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वमन कमम

शरीर में स्थित दोषोों को मुख के माध्यम से शरीर से बाहर निकालिे


की प्रनिया को वमि कमम कहते है | इस कमम के द्वारा मुख्य रूप से
शरीर में बढे हुए कफ को बाहर निकाला जाता है |

वमन कमम के प्रकार -


स्नेहि स्वेदि के बीच उत्प्न्न हुए उपद्रव को शान्त करिे के बाद नफर उस पुरुष
को स्नेहि एवों स्वेदि कराकर, प्रसननचत्त दे खकर वह रात में सुख से सोया है ,
अन ठीक से पच गया है , नशर सनहत सवाां ग स्नाि कर नलया है , शरीर पर चोंदि
का लेप करके , स्वच्छ वस्त्र पहिकर , दे वता अनि, गुरु , वृद्ध , का उनचत
पूजि सत्कार कर नलया है ,

तो ऐसे व्यस्ि को उत्तम िक्षत्र, नतनि, करण , और मुहूतम दे खकर मदिफल के


कषाय की एक मात्रा मधु ,मुलेठी , सेंधािमक और राब नमलाकर पीिे को दे ।

मदनफल कषाय की मात्रा -


मदिफल के कषाय की मात्रा का प्रमाण तिा सभी सोंशोधि औषनधयोों की
मात्रा का प्रमाण प्रत्येक पुरुष के बल और कोष्ठ के आधार पर अलग-अलग
होता है ।

नजतिी मात्रा में लेिे पर वह दोषो को निकल दे तिा अनतयोग एवों आयोग ि हो
, वही मात्रा उनचत जाििी चानहए।
वमन कमम की मुख्य वववि-
औषध पीिे के बाद प्रतीक्षा करे । जब व्यस्ि को पसीिा आिे लगे तो समझे की
दोष नपघल रहा है ,और जब शरीर में रोमाञ्च होिे लगे तो समझे की दोष अपिे
थिाि से चल नदय है ।

जब उदर में आध्माि हो तिा मुुँह दे पािी छूटिे लगे तो समझे की दोष
ऊर्ध्ममुख हो गया है । तब उस व्यस्ि को जािु नजतिी ऊोंचाई की चौकी या
चारपाई पर सुोंदर गद्दा एवों चादर नबछाकर तनकया और मिसद लगा दे और
रोगी को नबठा दे ।

वमन कमम में सहयोगी -


घुटिे बराबर ऊुँचे आसि पर रोगी को नबठाये तिा उसके सामिे पीकदाि
रखें।

ऐसे नमत्रवगम की नियुस्ि करे जो रोगी को पकड़ कर सहारा दें , जो रोगी के सर


एवों पार्श्म को पकडे रहे , िानभ दबावे,पीठ को ऊपर एवों िीचे की ओर मदम ि करे
, तिा इि कायो को करिे में सोंकोच ि करे ।

वमन प्रवर्मनार्म रोगी को उपदे श -


वमि द्रव्य नपलाकर तिा आसि पर नबठािे के बाद वैद्य रोगी को आदे श दे की
ओठ , तालु और गला खोलकर , बहुत ताकत ि लगाकर उठते हुए वेगोों को
प्रवृत कराते हुए , गदम ि एवों शरीर को झुकाते हुए , नजि उों गनलयोों के िख कटे
हुए होों उिके साि या िील कमल या कुमुद या सौगोंनधक कमल के डण्ठल के
भीतर स्पशम कराते हुए वमि करें ।

तब वैद्य उसके पीकदाि या वमि करिे के पात्र में नगरे वमि को सावधािी से
दे खे। नवशेष वेगोों को दे खकर ही कुशल वैद्य योग , आयोग ,और अनतयोग को
जाि सकता है ।
वमन कमम के आयोग, सम्यग्योग र्र्ा अवर् योग के लक्षण

वमन के अयोग के लक्षण -


• वमि के वेगोों का नकसी कारणवश बाहर ि निकलिा,
• अिवा सम्पूणम औषनधयोों का बाहर निकलिा,
• वमि का प्रनतलोम (िीचे की ओर) प्रवृत होिा,
• या वेगोों का रुक कर आिा।

वमन का सम्यक् योग -


• ठीक समय पर वमि का होिा,
• वेग आते समय अनधक कष्ट ि होिा,
• िम से कफ, नपत्त और वायु का निकलिा ,
• वेगोों का स्वयों रुक जािा।

दोष के प्रमाण की नभनता से योग को तीक्ष्ण , मृदु और मध्यम भेद से तीि


प्रकार का जाििा चानहए।

वमन के अवर्योग के लक्षण -


• झागदार रि निकलता हो,
• और उसमे चमकीली रिचस्िकाये नदखती हो।
वमन के सम्यक योग ,अयोग, अवर्योग और व्याप्त बोिक सारणी

सम्यक् योग लक्षण अयोग लक्षण अवर्योग लक्षण व्याप्त लक्षण

• यिा काल • वेग की • फेि युि • आध्माि


प्रवृनत अप्रवृनत वमि • पररकनतमका
• अिनतव्यिा • केवल • रिचोंनद्रका • पररस्राव
• िमश कफ- औषध युि वमि • हृदग्रह
नपत्त-वात का प्रवृनत • प्यास • गात्रग्रह
निहम रण • वेग • मोह • जीवादाि
• स्वयों रुक नवबन्ध • मूछाम • नवभ्रोंश
जािा • हृदय • वायुप्रकोप • स्तम्भ
• हृदयशुस्द्ध अशुस्द्ध • निद्राहानि • क्लम
• पार्श्मशुस्द्ध • स्रोतस • बल हानि
• मूधाम शुस्द्ध अशुस्द्ध
• स्रोतस शुस्द्ध • गुरु
• लघुता गात्रता
• स्फोट
• कोठ
• कण्डू

वमन कमम के उपद्रव-


वमि के अनतयोग एवों अयोग से उपद्रव उत्प्न्न होते है ।

जैसे पेट फूलिा , गुदा में कैंची से काटिे के समाि पीड़ा का अिुभव होिा ,मुख
से पािी या लार अनधक नगरिा, हृद् गृह , अोंगोों का जकड़ जािा , शुद्ध रि का
बाहर निकलिा , औषध की प्रनतलोम गनत होिा , शरीर का जकड़ जािा और
इस्ियोों का अपिे कायम में असमिम होिा तिा िकावट होिा - ये सब वमि के
अनतयोग एवों आयोग से उत्प्न्न उपद्रव है ।

वमन के बाद िूमपान-


सम्यग वमि होिे के बाद , रोगी के हाि-पैर एवों मुख अच्छे से धुलवा दे आराम
करिे को बोले।

उसके बाद स्नेहि करिे वाले, नवरे चि करिे वाले और उपशमि करिे वाले
धूमोों में से नकसी एक को आवश्यकता अिुसार नपला दे ,और हाि पैर धुलवा
दें ।

वमन के बाद सेवनीय वनयम-


जहाुँ वायु के वेग का सीधा प्रवेश ि हो, ऐसे गृह में प्रवेश कराकर और बैठकर
रोगी को इस प्रकार उपदे श दे -

वनवषद्ध कायम- ऊुँचा बोलिा , एक आसि में दे र तक बैठिा , दे र तक खड़े


रहिा , अनधक दू र तक पैदल घूमिा , िोध करिा और शोक करिा निनषद्ध है ।

धूप में रहिा, शीत का सेवि , ओस लगिा , आुँ धी में बाहर रहिा , सवारी से
चलिा , मैिुि करिा , रात में जागरण और नदि में सोिा निनषद्ध है ।

सोंयोग-नवरुद्ध , सोंस्कार-नवरुद्ध एवों वीयम-नवरुद्ध भोजि, अजीणम में भोजि,


असात्म्य भोजि , अकाल भोजि , प्रनमत भोजि , अनतभोजि , हीिभोजि ,
प्रकृनतगुरु या मात्रागुरु भोजि , नवषम भोजि , मूत्र-पुरीष आनद वेगोों को रोकिा
तिा अप्रवृत वेगोों को बलात प्रवृत करिा - इि बातोों को मि से भी ि करते हुए
सम्पूणम नदि नबताया करे ।
संसर्मन क्रम
वमन के पश्चार्् पथ्य-व्यवस्र्ा-
• उसके बाद साों य काल के समय अिवा दू सरे नदि नकोंनचत उष्ण जल से
स्नाि कराकर , पुरािे लाल चावलोों को खूब ररझाकार , उिके मण्ड वाली
यवागू (पेया) बिाकर , सुखोष्ण करके रोगी के जठरािल के अिुसार
उनचत मात्रा में पीिे को दे । दू सरे और तीसरे आहार काल में भी ऐसा ही
करे ।

• चौिे अनकाल के समय शानल चावलोों की नवलेपी बिाकर गमम जल के


साि उसमे नबिा घी और िमक डाले या अल्प मात्रा में घी-िमक
डालकर पीिे को दे । इसी प्रकार पथ्य पाों चवे और छठे काल में भी दे ।

• सातवे भोजि में शाली चावलोों को २ प्रथि लेकर उसे खूब नसझाकर
बिाया हुआ भात , गमम जल के साि िोड़ा घी और िमक डालकर बिे
मूोंग के यूष से स्खलावे। यही पथ्य आठवे और िवें अनकाल में भी दे ।

• दसवें भोजि काल में बटे र, गौरै या के माुँ सरस से , नजसमे िमक , घी
आनद पड़ा हुआ हो। उसके साि भात स्खलाये और उष्णोदक पीिे को
दे । यही पथ्य ग्यारहवे एवों बारहवे अनकाल में दे । सात नदि के बाद
स्वाभनवक भोजि दे । |

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