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निरुक्ति :-
आवरण के पर्याय :-
अन्वित, बध्दमार्ग, प्रतिघात, सम्युक्ते , उपस्तम्भित, आच्छादन, अवरुध्दगति, संग, प्रच्छादन, वलयन, वेष्टन, रुध्द ।
आवरण = आवृत + आवरक
आवरण :-
एषां स्वकर्मणां हानिर्वृध्दिर्वाऽऽवरणे मता ।
इस तरह वायुओ के आवरण होने पर उनके स्वाभिक कार्य की हानी या वृध्दि होती हैं ।
2.सदैव वात अथवा अन्योन्यावरण के अन्तर्गत वात के अन्य 2.दोष, धातु, मल, अन्न अथवा अन्योन्यावरण में वात का
भेद (प्रणादि) में से किसी एक को ढका जा सकता हैं । कोई भेद अवरोध उत्पन्न कर सकता हैं ।
5.आवरक की चिकित्सा करने से आवृत स्वतः सम स्थिति में 4.आवरक दोष व दूष्य के कर्मो की वृध्दि होना ।
आ जाता हैं । अथवा आवृत दोष की क्षीण अवस्था की चिकित्सा
करके उसे सम अवस्था में लाना चाहिये । 5.चिकित्सा आवरक दोष या दूष्य की करनी चाहिये ।
उदा. :-
आवरण :-
दोषो का दूष्यो पर
दूष्यो का दोषो पर
एक दोष का दूसरे दोष पर
वायुओ का परस्पर
मिश्रक आवरण :-
कभी कभी एक ही वायु जब कफ तथा पित्त दोनो दोष से आवृत हो जाती हैं तो इस प्रकार के आवरण को मिश्रक आवरण कहते हैं ।
मार्गावरण और दोषावरण
मार्गावरण :-
दोष धातु मल के वाहन मार्ग का स्थूल (anatomical) अवरोध होता हैं ।
उदा. :-
१. शोथ
२. अर्बुद
३. अश्मरी आदि ।
दोषावरण :-
एक दोष का दुसरे दोषादि का सूक्ष्म (physiological) आवरण होता हैं ।
वात व्याधिया
और मार्गो का आवरण करने से रसादि धातुओ को सुखाती हैं । स्नेहश्र्च धातून्सं-शुष्कान् पुष्णात्याशु प्रयोजितः ।
बलम-अग्निं पुष्टिं प्राणांश्र्च-अप्य-अभिवर्धयेत ॥
(च. चि. २८/८१)
उचित रुप से स्नेह का प्रयोग करने से सूखी हुई धातुओ का शीघ्र पोषण हो जाता हैं
और शरीर में बल, अग्नि, पुष्टि और प्राणशक्ति (जीवनीय श्क्ति) की वृद्धि हो जाती हैं ।
पितावृत वात लक्षण
दोष
कफाव्रृत वात लक्षण
जब वायु पित्त से आवृत होती हैं तो सारे शरीर में दाह, प्यास की अधिकता, उदर में शुल, चक्कर का आना, नेत्रों के सामने अन्धेरा का छाना तथा कटु, अम्ल, लवण,
रस और उष्ण वीर्य वाली वस्तुओ के सेवन से विदाह का होना, शीतल वस्तुओ के सेवन करने की इच्छा का होना ये लक्षण होते हैं ।
यदि मांसपेशियो से वायु का आवरण हो जाता हैं तो कठोर और वर्ण रहित पिडिकायें हो जाती हैं । शोथ
तथा रोमांच एवं शरीर पर चीटियाँ चलने के समान प्रतीति होती हैं ।
मेदावृत वात लक्षण
जब अस्थि से वायु आवृत होती हैं तो उष्ण स्पर्श और अंगो को हाथो से दबाना अधिक पसन्द करता हैं ।
अंगो में टू टने के समान पीडा (Breeaking pain in the body) होती हैं । वह व्यक्ति अधिक कष्ट का
अनुभव करता हैं । जैसे उसके शरीर में कोई सुईयों को चुभा रहा हो इस प्रकार से वेदना होती हैं ।
मज्जावृत वात लक्षण
जव वायु मज्जा से आवृत होती हैं तो शरीर का तेढा हो जाना, जम्भाई का आना, शरीर में ऎंठन का होना और शूल
होता हैं । यदि हाथों से शरीर को दबाया जाय तो रोगी को सुख का अनुभव होता हैं ।
शुक्रावृत वात लक्षण
जब शुक्र से वायु आवृत होती हैं तो शुक्र में वेग नही होता हैं अथवा शुक्र में अधिक वेग भी होता हैं
अथवा शुक्र निष्फल होता हैं तात्पर्य यह है कि कभी शुक्र निकलने में वेग नही रहता कभी अधिक
रहता हैं । पर दोनो अवस्था में शुक्र गर्भ धारण करने में समर्थ नहीं होता हैं ।
अन्नावृत वात लक्षण
जब वायु मूत्र से आवृत होती हैं तो मूत्र की प्रवृत्ति न होना और मूत्राशय में आध्यमान हो जाता हैं ।
मलावृत वात के लक्षण
वर्चसोऽतिविबन्धोऽधः स्वे स्थाने परिकृ न्तति |
पश्चात खाये हुऎ स्नेह का पाचन शीघ्र ही हो जाता हैं तथा भोजन के बाद मनुष्य को आनाह हो जाता हैं । अन्न से पीडित हुआ, दुःख पूर्वक सूखा और देर से मल का त्याग होता हैं
। श्रोणि, वंक्षण और पृष्ठ प्रदेश मे वेदना होती हैं सर्वदा वायु विलोम रहता हैं अर्थात कभी भी अनुलोम नही होता हैं । रोगी का हृदय अस्वस्थ रहाता हैं अर्थात उसका हृदय नियत
कार्य को नही करता हैं । जिससे मनुष्य सर्वदा अपने को स्वस्थ समक्षता हैं ।
सर्व धातुओ से आवृत वात के लक्षण
सर्वधात्वावृत्ते वायौ श्रोणि-वड.क्षण-पृष्ट-रुक् । विलोमो मारुतो-ऽस्वथं हृदयं
पीड्यते-ऽति च ॥ सु. नि. २८/६१-६२)
अन्योन्यावरण
1. सर्व प्रथम आवरक की ही चिकित्सा करनी चाहिये । अवृत्त दोष की चिकित्सा उसके बाद करनी चाहिये । क्योकि आवरक की चि. करने
2. यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे । क्योकि कफ की चि. उष्म
3. आवरक दोष की चि. के साथ साथ वातनाशक चि. करना चाहिये, क्योकि आवरण वात का ही होता हैं ।
दोष आवरण चिकित्सा
• मधुयष्टि तैल, बला तैल, घी, दूध, पंचमूल शीतल क्वाथ, शीतल जल से सेचन करे ।
• यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे ।
धातू आवरण चिकित्सा
• मधुयष्टि तैल, बला तैल, घी, दूध, पंचमूल शीतल क्वाथ, शीतल जल से सेचन करे ।
• यदि वात व पित्त दोनो का आवरण हो तो पित्त की चिकित्सा पहले करनी चाहिये फिर कफ की चि. करे ।