!2/24!

अचवद्या = अपने स्वरुप का अनाचद चसि अज्ञान

इसचिए अपने स्वरुप ज्ञान से इसका नाश हो जािा है और उसके बाद प्रयोजन न रहने पर वह ज्ञान
भी शांि हो जािा है ! यही पुरुष का कैवल्य है !
 िाँचू क जब अचवद्या = 0, िब पुरुष - प्रकृचि संयोग समाप्त ! इससे जरम मरण आचद सभी अज्ञान जचनि
दुःखो का सदा के चिए अत्यंि आभाव हो जािा है ! पुरुष अपने स्वरुप में चस्थि हो जािा है इसी
अवस्था को कैवल्य कहिे है !rnHkkokRla;ksxkHkkoks gkua rn~n`'ks% dSoY;e~!2/25!

अष्टांग योग संलक्षप्त परिचय-

2@30 & vfgalk] lR;] vLrs;] czãp;Z vkSj vifjxzg ;s ikap ;e gSaA ftudk
lkj bl izdkj gS&
eulk] okpk] deZ.kk fdlh Hkh izk.kh dks dHkh Hkh d"V u nsukA blesa fLFkfr
gksus ij lk/kd ds fudV lHkh izk.kh oSj dk R;kx dj nsrs gSaA 2@35
ns[kk x;k] lquk x;k ,oa vuqHko fd;s x;s fo"k;ksa dk mlh :Ik esa izdV
djukA lR; dh fLFkfr gks tkus ij fdz;kQy ds vkJ; dk vHkko vk tkrk gSA
2@36
nwljs ds /ku] oLrq ,oa fopkjksa dk vius fgr esa iz;ksx u djukA bldh
n`<+ fLFkfr gksus ij ;ksxh ds lkeus lc izdkj ds jRu izdV gks tkrs gSaA 2@37
Lo/keZ ls fojDr u gksus dk cks/kd gSA lnSo leLr bfUnz;ksa dks vareqZ[kh
dj czã esa fopj.k djukA blesa flf) gks tkus ij lkeF;Z dk ykHk gksrk gSA 2@38
vius LokFkZ ds fy;s /ku& lEifRr dk ifjxzg u djukA bldh fLFkfr
gksus ij iwoZtUe lac/a kh ckrksa dk HkyhHkkafr Kku gks tkrk gSA 2@39

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laf{kIr o.kZu bl izdkj
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र्चत्त प्रसाधि के उपाय -
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 यम - 2/30 - अगहसां ा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचयश औि अपरिग्रह ये पाांच यम हैं। गजनका साि इस प्रकाि
है-
 अगहसां ा - मनसा, वाचा, कमशणा गकसी भी प्राणी को कभी भी कष्ट न देना। इसमें गस्थगत होने पि साधक
के गनकट सभी प्राणी वैि का त्याि कि देते हैं। 2/35
 सत्य - देखा िया, सनु ा िया एवां अनभु व गकये िये गवियों का उसी रूप में प्रकट किना। सत्य की गस्थगत
हो जाने पि गक्रयाफि के आश्रय का अभाव आ जाता है। 2/36
 अस्तेय - दसू िे के धन, वस्तु एवां गवचािों का अपने गहत में प्रयोि न किना। इसकी दृढ़ गस्थगत होने पि
योिी के सामने सब प्रकाि के ित्न प्रकट हो जाते हैं। 2/37
 ब्रह्मचयश - स्वधमश से गविि न होने का बोधक है। सदैव समस्त इगन्द्रयों को अांतमख
शु ी कि ब्रह्म में गवचिण
किना। इसमें गसगद्ध हो जाने पि सामथ्यश का िाभ होता है। 2/38
 अपरिग्रह - अपने स्वाथश के गिये धन- सम्पगि का परिग्रह न किना। इसकी गस्थगत होने पि पवू शजन्म
सबां ांधी बातों का भिीभाांगत ज्ञान हो जाता है। 2/39

 गनयम - 2/32 ‘‘र्ौचसतां ोितपस्वाध्यायेष्विप्रगणधानागनगनयमाः।’’ इनका सगां क्षप्त वणशन इस प्रकाि


 र्ौच - जीवन के र्ािीरिक , मानगसक, गक्रया किपो के प्रत्येक क्षेत्र में र्द्ध
ु ता का अभ्यास ।
 इसमें दृढ गस्थगत हो जाने से अपने अिां ों में वैिावय औि दसु िो से ससां िश की न किने की इचछा उत्पन्न
होती है।2/40
 सन्तोष - कतशव्य कमश का पािन किते हुए उसका जो परिणाम हो तथा जो प्रािब्ध के अनसु ाि स्व0यां जो
कुछ प्राप्त हो तथा गजय परिगस्थगत में िहना पडे उसी में सतां ुष्ट िहना औि अन्य गकसी प्रकाि की कामना न
किना सतां ोि है।
 सतां ोि से उिम दसू िा कोई सख ु िाभ नहीं। 2/42
 तप - गविय सख ु का त्याि अथाशत् कष्ट सहन के साथ गजन कमों से सख ु होता है, उन कमों के गनिोध
की चेष्टा किना तप है। अपने वणाशश्रम, परिगस्थगत औि योवयता के अनसु ाि स्वधमश का पािन किना औि
उसके पािन में .र्ािीरिक या मानगसक कष्ट प्राप्त हो उसे सहिश सहन किना तप है। तप के प्रभाव से जब
अर्गु द्ध का नाि हो जाता तब .ििीि औि इगन्द्रयों की गसगद्ध हो जाती है। 2/43
 स्वाध्याय - स्व का अध्यन स्वयां औि अध्याय का अथश है - अध्ययन किना। इसीगिये स्वाध्याय आत्म
अध्ययन है। यह अपनी जीवन दिा का ठीक मल्ू याक ां न एवां जीवन का सही गदिा गनधाशिण है। स्वाध्याय
से इष्ट देवता की भिीभाांगत प्रागप्त (साक्षात्काि ) हो जाती है। 2/44
 ईष्वि प्रगणधान - ईष्वि प्रगणधान का तात्पयश ईष्वि के पणू श भगि भावना को आत्मसमपशण सगहत
उपासना। इसके द्वािा आिागधत ईष्वि उपासक के अभीष्ट को गसद्ध किता है। इसकी गसगद्ध होने से
समागध की गसगद्ध हो जाती है। 2/45
गचि प्रसाधन के उपाय . ‘‘मैत्रीकरुणामगु दतोपेक्षाणाां सखु दःु खपण्ु यापण्ु यगवियाणाां भावनातगष्चिप्रसादनम।् ’’
(1/33) अथाशत् सखु ी, दःु खी, पण्ु यात्मा, पापात्मा ये चािों गजनके क्रम से गविय हैं ऐसी गमत्रता, दया, प्रसन्नता
औि उपेक्षा की भावना से गचि स्वचछ (प्रसन्न) हो जाता है।
आसन प्राणायाम की अवधािणा एवं लसलद् –
महगिश पतांजगि आसन को परिभागित किते हुए कहते है - र्स्र्िसुखमासिम् || / ||
अथाशत – गस्थिता औि सख ु पवू शक एक गस्थगत में दीघशकाि तक बने िह सके वह आसन है |हठयोि में
नाना पिाक्र के आसन है | र्िीि के स्वस्थ , हल्का औि योि साधना के योवय बनाने में सहायक होते है
, यहााँ उन आसनों से अगभप्राय है , गजनमे सख ु पवू शक गनश्चिता के साथ अगधक से अगधक समय तक
ध्यान ििा कि बैठा जा सके | जैसे - स्वगस्तकासन,गसद्धासन,पद्मासन,वज्रासन आगद |

उस आसन की गसगद्ध र्ािीरिक प्रयत्न की गर्गथिता औि गचि को अन्नांत में ििाने से होती है | गजसे
िगणतीय योि सत्रू में देख सकते है की गचि को अनांत जैसे की आकार् आगद में समागहत अनांत वृगत
िय किने से र्ािीि के प्रगत चांचि वृगत स्वत: गनरुद्ध होकि कि र्ािीिक (सदी-िमी आगद )
मानगसक(मान-अपमान,) द्वद्वां ो के आघात नही होते | महगिश पतांजगि इसे योि सत्रू में कहते है -
प्रयत्िशैर्र्ल्यािन्तसमापर्त्तभ्याम२् /४७
अर्ाित – प्रयत्ि की र्शर्र्िता औि अिंत में समापर्त्त िािा आसि र्सद् होता है |
व्यास भाष्य- अनन्ते वा समापनां गचिमासनां गनवशतशयतीगत|
“अनतां में समापन्न गकया हुआ गचि आसन को गसद्ध किता है |”
भोज वृर्त- “जब आकार् आगद में िहने वािी अनतां में गचत को व्यवधान िगहत तदाकाि गकया जाता
है , तब उसकी तद्रूपता प्राप्त हो जाने पि र्िीिागभमान का आभाव हो जाने से देह की सधु न िहने से
आसन दःु ख का उत्पादक नहीं होता |”
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अथाशत – आसन की गसगद्ध से योिी को सदी- िमी, भख ू – प्यास आगद द्वद्वां नहीं सताते |
आसन के गसगद्ध के पश्चात् श्वास – प्रश्वास के स्वाभागवक िगत का गवचछे द किना ही
प्रािायाम कही ियी है | यथा -
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श्वास –प्रश्वास के रूप प्रवागहत होने वािा प्राण ही जीवन का अधाि है तथा हठ योि के अनसु ाि
“चिे वातां चिे गचिां ... गनश्चिे गनश्चिां भवेत|् ” अत: गचि वृगत के गनिोध के गिए वायु का िगत
गनिोध आवश्यक है (उस पि गनयांत्रण किना )|
इसगिए आसन के पश्चात् प्राणायाम का अभ्यास कि गचि को गनिोध किने में सहजता होती है |

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μ μ

देर्,काि,सख्ां या परिदृष्ट= कहााँ,गकतनी देि , गकतनी सख्ां या तक प्राण रुका है |इस आधाि पि
प्राणायाम के प्रकाि -
 बाह्यवृर्त्त- िे चक
 आभ्यंति – पूिक
 स्तम्प्भ वृर्त्त- कुम्प्भक

 र्वषयाक्षेपी – श्वास-प्रश्वास र्ििोध होकि र्वषय िर्हत र्चत्त |


प्रािायाम का फि / महत्व
o २/५२
o २/५३

- प्रािायाम की र्सर्द् से र्ववेक ज्ञाि के िज-तम का पदाि का क्षय होकि धििा की यो्यता
की प्रार्प्त हो जाती है |

प्रत्याहाि की अवधािणा एवं इसकी लसलद्-

प्रत्याहाि-
२/५४ |
अर्ाित- इर्न्द्रयों का अपिे र्वषयों (शब्द,स्पशि,रूप,िस,गंध) से हट कि र्चत्त के सार् एकाकाि हो जािा प्रत्याहाि कहिाता
है|
इर्न्द्रयों का बर्हमिख
ु ी से अंतमिख
ु ी होिा |

प्रत्याहाि र्सर्द् का फि / महत्त्व


rr% ijek o';rsÉUæ;k.kke~ २/५५ |
अथाशत – प्रत्याहाि की गसगद्ध हो जाने से इगन्द्रयों पिम वश्यता की प्रागप्त होती है |
धािणा, ध्यान एवं समालध परिचय –
संयम एवं इसकी लसलद्-
तीन प्रकाि के लचत्त परिणाम-
भूत जय, इलन्द्रय जय एवं उनकी लसलद् –
लववेक ज्ञान लनरुपणम
कैवल्य
पांच प्रकाि के लसलद् एवं जत्यांति परिणाम –
लनमािण लचत्त की अवधािणा –
कमि के चाि प्रकाि-
मनष्ु य जीवन में कमय एक अचनवायय अंग के रूप में चवद्यामान है | चकसी भी क्षण चबना कमय के कोई
भी व्यचक्त नह रहिा है | (गीिा-३/५)कमय के द्वारा संस्कार बनिे है और यही कमय संस्कार अरय
जरम का कारण बनिे है इस प्रकार यह श्रंखिा िििी रहिी है |
 कृष्ण कमय (पाप कमय )
 शुलि कमय (पुण्य कमय )
 कृष्ण-शुलि चमचश्रि कमय ( सांसाररक मनुष्य के कमय )
वासना- िस्ििचद्वपाकानुगुणानामे वा चभव्यचक्तवाय सनानाम |४\८||
इन िीन प्रकार के कमो से उनके फि भोगो के अनुसार ही वासनाओं की अचभव्यचक्त होिी है |

जाचिदे शकािव्यवचहिानामप्यानरियं स्मचृ ि संस्करयोरे करूपत्वाि |४/९||

जन्म,आयु औि भोग हषि औि दुःु ख फि दायक


 rs ह्लादifjrkiQyk% iq.;kiq.;gsrqRokr~!२/१४!
वे जरम, आयु और भोग हषय और शोक रूप फि को दे ने वािे होिे है लयोंचक पुण्य कमय और पापकमय दोनों
ही कारण है !
पुण्यकमय → हषय
& पापकमय → शोक

अशुलि अकृष्ण कमय - चकरिु चववेकवान वही है जो कमो को सजगिा पवू य क करिा है |योगी के कमय
इसी प्रकार के होिे है चजसमे चकसी िरह के फि की आकांक्षा नह रहिी है वे न ही पाप कमय करिे है न
ही पुरय कमय करिे है |चजससे उनके कामय पाप पुरय से रचहि हो जािे है जो बंधन कारक नही होिे है |
कमाय शल
ु िाकृष्ण योचगचनचस्त्रचवधचमिारे षम |४/७||

 योचगयों के कमय यही है !

वासना की अवधािणा एवं


िस्ििचद्वपाकानुगुणानामे वा चभव्यचक्तवाय सनानाम |४\८||
इन िीन प्रकार के कमो से उनके फि भोगो के अनुसार ही वासनाओं की अचभव्यचक्त होिी है |

जाचिदे शकािव्यवचहिानामप्यानरियं स्मचृ ि संस्करयोरे करूपत्वाि |४/९||

जन्म,आयु औि भोग हषि औि दुःु ख फि दायक


 rs ह्लादifjrkiQyk% iq.;kiq.;gsrqRokr~!२/१४!
वे जरम, आयु और भोग हषय और शोक रूप फि को दे ने वािे होिे है लयोंचक पुण्य कमय और पापकमय दोनों
ही कारण है ! पुण्यकमय → हषय

& पापकमय → शोक

चकरिु चववेकवान वही है जो कमो को सजगिा पवू य क करिा है | योगी के कमय इसी प्रकार के होिे है
चजसमे चकसी िरह के फि की आकांक्षा नह रहिी है वे न ही पाप कमय करिे है न ही पुरय कमय
करिे है |चजससे उनके कामय पाप परु य से रचहि हो जािे है जो बंधन कारक नही होिे है |
कमाय शुलिाकृष्ण योचगचनचस्त्रचवधचमिारे षम |४/७||

 योचगयों के कमय

बाह्य पदाथि की अवधािणा


समाप्त ! ॐ शांत्तत ! शांत्तत !! शांत्तत !!!

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