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रस(Sentiments) की परिभाषा

साहित्य को पढ़ने , सु नने या नाटकादि को दे खने से जो आनन्द की अनु भति


ू होती है , उसे रस कहते हैं ।
रस का शाब्दिक अर्थ है 'आनं द'। काव्य को पढ़ने या सु नने से जिस आनं द की अनु भति
ू होती है ,
उसे 'रस' कहा जाता है ।
भोजन रस के बिना यदि नीरस है , औषध रस के बिना यदि निष्प्राण है , तो साहित्य भी रस के बिना निरानं द है ।
यही रस साहित्यानं द को ब्रह्मानं द-सहोदर बनाता है । जिस प्रकार परमात्मा का यथार्थ बोध कराने के लिए उसे
रस-स्वरूप 'रसो वै सः' कहा गया, उसी प्रकार परमोत्कृष्ट साहित्य को यदि रस-स्वरूप 'रसो वै सः' कहा जाय, तो
अत्यु क्ति न होगी।
रस की व्यु त्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है -
(1) सरति इति रसः। अर्थात जो सरणशील, द्रवणशील हो, प्रवहमान हो, वह रस है ।
(2) रस्यते आस्वाद्यते इति रस:। अर्थात जिसका आस्वादन किया जाय, वह रस है । साहित्य में रस इसी द्वितीय
अर्थ- काव्यास्वाद अथवा काव्यानं द- में गृ हीत है ।
जिस तरह से लजीज भोजन से जीभ और मन को तृ प्ति मिलती है , ठीक उसी तरह मधु र काव्य का रसास्वादन करने
से हृदय को आनं द मिलता है । यह आनं द अलौकिक और अकथनीय होता है । इसी साहित्यिक आनं द का नाम 'रस'
है । साहित्य में रस का बड़ा ही महत्त्व माना गया है । साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है - ''रसात्मकं वाक्यं
काव्यम्'' अर्थात रस ही काव्य की आत्मा है ।
काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट् ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबु द्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से
परिपु ष्ट तथा अनु भाव द्वारा व्यक्त हृदय का 'स्थायी भाव' ही रस-दशा को प्राप्त होता है ।
पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से सं युक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है ।
रस को 'काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व' माना जाता है ।
उदाहरण- राम पु ष्पवाटिका में घूम रहे हैं । एक ओर से जानकीजी आती हैं । एकान्त है और प्रातःकालीन वायु । पु ष्पों
की छटा मन में मोह पै दा करती हैं । राम इस दशा में जानकीजी पर मु ग्ध होकर उनकी ओर आकृष्ट होते है । राम को
जानकीजी की ओर दे खने की इच्छा और फिर लज्जा से हर्ष और रोमांच आदि होते हैं । इस सारे वर्णन को सु न-पढ़कर
पाठक या श्रोता के मन में 'रति' जागरित होती है । यहाँ जानकीजी 'आलम्बनविभाव', एकान्त तथा प्रातःकालीन
वाटिका का दृश्य 'उद्यीपनविभाव', सीता और राम में कटाक्ष-हर्ष-लज्जा-रोमांच आदि 'व्यभिचारी भाव' हैं , जो सब
मिलकर 'स्थायी भाव' 'रति' को उत्पत्र कर 'शृं गार रस' का सं चार करते हैं । भरत मु नि ने 'रसनिष्पत्ति' के लिए नाना
भावों का 'उपगत' होना कहा है , जिसका अर्थ है कि विभाव, अनु भाव और सं चारी भाव यहाँ स्थायी भाव के समीप
आकर अनु कूलता ग्रहण करते हैं ।
आचार्यों ने अपने -अपने ढं ग के 'रस' को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है । सबसे प्रचलित परिभाषा
भरत मु नि की है , जिन्होंने सर्वप्रथम 'रस' का उल्ले ख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'नाट्यशास्त्र' में ईसा की पहली
शताब्दी के आसपास किया था। उनके अनु सार 'रस' की परिभाषा इस प्रकार है -
'विभावानु भावव्यभिचारीसं योगाद्रसनिष्पत्ति:'- नाट्यशास्त्र,
अर्थात, विभाव, अनु भाव और व्यभिचारी भाव के सं योग से रस की निष्पत्ति होती है ।

रस के अं ग
रस के चार अं ग है -
(1) विभाव
(2) अनु भाव
(3) व्यभिचारी भाव
(4) स्थायी भाव।
(1) विभाव :- जो व्यक्ति, पदार्थ अथवा ब्राह्य विकार अन्य व्यक्ति के हृदय में भावोद्रेक करता है , उन कारणों को
'विभाव' कहा जाता है ।
दूसरे शब्दों में - जो व्यक्ति वस्तु या परिस्थितियाँ स्थायी भावों को उद्दीपन या जागृ त करती हैं , उन्हें विभाव कहते
हैं ।
विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है - 'रत्यु द्बोधका: लोके विभावा: काव्य-नाट्ययो:' अर्थात् जो सामाज में रति
आदि भावों का उदबोधन करते हैं , वे विभाव हैं ।
विभाव के भेद
विभाव के दो भे द हैं - (क) आलंबन विभाव (ख) उद्दीपन विभाव।
(क)आलंबन विभाव- जिसका आलं बन या सहारा पाकर स्थायी भाव जगते है , आलं बन विभाव कहलाता है ।
दूसरे शब्दों में - जिन वस्तु ओं या विषयों पर आलम्बित होकर भाव उत्पन्न होते हैं , उन्हें आलं बन विभाव कहते हैं ।
जै से- नायक-नायिका।
आलं बन विभाव के दो पक्ष होते है - आश्रयालं बन व विषयालं बन।
जिसके मन में भाव जगे वह आश्रयालं बन कहलाता है । जिसके प्रति या जिसके कारण मन में भाव जगे वह
विषयालं बन कहलाता है ।
उदाहरण- यदि राम के मन में सीता के प्रति रति का भाव जगता है तो राम आश्रय होंगे और सीता विषय।
(ख) उद्दीपन विभाव-जिन वस्तु ओं या परिस्थितियों को दे खकर स्थायी भाव उद्यीप्त होने लगता है , उद्दीपन विभाव
कहलाता है ।
सरल शब्दों में - जो भावों को उद्दीप्त करने में सहायक होते हैं , उन्हें उद्दीपन विभाव कहते हैं ।
विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में लिखा है - ''उद्दीपनविभावास्ते रसमु द्दीपयन्ति ये '' ।
दूसरे शब्दों में - आश्रय के मन में भावों को उद्दीप्त करने वाले विषय की ब्राह्म चे ष्टाओं और ब्राह्म वातावरण को
उद्दीपन विभाव कहते हैं ।
जै से- शकुन्तला को दे खकर दुष्यन्त के मन में आकर्षण (रति भाव) उत्पन्न होता है । उस समय शकुन्तला की शारीरिक
चे ष्टाएँ तथा वन का सु रम्य, मादक और एकान्त वातावरण दुष्यन्त के मन में रति भाव को और अधिक तीव्र करता
है , अतः यहाँ शकुन्तला की शारीरिक चे ष्टाएँ तथा वन का एकान्त वातावरण आदि को उद्दीपनविभाव कहा जाएगा।
(2) अनु भाव :- आलम्बन और उद्यीपन विभावों के कारण उत्पत्र भावों को बाहर प्रकाशित करने वाले कार्य
'अनु भाव' कहलाते है ।
दूसरे शब्दों में - मनोगत भाव को व्यक्त करने वाले शरीर-विकार अनु भाव कहलाते है ।
सरल शब्दों में - जो भावों का अनु गमन करते हों या जो भावों का अनु भव कराते हों, उन्हें अनु भव कहते हैं :
''अनु भावयन्ति इति अनु भावा:'' ।
विश्र्वनाथ ने साहित्यदर्पण में अनु भाव की परिभाषा इस प्रकार दी है -
''उद्बद्ध
ु ं कारणै : स्वै : स्वै र्बहिर्भाव: प्रकाशयन् ।
लोके यः कार्यरूपः सोऽनु भावः काव्यनाट्ययो: ।।''
अनु भाव के भे द
अतः अनु भाव के चार भे द है -
(क) कायिक (ख) वाचिक (ग) मानसिक (घ) आहार्य (च) सात्विक
(क) कायिक- कटाक्ष, हस्तसं चालन आदि आं गिक चे ष्टाएँ कायिक अनु भाव कही जाती है ।
(ख) वाचिक- भाव-दशा के कारण वचन में आये परिवर्तन को वाचिक अनु भाव कहते हैं ।
(ग) मानसिक- आं तरिक वृ त्तियों से उत्पत्र प्रमोद आदि भाव को मानसिक अनु भाव कहते हैं ।
(घ) आहार्य- बनावटी वे शरचना को आहार्य अनु भाव कहते हैं ।
(च) सात्विक- शरीर के स्वाभाविक अं ग-विकार को सात्विक अनु भाव कहते हैं ।
सात्विक अनु भावों की सं ख्या आठ है -
(1) स्तं भ (2) स्वे द (3) रोमांच (4) स्वर-भं ग (5 )कम्प (6) विवर्णता (रं गहीनता) (7) अश्रु (8) प्रलय
(सं ज्ञाहीनता/निश्चे ष्टता)।
(3) व्यभिचारी या संचारी भाव :- मन में सं चरण करने वाले (आने -जाने वाले ) भावों को 'सं चारी' या 'व्यभिचारी' भाव
कहते है ।
दूसरे शब्दों में - आश्रय के चित्त में उत्पन्न होने वाले अस्थिर मनोविकारों को सं चारी भाव कहते हैं ।
व्यभिचारी या सं चारी भाव 'स्थायी भावों' के सहायक है , जो अनु कुल परिस्थितियों में घटते -बढ़ते हैं ।
आचार्य भरत ने इन भावों के वर्गीकरण के चार सिद्धान्त माने हैं - (i) दे श, काल और अवस्था (ii) उत्तम, मध्यम और
अधम प्रकृति के लोग, (iii) आश्रय की अपनी प्रकृति या अन्य व्यक्तियों की उत्ते जना के कारण अथवा वातावरण
के प्रभाव (iv) स्त्री और पु रुष के अपने स्वभाव के भे द।
जै से- निर्वेद, शं का और आलस्य आदि स्त्रियों या नीच पु रुषों के सं चारी भाव है ; गर्व आत्मगत सं चारी है ; अमर्ष
परगत सं चारी; आवे ग या त्रास कालानु सार सं चारी हैं । भरत के अनु सार और अन्य आचार्यों के भी मत से पानी में
उठने वाले और आप-ही-आप विलीन होने वाले बु दबु दों- जै से ये सं चारी या व्यभिचारी भाव स्थायी भावों के भे दों के
अन्दर अलग-अलग भी हो सकते हैं और एक स्थायी भाव के सं चारी दस ू रे में भी आ सकते हैं । जै से- गर्व 'शृं गार'
(स्थायी भाव 'रति' का रस') में भी हो सकता है और 'वीर' में भी।
संचारी भावों की संख्या
सं चारी भावों की कुल सं ख्या 33 मानी गई है -
ू रे
(1) हर्ष (2) विषाद (3) त्रास (भय/व्यग्रता) (4) लज्जा (ब्रीड़ा) (5) ग्लानि (6) चिं ता (7) शं का (8) असूया (दस
के उत्कर्ष के प्रति असहिष्णु ता) (9) अमर्ष (विरोधी का अपकार करने की अक्षमता से उत्पत्र दुःख) (10) मोह (11)
गर्व (12) उत्सु कता (13) उग्रता (14) चपलता (15) दीनता (16) जड़ता (17) आवे ग (18) निर्वेद (अपने को कोसना
या धिक्कारना) (19) घृ ति (इच्छाओं की पूर्ति, चित्त की चं चलता का अभाव) (20) मति (21) बिबोध (चै तन्य लाभ)
(22) वितर्क (23) श्रम (24) आलस्य (25) निद्रा (26) स्वप्न (27) स्मृति (28) मद (29) उन्माद (30) अवहित्था
(हर्ष आदि भावों को छिपाना) (31) अपस्मार (मूर्च्छा) (32) व्याधि (रोग) (33) मरण
(4) स्थायी भाव :- रस के मूलभूत कारण को स्थायी भाव कहते हैं ।
पं डितराज जगन्नाथ ने 'रसगं गाधर' में इसकी इस प्रकार परिभाषा दी है -
''सजातीय - विजातीयै रतिरस्कृतमूर्तिमान्।
यावद्रसं वर्तमान: स्थायिभाव: उदाहृतः।।''
अर्थात जिस भाव का स्वरूप सजातीय एवं विजातीय भावों से तिरस्कृत न हो सके और जबतक रस का आस्वाद हो,
तबतक जो वर्तमान रहे , वह स्थायी भाव कहलाता है ।
मन का विकार 'भाव' है । भरत मु नि ने अपने 'नाट्यशास्त्र' में भावों की सं ख्या उनचास कही है , जिनमें तै तीस सं चारी
या व्यभिचारी, आठ सात्विक और शे ष आठ 'स्थायी भाव' है । भरत के अनु सार 'स्थायी भाव' ये है - (i) रति, (ii) ह्रास
(iii) शोक (iv) क् रोध (v) उत्साह (vi) भय (vii ) जु गु प्सा/घृ णा (viii) विस्मय/आश्चर्य (ix)शम/निर्वेद
(वै राग्य/वीतराग) (x)वात्सल्य रति (xi)भगवद विषयक रति/अनु राग
भरत ने बाद में शम या निर्वेद या शान्त को भी नवम 'स्थायी भाव' माना। बाद के आचार्यों ने भक्ति और वात्सल्य को
भी 'स्थायी भाव' माना है । भाव का स्थायित्व वहीं होता है , जहाँ (i) आस्वाद्यत्व, अर्थात व्यावहारिक जीवन में स्पष्ट
अनु रंजकता (ii) उत्कटत्व, अर्थात इतनी तीव्रता कि अन्य किसी सजातीय या विजातीय भावों में न दब या सिमट
पाना (iii) सर्वजनसु लभत्व अर्थात सं स्कार-रूप में हर मनु ष्य में वर्तमान होना (iv) पु रुषार्थोपयोगिता, अर्थात धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष- इन चारों पु रुषार्थो की सिद्धि की योग्यता और (v) औचित्य, अर्थात भाव के विषय में
आलम्बन आदि विषय की अनु कूलता हो। इन पाँच आधारों पर प्रथम नौ भाव ही 'स्थायी भाव' हो सकते है ।
अतः मन के विकार को भाव कहते है और जो भाव आस्वाद, उत्कटता, सर्वजन-सु लभता, चार पु रुषार्थो की
उपयोगिता और औचित्य के नाते हृदय में बराबर बना रहे , वह 'स्थायी भाव' है । ''वास्तविक 'स्थायी भाव' के उदाहरण
तो रस की परिपक्व अवस्था में ही मिल सकते है , अन्यत्र नही। '' ''जो भाव चिरकाल तक चित्त में स्थिर रहता है ,
जिसे विरुद्ध या अविरुद्ध भाव दबा नहीं सकते और जो विभावादि से सम्बद्ध होने पर रस रूप में व्यक्त होता है , उस
आनन्द के मूलभूत भाव को 'स्थायी भाव' कहते है ।''

रस के प्रकार
आचार्य भरतमु नि ने नाटकीय महत्त्व को ध्यान में रखते हए आठ रसों का उल्ले ख किया- शृं गार, हास्य, करूण,
रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभु त। आचार्य मम्मट और पण्डितराज जगन्नाथ ने रसों की सं ख्या नौ मानी है -
शृं गार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अदभु त और शान्त।
आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य को दसवाँ रस माना है तथा रूपगोस्वामी ने 'मधु र' नामक ग्यारहवें रस की स्थापना
की, जिसे भक्ति रस के रूप में मान्यता मिली।
वस्तु तः रस के ग्यारह भे द होते है -
(1) शृ ंगार रस
(2) हास्य रस
(3) करूण रस
(4) रौद्र रस
(5) वीर रस
(6) भयानक रस
(7) बीभत्स रस
(8) अदभु त रस
(9) शान्त रस
(10) वत्सल रस
(11) भक्ति रस
(1) शृ ंगार रस
आचार्य भोजराज ने 'श्रग ृं ार' को 'रसराज' कहा है । श्रग ृं ार रस का आधार स्त्री-पु रुष का पारस्परिक आकर्षण है ,
जिसे काव्यशास्त्र में रति स्थायी भाव कहते है । जब विभाव, अनु भाव और सं चारी भाव के सं योग से रति स्थायी
भाव आस्वाद्य हो जाता है तो उसे श्रग ृं ार रस कहते हैं । श्रग ृं ार रस में सु खद और दुःखद दोनों प्रकार की अनु भति
ू याँ
होती है , इसी आधार पर इसके दो भे द किए गए हैं - संयोग शृ ंगार और वियोग शृ ंगार।
(i) संयोग शृ ंगार
जहाँ नायक-नायिका के सं योग या मिलन का वर्णन होता है , वहाँ सं योग श्रगृं ार होता है ।
उदाहरण- ''चितवत चकित चहँ ू दिसि सीता।
कहँ गए नृ प किसोर मन चीता।।
लता ओर तब सखिन्ह लखाए।
श्यामल गौर किसोर सु हाए।।
थके नयन रघु पति छबि दे खे।
पलकन्हि हँ ू परिहरी निमे षे।।
अधिक सने ह दे ह भई भोरी।
सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।।
लोचन मग रामहिं उर आनी।
दीन्हें पलक कपाट सयानी।।''
यहाँ सीता का राम के प्रति जो प्रेम भाव है वही रति स्थायी भाव है राम और सीता आलम्बन
विभाव, लतादि उद्दीपन विभाव, दे खना, दे ह का भारी होना आदि अनु भाव तथा हर्ष, उत्सु कता आदि संचारी भाव हैं ,
अतः यहाँ पूर्ण सं योग श्रगृं ार रस हैं ।
(ii) वियोग या विप्रलम्भ श्रृंगार
जहाँ वियोग की अवस्था में नायक-नायिका के प्रेम का वर्णन होता है , वहाँ वियोग या विप्रलम्भ श्रगृं ार होता है ।
उदाहरण- ''कहे उ राम वियोग तब सीता।
मो कहँ सकल भए विपरीता।।
नूतन किसलय मनहुँ कृसानू।
काल-निसा-सम निसि ससि भानू।।
कुवलय विपिन कुंत बन सरिसा।
वारिद तपत ते ल जनु बरिसा।।
कहे ऊ ते कछु दुःख घटि होई।
काहि कहौं यह जान न कोई।।''
यहाँ राम का सीता के प्रति जो प्रेम भाव है वह रति स्थायी भाव, राम आश्रय, सीता आलम्बन, प्राकृतिक
दृश्य उद्दीपन विभाव, कम्प, पु लक और अश्रु अनु भाव तथा विषाद, ग्लानि, चिन्ता, दीनता आदि संचारी भाव हैं ,
अतः यहाँ वियोग श्रग ृं ार रस है ।

(2) हास्य रस
विकृत वे शभूषा, क्रियाकलाप, चे ष्टा या वाणी दे ख-सु नकर मन में जो विनोदजन्य उल्लास उत्पन्न होता है , उसे
हास्य रस कहते हैं । हास्य रस का स्थायी भाव हास है ।
उदाहरण- ''जे हि दिसि बै ठे नारद फू ली।
सो दिसि ते हि न विलोकी भूली।।
पु नि पु नि मु नि उकसहिं अकुलाहीं।
दे खि दसा हरिगन मु सकाहीं।।''
यहाँ  स्थायी भाव हास, आलम्बन वानर रूप में नारद, आश्रय दर्शक, श्रोता उद्दीपन नारद की आं गिक चे ष्टाएँ ; जै से-
उकसाना, अकुलाना बार-बार स्थान बदलकर बै ठना अनु भाव हरिगण एवं अन्य दर्शकों की हँ सी और संचारी भाव हर्ष,
चपलता, उत्सु कता आदि हैं , अतः यहाँ हास्य रस है ।

(3) करुण रस
दुःख या शोक की सं वेदना बड़ी गहरी और तीव्र होती है , यह जीवन में सहानु भति
ू का भाव विस्तृ त कर मनु ष्य को
भोग भाव से धनाभाव की ओर प्रेरित करता है । करुणा से हमदर्दी, आत्मीयता और प्रेम उत्पन्न होता है । जिससे
व्यक्ति परोपकार की ओर उन्मु ख होता है ।
इष्ट वस्तु की हानि, अनिष्ट वस्तु का लाभ, प्रिय का चिरवियोग, अर्थ हानि, आदि से जहाँ शोकभाव की परिपु ष्टि
होती है , वहाँ करुण रस होता है । करुण रस का स्थायी भाव शोक है ।
उदाहरण- ''सोक विकल एब रोवहिं रानी।
रूप सीलू बल ते ज बखानी।।
करहिं विलाप अने क प्रकारा।
परहिं भूमितल बारहिं बारा।।''
यहाँ  स्थायी भाव शोक, दशरथ आलम्बन, रानियाँ  आश्रय, राजा का रूप ते ज बल आदि उद्दीपन रोना, विलाप
करना अनु भाव और स्मृति, मोह, उद्वे ग कम्प आदि संचारी भाव हैं , अतः यहाँ करुण रस है ।

(4) वीर रस
यु द्द अथवा किसी कठिन कार्य को करने के लिए ह्रदय में निहित 'उत्साह' स्थायी भाव के जाग्रत होने के
प्रभावस्वरूप जो भाव उत्पन्न होता है , उसे वीर रस कहा जाता है ।
उत्साह स्थायी भाव जब विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों में परिपु ष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है , तब वीर रस
उत्पन्न होता है ।
उदाहरण- ''मैं सत्य कहता हँ ू सखे ! सु कुमार मत जानो मु झे।
यमराज से भी यु द्ध में प्रस्तु त सदा जानो मु झे।।
हे सारथे ! हैं द्रोण क्या? आर्वे स्वयं दे वेन्द्र भी।
वे भी न जीतें गे समर में आज क्या मु झसे कभी।।''
यहाँ  स्थायी भाव उत्साह आश्रय अभिमन्यु द्घ आलम्बन द्रोण आदि कौरव पक्ष, अनु भाव अभिमन्यु के वचन
और संचारी भाव गर्व, हर्ष, उत्सु कता, कम्प मद, आवे ग, उन्माद आदि हैं , अतः यहाँ वीर रस है ।

(5) रौद्र रस
रौद्र रस का स्थायी भाव क् रोध है । विरोधी पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति, दे श, समाज या धर्म का अपमान या अपकार
करने से उसकी प्रतिक्रिया में जो क् रोध उत्पन्न होता है , वह विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों में परिपु ष्ट होकर
आस्वाद्य हो जाता है और तब रौद्र रस उत्पन्न होता है ।
उदाहरण- ''माखे लखन कुटिल भयीं भौंहें ।
रद-पट फरकत नयन रिसौहैं ।।
कहि न सकत रघु बीर डर, लगे वचन जनु बान।
नाइ राम-पद-कमल-जु ग, बोले गिरा प्रमान।।''
यहाँ  स्थायी भाव क् रोध, आश्रय लक्ष्मण, आलम्बन जनक के वचन उद्दीपन जनक के वचनों की
कठोरता, अनु भाव भौंहें तिरछी होना, होंठ फड़कना, ने तर् ों का रिसौहैं होना संचारी भाव अमर्ष-उग्रता, कम्प आदि
हैं , अतः यहाँ रौद्र रस है ।

(6) भयानक रस
भयप्रद वस्तु या घटना दे खने सु नने अथवा प्रबल शत्रु के विद्रोह आदि से भय का सं चार होता है । यही भय
स्थायी भाव जब विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों में परिपु ष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तो वहाँ भयानक रस
होता है ।
उदाहरण- ''एक ओर अजगरहिं लखि, एक ओर मृ गराय।
विकल बटोही बीच ही, परयों मूरछा खाय।।''
यहाँ पथिक के एक ओर अजगर और दस ू री ओर सिं ह की उपस्थिति से वह भय के मारे मूर्च्छि त हो गया है । यहाँ
भय स्थायी भाव, यात्री आश्रय, अजगर और सिं ह आलम्बन, अजगर और सिं ह की भयावह आकृतियाँ और उनकी
चे ष्टाएँ  उद्दीपन, यात्री को मूर्च्छा आना अनु भाव और आवे ग, निर्वेद, दै न्य, शं का, व्याधि, त्रास, अपस्मार
आदि संचारी भाव हैं , अतः यहाँ भयानक रस है ।

(7) बीभत्स रस
वीभत्स रस का स्थायी भाव जु गु प्सा या घृ णा है । अने क विद्वान इसे सह्रदय के अनु कूल नहीं मानते हैं , फिर भी
जीवन में जु गु प्सा या घृ णा उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ तथा वस्तु एँ कम नहीं हैं । अतः घृ णा का स्थायी भाव
जब विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों से पु ष्ट होकर आस्वाद्य हो जाता है तब बीभत्स रस उत्पन्न होता है ।
उदाहरण- ''सिर पर बै ठ्यो काग आँ ख दोउ खात निकारत।
खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनन्द उर धारत।।
गीध जाँघ को खोदि खोदि कै मांस उपारत।
स्वान आं गुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।।''
यहाँ राजा हरिश्चन्द्र श्मशान घाट के दृश्य को दे ख रहे हैं । उनके मन में उत्पन्न जु गु प्सा या घृ णा स्थायी
भाव, दर्शक (हरिश्चन्द्र) आश्रय, मु र्दे , मांस और श्मशान का दृश्य आलम्बन, गीध, स्यार, कुत्तों आदि का मांस
नोचना और खाना उद्दीपन, दर्शक/राजा हरिश्चन्द्र का इनके बारे में सोचना अनु भाव और मोह, ग्लानि आवे ग,
व्याधि आदि संचारी भाव हैं , अतः यहाँ बीभत्स रस है ।

(8) अदभु त रस
अलौकिक, आश्चर्यजनक दृश्य या वस्तु को दे खकर सहसा विश्वास नहीं होता और मन में स्थायी
भाव विस्मय उत्पन्न होता हैं । यही विस्मय जब विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों में पु ष्ट होकर आस्वाद्य हो
जाता है , तो अद्भुत रस उत्पन्न होता है ।
उदाहरण- ''अम्बर में कुन्तल जाल दे ख,
पद के नीचे पाताल दे ख,
मु ट्ठी में तीनों काल दे ख,
मे रा स्वरूप विकराल दे ख,
सब जन्म मु झी से पाते हैं ,
फिर लौट मु झी में आते हैं ।
यहाँ  स्थायी भाव विस्मय, ईश्वर का विराट, स्वरूप आलम्बन, विराट के अद्भुत क्रियाकलाप उद्दीपन, आँ खें फाड़कर
दे खना, स्तब्ध, अवाक् रह जाना अनु भाव और भ्रम, औत्सु क्य, चिन्ता, त्रास आदि संचारी भाव हैं , अतः यहाँ
अद्भुत रस है ।

(9) शान्त रस
अभिनवगु प्त ने शान्त रस को सर्वश्रेष्ठ माना है । सं सार और जीवन की नश्वरता का बोध होने से चित्त में एक
प्रकार का विराग उत्पन्न होता है परिणामतः मनु ष्य भौतिक तथा लौकिक वस्तु ओं के प्रति उदासीन हो जाता है ,
इसी को निर्वेद कहते हैं । जो विभाव, अनु भाव और सं चारी भावों से पु ष्ट होकर शान्त रस में परिणत हो जाता है ।
उदाहरण- ''सु त वनितादि जानि स्वारथरत न करु ने ह सबही ते ।
अन्तहिं तोहि तजें गे पामर! तू न तजै आभि ते ।।
अब नाथहिं अनु राग जाग जड़, त्यागु दुरदसा जीते ।
बु झै न काम अगिनि 'तु लसी' कहुँ विषय भोग बहु घी ते ।।''
यहाँ  स्थायी भाव, निर्वेद आश्रय, सम्बोधित सांसरिक जन आलम्बन, सु त वनिता आदि अनु भाव, सु त वनितादि को
छोड़ने को कहना सं चारी भाव धृति, मति विमर्श आदि हैं , अतः यहाँ शान्त रस है ।
शास्त्रीय दृष्टि से नौ ही रस माने गए हैं ले किन कुछ विद्वानों ने सूर और तु लसी की रचनाओं के आधार पर दो नए
रसों को मान्यता प्रदान की है - वात्सल्य और भक्ति।

(10) वात्सल्य रस
वात्सल्य रस का सम्बन्ध छोटे बालक-बालिकाओं के प्रति माता-पिता एवं सगे -सम्बन्धियों का प्रेम एवं ममता के
भाव से है ।
हिन्दी कवियों में सूरदास ने वात्सल्य रस को पूर्ण प्रतिष्ठा दी है । तु लसीदास की विभिन्न कृतियों के बालकाण्ड में
वात्सल्य रस की सु न्दर व्यं जना द्रष्टव्य है । वात्सल्य रस का स्थायी भाव वत्सलता या स्ने ह है ।
उदाहरण- ''किलकत कान्ह घु टु रुवनि आवत।
मणिमय कनक नन्द के आँ गन बिम्ब पकरिबे धावत।
कबहँ ू निरखि हरि आप छाँ ह को कर सो पकरन चाहत।
किलकि हँ सत राजत द्वै दतियाँ पु नि पु नि तिहि अवगाहत।।''
यहाँ  स्थायी भाव वत्सलता या स्ने ह, आलम्बन कृष्ण की बाल सु लभ चे स्टाएँ , उद्दीपन किलकना, बिम्ब को
पकड़ना, अनु भाव रोमां चित होना, मु ख चूमना, संचारी भाव हर्ष, गर्व, चपलता, उत्सु कता आदि हैं , अतः यहाँ
वात्सल्य रस है ।

(11) भक्ति रस
भक्ति रस शान्त रस से भिन्न है । शान्त रस जहाँ निर्वेद या वै राग्य की ओर ले जाता है वहीं भक्ति ईश्वर विषयक
रति की ओर ले जाते हैं यही इसका स्थायी भाव भी है । भक्ति रस के पाँच भे द हैं - शान्त, प्रीति, प्रेम, वत्सल और
मधु र। ईश्वर के प्रति भक्ति भावना स्थायी रूप में मानव सं स्कार में प्रतिष्ठित है , इस दृष्टि से भी भक्ति रस मान्य
है ।
उदाहरण- ''मे रे तो गिरिधर गोपाल दस ू रों न कोई।
जाके सिर मोर मु कुट मे रो पति सोई।।
साधु न सं ग बै ठि लोक-लाज खोई।
अब तो बात फैल गई जाने सब कोई।''
यहाँ  स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति, आलम्बन श्रीकृष्ण उद्दीपन कृष्ण लीलाएँ , सत्सं ग, अनु भाव-रोमांच, अश्रु,
प्रलय, संचारी भाव हर्ष, गर्व, निर्वेद, औत्सु क्य आदि हैं अतः यहाँ भक्ति रस है ।

रस स्थायी भाव उदाहरण

(1) शृ ंगार रस रति/प्रेम (i) सं योग शृं गार : बतरस लालच लाल की, मु रली धरी लु काय।
(सं भोग श्रग ृं ार): सौंह करे , भौंहनि हँ सै, दै न कहै , नटि जाय।
(बिहारी)
(ii) वियोग श्रग ृं ार : निसिदिन बरसत नयन हमारे
(विप्रलं भ श्रग ृं ार): सदा रहित पावस ऋतु हम पै जब ते स्याम
सिधारे ।।(सूरदास)

(2) हास्य रस हास तं बरू ा ले मं च पर बै ठे प्रेमप्रताप,


साज मिले पं दर् ह मिनट, घं टा भर आलाप।
घं टा भर आलाप, राग में मारा गोता,
धीरे -धीरे खिसक चु के थे सारे श्रोता। (काका हाथरसी)

(3) करुण रस शोक सोक बिकल सब रोवहिं रानी।


रूपु सीलु बलु ते जु बखानी।।
करहिं विलाप अने क प्रकारा।।
परिहिं भूमि तल बारहिं बारा।। (तु लसीदास)

(4) वीर रस उत्साह वीर तु म बढ़े चलो, धीर तु म बढ़े चलो।


सामने पहाड़ हो कि सिं ह की दहाड़ हो।
तु म कभी रुको नहीं, तु म कभी झु को नहीं।। (द्वारिका प्रसाद
माहे श्वरी)

(5) रौद्र रस क् रोध श्रीकृष्ण के सु न वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे ।


सब शील अपना भूल कर करतल यु गल मलने लगे ।
सं सार दे खे अब हमारे शत्रु रण में मृ त पड़े ।
करते हुए यह घोषणा वे हो गए उठ कर खड़े ।। (मै थिली शरण
गु प्त)

(6) भयानक रस भय उधर गरजती सिं धु लहरियाँ कुटिल काल के जालों सी।
चली आ रहीं फेन उगलती फन फैलाये व्यालों-सी।। (जयशं कर
प्रसाद)

(7) बीभत्स रस जु गु प्सा/घृ णा सिर पर बै ठ्यो काग आँ ख दोउ खात निकारत।


खींचत जीभहिं स्यार अतिहि आनं द उर धारत।।
रस स्थायी भाव उदाहरण

गीध जां घि को खोदि-खोदि कै मांस उपारत।


स्वान आं गुरिन काटि-काटि कै खात विदारत।। (भारते न्दु)

(8) अदभु त रस विस्मय/आश्चर्य आखिल भु वन चर-अचर सब, हरि मु ख में लखि मातु ।
चकित भई गद्गद् वचन, विकसित दृग पु लकातु ।। (से नापति)

(9) शांत रस शम/निर्वेद मन रे तन कागद का पु तला।


(वै राग्य/वीतरा लागै बूँद बिनसि जाय छिन में , गरब करै क्या इतना।। (कबीर)
ग)

(10) वत्सल वात्सल्य रति किलकत कान्ह घु टरुवन आवत।


रस मनिमय कनक नं द के आं गन बिम्ब पकरिवे घावत।। (सूरदास)

(11) भक्ति रस भगवद विषयक राम जपु , राम जपु , राम जपु बावरे ।
रति/अनु राग घोर भव नीर-निधि, नाम निज नाव रे ।। (तु लसीदास)

नोट:
(1) शृं गार रस को 'रसराज/ रसपति' कहा जाता है ।
(2) नाटक में 8 ही रस माने जाते है क्योंकि वहां शांत को रस में नहीं गिना जाता। भरत मु नि ने रसों की सं ख्या 8
माना है ।
(3) भरत मु नि ने केवल 8 रसों की चर्चा की है , पर आचार्य अभिन्नगु प्त (950-1020 ई०) ने 'नवमोऽपि शान्तो रसः
कहकर 9 रसों को काव्य में स्वीकार किया है ।
(4) श्रग ृं ार रस के व्यापक दायरे में वत्सल रस व भक्ति रस आ जाते हैं इसलिए रसों की सं ख्या 9 ही मानना ज्यादा
उपयु क्त है ।
रस संबंधी विविध तथ्य
भरतमु नि (1 वी सदी) को 'काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य' माना जाता है । सर्वप्रथम आचार्य भरत मु नि ने अपने
ग्रंथ 'नाट्य शास्त्र' में रस का विवे चन किया। उन्हें रस सं पर् दाय का प्रवर्तक माना जाता है ।
भरत मु नि के कुछ प्रमुख सूतर्
(1) 'विभावानु भाव व्यभिचारिसं योगाद् रस निष्पतिः'- विभाव, अनु भाव, व्यभिचारी (सं चारी) के सं योग से रस की
निष्पत्ति होती है ।
(2) 'नाना भावोपगमाद् रस निष्पतिः। नाना भावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नु वन्ति।'- नाना (अने क)
भावों के उपागम (निकट आने / मिलने ) से रस की निष्पत्ति होती है । नाना (अने क) भावों से यु क्त स्थायी भाव
रसावस्था को प्राप्त होते हैं ।
(3) 'विभावानु भाव व्यभिचारि परिवृ तः स्थायी भावो रस नाम लभते नरे न्द्रवत्' ।- विभाव, अनु भाव, व्यभिचारी से
ू रे शब्दों में , विभाव, अनु भाव व व्यभिचारी (सं चारी)
घिरे रहने वाले स्थायी भाव की स्थिति राजा के समान हैं । दस
भाव को परिधीय स्थिति और स्थायी भाव को केन्द्रीय स्थिति प्राप्त है ।
(4) रस-सं पर् दाय के प्रतिष्ठापक आचार्य, मम्मट (11 वी० सदी) ने काव्यानं द को 'ब्रह्मानं द सहोदर' (ब्रह्मानं द-
ू आनं द) कहा है । वस्तु तः रस के सं बंध में ब्रह्मानं द की कल्पना का मूल स्रोत तै त्तरीय उपनिषद
योगी द्वारा अनु भत
है जिसमें कहा गया है 'रसो वै सः'- आनं द ही ब्रह्म है ।
(5)रस-सं पर् दाय के एक अन्य आचार्य, आचार्य विश्वनाथ (14 वी० सदी) ने रस को काव्य की कसौटी माना है ।
उनका कथन है 'वाक्य रसात्मकं काव्यम्'- रसात्मक वाक्य ही काव्य है ।
(6) हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शु क्ल डॉ० नगे न्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शु क्ल ने सं स्कृत
के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है । वे रस
की स्थिति को 'ह्रदय की मु क्तावस्था' के रूप में मानते हैं । उनके शब्द हैं : 'लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने
की दशा का नाम रस-दशा है '।

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