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दिनांक 27 मार्च 2022 को श्री मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शनों का पुण्य लाभ प्राप्त किया । दे श भर में भगवान
शिव के लाखों शिवलिंग है । परं तु दे श में शिव के 12 ज्योतिर्लिंग का विशेष महत्व है , इन्हीं में से एक मल्लिकार्जुन
ज्योतिर्लिंग है । यह ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदे श के कृष्णा नदी के तट पर पवित्र शैल पर्वत पर स्थित है । इस ज्योतिर्लिंग
को दक्षिण भारत का कैलाश भी कहा जाता है । इसके दर्शन मात्र से व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
पुराणों के अनुसार, मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग में शिव और पार्वती की संयुक्त रूप से दिव्य ज्योतियां विद्यमान हैं।
जिसमें मल्लिका मतलब पार्वती और अर्जुन शब्द भगवान शिव के लिए प्रयोग किया गया |
दिनांक 29 मार्च 2022 को श्री रामेश्वर ज्योतिर्लिङ्ग के दर्शनों का पुण्य लाभ प्राप्त किया ।रामेश्वर ज्योतिर्लिंग की
स्थापना मर्यादा-पुरुषोत्तम भगवान ् श्री रामचन्द्र जी ने की थी। यह शिवलिंग pop प्रांत के रामनाथपुरम जनपद में
स्थित है ।जब भगवान ् श्री राम लंका पर चढ़ाई करने के लिये जा रहे थे, तब इसी स्थान पर उन्होंने समुद्रतट की
बालुका से शिवलिंग बनाकर उसका पूजन किया था। ऐसा भी कहा जाता है कि इस स्थान पर ठहरकर भगवान ् राम
जल पी रहे थे कि आकाशवाणी हुई – ‘मेरी पूजा किये बिना ही जल पीते हो?’ इस वाणी को सुनकर भगवान ् श्रीराम ने
बालुका से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की तथा भगवान ् शिव से रावण पर विजय प्राप्त करने का वर माँगा।
उन्होंने प्रसन्नता के साथ यह वर भगवान श्री राम को दे दिया। भगवान शिव ने लोक कल्याणार्थ ज्योतिर्लिंग के रूप
में वहाँ निवास करने की सबकी प्रार्थना भी स्वीकार कर ली। तभी से रामेश्वर ज्योतिर्लिंग यहाँ विराजमान है ।
श्री मीनाक्षी दे वी के दर्शनों का पुण्य लाभ दिनांक 30 मार्च 2022 को प्राप्त किया । मिनाक्षी अम्मन मंदिर एक
इतिहासिक हिन्द ू मंदिर है जो भारत के तमिलनाडु राज्य के मदरु ाई शहर की वैगई नदी के दक्षिण किनारे पर स्थित
है । यह मंदिर माता पार्वती को समर्पित है जो मिनाक्षी के नाम से जानी जाती है और शिव जो सुन्दरे श्वर के नाम से
जाने जाते है । यह मंदिर 2500 साल परु ाने शहर मदरु ाई का दिल और जीवन रे खा है और साथ ही तमिलनाडु के मुख्य
आकर्षणों में से भी एक है । कहा जाता है की इस मंदिर की स्थापना इंद्र ने की थी। जब वे अपने कुकर्मो की वजह से
तीर्थयात्रा पर जा रहे थे तभी उन्होंने इस मंदिर का निर्माण करवाया था। जैसे ही वे मदरु ाई के स्वयंभू लिंग के पास
पहुचे वैसे ही उन्हें लगा की उनका बोझ कोई उठाने लगा है ।इसके बाद उन्होंने इस चमत्कार को दे खते हुए स्वयं ही
मंदिर में लिंग को प्रति प्रतिष्टापित किया। इंद्र भगवान शिव की पूजा करते थे और इसीलिए वहा पूल के आस-पास
हमें कमल के फुल दिखाई दे ते है ।
मंदिर से जुड़ा हुआ सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार “मिनाक्षी थिरुकल्याणम (मिनाक्षी का दिव्य विवाह)” है , जिसे स्थानिक
लोग हर साल अप्रैल के महीने में मनाते है । दिव्य जोड़ो के इस विवाह प्रथा को अक्सर दक्षिण भारतीय लोग अपनाते
है और इस विवाह प्रथा को “मदरु ाई विवाह” का नाम भी दिया गया है ।पुरुष प्रधान विवाह को “चिदं बरम विवाह” कहा
जाता है , जो भगवान शिव के चिदं बरम के प्रसिद्ध मंदिर के प्रभुत्व, अनुष्ठान और कल्पित कथा को दर्शाता है । इस
विवाह के दौरान ग्रामीण और शहरी, दे वता और मनुष्य, शिवास (जो भगवान शिव को पूजते है ) और वैष्णव (जो
भगवान विष्णु को पूजते है ) वे सभी मिनाक्षी उत्सव मनाने के लिये एकसाथ आते है ।
मान्यता है कि मां चिंतपूर्णी के दर्शन करने वाले भक्तों की न केवल चिंताएं समाप्त होती हैं बल्कि भक्तों के असंभव
कार्य भी पलक झपकते हुए पूर्ण होते है । पिंडी रूप में मां के दर्शन होते हैं। मंदिर एक बरगद के वक्ष
ृ के नीचे बना हुआ
है । मंदिर के चारों तरफ सोने का आवरण लगा हुआ है । दर्शनों को प्राप्त कर मनष्ु य सभी सुखों का भागी बनता है
और उसके जीवन में आने वाली सभी चिंताओं का अंत होता है ।नवरात्रि और सावन के पावन समय में तो यहां का
नजारा दे खते ही बनता है । इस स्थान पर प्रकृति का सुंदर नजारा दे खने को मिल जाता है । यात्रा मार्ग में काफी सारे
मनमोहक दृश्य यात्रियो का मन मोह लेते हैं और उनपर एक अमिट छाप छोड़ दे ते हैं। यहां पर आकर माता के भक्तों
को आध्यात्मिक आंनद की प्राप्ति होती है ।दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु माता के लिए भोग के रूप में सूजी का
हलवा, लड्डू, बर्फी, बताशा, नारियल आदि लाते हैं। कुछ श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी हो जाने पर ध्वज और लाल चुनरी
माता को भें ट स्वरूप प्रदान करते हैं। चढ़ाई के रास्ते में काफी दक
ु ानें हैं जहां से श्रद्धालु माता को चढ़ानेे का सामान
खरीदते हैं। दर्शनों से पहले प्रत्येक पर्यटक हाथ धोते हैं और उन्हें सिर रूमाल या कपड़े से ढं कना पड़ता है । मंदिर
भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिंडी है जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते हैं। श्रद्धालु मंदिर की
परिक्रमा करते हैं। माता के भक्त मंदिर के अंदर निरं तर भजन कीर्तन करते रहते हैं। मंदिर के साथ वट का वक्ष
ृ है
जहां श्रद्धालु कच्ची मौली अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बांधते हैं। पश्चिम की ओर बढ़ने पर बड़ का वक्ष
ृ है
जिसके अंदर भैरों और गणेश के दर्शन होते हैं। मंदिर के मुख्य द्वार पर सोने की परत चढ़ी हुई है । इस मुख्य द्वार
का प्रयोग नवरात्रि के समय किया जाता है । यदि मौसम साफ हो तो आप यहां से धौलाधार पर्वत श्रेणी को दे ख सकते
हैं।
हिमाचल प्रदे श को दे व भूमि के नाम से भी जाना जाता है इसलिए इसे दे वताओं के घर के रूप में भी जाना जाता है ।
पूरे हिमाचल प्रदे श में 2000 से भी ज्यादा मंदिर है और इनमें से ज्यादातर प्रमुख आकर्षक का केन्द्र बने हुए हैं। इन
मंदिरो में से एक प्रमुख मंदिर चामुण्डा दे वी का मंदिर है जो कि जिला कांगड़ा हिमाचल प्रदे श राज्य में स्थित है ।
चामुण्डा दे वी मंदिर शक्ति के 51 शक्ति पीठो में से एक है । वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ दे वियों मे चामुण्डा दे वी
का दस
ु रा दर्शन होता है वैष्णो दे वी से शुरू होने वाली नौ दे वी यात्रा मे माँ चामुण्डा दे वी, माँ वज्रेश्वरी दे वी, माँ ज्वाला
दे वी, माँ चिंतपुरणी दे वी, माँ नैना दे वी, माँ मनसा दे वी, माँ कालिका दे वी, माँ शाकम्भरी दे वी आदि शामिल हैं यहां पर
आकर श्रद्धालु अपने भावना के पुष्प मां चामुण्डा दे वी के चरणों में अर्पित करते हैं।
आनन्दपरु साहिब (Anandpur Sahib) भारत के पंजाब राज्य के रूपनगर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है ।
यह शिवालिक पर्वतमाला के चरणों में सतलुज नदी के समीप स्थित है । आनन्दपुर साहिब सिख धर्म से सबसे पवित्र
स्थानों में से एक है । यहाँ दो अंतिम सिख गुरु, श्री गुरु तेग बहादरु जी और श्री गुरु गोविंद सिंह जी, रहे थे और यहीं
सन ् 1699 में गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना करी थी। यहाँ तख्त श्री केसगढ़ साहिब है , जो सिख धर्म के
पाँच तख्तों में से तीसरा है । यहाँ बसंत होला मोहल्ला का उत्सव होता है , जिसमें भारी संख्या में सिख अनुयायी
एकत्रित होते हैं।
आनन्दपुर साहिब (Anandpur Sahib) भारत के पंजाब राज्य के रूपनगर ज़िले में स्थित एक ऐतिहासिक नगर है। यह
शिवालिक पर्वतमाला के चरणों में सतलुज नदी के समीप स्थित है। आनन्दपुर साहिब सिख धर्म से सबसे पवित्र स्थानों में से
एक है। यहाँ दो अंतिम सिख गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर जी और श्री गुरु गोविंद सिंह जी, रहे थे और यहीं सन् 1699 में गुरु
गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना करी थी। यहाँ तख्त श्री केसगढ़ साहिब है, जो सिख धर्म के पाँच तख्तों में से तीसरा
है। यहाँ बसंत होला मोहल्ला का उत्सव होता है, जिसमें भारी संख्या में सिख अनुयायी एकत्रित होते हैं।