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शि त और मा

रामधार संह “ दनकर”

मा, दया, तप, याग, मनोबल उ र म जब एक नाद भी


सबका लया सहारा उठा नह ं सागर से
पर नर या सुयोधन तुमसे उठ अधीर धधक पौ ष क
कहो, कहाँ कब हारा ? आग राम के शर से ।

माशील हो रपु-सम स धु देह धर ा ह- ा ह


तुम हुये वनीत िजतना ह करता आ गरा शरण म
दु ट कौरव ने तुमको चरण पूज दासता हण क
कायर समझा उतना ह । बँधा मूढ़ ब धन म।

अ याचार सहन करने का सच पूछो , तो शर म ह


कुफल यह होता है बसती है द ि त वनय क
पौ ष का आतंक मनुज सि ध-वचन संपू य उसी का
कोमल होकर खोता है। िजसम शि त वजय क ।

मा शोभती उस भुजंग को सहनशीलता, मा, दया को


िजसके पास गरल हो तभी पूजता जग है
उसको या जो दंतह न बल का दप चमकता उसके
वषर हत, वनीत, सरल हो । पीछे जब जगमग है।

तीन दवस तक पंथ मांगते


रघुप त स धु कनारे,
बैठे पढ़ते रहे छ द
अनुनय के यारे- यारे ।

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