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अनुक्रमणिका
प्रकृ ति विज्ञान
प्रकृ ति का लक्षण
निष्पत्ति
दोषों की उत्कटावस्था
प्रकृ ति का वर्गीकरण
देह प्रकृ ति
प्रकृ ति निर्माण
पुरुष के लक्षण
परीक्षण की विधि
BIBLIOGRAPHY
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प्रकृ ति विज्ञान
संसार में कोई भी दो मनुष्य पूर्णतया समान नहीं होते। उनमें आपस में पार्थक्य
के विविध प्रकार होते हैं। दो मनुष्यों में विविध समानता होने पर भी सभी
विषयों में समानता नहीं होती है। असमानता एवं पार्थक्य के लिए आयुर्वेद में
प्रकृ ति को कारण माना गया है।
प्रकृ ति का लक्षण
निष्पत्ति
प्रकृ ति शब्द की निष्पत्ति संस्कृ त के 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'कृ ' धातु से होती है।
इसको प्र+कृ +ति इन तीन पदों में विच्छे दित किया जा सकता है जिसमें 'प्र'
सत्वगुण एवं ज्ञानार्थक, 'कृ ' राजस् गुण एवं गत्यर्थक तथा 'ति' तामस एवं जड़ता
पर का बोध कराता है।
'प्रकरोति इति प्रकृ तिः' (सु.शा. १/५ पर टीका), डा० घाणेकर ने अपनी टीका में
'प्रकृ ति' शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो अन्य तत्त्वों को उत्पन्न
करती है, उसे प्रकृ ति कहते हैं। प्रकृ ति की यह परिभाषा मूल प्रकृ ति के लिए है।
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"तत्र प्रकृ तिरुच्यते स्वभावो यः" (च.वि. १/२१-१)
दोषों की उत्कटावस्था
गर्भावस्था में दोष की उत्कटता से प्रकृ ति-निर्माण कहा है। उत्कट अवस्या दोषों
के आधिक्य को कहते हैं। शास्त्रकारों ने शुद्ध शुक्र एवं आर्तव से गर्मोत्पत्ति कही
है। यदि शुक्र एवं आर्तव में दोष का आधिक्य है, तो विषमता के कारण
गर्मोत्पत्ति नहीं होती; परन्तु बीज-भाग या होनी चाहिए। गर्मोत्पत्ति शुक्र एवं
आर्तव में बीजगत शुद्धि से होती है। यदि बीज दोषाधिक्य के कारण दुष्ट हो में
गर्मोत्पत्ति नहीं उस अवस्था जाता है, बीजभागावयव के एक अंश में दोषाधिक्य
से दुष्ट होने पर भी गर्मोत्पत्ति होती है, किन्तु गर्भ विकृ त हो जाता है। अतः
दोष-उत्कटता दो प्रकार की होती है-प्राकृ त एवं वैकृ त। प्राकृ त उत्कटता में शुक्र
एवं शोणित बीज स्वभाव से शुद्ध होते हैं। दोषों की उत्कटता उनमें अंशतः ही
होती है, अतः उससे सन्तानोत्पत्ति होती है और प्रकृ ति का निर्माण होता है।
वैकृ त उत्कटता में सन्तानोत्पत्ति नहीं होती और यदि होती है तो विकृ त
सन्तान उत्पन्न होती है (सु० शा० ४८६२ पर डल्हण)। चरक ने शुक्र-शोणित-
संयोग के समय जिस शुक्रार्तव अवयव के बीजभाग, बीजभागावयव अथवा उसके
एक देश में विकृ ति रहती है, उससे उस प्रकार की विकृ त सन्तान की उत्पत्ति
होती है-ऐसा कहा है। इसी प्रकार दोष शुक्र, शोणित एवं गर्भाशय को जब तक
पूर्णरूपेण दूषित नहीं करते तभी तक गभर्वोत्पत्ति होती है।
प्रकृ ति का वर्गीकरण
(Classification of Temperament)
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शारीरिक दोषों में वात-पित्त-कफ के कारण निम्न सात प्रकृ तियाँ निर्मित होती
हैं-
१. बात-प्रकृ ति।
२. पित्त-प्रकृ ति।
३. श्लेष्म-प्रकृ ति ।
४. वात-पित्त प्रकृ ति
६. पित्त-श्लेष्म प्रकृ ति
२. राजसिक प्रकृ ति ।
३. तामसिक प्रकृ ति ।
देह प्रकृ ति
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प्रकृ तिः स्वाभाव इति, प्रकृ तिर्जन्मप्रभृति वृद्धो वातादिरित च ।
प्रकृ ति निर्माण
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शुक्र और शोणित के संयोग काल में जिस दोष की उत्कटता (प्रबलता) होती है,
उसी से पुरुष की प्रकृ ति का निर्माण होता है। आचार्य डल्हण ने दोष उत्कटता
से प्राकृ त दोष की प्रबलता को बतलाया है वैकृ त अवस्था का नहीं, क्योंकि वैकृ त
दोष की उत्कृ टत्ता से गर्भ का नाश हो जाता है।
उत्पन्न होता है। यह गर्भ वात, पित्त एवं कफ युक्त होता है। पुरुष एवं स्त्री
दोनों में इन दोषों की अल्पता या अधिकता हो सकती है। जब दोनों का संयोग
(Fertilization) होता है तब उनके अन्दर विद्यमान दोषों का भी संयोग होता है।
इस प्रकार वात, वात के साथ, पित्त, पित्त के साथ तथा कफ, कफ के साथ
मिलकर गर्भ का निर्माण करते है तब गर्भ में त्रिदोष बनता है। इस गर्भ में
संयोगवश जब तीनों दोषों की समता रहती है तब सम प्रकृ ति बनती है, परन्तु
इस समता का प्रायः अभाव रहता है तथापि कोई न कोई दोष प्रबल होकर
वातल, पित्तल एवं श्लेमल प्रकृ तियों का निर्माण होता है। इसी प्रकार दो दोषों
की प्रबलता द्विदोषज प्रकृ तियों के निर्माण का कारण बनती है। दोषों की
उत्कटता सदैव संयोग के पश्चात् उत्पन्न होती है. इसे एक उदाहरण द्वारा
समझा जा सकता है। जैसे यदि शुक्र में वात की प्रबलता है और आर्तव में
हीनता तो ऐसी स्थिति में संतान में न वात की उत्कटता होगी और न क्षीणता
ही, बल्कि वात की समता होगी। इसी प्रकार यदि शुक्र एवं आर्तव दोनों में वात
की उत्कटता होगी तो संतान में वात की प्रबलता दोनों से अधिक होगी। इस
प्रकार कहा जा सकता है कि गर्भ में दोष की जो उत्कटता है वह माता-पिता के
शुक्र-शोणित में विद्यमान त्रिदोष के पृथक् पृथक् परिमाण के योग का परिणाम
होता है।
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'प्रकृ ति निर्माण के सन्दर्भ में अष्टांग हृदयकार के विचार चरक के समान ही
प्रतीत होते हैं। महर्षि चरक के अनुसार मानव प्रकृ ति का निर्माण अनेक कारणों
पर निर्भर करता है।
१. शुक्र प्रकृ ति- अर्थात् गर्भस्थापना के समय वीर्य में वात-पित्त-कफ का समरूप
होना या किसी एक-दो का प्रबलता के रूप में होना।
२. शोणित प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि डिम्ब में दोष सम हैं या विषम अवस्था
में हैं।
३. काल प्रकृ ति- जिस ऋतु या काल में गर्भस्थापना होती है उस काल में किस
दोष की उत्कटता थी।
४. गर्भाशय प्रकृ ति - गर्भ स्थापना काल में गर्भाशय में स्थित त्रिदोष साम्य थे
या विषम अवस्था में ।
५. माता के आहार की प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि गर्भ स्थापना से पूर्व माता
द्वारा किस प्रकार का आहार सेवन किया गया।
६. माता के विहार की प्रकृ ति- अर्थात् गर्भ स्थापना से पूर्व या पश्चात् माता के
विचार-आचार एवं रहन-सहन दोषों को साम्यावस्था में रखने वाला था या
विषमावस्था में।
उक्त सभी कारण गर्भ स्थापन (निर्माण) पर प्रभाव डालने वाले होते हैं। इन सभी
को मिलाकर उस समय जो एक या दो दोष प्रवृद्ध होते हैं गर्भ उसी से
सम्बन्धित हो जाता है। इसके पश्चात् गर्भस्थ शिशु में भी वही दोष प्रबल हो
जाते हैं। इस प्रकार गर्भकाल से लेकर मनुष्यों की जो प्रकृ ति बनती है उसे दोष
प्रकृ ति कहते हैं। तीनों दोषों में एक-एक की प्रबलता से वातल, पित्तल एवं
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श्लेष्मल, दो दोषों की प्रबलता से मिश्रित स्वभाव के तथा तीनों की सम अवस्था
से सम धातु पुरुष उत्पन्न होते हैं।
प्रकृ ति निर्माण के सन्दर्भ में आचार्य चक्रपाणि ने अपने विचारों को व्यक्त करते
हुए कहा है कि-
गर्भ अर्थात् तीनों दोष यदि एक साथ प्रवृद्ध हो जाँय तब तीनों के प्रवृद्ध होते हुए
देह प्रकृ ति
महर्षि चरक ने देह प्रकृ तियों का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।
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तात्पर्य यह है कि यदि वात प्रकृ ति का व्यक्ति वातज आहार विहार करेगा तो
उसे शीघ्र वातज रोग उत्पन्न होगा। अन्य दोषों में भी ऐसा ही समझना उचित
होगा।
यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि प्रकृ ति निर्माण में दोषों की अधिकता होती है
तो स्वस्थ प्रकृ ति नहीं कहना चाहिए। इसका उत्तर देते हुए सुश्रुत ने कहा है
कि-
अर्थात् विष से उत्पन्न हुआ कीट जैसे अपने शरीरगत विष से बाधायुक्त
(मरता) नहीं होता है वैसे ही शरीरगत प्रकृ तियाँ मनुष्य को बाधाएँ नहीं पहुँचाती
हैं। इसका अभिप्राय यह है कि दोषों की प्रबलता गर्भजन्य काल से अर्थात् सहज
होने से घातक नहीं होती है जैसे विषकृ मि का विष सहज होने से मारक नहीं
होता है। प्रकृ ति का स्थिरत्व-
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इस प्रकार देह प्रकृ तियों की संख्या सभी आचार्यों ने सात बताई हैं जो निम्न है।
मन त्रिगुणात्मक होता है। गर्भावस्था में जिस गुण की प्रधानता होती है उसी के
अनुसार मानस प्रकृ तियों का निर्माण होता है। तीन प्रकार की मानस प्रकृ तियाँ
होती है।
पुरुष के लक्षण
वातल बात के गुणों के आधार पर विशद रूप में किया है। वात रूक्ष, लघु, चल,
बहु, शीघ्र, शीत, परुष और विशद गुण वाला होता है। इसीलिए वात के रूक्ष गुण
के कारण वातल व्यक्ति का शरीर रूक्ष, दुबला-पतला और छोटा होता है। इनका
स्तर भी रूखा, दुर्बल, कटा हुआ सा, धीमा, रुक-रुक कर और सुनने में कटु तथा
अप्रिय होता है। ये अल्प निद्रा वाले होते हैं और स्वभाव से चौकन्ने होते हैं।
लघु गुण के कारण चाल एवं आहार कम (अल्प) होता है। इनकी शारीरिक
चेष्टाएँ सहज ही स्फू र्ति के साथ होती है। चल गुण के कारण इनके सन्धि-
अस्थि, भ्रू, हनु, ओठ, जीभ, कन्धा, सिर, और पैर-हाँथ चंचल होते हैं। बहु गुण के
कारण अधिक बोलने वाले तथा कण्डरा एवं सिरा का प्रसार अधिक दिखायी देता
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है। शीघ्र गुण के कारण किसी कार्य को शीघ्र करते हैं और शीघ्र पछताने लगते
हैं। इनमें भय, प्रेम, विरक्ति (विराग) शीघ्र होते हैं। शीत गुण के कारण शीतल
आहार-विहार को सहन नहीं कर पाते हैं। इन्हें शीतजन्य विकार ठण्ड, स्तम्भ
(जकड़न) शीघ्र होते हैं। परुषता के कारण सिर, मूँछों के बाल, नख, दन्त, मुख, हाथ-
पैर तथा अन्य अंग खुरदुरे होते हैं। विशद गुण के कारण अंग
आर्द्रतारहित (शुष्क) तथा कटे-फटे रहते हैं। इनके जोड़ों में चलते समय चट चट
का शब्द सुनाई। देता है। इन गुणों से युक्त वातल मनुष्य अल्पशक्ति, अल्प
आयु, अल्प सन्तान, अल्प साधन एवं दरिद्र होता है।। (च.वि. ८/१०)
(चय.वि. ६/१२)
वातल मनुष्यों के वातस्थान वात से अभिभूत (अधिक प्रभाव से) होने के कारण
वातल पुरुष जब वात प्रकोपक हेतुओं का सेवन करता है तो उसका वात शीघ्र
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आकाशचारी स्वप्नेषु वात प्रकृ तिको नरः ।।
(शा.पू. ६/२०)
भेल ने भी वात प्रकृ ति पुरुष के लक्षणों का वर्णन अपनी संहिता में प्रस्तुत
किया है।
वातिकाश्चाजगोमायुशशाखूष्ट्रशुनां तथा ।
अर्थात् वातिक मनुष्य बकरी, गीदड़, खरगोश, चूहा, ऊँ ट, कु त्ता, गीध, कौवा, गधा
आदि के स्वभाव के समान होता है। "दन्तनखखादी च भवति' दन्त तथा नख
को खाने वाला, यह विशेष लक्षण बताया है।
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स्वप्न में सूखी नदी, ऊँ चे-नीचे पहाड़ और सूने आकाश में विचरण करते हैं, का
भी उल्लेख किया है। ये मधुर, अम्ल, लवण एवं उष्ण खान-पान की इच्छा वाले
होते हैं।
पित्त उष्ग, तीक्ष्ण, द्रव, विस्र, अम्ल एवं कटु गुण वाला होता है अतएव पित्त की
उष्णता के कारण इस प्रकृ ति के पुरुषों में उष्णता के प्रति असहनशीलता, मुख
पर सदैव उष्णता का अनुभव होना तथा सुकु मार एवं गौर वर्ण होते हैं। शरीर
पर विप्लु (छोटी-छोटी फु न्सियाँ), व्यङ्ग (मुख पर झाँई), तिल एवं पिडिकाएँ
अधिक होती हैं। इन्हें भूख एवं प्यास विशेष रूप से लगती है। समय से पहले
ही शरीर पर झुर्रियाँ, पालित्य (बालों का सफे द होना), खालित्य (बालों का गिर
जाना), ये विकार अधिक होते हैं। इनके शरीर के बाल प्रायः कपिल वर्ण के होते
हैं। तीक्ष्णता के कारण स्वभाव में तीक्ष्णता एवं तीव्र अग्नि वाले होते हैं। ये
खाते-पीते अधिक है एवं बार-बार आहार ग्रहण करते हैं। कष्ट को अधिक न
सहने वाले होते हैं। द्रव गुण के कारण इनकी सन्धियाँ एवं मांसपेशियाँ शिथिल
होती हैं। इन्हें पसीना, मूत्र एवं मल (आंत्र मल) अधिक आते हैं। विस्र गुण के
कारण इनके बगल, मुख, सिर एवं शरीर से अधिक दुर्गन्ध निकलती है। कटु एवं
अम्ल गुण के कारण सहवास शक्ति कम होती है। इनमें शुक्र भी कम होता है
तथा सन्तानें भी कम होती हैं। इस प्रकार इन गुणों से युक्त पित्त प्रकृ ति का
व्यक्ति मध्यम बल, मध्यम आयु, मध्यम धन, ज्ञान-विज्ञान एवं साधन वाला
होता है। (च.वि. ८/१७)
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"पित्तलानां तु पित्ताभिभूते ह्यग्न्यधिष्ठाने तीक्ष्णा भवन्त्यग्नयः" (च.वि. ६/१२)
पित्त प्रधान पुरुषों के अग्नि अधिष्ठान में पित्त की अधिकता के कारण
अग्नियाँ तीक्ष्ण होती है।
(च.वि. ६/१७)
अष्टांग हृदयकार ने कु छ विशेष लक्षणों का वर्णन अपनी संहिता में किया है।
इनके अनुसार पित्त प्रकृ ति का व्यक्ति माला, तिलक एवं श्रृंगार प्रेमी होता है।
साहस, बुद्धि एवं बल से युक्त होता है। ये मधुर, कषाय, तिक्त एवं शीत अन्न
ग्रहण करते हैं। धर्म द्वेषी होते हैं। ये स्वप्न में अमलतास तथा पलास के
पुष्पयुक्त वृक्षों को, दिशाओं के जलने को, उल्कापात, विजली की चमक, सूर्य एवं
अग्नि को देखते हैं। इनके नेत्र पीले, चंचल, थोड़े पक्ष्म वाले, शीत की चाह वाले,
क्रोध, मादक द्रव्य सेवन से तथा सूर्य की गर्मी से लाल हो जाते हैं।
इस प्रकृ ति के पुरुष व्याघ्र, ऋक्ष (भालू), कपि, मार्जार (विलाव) तथा गीध के समान
स्वभाव वाले होते हैं।
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शाङ्गधर ने भी पित्त प्रकृ ति के लक्षणों का वर्णन अति संक्षिप्त रूप से किया
है।
समय से पूर्व बालों का पकना, बुद्धिमान, स्वेदी (अधिक पसीना वाला), क्रोधी तथा
स्वप्न में ज्वाला युक्त अग्नि को देखना, ये पित्त प्रकृ ति के पुरुष के लक्षण
होते हैं। भेल ने पित्त प्रकृ ति के पुरुषों के निम्न लक्षण बताये हैं।
पित्त प्रकृ ति का मनुष्य शिथिल अंगवाला, दुर्गन्ध वाला, चण्ड स्वभाव वाला,
प्रत्येक कार्य को शीघ्रता से करने वाला होता है। इसका आहार शीघ्र पच जाता है
इसलिए अधिक भूख वाले होते हैं। इनके नेत्र गोलाकार होते हैं। अधिक
सामर्थ्यवान नही होते हैं परन्तु अशक्त भी नहीं होते हैं। इनकी इन्द्रियाँ विशेष
दुर्बल नहीं होती हैं। अम्ल रस पदार्थ इन्हें अच्छे नहीं लगते हैं परन्तु शीतल
आहार-विहार इन्हें प्रिय होता है। शरीर का वर्ण गहरा होता है।
सुश्रुत ने पित्तल व्यक्ति के अनेक गुणों का वर्णन करते हुए निम्न पशु-पक्षियों
के स्वभाव से भी तुलना की है।
भुजङ्गोलूकगन्धर्वयक्षमार्जार वानरैः।
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व्याघ्रर्क्षनकु लानूकैः पैत्तिकास्तु नराः स्मृताः ।।(सु.शा. ४/७०)
अर्थात् पैत्तिक मनुष्य सर्प, उल्लू, गन्धर्व, यक्ष, बिल्ली, बन्दर, शेर, रीछ और नेवले
के स्वभाव वाला होता है।
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"श्लेष्मलानां श्लेष्माभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने मन्दा भवन्त्यग्नयः"
श्लेष्मल (कफ प्रकृ ति) पुरुषों में अग्नि अधिष्ठान कफ के प्रभाव में रहने के
कारण इनकी पाचक आदि अग्नियाँ मन्द होती हैं।
अर्थात् कफज व्यक्तियों का स्वभाव ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण, गरुड़, हंस, गजराज,
सिंह, अश्व, गाय तथा बैल के समान होता है। शार्ङ्गधर ने कफ प्रकृ ति के पुरुषों
के लक्षणों का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।
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इस प्रकार श्लेष्मल व्यक्तियों में गम्भीर बुद्धि, स्थूल अंग, के श स्निग्ध एवं
बलवान होना, ये गुण पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त ये स्वप्न में किसी
जलाशय (झरना, नदी, तालाब आदि) को देखने वाले होते हैं।
ब्रह्मरुद्रेन्द्रवरुणैः सिंहाश्वगजगोवृषैः ।
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वात रोग जो संख्या में अधिक हैं कम होते हैं। इन सब कारणों से ही श्लेष्म
प्रकृ ति का मनुष्य कम रोग वाला होता है और सम प्रकृ ति को यदि हटा दिया
जाय तो शेष दोष प्रकृ तियों में श्लेष्म प्रकृ ति को 'उत्तम' माना जाता है।
अर्थात् यदि पूर्व में उल्लिखित तीनों दोषों की प्रकृ तियों के लक्षण किसी एक
व्यक्ति में सम्मिलित रूप से प्राप्त हों, तो उसे समधातु प्रकृ ति जानना चाहिए।
ऐसा ही वर्णन अन्य संहिताओं में भी प्राप्त होता है।
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विपरीतगुणस्तेषां स्वस्थवृत्तेर्विधिर्हितः ।
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कायानां प्रकृ तीर्शात्वा त्वनुरूपां क्रियां चरेत् । (सु.शा. ४/९८)
वृद्ध वाग्भट ने सभी प्रकार के निज एवं आगन्तुज रोगों की चिकित्सा हेतु प्रकृ ति
को भली भाँति जानकर ही चिकित्सा कर्म करने को कहा है।
(च.वि. ७/७)
चरक ने भी बुद्धिमान वैद्य को परीक्षा करने योग्य सभी भावों की परीक्षा करके
ही औषधि का प्रयोग करना चाहिए, ऐसा वर्णन दिया है।
परीक्षण की विधि
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आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित विभिन्न आचार्यों द्वारा बताये गये लक्षणों को
आधुनिक दृष्टि से निम्न चार संवर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
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(A) चेष्टा (Movement), (B) गति (Gait), (C) वाणी (Voice),
(F) भोजन एवंभूख की आदत (Appetite & Eating habit), (G) प्यास (Thirst), (H)
निद्रा (Sleep), (I) स्वप्न (Dreams), (J) प्रिय रस (Favourable taste), (K) उत्सर्जन
(Excretion).
(A) स्वभाव (Nature), (B) उपक्रम (Initiative), (C) उत्तेजनशीलता (Excitability), (D)
भय (Fear), (E) क्षोभ (Perturb ability), (F) ग्राह्यशक्ति (Receptive power), (G)
स्मृति (Memory), (H) असहिष्णुता (Intolerance). (४) समाज सम्बन्धी लक्षण-
समाजिक लक्षणों को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।
(A) कामोत्तेजना या लिंग शक्ति (Libido), (B) आचरण (Behaviour), (C) धर्म के
प्रति लगाव (Religious faith)
उपर्युक्त संवगों एवं उपसंवगों में विभिन्न प्रकृ तियों के पुरुषों के लक्षणों को
बाँटकर प्रकृ ति परीक्षण करने में सुगमता रहेगी
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BIBLIOGRAPHY –
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