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॥ॐ॥

॥श्री परमात्मने नम: ॥


॥श्री गणेशाय नमः ॥

॥ श्री गुर्वष्टकम् ॥

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वर्षय सूची

॥ श्री गुर्वष्टकम् ॥ ............................................................................. 3

भवदीय :

श्री मनीष त्यागी

संस्थापक एवं अध्यक्ष


श्री ह ं दू धमम वैहदक एजुकेशन फाउं डेशन

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॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय: ॥

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॥ श्री हरर ॥
॥ श्री गणेशाय नम: ॥

॥ श्री गुर्वष्टकम् ॥

श्रीमद भगर्त पूज्यपाद आद्य शङ्कराचायव प्रणीतम्

शरीर सुरूपं तथा र्ा कलत्रं यशश्चारु वचत्रं धनं मेरुतुल्यम् ।


मनचैन लग्नं हरे ड् वपझे । ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥१॥

यवद शरीर सुन्दर हुआ तो उससे क्या? यवद स्त्री सुन्दर हुई तो उससे
भी क्या? अत्यन्त वनमवल अतएर् सुन्दर कीवतव और सोनेके
सुमेरुपर्वतके समान वर्पुलधन होनेसे भी क्या लाभ हुआ ? यवद
वनष्कपट शुद्धभार्से जगद् गुरु हरर परमेश्वरके चरणों में मन को नहीं
लगाया ? ॥१॥

कलत्रं धनं पुत्रपौत्रावद सर्ं गृहं बान्धर्ाः सर्वमेतद्धद्ध जातम् ।


गुरोरविपझे मनचैन्न लग्न ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥२॥

स्त्री, धन, पुत्रपौत्रावद सब कुछ तथा गृह, जावत बन्धुर्गव इत्यावद


होनेपर भी यवद हरररूप श्रीगुरुदे र्के चरणकमल में मन को न
लगाया तो ऐसे जीर्न से क्या लाभ हुआ ? ॥२॥

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षडिावदर्ेदो मुखे शास्त्रवर्द्या कवर्त्वावद गद्यं सुपद्यं करोवत॥
गुरोरविपझे मनचैन्न लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥३॥

यवद वशक्षा, कल्प, व्याकरण, वनरुक्त, छन्द और ज्योवतषावद छः


अिों सवहत अगावद र्ेद, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, सांख्य, योग,
न्याय तथा र्ैशेवषक आवद शास्त्र और चौदही वर्द्याओं को कण्ठस्थ
भी करवलयाहो तो उससे कुछ भी लाभ नहीं और गद्यपद्यात्मक
काव्यावद रचनेकी क्षमता भी वकसी अथव की नहीं यवद गुरूके चरणों
में मन नहीं लगाया गया ॥ ३॥

वर्दे शेषु मान्यः स्वदे शेषु धन्यः सदाचारर्ृत्तेषु मत्तो न चान्यः ॥


गुरोरविपझे मनचैन लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥४॥

वर्दे श में मान हो, स्वदे श में प्रशंसा हो, और अपनी


सदाचारपरायणता का इतना अवभमान हो वक, मुझसे अवधक
सदाचारी दू सरा कोई है ही नहीं, यह सब होने पर भी यवद गुरुदे र्के
चरणकमल में वनष्कपटभार् से मन नहीं लगा तो इन सब से कुछ भी
लाभ नहीं ॥४॥

क्षमामण्डले भूपभूपालर्ृन्दैः सदा सेवर्तं यस्य पादारवर्न्दम् ।


गुरोरवपझे मनचैन्न लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥५॥

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वजसके चरणकमलों की सेर्ा पृथ्वीमण्डल के राजा महाराजा लोग
सदा करतेहों ऐसे मनुष्यका इतना बडा सम्मान भी वनष्फल है यवद
श्रीगुरुदे र्के चरणोंमें वनष्कपट भार्से मनको नहीं लगाया ॥ ५॥

यशो मे गत वदक्षु दानप्रतापा जगद्वस्तु सर्व करे यत्प्रसादात् ।


गुरोरविपझे मनश्चेन लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥६॥

मेरा यश दानके प्रताप से सम्पूणव वदशाओं में व्याप्त है वजसके


अभार्से संसारके सारे पदाथव मेरे हस्तगत है ऐसा समझनेर्ाले
दानशील का दान भी वनष्फल है यवद गुरुदे र्के चरणोंमें
वनष्कपटभार् मन नहीं लगाया ॥६॥

न भोगे न योगे न र्ा र्ावजराजौ न कान्तामुखे नैर् वर्त्तेषु वचत्तम्।


गुरोरङ् वपझे मनचैन लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥७॥

यवद कोई ऐसा वजतेद्धिय हो वक वजसका वचत्त न तो भोग वर्लास में ,


न हठयोगावद में, न उत्तम घोडों में, न चिमुखी कावमनी में अपनी
सदाबारी दू सरा और न धनधान्यावदके संग्रह में आसक्त हुआ परन्तु
ऐसी अनासद्धक्त होते हुए णकमल में भी यवद श्रीगुरुदे र्के चरणों में
वनष्कपटभार्से मन नहीं लगाया तो उसके वजतेद्धियता से कोई लाभ
नहीं ॥७॥

अरण्ये न र्ा खस्य गेहे न काये न दे हे मनो र्तवते मे त्वनध्यें ।


गुरोरवडपझे मनचैन्न लग्नं ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः वकम् ॥८॥

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यवद कोई ऐसा वर्रक्त हो वक वजसकी मनोर्ृवत्त र्न में , वनज
पररर्ारपूररत घर में, व्यापार में, शरीरके पालनपोषणावद में तथा
अमूल्य पदाथों के संग्रहावद वकसीभी कायव में नहीं लगी परन्तु विरभी
यवद श्रीगुरुदे र् के चरणकमलों में उसका मन नहीं लगा, तो उसका
र्ह र्ैराग्य वबलकुल वनरथवक हैं ॥८॥

अनवण रत्नावन मुक्तावन सम्यक् समावलविता कावमनी यावमनीषु।


गुरोरङ् विपद्मे मनचैन्न लग्नं नेसके ततः वकं ततः वकं ततः वकं ततः
वकम् ॥९॥

यवद श्रीगुरुदे र्के चरणकमलों में वनष्कपटभार् से मन नहीं लगाया


गया तो अमूल्य रत्नों का तथा मुक्तावदक का उपभोग और रावत्र में
कोमलकलेर्रा चिमुखी कावमवनयों का भलीप्रकार आवलिन
करना इत्यावद सब प्रकारके सुख वनष्फल हैं यवद श्रीसद् गुरुचरणमें
प्रीवत नहीं ॥१०॥

गुरोरष्टकं यः पठे त्पुण्यदे ही यवतभूपवतर्ब्वह्मचारी च गेही ।


लभेद्वाद्धिताथं पदं र्ब्ह्मसंज्ञे गुरोरुक्तर्ाक्ये मनो यस्य लग्नम् ॥१०॥

जो पुण्यात्मा, संन्यासी, नृपवत, र्ब्ह्मचारी, तथा गृहस्थ इस अष्टकको


पढता है , वजसका मन श्रीगुरुदे र्के कहे हुए र्ाक्यों में लगा हुआ है
तथा गुरूके र्ाक्योंकी श्रद्धा और वर्श्वासपूर्वक हृदय से अिीकार

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करता है र्ह अवभलवषत अथवरूपी परर्ब्ह्म को प्राप्त होता है अथावत्
र्ब्ह्म में लीन होजाता है ॥ १० ॥

ॐ शाद्धन्तः ! शाद्धन्तः !! शाद्धन्त !!!

॥ इवत श्री गुर्वष्टकम् संपूणवम् ॥

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