You are on page 1of 25

प्रकृ ति

[Document subtitle]
अनुक्रमणिका

 प्रकृ ति विज्ञान

 प्रकृ ति का लक्षण

 निष्पत्ति

 दोषों की उत्कटावस्था

 प्रकृ ति का वर्गीकरण

 देह प्रकृ ति

 प्रकृ ति निर्माण

 पुरुष के लक्षण

 वात प्रकृ ति के लक्षण

 श्लेष्मल पुरुष के लक्षण

 पित्तल पुरुष के लक्षण

 द्विदोषज एवं समधातु प्रकृ ति के लक्षण

 प्रकृ ति ज्ञान का प्रयोजन

 परीक्षण की विधि

 BIBLIOGRAPHY

1
प्रकृ ति विज्ञान
संसार में कोई भी दो मनुष्य पूर्णतया समान नहीं होते। उनमें आपस में पार्थक्य
के विविध प्रकार होते हैं। दो मनुष्यों में विविध समानता होने पर भी सभी
विषयों में समानता नहीं होती है। असमानता एवं पार्थक्य के लिए आयुर्वेद में
प्रकृ ति को कारण माना गया है।

प्रकृ ति का लक्षण

प्रकृ ति स्वभाव को कहते हैं, जो जन्मजात आनुवंशिक सिद्धान्तों पर आधारित है।


माता-पिता एवं पूर्वजन्म के संस्कारों से प्रत्येक व्यक्ति में कु छ विशेषताएँ
उत्पन्न होती हैं, जिन्हें प्रकृ ति का नाम दिया गया है। प्रकृ ति स्वभाव को कहते
हैं, इसके कारण दोष सम अवस्था में रहते हैं, अतः धातुसाम्यता को भी प्रकृ ति
कहा जाता है। सुश्रुत ने प्रकृ ति के पर्यायों के रूप में स्वभाव, ईश्वर, काल,
यदृच्छा, नियति एवं परिणाम को गिनाया है।

निष्पत्ति
प्रकृ ति शब्द की निष्पत्ति संस्कृ त के 'प्र' उपसर्ग पूर्वक 'कृ ' धातु से होती है।
इसको प्र+कृ +ति इन तीन पदों में विच्छे दित किया जा सकता है जिसमें 'प्र'
सत्वगुण एवं ज्ञानार्थक, 'कृ ' राजस् गुण एवं गत्यर्थक तथा 'ति' तामस एवं जड़ता
पर का बोध कराता है।

'प्रकरोति इति प्रकृ तिः' (सु.शा. १/५ पर टीका), डा० घाणेकर ने अपनी टीका में
'प्रकृ ति' शब्द को परिभाषित करते हुए कहा है कि जो अन्य तत्त्वों को उत्पन्न
करती है, उसे प्रकृ ति कहते हैं। प्रकृ ति की यह परिभाषा मूल प्रकृ ति के लिए है।

2
"तत्र प्रकृ तिरुच्यते स्वभावो यः" (च.वि. १/२१-१)

दोषों की उत्कटावस्था
गर्भावस्था में दोष की उत्कटता से प्रकृ ति-निर्माण कहा है। उत्कट अवस्या दोषों
के आधिक्य को कहते हैं। शास्त्रकारों ने शुद्ध शुक्र एवं आर्तव से गर्मोत्पत्ति कही
है। यदि शुक्र एवं आर्तव में दोष का आधिक्य है, तो विषमता के कारण
गर्मोत्पत्ति नहीं होती; परन्तु बीज-भाग या होनी चाहिए। गर्मोत्पत्ति शुक्र एवं
आर्तव में बीजगत शुद्धि से होती है। यदि बीज दोषाधिक्य के कारण दुष्ट हो में
गर्मोत्पत्ति नहीं उस अवस्था जाता है, बीजभागावयव के एक अंश में दोषाधिक्य
से दुष्ट होने पर भी गर्मोत्पत्ति होती है, किन्तु गर्भ विकृ त हो जाता है। अतः
दोष-उत्कटता दो प्रकार की होती है-प्राकृ त एवं वैकृ त। प्राकृ त उत्कटता में शुक्र
एवं शोणित बीज स्वभाव से शुद्ध होते हैं। दोषों की उत्कटता उनमें अंशतः ही
होती है, अतः उससे सन्तानोत्पत्ति होती है और प्रकृ ति का निर्माण होता है।
वैकृ त उत्कटता में सन्तानोत्पत्ति नहीं होती और यदि होती है तो विकृ त
सन्तान उत्पन्न होती है (सु० शा० ४८६२ पर डल्हण)। चरक ने शुक्र-शोणित-
संयोग के समय जिस शुक्रार्तव अवयव के बीजभाग, बीजभागावयव अथवा उसके
एक देश में विकृ ति रहती है, उससे उस प्रकार की विकृ त सन्तान की उत्पत्ति
होती है-ऐसा कहा है। इसी प्रकार दोष शुक्र, शोणित एवं गर्भाशय को जब तक
पूर्णरूपेण दूषित नहीं करते तभी तक गभर्वोत्पत्ति होती है।

महर्षि चरक ने द्रव्य के स्वभाव को प्रकृ ति संज्ञा प्रदान की है। यह स्वभाव


आहार या औषध द्रव्यों में स्वभावतः रहने वाले गुरु, लघु आदि गुण हैं।

प्रकृ ति का वर्गीकरण
(Classification of Temperament)

3
शारीरिक दोषों में वात-पित्त-कफ के कारण निम्न सात प्रकृ तियाँ निर्मित होती
हैं-

१. बात-प्रकृ ति।

२. पित्त-प्रकृ ति।

३. श्लेष्म-प्रकृ ति ।

४. वात-पित्त प्रकृ ति

५. वात-श्लेष्म प्रकृ ति।

६. पित्त-श्लेष्म प्रकृ ति

७. वात-पित्त-श्लेष्म प्रकृ ति अथवा समप्रकृ ति ।

सत्त्व, रज एवं तम के शुक्रार्तव-संयोग में उत्कटता से मानसिक प्रकृ ति का


निर्माण होता है।

मानसिक प्रकृ तियाँ तीन हैं; यथा- १. सात्त्विक प्रकृ ति ।

२. राजसिक प्रकृ ति ।

३. तामसिक प्रकृ ति ।

(१) सात्त्विक प्रकृ ति के सात भेद किये गए है; यथा-

१. ब्रह्मकाय, २. माहेन्द्रकाय, ३. वारुणकाय, ४. कौबेरकाय, ५.


गन्धर्वकाय ६. याम्यकाय ७. ऋषिकाय।

देह प्रकृ ति

4
प्रकृ तिः स्वाभाव इति, प्रकृ तिर्जन्मप्रभृति वृद्धो वातादिरित च ।

वातादि दोषों का शरीर पर प्रभाव दो प्रकार से दिखायी देता है।

१. जन्मोत्तर, २. जन्मजात (सहज)। प्रथम अस्थायी होता है जो भोजन, दिन, रात


एवं वय के प्रभाव से होता है. दूसरा सहज, प्राणी जन्म के पूर्व से ही लेकर आता
है। यह प्रभाव गर्भस्थापना के समय से पड़ने लगता है और जन्म के उपरान्त
सम्पूर्ण जीवन तक बना रहता है। इससे देह रचना के साथ-साथ मनो मस्तिष्क
पर भी प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार यह वात, पित्त एवं कफ शरीर, मन पर गर्भ
स्थापना के काल से जो शुभ- अशुभ प्रभाव डालता है, उसे उस व्यक्ति की
'प्रकृ ति' कहते हैं।

२. प्रकृ तिश्चारोग्यम् । (च.वि. ६/१३)

प्रकृ ति को आरोग्य कहते हैं।

३. प्रकृ तिः शरीरस्वरूपम् इति। (अ.हृ.सू. १/१० पर अरुणदत्त)

प्रकृ ति शरीर का स्वरूप होती है।

आधुनिक ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो प्रकृ ति को

Personality, Constitution and Temperament, Physique and Nature, Physical and


mental makeup, General built and habits, Anatomical, physiologi- cal and
psycological aspects of the individual personality कहा जा सकता है।

प्रकृ ति निर्माण

महर्षि सुश्रुत के अनुसार-

शुक्र शोणित संयोगे यो भवेद्दोष उत्कटः । प्रकृ तिर्जायते तेन तस्या मे


लक्षणं शृणु ।

5
शुक्र और शोणित के संयोग काल में जिस दोष की उत्कटता (प्रबलता) होती है,
उसी से पुरुष की प्रकृ ति का निर्माण होता है। आचार्य डल्हण ने दोष उत्कटता
से प्राकृ त दोष की प्रबलता को बतलाया है वैकृ त अवस्था का नहीं, क्योंकि वैकृ त
दोष की उत्कृ टत्ता से गर्भ का नाश हो जाता है।

पुरुष का शुक्र (Sperm) और स्त्री का आर्तव (Ovum), इनके संयोग से गर्भ

उत्पन्न होता है। यह गर्भ वात, पित्त एवं कफ युक्त होता है। पुरुष एवं स्त्री
दोनों में इन दोषों की अल्पता या अधिकता हो सकती है। जब दोनों का संयोग
(Fertilization) होता है तब उनके अन्दर विद्यमान दोषों का भी संयोग होता है।
इस प्रकार वात, वात के साथ, पित्त, पित्त के साथ तथा कफ, कफ के साथ
मिलकर गर्भ का निर्माण करते है तब गर्भ में त्रिदोष बनता है। इस गर्भ में
संयोगवश जब तीनों दोषों की समता रहती है तब सम प्रकृ ति बनती है, परन्तु
इस समता का प्रायः अभाव रहता है तथापि कोई न कोई दोष प्रबल होकर
वातल, पित्तल एवं श्लेमल प्रकृ तियों का निर्माण होता है। इसी प्रकार दो दोषों
की प्रबलता द्विदोषज प्रकृ तियों के निर्माण का कारण बनती है। दोषों की
उत्कटता सदैव संयोग के पश्चात् उत्पन्न होती है. इसे एक उदाहरण द्वारा
समझा जा सकता है। जैसे यदि शुक्र में वात की प्रबलता है और आर्तव में
हीनता तो ऐसी स्थिति में संतान में न वात की उत्कटता होगी और न क्षीणता
ही, बल्कि वात की समता होगी। इसी प्रकार यदि शुक्र एवं आर्तव दोनों में वात
की उत्कटता होगी तो संतान में वात की प्रबलता दोनों से अधिक होगी। इस
प्रकार कहा जा सकता है कि गर्भ में दोष की जो उत्कटता है वह माता-पिता के
शुक्र-शोणित में विद्यमान त्रिदोष के पृथक् पृथक् परिमाण के योग का परिणाम
होता है।

शुक्रासृग्गर्भिणी भोज्य चेष्टा गर्भाशयर्तुषु । यः स्याद्दोषोऽधिकस्तेन


प्रकृ तिः सप्तघोदिता ।। (अ.ह.शा. ३/८३)

6
'प्रकृ ति निर्माण के सन्दर्भ में अष्टांग हृदयकार के विचार चरक के समान ही
प्रतीत होते हैं। महर्षि चरक के अनुसार मानव प्रकृ ति का निर्माण अनेक कारणों
पर निर्भर करता है।

१. शुक्र प्रकृ ति- अर्थात् गर्भस्थापना के समय वीर्य में वात-पित्त-कफ का समरूप
होना या किसी एक-दो का प्रबलता के रूप में होना।

२. शोणित प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि डिम्ब में दोष सम हैं या विषम अवस्था
में हैं।

३. काल प्रकृ ति- जिस ऋतु या काल में गर्भस्थापना होती है उस काल में किस
दोष की उत्कटता थी।

४. गर्भाशय प्रकृ ति - गर्भ स्थापना काल में गर्भाशय में स्थित त्रिदोष साम्य थे
या विषम अवस्था में ।

५. माता के आहार की प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि गर्भ स्थापना से पूर्व माता
द्वारा किस प्रकार का आहार सेवन किया गया।

६. माता के विहार की प्रकृ ति- अर्थात् गर्भ स्थापना से पूर्व या पश्चात् माता के
विचार-आचार एवं रहन-सहन दोषों को साम्यावस्था में रखने वाला था या

विषमावस्था में।

७. पञ्च महाभूत प्रकृ ति- इसका तात्पर्य यह है कि गर्भ निर्माण के समय

जल, वायु, अग्नि आदि दोष प्रकोपक थे या वैषम्य कारक।

उक्त सभी कारण गर्भ स्थापन (निर्माण) पर प्रभाव डालने वाले होते हैं। इन सभी
को मिलाकर उस समय जो एक या दो दोष प्रवृद्ध होते हैं गर्भ उसी से
सम्बन्धित हो जाता है। इसके पश्चात् गर्भस्थ शिशु में भी वही दोष प्रबल हो
जाते हैं। इस प्रकार गर्भकाल से लेकर मनुष्यों की जो प्रकृ ति बनती है उसे दोष
प्रकृ ति कहते हैं। तीनों दोषों में एक-एक की प्रबलता से वातल, पित्तल एवं

7
श्लेष्मल, दो दोषों की प्रबलता से मिश्रित स्वभाव के तथा तीनों की सम अवस्था
से सम धातु पुरुष उत्पन्न होते हैं।

प्रकृ ति निर्माण के सन्दर्भ में आचार्य चक्रपाणि ने अपने विचारों को व्यक्त करते
हुए कहा है कि-

समैदवैिर्वृद्धैर्गर्भजन्मैव न भवति । (चक्रपाणि)

स्थापना ही नहीं होती है।

गर्भ अर्थात् तीनों दोष यदि एक साथ प्रवृद्ध हो जाँय तब तीनों के प्रवृद्ध होते हुए

देह प्रकृ ति

महर्षि चरक ने देह प्रकृ तियों का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।

समपित्तानिलकफाः के चिद्गर्भादि मानवाः । दृश्यन्ते वातलाः के चित्


पित्तलाः श्लेष्मलास्तथा ।।

तेषामनातुराः पूर्वे बातलाद्याः सदाऽ ऽ तुराः । दोषानुशयिता होषां


देहप्रकृ तिरुच्यते ।। (च.सू. ७/३९-४०)

कु छ मनुष्य गर्भाशय में जब शुक्र शोणित का संयोग होता है तभी से सम


प्रकृ ति के , कु छ वातल, कु छ पित्तल तथा कु छ कफल होते हैं। इस प्रकार सम
प्रकृ ति वाले मनुष्य स्वस्थ तथा पृथक् पृथक् प्रकृ ति वाले सर्वदा रोगी रहते हैं।
इन अलग-अलग दोषों से निर्मित प्रकृ तियाँ दोषों का जन्मकाल से ही शरीर में
रहने से अनुकू ल हो जाने से देह प्रकृ ति कही जाती है। महर्षि सुश्रुत सहित सभी
आचार्यों ने सात देह प्रकृ तियाँ मानी है परन्तु महर्षि चरक द्वारा यहाँ चार
प्रकृ तियों का उल्लेख ही किया गया है। अन्यत्र चरक ने भी सात प्रकृ तियों को
ही स्वीकार किया है। यहाँ एकल प्रकृ ति में ही द्वन्द्वज का समावेश समझ
लेना चाहिए। एक या दो दोषों से उत्पन्न प्रकृ ति वालों को आतुर मानने का

8
तात्पर्य यह है कि यदि वात प्रकृ ति का व्यक्ति वातज आहार विहार करेगा तो
उसे शीघ्र वातज रोग उत्पन्न होगा। अन्य दोषों में भी ऐसा ही समझना उचित
होगा।

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि यदि प्रकृ ति निर्माण में दोषों की अधिकता होती है
तो स्वस्थ प्रकृ ति नहीं कहना चाहिए। इसका उत्तर देते हुए सुश्रुत ने कहा है
कि-

विषजातो यथा कीटो न विषेण विपद्यते । तद्वत्प्रकृ तयो मर्यं


शक्नुवन्ति न बाधितुम् ।।(सु.शा, ४/७८)

अर्थात् विष से उत्पन्न हुआ कीट जैसे अपने शरीरगत विष से बाधायुक्त
(मरता) नहीं होता है वैसे ही शरीरगत प्रकृ तियाँ मनुष्य को बाधाएँ नहीं पहुँचाती
हैं। इसका अभिप्राय यह है कि दोषों की प्रबलता गर्भजन्य काल से अर्थात् सहज
होने से घातक नहीं होती है जैसे विषकृ मि का विष सहज होने से मारक नहीं
होता है। प्रकृ ति का स्थिरत्व-

प्रकोपो वाऽन्यभावो वा क्षयो वा नोपजायते । प्रकृ तीनां स्वभावेन


जायते तु गतायुषः । (सु.शा. ४/७७)

प्रकृ ति की स्थिरता के सन्दर्भ में सुश्रुत का मत है कि प्रकृ तियों का प्रकोप,


अन्यथा भाव या क्षय स्वभाव से नहीं होता है परन्तु गतायुष (आयु समाप्ति)
होने पर सम्भव है। प्रकृ तियों के प्रकोप से तात्पर्य है कि सामान्य वातादि
व्यक्ति की प्रकृ ति तीव्र या तीव्रतम वातादि हो जाय। इसी प्रकार अन्यथा भाव
से वात प्रकृ ति का पित्त या कफ प्रकृ ति में एवं एक दोषज का द्विदोषज में
परिवर्तन हो जाय, यह अर्थ लेना चाहिए। प्रकृ ति के क्षय का

9
इस प्रकार देह प्रकृ तियों की संख्या सभी आचार्यों ने सात बताई हैं जो निम्न है।

१. वात प्रकृ ति- २. पित्त प्रकृ ति 3.कफ प्रकृ ति

इसमें वात प्रकृ ति को हीन, पित्त प्रकृ ति को मध्यम, कफ प्रकृ ति को उत्तम


माना गया है। आचायों ने द्वन्द्वज प्रकृ तियाँ निन्दनीय तथा समप्रकृ ति को
श्रेष्ठ माना है।

४. मानस प्रकृ तियाँ

मन त्रिगुणात्मक होता है। गर्भावस्था में जिस गुण की प्रधानता होती है उसी के
अनुसार मानस प्रकृ तियों का निर्माण होता है। तीन प्रकार की मानस प्रकृ तियाँ
होती है।

( १) सात्विक प्रकृ ति (२) राजस प्रकृ ति (३) तामस प्रकृ ति ।

पुरुष के लक्षण

1.वात प्रकृ ति के लक्षणों का वर्णन महर्षि चरक ने

वातल बात के गुणों के आधार पर विशद रूप में किया है। वात रूक्ष, लघु, चल,
बहु, शीघ्र, शीत, परुष और विशद गुण वाला होता है। इसीलिए वात के रूक्ष गुण
के कारण वातल व्यक्ति का शरीर रूक्ष, दुबला-पतला और छोटा होता है। इनका
स्तर भी रूखा, दुर्बल, कटा हुआ सा, धीमा, रुक-रुक कर और सुनने में कटु तथा
अप्रिय होता है। ये अल्प निद्रा वाले होते हैं और स्वभाव से चौकन्ने होते हैं।
लघु गुण के कारण चाल एवं आहार कम (अल्प) होता है। इनकी शारीरिक
चेष्टाएँ सहज ही स्फू र्ति के साथ होती है। चल गुण के कारण इनके सन्धि-
अस्थि, भ्रू, हनु, ओठ, जीभ, कन्धा, सिर, और पैर-हाँथ चंचल होते हैं। बहु गुण के
कारण अधिक बोलने वाले तथा कण्डरा एवं सिरा का प्रसार अधिक दिखायी देता

10
है। शीघ्र गुण के कारण किसी कार्य को शीघ्र करते हैं और शीघ्र पछताने लगते
हैं। इनमें भय, प्रेम, विरक्ति (विराग) शीघ्र होते हैं। शीत गुण के कारण शीतल
आहार-विहार को सहन नहीं कर पाते हैं। इन्हें शीतजन्य विकार ठण्ड, स्तम्भ
(जकड़न) शीघ्र होते हैं। परुषता के कारण सिर, मूँछों के बाल, नख, दन्त, मुख, हाथ-
पैर तथा अन्य अंग खुरदुरे होते हैं। विशद गुण के कारण अंग

आर्द्रतारहित (शुष्क) तथा कटे-फटे रहते हैं। इनके जोड़ों में चलते समय चट चट
का शब्द सुनाई। देता है। इन गुणों से युक्त वातल मनुष्य अल्पशक्ति, अल्प
आयु, अल्प सन्तान, अल्प साधन एवं दरिद्र होता है।। (च.वि. ८/१०)

"वातलानां तु वाताभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने विषमा भवन्त्यग्नयः"।

(चय.वि. ६/१२)

वातल मनुष्यों के वातस्थान वात से अभिभूत (अधिक प्रभाव से) होने के कारण

इनकी अग्नि विषम होती है।

"तत्र वातलस्य वातप्रकोपणान्यासेवमानस्य क्षिप्रं वातः प्रकोपमापद्यते,


न तथेतरी दोषी ।"(च.वि. ६/१६)

वातल पुरुष जब वात प्रकोपक हेतुओं का सेवन करता है तो उसका वात शीघ्र

ही प्रकु पित हो जाता है। उन्मीलितानीव भवन्ति सुप्ते, शैलद्रुमांस्ते गगनं च


यान्ति । अधन्या मत्सराध्माताः स्तेनाः

प्रोद्बद्धपिण्डिकाः । श्वशृगालोष्ट्रगृध्राखुकाकाऽनूकाश्च वातिकाः ।


(अ.हृ.शा. ३/८९)

अल्पके शा कृ शो रूक्षो वाचालश्चल मानसः ।

11
आकाशचारी स्वप्नेषु वात प्रकृ तिको नरः ।।

(शा.पू. ६/२०)

भेल ने भी वात प्रकृ ति पुरुष के लक्षणों का वर्णन अपनी संहिता में प्रस्तुत
किया है।

हुस्वः शीघ्रः कृ शश्चाणुः प्रलापि पुरुष प्रियः । स्तब्धागों विषमाश्लिष्टो


गणरूपे गणेधृतिः ।। सहः क्लेशस्य विखम्भी रूक्ष त्वगू अनवस्थितः।
खरमूर्धजरोमांगः क्षिप्रग्राही तथा स्मृतः ।। स्वप्ने चोष्ट्रेणायाति
वियत्यपि तु गच्छति । यस्योपशेते सुस्निग्धं स वातप्रकृ तिर्नरः ।।(भेल
विमान- ४/१६,१७,१८)

सुश्रुत ने भी चरकोक्त लक्षणों का उल्लेख करते हुए वात प्रकृ ति के पुरुषों की


तुलना अनेक पशु-पक्षियों से की है।

वातिकाश्चाजगोमायुशशाखूष्ट्रशुनां तथा ।

गृधकाक खरादीनामनूकैः कीर्तिता नराः।। (सु.शा. ४/६६)

अर्थात् वातिक मनुष्य बकरी, गीदड़, खरगोश, चूहा, ऊँ ट, कु त्ता, गीध, कौवा, गधा
आदि के स्वभाव के समान होता है। "दन्तनखखादी च भवति' दन्त तथा नख
को खाने वाला, यह विशेष लक्षण बताया है।

शुष्क रूक्ष विषमासु सरित्सु । व्योम्नि शैलशिखरेषु च याति ।।


(अ.सं.शा.- ८/१०)

अष्टांग संग्रहकार ने भी चरक, सुश्रुत का अनुसरण करते हुए वात प्रकृ ति के


मनुष्य के अनेक लक्षणों का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त वातल व्यक्ति

12
स्वप्न में सूखी नदी, ऊँ चे-नीचे पहाड़ और सूने आकाश में विचरण करते हैं, का
भी उल्लेख किया है। ये मधुर, अम्ल, लवण एवं उष्ण खान-पान की इच्छा वाले
होते हैं।

2.पित्तल पुरुष के लक्षण- पित्त प्रकृ ति पुरुष के लक्षण पित्त


गुणानुरूप निम्न है।

पित्त उष्ग, तीक्ष्ण, द्रव, विस्र, अम्ल एवं कटु गुण वाला होता है अतएव पित्त की
उष्णता के कारण इस प्रकृ ति के पुरुषों में उष्णता के प्रति असहनशीलता, मुख
पर सदैव उष्णता का अनुभव होना तथा सुकु मार एवं गौर वर्ण होते हैं। शरीर
पर विप्लु (छोटी-छोटी फु न्सियाँ), व्यङ्ग (मुख पर झाँई), तिल एवं पिडिकाएँ
अधिक होती हैं। इन्हें भूख एवं प्यास विशेष रूप से लगती है। समय से पहले
ही शरीर पर झुर्रियाँ, पालित्य (बालों का सफे द होना), खालित्य (बालों का गिर
जाना), ये विकार अधिक होते हैं। इनके शरीर के बाल प्रायः कपिल वर्ण के होते
हैं। तीक्ष्णता के कारण स्वभाव में तीक्ष्णता एवं तीव्र अग्नि वाले होते हैं। ये
खाते-पीते अधिक है एवं बार-बार आहार ग्रहण करते हैं। कष्ट को अधिक न
सहने वाले होते हैं। द्रव गुण के कारण इनकी सन्धियाँ एवं मांसपेशियाँ शिथिल
होती हैं। इन्हें पसीना, मूत्र एवं मल (आंत्र मल) अधिक आते हैं। विस्र गुण के
कारण इनके बगल, मुख, सिर एवं शरीर से अधिक दुर्गन्ध निकलती है। कटु एवं
अम्ल गुण के कारण सहवास शक्ति कम होती है। इनमें शुक्र भी कम होता है
तथा सन्तानें भी कम होती हैं। इस प्रकार इन गुणों से युक्त पित्त प्रकृ ति का
व्यक्ति मध्यम बल, मध्यम आयु, मध्यम धन, ज्ञान-विज्ञान एवं साधन वाला
होता है। (च.वि. ८/१७)

13
"पित्तलानां तु पित्ताभिभूते ह्यग्न्यधिष्ठाने तीक्ष्णा भवन्त्यग्नयः" (च.वि. ६/१२)
पित्त प्रधान पुरुषों के अग्नि अधिष्ठान में पित्त की अधिकता के कारण
अग्नियाँ तीक्ष्ण होती है।

"पित्तलस्यापि पित्तप्रकोपणान्यासेवमानस्य क्षिप्रं पित्तं प्रकोपमापद्यते"।

(च.वि. ६/१७)

अर्थात् पित्तल पुरुष का पित्त अपने प्रकोपक कारणों से अन्यों की अपेक्षा


शीघ्रता से प्रकु पित होता है। इनके शरीर में वात एवं कफ शीघ्र कु पित नहीं होते
हैं।

अष्टांग हृदयकार ने कु छ विशेष लक्षणों का वर्णन अपनी संहिता में किया है।
इनके अनुसार पित्त प्रकृ ति का व्यक्ति माला, तिलक एवं श्रृंगार प्रेमी होता है।
साहस, बुद्धि एवं बल से युक्त होता है। ये मधुर, कषाय, तिक्त एवं शीत अन्न
ग्रहण करते हैं। धर्म द्वेषी होते हैं। ये स्वप्न में अमलतास तथा पलास के
पुष्पयुक्त वृक्षों को, दिशाओं के जलने को, उल्कापात, विजली की चमक, सूर्य एवं
अग्नि को देखते हैं। इनके नेत्र पीले, चंचल, थोड़े पक्ष्म वाले, शीत की चाह वाले,
क्रोध, मादक द्रव्य सेवन से तथा सूर्य की गर्मी से लाल हो जाते हैं।

मध्यायुषो मध्यबलाः पण्डिताः क्लेशभीरवः ।

व्याघ्रर्शकपिमार्जारयक्षानूकाश्च पैत्तिकाः ।। (अ.ह.शा. ३/९५)

इस प्रकृ ति के पुरुष व्याघ्र, ऋक्ष (भालू), कपि, मार्जार (विलाव) तथा गीध के समान
स्वभाव वाले होते हैं।

14
शाङ्गधर ने भी पित्त प्रकृ ति के लक्षणों का वर्णन अति संक्षिप्त रूप से किया
है।

अकाल पलितैर्व्याप्तो धीमान् स्वेदो च रोषणः ।

स्वप्नेषु ज्योतिषां द्रष्टा पित्त प्रकृ तिको नरः ।। (शा.पू. ६/२१)

समय से पूर्व बालों का पकना, बुद्धिमान, स्वेदी (अधिक पसीना वाला), क्रोधी तथा
स्वप्न में ज्वाला युक्त अग्नि को देखना, ये पित्त प्रकृ ति के पुरुष के लक्षण
होते हैं। भेल ने पित्त प्रकृ ति के पुरुषों के निम्न लक्षण बताये हैं।

शिथिलांङ्गोंऽ गरुगन्धश्चण्डः शीघ्रो महाशनः। वली पलित खालित्य


शीघ्रपाकी तथाक्षमः ।। वृत्ताक्षः क्रोधनो यश्चदुर्बलोऽदुर्बलेन्द्रियः।
नाम्लाशः शीतशीताशी दुष्यजाः शीतलप्रियः ।। अतिवणोंऽतिमेधावी
स्वप्नेपावक दृक् तथा । शीघ्रमावाति यः स्नातः पैत्तिक प्रकृ तिर्नरः ।।
(भेल वि. ४/१९,२०,२१)

पित्त प्रकृ ति का मनुष्य शिथिल अंगवाला, दुर्गन्ध वाला, चण्ड स्वभाव वाला,
प्रत्येक कार्य को शीघ्रता से करने वाला होता है। इसका आहार शीघ्र पच जाता है
इसलिए अधिक भूख वाले होते हैं। इनके नेत्र गोलाकार होते हैं। अधिक
सामर्थ्यवान नही होते हैं परन्तु अशक्त भी नहीं होते हैं। इनकी इन्द्रियाँ विशेष
दुर्बल नहीं होती हैं। अम्ल रस पदार्थ इन्हें अच्छे नहीं लगते हैं परन्तु शीतल
आहार-विहार इन्हें प्रिय होता है। शरीर का वर्ण गहरा होता है।

सुश्रुत ने पित्तल व्यक्ति के अनेक गुणों का वर्णन करते हुए निम्न पशु-पक्षियों
के स्वभाव से भी तुलना की है।

भुजङ्गोलूकगन्धर्वयक्षमार्जार वानरैः।

15
व्याघ्रर्क्षनकु लानूकैः पैत्तिकास्तु नराः स्मृताः ।।(सु.शा. ४/७०)

अर्थात् पैत्तिक मनुष्य सर्प, उल्लू, गन्धर्व, यक्ष, बिल्ली, बन्दर, शेर, रीछ और नेवले
के स्वभाव वाला होता है।

श्लेष्मल पुरुष के लक्षण-


महर्षि चरक ने कफ प्रकृ ति के पुरुषों के लक्षण भी श्लेष्मा के गुणों के आधार
पर वर्णित किये हैं। कफ स्निग्ध, श्लक्ष्ण, मृदु, मधुर, सार, सान्द्र, मन्द, स्तिमित,
गुरु, शीत, पिच्छिल एवं अच्छ गुण युक्त होता है। अतएव स्निग्ध गुण के कारण
शरीर, अंग-प्रत्यंग स्निग्ध होते हैं। श्लक्ष्ण गुण के प्रभाव वश देखने में सुन्दर,
अंग-प्रत्यंग कोमल तथा शरीर गौर वर्ण का होता है। माधुर्य गुण से शरीर में
शुक्र की बहुलता, मैथुन (सहवास) की अधिक शक्ति एवं बहु अपत्य (सन्तान) वाले
होते हैं। सर गुण के कारण शरीर गठीला एवं दृढ़ होता है। सान्द्रता के प्रभाव के
कारण शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं भरा हुआ होता है। मन्द गुण के कारण चेष्टाएँ मन्द
होती हैं तथा आहार-विहार अल्प करने वाले होते हैं। कफ का स्तिमित
(निश्चलता) गुण शरीर में किसी भी कार्य को शीघ्र न करने की इच्छा अर्थात् देर
से सोच-विचार कर कार्य करने का विचार पैदा करता है। इनके मन में कभी
क्षोभ एवं विकार नहीं होता है अथवा ये सब देर से या कम होते हैं। गुरु गुण
के कारण चाल दृढ़ (बंधी हुई) एवं लड़खडाती हुई नहीं होती है। शीत गुण के
प्रभाव से इन्हें भूख, प्यास, गर्मी लम लगती है और पसीना भी कम आता है।
पिच्छिल गुण के कारण सन्धि बन्धन आपस में सटे हुए एवं सशक्त होते हैं।
अच्छ गुण के प्रभाव से इनके नेत्र एवं मुख में प्रसन्नता दिखाई देती है। इनका
वर्ण एवं कण्ठ स्वर स्निग्ध अर्थात् स्वच्छ होता है। (च.वि. ८/९६) उपर्युक्त गुणों
के कारण श्लेष्मल पुरुष बलवान, धनी, विद्वान, ओजस्वी, आयुष्मान, शान्त
स्वभाव वाला होता है।

16
"श्लेष्मलानां श्लेष्माभिभूतेऽग्न्यधिष्ठाने मन्दा भवन्त्यग्नयः"

श्लेष्मल (कफ प्रकृ ति) पुरुषों में अग्नि अधिष्ठान कफ के प्रभाव में रहने के
कारण इनकी पाचक आदि अग्नियाँ मन्द होती हैं।

श्लेष्मलस्यापि श्लेष्मप्रकोपणान्यासेवमानस्य क्षिप्रं श्लेष्मा


प्रकोपमापद्यते, न तथेतरौ दोषौ ।

श्लेष्मल व्यक्ति जब कफ प्रकोपक हेतुओं का सेवन करते हैं तब उनकी श्लेष्मा


शीघ्र कु पित हो जाती है। पित्त एवं वात दोष कफ की अपेक्षा शीघ्र कु पित नहीं
होते हैं। कफ के कु पित होने से कफज विकार इन्हें अत्यधिक कष्ट देते हैं।

अष्टांग हृदयकार ने महर्षि चरक के बताये गये लक्षणों के अतिरिक्त भी अन्य


लक्षणों का वर्णन अपनी संहिता में किया है। इनके अनुसार कफ प्रकृ ति का
पुरुष सत्यवादी एवं सत्व गुणी होता है। इनका वर्ण परिपक्व प्रियंगु फल, श्वेत
दूर्वा, शर के काण्ड, चमकीले शस्त्र, गोरोचन, कमल एवं सुवर्ण के वर्ण के समान
गौर होता है। ये तिक्त, कषाय, कटु , उष्ण एवं रूक्ष तथा अल्प आहार सेवी होते
हैं। इस प्रकार के पुरुष स्वप्न में कमल, हंस आदि पक्षियों के समूहों से युक्त
जलाशय तथा बरसने वाले बादलों को प्रायः देखते हैं।

ब्रह्मरुद्रेन्द्रवरुपातार्श्वहंसगजाधिपैः श्लेष्मप्रकृ तयस्तुल्यास्तथा


सिंहाश्वगोवृषैः ।।

अर्थात् कफज व्यक्तियों का स्वभाव ब्रह्मा, शिव, इन्द्र, वरुण, गरुड़, हंस, गजराज,
सिंह, अश्व, गाय तथा बैल के समान होता है। शार्ङ्गधर ने कफ प्रकृ ति के पुरुषों
के लक्षणों का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।

गम्भीर बुद्धिः स्थूलाङ्गः स्निग्धके शो महाबलः ।

स्वप्रे जलाशयालोकी श्लेष्म प्रकृ तिको नरः ।।(शा.पू. ६/२२)

17
इस प्रकार श्लेष्मल व्यक्तियों में गम्भीर बुद्धि, स्थूल अंग, के श स्निग्ध एवं
बलवान होना, ये गुण पाये जाते हैं। इसके अतिरिक्त ये स्वप्न में किसी
जलाशय (झरना, नदी, तालाब आदि) को देखने वाले होते हैं।

महर्षि सुश्रुत के अनुसार कफ प्रकृ ति के व्यक्तियों का स्वभाव निम्नवत् वर्णित


है।

ब्रह्मरुद्रेन्द्रवरुणैः सिंहाश्वगजगोवृषैः ।

तार्थ्य-हंस-समानूकाः श्लेष्मप्रकृ तयो नराः ।। (सु.शा. ४/७५)

अर्थात् कफ प्रकृ ति के व्यक्तियों का स्वभाव ब्रह्मा, रुद्र, वरुण (देवताओं के


समान), सिंह, अश्व, गज, वृष (बैल) आदि पशु तथा गरुड़ एवं हंस पक्षियों के
समान होता है।

वस्तुतः कफ का तमो गुण, वात के रजोगुण का कु छ अंश तक पराभूत करता है


ऐसी स्थिति में सत्वगुण का कु छ मात्रा में उत्कर्ष हो जाता है। इस कारण ऐसे
मनुष्य सात्विक स्वभाव के होते हैं। श्लेष्म प्रकृ ति के मनुष्य में श्लेष्मा
स्वभाववश गर्भ की उत्पत्ति के समय से ही किं चित् अधिक होती है इस कारण
इनके शरीर एवं मन पर श्लेष्मा का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, अतएव शरीर में
श्लेष्मा के 'उदककर्म' एवं 'उपचय कर्म' पहले से ही प्रबल होते हैं। उपचय कर्म के
कारण ही शरीर हृष्ट-पुष्ट, सन्धियाँ एवं पेशियाँ सुगठित होती हैं। श्लेष्मा से
सन्तर्पण होते रहने के कारण वात जनित प्रभाव कम दिखाई देता है। कफ से
अग्नि स्थल प्रभावित रहने के कारण पित्त विकार भी कम होते हैं। श्लेष्मा में
तम गुण प्रधान पृथिवी एवं जल महाभूत होने के कारण कु छ तम के अवगुण
भी दृष्टिगोचर होते हैं। इसी कारण व्यक्ति निद्रालु होता है। शरीर में संतर्पण
होना स्वाभाविक रूप से उपयोगी एवं श्रेष्ठ होता है इसी कारण रस-शुक्रादि
धातुओं का संवर्धन होता है। इसमें बातवृद्धि के अवसर कम होते हैं। इस कारण

18
वात रोग जो संख्या में अधिक हैं कम होते हैं। इन सब कारणों से ही श्लेष्म
प्रकृ ति का मनुष्य कम रोग वाला होता है और सम प्रकृ ति को यदि हटा दिया
जाय तो शेष दोष प्रकृ तियों में श्लेष्म प्रकृ ति को 'उत्तम' माना जाता है।

द्विदोषज एवं समधातु प्रकृ ति के लक्षण-


महर्षि चरक ने 'संसर्गात् संसृष्ट लक्षणाः" (च.वि. ८/९९)

कहकर द्विदोषज प्रकृ ति के पुरुषों के लक्षण के विषय में कहा है कि यदि एक


ही मनुष्य में दो किन्हीं भी प्रकृ तियों के लक्षण मिलें तो उन्हें द्वन्द्वज प्रकृ ति
समझना चाहिए। इसी प्रकार का वर्णन अन्य आचार्यों ने भी किया है।

सर्वगुणसमुदितः समदोष प्रकृ तिः । (अ.सं.शा. ८/१७)

सर्वगुणसमुदितास्तु समधातवः । (च.वि. ८/१००)

अर्थात् यदि पूर्व में उल्लिखित तीनों दोषों की प्रकृ तियों के लक्षण किसी एक
व्यक्ति में सम्मिलित रूप से प्राप्त हों, तो उसे समधातु प्रकृ ति जानना चाहिए।
ऐसा ही वर्णन अन्य संहिताओं में भी प्राप्त होता है।

प्रकृ ति ज्ञान का प्रयोजन


आयुर्वेद के दोनों प्रयोजन हेतु प्रकृ ति ज्ञान का विशेष महत्व है। इसकी जितनी

उपयोगिता 'स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्' हेतु है उतनी ही रोगी की चिकित्सा के


लिए भी। अतएव आयुर्वेद के उभयविध प्रयोजन में प्रकृ ति का ज्ञान विशेष
महत्व रखता है। स्वस्थ के स्वास्थ्य की रक्षा स्वस्थवृत्त विषय के परिपालन
द्वारा ही सम्भव है। इस सन्दर्भ में चरक का निम्न कथन

19
विपरीतगुणस्तेषां स्वस्थवृत्तेर्विधिर्हितः ।

समसर्वरसं सात्म्यं समधातोः प्रशस्यते ।।

अर्थात् वातादि प्रकृ ति के पुरुषों को स्वस्थवृत्त के नियमानुसार अपने-अपने दोष


के विपरीत गुण वाले आहार-विहार का सेवन करना चाहिए। समधातु प्रकृ ति के
मनुष्यों को सर्वदा सभी रसों का प्रयोग करना चाहिए तथा उन्हें सात्म्य बनाना
ही उपयुक्त माना जाता है। तात्पर्य यह है कि वातल मनुष्य कटु , तिक्त एवं
कषाय रसों का प्रयोग करेगा तो उसमें बात बढ़ने की अधिक सम्भावना रहती
है। ऐसे प्रकृ ति वाले मनुष्यों को यदि ऋतु एवं रोग के अनुसार सेवन करना
आवश्यक हो, तो अल्प मात्रा में सेवन करें। उदाहरण के लिए हेमन्त ऋतु में
सामान्यतयः स्निग्ध, अम्ल एवं लवण रसों के प्रयोग का उल्लेख शास्त्रों में
मिलता है, तो वात प्रकृ ति का मनुष्य कटु , तिक्त एवं कषाय रसों को छोड़कर
इन रसों का प्रचुर मात्रा में प्रयोग कर सकता है। पित्त प्रकृ ति का मनुष्य
कषाय, तिक्त एवं मधुर के साथ अल्प मात्रा में अम्ल एवं लवण का भी प्रयोग
कर सकता है। इसी प्रकार कफ प्रकृ ति का व्यक्ति विशेष रूप से कटु , कषाय एवं
तिक्त रसों का प्रयोग करते हुए, अल्प मात्रा में लवण एवं अम्ल रस का प्रयोग
कर सकता है। सम प्रकृ ति वाले व्यक्ति को मधुरादि सभी रसों का प्रयोग करना
चाहिए जो परस्पर विरुद्ध न हों- यथा मधु एवं घृत्त। अर्थात् उसी रस का प्रयोग
करें जो प्रकृ ति सम समवेत हो। इस प्रकार संम प्रकृ ति के पुरुष को प्रतिदिन
सभी रसों का सेवन कर उन्हें सात्म्य बनाना ही श्रेष्ठ माना गया है। अतः
प्रकृ ति ज्ञान के आधार पर धातु साम्य एवं दोष साम्य स्थापित कर स्वास्थ्य
को स्थिर रखा जा सकता है।

आयुर्वेद के द्वितीय प्रयोजन हेतु भी प्रकृ ति ज्ञान उत्तना ही परमावश्यक है।


प्रायः देखा गया है कि कु छ विशेष रोग विशेष प्रकार के व्यक्तियों में बहुलता से
पाये जाते है। उनमें कु छ रोगों का आक्रमण भी शीघ्र ही होता है। आयुर्वेद के
अनुसार इनका कारण मनुष्य की प्रकृ ति ही है।

20
कायानां प्रकृ तीर्शात्वा त्वनुरूपां क्रियां चरेत् । (सु.शा. ४/९८)

अर्थात् प्रकृ ति के लक्षणों को जानकर ही उसके अनुरूप चिकित्सा करने का


उपदेश महर्षि सुश्रुत ने दिया है। तत्रानुबन्धं

प्रकृ तिं च सम्यक् ज्ञात्वा ततः कर्म समारभेत् ।। (अ.सं.सू. २२)

वृद्ध वाग्भट ने सभी प्रकार के निज एवं आगन्तुज रोगों की चिकित्सा हेतु प्रकृ ति
को भली भाँति जानकर ही चिकित्सा कर्म करने को कहा है।

प्राज्ञास्तु सर्वमाज्ञाय परीक्ष्ययिह सर्वथा ।

न स्खलन्ति प्रयोगेषु भेषजानां कदाचन् ।।

(च.वि. ७/७)

चरक ने भी बुद्धिमान वैद्य को परीक्षा करने योग्य सभी भावों की परीक्षा करके
ही औषधि का प्रयोग करना चाहिए, ऐसा वर्णन दिया है।

इसके अतिरिक्त प्रकृ ति का ज्ञान रोग की साध्यतासाध्यता जानने हेतु भी


आवश्यक है जैसा की चरक ने सुखसाध्य रोग के सन्दर्भ में निम्न वर्णन किया
है।

न च तुल्यगुणो दृष्यो न दोषः प्रकृ तिर्भवेत् । (च.सू. १०/११)

अर्थात् रोगोत्पादक दोष रोगी की प्रकृ ति के अनुसार न हो तो रोग सुख साध्य


होता है। तात्पर्य यह है कि वातज प्रकृ ति वाले मनुष्य को कफज एवं पित्तज
रोग तथा पित्त प्रकृ ति वाले को कफज एवं वातज रोग, इसी प्रकार कफ प्रकृ ति
वाले को पित्तज एवं वातज रोग हो तो ये सुखसाध्य होते हैं। प्रकृ ति

परीक्षण की विधि

21
आयुर्वेद शास्त्र में वर्णित विभिन्न आचार्यों द्वारा बताये गये लक्षणों को
आधुनिक दृष्टि से निम्न चार संवर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

1. शरीर रचना सम्बन्धी लक्षण (Physical symtoms)


2. शरीर क्रिया सम्बन्धी लक्षण (Physiological symtoms)
3. .मनो विज्ञान सम्बन्धी लक्षण (Psychological symtoms)
4. समाज सम्बन्धी लक्षण (Sociological symtoms)

1. शरीर रचना सम्बन्धी लक्षण-

इसके अन्तर्गत शरीर के विभिन्न अंग- प्रत्यगों की रचना को सम्मिलित


किया गया है। इसे अनेक वर्गों में विभाजित किया जा सकता है।

A) शरीर की रचना (Body) (B) स्वभाविक रंगरूप (Colour)

(C) के श-( रोम (Hair) (D) नेत्र (Eyes)

(E) नेत्र भ्रू (Eyes lashes) (F) शाखाएँ(Limbs)

(G) मांस पेशियाँ (Muscles) (H) नख (Nails)

(I) कण्डराएँ(Tendons) (J) सिराएँ (Veins)

(K) दन्त (Teeth) (L) सन्धियाँ (Joints)

2. शरीर क्रिया सम्बन्धी लक्षण –

प्रकृ ति के अनुसार शरीर की विभित्रक्रियाओं का वर्णन विभिन्न आचार्यों द्वारा


अपनी संहिताओं में किया गया है। इन क्रियाओं को निम्न रूप में प्रस्तुत
किया जा सकता है।

22
(A) चेष्टा (Movement), (B) गति (Gait), (C) वाणी (Voice),

(D) श्वसन एवं श्वसन गति (Respiration), (E) स्वभाव (Habit),

(F) भोजन एवंभूख की आदत (Appetite & Eating habit), (G) प्यास (Thirst), (H)
निद्रा (Sleep), (I) स्वप्न (Dreams), (J) प्रिय रस (Favourable taste), (K) उत्सर्जन
(Excretion).

३. मनो विज्ञान सम्बन्धी लक्षण-

आचार्यों द्वारा वर्णित मानसिक लक्षणों को इस संवर्ग में समाहित किया जा


सकता है तथा इसे निम्न उपवर्गों में विभक्त कर परीक्षण सुगम बनाया जा
सकता है।

(A) स्वभाव (Nature), (B) उपक्रम (Initiative), (C) उत्तेजनशीलता (Excitability), (D)
भय (Fear), (E) क्षोभ (Perturb ability), (F) ग्राह्यशक्ति (Receptive power), (G)
स्मृति (Memory), (H) असहिष्णुता (Intolerance). (४) समाज सम्बन्धी लक्षण-
समाजिक लक्षणों को निम्न वर्गों में विभक्त किया जा सकता है।

(A) कामोत्तेजना या लिंग शक्ति (Libido), (B) आचरण (Behaviour), (C) धर्म के
प्रति लगाव (Religious faith)

उपर्युक्त संवगों एवं उपसंवगों में विभिन्न प्रकृ तियों के पुरुषों के लक्षणों को
बाँटकर प्रकृ ति परीक्षण करने में सुगमता रहेगी

23
BIBLIOGRAPHY –

शरीर क्रिया विज्ञान


Dr. Sunil verma & Pro. Jairam Yadav
शरीर क्रिया विज्ञान (HUMAN PHYSIOLOGY)
Prof. Puranchand
Dr. Pramod Malviya

24

You might also like