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कृतिकार की तिगाह िहीीं होिी, यह िो िहीीं कहूँ गा। पर यह असींतिग्ध है तक वह तिगाह एक िहीीं होिी। एक

तिगाह से िे खिा कलाकार की तिगाह से िे खिा िहीीं है । स्थिर, पररवितिहीि दृति तसि्ाीं िवािी की हो
सकिी है , सुधारक-प्रचारक की हो सकिी है और- भारिीय तवश्वतवद्यालयोीं के सींिभत में-अध्यापक की भी हो
सकिी है , पर वैसी दृति रचिाशील प्रतिभा की दृति िहीीं है ।

'अज्ञेय' : अपिी तिगाह में इस शीर्तक के िीचे यहाूँ जो कुछ कहा जा रहा है उसे इसतलए ज्ोीं-का-त्ोीं
स्वीकार िहीीं तकया जा सकिा। वह स्थिर उत्तर िहीीं है । यह भी हो सकिा है तक उसके छपिे -छपिे उससे
तभन्न कुछ कहिा उतचि और सही जाि पड़िे लगे। चालू मुहावरे में कहा जाए तक यह केवल आज का, इस
समय का कोटे शि है । कल को अगर बिला जाए िो यह ि समझिा होगा तक अपिी बाि का खींडि तकया
जा रहा है , केवल यही समझिा होगा तक वह कल का कोटे शि है जो तक आज से तभन्न है ।

तिर यह भी है तक कलाकार की तिगाह अपिे पर तटकिी भी िहीीं। क्ोीं तटके? िु तिया में इििा कुछ िे खिे
को पड़ा है : 'क्षण-क्षण पररवतिति प्रकृतिवेश' तजसे 'उसिे आूँ ख भर िे खा।' इसे िे खिे से उसको इििा
अवकाश कहाूँ तक वह तिगाह अपिी ओर मोड़े । वह िो तजििा कुछ िे खिा है उससे भी आगे बढ़िे की
तववशिा में िे िा है 'मि को तिलासा, पुि: आऊूँगा-भले ही बरस तिि अितगि युगोीं के बाि!'

कलाकार की तिगाह, अगर वह तिगाह है और कलाकार की है िो, सवतिा सब-कुछ की ओर लगी रहिी है ।
अपिे पर तटकिे का अवकाश उसे िहीीं रहिा। ति:सींिेह ऐसे बहुि-से कलाकार पड़े हैं , तजन्ोींिे अपिे को
िे खा है , अपिे बारे में तलखा है । अपिे बारे में तलखिा िो आजकल का एक रोग है । बस्ि यह रोग इििा
व्यापक है तक तजसे यह िहीीं है वही मािो बेचैि हो उठिा है तक मैं कहीीं अस्वथि िो िहीीं हूँ ? लेखकोीं में कई
ऐसे भी हैं तजन्ोींिे केवल अपिे बारे में तलखा है -तजन्ोींिे अपिे तसवा कुछ िे खा ही िहीीं है । लेतकि सरसरी
िौर पर अपिे बारे में तलखा हुआ सब-कुछ एक ही माििीं ड से िहीीं िापा जा सकिा, उसमें कई कोतटयाूँ हैं ।
क्ोींतक िे खिेवाली तिगाह भी कई कोतटयोीं की हैं । आत्म-चचात करिेवाले कुछ लोग िो ऐसे हैं तक तिज की
तिगाह कलाकार की िहीीं, व्यवसायी की तिगाह है । योीं आजकल सभी कलाकार न्यू िातधक मात्रा में
व्यवसायी हैं ; आत्म-चचात आत्म-पोर्ण का साधि है इसतलए आत्म-रक्षा का एक रूप है । कुछ ऐसे भी होींगे
जो कलाकार िो हैं लेतकि वास्तव में आत्म-मुग्ध हैं -िातसत सस-गोत्रीय कलाकार! लेतकि अपिे बारे में
तलखिेवालोीं में एक वगत ऐसोीं का भी है जो तक वास्तव में अपिे बारे में िहीीं तलखिे हैं -अपिे को माध्यम
बिाकर सींसार के बारे में तलखिे हैं । इस कोतट के कलाकार की जागरूकिा का ही एक पक्ष यह है तक यह
तिरीं िर अपिे िे खिे को ही िे खिा चलिा है , अिवरि अपिे सींवेिि के खरे पि की कसौटी करिा चलिा है ।
तजस भाव-यींत्र के सहारे वह िु तिया पर और िु तिया उस पर ्तटि होिी रहिी है , उस यींत्र की ग्रहणशीलिा
का वह बराबर परीक्षण करिा रहिा है । भाव-यींत्र का ऐसा परीक्षण एक सीमा िक तकसी भी युग में
आवश्यक रहा होगा, लेतकि आज के युग में वह एक अतिवायत कितव्य हो गया है ।

िो अपिी तिगाह में अज्ञेय। यािी आज का अज्ञेय ही। तलखिे के समय की तिगाह में वह तलखिा हुआ
अज्ञेय। बस इििा ही और उििे समय का ही।

अज्ञेय बड़ा सींकोची और समाजभीरु है । इसके िो पक्ष हैं । समाजभीरु िो इििा है तक कभी-कभी िु काि में
कुछ चीजें खरीििे के तलए ्ुसकर भी उलटे -पाूँ व लौट आिा है क्ोींतक खरीििारी के तलए िु काििार से
बािें करिी पडें गी। लेतकि एक िू सरा पक्ष भी है तजसके मूल में तिजीपि की िीव्र भाविा है , वह तजसे अूँग्रेजी
में सेंस ऑफ़ प्राइवेसी कहिे हैं । तकि चीजोीं को अपिे िक, या अपिोीं िक ही सीतमि रखिा चातहए, इसके
बारे में अज्ञेय की सबसे बड़ी स्पि और दृढ़ धारणाएूँ हैं । और इिमें से बहुि-सी लोगोीं की साधारण मान्यिाओीं
से तभन्न हैं । यह भेि एक हि िक िो अूँग्रेजी सातहत् के पररचय की राह से समझा जा सकिा है : उस
सातहत् में इसे चाररतत्रक गुण मािा गया है । मिोवेगोीं को अतधक मुखर ि होिे तिया जाए, तिजी अिुभूतियोीं
के तिजीपि को अक्षुण्ण रखा जाए : 'प्राइवेट फ़ेसेज इि पस्िक प्लेसेज'। लेतकि इस तिरोध अिवा सींयमि
के अलावा भी कुछ बािें हैं । एक सीमा है तजसके आगे अज्ञेय अस्पृश्य रहिा ही पसींि करिा है । जैसे तक
एक सीमा से आगे वह िू सरोीं के जीवि में प्रवेश या हस्तक्षेप िहीीं करिा है । इस िरह का अतधकार वह बहुि
िोड़े लोगोीं से चाहिा है और बहुि िोड़े लोगोीं को िे िा है । तजन्ें िे िा है उन्ें अबाध रूप से िे िा है , तजिसे
चाहिा है उिसे उििे ही तिबात ध भाव से चाहिा है । लेतकि जैसा तक पहले कहा गया है , ऐसे लोगोीं की पररतध
बहुि कड़ी है ।

इससे गलििहमी जरूर होिी है । बहुि-से लोग बहुि िाराज भी हो जािे हैं । कुछ को इसमें मिहतसयि की
झलक तमलिी है , कुछ अहम्मन्यिा पािे हैं , कुछ आतभजात् का िपत , कुछ और कुछ। कुछ की समझ में यह
तिरा आडीं बर है और भीिर के शून्य को तछपािा है जैसे प्याज का तछलका पर तछलका। मैं साक्षी हूँ तक
अज्ञेय को इि सब प्रतितियाओीं से अत्ींि क्लेश होिा है । लेतकि एक िो यह क्लेश भी तिजी है । िू सरे इसके
तलए वह अपिा स्वभाव बिलिे का यत्न िहीीं करिा, ि करिा चाहिा है । सभी को कुछ-कुछ और कुछ को
सब-कुछ-वह माििा है उसके तलए आत्म-िाि की पररपाटी यही हो सकिी है । तसद्ाीं िि: वह स्वीकार
करे गा तक 'सभी को सब-कुछ' का आिशत इससे अतधक ऊूँचा है । पर वह आिशत सन्यासी का ही हो सकिा
है । या कम-से -कम तिजी जीवि में कलाकार का िो िहीीं हो सकिा। बहुि-से कलाकार उससे भी छोटा
िायरा बिा लेिे हैं तजििा तक अज्ञेय का है और कोई-कोई िो 'कुछ को कुछ, बाकी अपिे को सब-कुछ' के
ही आिशत पर चलिे हैं । ऐसा कोई ि बचे तजसे उसिे अपिा कुछ िहीीं तिया हो, इसके तलए अज्ञेय बराबर
यत्नशील है । लेतकि सभी के तलए वह सब-कुछ िे रहा है , ऐसा िावा वह िहीीं करिा और इस िीं भ से अपिे
को बचाये रखिा चाहिा है ।

अज्ञेय का जन्म खूँडहरोीं में तशतवर में हुआ िा। उसका बचपि भी विोीं और पवतिोीं में तबखरे हुए महत्त्वपूणत
पुराित्त्वावशेर्ोीं के मध्य में बीिा। इन्ीीं के बीच उसिे प्रारीं तभक तशक्षा पायी। वह भी पहले सींस्कृि में, तिर
िारसी और तिर अूँग्रेजी में। और इस अवतध में वह सवतिा अपिे पुराित्त्वज्ञ तपिा के साि, और बीच-बीच में
बाकी पररवार से-मािा और भाइयोीं से-अलग, रहिा रहा। खुिाई में लगे हुए पुराित्त्वान्वेर्ी तपिा के साि
रहिे का मिलब िा अतधकिर अकेला ही रहिा। और अज्ञेय बहुि बचपि से एकाीं ि का अभ्यासी है और
बहुि कम चीजोीं से उसको इििी अकुलाहट होिी है तजििी लगािार लींबी अवतध िक इसमें व्या्ाि पड़िे
से। जेल में अपिे सहकतमतयोीं के तिि-राि के अतिवायत साहचयत से त्रस्त होकर उसिे स्वयीं काल-कोठरी की
माूँ ग की िी और महीिोीं उसमें रहिा रहा। एकाीं िजीवी होिे के कारण िे श और काल के आयाम का उसका
बोध कुछ अलग ढीं ग का है । उसके तलए सचमुच 'कालोह्ययीं तिरवतधतवतपुला च पृथ्वी।' वह ्ीं टोीं तिश्चल बैठा
रहिा है , इििा तिश्चल तक तचतड़याूँ उसके कींधोीं पर बैठ जाएूँ या तक तगलहररयाूँ उसकी टाूँ गोीं पर से िाूँ ििी
हुई चली जाएूँ । पशु-पक्षी और बच्चे उससे बड़ी जल्दी तहल जािे हैं । बड़ोीं को अज्ञेय के तिकट आिा भले ही
कतठि जाि पड़े , बच्चोीं का तवश्वास और सौहाित उसे िुरि तमलिा है । पशु उसिे तगलहरी के बच्चे से िेंिुए के
बच्चे िक पाले हैं , पक्षी बुलबुल से मोर-चकोर िक; बींिी इिमें से िो-चार तिि से अतधक तकसी को िहीीं
रखा। उसकी तिश्चलिा ही उन्ें आश्वस्त कर िे िी है । लेतकि गति का उसके तलए िु िाां ि आकर्तण है । तिरी
अींध गति का िहीीं, जैसे िेज मोटर या हवाई जहाज की, यद्यतप मोटर वह काफ़ी िेज रफ्तार से चला लेिा है ।
(पहले शौक िा, अब केवल आवश्यकिा पड़िे पर चला लेिे की कुशलिा है , शौक िहीीं है ।) आकर्तण है
एक िरह की ऐसी लय-युस्ि गति का-जैसे ्ुड़िौड़ के ्ोड़े की गति, तहरि की िलाूँ ग या अच्छे िैराक का
अींग-सींचालि, या तशकारी पक्षी के झपट्टे की या सागर की लहरोीं की गति। उसके लेखि में, तवशेर् रूप से
कतविा में, यह आकर्तण मुखर है । पर जीवि में भी उििा ही प्रभावशाली है । एक बार बचपि में अपिे
भाइयोीं को िैरिे हुए िे खकर वह उिके अींग-सींचालि से इििा मुग्ध हो उठा तक िै रिा ि जाििे हुए भी पािी
में कूि पड़ा और डूबिे -डूबिे बचा-यािी मूतछत िावथिा में तिकाला गया। लय-युि गति के साि-साि, उगिे
या बढ़िेवाली हर चीज में, उसके तवकास की बारीक-से-बारीक तिया में, अज्ञे य को बेहि तिलचस्पी है : वे
चीजें छोटी होीं या बड़ी, च्ूूँटी और पक्षी होीं या वृक्ष और हािी; मािव-तशशु हो या िगर और कस्बे का
समाज। विस्पतियोीं और पशु -पतक्षयोीं का तवकास िो केवल िे खा ही जा सकिा है ; शहरी मािव और उसके
समाज की गतितवतधयोीं से पहले कभी-कभी बड़ी िीव्र प्रतितिया होिी िी-क्षोभ और िोध होिा िा; अब धीरे -
धीरे समझ में आिे लगा है तक ऐसी राजस प्रतितियाएूँ िे खिे में िोड़ी बाधा जरूर होिी है । अब आिोश को
वश करके उि गतितवतधयोीं को ठीक-ठीक समझिे और उिको तिमात णशील लीकोीं पर डालिे का उपाय
खोजिे का मि होिा है । पहले तवद्रोह िा जो तवर्तयगि िा-'सब्जेस्िव' िा। अब प्रवृतत्त है जो तकसी हि िक
असम्पृि बुस्द् से प्रेररि है । एक हि िक जरूर प्रवृतत्त के साि एक प्रकार की अींिमुतखीििा आई है ।
समाज को बिलिे चलिे से पहले अज्ञेय बार-बार अपिे को जाूँ चिा है तक कहाूँ िक उसके तवश्वास और
उसके कमत में सामींजस्य है -या तक कहाूँ िहीीं है । यह भी जोड़ तिया जा सकिा है तक वह इस बारे में भी
सिकत रहिा है तक उसके तिजी तवश्वासोीं में और सावतजतिक रूप से ्ोतर्ि (पस्िक) आिशत में भेि िो िहीीं
है ? धारणा और कमत में सौ प्रतिशि सामींजस्य िो तसद्ोीं को तमलिा है । उििा भाग्यवाि ि होकर भी अज्ञेय
अींितवतरोध की भट्ठी पर िहीीं बैठा है और इस कारण अपिे भीिर एक शाीं ति और आत्मबल का अिुभव
करिा है । शाीं ति और आत्म-बल आज के यु ग में शायि तवलास की वस्तुएूँ हैं । इसतलए इस कारण से अज्ञेय
तहीं िी भाइयोीं और तवशेर् रूप से तहीं िीवाले भाइयोीं से कुछ और अलग पड़ जािा है और कुछ और अकेला हो
जािा है ।

यहाूँ यह भी स्वीकार कर तलया जाए तक यहाूँ शायि सच्चाई को अतधक सरल करके सामिे रखा गया है ;
उििी सरल वास्ततवकिा िहीीं है । एक साि ही चरम तिश्चलिा का और चरम गतिमयिा का आकर्तण अज्ञेय
की चेििा के अींितवतरोध का सूचक है । पहाड़ उसे अतधक तप्रय है या सागर, इसका उत्तर वह िहीीं िे पाया है ,
स्वयीं अपिे को भी। वह सवतिा तहमालय के तहमतशखरोीं की ओर उन्मुख कुटीर में रहिे की कल्पिा तकया
करिा है और जब-िब उधर किम भी बढ़ा लेिा है ; पर िू सरी ओर वह भागिा है बराबर सागर की ओर,
उसके उद्वे लि से एकिाििा का अिुभव करिा है । शाीं ि सागर-िल उसे तवशेर् िहीीं मोहिा-चट्टािोीं पर
लहरोीं का ्ाि-प्रति्ाि ही उसे मुग्ध करिा है । सागर में वह िो बार डूब चुका है ; चट्टािोीं की ओट से सागर-
लहर को िे खिे के लोभ में वह कई बार तिसलकर तगरा है और िै वाि ही बच गया है । पर मि:स्थिति ज्ोीं-
की-त्ोीं है : वह तहमालय के पास रहिा चाहिा है पर सागर के गजति से िू र भी िहीीं रहिा चाहिा! कभी
हूँ सकर कह िे िा है : ''मेरी कतठिाई यही है तक भारि का सागर-िट सपाट ितक्षण में है -कहीीं पहाड़ी िट
होिा िो-!''

क्ोींतक इस अींितवतरोध का हल िहीीं हुआ है , इसतलए वह अभी स्वयीं तिश्चयपूवतक िहीीं जाििा है तक वह अींि
में कहाूँ जा तटकेगा। तिल्ली या कोई भी शहर िो वह तवश्रामथिल िहीीं होगा, यह वह ध्रुव माििा है । पर वह
कूमाां चल तहमालय में होगा, तक कुमारी अींिरीप के पास (जहाूँ चट्टािें िो हैं !), या समझौिे के रूप में तवींध्य के
अींचल की कोई विखींडी जहाूँ ििी-िाले का ममतर ही हर समय सुििे को तमलिा रहे -इसका उत्तर उसे िहीीं
तमला। उत्तर की कमी कई बार एक अशाीं ति के रूप में प्रकट हो जािी है । वह 'कहीीं जािे के तलए' बैचेि हो
उठिा है । (मुस्िबोध का 'माइग्रेशि इस्टीं ि'?) कभी इसकी सूरि तिकल आिी है ; कभी िहीीं तिकलिी िो
वह ्र ही का सब सामाि उलट-पुलटकर उसे िया रूप िे िे िा है : बैठक को शयिकक्ष, शयिकक्ष को
पाठागार, पाठागार को बैठक इत्ाति। उससे कुछ तिि लगिा है तक मािो िए थिाि में आ गए-तिर वह
पुरािा होिे लगिा है िो तिर सब बिल तिया जािा है ! इसीतलए ्र का ििीचर भी अज्ञेय अपिे तडजाइि
का बिवािा है । ये जो िीि चौतकयाूँ हैं ि, इन्ें योीं जोड़ तिया जाए िो पलींग बि जाएगा; ये जो िो डे स्क-सी
िीखिी हैं , एक को ्ुमाकर िू सरे से पीठ जोड़ िीतजए, भोजि की मेज बि जाएगी यति आप िशत पर िहीीं
बैठ सकिे। वह जो पलींग िीखिा है , उसका पल्ला उठा िीतजए- िीचे वह सींिूक है । या उसे एक तसरे पर
खड़ा कर िीतजए िो वह आलमारी का काम िे जाएगा! िीवार पर शरि ऋिु के तचत्र हैं ि ? सबको उलट
िीतजए : अब सब तचत्र वसींि के अिुकूल हो गए-अब तबछावि भी उठाकर शीिलपातटयाूँ डाल िीतजए और
सभी चीजोीं का िाल-मेल हो गया...

पुराित्त्ववेत्ता की छाया में अकेले रहिे का एक लाभ अज्ञेय को और भी हुआ है । चाहे तवरोधी के रूप में चाहे
पालक के रूप में, वह बराबर परीं परा के सींपकत में रहा है । रूतढ और परीं परा अलग-अलग चीजें हैं , यह
उसिे समझ तलया है । रूतढ वह िोड़िा है और िोड़िे के तलए हमेशा िै यार है । लेतकि परीं परा िोड़ी िहीीं
जािी, बिली जािी है या आगे बढ़ाईजािी है , ऐसा वह माििा है ; और इसी के तलए यत्नशील है । कहिा सही
होगा तक वह मयात िावाि तवद्रोही है । तिर इस बाि को चाहे आप प्रशींसा से कह लीतजए चाहे व्यींग्य और
तवद्रूप से।

एक ओर एकाीं ि, और िू सरे में एकाीं ि का तिरीं िर बिलिा हुआ पररवेश-कभी कश्मीर की उपत्काएूँ , कभी
तबहार के िे हाि, कभी कोटातगरर-िीलतगरर के आतिम जातियोीं के गाूँ व, कभी मेरठ के खािर और कभी
असम और पूवी सीमाीं ि के वि-प्रिे श-इस अिवरि बिलिे हुए पररवेश िे अकेले अज्ञेय के आत्म-तिभतरिा
का पाठ बराबर िु हरवाया है । इस कारण वह तजििा जैसा तजया है अतधक स्ििा और िीव्रिा से तजया है ।
'रूप-रस-गींध-गाि'-सभी की प्रतितियाएूँ उसमें अतधक गहरी हुई हैं । तसद्ाीं िि: भी वह माििा है तक कतव
या कलाकार ऐींतद्रय चेििा की उपेक्षा िहीीं कर सकिा। और पररस्थितियोीं िे उसे इसकी तशक्षा भी िी है तक
ऐींतद्रय सींवेिि को कुींि ि होिे तिया जाए। यह योीं ही िहीीं तक आूँ ख, काि, िाक आति को 'ज्ञािेंतद्रयाूँ ' कहा
जािा है । ये वास्तव में स्खड़तकयाूँ हैं तजिमें से व्यस्ि जगि को िे खिा और पहचाििा है । इिके सींवेिि को
अस्वीकार करिा सींन्यास या वैराग्य का अींग िहीीं है । वह पींि आसस्ि को छोड़िा है यािी इि सींवेििोीं से
बूँध िहीीं जािा; यह िहीीं है तक इिका उपयोग ही वह छोड़ िे िा है । जब अज्ञेय को ऐसे लोग तमलिे हैं जो गवत
से कहिे हैं तक ''हमें िो खािे में स्वाि का पिा ही िहीीं रहिा-हम िो यह भी लक्ष्य िहीीं करिे तक िाल में
िमक कम है या ज्ािा,'' िो अज्ञेय को हूँ सी आिी है । क्ोींतक यह वह अस्वाि िहीीं तजसे आिशत मािा गया,
यह केवल एक तवशेर् प्रकार की पींगुिा है । इसमें और इस बाि पर गवत करिे में तक ''मुझे िो यह भी िहीीं
तिखिा तक तिि है या राि,'' कोई अींिर िहीीं है । अगर अन्धापि या बहरापि श्लाघ्य िहीीं है िो जीभ का या
त्वचा का अपस्मार ही क्ोीं श्लाघ्य है ? ज्ञािेंतद्रयोीं की सजगिा अज्ञेय की कृतियोीं में प्रतिलतक्षि होिी है और
वह माििा है होिी भी चातहए। कम या ज्ािा िमक होिे पर भी िाल खा लेिा एक बाि है , और इसको िहीीं
पहचाििा तबलकुल िू सरी बाि है ।

अज्ञेय माििा है तक बुस्द् से जो काम तकया जािा है उसकी िीींव हािोीं से तकये गए काम पर है । जो लोग
अपिे हािोीं का सही उपयोग िहीीं करिे उिकी माितसक सृति में भी कुछ तवकृति या एकाीं तगिा आ जािी है ।
यह बाि काव्य-रचिा पर तवशेर् रूप से लागू है क्ोींतक अन्य सब कलाओीं के साि कोई-ि-कोई तशल्प बूँधा
है , यािी अन्य सभी कलाएूँ हािोीं का भी कुछ कौशल माूँ गिी हैं । एक काव्य-कला ही ऐसी है तक शुद्
माितसक कला है । प्राचीि काल में शायि इसीतलए कतव-कमत को कला िहीीं तगिा जािा िा। अज्ञेय प्राय: ही
हाि से कुछ-ि-कुछ बिािा रहिा है और बीच-बीच में कभी िो माितसक रचिा को तबलकुल थितगि करके
केवल तशल्प-वस्तुओीं के तिमात ण में लग जािा है । बढ़ईतगरी और बागवािी का उसे खास शौक है । लेतकि
और भी बहुि-सी िस्तकाररयोीं में िोड़ी-बहुि कुशलिा उसिे प्राप्त की है और इिका भी उपयोग जब-िब
करिा रहिा है । अपिे काम के िे शी काट के कपड़े भी वह सी लेिा है और चमड़े का काम भी कर लेिा है ।
िोड़ी-बहुि तचत्रकारी और मूतितकारी वह करिा है । िोटोग्रािी का शौक भी उसे बराबर रहा है और बीच-
बीच में प्रबल हो उठिा है ।
हािोीं से चीजें बिािे के कौशल का प्रभाव जरूरी िौर पर सातहत्-रचिा पर भी पड़िा है । अज्ञेय प्राय: तमत्रोीं
से कहा करिा है तक अपिे हाि से तलखिे और शीघ्रलेखक को तलखािे में एक अीं िर यह है तक अपिे हाि
से तलखिे में जो बाि बीस शब्ोीं में कही जािी तलखािे समय उसमें पचास शब् या सौ शब् भी सफ़तकर
तिए जािे हैं ! तमिव्यय कला का एक स्वाभातवक धमत है । रीं ग का, रे खा का, तमट्टी या शब् का अपव्यय भारी
िोर् है । अपिे हाि से तलखिे में पररश्रम तकिायि की ओर सहज ही जािा है । तलखािे में इसमें चूक भी हो
सकिी है । तवतवध प्रकार के तशल्प के अभ्यास से तमिव्यय का-तकसी भी इि की प्रास्प्त में कम-से -कम श्रम
का-तसद्ाीं ि सहज-स्वाभातवक बि जािा है । भार्ा के क्षेत्र में इससे िपी-िुली, सु लझी हुई बाि कहिे की
क्षमिा बढ़िी है , िकत-पद्ति व्यवस्थिि, सुतचींतिि और िमसींगि होिी है । अज्ञेय इि सबको सातहत् के बड़े
गुण माििा है और बराबर यत्नशील रहिा है तक उसका लेखि इस आिशत से स्खतलि ि हो।
िू सरे की बाि को वह ध्याि से और धैयत से सुििा है । िू सरे के दृतिकोण का, िू सरे की सुतवधा का, िू सरे और
तप्रय-अतप्रय का वह बहुि ध्याि रखिा है -कभी-कभी जरूरि से ज्ािा। िेिा के गुणोीं में एक यह भी होिा है
तक अपिे दृतिकोण को अपिे पर इििा हावी हो जािे िे तक िू सरे के दृतिकोण की अििे खी भी कर सके।
तिरीं िर िू सरे के दृतिकोण को िे खिे रहिा िेिृत्व कमत में बाधक भी हो सकिा है । इसतलए िेिृत्व करिा
अज्ञेय के वश का िहीीं है । वह सही मागत पहचािकर और उसका इीं तगि िे कर भी तिर एक िरफ़ हट
जाएगा, क्ोींतक 'िू सरोीं का दृतिकोण िू सरा है ' और वह उस दृतिकोण को भी समझ सकिा है !
'मार-मारकर हकीम' ि बिािे की इस प्रवृतत्त के कारण अज्ञेय को तवश्वास बहुि लोगोीं का तमला है । तमत्र
उसके कम रहे हैं , पर अपिी समस्याएूँ लेकर बहुि लोग उसके पास आिे हैं ; ऐसे लोगोीं को खुलकर बाि
करिे में कभी कतठिाई िहीीं होिी। सभी की सहायिा की जा सके ऐसे साधि तकसके पास हैं : पर धीरज
और सहािुभूति से सुििा भी एक सहायिा है जो हर कोई िे सकिा है । (पर िे िा िहीीं)।
लेतकि इस धीरज के साि-साि अव्यवस्थिि तचींिि के प्रति उसमें एक िीव्र असतहष्णुिा भी है । तचींिि के क्षेत्र
में तकसी िरह का भी लबड़धोींधोींपि उसे सख्त िापसीं ि है और इस िापसींिगी को प्रकट करिे में वह
सींकोच िहीीं करिा। इसीतलए उसके तमत्र बहुि कम हैं । तहीं िीवालोीं में और भी कम, क्ोींतक तहीं िी
सातहत्कार का तचींिि भारिीय सातहत्कारोीं में अपेक्षया अतधक ढु लमुल होिा है । सातहत्कार ही क्ोीं,
तहीं िी के आलोचकोीं और अध्यापकोीं का सोचिे का ढीं ग भी एक िमूिा है ।

अज्ञेय तहीं िी के हािी का तिखािे का िाूँ ि है । कभी-कभी उसको इस पर आश्चयत भी होिा है और खीझ भी।
क्ोींतक वह अिुभव करिा है तक तहीं िी के प्रति उसकी आथिा अिेक प्रतितिि तहीं िीवालोीं से अतधक है और
साि ही यह भी तक वह बड़ी गहराई में और बड़ी तििा के साि भारिीय है । यािी वह खािे के िाूँ िोीं की
अपेक्षा तहीं िी के हािी का अतधक अपिा है । योीं िो खैर, िाूँ ि ही हािी का हो सकिा है , कोई जरूरी िहीीं है
तक हािी भी िाूँ ि का हो। लेतकि शायि ऐसा सोचिा भी अज्ञेय की िु बतलिा है -यह भी 'िू सरे के दृतिकोण को
िे खिा' है । वह अपिे को तहीं िी का मािकर चलिा है जब तक आिोडाक्स तहीं िीवाला तहीं िी को अपिी माििा
ही िहीीं वैसा िावा भी करिा है : अज्ञेय अपिे को भारि का माििा है जबतक आिोडाक्स भारिीय िे श को
अपिा माििा है । तहीं िी के एक बुजुगत िे कहा िा, ''तविे शोीं में तहीं िी पढ़ािे के तलए िो अज्ञेय बहुि ही उपयुि
है , बस्ि इससे योग्यिर व्यस्ि िहीीं तमलेगा; लेतकि भारिीय तवश्वतवद्यालयोीं में-" और यहाूँ उिका स्वर
एकाएक तबलकुल बिल गया िा-"और तहीं िी क्षे त्र में-िे स्खए, तहीं िी क्षेत्र में तहीं िी सातहत् पढ़ािे के तलए िो
िू सरे प्रकार की योग्यिा चातहए।'' इस किि के पीछे जो प्रतिज्ञाएूँ हैं उिसे अज्ञेय को अपिा क्लेश होिा है ।
लेतकि-और इसे उसका अतिररि िु भात ग्य समतझए-इस दृतिकोण को वह समझ भी सकिा है । तपछले िस-
बारह वर्ों के उसके कायत की जड़ में यही उभयतिि भाव लतक्षि होिा है । यह तिखािे का िाूँ ि चालािी माल
(एक्सपोटत कमातडटी) के रूप में बराबर रहिा रहा है लेतकि हर बार इसतलए लौट आया है तक अींििोगत्वा
वह भारिीय है , भारि का है और भारि में ही रहे गा।

यह समस्या अभी उसके साि है और शायि अभी कुछ वर्ों िक रहे गी। बचपि में उसके भतवष्य के तवर्य
में तजज्ञासा करिे पर उसके मािा-तपिा को एक ज्ोतिर्ी िे बिाया िा तक ''इस जािक के शत्रु अिेक होींगे
लेतकि हाति केवल बींधुजि ही पहुूँ चा सकेंगे।'' अज्ञेय तियतिवािी िहीीं है लेतकि स्वीकार करिा है तक चररत्र
की कुछ तवशेर्िाएूँ जरूर ऐसी होिी हैं जो व्यस्ि के भतवष्य का तिमात ण करिी हैं । इसतलए शायि 'यह िहीीं
है शाप। यह अपिी तियति है ' तक अिेक शत्रुओीं के रहिे हुए भी अज्ञेय वध्य है िो केवल अपिे बींधुओीं द्वारा।
ऐसा ही अच्छा है । उसी ज्ोतिर्ी िे यह भी बिाया िा तक ''इस जािक के पास कभी कुछ जमा-जत्था िहीीं
होगा, लेतकि साि ही जरूरी खचे की कभी िींगी भी िहीीं होगी- यह या िो िकीर होगा या राजा।'' और तिर
कुछ रुककर, शायि िकीरी की आशींका के बारे में मािा-तपिा को आश्वस्त करिे के तलए, और 'सत्ीं ब्रुयाि
तप्रयीं ब्रुयाि' को ध्याि में रखकर, उसिे एक वाक् और जोड़ तिया िा तजसकी व्यींजिाएूँ अिेक हैं - ''यह
असल में िबीयि का बािशाह होगा।''

जी हाूँ , िबीयि के अलावा और कोई बािशाहि अज्ञेय को िहीीं तमली है । लेतकि यह बिी रहे िो िू सरी
तकसी की आकाीं क्षा भी उसे िहीीं है ।

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