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(HEART DISEASES)
व्याधि परिचय:-
आचार्य चरक ने हृद्रोग का स्वतन्त्र अध्याय के रूप में वर्णन नहीं किया है परन्तु सूत्रस्थान अध्याय १७,
चिकित्सा स्थान अध्याय २६ तथा सिद्धिस्थान अध्याय ९ में हृद्रोग का वर्णन किया है । आचार्य सुश्रुत ने
उत्तर तन्त्र के प्रथम अध्याय में हृद्रोग का वर्णन किया है । आचार्य माधवकर ने शूल रोग के भेदों के
अन्तर्गत हशूल का वर्णन किया है । हृद्रोगों की उत्पत्ति का मुख्य कारण साधक पित्त, अवलम्बक कफ
तथा व्यानवायु की विकृति है । निरूक्ति–आचार्य माधवकर मतानुसार हृदय में उत्पन्न होने वाले रोग हृद्रोग
कहलाते हैं।
निदान:-
I. सामान्य निदान – आचार्य चरक मतानुसार हृदय रोग के सामान्य निदान निम्न हैं|
व्यायाम
तीक्ष्ण आहार
विरे चन तथा वस्ति का अतिमात्रा में सेवन चिन्ता
भय
त्रास
किसी भी व्याधि की समुचित चिकित्सा न होना
अधिक वमन
कृशकारक आहार-विहार का सेवन
अभिघात
वेगावरोध
वातजन्य हृदय रोग के कारण-शोक, उपवास, अत्यधिक व्यायाम, इनसे और रूखे-सूखे मात्रा में
अल्प भोजन करना l
4) कृमिज हृद्रोग तथा सन्निपातिक हृद्रोग के निदान – कृमिज हृद्रोग के निम्न निदान वर्णित हैं
भेद-
विभिन्न आचार्यों ने हृद्रोग के निम्न भेद वर्णित किये हैं-
लक्षण -
1. सामान्य लक्षण-
आचार्य चरक मतानुसार हृदय रोग के निम्न सामान्य लक्षण वर्णित हैं
विवर्णता (Discolouration of the skin)
मूर्च्छा (Fainting)
ज्वर (Fever)
कास (Cough)
हिक्का (Hiccough)
श्वास (Dyspnoea)
आस्य वैरस्य (Bitter taste of mouth)
तृष्णा (Polydypsia)
प्रमोह (Stupor)
छर्दि (Vomiting)
कफोत्क्लेश (Nausea )
अरूचि (Anorexia)
वैवर्ण्यमूर्च्छाज्वरकासहिक्काश्वासास्यवैरस्य तृषाप्रमोहाः। छर्दिः कफोत्क्ले शरूजोऽरूचिश्च हृद्रोगजाः स्युर्विविधास्तथान्ये।। (च.चि. २६/७८)
(सु.उ. 43/7)
सुप्तता (Numbness)
स्तिमितता (Feeling of wet cloth around body)
तन्द्रा (Sleepiness)
अरूचि (Anorexia)
हृदय के ऊपर पत्थर रखे जाने सी प्रतीति होना (Heaviness in cardiac Region)
गौरव (Heaviness)
लालास्राव (Excessive salivation)
स्तम्भ (Stiffness)
अग्निमांद्य (Indigestion)
मुखमाधुर्य (Sweet taste of mouth)
ज्वर (Fever)
कास (Cough)
लालास्राव (Excessive salivation)
स्तम्भ (Stiffness)
अग्निमांद्य (Indigestion)
मुखमाधुर्य (Sweet taste of mouth)
सन्निपातज हृद्रोग में तीनों दोषों के सम्मिलित लक्षण पाये जाते हैं।
५. कृमिज हृद्रोग -
सम्प्राप्ति- आचार्य चरक मतानुसार त्रिदोषज हृद्रोग से पीड़ित रोगी यदि कृमि रोग के निदानों का सेवन करता है तो उसके
हृदय के एक भाग में ग्रन्थि उत्पन्न हो जाती है। इस ग्रन्थि से स्रवित रस व क्लेद से कृमियों की उत्पत्ति हो जाती है तथा कृमि
धीरे-धीरे बढ़कर हृदय को सब तरफ से दबाकर नष्ट कर दे ते हैं।
लक्षण
उत्क्लेशः ष्ठीवनं तोदः शूलाहल्लासकस्तमः।
(सु.उ. ४३/९)
सम्प्राप्ति :-
I. सामान्य सम्प्राप्ति -निदानों का अत्यधिक सेवन करने से विकृत हुए दोष हृदय में पहुँचकर वहाँ
रसादि को दषि
ू त करके हृदय के कार्यों में बाधा उत्पन्न कर दे ते हैं। इसी को हृद्रोग कहते हैंl
दष
ू यित्वा रसं दोषा विगुणा हृदयं गताः।
2. विशिष्ट सम्प्राप्ति:
1)वातजन्य हृदय रोग की सम्प्राप्ति—शोक, उपवास, अत्यधिक व्यायाम, इनसे और रूखे-सूखे व मात्रा में
अल्प भोजन करने से बढ़ी हुई वायु, हृदय प्रदे श में जाकर अत्यधिक वेदना को उत्पन्न करती हैं |
स्रोतस-रसवह, प्राणवह
अधिष्ठान-हृदय
स्वभाव -चिरकारी
स्रोतोदष्टि
ु -संग
अग्निदष्टि
ु -अग्निमांद्य
साध्यासाध्यता- याप्य
साध्यासाध्यता
साध्यता-
असाध्यता
2. अरिष्ट लक्षण-स्तैमित्य (Cold, clamy skin), आयताक्ष (Dilated pupil) एवं तीव्र उरोग्रह (Tearing
retrosternal pain) होने पर हृद्रोग असाध्य होता है।
उपद्रव—आचार्य माधवकर के मतानुसार हृद्रोग के निम्न उपद्रव उत्पन्न हो सकते हैं-
क्लम
अंगसाद
शोष
भ्रम
अवसाद