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आवरण

निरुक्ति :-

आवरण :- आच्छादकम् अर्थात ढकने वाला । ( वैद्यक शब्दसिन्धु)

आवृत :- जिसे आच्छादित या ढाका जा सके ।

आवरण के पर्याय :-

वेष्टत ख्यात व्लयित संवित आवृत्तम् । ( अमर कोष)

अन्वित, बध्दमार्ग, प्रतिघात, सम्युक्ते , उपस्तम्भित, आच्छादन, अवरुध्दगति, संग, प्रच्छादन, वलयन, वेष्टन, रुध्द ।
आवरण = आवृत + आवरक
आवरण :-
एषां स्वकर्मणां हानिर्वृध्दिर्वाऽऽवरणे मता ।
इस तरह वायुओ के आवरण होने पर उनके स्वाभिक कार्य की हानी या वृध्दि होती हैं ।

(च. चि. २८/२१५)


आवरक:-
तत्र्-उर्ध्वं गच्छान्न-उदानः प्राणो वा अपान्स्य-अधो-गामिनो गतिनिरोधं
कु र्वन् अवरकः इत्युच्यते ।
(डल्हन)
आवृत :-
द्वर्यो-मारुतयोर-अभिमुखम-अभिसर्पर्तोबलवता दुर्बलो-ऽभिभूतः सन्
आवृतः इत्युच्यते ॥ (डल्हन)
आवरक - लक्षणो में वृध्दि ( बलवान ) ।
आवृत – कार्य में हानि (दुर्बल ) ।
आवृत आवरक
1.जिसे ढाका जा सके । 1.जो अवरोध उत्पन्न करे अथवा जो ढके ।

2.सदैव वात अथवा अन्योन्यावरण के अन्तर्गत वात के अन्य 2.दोष, धातु, मल, अन्न अथवा अन्योन्यावरण में वात का
भेद (प्रणादि) में से किसी एक को ढका जा सकता हैं । कोई भेद अवरोध उत्पन्न कर सकता हैं ।

3.आवृत वात दोष के लक्षण क्षीण या दिखाई नहीं देते हैं


क्योकि आवृत दोष दुर्बल होने से कार्य नहीं कर पाते हैं । 3.आवरक दोष और दूष्य के लक्षण प्रधान रुप से दिखाई देते
हैं ।
4.सम्बन्धित आवृत दोष की कर्म हानी होती हैं ।

5.आवरक की चिकित्सा करने से आवृत स्वतः सम स्थिति में 4.आवरक दोष व दूष्य के कर्मो की वृध्दि होना ।
आ जाता हैं । अथवा आवृत दोष की क्षीण अवस्था की चिकित्सा
करके उसे सम अवस्था में लाना चाहिये । 5.चिकित्सा आवरक दोष या दूष्य की करनी चाहिये ।
उदा. :-

पित्त तथा कफ से आवृत प्राण वायु

आमाशय में प्रवृध्द पित्त एवं कफ जब आमाशय की श्लेष्मकला को


क्षुभित कर वमनादि लक्षण उत्पन्न करते हैं

प्राण वायु के कर्म का हानि ( अन्नादि को अमाशयादि महास्त्रोतस में ले जाना)

परिणामतः वमन द्वारा वृध्द पित्त तथा कफ का निःसरण


आवरण

आवरण :-
दोषो का दूष्यो पर
दूष्यो का दोषो पर
एक दोष का दूसरे दोष पर
वायुओ का परस्पर

सामान्यतः आवरण वायु का होता हैं :-


इसलिये चरक तथा सुसूत ने आवरण का वर्णन – वातव्याधि आधिकार ।
वाग्भट्ट - वातरक्त आधिकार ।
अन्योन्यावरण :-
एक वायु जब दुसरी वायु के मार्ग में बाधा पहुचाये तो उसे अन्योन्या वरण कहते हैं ।

मिश्रक आवरण :-

लक्षणानां तु मिश्रत्वं पित्तस्य च कफस्य च ।


उपलक्ष्ण भिषग् विव्दान् मिश्रमावरणं वदेत् ।

कभी कभी एक ही वायु जब कफ तथा पित्त दोनो दोष से आवृत हो जाती हैं तो इस प्रकार के आवरण को मिश्रक आवरण कहते हैं ।
मार्गावरण और दोषावरण

मार्गावरण :-
दोष धातु मल के वाहन मार्ग का स्थूल (anatomical) अवरोध होता हैं ।
उदा. :-
१. शोथ
२. अर्बुद
३. अश्मरी आदि ।
दोषावरण :-
एक दोष का दुसरे दोषादि का सूक्ष्म (physiological) आवरण होता हैं ।
वात व्याधिया

पित्त और कफ का अनुबन्ध रहता हैं । वात व्याधियो मे वात का प्रकोप कारण

वायु सभी स्त्रोतो में सूक्ष्म होने के कारण विचरण करती


धातु क्षय आवरण
रहती हैं तथा पित्त और कफ को उमाडती हैं

और मार्गो का आवरण करने से रसादि धातुओ को सुखाती हैं । स्नेहश्र्च धातून्सं-शुष्कान् पुष्णात्याशु प्रयोजितः ।
बलम-अग्निं पुष्टिं प्राणांश्र्च-अप्य-अभिवर्धयेत ॥
(च. चि. २८/८१)
उचित रुप से स्नेह का प्रयोग करने से सूखी हुई धातुओ का शीघ्र पोषण हो जाता हैं
और शरीर में बल, अग्नि, पुष्टि और प्राणशक्ति (जीवनीय श्क्ति) की वृद्धि हो जाती हैं ।
पितावृत वात लक्षण
दोष
कफाव्रृत वात लक्षण

रक्ताव्रृत वात लक्षण

मासंवृत वात लक्षण

मेदाव्रृत वात लक्षण


धातु
आवरण

अस्थि-अव्रृत वात लक्षण

मज्जाव्रृत वात लक्षण

शुक्राव्रृत वात लक्षण

अन्नाव्रृत वात लक्षण अन्न

मूत्रावृत वात लक्षण


मल
मलावृत वात के लक्षण

सर्व धातुओ से आवृत वात के लक्षण


पितावृत वात लक्षण
लिङ्गं पित्तावृते दाहस्तृष्णा शूलं भ्रमस्तमः|
कट्वम्ललवणोष्णैश्च विदाहः शीतकामिता | सु. नि. 1/६१-६२)

जब वायु पित्त से आवृत होती हैं तो सारे शरीर में दाह, प्यास की अधिकता, उदर में शुल, चक्कर का आना, नेत्रों के सामने अन्धेरा का छाना तथा कटु, अम्ल, लवण,

रस और उष्ण वीर्य वाली वस्तुओ के सेवन से विदाह का होना, शीतल वस्तुओ के सेवन करने की इच्छा का होना ये लक्षण होते हैं ।

पितावृत प्राणवायु लक्षण


पितावृत वात लक्षण

पितावृत उदानवायु लक्षण

पितावृत समानवायु लक्षण

पितावृत अपानवायु लक्षण

पितावृत व्यानवायु लक्षण


कफावृत वात लक्षण
शैत्यगौरवशूलानि कट्वाद्यु पशयोऽधिकम् ||६२||
लङ्घनायासरूक्षोष्णकामिता च कफावृते | सु. नि. २८/६१-
६२)
जब वायु कफ से आवृत होती हैं । तो शरीर में शीत का लगना, भारीपन और वेदना होती हैं । उसे अधिक रुप में कटु, अम्ल, लवण रस और उष्ण
द्रव्यो से उपशय ( रोग की शन्ति ) होता हैं । लंघन परिश्रम रुक्ष एवं उष्ण वस्तुओ के सेवन की इच्छा बनी रहती हैं ।

कफावृत प्राणवायु लक्षण


कफावृत वात लक्षण

कफावृत उदानवायु लक्षण

कफावृत समानवायु लक्षण

कफावृत अपानवायु लक्षण

कफावृत व्यानवायु लक्षण


रक्तावृत वात लक्षण

रक्तावृते सदाहार्तिस्त्वङ्मांसान्तरजो भृशम्||६३||


भवेत् सरागः श्वयथुर्जायन्ते मण्डलानि च| सु. नि.
२८/६१-६२)
जब वायु रक्त से आवृत होती हैं तो त्वचा और मांसपेशियों के मध्य में दाह और अधिक वेदना होती हैं । लालिमा युक्त शोथ और मण्डल (
चकते) उत्पन्न हो जाता हैं ।
मासंवृत वात लक्षण
कठिनाश्च विवर्णाश्च पिडकाः श्वयथुस्तथा ||६४||

हर्षः पिपीलिका नाम् च संचार इव मांसगे |


( च. चि. २८/६१-६२)

यदि मांसपेशियो से वायु का आवरण हो जाता हैं तो कठोर और वर्ण रहित पिडिकायें हो जाती हैं । शोथ
तथा रोमांच एवं शरीर पर चीटियाँ चलने के समान प्रतीति होती हैं ।
मेदावृत वात लक्षण

चलः स्निग्धो मृदुः शीतः शोफोऽङ्गेष्व-अ रुचिस्तथा ||६५||

आढ्यवात इति ज्ञेयः स कृ च्छ्रो मेदसाऽऽवृतः| ( सु.


नि. 28/65-66 )
मेदा से आवृत वायु अंगो में चल, चिकना, कोमल, शीतल शोथ तथा भोजन में अरुचि (Anorecxia)
उत्पन्न करती हैं । यह कष्टसाध्य होती हैं । इसे आढ्यवात भी कहते हैं ।
अस्थि-अवृत वात लक्षण
स्पर्शम-स्थ्नाऽऽवृते तूष्णं पीडनं चाभिनन्दति ||६६||

सम्भज्यते सीदति च सूची-भिरिव तुद्यते | सु. नि.


२८/६१-६२)

जब अस्थि से वायु आवृत होती हैं तो उष्ण स्पर्श और अंगो को हाथो से दबाना अधिक पसन्द करता हैं ।
अंगो में टू टने के समान पीडा (Breeaking pain in the body) होती हैं । वह व्यक्ति अधिक कष्ट का
अनुभव करता हैं । जैसे उसके शरीर में कोई सुईयों को चुभा रहा हो इस प्रकार से वेदना होती हैं ।
मज्जावृत वात लक्षण

मज्जावृते विनामः [२] स्याज्जृम्भणं परिवेष्टनम् ||६७||


शूलं तु पीड्यमाने च पाणिभ्यां लभते सुखम् |
( सु. नि. २८/६१-६२ )

जव वायु मज्जा से आवृत होती हैं तो शरीर का तेढा हो जाना, जम्भाई का आना, शरीर में ऎंठन का होना और शूल
होता हैं । यदि हाथों से शरीर को दबाया जाय तो रोगी को सुख का अनुभव होता हैं ।
शुक्रावृत वात लक्षण

शुक्र-ऽवेगो-ऽतिवेगो वा निष्फलत्वं च शुक्रगे ||६८||


(सु. नि. २८/६१-६२)

जब शुक्र से वायु आवृत होती हैं तो शुक्र में वेग नही होता हैं अथवा शुक्र में अधिक वेग भी होता हैं
अथवा शुक्र निष्फल होता हैं तात्पर्य यह है कि कभी शुक्र निकलने में वेग नही रहता कभी अधिक
रहता हैं । पर दोनो अवस्था में शुक्र गर्भ धारण करने में समर्थ नहीं होता हैं ।
अन्नावृत वात लक्षण

भुक्ते कु क्षौ च रुग्जीर्णे शाम्यत्य-न्नावृतेऽनिले | (सु. नि.


२८/६१-६२)
जब वायु अन्न से आवृत होता हैं तो भोजन करने के बाद उदर में शुल उत्पन्न हो जाता हैं और जब भोजन पच
जाता हैं तो शुल की शन्ति होती हैं ।
मूत्रावृत वात लक्षण

मूत्र ऽप्रवृत्तिर आध्मानं बस्तौ मूत्रावृतेऽनिले ||६९||


(सु. नि. २८/६१-६२)

जब वायु मूत्र से आवृत होती हैं तो मूत्र की प्रवृत्ति न होना और मूत्राशय में आध्यमान हो जाता हैं ।
मलावृत वात के लक्षण
वर्चसोऽतिविबन्धोऽधः स्वे स्थाने परिकृ न्तति |

व्रज-अत्याशु जरां स्नेहो भुक्ते च अनह्यते नरः ||७०||

चिरात् पीडितम अन्नेन दुःखं शुष्कं शकृ त् सृजेत् |

श्रोणी-वङ्क्षण-पृष्ठेषु रुग-विलोमश्च मारुतः ||७१||

अस्वस्थं हृदयं चैव वर्चसा त्वावृतेऽनिले |७२|

सु. नि. २८/६१-६२)


जब मल से वायु आवृत होती हैं तो मल नीचे की ओर अत्यन्त विबन्ध युक्त होता हैं अर्थात मल रुक जाता हैं पक्वाशय में कै ची से काटने के समान वेदना होती हैं भोजन करने के

पश्चात खाये हुऎ स्नेह का पाचन शीघ्र ही हो जाता हैं तथा भोजन के बाद मनुष्य को आनाह हो जाता हैं । अन्न से पीडित हुआ, दुःख पूर्वक सूखा और देर से मल का त्याग होता हैं

। श्रोणि, वंक्षण और पृष्ठ प्रदेश मे वेदना होती हैं सर्वदा वायु विलोम रहता हैं अर्थात कभी भी अनुलोम नही होता हैं । रोगी का हृदय अस्वस्थ रहाता हैं अर्थात उसका हृदय नियत

कार्य को नही करता हैं । जिससे मनुष्य सर्वदा अपने को स्वस्थ समक्षता हैं ।
सर्व धातुओ से आवृत वात के लक्षण
सर्वधात्वावृत्ते वायौ श्रोणि-वड.क्षण-पृष्ट-रुक् । विलोमो मारुतो-ऽस्वथं हृदयं
पीड्यते-ऽति च ॥ सु. नि. २८/६१-६२)
अन्योन्यावरण

प्राणावृत उदानावृत समानावृत अपानावृत व्यानावृत


• व्यानवायु • व्यानवायु • व्यानवायु • व्यानवायु • प्राणावायु
• समानवायु • समानवायु • प्राणावायु • समानवायु • समानवायु
• उदानवायु • प्राणावायु • उदानवायु • उदानवायु • उदानवायु
• अपानवायु • अपानवायु • अपानवायु • प्राणावायु • अपानवायु
आवरण चिकित्सा

1. सर्व प्रथम आवरक की ही चिकित्सा करनी चाहिये । अवृत्त दोष की चिकित्सा उसके बाद करनी चाहिये । क्योकि आवरक की चि. करने

पर आवृत दोष की चि. स्वम हो जाती हैं ।

2. यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे । क्योकि कफ की चि. उष्म

तीक्ष्ण औषधो से करने पर पित्त शिघ्रता से बड जाता हैं ।

3. आवरक दोष की चि. के साथ साथ वातनाशक चि. करना चाहिये, क्योकि आवरण वात का ही होता हैं ।
दोष आवरण चिकित्सा

1. पित्त आवृत वात चि. :-

• व्यात्यासक्रम ( बदल-बदल कर शित उष्ण चि. करे)

• जीवनीय घृत का प्रयोग करे।

2. पित्त आवृत वात चि. :-

• मधुयष्टि तैल, बला तैल, घी, दूध, पंचमूल शीतल क्वाथ, शीतल जल से सेचन करे ।

3. कफ आवृत वात चि. :-

• कफ नाशक वातानुलोमन चि. करे । ( तीक्ष्ण स्वेदन, निरुहवस्थि, वमन)

4. पित्त एवं कफ से संसृष्ट वात चि. :-

• यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे ।
धातू आवरण चिकित्सा

1. पित्त आवृत वात चि. :-

• व्यात्यासक्रम ( बदल-बदल कर शित उष्ण चि. करे)

• जीवनीय घृत का प्रयोग करे।

2. पित्त आवृत वात चि. :-

• मधुयष्टि तैल, बला तैल, घी, दूध, पंचमूल शीतल क्वाथ, शीतल जल से सेचन करे ।

3. कफ आवृत वात चि. :-

• कफ नाशक वातानुलोमन चि. करे । ( तीक्ष्ण स्वेदन, निरुहवस्थि, वमन)

4. पित्त एवं कफ से संसृष्ट वात चि. :-

• यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे ।

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