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‘वेदवाङ्‍मय‍परिचय’

अथवववेद २

डॉ. मणृ ालिनी‍नेवाळकि


mrunalini.newalkar@gmail.com
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• अभिचाराभि- अथवववेद का मि ू ाधाि- सभी सक्त
ू ों में- पलु िप्रद श्वेत यातु का
ज्यादा प्रयोग, शत्रनु ाशन के ल सिं ात्मक अलभचाि भी- सादृश्य (जैस-े लमट्टी,
िकडी, कपडे की वल्गा या कृत्या बना कि उस पि अलभचाि) औि सामीप्य
(जैसे- अिग अिग उलििों के लिए अिग अिग मलणधािण) पि आधारित ।
• यातधु ान, विगी, कृत्याकृत,् प्रत्यलभचािी, आलद सज्ञिं ाएँ । लपशाचलविोधी,
मानवशत्रनु ाशक, कृत्याकमवलविोधी िक्षणपि अलभचाि ।
• पलु िप्रद आयिु ािोग्यवधवक अलभचािों में भेषज्य, पौलिक, आयष्ु य, िाजकमव,
स्त्रीकमव जैसे अलभचाि ।
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आथववण‍यातु
• Legemenon (What you say) Dromenon (What you do) मन्त्त्रोच्चािण औि
यात्वात्मक लवलध । कई बाि पिू क/ उपकािक पदाथों तथा लवलधयों का उपयोग भी ।
• उदा. लवषनाशनसक्त ू - मन्त्त्र के साथ जो लवलनयोग आता ै उस का लवषनाशन से वास्तव
सम्बन्त्ध न ीं ै । जैसे लतनकों पि उबािा ुआ पानी बालधत व्यलक्त को लपिाना । लकन्त्तु
इस के साथ ज ाँ सपवदश िं ुआ ै उस जग से खनू बा ि लनकािना इस लवलध से
शायद फायदा ो सकता ै । के शवधवनसक्त ू के पाठ के साथ, उपयोग में आनेवािी
भङृ ् गिाज, आमिा जैसी वनस्पलतयों के साथ बनाए तेि के प्रयोग से िाभ ोगा ।
• मन्त्त्रपाठ का फि मानलसक बिवलृ ि- creating a positive vibe about
betterment- शब्द की शलक्त- ब्रह्म ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• िैषज्याभि- िोगों का वणवन, कािण, एविं उपचाि । शािीरिक तथा मानलसक पीडाएँ,
क्षेलत्रय (अनवु ालिं शक) औि िाक्षसालदबाधा जन्त्य िोग ।
• व्रणनाशन, तक्मनाशन, बिास-कास, यक्ष्मानाशन, पर्णडुिोग, जिोदि, अलतसाि,
अविोध, चमविोग, कणवलवकाि, नेत्रपीडा, कृलमजन्त्य बीमारियाँ, लवषनाशन, के शवधवन,
उन्त्मत्ततालनवािण, िाक्षसबाधालनवािण, वाजीकिण, आलद ।
• साथ ी लवलभन्त्न वनस्पलतओ िं की प्राथवनाएँ- िाक्षा, रिद्रा, अिाका (भगिंृ िाज),
गडु ु ची, दवू ाव, न्त्यग्रोध, लपप्पिी, लबल्व, यलिमध,ु शङ्खपलु ष्पका, शमी, आलद ।
• आयुष्याभि- दीर्ावयष्ु यसक्त ू , अपमत्ृ यवु ािणसक्त
ू , मलणधािणसक्त
ू , आलद ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• पौभिकाभि- वैलदकों की लनिामय, सख ु ी, समि ृ दीर्ावयष्ु य की कामना । जीवन के
ि अङ्ग में पलु ि ।
• गृ लनमावण, सन्त्तानप्रालि, कृलषकमव, वषावप्रालि, अन्त्नजिालद वैपल्ु य, गो-अश्वालद
पशधु नसमलृ ि, पशिु क्षा, द्यतू लवजय, सख ु प्रवास, शभु सचू क स्वस्त्ययनसक्त ू ,
सपवलनवािण, अलग्नदा सििं क्षण, लवपलत्तनाशन, भयलनवािण, सकिकामनापलू तव,
पापलनवािण, समलृ िप्राथवना, मलणधािण, आलद ।
• कमों के साथ साथ के वि प्राथवना, या प्राथवना औि अलभचाि दोनों का प्रयोग ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• राजकमााभि- िाजोत्कषव, िाज्यप्रालि, िाजालभषेक, िाज्यपनु िािो ण, िाजपलु ि,
एकच्छत्र साम्राज्यप्रालि, िाजगणु ोत्कषव, िाजस्तलु त, िाजदाम्पत्यस्तलु त, यिु वणवन,
यि ु यन्त्त्रवणवन, सम्रम-भयलनलमवलत जैसे यिु ालभचाि, यि ु व्रणनाशन, यि ु जयप्रालि
औि शत्रनु ाशन के लिए देवतास्तलु त, शत्रनु ाशक मलणधािण, वनस्पलतप्राथवना,
आयधु प्रशलस्त, कवचधािण, वमवधािण, िथसक्त ू , िथािो णसक्त ू , प्रजाजयप्राथवना,
आलद ।
• राजपुरोभितप्रशभतत- िाजा एविं पिु ोल त का पिस्पिाविलम्बत्व, साम्मनस्य,
पिु ोल तप्रशिंसा, उस की आत्मस्तलु त, पिु ोल तयशःप्रालि, शत्रयु ज्ञलवध्विंस, शत्रु के
अलभचािों को पिास्त कि उन्त् ीं पि वापस भेजना, आलद ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• स्त्रीकमााभि- लस्त्रयों के लववा , गभावधान, पिंसु वन, जातकमावलद लवलवध सिंस्काि,
भावभावना औि प्रेमसक्त ू , उसी के अन्त्तगवत हृद्यसविं नन औि वशीकिण, उस में
स्त्रीवश्य औि पलतवश्य दोनों, मन्त्त्रपाठक की ओि लप्रय स्त्री का ध्यान आकलषवत
किने के अलभचाि, लवलभन्त्न वनस्पलतयों का प्रयोग, उस के र्ि के अन्त्य िोगों को
लिए लनद्राकिण, सपत्नीयौवननाशन, सपत्नीजननक्षमतानाशन, वञ्चक परुु ष का
परुु षत्वनाशन, सामलु द्रकशास्त्र के अनसु ाि स्त्रीदि ु वक्षणलनवािण, लस्त्रयों एविं परुु षों का
वाजीकिण औि उस में अिग अिग वनस्पलतयों का प्रयोग, इिपलतपत्नीप्रालि,
लववा ोत्ति आशीवावदसक्त ू , वन्त्ध्यत्वलनिसन, सन्त्तानप्रालि, पत्रु प्रालि, गभविक्षण,
गभवदोषलनवािण, सख ु प्रसलू त, आलद । लस्त्रयों द्वािा िचे गए सक्त
ू न ीं लमिते ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• प्रायभित्ताभि- ऋतचक्र, सामालजक औि ईश्विी लनयमों का पािन ना किना,
पापकमव या यज्ञीय प्रमाद किना जैसे अपिाधों के लिए प्रायलित्तों की कल्पना ।
उदा. ४.२३-२९ मगृ ाि ऋलषकृत सक्त ू - स नो मञ्ु चत्विं सः- सभी मन्त्त्रों का अन्त्त ।
• इसी के साथ भतू बाधा, ईश्विी प्रकोप, पवू वजन्त्म के प्रमाद, श्राप, दःु स्वप्न, अपशगनु ,
आलद के लनवािण में प्रयक्त
ु सक्त
ू व्यापक अथव में प्रायलित्तसक्त ू ।
• पापनक्षत्रजननशालन्त्त, मानसपापलनवािण, न चक ु ाए कजे का प्रायलित्त-
ऋणमोचनसक्त ू , ब्राह्मणदान-अप िणप्रायलित्त, दोषास्पदयज्ञप्रायलित्त, कपोत,
उिक ू , काक जैसे अशभु पलक्षयों के दशवन का दोष दिू किने वािे
अशभु लनवािकसक्तू , यमिवत्सजनन, वन्त्ध्याधेनदु ान, आलद ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• साम्मितयाभि- परिवाि में, गरुु लशष्यों में, दोस्तों में, तथा समाज में शालन्त्तपणू व
सौख्यसम्बन्त्धों की कामना ।
• साथ ी ईश्विी अनक ु ू िताप्रालिसक्त
ू , सामालजक एकात्मतासक्त ू , शत्रओ
ु िं में सि

किवाने वािे सक्त ू , चनु ाव में ब ुमत या सभा में श्रोताओ िं का मन जीतने के लिए
सभाजयसक्त ू , क्रोधलनवािणसक्त ू , कौटुलम्बक या िाजकीय कि नाशनसक्त ू ,
समन्त्वयप्रालिसक्त
ू , आलद ।
• इन में गो औि वत्स की ति अपनापन बढने की इच्छा, एकलचत्तता, लमत्रलवन्त्दा,
सौ ादव, लचत्तैक्य आलद कल्पनाएँ ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• आध्याभममकाभि- सिृ ्यत्ु पलत्तसक्त ू - ऋग्वदे के अस्यवामीय, परुु ष, ल िर्णयगभव जैसे
सक्त
ू ों का लवस्ततृ स्वरूप । कुछ सक्त ू ों में आध्यालत्मकता एविं भौलतकता का लमश्रण-
जैसे ब्रह्मौदनसक्त
ू । ब्रह्मज्ञानी अथवाव ऋलष के ज्ञान से ब्रह्म की लनलमवलत की अनोखी
कल्पना । लवलभन्त्न प्राकृलतक तत्त्वों के म त्त्व देने वािे सक्त
ू ।
• सववशलक्तमान् ब्रह्म का आत्मा के साथ एकरूपत्व, सलृ ि के आलदकािण की
मीमासिं ा किने वािे ब्रह्मोद्य, वाक्, ब्रह्मलवद्या, लविाज,् मधलु वद्या, सयू व, काि, पथ्ृ वी
आलद सक्त ू ।
• योगशास्त्र के मि ू ाधाि- अिचक्र नवद्वाि निदे रूप नगिी में आत्मारूप यक्ष का
लनवास, अिाङ्ग एविं षडङ्ग योग का सचू न, आलद ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• दािततुभत- उदाि िाजाओ िं औि धलनकों द्वािा ऋलत्वजों, ब्राह्मणों, औि
जरूितमन्त्दों को लदए गए दानदलक्षणालद । अन्त्न, अज, धेन,ु स्वणव, आलद वस्तओ ु िं
में लवलभन्त्न देवताओ िं का कल्पन औि उन की स्तलु त ।
• कई बाि यज्ञवाचक सव शब्द का प्रयोग- जैसे शािासव (fully furnished)
र्ि का दान, गोवषृ भों का, अन्त्न-जि का, सवु णववस्त्रालदकों का दान । कुन्त्ताप
सक्त
ू भी दान देने वािे िाजाओ िं की स्तलु त (नािाशिंसी) किते ैं । ब्रह्मौदन,
स्वगौदन जैसे सक्त ू ों में उस दानवस्तु को ब्रह्म का स्थान दे कि स्तलु त ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• पुरोभित/ ब्राह्मिप्रशभतत- कुछ बढा चढा कि की गई प्रशिंसा- जैसे ब्रह्मौदन
जैसे सक्त ू । लकन्त्तु साथ ी अपने अनलु चत दलक्षणािोभ की कबि ू ी । पिु ोल त
िाजसा ाय्यक; तथा ईश्वि औि मानव के बीच की कडी । ब्राह्मण का वध किना,
उन्त् े लकसी भी ति का नक ु सान प ुचँ ाना, उन का धन डपना म ापातक ।
• ब्राह्मणपत्नी पि अत्याचाि किने वािे के लिए शापवाणी- ऐसे िाजा की भी
सम्पलत्त, िाज्य, सब नि ोता ,ै ऐसे व्यलक्त को वक्षृ भी छाया न ीं देते, ऐसे
समाज पि र्ोि सङ्कट आते ैं । ब्राह्मण को दान देने का म त्त्व, ब्राह्मणों औि
पिु ोल तों का अपने यज्ञालद कायों में तत्पि ोना, आध्यालत्मकता, वेदाध्ययन औि
स्वाध्याय में रुलच, आलद का भी वणवन ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• यज्ञीयसक्त
ू - अथवववेद औि आथववण पिु ोल त का म त्त्व- ब्रह्मा को सम्पणू व
यज्ञलवलधयों का औि सभी वेदों का ज्ञान ोना जरूिी । कई सािे आथववण मन्त्त्रों
का यज्ञीय लवलनयोग, उन में ऋग्वेद से पनु रुितृ मन्त्त्र भी ।
• २० वाँ कार्णड शस्त्रकार्णड- सोमयाग में पठण के लिए । सोमसवन में प्रयक्त ु सक्तू ,
दानकमों में प्रयक्त
ु सक्त
ू , अलग्नचयन औि प्रवग्यव जैसे लवलधयों में लवलनयक्तु सक्त ू ,
िाजसयू ालद में अलभषेक जैसे लवलधयों में प्रयक्तु सक्त ू , आलद । अनेकों यज्ञों का
उल्िेख, यज्ञ के आयधु ों की स्तलु त, इत्यालद ।
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अथवववेद के वर्णयव लवषय
• अन्तमयेभिसूक्त- १८ वाँ लपतमृ ेधकार्णड- उस में अन्त्त्यकमव, लपति, यम, यमिोक,
मिणोत्ति गलत, आलद का लवविण । सोमप, असोमप, नवग्व्य, दशग्व्य, सोम्य,
बल षव द,् आलद लपतगृ णों का वणवन ।
• लपतिों को अलपवत कव्यान्त्न, अलग्न का कव्यवा नत्व, कव्य अपवण किते समय
स्वधाकाि, आलद । मिणोत्ति सद‍ग् लत लमिने की कामना औि प्राथवना, उस में
बाधा िाने वािे भतू प्रेतलपशाचिाक्षसों की पीडा लनवािण किने वािे
लपशाचजम्भनालद सक्त ू ।
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