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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.

अप्रैल 23

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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कहााँ पर क्या हैं?
पञ्र् परमेष्ठी णमोकार मत्रं (फ्रेम हेतु फोटो) 01 मवशद्ध ु वाणी : प्रकृष्ट देशना प्रवर्न
104
मंगलार्रण 02 मदगम्बरार्ायष श्री मवशुद्ध सागरिी
मर्न्तन : शब्द अध्यात्म पथ ं ी का : मवराग का मवराट उपकार:प्रदीप्त मकया
03 105
मदगम्बरार्ायष श्री मवशुद्धसागरिी महा. मानव पर उपकार:पी. के . िैन ‘प्रदीप’
मंगलाशीर् 04 आत्मा की सैंतामलस शमियां : महान
नमोस्तु दादा गुरु देव : 05 ग्रथं राि समयसार का सार : अध्यात्म 107
गुरु दशषन : गणार्ायष श्री मवराग सागर िी अममय : आ. श्री मवशुद्धसागर िी
06
“भावों के मवशद्ध ु क्षण” से साभार सत्याथष बोध:आ. श्री मवशद्ध ु सागर िी 111
कहााँ पर क्या हैं? 07 सही बात है : श्रुत संवेगी श्रमण : श्री
112
अप्रैल 2023 माह के पवष और त्यौहार 09 १०८ आमदत्य सागर िी महाराि
सम्पादकीय:पी. के . िैन ‘प्रदीप’ 11 मर्ंतन से बनें सुखी िीवन 113
आओ िानें हमारे पूवष आर्ायों के बारे में 16 सार : श्रमण मुमन श्री प्रणुत सागर िी 114
गुणों के लहराते सागर : गुरु भि 48 मैं तो िैसा था वैसा ही रहा : डॉ.
115
मवमल मसन्धु के र्रण कमल : पूिा 49 मनमषल िैन शास्त्री, टीकमगढ़, म.प्र.
मवराग मसन्धु को नमन कराँ : पूिा 54 एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ : मसरी
आ. श्री मनग्रषन्थ गुरु मवशुद्ध सागर महाराि भूवलय : डॉ यतीश िैन,डॉ ज्योमत िैन 116
58
की पि ू ा : आर्ायष श्री(डॉ.) मवभव सागरिी िबलपुर , मध्य प्रदेश.
आ. श्री मवशुद्ध सागरिी महाराि कीआरती 64 अच्छे मवर्ार : श्रुत संवेगी श्रमण 122
अभागा कौन : इस ं ान क्यों दुखी है -14 65 श्री सव्रु त सागरिी महाराि
मोक्ष पथ के राही, मसद्धत्व पद पर होंगे करले आत्म का उत्थान : श्री अनुराग 123
मवरािमान :गणार्ायष मवरागसागर महाराि 66 बोथरा:प्रस्तुमत श्रीमती मंिू पी.के .िैन
का िीवन वृत्त : डॉ.आशीर् कुमार िैन, आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि
124
पुरुर्ाथष देशना: आ. श्री मवशद्ध ु सागर िी की पूिन:कु. प्रार्ी िैन टीकमगढ़ मप्र
महाराि की देशना: आर्ायष अमृतर्ंद्र 71 आर्ायों की महानता और मशष्य की
स्वामी :मल 127
ू ग्रन्थ परुु र्ाथष मसदधध्यपु ाय सफलता : डॉ. मनमषल िैन शास्त्री,
समय: आ. श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि 78 अच्छे मवर्ार : श्रतु सवं ेगी श्रमण
130
सुनयनपथगामी : श्रमण सुप्रभ सागर मुमन श्री सुव्रत सागरिी महाराि
महाराि की देशना : प.ं श्री भागर्ंद रमर्त 79 पसंद : श्रुतमप्रय अप्रममत अंगारी 131
महावीराष्टक स्तोत्र पर आधाररत देशना प्रेरक कहानी : कुआं : श्रीमती मंिू पी. 132
रमणीय तीथष : मवरागोदय कमलाकार ममं दर 103 के िैन, न्यास सदस्य, मबुं ई .

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सत्याथष बोध में गुरु और मशष्य :आर्ायष श्री 134 On-Line Pathshala : 155
मवशुद्धसागर िी : डॉ रेखा िैन, टीकमगढ़ A letter to Friends : P. K. JAIN 156
मन:शेर् : ममु न श्री क्षमा सागरिी महाराि 136 Activities by Champion of 157
अंतराषष्रीय िैन मवद्वत पररर्दध:आवश्यकता? 137 Champions
कै से ? मकसमलए : डॉ. मनमषल िैन शास्त्री, बहुत अच्छे बच्र्ों आगे बढ़ो 158
कमष मवपाक : आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी 141 गुरु और मशष्य : कु. मनहाररका िैन 159
सम्यकध मवर्ार : मवशद्ध ु वाणी 143 टीकमगढ़, मध्य प्रदेश
गुरु-पथ : समयोमर्त मशक्षाएं : गणार्ायष 144 मर्त्रकलाएं : बाल कलाकार द्वारा 161
गुरुदेव श्री १०८ मवराग सागर िी महाराि बच्र्ों के मलए मवशेर् : िीवन रहस्य-२ 163
आर्ायों की महानता : मशष्य की सफलता 145 भावना : आर्ायष श्री मवशुद्धसागरिी
:उदयभान िैन , ियपुर प्रेरक कहानी : सत्संग प्रेम 164
लघु महावीर:श्रमण मुमन श्री प्रणुत सागर िी 147 श्रीमती मंिू पी के िैन, मुंबई.
हमारे िीवन की नींव : सच्र्े गुरु के प्रमत 148 मााँ मिनवाणी क्या कहती है ? 166
समीर्ीन श्रद्धा : श्रीमती कीमतष िैन मदल्ली मवशद्धु देशना र्ेनेल 167
मिनवाणी पढ़ने और सुनने का सौभाग्य 150 िन िन की शंका का “सम्यकध 168
िागा है : गरुु पाती से साभार : श्रमणार्ायष समाधान”:ममु न श्री सप्रु भ सागर महा.
श्री मवभव सागरिी महाराि मपयूर् अमृत वाणी र्ेनेल 169
फोटो फ्रेम : आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी 151 आपके अपने मवर्ार 170
मवशुद्ध स्वाध्याय दीघाष 152 छपते-छपते 171
बच्र्ों के मलए मवशेर् : बाल मवभाग 153 आर्ायष श्री के सभी ग्रंथ को प्राप्त करें: 177
हमारे प्रेरणा स्रोत 153 नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार 178
:Source of Inspiration 153 नमोस्तु मर्ंतन के सहयोगी 180
मेरी पाठशाला : 154 नमोस्तु शासन सेवा समममत रस्ट 181
मुख्य पृष्ठ:
आर्ायों की महानता : मशष्य की सफलता
मुख्य पृष्ठ के रर्नाकार :
पी.के .िैन ‘प्रदीप’
“नमोऽस्तु मर्ंतन”
संपादक एवं प्रकाशक
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अप्रैल 2023 माह के पवष और त्यौहार

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यह पंर्ांग मदल्ली के भारतीय स्टैं डडष समय के अनुसार ही मदया गया हैं इस पंर्ांग के कृमतकार हैं :
प्रमतष्ठार्ायष प.ं मक
ु े श िैन शास्त्री “मवनम्र”
संपकष सूत्र सवाषथषमसमद्ध ज्योमतर्-वास्तु कें द्र, गुरुग्राम, हररयाणा.
09868600290, 0999744151, 08368002419.
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सम्पादकीय
पी. के . िैन ‘प्रदीप’
ठाणे, मुंबई

देसकुलजाइसुद्धा, विसद्ध
ु मणियणकायसंजत्त ु ा|
तम्ु हं पायपयोरुहवमह मंगलमत्थु मे वणच्चं ||1||आ.भवि||
अथथ :- देश, कुल और जावत से विशुद्ध तथा विशुद्ध मन, िचन, काय से संयिु हे
आचायथ ! तम्ु हारे चरणकमल मुझे इस लोक में वनत्य ही मंगलरूप हों ||1||

जीिन मंगल रूप हो,


अव्याबावित सुख का िेदन हो |
आओ ! चलें !! बने भगिान् !
करें सािु सेिा, संगत और बनें भगिान्

िय मिनेन्द्र.
अहो ! मकतना सुखद मलखा गया हैं – आर्ायष भमि के मंगलार्रण में. हे आर्ायष ! आपके
दशषन मात्र ही मेरे मलए मंगलकारी हैं क्योंमक आप देश रप से, कुल रप से और िामत रप से और
मत्रयोग से यि ु , सयं ि
ु मवशद्ध
ु हैं. िैसे पारस ममण के सपं कष में आने भर से मनकृष्ट धातु लोहा भी
अनमोल धातु कंर्न/सोना बन िाता हैं उसी तरह आपके दशषन करने से, समीप आने से आपके
र्रणकमल मेरे ह्रदय में स्थामपत करने से इस अपार भव सागर में मेरा मंगल करने वाले हो. और हे
मेरे िीवन की नैया को भव सागर से पार करने में समथष, मेरे आराध्य, अनेकों गुणों से संयुि, मेरे
गुरुदेव, मेरे आर्ायष ! आपका तो नाम मात्र ही मेरे मलए मंगलकारी हैं. ठीक उसी तरह िैसे अंिन
र्ोर ने सेठ द्वारा कहे गए मिन वर्नों को प्रमाण स्वरप श्रद्धान से स्मरण करने मात्र से मतर गया था.
हम मकसी भी ग्रन्थ को उठाकर देखें और उनका स्वाध्याय करने का प्रारंभ करते हैं तो यह
मदखाई देता है मक ग्रंथकार ने भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलार्रण मकया हैं. उस मंगलार्रण में भी स्वयं
आर्ायष ने अपने पूवषवती आर्ायों का गुणगान मकया हैं और उनके उपकारों का वणषन मकया हैं. ठीक
इसी तरह हमने अभी मपछले माह मवरागोदय तीथष धाम, पथररया, मिला दमोह, मध्य प्रदेश में संपन्न
हुए ततृ ीय यमत सम्मेलन और यगु प्रमतक्रमण को देखा हैं और र्तथ ु ष कालीन वणषन को िो हमने मसफष
मिनवाणी में पढ़कर िाना था आि, वस्तुतः यथाथष में देख ही मलया. एक साथ 350 मपच्छी का
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दशषन, उनकी आहार र्याष के मलए अनश ु ासन से मवर्रण और पनु ः र्याष के पश्चातध आर्ायष भमि
करना यह सब मिनवाणी के पठन से प्राप्त ममस्तष्क में िो मर्त्रण हुआ था उसे प्रत्यक्ष में देखने का
सुअवसर प्राप्त हुआ. एक समय ऐसा भी था िब श्रावक गुरु दशषन के मलए तरसते थे. और गुरुओ ं
की अनुभूमत को साक्षात्कार करने हेतु स्वयं मदगंबर अवस्था को अपनाकर बंद कमरे में अनुभूमत प्राप्त
करते थे और मफर अपनी अनुभूमतयों को शब्दों की माला बनाकर हमारे सामने प्रस्तुत करते थे. यही
प्रस्ततु ीकरण हमारे मलए बहतु ही मायने रखता हैं. यह हमारा सौभाग्य है मक हमने आि के इस यगु में
और ऐसे समय में िन्म मलया है मिसमें हमें तीन-तीन परमेमष्ठयों के साक्षातध दशषन का लाभ ममल रहा
हैं.
आर्ायषगण मिन वर्नों को, मिनेन्द्र देव की वाणी को, बहुत ही रहस्यमयी गूढ़ बातों को
कम से कम शब्दों में अपने शब्दों में समझाने हेतु बात हमारे सन्मुख रखते हैं. अतः मफर उनके ग्रंथों
को हम अल्पज्ञों को समझाने के मलए उस ग्रन्थ की मवस्ततृ देशना अथवा टीका का सि ृ न होता हैं.
हमारे पञ्र् परमेष्ठीयों में से तीन परमेष्ठी, मसद्ध परमेष्ठी को छोड़कर, पुरुर्ाथष के द्वारा अपने आठ कमों
में से र्ार घामतया कमों का नाश करते हैं और अरहंत अवस्था/पद को प्राप्त करते हैं. इससे यह मसद्ध
होता है मक आर्ायष उमा स्वामी द्वारा मलमखत तत्वाथष सत्रू , “सम्यग्दशषन ज्ञान र्ाररत्राणी मोक्षमागष:”
भगवानध बनने की मदशा में, मोक्षमागष को प्रशस्त करने वाला महान सूत्र हैं. इससे एक बात और स्पष्ट
होिाती है मक हमारे आर्ायष भगवनध बहुत ही सक्ष ं ेप में कथन करते हैं. इस सत्रू की महत्ता, प्रधानता
और भी इसमलए ही है मक यह दशाषता है मक मसफष सम्यग्दशषन और सम्यक्ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त नहीं
होगा. सम्यकध र्ाररत्र को धारण मकये मबना अथाषतध तीनों रत्नों के एकीकरण होने पर ही मोक्ष प्राप्त
होगा.
उपयषि
ु र्ार लाईनों में स्पष्ट रप से ज्ञात हो िाता है मक हम भगवानध कै से बने और भगवानध
बनने पर क्या प्राप्त होगा. और इस सब के मलए हमारे ममस्तष्क में मकसी कमव (नाम याद नहीं आ रहा
है) ने मकतना कुछ सटीक शब्दों में व्यि मकया हैं. उस महान कमव की पंमियााँ इस प्रकार हैं :-
साधु सेवा सगं मत, भाग्यवान ही पाय।
पल भर िो सेवा करे, िीवन सफल बनाय ।।
हे आर्ायष ! आपने ही तो हमें भगवानध के बारे में बताया.
आप ही तो भगवानध कै से बने यह हर पल सर्ेत कर रहे हैं. इसमें
आपका मकंमर्त भी स्वाथष या अपेक्षा नहीं हैं. ऐसा ही स्वरुप
आपने हम सभी को अरहंत भगवानध का और मसद्ध भगवानध का
बताया हैं. इसीमलए आप हमारे मलए भगवानध ही हो. मम गुरुदेव
मदगम्बरार्ायष, परम पूज्य आगम उपदेष्टा, र्याष मशरोममण, समयसारोपासक, श्रतु सवं धषक, स्वाध्याय
प्रभावक, अध्यात्म रसायनज्ञ, अध्यात्म भौमतकी के आदशष तंत्रज्ञ, िैन दशषन के तत्त्वज्ञ, अथाषतध र्लते
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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मफरते धरती के देवता आर्ायष रत्न श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि सदैव कहते हैं – “अपना हाथ गरुु देव
के हाथ में ही दे देना. यमद आपने गुरुदेव का हाथ पकड़ा हैं तो आप हाथ छोड़ भी सकते हैं और आप
मदशाहीन होकर मोक्षमागष से अलग होकर अपने संसार को बढ़ा लेंगे. और यमद आपने अपना हाथ
गुरुदेव के हाथों में सौंप मदया हैं तो मनमश्चन्त हो िाईये आप अपने लक्ष्य को प्राप्त कर ही लेंगे. गुरुदेव
आपको आपके हाथ को मिबूती से पकड़ रखेंगे और आपको लक्ष्य की प्रामप्त मनमश्चत ही होगी. यही
गरुु देव का भाव होता हैं. और ऐसे ही नज़ारे/दृश्य हमने पथररया में भी देखे हैं.
यही कारण है मक मसद्ध भगवानध से भी पहले णमोकार महा मंत्र में गुरुदेव अथाषतध अरहंत
भगवनध का नाम मलया िाता हैं. हम सभी पर आर्ायष भगवंतों की असीम कृपा सदैव ही रही हैं मिससे
आि तक सभी िीवों का मोक्षमागष प्रशस्त होता रहा हैं और भमवष्य में भी होता ही रहेगा.
अभी कुछ मदनों पश्चातध मम गुरुदेव, मदगम्बरार्ायष, परम पूज्य आगम उपदेष्टा, र्याष
मशरोममण, समयसारोपासक, श्रतु सवं धषक, स्वाध्याय प्रभावक, अध्यात्म रसायनज्ञ, अध्यात्म
भौमतकी के आदशष तंत्रज्ञ, िैन दशषन के तत्त्वज्ञ, अथाषतध र्लते मफरते धरती के देवता आर्ायष रत्न श्री
मवशुद्ध सागर िी महाराि का आर्ायष पद मदवस भी 31 मार्ष को आ रहा हैं. क्या सुखद संयोग है
मक मतमथ के अनस ु ार यह महावीर िन्म कल्याणक के मदवस था और यह मतमथ भी 3 मदन पश्चातध
अथाषतध 3 अप्रैल को ही हैं.
ज्येष्ठ माह के शक्ु ल पक्ष में पर्
ं मी अथाषतध श्रतु पर्
ं मी (बध
ु वार 24 मई, 2023) भी आ रही हैं.
वास्तव में यह मदवस हम सभी श्रुत देवता की पूिा अर्षना साि-सवांर करते हैं िुलुस मनकलते हैं यह
सब कुछ आर्ायों की कृपा और उनकी दूरगामी दूरदृमष्ट का ही पररणाम हैं मिससे आि भी हम सभी
को मिनदेव के पावन मपयर्ू श्रतु वर्नों का लाभ ममल रहा हैं. यह अलग मवर्य है मक सभी श्रतु हमारे
पास आि उपलब्ध भी नहीं हैं मफर भी िो है सो आर्ायों की देन ही हैं. उनका परम आशीवाषद हमें
प्राप्त हुआ मिससे हमारे पास आि श्रुत उपलब्ध हैं.
मम गुरुदेव, मदगम्बरार्ायष, श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि की एवं सभी आर्ायों की मुझ पर
सदैव मवशेर् कृपा रही हैं. आर्ायष श्री की कृपा से ही आि से 13 तेरह वर्ष पूवष लोक प्रमतमष्ठत देशना
“परुु र्ाथष देशना” िो मक आर्ायष श्री अमतृ र्न्द्र स्वामी की बहु र्मर्षत कृमत “परुु र्ाथष मसदधध्यपु ाय”
पर देशना हैं, ग्रंथराि को प्रथम बार इन्टरनेट के माध्यम से लोकापषण करने का सौभाग्य ममला था.
वह मदन भी श्रुत पंर्मी का मदन था. इसी तरह आि से 5 वर्ष पूवष मवदेश की धरती से, ऑस्रेमलया
से, आर्ायष पद मदवस पर बहुत ही सामान्य कुछ पृष्ठों की एक पमत्रका सी मनकाली थी मिसके द्वारा
अपने और सधमी बंधुओ ं के मनोभावों को प्रस्तुत करने का लघु प्रयास मकया था. एक माह पश्चातध
ही कई लोगो के फोन/मेल आने लगे मक इस प्रयास को सतत िारी रखना र्ामहए. अतः तब से ही
इस प्रकार नमोऽस्तु मर्ंतन पमत्रका का प्रारंभ हुआ. उस समय इसका नाम रखा गया था ‘नमोऽस्तु
मर्ंतन पुष्प’.
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कुछ माह पश्चात मबुं ई में सनध 2018 में हमने सारस्वत कमव आर्ायष श्री मवभव सागरिी
महाराि के दशषन मकये तब आर्ायष श्री ने पमत्रका के बारे में हमसे िानकारी ली. पूवष में आपको यह
िानकारी हमारे सलाहकार ब्र. पं. श्री मनहालर्न्द्र िी िैन ‘र्ंद्रेश’, लमलतपुर से प्राप्त हुई थी. उस
समय सारस्वत कमव आर्ायष श्री ने कहा था – “आप इसके नाम में थोडा सा संसोधन करें, ‘नमोऽस्तु
मर्ंतन पुष्प’ में से पुष्प शब्द को हटा दें. ‘नमोऽस्तु मर्ंतन’ नाम अपने आप में ही पष्ु प से भी अमधक
सगु ध ं देनेवाला हैं. पष्ु प की सगु ध
ं एक समय तक रहती है परन्तु ‘नमोऽस्तु मर्ंतन’ की सगु धं मर्रकाल
तक रहनेवाली हैं. इसके बाद से आपकी पहर्ान ‘नमोऽस्तु मर्ंतन’ के नाम से ही होगी. और मुमन के
वर्न कभी गलत नहीं होते और यह तो आर्ायष के वर्न थे िो मसद्ध भी हो गए. यही से मफर पमत्रका
का नया नामकरण हो गया- ‘नमोऽस्तु मर्ंतन’. यह पमत्रका 8 -10 पृष्ठों से प्रारंभ होकर आि लगभग
200 पृष्ठों की हो गयी हैं.
मपछले मवशेर्ांक ‘यमत सम्मलेन और यगु प्रमतक्रमण’ के मवमोर्न के अवसर पर पमत्रका
को देखकर दादा गुरुदेव ने मंर् पर ही डॉ. यतीश िी िैन एवं श्रीमती डॉ. ज्योमत िी िैन, िबलपुर
से कहा – “इतनी मोटी रंग-मबरंगी आध्यामत्मक पमत्रका शायद हम पहली बार ही देख रहे हैं.” यह
वाक्य िब डॉ यामतश िी ने हमें बताये तब हम तो मनहाल हो गए, मालामाल हो गए. और हमारी
थकान गायब ही हो गई. इसीमलए हमने पूवष में मलखा है मक हमें सदैव आर्ायष भगवन्तो का आशीवाषद
प्राप्त होता रहा हैं. आप सभी को ज्ञात ही है मक यह पमत्रका पण ू ष रप से मडमिटल है अतः इसे मोबाइल
या कम््यूटर/लेपटोप पर ही पढ़ा िा सकता हैं और आर्ायष भगवनध इसमें से मकसी भी वस्तु को न
रखते है न प्रयोग करते हैं. अतः इसकी कुछ प्रमतयों को ही मप्रंट करवाया गया था और इसकी
मिम्मेदारी डॉ. आशीर् िैन ‘बम्होरी’ एकलव्य यमू नवमसषटी, दमोह ने बहुत ही खबू सरू ती से मनभायी
और पमत्रका के अवलोकनाथष र्ार र्ााँद लगा मदए. िब संघस्थ अन्य श्रमणों ने भी देखा और पसंद
मकया तो उनके भी अवलोकनाथष पुन: पमत्रकाओ ं का मप्रंट मनकलवाकर डॉ. आशीर् िैन ‘बम्होरी’
ने सभी को सुलभ प्राप्त करवाया. हम उनके भी आभारी हैं, ऋणी हैं.
यहााँ पर यह िानना भी बहुत िरुरी है मक एक पार्ण को आर्ायष भगवनध भगवानध कै से बना
देते हैं ? आर्ायों के सहारे िब भगवानध बना िा सकता हैं तो हम भी भगवानध बन सकते हैं. एक
पार्ण 5 मदनों में भगवानध बन सकता हैं तो हम क्यों नहीं ? िी हााँ आपने सही पढ़ा और समझा. अब
तक के मपछले सम्पादकीय में हम भगवानध कै से बने ? इसी बात का उल्लेख रहा हैं. सभी आर्ायष
भगवनध हमें बताते है मक आप भगवानध बन सकते हो. आपके अन्दर मवरािमान भगवानध आत्मा को
देखो और उसे प्रगट करों तो आप भी भगवानध बन सकते हो. आर्ायष श्री सभी को नीमत मसखाते हुए
कहते भी हैं मक उपकारी के उपकार को कभी नहीं भल ु ाना र्ामहए. और हमारे सभी आर्ायष भगवनध
हम सभी के महत को के मन्द्रत करते हुए प्रवर्नों में भगवानध बनने की ही मशक्षा देते हैं. इसीमलए हमारे
आर्ायष भगवंतों का ऋण हम कभी भी नहीं र्ुका सकते हैं.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष पद मदवस पर सभी को बहुत बहुत बधाईयााँ और शभ ु कामनायें. इसके साथ-साथ
श्री 1008 महावीर स्वामी िन्म कल्याणक की भी अनेकों बधाईयााँ और शुभकामनायें. हम यही
भावना भाते है मक हे आर्ायष भगवनध ! हमें ऐसा आशीवाषद दीमिये मक हम आगमोि संयम धारण
करके पुरुर्ाथष करे मिससे ऐसा शुभ मदन आए िब हमारा और संसारी िीवों का कल्याणक पवष
मनाया िाये.
इस अंक में हम आप सभी की िानकारी हेतु पवू ष के आर्ायों का समं क्षप्त मववरण भी देने का
लघु प्रयास कर रहे हैं. आशा ही नहीं पूणष मवश्वास है मक इस िानकारी से आपका, हमारा बहुमान उन
सभी आर्ायो के प्रमत वधषमान होगा और मन से कर स्वमेव ही नमोऽस्तु की मुद्रा में पररवमतषत हो
िाते हैं. ऐसे अनंत उपकारी अनेकों आर्ायष सदा ियवतं हो. और सबसे महत्वपूणष यह है मक यह सब
िानकारी हमें प्राप्त हुई हैं Jainsanskriti.com के सौिन्य से..... मिसके मलए हम “नमोऽस्तु मर्ंतन”
पररवार, अंतराषष्रीय िैन शोध मवद्वतध पररर्दध, नमोऽस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), मबुं ई पररवार
आभार व्यि करता हैं.
सभी को बहुत बहुत बधाईयााँ और शुभकामनायें.
इमत शभु मध
“नमोऽस्तु शासन ियवंत हो
ियवतं हो श्रमण सस्ं कृमत”
उपकृत हैं हम मशष्य सब, पाकर शीतल छााँव, अमतशय तब-तब हो गया, िब-िब छूते पााँव |
वरदायी है आपका, यह सामनध्य ममला महान, वर देना, कर पायें हम, साथषक आपका नाम ||
परम पज्ू य गरुु देव,
धरती के देवता,
र्लते मफरते मसद्ध भगवनध के
र्रणों में मत्रकाल अनंतबार
नमोस्तु,नमोस्तु, नमोस्तु.
पी.के . िैन ‘प्रदीप’

नमोऽस्तु शासन ियवंत हो.


ियवंत हो वीतराग श्रमण सस्ं कृमत.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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अनुबद्ध के वली
३ अनुबद्ध के वली ( के वली भगवान गौतम
स्वामी - सुधमाष स्वामी - िम्बू स्वामी )
श्री यमत वृर्भार्ायष ने भगवान महावीर के
मनवाषण के बाद के वली, श्रुत, के वली, ११
अंगधारक, दश अंग के एक देशधारक तथा
आर्ारांग धारक आर्ायों का कथन
मतलोयपण्णमत्त खण्ड दो में गाथा १४८८ से
१५०४ तक मवस्तार से मकया है।

भगवान महावीर के मनवाषण प्राप्त करते ही गणधर गौतम स्वामी को के वलज्ञान की प्रामप्त हुई गौतम
स्वामी के मोक्ष िाते ही सध ु माष स्वामी को के वलज्ञान प्राप्त हुआ। सुधमाष स्वामी के मनवाषण प्राप्त
होने पर िम्बू स्वामी को के वलज्ञान प्राप्त हुआ। िम्बू स्वामी इस भरत क्षेत्र के अंमतम के वली थे।
उनके बाद कोई प्रत्यक्ष ज्ञानधारक के वली भरत क्षेत्र में नहीं हुआ। भगवान महावीर के बाद इन
तीनों के वमलयों का समय ६२ साल रहा। िम्बू स्वामी के मोक्षगमन के बाद इस भरत क्षेत्र से
के वमलयों का अभाव हो गया। इसके बाद भी श्रुतके वमलयों के रहते मिनवाणी का ग्यारहअंग और
र्ौदहपूवष का ज्ञान यहााँ अक्षण
ु बना रहा। के वली काल इस प्रकार रहा हैं.
1. गौतमस्वामी १२ वर्ष 2. सुधमाषस्वामी १२ वर्ष 3. िम्बूस्वामी १२ वर्ष =कुल ३६ वर्ष
पांर् श्रुतके वली
पांर् श्रुतके वली ( मवष्णुनमन्द, नमन्द ममत्र, अपरामित,
गोवधषनार्ायष, भद्रबाहुस्वामी )
पांर् श्रुतके वली में क्रमश: मवष्णुनमन्द, नमन्द ममत्र,
अपरामित, गोवधषनार्ायष, व अमन्तम भद्रबाहुस्वामी
हुए। इन सभी का काल मतलोयपण्णमत्त में १०० वर्ष का
बताया गया है। अंमतम श्रुतके वली भद्रबाहुस्वामी के
समय में कई ऐमतहामसक घटनाएं घटीं। उत्तर भारत की
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दुमभषक्ष की आगत घटना को अपने मनममत्त ज्ञान से िानकर उन्होंने समस्त श्रमण संघ को दमक्षण
की ओर मबहार करने की सूर्ना भेिी। उनका आदेश प्राप्त कर अमधकांश श्रमण िन इनके ही साथ
मवहार कर दमक्षण भारत र्ले गये। मफर भी मकतने ही श्रमण उत्तर में ही रह गए। वह दुमभषक्ष के र्लते
अपनी र्याष मनदोर्रप से पालन नहीं कर सके । उत्तर में रहे श्रमणिन न तो अपनी दीक्षा छे दन कर
श्रावक (गृहस्थ) ही बने और न भगवान महावीर के पररपामलत मागष पर दृढ़ रह सके । यहीं से
भगवान महावीर की परम्परा दो भागों में मवभामित हो गई मिन्हें आगे मदगम्बर (मल ू परम्परा) व
श्वेताम्बर पंथी कहा िाने लगा। दूसरी घटना सम्राटध र्न्द्रगुप्त मौयष का मदगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर
अपने दीक्षा गुरु के साथ ही दमक्षण िाने की है। र्न्द्रगुप्त मौयष ऐसे अंमतम सम्राटध थे मिन्होंने िैनेश्वरी
दीक्षा ग्रहण की, उनके बाद मफर मकसी शासक, नरेश या रािा ने दीक्षा नहीं ली। अंमतम श्रतु के वली
भद्रबाहु स्वामी ने श्रवणबेलगोल में अपने मशष्य मवशाखार्ायष को संघभार सौंप कर उन्हें संघ
समहत मबहार की आज्ञा दी और स्वयं नवदीमक्षत मशष्य र्न्द्रगुप्त (मुमन प्रभासर्न्द्र) को अपने पास
रोककर वहीं समामधपूवषक मरण संकल्प मकया। भद्रबाहु स्वामी के स्वगषस्थ होने के साथ ही
श्रुतके वमलयों का भी यहााँ अभाव हो गया। श्रुतके वमलयों का काल समय इस प्रकार रहा -
1. मवष्णुनमन्द 14 वर्ष 2. नमन्दमप्रय 22 वर्ष 3. अपरामित19 वर्ष4. गोवधषन 29 वर्ष 5. भद्रबाहु
ग्यारह अंग व दशपूवषधारक
ग्यारह अंग व दशपवू षधारक
( मवशाखार्ायष, प्रोमष्ठल, क्षमत्रय,
ियसेन, नागसेन, मसद्धाथष, घृमतसेन,
मविय, बमु द्धल, गगं देव व सधु मष )
श्रुतके वमलयों के अभाव के बाद परोक्ष
श्रुत का भी अभाव हो गया। सम्पूणष
द्वादशांग के ज्ञाताओ ं के अभाव में तब
ग्यारह अंग दश पूवष के ज्ञाता आर्ायष ही
रह गए। इन आर्ायों में प्रमख ु हैं
मवशाखार्ायष, प्रोमष्ठल, क्षमत्रय,
ियसेन, नागसेन, मसद्धाथष, घृमतसेन,
मविय, बुमद्धल, गंगदेव व सुधमष। समय
र्क्र आगे बढ़ रहा था और श्रुतधारा
धीरे-धीरे क्षीण हो रही थी। इसी क्रम में भद्रबाहु स्वामी के समकालीन आर्ायष दोलामस व
कल्याण मुमन के बारे में इमतहास में प्रर्ुरता से वणषन हैं।

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कल्याण मुमन
यूनानी शासक मसकन्दर ने भारत पर आक्रमण ३२७ ई.
प.ू में मकया। वह भारत आकर कुछ राज्यों में मविय
प्राप्त करके वापस लौट रहा था, तब उसने तक्षमशला के
पास एक उद्यान में बहुत से नग्न िैन मुमनयों को
तपस्यारत देखा। उसने अपने एक दूत को भेिकर
मुमनरािों को बुलवाना र्ाहा लेमकन मुमनराि नहीं
आये। तब मसकन्दर स्वयं उस स्थान पर पहुाँर्ा और
मदगम्बर मुमनरािों के तप को देखकर बहुत प्रभामवत
हुआ। उनमें से एक कल्याण मुमन थे, मिनसे मसकन्दर ने यूनान में धमष प्रर्ार करने की प्राथषना की
और उसके बहुत आग्रह से कल्याण ममु न उसके साथ गए। नग्न रहना, भमू म शोधन कर र्लना,
हररतकाय का मवराधन न करना, मकसी का मनमन्त्रण स्वीकार न करना इत्यामद मिन मनयमों का
पालन मुमन कल्याण और उनके सभी मुमन गण करते थे, उनसे यूनानी बहुत प्रभामवत थे। मुमन
कल्याण ज्योमतर् शास्त्र में मनष्णात थे। उन्होंने बहुत—सी भमवष्यवामणयााँ की थीं और मसकन्दर
की मृत्यु को भी उन्होंने पहले से घोमर्त कर मदया था। इन मदगम्बर िैन श्रमणों की मशक्षा का
यनू ामनयों पर मवशेर् प्रभाव पड़ा। यनू ान के एथ ं ेस शहर में कल्याण ममु न का समामध स्थल बना है।
ग्यारह अंग एवं र्ौदह पवू ष के
एकदेश धारी

श्रुतज्ञान के एक देश धारक आर्ायों में क्रमश: नक्षत्र,


ियपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कंस क्रम से हुए |

४ आर्ारांग अंगधारक
श्रतु ज्ञान के एक देश धारक आर्ायों के बाद आर्ारांग
अंगधारक - सुभद्र, यशोधर, यशोबाहु, लोहायष का
उल्लेख है।

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आर्ायष अहषद्बली
आचार्य अर्यद्बली-इनका दसू रा नाम गप्तु िगिु भी था
र्र् पण्ड्ु रवर्यनपरु के प्तनवासी थे और अष्ााँग
मर्ाप्तनप्तमत्त के ज्ञाता संघ के प्तनग्रर्-अनग्रु र् करने में
समथय आचार्य थे। इनके संघ में उस समर् बडे
प्तवद्वान् और तपस्वी श्रमण थे। आचार्य अर्यद्बली
पााँच वर्षों के अंत में सौ र्ोजन में प्रवास करने वाले
श्रमणजनों को र्गु प्रप्ततक्रमण के प्तलए बल ु ाते थे। एक बार इन श्रमणों के आने पर उन्र्ोंने पछ ू ा
प्तक क्र्ा श्रमणजन आ गए तो आने वाले श्रमणों ने कर्ा प्तक र्म अपने-अपने संघ के साथ आ
गए। इस उत्तर से आचार्य मर्ाराज ने अनमु ान लगार्ा प्तक र्र् सब अपनी-अपनी पर्चान पृथक्
रूप से स्थाप्तपत करना चार्ते र्ैं। तब उन्र्ोंने जो श्रमण प्तजस प्रदेश से आर्े थे उन्र्ें उसी अनरू ु प
प्तकसी को नन्दी, वीर, अपराप्तजत, देव, सेन, भद्र, गणु र्र, गिु , प्तसंर्, चन्द्र आप्तद नामों से संघ
स्थाप्तपत प्तकए। आचार्य अर्यद्बली को मप्तु नसघं प्रवतयक कर्ा जाता र्ै। आचार्य र्रसेन जो उस
समर् प्तगरनार की कन्दराओ ं में प्तनवास करते थे, उनके द्वारा आचार्य अर्यद्बली के दो र्ोग्र् कुलीन
और प्तवद्वान् र्ुवा श्रमण अपने पास बुलाने का संदश े भेजा गर्ा था। इस संदश े के प्तमलने पर
उन्र्ोंने पष्ु पदन्त और भतू बली नामक अपने दो र्ोग्र्तम प्तशष्र्ों को प्तगरनार भेजा।
आर्ायष गुणधर स्वामी
आर्ायष गुणधर स्वामी| आपका समय काल ई.पू. पहली
शताब्दी मनधाषररत की गयी है| आपका 'कर्ाय पाहुड़' नाम से
रमर्त महाग्रथ
ं /मिनागम, िैन श्रावकों के द्वारा मसद्धांत ग्रथ

वत पूज्यता को प्राप्त है |

आर्ायष धरसेन स्वामी


मप्तु न पंगु व आचार्य र्रसेन सौराष्र के प्तगरनार पवयत की चन्द्रगर्ु ा नामक गफ ु ा में प्तनवास करते थे।
र्र् अष्ांग मर्ाप्तनप्तमत्त के पारगामी प्तवद्वान् थे। जब इन्र्ोंने जाना प्तक उनका काल समर् भी
अप्तर्क नर्ीं र्ै और जो ज्ञान उन्र्ें परम्परा से प्राि र्ै वर् आगे चलकर प्तवलिु र्ोता जाएगा। र्र्
प्तवचार कर उन्र्ोंने अपना ज्ञान र्ोग्र् प्तशष्र् को देकर उनके द्वारा प्तलप्तपबद्ध कराने का सुप्तवचार

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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प्तकर्ा। उन्र्ोंने एक ब्रह्मचारी के द्वारा
दप्तिण में प्रवास कर रर्े आचार्य अर्यद्बली
के दो र्ोग्र् श्रमणों को अपने पास बलु ाने
के प्तलए सदं श े भेजा। उनकी इच्छा को
समझकर आचार्यश्री ने दो र्ोग्र् श्रमण
पष्ु पदतं और भतू बली उनके पास भेज
प्तदए। दोनों ने आकर उनके चरणों में
प्तवनर्पवू यक नमन कर अपने आने की
सचू ना दी। आचार्य र्रसेन ने उन दोनों को
भलीभााँप्तत परख कर र्र् समझ प्तलर्ा प्तक
र्र् दोनों र्वु ा श्रमण उनकी कसौटी पर पणू यरूपेण खरे उतरे र्ैं। तब उन्र्ोंने उन्र्ें अपने समस्त ज्ञान
की प्तशिा दी और उस प्रािज्ञान को प्तलप्तपबद्ध करने की आज्ञा दी, प्तजससे र्र् प्तजनवाणी आगे
सदा-सदा के प्तलए जीवन्त रर्े। प्तजनवाणी का र्र् लेखन आचार्य र्रसेन के ज्ञान और उनकी
इच्छा प्तनदेशन से र्ुआ, इसप्तलए उन्र्ें श्रतु -शास्त्र का प्रणेता कर्ा जाता र्ै।
आर्ायष पष्ु पदतं और भतू बली
देश, कुल, िामत से मवशुद्ध, शब्द-अथष के
ग्रहण, धारण करने में समथष यह दोनों ही
श्रमण श्रेष्ठ आर्ायष अहषद्बली के मशष्य थे।
दमक्षण भारत के आध्र ं प्रदेश के बेणातट
नगर में युग प्रमतक्रमण के समय मगरनार से
आर्ायष धरसेन का संदेश प्राप्त होने पर यह
अपने गुरु की आज्ञा से मगरनार आर्ायष
धरसेन के पास आए। आर्ायषश्री ने इनकी
योग्यता से पण ू ष सतं ष्टु होकर इन्हें शभ
ु मतमथ,
शुभ नक्षत्र, शभ ु वार में कमष प्रकृमत प्राभृत
पढ़ाना आरंभ मकया। इसके बाद दोनों
श्रमणिनों ने गरुु आज्ञा से अंकलेश्वर (गि ु रात) में वर्ाषयोग मकया। वर्ाषयोग में इन दोनों ही
आर्ायों ने रागद्वेर्-मोह से रमहत हो मिनवाणी का प्रर्ार-प्रसार मकया और र्टधखण्डागम की रर्ना
की।
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ु दाई है.
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र्टधखण्डागम-
छ: भागों में मवभामित यह ग्रंथ (१) िीवस्थान (२) खुद्दाबन्ध (३) बंध
स्वाममत्व (४) वेदना (५) कमषणा के अमतररि आर्ायष भतू बमल ने
महाबंध नाम के छठवें खण्ड में प्रकृमतबंध, मस्थमतबंध, अनुभागबंध,
प्रदेश बंधरप र्ार प्रकार के बंध का मवस्तार से वणषन मकया है। इस
ग्रथ
ं के पूणष होने पर ज्येष्ठ शुक्ला पर्
ं मी को इसकी भमिपूवषक पूिा
अर्षना की गई। उसी समय से श्रुत पंर्मी पवष प्रर्मलत हुआ। इस
ग्रथं की महत्ता इसमलए भी है मक इसका सीधा सबं ध ं द्वादशांग वाणी
से है।
आर्ायष आयष मंक्षु
पहली-दूसरी शताब्दी (७३-१२३) अपवाइज्िमाण

आर्ायष नाग हस्ती


पहली-दूसरी शताब्दी ९३-१६२ पवाइज्िंत

आर्ायष कुन्दकुन्द स्वामी/ वट्टके र स्वामी


भारतीय िैन श्रमण परम्परा में ममु न कुन्दकुन्दार्ायष
का नाम भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद
श्रद्धापूवषक मलया िाता है। उन्होंने आध्यामत्मक
योगशमि का मवकास कर अध्यात्म मवद्या की
अमवमछन्न धारा को िन्म मदया, मिसकी मनष्ठा एवं
अनभ ु मू त आत्मानन्द की िनक थी। आत्म मवकास
की इस खोि ने िो अध्यात्म की आधारमशला है और
इसी के कारण भारतीय श्रमण परम्परा का यश लोक में मवश्रुत हुआ। आर्ायष कुन्दकुन्द को
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सखु दाई है.
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भगवान महावीर की आर्ायष परम्परा एक मवमशष्ट स्थान उनकी मर्न्तन धारा से प्राप्त है। मवशद्ध

रत्नत्रय के पालक, क्षमागुण से युि, कठोर साधक सभी प्रकार की कल्मर् भावनाओ ं से रमहत,
श्रमणकुलकमलमदवाकर आर्ायष कुन्दकुन्द को मंगलार्रण में भगवान महावीर तथा गौतम
गणधर के बाद मगं लं कुन्दकुन्दाद्यों के साथ उनके नाम को मगं लकारक माना िाता है। आर्ायषश्री
के मलए आगम ग्रंथों, मशलालेखों आमद में इतना अमधक मलखा गया है मिसमें उनकी महानता का
सहि अनमु ान हो िाता है।
आपका समय काल मवद्वानों ने पहली-दूसरी शताब्दी (१२७-१७२) मनमश्चत मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ मूलार्ार, प्रवर्नसार, समयसार, मनयमसार, पंर्ामस्तकाय, अष्ट
पाहुड, रयणसार, बारस अणवु ेक्खा, दस भमि एवं कुरल काव्य आमद|
आर्ायष समन्तभद्र स्वामी
क्षमत्रय कुल उत्पन्न रािपत्रु आर्ायष समन्तभद्र का
िन्म दमक्षण भारत के उरगपुर के रािपररवार में हुआ
था। उनके िन्म का नाम शामन्तवमाष था। यह अपने
समय के प्रमसद्ध तामवषक मवद्वान,ध कमव, वामग्मत्वामद
शमियों के स्वामी थे। िैनधमष में अटूट आस्था के
कारण िैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर इन्होंने श्रमण मागष
र्ुना। तेरह प्रकार के र्ाररत्र, अट्ठाईस मूलगुणों और
उत्तरगुणों का पररपालन करने वाले यह महान
तपस्वी साधक थे। आपका समय काल मवद्वानों ने दूसरी शताब्दी (१२०-१८३) मनमश्चत मकया गया
है|
कमोदय वश उन्हें भस्मकव्यामध का रोग हो गया, रोग की तीव्रता से बढ़ने पर उन्होंने अपने गुरु से
समामधमरण की आज्ञा र्ाही। मनममत्तज्ञानी गुरु उनकी र्याष से पररमर्त थे, उन्होंने उन्हें दीक्षा छे दन
कर रोग उपर्ार की आज्ञा दी। रोग के काल में आप पुिारी के वेशधर मशव ममं दर में रुखे और वहााँ
भोग में आयी हुयी मवशाल खाद्य साममग्री खाकर अपना िीवन यापन करने लगे, मकन्तु इस पर
भी आपने अपनी आस्था को सच्र्े देव-शास्त्र-गुरु से र्लायमान नहीं मकया, िब रािा को इस
बात का संदेह हुआ तो उसने आपसे मशव मपण्डी को नमस्कार करने को कहा, आपने स्वयंभूस्तोत्र
की रर्ना कर ज्योंही नमस्कार मकया, त्योंही मशव मपण्डी फट गयी एवं उसमें से 8 वें िैन तीथंकर
र्ंदाप्रभु की प्रमतमा प्रगट हो गयी| काल दोर् से वहााँ पुनः अन्य संप्रदाय का अमधकार हो र्ूका है,
वतषमान में यह िगह 'फटे महादेव' के नाम से िानी िाती है| यह सम्पण ू ष कथन सभी िैन धमाषनयु ाई
भलीभांमत िानते हैं।

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हम यहााँ उनकी रर्नाओ ं का सक्ष ं ेप में वणषन कर रहे हैं। उनकी तत्वाथष सत्रू की टीका
ग्रंथहस्तीमहाभाष्य अनुपलब्ध रर्ना है, इसके बारे में ज्ञात हुआ है मक यह आमस्रया के मवयाना के
मकसी संग्रहालय में सुरमक्षत हैं। इसके अमतररि बृहद स्वयंभूस्तोत्र, स्तुमत मवद्या, देवागम
(आत्ममीमांसा), यक्ु त्यनश
ु ासन, मिनशतक, रत्नकरण्ड श्रावकार्ार, िीव मसमद्ध, तत्वानश ु ासन,
प्रकृत व्याकरण, प्रमाण पदाथष तथा कमषप्राभृत टीका आमद महानतम रर्नाएं हैं।
आर्ायष यमतवृर्भ
आर्ायष आयषमंक्षु व आर्ायष नागहमस्त दोनों ही समकालीन और आर्ायष
परम्परा से प्राप्त कसायपाहुड़ के ज्ञाता थे। आर्ायष यमतवर्ृ भ ने दोनों
गुरुओ ं के समीप गुणधरार्ायष के कसायपाहुड़ का अध्ययन मकया
और उनके रहस्यों को िाना। उन सूत्र गाथाओ ं के आधार पर आर्ायष
यमतवृर्भ ने छः हिार र्ूमणषसत्रू ों की रर्ना की। आर्ायष वीरसेन ने उन्हें
वृमत्तसूत्र का कताष बताया है। इनकी दूसरी रर्ना मतलोयपण्णमत्त है।
आर्ायष कामतषकेय स्वामी
आपका समय काल मवद्वानों ने दूसरी शताब्दी ( मध्यपाद )
मनमश्चत मकया गया है|

आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ कामतषकेयानुप्रेक्षा है|

आर्ायष मसंहनमन्द
आपका समय काल मवद्वानों ने दूसरी शताब्दी ( मध्यपाद )
मनमश्चत मकया गया है|
आप रािनीमत एवं आगम शास्त्र के मवशेर् ज्ञाता थे|
अमवमछन्न धारा को िन्म मदया, मिसकी मनष्ठा एवं अनुभूमत
आत्मानन्द की िनक थी। आत्म मवकास की इस खोि ने िो
अध्यात्म की आधारमशला है और इसी के कारण भारतीय श्रमण
परम्परा का यश लोक में मवश्रुत हुआ। आर्ायष कुन्दकुन्द को भगवान महावीर की आर्ायष परम्परा
एक मवमशष्ट स्थान उनकी मर्न्तन धारा से प्राप्त है। मवशद्ध
ु रत्नत्रय के पालक, क्षमागण
ु से यि
ु ,
कठोर साधक सभी प्रकार की कल्मर् भावनाओ ं से रमहत, श्रमणकुलकमलमदवाकर आर्ायष
कुन्दकुन्द को मंगलार्रण में भगवान महावीर तथा गौतम गणधर के बाद मंगलं कुन्दकुन्दाद्यों के

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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साथ उनके नाम को मगं लकारक माना िाता है। आर्ायषश्री के मलए आगम ग्रथ ं ों, मशलालेखों
आमद में इतना अमधक मलखा गया है मिसमें उनकी महानता का सहि अनुमान हो िाता है।
आपका समय काल मवद्वानों ने पहली-दूसरी शताब्दी (१२७-१७२) मनमश्चत मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमख
ु ग्रथ
ं मल
ू ार्ार, प्रवर्नसार, समयसार, मनयमसार, पर्
ं ामस्तकाय, अष्ट
पाहुड, रयणसार, बारस अणुवेक्खा, दस भमि एवं कुरल काव्य आमद|
आर्ायष मशवायष स्वामी
आपका समय काल मवद्वानों ने तीसरी शताब्दी ( प्रथम र्रण
) मनमश्चत मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ भगवती आराधना (
मूलाराधना ) है| िो समाधी का वणषन करने वाला एक अनूठा
ग्रन्थ है|
आर्ायष उमास्वामी (गृद्धमपच्छार्ायष)
मूलसंघ की पट्टावली में आर्ायष उमास्वामी नमन्दसंघ के पट्ट पर
करीब ४० वर्ष आसीन रहे। उस समय गृद्धमपच्छार्ायष के समान
समस्त पदाथों को िानने वाला दूसरा कोई मवद्वानध नहीं था।
श्रवणबेलगोल, नगरताल्लुक आमद के अनेक मशलालेखों में
गृद्धामपच्छार्ायष उमास्वामी का उल्लेख ममलता है। बाद के अनेक
आर्ायों ने उनका अपनी रर्नाओ ं में श्रद्धापूवषक उल्लेख मकया है। आपका समय काल मवद्वानों
ने मद्वतीय-तृतीय शताब्दी मनमश्चत मकया गया है|
उमास्वामी की रर्नाओ ं में उनकी एक ही रर्ना तत्वाथषसूत्र अपरनाम मोक्षशास्त्र एक कालियी
रर्ना है। िैनागम के र्ार अनयु ोगों में से करणानयु ोग, र्रणानयु ोग, द्रव्यानयु ोग का सम्पण ू ष सार
उसमें मनमहत है। गूढ़ अथों को संस्कृत के सूत्रों में मलखे गए इस ग्रंथ के महत्व का अनुमान इस पर
मलखी गई टीकाओ ं और टीका पर पुन: की गई टीकाओ ं से सहि में हो िाता है। दस अध्यायों में
मवभामित इस ग्रथ ं में क्रमश: ३३, ५३, ३९, ४२, ४२, २७, ३९, २६, ४७, ९ कुल ३५७ सूत्र हैं। इन
सूत्रों के माध्यम से मोक्ष प्रामप्त का उपाय से प्रारंभ कर ज्ञान, ज्ञान के भेद, िीव के भाव, भाव के
भेद, िीव की उत्पमत्त के भेद, उनके उत्पन्न होने के स्थान, अिीव तत्व का कथन, उसके भेद,
अशुभ आश्रव, शुभ आश्रव, बंध, मनिषरा और अंमतम अध्याय में मोक्ष तत्व का कथन मवस्तार से
समामहत है।
तत्त्वाथष-सत्रू पर उपलब्ध – अनपु लब्ध टीकाएाँ - गन्ध हस्ती महाभाष्य (आर्ायष समन्तभद्र
अनुपलब्ध) सवाषथषमसमद्ध (आर्ायष पूज्यपाद) तत्त्वाथष रािवमतषक (आर्ायष अकलंकदेव)

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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तत्त्वाथषश्लोकवामतषकालकं ार (आर्ायष मवद्यानमं द) तत्वाथषवमृ त्तभास्करी टीका (आर्ायष
भास्कारनंमद) तत्त्वाथषवमृ त्त (आर्ायष श्रुतसागर प्रथम), तत्वाथषसुखबोधनी टीका (आर्ायष
अमृतर्न्द्र) अथष प्रकामशका (पं. सदासुखदास) पं. मामणकर्ंद्र िी कौन्देय की महन्दी टीका। इन
टीकाओ ं से ग्रथं का महत्व सहि समझ में आ िाता है।
आर्ायष उच्र्ारण
आपका समय काल मवद्वानों ने मद्वतीय-तीसरी शताब्दी मनमश्चत
मकया गया है|
आर्ायष यमतवृर्भ स्वामी के र्ूमणषसूत्रों पर व्याख्यान कर आपने
यश का अिषन मकया है|

आर्ायष शामकुण्ड
आपका समय काल मवद्वानों ने तीसरी शताब्दी मनमश्चत मकया
गया है|

आर्ायष मवमलसरू र
आपका समय काल मवद्वानों ने र्ौथी शताब्दी ( पवू ष पाद )
मनमश्चत मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ पउमर्ररयं एवं हररवंशर्ररयं हैं|

आर्ायष श्रीदत्त
आपका समय काल मवद्वानों ने र्ौथी शताब्दी ( मध्य पाद )
मनमश्चत मकया गया है|

आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ िल्पमनणषय है|

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आर्ायष यशोभद्र
आपका समय काल मवद्वानों ने पांर्वीं शताब्दी मनमश्चत मकया
गया है|
आप उच्र् कोमट के मवद्वान थे|

आर्ायष मर्रंतन
आपका समय काल मवद्वानों ने पांर्वीं-छटवीं शताब्दी मनमश्चत
मकया गया है|
आप व्याख्यानार्ायष के रप में अपना यशस्वी साधना का काल
व्यतीत मकया था|

आर्ायष व्पदेव
आपका समय काल मवद्वानों ने पांर्वीं-छटवीं शताब्दी मनमश्चत
मकया गया है|
आप मसद्धांत के ममषज्ञ थे|

आर्ायष मसद्धसेन
इनकी गणना दशषन प्रभावक आर्ायों में की िाती है। यह अपने
समय के मवमशष्ट मवद्वानध वादी और कमव थे, तकष शास्त्र में मनपुण और
उसके ज्ञाता थे। पवू षवती आर्ायष मवद्यानन्द ने इन्हें श्रेष्ठवामदयों का
मविेता और िल्पमनणषय ग्रंथ का कताष बताया है। इनका उल्लेख
आर्ायष पूज्यपाद (देवनन्दी) ने अपने िैनेन्द्र व्याकरण में मकया है। आपका समय काल मवद्वानों ने
छटवीं शताब्दी (५६८) मनमश्चत मकया गया है | आपके द्वारा रमर्त प्रमख ु ग्रथं सन्ममतसत्रू एवं
कल्याणममन्दर है|
आर्ायष वज्रनमन्द
आपका समय काल मवद्वानों ने छठवीं शताब्दी ( पूवष पाद ) मनमश्चत
मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमुख रर्ना नवस्तोत्र है|

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आर्ायष देवनंमद (पूज्यपाद)
भारतीय िैन परम्परा में िो लब्ध प्रमतष्ठ ग्रंथकार हुए हैं। उनमें
आर्ायष पज्ू यपाद देवनमं द का नाम मवशेर् तौर पर
उल्लेखनीय है। आर्ायष समन्तभद्र तथा आर्ायष मसद्धसेन
के बाद आर्ायष पूज्यपाद स्वामी को ही यह महत्व प्राप्त है।
सामहत्यिगत के प्रकाशमान सूयष आर्ायष देवनमन्द अपने
समय के महातपस्वी श्रमण रत्न थे। इनका दीक्षानाम
देवनमं द था। अपनी बमु द्ध प्रखरता से यह मिनेन्द्र बमु द्ध कहलाए और देवों द्वारा इनकी र्रण पि ू ा से
यह पूज्यपाद नाम से िगत प्रमसद्ध हुए। ऐसा कथन श्रवणबेलगोल के मशलालेख में अंमकत है।
आर्ायष पूज्यपाद की रर्नाए-ं इनकी प्रमुख रर्नाओ ं में सवाषथषमसमद्ध, समामधतंत्र, इष्टोपदेश,
दशभमि, िैनेन्द्रव्याकरण, वैद्यकशास्त्र, छन्दग्रथ ं , शान्त्यष्टक, मसद्धमप्रय स्तोत्र, सारसग्रं ह और
िैनामभर्ेक आमद हैं।
िीवन घटनाओ ं में प्रमुख हैं- कमोदय के कारण आपकी नयन ज्योमत का र्ला िाना तथा
शान्त्यष्टक के मनमाषण और पाठ से पुन: नयन ज्योमत का आना, देवताओ ं के द्वारा र्रणों का पूिा
िाना, और्मधऋमद्ध की उपलमब्ध, पादस्पृष्ट िल से लोहे का स्वणष में बदल िाना, ऐसी अनेक
घटनाओ ं का कथन इनके मवर्य में ग्रथ ं ों से प्राप्त होता है।
शामन्त भमि ( शान्त्यष्टक )- आपके द्वारा रमर्त शांमत भमि मवशेर् रप से प्रभावशाली रही है,
आपके द्वारा रमर्त इस भमि के माध्यम से अनेकों श्रद्धावान िीवों के असाध्य रोग शममत हुये हैं|
२१ वीं सदी के महान आर्ायष भगवन, भवमलंगीं संत श्री मवमशष सागर िी महामुमनराि को आपकी
यह भमि मसद्ध क्षेत्र आहार िी में श्री शांमतनाथ भगवान के पादमूल में मसद्ध हुयी थी, मिसके
प्रभाव से उन्होंने एक ब्रह्मर्ाररणी दीदी को मनरोगी मकया था|
आर्ायष िोइदं ु
आपका समय काल मवद्वानों ने छठवीं शताब्दी ( उत्तराद्धष )
मनमश्चत मकया गया है|
आपके द्वारा रमर्त प्रमुख ग्रंथ परमात्म प्रकाश,
श्रावकार्ार, योगसार, आध्यात्म सदं ोह, सभ ु ामर्त तत्रं ,
तत्त्वाथष टीका आमद हैं|

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आर्ायष पात्रके सरी
अमहच्छत्र मनवासी यह एक ब्राह्मण मवद्वानध थे। वेदांत में मनपुण वहााँ
के रािा के रािकाल में सहयोगी थे। कभी-कभी कौतहू लवश
पाश्र्वनाथ मंमदर में भगवान की प्रशान्तमुद्रा का दशषन करने िाते
रहते थे। एक बार र्ाररत्रभूर्ण नामक मुमनराि को मंमदर में देवागम
स्तोत्र का पाठ करते सुना। स्तोत्र से प्रभामवत हो मुमनराि से पुन:
पाठ करने को कहा और उसे सुनकर कठस्थ याद कर मलया। घर आकर उनके अथों को समझकर
िीवामदक पदाथों का िो स्वरप उसमें वमणषत था वह उन्हें सत्य लगा। वस्तस्ु वरप समझने पर
संसार से उदासीनता बढ़ गई और मदगम्बर मुद्रा धारण कर वीतराग श्रमण बन गए। इनकी रर्नाओ ं
में ‘मत्रलक्षणक दशषन’ तथा ‘मिनेन्द्र गुण संस्तुमत’ अपर नाम मात्र के सरी स्तोत्र है। आपका समय
काल मवद्वानों ने छठवीं-सातवीं शताब्दी मनमश्चत मकया गया है |
आर्ायष ऋमर्पुत्र
आपका समय काल मवद्वानों ने छठवीं-सातवीं शताब्दी मनमश्चत
मकया गया है|
आपने मनममत्त शास्त्र की रर्ना की|

आर्ायष मानतुंग स्वामी


सातवीं सदी के यह महाप्रभावी आर्ायष थे। भिामर स्तोत्र
सस्ं कृत के बसतं मतलका छंद में ४८ काव्यों की इनकी कालियी
रर्ना है। प्राकृत भार्ा में भयहर स्तोत्र २९ पद्यों में मलखी गई
रर्ना है। इनको मदगम्बर व श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्रदाओ ं में समान
मान्यता प्राप्त है।
आर्ायष शामन्तर्ेण
आपका समय काल मवद्वानों ने छठवीं-सातवीं
शताब्दी मनमश्चत मकया गया है|
आप श्रेष्ठ कमव एवं दाशषमनक के रप में प्रमसद्ध
हुये|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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आर्ायष अकलंक देव
मान्यखेट के रािा शुभतंग के मंत्री पुरुर्ोत्तम के
पत्रु अकलक ं व मनकलक ं िैन िगत में ऐसे नाम
हैं मिन्हें कभी भुलाया नहीं िा सकता। भारत भू
पर उस कल में बौद्ध धमष रािधमष के रप में
स्थामपत हो र्ुका था। बौद्रधध सघं में रहकर इन
दोनों भाईयों ने बौद्ध धमष के अध्ययन का मवर्ार
मकया और अपना धमष मछपाकर बौद्ध मठ में
िाकर मवद्याध्ययन करने लगे। वहााँ घमटत घटना
और मनकलंक का बमलदान आि भी श्रद्धा से
स्मरण मकया िाता है तथा सदा स्मरण मकया
िाता रहेगा। अकलंक देव ने मदगम्बर दीक्षा ग्रहण कर मिनशासन की प्रभावना की। बौद्ध मवद्वानों
से अनेक बार उनके शास्त्राथष हुए। कमलंग देश के रत्नसंर्यपुर के शास्त्राथष की र्र्ाष अनेक ग्रंथों में
वमणषत है। अनेक मशलालेखों तथा ग्रन्थोल्लेखों में अकलंक देव का वणषन ममलता है। मकसी मवद्वान
में उनसे शास्त्राथष की क्षमता उस काल में नहीं थी। उस काल में उनके समान वादीश्वर और वाग्मी
मवद्वान दूसरा नहीं था। पवू ाषर्ायों की मकतनी ही रर्नाओ ं की टीका उनके द्वारा दी गई है। उनके
ग्रंथों में प्रमुख हैं। (१) तत्वाथाषवामतषक सभाष्य-यह तत्वाथषसूत्र पर वामतषक शैली पर मलखा गया
प्रथम ग्रंथ (२) अष्टशती-आर्ायष समन्तभद्र कृत आप्तामीमांसा (देवागम स्तोत्र) की टीका (३)
लघीयस्त्रयसमववमृ त्त-प्रमाण प्रवेश, नय प्रवेश, प्रवर्न प्रवेश, तीन प्रकरणों पर मलखा गया ग्रंथ है
(४) न्याय मवमनश्चय सवमृ त्त (५) मसमद्ध मवमनश्चय (६) प्रमाण संग्रह स्वोपज्ञ। न्याय, दशषन, मसद्धान्त,
प्रमाण, नय आमद मवर्यों पर मलखी गई इनकी मवद्वत्ता प्रमामणत होती है। इनका काल सातवीं
सदी ( 620-680) प्रारंभ माना गया है।
आर्ायष रमवर्ेण
पदमपरु ाण (रामर्न्द्र-सीता कथानक) के रर्नाकार
आर्ायष रमवर्ेण सेनसंघ के मवद्वान श्रमण थे। मयाषदा
परुु र्ोत्तम श्रीराम का र्ररत्र इस रर्ना में बहुत सन्ु दर ढगं
से प्रस्तुत मकया गया है। इस ग्रंथ में १२३ पवष व श्लोक
संख्या बीस हिार है।
आपका समय काल मवद्वानों ने सातवीं शताब्दी (६७७)
मनमश्चत मकया गया है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष कुमारसेन गुरु
आपका समय काल मवद्वानों ने सातवीं शताब्दी (६९६) मनमश्चत
मकया गया है|
आपको काष्ठा संघ का संस्थापक माना गया है|

आर्ायष बृहत प्रभार्न्द्र


आपका समय काल मवद्वानों ने सातवीं शताब्दी (उत्तराद्धष) मनमश्चत
मकया गया है|

आर्ायष मसंहनमन्द
आपका समय काल मवद्वानों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी मनमश्चत
मकया है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना वरांग र्ररत्र है|

आर्ायष समु मतदेव


आपका समय काल मवद्वानों ने सातवीं-आठवीं शताब्दी मनमश्चत
मकया है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना सन्ममत तकष टीका एवं सुममत सप्तक है|

आर्ायष वादीभमसंह
इन्होंने अपनी रर्ना गद्य मर्त्ताममण में अपने गुरु पुष्पसेन की र्र्ाष
वन्दना करते हुए मलखा है मक उन्होंने मुझ िैसे मूढ़ बुमद्ध को एक श्रेष्ठ
मुमन बना मदया। इनकी रर्ना क्षत्र र्ूड़ाममण उच्र्कोमट का
नीमतकाव्य है। स्याद्वाद मसमद्ध और गद्य मर्न्ताममण इनकी अन्य दो
कृमतयााँ और हैं।
आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|
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आर्ायष मवद्यानमन्द
आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख ु ग्रथ
ं रर्ना आप्त परीक्षा, स्वोपज्ञवरमत्त, प्रमाण परीक्षा,
पत्र-परीक्षा, सत्यानुशासन परीक्षा, श्रीपुर पाश्वषनाथ स्त्रोत, मवद्यानंद
महोदय आमद हैं|
आर्ायष कुमार नमन्द
आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना 'वाद न्याय मवर्क्षण' है|

आर्ायष महासेन ' मद्वतीय '


आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना सुलोर्ना कथा रही|
आर्ायष श्रीधर
आपका समय काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना गमणतसार, ज्योमतज्ञाषनमवमध, िातकमतलक,
बीि गमणत आमद हैं|

आर्ायष मिनसेन 'प्रथम'


हररवंशपुराण के कताष आर्ायष मिनसेन सेन संघ (अपर नाम पुन्नाट संघ)
के महाप्रभावी आर्ायष थे। अपनी रर्ना हररवंश पुराण में हररवंश की
एक शाखा यादव कुल और उसमें िन्मे दो शलाका पुरुर्ों का र्ररत्र
वमणषत है। २२वें तीथंकर भगवान नेममनाथ तथा नारायण श्री कृष्ण का
उन्होंने सन्ु दर कथन मकया है। इन्होंने अपनी रर्ना में पवू षवती अनेक आर्ायों और मवद्वानों को
स्मरण मकया है। इनमें प्रमुख हैं-आर्ायष समन्तभद्र, मसद्धसेन, देवनमन्द, वङधकासूरर, महासेन,
रमवर्ेण, ियमसंह नमन्द, शामन्तर्ेण, कुमारसेन, ियसेन आमद प्रमुख हैं। इसी ग्रंथ के अंमतम ६६वें
सगष में, मतलोयपण्णमत्त, धवला ियधवला की श्रतु ावतार परम्परा भी वमणषत है। आपका समय
काल आठवीं-नवमीं शताब्दी रहा है|

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आर्ायष महावीर
गमणतसार के रमर्यता महावीरार्ायष मवद्वानों में प्रथम गमणतज्ञ थे। गमणत
के मलए उनका कथन है मक लोक में मितने भी लौमकक, वैमदक और
साममयक कायष हैं उन सबमें गमणत सख् ं यान का उपयोग है, कामशास्त्र,
अथषशास्त्र, गन्धवषशास्त्र, नाटधयशास्त्र, पाकशास्त्र, आयुवेमदकशास्त्र,
वास्तुमवद्या छंद, तकष व्याकरण, आमद सभी में गमणत उपयोगी है। इस
ग्रंथ में एक, दश, शत सहस्र से लेकर क्षोभ, महाक्षोभ तक की संख्या का उल्लेख है। अंकों के मलए
शब्दों का प्रयोग मकया है िैसे तीन के मलए रतन, ६ के मलए द्रव्य, सात के मलए तत्व। लघत्त ु म
समापवतषक के मवर्य में महावीरार्ायष मवद्वानों में प्रथम मवद्वान थे। रेखा गमणत, बीि गमणत और
पाटी गमणत की दृमष्ट से यह ग्रंथ महत्वपूणष है। डॉ. अवधेश नारायण मसंह ने इसे ब्रह्मगुप्त,
श्रीधरार्ायष, भास्कर व अन्य महन्दू गमणतज्ञों के ग्रथ
ं ों से बहुत सी बातों में उनसे पण
ू षत: आगे बताया
गया है। आपका समय काल नवमीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष वीरसेन
आयषनदी के मशष्य आर्ायष वीरसेन मसद्धान्त के तलस्पशी मवद्वान
पामण्डत्य के धनी, गमणत, ज्योमतर्, न्याय, व्याकरण और प्रमाण
शास्त्रों में मनपुण मसद्धान्त एवं छन्द के अभूतपूवष ज्ञाता थे। अनेक
आर्ायों ने उनकी प्रमतमा की प्रशमस्त मलखी थी। र्टधखण्डागम
पर मलखी उनकी टीकाओें धवला, ियधवला उनके कृमतत्व और
ज्ञान का प्रमाण हैं। इनका काल नवमीं सदी का माना िाता है।
आर्ायष गुणभद्र स्वामी
आर्ायष मिनसेन के गुरुभाई दशरथ गुरु के मशष्य तथा मसद्धान्त
शास्त्र के पारगामी मवद्वान थे। आर्ायष मिनसेन के स्वगषवास के
बाद उनके अपण ू ष आमदपरु ाण को १६२० श्लोकों की रर्ना कर उसे
पूणष मकया। उत्तरपुराण नामक इस ग्रंथ में भगवान अमितनाथ से
लेकर भगवान महावीर तक २३ तीथंकरों, ११ र्क्रवती, नव नारायण, नव प्रमतनारायण, नव
बलभद्र समहत िीवधंर स्वामी आमद मवमशष्ट महापुरुर्ों के कथानक मदए हैं। मद्वतीय रर्ना
आत्मानुशासन में २६६ श्लोकों में आत्मा के अनुशासन का सुन्दर मववेर्न है। मिनदत्त र्ाररत्र भी
इनकी ही रर्ना बताई िाती है। आपका समय काल नवमीं शताब्दी रहा है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष मिनसेन (मद्वतीय)
धवला ियधवला के कृमतकार आर्ायष वीरसेन के मशष्य आर्ायष
मिनसेन मवशाल बमु द्ध के धारक कमव, मवद्वान और वाग्मी थे।
आर्ायष गुणभद्र ने इनके प्रमत मलखा है मक मिस प्रकार महमालय से
गंगा, सवषज्ञ के श्रीमुख से मदव्यध्वमन और पूवष मदशा से भास्कर उदय
होता है, उसी प्रकार वीरसेन से मिनसेन उदय को प्राप्त हुए। इनकी रर्नाएाँ ‘पाश्र्वाभ्युदयकाव्य’
अमद्वतीय समस्यापूमतषक काव्य है। ६३ शलाका पुरुर्ों पर मलमखत ‘आमदपुराण’ मिसे महापुराण
के आधार पर मलखना प्रारंभ मकया था वह इनके स्वगषवास के कारण अधरू ा रह गया, मिसे इनके
मशष्य गुणभद्र स्वामी ने पूणष मकया। आमदपुराण उच्र्कोमट का संस्कृत महाकाव्य है। इनके गुरु
द्वारा कर्ाय प्राभृत के प्रथमस्कंध की ियधवला टीका िो बीस हिार श्लोक प्रमाण थी उसके शेर्
भाग पर र्ालीस हिार श्लोक प्रमाण टीका मलखकर उसे पण ू ष मकया। आर्ायष मिनसेन का काल
नवमी सदी का माना िाता है।
उग्रामदत्यार्ायष
श्री नन्दीमुमन के मशष्य उग्रामदत्यार्ायष महानतमध मवद्वानध मुमनराि थे।
इनकी २५ अमधकार में पूणष पााँर् हिार श्लोक प्रमाण वैद्यक कृमत
‘कल्याणकारक’ वैद्यक की महानतम कृमत है।
आर्ायष अभयनमन्द
व्याकरण शास्त्र के मनष्णात मवद्वान मिनेन्द्र व्याकरण की टीका
‘महावृमत्त’ के रर्नाकार हैं। यह मिनेन्द्र व्याकरण में ही नहीं पामणनीय
व्याकरण और पंतिमल महाभाष्य में भी अप्रत्याहत गमत रखते थे।

आर्ायष देवसेन
आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९३३-९५५) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना दशषनसार, भावसंग्रह, आलापपद्धमत,
लघुनयर्क्र, आराधनासार, तत्त्वसार आमद हैं|
आर्ायष कनकनमन्द
आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९३९) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना मवस्तरसत्त्व मत्रभंगी है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
आर्ायष हररर्ेण
आपका समय काल दसवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है |
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना बहृ त कथाकोर् है|

आर्ायष वीरनमन्द मसद्धान्त र्क्रवती


आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९५०-९९९) रहा है|
आर्ायष वीरनमन्द आर्ायष अभयनमन्द के प्रथम मशष्य थे। आपकी
प्रमुख ग्रंथ रर्ना र्ंद्र प्रभर्ररत है, १८ सगों में मवभि यह रर्ना
१६९१ श्लोक में पूणष हुई है।
आर्ायष सोमदेव
लोक प्रमसद्ध देवसंघ की परम्परा में नेममदेवार्ायष के मशष्य
आर्ायष सोमदेव एक महान नीमतज्ञ आर्ायष थे। रािा यशोधर के
र्ररत्र पर मलखा महाकाव्य ‘यशमस्तकार्म्पू’ श्रावकधमष
पररपालन की एक महान रर्ना है। ‘नीमतवाक्यामृत’ रािनीमत पर
मलखा एक महत्वपूणष ग्रंथ है। यह संस्कृत सामहत्य का एक अनुपम
रत्न है। इनकी तीसरी रर्ना ‘अध्यात्मतरंमगणी’ या ध्यानमवमध
है। आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९५९) रहा है |
आर्ायष माधवर्ंद्र त्रैमवध
आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९७५-१०००) रहा है|
मत्रलोकसार टीका आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना है|

आर्ायष महासेन
प्रद्यम्ु न र्ररत्र के रर्मयता तथा मसंधुराि के महामात्य पपषट द्वारा
पमू ित आर्ायष महासेन आर्ायष सेनसरू र के मशष्य थे।
मसद्धान्तज्ञ, वादी, वाग्मी और कमव महासेन की यह रर्ना एक
सन्ु दर काव्य ग्रथ ं है। आपका समय काल दसवीं शताब्दी रहा है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष अनन्तवीयष
मसमद्ध मवमनश्चय टीका के कताष आर्ायष अनन्तवीयष अकलंक
वाङ्मय के महानतम मवद्वान थे। इसके साथ प्रमाण सग्रं ह भाष्य
एवं प्रमाण संग्रहालंकार भी आपकी रर्नायें हैं| आपका समय
काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९७५-१०२५) रहा है|

आर्ायष मवद्यानन्द
अनेकों ग्रंथों के टीकाकार व स्वग्रन्धों के रर्नाकार आर्ायष
मवद्यानंद नवमी सदी के महानतम आर्ायष थे। आर्ायष उमास्वामी
कृत ‘तत्वाथषसत्रू ’ आर्ायष समतं भद्र कृत ‘देवागम’ तथा
युक्त्यानुशासन पर इनकी टीकाएं तत्वाथष श्लोकवामतषक
‘अष्टसहस्री’ व युक्त्यानुशासनलंकार के बाद इनकी मौमलक रर्नाएाँ ‘मवद्यानन्दमहोदय’
(अनुपलब्ध) ‘आप्तपरीक्षा’ प्रमाण परीक्षा’ ‘पत्र परीक्षा’ सत्य शासन परीक्षा, श्री पाश्वषनाथ स्तोत्र
हैं।
आर्ायष नेमीर्न्द्र मसद्धान्त र्क्रवती
गगं वंशीय रािा रार्मल्ल के प्रधानमंत्री और सेनापमत
र्ामण्ु डराय के गरुु मवश्व प्रमसद्ध गोम्मटे श्वर (भगवान
बाहुबली) की मूमतष मनमाषण के प्रेरणाश्रोत आर्ायष नेमीर्न्द
महान मसद्धामन्तक मवर्य के ज्ञाता आर्ायष थे। इनकी मवद्वता
उनकी कृमतयों गोम्मटसार (िीवकाण्ड और कमषकाण्ड)
लमब्धसार, क्षपणासार व मत्रलोकसार से पररलमक्षत होती है।
उनके गोम्मटसार ग्रथ ं पर ६ टीकाएं बाद में आर्ायों और
मवद्वानों ने की हैं।
आपका समय काल दसवीं शताब्दी (९८१) रहा है|
आर्ायष अममतगमत (प्रथम)
दशवीं सदी के आर्ायों में योगसार के रर्नाकार आर्ायष
अममतगमत अमद्वतीय मवद्वान श्रमणराि थे। िीव, अिीव, आस्रव,
बंध, संवर, मोक्ष के साथ-साथ र्ाररत्र और र्ूमलकाधार के
मववेर्न के साथ इनकी रर्ना योगसार एक बोधगम्य ग्रथ
ं है।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष अममतगमत (मद्वतीय)
माथुर संघ आर्ायष नेममर्ेण के प्रमशष्य और माधवसेन के
मशष्य अममतगमत मद्वतीय दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९९३-
१०१६) के मवद्वानध एवं महानतम आर्ायष थे। इनकी रर्नाओ ं
से इनके ज्ञान का अनुमान सहि हो िाता है। सुभामर्तरत्न
सन्दोह, धमष परीक्षा, उपासकार्ार (अममतगमत श्रावकार्ार)
पंर् संग्रह, आराधना, तत्त्व भावना, रपांतर,
मलू ाराधना तथा भावना द्वामत्रंशमतका इनकी रर्नाएाँ हैं।
आर्ायष अमतृ र्न्द्र
भगवान महावीर की आर्ायष परम्परा में दशवीं सदी के
उत्तराधष के आर्ायों में आर्ायष अमृतर्न्द्र का नाम सूयष
मकरणों के समान सदैव प्रकाशवान रहेगा। आर्ायष कुन्दकुन्द
की तीन महानतम कृमतयों ‘समयसार’ ‘प्रवर्नसार’ व
पंर्ामस्तकाय के टीकाकार आर्ायष अमृतर्न्द्र ‘पुरुर्ाथष
मसद्धयुपाय’ (मिनवर्न रहस्यकोर्) व तत्त्वाथषसार के
रर्नाकार हैं।
आर्ायष इन्द्रनन्दी (प्रथम)
दीक्षा गरुु ब्पनन्दी, मत्रं शास्त्र गरुु गण
ु नन्दी और मसद्धान्त
शास्त्र के गुरु अभयनन्दी के मशष्य इन्द्रनन्दी
‘ज्वामलनीकल्प’ मंत्र शास्त्र के रर्नाकार हैं।
इनका समय दसवीं सदी का अंमतम र्रण या ग्यारहवीं सदी
के पूवाषधष का अनुमामनत है।

आर्ायष इन्द्रनमन्द (मद्वतीय)


आपका समय काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
छे द मपंड आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष पद्मनमन्द (मद्वतीय):-
आपका समय काल दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी (९७७-१०४३) रहा है|
पद्मनमन्द पंर्मवशंमतका आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना है|

आर्ायष अनन्तकीमतष
लघु सवषज्ञमसमद्ध तथा वृहत्सवषज्ञ मसमद्ध ग्रन्थों के रर्नाकार आर्ायष
अनन्तकीमतष की गरुु परम्परा का उल्लेख प्राप्त नहीं है मकन्तु बाद में
आर्ायों ने उनका श्रद्धा से उल्लेख मकया है।

आर्ायष मामणक्यनन्दी
िैन न्याय के आद्यसूत्र ग्रंथ ‘परीक्षा-मुख’ के रर्नाकार आर्ायष
मामणक्यनन्दी महाराि भोि के समकालीन एवं िैन न्याय के प्रकाण्ड
मवद्वान आर्ायष थे। इस रर्ना से पूवष सांख्य आमदक अन्य दाशषमनकों की
रर्नाएं तो थीं मकन्तु िैनदशषन में न्याय मवर्यक कोई रर्ना नहीं थी। इस
ग्रंथ के महत्व का अनुमान बाद में हुई इसकी टीका ‘प्रमेय कमल
मातषण्ड’ तथा ‘प्रमेय रत्नमाला’ से सहि हो िाता है। आर्ायष मामणक्यनन्दी के मशष्य ‘नयनन्दी’
सुंदसण र्ररउ के कताष थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१००३-१०६८) रहा है|
आर्ायष मवशेर्वामद
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी के पूवष रहा है|
मवशेर्त्रय आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना संभवतः है|

आर्ायष शुभर्न्द्र
ज्ञानाणषव के रर्नाकार आर्ायष शुभर्न्द्र ने उि ग्रथं में अपनी गुरु
परम्परा तो नहीं दी है मकन्तु आर्ायष समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक
देव, मिनसेनार्ायष का स्मरण श्रद्धा से मकया है। ज्ञानाणषव ग्रथ
ं में
बारह भावना, पंर् महाव्रत ध्यान आमद का मवस्तृत कथन
है। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१००३-१०६८) रहा है|
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष वामदराि
पाश्वषनाथ र्ररत्र, यशोधर र्ररत्र, एकीभाव स्तोत्र, न्याय मवमनश्चय मववरण,
प्रमाण मनणषय, अध्यात्माष्टक, त्रैलोक्यदीमपका के रर्नाकार महानवादी,
मविेता और कमव थे। र्ौलुक्य नरेश ियमसंह देव पूमित महानतम आर्ायष
थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०१०-१०६५) रहा है|
आर्ायष शकटायन
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०२५ से पूवष) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना शाकटायन शब्दानुसाशन ( अमोयवृमत्त समहत
) आमद हैं |
आर्ायष नेममर्न्द्र मुमन
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (१०६८) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना लघु द्रव्य संग्रह, बृहद द्रव्य संग्रह हैं |

आर्ायष नरेन्द्रसेन
आर्ायष उमास्वामी के तत्त्वाथषसूत्र की प्रगटीकरण टीका मसद्धान्त सार
संग्रह व प्रमतष्ठा प्रदीप के रर्नाकार आर्ायष नरेन्द्रसेन आर्ायष गुणसेन
के मशष्य थे। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष प्रभार्न्द्र
आर्ायष मामणक्यनन्दी के मशष्य आर्ायष प्रभार्न्द्र दशषन एवं मसद्धान्त
के पारगंत मवद्वानध थे। धारा नगरी के अमधपमत सम्राटध भोि के द्वारा
बहुमान प्राप्त आर्ायष प्रभार्न्द्र ने अनेक ग्रथ
ं ों की टीकाएाँ की और कई
दाशषमनक ग्रंथों की रर्ना की। इनकी रर्नाओ ं में प्रमुख हैं, तत्वाथष वृमत्त
(सवाषथषमसमद्ध के मवर्य पदों का मट्पण), प्रवर्नसरोिभास्कर (प्रवर्नसार टीका), प्रमेय कमल
मातषण्ड (परीक्षा मख ु व्याख्या), न्याय कुमदु र्न्द (लद्यीयस्त्रय व्याख्या), पर् ं ामस्तकाय प्रदीप
(पंर्ामस्तकाय टीका), शब्दाम्भोि भास्कर, महापुराण मट्पण, गद्यकथा कोश (आराधना कथा
प्रबध
ं ), मक्रया कलाप टीका, रत्नकरण्ड श्रावकार्ार टीका तथा समामधतत्रं टीका, दशषन तथा
मसद्धान्त ग्रंथों की यह शृंखला उनके िैन दशषन के तलस्पशी ज्ञान का प्रतीक है। इनका समय काल
११वीं सदी माना िाता है।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख ु दाई है.
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आर्ायष पद्मनमन्द (प्रथम)
२४२७ गाथा प्रमाण िम्बूद्वीप प्रज्ञमप्त के रर्नाकार आर्ायष पद्मनमन्द
बलनमं द के मशष्य थे। यह ग्रथ
ं लौमकक, अलौमकक, गमणत, क्षेत्रामद,
पैमाइश और प्रमाणामद कथनों के साथ िम्बूद्वीप के सभी क्षेत्र, पवषत,
नमदयों और समुद्रों का वणषन करता है। धमष, अधमष के मववेक को मनदेशन
करने वाली इनकी दूसरी रर्ना धम्म रसायण है। आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष ियसेन ( प्रथम )
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना धमषरत्नाकर है|

आर्ायष ममल्लर्ेण
यह मंत्र-तंत्र के महान मवद्वानध थे, धारवाड़ मिले की गदक तहसील के
मूलगुन्द नगर के अनेक मिनालयों में इन्होंने अनेक ग्रंथों की रर्ना की,
ऐसा उल्लेख वहााँ के मशलालेखों से प्राप्त होता है। इनकी प्रमुख रर्नाएाँ
हैं-महापरु ाण (इसकी कनड़ी प्रमत कोल्हापरु भट्टारक मठ में है)
नागकुमार काव्य, भैरव पद्मावती कल्प, सरस्वती कल्प (दोनों ही संस्कृत टीकाओ ं के साथ
प्रकामशत) ज्वालामामलनीकल्प, स्व. सेठ मामणकर्न्द्र िी के ग्रंथ भण्डार में उपलब्ध,
कामर्ण्डाली कल्प, िैन सरस्वती भवन व्यावर में उपलब्ध, सज्िन मर्त्त वल्लभ महन्दी
पद्यानुवाद व महन्दी टीका समहत प्रकामशत है।
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष दुगष देवार्ायष
आपकी प्रमख
ु ग्रथं रर्ना ररष्ट समच्ु र्य, अद्धषकाण्ड, मरणकंमडका, मत्रं
महोदमध आमद हैं|
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष मुमनपद्मकीमतष
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना पासणाह र्ररउ है|
आपका समय काल लगभग शक संवत ९९९ रहा है|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष रामदेव
नागसेन के मशष्य तथा तत्वानुशासन के रर्मयता आर्ायष रामदेव
अध्यात्म के ज्ञाता मवद्वान थे। २५८ सस्ं कृत पद्यों में मलमखत ग्रथ
ं भार्ा
और मवर्य में अमत महत्वपूणष ग्रंथ है।
आपका समय काल ग्यारहवीं शताब्दी (उत्तराद्धष ) रहा है |
मुमन श्रीर्न्द्र
आर्ायष मशवकोमट की भगवती आराधना, महाकमव पुष्पदन्त के
उत्तरपरु ाण पर मट्पण, आर्ायष रमवर्ेण के पदम र्ाररत को टीका एवं
पुराणसार के रर्नाकार मुमन श्रीर्न्द्र ११वीं सदी के प्रारंभ काल के श्रमण
थे। इनका अमधकांश समय धारा नगरी में व्यतीत हुआ, वही इनकी यह
मिनवाणी आराधनापूणष हुई।
आर्ायष वसुनन्दी सैद्धामन्तक
श्रीनन्दी के मशष्य नयननन्दी के मशष्य नेममर्न्द तथा नेममर्न्द के मशष्य
वसुनन्दी अपने समय के मवख्यात मुमनराि थे। वसुनन्दी श्रावकार्ार,
उपासकाध्ययन, आप्तमीमास ं ावमृ त्त, मिनशतक टीका, मल ू ार्ार वमृ त्त और
प्रमतष्ठार्ार संग्रह इनकी रर्नाएं हैं। सागार धमाषमृत में पं. आशाधर िी ने
इनका आदरपूवषक स्मरण मकया है। आपका समय काल ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी रहा है|
आर्ायष माइल्लधवल
द्रव्य स्वभाव नयर्क्र के रर्मयता माइल्लधवल आर्ायष देवसेन के मशष्य थे।
इनका काल बारहवीं सदी का अंमतम समय बताया गया है।
आर्ायष कुमुदर्न्द्र
कल्याणमंमदर स्तोत्र के रर्मयता आर्ायष कुमुदर्न्द्र का श्वेताम्बर मुमन
वामदसरू रदेव से गि
ु रात के शासक ियमसहं मसद्धराि की सभा में मव.स.ं
११८१ में वाद हुआ था।
यह बारहवीं सदी के आर्ायष थे।
आर्ायष श्रीर्न्द्र
कथा कोर् तथा रत्नकरण्ड श्रावकार्ार के रर्नाकार आर्ायष श्रीर्न्द आर्ायष
वीरर्न्द्र के मशष्य थे। इनका काल भी बारहवीं सदी बताया है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष पद्मप्रभमलधाररदेव
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना श्री पाश्वषनाथ स्तोत्र एवं मनयमसार टीका है|
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (११०३) रहा है |

आर्ायष नयसेन
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (११२१) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना धमाषमृत है|

आर्ायष हमस्तमल्ल
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्नायें मवक्रांत गौरव, मैमथलीकल्याण, अंिना-
पवनंिय, सुभद्रा नामटका, आमदपुराण हैं |
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है |
आर्ायष गणधर कीमतष
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना अध्यात्म तरंमगणी टीका है |
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है|

आर्ायष अनन्तवीयष
परीक्षामुख की टीका ‘पररक्षामुख पंमिका’ न्यायशास्त्र की सहि, सरल
और ग्राह्य रर्ना है, उन्होंने आर्ायष प्रभार्न्द्र की रर्ना को अपनी रर्ना
में उदार र्मन्द्रका की उपमा दी है और अपनी रर्ना को खद्योत (िगु नू)
के समान बताया है।
आर्ायष ब्रह्म देव
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी रहा है |
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्नायें टीका- परमाथषप्रकाश बृहद द्रव्य संग्रह,
तत्त्वदीपक, ज्ञानदीपक, प्रमतष्ठा मतलक, मववाह पटल कथाकोर् हैं|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष नरेन्द्रसेन
आर्ायष उमास्वामी के तत्त्वाथषसूत्र की प्रगटीकरण टीका मसद्धान्त सार
सग्रं ह व प्रमतष्ठा प्रदीप के रर्नाकार आर्ायष नरेन्द्रसेन आर्ायष गण
ु सेन
के मशष्य थे।
आर्ायष मगररकीमतष
गोम्मटसार पमं िका के रर्नाकार आर्ायष मगररकीमतष आर्ायष र्न्द्रकीमतष
के मशष्य थे। प्रस्तुत ग्रंथ में गोम्मटसार के सैद्धामन्तक मवर्य पर सुन्दर
व्याख्या की गई है।
आर्ायष पाश्वषदेव
आपका समय काल बारहवीं शताब्दी (अंमतम पाद) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना संगीत समयसार है |

आर्ायष रमवर्ंद्र
आपका समय काल बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना आराधनासार समुच्र्य है |

आर्ायष माघनमन्द
आपका समय काल बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी (११९३-१२६०) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना शास्त्रसार समुच्र्य है |

आर्ायष अभयर्ंद्र मसद्धांत र्क्रवती


आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना कमष प्रकृमत है |

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष भीमसेन त्रेमवद्य
आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है |
आपकी प्रमख ु ग्रथ
ं रर्नायें कातत्रं रपमाला, न्यायसयू ाषवली, भमु ि-
मुमि मवर्ार दीमपका, मवश्वतत्त्व प्रकाश सटीक, टीका शकटायन
व्याकरण हैं|
आर्ायष श्रुमत मुमन
आपका समय काल तेरहवीं शताब्दी (उत्तराधष) रहा है |
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना परमागम सार, आस्रव मत्रभंगी, भाव
मत्रभंगी है |

भट्टारक शुभर्ंद्र
आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (१५१६-१५५६) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्नायें र्ररत्र- र्न्द्रप्रभाकरकंडु, र्ंदना, िीवंधर,
श्रेमणक| टीका- कामतषकेयानप्रु ेक्षा, पाश्वषनाथ काव्य पंमिका| पूिा- र्ंदन
र्ष्ठी व्रत, गणधर वलय, तीस र्ौबीसी, पंर्कल्याणक, तेरहद्वीप,
पुष्पाञ्िमल व्रत, साध्दषद्धय द्वीप, मसद्धर्क्र, कमषदहन| अन्य रर्नायें-
पांडव परु ाण, सज्िन मर्त्त वल्लभ, प्राकृत लक्षण, अध्यात्म तरंमगणी, अमम्बककल्प, अष्टामन्हक
कथा, र्ररत्र शुमद्ध मवधान, पल्ली व्रतोद्यापन हैं |
आर्ायष रत्नकीमतष
आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना भद्रबाहु र्ररत्र है |

आर्ायष वद्धषमान (मद्वतीय)


आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (१५४२) रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना दशभक्त्यामद महाशास्त्र है |

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आर्ायष नेममर्ंद्र
आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी (मध्यपाद) रहा है |
आपकी प्रमख ु ग्रथ
ं रर्ना िीवतत्त्व प्रदीमपका ( गोम्मटसार सस्ं कृत
टीका ) है |

आर्ायष समु तकीमतष


आपका समय काल सोलहवीं शताब्दी उत्तराद्धष रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना टीका- कमषकाण्ड, पंर्संग्रह है |

आर्ायष श्री भूर्ण


आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रथ
ं रर्ना पद्मपुराण, हररवश
ं पुराण है |

आर्ायष सोमसेन
आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी (१५९९-१६१९) रहा
है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना रामपुराण, शब्द रत्न प्रदीप, धमषरमसक है|

आर्ायष धमषकीमतष
आपका समय काल सोलहवीं-सत्रहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना पद्मपुराण, हररवंश पुराण है |

आर्ायष ब्रह्मज्ञानसागर
आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी (पूवषपाद) रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना अक्षरबावनी है |

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
आर्ायष गंगादास
आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना पूिा- क्षेत्रपाल एवं सम्मेदार्ल है |

आर्ायष देवेन्द्रकीमतष
आपका समय काल सत्रहवीं शताब्दी रहा है|
आपकी प्रमख
ु ग्रथ
ं रर्ना पूिा- कल्याणममन्दर, मवर्ापहार, कथाकोर्
है |

आर्ायष सुरेंद्र कीमतष


आपका समय काल सत्रहवीं-अठाहरवीं शताब्दी (१६८७-१७१६) रहा
है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना पद्मावती पूिा, स्तोत्र- भूपाल, कल्याण मंमदर,
एकीभाव, मवर्ापहार है |
आर्ायष सुरेंद्र भूर्ण
आपका समय काल अठाहरवीं शताब्दी (१७०३-१७३४) रहा है|
आपकी प्रमुख ग्रंथ रर्ना श्रुतपंर्मी कथा है |

आर्ायष लमलतकीमतष
आपका समय काल उन्नीसवीं शताब्दी (१८२४) रहा है|
तीन खण्डों में महापुराण की टीका एवं र्ौबीस रर्नाओ ं का उल्लेख है
|

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
श्री आमदसागर िी
[अंकलीकर]
आप बीसवीं शताब्दी के प्रथम आर्ायष
हुये, आपके द्वारा र्ररत्रर्क्रवती आर्ायष
श्री शांमत सागर िी महाराि की ऐलक
दीक्षा के सस्ं कार हुये| पर्
ं मकालीन अन्य
श्रमणों की तरह आपका साधना काल
मकसी मिनालय या वसमतका में नहीं
अमपतु र्तुथषकालीन श्रमणों की तरह,
पवषतों की र्ोटी, नमदयों के तट, घनघोर
वनों में वक्ष
ृ ों की कोठर, या पवषतों की
गुफाओ ं में आपने मनमलषप्त साधना को
साधा।
पूज्य आर्ायष श्री सात मदन के पश्चात एक बार आहार र्याष हेतु समीपस्थ नगर
अथवा ग्राम में आया करते थे, और सात मदन के पश्चातध िो आहार होता था वो भी एक ही वस्तु
का होता था। अथाषतध वो आहार में मात्र एक वस्तु ग्रहण करते थे। एवं आहार के पश्चात पनु ः 7 मदन
के मलये मनिषन बन गुफा आमद में िाकर अपनी आत्म साधना में संलग्न हो िाते थे। पूरे साधु
िीवन में आपकी आहार र्याष का ऐसा ही क्रम र्लता रहा। ऐसे महान आर्ायष भगवंत के मवर्य
में आर्ायष श्री शामन्तसागर िी महाराि कहा करते थे मक िब हमारे गांव में आर्ायष श्री आमदसागर
िी आहार र्याष हेतु आते थे वो बो बर्पन में अपनी मााँ के साथ उनको आहार कराते थे एवं आहार
र्याष के बाद अपने मिबतू कााँधों पर आर्ायष श्री आमदसागर िी को बैठाकर वेदगगं ा और दूधगगं ा
नदी पार कराके गााँव से बाहर तक पहुाँर्ाकर आते थे। आर्ायष श्री शामन्तसागर िी महाराि उनकी
मवरि मनदोर् र्र्ाष से खूब प्रभामवत रहते थे।
वतषमान में प्रर्मलत आर्ायष परम्पराओ ं में से सबसे वहृ द आर्ायष परम्परा आपकी ही दृमश्टंगत
होती है| १८ भार्ामवज्ञ आर्ायष श्री महावीरकीमतष महामुमनराि, वात्सल्य रत्नाकर श्री मवमल सागर
िी महामुमनराि, तपस्वी सम्राट आर्ायष श्री सन्ममत सागर िी महामुमनराि, शद्ध ु ोपयोगी संत
आर्ायष श्री मवराग सागर िी महामुमनराि, परम पूज्य मिनागम पंथ प्रवतषक भावमलंगी सतं
श्रमणार्ायष श्री मवमशष सागर िी महामुमनराि- ये सभी आपकी गौरामन्वत आर्ायष परंपरा के नायब
हीरे, आपकी ही देन है|
आपकी लेखनी से अनेक कृमतयों का उदय हुआ, िो मनम्न है:
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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1. प्रायमश्चत्त मवधान- यह प्राकृत भार्ा में मलखी गयी आपकी कृमत सरू ी िगत में समादृत एवं
सवषमान्य है| यह कृमत आपकी लेखनी से भाद्रपद शुक्ला पंर्मी मव.सं. 1972 सनध 1915 में प्रस्तुत
हुई।
2. मिनधमष रहस्य- यह ग्रथ ं आपके द्वारा सस्ं कृत भार्ा में सृमित हुआ और इस ग्रथ ं की रर्ना
मग़मशर शुक्ला दोि. मब. स.ं 1999, सनध 1943 में हुई।
3. मदव्य देशना- ह कृमत आपकी मल ू भार्ा कन्नड़ में मलखी गई। मिसका रर्ना काल मगमशर
शुक्ला एकादशी मब.सं. 1999, सनध 1942 रहा।
4. मशवपथ- मिनागम पंथ की उद्घोर्क पूज्य आर्ायष प्रवर की यह संस्कृत भार्ा में मलमपबद्ध कृमत
श्रमण िगत के मलये अमत्ृ य मनमध भाद्रप्रद र्तथ ु ी, मव.स.ं 2000, सनध 1943 में समृ ित हुई।
5. वर्नामृत- अररहंत शासन के महत्वपूणष सूत्रों का समावेश कर पूज्य आर्ायष श्री ने मराठी भार्ा
में यह ग्रंथ मलखा। इसका रर्नाकाल माघ शुक्ल र्तुदषशी मव.स.ं 2000, सनध 1943 प्राप्त है।
6. उद्बोधन- यह भी एक कन्नड़ भार्ा में मलखी गई पूज्य आर्ायष श्री की अमर कृमत है। इसकी
रर्ना फाल्गुन शुक्ला एकादशी मव.स.ं 2000 सनध 1943 में हुई।
7. अंमतम मदव्य देशना- इस कृमत में उस समय के मगं ल उपदेश को सक ं मलत मकया गया है िो
पूज्य आर्ायष श्री ने अपनी मातृभार्ा कन्नड़ में फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी मव.सं. 2001 सनध 1944 के
मदन, समामध के पूवष समाि महत में प्रदान मकया था।
आर्ायष श्री ने इनके अलावा और अनेक स्फुट रर्नायें की थीं, िो उपलब्ध नहीं हो सकी।
प.पू. आर्ायष श्री एक कालियी साधक थे मिनका अप्रमतम साधनाकाल अनेकों घोर उपसगष और
पररर्हों के बीर् समत्व की डगर पर वधषमान रहा।
पूज्य आर्ायष श्री ने आमश्वन शुक्ला दसमी, मवक्रम सं. 2001, सनध 1943 को अपने सुयोग्य
मशष्य 18 भार्ाओ ं के ज्ञाता, मुमन श्रेष्ठ श्री महावीर कीमतष िी को अपना आर्ायष पद प्रदान कर
सल्लेखना की ओर अग्रसर हुये एवं फाल्गनु कृष्णा त्रयोदशी के मदन कुंिवन उदगााँव में आपने
एक आदशष समामध मरण मकया।

साभार प्रस्तुमत :
Jainsanskriti.com के सौिन्य से.....
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवमल मसंधु के र्रण कमल

(पूज्य 'गमणनी आमयषका स्याद्धादमती मातािी)


(स्थापना)
मनममत्त ज्ञानी, सबके स्वामी, िन-िन को मसमद्ध देते हैं।
साधक मुमिपथ के गुरुवर, आराधक सुख लेते हैं ।।
मिनशासन के मागष प्रभावक, तन-मन-धन दुख हरते हैं।
मवमल मसंधु के र्रण कमल में, कोमट-कोमट हम नमते हैं ।।
घत्ता हृदय मवरािो आन के आह्वानन त्र्य बार
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र अवतर अवतर संवौर्टध
आह्वाननमध ।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र मतष्ठ मतष्ठ ठः ठः स्थापनमध
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र ममध समन्नमहतो
भव भव वर्टध समन्नमधकरणम।ध
"पररपुष्पांिमलं मक्षपामम ।"

उज्ज्वल िल मैं लेकर आयो, समता नीर भराई,


िन्म- िरा - मृत्यु नाश कराकर, आठों कमष नशाई।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
परम पज्ू य सन्मागष मदवाकर, मवमल मसन्धु के गण ु गाऊाँ
मनि मनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि िन्म- िरा - मृत्यु मवनाशनाय िलं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
मलयामगरर का र्ंदन लेकर गुरुवर र्रण र्ढ़ाई,
गरुु र्रणन के ही प्रसाद से, भव आताप नशाई।
करणामनमध आर्ायषरत्न, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर भववन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि भव आताप मवनाशनाय र्ंदनं
मनवषपामीमत स्वाहा।
क्रोध कर्ाय की ज्वालाओ ं ने, खमण्डत िीवन कर डाला,
अक्षत पुंि अखण्ड र्ढ़ाऊाँ , ममटे कमष मल सब काला ।
मनममत्त ज्ञानी मशरोममण गुरुवर, मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अक्षय पद प्राप्तये अक्षतं मनवषपामीमत
स्वाहा।
कमल पुष्प की माला र्ढ़ाकर, काम नशाने आया हाँ,
बाल ब्रह्मर्ारी गुरुवर मैं भमि सुमन ले आया हाँ।
र्क्रवती र्ाररत्र मनमध, श्री मवमल मसन्धु के गणु गाऊाँ
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि कामबाण मवनाशनाय पुष्पं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
मैसूर पाक िलेबी घेबर, भर-भर थाल सिाया हाँ,
क्षध
ु ा वेदना से अकुलाया, अपषण करने आया हाँ।
वात्सल्य रत्नाकर गुरुवर, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि क्षध ु ा रोग मवनाशनाय नैवेद्यं
मनवषपामीमत स्वाहा।
मोह मतममर भटकाया मैं प्रभु, सत्पथ अब तक ना पाया,
रत्नमयी दीपक लेकर मैं ज्ञान ज्योमत पाने आया।
तीथोद्धारक र्ूड़ाममण, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 50 of 182
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि मोहान्धकार मवनाशनाय दीपमध
मनवषपामीमत स्वाहा ।
कमष आठ से पीमड़त हाँ प्रभु, अब तक र्ैन नहीं पाया,
गुग्गल धूप दशांगी लेकर, कमष नशाने मैं आया।
अमतशय योगी बाल ब्रह्म यमत, मवमल मसन्धु के गण ु गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अष्टकमष दहनाय धूपं मनवषपामीमत
स्वाहा।
श्रीफल आम नारंगी के ला, थाल सिाकर लाया हाँ,
मोक्ष महाफल पाने की गरुु , आशा लेकर आया हाँ।
खण्ड मवद्या धुरन्धर गुरुवर, मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पज्ू य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि मोक्षफल प्राप्तये फलं मनवषपामीमत
स्वाहा ।
आठ द्रव्य की भर थाली ले, आठों कमष खपाऊाँ ,
अष्ट गुणों की मसमद्ध पाकर, मसद्ध लोक बस िाऊाँ ।
परम तपस्वी त्याग मूमतष, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस िाकर भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अनर्घयष पद प्राप्तये अर्घयं मनवषपामीमत
स्वाहा ।
ियमाला
(दोहा)
सरल स्वभावी मवमल गुरु, र्रणनध शीश नवाय ।
कमल के तकी पुष्प ले, अपषण कराँ हर्ाषय ॥
िै ममु िदूत मवमल मसन्धु गरुु हैं हमारे,
िै तीन लोक से मनराले देव हमारे ।
िै िै तपस्वी एक नाथ आि रािते,
िै िै भमविनों के हृदय आप सािते ।।
िै वीर महावीर कीमतष गुरु हैं तुम्हारे,
िै ममु िदूत मवमल गरुु देव हमारे ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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िै धन्य िन्मभमू म कोसमााँ के ग्राम की,
िै िै सुधन्य मात कटोरी के लाल की ।।
िै िै सुधन्य मपता मबहारी के प्राण की,
िै िै सुधमष मसन्धु गुरु देवराि की ।
ज़ै वीर धीर बाल ब्रह्मर्ारी मसतारे ,
िै ममु िदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ||
िै िै सुमसद्ध क्षेत्र सोनामगर के राि की,
िै िै सुयहााँ दीक्षा पाय ममु नराि की।
िै िै सुध्यान धारते मिनराि की मही,
िै िै सुवीर धीर तपस्वी महाशयी ।।
िै िै समु नममत्त ज्ञान मशरोममण हैं हमारे,
िै मुमिदूत मवमल मसन्धु देव हमारे।
टुण्डला नगर था धन्य गुरु आप से हुआ,
आर्ायष पद प्रदान कर सब िग प्रसन्न हुआ ।।
दे मशक्षा दीक्षा दान भव्य िीव उबारे ,
हैं योग्य-योग्य मशष्य मवश्व में िो तम्ु हारे ।
िै भरत मसन्धु पाठक सुमशष्य तुम्हारे,
िै शरण आपकी लहैं मतरते ही िा रहे ।।
िै कर मवहार भमू म - भमू म तीथष मनहारे,
िै करके वंदना सभी तो तीथष उद्धारे।
िै भव्य िीव दीक्षा दान तुमने उबारे,
िै मुमिदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
रािगृही का िो स्वाध्याय, भवन भारी है,
िै धन्य-धन्य गरुु स्ममृ त में देन थारी है।
िै नंगानंग मूमतषयााँ ये शान से खड़ी,
िै र्ौबीसी मनमाषण की ये श्रख ृं ला िुड़ी ।
िै श्रुतस्कंध के ये प्रेरक देव हमारे,
िै मुमिदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
तन दुखी और मन दुखी आते,
नवकार मंत्र िाप करो, सबको बताते ।
लख लख के िाप करते, सब पुण्य कमाते,
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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पापों का नाश करके सभी िैन को पाते।
िै मंत्र - यंत्र-तंत्र मवज्ञ गुरु ये हमारे,
िै मुमिदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ||
करते र्रण में वंदना गुरुदेव आपके ,
हो पार भव समुद्र से आशीर् आपके ।
मनत तीन बार मसर नवां मैं वदं ना कराँ,
भर भाव भमि से गुरु पद क्षालना कराँ ।।
मनत रोम-रोम में बसे गुरुदेव हमारे,
िै मुमिदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
ॐ हाँ परम पूज्य आर्ायष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि ियमाला पूणाषर्घयं मनवषपामीमत स्वाहा |
गणु माला तमु री गरुु ! शब्दों मलखी न िाये,
ज्यों सागर के मोती ले, मगनती कभी न पाये।
स्याद्वाद वाणी मवमल, स्याद्वाद पथ सार,
स्याद्वादमती मनत नमें, भव से करो सपु ार ॥
।। इत्याशीवाषद: पुष्पांिमलं मक्षपामम ।।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवराग मसध
ं ु को नमन कराँ

(स्थापना)
परम पूज्य आर्ायष मशरोमणी, मवराग सागर िी गुरुवर ।
बालयमत अरु स्याद्वाद िो, प्रज्ञा मिनकी बड़ी प्रखर ||
अपने ज्ञान ध्यान तप बल से, भव्यों का तम करें हनन ।
ऐसे गुरु का अर्षन करने, आह्वानन कर करें नमन ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवर अत्र अवतर-अवतर संवौर्टध
आह्वाननमध ।
ॐ ह्रूं परम पूज्य गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवर अत्र मतष्ठ मतष्ठ ठः ठः स्थापनमध ।
ॐ ह्रूं परम पूज्य गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवर अत्र मम समन्नमहतो भवः भव
वर्टध समन्नमधकरणमध ।
भवतापों से तपा हुआ हाँ, तुम र्रणों में शांमत ममले,
क्रोध लोभ मद मान अरु मत्सर, गुरु भमि से शीघ्र धुले ।
भमि भाव का मनमषल िल ले, गुरु र्रणों में धार कराँ,
परम पज्ू य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य युगप्रमुख श्रमणार्ायष, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो िन्म-
िरा-मृत्यु मवनाशनाय िलं मनवषपामीमत स्वाहा।
िग की आकुलतायें सारी, ममता का मवर् मपला रहीं,
तृष्णा मोह क्रोध की अमग्न, अंतमषन को िला रहीं ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 54 of 182
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गरुु र्रणों में मवनय भाव का, र्ंदन लेकर शांत कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य युगप्रमतक्रमणप्रवतषक, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो
भवाताप मवनाशनाय र्ंदनं मनवषपामीमत स्वाहा ।
मितने भी पद पाये मैंने सबका अब तक नाश हुआ,
नहीं अभी तक मेरा गुरुवर, सच्र्े पद में वास हुआ।
अक्षय पद के अक्षत लेकर, गुरु ममहमा का गान कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसंधु का नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य अनुशासन रत्न, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो अक्षय पद
प्राप्तये अक्षतं मनवषपामीमत स्वाहा।
अब तक िग में भटका गुरुवर, पर की आस वासना से,
नहीं कभी भी तृप्त हुये हम, अमग्न घी सम ्यास से ।
समता शील व्रतामदक लेकर, काम वासना शमन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य मवश्वमहतैर्ी, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो कामबाण
मवनाशनाय पुष्पं मनवषपामीमत स्वाहा ।
तीन लोक के सकल पदारथ, क्षुधा अमग्न के ग्रास बने,
क्षध ु ा शांत न होती मफर भी हम आशा के दास बने ।
ले नैवेद्य आस तिने को, इच्छाओ ं का दमन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य आगम अमतधन्वा, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो क्षध ु ारोग
मवनाशनाय नैवेद्यं मनवषपामीमत स्वाहा ।
ज्ञानदीप मबन अब तक िग में, मनि पद का नहीं भान हुआ,
तेरी मदव्य देशना से ही, मनि शमि का ज्ञान हुआ।
यशोगान का दीपक लेकर, मनि कुमटया को र्मन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य योग सम्राट, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो मोहांधकार
मवनाशनाय दीपं मनवषपामीमत स्वाहा।
वसुमवमध के वश होकर गुरुवर, भवसागर में भटक रहा,
अष्टकमष के दहन करन को, सम्यकध तप है धमष महा ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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तमु से सयं म मय तप पाकर, अष्टकमष को दहन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य उपसगषमविेता, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो अष्टकमष
दहनाय धूपं मनवषपामीमत स्वाहा ।
मिस फल के मबन मनष्फल सब कुछ, वह फल मैं भी पा िाऊाँ ,
ऐसा मोक्ष महाफल पाने, गरुु र्रणों को मनत ध्याऊाँ ।
मोक्ष महाफल को पाने मैं, मोहकमष को दमन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोमणी, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ हाँ परम पूज्य राष्रसंत, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं
मनवषपामीमत स्वाहा।
शभु भावों का मनमषल िल है, मवनय भाव का है र्ंदन,
गुरुवंदन ही अक्षत है ये, भमि सुमन का अमभनंदन।
मन-वर् - तन से आत्म समपषण, मोह क्षोभ का शमन कराँ,
परम पज्ू य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्य सूररगच्छार्ायष, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो अनर्घयष पद
प्राप्तये अर्घयं मनवषपामीमत स्वाहा ।
ियमाला
(दोहा)
मााँ श्यामा के लाडले, कपूरर्ंद के लाल ।
मवराग मसन्धु आर्ायष की, अब वरणू ियमाल ॥
सम्यकध श्रद्धा मनिगुण का है, मिससे मैं मनत दूर रहा,
ममथ्या भाव छोड़ नहीं पाया, दुःखों से भरपरू रहा।
ऐसी सम्यकध मनिमनमध पाकर, मनि का मैं उद्धार कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ १ ॥
सम्यकध बोध नहीं मैं पाया, िो मशवसख ु का साधन हैं,
ऐसे बोध अगम्य पुंि तम, अतः तुम्हें अमभवादन है।
तुमसे सत्यबोध को पाकर, मशवमारग में गमन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ २ ॥
सम्यकध र्ाररत्र मबन सब सूना, ज्यों मबना गंध के पुष्प कहा,
ऐसे सत्य र्रण मबन गरुु वर, िग में अब तक भटक रहा।
तुमसे र्रण मनमध मैं पाकर, मशवरमणी का वरण कराँ,
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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परम पज्ू य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ३ ॥
सम्यकध तप ही एक साधन हैं, िो कमष भस्म कर देता है,
सारे दुःख अशांमत िगत की, आप स्वयं हर लेता है।
घोर तपोमनमध को पाकर के , क्यों न मैं अनुशरण कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ४ ॥
मनि शमि को नहीं मछपाकर, घोर तपस्या करते हो,
उपसगष परीर्ह के सहने में, नहीं कभी तुम डरते हो ।
ऐसा वीयाषर्ार पालते उसका मैं अनुशरण कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥५॥
उत्तम क्षमा मादषव आिषव, सत्य शौर् और संयम है,
उत्तम तप और त्याग अमकंर्न, ब्रह्मर्यष मवमलतम है।
दस धमों का आगम मसंधु पा, मैं भी मनत स्नान कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥६॥
अशरण अमनत्य सस ं ार भावना अशमु र् एकत्व और अन्यत्व,
आसव संवर मनिषरा लोकमह दुलषभ बोमध धमष है।
इसको तमु पाते हो मनशमदन मैं भी इनका मनन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ७ ॥
मनमश्चत श्रद्धा ज्ञान र्ररत्र को मनमवषकल्प बनाया है ,
अभेद रत्नत्रय को पाने, मैंने शीश झक ु ाया है।
अप्रमत्त दशा को पाने, मुमन वन मनि में मनन कराँ,
परम पूज्य आर्ायष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ८ ॥
(दोहा)
सप्तम पूिा भि ने मलखी भमि के हेतु,
भमि भाव से भमि कर, बाध ं ू भव का सेतु ।
तुम र्रणों का दास मैं करता हाँ अरदास,
नाश पास भव का भरो, दीिे र्रण मनवास || ९ || "
ॐ ह्रूं परम पूज्य अध्यात्मयोगी, समताममू तष, गणार्ायष श्री मवराग सागर िी महाराि यमतवरेभ्यो
ियमाला अनर्घयष पद प्राप्तये पूणाषर्घयं मनवषपामीमत स्वाहा ।
भल
ू र्ूक सब माफ हो, मैं हाँ मनपट अिान ।
एक भावना बस यही हो सबका कल्याण ।।
॥ इत्याशीवाषद: पुष्पांिमलं मक्षपामम ॥

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवर ! अत्र अवतर-अवतर संवौर्टध
आह्वाननम !
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्धु सागर ममु नवर ! अत्र मतष्ठ-मतष्ठ ठः ठः
स्थापनमध |
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवर ! अत्र मम समन्नमहतो भव भव
वर्टध समन्नमधकरणमध |

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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र्ाररत्र महमालय से मनझषर, यह सम्यग्ज्ञान सगु गं ा है |
िो शीतल मनमषल वाणी दे, करती रहती मन र्ंगा है ||
मैं िन्म िरा का रोगी ह,ाँ तुम उत्तम वैद्य कहाते हो |
मनि ज्ञानमयी और्मधयााँ दे, सब िग के रोग ममटाते हो ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्यो िन्म िरा मृत्यु
मवनाशनाय िलं मनवषपामीमत स्वाहा।
मलयामगरर र्ंदन सम शीतल, है आप सुगंमधत भूतल पर|
गुर भि भ्रमर मंडराते हैं, तेरी र्याष पर झुक-झुक कर ||
उपसगों के मवर्धर मलपटे , मवर्पान मकया, अमृत सींर्ा|
ऐसे अमृत वरर्ायी की, करता है िग र्न्दन पूिा ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्यो सस
ं ार ताप मवनाशनाय
र्न्दनं मनवषपामीमत स्वाहा।
ख्यामत पि ू ा से क्या लेना, क्या नाम मर्त्र सरं र्ना से |
िो समयसारमें मनत रमते, क्या काम करें िग रर्ना के ||
है भि कामना एक आप, अक्षय ख्याती भंडार बनो |
अररहतं बनो या मसद्ध बनो, मेरे मशवपथ आधार बनो ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्यो अक्षय पद प्राप्तये अक्षतानध
मनवषपामीमत स्वाहा ।
र्ैतन्य वामटकामें सुरमभत, र्ुनकर अध्यात्म प्रसून मलए |
तब महकउठी प्रवर्न बमगया,अध्यात्मरमसक रसपान मकये||
मिनधमष का सौरभ फै ल रहा, सब मदग-ध मदगन्त धरती अम्बर |
अमपषत करता सुमनावमलयााँ, हे परम पूज्य मेरे गुरुवर ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्यो कामबाण मवनाशनाय पष्ु पं
मनवषपामीमत स्वाहा।
मनिज्ञान ध्यान वैराग्य सहि, अरु स्वानुभूमत में रर्े-पर्े |
मनत मनिानद र्ैतन्यमयी, अध्यात्म रसों में रसे-रर्े ||
र्ैतन्य रसों का ममश्रण कर, मनि मन नैवेद्य बनाया है |
भव-भव की क्षध ु ा ममटाने को, गरुु पद नैवेद्य र्ढ़ाया है ||

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्यो क्षध
ु ा रोग मवनाशनाय
नैवेद्यं मनवषपामीमत स्वाहा।
मेरा मप्रय सम्यग्दशषन यह, मैं र्ेतन दीप िलाता हाँ |
कमों की काली रिनी को, सममकत से दूर भगाता हाँ ||
सम्यक श्रद्धा से आलोमकत, गुरु गुण आरमतयााँ गाता हाँ |
मनग्रंथों की आरमतयााँ कर, मनग्रषन्थ भावना भाता हाँ ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्यो मोहान्धकार मवनाशनाय
दीपं मनवषपामीमत स्वाहा ।
शद्ध
ु ात्म ध्यान की ज्वाला में, कमों की धूम िलाते हो |
पल-पल मछन-मछन मनशमदन सम्यकध, शुद्धोपयोग ही ध्याते हो||
तुम महारथी यह महायज्ञ! मनि कमों को स्वाहा कर लूाँ |
मैं अशरीरी अमवनाशी सुख, मनि मसद्ध अवस्था को वर लूाँ ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्यो अष्ट कमष दहनाय धपू ं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
यह नर तन का फल रत्नत्रय, हो धन्य भाग्य तुमने पाया |
रत्नत्रय का फल मशवफल है, यह बीि ह्रदय में उग आया ||
मेरा श्रावक कुल धन्य हुआ, अर धन्य, हुई यह नर काया |
पिू ा कर रत्नत्रय पाऊाँ , मशवफल पाने मन ललर्ाया ||
ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्यो मोक्षफल प्राप्तये फलं
मनवषपामीमत स्वाहा।
र्ैतन्य तीथष के मनमाषता, तमु भगवत्ता बतलाते हो |
मेरा भगवनध ही मुझमें हैं, शाश्वत सत्ता बतलाते हो ||
आ गया काल मफर से र्ौथा, या मफर बसंत लहराया है |
मनग्रषन्थ मदगम्बर मुद्रा में, यह शुद्ध श्रमण अब पाया है ||1||
तन से मवशुद्ध मन से मवशुद्ध, र्ेतन मवशद्ध ु करने वाले |
मन के मवशुद्ध सर् ं ारों से, िग मवपदाएाँ हरने वाले ||
तुम हो अनघष, र्याष अनघष, र्र्ाष अनघष मंगलकारी |
मैं अर्घयष र्ढ़ाता हाँ तुमको, तमु तीथंकर सम उपकारी ||2||

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्यो अनर्घयष पद प्राप्तये अर्घयषमध
मनवषपामीमत स्वाहा।

ियमाला
(छंद-दोहा)
तुमको पाकर हो गया, भारतवर्ष मनहाल |
रत्नत्रय मर्ंतामणी, गाऊाँ मैं ियमाल ||
(छंद ज्ञानोदय)
र्ैतन्य धातु से मनममषत हो, क्या मात-मपता का नाम कहाँ |
शुद्धात्म प्रदेशों में िन्मे, क्या नगर-शहर क्या गाम कहाँ |
दशलक्षण धमष सहोदर है, रत्नत्रय ममत्र मनराला है |
समता बमहना राखी बांधे, अनुप्रेक्षा मााँ ने पाला है ||1||
यौवन की देहली पर आते, दीक्षा कन्या से ब्याह रर्ा |
मनग्रषन्थ मदगम्बर मद्रु ाधर, अपनाया ममु ि पथ सच्र्ा ||
हो भाव शुमद्ध के मवमल कें द्र, हो स्वानुभूमत के मनिाधार |
हे सस्ं कृमत के अलक ं ार ! र्ैतन्य कल्पतर सख ु ाधार ||2||
तुम पंर्-समममतयााँ त्रय-गुमप्त शुद्धात्मलीन हो पाल रहे |
श्रुतज्ञान और वैराग्य प्रबल, सब संघ इसी में ढाल रहे ||
िो महापरुु र् द्वारा धाररत, उन महाव्रतों को धारा है |
मनि भेदज्ञान पौरुर् बल से, खोला मुमि का द्वारा है ||3||
र्याष के मनमषल स्रोतों से, सज्ञं ान के मनझषर फूट पड़े |
िन्मों के ज्ञान मपपासु िन, इसमलए एक दम टूट पड़े ||
व्रतशील शुद्ध आर्रण मबना,शुद्धात्म तत्त्व ना ममलता है |
मदनकर के मबना मदवस क्या हो,सर में पक ं ि क्या मखलता है|4|
िो र्लते पर भी नहीं र्लें, िो और बोलते ना बोलें |
िो सदा देखते ना देखें, मनि में इतने मनश्चल होलें ||
है स्विातीय सम्बन्ध मधुर, शुद्धात्म का शुद्धात्म से |
एकाग्रमर्त्त हो िहााँ कहीं, बाते कर ले मसद्धातम से ||5||
परुु र्ाथष परायण परमवीर, हो ममु ि राज्य के अमधकारी |
मैत्री प्रमोद करुणाधारी, हो उभय लोक मगलकारी ||
हे मनमवषकार ! मनद्वंद ! नमन, हे मनरालम्ब ! मनग्रषन्थ नमन |
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मनभषय ! मनराग! मनलेप ! नमन, मनदोर् मदगम्बर श्रमण नमन ||6||
तुम पंर्ार्ार परायण हो, तमु पंर्ेमन्द्रय गि के िेता |
गंभीर धीर हे शूरवीर ! र्ाररत्र दक्ष मशवपथ नेता !
र्ाररत्र मबना दृगबोध मवफल, कोठे में बीि रखे सम है |
िो मितनी उज्िवलता पाले, उतना मनवाषण मनकटतम है ||7||
शम दम यम मनयम मनके तन हैं, अमवर्ल अखडं अद्वैत रप |
हो रत्नत्रय से आभूमर्त, आर्ायष श्रेष्ठ आर्ार भूप ||
मैं भमित्रय योगत्रय से, त्रयकालों तीन मवधानों से |
भव भेदक ! साधक सुरर प्रवर, नमता सममकत श्रद्धानों से ||8||
गुरु यमी! यत्न करते रहते, मनि समय मनयम प्रकाशक हो |
िो हमें यातनाएाँ देता, उस यम के आप मवनाशक हो |
हो कमष वृक्ष के उच्छे दक, तुम कमषलोंर् करते रहते |
मफर भी इस भोली िनता को, के वल कर्लोर् मदखा करते ||9||
गरुु अहो ! अयार्क धन्य तम्ु हें, तमु कुछ भी मााँग नहीं करते |
मनवाषण सुन्दरी की सुन्दर, भावों से मांग भरा करते ||
यह ब्रह्मर्यष की मनमषलता, लौकांमतक देव नमन करते |
वैराग्य मदवस पर कब आये, बस इतनी र्ाह मकया करते ||10||
यह धन्य आपकी मिनमुद्रा, यह धन्य-धन्य मनग्रषन्थ दशा |
ममु न नाम आलौमकक मिनर्याष, िो प्रकटाती अररहतं दशा ||
तुम र्लते-मफरते मोक्षमागष, गन्तव्य ओर बढ़ते िाते |
तुम कदम िहााँ पर रख देते, र्ैतन्य तीथष गढ़ते िाते ||11||
मनग्रषन्थ साधु की यह पूिा, सर् में रत्नत्रय पूिा है |
ना ख्यामत नाम की यह पूिा, ना ख्यामत नाम को पूिा है ||
है तीन ऊन नव कोमट ममु न, मिनके समान ना दूिा है |
अररहंत प्रभु के बीि रप, मशवपथ पंथी की पूिा हैं ||12||

(छंद-दोहा)
गरुु पूिा में आ गये, िग के सब मुमनराि |
कोमट-कोमट पि ू ा कराँ, पाऊाँ ममु नपद आि ||1||
गुरु मनग्रषन्थ महान है, गुरु अररहंत समान |
गुरुवर ही भगवान है, गुरुवर क्षमा मनधान ||2||

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ॐ ह्रुं णमो आइररयाणं श्रीमदध आर्ायष परमेष्ठी मवशद्धु सागर ममु नवरेभ्यो ियमाला पण
ू ाषर्घयषमध
मनवषपामीमत स्वाहा।
गुरुवर सम्यग्दशष दो, गुरुवर सम्यग्ज्ञान |
गुरुवर सम्यकध र्ाररत्र दो, गरुु वर दो मनवाषण ||3||
इत्यामशवाषदं पुष्पांिमलमध मक्षपेतध |

मवशुद्ध वर्न:
“राग हटाओ कष्ट ममटाओ”
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
मोक्षपथ के राही, वसद्धत्ि पद पर होंगे विराजमान !!!
आओ ! चलें मोक्षमागथ पर !! बनें भगिान् !!
साधु सेवा सगं मत, भाग्यवान ही पाय ।
पल भर िो सेवा करे, िीवन सफल बनाय ।।

भारत वर्ष की पावन भमू म सदैव नर रत्नों की िन्म दात्री रही है, िहााँ पर तीथंकरों, यमतवरों
तथा महापरुु र्ों ने िन्म लेकर परुु र्ाथष द्वारा, त्याग, तपस्या के माध्यम से अपना आत्म कल्याण
मकया. इस श्रृंखला में आर्ायष श्री मवराग सागर िी ने िन्म लेकर इस वसुंधरा को गौरवामन्वत
मकया.
आपका िन्म भारत देश के मध्य प्रदेश प्रांत के मिला -
दमोह के अंतगषत पथररया ग्राम में वैशाख शुक्ल 9 मव. सं. 2020 ( 2
मई 1963) को रामत्र 9:00 बिे हुआ था. आपके मपता श्रीमान सेठ
कपूरर्ंद्र व माता श्रीमती श्यामा देवी (वतषमान में आपसे ही
दीमक्षत पूज्य क्षुमल्लका श्री मवशांत श्री माता िी है). आपका गृहस्थ
अवस्था का नाम अरमवन्द कुमार था. आप अपने माता-मपता की
प्रथम संतान के रप में थे. आपके तीन छोटे भाई श्री मविय िैन, श्री सुरेन्द्र िैन, श्री नरेन्द्र िैन.
आपकी दो बहने श्रीमती मीना िैन, श्रीमानध बसंत िैन भामटया नोहटा तथा श्रीमती मवमला िैन, श्री
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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सरु ेश िैन सागर में है. बालक अरमवन्द िी ने कक्षा पांर्वी तक की मौमलक मशक्षा ग्राम पथररया में
ही प्राप्त की और आगे की पढ़ाई करने हेतु सन
१९७४ में ग्यारह वर्ष की आयु में अपने माता-मपता
से दूर कटनी आये. वहां पर श्री शांमत मनके तन
मदगम्बर िैन संस्था में ६ वर्ष तक धाममषक तथा
लौमकक मशक्षा ग्रहण की. लौमकक मशक्षा
ग्यारहवीं तक पूणष की. साथ में शास्त्री की परीक्षा
भी उत्तीणष की. इस छह वर्ष की कालावमध में अनेक
साधु-संतों का समागम प्राप्त हुआ, िो भावी िीवन
की नींव डालने में
साधन भतू हुआ.
आपके िन्म के 16 वर्ष 9 माह 18 मदन पश्चातध फाल्गुन शुक्ल
मवक्रम संवतध 2036 (20 फरवरी 1980) को परम पूज्य तपस्वी सम्राटध
आर्ायष श्री 108 सन्ममत सागर िी से बढ़ु ार मध्य प्रदेश में क्षल्ु लक दीक्षा
ली थी तब आपका नाम क्षल्ु लक पूणष सागर रखा गया था.
3 वर्ष 9 माह 19 मदन क्षल्ु लक
अवस्था में रखकर पश्चातध मगमसर
शुक्ल मवक्रम संवतध 2040 (9 मदसंबर
1983) को परम पज्ू य सन्मागष
मदवाकर वात्सल्य रत्नाकर
आर्ायष श्री मवमल सागर
िी महाराि के कर कमलों
से मुमन दीक्षा ली तब आपका नाम मुमन श्री मवराग सागर िी
रखा गया. शक्ु ल मवक्रम सवं तध 2049 (08 नवम्बर 1992) को मसध्दक्षेत्र द्रोणमगरर में आर्ायष पद से
प्रमतमष्ठत मकया गया.
संवक्ष जानकारी :
पवू ष नाम :श्री अरमवन्द िैन
मपता : श्री कपूरर्ंद िी िैन (समामधस्थ मुमन मवश्ववध
ं सागर िी महाराि)
माता : श्रीमती श्यामादेवी िैन (समामधस्थ आमयषका मवशांत श्री मातािी)
िन्म : 2 मई 1963, गरुु वार (वैशाख सदु ी 9 मवक्रम सवं तध 2020)

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
िन्म स्थान : पथररया (म.प्र.)
बहन : श्रीमती मीना िैन, श्रीमती मवमला िैन
भाई : श्री मविय कुमार, श्री सुरेंद्र कुमार, बा.ब्र श्री नरेंद्र भैया िी
लौमकक मशक्षा : इण्टर, मध्यमा (पथररया, श्री शांमतमनके तन, मदगंबर िैन संस्कृत मवद्यालय,
कटनी)
मववाह : बाल ब्रह्मर्ारी
क्षुल्लक दीक्षा : 20 फरवरी 1980, (फाल्गनु शुक्ल 5 मवक्रम संवतध 2036)
क्षुल्लक दीक्षा स्थान : बुढ़ार, शहडोल
क्षल्ु लक दीक्षा का नाम : पूज्य क्षल्ु लक श्री 105 पण
ू षसागर िी
क्षुल्लक दीक्षा गुरु : परम पूज्य तपस्वी सम्राट आर्ायष श्री 108 सन्ममत सागर िी महाराि
ममु न दीक्षा : 9 मदसबं र 1983,(मगं सर शक्ु ल 5 मवक्रम सवं तध 2040)
मुमन दीक्षा स्थान : औरंगाबाद
मुमन दीक्षा का नाम : प. पु. मुमन श्री 108 मवरागसागर महाराि
ममु न दीक्षा गरुु : प. प.ु आ. श्री 108 मवमलसागर िी महाराि
आर्ायष पद : 8 नवम्बर 1992, द्रोणामगरर (कामतषक शुक्ल 13 मवक्रम संवतध 2049)
सयं मी सिषन : आर्ायष - 9
मुमन : 93
गमणनी :4
आमयषका : 71
ऐलक :5
क्षुल्लक : 25
क्षमु ल्लका : 32
समामध संलेखना : लगभग 133 एवं अनेक मतयंर् प्राणी
सामहत्य सि ृ न : 1.वारसाणुपेक्या पर 1100 पष्ठृ ीय सवोदयी सस्ं कृत टीका
2. रयणसार पर 800 पृष्ठीय रत्नत्रयवमधषनी संस्कृत टीका
3. मलंग पाहुड पर श्रमण प्रबोधनी टीका
4. शील पाहुड पर श्रमण सम्बोधनी टीका
5. शास्त्र सार समुच्र्य पर र्ूणी सूत्र
अनेक शोधात्मक सामहत्य - (शद्ध ु ोपयोग, सम्यक्दशषन, आगमर्क्खस ू ाह आमद), मर्न्तनीय
बालकोपयोगी कथा अनुवाद गद्य संपामदत सामहत्य, िीवनी एवं प्रवर्न सामहत्य 150 से अमधक
पुस्तके प्रकामशत हो र्ुकी हैं.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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धाममषक रुमर् : मिनदशषन, पि ू न, स्वाध्याय, गरुु सेवा एवं असहाय, असमषथों के मलए
सहयोग.
अनोखा खेल : छोटी आयु (मात्र 4 वर्ष) में गंिी पहने एक हाथ में झाडू व एक हाथ में
लोटा लेकर भुल्लकिी का खेल खेलते थे, मिसे आगे साथषक भीमकया.
दाऊ भैया : बच्र्ों में सुलह कराने व छोटे भाई - बमहनों को अच्छे संस्कार देने से
आपको हर कोई दाऊ भैया कहता था.
त्यागीिी : अष्टमी - र्ौदस को एकासन, सामामयक, आलू – ्याि आमद अभक्ष्यों
व रामत्र भोिन त्याग को देखकर शाला के बच्र्े ‘त्यागीिी’ कहकर
मर्ढ़ाने लगे थे.
मनभीकता : कटनी के शांमत मनके तन संस्कृत मवद्यालय में अध्ययन करते समय बच्र्ों
ने बताया मक पीछे के वटवक्ष ृ में व्यतं र देव रहता है, रात को वहााँ मत
िाना, पर रात के समय भी उस वृक्ष के नीर्े मनभीकता से आना िाना
करते थे.
करुणा : बर्पन में ठंडी के समय गमष कोट में नन्हे से मपल्ले को छुपा लाये और मााँ
की निरों से बर्ाकर उसे अपने महस्से की र्ाय - ब्रेड मखला दी. बाद में
मााँ के डााँटने व समझाने पर उसे पनु ः उसकी मााँ के पास छोड़ आये.
मवशेर् : यमद उनके मवराट व्यमित्व व सद्गुणों को मलखने बैठ िाए तो डायरी भी
कम पड़ेगी, अतः एक ही दृष्टांत मदया है.
िा्य : लगभग 3 करोड 75 लाख से अमधक.
व्रत : कमषदहन, भिामर , णमोकार मंत्र, र्ररत्रशुमद्ध, र्ौसठऋमद्ध, दशषन
मवशुमद्ध, र्ररसी व्रत, नीमतसार, वर्नगुमप्त , अष्टमी र्तुदषशी नीरस ,
समवशरण व्रत आमद 26 व्रत उपवास व नीरस.
तप-त्याग : दही, तेल, बैर, करोंदा, मटंडा, िामुन, सभी हरी पत्ती,मटर छोड़ सभी फली,
पपीता, कटहल, लवेडे, कद्दू, तरबि ू , मभडं ी, खरु बानी, सीताफल,
रामफल, फालसा, अंगीठा, आलूबुखारा, र्ौरी, शक्करपारा, कुंदर,
स्रॉबेरी आमद का आिीवन त्याग.
मवशेर् त्याग : कूलर, पख ं ा, लेपटाप, मोबाइल, हीटर,नेल कटर सनध 1985 से, थूकने का
त्याग 1983 से
मशमवर : सम्यग्ज्ञान मशमक्षण मशमवर, पि ू न प्रमशक्षण मशमवर, श्रावक सस्ं कार
मशमवर, प्रमतभा संस्कार मशमवर.
अमभयान : व्यसनमुमि अमहंसा शाकाहार एवं रैली (प्रमतवर्ष), मिसमे अनेक प्रांतों के
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कई लाख छात्र- छात्राये व्यसन मि
ु हो र्ुके है.

डाक मटकट : पूज्य गुरुदेव के रित आर्ायष पदरोहण मदवस पर यह डाक मटकट िारी
मकया गया. स्थान - मदल्ली वर्ष, 2017 अवसर, रित आर्ायष पदारोहण
मदवस.

पज्ू य आर्ायष श्री मवरागसागर िी महाराि का नाम स्वणष अक्षरों में अंमकत होगा। भारतीय
संस्कृमत में श्रमण परम्परा के मवकास में पूज्य आर्ायष श्री का महत्वपूणष योगदान है। आर्ायष महाराि
के आशीवाषद से मवरागोदय तीथष पथररया में मवरागोदय महोत्सव आयोमित हो रहा है। इस
महामहोत्सव में देश के लाखों लोग सम्ममलत होगे और धमष लाभ लेने का सौभाग्य प्राप्त करेंगे।
डॉ. आशीर् कुमार िैन
(अमसस्टेंट प्रोफे सर)
िैन और प्राकृत अध्ययन मवभाग,
एकलव्य मवश्वमवद्यालय, दमोह

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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नोट: अब तक आपने 70 काररकाएाँ पढ़ ली हैं और समझ भी ली हैं अथाषतध स्वयं आपने अपने आप
के ज्ञान में अपने आपसे ही अपने आपके द्वारा मनरंतर अपने आपके मलए ही सम्यकध दशषन सम्यकध
ज्ञान और सम्यकध र्ाररत्र की वृमद्ध को समझ मलया हैं, अंगीकार भी कर मलया हैं. सम्यकध दशषन के
आठ अंगों के बारे में तदनंतर सम्यग्ज्ञान अमधकार अंग के साथ-साथ सम्यकध र्ाररत्र के बारे में भी
आपने प्रत्येक श्लोक के माध्यम से िाना. सम्यग्दशषन के साथ साथ मोक्ष मागष पर आगे बढ़ने के मलए
सम्यग्ज्ञान तो युगपत रप से प्राप्त हो ही िाता हैं परन्तु मफर आगे बढ़ने के मलए र्ाररत्र, सम्यकध र्ाररत्र
भी बहुत िरुरी है. आपको याद ही है मक सभी िीवों के कल्याण के मलए यह मागष, देशना के माध्यम
से बता रहे हैं परम पूज्य प्रमतपल स्मरणीय, ज्ञान मदवाकर, र्याष मशरोमणी, अध्यात्म योगी, आगम
उपदेष्टा, स्वाध्याय प्रभावक, श्रुत संवधषक, अध्यात्म रसायनज्ञ, अध्यात्म-भौमतक तंत्रज्ञ, आर्ायष रत्न
श्री १०८ मवशद्ध ु सागरिी महाराि. यह मवश्व प्रमसद्ध मगं लकारी देशना, परुु र्ाथष देशना िो मक महान
तत्त्व मवश्ले र्क आर्ायष श्री अमृतर्न्द्र स्वामी की महान रर्ना “पुरुर्ाथष मसदधध्युपाय” आधाररत हैं.
सभी इस देशना का रसपान करते हुए, भलीभााँमत समझकर मोक्षमागष पर अबाध गमत से अग्रसर हो
रहे हैं.
हम सभी ने अब तक मपछली 70 काररकाओ ं में िैन दशषन के मवमवध आयामों के बारे में नय
व्यवस्था, सम्यग्दशषन के आठों अंग, और यगु पत रप से ज्ञान का सम्यग्ज्ञान में पररवतषन, भावों का
पररणमन और सबसे महत्वपूणष मनग्रषन्थ आलौमकक वृमत्त को रत्नत्रय समहत िाना और समझा मक
मनग्रषन्थ अवस्था ही बंध से छूटने में उपकारी हैं. और अब तक यह भी िाना मक सम्यकध र्ररत्र के साथ
मकस प्रकार हम आगे मोक्ष पथ पर बढ़ सकते हैं. सवषज्ञ की वाणी के अनुसार बताये गए द्रव्य और
तत्त्व के श्रद्धान से मनन मर्ंतन करते हुए िाना मक सहिता से भव सागर को पार करने के मलए थोडा
सा िागरक रहना ही मनतातं सरल और आवश्यक हैं. इसके सरल सहि मवस्तारीकरण से यह भी
ज्ञान हो गया मक कै से हम महंसा से अपनी आत्मा का घात होने से बर्ा सकते हैं. हमारे भावों का
पररणमन अमहंसा स्वरुप हो िाता हैं. इस पूरी प्रमक्रया को और सरल बना मदया हैं परम पूज्य आर्ायष
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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रत्न श्री १०८ मवशद्ध ु सागरिी महाराि के आगम र्क्षओ ु ं द्वारा रोि-मराष के उदाहरणों से, सगु म और
सरल भार्ा, लोक मप्रय शैली के माध्यम से. मिनेन्द्र देव द्वारा बताये गए सात तत्त्वों का श्रद्धान करते
हुए सम्यगर् ध ाररत्र को भलीभांमत िानने का प्रयास कर रहें हैं.
मिनवाणी िगत कल्याणी और महावीर स्वामी की पावन मपयूर् देशना का रसपान, आर्ायष
श्री के मुखारमवंद से कणाषन्िुली द्वारा करते हुए आगे बढ़ते हैं और प्रस्तुत काररका 69 एवं 70 में कै से
शहद के सेवन से असख् ं य िीवों की महस ं ा कै से होती हैं और हमारे िीवन पर उसका क्या असर होता
है यह सब बता रहे हैं और मानवता ही मुख्यरप से धमष है और उस मागष में र्लते हुए श्रावक के मल ू
गुणों का पालन करने वाला ही मोक्ष मागी हैं. हमारे मनग्रषन्थ गुरुवयष हमारे िीवन में अपनी मवशुमद्ध
को बढ़ाते हुए कै से मोक्ष मागष पर अग्रसर होते हुए, मसद्ध बनकर अव्याबामधत सुख का वेदन करे. यह
मसफष हमारी कामना नहीं हैं परन्तु यह तो सम्यग्दशषन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्र्ाररत्र की एकता का
सफ ु ल हैं िो स्वमेव ही प्राप्त होता हैं. यही तो आर्ायष भगवन अमतृ र्न्द्र स्वामी हमें समझाने का
और उस पर र्लने का मागष बता रहें हैं. मिससे मसद्धमशला पर आरोहण कर िन्म मरण के अनन्त
दु:खो से रमहत होकर मनमवषकल्प अव्याबामधत सुख का वेदन कर सकें . मकतनी मनमषल और
करुणामयी दृष्टी है आर्ायष भगवन्तो की. वे हमारे दुःख से द्रमवत होकर सख ु ी होने का मागष बता रहे
हैं. यही हमारे पुरुर्ाथष की मसमद्ध का उपाय हैं.
इस ग्रथं राि का मगं लार्रण तो आपको कंठस्थ हो ही गया होगा. इस ग्रथ ं राि के मगं लार्रण
मिसमे आर्ायष भगवन श्री अमृत र्न्द्र स्वामी ने ज्ञान ज्योमत को ही नमस्कार मकया गया हैं. इसमें
व्यमि को नहीं, गुणों का ही वणषन हैं और पूज्य बताया गया हैं. और यही हमारे िैन दशषन का मूल
मसद्धांत हैं.

क्रमशःगतांक से आगे ....... अब तक पढ़ा था: राग द्वेर् आमद से रमहत िीव के द्वारा
बुमद्धपूवषक मकये गए योग्य आर्रण से भी कदामर्त महस ं ा हो भी िाती हैं तो भी िीव को महंसा का
दोर् नहीं लगता हैं और ठीक इसके मवपरीत प्रमाद आमद भावों के कारण अयत्नार्ार पवू षक मक्रया
से कोई िीव मरे या न मरे परन्तु महंसा का दोर् तो लगता ही हैं. इसी प्रकार बहुिनों की की महंसा
का फल एक को एवं एक की महस ं ा का फल अनेक को कै से ममलता हैं. सम्यग्दशषन को धारण
करनेवाले उन पुरुर्ों को िो सदा आत्मा का महत र्ाहते हैं, उन्हें कर्ाय से रमहत मिनधमष की पद्धमत
और युमियों के द्वारा भले प्रकार मवर्ार करके मोक्ष मागष पर सतत आगे बढ़ते रहना र्ामहए. श्रावक
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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के मल ू गण ु ों, अष्ट मल
ू गणु ों का पालन करते हुए, मोह राग के मद को छोड़ते हुए, तीनों मकार का,
मधु,मांस और ममदरा का त्याग करते हुए, र्ाररत्र को मनत-प्रमतमदन उंर्ाई पर बढ़ाते हुए, र्ार प्रकार
के महामवकारों को हेय िानकर अमलप्त होते हुए परम मदगंबर मनग्रषन्थ गुरु की शरण में और सम्यक्त्व
की राह में ममथ्यात्व का शमन करते हुए अपने मोक्ष मागष पर अग्रसर हों यही समझा रहें हैं. - आर्ायष
श्री अमृतर्न्द्र स्वामी के अभूतपूवष सूत्रों को समझाते हुए आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि के
मख ु ारमवदं से आत्म धमष को अत्यतं सरल शब्दों में, सहि रप से मन,वर्न,के से मत्रयोग पवू षक
समझते हैं ....र्मलए िानते हैं आगे ....

“हेय हैं र्ार महामवकार”


मधु मद्यं नवनीतं मपमशतं र् महामवकृतयस्ताः।
वल्भ्यन्ते न व्रमतना तद्वणाष िन्तवस्तत्र ।।71।।
अन्वयाथष : मधु मद्यं नवनीतं = शहद, ममदरा, मक्खन | र् मपमशतं = और मााँस |
महामवकृतयः = महामवकारों को धारण मकये हुए | ताः व्रमतना = ये र्ारों पदाथष व्रती पुरुर्
के | न वल्भ्यन्ते = भक्षण करने योग्य नहीं है | तत्र तद्वणाषः = वस्तुओ ं में उसी िामत के |
िन्तवः = िीव रहते है |
योमनरुदुम्बरयुग्मं ्लक्षन्यग्रोधमप्पलफलामन ।
त्रसिीवानां तस्मात्तेर्ां तद्भक्षणे महंसा ।। 72।।
अन्वयाथष : उदुम्बरयुग्मं = ऊमर, कठूमर अथाषतध अंिीर | ्लक्षन्यग्रोधमप्पलफलामन =
पाकर, बड़ और पीपल के फल | त्रसिीवानां योमनः = त्रस िीवों की योमन है | तस्मातध
तदध भक्षणे = इस कारण उनके भक्षण में | तेर्ां महंसा = उन त्रसिीवों की महंसा होती है |
मनीमर्यो ! आर्ायष अमृतर्ंद्र स्वामी ने अनुपम सूत्र मदया मक मिन-मिन मनममत्तों से आत्मा
कमष से बंधता है, वे सारे के सारे मनममत्त आत्मघात के हेतु होने से महंसक है. यहााँ पर आवश्यक नहीं
है मक तू मनममत्तामद द्रव्य का सेवन करे तभी बंध होगा, क्योंमक सेवन करने से पहले भावों द्वारा द्रव्य
के पास पहुाँर्ने से बंध हो िाता है. मसद्धांत र्क्रवती आर्ायष नेममर्ंद्र स्वामी ने गोम्मटसार (िीव
कांड) में पररणामों के दस कारणों की र्र्ाष की है मक मिसने िैसा भाव मकया, उसको वैसा बध ं
हुआ, लेमकन मबना भाव के मकसी को बंध होता नहीं. मनीमर्यो ! बंध क्षेत्र में नहीं, बंध द्रव्य में नहीं,

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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बध ं पदाथष में नहीं, बध ं तेरी पररणमत में होता है. िैसे टे लीमविन का काम अशभ ु मर्त्र मदखाना नहीं,
उसका काम तो मर्त्र मदखाना है, वैसे ही ज्ञान का काम शुभ या अशुभ नहीं होता, उसका काम तो
िानना होता है; परंतु पररणमत िैसी होती है वैसा शुभ या अशुभ होता है. इसी प्रकार िैसी कै सेट है,
िैसी आपने मफल्म बनाई है, वैसा उसमें आयेगा। ध्यान रखना, कमष-उदय को दोर् देना सबसे बड़ा
दोर् है, क्योंमक कमष के मवपाक को दोर् देना, नवीन कमष-बंध का कारण है. कमष - मवपाक याने कमष
का फल. अरे ! नल में िो पानी आ रहा है वह नल का दोर् नहीं है . टंकी में िैसा पानी भरा है, उस
भरनेवाले को दोर् दो. टॉटी का काम तो मनकालना है , पानी भरना नहीं. अतः नल की टोंटी पर
हथोड़े मत पटको. नल में पानी खारा नहीं है, भूमम में पानी खारा हैं उदय में पानी खारा नहीं होता तो
पररणमत खारी क्यों होती ? इसी कारण कमष का फल भी खारा है.
भो ज्ञानी ! कमष-बंध की प्रमक्रया को देखना. आि बध्यमान काल में मवर्ारने की
आवश्यकता है, पर बध्यमान मनमषल तभी होता है, िब भज्ु यमान मनमषल होता है. भज्ु यमान में नहीं
सम्हल पाये, तो बध्य अशुभ होगा-ही-होगा. मिस आयु को आप भोग रहे हो, यह भुज्यमान-आयु
कहलाती है. उस आयु के काल में आप िो बंध कर रहे हो, यह बध्यमान कहलायेगी. बध्यमान में
तमु क्या करोगे, भज्ु यमान में सभ ं ल िाओ. भज्ु यमान को आप ममटा नहीं सकते. िबमक बध्यमान
का उत्कर्ष भी कर सकते हो और अपकर्ष भी कर सकते हो और संक्रमण भी हो सकता है, लेमकन
मनघमत्त व मनकांमर्त का कुछ नहीं कर सकते, वह तमु को भोगना ही पड़ेगा. मनधमत्त व मनकांमर्त
आठों कमों में होता है. िैसे मक संत मनकल रहे, उनकी भमि-आराधना करके तुम अपने पुण्य को
संमर्त कर लो. इसी प्रकार कमष आ रहे हैं, िा रहे हैं, तुम अपनी पररणमत सुधार लो. लेमकन तुम कहो
मक हमारे पास शभ ु -कमष आ िाएाँ तो वह आनेवाले नहीं. तम्ु हारी अवस्था िैसी होगी, वैसा ही होगा.
इसमलए कमष मकसी के नहीं है. मिसने शुभ पररणमत की, उसे शुभरुप फल देते है. इसके मवपररत
अशुभ पररणमत में अशुभ फल देते है. आाँखों से कमष मदखते नहीं है. वह कमष मवपाक साता या
असाता के रप में आता है. वेदनीय-कमष का काम तो अनुभव कराना है, कमष को लाना नहीं है.
वेदनीय तो कमष वेदन कराता है. अन्तराय-कमष का क्षयोपशम लाभ- आन्तराय कमष को लाता है,
मोहनीय कमष उस पर कब्िा करा देता हैं और वेदनीय कमष भोग कराता है. भो ज्ञानी ! मनघमत्त व
मनकांमर्त कुछ नहीं करता, वह तो यह कहता है मक तुमको उतना भोगना पड़ेगा. मितना तुमने ग्रहण
मकया है, िैसा तुमने स्वीकार मकया है. वह तो इस प्रकार कहना र्ामहए मक रािा ने पहरेदारों को
आदेमशत कर मदया मक िाओ, उस व्यमि को फााँसी पर र्ढ़ा दो. उनका काम फााँसी पर र्ढ़ाना है,
लेमकन न वह कम कर सकता है , न वह बढ़ा सकता है. फांसी के फंदे खींर्ना हीन काम है, िो
बमु द्धशाली के नहीं, प्रज्ञाहीनों के होते हैं. ऐसे ही मनघमत्त व मनकांमर्त कह रहा है मक मेरे पास मववेक
नाम की वस्तु नहीं हैं मुझे आदेमशत मकया गया है, हम तो इतने समय तक तुमको रोके और ऐसे ही
क्षेत्र में तुमने अशुभ कृत्य कर डाला.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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भो ज्ञानी ! अन्य भेर्ों में कोई पाप मकया िाये उसके पररहार के मलये मिनभेर् होता है ,
लेमकन मिनभेर् में ही तुमने पाप कर डाला तो ध्यान रखना, वहााँ भी मनधमत्त व मनकांमर्त होगा -
अन्यमलगं े कृतमध पापम,ध मिनमलगं े मवनश्यमत ।
मिनमलंगे कृतमध पापम.ध वज्रलेपो भमवष्यमत ।।अ.पा.टीका।।
भो ज्ञानी आत्माओ ! क्लेश आमद कुछ भी पररणमत आपने की, तो बंध होगा. इसीमलये
कमष कहता है मक मेरा कोई दोर् नहीं है; तेरे भावकमष न हों, तो द्रव्यकमष कभी नहीं होगा. देखो, कांसे
की थाली में सइु यााँ भरो और नीर्े से घमु ा दो र्ुम्बक को तो सईु यााँ अपने आप थाली में घमू ने लगेंगी.
लोग इसे र्मत्कार कहेंगे मक क्या गिब की ममहमा है ? भो र्ेतन ! आत्मा घूम रही है, आकाश में
उड़ रही है, नीर्े देखो पुण्य-कमष की र्ुम्बक लगी है तो, भो ज्ञानी! यह मनुष्य-पयाषय आपको ममली
है और मिस मदन नीर्े की र्ुम्बक के शक्त्यांश अमधक बढ़ िायेंगे और ऊपर के शक्त्यांश कम रहेंगे
तो नीर्े टपक िाओगें इसका नाम नरक है. मिस मदन ऊपर की र्ुम्बक के शक्त्यांश ज्यादा होंगे और
नीर्े की र्ुम्बक कम हो गई तो तमु ऊपर र्ले िाओगे. अब बताओ, र्ुम्बक का क्या दोर् ? लेमकन
र्ुम्बक कह रही हैं मक मैं तो घुमाती हाँ यमद आप में िरा भी लोहा होगा तो मैं खींर्ती रहाँगी और
मिस मदन शुद्ध सोना बन िायेगा तब सोने पर र्ुम्बक नहीं र्लेगी. ऐसे ही शुद्ध आत्मा पर कमों की
र्ुम्बक नहीं र्लती. इसीमलये उदय को दोर् नहीं देना. उदय काल में साम्य-पररणामों से नवीन कमों
का बंध नहीं होगा और पुराने कमष झड़ िायेंगे.
भो ज्ञामनयो ! अब पनु ः समझना यह उदाहरण मैं आपको कई बार दे र्ुका हाँ. पर् ं परमगरुु
का स्थान, देव-शास्त्र-गुरु का स्थान र्ूल्हा सदृश है. मववेकी-ज्ञानी रोटी को र्ूल्हे में डालकर घुमाता
िाता है और यमद रखी छोड़ दी तो िल िायेगी. ऐसे ही पंर्-परम-गुरु के र्रणों में आप रोि आना,
वदं ना करना, प्रदमक्षणा देना. वहााँ आप बैठोगे तो राग की बातें शुर करोगे और राग-द्वेर् की बातें
शुर हुई मक िलना शुर हुआ. इसीमलये िब भी धमषक्षेत्र में आओ तो, भो ज्ञानी! िैसे र्ूल्हे में मां
रोटी को घमु ाती रहती है, ऐसे तमु घमू ते रहना, लेमकन वहााँ अपना स्थाई भाव बनाकर मत बैठ िाना
और िहााँ तुमने कत्ताष -भाव बनाये, समझ लेना तुम्हारे ही भगवानध तुम्हें अशुभ का बंध कराने लगेंगे
क्योंमक राग पररणमत है तो अशुभ का बंध, भमि-भाव है तो शुभ का बंध. अब र्ाहे तुम्हारा बेटा ममु न
बन गया हो, र्ाहे पड़ोसी का बेटा, यमद भावमलगं ी यमत है और आपने उसके सामने कोई गड़बड़
काम मकया तो ध्यान रखना, अशुभ का बंध मनयम से होगा. संयम वीतरागी अरहंतदेव का वेर् है,
यह मत सोर्ना मक यह तो हमारे घर के महाराि हैं , इस प्रकार यह िीव बंध तो हाँस-हाँस के करता है
और िब कमष का मवपाक आता है तो आाँखों से आाँसू टपकते हैं, नाक से नाक बहती है. बाल मबखर
िाते है और अशुभ- कमष शरीर पर प्रगट होता मदखता है। यह कमष-मसद्धांत मुमन को भी नहीं छोड़ता,
तीथंकर को भी नहीं छोड़ता.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
भो ज्ञानी ! कमष-मसद्धांत को ध्यान में रखो. भगवानध आमदनाथ स्वामी ने उसी पयाषय में
राज्यकाल में पशुओ ं को आहार करने से रोकने के मलए उनके मुाँह को बंधना (मुशीका) लगवाया था.
अंत: छह माह तक आहार-मवमध नहीं ममली, क्योंमक मसद्धांत याने मसद्धांत, तीथंकर पाश्वषनाथ पर
उपसगष आया, तीथंकर सुपाश्वषनाथ पर उपसगष आया, अमन्तम तीथंकर महावीर स्वामी पर उपसगष
आया, यह सब पूवष के मवपाक थे. अहो ! कमों ने तीथंकर को भी नहीं छोड़ा, तो अब तुम मकसी की
भलाई-बरु ाई के बारे में मत सोर्ना. एक ग्रामीण व्यमि बहुत लम्बा कपड़ा मसर पर बांधे हुये था.
वह इतना लम्बा था मक नीर्े तक लटकते र्ला िा रहा था. िमीन पर कपड़े को देखकर सेठिी
बोले, भैया! क्यों फाड़ रहे हो, तमनक ऊपर कर लो वह कहने लगा-मिसने इतना बड़ा मदया है, फट
िायेगा तो और दे देगा. सेठिी शांत हो गयें तमनक आगे र्ले सो एक भैया ममलें िो पैर की िूमतयााँ
ऐसे दबाये थे िैसे बच्र्े को दबाये हों सेठिी बोले -भैया, इन्हें पहन लो, भूमम गरम हैं भैया बोले –
सेठिी ! आपका पण्ु य है तो मफर खरीद लोगे, पर हम कहााँ से लायेंगे ? हम तो तनक-तनक पहन लेते
है. और िब कोई गााँव/शहर आ िाता है, तो पहन लेते है. इतने में वहााँ से रािा के कमषर्ारी गरीबों
को मदद देने हेतु मनकल पड़ें. उन्होंने फटे फे टा वाले को देखा और नोट कर मलया मक इसकी व्यवस्था
करना पड़ेगी परंतु िमू तयााँ लेनेवाले व्यमि के बारे में कुछ नहीं मलखा.
भो ज्ञानी आत्माओ ! यह तो दृष्टान्त था िो अपने आप में स्वयं व्यवस्था मकये बैठे हैं, कमष
भी कहता है मक ठीक है तमु इतने ही ठीक हो. और िो अपनी िैसी व्यवस्था मकये होता है उसकी
वैसी व्यवस्था होती है. अतः आप मर्ंता मत करो, कताष बनकर मत मिओ, लेमकन वस्तु व्यवस्था
मवमध है, संर्ालक है और िो संर्ालक है वही कमष है, कमष मसद्धांत कहता है मक घृणा मकसी से मत
करों मिससे आप घण ृ ा कर रहे हो, वह भी कल भगवानध बन सकता है, यह ध्यान रखों गहरे पानी में
बुलबुले कम आते हैं, उथले पानी में बुलबुले ज्यादा उठते है. मिनके पास तमनक-सा पुण्य है और
वतषमान में मदखने लगा, तो फूल िाते हैं ऐसे उथले लोग खाली गगरी की तरह होते हैं, िो ज्यादा
छलकती है. पर भरी गगरी नहीं छलकती 13वें गुणस्थान में के वली भगवानध तीथंकर से बड़ा पुण्य
मकसी का नहीं होता है. ध्यान रखो, तुम्हारे पास थोड़ा- सा तो पुण्य है और इतने फूलते हो. अतः उतने
ही नीर्े मगर िाते हो.
मनीमर्यो ! ऐसे अल्प पुण्य के योग में मनधमत्त व मनकामर्त-िैसे कमष का बंध मत कर लेना,
अन्यथा मिनके र्रणों में मकया है, वे भी तुम्हें नहीं छुड़ा पायेंगे. धवलािी में मलखा है मक पंर्-
परमगुरु की भमि ऐसी होती है िो इन कमों में भी मशमथलता ला देती है. एकमात्र उन्हीं पर् ं परमेष्ठी
की भमि के अलावा और कोई दूसरा उपाय नहीं हैं इसमलये ऐसे पुण्य के योग में और ऐसी मनमषल
पयाषय में उस पण्ु य की वमृ द्ध तो करना, लेमकन अभक्ष्यों को खा-खाकर अपनी हालत खराब मत कर
देना आिकल कच्र्ा मक्खन (बटर) खाने का बड़ा ररवाि र्ल र्ुका हैं 'मूलार्ार' िी में कहा है-
मधु, मद्य, मांस और मक्खन, ये र्ारों महामवकृमतयों/महामद को उत्पन्न करनेवाली हैं िब मक्खन
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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का मपडं खा रहे हो, तब मर्ंतन िरर कर लेना मक यह क्या हो रहा है ? अरे भाई ! मकसी डेरी पर दूध
लगवा लो पााँर् मकलो और घर में िमा दो, उसमें से घी मनकाल लो शुद्ध खाओ. अहो ! ऐसे अभक्ष्य
घी की अपेक्षा से रखा खाना श्रेष्ठ है , पर वह मक्खन भक्षण करने योग्य नहीं है . उस मधु, मक्खन
आमद में उसी वणष के , उसी रंग के िीव होते हैं आप कहोगे मक मदख तो रहे नहीं है. अरे ! ममट्टी में
ममट्टी के िीव कभी मदखते नहीं हैं, परंतु िीव होते अवश्य है. पंर् – उदबं र – फल - (ऊमर, कठुमर,
पाकर, अंिीर और पीपल के फल) अभक्ष्य हैं, क्योंमक फोड़ने पर उड़ते हुए िीव मदखते हैं उसके
भक्षण में मनयम से महंसा होती हैं इसमलये पंर्-उदम्बर-फलों का त्याग अवश्य ही करना र्ामहए.

“भगवानध महावीर स्वामी की िय”

देहरा, मतिारा (राि.) मस्थत


श्री मंमदरिी के मशखर,
मूलनायक श्री र्न्द्रप्रभु भगवानध ,श्री पाश्वषनाथ भगवानध
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नोट : पूवष के दो अंक से एक नए ऐसे ग्रन्थ का प्रारंभ मकया था मिसका शीर्षक है “सुनयनपथगामी”.
नाम से आप समझ ही गए थे और पढ़ने के बाद तो आपके फोन और समार्ार की बाढ़ ही आ गयी
थी. इस ग्रन्थ का सम्पादकीय और मूल स्तोत्र का मवस्तार बहुत ही र्र्ाष का मवर्य रहा, यह िानकार
भी अमत प्रसन्नता हुई. इस ग्रन्थ की मवशेर्ता यह है मक यह सम्पूणष मवश्व में प्रथम बार िैन दशषन के
एक स्तोत्र “महावीराष्टक” पर हुए प्रवर्न को मलमपबद्ध मकया गया हैं. परम पूज्य मदगाम्बरार्ायष श्री
मवशुद्ध सागर िी महाराि तो सदैव बताते आये हैं मक मााँ मिनवाणी के वर्न मकतने प्रासंमगक,
रसदायक और कणषमप्रय होते है मक भावों की मवशमु द्ध बढती ही िाती हैं अतः एक श्रोता भी तन्मय
होकर मिनवाणी का रसपान मुग्ध होकर करता हैं. आप सभी िानते ही हैं मक इस अनुपम, अनमोल,
अमर, मनोज्ञ, अमृतधारा से मसंमर्त स्तोत्र के कृमतकार ‘श्री भागर्ंद िी’ हैं. इस पर बहुत ही सुन्दर
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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अमवस्मणीय प्रवर्न श्रमण परम पूज्य मदगम्बरार्ायष अध्यात्म योगी, र्याष मशरोममण, आगम उपदेष्टा,
समयसारोपासक आर्ायष रत्न श्रमण श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि के सुमशष्य श्री १०८ सुप्रभ
सागरिी की देशना है और इसमे सोने में सुगंध का कायष इसके सम्पादकीय लेख से हुआ हैं. इसका
सफल सपं ादन भी श्रतु सवं ेगी श्रमण श्री १०८ सव्रु त सागर िी ममु न महाराि द्वारा मकया गया गया हैं.
आप सभी िानते ही हैं मक श्रमण श्री १०८ सुव्रत सागर िी मुमन महाराि भी परम पज्ू य मदगम्बरार्ायष
अध्यात्म योगी, र्याष मशरोममण, आगम उपदेष्टा, समयसारोपासक आर्ायष रत्न श्रमण श्री १०८
मवशद्ध
ु सागर िी महाराि के समु शष्य हैं. आपकी ज्ञान-पीपासा/मिज्ञासा को ध्यान में रखते हुए हम
यहीं नोट को मवराम करते हुए सीधे सीधे मूल मवर्य पर र्लते हैं.
श्री महावीराष्टक स्तोत्र
यदीये र्ैतन्ये मुकुर इव भावामश्चदमर्त:,समं भामन्त ध्रौव्य-व्यय-िमन-लसन्तोऽन्तरमहता:।
िगत्साक्षी मागष-प्रकटन-परो भानुररव यो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥1॥
अताम्रं यच्र्क्षु: कमलयगु लं स्पन्द-रमहतं, िनानध कोपापायं प्रकटयमत वाभ्यन्तरममप।
स्फुटं मूमतषयषस्य प्रशममतमयी वामतमवमला, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥2॥
नमन्नाके न्द्राली-मुकुटममण-भा-िाल-िमटलं, लसत्पादाम्भोि-द्वयममह यदीयं तनुभृताम।ध
भवज्ज्वालाशान्त्यै प्रभवमत िलंवा स्मृतममप,महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥3॥
यदर्ाष - भावेन प्रममु दत - मना ददुषर इह, क्षणादासीत्स्वगी गण ु गण-समद्ध
ृ : सख
ु -मनमध:।
लभन्ते सद्भिा: मशवसख ु समािं मकमु तदा, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥4॥
कनत्स्वणाषभासोऽ्यपगत-तनुज्र्ञान-मनवहो, मवमर्त्रात्मा्येको नृपमतवरमसद्धाथषतनय:।
अिन्मामप श्रीमानध मवगतभवरागोऽद्भुतगमतर-ध महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥5॥
यदीया वाग्गङधगा मवमवधनयकल्लोलमवमला,बहृ ज्ज्ञानाम्भोमभिषगमत िनतांयास्नपयमत।
इदानीम्येर्ा बुधिनमरालै: पररमर्ता, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु में ॥6॥
अमनवाषरोद्रेकसध - मत्रभुवनियी काम-सुभट:, कुमारावस्थायाममप मनिबलाद्येन मवमित:।
स्फुरनध मनत्यानन्द-प्रशम-पद-राज्याय स मिन:,महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे॥7॥
महामोहातङधक-प्रशमन-पराकमस्मकमभर्ग,ध मनरापेक्षो बन्धमु वषमदत-ममहमा मङधगलकर:।
शरण्य: साधनू ां भव - भयभृतामत्त ु मगण ु ो, महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥8॥
महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्या भागेन्दुना कृतम।ध
य: पठे च्छृणयु ाच्र्ामप, स यामत परमां गमतम॥ध 9॥
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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इस महानध महावीराष्टक स्तोत्र पर द्वय मुमनरािों की देशना और सम्पादकीय ........
सुनयनपथगामी : देशनाकार : श्रमण श्री १०८ सुप्रभ सागरिी मुमन महाराि
मूल महावीराष्टक स्तोत्र के कृमतकार : कमववर पंमडत श्री भागर्ंदिी
सम्पादक : श्रतु सवं ेगी श्रमण श्री १०८ सव्रु तसागर िी ममु न महाराि

श्री १००८ महावीर स्वामी श्रमण श्री १०८ सुव्रतसागर िी महाराि


अब तक आपने पढ़ा ....
सम्पादकीय : नमामम भारतीं िैनीं, सवष सन्देह नामशनीम।ध
भानुभाममव भव्यानां, मनः पद्म मवकामसनीमध ॥09॥
मदगम्बरों के पमवत्र ममस्तष्क से मिस अद्भुत ज्ञान का प्रवाह उद्भूत हुआ, उसने मदगध मदगन्त
तक समग्र मवश्व के भव्यों के आन्तररक अंधकार को हटाकर उन्हें पावन मकया है। वीतरामगयों की
महत- ममत-मधुर-गंभीर, मनभावन वाणी ने प्रामणयों के आध्यामत्मक उत्कर्ष के साथ-साथ उनके
आत्म-शोधन, आत्म िागरण में श्लाघनीय योगदान मदया है। वीतराग श्रमण सस्ं कृमत, मवश्व की पमवत्र,
पौरामणक, प्रमामणत तथा स-ु प्रमसद्ध मान्य संस्कृमत, मिसमें अमहंसा, अनेकांत, स्याद्वाद अमर मसद्धांत
के साथ आत्मोत्थान को ही लक्ष्य बताया है | मकसी धमष-गुरु, मनीर्ी, दशषन - शास्त्री, अध्यात्म-
अध्येता, मवद्वान,ध तपस्वी, पद-यात्री, करपात्री द्वारा सृमित धमष-ग्रंथ के संपादन पर भी प्रकाश डाला
है िो महत्त्वपूणष व श्रम-साध्य होता है । और उसकी तुलना दपषण से की है िो मक लघु नमवन सृिन
होता है कृमत की प्रमतममू तष सम्पादकीय में । सम्प्रमत में कुछे क लेखक और सम्पादक नाम के लोभ में,
सामहत्य से अनथष कर रहे हैं । लेखक, संपादक को यथायोग्य आगम, दशषन एवं भार्ा के बोध होना
ही र्ामहए िैसे वाहन र्ालक यमद र्ूक िाये तो दो-र्ार के प्राण िायेंगे, परन्तु यमद विा या लेखक

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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र्ूक गया तो हिारों की श्रद्धा के प्राण मनकल िायेंगे । प्रस्ततु कृमत "सनु यन पथगामी" के उपदेष्टा
परम पूज्य श्रमण रत्न 108 श्री सुप्रभसागर िी अध्यात्म-मवद्या के अध्येता, आगम ज्ञाता, मर्ंतक,
लेखक, बहु प्रमतभा सम्पन्न मदगम्बर मुमन ने यह कृमत सम्पादन हेतु दी िो मेरे प्रमत गहरा गाढ़ आमत्मय
लगाव, ममत्रता तथा वात्सल्य और अग्रि, सहपाठी, सखा हैं । प्रस्तुत कृमतः सुनयन पथगामी ग्रन्थ
में आप पायेंगे श्रम से शास्त्र - सृिन, आत्म परक शैली, प्रवर्न में काव्यानुभूमत, आगम की श्रुमत,
भार्ा-माधयु ष, मसद्धांत, धमष एवं दशषन । पाठकगण को भाग्यशाली बताया गया हैं मिसके कर-कमलों
में आभीक्ष्णज्ञानोपयोगी, आध्यामत्मक एवं रोर्क प्रवर्नकार, श्रमण रत्न 108 मुमन श्री सुप्रभ सागर
िी द्वारा "महावीराष्टक स्तोत्र" पर उपमदष्ट सुकृमत "सुनयन-पथगामी" शोभायमान हो रही है। यह
स्तुमत-मय कृमत है। "पद्य पर गद्यमय टीका" । िो अररहंत प्रभु की भमि से िोड़ने के साथ-साथ,
पूिन-भमि-स्तुमत के दोर्ों को प्रक्षामलत करती हुई शुद्ध-मवशुद्ध-भमि का सम्यकध बोध प्रस्तुत करेगी।
"सनु यन-पथगामी" के पारायण से पाठकों को स्तमु त के सम्बध ं में आवश्यक मदशा-मनदेश प्राप्त होंगे।
भमि-स्तुमत पूिन कब?, कै से, मकतनी, क्यों करना? इन सभी मिज्ञासाओ ं के समाधान से प्रभु-भमि
के प्रमत सदध-प्रेरणा मिससे होगा पूवष कमोपामिषत पाप-क्षय और पुण्य-वृमद्ध, भावों की मवशुमद्ध,
वैराग्य, भाग्योदय िो आत्मोत्थान में सहायक होगा। यह महावीराष्टक : महावीर की स्तमु त : लोकोमि
अनुसार तीथंकर भगवान महावीर अपर नाम वद्धषमान स्वामी की स्तुमत में मलखा गया एक संस्कृत
भार्ा में, मात्र आठ छंदों में मनबद्ध, अमर स्तोत्र है िो लघु पर मकसी परु ाण से कम नहीं है । इसका
वार्न बहुधा िैन प्रमतमदन करते हैं। भले ही यह रर्ना 'वीतराग श्रमण संस्कृमत के आराधक, कमववर
पमण्डत श्री भागर्न्द िी द्वारा मवरमर्त है, मफर भी यह 'महावीराष्टक स्तोत्र' बहुप्रर्मलत एवं मवश्व
मप्रय है मक िैनदशषन की मवमभन्न मान्यताओ ं को मानने वाले मदगम्बर ही नहीं, अमपतु श्वेताम्बर
मूमतषपूिक, तेरापंथी, बीस पथ ं ी, स्थानक, समैया लगभग सभी मिन उपासकों का कण्ठाहार हैं।' आठ
छंदों का यह लघु मनभावन स्तोत्र के गूढतमध रहस्यों को मुमनश्री सुप्रभसागर िी ने आध्यामत्मक,
मर्ंतनपरक उपदेशों के माध्यम से उद्घामटत मकया है । लोक प्रमसमद्ध एवं िन उपयोमगता के र्लते यह
स्तोत्र पूिन, स्तोत्र आमद सभी पुस्तकों मैं मप्रन्ट रहता है। महावीराष्टक के कताष :पमण्डत श्री भागर्न्द्र
िी छाबड़ा उर्ष भाई िी बहुर्मर्षत अमर-मशल्पी सामहत्यकार, बहु-प्रमतभा सम्पन्न, सस्ं कृत, प्राकृत
भार्ा के पारंगत मनीर्ी सारस्वत कमव, प्रकाण्ड मवद्वानध एवं कुशल आध्यामत्मक प्रवर्नकार का
िीवन वृत्त भी पाठकों के ज्ञान वृमद्ध हेतु बताया गया हैं । 'महन्दी पद संग्रह', 'सााँर्ी तो गंगा है वीतराग
वाणी..... यह लोक प्रर्मलत मिनवाणी स्तुमत भी सरल स्वभावी, मृदुभार्ी, भद्र पररणामी पमण्डत
भागर्न्द्र िी द्वारा रमर्त है। सैंकड़ों भिन एवं मिनवाणी स्तुमतयों के रर्मयता थे पमण्डत िी । वतषमान
र्ौबीसी के अंमतम शासन-नायक, अमहस ं ा के पक्षधर, मवश्व मवख्यात तीथंकर भगवान महावीर स्वामी
हैं। आपने िगमत को अमहंसा, सत्य, अर्ौयष, ब्रह्मर्यष, अपररग्रह के मसद्धांत प्रदान मकए। ऐसे
महाश्रमण तीथंकर महावीर के नाम से सम्पूणष मवश्व में पररमर्त का िीवन वृत्त भी सम्पादकीय से
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ज्ञात होता है । अतः यह सम्पादकीय भी अपने आप में एक ग्रन्थ बन गया है । वीर, अमतवीर, सन्ममत,
वधषमान एवं महावीर नाम से िगत-ध प्रमसद्ध हुए भगवानध महावीर का तीथंकाल 21 हिार 42 वर्ों का
रहा है । अब आगे मदगाम्बरार्ायष अध्यात्म योगी, र्याष मशरोममण, आगम उपदेष्टा श्रमणार्ायष श्री
१०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि के सुमशष्य श्रुत सवं ेगी श्रमण श्री १०८ सुव्रतसागर िी महाराि के
सम्पादकीय में पढ़ते हैं ....
आप ही मात्र ऐसे तीथंकर है मिन्होंने एकाकी दीक्षा धारण की. दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष
तक आप छद्मस्थ अवस्था में पूणषतः मौन रहे तात पश्चातध वैशाख शुक्ल दशमी, पुवाषन््काल, माघ
नक्षत्र में, ऋिुकूला तीर पर, शाल वृक्ष के तले आपको के वल्यज्ञान उत्पन्न हुआ. के वलोत्पमत्त उपरांत
66 मदनों तक आपकी मदव्य-देशना नहीं मखरी. पाठकों को ज्ञातव्य हो मक -भगवानध महावीर स्वामी
का प्रथम समवसरण मवपुलार्ल पवषत रािगृही पर लगा था.
महाश्रमण तीथंकर महावीर स्वामी के समवसरण में इद्रं भमू त, वायभ ु तु ी, अमग्नभतु ी ने अपने
पांर्-पांर् सौ मशष्यों के साथ अथाषतध एक ही मदन में 1503 लोगों ने मशष्यता स्वीकार की, यही मदन
“गुरु-पूमणषमा” के नाम से सम्पूणष मवश्व में महोत्सव के रप में मनाया िाता हैं. तीथंकर महावीर की
प्रथम देशना श्रावण कृष्णा प्रमतपदा, शमनवार 1 िल ु ाई, ई. प.ू 557 में मखरी थी. तब वहााँ रािा श्रेमणक
ने 60 हिार प्रश्न मकये थे. तीथंकर महावीर की ख्यामत मदग-ध मदगन्त, सात समंदर तक फै ली हुई हैं, उसी
का सफ ु ल है मक –“अमखल मवश्व में तीथंकर महावीर की िन्म-ियतं ी हर्ोल्लास पवू षक मनाई िाती
है.” तीथंकर महावीर स्वामी की प्रवर्न सभा अथाषतध समवसरण एक योिन मवस्तार वाला था. तीस
वर्ष आपका के वली काल रहा. आपकी धमष सभा में मुख्य, प्रधान गणधर इद्रं भूमत समहत कुल ग्यारह
गणधर थे. र्ौदह हिार ऋमर्, तीन सौ पवू षधर, नौ हिार नौ मशक्षक, एक हिार तीन सौ अवमधज्ञानी,
नौ सौ मवमक्रयाधारी, सात सौ के वली, पांर् सौ मवपुलमती, र्ार सौ वादी, छत्तीस हिार आमयषका
मातािी, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्रामवकाएं आमद मवरािमान रहते थे.
मनवाषण के दो मदन पूवष योग-मनवृमत्त कर कामतषक कृष्ण अमावस्या की प्रत्युर् बेला में, स्वामत
नक्षत्र में पावा नगरी, सम्प्रमत पावापुर से मोक्ष प्राप्त मकया. आपके मनवाषणोत्सव में देवों ने स्वगष से
आकर महोत्सव मनाया और मनवाषण स्थल की भमू म की रि-कण मनष्ु य-देवों ने भमि -श्रद्धा पवू षक
शीश पर लगाया, फलतः वहां मवशाल गडधढा हो गया िो वतषमान में पावापुर सरोवर के नाम से मवश्व-
मवख्यात है, िहााँ तीथंकर महावीर स्वामी के पार्ाण खण्ड पर अंमकत र्रण स्थामपत हैं. िहााँ अभी
भी अनेक र्मत्काररक घटनायें होती रहती हैं | तीथंकर भगवान महावीर स्वामी देश ही नहीं सम्पूणष
मवश्व में अमहंसा के अग्रदूत के रप सु-ख्यात थे। उनका स्तुमत-वंदन िैनार्ायों के साथ अन्य दशषनों में
भी श्लाघनीय, स्तत्ु य, स्मरण मकया है।
अंगुत्तर मनकाय में मलखा है मक- 'नाथपुत्र तीथंकर भगवानध महावीर सवषदृष्टा, अनन्तज्ञानी
प्रत्येक क्षण पूणष सिग एवं सवषज्ञ रप से मस्थत थे। 'न्याय मबन्दु' में तीथंकर महावीर को सवषज्ञ,
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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के वलज्ञानी, आप्त कहा है। ममज्झममनकाय में मलखा है मक- तीथंकर महावीर सवषज्ञ, सवषदशी सम्पण ू ष
ज्ञान व दशषन के ज्ञाता थे। दीघषमनकाय में मलखा है- भगवानध महावीर तीथंकर हैं, मनुष्यों द्वारा पूज्य हैं,
गणधरार्ायष हैं।'
मसंह की पयाषय में तीथंकर महावीर स्वामी के िीव को महामुमन अममतकीमतष एवं अममतप्रभ
ने संबोधन मकया था। पश्चातध उनका िीव क्रमशः सौधमष स्वगष में देव, कनको-ज्वल रािा, लान्तव
स्वगष में देव, हररर्ेण रािा, महाशक्र
ु स्वगष में देव, मप्रय ममत्र नामक रािपत्रु , बारहवें स्वगष में देव, नन्द
रािा, अच्युत स्वगष में इन्द्र और मफर तीथंकर श्री पाश्वषनाथ के मनवाषण के 178 वर्ष उपरांत तीथंकर के
रप में बालक महावीर का िन्म हुआ।
मसंह की पयाषय में सम्यग्दशषन प्राप्त मकया पश्चातध नन्द रािा की पयाषय में संयम धारण करके
प्रोमष्ठल गुरु के पादमूल में तीथंकर प्रकृमत का बन्ध मकया था | दीक्षोपरांत मुमन महावीर पर भव
नामक यक्ष अथवा स्थाणु नामक रुद्र ने उपसगष मकया। मालवा उज्िैन में भी मक्षप्रा तट पर महाममु न
महावीर पर उपसगष हुआ था। कै वल्योत्पन्न होने पर तीथंकर महावीर स्वामी के समवसरण में इन्द्रभूमत
(गौतम), वायुभूमत, अमग्नभमू त, सुधमाषस्वामी, मौयष, मौन्द्र, पुत्र, मैत्रेय, अकम्पन, अन्धवेला तथा
प्रभास ये ग्यारह गणधर थे। प्रमख ु गणधर गौतम स्वामी थे। प्रमख ु गमणनी र्न्दना एवं प्रमख ु श्रोता
सम्राटध श्रेमणक थे।
तीथंकर महावीर और उनकी आर्ायष परम्परा, भाग-1 में मलखा है मक- आर्ाढ़ शक्ु ल र्ष्ठी,
शुक्रवार 17 िून, ई.पू. 599 में गभष कल्याणक, र्ैत्र शुक्ला त्रयोदशी सोमवार 27 मार्ष, ई.पू. 598 में
िन्म कल्याणक, मगामसर कृष्ण दशमी, सोमवार 29 मदसम्बर, ई.पू. 569 दीक्षा कल्याणक, वैशाख
शक्ु ल दशमी, रमववार 23 अप्रैल ई.प.ू 557 में ज्ञान कल्याणक तथा कामतषक कृष्ण अमावस्या,
मंगलवार 15 अक्टूबर ई.पू. 557 में मवक्रम सवं तध पूवष 470, शक पूवष 605 में मनवाषण हुआ।
तीथंकर वद्धषमान महावीर स्वामी के पााँर् नाम लोक में बहुप्रर्मलत हुए वीर, वद्धषमान,
सन्ममत, महावीर और अमतवीर |

(1) वीर : िन्मामभर्ेक के समय इन्द्र को मिज्ञासा हुई मक तीथंकर बालक इतने बड़े- बड़े कलशों के
िल प्रवाह को सहन कर पायेंगे मक नहीं? इसे बालक ने अवमधज्ञान से िानकर पैर के अंगूठे से
मेरुपवषत को थोड़ा-सा दबाया तो देवगण मगरने लगे, तब इन्द्र को ज्ञात हुआ मक इनका अतुल बल
है। तभी इन्द्र ने 'वीर' संज्ञा से संबोधन मकया।
(2) वद्धषमान: िब से मशशु मााँ के गभष में आया तब से घर नगर, राज्य में धन-धान्य की वृमद्ध प्रारम्भ
हो गई, अतैव तभी िनक सम्राटध मसद्धाथष के सुपुत्र का नामकरण 'वद्धषमान' कर मदया।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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(3) सन्ममत : सञ्िय और मविय नाम के दो र्ारण ऋमद्धधारी मुमनयों को तत्त्व सम्बन्धी कुछ
मिज्ञासा हुई, युवक तीथंकर वद्धषमान पर दृमष्ट पड़ते ही उनकी मिज्ञासा का समाधान हो गया, तब
मुमनयों ने वद्धषमान का नाम 'सन्ममत' रखा।
(4) महावीर : तीथंकर बालक वद्धषमान ममत्रों के साथ वृक्ष पर खेल रहे थे, तब वहााँ संगमदेव ने
भयभीत करने के मलए मवकराल सपष का रप धारण कर वक्ष ृ के तने से मलपट गया। सभी ममत्र डर गए
और इधर-उधर भागने लगे, मकन्तु बालक वद्धषमान सपष के ऊपर र्ढ़कर ही खेलने लगे। ऐसा देख
संगमदेव ने अपने वास्तमवक रप में आकर वद्धषमान के बल की प्रशंसा कर उनका 'महावीर' नाम
रख मदया।
(5) अमतवीर : एक मदोन्मत्त हाथी िो मकसी के वश में न होकर उत्पात मर्ा रहा था। सभी ने बहुत
प्रयास मकया वह वश न हुआ, मफर वह महावीर को देख नतमस्तक हो गया, तब िनसमूह ने कुमार
की प्रशंसा की और उनका नाम अमतवीर रख मदया।
ग्रथ
ं कार श्रमण सप्रु भसागर िी : मदगम्बर मिनशासन, 'वीतराग भ्रमण सस्ं कृमत' के
सम्प्रमत शुभ्राकाश में उद्योमधत मसतांशु, युवाओ ं के प्रेरणा- पञ्ु ि, आध्यामत्मक प्रवर्नों
के सफल - प्रस्तोता, आर्ष-परम्परा पोर्क, करुणामूमतष, मर्ंतक, लेखक, मनशंक स्पष्ट
विा, वात्सल्य वाररधी, क्षमाशील, तकष शील, न्याय-मनपण ु , कमवत्व कला मनष्णात,
महन्दी - महतैर्ी, अनवु ादक, उपसगष ियी, ज्ञानी, अध्यात्म-रस-रमसक, प्रज्ञावतं , अभीक्ष्ण
ज्ञानोपयोगी, मनोज्ञ, ध्यानी, सरल स्वभावी, बहुभार्ाभार्ी, प्रमतभावान, वीतरागी,
मनग्रषन्थ, श्रमण रत्न मुमन 108 श्री सुप्रभसागर िी मवमशष्ट व्यमित्व एवं मनभावन कृमतत्व
के धनी हैं। आपकी प्रवर्न शैली मन को मोहने वाली है। िब आप धमष सभा में मवरािकर धमोपदेश
देते हैं तो भव्य-िन शांत हो िाते हैं। हिारों-हिार िैन-िैनेतर आपकी 'मदव्य- 'वाणी' का पान कर
अपना अहो भाग्य मानते हैं। आपके प्रवर्नों का लाभ दूर-दराि, सात- समन्ु दर पार तक पहुाँर् सके
इसी उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत "सनु यन पथगामी" सक ृ न हुआ है। कृमत यथाथष में
ु ृ मत का सि
कृमतकार के व्यमित्व के साथ-साथ कृमतत्त्व की प्रमतमूमतष होती है।
प्रस्तुत सुकृमत "सुनयन-पथगामी" के उपदेष्टा अध्यात्म मवद्या के अध्येता, श्रमण मुमन श्री
सुप्रभसागर िी हैं आपका िन्म िननी मााँ के िनक, नाना के यहााँ कोल्हापुर महाराष्र में दशा हुम्मड़
िामत के सदध-गृहस्थ श्रावक श्रेष्ठी श्री रािनशाह उनकी सदध- गृमहणी, सश ु ीला, सरल-स्वभावी,
शीलवती िननी मााँ सुरमंिरी की कुमक्ष से 13 मदसम्बर सनध 1981 में हुआ था।
श्रमण रत्न, ममु नश्री सप्रु भसागर िी का गहृ ग्राम आध्यामत्मक धमष नगरी सोलापरु महाराष्र
है िहााँ एक ओर प्रमत श्रामवकाश्रम है तो दूसरी ओर िीवराि ग्रंथमाला संस्थान िहााँ से सम्पूणष मवश्व

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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में िैन सामहत्य उपलब्ध कराया िाता है। ऐसी दशषन ज्ञान - र्ाररत्र रपी त्रवेणी से सम्पन्न नगर में
आपका वाल्यकाल व्यतीत हुआ। गौरवणष के मशशु का नामकरण 'तथा गण ु - यथा नाम' की यमु ि
अनुसार 'मनोज्ञ' रखा गया। आपकी 'नाटय-कला' को देखकर सवषिन आनंमदत होते थे। आपकी
बुमद्ध अत्यंत तीक्ष्ण प्रखर घी, अतः आपने अल्पवय में ही सी.ए. तक उच्र् मशक्षा प्राप्त की।
आपके नमनहाल पक्ष से सुप्रमसद्ध मदगम्बरार्ायष श्री समंतभद्र िी हुए मिन्होंने खुरई,
कारंिा आमद स्थानों पर गुरुकुल स्थामपत मकए थे। पूवष संस्कार, पाररवाररक माहौल एवं
वतषमान सत्संगमत वशातध आपको उगते - यौवन में ही िगतध के राग-रंग से वैराग्य हो गया पररणामतयः
आपने स्वात्मोत्थानाथं सनध 2007 में ग्रह का त्याग कर मदया। परम पूज्य आर्ायष रत्न 108
श्री मवशुद्धसागर िी गुरुदेव की र्रण मनश्रा में, छत्रपमतनगर इदं ौर (म.प्र.) में, सनध 2007,
मागष कृष्णा र्ष्ठी, 29 नवम्बर को आपने दशषन प्रमतमा के व्रत ग्रहण कर िीवन पयषन्त के
मलए पेन्ट - शटष पहनने का त्याग कर मदया और धवल वस्त्र धारण कर मलए। आपके
लघुभ्राता साके तिी भी बाल ब्रहार्ारी हैं िो पुणे में मनवासरत हैं।
इन्दौर महानगर से गुरुवर का मंगल मवहार हुआ तो ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ िी भी गुरुवर के साथ
हर मदन पग-मवहार करते उन्होंने गरुु वर को अपने हृदय में स्थामपत कर मलया और - गरुु वर भी नव-
नवेले - ब्रह्मर्ारी िी को भरपूर वात्सल्य देते। वैराग्य मदन दूना रात र्ौगुना वद्धषमान होता रहा। एक
ही र्ाह, एक ही लगन मक िैनेश्वरी दीक्षा कब हो? माघ शुक्ला द्वीमतया आठ फरवरी सनध 2008
को भव्य मंगल पंर्कल्याणक प्रमतष्ठा महोत्सव पन्ना में " ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ भैया िी ने दूसरी प्रमतमा
के बारह-व्रतों को उत्साहपवू षक धारण मकया।
इस मध्य आर्ायष भगवनध ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन अपने मप्रय ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ िी को
कराया । सनध 2008 का वर्ाषयोग आर्ायष भगवनध ने संस्कार धानी िबलपुर (म.प्र.) में सम्पन्न मकया।
24 अगस्त 2008 को ब्रह्मर्ारी मनोि भैया िी का प्रथम के शलोंर् सम्पन्न हुआ।
ब्रह्मर्ारी भैया मनोज्ञ िी शीघ्रामतशीघ्र मदगम्बर मद्रु ा को धारण करना र्ाहते थे अब धवल
वस्त्रों का भार भी वह नहीं ढोना र्ाहते थे। आर्ायष भगवनध 108 श्री मवशुद्धसागर िी ने वैरागी के
वैराग्य का परीक्षण कर म.प्र. के अशोकनगर में , सनध 2009, अक्टूबर की र्ौदह तारीख को भव्य
समारोह में अपार िन समूह के मध्य, पमण्डत श्री बाबल ू ाल िी पठा ब्र. श्री रािमकंग िी के कुशल
मनदेशन में ब्र. मनोज्ञ भैया समहत त्रय ब्रह्मर्ारी भैया िी को िैनेश्वरी मिनदीक्षा प्रदान की। दीक्षोपरांत
आपका नामकरण श्रमण ममु न सप्रु भसागर मकया गया।
दीक्षोपरांत आप लगभग छह वर्ष तक अपने दीक्षा गुरु के साथ रहकर धमष-ग्रंथों का अध्ययन
करते रहे। मध्य में असाता कमोदय के कारण अंतराय और शारीररक पीड़ा को समतापूवषक सहन

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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करते रहे। िैसे स्वणष अमग्न में तपकर ही र्मकता है वैसे ही आपने रोगों को सहनकर अपने दृढ़ वैराग्य
एवं आंतररक समत्व-भाव का पररर्य मदया।
योग्य िान आर्ायष भगवनध ने आपको धमष प्रभावनाथष प्रेररत मकया, फलतः सनध 2016
मछंदवाड़ा से आपका पृथकध उपसंघ बना। 'तब से अब तक' आप नगर-नगर, गााँव-गााँव में पग
मवहार कर धमष की प्रभावना कर रहे हैं।
अब िानते हैं आगे और नई रहस्य से भरपूर बातें ...........
आप ही मात्र ऐसे तीथंकर है मिन्होंने एकाकी दीक्षा धारण की. दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष
तक आप छाद्मस्थ अवस्था में पूणषतः मौन रहे तात पश्चातध वेशक शुक्ल दशमी, पुवाषन््काल, माघ
नक्षत्र में, ऋिक ु ू ला तीर पर, शाल वक्ष ृ के तले आपको के वाल्यज्ञान उत्पन्न हुआ. के वालोत्पमत्त
उपरांत 66 मदनों तक आपकी मदव्या-देशना नहीं मखरी. पाठकों को ज्ञातव्य हो मक -भगवानध महावीर
स्वामी का प्रथम समवसरण मवपुलार्ल पवषत रािगृही पर लगा था.
महाश्रमण तीथंकर महावीर स्वामी के समवसरण में इद्रं भूमत, वायुभुती, अमग्नभुती ने अपने
पांर्-पांर् सौ मशष्यों के साथ अथाषतध एक ही मदन में 1503 लोगों ने मशष्यता स्वीकार की, यही मदन
“गरुु -पमू णषमा” के नाम से सम्पण ू ष मवश्व में महोत्सव के रप में मनाया िाता हैं. तीथंकर महावीर की
प्रथम देशना श्रावण कृष्णा प्रमतपदा, शमनवार 1 िुलाई, ई. पू. 557 में मखरी थी. तब वहां रिा श्रेमणक
ने 60 हिार प्रश्न मकये थे. तीथंकर महावीर की ख्यामत मदग-ध मदगन्त, सात समंदर तक फै ली हुई हैं, उसी
कस सफ ु ल है मक –“अमखल मवश्व में तीथंकर महावीर की िन्म-ियतं ी हर्ोल्लास पवू षक मनाई िाती
है.”
तीथंकर महावीर स्वामी की प्रवर्न सभा अथाषतध समवसरण एक योिन मवस्तार वाला था.
तीस वर्ष आपका के वली काल रहा. आपकी धमष सभा में मुख्य, प्रधान गणधर इद्रं भूमत समहत कुल
ग्यारह गणधर थे. र्ौदह हिार ऋमर्, तीन सौ पूवषधर, नौ हिार नौ मशक्षक, एक हिार तीन सौ
अवमधज्ञानी, नौ सौ मवमक्रयाधारी, सात सौ के वली, पार् ं सौ मवपल
ु मती, र्ार सौ वादी, छत्तीस हिार
आमयषका मातािी, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्रामवकाएं आमद मवरािमान रहते थे.
मनवाषण के दो मदन पूवष योग-मनवृमत्त कर कामतषक कृष्ण अमावस्या की प्रत्युर् बेला में, स्वामत
नक्षत्र में पावा नगरी, सम्प्रमत पावापुर से मोक्ष प्राप्त मकया. आपके मनवाषणोत्सव में देवों ने स्वगष से
आकर महोत्सव मनाया और मनवाषण स्थल की भूमम की रि-कण मनुष्य-देवों ने भमि -श्रद्धा पूवषक
शीश पर लगाया, फलतः वहां मवशाल गडधढा हो गया िो वतषमान में पावापरु सरोवर के नाम से मवश्व-
मवख्यात है, िहााँ तीथंकर महावीर स्वामी के पार्ाण खण्ड पर अंमकत र्रण स्थामपत हैं. िहााँ अभी
भी अनेक र्मत्काररक घटनायें होती रहती हैं.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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तीथंकर भगवान महावीर स्वामी देश ही नहीं सपं ण ू ष मवश्व में अमहस
ं ा के अग्रदूत के रप
सुख्यात थे. उनका स्तुमत-वदं न िैनार्ायों के साथ अन्य दशषनों में भी श्लाघनीय, स्तुत्य, स्मरण मकया
है.
अंगुत्तर मनकाय में मलखा है मक – ‘नाथपुत्र तीथंकर भगवानध महावीर सवषदृष्टा, अनंतज्ञानी
तथा प्रत्येक क्षण पूणष सिग एवं सवषज्ञ रप से मस्थत थे. ‘न्याय मबंदु’ में तीथंकर महावीर को सवषज्ञ,
के वलज्ञानी, आप्त कहा है. ‘ममज्झमनकाय’ में मलखा है मक - तीथंकर महावीर सवषज्ञ, सवषदशी, सपं ण ू ष
ज्ञान व दशषन के ज्ञाता थे. ‘दीघषमनकाय’ में मलखा है - भगवानध महावीर तीथंकर है, मनुष्यों द्वारा पूज्य
है, गणधरार्ायष हैं.
मसंह की पयाषय में तीथंकर महावीर स्वामी के िीव को महामुमन अममतकीमतष एवं अममतप्रभ
ने संबोधन मकया था. पश्चातध उनका िीव क्रमशः सौधमष स्वगष में देव, कनकोज्ज्वल रािा, लान्तव
स्वगष में देव, हररर्ेण रािा, महाशक्रु स्वगष में देव, मप्रय ममत्र नामक रािपत्रु , बारहवें स्वगष में देव, नन्द
रािा, अच्युत स्वगष में इन्द्र और मफर तीथंकर श्री पाश्वषनाथ के मनवाषण के 178 वर्ष उपरान्त तीथंकर के
रप में बालक महावीर का िन्म हुआ.
मसहं की पयाषय में सम्यग्दशषन प्राप्त मकया पश्चातध नदं रािा की पयाषय में सयं म धारण करके
प्रोमष्ठल गुरु के पादमूल में तीथंकर प्रकृमत का बंध मकया था. मदक्षोपरांत मुमन महावीर पर भव नामक
यक्ष अथवा स्थाणु नामक रद्र ने उपसगष मकया. मालवा उज्िैन में भी मक्षप्रा तट पर महामनु ी महावीर
पर उपसगष हुआ था. के वल्योत्पन्न होने पर तीथंकर महावीर स्वामी के समवसरण में इद्रं भूमत (गौतम),
वायुभूमत, अमग्नभूमत, सुधमाषस्वामी, मौयष, मौन्द्र, पत्रु , मैत्रेय, अकंपन, अन्धवेला तथा प्रभास ये
ग्यारह गणधर थे. प्रमख ु गणधर गौतम स्वामी थे. प्रमख ु गमणनी र्ंदना एवं प्रमख ु श्रोता सम्राट
श्रेणीक थे.
तीथंकर महावीर और उनकी आर्ायष परंपरा भाग 1 में मलखा है मक आर्ाढ़ शुक्ल र्ष्ठी,
शुक्रवार 17 िून, ई. पू. 599 में गभष कल्याणक, र्ैत्र शुक्ल त्रयोदशी, सोमवार 27 मार्ष, ई.पू. 598
में िन्म कल्याणक, मगमसर कृष्ण दशमी, सोमवार 29 मदसंबर, ई. पू. 569 दीक्षा कल्याणक, वैशाख
शक्ु ल दशमी, रमववार 23 अप्रैल, ई.प.ू 557 में ज्ञान कल्याण तथा कामतषक कृष्ण अमावस्या,
मंगलवार 15 अिूबर, ई.पू. 557 में मवक्रम संवत पूवष 470, शक पूवष 605 में मनवाषण हुआ.
तीथंकर वद्धषमान महावीर स्वामी के पााँर् नाम लोक में बहुप्रर्मलत हुए वीर, वद्धषमान,
सन्ममत, महावीर और अमतवीर.
(1) वीर : िन्मामभर्ेक के समय इन्द्र को मिज्ञासा हुई मक तीथंकर बालक इतने बड़े- बड़े
कलशों के िल प्रवाह को सहन कर पायेंगे मक नहीं? इसे बालक ने अवमधज्ञान से िानकर
पैर के अंगूठे से मेरुपवषत को थोड़ा-सा दबाया तो देवगण मगरने लगे, तब इन्द्र को
ज्ञात हुआ मक इनका अतुल बल है। तभी इन्द्र ने 'वीर' सज्ञं ा से सबं ोधन मकया।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
(2) वद्धषमान: िब से मशशु मााँ के गभष में आया तब से घर नगर, राज्य में धन-धान्य की वृमद्ध
प्रारम्भ हो गई, अतैव तभी िनक सम्राटध मसद्धाथष के सुपुत्र का नामकरण 'वद्धषमान' कर मदया।

(3) सन्ममत : सञ्िय और मविय नाम के दो र्ारण ऋमद्धधारी मुमनयों को तत्त्व : सम्बन्धी
कुछ मिज्ञासा हुई, युवक तीथंकर वद्धषमान पर दृमष्ट पड़ते ही उनकी मिज्ञासा का समाधान हो
गया, तब ममु नयों ने वद्धषमान का नाम 'सन्ममत' रखा।
(4) महावीर : तीथंकर बालक वद्धषमान ममत्रों के साथ वृक्ष पर खेल रहे थे, तब वहााँ संगमदेव
ने भयभीत करने के मलए मवकराल सपष का रप धारण कर वक्ष ृ के तने से मलपट गया। सभी
ममत्र डर गए और इधर-उधर भागने लगे, मकन्तु बालक वद्धषमान सपष के ऊपर
र्ढ़कर ही खेलने लगे। ऐसा देख संगमदेव ने अपने वास्तमवक रप में आकर वद्धषमान के बल
की प्रशंसा कर उनका 'महावीर' नाम रख मदया।
(5) अमतवीर : एक मदोन्मत्त हाथी िो मकसी के वश में न होकर उत्पात मर्ा रहा था। सभी
ने बहुत प्रयास मकया वह वश न हुआ, मफर वह महावीर को देख नतमस्तक हो गया, तब
िनसमूह ने कुमार की प्रशंसा की और उनका नाम अमतवीर रख मदया।

ग्रंथकार भ्रमण सुप्रभसागर िी


मदगम्बर मिनशासन, 'वीतराग भ्रमण संस्कृमत' के सम्प्रमत शुभ्राकाश में उद्योमधत
मसतांशु, युवाओ ं के प्रेरणा- पुञ्ि, आध्यामत्मक प्रवर्नों के सफल - प्रस्तोता, आयष -
परम्परा पोर्क, करुणाममू तष, मर्ंतक, लेखक, मनशक ं स्पष्ट विा, वात्सल्य वाररधी,
क्षमाशील, तकष शील, न्याय-मनपण ु , कमवत्व कला मनष्णात, महन्दी - महतैर्ी, अनवु ादक,
उपसगष ियी, ज्ञानी, अध्यात्म-रस- रमसक, प्रज्ञावतं , अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, मनोज्ञ, ध्यानी,
सरल स्वभावी, बहुभार्ाभार्ी, प्रमतभावान, वीतरागी, मनग्रषन्थ, श्रमण रत्न मुमन 108 श्री
सुप्रभसागर िी मवमशष्ट व्यमित्व एवं मनभावन कृमतत्व के धनी हैं।
आपकी प्रवर्न शैली मन को मोहने वाली है। िब आप धमष सभा में मवरािकर धमोपदेश
देते हैं तो भव्य-िन शांत हो िाते हैं। हिारों-हिार िैन-िैनेतर आपकी 'मदव्य- 'वाणी' का पान कर
अपना अहो भाग्य मानते हैं। आपके प्रवर्नों का लाभ दूर-दराि, सात- समुन्दर पार तक पहुाँर् सके
इसी उद्देश्य को लेकर प्रस्तुत "सुनयन पथगामी" सक ु ृ मत का सृिन हुआ है। कृमत यथाथष में
कृमतकार के व्यमित्व के साथ-साथ कृमतत्त्व की प्रमतममू तष होती है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रस्तुत सुकृमत "सुनयन-पथगामी" के उपदेष्टा अध्यात्म मवद्या के अध्येता, श्रमण मुमन श्री
सुप्रभसागर िी हैं आपका िन्म िननी मााँ के िनक, नाना के यहााँ कोल्हापुर महाराष्र में दशा हुम्मड़
िामत के सदध-गृहस्थ श्रावक श्रेष्ठी श्री रािनशाह उनकी सदध- गृमहणी, सुशीला, सरल-स्वभावी,
शीलवती िननी मााँ सुरमंिरी की कुमक्ष से 13 मदसम्बर सनध 1981 में हुआ था।
श्रमण रत्न, ममु नश्री सप्रु भसागर िी का गहृ ग्राम आध्यामत्मक धमष नगरी सोलापरु महाराष्र
है िहााँ एक ओर व्रमत श्रामवकाश्रम है तो दूसरी ओर िीवराि ग्रंथमाला संस्थान िहााँ से सम्पूणष मवश्व
में िैन सामहत्य उपलब्ध कराया िाता है। ऐसी दशषन ज्ञान - र्ाररत्र रपी मत्रवेणी से सम्पन्न नगर में
आपका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। गौरवणष के मशशु का नामकरण 'तथा गुण - यथा नाम' की युमि
अनस ु ार 'मनोज्ञ' रखा गया। आपकी 'नाटय-कला' को देखकर सवषिन आनमं दत होते थे। आपकी
बुमद्ध अत्यंत तीक्ष्ण प्रखर थी, अतः आपने अल्पवय में ही सी.ए. तक उच्र् मशक्षा प्राप्त की।
आपके नमनहाल पक्ष से सुप्रमसद्ध मदगम्बरार्ायष श्री समंतभद्र िी हुए मिन्होंने खुरई,
कारंिा आमद स्थानों पर गुरुकुल स्थामपत मकए थे।
पवू ष संस्कार, पाररवाररक माहौल एवं वतषमान सत्संगमत वशातध आपको उगते - यौवन में ही
िगतध के राग-रंग से वैराग्य हो गया पररणामतयः आपने स्वात्मोत्थानाथं सनध 2007 में ग्रह का
त्याग कर मदया। परम पूज्य आर्ायष रत्न 108 श्री मवशुद्धसागर िी गुरुदेव की र्रण मनश्रा
में, छत्रपमतनगर इदं ौर (म.प्र.) में, सनध 2007, माघ कृष्णा र्ष्ठी, 29 नवम्बर को आपने दशषन
प्रमतमा के व्रत ग्रहण कर िीवन पयषन्त के मलए पेन्ट - शटष पहनने का त्याग कर मदया और
धवल वस्त्र धारण कर मलए। आपके लघुभ्राता साके तिी भी बाल ब्रहार्ारी हैं िो पुणे में मनवासरत
हैं।
इन्दौर महानगर से गुरुवर का मंगल मवहार हुआ तो ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ िी भी गुरुवर के साथ
हर मदन पग-मवहार करते उन्होंने गुरुवर को अपने हृदय में स्थामपत कर मलया और - गुरुवर भी नव-
नवेले - ब्रह्मर्ारी िी को भरपरू वात्सल्य देते। वैराग्य मदन दूना रात र्ौगनु ा वद्धषमान होता रहा। एक
ही र्ाह, एक ही लगन मक िैनेश्वरी दीक्षा कब हो? माघ शुक्ला मद्वतीया आठ फरवरी सनध 2008 को
भव्य मंगल पंर्कल्याणक प्रमतष्ठा महोत्सव पन्ना में " ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ भैया िी ने दूसरी प्रमतमा के
बारह-व्रतों को उत्साहपूवषक धारण मकया।
इस मध्य आर्ायष भगवनध ने अनेक ग्रंथों का अध्ययन अपने मप्रय ब्रह्मर्ारी मनोज्ञ िी को
कराया । सनध 2008 का वर्ाषयोग आर्ायष भगवनध ने सस्ं कार धानी िबलपरु (म.प्र.) में सम्पन्न मकया।
24 अगस्त 2008 को ब्रह्मर्ारी मनोि भैया िी का प्रथम के शलोंर् सम्पन्न हुआ।
ब्रह्मर्ारी भैया मनोज्ञ िी शीघ्रामतशीघ्र मदगम्बर मुद्रा को धारण करना र्ाहते थे अब धवल
वस्त्रों का भार भी वह नहीं ढोना र्ाहते थे। आर्ायष भगवनध 108 श्री मवशुद्धसागर िी ने वैरागी के
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
वैराग्य का परीक्षण कर म.प्र. के अशोकनगर में , सनध 2009, अक्टूबर की र्ौदह तारीख को भव्य
समारोह में अपार िन समूह के मध्य, पमण्डत श्री बाबल ू ाल िी पठा ब्र. श्री रािमकंग िी के कुशल
मनदेशन में ब्र. मनोज्ञ भैया समहत त्रय ब्रह्मर्ारी भैया िी को िैनेश्वरी मिनदीक्षा प्रदान की। दीक्षोपरांत
आपका नामकरण श्रमण मुमन सुप्रभसागर मकया गया।
दीक्षोपरांत आप लगभग छह वर्ष तक अपने दीक्षा गुरु के साथ रहकर धमष-ग्रंथों का अध्ययन
करते रहे। मध्य में असाता कमोदय के कारण अंतराय और शारीररक पीड़ा को समतापवू षक सहन
करते रहे। िैसे स्वणष अमग्न में तपकर ही र्मकता है वैसे ही आपने रोगों को सहनकर अपने दृढ़ वैराग्य
एवं आंतररक समत्व-भाव का पररर्य मदया।
योग्य िान आर्ायष भगवनध ने आपको धमष प्रभावनाथष प्रेररत मकया, फलतः सनध 2016
मछंदवाड़ा से आपका पथ ृ कध उपसंघ बना। 'तब से अब तक' आप नगर-नगर, गााँव-गााँव में पग
मवहार कर धमष की प्रभावना कर रहे हैं।
आप स्वभाव से ही शांत हैं। बड़ों के प्रमत अतीव आदर और छोटों के प्रमत वात्सल्य की धार
आपकी अनवरत बहती ही रहती है। आप अत्यंत वात्सल्यमयी हैं। एक सच्र्े गुरु के सभी गण ु
आपमें मवद्यमान हैं। आपकी तप साधना भी अनठू ी है। कभी रसी से आहार, कभी नीरस ।
कभी एक अन्न, तो कभी ऊनोदर। कभी दो-दो, तीन-तीन उपवास, तो कभी पररपूणष मौन
साधना | यथाथष में आप ज्ञान एवं र्यां में अपने गरुु की प्रमतमूमतष ही हैं। अमधक क्या कहें?
आपकी र्याष एवं र्र्ाष, र्र्ाष एवं र्याष में कहीं कोई दोहरापन नहीं है। मनरंतर आत्म-साधना, श्रुत-
श्रम ही आपका ध्येय है। धमष प्रभावना तो आप भरपूर करते ही है, इसमें कोई शक नहीं है।
मुमनश्री सुप्रभसागर िी की साधममषयों, साधकों के प्रमत सेवा-भाव भी अनुकरणीय, स्तुत्य
है। धमाषत्माओ ं का उपगूहण-मस्थमतकरण कै से करना र्ामहए यह ममु नश्री से सीखना र्ामहए। आप
मनरंतर अष्टांग सम्यक्त्व का पालन करते हैं। संक्षेप में कहें तो आप सवषगुण सम्पन्न, मूलार्ार स्वरप
हैं।
"यद्यमप शुद्धं लोक मवरुद्धं, न करणीयं न आर्रणीय"ं की सुष्ठु धारणा एवं 'स्वान्तः
सुखाय, सवषिन महताय' की प्रबल भावना के पक्षधर हैं श्रमण मुमन श्री सुप्रभसागर िी।"

गरुु -परम्परा :
प्रस्तुत सुग्रंथ "सुनयन-पथगामी" के यशस्वी उपदेशनाकार, श्रमण रत्न सुप्रभसागर िी की
सुमनमषल, अमवमच्छन्न परम्परा का उल्लेख भी यहााँ आवश्यक हैं, क्योंमक िैसा बीि होता है वैसी ही
उत्कृष्ट फसल होती है। ग्रथ ं के प्रारंभ में पवू षि- गरुु ओ ं का स्मरण अवश्य ही कायष पण
ू षता में मगं लकारी
मनममत्त बनेगा।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख ु दाई है.
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आप अंमतम तीथेश तीथषकर वद्धषमान महावीर स्वामी की शद्ध ु -मवशद्ध
ु , मवश्व- प्रमसद्ध, सु-
साधक परम्परा में हुए आद्यार्ायष 108 श्री आमदसागर िी 'अंकलीकर महाराि की अदूमर्त, शुभंकर
- शृंखला में अठारह भार्ा-भार्ी, मंत्रवादी, तीथोद्धारक आर्ायष रत्न 108 श्री महावीर कीमतष िी
महाराि उनके मशष्य वात्सल्य रत्नाकर, महा-मनममत्त ज्ञानी, परमोपकारी आर्ायष रत्न 108 श्री
मवमलसागर िी, मासोपवासी, तपस्वी सम्राटध आर्ायष रत्न 108 श्री सन्ममतसागर िी इनके मशष्य
गणार्ायष 108 श्री मवरागसागर िी महाराि इनके समु शष्य आध्यामत्मक प्रवर्नकार 108 आर्ायष
रत्न श्री मवशुद्धसागर िी महाराि हुए हैं और आपने आर्ायष पदोपरांत सनध 2017 तक 33 मुमन दीक्षा
प्रदान की हैं उन्हीं मशष्यों में एक सु- मशष्य हैं- श्रमण रत्न सुप्रभसागर िी महाराि ।

विृत्व कला :
पुरुर् की 72 कलाओ ं में सवषश्रेष्ठ 'अध्यात्म-कला' है। 'विृत्व कला' भी एक मवमशष्ट
एवं महत्त्वपणू ष कला है। िब तक तीथंकर प्रभु का उपदेश नहीं होता है, तब- तक उनका शासन प्रारंभ
नहीं होता है। प्रभावी विा की बात को सनु कर सनु ने वाले को उत्साहवद्धषन होता है। सग्रं ाम,
युद्ध के पूवष सवष-प्रथम सेनापमत का संबोधन होता है, तभी सैमनकों को िोश आता है, पररणामतः
मविय श्री प्राप्त होती है।
प्रस्तुत कृमत "सुनयन-पथगामी" भी अध्यात्म एवं विृत्त्वकला के संगमत स्वरप
उद्घामटत हुई है। मिसमें पगै-पगै अध्यात्म की रस धार है तो पंमि पमं ि में, शब्द- शब्द में
विा की आंतररक मवद्वत्ता का श्रृंगार है।
मवश्वधरा पर िब से वणष हैं, तभी से विृत्व कला है। िैन दशषन के अनुसार वणष अनामद से हैं,
इनका मकसी ने मनमाषण नहीं मकया है। संस्कृत व्याकरण कातंत्रकार ने ग्रंथ के प्रारंभ में ही मलखा है
मक- "मसद्धो-वणष समाम्नाय ।"
अशांत मर्त्त को शांत करदे, हिारों को एक साथ एक आाँगन में शांत मबठा दे वही श्रेष्ठ विृत्व
कला है। वही विा श्रेष्ठ है िो प्रमामणत हो िो उन्नमत, मवकास की ओर प्रेररत करे आनंद रस से
पररपूणष हो। विा के वही वर्न श्रेष्ठ हैं िो श्रोता के संशय, मवपयाषस को दूर कर सत्याथष का
बोध करा दे । मानवीय मूल्यों के मस्थमतकरण, नैमतक उत्थान, धमष के प्रमत आस्था, कतषव्यों के प्रमत
सिगता विा के विव्य से ही सम्भव हो पाती है। वही विृत्व कला श्रेष्ठ, अनक ु रणीय,
श्लाघनीय, प्रशंसनीय, सवषमप्रय एवं मान्य है मिसमें प्राणी महत, आत्म-शोधन और मैत्री की
सुगंधी लबालब भरी हो।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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श्रेष्ठ विा, उपदेष्टा वही हो सकता है िो श्रमशील, मवर्ारक, मर्ंतक, उद्यमशील, परोपकारी,
वात्सल्यवमान, क्षमाममू तष एवं आगम का अध्येता हो िो संवेदनाओ ं को संवेदता हो, अनुभूमतयों से
अनुभूत हो तथा सवष प्रामणयों का उत्थान र्ाहता हो। स्वान्तः सुखाय सवष सख ु ाय की भद्र-
भावना िहााँ भरपूर भरी होती है का वहीं व्यमि सिृ नशीलता का उपक्रम, पुरुर्ाथष करता
है।
विृत्व कला एक रसात्मक-कला है मिसका रस या तो श्रेष्ठ विा या कोई सिग-
श्रोता ही ले पाता है। विा िब बोलता है तो वह अपनी विृ कला से लाखों को स्तंमभत कर देता
है और उस समय भूख-्यास कोसों दूर र्ली िाती है। वस्तु कला विा के आंतररक िीवन मूल्यों
की प्रमतपूमतष होती है।

सदध- सामहत्य की महत्त्वता:


सामहत्य यथाथष में वही सवषश्रेष्ठ है मिसमें मााँ की तरह सवषमहत की बात कही गई हो ।
महतकारी एक लकीर भी व्यमि को अमीर बना सकती है। सामहत्य की एक लकीर आपकी
तकदीर बदल सकती है। सामहत्य सद्बोध देने में परम सहायक होते हैं।
सदध- सामहत्य का सृिन करते हुए आवश्यकता इस दृमष्ट की है मक - "मिस पररवेर् को
हटाने के मलए महसं ात्मक-शस्त्र की आवश्यकता है वहााँ पर यमद शास्त्र अमभमहत मूल्यों से
सयं ि
ु होगा तो वह प्रामणयों के लक्ष्य मनधाषररत करेगा तथा व्यथष की महस
ं ा भी नहीं होगी।"
शस्त्र से भी अमधक शमिशाली यमद कुछ है तो वह समीर्ीन शास्त्र है। शस्त्र और शास्त्र में बस
यही अन्तर है मक शस्त्र तोड़ता है और शास्त्र िोड़ता है। शस्त्र संतामपत करता है वहीं शास्त्र श्रवण से
शामन्त ममलती है। शस्त्र अमहतकर है, शास्त्र महतकर है।
कोई भी पोथी शास्त्र नहीं हो सकती है। यथाथष में िो पशु को परमात्मा, पंक को पारस, नर
को नारायण, कंकर को शक ं र, तीतर को तीथंकर बनने का उपदेश दे तथा भोग से योग, अंधकार से
उिास मोह से मोक्ष, पाप से िाप, अमतक्रमण से प्रमतक्रमण की ओर अग्रसर करे वही शास्त्र, ग्रथ ं ,
सत-ध सामहत्य है।

शास्त्राध्ययन से लाभ :
श्रेष्ठ सामहत्य आगामी आने वाली पीमढ़यों के मलए सच्र्ा मागष दशषक होता है। शास्त्र अध्ययन
से हमारी संस्कृमत, परम्पराओ ं का बोध होता है। शास्त्र- पारायण से अध्येता की मर्ंतनधारा मवकमसत
एवं मवस्तृत होती है।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मितना ज्ञान और अनभ
ु व पच्र्ीसों वर्ष पररश्रम कर व्यमि प्राप्त नहीं कर पाता है उससे कहीं
अमधक ज्ञान तथा अनुभव एक श्रेष्ठ शास्त्र के सम्यकध अध्ययन से प्राप्त होता है। शेर् आगामी अंक में
........

श्रमण मुमन श्री १०८ सप्रु भ सागरिी महाराि


अब तक आपने पढ़ा था और िाना था तत्त्व (उपाय और उपेय) के साथ साधन से साध्य की
प्रामप्त कै से हो ? कौन नहीं र्ाहता मक मैं परमात्मा नहीं बनूाँ ? हर कोई र्ाहता है, यह मवधान क्यों रर्ा
? हम भी उस र्ाररत्र के 84 लाख उत्तर गण ु ों को प्राप्त कर, उन शीलों के 18 हिार गण ु ों की पण
ू षता
हो िाए, इसमलए उस र्ाररत्र शुमद्ध के मवधान को रर्कर हम अपने मवधान को बदलने का प्रयास कर
रहे हैं। क्यों कर रहे मवधान? क्योंमक भगवान का मवधान नहीं है, अपना-अपना मवधान, मवमध का
मवधान कमों का मवधान बदलने के मलए भगवान का मवधान, र्ाररत्र शुमद्ध मवधान हम सब कर रहे
हैं। उपाय को समझना है, उपेय एक है, साध्य एक है पहुाँर्ना सब को वहीं है, िहााँ वह भगवान पहुाँर्े
हैं। लक्ष्य तो वही है, िो आपका लक्ष्य है, पर मागष अनेक हो सकते हैं। साध्य एक है, साधन अनेक हो
सकते हैं। मकतना दुलषभ है योग्य साधन और योग्य मागष को प्राप्त करना। मकतने सारे मागष होते हैं, एक
रािमागष होता है पर पहुाँर्ना हमें उस लक्ष्य तक ही है। साध्य एक है वह है मोक्ष, उस मोक्ष को प्राप्त
करना है तो हमें मोक्षमागष को समझना होगा । पहले अपनी सोर् को ठीक करना होगा। कई सारे मागष
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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हैं, पर साक्षातध मागष तो मोक्षमागष है 'सम्यकध दशषनज्ञानर्ाररत्रामण मोक्षमागषः वहााँ तक पहुाँर्ने के मलए
िो सम्यगदशषन की भूममका है, उस सम्यगदशषन की भूममका को पहले समझना होगा। अपने िीवन
को ऊाँ र्ाई तक पहुाँर्ाना िीवन को अच्छा करना है तो सबसे पहले अपने सोर् को अच्छा करना
होगा। कै से बनें भगवान ? भगवान बनने से पहले भि भी तो बनना पड़ेगा, लेमकन आि कोई भी
भि नहीं बनना र्ाहता। उस भि और भगवान के संबंध को समझना होगा। कौन भि? भगवान को
नहीं मानते? पर भगवान को मानने से काम नहीं होगा कभी भगवान की भी माननी पड़ेगी। गुरु को
मानते हो, पर गुरु की बात मकतनी मानी ? गुरु की और भगवान की बात मान लेते तो ? कमठन क्या
है? सब से कमठन योग्य साधन, योग्य समय पर प्राप्त करना, ये सबसे बड़ी कमठनाई है। एक थाली से
द्रव्य उठाई, र्ढ़ा दी दूसरी थाली में, क्या हो गयी भगवान की भमि ? समझना वास्तमवक भगवान
की भमि क्या है? पूज्यपाद स्वामी- सवाषथषमसमद्ध ग्रंथ में कह रहे हैं मक भमि क्या है? "पूज्येर्ु गुणेर्ु
अनरु ागो भमिः" अररहतं , मसद्ध, आर्ायष, उपाध्याय, सवष साधु उन सभी पर् ं परमेष्ठी, नवदेवता- िो
पूज्य हैं उन पूज्यों में िो अनुराग है, वह अनुराग ही तुम्हारे मलए भमि है। ताल पीटना, नार्-गान करना,
पानी फूल र्ढ़ाना, पर क्या पानी, फूल र्ढ़ाने से तुम भगवान बन िाओगे? भगवान के पास पहुाँर्
िाओगे क्या? कभी नहीं बनोगे? भगवान को िैसे मानते हो, ऐसी भगवान की मानना। उनके गण ु ों
में अनुराग करना यह भमि है। महावीराष्टक स्तोत्र में भागर्न्द्र कमव ने िो महावीर भगवान की स्तुमत
की है उस स्तमु त को ही हमें समझना है। एक-एक छंद, एक-एक अक्षर के माध्यम से उन्होंने उस भमि
की व्याख्या की है। मिसमें िैन मसद्धांतों का ही नाश हो, वह मकंमर्तध भी भमि नहीं है। मााँ! आप
भिन में क्या कहते हो- महावीर बनके र्ले आना, पाश्वषनाथ बनके र्ले आना, क्या गुरु में तुम्हें गुरु
नहीं मदखता? कै सी दुदषशा है? देखना। साक्षातध गरुु बैठे हैं, मफर भी कहते हो गरुु नहीं, तमु भगवान
बन के आओगे तो ही पूिेंगे, गुरु को नहीं मानेंगे। आर्ायष, उपाध्याय, साधु गुरु में नहीं आते क्या?
क्या पंर्परमेष्ठी में नहीं आते? मफर भी भगवान को उतार रहे हो, अरे! वह तो मसद्धालय में बैठ गये,
अब िो भी आयेगा वह दूसरा ही आयेगा, िो िीव बन गया भगवान वह कभी भी तीन काल में नीर्े
आने वाला है ही नहीं, मफर भी कहते हो र्ले आना। कौन आयेगा? कोई भी नहीं आने वाला हमें ही
परमात्मा तक पहुाँर्ना है। हमें उस परमात्मा बनने की शमि, िो मझ ु में है उस शमि को ही उद्घामटत
करना है। परंपरा से संसार को पार करने का एकमात्र साधन अररहंत, मसद्ध भगवान की भमि ही है
और कुछ भी नहीं है। अध्यात्म के भिन सुना देना अध्यात्म की बातें करना भी अध्यात्म नहीं है।
वास्तमवक अध्यात्म में िीना ही अध्यात्म की बातें हैं , वही अद्वैत भमि है। अद्वैत और द्वैत, द्वैत याने
दो। दो हो गये, एक परमात्मा और तुम्हारी आत्मा यह द्वैत भमि है और िहााँ मेरी आत्मा ही परमात्मा
बनने की शमि रखती है, वह िो ध्यान आमद की मक्रया है, वह तम्ु हारी अद्वैत भमि है। वह अद्वैत भमि
साक्षातध साधन है, 'साधकतमध करणं'। वह साक्षातध साधन अगर उस मोक्ष का, साध्य का कोई है, तो
अद्वैत भमि है। परंपरा से यह द्वैत भमि भी हमारे मलए साधन का कायष करेगी। कभी श्रीफल देखा?
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, दस बार िब पटकते हो तो ग्यारवीं बार में फूटता है, तो िो दस बार
पटका था व्यथष र्ला गया? फूटा तो ग्यारवीं बार में था । तो पहले दस व्यथष नहीं गये, उस कारण के
मलए पहले कारण थे ऐसे ही भगवान की द्वैत भमि भी, अद्वैत भमि तक पहुाँर्ाने के मलए कारण है।
वह कारण का कारण होने से वह भी परंपरा से मोक्ष का ही मागष कहलाएगा। क्या आपने आि तक
भगवान की भमि नहीं की? भमि तो की। 2-2 घण्टे प्रमतमदन भगवान की भमि करते हैं , शांमतधारा
भी पढ़ते हैं, हो गई भगवान की भमि ? अरे! अनामद से हम भमि करते आ रहे हैं पर एक छोटी सी
भमि की थी, अड़तालीस ताले कै से टूटे ? उन मानतुंग स्वामी ने एक, दो, तीन, र्ार नहीं अड़तालीस
ताले उन्होंने भगवान की भमि से तोड़ मदये थे और तुम अपना सरददष भी ठीक नहीं कर पाते। क्या
भगवान बदल गए ? भिामर बदल गया? न भगवान बदले न भिामर बदला, वही आमदनाथ हैं,
वही भिामर है पर उनकी िो भमि थी, उनकी िो शमि थी, उनका िो मवश्वास था, िो श्रद्धा थी वो
तम्ु हारे पास नहीं है, इसमलए तमु कट में हो। हमने भी भमि की सबकुछ मकया, अरे अमर्ंत्य शमि है
उस भमि में आर्ायों ने ऐसे ही नहीं मलखा - मिनेभमि मिनेभषमि मिनेभषमि: मदने मदने । सदामेऽस्तु
सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ॥ दे.द.स्त.ु । इस भव से पार होने के मलए अगर कोई साधन है, तो वह
एकमात्र “मिनेभमि मिनेभषमि मिनेभषमि: मदने मदने ।” अरे! मिनेन्द्र भगवान की ऐसी भमि करो मक
िो काम नहीं होते, वह काम भी हो िायें । मंत्रों में अगर कोई सबसे महानध मंत्र है, तो वह णमोकार
मत्रं है। देखना मकसी भगवान का नाम नहीं मलया वहााँ पर, न भगवान का, न गरुु का नाम मलया, क्या
मलखा? मिन्होंने गुणों को प्राप्त मकया है, अररहंतों के 46 गुणों को मिसने प्राप्त मकया है उन सभी
अररहंतों को, मितने भी अररहंत हुए । िो मसद्ध हैं, मिन्होंने आठों कमों का नाश कर मलया हो, आठ
मलू गण ु ों के धारक हैं, ऐसे सभी मसद्धों को नमस्कार हो । 36 मूलगण
ु मिनके पास हैं, र्ाहे आि प्राप्त
मकये हों या पर्ास साल पहले मकये हों उन सभी आर्ायों को मेरा नमस्कार। मितने उपाध्याय,
परमेष्ठी हैं, उन सब को नमस्कार। मिन्होंने साधु पद को प्राप्त मकया है उन सब को नमस्कार । भगवान
की भमि को ही समझना है, क्योंमक महावीराष्टक में िो मसद्धांत की बात भागर्न्द्र कमव ने मलखी
है- उन मसद्धांतों की बातों को हमें समझना है। भगवान की भमि तो हमने अनामद से की है, लेमकन
आि तक फल क्यों नहीं ममला? हमने िो आि तक भमि की थी वह मिबरू ी में की थी। सबका
पुण्य एक-सा नहीं होता। सबके हाथ का स्वाद भी एक सा नहीं होता। तुम्हारी मााँ भी भोिन बनाती
है और तुम्हारे बेटे की मााँ भी भोिन बनाती है, पर स्वाद तो मााँ के ही भोिन में होता है। अरे! ये मााँ
का ही भोिन र्ल रहा है, बाहर का तुम मकतना भी सुनना, ये मिनवाणी मााँ का ही भोिन र्ल रहा
है। वही भिामर था, वही आमदनाथ थे, वही तुम्हारी भमि थी, पर मवमध क्या थी? हमने भगवान की
भमि की, मवधान मकया, धमष मकया, सब कुछ मकया पर हमारे भीतर कर्ाय की मडब्बी थी, इसीमलए
स्वाद वह कर्ाय का ही आया । भगवान की भमि में हम कभी भी सफल नहीं हो पायेंगे। हमें भगवान
की भमि मिबूरी में नहीं करना, मिदूरी में भी नहीं करना है। कोई पुिारी हैं। पैसे ममल रहे हैं, मिदूरी
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
ममल रही है, दृमष्ट कहााँ है? मंमदर, र्ैत्यालय बना रहे हैं तो अपने ही हाथ से भगवान की पिू ा करना ।
उन आर्ायष भगवंतों ने स्पष्ट मलखा है- अररहंत की पूिा, मनग्रंथों को दान हमेशा स्वयं ही करना
र्ामहए। आप बहुत व्यस्त थे, इसमलए पूिा करने के मलए आपने नौकर लगा मदए, मुमनराि को आहार
देने के मलए भी नौकर लगा मदए, वह भमि का फल मकसे ममलेगा? ऐसे तुम मिबूरी के उस मिदूर
से काम करा रहे हो, भमि मकसकी कहलाएगी? फल मकसे ममलेगा? पुण्य मकसका ? पुण्य-फल
मकसे ममलेगा? तम्ु हें रत्ती मात्र भी पण्ु य ममलने वाला नहीं है, वह उस नौकर को ही ममलेगा।
समझना, हमने अनामद से भमि की, पर कभी मिबूरी में की, कभी मिदूरी में की, पर आि
तक हमने मिबूती के साथ भगवान की भमि नहीं की, इसमलए हमारा आि-तक कल्याण नहीं हुआ।
मिबूती के साथ अगर भमि की होती तो तीन काल में अकल्याण होता ही नहीं। िबरदस्ती की िगह
अगर िबरदस्त होकर भगवान की भमि करोगे, तो तुम्हारा भी कल्याण हो िाएगा। अरे! िबरदस्त
भावों को बनाओ, तब िाकर दो-र्ार भव में हमारा भी कल्याण हो पायेगा। आओ करते हैं प्रभु की
भमि, समझना है हमें उसकी अमर्ंत्य शमि । क्योंमक यही है एक श्रेष्ठ महानध यमु ि । िो देगी तुम्हें
संसार में भुमि और सस ं ार से मुमि । समय हो गया है, मवराम का नहीं, मर्ंतन के साथ करेंगे पुनः आगे
की र्र्ाष क्योंमक समय पर मकया गया काम समय को मदलाता है :-

यदीये र्ैतन्ये मक ु ु र इव भावामश्चदमर्तः,


समं भ्रामन्त धौव्य-व्यय-िमनलसंतोऽन्तरमहताः ।
िगत्साक्षीमागष - प्रकटनपरो भानरु रव यो,
महावीरस्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥ 1 ॥
अन्वयाथष : (यदीये) मिनके (र्ैतन्ये) र्ैतन्य रप ज्ञान में (ध्रौव्य-व्यय-िमन) ध्रौव्य, व्यय और उत्पाद
से (लसन्तः) युि (अन्तरमहता:) अनंत (मर्दध-अमर्तः) र्ेतन और अर्ेतन (भावाः) पदाथष (मुकुर)
दपषण के (इव) समान (समं) एक साथ (भ्रामन्त) प्रमतमबमम्बत होते हैं (िगत्साक्षी) िगतध साक्षात्कार
करने वाले (भानुः इव) सूयष के समान (यः) िो (मागष प्रकटनपरः) मोक्षमागष को बताने में तत्पर हैं ऐसे
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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(महावीरस्वामी) वे महावीरस्वामी (मे) मेरे अथवा हम सभी के (नयनपथगामी) नेत्रों के मागषगामी
प्रत्यक्ष (भवतु) होवें।
भावाथष: दपषण की भााँमत मिनके ज्ञान में िीव- अिीव सभी द्रव्य यगु पतध उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य समहत
प्रमतभामसत होते हैं, िो तीनों लोकों के प्रत्यक्ष ज्ञाता-दृष्टा हैं, िो मुमिपथ बताने के मलए सूयष के
समान हैं, वे महावीर स्वामी मेरे नयनों में रहें ।
अंमतम तीथेश महावीर स्वामी के शासन में हम सभी मवरािते है।उनकी यह पावन पीयुर्
देशना हम सभी के मलए परम उपकारी है।अनामदकाल से हमारी आत्मा में िो िन्म िरा मृत्यु रुपी
रोग लगे है,उनका उपशमन करने वाली-अगर कोई और्मध है तो वह एकमात्र मिनवाणी है।
भव्यात्माओ! हम सभी मवर्ार कर रहे थे मक मै इस उपाय को प्राप्त करने के मलए कौन-सा
उपाय करुाँ? मिससे मक मै उस उपेय को प्राप्त कर सकूाँ। उपाय को समझना है। उपेय को तो हमने
समझ मलया,साध्य तो मेरे पास है ही,लक्ष्य तो मेरे पास है ही,पर उस साध्य, लक्ष्य, उपेय तक पहुाँर्ने
के मलए हमें उपायों की, साधना की आवश्यकता है। उस साधन पर, उस उपाय पर ही हम मवर्ार कर
रहे थे मक मै मकस प्रकार उस लक्ष्य को प्राप्त कराँ ? प्रत्येक व्यमि के िीवन में कुछ न कुछ लक्ष्य
होता है । र्ाहे छोटे से बालक से लेकर एक वृद्ध व्यमि से ममलना प्रत्येक के िीवन में एक छोटा सा
लक्ष्य होता है। वह प्राप्त करना र्ाहता है उस लक्ष्य को ,उस स्थान को, उस व्यमि को या उस साध्य
को प्राप्त करने का प्रयास हर व्यमि करता है। ऐसे ही िो मेरा साध्य है, वह भगवत्ता का साध्य, वह
अररहंत, मसद्ध िो मेरे साध्यभूत थे, िो मेरे मलए आदशषभूत थे ऐसे भगवान की भमि को ही हमें
समझना है, क्योंमक वही एकमात्र ऐसा उपाय है िो मझ ु े इस संसार से पार कराने वाला है। उस
भगवान की भमि को अगर समझना है तो पमहले भगवान को भी समझना होगा। क्योंमक देखना,
शब्द स्वयं कह रहा है, "भि" भि का अथष क्या है ? भि का अथष है िुड़ना। भि का अथष तो हमने
समझ मलया मक हमने भेर् बदल मदया,क्योंमक भगवान की आराधना करनी है, पमण्डत िी ने कहा है
मक-धोती-दु्पट्टा में आ िाओ तो आप उस धोती दु्पट्टे में आ गये, क्या बदला ? हमें अपनी वही
सोर् को बदलना है, उस कर्ाय के भरे अपनी सोर् को मनकालकर अपनी सोर् को बदलना है , हमनें
यही समझा मक हमें बदलना है, बदलना है हमने बदल मदया, क्या ? भेर्। उस भेर् को बदलने से
हमारा कल्याण होने वाला नहीं है। तुमने पीली धोती पहन ली,तुमने सफे द धोती पहन ली, अरे! उस
पररधान बदलने से कल्याण नहीं होगा। पररधान के साथ पररणाम बदल दोगे तो ही तुम्हारा कल्याण
हो सकता । पररधान यामन वस्त्र,भेर्। िब शादी में िाते हो तो ऐसे ही िाते हो ? मकतने बदलते हो ?
मकतने बदलते हो ? गुरु के पास आते हो तो कै से आते हो ? ममत्रों के साथ िाते हो तो कै से िाते हो
? उस भेर् और पररधान बदलने के साथ हमें उन पररणामों को भी बदलना है ,क्योंमक उस भगवान
की भमि को हमें समझना है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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महावीराष्टक का मात्र आलबं न है। आलबं न आवश्यक है, इसमलए भगवान की भमि से
िुड़ना है। भि को भी समझना है। कौन है भि ? भेर् बदलने से भि नहीं कहलाओगे। अरे ! तुम्हारे
धवल वस्र,तुमसे अमधक धवल वह बगुला होता है, कै सा होता है ? धवल बगुला होता है, पर पररणाम
? वह एक टांग पर खड़ा होकर ध्यान भी करता है। राम,लक्ष्मण,सीतािी पथ पर िा रहे थे,लक्ष्मण
कहता है, देखना श्रीराम तुम्हारा भि कै से खड़ा है, एक टांग पर तुम्हारा ध्यान करने के मलए खड़ा है,
भगवान के ध्यान में लीन है। हम यही भल ू कर बैठते है, तरु ंत व्यमि से प्रभामवत हो िाते है, कोई हमें
अच्छा लगा तो तुरंत उससे प्रभामवत होकर उसके िैसा करने लगते है। पहले व्यमि को समझना
होगा, परखना होगा, उसके साथ उठना-बैठना होगा तब िाकर व्यमि की परीक्षा होगी। भि तो मदख
रहा था, पर भि नहीं था। मकसका भि था ? श्रीराम कहते है भूल मत करना, एक टांग से खड़ा है,
धवल वणष है, पानी में ध्यान कर रहा है, ध्यान मेरा नहीं कर रहा िैसे ही मछली मदखी, तो उस र्ोंर्
से मकसे र्ुना ? उस मछली को ही र्ुना िैसे ही मछली उसने र्ोंर् में पकड़ी राम कहते है, देखो कौन
भि है ? कौन कमबख़्त है ? अरे ! भि नहीं वो तो कमबख़्त था, मछली पकड़ने के मलए मायार्ारी
कर रहा था, मात्र भेर् धारण मकये था। भेर् नहीं, पररधान नहीं, अरे! तुमसे भी धवल उसका शरीर है,
पर पररणाम उसके धवल नहीं थे उन धवल पररणामों को प्राप्त करना है। वास्तमवक भि और भमि
को हमें समझना है। भि का अथष िुड़ना होता है,एक अथष तो समझ मलया की भेर् बदल के भगवान
की आराधना कर ली, हम भि बन गये, वह भि तो मात्र सज्ञं ा का भि हुआ, पर शब्द का अथष है
िुड़ना। देखना एक भि और एक मवभि, मवभि क्या कहलाता है ? उससे दूर हो िाना मवभि
कहलाता है, तो मवभि के मवरुद्ध तो भि है यानी िो िुड़ता है,अपने आपको िोड़ता, सबको
िोड़ता है,परमात्मा से िड़ु ता है वही वास्तमवक भि होता है। उस भि को ही समझना है,अपनी-
अपनी भमि को ही समझना है। सुबह भी हम समझ रहे थे "पूज्येर्ु गुणेर्ु अनुरागो भमिः।" पूज्यों
के गुणों में अनुराग करना वही भमि है। साधन की र्र्ाष कर ही रहे है,पर साधन समझने से काम नहीं
होगा, साध्य भी बनना होगा,साधन का उपयोग भी हमें करना होगा। साध्य हमारा िो भगवान
है,अररहंत है,मसद्ध है वहााँ तक पहुाँर्ना है।
िो तम्ु हारा पसदं का ्लेयर है,क्या तमु उसके िैसे शॉट मारना नहीं सीखते ? वह तो उस मैर्
में खेलता है और तुम उस आईने के सामने खड़े होकर उसके िैसा बल्ला घुमाना र्ाहते हो,क्योंमक
तू भी र्ाहता है िैसे वह शॉट मारता है वैसे मैं भी खेलूाँ,क्योंमक तुम्हें वह पसंद है,वह फे वरेट है। िो
तुम्हारे मलए फे वरेट होता है,तुम भी उसके िैसा बनना र्ाहते हो। कोई कलाकार है, तो उसके िैसी
वेशभूर्ा पहनता है,उसके िैसे हावभाव करने का प्रयास करता है ,क्योंमक तुझे उसके िैसा बनना है।
वह तेरे मलए एक आदशष था। ऐसे ही हम सब का अगर कोई आदशष है ,तो वह अररहतं भगवान है, हमें
भी उनके िैसा बनना है। उस आदशष पर हमें आि र्र्ाष करनी है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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कौन मेरे मलए आदशष ? िो मझ ु े पसदं है,मै मिसके िैसा बनना र्ाहता हाँ,उसके िैसे-ही हावभाव
करता हाँ,उसके िैसे ही मक्रया करने का प्रयास करता हाँ।
अरे! उस साध्य को प्राप्त करना है,हमें भगवान बनना है,अररहंत बनना है,मसद्ध बनना है,तो
पहले उनके िैसे,उनके गुणों को समझकर,गुणों में अनुराग करना और अनुसरण करना होगा।भगवान
क्या है ? िो हमारे मलए आदशषभूत है,मिसके िैसा मै बनना र्ाहता हाँ,वहााँ तक पहुाँर्ना है,उस आदशष
को समझना है,कौन-सा आदशष? अरे! मात्र Idol/ममू तष नहीं भगवान को भी आदशष कहते है।
मााँ ! क्या आप दपषण में नहीं देखते ? सब लोग देखते है। अरे! घर में देखने नहीं ममला,तो
ममन्दर में लगे हुए कााँर् में िाकर देखते हो। मैं ठीक तो ठीक ख रहा हाँ। भैया! घर में नहीं देख
पाये,अमभर्ेक करने खड़े हो गए,दुपट्टे को नीर्े मकया,धीरे से भगवान के पीछे लगे हुए दपषण में देखते
हो,मेरे बाल ठीक तो है। नहीं देखते क्या ? दपषण में मकसे देखा ? आि उस दपषण की ही र्र्ाष करनी
है। मक
ु ु र की बात मलखी है।
"यमदये र्ैतन्ये मुकुर इव भावामश्चदमर्तः"
बाहर की र्र्ाष नहीं है, न मक्रके ट से मतलब है,न कलाकार से मतलब है, हमें उस आगम से
ही उन शब्दों तक पहुाँर्ना है। वहााँ तक पहुाँर्ने के मलए हमने आदशष की बात की थी। दपषण का दूसरा
नाम आदशष भी है।
आदशष को देखकर मकसे ठीक करते हो ? तुम रोमहत शमाष को देखते हो,पर खेलता कौन है ?
तुम खेलते हो मक उसे मखलाने िाते हो ? स्वयं उसके िैसा खेलना र्ाहते हो। देखना, दपषण में मकसे
देखते हो? दूसरों को? दूसरों को नहीं, अपने आप को ही देखने िाते हो। पि ू ा, मवधान कर रहे हैं मफर
भी भगवान की भमि में मन नहीं लग रहा, दाढ़ी तो नहीं बढ़ गयी ? उसको देखकर रोि Shaving
कर रहे हैं। हााँ भगवान की भमि करना है।
अरे ! उस को इतना भी मववेक नहीं रहता, मैं कहााँ हाँ? क्या कर रहा हाँ? मात्र अपनी धुन में
र्लता है, ऐसा होता है सच्र्ा भि िो अपनी धुन में लगा रहता है। उसे दुमनया से कोई प्रयोिन नहीं
होता । र्ाहे बाहर आग लगे, बरसात हो, कुछ भी हो, पर वह मात्र भगवान के गण ु ों में, उसके िैसे
बनने की बात करता है। तत्वाथष सूत्र के मंगलार्रण में कहा है "वंदे तद्गुण लब्धये" मैं उनको इसमलए
नमस्कार कर रहा हाँ मक उनके िैसे गुणों को मैं भी प्राप्तकर लूाँ, वह आदशष था, वह दपषण था। हम िो
अपने आप को बनाना र्ाहते हैं, उसके िैसा बनना र्ाहते हैं, दपषण में क्यों देखा ? िो कालोंर् लगी
थी, िो कालापन गालों पर लगा था, साफ मकसे करना पड़ेगा?
दपषण में हमें कालोंर् मदख रही है, उसने कपड़ा मलया और परू ा दपषण साफ मकया, मफर पानी
मलया पानी डाल मदया, मफर तीन बार साफ मकया और कह रहा है मेरे गालों की कालोंर् ही ठीक
नहीं हो रही उसने खूब साफ मकया दपषण को रगड़-रगड़ के , एक बार, दो बार, तीन बार मफर कहता है
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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पापा मेरे गालों की कालोंर् ही नहीं िा रही। पापा समझदार थे उन्होंने कहा दपषण पोंछने से कालोर्
नहीं िायेगी दपषण में मात्र देखना होगा, अपने आप को ही ठीक करना पड़ेगा। अरे तुम्हें अपने गाल
को ही पोंछना था तो दपषण में देखने क्यों गये? उठाते रमाल और पोंछ देते, पता र्ला इतनी सी
कालोंर् पूरे मुख पर छपा ली, मुाँह काला करके आ गये। देखना दपषण में है और ठीक मकसे करना
है? ठीक अपने आप को करना है । अरे! भगवान का अमभर्ेक भी भगवान के मलए मत करना,
भगवान को िररत नहीं है। लोग कहते हैं, हम अमभर्ेक नहीं करेंगे तो भगवान बासे रह िायेंगे। उन्हें
नहाने की, अमभर्ेक की आवश्यकता नहीं है। अमभर्ेक उनका करना है , पर पापमल अपने धोने है।
देखना उनको है, पर साफ अपने आप को करना है। साफ मकसे करना है ? दपषण को नहीं,नहीं तो
भगवान को मघसते रहे सुबह से शाम तक मेरे पाप क्यों नहीं धुल रहे? अरे! उनको देखकर, उनके िैसे
बनने का प्रयास करना है, तो अपने भीतर लगे उस कमषकामलमा को दूर करना है । उसको दूर करने के
मलए हमारे मलए िो साध्य, आदशष, दपषणभतू बने थे उनके गण ु ों का अनरु ाग करो और अनस ु रण करना
ही वास्तमवक भमि है। दपषण का क्या अथष है ?
भगवान को दपषण क्यों कहा? दपषण- मिसमें दपष यामन मान, क्रोध, कर्ाय, अहंकार नहीं है,
ऐसे अररहतं , मसद्ध मेरे मलए दपषण हैं, आदशषभतू हैं। आि तक भमि को क्यों नहीं समझे? क्यों नहीं
प्राप्त मकया? अरे! मकतना मवश्वास है? िब तुम्हें भूख लगती है, तो तुम रोटी खाते हो, मकसने बताया
तम्ु हें की रोटी खाने से पेट भरता है? मााँ ने बताया, मकतना मवश्वास है मक मैं अगर 2 रोटी के टुकड़े खा
लूाँगा तो मेरे पेट की भूख ममट िाएगी। अरे! िैसे रोटी पर तुम्हारी श्रद्धा है, मवश्वास है, िैसे मााँ के शब्दों
पर मवश्वास है ऐसा मेरी मिनवाणी मााँ के वर्नों पर मवश्वास हो िाए तो तुम्हारी भव भव की भूख ममट
िाएगी। िैसे मवश्वास श्रद्धान रोटी के टुकड़े में होता है, पानी में होता है मक मैं पानी पी लाँगू ा तो ्यास
दूर हो िाएगी, रोटी खा लूाँगा तो भूख ममट िाएगी, ऐसा श्रद्धान, ऐसा मवश्वास कभी उस भगवान पर
भगवान की भमि पर नहीं हुआ। हुआ? नहीं। मात्र शब्दों में हुआ वैसी भमि अगर हम करते तो मवश्वास
मानना। अरे! 48 ताले उन्होंने एक भिामर पढ़ने से तोड़ मदए थे अरे हमें 148 ताले तोड़ने हैं कौन से
148 ताले? कमों की मकतनी प्रकृमतयााँ? 148 हमें उनको तोड़ना है। हमें मकतनी और कै से भमि करनी
पड़ेगी? यह हमें समझना है। भमि के मबना ममु ि सभ ं व नहीं है। र्ाहे वह अद्वैत हो या द्वैत भैया!
पंर्मकाल में मुमि का छठे काल से बर्ने का कोई साधन है, तो वह एक मात्र द्वैत भमि ही है।
यदीये र्ैतन्ये मुकुर इव भावामश्चदमर्तः,
समं भामन्त धौव्य-व्यय-िमन लसतं ोऽन्तरमहताः ।
िगत्साक्षीमागष प्रकटनपरो भानरु रव यो,
महावीर स्वामी नयनपथगामी भवतु मे ॥1॥

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
कल करेंगे समय की र्र्ाष समय पर समय हो गया है। अथष कल करेंगे। कल समय पर आना
तो समय को प्राप्त कर पाओगे, क्योंमक समय पर मकया गया काम समय को मदलाता है।

भगवान महावीर स्वामी की िय।


...क्रमश आगामी अंकों में ........ इस ग्रन्थ की प्रासमं गकता समय के अनुरप और समय पर ही है.
इस सुनयनपथगामी के आगामी अंकों में आप महावीराष्टक के सभी श्लोकों का क्रमशः समवस्तार
रप पढ़ पायेंगे िो मक आपके , हम सभी के आध्यामत्मक िीवन में आमुल-र्ुल पररवतषन कर देगा.
बस थोड़ा सी प्रतीक्षा करे...

“समय पर मकया गया काम


समय को प्राप्त कराता है”

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

रमणीय तीथष “मवरागोदय” अनौखी अमवस्मणीय रर्ना कमलाकार ममं दर

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवराग का मवराट उपकार : प्रदीप्त मकया मानव पर उपकार


भव सागर मवकराल मवराट
तामें ममले गुरु मवराग,
तासे धन्य भयो पायो ज्ञान मवशाल
िान्यो भव अटवी है िि ं ाल ||
नाम भयो यशोधर से मवशद्ध ु
गुरु संग पायो अक्षुण ज्ञान मवशुद्ध,
इस भव अटवी को पार करण
मवराग ज्ञान मदयो बने अमतशद्ध ु ||
ज्यों ज्यों बढ़यो त्यों बन्यो मवशुद्ध
मिनवाणी ज्ञान ितायो देह अशद्ध ु ,
दादागुरु मवराग सागर महाउपकारी
मदनो हमको गुरु मवशुद्ध ज्ञानधारी ||

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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कंर्न बन्यो मदवस रच्यो इमतहास
आर्ायषपदपायो औरंगाबाद प्रवास,
बने गुरुवर आर्ायष मवशुद्ध
महाराष्र-धरा हुई मवशद्ध
ु ||
स्वनाम ज्ञान और आर्ार
सुनकर देव आये सपररवार,
करते वंदन अनंत बार
प्रदीप सपररवार करत नमस्कार ||
नार्त रहे नर और नारी
िैन धमष की ममहमा न्यारी.
गुरु की ममहमा अनूप
समझायो वस्तु स्वरुप ||
तातें बन िाये सब मशवरप
हो अव्याबामधत सुखरप,
नमोस्तु शासन को मकया ियवंत,
देखत रह गया सारा िगवंत ||
श्रमण सस्ं कृमत का बढाया मान
कहते सबको ज्ञानी िान,
ले दीप मञ्िूर्ा, नार्े पररवारा
ियियकार करें अमं कत, हो सरु मभत
िग सारा ||

पी. के . िैन ‘प्रदीप’


संपादक एवं प्रकाशक : नमोऽस्तु मर्ंतन पमत्रका मनशुल्क
अंतराषष्रीय अध्यक्ष:
नमोऽस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), मुंबई
मनदेशक : अंतराषष्रीय िैन शोध मवद्वत पररर्दध
अन्य कई संस्थाओ ं के प्रमुख संस्थापक, न्यासी,
सलाहकार.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

नोट: मदगम्बरार्ायष श्रमण श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी मुमन महाराि की मंगल देशना पर
आधाररत -“आत्मा की सैंतालीस शमियााँ” ग्रंथराि अपने आप में ही एक सार है – ‘समय
देशना’ ग्रंथराि का. और मवशेर् बात यह है मक अपने आप में सार हैं िैन दशषन के महानतम
ग्रन्थ “समयसार” का. इस उदेमष्टत ग्रन्थ की देशना को संकमलत मकया हैं श्रमण मुमन श्री प्रणुत
सागर िी महाराि ने और इसका कुशल सपं ादन मकया हैं श्रतु सवं ेगी श्रमण ममु न श्री सव्रु त
सागर िी महाराि ने. इस प्रकार यह अनेक ग्रन्थ के सारों का सार है. श्रावकों पर करुणा और
अनक ु म्पा के र्लते ममु नरािों द्वारा श्रावकों के महत हेतु इसका दूसरा भाग (दस भाग) प्रस्ततु हैं.
यह कृमत - सार रप ग्रन्थ बहु-उपयोगी एवं पठनीय, अनुकरणीय हैं. अतः इसे आप सभी के
स्वाध्याय लाभ हेतु प्रस्तुत कर रहे हैं. :- पी. के . िैन ‘प्रदीप’
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
इसके पहले के 160 सत्रू ों का अध्ययन व मर्ंतन आपने पवू ष अंकों में मकया ही था. अब आगे:
(161)वस्तू के मलए िगत में कोई रोता नहीं है, वस्तु के मलए िगत में कोई हाँसता ही नहीं है। अपने
राग के मलए रोता है, अपने राग के मलए हंसता है सब स्वाथष का सस ं ार है ।
(162)क्लेश कहां है ,अशांमत कहां है ,पर के अमस्तत्व में नीि का अमस्तत्व खोिना यह तम्ु हारे दुख
का कारण है ।
(163)मिसने वस्तु स्वरप को समझ मलया है वह साम्यभाव है ।
(164)मनि सम्मानीय होने से मोक्ष ममलेगा, पर सम्मानीय होने से अहक ं ार भी आ सकता है ।पर
सम्मान पराधीन है, नीि सम्मान स्वाधीन है।पर सम्मान वर्न का मवर्य है ,पर सम्मान वाणी का
मवर्य है, नीि सम्मान अवाच्य है,अनुभव गम्य है।
(165)हे ज्ञानी! पर के सम्मानों में अपनी मनयमत मत ले िा,व्यमभर्ारी हुए मबना पर में मवर्ार िाता
नहीं, नीि ब्रह्म से हटे मबना पर में मवर्ार िाता नहीं,मनि ब्रह्म से च्युत होना व्यमभर्ार है।
(166) नीि ब्रह्म से हट के िो भी हैं व्यमभर्ार ही है ।पर की वस्तु को झांक- झांक कर देखना यही
तो र्ोरी है ।
(167)मात्र धमष के वेश में आ िाना धमाषत्मा की पहर्ान नहीं है।
(168) गंभीर तत्व का मर्ंतन,गंभीर तत्व का मनणषय मिस मदन हो िाएगा उस मदन कुछ भी देखने की
आवश्यकता नहीं है।
(169) कुछ सीखना है तो सहन करना पड़ेगा कुछ सीखना है तो ऋिु बनना पड़ेगा। ममट्टी न ठुके तो
वह मटका कै से बनेगी?
(170)मनि की बुमद्ध को छलना है, दूसरों की बातों में लगना।
(171) मेरा र्तुष्टय मेरे में है,आपका र्तुष्टय आप में है। एक द्रव्य की अनुभूमत दूसरा द्रव्य नहीं ले
सकता ।एक द्रव्य दूसरा द्रव्य नहीं हो सकता ,एक गुण दूसरा गुण नहीं हो सकता, एक पयाषय दूसरी
पयाषय नहीं हो सकती है।
(172)कमष का उदय का आना, शुभाशुभ उदय का होना ये मनयत नहीं है मक मुझे भोगना ही होगा।
कमष के उदय को भोगना यमद मनयत मानते हो,तो मोक्षमागष का अभाव हो िाएगा।
(173)ममु क्ष
ु !ु मितना आाँखों से रसपान मकया है उतना रसना से रसपान नहीं मकया ।रसना से तो फल
का ही रस पी पाता है, आाँखों से तूने मकतने रसपान कर डाले?कहीं नारी का रसपान मकया,कई नारी
को देखा, कहीं मााँ को देखा, कहीं बेटी को देखा, कहीं भवनों को देखा, कहीं प्रदमशषनी को देखा।
मकस-मकस को देखकर आनंद नहीं लूटा है ?ये आंखों का रसपान था ।
(174)र्ैतन्य की र्ैतन्यता का प्रकटीकरण करने का उपाय मोक्षमागष है ,और शद्ध ु ता का प्रगट हो
िाना मोक्ष है। र्ैतन्य की शुमद्ध का िो उपाय है वही रत्नत्रय धमष है ,वहीं मोक्षमागष है ,र्ैतन्यता का
शुमद्धकरण प्रकटीकरण हो िाना इसका नाम मोक्ष है।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख ु दाई है.
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(175)ज्ञामनयो!मवर्य को सनु लेना मभन्न मवर्य है, मवर्य को सब समझ लेना भीन्न मवर्य है ,मकंतु
वस्तु को अन्तस में प्रगटीकरण कर पाना मभन्न मवर्य है।
(176) व्याख्यान मभन्न मवर्य है, प्रवृमत्त मभन्न मवर्य है और अनुभूमत मभन्न मवर्य है।
(177) भैया व्रत सब के एक से हो सकते है पर वृमत्तयााँ सबकी एक सी नहीं हो सकती। भारत भमू म में
ही नहीं नहीं ढाई द्वीप में मितने भी मवतरागी के तपोधन है इन सब के व्रत एक से है पर वमृ त्तयााँ एक
से नहीं है ,अनभ ु मू तयां एक से नहीं है ,पर मोक्ष तभी ममलेगा मिस मदन वमृ त्तयााँ अनभ
ु मू तयां एक-सी हो
िाएगी ।िब तक व्रत अनुभमू त वृमत्तयााँ तीनों एक नहीं होगी तब तक मोक्ष नहीं ममलेगा।
(178) मुमुक्षु! र्ाहे साढेे़ तीन हाथ के मुमनराि हो र्ाहे वह सवापााँर्सौ धनुर् की अवगाहना वाले हो
िब- तक एक शब्द सदृश्य पररणाम नहीं होंगे तब-तक मोक्ष नहीं ममल सकता ।
(179) पााँर् पाप करना पड़ेंगे,पररग्रह िोड़ना पड़ता है, महंसा झूठ र्ोरी कुशील पररग्रह करना पड़ते है
तब कहीं नरक िाने को ममलता है।
(180)ज्ञानी !बदल देना कमठन नहीं है, छोड़ देना कमठन है ।
(181) राग छोड़ना अलग मवर्य है,राग बदल देना अलग मवर्य है।
(182)शब्दज्ञान को समझ लेना मभन्न मवर्य है और आत्मतत्व को समझना मभन्न मवर्य है।
(183)वस्तु का नाश वैराग्य नहीं है ,वस्तु से उदासता वैराग्य है।
(184) िो उपेक्षाभाव की उत्कृष्टता है, इसका नाम उदासता है, वैराग्य है। मशवत्व को वही प्राप्त कर
सकता है मिसके पास उपेक्षा भाव है।
(185) मिससे सम्यग्दशषन-ज्ञान-र्ररत्र की हामन न हो वह रुमढ़ स्वीकार है।
(186)राग भी आपको पयाषयदृमष्ट पर है,द्रव्य दृमष्ट पर नहीं है। आपको अपने बेटे की मााँ की पयाषय पर
राग है ,द्रव्य पर कोई राग नहीं है ।
(187)िो कुछ भी उत्पन्न होता है उसका मनयम से मवनाश होता है ।पयाषयदृमष्ट से कोई भी द्रव्य शाश्वत
नहीं है।
(188)िगत में कोई घर होता नहीं है।मिस घर में राग की पूमतष होती है वही घर हो िाता है।
(189) साधना पयाषय पर आलमम्बत नहीं होता है, ध्यान पयाषय पर आलमम्बत नहीं होता है,ध्यान द्रव्य
पर आलमम्बत होता है ।पयाष य पर ध्यान तो वैराग्यभूत अवस्था है।
(190) पग- पग पर मवर्मता ममलेगी उसमें तुम समता बनाके रखो उसका नाम वैराग्य है।
(191)मवर्मताओ ं के आने पर भी, अपमान के होने पर भी, सम्मान प्रामप्त के भाव मन में नहीं लाना
इसका नाम समता है।
(192) िैसे मन्द थोंकनी में थोंकने से सोने की मकरट्टमा को अलग मकया िाता है ऐसे ही ध्यान की
थोंकनी में थोंकने पर आत्मा की कमष-मकरट्टमा को अलग कर मदया िाता है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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(193)परसहयोग पर के मवकार में सहयोगी तो हो सकते हैं , लेमकन परसहयोग पर के मवनाश में
सहकारी नहीं हो सकते।मकसी भी द्रव्य का मवनाश होता नहीं ।
(194)तपस्या आत्मा की उपलमब्ध के मलए नहीं है, तपस्या आत्मा से कमों के पृथककरण के मलए है
। िो कमों का आत्मा से पथ ृ क करना है,पृथक हो िाना है इसी का नाम मोक्ष है।
(195) परतंत्र होने पर अपनी सत्ता को समझ ले, उसे पथ ृ क करने का पुरुर्ाथष करें, वही सम्यग्दृमष्ट
योगी है और परतत्रं होने पर भी अपने क्षामयकज्ञान को प्रकट कर ले वही सकल परमात्मा है।परतत्रं ता
का अभाव करके बैठ िाए उसका नाम मनकल परमात्मा।
(196)समझदार को तो अपन समझा सकते हैं , पर िो समझना नहीं र्ाहता उसे आप कभी नहीं
समझा पाओगे।
(197) आत्मद्रव्य त्रैकामलक अपने स्वभाव में है , मकसी भी अवस्था में मनिभाव का अभाव द्रव्य
नहीं करता है। िो सतध है वही भाव है। िो भाव है वही सतध है ।िो सतध है वह सतध है और वही द्रव्य का
लक्षण है ।
(198)नीिभाव में परभाव का अभाव िो देख रहा है वह क्लेश को प्राप्त नहीं हो सकता।मनिभाव में
परभाव का सद्भाव िो देख रहा है वह मनयम से क्लेश को प्राप्त होगा।परभाव में मनिभाव का अभाव
है लेमकन लेमकन आप परभाव में ही मनिभाव मानते रहे यही पयाषयमूढ़ता है।
(199)तमु मोह के सोमरस का पान कर रहे हो दुमनया को अपना मान रहे हो यही तो सोमरस है।
(200) िो देह के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी देही से मभन्न िाने इसका नाम समरस है और िरा-सा देह
में कष्ट होने पर देह पर दृमष्ट िा रही है उसका नाम सोमरस है।
(201) तीन लोक का मतलक बनना है तो आपके सस ं ार की अमग्न में झल
ु सना पड़ेगा और उपसगो
की धोनी में मपलना पड़ेगा तब कहीं आप तीन लोक के मतलक बन पायेंगे।
(202) परभाव की र्मक में मनिभाव की र्मक मान बैठना यही अज्ञानभाव है।
(203)ये वीतरामगयों का का मागष है, ये मवत्तरामगयों का मागष नहीं है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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ु दाई है.
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ica/tana sae banae sauKaI jaIvana


zaana AaEr vaEragya ke ibanaa saaYanaa A/YaI va naIrsa hE.
िहााँ गुरओ ं के प्रमत भमि व प्रेम उमड़ता है वहााँ कतषव्य स्वंय दौड़ लगाने लगते है.

sahnaSaIlataa-saaYanaa kI paXTama saIZI hE.


िो अपने घर को ही आदशष न बना सका वह समाि देश राष्र को क्या आदशष बना सके गा.

sa/ta sa/saar mae/ rhtae hE laeikna sa/ta mae/ sa/saar nahI rhtaa.
अनुशासनशीलता, कतषव्य मनष्ठा और मवश्वासनीयता ये ऐसे गुण है, मिन्हें देख कर गुर खुश होते हैं.

satax pau@Va iksaI kae paZatae nahI/ bailk wsake maaYyama sae svaya/

paZtae hEE.
िो पर की करणामयी आवाि नहीं सुन सकता प्रभु भी उसकी भमिकी आवाि कै से सुन सकते है?

imaPataa ka ATaQ maaPa paXema vyavahar nahI, ikntau AapasaI ihtEaVaI

Baava hE.
मनबषल होने परभी अपना आत्मबल नहीं खोना र्ामहए, आत्मबली अपने आत्म बलसे सफलता प्राप्त कर लेता है.

SarIrka M&/gaar dUsarae/ ke ilaF haetaa hE

ik/tau caetanaa ka M&/gaar svay/a ke ilaF.


सकारात्मक मर्ंतन में आपसी प्रेम एकता वमृ द्वगतं होती है। तो नकारात्मक मर्ंतन से मवघटन मन मुटाव आमद.

ApanaI bauraqQ par Aa~saU BaI bahanaa caaihyae

par qtanae ik ijasasae bauraqQyaa~ hI Gaula jaayae.

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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

- डॉ यतीश िैन एवं डॉ ज्योमत िैन

एक अदभतु ग्रन्थ है – ‘मसरी भवू लय’ अथवा श्री भवू लय है। मवश्व प्रमसद्ध धवला टीका के
रर्नाकार आर्ायष श्री वीरसेन के मशष्य आर्ायष श्री मिनसेन की परंपरा के आर्ायष श्री माघनंदी
के मशष्य आर्ायष श्री कुमदु ेंदु ( 860 ईस्वी लगभग) ने अंक मलमप में सवषभार्ामयी ग्रंथ 'मसरी
भवू लय' की रर्ना बेंगलरुु के समीप कोलार मिले में नदं ी पवषत के पास येलवल्ली ग्राम में की।
िैन मुमन आर्ायष कुमुदेंदू द्वारा रमर्त िब कनाषटक में राष्रकूटों का शासन था, सम्राट अमोघ-
वर्ष नपृतुंग (प्रथम) का शासनकाल था, उस कालखंड का यह ग्रन्थ है।
मपछले एक हिार वर्ों से यह ग्रन्थ गायब था। कहीं-कहीं इस ग्रन्थ का उल्लेख ममलता था,
परन्तु यह ग्रन्थ मवलुप्त अवस्था में ही था। यह ग्रन्थ कै से ममला, इसके पीछे भी एक मिेदार मकस्सा
है – राष्रकूट रािाओ ं के कालखडं में अमोघ वर्ष की सेना के अमधकारी श्री शेण की पत्नी
ममल्लकाब्बे ने श्रुत पंर्मी व्रत के उद्यापन के अवसर पर धवल, ियधवल, महाधवल, अमतशय
धवल और मसरी भूवलय की प्रमतयां मवतररत की थी| इसमें एक माघनंदी िी को प्रदान की। इस
ग्रन्थ की प्रमत धीरे-धीरे एक हाथ से दुसरे हाथ होते हुए सुप्रमसद्ध आयुवेद मर्मकत्सक धरणेन्द्र
पंमडत के घर पहुाँर्ी । धरणेन्द्र पंमडत, बंगलौर - तुमकुर रेलवे मागष पर मस्थत डोडधडाबेले नामक
छोटे से गााँव में रहते थे | इस ग्रन्थ के बारे में भले ही उन्हें अमधक िानकारी नहीं थी, परन्तु इसका
महत्त्व उन्हें अच्छे से मालूम था | इसमलए वे अपने ममत्र र्ंदा पंमडत के साथ ममलकर ‘मसरी
भूवलय’ नामक ग्रन्थ पर कन्नड़ भार्ा में व्याख्यान देने लगे | इन व्याख्यानों के कारण, बंगलौर
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख ु दाई है.
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के ‘येल्पा शास्त्री नामक यवु ा आयवु ेदार्ायष को यह पता र्ला मक यह ग्रन्थ धरणेन्द्र शास्त्री के
पास है । येल्पा शास्त्री ने इस ग्रन्थ के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था इसमलए उनका मनश्चय
पक्का था मक उन्हें यह ग्रन्थ प्राप्त करना ही है। ऐसे में इस ग्रन्थ की हस्तमलमखत प्रमत को हामसल
करने के मलए येल्पा शास्त्री ने डोडधडाबेले िाकर धरणेन्द्र शास्त्री की भतीिी से मववाह भी
मकया|
आगे र्लकर १९१३ में धरणेन्द्र शास्त्री का मनधन हो गया। अपने िीवन का अमधकांश समय
मवद्या अभ्यास को देने के कारण उनके घर की आमथषक मस्थमत बहुत ही खराब हो र्ुकी थी
इसमलए उनके पुत्र ने, धरणेन्द्र शास्त्री की कुछ वस्तओ ं को बेर्ने का मनणषय मलया । इन्हीं वस्तुओ ं
में ‘मसरी भूवलय’ नामक ग्रन्थ भी था, येल्पा शास्त्री ने ख़ुशी-ख़ुशी यह ग्रन्थ खरीद मलया ।
इसके मलए उन्हें अपनी पत्नी के गहने भी बेर्ने पड़े, परन्तु यह ग्रन्थ हाथ लगने के बाविूद शास्त्री
िी को इस ग्रथ ं का गढ़ू ाथष समझ में नहीं आ रहा था । १२७० पष्ठृ ों के इस हस्तमलमखत ग्रन्थ में
सब कुछ रहस्यमयी था। आगे र्लकर १९२७ में प्रख्यात स्वतत्रं ता सेनानी करमंगलम
श्रीकंठाय्यािी बंगलूर पधारे । उनकी सहायता से इस ग्रथ ं के बारे में िानकारी प्राप्त की ।
इस हस्तमलमखत में दी गई िानकारी के आधार पर प्रयास करते-करते, उसमें दी गई साक ं े मतक
िानकारी का तोड़ मनकालने में उन्हें लगभग र्ालीस वर्ष लग गए । सन १९५३ में कन्नड़ सामहत्य
ने इस ग्रन्थ का पहली बार प्रकाशन मकया । ग्रन्थ के सपं ादक थे – येल्पा शास्त्री, करमगं लम
श्रीकंठाय्या एवं अनंत सब्ु बाराव | इन तीनों में अनंत सुब्बाराव एक तकनीकी व्यमि थे। इन्होने
ही पहले कन्नड़ टाईपराइटर का मनमाषण मकया था। आमखर इस ग्रन्थ में इतना महत्त्वपूणष क्या था
मक मिसके मलए कई लोग अपना परू ा िीवन इस पर न्योछावर करने के मलए तैयार थे..?
यह ग्रन्थ, अन्य ग्रंथों की तरह मलमप में नहीं मलखा गया है, अमपतु अंकों में मलखा गया है।
यह कृमत गमणतीय रीमत से बनाई िाकर गमणतीय ज्ञान एवं प्रमक्रयाओ ं से बनी हुई है। इसमें १ से
६४ के बीर् के अंक ही हैं। ये अंक अथवा आंकड़े एक मवमशष्ट पमद्धमत से पढ़ने पर एक मवमशष्ट
भार्ा में, मवमशष्ट ग्रन्थ पढ़ सकते हैं। ग्रन्थ के रमर्यता अथाषतध िैन मुनी कुमुदेंदू के अनस ु ार इस
ग्रन्थ में १८ मलमपयााँ हैं और इसे ७१८ भार्ाओ ं में पढ़ा िा सकता है |
यह ग्रन्थ अक्षरशः एक मवश्वकोश ही है | इस एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ मछपे हुए हैं | रामायण,
महाभारत, वेद, उपमनर्द, अनेक िैन दशषन के ग्रंथ । सभी कुछ इस एक ग्रन्थ में समामहत हैं ।
गमणत, खगोल शास्त्र, रसायन शास्त्र, इमतहास, मर्मकत्सा, आयुवेद, तत्वज्ञान िैसे अनेकानेक
मवर्यों के कई ग्रन्थ इस एक ही ग्रन्थ में पढ़े िा सकते हैं ।
इसी ग्रन्थ में कहीं ऐसा उल्लेख है मक इसमें १६००० पष्ठृ थे, लेमकन उसमें से के वल १२७०
पृष्ठ ही अब उपलब्ध हैं । कुल ममलाकर इसमें ५९ अध्याय है । १८ मलमपयों एवं ७१८ भार्ाओ ं
में से अभी तक के वल कन्नड़, तममल, तेलुगु, संस्कृत, मराठी, प्राकृत इत्यामद भार्ाओ ं में ही यह
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ग्रन्थ पढ़ा िा सकता है | मकसी मवशाल कं्यटू र मवश्वकोश की तरह ही इस ग्रन्थ का स्वरप है |
िब भी इस ग्रन्थ की सम्पूणष संमहता का रहस्य खुलेगा, तभी इस की प्रमुख मवशेर्ताएाँ और भी
स्पष्ट हो सकें गी |
यह ग्रन्थ मलमप में नहीं, बमल्क अंकों में मलखा गया है | यह हम देख र्ुके हैं | इसमें भी के वल
१ से लेकर ६४ तक के अंकों का ही उपयोग मकया गया है । प्रश्न उठता है मक कुमुदेंदू मुमन ने
के वल ६४ तक के अंक ही क्यों मलए? क्योंमक ६४ एक ध्वमन सक ं े त है, मिसमें ह्रस्व, दीघष एवं
लुप्त ममलाकर २७ स्वर; क, र्, न, प िैसे २५ वगीय वणष; य, र, ल, व, िैसे अवगीय व्यंिन
इत्यामद ममलाकर ६४ संख्या आती है |
ये सख्
ं याएं २७ x २७ के र्ौकोन में िमाई िाती हैंI इस प्रकार ये ७२९ अंक मिस र्ौकोन में
आते हैं, वे ग्रन्थ में मदए गए मनदेशानुसार नीर्े से ऊपर, ऊपर से नीर्े, आड़े-सीधे सभी प्रकार से
कै से भी मलखे िाए तो वह उस भार्ा के वणषक्रमानस ु ार मलखे िा सकते हैं (उदाहरणाथष- यमद ४
अंक हुआ तो महन्दी का वणष ‘घ’ आएगा, क, ख, ग, घ के अनुसार), इस प्रकार छंदोबद्ध काव्य
अथवा धमष, दशषन, कला िैसे अनेक प्रकार के ग्रंथ तैयार हो िाते हैं | मकतना मवराट है यह सब...
और मकतना अदभतु भी...! हमें के वल एक छोटा सा ‘सडु ोकू’ र्ौकोर तैयार करने के मलए
कं्यूटर की सहायता लेनी पड़ती है और इस ग्रन्थ को लगभग हिार, बारह सौ वर्ों पूवष एक िैन
मनु ी ने अपनी कुशाग्र एवं अदभतु बमु द्ध का पररर्य देकर के वल अंकों ही अंकों के माध्यम से
मवश्वकोश तैयार कर मदया...!
यह पढ़कर सब कुछ तकष से परे लगता है...!! इस ग्रन्थ का प्रत्येक पृष्ठ २७ x २७ अथाषतध ७२९
अंकों का बहुत ही मवशाल र्ौकोर है | इस र्ौकोर को र्क्र कहा िाता है | इस प्रकार के १२७०
र्क्र मफलहाल उपलब्ध हैं । इन र्क्रों में ५९ अध्याय हैं और कुल श्लोकों की संख्या छः लाख से
अमधक है | इस ग्रन्थ के कुल ९ खंड हैं | वतषमान में उपलब्ध १२७० र्क्र पहले खंड के ही हैं,
मिसका नाम है – ‘मंगला प्रभृता | ऐसा कहा िा सकता है मक यह एकमात्र उपलब्ध खंड ही
बाकी के ८ खण्डों की मवराटता का दशषन करवा देता है | अंकों के स्वरप में इसमें १४ लाख
अक्षर हैं. इनमें से ही ६ लाख श्लोक तैयार होते हैं |

इस प्रत्येक र्क्र में कुछ ‘बंध’ हैं | ‘बंध’ का अथष है इन अंकों को पढ़ने की मवमशष्ट पद्धमत
अथवा एक र्क्र के अंदर अंकों को िमाने की पद्धमत | दुसरे शब्दों में कहें तो ‘बध ं ’ का अथष है वह
श्लोक, अथवा ग्रन्थ पढ़ने की र्ाभी (अथवा पासवडष) | इस ‘बंध’ के कारण ही हमें उन र्क्रों के भीतर
मौिदू ७२९ अंकों का पैटनष समझ में आता है और मफर उस सम्बमं धत भार्ा के अनस ु ार वह ग्रन्थ हमें
समझ में आने लगता है | इन बंध के प्रकार भी मभन्न-मभन्न हैं. िैसे – र्क्रबंध, नवमांक-बंध,
मवमलांक-बंध, हंस-बंध, िामत-बंध, श्रेणी-बंध, मयूर-बंध, मर्त्र-बंध इत्यामद |
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मपछले अनेक वर्ों से इस भवू लय ग्रन्थ को ‘डी-कोड’ करने का कायष र्ल रहा है | अनेक
िैन संस्थाओ ं ने यह ग्रन्थ एक प्रकल्प के रप में स्वीकार मकया है | इदं ौर में िैन सामहत्य पर शोध
करने के मलए ‘कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ’ का इस मवर्य पर बहुत कायष मकया है | आईटी क्षेत्र के कुछ िैन
युवाओ ं ने इस मवर्य पर वेबसाईट तो शुर की ही है, परन्तु साथ ही कं्यूटर की सहायता से इस ग्रन्थ
को ‘डी-कोड’ करने का काम र्ल रहा है |
आि से बारह सौ वर्ष पवू ष, आि के समान उपलब्ध आधुमनक साधनों के अभाव में भी िैन
मुनी कुमुदेंदू ने इतना मक्लष्ट ग्रन्थ कै से तैयार मकया होगा..? दूसरा प्रश्न है मक मुमनवयष तो कन्नड़ भार्ी
थे | मफर उन्होंने अन्य भार्ाओ ं का इतना कमठन अलगोररदम कै से तैयार मकया होगा? और सबसे
बड़ी बात यह है मक मूलतः इतनी कुशाग्र एवं मवराट बमु द्धमत्ता उनके पास कहााँ से आई..?
‘इडं ोलॉिी’ के क्षेत्र में भारत से एक नाम बड़े ही आदर से मलया िाता है, श्री एस. श्रीकांत
शास्त्री (१९०४-१९७४) का | इन्होंने ‘भवू लय’ ग्रन्थ के बारे में मलखा है मक – यह ग्रन्थ कन्नड़ भार्ा,
कन्नड़ सामहत्य, साथ ही सस्ं कृत, प्राकृत, तममल, तेलुगु सामहत्य के अध्ययन की दृमष्ट से बहुत ही
महत्त्वपूणष है | यह ग्रन्थ भारत और कनाषटक के इमतहास पर प्रकाश डालता है | भारतीय गमणत का
अभ्यास करने के मलए यह ग्रन्थ महत्वपण ू ष सन्दभष ग्रन्थ है | भौमतकशास्त्र, रसायनशास्त्र एवं िीव
मवज्ञान के मवकास का शोध करने के मलए यह ग्रन्थ उपयोगी है | साथ ही यह ग्रन्थ मशल्प एवं प्रमतमा,
प्रतीकों इत्यामद के अभ्यास के मलए भी उपयि ु है | यमद इसमें रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, ऋग्वेद
एवं अन्य कई ग्रंथों की डी-कोमडंग कर सकें तो उनकी एवं वतषमान में उपलब्ध अन्य ग्रंथों की तुलना,
शोध की दृमष्ट से काफी लाभदायक मसद्ध होगी | नष्ट हो र्ुके अनेक िैन ग्रन्थ भी इस मसरी भूवलय
में मछपे हो सकते हैं | िब इस ग्रन्थ की िानकारी भारत के पहले राष्रपमत डॉक्टर रािेंद्र प्रसाद को
ममली, तब उनके सबसे पहले उत्स्फूतष उद्गार यही थे मक – ‘यह ग्रन्थ मवश्व का आठवााँ आश्चयष है |’
एक दृमष्ट से यही सर् भी है | क्योंमक इस संसार के मकसी भी देश में कहीं भी कूटमलमप में
मलखा गया ‘एक ग्रन्थ में अनेक ग्रन्थ’ िैसा अदभुत मवश्वकोश नहीं ममलता | यह हमारा दुभाषग्य है
मक भारतीय ज्ञान का यह अनमोल खिाना कई वर्ों तक हमारी िानकारी में नही था..! लेमकन
मवश्वास है मक कुंदकुंद ज्ञानपीठ इदं ौर के सत प्रयासों से इस मदशा में तेिी से काम आगे बढ़ाया है ।
युवाओ ं की एक नई टीम िो इस क्षेत्र में कायष करने के मलए तत्पर है । आवश्यकता इस बात की भी
है इस ग्रंथ के व्यापक प्रर्ार-प्रसार के मलए राज्य सरकार और कें द्र सरकार को भी अपने सूर्ना
प्रसारण मत्रं ालय के माध्यम से प्रसार करना आवश्यक है । स्कूली पाठधयक्रम में भी एक अध्याय इस
ग्रंथ के बारे में भी समामवष्ट करने की आवश्यकता है । देशभर में सामहत्य के क्षेत्र में, प्राकृत के क्षेत्र में
एवं अन्य भार्ा भामर्यों के शोध सस्ं थानों में ग्रथ ं के बारे में मवस्तार से िानकारी एवं अनवु ाद का
कायष मकया िाना आवश्यक है । ग्रंथ में अनेक ग्रंथों के साथ-साथ कई गूढ़ रहस्य छुपे हुए हैं मिसका
लाभ िनमानस को ममलना अमत आवश्यक है ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
सन्दभष :-
1. अमनल कुमार िैन "अप्रमतम प्रमतभा मसन्धु श'मसरी भवू लय 'रर्मयता आर्ायष कुमुदेन्दु' "
2021 मसरी वाकध-पीठ इदं ौर पृ. 108
2. मसरर भूवलय भाग 1 (अध्याय 1 से 8) महंदी अनुवाद स्वणष ज्योमत, 2007, पुस्तक सत्य
प्रकाशन बेंगलुरु पृ.500
3. मसरी भवू लय शोध दशा एवं मदशा डॉ अनपु म िैन एवं इमं िनीयर अमनल कुमार िैन, 2017
कुंदकुंद ज्ञानपीठ, इदं ौर, पृ. 21
4. आर्ायष श्री मवभव सागर श्री भोले ग्रंथ में है
5. अध्यात्म का समागम 2019, 21 मई दैमनक भास्कर इदं ौर
6. मसरी भूवलय मवमकपीमडया डॉट ओआरिी
7. प्रशांत पोल, 2019 मसरी भवू लय: एक अद्भुत एवं र्मत्काररक ग्रथ
ं , भारतीय ज्ञान का
खिाना, प्रभात प्रकाशन, मदल्ली
8. मसरी भूवलय शोध के 75 वर्ष : डॉ अनुपम िैन, अहषत वर्न, इदं ौर 30 (3) िुलाई मसतंबर
2018

लेखक-युगल पररर्य : १. डॉ० यतीश िैन, २. डॉ ज्योमत िैन; िबलपुर.


१. डॉ० यतीश िैन; एम एससी, पी एर्डी(पयाषवरण मवज्ञान), एलएल बी, एम ए (समािशास्त्र,
अथषशास्त्र, रािनीमत मवज्ञान, इमतहास) पोस्ट ग्रैिएु ट मड्लोमा इन कं्यटू र मैनेिमेंट, मड्लोमा इन
ग्रामीण मवकास.
व्यवसाय - शासकीय सेवा में- समन्वय अमधकारी ,िबलपुर

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
पवू ष में पयाषवरण वैज्ञामनक, एकऑन पोलश ू न कंरोल प्राइवेट मलममटे ड, मबुं ई. पवू ष सहायक
प्राध्यापक शासकीय मवज्ञान महामवद्यालय िबलपुर.
धाममषक गमतमवमध : १७-१९ िनवरी २००९ के न्द्रीय मवश्वमवधालय िाममया मममलया इस्लाममया नई
मदल्ली में आयोमित 'मवश्व धमष सम्मेलन, में िैन धमष और पयाषवरणीय मसद्धांत' मवर्य पर व्याख्यान
यंग िैन्स ऑफ इमं डया, मुंबई के राष्रीय मवमध मनदेशक का दामयत्व. मदगंबर िैन सोशल ग्रुप िबलपुर
मेन में कायषकाररणी सदस्य । (वर्ष 2016 से मनरंतर) श्री बररया वाला मदगबं र िैन ममं दर रस्ट कमेटी,
हनुमान ताल िबलपुर में उपाध्यक्ष एवं रस्टी। (वर्ष 2017 से मनरंतर)
आर्ायष मवशुद्ध सागर िी की प्रेरणा से नमोस्तु शासन सेवा समममत के अंतगषत अंतरराष्रीय िैन मवद्वत
पररर्दध शोध संस्थान में मंत्री पद दामयत्व
मवमभन्न सामामिक दामयत्व: मवद्या भारती (2001-2004) प्रांतीय दामयत्व एवं आमखल भारतीय
मवद्वत पररर्दध सदस्य, सहकार भारती राष्रीय समर्व (2012-2015) राष्रीय प्रमख ु मशक्षा एवं शोध
के न्द्र(2015-अभी तक ) अन्य गमतमवमध : पुस्तकें – ३ भारत में पयाषवरण मवमध; पयाषवरण मशक्षा
(बीएड छात्रो हेतु); मवश्व में सहकाररता; शोध पत्र १६; लेख - ६० से अमधक; संपादन कायष (मामसक
पमत्रका) सहकार सगु ध ं , प्रकाशन पण ु े; सस्ं कार मथ
ं न, भोपाल; शाश्वत महदं ू गिषना, प्रकाशन िबलपरु
पूवष राष्रपमत डॉ० एपीिे अब्दुल कलाम द्वारा प्रशमस्त पत्र एवं ३ स्वणष पदक प्राप्त (1996)
सम्बद्धता : स्वयं सेवी सस्ं था
प्रकृमत ममत्र पयाषवरण समममत - संस्थापक अध्यक्ष ।
सहकार प्रमशक्षण एवं शोध संस्थान - संस्थापक अध्यक्ष ।
पयाषवरण क्षेत्र की अनेक राष्रीय / अंतरराष्रीय सस्ं थाओ के सदस्य ।
10-11 फरवरी 2012 में 'अंतरराष्रीय सहकाररता सम्मेलन, भोपाल' के सह संयोिक का दामयत्व
एवं शोध संगोष्ठी की अध्यक्षता।

डॉ ज्योमत िैन
एमएससी, पीएर्डी, एलएलबी

एसोमसएट प्रोफे सर
मवभाग अध्यक्ष
ससं ाधन प्रबध
ं न मवभाग
शासकीय मोहन लाल हरगोमवंद दास ग्रह मवज्ञान एवं मवज्ञान महामवद्यालय िबलपुर

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 121 of 182
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

स्थापना
आर्ायष श्री अपने र्रणो में नमन करो स्वीकार मेरा
स्थान दो गुरुवर मुझपे थोड़ा, करता हं आवाह्वन तेरा !
तमु सम बनना तो ममु श्कल है मेरे मलए सपने में भी
इसीमलए पूिन करने को आया हाँ मैं शरण तेरी ।।
िल
भूलकर मनि सस ं ार मे में िाने कब से भटक रहा,
नही िानता मकतने पापो को है मेने िोड रखा।
अब सस ं ार के में भ्रमण को रोकू ममु ि को में प्राप्त कर,
तेरी शरण में िल को र्ढा कर तुम सम बनने का प्रयास कर ||
र्न्दन
भव भव से मैं दुःख ही दुःख से िाने मकतना मघरा पड़ा,
अब शीतलता पाने को प्रभु तुम र्रणों में हु खडा।
भावो की शुद्धी के मलए प्रभु तुम र्रणो में आया हं,
र्न्दन सम शीतलता पाने में र्रणो में शीश नवाया हं ||
अक्षय
मोह राग द्वेर् में उलझ - उलझ कर मकतना समय गवाया है
अब िब से ये आाँखें खुली है बस तुमको ही तो ध्याया है |
कमों को नष्ट करके तुमने अक्षय पद पाया हैं,
अक्षत तुमको र्ढ़ा के गुरुवर र्रणों शीश नवाया हैं ||
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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पष्ु प
वासनाओ ं में उलझा पड़ा, मैं मर्त्त को मनमषल करना र्ाहं,
अब गुरुवर तेरे र्रणो में, पष्ु प र्ढ़ाना मैं र्ाहं |
पुष्प सी खुशबू गुरु आपमें, गुरु मवराग ने मबखेरी है,
तुम सम बनने के प्रयास में, तुम समक्ष यह मवनती मेरी है ||
नैवेद्य
िाने मकतना पाया मैंने तप्तृ नहीं हो पाया हाँ,
िोड-िोड के संर्य सारा, दुख ही दुख मैं पाता हं ||
िब से तुमने छोड़ा सब कुछ, सुख तुम में ही पाता हाँ,
इसीमलए नैवेद्य र्ढ़ाकर क्षुधा रोग को नशाता हाँ ||
दीप
मोह माया में हं मैं उलझा, ममथ्यात्व में हाँ रमा गुरु,
तेरी शरण मे दीप र्ढाऊ, ममले मुझे सच्र्ा मागष गुरु |
अन्धकार का नाश हो गरुु वर समता रस पीने आया हं,
तुम र्रणों में दीप र्ढ़ाकर तुमसे िुडने मे आया हाँ ||
धपू
पुरुर्ाथष कर रहा हं गुरुवर, मैं यतन कर रहा िुड़ने का,
वीतरागी को ध्याकर गुरुवर ितन कर रहा िुड़ने का |
हाँ मकतना अज्ञानी गरुु मैं, मकतना समय गवाया है,
तेरे दशषन से गुरुवर ये मुझमें ज्ञान अब आया है ||
फल
अष्ट द्रव्य की अंमतम द्रव्य, मैं फल को र्ढ़ाने लाया हाँ,
मोक्षफल पाने को गुरुवर, मैं रत्नत्रय को ध्याने आया हाँ |
मेरी आत्मा में भी बल हो, परुु र्ाथष में गर ु लगा रहाँ,
तेरी शरण में आकर गुरुवर, तुममे ही मैं रमा रहाँ।।
अर्घयष
र्ारों गमतयों में गुरुवर, िाने कब से मैं भटक रहा,
िब से गुरु ये अहसास हुआ, मैं पश्चाताप में डूब रहा |
पर अब न मैं समय गवाऊं, तमु र्रणों में आया हाँ,
तुम सम बनने की इच्छा लेकर, अर्घयष र्ढ़ाने आया हाँ ||

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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ियमाला
िय हो िय हो िय हो गरुु वर
तुम र्रणो में नारे लगा रहे
तुम सम बनने के इस प्रयास में
अष्ट द्रव्य को र्ढा रहे
मभण्ड के गुरु मर्राग भले हो
िन िन में दीप को िला रहे
गुरु मवराग से दीक्षा लेकर
हम सबको तुम तार रहे
मिन मात-मपता ने तमु को िनमा
उनको हम शीश नवाते रहे
मिन गुरु ने तुमको तराशा है
उन र्रणो में सर झक ु ा रहे
यही कामना है गुरुवर
नही रहाँ सस ं ारी मैं
मुि िीव में हो मगनती गुरु
िाऊं मैं मसद्धालय भी
िय हो िय हो िय हो गुरुवर
तुम र्रणो में नारे लगा रहे
तमु सम बनने के इस प्रयास में
अष्ट द्रव्य को र्ढ़ा रहे!
पुष्पांिमल
मवशद्ध
ु सागर गरुु देव की वाणी सनु हर्ाषये।
ज्ञान ममले िो आप का हम ज्ञान धन पा िाए।।

रर्मयता - कु. प्रार्ी िैन, उम्र : 19 वर्ष.


मलगुवां,
िैन कॉलोनी,
टीकमगढ़ (म.प्र.)
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवश्व पटल पर दशषन के रहस्यों को समझने और समझाने वाले संत साधक होते हैं। िो मनि
त्याग तपस्या से उत्पन्न सम्यक प्रज्ञा के बल पर आत्मा और परमात्मा के सम्पूणष रहस्यों को स्पष्ट
करते हैं। सृमष्ट के सम्पूणष रहस्यों की पृष्ठभूमम में गुरु की भूममका महत्वपूणष है।
आत्म तत्व के पारखी श्रमण संत सदैव मनिर्ेतन के ध्यानाथष गुणानुवाद, सामामयक, ग्रन्थों का
अवलोकन, करते रहते हैं। उनकी मर्न्तन धारा स्व-पर महत में सल ं ग्न रहती है। तीथषकर भगवन्तों की
मंगल देशना से मनबद्ध ग्रंथों से अनुभव िन्य स्वानुभूमत करते हैं। वे मनि स्वानुभव से नैसमगषक
मानवीयता को उत्पन्न करके आत्म कल्याण में संलग्न रहते हैं। मिसमें वे सदधग्रन्थों का प्रणयन करके
अपनी प्रांिल प्रज्ञा से और पूवाषर्ायों द्वारा रमर्त ग्रंथों के सार से आगम ग्रथं ों की रर्ना करते है, िो
मोक्षमागष में लगाकर, सयं म की मशक्षा देते हैं ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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व्रतों को अंगीकार करके मनि वैभव से पर् ं - परमेष्ठधमयों के पदों में आर्ायष पद ग्रहण करते है।
आर्ायष पद आर्ायो के द्वारा प्रदत अपने ही मशष्य के मलए प्रदान मकया िाता है। ज्ञान, ध्यान, तप,
मशक्षा-दीक्षा, व्रत, समममतयों में लीन रहने वाले श्रमण मुमन ही आर्ायष होते हैं।
आयारं पंर्मवहं र्रमद र्रावेमद िो मणरमदर्ारं ।
उवमदसमदय आयारं एसो आयारवं णाम ।।
िो मुमन पााँर् प्रकार के आर्ार मनरमतर्ार स्वयं पालता है और इन पााँर् आर्ारों में दूसरों को
भी प्रवृत्त करता है, तथा आर्ार का मशष्यों को भी उपदेश देते हैं, वे ही आर्ायष कहलाते है
आत्मकल्याण के मनममत्त मुमनयों को दीक्षा देने में कुशल, आर्रण से पररपूणष, आर्रण की
मशक्षा व उपदेश देने वाले, कमल के समान संसारसागर से मनमलषप्त, तप, त्याग की तेिमस्वता से
संपन्न, आत्मध्यान में लीन रहने से शांमतसागर में मनमग्न, मनश्चल, गंभीर और मनःसंग होकर स्वयं
महानता के मशखर पर आरुढ़ होते हैं । ऐसे ही आर्ायष अपने मशष्यों को द्वादशांग का मंगल उपदेश
देते हैं ।
मवशुद्ध ज्ञान संपन्न, मोक्षमागष के अमभलार्ी, रत्नत्रय साधक, स्व-पर कल्याणकारी गुरु ही
महान आर्ायष होते हैं मिनके मागषदशषन में स्वयं की साधना करने वाले आत्मदशी साधक मशष्य मनि
कल्याण में सफलता पाते हैं ।
परमपूज्य आर्ायष श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि सत्याथषबोध मे मलखते है मक “प्रभुत्व प्रामप्त
का सम्यक-उपाय सच्र्े-गुरु बतलाते है, मबना सदगरुु उपदेश के स्वप्रभु की प्रामप्त नहीं होती ।
स्वात्मतत्व की उपलमब्ध हेतु, आगम अभ्यास, स्वानुभव के साथ गुरु-उपदेश परम आवश्यक है ।
गुर उपदेश से ही मशष्य आत्मा से परमात्मा की ओर प्रयाण करता है ।
गुरु प्रभु ममले मनिात्म लख,
प्रभु के पहले गुरु पूज्य।
गुरु पूिे प्रभु ममले मनत,
तू बनता िग में पज्ू य।।
आर्ायष भगवनध मलखते है मक – “िो मशष्य गुरु आज्ञामृत का पान करने में अनुरि है, कतषव्यमनष्ठ है,
अनुशासक, आत्मानुशासक है, गुणों के अनुरागी है, गुरु भमि में लवलीन है, महतकारी मागष के
अमभलार्ी है, गुरु के पीछे र्लते है, गुरु से नीर्े बैठते हैं और गुर से नीर्े स्वर में बात करते हैं, वे
मशष्यों में मशष्योत्तम है ।”
श्रेष्ठ मशष्य की पहर्ान है मक वह गरुु आज्ञा में र्ले । गरुु को कुमपत न करे । गरुु के साथ मवश्वासघात
न करें । गुर की भमि में सल ं ग्न रहे । वही गुरु का मशष्य सफलता को प्राप्त करता है ।
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मशष्य वही िो गुर की माने,


र्ले मागष महत रप ।
आज्ञानुवती हो सतत तो,
लाभ ममले अनर ु प ।।

मनमषल गरुु के र्रण है,


मनमषल मन की आस ।
मशष्य बनूाँ मनमषल हृदय,
मवशुद्ध धमष मवश्वास !!

डॉ. श्री मनमषल िैन शास्त्री,


टीकमगढ़, मध्य प्रदेश.
प्रशासमनक मंत्री :
अंतराषष्रीय िैन शोध मवद्वत पररर्दध
अनन्य मुमन भि एवं
िैन दशषन के मूधषन्य मवद्वान,ध कमव एवं
दाशषमनक लेखक व मर्न्तक.

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ु दाई है.
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प्रेरक कहानी :

kuAa/
कुआं
एक बार रािा भोि के दरबार में एक सवाल उठा मक ऐसा कौन सा कुआं है मिसमें मगरने के
बाद आदमी बाहर नहीं मनकल पाता ?
इस प्रश्न का उत्तर कोई नहीं दे पाया । आमखर में रािा भोि ने रािमंत्री से कहा मक इस प्रश्न
का उत्तर सात मदनों के अंदर लेकर आओ वरना आपको अभी तक िो इनाम धन आमद मदया गया है
वापस ले मलए िायेंगे तथा इस नगरी को छोड़कर दूसरी िगह िाना होगा ।
छः मदन बीत र्ुके थे । रािमंत्री को िबाव नहीं ममला , मनराश होकर वह िंगल की तरफ
गया । वहां उसकी भेंट एक गड़ररए से हुई । गड़ररए ने पूछा "आप तो रािमंत्री हैं, रािा के दुलारे हो
मफर र्ेहरे पर इतनी उदासी क्यों" ?
यह गड़ररया मेरा क्या मागषदशषन करेगा? सोर्कर रािमत्रं ी ने कुछ नहीं कहा ।
इसपर गडररए ने पुनः उदासी का कारण पूछते हुए कहा - "रािमंत्री िी हम भी सत्संगी हैं, हो
सकता है आपके प्रश्न का िवाब मेरे पास हो, अतः मन:संकोर् कमहए।" रािमंत्री ने प्रश्न बता मदया
और कहा मक अगर कलतक प्रश्न का िवाब नहीं ममला तो रािा नगर से मनकाल देगा।
गड़ररया बोला -" मेरे पास पारस है उससे खूब सोना बनाओ। एक भोि क्या लाखों भोि
तेरे पीछे घमू ेंगे बस,पारस देने से पहले मेरी एक शतष माननी होगी मक तझु े मेरा र्ेला बनना पड़ेगा।"
रािमंत्री के अंदर पहले तो अहंकार िागा मक दो कौड़ी के गड़ररए का र्ेला बनूं ? लेमकन
स्वाथष पूमतष हेतु र्ेला बनने के मलए तैयार हो गया ।
गड़ररया बोला -" पहले भेड़ का दूध पीओ मफर र्ेले बनो। रािमत्रं ी ने कहा मक यमद मत्रं ी
भेड़ का दूध पीयेगा तो उसकी बुमद्ध मारी िायेगी। मैं दूध नहीं पीऊंगा ।
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख ु दाई है.
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तो िाओ, मैं पारस नहीं दूगं ा - गड़ररया बोला। रािमत्रं ी बोला -" ठीक है,दूध पीने को तैयार
हं,आगे क्या करना है ?"
गड़ररया बोला" अब तो पहले मैं दूध को िूठा करंगा मफर तुम्हें पीना पड़ेगा।" रािमंत्री ने
कहा – “तू तो हद करता है! मंत्री को िूठा मपलायेगा ?” तो िाओ, गड़ररया बोला ।
रािमंत्री बोला - “मैं तैयार हं िूठा दूध पीने को ।”
गड़ररया बोला- “वह बात गयी । अब तो सामने िो मरे हुए इस ं ान की खोपड़ी का कंकाल
पड़ा है, उसमें मैं दूध दोहंगा,उसको िूठा करं । तब ममलेगा पारस । नहीं तो अपना रास्ता लीमिए ।”
रािमंत्री ने खूब मवर्ार कर कहा – “है तो बड़ा कमठन लेमकन मैं तैयार हं ।”
गड़ररया बोला- “ममल गया िवाब ? यही तो कुआं है, लोभ का, तृष्णा का मिसमें आदमी
मगरता िाता है और मफर कभी नहीं मनकलता । िैसे मक तुम पारस को पाने के मलए इस लोभ रपी
कुएं में मगरते र्ले गए..!!”
तृष्णा ऐसी आग है मक मितनी भौमतक र्ीज़ें बढ़ती िाती हैं, उतना ही लोभ या लालर् बढ़ता
िाता है । मिस प्रकार आग में मितनी लकड़ी डालते िाओ, उतनी ही लम्बी लपटें मनकलती हैं ।
तृष्णा वाला मनष्ु य कभी भी तृप्त नहीं होता ।
मशक्षा :
लोभ का मारा धन की आशा के पीछे लग कर यह दसों मदशाओ ं में भागता
मफरता है। सखु की खामतर वह बहुत दु:ख उठाता मफरता है । हर एक आदमी की
र्ाकरी करता मफरता है । मिस प्रकार कुत्ता घर घर भागा मफरता है, यह भी धन
के लोभ की खामतर भटकता मफरता है और परमात्मा की सुध ही भुला दी है।
परमात्मा को प्राप्त करने के मलए मन का साथ बहुत ज़ररी है, लेमकन वह मन िो
हमारे इशारे पर र्ले, ना मक िो हमें अपने इशारों पर नर्ाये।
संकलन एवं प्रस्तुमत :
श्रीमती मंिू पी. के . िैन
न्यास सदस्य ( रस्टी )
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.) मबुं ई.
ठाणे, मुंबई, भारत.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

ताम्रपत्र पर उके ररत (Engraved) सम्पूणष ग्रन्थ मिसका


आप अमभर्ेक भी कर सकते हैं. इसका क्षरण 2500 से
3000 वर्ों में भी नहीं हो सकता. प्रामप्त हेतु संपकष सूत्र :
पी. के . िैन 9324358035

संकलन -डॉ. रेखा िैन

1. गण
ु -गरुु ता से िो पण
ू ष हैं, दुगषण
ु ों से पण
ू ष दूर हैं, पन्थों से शन्ू य, सत्याथष-पथ के नेता है, प्रामणमात्र के
कल्याण के मर्ंतक हैं, भव-सागर उत्तीणष करने में समथषवान हैं, वही सच्र्े गुरु हैं।

2. गरुु ता गण
ु ता से वधषमान होती है, गण
ु ों से ममण्डत आत्मा ही गरुु गण
ु -स्वभावी है। मबना गण
ु ों का
मनलय बने कोई स्वयं को गरुु कहलाए, तो वह काक को हंस पक्षी कह लाने के तुल्य िानो।

3. गुरु मदव्य प्रकाशक है, मबना गुरु प्रकाश के तत्त्व बोध नहीं होता और तत्व बोध के अभाव में
आत्मशोध सम्भव नहीं है। आत्मबोध व आत्मशोध से भव्यिीव रपातीत अवस्था को प्राप्त होता है।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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4. िीवन मवकास में गरुु का महत्वपण
ू ष स्थान होता है। सच्र्े -गरुु के मबना आत्म-मवकास सभ
ं व नहीं।

5. सद्गुरु वीतराग मनग्रषन्थ मदगम्बर आत्मानुशासक ही गुरु शब्द की लाि रख पायेंगे, अन्यथा गुरु शब्द
ही रो पड़ेगा मक अहो मेरी संज्ञा को प्राप्त लोग क्या कर रहे हैं? डाकू शब्द सुनकर िैसे लोगों के हृदय
कंमपत होते हैं, ऐसे गुरु शब्द सुनकर, हृदय कंमपत न होने लगे, इसमलए गुरुओ ं का कतषव्य है मक वे
गरुु ता को सरु मक्षत रखें, काम-काममनी-कामना से अपने अन्तःकरण को सरु मक्षत रखें।

6. गुरु मवश्वास का होता है और मशष्य मवश्वास का उपासक, यह उपास्य-उपासक भाव ही प्रभुता को


प्राप्त कराता है

7. मशष्य वही श्रेष्ठ होता है िो मशष्ट,सदार्ारी, कतषव्यमनष्ठ, गरुु भि, भव से भयभीत, तत्व-
मपपासु,सरल स्वभावी प्रमाद-शून्य एवं मवद्यानुरागी हो।

8. श्रेष्ठ मशष्य वही है िो स्व-गरुु व आगम-आज्ञा का मनमषल पालन करें ।वह स्व्न में भी गरुु आज्ञा
भङधग करने का मवर्ार नहीं लाता तथा आगम के शब्द-शब्द का मवश्वास रखता है। ऐसा गुणवान
मशष्य ही स्व-पर कल्याण में समथषवान होता है ।

9. गुरु मशष्य के पमवत्र संबध


ं से ही श्रुतपरम्परा अक्षुण्ण र्लती है। िहााँ मशष्य की वृमद्ध होती है वहााँ
धमष एवं सस्ं कृमत वधषमान होती है ।मशष्यों का कतषव्य है मक वे अपने ज्ञान वैराग्य की वमृ द्ध करते हुए,
र्ाररत्र गुण से मनिात्मा को मवभूमर्त करें,क्योंमक यह रत्नत्रय धमष ही मुमि का प्रदायक है

10.मशष्यों के सम्यकध-पथ पर गमन करने से गुरु एवं सनातन संस्कृमत की भी वृद्धी,यशः कीमतष और
आत्म सफलता वधषमान होती है ।

संकलन :
डॉ. रेखा िैन
टीकमगढ़, मध्य प्रदेश.
अनन्य मुमन भि एवं
िैन दशषन के मवद्वानध व मर्न्तक.

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आिश्यकता ? कैसे ? वकसवलए ?

मवश्व संस्कृमत में भारतीय सस्ं कृमत अमत प्रार्ीन है | मिसमें श्रमण संस्कृमत प्रार्ीनता के साथ
साथ गौरवशाली भी रही है | भारतीय सामहत्य के प्राण वातरसना श्रमण हैं | मिनके मर्ंतन, मनन से
दशषन, धमष, अध्यात्म, ज्योमतर्, न्याय, वैद्यक, वास्तु, कमषकांड और सुभामर्त देशना िीवन शैली के
शास्त्रों का प्रणयन हुआ है और होता रहेगा | मिसे द्वादशांग कहा िाता है |
श्रतु ज्ञान से भारतीय मनीर्ा सदैव समृद्ध रही है | समय-समय पर श्रतु ज्ञान की गगं ा बहती
रही है, िो भारतीय सामहत्य को समृद्ध करती है | आवश्यकता है मक श्रमण सामहत्य से िन मानस
पररमर्त हो और स्वबोध से शोध करते हुए सामत्वक िीवन शैली से मनि- पर का, पररवार, समाि
और राष्र का भला कर सके | प्रथम तीथंकर भगवान आमदनाथ से लेकर अंमतम तीथंकर भगवान
महावीर स्वामी पयंत र्ौबीस तीथंकरों ने पूणष ज्ञान, सवष महतकारी वीतरागी भाव से ज्ञान ध्यान
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आर्रण के दशषन, न्याय तकष , आगम, प्रमाण, तत्त्व आमद का सम्यकध मववेर्न मकया, िो मानव मन
को मवशुद्ध बनाकर प्राणी मात्र के मलए महतकारी रहा है |
पाश्चात्य और प्राच्य मवद्वानों एवं संतों के द्वारा दशषन, मसद्धांत काव्य इमतहास और मानवीय
मूल्यों को स्थामपत कर सामहत्य संरर्ना की है, िो मक सामहत्य िगत के मलए अनठू ी रही है | ऐसे ही
महामनीर्ी श्रमणार्ायष मध्य प्रदेश की र्ंबल पृष्ठभूमम के रर ग्राम में िन्मे रािेंद्र कुमार िैन ने 20
वर्ष की अल्प आयु में दीक्षा धारण कर मनि प्रज्ञा को स्फुररत करके सोलह वर्ष की अनोखी साधना
से आर्ायष पद को अलंकृत मकया है |
मनष्काम र्याष, श्रमण संस्कृमत के उद्घोर्क, मदगम्बर मद्रु ा धारी, अध्यात्म के ध्रुव तारे बन
करके , स्वात्म साधना करते हुए, आपने सदैव वात्सल्य के सागर को उड़ेल कर ज्ञान प्रवाह की
उच्र्तम तरंगों से मोमतयों को खोिा है और श्रमण सामहत्य को समृद्ध मकया है और कर रहे हैं | आपके
मर्ंतन से प्रसतू िैन श्रतु रहस्य िनमानस को मर्ंतन के मलए मिबरू कर देता है |
वस्तुत्व महाकाव्य िैन दशषन के मिन श्रुत का सार है मिसमें पहली शताब्दी से लेकर इक्कीस
वीं शताब्दी का सामहत्य समामहत हो िाता है | सहि सरल भार्ा से अलंकृत, बोधगम्य, अनेक रहस्यों
को उिागर करने वाला यह महाकाव्य है | िो धमष, दशषन, न्याय, ज्योमतर्, वास्तु, प्रकृमत, मवज्ञान और
िीवनोपयोगी नीमतयों से भरा है | वहीं एक एक मवशुद्ध (अमधकार) शोध के अनेक रास्ते हमें प्रदान
करता है | पज्ू य आर्ायष श्री के मगं ल सामनध्य में समय देशना, प्रकृष्ट देशना, पर ु र्ाथष देशना, अध्यात्म
देशना, मनयम देशना, स्वरप देशना, सवोदय देशना, श्रमण धमष देशना, श्रावक धमष देशना आमद
अनेक ग्रंथों पर अनेक मनीर्ी मवद्वानों के द्वारा गोमष्ठयों में मंथन मकया गया है | मिसमें नवीन मर्ंतन
के साथ सार तत्त्व की उपलमब्ध हुई है | इस धरा पर अनतं ज्ञान है | ज्ञान के स्वरप को पाने के मलए
लगातार अभ्यास और सम्यकध पुरुर्ाथष की आवश्यकता है | सम्यकध पुरुर्ाथष सम्यकध बुमद्ध का कारण
है | दशषन का प्राण ज्ञान मसमद्ध की अवधारणा है | मिससे िीव अिीव लोक अलोक पुद्गल धमष अधमष
आमद को िानकर िीव अपने मनि स्वरप की ओर पुरुर्ाथष करता है | आत्म स्वरप को िानना उस
पर श्रद्धान और उसकी प्रामप्त के प्रमत िागरक होना दशषन का उद्देश्य रहा है |
िैन दशषन में के वली भगवानध िो प्रत्यक्ष रप से आत्म तत्त्व का मवश्ले र्ण करने वाले महान
आत्मा है उनके द्वारा तत्त्व की व्याख्या सवषग्राह्य और सवष मान्य रही है | स्याद्वाद साधना में न्याय,
नीमत, तकष , आगम, प्रमाण, नय और दृष्टांत के माध्यम से वस्तु स्वरप को समझाने वाले कमष मविेता
मोक्ष मागष के नेता और सवषमहत के पुरोधा तीथंकरों की मगं ल देशना कल्याण हेतु भव्य िीवो को
सुनने के मलए ममलती है | उसी देशना को शोधाथी अपने शोध का मवर्य बनाकर इस समाि को
नवीन मदशा प्रदान करते रहे हैं, करते रहेंगे और वतषमान में कर भी रहे हैं |
आि के समय में तीथंकर भगवन्तों की मंगल देशना और पूवष आर्ायों की मर्ंतन पद्धमत को
लेखनी बद्ध करने वाले महाकमव र्याषमशरोममण आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि हैं | मिनके
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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मवशद्धु ज्ञान से भव्य िीवों की मवशमु द्ध बनती है | मिनकी सयू षसम अध्यात्म परक देशना से हृदय की
सुप्त कली मखलती है | मिनके शब्द-शब्द में आत्मशमि और आत्ममवश्वास की उपलमब्ध ममलती है
| शतामधक ग्रंथों में प्रवर्न, लेखन, कथन और मदव्य देशना के दशषन होते हैं |
पूज्य श्रमण श्री सुव्रत सागर िी महाराि की मंगल प्रेरणा से शोध अनुसंधान की प्रगमत हेतु
अन्तराषष्रीय नमोस्तु शासन समममत के अंतगषत अंतराषष्रीय िैन मवद्वतध पररर्दध का गठन मकया गया |
मिसमें श्री पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अध्यक्ष, नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.); डॉक्टर नरेंद्र कुमार िैन
गामियाबाद (वतषमान में टीकमगढ़); बाल ब्रह्मर्ारी अक्षय भैया महामंत्री नमोस्तु शासन सेवा समममत
(रमि.); डॉ सनत कुमार िी ियपुर, डॉ मनमषल िैन शास्त्री टीकमगढ़, श्रीलोके श शास्त्री गनोडा, डॉ
ऋर्भ कुमार िी फौिदार, प्रो. टीकमर्ंद्र मदल्ली, डॉ मवमल कुमार िी गुढ़ा, पं सुनील शास्त्री प्रसन्न
हटा, श्री यतीश कुमार िी िबलपुर आमद के मुख्य संयोिकत्व में मवशुद्ध शोध पीठ स्थामपत करने
का मनणषय मलया | मिससे महाकमव मदगम्बरार्ायष श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि के मवमभन्न ग्रथ ं ों पर
शोधाथी शोध कायष कर मवद्या वाररमध की उपामध प्राप्त कर सकें साथ ही मिन श्रुत के रहस्यों से
मानवीय दृमष्टकोण को मवकमसत करते हुए प्राणी संरक्षण, प्रकृमत संरक्षण, पयाषवरण संरक्षण और
मवश्व शांमत के उपायों को खोिा िा सके | साथ ही मवश्वमवद्यालयों में शोध मनदेशक, शोधामथषयों और
मवद्वानों के मलए शोध सामग्री की उपलब्धता हो सके | अत: िैन दशषन के रहस्य को समझ कर व्यमि
मनि पर कल्याण में अग्रसर बना रहे |
इस कायष में मध्य प्रदेश मस्थत एकलव्य मवश्वमवद्यालय, दमोह की कुलामधपमत उदारमना
समाि रत्न डॉ. सुधा िी मलैया एवं
कुलपमत डॉ. पवन कुमार िी िैन का
मवमशष्ट सहयोग प्राप्त हो रहा हैं. इस
कायष का मक्रयान्वयन डॉ. आशीर्
िैन बम्होरी के सहयोग के मबना पूणषता को प्राप्त नहीं हो सकता हैं. इस अमभनव धमष-प्रर्ार के सहयोग
हेतु धमष-मनष्ठ श्रावक श्रेष्ठी भी स्व-स्फूतष होकर आगे आये और अपने मनोभावों के साथ-साथ अपनी
र्ंर्ला लक्ष्मी का भी सदुपयोग कर हमें प्रोत्सामहत मकया हैं. ऐसे हैं हमारे सरं क्षक स्तम्भ सदस्य. हमारे
देश मवदेश के सम्माननीय, आदरणीय संरक्षक सदस्यों के कुछ मवशेर् नामों में श्रीमानध अमनल िी
िैन कनाडा, वतषमान में मदल्ली-भारत, श्रीमानध अयन िी िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध अमवनाश
िी िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध मिगर िी शाह िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध सौरभ िी
संघानी िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध नवीन िी िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध पदमर्ंद िी
अिमेरा िैन मेलबोनष, ऑस्रेमलया, श्रीमानध अमभर्ेकिी िी िैन-श्रीमती आरती िी िैन पररवार
बंगलुरु, भारत, श्रीमानध मयक ं िी िैन ममसौरी, सैंट लुइस, अमेररका, नाम समम्ममलत हैं. देश ही नहीं
मवदेशों में भी रहकर अपनी मातृभूमम, अपने धमष से िड़ु े रहते हुए मन-वर्न-काय मत्रयोग से कृत-
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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काररत -अनमु ोदना से धमष प्रर्ार हेतु कायष-रत हैं, अतः ऐसे सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष सहयोमगयों
का हम अमभनन्दन करते हैं, स्वागत करते हैं और आशा करते हैं मक आप सभी सदैव हमें ऐसा ही
सहयोग प्रदान करते रहेंगे.
वतषमान में यह मलखे िाने तक 5 शोधाथी श्रावकों/श्रामवकाओ ं के द्वारा Ph. D. हेतु सहायता
प्रदान की िा रही हैं एवं अन्य आवेदन भी वैधामनक िांर्-पड़ताल के पश्चातध स्वीकृत हो सकते हैं.
यह सभी कायष आर्ायष परंपरा से गरुु भगवतं ों के आशीवाषद से ही एवं आप सभी मिनवाणी के ज्ञान-
मपपासुओ ं की पमवत्र भावना की पूमतष हेतु संपन्न हो रहे हैं |
आप सभी से मवनम्र आग्रह है मक मवश्व सामहत्य को समृद्ध करनेवाली मााँ भारती के प्रमत
अपने समपषण को िरुर बनाये रखें | मिससे हम अज्रस ज्ञान की पमवत्र गंगा में िनसामान्य को
अवगामहत करवा सकें |

डॉ. श्री मनमषल िैन शास्त्री,


टीकमगढ़, मध्य प्रदेश.
प्रशासमनक मत्रं ी : अंतराषष्रीय िैन शोध मवद्वत पररर्दध
अनन्य ममु न भि एवं
िैन दशषन के मूधषन्य मवद्वान,ध कमव एवं
दाशषमनक लेखक व मर्न्तक.

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ु दाई है.
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पी के िैन ‘प्रदीप’ प्रधान संपादक, नमोस्तु मर्ंतन,


अध्यक्ष नमोस्तु शासन सेवा समममत(रमि.)मुंबई.
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सम्यकध मवर्ार :

प्रभु की स्याद्वाद शैली वार्मनक


अमहंसा के मलए हैं.
िैन दशषन में वार्मनक, शारीररक एवं
मानमसक अमहस ं ा की व्याख्या है.
मदगम्बरार्ायष श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि

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ु दाई है.
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िैन धमष अनामदमनधन धमष है, हमारे तीथषकर भगवन्तों


ने, हमारे गरुु ओ ं ने, आर्ायष भगवतों ने स्पष्ट रप से कहा मक "मानव िीवन' का मख् ु य उद्देश्य सयं म
पथ पर र्ल कर मोक्ष ग्रहण करना है. इस मागष को प्रशस्त करने वाले हमारे आर्ायष भगवन्त हैं, वो
महान हैं, उनके अनेकों उपकार है. वो स्वयं अपना कल्याण तो करते ही हैं साथ में मानव यामन अपने
मशष्यों का भी उपकार करते हैं िन-िन को मोक्ष मागष की ओर अग्रमसत होने की प्रेरणा देते हैं।
आर्ायों की महानता - मशष्यों की सफलता - आर्ायष गुरु, प्रार्ीन समय से ही गरुु और
मशष्य का सम्बन्ध अटूत रहा है। गरुु और मशष्य का प्रेम माता - मपता की तरह ही मनस्वाथष रहा है
गुरु ही एक ऐसा माध्यम है मिसके द्वारा मशष्य सफलता के द्वार तक पहुाँर् पाता है। गुरु कोई
साधारण इन्सान नहीं होता है गुरु ही एक ऐसा माध्यम है मिसके बताये हुए मागष पर र्लने से कमठन
से कमठन कायष भी सफल हो िाते है, हमारे आर्ायष भगवनध मानव िीवन को मनदेमशत करते हैं मक
हमेशा गुरु का पूणष सम्मान करें, गुरु की आज्ञा का पालन करना र्ामहए। एक गुरु ही है िो समाि में
अपनी पहर्ान बनाने की मशक्षा देता है। प्रार्ीन समय से और वतषमान तक गरुु को स्थान सवोपरर
रहा है।
िैन धमष के अनुसार हम गुरु के बारे में िाने उससे पूवष हम प्रथम गुरु के रप में माता मपता
को स्थान देते हैं। मिस प्रकार एक बच्र्े की मााँ उसकी प्रथम गुरु है मिसे वो खाना, पीना, बोला,
र्लना आमद तौर तरीके मसखाती है, ठीक उसी प्रकार - गुरु अपने मशष्य को िीवन िीने का तरीका
बताता है उसे सफलता के हर वो पहलू बताता है िो उसके मलए उपयि ु हो।
भारतीय संस्कृमत में गुर का बहुत ही महत्व है प्रार्ीन समय से ही गुरु की सम्मान रहा है।
इस दुमनया में ऐसा कोई इन्सान हैं, िो मबना गुरु के सफल हुआ हो ? यमद आप मवद्वान बनोगे, डाक्टर
बनोगे, सी.ए. बनोगे, इि ं ीमनयर, वकील, समाि सेवक, सैमनक रैनर आमद बनना र्ाहते हैं तो इसके
मलए उसी क्षेत्र के एक गुर र्ामहए ये ही गुरु सफलता के राह तक ले िाता है। भारतीय संस्कृमत के
गुरु का स्थान ईश्वर से भी ऊपर माना गया है।
प्रार्ीन काल में गुरु और मशष्य के सम्बन्धों का मुख्य आधार था - गुरु का ज्ञान, मौमलकता
और नैमतक बल, गुरु का मशष्यों के प्रमत स्नेहभाव, मनःस्वाथष भाव एक गुरु में होते थे इसमलए एक
मशष्य का भी दामयत्व होता था मक वह अपने गरुु के प्रमत पण ू ष मवश्वास, पणू ष समपषण, आज्ञा का पालन
आमद को प्रधानता प्रदान करें |
हमारे गुरु आर्ायष भगवन्तों की कठोरतम तपस्या, उनके मागष-दशषन, का ही फल है महानता
है उस आर्ायों की आि वतषमान में हम सभी को मिन भगवन्तो, तीथषकरों की वाणी ग्रन्थ रप में
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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पढने को ममल रही हैं धन्य है ऐसे कुन्द कुन्दार्ायष िी को, धन्य है आर्ायष श्री पष्ु पदन्त, भतू बमल िी
को, धन्य है भद्रबाहु िी, माघनंदी िी, मिनर्न्द्रिी, ऐसे महान आर्ायों को मैं नमन करता हाँ | 'वन्दे
गुरुणां गुण लब्धयें' में उन गुणों को नमन करता हाँ िो हमारे गुरु आर्ायों ने ग्रहण मकये और उन्हीं
गुणों को प्राप्त करने के मलए में आशामन्वत हाँ।
वतषमान में परम पूज्य र्ाररत्र र्क्रवमतष आर्ायष शांमतसागर िी की परम्परा के आर्ायष
देशभर्ू ण िी महाराि, आर्ायष श्री मवद्यानन्दिी महाराि, आर्ायष श्री ज्ञान सागर िी महाराि,
आर्ायष मशरोममण श्री मवद्या सागर िी महाराि, आर्ायष श्री श्री मवराग सागर महाराि, आर्ायष श्री
वधषमान सागर िी, आर्ायष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि, आर्ायष श्री वसुनंदी िी महाराि, आर्ायष
की देवनन्दी िी महाराि,आर्ायष श्री प्रसन्न सागर िी महाराि,आर्ायषश्री अनेकांत सागर िी
महाराि, मुमन पुंगव श्री सुधा सागरिी महाराि, श्री प्रणाम सागर िी महाराि, मुमन श्री अममत सागर
िी महाराि तथा वतषमान में - परमपूज्य गमणनी आमयषका प्रमख ु श्री ज्ञानमती मातािी, परमपज्ू य
गमणनी आमयषका प्रमुख श्री मवभाश्री मातािी, प्रज्ञा श्रमणी आमयषकारत्न श्री र्न्दनामती मातािी एवं
अन्य सभी वतषमान के आर्ायों उपाध्यायों, मुमनयों आमयषकाओ ं को उनके र्रणो में शत-शत नमन |
नमोस्तु शासन ियवतं हो.
ियवंत हो वीतराग श्रमण संस्कृमत.

उदयभान िैन,ियपरु
राष्रीय महामंत्री
िैन पत्रकार महासघं .
ियपरु .

सम्यकध मवर्ार :
“उपदेश की कुशलता के साथ आर्रण की कुशलता भी लाना
र्ामहए. तभी उपदेश की कुशलता सत्याथष-बोध का कारण बन
पायेगी. कोरा ज्ञान आत्ममहत का साधन नहीं बन सकता हैं”

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 146 of 182
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 147 of 182
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

रत्नकरण्ड श्रावकार्ार की काररका 10 के अनुसार सच्र्े गुरु का स्वरप इस प्रकार है :-

मवर्याशावशातीतो मनरारम्भोऽपररग्रहः ॥
ज्ञानध्यान तपोरिस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥
अथष - िो पञ्र्ेमन्द्रय मवर्यों की आशा के वशीभतू नहीं हैं, आरम्भ तथा पररग्रह से रमहत हैं,
मनरंतर ज्ञानध्यान तथा तप में लवलीन रहते हैं, वे ही सच्र्े गुरु प्रशंसा के योग्य हैं ।
मिस प्रकार मकान की नींव महत्वपण ू ष होती है उसी प्रकार हमारे िीवन की नींव देव, शास्त्र
व गुरु के प्रमत सच्र्ी श्रद्धा है । मानव िीवन हमें बड़ी दुलषभता से ममलता है । मिस प्रकार समुद्र में
मगरी हुई ममण ममलना बहुत कमठन है उसी प्रकार यह मानव िीवन पाना बहुत कमठन है । मफर भी हम
इसे मवर्य भोगों में नष्ट कर रहे हैं ।
गुरु-मशष्य परम्परा के अन्तगषत गुरु (मशक्षक) अपने मशष्य को मशक्षा देता है या कोई मवद्या
मसखाता है । बाद में वही मशष्य गुरु के रप में दूसरों को मशक्षा देता है । यही क्रम र्लता िाता है ।
यह परम्परा सनातन धमष की सभी धाराओ ं में ममलती है ।
भारतीय संस्कृमत में गुरु को अत्यमधक सम्मामनत स्थान प्राप्त है । भारतीय इमतहास में गुरु की
भमू मका समाि को सध ु ार की ओर ले िाने वाले मागषदशषक के रप में होने के साथ क्रामन्त को मदशा
मदखाने वाली भी रही है ।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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गरुु और मशष्य के बीर् के वल शामब्दक ज्ञान का ही आदान प्रदान नहीं होता, बमल्क गरुु
अपने मशष्य के संरक्षक के रप में भी कायष करता है । मशष्य का गुरु के प्रमत मवश्वास रहता है मक गुरु
उसका कभी अमहत सोर् भी नहीं सकते । यही मवश्वास गुरु के प्रमत उसकी अगाध श्रद्धा और समपषण
का कारण रहता है । गुरु एक कुम्हार की तरह होता हैं, िो कच्र्ी ममटटी का सही उपयोग कर एक
आकर्षक घड़ा बना देता हैं, कलश बना देता है । एक अच्छा गुरु अपने मशष्य का िीवन तराश सकता
हैं, मनखार सकता हैं ।
श्रद्धावानं लभते ज्ञानमध । आत्मज्ञान के मलए गुरु के प्रमत श्रद्धा का होना बड़ा आवश्यक है ।
गुरु के प्रमत श्रद्धा होने से गुरु द्वारा मदया गया ज्ञान मशष्य के हृदय में उतरने लगता है, अन्यथा श्रद्धा के
मबना वह ज्ञान, शब्दों के रप में बुमद्ध में इकट्ठा हो िाता है । मशष्य में िब ज्ञान की मिज्ञासा होती है
तब उसकी गुरु में श्रद्धा िगने लगती है ।
िैन श्रावक-श्रामवकाओ ं को िीवन में छह मबदं ु ओ ं पर मनन, मर्ंतन, सम्यकध मर्ंतन
आवश्यक है,
१. बुमद्ध पूवषक मन में श्रद्धान,
२. आत्म स्वभाव में मस्थरता,
३. आत्म स्वभाव का आनंद,
४. गरुु का सामनध्य,
५. स्वाध्याय,
६. शुद्ध मवर्ार ।
मितना सभ ं व हो सके अपनी आत्मा की शुद्धता, कमों की मवशमु द्ध, आत्मा की मनमषलता
और देव, शास्त्र, गुरु के प्रमत सच्र्ी श्रद्धा रखना िैन धमष की मनशानी है । िैन धमष के संस्कार, िैन
धमष के मसद्धांत, अमहंसा, अणु व्रतों का पालन सुमनमश्चत होना र्ामहए । िैन धमष के मूलभूत मसद्धान्तों
का पालन सवोपरी है ।

श्रीमती कीमतष पवन िैन


मदल्ली प्रदेशाध्यक्षा
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)
सह सपं ामदका : नमोस्तु मर्ंतन
सर्ं ामलका :
नमोस्तु शासन सेवा समममत संर्ामलत पाठशाला

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवशद्ध
ु वर्न :
“भाव मवशुमद्ध आत्म मसमद्ध का मूल मंत्र है”
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ु दाई है.
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मवशद्ध
ु वर्न :
“हमें वीतरागी बनना है -
मवत्त रागी नहीं”

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ु दाई है.
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परम पूज्य अध्यात्म योगी, चयाथ वशरोमणी, समयसारोपासक, आगम
उपदेष्टा, श्रुत संििथक, स्िाध्याय प्रभािक, अध्यात्म रसायन के
वनपण ु तंत्रज्ञ एिं िैज्ञावनक, आचायथ रत्न, वदगम्बराचायथ श्री १०८
विशुद्ध सागर जी महाराज की प्रेरणा से ओतप्रोत होकर ज्ञान वपपासु
, स्िाध्याय रवसकों के वलए विशेष आयोजन

अभी भी लोगों के पत्र प्रा हो रहे हैं “विशुद्ध स्िाध्याय दीर्ाथ” का


शुभारम्भ करने हेत.ु अतः आप सभी वजनिाणी के वपपासुओ ं को
ज्ञानरस का अमत ृ पान करने हेतु श्री वजनिाणी को भेजा जा रहा हैं.
स्िाध्याय परम तप हैं.
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ु दाई है.
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हमारे प्रेरणा स्रोत :


SOURCE OF
INSPIRATION:
परम पज्ू य प्रवतपल स्मरणीय
अध्यात्म योगी, चयाथ
वशरोमणी, स्िाध्याय
प्रभािक, आगम उपदेष्टा,
समयसारोपासक, आचायथ
रत्न, वदगम्बराचायथ श्री १०८
विशुद्ध सागर जी महाराज,
ससंर् का आशीिाथद

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मप्रय ममत्रों,
मुझे बेहद ख़ुशी के साथ आप सभी को यह बताते हुए हर्ोल्लास हो रहा है मक मेरी पाठशाला में
आपने एक से लेकर सात तक की िैन मगनती को िाना. इसमें सात तत्वों का ज्ञान पर र्र्ाष कर रहे
थे. अभी हमने आठ कमष, नौ पदाथष और दस धमष के लक्षण पर मवस्ततृ र्र्ाष प्रारंभ भी नहीं की हैं.
परन्तु आपको यह तो पता ही है मक हमने वैमश्वक महामारी कोमवड के समय में मेरी पाठशाला में बहुत
थोड़ी सी र्र्ाष िरुर की थी.
इस माह इस कॉलम के अंतगषत मकसी भी मशक्षाथी की कमवता तो प्राप्त नहीं हुई परन्तु हमेशा
की तरह कु. मनहाररका िैन, सुपुत्री डॉ. श्रीमती रेखा िैन, डॉ. मनमषल िी िैन शास्त्री ने एक कदम और
आगे बढ़ कर गुरु और मशष्य के ररश्तों का फल अथाषतध गुरु की महानता, िो अपना सवष ज्ञान मशष्य
के आत्म कल्याण के मलए लाभकारी होता हैं, उसमे गुणों का बीिारोपण कर देता हैं. गुरु की यही
महानता मशष्य की सफलता को आकार देती हैं, साकार कर देती हैं. गुरु का गुणानुवाद करने से प्राप्त
होने वाले महान पण्ु य को, अपने मवर्ार अष्टक के रप में पद्य - रप में मलख कर भेिा हैं मिसे यहााँ
प्रस्तुत मकया िा रहा हैं. यह पद्य बहुत ही संमक्षप्त में सार रप (अष्टक के रप) में मलखा हैं. हम सभी
की तरफ से इस प्रकार से अपने मवर्ारों को, ज्ञान की अमभव्यमि हेतु कु. मनहाररका िैन को बहुत
बहुत बधाईयााँ प्रेमर्त करते हैं.
ममत्रों, आप सभी से भी हम ऐसी ही उम्मीद और आशा भी करते हैं मक आपने अपनी
पाठशाला में िो भी पढ़ा है उसके अनस ु ार आप थोडा बहुत िरुर मलखें. आपके द्वारा मलखा गया
प्रत्येक शब्द हम सभी को प्रसन्न करता हैं मवशेर् रप से आपके माता मपता एवं भाई-बहनों को भी.
आर्ायष श्री का तो आप सभी पर मवशेर् आशीवाषद है ही इसमलए इस बार आर्ायष श्री की कलम से
आपके मलए इस पमत्रका में लेख प्रस्तुत भी कर रहे हैं. आप मलखते रहे और हमें प्रकाशन के मलए
भेिते रहे. आप सभी को शभ ु कामनाओ ं समहत आपका ममत्र पी.के .िैन ‘प्रदीप.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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Namostu Shasan Seva Samiti (Regd.),


Mumbai,
Conducts
Face to Face
On-line Pathshala
in association with
Jain Shasan Seva Samiti,
Hennur, Bangluru,
From 24-4-2020
every Saturday
& Sunday.
To enhance
the Intellectual Power
of

Next Generation.
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ु दाई है.
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A Letter to Friends
Dear Friends,
Jai Jinendra. Excellent! I am very very happy to note that you have fulfilled
your commitments towards yourselves. BRAVO!
You all have won my heart and in turn I
am feeling proud of you all for the various Oaths
(Niyams) taken by you, my little friends, and
your parents along with other family members
too! They had provided the support to fulfil your
Oaths. It is still continued and this resulted in the
DAILY NIYAM, as you have developed
strong will power. It is a well defined self control towards the path of liberation viz.
MOKSHA.
“Aacharya Bhagwan 108 Shri Vishuddha Sagar ji Maharaj always says that
– “DHARM TO KIYA NAHI JAATA, VAH TO APNE AAP HO JATA
HAIN.” It just happens. So, we should continue and follow the instructions given by
ARIHANT Bhagwaan. by just having a small concentration/focus on our daily
routine work, how the DHARM is fulfilled without doing any extra efforts.
Yours Friend
P. K. JAIN ‘PRADEEP’
You can reach me: - EDITOR-NAMOSTU CHINTAN
+91 9324358035

E-MAIL:
pkjainwater@gmail.com
namostushasangh@gmail.com
WEBSITE : WWW.VISHUDDHASAGAR.COM

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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Activites by Champion of Champions:


Motivation - NSSS, Mumbai with
PK Jain ‘Pradeep’
and team members,
Smt. Arti Jain; Smt. Ruby Jain,
Of Bangluru. :-
Likewise, from the past few months this month again,
Kum. Niharika from Tikamgarh, Madhya Pradesh,
India, had send a very beautiful composition on the Theme
Subject viz. “Acharyon ki mahanta aur Shishya ki
safalta. A very good initiative. Bravo ! We request all of
you to try and write down few lines always as I know you
can do. We are proud of such talented Children in our
SAMAJ/Community.
Your friend,
Chief Editor,
P. K. Jain “Pradeep”

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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bahuta

AcCe/ baccaae/

Aagae baZae

बर्पन में मलए गए ये छोटे छोटे मनयम गहरे संस्कार का कायष करते हैं. यह वट वृक्ष बनने के
पहले बीि का सुरमक्षत होना हैं. हमें मवश्वास है मक यही बच्र्ें कालांतर में धमष को आगे बढ़ाएगं े और
यमद कुछ कारणों के र्लते ये राह से भटक भी िायेंगे तो भी यहीं संस्कार समय आने पर पुनमिषवीत
हो कर उनको सस्ं कार और धमष में पनु ः आरढ़ करेंगे. मफर िब वे आयेंगे तो दुगनी शमि से धाममषक
कायों में लग िायेंगे. अतः बच्र्ों को मशक्षा दीक्षा और मयाषदा के बारे में बताते रहना र्ामहए. वे ही
हमारी असली िीवंत शमि हैं और ताकत भी हैं.
बंगलुरु की पाठशाला के बच्र्ों ने, बदलापुर मिला ठाणे, मुंबई, महाराष्र के बच्र्ों ने और
पहले से र्ल रही कल्याण, मिला ठाणे, मुंबई, महाराष्र के बहुत से बच्र्ों ने बहुत से स्तोत्र, पाठ
इत्यामद कंठस्थ कर मलए हैं. इसके साथ ही साथ यह बताते हुए हर्ष हो रहा है मक बहुत सी अन्य
पाठशालाओ ं ने भी बच्र्ों में छोटे -छोटे मनयम लेने की परंपरा को आगे बढ़ाया हैं. बहुत ही लम्बी
सूर्ी होने की विह से हम यहााँ मलस्ट नहीं दे रहे हैं परन्तु मफर भी हम ऐसे सभी पाठशालाओ ं के
संर्ालकों एवं बच्र्ों का स्वागत अमभनन्दन करते हैं और यही शुभकामनायें भी प्रेमर्त करते हैं मक
कालांतर में भी वे स्वयं से आगे बढ़ते हुए संयम के मागष पर स्वयं के साथ-साथ अपने सभी ममत्र समूह
को भी मनरंतर आगे बढ़ने के मलए प्रेररत करते रहेंगे.
शुभ कामनाओ ं समहत
आपका महतेर्ी ममत्र
पी. के . िैन ‘प्रदीप’

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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नोट : यह रर्ना, गुरु मशष्य अष्टक, बाल मन के भाव पनु ः यहााँ प्रकामशत कर रहे हैं क्योंमक
यह अष्टक मन से मनकला हुआ काव्य भाव हैं. इसकी तुलना बड़ों -बड़ों की रर्ना से भी अमधक
भाव पूणष और अथष पूणष हैं. आशा है मक अन्य हमारे बाल-कलाकार इसी तरह से मलखकर हमें प्रेमर्त
करते रहेंगे.

मशष्य ज्योमत की दीमप्त में,


है मनममत्त गुरु िान |
दोर् रमहत मनत गर ु करें,
बड़े मशष्य की शान ||1||
गुण से मनत पररपण ू ष िो,
अवगुण नशे मवकार |
प्राणी मात्र का महत करें,
गरुु िीवन हैं सार ||2||
सरल सहि हो िात िो,
ज्ञान शुमद्ध का सार |
र्ाररत्र पथ पर बढ़ र्ले,
िग से होता पार ||3||
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ु दाई है.
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गुरु गुरुता से पण
ू ष है,
िीवन करें मवकास |
रत्नत्रय की छांव में,
मशवपथ की दे आस ||4||
गुरुवर मदव्य प्रकाश हैं,
करें प्रकामशत तत्त्व |
आत्मबोध से शोध हो,
हरे राग िे कुतत्त्व ||5||
सतध गुरु गुण अनुराग दें,
दोर् हृदय के मनकाल |
उपदेशक हैं सन्मागष के ,
होता मशष्य मनहाल ||6||
आत्मानश ु ासन मनि लखें,
पंथ रमहत हों आप |
मनग्रंथों की नीमत में,
आत्म तत्त्व की िाप ||7||
गुरु पारस अरु मशष्य लौह सम,
ममल सोना हो िात |
गुरुिी के प्रमत श्रद्धा धर कें ,
नर िग बमगया तर िात ||8||

संकलन कताष :
कु. मनहाररका िैन उम्र : १४ वर्ष
सपु त्रु ी – श्रीमती डॉ. रेखा िैन
डॉ. मनमषल शास्त्री िैन.
टीकमगढ़, मध्य प्रदेश.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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यह दोनों मर्त्रकलाओ ं को यहााँ मदखाया
गया हैं वे सभी हमारे बाल कलाकार मर्.
अव्यान मनमकता सुममत र्तवु ेदी द्वारा बनाये
गए हैं. मर्. अव्यान की उम्र मात्र 9 वर्ष हैं.
बाल िीवन में वे िो कुछ देखते हैं और घर
के बि ु गु ों से िो कुछ मसखाते हैं, उसका
उनके िीवन पर बहुत ही गहरा और अममट
प्रभाव पड़ता हैं. मपछली बार पञ्र्
कल्याणक में भगवानध की माता के सोलह
स्व्नों में से दो (१. बैल और २. दो मालाए)ं
स्व्नों को प्रकामशत मकया गया था. इस
बार पुनः दो और स्व्न बनाकर भेिें हैं (धूम्र
रमहत अमग्न एवं अथाह रत्न राशी) मिन्हें
प्रकामशत मकया िा रहा हैं. महावीर स्वामी
के िन्म कल्याणक महोत्सव पर यह
समयानुसार हैं. नन्हे बाल मन के सुमवर्ारों
को अपनी कला, मर्त्रकला के माध्यम से
सभी तक पहुाँर्ाने का एक सुन्दर प्रयास
मकया था. इस बार पञ्र् कल्याणक हो रहे
हैं तो उसी पर आधाररत भगवानध की माता
के सोलह सपनों में से दो सपनो को अपनी
कला के माध्यम से आप सभी तक पहुाँर्ाने
का कायष मकया हैं. यह बाल कलाकार
मसडनी, ऑस्रेमलया में रहकर भी अपनी
भूमम से मकतना िुड़े हुए है यह बताने की
िरुरत नहीं हैं. बहुत बहुत साधुवाद. प्रधान संपादक : पी. के . िैन ‘प्रदीप’

नमोऽस्तु शासन ियवंत हो


ियवतं हो श्रमण सस्ं कृमत
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मैं मगरमच्छ हाँ |


मैं भयंकर मवकराल हाँ |
लेमकन मझ ु से भी मवकराल ‘मोह’ हैं |
िो संसार समुद्र से पार होने नहीं देता |
इसमलए, श्री पुष्पदतं भगवानध की शरण में आकर,
मोह को दूर करने का प्रयास करों ||

यह मर्त्रकला, मर्. आमदश, उम्र १६ वर्ष,


सपु त्रु श्रीमती सगं ीता शैलेन्द्र (कक्का), िैन कल्याण से हमारे
बाल कलाकार ने भेिी हैं. यह मसफष कला ही नहीं हैं बमल्क
धमष-पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा भी देती हैं िो हमारी
अमूल्य संपमत्त भी हैं.

यह मसफष कला ही नहीं हैं बमल्क बाल-मन पर पाठशाला


िाने से हुए पररणमन को भी दशाषता हैं और मनरंतर धमष-मागष
पर बढ़ने की प्रेरणा भी देता हैं. िैसे ही यह खबर फै ली मक
िैन मशरपरु के ताले खल ु गए हैं. इस बामलका के अनस ु ार
सभी काले बादल छट गयें हैं और भोर की लामलमा छा गई
हैं. उसी पर ध्यान देते हुए बाल मन ने अपने मन से यह मर्त्र
बना कर भेि मदया और इसकी मवशेर्ता भी बताई. यह
मर्त्र कु. आमयषका िैन, उम्र ८ वर्ष, सुपुत्री श्रीमती
समं र्ता आलोक (मपन्टू ), िैन कल्याण से ही हमारे बाल
कलाकार ने भेिी हैं. यह मसफष कला ही नहीं हैं बमल्क धमष
की राह पर र्लते हुए मन की कै सी पररणमत होती है यह
दशाषता हैं. बहुत ही अच्छे मवर्ार और उनका प्रस्तुतीकरण.
बधाईयााँ सभी बच्र्ों को.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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भािना
(िीवन को सफल बनाने का मंत्र)
मैत्री भाव िगतध में मेरा सब िीवों से मनत्य रहे,
दीन-दुःखी िीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे ।
दुिषन-क्रूर कुमागषरतों पर क्षोभ नहीं मझ
ु को आवे,
साम्य भाव रक्खूाँ मैं उन पर ऐसी पररणमत हो िावे ॥1।।
गण ु ी िनों को देख हृदय में मेरे प्रेम उमड़ आवे,
बने िहााँ तक उनकी सेवा करके यह मन सुख पावे ।
होऊाँ नहीं कृतर्घन कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे,
गण
ु -ग्रहण का भाव रहे मनत दृमष्ट न दोर्ों पर िावे ।।2।।

सरस्िती मंत्र
(सरस्वती – मवद्या प्रामप्त के मलए मंत्र)
ॐ ह्रीं अहषनध - मुख - कमल मनवामसनी पाप मल क्षयंकरर श्रुत ज्वाला सहस्त्र प्रज्वमलते
सरस्वती तव भमि प्रसादातध मम पाप मवनाशनं भवतु क्षां क्षीं क्षूं क्षौं क्षः क्षीरवर धवले अमृत सम्भवे
वं वं ह्रौं ह्रौं स्वाहा । सरस्वती भमि प्रसादातध सुज्ञान भवतु ।
“वागीश्वरर प्रमतमदनं मम रक्ष देमव”
ॐ ह्रीं सरस्वती देव्यैः नमः
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

प्रेरक कहानी :- संस्कार

एक रािा के पास सुन्दर घोड़ी थी । कई बार युद्व में इस घोड़ी ने रािा के प्राण बर्ाये और
घोड़ी रािा के मलए पूरी वफादार थी । कुछ मदनों के बाद इस घोड़ी ने एक बच्र्े को िन्म मदया, बच्र्ा
काना पैदा हुआ, पर शरीर हष्ट पुष्ट व सुडौल था ।
बच्र्ा बड़ा हुआ, बच्र्े ने मााँ से पछ
ू ा: मााँ मैं बहुत बलवान हाँ, पर काना हाँ, यह कै से हो गया?
इस पर घोड़ी बोली: बेटा िब में गभषवती थी, तू पेट में था तब रािा ने मेरे ऊपर सवारी करते समय
मुझे एक कोड़ा मार मदया, मिसके कारण तू काना हो गया ।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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यह बात सनु कर बच्र्े को रािा पर गस्ु सा आया और मााँ से बोला: मााँ मैं इसका बदला लगूं ा
। मााँ ने कहा रािा ने हमारा पालन-पोर्ण मकया है, तू िो स्वस्थ है, सुन्दर है, उसी के पोर्ण से तो है,
यमद रािा को एक बार गुस्सा आ गया तो इसका अथष यह नहीं है मक हम उसे क्षमत पहुर्ाये, पर उस
बच्र्े के समझ में कुछ नहीं आया, उसने मन ही मन रािा से बदला लेने की सोर् ली ।
एक मदन यह मौका घोड़े को ममल गया रािा उसे युद्व पर ले गया । युद्व लड़ते-लड़ते रािा एक िगह
घायल हो गया, घोड़ा उसे तरु न्त उठाकर वापस महल ले आया ।
इस पर घोड़े को ताज्िुब हुआ और मााँ से पूछा: मााँ आि रािा से बदला लेने का अच्छा
मौका था, पर युद्व के मैदान में बदला लेने का ख्याल ही नहीं आया और न ही ले पाया, मन ने गवारा
नहीं मकया । इस पर घोडी हंस कर बोली: बेटा तेरे खून में और तेरे संस्कार में धोखा है ही नहीं, तू
िानकर तो धोखा दे ही नहीं सकता है । तुझ से नमक हरामी हो नहीं सकती, क्योंमक तेरी नस्ल में तेरी
मााँ का ही तो अंश है ।
यह सत्य है मक िैसे हमारे संस्कार होते है, वैसा ही हमारे मन का व्यवहार होता है, हमारे
पाररवाररक संस्कार अवर्ेतन ममस्तष्क में गहरे बैठ िाते हैं, माता-मपता मिस संस्कार के होते हैं, उनके
बच्र्े भी उसी सस्ं कारों को लेकर पैदा होते हैं ।

शिक्षा :हमारे कमम ही संस्कार बनते हैं और संस्कार ही प्रारब्धों का


आलंबन लेत े हैं! यदि हम कमों को सही व बेहतर दिशा िे िें तो संस्कार
अच्छे बनेग ें और संस्कार अच्छे बनेंग े तो जो प्रारब्ध का फल बनेगा,
वह मीठा व स्वादिष्ट होगा ।

प्रस्तुमत :
श्रीमती मंिू पी. के . िैन,
न्यास सदस्य ( रस्टी )
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.) मुंबई.
ठाणे, मुंबई, भारत.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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मााँ मिनवाणी क्या कहती हैं ?


मिनवाणी िो कहती है, सुन लो िी |
उत्तम संयम िीवन में पालो िी
कभी िीव महंसा नहीं करना
इमं द्रय भोग में मन न रमाना
िैनी बन कर धमष मनभाना िी
सदा छानकर पानी पीना,
भोिन शद्ध ु सदा ही करना
उत्तम सयं म सदा ही पालो िी
मिनवाणी मां हमें िगाए,
सभी िीव भगवान बताये
मन में अपने करुणा धारो िी

मवशुद्ध वर्न :
हमें मनि घर में कै से रहना हैं
यह मााँ मिनवाणी हमें बतलाती हैं

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आर्ायष श्री मवशद्ध


ु सागरिी महाराि की देशना (मिनवाणी
के मवमवध रंगों की सरल सहि देशना) को प्राप्त करने के
मलए देमखये प्रमतमदन

पुण्यािषक बनने के मलए, अमधक िानकारी के मलए सपं कष करें :-


अनुराग मसहोरा : +91 96305 55001
वैभव बड़ामलहरा : +91 99774 34343

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जन-जन की शंका का सम्यक् समािान !


वदगम्बराचायथ, आगम उपदेष्टा श्रमण श्री 108 विशुद्धसागर जी महाराज के
परम प्रभािक वशष्य मुवन श्री सुप्रभ सागर जी महाराज द्वारा वदया जा रहा हैं
आपके समीचीन विकल्पों का सम्यक् समािान.

समीचीन विकल्पों का

सम्यक् समािान सप्र ु भ उिाच यटू ्यब ू चैनल पर


ऑनलाइन कायथक्रम में शाम को श्रमण १०८ श्री
सुप्रभ सागर जी मुवन महाराज ऑनलाइन प्रश्नों का आगम प्रमाण के साथ
सम्यक् समािान प्रदान कर रहे हैं । प्रश्नों को मुवन श्री प्रणत सागर जी द्वारा
रखा जाता है । वनदेशन ब्र. साकेत भैया कर रहे हैं. इस ऑनलाइन कायथक्रम
(विवदशा में हो रहे चातमु ाथससे सीिा प्रसारण) में भारत के विवभन्न स्थानों से
ऑनलाइन प्रश्न वनरं तर वमल रहे हैं ।
आपके समीचीन विकल्पों के सम्यक् समािान प्रा करने के वलए इन नंबर
87075 48811, 07415306441 पर अपने प्रश्न व्हाट्सएप पर मेसज े , ऑवियो
मेसज े या ईमेल के माध्यम samyak.samadhana@gmail.com से मेल भी कर
सकते हैं।
अब आमदनाथ टीव्ही र्ेनल पर भी प्रसाररत हो रहा हैं.
प्रमतमदन मध्यान्ह 4.00 बिे
YouTube Channel : www.youtube.in/c/SsUvach

https://www.facebook.com/सप्रु भ-उवार्-Shraman-shree-Suprabh-
Sagar-Ji-105864617551473/

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वतषमान के कुछ मलंक


महन्दुओ ं के बीर् णमोकार का मंगलार्रण-रामकथा से पूवष https://youtu.be/xJPQ5O4dBJA
मदल्ली में घमासान, मशखरिी के मलए मकसने क्या कहा ? https://youtu.be/r7ccXOObBMs
हवा में उड़ते भगवानध ! कै द में क्यों र्मत्कारी पारसनाथ ? https://youtu.be/tGOixK0exeo
कुलपमत वािपेयीने क्या कहा आ. मवशुद्धसागरिी के मलए https://youtu.be/xRhMUuj7BQM
मबमम्बसार का खिाना, प्रार्ीन िैन प्रमतमाएं गफ ु ा में https://youtu.be/O2oooohMs8M
िैन मंमदर को बदलकर बुद्ध ममं दर बनाया गया, कहााँ ? https://youtu.be/U6taq2t5F_I
पं. श्री प्रदीप ममश्रा ने सम्मेद मशखरिी के मलए क्या कहा? https://youtu.be/TiNKiYRu6sQ

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आपके अपने प्तवचार


आदरणीर् श्री पी ,के जैन सार्ब
नमोस्तु प्तचंतन

मर्ोदर्,
सादर जर् प्तजनेंद्र । सवयप्रथम में परम पज्ू र् प्रातः स्मरणीर् गरुु देव आचार्य श्री प्तवशद्ध
ु सागर जी मर्ाराज
के श्री चरणों प्तिकाल नमोस्तु अप्तपयत करता र्।ाँ
नमोस्तु प्तचंतन माप्तसक पप्तिका का फरवरी 2023 अंक का अवलोकन प्तकर्ा इस अंक को सम्पादक
मर्ोदर् ने परम पज्ू र् श्री प्तवराग सागर जी मर्ाराज के साप्तनध्र् में उन्र्ी की जन्म स्थली पथररर्ा में "र्प्तत
सम्मेलन और गरुु प्रप्ततक्रमण अक ं रूप में प्रकाप्तशत प्तकर्ा, वास्तव में र्र् अक
ं देखने पढ़ने र्ोग्र् र्ै।
मझु े भी जैन-पप्तिकाओ ं के प्तवशेर्षांकों का प्तवमोचन व जैन पिकार मर्ासम्मेलन 3 फरवरी 2023 को
पथररर्ा जाने अवसर प्तमला और र्मारे द्वारा प्रकाप्तशत' माप्तसक राष्रीर् जैन समाचार पि 'र्वु ा पररर्षद् बल ु ेप्तटन'
प्तवशेर्षांक के रूप में प्तवमोचन कराने का अवसर प्तमला।
मैंने सािात गरुु देव आचार्य श्री प्तवराग सागर श्री व आचार्य की प्तवशद्ध ु सागर जी के साथ लगभग
300 प्तपप्तच्छर्ो के दशयन प्तकर्े। मैं र्न्र् र्ुआ ऐसे गरुु वर के दशयन कर जो सािात भगवान का रूप र्ैं।
आपका सम्पादकीर् थाम लो र्ाथ मेरा गरुु वर जब तक न बन जाऊाँ भगवान ,का अवलोकन प्तकर्ा
वास्तव में अपने अपनी लेखनी से र्प्तत सम्मेलन, र्ुग प्रप्ततक्रमण, पत्थर से बने पथररर्ा को भावो से प्तनप्तमयत
करके , र्मय र्ाम में कार्ा कल्प करने वाला, भक्त को भगवान बनाने वाला शद्ध ु ोपर्ोगी संत, सारस्वत मर्ा
श्रमण श्री प्तवराग सागर जी मर्ामप्तु नराज से भगवान बनाने की प्तवनती की र्ै.
आपकी र्र् पप्तिका सभी वगय के प्तलए प्रेरणा श्रोि बने और छाि अपने शोर् कार्य में सफल र्ो, सर्ं मी
अपने मोि मागय की ओर अग्रसर र्ो ऐसी साप्तबत र्ोगी!,इन्र्ी शभु मंगल भावनाओ ं के साथ....
भवदीर्
उदयभान िैन,
राष्रीय महामंत्री
िैन पत्रकार महासंघ.
ियपुर .
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ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23

छपत-े छपते
महावीर जन्मकल्याणक पर ववशेष आलेख :

जैन परम्परा में 24 तीथंकर र्ुए र्ैं। वतयमान कालीन चैबीस तीथंकरों की श्रृखंला में प्रथम तीथंकर
ऋर्षभदेव और 24वें एवं अंप्ततम तीथंकर भगवान मर्ावीर स्वामी र्ैं। भगवान मर्ावीर के जन्म कल्र्ाणक को
देश-प्तवदेश में बडेे़ र्ी उत्सार् के साथ परू ी आस्था के साथ मनार्ा जाता र्ै। भगवान मर्ावीर को वद्धयमान,
सन्मप्तत, वीर, अप्ततवीर के नाम से भी जाना जाता र्ै। ईसा से 599 पवू य वैशाली गणराज्र् के कुण्ड्डलपरु में राजा
प्तसद्धाथय एवं माता प्तिशला की एक माि सन्तान के रूप में चैि शक्ु ला िर्ोदशी को आपका जन्म र्ुआ था। 30
वर्षय तक राजप्रासाद में रर्कर आप आत्म स्वरूप का प्तचतं न एवं अपने वैराग्र् के भावों में वृप्तद्ध करते रर्े। 30
वर्षय की र्वु ावस्था में आप मर्ल छोडकर जंगल की ओर प्रर्ाण कर गर्े एवं वर्ां मप्तु न दीिा लेकर 12 वर्षों
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ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
तक घोर तपश्चरण प्तकर्ा। तदपु रान्त 30 वर्षों तक देश के प्तवप्तवर् अच ं लों में पदप्तवर्ार कर आपने सिं स्त मानवता
के कल्र्ाण र्ेतु र्मय का उपदेश प्तदर्ा। ईसा से 527 वर्षय पवू य काप्ततयक अमावस्र्ा को उर्षाकाल में पावापरु ी में
आपको प्तनवायण (मोि) प्राि र्ुआ।
मर्ावीर स्वामी जैन र्मय के 24वें तीथंकर थे।उन्र्ोंने मानव जीवन के कल्र्ाण के प्तलए 5 प्तसद्धांत बताए
थे। मर्ावीर स्वामी का मानना था प्तक इन 5 प्तसद्धांतों को प्तजसने समझ प्तलर्ा वो जीवन के वास्तप्तवक उद्देश्र् को
समझ जाएगा और उसका बेडा र्र र्ाल में पार र्ो जाएगा। 5 प्तसद्धातों पर प्तटका था स्वामी मर्ावीर का जीवन।
मर्ावीर ने लोगों को समृद्ध जीवन और आंतररक शांप्तत पाने के प्तलए 5 प्तसद्धांत बताए। र्े जीवन जीना प्तसखाते
र्ैं और भीतर तक अनंत शांप्तत, आनंद की अनुभप्तू त देते र्ैं। भगवान मर्ावीर ने अप्तर्ंसा, सत्र्, अचौर्य, अपररग्रर्
और ब्रह्मचर्य के पांच मर्ान प्तसद्धांतों की प्तशिा दी। पाश्चात्र् संस्कृ प्तत और भागमभाग के इस के दौर में र्े पांच
प्तसद्धांत आपके बर्ुत काम आ सकते र्ैं। आपके आत्मबल को मजबतू करें गे, तनाव को दरू करें गे और दृढ़
सक ं ल्प शप्तक्त जगार्ेंगे। शांप्तत का अनभु व र्ोगा।
वे पांच प्तसद्धांत इसप्रकार र्ैं -
१. अप्तर्सं ा : भगवान मर्ावीर ने अप्तर्सं ा की प्तजतनी सक्ष्ू म व्र्ाख्र्ा की र्ै, वैसी अन्र्ि दल ु यभ र्ै। उन्र्ोंने
मानव को मानव के प्रप्तत र्ी प्रेम और प्तमिता से रर्ने का सदं ेश नर्ीं प्तदर्ा अप्तपतु प्तमट्टी, पानी, अप्तग्न,
वार्,ु वनस्पप्तत से लेकर कीडेे़-मकोडेे़, पश-ु पिी आप्तद के प्रप्तत भी प्तमिता और अप्तर्सं क प्तवचार के
साथ रर्ने का उपदेश प्तदर्ा र्ै। उनकी इस प्तशिा में पर्ायवरण के साथ बने रर्ने की सीख भी
र्ै। मर्ावीर अप्तर्सं ा के समथयक थे। उनका कर्ना था प्तक इस लोक में प्तजतने भी एक, दो, तीन, चार
और पांच इप्तं द्रर्ों वाले जीव र्ैं, उनकी प्तर्सं ा न करो, उनके पथ पर उन्र्ें जाने से न रोको, उनके प्रप्तत
अपने मन में दर्ा का भाव रखो और उनकी रिा करो।
द्वेर्ष और शितु ा, लडाई-झगडेे़ और प्तसद्धांतर्ीन शोर्षण के संघर्षयरत प्तवश्व में जैनर्मय का अप्तर्सं ा का
उपदेश न के वल मनष्ु र् के प्तलए बप्तल्क जीवन के सभी रूपों के प्तलए एक प्तवशेर्ष मर्त्व रखता र्ै।
इसमें करूणा, सर्ानभू प्तू त, दान, प्तवश्वबंर्त्ु व और सवयिमा समाप्तवष् र्ैं। अनेकांत और उसका ममय
अप्तर्सं ा प्रप्ततकूल प्तचंतन और प्तवचार जागृत र्ोने पर सप्तर्ष्णु बने रर्ने का उपदेश देता र्ै।
भगवान मर्ावीर के मख्ु र् प्तसद्धा
े़ तं ों में अप्तर्सं ा उनका मलू मंि था र्ानी ‘अप्तर्सं ा परमो र्मय’ क्र्ोंप्तक
अप्तर्सं ा र्ी एकमाि ऐसा शस्त्र र्ै प्तजससे बडेे़ से बडा शिु भी अस्त्र-शस्त्र का त्र्ाग अपनी शितु ा समाि
कर आपसी भाईचारे के साथ पेश आ सकता र्ै।
अप्तर्सं ा का सीर्ा-सार्ा अथय करें तो वर् र्ोगा प्तक व्र्ावर्ाररक जीवन में र्म प्तकसी को कष् नर्ीं
पर्ुचं ाए,ं प्तकसी प्राणी को अपने स्वाथय के प्तलए द:ु ख न दें। ‘आत्मान: प्रप्ततकूलाप्तन परे र्षाम् न समाचरे त्
इस भावना के अनसु ार दसू रे व्र्प्तक्तर्ों से ऐसा व्र्वर्ार करें जैसा प्तक र्म उनसे अपने प्तलए अपेिा
करते र्ैं। इतना र्ी नर्ीं सभी जीव-जन्तओ ु ं के प्रप्तत अथायत् परू े प्राणी माि के प्रप्तत अप्तर्सं ा की भावना

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
रखकर प्तकसी प्राणी की अपने स्वाथय व जीभ के स्वाद आप्तद के प्तलए र्त्र्ा न तो करें और न र्ी करवाएं
और र्त्र्ा से उत्पन्न वस्तओ ु ं का भी उपभोग नर्ीं करें ।
भगवान मर्ावीर अप्तर्सं ा की अत्र्ंत सक्ष्ू मता में गए र्ैं। आज तो प्तवज्ञान ने भी प्तसद्ध कर प्तदर्ा र्ै प्तक
वनस्पप्तत सजीव र्ै , पर मर्ावीर ने आज से ढाई र्जार वर्षय पवू य र्ी कर् प्तदर्ा था प्तक वनस्पप्तत भी
सचेतन र्ै , वर् भी मनष्ु र् की भांप्तत सख ु - दख
ु का अनभु व करती र्ै। उसे भी पीडा र्ोती र्ै। मर्ावीर
ने कर्ा , पणू य अप्तर्सं ा व्रतर्ारी व्र्प्तक्त अकारण सजीव वनस्पप्तत का भी स्पशय नर्ीं करता। मर्ावीर के
अनसु ार परम अप्तर्सं क वर् र्ोता र्ै , जो संसार के सब जीवों के साथ तादात्म्र् स्थाप्तपत कर लेता र्ै ,
जो सब जीवों को अपने समान समझता र्ै। ऐसा आचरण करने वाला र्ी मर्ावीर की पररभार्षा में
अप्तर्सं क र्ै। उनकी अप्तर्सं ा की पररभार्षा में प्तसफय जीव र्त्र्ा र्ी प्तर्सं ा नर्ीं र्ै , प्तकसी के प्रप्तत बरु ा
सोचना भी प्तर्सं ा र्ै। बाह्य प्तर्सं ा की अपेिा र्प्तद मानप्तसक प्तर्ंसा दरू र्ो जार् तो अप्तर्सं क क्रांप्तत का
मागय आसानी से प्रशस्त र्ो सकता र्ै। सभी र्मों के प्रप्तत सम्माान की भावना र्ी आर्प्तु नक र्गु की
सच्ची अप्तर्सं ा र्ै।
2. सत्र् : मर्ावीर स्वामी का कर्ना था प्तक सत्र् र्ी सच्चा तत्व र्ै। जो बप्तु द्धमान व्र्प्तक्त जीवन में
सत्र् का पालन करता र्ै, वो मृत्र्ु को तैरकर पार कर जाता र्ै।प्तकसी वस्तु प्तवचार के सभी पिों को
जानना एवं एक साथ उनको व्र्क्त करना असंभव र्ै। अतः र्में अपने प्तवचार एवं पि पर र्ी
आग्रर्शील न र्ोकर दसू रे के प्तवचार एवं पि को भी र्ैर्यपवू क य सनु ना चाप्तर्र्े संभव र्ै प्तक प्तकसी अन्र्
दृप्तष् से दसू रे के प्तवचार भी सत्र् र्ो इससे सद्भाव स्थाप्तपत र्ोता र्ै एवं मतभेद कम र्ोते र्ैं। भारतीर्
समाज को आज इस सद्भाव की प्तवशेर्ष आवश्र्कता र्ै र्र्ी अनेकान्तवादी दृप्तष्कोण र्ै।
भगवान मर्ावीर का र्े प्तसद्धांत र्र प्तस्थप्तत में सत्र् पर कार्म रर्ने की प्रेरणा देता र्ै. प्तकसी को भी इसे
अपनाकर सत्र् के मागय पर चलना चाप्तर्ए. र्ानी अपने मन और बप्तु द्ध को इस तरर् अनश ु ाप्तसत और
संर्प्तमत करना, ताप्तक र्र प्तस्थप्तत में सर्ी का चनु ाव (satya) कर सकें ।
3. अचौर्य (अस्तेर्) : अचौर्य प्तसद्धांत का अथय र्े र्ोता र्ै प्तक के वल दसू रों की वस्तओ ु ं को चरु ाना
नर्ीं र्ै, र्ानी प्तक इससे चोरी का अथय प्तसफय भौप्ततक वस्तओ ु ं की चोरी र्ी नर्ीं र्ै, बप्तल्क र्र्ां इसका
अथय खराब नीर्त से भी र्ै। अगर आप दसू रों की सफलताओ ं से प्तवचप्तलत र्ोते र्ैं, तो भी र्े इसके
अंतगयत आता र्ै।प्तकसी की प्तबना दी र्ुई वस्तु को ग्रर्ण करना चोरी र्ै ,समानान्तर बर्ी खाते रखना,
टैक्स चोरी करना, प्तमलावट करना, जमाखोरी करना, र्ोखेबाजी करना, कालाबाजारी करना, सभी
चोरी के अन्तगयत आते र्ैं। स्वस्थ, शाप्तन्तप्तप्रर् समाज व्र्वस्था र्ेतु अचौर्य जरूरी र्ै।
प्तकसी के द्वारा न दी गई वस्तु को ग्रर्ण करना चोरी कर्लाता र्ै. मर्ावीर का कर्ना था प्तक व्र्प्तक्त को
कभी चोरी नर्ीं करनी चाप्तर्ए.
4. ब्रह्मचर्य : मर्ावीर स्वामी ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ तपस्र्ा मानते थे। वे कर्ते थे प्तक ब्रह्मचर्य उत्तम तपस्र्ा,
प्तनर्म, ज्ञान, दशयन, चाररि, संर्म और प्तवनर् की जड र्ै। ब्रह्मचर्य प्तववार् संस्था भारतीर् समाज का
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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वैप्तशष््र् र्ै। इस सस्ं था के कमजोर पडने पर पाश्चात्र् समाज में आई प्तवसगं प्ततर्ााँ एवं प्तछन्न प्तभन्न र्ोती
समाज व्र्वस्था सवयप्तवप्तदत र्ै। असंर्प्तमत, अप्ततभोगवादी जीवन शैली से जप्तनत मर्ामारी (AIDS)
से आज सारा प्तवश्व प्तचंप्ततत र्ै। मर्ावीर ने सार्ओ ु ं र्ेतु पणू य ब्रह्मचर्य तथा गृर्स्थों र्ेतु पाप्तणग्रर्ीता पत्नी
/ पप्ततके साथ संतोर्षपवू यक गृर्स्थ र्मय के पालन का उपदेश प्तदर्ा। जो ब्रह्मचर्य का कडाई से पालन
करते र्ैं, वे मोि मागय की ओर बढ़ते र्ैं।
5. अपररग्रर् : मर्ावीर स्वामी का कर्ना था प्तक जो आदमी खदु सजीव र्ा प्तनजीव चीजों का सग्रं र्
करता र्ै, दसू रों से ऐसा संग्रर् कराता र्ै र्ा दसू रों को ऐसा संग्रर् करने की सम्मप्तत देता र्ै, उसको दःु खों
से कभी छुटकारा नर्ीं प्तमल सकता. र्प्तद जीवन का बेडा पार लगाना र्ै तो सजीव र्ा प्तनजीव दोनों से
आसप्तक्त नर्ीं रखनी र्ोगी।
भगवान मर्ावीर ने अपररग्रर् को प्तवशेर्ष मर्त्व प्तदर्ा था।अपररग्रर् का अथय र्ै- जीवन प्तनवायर् के प्तलए
के वल अप्तत आवश्र्क वस्तुओ ं को ग्रर्ण करना। मानव-जाप्तत अपनी प्तनरन्तर बढ़ती जरूरतों के प्तलए
प्रकृ प्तत का अंर्ार्ंर्ु दोर्न कर रर्ी र्ै। प्रकृ प्तत के साथ सम्र्क व्र्वर्ार की सीख र्में जैन परम्परा से
प्तमलती र्ै।
भगवान मर्ावीर ने तो अप्तर्सं ा और अपररग्रर् का सदं श े प्तदर्ा था, लेप्तकन आजकल आदमी प्तर्सं ा पर
उतारू र्ै। ज्र्ादा पररग्रर् करने लगा र्ै । प्तर्सं ा पर आदमी उतारू र्ी इसप्तलए र्ो रर्ा र्ै, क्र्ोंप्तक वर्
पररग्रर् में जी रर्ा र्ै। जर्ााँ पररग्रर् र्ोता र्ै, वर्ााँ पााँचों पाप र्ोते र्ै। पररग्रर् के प्तलए आदमी चोरी करता
र्ै, झठू बोलता र्ै, र्त्र्ा करता र्ै, व्र्सनों का सेवन करता र्ै। सभी पापों की जड पररग्रर् र्ै। जब तक
दप्तु नर्ा भगवान मर्ावीर के अपररग्रर् को नर्ीं जानेगी, प्तकसी भी समस्र्ा का समार्ान नर्ीं र्ोगा।
परम अप्तर्सं क वर् र्ोता र्ै जो अपररग्रर्ी बन जाता र्ै। प्तर्सं ा का मल ू र्ै पररग्रर्। पररग्रर् के प्तलए प्तर्सं ा
र्ोती र्ै। आज परू े प्तवश्व में पररग्रर् र्ी समस्र्ा की जड र्ै। भगवान मर्ावीर ने दप्तु नर्ा को अपररग्रर् का
संदश े प्तदर्ा , वे स्वर्ं अप्तकंचन बने। उन्र्ोंने घर , पररवार राज्र् , वैभव सब कुछ छोडा , र्र्ां तक प्तक
वे प्तनवयस्त्र बने। अपररग्रर् न्र्ार्पवू यक उपाप्तजयत र्न से अपने पररवार की सीप्तमत आवश्र्कताओ ं की
पप्तू तय के उपरान्त शेर्ष राप्तश का राष्र एवं समाज प्तर्त में उपर्ोग करना, उस र्न का स्वर्ं को स्वामी
नर्ीं अप्तपतु सरं िक मानना र्ी अपररग्रर् र्ै।
भगवान मर्ावीर ने ‘अप्तर्सं ा परमो र्मयः’ का शंखनाद कर ‘आत्मवत् सवय भूतेर्षु’ की भावना को देश
और दप्तु नर्ा में जाग्रत प्तकर्ा। ‘प्तजर्ो और जीने दो’ अथायत् सर्-अप्तस्तत्व, अप्तर्सं ा एवं अनेकांत का
नारा देने वाले मर्ावीर स्वामी के प्तसद्धातं प्तवश्व की अशाप्तं त दरू कर शाप्तं त कार्म करने में समथय र्ै।
भगवान मर्ावीर के प्तवचार प्तकसी एक वगय, जाप्तत र्ा सम्प्रदार् के प्तलए नर्ीं, बप्तल्क प्राणीमाि के प्तलए
र्ैं। भगवान मर्ावीर की वाणी को गर्राई से समझने का प्रर्ास करें तो इस र्गु का प्रत्र्ेक प्राणी सख ु
एवं शांप्तत से जी सकता र्ै।

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:54.55, वर्ष 5 मार्ष.अप्रैल 23
भगवान मर्ावीर का मागय आज के र्गु की समस्त समस्र्ाओ,ं मल्ू र्ों की पनु : स्थापना, जीवन में
नैप्ततकता का समावेश, भोगवाप्तदता, संग्रर् तथा प्तर्सं ा से बचने के प्तलए सर्ी रास्ता र्ै। मर्ावीर का
संदश े आज राजनैप्ततक, र्ाप्तमयक, सामाप्तजक सभी िेिों में उपर्ोगी र्ै। भगवान मर्ावीर आदशय परू ु र्ष
थे। उन्र्ोंने मानवता को एक नई प्तदशा दी र्ै। उनके बतार्े र्ुर्े अप्तर्सं ा, सत्र् आप्तद मागों पर चलकर
प्तवश्व में शांप्तत र्ो सकती र्ै।
मर्ावीर के उपदेशों में एक सपं णू य जीवन दशयन र्ै। एक जीवन पद्धप्तत र्ै। आज की समाज को
इस जीवनपद्धप्तत की कर्ीं ज्र्ादा जरूरत र्ै। जरूरत र्ै र्म बदलें, र्मारा स्वभाव बदले और र्म र्र
िण मर्ावीर बनने की तैर्ारी में जटु ें तभी मर्ावीर जर्ंती मनाना साथयक र्ोगा।

डॉ. सुनील िैन ‘संर्य


ज्ञान-कुसमु भवन
नेशनल कान्वेंट स्कूल के पास,
लमलतपरु -284403
उत्तरप्रदेश

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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आपकी सेवा में सदैव िारी, धमष प्रभावना हो सदैव भारी


नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार की एक आश
कभी न छूटे िन्म –िन्म में सभी गुरुवरों का साथ
हे मानि ! नहीं बन पा रहा भगिान्
उसके पहले तो बन जा नेक इं सान;
गिथ से कहो हम जैन हैं ‘जय महािीर’
करें प्रयास तो, हरे जनमानस की पीर;
चलो ! करे कुछ इं सावनयत के काम
विर भले ही हो इस जीिन की शाम;
है सबकी जरुरत आज; अखंि हो अपना जैन समाज.

स्िाध्याय भी परम तप हैं.


यवि आप भी घर बैठें फोन से वनयवमत स्वाध्याय करना चाहते हैं तो नमोस्तु शासन सेवा सवमवत
पाठशाला से जुड़े. बच्चों के वलए बंगलोर और वयस्कों एवं बुजुगों के वलए विल्ली से पाठशाला का
सच
ं ालन होता हैं. अतः स्वाध्याय से आत्म कल्याण करे. अविक जानकारी के वलए सपं कक करें :-
हमसे जुड़ने के वलए तथा इस पविका को अपने फोन पर वनशुल्क प्राप्त करने के वलए सपं कक करें.
पी. के . जैन ‘प्रिीप’: +91 9324358035.
बा.ब्र. अक्षय जैन : +91 9892279205.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)


रस्ट मंडल :
रामष्रय/अंतराषष्रीय अध्यक्ष: श्री पी. के . िैन ‘प्रदीप’ उपाध्यक्षा: श्रीमती प्रमतष्ठा िैन
महामंत्री : बा.ब्र.अक्षयकुमार िैन सह मंत्री : श्री अमित िैन
कोर्ाध्यक्ष : श्री प्रदीप सैतवाल िैन
सदस्य : श्रीमती मंिू पी.के . िैन सदस्य : श्री सुशांत कुमार िैन

-: कायषकाररणी मडं ल:-


प्रदेश प्रदेशाध्यक्ष/ :
मदल्ली. श्रीमती कीती पवनिी िैन, मदल्ली.
मध्य प्रदेश. श्री नंदन कुमार िैन, मछंदवाडा,
छत्तीसगढ़ श्री सि ं य रािु िैन, रामिम,
कनाषटक मवदुर्ी तेिमस्वनी डी, मैसूर,
रािस्थान पमं डत लोके श िैन शास्त्री, गनोड़ा, बांसवाडा
हररयाणा पंमडतार्ायष मुकेश ‘मवनम्र’, प्रमत., वास्तुमवद, गुरुग्राम
कनाषटक प्रदेश समर्व श्री प्रवीण र्न्द्र िैन, मुड़मबद्री,
मध्य प्रदेश प्रदेश समर्व श्री तरुण िैन, मशवनी,
छत्तीसगढ़ प्रदेश समर्व श्री सिल िैन, दुगष,
प्रर्ार प्रसार मत्रं ी (बाह्य) : श्री रमवन्द्र बाकलीवाल, मालेगांव, महाराष्र.
प्रर्ार प्रसार मंत्री (अंतरंग) : श्री राहुल िैन, मवमदशा, श्री अनुराग पटेल, मवमदशा
नैमतक ज्ञान प्रकोष्ठ मंत्री: श्री रािेश िैन, झााँसी, उत्तर प्रदेश
मवशेर् सदस्य : महेश िैन, हैदराबाद;
पाठशाला संर्ामलका: श्रीमती कीती िैन, मदल्ली,
पाठशाला सह-संर्ामलका: श्रीमती मकरण िैन, हांसी, हररयाणा.
बाल-पाठशाला सह-संर्ामलका श्रीमती आरती िैन, श्रीमती रबी िैन, बंगलुरु.

मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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व्हाटधसएप/टेलीग्राम ग्र्ु स : कुल 50 ग्र्ु स के सभी एडममन/सर्ं ालक
आगरा : शुभम िैन, अलदंगडी : ममत्रसेन िैन
आगरा : अतुल िैन, अशोक नगर : अतुल िैन,
अशोक नगर : श्रीमती अनीता िैन बड़ामलहरा : अक्षय पाटनी,
बड़ामलहरा : श्रीमती रिनी िैन बानपुर: नमवन िैन
बैतल ू : अमवनाश िैन बगं लरुु : श्री सन्देश िैन
बंगलुरु : श्री गौरव िैन बंगलुरु : श्रीमती आरती िैन
बगं लरुु : श्रीमती प्रमतष्ठा िैन बरायठा: प्रीतेश िैन
भोपाल: पं. रािेश िी ‘राि’ मछंदवाडा: श्रीमती मीनू िैन
हासन: प्रवीन HR हैदराबाद : डॉ. प्रदीप िैन
होसदुगाष : सुममतकुमार िैन हुबली : श्रीमती नदं ारानी पामटल
इदं ौर: श्री मदनेशिी गोधा इदं ौर: श्रीमती रमश्म गंगवाल
इदं ौर: श्री टी. के . वेद इदं ौर: श्री नमवन िैन
िबलपुर: मर्राग िैन ियपुर : डॉ. रंिना िैन
कलबगु ी : मकशोर कुमार कोलकाता : रािेश काला
कोलकाता : कुसुम छाबड़ा कोटा : नमवन लुहामडया
कोटा : श्रीमती प्रममला िैन मड़ु मबद्री : श्रीमती लक्ष्मी िैन
मुड़मबद्री : सुहास िैन दावनगेरे : भरथ पंमडत
मुड़मबद्री : कृष्णराि हेगड़े धमषस्थल : डॉ. ियकीमतष िैन
मदल्ली : श्रीमती ररतु िैन मुंबई : गौरव िैन
मुंबई : दीपक िैन मदुरै : िी. भरथराि
मुंबई : प्रकाश मसंघवी मौरेना : मिम्मी िैन
मौरेना : गौरव िैन पुणे : प्राििा र्ौगुले
मशवनी : श्री र्न्दन िैन मशवनी : पवन मदवाकर िैन
रायपरु : ममतेश बाकलीवाल रानीपरु : प्रार्ी िैन
रानीपरु : सौरभ िैन टूमकुर : पद्मा प्रकाश
रतलाम : मांगीलाल िैन सांगली : राहुल नांद्रे
सांगली : रािकुमार र्ौगल ु े सोलापरु : कुमारी श्रद्धा व्यवहारे
उज्िैन : रािकुमार बाकलीवा. मविापुर : मवियकुमार
उज्िैन : नमवन िैन ियपुर,मानसरोवर श्री प्रमोद िैन
ऑस्रे मलया, पथष श्रीमती भमि हले व्यवहारे एवं सभी कायषकत्ताष
अमेररका: श्री डॉ प्रेमर्ंद िी गडा एवं सभी कायषकत्ताष
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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नमोस्तु मर्तं न के प्रकाशन के सहयोग में मनरंतर कायषरत:-

डॉ. श्री मनमषल िैन शास्त्री, श्रीमती कीमतष पवन िैन, पमं डतार्ायष मुकेश ‘मवनम्र’,
सलाहकार, टीकमगढ़, म.प्र. सहसंपामदका, मदल्ली, प्रमतष्ठार्ायष,वास्तुमवद,गुरुग्राम.

प.ं श्री लोके श िी िैन शास्त्री, श्रीमती प्रमतष्ठा सौरभ िैन, श्री सुभार् िैन,
गनोड़ा, रािस्थान. (कलाकृमत) बंगलूर. धुमलया, महाराष्र.

बढ़ता कारवां
श्री सुभार् िी िैन, धुमलया, िलगााँव, महाराष्र सह संपादक के
के नवीन पदभार के साथ कायषरत होकर अपनी सेवाएं
मााँ मिनवाणी को सादर सममपषत कर रहे हैं.
अतः उनके इस नए पद के मलए
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)पररवार
की ओर से ढेरों शुभकामनायें.
यमद आप भी स्व-कल्याण के साथ साथ मााँ मिनवाणी की सेवा, धमष प्रभावना,
प्रर्ार और प्रसार हेतु िुड़ना र्ाहते हैं तो हमसे शीघ्र ही सपं कष कीमिये.
प्रधान संपादक : पी. के . िैन ‘प्रदीप’.
व्हात्सप नंबर : +91 9324358035.
E-mail. ID: PKJAINWATER@GMAIL.COM
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
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पुनः पुनः ईमानदारी पूवषक सच्र्ी मनष्ठा से कायष करने के कारण
नमोस्तु शासन सेवा समममत, (रमि.)
आपकी अपनी संस्था, को
भारत सरकार के द्वारा सम्मामनत मकया गया हैं.

अभी हाल में ही प्राप्त यह तीसरा प्रमाणपत्र (समटषमफके ट) मदखाई दे रहा


हैं. आयकर अमधमनयम की धारा 80 G के अंतगषत दातार को ममलने
वाली छुट का प्रमाण पत्र. इससे अब कायों में तेिी भी आएगी.
यह सब आर्ायष श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि की प्रेरणा,
कृपा दृमष्ट एवं उनके द्वारा दी िाने वाली मशक्षाएं
और आपके सभी के मवश्वास और संस्था के
सभी कायषकताषओ ं द्वारा अथक लगन
और सत्यता के कारण संभव
एवं संपन्न हुआ हैं. आप सभी
नमोस्तु शासन सेवा समममत
को इसी तरह अपना
सहयोग प्रदान
करते
रहें.
मर्ंता कभी न करना भाई, मर्ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, मर्ंतन ही सख
ु दाई है.
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नमोऽस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)


मािीवाडा, ठाणे (पमश्चम) मुंबई 400 601.
सपं कष सत्रू :-
E-mail :
NAMOSTUSHASANGH@GMAIL.COM
PKJAINWATER@GMAIL.COM
WWW.VISHUDDHASAGAR.COM
मोबाइल : +91 93243 58035
आप सभी का आभार
नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार
“िय मिनेन्द्र”
मडमिटल धाममषक आध्यामत्मक पमत्रका
मनःशुल्क मवतरण के मलए
(सवष अमधकार संपादक और प्रकाशक के अधीन)
(प्रकामशत लेख, रर्नाओ ं के मलए संपादक एवं प्रकाशक मिम्मेदार नहीं हैं.
लेख, रर्ना आमद लेखक/प्रेर्क के स्वयं के मवर्ार हैं)
आत्मं स्वभावं पर भाव मभन्न,ं
आत्मं स्वभावं पर भाव मभन्नं.
(प्रकाश

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ु दाई है.
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