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ग सािहय -2 एवं

योजनमल
ू क िहदी BAHL-102

उराखड मु िविवालय
मानिवक िवाशाखा
ग सािहय -2 एवं योजनमूलक िहदी

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
िवशेष सिमित

ो.एच.पी. शु ला ो. ल मण िसंह िब ‘बटरोही’


िनदेशक, मानिवक िवाशाखा, िनदेशक, महादेवी वमा सृजन पीठ,
उ!राख#ड म% ु िव&िवालय, रामगढ़, नैनीताल
ह()ानी, नैनीताल
ो.एस.डी.ितवारी डा. िजते+, -ीवा.तव
िवभागा1य2, िह+दी िहदं ी िवभाग,
गढवाल िव&िवालय, गढ़वाल इिं दरा गांधी रा67ीय म%
ु िविव.िद(ली
ो.डी.एस.पोख8रया ो.नीरजा टंडन
िवभागा1य2, िह+दी िह+दी िवभाग
कुमाऊं िव&िवालय नैनीताल, कुमाऊं िव&िवालय नैनीताल,
पाठ्यम समवयक, सयं ोजन एवं सपं ादन
डा.शशांक शुला डा.राजे+, कै ड़ा
अिस.ट>ट ोफे सर, िह+दी िवभाग, अकादिमक परामशदाता, िह+दी िवभाग,
उ!राख#ड म%
ु िव&िवालय, उ!राख#ड म%
ु िव&िवालय,
ह()ानी, नैनीताल ह()ानी, नैनीताल

कापीराइट@उ!राख#ड म% ु िव&िवालय
सं.करण: 2015
सीिमत िवतरण हेतु पवू  काशन ित
काशकः उ!राख#ड म% ु िव&िवालय, ह()ानी ,नैनीताल -263139
म,ु क : ीिमयर ििं टंग ेस, जयपरु
उ!राख#ड म% ु िव&िवालय, ह()ानी ,नैनीताल -263139
ISBN - 978-93-84632-64-9

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
इकाई लेखक इकाई स
ं या
डा. सिवता मोहन, 1,2,3,4,5
िनदेशक,
उतराखड भाषा सं थान,
देहरादनू
डा. भा पंत 6,7,8
िहदं ी िवभाग
एम.बी.पी.जी. कॉलेज,
हानी
डा. राजे कै ड़ा 9,10,11
िहदं ी िवभाग
उतराखड मु त िवविवालय,
हानी
डा. शशांक शु ला, 12,13,14,15,19,20
िहदं ी िवभाग,
उतराखड मु त िवविवालय,
हानी
डा.च काश िम%ा 16,17,18
उपाचाय&,मोतीलाल नेह* कॉलेज
िदली िव-िवालय ,िदली
डा.शीला रजवार 21,22
नैनीताल, उ.राखड

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
ख ड 1 – िहदी नाटक पृ ठ स
ं या
इकाई 1 – िहदी नाट्य सािहय का िवकास एवं व*प िववेचन 1-16
इकाई 2 – जयशंकर साद : प2रचय एवं कृ ि.व 17-26
इकाई 3 – चग5ु त : कथावत,ु प2रवेश तथा उ6ेय 27-41
इकाई 4 – चग5ु त म7 च2र8 िच8ण 42-57
इकाई 5 – भाषा – शैली और रंगमच
ं ीय तिु त 58-71
ख ड 2 – िनबध
ं एवं अय ग िवधाएँ पृ ठ स
ं या
इकाई 6 – िहदी िनबधं सािहय का व*प व तािवक िववेचन 72-88
इकाई 7 – अय ग िवधाओ ं का व*प व तािवक िववेचन -1 89-102
इकाई 8 – अय ग िवधाओ ं का व*प व तािवक िववेचन-2 103-117
ख ड 3 – िहदी िनबध
ं : पाठ एवं आलोचना पृठ संया
इकाई 9 – क*णा : प2रचय,पाठ एवं आलोचना 118-140
इकाई 10 – पिं डत@ कA पचं ायत : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 141-160
इकाई 11 – उ.राखड म7 सतं मत और सतं सािहय :
प2रचय, पाठ एवं आलोचना 161-174
ख ड 4 – अय ग िवधाएँ : पाठ एवं आलोचना पृ ठ स
ं या
इकाई 12 – आमकथा-अपनी खबर : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 175-194
इकाई 13 – जीवनी- िनराला : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 195-215
इकाई 14 – सं मरण-पथ के साथी : प2रचय, पाठ एवं आलोचना 216-236

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
ख ड 5 – योजनमल
ू क िहदी पृ ठ स
ं या
इकाई 15 – योजनमल
ू क िहदी 237-249
इकाई 16 – प8ाचार : काया&लयी प8, Dयावसाियक प8 250-276
इकाई 17 – भाषा कE5यटु िनंग(कE5यटू र और िहदी ) 277-293
इकाई 18 – ई-प8का2रता 294-311
इकाई 19 – प8का2रता का इितहास 312-324
इकाई 20 – सपं ादन कला 325-342
इकाई 21 – मीिडया/समाचार लेखन 343-364
इकाई 22 – अनवु ाद 365-385

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
पाठ्यम परचय
.नातक उपािध कायBम के अतं गत आप ग सािहय II एवं योजनमूलक िहदं ी
शीषक ि)तीय Eन पF का अ1ययन कर रहे है। यह पाठ्यBम अ+य ग िवधा एवं
योजनमल ू क िहदं ी पर आधा8रत है। इस पाठ्यBम का मJु य उKेEय आपको ग सािहLय क
अ+य िवधाओ ं के मख ु NपO के सैPाि+तक एवं Qयावहा8रक Nप से तो प8रचय कराना ही है,
साथ-ही-साथ योजनमल ू क िहदं ी क अवधारणा से भी प8रिचत कराना है। इस पाठ्यBम के
अतं गत हमने नाटक सािहLय के िवकास उसके योिगक पाठ का िववेचन एवं अ+य ग
िवधाओ-ं िनबंध, सं.मरण, रे खािचF, याFावृLत, डायरी, पF के .वNप का तािLवक िववेचन
िकया है। आप िनबंध, पF, सं.मरण, याFासािहLय से प8रिचत हT आपने बचपन से नाटक का का
मंचन होते हUए या टेलीिवजन पर उनक .तिु त होते हUए भी देखा है, िक+तु उसक नाट्य िBया
एवं मू(यांकन के तLवO से अप8रिचत हT। इस पाठ्यBम का उKेEय नाटक एवं अ+य ग िवधाओ ं
का सैPाि+तक एवं Qयावहा8रक प8रचय कराना है।
यह पाठ्यBम ग क अ+य िवधाओ ं एवं योजनमूलक िहदं ी पर आध8रत है। इस पाठ्यBम म>
आप अ+य ग िवधाओ ं एवं योजनमूलक िहदं ी के सैPाि+तक एवं Qयावहा8रक .वNप से
प8रचय ाVत कर> गी।
5 ख#डO म> िवभत इस पाठ्यBम का िववरण इस कार है
ख#ड 1 : िहदं ी नाटक
ख#ड 2 : िनबंध एवं अ+य ग िवधाएँ (तािLवक िववेचन)
ख#ड 3 : िहदं ी िनबंध : पाठ एवं आलोचना
ख#ड 4 : अ+य ग िवधाएँ : पाठ एवं आलोचना
ख#ड 5 : योजनमल
ू क िहदं ी
ख#ड 1 नाटक सािहLय पर के ि+,त है। इस ख#ड म> नाटक क सैPाि+तक अवधारणा एवं उसके
इितहास का तो अ1ययन कर> गे ही साथ-ही-साथ मख ु नाटककार जयशक ं र साद के नाटक
च+,गVु त क नाट्क िवशेषताओ ं से भी प8रिचत हOगे। यह ख#ड जहाँ नाटक के तLवO का
सैPाि+तक Xान कराता है वहY Qयावहा8रक आलोचना भी करता है।
ख#ड 2 िनबधं एवं अ+य ग िवधाओ ं पर क> ि,त है। ग सािहLय के वगZकरण के Bम म> आप
अ1ययन कर> गे िक िनबंध, रे खािचF, सं.मरण, याFासािहLय, 8रपोताज, डायरी, पF लेखन,
आलोचना जैसी िवधाएँ आधिु नक काल म> अि.तLव लेती हT। इस ख#ड म> आप इन िवधाओ ं के
तािLवक .वNप से प8रचय ाVत कर> गे।

उराखंड मु िविवालय,हानी
ग सािहय -2 एवं योजनमल
ू क िहदी BAHL-102
ख#ड 3 का संबंध िहदं ी िनबधं के अ1ययन Bम म> आप रामच+, शु ल, हजारी साद ि)वेदी
एवं पीता[बर दLत बड़\वाल के िनबंधO का मलू पाठ का अ1ययन कर> गे तथा उसक आलोचना
से भी प8रिचत होग>। िनबंध को ग सािहLय क कसौटी कहा गया है, इस ^ि से इस ख#ड म>
आप िनबंध िवधा के महLव को Qयावहा8रक धरातल पर समझ>गे।
ख#ड 4 अ+य ग िवधाओ ं (डायरी, जीवनी, रे खािचF, स.ं मरण, Qय`ं य, पF इLयािद) के पाठ
एवं आलोचना से संबंिधत है। अ+य ग िवधाएँ िदन-ितिदन जिटल होते जा रहे समाज को
अिभQयत करने के Bम म> िवकिसत हUई हT। इस ^ि से इनके .वNप को आLमसात करने के
िलए मल
ू पाठ एवं आलोचना दी गई है िजससे आप .वयं इनक िवशेषताओ ं को समझ सक> ।
ख#ड 5 योजनमल ू क िहदं ी पर आधा8रत है। योजनमल
ू क िहदं ी बोलचाल क िहदं ी एवं
सािहिLयक िहदं ी से िभ+न Qयावसाियक योजनO को अपने भीतर समेटे हUए है। इसम> वािणbय-
Qयापार, कायालय, बTक, कचहरी, खेल, मीिडया इLयािद 2ेFO से जड़ु ी भाषा का अ1ययन िकया
जाता है।

उराखंड मु िविवालय,हानी
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इकाई 1 हिन्दी नाट्य साहित्य का हिकास एिं
स्िरूप हििेचन
इकाई की रूपरे खा
1.1 प्रस्तािना
1.2 उद्देश्य
1.3 नाटक का स्िरूप
1.3.1 नाटक के तत्ि
1.4 विन्दी नाट्य सावित्य का विकास एिं पररचय
1.4.1 भारतेन्दु यगु
1.4.2 प्रसाद यगु
1.4.3 प्रसादोत्तर यगु
1.4.4 स्िातन््योत्तर यगु
1.5 साराश ं
1.6 शब्दािली
1.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
1.8 संदभभ ग्रंथ सचू ी
1.9 वनबधं ात्मक प्रश्न

1.1 प्रस्तावना
आपको ज्ञात िोगा वक सरू और तल ु सी का भवक्त काल में जो स्थान िै ििी स्थान जयशक ं र
प्रसाद में आधवु नक सावित्य में िै, प्रसाद जी ने विन्दी सावित्य को व्यापक दृविकोण और निीन
विषय प्रदान वकया। प्रसाद जी ने वििेदी यगु ीन काव्यादशभ के विरूद्ध विद्रोि कर निीन काव्य-धारा
और गद्य विधाओ ं का लेखन प्रारम्भ वकया, समकालीन समस्याओ ं के वनराकरण के वलए प्राचीन
भारतीय इवतिास का आश्रय वलया िै। जयशक ं र प्रसाद वक गणना आधवु नक काल के सिभश्रेष्ठ
कवियों में की जाती िै, प्रसाद मल
ू तः कवि िै परन्तु उन्िोंने सावित्य की प्रत्येक विधा की रचना की
िै।कवि के पश्चात उनका नाटककार स्िरूप सिाभवधक चवचभत रिा िै।
भारतीय सावित्य के इवतिास में ‘नाटक’ को पणू भ सावित्य की गररम दी गयी िै किानी,
कविता, नाटक में स्ितः िी समावित िो जाते िैं। भरतमवु न के नाट्यशास्त्र में ‘नाटक’ की विस्तृत

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 1
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
व्याख्या की गयी िै, इस इकाई में आपको नाटक के स्िरूप, विन्दी नाटक के इवतिास की विस्तृत
जानकारी दी जा रिी िै।

1.2 उद्देश्य
इस तथ्य से आप पररवचत की सास्ं कृ वतक चेतना का उत्कृ ि रूप काव्य िै और काव्य के
उत्कृ ितम रूप को नाटक किा जाता िै। किा भी गया िै की ‘काव्येषु नाटक रम्यम’् अथाभत काव्य में
नाटक सबसे अवधक रमणीय िोता िै। इसे वििानों ने नाट्य िेद की संज्ञा दी िै। सामावजक संबंधों की
दृवि से सावित्य की अन्य विधाओ ं की अपेक्षा नाटक का जीिन से अवभन्न संबंध िै। इसका समथभन
करते िुए भरत मवु न ने किा था- नानाभािोपसम्पन्न नानािस्थान्तरात्मकम,् लोकिृत्तानक ु रण
नाट्यमेतन्मयाकृ तम् (1/112 नाटयशास्त्र), नाटक के माध्यम से एक साथ सभी िगों का मनोरंजन
एिं वचत्तिृवत्त का संस्कार िोता िै, जबवक सावित्य की अन्य विधाओ ं के वलए साक्षर िोना, एिं
सावित्य का ज्ञान िोना आिश्यक िै। नाटक समस्त सामावजकों के वलए वलखा जाता िै वजसमें
कविता, िास्त,ु सगं ीत, वशल्प आवद विविध कलाओ ं का समािेश िोता िै। िै।
विन्दी नाट्य सावित्य के विकास एिं स्िरूप को सम्यक रूप से जानने का उद्देश्य यि िै की
इसके माध्यम से िम विन्दी भाषा की विकास यात्रा, विन्दी सावित्य की विकास यात्रा के साथ- साथ
भारतीय समाज में िोने िाले सामावजक, राजनैवतक, एिं आवथभक पररिभतन का ज्ञान प्राप्त कर सकते
िै। जैसा की उपर स्पि वकया जा चक ु ा िै की नाटक सावित्य की सबसे सशक्त विधा िै अतः सपि िी
िै वक नाटक के वििेचन के मध्य सम्पणू भ सावित्य का वििेचन भी िो जाता िै।

1.3 नाटक का स्वरूप


सस्ं कृ त के आचायो ने नाटक के स्िरूप पर विस्तार से विचार वकया िै। भरत मवु न के
‘नाट्यशास्त्र’ में किा गया िै- वजसमें स्िभाि से िी लोक का सख ु -दःु ख समवन्ित िोता िै तथा अगं ों
आवद के िारा अवभनय वकया जाता िै, उसी को नाटक किते िैं। अवभनि गप्तु ने वलखा िै- नाटक
िि दृश्य-काव्य िै जो प्रत्यक्ष कल्पना एिं अध्यिसाय का विषय बन सत्य एिं असत्य से समवन्ित
विलक्ष्ण रूप धारण करके सिभसाधारण को आनन्दोपलवब्ध प्रदान करता िै। मविम भट्ट के अनसु ार-
अनभु ाि- विभािावद के िणभन से जब रसानभु वू त िोती िै तो उसे काव्य किते िैं और जब काव्य को
गीतावद से रंवजत एिं अवभनेताओ ं िारा प्रदवशभत वकया जाता िै तो िि नाटक का स्िरूप धारण कर
लेता िै। रामचन्द्र, गणु चन्द्र के अनसु ार- जो प्रवसि आद्य (पौरावणक एिं ऐवतिावसक) रामचररत पर
आधाररत िो, जो धमभ, काम एिं अथभ का फलदाता िो और जो अक ं , आय (पााँच अथभ-प्रकृ वत)
दशा (पंचािस्था) से समवन्ित िो, उसे नाटक किा जाता िै। भारतीय आचायभ रस- वनष्पवत्त को
उद्देश्य मानते िुए िी नाटक का स्िरूप वनर्ाभररत करते िैं, जबवक पाश्चात्य आचायों ने ‘कायभ’ को
मित्ि देते िुए, संर्षभ, संकलन त्रय, दःु खान्त, सख ु ान्त आवद लक्षणों को प्रमख
ु ता दी िै।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 2
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
1.3.1 नाटक के तत्व
सस्ं कृ त नाट्यशास्त्र में नाटक के तीन मलू भतू तत्ि माने िैं- िस्त,ु नेता और रस। और इन्िीं तीनों का
विस्तृत वनरूपण वकया िै। पाश्चात्य काव्य शास्त्र में नाटक के छः तत्ि माने गए िैं । आज यिी छः
तत्ि विन्दी नाट्यकला के प्रमख ु तत्िों के रूप में ग्रिण वकए गए िैं- 1. कथािस्तु 2. पात्र या चररत्र-
वचत्रण 3. कथोपकथन या सिं ाद 4. देशकाल या िातािरण 5. भाषा- शैली 6. उद्देश्य ।
वस्तु अथवा कथावस्तु- नाटक की मल ू कथा को िी िस्तु, कथानक या कथािस्तु आवद नामों से
पक ु ारा जाता िै। कथािस्तु दो प्रकार की िोती िै- 1. आवधकाररक अथाभत् मख्ु य 2. प्रासंवगक अथिा
प्रसंगिश् आई िुई गौण कथाए।ं यि मख्ु य कथा के विकास और सौन्दयभिद्धभन में सिायक िोती िै।
आधार के भेद से कथािस्तु तीन प्रकार की िोती िै- 1. प्रख्यात, वजसका आधार इवतिास, परु ाण या
जनश्रवु त िोता िै। 2. उत्पाद्य, जो नाटककार की अपनी कल्पना िोती िै। 3. वमवश्रत, वजसमें इवतिास
और कल्पना का वमश्रण िोता िै। नाटक को कथािस्तु में कायभ-व्यापार की दृवि से पााँच अिस्थाएाँ
मानी गयी िैं- 1. आरम्भ, 2. विकास, 3. चरमसीमा, 4. उतार, 5. अतं या समावप्त। भारतीय प्राचीन
आचायाां का िगीकरण भी इसी प्रकार का िै, के िल नाम का भेद िै, जो इसी क्रम में इसी प्रकार िै,
1. आरम्भ, 2. प्रयत्न, 3. प्रात्याशा, 4. वनयतावप्त, 5. फल। कथानक की पााँचों अिस्थाऐ ं मलू क िैं।
पाश्चात्य नाटक में संर्षभ को मित्ि प्राप्त िै, जबवक भारतीय नाटक में नेता और उसके आदशभ को।
भारतीय नाटको में भी संर्षभ देखा जा सकता िै वकन्तु उसकी वस्थवत सीधी और स्पि िोती िै।

पात्र और चररत्र हचत्रण- सम्पणू भ नाटक पात्र और उनकी गवतविवधयों पर िी आधाररत िोता िै।
पात्र िी कथानक को आगे बढ़ाता िुआ अन्त की ओर ले जाता िै। ििी कथा का संिािक भी िोता
िै। पाश्चात्य नाट्य कला में भारतीय नाट्य कला की भावं त नायक का कोई सवु नवश्चत स्िरूप निीं िै,
िि साधारण और असाधारण, वकसी भी वस्थती का िो सकता िै। आधवु नक नाटको में पात्रों का
चररत्र-वचत्रण आदभश से िटकर यथाथभिादी पद्धवत पर वकया जा रिा िै। पात्रों को व्यवक्त पात्र,
प्रवतवनवध पात्र इन दो भेदो में विभक्त वकया जा सकता िै। नाटक के नायकों के चार प्रकार मानें िैं-
धीरोदात्त , धीर-लवलत, धीर-प्रशांत , और धीरोद्धत। नाटको में भी चररत्र- वचत्रण उपन्यास की िीं
भांवत िोता िै। परन्तु उपन्यासकार की भांवत नाटक का विश्ले षणात्मक या प्रत्यक्ष रूप से चररत्र-
वचत्रण निीं कर सकता, उसे परोक्ष या अवभनयात्मक ढंग से काम लेना पड़ता िै। कथािस्त,ु
र्टनाओ ं और कथोपकथनों के िारा नाटकीय पात्रों के चररत्र का उद्घाटन िोता िै।
कथोपकथन- नाटक सिं ादों के माध्यम से िी वलखा जाता िै, पात्र का चररत्र- वचत्रण में, कथा का
विकास, रोचकता और िातािरण सृजन सभी सिं ादों से िी िोता िै। सिं ाद अन्य विधाओ ं की
अपेक्षा नाटक का अवधक प्राण तत्ि िोता िै। संिाद की प्रसंग- पररवस्थवत, पात्रानरू
ु पता उसका मल

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 3
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
तत्ि िै। सिं ाद वजसके साथभक, सवं क्षप्त, िक्र और अन्तः शवक्त सम्पन्न िोते िैं, नाटक उतना िी
सफल िोता िै। नाटक में संिादों की भाषा सरल, सरस और प्रभािपणू भ िोनी चाविए।
देश काल वातावरण: संकलनत्रय- नाटक में देशकाल का वनिाभि आिश्यक िै। यगु ीन सन्दभों
को रूपावयत करने के वलए नाटक में देशकाल के अनरू ु प िी पात्र की िेषभषू ा, पररवस्थवतयों,
आचार-विचार आवद िोने चाविए। इसके सफल वनिाभि से पात्र सजीि प्रतीत िोते िैं। कथा-यगु के
अनरू ु प िी समाज राजनीवत और पररवस्थवतयों का अक ं न भी िोना चाविए। सफल नाटककार दृश्य
विधान, मचं व्यिस्था, िेशभषू ा और अवभनय आवद के िारा सजीि िातािरण की सृवि कर लेता िै।
प्राचीन ग्रीक आचायों ने देश तथा काल की समस्या पर विचार कर, ‘संकलन त्रय’ का विधान वकया
िै। इसके अनसु ार स्थल, कायभ तथा काल की एकता पर विशेष ध्यान देना पड़ता िै। उनका मत िै वक
वकसी नाटक में र्टी र्टना वकसी एक िी कृ त्य से, एक िी स्थान से सम्बवन्धत िो और एक िी वदन
में र्टी िो। ऐसा करने से देश- काल और िातािरण का ससु ंगत वचत्रण करने में कोई बाधा निीं आ
पाती।
भाषा-शैली- नाटक एक दृश्य काव्य िै। दशभक सिं ादों के िारा िी कथ्य को ग्रिण करता िै, अवभनय
उसे हृदय में उतार देता िै, अतः भाषा सरल, स्पि और सजीि िोने पर िी दशभक और श्रोता को
रसानभु वू त कराने में समथभ िोती िै। इसवलए नाटक में शब्दा, िाक्य और भाषा का ऐसा प्रयोग िोना
चाविए, जो सिज ग्रािय िो। नाटक के वलए भाषा-शैली की सरसता अवनिायभ िै। भाषा-शैली
विषयानक ु ू ल, प्रसाद, ओज और माधयु भ गणु यक्त
ु िोनी चाविए, साथ िी प्रभािपणू भ भी िोनी चाविए।
उद्देश्य- नाट्य शास्त्र में परू
ु षाथभ- चतिु ्य धमभ, अथभ, काम, मोक्ष को नाटक का उद्देश्य माना गया िै।
इसी के साथ रसानभु वू त को भी नाटक का प्रयोजन माना गया िै। आज के नाटक जीिन का वचत्रण
करते िैं, अतः जीिन की समस्याओ ं की प्रस्तवु त और उनकी व्याख्या तथा समाधान नाटकों का
उद्देश्य िै। नाटककार इस उद्देश्य की वसवद्ध पात्रों के संिाद, उनके कायभ- कलाप और नाना र्टनाओ ं
िारा करता िै। नाटक में नाटककार जीिन की व्याख्या परोक्ष रूप में व्यंवजत करता िै। वजतना िी
उद्देश्य मिान िोगा, उतनी िी रचना श्रेष्ठ िोगी। जो लेखक वजतनी अवधक उदात्त मानिीय सिं दे ना के
रूप में अपना जीिनोद्देश्य प्रकट करता िै, िि उतना िी मिान कलाकार बनता िै।
अहभनेयता एवं रंगमंच- भारतीय आचायों के अनसु ार ‘अवभनय’ नाटक का प्रमख ु अगं िै। यि
नाटक की अवभव्यवक्त का प्रधान साधन िै। भरत मवु न ने नाटक के चार प्रकार माने िैं- 1. आवं गक,
2. िावचक, 3. आिायभ, 4. सावत्िक। नाटक की साथभकता उसके अवभनीत िोने में िी िै। यद्यवप कुछ
नाटक के िल पढ़ने के वलए िी िोते िैं, जैसे अवधकांश प्रसाद जी के नाटक। प्राचीन काल में संस्कृ त-
नाटकों का अवभनय िोता था,इसवलए रंगमचं की सचु ारू व्यिस्था थी। रंगमचं की लम्बाई , चौड़ाई,
ऊाँचाई आवद की सीमाएाँ वनवश्चत थी, परन्तु प्राचीन विन्दी नाटकों का अभाि िोने से रंगमचं का कोई
विकास निीं िो पाया। आधवु नक काल में आकर जब नाटकों की रचना आरम्भ िुई तो रंगमचं

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अत्यन्त वनम्नकोवट का और अव्यिवस्थत िो गया था। भारतेन्दु जी ने उसमें कुछ सधु ार वकए, उसी
समय से विन्दी के रंगमचं का अवस्तत्ि आरम्भ िोता िै।
अतः अवभनय या रंगमचं नाटक का अवनिायभ तत्ि िै। नाटक की सफलता की मित्िपणू भ
कसौटी िै। रंगमचं पर अवभनय के िारा प्रस्ततु िोने पर िी नाटक की साथभकता वसद्ध िोती िै, अतः
नाटक अवभनय के योग्य िोना चाविए।

1.4 हिन्दी नाटय साहित्य का हवकास एवं स्वरूप


विन्दी में नाटक के स्िरूप का समवु चत विकास आधवु नक यगु से आरम्भ िोता िै।
सन1् 850 से अब तक के यगु को िम नाट्य- रचना की दृवि से तीन खण्डों में विभक्त कर सकते िैं-
(1) भारतेन्दु यगु (1857-1900 ई.), (2) प्रसाद यगु (1900-1930), और (3) प्रसादोत्तर यगु
(1930 से अब तक)। इनमें से प्रत्येक यगु का पररचय यिााँ कमशः प्रस्ततु वकया जाता िै।
1.4.1 भारतेन्दु युग
स्ियं बाबू िररश्चन्द्र ने विन्दी का प्रथम नाटक अपने वपता बाबू गोपालचन्द्र िारा रवचत ‘निुष नाटक’
(सन् 1841 ई.) को बताया िै। वकन्तु तावत्िक दृवि से यि पिू िभ ती ब्रजभाषा पद्य नाटकों की िी
परम्परा िै। सन् 1861 ई. में राजा लक्ष्मणवसंि ने ‘अवभज्ञान शाकुन्तल’ का अनिु ाद प्रकावशत
करिाया। भारतेन्दु जी की प्रथम नाटक ‘विद्या-सन्ु दर’ (सन1् 868 ई.) भी वकसी बंगला के नाटक का
छायानिु ाद था। इसके अनन्तर उनके अनेक मौवलक ि अनिु ावदत नाटक प्रकावशत िुए वजनमें
पाखण्ड-वबडम्बन (1872), िैवदकी विसं ा विसं ा न भिवत (1872), धनंजय-विजय, मद्रु ाराक्षस
(1875), सत्य- िरीश्चन्द्र (1875), प्रेम योवगनी (1875), विषस्य विषमौषधम् (1876), कपभरू - मजं री
(1876), चन्द्रािली (1877), भारत ददु श भ ा (1876), नील देिी (1877), अधं ेर नगरी(1881) और
सती- प्रताप (1884) आवद उल्लेखनीय िै। भारतेन्दु के नाटक मख्ु यतः पौरावणक, सामावजक एिं
राजनैवतक विषयों पर आधाररत िै। सत्य िरीश्चन्द्र, धनजं य-विजय, मद्रु ाराक्षस, कपभरू -मजं री ये चारों
अनिु ावदत िै। अपने मौवलक नाटकों में उन्िोंने सामावजक कुरीवतयों एिं धमभ के नाम पर िोने िाले
कुकृ त्यों आवद पर तीखा व्यग्ं य वकया िै। ‘पाखण्ड- वबडम्बन’, िैवदकी विसं ा विसं ा न भिवत, इसी
प्रकार के नाटक िैं। ‘विषस्य- विषमौषधम’् में देशी नरे शों की ददु श भ ा, राष्रभवक्त का स्िर उदर्ोवषत
िुआ िै। इसमें ‘अग्रं ेज’ को भारत-ददु िे के रूप में वचवत्रत करते िुए भारतिावसयों के दभु ाभग्य की
किानी को यथाथभ रूप में प्रस्ततु वकया गया िै। इसमें स्थान- स्थान पर विदेशी शासकों की
स्िेच्छाचाररता, पवु लस िालों के दव्ु यभििार, भारतीय जनता की मोिान्धता पर गिरे आर्ात वकए गए
िै।
भारतेन्दु िररश्चन्द्र को संस्कृ त, प्राकृ त, बंगला ि अग्रं ेजी के नाटक-सावित्य का अच्छा ज्ञान
था। उन्िोंने इन सभी भाषाओ ं में अनिु ाद वकए थे। नाट्यकला के वसिान्तों का भी उन्िोंने अध्ययन

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वकया था, उन्िोनें अपने नाटकों में अवभनय की भी व्यिस्था की थी तथा उन्िोनें अवभनय में भाग
भी वलया था। इस प्रकार नाट्यकला के सभी अगं ों का उन्िें परू ा ज्ञान और अनभु ि था। यवद िम एक
ऐसा नाटकार ढूंढे वजसने नाट्य- शास्त्र के गभं ीर अध्ययन के आधार पर नाट्य-कला पर सैद्धावन्तक
आलोचना वलखी िो, वजसने प्राचीन और निीन, स्िदेशी और विदेशी नाटकों का अध्ययन ि
अनिु ाद प्रस्ततु वकया िो, वजसने िैयवक्तक, सामावजक एिं राष्रीय समस्याओ ं को लेकर अनेक
पौरावणक, ऐवतिावसक एिं मौवलक नाटकों की रचना की िो ओर वजसने नाटकों की रचना की निीं,
अवपतु उन्िें रंग- मचं पर खेल कर वदखाया िो इन सब विशेषताओ ं से सम्पन्न नाटककार, विन्दी में
िी निीं- अवपतु समस्त विश्व-सावित्य में के िल दो चार िी वमलेंगें ओर उन सब में भारतेन्दु का स्थान
सबसे ऊाँचा िोगा। उनकी शैली सरलता, रोचकता एिं स्िाभाविकता गणु ों से पररपणू भ िै
भारतेन्दु यगु के अन्य नाटककारों में लाला श्रीवनिास दास, राधाकृ ष्णदास, बालकृ ष्ण दास
भट्ट, बद्रीनारायण चौधरी प्रेमधन’, राधाचरण गोस्िामी, प्रताप नारायण वमश्र, प्रभवू त का नाम
उल्लेखनीय िै। लाला श्रीवनिास दास ने -‘प्रिलाद चररत्र’, रणधीर-प्रेम मोविनी (1877), और
संयोवगता- स्ियंिर (1855), की रचना की। इनमें सिभश्रेष्ठ रचना ‘रणिीर वसंि और प्रेम-मोिनी िै।
इसका ससु ंगवित, चररत्र- वचत्रण स्िाभाविक तथा कथोपकथन िाताकुवलत एिं पररवस्थवतयों के
अनसु ार िैं। लाला जी ने किीं-किीं प्रादेवशक भाषाओ ं का भी प्रयोग िातािरण को यथाथभ रूप देने
के वलए वकया िै। इसे विन्दी का पिला दःु खान्त नाटक भी माना गया िै।
राधाकृ ष्ण के िारा रवचत नाटकों में ‘मिारानी पदमािती (1883), धमाभलाभ (1885),
मिाराणाप्रताप वसंि तथा राजस्थानके सरी (1897) उल्लेखनीय िैं। वजसमें मिारानी पदमािती का
कथानक ऐवतिावसक िै। वजसमें सतीत्ि के गौरि की व्यंजना की गई िै। धमाभलाभ में विवभन्न धमो
के प्रवतवनवधयों का िाताभलाप वदखातें िुए अतं में सभी धमों की एकता का प्रवतपादन वकया गया िै।
‘दवु खनी बाला’ अनमेल वििाि के पररणामों को व्यक्त करता िै। इनका सिभश्रष्ठे नाटक
‘मिाराणाप्रताप वसंि’ िै वजसमें मिाराणा के सािस, शौयभ, त्याग की व्यंजना अन्त्यन्त ओजपणू भ
शैली में की गई िै। मिाराणा का चररत्र स्ियं उन्िीं के शब्दों में इस प्रकार िै-
जब लौं तन प्रर् ाण न तब लौं मख
ु की मोड़ौं।
जब लौं कर में शवक्त न तब लौं शस्त्रविं छोड़ौं
जब लौं वजह्वा सरस दीन िच नाविं उचारौं।
जब लौं धड़ पर सीस झक
ु ािन नाविं विचारौं।

मिाराणा के साथ- साथ अकबर के चररत्र को भी सिानभु वू त के साथ उजागर वकया िै।

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बालकृ ष्ण भट्ट ने लगभग एक दजभन मौवलक एिं अनवु दत नाटक प्रस्ततु वकए िैं। उनके मौवलक
नाटकों में ‘दमयंती स्ियंिर’, ‘िृिन्नला’, ‘िेणसु ंिार’, ‘कवलराज’, की सभा, ‘रे ल का विकट खेल’,
‘बाल वििाि’, ‘जैसा काम िैसा पररणाम’, आवद उल्लेखनीय िैं। इनमें अवन्तम चार प्रिसन िैं
वजनमें अपने यगु ओर समाज के विवभन्न िगो एिं पररवस्थवतयों पर व्यंग्य वकया गया िै। िस्ततु ः
प्रिसनों की परम्परा को आगे गढ़ाने में भट्ट जी का अद्भुत येागदान िै। बद्रीनारायण ‘प्रेमर्न’ ने
समाज एिं राष्र की विवभन्न पररवस्थयों से प्रेररत िोकर ‘भरत सौभाग्य’ (1888), ‘प्रयागरामागमन’
(1904), िारांगन-रिस्य’ (अपणू )भ , िृद्ध- विलाप’ आवद नाटकों की रचना की जो राष्र-सधु ार की
भािनाओ ं सं अनप्रु ावणत िै। इसी प्रकार राधाचरण गोस्िामी ने भी अनेक नाटकों की रचना की जैसे-
‘सती चन्द्रािली’ (1890), ‘अमर-रािौर’ (1894), ‘श्रीदामा’ (1904), ‘बढ़ू े मिंु मिंु ासे’ (1887),
‘भगं -तरंग’ (1892),। इनमें प्रथम तीन को छोडकर शेष प्रिसन िै। वजनमें अपने युग की सामावजक
एिं धावमभक बरु ाईयों की आलोचना व्यग्ं यात्मक शैली में की गई िै। प्रताप नारायण वमश्र के ‘भारत-
ददु श
भ ा’ (1902), ‘गो-संकट’ (1886), ‘ ििी िमीर’, ‘कवलकौतक ु रूपक’, आवद भी राष्र जागरण
एिं समाज सधु ार की प्रेरणा से रवचत िैं, वकन्तु नाट्य कला की दृवि से साधारण कोवट के िैं। भारतेन्दु
यगु के अन्य मौवलक नाटक-रवचयताओ ं में देिकीनन्दन वत्रपािी शावलग्राम, अवम्बकादत्त व्यास,
जगं बिादरु मल्ल, बलदेि प्रसाद, तोताराम, ज्िालाप्रसाद वमश्र, दामोदर शास्त्री आवद का नाम
उल्लेखनीय िैं। देिकी नन्दन वत्रपािी ने अनेक पौरावणक नाटकों एिं प्रिसनों की रचना की थी। उनके
पौरावणक नाटक ‘सीता-िरण’ (1876),‘रूक्मणी-िरण’ (1876), कंस िध’ (1904), आवद िैं तथा
प्रिसनों की नामािली इस प्रकार िै- ‘रक्षा बन्धन’ (1878), ‘एक-एक के तीन-तीन’ (1879), ‘स्त्री
चररत्र’ (1879), ‘िेश्य-विलास’, ‘बैल छः टके को’, आवद। वत्रपािी जी के पौरावणक नाटक उच्च
कोवट के निीं िैं, वकन्तु प्रिसनों में व्यग्यात्मक शैली का विकास यथेष्ठ रूप में िुआ िै। शावलग्राम ने
भी ‘अवभमन्यु िध’ (1896), ‘परू ु -विक्रम’ (1906), ‘मोरघ्िज (1890), आवद पौरावणक तथा
‘लािण्यिती-सदु शभन’ (1892), ‘ माध्िानन्द-कामकंदला’ (1904), आवद रोमांवटक नाटकों की
रचना की थी, जो कलात्मक दृवि से सामान्य कोवट के िैं। अवम्बकादत्त व्यास के दो नाटक-‘भारत-
सौभाग्य’ (1887), ‘गो सक ं ट नाटक’ (1886), यगु ीन पररवस्थयों पर आधाररत िै। इनके अवतररक्त
उनके िारा रवचत ‘लवलता नावटका’, ‘मन की उमगं ’, आवद भी उपल्बध िै। इनमें प्रेम और िास्य का
सवम्मश्रण िैं। खड्ग बिादरु मल्ल ने भी ‘मिारास’ (1885), ‘िर-तावलका’ (1887), ‘कल्प-िृक्ष’
(1887), आवद पौरावणक नाटकों की रचना की िैं, वकन्तु इनके अवतररक्त उनका एक प्रिसन ‘भारते-
भारत’ (1888) भी उपलब्ध िै। बलदेि प्रसाद वमश्र का ‘मीराबाई’ (1897), भवक्त-भाि से पररपणू भ
िै। इसमें बीच-बीच में मीरा के पदों का भी उपयोग वकया गया िै। इनके अवतररक्त तोताराम रवचत
‘वििाि विडम्बन’ (1900), कृ ष्णदेि शरण वसंि’ गोप’ का ‘माधरु ी रूपक’ (1888), दामोदर शास्त्री
का ‘ रामलीला नाटक’ (1869), ज्िाला प्रसाद वमश्र का ‘सीता-बनिास’ (1875), काशीनाथ खत्री
के ‘तीन ऐवतिावसक रूपक’ (1884), आवद भी इस यगु की उल्लेखनीय कृ वतयां िैं। प्रिसनों की
परम्परा को आगे बढ़ाने की दृवि से वकशोरी लाल गोस्िामी का ‘चौपट-चपेट’ (1891), गोपालराम

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गिमरी का ‘जैसे का तैसा’, निल वसिं का ‘िेश्य नाटक’, विजया नदं वत्रपािी का ‘मिा अधं ेर
नगरी’ (1895), बलदेि प्रसाद वमश्र का ‘ लल्ला बाबू’ आवद उल्लेखनीय िै। इनमें समाज के
विवभन्न िगो की कलवु षत प्रिृवत्तयों पर व्यग्ंय वकया गया िै।
अनवु ाद- इस यगु में सस्ं कृ त, बगं ला और अग्रं ेजी के नाटकों के अनिु ाद भी बिुत बडी सख्ं या में
प्रस्ततु िुए। सस्ं कृ त के कावलदास, भिभवू त, शद्रू क, िषभ आवद के नाटकों के विन्दी अनिु ाद लाला
सीताराम, देिदत्त वतिारी, नन्दलाल, ज्िालाप्रसाद वमश्र ने तथा बंगला के ‘पदमािती’,
‘कृ ष्णकुमारी’, ‘िीरनारी’ आवद का बाबू रामकृ ष्ण िमाभ, उवदत नारायण लाल, ब्रजनाथ आवद ने
प्रस्ततु वकए। अग्रं ेजी के शेक्सवपयर के नाटकों के अनिु ाद भी तोताराम, रत्नचन्द्र, मथरु ाप्रसाद
उपाघ्याय आवद के िारा वकए गए। िस्ततु ः 19िीं सदी के अन्त तक विवभन्न भाषाओ ं के अनेक
उत्कृ ि नाटकों के अनिु ाद विन्दी में प्रस्ततु िो गए थे, वजनकी परिती नाटककारों को बडी प्रेरणा
वमली।
1.4.2 प्रसाद युग
इस यगु के नाटक- सावित्य को भी विषय गत प्रिृवत्तयों की दृवि से चार िगो में विभक्त वकए जा
सकता िै- 1. ऐवतिावसक, 2. पौरावणक, 3. काल्पवनक, 4. अनवु दत नाटक। इनमें से प्रत्येक िगभ का
सवं क्षप्त पररचय यिां क्रमशः वदया जाता िै।
(1) ऐहतिाहसक नाटक - इस यगु के सिभ-प्रमख ु नाटककार जयशक ं र प्रसाद ने मख्ु यतः ऐवतिावसक
नाटकों की िी रचना की थी। उनके नाटकों का रचना-क्रम इस प्रकार िै- ‘सज्जन’ (1910),
‘कल्याणी- पररणय’ (1912), ‘करूणालय’ (1913), ‘प्रायवश्चत’ (1914), ‘राजश्री’ (1915),
‘विशाख’ (1921), ‘अजातशत्रु ’ (1922), ‘जनमेजय का नाग-यज्ञ’ (1926), ‘स्कन्दगप्तु ’
(1928), ‘ एक र्टाँू ’ (1929), ‘चन्द्रगप्तु ’ (1929), और ‘ध्रिु स्िावमनी’ (1933)। प्रसाद जी अपने
देश िावसयों में आत्म-गौरि, स्िावभमान उत्साि एिं प्रेरणा का संचार करने के वलए अतीत के गौरि
पणू भ दृश्यों को अपनी रचनाओ ं में वचवत्रत वकया। यिी कारण िै वक उनके अवधकांश नाटकों का
कथानक उस बौद्ध-यगु से सम्बवन्धत िै। जबवक भारत की सांस्कृ वतक-पताका विश्व के विवभन्न भागों
में फिरा रिीं थीं। प्राचीन इवतिास एिं सस्ं कृ वत को प्रसाद ने बड़ी सक्ष्ू मता से प्रस्ततु वकया िै, उसमें
के िल उस यगु की स्थल ू रे खाएं िी निीं वमलती िैं। धमभ की बािय-पररवस्थवतयों की अपेक्षा उन्िोंने
दशभन की अन्तरंग गवु त्थयों को स्पि करना अवधक उवचत समझा िै। पात्रों के चररत्र-वचत्रण में भी
उन्िोंने मानवसक अन्तिभन्ि का वचत्रण करते िुए उनमें पररवस्थवत के अनसु ार पररिभतन ि विकास
वदखाया िैं। मानि-चररत्र के सत् और असत् दोनो पक्षों को पणू भ प्रवतवनवधत्ि उन्िोनें प्रदान वकया िै।
नारी-रूप को जैसी मिानता, सक्ष्ू मता, शालीनता एिं गम्भीरता कवि प्रसाद के िाथों प्राप्त िुई िै उससे
भी अवधक सवक्रय एिं तेजस्िी रूप उसे नाटककार प्रसाद ने प्रदान वदया िै। प्रसाद के प्रायः सभी
नाटकों में वकसी न वकसी ऐसी नारी-पात्र की अिधारणा िुई िै जो धरती के दःु खपूणभ अन्धकार के

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बीच प्रसन्नता की ज्योवत की भावं त उद्दीप्त िै,जो पाशविकता, दनजु ता और क्रूरता के बीच क्षमा,
करूणा एिं प्रेम के वदव्य संदश े की प्रवतष्ठा करती िै जो अपने प्रभाि से दजभनों को सज्जन,
दरु ाचाररयों को सदाचारी, और नृशसं अत्याचाररयों को उदार लोक -सेिी बना देती िै। ‘नारी तमु
के िल श्रिा िो’ की उवक्त को इन वदव्य नावयकाओ ं पर पणू तभ ः लागू िोती िै।
इस यगु के अन्य ऐवतिावसक नाटकों में बद्रीनाथ भट्ट िारा रवचत‘ चन्द्रगप्तु ’ (1915),
‘दगु ाभिती’ (1926), ‘तलु सीदास’ (1925), सदु शभन िारा रवचत ‘ दयानन्द’ (1917), मश ंु ी प्रेमचन्द
का ‘कबभला’ (1924), पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का ‘मिात्मा ईसा’ (1922), जगन्नाथप्रसाद
‘वमवलन्द’ के ‘प्रताप-प्रवतज्ञा’ (1928), गोविन्द बल्लभ पंत का ‘िरमाला’ (1925), चन्द्रराज
भण्डारी का ‘सम्राट-अशोक’ (1923), आवद उल्लेखनीय िै। बद्रीनाथ भट्ट के नाटकों में ‘दगु ाभिती’
सिभश्रेि िै। इसकी र्टनाऐ ं ऐवतिावसक िै, तथा चररत-वचत्रण में स्िाभाविकता िै। संिाद एिं भाषा-
शैली की दृवि से यि उत्कृ ि रचना िै। सदु शभन का ‘दयानन्द’ चररत्र प्रधान नाटक िै। चररत्र- वचत्रण
एिं र्टना क्रम के विकास की दृवि से यि भी एक सफल नाटक िै। ‘प्रेमचन्द का ‘काबा कबभला’
पाि्य रचना की दृवि से तो िीक िै वकन्तु अवभनय की दृवि से दोष-पणू भ िै। नाटक की असाधारण
लम्बाई, पात्रों की अत्यवधक संख्या, यद्ध
ु , मार-काट, सेना के प्रयोग आवद के दृश्यों के कारण यि
अनवभनेय बन जाता िै। इस िगभ के अन्य नाटक, मिात्मा ईसा, ‘प्रताप-प्रवतज्ञा’, ‘िरमाला’ आवद
अिश्य उच्च कोवट के नाटक िै। इनमें ऐवतिावसकता, स्िाभाविकता, एिं कल्पना का सन्ु दर संयोग
िुआ िै।
(2) पौराहणक नाटक- पौरावणक नाटकों की एक सशक्त परम्परा का प्रिभतन इस यगु से बिुत पिू भ
िी भारतेन्द-ु मण्डल के विवभन्न लेखकों िारा िो चक
ु ा था, वजसकी चचाभ पीछे की जा चक ु ी िै। इस
यगु के पौरावणक नाटकों की एक सचू ी यिां प्रस्ततु िै- 1. गगं ाप्रसाद कृ त ‘रामावभषेक नाटक’
(1910), 2. ब्रजनंद कृ त ‘रामलीला नाटक’ (1908), 3. वगररधर लाल का ‘रामिन यात्रा’
(1910), 4. नारायण सिाय का ‘रामलीला नाटक’ (1911), 5. राम गल ु ाम का ‘धनषु -यज्ञ लीला’
(1912), 6. मिािीर वसंि का ‘नल-दमयन्ती’ (1905), 7. गोचरण गोस्िामी का ‘अवभमन्य-ु िध’
(1906), 8. लक्ष्मी प्रसाद का ‘उिभशी’ (1910), 9. वशिनन्दन सिाय का ‘सदु ामा नाटक’ (1907),
10. ब्रजनन्दन सिाय का ‘उद्धि’ (1909), 11. रामनारायण वमश्र का ‘कंस-िध’ (1910), 12.
परमेश्वर वमश्र का ‘रूपिती’ (1907), 13. िररनारायण का ‘कावमनी-कुसमु ’ (1907), 14. रामदेिी
प्रसाद का ‘चन्द्रकला-भानु कुमार’ (1904)। ये नाटक सामान्यतः साधारण कोवट के िैं। इनमें से
अनेक पर पारसी रंगमचं की छाप िै।
(3) कल्पनाहित नाटक- वजन नाटकों की कथा िस्तु में इवतिास परु ाण और कल्पनावमवश्रत िोती
िै उन्िें कल्पनावश्रत नाटक किा जाता िै। इस िगभ के नाटकों के दो भेद वकए जा सकते िै - 1. प्रिसन
एिं 2. सामावजक नाटक। प्रिसनों के अन्तभगत मख्ु यतः जे.पी श्रीिास्ति िारा रवचत ‘दमु दार आदमी’

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(1919), उलट फे र (1919), ‘मदाभनी औरत’ (1920), बद्रीनारायण भट्ट िारा रवचत 'चगु ीं की
उम्मीदिारी' (1919), ‘वििाि विज्ञापन’ (1927), बेचेन शमाभ के दो नाटक चार बेचारे सवम्मवलत
वकए जा सकते िै। सामावजक नाटकों के अन्तभगत वमश्र बन्धओ
ु ं के नाटक मश
ंु ी प्रेमचंद का ‘संग्राम’,
लक्ष्मण वसंि का ‘गल
ु ामी का नशा’ प्रमख
ु नाटक िै।
(4) अनुहदत नाटक- इस यगु में संस्कृ त, बंगला और अरग्रं ेजी से अनेक नाटकों के अनिु ाद वकए गए
सत्य नारायण भिभतू ी के नाटकों का, रूपनारायण पाण्डेय ने बंगला के विजेन्द्र लाल राय के
ऐवतिावसक नाटकों का तथा रविन्द्र नाथ िाकुर के नाटकों का अनिु ाद वकया । अग्रं ेजी के नाटकों का
अनिु ाद भी मंश
ु ी प्रेमचन्द्र और लवलत प्रसाद शक्ु ल िारा वकया गया।
1.4.3 प्रसादोत्तर युग
(1) ऐहतिाहसक नाटक - इस यगु में ऐवतिावसक नाटकों की परम्परा का विकास िुआ। िररकृ ष्ण
प्रेमी, िृन्दािन लाल िमाभ, गोविन्द बल्लभ पंत, उदय शक ं र भटट, इस यगु के प्रमखु नाटककार
िै।िररकृ ष्ण प्रेमी के ऐवतिावसक नाटकों में रक्षाबंधन (1934), वशि साधना (1937), स्िपन भगं
(1940), आिुवत (1940), उद्धार (1949), शपथ (1951), भग्न प्राचीर (1954) आवद को
सवम्मवलत िै। प्रेमी जी ने अपने नाटकों में प्राचीन इवतिास को न लेकर मगु ल कालीन इवतिास का
सदं भभ वलया िै और उसके पररपेक्ष में ितभमान राजनैवतक, साम्प्रदावयक एिं राष्रीय समस्याओ ं को
सल ु झाने का प्रयास वकया िै। िृदांिनलाल िमाभ इवतिास के विशेषज्ञ िैं उनके ऐवतिावसक नाटकों में
झासीं की रानी (1948), बीरबल (1950), लवलत विक्रम (1953) आवद उल्लेखनीय िैं।
(2) सामाहजक नाटक - गोविन्द बल्लभ पतं ने अनेक सामावजक ि ऐवतिावसक नाटकों की रचना
की िै। उनके ‘राज-मकु ु ट’ (1935), ‘अन्तःपरु का वछद्र’ (1940), आवद ऐवतिावसक नाटक िैं।
पिले नाटक में मेिाड़ की पन्ना धाय का पत्रु के बवलदान तथा दसू रे में ित्सराज उदयन के अन्तःपरु
की कलि का वचत्रण प्रभािोत्पादक रूप में वकया गया िै। पंत जी के नाटकों पर संस्कृ त, अग्रं ेजी,
पारसी आवद विवभन्न परम्पराओ ं का प्रभाि पररलवक्षत िोता िै। अवभनेयता का उन्िोंने अत्यवधक
ध्यान रखा िै। उनकी कला का उत्कृ ितम रूप उनके सामावजक नाटकों में वमलता िै।
(3) पौराहणक नाटक - इस यगु में पौरावणक नाटकों की परम्परा का भी विकास िुआ। विवभन्न
लेखकों ने पौरावणक आधार को ग्रिण करते िुए अनेक उत्कृ ि नाटक प्रर् स्ततु वकए, सेि गोविन्द
दास का ‘कतभव्य’ (1935), चतरु सेन शास्त्री का ‘मेर्नाद’ (1936), पृथ्िीनाथ शमाभ का ‘उवमभला’
(1950), सद्गरूु शरण अिस्थी का ‘मझली रानी’, रामिृक्ष बेनीपरु ी का ‘सीता की मां’, गोकुल चन्द्र
शमाभ का ‘अवभनय रामायण’, वकशोरीदास िाजपेयी का ‘सदु ामा’ (1939), चतरु सेन शास्त्री का
‘राधा-कृ ष्ण’, विरे न्द्र कुमार गप्तु का ‘ सभु द्रा-पररणय’, कै लाशनाथ भटनागर के ‘भीम-पवतज्ञा’
(1934), और ‘श्रीित्स’ (1941), उदय शक ं र भटट के ‘विद्रोविणी अम्बा’ (1935), और ‘सगर-

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विजय’ (1937), पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का ‘गगं ा का बेटा’ (1940), डॉ.लक्ष्मण स्िरूप का
‘नल-दमयन्ती’ (1941), प्रभदु त्त ब्रह्रमचारी का ‘श्री शकु ’ (1944), तारा वमश्रा का ‘देियानी’
(1944), गोविन्द दास का ‘कणभ’ (1946), प्रेमवनवध शास्त्री का ‘प्रणपवू तभ’ (1950), उमाशक ं र
बिादरु का ‘िचन का मोल’ (1951), गोविन्द बल्लभ पंत का ‘ययावत’ (1951), डॉ.कृ ष्ण दत्त
भारिाज का ‘अज्ञातिास’ (1952), मोिन लाल ‘वजज्ञास’ु का ‘पिभदान’ (1952), िररशंकर वसन्िा
‘श्रीिास’ का ‘मां दगु ’े (1953), लक्ष्मी नारायण वमश्र के ‘नारद की िीणा’ (1946), और
‘चक्रव्यिू ’ (1954), रांगये रार्ि का ‘स्िणभ भवू म का यात्री’ (1951), मख ु जी गजंु न का ‘शवक्त-
पजू ा’ (1952), जगदीश का ‘प्रादभु ाभि’ (1955), सयू भनारायण मवू तभ का ‘मिा विनाश की ओर’
(1960) आवद। प्राचीन सस्ं कृ वत के आधार पर पौरावणक गाथाओ ं के असम्बद्ध एिं असगं त सत्रू ों में
सबंधं एिं संगवत स्थावपत करने का प्रयास पौरावणक नाटक िमें आज के जीिन की व्यापकता एिं
विशालता का सदं श े देते िैं। रंग-मचं एिं नाटकीय वशल्प की दृवि से अिश्य इनमें अनेक नाटक
दोषपणू भ वसि िोंगे वकन्तु गोविन्द बल्लभ पंत, सेि गोविन्द दास, लक्ष्मीनारायण वमश्र, जैसे मजं े िुए
नाटककारों ने इसका कोई संदिे निीं वकया की ये नाटक विषय- िस्तु की दृवि से पौरावणक िोते िुए
प्रवतपादन- शैली एिं कला के विकास की दृवि से पौरावणक िोते िुए प्रवतपादन- शैली एिं कला के
विकास की दृवि से आधवु नक िै तथा िे समाज की रूवच एिं समस्याओ ं के प्रवतकूल निीं िैं।
(4)कल्पनाहित नाटक - इस यगु के कल्पनावश्रत नाटकों को भी उनकी मल ू प्रिृवत्त की दृवि से
तीन िगो में विभक्त वकया जा सकता िै- 1. समस्या-प्रधान नाटक, 2. भाि- प्रधान, 3. प्रतीकात्मक
नाटक। समस्या- प्रधान नाटकों का प्रचलन मख्ु यतः इब्सन, बनाभडभ शा आवद पाश्चात्य नाटककारों के
प्रभाि से िी िुआ िै। पाश्चात्य नाटक के क्षेत्र में रोमांवटक नाटकों की प्रवतवक्रया के फलस्िरूप
यथाभथिादी नाटकों का प्रादभु ाभि िुआ, वजनमें सामान्य जीिन की समस्याओ ं का समाधान विशद्ध ु
बौवद्धक दृविकोण से खोजा जाता िै। लक्ष्मीनारायण वमश्र के समस्या प्रधान नाटकों में ‘सन्यासी’
(1931), ‘राक्षस का मवन्दर’ (1931), ‘मवु क्त का रिस्य’ (1932), ‘राजयोग’ (1934), ‘वसन्दरू की
िोली’ (1934), ‘आधीरात’ (1937), आवद उल्लेखनीय िै। इनके अवतररक्त इन्िोने कुछ
ऐवतिावसक नाटक भी वलखे थे। वमश्र जी के इन नाटकों में बौवद्धकतािाद, यथाभथिाद, एिं
फ्रायडिाद की प्रमखु ता िै। सामावजक नाटकों के क्षेत्र में सेि गोविन्द दास, उपेन्द्र नाथ अश्क,
िृदं ािनलाल िमाभ, िररकृ ष्ण प्रेमी आवद का मित्िपूणभ येागदान िै। सेि गोविन्ददास ने ऐवतिावसक,
पौरावणक विषयों के अवतररक्त सामावजक समस्याओ ं का वचत्रण भी अपने अनेक नाटकों में वकया िै,
वजनमें से ‘कुलीनता’ (1940), ‘सेिा-पथ’ (1940), ‘दःु ख क्यों?’ (1946), वसद्धातं - स्िात्ं य’
(1938), ‘त्याग या ग्रिण’ (1943), ‘संतोष किााँ’ (1945), ‘पावकस्तान’ (1946), ‘मित्ि वकसे’
(1947), गरीबी-अमीरी’ (1947), ‘बड़ा पापी कौन’ (1948) आवद उल्लेखनीय िैं। सेि जी ने
आधवु नक यगु की विवभन्न सामावजक, राजनीवतक एिं राष्रीय समस्याओ ं का वचत्रण सफलतापिू क भ
वकया िै। ऊाँच-नीच का भेद, ‘भ्रिाचार एिं राजनीवत के आधार पर नाटक वलखे। उपेन्द्र नाथ अश्क

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ने राष्र की विवभन्न समस्याओ ं का वचत्रण अपने नाटकों में वकया उनके उल्लेखनीय नाटकों में - कै द
(1945), उड़ान (1949), छिा बेटा (1955), अलग- अलग रास्ते प्रमख ु िैं।
िृदं ािनलाल िमाभ ने ऐवतिावसक और सामावजक नाटक वलखे उनके नाटकों में राखी की
लाज (1943), बांस की फांस (1947), नीलकंि (1951), प्रमख ु िैं। िमाभ जी इन नाटकों में वििाि
जावत - पावत और सामावजक बरु ाइयों का अक ं न वकया िै। इस यगु के अन्य सामावजक नाटकों में
उदय शक ं र भटट का कमला (1950), िररकृ ष्ण प्रेमी का ‘छाया’, प्रेमचन्द का प्रेम की बेवद
(1933), चतरु सेन शास्त्री का पद घ्िवन 1952, शम्भू नाथ वसंि का धरती और आकाश (1954),
उल्लेखनीय िैं। प्रतीकिादी नाटकों की परम्परा जयशक ं र प्रसाद के कामना से मानी जा सकती िै।
सवु मत्रानन्दन का 'ज्योत्सना' (1934), भगिती प्रसाद िाजपेयी का ‘छलना’, सेि गोविन्द दास का
निरस एिं डॉ. लक्ष्मी नारायण दास का 'मादा कै क्टस' उल्लेखनीय िै।
1.4.4 स्वातन््योत्तर युग
स्ितन्त्रता प्रावप्त के पश्चात विन्दी नाटक का विकास तेजी से िुआ कुछ लेखकों ने परु ानी परम्परा का
िी वनिाभि वकया वकन्तु कुछ लेखकों ने नए वशल्प का प्रयोग वकया । इसे िम तीन िगो में विभक्त कर
सकता िै-
1. सामाहजक एवं सांस्कृहतक नाटक - इस िगभ में मख्ु यतया जगदीश चन्द्र माथरु , नरे श
मेिता , विनोद रस्तोगी, डॉ. लक्ष्मी नारायण दास एिं डॉ. शक ं र शेष की रचनाएं आती िै। जगदीश
चन्द्र माथरु ने 'कोणाभक'(1952), पिला राजा(1969), 'दशरथनन्दन'(1974) में सामावजक एिं
सांस्कृ वतक मल्ू यों के विषय में वलखा िै। विष्णु प्रभाकर ने डॉ 1958, 'यगु -े यगु े क्रावन्त', 'टूटते
पररिेश' आवद नाटकों में पाररिाररक एिं सामावजक समस्याओ ं को वचवत्रत वकया िै। नरे श मेिता ने
सबु ि के र्ण्टे (1956), और खवण्डत यात्राएं (1962) में आधवु नक राजवनवत और विसंगवतयों पर
प्रकाश डाला िै। डॉ. लक्ष्मीनारायण लाल ने 50 से अवधक नाटकों की रचना की िै- 'अधं ा कुआ'ं ,
'रात रानी', 'दपभण', 'कर्फयभ'ू , 'अब्दल
ु ा दीिाना', 'वम. अवभमन्य'ू उनके मित्िपूणभ नाटक िै। डॉ. शक ं र
शेष ने अपने नाटकों में व्यवक्त समाज और संस्कृ वत के अन्तर ििं को उदर्ावटत वकया िै। 'वबन बावत
के दीप', 'फंदी', 'खजरु ािो के वशल्पी', 'एक और द्रोणाचायभ' उनके उल्लेखनीय नाटक िै।
2. व्यहिवादी नाटक - इस िगभ में मोिन राके श, सरु े न्द्र िमाभ, रमेश बक्षी, मद्रु ा राक्षस की
रचनाएं आती िै। मोिन राके श ने अपने तीन नाटकों 'आषाढ एक वदन' (1958), 'लिरों के राजिसं '
(1963), 'आधे-अधरू े ' (1969), में व्यवक्त एिं समाज के ििं को प्रदभवशत वकया िै। सरु े न्द्र िमाभ ने
'द्रोपदी' (1972), 'सयू भ की अवन्तम वकरण से सयू भ की पिली वकरण तक' 1975, और 'आििां सगभ'
नाटक में परम्परागत मान्यताओ ं को चनु ौती दी िै। रमेश बक्षी ने अपने 'देियानी का किना िै' नाटक
में िैिाविक संस्था की उपयोवगता पर प्रश्निाचक वचन्ि लगाया िै, इसी प्रकार मद्रु ाराक्षस ने 'वतल

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चटटा' 1975, में वििाि के सबं धं में परम्परागत मल्ू येां के प्रवत विद्रोि वकया िै। इस िगभ के लेखकों
की दृवि मख्ु यतः व्यवक्त स्िातं्य, अिम, और प्रेम संबंधों पर के वन्द्रत रिी िै।
3. राजनैहतक नाटक - राजनीवत सदा से िी नाटकों का विषय बनती रिीं िैं। स्ितन्त्रता के
पश्चात राजनीवत को आधार बनाकर अनेकानेक नाटक वलखे गए, वजनमें दया प्रकाश वसंन्िा का
इवतिास चक्र एिं कथा एक कंश की, विवपन अग्रिाल का 'ऊाँ ची-नीची टागं का जांवर्या' ,
िमीदल्ु ला का 'समय संदभभ' , वगरीराज वकशोर का 'प्रजा िी रिने दो', सश ु ील कुमार वसंि का
‘वसंिासन खाली िै’, मवण मधक ु र का 'रस-गन्धिभ ' सिेश्वर दयाल सक्सेना का 'बकरी' विशेष
उल्लेखनीय िैं इनमें एक ओर जनता का शोषण करने िाले राजनीवतज्ञों का भण्डाफोड़ वकया गया िै
तो इसमें दसू री ओर सत्ताधारी िगभ िारा वकए जाने िाले अनाचार, दरु ाचार और भ्रिाचार का वचत्रण
वकया गया िै। इसके अवतररक्त शरद जोशी का अन्धों का िाथी, मन्नू भण्डारी का वबना वदिार का
र्र, शम्भू नाथ वसंि का ‘धरती और आकाश’ आवद भी उल्लेखनीय रचनाएं िै। विन्दी नाटक के
क्षेत्र में डॉ. कुसमु कुमार का नाम भी मित्िपणू भ िै ‘संस्कार को नमस्कार’, ‘रािण लीला’, इनके
मित्िपूणभ नाटक िै।
इस प्रकार िम देखते िै की विन्दी नाटक का विकास अनेक रूपों और अनेक वदशाओ ं में
िुआ िै। यद्यवप प्रारम्भ में विन्दी रंगमचं के अभाि तथा एंकाकी रे वडयो रूपों एिं चल वचत्रों की
प्रवतयोवगता के कारण इसकी विकास की गवत मदं रिी परन्तु कुछ स्ितन्त्र सस्थाओ ं िारा नाटकों का
अवभनय वकया जाता रिा िै , टेवलविजन में वदखाए जाने िाले उबाउ विषयों से दशभक धीरे -धीरे
नाटक देखने की और पनु : उत्सक ु िो रिें िैं .आशा िै नाटकों का विकास पिू भ की भांवत वनरन्तर िोता
रिेगा

1.5 सारांश
नाट्य सावित्य के स्िरूप तथा विन्दी नाटक के विस्तृत इवतिास का अध्ययन करने के
पश्चात आप जान गए िोंगे की नाट्य विधा सावित्य की सबसे सशक्त विधा िै।
नाटक जीिन का िी प्रवतरूप िै जीिन के थके िुए क्षणों से बोवझल मनष्ु य ने मनोरंजन िेतु
नाटक की उत्पवत्त की िोगी जो आज तकनीकी विकास के रूप में वफल्म और टेलीविजन के नाटकों
के रूप में िमारे समक्ष िै।
विन्दी नाट्य सावित्य के विकास से भी आप पररवचत िो गए िै। भारतेन्दु िररशचन्द्र ने
सामावजक विसंगवतयों वशक्षा निजागरण के वलए नाटकों का माध्यम अपनाया, जयशक ं र प्रसाद ने
भारत के प्रावचन इवतिास को पनु ः िमारे समक्ष प्रस्ततु करने के वलए नाटकों की रचना की वजसका
की िम आगे आने िाले पृष्ठों पर विस्तृत अध्ययन करे ग।ें

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1.6 शब्दावली-
नाटय शास्त्र - भरत मवु न िारा रवचत ग्रथं
नाटक - सावित्य की एक ऐसी विधा वजसे रंगमचं पर अवभनय के
माध्यम से पात्र कथोपकथन िारा जीिन्तता प्रदान करते िैं ।
कथा िस्तु - नाटक के सदं भभ में कथािस्तु का तात्पयभ उस कथा से िै वजसको
अवभनय ि संिाद के माध्यम से व्यक्त करते िैं ।
पात्र - नाटक की कथा को संिाद और अवभनय के िारा रंगमचं पर
प्रस्ततु करने िाले अवभनेताओ ं को नाटक का पात्र किा जाता
िै। नाटक में कई प्रकार के पात्र िोते िैं जैसे नायक, नावयका,
खलनायक, विदषु क, सिनायक, सिनावयका, आवद अनेक
सिायक पात्र ।
संिाद - अवभनय करते िुए पात्र जो िाताभलाप करते िैं उसे कथोपकथन
या सिं ाद किा जाता िै। कथािस्तु को गवत सिं ादों के माध्यम
से िी वमलती िै पात्र विशेष की मानवसक वस्थवत का ज्ञान सिं ाद
िारा िी िोता िै।
रंगमच - नाटक की कथा वजस भवू म, स्थान अथिा मचं पर अवभनय ि
सिं ादों के माध्यम से मवं चत िोती िै उसे रंगमचं किा जाता िै।
नाट्य शास्त्र में रंगमचं के आकार प्रकार िास्तु रंग संयोजन, की
विस्तृत व्याख्या की गयी िै।

1.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


प्रश्न 1. नाटय शास्त्र वकसके िारा वलखा गया िै ?
उत्तर - भरत मवु न।
प्रश्न 2. सावित्य के वकतने स्िरूप िोते िै ?
उत्तर - सावित्य के दो स्िरूप िोते िैं - 1 गद्य, 2 पद्य।

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प्रश्न 3. नाटक, सावित्य के वकस स्िरूप से सम्बवन्धत िै ?
उत्तर - नाटक, सावित्य के गद्य रूप से सम्बवन्धत िै।
प्रश्न 4. विन्दी नाट्य सावित्य के इवतिास का िगीकरण कीवजए ?
उत्तर - विन्दी नाट्य सावित्य के इवतिास का िगीकरण इस प्रकार वकया जाता िै -
भारतेन्दु यगु , प्रसाद यगु , प्रसादोत्तर यगु , स्िातन्त्रोतर यगु ।
प्रश्न 5 राधा कृ ष्ण दास िारा रवचत नाटकों के नाम बताइये ?
उत्तर - रानी पदमािती, धमाभलाभ, मिाराणा प्रताप वसंि , राजस्थान के सरी।
प्रश्न 6. धमभिीर भारती िारा वलवखत काव्य नाट्य का नाम बताइये ?
उत्तर - अधं ा यगु ।
प्रश्न 7. लक्ष्मीनारायण लाल ने वकस प्रकार के नाटक वलखे िैं ?
उत्तर - लक्ष्मीनारायण लाल ने मनोिैज्ञावनक समस्याओ ं पर आधाररत नाटक वलखे िैं ।
प्रश्न 8. विन्दी का प्रथम नाटक वकसे माना जाता िै ?
उत्तर - बाबू गोपालचन्द्र िारा वलवखत ‘निुष नाटक’ (1841) को प्रथम नाटक माना जाता
िै।
प्रश्न 9. 'लिरों का राजिसं ', 'आषाढ़ का एक वदन' नाटकों के रचवयता का नाम बताइये?
उत्तर - मोिन राके श।
प्रश्न 10. िृदांिन लाल िमाभ के सामावजक नाटकों का नाम बताइयें?
उत्तर - राखी की लाज, बांस की फांस, वखलौने की खोज, के िट, नीलकंि, सगनु ,
िृदािं न लाल िमाभ जी के प्रमख
ु सामावजक नाटक िै।

1.8 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ. गणपवत चन्द्र गप्तु
2. प्रसाद के नाटक, डॉ. परमेश्वरी लाल

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3. प्रसाद के नाटक स्िरूप और सरं चना, डॉ. गोविन्द चातक
4. विन्दी नाटक उदभि और विकास, डॉ. दशरथ ओझा
5. विन्दी नाट्य सावित्य का विकास, डॉ. सोमनाथ गप्तु

1.9 हनबं धात्मक प्रश्न-


1. नाटक का स्िरूप वनर्ाभररत करते िुए उसके विवभन्न तत्िों पर प्रकाश डावलए?
2. विन्दी नाटक के उद्भि और विकास पर प्रकाश डावलए?

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इकाई 2 जयशंकर प्रसाद पहरचय एिं
कृहित्त्ि
इकाई की रूपरे खा
2.1 प्रस्तािना
2.2 उद्देश्य
2.3 जयशंकर प्रसाद : पररचय एिं कृ वतत्ि
2.4 जयशक ं र प्रसाद : व्यवक्तत्त्ि
2.4.1 प्रसाद जी का नाट्य-सावित्य
2.5 सारांश
2.6 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
2.7 संदभभ ग्रंथ सचू ी
2.8 उपयोगी पाि्य सामग्री
2.9 वनबधं ात्मक प्रश्न

2.1 प्रस्तावना
जयशक ं र प्रसाद यगु वनमाभता थे, उन्िोंने अपने सावित्य के परम्परागत सांस्कृ वतक मल्ू यों को
पिचान कर उन्िें यगु ानरू
ु प रूपावयत करने का स्तत्ु य प्रयास वकया था। इसवलए िे आधवु नक यगु के
सिाभवधक मित्िपणू भ सावित्यकार माने जाते िैं ।प्रवतभा के धनी जयशक ं र प्रसाद जी ने कविता,
नाटक, उपन्यास, किानी, आलोचना आवद सभी साविवत्यक विधाओ ं पर अपनी लेखनी चलाई।
इवतिास एिं प्राचीन दशभन ग्रंथों के िि प्रकाण्ड वििान थे, उनका समस्त सावित्य गम्भीर वचंतन का
पररणाम िै। उसमें के िल मनोंरजन न िोकर गम्भीर शास्त्रों का मथं न िै।
प्रस्ततु इकाई में आप मिाकवि जयशक
ं र प्रसाद के सम्पणू भ जीिन एिं कृ वतत्त्ि का पररचय
प्राप्त करें गे तथा साथ िी साथ उनके सफल नाटककार रूप का गिन वििेचन कर सकें गे

2.2 उद्देश्य
सावित्य और समाज का र्वनि सम्बन्ध िै समाज की पररवस्थयों के अनसु ार सावित्य
बदलता रिता िै, इसका अथभ यि िै वक सावित्य में समाज की सामावजक, आवथभक धावमभक, एिं

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राजनैवतक सभी पररवस्थवतयााँ प्रवतवबवम्बत िोती िै। सावित्य के अनसु ार िी समाज का विकास िोता
िै, और समाज की पररवस्थयों के अनक ु ू ल िी सावित्य की सृवि िोती िै।
आप लोग जानते िी िोगें की सावित्य प्रवतभासम्पन्न रचनाकारों िारा वलखा जाता िै अतः
वकसी सावित्यकार के सावित्य का अध्ययन करने से पिू भ सावित्यकार के जीिन का अध्ययन करना
आिश्यक िै, क्योवकं व्यवक्त के स्ियं के जीिन का प्रभाि उसके िारा वलखे गए सावित्य पर पड़ना
स्िाभाविक िै।

2.3 जयशंकर प्रसादः पहरचय एवं कृहतत्त्व


जीवन पररचय - प्रवतभा के धनी मिाकवि जयशक ं र प्रसाद का जन्म सम्ित 1946 ई. में
काशी तथा मृत्यु संित् 1994 में िुई। उनका जन्म काशी के प्रवसि िैश्य कुल मे िुआ जो सािू संर्ु नी
के नाम से प्रवसि था। उनके वपता का नाम श्री देिी प्रसाद एिं वपतामि का नाम श्री वशि रत्न सािू
था। उनके वपता बडेे़ दानी और धमाभत्मा व्यवक्त थे। उनके वपता एक कुशल व्यिसायी िोने के साथ-
साथ अत्यन्त उदार एिं साविवत्यक अवभरूवच के व्यवक्त थे। उनके यिां प्रायः साविवत्यक चचाभएं
िोती रिती थीं। इस साविवत्यक िातािरण का प्रभाि बालक जयशक ं र प्रसाद पर भी पड़ा और िि
लकु - वछपकर कविताएं करने लगे। उनका पालन-पोषण बड़े लाड़ में िुआ। उनकी वशक्षा भी अवधक
निीं िो पायीं थी और अभी िि क्िीन्स कालेज की आििीं कक्षा तक िी पिुचं पाए थे की उनके
वपताजी का देिान्त िो गया, वजससे उन्िें अपनी पढ़ाई छोड़ देनी पड़ी । बाद में उन्िोंने र्र पर िी
अग्रं ेजी, संस्कृ त, इवतिास, विन्दी, आवद का गम्भीर अध्ययन वकया। प्रसाद जी सादगी, सौजन्य एिं
उदारता की प्रवतमवू तभ थे। िि कसरत और र्ोड़े की सिारी के शौवकन थे। प्रसाद जी का यौिन काल
अनेक विपवत्तयों से ग्रस्त रिा। 17 िषभ की अिस्था में िी उनके भाई का भी देिान्त िो गया था।
समस्त पररिार की वजम्मेदारी उन्िीं पर आ पड़ी। प्रसाद जी कुशल व्यिसायी थे उनके यिां सगु वधंत
पदाथो का व्यापार िोता था।
साहिहत्यक सेवा - प्रसाद जी बिुमख ु ी प्रवतभा के व्यवक्त थे। उन्िोंने कविता, किानी, आलोचना
सभी विधाओ ं पर अपनी लेखनी चलाई। इवतिास और प्राचीन दशभन के िे प्रकाण्ड वििान थें। प्रसाद
जी का साविवत्यक जीिन इन्दू पवत्रका से प्रकाश में आया।पवत्रका के विकास के साथ साथ जयशक ं र
प्रसाद का साविवत्यक जीिन भी अग्रसर िोता चला गया। प्रसाद जी की रचना की सूची उनके
प्रकाशन िषभ के साथ इस प्रकार िै-
1. काव्य - वचत्राधार (1912), कानन कुसमु (1913), करूणालय (1913), मिाराणा का
मित्त्ि (1914), प्रेम पवथक (1914), झरना (1918), आसं ू (1925), लिर (1933)
कामायनी (1936)

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2. नाटक - सज्जन (1910), कल्याणी पररणय (1912), राज्यश्री (1914), विशाख
(1921), अजात शत्रु (1923), जन्मेजय का यज्ञ नाग (1926), कामना (191),
स्कन्दगप्तु (1928), चन्द्रगप्तु (1928), ध्रिु स्िावमनी(1930)
3. एक
ं ाकी - एक र्िंू
4. किानी सग्रं ि - छाया (1912), प्रवतध्िवन (1926), आकाशदीप (1929), आधं ी
(1933), इन्द्रजाल (1936)
5. उपन्यास - कंकाल (1929), वततली (1934), इरािती (अपूण)भ ,
6. हनबध
ं - काव्य कला तथा अन्य वनबधं ।

2.4 जयशंकर प्रसाद : व्यहित्व


विन्दी-सावित्य में प्रसाद जी का व्यवक्तत्ि यगु ान्तरकारी माना जाता िै। विन्दी के ऐवतिावसक
नाटकों के िे जन्मदाता थे एिं विन्दी कविता में छायािाद को प्रवतवष्ठत करने का श्रेय प्रसाद जी को
िी िै। डॉ. िाररकाप्रसाद सक्सेना के शब्दों में- ‘‘प्रसाद छायािाद की काव्यधारा के प्रितभक िी निीं
िैं, अवपतु उसकी प्रौढ़ता, शालीनता, गरुु ता, गम्भीरता के भी पोषक कवि िैं। प्रसाद की कविताओ ं में
प्रकृ वत के सचेतन रूप के साथ-साथ मानि के लौवकक एिं पारलौवकक जीिन की जैसी रमणीक
झााँकी अवं कत िै, िैसी वकसी अन्य कवि की कविता में दृविगोचर निीं िोती।’’बिुमख ु ी प्रवतभा के
धनी जयशक ं र प्रसाद आधवु नक यगु के एक श्रेष्ठ रचनाकार िैं। विन्दी के काव्य, नाटक, उपन्यास,
किानी, वनबधं को अपनी पारस-प्रवतभा से छू कर उन्िोंने स्िवणभम बना वदया िै वजसके आलोक से
आज भी प्रकाश ग्रिण वकया जा सकता िै। प्रसाद के संपणू भ िाङमय का अध्ययन करके कोई भी
व्यवक्त इस सत्य से साक्षात्कार कर सकता िै।
प्रसाद मल
ू तः एक कवि िैं और अपने कवि का उत्तरोत्तर विकास प्रसाद को व्यवि से समवि की ओर
ले जाता िै। उनके काव्य की यि एक बड़ी विशेषता िै। उनकी कविता वनजता के वबदं ु से शरू ु िोकर
व्यापकता प्राप्त करती िुई िृितर समाज से जा जड़ु ती िै। ये विकास-क्रम उनकी िर कविता में देखा
जा सकता िै और इसकी पराकाष्ठा, ‘कामायनी’ में देखी जा सकती िै। प्रसाद ‘िैयवक्तकता’ से
‘सामावजकता’ की ओर प्रयाण के कवि िैं। ‘विश्व कल्याण’ की मानितािादी भािना इसके मल ू क िै
और भारतीय वचंतन धारा इसका मल ू स्रोत िैं। प्रसाद ने वििेदी यगु ीन काव्यधारा की पररपाटी को
तोड़ा िै और इसमें रस एिं सौंदयभ का समािेश करके भाषा को जो प्रााँजलता दी उस पर यगु के झीने
आिरण तले समवि की बात कवि करता िै। भारतीय वचंतन-धारा की अवनिायभ पररणवत वजस
आदशभिाद में िोती िै िि प्रसाद के यिााँ अिश्य िै। भारतीय दशभन, संस्कृ वत और अपने अतीत के

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प्रवत गिरे सम्मान की भािना जो एक आत्मविश्वास प्रदान करती िै प्रसाद ने अपने समाज को देने का
प्रयत्न वकया िै।
भारत की इसी सांस्कृ वतक गौरि गररमा और राष्रीय चेतना को िाणी देने के वलए प्रसाद ने
नाटकों का सृजन वकया। उन्िोंने इवतिास के पृष्ठों से उन अध्यायों को चनु ा जो सिभतोन्मख ु ी विकास
के कारण ‘स्िणभ-यगु ’ किलाते थे और वजनके माध्यम से िे ितभमान समाज में जन-चेतना को जागृत
कर सकते थे। प्रसाद की मानितािादी-पारस्पररक प्रेम, सौिादभ की भािना इन नाटकों में देखने को
वमलती िै। प्रसाद के नाटकों में जिााँ-तिााँ उनका कवि झााँकता वदखाई दे तो कोई आश्चयभ की बात
निीं िै। ये कवि कभी पात्रों की कल्पना में, कभी भाषा, कभी भािावभव्यवक्त तो कभी-गीतों में सवक्रय
िोता िै। प्रसाद के नाटक आज की नई तकनीक से वनवमभत रंगमचं पर सगु मता से प्रदवशभत िो सकते
िैं- पिले ऐसा सभं ि निीं था। िााँ, तत्सम प्रधान भाषा ‘विवं ग्लश’ िादी यगु में जरूर एक समस्या िै।
प्रसाद की किावनयााँ उनके कवि-मन का सिज उच्छलन तो िै िी उनके आदशभिादी युग का भी
पररचय देती िैं। प्रसाद की किावनयों में जिााँ कवि-कल्पना से सृवजत कुछ गररमापणू भ, उच्चादशभ
सम्पन्न पात्र िैं। ििााँ उनकी दृवि सामावजक, रूवढ़िाद, धावमभक-पाखडं , आवथभक विषमता,
सांमप्रदावयकता नारी शोषण आवद यथाथभिादी समस्याओ ं पर भी पड़ी िै। इन समस्याओ ं को
सल ु झाने का उनका अपना ढगं िै जो उनके आदशभिादी, दाशभवनक वचतं न से वनसृत िैं। प्रसाद ने
कालजयी किावनयााँ विन्दी किानी सावित्य को दी। प्रसाद के उपन्यासों को भी इसी दृवि से देखा
जाना चाविए। यथाथभ, आदशभ और इवतिास का संयोग प्रसाद के उपन्यासों की अपनी विशेषता िै।
उपन्यासों की रचना करके उन्िोंने यथाथभ की भवू म को अपनाए वबना उपन्यास का सृजन मित्िपूणभ
निीं िो सकता। उपन्यास यथाथभ की देन िै। ‘कंकाल’ में प्रसाद ने इसका भरपरू लाभ उिाया िै।
प्रसाद वनबधं ों में उनके वचतं क के दशभन िोते िैं। उनके िारा वलवखत भवू मकाएाँ उनके गम्भीर अध्येता
और सक्ष्ू म दृवि का पररचय देती िैं- वकसी छायािादी कवि ने इस प्रकार इवतिास को निीं खगं ाला।
प्रसाद की दृवि जन जागरण की थी। उनके वनबन्धों में उनकी वििता का पररचय तो वमलता िी िै,
उनकी भारतीय दशभन के प्रवत गिरी आस्था और सल ं ग्नता भी प्रकट िोती िै। पररणाम में भले िी ये
वनबंध कम िैं मगर वचंतन में अत्यन्त गिरे िैं। प्रसाद सावित्य अपनी उदात्तता, भारतीय संस्कृ वत एिं
दाशभवनक चेतना से सम्पन्न एक ऐसा प्रकाश स्तंभ िै वजसकी चमक और आभा ज्ञान, आस्था एिं
उच्चादशो के अन्िेषकों का सदैि मागभ-दशभन करती रिेगी।
2.4.1 प्रसाद जी का नाटयय-साहित्य
वजस प्रकार विन्दी कथा-सावित्य में प्रेमचन्द को मील का पत्थर माना जाता िै उसी प्रकार विन्दी
नाट्य-सावित्य में प्रसाद जी को यगु -पररितभनकारी किा जाता िै। कथा-सावित्य के विकास को प्रायः
पिू -भ प्रेमचन्द यगु , प्रेमचन्द यगु और उत्तर-प्रेमचन्द यगु के रूप में विभावजत वकया जाता िै। इसी
प्रकार विन्दी नाट्य-सावित्य को पिू -भ प्रसाद यगु , प्रसाद यगु और प्रसादोत्तर यगु के रूप में बााँटा जाता

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िै। विन्दी नाटकों में भारतीय और पाश्चात्य नाटय-वशल्प के समन्िय का गौरि प्रसाद जी को िी प्राप्त
िै। प्रसाद जी ने िे ि भारतीय नाट्यशास्त्र के आधार पर नाटकों की रचना की। इस दृवि से प्रसाद जी
का स्थान विन्दी नाट्य-सावित्य में मित्िपणू भ िै। पाश्चात्य नाट्य-रचना शैली को स्िीकार करते िुए
भी प्रसाद जी ने भारतीय नाट्य-रचना-शैली के मल ू वसद्धान्त ‘िस्तु नेता रसाः तेषां भेदकाः’
(कथािस्तु, नायक और रस रूपकों के भेदक अथाभत् वभन्न-वभन्न करने िाले िैं) का पालन वकया।
डॉ. गोविन्द चातक ने प्रसाद जी की नाट्य-कला के विषय में वलखा िै- ‘‘प्रसाद जी ने अपने नाट्य-
वशल्प के वलए अपने व्यवक्तत्ि, कथ्य और दशभन से मित्िपणू भ उपकरण जटु ाए िैं। इसमें किीं िे
अपने पिू िभ वतभयों से जड़ु े िैं, वकन्तु किीं िे अपनी जीिन-दृवि, इवतिास-प्रेम, रस-सृवि, रोमांस आवद
वबल्कुल अलग वदखाई देते िैं। उन्िोंने परम्परा और प्रयोग दोनों को काव्यात्मक गिराई प्रदान की।
इसी काव्य-तत्त्ि की प्रधानता के कारण प्रसाद का नाट्य-वशल्प बिुलता से ग्रस्त िै। यि बिुलता
स्िछंदतािादी प्रिृवत्त के अनरू ु प अवभव्यवक्त की तीव्र इच्छा से पररपणू भ िै। सादृश्य और िैषम्य
विधान, सत् और असत् के िन्ि, त्रासद तत्ि तथा नाटकीय व्यंग्य के माध्यम से प्रसाद के नाटक उस
विस्तार को प्राप्त करते िैं, जो उन्िें मिाकाव्यात्मक आभास प्रदान करते िैं।’’
प्रसाद का सामवयक पररिेश संक्रावन्त काल किा जाता िै। इस समय में राजनीवत, समाज
और धमभ सभी में उथल-पथु ल मची थी। इस संक्रावन्त काल और उथल-पथु ल ने िमें अपने राष्र और
संस्कृ वत के विषय में गम्भीरता का कोई समाधान प्रतीत निीं िो रिा था। इस पररवस्थवत में सच्चे और
स्िावभमानी सावित्यकार का ध्यान भारत के गौरिमय अतीत की ओर जाना स्िाभाविक था। प्रत्येक
पददवलत, परतत्रं और परावजत जावत को अपना अतीत आकषभक एिं गौरिपूणभ जान पड़ता िै। प्रसाद
जी िैसे भी दाशभवनक स्िभाि के सावित्यकार थे। उनकी मान्यता थी वक दशभन को वचन्तन तक
सीवमत न रखकर व्यििार में लाना चाविए। प्रसाद जी दशभनशास्त्र की उपयोवगता इसी में समझते थे।
प्रसाद जी शैि-दशभन के आनन्दिाद में आस्था रखते थे। िैसे भी बनारस को भतू भािन भगिान वशि
के वत्रशल ू पर बसा माना जाता िै। बनारसिावसयों का शैि-दशभन में श्रद्धा रखना स्िाभाविक िै। शैि-
दशभन के आनन्दिाद का िी चमत्कार था, वक प्रसाद जी सर्ं षभ से कभी वचवन्तत और भयभीत निीं
िुए। प्रसाद जी भारतीयता का पनु रूत्थान भारत के प्राचीन इवतिास से उज्जिलतम उदािरण
जनसाधारण के सम्मख ु रखने में मानते थे। यिी कारण िै वक प्रसाद जी के नाटकों में ‘कामना’ और
‘एक र्टाँू ’ को छोड़कर शेष सभी का आधार इवतिास िै। प्रसाद जी ने ‘विशाख’ नाटक की भवू मका
में यि बात स्ियं स्िीकार की िै- ‘‘इवतिास का अनश ु ीलन वकसी भी जावत को अपना आदशभ
सगं वित करने के वलए अत्यन्त लाभदायक िोता िै, क्योंवक िमारी वगरी दशा को उिाने के वलए
िमारे जलिायु के अनक ु ू ल जो िमारी अतीत सभ्यता िै, उससे बढ़कर और कोई भी उपयक्त ु आदशभ
िमारे अनक ु ू ल िोगा वक निी, इसमें िमें पणू भ सन्देि िै। मेरी इच्छा भारतीय इवतिास के अप्रकावशत
अश ं में से उन प्रकाण्ड र्टनाओ ं का वदग्दशभन कराने की िै, वजन्िोंने वक िमारी ितभमान वस्थवत को
बनाने का बिुत कुछ प्रयत्न वकया िै।’’

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प्रसाद जी ने निीन यगु की भी उपेक्षा निीं की। िे प्राचीन भारत के साथ-साथ निीन यगु को
भी साथ लेकर चले। उन्िोंने इवतिास के अनश ु ीलन के साथ निीन कल्पना का प्रयोग वकया। इस
प्रकार िे नाट्य-कला में निीनता की उद्भािना करने में सफल िुए। प्रसाद जी के नाटकों में जो
अन्तिभन्ि पाया जाता िै, यि पवश्चम के सावित्य का प्रभाि िै। प्रसाद जी के ऐवतिावसक नाटकों में
इवतिास का वनिाभि िोते िुए भी आधवु नकता की छाप का यिी िेतु िै। प्रसाद जी को विन्दी का
सिभश्रेष्ठ नाटककार र्ोवषत करने में उनकी सास्ं कृ वतक पनु रुत्थान की भािना, दाशभवनक वचन्तन,
स्िाभाविक चररत्र-कल्पना, राष्रीयता के प्रवत आग्रि, संर्षभ के विष से जीिन के अमृत की खोज का
प्रयास और निीन नाट्य-शैली कारण िैं। प्रसाद जी ने अपने नाटकों में भाषा के प्रौढ़ एिं पररमावजभत
रूप का प्रयोग वकया िै। इन्िी सब विशेषताओ ं के कारण प्रसादजी के नाटक स्थायी सावित्य के
उज्िल रत्न बन सके िैं। प्रसाद जी ने भारतीय इवतिास के वकस काल-खण्ड को अपने नाटकों में
स्थान वदया िै, इस विषय में प.ं जगन्नाथ प्रसाद शमाभ का सिभथा समीचीन िै- ‘‘उन्िोंने (प्रसाद जी ने)
मिाभारत यद्ध ु से लेकर िषभिधभन के राज्य-काल तक के भारतीय इवतिास को अपना लक्ष्य बनाया
िै। क्योंवक यिीं भारतीय संस्कृ वत की उन्नवत और प्रसार का स्िणभयगु किा जाता िै। जनमेय, परीवक्षत
से आरम्भ िोकर िि स्िणभ-यगु िषभिधभन तक आया िै। बीच में बौद्ध-काल, मौयभ और गप्तु -काल ऐसे
िैं, वजनमें आयभ-संस्कृ वत अपने उच्चतम उत्कषभ पर पिुचाँ ी िै। अतएि तत्कालीन उत्कषाभकषभ के
यथाथभ वचत्रण के अवभप्राय से लेखक ने कुछ विवशि प्रवतवनवधयों को चनु कर उनके कुल-शील और
जीिन-िृत्त के िारा उस रिस्योद्घाटन की चेिा की िै। जो ितभमान को जीवित रखने में सिायता कर
सके । जनमेजय, अजातशत्रु, चन्द्रगप्तु , स्कंदगप्तु , िषभिधभन इत्यावद उस काल के सिोत्तम प्रवतवनवध िैं।
इसवलए लेखक ने (प्रसाद जी ने) इन्िीं व्यवक्तयों को अपने रूपकों का नायक बनाया िै।’’
इवतिास और सावित्य में अन्तर िोता िै। इवतिास में तो र्टनाओ ं का क्रमशः वििरण वदया
जाता िै अथिा िणभन वकया जाता िै, अतएि रसानभु वू त सम्भि निीं िोती। वकन्तु सावित्य में
इवतिास की र्टनाओ ं की व्याख्या की जाती िै। सावित्यकार अपनी प्रवतभा एिं रूवच के अनसु ार िी
इवतिास की र्अनाओ ं की व्याख्या उन्िें सावित्य का रूप प्रदान करता िै। प्रसादजी ने भारत के
प्राचीन इवतिास की प्रमखु र्टनाओ ं का चयन करके उनके आधार पर अपने अवधकांश नाटकों की
रचना की िै। उन्िोंने ऐवतिावसक र्टनाओ ं की मौवलकता को सरु वक्षत रखते िुए अपनी प्रवतभा के
अनसु ार उनकी व्याख्या करके अपने नाटकों की रचना की िै। ऐवतिावसक र्टनाओ ं की इस व्याख्या
में किीं-किीं देश और काल का प्रभाि स्पि रूप से देखा जा सकता िै। इवतिास को आधार बनाने
के साथ-साथ प्रसादजी अपनी समसामवयक िस्तवु स्थवत से भी प्रभावित रिे िैं। सावित्यकार की
सफलता इसी में िै वक िि प्राचीन इवतिास को चौखट (फ्रेम) बनाकर उसमें समसामवयक
समस्याओ ं तथा उनके समाधान को वचत्र के सममन समारोवपत कर सके । उदािरण के रूप में
प्रसादजी के नाटक ‘चन्द्रगप्तु ’ को वलया जा सकता िै। इसमें राष्रीयता का वचत्रण अवधक विस्तार से
िुआ िै। इसका मौवलक एिं प्रधान कारण रिा िै- भारत का आधवु नक राष्रीय आदं ोलन। ‘चन्द्रगप्तु ’

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नाटक में िम उस राष्रीय भािना एिं राष्रीय आदं ोलन की झलक पा सकते िैं। जो परतन्त्र भारत को
स्ितंत्र करने के उद्देश्य से भारतीय िीरों ने आरंभ वकया था। चन्द्रगप्तु नाटक की प्रधान स्त्री पात्र
अलका राष्रीय झडं ा लेकर देश-प्रेम की वजस भािना का प्रचार-प्रसार करने में संलग्न िै, उसमें
आधवु नक भारतीय स्ितंत्रता-सेविकाओ ं का सच्चा रूप देखा जा सकता िै। चाणक्य, वसंिरण और
चन्द्रगप्तु आपस में वजस देश-प्रेम और राष्रीय भािना पर िाद-वििद करते िैं, उसका आधार
आधवु नक स्ितत्रं ता सग्रं ाम के नायकों तथा अग्रं ेजों के वपट्ठू भारतीयों की बातचीत से वभन्न निीं िै।
चाणक्य मिात्मा गााँधी का, चन्द्रगप्तु , जिािरलाल नेिरू का और वसंिरण, सरदार पटेल का
प्रवतवनवध िै । तक्षवशला नरे श का पत्रु उन कलंवकत भारतीयों का प्रवतवनवध िै जो अग्रं ेजों के पक्षधर
थे और भारत में अग्रं ेजी राज्य स्थायी रखना चािते थे। स्कन्दगप्तु सम्पणू भ आयाभितभ की रक्षा, शावं त
एिं सम्पन्नता का उत्तरदावयत्ि ििन करता िै। यि वनवश्चत रूप से गप्तु साम्राज्य एिं शासन-काल की
बिुत बड़ी विशेषता िै। इसमें भारतीय स्ितत्रं ता-सग्रं ाम की प्रवतछवत देखी जा सकती िै। प्रसादजी
की इन ऐवतिावसक नाटकों में परू ु षेां के साथ-साथ वस्त्रयााँ भी देश की सेिा का संकल्प वलये िुए
वदखाई देते िैं। एिं परू ु षों की वचरसंवगनी बनकर प्रयत्नशील िैं। उनके मल ू में आधवु नक भारतीय
स्ितत्रं ता-सग्रं ाम की उन स्ियं सेविकाओ ं की छवि को अवं कत करना िै, वजन्िोंने परू ु षों के कंधे से
कंधा वमलाकर स्ितंत्रता-प्रावप्त के आदं ोलन भाग वलया। ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में मगध सम्राट नन्द की
मख ू भ प्रजा बौद्धों एिं िैवदकधमी ब्राह्मणों के रूप में जो संर्षभ कर रिी िै, उसके मल
ू में अग्रं ेज शासकों
िारा परतंत्र भारत में उकसाया गया विन्द-ू मवु स्लम भेद-भाि और संर्षभ िै। ‘ध्रिु स्िावमनी’ नाटक में
जो वििाि-विच्छे द और पनु विभिाि के रूप में नारी समस्याएाँ खड़ी की गई िैं, िे स्िामी दयानन्द िारा
आधवु नक भारत की नाररयों को शोचनीय दशा से उबालकर नि-जीिन प्रदान करने की र्टनाओ ं के
समान िी िैं।
प्रसादजी की नाट्य-रचनाओ ं का काल-क्रम वनम्नवलवखत िै-
(1) सज्जन सन् 1910-11,(2) कल्याणी पररणय सन् 1912, (3) करूणालय सन् 1912, (4)
प्रायवश्चत सन् 1914, (5) राज्यश्री सन् 1914, (6) विशाख सन् 1921, (7) अजातशत्रु सन् 1922,
(8) जनमेजय का नागयज्ञ सन् 1926, (9) कामना सन् 1927, (10) स्कंदगप्तु सन् 1928, (11)
चन्द्रगप्तु सन् 1928, (12) एक र्टाँू सन् 1929-30, (13) ध्रिु स्िावमनी सन् 1930,।
इनके अवतररक्त प्रसादजी ने ‘अवग्नवमत्र’ नाम से एक नाटक वलखना प्रारम्भ वकया था, वजसे िे
परू ा निीं कर सके । इसकी पाण्डुवलवप के प्रारवम्भक पृष्ठ भी अप्राप्य िैं। प्रसादजी के सपु त्रु श्री
रत्नशक ं र प्रसाद के सपं ादन में लोकभारती प्रकाशन (इलािाबाद) से प्रसाद का नाट्य- सावित्य
नामक जो ग्रंथ प्रकावशत िुआ िै, उसमें इस नाटक को अवन्तम स्थान वदया गया िै। प्रसादजी की
मृत्यु सन् 1937 में िुई। इस आधार पर इसका रचना-काल सन् 1936-37 के मध्य माना जा सकता
िै।

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डॉ. गोपाल राय ने प्रसाद जी के नाटकों के वशल्प के विषय में अपनी मान्यता इस प्रकार व्यक्त की िै-
‘‘प्रसाद जी ने नाटकों पर कई तरि के प्रभाि वदखाई पड़ते िैं। उनके सामने संस्कृ त नाट्यशास्त्र की
गौरिमयी परम्परा तो थी िी, अग्रं ेजी के प्रवसद्ध नाटककार शेक्सवपयर की कृ वतयााँ भी थी।
समकालीन बंगला नाटककार, वजनमें विजेन्द्र लाल राय प्रमख ु थे, शेक्सवपयर के नाटकों से प्रभावित
थे। प्रसाद पर इनका प्रभाि भी पड़ा था। यिी निीं, पारसी नाटक कम्पवनयों का-वजन्िें िे (प्रसाद जी)
वबल्कुल भी सिन निीं करते थे, प्रभाि भी उन पर अप्रत्यक्ष रूप से पड़े वबना न रिा। उनके
प्रारवम्भक नाटकों में गद्यात्मक िाताभलापों के बीच तक ु बन्दी, पद्यात्मक संिाद तथा नतभवकयों का
नाचते िुए प्रिेश आवद पारसी नाटकों के प्रभाि से िी आए जान पड़ते िैं। िस्तु-योजना, नायक-
पररकल्पना तथा रस-सृवि में जिााँ िे सस्ं कृ त नाटकों के वनकट प्रतीत िोते िैं, ििााँ कथािस्तु के सर्ं षभ
का समायोजन, अक ं ों का दृश्यों में विभाजन, िस्तु-संगिन एिं पात्रों की सृवि में संस्कृ त नाट्यशास्त्र
की त्रृवटयों की अििेलना उन्िें अग्रं ेजी-विशेषकर शेक्सवपयर के नाटकों के वनकट ले जाती िै। लगता
िै, बाद में इन्िोंने इब्सन और बनाभडभ शॉ से भी प्रभाि ग्रिण वकया था। ‘ध्रिु स्िावमनी’ में इस प्रभाि
की कुछ झलक देखी जा सकती िै।’’ प्रसाद जी अपने नाट्य-वशल्प के वलए चािे संस्कृ त के
भारतीय नाट्यशास्त्र से प्रभावित रिे िों, अथिा पाश्चात्य नाट्यशास्त्र और अग्रं ेजी के नाटककारों से
प्रभावित रिे िों, पर इसमें कोई सन्देि निीं िै वक प्रसाद जी ने अपनी नाट्य-रचना-शैली में मौवलकता
को सरु वक्षत रखा िै। प्रसाद जी के विषय में किा जाता िै वक उन्िोंने भारतीय एिं पाश्चात्य
नाट्यशास्त्र के वसद्धान्तों का समन्िय करके नाट्य-रचना की िै। यि समन्िय भी मौवलकता का िी
प्रतीक िै। दो परस्पर विरोधी विचारधाराओ ं का समन्िय करना भी साधारण बात निीं िै।
डॉ. मोिन अिस्थी ने प्रसाद की रचना-शैली को न वकसी से प्रभावित माना िै और न समवन्ित
स्िीकार वकया िै। िे प्रसाद की नाट्य-रचना-शैली को मौवलक वसद्ध करते िुए वलखते िैं- ‘‘प्रसाद के
नाटक न तो भारतीय नाट्यशास्त्र की कसौटी पर कसे जा सकते िैं और न पाश्चात्य नाटकों के परू े
वनयम उन पर लागू िोते िैं। भारतीय नाट्य-विधान सख ु ांत नाटक का पक्षपाती िै और पाश्चात्य
नाटकों में दःु खान्त को उत्तम समझा जाता िै, लेवकन प्रसाद के नाटक न दःु खान्त िैं, न सख ु ान्त ।
उदािरणाथभ ‘स्कन्दगप्तु ’ में स्कन्दगप्तु विजयी िोता िै और अपनी प्रेयसी देिसेना के सामने वििाि का
प्रस्ताि रखता िै। परन्तु देिसेना उसे उस मागभ से सविनय विरत कर देती िै। वफर भी िि स्कन्दगप्तु
को उसी भाि से (बवल्क उससे किीं अवधक) प्रेम करती िै। इस तरि नाटक का अन्त एक विवचत्र
वस्थवत में िोता िै। ऐसा अन्त ‘विषादान्त’ तो वनवश्चतरूपेण निीं िै, अतएि उसे ‘प्रसादान्त’ किते
िैं।’’ आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल प्रसाद जी के समकालीन आलोचक थे। शक्ु ल जी ने ‘यथातथ्यिाद’ के
प्रचार से बचकर नाट्य-रचना करने के वलए िररकृ ष्ण प्रेमी और प्रसाद जी की प्रशसं ा की िै-‘‘ इधर
यथातथ्यिाद के प्रचार से ििााँ रिा-सिा काव्यत्ि भी झिू ी भािक ु ता किकर िटाया जाने लगा िै।
यि देखकर प्रसन्नता िोती िै वक िमारे प्रसाद और प्रेमी-जैसे प्रवतभाशाली नाटककारों ने उक्त प्रिृवत्त
का अनसु रण न करके रस-विधान और शील-िैवच्य दोनों का सन्ु दर सामजं स्य रखा िै।

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2.5 सारांश
मिाकवि जयशक ं र प्रसाद के जीिन से आप पररवचत िो गए िैं। प्रसाद जी ने ऐसे समय में
सावित्य रचना आरम्भ की थी जब भारत िषभ दासता के बंधन में था। अतः उन्िोंने देश के प्राचीन
गौरि की स्मृवत से जनमानस को प्रभावित करने के वलए प्राचीन इवतिास को आधार बनाकर
सावित्य की रचना की। प्रसाद जी बिुमख ु ी प्रवतभा के धनी सावित्यकार थें उन्िोंने पद्य और गद्य दोनो
रूपों में विन्दी सावित्य की सेिा की िै। िे न के िल कवि थे और न के िल लेखक उन्िें सावित्कार
किना उवचत िोगा। प्रत्येक सफल और श्रेष्ठ सावित्यकार की एक जीिन दृवि िोती िै प्रसाद की
जीिन दृवि में राष्र प्रेम, मानिीयता, नारी के प्रवत प्रेम और सम्मान, और प्रकृ वत के प्रवत अनरु ाग की
भािना प्रमख ु िै।
विन्दी सावित्य जगत में जयशंकर प्रसाद का स्थान अप्रवतम िै। उनका उल्लेख वकए वबना
विन्दी सावित्य का इवतिास अपणू भ िै।

2.6 अभ्यास प्रश्न


प्रश्न 1. जयशक
ं र प्रसाद का जन्म कब िुआ ?
उत्तर - जयशकं र प्रसाद का जन्म काशी में माग शक्ु ल दशमी संित् 1948, अथाभत सन्
1889 में िुआ
प्रश्न 2. जयशक
ं र प्रसाद के वपता का नाम बताइए ?
उत्तर - देिी प्रसाद सािू
प्रश्न 3 प्रसाद जी के साविवत्यक जीिन का प्रारम्भ वकस पवत्रका से िुआ ?
उत्तर - इन्दू मावसक पवत्रका
प्रश्न 4. प्रसाद जी के प्रमख
ु काव्य-ग्रथं ों का नामोल्लेख वकवजए ?
उत्तर - वचत्रधार, कानन कुसमु , करूणालय, मिाराणाप्रताप का मित्त्ि , प्रेम पवथक,
झरना, आसं ,ू लिर, कामायनी
प्रश्न 5. जयशक
ं र प्रसाद की सिोत्कृ ि काव्य-कृ वत का नाम बताइए ?
उत्तर - कामायनी
प्रश्न 6. प्रसाद जी के नाटकों का नाम बताइए ?

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उत्तर - सज्जन, कल्याणी, राज्यश्री, विशाख , अजातशत्रु, कामना, स्कंदगप्तु , चन्द्रगप्तु ,
ध्रिु स्िावमनी
प्रश्न 7. प्रसाद जी के उपन्यासों के नाम बताइए ?
उत्तर - कंकाल , वततली, ईरािती(अपूण)भ
प्रश्न 8. प्रसाद जी की मृत्यु वकस सन् में िुई ?
उत्तर - 15 निम्बर 1937
प्रश्न 9. प्रसाद के वनबंध संग्रि का नाम बताइए ?
उत्तर - काव्य कला तथा अन्य वनबंध

2.7 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. प्रसाद की नाट्य कला संरचना तथा शैली तत्ि, डॉ. सजु ाता वबि
2. प्रसाद यगु ीन नाटकों में सांस्कृ वतक चेतना, डॉ. िवशि मवु न पाण्डेय
3. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ. गणपवत चन्द्र गप्तु
4. प्रसाद के नाटक, डॉ. पररमेश्वरी लाल गप्तु

2.8 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. विन्दी सावित्य का दसू रा इवतिास, डा. बच्चन वसंि
2. प्रसाद की दाशभवनक चेतना, डॉ. चक्रिती
3. प्रसाद यगु ीन नाटक, डॉ. भगिती प्रसाद शक्ु ल

2.9 हनबं धात्मक प्रश्न


1. मिाकवि जयशक
ं र प्रसाद के सम्पणू भ जीिन-िृत्त अपने शब्दों में प्रस्ततु कीवजए?
2. नाटककार प्रसाद की नाट्य-कला का वििेचन करते िुए ितभमान में उनके मित्त्ि
का प्रवतपादन कीवजए

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इकाई 3 चन्रगुप्ि : कथािस्िु, पहरिेश िथा


उद्देश्य
इकाई की रूपरे खा
3.1 प्रस्तािना
3.2 उददेश्य
3.3 'चन्द्रगप्तु ' का पररचय
3.4 'चन्द्रगप्तु ' की कथािस्तु
3.4.1 'चन्द्रगप्तु ' का पररिेश
3.4.2 'चन्द्रगप्तु ' का उद्देश्य
3.5 सारांश
3.6 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
3.7 सदं भभ ग्रथं सचू ी
3.8 उपयोगी पाि्य सामग्री
3.9 वनबंधात्मक प्रश्न

3.1 प्रस्तावना
बिुमख ु ी प्रवतभा सम्पन्न जयशंकर प्रसाद िारा रवचत नाटकों में चन्द्रगप्तु का विवशि स्थान
िै। यि प्रसाद जी की प्रोढ़ रचना िै, इसमें मौयभ कालीन भारत की संस्कृ वत का उत्कृ ि रूप वमलता िै,
साथ िी गरू ु कुलों की वशक्षा- व्यिस्था की सन्ू दर झांकी प्रस्ततु की गयी िै, इतना िी निीं इसमें
ब्राह्रमण सस्ं कृ वत, मौयभ कालीन क्षवत्रय- धमभ और राजनैवतक दृविकोण को भी उजागर वकया गया िै,
प्रसाद जी ने इस नाटक में ग्रीक एिं भारतीय संस्कृ वत का संर्षभ वचवत्रत करके अन्त में भारतीय
संस्कृ वत की श्रेष्ठता प्रवतपावदत की िै।

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3.2 उद्देश्य
विन्दी सावित्य के श्रेष्ठ नाटककार जयशक ं र प्रसाद के सभी नाटक उद्देश्यपणू भ िैं । अपने
नाटकों के उद्देश्य की ओर संकेत करते िुए ‘विशाख’ की भवू मका में उन्िोंने वलखा िै ‘ मेरी इच्छा
भारतीय इवतिास के अप्रकावशत अंश में से उन प्रमख ु र्टनाओ ं का वदग्दशभन करने की िै, वजन्िोंने
िमारी ितभमान वस्थती को बनाने का बिुत कुछ प्रयत्न वकया िै और वजन पर वक ितभमान
सावित्यकारों की दृवि कम पड़ती िै’। इससे स्पि िोता िै वक प्रसाद के नाटकों का प्रथम उद्देश्य
भारतीय इवतिास के मित्त्िपणू भ वकन्तु अप्रकावशत अशं ों का वचत्रण करना िै।
इस इकाई में चन्द्रगप्तु नाटक की कथािस्त,ु पररिेश तथा उद्देश्य पर प्रकाश डाला जाएगा,
वजससे की आप यि जान पाए की चन्द्रगप्तु की मख्ु य कथा क्या िै? िे कौन से चररत्र िै वजनके
माध्यम से नाटक की कथा सशक्त िुई िैं। इस इकाई का उद्देश्य यि भी िै आप विन्दी सावित्य के
अन्य नाटकों से भी चन्द्रगप्तु नाटक की तल ु ना कर सकें । और जान सकें की िे कौन से तत्ि िैं
वजन्िोंने इस नाटक को विन्दी सावित्य भी अमर कृ वत बना वदया िै।

3.3 चन्रगुप्त का पहरचय


विन्दी सावित्य के मिान सावित्यकार जयशक ं र प्रसाद ने भारतीय गौरिपणू भ इवतिास की पिू भ
पीविका के आधार पर एक ऐसा नाटक की रचना की िै जो ग्रीक सस्ं कृ वत, भारतीय सस्ं कृ वत की
उदान्तता का दशभन कराती िै। चन्द्रगप्तु नाटक बालक चन्द्रगप्तु का कथा निीं िैं एक ऐसे यिु ा चन्द्रगप्तु
की कथा िै जो सम्पणू भ भारत िषभ को एकता के सत्रू में बंधा िुआ देखना चािता िै, यि नाटक गरू ु
चाण्क्य की कथा िै वजसने अपने वशष्य को संस्काररत करके देश के वलए आत्मोत्सगभ करने के वलए
तत्पर कराया िै, कथा में प्रेम की वदव्य धारा भी प्रिािमान िै, इस प्रकार यि नाटक देश प्रेम ि
आवत्मक प्रेम का अनिू ा स्िरूप भी प्रस्ततु करता िै।

3.4 चन्दगुप्त की कथावस्तु


यि परू ा नाटक चार अक ं ों में समाप्त िो रिा िै। पिले अक
ं में ग्यारि, दसू रे अक
ं में दस, तीसरे
अक
ं में नौ और चौथे अक
ं में चौदि दृश्य िैं। इस प्रकार नाटक चिालीस दृश्यों में परू ा िोता िै।
प्रथम अकं का प्रथम दृश्य तक्षवशला के गरुु कुल से आरम्भ िोता िै। अपनी वशक्षा परू ी करने
के पश्चात चाणक्य ििााँ अध्यापन का कायभ कर रिे िैं। दृश्य के आरम्भ में चाणक्य और मालिगण-
मख्ु य कुमार वसंिरण परस्पर बातें कर रिे िैं। इस िाताभलाप के मध्य वसंिरण तक्षवशला में चल रिे उस
षड़यन्त्र की ओर सक ं े त करता िै, जो भविष्य में सम्पणू भ भारत के वलए भयानक वसद्ध िो सकता िै।
उसी समय तक्षवशला का यिु राज आम्भीक अपनी बिन अलका के साथ ििााँ आ पिुचाँ ता िै और

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उस िाताभलाप के कुछ अश ं को सनु कर उत्तेवजत िो उिता िै। आम्भीक और वसिं रण में कटु वििाद
िोता िै और आम्भीक अपनी तलिार वनकाल लेता िै। उसी समय चन्द्रगप्तु , ििााँ पिुचाँ कर आम्भीक
को वसंिरण पर आक्रमण करने से रोक देता िै। अलका भी अपने भाई को समझाती िै। चाणक्य की
आज्ञा से अलका आम्भीक को ििााँ से ले जाती िै। चाणक्य बाद में वसंिरण और चन्द्रगप्तु को भी
तक्षवशला छोड़ देने का आदेश देता िै। बाद में अलका भी वसंिरण से तरु न्त तक्षवशला छोड़कर चले
जाने का आग्रि करती िै। वितीय दृश्य मगध में मगध-सम्राट नन्द के विलास-कानन से आरम्भ िोता
िै। विलासी यिु क-यिु वतयों का दल ििााँ वििार कर रिा िै। राक्षस और सिु ावसनी ििााँ आते िैं।
सिु ावसनी के गायन को सनु कर नन्द उसे अपनी अवभनयशाला की रानी बनाता िै और राक्षस को
अपना अमात्य वनयक्त ु कर देता िै। सिु ावसनी राक्षस से किती िै वक िि उसकी अनचु री िी बनी
रिना चािती िै, नन्द के विलास का साधन निीं बनना चािती। तृतीय दृश्य में चाणक्य पाटवलपत्रु
नगर में अपने वपता और उनकी झोपड़ी को खोजता वदखाई देता िै। एक नागररक से उसे ज्ञात िोता िै
वक नन्द ने उसके वपता की िृवत्त छीनकर उन्िें नगर से वनष्कावसत कर वदया था। ििी बताता िै वक
नन्द ने शकटार को पररिार-सवित कारागार में डाल वदया था। ििीं उन सबकी भख ू -प्यास से तड़प-
तड़पकर मृत्यु िो गई। यि सनु कर चाणक्य दःु ख और क्षोभ से भर जाता िै। चतथु भ दृश्य में राक्षस और
सिु ावसनी बातें करते वदखाई पड़ते िैं। राक्षस राजकोप के भय से सिु ावसनी को अपना लेने में संकोच
करता िै। इसी दृश्य में चन्द्रगप्तु मगध की राजकुमारी कल्याणी की एक चीते से रक्षा करके उसे अपना
कृ तज्ञ और अनरु क्त बना लेता िै। पााँचिे दृश्य में नन्द की राजसभा में चाणक्य नन्द से पंचनद-नरे श
पिभतेश्वर की सिायता करने का आग्रि करता िै। चन्द्रगप्तु चाणक्य का समथभन करता िै, परन्तु नन्द
सिायता करने से इक ं ार कर देता िै, क्योंवक पिभतेष्िर ने कल्याणी के साथ वििाि करने से मना करके
नन्द का अपमान वकया था। इस पर चाणक्य क्रुद्ध िो उिता िै। नन्द उसकी वशखा पकड़कर
र्वसटिाता िै और वफर बंदी बना लेता िै। चाणक्य नन्दिश ं का नाश करने की प्रवतज्ञा करता िै। छिे
दृश्य में, वसन्धु तट पर अलका वसन्ध-ु देश की कुमारी मालविका से वमलती िै। अलका के िाथ में
एक मानवचत्र िै। सिसा एक यिन सैवनक ििााँ आ पिुचाँ ता िै और अलका के िाथ से बलात्
मानवचत्र छीनने का प्रयत्न करने लगता िै। उसी समय वसिं रण ििााँ पिुचाँ कर यिन को र्ायल करके
भगा देता िै और उस मानवचत्र को लेकर मालविका के साथ नाि में बैिकर ििााँ से चला जाता िै।
यिन सैवनक अन्य सैवनकों के साथ लौटकर अलका को बन्दी बना लेता िै। सप्तम दृश्य में, मगध के
बन्दीगृि में राक्षस और िररुवच (कात्यायन) चाणक्य से वमलने आते िैं। राक्षस उसे पिभतेश्वर का
विरोध करने के वलए पंचनद को भेजना चािता िै, और िररुवच उससे अपना िावतभक परू ा कराने में
सिायता की याचना करता िै। चाणक्य दोनो काम करने से इक ं ार कर देता िै। इसी समय चन्द्रगप्तु
ििााँ पिुचाँ कर बलपिू क भ चाणक्य को बंदीगृि से छुड़ाकर ले जाता िै। आििें दृश्य में, अलका
िवन्दनी के रुप में में गधं ार-नरे श के सामने लाई जाती िै। वपता उसे मक्तु कर देते िैं। िि गधं ार को
छोड़कर आयाभित्तृ की ओर चल पड़ती िै। गधं ार-नरे श भी पत्रु आम्भीक को सारा राज-काज सौंपकर
पत्रु ी की खोज करने वनकल जाते िैं। निम दृश्य में, चाणक्य पिभतेश्वर की सभा में पिुचाँ कर उससे

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मगध में विद्रोि कराने में सिायता मााँगता िै। पिभतेश्वर एक प्रकार से उसका अपमान करता िै और
चाणक्य क्षवु भत िोकर ििााँ चला जाता िै। दशम दृश्य में, अलका और वसल्यूकस की भेंट िोती िै।
प्यास से व्याकुल और मवू छभ त चन्द्रगप्तु की एक व्याघ्र से रक्षा करके वसल्यक ू स उसे अपना कृ तज्ञ
बनाकर अपने यिााँ आमवं त्रत करता िै। चाणक्य और चन्द्रगप्तु उसके वशविर में कभी आने का िचन
देते िैं। इन दोनों को वसल्यक
ू स के साथ प्रेमपिू क
भ बातें करते देखकर अलका इन दोनों पर सन्देि करने
लगती िै और मिात्मा दाडं ् यायन के आश्रम में चली जाती िै। एकादश दृश्य में, मिात्मा दाडं ् यायन
के आश्रम में चाणक्य, चन्द्रगप्तु , अलका, वसकन्दर, वसल्यक ू स आवद एकत्र िोते िैं। वसकन्दर चन्द्रगप्तु
का पररचय प्राप्त करता िै। वफर जैसे िी वसकन्दर अपनी भारत-विजय की आकांक्षा व्यक्त करता िै,
मिात्मा दांड्यायन उसे सािधान करते िुए चन्द्रगप्तु की ओर सक ं े त करके किते िैं वक यि भारत का
भािी सम्राट बैिा िुआ िै। यि सनु कर सब स्तब्ध रि जाते िैं। इस प्रकार इस अक ं में गांधार से लेकर
मगर् तक की राजनीवतक पररवस्थवत पणू तभ या स्पि िो जाती िै।
वितीय अक ं में दस दृश्य िैं। प्रथम दश्य में, वसल्यक
ू स की पत्रु ी कानेवलया भारत की शोभा का
िणभन करती िै। वसकन्दर का एक क्षत्रप वफवलप्स उसके पास आकर उससे प्रणय-वनिेदन करता िै।
कानेवलया िारा फटकार वदए जाने पर िि उसे जबरदस्ती पकड़ना चािता िै। तभी चन्द्रगप्तु ििााँ
पिुचाँ कर कानेवलया को बचा लेता िै। इससे कानेवलया चन्द्रगप्तु के प्रवत आकृ ि िोती िै। वितीय दृश्य
में, वसकन्दर चन्द्रगप्तु से किता िै वक िि मगध के विरुद्ध उसकी सिायता करे । चन्द्रगप्तु ऐसा करने से
इकं ार कर देता िै। इस पर वसकन्दर उसे बन्दी बनाने का आदेश देता िै। आम्भीक, वफवलप्स,
एवनसावक्रटीज चन्द्रगप्तु को बन्दी बनाने का प्रयास करते िैं, परन्तु चन्द्रगप्तु तलिार खींच-कर उन
तीनों की र्ायल करता िुआ वनकल जाता िै। तृतीय दृश्य में, झेलम के तट पर जंगल में चाणक्य,
चन्द्रगप्तु और अलका भविष्य के कायभक्रम पर विचार करते िैं। गाधं ार-नरे अपनी वबछुड़ी पत्रु ी
अलका को खोजते िुए ििीं आ वनकलते िैं। कल्याणी परुु ष-िेश में परुु की सिायताथभ मगध की एक
सैवनक टुकड़ी के साथ ििीं उपवस्थत िै। िि भािी यद्ध ु में संकट के समय पिभतेश्वर की सिायता
करके उसे नीचा वदखाने के उद्देष्य से ििााँ आई िै। वसिं रण, अलका और चन्द्रगप्तु बाजीगरों का िेश
धारण वकए िुए ििााँ पिुचाँ जाते िैं। उन पर आम्भीक के अनुचर िोने का संदिे करके उन्िें वगरर्फतार
कर वलया जाता िै। चतथु भ दृश्य में, वसकन्दर और पिभतेश्वर के यद्ध ु का दृश्य सामने आता िै। पिभतेश्वर
वसल्यक ू स को र्ायल करके बड़ी िीरता के साथ लड़ता रिता िै। उसकी िीरता पर मग्ु ध िोकर
वसकन्दर उसके सम्मख ु वमत्रता का प्रस्ताि रखता िै, वजसे पिभतेश्वर स्िीकार कर लेता िै। चन्द्रगप्तु
इसका विरोध करता िै, परन्तु पिभतेश्वर निीं मानता। यि देखकर कल्याणी क्षब्ु ध िोकर अपना
वशरस्त्राण फें क देती िै। जब पिभतेश्वर को यि ज्ञात िोता िै वक िि मगध की राजकुमारी िै, तो िि
स्तब्ध-सा खड़ा रि जाता िै। पंचम दृश्य में, चन्द्रगप्तु और मालविका वमलते िैं। चाणक्य उन दोनों को
स्नेिालाप करता देखकर चन्द्रगप्तु को सािधान करता िै वक यि प्रेमालाप करने का अिसर निीं िै।
छिे दृश्य में, वसंिरण और अलका बंदीगृि में वदखाई देते िैं। पिभतेश्वर ने उन दोनों को बन्दी बना रखा

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िै। िि अलका को अपनी रानी बनाना चािता िै। अलका इन शतों के साथ उसकी रानी बनना
स्िीकार कर लेती िै वक वसकन्दर िारा मालि गणराज्य पर वकए जाने िाले आक्रमण में पिभतेश्वर
वसकन्दर की सिायता निीं करे गा तथा देश-रक्षा के वलए वसंिरण को मक्त ु कर देगा। पिभतेश्वर उसकी
इन दोनों शतो को स्िीकार कर लेता िै। सप्तम दृश्य में, मालि गणराज्य की यद्ध ु पररषद् विचार-
विमशभ करती वदखाई देती िै। ििााँ कुछ आरवम्भक विरोध के बाद चाणक्य और वसंिरण िारा आग्रि
वकए जाने पर चन्द्रगप्तु को, वसकन्दर के विरुद्ध लड़ने िाली मालि-सेना का प्रधान सेनापवत बना
वदया जाता िै। अिम दृश्य में, िम पिभतेश्वर को वचवन्तत देखते िैं। वसकन्दर ने उसे दस िजार सैवनकों
सवित रािी-तट पर वमलने के वलए बल ु ाया िै। जब पिभतेश्वर अलका को वदए गए अपने िचन की
उपेक्षा करके एक िजार सैवनकों सवित ििााँ से जाने का वनश्चय करता िै, तो अलका उसके राजमिल
से भाग वनकलती िै। निम दृश्य में, मालविका, चन्द्रगप्तु और वसंिरण से वमलती िै। यि तय वकया
जाता िै वक शत्रु को उसी की नीवत अपनाकर परावजत वकया जाएगा। दशम दृश्य में, राक्षस और
कल्याणी मगध लौट जाने को उत्सक ु वदखाई देते िैं। चाणक्य कूटनीवत का प्रयोग करके राक्षस को
मगध लौटने से रोक देता िै। िि राक्षस के पास यि सचू ना पिुचाँ िा देता िै वक, मगध में नन्द राक्षस
और सिु ावसनी के प्रेम-सम्बन्ध के कारण राक्षस से बिुत नाराज िै, इसवलए इस समय उसका मगध
लौटना संकट को आमत्रं ण देना वसद्ध िोगा। मालि-दगु भ पर यिन-सेना आक्रमण करती िै। वसंिरण
वसकन्दर को यद्ध
ु में र्ायल करके छोड़ देता िै। दसू री तरफ चन्द्रगप्तु वसल्यक ू स को छोड़ देता िै।
यिन सेना परावजत िो जाती िै। वसकन्दर मालि के साथ सवन्ध कर लेता िै।
तृतीय अक ं में नौ दृश्य िैं। प्रथम दृश्य में, चाणक्य के चर राक्षस को यि सचू ना देते िैं वक नन्द ने
सिु ावसनी को कै द कर वलया िै और उसे भी बन्दी बनाया जाने िाला िै। मगध के सैवनक बने लोग
राक्षस को भी बन्दी बना लेते िैं, वकन्तु चाणक्य िारा वनयक्त ु राक्षस के अगं -रक्षक राक्षस को उनसे
छुड़ा लेते िैं। वसंिरण और अलका के वििाि का आयोजन िोता िै, वजसमें राक्षस को आमवं त्रत
वकया जाता िै। वसकन्दर भी उस उत्सि में सवम्मवलत िोने िाला िै। वितीय अक ं में, पिभतेश्वर
आत्मित्या करना चािता िै, वकन्तु चाणक्य समय पर पिुचाँ कर उसे ऐसा करने से रोक लेता िै।
चन्द्रगप्तु और कानेवलया परस्पर बातें कर रिे िैं। उस समय वफवलप्स ििााँ आता िै और कानेवलया
को लेकर उसमें और चन्द्रगप्तु में िाद-वििाद िोने लगता िै। वफवलप्स चन्द्रगप्तु से िन्ि-यद्ध ु करने की
इच्छा प्रकट करता िै। चन्द्रगप्तु किता िै वक िि जब चािे उससे िन्ि-यद्ध ु करने को प्रस्ततु िै।
चाणक्य सिु ावसनी को कारागार से मक्त ु कराने का लालच देकर राक्षस से उसकी मद्रु ा ले लेता िै।
तृतीय दृश्य में, वसकन्दर भारत से प्रस्थान करता िै। सब लोग उसे सद्भािनापिू क भ विदा कर देते िैं।
चतथु भ अक ं में, राक्षस को यि ज्ञात िो जाता िै वक सिु ावसनी को बन्दी बनाए जाने की बात गलत
थी। िि चाणक्य के षड़यन्त्र को समझ जाता िै वक िि उसकी मद्रु ा से उसके विरुद्ध कोई चाल चलने
िाला िै। चाणक्य पिभतेश्वर को यि िचन देकर मगध के विरुद्ध तैयार करता िै वक, सफलता वमल
जाने पर उसे आधे साम्राज्य का स्िामी बना वदया जाएगा। पिभतेश्वर सिायता करने को प्रस्ततु िो

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जाता िै।पचं म दृश्य में, नन्द सिु ावसनी के साथ बलात् प्रेम करने का प्रयत्न करता िै, तभी राक्षस ििााँ
आ जाता िै। नन्द लवज्जत िोकर सिु ावसनी को छोड़ देता िै। षष्ठ दृश्य में, चाणक्य मालविका को
राक्षस की मद्रु ा के साथ एक पत्र देता िै। राक्षस और सिु ावसनी का वििाि िोने िाला िै। मालविका
नतभकी के रुप में उस पत्र को नन्द के पास पिुचाँ ाने के वलए चल देती िै। इसी बीच चाणक्य एक सरु ं ग
से शकटार को एक नर-कंकाल के रुप में बािर वनकलता देखता िै। उसके सात पत्रु बन्दीगृि में
तड़पकर मर चक ु े िैं। िि उन्िीं की िड्वडयों से सरु ं ग खोदकर बािर वनकला िै। चाणक्य उसकी गाथा
सनु कर नन्द से प्रवतशोध लेने की बात किकर शकटार को अपने साथ ले जाता िै। सप्तम दृश्य में,
नन्द िरुवच, सेनापवत मौयभ की पत्नी (चन्द्रगप्तु की माता) और मालविका को बन्दी बना लेता िै।
राक्षस और सिु ावसनी को भी उस समय बन्दी बनाने की आज्ञा देता िै, जब िे दोनों वििाि-िेदी पर
बैिे िुए थे। अष्ठम दृश्य में, सचू ना वमलती िै वक चन्द्रगप्तु ने िन्ि-यद्ध
ु में वफवलप्स का िध कर डाला
िै। चाणक्य अपने आदवमयों की सिायता से बन्दीगृि से बंद सेनापवत मौयभ, उसकी पत्नी, शकटार,
िररुवच आवद सभी को बािर वनकाल लाता िै। चाणक्य पिभतेश्वर को समझाता िै वक वजस समय
चन्द्रगप्तु नगर के भीतर विद्रोि आरम्भ करे , िि नगर-िार पर बािर से आक्रमण कर दे। निम दृश्य में,
राक्षस और सिु ावसनी बदं ी रुप में नन्द की सभा में प्रस्ततु वकए जाते िैं। राक्षस चाणक्य िारा उसके
नाम से भेजे गए जाली पत्र को सनु कर स्तब्ध रि जाता िै, परन्तु स्ियं को वनदोष प्रमावणत निीं कर
पाता। नन्द इन दोनों को दण्ड सनु ा िी रिा िै वक चन्द्रगप्तु सैवनकों सवित सभा में पिुचाँ कर नन्द को
बन्दी बना लेता िै। ििााँ उपवस्थत सब लोग उसे सम्राट र्ोवषत कर देते िैं।
चतथु भ अक ं सबसे बड़ा अक ं िै। इसमें चौदि दृश्य िैं। प्रथम दृश्य में, शराब के नशे में मदमस्त
बना िुआ पिभतेश्वर कल्याणी को जबरदस्ती अपनी रानी बनाने का प्रयत्न करता िै। उसी समय
कल्याणी छुरी मारकर उसका िध कर डालती िै। बाद में कल्याणी स्ियं भी आत्मित्या कर लेती िै।
इससे चाणक्य के कथनानुसार चन्द्रगप्तु के मागभ की दो बाधाएाँ दरू िो जाती िैं। वितीय अंक में, यि
सचू ना वमलती िै वक राक्षस चन्द्रगप्तु से प्रवतशोध लेने का प्रयत्न कर रिा िै। िि कल्याणी की मृत्यु
को आधार बनाकर प्रजा को चाणक्य तथा चन्द्रगप्तु के विरुद्ध भड़काने की योजना बनाता िै। तृतीय
दृश्य में, विजयोत्सि मनाने की तैयाररयााँ की जा रिी िैं, परन्तु चाणक्य विजयोत्सि न मनाने का
आदेश देता िै। इससे रुि िोकर चन्द्रगप्तु के माता-वपता राज्य छोड़कर चले जाते िैं। राक्षस इस
वस्थवत से लाभ उिाने का प्रयत्न करता िै। चतथु भ दृश्य में, चाणक्य का आदेश पाकर मालविका
चन्द्रगप्तु को रावत्र-शयन के वलए एक दसू रे शयनागार में भेजकर स्ियं चन्द्रगप्तु के िस्त्र पिनकर
उसकी शय्या पर सो जाती िै। चाणक्य को यि सचू ना वमल चक ु ी थी वक आज षडयत्रं कारी रावत्र में
चन्द्रगप्तु का िध करने का प्रयत्न करें ग।े रावत्र में िे लोग चन्द्रगप्तु के धोखे में मालविका की ित्या कर
डालते िैं। यि देखकर चन्द्रगप्तु को िास्तविकता का ज्ञान िो जाता िै। पिले िि विजयोत्सि न मनाने
के प्रश्न को लेकर चाणक्य से नाराज िो गया था। इस बात का बिाना बनाकर चाणक्य चन्द्रगप्तु से रुि
िो जाने का अवभनय करके पवश्चमोत्तर प्रदेश चला जाता िै। षष्ठ दृश्य में, िम चाणक्य को िररुवच

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(कात्यायन) के साथ वसन्ध-ु तट पर एक पणभकुटीर में बातें करते पाते िैं। आम्भीक सिायता मााँगने के
वलए चाणक्य के पास आता िै, क्योंवक सचू ना वमली िै वक यिन शीघ्र िी भारत पर पनु ः आक्रमण
करने िाले िैं। ििीं आम्भीक और वसंिरण देश की रक्षा करने की शपथ लेते िैं। सप्तम दृश्य में, राक्षस
कानेवलया के वशक्षक के रुप में उसे पढ़ाता वदखाई देता िै, परन्तु कानेवलया उससे और निीं पढ़ना
चािती। (चन्द्रगप्तु से प्रवतषोध लेने के वलए िी राक्षस कानेवलया के वपता यिन-आक्रमणकारी
वसल्यक ू स के यिााँ रिने लगा था।) वसल्यक ू स कानेवलया को बताता िै वक चाणक्य चन्द्रगप्तु से नाराज
िोकर मगध छोड़कर चला आया िै, इसवलए अब भारत पर सफलतापिू क भ अवधकार वकया जा
सकता िै। अिम दृश्य में, ज्ञात िोता िै वक चाणक्य चन्द्रगप्तु के मागभ को परू ी तरि वनष्कंटक बनाकर
राज-कायभ राक्षस को सौंपकर स्ियं तप करना चािता िै। जब चाणक्य सिु ावसनी को अपना यि
वनश्चय सनु ाता िै तो िि सनु कर अिाक् रि जाती िै। निम दृश्य में, िम चन्द्रगप्तु भािी यद्ध ु के वलए
उद्यत देखते िैं। िि चाणक्य और वसिं रण की अनपु वस्थवत में स्ियं प्रधान-सेनापवत का दावयत्ि
वनभाने की र्ोषणा करता िै। यि र्ोषणा िि वसद्ध करने के वलए करता िै वक िि उनके वबना भी
काम चला सकता िै। सिु ावसनी बवन्दनी के रुप में यनू ानी वशविर में पिुचाँ ती िै, और कानेवलया
उसकी बातों पर मग्ु ध िोकर उसे अपनी सिेली बना लेती िै। वसल्यक ू स और कानेवलया में परस्पर
इस आक्रमण के सम्बन्ध में िाताभलाप िोता िै। दशम दृश्य में, चाणक्य वसंिरण को अपनी रणनीवत
की योजना बताता िै। इसी दृश्य में वसल्यक ू स और चन्द्रगप्तु की भेंट िोती िै। यद्ध ु आरम्भ िो जाता
िै। यद्ध
ु में वसल्यक ू स के साथ यद्धु करते िुए आम्भीक की मृत्यु िो जाती िै। वसल्यक ू स र्ायल िो
जाता िै। समय पर पिुचाँ कर वसंिरण चन्द्रगप्तु की सिायता करता िै। एकादश दृश्य में, यनू ानी-वशविर
के एक भाग में राक्षस और सिु ावसनी की भेंट िोती िै। राक्षस सिु ावसनी को अपने साथ ले जाता िै।
अन्त में यद्ध
ु में वसल्यक ू स की पराजय िोती िै। िादष दृश्य में, चाणक्य वसल्यक ू स के पास यि सचू ना
पिुचाँ िा देता िै वक वसल्यक ू स की अनपु वस्थवत में उसके प्रवतिन्िी औवन्टगोनस ने उसके राज्य पर
आक्रमण कर वदया िै। यि सनु कर वसल्यक ू स वििश िोकर चन्द्रगप्तु के साथ संवध करने को तैयार िो
जाता िै। संवध की एक शतभ यि भी िै वक कानेवलया का चन्द्रगप्तु के साथ वििाि कर वदया जाए। इस
सम्बन्ध में वसल्यक ू स िारा पछ
ू े जाने पर कानेवलया अपनी मौन-स्िीकृ वत दे देती िै। वसल्यक ू स भी
स्िीकार कर लेता िै। तेरििें दृश्य में, चाणक्य मिात्मा दांड्यायन के आश्रम में ध्यानस्थ बैिा वदखाई
देता िै। उसी समय चन्द्रगप्तु का वपता मौयभ सेनापवत चाणक्य की ित्या करने के वलए तलिार उिाता
िै वकन्तु चन्द्रगप्तु िीक समय पर ििााँ पिुक ाँ र वपता को रोक देता िै। चाणक्य मौयभ को क्षमा कर देता िै
और राक्षस को अमात्य पद सौंप देता िै। िि राक्षस से सिु ावसनी को सख ु ी रखने का आग्रि करता
िै। वफर सब लोग वसल्यक ू स की अभ्यथभना करने की तैयारी करने लगते िैं। चौदििें दृश्य में, राज्य-
सभा में यनू ानी और भारतीय दोनों पक्षों के प्रमख ु व्यवक्त उपवस्थत िैं। चन्द्रगप्तु वसल्यकू स से किता िै
वक िि औवन्टगोनस के विरुद्ध वसल्यक ू स की सिायता करे गा। वसल्यक ू स चाणक्य के दशभन करने की
इच्छा व्यक्त करता िै, परन्तु चाणक्य अकस्मात् राज-सभा में आ जाता िै और वसल्यक ू स से आग्रि
करता िै वक िि कानेवलया का चन्द्रगप्तु के साथ वििाि कर दे। वसल्यक ू स उसके आग्रि को स्िीकार

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करके चन्द्रगप्तु और कानेवलया के िाथ वमला देता िै। तभी फूलों की िषाभ और जय-ध्िवन िोती िै।
चाणक्य मौयभ सेनापवत का िाथ पकड़कर सन्यास ग्रिण करने चला जाता िै।
3.4.1 चन्रगुप्त का पररवेश -
‘चन्द्रगप्तु ’ प्रसाद का ऐवतिावसक नाटक िै। ऐवतिावसक नाटकों में पररिेश अथिा
संकलनत्रय के वनिाभि पर पणू भ ध्यान अपेवक्षत िै, अन्यथा नाटक की ऐवतिावसकता नि िो जाती िै।
देशकाल अथिा िातािरण, वचत्रण का मल ू अवभप्राय िै वक नाटककार अपने नाटक में वजस देश-
प्रदेश और वजस यगु की कथा कि रिा िै, उसका एक साकार और सजीि-सा वचत्र अवं कत कर
दें।उस कथा को, पढते या, उसे रंग मचं पर अवभनीत िोते देख पािक या दशभक अपने ितभमान को
भल ू मानवसक रूप से उसी देश और यगु में विचरण करने लगे। इसके वलए नाटककार को उस देश
और यगु की राजनैवतक, धावमभक, सामावजक आवद वस्थवतयों के खण्ड, वचत्र प्रस्ततु करने पडते
िैं।ििााँ के समाज के रिन-सिन, रीवत- ररिाज, तीज-त्योिार, भाि-विचार, आवद का पररचय देना
पडता िै। भाषा और शैली भी ऐसी रखनी पडती िै जो प्राचीनतः की झलक दें। साथ िी इस बात का
भी ध्यान रखना पडता िै वक उसमें कोई ऐसी बात या िणभन न आ जाए जो उस देश और यगु के
प्रवतकूल प्रतीत िो। इस सबके वनिाभि पर िी नाटक की सफलता- असफलता वनभभर करती िै।
‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में संकलन त्रय अथिा देश काल के वनिाभि का पणू भ ध्यान रखा गया िै इसमें
वनम्नवलवखत विशेषताएं विद्यमान िैं-
पररहस्थहतयााँ - ‘चन्द्रगप्तु ’ के सक
ं लनत्रय अथिा देशकाल के अध्ययन से पिू ,भ
पररवस्थवतयों का ज्ञान आिश्यक िै क्योंवक पररवस्थवतयॉ िी देशकाल की ओर इवं गत करती िै।
राजनीहतक पररहस्थहत- राजनीवतक दृवि से चन्द्रगप्तु का समय पारस्पररक िैमनस्य, ईष्याभ, फूट और
क्षगडों का
े़ था। नाटक के प्रारम्भ में िी वसंिरण के कथन से स्पि िोता िै-‘‘उत्तरापथ के खण्ड-राज्य
िेष से जजभर िैं।’’ राजा नन्द विलासी था, जो सरु ा-सन्ु दरी में डूबा रिता था। राजा नन्द और पिभतेश्वर
का विरोध था। तक्षवशला का राजकुमार शत्र-ु पक्ष (यिनों) का समथभन करता िै। छोटे-छोटे अनेक
गणतन्त्र शासक थे परन्तु उनका वमलना सरल निीं था। डॉ. शावन्तस्िरूप गप्तु के शब्दों में-‘‘उस
समय देश में दो प्रकार की शासन पिवत थी- राजन्त्र और गणतन्त्र। राष्रीयता की भािना के िल प्रान्त
या प्रदेश की पररवध तक सीवमत थी।............ गणतंत्रों की वस्थती राजतन्त्रों की अपेक्षा अवधक
अच्छी थी। गगग गणतन्त्रीय शासन पिवत में प्रजा-जनों की सम्पवत्त का अवधक मान था और प्रजा
के अवधकार भी सरु वक्षत थे। गगग राजतन्त्रों के शासक भोग-विलास वलप्त रिकर न के िल स्ियं
क्षीण िो िे थे अवपतु नागररकों को भी पथभ्रि कर रिे थे। यद्यवप प्रजा के ह्रदय में राजा का आतं क
छाया रिता था, पर सच्चा स्नेि, श्रिा और सम्मान का भाि न था।’’ कल्याणी के शब्द इसी पर
प्रकाश डालते िैं-‘‘मैं देखती िूाँ वक मिाराज से कोई स्नेि निीं करता, डरते भले िी िों। प्रचण्ड

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शासन करने के कारण उनका बड़ा दनु ाभम िै।’’ इस प्रकार ‘चन्द्रगप्तु ’ में राजनीवतक वस्थवत का यथाथभ
रूप उभरा िै वसससे उस समय के िातािरण का सिज िी ज्ञान प्राप्त िो जाता िै।
सामाहजक पररहस्थहत - सामावजक दृवि से चन्द्रगप्तु का समय अशावन्त और पारस्पररक कलि से
मक्त
ु था। देश चार िणो- ब्राह्मण , क्षवत्रय, िैश्य, शद्रू मे विभक्त था। ब्राह्मण और क्षवत्रयों में
पारस्पररक ईष्याभ, िेष ि संर्षभ का भाि सदैि रिता था। क्षवत्रय आम्भीक ब्राह्मण चाणक्य को
अपमावनत करता िै तो क्षवत्रय नन्द ब्राह्मण नाम से िी र्ृणा करता िै। ब्राह्मण िोने के कारण िी
शकटार के पत्रु ों का िध नन्द िारा करिाया गया। इतना िी निीं, िि चाणक्य के वपता चणक को
मगध से वनिाभवसत कर देता िै और उसका ब्रिमस्ि बौि वििार में दे देता िै। ब्राह्मण शब्द सनु कर
नन्द कि उिता िै-‘‘ ब्राह्मण !! वजधर देखो कृ त्य के समान इनकी शवक्त-ज्िाला धधक रिी िै।’’
ब्राह्मण िोने के कारण िी नन्द चाण्क्य का अपमान करता िै और अन्त में उसकी वशखा पकडिाकर
प्रवतिारी िारा बािर वनकलिा देता िै। क्षवत्रय और शद्रू ों का िेष भी दृविगत िोता िै। पिभतेश्वर नन्द
को शद्रू समझता िै। इसीवलए िि उसकी पत्रु ी कल्याणी से वििाि करना अस्िीकार कर देता िै।
अतः स्पि िै वक तत्कालीन समाज की वस्थती अत्यवधक सोचनीय और कलिपणू भ थी।
धाहमिक पररहस्थहत - धावमभक दृवि से देश में बौि और ब्राह्मण धमभ का बोलबाला थ। दोनों धमो में
विरोध था। अमात्य राक्षस बौि धमभ का अनयु ायी था तो चाणक्य ब्राह्मण धमभ का समथभक। राक्षस
का मत था-‘‘के िल सद्धमभ की वशक्षा िी मनष्ु य के वलए पयाभप्त िै! और िि तो मगध में िी वमल
सकती िै।’’ इसके विपरीत चाणक्य का विचार था-‘‘ परन्तु बौि धमभ की वशक्षा मानि व्यििार के
वलए पणू भ निीं िो सकती। भले िी िि संर् वििार में रिने िालों के वलए उपयक्त ु िो।’’ चाणक्य के
अनसु ार-‘‘ राष्र का शभु वचन्तन के िल ब्राह्मण िी कर सकते िैं।’’ उस समय धमभ के नाम पर जनता
नचाई जा रिी थी । शासक अपना स्िाथभ वसि करने िेतु जनता में धमभ के नाम पर परस्पर संर्षभ कर
देते थे। नन्द के सम्बन्ध में ब्रिमचारी का कथन दशभनीय िै-‘‘ िि वसिान्त वििीन, नृशसं , कभी बौिों
का पक्षपाली, कभी िैवदकों का अनयु ायी बनकर दोनों में भेदनीवत चलाकर बल-संचय करता रिता
िै। मखू भ जनता धमभ की ओट में नचाई जा रिी िै।’’ अतः स्पि िै वक तत्कालीन धावमभक वस्थवत भी
िेय थी।
प्रसाद ने चन्द्रगप्तु नाटक में विवभन्न पररवस्थवतयों का सांगोपांग वचत्रण करते िुए देशकाल
तथा िातािरण का यथाथभ रूप प्रस्ततु वकया िै। स्थान एिं काल के अक ं न के साथ-साथ प्रसाद ने
कायभ व्यापार का भी परू ा-’परू ा ध्यान रखा िै। उन्िोंने प्रमख ु रूप में तत्कालीन राजनीवत के झााँकी
प्रस्ततु की िै वजसके साथ- साथ धावमभक और सामावजक िातािरण स्ितः मख ु र िो गया िै। प्राचीन
ऐवतिावसक नामों का उल्लेख करते िुए प्रसाद ने एक और ऐवतिावसकता की रक्षा की िै तो दसू री
और िातािरण में प्राचीनता की झलक वमलती िै।

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3.4.2 चन्रगुप्त का उद्देश्य
प्रत्येक रचना के प्रणयन में रचनाकार का कोई न कोई उद्देश्य अिश्य सवन्नवित रिता िै।
कुछ रचनाओ ं में एक उद्देश्य रिता िै, कुछ में एक से अवधक। विन्दी सावित्य के श्रेष्ठ नाटककार श्री
जयशक ं र ‘प्रसाद’ के सभी नाटक उद्देश्यपणू भ िैं। अपने नाटकों के उद्देश्य की ओर संकेत करते िुए
प्रसाद ने ‘विशाख’ की भवू मका में वलखता िै-‘‘मेरी इच्छा भारतीय इवतिास के अप्रकावशत अश ं में
से उन प्रकाण्ड र्टनाओ ं का वदग्दशभन करने की िै, वजन्िोंने िमारी ितभमान वस्थवत को बनाने का बिुत
कुछ प्रयत्न वकया िै और वजन पर वक ितभमान सावित्यकारों की दृवि कम पड़ी िै’’ इससे स्पि िोता
िै वक प्रसाद के नाटकों का प्रथम उद्देश्य भारतीय इवतिास के मित्िपूणभ वकन्तु अप्रकावशत अश ं ों का
वचत्रण करना िै। प्रसाद िारा प्रणीत ‘चन्द्रगप्तु ’ एक उद्देश्यपणू भ नाटक िै। इसमें नाटककार ने भारतीय
इवतिास के मौयभकाल का वचत्रण करते िुए एक ओर इवतिास के अप्रकावशत अश ं को प्रकावशत
वकया िै तो दसू री ओर प्राचीन संस्कृ वत की श्रेष्ठता प्रवतपावदत करते िुए राष्र-प्रेम का सन्देश वदया िै।
डॉ. दशरथ ओझा के अनसु ार-‘‘प्रसाद जी वजस प्रिृवत्तऔर उद्देश्य को नाटक-वनमाभण में तल्लीन िुए
थे उसका चरम उत्कषभ ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में प्रकट िोता िै।’’ ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में अनेक उद्देश्य
सवन्नवित िैं जो वनम्नांवकत िैं-
(1) राष्ट्रीयता का संदेश - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का प्रमख ु उद्देश्य राष्र-प्रेम िै। बाबू गल ु ाबराय के
शब्दों में-‘‘इस नाटक (चन्द्रगप्तु ) में तत्कालीन इवतिास को राष्रीयता के ढााँचे में ढालने का सफल
प्रयास वकया गया िै।’’ प्रसाद ने इस नाटक में भारतीय अतीत का गौरि-गान करते िुए राष्रीयता का
अमर सन्देश वदया िै। चाणक्य, चन्द्रगप्तु , वसंिरण, अलका, कल्याणी और मालविका आवद पात्रों के
माध्यम से नाटककार ने अपने उद्देश्य को साकार वकया िै। डॉ. शावन्तस्िरूप गप्तु (प्रसाद के नाटक
एिं नाट्य वशल्प) का कथन दशभनीय िै-‘‘उनके (प्रसाद के ) नाटक एक ओर अतीत की स्िवणभम
झााँकी देकर िमारी सोई िुई राष्रीय भािना को जागृत करते िैं, अतीत के प्रवत गौरि जगाकर िममें
आत्म विश्वास जगाते िैं और दसू री ओर अतीत की समस्याओ ं को ितभमान पररप्रेक्ष्य में देख
यथासम्भि उनका समाधान भी देते िैं , िमें चेतािनी देते िैं वक िम परु ानी भल ू ों को न दोिराएाँ। ग्ग्ग्
िि ितभमान की विभीवषकाओ ं और विषमताओ ं से भागकर अतीत की सख ु द, विश्रावन्तमय गोद में
निीं बैिे िैं। इसके विपरीत, उन्िोंने अपने नाटकों िारा अतीत के पटल पर एक स्ितंत्र और संगवित
राष्र की योजना राँ गने का प्रयास वकया िै। ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में एक देश, एक राष्र का संदश े िै।’’
िास्ति में ‘चन्द्रगप्तु ’ में नाटककार ने एक ओर विलासी ि अयोग्य राजा नन्द के विनाश िारा उत्तम
शासन-व्यिस्था पर बल देकर अपने राष्र-प्रेम को प्रदवशभत वकया िै तो दसू री ओर यिनिाविनी को
परास्त करके तथा उसके साथ मैत्री स्थावपत करके अपने व्यापक प्रेम का पररचय वदया िै। नाटककार
ने अतीतकालीन भारतीय संस्कृ वत का िणभन करते िुए ितभमान को सख ु द बनाने की प्रेरणा दी िै तथा
देश के वलए मर-वमटने का अमर-संदश े भी वदया िै। चाणक्य अपने वशष्यों चन्द्रगप्तु और वसंिरण से
किते िैं-‘‘मालि और मगध को भल ू कर जब तमु आयाभित्तृ का नाम लोगे, तभी िि वमलेगा।’’

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वसिं रण अपने देश-प्रेम को व्यक्त करता िुआ किता िै-‘‘मेरा देश मालि निीं, गन्धार भी िै। यिी
क्या, समग्र आयाभित्तृ िै’’ अलका भविष्यिाणी करती िुई किती िै-वजस देश में ऐसे िीर यिु क िों
उसका पतन असम्भि िै।’’ अलका अपने देश-प्रेम को इस प्रकार व्यक्त करती ि-मेरा देश िै, मेरे
पिाड़ िैं, मेरी नवदयााँ िैं और मेरे जगं ल िैं। इस भवू म के एक-एक परमाणु मेरे िैं।’’ इस प्रकार सभी
पात्र देश-प्रेम की भािना से ओत-प्रोत िैं। वनश्चय िी नाटककार ने ‘चन्द्रगप्तु ’ के माध्यम से अपने
देश-प्रेम को साकार करते िुए राष्रीयता का सन्देश वदया िै।
(2) भारतीय संस्कृहत की िेष्ठता का प्रहतपादन - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का दसू रा उद्देश्य भारतीय
संस्कृ वत की श्रेष्ठता प्रवतपावदत करना िै। प्रसाद ने ग्रीक और भारतीय संस्कृ वत का संर्षभ वचवत्रत
करके अन्त में भारतीय संस्कृ वत की विजय वदखाई िै। वसंिरण और चन्द्रगप्तु के चररत्र के माध्यम से
एक ओर भारतीयों की िीरता, सािस, वनभीक, दृढ़ सक ं ल्प आवद का वचत्रण वकया गया िै तो दसू री
ओर भारतीय मानिता पर प्रकाश डाला गया िै। आचायभ चाणक्य चन्द्रगप्तु और वसंिरण को समझाते
िुए किते िैं- ‘‘तमु लोगों को समय पर शस्त्र का प्रयोग करना पड़ेगा। परन्तु अकारण रक्तपात नीवत-
विरूद्ध िै।’’ चन्द्रगप्तु आचायभ चाणक्य को आश्वासन देते िुए किता िै- ‘‘आयभ! संसार-भर की नीवत
और वशक्षा का अथभ मैंने यिी समझा िै वक आत्म-सम्मान के वलए मर वमटना िी वदव्य जीिन
िै।’’............‘‘गरुु देि! ......यि चन्द्रगप्तु आपके चरणों की शपथ पिू क
भ प्रवतज्ञा करता िै, वक यिन
यिााँ कुछ न कर सकें गे।’’ इस प्रकार गरुु -वशष्य के िाताभलाप िारा नाटककार ने भारतीय संस्कृ वत की
श्रेष्ठता िी प्रवतपावदत की िै। भारतीयों के गणु ों पर प्रकाश डालता िुआ चन्द्रगप्तु वसल्यक
ू स से किता
िै-‘‘भारतीय कृ तघ्न निीं िोते।’’ इसी प्रकार-‘‘आयभ लोग वकसी वनमन्त्रण को अस्िीकार निीं
करते।’’
आचायभ चाणक्य के माध्यम से ब्राह्मण -धमभ की श्रेष्ठता प्रवतपावदत करने के साथ-साथ श्रेष्ठ गरुु की
मिानता का भी उल्लेख वकया गया िै। आचायभ चाणक्य वनभीकतापिू क भ आम्भीक से किते िैं -
‘‘राजकुमार! ब्राह्मण न वकसी के राज्य में रिता िै और न वकसी के अन्न से पलता िै स्िराज्य में
विचरता िै और अमृत िोकर जीता िै। प्रकृ वत के कल्याण के वलए अपने ज्ञान का दान देता िै।’’ नन्द
के दरबार में पिुचाँ कर नन्द िारा अपमावनत वकए जाने पर भी चाणक्य राक्षस से स्पि किते िैं-‘‘यवद
अमात्य ने ब्राह्मण -विनाश करने का विचार वकया िो तो जन्मभवू म की भलाई के वलए उसका त्याग
कर दें, क्योंवक राष्र का शभु -वचन्तन के िल ब्राह्मण िी कर सकते िैं।’’ मगध के बंदीगृि में िररूवच
के समझाने पर चाणक्य उसकी भत्सभना करते िुए किते िैं -‘‘वभक्षोपजीिी ब्राह्मण ! लोिे और सोने
के सामने वसर झक ु ाने के वलए िम लोग ब्राह्मण निीं बने िैं।’’ नन्द के विरूद्ध खड़ा िोने के वलए जब
चाणक्य, चन्द्रगप्तु को तैयार करते िैं तो पिभतेश्वर इसका विरोध करता िै, परन्तु चाणक्य स्पि किते िैं
-‘‘मिाराज! धमभ के वनयामक ब्राह्मण िैं, मझु े पात्र देखकर उसका संस्कार करने का अवधकार िै।
ब्राह्मण त्ि एक सािभभौम शाश्वत बवु द्ध-िैभि िै।’’ इस प्रकार ‘चन्द्रगप्तु ’ में सिभत्र ब्रािमणों का मित्ि
प्रदवशभत वकया गया िै। मिात्मा दाण्ड्यायन के माध्यम से ब्राह्मण के तप, त्याग, शील और

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वनस्पृिता आवद गणु ों की व्याख्या की गई िै। एवनसाक्रीटीज जब अपने राजा वसकन्दर का सदं श े
लेकर मिात्मा दाण्ड्यायन के आश्रम पिुचाँ ता िै तब दाण्ड्यायन किते िैं-‘‘मझु से कुछ मत किो।
............ देखते िो कोई वकसी की सनु ता िै? ..........मैं लोभ से, सम्मान से या भय से वकसी के पास
निीं जा सकता। ........... मेरी आिश्यकताएाँ परमात्मा की विभवू त प्रकृ वत परू ी करती िै। उसके रिते
दसू रों का शासन कै सा? .............. मेरी स्ितन्त्र आत्मा पर तम्ु िारे देिपत्रु का भी अवधकार निीं िो
सकता ।’’ अलका, कल्याणी और मालविका आवद नारी-पात्रों के माध्यम से भारतीय नारी की
देशभवक्त कत्तभव्यपरायणता और स्िावमभवक्त पर प्रकाश डाला िै। प्रसाद ने विदेशी पात्रों िारा भारतीय
संस्कृ वत की प्रशसं ा कराकर अपने उद्देश्य को साकार रूप वदया िै। वसकन्दर के शब्द दशभनीय िैं-‘‘मैं
भारत का अवभनन्दन करता िू।ाँ ........मैं तलिार खींचे िुए भारत में आया, हृदय देकर जाता िू।ाँ
विस्मय-विमग्ु ध िू।ाँ ’’
(3) युगीन समस्याओ ं का हचत्रण और समाधान - यगु ीन समस्याओ ं का वचत्रण और समाधान
भी ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का एक उद्देश्य िै। इसमें नाटककार ने अनेक समस्याओ,ं जैसे राज्यों में
पारस्पररक िैमनस्य, देशिावसयों का शत्र-ु समथभन, राजा की विलावसता, उच्छृ ं खलता, धावमभक-संर्षभ
और िणाभश्रम कलि आवद को उिाया िै और उनका समाधान भी प्रस्ततु वकया िै। राज्यों के
पारस्पररक िैमनस्य को नाटक के प्रारम्भ में वसिं रण के शब्दों में व्यक्त वकया गया िै-‘‘उत्तरापथ के
खण्ड-राज्य िेष जजभर िैं।’’ आम्भीक िारा यिन-पक्ष का समथभन कराकर नाटककार ने देशिावसयों
की कायरता, गद्दारी आवद का वचत्रण वकया िै। अलका भाई के कुकमों के पररणाम की ओर इवं गत
करती िुई वपता गन्धार-नरे श से किती िै -‘‘कुलपत्रु ों के रक्त से आयाभित्तृ की भवू म सींचेंगी! दानिी
बनकर जननी जन्म-भवू म अपनी सन्तान को खाएगी। मिाराज! आयाभित्तभ के सब बच्चे आम्भीक
जैसे निीं िोंगे। िे इसकी मान-प्रवतष्ठा और रक्षा के वलए वतल-वतल कट जाऐगं े। स्मरण रिे, यिनों की
विजय-िाविनी के आक्रमण को प्रत्याितभन बनाने िाले यिी भारत-सन्तान िोंगे। सब बचे िुए क्षतांग
िीर, गन्धार को-भारत के िार रक्षक को-विश्वासर्ाती के नाम से पक ु ारें गे और उनमें नाम वलखा
जाएगा मेरे वपता का!’’ नन्द की विलावसता और उच्छृ ं खलता िारा शासक की अयोग्यता वसद्ध की
गई िै। राक्षस और चाणक्य के संर्षभ िारा बौद्ध ि ब्राह्मण धमभ का संर्षभ वचवत्रत वकया िै और नन्द-
चाणक्य के वििाद िारा ब्राह्मण-क्षवत्रय कलि का वचत्र अवं कत वकया िै। अन्त में सत्-असत् के
संर्षभ में सत् की विजय वदखाकर विवभन्न समस्याओ ं का समाधान प्रस्ततु कर वदया िै।
(4) नैहतक हशक्षा - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक िारा नैवतक वशक्षा देना भी नाटककार का एक उद्देश्य रिा िै।
चाणक्य, चन्द्रगप्तु , वसंिरण और अलका के चररत्रों के माध्यम से नाटककार ने भारतीयों को नैवतक
वशक्षा दी िै। वसल्यक ू स चन्द्रगप्तु की व्याघ्र से रक्षा करता िै। इसवलए िि उसके प्राण निीं लेता। िि
उससे पछ ू ता िै‘‘यिन सेनापवत, मागभ चािते िो या यद्ध ु ? मझु पर कृ तज्ञता का बोझ िै। तम्ु िारा
जीिन!’’ वसकन्दर के र्ायल िो जाने पर वसंिरण वसल्यक ू स से यद्ध
ु न करके वसकन्दर की सेिा का
आदेश देता िै। वसिं रण किता िै‘‘यिन! दस्ु सािस न कर! तम्ु िारे सम्राट की अिस्था शोचनीय िै, ले

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जाओ,ं इनकी शश्रु षू ा करो!’’ चन्द्रगप्तु िारा कानेवलया की रक्षा आवद के उदािरण नैवतक वशक्षा दे रिे
िैं।
(5) क्षात्र-धमि की मित्ता - प्रसाद ने ‘चन्द्रगप्तु ’ में क्षात्र-धमभ की मित्ता भी प्रवतपावदत की िै।
अवभप्राय िै वक उन्िोंने क्षवत्रय धमभ को सिभश्रेष्ठ मानते िुए उसकी मित्ता भी वसद्ध की िै। आचायभ
चाणक्य नन्द से स्पि किते िैं-‘‘समय आ गया िै वक शद्रु राजवसिं ासन से िटाए जाएाँ और सच्चे
क्षवत्रय मधू ाभवभवषक्त िों।’’ अपने उद्देश्य की पवू तभ िेतु जब चाणक्य अपने वशष्य चन्द्रगप्तु को नन्द के
विरूद्ध खड़ा िोने की बात किते िैं तो पिभतेश्वर इसका विरोध करता िै, परन्तु आचायभ चाणक्य उसे
समझाते िैं-‘‘आयभ-वक्रयाओ ं का लोप िो जाने से इन लोगों को िृषलत्ि वमला, िस्ततु ः ये क्षवत्रय िैं।
बोद्धों के प्रभाि में आने से इनके श्रौत संस्कार छूट गए िैं अिश्य, परन्तु इसके क्षवत्रय िोने में कोई
सन्देि निीं िै।’’ इतना िी निीं, िे आगे भी क्षवत्रय धमभ की व्याख्या करते िुए पिभतेश्वर से किते िैं-
‘‘ब्राह्मण मगध को क्षवत्रय के शस्त्र धारण करने पर आतभिाणी निीं सनु ाई पड़नी चाविए, मौयभ
चन्द्रगप्तु िैसा िी क्षवत्रय प्रमावणत िोगा।’’ क्षात्र-धमभ की किोरता वसद्ध करते िुए चन्द्रगप्तु वसल्यकू स
से किता िै-‘‘स्िागत वसल्यक ू स! अवतवथ की-सी तम्ु िारी अभ्यथभना करने में िम विशेष सुखी िोते,
परन्तु क्षात्र-धमभ बड़ा किोर िै।’’ इस प्रकार प्रसाद ने सम्पणू भ नाटक में क्षवत्रय-धमभ की प्रवतष्ठा की िै।
(6) आध्याहत्मकता की प्रेरणा - ‘चन्द्रगप्तु ’ के अन्त में नाटककार ने आध्यावत्मकता की प्रेरणा दी
िै। िैसे भी भारतीय संस्कृ वत में िानप्रस्थ और सन्यास आश्रम का विशेष मित्ि िै। प्रसाद की
विशेषता िै वक िे अपनी कृ वत के अन्त में ‘समरस’ िोने की प्रेरणा अिश्य देते िैं। आचायभ चाणक्य,
जो ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के कणभधार और राजनीवत के सत्रू धार िैं, अन्त में ‘ब्रह्म में लीन’ िोने के वलए
दाण्ड्यायन के तपोिन में पिुचाँ जाते िैं। तपोिन में पिुचाँ कर सभी को आनन्द की प्रावप्त िोती िै।
सिु ावसनी राक्षस से किती िै-‘‘आयों का तपोिन इन राग-िेषों से परे िै।’’ ििााँ चाणक्य को
‘ब्रह्मलीन ’ देखकर राक्षस को आश्चयभ िोता िै। परन्तु सिु ावसनी समझाती िै-‘‘यिी तो ब्राह्मण की
मित्ता िै राक्षस! यों तो मखू ो की वनिृवत्त भी प्रिृवत्तमल
ू क िोती िै। देखो, यि सयू भ-रवश्मयों का-सा
रस-ग्रिण वकतना वनष्काम वकतना वनिृवत्तपणू भ िै!’’ यि देखकर राक्षस के मन का कालष्ु य, ईष्याभ और
िेष सब समाप्त िो जाता िै। िि किता िै-‘‘मेरी इच्छा िोती िै वक चलकर इस मिात्मा के सामने
अपना अपराध स्िीकार कर लाँू और क्षमा मााँग लाँ।ू ’’ ध्यानस्थ चाणक्य जब आाँख खोलते िैं तो उन्िें
आभास िोता िै वक-‘‘मख्ु य िस्तु आज सामने आई। आज मझु े अपने अन्तवनभवित बािमणत्ि की
उपलवब्ध िो रिी िै। ...... देि! आज मैं धन्य िू।ाँ ’’ िास्ति तें वजसे प्रभु की अनन्त शवक्त का आभास
िो जाए उसका जीिन धन्य िो जाता िै। मिात्मा दाण्ड्यायन यिी तो किते िैं -‘‘भमू ा का सख ु और
उसकी मित्ता का वजसको आभास-मात्र िो जाता िै, उसको ये नश्वर चमकीले प्रदशभन निीं अवभभू तू
कर सकते।’’

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चन्द्रगप्तु के वपता ध्यानस्थ चाणक्य का िध करना चािते िैं परन्तु िे सफल निीं िो पाए।
चन्द्रगप्तु उनके इस कमभ की वनन्दा करता िै परन्तु चाणक्य क्षमा कर देते िैं और अन्त में उन्िें भी
अपने मागभ का अनयु ायी बनाते िुए किते िैं-‘‘काषाय ग्रिण कर लो, इसमें अपने अवभमान को मारने
का तम्ु िें अिसर वमलेगा।’’ इतना िी निीं (मौयभ का िाथ पकड़कर) ‘चलो, अब िम लोग चलें’
किकर उन्िें अपने िी साथ ले जाते िैं। इस प्रकार नाटककार ने मिात्मा दाण्ड्यायन और आचायभ
चाणक्य के माध्यम से ‘ब्रिमशवक्त में लीन िोने’ की प्रेरणा दी िै। अतः आध्यावत्मकता का सदं श े भी
प्रमख
ु िै।

3.5 सांराश
साराशं रूप में िम कि सकते िैं वक चन्द्रगप्तु प्रसाद की प्रौढ़ रचना िै इसके कथानक में
विविधता विद्यमान िै, इसमें एक ओर भारतीय संस्कृ वत की उत्कृ िता पर प्रकाश डाला गया िै तो
दसू री ओर राष्र प्रेम का संदश
े वदया गया िै, एक ओर नृशसं ता, विलावसता, और अयोग्य शासक के
कुपररणाम का उद्घाटन वकया गया िै तो दसू री ओर प्रेम, सौिादभ और वमत्रता का पाि पढ़ाया गया िै।

3.6 अभ्यास प्रश्न


प्रश्न 1. चन्द्रगप्तु के रचवयता कौन िै ?
उत्तर - जयशक
ं र प्रसाद
प्रश्न 2 चन्द्रगप्तु नाटक के वकतने अक
ं िै ?
उत्तर - चन्द्रगप्तु चार अक
ं ो में विभावजत नाटक िै
प्रश्न 3. चन्द्रगप्तु में वकतने पात्र िै ?
उत्तर - चन्द्रगप्तु में 18 परू
ु ष पात्र तथा 8 स्त्री पात्र िैं। इस प्रकार कुल 26 पात्र िैं
प्रश्न 4. चन्द्रगप्तु का सिाभवधक प्रभािशाली पात्र कौन िै ?
उत्तर - चाण्क्य
प्रश्न 5. चन्द्रगप्तु वकस राज्य का सम्राट िै ?
उत्तर - मौयभ सम्राट का
प्रश्न 6. चन्द्रगप्तु नाटक में पंजाब का राजा कौन िैं?

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उत्तर - पिभतेश्वर
प्रश्न 7. सेल्यक
ू स कौन था ?
उत्तर - वसकन्दर का वसपािी
प्रश्न 8. तक्षवशला की राजकुमारी का नाम बताइए ?
उत्तर - अलका
प्रश्न 9. मालविका कौन िै ?
उत्तर - वसंधु देश की राजकुमारी

3.7 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ. गणपवत चन्द्र गप्तु
2. प्रसाद के नाटक, डॉ. परमेश्वरी लाल
3. प्रसाद के नाटक स्िरूप और सरं चना, डॉ. गोविन्द चातक
4. विन्दी नाटक उदभि और विकास, डॉ. दशरथ ओझा
5. विन्दी नाट्य सावित्य का विकास, डॉ. सोमनाथ गपु

3.8 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. जयशक
ं र प्रसाद में अन्य समस्त नाटकों का अध्ययन।
2. विदं ी का गद्य सावित्य, रामचंद्र वतिारी
3. विन्दी सावित्य का दसू रा इवतिास, डा.बच्चन वसंि

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3.9 हनबं धात्मक प्रश्न
1 . 'चन्द्रगप्तु ' नाटक का पररचय देते िुए नाटक की कथािस्तु की वििेचना कीवजए
2 . 'चन्द्रगप्तु ' नाटक की विशेषताओ ं को बताते िुए उसके उद्देश्य पर प्रकाश डावलए ?

इकाई-4 चंरगुप्ि नाटक में चहरत्र-हचत्रण


इकाई की रूपरे खा
4.1 प्रस्तािना
4.2 उद्देश्य
4.3 चन्द्रगप्तु नाटक में चररत्र वचत्रण
4.4 चन्द्रगप्तु में चररत्र वचत्रण की विशेषताएं
4.4.1 इवतिास और कल्पना
4.4.2 संस्कृ वत का आधार
4.4.3 विचार और भाि की भवू मका
4.4.4 पात्र सरं चना में वशवथलता
4.5 सारं ाश
4.6 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
4.7 संदभभ ग्रंथ सचू ी
4.8 उपयोगी पाि्य सामग्री
4.9 वनबंधात्मक प्रश्न

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4.1 प्रस्तावना
चररत्र मानि व्यििार की संरचना िै, चररत्र संसार में िास्तविक व्यवक्त के रूप में रिते िैं,
वकन्तु नाटकीय चररत्र नाटक के ससं ार में रिते िुए नाटककार वक मनोिृवत्तयााँ के अनसु ार सच ं ावलत
िोते िै, चररत्र कोई ऐसा तत्ि निीं िै वजसे नाटक के अन्य तत्िों से अलग रखकर देखा जा सके ।
नाटक में पात्रों की अन्तः प्रवक्रया के साथ-साथ सामावजक और मानिीय गणु ों के सबं धं - सत्रू बडे
मित्िपूणभ िोते िैं। िस्तुतः मानिीय प्रकृ वत और उनके बीच का वक्रया-व्यापार वकसी भी चररत्र की
अिधारणा के अवनिायभ तत्ि िोते िैं।
पात्र का ढााँचा खड़ा करने में प्रसाद ने स्िच्छंदिादी, आदशभिाद, मनोविज्ञान, वनजी जीिन-
दशभन, इवतिास के िस्त-ु तत्ि आवद सभी बातों को प्रमख ु ता दी िै, िस्ततु ः ये ििी तत्ि िैं वजनका
उपयोग प्रसाद ने कथािस्त,ु संिाद आवद की रचना के वलए भी वकया िै।

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4.2 उद्देश्य
नाटक के पात्र कथानक को गवत देने के साथ अवभनय, उद्देश्य के िािक भी िोते िैं, िास्ति
में नाटक के पात्र और उनका चररत्र लेखक की मनोभवू म, लेखक का नाटक वलखने का उद्देश्य,
सामावजक, सांस्कृ वतक, राजनीवतक के प्रवतवबम्ब िोते िै।आप जानते िैं वक चररत्र वचत्रण के विषय में
विस्तृत अध्ययन करने का उददेश्य नाटक को मल ू ध्िवन को िस्तगत करना िै, लेखक की उस
धारणा को जानना वजसके आधार पर उसने नाटक की रचना की िै।
आप यि भी जानते िैं वक जयशक ं र प्रसाद जी ने भारत के प्राचीन गौरिपणू भ इवतिास से िमें
पररवचत कराने के उददेश्य से नाटकों की रचना की।
नाटक के चररत्र का आलोचनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् िम इस वनष्कषभ पर पिुचेगें
वक िास्ति में प्रसाद अपने उददेश्य में वकतने सफल िुए िै, उनके पात्र मानिोवचत व्यििार के साथ-
साथ राष्र प्रेमी, िीर, पौरूष, की प्रवतमवू तभ िै, नाररयां परू
ु ष की सियोवगनी तथा प्रेम में आकृ ि डूबी
वस्त्रयां िै। इन तथ्यों का परीक्षण करना इस इकाई का उद्देश्य िै।

4.3 चन्रगुप्त नाटक मचर चहर -हच ण


चन्रगप्तु - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के चन्द्रगप्तु में नायकोवचत सभी गणु विद्यमान िैं। िि कुलीन, सािसी,
वनभीक, उदार, त्यागी, स्िावभमानी, दृढ़-संकल्प और कृ तज्ञ िै। तक्षवशला के गरुु कुल में अपना
अध्ययन समाप्त करके िि शद्ध ु क्षवत्रयिृवत्तयााँ के साथ कमभक्षेत्र में प्रविि िोता िै। उवचत के वलए िि
सिभत्र अड़ जाता िै। नाटक के प्रारम्भ में िी िि आम्भीक से वभड़ जाता िै। िीरोवचत वनभीकता,
सािस और स्पििावदता चन्द्रगप्तु को मिान बनाते िैं। इसवलए वसल्यक ू स भी उसकी प्रशसं ा करता िै-
‘‘एक िीर यिु क िै।’’ नन्द की राजसभा में चन्द्रगप्तु की वनभीकता और स्पििावदता दृविगत िोती िै।
उसके चररत्र की वनम्नवलवखत विशेषताएाँ िैं-
(1) स्वाहभमानी- चन्द्रगप्तु एक स्िावभमानी यिु क िै। स्िावभमान के वलए िि मर-वमटने को तैयार
रिता िै-‘‘आत्म-सम्मान के वलए मर-वमटना िी वदव्य जीिन िै।’’ इसवलए वसकन्दर जब उसकी
सिायता करने के वलए किता िै, तब चन्द्रगप्तु स्पि उदार देता िै-‘‘मैं यिनों को अपना शासक बनने
को आमवन्त्रत करने निीं आया िू।ाँ ’’ इतना िी निीं, िि आम्भीक से भी स्पि किता िै-‘‘स्िच्छ
ह्दय भीरु कायरों की-सी िचं क वशिता निीं जानता। अनायभ! देशद्रोिी! आम्भीक! चन्द्रगप्तु रोवटयों
के लालच या र्ृणाजनक लोभ से वसकन्दर के पास निीं आया िै।’’
(2) गुरुभि- चन्द्रगप्तु गरुु -भक्त िै िि गरुु की आज्ञा सिोपरर मानता िै और उन्िीं के सक ं े त पर
सदैि कमभरत रिता िै। बाद में गरुु की दरू दवशभता, स्नेि और उत्कृ ि मेधा देखकर िि गद्गद् िो उिता

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िै। नाटक के प्रारम्भ में िी िि गरुु भवक्त प्रकट करता िुआ किता िै-‘‘गरुु देि, विश्वास रवखए, यि
सब-कुछ निीं िोने पािेगा। यि चन्द्रगप्तु आपके चरणों की शपथपिू क भ प्रवतज्ञा करता िै, वक यिन
यिााँ कुछ न कर सकें गे।’’
(3) कुशल योद्धा- चन्द्रगप्तु कुशल योद्धा और श्रेष्ठ क्षवत्रय िै। इसी गणु के बल पर िि दभु द्ये
कारागृि से चाणक्य को छुड़ा लेता िै। िि प्रिररयों का िध करके सािसपिू क भ चाणक्य के बन्धन
काट देता िै। जब राक्षस प्रिररयों को बल ु ाना चािता िै तब चन्द्रगप्तु वनभीकतापिू क
भ किता िै-‘‘चपु
रिो अमात्य! शिों में बोलने की शवक्त निीं, तम्ु िारे प्रिरी जीवित निीं रिे। चवलए गरुु देि!’’ इसी
प्रकार वसकन्दर की सभा में उससे वििाद करके िि वनविभघ्न वनकल आता िै और अन्त में वसल्यक ू स
पर विजय प्राप्त करता िै। इतना िी निीं, वफवलप्स के कामक ु आक्रमण से िि कानेवलया की रक्षा
करता िै। कानेवलया, वफवलप्स और चन्द्रगप्तु दोनों के विषय में सोचती िुई किती िै-‘‘उन दोनों में
श्रृंगार और रौद्र का संगम िै िि भी आि वकतना आकषभक िै! वकतना तरंग-संकुल िै! इसी चन्द्रगप्तु
के वलए न उस साधु ने भविष्यिाणी की िै-भारत-सम्राट िोने की!’’ इस प्रकार िि अपने कौशल एिं
पराक्रम से अपनी मिानता वसद्ध करता िै। आचायभ चाणक्य उसकी प्रशसं ा करते िुए किते िैं-
‘‘क्षवत्रय के शस्त्र धारण चन्द्रगप्तु िैसा िी क्षवत्रय प्रमावणत िोगा।’’
(4) योग्य शासक- चन्द्रगप्तु कतभव्यपरायण, स्िािलम्बी और योग्य शासक भी िै। शत्रु के आक्रमण
कर देने पर जब आचायभ चाणक्य और वसंिरण दोनों उसे छोड़कर चले जाते िैं, तब िि वनराश निीं
िोता िरन् विगवणत उमगं और उत्साि से कायभ करता िै। िि स्पि किता िै-‘‘मैं आज सम्राट निीं,
सैवनक िू!ाँ वचन्ता क्या? वसंिरण और गरुु देि न साथ दें, क्या डर! सैवनको! सनु लो आज से मैं के िल
सेनापवत िूाँ और कुछ निीं!’’
(5) हवनम्र व कृतज्ञ- चन्द्रगप्तु िीर िोने के बाद सहृदय, विनम्र तथा कृ तज्ञ भी िै। वसल्यक
ू स िारा
व्याघ्र से उसकी रक्षा करने के कारण िि वसल्यक ू स के प्राण न लेकर अपनी कृ तज्ञता का पररचय
देता िै। वफवलप्स से कानेवलया की रक्षा करने पर कानेवलया उससे कृ तज्ञ िोती िै और उसकी प्रशसं ा
करती िै-‘‘उसमें वकतनी विनयशील िीरता िै!’’
(6) न्यायहप्रय- चन्द्रगप्तु योग्य शासक के कतभव्य का पूणरू
भ पेण वनिाभि करता िै। गरुु देि चाणक्य के
चले जाने पर जब उसके वपता मौयभ ध्यानस्थ चाणक्य का िध करना चािते िैं, तब वपता के इस क्रूर-
कमभ की वनन्दा करता िुआ िि किता िै-‘‘वपता जी, राज-व्यिस्था आप जानते िोंगे-िध के वलए,
प्राण-दण्ड िोता िै, और आपने गरुु देि का-इस आयभ-साम्राज्य के वनमाभणकताभ ब्रािमण का िध करने
जाकर वकतना गरुु तर अपराध वकया िै!’’ आचायभ चाणक्य उसकी न्यायवप्रयता की प्रशसं ा करते िुए
किते िैं-‘‘वकन्तु सम्राट, िि िध िुआ निीं, ब्रािमण जीवित िै।’’ ग्ग्ग् मैं विश्वस्त िूाँ वक तमु अपना
कृ तज्ञ कर लोगे। राजा न्याय कर सकता िै, परन्तु ब्रािमण क्षमा कर सकता िै।’’ इस प्रकार वपता के
वलए दण्ड का विधान करके िि अपनी न्याय वप्रयता का पररचय देता िै।

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(7) अन्तर्द्िन्र्द् से पूणि- जीिन की विवभन्न संर्षभ से जझू ता िुआ चन्द्रगप्तु गरुु देि चाणक्य की
अवतशय क्रूरता से क्षब्ु ध िो उिता िै। इसके मन में अनेक प्रकार की आशा-वनराशा उद्भूत िो उिती
िै िि मालविका से किता िै-‘‘संर्षभ! यद्ध ु देखना चािो तो मेरा हृदय फाड़कर देखों मालविका!
आशा और वनराशा का यद्ध ु , भािों और अभािों का िन्ि। कोई कमी निीं, वफर भी न जाने कौन मेरी
सम्पणू भ सचू ी मैं ररक्त-वचन्ि लगा देता िै।’’ अके ले में िि अपनी वस्थवत पर विचार करता िुआ किता
िै-‘‘भीषण सर्ं षभ करके भी मैं कुछ निीं िू।ाँ मेरी वस्थवत एक किपतु ली-सी िै। तो
वफर.................मेरे वपता, मेरी माता, इनका तो सम्मान आिश्यक था। िे चले गए, मैं देखता िूाँ वक
नागररक तो क्या, मेरे आत्मीय भी आनन्द मनाने से िवं चत वकए गए। यि परतन्त्रता कब तक
चलेगी?’’ अपने इन्िीं भािों को प्रकट करता िुआ िि गरुु देि चाणक्य से कि देता िै-‘‘यि अक्षण्ु ण
अवधकार आप कै से भोग रिे िैं? आप मेरे कुटुम्ब का भी वनयंत्रण अपने िाथों में रखना चािते िैं। इस
प्रकार गरुु देि के कायो से कुवण्ित चन्द्रगप्तु अन्तिभन्ि से पररपणू भ जीिन व्यतीत करता िै।
(8) सबका हप्रय- अपने श्रेष्ठ गणु ों के कारण िि सभी का वप्रय रिता िै। स्त्री-पात्रों में कल्याणी,
मालविका और कानेवलया तीनों िी उससे प्रेम करती िैं। कल्याणी अपनी मृत्यु के समय चन्द्रगप्तु से
स्पि करती िै-‘‘परन्तु मौयभ! कल्याणी ने िरण वकया था के िल एक िी परुु ष को-िि था चन्द्रगप्तु ।’’
मालविका अपने िारा वनवमभत फूलों की माला िारा चन्द्रगप्तु के प्रवत अपने प्रेम को व्यक्त करती िै
और अन्त में चन्द्रगप्तु की शय्या पर मृत्यु के िरण के समय सोचती िै-‘‘यि चन्द्रगप्तु की शय्या िै।
ओि, आज प्राणों में वकतनी मादकता िै! ग्ग्ग् अनरु ाग, तू रक्त से भी रंगीन बन जा!’’ कानेवलया का
प्रेम शनैः शनैः विकवसत िोता िै। अन्त में िि अपने वपता से चन्द्रगप्तु के प्रवत अपने प्रेम-भाि को
प्रकट करती िुई किती िै-‘‘मैं स्ियं परावजत िू।ाँ मैंने अपराध वकया िै वपता जी! चवलए, इस भारत
की सीमा से दरू चले चवलए, निी तो मैं पागल िो जाऊाँगी।’’ इस प्रकार, चन्द्रगप्तु सभी का वप्रय पात्र
िै।
(9) सच्चा देश-प्रेमी- चन्द्रगप्तु सच्चा देश-सेिक िै। राष्र-प्रेम उसके जीिन का लक्ष्य िै। स्िदेश-
सम्मान की रक्षा में िि सदैि तत्पर रिता िै। देश सेिक के रूप में िि पिले यिनों का सामना करता
िै और उन्िें परास्त कर देश से वनकालकर िी रिता िै। बाद में अयोग्य शासक नन्द का विनाश कर
आचायभ चाणक्य के संकेत पर िि एक सव्ु यिवस्थत राज्य की स्थापना करता िै।
चाणक्य - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का सिाभवधक प्रभािशाली पात्र िै-चाणक्य। नाटक की कथा का
सत्रू धार चाणक्य िै। वजसके इवं गत पर सभी पात्र कायभरत िैं। चाणक्य की दरू दवशभता, दृढ़ संकल्प तथा
श्रेष्ठ बवु द्ध-िैभि विश्व-विख्यात िै। प्रसाद ने उसके इन्िीं विवभन्न गणु ों को साकार रूप देते िुए
‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का सृजन वकया िै। शास्त्रीय दृवि से ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का नायक चन्द्रगप्तु वसद्ध
िोता िै। क्योंवक फल प्रावप्त उसे िी िोती िै परन्तु व्याििाररक दृवि से चाणक्य ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक का
नायक प्रमावणत िोता िै। क्योंवक सम्पणू भ नाटक उसके संकेतों पर आधाररत िै। डॉ.शावन्तस्िरूप गप्तु

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(प्रसाद के नाटक एिं नाट्य वशल्प) के शब्दों में-‘‘चाणक्य एक ऐसे भारत का स्िप्न देखता िै जो
छोटे-छोटे टुकड़ों में विभक्त न िो और एक अखण्ड सािभभौम राज्य िो। यिी नाटक का फल िै,
नाटक का समस्त कायभ-व्यापार इसी फल की ओर उन्मख ु िै और चाणक्य िी इसके वलए सिाभवधक
प्रयत्नशील िै। ििी इसका बीज बोता िै, उसे पल्लवित करता िै और फल प्राप्त िोते िी वनष्काम
भाि से कमभपथ से िट जाता िै। ग्ग्ग् अतः चाणक्य िी नाटक का नायक िै।’’ डॉ. गप्तु का कथन कुछ
अश ं ों तक उवचत प्रतीत िोता िै। सत्यता तो यि िै जैसा वक श्री जगन्नाथ प्रसाद शमाभ ने वलखा िै-
‘‘चाणक्य तो मौयभ के साथ तपस्या में वनरत िोने के वलए कमभक्षेत्र के रंगमचं को छोड़कर चला जाता
िै। अतएि, फल का उपभोक्ता िि िो िी निीं सकता। जो नाटकीय फल का उपभोक्ता निीं माना जा
सकता, िि उस नाटक का नायक भी निीं िो सकता।’’ अतः शास्त्रीय दृवि से चन्द्रगप्तु नाटक का
नायक िै तो व्याििाररक दृवि से चाणक्य को नाटक का नायक माना जा सकता िै क्योंवक सभी
र्टनाओ ं और वस्थवतयों में इसका योग िै। चररत्र के विचार से भी चाणक्य का व्यवक्तत्ि अत्यन्त
प्रभािशाली रिा िै।चन्द्रगप्तु नाटक में चाणक्य और चन्द्रगप्तु दोंनों भी नायक माने जा सकते िैं अथिा
राष्र की एकता, तत्कालीन पररवस्थवतयों को वजनके आधार पर सम्पणू भ नाटक गवतशील िोता नायक
माना जा सकता िै।
चाणक्य का चररत्र हचत्रण- चाणक्य श्रेष्ठ गणु ों का भण्डार िै। िि स्िावभमानी, कमभि योग्य गरुु
दृढ़-संकल्पी और वनस्पृिी ब्रािमण िैं। प्रो.भषू ण स्िामी का मत दशभनीय िै-‘‘चाणक्य एक ऐसा रूढ़
पात्र िै वजसके ऊपर विघ्न-बाधाओ ं आवद का कोई भी प्रभाि निीं पड़ता िै। िि एक ऐसा पत्थर िै
वजसके स्पशभ से लोग वनखर तो सकते िैं वकन्तु उस पर वकसी प्रकार का प्रभाि निीं छोड़ सकते। परू े
नाटक िी क्या, प्रसाद-सावित्य में यि अके ला पात्र िै जो गगन-सा गम्भीर, समद्रु -सा विशाल, धरती-
सा क्षमाशील एिं शतशत अनल-सा भयक ं र िै।’’
उसके चररत्र की वनम्नवलवखत विशेषताएाँ िैं-
(1) ब्रािमण-धमि का समथिक- चाणक्य ब्रािमण िोने के कारण ब्रािमण-धमभ का प्रबल समथभक
िै। उसमें जावतगत स्िावभमान िै। िि वनभीक, वनस्पृि, त्यागी और स्ितन्त्रचेता िै। आम्भीक के
कुचक्र सम्बन्धी आरोप का उत्तर देते िुए िि अपने स्िावभमान, स्िातान्त्रचेतना और वनभीकता का
पररचय देता िै-‘‘राजकुमार, ब्रािमण न वकसी के राज्य में रिता िै और न वकसी के अन्न से पलता
िै, िि स्िराज्य में विचरता िै और अमृत िोकर जीता िै।’’ त्याग, क्षमा, तप और विद्या उसके प्रमख

गणु थे। िि भय तथा लालच से कोई कायभ निीं करता िै। िि स्पि किता िै-‘‘........लोिे और सोने
के सामने वसर झक ु ाने के वलए िम लोग ब्रािमण निीं बने िैं। िमारी दी िुई विभवू त से िमी को
अपमावनत वकया जाए, ऐसा निीं िो सकता।’’ चन्द्रगप्तु को सेना बनाने में जब पिभतेश्वर विघ्न डालता
िै तब िि ब्रािमण-धमभ की दिु ाई देकर स्पि किता िै-‘‘मिाराज! धमभ के वनयामक ब्रािमण िैं, मझु े

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पात्र देखकर उसका सस्ं कार करने का अवधकार िै। ब्रािमणत्ि एक सािभभौम शाश्वत बवु द्ध-िैभि
िै।’’ इस प्रकार नाटक में चाणक्य ने सिभत्र िी ब्रािमण-धमभ की मित्ता प्रदवशभत की िै।
(2) दृढ़-प्रहतज्ञ- चाणक्य दृढ़-प्रवतज्ञ और कमभि व्यवक्त िै। नन्द-कुल के विनाश के वलए िि प्रथम
प्रवतज्ञा करता िै-‘‘यि वशखा नन्द-कुल की काल-सवपभणी िै, िि तब तक बन्धन में न िोगी, जब
तक नन्द-कुल वनःशेष न िोगा।’’ उसकी दसू री प्रवतज्ञा थी-‘‘दया वकसी से न मााँगगाँू ा और अवधकार
तथा अिसर वमलने पर वकसी पर न करूाँगा।’’ चाणक्य दोनों प्रवतज्ञाएाँ परू ी करके वदखाता िै। अपने
बवु द्ध-बल से िि चन्द्रगप्तु को सेनापवत बनाता िै तथा वसंिरण, अलका आवद विवभन्न पात्रों के
सियोग से अपनी योजनाएाँ वक्रयावन्ित करता िै। अन्ततः उसे सफलता वमलती िी िैं
(3) कूटनीहतज्ञ एवं दूरदशी- चाणक्य कूटनीवतज्ञ और दरू दशी िै। िि सम्पणू भ भारत को एक देखना
चािता िै। देश का कल्याण िी उसका लक्ष्य िै। इसके वलए िर सम्भि प्रयास करता िै। श्री जगन्नाथ
प्रसाद शमाभ उसकी नीवत पर प्रकाश डालते िुए वलखते िैं-‘‘उसकी नीवत िै वक जब तक कोई कायभ-
व्यापार चलता रिे, तत्सम्बन्धी रिस्य और भेद की बात वकसी को ज्ञात न िो। ग्ग्ग् वजतने अवधक से
अवधक उग्र संर्षो में िि पड़ता िै, उसकी बवु द्ध उतनी िी अवधक कायभतत्पर िो उिती िै।" उसे
अपना स्िाथभ पणू भ करना िी अभीष्ठ रिता िै, वकन उपायों और उपादानों से पणू भ करना िोगा, इसकी
कुछ वचन्ता निीं करता।’’ चाणक्य के शत्रु भी उसकी बवु द्ध की प्रशसं ा करते िैं। वसल्यक ू स के
अनसु ार िि ‘बवु द्धसागर’ िै तो राक्षस का मत िै-‘‘िि विलक्षण बवु द्ध का ब्रािमण िै, उसकी प्रखर
प्रवतभा कूट राजनीवत के साथ वदन-रात जैसे वखलिाड़ वकया करती िै।’’ कूटनीवतज्ञ और दरू दवशभता
के कारण िी िि छल से राक्षस की आगं ल ु ीय मद्रु ा ले लेता िै और नन्द के प्रवत उसके मन में
िैमनस्य उत्पन्न कर देता िै। अपनी दरू दवशभता के कारण िी िि चन्द्रगप्तु को मगध जाने से रोकता िै
तथा चन्द्रगप्तु के राजा बन जाने पर विजयोत्सि न मनाने की आज्ञा देता िै। मालविका की मृत्यु िो
जाने पर उसकी दरू दवशभता तथा उसके कूटनीवतज्ञ िोने का पररचय वमलता िै। अपनी नीवत पर प्रकाश
डालते िुए िि पिले िी वसंिरण ि चन्द्रगप्तु से कि देता िै-‘‘पौधे अन्धकार में बढ़ते िैं और मेरी
नीवत-लता भी उसी भााँवत विपवत्त में लिलिी िोगी। िााँ, के िल शौयभ से काम निीं चलेगा। एक बात
समझ लो, चाणक्य वसवद्ध देखता िै, साधन चािे कै से िी िों।’’
(4) उदार और कोमल- चाणक्य उदार और कोमल भी िै। राक्षस, वसकन्दर, वसल्यक ू स और
आम्भीक के प्रवत उसकी उदारता दशभनीय िै। सिु ावसनी के प्रवत उसका प्रेम प्रदवशभत करके नाटककार
ने उसकी कोमल िृवत्तयााँ का पररचय वदया िै। नाटक के प्रारम्भ में िी जब िि अपनी झोपड़ी ि वपता
का पता लगाने गया था तब िी उसे ज्ञात िुआ वक शकटार को बन्दी बना वलया गया और उसकी
बेटी सिु ावसनी अवभनेत्री बन गई। इस सबको सनु कर उसे बिुत दःु ख िुआ। तृतीय अक ं के षष्ठ दृश्य
में िमें चाणक्य की कोमल-िृवत्तयााँ का पररचय वमलता िै। कुसमु परु को देखकर िि सोचता िै-‘‘िि
सामने कुसमु परु िै, जिााँ मेरे जीिन का प्रभात िुआ था। मेरे उस सरल हृदय में उत्कृ ि इच्छा थी-कोई

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भी सन्ु दर-मन मेरा साथी िो। प्रत्येक निीन पररचय में उत्सक ु ता थी-और उसके वलए मन में सिभस्ि
लटु ा देने की सन्नद्धता थी। ग्ग्ग् सिु ावसनी न-न-न, िि कोई निीं।’’ अन्त में सिु ावसनी िारा वििाि
का प्रस्ताि रखने पर िि किता िै-‘‘सिु ावसनी! तम्ु िारा प्रणय स्त्री और परुु ष के रूप में के िल राक्षस
से अक ं ु ररत िुआ, और शैशि का िि सब के िल ह्रदय की वस्नग्धता थी। तुम राक्षस से प्रेम करके
सखु ी िो सकती िो और मैं, अभ्यास करके तमु से उदासीन िो सकता िू।ाँ ’’
(5) कमियोगी- चाणक्य आजीिन कमभ में रत रिने िाला सच्चा कमभयोगी िै। िि चन्द्रगप्तु ि वसिं रण
आवद सभी पात्रों को अपने संकेतों पर नचाता िै। उसका किना िै-‘‘ब्रािमण राज्य करना निीं
जानता, करना भी निीं चािता, िााँ राजाओ ं का वनयमन करना जानता िै, राजा बनाना जानता िै।
कमभ में वनरत िि सदा क्रूर एिं वनष्ठु र बना रिता िै क्योंवक उसका विचार िै-‘‘मित्िकांक्षा का मोती
वनष्ठु र की सीपी में पलता िै।’’ िि वनष्ठु र ितभमान के वलए। उसका सारा प्रयास भविष्य की सख ु -
शावन्त के वलए िी तो िै। इसके वलए िि अपना सिभस्ि त्याग कर देता िै। यिााँ तक वक अपने हृदय
की मधरु स्मृवत सिु ावसनी तक को भी छोड़ देता िै। उसका किना िै-‘‘श्रेय के वलए मनष्ु य को सब
त्याग करना चाविए।’’ अतः अपने लक्ष्य पर ध्यान के वन्द्रत करके िि उसकी वसवद्ध में िी अपने
जीिन की सफलता स्िीकार करता िै।
(6) हवचारक एवं दाशिहनक- चाणक्य एक मिान विचारक भी िै। िि प्रत्येक कायभ पर पिले भली-
भााँवत विचार करता िै, वफर वक्रयावन्ित। अपने विचारों के बल पर िी िि सब पात्रों को उवचत वनदेश
देता िै। पिभतेश्वर जब छुरा वनकालकर आत्मित्या करना चािता िै, तब चाणक्य िी उसका मागभदशभन
करता िै। िि पिभतेश्वर को आत्मित्या से रोकते िुए यिनों से प्रवतशोध लेने के वलए तैयार करता
िुआ किता िै-‘‘मनष्ु य अपनी दबु भलता से भली-भााँवत पररवचत रिता िै। परन्तु उसे अपने बल से भी
अिगत िोना चाविए। असम्भि किकर वकसी काम को करने से पिले कायभक्षेत्र में कााँपकर
लड़खड़ाओ मत पौरि!’’ इतना िी निीं, िि यत्र-तत्र अनेक सवू क्तयों का प्रयोग करके अपने गिन
वचन्तन-मनन का पररचय देता िै। जैसे, िि पौरि से किता िै-‘‘तामस त्याग से सावत्िक ग्रिण उत्तम
।’’ इसी प्रकार ‘‘व्यवक्त स्ितन्त्रता में बाधा न पड़े’’,मित्िकांक्षा का मोती वनष्ठु रता की सीपी में रिता
िै,’’ ‘‘श्रेय के वलए मनष्ु यको सब त्याग करना चाविए’’ आवद।
चाणक्य का गिन वचन्तन शनै-शनै उसे दाशभवनक बना देता िै अपने जीिन के समग्र वक्रया-
कलापों पर विचार करता िुआ िि चन्द्रगप्तु से कि उिता िै-‘‘मेरा जीिन राजनीवतक कुचक्रों से
कुवत्सत और कलंवकत िो उिा िै। वकसी छायावचत्र, वकसी काल्पवनक मित्ि के पीछे भ्रमपणू भ
अनसु न्धान करता दौड़ रिा िू।ाँ शावन्त खो गई, स्िरूप विस्मृत िो गया! जान गया, मैं किााँ और
वकतने नीचे िू!ाँ ’’ अपने बाल्यकाल, वपता, र्र, नगर और सुिावसनी आवद के विषय में सोचते िुए
चाणक्य किता िै-‘‘समझदारी आने पर यौिन बीत जाता िै-जब तक माला गथाँू ी जाती िै, तब तक
फूल कुम्िला जाते िैं।’’ नाटक के अन्त में जब ध्यानस्थ चाणक्य आाँख खोलता िै, तब उसे प्रतीत

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
िोता िै-‘‘चैतन्य सागर वनस्तरंग िै और ज्ञान-ज्योवत वनमभल िै। तो क्या मेरा कमभ कुलाल-चक्र अपना
वनवमभत भाण्ड उतार कर धर चक ु ा? िीक तो, प्रभात-पिन के साथ-सब की सख ु -कामना शावन्त का
आवलंगन कर रिी िै। देि! आज मैं धन्य िू।ाँ ’’
इस प्रकार चाणक्य एक विचारक और दाशभवनक के रूप में भी िमारे सामने आता िै।
वनष्कषभ रूप में कि सकते िैं वक चाणक्य के चररत्र में विवभन्न विरोधी गणु ों का समन्िय िुआ िै। िि
क्रूर एिं किोर िै तो कोमल भी, िि वनभीक स्िावभमानी िै तो उदार भी। उसका प्रमख ु लक्ष्य-राष्र
का कल्याण िै। इसकी वसवद्ध के वलए िि उवचत-अनवु चत सभी साधनों का प्रयोग करता िै क्योंवक
‘‘िि वसवद्ध देखता िै, साधन चािे कै से भी िों।’’ िि नाटक में आवद से अन्त तक छाया िुआ िै।
ििी सब र्टनाओ,ं कायों ि प्रसगं ों का के न्द्रवबन्दु िै। कुल वमलाकर कि सकते िैं वक ‘चन्द्रगप्तु ’
नाटक के पात्रों में चाणक्य सिाभवधक सशक्त, कमभि एिं दृढ़ पात्र िै।
हसंिरण - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के पात्रों में वसंिरण का मित्िपणू भ स्थान िै। िि मालिगण के राष्रपवत
का पत्रु िै। इसने तक्षवशला विश्वविद्यालय से वशक्षा प्राप्त की िै। वशक्षा-समावप्त के बाद इसे तक्षवशला
की राजनीवत पर दृवि रखने की आज्ञा वमली। अतः चाणक्य के वनदेशन में यि आगे कमभरत िोता
िै।वसंिरण का चररत्र एक आदशभ चररत्र िै। आचायभ चाणक्य की आज्ञा का पालन िी उसका इि िै
और यिी जीिन का लक्ष्य िै। उसके चररत्र की वनम्नवलवखत विशेषताएाँ िैं-
(1) हनभीक एवं सािसी- वसंिरण एक वनभीक और सािसी यिु क िै। नाटक के प्रारम्भ में िी
आम्भीक के साथ िाताभलाप करने में उसकी वनभीकता और सािस स्पि देखा जा सकता िै। वसंिरण
और चाणक्य की बातचीत सनु कर जब आम्भीक वकसी विस्फोट की बात वसंिरण से पछ ू ता िै और
उन दोनों को वकसी कुचक्र का सत्रू धार बताता िै तो वसिं रण वनभीकतापिू कभ किता िै-वसिं रण-
विद्याथी और कुचक्र! असम्भि। ये तो िे िी कर सकते िैं वजनके िाथ में अवधकार िो-वजनका स्िाथभ
समद्रु से भी विशाल और समु रुे से भी किोर, जो यिनों की वमत्रता के वलए स्ियं िाल्िीक
तक.............।’’
आम्भीक- बस-बस दद्ध
ु भषभ यिु क! बता तेरा अवभप्राय क्या िै ग्ग्ग् बताना िोगा। मेरी आज्ञा िै।
वसिं रण- गरुु कुल में के िल आचायभ की आज्ञा वशरोधायभ िोती िै, अन्य आज्ञाएाँ अिज्ञा के कान से
सनु ी जाती िै राजकुमार!
आम्भीक जब उसे दवु िभनीत किता िै तब वसंिरण स्पि उŸाार देता िै-‘‘विनम्रता के साथ वनभीक
िोना मालिों का िश ं ानुगत चररत्र िै, और मझु े तो तक्षवशला की वशक्षा का भी गिभ िै।’’ अलका,
वसिं रण के गणु ों से प्रभावित िोकर अपने भाई आम्भीक को समझाती िै और वसिं रण की प्रशसं ा

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करती िुई किती िै-‘‘इस िन्य वनझभर के समान स्िच्छ और स्िच्छन्द हृदय में वकतना बलिान िेग
िै!’’
(2) देशभि- वसंिरण सच्चा देशभक्त िै। देश की वस्थवत से भली-भााँवत पररवचत िोने के कारण िि
सदा देश के वलए मर वमटने को तत्पर रिता िै। िि िीर-हृदय िै, जो िर-पल यद्ध ु के वलए सन्नद्ध िै।
ितभमान वस्थवत का िणभन करता िुआ िि किता िै-‘‘एक अवग्नमय गन्धक का स्रोत आयाभितभ के
लौि-अस्त्रागार में र्सु कर विस्फोट करे गा। चंचला रण-लक्ष्मी इन्द्रधनषु -सी विजय-माल िाथ में वलए
उस सन्ु दर नील-लोवित प्रलय-जलद में वििरण करे गी और िीर-हृदय मयरू -से नाचेंग।े ’’ उसका िीर-
हृदय सदा नाचता िी रिता िै। देश के विताथभ िी िि बन्दी बनता िै। उद्भांड में वसन्धु पर बने रिे सेतु
का मानवचत्र बनाकर मालविका जब अलका को देती िै, तब एक यिन सैवनक उसे छीनना चािता िै
परन्तु वसिं रण शीघ्र िी ििााँ पिुचाँ कर अलका से िि मानवचत्र ले लेता िै और यिन सैवनक का
सामना करता िै-‘‘उसके (मानवचत्र) अवधकारी का वनिाभचन खड्ग करे गा। तो वफर सािधान िो
जाओ, (तलिार खींचता िै)।’’ वसंिरण के भीषण प्रत्याक्रमण से भयभीत िोकर यिन सैवनक भाग
जाता िै और वसंिरण र्ायल िो जाने पर भी नौका में बैिकर आगे के कायभ में तल्लीन िो जाता िै।
जाते समय िि अलका से किता िै-‘‘जन्मभवू म के वलए िी यि जीिन िै’’ िि चन्द्रगप्तु और
चाणक्य के सक ं े त पर सारे कायभ करता िै। मालिों के स्कन्धािार में यद्धु -पररषद् के सम्मखु अपनी
वस्थवत बताता िुआ िि किता िै-‘‘मैं मालि-सेना का बलावधकृ त िू।ाँ मझु े सेना का अवधकार
पररषद् ने प्रदान वकया िै और साथ िी सवन्ध-विग्रविक का कायभ भी करता िू।ाँ पंचनद की पररवस्थवत
मैं स्ियं देख आया िूाँ और मगध चन्द्रगप्तु को भी भलीभााँवत जानता िू।ाँ मैं चन्द्रगप्तु के आदेशानसु ार
यद्ध
ु चलाने के वलए सिमत िू।ाँ ’’ चन्द्रगप्तु उसे उसके भयानक दावयत्ि का स्मरण कराता िै। और
समझाता िै वक िमें यिन आक्रमणकाररयों को यिााँ से िटाना िै और उन्िें, वजस प्रकार िो, भारतीय
सीमा से बािर करना िै। इसवलए शत्रु की िी नीवत से यद्ध ु करना िोगा। वसंिरण सिषभ स्िीकार करता
िुआ किता िै-‘‘सेनापवत की सब आज्ञाएाँ मानी जाएाँगी, चवलए।’’ नाटक के अन्त तक िि
आज्ञाकारी सैवनक बनकर अपनी देश-भवक्त का पररचय देता िै।
(3) कतिव्यहनष्ठ एवं स्वाहभमानी- वसंिरण देशभवक्त जैसे मिान दावयत्ि को पणू रू भ पेण वनभाने में
सफल वसद्ध िोता िै। यिन आक्रमणकाररयों का सामना करते िुए जब वसकन्दर िी उसके सामने आ
जाता िै, तब िि उसे र्ायल करने में चक ू ता निीं। िि पिले िी वसकन्दर से किता िै-‘‘तमु को स्ियं
इतना सािस निीं करना चाविए वसकन्दर! तम्ु िारा प्राण बिुमल्ू य िै।’’ परन्तु जब वसकन्दर आगे
बढ़कर उस पर भाले से िार करता िै तो िि कब पीछे रिता िै। वसकन्दर शीघ्र िी उसके भयानक
प्रत्यार्ात से र्ायल िोकर वगर जाता िै। यद्यवप तीन यिन सैवनक कूदकर वसिं रण से यद्ध ु करने
पिुचाँ ते िैं परन्तु िि उनसे यद्ध
ु न करते िुए किता िै-‘‘यिन! दस्ु सािस न कर! तम्ु िारे सम्राट की
अिस्था शोचनीय िै, ले जाओ, इनकी शश्रु षृ ा करो!’’ दगु भ का िार टूट जाने पर, जब यिन सैवनक
अन्दर र्सु जाते िैं, तब वसिं रण मालि-सैवनकों को दृढ़ रिने की प्रेरणा देता िुआ किता िै-‘‘कुछ

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वचन्ता निीं। दृढ़ रिो। समस्त मालि सेना से कि दो वसिं रण तम्ु िारे साथ मरे गा ग्ग्ग् अलका! मालि
के ध्िस पर आयो का यशो-मवन्दर ऊाँचा खड़ा िो सके गा।’’ इस प्रकार एक ओर िि अपनी
कतभव्यवनष्ठा का पररचय देता िै तो दसू री ओर अपने स्िावभमा का।
(4) सच्चा प्रेमी- वसिं रण एक ओर देश प्रेमी िै तो दसू री ओर अलका का सच्चा प्रणयी। नाटक में
प्रारम्भ से िी िि अलका से प्रभावित िोता िै। यद्यवप अलका का भाई आम्भीक देशद्रोिी िै और
वपता गान्धार-नरे श स्ियं यिनों के समथभक, परन्तु अलका का देश-प्रेम और सहृदयता उसे आकवषभत
वकए वबना निीं रिती। प्रारम्भ में िि अलका के स्नेिानरु ोध से िी गान्धार छोड़कर जाता िै। बन्दीगृि
में अलका र्ायल वसंिरण अपनी दबु भल वस्थवत को स्ियं िी उसे बताता िै। अलका के यि किने पर
वक िि यवद पिभतेश्वर से वििाि कर ले तो उसे बन्दीगृि से छुड़ा सकती िै तब वसंिरण किता िै-
‘‘अच्छा िोता वक इससे पिले मैं िी न रि जाता। .........कविन परीक्षा न लो अलका! बड़ा दबु भल िू।ाँ
मैंने जीिन-मरण में तम्ु िारा संग न छोड़ने का प्रण वकया िै। .........और तमु पंचनद की अधीश्वरी
बनने की आशा में...........तब मझु े रणभवू म में प्राण देने की आज्ञा दो।’’ इस प्रकार िि अलका के
प्रवत अपने कत्तभव्य का वनिाभि कर चकु ने के बाद अलका और वसंिरण दोनों का वििाि िो जाता िै।
(5) िेष्ठ हचन्तक एवं हवचारक- वसंिरण नाटक में यत्र-तत्र अपने अनेक विचार प्रस्ततु करके अपने
गिन वचन्तन-मनन का पररचय देता िै। नाटक के प्रारम्भ में िि अलका को समझाता िुआ किता िै-
‘‘भद्रे! जीिन-काल में वभन्न-वभन्न मागो की परीक्षा करते िुए जो ििरता िुआ चलता िै, िि दसू रों
को लाभ िी पिुचाँ ाता िै। यि किदायक तो िै, परन्तु वनष्फल निीं।’’ अलका के यि किने पर वक
मनष्ु य को अपने जीिन और सख ु का भी ध्यान रखना चाविए, वसंिरण किता िै-‘‘मानि कब दानि
से भी दिु न्भ त, पशु से भी बबभर और पत्थर से भी किोर, करुणा के वलए वनरिकाश हृदयिाला िो
जाएगा, निीं जाना जा सकता। अतीत सख ु ो के वलए सोच क्यों, अनागत भविष्य के वलए भय क्यों
और ितभमान को मैं अपने अनुकूल बना िी लाँगू ा, वफर वचन्ता वकस बात की?’’ अन्त में आम्भीक
को समझाता िुआ िि किता िै-‘‘मनष्ु य साधारणधमाभ पशु िै, विचारशील िोने से मनष्ु य िोता िै
और वनःस्िाथभ कमभ करने से ििी देिता भी िो सकता िै।’’ इसी प्रकार िि सम्राट चन्द्रगप्तु की
मानवसक िेदना पर विचार करते िुए किता िै-‘‘सम्राट मनष्ु य िैं अपने बार-बार सिायता करने के
वलए किने में, मानि-स्िभाि विद्रोि करने लगता िै।’’ इस प्रकार वसंिरण का चररत्र एक श्रेष्ठ
वचन्तक और विचारक के रूप में भी देखा जा सकता िै।
इस प्रकार िम देखते िैं वक ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के पात्रों में वसंिरण का चररत्र उच्च एिं आदशभमय िै।
उसके विशेष गणु -वनभीकता, सािस, स्िावभमान और देशभवक्त-सभी को आकवषभत करने िाले िैं
मानि चररत्र के रूप में नाटककार ने उसके चररत्र की दबु भलता अलका के प्रेम के माध्यम से प्रस्ततु
की िै। िि चन्द्रगप्तु का सियोगी और चाणक्य का आज्ञाकारी वशष्य िै। समग्र रूप में उसका चररत्र
मिान एिं अनक ु रणीय िै।

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कल्याणी - मगध की राजकुमारी कल्याणी आदशभ प्रणवयनी रूप में िमारे सामने आती िै। िि
चन्द्रगप्तु को प्राप्त करना चािती िै परन्तु असफल रिती िै। जब पिभतेश्वर उससे वििाि करना
अस्िीकार कर देता िै तब उसमें प्रवतशोध की भािना जाग्रत िो जाती िै। सच्ची क्षत्राणी बन कर िि
वपता नन्द से किती िै-‘‘वपताजी, मैं पिभतेश्वर के गिभ की परीक्षा लाँगू ी। मैं िृषल-कन्या िू।ाँ उस क्षवत्रय
को यि वसखा दगाँू ी वक राज-कन्या कल्याणी वकसी क्षत्राणी से कम निीं। सेनापवत को आज्ञा दीवजए
वक आसन्न गधं ार-यद्ध ु में मगध की सेना अिश्य जाए और मैं उसका सच ं ालन करूाँगी। परावजत
पिभतेश्वर को सिायता देकर उसे नीचा वदखाऊाँगी। यिु कों को राष्र-रक्षा के वलए िि तैयार करती िै
और स्ियं भी उसमें सियोग देती िै। परन्तु अन्त में आत्मित्या कर लेती िै। क्योंवक चन्द्रगप्तु उसके
वपता नन्द का विरोधी वसद्ध िोता िै। िि चन्द्रगप्तु से स्पि कि देती िै-‘‘मौयभ! कल्याणी ने िरण
वकया था के िल एक िी परुु ष को -िि था चन्द्रगप्तु । ......... परन्तु मेरे वपता के विरोधी िुए। ग्ग्ग् अब
मेरे वलए कुछ भी अिवशि निीं रिा!’’ इस प्रकार कल्याणी चन्द्रगप्तु की प्रेवमका िोने पर भी फल की
प्रावप्त निीं कर पाती िै।
मालहवका - वसन्धु देश की कुमारी मालविका कोमल हृदया और चन्द्रगप्तु की प्रेवमका िै। सेिा भाि
उसके जीिन का व्रत िै। इसवलए िि किीं सखी, किीं सेविका, किीं ताम्बल ू िाविनी और किीं दतू
बनकर सेिा करती िै। चन्द्रगप्तु स्ियं उसकी प्रशसं ा करता िै- ‘‘मालविका, तमु मेरी ताबं ल ू िाविनी
िो, मेरे विश्वास की, वमत्रता की प्रवतकृ वत िो।’’ िि चन्द्रगप्तु के वलए एक फूलों की माला बनाती िै
और उसे पिनाती िै। यि चन्द्रगप्तु के प्रवत उसका प्रेम िी िै। चन्द्रगप्तु का प्रेम प्राप्त करने के वलए िि
नतभकी बनती िै तथा गीत गाती िै। अन्त में चन्द्रगप्तु की रक्षा में िी िि अपने प्राणों का उत्सगभ कर
देती िै।-‘‘जाओ वप्रयतम! सुखी जीिन वबताने के वलए और मैं रिती िूाँ वचर-दःु खी जीिन का अन्त
करने के वलए।
सुवाहसनी - शकटार की कन्या सिु ावसनी राक्षस की प्रेवमका और राजा नन्द की अवभनयशाला की
रानी (नतभकी) रूप में िमारे सामने आती िै। नतभकी िोने पर भी िि अपने स्त्रीत्ि और प्रेम की अन्त
तक रक्षा करती िै। िि आज्ञाकारी पत्रु ी भी िै। वपता की आज्ञा लेकर िी िि राक्षस से वििाि करना
चािती िै। बाद में चाणक्य के प्रवत भी उसका प्रेम-भाि वदखाई पड़ता िै। परन्तु चाणक्य स्ियं उसे
राक्षस से वििाि की मन्त्रणा देता िै।
अलका - नाटक में तक्षवशला की राजकुमारी का मित्िपणू भ योगदान रिा िै। िि आद्यन्त नाटक में
छाई िुई िै। अवधकांश र्टनाएाँ उसी से सम्बवन्धत िैं। देशानरु ागी िि देश के कल्याण िेतु नारी-पात्रों
में सिाभवधक प्रयत्नशील रिती िै। उसमें व्यििार-बवु द्ध भी विद्यमान िै। प्रेम-स्िागं रचकर िि अपने
प्रेमी वसंिरण को पिभतेश्वर के चंगल
ु से बचा लेती िै।
कानेहलया - वसल्यक ू स की पत्रु ी विदेशी िोते िुए भी नाटक की नावयका िै। क्योंवक िि चन्द्रगप्तु की
प्रेयसी िोने के साथ-साथ अन्त में साम्राज्ञी बनती िै नाटकीय वक्रया-व्यापार में अवधक योग न िोने

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पर भी नाटक के फल की प्रावप्त उसे िी िोती िै। ग्रीक राजकुमारी कानेवलया में भारत के प्रवत विशेष
अनरु ाग िै। िि स्पि किती िै- ‘‘यि स्िप्नों का देश, यि त्याग और ज्ञान का पालन, यि प्रेम की
रंगभवू म-भारत भवू म क्या भल ु ाई जा सकती िै? कदावप निीं! अन्य देश मनष्ु यों की जन्मभवू म िै, यि
भारत देश मानिता की जन्मभवू म िै।’’ चन्द्रगप्तु सका सच्चा प्रेम िै। जब वसल्यकू स चन्द्रगप्तु को दण्ड
देने का विचार बनाता िै, तब िि स्पि किती िै-‘‘चन्द्रगप्तु का तो कोई अपराध निीं, क्षमा कीवजए
वपता! (र्टु ने टेकती िै) इसके साथ िी िि किती िै-‘‘(रोती िुई) मैं स्ियं परावजत िू।ाँ मैंने अपराध
वकया िै वपताजी! चवलए, इस भारत की सीमा से दरू चले चवलए, निीं तो मैं पागल िो जाऊाँगी।’’
अन्त में चन्द्रगप्तु -कानेवलया का वििाि कराकर नाटककार ने कानेवलया को भारत की साम्राज्ञी बना
वदया िै। अतः फल-प्रावप्त की दृवि से कानेवलया नाटक की नावयका वसद्ध िोती िै।
वनष्कषभ रूप में कि सकते िैं वक प्रसाद ने सभी नारी-पात्रों को आदशभ रूप में प्रस्ततु वकया िै। डा.
शावन्तस्िरूप गप्तु के शब्दों में ‘‘प्रसाद की नारी-सृवि एक स्िवगभक सषु मा से मवण्डत तथा अपिू भ
गररमा से गौरिावन्ित िै। आदशभ के उतंगु वशखर पर प्रवतवष्ठत िोकर भी िि जीिन के धरातल पर
विचरण करती िै। यिी िै उनके नारी-जीिन का रिस्य।’’ कल्याणी, मालविका, सिु ावसनी, अलका,
कानेवलया में से कानेवलया को नाटक के फल की प्रावप्त कराकर और उसे भारत की साम्राज्ञी बताकर
नाटककार ने नावयका पद पर आसीन वकया िैं।
अभ्यास प्रश्न - क

प्रश्न.1.चन्द्रगप्तु में परू


ु ष पात्रों की संख्या बताइए ?
प्रश्न.2.चन्द्रगप्तु में स्त्री पात्रों की संख्या बताइए ?
प्रश्न.3.चन्द्रगप्तु का नायक कौन िै ?
प्रश्न 4.चन्द्रगप्तु की नावयका कौन िै ?
प्रश्न.5.चन्द्रगप्तु का सिाभवधक मित्िपणू भ पात्र कौन िै ?
प्रश्न.6.चाणक्य का िास्तविक नाम क्या िै ?
प्रश्न.7.राक्षस कौन िै ?

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4.4 चन्रगुप्त मचर चहर -हच ण की हवशेषताएं-

4.4.1 इहतिास और कल्पना


प्रसाद के नाटकों का मल ू स्त्रोत इवतिास िै, वजन चररत्रों के िे इवतिास से चनु ते िैं िे उन्िें
इवतिास के प्राप्त सचू नाओ ं के आधार उस पात्र का खाका ग्रिण करते िैं, शेष कायभ उनकी जीिन-
दृवि, और जीिन-अनभु ि, ज्ञान और कल्पना करती िै। इवतिास के कंकाल को रूपाकार प्रदान
करना और उनको इच्छा-शवक्त तथा भािना से परू रत करना प्रसाद की रुप- विधावयनी कल्पना की
सबसे बड़ी देन िै।
प्रसाद की कल्पना शवक्त बिुत विलक्षण किी जा सकती िैं छोटा सा ऐवतिावसक संकेत
पाकर िे पात्र को पणू भ ऐवतिावसक व्यवक्तत्ि प्रदान करने की क्षमता रखते िैं, चन्द्रगप्तु में दाड्यायन,
ऐसा िी पात्र िै। इसी प्रकार पणू तभ ः काल्पवनक पात्रों का इवतिासीकरण भी प्रसाद की पात्र-संरचना
पद्धवत की देन िै। सिु ावसनी वसंिरण इसी प्रकार के पात्र िै।
4.4.2 संस्कृहत का आधार
सस्ं कृ वत के सन्दभभ को लेकर प्रसाद ने आदशभिाद, भारतीय सावित्य में स्त्री-परुु ष के प्रेम-
वचत्रण, आनन्दिाद और नाटक की सख ु ान्त-दख
ु ान्त प्रिृवत्त पर भी विचार वकया िै।
प्रसाद स्ियं सावित्य को संस्कृ वत के साथ जोड़ने के पक्ष में थे, इसवलए उन्िोंने अपने नाटकों
में भारतीय संस्कृ वत के सांस्कृ वतक मल्ू यों के रक्षाथभ प्रत्येक पात्र के चररत्र में विशेष आग्रि वदखाया
िै।
4.4.3 हवचार और भाव की भूहमका
प्रसाद अपने नाटकीय पात्रों को मिान उददेश्यों का िािक बनाते िैं और इस प्रवक्रया में उन्िें
इतनी काव्यात्मक, सर्नता, प्रगाढ़ता और रिस्यमयता प्रदान करते िैं, वजससे िे पािक या प्रेक्षक
को सामान्य से विवशि लगने लगते िैं, छायािाद के एक प्रमख ु उपादान के रूप में विषाद, करूणा,
विराग और त्रासद तत्ि का प्रसाद ने अपने पात्रो की सरं चना में अनेक रूपों में प्रयोग वकया िै।
विम्बसार, स्कन्ध, देिसेना, चाणक्य, मालविका, आवद पात्र विषाद और दःु ख का अनुभि दाशभवनक
स्तर पर करते िै। प्रसाद ने अपने पात्रों की सरंचना में भािना और विचार दोनो का वमला-जल ु ा प्रयोग
वकया िै, उन्िोंने सत्य के श्रेय और प्रेम लक्षण बताते िुए उसकी अवभव्यवक्त के वलए अनुभवू त और
मनन शवक्त दोनो की आिश्यकता पर बल वदया िै।िस्तुतः प्रसाद के प्रमख ु पात्र नाटक के आरम्भ से
लेकर अन्त एक परू ी यात्रा तय करते िैं, सत् पात्रों में यि यात्रा िाह्य सर्ं षभ से आरम्भ िोती िै और
आन्तररक के बीच विकवसत िोती िै, यों भी किा जा सकता िै वक आन्तररक ििं उनकी प्रकृ वत का
अगं िोता िै, स्कन्धगप्तु , देिसेना, वबम्बसार आवद इसके उदािरण िै।

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4.4.4 पात्र संरचना में हशहथलता-
चन्द्रगप्तु पात्र सरं चना की दृवि से वबखरा िुआ नाटक िै, इसका कारण र्टनाओ ं की
संकुलता उनका तीव्र प्रिाि और वबखराि तो िै वि इवतिास का आग्रि भी िै वजसके कारण पात्र
एक विवशि वदशा में अग्रसर िोने के वलए िाह्य िोते िै, इस नाटक की चररत्र संरचना सबसे बड़ी त्रवु ट
पात्रों का यत्रं ित वक्रया व्यापार िै जो कत्तभव्य के आिरण में उन्िें कभी सोचने और अन्तर की
गिराइयों में बैिने का अिसर िी निीं देता जैसे िररूवच, मौयभ सेनापवत, शकदार, अलका, वसंिरण,
वबलकुल सपाट िैं, राक्षण भी प्रभावित निीं करता और किीं अन्य पात्र कथािस्तु के साधन पात्र
बनकर रि गए िैं, चन्द्रगप्तु नायक िोते िुए भी अपना व्यवक्त्ति उभार निीं पाता, के िल चाणक्य ऐसा
पात्र िै वजसे ऐविक और आवत्मक स्तर पर प्रसाद ने आन्तररक दृवि से उभारा िै।

अभ्यास प्रश्न ख

प्रश्न 1. मेगास्थनीज कौन िै ?


प्रश्न 2. गाधं ार नरे श कौन िै ?
प्रश्न 3. अलका कौन िै ?
प्रश्न 4. सिु ावसनी कौन िै ?
प्रश्न 5. कानेवलया कौन िै ?
प्रश्न 6. चन्द्रगप्तु वकस राज्य का सम्राट िै ?
प्रश्न 7. नंद वकस राज्य का सम्राट िै ?

4.5 सारांश
प्रसाद के नाटक जीिन का करूण और कोमल वबम्ब उभारते िुए मानि व्यििार के उस
पक्ष की भी उपेक्षा निीं करते जो किोर और जर्न्य िै। उनके अवधकांश पात्र व्यििार में आदशभिादी
िै, वकन्तु ऐसे पात्र भी कम निीं िै जो जीिन की कटुताओ,ं दबु भलताओ,ं दष्ु प्रिृवत्तयों के प्रतीक िैं, िे
पात्र को जीिन की ऊंचाइयों तक उिाते िै वकन्तु उसके अद्यः पवतत वस्थवत को नकारते निीं।

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इस प्राकर सक्ष
ं ेप में किा जा सकता िै की मानिीय दीत्यन्ता से ओतप्रोत प्रसाद के पात्र
जीिन की किोरता को भी पणू भ सच्चाई से व्यक्त करते िैं। भाषा की कोमलता उस किोरता व्यक्त
निीं कर पाती, इस दृवि से प्रसाद के नाटकों का अध्ययन वकया जाना आिश्यक िै।

4.6 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न (क) के उत्तर
उत्तर 18
उत्तर 8
उत्तर चाणक्य
उत्तर कानेवलया
उत्तर चाणक्य
उत्तर विष्णगु प्तु
उत्तर मगध का अमात्य
अभ्यास प्रश्न (ख) के उत्तर
उत्तर यिन दतू
उत्तर आम्भीक के वपता
उत्तर तक्षवशला की राजकुमारी
उत्तर शकटार की पत्रु ी
उत्तर वसल्यक
ू स की पत्रु ी।
उत्तर मौयभ सम्राट।
उत्तर मगध ।

4.7 संदर्भ ग्रथ सूची


1. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ. गणपवत चन्द्र गप्तु

उत्तराखंड मक्त
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2. प्रसाद के नाटक, डॉ. परमेश्वरी लाल
3. प्रसाद के नाटक स्िरूप और सरं चना, डॉ. गोविन्द चातक
4. विन्दी नाटक उदभि और विकास, डॉ. दशरथ ओझा
5. विन्दी नाट्य सावित्य का विकास, डॉ. सोमनाथ गप्तु

4.8 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1 . विन्दी नाटक : उद्भि और विकास, दशरथ ओझा
2 . विन्दी सावित्य का इवतिास, डा. नगेन्द्र
3 . विदं ी का गद्य सावित्य, रामचद्रं वतिारी
4 . विन्दी सावित्य का दसू रा इवतिास, डा.बच्चन वसिं

4.9 हनबं धात्मक प्रश्न-


प्रश्न 1. चन्द्रगप्तु नाटक का नायक कौन िै, नाट्य-कला के आधार पर उसका चररत्र-वचत्रण
कीवजए
प्रश्न 2. चंद्रगप्तु नाटक के आधार पर पात्रों की विविधता एिं विशेषताओ ं पर एक विस्तृत
वनबंध वलवखए

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 58
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इकाई 5 चन्रगुप्ि में भाषा शैली और रं गमंचीय
प्रस्िुहि
इकाई की रूपरे खा
5.1 प्रस्तािना
5.2 उद्देश्य
5.3 चन्द्रगप्तु की भाषा
5.3.1 भाषा शैली की विशेषताएं
5.4 चन्द्रगप्तु नाटक, रंगमंचीय प्रस्तवु त
5.4.1 अवभनेयता
5.4.2 संिाद योजना
5.5 सारांश
5.6 अभ्यास प्रश्न
5.7 सदं भभ ग्रथं
5.8 उपयोगी पाि्य सामग्री
5.9 वनबन्धात्मक प्रश्न

5.1 प्रस्तावना

आपको यि बताना आिश्यक िै वक नाटक में भाषा का बिुत मित्त्ि िै िस्ततु ः यि किना
अनवु चत न िोगा वक भाषा का मित्त्ि नाटक के अन्य तत्िों से अवधक िै, नाटक में भाषा दोिरा
कायभ करती िै, एक ओर अथभ के वलए स्ंिय भाषा का अपना तावत्त्िक मित्त्ि िोता िै,दसू री ओर िि
नाटक के ढाचं े ओर उसके अगं ीभतू अन्य तत्त्िों का सजभन भी करती िै। कथािस्तु चररत्र, कायभ
वस्थवत, सभी का वनमाभण भावषक तत्त्ि पर वकसी न वकसी रूप में अिलवम्बत रिता िै, नाटक की
भावषक संरचना ऊपरी सति पर कथानक, चररत्र आवद की सृवि करती िै, आन्तररक तल पर नाटक
के वनविताथभ अथाभत उद्देश्य का गिन करती िै। नाटक का पाि और नाट्य गवत का सयं ोजन भाषा पर
िी वनभभर िै।

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5.2 उद्देश्य
जैसा वक आपको विवदत िै जयशक ं र प्रसाद पिले कवि िैं, तत्पश्चात नाटककार. उनका
कवि रूप उनके नाटकों को भी प्रभावित करता िै। इसका ज्ञान िमें नाटकों में स्थान-स्थान पर वमलता
िै, इस इकाई में िम 'चन्द्रगप्तु ' नाटक की भाषा एिं उसकी अवभनय कला का परीक्षण करें गें।
सम्पणू भ अध्ययन के पश्चात आपको ज्ञात िोगा वक प्रसाद ने वकस प्रकार की भाषा का प्रयोग
नाटकों में वकया िै। अवभनेयता वक दृवि से भी इस इकाई में प्रसाद के चन्द्रगप्तु का विश्ले षण वकया
जाएगा। प्रायः यि माना जाता िै वक प्रसाद के नाटक अवभनय वक दृवि से सफल निीं िै। इस इकाई
में िम इन आक्षेपों का अध्ययन करे ग।ें

5.3 'चन्रगुप्त' नाटक की र्ाषा


श्री जयशक ं र ‘प्रसाद’ उच्च कोवट के नाटककार िोने के साथ-साथ श्रेष्ठ कवि और
वनबन्धकार भी थे। यिी कारण िै वक उनकी भाषा-शैली में काव्यात्मकता, संस्कृ तवनष्ठता, मधरु ता,
नाटकीयता, आलक ं ाररता, प्रतीकात्मकता, व्यग्ं यात्मकता और छायािादी कोमलता विद्यमान िैं।
उनकी भाषा-शैली उनके गिन वचन्तन-मनन की पररचावयका िै। उन्िोंने ज्ञान-विज्ञान, धमभ, दशभन,
इवतिास, शास्त्र, काव्य, राजनीवत, भगू ोल, खगोल, संगीत और िैद्यक आवद विवभन्न क्षेत्रों से शब्दों
का चयन वकया िै। डॉ. गोविन्द चातक (प्रसाद: नाट्य और रंग-वशल्प) के शब्दों में- ‘‘इसमें कोई
सन्देि निीं वक प्रसाद का एक-एक शब्द उनके वचन्तन और मनन को प्रकट करता िै। उनके शब्दों के
पीछे प्राचीन भारत की समचू ी संस्कृ वत और परम्परा बोलती िै। इवतिास को समझे वबना प्रसाद के
नाटकों में प्रयक्त
ु शब्दों, अनभु वू तयों और विचारों का आस्िादन सम्भि निीं’। प्रसाद की भाषा
वििादास्पद रिी िै। आलोचकों का कथन िै वक प्रसाद के नाटकों की भाषा अस्िाभाविक,
अनाटकीय और एकरस िै। उनके सभी पात्र, चािे िे वकसी भी श्रेणी या िगभ के िों, एक िी
संस्कृ तवनष्ठ काव्यात्मक भाषा बोलते िैं। यि सत्य िै वक प्रसाद के नाटकों के सभी पात्र एक-सी
भाषा का प्रयोग करते िैं। परन्तु उनकी भाषा को अनाटकीय अथिा अस्िाभाविक निीं किा जा
सकता। अपनी भाषा के सम्बन्ध में प्रसाद स्ियं किते िैं- ‘‘वभन्न-वभन्न देश और िगभ िालों से उनके
देश और िगभ के अनसु ार भाषा का प्रयोग कराने से नाटक को भाषाओ ं का अजायबर्र बनाना पड़ता
िै। जो किीं अवधक अप्राकृ वतक िो जाता िै और सामावजकों के वलए भी इतनी भाषाओ ं से पररचय
रखना असम्भि िै। इसके अवतररक्त, इस विषय की अवधक आिश्यकता भी निीं वदखाई पड़ती। न
जाने वकतने विदेवशयों को िम अपनी िी तरि विन्दी बोलने-समझते पाते िैं। जिााँ भािक ु ता और
कल्पना के बल पर िम इतने बड़े अवभनय को नकल और अवभनय न समझकर सच्ची र्टना मानते
िैं और उसी के साथ िाँसते-रोते, सख ु -दःु ख सिते िै। ििााँ ऐसी बात यथाथभ िै अथिा अयथाथभ, इसके
विचार का अिसर िी किााँ रि जाता िै। जब िम वसल्यक ू स और कानेवलया को अपने सम्मखु खड़ा

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देखते िैं, तब िे यथाथभ मालमू पड़ते िैं और जब िे पररष्कृ त भाषा का प्रयोग करने लगते िैं। तब
अयथाथभ िो जाते िैं, यि भी कोई तकभ िै। अतएि भाषा-विविधता के वलए आग्रि न करना िी
वितकर िै। स्िरूप वभन्नत्ि के िल िेश-भषू ा से िी व्यक्त कर देना चाविए।’’
5.3.1 ‘चन्रगप्तु ’ की भाषा-शैली की हवशेषताएाँ
चन्द्रगप्तु की भाषा-शैली में विविधता विद्यमान िै। इसमें एक ओर संस्कृ तवनष्ठ, काव्यात्मक,
प्रतीकात्मक ि छायािादी आलक ं ाररक भाषा-शैली का प्रयोग वमलता िै तो दसू री ओर प्रसगं ानक ु ूल
सरल, सरस, दाशभवनक और गम्भीर भाषा-शैली दृविगत िोती िै। ‘चन्द्रगप्तु ’ प्रसाद का ऐवतिावसक
नाटक िै। इसवलए उन्िोंने देशकाल के अनुरूप िी शब्दािली का चयन वकया िै। ‘चन्द्रगप्तु ’ भाषा-
शैली की वनम्नावं कत विशेषताएाँ िैं-
(1) संस्कृतहनष्ठ - ‘चन्द्रगप्तु ’ की भाषा युगानरू
ु प िै। नाटक के अवधकांश पात्र राजन्य िगभ के अथिा
इस िगभ से सम्बन्ध रखने िाले िैं। इनके अवतररक्त ब्रािमण और सामान्य नागररक भी िै। संस्कृ त
भारत के ज्ञान-विज्ञान और सावित्य की प्रमख ु भाषा थी। अतः प्रसाद ने पात्रों के मख
ु से संस्कृ तवनष्ठ
भाषा का प्रयोग कराया िै। संस्कृ तवनष्ठ भाषा िोने पर भी दरू ु िता अथिा अस्िाभाविकता किीं भी
निीं आई िै। भाषा सिभत्र सरस, स्िाभाविक और पात्रों के भािानक ु ू ल िै चाणक्य का कथन दशभनीय
िै-‘‘त्याग और क्षमा, तप और विद्या, तेज और सम्मान के वलए िै-लोिे और सोने के सामने वसर
झकु ाने के वलए िम लोग ब्रािमण निीं बने िैं।’’
(2) काव्यात्मक - प्रसाद मख्ु यतः कवि थे। इसवलए उनके नाटकों की भाषा काव्यात्मक िै। डॉ.
नगेन्द्र ने उनके नाटकों को मधु से िेवित किा िै। भाषा-शैली काव्यात्मक िोने के साथ-साथ प्रिाि
एिं माधयु भ से यक्तु िै। वसिं रण का कथन देवखए- ‘‘एक अवग्नमय गन्धक का स्रोत आयाभित्तृ के लौि-
अस्त्रागार में र्सु कर विस्फोट करे गा। चंचला रणलक्ष्मी इन्द्रधनषु -सी विजय-माल िाथ में वलए उस
सन्ु दर नील-लोवित प्रलय-जलद में विचरण करे गी और िीर-ह्दय मयरू -से नाचेंग।े ’’
(3) अलक ं ृ त - प्रसाद छायािादी कवि थे। इसवलए छायािादी काव्य के अनरू ु प उनके नाटकों की
भाषा अलक ं ृ त और भािपणू भ िै। ऐसे स्थलों पर मधरु ता, कोमलता और सक
ु ु मारता भी विद्यमान िै।
गिन अनभु वु त और विराट कल्पना से रंवजत ऐसे स्थल भव्य, अथभपणू भ और मावमभकता से यक्त ु िैं।
चन्द्रगप्तु का कथन द्रिव्य िै-‘‘चतरु सेिक के समान संसार को जगाकर अन्धकार िट गया। रजनी
की वनस्तब्धता काकली से चंचल िो उिी िै। नीला आकाश स्िच्छ िोने लगा िै............ यि
जागरण का अिसर िै। जागरण का अथभ िै कमभक्षेे़त्र में अितीणभ िोना!’’
(4) दाशिहनक और गम्भीर - ‘चन्द्रगप्तु ’ की भाषा काव्यात्मक और अलक
ं ृ त िोने के साथ-साथ
दाशभवनक और गम्भीर भी िै। आचायभ चाणक्य और मिात्मा कात्यायन की भाषा गम्भीर ि दाशभवनक

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िै। कात्यातन का मत देवखए-‘‘भमू ा का सखु और मित्त्ि का वजसको आभास-मात्र िो जाता िै,
उसको ये नश्वर चमकीले प्रदशभन अवभभतू निीं कर सकते।’’
(5) ओजपूणि - ‘चन्द्रगप्तु ’ में राजनीवत, कूटनीवत और यद्ध
ु का िणभन िै। इसवलए भाषा-शैली
ओजपणू भ िै। चाणक्य के कथन इसका प्रमाण िै। इसके अवतररक्त वसंिरण, चन्द्रगप्तु , अलका आवद के
कथन भी ओज-भाि को व्यक्त करने िाले िैं। चाणक्य का कथन वकतना ओजपणू भ िै-‘‘पौधे
अन्धकार में बढ़ते िैं और मेरी नीवत-लता भी उसी भााँवत विपवत्त में लिलिी िोगी। िााँ, के िल शौयभ
से काम निीं चलेगा। एक बात समझ लो, चाणक्य वसवद्ध देखता िै, साधन चािे कै से िी िों। बोलो-
तमु लोग प्रस्ततु िो ?’’
(6) नाटकीय एवं रसानुकूल - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक िै। इसवलए भाषा का नाटकीय िोना स्िाभाविक
िै। ‘चन्द्रगप्तु ’ की भाषा में िे समग्र विशेषताएाँ विद्यमान िैं, जो नाटक के वलए आिश्यक िैं। इसमें
रसानक ु ू ल भाषा का प्रयोग िुआ िै। उत्साि, आिेश, प्रेम, दया, क्षमा, विनय आवद के भािों को
अवभव्यक्त करने में भाषा पणू भ सक्षम िै । अलका का कथन देवखए-‘‘भाई! अब भी तम्ु िारा भ्रम निीं
गया। राज्य वकसी का निीं िै। सश ु ासन का िै। जन्मभवू म के भक्तों में आज जागरण िै। देखते निीं
प्राच्य में सयू ोदय िुआ िै। भाई! तक्षवशला मेरी निीं और तम्ु िारी भी निीं। इसके वलए मर वमटो।’’
(7) सूहियों का साथिक प्रयोग - ‘चन्द्रगप्तु ’ में प्रसाद ने यत्र-तत्र सवू क्तयों का प्रयोग वकया िै।,
वजससे नाटक में रोचकता और प्रभाि का समािेश िो गया िै। आचायभ चाणक्य और चन्द्रगप्तु के
कथन ऐसे िी िैं। चन्द्रगप्तु स्पि किता िै- ‘‘आत्म-सम्मान के वलए मर वमटना िी वदव्य-जीिन िै।’’
तथा ‘‘ब्रािमणत्ि एक सािभभौम शाश्वत बवु द्ध-िैभि िै।’’
(8) लक्षणा-व्यंजना का प्रयोग - ‘चन्द्रगप्तु ’ की भाषा को प्रभािशाली बनाने के वलए प्रसाद ने
यत्र-तत्र की लक्षणा-व्यंजना का भी प्रयोग वकया िै। जैसे-‘कुसमु परु फूलों की सेज से ऊाँर् रिा िै,’
‘कुत्ता -कुत्ता िी रिेगा, इन्द्र-इन्द्र िी,’ चाणक्य किता िै- ‘‘मैं कुत्ते को कुत्ता िी बनाना चािता िू।ाँ
नीचों के िाथ में इन्द्र का अवधकार चले जाने से जो सख ु िोता िै उसे मैं भोग रिा िू।ाँ ’’
(9) पात्रानुकूल भाषा का अभाव - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में पात्रानक ु ू ल भाषा-शैली का अभाि िै।
उनके सभी पात्र, चािे िे राजा िों, ब्रािमण िों, शद्रू िों, पररचारक िों या विदेशी िों, एक िी भाषा
का प्रयोग करते िैं। वसकन्दर, वसल्यक ू स और कानेवलया आवद विदेशी पात्रों के मख ु से संस्कतवनष्ठ
भाषा का प्रयोग कुछ अटपटा िी लगता िै। श्री राजनाथ शमाभ, प्रसाद की भाषा के प्रयोग का कारण
स्पि करते िुए वलखते िैं- ‘‘उनके नाटक भारत के प्राचीन, इवतिास (मिाभारत काल) से लेकर
सातिीं-आििीं शताब्दी तक के इवतिास से सम्बवन्धत रिे िैं। उस यगु में वशि-जनों की भाषा
संस्कृ त थी। विवभन्न प्राकृ तों और अपभ्रश
ं ों का भी समाज में व्यििार िोता था। भारत में आने िाले
विदेशीि भारतीयों के साथ वकस प्रकार की भाषा बोलते थे, इसका पता निीं चलता। समाज का

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अवशवक्षत िगभ वकस बोली या भाषा का प्रयोग करता था, इसका भी िमें ज्ञान निीं िै। वफर प्रसाद
अपने नाटकों के ऐसे पात्रों से वकस प्रकार की भाषा बल
ु िाते, यि तो उनके वििान आलोचक िी
बता सकते िैं।’’
अतः प्रसाद ने भाषा के वििाद में न पड़कर एक िी भाषा ‘संस्कृ तवनष्ठ’ का प्रयोग कर वदया
िै। और यि आक्षेप वक उनकी भाषा पात्रानक ु ू ल निीं स्ितः िी समाप्त िो जाता िै।

5.4 चन्रगुप्त नाटक, रं गमंचीय प्रस्तुहत

5.4.1 अहभनेयता
(1) नाटक में अहभनेयता का मित्त्व - नाटक की सफलता उसकी अवभनेयता पर वनभभर िै। प्रत्येक
सहृदय सामावजक वकसी तथ्य को पढ़कर अथिा सनु कर इतना प्रभावित निीं िोता, वजतना प्रत्यक्ष
देखकर। इसवलए रंगमचं की आिश्यकता और अवभनय की मित्ता को सभी वििानों ने एकमत िोकर
स्िीकार वकया िै। आचायभ नन्ददल ु ारे िाजपेई (आलोचना, नाटक विशेषांक) का मत दशभनीय
िै‘‘‘मानि चररत्र को शवक्त और गवत देने में, सामवू िक प्रवतवक्रया और प्रेरणा उत्पन्न करने में-जीिन
का वनमाभण करने में-वजतना कायभ अवभनेय नाटक कर सकता िै, उतना दसू री कोई कलाकृ वत निीं।’’
(2) चन्रगुप्त की अहभनेयता (रंगमंच) - ‘चन्द्रगप्तु ’ की अवभनेयता के सम्बन्ध में वििानों में पयाभप्त
वििाद रिा िै। कुछ भाषा को अनपु यक्त ु , दरू
ु ि और दाशभवनक बताते िैं तो कुछ कथोपकथनों के
विस्तार, दृश्य-विभाजन के आवधक्य और काल-योजना के वबखराि की ओर ध्यान आकवषभत करते
िुए ‘चन्द्रगप्तु ’ को अवभनय के अनपु यक्तु वसद्ध करते िैं। सत्यता यि िै वक प्रसाद के समय में तीन
रंगमचं थे-(1) सस्ं कृ त रंगमचं , (2) पारसी रंगमचं , (3) विन्दी का असगं वित रंगमचं । सस्ं कृ त और
पारसी रंगमचं के विवभन्न तत्िों का समन्िय करते िुए प्रसाद ने विन्दी के असंगवित रंगमचं को
संगवित और सव्ु यिवस्थत बनाने का प्रयास वकया। उस समय का रंगमचं फूिड़ और बाजारू िोने के
साथ-साथ व्यािसावयक भी था। इसीवलए प्रसाद ने रंगमचं को एक ऊध्िभमख ु ी बनाने के वलए
तत्कालीन रंगमचं से विद्रोि वकया और रंगमचं को एक निीन वदशा प्रदान की। रंगमचं सम्बन्धी
अपना दृविकोण अवभव्यक्त करते िुए प्रसाद ने (काव्य और कला तथा अन्य वनबन्ध) वलखा-
‘‘रंगमचं के सम्बन्ध में यि भारी भ्रम िै वक नाटक के वलए रंगमचं िो, जो अव्याििाररक िै।’’ अपने
इसी दृविकोण के कारण प्रसाद ने रंगमचं अथिा नाटक की अवभनेयता पर इतना ध्यान निीं वदया,
वजतना ध्यान दृश्यों के विभाजन, र्टनाओ ं के सयं ोजन, पात्रों के चररत्रोद्घाटन, गीतों के वनिाभि और
काव्यात्मकता के समािेश पर वदया िै। इसवलए उनके नाटकों में कुछ दोष आ गए िैं। ‘चन्द्रगप्तु ’
नाटक में भी अवभनय की दृवि से अनेक दोष वदखाई पड़ते िैं जो वनम्नांवकत िैं-

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(3) कहतपय दोष - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक में अवभनय की दृवि से पिला दोष दृश्य-विभाजन में िै। इसमें
कुल 44 दृश्य िैं। वजनके अवभनय में बिुत समय लगेगा। दसू रा दोष दृश्यों की क्रमबद्धता में िै। नाटक
के प्रारवम्भक दृश्यों-पिला तक्षवशला के गरुु कुल का, दसू रा मगध-सम्राट के विलास-कानन का-का
क्रम िीक निीं, क्योंवक दोंनो की साज-सज्जा में पयाभप्त समय चाविए। तीसरा दोष नाटक की काल-
योजना में िै। दृश्यों के बीच किीं-किीं लम्बे समय का अन्तर िो गया िै। डॉ. शावन्तस्िरूप गप्तु
(प्रसाद के नाटक एिं नाट्य वशल्प) के अनसु ार-‘‘चन्द्रगप्तु ’ के पााँचिे और छिें दृश्यों के बीच 11
मास का अन्तर िै। अक ं ों का काल-विभाजन भी िीक निीं िो पाया िै। ‘चन्द्रगप्तु ’ के पिले अक
ं की
र्टनाएाँ एक िषभ की िैं। और चौथे अक ं में सोलि िषभ की र्टनाएाँ िूाँस दी गई िैं। इस अवनयवमत
काल-योजना से नाटक की प्रभािवन्िवत पर कुप्रभाि पड़ा िै।’’ चौथा दोष भाषा की सस्ं कृ तवनष्ठता
और लम्बे-लम्बे कथोपकथनों में वदखाई पड़ता िै। सामान्य दशभक न ऐसी भाषा समझ सकता िै और
न लम्बे कथोपकथनों से रसास्िादन कर सकता िै। पााँचिााँ दोष गीतों के आवधक्य में वमलता िै।
पात्रों की अवधक संगीतवप्रयता पािक में नीरसता का संचार करती िै। सुिावसनी, कल्याणी, अलका
आवद िारा गाए गए गीत किीं तो साथभक िैं परन्तु किीं-किीं वनरथभक और उबाने िाले िैं। जैसे-प्रथम
अक ं के दसू रे दृश्य में सिु ावसनी थोड़ी-थोड़ी देर बाद गाती िै, जो दशभक को नीरस प्रतीत िोता िै।
छिा दोष नाटक को अवतशय काव्यात्मकता और दाशभवनकता में दृविगत िोता िै। यवद पात्र ऐसे
काव्यात्मक और दाशभवनक स्थलों को अवभनय में स्थान दे तो दशभक को समझने में बिुत कविनाई
िोगी। स्पि िै वक अवभनय की दृवि से ‘चन्द्रगप्तु ’
में अनेक दोष िैं। इसी कारण आलोचकों ने इसके पनु लेखन की आिश्यकता पर बल वदया िै।
(4) दोषों का हनराकरण - यि सत्य िै वक ‘चन्द्रगप्तु ’ में अवभनय की दृवि से अनेक दोष िैं परन्तु
उन दोषों का वनराकरण वकया जा सकता िै। अवभनय की दृवि से नाटक का विस्तार कम वकया जा
सकता िै अनािश्यक दृश्य और र्टनाएाँ काटी जा सकती िैं। संिाद संवक्षप्त वकए जा सकते िैं। भाषा
की काव्यात्मकता और दाशभवनकता के स्थान पर भाषा सरल, सरस ओैर व्याििाररक बनाई जा
सकती िै। श्री जगन्नाथप्रसाद शमाभ (प्रसाद के नाटकों का शास्त्रीय अध्ययन) के अनसु ार-‘‘अवभनय
व्यापार की दृवि से इस नाटक (चन्द्रगप्तु ) का िृत्त-गम्ु फन विशेष चमत्कार यक्त
ु िै। यवद के िल प्रथम
तीन अक ं िी चनु वलए जाएाँ तो भी काम चल सकता िै। रसास्िादन में कोई व्यार्ात निीं पड़ता।’’
(5) अहभनय के योग्य - उपयभक्त ु दोषों का वनराकरण करने के उपरान्त ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक अवभनय के
योग्य वसद्ध िोता िै। नाटक में अनेक स्थल अवभनय की दृवि से बिुत प्रभािशाली िैं। प्रथम अक ं के
पााँचों दृश्य अवभनय के योग्य िै। प्रत्येक अक ं के प्रथम और अवन्तम दृश्य अत्यवधक हृदयग्रािी और
आकषभक िै। दसू रा अक ं पयाभप्त रोचक िै। तीसरे अक ं का वनिाभि भी उत्तम रीवत से िुआ िै। प्रसाद ने
स्त्री-पात्रों के माध्यम से नाटक को अवधक सरस बना वदया िै। नाटक में आिश्यकतानसु ार रंगमचं
संकेत भी वदए गए िैं। अतः नाटक का अवभनय वकया जा सकता िै।

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वनष्कषभ रूप में कि सकते िैं वक कवतपय दोषों के िोते िुए भी ‘चन्द्रगप्तु ’ को अवभनय के
अयोग्य निीं कि सकते। दोषों का पररिार करके नाटक सफलतापिू क भ खेला जा सकता िै। आचायभ
नन्ददलु ारे बाजपेई (जयशक ं र प्रसाद) का मत दशभनीय िै-‘‘प्रसाद जी नाट्य कला सम्बन्धी स्ितंत्र
आधार लेकर चले िैं और उसकी परीक्षा के वलए अनक ु ू ल रंगमचं का िोना भी आिश्यक िै। वबना
ऐसा परीक्षा का अिसर वदए यि किना वक प्रसाद जी की भाषा जवटल िै, नाटक नाट्योपयोगी निीं,
प्राथवमक उत्तरदावयत्ि से मिाँु मोड़ना िै।’’अन्ततः डॉ. शावन्तस्िरूप गप्तु (प्रसाद के नाटक एिं नाट्य
वशल्प) के शब्दों में कि सकते िैं-‘‘वक्रया-व्यापार का िेग, प्रथम और अवन्तम दृश्यों का आकषभक
स्िरूप श्रृंगार और िीर रस पणू भ संिाद, नाटक के अन्त में विषय और व्यवक्तत्ि का समवन्ित उत्कषभ,
प्रभािावन्िवत सभी गणु उसके नाटकों को अवभनय के अनक ु ू ल बनाते िैं।’’
5.4.2 संवाद योजना
नाटक का मल ू ाधार सिं ाद िैं। नाटककार सिं ादों के माध्यम से िी नाटक की कथािस्तु का
विकास,पात्रों के चररत्र का उदर्ाटन और उद्देश्य की अवभव्यवक्त करता िै। डॉ. रर्िु श
ं (नाट्यकला)
के शब्दों मे-‘ कवि या रवचयता का भाि, विचार सभी उसकी अवभियवक्त के िारा िी परे क्षक की
अनभु वू त का विषय बनता िै। अवभव्यवक्त के उपकरणों में उसके पास भाषा अपनी सजीि शवक्त के
साथ िै। नाटक में भाषा की यि अवभव्यवक्त कथोपकथन के विवभन्न रूपों में प्रस्ततु िोती िै। वजस
व्यवक्तगत प्रवतभा के िारा िि उसका प्रयोग करता िै, िि उसकी वनजी शैली के अन्तगभत आता िै।
नाटक के जीिन का विकास र्टना और चररत्र िारा िोता िै और उसका अवधकांश रूप िमारे
सम्मखु अवभनय के साथ कथोपकथन में िी आता िै।’ प्रो. भषू ण स्िामी का मत दशभनीय िै-
‘नाट्य-समग्रता में आभा वबखेरने का सम्पणू भ श्रेय सिं ाद-तत्ि को िै। सफल नाटककार का
कथोपकथन उसे सफल िाययु ान के सदृश यगु पत विविध कायभ करता िै, जो कभी जल पर सन्तरण,
कभी स्थल पर संचरण और कभी आकाश में विचरण करता िुआ दृविगत िोता िै। वजस
कथोपकथन में वजतनी अवधक चररत्र-वचत्रण की क्षमता व्यापार- प्रसार की योग्यता और रस-
पररपाक के वलए भािोद्बोधन की तीव्रता िोगी, िि उतना िी उत्तम माना जाएगा।’
चन्रगप्तु की संवाद योजना - प्रसाद के नाटकों के संिाद भािात्मक, गवतशील, सरल-सरस,
रोचक, कथा को बढाने िाले, पात्रो का चररत्रोद्घाटन करने िाले तथा उद्देश्य को अवभव्यक्त करने में
सक्षम रिें िैं। आचायभ नन्ददल ु ारे िाजपेयी (जयशक ं र प्रसाद) के अनसु ार- ‘ अपनी शैली की
विशेषता के साथ िी उनके संिाद भी भािात्मक िैं, बौवद्धक निीं। उनमें कोरी बौवद्धकता, सम्भाषण-
पटुता या उवक्त- िैवचन्न्य निीं िै। इसी दृवि से उन्िोंने नाटकों में गद्य की जगि काव्य को प्राथवमकता
दी िै।’
हवशेषताएं - ‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के संिाद अवधकांशतः संवक्षप्त, रोचक, सरस, सरल, और
स्िाभाविक िैं। साथ िी कथा को विकवसत करने िाले, पात्रों की चाररवत्रक विशेषताओ ं का उद्घाटन

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करने िाले, देश काल के पररचायक और विवभन्न प्रवस्थवतयों के सचू क िैं। प्रो. बनिारी लाल िाण्डा
के अनसु ार - ‘प्रसाद जी के अन्य प्रोढ़कालीन नाटको से पृथक ‘चन्द्रगप्तु ’ में कथन प्रायः छोटे-छोटे
िैं इसके दो लाभ िुए िैं- एक तो कथानक को गवत वमली िै और दसू रे िक्ता के चररत्र पर प्रकाश पडा
िै। िास्ति में इन संिादों में एक त्िरता, भास्िरता िै। चन्द्रगप्तु के संिादों की वनम्नवलवखत विशेषताएं
िै-
1. कथानक का हवकास करने वाले -‘चन्द्रगप्तु ’ नाटक के सिं ाद कथानक के विकास में
सिायक रिे िैं। श्री जगन्नाथप्रसाद शमाभ के शब्दों में-‘‘ नाटक के सिांद िस्तु- संविधान में साधन
रूप में सिायक रि िैं। उनका उपयोग िस्तु-विधान में यों वदखाई पड़ता िै वक उन्िीं के सिारे िस्त-ु
गवत आगे बढ़ी िै। प्रकृ त विषय का प्रभाि भी निीं टूटने पाया औरएक बात में से दसू री और दसू री में
से तीसरी स्ियमेि फूटती चली गई िै।’’ उदािरणाथभ-
चाणक्य- के िल, तम्ु िीं लोगों को अथभशास्त्र पढ़ाने के वलए ििरा था।..............
हसंिरण- आयभ, मालिों को अस्त्र-शस्त्र की उतनी आिश्यकता निी, वजतनी अथभशास्त्र की।
चाणक्य- अच्छा, अब तमु मालि जाकर क्या करोगे?
हसिं रण- अभी तो मैं मालि निीं जाता। मझु े तक्षवशला की राजनीवत पर दृवि रखने की
आज्ञा वमली िै।
2. पात्रों का चररत्रोद्घाटन करने वाले - ‘चन्दगु प्तु ’ के संिाद पात्रों के चाररवत्रक गणु ों का
उद्घाटन करने िाले िैं। पात्रों का अन्तिभन्ि, प्रेम-भाि, दय, क्षमा, करूणा, आवद संिादों िारा
अवभव्यक्त िुआ िै। यथा-
मालहवका-सम्राट, अभी वकतने िी भयानक संर्षभ सामने िैं।
चन्दुगुप्त- सर्ं षभ! यद्ध
ु देखना चािो तो मेरा ह्रदय फाड़कर देखो मालविका! आशा
और वनराशा का यद्ध ु , भािों और अभािों का िन्ि!...............
मालहवका- आप मिापरू ु ष िैं, साधारण जन-दल ु भभ दबु भलता न िोनी चाविए आप में
देि! बिुत वदनों पर मैंने एक माला बनाई िैं। (माला पिनाती िै)
चन्दुगुप्त - मालविका, इन फूलों का रस तो भौंरे ले चक
ु े िैं।
मालहवका- वनरीि कुसमु ों पर दोषारोपण क्यों?................

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इस सिं ाद में एक और चन्दगु प्तु के अन्तिभन्ि पर प्रकाश पड़ता िै तो दसू री ओर मालविका का
चन्द्रगप्तु के प्रवत प्रेम भाि, आत्म समपभण और संयम वचवत्रता िुआ िै।
3. पररहस्थहत-सूचक- ‘चन्दगु प्तु ’ के संिाद विवभन्न पररवस्थवतयों, राजनीवतक, धावमभक,
सामावजक आवद, की सचु ना देने िाले िैं। ऐसे स्थलों पर नाटककार ने विस्तारिादी पद्धवत न
अपनाकर सक
ं े तात्मक शैली का आश्रय वलया िै। इससे सिं ादों में चमत्कार का समािेश िो गया िै।
यथा-
हसंिरण - ............. उत्तरापथ के खण्ड राज्य िेष से जजभर िें। शीघ्र भयानक विस्फोट
िोगा।
(सिसा आम्भीक और अलका प्रिेश)
आम्भीक - कै सा विस्फोट? यिु क, तमु कौन िो?
4. रसानुकूल - ‘ चन्दगु प्तु ’ के संिादों की एक विशेषता िै कवि रसानक ु ू ल िैं। िीर,रंगार,
करूण आवद रसों के अनक ु ू ल िी संिादों का सृजन वकया गया िै। ‘‘सिभत्र िी संिाद रस के अनक ु ूल
िुए िैं। जिॉ िीर रस का प्रंसग िै ििॉ के संिादों में उस रस के अनक ु ू ल पदािली, भाषा और भाि
वदखाई पड़ती िै। उत्साि, गिभ,दपभ, आिेश, क्रोध सभी भाि समयानसु ार िोते चलते िै। इसी तरि,
जिााँ श्रगं ार की योजना िुई िै ििााँ भाषा और भाि- व्यजं ना में तद्नक
ु ू ल पररितभन िो गया िै।’’
श्रंगार का एक उदािरण देवखए-
कानेहलया -................... अच्छा, यौिन और प्रेम को क्या समझती िो?
सवु ाहसनी - अकस्मात जीिन-कानन में, एक राका-रजनी की छाया में वछपकर मधरु
िसन्त र्सु आता िै। शरीर की सब क्याररयााँ िरी-भरी िो जाती
िैं.............।
कानेहलया - (उसे गले लगाकर) आि सखी! तमु तो कवि िो। तुम प्रेम करना चािती
िो और जानती िो उसका रिस्य।............
इसी प्रकार रौद्र और भयानक रस का एक उदािरण देवखए-
चाणक्य- सािधान नन्द! तम्ु िारी धमाभन्धता से प्रेररत राजनीवत आाँधी की तरि
चलेगी, उसमें नन्द िशं समल ू उखड़ेगा।................

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नन्द- यि समझकर वक ब्रािमण अिध्य िै तू मझु े भय वदखलाता िै! प्रवतिार... इसकी
वशखा पकड़कर इसे बािर करो।
चाणक्य - खींच ले ब्राह्राण की वशखा! शद्रू के अन्न से पले िुए कुत्ते? खींच लें!
परन्तु यि वशखा नन्दकुल की काल-सवपभणी िै, िि तब तक न बन्धन में
िोगी, जब तक नन्दकुल वनःशेष न िोगा।
5. दाशिहनक एवं कहवत्वमय - ‘चन्दगु प्तु ’ में दाशभवनक एिं कवित्िमय संिाद भी पररलवक्षत
िोतं िैं। मिात्मा कात्यायन के कथनों में दाशभवनकता िै तो सिु ावसनी, मालविका आवद के संिादों में
काव्यमयता विद्यमान िै। दाशभवनक संिादों में गम्भीरता िै तो कवित्िमय संिाद अत्यन्त ह्रदयग्रािी
बन पड़े िैं। काव्यमय सिं ाद का एक उदािरण देवखए-
सुवाहसनी - राजकुमारी प्रेम में स्मृवत का सुख िै। एक टीस उिती िै, ििी तो प्रेम का
प्राण िै।
कानेहलया - तमु क्या किती िो ?
सुवाहसनी - ििी स्त्री-जीिन का सत्य िै।
कानेहलया - सखी! मवन्दर की प्याली में तू स्िप्न-सी लिरों को मत आन्दोवलत कर।
इसी प्रकार दाशभवनक सिं ाद देवखए-
एहनसाक्रीटीज - मिात्मन!
कात्यायन - चपु रिो, सब चले जा रिे िैं, तुम भी चले जाओ। अिकाश, निीं,
अिसर निीं।
एहनसाक्रीटीज - आप से कुछ................
कात्यायन - मझु से कुछ मत किो! किो तो अपने- आप िी किो, वजसे आिश्यकता िोगी
सनु लेगा। देखते िो, कोई वकसी की सनु ता िै? मैं किता िूाँ - वसन्धु के एक वबन्द!ु धारा में न बिकर
मेरी एक बात सनु ने के वलए ििर जा- िि सनु ता िै? ििरता िै ? कदावप निीं
6. सरल-सरस स्वाभाहवक - ‘चन्द्रगप्तु ’ के अवधकाशं सिं ाद सरल, सरस और स्िाभाविक
िैं। कुल वमलाकर सिं ाद सवं क्षप्त और रोचक िैं। जिााँ वकसी विषय पर वििाद वकया गया िै, ििााँ
संिाद कुछ लम्बे िो गए िै । सभी संिाद व्याििाररक और विषय-संगत िैं। एक उदािरण देवखए-
राक्षस - स्नातक! अच्छे तो िो?

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चाणक्य - बरु े कब थे बौद्ध अमात्य!
राक्षस - आज िम लोग एक काम से आए िैं। आशा िै वक तमु अपनी िििावदता
से मेरा और अपना दोनों का अपकार न करोगे।
वररूहच - िााँ , चाणक्य! आमात्य का किना मान लो।
7. स्वगत कथन- ‘चन्द्रगप्तु ’ में स्िगत कथन भी विद्यमान िै, जो प्रायः लम्बे िो गए िै।
चाणक्य, पिभतेश्वर, चन्द्रगप्तु , मालविका, अलका, और गान्धार-नरे श के स्िगत कथन लम्बे िैं।
स्िगत कथनों के माध्यम से नाटककार ने पात्रों की मानवसक वस्थवत का पररचय कराया िै। गान्धार-
नरे श का स्िगत कथन द्रिव्य िै- ‘‘बढ़ू ा िो चला, परन्तु मन बढ़ू ा न िुआ। बिुत वदनों तक तृष्णा को
तृप्त करता रिा, पर तृप्त निीं िोती।’’किीं -किीं स्िगत कथन मात्र रूवढ़ का पालन करने के वलए
वकए गए िैं। अलका का कथन इसी प्रकार का िै- ‘‘वसिं रण मेरी आशा देख रिा िोगा और मैं यिााँ
पड़ी िूाँ । आज इसका कुछ वनपटारा करना िोगा। अब अवधक निीं।’’ दसू रे अक ं के दसू रे दृश्य में
सेनापवत का कथन, तीसरे अक ं के छिे दृश्य में मालविका का कथन और तीसरे अक ं के अवन्तम
दृश्य में नन्द का कथन इसी प्रकार का िै।
वनष्कषभ रूप में कि सकते िैं वक ‘चन्द्रगप्तु ’ के सिं ाद नाटकीय, काव्यात्मक, दाशभवनक,
व्याििाररक, सरल-सरस, रोचक, संवक्षप्त और रसानक ु ू ल िैं । साथ िी कथा को विकवसत करने और
पात्रों के चररत्रोद्घाटन में भी समथभ रिे िैं। अन्ततः डॉ. गोविन्द चातक के शब्दों में कि सकते िैं -
‘‘कुल वमलाकर प्रसाद के नाटकीय संिादों में काव्यत्ि, वचन्तन, संिगे ात्मकता, माधयु भ, ओज व्यंग्य
आवद कई रंगों का समािार िै। विषय िस्तु की दृवि से देखें तो ओज और माधयु भ प्रसाद के संिादों
की सबसे बड़ी विशेषता िै।’’ िास्ति में चन्द्रगप्तु के सिं ादों में विविधता और विवशिता विद्यमान िै।

5.5 सांराश
प्रसाद के नाटकों की भाषा काव्यमय स्िरूप को प्रवतपावदत करती िै। प्रसाद कवि की भांवत
ससं धानों का परू ा प्रयोग करते िैं, िे एक ओर शब्दािली का भािात्मक उपयोग करते िैं, दसू री ओर
अलंकरण का िे भाि के स्तर पर सदु रू इवतिास को सामग्री से काव्य का िातािरण वनवमभत करते िैं
और भाषा के स्तर पर नाट्य तत्िों को भी इसी कायभ में वनयोवजत कर देते िैं। कवतपय दोषों के िोते
िुए भी चन्द्रगप्तु को अवभनय के अयोग्य निीं कि सकते, सारांश रूप में आचायभ नन्द दलु ारे िाजपेयी
का मत वदया जा सकता िै ‘‘ प्रसाद जी के नाट्य कला सबं ंधी स्ितन्त्र आधार लेकर चले िैं और
उसकी परीक्षा के वलए अनक ु ू ल रंग का िोना भी आिश्यक िै, वबना ऐसा परीक्षा का अिसर वदए
यि किना िै वक प्रसाद जी की भाषा जवटल िै, नाटक नाट्योपयोगी निीं, प्राथवमक उत्तरदावयत्ि से

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मोि मोड़ना िै।’’ वक्रया व्यापार का िेग, दृश्यों का आकषभक रूप, रसपणू भ सिं ाद, प्रभािावन्िवत सभी
गणु उनके नाटकों को अवभनय के अनक ु ू ल बनाते िैं।

5.6 अभ्यास प्रश्न


प्रश्न 1. चन्द्रगप्तु में वकस प्रकार की भाषा का प्रयोग गया िैं ?
उत्तर - संस्कृ त वनष्ठ विन्दी।
प्रश्न 2. चन्द्रगप्तु की भाषा की विशेषता बताइये ?
उत्तर - चन्द्रगप्तु की भाषा की विशेषताएं इस प्रकार िैं -
1. काव्यात्मक
2. संस्कृ तवनष्ठ
3. अलंकृत
4. ओजपणू भ
5. नाटकीय
6. रसानक
ु ूल
7. सवू क्तयों का प्रयोग
8. पात्रानक
ु ूल
9. लाक्षवणक
प्रश्न 3. चन्द्रगप्तु की शैली की विशेषताएं बताइये ?
उत्तर - चन्द्रगप्तु की शैली की विशेषताए इस प्रकार िैं -
1. िणभनात्मक
2. विचारात्मक
3. भािात्मक

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4. व्यग्यात्मक
5. गीतात्मक
प्रश्न 4. चन्द्रगप्तु की अवभनय के दोषं क्या िै बताइये ?
उत्तर - चन्द्रगप्तु के अवभनय के दोष इस प्रकार िैं -
1. दृश्य की अवधकता, नाटक में 44 दृश्य िैं
2. दृश्यों में क्रम बद्धता निीं िै
3. दृश्यों के मध्य काल का बिुत अवधक अन्तराल िै
4. नाटक की भाषा संस्कृ तवनष्ठ िै, कथोपकथन अत्यवधक विस्तृत िैं
5. नाटक में गीतों का आवधक्य िै
प्रश्न 5. सिं ाद योजना की विशेषताएं बताइये ?
उत्तर 1. कथानक का विकास करने िाले
2. पात्रों का चररत्र उद्घावटत करने िाले
3. रसानक
ु ूल
4. सरल एिं स्िाभाविक
6. काव्यत्मक एिं अल
ं काररक

5.7 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ.गणपवत चन्द्र गप्तु
2. प्रसाद के नाटक, डॉ.परमेश्वरी लाल
3. प्रसाद के नाटक स्िरूप और सरं चना, डॉ.गोविन्द चातक
4. विन्दी नाटक उदभि और विकास, डॉ.दशरथ ओझा
5. विन्दी नाट्य सावित्य का विकास, डॉ.सोमनाथ गप्तु

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6. प्रसाद की नाट्य कला सरं चना तथा शैली तत्ि, डॉ. सजु ाता वबि

5.8 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. विन्दी सावित्य का दसू रा इवतिास, डा. बच्चन वसंि
2. प्रसाद की दाशभवनक चेतना, डॉ. चक्रिती
3. प्रसाद यगु ीन नाटक, डॉ. भगिती प्रसाद शक्ु ल
4. प्रसाद यगु ीन नाटकों में सांस्कृ वतक चेतना, डॉ. िवशि मवु न पाण्डेय
5. विन्दी भाषा एिं सावित्य विश्व कोश, डॉ. गणपवत चन्द्र गप्तु

5.9 हनबं धात्मक प्रश्न


1. चन्द्रगप्तु नाटक की रंगमचं ीय प्रस्तवु त की दृवि से वििेचना कीवजए?
2. चन्द्रगप्तु नाटक की भाषा एिं संिाद योजना का समीक्षात्मक मल्ू यांकन कीवजए?

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इकाई 6 हिन्दी हनबन्ध साहित्य का स्िरूप एिं
िात्तत्त्िक हििेचन
इकाई की रूपरे खा
6.1 प्रस्तािना
6.2 उद्देश्य
6.3 वनबन्ध का अथभ, तात्पयभ और स्िरूप
6.4 वनबन्ध के प्रकार
6.5 वनबन्ध : तावत्त्िक वििेचन
6.6 सारांश
6.7 शब्दािली
6.8 संदभभ ग्रंथ सचू ी
6.9 अभ्यासों के उत्तर
6.10 वनबधं ात्मक प्रश्न

6.1 प्रस्तावना

प्रस्ततु इकाई में आप जानेंगे वक ‘वनबन्ध’ शब्द का अथभ एिं तात्पयभ क्या िै ? इसका
स्िरूप कै सा िोता िै? वनबन्ध के तत्त्ि कौन-कौन से िैं, तथा उनकी वििेचना कै से की जाती िै।
इसके साथ िी आप यि भी जान सकें गे वक वनबन्ध लेखन, सावित्य की अन्य विधाओ ं से वकस तरि
वभन्न िै।
‘वनबन्ध’ सावित्य की एक ऐसी विधा िै, वजसमें लेखक अपने मौवलक वचंतन तथा गम्भीर
विचारों को तावकभ कता के साथ कलात्मक ढंग से प्रस्ततु करता िै। फ्रांसीसी वििान मॉन्तेन ने 1580
में व्यवक्तगत दशाओ ं को अवभव्यक्त करते िुए वजस विधा में वलखा था, उसे ‘ऐस्साइ’ की सज्ञं ा दी।
मॉन्तेन को आधवु नक वनबन्ध का जन्मदाता माना जाता िै; िे वनबन्ध को विचारों, उद्धरणों
और कथाओ ं का सवम्मश्रण मानते थे। भारत में विन्दी ‘वनबन्ध’ लेखन की परम्परा का आरम्भ
उन्नीसिीं शताब्दी में भारतेन्दु िररश्चंद्र से माना जाता िै।

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6.2 उद्देश्य
इस इकाई को पढ़कर आप जान सकें गे -
वनबन्ध का अथभ, तात्पयभ क्या िै ?
वनबन्ध का स्िरूप कै सा िोता िै ?
वनबन्ध वकतने प्रकार के िोते िैं ?
वनबन्ध के प्रमख
ु तत्त्ि कौन से िैं ?
वनबन्ध सावित्य अन्य विधाओ ं से वभन्न क्यों िै।

6.3 हनबन्ध का अथभ , तात्पयभ एवं स्वरूप


शवब्दक अथभ में ‘वनबन्ध’ का अथभ िै- पणू भ रूप से बाँधा िुआ, अथाभत् एक ऐसी साविवत्यक
विधा वजसमें लेखक िारा अपने मनोभािों एिं विचारों को सम्यक् रूप से एकत्र करके कलात्मक
शैली में स्िछन्दतापिू क भ अवभव्यक्त वकया जाता िै। संस्कृ त सावित्य में स्मृवतयों की व्याख्याओ,ं
तथा भोजपत्रों में वलवखत मौवलक रचनाओ ं को साँिारकर ग्रवथत करने या बााँधने के वलए ‘वनबन्ध’
शब्द का प्रयोग वमलता िै; वकन्तु विन्दी में इस अथभ की दृवि से ‘वनबन्ध’ शब्द का प्रयोग निीं वकया
जाता। यद्यवप विन्दी में वनबन्ध शब्द परम्परा से आया; वकन्तु अथभ की दृवि से िि अग्रं ेजी के ‘एस्से’
का पयाभयिाची िै। अग्रं ेजी का ‘एस्से’ शब्द, प्राचीन फ्रासं के ‘एस्साइ’ से बना; जो मल
ू तः लैवटन में
‘एग्जावजयर’ से व्यत्ु पन्न िै; वजसका अथभ िै- वनवश्चततापिू कभ परीक्षण करना।
हवहभन्न हवर्द्ानों के मत
यि तो आप जानते िी िैं वक वकसी भी व्यवक्त, िस्तु अथिा विषय के सबं धं में प्रत्येक
व्यवक्त के अपने विचार और अपना दृविकोण िोता िै, जो दसू रे से कुछ वभन्न िोता िै; यिी कारण िै
वक वनबन्ध के सबं धं में भी विवभन्न भारतीय एिं पाश्चात्य वििानों ने अपने-अपने मत प्रस्ततु वकए
िैं। आइये जानें , वकसकी दृवि में वनबन्ध क्या िै- फ्रेंच वििान मॉन्तेन ने वनबन्ध के वलए ‘ऐस्साइ’
शब्द का प्रयोग वकया िै; उनके वलए यि वनष्छल आत्मावभव्यवक्त का पयाभय िै। िे किते िैं- “मेरी
इच्छा िै वक मझु े सच्चे सीधे, सिज, साधारण रूप में िी जाना जाए; उसमें कोई लाग-लपेट,
वदखािा-बनाना, छल-छंद, नकलीपन ना िो, क्योंवक अपने वनबंधों में मैं स्ियं को वचवत्रत करता िूाँ
अथिा मैं स्ियं िी पस्ु तक का विषय िू।ाँ ” भारतीय वििान जयनाथ ‘नवलन’ ने वनबन्ध को पररभावषत

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करते िुए वलखा िै- “वनबन्ध स्िाधीन वचन्तन और वनष्छल अनभु वू तयों का सरस, सजीि और
मयाभवदत गद्यात्मक प्रकाशन िै।”
आचायि रामचन्र शुक्ल वनबन्ध को गद्य की कसौटी मानते िैं। पाश्चात्य वििानों िारा
‘एस्से’ के बताए गए लक्षणों के आधार पर िे, वनबन्ध के विषय में किते िैं- ‘‘वनबन्ध उसी को
किना चाविये, वजसमें व्यवक्तत्त्ि अथाभत् व्यवक्तगत विषेषता िो।’’
जॉनसन का मत िै- ”एस्से स्िछन्द मन की तरंग िै, वजसमें विश्रृंखलता का प्राधान्य िोता
िै।
बाबू गुलाबराय वनबन्ध को पररभावषत करते िुए किते िैं- ”वनबन्ध उस गद्य रचना को
किना चाविये, वजसमें एक सीवमत आकार के भीतर वकसी विषय का िणभन या प्रवतपादन एक विषेष
वनजीपन, स्िछन्दता, सौष्ठि एिं सजीिता तथा आिश्यक सगं वत और सम्बद्धता के साथ वकया गया
िो।
उपयभक्त
ु पररभाषाएं को पढ़कर आप यि जान िी चक ु े िोंगे वक सभी वििानों ने वनबन्ध के
विषय में कुछ-न-कुछ विषेष बात अिश्य किी िै। आइये, अब यि भी जानें वक विन्दी सावित्य में
वनबन्ध लेखन का शभु ारम्भ कब से िुआ, और विन्दी के प्रमख
ु वनबन्धकार कौन-कौन िैं।
अट्ठारििीं शताब्दी के मध्य में जब भारत का सपं कभ अग्रं ेज़ी ज्ञान-विज्ञान से बढ़ने लगा, तब
पाश्चात्य सावित्य की विविध विधाओ ं से प्रभावित िोकर, अनेक भारतीय भाषाओ ं के सावित्यकारों
ने उनमें सावित्य सृजन करना प्रारम्भ वकया। इन्िीं विधाओ ं में से एक विधा थी- वनबन्ध; जो आज भी
विन्दी गद्य सावित्य का अवभन्न अगं िै। विन्दी ‘वनबन्ध’ लेखन की परम्परा का आरम्भ उन्नीसिीं
शताब्दी में ‘भारतेन्दु िररष्चन्द्र’ से माना जाता िै। उनके समकालीन लेखकों में पंवड़त बालकृ ष्ण भट्ट,
प्रतापनारायण वमश्र तथा बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमर्न’ का नाम उल्लेखनीय िै। आचायभ रामचन्द्र
शक्ु ल, बाबू गल ु ाबराय, िासदु िे शरण अग्रिाल, िजारी प्रसाद वििेदी, डॉ.नगेन्द्र, कुबेरनाथ राय,
मिादेिी िमाभ आवद सावित्यकारों ने विन्दी वनबन्ध लेखन को उत्कषभ पर पिुचं ाया। विन्दी सावित्य
जगत में शक्ु ल यगु को गद्य सावित्य के सिाांगीण विकास का यगु माना जाता िै, इस यगु के प्रितभक
आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल थे। विन्दी सावित्य के मधू भन्य इवतिासकार आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल ने ‘विन्दी
सावित्य का इवतिास’ में ‘वनबन्ध’ लेखन के वलए वचंतन एिं विचार गाम्भीय एिं बोधगम्यता को
आिश्यक तत्त्ि मानकर, वनबन्ध को पररभावषत करते िुए वलखा िै- ”यवद गद्य कवियों या लेखकों
की कसौटी िै, तो वनबन्ध गद्य की कसौटी िै।...आधवु नक पाष्चात्य लक्षणों के अनुसार वनबन्ध उसी
को किना चाविए, वजसमें व्यवक्तत्ि अथाभत् व्यवक्तगत विषेषता िो। बात तो िीक िै, यवद िीक तरि
से समझी जाय। व्यवक्तगत विषेषता का यि मतलब निीं वक उनके प्रदषभन के वलए विचारों के श्रंखला
रखी िी न जाए, या जान-बझू कर जगि-जगि से तोड़ दी जाए; भािों की विवचत्रता वदखाने के वलए

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ऐसी अथभयोजना की जाए, जो उसकी अनभु वू त के प्रकृ त या लोकसामान्य रूप से कोई सम्बन्ध िी ना
रखे, अथिा भाषा से सरकस िालों की-सी कसरतें या िियोवगयों के से आसान कराए जाएाँ, वजनका
लक्ष्य तमाशा वदखाने के वसिा और कुछ न िो।
अभ्यास प्रश्न
1. हकसका कथन िै-
“एस्से स्िछन्द मन की तरंग िै, वजसमें विश्रृंखलता का प्राधान्य िोता िै।”
“यवद गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी िै, तो वनबन्ध गद्य की कसौटी िै।”
“वनबन्ध स्िाधीन वचन्तन और वनश्छल अनभु वू तयों का सरस, सजीि और मयाभवदत
गद्यात्मक प्रकशन िै।”
2. आइये, एक बार दोिराएाँ -
1. विन्दी वनबन्ध लेखन का प्रारम्भ कब से माना जाता िै ?
2. आचायभ शक्ु ल वनबन्ध का आिश्यक तत्त्ि वकसे मानते थे ?
3. भारतीय सावित्य में वनबन्ध का प्रयोग वकस अथभ में वमलता िै ?
4. एस्से शब्द की व्यत्ु पवत्त वकस शब्द वकस से मानी जाती िै ?
5. विन्दी गद्य सावित्य के सिाांगीण विकास का यगु वकसे किा जाता िै ?

6.4 हनबन्ध के प्रकार


ितभमान समय में वनबन्ध आत्मवनष्ठता से िस्तवु नष्ठता की ओर उन्मख
ु िुए िैं; यिी कारण िै
वक आज िे के िल आत्मावभव्यवक्त का माध्यम निीं रि गए िैं, िरन् उसका फलक अत्यन्त विस्तृत
िो गया िै । इस आधार पर वनबन्धों को मख्ु यतः तीन िगों में विभावजत वकया जा सकता िै -
1. व्यवक्तप्रधान वनबन्ध
2. विषयप्रधान वनबन्ध
3. लवलत वनबन्ध

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1. व्यहि-प्रधान हनबन्ध - वनबन्ध का प्रमख ु तत्त्ि िै- आत्मीयता; इसवलए व्यवक्त प्रधान वनबन्धों
में ‘वनज’ अथाभत आत्मतत्त्ि की प्रधानता िोना स्िाभाविक िै। जब लेखक अपनी स्मृवत में अवं कत
वकसी भाि, र्टना या बातचीत के वकसी प्रसंग को श्रृंखलाबद्ध करके , उसे िैचाररक, अथिा
भािात्मक अवभव्यवक्त प्रदान करता िै, तब व्यवक्त प्रधान वनबन्ध का जन्म िोता िै। इस प्रकार के
वनबन्धों में िमें लेखक के व्यवक्तत्त्ि की स्पि छाप वदखाई देती िै। वकसी भी व्यवक्त में भाि एिं
विचार दोनों तत्त्ि विद्यमान रिते िैं, इस आधार पर व्यवक्त प्रधान वनबन्धों को तीन भागों में बााँटा जा
सकता िै-
अ. भािात्मक
आ. विचारात्मक
इ. आत्मपरक
अ. भावात्मक हनबन्ध -
वजनमें हृदय की प्रधानता रिती िै, उन्िें भािात्मक वनबन्ध किते िैं। भािात्मक वनबन्धों में
िमें- कल्पना के विस्तृत आकाष में हृदय की उन्मक्त ु उड़ान, भािनाओ ं की तीव्रता के साथ वदखाई
देती िै। िषभ-विषाद, अनरु वक्त-विरवक्त, आकषभण-विकषणभ हृदय के विविध उद्गार प्रयक्त ु िोते िैं। जब
लेखक वकसी पररवस्थवत विशेष, र्टना विषेष, अथिा अनभु ि विशेष को भािािेग में कलात्मक
अवभव्यवक्त प्रदान करता िै, तब ऐसी वस्थवत में भािात्मक वनबन्ध का जन्म िोता िै। भािात्मक
वनबन्धों में िाक्य छोटे, अनभु वू त की गिनता तथा भािों की तीव्रता िोती िै। माधि प्रसाद वमश्र, पणू भ
वसिं , चन्द्रधर शमाभ गलु ेरी, डॉ. रर्िु ीर वसिं , गल
ु ाबराय, आवद की गणना श्रेष्ठ भािात्मक वनबन्धकारों
में की जाती िै। भािात्मक वनबन्धों का चरम विकास िमें पूणवभ संि जी के वनबन्धों में वदखाई देता िै।
‘आचरण की सभ्यता’ में िे मौन की अवभव्यवक्त करते िुए किते िैं- ”प्रेम की भाषा शब्द रवित िै।
नेत्रों की, कपोलों की, मस्तक की भाषा भी शब्द रवित िै। जीिन का तत्ि भी शब्द से परे िैं। सच्चा
आचरण-प्रभाि, शील, अचल-वस्थत-संयक्त ु आचरण न तो सावित्य के लम्बे व्याख्यानों से गिा जा
सकता िै, न िेद की श्रवु तयों के मीिे उपदेश से, न अजं ील से, न कुरान से, न धमभ-चचाभ से न के िल
सत्संग से।“
आ. हवचारात्मक हनबन्ध-
वजन वनबन्धों में वचन्तन-पक्ष की प्रधानता रिती िै, उन्िें विचारात्मक वनबन्ध किते िै।
िैचाररक पक्ष की मित्ता के कारण विचारात्मक वनबन्धों में िमें तावकभ कता तथा विश्लेष्णात्मकता
वदखाई देती िै; वजससे िमें लेखक की अन्तःदृवि, वचतं न-मथं न के साथ िी उसके दृवष्कोण की
निीनता, तथा विष्लेषण करने की क्षमता का भी ज्ञान िोता िै। वनबन्ध के विचारात्मक िोने का

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तात्पयभ यि निीं िै वक उसमें भािों की उपेक्षा की जाती िो, इसका अथभ यि िै वक विचारात्क
वनबन्धों में भाि, विचारों के अनिु ती बनकर रिते िैं। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल जी ने विन्दी सावित्य
का इवतिास में विचारात्मक वनबन्धों को श्रेष्ठ एिं मित्िपणू भ माना िै। आचायभ मिािीर प्रसाद वििेदी,
आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल, िजारी प्रसाद वििेदी, श्यामसन्ु दर दास, नन्द दल ु ारे िाजपेयी, डॉ॰ नगेन्द्र,
डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल आवद के वनबन्ध विचारात्मक वनबन्धों के उत्कृ ि उदािरण िै ।
आधवु नक यगु के वनबन्धकारों में प्रमख ु , शक्ु ल जी के वशष्य डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल ने अपने
प्रवसद्ध वनबन्ध ‘गााँधी और कबीर’ में उन्िोंने गााँधी जी के प्रवत अपने वचंतन को कौन-सी वदषा प्रदान
की िै, एक उदािरण से यि स्पि िो जाता िै- “प्राथभना में गााँधी जी का ध्यान वनराकार सिभव्यापी
प्रभु की ओर रिता िैं। राम वजनको िो पजू ते िैं, उनकी कल्पना का िै न तल ु सी-रामायण का ना
िाल्मीवक का। ईश्िर अितार लेता िै अिश्य, परन्तु उसी अथभ में वजसमें प्रत्येक मनष्ु य ईश्िर का
अितार िै। कबीर का अनसु रण करते िुए गाधं ी सबके हृदयस्थ परमात्मा की ओर सक ं े त कर जन
समाज के सामने मित्ि का अवभनि मागभ खोल रिे िै।”
इ. आत्मपरक हनबन्ध-
वजनमें भािात्मक एिं विचारात्मक दोनों प्रकार के वनबन्धों की विशेषताएाँ विद्यमान रिती
िैं, उन वनबन्धों को आत्मपरक वनबन्ध किते िैं। आत्मपरक वनबन्धों में लेखक के वनज में विष्ि को
अपनी वनजता का अनभु ि िोता िै; क्योंवक इनमें लेखक अपने व्यंग्य-विनोद, सिज-सरल भाषा,
मनमौजी व्यवक्तत्त्ि के साथ, पािक को संिाद करता प्रतीत िोता िै। शावन्तवप्रय वििेदी, पंवड़त
चन्द्रधर शमाभ गल ु ेरी और िजारी प्रसाद वििेदी, विद्यावनिास वनिास वमश्र आवद के वनबन्ध
आत्मपरक वनबन्धों के सशक्त उदािरण िैं।
2. हवषय-प्रधान हनबन्ध - विषय-प्रधान वनबन्धों में ‘परात्मकता’ को अवधक मित्त्ि वदया जाता िै,
अथाभत् विषय-प्रधान वनबन्धों में िण्यभविषय की प्रधानता रिती िै। वनबन्ध की विषयिस्तु चािे
सामावजक िो, अथिा राजनीवतक; आवथभक िो या वफर सांस्कृ वतक, सावित्यक, मनोिैज्ञावनक आवद
कुछ भी िो, वकन्तु अच्छे वनबन्ध के वलए सिाभवधक मित्त्िपणू भ िै - उसकी प्रस्तवु त। जब वकसी
विवशि विषय की के िल शष्ु क एिं िैचाररक वििेचना की जाती िै तो िि वनबन्ध न िोकर, लेख
बनकर रि जाता िै; इसके विपरीत यवद लेखक वकसी सामान्य विषय पर वलखते समय उसमें अपने
मौवलक विचारों को अनभु िों से सजीिता ि जीिन्तता प्रदान करता िै, तो सिज िी िि वनबन्ध बन
जाता िै। विषयप्रधान वनबन्धों को िम दो िगों में विभावजत कर सकते िैं-
(क) िणभनात्मक
(ख) वििरणात्मक
क. वणिनात्मक हनबन्ध -

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जब वनबन्धकार अनभु वू त, विचार, कल्पनातत्त्ि तथा अवभव्यजं ना कौषल के सिारे वकसी
व्यवक्त, िस्त,ु स्थान, अथिा प्रकृ वत आवद के वस्थर रूप का िणभन करता िै, तब िणभनात्मक वनबन्धों
का जन्म िोता िै। िणभनात्मक वनबन्धों में विषयिस्तु का विस्तारपिू क भ िणभन वकया जाता िै; वकन्तु
उसकी व्याख्या निीं की जाती। माधि प्रसाद वमश्र का ‘रामलीला’ मिािीर प्रसाद वििेदी का
‘प्रभात’, बालकृ ष्ण भट्ट का ‘मिाकवि मार् का प्रभात िणाभन’ रािुल सांकृत्यायन का ‘गोमती की
उपत्यका में वबखरे मवं दर’ आवद में िम िणभनात्मक वनबन्ध की विशेषताएाँ देख सकते िैं। कलात्मक
अवभव्यंजना, प्रिािमयी भाषा; िणभनात्मक वनबन्धों को जीिन्तता प्रदान करती िै। िणभनात्मक
वनबन्धों में कल्पना-तत्त्ि का भी समािेश रिता िै, और वचंतन-पक्ष प्रायः गौण वदखाई देता िै।
ख. हववरणात्मक हनबन्ध-
इन्िें आख्यात्मक अथिा कथात्मक वनबन्ध भी किा जाता िै; क्योंवक इस प्रकार के
वनबन्धों में लेखक वकसी ऐवतिावसक र्टना, काल्पवनक इवतिृत्त, पौरावणक आख्यान, उत्सि-मेले,
पिभतारोिण, अथिा दगु मभ प्रदेश की यात्रा का आश्रय लेकर वनबन्ध वलखता िै। वििरणात्मक
वनबन्धों में िण्यभविषय का रूप गवतशील वदखाई देता िै; वजसे लेखक अपनी कल्पना से रंवजत करके
प्रस्ततु करता िै। इस प्रकार के वनबन्धों में व्यजं नापणू भ भाषा, तथा सामावसक शैली का प्रयोग वमलता
िै। रािुल सांकृत्यायन, रामधारी वसंि ‘वदनकर’ गल ु ाबराय आवद िारा वलवखत इस प्रकार के अनेक
वनबन्ध वमलते िैं। गल ु ाबराय के वनबन्ध ‘आत्म-विष्लेषण’ से एक उदािरण दृिव्य िै- ”तुलसीदास
की भााँवत न तो मैं कभी छाछी को ललचाता रिा और न बडेे़ िोने पर सौंधे दधू की मलाई को नखरे
और नाराजगी से खाया - ‘छाछी को ललात जे ते राम नाम के प्रसाद , खाद खनु सात सौंधे दधू की
मलाई िै ।’ मैंने दधू का िर एक रूप में स्िागत वकया िै (सपरे टा को छोड़कर) । दधू मैंने गरम िी
पीना चािा िै । असािधानी मेरा जन्मगत दोष िै; क्योंवक बसंत से एक वदन पिू भ िी मैं इस संसार में
आया, वकंतु मैं उससे (दधू से ) जला निीं िूाँ , इसवलए छाछ को फंू क-फंू क कर पीने की आिश्यकता
निीं पडी। े़ जीिन में पयाभप्त लापरिािी रिी।”
3. लहलत हनबन्ध-
लवलत वनबन्धों की सदु ीर्भ परम्परा रिी िै। याँू तो स्ितन्त्रता से पिू भ भी लवलत वनबन्ध वलखे
गए, वकन्तु स्ितन्त्रता के पश्चात िमें लवलत वनबन्धों का एक स्ितन्त्र एिं सव्ु यिवस्थत रूप वदखलाई
देता िै। जब वनबन्धकार आत्मीयता और खल ु ेपन से कथ्य में वनवित सौंदयभ को वनखारता िै, अथाभत्
वकसी भी मनःवस्थवत अथिा भाि को अवभव्यक्त करने के वलए िि अपनी अनुभवू तयों को
वनष्छलता एिं सरसता से पािक के समक्ष रख देता िै, तब लवलत वनबन्ध का जन्म िोता िै।
आधवु नक यगु के मित्त्िपणू भ वनबन्धकार आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी ने अपने लवलत वनबन्धों के
माध्यम से सजभनात्मक सावित्य की सरसता एिं सौंदयभ को अत्यन्त प्रभािशाली ढ़ंग से प्रस्तुत वकया
िै। प्रस्ततु िै ‘अशोक के फूल’ से एक उदािरण- “किते िैं, दवु नयााँ बड़ी भल ु क्कड़ िै। के िल उतना

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िी याद रखती िै वजतने में उसका स्िाथभ सधता िै बाकी को फें ककर आगे बढ़ जाती िै। शायद
अशोक ने उसका स्िाथभ निीं साधा। क्यों उसे िि याद रखती ? सारा संसार स्िाथभ का अखाड़ा िी तो
िै।” व्यंग्यात्मकता, कोमलकान्त पदािली, माधयु भ गणु यक्त ु भाषा तथा गद्यात्मक लावलत्य जैसी
विलक्षणता से यक्तु िोने के कारण, इन्िें लवलत वनबन्ध किा जाता िै। लवलत वनबन्धकारों में िजारी
प्रसाद वििेदी, बालमक ु ु न्द गप्तु , सरदार पणू वभ संि, सवच्चदानन्द िात्स्यायन ‘अज्ञेय’, बनासीदास
चतिु दे ी, माखनलाल चतिु दे ी, प्रभाकर माचिे, विद्यावनिास वमश्र, कुबेरनाथराय आवद के नाम
उल्लेखनीय िैं। रामविलास शमाभ, अमृतराय नागर, गोपाल प्रसाद व्यास, िररष्ंकर परसाई, शरद जोषी
आवद िास्य-व्यंग्यकारों का भी लवलत वनबन्धों की विकासयात्रा में मित्त्िपणू भ योगदान रिा िै। डा.
नगेन्द्र ने लवलत वनबन्धों के विषय में वलखा िै- “लवलत वनबधं का प्राणतत्त्ि व्यवक्तत्ि का
अवभव्यंजन िी िै। रचना में व्यवक्तत्ि की खोज, आत्मानभु वू त की वििृवत, और िैयवक्तकता का
रागमय संस्पषभ पािक और वििेचक, दोनों जरूरी समझने लगे िै।”
लवलत वनबन्धों का पल्लिन भािात्मक वनबन्धों से बताते िुए डा. िररमोिन ने वलखा िै-
“लवलत वनबंध का पल्लिन भािात्मक वनबंधों से िुआ िै। भािात्मक वनबंधों की िी भााँवत
भािात्मकता, कल्पना प्रणिता, सरसता, रोचकता, पावण्डत्य और व्यापक ज्ञानस्रोत- लवलत वनबंध
के वलए भी अवनिायभ िै। लवलत वनबधं ‘व्यवक्तप्रधान’ व्यवक्तत्ि प्रधान अथिा व्यवक्तगत आत्मपरक
लर्ु गद्यखण्ड िै, वजसमें काव्यात्मक भाषा का प्रयोग िोता िै।”
आइये, अब िम एक वनबन्धों के प्रकार एिं उनकी पिचान दोिराएाँ -
अभ्यास प्रश्न
3. ररि स्थान की पूहति करें-
1. ......................................आख्यात्मक अथिा कथात्मक वनबन्ध भी किा जाता िै।
2. आत्मपरक वनबन्धों में...............................दोनों प्रकार के वनबन्धों की विशेषताएाँ
विद्यमान रिती िैं।
3. ................................................ परात्मकता को अवधक मित्त्ि वदया जाता िै।
4. ................................................. लेखक के व्यवक्तत्त्ि की स्पि छाप वदखाई देती िै।
5. लवलत वनबंध का पल्लिन ......................................... वनबन्धों से िुआ िै।
4. अपने शब्दों में हलहखये-
1. ‘वनबन्ध’ वकस भाषा का पयाभयिाची शब्द िैं ?

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2. व्यवक्त-प्रधान वनबन्ध से आप क्या समझते िैं ?
3. भािात्मक और विचारात्मक वनबन्ध में क्या अतं र िै ?
4. िणभनात्मक और वििरणात्मक वनबन्ध में क्या अतं र िै ?
5. लवलत वनबन्ध की प्रमख
ु विशेषताएाँ क्या िैं ?

6.5 हनबन्ध : तात्तत्त्वक हववेचन


स्िछन्दता,आत्मवनष्ठता, िैचाररकता, भािात्मकता, तावकभ कता, विषयवनष्ठता,
शृख
ं लाबद्धता, व्यंग्यात्मकता, कलात्मकता, जीिन्तता तथा संवक्षप्तता वनबन्ध के प्रमख
ु तत्त्ि िैं।
स्वच्छन्दता - िैयवक्तक्ता के कारण वनबन्ध लेखन में स्िच्छन्दता आना स्िाभाविक िै; वकन्तु
स्िच्छन्दता का आशय विश्रृंखलता निीं िै। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल के अनसु ार - ‘‘वनबन्ध लेखक
अपने मन की प्रिृवत्त के अनुसार स्िच्छन्द गवत से इधर-उधर फूटी िुई सत्रू शाखाओ ं पर विचरता
िुआ चलता िै, यिी उसकी अथभ सम्बन्धी व्यवक्तगत विशेषता िै।.....वनबंध लेखक वजधर चलता िै,
उधर अपनी सपं णू भ मानवसकता सत्ता के साथ अथाभत् बवु द्ध तथा भािात्मक हृदय दोनों वलए िुए। जो
करुण प्रकृ वत के िैं उनका मन वकसी बात को लेकर अथभ-सम्बन्ध-सत्रू पकड़े िुए करूण स्थलों की
ओर झक ु ता और गम्भीर िेदना का अनभु ि करता चलता िै। जो विनोदशील िैं उसकी दृवि उसी
बात को लेकर उसके ऐसे पक्षों की ओर दौड़ती िै, वजन्िें सामने पाकर कोई िाँसे वबना निीं रि
सकता।”
आत्महनष्ठता - वनबन्ध में लेखक अपने व्यवक्तगत विचारों एिं हृदयगत भािों की अवभव्यवक्त करता
िै। यि सत्य िै वक वनबन्ध की यात्रा आत्मीयता से प्रारम्भ िुई; वकन्तु उसकी विकास-यात्रा
विषयिस्तु की प्रेरणा से िैचाररक धरातल का आश्रय लेकर चलती रिी। गद्य की अन्य विधाओ ं में
लेखक अपने व्यवक्तत्त्ि को वछपा सकता िै, परन्तु वनबन्ध में िि चािकर भी ऐसा निीं कर सकता;
क्योंवक आत्मवनष्ठता वनबन्ध का एक अवनिायभ तत्त्ि िै। यिी कारण िै वक वनबन्ध में लेखक का
व्यवक्तत्त्ि इस प्रकार भावसत िोता िै- जैसे वनमभल जलाशय में आकाश ।
वैचाररकता - गद्य की अन्य विधाओ-ं किानी, उपन्यास, नाटक, संस्मरण, जीिनी आवद की
अपेक्षा वनबन्ध में बौवद्धकता की अवधक प्रधानता िोती िै। डॉ.वशि प्रसाद वमश्र वलखते िैं- ‘‘वनबन्ध
ििी किा जा सकता िै जो विचारों को उत्तेजना दे।” यद्यवप व्यवक्त के अनरू
ु प वनबन्धों में मनोविकारों
का गम्ु फन िोता िै वकन्तु लेखक का ध्यान मात्र समरसता पर के वन्द्रत निीं िोता। िि अपनी
िैचाररक-शवक्त के माध्यम से, पािक की ज्ञान वपपासा को भी जाग्रत करता िै। वनबन्ध लेखन के

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वलए िैचाररक क्षमता का िोना वनतान्त आिश्यकता िै। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल विचारात्मकता को
वनबन्ध का आिश्यक तत्त्ि मानते थे, यिी कारण िै वक उन्िोंने अवधकांश वनबन्ध विश्ले षणात्मक
शैली में वलखे िै। उदािरणाथभ उनके ‘भय’ वनबन्ध की कुछ पंवक्तयााँ प्रस्ततु िैं- “भय की इस िासना
का पररिार क्रमश: िोता चलता िै। ज्यों-ज्यों िि नाना रूपों में अभ्यस्थ िोता जाता िै, त्यों-त्यों
उसकी धड़क खल ु ती जाती िै। इस प्रकार अपने ज्ञान बल, हृदय बल और शरीर बल की िृवद्ध के
साथ िि दःु ख की छाया मानो िटाता चलता िै। समस्त मनष्ु य-जावत की सभ्यता के विकास का भी
यिी क्रम रिा िै।”
भावात्मकता - वनबन्ध का एक प्रमख ु तत्त्ि िै आत्मीयता; अथाभत् लेखक का व्यवक्तगत व्यवक्तत्त्ि।
वनबन्ध लेखन के वलए बवु द्धतत्त्ि के साथ भाितत्त्ि का िोना वनतान्त आिश्यक िै, भाितत्त्ि के
अभाि में वनबन्ध लेख बनकर रि जाता िै। वनबधं में विचार िोते िैं, वकन्तु िे मवस्तष्क के शष्ु क
वचन्तन पर िी आधाररत निीं िोते, उनके पीछे हृदय की तरल रागात्मकता भी िोती िै।
मनोिैज्ञावनकता तथा गीतात्मकता के कारण वनबन्धों में वजस सजीिता एिं सरसता के दशभन िोते िैं,
िि भािात्मकता का िी पररणाम िै। वनबन्ध के भािात्मकता के विषय में डॉ. गणपवतचन्द्र गप्तु का
कथन िै- “वनबंध में विचारों का प्रवतपादन करते िुए भी उसमें भािोत्तेजन की क्षमता िोनी आिश्यक
िै। वनबधं में भािोत्तेजना का यि गणु तभी आ सकता िै, जब वक इनमें रचवयता के व्यवक्तत्ि का
जीवित स्पशभ िो।”
संहक्षप्तता - आज के व्यस्तम जीिन में व्यवक्त के पास इतना समय भी निीं िै वक िि स्ियं को समझ
सके । ऐसी वस्थवत में विस्तृत वनबन्धों को पढ़ने के वलए समय वनकालना असंभि प्रतीत िोता िै। यिी
कारण िै वक ितभमान काल में सवं क्षप्तता वनबन्ध का आिश्यक गणु प्रतीत िोता िै। वनबन्ध में
िैचाररक गिनता के साथ, सरसता एिं सारगवभभतता भी िोनी चाविये, वजससे वक प्रवतपाद्य विषय को
सिज िी पािक तक पिुचाँ ाया जा सके । संवक्षप्तता को वनबन्ध का मित्त्िपणू भ तत्त्ि मानते िुए बाबू
गल
ु ाबराय ने किा िै- “वनबन्ध उस गद्य रचना को किना चाविये, वजसमें एक सीवमत आकार के
भीतर वकसी विषय का िणभन या प्रवतपादन एक विषेष वनजीपन, स्िछन्दता, सौष्ठि एिं सजीिता
तथा आिश्यक सगं वत और सम्बद्धता के साथ वकया गया िो।”
ताहकि कता - वनबन्ध में विषयिस्तु के माध्यम से लेखक अपना दृविकोण प्रकट करता िै, इसे प्रकट
करते िुए िि वजस शृखं लाबद्धता का सिारा लेता िै ििी वनबन्ध की तावकभ कता िै। तावकभ कता िारा
लेखक अपने मौवलक विचारों को ऐसे प्रस्ततु करता िै वक उसके विचारों से पािक अवभभतू िो उिे ।
तावकभ कता के अभाि में विषयगाम्भीयभ समाप्त िो जाएगा, और वनबन्ध अपररपक्ि रचना बनकर रि
जाएगी। इसके अवतररक्त अपनी बात को पिु करने के वलए, मीमांसा तथा दाशभवनक विषयों को स्पि
करने के वलए भी तावकभ कता की आिश्यक ता पड़ती िै। अतः तावकभ कता वनबन्ध का मित्त्िपणू भ तत्त्ि
िै।

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ु विश्वविद्यालय 82
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
कलात्मकता - कलात्मकता से तात्पयभ िै - उसके प्रस्तवु तकरण से; प्रस्तवु तकरण, अथाभत् ऐसी भाषा
एिं शैली का प्रयोग करना जो वनबन्ध को सिभग्राह्य बनाने के साथ, अपनी उत्कृ िता, सरसता, प्रौढ़ता
तथा लावलत्य से पािक को आवद से अन्त तक पढ़ने के वलए उसे वििश कर दे। उत्कृ ि वनबन्ध के
वलए आिश्यक िै वक उसकी भाषा-शैली अथाभत् उसका प्रस्तवु तकरण कलात्मक िोना चाविए,
तावक िि पािक को अपने आकषभणपाश में बााँधे रखे। कलात्मकता साधारण विषय को भी
सरू
ु वचपणू भ आकार प्रदान कर देती िै। वनबन्ध की श्रेष्ठता उसके अनभु वू त पक्ष तथा अवभव्यवक्त पक्ष
पर वनभभर करती िै। अवभव्यवक्त पक्ष का संबंध रचनात्मक कला के सौंदयभ से िै; और कलात्मक पक्ष
के मख्ु यतः चार अगं िैं - भाषा-शैली , अलंकार, ध्िवन, और औवचत्य।
तारतम्यता - जब लेखक अपनी हृदयानभु वू त को अथिा अपने विचारों को वकसी एक विषय के
माध्यम से शीषभक, प्रस्तािना, विस्तार, तथा पररणाम के आधार पर विकवसत करता िै, तो उसमें
आवद से अन्त तक तारतम्यता बनी रिती िै। यवद वनबन्ध में आरम्भ, मध्य और अन्त में संगवत निीं
िोगी तो िि मात्र प्रलाप बनकर रि जाएगा। वनबन्ध का प्रारम्भ भवू मका िारा िोता िै; वजसमें लेखक
विषय का संकेतात्मक पररचय देता िै। वनबन्ध के मध्य भाग में लेखक, विषय को अपने बौवद्धक
वििेचन, भािनाओ,ं अनभु िों, व्यंग्यों तथा वििरण आवद के माध्यम से विस्तार देता िै; तथा
अन्ततः प्रभािोत्पादक भाषा-षैली के माध्यम से सम्पणू भ वििेचन का वनचोड़ प्रस्ततु करता िै।
भाषा - सामान्यतः भाषा संप्रेषणीयता , अथाभत् अपनी बात को दसू रे तक पिुचाँ ाने का सिज माध्यम
िै, वकन्तु वनबन्ध लेखन में भाषा का मित्त्ि इससे कुछ अवधक िै; क्योंवक इसमें वनबंधकार के वलए
भाषा, के िल अपने भािों एिं विचारों को पािक तक पिुचाँ ाने का साधन मात्र निीं िोती। इसमें
लेखक विषय को प्रभािषाली बनाने के वलए शब्द-चयन, िाक्य-रचना तथा भाषा में निीनता लाकर
वनबन्ध को वनखारने का प्रयास भी करता िै। यिी कारण िै वक वनबन्ध में िमें, किीं सरल शब्द और
छोटे िाक्य वदखाई देते िैं; तो किीं कविन शब्दों तथा अनेक उपिाक्यों से वमलकर बने लम्बे िाक्यों
का प्रयोग वमलता िै। यि सत्य िै वक वनबन्ध की भाषा और शैली के माध्यम से िी िम, वनबन्ध-
लेखक के व्यवक्तत्त्ि से भी पररवचत िोते िैं; वकन्तु वनबन्ध की लोकवप्रयता के वलए आिश्यक िै वक
उसकी भाषा ऐसी िो, जो विषयिस्तु को सिजग्राह्य बनाने में सफल िो सके ।
शैली - प्रत्येक रचनाकार का व्यवक्तत्त्ि दसू रे से वभन्न िोता िै, यिी कारण िै वक एक लेखक की
वनबन्ध-शैली दसू रे से वभन्न िोती िै। इसके अवतररक्त वनबन्धकार अपने भािों एिं विचारों को वजस
रूप में प्रस्ततु करता िै, अवभव्यवक्त के उस तरीक़े को िी वनबन्ध की शैली किा जाता िै। कुछ लोग
अपनी बात को स्पि करने के वलए वकसी लोकोवक्त-मिु ािरे , दोिे-चौपाई, श्लोक, अथिा जीिन-
अनभु िों के उदािरणों का सिारा लेते िैं, तो कुछ सीधे-सपाट तरीक़े से अपनी बात किते िैं; कुछ
अपनी बात इतनी आत्मीयता से किते िैं वक पािक भी उस भाि-प्रिाि में बिता चला जाता िै,
और कुछ लेखक इतना गिन िैचाररक-विष्लेषण प्रस्ततु करते िैं वक िम उनके वचंतन-मंथन और

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ु विश्वविद्यालय 83
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
अतं दृभवि का लोिा माने वबना निीं रिते। वनबन्ध बोधगम्य बन सके इसके वलए आिश्यक िै वक
वनबन्धकार शब्द-चयन करते समय, तथा िाक्य-संरचना समय इस बात ध्यान रखे वक िे दरू ु िि
जवटल न िों; क्योंवक भाषा-शैली िी िि संजीिनी िै जो वनबन्ध को जीिन्तता प्रदान करती िै।
गद्यात्मकता - उपयभक्त ु तत्त्िों के अवतररक्त वनबन्ध का सिाभवधक प्रमखु तत्त्ि िै - गद्यात्मकता; वकन्तु
के िल गद्यात्मक शैली में वलखे जाने से िी कोई रचना वनबन्ध निीं किी जा सकती। यद्यवप वनबन्धों
में उदािरण स्िरूप वकसी व्यवक्त के जीिन का उल्लेख िो सकता िै, वकन्तु लेखक का उद्देश्य उस
व्यवक्त का जीिनचररत्र प्रस्ततु करना निीं िोता, इसवलए यि जीिनी से वभन्न िै; वनबन्ध में वकसी
स्थान विशेष की यात्रा का वज़क्र भी िो सकता िै, वकन्तु यात्रािृत्तान्त प्रस्ततु करना लेखक का उद्देश्य
निीं िोता; इसी तरि वनबन्धों में किानी की रंजकता, नाटक की रमणीयता, संस्मरण की मधरु ता तथा
रे खावचत्र की वचत्रात्मकता िो सकती िै; वकन्तु लेखक का उद्देष्य न कथा किना, और न नाटक,
संस्मरण या रे खावचत्र आवद वलखना िी िोता िै।
वनबन्ध के जनक मोंतेन एिं सभी पाश्चात्य समीक्षकों, तथा विन्दी के ग्रंथकारों-
िजारीप्रसाद वििेदी बाबू गल ु ाबराय, जयनाथ नवलन आवद ने वनबन्ध में व्यवक्तत्त्ि की प्रधानता को
स्िीकार वकया िै। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल वनबन्ध में आत्मवनष्ठता के साथ, विचार गाम्भीयभ और
भाषा की सामावसकता को अवधक मित्त्ि देते िैं। वनबन्ध का उद्देश्य एक ओर मनोरंजन के साथ
जनजागृवत लाना या समसामवयक समस्याओ ं का उद्घाटन करना िै, तो दसू री और भाि एिं कल्पना
का प्राधान्य िोने के कारण कलात्मकता पािक को आद्योपान्त पढ़ने के वलए वििश कर भी देती िै।
वनबन्धकारों के एक िगभ ने राचन्द्र शक्ु ल की भााँवत वनबन्ध को गम्भीर विचार-प्रकाशक माना तो दसू रे
िगभ ने ‘विनोदी तत्िों’ को भी वनबन्ध के वलए आिश्यक माना। बाबू गल ु ाबराय ने ‘काव्य के रूप’ में
वनबंध के अनेक तत्त्िों को समेटते िुए वनबंध की एक सन्तवु लत पररभाषा देते िुए वलखा िै- “वनबंध
उस गद्य रचना को किते िैं वजनमें एक सीवमत आकार के भीतर वकसी विषय का िणभन या प्रवतपादन
एक विषेष वनजीपन, स्िच्छता, सौष्ठि और सजीिता तथा आिश्यक संगवत और सम्बद्धता के साथ
वकया गया िो।”
डॉ. नवलन ने वनबंध विषयक उपयभक्त
ु सभी पररभाषाओ ं का वनचोड़ प्रस्ततु करते िुए ‘विन्दी
वनबन्धकार’ में वलखा िै- “वकसी विषय पर स्िाधीन वचन्तन और वनष्छल अनभु वू तयों का सरस ,
सजीि और मयाभवदत गद्यात्मक प्रकाषन िी वनबन्ध िै।”
अभ्यास प्रश्न
4. नीचे हलखे कथनों में से सिी और ग़लत को छााँहटये -
(क) वनबन्ध का जनक मांतेन को माना जाता िै। ( सिी/ग़लत)

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
(ख) एस्से और वनबन्ध के अथभ में अन्तर िोता िै। ( सिी/ग़लत )
(ग) वनबन्ध में व्यवक्त की आत्मकथा िोती िै। ( सिी/ग़लत )
(र्) वनबन्ध गद्य-पद्य दोनों शैवलयों में वलखे जाते िैं। ( सिी/ग़लत )
(ङ) आत्मवनष्ठता वनबन्ध का अवनिायभ तत्त्ि िै।( सिी/ग़लत )
6. वनबन्ध शब्द का अथभ एिं स्िरूप स्पि कीवजये।
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7. वनबन्ध वकतने प्रकार के िोते िैं ?
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8. वनबन्ध के प्रमख
ु तत्त्ि कौन-कौन से िैं ?
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9. वनबन्ध के तत्त्िों से आप क्या समझते िैं, तथा उनका क्या मित्ि िै ? (दस पंवक्तयों में उत्तर
दीवजये)
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ु विश्वविद्यालय 85
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
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6.6 सारांश
इस इकाई को पढ़कर आप जान चक ु े िैं वक वनबन्ध का अथभ क्या िै . साथ िी साथ आप ये
भी जान चक ु े िोंगें वक वनबंध का तात्पयभ और उसकी प्रमख ु पररभाषाएं क्या िैं । इसके साथ िी
आपने यि भी जाना वक वनबन्ध वकतने प्रकार के िो सकते िैं, वनबधं का स्िरूप क्या िै तथा वनबन्ध
के तत्त्ि कौन-कौन से िैं। इस इकाई को पढ़ने के बाद आप विन्दी सावित्य के अतं गभत वनबंध विधा
का सम्पणू भ पररचय भी प्राप्त कर चक
ु े िैं

6.7 शब्दावली
1. आत्मवनष्ठ - अपने में लगा रिने िाला।
2. बोधगम्यता - समझ में अपने लायक या वजसे आसानी से समझा जा सके ।
3. आकषभणपाश - वखचं ाि से बााँधकर रखना,
4. वििरणात्मक - व्याख्या सबं धं ी
5. िैयवक्तक - व्यवक्तगत अथाभत वजसमें अपना सोच-विचार वचंतन वदखाई दे।
6. विशृख
ं लता - वबखरा िुआ
7. विश्ले षणात्मकता - छान-बीन संबंधी
8. लावलत्य - रमणीयता
9. आद्योपान्त - प्रारम्भ से अन्त तक
10. दरू
ु ि - कविन
11. आत्मावभव्यवक्त - अपने मनोभािों को प्रकट करना
12. जवटल - उलझा िुआ

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
13. सिजग्राह्य - आसानी से समझ आने िाला
14. शृखल
ं ाबद्धता - क्रम यक्त

15. प्रभािोत्पादक - प्रभाि डालने िाला
16. तारतम्यता - क्रमबद्धता
17. तावकभ कता - सवु िचाररत बात, चमत्कारपणू भ कथन
18. तावत्त्िक वििेचन - परीक्षण के आधार पर वकसी तत्त्ि के विषय में विस्तार से
बताना

6.8 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. विन्दी सावित्य का इवतिास, आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल
2. भारतीय एिं पाश्चात्य काव्य वसद्धान्त, गणपवतचन्द्र गप्तु
3. सावित्य सिचर, आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी
4. सावित्य शास्त्र, डॉ. रामशरण दास गप्तु ा, प्रो. राजकुमार शमाभ
5. विन्दी सावित्य का दसू रा इवतिास,बच्चन वसिं
6. विन्दी सावित्य कोश, धीरे न्द्र िमाभ

6.9 अभ्यास प्रश्न के उत्तर


1. हकसका कथन िैैः-
जॉनसन
रामचन्द्र शक्ु ल
जयनाथ ‘नवलन’
2. आइये दोिराएाँ -
अ. उन्नीसिीं शताब्दी से।

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ु विश्वविद्यालय 87
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
आ. वचतं न, विचारगाम्भीयभ एिं बोधगम्यता।
इ. मौवलक रचनाओ ं को ग्रवथत करने या बााँधने के वलए।
ई. लैवटन के एग्जावजयर से।
उ. शक्ु ल यगु से।
3. ररि स्थानों की पहू ति:-
क. वििरणात्मक
ख. भािात्मक और विचारात्मक
ग. विषय-प्रधान
र्. व्यवक्त-प्रधान
ङ. भािात्मक
4. अपने शब्दों में हलहखये-
(क) अग्रं ेजी के ‘एस्से’।
(ख) वजन वनबन्धों में व्यवक्त की अथाभत् आत्मतत्त्ि की प्रधानता िोती िै।
(ग) भािात्मक वनबन्धों में भािों की प्रधानता िोती िै। िाक्य छोटे, तथा भाषा काव्यात्मक
िोती िैं। विचारात्मक वनबन्धों में वचतं न की प्रधानता िोती िै, तथा भाि विचारों के अनिु ती बनकर
रिते िैं।
(र्) िणभनात्मक वनबन्धों में िण्यभविषय का रूप वस्थर, तथा वििणभनात्मक वनबन्धों में
गवतषील वदखाई जाता िै। िणभनात्मक वनबन्धों में विषयिस्तु का िणभन विस्तारपिू क
भ वकया जाता िै,
और वििणभनात्मक वनबन्धों में उसकी व्याख्या की जाती िै।
(ङ) लवलत वनबन्धों में लेखक अपने भािों एिं विचारों को वनश्छलता एिं सरसतापिू भक
पािक के समक्ष रख देता िै। आत्मीयता के कारण इसकी भाषा में काव्यात्मक-सौंदयभ वदखाई देता िै।
5. सिी-ग़लत:-
(क) सिी, (ख) सिी, (ग) ग़लत, (र्) ग़लत, (ङ) सिी

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 88
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
6. वनबन्ध का शावब्दक अथभ िै- भलीभााँवत बााँधना। वनबन्ध एक ऐसी गद्य रचना िै- वजसमें
वनबन्धकार वकसी साधारण अथिा विशेष विषय पर अपने मौवलक वचंतन तथा गम्भीर
विचारों को सोद्द्श्य, कलात्मक ढ़ंग से प्रस्ततु करता िै।
7. वनबन्ध मख्ु यतः दो प्रकार के िोते िैं- 1. व्यवक्त-प्रधान, और 2. विषय-प्रधान।

6.10 हनबन्धात्मक प्रश्न


1. वनबन्ध का अथभ बताते िुए, उसका तावत्िक वििेचन कीवजये ?
2. विन्दी सावित्य के अतं गभत वनबंध विधा का सवं क्षप्त वििेचन कीवजए तथा वनबधं
का मित्त्ि भी स्पि कीवजए ?

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ु विश्वविद्यालय 89
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इकाई 7 अन्य गद्य हिधाओं का स्िरूप एिं
िात्तत्त्िक हििेचन - भाग 1
इकाई की रूपरे खा
7.1 प्रस्तािना
7.2 उद्देश्य
7.3 गद्य सावित्यः अथभ एिं उसके विविध रूप
7.3.1 सावित्य का अथभ एिं स्िरूप
7.3.2 पररभाषाएाँ
7.4 विविध विधाओ ं का विश्लेशण
7.4.1 आत्मकथा
7.4.2 जीिनी
7.4.3 आलोचना
7.4.4 व्यग्ं य
7.6 सारांश
7.7 शब्दािली
7.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
7.9 सदं भभ ग्रथं सचू ी
7.10 वनबन्धात्मक प्रश्न

7.1 प्रस्तावना
इससे पिू भ की इकाई में आपने जाना वक ‘वनबन्ध’ शब्द का अथभ एिं तात्पयभ क्या िै? उसका
स्िरूप कै सा िोता िै? वनबन्ध के तत्त्ि कौन-कौन से िैं, उनकी वििेचना कै से की जाती िै; तथा
वनबन्ध लेखन, सावित्य की अन्य विधाओ ं से वकस तरि वभन्न िै।
आप जानते िी िोंगे वक सावित्य को समाज का दपभण किा जाता िै; लेवकन क्यों, क्या
कभी सोचा िै? आइये िम आपको बताते िैं- मनष्ु य स्िभाितः वजज्ञासु प्राणी िै; यिी कारण िै वक
पाषाण यगु से विकास करते-करते आज िि उद्योग के क्षेत्र में भी वनरन्तर विकास करता चला जा
रिा िै। विकास न कोई चमत्कार िै, और न अनायास िोने िाली कोई र्टना; बवल्क आज िि एक

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 90
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
प्रवक्रया िै, जो मानि के बौवद्धक विकास का पररणाम िै। यिी कारण िै वक धीरे -धीरे लेखक और
पािक दोनों की मनोिृवत्तयााँ पररिवतभत िुई,ं और निीन प्रयोगों के प्रवत उनकी अवभरुवच जाग्रत िोने
लगी। बौवद्धक और सामावजक पररितभन के साथ िी, सावित्य का पारम्पररक स्िरूप भी पररिवतभत
िोता चला गया। यिी कारण था वक कथासावित्य के गभभ में वछपे स्मारक सावित्य के बीज अपना
स्ितन्त्र अवस्तत्त्ि तलाशने लगे; पररणामस्िरूप स्मारक सावित्य का जन्म िुआ और उसकी विविध
शाखाएाँ- सस्ं मरण, आत्मकथा, यात्रािृत्तान्त, व्यग्ं य, रे खावचत्र आवद विकवसत िोकर फलने-फूलने
लगीं।
इस खण्ड की अगली इकाई में आप, विन्दी गद्यसावित्य की अन्य विधाओ-ं डायरी, पत्र,
यात्रािृत्तान्त, संस्मरण तथा रे खावचत्र का स्िरूप एिं इनके तावत्त्िक वििेचन का अध्ययन करें ग।े

7.2 उद्देश्य
वनबन्ध एिं अन्य गद्य विधाएाँ, यि स्नातक प्रथम िषभ, गद्य सावित्य का वितीय प्रश्न पत्र िै। इसमें िम
आपको गद्य सावित्य की अन्य विधाओ ं के स्िरूप, तथा उनके तावत्त्िक वििेचन से पररवचत
कराएाँग।े इस इकाई को पढ़कर आप जान सकें गे :-

 गद्य सावित्य की प्रमखु विधाएाँ कौन-कौन सी िैं।


 गद्य की अन्य विधाओ ं से क्या तात्पयभ िै, तथा उनके नाम क्या िैं।
 आत्मकथा वकसे किते िै।
 आत्मकथा का स्िरूप और उसका तावत्त्िक वििेचन।
 जीिनी का अथभ, स्िरूप और उसका तावत्त्िक वििेचन।
 जीिनी और आत्मकथा में अन्तर; (िररिश ं राय बच्चन की आत्मकथा, तथा शरतचन्द्र की
जीिनी के अश ं के माध्यम से) ।
 आलोचना का अथभ; प्रमख ु आलोचक और उनकी रचनाएाँ।
 आलोचना का स्िरूप, और उसका तावत्त्िक वििेचन।
 व्यंग्य का अथभ; प्रमख
ु व्यंग्यकार और उनकी रचनाएाँ।
अब तक आप विन्दी गद्य सावित्य की विवशष्ट विधा वनबन्ध के विशय में भलीभााँवत जान गए िोंगे।
गद्य सावित्य की अन्य विधाओ ं के विशय में जानने से पिले आइये, यि भी समझ लें वक सावित्य

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 91
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
शब्द का क्या अथभ िै, सावित्य िमें वकस-वकस रूप में उपलब्ध िोता िै, तथा गद्यात्मक सावित्य
वकतने प्रकार का िोता िै।

7.3 गद्य साहित्यः अथभ एवं उसके हवहवध रूप

7.3.1 साहित्य का अथि एवं स्वरूप


सामान्यतः वकसी भी विशय की जानकारी प्रदान करने िाली वलवखत सामग्री को ‘वलरेचर’ किा
जाता िै; और ‘सावित्य’ शब्द का प्रयोग िम अग्रं ेज़ी के ‘वलरेचर’ शब्द के रूप में करते िैं। ऐसे में
अक़्सर िमारे मवस्तष्क में यि प्रश्न आता िै वक आवखर सावित्य िै क्या?
तो आइये, िम आपको बताते िैं- ऐसा लेखन जो जनवित के उद्देश्य से वलखा गया िो,
वजसमें स्थावयत्त्ि िो, अथाभत् कृ वत का मित्त्ि स्थायी बना रिे; वजसमें रचनाकार के व्यवक्तत्त्ि का
प्रवतफलन िो अथाभत् उसकी विचारधारा, अनभु वू त आवद का प्रकाशन िो, और वजसमें रागात्मकता
िो अथाभत् लेखक अपने भाि, कल्पना, बवु द्ध तथा रचनात्मक कौशल से पािक के हृदय को
आन्दोवलत एिं आनवन्दत करने में सफल िो जाए; उसे सावित्य किा जाता िै। सावित्य के विशय में
अनेक भारतीय एिं पाश्चात्य वििानों ने अपने-अपने मत प्रकट वकए िैं, उनमें से प्रमख ु लोगों की
सावित्य संबंधी कथन इस प्रकार िैं-
सस्ं कृ त सावित्य में ‘सावित्य’ की व्यत्ु पवत्त संबंधी दो मत वमलते िैं, पिला- ‘वितेन सवितं सावित्यमं’
अथाभत् वजसमें वित भाि वनवित िो; और दसू रा- ‘सवितस्य भािं इवत सावित्यम’् अथाभत् वजसमें
सवित का भाि वनवित िो। विन्दी-सावित्य-कोश’ में ‘सावित्य’ शब्द की व्याख्या करते िुए वलखा
गया िै- ‘सावित्य’ शब्द ‘सवित’ शब्द में यत् प्रत्यय के योग से बना िै; वजसका अथभ िोता िै- शब्द
और अथभ का सिभाि अथाभत् साथ िोना।
7.3.2 पररभाषाएाँ
‘सावित्य-विज्ञान’ में सावित्य वक सामान्य पररभाषा इस प्रकार वनधाभररत की गयी िै- “सावित्य भाषा
के माध्यम से रवचत िि सौन्दयभ या आकषभण से यक्त ु रचना िै, वजसके अथभ-बोध से सामान्य पािक
को आनन्द की अनभु वू त िोती िै।”
अरस्तु का कथन िै- ”शब्दों के माध्यम से प्रस्ततु अनक
ु ृ वत िी काव्य या सावित्य िै।“
शैली के विचार से- ”काव्य सिाभवधक सख
ु ी एिं हृदयों के श्रेष्ठतम क्षणों का लेखा-जोखा िै।“

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 92
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वसडनी का मत िै- “काव्य या सावित्य िि अनक
ु रणात्मक कला िै, वजसका लक्ष्य वशक्षा एिं
आनन्द प्रदान करना िै।”
कालररज के अनसु ार- “काव्य, रचना का िि विवशष्ट प्रकार िै वजसका तात्कावलक लक्ष्य प्रसन्नता
प्रदान करना िोता िै।”
सावित्य लेखन की मख्ु यतः दो विधाएाँ प्रचलन में िैं, पिली- पद्य; इसके अन्तगभत- कविता,
गीत, मक्त
ु क, खण्डकाव्य और मिाकाव्य आते िैं; और दसू री- गद्य, इसके अन्तगभत- किानी,
उपन्यास, वनबन्ध तथा स्मारक सावित्य आते िैं। इनके अवतररक्त एक और विधा भी िै- वजसे वमवश्रत
सावित्य किा जाता िै अथाभत् ऐसा सावित्य वजसमें पद्य एिं गद्य दोनों का प्रयोग वमलता िै, जैसे-
नाटक, और चम्पू (सस्ं कृ त सावित्य की विधा)।
विन्दी में, गद्यात्मक सावित्य प्रमख
ु तः तीन रूपों का वमलता िै- आख्यानात्मक,
वनबन्धात्मक और विश्लेशणात्मक। उपन्यास और किानी आख्यात्मक सावित्य के अन्तगभत आते
िैं; वनबन्धात्मक सावित्य के अन्तगभत- भािात्मक, विचारात्मक, िैयवक्तक तथा िणभनात्मक वनबन्ध
आवद, तथा यात्रा सावित्य, डायरी, पत्राचार, ररपोताजभ, संस्मरण, जीिनी, आत्मकथा, शब्दवचत्र,
एकांकी आवद आते िैं। विश्लेषणात्मक सावित्य के अन्तगभत दो प्रकार का सावित्य आता िै- पिला-
समालोचनात्मक अथाभत् आलोचना सावित्य; और दसू रा- इनके अवतररक्त गद्य में जो भी शेश रि
जाता िै, िि सब इसी के अन्तगभत आता िै।
अभ्यास प्रश्न 1

क) ररक्त स्थानों की पवू तभः-


1. विन्दी में, गद्यात्मक सावित्य प्रमख
ु तः ............. रूपों का वमलता िै।
2. उपन्यास और किानी ..........................सावित्य के अन्तगभत आते िैं।
3. समालोचनात्मक सावित्य...........................सावित्य के अन्तगभत आता िै।
4. संस्मरण, जीिनी, आत्मकथा.........................सावित्य के अन्तगभत आते िैं।
5. किानी, उपन्यास, वनबन्ध तथा स्मारक सावित्य.................. के अन्तगभत आते िैं।
6. वजस सावित्य में ................ दोनों का प्रयोग वमलता िै उसे........................किते िैं।
7. .................................सस्ं कृ त सावित्य की विधा िै।

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7.4 हवहवध हवधाओं का हवश्ले शण

7.4.1 आत्मकथा
जब वकसी रचना में सावित्यकार िारा अपने व्यवक्तत्त्ि का वििेचन-विश्लेशण वकया जाता िै, तब
उसे आत्मकथा किा जाता िै। आत्मकथा में सावित्यकार अपने सम्पणू भ जीिन की कथा को
सावित्यक रूप में प्रस्ततु करता िै। इसमें लेखक अपने जीिन में र्वटत र्टनाओ ं को इस प्रकार
प्रस्ततु करता िै वक िि संस्कृ वत, इवतिास और सावित्य का अनिू ा संगम बन जाती िै। विन्दी
सावित्य-कोश में आत्मकथा को पररभावषत करते िुए वलखा िै- “आत्मकथा लेखक के अपने जीिन
से सम्बद्ध िणभन िैं। आत्मकथा के िारा अपने बीते िुए जीिन का वसंिािलोकन और एक व्यापक
पृष्ठभवू म में अपने जीिन का मित्त्ि वदखलाया जाना सम्भि िै।”
आलोचक वशप्ले ने आत्म-कथा का स्िरूप स्पि करते िुए वलखा िै- “यद्यवप आत्म-कथा
और संस्मरण देखने में समान सावित्य स्िरूप मालूम पड़ते िैं, वकन्तु दोनों में अन्तर िै। यि अन्तर
बल सम्बन्धी िै। एक में चररत्र में बल वदया जाता िै और दसू रे में बाह्य र्टनाओ ं और िस्तु आवद
िणभनों पर िी लेखक की दृवि रिती िै। सस्ं मरण में लेखक उन अपने से वभन्न व्यवक्तयों, िस्तओ ु ,ं
वक्रयाकलापों आवद के विशय में संस्मरणात्मक वचत्रण करता िै, वजनका उसे अपने जीिन में समय-
समय पर साक्षात्कार िो जाता िै।.....आत्म-कथा विशाल जीिन सामग्री की पृष्ठभवू म में से कुछ
मित्िपूणभ बातों को लेकर उनको व्यिवस्थत ढंग से पािकों के समक्ष रखता िै या वफर अपनी
अन्तभदृवि से उनको संस्मरण रूप में प्रस्ततु करता िै।”
विन्दी सावित्य में ‘आत्मकथा’ लेखन की आरम्भ बनारसीदास जैन की 1641 में प्रकावशत
पद्यात्मक रचना ‘अद्धभकथानक’ से िोता िै; वकन्तु गद्यात्मक रूप में इसकी प्रवतष्ठा आधवु नक यगु में
िुई। 1910 में सत्यानन्द अवग्निोत्री िारा रवचत ‘मझु में देि जीिन का विकास’, तथा 1917 में स्िामी
दयानन्द सरस्िती िारा रवचत ‘जीिन-चररत्र’ इस विधा की प्रारवम्भक कृ वतयााँ िैं। आत्मकथा लेखन
में रचनाकार पािकों की रोचकता को ध्यान में रखते िुए, अपने जीिन की र्टनाओ ं के साथ अपने
मनोभािों, विचारों, वचंतन-मथं न, दशभनावद को भी सवम्मवलत कर देता िै।

अभ्यास प्रश्न 2

क) ररक्त स्थानों की पवू तभ :-


1. ...................में सावित्यकार अपने सम्पणू भ जीिन की ............... साविवत्यक रूप
में................करता िै।

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2. आत्मकथाकार दवु नया के .....................के साथ अपना एक रूपाकार अनभु ि करता िै।
3. सत्यानन्द अवग्निोत्री िारा रवचत ..........................सन.् .................प्रकावशत िुई।
4. ............................और........................... आत्मकथा की प्रारवम्भक कृ वतयााँ िैं।
5. ...........................की 1641 में प्रकावशत पद्यात्मक रचना का
नाम............................ था,वजसे विन्दी सावित्य की..................
प्रथम......................माना जाता था।

आत्मकथाकार दवु नया के साधारणजनों के साथ अपना एक रूपाकार अनभु ि करता िै,
और िास्ति में इसी भािना से यक्त ु िोकर िी आत्मकथा लेखन में सफलता पाई जा सकती िै।
िररिश ं राय बच्चन ने अपने इसी मनोभाि को अवभव्यक्त करते िुए वलखा िै- “इतने बड़े ससं ार में
अपने को अके ला अनभु ि करने से बड़ा बंधन निीं। इतने बड़े संसार में अपने को समझने से बढ़कर
मवु क्त निीं।” बच्चन जी में लेखन प्रवतभा कब और कै से जाग्रत िुई, इसके विशय में उन्िोंने अपनी
आत्मकथा ‘क्या भल ू ाँू क्या याद करूाँ’ में वबना वकसी लाग-लपेट के स्पि रूप से वलखा िै-
“स्कूल में एक विन्दी-सवमवत थी। उसमें समय-समय पर विन्दी में व्याख्यान िोते, कविताएाँ, किावनयााँ
पढ़ी जातीं। वनबन्ध पढ़े जाते। ऊाँचे दजे के विन्दी-प्रेमी विद्यावथभयों में उस समय िाकुर यादिेन्द्र वसंि
थे- रीिा के ; बाद को उनकी किावनयों के दो संग्रि प्रकावशत िुए; पिले का नाम ‘िार’ था, वजससे
मैंने अपने प्रथम काव्य-संग्रि ‘तेरा िार’ के नाम के वलए प्रेरणा ली थी; उनके दसू रे संग्रि की भवू मका
मैंने वलखी थी, नाम इस समय ध्यान से उतर गया िै । अपने जीिन के एक कटु प्रसंग पर उन्िोंने दो
भागों में ‘उषा बनाम प्रकाश’ नाम की एक पस्ु तक छपाई थी, उसके किर पृष्ठ पर मेरी ये पवं क्तयााँ दी
थी-
‘मैं वछपाना जानता तो जग मझु े साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया िै छल-रवित व्यििार मेरा।’-
िाकुर विक्रमावदत्य वसिं थे, जो छायािादी शैली में कविता वलखते थे, नाटक भी; उनके
वलखे कई नाटक कायस्थ पािशाला में अवभनीत िुए थे। उनके -‘ध्रिु ’ नाटक में भगिान के स्िर में
मैं िी पदे के पीछे से बोलता था, क्योंवक मेरा उच्चारण शद्ध
ु समझा जाता था; भगिान चतभु जभु ी रूप
में मचं पर निीं प्रकट िुए थे। भगिान के मचं पर आने के स्थान पर के िल उनकी िाणी सनु ाई देना
अवधक प्रभािकारी वसद्ध िुआ। उनके सदु ामा नाटक के अवभनीत िोने की भी मझु े याद िै। खेद िै वक
विक्रमावदत्य वसिं का वलखा कुछ भी प्रकावशत न िो सका , निीं तो उसकी कविता और नाटकों का
वनश्चय ऐवतिावसक मित्ि िोता। मैंने अपनी विन्दी की पिली कविता उन्िीं से शद्धु कराई थी; उन्िीं

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से मैंने मात्रा ज्ञान पाया था- और थे श्री आनन्दी प्रसाद श्रीिास्ति वजनकी कविताओ ं का एक छोटा
सा संग्रि ‘झााँकी’ या ‘अछूत’ के नाम से वनकाला था, बाद को िे कायस्थ पािशाला में अध्यापक
िो गये थे । सवमवत की ओर से एक िस्तवलवखत विन्दी पवत्रका वनकलती थी वजसका नाम ‘आदशभ’
था। मेरी वलखािट बड़ी साफ़-सथु री थी-अक्षर मोती जैसे चुने। विश्राम वतिारी ने वसखाया था, ‘र्न
अक्षर वबड़र पााँती; यिै आय वलखबे की भााँवत’; मैंने भी शब्दों को वबड़र वलखने की रीवत चलाई थी।
‘आदशभ’ में आए लेखों को सन्ु दर वलवप में एकरूपता देने के वलए मझु से समान आकार-प्रकार के
कागजों पर नकल कराया जाता था। यि सब मेरे मौवलक लेखन के वलए अनजान तैयारी थी, आज
मैं वनःसन्देि कि सकता िू।ाँ मैंने किीं पड़ा था वक एक यनू ानी इवतिासकार ने अपनी शैली सधु ारने के
वलए अपने एक पिू जभ इवतिासकार का परू ा ग्रन्थ नकल कर डाला था। नकल अगर नकल के साथ
की जाए तो नकल करना मौवलक लेखक की विचार-प्रवक्रया से िोकर गज़ु रना िै। इसके लाभों का
सिज अनमु ान निीं वकया जा सकता।
कायस्थ पािशाला में िी मैंने अपनी परू ी विन्दी कविता वलखी, वकसी अध्यापक ने
विदावभनन्दन पर, जब मैं सातिीं में था। थोड़ी बिुत तक ु बंदी मैंने ऊाँचामण्डी स्कूल में िी शरूु कर दी
थी। विश्राम वतिारी जब वनबंध वलखते तब किते, अन्त में कोई दोिा वलख देना चाविए। विशय से
सम्बन्ध दोिा याद न िोने पर मैं स्ियं कोई रचकर लगा देता था। इन्िीं दोिो में मेरे काव्य का उद्गम
िुआ। निीं - दशिीं कक्षा में तो मैंने कविताओ ं से एक कापी भर डाली; ‘भारत-भारती से’ गप्तु जी
की पद्यािली, ‘सरस्िती’ के पृष्ठों से पन्त जी की कविता और ‘मतिाला’ के अक ं ों से वनराला जी के
मक्त
ु छन्द से मेरा पररचय िो चक ु ा था। पर मेरी िे कविताएाँ इतनी वनजी थीं वक जब मेरे एक साथी ने
चोरी से उसे देख वलया तो मैंने गस्ु से में परू ी कापी के टुकड़े-टुकड़े करके फें क दी। मेरे र्र से वगरधारी
के खेत तक कापी के टुकड़े फै ल गये थे, इसका वचत्र मेरी आाँखों के सामने अब भी ज्यों-का-त्यों िै।
कविताएाँ मैने आगे भी वबल्कुल अपनी और वनजी बनाकर रखी, और मेरे कई साथी उनके साथ
ताक-झााँक करने का प्रयत्न करते रिे।” -
िररिश ं राय बच्चन की आत्मकथा का अश ं
आत्मकथा के प्रमुख तत्त्व - प्रामावणकता, सत्यता, संयम, तटस्थता, औवचत्य, भाषा की सरलता
अभ्यास प्रश्न 3

क) यि कथन वकसका िै :-
1. “इतने बड़े संसार में अपने को अके ला अनभु ि करने से बड़ा बंधन निीं। इतने बड़े
संसार में अपने को समझने से बढ़कर मवु क्त निीं।”
2. “शब्दों के माध्यम से प्रस्ततु अनक
ु ृ वत िी काव्य या सावित्य िै।”

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3. मैं वछपाना जानता तो जग मझु े साधु समझता,
शत्रु मेरा बन गया िै छल-रवित व्यििार मेरा।
4. “काव्य सिाभवधक सख ु ी एिं हृदयों के श्रेष्ठतम क्षणों का लेखा-जोखा िै।”
7.4.2 जीवनी
‘जीिनी’ शब्द अग्रं जी के ‘बायोग्राफ़ी’ या ‘लाइफ़’ का पयाभय िै। विन्दी में जीिनी के वलए ‘जीिन
चररत’ या ‘जीिन चररत्र’ शब्द प्रचवलत िै। वकसी विशय का कलात्मक तथा उद्देश्यपणू भ िणभन िी
सावित्य िै; इसवलये जब कोई सावित्यकार वकसी व्यवक्त की जीिनी वलखता िै, तो यि उस पर वनभभर
करता िै वक िि अपने जीिन पररत नायक के सम्पणू भ जीिन को ले अथिा उसके िारा वकए गए
विवशष्ट कायों को अपना िण्यभविशय चनु े। सामान्यतः जीिनी में िमें, नायक िारा सम्पणू भ
जीिनकाल में वकए गए कायों का िणभन कलात्मक रूप में वमलता िै। जीिनी सावित्य िारा िम
व्यवक्त विशेश के व्यवक्तत्त्ि से सिज िी पररवचत िो जाते िैं।
पररभाषाएाँ :-
हशप्ले ने जीिन की पररभाषा बिुत कुछ इस प्रकार से दी िै -“जीिनी वकसी व्यवक्त विशेश
की जीिन धटनाओ ं का वििरण िै।अपने आदशभ रूप में िि प्रयत्नपिू क भ वलखा गया इवतिास िै,
वजसमें व्यवक्त-विशेश के सम्पणू भ जीिन या उसके वकसी अंश से सम्बवन्धत बातों का वििरण वमलता
िै। यि आिश्यकताएाँ उसे उक सावित्य विधा का रूप प्रदान करती िै।”
जॉनसन ने जीिनी की पररभाषा देते िुए वलखा िै वक- “जीिनीकार का लक्ष्य जीिनी की
उन धटनाओ ं और वक्रयाकलापों का रंजक िणभन करना िोता िै जो व्यवक्त विशेश के बड़ी मिानता
से लेकर छोटी से छोटी र्रे लु बातों तक से सम्बवन्धत िोती िै।”
जीिनी की सरलतम पररभाषा “जीिनी का िणभन” िै। इनसाइक्लोपीहिया हब्रटेहनया में जीिनी
को “जीिन के वक्रयाकलापों का उद्देश्यपणू भ कलात्मक वचत्रण तथा एक िैयवक्तक जीिन को साकार
करना माना गया िै।”
माकि िी. चट ने वलखा िै -“वकसी खेल का सच्चा आनन्द उसके वनयमों में बाँधकर खेलने
में िी िै, उसी प्रकार जीिनी लेखन को भी सदा सत्य किने का प्रयास करना चाविए”
िॉ. गोहवन्द हत्रगुणायत जीिनी विधा की पररभाषा देते िुए वलखा िै वक- “जीिनी कथा
िि सावित्य विधा िै- वजसमें भािक ु कलाकार वकसी व्यवक्त के सम्पणू भ जीिन या उसके जीिन के
वकसी भाग का िणभन परम सुपररवचत ढगं से इस प्रकार व्यक्त करता िै वक उस व्यवक्त की सच्ची
जीिनी गाथा के साथ-साथ कलाकार का हृदय भी मख ु ररत िो उिता िै। ऐवतिावसक तथ्य लेखक
की िैयवक्तक श्रद्धा या सिानभु वू त से अनप्रु ावणत िो जाते िै।”

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जीवनी की हवशेषताएं :-
1. उसमें चररत नायक के जीिन-तथ्यों को प्रामावणक रूप में प्रस्ततु वकया जाता िै।
2. जीिनी में नायक की असफलताओ,ं विसंगवतयों तथा उसके अिगणु ों भी उजागर वकया जाता िै।
3. जीिनी में अनािश्यक विस्तार न िोते िुए भी, नायक के जीिन का कोई भी मित्त्िपणू भ पक्ष
अछूता निीं रिता।
4. इसमें लेखक का जीिन, और व्यवक्तत्त्ि पृथक तथा गौण रिता िै।
5. नायक के जीिन की सम्पूणभ र्टनाओ ं की सत्रबद्धता
ू े़ के कारण, इसमें स्ितः िी क्रमबद्धता आ
जाती िै।
6. जीिनी में तथ्यों के अन्िेशण तथा उनकी प्रस्तवु त पर विशेश ध्यान वदया जाता िै।
7. जीिनी, अवधकाश
ं त: मिान् अथिा प्रवसद्ध व्यवक्तयों की िी वलखी जाती िैं।
8. इसमें तथ्यात्मकता की प्रधानता तथा इवतिास के प्रवत आग्रि िोता िै।
9. जीिन संबंधी तथ्यों के प्रवत, सम्यक् रूप में िैज्ञावनक विश्लेशण प्रस्ततु वकया जाता िै।
10. इसमें कल्पना का आश्रय, के िल टूटी िुई कवड़यों को जोड़ने तथा रोचकता लाने के वलये िी
वकया जाता िै।
11. इसमें लेखक की तावकभ कता अथिा बौवद्धक ईमानदारी के दशभन िोते िैं।
जीवनी का अंश:- (मिात्मा गााँधी की हप्रय हशष्ट्या - सरला बिन)
सरला बिन का जन्म पााँच अप्रैल उन्नीस सौ एक (5.4.1901) को प्रातःकाल ‘गडु फ्राइडे’ के वदन,
लन्दन के एक मध्यम िगीय पररिार में िुआ। उनका नाम ‘िैरी कै थरीन िाइलामैन’ रखा गया, वकन्तु
माता-वपता प्यार से उन्िें ‘के टी’ किा करते थे। उनकी माताजी अग्रं ेज़ थीं, तथा वपताजी का जन्म
वस्िटज़रलैंड में िुआ था। उनकी दादी िटु भनबगभ के ‘कॉलेबन’ की थीं, तथा दादा जी फ्रााँस के वनिासी
थे। कालान्तर में िे सपररिार इग्लैंड आकर रिने लगे। पररिार में अनेक भाषाएाँ बोली जाती थीं, अतः
कै थरीन को विविध भाषाओ ं का ज्ञान िोना स्िाभाविक िी था।
कै थरीन की माताजी अत्यन्त कमभि एिं स्नेविल मविला थीं, तथा व्यिसाय से िे एक वशवक्षका थीं।
उनके वपता स्िणभकार थे। उनका एक भाई था, वजससे िि अगाध स्नेि वकया करती थीं। जब िि मात्र
सात िषभ की थीं, तब दभु ाभग्यिश कैं सर ने उनकी मााँ को अपनी चपेट में ले वलया। इस तरि अल्पायु

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में िी उनके जीिन से मााँ का स्नेिाकाश वछन गया। मााँ की मृत्यु से पिू भ उनके र्र का िातािरण
अत्यन्त अनुषावसत िुआ करता था। जब भी िि अपनी मााँ के विशय में बातें वकया करती थीं, तो
बरबस िी उनकी आाँखें छलक जाया करती थीं। एक बार जब िि अस्िस्थ थीं, तब अपनी मााँ के
साथ व्यतीत वकए िुए स्नेविल क्षणों को याद करते िुए उन्िोंने बताया- “जब मैं लगभग पााँच िषभ की
थी, एक बार मैं बिुत बीमार िुई। तब मााँ रात-वदन मेरे वसरिाने पर बैिी, स्नेि से मेरे वसर पर िाथ
फे रती रिती थी।”
उनके वपता एक जझु ारू, पररश्रमी एिं कलात्मक अवभरुवच के व्यवक्त थे। यद्यवप व्यिसाय से िि
सनु ार थे, वकन्तु आजीविका जटु ाने के प्रवत िे उदासीन रिे। उन्िें बाग़िानी करना रुवचकर लगता था।
काष्ठकला में भी उनकी अवभरुवच थी, अतः उनके पास बढ़ईवगरी के औज़ार भी थे। अवतररक्त समय
में िि अपने र्र की टूट-फूट स्ियं िी िीक कर वलया करते थे। सरला बिन किा करती थीं- “मााँ की
मृत्यु के पश्चात वपताजी अपनी आजीविका कमाने के प्रवत कुछ लापरिाि िो गए थे। अतः दादी को
उसकी पवू तभ अपनी जीिनभर कमाई, जमा पंजू ी से करनी पड़ती थी। उन्िोंने िमारा पालन-पोशण
बिुत स्नेि से वकया। िि बिुत बढ़ू ी थीं, वकन्तु उनकी आत्मशवक्त प्रबल थी। िम दोनों भाई-बविन
एक िी कक्षा में पढ़ा करते थे, और दोनों िी पढ़ने में बिुत तेज़ थे। यिी कारण था वक िमें िाई स्कूल
में िजीफ़ा भी वमलने लगा था, वजससे िमारी पढ़ाई-वलखाई सचु ारु रूप से चलने लगी। पररिार के
प्रवत वपताजी के उपेक्षापूणभ एिं उदासीन व्यििार से मझु े बिुत वखन्नता िोती थी। यिी कारण था वक
मैंनें अपने पैरों पर खड़े िोने का वनश्चय वकया।”
अभ्यास प्रश्न 4

1. सावित्य वकसे किते िैं?


2. सस्ं कृ त सावित्यविदों के मतानसु ार सावित्य क्या िै?
3. सावित्य-लेखन की कौन-कौन सी विधाएाँ प्रचवलत िैं?
4. गद्यात्मक सावित्य प्रमख
ु तः वकन रूपों का वमलता िै?
5. ‘विन्दी-सावित्य-कोश’ में ‘सावित्य’ शब्द की व्याख्या करते िुए क्या किा गया िै?

7.4.3 आलोचना
आलोचना शब्द की व्यत्ु पवत्त संस्कृ त की ‘लचु ’् धातु से िुई िै। ‘लचु ’् का अथभ िै- ‘देखना’; अतः
आलोचना का अथभ िुआ- देखना; अथाभत् वकसी कृ वत की सम्यक् व्याख्या तथा उसका मल्ू यांकन

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आवद करना िी आलोचना िै। डॉ. श्यामसन्ु दरदास ने ‘आलोचना’ शब्द का अथभ स्पि करते िुए
वलखा िै - “सावित्य-क्षेत्र ग्रंथ को पढ़कर उसके गणु ों और दोषों का वििेचन करना और उसके संबंध
में अपना मत प्रकट करना आलोचना किलाता िै।”
आलोचना के उद्देश्य के विशय में बाबू गल
ु ाबराय का कथन िै वक- “आलोचना का मल ू उद्देश्य कृ वत
का सभी दृविकोणों से आस्िाद करके पािकों को इस प्रकार के आस्िादन में सिायता देना, तथा
उसकी रुवच को पररमावजभत करके सावित्य की गवत वनधाभररत करने में योग देना िै।”
आलोचना के प्रकार - साविवत्यक आलोचना और िैज्ञावनक आलोचना
वििेदी-यगु में मिािीर प्रसाद वििेदी तथा उनके समकालीन समीक्षकों ने समालोचना ग्रंथों
की रचना आरम्भ कर दी थी। छायािाद यगु के समालोचकों, विशेशतः आचायभ रामचन्द शक्ु ल ने
उनके िारा आरम्भ वकए गए आलोचना सावित्य को सम्यक् रूप प्रदान वकया। छायािाद के पक्ष-
विपक्ष में पस्ु तकों और वनबन्धों के रूप में आलोचना का एक ऐसा रूप विकवसत िुआ, जो भविष्य
में वलखे जाने िाले आलोचना सावित्य की पिू पभ ीविका भी बना।
विन्दी की सैद्धावन्तक आलोचना का सिी और स्तरीय रूप िमें 1920 में प्रकावशत बाबू गल ु ाबराय
के ‘निरस’; श्यामसन्ु दरदास के ‘सावित्यालोचन’; विश्िनाथ प्रसाद वमश्र के ‘िाङ्मय विमशभ’ और
रामचन्द्र शक्ु ल के ‘काव्य में रिस्यिाद’ आवद में वदखाई देता िै। इन सभी आलोचकों िारा भारतीय
तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र का मथं न करके , काव्यशास्त्र के विविध अियिों का संतवु लत रूप प्रस्ततु
करने के कारण िी इन सभी को समन्ियिादी समालोचक माना जाता िै। सैद्धावन्तक आलोचना के
क्षेत्र में रामचन्द्र शक्ु ल का नाम अग्रणीय िै। नंददल
ु ारे िाजपेयी ऐसे आलोचक थे जो िादग्रिी निीं
थे, उन्िोंने शक्ु ल जी की भााँवत िादों का एकतरफा खडं न निीं वकया, उनके मन में िादी तत्त्ि काव्य
के वलए उपादेय भी था। िजारी प्रसाद वििेदी विचारों के समीक्षक िैं। उनमें बोध और पांवडत्य का
अद्भुत समन्िय िै। सावित्य के मल्ू यों को बदलने तथा उन्िें निीन मानितािादी मल्ू यों से जोड़ने में
उनका मित्त्िपणू भ स्थान िै। डा. नगेन्द्र रसिादी आलोचक िै; उन्िोंने विन्दी आलोचना को
व्यििाररक एिं सैद्धावन्तक दृवियों से संबवद्धत वकया िै।
माक्सभिादी आलोचकों में वशिदानवसंि चौिान, प्रकाशचन्द्र गप्तु , रामविलास िमाभ, अमृतराय तथा
नामिर वसंि का नाम उल्लेखनीय िै।
आदशभ आलोचक की विशेषताएाँ:-
1. आलोचक का वचंतन और बोध, प्रौढ़ िोना चाविये।
2. िि कोरा काव्यशास्त्री न िोकर ऐसा सांस्कृ वतक वचंतक िोना चाविये, जो अपने यगु को सिी
वदशा दे सके ।

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3. उसे रचना को के िल जीिन के एक सदं भभ में िी न देखकर, अवपतु जीिन की समग्रता एिं
पररपणू तभ ा के संदभभ में देखकर उसका मल्ू यांकन करना चाविये।
4. उसे अपने उत्कृ ि विचारों िारा जीिन और समाज में ऐसे िातािरण का वनमाभण करना िोगा, जो
प्रवतभाशाली रचनाकारों को मिान् सावित्य-सृजन की प्रेरणा दे सके ।
5. आलोचक को सावित्य, समाज तथा संस्कृ वत का अवधकारी वििान िोना चाविये।
7.4.4 व्यंग्य
सावित्य की प्रकीणभ/विविध विधाओ ं के अतं गभत ‘व्यंग्य सावित्य’ की गणना की जाती िै। सामान्यतः
सावित्य की प्रत्येक विधा में वकसी-न-वकसी रूप में व्यंग्यात्मकता का समािेश रिता िै; वकन्तु
आधवु नक यगु में ‘व्यग्ं य सावित्य’ ने स्ितत्रं विधा के रूप में अपना अवस्तत्त्ि बनाया िै। अग्रं ेजी
‘सेटायर’ से प्रभावित िोकर भी विन्दी के अनेक सावित्यकारों ने अपने विचारों एिं समाज की
विसगं वतयों को अवभव्यक्त करने के वलए व्यग्ं य विधा का सिारा वलया। विन्दी सावित्य में भारतेन्दु
िररश्चन्द्र की मक
ु ररयों में िमें ‘व्यंग्य’ की छटा वदखाई देती िै-
“एक बल ु ाएाँ चौदि आिें, वनज-वनज वबपदा रोय सनु ािें।
भखू े मरें भरे नविं पेट, क्यों सवख साजन, नविं ग्रेजएु ट।”
भारतेन्दु िररश्चन्द्र के पश्चात बालमक ु ु न्द गप्तु ने इस विधा में अनेक रचनाएाँ कीं। उनके िारा
वलवखत व्यंग्य ‘वशिशंभु का वचट्ठा’ ने विन्दी भाषा के जानकार अग्रं ेज़ों को विलाकर रख वदया।
बालमक ु ु न्द गप्तु के इस व्यंग्य से प्रभावित िोकर बरसाने लाल चतिु दे ी, िररशक ं र परसाई, शरद
जोशी, प्रभाकर माचिे, रिीन्द्रनाथ त्यागी, अमृतराय, के शिचन्द्र िमाभ, आवद ने भी अनेक
व्यंग्यात्मक रचनाएाँ वलखकर व्यंग्य विधा के विकास में अपना योग वदया।
1970-80 के दशकों में शरद जोषी का ‘वचन्तन चालू िै’ कॉलम अत्यन्त लोकवप्रय रिा।
अपनी रचना ‘िैष्णि की वफ़सलन’ में िररशक ं र परसाई ने पाखडं ों के खडं न के वलए व्यंग्य का िी
सिारा वलया िै। बरसाने लाल चतिु दे ी ने इसी विधा के माध्यम से पथभ्रि राजनीवतज्ञों पर प्रिार
वकया।
अभ्यास प्रश्न 5
क) ररक्त स्थानों की पूहति :-
1. आलोचना शब्द की व्यत्ु पवत्त सस्ं कृ त की ................. धातु से िुई िै।
2. ‘िैष्णि की वफ़सलन’ के रचनाकार..........................................िैं।

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3. बालमक ु ु न्द गप्तु िारा वलवखत व्यग्ं य.....................................ने अग्रं ज़ों को
विलाकर रख वदया।
ख) यि कथन हकसका िैैः-
1. “एक बल ु ाएाँ चौदि आिें, वनज-वनज वबपदा रोय सनु ािें।
भख
ू े मरें भरे नविं पेट, क्यों सवख साजन, नविं ग्रेजएु ट।” ये पंवक्तयााँ वकस रचनाकार की िैं?
2. “सावित्य-क्षेत्र में ग्रंथ को पढ़कर उसके गणु ों और दोषों का वििेचन करना और उसके संबंध में
अपना मत प्रकट करना आलोचना किलाता िै।”
ग) लघु उत्तरीय प्रश्न :-
1. आदशभ आलोचक की प्रमख
ु तीन विशेषताएाँ क्या िैं?
2. सावित्य में ‘आलोचना’ से क्या तात्पयभ िै?
3. पााँच आलोचकों के नाम वलवखये।

7.5 सारांश
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात आपने जाना वक :-

 आधवु नक सावित्य की अन्य गद्य विधाओ ं का विकास आधवु नक काल के पश्चात शरू ु
िुआ।
 आत्मकथा सावित्य लेखक िारा स्ियं के आत्म वििरण एिं आत्म मल्ू यांकन का प्रयास िै।
 जीिनी विधा वकसी लेखक िारा अन्य व्यवक्त के जीिन चररत्र पर प्रकाश डालना िै।
 वकसी कृ वत के गणु दोष का परीक्षण कर उसका मल्ू यांकन करना आलोचना िै।
 व्यंग्य विधा सामावजक विषमताओ ं पर प्रिार करने का सशक्त माध्यम िै।

7.6 शब्दावली

 जीिनी - वकसी मित्िपूणभ व्यवक्त के जीिन चररत्र पर प्रकाश डालने िाली विधा।
 आत्मकथा - अपने जीिन चररत्र पर प्रकाश डालने िाली विधा।

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 विश्लेषण – वकसी तथ्य, विचार के औवचत्य - अनौवचत्य पर विचार करना।
 आलोचना – वकसी कृ वत के गणु -दोष पर विचार करने िाली विधा।

7.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1
क) 1. दो 2. गद्य 3. विश्लेषणात्मक सावित्य 4. वनबन्धात्मक
5. आख्यात्मक 6. गद्य-पद्य, चम्पू 7. नाटक-चम्पू
अभ्यास प्रश्न 2
क) 1. आत्मकथा, कथा, प्रस्ततु 2. गवत के साथ
3. 1910, मझु में देि जीिन का विकास
4. बनारसी दास जैन, अद्धभकथानक, प्रकावशत, आत्मकथा
अभ्यास प्रश्न 3
क) सभी कथन िररिश
ं राय बच्चन के िैं।
अभ्यास प्रश्न 5
क) 1. लचु ् 2. िररशकं र परसाई 3. वशिशभं ु का वचट्ठा
ख) 1. भारतेन्दु िररशचन्द्र 2. श्यामसन्ु दर दास

7.8 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. वबि , डॉ.जगत वसंि, सावित्य सृजन के कुछ संदभभ।

7.9 हनबन्धात्मक प्रश्न


1. गद्य सावित्य से आप क्या समझते िैं ? विन्दी सावित्य की दो प्रमख
ु गद्य
विधाओ ं का वििेचन प्रस्ततु करें

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इकाई 8 गद्य की अन्य हिधाओं का स्िरूप एिं
िात्तत्त्िक हििेचन - भाग 2
इकाई की रूपरे खा
8.1 प्रस्तािना
8.2 उद्देश्य
8.3 स्मारक सावित्यः अथभ, पररभाषाएाँ एिं उसके विविध रूप
8.4 विविध विधाओ ं का विश्लेषण
8.4.1 सस्ं मरण
8.4.2 रे खावचत्र
8.4.3 यात्रािृत्त
8.4.4 डायरी
8.4.5 पत्र
8.5 साराश ं
8.6 शब्दािली
8.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
8.8 संदभभ ग्रंथ सचू ी
8.9 वनबन्धात्मक प्रश्न

8.1 प्रस्तावना
इससे पिू भ की इकाइयों में आपने ‘वनबन्ध’ शब्द का अथभ एिं तात्पयभ; उसका स्िरूप; उसके
तत्त्ि एिं वििेचन पद्धवत; तथा सावित्य की अन्य विधाओ ं से वनबन्ध लेखन की वभन्नता को जाना
िै। इसके साथ िी आपने स्मारक सावित्य के विषय में तथा उसकी विविध विधाओ ं के विषय में भी
जाना, विशेषतः आत्मकथा, जीिनी, आलोचना तथा व्यंग्य लेखन-शैली को विस्तार से जाना।
वब्रवटश-शासन के आवधपत्य के कारण भारतीय समाज एिं संस्कृ वत पर पाश्चात्य संस्कृ वत
एिं विचारधाराओ ं का प्रभाि पड़ना स्िाभाविक था; क्योंवक सावित्य एिं समाज दोनों एक-दसू रे को
प्रभावित करते िैं, अतः विन्दी सावित्य पर भी पाश्चात्य विचारकों की विचारधारा का प्रभाि पड़ा।
जन्म एिं विकास प्रकृ वत का वनयम िै; समय के साथ-साथ विन्दी गद्य-सावित्य रूपी िृक्ष भी
विकवसत, वस्थर एिं सदृु ढ़ िोता गया और उसके पररणामस्िरूप जन्म िुआ- ‘स्मारक सावित्य’ का;

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इसकी विविध शाखाएाँ िैं- सस्ं मरण, रे खावचत्र, आत्मकथा, जीिनी, यात्रािृत्त, व्यग्ं य, आलोचना,
डायरी, पत्र, फ़ीचर, ररपोताजभ, तथा साक्षात्कार ।

8.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप :-

 विन्दी गद्य सावित्य की अन्य विधाओ-ं संस्मरण रे खावचत्र डायरी, पत्र तथा यात्रािृत्त का
अध्ययन करें ग।े
 विन्दी गद्यसावित्य की अन्य विधाओ ं के स्िरूप से पररवचत िो सकें गे।
 विन्दी गद्यसावित्य की अन्य विधाओ-ं संस्मरण रे खावचत्र डायरी, पत्र तथा यात्रािृत्त का
तावत्त्िक वििेचन कर सकें गे।
 संस्मरण रे खावचत्र डायरी, पत्र तथा यात्रािृत्त के इवतिास एिं प्रिृवत्तयों से पररवचत िो सकें गे।

8.3 स्मारक साहित्य का अथभ एवं पहरर्ाषा


‘स्मारक’ का शावब्दक अथभ िै- स्मृवत पर आधाररत कोई वनवमभवत; अथाभत् जब िम वकसी
व्यवक्त अथिा वकसी र्टना विशेष की स्मृवत में कोई रचनात्मक कायभ करते िैं, उसे स्मारक किा
जाता िै। इस आधार पर स्मृवत पर आधाररत िोने के कारण तथा िणभन-पद्धवत की कुछ विवशिताओ ं
के कारण, गद्य सावित्य की निीन विधाओ ं को ‘स्मारक सावित्य’ का नाम वदया गया।
सावित्य की प्रत्येक निीन विधा का पररचय प्रायः पत्र-पवत्रकाओ ं के माध्यम से िी िोता िै।
‘स्मारक-सावित्य’ का अवस्तत्त्ि भी, सिभप्रथम वििेदी यगु की सिाभवधक मित्त्िपणू भ एिं चवचभत
पवत्रका ‘सरस्िती’ के माध्यम से िी सामने आया। पररिवतभत पररवस्थवत, पररिेश एिं पयाभिरण का
प्रभाि मनष्ु य के मन और मवस्तष्क को अिश्य प्रभावित करता िै। यिी कारण िै वक प्रथम
स्िाधीनता संग्राम के पश्चात जब रचनाकारों के मनोमवस्तष्क में अनेक भाि ि विचार अवभव्याप्त िोने
के वलए छटपटाने लगे तब गद्य सावित्य की विविध विधाओ ं का जन्म िुआ। 18िीं शताब्दी में
भारतेन्दु िररशचन्द्र एिं उनके मडं ल के लेखक- ईश्िरचन्द्र विद्यासागर, दामोदर शास्त्री, तथा
राधाकृ ष्ण आवद के ‘िररशचन्द्र मैगजीन’ में प्रकावशत धमभ, राजनीवत, भाषा आवद संबंधी लेखों से
विन्दी गद्य लेखन का शभु ारम्भ िो चक ु ा था। 19िीं शताब्दी में वनबन्ध लेखन के विकास के साथ
विन्दी गद्य का स्िरूप उत्तरोत्तर विकवसत िोता चला गया। वब्रवटश साम्राज्यिाद की ‘फूट डालो और

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राज करो’ की नीवत के विरूद्ध साम्प्रदावयक सद्भािना को बढ़ािा देने के वलए गद्य सावित्य- किानी,
उपन्यास, नाटक, वनबन्ध, के अवतररक्त संस्मरण, रे खावचत्र, आत्मकथा, जीिनी, यात्रािृत्त, व्यंग्य,
आलोचना, डायरी, पत्र, फीचर, ररपोताजभ तथा साक्षात्कार आवद अनेक रूपों में वलखा जाने लगा।
कालान्तर में इनमें से स्मृवत पर आधाररत सावित्य को ‘स्मारक सावित्य’ के नाम से विभवू षत वकया
गया। स्मारक सावित्य को पाररभावषत करते िुए किा जा सकता िै वक ‘जो सावित्य, मनष्ु य की
अपनी अथिा अपने सपं कभ में आए िुए वकसी अन्य व्यवक्त की अविस्मरणीय अतीत अथिा ितभमान
की अनभु वू तयों से संबंवधत र्टनाओ ं के वबम्ब प्रस्ततु करता िो, उसे स्मारक सावित्य किते
िैं।’स्मारक सावित्य की विशेषताएाँ- सावित्य लेखन में प्रत्येक विधा की अपनी विशेषताएाँ िोती िै,
और उसकी ििी विशेषताएाँ उसे सावित्य की वकसी अन्य विधा से वभन्न करती िै। स्मारक सावित्य
की भी अनेक विशेषताएाँ िैं; जो उसे गद्य सावित्य की अन्य विधाओ ं से अलग करने में सिायक
वसद्ध िोती िैं, िे इस प्रकार िैं-
1. स्मृवतआधाररत गद्यात्मक अवभव्यवक्त।
2. कल्पनातत्त्ि का अभाि।
3. वचत्रात्मकता तथा िणभनात्मकता।
4. आत्मावभव्यवक्त की छटपटािट।
5. कथातत्त्ि की अवनिायभता।
6. मनोिैज्ञावनक विश्लेषणात्मकता।
7. यथाथभ के प्रवत लेखक की निीन दृवि।
8. यथाथभ एिं प्रामावणकता का संयम-अनश
ु ासन।
9. अनभु वू तयों के वचत्रण में व्यवक्तवनष्ठता।
10. स्िभक्त
ु अतीत एिं ितभमान का यथाथभ वचत्रण।
11. सद्यस्फुररत भािों एिं स्मृवतयों पर आधाररत अन्तिभन्ि की अवभव्यवक्त।

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8.4 हवहवध हवधाओं का हवश्ले षण

8.4.1 सस्ं मरण


विन्दी सावित्य में संस्मरण विधा का प्रादभु ाभि बीसिीं शताब्दी के पिू ाभद्धभ से माना जाता िै।
सस्ं मरण, स्मारक सावित्य की के न्द्रीय एिं आत्मवनष्ठ विधा िै; क्योंवक यि एक आत्मवनष्ठ विधा िै,
अतः इसमें लेखक ने जो कुछ देखा-सनु ा तथा अनभु ि वकया िोता िै, उसके आधार पर िि वकसी
व्यवक्त, र्टना, िस्तु अथिा, वस्थवत में से वकसी को भी अपना लेखन-विषय बनाकर, उसके प्रवत
अपनी संिदे नात्मक अनभु वू तयों को प्रस्ततु करता िै। दसू रे शब्दों में यि भी किा जा सकता िै- जब
कोई सावित्यकार अपने संपकभ में आने िाले वकसी व्यवक्त, जीिन की अनुभवू त, र्टना विशेष,
अथिा मनोरम दृश्य आवद का स्मृवत के आधार पर साविवत्यक रूप में िणभन करता िै, उसे सस्ं मरण
किते िैं। संस्मरण के माध्यम से जिााँ एक ओर पािक को आनन्द की अनभु वू त िोती िै; ििीं दसू री
ओर सिज िी उसे ऐवतिावसक जानकारी भी प्राप्त िो जाती िै।
संस्मरण के मख्ु यतः दो रूप वदखाई देते िैं-
1. आत्मपरक (रे वमवनसेन्सेज़)
2. िस्तपु रक या जीिनापरक (मैमोयसभ)।
डॉ. गोविन्द वत्रगणु ायत ने वलखा िै- “भािक ु कलाकार जब अतीत की अनन्त स्मृवतयों में से कुछ
रमणीय अनुभवू तयों को अपनी कोमल कल्पना से अनरु ं वजत कर व्यंजनामल ू क संकेत शैली में अपने
व्यवक्तत्त्ि की विशेषताओ ं से विवशष्ट बनाकर रोचक ढगं से यथाथभ रूप में व्यक्त करता िै, तब उसे
संस्मरण किते िै।”संस्मरण के स्िरूप के विषय में मिादेिी िमाभ ने किा िै- “संस्मरण में िम अपनी
वस्थवत के आधारों पर समय की धल ू पौंछ कर उन्िें अपने मनोजगत के वनमृत कक्ष में बैिकर उनके
साथ जीवित रिते िैं और अपने आत्मीय सम्बन्धों को पनु ः जीवित करते िैं। इस स्मृवत वमलन में
मानो िमारा मन बार-बार दोिराता िै, िमें आज भी तम्ु िारा अनभु ि िै।”उपयभक्त ु कथन के आधार पर
यि किा जा सकता िै वक संस्मरण में िण्यभविषय प्रमख ु िोता िै, जब कोई लेखक वकसी मनोरम
दृष्य, अविस्मरणीय र्टना, या संपकभ में आए िुए व्यवक्त के विषय में अपनी अनुभवू तयों एिं
संिदे नाओ ं के संस्पषभ से जीिन्त वचत्र उके रता िै, तो स्िाभाविक रूप से उसके आधार पर लेखक
अपने व्यवक्तत्त्ि का पररचय भी देता चला जाता िै। सामान्यतः संस्मरणकार का मख्ु य उद्देश्य पात्र,
अथिा र्टना आवद विषयों की उन विशेषताओ ं को अवं कत करना िोता िै, वजसकी छवि िमारे
मनोमवस्तष्क पर अवमट छाप अवं कत कर सके ।सस्ं मरण की प्रामावणकता के विषय में उपेन्द्रनाथ
अश्क जी की मान्यता िै- “मैं संस्मरण की खबू ी पणू तभ ः सच्चाई मानता िू।ाँ उपन्यास और किानी में

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असत्य से काम वलया जा सकता िै, कल्पना की लगामें ढीली छोडी जा
े़ सकती िैं, लवकन सस्ं मरण
और आत्मकथा की शतभ मेरे वनकट, सच्चाई और शत-प्रवतशत सच्चाई िै।”
संस्मरण की प्रमुख हवशेषताएाँ :-
1. िण्यभ-पात्र, स्थल, र्टना, अथिा विषय से, लेखक का वनकटस्थ संबंध िोता िै।
2. लेखक ने िण्यभ-विषय को प्रत्येक दृविकोण से देखा-परखा तथा समझा िोता िै।
3. लेखक अपने िण्यभविषय के प्रवत वकसी पिू ाभग्रि से आक्रान्त निीं िोता।
4. िण्यभ-विषय के यथाथभ का, मावमभक एिं संतवु लत िणभन वमलता िै।
5. संस्मरण का संबंध अतीत की स्मृवतयों से िोता िै।
6. लेखक की अनभु वू तयों एिं संिदे नाओ ं का रोचक एिं कलात्मक शैली में
प्रस्तवु तकरण िोता िै।
7. इसमें लेखक की दृवि िण्यभपात्र के साथ-साथ, उसके सपं कभ में अपने िाले व्यवक्तयों
एिं र्टनाओ ं पर भी रिती िै।
8. इसका िण्यभविषय कोई सावित्यकार, दाशभवनक, िैज्ञावनक, राजनीवतज्ञ और वखलाड़ी
िी निीं, कोई र्वसयाररन, वकसान, मजदरू , अथाभत् दवलत सिभिारा िगभ से संबंवधत व्यवक्त
भी िो सकता िै।
स्मारक सावित्य की एक विवशष्ट विधा िोने के कारण सस्ं मरण में स्मृवत का विशेष मित्त्ि
िोता िै; क्योंवक इसका मलू ाधार स्मृवत िै, इसवलए लेखक वजतना कुछ याद करता िै, उसके साथ
लेखक की भािना, संिदे ना, रुवच-अरुवच, दृवि तथा उसके आदशभ आवद का जड़ु ा िोना स्िाभाविक
िै। अनेक उच्च कोवट के लेखकों ने सस्ं मरण वलखकर इस विधा को समृद्ध एिं सशक्त वकया िै।
संस्मरण लेखकों में बनारसीदास चतिु दे ी, रर्िु ीरवसंि, रामिृक्षबेनीपरु ी, वशिपजू न सिाय, काका
कालेलकर, िररभाऊ उपाध्याय देिन्े द्र सत्याथी वदनकर वनराला, मिादेिी, मोिन लाल मितोवियोगी
आवद के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय िैं। संस्मरण सावित्य जिााँ मिापरू ु षों की एिं नतू न आशा-
ज्योवत भी प्रदान करता िै। संस्मरणात्मक सावित्य का विकास प्रगवत पर िै, और आशा िै वक यि
विशेष अगं और भी पररपिु , समृद्ध एिं विकासशील िोगा।
अभ्यास प्रश्न 1
क) ररि स्थानों की पूहति कीहजयेैः-

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1. सस्ं मरणकार का मख्ु य उद्देश्य ........................ आवद विषयों की उन ................
को अवं कत करना िोता िै, वजसकी छवि िमारे ............................... अवमट छाप
अवं कत कर सके ।
2. स्मारक सावित्य की एक ......................विधा िोने के कारण...................में स्मृवत
का विशेष मित्त्ि िोता िै।
3. इसका िण्यभविषय ............................िी निीं, कोई....................................िगभ
से संबंवधत व्यवक्त भी िो सकता िै।

ख) लघु उत्तरीय प्रश्न:-


1. स्मारक सावित्य वकसे किते िै ?
2. स्मारक सावित्य की प्रमख
ु विधाएाँ कौन-सी िैं ?
3. स्मारक शब्द का क्या अथभ िै ?
4. संस्मरण के दो रूप कौन-से िैं ?
5. स्मारक सावित्य की प्रमख
ु विशेषताएाँ क्या िैं ?

8.4.2 रेखाहचत्र
‘रे खावचत्र’ का अग्रं ेजी पयाभय ‘स्के च’ िै, स्के च का अथभ िै- वचत्रकला। ‘वचत्रकला’ में
‘स्के च’ उन वचत्रों को किा जाता िै- वजसमें के िल रे खाओ ं के सिारे वकसी व्यवक्त या िस्तु का
वचत्रांकन वकया जाता िै। रे खावचत्र में सावित्यकार अपने मानसपटल पर अवं कत स्मृवतयों को,
शब्दरे खाओ ं के माध्यम से उके रता िै। अतः किा जा सकता िै वक िस्ततु ः रे खावचत्र एक शब्दवचत्र
िै; वजसमें िमें साविवत्यकता और कलात्मकता का अनपु म संयोग देखने को वमलता िै।
पररभाषाएाँ - िॉ. रामगोपाल रे खावचत्र के विषय में वलखते िैं- “रे खावचत्र िस्त,ु व्यवक्त
अथिा र्टना का शब्दों िारा विवनवमभत िि ममभस्पशी और भािमय रूप विधान िै, वजसमें कलाकार
का सिं दे नशील हृदय और उसकी सक्ष्ू मपयभिक्ष
े ण दृवि, अपना वनजीपन उाँडेलकर प्राण-प्रवतष्ठा कर
देती िै।”

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िॉ. नगेन्र ने रे खावचत्र की पररभाषा में वलखा िै- “जब वचत्रकला का यि शब्द सावित्य में
आया तो इसकी पररभाषा भी स्िभाितः इसके साथ आई; अथाभत रे खावचत्र एक ऐसी रचना के वलए
प्रयक्त
ु िोने लगा, वजसमें रे खाएाँ िो, पर मतू भ रूप निीं अथाभत पूरे उतार-चढाि के साथ। दसू रे शब्दों में,
कथानक का उतार-चढाि आवद उसमें िो, तथ्य का उद्घाटन मात्र निीं।”
िॉ.भागीरथ हमि की मान्यता िै- “अपने सम्पकभ में आए वकसी विलक्षण व्यवक्तत्त्ि
अथिा संिदे ना को जगाने िाली सामान्य विशेषताओ ं से युक्त, वकसी प्रवतवनवध चररत्र के ममभस्पशी
स्िरूप को देखी-सनु ी या संकवलत र्टनाओ ं की पृष्ठभवू म में, इस प्रकार उभारकर रखना वक उसका
िमारे हृदय में एक वनवष्चत प्रभाि अवं कत िो जाए, रे खावचत्र या शब्दवचत्र किलाता िै।”
विन्दी सावित्य में रे खावचत्र विधा का आविभाभि बींसिी शताब्दी के तीसरे दशक में िुआ।
प्रभाकर माचिे को विन्दी का प्रथम रे खावचत्रकार माना जाता िै। उनके िारा 1933 वलवखत ‘मैं
समझता िू’ाँ लेख को विन्दी सावित्य का प्रथम रे खावचत्र माना जाता िै। रे खावचत्र को ‘शब्दवचत्र’
शब्द भी किा जा सकता िै। रे खावचत्र के प्रमख ु तत्त्ि वनन्मवलवखत िैं-
(क) िास्तविकता।
(ख) रागात्मकता।
(ग) सजीिता।
(र्) वचत्रात्मकता।
(ड़) सांकेवतकता।
संस्मरण तथा रेखाहचत्र में अंतरैः- सस्ं मरण, सामान्यतया वकसी साधारण या विवशष्ट व्यवक्त से
सम्बवन्धत, वकसी सिं दे नशील स्मृवत के प्रत्यक्षीकरण को किा जा सकता िै रे खावचत्र भी प्रायः इसी
प्रकार के व्यवक्त का िणभन प्रस्ततु करता िै। बाह्य दृवि से देखने पर संस्मरण तथा रे खावचत्र में
समानता-सी प्रतीत िोती िै; वकन्तु िै निीं। संरचना की दृवि से इन दो विधाओ ं के अतं र को
वनम्नवलवखत वबन्दओ ु ं के अतं गभत स्पितः देखा जा सकता िैः-
1. रे खावचत्र साधारण से साधारण व्यवक्त का भी िो सकता िै, जबवक सस्ं मरण प्रायः मिान विभवू तयों
से िी सम्बन्ध रखता िै।
2. संस्मरण आत्मवनष्ठ रचना िै और रे खावचत्र िस्तवु नष्ठ।
3. यद्यवप संस्मरण में भी वचत्रात्मक शैली का प्रयोग वकया जाता िै; वकन्तु वचत्रात्मकता रे खावचत्र का
अवनिायभ तत्त्ि िै।

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4. सस्ं मरण का सबं धं के िल अतीत से िी िोता िै; जबवक रे खावचत्र का संबधं अतीत एिं ितभमान
दोनों से िो सकता िै।
5. संस्मरण में स्मृवत आधाररत िणभन िोता िै, और रे खावचत्र में रचनाकार शब्द-रे खाओ ं के माध्यम
से िण्यभपात्र का वचत्रण करता िै।
मिादेिी ने रे खावचत्र के सम्बन्ध में वलखा िै वक “इन स्मृवत-वचत्रों में मेरा जीिन भी आ गया
िै । यि स्िाभाविक भी िै। अधं ेरे की िस्तओ ु ं को िम अपने प्रकाश की धाँधु ली या उजली पररवध में
लाकर िी देख पाते िैं। उसके बािर तो िे अधं कार के अंश िैं। मेरे जीिन की पररवध के भीतर खड़े
िोकर चररत्र जैसे पररचय दे पाते िै, िि बािर रूपावन्िकता से सजाकर वनकट लाता िै उसी पररचय
के वलए मैं अपने कवल्पत पात्रों को िास्तविकता से सजाकर वनकट लाता िै, उसी पररचय के वलए मैं
अपने पथ के सावथयों को कल्पना का पररधान पिनाकर दरू ी की दृवि क्यों करती? परन्तु मेरा
वनकटिती जवनत आत्म-विज्ञान उस राख से अवधक मित्ि निीं रखता, जो आग को बिुत समय
तक सजीि रखने के वलए िी अगं ारों को र्ेरे रिती िै। जो इसके पार निीं देख सकता, िि इन वचत्रों
के हृदय तक निीं पिुचाँ सकता।”

अभ्यास प्रश्न 2
क) लघु उत्तरीय प्रश्न :-
1. सस्ं मरण तथा रे खावचत्र में क्या अन्तर िै?
2. रे खावचत्र को अग्रं ेज़ी में क्या किते िैं?
3. रे खावचत्र में वकन विशेषताओ ं का िोना आिश्यक िै? अपने शब्दों में वलवखये।
ख) हकसका कथन िैैः-
1. “रे खावचत्र िस्त,ु व्यवक्त अथिा र्टना का शब्दों िारा विवनवमभत िि ममभस्पशी और भािमय रूप
विधान िै, वजसमें कलाकार का सिं दे नशील हृदय और उसकी सक्ष्ू मपयभिक्ष े ण दृवि, अपना वनजीपन
उाँडेलकर प्राण-प्रवतष्ठा कर देती िै।”
2. “इन स्मृवत-वचत्रों में मेरा जीिन भी आ गया िै। यि स्िाभाविक भी िै। अधं ेरे की िस्तुओ ं को िम
अपने प्रकाश की धाँधु ली या उजली पररवध में लाकर िी देख पाते िैं। उसके बािर तो िे अधं कार के
अशं िैं।”

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8.4.3 यात्रावृत्त
स्िभाितः मनष्ु य एक वजज्ञासु प्राणी िै; यिी कारण िै वक प्रारवम्भक काल से िी िि यात्राएाँ
करता रिा िै। आज भी िि समय-समय पर कभी ज्ञान की प्यास बझु ाने के वलए, कभी आनन्द की
अनभु वू त के वलए, कभी व्यापाररक लाभ प्रावप्त के वलए, तो कभी जीिन के बिुमख ु ी विकास के वलए
विवभन्न स्थानों का भ्रमण एिं यात्राएाँ करता रिता िै; क्योंवक यायािरी प्रिृवत्त मनष्ु य की एक मल ू
प्रिृवत्त िै। अपनी वकसी यात्रा का वििरण प्रस्ततु करने मात्र से िी कोई रचना यात्रािृत्त निीं बन
जाती। यात्रािृत्त के वलए लेखन के आिश्यक िै वक लेखक संिदे नशील िोकर स्िछन्दता, वनरपेक्षता
एिं आत्मीयतापिू क भ अपनी यात्रा करे ; क्योंवक इसके अभाि में यवद िि अपनी वकसी यात्रा के
विषय में वलखेगा, तो िि उत्कृ ि कोवट का यात्रािृत्तान्त न िोकर, के िल यात्रावििरण बनकर रि
जाएगा। यात्रािृत्त, स्मारक सावित्य की एक मित्त्िपणू भ विधा िै; इसे वलखते समय लेखक अपनी
यात्रा के वचत्रों को इस प्रकार उके रता िै वक उस यात्रािृत्तान्त को पढ़ते समय पाि, रोमांवचत एिं
उल्लवसत-भािमग्न िोकर, मानसयात्रा करते िुए स्ियं को लेखक का सियात्री-सा अनभु ि करता िै।
यात्रािृत्त की यिी रोचकता एिं जीिन्तता, उसे सदैि आकषभक बनाए रखती िै।
वनःसदं िे प्राकृ वतक सौंदयभ अवधकांशतः लोगों को आकृ ि करता िै, तथा विवभन्न देशों की
विविधता, सांस्कृ वतक विवशष्टता, ऋतु-पररितभन और उसके सौंदयभ के िैवच्य से मानि मत्रं मग्ु ध एिं
उल्लवसत िोता रिा िै; वकन्तु प्रत्येक व्यवक्त में यि क्षमता निीं िोती वक िि विवभन्न स्थानों का
भ्रमण करके , अपने उस उल्लास, सौंदयभबोध एिं स्मृवतयों को वलवपबद्ध कर सके । जब एक लेखक
अपनी यात्रा संबंधी अनभु वू त की स्मृवतयों को शब्दवचत्रों के माध्यम से उके रता िै, तब िि रचना
यात्रािृत्त किलाती िै। यात्रािृत्तान्त मख्ु यतः वनम्नवलवखत शैवलयों में वलखे जाते िैं-
1. भािात्मक शैली 2. विचारात्मक शैली 3. आलंकाररक शैली
4. व्यंग्यात्मक शैली 5. वचत्रात्मक शैली
यद्यवप यात्रािृत्तान्त अनेक शैवलयों में वलखे जाते िैं, वकन्तु लेखक के वलए यि बाध्यता
निीं िै वक िि अपनी वकसी यात्रा का िृत्तान्त वलखते समय, आवद से अन्त तक उसे एक िी शैली में
वलखे; तथावप यि अिष्य किा जा सकता िै वक वकसी यात्रासावित्य लेखन की उत्कृ िता एिं
सफलता इस बात पर वनभभर करती िै वक उसमें सामान्यतः यात्रािृत्त की सभी शैवलयों का संतवु लत
प्रयोग वकया गया िो। यात्रा सावित्य िारा जिााँ एक ओर पािकों के ज्ञान में अवभिृवद्ध िोती िै, ििीं
दसू री ओर उन्िें कथा सावित्य जैसी आनन्द की अनभु वू त भी िोती िै। यिी कारण िै वक आज भी
सावित्यकारों िारा यात्रा सावित्य को लावलत्य प्रदान करने के वलए अवभनि प्रयोग वकए जा रिे िैं।
भारतेन्दु यगु के अनेक लेखकों- बालकृ ष्ण भट्ट, प्रतापनारायण वमश्र, श्रीमती िरदेिी,दामोदर
शास्त्री आवद ने यात्रािृत्त-लेखन की वदशा में योग वदया। भारतेन्दु िररशचन्द्र की ‘सरयपू ार की यात्रा’,

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‘लखनऊ की यात्रा’ तथा ‘िररिार की यात्रा’ विशेष रूप से उल्लेखनीय िैं। वििेदी यगु के यात्रािृत्त-
लेखकों- देिकीनन्दन खत्री, गोपालराम गिमरी, िाकुर गदाधरवसंि तथा स्िामी सत्यदेि पररव्राजक
आवद ने न के िल अपनी पिू भ परम्परा को जीवित बनाए रखा, िरन् भािी विकास की वदशा में भी
अविस्मरणीय सियोग वदया। प्रारवम्भक एिं मध्यकाल में अवधकांश लेखक, सहृदयता एिं भािक ु ता
के सिारे यात्रािृत्त वलखा करते थे; वकन्तु भौवतक विकास के साथ हृदयपक्ष गौण और बवु द्धपक्ष
प्रबल िोता चला गया, पररणामस्िरूप ितभमान सावित्यकार यात्रािृत्त वलखते समय भाषा की
कलात्मकता को अवधक मित्त्ि निीं दे रिे िैं।
आधवु नक यगु के यात्रािृत्त लेखकों में जिािरलाल नेिरू, रािुल सांकृत्यायन, सेि
गोविन्ददास, िीरानन्द सवचदानन्द िात्स्यायन ‘अज्ञेय, मोिन राके श, राजेन्द्र अिस्थी, वनमभल
अिस्थी, रामधारी वसिं ‘वदनकर’ विष्णप्रु भाकर, नेत्रवसिं राित आवद के नाम प्रमखु िैं। रािुल
सांकृत्यायन एक ऐसे यायािर थे, वजनका अवधकांश जीिन भ्रमण में िी व्यतीत िुआ; यात्रािृत्त
लेखन में उनका अनन्यतम स्थान िै।
अभ्यास प्रश्न 3
क) लघु उत्तरीय प्रश्न :-
1. यात्रािृत्त-लेखन की प्रमख
ु शैवलयााँ कौन-कौन सी िैं?
2. यात्रािृत्त तथा यात्रावििरण में क्या अतं र िै?
3. अवधकाश
ं जीिन भ्रमण में व्यतीत करने िाले लेखक का क्या था?
8.4.4 िायरी
‘डायरी’ अथिा ‘दैनवन्दनी’ में वकसी व्यवक्त के जीिन का व्यवक्तगत वििरण अंवकत िोता िै। वजसमें
िि अपने जीिन के वकसी विशेष वदन, मिीने अथिा साल की वकसी विवशष्ट र्टना, स्मृवत, अथिा
उससे संबंवधत अनभु वू त और विचार को वलखता िै। यि सत्य िै वक मल ू रूप में ‘डायरी’ व्यवक्त के
जीिन का वनजी दस्तािेज़ िोती िै; वकन्तु उसमें कुछ ऐसी बातें भी िोती िैं वजसे सािभजवनक करने में
लेखक को कोई आपवत्त निीं िोती। यिी कारण िै वक अवधकांशतः डायरी अपने मल ू रूप में
प्रकावशत न िोकर संपावदत रूप में प्रकावशत िोती िै।
विन्दी सावित्य में ‘डायरी-विधा’ के सत्रू िमें आधवु नक यगु से पिू भ 1885 में प्रकावशत
राधाचरण गोस्िामी की ‘दैनवं दनी’ से िी वमलने प्रारम्भ िो जाते िैं। उसके बाद 1909 में सत्यदेि की
‘मेरी डायरी’; 1930 में नरे न्द्रदेि शास्त्री िेदतीथभ की ‘जेल डायरी’; 1940 में र्नश्यामदास वबड़ला
की ‘डायरी के कुछ पन्ने’; 1952 में इलाचन्द्र जोशी की ‘ डायरी के कुछ नीरस पन्ने’; वसयारामशरण

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गप्तु की ‘दैवनकी’; 1958 में धीरे न्द्र िमाभ की ‘मेरी कॉलेज डायरी’ 1972 में पदमु लाल पन्ु नालाल
बख्शी की ‘मेरी डायरी’; 1977 में जयप्रकाशनारायण की ‘मेरी जेल डायरी’ तथा 1985 में मोिन
राके श कृ त ‘डायरी सावित्य’ आवद का, डायरी लेखन के विकास में मित्त्िपणू भ योग रिा िै।
अपने समय को प्रवतवबवम्बत करने के कारण डायरी, लेखक का वनतान्त व्यवक्तगत
दस्तािेज़ िोते िुए भी, उसके समय को प्रवतवबवम्बत करने िाला दस्तािेज़ भी बन जाती िै।
रचनाकारों की दैनवन्दनी से िमारे समक्ष यि सत्य उद्घावटत िोता िै वक रचनाकार भी आम व्यवक्त की
तरि िी अपने जीिन में व्यथा, असंतोष, अिसाद की वस्थवतयों से गज़ु रता िै। यिी कारण िै वक
लेखकों की डायरी, िमारे वलए उनके समय, पररिेश, व्यवक्तत्त्ि और कृ वतत्त्ि को जानने-समझने की
दृवि से वनतान्त उपयोगी वसद्ध िोती िै।
8.4.5 पत्र
सामान्यतः पत्र-व्यििार जीिन का आिश्यक अगं रिा िै; वकन्तु कुछ पत्र अपनी कलात्मकता के
कारण भाषा के सावित्य की अमल्ू य वनवध िोते िैं। पत्र सावित्य आधवु नक काल की निोवदत विधा
के रूप में प्रवतवष्ठत िुआ िै। पाष्चात्य विचारकों भी सावित्य के क्षेत्र में पत्रों के मित्त्ि को स्िीकारा िै।
डॉ. जॉनसन ने अपनी वशष्या को वलखा था - “पत्र लेखक के हृदय का दपणभ िोते िैं।”
डॉ. ररचडभ का कथन िै - “पत्र, पत्र-लेखक के जीिन का अध्ययन करने में प्रमावणक आधार िोते
िैं।”
सावित्य में के िल उन पत्रों को सवम्मवलत वकया जाता िै, जो िैयवक्तक एिं अनौपचाररक
िोते िैं। वजन पत्रों के माध्यम से िमें वकसी मित्त्िपूणभ व्यवक्त के व्यवक्तत्त्ि और कृ वतत्त्ि को जानने-
समझने में सिायता वमलती िै; वजनमें कोई यगु विशेष अपनी विविधता में प्रवतवबम्बत िोता िै, या
वजनमें िमें कलात्मकता के दशभन िोते िैं, उन्िीं पत्रों का सावित्यक मित्त्ि िोता िै। ऐसे पत्र जब पत्र-
पवत्रकाओ ं में, अथिा पस्ु तकों में संकवलत िोकर प्रकावशत िोते िैं; तब पत्र सावित्य अवस्तत्त्ि में
आता िै। पत्र अनसु ंधान-कायभ में भी बिुत सिायक िोते िैं। आधवु नक काल से पिू भ पत्रों को संकवलत
करके उन्िें प्रकावशत कराने की परम्परा निीं थी; कदावचत,् यिी कारण िै वक इस यगु से पिू भ िमें पत्र
सावित्य के सत्रू अभी तक उपलब्ध निीं िुए िैं।
सिभप्रथम 1928 में ‘चााँद’ पवत्रका का‘ पत्र विशेषांक’ प्रकावशत िुआ, उसके बाद 1953 में
ज्ञानोदय, 1963 में सम्मेलन-पवत्रका, 1982 में साररका, 1989 में विश्िभारती आवद पवत्रकाओ ं के
भी पत्र विशेषांक प्रकावशत िोते रिे िैं। पवत्रकाओ ं की तरि िी सावित्यकारों के अवभनन्दनग्रंथ,
स्मृवतग्रथं , जीिनी आवद में भी उनके पत्रों को भी प्रकावशत करने की परम्परा बनी िुई िै। इसके
अवतररक्त अनेक सावित्यकारों ने आत्मकथा में भी पत्र प्रकावशत वकए िैं।

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‘पत्रों के आइने में स्िामी दयानन्द सरस्िती’ में सगं िृ ीत पत्रों को पढ़कर िमें, आयभसमाज के
प्रितभक स्िामी दयानन्द सरस्िती की सधु ार-भािना, उनका विन्दी और संस्कृ त-प्रेम, फ़ारसी-विरोध,
गोिश ं की रक्षा, आवथभक अनश ु ासन आवद के विषय में ज्ञात िोता िै।
पत्रों के विषय में किा जा सकता िै वक िास्ति में पत्र िि माध्यम िैं वजनके िारा िमें वकसी
मिापरुु ष, सावित्यकार अथिा कलाकार आवद के व्यवक्तत्त्ि की विवशिता, उनके प्रेरणास्रोत, उनके
सरोकार आवद की सिज िी जानकारी प्राप्त िो जाती िै।
अभ्यास प्रश्न 4

1. डायरी-विधा के सत्रू िमें वकसकी डायरी में वमलते िैं?


2. पिला पत्र-विशेषांक कब और वकस पवत्रका में प्रकावशत िुआ?
3. पत्र सावित्य में वकन पत्रों को शावमल वकया जाता िै?

8.5 सारांश
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आपने जाना वक

 स्मृवत आधाररत सावित्य की विशेषता स्मृवत, सक्ष्ू म वनरीक्षण एिं आकषभक शैली िोती िै।
 सस्ं मरण वकसी व्यवक्त, र्टना, वस्थवत को आधार बनाकर उसके प्रवत सिं दे नात्मक
अनभु वू तयों को प्रस्ततु करता िै।
 रे खावचत्र का संबंध वचत्रकला से िै। रे खावचत्र में लेखक शब्द-वचत्र के माध्यम से वकसी
व्यवक्तत्ि के व्यवक्तत्ि को उके रता िै।
 यात्रािृत्त विधा का संबंध लेखक िारा अपनी यात्रा को सृजनात्मक धरातल प्रदान करना
िै।
 डायरी लेखक िारा अपनी वदनचयाभ को सृजनात्मक रूप में प्रस्ततु करने का एक ढंग िै।
 पत्र विधा दो व्यवक्तयों के बीच िुए आवत्मक पत्र-संिाद को किते िैं।

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8.6 शब्दावली
 कलात्मकता – वकसी कायभ को करने का लावलत्य पणू भ ढगं
 अनौपचाररक – सिज, हृदयगत
 सांकेवतकता – हृदयगत लगाि
 सजीिता – जीितं

8.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1
क) ररि स्थानों की पूहतिैः-
1. सस्ं मरणकार का मख्ु य उद्देश्य पात्र, अथिा र्टना आवद विषयों की उन विशेषताओ ं को
अवं कत करना िोता िै, वजसकी छवि िमारे मनोमवस्तष्क पर अवमट छाप अवं कत कर सके ।
2. स्मारक सावित्य की एक विवशष्ट विधा िोने के कारण संस्मरण में स्मृवत का विशेष
मित्त्ि िोता िै।
3. इसका िण्यभविषय कोई सावित्यकार, दाशभवनक, िैज्ञावनक, राजनीवतज्ञ और वखलाड़ी िी
निीं, कोई र्वसयाररन, वकसान, मजदरू , अथाभत् दवलत सिभिारा िगभ से सबं वं धत व्यवक्त भी
िो सकता िै।
ख) लघु उत्तरीय प्रश्न :-
1. सस्ं मरण, रे खावचत्र, आत्मकथा, जीिनी, यात्रािृत्त, डायरी, पत्र ।
2. स्मृवत पर आधाररत िोने के कारण, तथा िणभन-पद्धवत की कुछ विवशष्टताओ ं के
कारण, गद्य सावित्य की निीन विधाओ ं को ‘स्मारक सावित्य’ किा जाता िै।
3. विन्दी सावित्य में ‘गद्य’ का आविभाभि उन्नीसिीं शताब्दी के उत्तराद्धभ में िुआ।
4. ‘स्मारक’ का शावब्दक अथभ िै- स्मृवत पर आधाररत कोई वनवमभवत; अथाभत जब िम
वकसी व्यवक्त अथिा वकसी र्टना विशेष की स्मृवत में कोई रचनात्मक कायभ करते िैं, उसे
स्मारक किा जाता िै।

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5. स्मारक साहित्य की प्रमुख हवशेषताएाँ हनम्नहलहखत िैं-
1. स्मृवतआधृत गद्यात्मक अवभव्यवक्त।
2. आत्मावभव्यवक्त की छटपटािट।
3. कल्पनातत्त्ि का अभाि।
4. कथातत्त्ि की अवनिायभता।
5. मनोिैज्ञावनक विश्लेषणात्मकता।
6. यथाथभ के प्रवत लेखक की निीन दृवि।
7. वचत्रात्मकता तथा िणभनात्मकता।
अभ्यास प्रश्न 2
क) वकसका कथन िैः-
1. रामगोपाल िमाभ 2. मिादेिी िमाभ
1. संस्मरण सामान्यतया वकसी साधारण या विवशष्ट व्यवक्त से सम्बवन्धत वकसी
संिदे नशील स्मृवत के प्रत्यक्षीकरण को किा जा सकता िै रे खावचत्र भी प्रायः इसी प्रकार के
व्यवक्त का िणभन प्रस्ततु करता िै। रे खावचत्र साधारण से साधारण व्यवक्त का भी िो सकता िै
जबवक सस्ं मरण प्रायः मिान विभवू तयों से िी सम्बन्ध रखता िै।
2. स्के च,
3. एक तो, रे खावचत्र काल्पवनक न िोकर िास्तविक िोते िैं; और दसू रे , रे खावचत्र का सृजन
वकसी िस्तु या व्यवक्त को लेकर िोता िै। इसके साथ िी साथ शैली की दृवि से रे खावचत्र में
वचत्रात्मकता भािात्मकता सांकेवतकता और प्रभािोत्पादकता आवद विशेषताओ ं का िोना
आिश्यक िै।
अभ्यास प्रश्न 3
1. भािात्मक शैली, विचारात्मक शैली, आलंकाररक शैली, व्यंग्यात्मक शैली, वचत्रात्मक
शैली;

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2. यात्रािृत्त के वलए के आिश्यक िै वक िि सिं दे नशीलता, स्िछन्दता, वनरपेक्षता एिं
आत्मीयतापणू भ िो; इसके अभाि में यवद लेखक अपनी वकसी यात्रा के विषय में वलखेगा,
तो िि उत्कृ ि कोवट का यात्रािृत्तान्त न िोकर, के िल यात्रावििरण बनकर रि जाएगा।
3. रािुल सांकृत्यायन।
अभ्यास प्रश्न 4
1. आधवु नक यगु से पिू भ 1885 में प्रकावशत राधाचरण गोस्िामी की ‘दैनंवदनी’ से।
2. 1928 ‘चााँद’ पवत्रका में।
3. सावित्य में के िल उन पत्रों को सवम्मवलत वकया जाता िै, जो िैयवक्तक एिं
अनौपचाररक िोते िैं।

8.8 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. िमाभ, धीरे न्द्र , विदं ी सावित्य कोश I, ज्ञानमण्डल प्रकाशन।

8.9 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. वतिारी, रामचन्द्र , विदं ी का गद्य सावित्य, विश्िविद्यालय प्रकाशन।

8.10 हनबं धात्मक प्रश्न


1. स्मारक सावित्य से आप क्या समझते िैं ? विस्तार से स्पि कीवजए तथा
संस्मरण और रे खावचत्र में अतं र बताइये करें ।

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ईकाई 9 'करुणा' : पहरचय, पाठ एिं आलोचना
इकाई की रूपरे खा
9.1 प्रस्तािना
9.2 उद्देश्य
9.3 आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल
9.3.1 आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल : जीिन पररचय
9.3.2 आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल : साविवत्यक पररचय
9.4 आचायभ रामचंद्र शक्ु ल : विश्लेषण एिं आलोचना
9.5 वनबंध का पाि : करूणा
9.6 वनबंध का सार : करूणा
9.7 करूणा : सदं भभ सवित व्याख्या
9.8 साराक्षं
9.9 शब्दािली
9.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
9.11 संदभभ ग्रंथ सचू ी
9.12 सिायक पाि्य सामग्री
9.13 वनबधं ात्मक प्रश्न

9.1 प्रस्तावना
इस इकाई से पिू भ आपने गद्य सावित्य की विवभन्न विधाओ ं के रूप एिं उनकी अन्तरप्रकृ वत
का अध्ययन वकया।
प्रस्ततु इकाई में आप रामचन्द्र शक्ु ल के सम्पणू भ जीिन एिं उनके साविवत्यक अिदान से
पररवचत िोंगे। इसके साथ िी साथ आप आचायभ रामचद्रं शक्ु ल िारा वलवखत मित्िपणू भ वनबधं
‘करूणा’ को पाि, ससंदभभ व्याख्या के साथ कर सकें गे।

प्रस्ततु इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप मानि मन के गत्भी भाि ‘करूणा’ का


विश्लेषण कर सकें गे तथा साथ िी विन्दी सावित्य में आचायभ शक्ु ल के मित्त्ि का प्रवतपादन भी
कर सकें गे।

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9.2 उद्देश्य
प्रस्ततु इकाई के अध्ययन के बाद आप-

 मानिीय मनोविकारों में से एक ‘करूणा’ का मित्ि ज्ञात कर उसे साविवत्यक कसौटी पर


जॉंच सकें गे।
 एक सच्चे साविवत्यक ममभज़ की तरि मानि मन की कारूवणक दशाओ ं का विश्लेषण कर
सकें गे।
 मानि जीिन के भीतर ‘करूणा’ के व्यििाररक मित्ि को समझ सकें गे।

9.3 आचायभ रामचं र शुक्ल


‘’ शक्ु ल जी की व्यवक्तगत गभं ीरता उनकी भाषा में व्याप्त रिती िै। उनकी भाषा संयत,
पररष्कृ त, प्रौढ़ तथा विशद्ध
ु िोती िै; उसमें एक प्रकार का सौष्िि विशेष िै, जो सभं ित: वकसी भी
ितभमान लेखक में निीं पाया जाता। उसमें गम्भीर वििेचना, गिेषणात्मक वचंतन एिं वनमाांत अनभु वू त
की पिु व्यंजना सिभदा ितभमान रिती िै। शक्ु ल जी की शैली में िैयवक्तकता की छाप सिभत्र िी प्राप्त
िोती िै, चािे िि वनबधं रचना िो चािे आलोचनात्मक वििेचन’’
- जगन्नाथ प्रसाद शमाि
‘’भारतीय काव्यालोचन शास्त्र का इतना गभं ीर और स्ितन्त्र विचारक विदं ी में तो दसू रा िुआ िी
निीं, अन्यान्य भारतीय भाषाओ ं में भी िुआ िै या निीं, िीक निीं कि सकते। शायद निीं िुआ।
अलक ं ारशास्त्र के प्रत्येक अगं पर उनिोंने सक्ष्ू म विचार वकया था- शब्द-शवक्त, गणु -दोष, अलक
ं ार-
विधान, रस आवद सभी विषयों पर उनका अपना सवु चंवतत मत था। िे प्राचीन भारतीय अलंकाररकों
को खबू जानते थे पर उनका अधं ानक ु रण करने िाले निीं थे। रामचद्रं शक्ु ल से सिभत्र सिमत िोना
संभि निीं। िे इतने गंभीर और किोर थे वक उनके िक्तव्यों की सरसता उनकी बवु द्ध की आचं से
सखू जाती थी और उनके मतों का लचीलापन जाता रिता था। आपकों या तो ‘िााँ’ किना पड़ेगा या
‘ना’ बीच में खड़े िोने का कोई उपाय निीं।‘’ - आचायि
िजारी प्रसाद हद्धवेदी
9.3.1 आचायि रामचन्र शुक्ल : जीवन पररचय
आचायभ रामचंद्र शक्ु ल का जन्म सन् 1884 ई. (संित् 1940) को उत्तर प्रदेश के बस्ती
वजले के अगोना नामक गााँि में िुआ था। मल ू रूप से इनके पिू जभ गोरखपरु क वनिासी थे। उनके
वपतामि का नाम श्री वशिदत्त शक्ु ल था। आचायभ शक्ु ल के वपता श्री चन्द्रबली शक्ु ल का जन्म
1862 ई. में िुआ था बाद में श्री वशिदत्त शक्ु ल की मृत्यु के उपरांत आचायभ रामचंद्र शक्ु ल के

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वपतामिी आचायभ शक्ु ल के वपता श्री चद्रं बली शक्ु ल को लेकर गोरखपरु छोड़ बस्ती वजले के
अगौना नामक गााँि में आ गई। आचायभ शक्ु ल के वपता अध्ययनशील व्यवक्त थे। उनिें अग्रं ेजी,
फारसी और अरबी का अचछा जान था। सन् 1887 में आचायभ शक्ु ल के वपता उत्तर प्रदेश के
इटािावजले में सपु रिाईजर काननू गो के पद पर आ गए 1875 में िी चन्द्रबली शक्ु ल का वििाि िो
गया था। 1884 में अगौना में आचायभ रामचंद्रशक्ु ल का जन्म िुआ। िे अपने वपता की चौथी संतान
थे। 1891 में वपता के बतादले के पश्चातआ ् चायभ शक्ु ल िमीरपरु वजले की ‘राि’ तिसील में आ
गए। यिीं आचायभ शक्ु ल की प्रारवम्भक वशक्षा िुई। 1893 में आचायभ शक्ु ल के वपता की वनयवु क्त
सदर काननू गो के पद पर वमजाभपरु में िो गई। इस बीच आचायभ शक्ु ल की माताका देिािसान गया।
अपने वपता के साथ आचायभ शक्ु ल के वपता वमजाभपरु आ गए। 1894 में आचायभ शक्ु ल के वपता ने
दसू रा वििाि कर वलया और विमाताके कारण आचायभ शक्ु ल का जीिन कष्टप्रद िो गया। 1898 में
14 िषभ की अिसथा में आचायभ शक्ु ल ने अग्रं ेजी तथा उदभू विषय से वमवडल की परीक्षा उत्तीणभ की।
स्कूलों में तब विन्दी विषय की व्यिस्था निीं िोती थी लेवकन अपनी वपतामिी के संस्कारों के
कारण आचायभ रामचंद्र शक्ु ल तल ु सी, सरू एिं अनय भक्त कवियों की रचनां ं बिुत मनोयोग से
पढ़ते रिे। 1901 में शक्ु ल जी ने स्कूल फाइनल परीक्षा भी उत्तीणभ कर जी। 1898 में िी आचायभ
शक्ु ल का वििाि िो गया था तथा 1902 ई. में गृि कलि के कारण िे अपने वपता को छोड़कर
पत्नी के साथा अगौना आ गए। यिी शक्ु ल जी के प्रथम पत्रु श्री के शिचंद्र शक्ु ल का जन्म
िुआ।इसके पश्चात् 1903 में इनकी प्रथम पत्रु ी दगु ाभिती का जन्म िुआ। सन् 1905 वमजाभपरु के
वजला कलेक्टर विढंम ने आचायभ शक्ु ल की कला-प्रवतभा से प्रभावित िोकर उन्िें वमजाभपरु वजले का
नायब तिसीलदार वनयक्ु त कर वदया, परन्तु आचायभ शक्ु ल ने तत्कालीन स्िदेश प्रेम की भािना एिं
स्िावभमानी स्िाभाि के कारण यि पद स्िीकार निीं वकया। 1904 ई. में शक्ु ल जी लंदन वमशन
स्कूल में राइाइगं टीचर के रूप में वनयक्ु त िुए।
अपने संस्कारों के कारण आचायभ रामचंद्र शक्ु ल बचपन से िी अध्ययनशील थे। अपनी
इसी प्रिृवप्त के कारण शक्ु ल जी की वमत्रमण्डली वजसमें समियस्क एिं प्रौढ़ दोनों के लोग थे- तैयार
िो गई अपनी इस वमत्र एिं शभु वचंतक मण्डली से आचायभ शक्ु ल का व्यवक्तत्ि शनै: शनै: और
अवधक गभं ीर एिं अध्ययनशील िोता गया इस वमत्र मण्डली में बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमर्न’,
पं.के दारनाथ पािक, पं. रामगरीब चौबे, पं. विन्ध्येश्वरी प्रसाद वतिारी, बाबू बलभद्र वसंि, बाबू
काशी प्रसाद जायसिाल, प.ं लक्ष्मीशक ं र वििेदी जैसे प्रखर विचारक एिं वििान लोग शवमल थे।
अपने गिन अध्यिसाय के चलते बिुत शीघ्र की आचायभ शक्ु ल की मेर्ा कायभशील िो गई।
1899ई. में िी आचायभ रामचंद्र शक्ु ल ने अग्रं ेजी के प्रवसद्ध वनबंधकार जोसेफ एडीसन के सप्रु वसद्ध
वनबंध ‘प्लेजसि व इमैहजनेशन’ का अनिु ाद ‘कल्पना का आनंद’ नाम से तथा कुछ िी समय
बाद न्यमू नै के वनबंध ‘हलटरेचर’ का भािानिु ाद ‘सावित्य’ शीषभक से कर वदया था। अक्टूबर
1908 में आचायभ रामचद्रं शक्ु ल ‘काशी नगरी प्रचाररणी सभा’ की बृिद् योजना ‘हिन्दी शब्द

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सागर’ के सिायक सम्पादक बनकर सपररिार काशी आ गए। यिााँ आकर िे कोश सम्पादन के
साथ-साथ ‘नागरी प्रचाररणी पवत्रका’ के कायभ भार भी संभालने लगे इस बीच उनका पाररिाररक-
जीिन भी अपनी गवत एिं प्रिृवत से चलता रिा। 1912 तक आचायभ शक्ु ल के पररिार में दो पत्रु एिं
चार पवु त्रयों का जन्म िो चक ु ा था। 1918 ई. में आचायभ शक्ु ल के वपता का देिान्त िो गया। सन्
1919 ई. में आचायभ रामचंद्र शक्ु ल की वनयवु क्त काशी विन्दु विश्िविद्यालय में िो गई। आचायभ
शक्ु ल ने जीिन पयभन्त विश्िविद्यालय की सेिा की। शक्ु ल जी का व्यवक्तगत जीिन बिुत संर्षभ एिं
कविनाई में बीता। गभं ीर अध्ययिसाय एिं प्रखर मेधा के कारण उन्िोंने मृत्यु से पिू भ वजन ग्रन्थों का
प्रणयन वकया (इकाई के अगले भाग में आप आचायभ शक्ु ल के ग्रंथों का संवक्षप्त पररचय प्राप्त
करें ग)े िे विन्दी सावित्य की अपनी अमल्ू य वनवध िै। परन्तु अपनी एकवनष्ि सावित्य साधना और
अपने स्िास्थ का ध्यान न रखने के कारण आचायभ रामचंद्र शक्ु ल को आरम्भ से िी कमजोर स्िास्थ
का कष्ट उिाना पड़ा था। ‘’िे कई रोगों से पीवडत े़ थे। दमा का रोग प्रमख
ु था। अतं त: इसी रोग से 2
फरिरी, 1941 ई. को रात साढ़े नौ बजे 56 िषभ 3 मिीने 20 वदन की िय में उनकी इिलीला समाप्त
िो गई। अनेक तरि की विपरीत पररवस्थवतयों एिं दबािों के बीच रिते िुए उन्िोंने
विन्दी की जो सेिा की िि श्लाध्य और अनक
ु रणीय िै।"
9.3.2 आचायि रामचन्र शुक्ल : साहिहत्यक पररचय
विन्दी सावित्य के आलोचना परू ु ष माने जाने िाले आचायभ रामचंद्र शक्ु ल का संवक्षप्त
साविवत्यक पररचय वनम्लवलवखत िै। विद्यावथभयों से आशा की जाती िै वक प्रस्ततु सचू ी से प्रेररत
िोकर िे आचायभ शक्ु ल की रचनाओ ं को उनके ऐवतिावसक क्रम में अपने अध्ययन के वक्षवतज को
विस्तार देते िुए पढ़ेगें तथा आचायभ शक्ु ल के बिाने विन्दी- सावित्य के िैचाररक क्रम को समझने का
प्रयास करें ग।े
(क) हनबंध
1. भाि या मनोविकार - सिभप्रथम फरिरी 1915 में प्रकावशत।
2. उत्साि - सिभप्रथम – फरिरी 1915 में प्रकावशत
3. श्रृद्धा भवक्त - सिभप्रथम वदसम्बर 1916 में प्रकावशत
4. करूणा - सिभप्रथम वदसम्बर 1918 में प्रकावशत
5. लज्जा और ग्लावन -सिभप्रथम वदसम्बर 1918 में प्रकावशत
6. लोभ और प्रीवत -(पिले लोभ और प्रेम शीषभक से) फरिरी- माचभ 1919 में
प्रकावशत
7. र्ृणा - सिभप्रथम जलु ाई 1912 में प्रकावशत
8. ईष्याभ - सिभप्रथम जल ु ाई 1912 में प्रकावशत

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9. भय और क्रोध - सिभप्रथम जल ु ाई 1912 में प्रकावशत (ये सभी नौ वनबधं नागरी
प्रचाररणी पवत्रका में प्रकावशत िुए थे)
10. काव्य में प्राकृ वतक दृश्य - सिभप्रथम सन् 1922 में ‘माधरु ी’ पवत्रका में प्रकावशत।
11. गोस्िामी तल ु सीदास और लोक धमभ – सिभप्रथम सन् 1923 में माधरु ी पवत्रका में प्रकावशत।
12. साधारणीकरण - सिभप्रथम सन् 1933 में वििेदी अवभनंदन ग्रंथ में प्रकावशत।
13. कविता क्या िै -1909 ई. में प्रथम प्रारूप प्रकावशत।

(ख) पुस्तकें -
1. हवचार वीथी - मनोविचार संबंधी सभी लेख, कविता क्या िैभ भारतेनदु िररश्चन्द्र , तल ु सी
का भवक्त मागभ वनबंधों सवित सन् 1930 में प्रकावशत
2. हचंतामहण, भाग 1 – (इवं डयन प्रेस प्रयाग से सन् 1939 में प्रकावशत वनबंध संग्रि)
विचार िीथी(1930) पस्ु तक के सभी वनबंधों के अवतररक्त ‘साधरणीकरण एिं व्यवक्त
िैवच्यिाद ‘ मानस की धमभभवू म’, ‘काव्य में लोक मंगल की साधनािस्था , तथा
‘रसात्मक बोध के विविध रूप' नामक नए वनबधं ों के साथ प्रकावशत ।
3. हचंतामहण – भाग 2 – ‘काव्य में प्राकृ वतक दृश्य’ ‘काव्य में रिस्यिाद’ तथा काव्य में
अवभव्यंजनािाद’ इन तीन बड़े वनबंधों का पस्ु तक के रूप में सवम्मवलत प्रकाशन सन् 1939
में ‘काव्य में रिस्यिाद’ सिभप्रथम माधरु ी पवत्रका 1922 में प्रकावशत िुआ तथा सावित्य
भषू ण कायाभलय, काशी िारा अलग से पस्ु तक के रूप में भी प्रकावशत िुआ। ‘काव्य में
अवभव्यंजनािाद’ सन् 1935 में विन्दी सावित्य सम्मेलन, इन्दौर के अध्यक्ष पद से वदया
गया अध्यक्षीय भाषण िै।
4. हत्रवेणी - सरू दास, तल ु सीदास तथा जायसी पर आचायभ शक्ु ल िारा वलवखत
आलोचनात्मक प्रबंधों के विवशष्ट अश ं ों का संग्रि । सम्पादक श्री कृ ष्णानंद, 1935
5. रस मीमांसा - आचायभ विश्िनाथप्रसाद वमश्र िारा सम्पावदक, प्रथम प्रकाशन सन् 1949
6. हिन्दी साहित्य का इहतिास - (मल ू त: विन्दी शब्द सागर की भवू मका के रूप में वलखा
गया) पस्ु तक के रूप में 1929 ई. में प्रथम प्रकाशन- संशवे धत 1940 ई.
7. गोस्वामी तुलसीदास - सिभप्रथम 1924 ई. में प्रकावशत
8. मिाकहव सूरदास - सिभप्रथम 1924 ई. में प्रकावशत।
9. बाबू राधाकृष्ट्ण दास का जीवन चररत – सन् 1913 में प्रकावशत।

(ग) सम्पाहदत ग्रंथ-


1. तुलसी ग्रथ
ं ावली (3 भाग) लाला भगिानदीन एिं ब्रजरत्न दास के साथ सम्पावदत, सन्
1923
2. जायसी ग्रंथावली- नागरी प्रचाररणी सभा, काशी िारा सन् 1924 में प्रकावशत

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3. भ्रमर-गीत सार (सरू दास के 403 पदों के शद्ध ु पाि, अथभ, वटप्पणी भवू मका सवित, सावित्य
सेिा सदन, िाराणसी िारा सन् 1925 में प्रकावशत।
4. वीर हसंि देवचररत - के शिदास प्रणीत ग्रंथ के 14 िें प्रकाशन का सम्पादन,नागरी
प्रचाररणी, सभा िारा 1926 में प्रकावशत।
5. भारतेंदु -सग्रं ि – सन् 1928 में प्रकावशत।

(घ) अनुवाहदत ग्रंथ


1. कल्पना का आनदं (जोसेफ एवडसन् िारा वलवखत वनबधं ‘प्लेजर आफ इमैवजनेशन)
वलवखत 1901 प्रकावशत 1905।
2. साहित्य (न्यमु नै का ‘वलटरे चर’ नामक वनबधं )
3. ‘मेगस्थनीज का भारतवषीय हववरण’ (डा. श्िान बक की पस्ु तक ‘मेगस्थनीज इवं डका)
- 1906
4. ‘राज्य प्रबधं हशक्षा’ (सर टी. माधि राि के ‘माइनर विटं ् स’ का अनिु ाद) सिभप्रथम
1913में प्रकावशत।
5. आदशि जीवन (एडम्स विवलयम डेिन पोटभ की पस्ु तक ‘प्लेन वलविगं एण्ड िाई वथवकंग)
पर वलवखत वनबंधों का संग्रि सन् 1914 में प्रकावशत।
6. हवश्व प्रपंच (िैकल की पस्ु तक ‘ररड्ल ऑि द यवू निसभ का अनिु ा, लम्बी मौवलक
भवू मका सवित सन् 1920 ई. में प्रकावशत।
7. शशांक (राखालदास बंद्योपाध्याय के बांग्ला उपन्यास का अनिु ाद) 1922 ई.
8. बुद्धचररत ( एडविन आनभल्ड के ‘लाईट ऑफ एवशया का विन्दी अनिु ाद, मौवलक
भवू मका सवित) सन् 1922 में प्राकवशत (ब्रजभाषा में पद्यानिु ाद)
9. ‘वाट िैज इहं िया टू िू’ मौवलक अग्रं ेजी वनबंध, 1907 में प्रकावशत, ‘हिन्दी ए‍ि द
मुसलमांस, मौवलक अग्रं जी वनबधं , लीडर के कई अक ं ों में 1917 में प्रकावशत, ‘नॉन
को परेशन एिं द नॉन मकें टाइल क्लासेज एक्सप्रेस, पटना के कई अक ं ों में 1921
प्रकावशत मौवलक अग्रं ेजी वनबंध।
(च) कहवता
‘मधुस्रोत ’ (1901 से 1929 तक वलवखत कविताओ ं का संग्रि सनि 1971 में प्रकावशत
(छ) हनबध ं सग्रं ि
1. वचतं ामवण भाग 3, (स0ं ) नामिर वसिं - 1983
2. वचंतामवण भाग 4, (सं0) कुसमु चतिु दे ी - 2002

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9.4 आचायि रामचंर शुक्ल : हवश्लेषण एवं आलोचना
‘वनबधं ’ शब्द को पररभावषत करते िुए डॉ.जानसन ने वलखा िै, ‘’वनबधं मवस्तष्क
की सिसा उिी िुई अवनयंवत्रत, विश्रंखवलत , उन्मक्ु त कल्पना शवक्त का पररणाम िै’’ यिी
कारण िै वक वनबंध के जन्मदाता मानटेन से लेकर ितभमान तक लवलत वनबंधकार यि
स्िीकार करते िैं वक वनबधं ों में ममभस्पवशभता ि मौवलक व्यवक्तत्ि की छाप िोनी चाविए,
सप्रु वसद्ध आलोचक िडसन ने तो ‘व्यवक्तगत वनबंध’ को िी यथाथभ वनबंध माना िै। आचायभ
रामचंद्र शक्ु ल ने भी ‘हिदं ी साहित्य का इहतिास’ (पृष्ि-505) में वनबंध सावित्य का
विश्लेषण करते िुए वलखा िै, ‘’आधवु नक पाश्चात्य लक्षणों के अनसु ार वनबंध उसी को
किना चाविए वजसमें व्यवक्तत्ि या व्यवक्तगत विशेषता िो। व्यवक्तगत विशेषता का यि
मतलब निीं वक उसके प्रदशभन के वलए विचारों की श्रख ं ला रखी िी न जाए या जानबझू कर
जगि-जगि तोड़ दी जाए। एक िी बात को लेकर वकसीका मन वकसी संबंध-सत्रू पर दौड़ता
िै, वकसी का वकसी पर। ियवक्तगत विशेषता का मल ू आधार यिी िै।‘’ उसी बात को
सप्रु वसद्ध आलोचक डॉ. सत्येन्द्र ने स्पष्ट करते िुए वलखा ‘’ वनबंध के सम्बंध में यि बात
आज वनवशचत-सी मान ली गई िै वक िि आत्मावभव्यवक्त का िी साधन िै। अत: चािे
कोई विषय िो या विषय की कोई शाखा िो, उसमें व्यवक्तपरकता अिश्य िोनी चाविए।‘’
अपनी पस्ु तक वचन्तामवण के आरम्भ में आचायभ शक्ु ल ने वलखा िै, ‘’ इस पस्ु तक में मेरी
अन्तयाभत्रा के पड़ने िाले कुछ प्रदेश िै। यात्रा के वलए वनकलती िुई बवु द्ध जिााँ किीं मावमभक
या भािाकषभक स्थलों में पिुचाँ ी िै, ििााँ ह्रदय थोड़ा बिुत रमता और अपनी प्रिृवत्त के
अनसु ार कुछ-कुछ सिता गया िै। इस प्रकार यात्रा के श्रम का पररिार िोता िै। बवु द्ध-पथ पर
ह्रदय भी अपने वलए कुछ-न-कुछ पाता रिा िै। इस बात का वनणभय विज्ञ पािकों पर छोड़ता
िूाँ वक वनबंध विषयप्रधान िै वक व्यवक्तप्रधान।‘’ परन्तु आचायभ रामचंद्र शक्ु ल के वनबंध
िास्ति में किीं विषय प्रधान िै तो किी व्यवक्त प्रधान। उनके वनबंधों में ह्रदय तथा बवु द्ध
तत्ि का समु धरु समािेश िै। तब िी तो रोचकता लाने के वलए किीं-किीं लोक प्रचवलत
कथाओ ं को गथंू ा िै तो किीं अपने जीिन से र्टनाओ,ं दृश्यों आवद का प्रसंग देकर विषय
को स्पष्ट वकया िै। साथ िी शैली में अद्भुत िक्रता, तीक्ष्णता, कथन की विवचत्रता
अथभशवक्त से नीरसता को तो दरू वकया िी िै, जरूरत पड़ने पर चोट करने से भी निीं चक ू े िैं।
उनके वनबंधों में प्राप्त व्यंग्य-आक्षेप, िास-पररिास तथा िक्रता की वत्रिेणी में पािक सिज
भाि से अिगािन करता चलता िै। विचारों की गिराई के बीच व्यवक्तगत बातों और व्यंग्य
विनोद से व्याख्या भी रूवचकर िो गई िै। वनबंधों के माध्यम से आचायभ शक्ु ल का सम्पणू भ
व्यवक्तत्ि पािक के सामने आ जाता िै।
िम देख सकते िैं वक वनबंध सावित्य के माध्यम से आचायभ शक्ु ल का लेखन
मानदण्ड स्थावपत करता िै। शक्ु ल जी के वचंतामवण में संकवलत मनोविकार संबंधी वनबंध
अपनी िैचाररकी के कारण न के िल विन्दी सावित्य अवपतु अन्यान्य भारतीय सावित्य में भी

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स्मरणीय रिेंग।े विद्धानों ने आचायभ शक्ु ल के वचतं ामवण में संकवलत वनबधं ों को तीन श्रेवणयों
में विभावजत वकया िै।

(क) भाव सबंधी हनबंध- ‘करूणा’, ‘श्रृद्धा-भवक्त’, ‘उत्साि’, ‘लज्जा और ग्लावन’, ‘लोभ
और प्रीवत’, ‘ईष्याभ’, ‘भय तथा क्रोध’, ‘र्ृणा’, शीषभक वनबंध इसी कोवट में रखे जाऐगं ।े
(ख) आलोचनात्मक हनबंध- ‘कविता क्या िै’, ‘काव्य में लोक मगं ल की साधनािस्था’,
‘साधारणीकरण एिं व्यवक्त िैवच्यिाद ’ तथा ‘रसात्मक बोध के विविध’ रूप इस श्रेणी
के वनबंध िै। ‘तल
ु सी का भवक्त-मागभ’, एिं ‘भारतेंदु िररश्चन्द्र’ भी इसी कोवट के वनबंध िै।
(ग) आलोचनात्मक प्रबंध- ‘काव्य में रिस्यिाद’, ‘काव्यमें अवभव्यंजनािाद इस कोवट के
वनबंध िैं।
यवद शक्ु ल जी के वनबंधों को शास्त्रीय िगीकरण से अलग िट कर देखा जाए तो
भी उनक वनबंध अपना मापदण्ड स्ियं स्थावपत करते चलते िैं। और जैसा वक डॉ. रामचन्द्र
वतिारी ने वलखा िै, ‘’उनकी विचार पद्धवत बिुत कुछ सवु नयोवजत िै। आरंभ में िे प्रवतपाद्य
विषय को नपी-तल ु ी शब्दािली में प्रस्ततु करते िैं। कोवशश करते िै वक वििेच्य विषय की
सभी विशेषताओ ं को सत्रू बि करके उसे पररभावषत कर वदया जाए। ‘श्रृद्धा-भवक्त’, ‘उत्साि’,
‘लज्जा’, ‘प्रेम’, ‘र्ृणा’, ‘भय’, ‘ईष्याभ’ एिं ‘करूणा’ आवद मनोभािों को उन्िोंने
पररभावषत भी वकया िै। उसके बाद विषय को स्पष्ट करने के वलए िे उससे सबंद्ध विचार-
सत्रू ों को विस्तार देने या फै लाने के क्रम में िे मनोभाि-विशेष की िगभगत पिचान, उसके
समकक्ष रखे जा सकने िाले मनोभािों से उसकी समता-विषमता, उसकी प्रेष्यता-उप्रेष्यता,
समाज पर उसके शभु -अशभु प्रभािों आवद की चचाभ करते िैं। अपने वनबधं ों के अन्त में िे
प्राय: अपने परू े प्रवतपाद्य को साफ-सथु रे ढंग से संक्षेप में प्रस्तुत कर देते िैं’’ यि सिभविवदत
िै वक शक्ु ल जी के वनबंध विचारात्मक शैली समास-प्रधान िै। विचारों के गढ़ू गफ ंु न इसी
शैली में सभं ि िै। भािात्मक शैली का प्रयोग उन्िोंने प्राय: ििााँ वकया िै, जिााँ उनका मन
विधाता िारा रवचत उस विश्ि-काव्य की रमणीयता देखकर मग्ु ध िो गया िै या जिााँ अपने
काव्य नायक राम के शील का उत्कषभ देखकर िे स्ियं अवभभतू िो गए िैं। िणभनात्मक शैली
का प्रयोग शक्ु ल जी ने बिुत कम वकया िै। विचारात्मक शैली शक्ु ल जी की पिचान िै।
शक्ु ल जी की शैली किीं-किीं उतनी सर्न िो जाती िै वक िे सत्रू -िाक्यों की रचना करने
लगते िैं। उनके कुछ प्रमख ु सत्रू -िाक्य वनम्न िैं।
1. भवक्त धमभ की रसात्मक अनभु वू त िै । (भाि या मनोविकार)
2. यवद प्रेम स्िप्न िै तो श्रृद्धा जागरण िै । (श्रद्धा-भवक्त)
3. मनष्ु य की सजीिता मनोिेग या प्रिृवत्त में, भािों की तत्परता में िै । (करूणा)
4. ज्ञान प्रसार के भीतर िी भाि प्रसार िोता िै । (कविता क्या िै ?)

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बोध प्रश्न-
(क) लघु उत्तरीय प्रश्न
(1) डॉ. जॉनसन के अनसु ार वनबधं की पररभाषा दीवजए ।
(2) आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल के भाि सबं धं ी वनबधं कौन-कौन से िै ।
(ख) अहत लघु उत्तरीय प्रश्न-
(1) आचायभ रामचंद्र शक्ु ल के वकन्िीं दो वनबंधों के नाम वलवखए।

(क) अहत लघु उत्तरीय प्रश्न


(1) आचायभ रामचंद्र शक्ु ल की जन्म एिं मृत्यु कब िुई थी ?
(2) ‘विन्दी सावित्य के इवतिास’ का प्रकाशन िषभ वलवखए .
(3) आचायभ शक्ु ल का प्रथम वनबंध-संग्रि कौन सा था ?

(ख) सिी हवकल्प चुहलए

(।) इनमें से कौन सा हनबंध आचायि शुक्ल र्द्ारा अनुवाहदत हनबंध िै-
( क) वमत्रता
(ख) विश्ि प्रपचं
(ग) िॉट िैज इवण्डया टू डू
(र्) कल्पना का आनदं

9.5 हनबं ध का पाठ : करूणा


जब बच्चे को संबंध ज्ञान कुछ-कुछ िोने लगता िै तभी द:ु ख के उस भेद की नींि पड़ जाती
िै वजसे करूणा किते िैं। बच्चा पिले परखता िै वक जैसे िम िैं िैसे िी ये और प्राणी भी िैं और
वबना वकसी वििेचना क्रम के स्िाभाविक प्रिृवत्त िारा, िि अपने अनभु िों का आरोप दसू रे प्रावणयों
पर करता िै। वफर कायभकारण संबंध से अभ्यस्त िोने पर दसू रों के द:ु ख के कारण या कायभ को
देखकर उनके द:ु ख का अनमु ान करता िै और स्ियं एक प्रकार का द:ु ख अनभु ि करता िै। प्राय:
देखा जाता िै वक जब मााँ झिू मिू ‘ऊं ऊं ’ करके रोने लगती िै तब कोई-कोई बच्चे भी रो पड़ते िैं।
इसी प्रकार जब उसके वकसी भी भाई या बविन को कोई मारने उिता िै तब िे कुछ चच ं ल िो उिते
िैं।

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द:ु ख की श्रेणी में प्रिृवत्त के विचार के करूणा का उलटा क्रोध िै। क्रोध वजसके प्रवत उत्पन्न
िोता िै उसकी िावन की चेष्टा की जाती िै। करूणा वजसके प्रवत उत्पन्न िोती िै, उसकी भलाई का
उद्योग वकया जाता िै। वकसी पर प्रसन्न िोकर भी लोग उसकी भलाई करते िैं। इस प्रकार पात्र की
भलाई की उत्तेजना द:ु ख और आन्नद दोनों की श्रेवणयों में रखी गई िै। आनंद की श्रेणी में ऐसा कोई
शद्धु मनोविकार निीं िै, जो पात्र की िावन की उत्तेजना करे , पर द:ु ख की श्रेणी में ऐसा मनोविकार िै
जो पात्र की भलाई की उत्तेजना करता िै। लोभ से, वजसे मैंने आनदं की श्रेणी में रखा िै, चािे कभी-
कभी और व्यवक्तयों या िस्तओ ु ं की िावन पिुचाँ जाए पर वजसे वजस व्यवक्त या िस्तु का लोभ िोगा,
उसकी िावन िि कभी न करे गा। लोभी मिमदू के सोमनाथ को तोड़ा, पर भीतर से जो जिािरात
वनकले उनको खबू सॅभालकर रखा। नरू जिॉ के रूप में लोभी जिॉगीर ने शेर अफगन को मरिाया, पर
नरू जिां को बड़े चैन से रखा।
ऊपर किा जा चक ु ा िै वक मनष्ु य ज्यों िी समाज में प्रिेश करता िे, उसके सख ु और द:ु ख
का बिुत सा अश ं दसू रे की वक्रया या अिस्था पर अिलंवबत िो जाता िै और उसके मनोविकारों के
प्रिाि तथा जीिन के विस्तार के वलए अवधक क्षेत्र िो जाता िै। िि दसू रों के द:ु ख से द:ु खी और
दसू रों के सख
ु से सखु ी िोने लगता िै। अब देखना यि िै वक दसू रों के द:ु ख से द:ु खी िोने का वनयम
वजतना व्यापक िै क्या उतना िी दसू रों के सख ु से सख ु ी िोने का भी। मैं समझता िॅ,ू निीं। िम अज्ञात
कुलशील मनष्ु य के द:ु ख को देखकर भी द:ु खी िोते िैं। वकसी द:ु खी मनष्ु य को सामने देख िम
अपना द:ु खी िोना तब तक के वलए बन्द निीं रखते जब तक वक यि न मालमू िो जाए वक िि कौन
िै, किााँ रिता िै और कै सा िै, यि और बात िै वक यि जानकर वक वजसे पीड़ा पिुचाँ रिी िै उसने
कोई भारी अपराध या अत्याचार वकया िै, िमारी दया दरू या कम िो जाए। ऐसे अिसर पर िमारे
ध्यान के सामने िि अपराध या अत्याचार आ जाता िै और उस अपराधी या अत्याचारी का ितभमान
क्लेश िमारे क्रोध की तवु ि का साधक िो जाता िै।
सारांश यि िै वक करूणा की प्रावप्त के वलए पात्र में द:ु ख के अवतररक्त और वकसी विशेषता
की अपेक्षा निीं। पर आनंवदत िम ऐसे िी आदमी के सख ु को देखकर िोते िैं जो या तो िमारा सह्रु द
या सबं धं ी िो अथिा अत्यंत सज्जन, शीलिान् या चररत्रिान् िोने के कारण समाज का वमत्र या
वितकारी िो। यों िी वकसी अज्ञात व्यवक्त का लाभ या कल्याण सनु ने से िमारे ह्रदय में वकसी प्रकार
के आनंद का उदय निीं िोता। इससे प्रकट िै वक दसू रों के द:ु ख से द:ु खी िोने का वनयम बिुत
व्यापक िै और दसू रों के सख ु से सख ु ी िोने का वनयम उसकी अपेक्षा पररवमत िै। इसके अवतररक्त
दसू रों को सखु ी देखकर जो आनंद िोता िै उसका न तो कोई अलग नाम रखा गया िै और न उनमें
िेग या प्रेरणा िोती िै। पर दसू रों के द:ु ख के पररज्ञान से जो द:ु ख िोता िै, िि करूणा, दया आवद
नामों से पकु ारा जाता िै और अपने कारण को दरू करने की उत्तेजना करता िै। जबवक अज्ञात व्यवक्त
के द:ु ख पर दया बराबर उत्पन्न िोती िै तो वजस व्यवक्त के साथ िमारा अवधक संसगभ िोता िै,
वजसके गणु ों से िम अच्छी तरि पररवचत रिते िैं, वजसका रूप िमें भला मालमू िोता िै उसके उतने

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िी द:ु ख पर िमें अिश्य अवधक करूणा िोगी। वकसी भोली भाली सदंु री रमणी को, वकसी सच्चररत्र
परोपकारी मिात्मा को, वकसी अपने भाई बंधु को द:ु ख में देख, िमें अवधक व्याकुलता िोगी।
करूणा की तीव्रता का सापेक्ष विधान जीिन वनिाभि की सुगमता और कायभ विभाग की पणू तभ ा के
उद्देश्य से समझना चाविए। मनष्ु य की प्रकृ वत में शील और सावत्िकता का आवद संस्थापक यिी
मनोविकार िै। मनष्ु य की सज्जनता या दजु नभ ता अन्य प्रावणयों के साथ उसके संबंध या संसगभ िारा िी
व्यक्त िोत िै। यवद कोई मनष्ु य जन्म से िी वकसी वनजभन स्थान में अपना वनिाभि करे तो उसका कोई
कमभ सज्जनता या दजु नभ ता की कोवट में न आएगा। उसके सब कमभ वनवलभप्त िोंगे। संसार में प्रत्येक
प्राणी के जीिन का उद्देश्य द:ु ख की वनिृवत्त और सख ु की प्रावप्त िै। अत: सबके उद्देश्य को एक साथ
जोड़ने से ससं ार का उद्देश्य सख ु का स्थापन और द:ु ख का वनराकरण िुआ। अत: वजन कमो से ससं ार
के इस उद्देश्य के साधन िों िे उत्तम िैं। प्रत्येक प्राणी के वलए उससे वभन्न प्राणी संसार िै। वजन कमो
से दसू रे के िास्तविक सख ु का साधन और द:ु ख की वनिृवत्त िो िे शभु और सावत्िक िैं तथा वजस
अतं :करणिृवत से इन कमों में प्रिृवत्त िो िि सावत्िक िै। कृ पा या अनग्रु ि से भी दसू रों के सख ु की
योजना की जाती िै, पर एक तो कृ पा अनग्रु ि में आत्मभाि वछपा रिता िै और उनकी प्रेरणा से
पिुचाँ ाया िुआ सख ु एक प्रकार का प्रवतकार िै। दसू री बात यि िै वक निीन सख ु की योजना की
अपेक्षा प्राप्त द:ु ख की वनिृवत्त की आिश्यकता अत्यंत अवधक िैं।
दसू रे के उपवस्थत द:ु ख से उत्पन्न द:ु ख का अनभु ि अपनी तीव्रता के कारण मनोविकारों
की श्रेणी में माना जाता िै पर अपने भािी आचरण िारा दसू रे के संभाव्य द:ु ख का ध्यान या अनमु ान,
वजसके िारा िम ऐसी बातों से बचते िें वजनसे अकारण दसू रे को द:ु ख पिचं े, शील या साधारण
सिवृ त के अतं गभत समझा जाता िै। बोलचाल की भाषा में तो ‘शील’ शब्द से वचत्त की कोमलता या
मरु ौित िी का भाि समझा जाता िै, जैसे- ‘उनकी आाँखों में शील निीं िै’, ‘शील तोड़ना अच्छा
निीं’, दसू रों का द:ु ख दरू करना और दसू रों को द:ु ख न पिुचाँ ना इन दोनों बातों का वनिाभि करने
िाला वनयम न पालने का दोषी िो सकता िै, पर ऐसा निीं वजससे वकसी का कोई काम वबगड़े या जी
दख
ु ।े यवद िि वकसी अिसर पर बड़ों की कोई बात न मानेगा तो इसवलए वक िि उसे िीक निीं
जॅचती या िि उसके अनक ु ू ल चलने में असमथभ िै, इसवलए निीं वक बड़ों का अकारण जी दख ु ।े मेरे
विचार में तो ‘सदा सत्य बोलना’, ‘बड़ों का किना मानना’ ये वनयम के अंतगभत िैं, शील या सद्
भाि के अतं गभत निीं। झिू बोलने से बिुधा बड़े-बड़े अनथभ िो जाते िैं इसी से उसका अभ्यास रोकने
के वलए यि वनयम कर वदया गया वक वकसी अिस्था में झिू बोला िी न जाए। पर मनोरंजन, खश ु ामद
और वशष्टाचार आवद के बिाने ससं ार में बिुत सा झिू बोला जाता िै वजस पर कोई समाज कुवपत
निीं िोता। वकसी-वकसी अिस्था में तो धमभग्रन्थों में झिू बोलने की इजाजत तक दे दी गई िै,
विशेषत: जब इस वनयम भगं िारा अतं :करण की वकसी उच्च और उदार िृवत का साधन िोता िो।
यवद वकसी के झिू बोलने से कोई वनरपराध और वनस्सिाय व्यवक्त अनवु चत दडं से बच जाए तो ऐसा
झिू बोलना बरु ा निीं बतलाया गया िै क्योंवक वनयम शील या सिवृ त का साधक िैं, समकक्ष निीं।

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मनोिेग िवजभत सदाचार दभं या झिू ी किायद िै। मनष्ु य के अतं :करण में सावत्िकता की ज्योवत
जगानेिाली यिी करूणा िै। इसी से जैन और बौद्धधमभ में इसको बड़ी प्रधानता दी गई िै और
गोस्िामी तल
ु सीदासजी ने भी किा िै-
पर उपकार सररस न भलाई। पर पीडा सम नहिं अधमाई।।
यि बात वस्थर और वनविभिाद िै वक श्रद्धा का विषय वकसी न वकस रूप में सावत्िक शील
िी िोता िै। अत: करूणा और सावत्िकता का सबं धं इस बात से और भी वसद्ध िोता िै वक वकसी
परूु ष को दसू रे पर करूणा करते देख तीसरे को करूणा करने िाले पर श्रद्धा उत्पन्न िोती िै। वकसी
प्राणी में और वकसी मनोिेग को देख श्रद्धा निीं उत्पन्न िोती। वकसी को क्रोध, भय, ईष्याभ, र्ृणा,
आनदं आवद करते देख लोग उस पर श्रद्धा निीं कर बैिते। वक्रया में तत्पर करने िाली प्रावणयों की
आवद अतं :करणिृवत मन का मनोिेग िै। अत: इन मनोिेगों में जो श्रद्धा का विषय िो ििी
सावत्िकता का आवद सस्ं थापक ििरा। दसू री बात यि भी ध्यान देने की िै वक मनष्ु य के आचरण के
प्रितभक भाि या मनोविकार िी िोते िैं, बवु द्ध निीं। बवु द्ध दो िस्तओ ु ं के रूपों को अलग-अलग
वदखला देगी, यि मनष्ु य के मन के िेग या प्रिृवत पर िै वक िि उनमें से वकसी एक को चनु कर कायभ
में प्रिृत्त िो। यवद विचार कर देखा जाए तो स्मृवत, अनमु ान, बवु द्ध आवद अतं :करण की सारी िृवत्तयॉ
के िल मनोिेगों की सिायक िैं, िे भािों या मनोिेगों के वलए उपयक्ु त विषय मात्र ढूंढती िैं। मनष्ु य
की प्रिृवत्त पर भाि को और भािना को तीव्र करने िाले कवियों का प्रभाि प्रकट िी िै।
वप्रय के वियोग से जो द:ु ख िोता िै उसमें कभी-कभी दया या करूणा का भी कुछ अश ं
वमला रिता िै। ऊपर किा जा चक ु ा िै वक करूणा का विषय दसू रे का द:ु ख िै। अत: वप्रय के वियोग
में इस विषय की भािना वकस प्रकार िोती िै, यि देखना िै। प्रत्यक्ष वनश्चय कराता िै और परोक्ष
अवनश्चय में डालता िै। वप्रय व्यवक्त के सामने रिने से उसके सखु का जो वनश्चय िोता रिता िै, िि
उसके दरू िोने से अनवश्चय में पररिवतभत िो जाता िै। अत: वप्रय के वियोग पर उत्पन्न करूणा का
विषय वप्रय के सख ु का वनश्चय िै। जो करूणा िमें साधारणजनों के िास्तविक द:ु ख के पररज्ञान से
िोती िै, ििी करूणा िमें वप्रयजनों के सख ु के अवनश्चय मात्र से िोती िै। साधारणजनों का तो िमें
द:ु ख असह्रा िोता िैि पर वप्रयजनों के सुख का अवनश्चय िी। अवनश्चय बात पर सख ु ी या द:ु खी
िोना ज्ञानिावदयों के वनकट अज्ञान िै, इसी से इस प्रकार के द:ु ख या करूणा को वकसी-वकसी
प्रांवतक भाषा में ‘मोि’ भी किते िैं। सारांश यि वक वप्रय से वियोगजवनत द:ु ख में जो करूणा का
अश ं रिता िै उसका विषय वप्रय के सख ु का अवनश्चय िै। राम जानकी के िन चले जाने पर
कौशल्या उनके सख ु के अवनश्चय पर इस प्रकार द:ु खी िोती िै-
बन को हनकरर गए दोउ भाई।
सावन गरजै, भादों बरसै, पवन चलै पुरवाई।
कौन हबररछ तर भीजत ह्वै िैं राम लखन दोउ भाई। (गीतावली )

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प्रेमी को यि विश्िास कभी निीं िोता वक उसके वप्रय के सखु का ध्यान वजतना िि रखता
िै उतना संसार में और भी कोई रख सकता िै। श्रीकृ ष्ण गोकुल से मथरु ा चले गए जिॉ सब प्रकार का
सखु िैभि था, पर यशोदा इसी सोच में मरती रिीं वक-
प्रात समय उहि माखन रोटी को हबन मांगे दैिै ॽ
को मेरे बालक कुंवर कान्ि को हछन-हछन आगे लैिै ॽ
और उद्धि से किता िै-
संदेसो देवकी सों कहियो।
िों तो धाय हतिारो सुत को, कृपा करत िी रहियो।।
उबटन, तेल और तातों जल, देखत िी भहज जाते।
जोइ जोइ मांगत सोइ सोइ देती, क्रम क्रम करर कै न्िाते।।
तुम तो टे ब जानहतहि ह्रै िो, तऊ मोहि कहि आवै।
प्रात उित मेरे लाल लडैतहि माखन रोटी भावे।।
अब यि सरू मोहि हनहस बासर बडो रित हजय सोच।
अब मेरे अलकलडैते लालन ह्रैिै करत सैंकोच।।
वियोग की दशा में गिरे प्रेवमयों को वप्रय के सख
ु का अवनश्चय िी निीं, कभी-कभी र्ोर
अवनष्ट की आशक ं ा तक िोती िै, जैसे एक पवत वियोवगनी संदिे करती िै-
नदी हकनारे धआ
ुं उित िै, मैं जानूं कुछ िोय।
हजसके कारण मैं जली, विी न जलता िोय।।
शद्धु वियोग का द:ु ख के िल वप्रय के अलग िो जाने की भािना से उत्पन्न क्षोभ या विषाद
िै वजसमें वप्रय के द:ु ख आवद की कोई भािना निीं रिती।
वजस व्यवक्त से वकसी की र्वनष्िता और प्रीवत िोती िै िि उसके जीिन के बिुत से
व्यापारों तथा मनोिृवत्तयों का आधार िाता िै। उसके जीिन का बिुत सा अंश उसी के संबंध िारा
व्यक्त िोता िै। उसके जीिन का बिुत सा अश ं उसी के सबं ंध िारा व्यक्त िोता िै। मनष्ु य अपने वलए
संसार आप बनाता िै। संसार तो किने सनु ने के वलए िै, िास्ति में वकसी मनष्ु य का संसार तो िे िी
लोग िैं वजनसे उसका संसगभ या व्यििार िै। अत: ऐसे लोगों में से वकसी का दरू िोना उसके संसार के
एक प्रधान अश ं का कट जाना या जीिन के एक अगं का खवं डत िो जाना िै। वकसी वप्रय या सह्रु दय
के वचरवियोग या मृत्यु के शोक के साथ करूणा या दया का भाि वमलकर वचत्त को बिुत व्याकुल
करता िै। वकसी के मरने पर प्राणी उसके साथा वकए िुए अन्याय या कुव्यििार तथा उसकी
इच्छापवू तभ करने में अपनी त्रवु टयों का स्मरण कर और यि सोचकर वक उसकी आत्मा को संतष्ु ट करने
की भािना सब वदन के वलए जाती रिी, बिुत अधीर और विकल िोते िैं। सामावजक जीिन की

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वस्थवत और पवु ि के वलए करूणा का प्रसार आिश्यक िै। समाजशास्त्र के पवश्चमी ग्रथं कार किा करें
वक समाज में एक दसू रे की सिायता अपनी अपनी रक्षा के विचार से की जाती िै; यवद ध्यान से देखा
जाय तो कमभक्षेत्र में परस्पर सिायता की सच्ची उत्तेजना देने िाली वकसी न वकसी रूप में करूणा िी
वदखाई देगी। मेरा यि किना निीं वक परस्पर की सिायता का पररणाम प्रत्येक का कल्याण निीं िै।
मेरेकरने का अवभप्राय िै वक संसार में एक दसू रे की सिायता वििेचना िारा वनवश्चत इस प्रकार के
दरू स्था पररणाम पर दृवि रखकर निीं की जाती बवल्क मन का स्ित: प्रिृत्त करनेिाली प्रेरणा से की
जाती िै। दसू रे की सिायता करने से अपनी रक्षा की भी संभािना , इस बात या उद्देश्य का ध्यान
प्रत्येक,विशेषकर सच्चे सिायक को तो निीं रिता। ऐसे विसतृत उद्देश्यों का ध्यान तो विश्िात्मा
स्ियं रखती िै; िि उसे प्रावणयों की बवु द्ध ऐसी चच ं ल और मडंु े मडंु े वभन्न िसतुके भरोसे निीं
छोड़ती। वकस यगु में और वकस प्रकार मनष्ु यों ने समाज रक्षा के वलए एक दसू रे की सिायता करने
की गोष्िी की िोगी, यि समाजशास्त्र के बिुत से िक्ता लोग िी जानते िोंगे। यवद परस्पर सिायता
की प्रिृवत्त परु खों की उस परु ानी पंचायत िी के कारण िोती और यवद उसका उद्देश्य ििी तक िोता
जिााँ तक समाजशास्त्र के िक्ता बतलाते िैं , तो िमारी दया मोटे, मस्ु टंडे और समथभ लोगों पर
वजतनी िोती उतनी दीन,अशक्त और अपाविज लोगों पर निीं, वजनसे समाज को उतना लाभ निीं
।पर इसका वबलकुल उलटा देखने में आता िै। द:ु खी व्यवक्त वजतना िी असिाय और असमथभ िोगा
उतनी िी अवधक उसके प्रवत िमारी करूणा िोगी। एक अनाथ अबला को मार खाते देख िमें वजतनी
करूणा िोगी उतनी एक वसपािी या पिलिान को वपटते देख निीं। इसस स्पष्ट िै वक परस्पर सिाय्य
के जो व्यापक उद्देश्य िैं उनको धारण करने िाला मनष्ु य का छोटा सा अतं :करण निीं, विश्िात्मा िै।
दसू रों के , विशेषतया अपने पररवचतों के , थोड़े क्लेश या शोक पर जो िेग रवित द:ु ख िोता िै, उसे
सिानभु वू त करते िैं। वशष्टाचार में उस शब्द का प्रयोग इतना अवधक िोने लगा िै वक यि वनकम्मा सा
िो गया िै। अब प्राय: इस शब्द से ह्रदय का काई सच्चा भाि निीं उपजता । सिानभु वू त के तार,
सिानभु वू त की वचरट्ठयााँ लोग यों िी भेजा करते िैं। यि छद्म वशष्टता मनष्ु य के व्यििार क्षेत्र से
सच्चाई के अश ं को क्रमश: चरती जा रिी िैं ।
करूणा अपना बीज अपने आलंबन या पात्र में निीं फें कती िै अथाभत् वजस पर करूणा की
जाती िै िि बदले में करूणा करने िाले पर भी करूणा निीं करता, जैसा वक क्रोध और प्रेम में िोता
िै - बवल्क कृ तज्ञ िोता अथिा श्रद्धा या प्रीवत करता िै । बिुत सी औपन्यावसक कथाओ ं में यि बात
वदखाई गई िै वक यिु वतयााँ दष्ु टों के िाथ से अपना उद्धार करने िाले यिु कों के प्रेम में फाँ स गई िैं।
कोमल भािों की योजना में दक्ष बाँगला के उपन्यास लेखक करूणा और प्रीवत के मेल से बड़े िी
प्रभािोत्पादक दृश्य उपवस्थत करते िैं। मनष्ु य के प्रत्यक्ष ज्ञान में देश और काल की पररवमवत अत्यंत
संकुवचत िोती िै। मनष्ु य वजस िस्तु को वजस समय और वजस स्थान पर देखता िै उसकी उसी समय
और उसी स्थान की अिस्था का अनभु ि उसे िोता िै। पर स्मृवत, अनमु ान या दसू रों से प्राप्त ज्ञान के
सिारे मनष्ु य का ज्ञान इस पररवमवत को लांर्ता िुआ अपना देशकाल संबंधी विस्तार बढ़ाता िै।

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प्रस्ततु विषय के सबं धं में उपयक्ु त भाि प्राप्त करने के वलए यि विसतार कभी कभी आिश्यक िोता
िै। मनोविकारों की उपयक्ु तता कभी कभी उस विस्तार पर वनभभर रिती िै।वकसी मार खाते िुए
अपराधी के विलाप पर िमें दया आती िै, पर जब िम सनु ते िैं वक कई बार िि बड़े-बड़े अपराध कर
चक ु ा िै, उससे आगे भी ऐसे िी अत्याचार करे गा, तो िमें अपनी दया की अनपु यक्ु तता मालमू िो
जाती िै। ऊपर किा जा चक ु ा िै वक स्मृवत और अनमु ान आवद भािों या मनोविकारों के के िल
सिायक िैं अथाभत् प्रकारातं र से िे उनके वलए विषय उपवस्थत करते िैं। िे कभी तो आप से विषयों
को मन के सामने लाते िैं, कभी वकसी विषय के सामने आने पर उससे संबंध (पूिाभपर ि कायभकारण
संबंध) रखनेिाले और बिुत से विषय उपस्थ्वााात करते िैं। जो कभी तो सब के सब एक िी भाि
के विषय िोते िैं और उस प्रत्यक्ष विषय से उत्पन्न भाि को तव्र करते िैं; कभी वभन्न वभन्न भािों के
विषय से उत्पन्न भािों को पररिवतभत या धीमा करते िैं। उससे यि स्पष्ट िै वक मनोिेग या भािों को
मदं या दरू करनेिाली, स्मृवत, अनमु ान या बवु द्ध आवद कोई दसू री अतं :करणिृवत्त निीं िै, मन का
दसू रा भाि या िेग िी िै।
मनष्ु य की सजीिता मनोिेग या प्रिृवत्त में, भािों की तत्परता में िै। नीवतज्ञों और धावमभकों
का मनोविकारों को दरू करने का उपदेश र्ोर पाषडं िै। इस विषय में कवियों का प्रयत्न िी सच्चा िै
जो मनोविकारों पर सान िी निीं चढ़ाते बवल्क उन्िे पररमावजभत करते िुए सृवि के पदाथो के साथ
उनके उपयक्ु त संबंध वनिाभि पर जोर देते िैं। यवद मनोिेग न िो तो स्मृवत, अनमु ान, बवु द्ध आवद के
रिते भी मनष्ु य वबलकुल जड़ िै। प्रचवलत सभ्यता और जीिन की कविनता से मनष्ु य अपने इन
मनोिेगों के मारने और अशक्त करने पर वििश िोता जाता िै। िन, नदी, पिभत आवद को देख
आनंवदत िोने के वलए अब उसे ह्रदय में उतनी जगि निीं। दरु ाचार पर उसे क्रोध या र्ृणा िोती िै पर
झिू े वशष्टाचार के अनसु ार उसे दरु ाचारी की मिाँु पर प्रशसं ा करनी पड़ती िै। जीिन वनिाभि की
कविनता से उत्पन्न स्िाथभ की शष्ु क प्रेरणा के कारण उसे दसू रे के द:ु ख की ओर ध्यान देने,उस पर
दया करने और उसके द:ु ख की वनिृवत्त का सख ु प्राप्त करने की फुरसत निीं। इस प्रकार मनष्ु य ह्रदय
को दबाकर के िल क्रूर आिश्यकता और कृ वत्रम वनयमों के अनसु ार िी चलने पर वििश और
किपतु ली सा जड़ िोता जाता िै। उसकी भिक ु ताकानाश िोता िै। पाखडं ी लोग मनोिेगोंका सच्चा
वनिाभि न देख, िताश िो मिाँु बनाकर किने लगे िैं-‘’करूणा छोडों, प्रेम छोड़ो, आनंद छोड़ो। बस
िाथ पैर विलाओ,ं काम करों।‘’
यि िीक िै वक मनोिेग उत्पन्न िोना और बात िै और मनोिेग के अनसु ार व्यििार करना
और बात; पर अनसु ारी पररणाम के वनरंतर अभाि से मनोिेगों का अभ्यास भी र्टने लगता िै। यवद
कोई मनष्ु य आिश्यकतािश कोई वनष्िुर कायभ अपने ऊपर ले ले तो पिले दो चार बार उसे दया
उत्पन्न िोगी; पर जब बार-बार दया की प्रेरणा के अनसु ार कोई पररणाम िि उपवस्थत न कर सके गा
तब धीरे -धीरे उसकी दया का अभ्यास कम िोने लगेगा यिााँ तक वक उसकी दया की िृवत्त िी मारी
जाएगी। बिुत से ऐसे अिसर आ पड़ते िैं वजनमें करूणा आवद मनोिेगों के अनसु ार काम निीं वकया

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जा सकता। पर ऐसे अिसरों की सख्ं या का बिुत बढ़ना िीक निीं िै। जीिन में मनोिेगों के अनसु ार
पररणामों का विरोध प्राय: तीन िस्तओ
ु ं से िोता िै-
1 आिश्यकता 2. वनयम, और 3. न्याय।
िमारा कोई नौकर बिुत बडु ् ढ़ा और कायभ करनेमें अशक्त िो गया िै वजससे िमारे काम में
िजभ िोता िै। िमें उसकी अिस्था पर दया जो आती िै पर आिश्यकता के अनरु ोध से उसे अलग
करना पड़ता िै। वकसी दष्ु ट अफसर के कुिाक्य पर क्रोध तो आता िै पर मातित लोग आिश्यकता
के िश उस क्रोध के अनसु ार कायभ करनेकी कौन किे, उसका वचि् तक निीं प्रकट िोने देते। यवद
किीं पर यि वनयम िै वक इतना रूपया देकर लोग कोई कायभ करने पां तो जो व्यवक्त रूपया िसल ू
करने पर वनयक्त
ु िोगा िि वकसी ऐसे दीन अवकंचन को देख वजसके पास एक पैसा भी न िोगा, दया
तो करे गा पर वनयम के िशीभतू िो उसे िि उस कायभ को करने से रोके गा। राजा िररश्चंद्र ने अपनी
रानी शैव्या से अपने िी मृत पत्रु के कफन का टुकड़ा फड़िा वनयम का अद्भुत पालन वकया था। पर
यि समझ रखना चाविए वक यवद शैव्या के स्थान पर कोई दसू री स्त्री िोती तो राजा िररचद्रं के उस
वनयम पालन का उतना मित्ि न वदखाई पड़ता; करूणा िी लोगों की श्रद्धा को अपनी ओर अवधक
खींचती िै। करूणा का विषय दसू रे का द:ु ख िै। अपना द:ु ख निीं। आत्मीय जनों का द:ु ख एक प्रकार
से अपना िी िै। इससे राजा िररश्चंद्र के वनयम पालन का वजतना स्िाथभ से विरोध था उतना करूणा
से निीं।
न्याय और करूणा का विरोध प्राय: सनु ने में आता िै। न्याय से िीक प्रवतकार का भाि
समझा जाता िै। यवद वकसी ने िमसे 1000 रूपये उधार वलए िै तो न्याय यि िै वक िि िमें 1000
रूपये लौटा दे। यवद वकसी ने कोई अपराध वकया तो न्याय यि िै वक उसको दडं वमले। यवद 1000 रू
लेने के उपरातं उस व्यवक्त पर कोई आपवत्त पड़ी और उसकी दशा अत्यंत सोचनीय िो गई तो न्याय
पाने के विचार का विरोध करूणा कर सकती िै। इसी प्रकार यवद अपराधी मनष्ु य बिुत रोता,
वगड़वगड़ाता और कान पकड़ता िै तथा पणू भ दडं की अिस्था में अपने पररिार की र्ोर ददु श भ ा का
िणभन करता िै, तो न्याय के पणू भ वनिाभि का विरोध करूणा कर सकती िै। ऐसी अिस्थाओ ं में करूणा
करनेका सारा अवधकार विपक्षी अथाभत् वजसका रूपया चाविए या वजसका अपराध वकया गया िै
उसको िै, न्यायकताभ या तीसरे व्यवक्त को निीं। वजसने अपनी कमाई के 1000 रू अलग वकए या
अपराध िारा जो क्षवतग्रस्त िुआ. विश्िात्मा उसी के िाथ में करूणा ऐसी उच्च सिवृ त्त के पालन का
शभु अिसर देती िै। करूणा सेंत का सौदा निीं िै। यवद न्यायकताभ को करूणा िै तो िि चािे तो
दवु खया ऋणी को िजार, पाच ं सौ अपने पास से दे दे या दवं डत व्यवक्त तथा उसके पररिार की और
प्रकार से सिायता कर दे। उसके वलए भी करूणा का िारा खल ु ा िै।

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9.6 हनबं ध का सार : करूणा
आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल िारा वलवखत मनोविकार सम्बंधी वनबंधों में
‘करूणा’ का अत्यवधक मित्त्ि िै। यि वनबधं आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल के सिभश्रेष्ि
वनबंधों में से एक िै।
दसू रों के दख ु के पररज्ञान से जो दख ु िोता िै िि करूणा दया आवद नामों से
पक ु ारा जाता िै। करूणा दख ु का िी एक भेद िै। करूणा का उल्टा क्रोध िै क्योंवक
उसके उत्पन्न िोने पर िम दसू रों की िावन की चेष्टा करते िैं। करूणा उत्पन्न िोने
पर उसकी भलाई का उद्योग करते िैं। दसू री तरफ लोभ आनदं की श्रेणी में िै पर
लोभी अपनी वप्रय िस्तु को िावन निीं पिुचाँ ाता िै, उल्टे रक्षा करता िै।
मनष्य समावजक प्राणी िै और उसके सख ु -दखु का बिुत सा अश ं दसू रों के कामों
और उनकी अिस्था पर वनभभर करता िै। दसू रों के दख ु से दखु ी िोना और सख ु से
सख ु ी िोना उसके वलए स्िाभाविक िै। जिााँ यि वनयम िै ििााँ यि भी देखा गया िै
वक िम दसू रों के सख ु से सख ु ी िोने की अपेक्षा उनके दख ु से दख ू ी अवधक और
शीघ्र िोते िैं। करूणा की तीव्रता का सापेक्ष-विधान जीिन वनिाभि की सगु मता
और कायभविभाग की पणू तभ ा के उद्देश्य से समझना चाविए यि भी स्िाभाविक िी िै
वक पररवचतों के दख ु पर िम अपररवचतों के दख ु से अवधक दख ु ी िोते िैं ।
कृ पा और करूणा में भेद यि िै वक कृ पा में आत्मभाि वछपा रिता िै
और उसके िारा पिुचाँ ाया सख ु एक प्रकार का प्रतीकार िै। पर करूणा िारा
पिुचाँ ाया सख ु द:ु ख की वनिृवत्त िै वजसकी जीिनमें अत्यन्त आिश्यकता िै। वप्रय
के वियोजवनत दख ु में करूणा का जो अश ं रिता िै उसका विषय वप्रय के सुख का
अवनश्चय िै। अवनश्चयत बात पर दख ु ी िोना ज्ञावनयों के वनकट अज्ञान िै।
इसीवलए वकसी प्रान्तीय भाषा में करूणा को मोि भी किते िै। मनष्ु य संसार आपने
आप बनाता िै। ससं ार किने सनु ने के वलए िै।
िास्ति में वकसी मनष्ु य का संसार तो िे िी लोग िैं, वजनसे उसका संसगभ
या व्यििार िै। सिानुभवू त उस िेग सवित द:ु ख को किते िैं जो अपने पररवचतों के
थोड़े से क्लेश या द:ु ख को देखकर िोती िै। करूणा में आदान – प्रदान का भाि
निीं रिता तथा साथ िी स्मृवत और अनमु ान, भािों के के िल सिायक िैं। जीिन
में मनोिेगों को मारना अच्छा निीं िै। करूणा का सीधा और व्यििाररक संबंध
ह्रदय की सत्यता, तटस्थता एिं आवत्मक त्याग से िै। करूणा के साथ-साथ शद्ध ु
असत्यता को निीं रखा जा सकता ,करुणा शद्ध ु , सावत्िक मनोविकार िै।

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9.7 करूणा : सं दर्भ सहित व्याख्या
(क) जब बच्चे को ..................................................... चैन से रक्खा।

शब्दाथि - संबंध ज्ञान – संयोग या संगवत से प्राप्त ज्ञान


करूणा - दख
ु का िि भेद वजसका संबन्ध ज्ञान से िै
वििेचनक्रम - भले बरु े ज्ञान, वनणभय
आरोप - सस्ं थापन, कल्पाना
कायभ- कारण सम्बन्ध- प्रत्येक कायभ के मल
ू में एक कारण िोता
िै
अभ्यस्त - आदी, चेष्टा, प्रयास
उद्योग – प्रयत्न उत्तेजना, प्रोत्सािन
वाक्याथि - वबना संबंध की प्रिृवत्त को जाने दख ु की आधारभवू म पर
स्थावपतकरूणा नाम मनोविकार की नींि निीं पड़ती जब एक छोटा
बच्चा पिले-पिले अपने और दसू रे व्यवक्त के मध्य के संबंध को
जानता िै तभी िि करूणा के स्िरुप या मानवसकता को समझ सकता
िै। एक बार संबंधों की पिचान िो जाने पर िी दख ु की अवधकता के
फलस्िरूप मानि दख ु की िास्तविक अनभु वू त को समझता चलता
िै। दख
ु की श्रेणी में प्रिृवत्त के विचार से करूणा का उल्टा क्रोध िै.
करूणा और क्रोध दोनों की उत्पवत्त कुछ दख ु से िै पर पररणाम दोनों
का वभन्न िै। करूणा के िारा िम दसू रे को लाभ पिुचं ाते िैं परन्तु
क्रोध के िारा िम दसू रे को िावन िी पिुचं ाना चािते िैं।
( ख) ऊपर किा जा............................................ िो जाता िै।

शब्दाथि - अिलवम्बत - आधाररत


प्रिाि - प्रसार, फै लाि
तवु ि - सख
ु सनतोष, आनंद
अपेक्षा - आिश्यकता

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सह्रु दय - वप्रय,
पररज्ञान - वनश्चय, पररचय
वनजभन - एकान्त, वनिाभि- ियतीत, कोवट-श्रेणी
वनवलभप्त - वन:स्िाथभ
वितृवत्त - छुटकारा, त्याग
वनराकरण - दरू करना, त्याग
प्रतीकर - बदला
आत्मभाि - अपनापन
वाक्याथि- जैसा वक पिले किा गया था वक जब मनष्ु य के मनोविकारों के क्षेत्र का
फै लाि मनष्ु य के सामावजक संबंधों की अपेक्षा में िोते िैं । जैसे-जैसे
मनष्ु य का सामावजक दायरा बढ़ता जाता िै िैसे-िैसे मनष्ु य का
आन्तररक मनोजगत भी अपना विस्तार करता जाता िै। समान्यत: िमें
दसू रों का दख ु देखकर दख ु िोता िै तथा उत्साि एिं सख ु देखकर
उत्सावित एिं सख ु ी अनभु ि करता िै। वनबधं कार मानिीय स्िाभाि की
एक विशेष प्रिृवत्त की तरफ इवं गत करते िुए किता िै वक यि बात सत्य
िै वक िम वकसी अजं ान व्यवक्त के दख ु को देखकर स्ियं दवु खत िो जाते
िैं परन्तु वकसी राि चलते अजं ान व्यवक्त की खश
ु ी को देखकर खश ु ी का
अनभु ि निीं करने लगते िैं । साथ िी यवद वकसी व्यवक्त के दख ु का
कारण उसके बरु े तथा अमानिीय कायभ िै तो उस वस्थवत में िमारा उस
अपराधी व्यवक्त के वलए दख ु खत्म िोकर क्रोध का रूप धारण कर लेता
िै।
(ग) दूसरों के दुख ...............................................नहिं अधमाई।

शब्दाथि- तीव्रता - अवधक्य, तेजी


शील - सदाचार
सिवृ त्त - बोलचाल में वचत्त की कोमलता

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कुवपत - क्रोवधत, नाराज
समकक्ष - समान
िवजभत - रवित, त्याज्य
वाक्याथि - आचायभ शक्ु ल किते िैं वक सख ु एिं दखु मनष्ु य के भीतर
मनोजवनत मनोविकारों की विवशष्ट श्रेणी के भाि िै। शील या सदाचार सम्बंधी
करूणा और सिानभु वू त में अनतर िै। पिले में वििेक िै, दसू रे में प्रबल गवत। शील
का सीधा संबंध मानि के भीतर स्थावपत नैवतक सत्यता एिं उसकी दृढ़ता से िै।
उसके समकक्ष रूखे वनयम बंधन को निीं रखा जा सकता िै. वसद्धान्तों की
सिायता से आप सदाचार का वनमाभण कर सकते िैं-उनसे सिायता ले सकते िैं पर
वनयम और शील को बराबर किना बड़ी भल ू किी जाएगी शील का सबं धं भान
सत्य से न िोकर मनष्ु य की मल ू नैवतक प्रिृवत्त से िोता िै जबवक वनयम- वसद्धान्त
का ताल्लक ु मात्र अपराध-दण्ड विधान से िोता िै। वजस काम के करने को अन्त:
कारण स्िीकार न करें उसे करना पाखण्ड िै। वबना िास्तविक भािों के आचरण
करना वदखािा िै, मनष्ु य के मन में सावत्िकता की ज्योवत जगाने िाली यिी
करूणा िै। मिाकवि तल ु सीदास के शब्दों को उद्घतृ करते िुए लेखक किता िै
वक- ‘’दसू रों का अच्छा करने के अवतररक्त और कोई बड़ा धमभ निीं एिं साथ िी
दसू रों को पीड़ा पिुचाँ ने के अवतररक्त और कोई बड़ी दष्ु टता निीं।
(घ) हजस व्यहि .................................................हवकल िोते िैं।

शब्दाथि – व्यक्त – प्रगट


खवण्डत - टूटना, भ्रष्ट िोना
कुव्यििार - दव्ु यभििार
विश्िात्मा - ईश्िर
चंचल - अवस्थर
मण्ु डे-मण्ु डे वभन्न िस्त-ु प्रत्येक व्यवक्त अलग िै
िक्ता - भाषणकताभ, बोलने िाला।

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वाक्याथि - अपने जीिन में िम वजस भी व्यवक्त से र्वनष्ि रूप से संबंवधत िोते िैं
िि िमारे जीिन के बिुत से मनोभािों से सम्बधं रखते िैं िम अपना
सामावजक जीिन स्ियं िी वनवमभत करते िैं। िम वजन व्यवक्तयों के साथ
रिते िैं ििी िमारे सामावजक जीिन की प्रिृवत्त को वनवश्चत करते िैं.
करूणा का तीव्रता के साथ िमारे भीतर उपवस्थत िोना इसी वप्रय व्यवक्त
के आवं शक अथिा पणू भ वियोग पर वनभभर करता िै. वियोग के पश्चात्
उस व्यवक्त से संबंध स्मृवतयााँ िमारे मन में वनरंतर उपवस्थत िोती िै तथा
पिू भ में र्वटत प्रत्येक र्टना का स्मरण क्रमश: िोता जाता िै।
(ि) करूणा अपना बीज ................................................ न रिती िै।
शब्दाथि आलंबन - सिारा, आधार, कारण
औपन्यावसक - उपन्यासपरक, उपन्यास से संबंवधत
प्रभािोत्मादक - अवत प्रभािकारी
दक्ष - चतरु प्रिीण
पररवमत - सीमा के भीतर, छोटा
वाक्याथि - प्रस्ततु गद्यांश की प्रथम पंवक्त एक विवशष्ट सवू क्त िै जो वक सम्पणू भ
वनबंध की बीज पंवक्त िै । लेखक किता िै वक वकसी के प्रवत प्रदवशभत
करूणा के बदले कभी करूणा निीं पाई जाती िै। यवद िम वकसी के
प्रवत प्रेम प्रदवशभत करते िैं तो बदले में प्रेम पाते िैं िैसे िी यवद िम
वकसी के प्रवत क्रोध प्रदवशभत करते िैं तो बदले में िमें भी क्रोध अथिा
र्ृणा प्राप्त िोती िै परन्तु यवद िम वकसी के प्रवत करूणा प्रदवशभत
करते िैं तो उसके बदले िमें करूणा प्राप्त निीं िोती िै। आचायभ
शक्ु ल के अनुसार आमान्य रूप से मनष्ु य का ज्ञान संकुवचत िोती िै।
मनष्ु य को वजतना जगत-रूप-व्यापार सीधे वदखई देता िै ििी उसका
ज्ञान क्षेत्र िोता िै परनतु अपनी स्मृवत एिं मनोविकारों की सिायता से
मनष्ु य अपने ज्ञान एिं अनुभि क्षेत्र का बिुविध विकास करता चलता
िै। मानि मन के मनोविकारों का िास्तविक मित्ि यिी िै वक िि
मानि मात्र के ज्ञान, अनभु ि ि समाज का विस्तार प्रत्यक्ष दृवि की
अपेक्षा अवधक करता िै।

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9.8 सारांश
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप
 आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल के सम्पणू भ व्यवक्तगत एिं साविवत्यक जीिन को जान
चकु े िोंगे।
 आचायभ शक्ु ल के साविवत्यक व्यवक्तत्ि के क्रमबद्ध विकास तथा विन्दी
सावित्य में उनके मित्त्िको जान चक
ु े िोंगे।
 मानि मन के भीतर व्याप्त मनोविकारों में मित्िपणू भ ‘करूणा’ के भाि की
जानकारी तथा उसकी आंतररक बनु ािट को समझ गए िोंगे।
 मानि जीिन में ‘करूणा’ के मित्त्ि तथा सावित्य में करूणा की उपयोवगता
एिं उसकी प्रायोवगक अवभव्यवक्त का ज्ञान प्राप्त कर चक ु े िोंग
9.9 शब्दावली
सबं धं ज्ञान - सयं ोग से प्राप्त ज्ञान
वििेचनक्रम - भले-बरु े का वनणभय
पररज्ञान - वनश्चय, पररचय
वनिृवत्त - छुटकारा
पिू ाभपर - आगे पीछे का
मातित - नीचे काम करने िाला कमभचारी
अवं कचन - वनधभन
िैचाररक - विचार से संबंवधत
प्रिृवत्त - आदत
पररमावजभत - शद्ध

अशक्त - दबु भल
छद्म वशष्टता - बनािटी व्यििाररक रूप,

9.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


(1) करुणा ,उत्साि, काव्य में प्राकृ वतक - दृश्य, कविता क्या िै .
(क) अहत लघु उत्तरीय प्रश्न-
1. जन्म सन् 4 अक्टूबर 1884 , मृत्यु 2 फरिरी 1941
2. 1929 ई.
3. विचार िीथी (1930 ई.)

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(ख) सिी हवकल्प चुहनए- 1. कल्पना का आनंद

9.11 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. आचायभ रामचद्रं शक्ु ल, रामचन्द्र वतिारी,2005, सावित्य अकादमी, नई वदल्ली पृ. 7-10
2. विन्दी सावित्य का इवतिास, आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल, काशी नागरी प्रचाररणी सभा, काशी,
पृष्ि 505
3. विन्दस्ु तानी त्रैमावसक, इलािाबाद, पृष्ि 137
4. वचंतामवण- भाग 1, आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल, प्रकाशन संस्थान वदल्ली
5. आचायभ रामचद्रं शक्ु ल, रामचंद्र वतिारी, 2005, सावित्य अकादमी, नई वदल्ली, पृष्ि- 43
6. आचायभ रामचंद्र शक्ु ल ग्रन्थािली (स.ं ) ओमप्रकाश वसंि, 2007, प्रकाशन संस्थान, नई
वदल्ली,
पृष्ि. 366-374
7. वचंतामवण दशभन,डा. िररिरनाथ टण्डन, 1957, विनोद पस्ु तक मवं दर, आगरा, पृष्ि- 157-
159

9.12 सिायक पाठ्य सामग्री


1. आचायभ रामचद्रं शक्ु ल ग्रथं ािली (स.ं ) ओमप्रकाश वसिं , 2007, प्रकाशन सस्ं थान, नयी
वदल्ली
2. आचायभ रामचंद्र शक्ु ल और विन्दी आलोचना, रामविलास शमाभ, राजकमल प्रकाशन, नयी
वदल्ली
3. आचायभ रामचंद्र शक्ु ल का वचंतन जगत, कृ ष्णदत्त पालीिाल, 1984
4. रामचद्रं शक्ु ल, मलयज, 1987, राजकमल प्रकाशन, नयी वदल्ली।
5. आचायभ रामचंद्र शक्ु ल, रामचन्द्र वतिारी,2005, सावित्य अकादमी, नई वदल्ली

9.13 हनबं धात्मक प्रश्न –


(क) आचायभ रामचद्रं शक्ु ल का जीिन एिं साविवत्यक पररचय विस्तार से वलवखए।
(ख) विन्दी सावित्य में आचायभ रामचंद्र शक्ु ल के मित्ि को प्रवतपावदत करते िुए
करूणा वनबंध का सार अपने शब्दों में वलवखए।

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इकाई 10 पंहििों की पंचायि: पहरचय,
पाठ एिं आलोचना
इकाई की रूपरे खा
10.1 प्रस्तािना
10.2 उद्देश्य
10.3 आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी : व्यवक्तत्ि एिं कृ वतत्ि
10.3.1 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी : व्यवक्तत्ि
10.3.2 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी : कृ वतत्ि
10.3.3 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी : वनबंध सावित्य
10.4 ’पंवडतों की पंचायत’: पररचय
10.5 ‘पंवडतों की पंचायत‘: पाि
10.6 पवं डतों की पचं ायत : सार
10.7 सारांश
10.8 शब्दािली
10.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
10.10 उपयोगी पाि्य सामग्री
10.11 वनबधं ात्मक प्रश्न

10.1 प्रस्तावना
इस इकाई के अध्ययन से पिू भ आपने विन्दी सावित्य के वनबंध विद्या का शास्त्रीय अध्ययन
कर वलया िै तथा साथ िी क्रवमक विकास के स्तर पर आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी से पिू भ के सिभश्रेष्ठ
वनबंधकार आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल के उत्कृ ि वनबंध ’करूणा’ का व्याख्या सवित अध्ययन भी कर
वलया िै।
प्रस्ततु इकाई में आप आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी वलवखए एक श्रेष्ठ वनबंध ’पंवडतों की
पचं ायत’ की सव्याख्या पाि करें गे तथा साथ िी आचायभ िजारी प्रसाद के सम्पणू भ व्यवक्तत्ि एिं
कृ वतत्त्ि से भी पररवचत िोंगे।

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10.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप -
 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी की सम्पणू भ जीिन तथा उनकी साविवत्यक प्रवतभा के
क्रवमक विकास का ज्ञान प्राप्त करें ग।े
 ’पवं डतों की पचं ायत’ का पररचय, पाि एिं ससदं भभ आलोचना का लाभ प्राप्त कर
सकें गे।
 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी का मित्त्ि एिं ितभमान समय में उनके विचारों की
प्रासंवगकता को समझ सकें गे।

10.3 आचायभ िजारीप्रसाद हिवेदी: व्यहित्व एवं कृहतत्व

10.3.1 आचायि िजारी प्रसाद हर्द्वेदी: व्यहित्व


आधवु नक यगु के मौवलक वनबधं कार, उत्कृ ि समालोचक एिं सास्ं कृ वतक विचारधारा के
प्रमख
ु उपन्यासकार, सावित्येवतिासकार एिं वनबंधकार आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी का जन्म 19
अगस्त 1907 में बहलया वजले के आरत दबु े का छपरा नामक गााँि में िुआ था। उनका पररिार
ज्योवतष विद्या के वलए प्रवसद्ध था। उनके वपता पं. अनमोल वििेदी एिं माता का नाम ज्योवतष्मती था
. आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी के वपता संस्कृ त के प्रकांड पंवडत थे। वििेदी जी की प्रारंवभक वशक्षा
गािं के स्कूल में िी िुई और ििीं से उन्िोंने वमवडल की परीक्षा पास की। इसके पश्चात् उन्िोंने इटं र
की परीक्षा और 1930 में ज्योवतष विषय लेकर आचायभ की परीक्षा उत्तीणभ की। वशक्षा प्रावप्त के पश्चात
वििेदी जी शांवतवनके तन चले गए सन् 1950 तक ििां विदं ी-भिन में कायभ करते रिे। शांवत-वनके तन
में गरुु देि रिींद्रनाथ िाकुर तथा आचायभ वक्षवत मोिन सेन के प्रभाि से सावित्य का गिन अध्ययन
और उसकी रचना प्रारंभ की। विन्दी सावित्य के प्रवतवष्ठत और सिभमान्य िस्ताक्षर िजारी प्रसाद
वििेदी ने विन्दी सावित्य की गवतशील परम्परा को सावित्यालोचना, समीक्षा, सावित्येवतिास,
वनबन्ध, उपन्यास,सौन्दयभशास्त्रीय-वििेचन एिं कविता के सृजन िारा नयी वदशा प्रदान की. निम्बर
1930 को उन्िोंने विन्दी वशक्षक के रूप में शावन्त वनके तन में कायभ आरम्भ वकया और ििााँ 1950
तक रिे। सन 1941से 1947 तक आचायभ वििेदी विश्वभारती विश्वविद्यालय की शोध पवत्रका के
संपादक रिे . 1950 में िि काशी विन्दू विश्वविद्यालय के विन्दी विभाग में प्रोफे सर और अध्यक्ष
वनयक्त
ु िुए। 1960-67 तक उन्िोंने पजं ाब विश्वविद्यालय में विन्दी विभाग में अध्यक्ष पद पर कायभ
वकया. 1968 में उनकी वनयवु क्त पनु ः काशी विश्वविद्यालय में िुई .1968-70 तक िे काशी विदं ू विश्व
विद्यालय के रे क्टर पद पर कायभरत रिे . 1957 में राष्रपवत िारा पद्मभषू ण से सम्मावनत वकए गये। िे

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अनेक सस्ं थानों से सम्बद्ध रिे। अवन्तम वदनों में िि उत्तर प्रदेश विन्दी सस्ं थान के कायभकारी अध्यक्ष
रिे। 19 मई 1979 को वदल्ली में आचायभ वििेदी ने अपना पावथभि शरीर त्याग वदया ।
वििेदी जी का व्यवक्तत्ि बड़ा प्रभािशाली और उनका स्िभाि बड़ा सरल और उदार था। िे
विदं ी अग्रं ेज़ी, संस्कृ त और बंगला भाषाओ ं के साथ-साथ मध्यकालीन भारतीय भाषाओ ं के भी
वििान थे। िे सस्ं कृ त ,अपभश ं एिं भवक्तकालीन सावित्य के विशेषज्ञ थे । लखनऊ विश्वविद्यालय ने
उन्िें डी.वलट. की उपावध देकर उनका विशेष सम्मान वकया था। वििेदी जी के वनबंधों के विषय
भारतीय संस्कृ वत, इवतिास, ज्योवतष, सावित्य विविध धमों और संप्रदायों का वििेचन आवद िै।
वििेदी जी की रचनाएं दो प्रकार की िैं, मौवलक और अनवू दत। उनकी मौवलक रचनाओ ं में सरू
सावित्य विदं ी सावित्य की भवू मका, कबीर, विचार और वितकभ अशोक के फूल, बाणभट्ट की आत्म-
कथा आवद मख्ु य िैं। प्रबंध वचंतामणी, परु ातन प्रबंध-संग्रि, विश्व पररचय, लाल कनेर आवद वििेदी
जी की अनवू दत रचनाएं िैं। इनके अवतररक्त वििेदी जी ने अनेक स्ितत्रं वनबधं ों की रचना की िै जो
विवभन्न पत्र-पवत्रकाओ ं में प्रकावशत िुए िैं।
आचायभ वििेदी का विदं ी वनबधं और आलोचनात्मक क्षेत्र में मित्िपूणभ स्थान िै। िे उच्च
कोवट के वनबंधकार और सफल आलोचक िैं। उन्िोंने सरू , कबीर, तल ु सी आवद पर जो विित्तापणू भ
आलोचनाएं वलखी िैं, िे विदं ी में पिले निीं वलखी गई।ं उनका वनबधं -सावित्य विदं ी की स्थाई वनवध
िै। उनकी समस्त कृ वतयों पर उनके गिन विचारों और मौवलक वचंतन की छाप िै। विश्व-भारती आवद
पवत्रकाओ ं के िारा वििेदी जी ने संपादन के क्षेत्र में पयाभप्त सफलता प्राप्त की िै । िजारी प्रसाद वििेदी
की अनेकों रचनाएाँ उनके मरणोपरान्त प्रकावशत िुई और कुछ अप्रकावशत िैं वजन्िें प्रकावशत वकया
जाना चाविये। वििेदीजी मनष्ु य को सिोपरर मानते थे। उन्िोंने अपने वनबन्ध ”मनष्ु य िी सावित्य का
लक्ष्य िै” में वलखा िै ”समचू े जन समिू में भाषा और भाि की एकता और सौिाद्र का िोना अच्छा
िै। इसके वलए तकभ शावस्त्रयों की निीं ऐसे सेिाभािी व्यवक्तयों की आिश्यकता िै जो समस्त बाधाओ ं
और विघ्नों को वशरसा स्िीकार करके काम करने में जटु जाते िैं।” िजारी प्रसाद वििेदी नयी पीढ़ी के
लेखकों से सन्तिु िैं। िि वलखते िैं – ”मझु े इस बात की खश ु ी िै वक नये सावित्यकार मनष्ु य के दख

के प्रवत जागरुक िै और इस बात से व्याकुल िै वक किीं न किीं कोई गल्ती अिश्य िै जो इसको दरू
करने की िमारी सारी आकाक्षाओ ं के बािजदू सारे प्रयत्नों को विफल बना रिी िै। बाधा मख्ु य रूप
से िमारे सामावजक संगिन में िै और वजस व्यिस्था के ऊपर इसको दरू करने की वजम्मेदारी िै उस
व्यिस्था के ढाचं े की संरचना मे िै।” विन्दी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा िै। विन्दी विश्व की
समृद्ध भाषा िै वजसमें विश्व स्तर के सावित्कार वदये िैं। अनेक वदिगं त वदग्गज सावित्यकारों की
रचनाएाँ आज भी विन्दी पािकों से िवं चत िैं क्योंवक इनकी बिुत सी रचनाएाँ अप्रकावशत िैं तथा
अनेकों रचनाएाँ अपने नये संस्करण की प्रतीक्षा कर रिी िैं। इनके प्रकाशन की वदशा में प्रयत्न वकया
जाना चाविये।

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10.3.2 आचायि िजारी प्रसाद हर्द्वेदी: कृहतत्व
साविवत्यक दृवि से आचायभ वििेदी का सावित्य न के िल विपल
ु िै अवपतु सम्पणू भ भारतीय
सावित्य एिं मानि जावत की सांस्कृ वतक चेतना का िािक भी िै . आचायभ वििेदी ने सावित्य की
लगभग सभी प्रमख ु विधाओ ं में रचना की थी . किना न िोगा वक आचायभ वििेदी का लेखन एक
तरफ जिााँ अपनी विपल ु ता के वलए अपना अलग स्थान रखता िै ििीं दसू री तरफ अपनी
सृजनात्मक सम्पन्नता के कारण विश्व सावित्य की अनमोल देन िै .आचायभ वििेदी की प्रमख
ु रचनाएाँ
वनम्नित िैं
उपन्यास
1. बाणभट्ट की आत्मकथा , 1946
2. चारू चंद्रलेख ,1963
3. पनु नभिा , 1973
4. अनामदास का पोथा, 1976
आलोचना
5. सरू सावित्य , 1936
6. कबीर , 1942
7. कावलदास की लावलत्य योजना, 1968
8. मृत्यजंु य रिीन्द्र, 1963
9. नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दशरूपक ,
10. मेर्दतू :एक परु ानी किानी, 1957
11. सवं क्षप्त पृथ्िीराज रासो,1952
12. लावलत्य तत्ि, 1994
13. सावित्य का साथी, 1955
इहतिास ग्रन्थ
14. विदं ी सावित्य की भवू मका , 1940
15. विदं ी सावित्य : उद्भि और विकास, 1952
16. विदं ी सावित्य का आवदकाल, 1952
सांस्कृहतक हचंतन
17. मध्यकालीन बोध का स्िरूप, 1970
18. सिज-साधना, 1963

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19. मध्यकालीन धमभ-साधना, 1952
20. नाथ संप्रदाय , 1950
21. वसक्ख गरूु ओ ं का पण्ु य-स्मरण, 1980
22. रामानदं की विन्दी रचनाएाँ , 1955
23. नाथ वसद्धों की बावनयााँ ,1957
24. प्राचीन भारत के कलात्मक विनोद , 1940
हनबंध साहित्य
25. अशोक के फूल ,1948
26. कल्पलता,1951
27. कुटज, 1954
28. विचार और वितकभ , 1953
29. विचार प्रिाि ,1959
30. आलोक पिभ ,1972
अन्य रचनाएाँ
1. कविताएं (खड़ी बोली, संस्कृ त)
2. कविताएं (ब्रजभाषा)
3. कविताएं (अनूवदत)
4 िैयवक्तक संस्मरण
5. किावनयााँ
6. फवलत ज्योवतष
हवशेष :

 विन्दी सावित्य सम्मेलन, इलािाबाद िारा ‘कबीर‘ पस्ु तक पर मगं लाप्रसाद


पाररतोषक 1947 ई.
 लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ ने डॉक्टर ऑफ वलटरे चर उपावध प्रदान की
1947 ई.

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 ऑवफवशयल लैंग्िजे कमीशन (प्रथम) के सदस्य 1955 ई.
 पद्म भषू ण, 1957 ई.
 संयोजक, विन्दी परामशभ सवमवत, सावित्य अकादमी, 1954 ई.-1964 ई. तक
 नेशनल बक
ु रस्ट के रस्टी, 1958 ई.
 वचल्राइन बक
ु रस्ट के रस्टी, 1958 ई.
 ‘सरू सावित्य’ पस्ु तक पर सरजप्रू साद स्िणभपदक, मध्यभारत विन्दी सवमवत, इन्दौर
 'विश्वभारती’ विश्वविद्यालय की एक्जीक्यवू टि कांउवसल के सदस्य 1950-1953
 काशी नागरी प्रचाररणी सभा के अध्यक्ष 1952-1953 ई.
 काशी नागरी प्रचाररणी सभा के िस्तलेखों की खोज के संचालक, 1952 ई.
 'नाथ सम्प्रदाय’ पस्ु तक (उत्तर प्रदेश सरकार िारा परु स्कृ त)
 'विन्दी सावित्य का आवदकाल’ (वबिार राष्रभाषा पररषद के व्याख्यान)
 ‘सिज साधना’ (मध्य प्रदेश सरकार िारा आयोवजत व्याख्यानमाला)
 'सावित्य का ममभ’ (लखनऊ वि.वि. िारा आयोवजत व्याख्यान माला)
 'बाणभट्ट की आत्मकथा’ - नागरी प्रचाररणी सभा का सिोत्तम पदक/म0प्र0
वििेदी स्िणभ पदक,कई भारतीय भाषाओ ं में अनिु ाद सावित्य अकादमी की ओर
से
 'विन्दी सावित्य: उद्भि और विकास’ (उत्तर प्रदेश सरकार िारा, उत्तम पाि्य
पस्ु तक परु स्कार)
 विन्दी विश्व कोष में सम्पादक सवमवत के सदस्य तथा एडिाइजरी बोडभ के सदस्य।
 के न्द्रीय विन्दी सावित्य अकादमी िारा परु स्कार 1973 ई.
 शोध पवत्रकाओ ं का संपादन: विश्वभारती पवत्रका, नागरी प्रचाररणी पवत्रका, विन्दी
अनशु ीलन , विन्दस्ु तानी, बनारस विन्दू यवू निवसभटी जनभल
 रिीन्द्रनाथ िाकुर के अनेक ग्रंथों के अनिु ाद

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10.3.3 आचायि िजारी प्रसाद हर्द्वेदी: हनबंध साहित्य
िगीकरण की दृवि से वििेदी जी के वनबधं दो भागों में विभावजत वकए जा सकते िैं .
विचारात्मक और आलोचनात्मक। विचारात्मक वनबंधों की भी दो श्रेवणयां िैं। प्रथम श्रेणी के वनबंधों
में दाशभवनक तत्िों की प्रधानता रिती िै। वितीय श्रेणी के वनबंध सामावजक जीिन संबंधी िोते िैं।
आलोचनात्मक वनबधं भी दो श्रेवणयों में बाटं ें जा सकते िैं। प्रथम श्रेणी में ऐसे वनबधं िैं वजनमें
सावित्य के विवभन्न अगं ों का शास्त्रीय दृवि से वििेचन वकया गया िै और वितीय श्रेणी में िे वनबंध
आते िैं वजनमें सावित्यकारों की कृ वतयों पर आलोचनात्मक दृवि से विचार िुआ िै। वििेदीजी के इन
वनबंधों में विचारों की गिनता, वनरीक्षण की निीनता और विश्ले षण की सक्ष्ू मता रिती िै। वििेदी जी
की भाषा पररमावजभत खड़ी बोली िै। उन्िोंने भाि और विषय के अनसु ार भाषा का चयवनत प्रयोग
वकया िै। उनकी भाषा के दो रूप वदखलाई पड़ते िैं . (1) प्रााँजल व्याविाररक भाषा (2)
संस्कृतहनष्ठ शास्त्रीय भाषा। प्रथम रूप वििेदी जी के सामान्य वनबंधों में वमलता िै। इस प्रकार की
भाषा में उदभू और अग्रं ेज़ी के शब्दों का भी समािेश िुआ िै। वितीय शैली उपन्यासों और सैद्धांवतक
आलोचना के क्रम में पररलवक्षत िोती िै। वििेदी जी की विषय प्रवतपादन की शैली अध्यापकीय िै।
शास्त्रीय भाषा रचने के दौरान भी प्रिाि खवण्डत निीं िोता।वििेदी जी की रचनाओ ं में उनकी शैली
के वनम्नवलवखत रूप वमलते िैं .
1 . गवेषणात्मक शैली - वििेदी जी के विचारात्मक तथा आलोचनात्मक वनबंध इस शैली में
वलखे गए िैं। यि शैली वििेदी जी की प्रवतवनवध शैली िै। इस शैली की भाषा संस्कृ त प्रधान और
अवधक प्रांजल िै। िाक्य कुछ बड़े-बड़े िैं। इस शैली का एक उदािरण देवखए - "लोक और शास्त्र
का समन्िय, ग्रिस्थ और िैराग्य का समन्िय भवक्त और ज्ञान का समन्िय भाषा और सस्ं कृ वत का
समन्िय, वनगणभु और सगणु का समन्िय कथा और तत्ि ज्ञान का समन्िय, ब्राह्मण और चांडाल का
समन्िय, पांवडत्य और अपांवडत्य का समन्िय रामचररतमानस शरू ु से आवखर तक समन्िय का
काव्य िै।"
2 . वणिनात्मक शैली - वििेदी जी की िणभनात्मक शैली अत्यंत स्िाभाविक एिं रोचक िै।
इस शैली में विदं ी के शब्दों की प्रधानता िै साथ िी संस्कृ त के तत्सम और उदभू के प्रचवलत शब्दों का
भी प्रयोग िुआ िै। िाक्य अपेक्षाकृ त बड़े िैं।
3 . व्यंग्यात्मक शैली - वििेदी जी के वनबधं ों में व्यग्ं यात्मक शैली का बिुत िी सफल और
सदंु र प्रयोग िुआ िै। इस शैली में भाषा चलती िुई तथा उद,भू फारसी आवद के शब्दों का प्रयोग
वमलता िै।

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4. व्यास शैली - वििेदी जी ने जिााँ अपने विषय को विस्तारपिू क
भ समझाया िै ििां उन्िोंने
व्यास शैली को अपनाया िै। इस शैली के अतं गभत िे विषय का प्रवतपादन व्याख्यात्मक ढंग से करते
िैं और अतं में उसका सार दे देते िैं।
िमने पिले िी लक्ष्य कर वलया िै वक साविवत्यक समालोचना के वसिा और भी बिुत.से
ऐसे वनबधं िैं जो सावित्य के अन्दर माने जा सकते िै। वनबंध का प्रचलन भी कोई नया निीं िै। परु ाने
जमाने से िी वनबंधों का प्रचार िै। िमने यि भी देखा िै वक वकसी प्रवतपाद्य वसद्धान्त के विरूद्ध वजतने
प्रमाण िो सकते थे उनको एक-एक करके उिाना और उनकी समीक्षा करते िुए अपने वसद्धान्त पर
पिुचं ना यिी परु ाने वनबंधों का कायभ था। परन्तु नये यगु में वजन निीन ढंग के वनबंधों का प्रचलन
िुआ िै िे 'तकभ मल ू क' की अपेक्षा 'व्यवक्तगत' अवधक िैं। ये व्यवक्त की स्िाधीन वचन्ता की उपज िैं।
जो वनबधं वकसी तत्ििाद के विचार के वलए वलखे जाते िैं उनमें थोड़ा-बिुत प्राचीन ढगं अब भी
पाया जाता िै। साधारणतः वजन वनबंधों में वनस्संग विचार का प्राधान्य िोता िै िे साविवत्यक
आलोचना के प्रसंग में आलोवचत निीं िोते। स्ियं आचायभ वििेदी के शब्दों में वनबन्धों का वितरण
वनम्न प्रकार िै - वनबंधों की नाना कोवटयााँ िैं । उनको साधारणतः पांच श्रेवणयों में बााँट जा सकता िै.
1. िाताभलाप-मल ू क 2 व्याख्यान-मल ू क 3. अवनयंवत्रत गप्प-मल ू क 4 स्िगतवचन्तन-मल ू क 5.
कलि-मल ू क। इस प्रकार का विभाजन बिुत अच्छा निीं िै। इसमें साविवत्यक सक्ष्ू मता निीं िै।
आपात दृवि िी प्रधान िै।
(1) िाताभलाप मल
ू क वनबंध का लेखक मन-िी-मन एक ऐसे िातािरण कल्पना करता िै
वजसमें कुछ सच्चे वजज्ञासु लोग वकसी तत्ि का वनणभय करने बैिे िों और अपने-अपने विचार सत्य
वनणभय की आशा से सिज भाि से प्रकट करते जाते िों (2) परन्तु व्याख्यान मल ू क वनबधं लेखक
व्याख्यान देता रिता िै। िि अपनी यवु क्तयों और तकों को वबना इस बात की परिा वकए उपवस्थत
करता जाता िै वक कोई उसे टोक देगा। (3) अवनयंवत्रत गप्प मारते समय गप्प करने िाला िल्के मन
से बातें करता िै िि अपने विषय के उन सरस और िास्योद्रेचक पिलओ ु ं पर बराबर र्मू -वफर कर
आता रिता िै,जो उसके श्रोता के वचत्त को प्रफुल्ल कर देगा। (4) स्िगत वचंतन मलू क लेखक अपने
आप से िी बात करता रिता िै। उसके मन में जो यवु क्तयााँ उिती रिती िैं उन्िें तन्मय िोकर िि
विचारता जाता िै। पर-पक्ष की आशक ं ा उसे निीं रिती। (5) परन्तु कलि-मल ू क वनबंध का लेखक
अपने सामने मानो एक प्रवतपक्षी को रखकर उससे उत्तेजना पणू भ बिस करता रिता िै प्रवतपक्षी की
यवु क्तयों का वनरास करना उसका उतना लक्ष्य निीं िोता वजतना अपने मत को उत्तेवजत िोकर व्यक्त
करना। इस अवन्तम श्रेणी के वनबंधों में कभी-कभी अच्छी साविवत्यक रचना वमल जाती िै पर
साधारणतः ये सावित्य की श्रेणी के बािर जा पड़ते िैं।
वनबधं ों के व्यवक्तगत िोने का अथभ यि निीं िै वक उनमें विचार-श्रृंखला न िो। ऐसा िोने से
तो िे प्रलाप किे जायॅगें । संसार में िम जो कुछ देखते िैं िि द्रिा को विवभन्नता के कारण नाना भाि

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से प्रकट िोते िै। अपनी रूवच और सस्ं कार के कारण वकसी द्रिा का ध्यान िस्तु के एक पिलू पर
जाता िै तो दसू रे द्रिा का दसू रे पिलू पर। वफर िस्तओ
ु ं के जो पारस्पररक संबंध िै िे इतने तरि के िैं
वक इन संबंधों में से सब सब की दृवि में निीं पड़ते। इसीवलए प्रत्येक व्यवक्त यवद ईमानदारी से अपने
विचारों को व्यक्त कर ले तो िमें निीन का पररचय मल ू क आनंद वमल सकता िै और साथ िी उस
उद्देश्य की वसवद्ध भी िो सकती िै जो सावित्य का चरम प्रवतपाद्य िै। द्रिा के भेद से दृश्य का अवभनि
रूप िमें दसू रे के हृदय में प्रिेश करने की क्षमता देता िै और िम के िल अपने व्यवक्तगत रूवच-
अरूवच के संकीणभ दायरे से वनकल कर दसू रों की अनभु वू तयों के प्रवत संिदे नशील िोते िैं । िस्ततु ः
जो वनबंध इस उद्देश्य की ओर उन्मख ु करे ििी साविवत्यक वनबंध किे जाने का अवधकार िै। जो लेख
िमारे हृदय की अनुमवतयों को व्यापक और सिं दे नाओ ं की तीक्ष्ण निीं बनाता िि अपने उद्देश्य से
च्यतु िो जाता िै। इस व्यवक्तत्ि अनभु वू त के कारण िी साविवत्यक वनबंध-लेखक वनःसंग तत्िवचन्तक
से वभन्न िो जाता िै। " तत्िवचन्तक या िैज्ञावनक से वनबधं -लेखक की वभन्नता इस बात में भी िै वक
वनबंध-लेखक वजधर चला जाता िै उधर संपणू भ मानवसक सत्ता अथाभत बवु द्ध और भािात्मक हृदय
दोनों वलए िुए। वकसी बात का अथभ-सम्बन्ध सत्रू पकड़े िुए लेखक करूण स्थलों की ओर झक ु ता
और गभं ीर िेदना का अनभु ि करता चलता िै जो विनोदशील िैं उनकी दृवि उसी बात को लेकर
उसके ऐसे पक्षों की ओर दौड़ती िै वजन्िें सामने पाकर िाँसे वबना निीं रि सकता। पर सब अिस्थाओ ं
में कोई एक बात अिश्य चाविए। इस अथभगत विशेषता के आधार पर िी भाषा और अवभव्यंजना
प्रणाली की विशेषता,शैली की विशेषता बनकर खड़ी िो सकती िै। जिााँ नाना अथभ-संबंधों का
िैवच्य निीं, जिााँ गवतशील अथभ की परंपरा निीं, ििााँ एक िी स्थान पर खड़ी-खड़ी, तरि-तरि की
मद्रु ा और उछलकूद वदखाती िुई भाषा के िल तमाशा करती िुई जान पड़ेगी " - रामचंद शुक्ल।
चाँवू क व्यवक्तगत रूवच और सस्ं कार अनन्त प्रकार के िैं और वभन्न िस्तु के अथभ-सबं धं भी
जो इन रूवचयों और संस्कारों को प्रभावित करते िै अनन्त प्रकार के िैं इसवलए व्यवक्तगत
अनभु वू तमल
ू क वनबंधों की के िल मोटी-मोटी श्रेवणयााँ िी बताई जा सकती िै। इस क्षेत्र में अनक ु रण
निीं चल सकता, क्योंवक कोई भी दो व्यवक्त िू-ब-िू एक िी रूवच और एक िी सस्ं कार के निीं िोते।
यिी कारण िै वक वभन्न-वभन्न भाषाओ ं में ऐसे-ऐसे वनबंध-लेखक िैं वजनकी समानता दसू री भाषाओ ं
में खोजी निीं जा सकती। ये आधवु नक यगु के अत्यन्त सजीि सावित्यांग िैं। उनमें वनत्य निीन तत्िों
का समािेश और पररिार िोता जा रिा िै। वनबंध-लेखक भी िस्ततु ः एक समालोचक िी िै। उसकी
समालोचना पस्ु तकों की निीं िोती बवल्क उन िस्तओ ु ं की िोती िै जो पस्ु तकों का विषय िै।

10.4 'पं हितों की पं चायत’: पहरचय


आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी का वलखा यि वनबंध उनकी पस्ु तक ’कल्पलता’ में संकवलत
िै। ’कल्पलता’ आचायभ वििेदी का वलखा िुआ वनबंध संग्रि िै। डॉ. राजमल बोरा के अनसु ार इस
पस्ु तक का प्रकाशन सन् 1951 में िुआ था। इस आधार पर किा जा सकता िै वक सभं ित: यि

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आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी का दसू रा वनबधं सग्रं ि था. इस वनबधं सग्रं ि में ‘पवं डतों की पच ं ायत‘
‘के तु दशभन' ‘नाखनू क्यों बढ़ते िैं' ‘िाकुर जी की बटोर' 'मिात्मा का मिाप्रयाण ' आवद अनेक
मित्िपूणभ वनबंध संकवलत िैं। किना न िोगा वक जब इस पस्ु तक का प्रकाशन िुआ तब आचायभ
वििेदी काशी विन्दू विश्वविद्यालय में विन्दी विभाग के सिाभवधक मित्िपणू भ पद पर कायभरत थे, परन्तु
1951 में प्रकावशत ’कल्पलता’ में संकवलत वनबंधों का लेखन 1951 से पिू भ के िषों में िुआ िोगा।
आपको स्मरण िी िोगा वक काशी विश्वविद्यालय में आने से पिू भ 1930 से 1950 तक आचायभ
वििेदी शांवतवनके तन के विन्दी भिन में कायभरत थे . ििााँ रिते िुए आचायभ वििेदी ने गरुु देि रविन्द्र

10.5 ' पं हितों की पं चायत ': पाठ


यि संयोग की िी बात किी जाएगी वक इस बार के एकादशीिाले झगड़े की सभा में मझु े
भी उपवस्थत रिना पड़ा। मैं वबलकुल िी निीं जानता था वक काशी के पंचांग-वनमाभताओ ं ने गााँि में
रिने िाले विश्वास-परायण पंवडतों को आलोवडत कर वदया िै। िैशाख शक्ु ल पक्ष की एकादशी
वकसी ने बृिस्पवतिार के वदन बता दी िै और वकसी ने शक्र ु िार के वदन। अचानक जब एक वदन
पंवडतों की पंचायत में मझु े बल
ु ा भेजा गया तो एकदम शस्त्रिीन योद्धा की भााँवत मझु े संकोच के
सवित िी जाना पड़ा। सभा में उपवस्थत पवं डतों में से अवधकांश मझु े जानते थे, वकसी-वकसी के मत से
मैं र्ोर नावस्तक भी था, वफर भी न जाने क्यों इन्िोंने मझु े बुलाने की बात का समथभन वकया। शायद
इसवलए वक मेरा कुछ सम्बन्ध उक्त शास्त्रस से भी था। जो िो, मैंने इसे पंवडत-मण्डली की उदारता िी
समझी और शरू ु से आवखर तक अपना कोई स्ितत्रं मत व्यक्त न करने का सक ं ल्प-सा कर वलया।
मैं जब सभा स्थल पर पिुचाँ ा तो विचार आरंभ िो चक ु ा था। इसीवलए यि जानने का मौका
िी निीं वमला वक सभा का कोई सभापवत या सरपंच िै या निीं। शायद इसका वनिाभचन िी निीं िुआ
था। मझु े देखते िी एक पंवडत जी ने उत्तेवजत भाि से किा, वक देवखए ‘विश्व-पंचांग’ िालों ने क्या
अनथभ वकया िै। इन लोगों का गवणत तीन लोकों से न्यारा िोता िै। भाई, सब जगि जबरदस्ती चल
सकती िै, लेवकन शास्त्र पर जबरदस्ती निीं चलेगी।' मैंने मन-िी-मन इसका अथभ समझ वलया। यि
मझु े यद्ध
ु क्षेत्र में आ डटने की ललकार थी। मैं िाँसकर रि गया।
शास्त्र पर जबरदस्ती! मेरी भािक
ु ता को जबरदस्त धक्का लगा। मेरा विद्रोिी पावण्डत्य
वतलवमलाकर रि गया। क्षण-भर में मेरे सामने सपं णू भ ज्योवतवषक इवतिास का रूप खेल गया। एक यगु
था, जब िमारे देश में लगध मवु न का अत्यंत सक्ष्ू म गवणत प्रचवलत था लेवकन पंवडतों का दल संतिु
निीं िुआ, उसने वकसी भी प्राचीन शास्त्र को प्रमाण न मानकर अपना अनसु धं ान जारी रखा। गणना
सक्ष्ू म से सक्ष्ू मतर िोती गई। अचानक भारतिषभ के उत्तरी पवश्चमी वकनारे पर यिनिाविनी का भीषण
रण-तयू भ सनु ाई पड़ा। देश के विद्यापीि-गांधार से लेकर साके त तक एकावधक बार विध्िस्त िुए।
भारतिषभ कभी जीतता रिा, कभी िारता रिा। कभी सारा भारतीय साम्राज्य समृवद्धशाली नगरों से भर

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गया, कभी श्मशान पररवणत जनपदों के िािाकर से झनझना उिा। पर अनसु धं ान जारी रिा। भारतीय
और ग्रीक पंवडतों के ज्ञान का संर्षभ भी चलता रिा, ििात ईसा की चौथी शताब्दी में भारतीय
ज्योवतष के आकाश में कई ज्िलंत ज्योवतष्क वपण्ड एक िी साथ चमक उिे । भारतीय गणना बिुत
पररमाण में यािनी विद्या से समृद्ध िुई। यािनी विद्या ितदपभ िोकर भारतीय गौरि को िरण करने
लगी। उस वदन वन:संकोच भारतीय पंवडतों ने र्ोषणा की ' यिन मलेच्छ िैं सिी, पर इस (ज्योषवतष)
शास्त्रक के अच्छे जानकार िैं। ‘िे भी ऋवषित पज्ू य िैं, ब्राह्मण ज्योवतषी की तो बात िी क्या िै.’
(िृित् संविता)।
मैंने कल्पना के नेत्रों से देखा - मिागणक आचायभ बरािवमविर न्यायासन पर बैिकर तत्काल
प्रचवलत पााँच वसद्धान्तों के मतों का विचार कर रिे िैं। इनमें दो विशद्ध ु भारतीय मत के प्राचीनतर
वसद्धान्त िैं, दो में यािनी विद्या का असर िै , पााँचिा (सयू भ वसद्धान्त) स्ितत्रं भारतीय वचतं ा का फल
िै, बरािवमविर ने पिले दोनों यािनी प्रभािापन्न वसद्धान्तों की परीक्षा की। पौवलश का वसद्धान्तत
अच्छा मालमू िुआ, रोमक भी उसके वनकट िी रिा। आचायभ ने छोटी-मोटी भल ू ों का ख्याल न करते
िुए साफ-साफ कि वदया-अच्छे िैं। वफर भी सयू भ वसद्धान्त् की जााँच िुई। आचायभ का चेिरा वखल
उिा। यि और भी अच्छा था। और अन्त में ब्रह्म और शाकल्य के वसद्धान्तों की बारी आई। आचायभ
के माथे पर जरा-सा वसकुड़न का भाि वदखाई वदया, उन्िोंने दोनों को एक तरफ िे लते िुए किा-उिु!ाँ
यि दरू -विभ्रि- िैं।
पौहलशकृतोऽस्फुटोऽसौ तस्यासन्नस्तु रोमक: प्रोि :।
हस्पष्टतर: साहवत्र: पररशेषौ दूर-हवभ्रष्टौ ।। (पचं हसद्धांहतका)
उस वदन वकसी की विम्मत निीं थी वक आचायभ को शास्त्र पर जबरदस्ती करने िाला किे।
क्यों वक िि स्ितंत्र वचंता का यगु था, भारतीय-समाज इतना रूवढवप्रय और परापेक्षी निीं था। िि ले
भी सकता था और दे भी सकता था। मैंने देखा ब्रह्मगप्तु के वशष्य भास्कराचायभ वनभीक भाि से कि
रिे िैं, इस गवणत स्कंध में यवु क्त िी एक मात्र प्रमाण िै, कोई भी आगम प्रमाण निीं। यि बात सेालि
आने सिी थी और भारतीय पंवडत-मडं ली को सिी बात स्िीकार करने का सािस था। पर आज क्या
िालत िै।
मैं वजस समय यि वचंता कर रिा था उसी समय पंवडत लोग वनणभय-वसंधु और धमभ-वसंधु के
पन्ने उलट रिे थे। नाना प्रवसद्ध और अप्रवसद्ध ऋवषयों, परु ाणों और संविताओ ं के िचन पढ़े जा रिे थे
और उनकी संगवतयााँ लगाई जा रिी थीं। मैं उविग्न–सा िोकर सोच रिा था वक िे वनबंध ग्रंथ क्यों
बनाए गए ? मझु े ऐसा लगा वक पवश्चम में एक आत्म विश्वासी धमभ का जन्म िुआ िै जो वकसी से
समझौता निीं जानता, वकसी को वमत्र निीं मानता। उसके दाविने िाथ के किोर कृ पाण के आक्रमण
से बड़ी-बड़ी सभ्यताओ ं के लौि प्राचीर चरू चार िो जाते िैं, और बााँए िाथ के अमृत आश्वासन से

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परावजत जन-समिू एक नए जीिन और नए िैभि के साथ जी उिता िै। जो एक बार उसके अधीन
िो जाता िै ििी उसके रंग में आपाद-मस्त क रंग जाता िै। िि इसलाम िै।
इसलाम-विजय-स्फीत िक्ष िोकर भारतीय संस्कृ वत को चनु ौती देता िै, उसके बारंबार
आक्रमण से उत्तरी भारत संत्रस्त िो उिता िै और कुछ काल के वलए समचू ा विन्दक ु स्तान त्रावि-त्रावि
की ममभ-भेदी आिाज से गाँजू उिता िै। धीरे -धीरे उत्तर के विद्यापीि दवक्षण और पिू भ की ओर
वखसकते जाते िैं। मिाराष्र निीन आक्रमण से मोचाभ लेने के वलए कवटबद्ध िोता िै और भारतीय
विश्वास के अनसु ार सबसे पिले अपने धमभ की रक्षा को तैयार िोता िै। भारतीय पंवडतों ने कभी इतनी
मस्ु तैदी के साथ स्तपू ीभतू शास्त्र-िाक्यों की छानबीन निीं की थी, शायद भारतीय संस्कृ वत को कभी
ऐसे विकट ललकार के सनु ने की संभािना निीं िुई थी। क्षणभर के वलए ऐसा जान पड़ा वक भारतीय
मनीषा ने स्ितत्रं वचतं ा को एकदम त्याग वदया िै, के िल टीका, के िल वनबधं , के िल सग्रं ि ग्रथं !
शास्त्र के वकसी अगं पर स्ितंत्र ग्रंथ निीं वलखे जा रिे िैं। सिभत्र टीका-पर-टीका, वतलक-पर-वतलक,
तस्यावप वतलक. एक कभी समाप्त न िोनेिाली टीकाओ ं की परम्परा।
देखते-देखते टीका-यगु का प्रभाि देश के इस छोर से उस छोर तक व्याप्त िो जाता िै।
मिाराष्र, काशी, वमवथला और नििीप टीकाओ ं और वनबधं ों के कें द्र िो उिते िैं। शास्त्र का कोई
िचन छोड़ा निीं जाता िै, वकसी भी ऋवष की उपेक्षा निीं की जा रिी िै पर भयंकर सतकभ ता के साथ
प्रचवलत लोक वनयमों का िी समथभन वकया जाता िै। इस वनयम के विरोध में जो ऋवष-िचन
उपलब्ध िोते िैं उन्िें ‘नन‘ु के साथ पिू भ पक्ष में कर वदया जाता िै और उत्तर पक्ष सदा स्थानीय
आचायों का समथभन करता िै। पंवडतों की भाषा में इसी को संगवत लगाना किा जाता िै। संगवत
लगाने का यि रूप मझु े ितदपभ भारतीय धमभ की सबसे बड़ी कमजोरी जान पड़ी। मैं िीक समझ निीं
सका वक शास्त्रीय िचनों के इन विशाल पिभतों को खोदकर ये चवु िया क्यों वनकाली जा रिी िै।
यि जो एकादशी व्रत का वनणभय मेरे सामने िो रिा िै, वजसमें बीवसयों आचायों के सैकड़ों
श्लोक उद्धतृ वकए जा रिे िैं, अपने आप में ऐसा क्या मित्ि रखता िै वजसके वलए एक वदन सैकड़ों
पवं डतों ने पररश्रमपिू क
भ सैकड़ों वनबधं रचे थे और आज आसेतु विमाचल समस्त भारतिषभ के पवं डत
उनकी सिायता से व्रत का वनणभय कर रिे िैं। क्या श्रद्धापिू क
भ वकसी एक वदन उपिास कर लेना पयाभप्त
निीं था! यवद एकादशी वकसी वदन 55 दण्ड से ऊपर िो गई, या वकसी वदन उदय काल में न आ
सकी, या वकसी वदन उदय काल में आ गई तो क्या बन या वबगड़ गया ? वकसी भी एक वदन व्रत कर
लेना पयाभप्त निीं िै ? मझु े ‘नन’ु ‘तथा च’ और ‘उक्त च’ की धआु धाँ ार िषाभ से मध्य यगु का आकाश
इतना आविल जान पड़ा वक बीसिीं शताब्दी का ज्ञान लोक अनेक चेिाओ ं के बाद भी वनबधं कारों
की असली समस्या तक निीं पिुचाँ सका। मैंने वफर एक बार सोचा, शास्त्रीय िचनों के इन विशाल
पिभतों को खोदकर यि चवु िया क्यों वनकाली जा रिी िै।

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लेवकन आज चािे कुछ भी क्यों न जान पड़े, टीका-यगु का प्रारंभ वनतातं अथभ-िीन निीं
था। मझु े साफ वदखाई वदया, भारतिषभ की पदध्िस्त संस्कृ त िेमावद्र के सामने खड़ी िै, चेिरा उसका
उदास पड़ गया िै, अश्रक्ष ु ब्ु द्ध -नयन कोटर शायी-से वदख रिे िैं, िदन कमल मरु झा गया िै। िेमावद्र
का मख ु -मडं ल गभं ीर िै, भदू श े वकंवचत कुवचंत िो गए िैं, विशाल ललाट पर वचंता की रे खाएाँ उभर
आई िैं, अधरोष्ठ दााँतों के नीचे आ गया िै - िे वकसी सदु रू की िस्तु पर दृवि लगाए िैं। यि दृवि कभी
अथभ-िीन निीं िो सकती, िि वकसी वनवश्चत सत्य पर वनपणु भाि से आबद्ध िै। शायद यि भारतिषभ
के विवच्छन्न रस्म और रिाजों की बात िोगी, शायद िि स्तपू ीभतू शास्त्रों के मत-भेद की वचंता
िोगी, शायद िि संपणू भ आयभ-सभ्यता को एक किोर वनयम-सत्रू में बााँधने की चेिा िोगी, शायद िि
निागत प्रवतििं ी धमभ की अवचन्तनीय एकता के जिाब की बात िोगी-पर िि थी बिुत दरू की बात।
मझु े उसमें कोई संदिे निीं रिा। वजस पंवडत के वलए समग्र शास्त्र िस्तामलकित् थे, वजसकी आाँखों
के सामने भारतीय सस्ं कृ वत वनत्य कुचली जा रिी थी, उस मिामानि का कोई प्रयत्न वनरथभक निीं िो
सकता।
अगर सारा भारतिषभ एक िी वदन उपिास करे , एक िी वदन पारायण करे , एक िी मिु ूतभ में
उिे -बैिे, तो वनवश्चय िी िि एक सत्रू में ग्रंवथत िो जाए। िेमावद्र और उनके अनयु ावययों का यिी स्िप्न
था, िि सफल भी िुआ। आज की यि पच ं ायत उसी सफलता का सबतू िै। इस समय यि विचार
निीं िो रिा िै वक विश्व पचं ाग का मत मान्य िै या और वकसी का, बवल्क इस बात का वनणभय िोने
जा रिा िै वक िि कौन-सा एक और एक-वदन िोना चाविए जब सारे भारत के गृिस्थ एक िी वचंता
के साथ उत्तेवजत िोंगे। आज की सभा का यिी मित्ि िै।
िेमावद्र का स्िप्न सफल िुआ; पर उद्देश्य निीं वसद्ध िो सका। भारतिषभ एक िी वतवथ को
व्रत और उपिास करने लगा, एक मिु ूतभ में उिने-बैिने के वलए बद्धपररकर िुआ; पर एक निीं िो
सका। उसकी कमजोरी के िल रस्मों और रिाजों तक िी सीवमत निीं थी, यि तो उसकी बािरी
कमजोरी थी। जावतयों और उपजावतयों से उसका भीतरी अंग जजभर िो गया था, िजारों संप्रदायों में
विभक्त िोकर उसकी आध्यावत्मक साधना शतवच्छद्र कलश की भााँवत संग्रि िीन िो गई थी-िि
ितज्योवत उलका-वपडं की भााँवत शन्ू य में वछतराने की तैयारी कर रिा था।
लेवकन डूबते-डूबते भी साँभल गया। तकदीर ने तंत पर उसकी खबर ली, ज्योंिी नाि
डगमगाई, त्योंिी वकनारा वदख गया। और भी सदु रू दवक्षण से भवक्त की वनविड़ र्नर्टा वदखाई पड़ी,
देखते-देखते यि मेर्खडं सारे भारतीय आसमान में फै ल गया और आि सौ िषों तक इसकी जो
धारा सार िषाभ िुई, उसमें भारतीय साधना का अनेक कूड़ा बि गया, उसके अनेक बीज अक ं ु ररत िो
उिे । भारतिषभ नए उत्साि और नए िैभि से शवक्तशाली िो उिा। उसने उदात्त कंि से दृढ़ता के साथ
र्ोवषत वकया-प्रेम पमु थों मिान-प्रेम िी परम परू
ु षाथभ िै। विवध और वनषेध, शास्त्र और परु ाण, वनयम

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
और आचार, कमभ और साधना, इन सबके ऊपर िै यि अमोर् मविमाशाली प्रेम। प्रेमी ,जावत और
िणभ से ऊपर िै, आश्रम और संप्रदाय से अतीत िै।
वजन वदनों की बात िो रिी िै, उन वदनों भारतिषभ का प्रत्येक कोना तलिार की मार से
झनझना रिा था, बड़े-बड़े मवं दर तोड़े जा रिे थे, मवू तभयााँ विध्िस्त की जा रिी थीं, राज्य उखाड़े जा रिे
थे। विवच्छन्न विदं -ू शवक्त जीिन के वदन वगन रिी थी। और साथ िी दो वभन्न वदशाओ ं से उसे सिं त
करने का प्रयत्न चल रिा था। विच्छे द का संर्षभ निीं चला था। तब तक दृश्य और अदृश्य एक िी
साथ कै से िो सकती िै। पंवडत लोग इस बात को इस प्रकार समझाते िैं- पिली तरि की गणना िि
जो िमारे प्राचीन आचायों ने बताई िै . यि ऋवष प्रोक्त गणना िै इस पर से यवद ग्रि-गवणत करो तो
कुछ स्थल ू आता िै। अथाभत् उस स्थान पर से ग्रि कुछ इधर-उधर िटा िुआ नजर आता िै। पर
आधवु नक िैज्ञावनक गणना से िि िीक स्थान पर वदखता िै। यि तो किा निीं जा सकता वक ऋवषयों
की गणना गलत िै, असल बात यि िै वक िि अदृश्य गणना िै िि आसमान में ग्रिों को यथास्थान
वदखाने की गणना निीं िै; बवल्क एकादशी आवद व्रतों के वनणभय करने की गणना िै . ये व्रत भी
अदृश्य िैं , इनके फल भी अदृश्य िैं, वफर इनकी गणना भी क्यों अदृश्य न िो ? दृश्य -गणना
आधवु नक विज्ञान-सम्मत िै। इसका काम ग्रिण, यवू त आवद दृश्य–पदाथों को वदखाना िै। कुछ पंवडत
पिली गणना को िी मानकर पत्रा बनाते िैं, कुछ दसू री के विसाब से, कुछ दोनों को वमलाकर। इन
दोनों को वमलाने से वजस ‘दृश्यादृश्य’ नामक विसंष्ठुल गणना का अितार िुआ िै उसमें कई पक्ष िैं,
कई दल िैं। कोई सामन, कोई वनरयण, कोई रै ित, कोई चैत्र, अनेक मत खड़े िुए िैं। झगड़ा बिुत-सी
छोटी-मोटी बातों तक पिुचाँ ा िुआ िै। उदािरण के वलए मान वलया जाए वक वकसी प्राचीन पवं डत ने
किा वक ‘क’ से ‘ख’ स्थान का देशान्तर-काल एक र्टं ा िै और आज के इस िैज्ञावनक यगु में
प्रत्यक्ष वसद्ध िो गया िै वक एक र्टं ा निीं पौन र्टं ा िै। अब कौन-सा मत मान वलया जाए ? कोई
एकादशी व्रत के वलए प्राचीनाचायभ की बात पर वचपटा िुआ िै, दसू रा इतनी-सी बात में उदार िोना
पसंद करता िै। इन अनेक झगड़ों के कारण एकादशी व्रत का वनणभय करना बड़ा मवु श्कल िो गया िै।
प्रत्येक पत्रा अलग राय देता िै, प्रत्येद पवं डत अलग-अलग मत का समथभन करता िै। यि पवश्चमी
विचारों के संर्षभ का पररणाम िै। आज की इस छोटी-सी सभा की सृवि िुई। विदं ू सभ्यता नई चेतना
के साथ जाग उिी, आज जो आलोचना चल रिी िै, िि उसी नई चेतना का भग्नािशेष िै। उसमें
कोई स्फूवतभ निीं रि गई िै। नीरस और प्रलम्बमान तकभ -जाल से उकताकर मैं उविग्न िो रिा था। जी
में आया, यिााँ से उि चलाँू और इस विचार के आते िी मेरी कल्पना ििााँ से उिाकर मझु े अन्यत्र ले
चली।
मझु े ऐसा जान पड़ा, मैं सारे जगत के छोटे-मोटे व्यापार को देख सकता िू।ाँ मेरी दृवि समद्रु
पार करके अद्भुत कमभमय लोक में पिुचाँ ी। यिााँ के मनष्ु यों में वकसी को फुरसत निीं जान पड़ी, सबको
समय के लाले पड़े थे। सारे िीप में एक भी ऐसा गााँि निीं वमला, जिााँ र्टं ों तक एकादशी व्रत के
वनणभय की पचं ायत बैि सके । सभी व्यस्त, सभी चचं ल, सभी तत्पर! मैं आश्चयभ के साथ इनकी अपिू भ

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कमभ-शवक्त देखता रि गया। यिााँ से लाल, काली, नीली आवद अनेक तरंगें बड़े िेग से वनकल रिी थीं
और सारे जगत् के िायमु डं ल को मिु ूतभ भर में तरंवगत कर देती थीं। भारतिषभ के शांत िायुमडं ल पर
भी ये बार-बार आर्ात करती िुई नजर आई। िि भी कुछ विक्षब्ु धतर िो उिा। ये विचारों की लिरें
थीं।
मैं सोचने लगा, यरू ोप से आए िुए नए विचार वकस प्रकार वनत्य प्रवत िमारे समाज को
अज्ञात भाि से एक विशेष वदशा की ओर खींचे वलए जा रिे िैं। पस्ु तकों, समाचार-पत्रों, चल-वचत्रों
और रे वडयों आवद के प्रचार से िमारे समाज के विचारों में भयंकर क्रांवतकारी पररितभन िो रिें िैं
भयंकर इसवलए की अभी तक यि समाज क्रांवतकारी विचार के मिाभार को साँभालने के योग्य निीं
िुआ िै-उसके पैर लड़खड़ा रिे िैं। उसके कंधे दबु भल िैं, उसकी छाती धड़क रिी िै। िम सन्त्रस्त की
तरि इन विचारों को देखते िैं; पर जब अज्ञात भाि से ये िी िमारे अदं र र्र कर जाते िैं तो या तो िम
जान िी निीं सकते या यवद जान सकते िैं तो र्बरा उिते िैं। आज की सभा भी इसी र्बरािट का
एक रूप िै।
वजस वदन तक भारतीय ज्योवतष-शास्त्र के साथ इसका कोई भी पंवडत यि बात िीक-िीक
निीं समझ रिा िै। एकादशी व्रत का यि झगड़ा शारदा एक्ट से कम खतरनाक निीं िै, बाबू
भगिानदास के प्रस्तावित क़ाननू के कम उिेगजनक निीं िै. अगर ये काननू भारतीय संस्कृ वत को
विला सकते िैं तो यि झगड़ा और भी अवधक विला देगा।
लेवकन भारतीय संस्कृ वत क्या सचमचु ऐसी कमजोर नींि पर खड़ी िै, कोई एक एक्ट, कोई
एक काननू और कोई एक विचार-विवनमय उसे विला दे ? मैं समझता िू,ाँ निीं। मेरे सामने छ: िजार
िषों की और सिस्त्रों योजन विस्तृत देश की विशाल संस्कृ वत खड़ी िै, उसके इस िृद्ध शरीर में जरा
भी बढ़ु ापा निीं िै, िि वकसी वचरनिीन प्रेरणा से पररचावलत िै। उसके मवस्तष्क में सिस्त्रों िषभ का
अनभु ि िै; लेवकन थकान निीं िै, उसकी आाँखों में अनावद तेज झलक रिा िै, पर आलस्य निीं िै!
िि अपिू भ शवक्त और अनंत धैयभ को अपने िक्ष-स्थल में ििन करती आ रिी िै। उसने अपने विराट
पररितभनशील दीर्भ जीिन में क्या -क्या निीं देखा िै ? कुछ और देख लेने में उसे कुछ भी वझझक
निीं, कुछ भी विचक निीं िै। जो लोग इस तेजोमय मवू तभ को निीं देख सकते ििी र्बराते िैं, मैं निीं
र्बरा सकता।
शास्त्र चचाभ अब भी चल रिी थी। मैं सोचने लगा क्या यि जरूरी निीं िै वक सभी
पचं ागं िाले एकमत िोकर एक िी तरि का वनणभय करें । शायद निीं। क्यों वक िमारा देश एक विवचत्र
पररवस्थवत में से गजु र रिा िै। िि परु ाना रास्ता छोड़ने को बाध्य िै, वकन्तु नया रास्ता अभी वमला
निीं। िि कुछ परु ाने के मोि में और कुछ नए के नशे में भल ू रिा िै। चलने दो, इन वभन्न-वभन्न मतों
को, इन वभन्न–वभन्न पक्षों को, भारतीय जनमत स्ियमेि इनमें से अच्छे को चनु लेगा। इस दृवि से
इस सभा का बड़ा मित्त्ि िै. यि भटके िुए लोगों का राि खोजने का प्रयास िै। यि अच्छा िै।

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10.6 पं हितों की पं चायत : सार
गरू
ु देि रिीन्द्रनाथ िाकुर एिं आचायभ वक्षवतमोिन सेन के सावनध्य के अवतररक्त मिान
वचत्रकार नदं लाल िस,ु सी.एफ. एण्राइुज़, विनोदवबिारी मख ु जी, प्रो.विटं रवनत्स, पं विधश
ु ख
े र शास्त्री
तथा िेणी माधि िाडुिा आवद मिापंवडतों का समागम प्राप्त वकया इसी के चलते आचायभ वििेदी के
सृजनात्मक शास्त्रीय पावण्डत्य ने बिुसास्ं कृ वतक स्तर की रचना-दृवि प्राप्त की। आचायभ वििेदी की
यिी दृवि उनके वनबंधों खासकर लवलत वनबंधों की के न्द्रीय रे खा के रूप में कायभशील िै। लवलत
वनबंधों के रूप में आचायभ वििेदी में अपने समाज, संस्कृ वत, सभ्यता, कला और जीिन के संबंध में
कालातीत सावित्य की उद्भािना की िै। ‘पवं डतों की पच ं ायत’ भी इसी श्रेणी का लवलत वनबधं िै।
इस वनबंध का उद्देश्य एक तरफ जिााँ सिस्रों िषों से अवजभत सक्ष्ू मतम ज्योवतष विद्या का विकासमान
पक्ष उजागर करना िै ििीं दसू री तरफ शास्त्र के समानांतर चलने िाली सृजनबद्ध, सिज लोक-दृवि
का रे खाकंन एिं मित्त्ि प्रवतपादन भी िै।
आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी का वलखा यि वनबधं अपनी सृजनात्मकता, सिजता,
पावण्डत्य और सांस्कृ वतक-सम्पन्न दृवि के कारण अत्यन्त मित्िपणू भ िै। िालावक ‘पंवडतों की
पच
ं ायत’ नामक यि वनबधं अपनी विषय िस्त,ु सिं ाद-शैली, भाषा-प्रवक्रया, उद्देश्य एिं सांस्कृ वतक
अिधारणा के आधार पर अपनी तरि का अके ला वनबंध निीं िै। आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी के
अन्य कई वनबंध अपनी आतं ररक रचनाप्रवक्रया और बाह्य रूपाकार के आधार पर समानशील िैं।
इस बात को पष्ु ट करने के वलए ‘िाकुर जी की बटोर’, ‘अशोक के फूल’, ‘भारतीय मेले’, ‘र्नपवत
से र्नश्याम तक’ आवद अन्य कई वनबंधों का उदािरण वदया जा सकता िै। सम्पणू भ भारतीय
सांस्कृ वतक इवतिास को मिाकाल की अिधारणा के साथ जोड़कर मानि सत्य की सिभप्रमख ु ता एिं
मानिीय संिदे नों की व्याख्या करना आचायभ वििेदी के सावित्य का के न्द्रीय वबन्दु िै।
‘पहं ितों की पंचायत’ वनबंध का स्िरूप भारतीय सांस्कृ वतक इवतिास के भीतर से प्रसररत मानि-
सत्य की वजजीविषा पर आधाररत िै।
अपने गााँि की एक छोटी सी र्टना समस्या के बिाने प.ं वििेदी सम्पणू भ भारतीय इवतिास में
व्याप्त ज्येावतष विद्या के विकासमान एिं शास्त्रीय स्िरूप की समीक्षा के भीरत िे शास्त्र और लोक
के िन्ि को के न्द्रीय वबन्दु के रूप में स्थावपत करते िुए शास्त्रीय वचतं ा के पररप्रेक्ष्य में विकासशील
लौवकक ज्ञान को प्रमख ु ता देते िैं। संस्कृ त के पवण्डत िोते िुए भी आचायभ वििेदी लोक ज्ञान की
मित्ता को जानते िैं और पवं डतों की जड़ पचं ायत में बैिे-बैिे सम्पणू भ मानिीय विकास-चेतना के
वलए सत्रू -रत्नों का वनमाभण करने का प्रयत्न करने लगते िैं। आचायभ वििेदी प्रस्ततु वनबंध में भी लोक
वचंता से पररचावलत वदखाई देते िैं। िे अपने अन्य वनबंधों की िी तरि इस वनबंध में शास्त्र को लोक
का अनगु ामी मानने की बात करते िैं। जैसा वक आप ने वनबधं में पढ़ा -

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" यि जो एकादशी व्रत का वनणभय मेरे सामने िो रिा िै, वजसमें बीवसयों आचायों के सैकड़ों श्लोक
उद्धतृ वकए जा रिे िैं, अपने आप में ऐसा क्या मित्ि रखता िै वजसके वलए एक वदन सैकड़ों पंवडतों
ने पररश्रमपिू क
भ सैकड़ों वनबंध रचे थे और आज आसेतु विमाचल समस्त भारतिषभ के पंवडत उनकी
सिायता से व्रत का वनणभय कर रिे िैं। क्या श्रद्धापिू क
भ वकसी एक वदन उपिास कर लेना पयाभप्त निीं
था! यवद एकादशी वकसी वदन 55 दण्ड से ऊपर िो गई, या वकसी वदन उदय काल में न आ सकी,
या वकसी वदन उदय काल में आ गई तो क्या बन या वबगड़ गया ? वकसी भी एक वदन व्रत कर लेना
पयाभप्त निीं िै ? मझु े ‘नन’ु ‘तथा च’ और ‘उक्त च’ की धआ ु धाँ ार िषाभ से मध्य यगु का आकाश
इतना आविल जान पड़ा वक बीसिीं शताब्दी का ज्ञान लोक अनेक चेिाओ ं के बाद भी वनबंधकारों
की असली समस्या तक निीं पिुचाँ सका। मैंने वफर एक बार सोचा, शास्त्रीय िचनों के इन विशाल
पिभतों को खोदकर यि चवु िया क्यों वनकाली जा रिी िै। "
आचायभ वििेदी मानिीय चेतना को सिज और विकासशील मानते िैं । परम्परा का पाि -
पिू भ एिं उत्तर पक्ष के आधार पर करते िुए िे दोनों िी पक्षों को समान भाि से सम्मान की दृवि से
देखने की पक्षपाती िैं परन्तु शतभ यि िै वक मानिीय-सत्य, मानिीय मल्ू यों का संिधभन एिं संरक्षण
िोता रिे। आचायभ वििेदी का सम्पणू भ सावित्य मानिीय मल्ू यों, मानिीय-सत्य, मानिता एिं सम्पणू भ
भारतीय चेतनाधारा पर अखण्ड विश्िास एिं श्रद्धा का सावित्य िै। आचायभ वििेदी वनबधं का अतं
करते िुए वलखते िैं – " लेवकन भारतीय संस्कृ वत क्या सचमचु ऐसी कमजोर नींि पर खड़ी िै, कोई
एक एक्ट, कोई एक काननू और कोई एक विचार-विवनमय उसे विला दे ? मैं समझता िू,ाँ निीं। मेरे
सामने छ: िजार िषों की और सिस्त्रों योजन विस्तृत देश की विशाल सस्ं कृ वत खड़ी िै, उसके इस
िृद्ध शरीर में जरा भी बढ़ु ापा निीं िै, िि वकसी वचरनिीन प्रेरणा से पररचावलत िै। उसके मवस्तष्क में
सिस्त्रों िषभ का अनभु ि िै; लेवकन थकान निीं िै, उसकी आाँखों में अनावद तेज झलक रिा िै, पर
आलस्य निीं िै! िि अपिू भ शवक्त और अनंत धैयभ को अपने िक्ष-स्थल में ििन करती आ रिी िै।
उसने अपने विराट पररितभनशील दीर्भ जीिन में क्या -क्या निीं देखा िै ? कुछ और देख लेने में उसे
कुछ भी वझझक निीं, कुछ भी विचक निीं िै। जो लोग इस तेजोमय मवू तभ को निीं देख सकते ििी
र्बराते िैं, मैं निीं र्बरा सकता। शास्त्र चचाभ अब भी चल रिी थी। मैं सोचने लगा क्या यि जरूरी
निीं िै वक सभी पंचांगिाले एकमत िोकर एक िी तरि का वनणभय करें । शायद निीं। क्यों वक िमारा
देश एक विवचत्र पररवस्थवत में से गजु र रिा िै। िि परु ाना रास्ता छोड़ने को बाध्य िै, वकन्तु नया
रास्ता अभी वमला निीं। िि कुछ परु ाने के मोि में और कुछ नए के नशे में भल ू रिा िै। चलने दो, इन
वभन्न-वभन्न मतों को, इन वभन्न–वभन्न पक्षों को, भारतीय जनमत स्ियमेि इनमें से अच्छे को चनु
लेगा। इस दृवि से इस सभा का बड़ा मित्त्ि िै. यि भटके िुए लोगों का राि खोजने का प्रयास िै। यि
अच्छा िै। "

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अभ्यास प्रश्न
अभ्यास प्रश्न क - अहतलघु प्रश्न
1. िजारी प्रसाद वििेदी का जन्म कब और किााँ िुआ।
2. िजारी प्रसाद वििेदी के वपता का नाम क्या था।
3. िजारी प्रसाद वििेदी के चार उपन्यासों के नाम बताइये।
4. िजारी प्रसाद वििेदी की मृत्यु कब िुई ?
लघु उत्तरीय प्रश्न
1. िजारी प्रसाद वििेदी का सवं क्षप्त जीिन िृत्त वलवखए।
2. िजारी प्रसाद वििेदी का संवक्षप्त साविवत्यक पररचय वलवखए।
अभ्यास प्रश्न (ख) अहत लघु उत्तरीय प्रश्न
1. ’पंवडतों की पंचायत‘ वनबंध वकस पस्ु तक में संकवलत िै।
2. आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी ने वनबंध की वकतनी कोवटयााँ मानी िै ?
3. आचायभ िरािवमविर की रचना का नाम बताइये।
4. 'पंवडतों की पंचायत' वकस कोटी का वनबंध िै।

10.7 सारांश
प्रस्ततु इकाई के अध्ययन के पश्चात् आपने -
 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी ने व्यवक्तगत एिं साविवत्यक जीिन एिं उसके
क्रवमक विकास का ज्ञान प्राप्त वकया िोगा
 ‘पंवडतों की पंचायत’ वनबंध का पररचय एिं उसके पाि िारा लवलत वनबंध का
आस्िाद प्राप्त वकया िोगा।
 लोक तथा शास्त्र के वचरपररवचत िन्ि के भारतीय जनमानस पर पढ़ने िाले स्िरूप
एिं प्रभाि को समझा िोगा।

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 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी के सांस्कृ वतक एिं साविवत्यक मित्त्ि का ज्ञान प्राप्त
वकया िोगा।

10.8 शब्दावली
1. वतलवमलाकर - गस्ु से में,
2. अनसु ंधान - खोज, ढूढ़ना
3. शतवच्छद्र - कई सौ छे दों िाला
4. विध्िस्त - टूटना, खवण्डत
5. आत्मवनष्ठ - अपने आप में लगा िुआ
6. व्यैवक्तक - व्यवक्त संबंधी
7. आत्मवभव्यवक्त - अपने आप को प्रकट करना
8. पररिार - खत्म, समाप्त

10.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न (क) के उत्तर
1. 19 अगस्त, 1907, बवलया (उ.प्र.) में िुआ
2. प0ं अनमोल वििेदी
3. बाणभट्ट की आत्मकथा, चारूचन्द्रलेख, अनामदास का पोथा, पनु नभिा
4. 19 मई 1979, वदल्ली
अभ्यास प्रश्न (ख) के उत्तर
1. कल्पलता (1951)
2. 1. िाताभलाप मल
ू क 2. व्याख्यान मल
ू क 3. अवनयंवत्रत गप्प-मल
ू क 4. स्िगत-
वचन्तन मल
ू क 5. कलि-मल ू क
3. िृित् संविता

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4. लवलत वनबधं

10.10 उपयोगी पाठ्य सामग्री

 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी, डा. राजमल बोरा, राजपाल एण्ड ससं , वदल्ली
 आचायभ िजारी प्रसाद वििेदी, व्यवक्त और सावित्य, गणपवत चंद्र, गप्तु , भारतेन्दु
भिन, चण्डीगढ़
 िजारी प्रसाद वििेदी: वचंतन और व्यवक्तत्ि , (सं) कृ पाशक
ं र चौबे, कलकत्ता
 सावित्य सिचर, िजारीप्रसाद वििेदी, िाराणसी
 दसू री परम्परा की खोज, नामिर वसंि, राजकमल प्रकाशन, नई वदल्ली
 व्योमके श दरिेश, विश्वनाथ वत्रपािी, राजकमल प्रकाशन, नई वदल्ली

10.11 हनबं धात्मक प्रश्न


1. आचायभ िजारीप्रसाद वििेदी के व्यवक्तत्ि एिं कृ वतत्त्ि पर विस्तार से एक वनबंध
वलवखए ।
2. ‘पंवडतों की पंचायत‘ वनबंध का समीक्षात्मक वििेचन करते िुए आचायभ वििेदी
की प्रासवं गकता एिं मित्त्ि स्पि कीवजए ।

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इकाई 11 उत्तराखण्ि में संिमि और संि
साहित्य : पहरचय, पाठ एिं
आलोचना
इकाई की रूपरे खा
11.1 प्रस्तािना
11.2 उद्देश्य
11.3 डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल: व्यवक्तत्ि एिं कृ वत्तत्ि
11.4 उत्तराखण्ड में सतं मत और सतं सावित्य : पाि
11.5 वनगभणु संत मत और डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल
11.6 सारांश
11.7 शब्दािली
11.8 उपयोगी पाि्य सामग्री
11.9 वनबधं ात्मक प्रश्न

11.1 प्रस्तावना
प्रस्ततु इकाई स्नातक स्तर के पाि्यक्रम से सम्बद्ध िै। इस से पिू भ आपने विदं ी
सावित्येवतिास के वनबंध सावित्य का ज्ञान प्राप्त वकया।
प्रस्ततु इकाई में आप उत्तराखण्ड के बिुप्रवतवष्ठत वििान एिं वनगणभु सावित्य के ममभज्ञ डा.
पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल िारा वलवखत ‘उत्तराखण्ड में संतमत तथा सतं सावित्य' का अध्ययन करें ग।े
यि इकाई मात्र विद्यावथभयों के अध्ययन एिं ज्ञानाजभन के वलए िै इस से परीक्षा में व्याख्या िेतु प्रश्न
निीं पछ
ू े जायेंगे ।

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11.2 उद्देश्य
प्रस्ततु इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप -

 डा. पीताम्बर बड़थ्िाल के जीिन एिं सावित्य से पररचय प्राप्त कर सकें गे।
 विदं ी सावित्येवतिास के अन्तगभत वनगणभु सम्प्रदाय की वस्थवत तथा उत्तराखडं की
भवू म में प्रसाररत संत मत विशेषतः वनगणभु संत मत एिं सावित्य के संबंध में ज्ञान
लाभ कर सकें गे ।

11.3 िा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल: व्यहित्व एवं कृहत्तत्व


पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल का जन्म शक्र
ु िार 24 मागभशीषभ सं0 1958 (13 वदसम्बर, 1901)
को गढ़िाल में लैंसडाउन के पास पाली नामक एक छोटे से गािं में िुआ था। इनके वपता का नाम पं.
गौरीदत्त बड़थ्िाल था। िे अच्छे ज्योवतषी तथा कमभकाण्डी वििान थे। बालक पीताम्बर का पालन
उनके ताऊ प.ं मवणराम बड़थ्िाल ने वकया, वजनकी अपनी कोई सन्तान निीं थी। िैसे भी जब बालक
पीताम्बर के िल दस िषभ के थे तो उनके वपता पं. गौरीदत्त जी का देिािसान िो गया था।
आरम्भ में र्र पर रिकर िी उन्िोंने सस्ं कृ त की पढ़ाई अमरकोष के अध्ययन से आरम्भ की।
कुछ समय समीपस्थ विद्यालय में अध्ययन करने के बाद िे श्रीनगर (गढ़िाल) गिनभमटें िाई स्कूल में
अध्ययन करने चले गए, परन्तु ििां उपयक्ु त में कालीचरण िाई स्कूल में प्रिेश वलया, जिां उस
समय िेडमास्टर के पद पर विदं ी के वदग्गज बाबू श्यामसन्ु दरदास काम कर रिे थे। बाबू
श्यामसन्ु दरदास अपने विद्याथी पीताम्बर दत्त से अत्यवधक प्रभावित िुए और यि पररचय र्वनष्ि
िोकर बाद में साविवत्यक सियोग में पररिवतभत िो गया। 1920 में िाई स्कूल सम्मान सवित पास
कर, िे एफ.ए. की परीक्षा उत्तीणभ की। तदपु रान्त बनारस विदं ू विश्िविद्यालय में बी.ए. करने के वलए
नाम वलखा वलया था, परन्तु बीमार पड़ने के कारण पढ़ाई न कर सके । लगभग दो िषभ तक बीमारी
की िालत में गािं में रिे। इसी दौरान इनके ताऊ का भी देिान्त िो गया। 1924 में उन्िोंने बनारस
जाकर इन्िीं वदनों बनारस पनु : पढ़ाई आरम्भ वकया। सन् 1926 में बी0ए0 की परीक्षा पास की।
सौभाग्यिश इन्िीं वदनों बनारस विश्िविद्यालय में एम0ए0 परीक्षा में प्रथम श्रेणी स्थान प्राप्त वकया।
उन्िें विदं ी विभाग में शोध कायभ पर वनयक्ु त वकया गया। िे अपना शोध कायभ बड़े मनोयोग से करने
लगे और इसी दौरान 1926 में उन्िोंने एल.एल.बी. की परीक्षा भी उत्तीणभ कर ली . 1930 में िे
बनारस विदं ू विश्िविद्यालय के विदं ी विभाग में लेक्चरार वनयक्ु त वकए गए।
अध्यापन कायभ के बाद उन्िें जो भी समय वमलता था उसे िे शोधकताभ में लगाते थे। उनकी
अध्ययनशीलता को देखकर काशी नागरी प्रचाररणी सभा ने उन्िें अपने खोज विभाग का अिैतवनक

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सचं ालक वनयक्ु त वकया, साथ-साथ िे स्ियं डाक्टरे ट की तैयारी में लगे रिे। दो-तीन िषभ पररश्रम करने
के बाद उन्िोंने अपना शोध वनबंध ‘वद वनगणभु स्कूल ऑफ विदं ी पोयरी’ प्रस्ततु वकया।
अपनी सावित्य साधना में िे वनरन्तर लगे रिे। वजसके पररणामस्िरूप िे वििानों में वगने जाने गले
और जगि-जगि मित्िपणू भ सम्मेलनों में बड़े आदर से बल ु ाए जाने लगे। यि सब िोते िुए भी बनारस
में इन्िें अवसस्टेंट प्रोफे सर का िेतनमान निीं वदया गया। मिामना मालिीय जी आवद ने विदं ी
अध्यापकों को अन्य विषयों के अध्यापकों के समकक्ष िेतन देने से इन्कार कर वदया। डॉ.बड़थ्िाल
ने िाइस-चांसलर को सम्बोवधत कर अपने 6 माचभ 1938 के अभ्यािेदन में स्पष्ट रूप से वलखा था
वक ‘’अन्य विषयों के डी. वलट्. के समकक्ष मझु े िेतन ने वदए जाने कारण एक िी वदखाई देता िै
और िि िै मेरा विदं ी का स्नातक िोना।‘’ इसके बाद िे लखनऊ चले गए, ििां विदं ी विभाग के
प्राध्यापक के रूप में काम करने लगे। परन्तु चािे जो भी कारण रिा िो लखनऊ का िातािरण उन्िें
मावफक निीं रिा और धीरे -धीरे उनकी शारीररक तथा मानवसक अस्िस्थता बढ़ती गई। जब काम
करना असम्भि िो गया तो अपने गांि आकर रिने लगे जिां सोमिार 24 जल ु ाई, 1944 (स0ं
2001 के श्रािण मास की शक्ु ल चतथु ी) को उनका देिािसान िो गया।
डॉ. बड़थ्िाल का जीिन सर्ं षभ का जीिन रिा। एक ओर पाररिाररक वचन्ताएाँ, दसू री ओर
अथाभभाि उन्िें र्ेरे रिा। वफर भी िे वनरन्तर विदं ी की सेिा करते रिे।" (सवच्चदानंद कबवटयाल )

11.4 उत्तराखण्ि मचर संतमत और संत साहित्य : पाठ


सन्त विचार-परम्परा का गढ़िाल से विशेष संबधं िै। सतं मत मल्ू त: वनिृवत्त मागभ िै। उसके
सिभप्रथम आचायभ सनत्कुमार थे छांदोग्य के अनसु ार इस संतमत अथिा अध्यात्म-विद्या को
सनत्कुमार से नारद से सीखा। इन्िीं नारद की प्रचार की िुई भवक्त में कबीर आवद संतों ने भी डुबकी
भु वकया। िेद, अन्न, स्मृवत, आशा, प्राण,
लगायी। सनत्कुमार ने नारद की िृवत्त को धीरे -धीरे अन्तमख
सत्य, मवत, श्रिा, भमू ा आवद के मागभ से ले जाते िुए िे नारद को िास्िविक आत्मानुभवू त की
अिस्था तक पिुचाँ ा देते िैं। मिाभारत के नारदोपाख्यान के अनसु ार नारद की अध्यात्म मागभ को
सीखने के वलए ऐकांवतकों के पास श्िेतिीप गये थे। श्िेतिीप समू रूे से उत्तर वदशा में क्षीरसागर के
उत्तर तट पर एक िीप था। वथयासफी के योगविदों के अनसु ार यि स्थान चीन के गोबी नामक
विस्तीणभ मरू में-जिााँ पिले क्षीरसागर रिा िोगा, अब भी विद्यमान िै और इस सृविकाल के सबसे
बड़े आचायभ सनत्कुमार अब भी ििााँ रिते िैं। पंवडत नरदेि शास्त्री तो विमवगरर को िी श्िेतिीप
मानते िैं और गढ़िाल को सनत्कुमार का स्थान।मिाभारत के अनसु ार वजन लोगों से अध्यात्म-विद्या
सीखने के वलए नारद श्िेतिीप गये थे िे ‘नारायण पर’ थे और उसमें संदिे निीं वक समेरू के वनकट
नारायणीय धमभ के संबंध रखने िाला सबसे प्रवसि स्थान बदररकाश्रम िै वजसका मिाभारत-काल में
भी आजकल िी के समान अत्यन्त आदर था।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
बदरीनाथ बदरीनारायण िैं। बदररकाश्रम नारायणाश्रम िै और नारायण के अितार व्यासजी
का भी मल ू आश्रय ििी िै। ििीं उन्िोंने अध्यात्मविद्याके आधार ग्रथ ब्रह्रासत्रू का प्रणयन वकया था।
िस्ततु : उत्तराखंउ का यि प्रदेश सच्ची तपोभवू म िै। प्राचीन काल में तपस्या के िारा यिीं बड़े-बड़े
तपवस्ियों को ज्ञान प्राप्त िुआ। अष्टािक्र ऋवष यिीं विदेिािस्था को प्राप्त िुए। व्यासाश्रम
(व्यासगफ ु ा), िवसष्िाश्रम (विदं ाि) परशरु ामाश्रम, बालवखल्याश्रम इस बात का प्रचरु साक्ष्य देते िैं
वक यि प्राचीन ऋवषयों की तपोभवू म िै।
मध्य-यगु के सबसे बड़े मिात्मा गोरखनाथ ने भी यिीं अपनी वसवि प्राप्त की। “रख्िाली”
(शरीर-रक्षा के ) मत्रं ों से पता चलता िै वक उन्िोंने अपनी र्ोर तपस्या ‘धौलया उढ्यारी’ (धिल
गिु ा) नामक गफ ु ा में की थी। यि स्थान दवक्षण गढ़िाल में अत्यन्त वनजभन और बीिड़ स्थान में िै।
यिींिीर राजा काली िरपाल को उसकी माता ने बाल्यािस्था में बड़ी कविनाइयों का यामना करते
िुए पाला था। इस सथान का इस प्रकार गढ़िाल के इवतिास में िी निीं संतों के इवतिास में भी बड़ा
मित्ि िै। स्ियं गोरखनाथ ने तप के क्षेत्र में उत्तराखण्ड का बड़ा मित्ि माना िै।
दहक्षणी जोगी रंगा चंगा, पुरबी जोगी वादी।
पहछमी जोगी बाला भोला, हसंध जोगी उतराधी।।
गढ़िाल के मत्रं -सावित्य में गरू
ु गोरखनाथ का बड़ा प्राधान्य रिा िै। जान पड़ता िै वक
वकसी समय में नाथों का भी यिााँ बड़ा प्राधान्य था। अभी भी गढ़िालमें गोरखपथं ी नाथ बिुत िैं।
ओले, अवत िषभण आवद ईवतयों के वनिारण के वलए वजन डवलयों को ‘डाडिार’ (िावषभक िृवत्त)
प्रत्येक गढ़िालीर्र से वमलता िै, िे नाथ िी िैं। दवक्षण गढ़िाल में बिुत नाथ रिते िैं।श्रीनगर में भी
नाथों को एक अलग मिु ल्ला िै। गढ़िाल में बिुत नाथ रिते िैं। गढ़िाल में गोरखपवं थयों का सबसे
बड़ा स्थान देिलगढ़ के सत्यनाथ का मवं दर िै। मल ू त: देिलगढ़ देिी का पवित्र स्थान िै।
वत्रगतभ(कााँगड़ा) के देिल नाम के एक प्राचीन राजा ने इस स्थान पर गौरा देिीका मवं दर स्थावपत वकया
था ऐसा परंपरागत प्रिाद िै देिल राजा िी के नाम से इस स्थान का नाम देिलगढ़ पड़ा िै। देिी का
यि मवं दर अब तक देिलगढ़ में विद्यमान िै और गोरजा देिीके मवं दर के नाम से प्रख्यात िै। गढ़िाल
के पाँिार राज्यिशं का स्थावपत वकया िुआ राज-राजेश्िरी का मवं दर भी यिााँ िै, परन्तु संतमत की
दृवि से सत्यनाथ का मवं दर बड़ा मित्िपूणभ िै। इसके पीछे एक ऐवतिावसक परंपरा िै जो एक बड़े
ऐवतिावसक तथ्य की ओर संकेत करती िै। किा जाता िै वक राजा अजयपाल को भैरिनाथ ने
सत्यनाथ ने सत्यनाथ योगी के रूप में यिीं दशभन वदये और उन्िें कंधे पर चढ़ा कर अपना आकार
बढ़ते िुए किा वक जिां तक तम्ु िारी दृविजाती िै, ििां तक तम्ु िारा राज्य फै ल गया और
उसनेसत्यनाथ से प्राथभनाकी वक अब अपना आकार न बढ़ाइए। राजा की दृवि विमालय से लेकर
वशिावलक (सपाद लक्ष) पिभत-श्रेणीतक पिुचाँ ी और ििााँ तक उसका राज्य फै ल गया।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वकसी समय उत्तर-भारत में नाथों का खबू बोलबाला रिा िै। िे के िल वनरीि साधु िी निीं
रिे िैं निीन राज्यों की स्थापना करने िाले और राज्य-शवक्त का पररचालन करने िाले भी रिे िैं।
इसमें तो संदिे निीं वक गोरखा राजा का नाम गोरखनाथ के नाम से पड़ा िै। गोरखा राजा अपने
आपको के बल दीिान मानते िैं, गद्दी का िास्िविक स्िामी तो गोरखनाथ माना जाता िै। जान पड़ता
िै वक वशशोवदयों की जो शाखा 94िीं शताब्दी के लगभग गोरख और पीछे नेपाल राज्य में
अवधवष्ठत िुई, उसको ििां लाने के कारण गोरखनाथ िी थे। जोधपरु में 97िीं 98िीं शताब्दी के नाथ
लोगों के िी िाथामें प्राय:सारे राज्य की बागडोर रिी िै। गढ़िाल में पाँिार-िश
ं को गिरी नींि देने में
भी जान पड़ता िै वक नाथों का कुछ सािाय्य रिा िै, यि ऊपर के परंपरागत जनिाद से स्पष्ट िै और
कई प्रकार से इसकी पवु ि िोती िै। गढ़िाल के गााँि-गााँि में वसिों के स्थानों का िोना इस बात का
सचू क िै वक गोरक्ष आवद वसिों को यिााँ बड़ा माना था। वसिों ने गढ़िाल में ग्राम-देिताओ ं का स्थान
ग्रिण कर वलया िै और भैरि तथा देिी के साथ-साथ उनकी भी पजू ा िोती िै। बवल्क भैरि और देिी
की तो कभी-कभी याद आती िै, वसवि का स्परण पद-पद पर वकया जाता िै। गढ़िाल में मत्रं -
सावित्य में गोरखनाथ, सत्यनाथ, मवछंद्रनाथ, गरीबनाथ, कबीरनाथ, आवद वसिों की आणें पड़ती िै।
जान पड़ता िै वक देिलगढ़ में सत्यनाथ के मवन्दर की स्थापना संित् 1683 में आषाढ़18
गते को िुई। उससे पिले िि के िल गफ ु ा मात्र रिी िोगी। मवन्दर रूप में बन जाने पर पिले पीर
िसं नाथ जी थे वजनका नाम मवं दर में संित् के साथ वलखा िुआ िै। वकसी प्रभािशाली व्यवक्त
प्रभातनाथ ने सम्भित: उसी समय एक बड़ा भारी भडं ारा भी वकया था। उसका भी उल्लेख
वशलालेख में िै। यि भी सम्भि िै वक मवन्दर की स्थापना िसं नाथजी ने बिुत प्राचीन काल में की िो
और प्रभातनाथजी ने संित् 1683 में मवन्दर की के िल मरम्मत और भडं ारा वकया िो। स्िगीय िजीर
प.ं िरीकृ ष्णजी रतड़ू ी का मत िै वक राजा अजयपाल ने राज-राजेश्िरी और सत्यनाथ दोनों मवन्दरों
की स्थापना संित् 1512 के लगभग की राजधानी चााँदपरु से िटा कर देिलगढ़ में स्थावपत िुई।यि
अजयपाल राजा ििी िैं वजन्िोंने गढ़िाल में बिुत कुछ शांवत स्थावपत की। इनके समय का चला
िुआ देिवलया पाथा (पात्र भर कर अन्न नापने का एक पररणाम द्यल्ू या पाथो ‘देिलीय प्रस्थ’) अब
तक गढ़िाल में प्रचवलत िै। इसके प्रचार सबं धं ी वशलालेख भी अब तक देिलगकढ़ में विद्यमान िैं।
जान पड़ता िै वक नाथों का जो मान अजयपाल ने वकया उसके कारण स्ियं िे भी
मिात्माओ ं की श्रेणी में आ गये िैं। नाथों या वसिों में के िल अजयपाल अजयपाल भरथरी और
गोपीचन्द िी ऐसे िैं वजनके नाम से आगे नाथ या पाि (‘पाद’-‘पा’ भी यिी िै) निीं आये िैं इससे
पता चलता िै वक गोपीचन्द और भरथरी के समान वसि अजयपाल भी राजा था। कबीर का संत-मत
से धवनष्ि संबंध िै। िि भी गढ़िाल में वसि मानाजाता िै। किीं-किीं पर उसको कबीरनाथ भी किा
िै। गढ़िाल में कबीर के मत का भी प्रचार िुआ था। गढ़िाल के डोम जो वनंकार (वनराकर) को पजू ा
चढ़ाया करते िैं, िस्ततु : कबीर के िी अनयु ायी िैं। वनरंकार की पजू ा में कबीर की ‘जागर’ लगती िै।

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यद्यवप कबीर अविसं ािादी थे वफर भी डोम वनरंकार की पजू ामें बड़ी वनदभयता से सअु रों का बवलदान
करते िैं। वकन्तु इस बवलदान को भी उन्िोंने विलक्षण रूप से कबीर के साथ जोड़ वदया िै।
जागर के अनसु ार कबीर ने वनरंकार को एक टोकरी अन्न और दो नाररयल अग्याल (मनौती
की अवग्रम भेंट) के रूप में चढ़ाये थे। कबीर जब किीं बािर गये िुए थे तब वनरंकर स्ियं एक लंगड़े
माँगता के िेश में कबीर के र्र आया और उसकी स्त्री से भीख मााँगने लगा। कबीर की स्त्री ने किा
वक र्र में वनरंकरकी अग्याल के अवतररक्त और कुछ भी निीं िै। माँगता ने उसी में से अपने छोटे
खप्पर को भरकर भीख वमल जाने का आग्रि वकया। कबीर की स्त्री यि आग्रि न टाल सकी। वकंतु
माँगता का खप्पर तब जाकर भरा जब सारी अग्याल उसमें डाल दी गयी। कबीर की स्त्री अपने वकए
पर पछताती िुई खाली पात्र रखने के वलए भीतर गयी तो उसने सारा कमरा अन्न से भरा िुआ पाया।
अब उसे सझू ा वक िो न िो यि वभखमगं ा स्ियं वनरंकार िी था। परन्तु इससे पिले वक िि बािर
वनकल कर उसके चरणों पर पड़े और अननु य-विनय करे िि लंगड़ाता िुआ भाग खड़ा िुआ। भागने
में उसके खप्पर में से दोनों नाररयल एक मैले स्थान पर वगर गये और सअ ु र के रूप में पररिवतभत िो
गये। तब से वनरंकार के वलए सअ ु रों की बवल दी जाती िै। एक प्रकार से सअ
ु र सअु र निीं, नाररयल िैं
और उनको चढ़ाने से अविसं ा का विरोध निीं िोता।
मैं तो समझता िूं वक मसु लमान कुल में पैदा िुए गरू
ु के चेलों को जब लोग मसु लमान िी
वगनने लगे तब उनमें से कुछ को अपना मसु लमान न िोना वसि करने के वलए शक ू र-िध का यि
उपाय काम में लाना पड़ा। यि किा जा चक ु ा िै वक व्यासजी ने ब्रह्मसत्रू की रचना बदररकाश्रम में िी
की थी। विन्दी का भी थोड़ा-सा आध्यावम्तक सावित्य गढ़िाल में वलखा िुआ वमलता िै।
मोलाराम का नाम वचत्रकारी के वलए प्रवसि िै। उसने वचत्रकारी के साथ-साथ कविता भी
की थी। मोलाराम ने नाना विषयों पर वलखा िै। मोलाराम ने जो कुछ वलखा िै उसका काव्य की दृवि
से से विशेष मित्ि निीं परन्तु अन्य दृवियों से उसका बिुत मित्ि िै। गढ़िाल के तत्कालीन इवतिास
पर उनकी कविताओ ं से अच्छी तरि प्रकाश पड़ाता िै। थोड़ा बिुत अध्यात्म विद्या पर भी उन्िोंने
वलखा िै। साधना पंथ के मनोविज्ञान की दृवि से इन कविताओ ं का बड़ा मित्ि िै।
कुछ मनस्तत्ििेत्ताओ ं का मत िै वक मनष्ु य के सब भािों का मल्ू य प्रेरक श्रृंगार िी िै। यिी
एक भाि नाना रूप धारण कर मनष्ु य के विविध वक्रया-कलापों में प्रकट िोता िै। जान पड़ता िै वक
मोलाराम के विषय में गढ़िाल में भी एक साधना-पंथ ऐसा था वजसके आचायो को इस
मनोिैज्ञावनक तथ्य का ज्ञान था और उसी पर उन्िोंनेइस पथं की नींिडाली थी। इस पंथ का नाम
मोलाराम के अनसु ार मनमथ-पथं था। यि पथं का नाम मोलाराम के अनसु ार आवद शवक्त िी सिोपरर
और सृवि का मल ू िै। अकल रूप में िि सदावशि िै, वनगभणु िै। सकल या सगणु रूप धारण कर
ििी सृवि रचती िै।

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आहद शहि रचना जब रची या हवश्व माहिं
मन महथ कै ध्यान धरय यो मनमथ िालासा िै।
मनमथ, सौ इच्छा भई भेग और हवलास िाँ की
ताके िेत ब्रह्म िरर रूर कौं प्रकासा िै।।
इस प्रकार मोलाराम के अनसु ार आध्यावत्मक साधना धमभनीवत, समाजनीवत, राजनीवत,
सावित्य, सगं ीत, कला, िावणज्य-व्यिसाय सब क्षेत्रों में एक िी मल
ू प्रिृवत्त नाना रूपों में काम करती
िै। मनमथ, कामदेि आवद शब्दों के व्यििार से यि निीं समझना चाविए वक वजस पंथ का िणभन
मोलाराम ने वकया िै, िि व्यवभचार फै लाने िाला पंथ िै। मोलाराम ने स्पष्ट शब्दों में कुमागभ का
त्याग दया दावक्षण्य मक्ु त गृिस्थ धमभ को पालना, मन को साधना और अतं मख भु जीिन वबताना
आिश्यक बतलाया िै।
िै तुि अन्दर बैि हनरंतर ले्‍यो हललाट किी निीं जावैं।
छाहि कुमारग मारग मैं रिौ, धृस्य कौं मूल दया हितरावै।।
साधन तें मन साधले आपनों मोलाराम मिा सषु पावै।
िै तुिा अन्दर दुइत मन्दर क्यौं जग बन्दर सौं भरमावै।

िस्ततु : इस पंथ ने मनष्ु य की िास्तविक प्रिृवत्तयों का विश्लेषण वकया िै और अपनी


साधना को दृढ़ आधारवशला पर रखा िै, वजससे साधक धोखे में न पड़े। जैसा ‘यत: प्रिृवत प्रसृता
परु ाणी’ से पता चलता िै। गीता भी मानती िै वक फै लाि वजतना िै प्रिृवत्त का िै। इसवलए ििी पंथ
जो इस प्रिृवत्त को ध्यान में रख कर चलता िै, िस्ततु : लाभदायक िो सकता िै। अतएि मोलाराम ने
जीि से सीि (वशि-ब्रह्म) िोने को एक मात्र उपय बताया िै। इन मन:शवक्त को उपयक्ु त रूप में मथं न
कर उसे नाना वदशाओ ं में दौड़ने से रोक कर एक िी स्थान में लाना यिी सारी साधना का सार िै,
इसी का दसू रा नाम वनिृवत्त तथा योग िै: मन के साथ जोब-जबर से काम निीं चलता। उसे बलात
एक स्थान पर वसमटाना असभं ि िै। उसीवलए मन को समझाने का उपदेश िै:
काि सौं बकवाद निीं िम करैं करावैं।
मनमथ पंथी िोय अपनो मन समझावैं।
किा बाद मैं स्वाद जो िम कािाँ सों बादैं।
जे सज्जन कुलतन्त सं सो मन कौ साधैं।
मोलाराम हवचार किी सनु ो पचं प्रवीन तुम।
भये भक्त जग माहिं जे सब दासन के दास िम।।

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वजतने योग के साधन िैं, सबका उद्देश्य मन को समझा-बझु ा कर एक विकाने पर लाना िै।
जप, तप, षटचक्र-िेध नादानुसंधान, ज्योवत दशभन सबका मनमथ पंथ में मोलाराम के अनुसार उवचत
स्थान िै। यिााँ पर इतना स्थान निीं िै वक मोलाराम के इस संबंध के परू े उिरण दें। परन्तु इतना तो
स्पष्ट िो गया िै वक मोलाराम का यि मनमथ पथं मनस्तत्ि और दशभन के उच्च वसिातं ों पर वटका
िुआ एक शिु साधना मागभ िै। इसमें प्राचीन परम्परा से आती िुई उन बातों का मोलाराम ने वसिांत
रूप से संित् 1850 के लगभग उल्लेख वकयाथा वजनको मनस्तत्ि के क्षेत्र में बड़े-बड़े वििान् समझ
रिे िै वक िम िी पिले पिल आविष्कार कर रिे िैं। उन्िीं बातों के कारणमोलाराम के अनसु ार यि
पंथ अमृत का सार िै। जो उसे जानते िैं उन्िें ब्रह्मनन्द लाभ िोता िै।
मनमथ को पथ ऐसो, इमृत को सार जैसो।
जानत िैं सोई संत ब्रह्म को हबलासा िै।।
इसी प्रकार स्िामी शवशधर का भी गढ़िाली संत सावित्यकारों में बड़ा मित्िपणू भ स्थान िै।
मिात्मा िररमवु न शमाभ इनका बड़ा आदर करते थे। सं.1882 में ये ब्रह्मलीन िुए। इनके रचे िुए 1-
दोिों की पस्ु तक (दोिािली), 2- ज्ञानदीप, 3-सवच्चदानंद लिरी, और 4- योग-प्रेमािली का वििरण
नागरी प्रचाररणी सभा की खोज ररपोटभ (1912-1994) में वमलता िै।
ये बड़ी पिुचाँ के ज्ञानी थे। जीिन-मक्ु त िोकर इसी शरीर से िे उस ब्रह्म पर को प्राप्त िो गये
थे, जिााँ ब्रह्म की सृवि और विष्णु के अितारों की पिुचाँ निीं। रूपक की भाषा में उन्िोंने ऐसे शिर में
व्यापार करने की बात किी िै:
ब्रह्म न रचे जिााँ हवष्ट्णु को नहि अवतार।
ऐसो सिर में सदा करै सब बहस बजार।।
एहि जाने सो ताको पंहित, करै मुतबाल बसाइ।
जाने हबना हमले निीं, मूढ़ करर िोत थकाइ।।
सब को िे उस स्थान तक पिुचाँ ने का आदेश देते िैं। ब्रह्मानभु ि के आनंद का उन्िोंने बड़ा
अच्छा िणभन वकया िै:
ू ा, आपे आप अतीत आवरण दूजा।।
ध्यान भजन तिााँ नहिं पज
बंधन-मोक्ष तिााँ पूरण आनंद, आपे आप सिज खेले हनरबंद।।
-सवच्चदानन्द लिरी

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इस पद तक पिुचाँ ने का उन्िोंने जो मागभ बतलायािै उसमें भी मन की शवक्तयों का भली-
भााँवत ध्यान रखा गया िै। उन्िोंने किा िै वक ब्रह्म-लीन िोने के वलए ब्रह्म-बोध िोना आिश्यक िै
और ब्रह्म-बोध तब तक निीं िो सकता जब तक मन को बोध विषय की प्रतीवत निीं िोती।
मैं क्या किाँ किाँ यहत सहत सभ कोई,
सभ सभी गावै जो बुझै सो सभ िोई।
प्रहतत सें बोध िोवै बोध से लय लागे मन,
मन के गहत मुहन जाने जाके हमहल गये तन। - ज्ञानदीप

मन को वबना कष्ट पिुचाँ ाये सख


ु से अतं मख
भु करने के वलए उन्िोंनेमन के सामने कृ ष्ण का
परम प्रेमालप्ु त स्िरूप रखा िै:
नमस्ते नन्द कुमार नमस्ते गोहपका बर ।
बोधात्मा साधनी गावै दीन दास शहशधर।।
भगित्भजन और प्रपवत्त की भी उन्िोंने मित्ता गायी िै।
काया कर हनकर मुख राम भहज
भहि मन आत्मा जागला।
येहत हनज नाम खेवा हखयाहय
भवाहब्ध की बड पार लागला।। - योग-प्रमावली
यिां पर साधना के अवतररक्त ‘जागला’और ‘लागला’आवद में उनकी भाषा का पिाड़ीपन
ध्यान देने योग्य िै।
गढ़िाल में संत-सावित्य का वमलना कोई आश्चयभ की बात निीं। वतवतक्षा और िैराग्य का
पाि पढ़ने यगु -यगु ान्तर से साधक लोग इस तपोभवू म में आते रिे िैं। ब्रह्म विद्या का तो इसे र्र िोना
चाविए। मैंने जो कुछ यिां वलखा िै िि तो लेशमात्र िै जो मझु े आसानी से प्राप्त िेा गया। गढ़िाल िी
निीं समस्त पिभतीय देशों में अध्यात्म विद्या के िी निीं वकसी प्रकार के सावित्य का भी अभी तक
अच्छी तरि से अन्िेषण निीं िुआ िै। उन्मेषशील यिु क समाज से आशा की जातीिै वक िि

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उत्सािपिू कभ इस काम को अपनेिाथ में लेगा। िमारे ियोिृि उन्िें सावित्य के कल्याण-मागभ पर
सत्प्रेरणा दें और श्रीमतं उनकी कविन साधना से प्राप्त सामग्री को प्रकाश में लाने के साधन सल ु भ
करें वजससे एक पररश्रम का साफल्य उत्तरोत्तर और पररश्रमों तथा प्रयत्नों की प्रेरणा करता रिे।("डा.
पीताम्बर दत्त बडथ्िाल के श्रेष्ठ वनबंध " पस्ु तक से साभार )

11.5 हनगुभण संत मत और िा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल


डॉ. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल विदं ी शोध और आलोचना के अग्रदतू रिे िै। एक समय जब
उच्च कक्षाओ ं में विदं ी का अध्ययन और अध्यापन निीं िोता था और प्राचीन विदं ी ग्रंथों की पयाभप्त
खोज निीं िुई थी, तब डा. बड़थ्िाल ने पं. रामचंद्र शक्ु ल और श्याम सन्ु दरदास के साथ विदं ी शोध
ओर आलोचना की गिरी नींि डाली। प.ं रामचद्रं शक्ु ल और बाबू श्याम सन्ु दर दास आलोचना के
क्षेत्र में व्यस्त रिे जब वक डा. बड़थ्िाल ने शोध का कायभ अपनाया। उन्िोंने अपने शोध के वलए संत
सावित्य को चनु ा जो तब अधं कार में पड़ा था और जो सावित्य रूप में विशेष चचाभ का विषय भी न
था। उन्िोंने पिली बार मल ू स्रोत तक पिुचाँ ने की कोवशश की और नई मान्यताएं स्थावपत की।
कबीर आवद संतों और गोरख, रामानंद आवद पर उन्िोंने जो कायभ वकया िि आज भी नींि के पत्थर
की तरि िै। डा. बड़थ्िाल ने अनेक दष्ु प्राप्य िस्तवलवपयों का सग्रं ि वकया था, वजनके अध्ययन के
आधार पर उन्िोंने नागाजनभु , चौरंगीनाथ, कणोररपाि, स्िामी राद्यिानन्द, वसद्धान्त पंचमात्रा वनरंजनी
धारा, विदं ी कविता में योग प्रभाि, कबीर का जीिन िृत, कबीर के कुल का वनणभय आवद जवटल
विषयों पर लेख वलखे। डा. बड़थ्िाल के सबसे मित्िपणू भ लेख िे िैं जो विदं ी सावित्य के इवतिास
की पृष्ठभवू म स्पि करते िैं तथा श्रृंखला को जोड़ने में सिायक िोते िैं। डा. बड़थ्िाल ने अनेक ग्रंथ
वलखे िैं वजनमें गोरखिानी युग प्रितभक रामानंद, सरू दास, रामचंवद्रका, सरू दास, योग प्रिाि, मकरंद
आवद उल्लेखनीय िैं। वकंतु उनका सबसे मित्िपणू भ ग्रंथ ‘विदं ी काव्य में वनगभणु धारा‘ िै जो डी.वलट्.
का पिला-पिला शोध प्रबंध माना जाता िै, प्रस्ततु ग्रंथ शोध और आलोचना का एक मानक प्रस्ततु
करता िै। सतं मत पर उनकी खोजों ने आगे के शोधकत्ताभओ ं का मागभ प्रशस्त वकया िै िमें इस
आधारभतू ग्रंथ को प्रस्ततु करते िुए अपार िषभ िै।
" विदं ी-काव्य के इवतिास का पिू -भ रूप िमें पिले-पिल उन काव्य-संग्रिों में दीख पड़ता िै वजन्िें
समय-समय पर, कुछ व्यवक्तयों ने, अपनी रूवच के अनसु ार प्रस्ततु वकया था और वजनमें, कवियों से
अवधक उनकी कृ वतयों पर िी ध्यान वदया गया था। इसके अनन्तर कविताओ ं के साथ-साथ उनके
रचवयताओ ं के संवक्षप्त पररचय भी वदये जाने लगे और उक्त प्रकार से संगिृ ीत रचनायें, क्रमशः के िल
उदािरणों का रूप ग्रिण करने लगी। ऐसे कवियों का नामोल्लेख, उस समय अवधकतर
िणभक्रमानसु ार वकया जाता था तथा उनके समय ि स्थानावद का वनदेश कर वदया जाता था। उनकी
कविताओ ं में उपलब्ध साम्य ि उनकी िगीकरण की ओर विशेष ध्यान निीं वदया जाता था। इस
दसू रे प्रकार के वििरणों का देना, उस समय से आरम्भ िुआ, जब कुछ प्रवतवनवध कवियों के अनसु ार

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काल-विभाजन की भी प्रथा चल वनकली और प्रत्येक िगभ की चचाभ उसके काल क्रमानसु ार की जाने
लगी। ऐसा करते समय उन कवियों की विशेषताएं बतलायी जाने लगीं, उनकी पारस्पररक तल ु ना
की जाने लगी और कभी-कभी उनकी रचनाओ ं का आलोचनात्मक पररचय भी दे वदया जाने लगा।
इस प्रकार उक्त कोरे काव्य-संग्रिों का रूप क्रमशः काव्य के इवतिास में पररणत िोने लगा और
कवियों के साथ-साथ गद्यलेखकों की भी चचाभ आ जाने के कारण इस प्रकार की रचनाएं परू े विदं ी
सावित्य का इवतिास बनकर प्रवसद्ध िो चली। परन्तु नामानसु ार वकया गया उक्त काल-विभाजन भी
आगे चलकर उतना उपयक्त ु निीं समझा गया। कवियों एिं लेखकों की विवभन्न रचनाओ ं का
तलु नात्मक अध्ययन करते समय अब उनके रचना-काल की पररवस्थवतयों पर भी कुछ अवधक
विचार वकया जाने लगा और तात्कावलक समाज के भीतर उनकी भािधारा तथा रचनाशैली की
विशेषताओ ं के कारणों की भी खोज की जाने लगी। तदनसु ार एक समान रचनाओ ं के वकसी काल
विशेष में िी उपलब्ध िोने के कारण क्रमशः उनके रचनाकाल की प्रमख ु विचारधाराओ ं का भी पता
लगाना आिश्यक िो गया िै और इस प्रकार उक्त काल-विभाजन के आधार में आमल ू पररितभन कर
वदया गया। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल ने सिभप्रथम अपने ‘विदं ी सावित्य का इवतिास‘ की रचना बिुत
कुछ इसी दृविकोण के अनसु ार सं. 1986 में की थी और तब से िैसे अन्य इवतिासकार भी
अवधकतर इसी वनयम का पालन करते आये िैं। िे प्रमख ु प्रिृवत्तयों का विश्ले षण उनकी विवभन्न
धाराओ ं के अतं गभत वभन्न-वभन्न कवियों का िगीकरण करते िैं और उनका िणभन करते समय कृ वतयों
की समीक्षा पर भी विशेष ध्यान देते आये िैं। फलतः विदं ी सावित्य के इवतिास में भवक्तकाल के
अतं गभत ‘वनगणभु धारा‘ एिं ‘सगणु धारा‘ नाम की दो वभन्न-वभन्न प्रिृवत्तयों की कल्पना की गयी िै और
‘वनगणभु धारा‘ को भी ‘ज्ञानाश्रयी‘ तथा ‘प्रेमाश्रयी‘ नामक दो शाखाओ ं को विभावजत कर, कबीर,
नानक आवद कवियों का पररचय ‘ज्ञानाश्रयी शाखा‘ के अतं गभत वकया जाने लगा िै।
कबीर, नानक, रै दास, दादू जैसे संतों के नामों से लोग बिुत वदनों से पररवचत थे और उनकी विविध
बावनयों का प्रचार भी अनेक िषों से बढ़ता िी चला जा रिा था। स्ियं उन संतों ने अपने पिू िभ ती
सतं ों के नाम बड़ी श्रद्धा के साथ वलये थे और बिुधा उन्िें सफल साधकों ि भक्तों की श्रेणी में वगनते
िुए उनका स्मरण वकया था। इसी प्रकार भक्तमालों के रचवयताओ ं ने भी अपने पिू क भ ालीन संतों के
चमत्कारपणू भ जीिन की झांवकयां वदखलाई थी और कभी-कभी उनकी विशेषताओ ं की ओर लक्ष्य
करते िुए उनके मित्ि का मल्ू यांकन करने की भी चेिा की थी। परन्त,ु इस प्रकार के िणभन अवधकतर
पौरावणक पद्धवत का िी अनसु रण करते आये और इसी कारण इनमें उनके सिाांगपणू भ पररचय के
उदािरण निीं पाये जाते। इसी प्रकार िम उन आलोचनात्मक पररचयों को भी एकॉंगी िी कि सकते
िैं जो यरू ोप तथा भारत के कवतपय वििानों-िारा विविध धमों के इवतिासों में वदये गये वमलते िैं और
वजनमें इन संतों की सांप्रदावयक प्रिृवत्त और इनकी सधु ार-पद्धवत की ओर िी विशेष ध्यान वदया गया
िै। संतों की कृ वतयों का अध्ययन उनमें के िल धावमभक दृविकोध से िी करने का प्रयत्न वकया गया िै

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और इनके नामों के आधार पर वनकले िुए पथं ों का इवतिास भी बतलाया गया िै। इस कारण ऐसी
पस्ु तकों में विशेष कर प्रचवलत भेदों और उपासना-पद्धवतयों का विस्तृत िणभन िी पाया जाता िै।
उपयभक्त
ु साविवत्यक अथिा सांप्रदावयक पररचयों में इन संतों का िणभन सामवू िक रूप में
वकया गया निीं दीख पड़ता। पिले प्रकार के ग्रंथों में इन्िें अन्य कवियों की िी भांवत पृथक-पृथक
पररवचत करा कर इनकी रचनाओ ं के कुछ वििरण दे वदये गये िैं और इसी प्रकार, उक्त धावमभक
इवतिासों में भी इन्िें वनरा धावमभक प्रचारक मानकर इनका िणभन अलग-अलग कर वदया गय िै। संतों
को एक िगभ-विशेष में वगनते िुए उनके वसद्धान्तों तथा साधनाओ ं का सामवू िक पररचय देने अथिा
उनकी कथनशैली ि प्रचार पद्धवत पर भी पणू भ प्रकाश डालने का काम उक्त दोनों में से वकसी प्रकार
की भी पस्ु तकों में वकया गया निीं दीख पड़ता। िास्ति में इन संतों के विषय में सिभ साधारण की
धारणा पिले यिी रिती आई थी वक ये लोग के िल साधारण श्रेणी के भक्तमात्र थे, इन्िोंने अपने-
अपने समय के धावमभक आन्दलनों में भाग लेकर अपने-अपने नामों पर निीन पंथ चलाने की चेिा
की थी और अपनी विवचत्र प्रकार के रिन-सिन एिं अटपटी बावनयों के कारण इन्िोंने अपने वलए
बिुत से अनयु ायी भी बना वलए थे। इनकी अन्य भक्तों से वभन्नता, इनके वसद्धान्तों की एकरूपता,
इनकी साधनाओ ं की विलक्षणता अथिा इनकी मख्ु य देन के प्रवत वकसी ने विचार निीं वकया था।
सतं ों की इस परंपरा को एक सत्रू में ग्रंवथत करने तथा उनके मत का व्यापक रूप वनवश्चत
करने में कई कविनाइयााँ भी पड़ती थी। के िल दो-एक को छोड़कर इनमें से अन्य संतों का कोई
साधारण पररचय भी उपलब्ध निीं था। इनकी बावनयों या तो इनके अनयु ावययों के पास िस्तवलवखत
रूप से सरु वक्षत पायी जाती थीं अथिा विकृ त िोकर यत्र-तत्र वबखरी पड़ी िुई वमल जाया करती थी।
इसके वसिाय इन संतों के नामों पर चलने िाली विविध पथं ों के रूप और प्रचार-पद्धवत में भी मिान्
अन्तर आ गया था। वजस उद्देश्य को लेकर उसका सिभप्रथम संर्टन िुआ उसे, काल पाकर, िे भल ू
से गये थे और अन्य प्रकार के प्रचवलत संप्रदायों के अनुकरण में अवधक लग जाने के कारण, िे
क्रमशः साधारण विदं ू समाज में िी विलीन िोते जा रिे थे। इन पंथों के अनयु ावययों ने अपने प्रित्तभकों
को दैिी शवक्तयों से सम्पन्न मानकर उनकी पौरावणक चररतािली भी बना डाली थी और उनके
मौवलक वसद्धान्तों के सच्चे अवभप्राय को समझने की प्रायः कुछ भी चेिा न करते िुए उन पर अपने
काल्पवनक विचारों को आरोवपत कर वदया था। इस कारण िास्तविक रूप जान लेना अथिा उनके
मित्त्ि का समवु चत मल्ू यांकन करना कोई सरल काम निीं था।
उक्त बाधाओ ं के बने रिने के कारण इन संतों के सम्बन्ध में अनेक वििानों की भी धारणा
भ्रावं तपणू भ िो गयी थी। इनकी बावनयों को ऐसे लोग अत्यन्त साधारण निीं दीख पड़ती थी। सतं लोग
इनके समक्ष कवतपय वनम्नश्रैणी की जावतयों में उत्पन्न अवशवक्षत व्यवक्त थे वजन्िें प्राचीन धमभग्रंथों
अथिा शास्त्रावद का कुछ भी ज्ञान निीं था और वजन्िें इसी कारण, सच्चे मागभ की पिचान तक निीं
िो सकती थी। ये उनके वलए सिभसाधारण में र्मू -वफर कर ऊटपटांग बातों का प्रचार करने िाले वनरे

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साधू ि फकीर-श्रेणी के लोग थे और इनके उपदेशों का कोई सदृु ढ़ आधार ि उद्देश्य भी निीं था। सतं ों
की बावनयों में वबखरे िुए विचारों की संगवत िे, वकसी पिू गभ त विचारधारा से, लगा पाने में प्रायः
असमथभ रिा करते थे, और इस कारण, उन्िें इनमें कोई व्यिस्था निीं दीख पड़ती थी और इनकी सार
बातें उन्िें वकन्िीं अस्पि ि क्रमिीन का संग्रिमात्र प्रतीत िोती थी। अतएि संतपरम्परा, संतसावित्य
ि संतमत की ओर उनका ध्यान पिले एक प्रकार की उपेक्षा का िी रिता चला आया था। इस वदशा
में उनका ध्यान सिभप्रथम उस समय से आकृ ि िोना आरम्भ िुआ जब सतं ों की बावनयों का यत्र-तत्र
संग्रि वकया जाने लगा और इस प्रकार के ग्रंथ कभी-कभी प्रकावशत भी िोने लगे।
विक्रम की बीसिीं शताब्दी के उत्तराद्धभ से िी िास्ति में संतों और उनकी कृ वतयों का क्रमशः प्रकाश
में आना आरम्भ िुआ। उसके पिले डा. विल्सन के ‘‘ए स्के च ऑफ वद विदं ू सेक्ट्स‘‘सं.1988 में
उनके विषय में थोड़ा-बिुत वलखा जा चक ु ा था, गासाभ द तासी ने अपने ‘इस्त्िार द ला वलतरे त्योर
ऐदं ईु ए इदं स्ु तानी (सं.1896) में कुछ संतों ि उनकी रचनाओ ं की चचाभ की थी और डॉ. वग्रयसभन ने
भी अपने ‘‘माडभन िनाभक्यल ू र वलटरे चर ऑफ विदं स्ु तान सं. 1946 में उनका एक आलोचनात्मक
पररचय वदया था जो अवधकतर ‘वशिवसंि सरोज‘ पर आवश्रत था। इन लेखकों ने अपने विचार बिुत
कुछ अधरू ी सामवग्रयों के िी आधार पर वनवश्चत वकए थे। उस समय तक न तो स्ि. प.ं चंवद्रका प्रसाद
वत्रपािी के ‘‘अगबधं ‘ू ‘ ि ‘‘स्िामी दाददू याल की िाणी‘‘, (स.ं 1964) स्ि. बा. बालेश्वरप्रसाद की
‘संतबानी पस्ु तक माला‘ (सं. 1965) ि स्ि. डा. श्यामसन्ु दरदास की ‘कबीर ग्रंथािली‘ जैसे मल ू
सावित्य को प्रकाशन िो पाया था और न डाक्टर मेकॉवलफ के ‘वद वसख ररलीजन सं. 1965 डा.
रिीन्द्रनाथ िाकुर की ‘िन िण्राइेड पोयम्स आफ कबीर‘सं. 1980 डॉ. तारादत्त गैरोला के साम आफ
दादू सं. 1986 अथिा प्रो. तेजवसंि के ' वद जपजी जैसे सुन्दर अनिु ाद िी वनकल पाये थे वजनका
अध्ययन कर कोई वनणभय वकया जाता। रे . िेस्टकाट ; सं. 1964 डॉ. फकभु िर ;स.ं 1977, डॉ. भडं ारकर
;सं. 1985, डॉ. कीथ ;सं. 1988 जैसे वििानों की धावमभक इवतिास सम्बन्धी रचनाएाँ रे . प्रेमचन्द ;सं.
1968 ि रे . अिमदशाि ;सं. 1972 िारा वकए गए बीजक के अनिु ाद तथा तथा वमश्रबंधओ ु ं का
विनोद ;स0ं 1969, प.ं रामचन्द्र शक्ु ल ;स.ं 1986 ि डॉ. सयू भकातं शास्त्री ;स.ं 1989 साविवत्यक
इवतिास भी इसी काल में वनवमभत ि प्रकावशत िुए और प्राय: इसी समय से इस विषय पर अच्छे -
अच्छे वनबंध भी वलखे जाने लगे।" (" विन्दी काव्य की वनगभणु धारा " पस्ु तक से साभार )

11.6 सारांश
प्रस्ततु इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप -

 वनगणभु काव्य के ममभज्ञ वििान डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल के जीिन एिं उनके
सावित्य से पररवचत िो चक ु े िोंग।े

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 विदं ी सावित्येवतिास में वनगणभु काव्य एिं सम्प्रदाय के प्रसार एिं मित्त्ि को जान
चकु े िोंगे।
 उत्तराखण्ड में व्याप्त वनगणभु सम्प्रदाय एिं संतमत-सावित्य के विषय में
पररचयात्मक ज्ञान प्राप्त कर वलया िोगा।

11.7 शब्दावली
दष्ु प्राप्य - जो कविनाई से प्राप्त िो
समकक्ष - बराबर
अिैतवनक - वबना िेतन के
प्रिाद - झिू ी बात
मनस्तत्ििेत्ता - मनोिैज्ञावनक डाक्टर
अन्िेषण - खोज

11.8 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. गोविन्द चातक, डा. पीताम्बर दत्तर बड़थ्िाल के श्रेष्ठ वनबंध, तक्षवशला नई वदल्ली
2. डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल, विदं ी काव्य की वनगभणु धारा, तक्षवशला प्रकाशन, नई
वदल्ली
3. रामविलास शमाभ, भारतीय संस्कृ वत और विन्दी -प्रदेश-2 ,वकताबर्र, नई वदल्ली
4. आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल, विदं ी सावित्य का इवतिास, काशी नागरी, प्रचाररणी
सभा, बनारस

11.9 हनबं धात्मक प्रश्न


1. डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्िाल के जीिन एिं सावित्य पर विस्तार से एक वनबंध
वलवखए
2. उत्तराखण्ड में सतं मत एिं वनगभणु सावित्य पर एक विस्तृत वटप्पणी वलवखए

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इकाई 12 आत्मकथा 'अपनी खबर ' : पहरचय,
पाठ एिं आलोचना
इकाई की रूपरे खा
12.1 प्रस्तािना
12.2 पाि का उद्देश्य
12.3 आत्मकथा सावित्य: इवतिास एिं विशेषता
12.3.1 पाण्डेय बेचन शमाभ 'उग्र' : जीिन पररचय और सावित्य
12.3.2 आत्मकथा सावित्य का इवतिास
12.3.3 आत्मकथा सावित्य की प्रिृवत्तयााँ
12.3.4 आत्मकथा सावित्य और ‘अपनी खबर’
12.4 ‘अपनी खबर’: पररचय, पाि एिं आलोचना
12.4.1 ‘अपनी खबर’: पररचय
12.4.2 ‘अपनी खबर’: पाि विश्ले षण
12.4.3 ‘अपनी खबर’: आलोचनात्मक मल्ू यांकन
12.5 ‘अपनी खबर’: कृ वत के रूप में प्रदेम
12.6 सारांश
12.7 शब्दािली
12.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
12.9 संदभभ ग्रन्थ सचू ी
12.10 उपयोगी पाि सामग्री
12.11 वनबन्धात्मक प्रश्न

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12.1 प्रस्तावना
इस इकाई से पिू भ आपने नाटक, उपन्यास एिं किानी विधा का सैद्धांवतक एिं व्याििाररक
ज्ञान प्राप्त वकया। वितीय प्रश्न पत्र अन्य गद्य विधाओ ं पर के वन्द्रत िै। इस प्रश्न पत्र में आपने पिू भ में
वनबधं , आत्मकथा, जीिनी, आलोचना, व्यग्ं य, डायरी, यात्रािृत्त, सस्ं मरण, रे खावचत्र का सैद्धावन्तक
एिं व्याििाररक ज्ञान प्राप्त वकया। सावित्य की प्रारंवभक दशा में विधागत इतने भेद निीं िुआ करते
थे। प्रारवभक अिस्था में के िल गद्य और पद्य का मोटा विभाजन प्रचवलत था वकन्तु कालान्तर में
सामावजक एिं एवतिावसक विकास क्रम में मानिीय भािनाओ ं की अवभव्यवक्त की नयी नयी विधाएाँ
अवस्तत्ि लेने लगीं। सावित्यक विधाओ ं के अवस्तत्ि लेने के पीछे िोस सामावजक एिं सांस्कृ वतक
कारण थे। उदािरणस्िरूप िम प्रमख ु विधाओ ं की उत्पवत्त के पीछे वछपे कारणों की संक्षेप में चचाभ
करें ग।ें वजससे िम उन विधाओ ं को और अच्छी तरि समझ सकें गे। सभी साविवत्यक विधाओ ं में
सबसे प्राचीन विधा कविता का जन्म भय-स्तवु त एिं श्रम -पररिार के बीच िुआ िै। प्रकृ वत से भय एिं
देिताओ ं की स्तवु त िमारे िेदों की उत्पवत्त का कारण िै, उसी प्रकार कृ वष - कमभ के दौरान गाये जाने
िाले गीत लोक - गीतों का आधार बनते िै। नाटक की उत्पवत्त के पीछे जिााँ अनरु ण की िृवत्त िै ििीं
किानी की उत्पवत्त के पीछे किने का भाि यानी मनोरंजन िै। इसी प्रकार ’मिाकाव्य’ के अवस्तत्ि के
पीछे मानि समाज एिं संस्कृ वत को व्यापक रूप में वचवन्तत करने की प्रिृवत्त काम कर रिी थी।
आधवु नक विधाएाँ विशेषकर उपन्यास, एकाक ं ी, रे खावचत्र, सस्ं मरण, जीिनी, आत्मकथा,
ररपोताजभ, डायरी, वनबन्ध, व्यंग्य, लर्ु कथा, जैसी विधाएाँ आधवु नक जीिन की जवटलताओ ं के बीच
अपने आपको प्रकावशत करने की छटपटािट के बीच वनवमभत िुई िै। आइए िम प्रमख ु विधाओ ं के
अतं सभम्बन्ध को एक आरे ख के माध्यम से समझने का प्रयास करें ।
प्रस्ततु इकाई ‘उग्र’ की आत्मकथा ‘अपनी खबर’ के पररचय, पाि एिं आलोचना पर
आधाररत िै।

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सावित्य

पद्य गद्य

प्रबन्ध मक्ु तक उपन्यास किानी नाटक

पद/दोिा कविता गीत


लम्बी लर्ु
मिाकाव्य खण्डकाव्य लम्बी
लर्ु

मिाकाव्यात्मक उपन्यास लर्


उपन्यास उपन्यास

नाटक एकांकी अन्य

आधवु नक गद्य विधाएाँ

वनबंध उपन्यास संस्मरण आत्मकथा ररपोताजभ डायरी


आलोचना रे खावचत्र जीिनी व्यग्ं य पत्र इत्यावद लर्ु कथा

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ऊपर के आरे ख से स्पि िै वक ‘आत्मकथा ’ विधा आधवु नक गद्य विधाओ ं की श्रेणी में आती िै।
आत्मकथा का तात्पयभ ऐसी गद्य विधा से िै, वजसमें लेखक अपने बारे में (समाज भी शावमल िै)
सृजनात्मक ढंग से अतीत को खगं ालता िै। आत्मकथा लेखन का बड़ा गणु ईमानदारी मानी जाती िै,
इस दृवि से पाण्डेय बेचन शमाभ 'उग्र' की आत्मकथा 'अपनी खबर’ विशेष मित्िपणू भ िै। आगे िम
विस्तार से आलोच्य पाि का पररचय प्राप्त करने का प्रयास करें ग।े

12.2 उदेश्य
इस इकाई को पढ़ने के बाद आप -

 आधवु नक साविवत्यक विधाओ ं के भेदों से पररवचत िो सकें गे।


 आत्मकथा विधा के इवतिास को जान सकें गे।
 आत्मकथा की प्रमख
ु विशेषताओ ं से अिगत िो सकें गे।
 पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र ’ के जीिन एिं कृ वतत्ि से पररवचत िो सकें गे।
 ’अपनी खबर ’ आत्मकथा की आलोचना का पररचय प्राप्त कर सकें गे

12.3 आत्मकथा साहित्य: इहतिास एवं हवशेषता


इस इकाई की प्रस्तािना एिं पाि का उद्देश्य के माध्यम से आप इस तथ्य से अिगत िो
चकु े िै वक ‘आत्मकथा’ सावित्य आधवु नक यगु की उपज िै। वफर प्रश्न यि िै वक आत्मकथा
सावित्य मध्यकाल तक क्यों निी प्रचवलत रूप में वलखा जाता था ? िमें मालूम िै मध्यकाल तक के
सावित्य में लेखक अपने बारे में कम से कम वलखता था । बिुत िुआ तो आत्मानभु वू त एिं
समाजानुभवू त की प्रवक्रया में लेखक पंवक्त में अपना नाम वलख देता था। अपनी जावत, कुल, िश ं -
परम्परा के बारे में वजक्र कर देना भर आत्मकथा निीं िै। ‘आत्मकथा’ तो संपणू भ समान की
गवतशीलता के बीच लेखक िारा अपनी भवू मका की तलाश का सृजनात्मक प्रयास िै। आत्मकथा के
नाम पर मध्यकाल में भी आत्मकथा वमलती िै, लेवकन वजस आधवु नक आत्मकथा सावित्य की यिााँ
बात की जा रिी िै, िि मध्यकाल में कै से सभं ि िै। आत्मकथा के मल ू में आत्मप्रकाशन की भािना
मल
ू रूप में रिती िै। िम जानते िैं वक पाँजू ीिादी विकास क्रम में व्यवक्तगत के प्रकाशन पर बिुत बल

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वदया जाने लगा था। पाँजू ीिादी के विकास से पिू भ अपने बारे में कुछ बोलना या वलखना ‘अिं कार’
का िी सचू ना समझा जाता था। आधवु नक यगु में सामावजक विकास की गवतशीलता की प्रवक्रया में
एक दसू रे को अपने अनभु िों से लाभ देने की भािना ने आत्मकथा सावित्य के उत्प्रेरक का काम
वकया। आज समाज से वनरपेक्ष कुछ भी निीं िै। व्यवक्त की वनजी अनभु वू तयााँ सामावजकता के स्पशभ
से सामावजक संपवत्त बन जाती िैं। व्यवक्त /लेखक में ’स्ि’ की अनभु वू त वजतनी तीव्र िोगी िि
आत्मप्रकाशन की ओर उतना िी तेजी से मड़ु ेगा। अभी आपने पढ़ा वक आत्मकथा सावित्य के उदय
की पृष्ठभवू म क्या िै। आगे आप आत्मकथा सावित्य के प्रमखु इवतिास से पररचय प्राप्त करें ग।े
12.3.1 पा‍िेय बेचन शमाि ’उग्र’ जीवन पररचय एवं साहित्य
पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ जी का जन्म सन् 1900 ई0 में मीरजापरु (उ.प्र.) के चनु ार वजले में
िुआ था। आपका परू ा जीिन आवथभक ि सामावजक - सास्ं कृ वतक सर्ं षों के बीच िी वनवमभत िुआ।
बाल्यकाल में िी आपके वपता की मृत्यु िो जाने के कारण आप का प्रारवम्भक जीिन अत्यन्त
संकटग्रस्त िो गया। आपकी प्रारवम्भक वशक्षा चनु ार एिं िाराणसी में िुई।ं स्कूली वशक्षा बावधत िोने
तथा अथाभभाि के कारण आप बिुत वदनों तक अपने बड़े भाई के साथ अयोध्या के मिन्तों की
रामलीला मण्डवलयों में सीता और भारत का अनभु ि करते रिे। बड़े भाई के मण्डली संचालकों से
मनमटु ाि िोने के बाद आपने मण्डवलयों में अवभनय करना भी छोड़ वदया। जगि-जगि र्मू कर नाटक
मण्डली के अवभनय करने के उपरान्त उग्र जी को िुए लोक अनभु ि ने आपके सावित्य को काफी
समृद्ध वकया। नाटक मण्डली के उपरान्त चाचा की कृ पा से आपने िाराणसी में वफर वशक्षा आरम्भ
की, लेवकन उसे चनु ार गये, लेवकन उसे बीच में िी छोड़ना पड़ा। िाराणसी से आप चनु ार गये,
लेवकन भाई के डर से कलकत्ता भाग गये। आजीविका का पयाभप्त सोत्र न वमल पाने के कारण ‘उग्र’
जी िापस काशी चले आये। सन् 1921 में राष्रीय आन्दोलन में भाग लेने के कारण उग्र को जेल
जाना पड़ा। उसके पश्चात् आप 1921 से 1924 ई. तक ‘आज’ पत्र में 'अिािक्र' उपनाम से राष्रीय
किावनयााँ वलखते रिे। 1924 ई. मे उग्र जी ने एक नयी पवत्रका ’स्िदेश’ नाम से वनकाली । पवत्रका
राष्रीय भाि बोध से पररपणू भ थी, फलतः आपको सरकारी कोप का भाजन बनना पड़ा। सरकारी
िारण्ट से बचने के वलए आप पनु ः कलकत्ता चले गये। कलकत्ते में ‘उग्र’ जी तत्कालीन प्रवसद्ध पत्र
‘मतिाला’ के संपादन से जड़ु े। ‘मतिाला’ पत्र ने ‘उग्र’ जी की साविवत्यक प्रवतभा वनखारने में
मित्िपूणभ भवू मका वनभाई। ’मतिाला’ की आवथभक वस्थवत वबगड़ने के पश्चात् आप बम्बई चले गये।
ििााँ आप वफल्मों में लेखन का कायभ करने लगे। इसी बीच ’स्िदेश’ संपादन के जमु भ में वगरर्फतार कर
आपको गोरखपरु लाया गया। कै द से छूटकर उग्र जी पनु ः ‘आज’ पत्र मे काम करने लगे। काशी से

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‘उग्र’ जी इन्दौर चले गये। जिााँ आपने ‘िीणा’ और ’स्िराज’ का सपं ादन वकया। इसी बीच आपने
कुछ वदन उज्जैन रिकर ’विक्रम’ नामक पत्र का संपादन भी वकया।
12.3.2 आत्मकथा साहित्य का इहतिास
छात्रो ! पिू भ में आपने सावित्य का विभाजन तथा गद्य सावित्य की प्रमख
ु विधाओ ं के बारे में
संवक्षप्त रूप से अध्ययन वकया। आपने आधवु नक गद्य विधाओ ं की उत्पवत्त की पृष्ठभवू म को भी
समझने का प्रयास वकया। इसी क्रम में आपने आत्मकथा सावित्य की पृष्ठभवू म को भी समझने का
प्रयास वकया। आत्मकथा सावित्य आधवु नक काल में िी क्यों लोकवप्रय और प्रवतवष्ठत िुआ ? आप
इस प्रश्न के उत्तर से भी पररवचत िो चक ु े िैं। अब आप आत्मकथा सावित्य के संवक्षप्त इवतिास का
अध्ययन करें ग।े
विदं ी सावित्य की पिली आत्मकथा मध्यकाल में वलखी गई थी। बनारसीदास जैन की
आत्मकथा ‘अद्धभकथानक’ को विदं ी की पिली आत्मकथा िोने का गौरि प्राप्त िै। 1641 ई. में
‘अद्धभकथानक’ का लेखन िषभ िै। कृ वत में लेखक ने रचनाकाल का उल्लेख वकया िै। ‘‘सोलििै
अट्ठानिे, संित् अगिन मास। सोमिार वतथी पंचमी, सबु ल पक्ष परगास"। कृ वत के नामकरण के
सम्बन्ध में उन्िोंने तकभ वदया िै वक चाँवू क मनष्ु य की उम्र 110 िषभ लगभग िै, इसवलए इसकी आधी
55 िषभ का वििरण कृ वत में वििरण वदया िै। अतः ग्रन्थ का नाम अद्धभकथानक साथभक िै। अपनी
कृ वत की भाषा को लेखक ने मध्यदेश की बोली किा िै। रचना की भाषा का मल ू ढााँचा ब्रजभाषा
का िै वजससे खड़ी बोली का पटु िै। अद्धभ कथानक 675 छंदों में समाप्त िुआ िै। अद्धभकथानक का
प्रधान छन्द चौपाई और दोिा िै। आत्मकथा मे ऐसी अनेक र्टनाओ ं का उल्लेख िुआ िै। जो
इवतिास की पवू तभ कर पाने मे सक्षम िै। अपने जीिन के उतार - चढ़ाि का िणभन िो या तत्कालीन
व्यापार व्यपस्था या राजतंत्र सभी का आभाष कृ वत में वमलता िै। अद्धभकथानक के अवतररक्त
मध्यकाल मे वकसी अन्य प्रामावणक रचना की सचू ना प्राप्त निीं िुई िै। वफर क्या कारण िै वक
‘अद्धभकथानक’ और आधवु नक आत्मकथाओ ं में भेद वकया गया िै। इस सबं धं में मित्िपणू भ बात यि
िै वक ‘अद्धभकथानक’ ब्रज भाषा में वलवखत पद्धबद्ध रचना िै। आधवु नक आत्मकथा का मल ू गणु
सामावजक जीिन की गवतशीलता की प्रवक्रया से अपनी भवू मका को जोड़ने का सृजनात्मक प्रयास
िै। आइए अब िमें आधवु नक प्रमख ु आत्मकथाओ ं का सवं क्षप्त पररचय प्राप्त करें ।
आधवु नक काल में आत्मकथा सावित्य के प्रितभन का श्रेय भारतेन्दु िररश्चन्द्र को िै। भारतेन्दु
िररश्चन्द्र ने ‘कुछ आपबीती, कुछ जगबीती’ नाम से आत्मकथा वलखी िै, जो अधरू ी िै। भारतेन्दु की
आत्मकथा उनके जीिन के प्रारवम्भक िषो के वचरण और सामावजक अिरूद्धता के वचत्रण के वलए

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जानी जाती िै। स्िामी दयानन्द जी की आत्मकथा का बड़ा विस्सा उनके याथानों से सबं वं धत िै।
भारतेन्दु यगु के पश्चात् ‘वििेदी यगु ’ में आत्मकथा के छुटपटु प्रयास िोते रिे। सन् 1901 ई॰ में
अवम्बकादत्त व्यास ने ‘वनजिृत्तान्त ’नामक आत्मकथा वलखी। स्िामी श्रृद्धानन्द की आत्मकथा
‘कल्याण मागभ का पवक्षक ’ नाम से प्रकावशत िुई िै। आत्मकथा सावित्य का िास्तविक विकास
छायािादी सावित्य के उत्थान काल के बाद शरू ु िोता िै। छायािाद ने पिली बार ‘स्ि’ के
प्रकटीकरण का मागभ प्रशस्त वकया। प्रेमचन्द के संपादकत्ि में ‘िसं ’ पवत्रका का सन् 1932 में
प्रकावशत ’ आत्मकथा विशेषांक ‘इस ढंग का विदं ी में पिला प्रयास िै। इस विशेषांक के माध्यम से
आत्मकथा सावित्य की अवनिायभता के पक्ष या विपक्ष में विचारोंन्तेक बिस िुई, वजससे इस विधा के
प्रचार - प्रसार एिं प्रवतष्ठा में काफी बल वमला। आत्मकथा के विधान की दृवि से श्यामसन्ु दर दास
की ‘मेरी आत्मकिानी’ विदं ी की पिली व्यिवस्थ आत्मकथा िै । यि आत्मकथा सन् 1941 में
प्रकावशत िुई। इसी क्रम में राजेन्द्र प्रसाद की ‘आत्मकथा’ भी मित्िपणू भ रचना िै। यि आत्मकथा
लेखक के व्यवक्तगत जीिन की सचू ना के साथ िी साथ सम्पणू भ समकालीन र्टनाओ,ं व्यवक्तयों एिं
आन्दोलनों की भी प्रामावणक रूप से िमारे सामने प्रस्ततु करती िै। इसी परम्परा में कुछ और
आत्मकथाएाँ िै। - गल ु ाबराय की 'मेरी असफलताएाँ', वसयारामशरण गप्तु की ‘झिू - सच’, ‘बाल्य
स्मृवत ’ , रािुल सांकृप्यायन की 'मेरी जीिन यात्रा', यशपाल की आत्मकथा ‘वसंिािलोकन’,
वियोगीिरर की आत्मकथा 'मेरा जीिन - प्रिाि' इत्यावद । विदं ी सावित्य में सिाभवधक चवचभत
आत्मकथा िररिंशराय बच्चन की चार खण्डों में प्रकावशत आत्मकथा – ‘क्या भल ू ाँू क्या याद करूाँ’,
‘नीड़ का वनमाभण वफर’, ’ बसेरे से दरू एिं दशिार से सोपान तक' रिी िै।
12.3.3 आत्मकथा साहित्य की प्रवृहत्तयााँ
जैसा वक आपने पिू भ में पढ़ वलया िै वक आत्मकथा सावित्य आधवु नक यगु की गद्य विधा
िै। आत्मकथा या अत्य गद्य विधाएाँ पद्य में क्यों निीं वलखी जा सकतीं ? क्योंवक आधवु नक जीिन
बवु द्ध एिं विचार प्रधान यगु िै और इसके वलए गद्य के माध्यम िी उपयक्त ु िोते िैं पद्य के निीं । पद्य
मलू तः वबम्ब के आधार पर वनवमभत िोते िै और मल ू त: भाि को लेकर चलते िैं इसवलए सारी
आधवु नक साविवत्यक विधाएाँ गद्य में िी वनवमभत िुई िैं । प्रश्न उिता िै वक ‘आत्मकथा ’ सावित्य की
शरूु आत वकन पररवस्थवतयों में िुई ? आपने आत्मकथा सावित्य के इवतिास का अध्ययन करते िुउ
देखा वक मध्यकाल तक आत्मकथा उस रूप में यि आज वलखी जाती िै। मध्यकालीन कवि कभी-
कभार एक दो पंवक्तयों में अपने जीिन संबंधी वििरण दे वदया करते थे , वकन्तु िि आत्मकथा की
शतों का पालन निीं करते िैं।

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आइए अब िम देखें वक आत्मकथा सावित्य की मल ू प्रिृवत्त क्या िै ? ‘आत्मकथा’ दो
शब्दों से वमलकर बना िै। आत्म ओर कथा यानी लेखक िारा खदु ी की वलखी गई जीिनी । वजस
विधा में लेखक अपने प्रारंवभक जीिन से लेकर संम्पणू भ जीिन का सृजनात्मक ढंग से रे खांकन करता
िै, उसे िम आत्मकथा कि सकते िैं। ’ आत्मकथा के वलए यि शतभ निीं िै वक िि सम्ं पणू भ जीिन
का रे खांकन प्रस्ततु करे । िो सकता िै वक कोई लेखक अपने जीिन के वकसी एक समय को िी
रे खांवकत करे । इसीवलए ज्यादा अच्छा यि िोता िै वक लेखक जीिन के लम्बे विस्से को अपनी
लेखनी का विषय बनाये । आत्मकथा के वलए किा गया िै वक इसमें लेखक िारा अपनी खबर लेना
और अपनी खबर पािकों को देना - ये दोनों प्रवक्रयाएाँ शावमल िैं । आत्मकथा में लेखक सबसे पिले
तो आत्मान्िेषण करता िै । इस प्रवक्रया में सामावजक अन्िेषण एिं सत्यान्िेषण की प्रवक्रया भी साथ
चलती रिती िै । इसीवलए आत्मकथा का एक बड़ा गणु प्रामावणकता मानी जाती िै। इसमें लेखक
वजन आकंड़ो, तथ्यों को प्रस्ततु कर रिा िै, िे सत्य िों । चाँवू क लेखक के जीिन में र्वटत र्टनाओ ं
का साक्षी स्ियं लेखक िोता िै, इसीवलए सत्य का एकमात्र प्रामावणक स्तोत भी स्ियं लेखक िी
िोता िै। इसीवलए आत्मकथा में प्रामावणकता का िोना इसकी बड़ी शतभ मानी गई िै। आत्मकथा में
जीिन की प्रामावणक एिं तथ्यपरक र्टनाओ ं की अपेक्षा िोती िै, इसीवलए इसमें कल्पना एिं
कुवत्रमता के वलए कोई स्थान निीं िोता। आत्मकथा मे अतीत की र्टनाएं िी कें द्र में रिती िैं इसवलए
भी इसमें प्रामावणकता की संभािना ज्यादािोती िै। चाँवू क आत्मकथाके मल ू में आत्मवनमाभण या
आत्म-परीक्षण अथिा दवु नया के जवटल पररिेश में अपने आपको जानने-समझने की इच्छा मख्य
िोती िै, इसवलए आत्मकथा लेखक का बिुत बड़ा गणु उसकी ईमानदारी िोती िै। ईमानदारी के
अभाि में आत्मकथा के आत्मप्रशसं ा-प्रशवस्त बन जाने का बिुत बड़ा खत्तरा िोता िै। आत्मकथा में
लेखक के जीिन का िास्तविक साक्ष्य चाँवू क लेखक के िी पास िोता िै, इसीवलए भी लेखक से
ईमानदारी की बिुत अपेक्षा िोती िै। आत्मकथा का एक अन्य गणु यि िै वक लेखक के बिाने
पािक को एक यगु के जीिन और समाज का प्रामावणक दस्तािेज प्राप्त िोता िै। आत्मकथा िैसे ता
ज्यादातर मिापरू ु षों, लेखकों, सफल पुरूष/यिु वतयों या चवचभत व्यवक्तत्ि िारा िी वलखे जाते िैं,
लेवकन यि अवनिायभ निीं िै। आत्मकथा के वलए लेखकं का मिान् आदमी िोना जरूरी निीं । आम
आदमी (वजसका जीिन संर्षभ के बीच वनवमभत िुआ िै), वजसके जीिन-संर्षभ से िमें प्रेरणा वमलती
िै, िारा भी आत्मकथा वलखी जा सकती िे। वफर भी ज्यादातर जीिन में सफल व्यवक्तत्ि िारा िी
आत्मकथाएाँ वलखी जाती िैं क्योंवक उनके जीिन संर्षभ से िमें प्रेरणा वमलती िै। आत्मकथा ििी श्रेष्ठ
समझी जाती िै, वजसमें लेखक अपने जीिल को व्यापक पररिेश के बीच वचवत्रत करता िै।
आत्मकथा में जीिन की र्टनाओ ं का संबंध सामावजक, राजनीवतक, आवथभक और धावमभक

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पिलओ ु ं से जड़ु ी िोनी चाविए। आत्मकथा वलखने का उद्देश्य क्या िै ? कई बार यि प्रश्न वकया जाता
िै। दरअसल आत्मकथा का मल ू उद्देश्य आत्मवनमाभण, आत्मपरीक्षण या आत्मसमथभन िोता िै। इसमें
लेखक अपने आपका मल्ू यांकन भी करता िै और अपना पक्ष भी प्रस्ततु करता िै। कई बार ऐसा
िोता िै वक लेखक को समाज से यि वशकायत िोती िै वक उसे सपं णू तभ ा में निीं समझा गया िै। अतः
लेखक अपने जीिन - संर्षभ के माध्यम से अपना पक्ष समाज के सामने प्रस्ततु करता िै।’ आत्मकथा
वलखने का एक उद्देश्य यि भी िै वक लेखक चािता िै वक उसके जीिनानुभि का लाभ अन्य लोग
भी उिायें। श्रेष्ठ आत्मकथाएाँ इसीवलए आगामी यगु में अपने यगु तथा समाज के प्रामावणक दस्तािेज
के रूप में पढ़ी जाती िैं। जैसे मिात्मा गााँधी की आत्मकथा- सत्य के प्रयोग गााँधीजी के जीिन -
संर्षभ के साथ िी उनके युग का भी एक प्रामावणक दस्तािेज बन गई िै।
आत्मकथा लेखन का एक बड़ा गणु वनव्येवक्तकता या तटस्थता को माना गया िै। श्रेष्ठ
आत्मकथा लेखक िारा अपने बीते िुए जीिन के तटस्थ वसंिािलोकन का साथभक प्रयास िै। व्यापक
जीिन संर्षभ की पृष्ठभवू म में अपने जीिन की सृजनात्मक ऊजाभ की खोज का प्रयास िी आत्मकथा
सावित्य िै। इसरे शब्दों में किा जाये तो यि वक सरल भाषा में लेखक िारा स्ियं के जीिन की
सृजनात्मक अन्िेषण की प्रवक्रया का नाम िी आत्मकथा िै। आत्मकथा में लेखक अपने अतीत के
जीिन को अपनी रचना का विषय बनाता िै। लेवकन इस क्रम में िि र्टनाओ ं को अपनी रचना का
विषय निीं बनाता । िि के िल सृजनात्मक तथ्यों को िी अपनी रचना में प्रस्ततु करता िै।
12.3.4 आत्मकथा साहित्य और ‘अपनी खबर’
अब तक आपने आधवु नक गद्य विधाओ ं की उत्पवत्त एिं इवतिास का अध्ययन वकया। आधवु नक
गद्य विधाओ ं के संदभभ में आत्मकथा के अंतसभम्बन्ध का भी अपले अध्ययन वकया। इसके अवतररक्त
आत्मकथा सावित्य की मल ू भतू विशेषता क्या िै ? इस प्रश्न का उत्तर पाने का भी आपने प्रयास
वकया। आइए अब िम आत्मकथा सावित्य के व्याििाररक धरातल के आधार पर ‘अपनी खबर’
आत्मकथा की भवू मका की तलाश करें । ‘आत्मकथा ’ के वलए किा जाता िै वक यि जीिन के
उत्तराई मे वलखी जाये। यानी जीिन का एक बड़ा विस्सा लेखक ने गजु ार वदया िों। िष्यभ - विषय के
रूप में लेखक के जीिन का एक बड़ा विस्सा आत्मकथा का विषय बने। आत्मकथा में एक
क्रवमकता िो, अथाभत् र्टनाओ ं में पिू ाभपर सम्बन्ध स्थावपत िोता िो।’ आत्मकथा’ का एक बड़ा गणु
उसकी प्रििमानतर िै। आत्मकथाएाँ चाँवू क पिू ाभदीवप्त शैली में वलखी जाती िै, इसवलए भी उसमें
कथारस के साथ - िी - साथ प्रिाि का गणु अवनिायभ समझा जाता िै। आत्मकथा का िण्यभ-विषय
चाँवू क लम्बे कालखण्ड तक फै ला िोता िै, इसवलए इसमें लेखक के मित्िपणू भ में अवत मित्िपणू भ

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र्टनाओ ं के चनु ाि -वििेक की परीक्षा िोती िै। अतीत की सारी र्टनाएाँ कभी भी मित्िपणू भ निीं
िोती। िमारे जीिन की ििी र्टनाएाँ िमारे वलए मित्िपणू भ िोती िैं जो िमारे जीिन को मित्िपूणभ
वदशा दे पाने में समथभ िोती िै। एक िी र्टना वकसी व्यवक्त के वलए अलग मित्ि रखती िै, दसू रे के
वलए अलग। यि लेखक के आलोचनात्मक बोध पर वनभभर करता िै वक िि अतीत का मल्ू याक ं न
वकन धरातल पर कर रिा िै। ’आत्मकथा ’ विधा मे कई साविवत्यक विधाओ ं के गणु िो सकते िैं,
लेवकन अपनी मल ू संरचना में िि आत्मकथा िी िै। एक ओर आत्मकथा में किानी ओर उपन्यास
की तरि कथा रस का िोना अवनिायभ िै, ििीं दसू री तरी संस्मरण -रे खावचत्र की तरि काल ओर
समय का जीितं वचत्र प्रस्ततु करना भी अवनियभ िै। आत्मकथा भी िो सकता िै और डायरी शैली में
भी वलखा जा सकता िै। ििीं आत्मकथा की साथभकता उसके आलोचनात्मक मल्ू यांकन में वनवित
िोती िै। किने का तात्पयभ यि िै वक आत्मकथा कई साविवत्यक विधाओ ं का स्पशभ करती िै, लेवकन
अपनी सपं णू भ बनु ािट एिं संरचना में िि अपनी अलग विधागत पिचान स्थावपत करती िै।
आत्मकथा के साथ कई बार यि समस्या खड़ी िोती िै वक इसमें लेखक कई बार सामावजक
न्यायकार, आलोचक, उपदेशक, नीवतकार एिं पथ - प्रदशभक की भवू मका वनभाने लगता िै, ऐसे
स्थलों पर ज्यादातर आत्मकथाएाँ कमजोर िोने लगती िै।
अभ्यास प्रश्न 1

(क) सत्य/अअसत्य का चयन कीहजए।


1. आत्मकथा पद्य विधा िै। (सत्य/असत्य)
2. आत्मकथा के मल
ू में आत्मप्रकाशन की प्रिृवत्त रिती िै। (सत्य/असत्य)
3. पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का जन्म िषभ 1900 ई. िै। (सत्य/असत्य)
4. विदं ी सावित्य की पिली आत्मकथा आधवु नक काल में वलखी गई। (सत्य/असत्य)
5. अद्धभकथानक के लेखक बनारसीदास जैन िैं । (सत्य/असत्य)
(ख) हटप्पणी हलहखए।
1. आत्मकथा सावित्य की दो रचनाएाँ।

1. .................................

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2. ..................................
2. आत्मकथा सावित्य की दो विशेषताएाँ।
1. .................................
2. .................................

12.4 ’अपनी खबर’: पहरचय, पाठ एवं आलोचना


इकाई के वपछले वबन्दओ
ु ं में आपने आत्मकथा सावित्य के सैद्धावन्तक आधारों का सवं क्षप्त
अध्ययन प्राप्त कर वलया िैं। आप आत्मकथा की उत्पवत्त के कारणों एिं इवतिास से भी पररवचत िो
चक
ु े िैं । अब िम पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ की आत्मकथा ’अपनी खबर’ का पररचय प्राप्त करें ग।े
इसके उपरान्त िम आलोचनात्मक ‘आत्मकथा’ के पाि की आलोचना भी करें ग।े
12.4.1 ’अपनी खबर’: पररचय
’अपनी खबर’ विदं ी की चवचभत आत्मकथाओ ं में से एक िै। इसके रचनाकार विदं ी के
प्रवसद्ध लेखक ‘पाण्डेय बेचन शमाभ’ ‘उग्र’ िै। ‘उग्र’ जी का लेखन अपनी बेबाकी और यथाभथिादी
दृवि के कारण प्रवसद्ध रिा िै। कुछ लोगों ने इसी कारण इन्िें ’प्राकृ तिादी लेखक’ भी किा िै। जैसा
वक पिू भ में िमने अध्ययन वकया वक आत्मकथा की प्रमख ु विशेषता उसकी ईमानदारी और तटस्थता
िोती िै इस दृवि से यि आत्मकथा विदं ी में विशेष चवचभत रिी िै। ‘अपनी खबर’ का प्रकाशन िषभ
1960 ई. िै। लेखक ने साि िषभ की आयु के उपरान्त यि आत्मकथा वलखी िै, लेवकन आत्मकथा
में उसने अपने जीिन के प्रारवम्भक 21 िषों को िी रचना का आधार बनाया िै। इसका क्या कारण िै
? इसका सतं ोषजनक समाधान देना कविन िै। ‘अपनी खबर’ की अनक्र ु मावणका में कुल वमलाकर
17 अध्याय िै। ‘वदग्दशभन’, ‘प्रिेश’,जीिन -संक्षेप’ और ‘असम्बल गान’ जैसे शीषभको को िटा वदया
जाये तो आत्मकथा की दृवि से 13 अध्याय मित्िपणू भ िैं। पस्ु तक अलग - अलग शीषभको में,
अध्यायों में वलखी गई िै। 13 प्रमख ु अध्यायों में 9 अध्याय प्रमख ु व्यवक्तयों से सबं वं धत िै। 2
अध्याय ‘चनु ार’ एिं ’बनारस और कलकत्ता’ स्थान से संबंवधत िै। आत्मकथा अपने आप में जीिन
- संक्षेप िी िै वफर ‘जीिन - संक्षेप’ नामक 16 िााँ अध्याय वलखने की क्या आिश्यकता थी ?
‘अपनी खबर’ चाँवू क उस प्रकार की आत्मकथा निीं िै वजस प्रकार की आत्मकथा सामान्यतौर पर
िुआ करती िै, इसवलए लेखक ने अपने व्यवक्तत्ि के अनुकूल िी उसे अलग रूप (फामभ) में वलखा
िै। पस्ु तक में कुल वमलाकर 17 अध्याय िै, जो क्रमिार ढ़ग के इस प्रकार िै -

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1. वदग्दशभन
2. प्रिेश
3. अपनी खबर
4. धरती और धान
5. चनु ार
6. नागा भगित दास
7. राममनोिरदास
8. भानप्रु ताप वतिारी
9. बच्चा मिाराज
10. पं. जगन्नाथ पााँडे
11. लाला भगिान ’दीन’
12. पं. बाबरू ाि विष्णु पराड़कर
13. बाबू वशिप्रसाद गप्तु
14. प.ं कमलापवत वत्रपािी
15. बनारस और कलकत्ता
16. जीिन संक्षेप
17. असम्बल गान।

12.4.2 ‘अपनी खबर’: पाि हवश्ले षण


आत्मकथा का पिला अध्याय ’वदग्दशभन’ िै। व्यापक रूप से अपने को देखने की कोवशश
का नाम िी ‘वदग्दशभन’ िै। तल
ु सीदास के ‘विनय पवत्रका’ के दैन्य, ग्लावन की तरि ‘उग्र’ के जीिन
का आत्मविश्ले षण भी कुछ इसी प्रकार का िै - ’जब जनवम -जनवम जग, दख ु दखु िू वदवस पायो।’
तल
ु सी की तरि ‘उग्र’ जी की आत्मस्िीकारोवक्त देखें - ‘‘सच किता िू,ाँ कौन सा ऐसा नीच नाच
िोगा जो लर्ल ु ोभ ने मझु बेशरम को न नचाया िोगा ! वकन्तु ‘‘आप ! ’’आि ! लालच से
ललचाने के वसिाय ‘नाथ ! िाथ कछु निी लग्यो!’ पवश्चमी आत्मकथा परम्परा करने में
‘आत्मग्लावन’ जैसे तत्ि के साथ रचना की शरूु आत करने का प्रचलन निीं िै, यि भारतीय रचना
परम्परा िै, वजसका पालन ’उग्र’ जी ने वकया िै। आत्मकथा वलखने की िास्तविक शरू ु आत तब
िोती िैं जब यि स्पि िो जाये वक आत्मकथा क्यों वलखी जा रिी िै। इस दृवि से प्रिेश जी ने अपनी

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आत्मकथा वलखने का कारण ‘प्रिेश’ शीषभक अध्याय में वलखा िै। यि अध्याय इस दृवि से
मित्िपूणभ िै वक इसमें आत्मकथा वलखने का कारण, आत्मकथा पढ़ते समय सािधानी और
आत्मकथा के खतरे का संकेत ‘उग्र’ जी ने वकया िै। ‘प्रिेश’ का प्रारम्भ उस र्टना से िोता िै वजसमें
आचायभ नवलन विलाचन शमाभ, जैनेन्द्र कुमार तथा वशिपजू न सिाय ‘उग्र जी’ के र्र आते िैं। यिीं
पर वशिपजू न सिाय ‘उग्र जी’ से अपनी आत्मकथा वलखने को किते िैं। लेखक को शक ं ा इस बात
की िोती िै वक ’’...........बिुतों के बारे मे सत्य प्रकट िो जाये तो उनके यश और जीिन का वचराग
िी लपु ् - लपु ् करने लगे। ’’ आत्मकथा वलखने का उद्देश्य बताते िुए लेखक वलखता िै -
’’........वजन्िें मैं बिुत वनकट से जानता िू,ाँ ऐसो के बारे में अपने सस्ं मरण यवद कभी मैंने वलखे तो
उसका उद्देश्य भण्डाफोड़ या व्यवक्तगत वििेष निीं िोगा। उद्देश्य िोगा यि प्रमावणत करना वक कुछ
सत्य ऐसे भी िोते िैं वजन्िें कल्पना तक छू निीं सकती।’’ आत्मकथा के खतरे की ओर संकेत करते
िुए ’उग्र जी’ ने वलखा िै - ’’ अपनी याददाश्त पवब्लक की जानकारी के वलए वलखने में आत्म –
प्रशसं ा और अिं कार - प्रदशभन का बड़ा खतरा रिता िै। ऐसे संस्मरणों में वकसी एक मन्द र्टना के
कारण अनेक गणु - सम्पन्न परू ु ष पर अनािश्यक आाँच भी आ सकती िै। ’’ अपनी आत्मकथा को
सािधानी से पढ़ने की मााँग करते िुए पािकों से उग्रजी किते िैं - ’’ इन सस्ं मरणों को पढ़ने पर वकसी
को ऐसा लगे वक मैंने वनन्दा या बरु ाई वकसी की िै तो मानता िोगा वक मझु े िीक तरि से वलखना
आया निीं । दसू रा तकभ यि िै वक आइने में अपना मिाँु देख कोई यि किे वक दपभण तो उसका वनन्दक
िै, दिु दोस - दशभक, तो िीक िै। ’’ ‘प्रिेश’ का अवधकांश प्रकाशक मिोदयों एिं ‘वनराला’ पर
कें वद्रत िै, वजनका पाण्डेय बेचन शमाभ ’ उग्र ’ जी के जीिन से र्वनष्ठ संबंध िै। आत्मकथा का तीसरा
अध्याय ‘अपनी खबर ’ िै जो पस्ु तक का भी शीषभक िै। इसमें लेखक ने अपनी खबर दी भी िै ‘ली’
भी िै। अध्याय का प्रारवम्भक अश ं जन्म, पाररिाररक वस्थवत, ‘बेचन’ नामकरण के इवतिास, सनातन
ब्राह्मण धमभ के पाखण्ड पर कें वद्रत िै। इसके बाद का अश ं पाररिाररक - सामावजक व्यवभचार (िेश्या
- जआ ु ) के यथाभथ वचत्रण पर आधाररत िै। असामवयक वपतस कर मृत्यु , भाई का जआ ु खेलना -
वगरर्फतार िोना, पररिार का कजभदार िोना और तत्पश्चात् बड़े भाईयों के साथ रामलीला - मण्डवलयों
में काम करने का बड़ा जीिन्त दृश्य उग्र जी ने वचवत्रत वकया िै ’ धरती और धान ’ अध्याय वपता
िैजनाथ पांडे और माता जयकली के संस्मरण पर आधाररत िै। जनजमानी िृवत्त िाले वपता,अच्छे तो
थे - लेवकन अनबैलेन्स्ड भी कम निीं थे। सो उन्िें क्षय - रोग िुआ, वजससे असमय में िी उनके
जीिन-स्त्रोत का क्षय िो गया। इसी प्रकार मााँ के झगड़ालू पररश्रमी , गणु ी रूप के स्िरूप को उग्र
जी ने स्मरण वकया िै । माता - वपता के संस्मण के साथ िी र्र की आवथभक वस्थवत (दररद्रता) का
बड़ा हृदय विदारक दृश्य उपवस्थत वकया िै। धमभ का लोप िो रिा था, पररिार टूट रिा था यानी धमभ-

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टका यगु का उदय िो रिा था, इसका सक ं े त इस अध्याय में वकया गया िै। ‘चनु ार' शीषभक अध्याय में
जन्मभवू म के प्रवत लेखक का लगाि व्यक्त िुआ िै। चनु ार की प्राकृ वतक रमणीयता का िणभन करते
िुए लेखक वलखता िै "चनु ार विन्ध्याचल का आाँगन िी तो िै। मीिे जीिनप्रद कुएाँ , वनमभल नीरपणू भ
तालाब, बािवलयााँ, बाग, उपिन, िन, सिस्र - सिस्र िषों के इवतिासों के चरण-वचह्न चनु ार में
चतवु दभक फै ले िुए िैं । ...................... "चनु ार से सटी विन्ध्याचल की सख ु द र्ावटयों में पाररजात
के ,पलाश के , बिेड़े के मिुिे के िन - के - िन िैं । जब शरद ऋतु में सारी र्ाटी पाररजात पष्ु पों की
सख ु द सगु न्ध से भर जाती िै, लगता िै, यिी तो नन्दन - िन िै। ’’ प्राकृ वतक िणभन के साथ िी
पौरावणक - ऐवतिावसक सक ं े त की दृवि से यि अध्याय मित्िपणू भ िै। जरासन्ध के दगु भ से विक्रमावदत्य
, भतृभिरर के प्रसंग के साथ िी लेखक ने आल्िा - ऊदल के सम्बन्ध को भी जोड़ा िै। इस वकले से
सम्राट िुमायाँू , शेरशाि सरू ी, िारे न िेवस्टंग्स , चेतवसंि , पजं ाब की मिारानी वज़दं ा , िावजद अली
शाि का सम्बन्ध भी जोड़ा जाता िै। वितीय विश्वयद्ध ु के यद्ध
ु बवं दयों को वब्रवटश सरकार इसी वकले मे
रखती थी। देिकीनंदन खत्री के उपन्यासों की तो यि मख्ु य धरु ी िै िी। चनु ार के दशभनीय स्थानों में
एक दरगाि भी िै - मशिूर मवु स्लम बली िजरत कावसम सुलेमानी की। ऐवतिावसक दृवि से वब्रवटशों
की बस्ती (लोअर लाइन्स) ‘चचभ का िणभन विशेष रोचक बन पड़ा िै। गोरे सोल्जरों िारा ग्रामीण
परू
ु षों - मविलाओ ं पर मनमाने अत्याचार का िणभन रोंगटे खड़े कर देने िाला िै। नागा भगितदास
अध्याय के कें द्र में 1910 ई. के आसपास की र्टना िै। इस अध्याय में पवश्चमी पावकस्तान (उस
समय के पंजाब ) के रामलीला मडं ली के साथ लेखक के अनभु िों का वचत्र िै। इसी तरि मिन्त
राममनोिर दास अध्याय के कें द्र में 1911-12 ई. की र्टना िै। र्टना के कें द्र में अयोध्या की
रामलीला मंडली का दृश्य िै। रामलीला मंडली में व्याप्त अनैवतकता - व्यवभचार के दृश्यों को , उग्र
के प्रथम एकतरफा प्रेम (अवभरामा श्यामा से) का दृश्य भी इसी अध्याय में िै।
अगले दो अध्याय भानप्रु ताप वतिारी और बच्चा मिाराज पर आधाररत िै। दोनो व्यवक्तयों
का उग्रजी के जीिन पर बिुत प्रभाि पड़ा िै। भानप्रु ताप वतिारी की रामायण टीका एिं पुस्तकों के
संग्रि का लेखक के आध्यन से गिरा सम्बन्ध रिा िै। इसी अध्याय में उग्रजी ने अपने प्रवपतामि
सदु शभन पांडे के चमत्कारी कायो का भी स्मरण वकया िै। इसी अध्याय में उग्रजी ने स्ियं को िरकू-
ब्रह्म के कुल का बताया िै। पस्ु तकों की ओर झकु ाि लेखक को भानप्रु ताप वतिारी के कारण िुआ िो
तो आश्चयभ निीं। बच्चा मिाराज का चररत्र िैसे तो अराधकता और विलावसता का जीता - जागता
उदािरण िै, लेवकन उनकी विवचत्रता जैसे दगु ाभ सप्तशती का पाि, गीतगोविन्द के पद, विनय पवत्रका
के पद, ज्योवतष, तन्त्र और मन्त्रों में उनकी अद्भुत गवत ने उग्र जी को उनकी ओर आकृ ि वकया।

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अगला अध्याय लेखक के चाचा िारा गोद वलये जाने एिं पढ़ाई प्रारम्भ से शरू ु िोता िै। चाचा िारा
आजीविका कर वदये जाने पर चनु ार की पढ़ाई बन्द िो गई तो लेखक काशी आकर पढ़ने लगा।
आििीं तक पढ़ने के बाद आवथभक वस्थवत खराब िोने से लेखक को पनु ः चनु ार आना पड़ता िै।
चनु ार से कलकत्ता और वफर कलकत्ते से काशी। लाला भगिान ‘दीन’ अध्याय लेखक के गरू ु
पररचय से प्रारम्भ िोता िै। इस अध्याय के के द्र में िै लाला भगिान दीन जो लेखक के दसू रे गरू ु माने
जाते िैं। इनमें लाला भगिान दीन और अन्य गरुु ओ ं का सावन्नध्य में ‘उग्र ’ की साविवत्यक प्रवतभा
के विकास का वचत्र िै। प.ं बाबरू ाि विष्णु पराड़कर अध्याय ’ आज ’ पत्र के माध्यम से उग्र के
प्रवतवष्ठत िोने की किानी िै। इस अध्याय में उग्र जी के शवशमोिन शमाभ और ‘अिािक्र ’ उपनाम
की किानी भी िै। इस अध्याय में िी दस आने के विसाब से मजदरू ी वमलने का वजक्र भी िै। बाबू
वशिप्रसाद गप्तु ’ अध्याय उन्िीं को समवपभत िै। बाबू वशिप्रसाद गप्तु के अवतशय राष्र प्रेम सम्पादक,
समाजसेिक एिं सखा यानी कुल वमलाकर देिता तल्ु य रूप का बखबू ी िणभन लेखक ने वकया िै।
इस अध्याय में र्ोवषत तौर पर आजकल का अथभ सन् 1921 तक िै, लेवकन पं कमलापवत वत्रपािी
अध्याय में यि सीमा सन् 1948-49 तक चली गई िै यि अध्याय कमलापवत वत्रपािी के राष्र प्रेमी
रूप से मत्रं ी बनने तक की किानी िै। इस अध्याय से लेखक राष्र पर सत्ता की विजय का सक ं े त भी
करता िै अगला अध्याय बनारस और कलकत्ता पर आधाररत िै बनारसी संस्कृ वत की दृवि से
मित्त्िपणू भ िै उसके उपरान्त जीिन संक्षेप ओर असम्बद्ध गान से आत्मकथा समाप्त िो जाती िै।
12.4.3 अपनी खबर : आलोचनात्मक मूल्यांकन
जैसा वक पिू भ में िी संकेत कर वदया गया था वक पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’ का व्यवक्तत्ि
विद्रोिी और स्िच्छन्द वकस्म का रिा िै। उनके व्यवक्तत्ि का प्रभाि उनकी रचनाओ ं पर विशेष रूप
से पड़ा िै। ’अपनी खबर’ आत्मकथा भी उपरोक्त तत्िों से सचं ावलत िुई िै। आत्मकथा का कलेिर
अन्य गद्य विधाओ ं से वभन्न वकस्म का िोता िै। इसमें लेखक अपनी संपणू भ जीिन यात्रा को तटस्थ
ढंग से विश्लेवषत करता िै। आत्मकथा में र्ोवषत तौर पर 21 िषों का िणभन िै, लेवकन यि िणभन
क्रमिार निीं िै। किीं-किीं सन् 1921 के बाद की र्टना का भी िणभन िै जैसे कमलापवत वत्रपािी
शीषभक अध्याय। आत्मकथा चूवक लेखक िारा खदु के जीिन का क्रमिार आलोचनात्मक मल्ू याकन
िी िोता िै, बािजदू इसके एक अध्याय ’जीिन संक्षेप’ नामक रखा गया िै। आत्मकथा में र्टनाओ ं
की क्रवमकता कई बार खवं डत िोती िै। नौ अध्याय अलग-अलग व्यवक्तयों से संबवधत िै। अच्छा
िोता यवद र्टना-क्रम में व्यवक्तयों का वजक्र िोता। अलग-अलग व्यवक्त पर अध्याय रखने से

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आत्मकथा की वनरन्तरता प्रभावित िुई िैं। ’वदग्दशभन’ और ’असम्बल गान’ शीषभक अध्यायों का भी
परू ी आत्मकथा से तारत्म्य स्थावपत निीं िो पाता।

अभ्यास प्रश्न 2
(क) ररक्त स्थान पूहति कीहजए ।
1. अद्धभकथानक रचना का प्रकाशन िषभ.............. िै।
2. अद्धभकथानक..............छंदों में रवचत िै।
3. अद्धभकथानक की भाषा .................िै।
4. भारतेन्दु िररश्चन्द्र की आत्मकथा का नाम............. िै।
5. वनजिृत्तान्त आत्मकथा के लेखक............... िैं ।
(ख) सुमेहलत कीहजए।
रचना रचनाकार
1. मेरी आत्मकिानी गलु ाबराय
2. वसिं ािलोकन रािुल साक ं ृ त्यायन
3. बसेरे से दरू यशपाल
4. मेरी असफलताएाँ पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’
5. मेरी जीिन यात्रा िररिशं राय बच्चन
6. अपनी ख़बर श्यामसन्ु दर दास

12.5 अपनी खबर : कृहत के रूप मचर प्रदेय


अपनी खबर की प्रदेयता यि िै वक इसने आत्मकथा संबंधी रूप-विधान से अलग रूप-
विधान वनवमभत जैसा वकया िै। परश्चाप्य आत्मकथा ज्यादातर अक ं ों में विभक्त िोती िै, लेवकन
‘अपनी खबर’ को लेखक ने विवभन्न शीषभकों में विभक्त कर वदया। लेखक के इस प्रयोग से
आत्मकथा के िन लेखक का वनजी दस्तािेज न रिकर सामावजक दस्तािेज भी बन गई िै। कि सकते
िैं वक लेचाक के इस प्रयोय से आत्मकथा व्यवक्त और समाज के पारस्पररक सियोग का ताना-बाना
बनु ती िै। आत्मकथा में स्कूल र्टनाओ ं की अपेक्षा देश-काल की गवत से अपने को तालमेल बैिाने
की कोवशश काता नजर आता िै लेखक।

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12.6 सारांश
‘अपनी खबर’ आत्मकथा सत्रि अध्यायों में विभक्त िै। अध्याय संख्या देखते िुए
आत्मकथा की पृष्ठ संख्या (पृष्ठ संख्या 108) काफी कम लगती िै। आत्मकथा में लेखक चंवू क
अत्यन्त मित्िपूणभ र्टनाओ ं को िी अपनी रचना का विषय बनाता िै। इस दृवि से आत्मकथा में
शब्द - स्फीवत कम िी वदखती िै। आत्मकथा ‘वदग्दशभन ’ से प्रारम्भ िोती िै। यि आत्मवनिेदन,
आत्मग्लावन का िी प्रवतरूप िै। दसू रे शब्दों में किें तो यि वक यि आत्ममल्ू यांकन का सचेतन प्रयास
िै। इसके पश्चात ‘प्रिेश’ के माध्यम से लेखक ने अपनी आत्मकथा लेखन का उद्देश्य वस्थर वकया िै।
इसके पश्चात् ‘अपनी खबर ’ के माध्यम से उग्र जी ने अपने जन्मकाल, पाररिाररक, वस्थवत और
तत्कालीन समाज का यथाभथिादी वचत्र खींचा िै। आगे का अध्याय जन्मभवू म चनु ार की प्राकृ वतक
शोभा एिं उसके पौरावणक-ऐवतिावसक मित्ि पर कें वद्रत िै। क्रमश: बीच - बीच में उग्र जी अपने
पाररिाररक वचत्र भी प्रस्ततु करते जाते िैं। प्रारवम्भक जीिन काल के पश्चात उग्र जी का साविवत्यक
एिं सामावजक जीिन प्रारम्भ िोता िै। आििां एिं निां अध्याय विवभन्न व्यवक्तयों पर आधररत िै।
उन व्यवक्तयों के माध्यम से लेखक ने अपने जीिन के विकास क्रम भी दशाभया िै, जाविर िै
सामावजक विकास क्रम भी साथ - साथ िै। परू ी आत्मकथा मोटे तौर पर उग्र जी के जीिन के
प्रारवम्भक विस्सों को अपने में समेटती िै। सीवमत कालािवध के वचत्रण के उपरान्त भी आत्मकथा
अपने गिन में सफल िै।

12.7 शब्दावली
स्तवु त – श्रद्धेय की प्रशसं ा, अचभना करना।
श्रम-पररिार – काम की थकान को दरू करना
सृजनात्मक – रचनात्मक कायभ।
खगं ालना – अच्छी तरि देखना।
अन्िेषण – खोज
सत्यान्िेषण – सत्य के प्रवत अन्िेषण करना।
आत्मानुभवू त – अपनी अनभू वू त का ज्ञान

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आत्मप्रकाशन – अपने गणु ों का प्रकाशन करना
प्रििमानता – समाज के सकारात्मक बढ़ाि की प्रिृवत्त
पिू दभ ीवप्त शैली – अतीत की र्टनाओ ं को स्मृवत के आधार पर पनु :
रवचत करने की शैली।
प्राकृ तिाद – मन के अिचेतन के सत्य का उद्घाटन, अवतयथाभथिाद।
लपु -लपु करना – दीये/वजन्दगी के बझु ने का संकेत।
व्यवभचार – िासना की अवतरंजना
चतवु दभक – चारों ओर
अनैवतकता – गलत आचरण
विद्रोि – रूवढ़यों के प्रवत विरोध की भािना।
स्िच्छन्द – वनबभन्ध

12.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1 के उत्तर
1. असत्य
2. सत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य
(क) (1)
1. अपनी ख़बर
2. क्या भल
ू ाँू क्या याद करूाँ
(2) 1. आत्मप्रकाशन

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2. आत्मपरीक्षण
अभ्यास प्रश्न 2 के उत्तर
(क)
1. 1641 ई0
2. 675
3. ब्रजभाषा
4. कुछ आप बीती कुछ जग बीती
5. अवम्बका दत्त व्यास
(ख)
1. श्यामसन्ु दर दास
2. यशपाल
3. िररिशं राय बच्चन
4. गलु ाबराय
5. रािुल साक ं ृ त्यायन
6. पाण्डेय बेचन शमाभ ‘उग्र’

12.9 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. विन्दी सावित्य का इवतिास - शक्ु ल, रामचन्द्र, नागरी प्रचाररणी प्रकाशन, बनारस
2. विन्दी सावित्य का इवतिास - वसि,ं बच्चन, लोकभारती प्रकाशन,नई वदल्ली
3. विन्दी भाषा और सिं दे ना का विकास - चतिु दे ी,रामस्िरूप , लोकभारती प्रकाशन
,इलािाबाद
4. अपनी खबर - उग्र, पाण्डेय बेचन शमाभ, राजकमल प्रकाशन, नई वदल्ली
5. विन्दी सावित्य कोश, भाग 1,2 - िमाभ धीरे न्द्र, ज्ञानमण्डल प्रकाशन, काशी

12.10 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. वतिारी, रामचन्द्र - विदं ी का गद्य सावित्य, विश्िविद्यालय, प्रकाशन, िाराणसी।

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2. विन्दी सावित्य का इवतिास - शक्ु ल, रामचन्द्र, नागरी प्रचाररणी प्रकाशन, बनारस
3. विन्दी सावित्य का इवतिास - वसि,ं बच्चन, लोकभारती प्रकाशन,नई वदल्ली

12.11 हनबं धात्मक प्रश्न


1. आत्मकथा से आप क्या समझते िैं ? आत्मकथा विधा एिं सावित्य की
विशेषताएाँ बताइए।
2. ‘अपनी खबर’ का आलोचनात्मक मल्ू यांकन कीवजए ।

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इकाई 13 जीिनी - हनराला : पहरचय,पाठ एिं
आलोचना
इकाई की रूपरे खा
13.1 प्रस्तािना
13.2 उद्देश्य
13.3 जीिनी सावित्य : इवतिास एिं विशेषता
13.3.1 रामविलास शमाभ : जीिन पररचय एिं सावित्य
13.3.2 जीिनी सावित्य का इवतिास
13.3.3 जीिनी सावित्य की विशेषता
13.4 ‘वनराला’ : पररचय, पाि एिं आलोचना
13.4.1 ‘वनराला’ : रचना पररचय
13.4.2 ‘वनराला’ : पाि विश्लेषण
13.4.3 ‘वनराला’ : आलोचनात्मक मल्ू यांकन
13.5 सारांश
13.6 शब्दािली
13.7 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
13.8 सदं भभ ग्रथं सचू ी
13.9 उपयोगी पाि्य सामग्री
13.10 वनबंधात्मक प्रश्न

13.1 प्रस्तावना
स्नातक प्रथम िषभ का वितीय प्रश्न पत्र गद्य सावित्य की अन्य विधाओ ं पर कें वद्रत िै। इस
प्रश्न पत्र में मख्ु यत: आधवु नक गद्य विधाओ ं का वििेचन वकया गया िै। अब तक आपने अन्य गद्य
विधाओ ं की उत्पवत्त, िगीकरण एिं भेद का अध्ययन कर वलया िै। यि इकाई ‘वनराला’ शीषभक
जीिनी के प्रयोवगक पाि से संबंवधत िै।
जीिनी सावित्य आधवु नक यगु की गद्य विधा िै। िालांवक मध्यकाल के ‘भक्तमाल’ जैसे
ग्रथं जीिनी सावित्य के िी अगं िैं, लेवकन उनमें जीिनी सावित्य की आधवु नक विशेषताओ ं का
वनतान्त अभाि िै। जीिनी सावित्य का प्रारम्भ समाज की संक्रावन्तकालीन पररवस्थवतयों में ज्यादा

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िोता िै। जीिनी सावित्य का विषय मित्िपणू भ व्यवक्तत्ि बनता िै, लेवकन यि अवनिायभ निीं िै।
जीिनी विधा एक व्यवक्तत्ि को कें वद्रत करके भी परू े समाज का प्रामावणक दस्तािेज बन जाती िै।
इस दृवि से इस विधा की अपनी उपयोवगता िै। ‘वनराला’ वनराला के व्यवक्तत्ि पर कें वद्रत करके
वलखी गई िै। इस रचना के लेखक रामविलास शमाभ िैं, जो स्ियं िी बड़े सावित्यकार िैं। जीिनी के
मल
ू पाि के आलोचनात्मक अध्ययन के माध्यम से िम वनराला के व्यवक्तत्ि एिं रामविलास शमाभ
की अवभव्यवक्त शैली का परीक्षण करें ग।े

13.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आप –
 वनराला के प्रामावणक जीिन से पररवचत िो सकें गे।
 रामविलास शमाभ के कृ वतत्ि एिं उनके लेखन शैली से पररवचत िो सकें गे।
 जीिनी सावित्य के इवतिास का ज्ञान प्राप्त कर सकें गे।
 जीिनी सावित्य की विशेषताओ ं से पररवचत िो सकें गे।

13.3 जीवनी साहित्य : इहतिास एवं हवशेषता


जीिनी विधा आधवु नक कालीन संक्रमणशील युग की उपज िै। जब-जब समाज में
व्यवक्तत्ि का अभाि एिं जड़ता आती जायेगी, तब-तब जीिनी सावित्य की प्रासंवगकता बनी रिेगी।
आगे के वबन्दओ ु ं में िम जीिनी सावित्य की पृष्िभवू म, इवतिास एिं विशेषता से पररवचत िोंग।े उसके
पिू भ आइए, िम ‘वनराला’ नामक जीिनी के लेखक एिं प्रवसद्ध सावित्यकार राम विलास शमाभ के
जीिन एिं कृ वतत्ि का संवक्षप्त पररचय प्राप्त करें ।

13.3.1 रामहवलास शमाि : जीवनी, पररचय एवं साहित्य


रामविलास शमाभ विदं ी प्रगवतशील परम्परा के प्रवसद्ध आलोचक िैं। आपका जन्म 1912
ईसिीं में तथा मृत्यु 2000 ई. में िुई। अपने विचारोत्तेक आलोचना के कारण आपने विदं ी समीक्षा
को नई वदशा प्रदान की। लेवकन आप के िल आलोचक निीं िैं िरन् इसी के साथ िी विचारक, भाषा
वचंतन जीिनीकार, आत्मकथाकार एिं कवि भी िैं। रामविलास शमाभ उन थोड़े से विदं ी लेखकों में से
िैं वजन्िोंने विदं ी आलोचना को ऐवतिावसक बोध एिं सास्कृ वतक गररमा प्रदान की िै।
रामविलास शमाभ जी का जन्म उन्नाि, उत्तर प्रदेश में िुआ। आपकी प्रारंवभक वशक्षा झांसी
से तथा उच्च वशक्षा लखनऊ से िुई। आपने अग्रं ेजी विषय में एम0ए0 तथा पी0एच0डी0 की उपावध

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धारण की। आपके शोध का विषय – रोमैंवटक कवि कीट्स से सबं वं धत िै। आपके अध्यापन की
शरू
ु आत लखनऊ विश्िविद्यालय से िुई। उसके उपरान्त शमाभ जी बलिन्त कॉलेज, आगरा में
अध्यापन का कायभ वकया। आगरा के के .एम. विदं ी संस्थान, आगरा में आपने वनदेशन का दावयत्ि भी
संभाला। रामविलास शमाभ उन थोड़े से लोगों में िैं वजन्िोंने अंग्रेजी विषय को छोड़कर विदं ी भाषा एिं
भारतीय संस्कृ वत को अपना जीिन समवपभत वकया।
रामविलास शमाभ की पिली आलोचना कबीर पर 1934 ई. में प्रकावशत िुई थी। उसके
उपरान्त वनराला पर 1939 में आपकी दसू री आलोचना प्रकावशत िुई। विदं ी में आपने सिाभवधक
वलखा िै और उच्चस्तर का वलखा िै। रामविलास शमाभ जी की अब तक शतावधक पस्ु तकें प्रकावशत
िो चक
ु ी िैं, वजनके माध्यम से उन्िोंने विदं ी की गवतशील परम्परा को पकड़ने की कोवशश की िै। यिााँ
िम रामविलास जी की कुछ प्रमख ु पस्ु तकों को प्रस्ततु कर रिे िैं –
 प्रेमचदं – (1941 ई.)
 भारतेन्द-ु यगु – (1943 ई.)
 वनराला – (1946 ई.)
 प्रगवत और परम्परा – (1949 ई.)
 सावित्य और संस्कृ वत – (1954 ई.)
 प्रगवतशील सावित्य की समस्याएाँ – (1954 ई.)
 प्रेमचंद और उनका यगु – (1952 ई.)
 भारतेन्दु िररश्चन्द्र – (1953 ई.)
 सावित्य और संस्कृ वत – (1954 ई.)
 आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल और विदं ी आलोचना – (1955 ई.)
 लोकजीिन और सावित्य – (1955 ई.)
 स्िाधीनता और राष्रीय सावित्य – (1956 ई.)
 आस्था और सौन्दयभ – (1961 ई.)
 भाषा और समाज – (1961 ई.)
 भारत की भाषा समस्या – (1965 ई.)
 सावित्य : स्थायी मल्ू य और मल्ू यांकन – (1968 ई.)
 वनराला की सावित्य साधना I – (1969 ई.)

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 वनराला की सावित्य साधना II – (1970 ई.)
 भारतेन्दु यगु और विदं ी –सावित्य की विकास परम्परा – (1975 ई.)
 वनराला की सावित्य साधना III – (1976 ई.)
 मिािीर प्रसाद वििेदी और विदं ी निजागरण – (1977 ई.)
 नई कविता ओर अवस्तत्ििाद – (1978 ई.)
 भारत के प्राचीन भाषा पररिार और विदं ी – (तीन खडं , 1979, 80,81)
 परम्परा का मल्ू याक ं न – (1981 ई.)
 भाषा यगु बोध और कविता – (1981 ई.)
 भारत में अग्रं ेजी राज्य और माक्सभिाद – (दो खडं 1982 ई.)
 कथा वििेचन और गद्य वशल्प – (1982 ई.)
 माक्सभिाद और प्रगवतशील सावित्य – (1984 ई.)
 लोकजागरण और विदं ी सावित्य – (1985 ई., संपावदत)
 विदं ी जावत का सावित्य – (1986 ई.)
 भारतीय सावित्य के इवतिास की समस्याएाँ – (1986 ई.)
 माक्सभ और वपछड़े िुए समाज- (1986 ई.)
 पंचरत्न – 1980 (रे खावचत्र, संस्मरण, डायरी, पत्र का संग्रि)
 र्र की बात – 1983 (आत्मकथा)
 तार सप्तक – 1983 (कविताएाँ संकवलत)
 गांधी, आम्बेडकर, लोविया और भारतीय इवतिास की समस्याएाँ
 भारतीय संस्कृ वत और विदं ी प्रदेश
 पवश्चमी एवशया और ऋग्िेद
 भारतीय सावित्य और विदं ी जावत के सावित्य की अिधारणा

13.3.2 जीवनी साहित्य का इहतिास


जीिनी सावित्य का इवतिास मध्यकालीन बवि:साक्ष्य के रूप में िमारे सामने वमलता िै।
गोस्िामी तल
ु सीदास की जीिनी बाबा बेनी माधि दास की गसु ाई चररत और रर्िु रदास की तल ु सी

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चररत वमलती िै। इस वदशा में पिला व्यिवस्थत प्रयास नाभादास के ‘भक्तमाल’ में वमलता िै।
वजसमें 252 भक्तों का जीिन िृत्तात संकवलत िै। इस वदशा में मित्िपणू भ पस्ु तक ‘चौरासी िैष्णिन
की िाताभ’ और ‘दौ सौ बािन िैष्णिन की िाताभ’ िै। वकन्तु इन ग्रंथों में िैज्ञावनक दृवि का पणू भ अभाि
िै। विदं ी में आधवु नक ढंग की जीिवनयााँ 19िीं शताब्दी के उत्तराद्धभ में वलखी गई। गोपाल शमाभ
शास्त्री िारा वलवखत दयानन्द वदवग्िजय (1881 ई.), वचम्मनलाल िैश्य कृ त ‘स्िामी दयानन्द’।
1893 ई. में कावतभक प्रसाद खत्री ने मीराबाई का जीिन-चररत्र वलखा। इसी परम्परा में बाबू राधाकृ ष्ण
दास कृ त ‘भारतेन्दु बाबू िररश्चन्द्र का जीिन चररत्र’ (1904 ई.) बाबू वशिनंदन सिाय कृ त
‘िररशचन्द्र’ (1905 ई.) मित्िपणू भ जीिवनयााँ िैं। राजनीवतक व्यवक्तत्ि के ऊपर वलखी जीिवनयों में
गगं ाप्रसाद गप्ु त कृ त दादाभाई नौरोजी (1906 ई.) सपं णू ाभनदं कृ त ‘धमभिीर गाधं ी’ (1914 ई.), राजेन्द्र
प्रसाद वलवखत ‘चम्पारन में मिात्मा गााँधी’ (1919 ई.), मन्मथनाथ गप्ु त वलवखत ‘चन्द्रशेखर
आजाद’ एिं सीताराम चतिु ेदी कृ त ‘मिामना मालिीय’ (1938 ई.) प्रमख ु जीिनी िै। विदेशी
मिापरू ु षों पर भी कुछ उल्लेखनीय जीिनी वलखी गई िै। रामिृक्ष बेनीपरु ी कृ त कालभ माक्सभ (1951
ई.) रािुल सांकृत्यायन कृ त ‘माउप्से तंगु ’ (1954 ई.), कालभ माक्सभ (1954 ई.) आवद उल्लेखनीय
िैं। विदं ी में िैसे तो समृद्ध जीिनी सावित्य का अभाि िै, वकन्तु इस वदशा में कुछ उल्लेखनीय प्रयास
िुआ िै। विदं ी में प्रेमचन्द पर तीन जीिनी वलखी गई िै। प्रेमचन्द की पत्नी वशिरानी देिी ने ‘प्रेमचन्द
र्र में’ (1944) नाम से जीिनी वलखी िै ििीं उनके पत्रु अमृत राय ने ‘कलम का वसपािी’ (1962
ई.) नाम से अच्छी जीिनी वलखी िै। तीसरी जीिनी मदन गोपाल ने ‘कलम का मजदरू ’ (1964 ई.)
नाम से वलखी िै। डा. भगितीप्रसाद वसंि ने कविराज गोपीनाथ की जीिनी- मनीषी की लोकयात्रा
शीषभक से वलखा िै। इस वदशा में विदं ी में सिाभवधक मित्िपणू भ काम रामविलास शमाभ ने वकया िै।
रामविलास शमाभ ने ‘वनराला की सावित्य साधना’ नाम से वनराला के व्यवक्तत्ि एिं कृ वतत्ि को तीन
खण्डों में प्रस्ततु वकया िै। यि जीिनी जिााँ वनराला काव्य को समझने में िमारी मदद करती िै ििीं
दसू री ओर छायािादी आन्दोलन एिं तत्कालीन सामावजक-साविवत्यक पररिेश को समझने में िमारी
मदद भी करती िै। विष्णु प्रभाकर िारा वलवखत ‘आिारा मसीिा’ (1974 ई.) विदं ी की श्रेष्ि जीिनी
में से एक िै। विष्णु प्रभाकर जी ने बगं ला उपन्यासकार शरतचन्द्र के जीिन को सृजनात्मक ढगं से
प्रस्ततु वकया िै। शांवत जोशी ने सवु मत्रानंदन पंत की जीिनी ‘सवु मत्रानन्दन पंत : जीिन और
सावित्य’ शीषभक से दो खण्डों में वलखा िै। (प्रकावशत 1970, 1977 ई.) वशिसागर वमश्र ने ‘वदनकर
एक सिज परू ु ष’ (1981 ई.) शीषभक वदनकर की सन्ु दर जीिनी वलखी िै। शोभाकान्त वमश्र कृ त
‘बाबू जी’ (1991 ई.) नागाजनभु के ऊपर वलखी गई जीिनी िै। श्री विष्णचु न्द्र शमाभ की ‘अवग्नसेतु’
(1976 ई.) शीषभक से नजरूल इस्लाम की जीिनी ‘वजन्िोंने जीना जाना’ (1971 ई.) इस वदशा में
एक नया प्रयोग िै। इसमें सात सावित्यकारों, को राजनेताओ,ं एक विचारक, एक कलाकार और एक
अवभनेत्री का जीिन प्रस्ततु वकया गया िै।

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13.3.3 जीवनी साहित्य की हवशेषता
सामान्यत: जीिनी सावित्य को पररभावषत करते िुए किा जाता िै वक – यि एक लेखक
िारा मित्िपणू भ व्यवक्तत्ि के जीिन को सृजनात्मक ढंग से प्रस्ततु करने िाली गद्य विधा िै। यानी
इसमें दो पक्ष अवनिायभ िैं – एक लेखक और दसू रे जीिनी का विषय अथाभत् मित्िपणू भ व्यवक्तत्ि।
जीिनी लेखक के वलए दसू रे का जीिन अवनिायभ िोता िै। यिााँ यि प्रश्न वकया जा सकता िै वक
जीिनी विधा की आिश्यकता क्यों पड़ती िै ? अथाभत् िि कौन सी पररवस्थवतयााँ िैं जो वकसी लेखक
को जीिनी वलखने के वलए बाध्य करती िैं । आपने जीिनी सावित्य के इवतिास का अध्ययन करते
िुए देखा वक यि आधवु नक गद्य विधा के रूप में प्रवतवष्ठत िै, जबवक चररत काव्य या जीिनी लेखन
के स्फुट प्रयत्न पिले से भी िोते रिे िैं। वफर परु ाने चररत काव्य या िाताभ ग्रंथ या जीिनी लेखन से
आधवु नक जीिनी सावित्य का मख्ु य भेद क्या िै ? परु ाने चररत काव्य िस्ततु : धावमभक प्रेरणािश या
स्तवु त रूप में वलखे गये िैं जबवक जीिनी सावित्य की पिली शतभ यि िै वक यि िस्तवु नष्ि दृविकोण
से यक्ु त िोकर वलखी जाए। यि प्रश्न वक जीिनी सावित्य क्यों वलखा जाता िै ? इसका तात्कावलक
उत्तर यिी िो सकता िै वक जब-जब समाज के सामने संक्रमणशील वस्थवतयााँ िोंगी, जब-जब सामज
में व्यवक्तत्ि का अभाि िोगा, तब-तब जीिनी लेखन की आिश्यकता बढ़ती जायेगी। जीिनी अपने
मल ू रूप में व्यवक्तत्ि वनमाभण की िी विधा िै। अकारण निीं वक राष्रीय पराधीनता के समय में
सिाभवधक जीिनी लेखन का कायभ िुआ। िैसे जीिनी लेखन की प्रासंवगकता िमेशा िी ितभमान रिती
िै, क्योंवक समाज को िमेशा िी आदशभ व्यवक्तत्ि की आिश्यकता मिसूस िेाती िै। आइए अब िम
यि देखें वक एक जीिनीकार के वलए जीिनी वलखने की शतें क्या िैं ? जीिनी सावित्य की
सैद्धावन्तकी पर चचाभ करते िुए वशप्ले ने वलखा िै – जीिनी को नायक के सम्पणू भ जीिन अथिा
उसके यथेष्ट भाग की चचाभ करनी चाविए और अपने आदशभरूप में यि विवशष्ट इवतिास िोना
चाविए। यिााँ विवशष्ट इवतिास का तात्पयभ यि िै वक नायक के जीिन-संर्षभ के वचत्रण करने के क्रम
में जीिनीकार तत्कालीन यगु -पररवस्थवत का भी प्रामावणक िृत्त प्रस्ततु करे । जीिनी –सावित्य के
विवभन्न भेद भी वकए गए िैं। आत्मीय जीिनी, लोकवप्रय जीिनी, विितापणू भ जीिनी, मनोिैज्ञावनक
जीिनी, व्याख्यात्मक जीिनी, कलात्मक जीिनी तथा व्यंग्यात्मक जीिनी। वकन्तु वशप्ले इन्िें एक िी
िगभ में समावित कर देता िै। जीिनी के वलए यि आिश्यक िै वक जीिनीकार नायक के चररत्र का
विकास तत्कालीन पररवस्थवतयों के र्ात-प्रवतर्ात के बीच वदखाये। जीिन-समाज के संर्षों से
अछूती जीिनी मिान् जीिनी निीं बन सकती।
जीिनी की सामग्री के स्रोत कै से विकवसत करें । इस संबंध में कै सेल ने कुछ वबन्दु वनधाभररत
वकए िैं – (क) उसी विषय अथिा सम्बद्ध विषयों पर वलखी गई पस्ु तकें , (ख) मल ू सामग्री, यथा-
पत्र, डायरी या प्रामावणक गिेषणा-सामग्री, (ग) समकालीनों के संस्मरण, (र्) यवद िण्यभ विषय बिुत
पिले का निीं िै तो जीवित व्यवक्तयों की यादगारें , (ड्.) जीिनी-लेखक यवद अपने चररतनायक के
सम्पकभ में रिा िै तो उसके अपने सस्ं मरण और (च) उन स्थलों का भ्रमण तथा पयभिेक्षण जिााँ चररत-

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नायक रिा था। (विदं ी सावित्य कोश, भाग एक, पृष्ि-260) कै सेल िारा जीिनी सावित्य के लेखन
के वलए उपयभक्ु त सामग्री-स्तोत का वििरण मित्िपणू भ िै। लेवकन इस संबंध में िमें यि ध्यान रखना
िोगा वक िर जीिनी के स्रोत वभन्न-वभन्न िो सकते िैं। इस संबंध में वकसी सैद्धावन्तकी को िर जीिनी
पर लागू करना उवचत निीं िै।
जब भी कोई लेखक जीिनी लेखन की वदशा में प्रिृत्त िोता िै तब सबसे अवधक
आिश्यकता इस बात की िोती िै वक िि वजस पर जीिनी वलख रिा िै, उसके बारे में संपणू भ
तथ्यात्मक सचू नाओ ं का संग्रि करें । िि जो तथ्य, वििरण इकट्ठा कर रिा िै, िि प्रामावणक िै वक
निीं, इस पर जीिनी की प्रामावणकता वनभभर करती िै। इस संबंध में यि प्रश्न उिाया गया िै वक
प्रामावणक जीिनी के वलए लेखक का आलोच्य व्यवक्तत्ि को समकालीन िोना अवनिायभ िै! जीिनी
की प्रामावणकता के वलए यि अच्छा िै वक जीिनीकार अपने िण्यभ विषय व्यवक्तत्ि का समकालीन
िो, लेवकन यि अवनिायभ निीं िै। कोई लेखक इवतिास की छानबीन करके , तथ्य संग्रि करके एिं
सिानभु वू तपिू क
भ वकसी व्यवक्तत्ि पर अच्छी जीिनी वलख सकता िै। जीिनी लेखन का सबसे बड़ा
लाभ या उपयोवगता यि िै वक वकसी मित्िपणू भ व्यवक्तत्ि/क़वतत्ि से आगे आने िाली पीढ़ी
लाभावन्ित िो सके और उसका लाभ उिा सके । जीिनी के संबंध में यि प्रश्न भी उिाया गया िै वक
चवचभत व्यवक्तत्ि िी के िल जीिनी के विषय क्यों बनते िैं। इस तकभ के पीछे कारण यि िै वक सफल
व्यवक्तत्ि का अनक ु रण प्राय: लोग करते िैं, लेवकन यि िो सकता िै वक सामावजक रूप से कम
सफल व्यवक्तत्ि का जीिन-संर्षभ भी मिान िो और िि िमें प्रेरणा दे सकने की क्षमता रखता िो,
ऐसी वस्थवत में जीिनीकार वकसी भी व्यवक्तत्ि को अपने लेखन का विषय बना सकता िै। शते यि िै
वक आलोच्य व्यवक्तत्ि का जीिन संर्षभ प्रेरणादायक िो। जीिनी लेखन के वलए सािधानी यि िोनी
चाविए वक जीिनीकार वकसी गलत तथ्य को न प्रस्ततु करे । जीिनी में तथ्य का बिुत मित्ि िै।
गलत तथ्य से यक्त ु जीिनी प्रामावणक निीं िो सकती । जीिनी लेखन में िस्तवु नष्िता का गणु
अवनिायभ िोना चाविए। जीिनीकार को अपने नायक को मिान वसद्ध करने का अनािश्यक प्रयत्न
निीं करना चाविए। अपने नायक के अतं विभरोधों को िस्तवु नष्ि ढगं से प्रस्ततु करना िी जीिनी की
सफलता िै। जीिनी के वलए यि भी आिश्यक माना गया िै वक उसमें क्रमबद्धता िो। परू े जीिनी में
र्टनाओ ं की क्रवमकता बरकरार रिे। एक र्टना से दसू रे र्टना का क्रमानसु ारी संबंध स्थावपत िोता
िो। कोई र्टना वबना कायभ-कारण सम्बन्ध के जीिनी में न आई िो। जीिनीकार के वलए यि भी
आिश्यक िै वक िि अपने नायक को संपणू तभ ा में वचवत्रत करे , लेवकन उसे इस बात का ध्यान रखना
चाविए वक जीिनी में अवत-मित्िपणू भ र्टनाओ ं को िी समािेवशत करना चाविए। जीिन का िर क्षण,
िर र्टना मित्िपणू भ निीं िोते, सृजनात्मक निीं िोते। इस दृवि से विशेष का चयन जीिनी को सर्न
एिं मित्िपूणभ बनाता िै।

अभ्यास प्रश्न 1

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(क) ररक्त स्थान पवू तभ कीवजए।
1. वनराला का जन्म िषभ...............िै।
2. ‘वनराला’ पस्ु तक के लेखक.............िै।
3. वनराला की पत्रु ी का नाम.............था।
4. वनराला का जन्म............में िुआ था।
5. वनराला के जीिन पर प्रकाश डालने िाले लेखक................िैं।
(ख) वटप्पणी वलवखए
1. जीिनी सावित्य
........................................................................................................
........................................................................................................
..............................................................................................................
..................................................................................................
........................................................................................................

2. वनराला
........................................................................................................
........................................................................................................
........................................................................................................
........................................................................................................
........................................................................................................

3. रामविलास शमाभ
......................................................................................................
........................................................................................................
..............................................................................................................
..................................................................................................

13.4 मूल पाठ


भरे -परू े पररिार में वनरालाजी का जन्म िुआ था। माता थीं, वपता थे, चाचा थे, सभी कुछ
था। अबध में अपना गााँि छोड़करयि पररिार बंगाल की एक ररयासत में जा बसा था। विन्दस्ु तान की
दसू री ररयासतों की तरि बंगाल की शस्य–श्यामला भवू म पर मविषादल का भी एक राज्य था। िन

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प्रकृ वत, आम, नाररयल, कटिल, बााँस के पेड़, तालाब, नवदयााँ, बेला, जिु ी, िरवसंगार, सब कुछ था;
लेवकन जनता भख ू ी थी। यिीं पर संित् 1953 की बसंतपंचमी को पवण्डत रामसिाय वत्रपािी के र्र
बालक सयू भकुमार का जन्म िुआ। तीन िषभ की अिस्था में बालक के जीिन में एक कभी न परू ा िोने
िाला अभाि छोड़कर माता स्िगभ चली गई। कवि को “अनवगनत आ गये शरण में जन -जननी” से
उस अभाि की पवू तभ करनी पड़ी। वपता पंवडत राम-सिायअिध के सीधे-साधे वकसान थे, जो वसपािी
बन गये थे। स्िभाि की रूक्षता पिले से कुछ और बढ़ गई थी। यद्यवप अभी उनकी िैसी अिस्था न
थी, वफर भी उन्िोंने दसू रा वििाि निीं वकया। पत्नी की मृत्यु के उपरान्त िे सत्रि साल तक और
जीवित रिे और इन्र्फलुएजं ा से उनकी आकाल मृत्यु िुई।
यि आशा की जा सकती थी वक पत्नी के अभाि में िे अपना सारा स्नेि अपनी एकमात्र
संतान पर उड़ेल देंगे। यि सम्भािना भी थी वक बिुत लाड़ प्यार से िे अपने प्यारे इकलौते बेटे को
वबगाड़ देंगे। परन्तु ऐसे भय या आशक ं ा का कोई कारण न रिा। एक बार िाजत रफा करने के बाद
बालक ने यरू ोपिावसयों की तरि आधवु नक ढगं से िैंगन के पत्ते से कागज का काम वलया। ज्योंिी
तनिृत्त िोकर रसोईर्र में जाना चािता था वक भाभी ने रोक वलया और झरोखे से जो कुछ देखा था,
उसे वपताजीसे वनिेदन कर वदया। वपताजी ने गरजकर डाट बताई, लेवकन इतना काफीनिींथा। बालक
को टााँग पकड़कर उिा वलयाऔर तालाब तक ले जाकर अपने िाथ से कई बार डुबवकयााँ लगिाई ं
जैसे वकसी गन्दी चीज को साफ कर रिे िों। इस तरि बालक की अपवित्रता वनिारण करके अब उसे
वनकट से छने योग्य समझकर उन्िोंने उसे िावस्त्िक दडं देना शरू ु वकया। दसू री बार बालक के वपता
सझु ाया- तम्ु िारे मातित इतने वसपािी िैं, तमु इस राजा को लूट क्यों निीं लेते। वपता ने साचा वक यि
भी वकसी दश्ु मन का जाल िै जो इस तरि भेद लेना चािता िै। पत्रु से िि रिस्य जानने की चेष्टा
करने लगे और वचरंजीि इस सझू के वलए अपनी मौवलक प्रवतभा की दिु ाई देने लगे। परन्तु वपता को
विश्िास न िुआ; जब बालक बेसधु िो गया, तभी ताड़न-वक्रया बन्द िुई।
तीसरी बार अपने गााँि में िेश्या के लड़कों के िाथ से पानी पीने के कारण वफर ििी दशा
िुई। “मारते िक्त वपताजी इतने तनमय िो जाते थे वक उन्िें भलू जाता था वक दो वििाि के बाद पाये
िुए इकलौते पत्रु को मार रिे िैं। मैं भी स्िभाि न बदल पाने के कारण मार खाने का आदी िो गया
था। चार-पााँच साल की उम्र से अब तक एक िी प्रकार का प्रिार पाते-पाते सिनशील भी िो गया
था, और प्रिार की िद भी मालमू िो गई थी। ”
ु -ह्रदय बालक पर इस व्यििार का क्या प्रभाि पड़ा िोगा, पािक सिज िी
मातृिीन भािक
कल्पना कर सकते िैं। र्र के बािर भी उसकाजीिन सख ु ी निीं था। तल
ु सीदास की रामायण पढ़कर
उसने िनमु ान की उपासना करना सीखा था। सरोिर से लाल कमल लाकर िि उनका वसंगार करता
था। उस िीर भािना के साथ ऊाँच-नीच और छोटे-बढ़े के विचार का मेल न खाता था। राज्य में

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कायस्थ, ब्राह्मण, कुलीन और अकुलीन का प्रश्न राष्रीय समस्या की तरि िल न िो पाता था।
स्िामी प्रेमानन्दजी के मविषादल पधारने पर ब्राह्मण और कायस्थ एक िी पााँवत में भेजन पाने बैिे।
कायस्थों को गिभ िुआ वक उन्िीं की जावत के सन्यासी का अब इतना आदर िो रिा िै। इस पर विप्र
िगभ का भी ब्रह्मतेज जागा। एक ब्राह्मण ने नियिु क की आर इवं गत करके अपमानजनक शब्द किे।
जब स्िामीजी गढ़ का मवन्दर देखने गये, तब भी यिु क को उनके साथ जाने से रोका गया। एक
ब्रह्मण ने बड़े माके की बात किी, “देिता राजा के िैं, वकसी प्रजा के निीं। ”
इस तरि की प्रवतकूल पररवस्थवतयों में भी बालक से पाये िुए उित स्िभाि के कारण अपने
जीिन के सभी काम वनभीक भाि से करता रिा। स्कूल की वशक्षा निीं कक्षा तक वमली, वफर अनेक
प्रवतभाशाली सावित्यकारों की तरि उसनेसकूल को नमस्कार वकया। खेल-कूद से उसे काफी
वदलचस्पी थी और वक्रके ट और फुटबाल का अच्छा वखलाड़ी था। सिपावियों में उसके जीिन का
अके लापन बिुत कुछ दरू िो जाता था। संगीत की भी उसे वशक्षा वमली और ‘चोटीकी पकड़’ का
‘वबन्दा कित करो िमसों न रार’’ तभी से उसके कंि में बैिा िुआ िै। राजा सािब के बड़
िारमोवनयम पर यिु क कभी-कभी गाता भी था।
सम्पणू भ बाल्यकाल मविषादल में निीं बीता। जब तब िि अपने गााँि भी आया करता था।
कानपरु -रायबरे ली लाइन पर बीर्ापरु स्टेशन से लगभग दो कोष पर गढ़ाकोला गााँि बसा िुआ िै।
लेान नदी को पार करने पर गााँि के कच्चे र्र वदखाई पड़ने लगते िैं। और र्रोंकी तरि चौपाल,
छप्पर,दिलीज, आाँगन, खमसार और अटारी के नक्शे पर पवण्डत रामसिाय का मकान भी बना
िुआ िै। अिध का यि भाग बैस िाकुरों की बस्ती के कारण बैसिाड़ा किलाता िै। ताल, छोटी
नवदयााँ और नाले, र्नी अमराइयााँ यिााँ की शोभा िैं। इसे िम अिध का ह्रदय कि सकते िैं। अिधी
का सबसे मधरु रूप यिीं बोला जाता
िै। इस भाषा में ओज और कोमलता दोनों का िी विवचत्र सवम्मश्रण िै। यिााँ के वकसान पररश्रमी,
ताल्लकु दार सरकारी वपट्ठू, िाले, विप्र िगभ दभं ी और वनम्न जावतयााँ बिुत िी सताई िुई िैं, परन्तु
वशक्षाऔर व्यिसाय में उन्िोंने विशेष उन्नवत निीं की। कुछ वदन पिले िर गााँि में देा-चार पररिार
ऐसे वनकल आते थे वजनके लोग फौज में वसपािी, ििलदार या सबू ेदार तक िोते थे। बड़ी-बड़ी दाढ़ी
या गलमच्ु छे रखनेिाला पेन्शनभोगी यि िगभ अब वमट-सा गया िै।
बालक सयू भकुमार ने वपतासे अच्छी कािी पाई थी। चौदि िषभ की अिस्था िी में कसरत-
कुश्ती का शैकीन िि एक अच्छा यिु क बन गया। बैसिाड़े में, देश के बिुत से अन्य भागों की तरि,
बचपन में ब्याि करना एक गौरि की बात समझी जाती िै। अल्प अिस्था में सयू भकुमार का भी
वििाि िो गया। सासजु ी ने लड़के को बलु ाकर देख वलया, मन बैिा वलया और बात पक्की कर ली।

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परन्तु यि जानकर वक उनकी वबवटया को दरू परदेश जाना पड़ेगा, उन्िोंने यि शतभ रक्खी वक छ:
मिीने िि सासरे रिेगी ओर छ: मिीने मायके । श्िसरु उन्िें परदेश भी न ले जायेंग।े
वििाि िर के योग्य िुआ। स्िगीया मनोिरा देिी रूपिती और गणु िती दोनों थीं। रंग कवत
का-सा था, यानी खल ाँ , मिाँु लम्बा-सा, र्ने लम्बे के श, गाने में अत्यन्त वनपणु , सौ-डेढ़ सौ
ु ता गेिुआ
वस्त्रयों में धाक जमाने िाली, वििाि के समय सावित्य में कवि से अवधक योग्य। गौने से कवि का
रोमांस शरू ु िुआ । अपनी वशक्षा जारी रखने के वलए मविषादलआना पड़ा लेवकन “िामा िि पथ में
िुई िाम सररतोपम” – वशक्षा का क्रम आगे न चल सका। कुछ वदन तक डलमऊ रिे। दधू -बादान में
सास का वदिाला वनकालते-वनकालते छोड़ा। रूि की मावलश कराई, कुल्ली की सगं वत की। गगं ा के
वकनारे एक िाथ से कै थे फें ककर और दसू रे से लोकते िुए वक्रके ट का शौक परू ा करते थे। िैिाविक
जीिन का सुख अवधक वदन तक निीं बदा था । श्रीमती मनोिरा देिी ने एक पत्रु और एक कन्या को
जन्म देकर इन्र्फनएु जं ा की बीमारी में शरीर त्याग वकया। उस समय यिु क पवत मविषादल में था । पत्नी
की मृत्यु मायके में, मााँ की गोद में िुई। सब कुछ समाप्त िोने के बाद सयू भकुमार भी ििााँ आ पिुचाँ ा।
इस बज्रपात से उसकाबरु ा िाल था। र्टं ों श्मशान में बैिा रिता। किीं कोई चड़ू ी का टुकड़ा, िड्डी
या राख वमल जाती, तो उसे ह्रदय से लगाये र्मू ा करता। इन्र्फलएु जं ा में इतने मनष्ु य नष्ट िुए थे वक
गगं ा के वकनारे वदन-रात वचताओ ं की जोत कभी मन्द न िोती थी। अिधतू टीने पर बैिा यिु क कवि
र्टं ों तक बिती िुई लाशों का दृश्य देखा करता।
डलमऊ को अगर एक मनिूस जगि किा जाय तो बेजा न िोगा। जीिन से अवधक यि मृत्यु
का स्थान िै। वकसी समय िि व्यापार की मण्डी था। पृथ्िीराज और जयचन्द के समय इसका
राजनीवतक मित्ि भी था। भर राजाओ ं के विशाल वकले के ध्िसं ािशेष उसके ऐवतिावसक गौरि के
साक्षी िै। आज भी कतकी के वदनों में बड़े-बड़े आम और इमली के बगाइच जन-समिू से भर जातेि।ैं
धनषु ाकार गगं ा नगर को र्ेरे िुए िै। अनेक स्थानों से निी का चौड़ा फाट, दसू री ओर की बनरावज
और वकले से कोसों तक फै ले िुए मैदानों का दृश्य वदखाई देता िै। परन्तु अब नदी पर धनी
व्यापाररयों के बजरों की भीड़ निीं िोती। व्यिसाय नष्ट िो गया िै। मकान खण्डिर िो गये िैं। जगि-
जगि कच्ची वमट्टी के स्तपू -से बन गये िैं वजनमें जिााँ-तिााँ मानों वबलों में प्रिेश करके मनष्ु य
नामधारी जीि जीिन-व्यापार में लगे रिते िैं। नगर में अवधकतर गगं ा-पत्रु ों की बस्ती िै। र्ाट की
जमींदारी में ज्यादा गजंु ायश न िोने से बिुत से लोग नगर छोड़कर बािर जा रिे िैं। धमभ-भीरू वकसान
यावत्रयों से पैसा झटकना, फुसभत में जआ ु खेलना, दलबन्दी करके गगं ा के वकनारे लम्बी-लम्बी
लावियााँ लेकर यिु करना-यि भी यिााँ की सस्ं कृ वत में शवमल िै। िैसे दो-चार वििानों, सगं ीतज्ञों और
अन्य गणु ीजनों से डलमऊ कभी खाली निीं रिा। प्रथम मिायिु के बाद इन्र्फलएु जं ा से जब र्र खाली

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िो रिे थे, तब डलमऊ और उसके श्मसान क्या रिे िोंगे, इसकी कल्पना डलमऊ जाकर िी की जा
सकती िै।
इस मिामारी में कवि की पत्नी की िी मृत्यु निीं िुई । वपता, चाचा आवद एक के बाद एक
सभी स्िगभ वसधारे । चार भतीजे और अपनी दो संतान का भार 21 साल के यिु क के कन्धों पर पड़ा।
कन्या को, जो अभी सिा साल की थी, नानी ने पाल-पोसकर जीवित रक्खा। नौकरी की खोज शरू ु
िो गई। मविषादल में नें निीं पटी और उसे छोड़ना पड़ा। कलम की मजदरू ी का अभ्यास शरू ु िो
गया। मौवलक रचना, अनिु ाद, जो काम वमलता उसे उिा लेते। इस समय की अनेक प्रारवम्भक
रचनां,ं उपन्यास, नाटक आवद भी नष्ट िो गये। आचायभ वििेदी से पररचय िुआ और उन्िोंने बाबू
वशिप्रसाद गप्ु त को एक पत्र वलखा वक ज्ञान मण्डल में इन्िें कुछ कायभ दे दें। प्रयत्न विफल िी रिा।
अक्तबू र सन् 1921में प्रताप प्रेस से बातचीत चली। मावलक लोग बीस-पच्चीस रूपये देने को राजी
थे। उधर रामकृ ष्ण वमशन को एक सम्पादक की आिश्यकता थी। उस जगि का विज्ञापन भी
वनकला। वििेदी जी ने स्िामी माधिानन्दजी को पत्र वलखा और कानपरु में मल ु ाकात िेाने पर कम से
कम पचास रूपये मावसक िेतन पर इन्िें रख लेने को किा। वदसम्बर सन् ‘ 21 में वििेदीजी ने
वनरालाजी को वलखा, “जान पड़ता िै स्िामीजी ने बिाना कर वदया िै। पसंद वकसी और िी को
वकया िोगा। खैर उनकी इच्छा। इधर बनारस जाने में भी आपने देर कर डाली।” आगे चलकर
वनरालाजी ने रामकृ ष्ण वमशन में काम वकया और साल भर तक ‘समन्िय’ का सम्पादन वकया। इसी
समय रामचररतमानस पर उन्िोंने िे वनबन्ध वलखे वजनमें सप्त सोपान आवद की नई व्याख्या उन्िोंने
तलु सीदास को रिस्यिादी वसि वकया िै।
सन् 1913 में बाबू मिादेि प्रसाद सेि ने ‘मतिाला’वनकाला साल भर तक वनराजाली ििााँ
रिे। ‘मतिाला’ के पिले अंक में रक्षाबन्धन पर कविता छपी िै, ओर उसी के साथ ‘मतिाला’के
सम पर गढ़ा िुआ ‘वनराला’ नाम भी प्रकावशत िुआ िै। अिारििें अक ं में ‘जिू ी की कली’ छपी िै
वजसके साथ पिली बार कवि का परू ा नाम पवण्डत सयू भकान्त वत्रपािी ‘वनराला’ प्रकावशत िुआ िै।
उनके जीिन में बिुत वदनों के बाद ऐसा सख ु द िषभ आया था। मिादेि बाबू बड़ी खावतर करते थें।
बिुत वदनों के बाद अिरूि साविवत्यक प्रवतभा को प्रकाश में आने का अिसर वमला था। शाम को
भााँग छानना, वदन-भर सरु ती फााँकना, वथयेटर देखना, साविवत्यकों से सरस िाताभलाप करना, मक्ु त
छन्द में कविता वलखना, छद्म नामों से विन्दी के आचायो की भाषा व्याकरण और मिु ािरों की भल ू ें
वदखाना,और यों समस्त विन्दी ससं ार की चनु ौती देना- उनके जीिन का कायभक्रम था। उस समय ऐसा
लगता था वक मश ंु ी निजावदक लाल, बाबू वशिपजू न सिाय, और पवण्डत सयू भकान्त वत्रपािी
‘वनराला’ एक तरफ और सारी खदु ाई एक तरफ िै। बंगाल में स्िामी वििेकानन्द और रिीन्द्रनाथ

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िाकुर का कायभ देखकर विन्दी-भाषी प्रान्तों में साविवत्यक और सामावजक क्रावन्त करने के वलए
प्रबल आकांक्षा जाग उिी थी परन्तु साधन कम थे और विरोध अवधक था।
ग्रिों की विशेष कृ पा िोने से वनरालाजी साल दो साल तक िी एक जगि पैर जमाकर रि
सकते थे। साल भर बाद िी िि ‘मतिाला’ से अलग िो गये और अगले पााँच िषभ अवस्थरता,
आवथभक वचन्ता, शारीररक और मानवसक रोग में बीते। कलकत्ते से चलते िुए उन्िोंने बाबू
बालमक ु ु न्द डागा, पवण्डत लक्ष्मण नारायण गदे, पवण्डत सकल नारायण शमाभ और पं0 जगन्नाथ
प्रसाद चतिु दे ी से अपनी योग्यता के प्रमाणपत्र वलये। चतुिदे ीजी नई कविता, विशेष रूप से मक्ु त
छन्द के प्रबल विरोधी थे। कवि-सम्मेलनों में िे वनरालाजी की नकल उतारा करते थे। सम्ित् 1983
में अपने वदये िुए प्रमाण-पत्र में उन्िोंने विरोध का वजक्र न करते िुए वलखा था, “आपके वनराले ढगं
के पद्यो ने विन्दी संसार में यगु ान्तर-सा उपवस्थत कर वदया िै।” पता निीं, किााँ तक इन प्रमाण पत्रों ने
आवथभक प्रश्न िल करने में सिायता की।
सन् ’26 से ’28 तक का समय उनकी र्ोर अस्िस्थता का समय भी था। इन िषो में
प्रसादजी,शावन्तवप्रय वििेदी, विनादशक ं रजी व्यास, पंवण्डत कृ ष्ण वििारी वमश्र, प्रेमचन्दजी आवद ने
उन्िें जो पत्र वलखे िै, उनमें बराबर बीमारी की चचाभ िै। तो कभी में फोड़ा,तो कभी और कुछ। उस
समय आज की तरि का भारी शरीर निीं था। ‘सधु ा’में छपे िुए उनके परु ाने वचत्र में उनका बिुत कुछ
ििीं िुवलया िै जो आजकल उनके पत्रु पवण्डत रामकृ ष्ण वत्रपाडी का िै। प्रेमचन्दजी ने फरिरी सन्
’28 में अपने पत्र में वलखा था, “मीयादी बख ु ार क्या इसीवलए आपकी ताक में बैिा था वक र्र से
वनकलें तो धर दबाऊाँ। वकस्मत ने ििााँ भी आपका साथ न छोड़ा। बीमारी ने तो आपकों दबा डाला
िोगा। पिले िी किााँ के ऐसे मोटे-ताजे थे।” रोग और आवथभक कष्टों से यि लड़ाई अवधकतर
गढ़ाकोला के उसी कच्चे मकान में िुई।जब-तब कलकत्ता जाते रितेथे। बाजार के काम से जो कुछ
वमलता उसमें से खाने-खरचने के बाद यथाशवक्त भतीजों को भी भेजते थे। उनके परु ाने कागज-पत्रों में
कुछ मनीआडभर की रसीदें िैं वजनसे पता लगता िै वक गृिस्थी के प्रवत िे वनतान्त उदासीन न थे। सन्
’26 में पवण्डत मन्नीलाल शक्ु ल, माफभ त रामगोपाल वत्रपािी, के नाम कलकत्ते से पचास रूपये भेजे
थे। कलकत्ते से भी िे र्र की छोटी-छोटी बातों के वलए वनदेश वकया करते थे। एक उदािरण काफी
िोगा। वसतम्बर सन् 27 में उन्िोंने अपने भतीजे श्री के शि प्रसाद को वलखा था, “तमने जो लोगों के
दाम दे वदये और अनाज खरीद वलया, से अच्दा वकया। पवण्डतजी ने बाग का चारा 22 रूपये में बेच
डाला यि भी अच्छा िुआ। देखना, पेड़ न चर जां,ं जो पौधे िैं। रूपया पवण्डतजी को िम बिुत
जल्द भेजते िैं।…………… तमु लोगों को जड़िर भेजेंग।े ” सन् ’28 में एक पत्र में उन्िोंने बाग
बेच डालने का वजक्रवकया िै और वलखा िै, “खचभ की तकलीफ िो तो बतभन बेच डालना। तकलीफ
न सिना।” शायद इन्िीं सब बातों को सोचकर ‘सरोज स्मृवत’ में उन्िोंने वलखा था-

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“दखु िी जीिन की कथा रिी
क्या किुाँ आज, जो निीं किी।”
इसी समय उनिोंने ‘ध्रिु ’, ‘प्रिलाद’, ‘राणा प्रताप’, रिीनद्र-कविताकानन’, ‘विनदी-
बंगला वशक्षा’, ‘रामकृ ष्ण िचनामृत’, आवद पस्ु तकें वलखीं या अनिु ाद कीं। ‘िैक िकभ ’ या बाजार
का काम उन्िें बराबर करना पड़ा लेवकन प्रकाशकों की िग-विद्या के कारण उसे भी िे जमकर निीं
कर सके । पत्रों के सम्पादक काम मााँगने पर क्िावलवफके शन पूछते थे।
चण्डीदास के पदों का अनिु ाद करने के वलए इसी िषभ छतरपरु से भी बल
ु ािा आया। उस
समय बाबू गल
ु ाबराय मिाराज सािब के प्राइिेट सेक्रेटरी थे।
अन्यत्र रिीन्द्रनाथ िाकुर की रचनाओ ं का अनिु ाद करने की बात भी चल रिी थी।
कोपीराइट के झगड़े के कारण राय श्रीकृ ष्णदासको अनिु ाद कराने का विचार छोड़ना पड़ा। सन् ’28
ु में ‘माधरी’ के सम्पादक ने पछ
के शरू ू ा वक सम्पादन विभाग में जगि वमलने पर क्या िि सम्पादक
की वजम्मेदाररयों को वनभा सकें गे। विन्दी, अग्रं ेजी आवद भाषाओ ं के बारे में उनकी योग्यता की जााँच
करते िुए यि भी पछ ू ा गया था, “प्रफ ू रीवडंग का कै सा अभ्यास िै ?” विन्दी में प्रफ ू रीडर और
सम्पादक, ये दोनों शबद पयाभयिाची से िैं। सम्पादकके पत्र के उत्तर में उन्िोंनेजो कुछ वलखा िो,
अगले मिीने ‘माधरु ी’ कायाभलय ने वलख भेजा, “इन शतो पर अभी आपकों न बल ु ा सकाँू गा।”
सन् ’28 से उन्िोंने स्थायी रूप से गगं ा-पस्ु तक-माला कायाभलय में काम करना शरू
ु वकया।
‘सधु ा’के वलए िे संपादकीय नोट वलखते थे और उसके सम्पादन का सारा भार सॅभलते थे।
यिींपर’अप्सरा’, ‘अल्का’ उपन्यास और ‘वलनी’की किावनयााँ वलखीं । उनका अध्ययन-क्रम भी
पिले की अपेक्षा सव्ु यिवस्थत िुआ। विश्िविद्यालय के छात्रों का एक ऐसा दल भी तैयार िुआ जो
इनके सावित्य का समथभन करता था और अपने सावित्य के वलए इनसे प्रोत्सािन पाता था। अचल,
काँु िर चंद्रप्रकाशवसंि, रामरतन भटनागर ‘िसरत’,दयानन्द गपु त आवद उनके वनकट संपकभ में आने
िाले तरूण साविवत्यक थे।
प्रसादजी उनसे स्नेि िी न करते थे, इनकी देखभाल भी करते थे। रूग्णािस्था में उन्िोंने
औषवध आवद का प्रबन्ध करने में बड़ी सिायता की थी। तथी श्री सवु मत्रानन्दन पन्त से पत्र-व्यििार
शरू
ु िुआ और एक िी साविवत्यक आन्दोलन में काम करने के कारण साक्षात् पररचय न िोने पर भी
सिज मैत्री सम्बन्ध स्थावपत िो गया।‘पल्ल’ की भवू मका में आक्षेप करने के कारण वनरालाजी ने
‘पल्लि’पर एक ध्िसं ात्मक लेख वलखा। आगे भी ‘भारत’ आवद पत्रों में िादवििाद चला, परन्तु

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उससे उनकी मैत्री में कभी अन्तर निीं आया। शायद िी वकसी यगु के तीन कवियों में ऐसा स्नेि
सम्बन्ध रिा िो जैसा प्रसाद, वनराला और पन्त में था और शायद िी वकन्िीं दो व्यवक्तयों के स्िभाि
में इताना अन्तर िो वजतना पन्त और वनराला के । वफर भी दोनों ने न जाने वकतने वदन र्ण्टों एक साथ
रिकर वबताये िै।। इसका यिी कारण िै वक िे एक दसू रे को वजतनी अच्छी तरि जानते पिचानते िैं,
उतना शायद दसू रा निीं।
काँु िर चन्द्रप्रकाश वसिं , रामरतन भटनागर ‘िसरत’ दसू री कोवट के वमश्र थे। इनमें
चन्द्रप्रकाशजी को वनराजाली पर सबसे ज्यादा श्रिा थी। उनके गीतों पर मिाकवि की शैली की छाप
िै। ‘अप्सरा’के बारे में िाद वििाद िोने पर उन्िोंने उसमें विस्सा वलया था । भागभि मैजवे स्टक िोटल
टूटने पर िि मकान लेकर रिने लगे। 58 न0ं नाररयल िाली गली के दमु वं जले मकान में िि कई साल
तक रिे। कभी रामकृ ष्णजी और स्िगीय सरोज आकर साथ रिती थीं। सरोज के चले जाने पर िे
उसमें बिुधा अके ले िी रिे। कलकत्ते के बालकृ ष्ण प्रेस और गढ़ाकोला के र्र की तरि इस मकान
का भी साविवत्यक मित्ि िै। ‘तल ु सीदास‘, ‘प्रभािती‘, ‘गीवतका‘ के अवधकांश गीतों की रचना
इसी समय िुई। गगं ा-पस्ु तकमाला के सच ं ालक श्री दलु ारे लाल भागभि से उनकी अच्छी िी वनभी।
वनरालाजी सम्पादन-कायभ िी न करते थे, दल ु ारे लालजी की साविवत्यक कायभिािी में भी सिायता
करते थे। ‘दल ु ारे दोिािली‘ की पिली भवू मका उन्िोंने वलखी थी और उसके दोिों के बारे में परामशभ
वदया था। ‘िीणा‘ में एक दोिे के अनेक अथभ करके उन्िोंने अपनी समझ में दोििली का बड़ा अच्छा
समथभन वकया था। उनके वप्रय वमत्र बनारसीदासजी चौबे ऐसे मौकों की ताक में िी रिते थे अपनी
समझ में उन्िोंने भी खबू फायदा उिाया। गगं ा-पस्ु तक-माला से अलग िोने के समय ‘गीवतका‘ प्रेस
में जा चक ु ी थी। उस समय वजतने गीत वलखे गये थे, वनरालाजी ने उनकी टीका भी की थी। सौदा न
पटने के कारण पस्ु तक प्रेस से मांग ली गई और िि वफर लीडर प्रेसमें छपी। लखनऊ छोड़ने पर
अवधकतर िे इलािाबाद िी रिे। सालभर तक मकान बन्द पड़ा रिा। वपछला वकराया उतारने के वलए
नया चढ़ाते रिे। लीडर प्रेस से लौटकर एक मश्ु त वकराये की बड़ी रकम अदा की। ‘गीवतका‘,
‘अनावमका‘, ‘वनरूपमा‘, पस्ु तकें लीडर प्रेस से प्रकावशत िुई ।
इसके बाद कुछ वदन के वलए िे वफर लखनऊ में आकर रिने लगे। नाररयल िाली गली से थोड़ा
आगे चलकर भसू ामण्डी िाथीखाना में उन्िोंने मकान वलया। यि पिले काग्रं ेसी मवन्त्रमण्डल का
जमाना था। इन्िीं वदनों पं. श्रीनारायण चतिु दे ी से भी उनका पररचय िुआ। चतिु दे ीजी प्राचीन
सावित्य के प्रेमी िैं। छायािाद के प्रवत उनकी िैसी सिानभु वू त निीं िै। आयभनगर में उनके र्र पर
अक्सर साविवत्यक वििाद िुआ करता था। भसू ामण्डी के मकान में रिते िुए वनरालाजी ने इवण्डयन
प्रेस के वलए बंवकम बाबू के उपन्यासों के अनिु ाद का काम वकया। दो-तीन उपन्यास अनिु ाद करने
के बाद मालमू िुआ वक इवं डयन प्रेस के व्यिस्थापक अनिु ाद के शब्दों के विसाब से इन्िें काफी

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रूपया दे चकु े िैं। वनरालाजी के अनसु ार यि विसाब-वकताब गलत था और उन्िोंने काम बन्द कर
वदया।
मिायद्ध
ु वछड़ चक ु ा था जब िे किी गये। ििॉं बरु ी तरि बीमार पड़ गये और उनकी िास्तविक
वस्थवत से उनके अवधकांश वमत्र अपररवचत िी रिे। इसी बीमारी से करीब 70 पौण्ड िजन कम िो
गया। उस बार स्िास्थ्य वगरने से िे वफर अच्छी तरि सभं ल निीं पाये। दारागजं , प्रयाग में उन्िोंने एक
छोटा-सा मकान वलया वजसके एक भाग में उसके मकान-मावलक भी रिते थे। इसकी छत इतनी
नीची थी वक आदमी उसे िाथ उिाकर छू सकता था। वनरालाजी के वलए यि मकान किर्रे जैसा
था। इसी में ‘चोटी की पकड़‘, ‘काले कारनामे‘, ‘नये पत्ते‘ ‘बेला‘ आवद पस्ु तकें उन्िोंने वलखीं।
प्रातःकाल गगं ा निाते थे और स्ियं भोजन पकाते थे। बतभन धोना, र्र साफ करना- जब भी िे उसे
साफ करते िों- उनका अपना काम था। इसमें रिते िुए उनकी दशा बराबर वचन्ताजनक रिी। श्रीमती
मिादेिी िमाभ ने सावित्यकार संसद के िारा और िैसे भी उनकी देखरे ख करने का प्रयत्न वकया। कुछ
लोगों की धारणा िै वक वनरालाजी को जो कुछ रूपया वमलता िै, िे सब खा-पी डालते िैं। इसके
विपरीत सत्य यि िै वक अवधकांश िे दान कर देते थे। किीं कोई कवि-सम्मेलन िुआ, बल ु ािा आने
पर बड़े िी व्यािसावयक ढंग से सौदा पटाया, पेशगी रूपया मॅगाकर
ं कपड़े-लत्ते बनिाये, वजसमें दरी,
चादर, रजाई, तवकया, जतू े िगैरि सभी कुछ शावमल िै। दसू रे कवि-सम्मेलन तक उनके पास जतू े
छोड़कर शायद और कुछ भी निीं रि जाता। इसीवलए वफर पेशगी मांगने और पिले से अच्छा सौदा
पटाने की जरूरत पड़ती थी। वजस तरि जिानी मं िि बच्चों के वलए खचभ भेजते थे, उसी तरि अब
भी गृिस्थी की ओर उनका बराबर ध्यान रिता था। पिली पत्रु िधू का देिान्त िोने पर उन्िोंने
रामकृ ष्णजी का दसू रा वििाि वकया और इन सब कामों में काफी रूपया खचभ वकया। अब भी
यथासम्भि िि उनकी सिायता करते िैं।

13.5 हनराला : पहरचय,पाठ एवं आलोचना

13.5.1 ‘हनराला’ : रचना, पररचय


‘वनराला’ पस्ु तक विदं ी के शीषभ समालोचक रामविलास शमाभ िारा वलवखत िै। इस पस्ु तक
का प्रकाशन िषभ 1946 ई. िै। विदं ी सावित्य में वनराला पर वलवखत यि प्रथम स्ितंत्र पुस्तक िै।
वनराला का काव्य - ससं ार इतना िैविध्य पणू ,भ प्रयोगधमो रिा िै वक िे बिुत वदनों तक समालोचकों
एिं पािकों के बीच अबझू िी बने रिे। वनराला की मक्ु त छंद संबंधी अिधारणा िो या अन्य प्रयोग िे
सदैि अलग िी खड़े वदखे। आचायभ रामचन्द्र शक्ु ल जैसे समीक्षक भी वनराला सावित्य की
‘बिुिस्तस्ु पवशभनी प्रवतभा’ को तो सरािते िैं लेवकन स्ियं उस प्रवतभा के विश्लेषण का प्रयास निीं
करते। आचायभ नन्ददल ु ारे बाजपेयी ने अिश्य छायािाद के संदभभ में ‘विशाल भारत’ में मित्िपूणभ
लेख वलखा, लेवकन उसका विस्तार उन्िोंने बिुत बाद में वनराला पर ‘कवि वनराला’ नामक

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आलोचनात्मक पस्ु तक वलखकर वकया। इस दृवि से बच्चन वसिं ने अिश्य रामविलास शमाभ जी की
पस्ु तक के तरु न्त बाद िी ‘क्रावन्तकारी वनराला’ नामक पस्ु तक वलखा, लेवकन रामविलास शमाभ जैसी
तावकभ क दृवि का बच्चन वसंि में अभाि िै। किने का भाि यि िै वक रामविलास शमाभ ऐसे पिले
आलोचक िैं और ‘वनराला’ ऐसी पिली पस्ु तक िै वजसने मिाकवि वनराला को साविवत्यक प्रवतष्िा
प्रदान की। इस पस्ु तक का क्रावन्तकारी मित्ि इस बात में भी िै वक इसके प्रकाशन से पिू भ छायािादी
पररवध में वनराला की वस्थवत जयशक ं र प्रसाद एिं सवु मत्रानन्दन पतं के बाद मानी जाती थी, वकन्तु इस
पस्ु तक के प्रकाशन के पश्चात् वनराला छायािाद के तो प्रथम पांक्तेय िुए िी, विदं ी कविता के भी
शीषभस्थ कवि स्िीकार कर वलये गए। ‘वनराला’ पस्ु तक में कुल 16 अध्याय िैं। भवू मका को भी
शावमल कर वलया जाये तो इनकी सख्ं या 17 िो जाती िै। अध्यायों के शीषभक िैं िैसिाड़े का जीिन,
सावित्य की पृष्ठभवू म, एक आकषभक व्यवक्तत्ि, सांस्कृ वतक जागरण और पररमल, रीवतकालीन
परम्परा और छायािाद, नया कथा-सावित्य, गीत, विराट की उपासना, ‘तल ु सीदास’ और ‘राम की
शवक्त पजू ा, कथा-सावित्य में नई प्रिृवत्तयााँ, प्रगवत और प्रयोग, वनराला जी की यद्ध ु कालीन कविताएाँ,
जीिन-दशभन और कला, उदात्त-अनदु ात्त, मृत्यन्ु जयी वनराला, "यि मतिाला – वनराला’’। चाँवू क
यिााँ िमारे वििेचन का कें न्द्र-वबन्दु जीिनी सावित्य िै, इस दृवि से वनराला जी के जीिन संबधं ी ज्ञान
की दृवि से ‘बैसिाड़े का जीिन’ अध्याय विशेष रूप से प्रासवं गक िै, इसीवलए इस अध्याय का चयन
वकया गया िै।

13.5.2 ‘हनराला’ : पाि हवश्लेषण


आलोच्य पाि ‘बैसिाड़े का जीिन’ पररमाण में छोटा िै वकन्तु अपने लर्ु कलेिर में यि
बड़ा जीिन-पररदृश्य समेटे िुए िै। पाि का प्रारम्भ वनराला जी की पाररिाररक पृष्िभवू म से िोता िै।
वकसी सावित्यकार के गिन में उसकी पाररिाररक-भौगोवलक पृष्िभवू म कै से सास्ं कृ वतक पृष्िभवू म बन
जाती िै, इसका संकेत लेखक ने पाि के प्रारम्भ में िी करा वदया िै – भरे -परू े पररिार में वनराला जी
का जन्म िुआ था। माता थीं, वपता थे, चाचा थे, सभी कुछ था। अिध में अपना गााँि छोड़कर यि
पररिार बंगाल की एक ररआसत में जा बसा था।..............बंगाल की शस्य-श्यामला भवू म पर
मविषादल का भी एक राज्य था। िन, प्रकृ वत, आम, नाररयल, कटिल, बााँस के पेड़, तालाब,
नवदयााँ, बेला, जिू ी, िरवसगं ार, सब कुछ था; लेवकन जनता भख ू ी थी। यिीं पर सिं त् 1953 की
बसंतपंचमी (1897 ई.) को पवण्डत रामसिाय वत्रपािी के र्र बालक सयू भकुमार का जन्म िुआ था।"
‘जनता भख ू ी’ और ‘यिीं पर’ के विरूद्धों से कै से विदं ी का क्रावन्तकारी कवि वनराला जन्म लेता िै,
इस पृष्िभवू म को बड़े सन्ु दर ढगं से लेखक ने वदखाया िै। मााँ की मृत्यु के अभाि की पवू तभ कवि कै से
"अनवगनत आ गये शरण में जन-जनवन’’ वलखकर कवि कर सका िै, इस पृष्िभवू म का संकेत भी
रामविलास जी ने वकया िै। वकसी कवि के वनमाभण में उसकी सामावजक-सास्ं कृ वतक पररवस्थवतयााँ
कै से योगदान करती िैं, इस दृवि से आलोच्य पाि मित्िपणू भ िै।

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वनराला जी के व्यवक्तत्ि वनमाभण में मविषादल के साथ िी बैसिाड़े के जीिन की भवू मका
रिी िै। बैसिाड़े का पररचय लेखक ने इन शब्दों में वदया िै : "अिध का यि भाग िैसे िाकुरों की
बस्ती के कारण बैसिाड़ा किलाता िै। ताल, छोटी नवदयााँ और नाले, र्नी अमराइयााँ यिााँ की शोभा
िैं। इसे िम अिध का हृदय कि सकते िैं। अिधी का सबसे मधरु रूप यिीं बोला जाता िै। इस भाषा
में ओज और कोमलता दोनों का िी विवचत्र सवम्मश्रण िै।" वनराला रचना में ओज और कोमलता
दोनों िी िै और अपने समन्ु नत रूप में िै।
वनराला के जीिन में मनोिरा देिी का आगमन और एक पत्रु और एक कन्या को जन्म देकर
इन्र्फलएु जं ा की बीमारी से मृत्यु एक साथ िी रोमानीिृवत्त और करूणा दोनों भाि दे गया। पत्नी मृत्यु
के उपरान्त ‘र्टं ों श्मशान में बैिा रिता। किीं कोइभ चड़ू ी का टुकड़ा, िड्डी या राख वमल जाती, तो
उसे हृदय से लगाये र्मू ा करता।' ‘जिू ी की कली’ की रचना श्मशान में बैिकर िी की गई िै। द:ु ख
जिााँ कविता बनती िै, ििााँ वनराला का सर्षभ और सृजन िै। भारतीय परम्परा में वशि की सती के
वलए विलाप, कावलदास का अज-विलाप इत्यावद ऐसे प्रसंग िैं जो वनराला के जीिन में साक्षात िोते
िैं। डलमऊ का मृत्यु साक्षात श्मशान का िणभन तत्कालीन भारतीय पररिेश का जीता-जागता
उदािरण बन गया िै। इस मिामारी में कवि के वपता, चाचा भी स्िगभिासी िुए। 21 िषभ के यिु क के
कंधे पर चार भतीजे और दो सतं ान का भार। ऐसी विषम पररवस्थवत में साविवत्यक-सर्ं षभ की
शरू ु आत भी िोती िै : "लौटी रचना लेकर उदास/ताकता िुआ में वदशाकाश’’ का समय भी यिी िै।
लेवकन जो लेखक अपने आत्मसंर्षभ को सािभजनीन बना देता िै और सामावजक संर्षभ को व्यवक्तगत
सर्ं षभ बना देता िै – ििी वनराला िै। ‘राम की शवक्त पजू ा’ और ‘सरोज स्मृवत’ जैसी रचनाएाँ इसी
संर्षभ की साविवत्यक प्रवतध्िवनयााँ िैं। ‘समन्िय; ‘मतिाला’ पत्रों के माध्यम से वनराला की
साविवत्यक प्रवतध्िवनयााँ िैं। ‘समन्िय; ‘मतिाला’ पत्रों के माध्यम से वनराला की साविवत्यक प्रवतभा
कै से वनखरती िै, इसका संकेत रामविलास शमाभ जी ने बिुत िी सन्ु दरता के साथ वकया िै। 1928-30
तक का समय वनराला जी के शारीररक अस्िस्थता और साविवत्यक विकास का समय िै। वनराला जी
के साविवत्यक सर्ं षभ, उनकी रचनाओ ं के प्रकाशन और पत्र-पवत्रकाओ ं के सपं ादन के दावयत्ि को
रामविलास जी ने उनके समानधमाभओ ं के सम्बन्ध पर कें वद्रत िै। वनराला को प्रारंवभक समय में वजतना
विरोध झेलना पड़ा था, उतना िी उनके प्रशसं कों का िगभ भी उनके पक्ष में खड़ा िोता गया। भारतीय
जनता के जीिन संर्षभ के स्िर के ा वनराला ने पिचाना और वनराला के संर्षभ को रामविलास जी ने।
अब रामविलास शमाभ जी के इस कमभ को आगे आने िाली पीढ़ी को समझने की जरूरत िै।

13.5.3 ‘हनराला’ : आलोचनात्मक मूल्यांकन


वनराला को मिाकवि के रूप में प्रवतष्िा देने िाले आलोचक रामविलास शमाभ की यि
वनराला पर वलखी गई प्रथम आलोचनात्मक पस्ु तक िै (वनराला पस्ु तक में लेखक का िक्तव्य)।
‘वनराला’ पस्ु तक मल
ू रूप से आलोचना की पस्ु तक िै, जीिनी निीं। वकन्तु ‘बैसिाड़े का जीिन’

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शीषभक एक अध्याय अपनी व्यापकता एिं गिराई से जीिनी सावित्य की सारी विशेषताओ ं को
अपने में समेटे िुए िै। वनराला का जन्म, उनकी पाररिाररक पररवस्थवत, उन्नाि (गढ़ाके ाला) एिं
मविषादल की सामावजक भौगोवलक पररवस्थवत और छायािादी यगु का साविवत्यक पररिेश सभी
कुछ एक छोटे से अध्याय में रामविलास जी ने समेटा िै। चवाँू क यि अध्याय के रूप में वनराला की
जीिनी िै, अत: जीिनी सावित्य की संपणू भ विशेषता का इसमें आशा करना व्यथभ िी िै। वनराला के
जीिन और उसमें भी उनके साविवत्यक सर्ं षभ को इस अध्याय में जगि वमली िै, अपेक्षाकृ त सवं क्षप्त
रूप में। वनराला सावित्य के प्रारवम्भक स्िरूप का विस्तार भी इसमें कम िै। लेवकन संकेत रूप में
लेखक ने सयू भकान्त वत्रपािी के ‘वनराला’ में रूपान्तरण का वजक्र अिश्य कर वदया िै। इस पाि की
सबसे बड़ी विशेषता यि िै वक इसमें रामविलास शमाभ जी ने वकसी रचनाकार के पररिेश से उसके
व्यवक्तत्ि के विकास के अतं सभम्बन्ध को बड़ी सक्ष्ू मता से उद्घावटत वकया िै। लेखक की भाषा
प्रिािपणू भ िै। यि गद्य की समस्त विशेषताओ ं से यक्ु त िै तथा अनािश्यक अलक
ं रण के भार से मक्ु त
भी िै। कुल वमलाकर जीिनी सावित्य के रूप-विधान के प्रश्न से िटकर विचार करें तो यि रचना
अपने लक्ष्य में सफल रिी िै।

अभ्यास प्रश्न 2
(क) सत्य/अअसत्य का चुनाव कीहजए
1. जीिनी विधा का संबंध आधवु नक काल से िै। (सत्य/असत्य)
2. जीिनी लेखक के वलए चररत नायक का समकालीन िोना आिश्यक िै।
(सत्य/असत्य)
3. ‘भक्तमाल’ रचना नाभादास की िै। (सत्य/असत्य)
4. कावतभक प्रसाद खत्री ने मीराबाई का जीिन चररत्र वलखा िै। (सत्य/असत्य)
5. ‘िररश्चन्द्र’ ग्रन्थ के रचनाकार वशिनदं न सिाय िैं। (सत्य/असत्य)
(ख) सुमेहलत कीहजए
क ख
रचना रचनाकार
1. कालभमाक्सभ जगदीशचन्द्र माथरु
2. प्रेमचंद र्र में रािुल सांकृत्यायन
3. वनराला की सावित्य साधना शोभाकान्त वमश्र
4. आिारा मसीिा वशिरानी देिी
5. बाबू जी विष्णु प्रभाकर
6. वजन्िोंने जीना जाना रामविलास शमाभ

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13.6 सारांश
इस इकाई के अध्ययन के उपरान्त आपने जाना वक –
 जीिनी विधा आधवु नक कालीन चेतना की उपज िै। जीिनी विधा वकसी मित्िपूण,भ
संर्षभशील चररत्र को सामावजक गवतशीलता के बीच रखकर देखने का अनश ु ासनात्मक
प्रयास िै।
 रामविलास शमाभ विदं ी की प्रगवतशील, जनिादी परम्परा के शीषभस्थ आलोचक िैं।
रामविलास शमाभ जी का कृ वतत्ि विदं ी सावित्य में पररमाण एिं गणु ात्मक दोनों दृवियों से
अनक ु रणीय िै।
 वनराला का जीिन ‘दख ु िी जीिन की कथा रिी’ तो रिा िी िै वकन्तु इसी के साथ िी िि
सर्ं षभ एिं विद्रोि का जीता-जागता स्िरूप भी िै।
 वनराला पर रामविलास शमाभ जी ने विस्तार से वलखने की बजाय विश्लेषात्मक ढगं से
वलखा िै। वकसी रचनाकार का वनमाभण उसकी सामावजक-सांस्कृ वतक पररवस्थवतयााँ वकस
प्रकार करती िैं, वनराला की जीिनी इसका अच्छा उदािरण िै।

13.7 शब्दावली
मातित - अधीन, अतं गभत
रिस्यिादी - परोक्ष सत्ता को मानने िाला
अवस्थरता - अवनवश्चत वस्थवत
उदासीन - काम के प्रवत लापरिाि
ध्िसं ात्मक - नि करने का भाि
िज्रपात - वबजली वगरना, कविन समय
जोत - लौ

13.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1
(क) 1. 1897 ई.
2. रामविलास शमाभ
3. सरोज
4. मविषादल

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5. रामविलास शमाभ

अभ्यास प्रश्न 2
(क) 1. सत्य
2. असत्य
3. सत्य
4. सत्य
5. सत्य
(ख) 1. रािुल सांकृत्यायन
2. वशिरानी देिी
3. रामविलास शमाभ
4. विष्णु प्रभाकर
5. शोभाकान्त वमश्र
6. जगदीशचन्द्र माथरु

13.9 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. शमाभ, रामविलास , वनराला
2. वतिारी, रामचन्द्र , विदं ी का गद्य सावित्य

13.10 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. िमाभ, धीरे न्द्र (सं) – विदं ी सावित्यकोश I , ज्ञानमण्डल प्रकाशन
2. कोश, कविता – गगू ल साइट

13.11 हनबं धात्मक प्रश्न


1. वनराला के व्यवक्तत्ि पर वनबंध वलवखए
2. रामविलास शमाभ के लेखन शैली पर प्रकाश डावलए

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इकाई 14 संस्मरण - पथ के साथी : पहरचय,पाठ
एिं आलोचना
इकाई की रूपरे खा
14.1 प्रस्तािना
14.2 उद्देश्य
14.3 संस्मरण सावित्य
14.3.1 सस्ं मरण सावित्य का इवतिास
14.3.2 सस्ं मरण सावित्य की विशेषता
14.4 संस्मरण और पथ के साथी
14.4.1 लेवखका पररचय
14.4.2 कृ वत पररचय
14.5 मल ू पाि
14.6 पाि विश्लेषण
14.6.1 अंतिभस्तु के धरातल पर
14.6.2 वशल्प के धरातल पर
14.7 सारांश
14.8 शब्दािली
14.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
14.10 संदभभ ग्रंथ सचू ी
14.11 उपयोगी पाि्य सामग्री
14.12 वनबंधात्मक प्रश्न

14.1 प्रस्तावना
यि प्रश्न पत्र विवभन्न गद्य विधाओ ं के पररचय, पाि एिं आलोचना पर कें वद्रत िै। पिू भ में
आपने अन्य गद्य विधाओ ं का अध्ययन वकया। आपने इस क्रम में अध्ययन में जाना वक अन्य गद्य
विधाओ ं का सम्बन्ध आधवु नक कालीन चेतना से िै। आधवु नक यगु ीन चेतना को अवभव्यक्त करने
के क्रम में जब परु ानी साविवत्यक विधाएाँ अपयाभप्त वसद्ध िोने लगीं तो नई साविवत्यक विधाओ ं का,
विशेषकर गद्य विधाओ ं का जन्म िुआ। मानि जीिन वदन-प्रवतवदन जवटल िोता जा रिा िै। जवटल

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पररवस्थवतयों की अवभव्यवक्त के वलए साविवत्यक विधाओ ं के स्िरूप में भी पररितभन आया।
‘संस्मरण’ विधा की उत्पवत्त इसी क्रम में िै।
आधवु नक अन्य गद्य विधाओ ं में संस्मरण का मित्िपणू भ स्थान िै। संस्मरण का संबंध स्मृवत
से िै। संस्मरण में लेखक िारा अतीत की िि स्मृवतयााँ रचना का अगं बनती िैं, वजसमें िि ऐसे
व्यवक्तत्ि को याद करता िै जो उसके जीिन के अवभन्न अगं रिे िै और उसे प्रभावित वकया िो। एक
दृवि से देखा जाये तो संस्मरण विवशष्ट व्यवक्तयों पर लेखक िारा स्मृवतवचत्र िै। जैसा वक संकेत वकया
गया वक संस्मरण विधा आधवु नक विधा िै। विशेषकर इस विधा का संबंध 20िीं शताब्दी के
प्रारंवभक दशकों से िै। राष्रीय आन्दोलन की गवतशील चेतना ने इस विधा के वनमाभण में मित्िपूणभ
भवू मका वनभाई। संस्मरण विधा के उन्नयन में मिादेिी िमाभ का मित्िपणू भ योगदान िै। आलोच्य
स्ंस्मरण ‘पथ के साथी’ पस्ु तक से सबं वं धत िै, वजसमें उन्िोंने सभु द्राकुमारी चौिान के व्यवक्तत्ि को
बड़ी िी आत्मीयतापणू भ ढंग से स्मरण वकया िै।

14.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप –

 सस्ं मरण विधा की विशेषताओ ं से पररवचत िो सकें गे।


 संस्मरण विधा के इवतिास का ज्ञान प्राप्त कर सकें गे।
 संस्मरण विधा में मिादेिी िमाभ के योगदान को समझ सकें गे।
 ‘पथ के साथी’ रचना की अतं िभस्तु से पररवचत िो सकें गे।
 संस्मरण विधा की प्रमखु रचनाओ ं का पररचय प्राप्त कर सकें गे।
 संस्मरण के माध्यम से सामावजक पररवस्थवतयों को समझ सकें गे।

14.3 संस्मरण साहित्य

14.3.1 संस्मरण साहित्य का इहतिास


आपने अध्ययन वकया वक संस्मरण विधा आधवु नक काल की देन िै। संस्मरण विधा के स्तर
पर आधवु नक काल की देन िैं, लेवकन िमें यि स्पष्ट रूप से समझ लेना चाविए वक संस्मरण में स्मृवत
आधार वबन्दु िै और प्राचीन काल से िर देश ि संस्कृ वत में पज्ू य परू ु षों एिं मिापुरूषों के कृ त्यों को
स्मृररत वकया जा रिा िै। यिााँ प्रश्न उिता िै वक प्राचीन स्मृवत ग्रथं एिं सस्ं मरण में मल
ू भतू अतं र क्या
िै ? प्राचीन स्मृवत ग्रंथों में श्रद्धा, चमत्कार एिं अवतप्राकृ त र्टनाओ ं की बिुतायत रिती थी, वकन्तु

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सस्ं मरण विधा में स्मृवत-नायक को आत्मीय तटस्थता के साथ सस्ं मरणकार िमारे सामने प्रस्ततु
करता िै। एक के वलए श्रद्धा-स्तवु त अवनिायभ िै तो दसू रे के वलए तटस्थता-संपणू तभ ा। इसीवलए
संस्मरण विधा को आधवु नक युग में आकर स्िीकृ वत वमली।
स्मरण विधा के इवतिास के संदभभ में िम देखते िैं वक 20िीं शताब्दी के तीसरे दशक से
इसकी शरू ु आत िोती िै। सन् 1928 के लगभग प्रकावशत पद्मवसिं शमाभ के ‘पद्मपराग’ से सस्ं मरण
विधा का प्रारम्भ स्िीकार वकया जाता िै। वकन्तु व्यापक रूप से इसे स्िीकृ वत बाद के दशक में वमली।
इस संदभभ में मिादेिी िमाभ विशेष उल्लेखनीय िैं। रे खावचत्र – संस्मरण विधा के संवध वबन्दु पर उनकी
चार रचनाएाँ प्रकावशत िोती िैं। अतीत के चलवचत्र (1941 ई.), स्मृवत की रे खाएाँ (1943 ई.), पथ के
साथी (1956 ई.) और ‘मेरा पररिार’ (1972 ई.)। इन रचनाओ ं में संस्मरण की दृवि से स्मृवत की
रे खाएाँ तथा पथ के साथी विशेष मित्त्िपणू भ िैं। इसी क्रम में बनारसीदास चतिु दे ी की िमारे आराध्य,
संस्मरण (1952 ई.), वशिपजू न सिाय रवचत िे वदन िे लोग (1946 ई.), माखनलाल चतुिदे ी कृ त
समय के पााँि (1962 ई.), जगदीशचन्द्र माथरु कृ त दस तस्िीरें (1963 ई.), कन्िैयालाल वमश्र
प्रभाकर रवचत ‘भल ू े िुए चेिरे ’ आवद रचनाएाँ उल्लेख िैं। संस्मरण विधा की अन्य मित्िपूणभ रचनाएाँ
िैं –

 बच्चन वनकट से (1968 ई.) अवजत कुमार और ओकं ार नाथ श्रीिास्ति


 गााँधी संस्मरण और विचार (1968 ई.) – काका कालेलकर
 सस्ं मरण और श्रद्धाजं वलयााँ (1969 ई.) –रामधारी वसिं वदनकर
 व्यवक्तत्ि की झांवकयााँ (1970 ई.) - लक्ष्मीनारायण सधु ांशु
 अवं तम अध्याय (1972 ई.) – पदमु लाल पन्ु नालाल बख्शी
 स्मृवत की वत्रिेवणका (1974 ई.) – लक्ष्मी शक ं र व्यास
 चंद संतरें और (1975 ई.) – अनीता राके श
 मेरा िमदम मेरा दोस्त (1975 ई.) – कमलेश्िर
 रे खाएाँ और संस्मरण (1975 ई.) – क्षेमचन्द्र समु न
 मैंने स्मृवत के दीप जलाये (1976 ई.) – रामनाथ समु न
 स्मरण को पाथेय बनने दो (1978 ई.) – विष्णक ु ान्त शास्त्री
 अतीत के गतभ से (1979 ई.) – भगितीचरण िमाभ
 श्रद्धाजं वल सस्ं मरण (1979 ई.) – मैवथलीशरण गप्ु त
 पनु : (1979 ई.) – सल ु ोचना रांगये रार्ि

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 यादों की तीथभयात्रा (1981 ई.) – विष्णु प्रभाकर
 औरों के बिाने (1981 ई.) – राजेन्द्र यादि
 वजनके साथ वजया (1981 ई.) – अमृतलाल नागर
 सृजन का सख ु -दख
ु (1981 ई.) – प्रवतभा अग्रिाल
 यगु परू
ु ष (1983 ई.) – रामेश्िर शक्ु ल ‘अचं ल’
 दीिान खाना (1984 ई.) – पद्मा सचदेि
 स्मृवत लेखा (1986 ई.) – अज्ञेय
 िजारी प्रसाद वििेदी कुछ सस्ं मरण (1988 ई.) – कमल वकशोर गोयनका
 भारतभषू ण अग्रिाल : कुछ यादें कुछ चचाभएाँ (1989 ई.) – वबन्दु अग्रिाल
 िम िशमत (1977 ई.) – कृ ष्ण सोबती
 आदमी से आदमी तक (1982 ई.) – भीमसेन त्यागी।
14.3.2 संस्मरण साहित्य की हवशेषता
सस्ं मरण सावित्य पर वटप्पणी करते िुए डा. रामचन्द्र वतिारी ने वलखा िै, "संस्मरण वकसी
स्मयभमाण की स्मृवत का शब्दांकन िै। स्मयभमाण के जीिन के िे पिल,ू िे सदं भभ और िे चाररवत्रक
िैवशष्ट्य जो स्मरणकताभ को स्मृत रि जाते िैं, उन्िें िि शब्दांवकत करता िै। स्मरण ििी रि जाता िै
जो मित,् विवशष्ट, विवचत्र और वप्रय िो। स्मयभमाण को अवं कत करते िुए लेखक स्ियं भी अवं कत
िोता चलता िै। संस्मरण में विषय और विषय दोनों िी रूपावयत िोते िैं। इसवलए इसमें स्मरणकताभ
पणू तभ : तटस्थ निीं रि पाता। िि अपने ‘स्ि’ का पनु : सजभन करता िै।" (विदं ी का गद्य-सावित्य, पृष्ि
297) किने का अथभ यि िैं वक लेखक वकसी व्यवक्त्ति की स्मृवत को शब्दों के माध्यम से पनु : जीने
की कोवशश करता िै तो संस्मरण विधा की उत्पवत्त िोती िै। विधा के स्तर पर रे खावचत्र, जीिनी,
आत्मकथा से संस्मरण का वनकट का संबंध िै। लेवकन संस्मरण विधा की अपनी वनजी कुछ
विशेषताएाँ िैं जो इसे अन्य विधाओ ं से अलग करती िैं। जीिनी में भी वकसी का जीिन के न्द्र में िोता
िै। जीिनी और संस्मरण में भी, लेवकन दोनों में अतं र िै। जीिनी जिााँ चररत नायक के जीिन के
सपं णू भ पक्ष पर आधाररत िोती िै ििीं सस्ं मरण सीवमत जीिन पर जीिनी की िर र्टना में लेखक की
सिभावगता अवनिायभ निीं िै लेवकन संस्मरण की प्रत्येक र्टना लेखक िारा अनभु तू ि संिवे दत िोनी
अवनिायभ िै। इस दृवि से संस्मरण में अतं रंगता की मित्िपूणभ भवू मका िोती िै। संस्मरणकार वकसी
व्यवकत की जीिनी तथ्य-ब्यौरे के आधार पर भी वलख सकता िै लेवकन संस्मरण तब तक निीं
वलखे जा सकते जब तक वक लेखक का स्मयभमाण व्यवक्त से अतं रंग संबंध न िो। यिााँ तक वक
रे खावचत्र के वलए भी अतं रंगता उतनी अवनिायभ निीं िै वजतनी सस्ं मरण लेखक के वलए। वकसी

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पागल को सड़क पर देखकर रे खावचत्र तो वलखा जा सकता िै, लेवकन सस्ं मरण निीं। लेखक वकसी
व्यवक्त से जब तक िावदभक रूप से वकसी व्यवक्तत्ि से निीं जड़ु ता तब तक िि उस व्यवक्त के
आन्तररक व्यवक्तत्ि का न तो वचत्रण कर सकता िै और न िी मल्ू यांकन । संस्मरण उसी व्यवक्त पर
वलखा जा सकता िै वजस व्यवक्त से लेखक का र्वन्टष्ि संबंध िै। संस्मरण का नायक इसके के न्द्र में
िोता िै। लेवकन जीिनी विधा की तरि के िल नायक िी इसकी रचना के के न्द्र में निीं िोता बवल्क
इसमें लेखक की भवू मका भी मित्िपणू भ िोती िै। सस्ं मरण लेखक और नायक के सबं धं , लगाि ि
िावदभकता से जड़ु ी रचना िै। एक तरि से यि रचना लेखक की दृवि में स्मयभमाण व्यवक्त का चररत्रांकन
िै, इसवलए इसमें विषय और विषयी दोनों का मित्ि िोता िै। संस्मरण के वलए अतीत अवनिायभ िै।
इसवलए इसमें ‘स्मृवत’ का बिुत मित्ि िै। लेखक अतीत की र्टनाओ ं को अपनी स्मृवत के माध्यम
से पनु : जीितं करता, इस क्रम में काल एिं स्मृवत का कुशल संयोजन संस्मरण की विशेषता िै।
सस्ं मरण में चाँवू क ििी र्टनाएाँ स्थान पाती िैं इसवलए इसमें सर्नता का गणु पाया जाता िै। अतीत
की स्मृवत में ििी चीजें स्थायी िो पाती िैं, जो अवत-मित्िपूणभ िोती िैं। अत: इस दृवि से संस्मरण
अतीत की स्मृवत का सृजनात्मक प्रयास िै। अतीत की स्मृवत मित्िपणू भ िोकर भी लेखक का ध्येय
निीं िै बवल्क मित्िपणू भ िै िि रचनात्मक प्रयास जो पािक को वदशा दे सके या प्रभावित कर सके ।
संस्मरण के संदभभ में यि प्रश्न िमेशा उिाया जाता िै वक संस्मरण क्यों वलखा जाता िै या संस्मरण
लेखन के उद्देश्य क्या िैं ? संस्मरण विधा अन्य सृजनात्मक विधाओ ं की िी तरि मानिीय जरूरतों
की पवू तभ का एक ‘स्मृवत-प्रयास’ िै। संस्मरण तब ज्यादा वलखे जाते िैं जब सृजनात्मक व्यवक्तत्ि का
अवधकता वकसी समाज में ज्यादा िो। राष्रीय आन्दोलन के समय में या राष्रीय आन्दोलन की ऊजाभ
से वनवमभत व्यवक्तत्ि िी विदं ी सस्ं मरण विधा में रचना का के न्द्र बने िैं। इससे स्पष्ट िै वक सस्ं मरण के
के न्द्र में व्यवक्तत्ि वनमाभण का प्रयास आधारभतू रूप में िै। लेवकन जीिनी की तरि यि सामावजक
प्रेरणा के िशीभतू िोकर िी निीं रवचत िोता। इस विधा में संस्मरण नायक का संस्मरणकार के ऊपर
पड़े प्रभाि की भी मित्िपणू भ भवू मका िोती िै। एक तरि से यि बविभमख ु ी और आत्ममख ु ी दोनों गणु ों
से यक्ु त विधा िै।
अभ्यास प्रश्न
हनदेश : (1) ररक्त स्थान की पहू ति कीहजए
1. मिादेिी िमाभ का जन्म....................िषभ में िुआ ।
2. मिादेिी िमाभ को..................कृ वत पर ज्ञानपीि परु स्कार वमला।
3. मिादेिी िमाभ मख्ु यत: .................िैं।
4. पथ के साथी का प्रकाशन िषभ..............िै।
5. संस्मरण विधा के प्रारंवभक लेखक .....................िैं।

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(2) सत्य/अअसत्य का चुनाव कीहजए।
1. मिादेिी िमाभ के सस्ं मरण और रे खावचत्र एक दसू रे के बिुत वनकट िैं।
2. मेरा िमदम मेरा दोस्त की रचना िै।
3. स्मृवत लेखा अज्ञेय की रचना िै।
4. सस्ं मरण विधा ितभमान पर आधाररत विधा िै।
5. संस्मरण के वलए लेखक का नायक से सािचभय अवनिायभ िै।
(3) सुमेहलत कीहजए
रचना रचनाकार
स्मृवत की रे खाएाँ विष्णक ु ांत शास्त्री
पद्मपराग बनारसीदास चतिु दे ी
संस्मरण मिादेिी िमाभ
िे वदन िे लोग पद्मवसंि शमाभ
औरों के बिाने वशिपजू न सिाय
स्मरण को पाथेय बनने दो राजेन्द्र यादि

14.4 संस्मरण और पथ के साथी

14.4.1 लेहखका पररचय


छायािाद चतिु य के नाम से प्रसाद, वनराला, पंत और मिादेिी िमाभ प्रवसद्ध िैं। मिादेिी िमाभ
काव्यमय व्यवक्तत्ि से सम्पन्न थी। िे जीिन की कृ वत्रमताओ ं से मक्त
ु उन्मक्त
ु िसं नेिाली एिं शभु ि
उज्ज्िल नारी थी।
26 माचभ 1907 को िोली के शभु वदन पर उत्तरप्रदेश के फरूखाबाद वजले में मिादेिी िमाभ
का जन्म िुआ था। इनका पररिार ससु म्पन्न ि सवु शवक्षत था लेवकन इस पररिार में लगभग सात
पीवढ़यों तक कन्याएं जन्म के साथ मार-डाली जाती थी। दो सौ सालों के बाद कन्या के रूप में इनका
जन्म िुआ था अतः इनके बाबू बांके वबिारी जी ने नाम मिोदिी (र्र की देिी) रख वदया। मिादेिी
िमाभ ने स्ियं इसका उल्लेख वकया िै ‘‘जैसे िी दबे स्िर से लक्ष्मी के आगमन का समाचार वदया
गया िैसे िी र्र एक कोने से दसू रे कोने तक एक दररद्र वनराशा व्याप्त िो गई। ‘‘मिोदेिी िमाभ के हृदय
में बचपन से िी जीिमात्र के प्रवत दया थी, करूणा भािना थी। उनके रे खावचत्रों से बाल्य जीिन की
झांवकया वमल जाती िै। अतीत के चलवचत्र के पिले तीन संस्मरणों में ‘रामा‘, ‘भाभी‘ तथा ‘वबन्दा‘

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का सम्बन्ध इनके बाल्यजीिन से िै। मिादेिी िमाभ की शादी बचपन में मात्र 9 िषभ की अिस्था में
कर दी गई थी। परन्तु इन्िोंने अपनी पढ़ाई 1932 तक जारी रखी और प्रयाग विश्वविद्यालय से एम. ए.
संस्कृ त विषय में उत्तीणभ वकया। बाद में प्रधानाचायभ के रूप में वशक्षा क्षेत्र की सेिा में लग गई ं।
िोली के वदन जन्मी मिादेिी का व्यवक्तत्ि िोली की विविधता और रंगमयता से भरा था।
इनके व्यवक्तत्ि में सिं दे ना, दृढ़ता ि आक्रोश का अद्भुत संतल
ु न वमलता िै। िे विदषु ी, अध्यावपका,
कवि, गद्यकार, वचत्रकार, कलाकार ि समाजसेिी के रूप में िमारे सामने आती िैं। अध्ययनशील ि
संिदे नशील मनोिृवत्त, सफाई ि स्िच्छता वप्रय, गभं ीरता ि धैयभ इनमें विवशि गणु थे।
मिादेिी िमाभ 1952 को उत्तर प्रदेश की विधान पररषद की सदस्य मनोनीत की गई।
मिादेिी को कई परु स्कार ि सम्मान से निाजा गई।ं मिादेिी की रचनाएं आरम्भ काल से अथाभत्
1930 से 1975 तक सावित्य जगत को आकवषभत करती रिीं। भारत सरकार िारा इन्िें मरणोपरांत
‘पद्य विभषू ण‘ उपावध से अलक ं ृ त वकया गया। मिादेिी िमाभ विन्दी सावित्य जगत की प्रवसद्ध
किवयत्री और उल्लेखनीय गद्य लेवखका थीं। उन्िें नीरजा कृ वत पर 1933 में सेकसररया परु स्कार
वमला। 1944 को विन्दी सावित्य सम्मेलन ने ‘मगं लाप्रसाद‘ परु स्कार और उत्तर प्रदेश सरकार िारा
‘विवशि सावित्य परु स्कार‘ सन् 1973 को प्रदान कर इनकी सेिाओ ं को सम्मावनत वकया गया।
1969 में विक्रम विश्वविद्यालय और 1980 को वदल्ली विश्वविद्यालय िारा डी. वलट. की उपावध दी
गई। 1982 में लखनऊ के विन्दी संस्थान िारा ‘भारत-भारती‘ परु स्कार प्रदान वकया गया। 1983 को
उनके काव्य संग्रि ‘यामा‘ और ‘दीपवशखा‘ के वलए भारतीय ज्ञानपीि ने अपने परु स्कार से िमाभ जी
का सम्मान वकया। 11 वसतम्बर 1987 को मिादेिी का वनधन िुआ था।
पररग्रिी जीिन को अस्िीकार करके इन्िोंने अपना कोई सीवमत पररिार निीं बनाया, पर
इनका अपना विशाल पररिार ि उनका पोषण सब के िश की बात निीं िै। गायें, विरण, वगलिरी,
वबवल्लयां, खरगोश, मोर, कबतू र तो इनके वचरसंगी रिे। िृक्ष, पष्ु प, लताएं इनकी ममता के आगोश
में पले-बढ़े थे। पररिार के नौकर पाररिाररक सदस्य िी थे।मिादेिी िमाभ जैसे प्रवतभाशाली व्यवक्तत्ि
का पररचय समु द्रा कुमारी चौिान, कृ ष्णा, िररवसिं (जिािरलाल नेिरू की बिन), सवु मत्रानन्दन पतं ,
वनराला, गोपीकृ ष्ण गोपेश, मिात्मा गांधी जैसी विभवू तयों से था। बचपन से िी मिादेिी िमाभ जी का
स्िभाि रिा वक इन्िोंने अपने जीिन-विकास के वलए जो उवचत और उपयक्त ु समझा सो वकया, िि
और भीषण विद्रोि के साथ वकया। प्रारम्भ में बौद्ध वभक्षणु ी बनने की इच्छा ने शायद इनको
पाररिाररक जीिन ि गृिस्थ से दरू रिने की प्रेरणा दी िोगी। व्यवक्तत्ि में करूणा का अश
ं और भीतर
के िन्ि का समन्िय करने में सफलता इसीवलए प्राप्त िुई। मिादेिी िमाभ अत्यन्त सरल ि विनम्र,
गभं ीर ि मिान हृदया थी।
जीिन और सावित्य के पट में इतने विवभन्न रंगी सत्रू ों का सवम्मलन बिुत िी विरल िोता िै।
रिस्यिादी कवि, यथाथभिादी गद्यकार, समन्ियिादी समालोचक िोने के साथ िी िे अवितीय

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रे खावचत्रकार, सस्ं मरण लेवखका, सामावजक एिं लवलत वनबधं कार, उच्चकोवट की वचत्र कत्राभ और
प्रबधु समाज सेविका तथा राष्रीय संस्कृ वत की संरवक्षका थीं। इनके रचनात्मक कायों के प्रतीक
प्रयाग मविला विद्यापीि और सावित्यकार संसद के अवतररक्त अन्य अनेक संस्थायें और पािशालाएाँ
िैं। विशेषता यि िै वक इन सभी क्षेत्रों में इनके व्यवक्ति की अखण्डता सिभथा अक्षण्ु ण िै।
कृहतत्व
विद्याथी जीिन में िी मिोदेिी िमाभ ने कविताएं वलखनी शरू ु कर दी थी। प्रारवम्भक
कविताएं छन्दबद्ध थीं और ‘रोला’, ‘िररगीवतका’ छन्द में वलखी गई।ं मिादेिी िमाभ की काव्य
कृ वतयां नीिार (1930), रवश्म (1932), नीरजा (1935), सांध्यगीत (1936), दीपवशखा (1942),
सप्तपणाभ (अनवु दत)(1966), विमालय (1963), अवग्नरे खा (1980) िै। मिादेिी का प्रथम काव्य
संग्रि नीिार िै। नीिार में जीिन संसार की नश्वरता, िेदना ि करूणा में खो जाने की इच्छा िै। ‘रवश्म‘
कविता सक ं लन में किवयत्री ने अतृवप्त, अभाि और दख ु आवद को मनष्ु य के जीनि का मौवलक
सत्य माना िै। सांध्यगीत में उनकी कविताओ ं में उपासना का भाि िै। विरि का अवभशाप िरदान के
रूप में िै और विरि ि अभाि आनन्द देने िाला िै। दीपवशखा मिादेिी के वचत्रमय काव्य का मतू भ
रूप िै। इन गीतों में उनके वनभभय ि स्िावभमानी भािना का पररचय वमलता िै जैसे ‘‘पथं िोने दो
अपररवचत, प्राण, रिने दो अके ला”- इसी तरि ‘‘तोड़ दो यि वक्षवतज मैं भी देखलंू उस पार क्या िै?”
‘सप्तपणाभ’ संकलन संस्कृ वत और पाली भाषा के सावित्य के कुछ चनु े िुए अशों का अनिु ाद िै।
‘अवग्नरे खा में‘ दीपक को प्रतीक मानकर रचना की गई िै।
बाल कहवताएं -
बाल कविताओ ं के दो सग्रं ि छपे िैं (क) िाकुर जी भोले िैं (ख) आज खरीदेंगे िम ज्िाला।
िाकुर जी बोले िै संग्रि बच्चों के भािों को इस प्रकार व्यक्त वकया िै -
िण्डा पानी से निलाती
िण्डा चन्दन इन्िें लगाती
इनका भोग िमें दे जाती
वफर भी कभी निीं बोलें िै
मााँ के िाकुर जी भोले िैं।
मिादेवी की गद्य कृहतयां :-

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अतीत के चलवचत्र (1941), श्रृखं ला की कवड़यां (1942), स्मृवत की रे खाएं (रे खा
वचत्र)(1943), पथ के साथी (संस्मरण)(1956), क्षणदा (वनबन्ध)(1956), सावित्यकार की आस्था
और अन्य वनबन्ध (1960), संकवल्पता (आलोचना)(1963), मेरा पररिार (पश-ु पक्षी
संस्मरण)(1971) और वचन्तक के क्षण (1986) आवद मिादेिी िमाभ िारा रवचत गद्य रचनाएं िैं।
14.4.2 कृहत पररचय
मिादेिी िमाभ के सस्ं मरण की प्रवसद्ध पस्ु तक ‘पथ के साथी’ का प्रकाशन 1956 ईसिी में
िुआ था। ‘पथ के साथी’ में मिादेिी िमाभ ने अपने साथी सावित्यकारों की सृजन यात्रा का स्मरण
वकया िै। पथ के साथी में मिादेिी िमाभ ने सबसे पिले रिीन्द्रनाथ टैगोर को स्मरण वकया िै। इसी कम
में बाद में उन्िोंने मैवथलीशरण गप्ु त, सभु द्राकुमारी चौिान, वनराला, जयशक
ं र प्रसाद, सवु मत्रानदं न पतं
और वसयारामशरण गप्ु त को स्मरण वकया िै। पथ के साथी में मिादेिी िमाभ ने वजस कलात्मकता,
सयं म एिं गवतशीलता में अपने साथी सावित्यकारों को स्मरण वकया िै िि अद्भुत िै। डा. रामचन्द्र
वतिारी ने इस रचना पर वटप्पणी करते िुए वलखा िै – "मिादेिी ने उन स्मृवत-संदभों को साँजोकर
वजनमें उनके अग्रज और छवियााँ अवं कत की िैं िे अपनी संवश्लष्टता में अन्यतम िैं। बाित आकार-
प्रकार, उनमें लवक्षत िोने िाली जीिन-सर्ं षभ, जीिन-सर्ं षभ की तीव्रता के सामावजक कारण और
सामावजक दबाि के कारण व्यवक्तत्ि में उभरने िाली मानवसक असंगवतयााँ यि सब दबे-उभरे रूप में
साकार िो गये िैं। यिी निीं मिादेिी ने अपने पथ के सावथयों के सावित्य में उनके व्यवक्तत्ि की
असंगवतयों का सामन्जस्य भी ढूाँढ़ने की चेष्टा की िै और िे प्राय: सफल रिी िैं। इससे उनकी
तलस्पशी दृवि और मनोिृवत्त विश्लेवषणी प्रज्ञा का पररचय वमलता िै। मिादेिी की वचत्र-व्यन्जना का
चरम विकास ‘पथ के साथी’ में लवक्षत िोता िै।

14.5 मूल पाठ


िमारे शैशिकालीन अतीत और प्रत्यक्ष ितभमान के बीच में समय-प्रिाि का पाि ज्यों-ज्यों
चौड़ा िोता जाता िै त्यों-त्यों िमारी स्मृवत में अनजाने िी एक पररितभन लवक्षत िोने लगता िै। शैशि
की वचत्रशाला के वजन वचत्रों से िमारा रागात्मक संबंध गिरा िोता िै, उनकी रे खायें और रंग इतने
स्पि और चटकीले िोते चलते िैं वक िम िाधभक्य की धंधु ली आाँखों से भी उन्िें प्रत्यक्ष देखते रि
सकते िैं। पर वजनसे ऐसा संबंध निीं िोता िे फीके िोते-िोते इस प्रकार स्मृवत से धल ु जाते िैं वक
दसू रों के स्मरण वदलाने पर भी उनका स्मरण कविन िो जाता िै।
मेरे अतीत की वचत्रशाला में बविन सभु द्रा से मेरे सख्य का वचत्र, पिली कोवट में िी रखा जा
सकता िै, क्योंवक इतने िषों के उपरान्त भी उनकी सब रंग-रे खायें अपनी सजीिता में स्पि िैं।
एक सातिीं कक्षा की विद्यावथभनी, एक पााँचिी कक्षा की विद्यावथभनी से प्रश्न करती िै, क्या
तमु कविता वलखती िो? दसू री ने वसर विला कर ऐसी अस्िीकृ वत दी वजसमें िााँ और निीं तरल िो

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कर एक िो गये थे। प्रश्न करने िाली ने इस स्िीकृ वत-अस्िीकृ वत की सवं ध से खीझ कर किा, ‘तम्ु िारी
क्लास की लड़वकयााँ तो किती िैं वक तुम गवणत की कापी तक में कविता वलखती िो! वदखाओ ं
अपनी कापी’ और उत्तर की प्रतीक्षा में समय नि न कर िि कविता वलखने की अपरावधनी को िाथ
पकड़ कर खींचती िुई उसके कमरे में डेस्क के पास ले गई। वनत्य व्यििार में अपने िाली गवणत की
कापी को वछपाना संभि निीं था, अतः उसके साथ अक ं ों के बीच में अनवधकार वसकुड़ कर बैिी िुई
तकु बवं दयााँ अनायास पकड़ में आ गई। इतना दडं िी पयाभप्त था। पर इससे सतं िु न िोकर अपराध की
अन्िेवषका ने एक िाथ में िि वचत्र-विवचत्र कापी थामी और दसू रे में अवभयक्त ु ा की उाँगवलयााँ कस
कर पकड़ी और िि िर कमरे में जा-जाकर इस अपराध की सािभजवनक र्ोषणा करने लगी।
उस यगु में कविता रचना अपराधों की सचू ी में थी। कोई तुक जोड़ता िै, यि सनु कर िी
सनु ने िालों के मख
ु की रे खायें इस प्रकार िक्रकंु वचत िो जाती थीं मानों उन्िें कोई कटु-वतक्त पेय
पीना पड़ता िो।
ऐसी वस्थवत में गवणत जैसे गभं ीर मित्िपूणभ विषय के वलए वनवश्चत पृष्ठों पर तक ु जोड़ना
अक्षम्य अपराध था। इससे बढ़कर कागज का दरू ु पयोग और विषय का वनरादर और िो िी क्या
सकता था। वफर वजस विद्याथी की बवु द्ध अक ं ों के बीिड़ िन में पग-पग पर उलझती िै उससे तो गरू ु
यिी आशा रखता िै वक िि िर सााँस को अक ं जोड़ने-र्टाने की वक्रया बना रिा िोगा। यवद िि सारी
धरती को कागज बना कर प्रश्नों को िल करने के प्रयास से निीं भर सकता तो उसे कम से कम सौ-
पचास पृष्ठ, सिी न सिी तो गलत प्रश्न-उत्तरों से भर लेना चाविए। तब उसकी भ्रान्त बवु द्ध को
प्रकृ वतदत्त मान कर उसे क्षमा दान का पात्र समझा जा सकता िै, पर जो तक ु बन्दी जैसे कायभ से बवु द्ध
की धार गोंविल कर रिा िै िि तो परू ी शवक्त से दबु भल िोने की मख ू तभ ा करता िै, अतः उसके वलए न
सिानभु वू त का प्रश्न उिता िै न क्षमा का।
मैंने िोंि भींच कर न रोने का जो वनश्चय वकया िि टूटा तो न टूटा। अन्त में मझु े शवक्त परीक्षा
में उत्तीणभ देख सुभद्रा जी ने उत्फुल्ल भाि से किा, ‘अच्छी तो वलखती िो। भला सिाल िल करने में
एक दो तीन जोड़ लेना कोई बड़ा काम िै! ‘मेरी चोट अभी दख ु रिी थी, परन्तु उनकी सिानभु वू त
और आत्मीय भाि का पररचय पाकर आाँखे सजल िो आई ं ‘तमु ने सब को क्यों बताया? का सिास
उत्तर वमला ‘िमें भी तो यि सिना पड़ता िै। अच्छा िुआ अब दो साथी िो गए।’
बविन सभु द्रा का वचत्र बनना कुछ सिज निीं िै क्योंवक वचत्र की साधारण जान पड़ने िाली
प्रत्येक रे खा के वलए उनकी भािना की दीवप्त ‘सच ं ाररणी दीपवशखेि’ बनकर उसे असाधारण कर
देती िै। एक-एक कर के देखने से कुछ भी विशेष निीं किा जाएगा, परन्तु सब की समग्रता में जो
उद्भावसत िोता था, उसे दृवि से अवधक हृदय ग्रिण करता था।

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मझोले कद तथा उस समय की कृ श देियवि में ऐसा कुछ उग्र या रौद्र निीं था वजसकी िम
िीरगीतों की किवयत्री में कल्पना करते िैं। कुछ गोल मखु , चौड़ा माथा, सरल भृकृवटयााँ, बड़ी और
भािस्नात आाँख,े छोटी सडु ौल नावसका, िाँसी को जमा कर गढ़े िुए से ओि और दृढ़ता सचू क
िुड्ढी.......सब कुछ वमला कर एक अत्यन्त वनश्छल, कोमल, उदार व्यवक्तत्ि िाली भारतीय नारी
का िी पता देते थे। पर उस व्यवक्तत्ि के भीतर जो वबजली का छन्द था, उसका पता तो तब वमलता
था, जब उनके और उनके वनवश्चत लक्ष्य के बीच में कोई बाधा आ उपवस्थत िोती थी। ‘मैंने िाँसना
सीखा िै मैं निीं जानती रोना’ किने िाली की िाँसी वनश्चय िी असाधारण थी। माता की गोद में दधू
पीता बालक जब अचानक िाँस पड़ता िै, तब उसकी दधू से धल ु ी िाँसी जैसी वनवश्चन्त तृवप्त और
सरल विश्वास रिता िै, बिुत कुछ िैसा िी भाि सभु द्रा जी की िाँसी में वमलता था। िि संक्रामक भी
कम निीं थी क्योंवक दसू रे भी उनके सामने बात करने से अवधक िाँसने को मित्ि देने लगते थे।
िे अपने बचपन की एक र्टना सनु ाती थीं। कृ ष्ण और गोवपयों की कथा सनु कर एक वदन
बावलका सभु द्रा ने वनश्चय वकया वक िि गोपी बन कर ग्िालों के साथ कृ ष्ण को ढूाँढ़ने जायेगी।
दसू रे वदन िि लकुटी लेकर गायों और ग्िालों के झडंु के साथ कीकर और बबल ू से भरे
जगं ल में पिुचाँ गई । गोधल ू ी िेला में चरिािे और गायें तो र्र की ओर लौट गए, पर गोपी बनने की
साधिाली बावलका कृ ष्ण को खोजती िी रि गई। उसके पैरों में कााँटे चभु गए, काँ टीली झावड़यों में
कपड़े उलझा कर फट गए, प्यास से कंि सख ू गया और पसीने पर धल ू पतभ जम गई, पर िि धनु िाली
बावलका लौटने को प्रस्ततु निीं िुई। रात िोते देख र्र िालों ने उन्िें खोजना आरम्भ वकया और
ग्िालों से पछू ते-पछ
ू ते अाँधेरे करील-िन में उन्िें पाया।
अपने वनवश्चत लक्ष्य-पथ पर अवडग रिना और सब-कुछ िाँसते-िाँसते सिना उनका
स्िभािजात गणु था। क्रास्थिेट गल्सभ कॉलेज में जब िे आििीं कक्षा की विद्यावथभनी थीं, तभी
उनका वििाि िुआ और उन्िोंने पवतगृि के वलए प्रस्थान वकया। स्ितन्त्रता के यद्ध ु के वलए सन्नद्ध
सेनानी पवत को िे वििाि से पिले देख भी चक ु ी थीं और उनके पवत को अिकाश िै न लेने का
उन्िें। िस्ततु ः वजस वििाि में मगं ल-कंकण िी रण-कंकण बन गया, उसकी गृिस्थी भी कारागार में
िी बसाई जा सकती थी। और उन्िोंने बसाई भी ििीं। पर इस साधना की ममभव्यथा को ििी नारी
जान सकती िै वजसने अपनी देिली पर खड़े िोकर भीतर के मगं ल चौक पर रखे मगं ल कलश,
तलु सी चौरे पर जलते िुए र्ी के दीपक और िर कोने से स्नेिभरी बािें फै लाए िुए अपने र्र पर दृवि
डाली िो और वफर बािर के अधं कार, आाँधी और तफ ू ान को तौला िो और तब र्र की सरु वक्षत
सीमा पार कर, उसके सन्ु दर मधरु आह्वान की ओर से पीि फे र कर अाँधेरे रास्ते पर कााँटों से उलझती
चल पड़ी िो। उन्िोंने िाँसते-िाँसते िी बताया था वक जेल जाते समय उन्िें इतनी अवधक फूल-मालायें
वमल जाती थीं वक िे उन्िीं का तवकया बना लेती थीं और लेटकर पष्ु पशैय्या के सुख का अनभु ि
करती थी।

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एक बार भाई लक्ष्मणवसिं जी ने मझु से सभु द्रा जी की स्नेिभरी वशकायत की, ‘इन्िोंने मझु
से कभी मााँगने का अवधकार मााँग वलया था मिादेिी! यि ऐसे िी िोवशयार िैं, मााँगती तो िचन-भगं
का दोष मेरे सर पड़ता, निीं मााँगा तो इनके अिक
ं ार को िे स लगती िै।’
र्र और कारागार के बीच में जीिन का जो क्रम वििाि के साथ आरंभ िुआ था िि अतं
तक चलता िी रिा। छोटे बच्चों को जेल के भीतर और बड़ों को बािर रखकर िे अपने मन को कै से
संयत रख पाती थीं। यिी सोचकर विस्मय िोता िै। कारागार में जो सम्पन्न पररिारों की सत्याग्रिी
मातायें थीं, उनके बच्चों के वलए बािर से न जाने वकतना मेिा-वमष्ठान आता रिता था। सभु द्रा जी
की आवथभक पररवस्थवतयों में जेल-जीिन का एक और क्लास समान िी था। एक बार जब भख ू से
रोती बावलका को बिलाने के वलए कुछ निीं वमल सका तब उन्िोंने अरिर दलने िाली मविला-
कै वदयों से थोड़ी-सी अरिर की दाल ली और उसे तिे पर भनू कर बावलका को वखलाया। र्र आने
पर भी उनकी दशा द्रोणाचायभ जैसी िो जाती थी, वजन्िें दधू के वलए मचलते िुए बालक अश्वत्थामा
को चािल के र्ोल से सफे द पानी देकर बिलाना पड़ा था! पर इन परीक्षाओ ं से उनका मन न कभी
िारा न उसने पररवस्थवतयााँ को अनकु ू ल बनाने की वलए कोई समझौता स्िीकार वकया।
उनके मानवसक जगत में िीनता की वकसी ग्रवं थ के वलए कभी अिकाश निीं रिा, र्र से
बािर बैि कर िे कोमल और ओज भरे छंद वलखने िाले िाथों से गोबर के कंडे पाथती थीं। र्र के
भीतर तन्मयता से आाँगन लीपती थीं, बतभन मााँजती थीं। आाँगन वलपने की कला में मेरा भी कुछ
प्रिेश था, अतः प्रायः िम दोनों प्रवतयोवगता के वलए आाँगन के वभन्न-वभन्न छोरों से लीपना आरम्भ
करते थे। लीपने में िमें अपने से बड़ा कोई विशेषज्ञ मध्यस्थ निीं प्राप्त िो सका, अत: प्रवतयोवगता
का पररणाम सदा अर्ोवषत िी रि गया पर आज मैं स्िीकार करती िूाँ वक ऐसे कायभ में एकान्त
तन्मयता के िल उसी गृिणी में संभि िै जो अपने र्र की धरती को समस्त हृदय से चािती िो और
सभु द्रा ऐसी िी गृविणी थीं। उस छोटे से अधबने र्र की छोटी-सी सीमा में उन्िोंने क्या निीं संगिृ ीत
वकया। छोटे-बड़े पेड़, रंग-वबरंगे फूलों के पौधों की क्याररयााँ, ऋतु के अनुसार तरकाररयााँ, गाय, बच्छे
आवद-आवद बड़ी गृिस्थी की सब सज्जा ििााँ विराट दृश्य के छोटे वचत्र के समान उपवस्थत थी।
अपने इस आकार में छोटे साम्राज्य को उन्िोंने अपनी ममता के जादू से इतना विशाल बना रखा था
वक उसके िार पर न कोई अनािूत रिा और न वनराश लौटा। वजन संर्षों के बीच से उन्िें मागभ बनाना
पड़ा िे वकसी भी व्यवक्त को अनदु ार और कटु बनाने में समथभ थे। पर सभु द्रा के भीतर बैिी सृजनशील
नारी जानती थी वक कााँटो का स्थान जब चरणों के नीचे रिता िै तभी िे टूट कर दसू रों को बेचने की
शवक्त खोते िैं। परीक्षायें जब मनष्ु य के मानवसक स्िास्थ्य को क्षत-विक्षत कर डालती िैं तब उनमें
उत्तीणभ िोने-न-िोने का कोई मल्ू य निीं रि जाता।
नारी के हृदय में जो गभं ीर ममता-सजल िीर-भाि उत्पन्न िोता िै िि परू ु ष के उग्र शौयभ से
अवधक उदात्त और वदव्य रिता िै। परू ु ष अपने व्यवक्तत्ि या समिू गत रागिेष के वलए भी िीर धमभ के

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वलए या अपनी कल्याणी सृवि की रक्षा के वलए रूद्र बनती िै। अतः उसकी िीरता के समकक्ष िी
भीमाकृ वत चंडी,ित्सला अम्बा भी िै, जो विसं ात्मक पाशविक शवक्तयों को चरणों के नीचे दबारक
अपनी सृवि के मगं ल की साधना करती िै।
सभु द्रा जो मविमामयी मााँ थी, उसकी िीरता का उत्स भी िात्सल्य िी किा जा सकता िै। न
उनका जीिन वकसी क्षवणक उत्तेजना से सचं ावलत िुआ न उनकी ओज भरी कविता िीर-रस की
वर्सी-वपटी लीक पर चली। उनके जीिन में जो एक वनरन्तर वनखरता िुआ कमभ का तारतम्य िै िि
ऐसी अतं र-व्यावपनी वनष्ठा से जड़ु ा िै जो क्षवणक उत्तेजना का दान निीं मानी जा सकती। इसी से जिॉं
दसू रों को यात्रा का अन्त वदखाई वदया ििीं उन्िें नई मवं जल का बोध िुआ।
थक पर बैिने िाला अपने न चलने की सफाई खोजते-खोजते लक्ष्य पा लेने की कल्पना कर सकता
िै, पर चलने िाले को इसका अिकाश किााँ!
जीिन के प्रवत ममता भरा विश्वास िी उनके काव्य का प्राण िै:
सखु भरे सनु िले बादल
रिते िैं मझु को र्ेरे।
विश्वास प्रेम सािस िैं।
जीिन के साथी मेरे।
मधमु वक्षका जैसे कमल से लेकर भटकटैया तक और रसाल से लेकर आक तक, सब मधरु
वतक्त एकत्र करके उसे अपनी शवक्त से एक मधु बनाकर लौटती, बिुत कुछ िैसा िी आदान-सम्प्रदान
सभु द्रा जी का था। सभी कोमल-कविन, साह्य-असह्य अनुभिों का पररपाक दसू रों के वलए एक िी
िोता था। इसका यि तात्पयभ निीं िै वक उनमें वििेचन की तीक्ष्ण दृवि का अभाि था। उनकी
किावनयााँ प्रमावणत करती िैं वक उन्िोंने जीिन और समाज की अनेक समस्याओ ं पर विचार वकया
और कभी अपने वनष्कषभ के साथ और कभी दसू रों के वनष्कषभ के वलए उन्िें बड़े चमत्काररक ढगं से
उपवस्थत वकया।
जब स्त्री का व्यवक्तत्ि उसके पवत से स्ितंत्र निीं माना जाता था तब िे किती िैं, ‘मनष्ु य की
आत्मा स्ितत्रं िै। वफर चािे िि स्त्री-शरीर के अन्दर वनिास करती िो चािे परू ु ष-शरीर के अन्दर।
इसी से परू ु ष और स्त्री का अपना-अपना व्यवक्तत्ि अलग रिता िै।’ जब समाज और पररिार की
सत्ता के विरूद्ध कुछ किना अधमभ माना जाता था तब िे किती िैं, ‘समाज और पररिार व्यवक्त को
बन्धन में बााँधकर रखते िैं। ये बन्धन देशकालानसु ार बदलते रिते िैं और उन्िें बदलते रिना चाविए
िरना िे व्यवक्तत्ि के विकास में सिायता करने के बदले बाधा पिुचाँ ाने लगते िैं। बन्धन वकतने िी
अच्छे उद्देश्य से क्यों न वनयत वकए गये िों, िैं बधं निी, और जिााँ बन्धन िै ििााँ असन्तोष िै तथा
क्रावन्त िैं।’

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परंपरा का पालन िी जब स्त्री का परम कत्तभव्य समझा जाता था तब िे उसे तोड़ने की
भवू मका बााँधती िै, ‘वचर-प्रचवलत रूवढ़यों और वचर-संवचत विश्वासों को आर्ात पिुचाँ ाने िाली
िलचलों को िम देखना-सनु ना निीं चािते। िम ऐसी िलचलों को अधमभ समझ कर उनके प्रवत
आाँख मींच लेना उवचत समझते िैं, वकन्तु ऐसा करने से काम निीं चलता। िि िलचल और क्रांवत
िमें बरबस झकझोरती िै और वबना िोश में लाये निीं छोड़ती।’
अनेक समस्याओ ं की ओर उनकी दृवि इतनी पैनी िै वक सिज भाि से किी सरल किानी
का अतं भी िमें झकझोर डालता िै।
िे राजनीवतक जीिन में िी विद्रोविणी निीं रिीं, अपने पाररिाररक जीिन में भी उन्िोंने
अपने विद्रोि को सफलतापिू भक उतार कर उसे सृजन का रूप वदया था।
सभु द्रा जी के अध्ययन का क्रम असमय िी भगं िो जाने के कारण उन्िें विश्वविद्यालय की
वशक्षा तो निीं वमल सकी, पर अनभु ि की पस्ु तक से उन्िोंने जो सीखा उनकी प्रवतभा ने सिभथा वनजी
विशेषता दे दी िै।
भाषा,भाि,छंद की दृवि से नये, ‘झांसी की रानी’ जैसे िीर-गीत तथा सरल स्पिता में मधरु
प्रगीत मक्त
ु , यथाथभिादी मावमभक किावनयााँ आवद उनकी मौवलक प्रवतभा के िी सृजन िैं।
ऐसी प्रवतभा व्याििाररक जीिन को अछूता छोड़ देती तो आश्चयभ की बात िोती।
पत्नी की अनगु ावमनी, अधाांवगनी आवद विशेषताओ ं को अस्िीकार कर उन्िोंने भाई
लक्ष्मणवसंि जी को पत्नी के रूप में ऐसा अवभन्न वमत्र वदया वजसकी बवु द्ध और शवक्त पर वनभभर रि
कर अनगु मन वकया जा सके ।
अजगर की कंु डली के समान, स्त्री के व्यवक्तत्ि को कस चर-चर कर देने िाले अनेक
सामावजक बधं नों को तोड़ फें कने में उनका जो प्रयास लगा िोगा, उसका मल्ू याक
ं न आज सभं ि निीं
िै।
उस समय बच्चों के लालन-पालन में मनोविज्ञान को इतना मित्िपणू भ स्थान निीं वमला था
और प्रायः सभी माता-वपता बच्चों को वशिता वसखाने में स्ियं अवशिता की सीमा तक पिुचाँ जाते
थे। सभु द्रा जी का कवि-हृदय यि विधान कै से स्िीकार कर सकता था! अतः उनके बच्चों को
विकास का जो मक्त ु िातािरण वमला उसे देख कर सब समझदार वनराशा से वसर विलाने लगे। पर
वजस प्रकार यि सत्य िै वक सुभद्रा जी ने अपने वकसी बच्चे को उसकी इच्छा के विरूद्ध कुछ करने
के वलए बाध्य निीं वकया, उसी प्रकार यि भी सत्य िै वक वकसी बच्चे ने ऐसा कोई कायभ निीं वकया
वजससे उसकी मिीयसी मााँ को वकंवचत् भी क्षब्ु ध िोने का कारण वमला िो। उनके िात्सल्य का
विधान ऐसा िी अवलवखत और अटूट था।

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अपनी सतं ान के भविष्य को सख ु मय बनाने के वलए उनके वनकट कोई भी त्याग अकरणीय
निीं रिा। पत्रु ी के वििाि के विषय में तो उन्िें अपने पररिार से भी संर्षभ करना पड़ा।
उन्िोंने एक क्षण के वलए भी इस असत्य को स्िीकार निीं वकया वक जावतिाद की संकीणभ
तलु ा पर िी िर की योग्यता तोली जा सकती िै। इतना िी निीं, वजस कन्यादान की प्रथा का सब
मक ू -भाि से पालन करते आ रिे थे उसी के विरूद्ध उन्िोंने र्ोषणा की, ‘मैं कन्यादान निीं करूाँगी।
क्या मनष्ु य मनष्ु य को दान करने का अवधकारी िै ? क्या वििाि के उपरांत मेरी बेटी निीं रिेगी ? उस
समय तक वकसी ने, और विशेषतः वकसी स्त्री ने, ऐसी विवचत्र और परंपरा-विरूद्ध बात निीं किी
थीं।
देश की वजस स्ितत्रं ता के वलए उन्िोंने अपने जीिन के िासतं ी सपने अाँगारों पर रख वदए
थे, उसकी प्रावप्त के उपरांत भी जब उन्िें सब ओर अभाि और पीड़ा वदखाई दी जब उन्िोंने अपने
सर्ं षभकालीन सावथयों से भी विद्रोि वकया। उनक उग्रता का अवं तम पररचय तो विश्विन्द्य बापू की
अवस्थविसजभन के वदन प्राप्त िुआ। िे कई सौ िररजन मविलाओ ं के जल ु सू के साथ-साथ सात मील
पैदल चलकर नमभदा वकनारे पिुचाँ ी। पर अन्य सम्पन्न पररिारों की सदस्यायें मोटरों पर िी जा सकीं।
जब अवस्थप्रिाि के उपरांत संयोवजत सभा के र्ेरे में इन पैदल आने िालों को स्थान निीं वदया गया
तब सभु द्रा जी का क्षब्ु ध िो जाना स्िाभाविक िी था । उनका क्षात्रधमभ तो वकसी प्रकार के अन्याय के
प्रवत क्षमाशील िो निीं सकता था। जब उन िररजनों को उनका प्राप्य वदला सकीं तभी िे स्ियं सभा
में सवम्मवलत िुई।
सातिीं और पााँचिी कक्षा की विद्यावथभवनयों के सख्य को सुभद्रा जी के सरल स्नेि ने ऐसी
अवमट लक्ष्मण-रे खा से र्ेर कर सरु वक्षत रखा वक समय उस पर कोई रे खा निीं खींच सका। अपने
भाई-बिनों में सबसे बड़ी िोने के कारण मैं अनायास िी सब की देखरे ख और वचतं ा की
अवधकाररणी, बन गई थी। पररिार में जो मझु से बड़े थे उन्िोंने भी मझु े ब्रह्मसत्रू की मोटी पोथी में
आाँखे गड़ाये देखकर अपनी वचंता की पररवध से बािर समझ वलया था। पर के िल सभु द्रा पर न मेरी
मोटी पोवथयों का प्रभाि पड़ा न मेरी समझदारी का। अपने व्यवक्तगत सबं धं ों में िम कभी कुतिू ली
बाल-भाि से मक्त ु निीं िो सके । सभु द्रा के मेरे र्र आने पर भवक्तन तक मझु पर रौब जमाने लगती
थी। क्लास में पिुचाँ कर िि उनके आगमन की सचू ना इतने ऊाँचे स्िर में इस प्रकार देती वक मेरी
वस्थवत िी विवचत्र िो जाती ‘ऊ सिोदरा विचरर अऊ तो इनका देखै बरे आइ के अके ली सनू े र्र मााँ
बैिी िैं। अउर इनका वकतवबयन से फुरसत नाविन बा’। एम0ए0, बी0ए0 के विद्यावथभयों के सामने
जब एक देिावतन बवु ढ़या गरू ु पर कत्तभव्य-उल्लंर्न का ऐसा आरोप लगाने लगे तो बेचारे गरू ु की
सारी प्रवतष्ठा वकरवकरी िो सकती थी। पर इस अनाचार को, रोकने का कोई उपाय निीं था। सभु द्रा जी
के सामने न भवक्तन को डााँटना संभि था न उसके कथन की अपेक्षा करना। बाँगले में आकर देखती
वक सभु द्रा जी रसोई र्र में या बरामदे में भानमती का वपटारा खोले बैिी िैं और उसमें से अद्भुत

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िस्तएु ाँ वनकल रिी िैं। छोटी-छोटी पत्थर या शीशे की प्यावलयााँ, वमचभ का अचार, बासी परू ी, पेड़े,
रंगीन चकला-बेलन, चटु ीली, नीली सनु िरी चवू ड़यााँ आवद-आवद सब कुछ मेरे वलए आया िै, इस पर
कौन विश्वास करे गा! पर िि आत्मीय उपिार मेरे वनवमत्त िी आता था।
ऐसे भी अिसर आ जाते थे जब िे वकसी कवि-सम्मेलन में आते-जाते प्रयाग उतर निीं
पाती थीं और मझु े स्टेशन जाकर िी उनसे वमलना पड़ता था। ऐसी कुछ क्षणों की भेंट में भी एक दृश्य
की अनेक आिृवत्तयााँ िोती िी रिती थीं। िे अपने थैले से दो चमकीली चवू ड़यााँ वनकाल कर िाँसती
िुई पछ
ू ती, ‘पसंद िैं ? मैंने दो तम्ु िारे वलए दो अपने वलए खरीदी थीं। तमु पिनने में तोड़ डालोगी।
लाओ अपना िाथ, मैं पिना देती िूाँ ।’ पिन लेने पर िे बच्चों के समान प्रसन्न िो उितीं।
िम दोनों जब साथ रिती थीं तब बात एक वमवनट और िाँसी पााँच वमनट का अनपु ात रिता
था। इस से प्रायः वकसी सभा-सवमवत में जाने के पिले न िाँसने का वनश्चय करना पड़ता था। एक दसू रे
की ओर वबना देखे गभं ीर भाि से बैिे रिने की, प्रवतज्ञा करके भी ििााँ पिुचाँ ते िी एक-न-एक िस्तु
या दृश्य सभु द्रा के कुतिू ल मन को आकवषभत कर लेता और मझु े वदखाने के वलए िे वचकोटी तक
काटने से निीं चक ू तीं। तब िमारी शोभा-सदस्यता की जो वस्थवत िो जाती थी, उसका अनमु ान सिज
िै।
अनेक कवि-सम्मेलनों में िमने साथ भाग वलया था, पर वजस वदन मैंने अपने न जाने का
वनश्चय और उसका औवचत्य उन्िें बता वदया उस वदन से अतं तक कभी उन्िोंने मेरे वनश्चय के विरूद्ध
कोई आग्रि निीं वकया। आवथभक वस्थवतयााँ उन्िें ऐसे वनमत्रं ण स्िीकार करने के वलए वििश कर देती
थीं, परंतु मेरा प्रश्न उिते िी िे कि देती थीं, ‘मैं तो वििशता से जाती िू,ाँ पर मिादेिी निीं जायेगी,
निीं जायेगी।
सावित्य-जगत में आज वजस सीमा तक व्यवक्तगत स्पद्धाभ, ईषाभ-िेष िै, उस सीमा तक तब
निीं था, यि सत्य िै। पर एक दसू रे के सावित्य-चररत्र-स्िभाि संबंधी वनंदा-परु ाण तो सब यगु ों में
नानी की कथा के समान लोकवप्रयता पा लेता िै। अपने वकसी भी पररवचत-अपररवचत सावित्य-साथी
की त्रवु टयों के प्रवत सविष्णु रिना और उसके गणु ों के मल्ू यांकन में उदारता से काम लेना सभु द्रा जी
की वनजी विशेषता थी। अपने को बड़ा बनाने के वलए दसू रों को छोटा प्रमावणत करने की दबु भलता
उनमें असंभि थी।
िसतं पंचमी को पष्ु पाभरणा, आलोकिसना धरती की छवि आाँखों में भर कर सभु द्रा ने
विदा ली। उनके वलए वकसी अन्य विदा की कल्पना िी कविन थी।
एक बार बात करते-करते मृत्यु की चचाभ चल पड़ी थी। मैंने किा, ‘मझु े तो उस लिर की-सी
मृत्यु चाविए जो तट पर दरू तक आकर चपु चाप समद्रु में लौट कर समद्रु बन जाती िै।’ सभु द्रा बोली,
‘मेरे मन में तो मरने के बाद भी धरती छोड़ने की कल्पना निीं िै। मैं चािती िूाँ मेरी एक समावध िो,

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ु विश्वविद्यालय 232
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वजसके चारों ओर वनत्य मेला लगता रिे, बच्चे खेलते रिें, वस्त्रयााँ गाती रिें और कोलािल िोता रिे।
अब बताओ ं तम्ु िारी नामधाम रवित लिर से यि आनंद अच्छा िै या निीं।
उस वदन जब उनके पावथभि अिशेष को वत्रिेणी ने अपने श्यामल-उज्जिल अचं ल में समेट
वलया तब नीलम-फलक पर श्वेत चंदन से बने उस वचत्र की रे खाओ ं में बिुत िषों पिले देखा एक
वकशोर-मख
ु मस्ु कराता जान पड़ा।
‘यिी किीं पर वबखर गई िि वछन्न विजय-माला-सी!

14.6 पाठ हवश्ले षण


पाि विश्लेषण का तात्पयभ िै – मल
ू पाि की सामावजक उपयोवगता की जााँच करना िै या
मल्ू यांकन करना। पाि विश्लषण तब ज्यादा प्रमावणक िो उिता िै जब मल
ू पाि पािक के सामने िो
और आलोचक उसकी व्याख्या कर रिा िो। इस विश्लेषण की सबसे बड़ी विशेषता यि िोती िै
इसमें पािक को आलोचक की दृवि आरोवपत रूप में ग्रिण निीं करनी पड़ती। मल ू पाि का
उपलब्धता से पािक स्ियं पाि विश्लेषण कर सकता िै या आलोचक के पाि विश्लषण की जााँच
कर सकता िै। आलोच्य संस्मरण मिादेिी िमाभ की लेखनी की सजीिता का सन्ु दर उदािरण िै।
आइए िम आलोच्य सस्ं मरण के पाि विश्लेषण िारा उसकी अतं वनभवित संभािना को समझें।

14.6.1 अंतविस्तु के धरातल पर


सस्ं मरण के प्रारम्भ में िी मिादेिी िमाभ ने सस्ं मरण वलखने के कारण का वजक्र करते िुए
वलखा- "शैशि की वचत्रशाला के वजन वचत्रों से िमारा रागात्मक संबंध गिरा िोता िै, उनकी रे खायें
और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले िोते चलते िैं वक िम िाधभक्य की धंधु ली आाँखों से भी उन्िें
प्रत्यक्ष देखते रि सकते िै।" स्पष्ट िै वक सस्ं मरण उन्िीं पर वलखा जा सकता िै वजनसे रागात्मक
संबंध लेखक का रिा िो। लेवखका ने संस्मरण की शरू ु आत-नावयका लेवखका से दो कक्षा आगे िै,
इस थोड़े से बड़े िोने का एिसास उसे िै और स्ियं लेवखका को भी िैं। स्नेििश प्रश्न–प्रवतप्रश्न के
बीच-‘िमें भी तो यि सिना पड़ता िै। अच्छा िुआ अब दो साथी िो गए।' विकवसत िोता िै।
लेवखका ने सुभद्रा जी के व्यवक्तत्ि पर प्रकाश डालते िुए वलखा िै – "अपने वनवश्चत लक्ष्य-पथ पर
अवडग रिना और सब कुछ िाँसते-िाँसते सिना उनका स्िभािजात गणु था।" सभु द्रा जी की यि
अवडगता संस्मरण में जगि-जगि वदखती िै। "नििधू के रूप में उनका जो प्राप्य िै उसे देने का न
पवत को अिकाश िै न लेने का उन्िें। िस्ततु : वजस वििाि में मगं ल-कंकण िी रण-कंकण बन गया,
उसकी गृिस्थी भी कारागार में िी बसाई जा सकती थी। और उन्िोंने बसाई भी ििीं।"

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 233
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
"उन्िोंने िाँसते-िाँसते िी बताया था वक जेल जाते समय उन्िें इतनी अवधक फूल-मालायें
वमल जाती थीं वक िे उन्िीं का तवकया बना लेती थीं।" सभु द्रा जी के जीिन संर्षभ के साथ िी उनके
संतल ु न और संयम का वचत्र भी लेवखका ने खींचा िै – "र्र और कारागार के बीच में जीिन का जो
क्रम वििाि के साथ आरम्भ िुआ था िि अतं तक चलता िी रिा। छोटे बच्चों को जेल के भीतर
और बड़ों को बािर रखकर िे अपने मन को कै से संयत रख पाती थीं यि सोचकर विस्मय िोता िै।"
इसी प्रकार सभु द्रा जी कमभि एिं सिज जीिन का वचत्र मिादेिी ने इस प्रकार खींचा िै –"उनके
मानवसक जगत में िीनता की वकसी ग्रंवथ के वलए कभी अिकाश निीं रिा, र्र से बािर बैिकर िे
कोमल और ओज भरे छन्द वलखने िाले िाथों से गोबर के कंडे पाथतीं थी। र्र के भीतर तन्मयता से
आाँगन लीपती थीं, बतभन मााँजती थीं।" सुभद्रा कुमारी चौिान को प्राय: िीररस की किवयत्री मानकर
इवतश्री कर वदया जाता िै। इस प्रव़वत्त से असंतोष प्रकट करते िुए मिादेिी िमाभ ने वलखा िै –"उनकी
किावनयााँ प्रमावणत करती िैं वक उन्िोंने जीिन और समाज की अनेक समस्याओ ं पर विचार वकया
िै।" अपने इस कथन को पष्ु ट करने के वलए लेवखका ने सभु द्रा जी के मल ू िक्तव्य भी उद्धत वकए िैं।
इसी प्रकार लेवखका ने सभु द्रा जी बाल मनोविज्ञान की समझ को भी सरािा िै। सभु द्रा जी न के िल
श्रेष्ि किवयत्री थीं, िरन् सामावजक रूवढ़यों को तोड़ने में भी अग्रणी थीं – "पत्रु ी के वििाि के विषय
में तो उन्िें अपने पररिार से भी संर्षभ करना पड़ा। उन्िोंने एक क्षण के वलए भी इस असत्य को
स्िीकार निीं वकया वक जावतिाद की संकीणभ तल ु ा पर िी िर की योग्यता तोली जा सकती िै। इतना
िी निीं, वजस कन्यादान की प्रथा का सब मक ू भाि से पालन करते आ रिे थे उसी के विरूद्ध उन्िोंने
र्ोषणा की, "मैं कन्यादान निीं कराँ गी। क्या मनष्ु य मनष्ु य को दान करने का अवधकार िै ? उस समय
तक वकसी ने, और विशेषत: वकसी स्त्री ने, ऐसी विवचत्र और परम्परा-विरूद्ध बात निीं किी थी।"
इसके अवतरवक्त संस्मरणकार ने सभु द्रा जी के उनके बाल स्िभाि एिं सदाशयता का पररचय जगि-
जगि वदया िै।
14.6.2 हशल्प के धरातल पर
सस्ं मरण की भाषा एिं वशल्प से यि अपेक्षा की जाती िै वक िि कथ्य को सर्न, संवक्षप्त
एिं प्रभािी रूप में प्रस्ततु कर पा रिा िै या निीं। मिादेिी िमाभ मलू त: कवियत्री िैं, इसवलए उनकी
संस्मरण की भाषा भी किीं-किीं काव्यात्मक अलंकरण से अलंकृत िो गई िै, जो संस्मरण को और
अवधक प्राणिान और जीितं बनाने में सफल िुआ िै। मिादेिी िमाभ के भाषा की विशेषता जिााँ
सर्नता से यक्ु त िै ििीं िि अपनी कें द्रावभसारी प्रभािावन्िवत में भी सफल िै। आलोच्य पवं क्तयों में
एक ओर लेवखका ने जिााँ संस्मरण की मल ू विशेषता को लवक्षत वकया िै ििीं र्टना के समय की
शरू
ु आत का सक ं े त भी कर वदया िै – "िमारे शैशिकालीन अतीत और प्रत्यक्ष ितभमान के बीच में
समय-प्रिाि का पाि ज्यों–ज्यों चौड़ा िोता जाता िै त्यों-त्यों िमारी स्मृवत में अनजाने िी एक
पररितभन लवक्षत िोने लगता िै। शैशि की वचत्रशाला के वजन वचत्रों से िमारा रागात्मक संबंध गिरा
िोता िै, उनकी रे खायें और रंग इतने स्पष्ट और चटकीले िोते चलते िैं वक िम िाधभक्य की धधंु ली

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 234
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
आाँखों से भी उन्िें प्रत्यक्ष देखते रि सकते िैं।" इन पवं क्तयों में लेवखका की भाषा सर्नता एिं
संकेतात्मकता से तो पररपणू भ िै िी इसके साथ िी िि उसकी भाषा की विशेषताओ ं को भी इवं गत कर
रिी िै। लेवखका की भाषा में एक ओर जिााँ तत्सम शब्दों की बिुतायत िै (िाधभम्य, शैशिकालीन,
लवक्षत, मधमु वक्षका, मधरु , वतक्त इत्यावद) ििीं िि लोक रंगों से भी अछूती निीं िै – ‘ऊसिोदरा
विचरर अऊ तो इनका देखै बरे आइ के अके ली सनू े र्र मााँ बैिी िैं। अउर इनका वकतवबयन से
फरसत नाविन बा।'
मिादेिी िमाभ वचत्र उके रने की कला में वसद्धस्त िैं। िि किवयत्री िोने के साथ-िी-साथ
रे खावचत्रकार भी िैं, वजससे उनके संस्मरण भी जीितं बन पड़े िैं। सभु द्रा जी का पररचय देने में उनकी
वचत्रात्मक शैली देखते िी बनती िै – "मझोल कद तथा उस समय की कृ श देियवि में ऐसा उग्र या
रौद्र निीं था वजसकी िम िीरगीतों की किवयत्री में कल्पना करते िैं। कुछ गोल मख ु , चौड़ा माथा,
सरल भृकुवटयााँ, बड़ी और भािस्नात आाँख,ें छोटी सडु ौल नावसका, िाँसी को जमा कर गढ़े िुए से
ओि और दृढ़ता सचू क िुड्ढी.....सब कुछ वमला कर एक अत्यंत वनश्छल, कोमल, उदार व्यवक्तत्ि
िाली भारतीय नारी का िी पता देते थे।" संस्मरण चाँवू क पिू दभ ीवप्त शैली की रचना िै, अत: इस विधा
में ििी सफल िो सकता िै वजसमें वचत्रात्मक भाषा में, अपनी स्मृवत को पात्रानक ु ू ल ढ़ालने की
क्षमता िो। मिादेिी िमाभ ने पररवस्थवतजन्य एिं पात्रानक ु ू ल भाषा-वशल्प का पररचय देकर श्रेष्ि
संस्मरण वलखे िैं और आलोच्य संस्मरण भी उपयक्ु त गणु ों से पररपणू भ िै।

14.7 सारांश
इस इकाई का आपने अध्ययन वकया। इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आपने जाना
वक –

 सस्ं मरण विधा आत्मीयता पणू भ ढगं से सपं कभ में आये िुए व्यवक्तयों की स्मृवत की रचनात्मक
प्रस्तवु त िै।
 ‘पथ के साथी’ रचना अपनी आत्मीयता एिं सिज संप्रेष्य शैली में विवशष्ट रचना िै।
 सभु द्राकुमारी चौिान न के िल किवयत्री रिी िैं िरन् मनष्ु यता के धरातल पर भी उनके
व्यवक्तत्ि में मिानता के तत्ि रिे िैं।

14.8 शब्दावली
िाधभक्य - बढु ापा
िक्र-कंु वचत - टेढ़ी-मेढ़ी

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ु विश्वविद्यालय 235
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
कटु-वतक्त - कड़िा और तीखा
कृ श - कमजोर
संचाररणी दीपवशखा वनरंतर जलने िाली दीये की लौ
भाि स्नात - भाि से सराबोर
कीकर - बबल

आलोकिसना - प्रकाश के िस्त्र पिने िुए

14.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


(1) ररक्त स्थान पूहति
1. 1907
2. यामा
3. किवयत्री
4. 1956
5. पद्मवसंि शमाभ
(2) सत्य/अअसत्य
1. सत्य
2. सत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य

(3) सुमेहलत कीहजए –


स्मृवत की रे खाएाँ - मिादेिी िमाभ
पद्मपराग - पद्म वसिं शमाभ
संस्मरण - बनारसी दास चतिु दे ी
िे वदन िे लोग - वशिपजू न सिाय
औरों के बिाने - राजेन्द्र यादि

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 236
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
स्मरण को पाथेय बनने दो - विष्णक
ु ातं शास्त्री

14.10 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. वतिारी, रामचन्द्र, विदं ी का गद्य सावित्य – विश्िविद्यालय प्रकाशन।
2. िमाभ, धीरे न्द्र – विदं ी सावित्य कोश 1, ज्ञानमण्डल प्रकाशन।

14.11 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. नगेन्द्र, डॉ – मिादेिी िमाभ
2. मानि, विश्िम्भर – मिादेिी िमाभ

14.12 हनबं धात्मक प्रश्न


1. मिादेिी िमाभ के गद्य सावित्य की रचना शैली पर प्रकाश डावलए।
2. संस्मरण और अन्य गद्य विधाओ ं का पारस्पररक साम्य/िैषम्य वनरूवपत कीवजए।

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ु विश्वविद्यालय 237
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इकाई 15 प्रयोजनमूलक हिन्दी
इकाई की रुपरे खा
15.1 प्रस्तािना
15.2 उद्देश्य
15.3 प्रयोजनमल ू क विन्दी
15.3.1 अथभ एिं पररभाषा
15.3.2 प्रयोजनमल ू क विन्दी का इवतिास
15.4 प्रयोजनमल ू क विन्दी के क्षेत्र
15.4.1 प्रयोजनमल ू क विन्दी की शैवलयााँ और प्रयवु क्त
15.5 प्रयोजनमल ू क विन्दी का प्रदेय एिं मल्ू यांकन
15.6 साराश ं
15.7 शब्दािली
15.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
15.9 सन्दभभ ग्रन्थ सचू ी
15.10 उपयोगी पाि्य सामग्री
15.11 वनबन्धात्मक प्रश्न

15.1 प्रस्तावना
प्रयोजनमल
ू क विन्दी का अथभ - शासकीय तथा कायाभवलयी भाषा से िै। भारतीय संविधान
िारा खड़ी बोली को राजभाषा स्िीकार करने के पश्चात् विन्दी भाषा के प्रवत सोच या किें वक
अिधारणा में काफी पररितभन िुआ। सांविधावनक भाषा बनने से पिू भ विदं ी भाषा का तात्पयभ िोता था
बोलचाल की विन्दी या साविवत्यक विन्दी से। संविधान िारा विन्दी की स्िीकृ वत के पश्चात् विन्दी
कायाभलय, व्यापार तथा िावणज्य की भाषा के रूप में व्यििार िोने लगी। भाषा व्यििार के इस क्रम
में कई प्रारंवभक समस्याओ ं का सामना करना पड़ा। विन्दी भाषा के पास पयाभप्त पाररभावषक शब्द निीं
थे। अपनी शैली और प्रयवु क्त निीं थे। भाषा वनयोजन तथा मानकीकरण की समस्याएाँ भी आई।ं विन्दी
भाषा के बढ़ते विस्तार के कारण विन्दी की प्रयवु क्तयााँ भी विकवसत िुई। वकसी भी समृद्ध भाषा की
पिचान िोती िै वक उसकी प्रयवु क्तयााँ वकतनी विकवसत िुई ं िै, इस दृवि से विन्दी भाषा ने अभतू पूिभ
विकास वकया िै। भाषा वनयोजन तथा मानकीकरण के िमारे सगं वित प्रयास सफल िुए। स्ित्रन्ता पिू भ

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ु विश्वविद्यालय 238
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
जो विदं ी के िल साविवत्यक स्तर पर समृद्ध मानी जाती थी, आज िि प्रशासवनक तथा व्यापाररक
स्तर पर भी समृद्धता के वनकस तय कर रिी िै।

15.2 उद्देश्य
इस इकाई का अध्ययन करने के पश्चात् आप -

 विन्दी भाषा अथभ समझ सकें गे।


 प्रयोजनमलू क विन्दी का अथभ समझ सकें गे।
 प्रयोजनमल ू क विन्दी की विविध पररभाषाओ ं से पररवचत िो सकें गे।
 प्रयोजनमल ू क विन्दी के इवतिास से पररवचत िो सकें गे।
 प्रयोजनमल ू क विन्दी की विविध शैवलयों का ज्ञान प्राप्त कर सकें गे।
 प्रयोजनमल ू क विन्दी की विवभन्न शब्दािवलयों के संबंध में जानकारी प्राप्त कर सकें गे।
 साविवत्यक भाषा और प्रयोजनमल ू क भाषा का अन्तर स्पि कर सकें गे।
 ितभमान काल में चल रिी प्रयोजनमल ू क भाषा के भविष्य कों समझ सकें गे।

15.3 प्रयोजनमूलक हिन्दी

15.3.1 अथि एवं पररभाषा


प्रयोजनमल ू क विन्दी, अग्रेजी शब्द ‘फंक्शनल विदं ी’ का पयाभय िै। प्रयोजनमलू क विदं ी का
अथभ क्या िो ? इस पर विचार करने की आिश्यकता िै। शावब्दक ढंग से विचार करें तो इसका अथभ
िोगा -ऐसी विशेष विदं ी वजसका उपयोग वकसी विशेष प्रयोजन के वलए वकया जाए। श्री रमाप्रसन्न
नायक आवद इसे प्रयोजनमल ू क के बजाय व्याििाररक विदं ी किना ज्यादा साथभक समझते िै। उनके
अनसु ार प्रयोजनमल ू क किने से ऐसा आभास िोता िै जैसे वनष्प्रयोजनपरक भाषा का भी कोई रूप
िोता िै। रमाप्रसन्न नायक इस प्रकार की विदं ी के वलए व्याििाररक शब्द प्रयोग ज्यादा उवचत मानते
िै। प्रयोजनमल ू क विदं ी का कामकाजी विदं ी भी किा गया िै। डा. नगेन्द्र तथा डा. ब्रजेश्वर िमाभ ने
‘प्रयोजनमल ू क’ शब्द को िी ज्यादा साथभक और अथभगवभभत माना िै। डा. नगेन्द्र ने इस सदं भभ में
वलखा िै - “िस्ततु प्रयोजनमल ू क विदं ी के विपरीत अगर कोई विदं ी िै तो िि वनष्प्रयोजनमलू क निी
िरन् आनन्दमल ू क विदं ी िै। आनन्द व्यवक्त सापेक्ष िै और प्रयोजन समाज सापेक्ष। आनन्द
स्िके वन्द्रत िोता िै और प्रयोजन समाज सापेक्ष। आनन्द स्िके वन्द्रत िोता और प्रयोजन समाज की
ओर इशारा करता िै। िम आनन्दमल ू क विदं ी के विरोधी निीं िैं इसवलए आनन्दमल ू क सावित्य के

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 239
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
िम भी विमायती िैं। पर सामावजक आिश्यकताओ ं के सदभभ में िम सम्प्रेषण के बवु नयादी आधार के
भी अपनी नजर से ओझल निीं करना चािते।’’ डा. ब्रजेश्वर िमाभ ने ‘प्रयोजनमल ू क’ शब्द की वनवित
व्यंजना को अवधक स्पि ढंग से समझाया िै। उन्िोंने किा िै - “वनष्प्रयोजन विदं ी कोई चीज निीं िै
लेवकन प्रयोजनमल ू क विशेषण उसके व्याििाररक पक्ष को अवधक उजागर करने के वलए प्रयक्त ु
वकया गया ।’’ प्रयोजनमल ू क विदं ी की व्याििाररक उपयोवगता को ध्यान में रखकर कुछ लोग इसे
‘व्याििाररक विन्दी’ भी किते िै। प्रश्न िै वक व्याििाररक विन्दी क्या िै ? व्याििाररक विन्दी का
तात्पयभ िो सकता िै -ऐसी विन्दी से जो दैवनक जीिन में कायभ-साधन के वलए प्रयक्त ु की जाती िै।
ऐसी भाषा वजसमें व्याकरण की अवनिायभता के बजाय व्याििाररक उपयोवगता अवधक िो। इसके
विपरीत प्रयोजनमल ू क भाषा में प्रशासन, सपं कभ तथा सम्प्रेषण आिश्यक तत्ि के रूप में वनवित
िोता िै। आज िम वजस ‘प्रयोजनमल ू क विन्दी’ शब्द का व्यििार करते िैं िि अग्रं जे ी शब्द
‘फक्शनल लैंग्िेज’ के विन्दी पयाभय के रुप में सिभस्िीकृ त - सा िो चक ु ा िै। प्रयोजनमलू क विन्दी
पाि्यक्रम के आरवम्भक प्रस्तािकों में से एक मोटूरर सत्यनारायण ने वलखा िै - “जीिन की
आिश्यकताओ ं की पवू तभ के वलए उपयोग में लाई जाने िाली विन्दी िी प्रयोजनमल ू क विन्दी िै।’’
सामान्यतः भाषा के तीन मख्ु य प्रकायभ िोते िैं। एक भाषा का सम्बन्ध सामान्य जीिन की
व्याििाररक वक्रयाओ ं को करने के वलए लाई जाने िाली शब्दािली से िै। दसू रे प्रकार की भाषा का
सम्बन्ध विचार तथा आनन्द प्रदान करने का व्यििार करने से िै, िि सामान्य प्रकार की भाषा से
वभन्न िोता िै। प्रथम तथा वितीय भाषा से इतर तीसरे प्रकार की भाषा का संबंध िमारी जीविका तथा
प्रशासन से जड़ु ा िुआ िै। व्यापार, प्रशासन तथा कायाभलय में िम वजस भाषा का व्यििार करते िै,
िि दैवनक बोलचाल तथा साविवत्यक भाषा से वभन्न िोती िै। भाषा के इस व्यििार को िी
प्रयोजनमलू क किा गया िै। आगे चलकर िम इसका विस्तार से अध्ययन करें ग।े
15.3.2 प्रयोजनमूलक हिन्दी का इहतिास
प्रयोजनमल ू क विन्दी का इवतिास िैसे तो काफी परु ाना िै। चाँवू क मनष्ु य सचेतन प्राणी िै, इसवलए
उसके सारे सामावजक प्रयास (भाषाई प्रकायभ भी) वकसी-न-वकसी साथभक प्रयोजन से जड़ु े िोते िै। इस
दृवि से देखा जाये तो प्रयोजनमलू क भाषा का व्यििार समृद्ध सस्ं कृ वत से मक्त
ु देशों ने बिुत पिले से
िी शरुु कर वदया था। व्यापार की भाषा, काननू की भाषा, अध्यात्म की भाषा, न्याय शास्त्र की भाषा
रोजमराभ वजन्दगी की भाषा , सावित्य की भाषा इत्यावद भाषाएाँ अपने उद्देश्यगत प्रयोजन के कारण
परस्पर वभन्न रिी िैं। भाषा िस्तु क आधार पर अपने शैली का चनु ाि करती िै। प्रयोजन, िक्ता,
संदभभ के अनसु ार भाषा अपना अथभ सवु नवश्चत करती िै।
स्ितत्रं ता प्रावप्त के बाद जब से विन्दी को राजभाषा का दजाभ प्रदान वकया गया। (14 वसतम्बर 1949
ई) तब से विन्दी के प्रयोग और भवू मकाओ ं में िृवद्ध िुई। उसके पिू भ विन्दी के िल सावित्य की भाषा के
रुप में िी प्रवतवष्ठत थी। राजभाषा बनने के उपरान्त विदं ी अन्य क्षेत्रों में भवू मका के वलए तैयार िोने

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लगी। उस समय विन्दी के विरोवधयों िारा यि प्रश्न भी खड़ा वकया गया वक क्या विन्दी भाषा में इतनी
सामथ्यभ िै वक िि अन्य सामावजक व्यििारों की अवभव्यवक्त करने में समथभ िै ? इस शक ं ा में थोड़ी
सच्चाई भी थी, क्योवक उस समय तक विन्दी भाषा ने अपनी प्रयवु क्त, उप - प्रयवु क्त का समवु चत
वनमाभण कायभ निीं वकया था। भारत सरकार िारा सरकारी कामकाजों के वनिाभि के वलए शब्दािली
आयोग का वनमाभण वकया गया, वजसके माध्यम से विन्दी के शब्द भडं ार में काफी िृवद्ध िुई। विन्दी के
मानक व्याकरण का वनमाभण, कोश वनमाभण कायभ के अवतररक्त व्यापार, काननू , सरकारी कायभ के
अनरुु प विन्दी शब्दोंका वनमाभण वकया गया। एक विषय के रुप मे प्रयोजनमल ू क विन्दी को प्रवतवष्ठत
करने का श्रेय श्री मोटूरर सत्यनारायण को जाता िै वजन्िोंने सन् 1975 में कें द्रीय विन्दी सस्ं थान के
माध्यम से इस विषय को राष्रीय मान्यता प्रदान की। इसी िषभ प्रयोजनमल ू क विन्दी पर एक राष्रीय
संगोष्ठी का आयोजन विन्दी सस्ं थान ने वकया, वजसके माध्यम से प्रयोजनमल ू क विन्दी के पाि्यक्रम
की रुपरे खा तैयार िुई। दवक्षण भारत में प्रयोजनमल ू क का पाि्यक्रम दवक्षण भारत प्रचार सभा के
उच्च वशक्षा और शोध संस्थान के िैदराबाद और धारिाड़ पररसरों में एम. ए. स्तर पर सिभप्रथम चला
िै। पणु े विश्वविद्यालय के विन्दी विभाग में एम. ए. पाि्यक्रम भी बिुत पिले शरुु िो चक ु ा था।
बी.एच.यू ने प्रयोजनमल ू क विन्दी में एम. ए. पाि्यक्रम की शरुु आत सन् 1999 से की । य.ू जी.सी,ने
स्नातक स्तर पर प्रयोजनमल ू क विन्दी के पाि्यक्रम को अब तो िर विश्वविद्यालय के वलए अवनिायभ
कर वदया िै।
अभ्यास प्रश्न 1

(क) वनम्नवलवखत प्रश्नों के उत्तर लगभग 50 शब्दों में दीवजए ।


1. ‘प्रयोजनमल
ू क विन्दी’ नामकरण का औवचत्य वसद्ध कीवजए ।
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2. प्रयोजनमल
ू क विन्दी की अिधारणा बताइए ।

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(ख) िााँ /अ निीं का चुनाव कीहजए :-
1. सामान्य बोलचाल की भाषा और साविवत्यक भाषा एक िी िै। (िााँ/निीं)
2. प्रयोजनमल
ू क विन्दी का सम्बन्ध व्यािसावयक विन्दी से िै। (िााँ/निीं)
3. प्रयोजनमल
ू क विन्दी का एक नाम व्यािसावयक विन्दी भी िै। (िााँ/निीं)
4. प्रयोजनमल
ू क विन्दी, फंक्शनल विन्दी का पयाभय िै। (िााँ/निीं)
5. प्रयोजनमल
ू क विन्दी के विकास में कें द्रीय विन्दी सस्ं थान की मित्िपणू भ भवू मका रिी
िै। (िााँ/निीं)

15.4 प्रयोजनमूलक हिन्दी के क्षे


िमने पढ़ा वक प्रयोजनमल ू क विन्दी का अथभ क्या िै तथा विवभन्न वििानों के उस पर क्या
अवभमत िैं। िमने यि भी अध्ययन वकया वक सामान्य बोलचाल की भाषा और प्रयोजनमल ू क भाषा
का क्या अन्तर िै। आइए अब िम प्रयोजनमल ू क विन्दी का शब्द-सपंदा के आधार पर वनवमभत क्षेत्र
का सवं क्षप्त पररचय प्राप्त करें । िमने अध्ययन वकया वक जीविकोपाजभन के वलए प्रयोग में लाई जाने
िाली भाषा िी प्रयोजनमल ू क भाषा िै। अब प्रश्न यि िै वक इस भाषा के क्षेत्र कौन से िैं। सामावजक
जीिन क्रम में, विकास की वस्थवत में, भाषा विस्तार की वस्थवत में भाषा के कई क्षेत्र िो जाते िै। डॉ.
ब्रजेश्वर िमाभ के अनसु ार प्रयोजनमल ू क विन्दी के दो मख्ु य भेद िोते िैं और उसके अनेक उपभेद िोते
िैं। डॉ. व्रजेश्वर िमाभ ने प्रयोजनमलू क विन्दी के दो मख्ु य भेद वकए िै
1. Core Hindi
2. Advanced Hindi

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Core Hindi को डॉ. िमाभ ने पनु ः चार उपभेदों में विभावजत वकया िै - क. कायाभलयी विन्दी ख.
व्यािसावयक विन्दी ग. तकनीकी विन्दी र्. समाजी विन्दी । एम. सत्यनारायण ने प्रयोजनमल ू क विन्दी
के क्षेत्र विभाजन करते िुए वलखा िै - 1. सामान्य सम्प्रेषण माध्यम 2. सामावजक 3. व्यािसावयक
4.कायाभलयी 5. तकनीकी 6. सामान्य सावित्य। डॉ. भोलानाथ वतिारी तथा विनोद गोदरे ने
प्रयोजनमल ू क विन्दी के क्षेत्र विस्तार को स्पि रुप से समेटते िुए उसके प्रमख
ु भेद स्िीकार वकए िैं -
1. बोलचाल की हिन्दी - इसके अतं गभत बोलचाल के सामान्य रुप की विन्दी भाषा आती िै।
2. व्यापार की हिन्दी - व्यापार की विन्दी के अतं गभत बाजार, सराभफे एिं मडं ी की भाषा
आती िै।
3. कायािलय हिन्दी - कायाभलय विन्दीके अन्तगभत कायाभलय में प्रयोग की जाने िाली भाषा
आती िै।
4. शास्त्रीय हिन्दी - प्रयोजनमलू क इस भाषा के अन्तगभत विवभन्न काथ कलाएाँ तथा मानिीय
एिं सामावजक विज्ञान के विषयों से सबं ंवधत भाषा आती िै।
5. वैज्ञाहनक तथा तकनीकी हिन्दी - प्रयोजनमल ू क विन्दी के इस रुप के अन्तगभत इजं ीवनयररंग के
विवभन्न क्षेत्र तथा विज्ञान के विविध क्षेत्रों की भाषा आती िैं ।
6. समाजी हिन्दी - प्रयोजनमलू क विन्दी के इस क्षेत्र के अन्तगभत समाज के उच्च वक्रया
कलाप का अध्ययन वकया जाता िै।
7. साहिहत्यक हिन्दी - प्रयोजनमल
ू क विन्दी के इस क्षेत्र के अन्तगभत कविता, नाटक, उपन्यास,
किानी जैसी विधाओ ं की भाषा आती िैं।
8. प्रशासहनक हिन्दी - प्रयोजनमल
ू क विन्दी के इस क्षेत्र के अन्तगभत प्रशासवनक कायों में प्रयक्त

भाषा एिं उसकी पाररभावषक शब्दािली का अध्ययन वकया जाता िै।
9. जनसंचार माध्यम की हिन्दी - प्रयोजनमल ू क विन्दी के इस क्षेत्र के अन्तगभत जनसंचार माध्यमों
जैसे दरू दशभन, रे वडयो,कम्प्यटू र एिं समाचार पत्रों की भाषा आती िै। विनोद गोदरे िारा रवचत ’
प्रयोजनमल ू क विन्दी ’ पस्ु तक में विन्दी के प्रयोजनमल ू क उपयभक्त
ु भेद वमलते िैं। क्षेत्र विभाजन के इस
भेद में अवतव्यावप्त दोष िै। प्रयोजनमल ू क भाषा के अतं गभत साविवत्यक विन्दी, बोलचालीय विन्दी
तथा समाजी विन्दी को भी समाविि कर वलया गया िैं। िस्ततु ः प्रयोजनी विन्दी के अतं गभत ऐसी भाषा
को िी समाविि वकया जा सकता िै जो व्यापक रुप से रोजगार, व्यिसाय एिं तकनीक से जड़ु ी िुई
िो।

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15.4.1 प्रयोजनमूलक हिन्दी की शैहलयााँ और प्रयुहि


प्रयोजनमलू क भाषा का संबंध भारत के संदभभ में सन् 1947 के बाद प्रारम्भ िुआ। 1947
ईसिी से पिू भ भारत िषभ के अवधकांश कायो की भाषा अग्रं ेजी थी। कचिररयों में िााँलावक देिनागरी
को स्िीकृ वत प्रदान कर दी गई थी, लेवकन ििााँ अग्रं ेजी और उदभू भाषा की िी प्रधानता थी। व्यापार
की भाषा पर अग्रं ेजी भाषा का आवधपत्य था। ििी वस्थवत कायाभलय तथा प्रशासन की भाषा का भी
था। भारतीय संविधान में यि प्रािधान वकया गया वक भारतीय संर् की राजभाषा विन्दी िोगी तथा
वलवप देिनागरी िोगी। विन्दी के राजभाषा के रुप में स्िीकृ वत के पश्चात् भाषा के मानकीकरण एिं
वनयोजन की प्रवक्रया को भी बल वमला। भाषा वनयोजन की सक ं ल्पनाएाँ सामने आई। डॉ.वदलीप वसिं
ने प्रयोजनमल ू क विन्दी के प्रयवु क्तपरक विश्ले षण पर वटप्पणी करते िुए वलखा िैः “आधवु नक भाषा
विज्ञान में भाषा को देखने की दो दृवियााँ प्रचवलत िैं। एक दृवि यि बताती िै वक भाषा क्या िै?
उसकी व्याकरवणक व्यिस्था कै सी िै? और संरचना के उसके वनयम क्या िै? दसू री दृवि भाषा के
व्याििाररक पक्ष से संबद्ध िोकर यि बताती िै वक भाषा वकन प्रयोजनों को साधती िै, उसके प्रयोक्ता
भाषा से क्या कायभ लेते िैं। इस दसू री दृवि के सदं भभ में यि तथ्य भी स्िीकायभ ि। वक कोई भाषा
व्यििार में समरुपी निीं िोती। ’’ भाषा की विषय विविधता या रुपता भाषा प्रयोग के धरातल पर
परखी जाती िै। विषय के अनुसार वजस प्रकार भाषा बदलती िै, उसी प्रकार उसका प्रकायाभत्मक रुप
भी बदलता रिता िै। उदािरण स्िरुप यवद िम इसे समझना चािें तो कि सकते िै वक विवध क्षेत्र की
भाषा, बैक , पत्रकाररता, विज्ञान, व्यिसाय, मनोरंजन, सावित्य, कायाभलय इत्यावद की भाषा एक
दसू रे से वभन्न िोती िै। डााँ. वदलीप वसिं के अनसु ार “भाषा अध्ययन की इस दसू री दृवि ने िी प्रयोग
के स्तर पर विषय परक या व्यपिार क्षेत्र बावधत भाषा रुपों को प्रयवु क्त (Register) की सज्ञं ा दी िै।
भाषा प्रयवु क्त को समझाने के वलए इसे ‘सीवमत भाषा रुप’ किा गया िै। भाषा के व्यापक स्िरुप को
देखते िुए यि किा जा सकता िै वक भाषा के व्यापक स्िरुप से वनसृत यि एक सीवमत रुप िै जो
वकसी विवशि व्यििार क्षेत्र में संप्रेवषत िोती िै।
भाषा, सामावजक सम्प्रेषण की प्रवक्रया में िी अवस्तत्ि ग्रिण करती िै। एक सामावजक व्यवक्त को
समाज के अनरुु प कई भवू मकाएाँ वनभानी पड़ती िैं। आजकल सफल व्यवक्त ििी िै जो सामावजक
सम्प्रेषण की विवभन्न प्रयवु क्तयों से पररवचत िो। व्यापक सम्प्रेषण की प्रवक्रया से जटु ने के वलए व्यवक्त
को ‘व्यापक कोड’ और ‘सीवमत काड’ की भवू मका से पररवचत िोना पड़ता िै। भाषा के संदभभगत
विवशि प्रयोग को िी ‘सीवमत काड’ किा गया िै। जैसे - िैज्ञावनक पाि का कोड, धावमभक अनष्ु िान
या कमभकाण्ड का कोड, व्यापार का कोड, अपराध जगत का कोड, वसनेमा - मीवडया का कोड, शेयर
बाजार का कोड, कायाभलय का कोड, या वकसी भी अन्य कारण से समाज का एक िगभ जो अन्य
लोगों के वबना िी अपनी संप्रेषण की प्रवक्रया परू ी कर पाने मे सक्षम वसद्ध िो रिा िै। भाषा के इस

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सीवमत कोड को िम ‘प्रयवु क्त’ किते िै। यिााँ िमें बोवलयों और प्रयवु क्त के बीच के अन्तर को समझ
लेना चाविए। जिााँ बोवलयों के रुप भेद का कारण “प्रयोक्ता” िोता िै ििीं प्रयवु क्तयों के भेद का
आधार ‘प्रयोग’ अथाभत् विषय िोता िै। भाषा - प्रयवु क्त के विवभन्न भाषा रुपों के दो संदभभ िोते िैं -
एक, भाषा शैली का संदभभ और दसू रे , भाषा प्रयवु क्त का संदभभ। भाषा प्रयोग के धरातल पर कई
संदभो एिं विषयगत प्रयोगों के विश्ले षण के आधार पर संचावलत िोती िै। भाषा - प्रयवु क्त पर कायभ
करने िाले अध्येता िैवलडे ने प्रयवु क्त का िगोकरण कर इसे तीन आयामों मे विभक्त वकया िै - िाताभ
क्षेत्र, िाताभ प्रकार और िाताभ शैली । तीनों आयामों को िम कुछ उदािरणों के माध्यम से समझ सकते
िैं। िाताभ क्षेत्र का संबंध विषय क्षेत्र से िै। जैसे कायाभलय -विन्दी में भाषा प्रयवु क्त िोगी - गोपनीय,
तत्काल, कारभ िािी करें , अग्रसाररत, आदेवशत, सवू चत वकया जाता िै, देख लें ‘आख्या िेतु प्रस्ततु ’
इत्यावद । वक्रके ट की विन्दी का उदािरण देखें - रन आउट, एल.पी.डब्ल्यू, वसली प्िाइटं , छक्का,
चौका, रन रे ट, थडभ अपायं र, थडभ मैन, वपच, स्लो, फास्ट, इत्यावद । शेयर बाजार में प्रयक्त ु विन्दी को
देखें - चााँदी लढ़ु की, सोना उछला, दाल नरम, बाजार तेज, धवनया नरम, चािल गरम, इत्यावद।
विज्ञापन में प्रयक्त
ु भाषा - प्रयवु क्त देखें - डर के आगे जीत िै, जीिन के साथ भी, जीिन के बाद भी ,
कुछ मीिा िो जाये, िंडा मतलब कोका कोला, िंडा-िंडा कूल-कूल, ढूढ़ते रि जाओगे , खबसरू ती
को और क्या चाविए, ये वदल मााँगे मोर, टेस्ट द िंडा, देश की धड़कन -िीरो िोन्डा, इत्यावद।
उपयभक्त
ु उदािरणो से स्पि िै वक विषय क्षेत्रों के आधार पर भाषा रुप बदल जाते िैं और उन
भाषा रुपों को िाताभ क्षेत्र की प्रयवु क्त किा जाता िै। िाताभ - प्रकार की प्रयवु क्त का सम्बन्ध संदभभ,
प्रयोक्ता और प्रयोजन के वनविताथभ पर आधाररत िै। एक िी व्यवक्त अपनी सामावजक भवू मका के
अनसु ार अलग-अलग शब्द- रूपों का व्यििार करता िै। एक व्यवक्त पत्नी, मााँ, बिन, भाई, वमत्र,
कायाभलय, समाज और लेखन में परस्पर वभन्न भाषा का व्यििार करता िै। िाताभ प्रकार को समझने
के वलए संस्कृ त काव्यशास्त्र का ध्िवन सम्प्रदाय भी िमारी थोड़ी मदद कर सकता िैं। शाम िो गई
िाक्य का वनविताथभ अलग-अलग िो सकता िै। यवद यि िाक्य कोई सास अपने बिू से किती िै तो
इसका अथभ िै वक अब रात के खाने - पीने का इन्तजाम करो। इसी िाक्य को कोई पजु ारी अपने
वशष्य से किता िै तो उसका अथभ िोगा वक अब संध्या - पजू न की तैयारी करो। कोई रािगीर दसू रे
साथी रािगीर से किता िै तो उसका अथभ िोगा वक अब रावत्र - विश्राम की व्यिस्था करो । कि
सकते िै वक िाताभ - प्रकार सदं भभ, प्रकरण, प्रयोक्ता, ग्रािक, काल, इत्यावद कई तत्िों से संयोवजत
प्रयवु क्त िै। िाताभ - क्षेत्र एिं िाताभ - प्रकार के आधार पर िाताभ - शैली वनधाभररत िोती िै। कि सकते िैं
वक प्रयोजनमल ू क भाषा की प्रयोजनमल ू क शैवलयों को िी प्रयवु क्त किा जाता िै। (वदलीप वसिं )
विषय से बाँधकर भाषा वजन भेदों को जन्म देती िै, िि भेद िी प्रयवु क्त िै। हवहशष्ट हवषय परक
प्रयोग िी भाषा की प्रयोजनमल ू कता का आधार िै।
अभ्यास प्रश्न 2

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(क) हनम्नहलहखत शब्दों पर हटप्पणी लीहखए।
1) सामान्य विदं ी
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2) साविवत्यक विन्दी
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3) प्रयवु क्त
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4) प्रशासवनक विदं ी
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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
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5) िैज्ञावनक तथा तकनीकी विन्दी
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(ख) कोष्ठक में हदए गए हवकल्पों में से सिी हवकन्प का चुनाव कीहजए
1) प्रयोजनमल
ू क विन्दी का पयाभय िै (कामकाजी/समाजी/साविवत्यक)
2) ब्रजेश्वर िमाभ के अनसु ार प्रयोजनमल
ू क विदं ी के मख्ु य भेद िैं (2/4/6)
3) जनसचं ार माध्यम के अतं गभत आते िैं। (दरू दशभन/शेयर/कायाभलय)
4) तकनीकी विदं ी के अतं गभत िैं। (िैज्ञावनक/कायाभलयी/ विवध)
5) ‘चााँदी लढ़ु की’ प्रयक्त
ु का संबध िैं। (शेयर/कायाभलय/ विज्ञान)

15.5 प्रयोजनमूलक हिदी का प्रदेय एवं मूलयां कन


पिू भ में आपने पढ़ा वक प्रयाजनमलू क विन्दी की आिश्यकता तब मिससू की जाने लगी,
जब भाषा अपनी सामावजक अवभव्यवक्त /सम्प्रेषणीयता में अक्षम वसद्ध िोने लगी। स्ितंत्रता प्रावप्त के
पिू भ तक विदं ी सावित्य की दृवि से तो श्रेष्ठ भाषा बन गई थी, वकन्तु इसमें रोजगार के अिसर
परम्परागत रूप से अध्यापन को छोड़कर अन्य कुछ न थी। विदं ी समाचार पत्र भी वनकल रिे थे,
लेवकन उनमें भी ििी व्यवक्त सफल था जो सावित्य में था या सावित्यक पत्रकाररता करता था। कुल
वमलाकर विदं ी भाषा का तात्पयभ साविवत्यक विदं ी से िी समझा जाता था। सन् 1949 ई. में विदं ी को
राजभाषा का दजाभ प्रदान कर वदये जाने के उपरान्त विदं ी भाषा में सरकारी काम काज की बाध्यता

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मिससू की जाने लगी। इसी क्रम में सपं णू भ भारतीय क्षेत्र को खण्ड - क,ख, एिं ग के रूप में विभक्त
वकया गया। खण्ड क एिं ख क्षेत्रों में विदं ी भाषा में पत्राचार को अवनिायभ कर वदया गया। इस कायभ से
विदं ी भाषा का प्रचार प्रसार तो बढा िी , रोजगार के नये अिसर भी बढ़े। भाषा के प्रयोजनमल ू क
स्िरूप् को ध्यान में रखते िुए भाषा की सामावजक उपयोवगता पर नये वसरे से विचार -विमशभ वकया
जाने लगा।
भारत के सरकारी कामकाज की भाषा से विदं ी बिुत समय से विवच्छन्न रिी िै। प्राचीन कान
में राजदरबार की भाषा संस्कृ त बनी, मध्यकान मे फारसी एिं आधवु नक काल में अग्रं ेजी । सत्ता और
भाषा का गिरा सम्बन्ध िोता िै। सत्ता को वजस भाषा से िचभस्ि में मदद वमलती िै, िि उसे अपनाती
िै। विन्ं दी इस दृवष्ठ से िचभस्ि एिं सत्ता की भाषा कभी निीं बनी। लैवटन , फें च एिं अग्रं ेजी की तरि
सत्ता एिं बाजार खेल की बजाय यि बराबर लोक भाषा बनी रिी । सरकारी कामकाज की भाषा
स्िीकृ त िोने के बािजदू इसने कभी भी आवधपत्यकारी भािनाओ ं को बढ़ािा निी वदया, िााँलावक
इसके आरोपी इसके ऊपर बराबर यि आरोप लगाते रिे । स्ितंत्रता प्रावप्त के पश्चात् विन्दी के
प्रयोजनमल ू क रुप ने भारतीय समाज व्यिस्था अथभव्यिस्था एिं सांस्कृ वतक - शैवक्षक उन्नवत के
वनमाभण में प्रमख ु भवू मका वनभाई । प्रयोजनमल ू क विन्दी ने शब्दों के मानकीकरण, कोश, व्याकरण,
शब्दािली के क्षेत्र मे मल ू भतू कायभ वकया । लोक से जड़ु ा व्यवक्त शब्दों का इस्तेमाल वकन सदं भभ
विशेष में करता िै, उसका सामावजक-सांस्कृ वतक अथभ तो िमें मालमू था, लेवकन उसका
व्याििाररक एिं आवथभक कारण िमें निीं मालूम था। प्रयोजनमल ू क अिधारणा का मल ू सम्बन्ध
रोजगार से िै। कायाभलय, व्यिसाय, विवध, पत्रकाररता जैसे क्षेत्रों में रोजगार के व्यापक अिसर
प्रयोजनमल ू क अिधारणा की िी देन िै ।

15.6 सारांश
प्रयोजनमल ू क विदं ी से तात्पयभ िै कामकाजी विन्दी या व्यािसावयक विन्दी से। स्ितत्रं ता पिू भ
विन्दी भाषा का तात्पयभ था बोलचाल की विन्दी या साविवत्यक विदं ी से । लेवकन ितभमान यगु में ििी
भाषा जीवित रि सकती िै वजसके पास समृद्ध सावित्य और संस्कृ वत तो िै िी इसके अवतररक्त
बाजार की जरुरतों के अनरुु प सम्प्रषण की क्षमता भी िो । विवध की भाषा या विज्ञान की भाषा
जाविर िै सामान्य बोलचाल की भाषा या साविवत्यक की भाषा से वभन्न िोगी। पत्रकाररता या
जनसचं ार की भाषा, व्यिसाय की भाषा, शेयर माके ट की भाषा इत्यावद की भाषा बोलचाल की
भाषा से वभन्न िोती िै। भाषा के इसी सीवमत प्रयोग को ‘प्रयवु क्त’ किा गया िै । विषय भेद के
अनसु ार प्रयवु क्तयों के भी उप-विभाजन िो जाते िैं, वजन्िें उप-प्रयवु क्त किते िै। प्रयोजनमल
ू क विन्दी

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के नामकरण के सदं भभ में भी भ्रम फै लाया गया ? िस्ततु : व्यिसाय एिं रोजगार के प्रयोजन से
विकवसत विन्दी िी प्रयोजनमल
ू क विन्दी िै।

15.7 शब्दावली

 प्रयोजनमल ू क - वकसी खास उद्देश्य से वकया गया कायभ,भाषा के संदभभ में रोजगार परक
भाषा को प्रयोजनमल ू क भाषा किा गया िैं
 िावणज्य - व्यापार
 मानकीकरण - भाषा के रुप को वस्थर करने की प्रवक्रया
 प्रयवु क्त -भाषा का सदं भभगत प्रयोग
 िाताभ क्षेत्र - भाषा व्यििार का विषय क्षेत्र
 व्यापक कोड - भाषा का व्यापक संदभभ में प्रयोग
 सीवमत कोड - भाषा का सीवमत सदं भभ में प्रयोग
 रुपान्तरण - भाषा का सामावजक संदभभ के अनसु ार पररितभन
 वनयोजन - भाषा को विषय िस्तु एिं व्याकरण के अनसु ार संयोवजत करना
 विश्लेषण - भाषा का सामावजक सदं भभ के अनसु ार उसकी भवू मका का वनधाभरण

15.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1
ख) 1. निीं 2. िॉ 3. िॉ 4. िॉ 5. िााँ
अभ्यास प्रश्न 2
1. कामकाजी 2. 2 3. दरू दशभन 4. िैज्ञावनक 5. शेयर

15.9 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. गोदरे , विनोद, प्रयोजनमल
ू क विन्दी, िाणी प्रकाशन, नई वदल्ली।

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2. गिेषणा पवत्रका 67 -68,कें द्रीय विन्दी सस्ं थान, आगरा।
3. प्रयोजनमल
ू क विन्दी , कें द्रीय विन्दी सस्ं थान, आगरा।
4. प्रयोजनमल
ू क विन्दी का स्िरुप, इवं दरा गााँधी राष्रीय मक्त
ु विद्यालय, नई वदल्ली।
5. गोस्िामी, कृ ष्णकुमार, प्रयोजनमल
ू क विन्दी ओर कायाभलयी विन्दी, कवलंगा प्रकाशन,
नई वदल्ली।

15.10 सिायक/ उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. श्रीिास्ति, रिीन्द्रनाथ, प्रयोजनमल
ू क विन्दी: चचाभ-पररचचाभ।
2. कंसल, िररबाबू ि बंध,ु सधु ांश,ु राजभाषा विन्दी: सर्ंषो के बीच।

15.11 हनबन्धात्मक प्रश्न


1. प्रयोजनमल
ू क विन्दी की सामावजक उपयोवगता पर वनबन्ध वलवखए।
2. प्रयोजनमल
ू क विन्दी की उप - प्रयवु क्तयों को उदािरण सवित स्पि कीवजए।

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इकाई16. पत्राचार: कायालय पत्र,
व्यािसाहयक पत्र
इकाई की रूपरे खा
16.1 प्रस्तािना
16.2 उद्देश्य
16.3 पत्राचार : अथभ एिं विशेषताएं
16.4 पत्राचार के प्रमख ु अगं
16.5 कायाभलयी पत्राचार के विवभन्न रूप
16.6 व्यािसावयक पत्र के अथभ और प्रकार
16.7 व्यािसावयक पत्र के अंग
16.8 सारांश
16.9 शब्दािली
16.10 सदं भभ ग्रथं सचू ी
16.11 उपयोगी पाि्य सामग्री
16.12 वनबंधात्मक प्रश्न

16.1 प्रस्तावना
प्रयोजनमल ू क विदं ी पाि्यक्रम के चतथु भ ब्लॉक की सोलििीं इकाई िै। इसमें आप
‘पत्राचार’ के बारे में जानकारी प्राप्त करें ग।े पत्राचार जीिन का अवनिायभ अगं िै चािे िि पत्र लेखन
के रूप में िो या ई-मेल के रूप में या एस.एम.एस. के रूप में। कायाभलय और व्यिसाय में तो पत्राचार
की विवशि भवू मका िोती िै। इसके वबना न तो कायाभलय का कायभ-सपं ादन िो सकता िै और न िी
व्यिसाय को गवत वमल सकती िै। इस इकाई में आप पत्राचार का अथभ, उसके अगं और उसके
विवभन्न रूपों से पररवचत िोंगे। आप पत्राचार की विशेषताओ ं को भी जान पाएगं े और उसके प्रारूप
से भी अिगत िोंगे तावक आप विषय को समझते िुए सामग्री सक ं वलत कर सकें और पत्र लेखन कर
सकें । आशा िै वक इस पढ़ने के बाद आप पत्राचार को भली भांवत समझ सकें गे और उसका लेखन
करने में आपको इससे मदद वमल सके गी।

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16.2 उद्देश्य
इस इकाई का पढ़ने के बाद आप यि जान पाएगं े वक -

 पत्राचार क्या िै ? उसके कौन- कौन से अगं िैं ?


 कायाभलय पत्र क्या िै और उसके कौन-कौन से अगं िैं ?
 कायाभलय पत्र का लेखन वकस प्रकार वकया जाता िै ?
 व्यािसावयक पत्र क्या िै और उसके कौन-कौन से अगं िैं ?
 व्यािसावयक पत्र का लेखन वकस प्रकार वकया जाता िै ?
 पत्रों की भाषा कै सी िोनी चाविए।

16.3 प ाचार : अथभ एवं हवशेषताएं


पत्राचार मल
ू रूप से पत्र लेखन िै। यि एक कला िै और जो इस में वनपणु िोता िै िि
सरकारी और व्यािसावयक दोनों प्रकार के पत्र लेखन को कर सकता िै। ‘पत्राचार’ शब्द का वनमाभण
दो शब्दों के मेल से िुआ िै। इसमे एक शब्द िै ‘पत्र’ और दसू रा शब्द िै ‘आचार’। ‘पत्र’ एक स्थान
से दसू रे स्थान तक संप्रेषण का एक माध्यम िै, एक व्यवक्त से दसू रे व्यवक्त के बीच संपकभ का एक सत्रू
िै। इसी का विकवसत रूप आप आज ईमेल के रूप में देख रिे िैं। ‘आचार’ शब्द ‘व्यििार’ का
प्रकट करता िै। लेखन से वलखने का बोध िोता िै। इस प्रकार ‘पत्राचार’ उस प्रवक्रया या पद्धवत को
कि सकते िैं वजसमें पत्र लेखन से लेकर पत्र प्रावप्त वनवित िै। यि उदभू में ‘खत-वकताबत’ किलाता िै
और अग्रं ेजी में इसे ‘करें स्पोंडेंस’ किा जाता िै। रर्नु ंदन प्रसाद शमाभ इसे पररभावषत करते िुए किते
िैं वक कायाभलयों आवद में सरकार की रीवत नीवत की व्याख्या और कायभ के संबंध में वकसी भी
सगं िन, सस्ं था, व्यवक्त आवद को वलवखत रूप में जो कुछ भी किा अथिा बताया जाता िै, उसे
पत्राचार की संज्ञा दी जाती िै। (पृ0-31) सरकारी क्षेत्र में और व्यािसावयक क्षेत्र में पत्राचार का
विशेष मित्ि िै क्योंवक ििां वलवखत शब्द की सत्ता िै न वक उच्चररत शब्द की।
पत्राचार को रोचक, आकषभक और प्रभािपणू भ बनाने के वलए वनम्नवलवखत वबंदओ
ु ं पर ध्यान देना
आिश्यक िै-
1. सरलता, सिजता और रोचकता - पत्राचार सरल िोना चाविए तभी उसमें रोचकता
आएगी। पत्राचार में भाषा सीधी -सादी िोनी चाविए। उसमें बनािटीपन निीं िोना चाविए। अतः
वकसी पत्र के अनिु ाद से बचना चाविए और अनिु ाद करके वकसी को भी पत्र निीं भेजना चाविए।

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पत्राचार सिज लगे इसके वलए जरूरी िै वक उसमें जो कुछ भी व्यक्त वकया जाए, िि कायाभलय की
रीवत, नीवत और कायभ के अनुरूप िो। पत्र में कृ वत्रमता निीं िोनी चाविए। इसीवलए पत्रों की भाषा में
बिुज्ञता के प्रकाशन की आिश्यकता निीं िोती। तथ्यों की प्रस्तवु त पर विशेष बल रिना चाविए,
चािे पत्र सरकारी िो या व्यािसावयक।
2. संहक्षप्तता, स्पष्टता और पूणिता - पत्राचार के वलए यि एक आिश्यक शतभ िै वक पत्र में
जो कुछ वलखा जाए िि संक्षेप में िो लेवकन अपने में स्पि और पणू भ िो। ऐसा न िो वक मल ू कथ्य िी
कमजोर पड़ जाए। मख्ु य बात पत्र में अिश्य आ जानी चाविए। स्पिता के वलए आिश्यक िै वक पत्र
में वलखािट पढ़ने योग्य िो। सबसे अच्छा तो यि िै वक पत्र टाइपराटर या कंप्यटू र से टंवकत िो। यवद
पत्र लंबा वलखना िो तो उसके वलए पयाभप्त समय, सामग्री और धैयभ अपेवक्षत िै।
3. आकषिक और सरुु हचपण ू ि - पत्राचार को आकषभक और सरुु वचपणू भ भी बनाना चाविए।
इसके वलए आिश्यक िै वक भाषा विषय के अनक ु ू ल िो। शब्द चयन वनतातं सटीक और िाक्य
छोट-छोटे िों। लंबे िाक्यों के प्रयोग से पत्र लेखक को बचना चाविए। यवद कोई कविन शब्द िै जो
उसका सरल रूप प्रयोग में लाना चाविए। अनच्ु छे द भी छोटे-छोटे और एक िी भाि को व्यक्त करने
िाले िों। भाषा-शैली एक विशेष वशि स्िरूप वलए िोनी चाविए वजससे पत्र लेखक की शालीनता
का बोध िो सके । यवद मवु द्रत पत्र शीषभ िाले कागज का प्रयोग पत्राचार के वलए वकया गया िै तो
उसकी साज सज्जा आकषभक और मनोिारी िोनी चाविए। सादे कागज पर वलखा गया पत्र भी अपनी
वलखािट की संदु रता, स्पिता, उवचत लेखन-शैली, संबोधन, अवभिादन आवद से भी पािक का
ध्यान आकृ ि कर लेता िै।
4. हवराम हचह्नों का उहचत प्रयोग - इस ओर पत्र लेखक को विशेष ध्यान देना चाविए। इसे
भाषा और भािों को स्पि करने में सिायता वमलती िै। अनािश्यक रूप से विराम, कॉमा, कोष्ठक
आवद को लगा देने से कभी अथभ का अनथभ भी िो सकता िै और पत्र का उत्तर प्रवतकूल भी वमल
सकता िै।

16.4 प ाचार के प्रमुख अंग


पत्राचार की विवभन्न विशेषताओ ं से आप अिगत िो गए िोंगे। अब यि जरूरी िै वक
आपको पत्राचार के विवभन्न अगं ों से भी पररवचत करा वदया जाए। पत्राचार के अगं ों को सवु िधा की
दृवि से वनम्न प्रकार से बाटं ा जा सकता िै-
1. शीषिक - शीषभक प्रायः छपा िुआ िोता िै। इसमें प्रेषक संस्था का नाम, तार का पता और
टेलीफोन नंबर िाता िै। आजकल मोबाइल नंबर और ईमेल भी वदया जाता िै।

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2. प्रेषक का पता - यि पत्र के दाविनी ओर रिता िै। इसमें संस्था का परू ा पता, नगर का
नाम, वपन कोड, ई मेल का पता आवद वदया जाता िै।
3. पत्र सं्‍या - यि बाई ं ओर वलखी जाती िै। इससे फाइल में रखने और साथ लगाने में
सियोग वमलता िै।
4. हदनांक - सदं भभ के वलए दाविनी ओर वलखा जाता िै।
5. प्राप्तकताि - यि िि व्यवक्त िै वजसे पत्र भेजा जा रिा िै। इसका परू ा पता ऊपर बाई ं ओर
वदया जाता िै।
6. हवषय - यि पत्र के भाि का सवं क्षप्त रूप िोता िै। इसका लाभ यि िोता िै वक प्राप्तकताभ
तरु ं त समझ लेता िै वक पत्र वकस सबं धं में िै और इससे समय की बचत भी िोती िै।
7. संबोधन - यि अलग-अलग पत्रों में अलग-अलग प्राप्तकताभ के अनसु ार िोता िै। जैसे-
किीं ‘वप्रय मिोदय’, किीं ‘मिोदय,’ किीं ‘वप्रयिर’ और किीं ‘वप्रय श्री’।
8. प्रारंभ - पत्र के प्रारंभ में संदभभ, वदनांक और विषयिस्तु को वलया जाता िै।
9. कलेवर - यि पत्र का मित्िपणू भ भाग िै। इसे मल ू कथ्य या मख्ु य भाग भी किा जाता िै।
इसमें प्रेषक प्राप्तकताभ को बताने िाली और पछ ू ने िाली बातों का अलग-अलग अनुच्छे द
में उल्लेख करता िै। प्रत्येक अनच्ु छे द अपने पिू भ के अनच्ु छे द से जड़ु ा िुआ िोना चाविए।
भाषा स्पि और सिज िो, वियथभक शब्दों का प्रयोग पत्र के कलेिर में न िो। िाक्य छोटे -
छोटे िोने चाविए।
10. उपसिं ार - इसे समापन भी किते िैं लेवकन इससे पिू भ धन्यिाद ज्ञापन वकया जाना
चाविए।
11. अधोलेख - इसे िस्ताक्षर से पिू भ वलखा जाता िै, जैसे- भिदीय, आपका, आपका
आज्ञाकारी आवद।
12. िस्ताक्षर - अधोलेख के बाद प्रेषक के िस्ताक्षर िोते िै ।
13. प्रेषक का नाम - इसे िस्ताक्षर के बाद वलखा जाता िै। ऐसा इसवलए वकया जाता िै
क्योंवक कभी कभी िस्ताक्षर सुपाि्य निीं िोते। अधभ सरकारी पत्र में इस स्थान पर पदनाम न
देकर के िल नाम वदया जाता िै। जिां वकसी बड़े अवधकारी के स्थान पर कोई अन्य व्यवक्त
िस्ताक्षर करता िै तो ििां कृ ते, कुलसवचि आवद का प्रयोग वकया जाता िै।

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14. प्रेषक का पदनाम - इसे प्रेषक के नाम के बाद वलखा जाता िै। (किीं-किीं यि निीं भी
वदया जाता िै)
15. संलग्नक - ये पत्र के साथ लगने िाले कागज िोते िैं और इनका उल्लेख बाई ंओर वकया
जाता िै।
इन सभी अंगों को इस रूप में भी समझा जा सकता िै-
(1) भारतीय संचार वनगम वलवमटेड, नई वदल्ली
तार : ....................................
फोन : ...................................
(2) जे - 25, कंचनजर्ं ा वबवल्डंग,
कनॉट प्लेस पो0 आ0
नई वदल्ली-110001
(3)सख्ं या............. वदनांक................
(5) सिभश्री.........................
...........................
...........................

(6) विषय:
(7) मिोदय,
(8) प्रारंभ
(9) कलेिर
(10) समापन
(11) भिदीय
(12) िस्ताक्षर
(13) नाम
(14) पदनाम
(15) संलग्नक

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यिां उल्लेखनीय िै ये सभी अगं पत्राचार के सभी रूपों में समान रूप से िों यि आिश्यक
निीं िै। कई रूपों में अनेक अगं निीं िोते और अनेक रूपों में इनके स्थान बदल जाते िैं। जैसे
कायाभलय ज्ञापन और ज्ञापन में संबोधन और अधोलेख निीं िोता। पत्र में प्राप्तकताभ का नाम ऊपर
िोता िै जबवक कायाभलय ज्ञापन और ज्ञापन में नीचे िोता िै। तार और अधभसरकारी पत्रों में विषय
निीं वदया जाता। कई पत्रों में भिदीय या आपका बाई ं ओर रिता िै तो कई में दाविनी ओर। अक्सर
दाविनी ओर िी वलखा जाता िै।

16.5 कायालयी प ाचार के हवहर्न्न रूप


कायाभलयी पत्राचार के मख्ु य रूप वनम्नवलवखत िैं-

 पत्र
 अधभसरकारी पत्र
 तार
 त्िररत पत्र
 वमतव्यय पत्र/कूट पत्र
 कायाभलय ज्ञापन
 ज्ञापन
 कायाभलय आदेश
 आदेश
 पररपत्र
 अनस्ु मारक
 सचू ना
 पृष्ठाक
ं न
 विज्ञापन
 वनविदा सचू ना
 अवधसचू ना
 प्रेस विज्ञवप्त और प्रेस नोट
 अनौपचाररक वटप्पवणयां
 आिेदन-पत्र

उत्तराखंड मक्त
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 अभ्यािेदन
 प्रावप्त सचू ना
 सक ं ल्प
1. पत्र: इसका प्रयोग विदेशी सरकारों, राज्य सरकारों, संबद्ध और अधीनस्थ कायाभलयों,
सरकारी उपक्रमों, वनिाभचन आयोग, सािभजवनक वनकायों आवद से औपचाररक पत्र-व्यििार के वलए
वकया जाता िै। यिी निी जनता और सरकारी कमभचाररयों का संस्थाओ ं अथिा संगिनों के सदस्यों
के साथ भी पत्र-व्यििार िेतु पत्र का प्रयोग वकया जाता िै लेवकन भारत सरकार के विवभन्न मत्रं ालयों
के बीच पत्र-व्यििार िेतु इसका प्रयोग निीं िोता। पत्रों में सबं ोधन ‘मिोदय’ के रूप में िोता िै और
पत्र के अतं में अधोलेख के रूप में ‘भिदीय’ का प्रयोग िोता िै।
यिां सरकारी पत्र का एक उदािरण प्रस्ततु िै-

इवं डयन ऑयल कॉरपोरे शन


सेक्टर 15,
नोएडा,
वदनांक...................
संख्या..............
डॉ. चन्द्रप्रकाश वमश्र
38, िृदं ािन अपाटभमटें ् स,
प्लॉट नं. 110,
नई वदल्ली-110092

विषय: कायभशाला में व्याख्यान िेतु वनमत्रं ण


वप्रय मिोदय,
उक्त संदभभ में कृ पया वदनांक.............के पत्र स.ं .............का अिलोकन करें । िम अपने
कायभपालकों के वलए 21 मई 2012 को एक वदिसीय कायभशाला का आयोजन कर रिे िैं। इसके

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वितीय सत्र में वनम्नवलवखत कायभक्रम के अनसु ार कायभशाला में व्याख्यान देने के वलए पधारने के
कृ पा करें -
समय - 2: 30 बजे विषय - पाररभावषक
शब्दािली
इसके वलए संस्थान के वनयम के अनसु ार मानदेय देने की भी व्यिस्था िै।
धन्यिाद
आपका
विजेश उपाध्याय
राजभाषा अवधकारी
पत्र का प्रारंभ करते समय मल
ू रूप से वनम्न प्रकार के िाक्य वलखे जाते िैं-
आपके वदनांक..............के पत्र संख्या..............के प्रसंग में वनिेदन िै वक पत्र संख्या............को
संबोवधत आपके वदनांक...............के पत्र स0ं के उत्तर में मझु े यि सवू चत करने का वनदेश िुआ िै
वक............................................
या
इस कायाभलय के पत्र संख्या............वदनाक ं ........के सदं भभ में-की ओर आपका ध्यान आकृ ि करते
िुए वनिेदन िै वक.............................
या
आज आपके प्रवतवनवध से टेलीफोन/मोबाइल पर बातचीत िुई उसकी पवु ि में मझु े यि किना
िै..........................
इस प्रकार के अन्य अनेक रूप िो सकते िैं।
2. अधि सरकारी पत्र: सरकारी अवधकाररयों के आपसी पत्र-व्यििार में विचारों और
सचू नाओ ं के आदान-प्रदान के वलए अधभ सरकारी पत्रों का प्रयोग वकया जाता िै। इन पत्रों में वकसी
वनधाभररत वक्रया-विवध की आिश्यकता निीं िोती। जब अनस्ु मारक भेजने पर भी कोई उपयक्त ु उत्तर
निीं वमलता और वकसी मामले पर वकसी अवधकारी को ध्यान वदलाना िो या आकवषभत करना िो तो
ििां अधभ सरकारी पत्र वलखा जाता िै। ये पत्र व्यवक्तगत रूप से वकसी अवधकारी को उसके नाम से
वलखे जाते िैं और अतं ‘आपका’ से िोता िै। अवधकारी इस पर िस्ताक्षर करते समय उसके नीचे
आम तौर पर अपना नाम निीं वलखते। इसमें विषय निीं वलखा जाता और पत्र भेजनेिाले अवधकारी

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का नाम और पदनाम ऊपर बाई ंऔर वदया जाता िै और प्राप्त करने िाले का परू ा पता बाई ंओर वदया
जाता िै। यिां इसका एक उदािरण प्रस्ततु िै-
............... अ. स. प. स.
संयक्त
ु सवचि भारत सरकार,
नारकोवटक्स वनदेशालय, ग्िावलयर
वदनांक
वप्रय श्री..................
वदल्ली और अन्य मिानगरों में क्रेंद्रीय स्िास्थ्य योजना लागू िै। इसमें कें द्रीय कमभचाररयों
को संतोषप्रद वचवकत्सा सवु िधाएं वमल रिी िैं। मैंने अपने यिां भी यि योजना लागू करने के वलए
आपसे िाताभ की थी।
अतः आपसे वनिेदन िै वक ऐसे वजला मख्ु यालयों में जिां कें द्रीय कमभचाररयों की सख्ं या
अवधक िै, ििां कें द्र सरकार स्िास्थ्य योजना लागू करने पर विचार करें । आप इस संदभभ में विचारों से
अिगत कराए।ं
आपका
कखग
संयक्त
ु सवचि
स्िास्थ्य मत्रं ालय,
भारत सरकार
3. तार: ये अत्यतं जरूरी अिसर पर िी भेजे जाते िैं लेवकन आजकल िायरलेस, फै क्स,
एस.एम.एस. और इटं रनेट की सवु िधा िोने के कारण इसकी उपयोवगता कम िो गई िै। इसमें कम से
कम शब्दों में अवधक से अवधक बात किी जाती िै और अत्यंत सािधानी रखी जाती िै। बात का
मतं व्य वबल्कुल स्पि और संवक्षप्त िोता िै लेवकन संवक्षप्तता के फे र में अटपटी भाषा के प्रयोग से
बचना चाविए अन्यथा अस्पिता आ जाएगी। तार दो प्रकार के िोते िैं- शब्दबद्ध तार और बीजक ं
(कूट भाषा)। जैसे - वनदेशक बीस को सबु ि कालका मेल से चंडीगढ़ पिुचं रिे िैं
4. त्वररत पत्र: इन पत्रों की भाषा तार की िी तरि िोती िै और ये डाक से भेजे जाते िैं। प्राप्त
करने िाले को भी उतनी िी प्राथवमकता देनी िोती िै। इसमें भेजने िाले और प्राप्त करने िाले के पते
विस्तार से निीं वलखे जाते और न िी विषय वलखा जाता िै। इसका सक ं े त लाल रंग का िोता िै जो
पत्र के ऊपर वचपका वदया जाता िै और वजस पर एक्सप्रेस वलखा िोता िैं। अब इसका प्रचलन
समाप्त िोता जा रिा िै। यथा-

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प्रेषक: रे लिेज, नई वदल्ली
सेिा में: सी0 सी0 सी0, मगु लसराय,
नई वदल्ली, वदनांक.................
सं0..............विगत मास िुई रे ल दर्ु टभ नाओ ं का विस्तृत ब्यौरा आपसे अभी भी अपेवक्षत (,)
मामला (,) कृ पया तरु ं त वभजिाएं (,) यवद कोई विशेष ब्यौरा निीं वमल पाया िो तो उसकी सचू ना भी
तरु ं त दीवजए (,)
सजं ीि कुमार वसंि
उप वनदेशक,
रे लिे बोडभ
5. हमतव्यय पत्र/अकूट पत्र: जब विदेशों में वस्थत अपने दतू ािासों तथा अन्य कायाभलयों से
पत्राचार करते समय कोई गप्तु बात किनी िो वजसे कूटभाषा में वलखना आिश्यक िो तो त्िररत पत्र
के स्थान पर वमतव्यय पत्र/कूट पत्र भेजा जाता िै। इसे साइफर तार की तरि कूट भाषा में वलखकर
राजनवयक थैले या रवजस्री बीमा िारा भेजा जाता िै। इसके िारा समद्रु ी तार का व्यय बचाया जाता
िै इसवलए इसे वमतव्यय पत्र की संज्ञा दी गई िै।
6. कायािलय ज्ञापन: इनका प्रयोग विवभन्न मंत्रालयों िारा आपसी पत्राचार िेतु वकया जाता
िै। इसे अन्य परुु ष की शैली में वलखा जाता िै और संख्या सबसे ऊपर रिती िै। इसमें संबोधन
(मिोदय, आवद) और अधोलेख (भिदीय, आवद) निीं िोता िै। के िल वलखने िाले का पदनाम
और िस्ताक्षर िोते िैं। कायाभलय ज्ञापन वजस मत्रं ालय को भेजा जाता िै, उसका नाम िस्ताक्षर के
नीचे पृष्ठ के वबल्कुल बाई ंओर वलखा जाता िै।
सख्ं या......................
भारत सरकार
.................. मत्रं ालय
नई वदल्ली वदनाक
ं ...................
विषय: कें द्रीय विश्वविद्यालयों में राजभाषा विदं ी को उवचत स्थान देना
विवभन्न के न्द्रीय विश्वविद्यालयों में अनेक विषयों की पढ़ाई विदं ी माध्यम में िोती िै लेवकन अनेक
विभाग इस संबंध में उपेवक्षत दृविकोण अपनाते िैं। इसवलए यि आिश्यक िै वक सभी कें द्रीय
विश्वविद्यालयों में राजभाषा विदं ी को उवचत स्थान वदया जाए। मझु े यि किने का वनदेश िुआ िै वक
वििरवणकाएं, िावषभक वििरण आवद विदं ी में मवु द्रत की जाए।ं इन सभी वबदं ओ ु ं को सवु नवश्चत करने के

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ु विश्वविद्यालय 260
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वलए एक सवमवत बनाई जाए जो विश्वविद्यालयों में विदं ी के प्रयोग के कायाभन्ियन में सियोग कर
सके ।
िस्ताक्षर
कखग
अिर सवचि, भारत सरकार

सेिा में,
विश्वविद्यालय अनदु ान आयोग,
कुलपवत, विवभन्न के न्द्रीय विश्वविद्यालय
प्रवतवलवप जानकारी के वलए मत्रं ी, कें द्रीय सवचिालय विन्दी पररषद, नई वदल्ली को प्रेवषत।
िस्ताक्षर
कखग
अिर सवचि, भारत सरकार

7. ज्ञापन: ज्ञापन का प्रयोग छुट्टी की स्िीकृ वत/अस्िीकृ वत, विलंब से आने के कारण, प्रावथभयों
को नौकरी आवद के संबंध में जानकारी देने के वलए वकया जाता िै। यि सरकारी आदेश के समान
निीं िोते और अन्य परुु ष में इन्िें वलखा जाता िै और न िी इसमें संबोधन िोता िै और न अधोलेख,
के िल अवधकारी का िस्ताक्षर और उसका पदनाम िोता िै। पाने िाले का नाम और या पदनाम
िस्ताक्षर के नीचे बाई ं ओर वलखा जाता िै। इसके विपरीत अंतरकायाभलय ज्ञापन का प्रयोग सरकारी
उपक्रमों में एक विभाग/कायाभलय को सचू ना के आदान-प्रदान के वलए वकया जाता िै। ये भारत
सरकार के मत्रं ालयों/कायाभलयों/विभागों में निीं वलखे जाते। यथा-
विषय: छुट्टी की स्िीकृ वत
श्री........................................जो वक इस समय उपकुलसवचि के रूप में वदल्ली विश्वविद्यालय
में काम कर रिे िैं वकंतु मल ू तः िे.................................................मत्रं ालय के िैं, के
वदनांक.........................के आिेदन के संदभभ में और वदल्ली विश्वविद्यालय के
वदनाक ं ....................के ज्ञापन से आगे श्री.................................को वनम्न रूप में छुट्टी में िृवद्ध
स्िीकार की जाती िै-
1. असाधारण छुट्टी................वदन,............से...............तक
2. अवजभत छुट्टी......................वदन,.............से..............तक

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श्री...........को छुट्टी के पिले.............और बाद में.............जोड़ने की भी अनमु वत दी गई िै/थी।
अिर सवचि,
भारत सरकार
सेिा में,
श्री...........................
िारा ..........................
प्रवतवलवप
1.
2.
कृ ते अिर सवचि, भारत सरकार

8. कायािलय आदेश: इसका प्रयोग मत्रं ालयों, विभागों तथा कायाभलयों में स्थानीय प्रयोजनो
के वलए िोता िै। अनभु ागों या अवधकाररयों के बीच कायभ-विभाजन, कमभचाररयों की तैनाती,
स्थानातं रण, छुट्टी, पदोन्नवत आवद विषयों पर ‘कायाभलय आदेश’ के रूप में आदेश प्रसाररत वकए
जाते िैं। कायाभलय आदेश के ऊपर संख्या, सरकार और मत्रं ालय/कायाभलय का नाम अवं कत रिता िै।
उसके बीचोंबीच कायाभलय आदेश और साथ संख्या वलखी जाती िै। नीचे
दाविनी ओर आदेश देने िाले अवधकारी के िस्ताक्षर और पद नाम िोता िै। इसका लेखन भी अन्य
परुु ष में वकया जाता िै। उदािरणाथभ-
भारत सरकार
..............मत्रं ालय
................आयोग, नई वदल्ली.
वदनांक........................
कायाभलय आदेश संख्या...........................
.......................पर छात्रिृवत्त से सबं वं धत सभी कायभ............आयोग में सयं क्त
ु वनदेशक (छा0 क0)
देख रिे थे। कायभ की अवधकता के कारण उपवनदेशक (छा0क0) का एक नया पद सृवजत वकया गया
िै। उस पद पर श्री....................ने कायभभार संभाल वलया िै। अब छात्रिृवत्त से संबंवधत कायभ उक्त
दोनों अवधकाररयों में वनम्नवलवखत रूप में आिवं टत वकया गया िै-

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सयं क्त
ु वनदेशक (छा0 क0) उप वनदेशक (छा0 क0)
1. 1.
2. 2.
3. 3.

9. आदेश: इस प्रकार के पत्रों के माध्यम से कें द्र सरकार के कायाभलयों, विभागों आवद में नए
पदो के सृजन, कमभचाररयों से संबंवधत मित्िपणू भ विषयों पर सरकार िारा वलए गए वनणभयों की
जानकारी, प्रशासवनक मामलों में की गई कारभ िाई की सचू ना, शवक्तयों के प्रत्यायोजन आवद की
जानकारी दी जाती िै। यथा-
सख्ं या......................
भारत सरकार
विभाग..................... नई वदल्ली,
वदनांक...........
वदनांक........................... के आदेश संख्या........................की ओर ध्यान आकवषभत वकया
जाता िै वजसमें यि वनधाभररत वकया गया िे वक सभी कायभ वदिसों में मध्यांतर दोपिर बाद 1.30 से
2.00 बजे तक िोगा। सभी कमभचाररयों को यि सवू चत वकया जाता िै वक िे मध्यांतर की अिवध 30
वमनट तक सीवमत रखे और 2 बजे आकर अपना कायभ शरू ु कर दें।
कखग
अिर सवचि, भारत
सरकार

10. पररपत्र: पररपत्र उन पत्रों, कायाभलय ज्ञापन, ज्ञापन, सचू नाए,ं आदेश आवद को किा जाता
िै वजनकी जानकारी अनेक स्थानों को देनी पड़ती िै या वजनके आधार पर अनेक स्थानों से
जानकारी मगं ानी िोती िै। इन पत्रों को एक साथ अनेक स्थानों पर भेजा जाता िै। पररपत्र में सबसे
ऊपर दाई ओर संख्या िोती िै और शेष स्िरूप ििी रिता िै वजस रूप (पत्र, कायाभलय ज्ञापन, ज्ञापन
आवद) में िे जारी िोते िैं। सरकारी पत्र और पररपत्र में मख्ु य अतं र यि िै वक सरकारी पत्र में जो
भिदीय/भिदीया/आपका जैसे शब्दों का प्रयोग िोता िै, िि प्रयोग पररपत्र में निीं वकया जाता। यि
अन्य परुु ष के रूप में वलखा जाता िै। इसमें संख्या, स्थान, वदनांक आवद सरकारी पत्र की भांवत िोता
िै। इसे ‘गश्ती पत्र’ भी किा जाता िै। यिां पररपत्र का एक उदािरण प्रस्ततु िै-

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क्रमाक
ं ..............
वदल्ली सरकार
............विभाग, नई वदल्ली...........
वपछले कुछ वदनों से यि देखा गया िै वक कॉलेजों में सफाई की व्यिस्था िीक निीं िो रिी
िै। कमरों और बरामदों में जगि-जगि गदं गी िै और मकड़ी के जाले लगे िुए िैं। सवमवत ने विवभन्न
कॉलेजों के वनरीक्षण में इसे अत्यंत आपवत्तजनक माना िै। अतः सभी सफाई कमभचाररयों को इस
पररपत्र िारा सवू चत वकया जाता िै वक यवद उनके कायभ में भविष्य में कोई कमी पाई गई तो उनके
विरुद्ध कारभ िाई की जाएगी।
मदन मोिन जोशी
सवचि,
वशक्षा मत्रं ालय
वदल्ली सरकार

11. अनुस्मारक: अनस्ु मारक वकसी पिू भ पत्र या अन्य वकसी रूप (कायाभलय ज्ञापन, ज्ञापन, अधभ
सरकारी पत्र, तार आवद) को वकसी को स्मरण कराने के वलए भेजा जाता िै। इसीवलए इसका अपना
कोई रूप निीं िोता। यवद एक िी विषय पर एक से अवधक बार अनस्ु मारक भेजा जाता िै तो सबसे
ऊपर दाई ंओर वलख वदया जाता िै वक ‘दसू रा अनस्ु मारक’, ‘तीसरा अनस्ु मारक।’ इससे पत्र पढ़ने
का ध्यान तत्काल उस पर जाता िै। जैसे-

सख्ं या.................
भारत सरकार
............विभाग, नई वदल्ली

वदनाक
ं ...............
विषय: ..................................
मिोदय,
श्रम मत्रं ालय के ..................वदनांक.................के संबंध में यि पछ
ू ने का वनदेश
िुआ िै वक उक्त विषय सबं धं ी आपका अवभमत अभी तक निीं वमला िै। िि आप कब तक भेजगें े ?

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आपका
विश्वासपात्र
सवचि,भारत
सरकार

12. नोहटस: इसे सचू ना भी किते िैं। इसके िारा वकसी िगभ विशेष/सिभ साधारण को जानकारी
दी जाती िै जो देने योग्य िोती िै और इसे नोवटस बोडभ पर लगा वदया जाता िै। इसे पररपत्र
की तरि सभी अनुभागों में भेजा भी जाता िै और कुछ मामलों में (कोटभ आवद से सबं वं धत नोवटस)
डाक से प्रेवषत वकया जाता िै। उदािरणाथभ-

सख्ं या............
भारत सरकार
...........विभाग नई वदल्ली, वदनाक
ं ..........
यि देखा गया िै वक चतथु भ श्रेणी के अनेक कमभचारी, वजन्िें िदी प्रदान की गई िै िे वबना
िदी पिने कायाभलय में आते िैं। सभी चतथु भ श्रेणी के कमभचाररयों को यि चेतािनी दी जाती िै वक जो
भी प्रदान की गई िदी के वबना कायाभलय में पाया जाता िै तो उसके विरुद्ध अनुशासवनक कारभ िाई
की जाएगी और लगातार ऐसा करने िालों को नौकरी से वनकाला भी जा सकता िै। सभी को अपनी
िदी साफ रखनी चाविए।
कखग
अिरसवचि,
भारत सरकार

13. पृष्ठांकन: जब कोई कागज मल ू रूप में भेजने िाले को िी लौटाना िो या वकसी और
मत्रं ालय या संबद्ध या अधीनस्थ कायाभलय को सचू ना, टीका-वटप्पणी या वनपटाने के वलए मलू
पत्र या उसकी नकल के रूप में भेजना िो तब इसका प्रयोग वकया जाता िै। पृष्ठांकन में
औपचाररक सबं ोधन, उपसिं ार और समापन निीं िोता। इसमें अत्यवधक सक्ष ं ेप में वलखा जाता
िै। जैसे-
-को मल
ू रूप में प्रेवषत
-को उनके पत्र संख्या-वदनांक-के संबंध में प्रेवषत
-को सचू नाथभ ि उवचत कारभ िाई के वलए प्रेवषत

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-को आिश्यक जाचं के वलए प्रेवषत
-को इस अनदु श
े के साथ प्रेवषत वक-
उदािरण
सख्ं या.........
भारत सरकार
नारकोवटक्स विभाग,
नई वदल्ली, वदनांक..................

.......................को आयोवजत वकए गए विदेशी प्रवतवनवधयों के सम्मेलन के शभु अिसर पर


नारकोवटक्स विभाग िारा वनकाली जा रिी वििरवणका की प्रवत अिलोकन िेतु भेजी जा रिी िै।
कखग
अिर सवचि

सेिा में ......................


..................................

14. हवज्ञापन: इसका अथभ िोता िै विशेष रूप से सचू ना देना। विवभन्न कायाभलय अनेक प्रकार
के विज्ञापन वनकालते िैं जो नौकरी से संबंवधत भी िोते िैं, नीलामी से भी संबंवधत भी िोते िै
और कायाभलय के स्थान और समय के पररितभन आवद से भी सबं वं धत भी िोते िैं।
15. हनहवदा सूचना: इस प्रकार के पत्रों में सरकार की ओर से सामान खरीदने, वनमाभण कायभ को
परू ा करने या वकसी कायभ को करने के वलए वनविदा सचू नाएं जारी की जाती िैं। इसमें जो भी
कायभ वकया जाना िै उसका परू ा वििरण वदया जाता िै। इसका एक उदािरण यिां प्रस्ततु िै-
वदल्ली नगर वनगम
वनविदा सचू ना नं0 3, सन् 2011-2012
शास्त्री नगर, वदल्ली-110052 में ए ब्लॉक की 5 गवलयों पर सीमेंट की सड़क बनाने िेतु वदल्ली नगर
वनगम िारा योग्य िगभ में पंजीकृ त िे केदारों की ओर से वनधाभररत प्रपत्रों में वनविदाएं आमवं त्रत करता
िै। प्रपत्र वदल्ली नगर वनगम, टाउन िाल से 17-05-2011 से 16-06-2011 तक प्राप्त वकए जा
सकते िैं। भरे िुए मोिरबंद वनविदा प्रपत्र, वदल्ली नगर वनगम, टाउन िाल में वदनांक 30-06-2011
को शाम 4.00 बजे तक स्िीकार वकए जाएगं ।े

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वनविदा रावश....................
अनमु ावनत रावश................
धरोिर रावश......................
परू ा करने का समय............
अवधशासी अवभयंता (पररयोजना)

16. अहधसूचना: वनयमों और प्रशासवनक आदेशों की र्ोषणा, शवक्तयों का सौंपा जाना,


राजपवत्रत अवधकाररयों की वनयवु क्त, छ्रुट्टी, तरक्की आवद का भारत के राजपत्र में प्रकावशत करके
अवधसवू चत करने के वलए इसका प्रयोग वकया जाता िै। इसके अवतररक्त अध्यादेश, अवधवनयम,
स्िीकृ त विधेयक तथा संकटकालीन र्ोषणाएं भी अवधसवू चत की जाती िै। कभी-कभी यवद
अवधसचू ना बिुत मित्िपणू भ िै तो ‘असाधारण राजपत्र’ भी प्रकावशत वकया जाता िै। उदािरणाथभ-

संख्या..............................
वदल्ली प्रशासन
नई वदल्ली
वदनांक...............

अवधसचू ना
भक
ू ं प आपदा प्रबंधन से सबं ंवधत वनदेशक श्री.............................ने अपने ितभमान पद का
कायभभार वदनाक
ं ..............................के पिू ाभह्न से सभं ाला।
आदेश से
योगेश वमश्रा
अिर सवचि,
वदल्ली प्रशासन
प्रवतवलवप वनम्नवलवखत के सचू नाथभ प्रेवषत
-सवचि

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-मख्ु य अवभयतं ा
-राजपत्र में प्रकाशनाथभ

17. प्रेस हवज्ञहप्त या प्रेस नोट:सरकार के वकसी वनणभय अथिा मित्िपणू भ जानकारी, वजसका
बिुत अवधक प्रचार करने की आिश्यकता िोती िै, उसके वलए प्रेस विज्ञवप्त या प्रेस नोट जारी
वकया जाता िै। प्रेस विज्ञवप्त प्रेस नोट की अपेक्षा अवधक औपचाररक िोती िै इसवलए उसे यथाित
छापा जाता िै। इसमें कोई िेर-फे र निीं िो सकता जबवक प्रेस नोट को आिश्यकता के अनसु ार
छोटा या बड़ा वकया जा सकता िै। यथा-
(सोमिार..................को प्रातः..............बजे से पिू भ प्रकावशत या प्रसाररत न वकया जाए)
प्रेस विज्ञवप्त
भारत सरकार और पावकस्तान सरकार के बीच कूटनीवतक संबंध
भारत सरकार और पावकस्तान की सरकार आपस में इस बात पर पणू भ रूप से सिमत िो गई
िैं वक दोनों देशों में वफर से कूटनीवतक संबंध स्थावपत वकए जाए।ं दोनों देश इस बात पर भी सिमत िै
वक वकसी भी आतंकी गवतविवध को स्िीकार न वकया जाए और पावकस्तान वकसी भी वस्थवत में
अपनी भवू म का उपयोग भारत के विरुद्ध आतंकी गवतविवध िोने के वलए प्रयोग निीं करने देगा।
पावकस्तान के इस िचन को भारत सरकार ने सरािा। मख्ु य सूचना अवधकारी, प्रेस सचू ना ब्यरू ो, नई
वदल्ली को इस प्रेस विज्ञवप्त को जारी करने तथा इसे विस्तृत रूप से प्रसाररत करने िेतु प्रेवषत।
ि..................

(.....................)
संयक्त
ु सवचि,
भारत सरकार
विदेश मत्रं ालय,
नई वदल्ली,
वदनांक..............

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18. अनौपचाररक हटप्पहणयां: वकसी मत्रं ालय या मत्रं ालय से संबद्ध कायाभलय के बीच
प्रस्ताि पर अन्य मत्रं ालयों के विचार, टीका-वटप्पणी आवद प्राप्त करने के वलए, मौजदू ा अनदु शे ों के
बारे में स्पिीकरण आवद कराने के वलए या कोई सचू ना या कागज-पत्र मगं िाने के वलए पत्राचार के
इस तरीके का प्रयोग वकया जाता िै। इसे अशासवनक ज्ञापन भी किा जाता िै। इसमें संबोधन या अतं
में वकसी प्रकार के आदरसचू क शब्दों का प्रयोग निीं िोता तथा संख्या और वदनांक प्राप्त करने िाले
मत्रं ालय/विभाग के नीचे रे खा खींचकर दी जाती िै। इसे दो रूपों में भेजा जाता िै। इसे या तो वमवसल
पर अपनी वटप्पणी वलखकर उसी को मत्रं ालय/कायाभलय को भेजा जाता िै या एक नोट शीट पर
वटप्पणी वलखकर तथा टंवकत कराकर भेजा जाता िै जो अपने आपमें पणू भ िोती िै। इसमें न तो कोई
सख्ं या डाली जाती िै और न सबं ोधन िोता िै और न कोई आदरसचू क शब्द। के िल पदनाम के
साथ िस्ताक्षर कर वदया जाता िै और जिां भेजना िै, उसका नाम ि पता िोता िै। सेिा में निीं
वलखा जाता। सबसे नीचे एक रे खा खींचकर भेजने िाले मत्रं ालय/कायाभलय का नाम पता, सख्ं या
और वदनांक अवं कत वकया जाता िै। जैसे-
रे ल मत्रं ालय
विषय: िल्िानी में रे लिे कंप्यटू रीकृ त आरक्षण कें द्र के वलए स्थान
िल्िानी में रे लिे ने पयभटकों की सवु िधा को ध्यान में रखते िुए एक कंप्यटू रीकृ त आरक्षण कें द्र खोलने
का वनश्चय वकया िै। इसके वलए ििां कोई सरकारी भिन उपलब्ध निीं िै। इससे पिू भ वक मामले पर
अवं तम वनणभय वकया जाए, वनमाभण और आिास मत्रं ालय देखे और यि बताने की कृ पा करें वक क्या
नए आरक्षण क्रेंद्र खोलने के वलए प्रस्तावित स्थान का वकराया उपयक्त ु िै।
कखग
अिर
सवचि
वनमाभण तथा
आिास मत्रं ालय
रे ल मत्रं ालय अ0 ट0 स0ं .............................
वदनांक....................................................

20. आवेदन पत्र: ये नौकरी आवद के सबं धं में भी िोते िैं और कायाभलय में कायभिािी (छुट्टी,
स्थानातं रण, िेतन िृवद्ध, अवग्रम रावश, आिास आिटं न आवद) से भी सबं वं धत िोते िैं।
इनकी विविधता समय और विषय के अनसु ार वनभभर करती िै।

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सेिा में,
प्राचायभ,
विदं ू कॉलेज,
वदल्ली
मिोदय,
वनिेदन िै वक अस्िस्थ िोने के कारण मैं कायाभलय में उपवस्थत िोने में असमथभ िू।ं कृ पया
मझु े 2 वदन का आकवस्मक अिकाश देकर अनगु िृ ीत करें ।
सधन्यिाद
वदनांक................... भिदीय
िस्ताक्षर
................
नाम
.................
पदनाम ..................
21. अभ्यावेदन: यि भी आिेदन पत्र का एक िी रूप िै। इसे प्राथी अपने प्रवत िो रिे
दव्ु यभििार, अनाचार, अत्याचार आवद को दरू कराने िेतु प्रशासन, प्रधानमत्रं ी या राष्रपवत
आवद को वलखता िै। इसमें करुणा और दया पैदा करने िाले शब्दों का प्रयोग वकया जाता िै।
वनिेदन िै वक कायाभलय आदेश सख्ं या......................वदनाक ं .................िारा मेरी
पदोन्नवत िररष्ठ विदं ी व्याख्याता के रूप में की गई थी लेवकन अभी तक पदोन्नवत के उपरांत (1 िषभ
बीतने पर भी) मझु े िेतन सबं धं ी लाभ निीं वदया गया िै। अनरु ोध िै वक मेरे पदानसु ार मेरा िेतन शीघ्र
वनयत वकया जाए और बकाया भगु तान का भी आदेश वदया जाए।
सधन्यिाद
भिदीय
कखग
22. प्राहप्त सूचना: इस प्रकार के पत्रों में पत्र या कायाभलय ज्ञापन भेजने िाले कायाभलय इस बात
का उल्लेख कर देते िैं वक इसकी प्रावप्त स्िीकार करें । ऐसी वस्थवत में प्राप्त करने िाले कायाभलय को
वलवखत रूप में पत्र की प्रावप्त की सचू ना देनी िोती िै। उदािरण के वलए-
संख्या.....................
भारत सरकार

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.........................विभाग
नई वदल्ली,
वदनांक.............
विषय: ..............................................................
मिोदय,
उपयभक्त
ु विषय पर आपके वदनाक
ं ...................के पत्र सख्ं या...............की प्रावप्त स्िीकार की जाती
िै।
भिदीय
कखग
कृ ते अिर सवचि,
भारत सरकार
23. संकल्प: यि सरकारी पत्राचार का एक ऐसा रूप िै वजसका प्रयोग विशेष पररवस्थवतयों में
वकया जाता िै। ये पररवस्थवतयां वनम्नांवकत िो सकती िैं-
-जब सरकार नीवत सबं धं ी वकसी मित्िपणू भ प्रश्न पर सािभजवनक र्ोषणा करती िै।
-जाच
ं आयोग/सवमवत के प्रवतिेदनों पर कोई र्ोषणा करनी िोती िै।
-जब वकसी जांच आयोग/सवमवत की र्ोषणा की जाती िै और उसके क्षेत्रावधकार ि शवक्तयों का
उल्लेख वकया जाता िै।
यि अन्य परुु ष में वलखा जाता िै और राजपत्र में प्रकावशत वकया जाता िै। प्रस्तािना (पृष्ठभवू म),
संकल्प (रूपरे खा), आदेश और आिश्यक वनदेश (वजनको इसकी प्रवत भेजनी िै) इसके चार अगं
िोते िैं। इसमें संबोधन, अधोलेख का स्थान निीं िोता।

16.6 व्यावसाहयक प के अथभ और प्रकार


अब तक आप कायाभलयी पत्राचार के स्िरूप और उदािरणों से पररवचत िो गए िोंगे । अब
आपको व्यािसावयक पत्राचार के बारे में भी समझाना आिश्यक िै क्योंवक आज के समय में
व्यिसाय चलाने के वलए इन पत्रों की विशेष उपयोवगता िै। व्यािसावयक पत्र िे िोते िैं जो कोई
व्यवक्त, कंपनी या सस्ं था अपने व्यििार िेतु प्रयोग करते िैं। इन पत्रों को अनेक िगो में बाटं ा जा
सकता िै, जैसे-

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 271
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
1. बैंक पत्र
2. वनविदा पत्र
3. बीमा पत्र
4. मल्ू य सचू ी मांगने के वलए पत्र
5. दर जानने के वलए पत्र
6. क्रयादेश संबंधी पत्र
7. भगु तान संबंधी पत्र
8. विक्रय प्रस्ताि संबंधी पत्र
9. एजेंसी लेन-देन से सबं वं धत पत्र
10. व्यापाररक सदं भभ सबं धं ी पत्र
11. िस्तु विशेष का नमनू ा मगं ाने सबं धं ी पत्र आवद।

16.7 व्यावसाहयक प के अंग


व्यािसावयक पत्र के वनम्नवलवखत अगं िोते िैं-
1. मवु द्रत शीषभ (संस्था या संस्थान का)
तार पता
दरू भाष सख्ं या/फै क्स नं0/ईमेल का पता
कूट सक
ं े त (कोड)
परू ा पता
2. वदनांक
3. पत्र संख्या

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 272
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
4. प्राप्तकताभ का नाम (सस्ं था/सस्ं थान का नाम-पता सवित)
5. सदं भभ
6. औपचाररक संबोधन
7. आरंवभक िाक्य
8. कथ्य विषयिस्तु
9. अवं तम अनुशसं ात्मक िाक्य
10. प्रेषक या उसके स्थानापन्न व्यवक्त के िस्ताक्षर
11. पद-स्िामी, प्रबंधक आवद
12. सल
ं ग्न पत्र या अन्य सामग्री आवद का वनदेश (यवद िै तो)
13. पनु श्च (यवद आिश्यक िो)
यिां विषय की समझ को विकवसत करने के वलए आपके सामने व्यािसावयक पत्राचार के कुछ
उदािरण प्रस्ततु िैं
एजेंसी की प्रावप्त के वलए पत्र

मिेंद्र कुमार वदनेश कुमार


इलेक्टॉवनक उत्पादों के थोक व्यापारी,
2331, लक्ष्मी नगर
वदल्ली-110054
वदनाक
ं - 15 मई 2012
पत्र सख्ं या - एजेंसी
235/क/2012
सेिा में,
व्यिसाय प्रबंधक,
िीवडयोकॉन बगं लौर

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 273
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
विषय: िीवडयोकॉन के उत्पादों की एजेंसी
वप्रय मिोदय,
िम आपके िारा वदए गए विज्ञापन के संदभभ में िीवडयोकॉन के इलेक्टॉवनक
उत्पादों की एजेंसी लेने के वलए आिेदन कर रिे िैं। िम वपछले 5 िषों से इलेक्टॉवनक उत्पादों के
व्यापारी िैं। इस समय िमारे पास सैमसंग और ओवनडा की एजेंवसयां िैं। आप िमारी कायभ-कुशलता
और साख के सबं धं में इन संस्थानों से पछू ताछ कर सकते िैं। िम आपको विश्वास वदलाते िैं वक
िमारे पास आपकी एजेंसी िोने से आपके व्यापार में पयाभप्त बढ़ोत्तरी िोगी। एजेंसी लेने िेतु जो
आपकी शतें िैं िे सभी िमें स्िीकार िैं और िमारे पास आपके उत्पादों की प्रदशभनी िेतु पयाभप्त स्थान
िै। िमारे आसपास वकसी व्यापारी के पास िीवडयोकॉन की एजेंसी निीं िै।
अतः आपसे वनिेदन िै वक आप िमें अपनी सेिा का अिसर अिश्य दें।
सधन्यिाद,
भिदीय
आशतु ोष शक्ु ला
प्रबंधक,
निरंग इलेक्टॉवनक्स,
वदल्ली - 26457894

एक अन्य उदािरण प्रस्ततु िै जो बीमा के सबं धं में िै।


प्रेषक: उिी वमश्र
3/45 बी, सदर,
मथरु ा (उ0 प्र0)
सेिा में,
शाखा प्रबधं क,
जीिन बीमा वनगम,
मथरु ा शाखा
उ0 प्र0
संदभभ: जीिन बीमा पॉवलसी संख्या 02353644
मिोदय,

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 274
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वनिेदन िै वक मेरी जीिन बीमा पॉवलसी (संख्या 02354644) गत िषभ वदसंबर में पणू भ
(मैच्योर) िो चक ु ी िै। मैंने अप्रैल 1990 में 50 िजार रुपए की 20 िषों के वलए मनी बैक पॉवलसी
कराई थी। इस दौरान मैं अपने बीमा की िावषभक वकश्तें वनयवमत रूप से जमा करती रिी िूं वजसकी
सभी रसीदें मेरे पास िैं। अवतंम वकस्त वदसंबर 1990 में जमा कराई गई थी। अवं तम वकश्त जमा करने
के बाद भी एक िषभ बीत चक ु ा िै।
अतः आपसे अनरु ोध िैं वक मेरी पॉवलसी की परू ी रकम, लाभांश और ब्याज सवित
यथाशीघ्र वभजिाने की व्यिस्था करें ।
धन्यिाद
वदनाक ं भिदीय
15 मई, 2012 उिी
वमश्र
संलग्नक:
1. जीिन बीमा पॉवलसी संख्या 02354644
2. उपयभक्त
ु पॉवलसी की अवं तम वकश्त की रसीद

16.8 सारांश
पत्राचार की इस इकाई में पत्राचार की पररभाषा पर विचार वकया गया िै। पत्राचार जीिन
का मित्िपणू भ अगं िै। कायाभलय और व्यिसाय में तो इसकी सिाभवधक उपयोवगता िै िालावं क आज
ई-मेल और फै क्स की सवु िधा भी प्राप्त िै। ‘पत्राचार’ एक प्रवक्रया या पद्धवत िै वजसमें पत्र लेखन से
लेकर पत्र प्रावप्त वनवित िै। यि उदभू में ‘खत-वकताबत’ किलाता िै और अग्रं ेजी में इसे ‘करें स्पोंडेंस’
किा जाता िै। िास्ति में कायाभलयों आवद में सरकार की रीवत नीवत की व्याख्या और कायभ के सबं धं
में वकसी भी संगिन, संस्था, व्यवक्त आवद को वलवखत रूप में जो कुछ भी किा अथिा बताया जाता
िै, िि सब पत्राचार की कोवट में आता िै। पत्राचार सरल, सिज और स्पि िोना चाविए। संवक्षप्तता
पत्राचार का अवनिायभ गणु िै लेवकन उसे अपने आप में पणू भ िोना चाविए। पत्र आकषभक और
सरुु वचपणू भ िोना चाविए। उसमें रोचकता िोना चाविए और यथास्थान विराम वचह्नों का सटीक प्रयोग
िोना चाविए ।मल ू रूप से यिां कायाभलयी पत्र और व्यािसावयक पत्र और उनके अगं ों तथा लेखन-
पद्धवत पर पर विचार वकया गया िै। प्रेषक, प्राप्तकताभ, विषय, वदनांक, संदभभ, कलेिर, अधोलेख,
पदनाम, िस्ताक्षर, संबोधन, समापन आवद पत्राचार के मख्ु य अगं िै वजनसे आप पिू भ वलवखत िणभन
में भली भांवत अिगत िो गए िोंगे। पत्राचार की भाषा भी शालीन, स्पि, छोटे-छोटे िाक्यों िाली
िोनी चाविए। सभी अनच्ु छे द परस्पर संबद्ध िोने चाविए।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 275
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
16.9 शब्दावली
उच्चररत - बोला िुआ
बिुज्ञता - बिुत अवधक जानने का भाि
मनोिारी - मन को िरने िाला
शालीनता - स्िभाि का अच्छापन , सज्जनता
प्रवतकूल - उलटा , विपरीत
ब्यौरा - वििरण
सृवजत - वनमाभण करना

16.10 सं दर्भ ग्रं थ सूची

 रधनु ंदनप्रसाद शमाभ, (1992) प्रयोजनमल


ू क विदं ी, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
िाराणसी
 वगरधर राित, (2011), कायाभलयीन विदं ी, आशा बक्ु स, ई-1/265, सोवनया
वििार, वदल्ली
 कै लाशचंद्र भावटया, (2005), प्रयोजनमल ू क विदं ी: प्रवक्रया और स्िरूप,
तक्षवशला प्रकाशन, वदल्ली

16.11 उपयोगी पाठ्य सामग्री

 प्रयोजनमल
ू क विदं ी, प्रो. सयू भप्रसाद दीवक्षत ि डॉ. योगेंद्र प्रताप वसंि
 प्रयोजनमलू क भाषा और कायाभलयी विदं ी, डॉ. कृ ष्णकुमार गोस्िामी
 प्रयोजनमल ू क विदं ी, डॉ. दगं ल झाल्टे
 कायाभलयीन विदं ी, डॉ. के शरीलाल िमाभ
 प्रयोजनमल ू क विदं ी, डॉ. राके श कुमार पाराशर

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 276
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
16.11 हनबं धात्मक प्रश्न
1. पत्राचार क्या िै? स्पि कीवजए तथा उसकी प्रमख
ु विशेषताओ ं एिं पत्राचार के
विवभन्न अगं ों पर प्रकाश डावलए .
2. व्यािसावयक एिं कायाभलयी पत्र लेखन से आप क्या समझते िैं ? विस्तार से
समझाएाँ

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 277
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इकाई 17 भाषा कंप्यूटटग (कंप्यूटर और टिदी)
इकाई की रूपरे खा
17.1 प्रस्तािना
17.2 उद्देश्य
17.3 कंप्यटू र और उसकी उपयोवगता
17.4 कंप्यटू र और विदं ी
17.5 कंप्यटू र और विदं ी अनिु ाद
17.6 कंप्यटू र और विदं ी वशक्षण
17.7 कंप्यटू र और श्रतु लेखन, यवू नकोड
17.8 कंप्यटू र पर विदं ी-प्रयोग के विकास में सिायक अन्य सॉर्फटिेयर
17.9 इटं रनेट और विदं ी
17.10 साराश ं
17.11 शब्दािली
17.12 संदभभ ग्रंथ सचू ी
17.13 वनबंधात्मक प्रश्न

17.1 प्रस्तावना
भाषा जीिन का अवनिायभ अगं िै, उसी प्रकार कंप्यटू र भी जीिन का अवनिायभ अगं िो गया
िै। भाषा भी जरूरी िै और कंप्यटू र भी। एक प्रकार से ज्ञान और तकनीक के संबंध से विकवसत िुए
लाभों से आपका साक्षात्कार िोगा। इस इकाई में भाषा कंप्यूवटंग की चचाभ की जा रिी िै। इस इकाई
में आप कंप्यटू र और उसकी उपयोवगता से पररवचत िोंगे। आप कंप्यटू र और विदं ी के संबंध को भी
जान पाएगं ।े आपको विदं ी को विकवसत करने िाले सॉर्फटिेयरों से भी पररवचत कराया जाएगा और
इटं रनेट पर विदं ी की जो वस्थवत िै, उसका भी पररचय आपको वमलेगा। विदं ी अनिु ाद में कंप्यटू र की
क्या उपयोवगता िै, इसे भी आपके सामने प्रस्ततु वकया जाएगा। यवू नकोड पर विशेष बल इस इकाई
में वदया गया िै। आशा िै वक इसे पढ़ने के बाद आप भाषा कंप्यवू टंग को भली-भांवत समझ सकें गे।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 278
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
17.2 उद्देश्य
इस इकाई का पढ़ने के बाद आप यि जान पाएगं े वक-

 कंप्यटू र क्या िै और उसकी कौन-कौन से लाभ िैं ?


 कंप्यटू र और भाषा का कै सा संबंध (विशेषतः विदं ी भाषा) िै ?
 कंप्यटू र पर विन्दी में अनिु ाद की क्या वस्थवत िै ?
 कंप्यटू र के माध्यम से विदं ी कै से सीखी जा सकती िै और विदं ी-ज्ञान का मल्ू यांकन
कै से वकया जा सकता िै।
 यवू नकोड क्या िै और उसका उपयोग वकस प्रकार वकया जा सकता िै ?
 विदं ी भाषा के प्रयोग को कंप्यटू र पर सरल बनाने िाले विवभन्न सॉर्फटिेयर की
जानकारी भी इस इकाई में वमलेगी।

17.3 कंप्यूटर और उसकी उपयोहगता


कंप्यटू र ‘कम्यटू ’ शब्द से बना िै वजसका अथभ िै गणना। लेवकन आज कंप्यटू र के िल
गणना तक िी सीवमत निीं िै बवल्क जीिन के िर क्षेत्र में उसकी उपयोवगता बढ़ती जा रिी िै। वबल
गेटस का कथन िै वक ‘समचू ी संचार क्रांवत मिज कंप्यटू र के विवभन्न उपयोग मात्र िैं।’ कंप्यटू र में
अपार गवत िोती िै िि जवटल से जवटल गणनाओ ं को भी अत्यंत तीव्रता से िल कर देता िैं उसमे
अपार सग्रं ि क्षमता िोती िै। कंप्यटू र के पररणाम शद्ध
ु और त्रवु टिीन िोते िैं। िि स्िचावलत िोता िै
बस आपको उसे क्रमबद्ध रूप में वनदेश देना पड़ता िै। इसे आम भाषा में प्रोग्राम किा जाता िै। जब
कभी प्रयोग करने िाला व्यवक्त गलती करता िै तो कंप्यटू र उसे रास्ता भी बताता िै। एक बिुआयामी
उपकरण िोने के कारण इसका उपयोग वशक्षा, विज्ञान, प्रौद्योवगकी, वचवकत्सा, िावणज्य, लेखन,
प्रकाशन, काननू आवद सभी क्षेत्रों में िो रिा िै। यि एक ऐसा यंत्र िै जो मनष्ु य के मवस्तष्क की भााँवत
काम करता िै लेवकन मनष्ु य के मवस्तष्क से कई गनु ा अवधक तेज। यि गवणतीय गणनाओ ं और
विवभन्न आाँकड़ों का विश्लेषण करने के साथ-साथ उन्िें अपनी स्मृवत में रख सकता िै। यि िस्ततु ः
एक इकाई निीं बवल्क विवभन्न इकाइयों का समिू िै। कंप्यटू र का कायभ आदेश लेना, आदेशों को
कायभक्रम के रूप में सवं चत करना, उसका वक्रयान्ियन करना, पररणाम सवं चत करना और
आदेशानसु ार पररणामों को सामने रखना िै। बारम्बार वनविभघ्न आिृवत्त इसकी विशेषता िै।
कंप्यटू र आज मानि जीिन का अवनिायभ अगं बन गया िै। वजस प्रकार रे वडयो और
टेलीविजन मानि जीिन के आिश्यक अगं बन गए थे, िीक ििी वस्थवत आज कंप्यटू र की िै।
भारतीय जनमानस को इस ओर गवतशील करने के वलए सरकार भी प्रयासरत िै। इस वदशा में सरकार

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 279
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
ने ‘आकाश’ टैबलेट वनकाला िै। अन्य प्राइिेट कंपवनयां भी अलग-अलग प्रयोगों को लेकर नए-नए
टैबलेट वनकाल रिी िैं तावक अवधक-से अवधक लोगों की पिुचं में कंप्यटू र पर काम करने में िो।
कंप्यटू र मनष्ु य की गवतशीलता में िृवद्ध करता िै, विवभन्न दस्तािेजों का ररकाडभ रखने में मदद करता
िै और बिुत सारी सचू नाएं प्रदान करता िै। इटं रनेट के प्रयोग िारा िि व्यवक्त को विश्व समदु ाय से
जोड़ता िै और संसार से अपररवचत निीं रिने देता। इसीवलए इसकी उपयोवगता अत्यवधक िै। रे लिे
आरक्षण के न्द्र, विश्वविद्यालयों, कायाभलयों आवद सभी में इसके लाभ को आप देख सकते िैं, मिससू
कर सकते िैं।
प्रारंभ में कंप्यटू र को ज्ञान-विज्ञान के भडं ार के रूप में देखा जाता था। वफर उसे मनोरंजन से
जड़ु ा िुआ स्िीकार वकया गया और धीरे -धीरे यि िमारी रोजमराभ की जीिन-शैली का अगं बन गया।
ई बैंवकग, ई पॉवलवटक्स, ई रेवडंग आवद सभी कुछ कंप्यटू र के सियोग से िो रिा िै। यि बात और िै
वक इन मामलों में पयाभप्त सािधानी की अपेक्षा िै। कंप्यटू र और इटं रनेट के संयक्त ु प्रभाि ने परू े संसार
को एक ‘िैवश्वक ग्राम’ बना वदया िै जिां दरू रयां वसमट गई िैं।

17.4 कंप्यूटर और हिदी


कंप्यटू र से पररचय के बाद आपके वलए यि जानना आिश्यक िै वक कंप्यटू र और विन्दी
का संबंध क्या िै ? कंप्यटू र का प्रांरभ पवश्चमी देशों में िुआ अतः सबसे पिले जो भाषा कंप्यटू र में
प्रयक्त
ु िुई िि अग्रं ेजी थी। अंग्रेजी का िचभस्ि काफी समय तक कंप्यटू र पर छाया रिा लेवकन लोगों
को लगा वक इसकी मिती उपयोवगता िै तो अनेक देशों ने कंप्यटू र के वलए अपनी भाषा में कायभ
करने को प्राथवमकता दी। भारत सरकार ने भी इसी दृवि से कंप्यटू र के वलए भारतीय भाषाओ ं के
विकास पर ध्यान वदया वजनमें राजभाषा विदं ी पर विशेष ध्यान वदया गया। विदं ी भारत की राष्रभाषा
और राजभाषा दोनों िै और आज कंप्यटू र के यगु में विदं ी ने कंप्यटू र के साथ वमलकर अपना
अपररवमत विकास वकया िै। कंप्यटू र पर विदं ी के वनरंतर प्रयोग और विकास ने यि सावबत कर वदया
वक कंप्यटू र पर के िल अग्रं ेजी का िी िचभस्ि निीं रिेगा, उस पर विदं ी भी अपना अवधकार कर
सकती िै। आज कंप्यटू र पर विदं ी के बढ़ते प्रयोग ने भी इस बात का आधारिीन कर वदया िै वक
वबना अग्रं ेजी के कंप्यटू र ज्ञान न तो िावसल वकया जा सकता िै और न कंप्यटू र पर काम वकया जा
सकता िै।
मलू रूप से कंप्यटू र पर विदं ी का काम दो प्रकार का िोता िै। पिला तो पत्र, वटप्पणी, लेख,
ररपोटभ आवद तैयार करना, पवत्रका छापना आवद। दसू रा आक ं ड़ों को रखना अथाभत् िेतन पची, परीक्षा
पररणाम, पस्ु तक सचू ी, सामान सचू ी आवद तैयार करना। इन सबके विकास के वलए अनके पैकेज
बाजार में उपलब्ध िैं जो विभावषक िै और काफी उपयोगी िैं।कंप्यटू र पर अग्रं ेजी का जो रथ सिार
था अब उसे उतारने की परू ी तैयारी विदं ी ने कर ली िै। विदं ी कंप्यटू र सॉर्फटिेयर के विकास ने इसे

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 280
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
अत्यतं सगु म बना वदया िै। सी-डेक ने आम भाषा में सॉर्फटिेयर उतारकर भाषा-ज्ञान की समस्या िी
समाप्त कर दी िै। इसका पररणाम यि िुआ िै वक संिादिीनता की जो वस्थवत थी, िि खत्म िो गई िै।
सचू ना प्रौद्योवगकी मत्रं ालय ने ‘ओआरजी’ तकनीक का प्रयोग कर इस भाषाई अतं राल का दरू कर
वदया िै। इससे जिां एक ओर कंप्यटू र तकनीक और साक्षरता को बढ़ािा वमलेगा ििीं र्र बैिे अपनी
भाषा में लोगों को जानकाररयां वमल सके गीं। विदं ी कंप्यवू टंग को बढ़ािा देने में जिां एक ओर सरकार
प्रयास कर रिी िै ििीं अनेक गैर सरकारी सस्ं थाएं भी इस क्षेत्र में प्रयत्नशील िैं। यि कायभ दो स्तरों
पर वकया जा रिा िै। एक राजभाषा के रूप में विदं ी के प्रचार-प्रसार की दृवि से और दसू रे जनभाषा के
रूप में विदं ी के प्रचार-प्रसार की दृवि से। भारत सरकार ने राजभाषा नीवत विदं ी के प्रचार-प्रसार और
प्रोत्सािन के वलए िी बनाई िै। इसवलए यि जरूरी िो जाता िै वक राजभाषा सबं धं ी सिं धै ावनक और
काननू ी प्रािधानों को लागू करने के कायाभलयी विदं ी के प्रयोग में आ रिी कविनाइयों को दरू वकया
जाए और विदं ी को सरल, प्रभािी और सवु िधाजनक बनाया जाए। कंप्यटू र आ जाने से विदं ी के
विकास में सरकार को काफी मदद वमली िै। राजभाषा विभाग सचू ना प्रौद्योवगकी का लाभ विदं ी के
प्रयोगकताभओ ं को देने में लगा िुआ िै। इसके तित सी-डेक पणु े के माध्यम से भाषा प्रयोग उपकरण
नाम योजना को लागू वकया जा रिा िै। पररणामस्िरूप आज ऐसे अनेक सॉर्फटिेयर उपलब्ध िैं।

17.5 कंप्यूटर और हिदी अनुवाद


अब तक आप कंप्यटू र और विदं ी का संबंध जान गए िोंगें। अब आपसे कंप्यटू र और विदं ी
अनिु ाद के बारे में चचाभ करना िीक रिेगा। विदं ी अनिु ाद के क्षेत्र में कंप्यटू र ने काफी योगदान वदया
िै। सबसे पिले भारतीय प्रौद्योवगकी संस्थान, कानपरु ने अग्रं ेजी से विदं ी अनिु ाद की वदशा में
‘कारपोर’ उदािरण आधाररत कंप्यटू र अनिु ाद उपकरण विकवसत वकया वजसमें स्िास्थ्य मत्रं ालय के
मैनअ ु लों का अग्रं ेजी से विदं ी अनिु ाद कायभ प्रारंभ िुआ। यि कंप्यटू र अनिु ाद उपकरण अग्रं ेजी से
विदं ी में अनिु ाद कर सकता िै और अनिु ादकों की सिायता के वलए पयाभप्त अनिु ाद के विकल्प
प्रस्ततु कर सकता िै। बाद में 1995 में इसी क्षेत्र में ‘नेशनल कौंवसल फॅ ार सॉर्फटिेयर टेक्नोलॉजी’,
मबंु ई ने ‘मात्रा’ नामक कंप्यटू र अनिु ाद उपकरण विकवसत वकया। यि अग्रं ेजी समाचार कथाओ ं का
विदं ी में अनिु ाद करता िै। सी-डेक ने ‘एन-रांस’ नाम सॉर्फटिेयर तैयार वकया जो अग्रं ेजी से भारतीय
भाषाओ ं और भारतीय भाषाओ ं से अग्रं ेजी में व्यवक्तिाचक संज्ञाओ ं का अनिु ाद करता िै। इसमें
पिला भाग शब्दकोश िै और दसू रे भाग में सशक्त स्ितः प्रणाली विन्यास िै जो एक तरि का संदभभ
स्त्रोत िैं इस सॉर्फटिेयर का एक नमनू ा इस प्रकार देखा जा सकता िै-
अंग्रेजी से हिदं ी अनुवाद
Designation – Dy. Director पदनाम - उप वनदेशक
हिदं ी से अंग्रेजी

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 281
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
मल
ू - Basic , िेतन - Pay
वप्रया इलेक्रॅावनक्स, पणु े ने ‘पररितभन’ नाम सॉर्फटिेयर बनाया िै वजसकी मदद से विदं ी में बनाई गई
कोई भी कंप्यटू र फाइल उपलब्ध विदं ी फांट या सॉर्फटिेयर में पढ़ना और फाइल में वलवखत सचू ना
प्राप्त करना आसान िो गया। इसमें एक उत्पादक के फांट में बनाई गई फाइल दसू रे उत्पादक के फांट
में बदलने की सवु िधा भी िै।
मेट एक ऐसा सॉर्फटिेयर िै जो अग्रं ेजी से विदं ी में अनिु ाद करता िै। इसे प्राकृ वतक भाषा
संसाधन प्रयोगशाला ने विकवसत वकया िै। इस मशीन सावधत अनिु ाद प्रणाली से 85 प्रवतशत पद
व्याख्या और 60 प्रवतशत सिी अनिु ाद प्राप्त िोता िै। इसमें िाक्यों को शद्ध ु करने की सवु िधा िै,
सपं ादन की भी सवु िधा िै। इसमें विभाषी शब्दकोश भी िै। ितभनी को जाच ं ने की भी सवु िधा इस
सॉर्फटिेयर में िै।अनिु ाद संबंधी एक और मित्िपणू भ सॉर्फटिेयर सी-डैक ने बनाया िै मत्रं राजभाषा।
यि एक मशीन सावधत अनिु ाद टूल िै जो विवशि विषय क्षेत्र के अग्रं ेजी पाइ का विदं ी में एक भाषा
से अन्य भाषा में अनिु ाद करता िै। यि राजपवत्रत अवधसचू ना, कायाभलय आदेश, कायाभलय ज्ञापन,
पररपत्र और वित्त क्षेत्र संबंधी दस्तािेजों को अग्रं ेजी से विदं ी में अनिु ाद करता िै। इसमें अग्रं ेजी के
साथ-साथ विदं ी व्याकरण की प्रस्तवु त के वलए वनयमानरू ु प री एडजाइवनगं ग्रामर का प्रयोग वकया
जाता िै। इसे सी-डेक के अप्लाइड आवटभवफवशयल इटं ेवलजेंस ग्रपु ने तैयार वकया िै और भारत
सरकार के राजभाषा विभाग ने प्रायोवजत वकया िै। इसके अनेक संस्करण उपलब्ध िैं-
1. मत्रं राजभाषा (स्टैंडअलोन संस्करण) - यि संस्करण उन प्रयोक्ताओ ं के वलए विकवसत
वकया गया िै जो वबना नेट कनेवक्टविटी के अपने कंप्यटू र पर अनिु ाद वसस्टम का प्रयोग करना
चािते िैं। वसस्टम में पसभनल लॉगइन आइडी, पासिडभ और इनबॉक्स की सवु िधा भी िैं वजसमें
अनिु ावदत दस्तािेज रखा जा सकता िै।
इस अतं ःवक्रयात्मक वसस्टम में अनेक सिायक उपकरण (जैसे शब्दकोश आवद) भी वदए गए िैं।
2. मत्रं राजभाषा (इरं ानेट संस्करण) - यि मत्रं राजभाषा स्टैंडअलोन का उन्नत संस्करण िै
और वडवस्रब्यवू टड आरवकटेक्चर पर आधाररत िै। इसमें सिभर के साथ-साथ क्लाइटं कंप्यवू टंग पॉिर
का प्रयोग कर अनिु ाद शीघ्रता से वकया जाता िै। क्लाइटं की मशीन पर अनिु ाद वकया जाता िै जिां
सिभर मख्ु य लेवक्सकॉन का काम करता िै।
3. मत्रं राजभाषा (इटं रनेट संस्करण) - इस संस्करण का विकास और वडजाइन वथनक्लाइटं
आरवकटेक्चर पर आधाररत िै। इसमें सारा अनिु ाद सिभर पर िी िोता िै। इसवलए दरू िती स्थानों में
भी इटं रनेट कनेक्शन उपलब्ध लो-एडं वसस्टम पर भी दस्तािेजों के अनिु ाद करने के वलए इस
सवु िधा का प्रयोग वकया जाता िै। इसमें अपने अनिु ाद वसस्टम को दसू रों के साथ बाटं ा जा सकता
िै।

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कुल वमलाकर मत्रं राजभाषा की विशेषताओ ं को इस प्रकार देखा जा सकता िै-
1. यि मानक अनिु ाद करने िाला वसस्टम िै।
2. इसमें अनिु ावदत फाइल को प्रयोगकताभ िारा संपावदत वकया जा सकता िैं या अनिु ावदत
पाि में प्रत्यक्ष रूप से टंवकत कर सकता िै।
3. इसमें लबं े दस्तािेजों को खवं डत वकया जा सकता िै और खवं डत भागों का अनिु ावदत
दस्तािेजों को जोड़ा जा सकता िै।
4. अनिु ाद से पिले दस्तािेज में फ्रेज माकभ कर सकते िैं, वजससे जड़ु े िुए शब्दों का सिी
अनिु ाद प्राप्त कर सकते िैं।
5. अग्रं ेजी दस्तािेज का प्रारूप विदं ी आउटपटु में बना रिता िै।
6. अनिु ाद के दौरान अनुिाद िेतु िाक्यों के अनेक विकल्प उपलब्ध िोते िै वजनमें से उवचत
विकल्प का चयन वकया जा सकता िै।
7. शब्दकोश में नए शब्दों, िाक्यांश तथा अवभव्यवक्त को शावमल वकया जा सकता िै।
8. प्रयोग करने िाले को बिुअथी चयन करने की सवु िधा भी उपलब्ध िै।
9. प्रयोग करने िाला व्यवक्त अपने डाटाबेस को अपडेट और संपावदत कर सकता िै।
10. अनिु ाद के वकसी भी स्तर पर विदं ी को प्रत्यक्ष रूप से टाइप वकया जा सकता िै।
11. अनिु ाद के वलए वलवखत टंवकत सामग्री को स्कै नर की मदद से कंप्यटू र में समावित कर
वदया जाता िै और कंप्यटू र में लगा यि सॉर्फटिेयर उस सामग्री का विदं ी में अनिु ाद कर देता
िै।

17.6 कंप्यूटर और हिदी हशक्षण


इस वदशा में लीला राजभाषा एक मित्िपणू भ सॉर्फटिेयर िै। यि अग्रं ेजी और भारतीय
भाषाओ ं के माध्यम से विदं ी सीखने का पैकेज िै। यि ऑनलाइन विदं ी सीखने का पाि्यक्रम िै और
विदं ी प्रबोध, विन्दी प्रिीण और विदं ी प्राज्ञ के पाि्य वििरण पर आधाररत िै। लीला विदं ी प्रबोध में
26 अध्याय िैं और शब्दकोश मॉडयल ू के साथ प्राथवमक स्तर का पाि्यक्रम िै। लीला विदं ी प्रिीण
में 31 अध्याय िैं और शब्दकोश मॉडयल ू के साथ वितीय स्तर का पाि्यक्रम िै। लीला विदं ी प्राज्ञ में
पत्राचार के विवभन्न रूपों को वसखाने के वलए तृतीय स्तर का पाि्यक्रम विकवसत वकया गया िै। इस
पैकेज की मख्ु य विशेषताएं वनम्नवलवखत िैं-

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1. इसमें विदं ी अक्षरों को वलखने और पढ़ने की सवु िधा िै।
2. प्रयोग करने िाले के वलए विदं ी अक्षर और उसकी मात्राओ ं को रेसर से वलखने, लेखन
विवध को देखने, उच्चारण सनु ने और पढ़ने की सवु िधा उपलब्ध कराई गई िै।
3. शद्ध
ु उच्चारण के अभ्यास के वलए स्पीच इटं रफे स उपलब्ध िै और यि सवु िधा शब्द,
िाक्य और पैरा तीनों स्तरों पर उपलब्ध िै।
4. इनमें शब्दािली उपलब्ध कराई गई िै। प्रबोध में शब्दािली वचत्र सवित िै जबवक प्राज्ञ में
प्रशासन संबंधी शब्दािली दी गई िै।
5. तीनों पाि्यक्रमों के वलए ऑनलाइन शब्दकोश उपलब्ध िै और जिां आिश्यक िै ििां
सास्ं कृ वतक वटप्पवणयां भी दी गई ंिैं।
6. ये पाि शैक्षवणक दृवि से वनयंवत्रत िैं। प्रयोग करने िाले को सबसे पिले पदक्रम, वलगं , िचन
आवद का अध्ययन करना िोगा। िर मल ू पाि के साथ एक िीवडयो चलवचत्र भी उपलब्ध
िै। साथ िी ररकाडभ और कंपेयर की सवु िधा भी िै वजसके िारा प्रयोग करने िाला व्यवक्त
अपने उच्चारण को सधु ार सकता िै।
7. िर पाि के साथ व्याकरवणक वटप्पणी दी गई िै और स्िमल्ू याक
ं न की सवु िधा भी प्रयोग
करने िाले व्यवक्त के वलए िै।
इस पैकेज के प्रमख
ु प्रारूप इस प्रकार िैं-
क) सुपरवाइजर मॉियूल - यि बाकी मॉडयूल्स का पयभिेक्षण करता िै। इसमें स्टूडेंट लवनांग
पैकेज, अकाउंट वििरण, प्रगवत तथा डेमो संस्करण से संबंवधत डाटाबेस िै। यि टेस्ट मॉडयल ू को
वनयवं त्रत करता िै, परीक्षाओ ं में प्राप्त अक
ं ों से संबवं धत जानकारी रखता िै और एक प्रकार से सीखने
िाले की प्रगवत पर अपनी नजर रखता िै।
ख) छात्र मॉियूल - यि छात्र के सभी कायों की देखभाल करता िै । इसमें स्टूडेंट डाटाबेस
रखा जाता िै वजसमें उसकी प्रगवत की ररपोटभ और अक ं भी शावमल िोते िैं और कोई भी छात्र एक-
दसू रे को प्राप्त अक
ं ों से सबं वं धत समाचार का एक्सेस निीं कर सकता।
ग) पाि मॉियूल - यि परू े पैकेज का प्रमख ु मॉडयलू िै। इसमें िर पाि को विवभन्न खडं ों
(उद्देश्य, िाक्य संरचना, पाि, शब्द पररिार, व्याकरण, अभ्यास) में बांटा गया िै। पाि को अनिु ाद,
उदािरण, िीवडयो वक्लप, िाईपर टेक्स्ट, शब्दकोश तथा व्याकरवणक वनयमों के आधार पर समझाया
गया िै।

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घ) टे स्ट मॉियूल - इसमें छात्र का मल्ू यांकन कराया जाता िैं। इसमें विवभन्न पािों पर
आधाररत प्रश्नों का डाटाबेस िै जो परीक्षा िेतु छात्र का अनरु ोध वमलते िी एक परीक्षा-पत्र प्रस्ततु कर
देता िै। इसके बाद मल्ू यांकन वकया जाता िै और प्राप्त अक ं ों की सचू ना स्क्रीन पर आ जाती िै तथा
अक ं ों से संबंवधत समाचार सपु रिाइजर मॉडयल ू को भेज वदया जाता िै।
ि) अल्फाबेट मॉियूल - इसमें विदं ी िणभमाला से छात्र का पररचय कराया जाता िै और
अक्षरों को पढ़ना और वलखना वसखाया जाता िै।
च) हिक्शनरी मॉियूल - इसमें सारे पािों में और परू े पैकेज में आने िाले शब्द िोते िैं। िर
शब्द के वलए अथभ, व्याकरवणक वििरण तथा उच्चारण भी उपलब्ध िोता िै।
छ) शब्दावली मॉियूल - इसमें सरकारी क्षेत्रों में प्रयक्त
ु िोने िाली शब्दािली, कायाभलयों के
नाम, पदनाम ि साधारण शब्दािली दी गई िै।
सी-डेक िारा मोबाइल फोन के वलए ‘लीला विदं ी प्रबोध सॉर्फटिेयर’ को एक मीवडया मेमरी वचप
(एमएमसी) पर उतारा गया िै और जब इस वचप को वकसी मोबाइल सेट के साथ जोड़ वदया जाता िै
तो िि मोबाइल विदं ी वसखाने का काम आरंभ कर देता िै। इस वचप में विदं ी अक्षरों का पढ़ने, उनका
उच्चारण सनु ाने ओर सिी उच्चारण और फॉमेशन के वलए स्पीच इटं रफे स उपलब्ध िै। इसमें विदं ी
की िाक्य संरचनाओ ं के उदािरण भी िैं, अनिु ाद की सवु िधा भी िै, शब्दकोश भी िै और मल ू पाि
के साथ-साथ आवडयो-िीवडयो भी िै। अतं ःवक्रयात्मक अभ्यास भी इसमें वकया जा सकता िै और
विदं ी-अग्रं ेजी शब्दािली के साथ स्िमल्ू यांकन की सवु िधा भी िै। इस प्रकार मोबाइल विदं ी-वशक्षण
का एक अच्छा उपकरण वसद्ध िो रिा िै। जब तक इच्छा िो तब तक विदं ी सीखो और जब इच्छा न
िो तो बटन बदं कर दो

17.7 कंप्यूटर और श्रुतले खन, यूहनकोि


इस संबंध में श्रतु लेखन राजभाषा एक मित्िपणू भ सॉर्फटिेयर िै। यि एक स्पीकर इवं डपेंडेंट,
विदं ी स्पीच ररकवग्नशन वसस्टम िै, वजसके माध्यम से प्रयोग करने िाला व्यवक्त कंप्यटू र के साथ
संपकभ रखता िै और विदं ी में बोले गए कथनों को विदं ी यवू नकोड में टंवकत करता िै। स्पीच प्रोसेवसंग
के वलए ररकग्नाइजर एनलॉग वसग्नल को वडजीटल वसग्नल में रूपांतररत करता िै। प्रोसेवसंग के बाद
एक स्रीम ऑफ टेक्स्ट उत्पन्न वकया जाता िै। इसके वलए अनेक मॉडल प्रयोग में लाए जाते िैं । ये
इस प्रकार िैं-
1. नॉइज ररक्शन मॉडल
2. लैंग्िेज मॉडल

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3. एकाउवस्टक मॉडल
4. ग्रैमर मॉडल
5. फोनीम मॉडल
6. यनू ीफोम मॉडल
7. रै फोन मॉडल
श्रतु लेखन राजभाषा सॉर्फटिेयर की वनम्नवलवखत मख्ु य विशेषताएं िैं-
1. यि विदं ी यवू नकोड में आउटपटु देता िै।
2. यवू नकोड टैक्स्ट को ISFOC फॉन्ट में रूपांतररत करने की सवु िधा भी देता िै।
3. ज्ञान आधाररत वस्क्रप्ट फॉंन्टस।्
4. शब्द-सश
ं ोधन और शब्द-सधु ार सवु िधा भी उपलब्ध िै।
5. टैक्स्ट का सख्ं याओ,ं तारीख और मद्रु ाओ ं में रूपातं रण वकया जा सकता िै।
6. विभावषक टंकण की सवु िधा भी उपलब्ध िै।
कंप्यटू र पर विदं ी प्रयोग के बारे में राजभाषा विभाग राष्रीय सचू ना विज्ञान कें द्र , सी-डेक ि
एन0 पी0 टी0 आई0 के सियोग से िर साल 100 प्रवशक्षण कायभक्रम आयोवजत कराता िै। इसके
अलािा इन सॉर्फटिेयरों पर आधाररत एक प्रस्तवु त भी तैयार की गई िै वजसकी जानकारी विवभन्न
मत्रं ालयों को दी गई िैं। ये सॉर्फटिेयर राजभाषा विभाग के पोटभल www.rajbhasha.nic.in पर
वलंक के माध्यम से वनःशल्ु क प्राप्त वकए जा सकते िैं। श्रतु लेखन राजभाषा एक वनधाभररत मल्ू य पर
उपलब्ध िै वजसे सी-डेक पणु े से प्राप्त वकया जा सकता िै।
यवू नकोड प्रत्येक अक्षर के वलए एक विशेष नंबर प्रदान करता िै, चािे कोई भी प्लेटफॉमभ िो, चािे
कोई भी भाषा िो, चािे कोई भी प्रोग्राम िो। यिां उल्लेखनीय िै वक कंप्यटू र विवभन्न भाषाओ ं को
निीं समझ सकता। िि के िल बाइनरी नंबर (0 और 1) को िी समझ सकता िै। अतः िम जो भी
अक्षर टंवकत करते िैं िे अतं तः 0 और 1 में बदल जाते िैं और तब कंप्यटू र उन्िें समझ सकता िै।
वकसी भाषा के वकसी शब्द के वलए कौन सा नबं र प्रयक्त ु िोगा ? इसका वनधाभरण करने के वनयम
विवभन्न कै रे क्टर सैट या संकेत वलवप प्रणाली िारा वनधाभररत िोते िैं। यवू नकोड का आविष्कार िोने से
पिले ऐसे नंबरों को देने के वलए अनेक संकेत वलवप प्रणावलयां थीं और वकसी एक संकेत वलवप में
पयाभप्त अक्षर निीं थे। इन संकेत वलवपयों में आपस में तालमेल भी निीं था। पररणामस्िरूप दो संकेत

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वलवपयां दो विवभन्न अक्षरों के वलए एक िी नबं र प्रयोग कर सकती िैं या समान अक्षर के वलए
अलग-अलग नंबरों का प्रयोग कर सकती िैं। इससे डाटा खराब िोने का खतरा बना रिता िै। इन
सभी समस्याओ ं को समाप्त करने के वलए तथा एकात्म बनाए रखने के वलए यवू नकोड को विकवसत
वकया गया। यि सभी भाषाओ ं के वलए एक-सा िी काम करता िै। यि कोवडंग वसस्टम फांट्समक्त ु ,
प्लेटफॉमभमक्त
ु और ब्राउजरमक्त ु िै। इसे अनेक कंपवनयों ने अपनाया िै और आज अवधकतर उत्पाद
यवू नकोड समवथभत िैं। विडोंज 2000 या उससे ऊपर के सभी पी.सी. यवू नकोड को सपोटभ करते िैं।
विडं ो एक्स्पी पर इसे इस प्रकार डाउनलोड वकया जा सकता िै-
कंरोल पैनल पर जाएं और वफर रीवजनल और लैंग्िज ऑप्शंस पर वक्लक करें ।
लैंग्िवे जस टैब पर वक्लक करें और उस डब्बे को चैक (वटक) करें जो इस्ं टाल फाइल्स फार
काम्प्लैक्स वस्क्रप्ट को बताता िै।
यि विवध विन एक्सपी सीडी के वलए पछ
ू े गी। सीडी राइाइि में सीडी रखें और सस्ं थापन
(इस्ं टालेशन) आरंभ िोने दीवजए।
एक बार संस्थापन परू ा िो जाए तो यवद आिश्यकता िो तो वसस्टम को बटू करें और पनु ः
चरण 2 पर जाए।ं
अब डीटेल्स टैब पर वक्लक करें । अपनी पसंद की भाषा को जोड़ने के वलए एड पर वक्लक
करें ।
वसस्टम रे में एक छोटा ईएन वदखाई देगा। ईएन पर बायां वक्लक करें और टाइप के वलए
भाषा का चयन करें ।
इसके इनेबल करने से आपकी मशीन में इवं सवक्रप्ट की-बोडभ राइाइिर तथा यवू नकोड समवथभत
मगं ल तथा एररयल यवू नकोड एम एस फोंट आ जाएगं े।

17.8 कंप्यूटर पर हिदी-प्रयोग के हवकास मचर सिायक अन्य सॉफ्टवेयर


इनके अवतररक्त कंप्यटू र पर विदं ी में काम करने के वलए अनेक शब्द ससं ाधन पैकेज
उपलब्ध िैं। ये सभी वभन्न-वभन्न क्षमताएं, विशेषताएं और उपयोवगता रखते िैं। इन्िें वनम्न प्रकार से
देखा जा सकता िै-
सवु लवप सॉर्फटिेयर के िारा लोकवप्रय पैकेजों जैसे डी बेस, लोटस, िडभस्टार, वक्लपर, सार्फटबेस,
फाक्सबेस, पैराडाक्स, बेवसका जैसे िेतन पची, वित्तीय खाता लेखन, िस्तु सचू ी आवद के माध्यम से
विदं ी-अग्रं ेजी में संसाधन क्षमता प्रदान की गई िै। इसका लैन प्रारूप भी उपलब्ध िै। यि विदं ी में

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टाइवपगं या स्िर आधाररत कंु जी पटल का विकल्प देता िै। सवु िडं ो सार्फटिेयर विडं ो के वलए िै। यि
सवु लवप आधाररत विदं ी डॉस फाइलों को अनक ु ू ल फामेट में बदलता िै। इसमें वलप्यंतरण, शब्दों और
पदबंधों के शब्दकोश स्थानापन्न तथा विदं ी ितभनी की जांच की सवु िधा उपलब्ध िै। यि डी0 टी0
पी0 और बिुमाध्यम (मल्टीमीवडया) के वलए वकसी भी विडं ो प्रोग्राम में कायभ कर सकता िै। इसके
िारा पररपत्र, आदेश विभाषा में भेजे जा सकते िैं और छंटाई भी की जा सकती िै।
श्रीवलवप एक बिुभाषी सॉर्फटिेयर िै जो विडं ोज पर आधाररत िै। यि के िल सी0 डी0 पर
उपलब्ध िै। इसमें वलवप संसाधक, शब्द संसाधक और वनजी डायरी िै। इसमें वदन, तारीख और
समय को भारतीय भाषाओ ं में डाला जा सकता िै और व्यवक्तगत सचू नाएं आवद रखे जा सकते िैं।
इसमें ऑटोसेि सवु िधा भी उपलब्ध िै।
बैंक वमत्र विभावषक बैंवकंग सॉर्फटिेयर िै जो विडं ो पर आधाररत िै। ये अग्रं ेजी के साथ-साथ
प्रमखु भारतीय भाषाओ ं में भी काम करता िै। इसके िारा ग्रािक सेिा सबं धं ी कायभ (चैक बक ु , पास
बक ु , ब्याज लगाना, ऋण सीमा पर नजर रखना आवद कायभ) वकए जा सकते िैं।
वजस्ट शैल एक ऐसा सॉर्फटिेयर िै जो एम0 एस0 डॉस अनप्रु योग पर आधाररत िै। यि
पाि्य सामग्री की प्रविवि, भडं ारण, प्रदशभन और भारतीय भाषाओ ं और अग्रं ेजी के साथ मद्रु ण को
सभं ि बनाता िै। इसके सियोग से अपना पसदं ीदा सॉर्फटिेयर अपनी भाषा में प्रयोग वकया जा सकता
िै।
वजस्ट काडभ एक ऐसा काडभ िै जो कंप्यटू र के साथ संलग्न वकया जाता िै। इसके सियोग से
भारतीय और अन्य वलवपयों में अग्रं ेजी सवित पाि्य आधाररत पैकेजों जैसे लोटस 1-2-3, िडभस्टार,
क्यबू ोवसक आवद पर काम वकया जा सकता िै।
वजस्ट टवमभनल के िारा वकसी भी भारतीय वलवप और अग्रं ेजी के सभी पाि्य आधाररत
एप्लीके शन पैकेजों जैसे कोबोल, िडभ परफै क्ट, फाक्सबेस आवद में काम वकया जा सकता िै। यि
डेक िी टी 52/100/220/320 के समान िै।ए0 पी0 एस0 कॉरपोरे ट में पाि्य प्रविवि, स्पैड शीट
और फोक्स के िारा आक ं डों और ससं ाधक के विकल्प उपलब्ध िैं।फै क्ट एक ऐसा सॉर्फटिेयर िै जो
कंप्यटू र को वनणभय में सियोग करने िाली मशीन के रूप में बदल देता िै। यि एक बिुभाषी व्यापार
लेखा सॉर्फटिेयर िै और इसमें एकाउवटंग, इन्िेंरी आवद की सवु िधा िै। इस सवु िधा के वलस वजस्ट
काडभ या वजस्ट शैल सॉर्फटिेयर की आिश्यकता िोती िै। लीप ऑवफस 2000 एक ऐसा सॉर्फटिेयर
िै वजसे भारतीय भाषाओ ं के वलए तैयार वकया गया िै। इसमें अग्रं ेजी के अलािा अनेक भारतीय
वलवपयों (विदं ी, सस्ं कृ त, असमी, बगं ाली, गजु राती, मरािी, उवड़या, पजं ाबी, कन्नड़, मलयालम,
तवमल, तेलगु )ू में काम वकया जा सकता िै। इसकी मख्ु य विशेषताएं इस प्रकार िैं-
1. पाि को भारतीय वलवपयों में बदलना और मवु द्रत करना।

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2. अनिु ाद िेतु राजभाषा शब्दकोश उपलब्ध कराना।
3. विडं ो आधाररत एम0 एस0 ऑवफस, पेजमेकर, एक्सल आवद में भारतीय भाषाओ ं में काम
करने की सवु िधा।
4. ितभनी जांच करने की सवु िधा।
5. सभी भाषाओ ं के वलए समान कंाुजीपटल, डायनैवमक फॉण्ट उपलब्ध।
6. ध्िन्यात्मक कंु जीपटल जो उच्चारण के अनसु ार टंकण करने में सिायक िोता िै।
आकृ वत विडं ोज का एक अतं पृभष्ठ िै वजसमें विदं ी और अग्रं ेजी को एक िी फॉण्टस में वमवश्रत करने के
वलए विशेष फॉण्टस िैं। इसे वबना फॉण्टस बदले एक विभावषक सॉर्फटिेयर के रूप में प्रयोग वकया जा
सकता िै। यि विडं ोज 95 के तित काम करता िै। इसमें वचत्र भी उपलब्ध िैं जो प्रस्ततु ीकरण को
आकषभक बनाते िैं।
विदं िाणी सॉर्फटिेयर पीसी डॉस आधाररत िै। यि विदं ी टैक्स्ट फाइलों को स्पीच में बदल
देता िै। यि नेत्रिीन लोगों के वलए तो उपयोगी िै िी, रे लिे, ििाई जिाज तथा पयभटन संबंधी
सचू नाओ ं के वलए भी उपयोगी िै।डॉ. मरु लीधर पािूजा ने ‘लेखक’ नाम एक ऐसा सॉर्फटिेयर तैयार
वकया वजसकी सिायता से वबना अग्रं ेजी की मदद के भी विदं ी में सारा काम वकया जा सकता िै। इस
में संिाद, संदश े और सारे आदेश विदं ी में िैं।ईमेल सिभर ‘अनसु ारका’ िै जो कंन्नड़, तेलगु ,ू मरािी,
बंग्ला और पंजाबी में भेजे संदश े को विदं ी में अनवू दत कर देता िै।इसी प्रकार ‘देवशका’ नामक
सॉर्फटिेयर भी उपलब्ध िै जो िेद, िेदांग, परु ाण, धमभशास्त्र न्याय, मीमांसा, व्याकरण ओर अमरकोष
को उपलब्ध कराता िै वजसे दस भारतीय वलवपयों में पढ़ा जा सकता िै। इसे सी-डेक ने बनाया िै।
गीता रीडर सॉर्फटिेयर गीता पढ़ने में लोगों की मदद करता िै। इसे भी सी-डेक ने बनाया िै।
यि विडं ो 95 पर चलता िै।
आज विदं ी टूलवकट भी उपलब्ध िै। विदं ी आई एम ई एक्स पी और विडं ोज 7, यनू ीकोड-
कृ वतदेि कन्िटभर, गगू ल विदं ी आई एम ई भी उपलब्ध िै। आज अनेक विदं ी के पोटभल इटं रनेट पर
उपलब्ध िैं।
विदं ी और कंप्यटू र के क्षेत्र में सी-डैक (सेंटर फॉर डिलपमेंट ऑफ एडिांस्ड कंप्यवू टंग),
पणु े नामक संस्था अंत्यत मित्िपणू भ कायभ कर रिी िै। सी-डेक ने विवभन्न सॉर्फटिेयरों को प्रस्ततु करने
से पिले एक सीडी तैयार की थी वजसे राष्रीय सलािकार पररषद् की अध्यक्ष सोवनया गांधी ने पिू भ
प्रधानमत्रं ी राजीि गांधी के सपनों को साकार करने की वदशा में एक मित्िपणू भ कदम मानते िुए जारी
वकया था। इस सीडी में अनेक प्रकार के फाटं और उपयोगी टूल्स उपलब्ध िैं। इसमें विवभन्न प्रकार

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ु विश्वविद्यालय 289
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के फांट्स, मल्टी बोडभ की बोडभ कन्िटभर, विदं ी का ब्राउजर फायरबॉक्स, विदं ी का मेसेंजर, विदं ी का
ओसीआर, विदं ी-अग्रं ेजी में टाइवपंग वसखाने की सवु िधा, विदं ी-अग्रं ेजी के शब्दकोश, ितभनी जांचने
की सवु िधा, रांसवलटर टूल आवद शावमल िैं। इस सबका पररणाम यि िुआ िै वक विदं ी भाषी का
कंप्यटू र पर विदं ी में काम करने का रूझान बढ़ा िै।

17.9 इंटरनेट और हिदी


कंप्यटू र के साथ-साथ इटं रनेट पर विदं ी का प्रयोग वदन-प्रवतवदन बढ़ता जा रिा िै। आप
फे सबकु , वटिर जैसी सोशल िेबसाइटस पर विदं ी का बढ़ता साम्राज्य देख सकते िैं और ििां से प्राप्त
वलंक के माध्यम से इटं रनेट पर विदं ी में विचार रख सकते िैं, अपनी प्रवतवक्रया दे सकते िैं। कविता,
किानी आवद विवभन्न विधाएं विदं ी में इटं रनेट पर उपलब्ध िैं। इनमें लगातार प्रगवत िो रिी िै। यद्यवप
अभी भी अवधकांश सामग्री इटं रनेट पर अग्रं ेजी में उपलब्ध िै लेवकन साथ िी अनिु ाद की भी
सवु िधा िै वजससे आप इस सामग्री का लाभ ले सकते िैं। अब आपको इटं रनेट पर चैवटंग करने के
वलए वकसी सॉर्फटिेयर की आिश्यकता निीं िै। आप सीधे िेबसाइट्स पर जाकर चैवटंग कर सकते
िैं। अपने वमत्रों को ईमेल कर सकते िैं। आज विदं ी में भी ईमेल की सवु िधा उपलब्ध िै। गगू ल और
रे वडफमेल डॉट कॉम पर आपको इस प्रकार की सवु िधाएं वमल सकती िैं। इसी प्रकार राजभाषा डॉट
कॉम, राजभाषा डॉट नेट आवद िेबसाइट्स भी उपलब्ध िैं। विदं ी की अनेक ऐसी िेबसाइट्स िैं वजन
पर सावित्य, संस्कृ वत की प्रस्तवु त िोती िै और विचारपरक लेख प्रसाररत-प्रकावशत िोते िैं। ये
िेबसाइट्स भारत में भी िैं और विदेशी भी िैं वजन्िें आप इटं रनेट पर आराम से देख सकते िैं। इनमें से
कुछ िेबसाइट्स इस प्रकार िैं-
www.kavitakosh.org
www.hindinest.com.
www.abhivyakti-hindi.org
www.bharatdarshan.co.nz
pryas.wordpress.com
www.udgam.com
www.sahityakunj.net
www.tadbhav.com
www.pitara.com

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www.srijangatha.com
www.hindielm.co.uk
www.webdunia.com
www.avadh.com
www.kalayan.org
www.anyatha.com
www.geocities.com
www.iiit.net
taptilok.com
www.hindisewa.com
www.childplanet.com
www.kavita. Hindiyugm.com
कहवता कोश डॉट ओआरजी विदं ी सावित्य के प्रकाशन की एक मित्िपणू भ िेबसाइट िै।
इस पर नए और परु ाने सभी कवियों की रचनाएं और पस्ु तकें (सपं णू भ रूप में) उपलब्ध िैं। इससे वप्रटं
भी वलए जा सकते िैं और रचनाओ ं को ऑनलाइन पढ़कर आनंद वलया जा सकता िै।अहभव्यहि-
हिदं ी िॉट ओआरजी पर कविताओ,ं किावनयों और वनबंधों का संग्रि पािक को पढ़ने के वलए
वमलता िै। अवध िॉट कॉम पर िास्य कविताओ ं और किावनयों का प्रकाशन िोता िै। हिंदी नेस्ट
साप्ताविक जाल पवत्रका िै। इसमें कविताओ,ं किावनयों के साथ-साथ सामावजक लेख भी पढ़ने को
वमल सकते िैं। भारत दशिन न्यजू ीलैंड से प्रकावशत िोने िाली विदं ी साविवत्यक पवत्रका िै। प्रयास
कविताओ ं और किावनयों का संग्रि िै। यिां प्राचीन कथा सावित्य और िास्य कविताएं उपलब्ध िैं।
तद्भव और उद्गम मावसक सावित्य पवत्रकाएं िैं।
पफोर टू पफोटी और हपटारा में बाल सावित्य उपलब्ध िै। सृजनगाथा विदं ी सावित्य, सस्ं कृ वत
और भाषा के विकास के वलए एक प्रयास िै।साहित्य कुंज पावक्षक साविवत्यक पवत्रका िै। इसमें
किावनयों, कविताओ ं और आलेखों का संकलन रिता िै। कालायन पवत्रका में कविताए,ं लेख,
नाटक, उपन्यास आवद के साथ-साथ विदं ी भाषा की जानकारी दी जाती िै। अन्यथा भारत और
अमरीकािासी वमत्रों िारा आधवु नक विदं ी सावित्य को प्रेवषत करने का प्रयास िै। तृहप्तलोक विदं ी की

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पावक्षक पवत्रका िै जो पिली और सोलििीं तारीख को प्रकावशत िोती िै। यिां ई-पस्ु तकें भी
उपलब्ध िोती िैं।इट नेट पर प्रमख ु कवियों की रचनाओ ं को पढ़ा जा सकता िै। वजयोवसटीज पर परू ी
भगिद्गीता विदं ी में पढ़ी जा सकती िै। िेबदवु नया साविवत्यक रचनाओ ं के प्रकाशन का मिाजाल
स्थल िै। अन्य िेबसाइटों पर भी इसी प्रकार की सामग्री पािकों को वमल सकती िै।इटं रनेट पर विदं ी
सावित्य की प्रस्तवु त ब्लॉगों के माध्यम से भी िोती िै। इन ब्लॉगों पर अनेक सावित्य प्रेमी अपनी
और अन्य व्यवक्तयों की रचनाओ ं को सामने रखते िैं और टीका-वटप्पवणयों को आमवं त्रत करते िैं। ये
टीका-वटप्पवणयां पािकों की विचारधरा को तो सामने लाती िैं िी, वकसी रचना की गणु ित्ता और
उसकी मित्ता को भी रे खांवकत करती िैं। इस प्रकार के ब्लॉग वनम्नवलवखत िैं-
blog.masijivi.com
hemadixit.blogspot.com
jankipul.com
nukkadh.com
drharisharora.blogspot.com
vibhav.blogspot.com
sahityalochan.blogspot.com
nayasamay.blogspot.com
rajbhashamanas.blogspot.com
manishkumar.blogspot.com
vartmaansrijan.blogspot.com
vishwagatha.blogspot.com
ravisrivastava.uvach.blogspot.com
rishabhuvaach.blogspot.com
anunaad.blogspot.com
rajy.blogspot.com

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यिी निीं, ऑनलाइन विदं ी सावित्य की रचना की जाती िै और विदं ी कविता लेखन प्रवतयोवगताएं
की जाती िैं। ये रचनाएं डाक से भी मगं ाई जाती िैं और ईमेल के िारा भी मगं ाई जाती िैं। सोशल
साइटस, जैसे फे सबक ु पर भी ऐसी प्रवतयोवगताएं देखने को वमलती िैं जो एक प्रकार से विदं ी और
विदं ी सावित्य की श्रीिृवद्ध में अपना योगदान देती िैं।इटं रनेट पर अनेक िेबसाइट्स ऐसी िैं जो विदं ी
शब्दकोश संबंधी सवु िधाएं प्रदान करती िैं, जैसे शब्दकोश डॉट कॉम, ई-मिाशब्दकोश, शब्दमाला
आवद। ई-मिाशब्दकोश सी-डैक, भारत सरकार की प्रस्तवु त िै। इसके अवतररक्त कुछ ऑफलाइन
साइट्स भी िैं, जैसे शब्द-ज्ञान। इसकी मदद से एक बार इटं रनेट से शब्दकोश डाउनलोड कर वबना
इटं रनेट से जड़ु े भी शब्दकोश की सिायता ली जा सकती िै। इन सभी शब्दकोशों से न के िल
इवच्छत शब्दों का अथभ ढूढं ा जा सकता िै बवल्क उन शब्दों के शद्ध ु विदं ी उच्चारण और उदािरण
सवित उनके प्रयोगों की जानकारी भी प्राप्त की जा सकती िै। यद्यवप विदं ी कंप्यवू टंग में यनू ीकोड के
आने से िालावं क काफी वदक्कतें दरू िो गई िैं लेवकन अभी भी कई मामलों में मानकीकरण निीं िो
पाया िै। एक सिभस्िीकृ त की-बोडभ की समस्या अभी भी बनी िुई िै। अनेक प्रकार के फांट िैं जो
यनू ीकोड में रूपांतररत निीं िो पाते। वप्रंटर और स्कै नर की अनक ु ू लता की समस्या भी बनी िुई िै।
इनके वलए व्यापक और गभं ीर प्रयासों की आिश्यकता िै।

17.10 सारांश
कंप्यटू र पर विदं ी अनिु ाद भी संभि िै और विदं ी वशक्षण भी। इस दृवि से अनेक सॉर्फटिेयर
उपलब्ध िैं। ‘मत्रं राजभाषा’ इसमें सबसे अवधक उल्लेखनीय िै। विदं ी वशक्षण की दृवि से ‘लीला
राजभाषा’ एक मित्िपूणभ उपलवब्ध िै। ‘श्रतु लेखन राजभाषा’ और यवू नकोड भी एक विवशि
उपलवब्ध िै। इनके प्रयोग से विदं ी को कंप्यटू र पर प्रयोग करने में काफी लाभ वमला िै। यवू नकोड ने
सभी भाषाओ ं में लेखन, टंकण के वलए एक प्लेटफामभ प्रदान वकया िै वजससे फांट संबधं ी अनेक
समस्याएं दरू िो गई िैं।इटं रनेट ने भी विदं ी और विदं ी सावित्य के विकास में उल्लेखनीय योगदान
वदया िै। इटं रनेट पर अनेक िेबसाइट्स िै वजनसे वनरंतर विदं ी विकास को प्राप्त िो रिी िै और उसका
विश्वव्यापी विस्तार िो रिा िै। अनेक सोशल िेबसाइट्स जैसे फे सबक ु , ट्विटर ने भी विदं ी के
विकास-रथ को आगे बढ़ाया िै। विदं ी में ईमेल और चैवटंग की सवु िधा वमलने से विदं ी प्रेवमयों को
जिां एक ओर खश ु ी वमली िै, ििीं दसू री ओर भाषा-विस्तार में भी मदद वमली िै।

17.11 शब्दावली
रोजमराभ - िर वदन का
िैवश्वक - विश्व स्तर का
विभावषक - दो भाषाओ ं िाला

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प्रयोक्ता - प्रयोग करने िाला
बिुअथी - अनेक अथभ िाला

17.12 संदर्भ ग्रं थ सूची


राजभाषा भारती, अप्रैल-जनू 2007
इस्पात भाषा भारती, जल
ु ाई-वसतंबर 2005, जनिरी-माचभ 2003
सं परू नचंद टंडन, (2004) सचू ना प्रौद्योवगकी, विदं ी और अनिु ाद, भारतीय अनिु ाद
पररषद, वदल्ली

17.13 हनबं धात्मक प्रश्न


1. कम्प्यटू र क्या िै ? विस्तार से समझायें . कम्प्यटू र और विन्दी के सबं धं ों को स्पि
करते िुए उसकी उपयोवगता को समझाइये .
2. कंप्यटू र पर विदं ी-प्रयोग के विकास में सिायक अन्य सॉर्फटिेयरों पर एक लेख
वलवखए तथा इटं रनेट पर विदं ी की वस्थवत की वििेचना कीवजए।

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इकाई18 ई-पत्रकाहरिा
इकाई की रूपरे खा
18.1 प्रस्तािना
18.2 उद्देश्य
18.3 ई-पत्रकाररता की पररभाषा
18.4 ई-पत्रकाररता की विशेषताएं
18.5 ई पत्रकाररता में सिायक संचार-माध्यम
18.5.1 रे वडयो
18.5.2 टेलीविजन
18.5.3 कंप्यटू र
18.5.4 इटं रनेट
18.5.5 बिुमाध्यम
18.6 ई-पत्रकाररता के विविध रूप
18.6.1 रे वडयो और टी. िी. पत्रकाररता
18.6.2 िीवडयो पत्रकाररता
18.6.3 अतं ररक्ष पत्रकाररता
18.6.4 िेब या अतं रजाल पत्रकाररता
18.7 सारांश
18.8 शब्दािली
18.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
18.10 संदभभ ग्रंथ सचू ी
18.11 सिायक उपयोगी पाि्य सामग्री
18.12 वनबंधात्मक प्रश्न

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18.1 प्रस्तावना
प्रयोजनमलू क विदं ी पाि्यक्रम के चतथु भ ब्लॉक की यि अिारििीं इकाई िै। इसमें आप ‘ई-
पत्रकाररता’ के विषय में जानकारी प्राप्त करें ग।े इस इकाई में आप ई-पत्रकाररता के अथभ से पररवचत
िोंगे। आप ई-पत्रकाररता की विशेषताओ ं को भी जान पाएगं े और उन माध्यमों से भी आप अिगत
िोंगे जो ई-पत्रकाररता के के न्द्र में िैं। ई-पत्रकाररता के विविध रूपों से भी आपको पररवचत कराया
जाएगा। आशा िै वक इसे पढ़ने के बाद आप ई-पत्रकाररता को भली भांवत समझ सकें गे। ई-
पत्रकाररता जीिन के विविध क्षेत्रों को प्रेररत-प्रभावित करती िै। अत: प्रस्ततु इकाई में ई-पत्रकाररता
के इस मित्त्ि का भी वििेचन वकया जायेगा

18.2 उद्देश्य
इस इकाई का पढ़ने के बाद आप यि जान पाएगं े वक-

 ई-पत्रकाररता क्या िै ? और उसकी कौन-कौन सी विशेषताएं िैं ?


 उन संचार-माध्यमों से आप अिगत िोंगे जो ई-पत्रकाररता में आते िैं ?
 ई-पत्रकाररता के विवभन्न रूपों की जानकाररयां भी आपको वमलेंगी ?

18.3 ई-प काहरता की पहरर्ाषा


ई-पत्रकाररता से तात्पयभ िै इलेक्रॉवनक पत्रकाररता। यि दृश्य-श्रव्य माध्यम पर आधाररत
पत्रकाररता िै। ई-पत्रकाररता को गवत देने िाले मित्िपणू भ माध्यम िैं रे वडयो, टेलीविजन, िीवडयो,
स्लाइडें, न्योन साइन, इटं रनेट, सोशल िेबसाइटस आवद। डॉ.अजनभु वतिारी वलखते िैं वक ‘ई-
जनभवलज्म’ को ितभमान स्नाय-ु तंत्र न किकर इसे जनसंचार की आत्मा किना उपयक्त ु िै। कंप्यटू र,
उपग्रि, लेजर, इटं रनेट, साइबर, माइक्रोवचप्स, वडजीटल ससं ाधनों के चलते सचू ना-क्रावं त के आगमन
के साथ ‘ई-जनभवलज्म’ का मित्ि बढ़ गया िै।....‘ई-जनभवलज्म’ के विस्तार की कथा अकथ्य
िै।’(पृ0-1) िास्ति में ‘संचार क्रांवत के इस दौर में यगु बोध के प्रमख
ु तत्िों को समेटकर पत्रकाररता
मानि के विकास और विचारोत्तेजन का राजमागभ िै।....ज्ञान शवक्त िै, विज्ञान विवशि शवक्त िै तथा
प्रौद्योवगकी परम शवक्त िै। कंप्यटू र, इटं रनेट, उपग्रि, अतं ररक्ष संचार प्रणाली, माइक्रोवचप्स िारा
प्रिावित वशक्षाप्रद मनोरंजक सचू ना िी इलेक्रॉवनक पत्रकाररता िै।.....आज की पत्रकाररता न तो
ज्िाला िै, न क्रांवत की अग्रदवू तका, न लेखनी विलास, यि तो अद्यतन संचार साधनों की
व्यिसायगत श्रेष्ठता िै। सतत प्रवशक्षण िारा प्राप्त कौशल एिं मीवडया प्रबंधन के बल पर िी
पत्रकाररता संभि िै। इलेक्रॉवनक ररपोवटांग, इलेक्रॉवनक एवडवटंग, इलेक्रॉवनक वडजायवनंग,

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इलेक्रॉवनक टाइपसेवटंग, इलेक्रॉवनक वप्रवं टांग िाली पत्रकाररता का ‘इलेक्रॉवनक जनभवलज्म’ किना
समीचीन िै।’ (पृ0-13)
आज ई-पत्रकाररता जनसंचार का एक सशक्त और लोकवप्रय माध्यम िै। इसके मल ू में विकवसत
िोती तकनीक िै, नए-नए आविष्कार िैं और लोगों को लगातार आकवषभत करने की शवक्त िै।

18.4 ई-प काहरता की हवशेषताएं


1. इसमें संचार की प्रवक्रया यांवत्रक िोती िै और कम समय में अवधक से अवधक लोगों तक
और अवधक दरू ी तक सचू नाएं संप्रेवषत की जा सकती िैं।
2. इस पत्रकाररता की चालक शवक्त विद्यतु िै। इसमें सचू ना संचार में विद्यतु तरंग,े िॉल्ि, टयबू
आवद अपनी भवू मका वनभाते िैं।
3. ई-पत्रकाररता में वनरक्षर लोगों के वलए भी स्थान िै क्योंवक यि दृश्य, श्रव्य और पाि्य तीनों
िै। अपिाद के रूप में रे वडयो को वलया जा सकता िै जो के िल श्रव्य िै।
4. इसमें तीव्र प्रिाि और तीव्र वनयत्रं ण की क्षमता िोती िै और इसका प्रसार भी तीव्रता से
िोता िै और एक िी समय में एक बड़े समिू के साथ सचू ना संप्रेषण संभि िै।
5. इसमें सचू नाएं प्रावप्त की दर सस्ती िोती िै िालांवक उत्पादन व्यय अवधक िोता िै और
लगातार निीन सचू नाएं वमलती रिती िै जो वप्रंट पत्रकाररता में संभि निीं िै। ििां कम-
से-कम 6 र्टं े और अवधक-से-अवधक 24 र्टं े की प्रतीक्षा करनी पड़ती िै।
6. इसमें एक खबू ी यि भी िै वक इसमें अखबारों के अनेक सस्ं करण छापने की आिश्यकता
निीं िै।
(क) अभ्यास प्रश्न

ई पत्रकाररता क्या िै, उसकी विशेषताओ ं पर प्रकाश डावलए।

18.5 ई-प काहरता के हवकास मचर सिायक संचार माध्यम


अब आपके वलए यि जानना आिश्यक िै वक िे कौन से संचार माध्यम िैं वजन्िोंने ई
पत्रकाररता के विकास में योगदान वदया िै ? ये माध्यम वनम्नवलवखत िैं-

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18.5.1 रेहियो
इलेक्रॉवनक माध्यम के उपकरणों में मवु द्रत माध्यम से अवधक तीव्रता से और दरू दराज तक
संदशे पिुचाँ ाने की शवक्त िै। रे वडयो इनमें सबसे सस्ता और ‘पोटेबल’ उपकरण िै। उन्नीसिीं सदी के
अतं में मारकोनी िारा आविष्कृ त रे वडयो ने संचार के क्षेत्र में क्रांवत उत्पन्न कर दी। लेवनन का कथन िै
वक रे वडयो वबना कागज और वबना दरू ी का समाचारपत्र िै। यि एक ऐसा माध्यम िै जो अदृश्य विद्यतु
िारा चंबु कीय तरंगों के िारा संदश े एक स्थान से दसू रे स्थान पर प्रेवषत करता िै। समाचारों, गीत,
संगीत, नाटक, रूपक आवद प्रस्ततु कर रे वडयो ने िर उम्र के श्रोता को अपना बना वलया िै तभी तो
तकनीक का अपररवमत विकास िोने के बािजदू रे वडयो आज भी अपना मित्ि बनाए िुए िै।
विवभन्न व्यािसावयक रे वडयो चैनलों ने लोगों की रुवच और भािनाओ ं को समझकर इसे न के िल
अतं ःवक्रयात्मक बनाया िै बवल्क प्रस्तवु त और प्रसारण के नए-नए रूप भी गढ़े िैं। यि वनरक्षरों के
वलए एक िरदान िै वजसके िारा िे सनु कर वसफभ सनु कर अवधक-से-अवधक सचू ना, ज्ञान और
मनोरंजन प्राप्त कर लेते िैं। रे वडयो की सबसे बड़ी खबू ी यिी िै वक अपना काम करते िुए भी श्रोता
इसके िारा प्रेवषत संदेश को ग्रिण कर सकते िैं। ििीं के िल एक समय में एक िी कें द्र से प्रसारण सनु
सकना और प्रसारण बीच में रोककर दबु ारा सनु पाने का प्रािधान न िोना रे वडयो की सीमा िै। रे वडयो
का संचार इकिरा भी िोता िै।
रे वडयो को इटं रनेट ने अपार गवत दी िै। आज रे वडयो के समाचार, कायभक्रम आवद विश्व के
वकसी भी कोने में सनु े जा सकते िैं। इससे रे वडयो पत्रकाररता को भी गवत वमली िै। अब भौगोवलक
सीमाएं टूट चक ु ी िैं। इटं रनेट पर रे वडयो के कायभक्रमों, समाचारों आवद को सनु ने के वलए व्यवक्त को
एक पसभनल कंप्यटू र, ब्राउजर सॉर्फटिेयर, टेलीफोन लाइन और इटं रनेट सेिा की आिश्यकता िै।
व्यवक्त रे वडयो के कायभक्रमों को सनु ने के वलए उसकी िेबसाइट को भी सचभ कर सकता िै। मोबाइल ने
भी रे वडयो के विस्तार में अत्यंत सियोग वदया िै, इसमें कोई संदिे निीं।
18.5.2 टेलीहवजन
सचू ना क्रांवत में जो मित्त्ि गटु ेनबगभ िारा आविष्कृ त मद्रु ण का था उससे भी अवधक मित्त्ि
दृश्य-श्रव्य माध्यम दरू दशभन का िै। प्रकाश, रंग और ध्िवन से साक्षात्कार करता टेली-दशभक सजीि
वििरण को अवधक रुवचकर पाता िै। इसीवलए दरू दशभन, सचू ना, वशक्षण और मनोरंजन का प्रमख ु
साधन बनता गया। आज टेलीविजन अवधकांश लोगों की पिुचं के अदं र िै और दसू रे , उसकी स्क्रीन
भी अब छोटे-बड़े दोनों रूपों मे उपलब्ध िै। टेलीविजन की तकनीक में भी काफी विकास िुआ िै।
इसकी संरचना ग्रीक शब्द ‘टेली’ और लैवटन शब्द ‘विजन’ से वमलकर िुई िै। ‘टेली’ का शावब्दक
अथभ िै दरू ी और ‘विजन’ का अथभ िै देखना अथाभत् जो दरू की चीजों का दशभन कराए िि टेलीविजन
िै। टेलीविजन शब्द अग्रं ेज़ी भाषा का िै जो अत्यवधक प्रचवलत िोने के कारण आज सिभमान्य िो
गया िै और लोगों की जबु ान पर अक्सर रिता िै। टेलीविजन के मल ू में दरू िती स्थानों पर र्टनेिाली

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र्टनाओ ं का र्र बैिे साक्षात्कार कर लेना िै। ध्िवनयााँ और ध्िवनयों का एक साथ सप्रं ेषण िी
टेलीविजन की िास्तविक प्रवक्रया िै। चलवचत्र की भााँवत वनरंतर प्रेषण िी वचत्रों को गवतशील बनाता
िै। इस प्रवक्रया के वलए विद्यतु ीय ध्िवनयों को विखवं डत करके वनरंतर प्रेवषत वकया जाता िै। ररसीिर
वसरा इस विखडं न को पनु ः गृिीत करके ध्िवन वनवमभत करता िै। इस प्रवक्रया में 25 से 30 वचत्र प्रवत
सेकेण्ड संप्रेवषत वकए जाते िैं और उनका पनु ग्रभिण भी वकया जाता िै। बनती-वमटती ध्िवनयों और
छवियों की वनरंतरता दशभक के मन पर सवं श्लि प्रभाि छोड़ती िै। रे वडयो और टेलीविजन दोनों िी
वनरक्षर व्यवक्तयों तक पिुचाँ ने के वलए अवत उत्तम साधन वसद्ध िुए िैं। रे वडयो तो संचार का काफी
सस्ता साधन भी वसद्ध िुआ िै। उसकी अन्य विशेषता उसका विद्यतु रवित क्षेत्रों में भी सनु ा जा
सकना और समाचार-स्थल अथिा र्टना-स्थल से िी वबना अवधक ताम-झाम के प्रसारण कर
सकना भी था। टेलीविजन की अवधक मिगं ी उपकरण सामग्री विद्यतु की अवनिायभता के बाद भी
दृश्य शवक्त के कारण लोकवप्रयता का कारण रिी िै। वचत्रात्मकता और संभाषणशीलता इसके
कायभक्रमों के विवशि गणु िैं। टेलीविजन में काम करने िेतु िीवडयो तकनीक और कै मरा का ज्ञान भी
आिश्यक िै।
18.5.3 कंप्यूटर
कंप्यटू र ‘कम्यटू ’ शब्द से बना िै वजसका अथभ िै गणना। लेवकन आज कंप्यटू र के िल
गणना तक िी सीवमत निीं िै बवल्क जीिन के िर क्षेत्र में उसकी उपयोवगता बढ़ती जा रिी िै। वबल
गेटस का कथन िै वक ‘समचू ी संचार क्रांवत मिज कंप्यटू र के विवभन्न उपयोग मात्र िैं।’ कंप्यटू र में
अपार गवत िोती िै िि जवटल से जवटल गणनाओ ं को भी अत्यंत तीव्रता से िल कर देता िैं उसमे
अपार सग्रं ि क्षमता िोती िै। कंप्यटू र के पररणाम शद्ध
ु और त्रवु टिीन िोते िैं। िि स्िचावलत िोता िै
बस आपको उसे क्रमबद्ध रूप में वनदेश देना पड़ता िै। इसे आम भाषा में प्रोग्राम किा जाता िै। जब
कभी प्रयोग करने िाला व्यवक्त गलती करता िै तो कंप्यटू र उसे रास्ता भी बताता िै। एक बिुआयामी
उपकरण िोने के कारण इसका उपयोग वशक्षा, विज्ञान, प्रौद्योवगकी, वचवकत्सा, िावणज्य, लेखन,
प्रकाशन, काननू आवद सभी क्षेत्रों में िो रिा िै।
यि एक ऐसा यंत्र िै जो मनष्ु य के मवस्तष्क की भााँवत काम करता िै लेवकन मनष्ु य के
मवस्तष्क से कई गनु ा अवधक तेज। यि गवणतीय गणनाओ ं और विवभन्न आाँकड़ों का विश्ले षण करने
के साथ-साथ उन्िें अपनी स्मृवत में रख सकता िै। यि िस्ततु ः एक इकाई निीं बवल्क विवभन्न
इकाइयों का समिू िै। कंप्यटू र का कायभ आदेश लेना, आदेशों को कायभक्रम के रूप में संवचत करना,
उसका वक्रयान्ियन करना, पररणाम सवं चत करना और आदेशानसु ार पररणामों को सामने रखना िै।
बारम्बार वनविभघ्न आिृवत्त इसकी विशेषता िै। कम्प्यटू र का आगमन पत्रकाररता के क्षेत्र में िरदान
वसद्ध िुआ िै। पत्रकाररता से जड़ु ी विवभन्न प्रणावलयों - सचू ना-सज्जा, ग्रावफक संप्रेषण, मद्रु ण आवद
में कम्प्यटू र की विवभन्न पद्धवतयों का उपयोग वनःसंदिे सरािनीय िै। पत्रकाररता जगत में सचू नाओ ं

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 299
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
का त्िररत गवत से आदान-प्रदान अत्यतं उपयोगी िै। इसके वलए पिले समाचारों को एकत्र करने के
वलए डाक, टेलीफोन, टेलीवप्रन्टर आवद पर वनभभर रिना पड़ता था वकंतु उपयभक्त ु पद्धवतयों के
कम्प्यटू रीकृ त िो जाने से समाचारों के आदान-प्रदान की गवत में अद्भुत पररितभन आया िै। उदािरण
के वलए डाक विभाग की िाइवब्रड मेल सेिा, टेलीफोन की सेल्यल ु र या कम्प्यटू रीकृ त ऑनलाइन या
मॉडम सेिा, फै क्स, ईमेल, टेलीटेक्स्ट, िीवडयोटेक्स्ट आवद पद्धवतयों को देखा जा सकता िै। सचू ना
विस्फोट के वलए उत्तरदायी इटं रनेट पद्धवत भी कम्प्यटू र पर आधाररत िै। समाचारों के आदान-प्रदान
में िी निीं अवपतु समाचारपत्रों के मद्रु ण और दरू दशभन/आकाशिाणी के प्रसारणों में भी कम्प्यटू र का
योगदान अप्रवतम िै।
18.5.4 इटं रनेट
इटं रनेट आज एक सिभव्यापी सत्ता बन गया िै। िि एक ऐसा माध्यम िै वजसके िारा वकसी
सैन्य-सामग्री को प्रयोग वकए वबना विश्व को जीता जा सकता िै। इटं रनेट आज की ‘नई सभ्यता के
कृ ष्ण का विराट विश्व रूप’ िै । फलतः परू ा विश्व आज मनुष्य की िथेली पर रखी वकसी िस्तु के
समान िो गया िै। इटं रे नट के िारा सचू ना-तंत्र मानि की मट्ठु ी में अलादीन के वचराग की तरि बंद
िोता जा रिा िै। इलैक्रॅावनक सच ं ार यगु का यि सिाभवधक विस्मयकारी, सक्षम और तेज सचू ना-
संिािक िै। उल्लेखनीय िै वक अल्डस िक्सले ने दरू दशभन के बढ़ते आकषभण पर वटप्पणी करते िुए
इसे मानि-संस्कृ वत पर िोने िाले भयानक आक्रमण की संज्ञा दी थी। उनकी दृवि में दरू दशभन
सांस्कृ वतक गवतविवध में भागीदारी के िमारे अवधकार को मात्रा उपभोक्ता िोने तक सीवमत कर देता
िै। िि िमारी प्रवतवक्रया के प्रभाि को निीं जान सकता। िमारी रचनात्मकता भी क्षीण िोती िै और
िम िि सभी कुछ वनगलने के वलए बाध्य िोते िैं जो िमें परोसा जा रिा िोता िै। इसीवलए दरू दशभन
को बद्धु ु बक्सा किा गया िै, एक नशा माना गया िै, िालांवक अब यि बद्ध ु ु बक्सा निीं रिा िै। अब
कई कायभक्रमों में प्रवतवक्रयाएं भी प्रसाररत िोती िैं जैसे आई बी एन 7 के कायभक्रम ‘एजेंडा’ में।
इटं रनेट इससे भी अवधक नशीला, मादक और प्रभािशाली िै। िि अमृत भी देता िै और विष भी।
ज्ञान का भडं ार भी उपलब्ध कराता िै और गोपनीय सचू नाएाँ, अश्लील और अिांवछत सामग्री भी,
तथावप इटं रनेट की उपयोवगता असवं दग्ध िै। इटं रनेट से जड़ु ने का अथभ िै इटं रनेट की अनोखी दवु नया
से जड़ु जाना। अब आप दवु नया के अलग-अलग विस्सों में मौजदू इटं रनेट से जड़ु े लाखों कम्प्यटू रों के
साथ आनन-फानन में संपकभ साध सकते िैं। इस तरि आप जानकाररयों, सचू नाओ ं और आाँकड़ों के
एक मिासागर में गोते खाने लगते िैं। इटं रनेट व्यवक्त को उसकी सीधी भागीदारी का सशक्त माध्यम
उपलब्ध कराता िै। िास्ति में इटं रनेट नेटिकों का नेटिकभ िै। िि सचू ना-तंत्र से पररपणू भ जालों का
जाल िै जो समस्त जालों को परस्पर जोड़ने की क्षमता रखता िै। इसके पिू िभ ती जनसच ं ार-माध्यम
के िल विषयिस्तु या सचू ना देते थे, वनवष्क्रय और संिादिीन लेवकन इसने लोगों को िि सामथ्यभ दी
िै वक िे खदु इस दवु नया में अपने वलए बोलें। आज अरब के विवभन्न देशों में िुए तख्ता पलट में
आप यि देख भी सकते िैं।

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आप इटं रनेट पर लगभग िि सब कुछ कर सकते िैं जो आप भौवतक दवु नया में करते िैं।
आप इटं रनेट पर वकताबें, अखबार आवद पढ़ सकते िैं, पयभटन का मजा ले सकते िैं, अश्लील साइट
देख सकते िैं, वसनेमा देख सकते िैं, संदशे भेज और माँगा सकते िैं, िजारों वकलोमीटर दरू बैिे लोगों
से बातचीत कर सकते िैं, रे वडयो सनु सकते िैं, टी॰िी॰ देख सकते िैं, अपनी िेबसाइट खोलकर
प्रोपेगडं ा भी कर सकते िैं। आपके ऊपर जबािी िमले भी िो सकते िैं और इस तरि आप साइबर
िार को भी मिससू कर सकते िैं। विवभन्न देशों की सरकारें भी ‘साइबर िार’ से डरती िैं क्योंवक
इटं रनेट पर वकया गया ‘प्रोपेगडं ा’ विश्वव्यापी िोने के कारण परू ी दवु नया का ध्यान अपनी ओर
खींचता िै। इटं रनेट पर सेक्स और अश्लील सामग्री का कारोबार भी खबू गमभ िै। अनेक िेश्याएाँ या
कॉलगलभ इटं रनेट पर अपनी दक ु ान खोलकर खासी कमाई कर रिी िैं। कुछ िेश्याएाँ इटं रनेट पर
‘लाइि’ अश्लील प्रदशभन करती िैं। इटं रनेट से जड़ु ी ‘आभासी’ (िचभअ ु ल) तकनीक के जररए आप
कम्प्यटू र पर िी यौन वक्रयाओ ं को देख सकते िैं।
इटं रनेट ने दवु नया भर में वचवकत्सा सवु िधाओ ं का नक्शा बदल वदया िै। अब आप र्र बैिे
देश-विदेश के प्रख्यात वचवकत्सकों से सलाि-मशविरा और चचाभएं कर सकते िैं और इन चचाभओ ं
के िारा जवटल रोगों का वनदान भी संभि िै। कुछ जगिों पर ऐसी सवु िधाएाँ भी िैं वक वदल्ली के
अस्पताल में चल रिा ऑपरे शन न्ययू ाकभ में बैिा सजभन देख सके और ििीं से ज़रूरी विदायतें दे सके ।
इटं रनेट पर वचवकत्सा को ‘टेलीमेवडसन’ किा जाता िै। खेल-कूद और पयभटन इटं रनेट के अपेक्षाकृ त
नए आकषभण िैं। आज लगभग िर खेल वसखाने से लेकर उससे संबंवधत निीनतम सचू नाएाँ देने तक
के वलए उपयोगी िेबसाइट उपलब्ध िै।अब ऐसी सवु िधा भी उपलब्ध िो गई िै वक के िल बोलकर
िी आप अपनी मनपसंद िेबसाइट खोज सकें गे और इसे खोल-बंद कर सकें गे। यवद इसके साथ
आिाज़ को पाि्य-सामग्री और पाि्य-सामग्री को आिाज़ में बदलने िाला करामाती सॉर्फटिेयर भी
लगा िो तो नेत्रिीन भी इटं रनेट की चमत्कारी दवु नया ले सकते िैं।इटं रनेट से िीवडयो की क्िावलटी में
भी बिुत सधु ार आया िै। इटं रनेट की तकनीक के िारा विशेषज्ञों को ऐसा लगेगा वक िे एक कमरे में
बैिे िुए आपस में विचार-विमशभ कर रिे िैं जबवक उनके बीच िजारों वकलोमीटर की दरू ी िो सकती
िै। इस तकनीक में वत्र-आयामी ग्रावफक्स का इस्तेमाल करते िुए आभासी-कक्ष (िचभअुल रूम) बना
वदया जाता िै। इसे ‘टेवल-इमशभन’ तकनीक का नाम वदया गया िै। इसी तरि इटं रनेट पर आभासी
प्रयोगशाला में िजारों वकलोमीटर की दरू ी पर बैिे िैज्ञावनक आपस में वकसी मिगं े उपकरण की
साझेदारी कर सकते िैं। एक समान आाँकड़ों या जानकाररयों को इटं रनेट सदस्यों के वकसी बड़े समिू
के िर सदस्य तक पिुचाँ ाने की तकनीक भी विकवसत की जा रिी िै। इसे ‘मल्टीकास्ट’ तकनीक किा
जाता िै। अब मोबाइल पर भी ईमेल तथा इटं रनेट सेिा उपलब्ध िोने लगी िै। इटं रनेट पर आभासी
पस्ु तकालय उपलब्ध िै वजसमें असंख्य पस्ु तकें उपलब्ध िैं। पररणामस्िरूप किीं भी दरू दराज के गााँि
में बैिा छात्र भी अमेररका के वडवजटल पस्ु तकालय में आई निीनतम पस्ु तक बड़ी आसानी से अपने
कम्प्यटू र पर ‘डाउनलोड’ करके पढ़ सकता िै। इटं रनेट पर व्यिसायी अपने उत्पादों को विज्ञावपत कर

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सकते िैं। इटं रनेट के िारा विश्व के वकसी भी कोने के ग्रािकों को माल बेच सकते िैं या माल खरीद
सकते िैं। इटं रनेट पर उपलब्ध सामानों के कै टलॉग देखकर मनपसंद चीजें खरीदी जा सकती िैं।
इटं रनेट पर तरि-तरि के मनोरंजन के विवभन्न कायभक्रमों को अपनी मजी के अनसु ार र्र बैिे
देखा जा सकता िै तथा इलैक्रॅावनक प्रकाशनों को पढ़ा और पढ़ाया जा सकता िै।इटं रनेट का एक
मित्िपणू भ लाभ ईमेल अथाभत् इलैक्रॅावनक मेल सेिा िै। ईमेल से िम अपना पत्र या कोई सदं श े
विद्यतु गवत से दवु नया के वकसी भी कोने में वस्थत कम्प्यटू र-मॉनीटर पर पिुचाँ ा सकते िैं। ििााँ उसका
वप्रंट वनकाल वलया जाता िै। यि फै क्स की अपेक्षा बिुत िी सस्ता और विश्वसनीय प्रेषण माध्यम िै।
सबसे बडी तो खबू ी यि िै वक साधारण डाक की तरि ईमेल भेजने के वलए अलग-अलग दरों के
वटकट निीं लगाने पड़ते िैं। ईमेल के माध्यम से आप के िल पत्र आवद िी निीं भेज सकते िैं बवल्क
वचत्र, ग्रावफक्स आवद भी भेज सकते िैं। इसके वलए ईमेल के साथ अटैचमेंट भेजने की सवु िधा भी
िोती िै।
18.5.5 बिामाध्यम
कंप्यटू र की तकनीक के सिारे अपनी कल्पना-छवियों और विचारों को साकार करने का
सशक्त माध्यम िै बिुमाध्यम। यि विषय (तथ्य), आरे वखकी (ग्रावफक कला), ध्िवनयों, सजीि
आरे वखकी वचत्रण (एनीमेशन) और दृश्य तत्त्िों का समवन्ित रूप िै। इसमें आाँकड़ों के विविध
प्रारूपों का ग्रिण, संबंधानसु ार एकीकरण तथा प्रकलन िोता िै। इन कायों के संपादन के वलए
प्रणाली िारा बिुसंचार साधन के आाँकड़ों का भडं ारण, संचरण, संसाधन एिं वनमाभण भी िांवछत िै।
इसे ‘इटं रएवक्टि बिुमाध्यम’ या ‘मल्टीमीवडया’ की सज्ञं ा दी जाती िै। ‘बिुमाध्यम’ के रूप में प्रोग्राम
का सॉर्फटिेयर, कंप्यटू र या टेलीविजन स्कीन पर प्रदवशभत िोने िाले तथ्य या विषय वमलकर दृश्य-
श्रव्य छवियों का ऐसा समायोजन तैयार करते िैं जो सचं ार के सभी अगं ों से यक्त ु िोता िै। कंप्यटू र की
भाषा एच॰टी॰एम॰एल॰ या डी॰एच॰टी॰, एम॰ एल॰ में तैयार की गई िेबसाइट्स भी बिुमाध्यम
का अगं िै। इटं रएवक्टि िोना बिुमाध्यम की अपररिायभता निीं िै। वसने दशभक या टेलीविजन दशभक
की भााँवत मान-मद्रु ा में स्क्रीन वनिारता दशभक भी बिुमाध्यम का प्रापक िै। सच ं ार के इस वनवष्क्रय
प्राप्तकताभ को यवद इस उपक्रम में स्ियं भाग लेने की सवु िधा वमलती िै तो िि सवक्रय प्राप्तकताभ
बनकर सचू ना का प्रिेश िार बन जाता िै। अपने प्राप्तकताभ की सवक्रय प्रवतवक्रया प्राप्त करने के वलए
सचू ना भेजने िाले को इस माध्यम में अवत सजग िोना ज़रूरी िै। संदश े की पटकथा, कलात्मक
सज्जा, रोचक तत्त्ि िी संदश े को प्राप्तकताभ के वलए ग्रिण करने योग्य बनाते िैं। बिुमाध्यम की बढ़ती
लोकवप्रयता ने उसे िावणज्य, विज्ञापन, वशक्षा, राजनीवत और मनोरंजन के क्षेत्रों में अवत लोकवप्रय
बना वदया िै। इस माध्यम से पुस्तकें , वफल्में, खबरें , विश्वविद्यालयों के वििानों के व्याख्यान र्र बैिे
िी ‘नेटीजन’ व्यवक्तयों को उपलब्ध िो सकें गे। वकसी शिर के वलए सैलावनयों को आिास, भोजन,
स्थान के नक्शे, भाषाओ ं की जानकारी ऑन लाइन टेबलॉग पर सल ु भ िोना बिुमाध्यम का िी

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चमत्कार िै। कम्पवनयों को आाँकड़े उपलब्ध कराने, शोध छात्रों को निीनतम िैज्ञावनक शोधों की
जानकारी देने िाले बिुमाध्यम उद्योग में संचार विशेषज्ञों को भी खासी संभािनाएाँ वदखाई दे रिी िैं।
िस्ततु ः बिुमाध्यम की सबसे बड़ी विशेषता उसका ‘इटं रएवक्टि’ िोना िै और यिीं िि
अन्य जनसंचार-माध्यमों से बाजी मार ले जाता िै। अन्य माध्यमों में बिुमाध्यम की तरि त्िररत
प्रवतपवु ि सभं ि निीं िै। प्रजातंत्र में बिुमाध्यम जनता की भागीदारी सवु नवश्चत करता िै। वनभभय िोकर
दी गई जनप्रवतवक्रयाओ ं से राजनीवत का एक नया रूप ई0 पॉवलवटक्स तैयार िो रिा िै। बिुमाध्यम ने
आज विश्व का वचत्र िी बदल वदया िै।
(ख) अभ्यास प्रश्न:

ई-पत्रकाररता के विवभन्न माध्यमों की वििेचना कीवजए।

18.6 ई-प काहरता के हवहवध रूप


ई-पत्रकाररता के विकास में सिायक सचं ार के विवभन्न माध्यमों की वििेचना के उपरातं
अब आपको ई-पत्रकाररता के विविध रूपों से पररचय कराना श्रेयस्कर िोगा। ये रूप वनम्नवलवखत िैं-
18.6.1 रेहियो और टी.वी. पत्रकाररता
रे वडयो और टी.िी. पत्रकाररता आज भी अपना मित्ि बनाए िुए िैं जबवक आज अतं रजाल
पत्रकाररता काफी फै ल चक ु ी िै। रे वडयो एक श्रव्य माध्यम िै और टी.िी. एक दृश्य-श्रव्य माध्यम िै।
अतः दोनों माध्यमों में अतं र रिेगा। रे वडयो ओर टी.िी. पत्रकाररता में अनेक विशेषताएं तो ििीं रिती
िैं जो मवु द्रत माध्यम में िोती िैं। मल
ू रूप से रे वडयो पत्रकाररता के अतं गभत रे वडयो से प्रसाररत समाचार
बल ु ेवटन, सामवयक समीक्षा, सामवयकी, रे वडयो न्यजू रील, पररचचाभ, भेंटिाताभ, िाताभ, उद्घोषणा आवद
कायभक्रम सवम्मवलत िैं। रे वडयो पत्रकाररता में शब्दों का मित्ि िै, िि भी बोले गए शब्दों का। शब्द
भी ऐसे बोले गए िों जो श्रोता को िाताभलाप जैसे लगे और श्रोताओ ं को अपनी ओर आकृ वषभत कर
लें। यिां शब्द इस प्रकार प्रयोग वकए जाते िैं वक दृश्य का वनमाभण श्रोता के मन पर िो सके । संगीत
(मदं , तीव्र, िषभसचू क, विषादसचू क, आरंवभक, समावप्तसचू क तथा दृश्यांतर बोधक) और ध्िवन-
प्रभाि (जैसे, वक्रया ध्िवनयां-दस्तक देने की आिाजें आवद, स्थल ध्िवनयां-गावड़यों की आने की
उद्घोषणाएं आवद तथा प्रतीक ध्िवनयां-ििाकों, झरनों की आिाजें आवद) का प्रयोग यिां पत्रकाररता
में सिायक िोता िै। यि िाताभलाप की शैली टी.िी. पत्रकाररता में भी अपेवक्षत िोती िै।
तात्कावलकता, वनकटता और समय का मित्ि दोनों में रिता िै। िास्ति में टी.िी. पत्रकाररता एक
ऐसी कला िै जो अत्यंत प्रभािशाली और व्यापक िै क्योंवक इसमें कुछ ऐसी विशेषताएं िैं जो अन्य
माध्यमों की पत्रकाररता में निीं वमलतीं। इसमें भी रे वडयो पत्रकाररता के समान िी समाचार, िाताभ,
पररचचाभ, भेंटिाताभ, ररपोवटांग, कॉमेंरी, सामवयक कायभक्रम, सिेक्षण आवद सवम्मवलत िैं। यि

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पत्रकाररता दृश्य और श्रव्य दोनों गणु ों को समावित वकए िुए िैं। इसमें बोले गए शब्द का मित्ि तो
िै, पर उतना निीं िै वजतना रे वडयो पत्रकाररता में िोता िै बवल्क दृश्य का अत्यवधक मित्ि िै। दृश्य
भी ऐसा जो जीितं िो, लोगों को सब कुछ समझा दें। इस माध्यम में आप समाचार देख भी सकते िैं,
पढ़ भी सकते िैं और सनु भी सकते िैं। रे वडयो में आपके पास के िल सनु ने को छोड़कर अन्य कोई
सवु िधा निीं िै। टेलीविजन पत्रकाररता में आपको र्टनास्थल पर लेकर संिाददाता जाता िै वजससे
वकसी र्टना की गभं ीरता और व्यापकता से व्यवक्त पररवचत िोता िै यि सवु िधा वप्रटं पत्रकाररता और
रे वडयो पत्रकाररता में उपलब्ध निीं िै। िरीश करमचंदाणी वलखते िैं वक ‘समाचारपत्र वििरण सवित
सवचत्र समाचार प्रकावशत करते िैं, वकंतु एक तो ििां समय कारक कायभ करता िै, तरु ं त आप तक
निीं पिुचं पाता, उसकी आिृवत्त वनधाभररत िोती िै। वफर उसमें मानिोवचत गणु -दोष भी सभं ि िैं। यि
वििरण भेजने िाले व्यवक्त की दक्षता पर वनभभर िै वक समाचार वकस अदं ाज ि संप्रेषणीयता तक
पािक तक पिुचं ता िै। एक िी र्टना या समाचार अक्सर अलग-अलग रूप, रंग और कथ्य के साथ
छप सकता िै, जबवक टीिी पर दशभक सीधा र्टना को देखता िै, ििां वििरण देने की एक सीमा
िोती िै, िणभन कम िोता िै, दृश्य ज्यादा िोते िै, जो अपनी बात खदु बोलते िैं।’ (पृ.184) रे वडयो पर
भी र्टना और समाचार तरु ं त प्रसाररत िो जाते िैं और श्रोता को सिं ाददाता सीधे र्टना स्थल पर भी
ले जाता िै लेवकन श्रव्य मात्र िोने के कारण यि उस आनंद या प्रभाि को प्रदान निीं कर पाता जो
टी. िी. पत्रकाररता में संभि िै। अनेक चीज़ें देखने से िी स्पि िोती िैं, के िल सनु ने से िी निीं।
रे वडयो का मित्ि इस बात में तो िै वक िि त्िररत सचू ना प्रदान कर सकता िै और उसकी पिुचं भी
दरू दराज तक िोती िै तथा िि वबना वबजली के भी बैटरी ि सेल से कायभ कर सकता िै लेवकन दृश्य
से जो विश्वसनीयता टी. िी. पत्रकाररता में पैदा िोती िै िि रे वडयो पत्रकाररता में निीं िो पाती।
रे वडयो और टी.िी. पत्रकाररता िेतु कुछ वनयमों का पालन करना पड़ता िै जो इस प्रकार िैं-
1. वकसी जावत, धमभ, नस्ल, संप्रदाय, रंग का आक्षेप निीं िोना चाविए।
2. वकसी की मानिावन ि वनंदा निीं िोनी चाविए।
3. न्यायालय की अिमानना निीं िोनी चाविए।
4. संविधान का अनादर या उसमें पररितभन के वलए विसं ा का समथभन निीं करना चाविए।
5. संिधै ावनक पदों की मयाभदा पर वनंदापणू भ वटप्पवणयां निीं िोनी चाविए।
6. वमत्र राष्रों की आलोचना से भी बचना चाविए।
7. के न्द्र या राज्य सरकार की आलोचना निीं िोनी चाविए।

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रे वडयो और टी.िी. समाचारों के वलए एक उत्तम िाचन की आिश्यकता िोती िै। िाचक
की आिाज प्रभािशाली और शद्ध ु िो, जो प्रस्ततु ीकरण के साथ सामजं स्य वबिा सके । ऐसी अपेक्षा
खासतौर पर टी.िी. में िोती िै। िाचन में आत्मविश्वास, भािानरू ु प स्िर का आरोि-अिरोि, कथ्य-
सामग्री के अनसु ार गवत तथा प्रसंगानसु ार ओज और माधयु भ िोना चाविए। इसी प्रकार इन दोनों प्रकार
की पत्रकाररता मे काम करने िाले पत्रकार को समाचारों की पृष्ठभवू म और विविध विषयों की
जानकारी िोनी चाविए। समाचारों का सपं ादन भी कुशलता से करना चाविए और दक्ष सपं ादकों को
यि काम करना चाविए। भाषा भी सरल और संप्रेषणीय िोनी चाविए। प्रभािी और त्रवु टिीन भाषा का
प्रयोग करना चाविए, पनु रािृवत्त से बचना चाविए। िाक्य संवक्षप्त िों क्योंवक छोटे-छोटे िाक्य सरलता
से बोले जा सकते िैं और शीघ्रता से समझे जा सकते िैं। एक िाक्य में एक िी प्रकार की सूचना िोनी
चाविए। बार-बार नाम के साथ-साथ पद के उल्लेख से बचना चाविए। यिी निीं ध्िवन-साम्य शब्दों
का भी प्रयोग निीं करना चाविए। रे वडयो समाचारों और कायक्रमों के सबं धं में यि आिश्यक िै वक
वक्लि शब्दों का प्रयोग न िो क्योंवक श्रोता के पास शब्दकोश देखने का समय निीं िोता और दसू रे
ििां वचत्र सामने निीं िोता जो सब कुछ बता दे। उपयभक्त ु , उक्त, वनम्नवलवखत, वनम्नांवकत, वकंतु,
परंत,ु तथावप आवद शब्दों का वलवखत मित्ि िो सकता िै लेवकन रे वडयो पत्रकाररता में बोलने की
दृवि से इनका मित्ि नगण्य िै। इनका प्रयोग निीं करना चाविए। टी. िी. पत्रकाररता में आंकड़ों का
प्रयोग चल सकता िै क्योंवक ििां श्रव्य और दृश्य दोनों िोता िै लेवकन रे वडयो पत्रकाररता में आक ं डों
का प्रयोग अत्यल्प करना चाविए अन्यथा रोचकता के समाप्त िोने का डर रिता िै। टी. िी.
पत्रकाररता के वलए पत्रकार को लेखन, शब्द, ध्िवन, टी.िी. तकनीक, टी.िी. कै मरा आवद का ज्ञान
िोना चाविए।
आज रे वडयो पत्रकाररता में शालीनता और नैवतकता पर अपेवक्षत बल िै लेवकन टी.िी.
पत्रकाररता में शालीनता और नैवतकता की सीमाएं टूट रिीं िैं। दशभकों को बांधे रखने के वलए नए-नए
तरीके अपनाए जा रिे िैं। कई देशों (कनाडा, रूस) मे नेकेड समाचार प्रसारण िोता िै और ऐसी
पत्रकाररता िी आज श्रेष्ठ मानी जाने लगी िै और अच्छी पत्रकाररता आज र्ाटे का व्यापार िो गया
िै। सनसनी और मसालेदार खबरें टी.िी. पर विवभन्न चैनलों पर बार-बार वदखाई जाती िैं। अपराध
के समाचार देखना, उन पर आधाररत विशेष ररपोटभ देखना आज लोगों की रुवच में सबसे ऊपर िै।
टी. िी. पत्रकाररता इसे लगातार परोस रिी िै। प्रवतस्पधाभ और टी. आर. पी. (टेली रे वटंग प्िाइटं ) के
इस दौर में सब जायज िो गया िै और यि सब कायभक्रम बच्चे भी देखते िैं, बड़े भी और बढ़ू े भी।
इसी पर प्रकाश डालते िुए दीनानाथ वमश्र वलखते िै वक ‘असल में पवश्चमी पत्रकाररता नशेड़ी िो गई
िै। जब तक ऐसी रोमांस भडं ाफोड़ कथाएं उसे न वमले तब तक यि पत्रकाररता छटपटाती रिती
िै।......अब अखबारों को तो लत िो गई िै। ऐसे समाचारों की पािकों को भी लत िो गई िै। सो कोई
न कोई स्कैं डल इस व्यिस्था के चालू रिने के वलए जरूरी िै। कोई तबाि िो जाए, उनकी बला से।
कोई मर जाए, मरा करे । इन्िें तो चटपटे सैक्स मसाले की चाट का धंधा करना िै। इससे दवु नया भर के

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लोगों की मानवसकता पर असर पड़ता िै। पड़ा करे , इनके िें गे से। यि अपनी तरि की पत्रकाररता
करते जाएगं े क्योंवक इनके ख्याल से बाजार की यि मांग िै। िालांवक यि मांग इन्िोंने िी बनाई िै।’
(पृ.147) आज टी.िी. पत्रकाररता में ऐसी िी पत्रकाररता िी अवधक मख ु र िै। अब रे वडयो और
टी.िी. पत्रकाररता पर बड़े-बड़े मीवडया संस्थानों का कब्जा िै िालांवक दरू दशभन और आकाशिाणी
अभी भी इन सबसे काफी बचे िुए िैं।
18.6.2 वीहियो पत्रकाररता
इस पत्रकाररता की शरू ु आत 19 िीं सदी के निें दशक में िुई वजसका पररणाम यि िुआ
वक यि पत्रकाररता लोगों के मन को आकवषभत करने लगी। भारत में इसका उदय िीवडयो पत्रकाररता
के रूप में िुआ। अग्रं ेजी में ‘इनसाइट’ और ‘न्यजू रैक’ और विदं ी में ‘कालचक्र’ जैसी िीवडयो
समाचार पवत्रकाएं बाजार में आई।ं ‘लिरें ’ शीषभक से वफल्मी मनोरंजन और समाचारों से भरी िीवडयो
भी काफी सरािी गई।ं इनकी सफलता से प्रेररत-प्रभावित िोकर चेन्नई की ‘गणभवू म विजन’ ने
‘गणभवू म’ िीवडयो पवत्रका प्रारंभ की। यि रामायण, मिाभारत, िेद, परु ाण आवद से संबंवधत थी और
लोगों की आध्यावत्मक चेतना को विकवसत कर रिी थी। अनंत पै ने ‘अमर वचत्रकथा’ ‘ट्विक ं ल’
जैसी बाल िीवडयो पवत्रकाएं वनकालीं जो बच्चों के स्िस्थ मनोरंजन को के न्द्र में रखे िुए थीं।
‘ट्विक ं ल टाइम विद अक ं ल पै’ नामक शृख ं ला इस वदशा में एक मित्िपणू भ कदम थी। अयोध्या
कांड, मिम कांड, मडं ल आयोग और खाड़ी यद्ध ु के पररणामस्िरूप इस पत्रकाररता ने काफी
लोकवप्रयता िावसल की। लोगों ने रुवच के साथ इन पर आधाररत पवत्रकाओ ं को देखा वजसका
व्यापक प्रभाि लोगों पर पड़ा। िीवडयो पत्रकाररता का सबसे बड़ा लाभ यि था वक इसमें समाचार
िाचक समाचार तो पढ़ता िी था, बवल्क अपनी वटप्पणी स्ितत्रं रूप से भी दे सकता था। उसका
चेिरा भारतीय दरू दशभन के समाचार िाचक के समान भाििीन तथा तटस्थ निीं था। इसमें श्रोताओ ं
से संिाद स्थापन की गजंु ायश थी और चेिरे की भाि-भवं गमा, आिाज के उतार-चढ़ाि से अवतररक्त
संप्रेषण की अपेक्षा भी थी।
18.6.3 अंतररक्ष पत्रकाररता
इसे ‘स्पेस जनभवलज्म’ या ‘उपग्रि पत्रकाररता’ भी किा जाता िै। इसमें उपग्रि के िारा प्रेवषत
संिाद वदन-रात रे वडयो और दरू दशभन से सनु ा और देखा जा सकता िै। इसका सबसे बड़ा लाभ यि
िुआ वक लंबे लेख, समाचार आवद एक स्थान से दसू रे स्थान पर भेजना न के िल सगु म और तीव्र िो
गया बवल्क मद्रु ण िेतु साचं ों की प्रवतच्छाया भी एक कें द्र से दसू रे कें द्र पर भेजना सगु म िो गया। इस
प्रकार एक िी समाचारपत्र के कई संस्करण एक िी साथ अनेक स्थानों पर प्रकावशत िोना संभि िो
गया। दृश्य, सपं ादन, पृष्ठ सज्जा, लेखन सभी एक िी स्थान पर बैिे व्यवक्तयों के िारा इलेक्रॉवनक
विवधयों िारा िोने लगा और दसू रे देशों, स्थानों के लोगों को उसका लाभ वमलने लगा। फोटो
रांसमीटर से यि लाभ वमला वक एक देश में खेले जा रिे मैच के वचत्र कुछ िी र्टं ों में दसू रे देशों के

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समाचारपत्रों में प्रकावशत िोने लगे और टी. िी. पर प्रसाररत िोने लगे। रंगों, गलेज्ड पेपर और
ग्रावफक्स का विवभन्न संचार माध्यमों में प्रयोग िोने लगा। निीनता का समािेश समाचारपत्रों में
विवभन्न रूपों में िोने लगा।
18.6.4 वेब या अंतरजाल पत्रकाररता
यि पत्रकाररता 21 िीं सदी की विवशि देन िै। इसे ऑनलाइन पत्रकाररता या इटं रनेट
पत्रकाररता भी किा जाता िै। इसमें काम करने के वलए पत्रकार को न के िल िेब लेखन में पारंगत
िोना चाविए बवल्क िेब प्रकाशन में भी दक्ष िोना चाविए। अतं रजाल पत्रकाररता के वलए पामटॉप,
लैपटॉप, वडजीटल कै मरा, बेतार उपकरणों, मल्टी मीवडया, सचभटूल्स आवद की प्रयोगात्मक
जानकारी िोनी चाविए। आज अवधकाश ं समाचारपत्र ऑनलाइन समाचारपत्र प्रकावशत-प्रसाररत
करते िैं। अंतरजाल पत्रकाररता इटं रनेट पर आधाररत िै वजसमें तकनीक की प्रधानता िै। इसी
तकनीक का उपयोग कर पत्रकार समाचार लेखन कर सकता िै और पािक आसानी से कोई भी
समाचार पढ़ सकता िै और तत्काल प्रवतवक्रया दे सकता िै। आज विवभन्न समाचारपत्र और टी. िी.
न्यजू चैनल वनःशल्ु क सेिाएं प्रदान कर रिे िैं। इस प्रकार के समाचारपत्र को इलेक्रॉवनक समाचारपत्र
किा जाता िै। डॉ. अजनभु वतिारी वलखते िैं वक ‘ज्ञान के साथ-साथ प्रवतवदन की र्टनाओ ं को
पािकों तक पिुचं ाने की मित्िाकांक्षी योजना का नाम िी ‘इलेक्रॉवनक अखबार’ िै।’ (पृ0-16)
अतं रजाल पत्रकाररता में विज्ञापन अवनिायभ रूप से सामने आता िै। लेवकन आप उसे िटा
सकते िैं और अपना परू ा ध्यान समाचार, फीचर, लेखों आवद पर लगा सकते िैं। अतं रजाल
पत्रकाररता में पिले यि वदक्कत थी वक पेज का निीकरण मदं गवत से िोता था लेवकन आज ऐसी
वस्थवत निीं िै। बाजार का दबाि, विज्ञापनों की अवधकता, सनसनी और मसालेदार सामग्री
ऑनलाइन समाचारपत्रों में अक्सर देखने को वमलती िै। अतं रजाल पत्रकाररता के उदय िोने से
समाचारपत्रों के प्रसार-प्रचार पर प्रभाि तो अिश्य पड़ा िै तथावप उनका मित्त्ि कम निीं िुआ िै।
ितभमान में दोनों परस्पर परू क बन गए िैं। इस देश में अभी भी अवधकांश जनता अखबार इटं रनेट पर
देखने की अपेक्षा खरीदकर पढ़ती िै। डॉ. िीणा गौतम वलखती िैं वक ‘अखबार आज भी सस्ते िैं,
भविष्य में भी सस्ते रिेंग।े आज भी इनकी पिुचं सिभिारा िगभ के उस आवखरी आदमी तक िै, जो
सचू ना पाने की वपपासा में पंवक्त के आवखरी छोर पर खड़ा िै और भविष्य में भी उसी आवखरी वबंदु
के अत्ं यज तक अगर सचू ना पिुचाने का कायभ कोई बखबू ी कर सके गा, तो िे अखबार िी िोंगे, वप्रंट
मीवडया िी िोगा।’ (सचू ना प्रौद्योवगकी, विदं ी और अनिु ाद, पृ.117)
िास्ति में फै क्स और टेलीफोन की अपेक्षा इटं रनेट ने पत्रकाररता को तीव्रता दी िै, गवत दी
िै। ‘इटं रनेट’ आज पत्रकारों को िि सामग्री भी उपलब्ध करिा रिा िै वजसकी कल्पना तक पत्रकारों
को निीं थी। समय की बचत और अनिु ाद करने में सवु िधा आज इटं रनेट की मित्त्िपूणभ देन िै। ई-
पत्रकाररता में अब पत्रकार विवभन्न संचार संसाधनों से युक्त िै। अब उसके पास मोबाइल फोन,

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फै क्स, लेपटॉप, पेजर, इटं रनेट, ईमेल की सवु िधा िै। डॉ.अजभनु वतिारी के अनसु ार ‘कुछ वदन पिले
तक साइवकल पर दौड़ते संिाददाता दृविगत िोते थे। गांि-गांि, तिसील, कस्बे से वलफाफे आते थे,
संपादकीय विभाग पोस्ट ऑवफस बना रिता था जिां पत्रों की छंटनी िोती थी। कुछ िररष्ठ पत्रकार
वचल्ला-वचल्लाकर, रंककाल पर समाचार भेजते तो कुछ टेलीग्राफ करते थे। असवु िधाओ ं िाला
संपादकीय कायाभलय िोता था, कंपोवजगं कक्ष तो काजल की कोिरी िोती जो ििां से वनकलता
कावलख लगाए रिता था। खरु दरु े -मटमैले कागज पर उपसपं ादकों की टोली साधनारत रिती थीं।’
(पृ.11) इन सारी वस्थवतयों को चमत्कारी ढंग से ई-पत्रकाररता ने बदलकर रख वदया िै। अब कलम
और स्यािी का स्थान कंप्यटू र ने ले वलया िै, उसी पर प्रफ ू रीवडंग िो जाती िै और उसी पर पेज
मेंवकग और उसी से समाचार, फीचर आवद प्रकावशत िोने के वलए मद्रु ण िाले स्थान पर भेज वदए
जाते िैं। अन्यत्र िे वलखते िैं वक अब ‘मानि अपने विचारों को ईमेल से प्रेवषत कर सके गा। वडजीटल
नई तकनीक िै वजससे मशीन और मनष्ु य के बीच सिं ाद स्थावपत िो सकता िै। ‘बाइट’ अब सचू ना
प्रेषण की मित्िपणू भ इकाई िै। ‘बाइटस’ िारा मानि से मानि, मशीन से मानि, मशीन से मशीन के
मध्य संिाद िो सके गा। कंप्यटू र अब भारी-भरकम निीं िोगा। इसे रूमाल की तरि जेब में रखा ओर
‘िाल पेपर’ की तरि लटकाया जा सके गा। पत्रकार अब तकनीकी दृवि से सक्षम, साधन सपं न्न िो
चला िै।’ (पृ.11) आज सचू नाओ ं का मथं न कर उपभोक्ता के वलए उपयक्त ु सचू ना वनकालना अब
सरल निीं िै। तकनीक के प्रयोग ने इसे जवटल बना वदया िै। सचू ना पाने, संभालने और उसे समाचार
के रूप में ढालना अब एक व्यवक्त के िाथ में निीं िै, बवल्क यि काम संस्थानों ने संभाल वलया िै।
अब अलग-अलग विशेषज्ञ चाविए, अलग-अलग विश्ले षक चाविए और अलग-अलग संपादक
चाविए, जो खेल, अथभ, राजनीवत आवद पर अपनी सशक्त और बेबाक वटप्पणी दे सकें । अब समाचार
को जल्दी से जल्दी िस्तवु नष्ठ रूप में पािक तक, संग्रािक तक पिुचं ाने की वजम्मेदारी संिाददाताओ,ं
संपादकों और प्रबंध संपादकों की िै। अब शीघ्रता, निीनता और त्िरा का मित्ि िै, समय का
सिाभवधक मित्ि िै। ई-पत्रकाररता के मल ू में कंप्यटू र िै वजससे सचू ना, आकं डें, वचत्र, गीत-संगीत
सभी में अद्भुत बदलाि आया िै। प्रकाशन, वचत्रण और विश्लेषण-संपादन में कंप्यटू र का योगदान
नकारा निीं जा सकता। अब इटं रनेट पर समाचारपत्र पढ़ने और उसे डाउनलोड करने की सवु िधा िै
वजसने पत्रकाररता को गवतशील बना वदया िै।
इटं रनेट के आगमन से अब संिाददाताओ ं पर वनभभरता कम िोने लगी िै। साथ िी भ्रामक
समाचारों से बचना संभि िो पाया िै। इसी प्रकार समाचारों के संकलन एिं विश्ले षण में पािक की
भवू मका बिुत मित्त्िपणू भ निीं िोती थी जबवक आज व्यवक्त इटं रनेट करोड़ों लोगों के साथ वमलकर
सचू ना-समद्रु में गोता लगाकर अपनी मनचािी सचू नाएाँ प्राप्त कर सकता िै। अब संिाददाता को
अवधक सचेत रिना पड़ता िै। कारण, आज का पािक इटं रनेट पर सचू नाओ ं से वनरंतर संपकभ में रिता
िै। इटं रनेट के माध्यम से वकसी भी पािक को विश्व की अनेकानेक र्टनाएाँ विवभन्न स्रोतों से वनरंतर
प्राप्त िोती रिती िैं जबवक संिाददाता वनवश्चत समय-सीमा में बाँधकर कायभ करने के वलए बाध्य िै।

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उसे वनधाभररत स्थान के अनरू ु प िी अपना समाचार वलखना िोता िै। उसे अपने परू े पािकिगभ की
रुवच को भी ध्यान में रखना पड़ता िै। समाचारपत्रों का प्रकाशन भी एक वनयत समय पर वनयवमत
रूप से करना आिश्यक िै। दसू री ओर इटं रनेट के वलए कोई समय-सीमा निीं िै। यिी कारण िै वक
अब प्रातःकाल समाचारपत्र आने से पिू भ िी अवधकांश पािकों को उन समाचारों की जानकारी
इटं रनेट अथिा दरू दशभन के माध्यम से वमल चक ु ी िोती िै। इटं रनेट के बढ़ते प्रभाि के कारण
सपं ादकीय विभाग पर भी पािकों की रुवच को बनाए रखने के वलए वनरंतर दबाि बढ़ रिा िै। इसी
कारण आजकल समाचारपत्रों के कलेिर, साज-सज्जा, स्तंभ आवद में व्यापक पररितभन वदखाई देने
लगा िै। कम्प्यटू र और इटं रनेट के आविष्कार से पिू भ अवधकतर पत्रकारों को अपने वदन-प्रवतवदन के
समाचारों की पृष्ठभवू म वलखने के वलए मख्ु यतः अपनी स्मरण-शवक्त पर वनभभर रिना पड़ता था। कई
बार िे अनुमान का सिारा लेते थे लेवकन आज इटं रनेट के कारण सब कुछ सिज और सरल िो गया
िै। वकसी भी र्टना से सबं वं धत तथ्य और आाँकड़े डाटा बैंक से सिज िी उपलब्ध िो जाते िैं। इस
समय इटं रनेट विचारों की स्ितंत्र अवभव्यवक्त का सिाभवधक प्रभािशाली माध्यम िै और धीरे -धीरे
इसने र्र-र्र में स्थान बनाना प्रारंभ कर वदया िै। अब इटं रनेट पर समाचारपत्रों में मवु द्रत समाचार पढ़े
जा सकते िैं। अनेक संिाद सवमवतयााँ अब अपने स्तंभ लेखकों एिं सिं ाददाताओ ं पर वनभभर रिने की
अपेक्षा इटं रनेट के माध्यम से सचू नाओ ं का आदान-प्रदान कर रिी िैं। विवभन्न कें द्रों को परस्पर
जोड़कर समाचार सवमवतयााँ सिज िी अपने ग्रािकों को त्िररत सेिा उपलब्ध करिा सकती िैं।
इटं रनेट का एक लाभ यि भी िुआ िै वक अब विवभन्न सोशल साइट्स, जैसे फे सबक ु , ट्विटर आवद
पर लोग अपनी बात किने लगे िैं। समाचारों को देने लगे िैं। अब लोगों के पास अपनी न्यजू
िेबसाइट बनाने का विकल्प भी उपलब्ध िै। इस प्रकार इटं रनेट ने एक िैकवल्पक पत्रकाररता को
जन्म देकर लोगों को अवभव्यवक्त का एक विशाल आकाश प्रदान वकया िै। जो समाचार रे वडयो,
टी.िी., समाचारपत्रों िारा वछपा वलए जाते िैं िे सोशल साइट्स पर उजागर िो जाते िैं। अवभषेक मनु
वसंर्िी की सीडी से जड़ु ा मामला इस संदभभ में जीितं उदािरण िै। विवकलीक्स की साइट ने
अतं रजाल पत्रकाररता को एकदम से सारे संसार के के न्द्र में ला खड़ा कर वदया। विवकलीक्स ने न
के िल आश्चयभजनक सचू नाएं विश्व-समाज को प्रदान कीं बवल्क परंपरागत पत्रकाररता और रे वडयो ि
टी.िी. पत्रकाररता को भी पीछे छोड़ वदया। विश्व की संचार व्यिस्था में पिली बार ऐसा िुआ वक
परंपरागत पत्रकाररता और रे वडयो और टी.िी. पत्रकाररता अतं रजाल पत्रकाररता का अनुिती बनी।
अतं रजाल पत्रकाररता ने विवभन्न जनादं ोलनों को गवत दी िै और समाज को विवभन्न मद्दु ों पर एक
वकया िै। वमस्त्र का तख्तापलट, लीवबया की रक्त क्रांवत, अन्ना का आदं ोलन, टयनू ीवशया का
शावं तपिू क
भ तख्तापलट सभी में यि समाज का सियोगी और र्टनाओ ं का तत्काल साक्षी बना िै।
अतं रजाल पत्रकाररता में सबसे बड़ी परे शानी यि िै वक ‘िेबसाइट और इटं रनेट पर वकसी भी सचू ना
को पाने, पकड़ने, प्रसाररत करने के वलए लंबे समय तक अिांवछत एिं अनािश्यक सूचनाओ ं के
रोल को र्मु ाना पड़ता िै। स्क्रीन पर सचू नाएं आधं ी की तरि, वटड्डी दल की तरि उमड़ने लगती िैं,
उनमें से अपने मतलब की सचू ना को पाने-पकड़ने में जरा-ज्यादा आख ं -वमचौली, माथापच्ची करनी

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पड़ती िै, उंगवलयों को माउस पर तथा टंकण बटनों पर जरा-ज्यादा िी र्मु ाना पड़ता िै।’ (डॉ.िीणा
गौतम, पृ0-117) स्पि िै वक अतं रजाल पत्रकाररता में अपार सचू नाएं उपलब्ध िोती िैं और तेज
गवत से उपलब्ध िोती िै वक पािक उनका परू ी तरि आनंद निीं ले पाता लेवकन एक सचू ना को बार-
बार देख कर पढ़ने का आनंद अिश्य अंतरजाल पत्रकाररता में िोता िै। संिदे नात्मक संबंध इस
प्रकार की सचू नाओ ं में निीं बन पाता, कभी सचू नाएं कृ वत्रम, अधरू ी और आधारिीन भी िोती िैं जो
पािकों को भ्रवमत कर देती िैं। यिी कारण िै वक आज इटं रनेट पर सेंसर की बात की जाने लगी िै।
अभ्यास प्रश्न:

(ग) रे वडयो और टीिी पत्रकाररता पर प्रकाश डावलए।


(र्) अतं रजाल पत्रकाररता क्या िै तथा इसने पत्रकाररता को वकतना प्रभावित वकया िै।

18.7 सारांश
ई-पत्रकाररता मल ू रूप से इलेक्रॉवनक पत्रकाररता िै वजसमें रे वडयो पत्रकाररता, टी.िी.
पत्रकाररता, िीवडयो पत्रकाररता, अतं ररक्ष पत्रकाररता, अतं रजाल पत्रकाररता शावमल िै। यांवत्रकता,
तात्कावलकता और निीनता की इसमें प्रधानता िै। यि श्रव्य भी िै, दृश्य भी िै, श्रव्य-दृश्य और
पाि्य तीनों भी िै। टी.िी. और इटं रनेट पत्रकाररता में आप ये तीनों रूप देख सकते िैं। ई-पत्रकाररता
को गवत देने में विवभन्न संचार माध्यमों का योगदान रिा िै। इसमें रे वडयो, टी.िी., इटं रनेट, बिुमाध्यम
को वलया जा सकता िै वजनके कारण ई-पत्रकाररता वनरंतर गवतशील िै और लोकवप्रय भी िो रिी िै।
रे वडयो एक श्रव्य माध्यम िै लेवकन सस्ता और दरू दराज तक आसानी से अपनी पिुचं बनाने िाला
माध्यम िै। टेलीविजन और इटं रनेट दृश्य-श्रव्य और पाि्य तीनों िैं लेवकन टी.िी. का दृश्य अवधक
आकवषभत करता िै। इटं रनेट और बिुमाध्यम में पढ़े-वलखे लोगों का मित्ि अवधक िै। ये दोनों
माध्यम अतं ःवक्रयात्मक िैं इसवलए अवधक उपयोगी वसद्ध िो रिे िैं। रे वडयो और टी.िी. दोनों को
अपार लाभ इटं रनेट ने वदया िै।
रे वडयो पत्रकाररता में शब्द की सत्ता िै, िि भी उच्चररत शब्द की। वप्रंट मीवडया की लेखन
सबं धं ी अवधकाश ं विशेषताएं िोने के बािजदू रे वडयो और टी.िी. श्रव्यता और दृश्यता से बधं े िैं।
अतः इनके वलए लेखन करने िाले पत्रकार और इनमें काम करने िाले पत्रकार को रे वडयो और
टी.िी. पत्रकाररता की अवतररक्त खवू बयों को जानना िोगा तभी उसमें पत्रकार को अवधक सफलता
वमल पाएगी। िीवडयो पत्रकाररता थोड़े समय के वलए सामने आई और उपग्रि पत्रकाररता के विकास
िोने से तथा अंतरजाल पत्रकाररता के विकास िोने से इसका मित्ि आज उतना निीं िै वजतना सन्
1990 के दशक में रिा था। अतं रजाल पत्रकाररता ने पत्रकाररता का स्िरूप िी बदल वदया िै लेवकन

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वफर भी अखबार का मित्ि अतं रजाल पत्रकाररता कम निीं कर पाई िै। सचू नाओ ं की अवधकता
और संिदे ना का अभाि इस पत्रकाररता में विशेष दोष िैं। वफर भी यि लोकवप्रय िै।

18.8 शब्दावली
सशक्त - मजबतू
यांवत्रक - यंत्र संबंधी
संप्रेवषत - विचारों को दसू रों तक पिचाना
वनरक्षर - जो पढ़ा वलखा ना िो
स्िचावलत - स्ियं चलने िाला

18.9 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


(क) देवखए मख्ु य शीषभक 1.3 और उपभाग 1.4
(ख) देवखए मख्ु य शीषभक 1.6
(ग) देवखए मख्ु य शीषभक 1.6 का उपभाग 16.1
(र्) देवखए मख्ु य शीषभक 1.6 का उपभाग 1.6.4

18.10 संदर्भ ग्रं थ


संपा. प्रो. रमेश जैन, (2007), जनसंचार विश्वकोश, नेशनल पवब्लवशगं िाउस, जयपरु
डॉ.अजनभु वतिारी, (2002), ई जनभवलज्म, संजय बक
ु सेंटर , िाराणसी
डॉ.चन्द्रप्रकाश वमश्र,(2003), मीवडया लेखन: वसद्धांत और व्यििार, संजय प्रकाशन,
वदल्ली
डॉ.चन्द्रप्रकाश वमश्र, (2006) संचार और संचार माध्यम, संजय प्रकाशन, वदल्ली
िेद प्रकाश वमश्र, (2007), विदं ी पत्रकाररता: आधवु नक संदभभ, स्िराज प्रकाशन, वदल्ली
संपा. डॉ. संजीि भानाित,(2005) इलेक्रॉवनक मीवडया, जनसंचार के न्द्र , जयपरु

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सपं ा. डॉ. परू नचदं टंडन, (2004) सचू ना प्रौद्योवगकी, विदं ी और अनिु ाद, भारतीय अनिु ाद
पररषद, वदल्ली

18.11 उपयोगी पाठ्य सामग्री


डा. राजेंद्र वमश्र, रे वडयो लेखन
डा. वस्मता वमश्र, अमरनाथ अमर, इलेक्रॉवनक मीवडया: बदलते आयाम
डा. देिव्रत वसंि, भारतीय इलेक्रॉवनक मीवडया
डा. नीरजा माधि, रे वडयो का कलापक्ष
सरु े श कुमार, इटं रनेट पत्रकाररता

18.12 हनबं धात्मक प्रश्न


क. ई-पत्रकाररता से आप क्या समझते िैं विस्तार से समझाइये तथा पत्रकाररता एिं
इटं रनेट पत्रकाररता के अन्तसभम्बन्धों की वििेचना कीवजए .
ख. ई-पत्रकाररता के विविध रूपों की व्याख्या करते िुए ितभमान जीिन के संबंध में
इसकी उपयोवगता एिं प्रासंवगकता प्रवतपावदत कीवजए

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इकाई 19 टिदी पत्रकाहरिा का इहििास
इकाई की रूपरे खा
19.1 प्रस्तािना
19.2 उद्देश्य
19.3 पत्रकाररता का अथभ एिं िगीकरण
19.4 विदं ी पत्रकाररता का इवतिास
19.4.1 कालविभाजन एिं नामकरण
19.4.2 इवतिास
19.5 मल्ू यांकन
19.6 सारांश
19.7 शब्दािली
19.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
19.9 संदभभ ग्रन्थ सचू ी
19.10 उपयोगी पाि्य सामग्री
19.11 वनबंधात्मक प्रश्न

19.1 प्रस्तावना
आज का यगु मीवडया का िै। मीवडया यानी माध्यम । माध्यम यानी संचार। संचार यानी
पत्रकाररता। पत्रकाररता का सामान्य अथभ सचू ना देना िोता िै। जब वकसी र्टना के तथ्य को उसकी
सम्पणू तभ ा में दसू रों तक पिुचं ाया जाता िै तो उसे पत्रकाररता किा जाता िै। संचार शब्द की
अथभव्यिस्था भी लगभग िैसी िी िै जैसी पत्रकाररता की। संचार का अथभ िै - र्टना को जन-सामान्य
तक संचररत करना या संप्रेवक्षत करना। मीवडया को आजकल प्रायः इन सभी शब्दों से ज्यादा
स्िीकृ वत वमल गई िै। यि माध्यम वजससे वकसी र्टना, पररवस्थवत या भािना/संस्कृ वत को समान रूप
से सबके बीच पिुचं ाया जाये उसे िम मीवडया किते िैं। अपने शरू ु आती दौर में मीवडया का अथभ
सचू ना देना िोता था वकन्तु धीरे -धीरे इसका क्षेत्र विस्तृत िोता गया। वपछली इकाइयों में आपने आज
की पत्रकाररता से पररचय प्राप्त कर वलया िै। इस इकाई में आप विदं ी पत्रकाररता, खासतौर से वप्रन्ट
मीवडया के इवतिास से पररचय प्राप्त करें ग।े

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19.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप -

 पत्रकाररता के अथभ को समझ सकें गे ।


 पत्रकाररता के िगीकरण से पररवचत िो सकें गे ।
 विदं ी वप्रन्ट मीवडया का इवतिास जान सकें गे ।
 विदं ी पत्रकाररता के उद्देश्य एिं मित्ि से पररवचत िो सकें गे ।
 पत्रकाररता के पाररभावषक शब्दों से पररचय प्राप्त कर सकें गे ।
 विदं ी के प्रमखु समाचार पत्रों एिं पत्रकारों के योगदान से अिगत िो सकें गे ।

19.3 प काहरता का अथभ एवं वगीकरण


पिू भ में आप पढ़ चक ु े िैं वक पत्रकाररता का अथभ मख्ु यतः सचू ना के आदान-प्रदान से जड़ु ा
िुआ िै। वकसी र्टना के तथ्य, कारण एिं उपयोवगता की जांच करना पत्रकाररता का मल ू कत्तभव्य िै।
र्टना की सचू ना देना पत्रकाररता के छः ककार, मित्िपूणभ िैं। ये छः ककार िैं - क्या, कब, किााँ ,
वकससे, वकसने, क्यों। अथाभत् कोई र्टना र्टी तो क्या र्टना ? र्टना कब र्टी ? र्टना किााँ र्टी ?
र्टना का वजम्मेदार कौन िै ? र्टना का असर वकस पर िुआ िै ? और र्टना के पीछे िास्तविक
कारण क्या िैं ? इस प्रकार िम देखते िैं वक वकसी र्टना के पीछे वछपे मल ू तथ्यों पर प्रकाश डालना
िी पत्रकाररता का मल ू उद्देश्य िै न वक के िल सचू ना देना। इस दृवि से पत्रकाररता के उद्देश्य वस्थर
करते िुए किा गया िै वक पत्रकाररता का कायभ िै - सचू ना देना, र्टना के पीछे वछपे कारणों की
तालाश करना, र्टना के प्रवत लोगों को जागृत करना, र्टना के पक्ष या विपक्ष में लोगों को जागरूक
करना, जनता की रूवच वनमाभण करना और उन्िें वदशा देना। अतः जब भी पत्रकाररता के अथभ की
बात िोगी, िमारे सामने उसके उद्देश्य िोंगे। पत्रकाररता अपने श्रेष्ठ रूप में जन-सामान्य को िाद-
वििाद का मचं देकर उन्िें वकसी र्टना के प्रवत जागरूक करने का कायभ करता िै। इसके पश्चात्
प्रवतबद्ध पत्रकाररता जनता को सत्य तक पिुचाँ ने के वलए वदशा-वनदेवशका का कायभ भी करती िै। इस
दृवि से पत्रकाररता अपने इस मिान उद्देश्य से भटक कर ज्यादा मनु ाफा कमाने में लगी िुई िै। मल्ू य
वनमाभण से दरू आज की पत्रकाररता सेक्स, विसं ा एिं अथभ के बाजारीकरण के इदभ-वगदभ र्मू रिी िै जो
वचन्ताजनक िै।
पत्रकाररता का वगीकरण 1.वप्रन्ट मीवडया 2.इलेक्रॉवं नक मीवडया 3.ई-पत्रकाररता
पत्रकाररता का यि विभाजन स्थल ू तः वकया गया िै। समाचार पत्र,पवत्रकाएं , पम्पलेट इत्यावद वप्रन्ट
मीवडया के अन्तगभत आते िैं। टी.िी., वफल्म इत्यावद इलेक्रॉंवनक मीवडया के अन्तगभत तथा कम्प्यटू र,

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इन्टरनेट, ब्लॉग, ट्िीटर इत्यावद ई-मीवडया के अन्तगभत। इसके भी अिान्तर का विषय पत्रकाररता के
इवतिास का वििेचन करना िै।

19.4 हिदी प काहरता का इहतिास


पत्रकाररता के इवतिास को मनष्ु य के सामावजक विकास से जोड़ कर देखा गया िै।
पत्रकाररता के इवतिास की खोज करते िुए कभी इसे परु ाण (नारद में) तो कभी मिाकाव्य (मिाभारत
के संजय की वदव्य-दृवि) में खोजा गया िै, वकन्तु आधवु नक पत्रकाररता की कसौटी पर ये तकभ ध्िस्त
िो जाते िैं। अशोक के वशलालेख, बौद्ध धमभ के उपदेश या मगु लकाल के ‘अखबारनिीस’
प्राचीनकालीन पत्रकाररता के िी रूप िैं। आधवु नक पत्रकाररता का संबंध मद्रु ण कला से िै। इस दृवि
से चीन में प्रकावशत ‘पेवकंग गजट’ समाचार पत्र विश्व का पिला मवु द्रत समाचार पत्र माना जाता िै।
इसके पश्चात् इग्ं लैण्ड एिं अमरीका में कई समाचार पत्र प्रकावशत िुए। जिॉं तक भारतीय आधवु नक
पत्रकाररता की बात िै इसका विकास भारतीय राजदरबारों के माध्यम से न िोकर अग्रं ेजों के ईसाई
वमशनररयों िारा िुआ िै। इनका उद्देश्य चािे धावमभक रिा िो या साम्राज्यिादी या दोनों, लेवकन इनके
साइक्लोस्टाइल (पचे) िारा भारतीय पत्रकाररता का विकास िुआ, इसमें से पिू भ उसके कालविभाजन
एिं नामकरण की समस्या पर विचार करें ।
19.4.1 कालहवभाजन एवं नामकरण
पत्रकाररता के इवतिास में काल विभाजन एिं नामकरण का मित्ि असाधारण िै। काल विभाजन एिं
नामकरण के िारा िम पत्रकाररता के इवतिास के विवभन्न मोड़ों, गवत विकास एिं हृास का विश्ले षण
कर सकते िैं क्योंवक पत्रकाररता समाज को समझने-बदलने का बौवद्धक उपक्रम िै। ‘समाचार पत्रों
का इवतिास पस्ु तक में प.ं अवम्बका प्रसाद िाजपेयी ने काल-विभाजन करते िुए इसे ’प्रारम्भ काल
के विदं ी पत्र, दसू रे दौर के पत्र नये यगु की झलक, दैवनक-पत्रों का यगु , आवद शीषभक वदया िै। ’विदं ी
सावित्य का िृित्त इवतिास’ (नागरी प्रचाररणी सभा) िारा प्रकावशत इवतिास में विदं ी पत्रकाररता का
काल-विभाजन इस प्रकार वकया गया िै -
प्रथम उत्थान (1826-1867), वितीय उत्थान (1867-1920) और आधवु नक काल (1920 के
बाद)। बालकुकुन्द गप्तु विदं ी पत्रकाररता का काल-विभाजन इस प्रका वकया िै - प्रथम चरण (1845-
1877 तक), वितीय चरण (1877-1890) तथा तृतीय चरण सन् 1890 के बाद। डॉ.रामरतन
भटनागर ने पत्रकाररता के चरणों को छः काल खण्डों में विभक्त वकया िै -
आरवम्भक यगु - 1826-1867
उत्थान एिं अवभिृवद्ध यगु - प्रथम चरण (1867-1883)

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वितीय चरण - (1833-1900)
विकास यगु - प्रथम चरण (1900-1921)
वितीय चरण - (1921-1935)
तथा आधवु नक यगु - अब तक
डॉ.कृ ष्णवबिारी वमश्र ने विदं ी पत्रकाररता का काल-विभाजन इस प्रकार वकया िै -
1 . भारतीय निजागरण और विदं ी पत्रकाररता का उदय (1826-1867)
2 . राष्रीय आदं ोलन की प्रगवत और दसू रे दौर की विदं ी पत्रकाररता (1867-1900)
3 . तथा बीसिीं शताब्दी का आरम्भ और विदं ी पत्रकाररता का तीसरा दौर।
‘स्ितत्रं ता आदं ोलन और विदं ी पत्रकाररता में’ में डॉ.अजभनु वतिारी ने इस प्रकार काल-विभाजन
वकया िै -
1 . बीज िपन काल (1826-1867)
2 . अक
ं ु रण काल (1867-1905)
3 . पल्लिन काल (1905-1926) तथा
4 . फलन काल (1930-1947)।
डॉ. रमेश जैन ने विदं ी पत्रकाररता का काल-विभाजन वनम्न चरणों में वकया िै -
1 . प्रारवम्भक यगु (1826-1867)
2 . भारतेन्दु यगु (1867-1900)
3 . वििेदी यगु (1900-1920)
4 . गांधी यगु (1920-1947) और
5 . स्िातंत्रयोत्तर यगु (1947 से अब तक)
विदं ी पत्रकाररता का काल-विभाजन अनेक आचायों ने वकया िै। मोटे तौर पर इसे चरणों में
विभावजत वकया जा सकता िै -

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प्रथम चरण - पृष्ठभवू म काल (1780 से 1825 ई. तक)
वितीय चरण - उद्भि काल (1826 से 1867 तक)
तृतीय चरण - भारतेन्दक
ु ाल (1867 से 1899 ई. तक)
चतथु भ चरण - वििेदी काल (1900 से 1920 ई. तक)
पंचम चरण - गांधी यगु (1921 से 1946 ई. तक)
षष्ठ चरण - स्िातन््योत्तर काल (1947 से 1989 ई. तक)
सप्तम् चरण - ई-पत्रकाररता/समकालीन पत्रकाररता (1990 से अब तक)
19.4.2 इहतिास
विदं ी पत्रकाररता के काल विभाजन एिं नामकरण का आपने अध्ययन कर वलया िै। अब िम प्रत्येक
काल के अनसु ार विदं ी पत्रकाररता की क्रवमक विकास-यात्रा का अध्ययन करें ग।े
प्रथम चरण (पृष्ठभवू म काल 1780-1825 ई.) इस काल के अतं गभत सन् 1780 से लेकर 1825 तक
के काल का िम अध्यियन करें ग।े भारत में समाचार.पत्रों की प्रारंवभक भवू म िोने का श्रेय कलकत्ता
को िै। कलकत्ते से अग्रं ेज जनरल जेम्स ऑगस्टक विकी ने 29 जनिरी 1780 को भारत का पिला
समाचार पत्र विकी गजट वनकाला। बंगाल से वनकलने के कारण इसे बंगाल गैजटे भी किा जाता िै।
सरकारी नीवतयों के विरोध के चलते विकी गजट बन्द िो गया लेवकन भारतीय पत्रकाररता के
इवतिास में विकी अमर िो गया। इस चरण में अन्य वनकलने िाले कुछ पत्र थे -
इवण्डया मैजटे 1780 प्रकाशक बी. मेवसंक और पीटर रीड
बंगाल जनरल 1785 टॉमस जोन्स
मैराइास कूररयर 1785 ररचाडभ जॉन्सटन
बॉम्बे िेरल्ड 1789
बॉम्बे कूररयर 1790
मैराइास गैजटे 1795 िम्फ्रीज
1780 से 1818 ई. तक के िल अग्रं ेजी भाषा में समाचार पत्र वनकले। इन सबके प्रकाशक अग्रं ेज थे
और एक तरि से इन्िें सरकारी पत्र िी किा जा सकता िै। देशी भाषा का प्रथम समाचार पत्र िोने का
गौरि वदग्दशभन नामक पत्र को िै। इसका प्रकाशन 1818 ई. में िुआ था। इसे जोशआ ु माशभमनै ने
प्रकावशत वकया था। वदग्दरशभन के प्रकाशन के कुछ वदनों बाद दो साप्ताविक पत्र भी बंगला में वनकले।
ये पत्र थे बगं ाल गैजटे और समाचार दपभण। बगं ाल गैजटे इस दृवि से मित्िपणू भ िै वक यि पिला
बंगाल पत्र था । सन् 1818 ई. में िी कै लकटा जनरल जेम्स वसल्क बवकंर्म के िारा प्रकावशत िुआ।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इस पत्र को राजा राम मोिन राय िारा सिायता प्राप्त थी। 1919 ई. के आसपास राजा राम मोिन राय
ने चार समाचारपत्रों का प्रकाशन शरू ु वकया वजसमें से तीन भारतीय भाषाओ ं के थे तथा एक अग्रं ेजी
का। सन् 1922 ई. में फारसी का पिला पत्र वमराउतल अखबार भी राजा राममोिन ने िी वनकाला
था। इस प्रकार िम देखते िैं वक इस काल में समाचार पत्र वनकलने लगे थे िांलावक संपादन के
मानकों को न परू ा कर पाने के बािजदू विदं ी पत्रकाररता में इनका अपना मित्ि िै।
हर्द्तीय चरण (उद्भि काल- 1826-1867 ई.) विदं ी पत्रकाररता की िास्तविक शरू ु आत इसी काल
से िोती िै इसीवलए इसे उद्भि काल किा गया िै। विदं ी के प्रथम पत्र की दृवि से उदडं मातभण्ड की
गणना की जाती िै। उदण्ड मातभण्ड का पिला अक ं 30 मई 1826 ई. को कलकत्ते से पं0
यगु लवकशोर शक्ु ल के सम्पादकत्ि में वनकला था। यि साप्ताविक पत्र था। 11 वदसम्बर 1827 ई. को
सरकारी कोप एिं आवथभक कविनाइयों के कारण इस पत्र को बदं करना पड़ा। उदतं मातभण्ड के बाद
मित्िपूणभ समाचार पत्र बंगदतू का प्रकाशन भी कलकत्ते से िी 10 मई 1829 ई. को िुआ। यि पत्र
चार भाषाओ ं में वनकलता था। इस पत्र के मल ू प्रेरक राजा राम मोिन राय थे तथा सम्पादक नीलरतन
िालदार थे। विदं ी क्षेत्र में वनकलने िाले पत्र की दृवि से बनारस अखबार (1845 ई.काशी) की गणना
की जाती िै। इस पत्र के प्रेरक राजा वशिप्रसाद वसतारे विदं थे। यि पत्र श्री गोवबन्द रर्नु ाथ थत्ते के
सपं ादन में प्रकावशत िोता था। इसके पश्चात तारामोिन वमत्र के सपं ादकत्ि में 1850 ई. सदासख ु लाल
के संपादकत्ि में बवु द्धप्रकाश का प्रकाशन मित्िपणू भ िै। समाचार सधु ािषभण विदं ी का पिला दैवनक
पत्र िै जो बाबू श्यामसन्ु दर सेन के सम्पादकत्ि में कलकत्ते से वनकला था। इस यगु के अन्य
मित्िपूणभ पत्रों में सिभवितकारक पत्र तथा क्रावन्तकारी अजीमल्ु ला खााँ के सपं ादन में पयामे आजादी
मित्त्िपणू भ िै।
तृतीय चरण भारतेन्दुकाल (1867-1899 ई.) भारतेन्दु िररश्चन्द्र के आगमन से पिू भ विदं ी
पत्रकाररता का कें द्र कलकत्ता था उसे उन्िोंने विदं ी प्रदेश से जोड़ वदया। 1867 ई. में भारतेन्दु िररश्चंद
ने काशी से कवििचन सधु ा का प्रकाशन शरू ु वकया। आधवु नक विषयों से यक्तु यि विदं ी की पिली
पवत्रका थी। भारतेन्दु िररश्चिन्द्र चाँवू क खदु साविवत्यकार थे इस दृवि से साविवत्यक पत्रकाररता के भी
आप जनक किे जा सकते िैं। कवििचन सधु ा के अवतररक्त िररश्चन्द्र िारा प्रकावशत अन्य पत्र थे -
िररश्चन्द्र मैगजीन, िररश्चन्द्र चवन्द्रका एिं बालाबोवधनी। भारतेन्दु काल के पत्रों में बालकृ ष्ण भट्ट के
संपादकत्ि में प्रकावशत विन्दी प्रदीप (1877 ई.) का मित्िपणू भ योगदान िै। 17 मई 1878 ई. को
कलकत्ता से भारत वमत्र पावक्षक का प्रकाशन शरू ु िुआ। इसके सम्पादक छोटू लाल वमश्र थे। प0ं
अवम्बका प्रसाद िाजपेयी के सम्पादन में यि पत्र विदं ी का शीषभ पत्र बन गया। 1883 ई. में प्रकावशत
ब्राह्मण पत्र का सपं ादन प्रताप नारायण वमश्र ने वकया था। यि पत्र विन्दोस्तान(1885) का प्रकाशन
उत्तर प्रदेश के कालाकांकर से राजा रामपाल वसंि ने प्रकावशत वकया था। मालिीय जी के संपादन में
इस पत्र ने ख्यावत अवजभत की। इस दौर के पत्रों में विन्दी बंगिासी का भी मित्िपणू भ स्थान िै। 1890
में प्रकावशत िेंकटेश्वर समाचार (बम्बई) भी मित्िपणू भ था। काशी से प्रकावशत नागरी प्रचाररणी

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पवत्रका (1896 ई.)विदं ी पत्रकाररता की वदशा में मित्िपणू भ कदम था। विदं ी भाषा और विदं ी सावित्य
के विकास में इस पवत्रका का सिाभवधक योगदान िै। इसके संपादक मडं ल में श्यामसुन्दर दास,
सधु ाकर वििेदी वकशोरीलाल गोस्िामी राधाकृ ष्ण दास इत्यावद थे। इस काल में वनकले अन्य
मित्िपूणभ पत्र िैं -
अल्मोड़ा अखबार (1871ई.) वबिारबधं ु सपं ादक के शिराम भट्ट, भारतबधं ु -तोताराम(1871 ई.)
आनंदकादवम्बनी 1883 ई. बदरीनारायण चौधरी प्रेमधन इत्यावद।
चतुथि चरण हर्द्वेदी काल (1900-1920 ई.) विदं ी पत्रकाररता के इस यगु को मिािीर प्रसाद
वििेदी के नाम पर वििेदी यगु किा गया िै। वििेदी जी िारा प्रकावशत सरस्िती पत्र इस यगु में भाषा
एिं सावित्य में कें द्रीय भवू मका वनभाती िै। सन् 1900 में इलािाबाद से इस पवत्रका का प्रकाशन शरू ु
िोता िै। इस पत्र के संपादक मण्डल में-बाबू श्यामसन्ु दर दास, श्री कावतभक प्रसाद खत्री, पंवडत
वकशोरी लाल गोस्िामी, बाबू जगन्नाथ दास एिं बाबू राधाकृ ष्णदास थे। सन् 1903 से मिािीर
प्रसाद वििेदी ने इस पत्र का संपादन वकया। सदु शभन नामक पत्र का प्रकाशन काशी से 1900 में
माधिप्रसाद वमश्र ने वकया था। सन् 1907 ई. में साप्ताविक अभ्यदु य पत्र का प्रकाशन प्रयाग से
मालिीय जी ने वकया था। मयाभदा नामक मावसक पत्र का सपं ादन 1910 ई. में प्रयाग से प0ं
कृ ष्णकान्त मालिीय ने वकया था। बाद में इस पत्र का सपं ादन संपणू ाभनंद, प्रेमचन्द तथा बनारसीदास
चतिु दे ी जैसे सावित्यकारों ने वकया। सम्मेलन पवत्रका 1913 ई. में प्रयाग से वगररजा कुमार र्ोष के
सम्पादकत्ि में वनकली थी। श्री वशिमवु न के संपादकत्ि में सन् 1915 में प्रकावशत ज्ञानशवक्त इस यगु
का मित्िपणू भ पत्र था। सन् 1919 में गणेशशक ं र विद्याथी की प्रेरणा से गोरखपरु से स्िदेश विदं ी
साप्ताविक का प्रकाशन िुआ था। इसके अवतररक्त इस यगु के अन्य मित्िपणू भ पत्र िैं -1.प्रभा -
खडं िा (1913),2. प्रताप , कानपरु -(1913) सं0 गणेश शक ं र विद्याथी, 3. (समालोचक) 1902
जयपरु चन्द्रधर शमाभ गल ु ेरी 4. इन्दु 1909, काशी- अवम्बका प्रसाद गप्तु
पच ं म चरण गांधी युग (1920-1947 ई.) इस यगु की पत्रकाररता पर मिात्मा गााँधी और राष्रीय
आन्दोलन का बिुत प्रभाि रिा िै। यि प्रभाि इस यगु की पत्रकाररता के विषय चयन से लेकर
प्रस्तवु त तक व्याप्त िै। वििेदी यगु की पत्रकाररता का मलू स्िर साविवत्यक एिं सधु ार से ज्यादा
संचावलत रिा िै। आज दैवनक पत्र का प्रकाशन इस काल की पत्रकाररता में स्थायी मित्ि रखता िै।
इसका प्रकाशन 5 अप्रैल 1920 को वशिप्रसाद गप्तु ने काशी से वकया था। इस पत्र के संपादक
बाबरू ाि विष्णु पराड़कर थे। स्ितंत्र पत्र का प्रकाशन 4 अगस्त 1920 को कलकत्ता से पं0 अवम्बका
प्रसाद िाजपेयी ने प्रारम्भ वकया था। कमभिीर पत्र का प्रकाशन जबलपरु से 17 जनिरी 1920 ई. को
माखनलाल चतिु दे ी के संपादकत्ि में िुआ था। समन्ियक पत्र का प्रकाशन 1922 ई. में िुआ था।
यि पत्र रामकृ ष्ण वमशन का पत्र था। इसके संपादक माधिानन्द जी थे। वनराला जी की प्रवतभा को
वनखारने में इस पत्र का मित्त्िपणू भ योगदान िै। 23 अगस्त 1923 ई. को मतिाला का प्रकाशन विदं ी

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पत्रकाररता में एक नये मोड़ का सचू क िै। इस पत्र के वनमाभताओ ं में मश
ंु ी निजावदक लाल, वनराला,
बाबू वशिपजू न सिाय और मिादेि प्रसाद सेि थे। धावमभक-आध्यावत्मक पवत्रकाओ ं में कल्याण का
विवशि स्थान िै। यि पत्र गोरखपरु से 1826 ई. में वनकला था। सन् 1928 में प्रकावशत विशाल
भारत रामानन्द चट्टोपाध्याय ने प्रकावशत वकया था। विशाल भारत के संपादक प0ं बनारसीदास
चतिु दे ी जी थे। इस समय के साविवत्यक पत्रों में माधरु ी(1921), चााँद(1922), सधु ा(1927) तथा
िसं (1930) का विवशि स्थान िै। माधरु ी रूपनारायण पाण्डेय, चााँद- मिोदेिी िमाभ, प्रभा- दल
ु ारे लाल
भागभि तथा िसं प्रेमचन्द के सपं ादकत्ि में वनकली थी। जागरण का प्रकाशन 11 फरिरी 1931 में
िुआ था। इसके संपादक वशिपजू न सिाय थे। इस यगु के अन्य मित्िपणू भ समाचार पत्रों में इदं ौर
समाचार,सन्मागभ, सैवनक, विश्ववमत्र इत्यावद रिा िै।
षष्ठ चरण स्वातं्योत्तर युग(1948-1989 ई.) गांधी यगु से स्िातं्योत्तरकालीन पत्रकाररता इस
दृवि से वभन्न रिी िै वक जिााँ पिले का उद्देश्य स्ितंत्रता प्रावप्त था ििीं दसू रे का जन-प्रवतबद्धता ।
आइए िम इस यगु में वनकलने िाले पत्रों की संवक्षप्त रूपरे खा का अध्य्यन करें । वदल्ली से दैवनक
निभारत का प्रकाशन 4 अप्रैल 1947 को प्रारम्भ िुआ। 29 जनू 1950 को दसू रा नाम निभारत
टाइम्स कर वदया गया। इसके प्रारंवभक संपादक सत्यदेि विद्यालंकार थे। विन्दस्ु तान पत्र का प्रकाशन
2 अक्टूबर 1950 से प्रारम्भ िुआ। पिले यि पत्र साप्ताविक था बाद में दैवनक िो गया। स्िात्ं योत्तर
काल के पत्रों में खोजपणू भ पत्रकाररता की दृवि से जनसत्ता का मित्िपणू भ नाम िै। अपनी संपादकीय
लेखों तथा जन प्रवतबद्धताओ ं के कारण यि पत्र चवचभत रिा िै। 5 जनू 1947 ई. से इदं ौर से कृ ष्णचन्द्र
मदु गल तथा कृ ष्णकातं व्यास के प्रयत्नों से नई दवु नया का प्रकाशन आरम्भ िुआ। इन्दौर समाचार
का प्रकाशन 22 माचभ 1946 ई. को इन्दौर से परू ु षोत्तम विजय के सम्पादन में प्रारम्भ िुआ पणू चभ न्द
गप्तु ने 1947 से कानपरु से जागरण का प्रकाशन आरम्भ वकया। सन् 1948 में डोरीलाल अग्रिाल
तथा मरु ारीलाल मािेश्वरी ने आगरा से अमर उजाला का प्रकाशन शरू ु वकया। पवश्चमी उत्तर प्रदेश
तथा उत्तराखण्ड का यि प्रमख ु पत्र िै। यगु धमभ का प्रकाशन नागपरु से 1951 ई. में प्रारम्भ िुआ।
विदं ू सस्ं कृ वत के प्रचार-प्रसार में यि पत्र अवधक सवक्रय रिा िै। पजं ाब के सरी का प्रकाशन 1964 में
जालन्धर से िुआ। लाला जगतनारायण इस पत्र के आवद सम्पादक थे। धमभयगु का प्रकाशन बम्बई से
टाइम्स आफ इवण्डया समिू ने 1950 में प्रारम्भ वकया। इस पत्र के प्रथम सपं ादक इलाचन्द्र जोशी थे।
बाद में इसके संपादक िेमचन्द्र जोशी तथा सत्यकाम विद्यालंकार िुए। धमभिीर भारती के संपादन में
धमभयगु देश का सिाभवधक लोकवप्रय पत्र बन गया। राजस्थान पवत्रका का प्रकाशन जयपरु से 7 माचभ
1956 को िुआ। यि राजस्थान का प्रमख ु पत्र िै। राष्रदतू का प्रकाशन 1 अगस्त 1951 को जयपरु
से िजारीलाल शमाभ िारा वकया गया। 18 अप्रैल 1948 ई. को िाराणसी के प्रवसद्ध संत स्िामी
करपात्री जी के आशीिाभद से सन्मागभ का प्रकाशन प्रारम्भ िुआ। सनातन धमभ के वितों से जड़ु ा यि
प्रमख ु पत्र था। स्िदेश सन् 1966 को इन्दौर से प्रकावशत िुआ था। दैवनक भास्कर का प्रकाशन
1958 में भोपाल से िुआ। इसके आवद संपादक काशीनाथ चतिु दे ी थे। पंजाब के मित्िपणू भ पत्रों में

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िीर प्रताप (1958) की गणना की जाती िै। राचं ी एक्सप्रेस का प्रकाशन रााँची से िो रिा िै। वदनमान
टाइम्स आफ इवण्डया समिू का समाचार पत्र िै। इसका प्रकाशन वदल्ली से 21 फरिरी 1985 को
प्रारम्भ िुआ। अज्ञेय के सम्पादन में वदनमान ने विदं ी पत्रकाररता को नई ऊाँचाई दी। पााँचजन्य का
प्रकाशन लखनऊ से 1947 में प्रारम्भ िुआ उसके पश्चात् 1967 से वदल्ली से यि प्रकावशत िो रिा
िै। पााँचजन्य राष्रीय स्ियं सेिक संर् की नीवत को पोषक पत्र िै। माधरु ी पवत्रका का प्रकाशन बम्बई
से 20 जनिरी 1964 को आरम्भ िुआ। यि वफल्म जगत से सबं वं धत पवत्रका िै1 पराग पवत्रका का
प्रकाशन टाइम्स आफ इवण्डया समिू ने माचभ 1958 में प्रारम्भ वकया। यि बच्चों की लोकवप्रय
मावसक पवत्रका िै। कादवम्बनी विन्दस्ु तान टाइम्स वलवमटेड की पवत्रका का प्रकाशन निम्बर 1964 में
विन्दस्ु तान टाइम्स प्रकाशन नई वदल्ली से िो रिा िै। यि बाल पवत्रका िै। साररका पत्र का प्रकाशन
1970 में आरम्भ िुआ। कमलेश्वर के संपादन में इस पवत्रका ने विशेष ख्यावत अवजभत की। चंदामामा
बाल सावित्य की प्रमख ु पवत्रका िै। यि विदं ी भाषा के अवतररक्त अन्य कई भारतीय भाषाओ ं में
प्रयक्त
ु िोती िै। िररप्रसाद नेिवटया ने बम्बद से 1952 में निनीत मावसक पवत्रका का प्रकाशन प्रारम्भ
वकया। इसके आवद संपादक सत्यकाम विद्यालंकार थे। सररता का प्रकाशन नई वदल्ली से िुआ।
सामावजक ि पाररिाररक पनु वनभमाभण की दृवि से इस पत्र का विशेष योगदान रिा िै। मक्त ु ा का
प्रकाशन 1960 में नई वदल्ली से िुआ। मविला समस्या पर इस पवत्रका ने मित्िपणू भ सामग्री प्रकावशत
की िै। मनोिर किावनयााँ का प्रकाशन इलािाबाद से प्रारम्भ िुआ। सनसनीखेज तथा अन्तिभन्द प्रधान
किावनयों के वलए यि पवत्रका विशेष चवचभत रिी िै। मनोरमा पवत्रका का प्रकाशन इलािाबाद से
प्रारम्भ िुआ। मविलाओ ं के वलए इस पवत्रका ने उपयोगी सामग्री का प्रकाशन वकया िै। गृिशोभा
पवत्रका का प्रकाशन वदल्ली से प्रारम्भ िुआ। गृिशोभा भी मविलाओ ं की पवत्रका िै। सरस-सवलल
लर्ु पवत्रकाओ ं में सिाभवधत वबकने िाला पत्र िै। इसके अवतररक्त आजकल इवं डया टुडे, भारतीय
पक्ष, प्रथम प्रिक्ता जैसे पत्रों ने भी सामावजक एिं राजनीवतक प्रश्नों को गभं ीरता से उिाया िै।
सप्तम चरण ई-पत्रकाररता समकालीन पत्रकाररता(1991 से ितभमान तक) सन् 1990 के बाद
का समय भमू डं लीकरण एिं िैश्वीकरण से प्रभावित रिा िै। भमू डं लीकरण यत्रं प्रधान दशभन रिा िै।
इस दशभन का प्रभाि इस यगु की पत्रकाररता पर भी पड़ा िै। फलत: पत्रकाररता अवधक लोकतांवत्रक
िुई िै। इस यगु की पत्रकाररता ब्लाग, ट्िीटर के माध्यम से चलती िै। इसमें के न्द्र निीं िैं। यि ज्यादा
लोकतांवत्रक प्रवक्रया िै। इसमें सबके वलए जगि िै। इसे ई-पत्रकाररता किा गया िै।

19.5 मूलयांकन
विदं ी पत्रकाररता इस दृवि से मित्िपणू भ रिी िै वक इसने जन सरोकारों ि प्रवतबद्धताओ ं को
परू ी ईमानदारी से अपने लेखन का विषय बनाया िै। पवश्चमी पत्रकाररता की अपेक्षा भारतीय या विदं ी
पत्रकाररता का इवतिास नया िै। उसमें भी 1780 से लेकर सन् 1947 तक विदं ी पत्रकाररता के के न्द्र

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में राष्रीय निजागरण या स्ितंत्रता िी रिे िैं । सन् 1947 तक विदं ी पत्रकाररता का मल
ू ध्येय राष्रीय
मवु क्त िी रिा िै। कथ्य पर बल देने से वशल्प या प्रयोगधवमभता पर बल कम िो जाता िै।
अभ्यान प्रश्न 1
क ररिय स्थानों की पूहति कीहजए।
1. पृष्ठभवू म काल के अंतगभत....................................... समय तक की पत्रकाररता
आती िै।
2. उदन्त मातभण्डं के सपं ादक.................................................... िैं ।
3. सरस्िती पवत्रका का सपं ादन................................................. ने वकया था।
4. टी.िी. .......................................................मीवडया के अतं गभत आता िै।
5. समाचार पत्र.......................................मीवडया के अतं गभत आता िै।
ख सत्य\असत्य का चुनाव कीहजए।
1 . िसं पवत्रका के सपं ादक प्रेमचन्द थे।
2 . बनारस अखबार के संपादक मिािीर प्रसाद वििेदी थे।
3 . बालाबोवधनी पवत्रका के सपं ादक भारतेन्दु िररश्चन्द्र। थे।
4 . विन्दी प्रदीप के संपादक बालकृ ष्ण भट्ट िैं।
5 . विकी गजट का प्रकाशन िषभ 1780 िै।
अभ्यान प्रश्न 2
समु ेहलत कीहजए।
काल पहत्रका
वििेदी काल मनोरमा
स्िातं्योतर काल बालाबोवधनी
भारतेन्दु काल आज

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गााँधी यगु बनारस अखबार
उद्भि काल इन्दु

19.6 सारांश
इस इकाई के अध्ययन करने के उपरान्त आपने जाना वक -

 विदं ी पत्रकाररता का आधवु नक इवतिास 1780 से विकी गजट के प्रकाशन से


प्रारम्भ िोता िै।
 विदं ी पत्रकाररता अब तक विवभन्न मोड़ों से गजु र चक
ु ी िै।
 सन् 1947 के पिू भ की पत्रकाररता का मख्ु य स्िरुप राष्रीय एिं साविवत्यक था
जबवक उसके पश्चात् की पत्रकाररता का स्िरूप लोकतांवत्रक।
 समकालीन पत्रकाररता ई-पत्रकाररता के रूप में िमारे सामने िै। इलेक्रावनक
मीवडया और ई-पत्रकाररता ने ज्यादा लोकतांवत्रक रूप प्रदान वकया िै।

19.7 शब्दावली
मीवडया सचू ना को जन तक पिुचाँ ाने िाला माध्यम
संचार पत्रकाररता का नया नामए सचू ना को संचररत करने िाला
माध्याम
छ:ककार क्या ,कब, कै से, किााँ, वकसने, क्यों, ये प्रश्न िी पत्रकाररता में छ:
ककार किे जाते िैं ।
प्रवतबद्ध पत्रकाररता जन समस्याओ ं एिं भािनाओ ं से यक्त
ु पत्रकाररता।
साम्राजयिाद एक देश का दसू रे देश पर आवधपत्य करने िाली भािना।
अवभिृवद्ध बढ़त िृवद्ध

19.8 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


अभ्यास प्रश्न 1
क. 1. 1780-1825 ई.

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2 . यगु ल वकशोर शक्ु ल
3 . मिािीर प्रसाद वििेदी
4 . इलेक्रावनक मीवडया
5 . वप्रन्ट मीवडया
ख 1. सत्य
2 . असत्य
3 . सत्य
4 . सत्य
5 . सत्य
अभ्यास प्रश्न 2 सुमेहलत कीहजए
1 . इन्दु
2 . मनोरमा
3 . बालाबोवधनी
4 . आज
5 . बनारस अखबार

19.9 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1 . वमश्र ,कृ ष्ण वबिारी , पत्रकाररता : इवतिास और प्रश्न, िाणी प्रकाशन
2 . िैवदक ,िेद प्रताप, विदं ी पत्रकाररता के विविध आयाम, विदं ी बक
ु सेन्टर ,नई वदल्ली
3 . शक्ु ल, रामचन्द्र, विदं ी सावित्य का इवतिास, नागरी प्रचाररणी सभा
4 . नगेन्द्र डा., विदं ी सावित्य का इवतिास, मयरू पवब्लके शन , नई वदल्ली

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19.10 उपयोगी पाठ्य सामग्री
1 . ओझा, बेंकट लाल, विदं ी समाचार पत्रों की सचू ी, विदं ी समाचार पत्र संग्रिालय,
िैदराबाद
2 . वतिारी, अजनभु , स्ितत्रं ता आदं ोलन और विदं ी पत्रकाररता, विश्व विद्यालय प्रकाशन,
िाराणसी।

19.11 हनबं धात्मक प्रश्न


1 . विदं ी पत्रकाररता के काल विभाजन एिं नामकरण की समस्या पर विचार कीवजए।
2 . विदं ी पत्रकाररता के इवतिास के आधार पर उसके योगदान को रे खांवकत करें ।

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इकाई 20 संपादन
कला:संपादकीय,हप्रन्ट,रे हियो, टीिी
के हलए लेखन
इकाई की रूपरे खा
20.1 प्रस्तािना
20.2 उद्देश्य
20.3 संपादन कला
20.3.1 अथभ
20.3.2 आिश्यकता
20.4 संपादकीय लेखन
20.4.1 संपादकीय:विशेषता
20.4.2 संपादकीय लेखन
20.5 वप्रटं लेखन
20.6 रे वडयो के वलए लेखन
20.7 टेलीविजन के वलए लेखन
20.8 सारांश
20.9 शब्दािली
20.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
20.11 सदं भभ ग्रथं सचू ी
20.12 उपयोगी पाि्य सामग्री
20.13 वनबंधात्मक प्रश्न

20.1 प्रस्तावना
पत्रकाररता में िैसे तो प्रत्यके प्रवक्रया मित्िपूणभ िुआ करती िै वकन्तु इनमें सबसे मित्िपणू भ
िोता िै – संपादन कायभ। वबना संपादन कायभ के पत्रकाररता अवनयंवत्रत सचू नाओ ं का प्रिाि बनकर
रि जाता िै। चािे िि वप्रन्ट मीवडया िो इलैक्रावनक मीवडया वबना संपादन कायभ के ये अपने उद्देश्य में
सफल निीं िो सकते। अच्छी पत्रकाररता वकसी सचू ना को सम्प्रेषणीय बनाकर जनता तक पिुचाँ ाती

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िै लेवकन यवद उनमें यि गणु िो िी न तो वफर सचू ना का क्या औवचत्य ? इसीवलए छोटे-से बड़े सभी
िस्तओु ं में संपादन कला की आिश्यकता पड़ती िी िै। वकसी भी मीवडया संस्था में वबना संपादक के
कोई भी तथ्य प्रकावशत/प्रसाररत निीं वकया जाता िै। सपं ादन कला से यक्ु त पत्रकाररता िी
पािक/दशभक को जागरूक करने की क्षमता रखती िै।
समाचार पत्र में सपं ादकीय का विवशष्ट स्थान िै। सपं ादकीय वकसी भी पत्र की आत्मा िोती
िै। समाचार संकलन का चनु ाि तो कई न्यजू एजेवन्सयों से भी वकया जा सकता िै, लेवकन संपादकीय
तो उस पत्र का संपादक िी वलखता िै। इस दृवि से िि पत्र की नीवत-अवभरूवच से जड़ु ा िुआ िोता
िै। इसी कारण संपादकीय लेखन के अपने वनयम िैं और अपनी शतें िैं। मीवडया जगत में न के िल
अच्छे लेखक की आिश्यकता िोती िै बवल्क कुशल लेखक की भी जरूरत िोती िै। वप्रन्ट में लेखन
िो या रे वडयो में या टे लीविजन में, सिभत्र एक रूपरे खा के भीतर, उसके अनरू
ु प रिकर लेखन कायभ
करना िोता िै। मीवडया लेखन में कौशल एिं मौवलकता के संयोग से यक्ु त लेखक िी सफल िो
सकता िै । अत: विद्याथी को इस सम्बन्ध में जानकारी का िोना बिुत आिश्यक िै।

20.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आप –

 संपादन कला की उपयोवगता को समझ सकें गे।


 संपादन कला के मल
ू भतू वसद्धान्तों का पररचय प्राप्त कर सकें गे।
 वप्रन्ट मीवडया की लेखन विशेषता से पररवचत िो सकें गे।
 सपं ादकीय लेखन के वसद्धान्तों से पररचय प्राप्त कर सकें गे।
 रे वडयो लेखन की विशेषताओ ं को समझ सकें गे।
 टीिी लेखन के आदशभ स्िरूप से पररवचत िो सकें गे।

20.3 संपादन कला


सपं ादन वकसी भी मीवडया का कें द्र वबन्दु िै। प्रश्न यि िै वक संपादन क्या िै और इसकी
आिश्यकता क्यों पड़ती िै। यि भी प्रश्न उिता िै वक अच्छे संपादन की विशेषता क्या िै तथा
सपं ादन करते समय सपं ादक को वकन-वकन तथ्यों का ध्यान रखना आिश्यक िै।

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20.3.1 अथि
सपं ादन का सामान्य अथभ िै – वकसी कायभ को उसके उद्देश्य पणू भ िोने तक की वस्थवत में
पिुचाँ ाना या करना। कायभ के साथ उद्देश्य जडु ृ ा िुआ िै। कोई कायभ तभी परू ा समझा जा सकता िै जब
िि अपने उद्देश्य में सफल िो। लेवकन पत्रकाररता के संदभभ में संपादन का अथभ विवशि िो जाता िै।
समाचार पत्र या इलेक्रावनक मीवडया के प्रारवम्भक स्तर से यानी सचू नाओ ं से आगमन से लेकर
उसके प्रस्ततु ीकरण तक सभी कुछ संपादन के अतं गभत आता िै। इस दृवि से संपादन का अथभ िोगा –
मीवडया को अवधक सम्प्रेषणीय बनाने के वलए उसके प्रत्येक अगं /उपांग को सटीक, सारगवभभत,
सन्ु दर, आकषभक एिं अथभगभी बनाने की कला।
20.3.2 आवश्यकता
सपं ादन के सदं भभ में यि बात िमेशा स्मरण रखनी चाविए वक िर विधा के वलए सपं ादन के
वसद्धान्त, प्रवकयाएाँ अलग-अलग िोंगी। अत: सामान्य वसद्धान्तों के आधार पर सभी मीवडया-माध्यम
का संपादन करना संभि निीं िै। यिााँ िम वजन वबन्दओ ु ं पर चचाभ कर रिे िै, िे मीवडया संपादन के
वसद्धान्त कम, संपादन के वलए बरती जाने िाली सािधावनयााँ ज्यादा िैं। संपादन सामवू िक कायभ िै।
एक बड़े अखबार या टीिी चैनल में संपादन कायभ िेतु संपादक, सिायक संपादक, समाचार संपादक,
मख्ु य उपसपं ादक और उपसपं ादक तो िोते िी िैं इसके अवतररक्त खेल सपं ादक, फीचर सपं ादक
इत्यावद विषयगत अिान्तर भेद भी िोते िी िैं। संपादक- मंडल संिाददाताओ,ं एजेवन्सयों और अन्य
स्रोतों से प्राप्त सचू नाओ ं का चयन करके , उन्िें क्रमानसु ार विभावजत करते िैं तथा उन्िें व्यिवस्थत
रूप से प्रस्ततु करते िैं। इस प्रकार विवभन्न स्रोतों से प्राप्त सचू नाओ ं को लोगों तक पिुचाँ ाने का
मित्िपूणभ उत्तरदावयत्ि संपादकीय मडं ल करता िै। कि सकते िैं वक संपादन का िास्तविक अथभ िै
– वकसी सामग्री से उसकी अशवु द्धयों को दरू करके उसे पिनीय बनाना। वकसी आगत सामग्री को
संपादक मण्डल सिभप्रथम ध्यान से पढ़ता िै, उसकी भाषा, व्याकरण, ितभनी, तथ्य तथा शैली संबंधी
अशवु द्धयों को दरू करता िै तथा खबर के मित्ि के अनसु ार उसे संपावदत कर यि तय करता िै वक
उस ख़बर को किााँ जगि दी जाये। ज़ाविर िै यि एक जवटल, लम्बी और उत्तरदावयत्ि पणू भ प्रवक्रया
िै। संपादन-कला उत्तरदावयत्ि पणू भ वक्रया िै। यि वनबाभध रूप से संपावदत िो, इसके वलए प्राय: कुछ
वसद्धान्तों का पालन वकया जाता िै –

 तथ्यों की शद्ध
ु ता
 िस्तपु रकता
 वनष्पक्षता
 संतल
ु न

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 स्रोत
आइए, अब िम इन वसद्धान्तों की संक्षेप में चचाभ करें और यि जानें वक इन वसद्धान्तों का
संपादन में क्या मित्ि िै ?
 तथ्य की शुद्धता और सत्यता का प्रश्न
मीवडया और पत्रकाररता के वलए यि आिश्यक िै वक िि यथाभथ को प्रस्ततु करे ।
यथाभथ को उसकी सपं णू तभ ा में प्रवतवबवं बत करने के वलए यि आिश्यक िो जाता िै वक तथ्यों
का चनु ाि बिुत सोच-विचार कर वकया गया िो । तथ्य चनु ाि में शद्ध ु ता जिााँ आिश्यक िै
ििीं यि देखना भी आिश्यक िै िि सत्य को उद्घावटत कर पाने में सक्षम िै या निीं। यथाभथ
की पस्ु तवु त आसान काम निीं िै। यथाभथ की एक बाँधी-बाँधाई पररपाटी भी निीं िै। लेवकन
िम यथाभथ को उसकी बिुरंगी छवियों के रूप में तभी ग्रिण कर सकते िैं जब तथ्य सिी िो
और सत्य िो। एक तरि से यि प्राथवमक शतभ िै- संपादन कला की।
 वास्तुपरकता
मीवडया में िस्तपु रक दृवि का बिुत मित्ि िै। तथ्यपरकता का सबं धं जिााँ
र्टनाओ ं से िै ििीं िस्तपु रकता का संबंध उस र्टना पर अपनाये जानेिाले दृविकोण से िै।
इसे थोड़ा और स्पष्ट ढगं से िम इस प्रकार समझ सकते िैं –
मानिीय मवस्तष्क जवटल र्ात-प्रवतर्ात के बीच विकवसत और वनवमभत िोता िै,
इसवलए उनमें प्रत्येक मानिीय वक्रयाओ ं के प्रवत प्रवतवक्रया का भाि िमेशा ितभमान रिता
िै। देश-काल के नैरन्तभय में उसका मवस्तष्क नई-नई सचू नाओ,ं तथ्यों सब पर एक अपनी
राय वस्थर कर लेता िै तो कभी यि भी िोता िै वक िि र्टना को मात्र र्टना के रूप में िी
देख।े यानी िि के िल इसे छवि/वचह्न के रूप में देखता िै सत्य के रूप में निीं। ऐसी वस्थवत
में पत्रकार/संिाददाता का यि कतभव्य िै वक िस्तपु रक ढगं से समाचारों और संपादक
मण्डल उसे संपावदत कर प्रकावशत/प्रस्ततु करे । िस्ततु : िस्तपु रकता का गणु वकसी भी
तथ्य/र्टना को सभी के वित ि सबकी मनोभािना के आदर के साथ जड़ु ा िुआ िै।

 हनष्ट्पक्षता
िांलावक पक्षधरता मनष्ु य का स्िभाि िै। अथाभत् मनष्ु य अपने विचार, रूवच,
आदत, संस्कार में एक विशेष व्यििार को प्रदवशभत करता िै। लेवकन ििी मनष्ु य जब
सामवू िक रूप से कायभ करता िै या मीवडया जैसे उत्तरदावयत्ि की भािना से जड़ु ता िै तो
उसके वलए वनष्पक्षता अवनिायभ शतभ बन जाती िै। वनष्पक्षता एक निीं िैं। तटस्थता
वक्रयािीन वस्थवत िै जबवक वनष्पक्षता सत्य/असत्य के उवचत चनु ाि का प्रश्न। वनष्पक्षता
का अथभ िै अन्याय के प्रवत सत्य का मागभ धारण करना। मीवडया के वलए वनष्पक्षता की शतभ

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ु विश्वविद्यालय 329
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
अवनिायभ िै निीं तो िि वकसी एक पाटी, मत, विचारधारा, धमभ या सप्रं दाय का िोकर रि
जायेगा।

 संतुलन
मीवडया के सामने, खासतौर से संपादन के सामने यि समस्या अक्सर उत्पन्न िोती
वक िि तटस्थ, वनष्पक्ष, िस्तपु रक रिकर सतं ल ु न कै से स्थावपत करे । मीवडया जन मचं िै,
ऐसी वस्थवत में विपरीत व्यवक्त, विचार, मत के व्यवक्तयों को उसे एक साथ प्रस्ततु करना
िोता िै। अक्सर मीवडया पर यि आरोप लगता भी रिा िै वक िि खास मत या विचारधारा
को प्रश्रय दे रिा िै, यि वस्थवत आदशभ वस्थवत निीं िै।
 स्रोत
मीवडया का क्षेत्र संपणू भ विश्ि या किें वक ब्रह्माण्ड िै। ऐसी वस्थवत में उसे
सचू ना/सदं भभ के वलए विवभन्न स्रोतों पर वनभभर िोना पड़ता िै। इस सदं भभ में यि वसद्धान्त िै
वक मीवडया विवभन्न स्रोत से प्राप्त सचू नाओ ं के स्रोतों का उल्लेख कर दे। राष्रीय-
अतं राभष्रीय स्तर पर कई सामाचार एजेंवसयााँ कायभ करती िैं (पीटीआई, यएू नआई आवद)।
इसके अवतररक्त सिं ाददाता, ररपोटभर, व्यवक्तगत स्रोत, सस्ं था, सरकारी तत्रं , इण्टरनेट
इत्यावद कई स्रोत िैं वजनसे मीवडया समाचारों का चयन करता िै । स्रोत का उल्लेख जिााँ
र्टनाओ ं की प्रमावणकता बढ़ाता िै ििीं सत्य तक पिुचाँ ने का मागभ भी वदखाता िै।

मीहिया के हलए लेखन


मीवडया लेखन पर वटप्पणी करते िुए रर्िु ीर सिाय ने वलखा िै; "खबर वलखना
बिुत िी रचनात्मक काम िो सकता िै। उतना िी रचनात्मक, वजतना कविता वलखना;
दोनों का उद्देश्य मनष्ु य को और समाज को ताकत पिुचाँ ाना िै। खबर में लेखक तथ्यों को
बदल निीं सकता पर देा या दो से अवधक तथ्यों के मेल से असवलयत खोल सकता िै।
स्पष्ट िै वक न तो मीवडया लेखन िल्का काम िै और न आसान। कोई भी विजनयक्ु त कायभ
न तो आसान िोता िै और न िल्का। मीवडया लेखन में भी विवभन्न माध्यमों के वलए
अलग-अलग लेखन के तरीके िैं, पद्धवतयााँ िैं। अखबार, पवत्रका या वप्रन्ट मीवडया में
वलखने की अलग शैली िै तो रे वडयो, टेलीविजन के अलग शैली। इन माध्यमों की
अतं वनभवित विशेषताओ ं को समझे बगैर िम मीवडया लेखन में सफल निीं िो सकते।
मीवडया के विवभन्न माध्यमों की लेखन-शैली, भाषा और प्रस्तवु त में ढेरों अतं र िै जो सिज
िी िमें पररलवक्षत िोता िै। अखबार, पवत्रका यानी वप्रन्ट मीवडया का सबं धं जिााँ िमारे
दृश्य (आाँखों) विधान से िै ििीं रे वडयो का संबंध िमारे श्रव्य (कान) विधान से िै। इन

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दोनों से अलग टेलीविजन और इटं रनेट का सबं धं दृश्य-श्रव्य दोनों उपकरणों से िै। इसे िम
इस प्रकार समझ सकते िैं –

मीहिया की शैहलयााँ

दृश्य िव्य दृश्य+िव्य

अखबार, पत्र (हप्रन्ट) रेहिया टे लीहवजन/अइटं रनेट

मीवडया के उपयभक्ु त माध्यम अलग-अलग ढंग से िमारी शारीररक-मानवसक-बौवद्धक


जरूरतों की पवू तभ से जड़ु े िुए िैं। इन सबकी अलग-अलग उपयोवगता िै, इस दृवि से ये एक-दसू रे के
परू क बनकर सामने आते िैं।

20.4 संपादकीय ले खन

20.4.1 संपादकीय:हवशेषता
सपं ादकीय वकसी भी पत्र की रीवत-नीवत, विचार, सस्ं कार, प्रवतबद्धता का दपभण िोता िै। यि
एक वखड़की िै वजसके पार से समाचार-पत्र की आिाज िी मख ु र निीं िोती, अवपतु यगु चेतना की
अनगु जंु भी सनु ाई देती िै। इस एक कॉलम के माध्यम से समाचार-पत्र और उसके संपादक का
व्यवक्तत्ि मखु ररत िोता िै। समाचार पत्र में संपादक का व्यवक्तत्ि मखु ररत िोता िै। समाचार पत्र में
संपादकीय का स्थान उसी प्रकार का िोता िै, वजस प्रकार मनष्ु य की शरीर में आत्मा िोता िै। इसे
समाचार पत्र का हृदय किा जा सकता िै। सपं ादकीय लेख का सीधा उत्तरदावयत्ि सपं ादक से िोता
िै। स्थावपत एिं प्रवतवष्ठत समाचार पत्र में दो या तीन सपं ादकीय वदये जाते िैं। संपादकीय को
पररभावषत करते िुए किा गया िै – संपादकीय, िि संवक्षप्त और सामवयक लेख िोता िै वजसके
माध्यम से सपं ादक या समाचार पत्र सबं वं धत विषय पर जनमत के वनमाभताओ ं ि नीवत-विशेषज्ञों के
िारा अपनी विचारधारा के पररप्रेक्ष्य में आम जन का पक्षीय विचार उत्पन्न कर सके । कि सकते िैं
वक सपं ादक िारा वलवखत समसामवयक अग्रलेख िी सपं ादकीय िै। प्रभािोत्पादक िोने के वलए
संपादकीय को संवक्षप्त और सामवयक िोना चाविए। संपादकीय वटप्पणी प्रचवलत समाचार का

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ु विश्वविद्यालय 331
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वनचोड़ भी िोता िै। इसके वलए िि प्रभािोत्पादक िोने के साथ िी सामवयक, सवं क्षप्त और
मनोरंजक भी िोना चाविए। प्रत्येक समाचार पत्र की संपादकीय नीवत उसके पािक िगभ की रूवच ि
संस्कार से प्रभावित िोती िै। संपादकीय वटप्पवणयों की एक मख्ु य विशेषता यि िोनी चाविए वक िे
वशष्ट भाषा में वलखे गये िों और उनका स्िर संयत िो तथा उनमें व्यवक्तगत आलोचना न िो।
संपादकीय वटप्पणी के गणु ों पर विचार करते िुए डा. अजनभु वतिारी ने इसमें प्रभािोत्पादकता,
समसामवयकता, वनष्पक्षता, विश्िसनीयता और सवं क्षप्तता आवद विशेषताओ ं का िोना स्िीकार
वकया िै। संपादकीय में किोर-से-किोर विषय को भी संयत भाषा में व्यक्त वकया जाता िै।

20.4.2 संपादकीय लेखन


आपने जाना वक सपं ादकीय या अग्रलेख सपं ादकीय स्तम्भ में वनयवमत रूप से वलखा जाने
िाला लेख िै। आिश्यकतानुसार इसकी संख्या देा या तीन तक िोती िै, अथाभत ऐसी पररवस्थवत में
जब संपादक को लगे वक अमक ु -अमक
ु र्टनाएाँ मित्िपणू भ िैं और उन पर वटप्पणी देना आिश्यक िै।
संपादकीय लेखन में शब्द सीमा का वनधाभरण करते िुए इसे 500 से 1000 शब्दों तक माना गया िै।
संपादकीय वटपपणी प्राय: संपादक िारा वलखी जाती िै, वकन्तु विशेष पररवस्थवतयों में इसे अनभु िी
उप-सपं ादक या सपं ादक मडं ल का योग्य व्यवक्त भी वलख सकता िै।
सपं ादकीय वटप्पणी सामवयक र्टनाओ ं या विशेष समाचार पर पत्र के सपं ादक की वटप्पणी
िोती िै, जो उस पत्र की नीवत और रूख को व्यक्त करती िै। संपादकीय वटप्पणी में वजस विषय पर
वटप्पणी िुआ करती िै, उससे संबंवधत तथ्य, कारण की व्याख्या, आलोचना, सझु ाि, चेतािनी और
मागभ दशभन पर बल वदया जाता िै। सपं ादकीय लेखन बिुत उत्तरदावयत्ि पणू भ कायभ िोता िै। इस सबं धं
में प्रमख
ु वबन्दओ
ु ं का पालन करना अवनिायभ िोता िै –
 सपं ादकीय लेखन में सिभप्रथम इस बात का ध्यान रखा जाना चाविए वक िि पत्र-नीवत के
अनक ु ू ल वलखा जा रिा िै या निीं। किीं ऐसा न िो वक पत्र की पत्र-नीवत वकसी दसू रे
विचारधारा की पक्षधर िो और संपादकीय दसू रे विचारधारा को प्रस्ततु करे ।
 सपं ादकीय लेखन के वलए दसू री शतभ यि िै वक संपादकीय में वनष्पक्षता िोनी चाविए।
सपं ादकीय में वकसी तथ्य, विचार या र्टना के मल्ू यांकन में पिू ाभग्रि न िो।
 सपं ादकीय लेखन में संवक्षप्तता का गणु आिश्यक िै। िरर मोिन जी ने आदशभ संपादकीय
की शब्द-सीमा वनधाभरण करते िुए उसे 500 से 1000 शब्दों तक का माना िै। विजय
कुलश्रेष्ि जी ने भी उसे 500 से 750 शब्दों या अवधक से अवधक 1000 शब्दों तक िोने
को आदशभ माना िै।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
 सपं ादकीय लेखन में भाषा सस्ु पष्ट और शैली सरल िोनी चाविए। शैली क्रम-विन्यास का
ध्यान रखना आिश्यक िै।
 सपं ादकीय लेखन में तथ्य प्रस्तुतीकरण, व्यख्या–विश्ले षण एिं मल्ू यांकन का क्रम िोना
चाविए।

20.5 हप्रट ले खन
मीवडया के आधवु नक संसाधनों में वप्रन्ट माध्यम सबसे परु ाना िै। वप्रन्ट मीवडया या माध्यम
के अतगभत समस्त छपा िुआ सावित्य आता िै, जैसे – समाचार पत्र,पवत्रकाएाँ, पस्ु तकें इत्यावद। मवु द्रत
माध्यम िमारे श्रव्य विधान (आाँखों) से जड़ु े िुए िै। आाँखों का संबंध िमारे मवस्तष्क से जड़ु ा िुआ
िोता िै। िम जो देखते िैं, पढ़ते िैं िो सीधे िमारे मवस्तष्क में सवं चत िोता जाता िै। इस तरि से वप्रन्ट
माध्यम िमें लगातार आकवषभत करते रिते िै। वप्रन्ट माध्यम की अपनी वनजी विशेषता िोती िै,
वजसके कारण िि अपना आकषभण बरकरार रखे िुए िै। सक्ष ं ेप में आप यिााँ वप्रन्ट माध्यम की प्रमख

विशेषता को समझें –

 वप्रन्ट माध्यम पढ़ने में सवु िधाजनक िै। आप इसे धीरे -धीरे , आराम से और अपनी
आिश्यकतानसु ार पढ़ सकते िैं।
 वप्रन्ट माध्यम की भाषा सावित्य और जन भाषा से अलग लोकप्रचवलत भाषा िोती िै, जो
सिज िी सप्रं ेषणीय िोती िै।
 वप्रन्ट माध्यम िैचाररक गभं ीरता को भी धारण वकए िुए िै। अत: यि प्रबद्ध
ु िगभ के बीच
सिाभवधक लोकवप्रय िै।
 वप्रन्ट माध्यम लोकतावं त्रक बिसों से लेकर दाशभवनक प्रश्नों के समाधान को भी अपने में
समेटे िुए िै। अत: इसका विषयगत िैविध्य बिुत ज्यादा िै1
 वप्रन्ट माध्यम बालक से लेकर िृद्ध सभी के वलए अपने-अपने ढंग से उपयोगी िै।
िस्ततु : वप्रन्टमीवडया के उपयुक्त गणु िी उसे इलेक्रावनक मीवडया से विवशष्ट बनाते िैं।
लेवकन इस माध्यम की कुछ सीमाएाँ भी िैं वजसके कारण काफी सािधावनयााँ रखनी पड़ती िैं जैसे –
वनरक्षरों के वलए मवु द्रत माध्यम अनपु योगी िै, मवु द्रतमाध्यम का स्तर उसके पािक के अनरू
ु प िोना
चाविए, मवु द्रत माध्यम खासतौर से अखबार में छपी र्टनाओ ं की साथभकता अगले वदन वनरथभक िो
जाती िै, वप्रटं में शब्द सीमा का अनश ु ासन आिश्यक िै तथा वप्रटं में व्याकरणगत अशवु द्ध अक्षम्य
िै। इसवलए वप्रन्ट मीवडया ने लेखन के वलए कुछ वनयम बनाये िैं –

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
1. वप्रन्ट माध्यम के लेखन में भाषा, व्याकरण, ितभनी, शैली, सरं चना, सप्रं ेषणीयता का ध्यान
रखना अवनिायभ िै। इस माध्यम में भाषा प्रचवलत भी िो सकती िै और गभं ीर भी।
2. वप्रन्ट लेखन में समय-सीमा और वनधाभररत स्थान का पालन करना िर वस्थवत में अवनिायभ
िै। फीचर, सपं ादकीय, लेख इत्यावद के वलए वनयत समय और स्थान िोते िैं। कुशल
संपादक इनका उवचत विभाजन और संपादन करता िै।
3. वप्रन्ट लेखन की सामग्री कई स्रोत से प्राप्त िोती िै। कई बार संिाददाता उसे इटं रनेट से, कई
बार एजेंवसयों से तथा कई बार विवभन्न स्रोतों से समाचारों का चयन करता िै। समाचार
चयन के बाद उसे प्रस्ततु ीकरण के योग्य बनाने के वलए समयाभाि का अभाि रिता िै,
ऐसी वस्थवत में मद्रु ण संबंधी कई गलवतयों का रि जाना स्िाभाविक िै। व्याकरण संबंधी
गलवतयों के वलए मद्रु क भले िी वजम्मेदार िो वकन्तु उसका उत्तरदावयत्ि संपादक पर िोता
िै। इसवलए अवं तम प्रकाशन से पिू भ लेखक एिं सपं ादक सारी सामग्री को पनु : जााँचते िैं
वजससे वक पत्र त्रवु ट रवित ढंग से प्रकावशत िो सके ।
4. वप्रन्ट लेखन के वलए के िल व्याकरणगत शद्ध ु ता िी अवनिायभ निीं िै िरन् उसे प्रिािपणू भ
एिं सप्रं ेषणीय भी िोना चाविए। वप्रन्ट लेखन की भाषा ऐसी िोनी चाविए वजसे कम पढ़े-
वलखे व्यवक्त से लेकर प्रबद्ध ु सभी समझ सकें । कविन शब्दों से यथासंभि बचकर
लोकप्रचवलत शब्दों का चनु ाि करना इ स दृवि से उवचत िै।

20.6 रे हियो के हलए लेखन


रे वडयो श्रव्य माध्यम िै। कारण यि वक श्रिणेवन्द्रयों के माध्यम से इसका आस्िादन वकया
जाता िै। इस माध्यम में ध्िवन का बिुत मित्ि िै। ध्िवन, स्िर, शब्द के माध्यम से यि विधा श्रोताओ ं
को उनके अनक ु ू ल सामग्री को प्रस्ततु करती िै। इस विधा में वप्रन्ट मीवडया की तरि सवु िधाजनक
वस्थवत निीं िै वक कोई समाचार वकसी खास िगभ को ध्यान में रखकर वलखी जाती िै तो कोई अन्य
वकसी िगभ को ध्यान में रखकर। उसे वकसी बल ु ेवटन को सनु कर तरु न्त उसका आस्िादन करना िोता
िै। समाचार पत्र की तरि न तो उसके पास समय िोता िै और न इलेक्रावनक मीवडया के सामने
उसके पास शब्द और वचत्र से तालमेल बैिाने की सवु िधा। वप्रंट मीवडया और टेलीविजन माध्यम की
तलु ना में रे वडयो माध्यम ज्यादा चनु ौतीपणू भ माध्यम िै। इसवलए इसमें विषय चयन से ज्यादा प्रस्तवु त
मित्िपूणभ िो जाती िै, कारण यि वक इसमें ध्िवनयों के माध्यम से वचत्र खड़ा करने की चुनौती भी
िोती िै। समाचार पत्र या पस्ु तकें यानी वप्रन्ट मीवडया के बाद रे वडयो सिाभवधक परु ाना उपकरण िै।
इसे सबसे ज्यादा चनु ौती इलेक्रावनक मीवडया से वमली, बािजदू अपनी अतं वनभवित विशेषताओ ं के
कारण यि माध्यम आज भी अपनी प्रासंवगकता बनाये िुए िै।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
रे वडयो पर समाचारों के प्रस्तुतीकरण का तरीका भी टेलीविजन इत्यावद माध्यमों से वभन्न
पद्धवत से विकवसत िोता िै। रे वडयो समाचार की संरचना को उलटा वपरावमड शैली किा गया िै। इस
शैली में तथ्य सबसे मित्िपणू भ िोता िै उसके बाद र्टते िुए मित्िक्रम से अन्य तथ्य को रखा जाता
िै। कि सकते िैं वक सामान्य रूप से वकसी किानी में जैसे चरम वबन्दु अन्त में िोता िै िैसे िी इस
विधा में प्रारम्भ में। इस शैली में वकसी भी समाचार को तीन भागों में विभावजत कर देते िैं – इरं ो,
बााँडी और समापन। रे वडयो में वकसी ख़बर या समाचार को 2-3 पवं क्तयों में िी बता वदया जाता िै।
इसके बाद बााँडी में उसे विस्तार से, ब्यौरे के साथ वलखा जाता िै। इसके पश्चात् ख़बर समाप्त िो
जाती िै। रे वडयो समाचार के प्रसाररत इस इरं ो को देवखए- "विमाचल प्रदेश के धमभशाला वजले में
एक बस दर्ु टभ ना में आज 40 लोगों की मौत िो गई। मृतकों में पााँच मविलाएाँ और चार बच्चे शावमल
िैं।"
स्पष्टतया िम समझ सकते िैं वक रे वडयो प्रसारण एिं लेखन में अन्य माध्यमों से वभन्न
पद्धवत अपनायी जाती िै। अब िम रे वडयो लेखन के संदभभ में मित्िपूणभ वबन्दओ
ु ं पर संक्षपे में चचाभ
करें ग।े
रेहियो लेखन के आवश्यक हबन्दु
रे वडयो लेखन अन्य माध्यमों से ज्यादा चनु ौती भरा कायभ िै। कारण यि िै वक अखबार या
टीिी चैनल के दशभक िगभ के अनसु ार उसमें पररितभन वकया जा सकता िै या उसका स्िरूप वनवमभत
वकया जा सकता िै, लेवकन रे वडयो के श्रोता िगभ में सभी िगभ के लोग शावमल िैं और उनकी पिचान
भी मवु श्कल िोती िै। इस संदभभ में कुछ आिश्यक वबन्दओ ु ं का ध्यान रखना आिश्यक िोता िै –

 साफ/अटाइप्ि कााँपी
रे वडयो समाचारों का संबंध िमारी श्रिणेवन्द्रयों पर आधाररत िै। इस बात का
इसके लेखन में भी ध्यान रखा जाता िै। रे वडयो पर कोई भी कायभक्रम प्रसाररत िोने से पिू भ
समाचार िाचक उसे पिू भ में कई बार पढ़ने का अभ्यास करता िै। इसवलए समाचार िाचक
के वलए टाइप्ड और साफ-सथु री कााँपी तैयार की जाती िै। ऐसा इसवलए वकया जाता िै वक
िाचक वकसी शब्द का गलत िाचन न करे । टेलीविजन में चाँवू क शब्द के साथ वचत्र साथ-
साथ चलता रिता िै, इसवलए ििााँ तो गलत िाचन उतना बड़ा अपराध निीं िै, वजतना
रे वडयो में। समाचार िाचन के वलए तैयार कााँपी के संदभभ में वनयम यि िै वक उसे कम्प्यटू र
पर वरपल स्पेस में टाइप वकया जाना चाविए। कााँपी के दोनों ओर पयाभप्त िावशया (जगि)
छोड़ना चाविए तथा एक लाइन में अवधकतम 12-13 शब्द रखने चाविए। शब्द संख्या के
अनमु ान के आधार पर संपादक को ख़बर या कायभक्रम के विस्तार का बोध िेाता िै और
िि उसी अनसु ार उसे सपं ावदत करता िै। समाचार कॉपी लेखन के सदं भभ में यि स्पष्ट रूप से
जााँच लेना चाविए वक जवटल, उच्चारण में कविन शब्द, संवक्षप्ताक्षर, अक ं निीं वलखने

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चाविए वजससे िाचक को िाचन में असवु िधा िो। अक ं लेखन के सदं भभ में यि स्पष्ट रूप से
ध्यान रखना चाविए वक 1 से दस तक के अक ं ों को शब्दों में तथा 11 से 999 तक अक ं ों में
वलखना चाविए। अखबारों में जिााँ % और $ जैसे संकेत वचह्नों से काम चल जाता िै। ििी
रे वडयो में प्रवतशत और डालर वलखना अवनिायभ िै। आंकड़ों के लेखन में भी विशेष
सािधानी रखनी चाविए। आक ं ड़े तल
ु नात्मक रूप में (वपछले िषभ के मक ु ाबले इस
साल......) तथा उसी रूप में वलखने चाविए वजस रूप में िे बोलचाल में प्रयक्ु त िोते िैं।

 िेिलाइन, सदं भि और सहं क्षप्ताक्षर का हनयम


रे वडयो और वप्रन्ट मीवडया के डेडलाइन और समय संदभभ में अन्तर िै। वप्रन्ट मीवडया के
डेडलाइन जैसे स्पष्ट िोती िै िैसे रे वडयो माध्यम में निीं। रे वडयो में समय का अनश ु ान भी निीं िै।
यिााँ ख़बरे लगातार प्रसाररत की जाती िैं। रे वडयो में समय के संदभभ में विशेष ध्यान रखने की जरूरत
िोती िै। रे वडयो समाचार लेखन में आज, आज सबु ि, आज दोपिर, आज शाम आवद शब्दों का
प्रयोग वकया जाता िै। इसी तरि इसी सप्ताि, अगले सप्ताि, वपछले सप्ताि, इस मिीने, अगले
मिीने, इस साल, वपछले साल, वपछले रवििार इत्यावद शब्दों का प्रयोग करना चाविए।
इसी प्रकार संवक्षप्ताक्षरों के प्रयोग में भी सािधानी बरती जाती िै। इस संदभभ में पिले तो
इनके प्रयोग से बचना चाविए या पिले इनका परू ा नाम वलख देना चाविए। लोकवप्रय सवं क्षप्ताक्षरों
का प्रयोग तो वकया जा सकता जैसे – इब्ल्यटू ीओ, यवू नसेफ, साकभ , एसबीआई, आईबी इत्यावद।

20.7 टीवी के हलए ले खन


वप्रन्ट माध्यम ओर रे वडयो की अपेखा टेलीविजन की अपेक्षा टेलीविजन आज का
सिाभवधक लोकवप्रय माध्यम िै। टेलीविजन को दृश्य-श्रव्य माध्यम किा गया िै, इस माध्यम से िमारी
दोनों इवन्द्रयााँ (कान/आाँख) सवक्रय रिती िैं। इस दृवि से इसमें दृश्यों को ज्यादा प्रमख ु ता वमलती िै।
टेलीविजन वस्क्रप्ट में भी इस बात का खास ध्यान रखा जाता िै। टेलीविजन में भी इस बात पर
ज्यादा बल वदया जाता िै वक आपके लेखन में इस बात पर ज्यादा बल वदया जाता िै वक आपके
िारा वलखे/बोले गये शब्द वदख रिे दृश्य के अनक ु ू ल िों। चाँवू क इस माध्यम में श्रव्य-दृश्य दोनों का
उपयोग वकया जाता िै, इसवलए इसमें कम शब्दों में ज्यादा बताने की कुशलता पर बल वदया जाता
िै। कि सकते िैं वक टेलीविजन लेखन में शब्द का प्रयोग इस प्रकार वकया जाता िै वक िि दृश्य के
अनक ु ू ल िो। श्रव्य–दृश्य में प्रवतकूलता टेलीविजन लेखन का बिुत बड़ा दोष माना जाता िै।
टेलीविजन लेखन और वप्रन्ट लेखन के स्िरूप में मल
ू भतू अतं र िै। वप्रन्ट लेखन में पिले
संपणू भ र्टना की सचू ना दी जाती िै और वफर उसका विस्तार वकया जाता िै। अखबार की एक ख़बर
का इटं ो देखें – वदल्ली की चााँदनी चौक की एक इमारत में आज सबु ि आग लगने से 50 लोग

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ु विश्वविद्यालय 336
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
र्ायल िो गए। ये आग शॉटभ सवकभ ट की िजि से लगी। इसी ख़बर को टेलीविजन पर दसू रे प्रकार से
प्रस्ततु वकया जायेगा। टेलीविजन पर प्रस्ततु इस ख़बर में दो भाग कर वदये जायेंगे। ख़बर के प्रारवम्भक
चरण में मख्ु य ख़बर िोगी, वजसे न्यजू रीडर बगैर दृश्य के पढ़ेगा। ख़बर के वितीय चरण में परदे पर
न्यजू रीडर की जगि ख़बर से संबंवधत दृश्य वदखाए जाते िैं। टेलीविजन के प्रस्तवु त और तकनीक में
लगातार पररितभन िो रिा िै, इसवलए उसके लेखन के प्रमख ु वसद्धान्त पर चचाभ करने से पिू भ आइए
िम यि देखें वक टेलीविजन पर प्रस्ततु ख़बरों के प्रचवलत रूप कौन-कौन िैं –

टे लीहवजन पर ख़बरों के प्रस्तुतीकरण के हवहभन्न रूप


मीवडया का मख्ु य कायभ सचू ना देना िै। इस दृवि से वप्रन्ट माध्यम, रे वडयो और टेलीविजन
सभी समान िैं। लेवकन चाँवू क टेलीविजन की प्रस्तवु त का तरीका अन्य माध्यमों से वभन्न और
बिुआयामी िै, इसवलए इसकी सचू ना देने की पद्धवत भी कई चरणों में बाँटी िोती िैं। टेलीविजन पर
प्रस्ततु सचू ना या समाचार कई चरणों में विभक्त िोकर दशभक तक पिुचाँ ती िैं। टेलीविजन लेखन की
विशेषताओ ं के जानने से पिू भ टेलीविजन ख़बरों के विवभन्न चरणों को जानना जरूरी िै।
 ब्रेवकंग न्यजू या र्फलैश
 राइाई एक ं र
 फोन-इन
 एक ं र-विजअ ु ल
 एक ं र-बाइट
 लाइि
 एक ं र-पैकेज

 फ्लेश या ब्रेहकंग न्यूज

यि ख़बर प्रस्तवु त का प्रारंवभक रूप िै। इसमें कोई मित्िपणू भ या बड़ी ख़बर तत्काल दशभकों
तक पिुचाँ ाई जाती िै। इस न्यजू में ख़बरों का विस्तार निीं िोता िै। इसमें कम-से-कम शब्दों में मिज
सचू ना दी जाती िै।
 ड्राई एक
ं र
इस ख़बर में एकं र ख़बर के बारे में दशभकों को बताता िै वक किााँ, क्या, कब और कै से कोई
र्टना र्टी। जब तक ख़बर के दृश्य निीं आते एक ं र दशभकों को ररपोटभर से प्राप्त सचू ना या अन्य
स्रोतों से प्राप्त सचू नाओ ं को दशभकों के सामने प्रस्ततु करता िै।

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ु विश्वविद्यालय 337
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 फोन-इन
फोन-इन में ख़बर का विस्तार वकया जाता िै। इसमें एक ं र ररपोटभर से फोन से बात करके
सचू नाएाँ दशभकों तक पिुचाँ ाता िै। फोन-इन में ररपोटभर र्टना-स्थल पर मौजदू रिता िै ओर ििााँ से िि
ज्यादा-से-ज्यादा जानकारी प्रामावणक ढगं से दशभक को बताता िै।

 एक ं र-हवजुअल
एकं र-विजअ ु ल का तात्पयभ िै दृश्यों के आधार पर ख़बर तैयार करना। जब र्टना के दृश्य
(विजअु ल) एक ं र को वमल जाते िैं तो उन दृश्यों के आधार पर ख़बर वलखी जाती िै। बाद में उस
ख़बर को एक ं र पढ़ता िै। इस ख़बर की शरूु आत भी प्रारंवभक दृश्यों से िोती िुई और कुछ िाक्यों पर
उपलब्ध दृश्य वदखाये जाते िै।

 एक ं र-बाइट
बाइट का शावब्दक अथभ िै – कथन । टेलीविजन पत्रकाररता में बाइट को इधर बीच काफी
प्रवसवद्ध प्राप्त िुई िै। टेलीविजन में वकसी भी खबर को पुष्ट करने के वलए उससे संबंवधत बाइट
वदखाई जाती िै। वकसी मित्िपणू भ र्टना की सचू ना देने, उसके दृश्य वदखाने के पश्चात् उस र्टना से
सबं वं धत विशेषज्ञ या प्रत्यक्षदवशभयों का साक्षात्कार या कथन वदखाया जाता िै, इसे बाइट किते िै।
बाइट र्टना की प्रामावणकता की दृवि से मित्िपणू भ िै।

 लाइव
लाइि का तात्पयभ िै वकसी र्टना या, ख़बर का र्टनास्थल से सीधे प्रसारण करना। बाइट में
जिााँ र्टनास्थल का संवक्षप्त किरे ज िोता िै ििीं लाइि में संपणू भ र्टनाक्रम को किरे ज करने की
कोवशश की जाती िै। वकसी मित्िपूणभ र्टना के दृश्य तत्काल दशभकों तक पिुचाँ जायें, इसके वलए
र्टनास्थल पर मौजदू ररपोटभर और कै मरामैन ओ0बी0िैन के जररए र्टना को सीधे दशभकों को
वदखाते िैं।

 एक ं र-पैकेज
एकं र-पैकेज वकसी भी ख़बर को सपं णू तभ ा के साथ पेश करने का एक माध्यम िै। इसमें
संबंवधत र्टना के दृश्य, इससे जड़ु े लोगों की बाइट, ग्रावफक के जररए जरूरी सचू नाएाँ आवद िोती िै।
जाविर
े़ िै टेलीविजन लेखन ख़बर के उपयभक्ु त तरीकों से प्रभावित िोता िै। जरूरत और
आिश्यकता के अनसु ार शब्द और दृश्य का उपयोग ख़बर वलखने के वलए वकया जाता िै। िाक्य
गिन में इस बात का ध्यान रखा जाता िै वक शब्द से दृश्य का तादात्म्य/सतं ल
ु न वनभ सके । शब्द

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दृश्य को आगे ले जा सकें तथा दृश्य दसू रे दृश्य से जड़ु सके । टेलीविजन लेखन में इस बात का खास
ध्यान रखा जाता िै वक वजन दृश्यों को वदखाया जा रिा िै उन्िें दिु राया न जाये। यिााँ ररपोटभर/एक
ं र
की कल्पनाशवक्त की भवू मका मख्ु य िो जाती िै।
टेलीविजन लेखन में शब्द और दृश्य के साथ िी दो आिाजें और िोती िैं । एक िे कथन
िोते िैं जो ख़बर बनाने के वलए इस्तेमाल वकए जाते िैं और दसू री िे प्राकृ वतक आिाजें जो दृश्य के
साथ-साथ चलती िैं। इसवलए टीिी लेखन में वकसी ख़बर या िााँयस ओिर वलखते समय उसमें
ध्िवनयों के वलए स्पेस छोड़ देना चाविए। टेलीविजन पत्रकाररता में ऐसी ध्िवनयों को नेट/नेट साउंड
(प्रकृ वतक आिाजें) किते िैं। टेलीविजन लेखन के वसद्धान्त समयानसु ार बदलते रिते िैं। यिााँ िम
टेलीविजन लेखन से संबंवधत कुछ प्रमख ु बातों को रे खांवकत करें गे –
 टेलीविजन आज का सिाभवधक लोकवप्रय माध्यम िै। इसकी पिुचाँ सभी िगभ के भीतर तक
िै, इसवलए ख़बर लेखन में ऐसी भाषा का प्रयोग करना चाविए, जो सभी को आसानी से
समझ में आ जाये।
 टेलीविजन लेखन की भाषा सरल िो वकन्तु गररमामय िो। सरलता सपाटता निीं िै, िरन्
कल्पनाशील शब्दों को सिज रूप में प्रस्ततु करने की शैली िै। इस सदं भभ में यि ध्यान
रखना आिश्यक िै वक िाक्य छोटे और स्पष्ट िों।
 टेलीविजन लेखन की शैली सीधी, स्पष्ट िोनी चाविए। कम शब्दों में ज्यादा-से-ज्यादा
सचू ना को अपने भीतर उसे समाविष्ट करने की क्षमता से यक्ु त िोना चाविए।
अभ्यास प्रश्न
(1) सत्य/अअसत्य का चुनाव कीहजए।
1. सपं ादकीय की आदयाभ शब्द संख्या 2,000 से 5,000 शब्द िै। ( )
2. सपं ादकीय सपं ादक िारा समसामवयक विषय पर वलखी गई वटप्पणी िै । ( )
3. रे वडयो श्रव्य माध्यम िै। ( )
4. टेलीविजन वप्रन्ट माध्यम िै। ( )
5. वप्रन्ट माध्यम दृश्य माध्यम िै । ( )
(2) हटप्पणी कीहजए
1. संपादकीय

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
...................................................................................................................
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2. टेलीविजन ख़बर प्रस्तवु तकरण के विवभन्न रूप


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3. रे वडयो लेखन के आिश्यक वबन्दु


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.............................................................................................................
(3) ररक्त स्थान की पहू ति कीहजए –
1. संपादकीय वकसी भी पत्र की........................ िोती िै।
2. ध्िवन प्रयोग की दृवि से सबसे मित्िपणू भ माध्यम.............िै।
3. रे वडयो समाचार को इरं ो, बााँडी और.............. में विभक्त वकया गया िै।
4. रे वडयो ख़बर लेखन में एक लाइन में अवधकतम.................शब्द रखने चाविए।
5. ब्रेवकंग न्यजू में मिज................दी जाती िै।
6. एक ं र ररपोटभर से फोन पर बात करके सचू नाएाँ दशभकों तक पिुचाँ ाता िै, टेलीविजन की
तकनीकी शब्दािली में उसे..................किा जाता िै।
7. बाइट का अथभ िै ....................।
8. लाइि वकसी ख़बर को.......................से सीधे प्रसाररत वकया जाता िै ।

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
20.8 साराांश
इस इकाई के अध्ययन के पश्चात् आपने जाना वक –

 सपं ादन का िास्तविक अथभ िै – वकसी सामग्री से उसकी अशवु द्धयों को दरू करके उसे
पिनीय बनाना।
 सपं ादन में संपादक के वलए कुछ वसद्धान्तों का पालन करना अवनिायभ िोता िै जैसे – तथ्यों
की शद्ध
ु ता, िस्तपु रकता, वनष्पक्षता, सतं ल
ु न एिं स्रोत।
 सपं ादकीय वकसी भी पत्र की रीवत-नीवत विचार-संस्कार, प्रवतबद्धता का दपभण िोता िै।
समाचार पत्र में सचू नाओ ं का आधार प्राय: न्यजू एजेंवसयााँ िुआ करती िैं वकन्तु संपादकीय
वकसी भी पत्र की नीवत के अनरू ु प समसामवयक विषय पर वलखी गई वटप्पवणयााँ िोती िै।
 वप्रन्ट लेखन दृश्य माध्यम िै। वप्रन्ट लेखन में समस्त छपा िुआ सावित्य आता िै, जैसे –
समाचार पत्र, पवत्रकाएाँ, पस्ु तकें इत्यावद।
 वप्रन्ट लेखन में भाषा, व्याकरण, ितभनी, शैली, सरं चना, सप्रं ेषणीयता का ध्यान रखना
अवनिायभ िै।
 रे वडयो श्रव्य माध्यम िै। रे वडयो में ध्िवन का बिुत मित्ि िोता िै। इस माध्यम में प्रस्तवु त
पर बिुत बल वदया जाता िै क्योंवक इसमें ध्िवनयों के माध्यम से वचत्र खड़ा करने की
चनु ौती िोती िै।
 रे वडयो लेखन में वकसी ख़बर को तीन भागों में विभावजत कर वदया जाता िै। इरं ो, बॉंडी
और समापन। रे वडयो में वकसी खबर या समाचार को 2-3 पवं क्तयों में बता वदया जाता िै,
तथा उसके पश्चात् ख़बर समाप्त िोती िै।
 टेलीविजन आज का सिाभवधक लोकवप्रय एिं प्रभािशाली माध्यम िै । टेलीविजन दृश्य-
श्रव्य माध्यम किा गया िै। यि दृश्य की प्रमख
ु ता का माध्यम िै।
 टेलीविजन पर ख़बर प्रस्तवु तकरण के विवभन्न चरण िैं –
ब्रंवकंग न्यजू , राइाई एक
ं र, फोन-इन, एक ं र-विजअ ु ल, एकं र-बाइट, लाइि, एक
ं र-पैकेज
 टेलीविजन लेखन के संदभभ में इस बात का खास ध्यान रखा जाता िै वक इसमें इस प्रकार
से शब्द रखे जायें जो दृश्य के अनक ु ू ल िों, परू क िों।

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ु विश्वविद्यालय 341
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
20.9 शब्दावली
1. संपादन -
2. संपादकीय -
3. वप्रन्ट -
4. ब्रवकंग न्यजू -
5. बाइट -
6. लाइि -

20.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


(1) 1. असत्य
2. सत्य
3. सत्य
4. असत्य
5. सत्य

(3) 1. आत्मा
2. रे वडयो
3. समापन
4. 12-13 शब्द
5. सचू ना
6. एक ं र-फोन
7. कथन
8. र्टनास्थल

20.11 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. अवभव्यवक्त और माध्यम (जनसंचार माध्यम और लेखन, सृजनात्मक लेखन, व्याििाररक
लेखन), एन0सी0ई0आर0टी0 प्रकाशन, 2006
2. शक्ु ल, शशाक
ं – शोध प्रबन्ध (विदं ी के प्रमख
ु समाचार पत्रों की सपं ादकीय वटप्पवणयों का
तल
ु नात्मक अध्ययन), बी0एच0य0ू , 2006

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ु विश्वविद्यालय 342
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
20.12 उपयोगी पाठ्य सामग्री
1. िैवदक, िेद प्रताप – विदं ी पत्रकाररता का विविध स्िरूप

20.13 हनबं धात्मक प्रश्न


1. सपं ादन कला के वसद्धान्त पर वटप्पणी वलवखए।
2. वकसी भी पत्र में संपादकीय वटप्पवणयों की क्या भवू मका िोती िै, तकभ सवित उत्तर
दीवजए।

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ु विश्वविद्यालय 343
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इकाई 21 मीहिया /समाचार लेखन
इकाई की रूपरे खा
21.1 प्रस्तािना
21.2 उद्देश्य
21.3 समाचार संकलन और लेखन
21.3.1 समाचार का अथभ
21.3.2 समाचार सक ं लन
21.3.3 श्रेष्ठ समाचार लेखन की विशेषताएाँ
21.3.4 समाचार लेखन के सत्रू -छः ककार
21.4 विलोम स्तपू
21.5 इन्रो तथा लीड
21.5.1 इन्रो
21.5.2 लीड
21.6 इलेक्रावनक मीवडया और समाचार लेखन
21.6.1 इलेक्रावनक माध्यम
21.6.2 रे वडयो
21.6.3 दरू दशभन
21.7 मीवडया लेखन की अन्य विधाएाँ
21.7.1 फीचर तथा मैगजीन के वलए लेखन
21.7.2 फीचर वफल्म
21.7.3 विज्ञापन लेखन
21.8 साराश ं
21.9 शब्दािली
21.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
21.11 संदभभ ग्रंथ सचू ी
21.12 उपयोगी पाि्य सामग्री
21.13 वनबधं ात्मक प्रश्न

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ु विश्वविद्यालय 344
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21.1 प्रस्तावना
आप जानते िी िैं वक विन्दी पत्रकाररता के प्रारवम्भक दौर से िी सावित्य का पत्रकाररता से
गिरा ररश्ता रिा िै। शरू
ु आती पत्रकार अच्छे सावित्यकार भी थे। विन्दी पत्रकाररता में तो वििेदी यगु
और भारतेन्दु यगु इस तरि के यगु िैं वजनके नाम िी सावित्यकारों के नाम पर पड़े िैं। इसवलए
पत्रकाररता सावित्य का िी एक मित्िपणू भ उपागं िै। आज व्यािसावयकता का रूप ले लेने के कारण
पत्रकाररता की भाषा शैली में पररितभन आया िै।
प्रस्ततु इकाई में समाचार के संकलन से लेकर समाचार के सम्पादन और समाचार के
पािक, श्रोता, दशभक तक पिुचाँ ने तक की प्रवक्रया में वकस तकनीक का प्रयोग िोना चाविए, समाचार
का कौन सा अश ं अवधक मित्िपणू भ िै और कौन सा कम, समाचार वकस रूप में पािक अथिा
श्रोता तक पिुचाँ ना चाविए आवद बताया जायेगा।
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप विवभन्न जनसंचार माध्यमों के वलए लेखन कर सकें गे
तथा समाचार लेखन की बारीवकयााँ समझा सकें गे।

21.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप -

 समाचार का अथभ बता सकें गे।


 समाचार के स्रोत और समाचार संकलन के तरीकों को समझ जायेंग।े
 अच्छे समाचार लेखन की विशेषताएं बता सकें गे।
 समाचार के विवभन्न विस्सों को वलखने का तरीका समझा सके गे।
 मीवडया के अनुरूप समाचार लेखन कर सकें गे।

21.3 समाचार संकलन और ले खन


सृवि के आरम्भ से िी मनष्ु य अपनी भािानभु वू तयों को सम्प्रेवषत करने और दसू रों की
भािानभु वू तयों को ग्रिण करने के अनेक ससं ाधनों की खोज करता रिा िै। विवभन्न तरीकों से उसने
अपने को व्यक्त वकया िै। पिले संकेतों से, वफर संकेत वचह्नों से, वफर भाषा से और वलवप से िि
सचू नाएाँ लेने-देने के वलए प्रयास करता रिा िै। मनष्ु य न वसफभ अपने आस-पास के पररिेश से
पररवचत िोना चािता िै िरन् दवु नया के दसू रे क्षेत्रों में क्या र्वटत िो रिा िै- यि भी जानना चािता िै।

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ु विश्वविद्यालय 345
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वजज्ञासा की यि प्रिृवत्त मानि का मल ू भतू गणु िै। समस्त संसार के दैनवन्दन र्टनाक्रम से मनष्ु य को
यथाशीघ्र पररवचत कराने के प्रयासों में पत्रकाररता अपने विविध रूपों में विकवसत िो रिी िै। आज
पत्रकाररता में दैवनक पत्रों से लेकर साप्ताविक, पावक्षक, त्रैमावसक], अद्धभिावषभक, िावषभक आवद सभी
पवत्रकाएं तथा रे वडयो, दरू दशभन, जनसम्पकभ ि जन संचार से सम्बवन्धत विवभन्न विधाएं आ जाती िैं।
आज का तो समय िी सचू ना क्रावन्त का िै। तकनीकी उपलवब्धयों ने सचू नाओ ं को सम्प्रेवषत करना
अत्यन्त सिज बना वदया िै। यिााँ िमें यि विचार करना िै वक समाचार लेखन की िे कौन सी
विशेषताएाँ िैं वजनके आधार पर िम सचू नाओ ं को सम्यक् रूप से श्रोताओ,ं दशभकों तथा पािकों तक
प्रेवषत कर सकते िैं। वजस तरि िम भाषा का प्रयोग करते समय यि विचार करते िैं वक िम वकससे ,
वकस स्थान पर और क्या कि रिे िैं और इसके अनसु ार िम विविध भावषक प्रयोग करते िैं। परस्पर
बातचीत करते िुए, अध्यापन करते िुए,वजरि करते िुए, मरीज को देखते िुए, व्याख्यान देते िुए,
यानी पररवस्थवत, पररिेश आवद के आधार पर अलग अलग तरि की भाषा का प्रयोग करते िैं, उसी
प्रकार समाचार प्रेवषत करते समय भी िमें यि ध्यान रखना िोता िै वक समाचार वबल्कुल िीक िीक
तरीके से लोगों तक पिुचाँ जाए।
पत्रकाररता का लक्ष्य िै विश्व में र्टने िाली र्टनाओ ं की, सरकारी नीवतयों, गवतविवधयों
आवद की जानकारी जन सामान्य तक पिुचाँ ाना, जनसामान्य को वशवक्षत करना और जनसामान्य का
मनोरंजन करना। इसके वलए पत्रकार को एक अच्छा लेखक भी िोना चाविए। प्रवसद्ध पत्रकार एम.िी.
कामथ का किना िै – ‘‘A good write-up is a study in effeortlessness. It must flow
freely. It must be knowledgeable without being pretentious, entertaining
without being vulgar and informative without being news.” अच्छा लेखन सिज
प्रिाियक्त
ु , जानकारी देने िाला और सचू ना देने िाला िोना चाविए। यि लेखन चािे वकसी भी रूप
में िो- लेख, वनबन्ध, ररपोताभज, संस्मरण- आवद वकसी भी रूप में-यवद ग्रािकों को प्रभावित निीं कर
सके ,जानकाररयााँ निीं दे सके या मनोरंजन निीं कर सके तो श्रेष्ठ लेखन निीं किा जा सकता। िमने
यि देखा िै वक िम क्या कि रिे िैं यि मित्िपणू भ निीं िोता, बवल्क िम कै से कि रिे िैं, यि बात
बिुत मित्त्िपूणभ िोती िै। कोई अच्छा िक्ता वकसी भी विषय में जब बोलता िै, तो उसके पास िे
तथ्य िोते िैं जो प्रायः सभी को मालमू िोते िैं, लेवकन िि उन्िें इस तरि प्रस्ततु करता िै वक सनु ने
िाले उससे अत्यन्त प्रभावित िो जाते िैं। लेखन के सम्बन्ध में एक अिधारणा यि मानी जाती िै वक
लेखन का गणु सिजात एिं प्रकृ वत प्रदत्त िोता िै। वनवश्चत रुप से व्यवक्त की रुवच मित्िपणू भ िोती िै,
लेवकन इसका पररष्कार अभ्यास से िी सम्भि िै। सरल, सगु वित, सस्ु पि, विषयानक ु ू ल और
शालीन भाषा पािक और श्रोता को आकवषभत भी करती िै और विषय को भी स्पि करती िै। आइए,
वनम्न अभ्यास के िारा िम अपनी लेखन क्षमता और लेखन रुवच के विषय में जानें-
अच्छा लेखक के से बनें यि जानने के वलए आप वनम्न अभ्यािस की सिायता ले सकते िै।

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अभ्यास

प्रवतवदन आप क्या पढ़ते िैं भ समाचारपत्र/ पवत्रकायें/उपन्यास/अन्य


वनयवमत रुप से.................... ( इनमें से क्या पढ़ते िैं ?)
प्रायः........................................... ( इनमें से क्या पढ़ते िैं ?)
आप इनमें से वकसे वकतना समय वकसे देते िैं ?
आप क्या वलखते िैं ?
.............................................................................................................
.............................................................................................................
आपके वलखने की आिृवत्त क्या िै ?
प्रवतवदन.........................................................................................
वनयवमत.........................................................................................
समयानक
ु ू ल/विशेष अिसर/विशेष र्टना पर...........................................
आप सामान्यतः एक बैिक में वकतना वलख लेते िैं भ

 250 शब्द
 500 शब्द
 1,000 शब्द
 1,000 शब्द से अवधक
आप अपने राइार्फट को दबु ारा तैयार करते िैं? िााँ /निीं
यवद िााँ तो वकतनी बार वलखकर अवन्तम राइार्फट तैयार करते िैंभ
यवद निीं तो क्योंभ
अपने लेखन को अच्छा /बेितर बनाने के वलये आप क्या प्रयास करें गभे

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 347
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
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21.3.1 समाचार का अथि
समाचार लेखन के विषय में जानने से पिू भ िमें यि जानना जरूरी िै वक समाचार क्या िै।
समाचार अग्रं ेजी के न्यजू शब्द का पयाभय िै। न्यजू - यानी नया। यवद समाचारपत्र की आत्मा समाचार
िै तो समाचार की आत्मा निीनता िै। वििानों ने न्यजू के रोमन अक्षरों के आधार पर भी समाचार
की व्याख्या की िै।
इस दृवि से एन िै नाथभ (उत्तर), ई िै ईस्ट (पिू )भ , डब्ल्यू िै िेस्ट ((पवश्चम)और एस िै साउथ (दवक्षण)।
इसका आशय यि िुआ वक चारों वदशाओ ं से आने िाली सच ू नाएाँ समाचार िैं। (वब्रवटश समाचारपत्र
''मानचेस्टर गावडभयन'' िारा समाचार की पररभाषा जानने के वलए कराई गई प्रवतयोवगता में सिभश्रेष्ठ
र्ोवषत पररभाषा के अनसु ार)। समाचार की सिी पररभाषा िै-'समाचार वकसी अनोखी या असाधारण
र्टना की अविलम्ब सचू ना को किते िैं वजसके बारे में लोग प्रायः पिले कुछ न जानते िों लेवकन
वजसे तरु न्त िी जानने की अवधक से अवधक लोगों में रुवच िो'।
समाचार के वलये सबसे मित्िपणू भ बात यि िै वक िि सत्य िोना चाविए। समाचार को न
के िल सत्य बवल्क पणू भ सत्य िोना चाविये। आधा सच झिू से भी अवधक र्ातक ि दष्ु प्रभाि िाला
िोता िै। समाचार से जड़ु ा एक अन्य तथ्य यि िै वक आमतौर पर यि वकसी िास्तविक र्टना का
वनष्पक्ष तथा िास्तविक वििरण िोता िै लेवकन मित्िपणू भ बात यि िै वक के िल र्टना, चािे िि
वकतनी भी बड़ी क्यों न िो, समाचार निीं िोती बवल्क र्टना का वििरण या इसकी सचू ना िी
समाचार िोता िै। तात्पयभ यि िै वक जब तक र्टना की जानकारी या सचू ना िम तक वकसी न वकसी
माध्यम से पिुचं ती निीं, िि िमारे वलए कोई समाचार निीं िोता। इसी प्रकार िर नई जानकारी भी
समाचार निीं िो सकती। इवतिास पढ़ने के दौरान िमें ऐसी अनेक जानकाररयां वमलती िैं जो िमारे
वलये नई िोती िैं ि वजन्िें िम कल तक निीं जानते थे लेवकन सोवचए क्या इतने से उन्िें समाचार
किा जा सकता िै भ जाविर िै वक प्रश्न का जिाब ना िी िै। अथाभत समाचार के वलये सम्बवन्धत
जानकारी का नया ि ताजा िोना भी आिश्यक िै। इस सम्बन्ध में उवचत िी किा गया िै वक

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 348
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
समाचारों का वगीकरण िम तीन तरि से कर सकते िैं-स्िरूप के आधार पर, विषय के आधार
पर तथा प्रकृ वत के आधार पर। िम वनम्न तावलका से इस िगीकरण के विषय में जान सकते िैं-
समाचार

गण
ु एवं स्वरूप के आधार हवषय के आधार पर प्रकृहत के आधार पर
पर

 सामान्य समाचार  अपराध सम्बंधी  वििरणात्मक


 विशेष समाचार  राजनीवतक  विश्लेषणात्मक
 खेल सम्बधं ी
 आवथभक
 सांस्कृ वतक
 स्थानीय
 राष्रीय
 िैवश्वक
 र्टनात्मक
 अदालती
 शैवक्षक
 प्रशासवनक
 विज्ञान

अभ्यास प्रश्न
1. समाचार के अंग्रेजी शब्द NEWS में N का आशय िै -
New (नया) Now (अभी)
North (उत्तर) None (कुछ निीं)
2. ररक्त स्थान की पूहति कीहजये :-

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ु विश्वविद्यालय 349
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
क) समाचार लेखक को............. िोना चाविये। ( स्िाध्यायी / स्ियसं ेिी)

21.3.2 समाचार संकलन


एक समाचार लेखक के वलए यि जानना अत्यािश्यक िै वक िि वजन समाचारों का
सक ं लन कर रिा िै िे प्रामावणक िों उनमें सम्प्रेषणीयता िो, प्रभािोत्पादकता िो और उसके िारा
भेजी जाने िाली सचू नाएाँ अधरू ी न िों। उसे वकस तरि के समाचार संकवलत करने िैं। उन समाचारों
का तात्कावलक मित्त्ि िै या स्थायी, समाचार वकस समय प्रकावशत िोने िैं, तत्काल या कुछ समय
के उपरान्त भ इन सभी प्रश्नों के समाधान के वलए िमें सिभप्रथम यि जानना जरूरी िै वक समाचारों के
स्रोत क्या िैं भ सामान्यतः समाचार स्रोतों को िम दो भागों में बााँट सकते िैं- प्रत्यक्ष स्रोत और
अप्रत्यक्ष स्रोत। प्रत्यक्ष स्रोत से आशय िै समाचार लेखक िारा स्ियं र्टना आवद का प्रत्यक्षदशी
िोकर समाचार एकत्र करना। वकसी सािभजवनक सभा, समारोि, धरना, प्रदशभन, भेंटिाताभ, पत्रकार
िाताभ आवद में या वकसी र्टनास्थल पर उपवस्थत समाचार लेखक स्ियं मित्िपूणभ तथ्य संकवलत
करता िै। अप्रत्यक्ष स्रोत से आशय िै, जब संिाददाता र्टनास्थल पर स्ियं उपवस्थत निीं िोता
बवल्क दसू रे स्रोतों से समाचार संकवलत करता । सचू ना प्राप्त करने के कुछ मित्िपणू भ स्रोत वनम्नांवकत

व्यक्तत,संस्था

संगठन सर्वेक्षण

पत्र-पत्रत्रकाएाँ, जनाल्स
इलेतरोतनक मीडिया
समाचार और फीचर
सरकारी-गैर सरकारी
एजेंससयााँ
प्रेस वर्वज्ञक्प्तय ं या
सूचना केन्‍दर सूचना प्राप्त
करने के प्रत्यक्ष
अप्रत्यक्ष स्रोत

भें टर्वाताा या
गोपनीय या सरकारी
पत्रकारर्वाताा
दस्तार्वेज या जनश्रतु त
स्र्वयं की उपक्स्थतत

िैं-

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 350
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
इन स्रोतों से प्राप्त सचू नाओ ं को सक ं वलत करने के उपरान्त समाचार लेखक का मख्ु य और सबसे
मित्िपूणभ कायभ िै समाचारों की विश्वसनीयता का पता लगाकर उनका सम्पादन करना। प्रायः
समाचारस्रोतों से वमलने िाली सचू नाओ ं पर आाँख मदाँू कर भरोसा निीं वकया जा सकता िै क्योंवक
स्रोतों से प्राप्त सचू नाएाँ एक पक्षीय, स्िाथभ से प्रेररत, पिू ाभग्रि से यक्त
ु सनु ीसनु ाई या अफिािों पर
आधाररत िो सकती िैं। सत्रू ों का सिी इस्तेमाल तभी िो सकता िैे़ जब समाचार लेखक सभी स्रोतों
से प्राप्त जानकारी का विश्ले षण करे , उनकी विश्वसनीयता के प्रवत आश्वस्त िो, प्रमाणों िारा समाचार
की पवु ि करे । इसके वलए समाचार लेखक में कुछ विशेषताएाँ िोनी चाविए।

 समाचार लेखक को वनष्पक्ष िोना चाविए,


 उसे विषय की परू ी जानकारी िोनी चाविए,
 उसमें सझू बझू , प्रत्यत्ु पन्नमवतत्ि िोना चाविए,
 अन्धविश्वास से उसे दरू रिना चाविए,
 वििादास्पद, सनसनी फै लाने िाले, पािकों को गलत संदश े देने िाले और देश और
समाज को क्षवत पिुचाँ ाने िाले समाचारों को समझने और उन्िें सािधानी से सम्प्रेवषत करने
की क्षमता िोनी चाविए।
 उसे लेखन कला की समझ िोनी चाविए। उसका भावषक ज्ञान उसके लेखन को सिी ढंग से
सम्प्रेवषत करने में बिुत मित्त्िपणू भ भवू मका अदा करता िै। उसकी भाषा सरल, प्रिाियक्त
ु ,
स्पि और विषयानरू ु प िोनी चाविए।
 एक अच्छे लेखक को एक अच्छा पािक और श्रोता भी िोना चाविए।

यि प्रश्न उिता िै हक उसे क्या पढ़ना चाहिए ?


इसका उत्तर िै वक उसे विवभन्न अखबार, पवत्रकाएाँ, पस्ु तकें पढ़नी चाविए इससे उसे स्ियं
यि ज्ञात िो जाएगा वक उसे क्या पढ़ना चाविए। इसके वलए भ पस्ु तकालय जाना चाविए। विषयसचू ी
से चनु कर अपनी रुवच या जरूरत के अनसु ार पस्ु तक लेनी चाविए । वकसी भी विषय की जानकारी
एक अच्छे लेखन को और भी गणु ित्ता से सम्पन्न करती िै। यिााँ िम यि भी कि सकते िैं वक वकसी
विषय की जानकारी सचू ना स्रोतों के सिी इस्तेमाल के वलए जरूरी िै। उदािरणतः यवद आप वकसी
सावित्यकार, िैज्ञावनक, नेता, वकसी नामचीन व्यवक्त या विशेषज्ञ आवद से साक्षात्कार ले रिे िैं और
आपको उसके और उसके विषय के सन्दभभ में िीक िीक जानकाररयााँ निीं िैं, तो आपका साक्षात्कार
सफल निीं िो सकता। वकसी राजनीवतज्ञ से साक्षात्कार करते समय आपको सामवयक राजनीवतक
वस्थवतयों और समीकरणों का ज्ञान िोने पर िी साक्षात्कार को सफल बनाया जा सकता िै। स्पि िै

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 351
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
वक वकसी भी समाचार लेखक के वलए यि आिश्यक िै वक िि अपनी प्रवतभा, सझू बझू , अध्ययन,
पररश्रम तथा सािधानी के बल पर समाचारलेखन में कौशल प्राप्त करे और वकसी भी समाचार के
संकलन के समय भािक ु ता, बात को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने तथा उत्तेजना आवद से प्रभावित िुए
वबना समाचार संकवलत करे ।
समाचार लेखक के गणु ों के विषय में यि माना गया िै वक उसे समाचार की समझ िोनीचाविए, उसे
समाचार संकलन के सन्दभभ में सािधान रिना चाविए। सतकभ ता या स्फूवतभ, वक्षप्रता, वजज्ञासा जैसे
गणु उसमें िोने चाविए। उसे प्रत्येक बात को ज्यों का त्यों स्िीकार निीं करना चाविए, तथ्यों के
अन्िेषण िारा अपने मतामत का वनणभय करना चाविए। उसमें दरू दृवि, आत्मानुशासन, सत्यवनष्ठा,
वनभभयता और गवतशीलता िोनी चाविए।

'यदि मैं अपनी आस्था के प्रदि कितव्यदनष्ठ रहूँ िो क्रोध में आकर या द्वेष में कुछ भी
नहीं दिखूँगा। मैं दिना दकसी प्रयोजन के भी नहीं दिखूँगा। मैं यह नहीं चाहगूँ ा दक
दिखिे समय मैं के वि भावनाओ ं में िह जाऊूँ। पाठकों को क्या मािम दक हर सप्ताह
अपना दवषय चुनने और शब्िों के इस्िेमाि में मुझे अपने पर दकिना दनयन्त्रण रखना
पड़िा है। ऐसा करिे समय मुझे अपने आप में झाूँकने का और अपनी कमजोररयों को
िर करने का अवसर दमि जािा है। अक्सर मेरा खािीपन या क्रोध मुझे कुछ िड़ी या
कड़वी िािें दिखने पर मजिर कर िेिा है। यह एक कड़ी परीक्षा का समय होिा है,
िेदकन िाि में उन शब्िों को काटना या िििना एक अच्छा अभ्यास हो जािा है। ' -
मिात्मा गांधी के ये विचार एक अच्छे लेखक के विषय में स्पितः इवं गत करते िैं।

वििानों का यि मानना िै वक अच्छा लेखक िि िै जो वलखे, बार बार वलखे, अभ्यास


करे , वलखकर दोिराए, सधु ार करे , जानकारों को वदखाए और ऐसा बार बार करे । आपसे बार-बार
किा जाता रिा िोगा वक अपने पाि को दोिराइये या अपने वलखे को दबु ारा पढ़कर सधु ार करें ।
अपने वलखे को बार बार पढ़ने से अपनी िी कवमयााँ खदु नज़र आ जाती िैं। इसवलए समाचार
लेखक के वलए भी यि जरूरी िै वक िि अपनी कल्पनाशीलता और रचनात्मकता से तैयार वकए गए
अपने लेखन को बार बार पढ़े, वफर अपनी स्पिता से उन्िें प्रस्ततु करे ।
अभ्यास प्रश्न
3. ररक्त स्थानों की पहू ति कीहजये-
समाचार प्रावप्त के स्रोतों को िम ..........भागों में बााँट सकते िैं। (पााँच / दो)
4. समाचार लेखक को अच्छा पािक और अच्छा श्रोता भी िोना चाविये। ( सिी / गलत)

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 352
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21.3.4 िेष्ठ समाचार लेखन की हवशेषताएाँ
समाचार सकं लन और समाचार चयन के बाद अगला मित्िपणू भ चरण िोता िै समाचार
लेखन। पत्रकाररता के क्षेत्र में श्रेष्ठ लेखन िि िै जो स्पि िो, संवक्षप्त िो, विषयानरू
ु प िो। जो सचू नाएाँ
िीक िीक रूप में सम्प्रेवषत करने में समथभ िो, विचारों और भािनाओ ं को वबना बढ़ाए-चढ़ाए पािक
तक पिुचाँ ाए। एक अच्छे लेखन की शैली कसी िुई, प्रिािमयी सिज और नपे तल ु े सार यक्त
ु शब्दों
में प्रस्ततु की जानी चाविए। समाचार की भाषा सिज और सरल िोनी चाविए। समाचारों को देखते,
सनु ते या पढ़ते िुए व्यवक्त सदा बिुत िी सिज िो यि आिश्यक निीं िै। इसवलए अच्छा िो वक
समाचार वलखते समय छोटे-छोटे और सरल िाक्य बनां।ं छोटे-छोटे अनच्ु छे द बनां।ं अप्रचवलत
शब्दों के प्रयोग से बचें। बोलचाल की भाषा का प्रयोग करें । वक्लष्ट और व्याख्या-सापेक्ष शब्दों के
प्रयोग से बचें। लम्बे-लम्बे समासों के प्रयोग से बचें। जरूरी िोने पर इस तरि की भाषा का प्रयोग
करना पड़ सकता िै। भाषा में अश्लीलता और भद्दापन निीं िोना चाविए। यवद वकसी दसू री भाषा से
अनिु ाद भी कर रिे िों तो उसे अपनी भाषा और समाज के अनरू ु प बनाने का प्रयास करें कोई भी
समाचार तभी सफल िोता िै, जब िि अपने पािकों, दशभकों और श्रोताओ ं में वजज्ञासा बनाए रखे।
एक अच्छे लेखन के वलए लेखक को दो बातों का ध्यान विशेषतः रखना चाविए। पिला- सचू नाओ ं
को इकट्ठा करने और दसू रा एकवत्रत सचू नाओ ं को कौशल से प्रस्ततु करना। सचू नाएाँ प्राप्त करने के
प्रत्येक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष स्रोतों को अपनी प्रवतभा और सझू बझू के बल पर पिचान कर उन्िें
समाचार का रूप देने में एक कुशल लेखक िी समथभ िो सकता िै।
21.3.5 समाचार लेखन के सत्रू -छैःककार
समाचार लेखन के वलए जो तथ्य जटु ाने िोते िैं, उनमें छः ककारों का विशेष मित्ि िै। ये
छः ककार - प्रवसद्ध अग्रं ेजी पत्रकार एडविन एल. शमू नै ने सन् 1894 में प्रकावशत अपनी पस्ु तक
'प्रैवक्टकल जनभवलज़्म' में इन सत्रू ों के विषय में चचाभ की िै। ििााँ इन सत्रू ों को फाइि(5)-डब्ल्यू तथा
िन(1)एच Who?What? When? Where? Why? और How? के आधार पर फाइि डब्ल्यू
वथयरी भी किा जाता िै। चाँवू क विन्दी इन सत्रू ों का पिला अक्षर 'क' से आरम्भ िोता िै अतः इन्िें छः
ककार वसद्धान्त किा जाने लगा। इन छः ककारों में वकसी भी समाचार से सन्दवभभत सभी उत्तर
समावित िैं। 'र्टना क्या िै'? 'किााँ र्टी िै'? ' कब र्टी िै'? 'कौन इसके वलए उत्तरदायी िैभ 'र्टना
का कारण 'क्या िै'भऔर र्टना कै से र्टीभ इन सिालों के जबाि न के िल एक समाचार लेखन की
उपयोवगता को वसद्ध करते िैं अवपतु इन सत्रू ों के आधार पर लेखक जो तथ्य जटु ाता िै, िे समाचार
पािकों के मन में भी समाचार के विषय में जानने की वजज्ञासा को बल देते िैं।
समाचार लेखन में सिाभवधक मित्िपणू भ भवू मका वनभाते िैं छः ककार ( फाइि(5)-डब्ल्यू तथा
िन(1)एच )
कौन र्टना को अजं ाम देने िाला कौन था भ

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 353
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
क्या क्या र्टना िुई भ
कब र्टना कब िुई भ
किााँ र्टना किााँ िुई भ
क्यों र्टना क्यों िुई भ
कै से र्टना कै से िुई भ
नीचे वलखे दो उदािरणों से छः ककार के विषय में स्पितः जानकारी िो जाएगी-
1. दो अक्टूबर को विद्यालय में आयोवजत भाषण प्रवतयोवगता में नेिा प्रथम आई।
2. कल रात बाजार में मामल
ू ी किा -सनु ी में श्याम ने रमेश को छुरा मार कर र्ायल कर वदया ।
कौन क्या कब किााँ क्यों कै से
1 नेिा प्रथम आई 2 अक्टूबर विद्यालय भाषण प्रवतयोवगता में
कौन क्या कब किााँ क्यों कै से
2 नेिा प्रथम आई दो अक्टूबर को विद्यालय में भाषण प्रवतयोवगता में
कौन क्या कब किााँ क्यों कै से
श्याम ने रमेश को र्ायल वकया कल रात बाजार में किा -सनु ी में छुरा मारकर
अभ्यास
अमर उजाला में प्रकावशत एक समाचार िै-
जगं ली िावथयों को देखकर मनकंिपरु में मची भगदड़
Story Update : Thursday, January 05, 2012 1:06 AM
रामनगर। जगं ली िावथयों ने पिलगढ़, मनकंिपरु गािं में फसलें रौंद डाली। आबादी में िाथी र्सु ने से
गांि में भगदड़ मच गई। इससे पिले चक ु म, संदु रखाल, छोई, नाथपू रु , आमपोखरा, ढेला, सांिल्दे
क्षेत्र में भी िन्यजीिों ने फसलों को नक
ु सान पिुचं ाया िै। मनकंिपरु वनिासी कृ ष्णानंद जोशी ने
बताया वक िावथयों ने गेिू,ं चना, टमाटर की फसल बबाभद कर दी िै। मगं लिार रात जगं ली िावथयों
का झडंु गांि की मजदरू कालोनी में र्सु आया। इससे ग्रामीणों में िड़कंप मच गया। झोपड़ी में रिने

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 354
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
िाले मजदरू ों ने पक्के मकानों में वछपकर अपनी जान बचाई। वजस कारण गािं में भगदड़ मच गई।
रूप वसंि राित ने बताया वक दाबका नदी वकनारे करीब दो वकमी दरू ी तक करीब 100 एकड़ जमीन
में उगी फसल बबाभद िो गई। र्टना से आक्रोवशत ग्रामीणों ने िनावधकाररयों से गांि वकनारे सरु क्षा
दीिार बनिाने, ग्रामीणों को मआु िजा वदलाने की मांग को लेकर आदं ोलन की चेतािनी दी िै।
-इस समाचार को पढ़कर बताइए वक क्या आपकी उक्त समाचार विषयक वजज्ञासाओ ं -कौन, क्या,
कब, किााँ, कै से, वकसने, क्यों का समाधान िुआभ
अभ्यास प्रश्न

6.समाचार भाषा की कुछ विशेषतायें नीचे दी गई ंिैं। इनमें से सिी और गलत को पिचावनये।
अ) परू ा समाचार एक अनच्ु छे द में वलखा जापा चाविये। (सिी / गलत)
ब) छोटे-छोटे और सरल िाक्य िोने चाविये। (सिी / गलत)
स) वक्लष्ट शब्दों का प्रयोग करना चाविये। (सिी / गलत)
द) लम्बे-लम्बे समासों का प्रयोग निीं करना चाविये। (सिी / गलत)

21.4 हवलोम स्तूप


समाचार लेखन के वलए तथ्य जटु ाने के बाद समाचार लेखक को समाचार की सरं चना
करनी िोती िै। सामान्य तौर पर लेखन की एक पद्धवत िै वक लेखक पिले अपने विषय को रोचक
ढंग से प्रस्ततु करता िै क्योंवक उसे अपने विचारों की प्रस्तवु त के वलए एक मािौल बनाना िोता िै
अतः िि आरम्भ में कम मित्िपणू भ सचू नाएाँ देता िै, वफर विषयिस्तु का विस्तार करता िै और इसके
उपरान्त सिाभवधक मित्िपूणभ सूचना देकर अपनी बात समाप्त करता िै।
जैसे आपने अपनी छोटी कक्षाओ ं में वनबन्ध लेखन के विषय में यि जाना िोगा वक वनबन्ध
वलखते समय िम सबसे पिले विषय का पररचय देते िैं, वजसे िम प्रस्तािना किते िैं, वफर विषय का
विस्तार करते िैं और अन्त में वनष्कषाभत्मक उपसंिार प्रस्ततु कर देते िैं। वकसी भी प्रकार के लेखन में
यिी तरीका अपनाया जाता िै। इसे लेखन की स्तपू अथिा सोपान (सीढ़ी)पद्धवत कि सकते िैं।

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वकन्तु यि पद्धवत समाचार लेखन के वलए बिुत कारगर निीं िै। समाचार लेखन में यवद िम इस
पद्धवत का उपयोग करें गे तो समापन तक आते आते पािक की वजज्ञासा वबल्कुल समाप्त िो जाएगी।
िैसे भी आज के व्यस्तताओ ं से भरे समय में वकसी व्यवक्त के पास इतना समय निीं िोता वक िि
वकसी समाचार को विस्तार से पढ़े, इसवलए समाचार लेखक का प्रयास िोता िै वक िि समाचार इस
तरि से प्रस्ततु करे वक समाचार के विषय में काफी जानकारी शीषभक से और अवधकांश जानकारी
इन्रो से िो जाय और बाकी सचू नाएाँ अन्त में आ जाएाँ तावक यवद पािक उस विस्से को छोड़ दे तो
भी उस तक परू ा समाचार पिुचाँ जाय, या सम्पादक को स्थानाभाि आवद के कारण समाचार को
छोटा करना पड़े तो िि उस कम मित्ि के विस्से को काट सके । तकनीकी शब्दािली में इस पद्धवत
को विलोम स्तपू नाम वदया गया िै। विलोम स्तपू के आधार पर वदये जाने िाले समाचारों को िम इस
रूप में रख सकते िैं-

उपयभक्त
ु दोनों पद्धवतयों के विषय में जानने पर यि स्पि िो जाता िै वक सामान्य तौर पर समाचार
लेखन से इतर जैसे फीचर लेखन, वनबन्ध लेखन, स्टोरी लेखन या मानिीय अवभरुवच के समाचारों
के वलए सीधे वपरावमड की शैली का प्रयोग वकया जाता िै और विलोम वपरावमड शैली में प्रायः
समाचार लेखन वकया जाता िै। वकसी उपन्यास या किानी में सबसे मित्िपणू भ विस्सा उसका
आवखरी विस्सा िोता िै, जबवक समाचार लेखन में सबसे मित्िपणू भ विस्सा आरवम्भक विस्सा िोता
िै। विलोम स्तपू शैली में लेखक का प्रयास यि िोता िै वक समाचार का सारतत्ि सबसे पिले, वफर
आमख ु का विस्तार और अन्त में कम मित्ि का वििरण आए। उसकी कोवशश िोती िै वक कम से
कम समय और शब्दों में अवधक से अवधक जानकारी पािक तक पिुचाँ ा दे।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 356
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जब आप समाचार लेखन आरम्भ करें , आपको यि स्मरण रखना िोगा वक एक अच्छे
लेखन के वलए आपको सरल और स्पि शब्दों में छोटे-छोटे िाक्य, छोटे-छोटे पैराग्राफ में अपनी
बात रखनी चाविए। समाज में अवधकावधक व्यिहृत शब्दों का प्रयोग आपके मित्िपणू भ वबन्दओ ु ं को
प्रभािशाली रूप से पािक तक प्रेवषत करता िै। आपको संयक्त
ु और वमश्र िाक्यों की अपेक्षा सरल
िाक्यों का प्रयोग करना चाविए। समाचार स्रोतों का िीक-िीक प्रयोग करना चाविए। समाचार इस
तरि वलखना चाविए वक कौन, क्या, कब, किााँ, कै से, वकसने, क्यों- इन प्रश्नों के उत्तर पािकों को
यथाशीघ्र वमल जाए। समाचार लेखन के वलए विलोम स्तपू शैली का प्रयोग उपयक्त ु िै।

21.5 इन्रो तथा लीि

21.5.1 इन्रो
िम समाचार के स्रोत, सत्रू और संकलन तथा समाचार लेखन शैली के विषय में चचाभ कर
चक ु े िैं। समाचार संकलन के बाद समाचार वलखने की बारी आती िै। समाचार लेखन का आरम्भ
इन्रो (परू ा शब्द इन्रोडक्शन-यानी विषय पररचय या मख ु ड़ा या आमख ु ) से वकया जाता िै। इन्रो से
िम परू े समाचार का पररचय करा देते िैं। इन्रो सवं क्षप्त, मित्िपणू भ बातों से यक्त
ु और समाचार लेखन
के वलए सबसे खास िोता िै। इसमें सबसे मित्िपूणभ सचू ना दो-तीन पंवक्तयों में दे दी जाती िै। यि
भािात्मक, वििरणात्मक, कथात्मक िो सकता िै। प्रकृ वत, वशल्प, शैली आवद के आधार पर
आमख ु के अनेक भेद िोते िैं। प्रिीण दीवक्षत ने अपनी पस्ु तक जनमाध्यम और पत्रकाररता में 21
प्रकार के इन आमख ु ों की चचाभ की िै-
सारांश, आमख ु , विस्तृत, दर्ु टभ ना, पंच, धमभयद्ध
ु , आश्चयभजनक, बल ु ेट, आप और मैं,
वनलवम्बत अवभरुवच, व्याख्यात्मक, सामान्य रूप, प्रश्न, उद्धरण, आवश्रतिाक्यांश, संज्ञा िाक्यांश,
तब और अब, यत्र-तत्र, उपाख्यान, आलंकाररक, सवू क्त आज आमख ु । समाचार का आमख ु सरल,
संवक्षप्त, सर्न, प्रभािशाली और आकषभक िोना चाविए। एक किाित समाज में बिुत प्रचवलत िै-
First impression is last impression. िस्ततु ः वकसी कृ वत, वकसी व्यवक्त, वकसी स्थान का
बाह्य रूपाकार-गैटअप सबसे पिले प्रभावित करता िै। वकसी वकताब की वज़ल्द आकषभक िोने पर
उस वकताब को उलटपल ु ट कर देखने का मन अनायास िोने लगता िै : इसी तरि एक अच्छे इन्रो
का प्रभाि जनमन पर बिुत अवधक पड़ता िै। आकषभक िोने के साथ इन्रो को विषयानरू ु प,
प्रामावणक, समाचार का सार प्रस्ततु करने िाला िोना चाविए और उसे वलखते समय अवतशयोवक्त,
काल्पवनकता, अनािश्यक वििरण आवद निीं िोना चाविए। आमख ु में समाचार का सार सक्ष ं ेप में
आ जाता िैं। यवद आमख ु पािक की रुवच जगाने में सफल िोता िै तो पािक परू ा समाचार उत्सक ु ता
से पढ़ जाता िै। ऐसे समाचार, समाचार पत्र की वबक्री बढ़ाने में मित्िपणू भ भवू मका वनभाते िैं। आमख ु
वलखने के वलए वनम्नवलवखत तथ्यों को ध्यान में रखा जाना चाविए।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 357
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
1. सिाभवधक मित्िपणू भ तथ्य का चयन करें ।
2. समाचार की मल
ू सिं दे ना को अवभव्यक्त करने िाला िो।
3. आमख
ु संवक्षप्त लेवकन तथ्यपणू भ िों।
4. भाषा सरल, सिज और विषयानक
ु ू ल िोनी चाविये।
5. समाचार यवद वकसी िक्तव्य, प्रस्ताि अथिा सचू ना से सम्बवन्धत िो तो उसका मख्ु य वबन्दु
आमख
ु का विषय बनाया जाना चाविये।
21.5.2 लीि
वकसी भी सफल पत्रकार की पिचान यि िै वक िि अपने समाचार की लीड कै से बनाता िै।
प्रश्न उिता िै वक लीड क्या िैभलीड का शावब्दक अथभ िै -आगे आगे चलना, नेतत्ृ ि करना, मागभ
वदखाना -&show the wayA इस तरि समाचार लेखन के सन्दभभ में लीड का मतलब िै समाचार
का िि रूप, जो समाचार के वलए मागभ वदखाए। यानी समाचार का सबसे अिम विस्सा िै लीड। लीड
की रचना समाचार को आकषभक बनाने के वलए की जाती िै इसके साथ िी लीड में क्या, कब, किााँ,
कौन, कै से, वकसे-आवद प्रश्नों का उत्तर भी िोता िै। कुछ वििान् इन्रों को िी लीड की सज्ञं ा देते िैं।
लेवकन जैसा वक इस शब्द से िी प्रकट िोता िै -लीड समाचार का िि भाग िै, जो समाचार का
नेतत्ृ ि करता िै और लीडर तो एक िी िो सकता िै। इसे िम इस प्रकार समझ सकते िैं वक वकसी
समाचार पत्र में विविध प्रकार के समाचार प्रकावशत िोते िैं, या रे वडयो, टेलीविजन में अनेक प्रकार
के समाचार प्रसाररत िोते िैं। सम्पादक विभाग इन सभी समाचारों में से सबसे मख्ु य समाचार को इस
रूप में प्रस्ततु करने का प्रयास करता िै वक पािक श्रोता या दशभक अन्य समाचार पढ़े सनु े अथिा
देखे या निीं, प्रमखु समाचार पर उसका ध्यान अिश्यमेि जाए। इस रूप में लीड से आशय िै-
समाचार का अग्रांश या आरम्भ, जिााँ समाचार का मख्ु य वबन्दु रिता िै। जबवक इन्रो में समाचार का
सार या समाचार की प्रस्तािना िोती िै। इससे जाविर िै वक लीड की रचना समाचार के वलए सबसे
मित्िपूणभ िै। लीड अनेक रूपों में वलखी जाती िै। यथा- समाचारसार (News summary Lead)]
िाक्यांश लीड (Short Sentence Lead)] उद्धरण लीड Quotation Lead)] विरोधाभासी लीड
(Contrast Lead)] वपक्चर लीड (Picture s Lead)]िास्यरसात्मक लीड (Humours Lead)
आवद।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 358
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
21.6 इले क्राहनक मीहिया और समाचार ले खन
समाचारों का संकलन करने या उन्िें वलखने का उद्देश्य तभी परू ा िोता िै, जब िे पािकों,
दशभकों या श्रोताओ ं तक सम्प्रेवषत िों। इसके वलए समाचार पत्र तो प्रमख
ु माध्यम िैं िी, न्यजू मैगजीन
समाचार पवत्रका भी उतना िी बड़ा माध्यम िैं। कि सकते िैं, न्यजू मैगजीन अन्य पवत्रकाओ ं की तरि
साप्ताविक, पावक्षक, मावसक आवद रूप में प्रकावशत िोती िै और उसमें समाचारों का वनयवमत
कालक्रमानुसार वििरण,उनकी पृष्ठभवू म आवद प्रधानतः प्रकावशत िोते िैं। दैवनक समाचारपत्रों से
न्यजू मैगजीन इस रूप में वभन्न िोती िैं, वक दैवनक समाचारपत्र मवु श्कल से चौबीस र्ण्टों की खबर दे
पाते िैं, और समाचारपवत्रकाएाँ समाचारों की श्रृख ं लाओ ं को एक दसू रे से जोड़ते िुए विवभन्न
दृविकोणों से समाचारों का विश्लेषण, दैवनक समाचारों का वतवथक्रम से वििरणावद प्रस्ततु करती िैं।
इस तरि पािक को एक स्थान पर राजनीवतक, संसदीय, सािभजवनक, शैक्षवणक समाचार वमल जाते
िैं।
21.6.1 इलेक्राहनक माध्यम
समाचार पत्र-पवत्रकाएाँ समाचारों के सम्प्रेषण के मवु द्रत माध्यम िैं तो रेहियो, टेलीहवजन,
इन्टरनेट आहद इलेक्राहनक माध्यम। वसद्धान्ततः इन सभी संसाधनों में समाचार संकलन का काम
करीब-करीब समान िै, भेद िै कायभप्रणाली और प्रवक्रया का। रे वडयो प्रसारण सनु ने और टीिी तथा
इन्टरनेट (उपग्रि प्रणाली विशेषतः) सनु ने और देखने का विषय िै। समाचार-पत्र का एक संस्करण
सामान्यतः चौबीस र्ण्टे में एक बार वनकलता िै, रे वडयो, टीिी आवद में लगभग प्रवत वमनट समाचार
वििरण प्रसारण की व्यिस्था िै। रे वडयो समाचारिाचन में उच्चारण को बिुत मित्ि वदया जाता िै,
समाचारपत्रों में वलवखत शब्दों को। समाचार पत्र में अगर उपलब्ध स्थान का मित्ि िै तो रे वडयो में
उपलब्ध समय का। अनेक शोधों से यि वनष्कषभ वनकले िैं वक रे वडयो में प्रसाररत 10 वमनट के
बलु ेवटन में अवधक से अवधक 11 समाचार िी श्रोताओ ं के ध्यान को के वन्द्रत रख सकते िैं। दरू दशभन
समाचारों में समाचार सनु ने के साथ-साथ समाचार िाचक को देखा भी जा सकता िै। वचत्रात्मकता
या दृश्यात्मकता दरू दशभन समाचारों का प्राण िै। शब्दों की अपेक्षा वचत्रों,दृश्यों को ििााँ अवधक
मित्ि वदया जाता िै, यानी समाचार प्रस्ततु ीकरण ििााँ एक कला िै। उपग्रि प्रणाली से समाचार
जगत में क्रावन्तकारी पररितभन आया िै। इसके सिारे एक स्थान में आधी रात को तैयार समाचारपत्र
िजारों मील दरू स्थान में उसी समय प्रकावशत िो जाता िै, अज्ञात स्थानों की भी जानकारी उपग्रि
िारा वमल जाती िै। फोटो रांसमीटर िारा एक देश की गवतविवधयााँ दसू रे देश में तरु न्त प्रकावशत िो
जाती िैं।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 359
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
21.6.2 रेहियो
रे वडयो अपनी प्रकृ वत में मद्रु ण और दृश्य-श्रव्य माध्यमों से वभन्न िै अतः उसके वलए ऐसी
भाषा का प्रयोग आिश्यक िोता िै, जो श्रोताओ ं के मन में समाचार, संिाद या िाताभ सनु ने के साथ
साथ वबम्ब भी वनवमभत करती चले। आपको यिााँ यि जानना चाविए वक रे वडयो की शब्दािली तीन
प्रकार की सामग्री से वनवमभत िोती िै- िाक् ¼speech½ सगं ीत सवित ध्िवन प्रभाि¼sound
effect including music½ और मौन ¼silence½)। मवु द्रत िाक्य दबु ारा-वतबारा पढ़कर समझे
जा सकते िैं पर रे वडयो के श्रोता को यि सवु िधा निीं िोती अतः रे वडयो की भाषा स्पि, सरल और
सिज िोनी चाविए। िक्ता के उच्चारण स्िर और ताल की विविधता के िारा रे वडयो की भाषा अपना
प्रभाि जनमन पर छोडती िै। ध्िवन वबम्ब वनवमभत करने में सिायक िोती िै और मौन शब्दों के प्रभाि
को बढ़ाने में सिायक िोता िै। इस दृवि से रे वडयो लेखन के वलए इन बातों को ध्यान में रखना
चाविए-

 सामान्यतः साधारण बोलचाल की भाषा का प्रयोग वकया जाना चाविए।


 िाक्य बिुत लम्बे या वमवश्रत निीं िोने चाविए।
 विषयानुरूप भाषा का प्रयोग वकया जाना चाविए।
 समय सीमा का ध्यान रखना रे वडयो लेखन के वलए अत्यािश्यक िै। समाचार, िाताभ, नाटक
या वकसी भी विषय के वलए वनधाभररत समय सीमा में िी अपने लेखन को समेटना चाविए।
21.6.3 दूरदशिन
रे वडयो की िी तरि दरू दशभन के वलए भी लेखन एक कला िै। क्योंवक दरू दशभन के वलए
वलखते समय लेखक को प्रत्येक क्षण दृश्य और वबम्बों का ध्यान रखना िोता िै और साथ िी
वनमाभता, वनदेशक, कलाकार आवद दरू दशभन की परू ी टीम का भी ध्यान रखना िोता िै अतः टीिी
लेखक को बिुत सािधानी की आिश्यकता िोती िै। रे वडयो की तरि िाणी, ध्िवन और मौन का
प्रयोग टीिी में भी िोता िै लेवकन इससे अवधक ििााँ दृश्यबन्ध का ध्यान रखना पिली जरूरत िै।
दरू दशभन के वलए समाचार संयोजन, सृजन और सम्पादन के वलए भाषा का ज्ञान समाचार
िाचक का उच्चारण, िाचक की भाषा में प्रिाि, सिजता और सरलता िोनी चाविए। सवं क्षप्तता,
स्पिता, वचत्रात्मकता और तारतम्यता दरू दशभन समाचारलेखन की विशेषताएाँ िैं। इस तरि दरू दशभन के
लेखक में एक ओर परू ी टीिी टीम की आिश्यकताओ ं को ध्यान में रखकर लेखन करना चाविए
और दसू री ओर अपने दशभकों की रुवच और आिश्यकता का भी ध्यान रखना चाविए। सिज,
प्रिाियक्त
ु रोचक, तारतम्यता से सम्पन्न, वचत्रात्मक भाषा का प्रयोग करते िुए उसे टीिी के वलए
लेखन करना चाविए।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 360
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
अभ्यास प्रश्न
7. हनम्न वाक्यों में से कौन सा सिी िै ?
क) टी.िी. के वलये समाचार की प्रस्तवु त में आने िाले दृश्य वबम्बों के साथ तालमेल िोना चाविये।
ख) टी.िी. के वलये समाचार की प्रस्तवु त में आने िाले दृश्य वबम्बों के साथ तालमेल िोना जरूरी
निीं िै।
8. रे वडयो के वलये वलखते समय भाषा वबम्बात्मक िोनी चाविये। (सिी / गलत)

21.7 मीहिया ले खन की अन्य हवधाएँ

21.7.1 फीचर तथा मैगजीन के हलए लेखन


फीचर लेखन की एक आधवु नकतम विधा िै। सामान्य तौर पर यि अन्तर करना मवु श्कल िै
वक समाचार लेखन से फीचर लेखन में क्या अन्तर िै। फीचर समाचार निीं िै, ररपोवटांग या लेख या
वनबन्ध से भी वभन्न िै फीचर। ये न कथात्मक िोते िैं और न विशद्ध ु भािनात्मक। इसमें समाचार की
पणू भ जानकारी िोती िै, तथ्यों का िणभन िोता िै, र्टनाक्रम का उल्लेख भी िोता िै और लेखक िारा
वकया गया विश्ले षण भी िोता िै। समाचार में र्टनाओ ं का सीधे-सीधे उल्लेख कर वदया जाता िै,
फीचर में उसी समाचार या वकसी र्टना को रोचक ढगं से प्रस्ततु वकया जाता िै। उदािरणतः एक
समाचारपत्र वलखता िै-'वपछले चार वदनों से कुमाऊाँ के पिभतीय क्षेत्र में वनरंतर बफभ बारी िो रिी िै,
वजससे जनजीिन अस्तव्यस्त िो गया िै- यि समाचार िै। इसी समाचार को यवद इस रूप में वलखा
जाता िै- िर िषभ की तरि इस िषभ भी पिाड़ों में िण्ड अपने चरम पर िै बफभ वगरने के साथ जनजीिन
अस्तव्यस्त िोने लगा िै। लगातार िो रिी बफभ बारी ने अपना प्रभाि वदखाना शरुु कर वदया िै। कुमाऊाँ
भर में इससे यातायात बावधत िो रिा िै। कई इलाकों में वबजली गल ु िै, सदु रू िती इलाकों से वकसी
प्रकार का सम्पकभ निीं िो पा रिा िै, कई स्थानों पर भस्ू खलन िुआ िै, कई कच्चे र्र ढि गए िैं,
अनेक स्थानों पर इस प्राकृ वतक आपदा के कारण लोग काल किवलत भी िो रिे िैं, ऐसे समय में जन
प्रवतवनवधयों, वजला प्रशासन को एकजटु िोकर इस समस्या का समाधान करने के वलए कमर कसनी
िोगी- यि भी समाचार के सभी तथ्यों को प्रस्ततु करता िै। लेवकन तथ्यों को मावमभक रूप में रखने के
कारण इस लेखन का प्रभाि पािकों पर समाचार से अवधक पड़ता िै, यिीं पर समाचार फीचर का
रूप ले लेता िै। र्टनाक्रम, र्टना की पृष्ठभवू म, प्रस्तवु तकरण का आकषभण, लेखकीय कौशल और
मानिीय संिदे नाएाँ- ये सभी तत्ि एक सफल फीचर के अवनिायभ अगं िैं। िम समाचार और फीचर में
इस रूप में अन्तर कर सकते िैं-समाचार में आमख ु ,कथाविस्तार और समापन तीन अिस्थाएाँ िोती िैं

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 361
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
और फीचर में एक आकषभक शरुु आत की जाती िै। फीचर के आमख ु से पािक अनायास उसे पढ़ने
के वलए तत्पर िो जाते िैं, वफर विस्तार से विषयिस्तु का िणभन वकया जाता िै, इसके बाद उसमें
चरम सीमा -यानी कथा का िि विस्सा-वजसे आज प्रचवलत शब्दािली में ''पंच'' किा जाता िै,
आता िै, और वफर वनष्कषाभत्मक उपसंिार िोता िै। स्पि िै वक फीचर न तो समाचार की तरि संवक्षप्त
िोता िै और न के िल सचू नात्मक। एक रचनात्मक लेख, वजसमें व्यवक्तगत अनभु वू तयााँ िों, वकसी
र्टना का विस्तृत िणभन और विश्ले षण िो, जो पािक को जानकारी दे रिा िो और उसका मनोरंजन
भी कर रिा िो और उसके वलए ज्ञानिधभक भी िो, फीचर िै। लेखक फीचर के माध्यम से
जानकाररयों को अपनी कल्पना और सजभनात्मकता से न के िल रोचक बनाकर प्रस्ततु करता िै
अवपतु भािनात्मक दृवि से भी प्रस्ततु करता िै। फीचर के िल राजनीवतक सन्दभों या राजनीवतक
र्टनाओ ं से िी जड़ु े निीं िोते िैं अवपतु साविवत्यक, सामावजक, सांस्कृ वतक, धावमभक आस्थाओ,ं
रीवतररिाजों या अन्य वकसी भी विषय पर आधाररत िो सकते िैं।
फीचर लेखक के वलए जरूरी िै वक िि सबसे पिले अपने विषय को समझे, उसमें गिराई
तक जाए, उसका गम्भीरता से तावकभ क विश्लेषण करे और मानिीय दृविकोण से फीचर लेखन करे ।
सकारात्मक सामावजक सन्दभों को बल देने िाले तथ्यों को प्रस्ततु करे और फीचर के चार मल ू
तत्िों- सच्चाई, वजज्ञासा, रोचकता और विश्वसनीयता - को ध्यान में रखते िुए अपनी बात प्रस्ततु
करे । एक और बात का ध्यान फीचर लेखन के वलए रखना बिुत आिश्यक िै वक फीचर लेखक का
भाषा पर अवधकार िोना चाविए। यवद उसमें अवभव्यवक्त का कौशल निीं िै, तो िि सफल फीचर
लेखक निीं िो सकता। फीचर लेखन का विषय कोई भी व्यवक्त, स्थान, र्टना िो सकता िै। फीचर
लेखक सक्ष्ू म दृवि, बौवद्धक वजज्ञासा और भावषक कौशल से वकसी भी तरि के संिादफीचर,
सचू नाप्रधान फीचर, अनभु ि या उपलवब्धयों पर आधाररत फीचर वलख सकता िै। एक फीचर या
मैगजीन के वलए वलखे जाने िाले लेख को विलोम वपरावमड तरीके से वलखना जरूरी निीं िै। लेखक
इस विषय में स्ितन्त्र िै वक िि वकस तरि से अपनी बात प्रस्ततु करे , बस पािक को लेखक के
उद्देश्य का ज्ञान िोना चाविए वक िि यि फीचर क्यों वलख रिा िै।
21.7.2 फीचर हफल्म
आप अक्सर फीचर हफल्म शब्द को सनु ते िैं। आप यि भी जानते िैं वक वफल्में परू े विश्व में
मनोरंजन का सिाभवधक लोकवप्रय और व्यािसावयक साधन िै। फीचर वफल्म लेखन के वलए
सिभप्रथम कथा विचार, वजसे िम थीम, थॉट प्िाइटं किते िैं, का चनु ाि वकया जाता िै-जैसे अमीरी-
गरीबी सम्बन्धों का िन्ि, प्रेम, पाररिाररक ररश्ते, स्त्री सर्ं षभ, काननू , गलतफिमी आवद। वफर थीम पर
आधाररत संवक्षप्त कथा तैयार की जाती िै और उसके बाद इस कथा को विकावसत वकया जाता िै,
तदपु रान्त पटकथा वलखी जाती िै। पटकथा में कथा विस्तार दृश्य के क्रम वनधाभरण के साथ वकया
जाता िै। इसके वलए लेखक में चौकन्नापन, जानकारी अवभव्यवक्त कौशल का िोना आिश्यक िै।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 362
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21.7.3 हवज्ञापन लेखन
आज की दवु नया को विज्ञापनी दवु नया किा जाता िै। िावणवज्यक और व्यािसावयक फलकों
के प्रसार के वलए विज्ञापन जनमत तैयार करते िैं। क्योंवक विज्ञापन का मख्ु य उद्देश्य उत्पाद की वबक्री
करना िै इसवलए उसके िारा उपभोक्ता का ध्यान आकवषभत करने, उपभोक्ता में उस उत्पाद को
खरीदने की रुवच जगाने का कायभ करना िोता िै और इसके वलए बिुत जरूरी िै वक विज्ञापन लेखन
कौशल से वकया जाय। विज्ञापन तैयार करते समय यि जानना जरूरी िै वक वजस िस्तु का विज्ञापन
तैयार वकया जा रिा िै, िि िस्तु कै सी िैभ इसके प्रयोग क्या िैं भउसका उपयोग वकन लोगों के िारा
वकया जाना िै। आिश्यकतानुसार विज्ञापन ब्लॉक, स्लाइड, लर्ु वफल्म, फोल्डर, पवु स्तका, िोवडांग
आवद विज्ञापन के िे संसाधन िैं, वजनके िारा विज्ञापन प्रसाररत िोता िै। वफर बारी आती िै विज्ञापन
लेखन की।
विज्ञापन लेखन के वलए सबसे अवधक मित्ि िोता िै शीषभक का। शीषभक िारा िी उपभोक्ता
का ध्यान उस उत्पाद के प्रवत के वन्द्रत िो जाता िै, वजसके वलए विज्ञापन तैयार वकया गया िै। वफर
उपशीषभक और कथ्य का विस्तार वकया जाता िै। विज्ञापन की भाषा का विज्ञापन की सफलता-
असफलता में बिुत अवधक िाथ िोता िै। अतः विज्ञापन श्रव्य, सपु ाि्य भाषा में विवशि शैली में
वलखे जाते िैं। विज्ञापन लेखक को अत्यवधक सािधानी से वलखना चाविए क्योंवक विज्ञापन के
प्रत्येक शब्द पर उपभोक्ता का ध्यान जाता िै और एक भी गलत शब्द का प्रयोग परू े विज्ञापन की
मित्ता को समाप्त कर देता िै।

21.8 सारांश
प्रस्ततु इकाई का अध्ययन करते समय आपने जाना वक समाचार लेखन एक कला िै।
लेवकन लेखन की यि विधा एक िैज्ञावनक विधा िै। आपने इस इकाई में समाचार लेखन की
तकनीक के बारे में जाना ।अच्छे लेखन के वलये के िल कागजी ज्ञान निीं वनरन्तर अभ्यास जरूरी िै।
समाचार लेखन एक वनरन्तर अभ्यास से वनखरने िाली कला िै।
अब आप समझ गये िैं वक मीवडया के विविध माध्यमों के वलये लेखन में क्या समानतायें
और कौनसी विवशष्टताएाँ िैं। समाचार लेखन में भाषा और शैली का विशेष मित्ि िै। समाचार स्रोतों
पर विशेष ध्यान वदया जाना भी जरूरी िै। समाचार के मित्ि और प्राथवमकता के आधार पर उसकी
सरं चना की जानी चाविये।
इस इकाई के अध्ययन के बाद आप समाचार और समाचार लेखन की तकनीक के बारे में
बता सकते िैं। आप बता सकते िैं वक अच्छा समाचार लेखक बनने के वलये क्या गणु िोने चाविये।

उत्तराखंड मक्त
ु विश्वविद्यालय 363
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
आप समाचार वलखने की शैली के बारे में बता सकते िैं। समाचार का अथभ, समाचार लेखन में
समाचार संकलन की विवध, स्रोत, इन्रो, लीड, छ: ककार, श्रेष्ठ समाचार लेखन की विशेषताएाँ,
विलोम स्तपू , इलेक्रावनक मीवडया और समाचार लेखन मीवडया लेखन की अन्य विधाओ ं फीचर
तथा मैगजीन के वलए लेखन: फीचर वफल्म विज्ञापन लेखन के सम्बंध में बता सकते िैं।

21.9 शब्दावली

 इन्रो: समाचार लेखन का आरम्भ इन्रो (परू ा शब्द इन्रोडक्शन-यानी विषय पररचय
या मख
ु ड़ा या आमख
ु ) से वकया जाता िै।
 लीि: लीड समाचार का िि भाग िै, जो समाचार का नेतत्ृ ि करता िै वकसी समाचार
पत्र के प्रथम पृष्ि में छपने िाला मख्ु य समाचार लीड किलाता िै।
 छैः ककार : समाचार लेखन में सिाभवधक मित्िपणू भ भवू मका वनभाते िैं छः ककार ।
र्टना को अजं ाम देने िाला कौन थाभ क्या र्टना िुई? र्टना कब
िुई? किााँ र्टना किााँ िुई? र्टना क्यों िुई? र्टना कै से िुई?
 हवलोम स्तूप: सामान्य तौर पर लेखन की एक पद्धवत(शैली) िै। इसमें लेखक
आरम्भ में कम मित्िपूणभ सचू नाएाँ देता िै, वफर विषयिस्तु का
विस्तार करता िै और इसके उपरान्त सिाभवधक मित्िपणू भ सूचना
देकर अपनी बात समाप्त करता िै। वनबन्ध, समाचार अथिा लेख की
इस सरंचना को विलोम स्तपू किते िैं।
 फीचर: लेखन की एक आधवु नक विधा का नाम िै फीचर लेखन में वकसी
सामवयक विषय को तथ्य के साथ-साथ विश्लेषण करते िुए
लेखकीय विचार प्रस्ततु वकए जाते िैं।
 हक्लष्ट्ट भाषा : कविन और आसानी से समझ में न आने िाली भाषा।

21.10 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


1. North (उत्तर वदशा) 2. स्िाध्यायी 3. दो 4. सिी 5. िााँ
क्या, 1.जगं ली िावथयों ने पिलगढ़, मनकंिपरु गांि में फसलें रौंद डाली। 2.मजदरू ों ने पक्के मकानों
में वछपकर अपनी जान बचाई। 3. र्टना से आक्रोवशत ग्रामीणों ने िनावधकाररयों से गांि वकनारे

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सरु क्षा दीिार बनिाने, ग्रामीणों को मआ
ु िजा वदलाने की मांग को लेकर आदं ोलन की चेतािनी दी
िै। (क्या िुआ)
कि, मगं लिार रात (कब हुआ)
कहाूँ, रामनगर के पिलगढ़, मनकंिपरु गांि में
कै से, जगं ली िावथयों का झंडु आ जाने से।
क्यों 1.जगं ली िावथयों के आने से 2.र्टना से आक्रोवशत ग्रामीणों ने
दकसने, 1.जगं ली िावथयों ने 2. मजदरू ों ने 3.र्टना से आक्रोवशत ग्रामीणों ने
6. अ) गलत ब) सिी स) गलत द) सिी
7. क)
8. सिी

21.11 संदर्भ ग्रं थ सूची


1. पंत, निीन चन्द्र,समाचार लेखन और सम्पादन कवनष्क पवब्लशसभ, सं. 2007।

21.12 उपयोगी पाठ्यसामग्री


2. गप्ु ता, योगेश कुमार, मीवडया के विविध आयाम ,आविष्कार पवब्लशसभ, जयपरु , स.ं 2006।
3. पंत, निीन चन्द्र,समाचार लेखन और सम्पादन कवनष्क पवब्लशसभ, सं. 2007 ।
4. डॉ. िररमोिन, रे वडयो और दरू दशभन की पत्रकाररता, तक्षवशला प्रकाशन, सं. 2006 ।
5. George A. Hough, News writing ,Kanishka Publishers, Distributors,
Delhi, Edition 2000.
6. Writing for the press , JMC-3,part-3,IGNOU subject material.

21.12 हनबं धात्मक प्रश्न


1. समाचार से क्या आशय िै? समाचारों को वकतने रूपों में िगीकृ त वकया जा सकता िैभ
2. विस्तार से बताइये की समाचार लेखक को लेखन के वलए वकन-वकन बातों को ध्यान में
रखना चाविए ?

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इकाई 22 अनुिाद
इकाई की रूपरे खा
22.1 प्रस्तािना
22.2 उद्देश्य
22.3 अनिु ाद शब्द का अथभ और व्याख्या
22.4 अनिु ाद की पररभाषा
22.5 अनिु ाद का मित्ि
22.6 अनिु ाद की प्रवक्रया
22.7 अनिु ाद के प्रकार
22.8 अनिु ाद तथा वलप्यंतरण
22.9 अनिु ाद कायभ:नमनू ा विश्ले षण तथा अनिु ाद पयाभय
22.10 साराश ं
22.11 शब्दािली
22.12 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर
22.13 संदभभ ग्रन्थ सचू ी
22.14 उपयोगी पाि्य सामग्री
22.15 वनबधं ात्मक प्रश्न

22.1 प्रस्तावना
आपने वपछली इकाईयों में प्रयोजनमल ू क विन्दी के स्िरूप मित्ि तथा इससे जड़ु े विविध
पक्षों का अध्ययन वकया। आप इसका मित्ि ि प्रयोग स्पि कर सकते िैं। आपको यि ज्ञात िी िै वक
प्रयोजनमल ू क से तात्पायभ वकसी विशेष उद्देश्य से िै। अनिु ाद कायभ भी एक विवशि एिं मित्िपणू भ
वक्रया िै।
प्रस्ततु इकाई में अनिु ाद का अथभ बताया गया िै और उसकी व्याख्या की गयी िै। अनुिाद
की प्रवक्रया अनिु ादक की भवू मका और अनिु ाद के मित्ि पर प्रकाश डाला गया िै। अनिु ाद के
विवभन्न प्रकार बताते िुए वलप्यतं रण और अनिु ाद का अतं र स्पि वकया गया िै। उदािरण के साथ
अनिु ाद के व्याििाररक पक्ष को भी वदया गया िै। इस इकाई के अध्य्यन के बाद आप अनिु ाद विधा

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
के सम्बधं में विस्तृत जानकारी प्राप्त कर इसका व्यििार में उपयोग कर सकें गे तथा अन्य लोगों को
अनिु ाद के मित्ि तथा बारीवकयों को समझा सकें गे।

22.2 उद्देश्य
इस इकाई के अध्य्यन के बाद आप :-
अनिु ाद का अथभ बतायेंगे और उसकी व्याख्या कर सकें गे।
अनिु ाद की प्रवक्रया को समझा सकें गे।
अनिु ादक की भवू मका स्पि कर सकें गे।
अनिु ाद के मित्ि पर प्रकाश डालेंग।े
अनिु ाद के विवभन्न प्रकार तथा अनिु ाद और वलप्यंतरण का अन्तर स्पि कर सकें गे ।
अनिु ाद कायभ का व्याििाररक ज्ञान दे सकें गे ।

22.3 अनुवाद शब्द का अथभ और व्याख्या


अनिु ाद पिले किी गई बात को दबु ारा किना िोता िै। अनिु ाद संस्कृ त का तत्सम शब्द
िै। संस्कृ त कोशों में वदए गए अथभ के अनसु ार अनिु ाद को पनु रुभवक्त किते िैं। पनु रूवक्त का अथभ िोता
िै वफर से किना . सस्ं कृ त की िद् धातु में र्ञ्य प्रत्यय जड़ु ने से वाद शब्द बनता िै। इसका अथभ
िुआ किना, किने की वक्रया या किी िुई बात। वफर इसमें पीछे , बाद में आवद के अथभ में प्रयक्त ु िोने
िाला उपसगभ अनु लगने से यि शब्द बनता िै - अनिु ाद । इसका अथभ िुआ पनु रू कथन । शब्दाथभ
वचन्तामवण कोश में अनिु ाद अथभ िै प्राप्तस्य पनु रू कथनम् या ज्ञाताथभस्यप्रवतपादनम।् इसका अथभ िै
द प्राप्त या ज्ञात बात को एक बार वफर किना या प्रवतपादन करना। प्राचीन भारत में वशक्षा-दीक्षा की
मौवखक परम्परा प्रचवलत थी। गरू ु जो किते थे वशष्य उसे दिु राते थे। इस दिु राने को अनिु ाद शब्द से
जाना जाता था। आजकल विन्दी में अनिु ाद का आशय िै एक भाषा में किी िुई बात को दसू री
भाषा में किना इसके वलए उलथा और तरजमु ा शब्द का प्रयोग भी वकया जाता िै। आजकल
अनिु ाद शब्द अग्रं ेजी के रान्सलेशन के रूप में प्रचवलत िै। इसका अथभ िै वकसी शब्द को एक भाषा
से दसू री भाषा में ले जाना वजसका आशय वनकला एक भाषा से दसू री भाषा में भाि विचार ले
जाना। उपयभक्त ु वििरण से स्पि िै मल ू कथ्य के अथभ की पनु रािृवत्त को िी दसू रे शब्दों में और

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प्रकारान्तर से अथभ का भाषान्तरण किा जा सकता िै। इस दृवि से अनिु ाद के तीन सन्दभभ िैं -
समभावषक अन्य भावषक ,विमावषक और अन्तरसंकेतपरक।
समभावषक संदभभ में अथभ की पुनरािृवत्त एक िी भाषा की सीमा के भीतर िोती िै परन्तु इसके आयाम
अलग-अलग िो सकते िैं। मख्ु यत: आयाम दो िै - कालक्रवमक और समकावलक। कालक्रवमक
आधार पर समभावषक अनिु ाद एक िी भाषा के ऐवतिावसक विकास की दो वनकटस्थ अिस्थाओ ं
में िोता िै जैसे परु ानी विन्दी से आधवु नक विन्दी में अनिु ाद। एककावलक आयाम पर समभावषक
अनिु ाद मख्ु य रूप से तीन स्तरों पर िोता िै बोली. शैली और माध्यम । अनुिाद का शावब्दक अथभ
जानने के बाद यि स्पि िो जाता िै वक अनिु ाद में अनिु ादक को मल ू लेखक की किी िुई बात को
दसू री भाषा मे किना िोता िै। अब आप समझ गये िैं वक अनिु ाद एक भाषा से दसू री भाषा में वकया
जाता िै। वजस भाषा से अनिु ाद वकया जाता िै अथाभत् मल ू पाि वजस भाषा में िै िि स्रोत िै। अत:
मल ू पाि की भाषा को मल ू भाषा या स्रोत भाषा किा जाता िैं। उस भाषा से वजस भाषा में अनिु ाद
करना िै िि लक्ष्य िोती िै। अत: उसे प्रस्ततु भाषा या श्लक्ष्या भाषा किा जाता िै। संक्षेप में अनिु ाद
के क्षेत्र में वजस भाषा से अनिु ाद करना िोता िै उसे स्रोत भाषा और वजसमें अनिु ाद करना िोता िै
उसे लक्ष्या-भाषा किते िैं। आगे के वििेचन में िम इसी स्रोत भाषा और लक्ष्याभाषा शब्द का प्रयोग
करें ग।े अब आपको स्पि िो गया िै वक मल ू लेखक की किी िुई बात को अनिु ादक को दसू री भाषा
में किना या वलखना िोता िै। इस प्रवक्रया में उसके वलए मल ू रूप में किी गई बात को समझना
आिश्यक िोता िै क्योंवक यवद िि मल ू बात को समझेगा िी निीं तो िि उसे प्रस्ततु कै से कर पायेगा
मल ू पाि के दो मित्िपणू भ पक्ष िोते िैं- 1.हवषय 2.भाषा। अच्छे अनिु ाद के वलए अनुिादक को
विषय , स्रोत भाषा तथा लक्ष्या भाषा तीनों का ज्ञान िोना चाविए यवद अग्रं ेजी की वकसी किानी का
विन्दी में अनिु ाद करना िो तो यि आिश्यक िै वक किानी में व्यक्त देश काल पररवस्थवत और मल ू
संिदे ना की जानकारी िो तथा अग्रं ेजी भाषा का अच्छा ज्ञान िो तावक जो कुछ किा गया िो और
वजस तरि से किा गया िो उसे अनिु ादक पणू भतया समझ सके । जब आप मल ू पाि में किी गई बात
और उसे प्रस्ततु करने के ढगं को समझ लेंगे तभी उस बात को इसी प्रभाि के साथ लक्ष्य भाषा
;वजसमें अनिु ाद िोना िै में कि सकें गे। अनिु ाद एक भाषा की दसू री भाषा में पनु रभ चना िै। इसवलए
याद रखें वक मल ू रचना के भाि विचार या संदश े को ज्यों का त्यों वबना अपनी ओर से कुछ जोड़े
या कम करे िैसा िी प्रभाि डालते िुए लक्ष्यभाषा ;वजसमें अनिु ाद िोना िै दसू री भाषा में किना
आिश्यक िै। अनिु ाद का सिाभवधक मित्िपणू भ वसद्धान्त िै वक अनिु ाद की प्रवक्रया में यि वनवश्चत
िोना चाविए वक वकसी भी दशा में अथाभन्तरण न िो।
एक अच्छे अनिु ादक में वनम्न गणु िोने चाविए.
1. अनिु ाद की जाने िाली सामग्री के विषय का पयाभप्त ज्ञान िोना चाविए।
2. दोनों भाषाओ ं की प्रकृ वत और शब्द सम्पदा का अच्छा ज्ञान िोना चाविए।

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3. अवभव्यभवक्त में स्पिता अथाभत् सम्प्रेषणीयता का गणु िोना चाविए।
4. विषय सामग्री के प्रवत कुछ िद तक तटस्थता का भाि िोना चाविए निीं तो िि अपने
मनोभािों को भी उसमें शावमल करने में निीं रोक पायेगा।
बोध प्रश्न

ररक्त स्थान की पवू तभ कीवजए


1. किी िुई बात को दसू री भाषा में किना .........................का अवनिायभ अगं िोता
िै।(किानी,समाचार,लेखन)
2. वनम्नवलवखत कथनों में सिी अथिा गलत वलवखए ।
1. प्राचीन भारत में वशक्षा.वदक्षा की मौवखक परम्पिरा प्रचाररत थी।
2. अनिु ाद की जाने िाली सामग्री के विषय का पयाभप्तम ज्ञान िोना आिश्यअक निीं िै।
3. अनिु ाद एक भाषा की दसू री भाषा में पनु रभ चना िै।
4. अनिु ाद उदभू भाषा का शब्द िै।

22.4 अनुवाद की पहरर्ाषा


अनिु ाद के स्िनरूप को समझने के वलए विवभन्न वििानों के दृविकोण को प्रस्ततु करने
िाली पररभाषाएं सिायक िैं। इस संदभभ में विवभन्न भारतीय एिं विदेशी विचारकों का दृविकोण
वनम्नित् िै -
1. एक भाषा की पाि्यसामग्री को दसू री भाषा की पाि्यसामग्री िारा प्रवतस्थावपत करना अनिु ाद
किलाता िै। - कै टफोडभ

Translation consists in producing in the receptor language in the chosen natural


equivalent in the massage of the source language. First in meaning and
secondary in style.
- (The Theory and practice of Traslation-Nida)

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गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
The replacement of taxtual material in one language by equivalent taxtual
material in another language. - ( Linguistic Theory of Translation J.C. Catford
P. 20)

2. मल ू भाषा के सन्देश के सममल्ू यम संदश


े को लक्ष्य भाषा में प्रस्तसु त करने की वक्रया को अनिु ाद
किते िैं। सदं श
े ों की यि मल्ू य समता पिले अथभ और वफर शैली की दृवि सेए तथा वनकटतम एिं
स्िाण्भाविक िोती िै। - नाइडा तथा टेबर,1969

Translation consists in producing in the receptor language in the chosen natural


equivalent in the massage of the source language. First in meaning and
secondary in style. - (The Theory and practice of Traslation-Nida)

The replacement of taxtual material in one language by equivalent taxtual


material in another language. - ( Linguistic Theory of Translation J.C. Catford)

3.ऐतरे य ब्राह्मण के अनसु ार - यद् िावच प्रोवदतायाम् अनब्रु यू ाद् अन्यस्यैिनै म् उवदतानिु ाविनम्
दृकुयाभत् - ऐतरे य ब्रािमण 3,15

4. भाषा ध्िन्यात्मक प्रतीकों की व्यिस्था तथा अनिु ाद इन्िीं प्रतीकों का प्रवतस्थापन िै। अथाभत् एक
भाषा के प्रतीकों के स्थान पर कथ्य एिं और कथन की दृवि से दसू री भाषा के समतुल्य और सिज
प्रतीकों का प्रयोग अनिु ाद किलाता िै. - (अनिु ाद विज्ञान पृ0 18)
इस प्रकार अनिु ाद वनकटतम समतुल्य और सिज भाषान्तारण प्रवक्रया िै इसमें 1.भाषान्तारण सदैि
ऐसा िोना चाविए वक स्रोत भाषा के कथ्य में लक्ष्य भाषा के आने पर न तो विस्तार न सक
ं ोच या
अन्य वकसी प्रकार का पररितभन िो। 2. स्रोत भाषा में कथ्य और अवभव्यवक्त का जैसा सामंजस्य
िो लक्ष्य भाषा में अनवू दत िोने पर भी दोनों का सामजं स्य लगभग िैसा िी िो।
3.मल
ू पाि पढ़कर या सनु कर स्रोत भाषा भाषी जो अथभ और प्रभाि ग्रिण करता िै अनवू दत सामग्री
पढ़ या सनु कर लक्ष्य भाषा भाषी भी िीक ििी प्रभाि ग्रिण कर सके ।
बोध प्रश्न

3.पररभाषाओ ं के आधार पर अनिु ाद की पररभाषा बताए ।

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................................................................................................................................
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22.5 अनुवाद का मित्त्व


अनिु ाद की परंपरा बिुत परु ानी िै पारस्पररक सपं कभ की सामावजक अवनिायभता के कारण
अनिु ाद व्यििार का जन्म भी बिुत पिले िो गया था। लम्बे समय तक मौवलक लेखन न िोने के
कारण इसे अवधक मित्ि निीं वदया गया। वकन्तु ितभमान समय में विविध स्तरों पर आपसी सम्पकभ
को बढ़ािा वमला िै। दसू रे विश्व यद्ध
ु के बाद साम्राज्यिाद का पतन िोने से कई छोटे-बड़े देश स्ितंत्र
िुए और उनकी स्ितंत्र सत्ता बनी। विकास के वलए ज्ञान के नये-नये स्रोतों से पररवचत िोने तथा
विश्वस्तरीय विचारकों का ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से आपसी सम्पकभ की आिश्यकता िुई। आज
अलग-अलग संस्कृ वतयों के लोगों में सम्पकभ बढ़ रिा िै. लोग विदेशों में वशक्षा के वलए जाते िैं
व्यापाररक, औद्योवगक संगिन विवभन्न देशों में कायभ करते िैं विवभन्न भाषा-भाषी लोग सम्मेलनों में
एक साथ बैिकर विमशभ करते िैं राष्रों के राष्र प्रमख ु दसू रे देशों में सद्भाि यात्रा के वलए जाते िैं। इन
सभी में अनिु ाद की अवनिायभ रूप से आिश्यकता िोती िै। ितभमान समय में वशक्षा के क्षेत्र में बिुत
से ऐसे पाि्यक्रम िैं जो वकसी भाषा विशेष में उपलब्ध िैं उन्िें सिभसल ु भ बनाने के वलए भी
स्थानीय भाषा में अनुिाद की बिुत आिश्यकता िै।
रोजगार के नये-नये अिसर बन रिे िैं पत्रकाररता ने आज जो व्या क रूप ले वलया िै उसमें
विश्वरस्तरीय सचू नाओ ं और पररर्टनाओ ं की जानकारी अपने देश को और अपनी भाषा में देने के
वलए अनिु ाद की आिश्याकता िै। यिी निीं विवभन्न धमभविलवम्बयों िारा अपने धमभ प्रचार िेतु भी
अनिु ाद का सिारा वलया जाता रिा िै। वक्रवश्चयन धमाभिलवम्बयों के धमभ ग्रन्थ बाईवबल का विश्व की
सिाभवधक भाषाओ ं में अनिु ाद िो चक ु ा िै। भारत में प्रारंवभक अनिु ाद को देखने से ऐसा प्रतीत िोता
िै वक सस्ं कृ तए प्राकृ तए पाली तथा उभरते िुए क्षेत्रीय भाषाओ ं के बीच और उन्िीं भाषाओ ं का
अनिु ाद अरबी और फारसी में िुआ िै। आििीं से नौिीं शताब्दी के बीच भारतीय कथ्य और
ज्ञानमल
ू क पाि जैसे पचं तत्रं , अिागं हृदय, अथभशास्त्र, वितोपदेश, योगसत्रू , रामायण, मिाभारत और
भगिद्गीता का अनिु ाद अरबी में िुआ। उन वदनों भारतीय और फारसी सावित्य मल ू पािों के बीच
व्यापक स्तर पर आदान प्रदान िुआ। भवक्तकाल के दौरान संस्कृ त मल ू पाि (प्रमख
ु तः भगिद्गीता और
उपवनषद) दसू रे भारतीय भाषाओ ं के सपं कभ में आया वजसके पररणामस्िरूप मित्िपणू भ मरािी सतं

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कवि ज्ञानेश्वर िारा गीता का अनिु ाद ज्ञानेश्वरी तथा विवभन्न मिाकाव्यों का अनिु ाद तथा विवभन्न
भाषाओ ं के संत कवि िारा रामायण और मिाभारत का अनुिाद प्रकाश में आया। उदािरण स्िरूप
पम्पा, कंबर, तल ु सीदास, प्रेमानन्द, एकनाथ, बलरामदास और कृ वत्तिास आवद की प्रादेवशक
रामायण को देखा जा सकता िै। विश्व में वकसी भी देश की भाषाओ ं में उपलब्ध ज्ञान-विज्ञान, शास्त्र,
सावित्य और कला आवद के संवचत ज्ञान को दसू रे देश की भाषाओ ं में अनवू दत करके उपलब्ध
कराया जा रिा िै। यिी निीं एक िी देश के विवभन्न राज्यों और अचं लों की भाषा-बोली में सवं चत
ज्ञान को सामने लाने में अनुिाद की मित्िपणू भ भवू मका िै।
आज के भमू ण्डलीकरण के दौर में ज्ञान की पंजू ी िोना आिश्यक िो गया िै यवद ज्ञान और तकनीकी
के क्षेत्र में िो रिे नये-नये प्रयोगों से िम आप िावकफ निीं िोगें तो विकास की दौड़ में वपछड़ जायेंगे।
दवु नया का कोई भी देश या कोई भी भाषा-बोली सम्पणू भ ज्ञान का भण्डार निीं िै। विश्व भर में विवभन्न
स्थानों पर विवभन्न प्रकार के अनसु न्धान अन्िेषण और साविवत्यक सृजनात्मक कायभ िो रिे िै गिन
वचन्तन विश्ले षण चल रिे िैं। सबको इनकी अधनु ातन जानकारी रिना आज जीिन की अवनिायभता
बन गई िै। िर कोई बिुभाषाविद् या विषयविशेषज्ञ निीं िो सकता इसवलए अनुिाद कायभ का मित्ि
और भी बढ़ जाता िै।
बोध प्रश्न

4. ररक्त स्थान की पवू तभ कीवजए.


क. भमू ण्डलीकरण में आज के दौर में .......................की पजंू ी िोना आिश्यक िो गया िै था
(ज्ञान/दान)
ख. ........................ का विश्ि की सिाभवधक भाषाओ ं में अनिु ाद िो चक
ु ा िै। (बाईवबल/गीता)

22.6 अनुवाद की प्रहिया


आपने अनिु ाद का सामान्य पररचय और इसका मित्ि जान वलया िै। अब आप अनिु ाद
की प्रवक्रया जानेंगे अनुिाद की प्रवक्रया का आशय िै वक अनिु ाद कै से िोता िै। आपने पढ़ा वक
अनिु ाद ज्ञान को बढ़ाने और प्रसार करने में वकतना मित्िपणू भ िै। आप जान गये िैं वक अनिु ादक के
वलए मल ू भाषा या स्रोत भाषा में वनवित विचारों को समझना आिश्यक िोता िै। अनिु ाद की
प्रवक्रया में वजस भाषा से अनुिाद िोता िै उसे स्रोत भाषा किा जाता िै और वजस भाषा में अनिु ाद
िोता िै उसे लक्ष्यै भाषा किते िैं अनिु ाद की प्रवक्रया के दो चरण िोते िैं पिले चरण को िम
अथभबोध या अथभग्रिण किते िैं। इसमें िम मल ू रचना का अथभ समझते िैं। दसू रे चरण में संप्रेक्षण
िोता िै वजसमें दसू रे तक पिुचाँ ाने के वलए अपनी भाषा में ििी बात किी जाती िै। सरल शब्दों में
समझना और किना दो चरण िैं। समझने की प्रवक्रया में पढ़ते समय पािक जो पढ़ता िै उसे समझने

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की प्रवक्रया भी साथ.साथ चलती रिती िै। समझने के कई स्तर िो सकते िैं। सामान्यम पािक या
श्रोता मलू पाि के सभी शब्दोंर का अथभ न जानने पर भी एक स्तर तक बात कोध्रचना को समझ
सकता िै और रचना का आनन्द ले सकता िै। लेवकन अनिु ादक के रूप में िम वकसी शब्द को निीं
छोड़ सकते क्योंवक जैसा पिू भ में िमने आपको बताया िै अनिु ादक को मलू पाि में कुछ भी जोड़ने
या र्टाने की छूट निीं िोती िै। भावषक दृवि से इसमें सबसे पिले शब्दबोध वफर िाक्यबोध और
अतं में रचनाबोध तक पिुचाँ ना िोता िै।
शब्दबोध - शब्दश रचना की सबसे छोटी इकाई िोती िै। शब्द वकसी भी रचना के अथभग्रिण में
सिाभवधक मित्िपूणभ िोते िैं। कई बार एक िी शब्द के अनेक अथभ भी िोते िैं और एक िी भाि के
वलए उसके कई पयाभयिाची भी िोते िैं। लेखक या िक्ता शब्द चनु ते समय रचना के संदभभ में उसके
अथभ प्रयोग का ध्यान रखता िै और यिी ध्यान अनिु ादक को भी रखना िोता िै। इसवलए अनिु ादक
के रूप में िमें आपको वकसी अच्छ शब्दकोश की सिायता लेकर ऐसे शब्दों को स्पि करना िोगा।
अनिु ादक के रूप में शब्दों का अथभ और प्रयोग समझना बिुत आिश्यक िै। जब िम एक भाषा से
दसू री भाषा में शब्दों का अथभ कर रिे िोते िैं तब कई शब्द ऐसे भी िोते िैं वजनका लक्ष्यभाषा में अथभ
निीं वमलता िै। उदािरणाथभ विन्दी के धोती शब्द का अग्रं ेजी में कोई पयाभयिाची शब्द निीं . ऐसे िी
अग्रं ेजी के नेकटाइ वजसके वलए टाई शब्द का प्रयोग िोने लगा िै वजसका कोई सटीक विन्दी अथभ
निीं िै। ऐसे शब्दों के प्रयोग में अवतररक्त सािधानी बरतनी िोगी। इन्िें वचवह्नत कर अलग से
व्याख्यावयत वकया जाना चाविए।
वाक्यबोध - मल ू पाि के शब्दों का अथभ जान और समझ लेने के बाद िाक्यनष् को समझने की
प्रवक्रया चलती िै। िाक्यों से िी भाषा बनती िै। शब्दोंय से अथभ ज्ञान िोता िै। िाक्य अथभ को
स्पकि करते िैं। अथभ प्रत्ये क स्िबतंत्र िाक्यद में भी स्पीि् िो सकता िै और कई बार एक से अवधक
िाक्यों में भी स्पथि िोता िै। अनिु ादक को इसे समझना िोता िै। िाक्य। में आए शब्दों के प्रयोग
को समझना भी वनतांत आिश्यरक िै। शब्दो का िाक्य में प्रयोग शब्द के चयन का आधार िोता िै।
एक िी शब्द के अनेक अथभ िोने पर िाक्यों के अनरू ु प शब्द का चयन या पयाभयिाची शब्दों में से
सिी चनु ाि िाक्य को साथभक बनाता िै। िाक्य में शब्दों का क्रम भी समझना आिश्यक िै। विवभन्न
भाषाओ ं में शब्दों का क्रम वभन्न िोता िै। िि भाषा विशेष के िाक्यानक्र ु म में िी सिी अथभ और
भाि प्रकट करता िै। इसके वलए अनिु ादक को स्रोत-भाषा और लक्ष्य-भाषा दोनों के िी िाक्य
विन्यास की जानकारी िोना आिश्यक िै।
रचनाबोध - अभी तक आपने जाना वक अनिु ादक के रूप में अनिु ादक कोद शब्द के अथभ को
समझना जरूरी िोता िै वफर िाक्यों में वनविताथभ को समझना िोता िै। अनिु ादक को सम्पणू भ रचना
या िक्तव्य का अनिु ाद करना िोता िै इसवलए अनिु ादक के वलए सम्पणू भ रचना और उसमें व्यक्त

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ु विश्वविद्यालय 373
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
विषय का जानकार िोना आिश्यक िै। शब्द बोध िाक्यबोध और रचनाबोध का विशेषज्ञ िोने पर
िी अनिु ादक मलू -भाषा की रचना का अथभग्रिण कर उसे लक्ष्य भाषा में अवभव्यक्त कर सकता िै।
संप्रेषण - मल
ू पाि को अच्छी तरि समझने के बाद उसे लक्ष्य भाषा में संप्रेवषत वकया जाता िै।
यिी एक भाषा स्रोत- भाषा में किी गई बात को दसू री भाषा, लक्ष्य-भाषा में वफर से किना िोगा।
जब िम वकसी रचना को पढ़ते िैं तब उसे समझने का प्रयास करते िैं। समझकर िी रचना का आनन्द
वलया जा सकता िै या उसके उद्देश्य तक पिुचाँ ा जा सकता िै। इसमें वलखने िाले की बात सीधे पढ़ने
िाले तक पिुचाँ ती िै। अनिु ाद करते समय यि अनिु ादक का दावयत्ि िोता िै वक िि मल ू लेखक
की बात को पािक तक ज्यों का त्यों पिुचाँ ाए। अत: िि िर प्रकार से समतल्ु यता का प्रयास करता
िै। यिी समतुल्यता मल ू पाि के भाि को पािक तक पिुचाँ ाने में सफल िोती िै।
शब्द की समतुल्यता - सम्प्रेषण की दृवि से भाषा की सबसे छोटी इकाई शब्द िै। आप मल ू पाि के
अथभग्रिण की प्रवक्रया में यि जान चक ु े िैं वक सबसे पिले अनिु ादक को रचना में आये शब्दों के
अथभ समझने िोते िैं। अनिु ाद करते समय यि ध्यान रखना जरूरी िै वक शब्द के अथभ का चयन
विषय के अनुरूप िो अग्रं ेजी में एक शब्द िै Right वजसके विविध संदभों में प्रयवु क्त िोती िै यथा -
Right Direction - दाविनी वदशा

Right Answer – सिी उत्तर

Right Angle – 90° (वडग्री) का कोण

Right Conduct – उवचत आचरण

Rightist - दवक्षणपथं ी
अनिु ाद करते समय मल ू भाि के अनरू ु प प्रयोग वकया जायेगा। यिााँ पर शब्द के अथभ के स्थान पर
प्रवतशब्द का प्रयोग करें ग।े शब्द के अथभ का सीधा अथभ िै एक भाषा का शब्द दसू री भाषा में। लेवकन
आपने शब्दकोश का प्रयोग करते समय पाया िोगा वक एक िी शब्द के अनेक अथभ िोते िैं. यि
अथभ भी अनेक शब्द िैं। उनमें से िमें उस शब्द - अथभ का चयन करना िोता िै जो रचना में सटीक
बैिता िो यिी प्रवतशब्द िै। सिी प्रवतशब्द का चनु ाि अच्छे अनिु ाद का आधार िै।

वाक्य - अवभव्यवक्त में सम्प्रेषण का दसू रा चरण िाक्य वनमाभण के रूप में सामने आता िै। िाक्य
सिी और साथभक िोना आिश्यक िै। िाक्य व्याकरण की दृवि से भी सिी िोने चाविए और मल ू
भाषा का प्रभाि डालने िाले भी इसके वलए शब्दों का प्रयोग और चनु ाि बदलना पड़ सकता िै।
कभी मलू पाि के एक िाक्य को एकावधक िाक्यों में तोड़ना या एकावधक िाक्यों को एक िाक्य में

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सकं ु वचत करना पड़ सकता िै। मल ू भाषा के शब्दानक्र
ु म को लक्ष्य-भाषा के शब्दानक्र
ु म में प्रस्ततु
करना िोता िै। प्रत्येक भाषा का अलग व्याकरण िोता िै। उसी के अनुरूप िाक्य संरचना िोती िै।
अत: इस बात का विशेष ध्यान रखना आिश्यक िै वक वजस भाषा में अनुिाद वकया जा रिा िो
व्याकरण की दृवि से िि सिी िो क्योंवक ििी िाक्य-संरचना पािक को सिज रूप में मल ू पाि का
बोध करायेगी। इसके साथ-साथ यि भी आिश्यक िै वक मल ू पाि में व्यक्त विचार ि भाि परू ी तरि
आ जाये।
रचना - अनिु ाद की प्रवक्रया में अब तक आपने जाना वक पिले मल ू रचना का बोध वकया जाता िै
वजसमें बोधन की प्रवक्रया मलू भाषा के शब्दों, िाक्यों की व्याकरणवनष्ठा और रचना के सिी-सिी
बोधन से िोती िै। जब अनिु ादक तीनों स्तरों पर मल
ू रचना को समझ लेता िै तब िि लक्ष्य-भाषा में
सिी प्रवतशब्दों का चयन करता िै िाक्य सरं चना करता िै अतं त: मल ू रचना की लक्ष्य-भाषा में
पनु रचभना, प्रवतरचना करता िै। यिी अनिु ादक का उद्देश्य िै। सफल अनिु ाद िि िै वजसमें मल
ू रचना
का परू ा-परू ा भाि आ जाए और प्रवतरचना, अनिु ावदत रचना के रूप में उसमें सिज प्रिाि और
ग्राह्यता िो।
इस प्रकार िम देखते िैं वक अनिु ाद की परू ी प्रवक्रया में अनिु ादक को कई सोपानों से
गजु रना पड़ता िै और उसे अलग-अलग भवू मका वनभानी पड़ती िै। सबसे पिले िि पािक की
भवू मका में िोता िै और मलू पाि का पािन ि विश्ले षण करता िै। अनिु ाद करते समय बिुभावषए के
रूप में िोता िै और अनवू दत पाि या प्रवतरचना प्रस्ततु करते िुए लेखक की भवू मका में िोता िै। इन
सभी भवू मकाओ ं में दक्षता के स्तर पर िी अनिु ादक अनिु ाद का स्तर वनवमभत करता िै।
बोध प्रश्न

सिी विकल्प चवु नए -


5 वनम्न में से अथभग्रिण के वलए क्या आिश्यक निीं िै ?
क . शब्दबोध ख . तकभ बोध ग . रचनाबोध र् . िाक्यबोध
6 . सफल अनिु ाद क्या िै ? (संक्षेप में बताईये)
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22.7 अनुवाद के प्रकार
आज िैज्ञावनक औद्योवगक और प्रशासवनक आवद सभी आिश्यकताओ ं की पवू तभ के वलए भाषा का
जो रूप उभर रिा िै िि प्रयवु क्त के रूप में िी विकवसत िो रिा िै। इन विषयों से सम्बद्ध विचारणाओ ं
और धारणाओ ं को व्यक्त करने में सक्षम विन्दी का रूप प्रयोजन-विशेष के वलए प्रयक्त ु रूप को सामने
ला रिा िै। विषय विशेष से सम्बद्ध शब्दािली की सरं चना िो रिी िै। िम जानते िैं वक प्रयोजनमल ू क
का एक स्िरूप व्याििाररक विन्दी का भी िै वजसमें अनिु ाद की मित्िपणू भ भवू मका िै । शायद िी
जीिन का कोई ऐसा क्षेत्र िो वजसमें अनिु ाद की उपादेयता प्रमावणत न की जा सके । अनुिाद कई
प्रकार का िोता िै। अनिु ाद के प्रकारों का विभाजन दो प्रकार से वकया जा सकता िै
1 . विषयिस्तु के आधार पर 2 . प्रकृ वत या प्रवक्रया के आधार पर।
वनम्न तावलका में इसका विस्तार वकया जा रिा िै :-
1 . हवषय वस्तु के आधार पर (क) साहिहत्यक (ख) कायािलयी

1 . काव्यानिु ाद 1 . िैज्ञावनक या तकनीकी


2 . नाटकानिु ाद 2 . िावणवज्यक
3 . कथा-सावित्यानिु ाद 3 . मानविकी एिं समाज
- शास्त्रीय

4 . जीिनी 4 . सचू ना माध्यनम


5 . आत्मकथा 5 . प्रशासवनक एिं काननू ी
6 . वनबंध
7 . आलोचना
8 . डायरी
9 . रे खावचत्र
10 .संस्मरण

2 . प्रकृहत या प्रहक्रया के आधार पर


1 . शब्दानिु ाद 5. रूपान्तारण 9. सारानिु ाद
2 . छायानिु ाद 6. अनक
ु रण 10 . व्याख्यानिु ाद
3 . मल
ू यक्त
ु 7. प्रवतध्िनवन 11. दभु ावषये का अनिु ाद

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4 . भािानिु ाद 8 . मल ू रचना से
साहित्यानवु ाद - कला और सावित्य वकसी भी समाज की पिचान बनाते िैं। वकसी भी देश और
समाज को जानने के वलए ििााँ के सावित्य को पढ़ना.परखना ज़रूरी िोता िै। यगु ीन पररवस्थवतयों का
अक ं न सावित्य में िोता िै। उदािरण के वलए मवक्सम गोकी का कथासवित्य तत्कालीन रूस में िुई
क्रावं त और जनसंर्षभ का जीिन्त दस्तािेज़ िैए उसका अनिु ाद करते िुए िम पात्रों या स्थानों आवद
के नाम बदलते िुए उसका भारतीयकरण निीं कर सकते क्योंवक भारतीय वस्थवतयााँ तत्कालीन रूस
से वबल्कुल वभन्न थीं। इसी तरि वकसी नोबेल विजेता यूरोपीय सवित्यकार से सम्बवन्धत विदं ी
समाचार बनाया जा रिा िै तो पत्रकार को उस सावित्यकार के पररिेश और यगु ीन वस्थवतयों का विदं ी
में जस का तस उल्लेख करना िोगा क्योंवक उसके सावित्य में उसके देश और समाज की वस्थवतयों
का दस्तािेज़ िै, भारत का निीं।
कायािलयी अनुवाद - कायाभलयी अनिु ाद से आशय प्रशासवनक पत्राचार तथा कामकाज के
अनिु ाद का िै। जैसा वक विवदत िै स्ितंत्रता के पश्चात संविधान ने विदं ी को राजभाषा बनाने का
संकल्प तो वलया पर कुछ राजनीवतक और सामावजक दवु िधाओ ं के चलते िि आज तक कायभरूप
निीं ले सका। आज राजभाषा के मसले पर भारत में विभावषक नीवत लागू िै। वजस अग्रं ेज़ी को
संविधान ने दस साल में अग्रं ेजी के बदले विन्दी को राजभाषा के रूप में प्रवतवष्ठत करने का प्रारूप
वदया था िि आज भी परू ी तरि से निीं िो पाया िै। िर राज्य को अपनी राजभाषा वनधाभररत करने की
स्ितंत्रता संविधान ने दी थी और राज्यों ने उसके अनुरूप राजभाषा का वनधाभरण वकया भी िै वकन्तु
संर्ीय सरकारों से उसके प्रशासवनक कायभव्यिार अग्रं ेज़ी में िी िोते िैं। विदं ी िै लेवकन अंग्रेज़ी भी िै
और राज्यों के प्रकरण में उनकी अपनी राजभाषाएाँ भी िैं। ऐसी वस्थवत में अनिु ाद की उपयोवगता
और मित्ि उत्तरोत्तर बढ़ता जा रिा िै। सभी जानते िैं वक प्रशासवनक शब्दािली का अपना एक
विवशि रूप िै जो बिुधा अग्रं ज़े ी से अनिु ाद पर आधाररत िोता िै। पाररभावषक शब्द इसी प्रकार की
प्रशासवनक शब्दािली का एक प्रमख ु विस्सा िैं। एक अनिु ादक के वलए सरकार के कामकाज पर
आधाररत इस शब्दािली की सामान्य जानकारी का िोना अवनिायभ िै। अनेक संसदीय शब्दों का
विन्दी में प्रचलन इसी शब्दािली के आधार पर िो गया िै।
हवहधक अनुवाद - न्यायपावलका संविधान में िवणभत लोकतंत्र के तीन स्तम्भों में से एक िै।
पत्र.पवत्रकाओ ं में न्याय और उससे जड़ु ी प्रवक्रया से सम्बवन्धत अनेक लेख ि समाचार िोते िैं। विदं ी
को राजभाषा बनाए जाने के संकल्प के बािजदू उच्च तथा उच्चतम न्यायालय का सारा कामकाज
अग्रं ेज़ी में िी िोता िै। सारे वनणभय और अवभलेख अग्रं ेज़ी में िोते िैं और न्यायालय की कायभिािी भी
अग्रेज़ी में िी सम्पन्न िोती िै। विदं ी में नकल और समाचार बनाते िुए िि विवधक शब्दािली का
तकनीकी रूप से सिी अनिु ाद करने की आिश्यककता िोती िै।

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ु विश्वविद्यालय 377
गद्य साहित्य-2 एवं प्रयोजनमूलक हिन्दी BAHL 102
आशु अनुवाद - यि एक रोचक प्रवक्रया िै। आपने आशल ु ेखन के बारे में सनु ा िोगा इसमें स्थान
विशेष पर िी तत्काल कोई विषय वदया जाता िै वजस पर उसी समय वलखना िोता िै ऐसे िी आशु
अनिु ाद में भी तत्काल अनिु ाद वकया जाता िै। अग्रं ेज़ी में सामान्य रूप से इसे Interpretation किते
िैं। जब कोई ऐसा राजनेता देश में आता िै वजसे अग्रं ेज़ी भी न आती िोती िो िमारे देश के
राजनेताओ ं के साथ उसकी िाताभ Interpretation की सिायता से िी सम्भि िो पाती िै। दभु ावषया
(Interpreter) िि व्यवक्त िोता िै जो आगं तक ु की भाषा का तरु ं त और सरल अनिु ाद मौवखक रूप
से िमारे राजनेता के सम्मख
ु प्रस्ततु करता िै और िमारे राजनेता की भाषा का आगतं क ु राजनेता के
सम्मख ु । िि एक ऐसा भावषक मध्यस्थ िै वजस पर यि उत्तरदावयत्ि िोता वक िि िाताभ को तकनीकी
रूप से शतप्रवतशत सिी सम्भि बनाए। आशु अनिु ाद के कुछ और भी आयाम िो सकते िैं। जैसे
फोन पर वकसी मित्िपणू भ व्यवक्त से की जा रिी िाताभ अथिा वकसी मित्िपणू भ व्यावक्त के भाषण को
तरु ं त अपनी अथिा लक्ष्य-भाषा में में अनिु ाद करके वलखते जाना।
वैज्ञाहनक एवं तकनीकी अनुवाद - जाविर िै वक िमारा मौजदू ा समय विज्ञान और तकनीक का
यगु िै। विज्ञान के बिुआयामी विकास ने मानि जीिन की गवतविवधयों िी निीं िरन उसके
जीिनमल्ू यों को भी कई स्तरों पर बदल वदया िै। समाचारपत्रों में विज्ञान और तकनीक से सम्बवन्धत
गवतविवधयों के कई समाचार िोते िैं और उनके वलए ज़रूरी िोता िै वक पत्रकार को िैज्ञावनक एिं
तकनीकी शब्दािली की पयाभप्त जानकारी िोए वजसके अभाि में अनिु ाद िास्यास्पद और विवचत्र िो
सकता िै। rail या train को विदं ी में लौिपथगावमनी जैसे विवचत्र और िास्यास्पद अनिु ाद की जगि
रे ल या रेन िी वलखना अनिु ादक के वित में िोगा। computer के वलए कम्प्यटू र िी वलखना िोगा
इसी तरि विदं ी संगणक की जगि कै लक्यल ू ेटर शब्द का िी प्रयोग िोता िै।
वाहणहज्यक अनुवाद - यि क्षेत्र व्यापार के साथ-साथ प्रमख ु तः बैवकंग व्यिसाय का िै। सभी को
विवदत िै वक समचू े विश्व की संचालक शवक्त अब पाँजू ी िो चली िै। भमू डं लीकरण और विश्वग्राम
जैसी उत्तरआधवु नक अिधारणाएाँ प्रकारांत से इसी के वगदभ र्मू ती िैं। आम आदमी के जीिन में
बाज़ार का स्थान अब वनवश्चत िै । बिुराष्रीय कम्पवनयों और अतं राभष्रीय व्यापार की जानकारी
सम्बवन्धत विषयिस्तु के अनिु ाद िारा िी सम्भि िै। इस तरि के अनिु ाद की अपनी शब्दािली
िोती िै वजसकी प्राथवमक जानकारी अनिु ादक को िोनी आिश्यक िै। आम आदमी के जीिन में
बैंवकंग का भी एक वनवश्चत मित्ि िै। बैंवकंग के क्षेत्र में विदं ी का प्रयोग मख्ु य रूप से दो स्तरों पर िोता
िै एक राजभाषा के स्तर पर और दसू रा जनभाषा के स्तर पर। विदं ी को राजभाषा के रूप में सम्मान
वदलाए जाने के कुछे क औपचाररक प्रयासों में बैंकों िारा विदं ी के प्रयोग पर ज़ोर वदए जाने की नीवत
शावमल िै। दरअसल मामला राजभाषा का न िोकर जनभाषा का िै। बैंकों को अपनी पिुचाँ जनता
तक बनानी िोती िै और इसके वलए िे विदं ी के इस्तेमाल पर बल देते िैं। िर बैंक में चाँवू क मित्िपणू भ
मसौदे अग्रं ेज़ी में िी तैयार वकए जाते िैं लेवकन जनता तक उन्िें पिुचाँ ाने के वलए उनका सरल विदं ी
अनिु ाद अवनिायभ िोता िैए फलतः िर बैंक में विदं ी अवधकारी तैनात वकए गए िैं।

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ु विश्वविद्यालय 378
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शब्दानुवाद - इस तरि के आदशभ अनिु ाद में प्रयास वकया जाता िै वक मल ू भाषा के प्रत्येक शब्द
और अवभव्यवक्त की इकाई (पद,पदबंध,मिु ािरा,लोकोवक्त, उपिाक्य अथिा िाक्य आवद का
अनिु ाद लक्ष्य भाषा में करते िुए मल
ू के भाि को संप्रेवषत वकया जाए। दसू रे शब्दों मेंए अनिु ाद न तो
मल
ू पाि की वकसी अवभव्यक्त इकाई को छोड़ सकता िै और न अपनी ओर से कुछ जोड़ सकता िै।
अनिु ाद का यि प्रकार गवणतए ज्योवतषए विज्ञान और विवध सावित्य के अवधक अनक ु ू ल िोता िै।
भावानवु ाद - इस प्रकार के अनिु ाद में भाि अथभ और विचार पर अवधक ध्यान वदया जाता िै
लेवकन ऐसे शब्दों पदों या िाक्यांशों की उपेक्षा निीं की जाती जो मित्िपणू भ िों। ऐसे अनिु ाद से
सिज प्रिाि बना रिता िै।
सारानवु ाद - यि आिश्यकतानसु ार संवक्षत या अवत संवक्षप्त िोता िै। भाषणों विचार गोवष्ठयों और
संसद के िादवििाद की विशद विषयिस्तु के सार का अनवू दत प्रस्ततु ीकरण इसी कोवट का िोता िै।
यांहत्रक अनुवाद - आधवु नक समय में कम्प्यटू र की सक्षमता और िमारी उस वनभभरता उत्तरोत्तर
बढ़ती गई िै। आज ऐसे सार्फटिेयर उपलब्ध िैं जो दो या अवधक भाषाओ ं बीच अनिु ाद करने की
क्षमता रखते िैं। गगू ल ने ऑनलाइन अनिु ाद की सवु िधा भी दी िै। इन सारी तकनीकी उपलवब्धयों
के बीच िमें यि भी समझ लेना िोगा वक इसकी कुछ वनणाभयक सीमाएाँ भी िैं। अनिु ाद करने िाले
सार्फटिेयर अकसर कोरा शब्दानिु ाद करते िैं और उनमें िावं छत अथभबोध की प्रावप्त निीं िो पाती।
यानी इस तरि के अनुिाद पर भाषायी पनु गभिन के स्तर पर आिश्यक स्तर की प्रावप्त के वलए काफी
काम करना िोता िै। अतः शब्दातंरण के वलए इस तरि का यांवत्रक अनिु ाद काम का िो सकता िै
लेवकन परू ी िाक्यरचना के स्तर पर यि बिुधा असफल वसि िुआ िै। िााँ वलप्यन्तरण के क्षेत्र में
कम्प्यटू र सार्फटिेयसभ ने िमारी बिुत सिायता की िै।
पत्रकाररता में अनुवाद - भमू ंडलीकरण जैसी आधवु नक अिधारणाओ ं के प्रभाि के चलते अनिु ाद
पत्रकाररता का एक प्रमख ु अगं बन गया िै। अग्रं ेज़ी को आज प्रमख ु अतं राभष्रीय सम्पकभ भाषा का
दज़ाभ प्राप्त िै और इटं रनेट सचू नाओ,ं समाचारों के त्िररत अंतरण का प्रमख
ु माध्यम िै इसवलए ज़रूरी
िोता जा रिा िै वक विदं ी समाचारपत्र के डेस्क पर भी कायभ करने िाला कमी न वसफ़भ अग्रं ेज़ी के
सामान्य कायभव्यििार से पररवचत िो बवल्क िि प्राप्त सामग्री का एक त्िररत एिं तथ्यपणू भ अनिु ाद
भी कर पाए वजससे तत्सम्बन्धी समाचार वदया जा सके । पत्रकाररता के अतं राभष्रीय राजनीवत,
िावणज्य ,व्यापार,खेल,विज्ञान तथा तकनीक आवद कई पक्ष ऐसे िैं वजनके समाचार वनमाभण में इस
तरि के अनिु ाद की आिश्यकता िोती िै। अतः पत्रकाररता में एक उज्ज्िल भविष्य के वलए पत्रकार
का अनिु ाद में कुशल िोना मौजदू ा पररवस्थवतयों में अब अवनिायभ िो चला िै। आजकल प्रमख ु
विन्दी अखबारों में इन्फामेशन टेक्नोलॉजी नेट और विदेशों से जड़ु ी मनोरंजक और ज्ञानिधभक
सामग्री देखने को वमलती िै। अनिु ाद में दक्ष पत्रकार के वलए इस काम में बिुत सवु िधा िोती िै वक

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िो अग्रं ेजी में उपलब्ध इस तरि की सामग्री को तत्काल अनिु ाद कर सकता िै। इस तरि िि
अखबार में अपना मित्ि और उपयोवगता बढ़ा सकता िै।
बोध प्रश्न
7. एक पंहि में उत्तर दीहजए
1 . अनिु ाद को वकतने भागों में बांटा गया िै
2 . विषयिस्तु तथा प्रवक्रया के आधार पर अनिु ाद के कुछ प्रमख
ु प्रकार बताइये।
3 . िावणवज्यक अनिु ाद वकस तरि के अनिु ाद के अतं गभत आता िै
4 . कायाभलयी अनिु ाद वकसे किते िैं

22.8 अनुवाद तथा हलप्यंतरण


अनिु ाद (Translation) के साथ िी जड़ु ा पद वलप्यतरं ण (Transliteration) िै। भाषा
का रूपांतरण अनिु ाद िै जबवक वलवपमात्र का पररितभन वलप्यंतरण। कई शब्द ऐसे िोते िैं वजनका
अनिु ाद न तो सम्भि िै और न िी समीचीन। दैवनक व्यिििार के अनेक शब्द ऐसे िैं वजनका
अनिु ाद िो निीं सकता या अटपटा लगता िै शब्द को वलप्यंतररत वकया जाना चाविए। विदेशी
नामों का अनिु ाद निीं वकया जाता उच्चािरण के आधार पर उसे लक्ष्य-भाषा में वलखा जाता िै।
विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में इस तरि के कई उदािरण वमलते िैं। इस वस्थवत में वलवप का सामथ्यभ
काम आता िै। देिनागरी वलप्यतंरण के वलए संसार की सबसे सक्षम वलवप िै क्योंवक इसमें िम जैसा
बोलते िैं िैसा िी वलखते भी िैं। समाचारों की दवु नया में कई पद यथा मित्िपणू भ व्यवक्तयों स्थानों
सस्ं थानों विज्ञान एिं तकनीकी उपकरणों और प्रवक्रयाओ ं आवद के नाम सटीक वलप्यतं रण िारा िी
विदं ी में प्रस्ततु वकए जाते िैं। वलप्यंतरण का प्रयोग खेल के क्षेत्र में बिुत अवधक िोता िै। खेल से
जड़ु े विवभन्न क्षब्द विन्दी में अग्रं ेजी से जस के तस ले वलए जाते िैं और वफर िि खेल प्रेवमयों की
जबु ान पर इस तरि चढ़ जाते िैं वक यि सोचना भी मवु श्कल िो जाता िै वक ये शब्द िमारी भाषा के
निीं िैं। फुटबाल, वक्रके ट ,बॉल,गोल्फ, टाई ,राइा आवद अनेक ऐसे शब्द िैं जो विन्दी में विन्दी शब्दों
की तरि िी रच बस गए िैं।
वलप्यतं रण में इस बात का खास ध्यान देना चाविए वक व्यवक्तपरक शब्दों का वलप्यतं रण
िैसा िी िो जैसा मलू भाषा मे उसका उच्चारण िोता िै। अनेक बार वकसी स्पेवनश, डच या दवक्षण

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अमेररकी देश के वकसी मित्िपणू भ कवि लेखक या कलाकार के अचानक प्रवसवद्ध पा जाने पर
अलग-अलग अखबारों ि पवत्रकाओ ं में उनके नाम अलग-अलग तरि से वलखे जाते िैं।

22.9 अनुवाद कायभ : नमूना हवश्ले षण तथा अनुवाद पयाय


अनिु ाद की बारीवकयों और अनिु ाद के बेितर विकल्पों को समझने के वलए
वनम्नवलवखत नमनू े का भली प्रकार अध्ययन करें समझें और अभ्यास करें -
It may seem unnecessary to teach college students, who have been reading for years,
how to read stories, plays and poems. But works of imaginative literature differ from
personal letters, newspaper articles; and business reports. Literary works are likely to
be complex and understanding and judging them may well require giving close
attention to details, considering some of its relevant historical background, and even
re-interoperating the essential meaning, before passing judgment
विश्ले षण तथा अनिु ाद पयाभय
1. (a) It may seem unnecessary to teach college students.
क . कॉलेज के छात्रों को शायद यि बताने की आिश्यजकता निीं वक
.........................................
ख . कॉलेज के छात्रों को शायद यि बताना अनािश्ययक लग सकता िै वक
..................................
ग . िो सकता िै वक कॉलेज के छात्रों को यि बताने की आिश्यकता न िो वक
...............................
र् . क्या कॉलेज के छात्रों को यि बताने की जरूरत िै वक
.........................................................
ड . सम्भकितरू कॉलेज के छात्रों को यि वदशावनदेश अनािश्यक प्रतीत िो वक
.............................
(b) How to read stories, plays or poems.
किानी नाटकों और कविताओ ं का िाचन कै से वकया जाये / को कै से पढ़ा जाए / का िाचन
कै से वकया जाता िै / को कै से पढ़ा जाता िै के / िाचन की उवचत विवध क्या िै / को पढ़ने का सिी
तरीका क्या िै ?

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(c) Who have been reading for years.
क . जो इन्िें िषों से पढ़ रिे िैं।
ख . वजन्िें/इन्िें पढ़ने का िषों का अनभु ि िै।
ग . क्योंवक/कारण िे इन्िें िषों से पढ़ रिे िैं।
र् . क्योंवक/कारण उन्िें तो ये सब पढ़ते िषों बीत गए।
ड . क्योंवक/कारण उन्िें ये सब पढ़ते िषों जो बीत गए।
2. . But works of imaginative literature differ from personal letters, newspaper
articles; and business reports.
क . साविवत्यक रचनाएं व्यतवक्तगत पत्रो, प्राइिेट वचरट्ठयों, समाचार-पत्र के लेखों,
अखबारी लेखों व्यापाररक प्रवतिेदनों व्यापाररक ररपोटों से वभन्न कोवट की िोती िैं, अलग तरि
की िोती िैं।
ख . साविवत्यक रचनाएं िैसी निीं िोतीं जैसे व्यवक्तगत-पत्र, अखबारी-लेख और व्यापाररक
ररपोटभ।
3. (a) Literary works are likely to be complex.
क . साविवत्यक रचनाएं प्राय: जवटल िोती िैं।
ख . साविवत्यक रचनाओ ं का ढांचा प्राय: जवटल िोता िै / वक संरचना प्राय: जवटल िोती
िै।
(b) and understanding and judging them.
क . और उनके बोधन और परीक्षण में।
ख . और उन्िें समझने और परखने में/के वलए।
(c) before passing judgment
क . अवन्तम बात किने/वनणभय देने से पिले।
ख . इससे पिले वक िम अवन्तम बात किें/वनणभय दें।
(d) May well require

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क . इस बात की आिश्यकता िो सकती िै वक
ख . यि आिश्यक/जरूरी िो सकता िै वक
ग सम्भि िै वक यि आिश्यकता िो वक
(e) giving close attention to details
क . वििरणों को सक्ष्ू मता से देखने की
ख . ब्यौरों को बारीकी से देखने की/छानबीन करने की
ग . वििरणों को सक्ष्ू मता से देखा जाए।
;र्द्ध ब्यौणरोंवध्ििरणों को बारीकी से देखा जाएध्छानबीन की जाए।
(f) considering some of its relevant historical background
क . ऐवतिावसक पृष्ठभवू म की जरूरी बातों पर ध्यान देने की।
ख . ऐवतिावसक पृष्ठभवू म के आिश्यक तथ्यों पर ध्यान देने की।
ग . वक ऐवतिावसक पृष्ठभवू म की जरूरी बातों पर ध्यान वदया जाए।
र् . वक ऐवतिावसक पृष्ठभवू म में आिश्यक तत्िों पर ध्यान वदया जाए।
(g) and even re-interoperating the essential meaning
क . और यिााँ तक वक मल
ू अवभप्राय के पनु राख्यान की।
ख . और यिााँ तक वक मल
ू उद्देश्य् की दबु ारा व्याण्ख्या करने की।
ग . और यिााँ तक वक उनमें मल
ू अवभप्राय का पनु राख्यान वकया जाए।
र् . और यिााँ तक वक उनके मल
ू उद्देश्य की दबु ारा व्याख्या की जाए।
अनवु ाद 1 सम्भाित: कॉलेज के छात्रों को यि वदशावनदेश अनािश्य्क प्रतीत िो वक किानी
नाटकों और कविताओ ं का िाचन कै से वकया जाता िै क्योंवक उन्िें पढ़ने का िषों का अनभु ि िै।
परन्तु साविवत्यक रचनाए,ं व्यवक्तगत-पत्रों,समाचार-पत्र के लेखों और व्यापाररक प्रवतिेदनों से वभन्न
कोवट की िोती िैं और उनमें बोधन और परीक्षण में अवन्तम वनणभय देने से पिले वििरणों को सक्ष्ू मता

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में देखने की ऐवतिावसक पृष्ठभवू म के आिश्यक तथ्यों पर ध्यान देने की और यिााँ तक वक उनमें मल

अवभप्राय का पनु राख्यान करने की आिश्यकता िोती िै।
अनवु ाद 2 िो सकता िै कॉलेज के छात्रों को यि बताने की जरूरत न िो वक किानी नाटकों और
कविताओ ं को पढ़ने का सिी तरीका क्या िै ये सब पढ़ते उन्िें बरसों बीत गए िैं। मगर सच्चाई यि िै
वक साविवत्यक रचनाएं िैसी निीं िोती जैसी प्राइिेट वचरट्ठयााँ अखबारी लेख और व्यापाररक ररपोटें
उनके बारे में अवन्तम ढांचा प्राय: जवटल िोता िै और उनके बारे में अवन्तम बात किने से पिले उन्िें
समझने और परखने के वलए इस बात की जरूरत िैं वक ब्यौरों की बारीकी में छानबीन की जाए और
यिााँ तक वक उनके उद्देश्य की दबु ारा व्याख्या की जाए।
अब आप भली प्रकार समझ गए िोंगे वक अनिु ाद करते समय आपको वकन-वकन बातों
को ध्याप में रखना चाविए । अच्छा अनिु ाद और उवचत माध्यम जैसे पत्र-पवत्रकाए शोधग्रन्थ
दरू दशभन रे वडयों के वलए अनिु ाद करते समय आपको ध्यान देना िोगा वक लक्ष्य-भाषा में आप शब्द
िाक्य और प्रस्तवु त वकस प्रकार की करें ग।े कालजयी कृ वतयों जैसे प्रवसद्ध उपन्यास ग्रन्थ आवद के
अनिु ाद में शास्त्रीय पद्धवत नमनू ा १ को िी आधार बनाना समीचीन िोगा।

22.10 सारांश
इस इकाई का अध्ययन करते समय आपने अनिु ाद शब्द की व्यत्ु पवत्त और ऐवतिावसक
पररप्रेक्ष्य को जाना। अनिु ाद की प्रवक्रया को आप समझ गये िैं। अनिु ाद वकतने प्रकार के िोते िैंभ
और उनका आधार क्या िै ? अब आप इसका सम्यक विश्लेषण कर सकते िैं। अच्छे अनिु ाद की
विशेषतायें बता सकते िैं। अनुिाद का मित्ि समझा सकते िैं और स्ियं इसके आधार पर अभ्यास
से अच्छे अनिु ादक बन सकते िैं। आपने जाना अनिु ाद के क्षेत्र में कायभ करने िाले लोगों की भाषा
पर अच्छी पकड़ िोना एक अवनिायभ आिश्यकता िै। इससे भािों की अवभव्यवक्त सरलता से िो
पाती िै और भाषा में प्रिाि बना रिता िै। शब्दों का सिी चयन भी आिश्यक िै। भाषा पर पकड़ के
अभाि में अथभ का अनथभ िो जाने की बिुत आशक ं ा रिती िै।अनिु ाद की कला की जानकारी
विविध संदभों में आिश्यक िै। चािे जब लेखक दसू री भाषा की वकसी संदभभ सामग्री का सिारा
लेकर अपनी कोई मौवलक रचना, समाचार, लेख, ररपोताभज, विश्लेषण ,व्यंग्य अथिा कुछ और
वलख रिा िो वकसी मल ू कृ वत का िूबिू अनिु ाद कर रिा िो। िि कायाभलयी अनिु ाद कर रिा िो या
दभु ावषये का कायभ कर रिा िो या वफर पत्रकाररता के क्षेत्र में सभी वस्थवतयों के अनकु ू ल अनिु ाद
अच्छे अनिु ाद की पिचान िै।

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22.11 शब्दावली
प्रवतपादन वकसी विषय का सप्रमाण कथन वनरूपण,विषय का स्थापन
तरजमु ा उदभू में अनिु ाद को तजभमु ा किते िैं।
पनु रािृवत्त वकए िुए काम या बात को वफर से करने या दोिराने की वक्रया या भाि।
पनु रभ चना मल
ू के अधार पर वफर से रचना करना
वक्रवश्चयन इसाई धमभ को मानने िाले।
िावकफ पररवचत
बिुभाषाविद् अनेक भाषाओ ं को जानने िाला
अवभव्यवक्त प्रकट करना
प्रवतशब्द वकसी शब्द के बदले प्रयक्त
ु िोने िाला शब्द

22.12 अभ्यास प्रश्नों के उत्तर


1 . अनिु ाद
2. √
2. ×
3. √
4. ×
3. पररभाषा स्ियं बनायें।
4. क- ज्ञान
ख- बाईवबल
5.ब -तकभ बोध

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6 . सफल अनिु ाद िि िै वजसमें मल ू रचना का परू ा-परू ा भाि आ जाए और प्रवतरचना
;अनिु ावदत रचना के रूप में उसमें सिज प्रिाि और ग्राह्यता िो।
7. 1 - अनिु ाद को मख्ु यतः दो भागों में बांटा गया िै. 1- विषयिस्तु के आधार पर 2- प्रवक्रया
के आधार पर।
2 - विषयिस्तु तथा प्रवक्रया के आधार पर अनिु ाद के 10 प्रमख
ु प्रकार िोते िैं।
3 - िावणवज्यक अनिु ाद विषयिस्तु पर आधाररत अनिु ाद के अतं गभत आता िै।
4 - कायाभलयी अनिु ाद से आशय प्रशासवनक पत्राचार तथा कामकाज के अनिु ाद से िै।

22.13 संदर्भ ग्रन्थ सूची


1. पाण्डेय, डा. कै लाशनाथ, प्रयोजनमल
ू क विन्दी की नयी भवू मका, लोकभारती प्रकाशन
इलािाबाद।
2. गप्तु ा, डा. वदनेश, डा. रामप्रकाश, प्रयोजनमल
ू क विन्दी, राधाकृ ष्ण प्रकाशन, वदल्ली।
3. शािी, डा. विनोद, प्रयोजनमल
ू क विन्दी, आधार प्रकाशन, पच
ं कूला।
4. कुमार डा. सरु े श, अनिु ाद वसद्धातं की रूपरे खा, िाणी प्रकाशन, वदल्ली।

22.14 उपयोगी पाठ्य सामग्री


1. राित चन्द्रभान वसंि तथा वसंि वदलीप ,अनिु ाद अिधारणा और अनप्रु योग
2. गोस्िामी कृ ष्णाकुमार, अनिु ाद विज्ञान की भवू मका
3. वतिारी डा. भोलानाथ, अनिु ाद विज्ञान शब्द अकार प्रकाशन वदल्ली।
4. नौवटयाल, जयंती प्रसाद, अनिु ाद:वसद्धांत और व्यििार

22.15 हनबं धात्मक प्रश्न


1. अनिु ाद की पररभाषा बताते िुए सफल अनिु ाद की प्रवक्रया पर प्रकाश डावलये।
तथा अनिु ाद अनिु ाद कायभ का मित्ि बताइये।
2. अनिु ाद के विविध क्षेत्र कौन-कौन से िैंभ विस्तार से बताइये।

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3. वलप्यन्तरण वकसे किते िैं तथा वलप्यतं रण का प्रयोग कब वकया जाता िै यि
बताते िुए अनिु ाद में वलप्यंतरण का मित्ि बताइये।

उत्तराखंड मक्त
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