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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .

िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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गुरु दशषन :
मदगम्बरा ार्ष श्रमण श्री मवशुद्ध सागर िी मुमन महाराि

: फोटो फ्रेम :

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कहााँ पर क्र्ा हैं?
पञ् परमेष्ठी णमोकार मंत्र (फ्रेम हेतु फोटो) 01 सनु र्नपथगामी : श्रमण सप्रु भ सागर मन 64
मगं ला रण 02 महाराि की देशना: प.ं श्री भाग ंद रम त
ऐसा कहता म न्तन:शब्द अध्र्ात्म पथ ं ीका: महावीराष्टक स्तोत्र पर आधाररत देशना
03
मदगम्बरा ार्ष श्री मवशुद्धसागरिी महा. श्री वज्रानाभी क्रवती ररत्र 94
मंगलाशीर् 04 प्राथषना : प्रणतु की प्रणुमत से साभार : 97
मवशुद्ध पावन वर्ाष र्ोग २०२३ :आ ार्ष श्री श्रमण मुमन श्री प्रणतु सागर िी महाराि
05
मवशुद्ध सागर िी महाराि ससंघ व उपसंघ दशषन स्तुमत : डॉ. अभर् कुमार िैन 98
गुरु दशषन : फोटो फ्रेम 13 रमणीर् तीथष:मवरागोदर् कमलाकार ममं दर 99
कहााँ पर क्र्ा हैं? 14 प्रेरक कहानी : ावल का दाना : श्रीमती 100
िुलाई 2023 माह के पवष और त्र्ौहार 16 मंिू पी. के . िैन, ट्रस्टी, NSSS, मुंबई
सम्पादकीर्:पी. के . िैन ‘प्रदीप’ 18 अंतराषष्ट्ट्रीर् िैन मवद्वत पररर्द् : अंतगषत
गुणों के लहराते सागर : गुरु भक्त 21 नमोस्तु शासन सेवा समममत, मबुं ई 102
मकतना भी मलखूाँ :: गुरु भक्त 22 प्रशासमनक मंत्री : डॉ. मनमषल शास्त्री
मवमल मसन्धु के रण कमल : पूिा 23 कमष मवपाक:आ ार्ष श्री मवशद्ध ु सागरिी 104
मवराग मसन्धु को नमन कराँ : पि ू ा 28 आलो ना पाठ: डॉ. अभर् कुमार िैन 106
आ. श्री मनर्ग्षन्थ गुरु मवशुद्ध सागर महाराि 32 मिन दशषन सो मनि दशषन 108
की पूिा : आ ार्ष श्री(डॉ.) मवभव सागरिी मिनवाणी पढ़ने और सुनने का सौभाग्र् 109
आ. श्री मवशद्ध ु सागरिी महाराि कीआरती 38 िागा है: गुरु पाती से साभार : श्रमणा ार्ष
आ ार्ष भमक्त : महंदी अथष समहत 39 श्री मवभव सागरिी महाराि
श्री गुरु पूिा 42 मवशुद्ध स्वाध्र्ार् दीघाष 110
र्ोगी भमक्त 45 बच् ों के मलए मवशेर् : बाल मवभाग 111
पुरुर्ाथष देशना: आ. श्री मवशुद्ध सागर िी 50 हमारे प्रेरणा स्रोत 111
महाराि की देशना: आ ार्ष अमृत ंद्र :Source of Inspiration 111
स्वामी :मल ू र्ग्न्थ पुरुर्ाथष मसद्ध्र्ुपार् मेरी पाठशाला : 112
आत्मा की सैंतामलस शमक्तर्ां : महान 57 On-Line Pathshala : 113
र्ग्ंथराि समर्सार का सार : अध्र्ात्म A letter to Friends : P. K. JAIN 114
अममर् : आ. श्री मवशद्ध ु सागर िी Activities by Champion of 115
मवशमु द्ध : ज्ञार्क भाव से साभार : आ ार्ष 61 Champions
श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि बच् ों के मलए मवशेर् : िीवन रहस्र् 116
गुरु का स्वरुप, कै से, कौन और मवनर् 62 प्रेरक कहानी : आज्ञा पालन : श्रीमती 117
प्रमतष्ठा ार्ष : पं. श्री राके श िैन शास्त्री मंिू पी. के . िैन, ट्रस्टी, NSSS, मुंबई
महाधैर्षवान : ज्ञार्क भाव से साभार : 63 कॉममक्स:िैन म त्र कथा: अज्ञात प्रमतमा 119
आ ार्ष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि की खोि:गोम्मटेश्वर बाहुबली कीकहानी
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मााँ मिनवाणी क्र्ा कहती है ? 140 आपके अपने मव ार 144
मवशुद्ध देशना ेनेल 141 नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार 145
िन िन की शक ं ा का “सम्र्क् समाधान” : 142 आ ार्ष श्री के सभी र्ग्थ
ं को प्राप्त करें: 146
मुमन श्री सप्रु भ सागर महाराि नमोस्तु शासन सेवा समममत ट्रस्ट मंडल 147
िैन धमष से िुडी रहस्र्मर्ी िानकाररर्ााँ : 143 नमोस्तु म ंतन के सहर्ोगी 149
मपर्ूर् अमतृ वाणी ेनेल नमोस्तु शासन सेवा समममत के प्रमाणपत्र 150
मुख्र् पृष्ठ:मडमिटल:पी.के .िैन ‘प्रदीप’

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िुलाई - 2023 माह के पवष और त्र्ौहार

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र्ह पं ांग मदल्ली के भारतीर् स्टैं डडष समर् के अनुसार ही मदर्ा गर्ा हैं इस पं ांग के कृमतकार हैं :
प्रमतष्ठा ार्ष पं. मुकेश िैन शास्त्री “मवनम्र”
संपकष सूत्र सवाषथषमसमद्ध ज्र्ोमतर्-वास्तु कें द्र, गुरुर्ग्ाम, हररर्ाणा.
09868600290, 0999744151, 08368002419.
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सम्पादकीर्
पी. के . िैन ‘प्रदीप’
ठाणे, मबुं ई.
िर् मिनेन्द्र.
अहो ! मकतना मगं लकारी और सख ु द अवसर आ रहा हैं. मसद्ध भगवान् बनने का अवसर.
अष्टामन्हका महा पवष, मफर गुरु पूमणषमा और तत्पश्चात श्री वीर शासन िर्ंती. अब तक आओ बने भगवान्
के अंतगषत ही सम्पादकीर् मलखा गर्ा हैं. इस बार तो नगर-नगर में गली गली में अथाषत् सभी िगह हमारे
पञ् परमेष्ठीर्ों के दशषन सलु भ हो गए हैं. ऐसा लगता हैं मानो तथु ष काल ही सामने आ गर्ा है. मम गरुु देव
मदगम्बरा ार्ष अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोमणी, आगम उपदेष्टा श्रमण श्री १०८ मवशद्ध ु सागरिी बहुधा
प्रव न में मिनवाणी के सूत्रों से सभी को एक ही बात समझाते हैं मक समता धारण करो, मनमषल प्रवृमि रखो
तो मोक्षमागष मनमश्चत ही प्रशस्त होगा.
श्री मााँ मिनवाणी से सबका िीवन मंगल हो,
धमषमर् िीवन में अव्र्ाबामधत सुख का वेदन हो|
मशष्ट्र्ों पर आ ार्ष अनुकम्पा से, आओ ! लें !! बने महान् !
मागष ममला हमें तो क्र्ों नहीं, लों अब तो बनें भगवान्
आपकी अपनी पमत्रका ‘नमोस्तु म ंतन’ के सलाहकार और अंतराषष्ट्ट्रीर् िैन मवद्वत पररर्द् के
प्रशासमनक मंत्री, डॉ. मनमषलकुमार िैन शास्त्री, टीकमगढ़ ने बहुत ही सुन्दर लाईनें मलख कर भेिी हैं देखें..
मसद्ध मसद्ध की आराधना, मसद्ध कमष सब नाश |
मसद्ध भर्े हो अनंत सख
ु , मसद्ध बने र्ही आश ||
आ ार्ष भमक्त में, र्ोगी भमक्त में और गरुु भमक्त में हमने र्ही तो गरुु वर्ों से सनु ा और समझा हैं मक
वे कै से अरहंत और मसद्ध बने अथाषत् भगवान् कै से बने ? इस बार पुनः ातुमाषस 4 माह का नहीं बमल्क 5
माह का हो रहा हैं. अतः इस बार एक माह अमधक हैं तो इसका पूरा-परू ा लाभ उठाना ामहए. हम सभी
आपके मशष्ट्र्गण आपसे मवशद्ध ु मागषदशषन प्राप्त करते हुए भगवान् बनने का प्रर्ास करते हैं. सस ं ार में देखा
गर्ा है मक पारसममण के संपकष में आने भर से मनकृष्ट धातु लोहा भी अनमोल धातु कं न/सोना बन िाता
हैं उसी तरह आपके समीप आने से, दशषन करने से, आपके रणकमल ह्रदर् में स्थामपत करने से इस अपार
भव सागर से हमें ममु क्त प्राप्त हो सकती हैं.
कहा भी िाता है मक “मिसके पास िो होता हैं वह वही देता हैं” इसी उमक्त को आप तो ररताथष
करते ही हैं और इससे आगे आपके मशष्ट्र् भी ररताथष करते हैं. इसी अंक में धारावामहक रप से प्रकामशत
आपकी परुु र्ाथष देशना में भी र्ही सब आर्ा हैं. आपकी देशना से प्रभामवत होकर श्रतु सवं ेगी श्रमणरत्न
मुमन श्री १०८ सुव्रत सागरिी महाराि ने अपने सम्पादकीर् (लोक प्रमतमष्ठत श्री महावीराष्टक स्तोत्र पर
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आधाररत मवशाल र्ग्न्थराि सुनर्नपथगामी) में बहुत सरल और सहि रप से समझार्ा गर्ा हैं.
सनु र्नपथगामी के देशनाकार भी आ ार्ष श्री के ही सर्ु ोग्र् श्रमणरत्न ममु न श्री १०८ सप्रु भ सागर िी
महाराि ही हैं. इसे पढ़कर बहुत से श्रावकों को ज्ञान प्राप्त हो रहा हैं और अब वे भी आत्म कल्र्ाण के मागष
अथाषत् मोक्ष मागष पर आरढ़ हो गए हैं.
एक दोहा है मिसमें कहा गर्ा हैं – “बमलहारी गरुु आपने गोमवन्द मदर्ो बतार्” लेमकन मेरा मगं ल
करने वाले, मेरे िीवन की नैर्ा को भव सागर से पार करने में समथष, मेरे आराध्र्, अनेकों गुणों से संर्ुक्त,
मेरे गुरुदेव, मेरे आ ार्ष ! आप तो मात्र बता ही नहीं रहें हैं बमल्क स्वर्ं भगवान् बनने की मगं लकारी राह पर
ल रहे हैं और अन्र् सभी को मागष भी मदखा रहे हैं. इसीमलए आप सभी के प्रेरणा स्रोत भी हैं.
र्हााँ पर आ ार्ष श्री कुन्दकुन्द स्वामी रम त महान् र्ग्ंथराि श्री समर्सार का मंगला रण मानस
पटल पर स्व अंमकत हो रहा है “वमन्दतु सव्व मसद्धे .......के वली भणीर्ं” मकतना सुन्दर है. एक-एक शब्द
हीरे-रत्न िैसा मक रहा है और सभी को प्रकामशत कर मोक्षमागष प्रशस्त कर रहा हैं. इसमलए ही हे मेरे
आराध्र् मवशद्ध ु गुरुवर ! आप “समर्सारोपासक” भी कहलाते हैं, आगम के अनुसार ही प्रव न करते हैं
अतः आपको “आगम उपदेष्टा” कहना भी आगम सम्मत ही हैं.
इस गरुु पमू णषमा के पावन अवसर पर और श्री वीर शासन िर्तं ी के मनममि पर मैं आपके रणों
का दास प्रत्र्क्ष रप से आपके रणों से दूर रहकर भी, अप्रत्र्क्ष रप से आपके रणों में रहकर श्रद्धा से
मवनर्ांिमल देता हाँ. आप स्वर्ं मवशद्ध ु तो हैं ही. इसके साथ-साथ आप भावी मसद्ध भी हैं. इसीमलए हे
आ ार्ष परमेष्ठी मैं आपकी वदं ना करता हाँ. मेरा श्रद्धान ठीक उसी तरह है िैसे मााँ मिनवाणी के व नों पर,
आप्त व नों पर आ ार्ष समन्तभद्र स्वामी का रहा हैं, आ ार्ष मांगतुंग स्वामी का रहा हैं. हमने भगवान् को
तो प्रत्र्क्ष नहीं देखा हैं परन्तु आपके स्वरुप को िानकर आपकी मवशुद्ध र्ाष को देखकर भगवान् मदखार्ी
देने लगते हैं. और र्ह सब हमारी आपके प्रमत श्रद्धा हैं इसमलए भी नहीं कह रहे हैं. आपने अपने लगभग
सभी प्रव नों में इसका उल्लेख मकर्ा हैं “णमो लोए सव्व साहुणं” र्ह समाि को एक सूत्र में बााँधने का
कार्ष भी करता हैं. अखंड समाि : मवकमसत समाि.
हमारे सभी मनर्ग्षन्थ गुरुदेव बहुत ही सक्ष
ं ेप में कथन करते हैं. मिनेन्द्र देव की वाणी को, बहुत ही
रहस्र्मर्ी गूढ़ बातों को हम कै से समझें और िीवन में उनका सदुपर्ोग कै से करें, कम से कम शब्दों में
समझाने हेतु हमारे सन्मुख रखते हैं. र्ही कारण है मक ाहे वृद्ध हों, र्ुवा हों र्ा मफर बालक ही हों, उनके
प्रव नों में सभी की उपमस्थमत रहती ही हैं. क्र्ों ? एक ही कारण हैं. सत्र् सभी को अच्छा लगता हैं अतः
सभी सुनना भी ाहते हैं. र्हााँ-वहााँ की बेकार बातों में समर् नहीं व्र्तीत करते हैं. मिनवाणी के व नों को
सुनकर तो मनरीह मूक पशु पक्षी, प्राणी भी अपने आपस का बैर भूलकर ज्ञान को प्राप्त करना ाहते हैं. और
र्ह सब हमने मिनेन्द्र देव के समवशरण से समझा भी हैं. इसीमलए आपकी सभा को, धमष सभा को,
समवशरण भी कहा िाता हैं. आ ार्ष उमा स्वामी रम त “तत्त्वाथष सूत्र” में महान् गंभीर सूत्र मदर्ा हैं –
“परस्परोपर्ग्हो िीवानाम”् र्ह सूत्र िीवन की मदशा और दशा को सम्र्क रप से बदलने में सक्षम हैं. समाि
को िोड़ने की मदशा में एक बड़ा कदम हैं. हर मकसी की अपनी अपनी महिा हैं. कण कण स्वतंत्र हैं और
सबके मदन एक से नहीं होते न ही सब मदन एक से होते हैं. हमारा िीवन सफल हो दुखों से रमहत हो र्ही सब

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तो आप ाहते हैं. इसमें आपका मकंम त भी स्वाथष र्ा अपेक्षा नहीं हैं. ऐसा ही स्वरुप आपने हम सभी को
अरहतं भगवान् का और मसद्ध भगवान् का बतार्ा हैं. इसीमलए आप हमारे मलए भगवान् ही हो.
साधु सेवा संगमत, भाग्र्वान ही पार्।
पल भर िो सेवा करे, िीवन सफल बनार् ।।
मम गरुु देव मदगम्बरा ार्ष, परम पज्ू र् आगम उपदेष्टा, र्ाष
मशरोममण, समर्सारोपासक, श्रुत संवधषक, स्वाध्र्ार् प्रभावक, अध्र्ात्म
रसार्नज्ञ, अध्र्ात्म भौमतकी के आदशष तंत्रज्ञ, िैन दशषन के तत्त्वज्ञ,
अथाषत् लते मफरते धरती के देवता आ ार्ष रत्न श्री मवशद्ध ु सागर िी
महाराि सदैव कहते हैं – “अपना हाथ गुरुदेव के हाथ में ही दे देना. गुरुदेव
आपको आपके हाथ को मिबूती से पकड़ रखेंगे और आपको लक्ष्र् की प्रामप्त मनमश्चत ही होगी. र्ही कारण
है मक मसद्ध भगवान् से भी पहले णमोकार महा मत्रं में गरुु देव अथाषत् अरहतं भगवन् का नाम मलर्ा िाता
हैं.
र्हााँ पर र्ह िानना भी बहुत िरुरी है मक एक पार्ण को आ ार्ष भगवन् भगवान् कै से बना देते हैं
? एक पार्ण 5 मदनों में भगवान् बन सकता हैं तो हम क्र्ों नहीं ? सभी आ ार्ष भगवन् हमें बताते है मक
आप भगवान् बन सकते हो. आ ार्ष श्री सभी को नीमत मसखाते हुए कहते भी हैं मक उपकारी के उपकार
को कभी नहीं भुलाना ामहए. और हमारे सभी आ ार्ष भगवन् हम सभी के महत को के मन्द्रत करते हुए
प्रव नों में भगवान् बनने की ही मशक्षा देते हैं. इसीमलए हमारे आ ार्ष भगवतं ों का ऋण हम कभी भी नहीं
ुका सकते हैं. हम र्ही भावना भाते है मक हे आ ार्ष भगवन् ! हमें ऐसा आशीवाषद दीमिर्े मक हम
आगमोक्त संर्म धारण करके पुरुर्ाथष करें मिससे ऐसा शुभ मदन आए िब हमारा और संसारी िीवों का
कल्र्ाणक पवष मनार्ा िार्े.
गुरु पूमणषमा और श्री वीर शासन िर्ंती की बहुत बहुत बधाईर्ााँ और शुभकामनार्ें. इमत शुभम्
उपकृत हैं हम मशष्ट्र् सब, पाकर शीतल छााँव, अमतशर् तब-तब हो गर्ा, िब-िब छूते पााँव |
वरदार्ी है आपका, र्ह सामनध्र् ममला महान, वर देना, कर पार्ें हम, साथषक आपका नाम ||
परम पूज्र् गुरुदेव,
धरती के देवता,
लते मफरते मसद्ध भगवन् के
रणों में मत्रकाल अनंतबार
नमोस्त,ु नमोस्तु, नमोस्त.ु
पी. के . िैन ‘प्रदीप’

नमो स्तु शासन िर्वंत हो.


िर्वंत हो वीतराग श्रमण सस्
ं कृमत.
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मवमल मसंधु के रण कमल

(पूज्र् 'गमणनी आमर्षका स्र्ाद्धादमती मातािी)


(स्थापना)
मनममि ज्ञानी, सबके स्वामी, िन-िन को मसमद्ध देते हैं।
साधक ममु क्तपथ के गरुु वर, आराधक सख ु लेते हैं ।।
मिनशासन के मागष प्रभावक, तन-मन-धन दुख हरते हैं।
मवमल मसंधु के रण कमल में, कोमट-कोमट हम नमते हैं ।।
घिा हृदर् मवरािो आन के आह्वानन त्र्र् बार
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र अवतर अवतर संवौर्ट्
आह्वाननम् ।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र मतष्ठ मतष्ठ ठः ठः स्थापनम्
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अत्र मम् समन्नमहतो
भव भव वर्ट् समन्नमधकरणम।्
"पररपुष्ट्पांिमलं मक्षपामम ।"

उज्ज्वल िल मैं लेकर आर्ो, समता नीर भराई,


िन्म- िरा - मृत्र्ु नाश कराकर, आठों कमष नशाई।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
परम पज्ू र् सन्मागष मदवाकर, मवमल मसन्धु के गण ु गाऊाँ
मनि मनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि िन्म- िरा - मृत्र्ु मवनाशनार् िलं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
मलर्ामगरर का ंदन लेकर गुरुवर रण ढ़ाई,
गरुु रणन के ही प्रसाद से, भव आताप नशाई।
करणामनमध आ ार्षरत्न, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर भववन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि भव आताप मवनाशनार् ंदनं
मनवषपामीमत स्वाहा।
क्रोध कर्ार् की ज्वालाओ ं ने, खमडडत िीवन कर डाला,
अक्षत पुंि अखडड ढ़ाऊाँ , ममटे कमष मल सब काला ।
मनममि ज्ञानी मशरोममण गुरुवर, मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अक्षर् पद प्राप्तर्े अक्षतं मनवषपामीमत
स्वाहा।
कमल पुष्ट्प की माला ढ़ाकर, काम नशाने आर्ा हाँ,
बाल ब्रह्म ारी गुरुवर मैं भमक्त सुमन ले आर्ा हाँ।
क्रवती ाररत्र मनमध, श्री मवमल मसन्धु के गण ु गाऊाँ
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि कामबाण मवनाशनार् पुष्ट्पं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
मैसूर पाक िलेबी घेबर, भर-भर थाल सिार्ा हाँ,
क्षध
ु ा वेदना से अकुलार्ा, अपषण करने आर्ा हाँ।
वात्सल्र् रत्नाकर गुरुवर, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि क्षध ु ा रोग मवनाशनार् नैवेद्यं
मनवषपामीमत स्वाहा।
मोह मतममर भटकार्ा मैं प्रभु, सत्पथ अब तक ना पार्ा,
रत्नमर्ी दीपक लेकर मैं ज्ञान ज्र्ोमत पाने आर्ा।
तीथोद्धारक ूड़ाममण, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि मोहान्धकार मवनाशनार् दीपम्
मनवषपामीमत स्वाहा ।
कमष आठ से पीमड़त हाँ प्रभु, अब तक ैन नहीं पार्ा,
गुग्गल धूप दशांगी लेकर, कमष नशाने मैं आर्ा।
अमतशर् र्ोगी बाल ब्रह्म र्मत, मवमल मसन्धु के गण ु गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अष्टकमष दहनार् धूपं मनवषपामीमत
स्वाहा।
श्रीफल आम नारंगी के ला, थाल सिाकर लार्ा हाँ,
मोक्ष महाफल पाने की गरुु , आशा लेकर आर्ा हाँ।
खडड मवद्या धुरन्धर गुरुवर, मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सुधारस पाकर, भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पज्ू र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि मोक्षफल प्राप्तर्े फलं मनवषपामीमत
स्वाहा ।
आठ द्रव्र् की भर थाली ले, आठों कमष खपाऊाँ ,
अष्ट गुणों की मसमद्ध पाकर, मसद्ध लोक बस िाऊाँ ।
परम तपस्वी त्र्ाग मूमतष, श्री मवमल मसन्धु के गुण गाऊाँ ,
मनिमनमध ज्ञान सध ु ारस िाकर भव वन में ना भटकाऊाँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि अनर्घर्ष पद प्राप्तर्े अर्घर्ं मनवषपामीमत
स्वाहा ।
िर्माला
(दोहा)
सरल स्वभावी मवमल गुरु, रणन् शीश नवार् ।
कमल के तकी पुष्ट्प ले, अपषण कराँ हर्ाषर् ॥
िै ममु क्तदूत मवमल मसन्धु गरुु हैं हमारे,
िै तीन लोक से मनराले देव हमारे ।
िै िै तपस्वी एक नाथ आि रािते,
िै िै भमविनों के हृदर् आप सािते ।।
िै वीर महावीर कीमतष गुरु हैं तुम्हारे,
िै ममु क्तदूत मवमल गरुु देव हमारे ।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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िै धन्र् िन्मभमू म कोसमााँ के र्ग्ाम की,
िै िै सुधन्र् मात कटोरी के लाल की ।।
िै िै सुधन्र् मपता मबहारी के प्राण की,
िै िै सुधमष मसन्धु गुरु देवराि की ।
जै वीर धीर बाल ब्रह्म ारी मसतारे ,
िै ममु क्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ||
िै िै सुमसद्ध क्षेत्र सोनामगर के राि की,
िै िै सुर्हााँ दीक्षा पार् ममु नराि की।
िै िै सुध्र्ान धारते मिनराि की मही,
िै िै सुवीर धीर तपस्वी महाशर्ी ।।
िै िै समु नममि ज्ञान मशरोममण हैं हमारे,
िै मुमक्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे।
टुडडला नगर था धन्र् गुरु आप से हुआ,
आ ार्ष पद प्रदान कर सब िग प्रसन्न हुआ ।।
दे मशक्षा दीक्षा दान भव्र् िीव उबारे ,
हैं र्ोग्र्-र्ोग्र् मशष्ट्र् मवश्व में िो तम्ु हारे ।
िै भरत मसन्धु पाठक सुमशष्ट्र् तुम्हारे,
िै शरण आपकी लहैं मतरते ही िा रहे ।।
िै कर मवहार भमू म - भमू म तीथष मनहारे,
िै करके वंदना सभी तो तीथष उद्धारे।
िै भव्र् िीव दीक्षा दान तुमने उबारे,
िै मुमक्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
रािगृही का िो स्वाध्र्ार्, भवन भारी है,
िै धन्र्-धन्र् गरुु स्ममृ त में देन थारी है।
िै नंगानंग मूमतषर्ााँ र्े शान से खड़ी,
िै ौबीसी मनमाषण की र्े श्रख ृं ला िुड़ी ।
िै श्रुतस्कंध के र्े प्रेरक देव हमारे,
िै मुमक्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
तन दुखी और मन दुखी आते,
नवकार मंत्र िाप करो, सबको बताते ।
लख लख के िाप करते, सब पुडर् कमाते,
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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पापों का नाश करके सभी िैन को पाते।
िै मंत्र - र्ंत्र-तंत्र मवज्ञ गुरु र्े हमारे,
िै मुमक्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ||
करते रण में वंदना गुरुदेव आपके ,
हो पार भव समुद्र से आशीर् आपके ।
मनत तीन बार मसर नवां मैं वदं ना कराँ,
भर भाव भमक्त से गुरु पद क्षालना कराँ ।।
मनत रोम-रोम में बसे गुरुदेव हमारे,
िै मुमक्तदूत मवमल मसन्धु देव हमारे ।
ॐ हाँ परम पूज्र् आ ार्ष श्री १०८ मवमलसागर िी महाराि िर्माला पूणाषर्घर्ं मनवषपामीमत स्वाहा |
गणु माला तमु री गरुु ! शब्दों मलखी न िार्े,
ज्र्ों सागर के मोती ले, मगनती कभी न पार्े।
स्र्ाद्वाद वाणी मवमल, स्र्ाद्वाद पथ सार,
स्र्ाद्वादमती मनत नमें, भव से करो सपु ार ॥
।। इत्र्ाशीवाषद: पुष्ट्पांिमलं मक्षपामम ।।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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मवराग मसध
ं ु को नमन कराँ

(स्थापना)
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोमणी, मवराग सागर िी गुरुवर ।
बालर्मत अरु स्र्ाद्वाद िो, प्रज्ञा मिनकी बड़ी प्रखर ||
अपने ज्ञान ध्र्ान तप बल से, भव्र्ों का तम करें हनन ।
ऐसे गुरु का अ षन करने, आह्वानन कर करें नमन ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवर अत्र अवतर-अवतर सवं ौर्ट्
आह्वाननम् ।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवर अत्र मतष्ठ मतष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवर अत्र मम समन्नमहतो भवः भव
वर्ट् समन्नमधकरणम् ।
भवतापों से तपा हुआ हाँ, तमु रणों में शांमत ममले,
क्रोध लोभ मद मान अरु मत्सर, गुरु भमक्त से शीघ्र धुले ।
भमक्त भाव का मनमषल िल ले, गुरु रणों में धार कराँ,
परम पज्ू र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् र्ुगप्रमुख श्रमणा ार्ष, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो िन्म-
िरा-मत्ृ र्ु मवनाशनार् िलं मनवषपामीमत स्वाहा।
िग की आकुलतार्ें सारी, ममता का मवर् मपला रहीं,
तृष्ट्णा मोह क्रोध की अमग्न, अंतमषन को िला रहीं ।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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गरुु रणों में मवनर् भाव का, ंदन लेकर शांत कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् र्ुगप्रमतक्रमणप्रवतषक, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो
भवाताप मवनाशनार् ंदनं मनवषपामीमत स्वाहा ।
मितने भी पद पार्े मैंने सबका अब तक नाश हुआ,
नहीं अभी तक मेरा गुरुवर, सच् े पद में वास हुआ।
अक्षर् पद के अक्षत लेकर, गुरु ममहमा का गान कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसंधु का नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् अनुशासन रत्न, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो अक्षर् पद
प्राप्तर्े अक्षतं मनवषपामीमत स्वाहा।
अब तक िग में भटका गुरुवर, पर की आस वासना से,
नहीं कभी भी तृप्त हुर्े हम, अमग्न घी सम प्र्ास से ।
समता शील व्रतामदक लेकर, काम वासना शमन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् मवश्वमहतैर्ी, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो कामबाण
मवनाशनार् पुष्ट्पं मनवषपामीमत स्वाहा ।
तीन लोक के सकल पदारथ, क्षुधा अमग्न के र्ग्ास बने,
क्षधु ा शांत न होती मफर भी हम आशा के दास बने ।
ले नैवेद्य आस तिने को, इच्छाओ ं का दमन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् आगम अमतधन्वा, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो क्षध ु ारोग
मवनाशनार् नैवेद्यं मनवषपामीमत स्वाहा ।
ज्ञानदीप मबन अब तक िग में, मनि पद का नहीं भान हुआ,
तेरी मदव्र् देशना से ही, मनि शमक्त का ज्ञान हुआ।
र्शोगान का दीपक लेकर, मनि कुमटर्ा को मन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् र्ोग सम्राट, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो मोहांधकार
मवनाशनार् दीपं मनवषपामीमत स्वाहा।
वसुमवमध के वश होकर गुरुवर, भवसागर में भटक रहा,
अष्टकमष के दहन करन को, सम्र्क् तप है धमष महा ।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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तमु से सर्ं म मर् तप पाकर, अष्टकमष को दहन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् उपसगषमविेता, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो अष्टकमष
दहनार् धूपं मनवषपामीमत स्वाहा ।
मिस फल के मबन मनष्ट्फल सब कुछ, वह फल मैं भी पा िाऊाँ ,
ऐसा मोक्ष महाफल पाने, गरुु रणों को मनत ध्र्ाऊाँ ।
मोक्ष महाफल को पाने मैं, मोहकमष को दमन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोमणी, मवराग मसंधु को नमन कराँ ।।
ॐ हाँ परम पूज्र् राष्ट्ट्रसंत, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो मोक्षफल प्राप्तर्े फलं
मनवषपामीमत स्वाहा।
शभु भावों का मनमषल िल है, मवनर् भाव का है ंदन,
गुरुवंदन ही अक्षत है र्े, भमक्त सुमन का अमभनंदन।
मन-व - तन से आत्म समपषण, मोह क्षोभ का शमन कराँ,
परम पज्ू र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसध ं ु को नमन कराँ ।।
ॐ ह्रूं परम पूज्र् सूररगच्छा ार्ष, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो अनर्घर्ष पद
प्राप्तर्े अर्घर्ं मनवषपामीमत स्वाहा ।
िर्माला
(दोहा)
मााँ श्र्ामा के लाडले, कपूर ंद के लाल ।
मवराग मसन्धु आ ार्ष की, अब वरणू िर्माल ॥
सम्र्क् श्रद्धा मनिगुण का है, मिससे मैं मनत दूर रहा,
ममथ्र्ा भाव छोड़ नहीं पार्ा, दुःखों से भरपरू रहा।
ऐसी सम्र्क् मनिमनमध पाकर, मनि का मैं उद्धार कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ १ ॥
सम्र्क् बोध नहीं मैं पार्ा, िो मशवसख ु का साधन हैं,
ऐसे बोध अगम्र् पुंि तम, अतः तुम्हें अमभवादन है।
तुमसे सत्र्बोध को पाकर, मशवमारग में गमन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ २ ॥
सम्र्क् ाररत्र मबन सब सूना, ज्र्ों मबना गंध के पुष्ट्प कहा,
ऐसे सत्र् रण मबन गरुु वर, िग में अब तक भटक रहा।
तुमसे रण मनमध मैं पाकर, मशवरमणी का वरण कराँ,
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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परम पज्ू र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ३ ॥
सम्र्क् तप ही एक साधन हैं, िो कमष भस्म कर देता है,
सारे दुःख अशांमत िगत की, आप स्वर्ं हर लेता है।
घोर तपोमनमध को पाकर के , क्र्ों न मैं अनुशरण कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ४ ॥
मनि शमक्त को नहीं मछपाकर, घोर तपस्र्ा करते हो,
उपसगष परीर्ह के सहने में, नहीं कभी तुम डरते हो ।
ऐसा वीर्ाष ार पालते उसका मैं अनुशरण कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥५॥
उिम क्षमा मादषव आिषव, सत्र् शौ और संर्म है,
उिम तप और त्र्ाग अमकं न, ब्रह्म र्ष मवमलतम है।
दस धमों का आगम मसंधु पा, मैं भी मनत स्नान कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥६॥
अशरण अमनत्र् सस ं ार भावना अशमु एकत्व और अन्र्त्व,
आसव संवर मनिषरा लोकमह दुलषभ बोमध धमष है।
इसको तमु पाते हो मनशमदन मैं भी इनका मनन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ७ ॥
मनमश्चत श्रद्धा ज्ञान ररत्र को मनमवषकल्प बनार्ा है ,
अभेद रत्नत्रर् को पाने, मैंने शीश झकु ार्ा है।
अप्रमि दशा को पाने, मुमन वन मनि में मनन कराँ,
परम पूज्र् आ ार्ष मशरोममण, मवराग मसन्धु को नमन कराँ ॥ ८ ॥
(दोहा)
सप्तम पूिा भक्त ने मलखी भमक्त के हेतु,
भमक्त भाव से भमक्त कर, बाध ं ू भव का सेतु ।
तुम रणों का दास मैं करता हाँ अरदास,
नाश पास भव का भरो, दीिे रण मनवास || ९ || "
ॐ ह्रूं परम पूज्र् अध्र्ात्मर्ोगी, समताममू तष, गणा ार्ष श्री मवराग सागर िी महाराि र्मतवरेभ्र्ो
िर्माला अनर्घर्ष पद प्राप्तर्े पूणाषर्घर्ं मनवषपामीमत स्वाहा ।
भलू ूक सब माफ हो, मैं हाँ मनपट अिान ।
एक भावना बस र्ही हो सबका कल्र्ाण ।।
॥ इत्र्ाशीवाषद: पुष्ट्पांिमलं मक्षपामम ॥

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 31 of 151
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवर ! अत्र अवतर-अवतर संवौर्ट्
आह्वाननम !
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्धु सागर ममु नवर ! अत्र मतष्ठ-मतष्ठ ठः ठः
स्थापनम् |
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवर ! अत्र मम समन्नमहतो भव भव
वर्ट् समन्नमधकरणम् |

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
ाररत्र महमालर् से मनझषर, र्ह सम्र्ग्ज्ञान सगु गं ा है |
िो शीतल मनमषल वाणी दे, करती रहती मन ंगा है ||
मैं िन्म िरा का रोगी हाँ, तुम उिम वैद्य कहाते हो |
मनि ज्ञानमर्ी और्मधर्ााँ दे, सब िग के रोग ममटाते हो ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्र्ो िन्म िरा मृत्र्ु
मवनाशनार् िलं मनवषपामीमत स्वाहा।
मलर्ामगरर ंदन सम शीतल, है आप सुगंमधत भूतल पर|
गुर भक्त भ्रमर मंडराते हैं, तेरी र्ाष पर झुक-झुक कर ||
उपसगों के मवर्धर मलपटे , मवर्पान मकर्ा, अमृत सीं ा|
ऐसे अमृत वरर्ार्ी की, करता है िग न्दन पूिा ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्र्ो सस
ं ार ताप मवनाशनार्
न्दनं मनवषपामीमत स्वाहा।
ख्र्ामत पिू ा से क्र्ा लेना, क्र्ा नाम म त्र सरं ना से |
िो समर्सारमें मनत रमते, क्र्ा काम करें िग र ना के ||
है भक्त कामना एक आप, अक्षर् ख्र्ाती भंडार बनो |
अररहतं बनो र्ा मसद्ध बनो, मेरे मशवपथ आधार बनो ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्र्ो अक्षर् पद प्राप्तर्े अक्षतान्
मनवषपामीमत स्वाहा ।
ैतन्र् वामटकामें सुरमभत, ुनकर अध्र्ात्म प्रसून मलए |
तब महकउठी प्रव न बमगर्ा,अध्र्ात्मरमसक रसपान मकर्े||
मिनधमष का सौरभ फै ल रहा, सब मदग-् मदगन्त धरती अम्बर |
अमपषत करता सुमनावमलर्ााँ, हे परम पूज्र् मेरे गुरुवर ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्र्ो कामबाण मवनाशनार् पष्ट्ु पं
मनवषपामीमत स्वाहा।
मनिज्ञान ध्र्ान वैराग्र् सहि, अरु स्वानुभूमत में र े-प े |
मनत मनिानद ैतन्र्मर्ी, अध्र्ात्म रसों में रसे-र े ||
ैतन्र् रसों का ममश्रण कर, मनि मन नैवेद्य बनार्ा है |
भव-भव की क्षध ु ा ममटाने को, गरुु पद नैवेद्य ढ़ार्ा है ||

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्र्ो क्षध
ु ा रोग मवनाशनार्
नैवेद्यं मनवषपामीमत स्वाहा।
मेरा मप्रर् सम्र्ग्दशषन र्ह, मैं ेतन दीप िलाता हाँ |
कमों की काली रिनी को, सममकत से दूर भगाता हाँ ||
सम्र्क श्रद्धा से आलोमकत, गुरु गुण आरमतर्ााँ गाता हाँ |
मनर्ग्ंथों की आरमतर्ााँ कर, मनर्ग्षन्थ भावना भाता हाँ ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्र्ो मोहान्धकार मवनाशनार्
दीपं मनवषपामीमत स्वाहा ।
शद्ध
ु ात्म ध्र्ान की ज्वाला में, कमों की धूम िलाते हो |
पल-पल मछन-मछन मनशमदन सम्र्क्, शुद्धोपर्ोग ही ध्र्ाते हो||
तुम महारथी र्ह महार्ज्ञ! मनि कमों को स्वाहा कर लूाँ |
मैं अशरीरी अमवनाशी सुख, मनि मसद्ध अवस्था को वर लूाँ ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्र्ो अष्ट कमष दहनार् धपू ं
मनवषपामीमत स्वाहा ।
र्ह नर तन का फल रत्नत्रर्, हो धन्र् भाग्र् तुमने पार्ा |
रत्नत्रर् का फल मशवफल है, र्ह बीि ह्रदर् में उग आर्ा ||
मेरा श्रावक कुल धन्र् हुआ, अर धन्र्, हुई र्ह नर कार्ा |
पिू ा कर रत्नत्रर् पाऊाँ , मशवफल पाने मन लल ार्ा ||
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशुद्धसागर मुमनवरेभ्र्ो मोक्षफल प्राप्तर्े फलं
मनवषपामीमत स्वाहा।
ैतन्र् तीथष के मनमाषता, तमु भगविा बतलाते हो |
मेरा भगवन् ही मुझमें हैं, शाश्वत सिा बतलाते हो ||
आ गर्ा काल मफर से ौथा, र्ा मफर बसंत लहरार्ा है |
मनर्ग्षन्थ मदगम्बर मुद्रा में, र्ह शुद्ध श्रमण अब पार्ा है ||1||
तन से मवशुद्ध मन से मवशुद्ध, ेतन मवशुद्ध करने वाले |
मन के मवशद्ध ु सं ारों से, िग मवपदाएाँ हरने वाले ||
तुम हो अनघष, र्ाष अनघष, ाष अनघष मंगलकारी |
मैं अर्घर्ष ढ़ाता हाँ तुमको, तमु तीथंकर सम उपकारी ||2||

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध
ु सागर ममु नवरेभ्र्ो अनर्घर्ष पद प्राप्तर्े अर्घर्षम्
मनवषपामीमत स्वाहा।

िर्माला
(छंद-दोहा)
तुमको पाकर हो गर्ा, भारतवर्ष मनहाल |
रत्नत्रर् म ंतामणी, गाऊाँ मैं िर्माल ||
(छंद ज्ञानोदर्)
ैतन्र् धातु से मनममषत हो, क्र्ा मात-मपता का नाम कहाँ |
शुद्धात्म प्रदेशों में िन्मे, क्र्ा नगर-शहर क्र्ा गाम कहाँ |
दशलक्षण धमष सहोदर है, रत्नत्रर् ममत्र मनराला है |
समता बमहना राखी बांधे, अनुप्रेक्षा मााँ ने पाला है ||1||
र्ौवन की देहली पर आते, दीक्षा कन्र्ा से ब्र्ाह र ा |
मनर्ग्षन्थ मदगम्बर मद्रु ाधर, अपनार्ा ममु क्त पथ सच् ा ||
हो भाव शुमद्ध के मवमल कें द्र, हो स्वानुभूमत के मनिाधार |
हे सस्ं कृमत के अलक ं ार ! ैतन्र् कल्पतर सख ु ाधार ||2||
तुम पं -समममतर्ााँ त्रर्-गुमप्त शुद्धात्मलीन हो पाल रहे |
श्रुतज्ञान और वैराग्र् प्रबल, सब संघ इसी में ढाल रहे ||
िो महापरुु र् द्वारा धाररत, उन महाव्रतों को धारा है |
मनि भेदज्ञान पौरुर् बल से, खोला मुमक्त का द्वारा है ||3||
र्ाष के मनमषल स्रोतों से, सज्ञं ान के मनझषर फूट पड़े |
िन्मों के ज्ञान मपपासु िन, इसमलए एक दम टूट पड़े ||
व्रतशील शुद्ध आ रण मबना,शुद्धात्म तत्त्व ना ममलता है |
मदनकर के मबना मदवस क्र्ा हो,सर में पक ं ि क्र्ा मखलता है|4|
िो लते पर भी नहीं लें, िो और बोलते ना बोलें |
िो सदा देखते ना देखें, मनि में इतने मनश्चल होलें ||
है स्विातीर् सम्बन्ध मधुर, शुद्धात्म का शुद्धात्म से |
एकार्ग्म ि हो िहााँ कहीं, बाते कर ले मसद्धातम से ||5||
परुु र्ाथष परार्ण परमवीर, हो ममु क्त राज्र् के अमधकारी |
मैत्री प्रमोद करुणाधारी, हो उभर् लोक मगलकारी ||
हे मनमवषकार ! मनद्वंद ! नमन, हे मनरालम्ब ! मनर्ग्षन्थ नमन |
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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मनभषर् ! मनराग! मनलेप ! नमन, मनदोर् मदगम्बर श्रमण नमन ||6||
तुम पं ा ार परार्ण हो, तमु पं ेमन्द्रर् गि के िेता |
गंभीर धीर हे शूरवीर ! ाररत्र दक्ष मशवपथ नेता !
ाररत्र मबना दृगबोध मवफल, कोठे में बीि रखे सम है |
िो मितनी उज्िवलता पाले, उतना मनवाषण मनकटतम है ||7||
शम दम र्म मनर्म मनके तन हैं, अमव ल अखडं अद्वैत रप |
हो रत्नत्रर् से आभूमर्त, आ ार्ष श्रेष्ठ आ ार भूप ||
मैं भमक्तत्रर् र्ोगत्रर् से, त्रर्कालों तीन मवधानों से |
भव भेदक ! साधक सुरर प्रवर, नमता सममकत श्रद्धानों से ||8||
गुरु र्मी! र्त्न करते रहते, मनि समर् मनर्म प्रकाशक हो |
िो हमें र्ातनाएाँ देता, उस र्म के आप मवनाशक हो |
हो कमष वृक्ष के उच्छे दक, तुम कमषलों करते रहते |
मफर भी इस भोली िनता को, के वल क लो मदखा करते ||9||
गरुु अहो ! अर्ा क धन्र् तम्ु हें, तमु कुछ भी मााँग नहीं करते |
मनवाषण सुन्दरी की सुन्दर, भावों से मांग भरा करते ||
र्ह ब्रह्म र्ष की मनमषलता, लौकांमतक देव नमन करते |
वैराग्र् मदवस पर कब आर्े, बस इतनी ाह मकर्ा करते ||10||
र्ह धन्र् आपकी मिनमुद्रा, र्ह धन्र्-धन्र् मनर्ग्षन्थ दशा |
ममु न नाम आलौमकक मिन र्ाष, िो प्रकटाती अररहतं दशा ||
तुम लते-मफरते मोक्षमागष, गन्तव्र् ओर बढ़ते िाते |
तुम कदम िहााँ पर रख देते, ैतन्र् तीथष गढ़ते िाते ||11||
मनर्ग्षन्थ साधु की र्ह पूिा, स में रत्नत्रर् पूिा है |
ना ख्र्ामत नाम की र्ह पूिा, ना ख्र्ामत नाम को पूिा है ||
है तीन ऊन नव कोमट ममु न, मिनके समान ना दूिा है |
अररहंत प्रभु के बीि रप, मशवपथ पंथी की पूिा हैं ||12||

(छंद-दोहा)
गरुु पूिा में आ गर्े, िग के सब मुमनराि |
कोमट-कोमट पि ू ा कराँ, पाऊाँ ममु नपद आि ||1||
गुरु मनर्ग्षन्थ महान है, गुरु अररहंत समान |
गुरुवर ही भगवान है, गुरुवर क्षमा मनधान ||2||

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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ॐ ह्रुं णमो आइररर्ाणं श्रीमद् आ ार्ष परमेष्ठी मवशद्ध ु सागर ममु नवरेभ्र्ो िर्माला पण
ू ाषर्घर्षम्
मनवषपामीमत स्वाहा।
गुरुवर सम्र्ग्दशष दो, गुरुवर सम्र्ग्ज्ञान |
गुरुवर सम्र्क् ाररत्र दो, गरुु वर दो मनवाषण ||3||
इत्र्ामशवाषदं पुष्ट्पांिमलम् मक्षपेत् |

मवशुद्ध व न:
“राग हटाओ कष्ट ममटाओ”
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म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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आ ार्षभमक्त

देसकुलिाइसुद्धा, मवसद्ध ु मणवर्णकार्संिुिा।


तुम्हं पार्पर्ोरुहममह मंगलमत्थु मे मणच् ं ॥१ ।
देश, कुल और िामतसे मवशुद्ध तथा मवशुद्ध मन, व न, कार् से संर्ुक्त हे आ ार्ष! तुम्हारे
रणकमल मझ ु े इस लोक में मनत्र् ही मगं लरप हों।।१।।
सगपरसमर्मवदडह, आगमहेदृमहं ामव िामणिा।
सुसमत्था मिणवर्णे, मवणर्े सिाणुरवेण । ।२।।
वे आ ार्ष स्वसमर् और परसमर्के िानकार होते हैं, आगम और हेतुओक ं े द्वारा पदाथोंको
िानकर मिनव नोंके कहनेमें अत्र्ंत समथष होते हैं और शमक्त अथवा प्रामणर्ोंके अनुसार
मवनर् करने में समथष रहते हैं।।२।।

बालगुरुवुड्ढसेहे, मगलाणथेरे र् खमणसंिुिा।


वट्टावर्गा अडणे, दुस्सीले ामव िामणिा ।।३।।
वे आ ार्ष बालक, गरुु , वृद्ध, शैक्ष्र्, रोगी और स्थमवर ममु नर्ोंके मवर्र्में क्षमासे समहत
तथा अन्र् दुःशील मशष्ट्र्ोंको िानकर सन्मागषमें वताषते हैं -- लगाते हैं। ३।।
वदसमममदगुमििुिा, मुमक्तपहे ठावर्ा पण
ु ो अडणे।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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अज्झावर्गण ु मणलर्े, साहुगुणेणामव संिुिा।।४।।
वे आ ार्ष व्रत, समममत और गुमप्तसे समहत होते हैं, अन्र् िीवोंको मुमक्तके मागषमें लगाते
हैं,उपाध्र्ार्ोंके गुणोंके स्थान होते हैं तथा साधु परमेष्ठीके गुणोंसे सर्ं ुक्त रहते हैं। ४ ॥
उिमखमाए पुढवी, पसडणभावेण अच्छिलसररसा।
कमम्मध ं णदहणादो, अगणी वाऊ असगं ादो।।५।।
वे आ ार्ष उिम क्षमासे पृमथवीके समान, मनमषल भावोंसे स्वच्छ िलके सदृश हैं, कमषरपी
ईधनके
ं िलानेसे अमग्नस्वरप है तथा पररर्ग्हसे रमहत होनेके कारण वार्ुरप हैं। ।५।।
गर्णममव मणरुवलेवा, अक्खोवा सार्रुव्व मुमणवसहा ।
एररसगुणमणलर्ाणं, पार्ं पणमामम सुद्धमणो ।६।।
वे मुमनश्रेष्ठ - आ ार्ष आकाशकी तरह मनलेप और सागरकी तरह क्षोभरमहत होते हैं। ऐसे
गण
ु ोंके घर आ ार्ष परमेष्ठीके रणोंको में शद्ध
ु मनसे नमस्कार करता हाँ।।६।।
ससं ारकाणणे पणु , बभ
ं ममाणेमह भव्विीवेमहं ।
मणव्वाणस्स हु मग्गो, लद्धो तुमं पसाएण।।७।।
हे आ ार्ष! सस ं ाररपी अटवीमें भ्रमण करनेवाले भव्र् िीवोंने आपके प्रसादसे मनवाषणका
मागष प्राप्त मकर्ा है। ७।।
अमवसुद्धलेस्सरमहर्ा, मवसुद्धलेस्सामह पररणदा सद्ध ु ा।
रुद्दट्ठे पण
ु िा, धम्मे सक्ु के र् सिं ि
ु ा ।।८।।
वे आ ार्ष अमवशद्ध
ु अथाषत् कृष्ट्ण, नील और कापोत लेश्र्ासे रमहत तथा मवशद्ध ु अथाषत
पीत, पद्म और शुक्ल लेश्र्ाओसं े र्क्त
ु होते हैं। रौद्र तथा आतषध्र्ानके त्र्ागी और धम्र्ष
तथा शुक्लध्र्ानसे समहत होते हैं।। ८ ।।
उग्गहईहावार्ाधारणगुणसंपदेमहं संिुिा।
सुित्थभावणाए, भामवर्माणेमहं वंदामम ।।९ ।।
वे आ ार्ष आगमके अथषकी भावनासे भाव्र्मान अवर्ग्ह. ईहा, अवार् और धारणा नामक
गण
ु रपी सपं दाओसं े सर्ं क्त
ु होते हैं। उन्हें मैं नमस्कार करता हाँ।।९।।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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तुम्हं गुणगणसथ ं ुमद, अिाणमाणेण िो मर्ा वुिो।
देउ मम बोमहलाहं, गरुु भमििुदत्थओ मणच् ं।।१०।।
हे आ ार्ष! आपके गुणसमूहकी स्तुमतको न िानते हुए मैने िो बहुत भारी भमक्तसे र्क्त ु
स्तवन कहा है वह मेरे मलए मनरंतर बोमधलाभ -- रत्नत्रर्की प्रामप्त प्रदान करे।।१० ।।

अं मलका
इच्छामम भंते! आर्ररर्भमक्तकाउस्सग्गो कओ तस्सालो ेउं, सम्मणाणसम्मदं
सणसम्म ाररििुिाणं पं मवहा ाराणं आर्ररर्ाणं, आर्ारामदसदु णाणोवदेसर्ाणं
उवज्झार्ाणं, मतरर्णगण ु पालणरर्ाणं सव्वसाहणं, मणच् कालं अं ेमम, पूिेमम , वंदामम,
णमंसामम, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोमहलाहो, सगु इगमणं, समामहमरणं,
मिनगण ु सपं मि होउ मज्झ।ं ।

हे भगवन!् मैंने आ ार्षभमक्तसंबंधी कार्ोत्सगष मकर्ा है। उसकी आलो ना करना ाहता
हाँ। िो सम्र्गज्ञान, सम्र्ग्दशषन और सम्र्क् ाररत्रसे र्ुक्त हैं तथा पााँ प्रकारके आ ार का
पालन करते हैं ऐसे आ ार्ोंकी, आ ारांग आमद श्रुतज्ञानका उपदेश देनेवाले
उपाध्र्ार्ोंकी और रत्नत्रर् रपी गण ु ों के पालन करनेमें लीन समस्त साधओ ु क ं ो मैं मनरंतर
अ ाष करता हाँ, पि ू ा करता हाँ, वदं ना करता हाँ, नमस्कार करता हाँ। उसके फलस्वरप मेरे
दुःखोंका क्षर् हो, कमोंका क्षर् हो, रत्नत्रर्की प्रामप्त हो, सुगमत में गमन हो, समामधमरण
हो और मेरे मलए मिनेंद्रभगवान् के गुणोंकी प्रामप्त हो।।

मवशुद्ध व न :

क्र्ा करने आर्े थे ?


क्र्ा करने लग गए ?
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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श्री गुरुपूिा

(दोहा)
हुाँ गमत दुःख सागर मवर्े तारन तरन मिहाि।
रतनत्रर् मनमध नगन तन, धन्र् महा मुमनराि ।।1।।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः श्री आ ार्ोपाध्र्ार् सवषसाधुगुरुसमूह ! अत्र अवतर संवौर्ट् आह्वाननम।्
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः श्री आ ार्ोपाध्र्ार् सवषसाधगु रुु समहू !अत्र मतष्ठ मतष्ठ ठः ठः स्थापनम् ।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः श्री आ ार्ोपाध्र्ार् सवषसाधुगुरुसमूह!अत्र मम समन्नमहतो भव भव वर्ट्
समन्नमधकरणम् ।
शमु नीर मनरमल क्षीर दमध सम, सगु रुु रन ढाइर्ा ।
मतहुाँ धार मतहुाँ गट दार स्वामी, अमत उछाह बढाइर्ा ।।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं । 1 ।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः िन्मिरामृत्र्ु मवनाशनार् िलं मनवषपामममत स्वाहा ।
करपरू ंदन समलल सौं घमस, सगु रुु पद पि ू ा करौं ।
सब पाप ताप ममटार् स्वामी, धरम शीतल मवस्तरौं ।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं ।2।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः संसारताप मवनाशनार् ंदनं मनवषपामममत स्वाहा ।
तन्दुल कमोद सवु ास उज्ज्वल, सगु रुु पगतर धरत हो
गुणकार औगुनहार स्वामी, वंदना हम करत है।।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
मतहुाँ िगत नाथ अराध साध,ु सु पि ू मनत गनु िपत हैं ।। 3 ।।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः अक्षर्पदप्राप्तर्े अक्षतान् मनवषपामममत स्वाहा ।
शुभ फूल रास प्रकाश, पररमल सुगुरु पार्मन परत हो ।
मनरवार मार उपामध स्वामी, शील दृढ उर धरत हों ।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पि ू मनत गनु िपत हैं ।4 ।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः कामबाण मवनाशनार् पुष्ट्पं मनवषपामममत स्वाहा ।
पकवान ममष्ट सलौन सुन्दर, सुगुर पार्न प्रीमत सौं ।
कर क्षध ु ारोग मवनाश स्वामी, सुमथर कीिे रीमत सौ ।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पि ू मनत गनु िपत हैं ।5 ।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः क्षुधारोग मवनाशनार् नैवेद्यं मनवषपामममत स्वाहा ।
दीपक उदोत सिोत िगमग, सुगुरपद पुिों सदा ।
तम नाश ज्ञान उिास स्वामी, मोमह मोह न हो कदा ।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पि ू मनत गनु िपत हैं ।6 ।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः मोहान्धकारमवनाशनार् दीपं मनवषपामममत स्वाहा ।
बहु अगर आमद सुगंध खेऊं, सुगुरु पद पद्ममह खरे ।
दुख पि ुं काठ िलार् स्वामी, गण ु अक्षर् म ि में धरें।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं ।7।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः अष्टकमष दहनार् धूपं मनवषपामममत स्वाहा ।
भर थाल पूंग बादाम बहुमवमध सुगुरुक्रम आगे धरों ।
मगं ल महाफल करो स्वामी, िोर कर मवनती करों।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं । 8।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः मोक्षफल प्राप्तर्े फलं मनवषपामममत स्वाहा ।
िल गंध अक्षत फूल नेवि, दीप धूप फलावली ।
द्यानत सगु रुु पद देहु स्वामी, हममहं तार उतावली ।
भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं ।9 ।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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भव भोग तन वैराग धार मनहार, मशव तव तपत हैं।
मतहुाँ िगत नाथ अराध साधु, सु पूि मनत गुन िपत हैं ।।
ॐ ह्रूं ह्रौं ह्रः आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधुगुरुभ्र्ः अनर्घर्षपद प्राप्तर्े अर्घर्ं मनवषपामममत स्वाहा ।
िर्माला
दोहा : कनक काममनी मवर्र् वश, दीसै सब संसार ।
त्र्ागी वैरागी महा, साधु सगु ुन भंडार ।।1||
तीन घामट नव कोड सब, वन्दौं शीश नवार् ।
गुण मतहाँ अठ्ठाईस लौं, कहाँ आरती गार् ।। 2 ।।
एक दर्ा पालै मुमनरािा, रागदोर् द्वै हरन परं ।
तीनो लोक प्रगट सब देखै, ारों आराधन मनकरं।
पं महाव्रत दुद्धर धारै छहों दरब िानें सुमहतं ।
सात भगं वानी मन लावै, पावै आठ ररद्ध उम तं ।। 3 ।।
नवों पदारथ मवमध सौं भाखै, बन्ध दशों ूरन करनं ।
ग्र्ारह शंकर िाने माने, उिम बारह व्रत धरनं ।
तेरह भेद कामठर्ा ूरे, ौदह गुण थानक लमखर्ं ।
महा प्रमाद पं दश नाशे, सोल कर्ार् सबै नमखर्ं ।। 4 ।।
बन्धामदक सत्रह सतू र लखं, ठारह िन्म न मरण मनू ।ं
एक समर् उनईस पररर्ह, बीस प्ररपमन में मनपुनं ।।
भाव उदीक इकीसौं िानै, बाईस अभखन त्र्ाग करें।
अमहममदं र तेईसौं वन्दै, इन्द्र सुरग ौबीस वरं । 15 ।
पच् ीसों भावन मनत भावै, छब्बीसो अंग उपंग पढ़ें।
सताईसों मवर्र् मवनाशै अठ्ठाइसों गण ु सु बढ़ें ।।
शीत समर् पर ौहटवासी, र्ग्ीर्म मगरर मशर िोग धरं
वर्ाष वृक्षतरै मथर ठाड़े आठ करम हमन मसमद्ध वरं । 16 ।
ॐ ह्रूं ह्रीं ह्र: आ ार्ोपाध्र्ार्सवषसाधगु रुु भ्र्ो िर्माला पण ू ाषध्र्ष महार्घर्ं मनवषपामममत स्वाहा ।
(दोहा)
कहो कहां लों भेद मैं, बुध थोडी गुण भूर ।
हेमराि सेवक हृदर्, भमक्त करो भरपूर
(पुष्ट्पांिमल मक्षपेत)

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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र्ोगी भमक्त

दोदोसमवष्ट्पमुक्के , मतदडं मवरदे मतसल्लपररशुद्धे ।


मतमडणमगारवरमहदे, मतरर्णसुद्धे णमंसामम ।३।।
िो राग और द्वेर् - इन दो दोर्ोंसे रमहत हैं, िो मन व न कार्की प्रवृमिरप तीन
दडं ोंसे मवरत है, िो मार्ा ममथ्र्ा और मनदान इन तीन शल्र्ोंसे अत्र्तं शद्धु अथाषत् रमहत
है, िो ऋमद्धगारव रसगारव और सातगारव इन तीन गारवोंसे रमहत हैं तथा तीन करण मन
व न कार्की प्रवृमिसे शुद्ध हैं उन मुमनर्ों को मैं नमस्कार करता हाँ।।३।।
उमवहकसार्महणे, उगइसंसारगमणभर्भीए।
पं ासवपमडमवरदे, पंम ंमदर्मणमज्िदे वंदे।।४।।
िो ार प्रकारकी कर्ार्ोंका मनन करनेवाले हैं, िो तुगषमतरप सस ं ारके गमनरप
भर्से भीत हैं, िो ममथ्र्ात्व आमद पााँ प्रकार के आसवसे मवरत हैं और पं इमं द्रर्ोंको
मिन्होंने िीत मलर्ा है ऐसे मुमनर्ोंकी मैं वंदना करता हाँ।।४ ।।
छज्िीवदर्ापडणे, छडार्दणमववमज्िदे सममदभावे ।
सिभर्मवप्पमुक्के , सिाणभर्ंकरे वंदे ।५।।
िो छह कार्के िीवोंपर दर्ालू है, िो छह अनार्तनों (कुगरुु , कुदेव, कुधमष और
इनके सेवकोंसे रमहत हैं, िो शांत भावोंको प्राप्त हैं, िो सात प्रकार (इसलोक, परलोक,

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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अकस्मात,् वेदना, अत्राण, अगुमप्त और मरण)के भर्ोंसे मुक्त हैं तथा िो िीवों को अभर्
प्रदान करनेवाले हैं ऐसे मुमनर्ोंको में नमस्कार करता हं ।।५।।
णट्ठट्ठमर्ट्ठाणे, पणट्ठकम्मट्ठणट्टसस ं ारे।
परमट्ठमणरट्टर्ट्ठे, अट्ठगण
ु ड्डीसरे वदं े ।६।।
मिन्होंने ज्ञान-पिू ा-कुल-िामत-बल-ऋमद्ध- तप और शरीर सबं ध ं ी आठ मदोंको नष्ट
कर मदर्ा है, मिन्होंने ज्ञानावरणामद आठ कमोको तथा संसारको नष्ट कर मदर्ा है, परमाथष
-- मोक्ष प्राप्त करना ही मिनका ध्र्ेर् है और िो अमणमा ममहमा आमद आठ गुणरपी
ऋमद्धर्ोंके स्वामी हैं उन मुमनर्ोंको मैं वंदना करता हाँ।।६।।
णव बंभ रेगुिे, णव णर्सब्भाविाणवो वंदे।
दहमवहधम्मट्टाई, दससि ं मसिं दे वदं े।।७ ।
िो मन व न कार् और कृत काररत अनुमोदनाके भेदसे नौ प्रकारके ब्रह्म र्षसे
सुरमक्षत हैं तथा िो नो प्रकार (द्रव्र्ामथषक और पर्ाषर्ामथषक तथा उनके नैगम-संर्ग्ह आमद
सात भेद इस तरह नो)के नर्ोंके सद्भावको िाननेवाले हैं ऐसे मुमनर्ोंको वंदना करता हाँ।
इसी प्रकार िो उिम क्षमा आमद दश प्रकारके धमाषमें मस्थत हैं तथा िो दश प्रकार
(एकें मद्रर्ामद पााँ प्रकारके रक्षा करना तथा स्पशषनामद पााँ इमं द्रर्ोंको वश करना इस तरह
दस भेदवाले) सर्ं मसे समहत हैं उन मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ।७।।
एर्ारसंगसदु सार्रपारगे बारसंगसुदमणउणे।
बारसमवहतवमणरदे, तेरसमकररर्ादरे वंदे।।८।।
िो ग्र्ारह अंगरपी श्रुतसागर के पारगामी हैं, िो बारह अंगरप श्रुतमें मनपुण है,
िो बारह प्रकारके तप में लीन हैं तथा िो तेरह प्रकार की मक्रर्ाओ ं (पााँ महाव्रत, पााँ
समममत और तीन गमु प्तर्ों) का आदर करनेवाले हैं उन ममु नर्ोंको वदं ना करता हाँ। ८ ।।
भूदेसु दर्ावडणे, उदस उदससु गंथपररसुद्धे ।
उदसपुव्वपगब्भे, उदसमलवमज्िदे वंदे।।९।।
िो एकें मद्रर्ामद ौदह िीव समासरप िीवों पर दर्ा को प्राप्त हैं , िो ममथ्र्ात्व
आमद ौदह प्रकारके अंतरंग पररर्ग्हसे रमहत होनेके कारण अत्र्तं शद्ध ु है, िो ौदह
पवू ोके पाठी हैं तथा िो ौदह मलोंसे रमहत हैं ऐसे ममु नर्ोंको में नमस्कार करता हाँ।।९।।
वंदे उत्थभिामद िाव छम्मासखवणपमडवडणे।
वंदे आदावंते, सूरस्स र् अमहमुहरट्ठदे सूरे।।१०।।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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िो तुथष भक्त अथाषत् एक मदन के उपवास से लेकर छह मास तकके उपवास करते
हैं उन मुमनर्ोंको मै नमस्कार करता हाँ। िो मदनके आमद और अंतमें सूर्षके सम्मुख मस्थत
होकर तपस्र्ा करते हैं तथा कमो के मनमषल ू न करनेमें िो शूर हैं उन मुमनर्ोंको वंदना करता
हाँ।।१०।।
बहुमवहपमडमट्ठार्ी, मणमसज्िवीरासणेक्कवासी र्।
अमणट्ठीवकंडुर्वदे, िदेहे र् वंदामम ।।११।।
िो अनेक प्रकारके प्रमतमार्ोगोंसे मस्थत रहते हैं, िो मनर्द्या, वीरासन और एक
पाश्वष आमद आसन धारण करते हैं, िो नहीं थूकते तथा नहीं खुिलानेका व्रत धारण करते
हैं तथा शरीरसे मिन्होंने ममत्वभाव छोड़ मदर्ा है ऐसे मुमनर्ोंको में नमस्कार करता हाँ।।११।।
ठाणी मोणवदीर्, अब्भोवासी र् रुक्खमल ू ी र्।
धुदके ससस ं ुलोमे, मणप्पमडर्म्मे र् वदं ामम ।१२।।
िो खड़े होकर ध्र्ान करते हैं, मौन व्रत पालन करते हैं, शीतकालमें आकाशके
नी े मनवास करते हैं, वर्ाष ऋतु में वृक्ष के मूल में मनवास करते हैं, िो के श तथा डाढ़ी और
मूंछके बालोंका लो करते हैं तथ िो रोगामदके प्रतीकारसे रमहत हैं ऐसे मुमनर्ोंको मैं
नमस्कार करता हाँ।।१२।।
िल्लमल्लमलिगिे,वंदे कम्ममलकलुसपररसुद्धे ।।
दीहणहमंसुलोमे, तवमसररभररर्े णमस ं ामम।।१३।।
िल्ल (सवांगमल) और मल्ल (एक अंग का मलसे मिनका शरीर मलप्त है, िो
कमषरपी मलसे उत्पन्न होनेवाली कलुर्तासे रमहत हैं, मिनके नख तथा दाढ़ी-मछ ू ों के
बाल बढ़े हुए हैं और िो तपकी लक्ष्मी से पररपण ू ष हैं उन ममु नर्ोंको मैं नमस्कार करता
हाँ।।१३।।
णाणोदर्ामहमसिे, सीलगुणमवहमसदे तपसुगध ं े।
ववगर्रार्सुदड्डे, मसवगइपहणार्गे वंदे।।१४ ।
िो ज्ञानरप िलसे अमभमर्क्त हैं, शीलरपी गुणोंसे मवभूमर्त हैं, तपसे सुगंमधत हैं
रागरमहत हैं, श्रुतसे समहत हैं और मोक्ष गमत के नार्क है उन मुमनर्ों को मैं वदं ना करता
हाँ।।१४।।
उग्गतवे मदितवे, तितवे महातवे र् घोरतवे।
वंदामम तवमहंते, तवसंिमइड्मडसंिुिे ।।१५।।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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िो उर्ग् तप, दीप्ततप, तप्त तप, महातप और घोरतपको धारण करनेवाले हैं, िो
तपके कारण इद्रं ामदके द्वारा पूमित हैं तथा िो तप, संर्म और ऋमद्ध से समहत हैं उन
मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ।।१५।।
आमोसमहए खेलोसमहए िल्लोसमहए तवमसद्धे।
मवप्पोसमहए सव्वोसमहए वदं ामम मतमवहेण।।१६ । ।
िो आमौर्मध, खेलौर्मध, िल्लौर्मध, मवप्रुर्ु और्मध और सवोर्मधके धारक हैं
तथा तपसे प्रमसद्ध अथवा कृतकत्र् हैं उन मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ।।१६।।
अमर्महुखीरसमप्पसवीए अक्खीणमहाणसे वंदे ।
मणबमल-व बमल-कार्बमलणो र् वंदामम मतमवहेण।।१७ ।
अमतृ स्रावी, मधस्र ु ावी, क्षीरस्रावी, समपषःस्रावी (घतृ स्रावी) ऋमद्धर्ोंके धारक,
अक्षीणमहानस ऋमद्धके धारक तथा मनोबल, व नबल और कार्बल ऋमद्धके धारक
मुमनर्ोंको में तीन प्रकारसे -- मन व न कार्से नमस्कार करता हाँ।।१७।।
वरकुट्ठबीर्बुद्धी, पदाणुसारी र् मभडणसोदारे।
उग्गहईहसमत्थे, सुित्थमवसारदे वदं े।।१८ । ।
उत्कृष्ट कोष्ठबमु द्ध, बीिबमु द्ध, पदानस
ु ारी और समं भन्नश्रोतत्ृ व ऋमद्धके धारक,
अवर्ग्ह और ईहा ज्ञानमें समथष तथा सूत्रके अथषमें मनपुण मुमनर्ोंको में नमस्कार करता
हाँ।।१८।।
आमभमणबोमहर् सुद ओमहणामण मणणामण सव्वणाणी र् ।
वंदे िगप्पदीवे, पच् क्खपरोक्खणाणी र्।।१९।।
ममतज्ञानी, श्रतु ज्ञानी, अवमधज्ञानी, मनःपर्षर् ज्ञान और सवषज्ञानी अथाषत्
के वलज्ञानी इस तरह िगत् को प्रकामशत करनेके मलए प्रदीपस्वरप प्रत्र्क्षज्ञानी तथा
परोक्षज्ञानी मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ। १९।।
आर्ासतंतुिलसेमढ ारणे िंघ ारणे वंदे ।
मवउवणइरट्ठपहाणे, मवज्िाहरपडणसवणे र्।।२०।।
आकाश, ितं ु, िल तथा पवषतकी अटवी आमदका आलबं न लेकर लनेवाले
ममु नर्ोंको, िघं ा ारण ऋमद्धके धारक, मवमक्रर्ा ऋमद्धके धारक, मवद्याधर ममु नर्ों को और
प्रज्ञाश्रमण ऋमद्धके धारक नमस्कार करता हाँ।।२०।।
गइ उरंगल ु गमणे, तहेव फलफुल्ल ारणे वंदे ।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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अणुवमतवमहंते, देवासुरवंमददे वंदे।।२१ ।
मागषमें ार अंगुल ऊपर गमन करनेवाले, फल और फूलोंपर लनेवाले, अनुपम
तपसे पूिनीर् तथा देव और असुरों के द्वारा वंमदत मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ।।२१।।
मिर्भर्उवसग्गे मिर्इमं दर्परीसहे मिर्कसाए ।
मिर्रागदोसमोहे, मिर्सहु ुदुक्खे णमस ं ामम ।।२२।।
मिन्होंने भर्को िीत मलर्ा है, उपसगष को िीत मलर्ा है. इमं द्रर्ों को िीत मलर्ा है,
परीर्हों को िीत मलर्ा है, कर्ार्ोंको िीत मलर्ा है, राग द्वेर् और मोह को िीत मलर्ा है
तथा सुख और दुःखको िीत मलर्ा है उन मुमनर्ोंको मैं नमस्कार करता हाँ।।२२।।
एवं मए अमभत्थुर्ा,अणर्ारा रागदोसपररसुद्धा ।
सघं स्स वरसमामहं, मज्झमव दुक्खक्खर्ं मदतं ु।।२३।।
इस प्रकार मेरे द्वारा स्तुत तथा राग द्वेर्से मवशुद्ध -- रमहत मुमन, संघको उिम समामध
प्रदान करें और मेरे भी दुःखोंका क्षर् करें।।२३।।
अं मलका
इच्छामम भंते! र्ोमगभमिकाउस्सग्गो कओ तस्सालो ेउं, अड्डाइज्िदीवदोसमुद्देसु
पडणारसकम्मभूममसु आदावणरुक्खमूलअब्भोवासठाणमोणवीरासणेक्कपास
कुक्कुडासण उत्थपक्खखवणामदर्ोगिि ु ाणं सव्वसाहणं मणच् कालं अं ेमम पि ू े मम
वंदामम णमस ं ामम, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोमहलाहो, सुगइगमणं, समामहमरणं,
मिनगुणसंपमि होऊ मज्िं।।
हे भगवान! मैंने र्ोमगभमक्तसंबंधी कार्ोत्सगष मकर्ा है। उसकी आलो ना करना
ाहता हाँ। अढ़ाई द्वीप, दो समुद्रों तथा पंद्रह कमषभूममर्ोंमें आतापनर्ोग, वृक्षमूलर्ोग,
अभ्रावास (खल ु े आकाशके नी े बैठना)र्ोग, मौन, वीरासन,एकपाश्वष, कुक्कुटासन,
उपवास तथा पक्षोपवास आमद र्ोगोंसे र्क्त ु समस्त साधुओ ं की मनत्र् ही अ ाष करता हाँ,
पूिा करता हाँ, वंदना करता हाँ, नमस्कार करता हाँ। उसके फलस्वरप मेरे कमष का क्षर् हो,
रत्नत्रर् की प्रामप्त हो, सुगमतमें गमन हो, समामधमरण हो और मिनेंद्र भगवान के गुणों की
संप्रामप्त हो।

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नोट: अब तक आपने 74 काररकाएाँ पढ़ ली हैं और समझ भी ली हैं अथाषत् स्वर्ं आपने अपने आप
के ज्ञान में अपने आपसे ही अपने आपके द्वारा मनरंतर अपने आपके मलए ही सम्र्क् दशषन सम्र्क्
ज्ञान और सम्र्क् ाररत्र की वृमद्ध को समझ मलर्ा हैं, अंगीकार भी कर मलर्ा हैं. सम्र्क् दशषन के
आठ अंगों के बारे में तदनंतर सम्र्ग्ज्ञान अमधकार अंग के साथ-साथ सम्र्क् ाररत्र के बारे में भी
आपने प्रत्र्ेक श्लोक के माध्र्म से िाना. सम्र्ग्दशषन के साथ साथ मोक्ष मागष पर आगे बढ़ने के मलए
सम्र्ग्ज्ञान तो र्ुगपत रप से प्राप्त हो ही िाता हैं परन्तु मफर आगे बढ़ने के मलए ाररत्र, सम्र्क् ाररत्र
भी बहुत िरुरी है. आपको र्ाद ही है मक सभी िीवों के कल्र्ाण के मलए र्ह मागष, देशना के माध्र्म
से बता रहे हैं परम पूज्र् प्रमतपल स्मरणीर्, ज्ञान मदवाकर, र्ाष मशरोमणी, अध्र्ात्म र्ोगी, आगम
उपदेष्टा, स्वाध्र्ार् प्रभावक, श्रुत संवधषक, अध्र्ात्म रसार्नज्ञ, अध्र्ात्म-भौमतक तंत्रज्ञ, आ ार्ष रत्न
श्री १०८ मवशद्ध ु सागरिी महाराि. र्ह मवश्व प्रमसद्ध मगं लकारी देशना, परुु र्ाथष देशना िो मक महान
तत्त्व मवश्ले र्क आ ार्ष श्री अमृत न्द्र स्वामी की महान र ना “पुरुर्ाथष मसद्ध्र्ुपार्” आधाररत हैं.
सभी इस देशना का रसपान करते हुए, भलीभााँमत समझकर मोक्षमागष पर अबाध गमत से अर्ग्सर हो
रहे हैं.
क्रमशःगतांक से आगे : हम सभी ने अब तक मपछली 74 काररकाओ ं में िैन दशषन के मवमवध
आर्ामों के बारे में नर् व्र्वस्था, सम्र्ग्दशषन के आठों अंग, और र्गु पत रप से ज्ञान का सम्र्ग्ज्ञान
में पररवतषन, भावों का पररणमन और सबसे महत्वपूणष मनर्ग्षन्थ आलौमकक वृमि को रत्नत्रर् समहत
िाना और समझा मक मनर्ग्षन्थ अवस्था ही बंध से छूटने में उपकारी हैं. और अब तक र्ह भी िाना मक
सम्र्क् ररत्र के साथ मकस प्रकार हम आगे मोक्ष पथ पर बढ़ सकते हैं. सवषज्ञ की वाणी के अनुसार
बतार्े गए द्रव्र् और तत्त्व के श्रद्धान से मनन म ंतन करते हुए िाना मक सहिता से भव सागर को
पार करने के मलए थोडा सा िागरक रहना ही मनतांत सरल और आवश्र्क हैं. इसके सरल सहि
मवस्तारीकरण से र्ह भी ज्ञान हो गर्ा मक कै से हम महंसा से अपनी आत्मा का घात होने से ब ा सकते
हैं. हमारे भावों का पररणमन अमहंसा स्वरुप हो िाता हैं. इस पूरी प्रमक्रर्ा को और सरल बना मदर्ा हैं
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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परम पज्ू र् आ ार्ष रत्न श्री १०८ मवशद्ध ु सागरिी महाराि के आगम क्षओ ु ं द्वारा रोि-मराष के
उदाहरणों से, सुगम और सरल भार्ा, लोक मप्रर् शैली के माध्र्म से. मिनेन्द्र देव द्वारा बतार्े गए
सात तत्त्वों का श्रद्धान करते हुए सम्र्ग् ाररत्र को भलीभांमत िानने का प्रर्ास कर रहें हैं.
मिनवाणी िगत कल्र्ाणी और महावीर स्वामी की पावन मपर्ूर् देशना का रसपान, आ ार्ष
श्री के मुखारमवंद से कणाषन्िुली द्वारा करते हुए आगे बढ़ते हैं और प्रस्तुत काररका 75 एवं 76 में
आ ार्ष भगवन् श्री अमतृ न्द्र स्वामी बता रहें है मक र्त्रं , मत्रं और और्मध मकसी भी िीव को नहीं
ब ा सकते, उस िीव का आर्ु कमष ही उसे िीमवत रख सकता हैं. और र्ह भी बता रहे हैं मक मिनेन्द्र
देशना को सुनाने का अमधकारी कौन हैं ? इन सब बातों के सार स्वरुप आ ार्ष श्री मवशुद्ध सागर िी
मुमन महाराि भगवान् कै से बने ? र्ह भी समझा रहे हैं. साथ ही साथ र्ह भी बता रहे हैं मक भावों
का पररणमन ही मुख्र्रप से धमष है और उस मागष में लते हुए श्रावक के अष्ट-मूल गुणों का पालन
करने वाला ही मोक्ष मागी हैं. हमारे मनर्ग्षन्थ गरुु वर्ष हमारे िीवन में अपनी मवशमु द्ध को बढ़ाते हुए कै से
मोक्ष मागष पर अर्ग्सर होते हुए, मसद्ध बनकर अव्र्ाबामधत सुख का वेदन करे. र्ह मसफष हमारी कामना
नहीं हैं परन्तु र्ह तो सम्र्ग्दशषन, सम्र्ग्ज्ञान और सम्र्क् ाररत्र की एकता का सुफल हैं िो स्वमेव ही
प्राप्त होता हैं. र्ही तो आ ार्ष भगवन अमृत न्द्र स्वामी हमें समझाने का और उस पर लने का
मागष बता रहें हैं. मिससे मसद्धमशला पर आरोहण कर िन्म मरण के अनन्त दु:खो से रमहत होकर
मनमवषकल्प अव्र्ाबामधत सख ु का वेदन कर सकें . मकतनी मनमषल और करुणामर्ी दृष्टी है आ ार्ष
भगवन्तो की. वे हमारे दुःख से द्रमवत होकर सुखी होने का मागष बता रहे हैं. र्ही हमारे पुरुर्ाथष की
मसमद्ध का उपार् हैं.
इस र्ग्थ
ं राि का मगं ला रण तो आपको कंठस्थ हो ही गर्ा होगा. इस र्ग्थ ं राि के मगं ला रण
मिसमे आ ार्ष भगवन श्री अमृत न्द्र स्वामी ने ज्ञान ज्र्ोमत को ही नमस्कार मकर्ा गर्ा हैं. इसमें
व्र्मक्त को नहीं, गुणों का ही वणषन हैं और पूज्र् बतार्ा गर्ा हैं. और र्ही हमारे िैन दशषन का मूल
मसद्धांत हैं.

परम मदगंबर मनर्ग्षन्थ गुरु की शरण में और सम्र्क्त्व की राह में ममथ्र्ात्व का शमन करते हुए
अपने मोक्ष मागष पर अर्ग्सर हों र्ही समझा रहें हैं. - आ ार्ष श्री अमृत न्द्र स्वामी के अभूतपूवष सूत्रों
को समझाते हुए आ ार्ष श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि के मुखारमवंद से आत्म धमष को अत्र्ंत सरल
शब्दों में, सहि रप से मन,व न,के से मत्रर्ोग पूवषक समझते हैं .... मलए िानते हैं आगे ....

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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“आ ार से सस्ं काररत मव ार”


कृतकाररतानुमननैवाषक्कार्मनोमभररष्ट्र्ते नवधा ।
औत्समगषकी मनवृमिमवषम त्ररपापवामदकी त्वेर्ा ।।75।।
अन्वर्ाथष: औत्समगषकी मनवृमिः= उत्सगषरप मनवृमि अथाषत् सामान्र् त्र्ाग |
कृतकाररतानुमननैः = कृत, काररत, अनुमोदनारप | वाक्कार्मनोमभः = मन व न कार्
करके | नवधा इष्ट्र्मत = नव प्रकार मानी हैं | तु एर्ा = और र्ह | अपवामदकी =
अपवादरप मनवृमि | मवम त्र रपा = अनेक रप है |
धमषममहंसारपं संशृडवंतोमप र्े पररत्र्क्तुम् ।
स्थावरमहस
ं ामसहास्त्रसमहस
ं ां ते मप मुं न्तु ।।76।।
अन्वर्ाथष: र्े अमहस ं ा रपं धमषम् = िो िीव अमहंसा रप धमष को | संशृडवन्तः अमप =
भले प्रकार श्रवण करके भी | स्थावर महस ं ाम् = स्थावर िीवों की महस ं ा | पररत्र्क्तुम्
असहाः = छोड़ने को असमथष है | ते अमप = वे भी | त्रसमहस ं ाम् = त्रस िीवों की महस
ं ा को
| मुं न्तु = छोड़ें ।
मनीमर्र्ो ! इस िीव ने बहुत साधन प्राप्त मकर्े हैं, पर साधनों का होना साधन (हेत/ु कारण/
प्रत्र्र्) नहीं हैं मिस साधन से साध्र् की मसमद्ध हो,वो ही साधन उपादेर् है. मिससे हमारे साध्र् की
मसमद्ध न हो, वह हमारे मलर्े साधन नहीं है, र्द्यमप वही साधन दूसरे के मलर्े साध्र् की मसमद्ध करा रहा
है इससे लगता है, मक िीव की होनहार ही है र्ा मक िीव की भमवतव्र्ता; एक ाडडाल के मलर्े
साधन बन गर्े और वहीं बैठे एक क्षमत्रर् के मलर्े साधन नहीं बन पार्े . तो हम साधना में दोर् क्र्ों
दे ? हमारी आदत दूसरों को दोर् देने की रही है, पर ध्र्ान रखना, ममथ्र्ात्व-अवस्था में, कर्ार् की
तीव्रता में धोखे से भी भगवान् के दशषन हो िार्ें तो वह भी पुडर् का ही र्ोग है. परंतु उसने दशषन
मकर्े नहीं, मात्र देखा और ला गर्ा. मााँ मिनवाणी कह रही है - ममथ्र्ादृमष्ट भी सत्र् िानता है. िो
इन प्रमतमाओ ं को कभी नहीं पि ू रहा है, उसने प्रमतमा बनाई है. समझना बात को, मिसकी प्रमतमा
बनी है, वह भी एके मन्द्रर् ममथ्र्ादृमष्ट है. पार्ाण की प्रमतमा में मवरािा एके मन्द्रर्िीव है और एके मन्द्रर्
से लेकर असंज्ञी पं ेमन्द्रर् तक के िीव मनर्म से ममथ्र्ादृमष्ट ही होते हैं, परंतु िो वंदना कर रहा है, वह
सम्र्क् दृमष्ट है. िो पार्ाण में मवरािा िीव है, उसकी आप वंदना तो नहीं कर रहे हो, लेमकन ध्र्ान
रखना, उस िीव का तीव्र र्शकीमतष – नाम - कमष का उदर् हैं क्र्ोंमक एक पार्ाण प्रमतमा के आकार
में है और एक पार्ाण तम्ु हारे सडं ास में लगा हुआ है. दोनों में िीव है. र्ह मत कह देना मक खदान
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख ु दाई है.
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से मनकल गर्ा तो अिीव हो गर्ा, क्र्ोंमक मसद्धान्त र्ह कहता मक घनांगल ु के असंख्र्ातवें भाग की
अवगाहना एके मन्द्रर्िीव लेता है और मनगोमदर्ािीव की सबसे सूक्ष्म अवगाहना बनती है.
मनगोमदर्ािीव भी िब िन्म लेता है तो सबसे पहले आर्ताकार बनता है अथाषत् लंबाई अमधक,
ौड़ाई कम मद्वतीर् समर् में वह िीव तुकोण होता है र्ामन क्षेत्र कम हो गर्ा तृतीर् समर् में वृिाकार
अथाषत् गोल हो िाता है. ऐसा घना- अंगुल के असंख्र्ात भाग की अवगाहना से र्ुक्त एक ही मशला
में पता नहीं मकतने िीव अपना शरीर बनार्े बैठे है . अब देखना मक एक पि ू ा रहा है एवं एक पि ु रहा
है, दोनों िीव है. अहो पं मकाल की ज्ञानी आत्माओ ! एके मन्द्रर् पार्ाण में परमेश्वर का उप ार करके
तुम तीथंकर की वंदना कर लेते हो, तो ेतन मनर्ग्ंथों में तुम्हें मुमन-दृमष्ट क्र्ों नहीं मदखती है ? पार्ाण
में भगवान् हो सकते हैं, तो भगवानों में भगवान् मिसे नहीं मदखे, उसकी दृमष्ट क्र्ा होगी ? र्मद मकसी
िीव ने धोखे से भगवान् को देख मलर्ा (धोखा शब्द र्ाद रखना ) और धोखे से मिनवाणी सुन ली,
धोखे से ममु नराि देख मलए परन्तु 'दशषन' नहीं मकर्े क्र्ोंमक 'दशषन' श्रद्धा से होते है. और ‘देखना’
अश्रद्धा का मवर्र् होता है.
मुमुक्षु पं -परमेष्ठी के दशषन करता है और ममथ्र्ादृमष्ट पं -परमेष्ठी को मनहारता है, देखता है.
अज्ञानता से कोई पं परमगरुु को न माने तो, भो ज्ञानी ! पं -परमगुरु का अभाव नहीं है. मिसकी
पं -परावतषन की दृमष्ट ल रही है, उसे पं -परमगुरु निर नहीं आते. उसे पं परमेष्ठी कभी नहीं
मदखेंगे, क्र्ोंमक मदख गर्े कहीं तो उसका परावतषन समाप्त हो िार्ेगा. मिस िीव ने एक बार भी पं
-परमगुरु के दशषन श्रद्धा पूवषक कर मलए, उसको अद्धषपुद्गल - परावतषन से ज्र्ादा भगवान् भी संसार में
नहीं रख सकते. सवाषथष मसमद्ध में दृश' धातु र्द्यमप देखने के अथष में आती है. लेमकन मोक्षमागष का
प्रकरण होने से उसको श्रद्धा के अथष में रखा है . अतः दशषन सम्र्क् दृमष्ट करता है और पं परमेष्ठी
को िो देखते हैं वह ममथ्र्ादृमष्ट होते है . िो तीथों को देखने िाते हैं, र्ह तो ममथ्र्ादृमष्ट होते है. और
िो तीथों के दशषन करने िाते हैं , वो सम्र्क् दृमष्ट होते हैं. देखने तो प्रदशषनी को िार्ा िाता है, प्रभु
को नहीं. प्रभु के तो दशषन करने िार्ा िाता है, िो दशषन करने िाता है वो दशषन ही करता है और
िो देखने िाता है, वो देखकर ही आता है. िब एक सम्र्क् दृमष्ट िीव अरहंतदेव के गुण-पर्ाषर् को
देखता है, तो वह दशषन करता हैं 'दृश' धातु देखने के अथष में भी आती है और 'गम' धातु गमन अथष
में आती है और ज्ञान अथष में भी आती हैं.
भो ज्ञामनर्ो ! पार्ाण में अरहंतदेव को देख रहे हो, तो िो उदम्बर फल हैं, इनमें कौन मवरािा
है ? आपको सम्मेद मशखर की ममट्टी में मसद्ध भगवान् निर आ रहे हैं तो कें ुए की पर्ाषर् में मसद्ध
क्र्ों नहीं मदख रहे ? भगवान् की पूिा करने के मलए वाहन पर बैठ कर मंमदर में गर्ा. उधर नी े
भगवान् िा रहे हैं, पर उन भगवान् पर कोई ध्र्ान नहीं है. पााँ मममनट पहले ल देते, ईर्ाषपथ से
लते. मनीमर्र्ो ! ध्र्ान रखना, कम-से-कम मिनालर् में तो पैदल आ िार्ा करो मिस अमहंसा की
बात अमृत ंद स्वामी कर रहें हैं - उसे समझों एक ओर आप पार्ाण में स्थामपत परमेश्वर की वंदना
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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कर रहे हो और दूसरी ओर उस पर्ाषर् में बैठे भावी भगवान् को तमु कु लते ले िा रहे हो. अहो !
बोले - मेरे भाव मारने के थोड़े थे, भगवान् की वंदना के भाव थे. अच्छी बात हैं पर एक बात और
बता देना मक वध भावों मात्र से होता है मक मन – व न - कार् से होता है ? र्मद भावों से सबकुछ
आप कर लेते हो, तो आि से भावों का भोिन करना शुर कर देना.
भो ज्ञानी ! मववेक लगाओ, हमारे पास दो बगी े हैं एक देह है एक देही है . पर पानी बहुत
कम है. र्मद मैं आत्म-उद्यान में िल देता हाँ तो देह का उद्यान सख ू ता है और देह के उद्यान में नीर देता
हाँ तो देही का उद्यान सूखता है. मनीमर्र्ो ! र्हााँ र्ह देख लो मक तुम्हारी दृमष्ट में कीमत मकसकी है ?
आर्ुकमष का नीर अल्प है. देही में दोगे तो परमेश्वर बन िाओगे और देह में दोगे तो नरके श्वर बन
िाओगे. अब िो आप की इच्छा हो, वह कर लेना आ ार्ष भगवान् उमा स्वामी कह रहे हैं, भाव
सुधार लेते तो तेरी भमवतव्र्ता मनमषल हो िाती. मुमुक्षु भाव व भव की बात बाद में करता है, पहले
भावनाएाँ सध ु ारता है. तम्ु हारी भावनार्ें मनमषल हैं, इस बात को तमु कै से प्रमामणत कर सकते हो ?
भोिन होटल में ल रहा है, रामत्र में भोिन ल रहा है, रात्री में कािू मकशममश ल रहा है, मफर भी
कहता है मक भाव मनमषल हैं और भावनार्ें मनमषल हैं.
अहो ! परमात्मा बनता कै से है ? भावों से बनता है मक भावनाओ ं से ? ाहे दशषन की बात
करो, ाहे ज्ञान की बात करो, ाहे कोरे सर्ं म की करो, लेमकन िब तक तीनों की एकता नहीं हो रही
है तब तक मोक्षमागष सभ ं व नहीं है. आ ार्ष अमतृ ंद स्वामी ने बहुत मववेक के साथ मलखा है तामक
र्े मुमुक्षु बे ारे भटक ना िार्े. शुमद्ध की बातें करते-करते वह आ ार को अशुद्ध करके बैठ गर्े.
कभी कल्र्ाण नहीं होगा. ध्र्ान रखना, भारतीर् संस्कृमत में मव ारों की पूिा मबल्कुल नहीं की गर्ी
हैं. मव ार पज्ू र् नहीं हैं. पर आ ार से सममन्वत मव ार हैं तो पज्ू र् हैं.
भो ज्ञानी ! गौतम स्वामी को सामान्र् िीव मत समझ लेना. वे बहुत बड़े मव ारक थे, उनके
पााँ -सौ-मशष्ट्र् थे, परंतु आ ारक नहीं थे. और िब तक आ ारक नहीं थे तब तक मकसी िैन ने
नमस्कार नहीं मकर्ा. मिस मदन वही मव ार आ ार में ढल गर्े तो आि भगवान् महावीर स्वामी के
बाद “मंगलम् भगवान् वीरो, मंगलम् गौतमोगणी” गौतम स्वामी को दूसरे स्थान पर रखा है, क्र्ोंमक
आ ार से सममन्वत हो गर्े तो उनके मव ार भी वन्दनीर् हो गर्े. अहो ! आ ार व मव ार हीन व्र्मक्त
का ज्ञान, ज्ञान नहीं है तथा रण, रण नहीं है और मव ार, मव ार नहीं हैं. इसीमलए ध्र्ान रखना मक
आि तक हमने मिनवाणी को बहुत सुना है, मव ारों को बहुत सुना है, अब मव ारों को मव ारना हैं
पर बे ारे मव ारों को मव ार नहीं पा रहे हैं, इसीमलए आ ार से शून्र् हो िाते हैं. आ ार्ष र्ोगीन्दुदेव
सूरर ने 'परमात्म प्रकाश’ में बड़ा दर्नीर् शब्द मलख मदर्ा - “अन्तरंग में मवर्र्ों की वासना ल रही
है, बाहर में लोकलाि सता रही है, इसीमलर्े बे ारे दीन सस ं ारी और दीघष सस ं ारी मनष्ट्ु र् सर्ं म को
धारण नहीं कर पातें” प्रभु ने दीन कह मदर्ा, मफर दीघष कह मदर्ा.

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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मनीमर्र्ो! मसद्धान्त ध्र्ान रखना मक-अभव्र् िीव में भी भगवान् हैं. मफर वो अभव्र् कै सा
? भव्र् के भगवान् तो प्रकट हो िार्ेंगे, लेमकन अभव्र् के भगवान् कभी नहीं प्रकट होंगे, इसीमलए
अभव्र् हैं, पर भगवत - सिा तो उसके अन्दर भी है. मिसके के वलज्ञान पर आवरण पड़ा हुआ है िो
कभी हटेगा नहीं, उसे अभव्र् कहते हैं और मिसके के वलज्ञान पर आवरण तो पड़ा है , पर मनर्म से
हटेगा, उसका नाम भव्र् हैं.
भो ज्ञानी! ध्र्ान रखना, कभी अपने आप को अभव्र् मानना भी मत अभव्र् वे हैं मिनको
श्रुत में प्रीमत नहीं है, मिनदेव में प्रीमत नहीं है, मिनवाणी में और मनर्ग्षन्थ धमष व गुरु में प्रीमत नहीं है
परन्तु मिनका इन सब में म ि अनुरक्त है, वे भावी भगवंत ही हैं. इसमलए भो मनीमर्र्ो ! उत्साह भी
भगविा को उठा देता है. िब एक क्षपक श्रमण रामत्र में कह उठा था मक प्रभु पानी ामहए, भूख लगी
है, प्र्ास लगी है तो आ ार्ष शांमत सागर महाराि पहुाँ गर्े. नमोस्तु ! आाँख खुली तो क्षपकराि ने
देखा मक प्रभु नमोस्तु कर रहे हैं. भगवान् ! आप नमोस्तु मझ ु े कर रहे हैं ? बोले - मैं तो र्हीं खड़ा ह,ाँ
आप तो सल्लेखना ले रहे हो, आप तो परमतीथष हो. ‘भगवती आराधना’ में मलखा है - सल्लेखना
ाहे छोटे की हो रही हो, ाहे बड़े आ ार्ष महाराि की हो रही हो, र्मद मकसी िीव के सल्लेखना
देखने के भाव नहीं आते हैं तो समझना मक उसकी सल्लेखना के प्रमत प्रीमत नहीं है , उसे समामध के
प्रमत अनुराग नहीं हैं. र्मद आप सम्मेदमशखर की वंदना को िा रहे हो, उसको मनरस्त कर देना, परंतु
समामध ल रही हो तो क्षपक के दशषन पहले कर लेना, क्र्ोंमक तीथष पनु ः ममल िार्ेगा, र्ह तीथष
गर्ा सो ला िार्ेगा. ध्र्ान रखना, उस समर् आ ार्ष महाराि ने िैसे ही नमोस्तु मकर्ा और बोले
- पानी ामहए ? नहीं ामहए देखो, नमोस्तु में मकतनी शमक्त है मक मना कर मदर्ा. आ ार्षश्री बोले
- हे ममु नराि ! रामत्र - काल का प्रार्मश्चत कर लो, कार्ोत्सगष कर लो, त्र्ाग कर दो. हााँ प्रभु ! त्र्ाग
हैं. अहो ! मस्थमतकरण के दोनों उपार् हैं, कभी डांटना, तो कभी पु कारना और िब पु कार के
काम ल िार्े, तो डााँटने की कोई आवश्र्कता नहीं है. भो ज्ञानी ! मेरी समझ में तो नहीं आता मक
मनुष्ट्र्ों को डााँटा िार्े, क्र्ोंमक मनुष्ट्र् की पररभार्ा बहुत ही उत्कृष्ट हैं िो मननशील हो, म ंतनशील
हो, मनन ही मिसका धमष है, म ंतन ही मिसका धमष है और िो मनु की संतान हैं, उसे मनुष्ट्र् कहा है.
र्मद मनष्ट्ु र् को बार-बार डॉटा िार्े, फटकारा िार्े, तो वह मनष्ट्ु र् तो है नहीं, करुणा का पात्र हैं.
र्द्यमप मनुष्ट्र् की खोल में तो है, पर पररणमत मतर्ं है, क्र्ोंमक िो घोर अज्ञानी हो, पाप-बहुल और
मार्ा से भरा हो, उसका नाम मतर्ं हैं. आि घर में िाकर म ंतवन करना है मक हम मनुष्ट्र् हैं मक
मतर्ं ? इसीमलए काररका में अमृत ंद्र स्वामी र्ह कह रहे हैं मक - मननशील हो, तो कुमटलता छोड़
दो ध्र्ान रखना, अभी मववेक काम कर रहा है, बुमद्ध काम कर रही है और पुडर् काम कर रहा है,
इसमलए सक ु ृ त्र् के काल में सक ु ृ त्र् कमा लो, दुष्ट्कृत्र् के काल में सक ु ृ त्र् के भाव नहीं आते है.
मसद्धांत का मनर्म है मक आर्ुबंध के काल में अशुभ पररणाम मिनके होंगे, िब उनका मृत्र्ु का समर्
आर्ेगा, मनर्म से संर्म छोड़ देगा और िो िीवन भर आपको पाप में लगा मदखा, परंतु उस के
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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आर्बु ध ं के काल में पररणमत मनमषल थी और मत्ृ र्ु का काल आर्ेगा तो सब पाप छोड़ देगा. कहेगा
- मेरी सल्लेखना करा दो, ऐसे भाव करता हैं र्ह आपके िीवन की मनमषल घड़ी हैं अपने - अपने की
मनहारना.
भो ज्ञानी ! आपको उत्कृष्ट मागष र्ही है मक नव कोमट से महंसा का त्र्ाग होना ामहर्े. लेमकन
अमहंसारपी धमष को अच्छी तरह से सुनकर भी िो स्थावर- महंसा को नहीं छोड़ पा रहे हैं तो उन्हें त्रस-
महस ं ा तो छोड़ ही देना ामहए. गहृ स्थों के मलर्े कह रहे है आप भोिन बनाते हो, व्र्ापार आमद करते
हो, इसमें एके मन्द्रर् िीव का घात हो रहा है. लेमकन वहााँ भी ध्र्ान रखना. नल खोल मदर्ा, तो पानी
बह ही रहा है, अमग्न िल रही है तो िल ही रही हैं मकसी िीव का न वध करना, न करवाना, न
अनुमोदना करना, न मन से करना, न व न से करना, न शरीर से करना. कृत काररत अनुमोदना से,
नवकोमट से त्र्ाग मकर्ा है, वही र्थाथष मागष है. र्मद आपसे उतना पालन नहीं हो सके तो आ ार्ष
महाराि कह रहे हैं मक मितना आपसे बने, उतना ही आप पालन करें. उसमें प्रमाद न करें. ऐसा भी
न कहें मक त्र्ाग थोड़ा है, अतः त्र्ागी नहीं हो. अहो ! मकसी के मवराधक और मवदारक भी मत बनो.
इतने स्वच्छंदी मत हो िाओ मक मिसमें अगली पर्ाषर् का भी ध्र्ान न रहे. ध्र्ान रखना िो आपको
पडु र् के र्ोग से सम्पमि ममली, सख ु ममला , समु वधाएाँ ममली हैं उसमें इतने तल्लीन मत हो िाओ मक
आगे खोखले -के खोखले रह िाओ. र्हााँ तो आप पुडर् से भर कर आर्े थे और र्हां से पाप से भर
कर ले गर्े इसीमलए, मितने पडु र् से भर कर आर्े थे, उससे भी अमधक भर कर िाओ, िबमक
उिम तो र्ही है मक दोनों से खाली होकर िाओ ं र्मद नहीं िा पा रहे हो तो कम-से-कम पाप के मल
से भरकर तो मत िाना.

“भगवान् महावीर स्वामी की िर्”

मनःधमू अमग्न (सोलह सपने)


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नोट: मदगम्बरा ार्ष श्रमण श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी मुमन महाराि की मंगल देशना पर
आधाररत -“आत्मा की सैंतालीस शमक्तर्ााँ” र्ग्ंथराि अपने आप में ही एक सार है – ‘समर्
देशना’ र्ग्थं राि का. और मवशेर् बात र्ह है मक अपने आप में सार हैं िैन दशषन के महानतम
र्ग्न्थ “समर्सार” का. इस उपदेमष्टत र्ग्न्थ की देशना को संकमलत मकर्ा हैं श्रमण मुमन श्री प्रणुत
सागर िी महाराि ने और इसका कुशल संपादन मकर्ा हैं श्रुत संवेगी श्रमण मुमन श्री सुव्रत
सागर िी महाराि ने. इस प्रकार र्ह अनेक र्ग्न्थ के सारों का सार है. श्रावकों पर करुणा और
अनुकम्पा के लते मुमनरािों द्वारा श्रावकों के महत हेतु प्रस्तुत हैं. र्ह कृमत - सार रप र्ग्न्थ बहु-
उपर्ोगी एवं पठनीर्, अनक ु रणीर् हैं. अतः इसे आप सभी के स्वाध्र्ार् लाभ हेतु प्रस्ततु कर
रहे हैं. :- पी. के . िैन ‘प्रदीप’
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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इसके पहले के १६० सूत्रों (भाग ४) का अध्र्र्न व म ंतन आपने मवगत अंकों में
क्रम से मकर्ा ही था. अब आगे (भाग ५)िानने का प्रर्ास करते हैं : आईर्े !
(161) वस्तु के मलए िगत में कोई रोता नहीं है, वस्तु के मलए िगत में कोई हाँसता ही नहीं है। अपने
राग के मलए रोता है, अपने राग के मलए हंसता है सब स्वाथष का सस ं ार है ।
(162) क्लेश कहां है, अशांमत कहां है, पर के अमस्तत्व में मनि का अमस्तत्व खोिना र्ह तम्ु हारे दुख
का कारण है ।
(163) मिसने वस्तु स्वरप को समझ मलर्ा है वह साम्र्भाव है ।
(164) मनि सम्माननीर् होने से मोक्ष ममलेगा, पर सम्माननीर् होने से अहक ं ार भी आ सकता है ।पर
सम्मान पराधीन है, मनि सम्मान स्वाधीन है। पर सम्मान व न का मवर्र् है, पर सम्मान वाणी का
मवर्र् है, मनि सम्मान अवाच्र् है, अनुभव गम्र् है।
(165) हे ज्ञानी! पर के सम्मानों में अपनी मनर्मत मत ले िा,व्र्मभ ारी हुए मबना पर में मव ार िाता
नहीं, मनि ब्रह्म से हटे मबना पर में मव ार िाता नहीं,मनि ब्रह्म से च्र्ुत होना व्र्मभ ार है।
(166) मनि ब्रह्म से हट के िो भी हैं व्र्मभ ार ही है ।पर की वस्तु को झांक- झांक कर देखना र्ही
तो ोरी है ।
(167)मात्र धमष के वेश में आ िाना धमाषत्मा की पह ान नहीं है।
(168) गभ ं ीर तत्व का म ंतन, गभ ं ीर तत्व का मनणषर् मिस मदन हो िाएगा उस मदन कुछ भी देखने की
आवश्र्कता नहीं है।
(169) कुछ सीखना है तो सहन करना पड़ेगा कुछ सीखना है तो ऋिु बनना पड़ेगा। ममट्टी न ठुके तो
वह मटका कै से बनेगी?
(170) मनि की बुमद्ध को छलना है, दूसरों की बातों में लगना।
(171) मेरा तष्टु र् मेरे में है, आपका तष्टु र् आप में है। एक द्रव्र् की अनभ ु मू त दूसरा द्रव्र् नहीं ले
सकता ।एक द्रव्र् दूसरा द्रव्र् नहीं हो सकता, एक गुण दूसरा गुण नहीं हो सकता, एक पर्ाषर् दूसरी
पर्ाषर् नहीं हो सकती है।
(172) कमष का उदर् का आना, शुभाशुभ उदर् का होना र्े मनर्त नहीं है मक मुझे भोगना ही होगा।
कमष के उदर् को भोगना र्मद मनर्त मानते हो, तो मोक्षमागष का अभाव हो िाएगा।
(173) ममु क्ष
ु !ु मितना आाँखों से रसपान मकर्ा है उतना रसना से रसपान नहीं मकर्ा । रसना से तो फल
का ही रस पी पाता है, आाँखों से तूने मकतने रसपान कर डाले? कहीं नारी का रसपान मकर्ा, कई
नारी को देखा, कहीं मााँ को देखा, कहीं बेटी को देखा, कहीं भवनों को देखा, कहीं प्रदमशषनी को
देखा। मकस-मकस को देखकर आनंद नहीं लूटा है ? र्े आंखों का रसपान था ।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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(174) ैतन्र् की ैतन्र्ता का प्रकटीकरण करने का उपार् मोक्षमागष है, और शद्ध ु ता का प्रगट हो
िाना मोक्ष है। ैतन्र् की शुमद्ध का िो उपार् है वही रत्नत्रर् धमष है, वहीं मोक्षमागष है, ैतन्र्ता का
शुमद्धकरण प्रकटीकरण हो िाना इसका नाम मोक्ष है।
(175) ज्ञामनर्ों! मवर्र् को सुन लेना मभन्न मवर्र् है, मवर्र् को सब समझ लेना मभन्न मवर्र् है,मकंतु
वस्तु को अन्तस में प्रगटीकरण कर पाना मभन्न मवर्र् है।
(176) व्र्ाख्र्ान मभन्न मवर्र् है, प्रवमृ ि मभन्न मवर्र् है और अनभु मू त मभन्न मवर्र् है।
(177) भैर्ा व्रत सब के एक से हो सकते है पर वृमिर्ााँ सबकी एक सी नहीं हो सकती। भारत भमू म में
ही नहीं, ढाई द्वीप में मितने भी वीतरागी के तपोधन है इन सब के व्रत एक से है पर वृमिर्ााँ एक से नहीं
है, अनुभूमतर्ां एक से नहीं है, पर मोक्ष तभी ममलेगा मिस मदन वृमिर्ााँ अनुभूमतर्ां एक-सी हो िाएगी
। िब तक व्रत, अनुभूमत, वमृ िर्ााँ तीनों एक नहीं होगी तब तक मोक्ष नहीं ममलेगा।
(178) ममु क्ष
ु !ु ाहे साढेे़ तीन हाथ के ममु नराि हो ाहे वह सवापााँ सौ धनर्ु की अवगाहना वाले हो
िब- तक एक शब्द सदृश्र् पररणाम नहीं होंगे तब-तक मोक्ष नहीं ममल सकता
(179) पााँ पाप करना पड़ेंगे, पररर्ग्ह िोड़ना पड़ता है, महंसा झूठ ोरी कुशील पररर्ग्ह करना पड़ते
है तब कहीं नरक िाने को ममलता है।
(180) ज्ञानी! बदल देना कमठन नहीं है, छोड़ देना कमठन है ।
(181) राग छोड़ना अलग मवर्र् है, राग बदल देना अलग मवर्र् है।
(182) शब्दज्ञान को समझ लेना मभन्न मवर्र् है और आत्मतत्व को समझना मभन्न मवर्र् है।
(183) वस्तु का नाश वैराग्र् नहीं है, वस्तु से उदासता वैराग्र् है।
(184) िो उपेक्षाभाव की उत्कृष्टता है, इसका नाम उदासता है, वैराग्र् है। मशवत्व को वही प्राप्त कर
सकता है मिसके पास उपेक्षा भाव है।
(185) मिससे सम्र्ग्दशषन-ज्ञान- ररत्र की हामन न हो वह रमढ़ स्वीकार है।
(186) राग भी आपको पर्ाषर् दृमष्ट पर है,द्रव्र् दृमष्ट पर नहीं है। आपको अपने बेटे की मााँ की पर्ाषर्
पर राग है ,द्रव्र् पर कोई राग नहीं है ।
(187) िो कुछ भी उत्पन्न होता है उसका मनर्म से मवनाश होता है ।पर्ाषर् दृमष्ट से कोई भी द्रव्र्
शाश्वत नहीं है।
(188) िगत में कोई घर होता नहीं है, मिस घर में राग की पूमतष होती है वही घर हो िाता है।
(189) साधना पर्ाषर् पर आलमम्बत नहीं होती है, ध्र्ान पर्ाषर् पर आलमम्बत नहीं होता है, ध्र्ान द्रव्र्
पर आलमम्बत होता है ।पर्ाष र् पर ध्र्ान तो वैराग्र्भूत अवस्था है।
(190) पग- पग पर मवर्मता ममलेगी उसमें तमु समता बनाके रखो उसका नाम वैराग्र् है।
(191) मवर्मताओ ं के आने पर भी, अपमान के होने पर भी, सम्मान प्रामप्त के भाव मन में नहीं लाना
इसका नाम समता है।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
(192) िैसे मन्द झोंकनी में झोंकने से सोने की मकरट्टमा को अलग मकर्ा िाता है ऐसे ही ध्र्ान की
झोंकनी में झोंकने पर आत्मा की कमष-मकरट्टमा को अलग कर मदर्ा िाता है।
(193) परसहर्ोग पर के मवकार में सहर्ोगी तो हो सकते हैं , लेमकन परसहर्ोग पर के मवनाश में
सहकारी नहीं हो सकते। मकसी भी द्रव्र् का मवनाश होता नहीं ।
(194) तपस्र्ा आत्मा की उपलमब्ध के मलए नहीं है , तपस्र्ा आत्मा से कमों के पृथक्करण के मलए
है ।िो कमों का आत्मा से पथ ृ क करना है,पथ
ृ क हो िाना है इसी का नाम मोक्ष है।
(195) परतंत्र होने पर अपनी सिा को समझ ले, उसे पथ ृ क करने का पुरुर्ाथष करें, वही सम्र्ग्दृमष्ट
र्ोगी है और परतंत्र होने पर भी अपने क्षामर्कज्ञान को प्रकट कर ले वही सकल परमात्मा है। परतंत्रता
का अभाव करके बैठ िाए उसका नाम मनकल परमात्मा।
(196) समझदार को तो अपन समझा सकते हैं, पर िो समझना नहीं ाहता उसे आप कभी नहीं
समझा पाओगे।
(197) आत्मद्रव्र् त्रैकामलक अपने स्वभाव में है , मकसी भी अवस्था में मनिभाव का अभाव द्रव्र्
नहीं करता है। िो सत् है वही भाव है। िो भाव है वही सत् है ।िो सत् है वह सत् है और वही द्रव्र् का
लक्षण है ।
(198) मनिभाव में परभाव का अभाव िो देख रहा है वह क्लेश को प्राप्त नहीं हो सकता। मनिभाव
में परभाव का सद्भाव िो देख रहा है वह मनर्म से क्लेश को प्राप्त होगा। परभाव में मनिभाव का
अभाव है लेमकन आप परभाव में ही मनिभाव मानते रहे र्ही पर्ाषर्मूढ़ता है।
(199) तुम मोह के सोमरस का पान कर रहे हो दुमनर्ा को अपना मान रहे हो र्ही तो सोमरस है।
(200) िो देह के टुकड़े-टुकड़े होने पर भी देही से मभन्न िाने इसका नाम समरस है और िरा-सा देह
में कष्ट होने पर देह पर दृमष्ट िा रही है उसका नाम सोमरस है।
(201) तीन लोक का मतलक बनना है तो आपके संसार की अमग्न में झुलसना पड़ेगा और उपसगों
की घानी में मपलना पड़ेगा तब कहीं आप तीन लोक के मतलक बन पार्ेंगे।
(202) परभाव की मक में मनिभाव की मक मान बैठना र्ही अज्ञानभाव है।
(203) र्े वीतरामगर्ों का मागष है, र्े मविरामगर्ों का मागष नहीं है।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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ु दाई है.
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म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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नोट : पूवष के दो अंक से एक नए ऐसे र्ग्न्थ का प्रारंभ मकर्ा था मिसका शीर्षक है “सुनर्नपथगामी”.
नाम से आप समझ ही गए थे और पढ़ने के बाद तो आपके फोन और समा ार की बाढ़ ही आ गर्ी
थी. इस र्ग्न्थ का सम्पादकीर् और मूल स्तोत्र का मवस्तार बहुत ही ाष का मवर्र् रहा, र्ह िानकार
भी अमत प्रसन्नता हुई. इस र्ग्न्थ की मवशेर्ता र्ह है मक र्ह सम्पूणष मवश्व में प्रथम बार िैन दशषन के
एक स्तोत्र “महावीराष्टक” पर हुए प्रव न को मलमपबद्ध मकर्ा गर्ा हैं. परम पूज्र् मदगाम्बरा ार्ष श्री
मवशुद्ध सागर िी महाराि तो सदैव बताते आर्े हैं मक मााँ मिनवाणी के व न मकतने प्रासंमगक,
रसदार्क और कणषमप्रर् होते है मक भावों की मवशुमद्ध बढती ही िाती हैं अतः एक श्रोता भी तन्मर्
होकर मिनवाणी का रसपान मुग्ध होकर करता हैं. आप सभी िानते ही हैं मक इस अनुपम, अनमोल,
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख ु दाई है.
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अमर, मनोज्ञ, अमृतधारा से मसंम त स्तोत्र के कृमतकार ‘श्री भाग ंद िी’ हैं. इस पर बहुत ही सुन्दर
अमवस्मणीर् प्रव न श्रमण परम पूज्र् मदगम्बरा ार्ष अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोममण, आगम उपदेष्टा,
समर्सारोपासक आ ार्ष रत्न श्रमण श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि के सुमशष्ट्र् श्री १०८ सुप्रभ
सागरिी की देशना है और इसमे सोने में सगु ध ं का कार्ष इसके सम्पादकीर् लेख से हुआ हैं. इसका
सफल संपादन भी श्रुत संवेगी श्रमण श्री १०८ सुव्रत सागर िी मुमन महाराि द्वारा मकर्ा गर्ा गर्ा हैं.
आप सभी िानते ही हैं मक श्रमण श्री १०८ सुव्रत सागर िी मुमन महाराि भी परम पज्ू र् मदगम्बरा ार्ष
अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोममण, आगम उपदेष्टा, समर्सारोपासक आ ार्ष रत्न श्रमण श्री १०८
मवशुद्ध सागर िी महाराि के सुमशष्ट्र् हैं. आपकी ज्ञान-पीपासा/मिज्ञासा को ध्र्ान में रखते हुए हम
र्हीं नोट को मवराम करते हुए सीधे सीधे मूल मवर्र् पर लते हैं.
श्री महावीराष्टक स्तोत्र
र्दीर्े ैतन्र्े मुकुर इव भावामश्चदम त:,समं भामन्त ध्रौव्र्-व्र्र्-िमन-लसन्तो न्तरमहता:।
िगत्साक्षी मागष-प्रकटन-परो भानुररव र्ो, महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥1॥
अताम्रं र्च् क्ष:ु कमलर्गु लं स्पन्द-रमहतं, िनान् कोपापार्ं प्रकटर्मत वाभ्र्न्तरममप।
स्फुटं ममू तषर्षस्र् प्रशममतमर्ी वामतमवमला, महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥2॥
नमन्नाके न्द्राली-मुकुटममण-भा-िाल-िमटलं, लसत्पादाम्भोि-द्वर्ममह र्दीर्ं तनुभृताम।्
भवज्ज्वालाशान्त्र्ै प्रभवमत िलंवा स्मृतममप,महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे॥3॥
र्द ाष - भावेन प्रमुमदत - मना ददुषर इह, क्षणादासीत्स्वगी गुणगण-समृद्ध: सुख-मनमध:।
लभन्ते सद्भक्ता: मशवसख ु समािं मकमु तदा, महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥4॥
कनत्स्वणाषभासो प्र्पगत-तनुज्र्ञान-मनवहो, मवम त्रात्माप्र्ेको नृपमतवरमसद्धाथषतनर्:।
अिन्मामप श्रीमान् मवगतभवरागो द्भुतगमतर-् महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥5॥
र्दीर्ा वाग्गङ्गा मवमवधनर्कल्लोलमवमला,बहृ ज्ज्ञानाम्भोमभिषगमत िनतांर्ास्नपर्मत।
इदानीमप्र्ेर्ा बुधिनमरालै: पररम ता, महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु में ॥6॥
अमनवाषरोद्रेकस् - मत्रभवु निर्ी काम-सभ ु ट:, कुमारावस्थार्ाममप मनिबलाद्येन मवमित:।
स्फुरन् मनत्र्ानन्द-प्रशम-पद-राज्र्ार् स मिन:,महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे॥7॥
महामोहातङ्क-प्रशमन-पराकमस्मकमभर्ग,् मनरापेक्षो बन्धुमवषमदत-ममहमा मङ्गलकर:।
शरडर्: साधूनां भव - भर्भृतामुिमगुणो, महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥8॥
महावीराष्टकं स्तोत्रं, भक्त्र्ा भागेन्दुना कृतम।्
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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र्: पठे च्छृणुर्ाच् ामप, स र्ामत परमां गमतम॥् 9॥
इस महान् महावीराष्टक स्तोत्र पर द्वर् ममु नरािों की देशना और सम्पादकीर् ........
सुनर्नपथगामी : देशनाकार : श्रमण श्री १०८ सुप्रभ सागरिी मुमन महाराि
मूल महावीराष्टक स्तोत्र के कृमतकार : कमववर पंमडत श्री भाग ंदिी
सम्पादक : श्रतु सवं ेगी श्रमण श्री १०८ सव्रु तसागर िी ममु न महाराि

श्री १००८ महावीर स्वामी श्रमण श्री १०८ सुव्रतसागर िी महाराि


अब तक आपने पढ़ा ....
सम्पादकीर् : नमामम भारतीं िैनीं, सवष सन्देह नामशनीम।्
भानुभाममव भव्र्ानां, मनः पद्म मवकामसनीम् ॥09॥
िैन दशषन में मदगबं र आम्नार् में भगवान् की बहुत ही सन्ु दर व्र्ाख्र्ा दी गर्ी हैं. भगवान्
कौन हैं ? और कै से होते हैं ? मितना बड़ा प्रश्न हैं उिर उतना ही छोटा हैं. सरल और सहि शब्दों में
कहा िार् तो िो वीतरागी हो, सवषज्ञ हो और महतोपदेशी हो वह भगवान् हैं. इन तीन मवशेर्ताओ ं
वाला व्र्मक्त ही भगवान् हो सकता हैं. आपने र्ह भी पढ़ा है मक वीतराग श्रमण सस्ं कृमत, मवश्व की
पमवत्र, पौरामणक, प्रमामणत तथा सु-प्रमसद्ध मान्र् संस्कृमत, मिसमें अमहंसा, अनेकांत, स्र्ाद्वाद अमर
मसद्धांत के साथ आत्मोत्थान को ही लक्ष्र् बतार्ा है । प्रस्ततु कृमतः सनु र्न पथगामी र्ग्न्थ में आप
पार्ेंगे श्रम से शास्त्र - सृिन, आत्म परक शैली, प्रव न में काव्र्ानुभूमत, आगम की श्रुमत, भार्ा-
माधुर्ष, मसद्धांत, धमष एवं दशषन । अपने सम्पादकीर् में श्रुत संवेगी श्रमण श्री सुव्रत सागर िी महाराि
ने पाठकगण को भाग्र्शाली बतार्ा गर्ा हैं मिसके कर-कमलों में आभीक्ष्णज्ञानोपर्ोगी,
आध्र्ामत्मक एवं रो क प्रव नकार, श्रमण रत्न 108 मुमन श्री सुप्रभ सागर िी द्वारा "महावीराष्टक

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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स्तोत्र" पर उपमदष्ट स्तमु त-मर् सक ु ृ मत "सनु र्न-पथगामी" "पद्य पर गद्यमर् टीका" शोभार्मान हो
रही है। "सुनर्न-पथगामी" के पारार्ण से आप सभी पाठकों को स्तुमत के सम्बध ं में आवश्र्क
मदशा-मनदेश िो अररहंत प्रभु की भमक्त से िोड़ने के साथ-साथ, पूिन-भमक्त-स्तुमत के दोर्ों को
प्रक्षामलत करती हुई शुद्ध-मवशुद्ध-भमक्त का सम्र्क् बोध प्राप्त हो रहे हैं. भमक्त-स्तुमत पूिन कब?,
कै से, मकतनी, क्र्ों करना? इन सभी मिज्ञासाओ ं के समाधान से होगा पूवष कमोपामिषत पाप-क्षर् और
पडु र्-वमृ द्ध, भावों की मवशमु द्ध, वैराग्र्, भाग्र्ोदर् िो आत्मोत्थान में सहार्क होगा।
अब तक आपने महावीराष्टक : महावीर की स्तुमत 'वीतराग श्रमण संस्कृमत के आराधक,
कमववर पमडडत श्री भाग न्द िी छाबड़ा उर्ष भाई िी द्वारा मवरम त तीथंकर भगवान महावीर स्वामी
की स्तुमत संस्कृत भार्ा में मात्र आठ छंदों में मनबद्ध, अमर स्तोत्र है िो मकसी पुराण से कम नहीं है.
र्ह र ना 'महावीराष्टक स्तोत्र' बहुप्र मलत एवं मवश्व मप्रर् है मक िैनदशषन की मवमभन्न मान्र्ताओ ं
को मानने वाले मदगम्बर ही नहीं, अमपतु श्वेताम्बर ममू तषपि ू क, तेरापथं ी, बीस पथ
ं ी, स्थानक, समैर्ा
लगभग सभी मिन उपासकों का कडठाहार हैं.' इस लघु मनभावन स्तोत्र के गूढतम् रहस्र्ों को मुमनश्री
सुप्रभसागर िी ने आध्र्ामत्मक, म ंतनपरक उपदेशों के माध्र्म से उद्घामटत मकर्ा है. पं. श्री भाग न्द्र
िी बहु म षत अमर-मशल्पी सामहत्र्कार, बहु-प्रमतभा सम्पन्न, सस्ं कृत, प्राकृत भार्ा के पारंगत
मनीर्ी सारस्वत कमव, प्रकाडड मवद्वान् एवं कुशल आध्र्ामत्मक प्रव नकार का िीवन वृि भी
पाठकों के ज्ञान वमृ द्ध हेतु बतार्ा गर्ा हैं. वतषमान ौबीसी के अमं तम शासन-नार्क, अमहस ं ा के
पक्षधर, मवश्व मवख्र्ात तीथंकर भगवान महावीर स्वामी हैं. आपने िगमत को अमहंसा, सत्र्, अ ौर्ष,
ब्रह्म र्ष, अपररर्ग्ह के मसद्धांत प्रदान मकए। ऐसे महाश्रमण तीथंकर महावीर के नाम से सम्पूणष मवश्व
में पररम त का िीवन वि ृ भी सम्पादकीर् ( मदगम्बरा ार्ष अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोममण, आगम
उपदेष्टा श्रमणरत्न श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी मुमन महाराि के सुर्ोग्र् मशष्ट्र् श्री श्रुत संवेगी श्रमण श्री
सुव्रत सागर िी मुमन महाराि) से ज्ञात होता है । अतः र्ह सम्पादकीर् भी अपने आप में एक र्ग्न्थ
बन गर्ा है. अब आगे सम्पादकीर् में भगवान् महावीर स्वामी के बारें में िाना हैं ....
आप ही मात्र ऐसे तीथंकर है मिन्होंने एकाकी दीक्षा धारण की. दीक्षा के उपरान्त बारह वर्ष
तक आप छद्मस्थ अवस्था में पण ू षतः मौन रहे ततपश्चात् वैशाख शक्ु ल दशमी, पवु ाषन््काल, माघ
नक्षत्र में, ऋिुकूला तीर पर, शाल वृक्ष के तले आपको के वल्र्ज्ञान उत्पन्न हुआ. के वलोत्पमि उपरांत
66 मदनों तक आपकी मदव्र्-देशना नहीं मखरी. पाठकों को ज्ञात है मक -भगवान् महावीर स्वामी का
प्रथम समवसरण मवपुला ल पवषत रािगृही पर लगा था मिसमें इद्रं भूमत, वार्ुभतु ी, अमग्नभुती ने
अपने पां -पां सौ मशष्ट्र्ों के साथ अथाषत् एक ही मदन में 1503 लोगों ने मशष्ट्र्ता स्वीकार की, र्ही
मदन “गरुु -पमू णषमा” के नाम से सम्पण ू ष मवश्व में महोत्सव के रप में मनार्ा िाता हैं. तीथंकर महावीर
की प्रथम देशना श्रावण कृष्ट्णा प्रमतपदा, शमनवार 1 िुलाई, ई. पू. 557 में मखरी थी. मिसमें रािा
श्रेमणक ने 60 हिार प्रश्न मकर्े थे. तीथंकर महावीर की ख्र्ामत मदग-् मदगन्त, सात समंदर तक फै ली
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
हुई हैं, उसी का सफ ु ल है मक –“अमखल मवश्व में तीथंकर महावीर की िन्म-िर्तं ी हर्ोल्लास पवू षक
मनाई िाती है.” तीथंकर महावीर स्वामी की प्रव न सभा अथाषत् समवसरण एक र्ोिन मवस्तार
वाला था. आपका के वली काल तीस वर्ष रहा. आपकी धमष सभा में मुख्र्, प्रधान गणधर इद्रं भूमत
समहत कुल ग्र्ारह गणधर थे. ौदह हिार ऋमर्, तीन सौ पूवषधर, नौ हिार नौ मशक्षक, एक हिार तीन
सौ अवमधज्ञानी, नौ सौ मवमक्रर्ाधारी, सात सौ के वली, पां सौ मवपुलमती, ार सौ वादी, छिीस
हिार आमर्षका मातािी, एक लाख श्रावक, तीन लाख श्रामवकाएं आमद मवरािमान रहते थे.
मनवाषण के दो मदन पूवष र्ोग-मनवृमि कर कामतषक कृष्ट्ण अमावस्र्ा की प्रत्र्ुर् बेला में, स्वामत
नक्षत्र में पावा नगरी, सम्प्रमत पावापुर से मोक्ष प्राप्त मकर्ा. आपके मनवाषणोत्सव में देवों ने स्वगष से
आकर महोत्सव मनार्ा और मनवाषण स्थल की भूमम की रि-कण मनुष्ट्र्-देवों ने भमक्त -श्रद्धा पूवषक
शीश पर लगार्ा, फलतः वहां मवशाल गड्ढा हो गर्ा िो वतषमान में पावापुर सरोवर के नाम से मवश्व-
मवख्र्ात है, वहााँ अनेक मत्काररक घटनार्ें होती रहती हैं और पार्ाण खडड पर अंमकत रण
स्थामपत हैं. महावीर स्वामी देश ही नहीं सम्पूणष मवश्व में अमहंसा के अर्ग्दूत के रप सु-ख्र्ात हैं. उनका
स्तुमत-वंदन िैना ार्ों के साथ अन्र् दशषनों में भी श्लाघनीर्, स्तुत्र्, स्मरण मकर्ा है.
तीथंकर श्री पाश्वषनाथ के मनवाषण के 178 वर्ष उपरांत तीथंकर के रप में बालक महावीर का
िन्म हुआ. दीक्षोपरांत मुमन महावीर पर भव नामक र्क्ष अथवा स्थाणु नामक रुद्र ने उपसगष मकर्ा.
मालवा उज्िैन में भी मक्षप्रा तट पर महाममु न महावीर पर उपसगष हुआ था. कै वल्र्ोत्पन्न होने पर
तीथंकर महावीर स्वामी के समवसरण में इन्द्रभूमत (गौतम), आमद ग्र्ारह गणधर, प्रमुख गमणनी
न्दना एवं प्रमुख श्रोता सम्राट् श्रेमणक थे. तीथंकर महावीर और उनकी आ ार्ष परम्परा, भाग-1 में
मलखा है मक- आर्ाढ़ शक्ु ल र्ष्ठी, शक्र ु वार 17 िनू , ई.प.ू 599 में गभष कल्र्ाणक, ैत्र शक्ु ला त्रर्ोदशी
सोमवार 27 मा ष, ई.पू. 598 में िन्म कल्र्ाणक, मगामसर कृष्ट्ण दशमी, सोमवार 29 मदसम्बर, ई.पू.
569 दीक्षा कल्र्ाणक, वैशाख शुक्ल दशमी, रमववार 23 अप्रैल ई.पू. 557 में ज्ञान कल्र्ाणक तथा
कामतषक कृष्ट्ण अमावस्र्ा, मंगलवार 15 अक्टूबर ई.पू. 557 में मवक्रम संवत् पूवष 470, शक पूवष 605
में मनवाषण हुआ. तीथंकर वद्धषमान महावीर स्वामी के पााँ नाम लोक में बहुप्र मलत हुए वीर, वद्धषमान,
सन्ममत, महावीर और अमतवीर |
र्ग्ंथकार श्रमण सुप्रभसागर िी : मदगम्बर मिनशासन, 'वीतराग भ्रमण संस्कृमत' के
सम्प्रमत शभ्रु ाकाश में उद्योमधत मसतांशु, र्वु ाओ ं के प्रेरणा- पञ्ु ि, आध्र्ामत्मक प्रव नों के सफल -
प्रस्तोता, आर्ष-परम्परा पोर्क, करुणामूमतष, म ंतक, लेखक, मनशंक स्पष्ट वक्ता, वात्सल्र् वाररधी,
क्षमाशील, तकष शील, न्र्ार्-मनपुण, कमवत्व कला मनष्ट्णात, महन्दी - महतैर्ी, अनुवादक, उपसगष िर्ी,
ज्ञानी, अध्र्ात्म-रस-रमसक, प्रज्ञावंत, अभीक्ष्ण ज्ञानोपर्ोगी, मनोज्ञ, ध्र्ानी, सरल स्वभावी,
बहुभार्ाभार्ी, प्रमतभावान, वीतरागी, मनर्ग्षन्थ, श्रमण रत्न मुमन 108 श्री सुप्रभसागर िी मवमशष्ट
व्र्मक्तत्व एवं मनभावन कृमतत्व के धनी हैं. प्रव न शैली मन को मोहने वाली है. िब आप धमष सभा
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख ु दाई है.
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में मवरािकर धमोपदेश देते हैं तो भव्र्-िन शांत हो िाते हैं. हिारों-हिार िैन-िैनेतर आपकी 'मदव्र्-
'वाणी' का पान कर अपना अहो भाग्र् मानते हैं. आपके प्रव नों का लाभ दूर-दराि, सात- समुन्दर
पार तक पहुाँ सके इसी उद्देश्र् को लेकर प्रस्तुत "सुनर्न पथगामी" सुकृमत का सृिन हुआ है. कृमत
र्थाथष में कृमतकार के व्र्मक्तत्व के साथ-साथ कृमतत्त्व की प्रमतमूमतष होती है.
प्रस्तुत सुकृमत "सुनर्न-पथगामी" के उपदेष्टा अध्र्ात्म मवद्या के अध्र्ेता, श्रमण मुमन श्री
सप्रु भसागर िी हैं आपका िन्म िननी मााँ के िनक, नाना के र्हााँ कोल्हापरु महाराष्ट्ट्र में दशा हुम्मड़
िामत के सद्-गृहस्थ श्रावक श्रेष्ठी श्री रािनशाह उनकी सद्- गृमहणी, सुशीला, सरल-स्वभावी,
शीलवती िननी मााँ सुरमंिरी की कुमक्ष से 13 मदसम्बर सन् 1981 में हुआ था। आपका गृह-र्ग्ाम
आध्र्ामत्मक धमष नगरी सोलापुर महाराष्ट्ट्र है. आप वाल्र्काल में गौरवणष के थे और मशशु का
नामकरण 'तथा गुण - र्था नाम' की र्ुमक्त अनुसार 'मनोज्ञ' रखा गर्ा. आपकी बुमद्ध अत्र्ंत तीक्ष्ण
प्रखर हैं, अतः आपने अल्पवर् में ही सी.ए. तक उच् मशक्षा प्राप्त की. आपकी 'नाटर्-कला' को
देखकर सवषिन आनंमदत होते थे. आपके नमनहाल पक्ष से सुप्रमसद्ध मदगम्बरा ार्ष श्री समंतभद्र िी
हुए मिन्होंने खुरई, कारंिा आमद स्थानों पर गुरुकुल स्थामपत मकए थे. पूवष संस्कार, पाररवाररक
माहौल एवं वतषमान सत्सगं मत वशात् आपको उगते - र्ौवन में ही िगत् के राग-रंग से वैराग्र् हो गर्ा
पररणामत: आपने स्वात्मोत्थानाथं सन् 2007 में र्ग्ह का त्र्ाग कर मदर्ा. परम पज्ू र् आ ार्ष रत्न
108 श्री मवशद्ध ु सागर िी गरुु देव की रण मनश्रा में, छत्रपमतनगर इदं ौर (म.प्र.) में, सन् 2007, मागष
कृष्ट्णा र्ष्ठी, 29 नवम्बर को आपने दशषन प्रमतमा के व्रत र्ग्हण कर िीवन पर्षन्त के मलए पेन्ट - शटष
पहनने का त्र्ाग कर मदर्ा और धवल वस्त्र धारण कर मलए। आपके लघुभ्राता साके तिी भी बाल
ब्रह्म ारी हैं िो पण ु े में मनवासरत हैं.
इन्दौर महानगर से गुरुवर के मंगल मवहार में नव-नवेले ब्रह्म ारी िी को भरपूर वात्सल्र् देते.
पग-मवहार में गुरुवर को अपने हृदर् में स्थामपत करने के बाद एक ही ाह, एक ही लगन मक िैनेश्वरी
दीक्षा कब हो? माघ शुक्ला मद्वतीर्ा आठ फरवरी सन् 2008 को भव्र् मंगल पं कल्र्ाणक प्रमतष्ठा
महोत्सव पन्ना में " ब्रह्म ारी मनोज्ञ भैर्ा िी ने दूसरी प्रमतमा के बारह-व्रतों को धारण मकर्ा. इस
मध्र् आ ार्ष भगवन् ने अनेक र्ग्थ ं ों का अध्र्र्न करार्ा. सन् 2008 के िबलपरु (म.प्र.) वर्ाषर्ोग में
24 अगस्त 2008 को ब्र. मनोि भैर्ािी का प्रथम के शलों सम्पन्न हुआ. आ ार्ष भगवन् 108 श्री
मवशुद्धसागर िी ने वैरागी के वैराग्र् का परीक्षण कर अशोकनगर (म.प्र.) में, सन् 2009, ौदह
अक्टूबर को भव्र् समारोह में अपार िन समूह के मध्र्, प.ं श्री बाबूलाल िी पठा, ब्र. श्री रािमकंग
िी के कुशल मनदेशन में ब्र. मनोज्ञ भैर्ा समहत त्रर् ब्रह्म ारी भैर्ा िी को िैनेश्वरी मिनदीक्षा प्रदान
की. दीक्षोपरांत आपका नामकरण श्रमण ममु न सप्रु भसागर मकर्ा गर्ा. दीक्षोपरांत आप छह वर्ष तक
अपने दीक्षा गुरु के साथ रहकर धमष-र्ग्ंथों का अध्र्र्न मकर्ा. मध्र् में असाता कमोदर् के कारण
अंतरार् और शारीररक पीड़ा को समतापूवषक सहन करते हुए तप से मकते हुए अपने दृढ़ वैराग्र् एवं
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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आतं ररक समत्व-भाव का परर र् मदर्ा. र्ोग्र् िान आ ार्ष भगवन् ने आपको धमष प्रभावनाथष प्रेररत
मकर्ा, फलतः सन् 2016 मछंदवाड़ा से आपका पृथक् उपसंघ बना। तब से अब तक' आप नगर-नगर,
गााँव-गााँव में पग मवहार कर धमष की प्रभावना कर रहे हैं. आप शांत स्वभावी अत्र्ंत वात्सल्र्मर्ी हैं.
एक सच् े गुरु के सभी गुण, अनूठी तप साधना भी मवद्यमान हैं. कभी रसी से आहार, कभी नीरस,
कभी एक अन्न, तो कभी ऊनोदर. कभी दो कभी तीन उपवास, तो कभी पररपूणष मौन साधना. र्थाथष
में आप ज्ञान एवं र्ां में अपने गरुु की प्रमतममू तष ही हैं. मनरंतर आत्म-साधना, श्रतु -श्रम, धमष प्रभावना
ही आपका ध्र्ेर् है. मुमनश्री सुप्रभसागर िी की साधममषर्ों, साधकों के प्रमत सेवा-भाव भी
अनुकरणीर्, स्तुत्र् है. आप मनरंतर अष्टांग सम्र्क्त्व का पालन करते हैं. "र्द्यमप शुद्धं लोक मवरुद्धं,
न करणीर्ं न आ रणीर्ं" की सुष्ठु धारणा एवं 'स्वान्तः सुखार्, सवषिन महतार्' की प्रबल भावना
के पक्षधर हैं श्रमण मुमन श्री सुप्रभसागर िी."संक्षेप में आप सवषगुण सम्पन्न, मूला ार स्वरप हैं.
गुरु-परम्परा : प्रस्तुत सुर्ग्ंथ "सुनर्न-पथगामी" के र्शस्वी उपदेशनाकार, श्रमण रत्न
सुप्रभसागर िी की सुमनमषल, अमवमच्छन्न परम्परा का उल्लेख भी र्हााँ आवश्र्क हैं , क्र्ोंमक िैसा
उत्कृष्ट बीि होता है वैसी ही उत्कृष्ट फसल होती है। र्ग्थ ं के प्रारंभ में पवू षि- गरुु ओ ं का स्मरण अवश्र्
ही कार्ष पूणषता में मंगलकारी मनममि बनेगा।
आप अंमतम तीथेश तीथषकर वद्धषमान महावीर स्वामी की शुद्ध-मवशुद्ध, मवश्व- प्रमसद्ध, सु-
साधक परम्परा में हुए आद्या ार्ष 108 श्री आमदसागर िी 'अंकलीकर महाराि की अदूमर्त, शुभक ं र
- शृंखला में अठारह भार्ा-भार्ी, मंत्रवादी, तीथोद्धारक आ ार्ष रत्न 108 श्री महावीर कीमतष िी
महाराि उनके मशष्ट्र् वात्सल्र् रत्नाकर, महा-मनममि ज्ञानी, परमोपकारी आ ार्ष रत्न 108 श्री
मवमलसागर िी, मासोपवासी, तपस्वी सम्राट् आ ार्ष रत्न 108 श्री सन्ममतसागर िी इनके मशष्ट्र्
गणा ार्ष 108 श्री मवरागसागर िी महाराि इनके सुमशष्ट्र् आध्र्ामत्मक प्रव नकार 108 आ ार्ष
रत्न श्री मवशद्धु सागर िी महाराि हुए हैं और आपने आ ार्ष पदोपरांत सन् 2017 तक 33 ममु न दीक्षा
प्रदान की हैं उन्हीं मशष्ट्र्ों में एक सु-मशष्ट्र् हैं- श्रमण रत्न सुप्रभसागर िी महाराि ।
वक्तृत्व कला : पुरुर् की 72 कलाओ ं में सवषश्रेष्ठ 'अध्र्ात्म-कला' है। 'वक्तृत्व कला' भी एक
मवमशष्ट एवं महत्त्वपूणष कला है. िब तक तीथंकर प्रभु का उपदेश नहीं होता है, तब- तक उनका शासन
प्रारंभ नहीं होता है. प्रभावी वक्ता की बात को सनु कर सनु ने वाले को उत्साहवद्धषन होता है. प्रस्ततु
कृमत "सुनर्न-पथगामी" भी अध्र्ात्म एवं वक्तृत्त्वकला का अमभनव सामंिस्र्. मिसमें पगै-पगै
अध्र्ात्म की रस धार है तो पंमक्त पंमक्त में, शब्द- शब्द में वक्ता की आंतररक मवद्विा का श्रृंगार है.
मवश्वधरा पर िब से वणष हैं, तभी से वक्तृत्व कला है। िैन दशषन के अनस ु ार वणष अनामद से हैं, इनका
मकसी ने मनमाषण नहीं मकर्ा है। संस्कृत व्र्ाकरण कातत्रं कार ने र्ग्ंथ के प्रारंभ में ही मलखा है मक-
"मसद्धो-वणष समाम्नार्." अशांत म ि को शांत करदे, हिारों को एक साथ एक आाँगन में शांत मबठा

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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दे वही श्रेष्ठ वक्तृत्व कला है. वही वक्ता श्रेष्ठ है िो प्रमामणत हो िो उन्नमत, मवकास की ओर प्रेररत करे
आनंद रस से पररपूणष हो. वक्ता के वही व न श्रेष्ठ हैं िो श्रोता के संशर्, मवपर्ाषस को दूर कर सत्र्ाथष
का बोध करा दे. मानवीर् मूल्र्ों के मस्थमतकरण, नैमतक उत्थान, धमष के प्रमत आस्था, कतषव्र्ों के
प्रमत सिगता वक्ता के वक्तव्र् से ही सम्भव हो पाती है। वही वक्तृत्व कला श्रेष्ठ, अनुकरणीर्,
श्लाघनीर्, प्रशंसनीर्, सवषमप्रर् एवं मान्र् है मिसमें प्राणी महत, आत्म-शोधन और मैत्री की सुगंधी
लबालब भरी हो. श्रेष्ठ वक्ता, उपदेष्टा वही हो सकता है िो श्रमशील, मव ारक, म ंतक, उद्यमशील,
परोपकारी, वात्सल्र्वमान, क्षमामूमतष एवं आगम का अध्र्ेता हो िो संवेदनाओ ं को संवेदता हो,
अनुभूमतर्ों से अनुभूत हो तथा सवष प्रामणर्ों का उत्थान ाहता हो. वक्तृत्व कला एक रसात्मक-कला
है मिसका रस र्ा तो श्रेष्ठ वक्ता र्ा कोई सिग-श्रोता ही ले पाता है. वक्ता अपनी वक्तृ कला से लाखों
को स्तंमभत कर देता है और उस समर् भूख-प्र्ास कोसों दूर ली िाती है. वस्तु कला वक्ता के
आतं ररक िीवन मल्ू र्ों की प्रमतपमू तष होती है।
सद्- सामहत्र् की महत्त्वता: सामहत्र् र्थाथष में वही सवषश्रेष्ठ है मिसमें मााँ की तरह सवषमहत
की बात कही गई हो । महतकारी एक लकीर भी व्र्मक्त को अमीर बना सकती है। सामहत्र् की एक
लकीर आपकी तकदीर बदल सकती है। सामहत्र् सद्बोध देने में परम सहार्क होते हैं।
सद्- सामहत्र् का सृिन करते हुए आवश्र्कता इस दृमष्ट की है मक - "मिस पररवेर् को हटाने
के मलए महस ं ात्मक-शस्त्र की आवश्र्कता है वहााँ पर र्मद शास्त्र अमभमहत मूल्र्ों से सर्ं ुक्त होगा तो
वह प्रामणर्ों के लक्ष्र् मनधाषररत करेगा तथा व्र्थष की महंसा भी नहीं होगी।"
शस्त्र से भी अमधक शमक्तशाली र्मद कुछ है तो वह समी ीन शास्त्र है। शस्त्र और शास्त्र में बस
र्ही अन्तर है मक शस्त्र तोड़ता है और शास्त्र िोड़ता है। शस्त्र संतामपत करता है वहीं शास्त्र श्रवण से
शामन्त ममलती है। शस्त्र अमहतकर है, शास्त्र महतकर है।
कोई भी पोथी शास्त्र नहीं हो सकती है। र्थाथष में िो पशु को परमात्मा, पक ं को पारस, नर
को नारार्ण, कंकर को शक ं र, तीतर को तीथंकर बनने का उपदेश दे तथा भोग से र्ोग, अंधकार से
उिास मोह से मोक्ष, पाप से िाप, अमतक्रमण से प्रमतक्रमण की ओर अर्ग्सर करे वही शास्त्र, र्ग्ंथ,
सत-् सामहत्र् है।
शास्त्राध्र्र्न से लाभ : श्रेष्ठ सामहत्र् आगामी पीमढ़र्ों के मलए सच् ा मागष दशषक होता है.
शास्त्र अध्र्र्न से हमारी संस्कृमत, परम्पराओ ं का बोध होता है, अध्र्ेता की म ंतनधारा मवकमसत एवं
मवस्तृत होती है. पच् ीसों वर्ष पररश्रम कर व्र्मक्त िो प्राप्त नहीं कर पाता है उससे कहीं अमधक ज्ञान
तथा अनभ ु व एक श्रेष्ठ शास्त्र के सम्र्क् अध्र्र्न से प्राप्त होता है. शास्त्राभ्र्ास से परम्परा आत्मानभ
ु व
कला की प्रामप्त होती है, मिससे सुख-स्वरप मसद्धत्व की प्रामप्त होती है. क्रोधामदक कर्ार्ों की
मंदता,पं ेमन्द्रर् के मवर्र्ों में प्रवृमि रुकती है, मन एकार्ग् होता है, पापों के प्रमत उपेक्षा भाव िार्ग्त

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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होता है, हेर्-उपादेर् की पह ान होती है. सबसे अमधक महत्त्वपण ू ष मक- शास्त्र अध्र्र्न से हमें हिारों
वर्ष पूवष हुए मवद्वान् साधक- श्रमणों के श्रमपूणष सामहत्र्-संपमि के अनमोल रत्न मबना पररश्रम के ही
प्राप्त हो िाते हैं, िो हमारे अंधकारपूणष िीवन में उिास भरकर आत्म-कल्र्ाण में कार्षकारी बनते हैं.
अररहन्त परमेष्ठी का लक्षण व स्वरप : िो वीतरागी, सवषज्ञ और महतोपदेशी होते हैं।
मिन्होंने ज्ञानावरण, दशषनावरण, मोहनीर् एवं अन्तरार् रप ार घामतर्ा कमों का क्षर् करके मिनको
अनन्त तुष्टर् प्रकट हुए हैं। िो ौतीस अमतशर् तथा आठ प्रामतहार्ो से सुशोमभत हैं, िो िन्म-
मरणामद अठारह दोर्ों से रमहत हो गए हैं , िो सौ इन्द्रों से वन्दनीर् हैं, उन्हें अररहंत परमेष्ठी कहते हैं।
अररहन्त परमेष्ठी के 46 मल ू गणु होते हैं। मिनमें 10 िन्म के , 10 के वलज्ञान के , 14 देवकृत अमतशर्,
8 प्रामतहार्ष एवं अनन्त तुष्टर्। अररहंत परमेष्ठी को अररहन्त, अरुहन्त, अहषन्त, मिन, सकल परमात्मा,
सर्ोग के वली आमद कहते हैं. इसके अलावा तीथंकर अररहंत की अन्र् महत्त्वपूणष िानकाररर्ााँ भी
िानने र्ोग्र् हैं। िैसे तीथंकर के दाढ़ी-मूंछ नहीं होती है. तीथंकर बालक माता का दूध नहीं पीते,
मकन्तु सौधमष इन्द्र िन्मामभर्ेक के बाद उनके दामहने हाथ के अंगूठे में अमृत भर देता है मिसे ूसकर
बड़े होते हैं. दीक्षा के पवू ष िीवन भर देवों के द्वारा लार्ा गर्ा ही भोिन एवं वस्त्राभर्ू ण र्ग्हण करते हैं
एवं वह स्वर्ं ही दीक्षा लेते हैं, मकसी अन्र् को गुरु नहीं बनाते हैं.
मतलोर् पडणमि र्ग्ंथ में मलखा है मक- तीथंकर अररहंत का समवसरण भूतल से 5000 धनुर्
अथाषत् 30,000 फीट ऊपर रहता है मिसमें ारों ओर 20,000-20,000 सीमढ़र्ााँ होती हैं । समवसरण
में बारह सभा होती हैं। मिसमें क्रमशः गणधर एवं मुमन, कल्पवासी देमवर्ााँ, आमर्षकाएाँ व श्रामवकाएाँ,
ज्र्ोमतर्ी देमवर्ााँ, व्र्न्तर देमवर्ााँ, भवनवासी देमवर्ााँ, भवनवासी देव, व्र्न्तर देव, ज्र्ोमतर्ी देव,
कल्पवासी देव, क्रवती व मनुष्ट्र् एवं मतर्ं बैठते हैं।
मिनभमक्तः प्राप्त करो ममु क्त : प्रस्ततु र्ग्थं "सनु र्न-पथगामी" मिन भमक्त, स्तमु त से सबं मं धत है,
इसीमलए र्हााँ र्ग्थ ं पारार्ण से पवू ष मिन ममहमा, मिनमबम्ब की ममहमा, मिन स्तमु त फल, मिन-भमक्त
और सच् े मिनेन्द्र का बोध होना अत्र्ंत आवश्र्क है, क्र्ोंमक िब-तक रत्न की परख, हीरे की कीमत
मालूम नहीं होगी, तो भला कौन रत्न खरीदेगा? ऐसे ही िब तक मिनेन्द्र प्रभु, मिन मिनमबम्ब, मिन-
वदं ना, मिन-सस्ं तमु त का ज्ञान नहीं होगा तो मक्रर्ा लती रहेगी, पर भावों का िड़ु ाव न होने से श्रेष्ठ
फल प्राप्त नहीं हो सके गा. कल्र्ाण मंमदर स्तोत्र में श्री कुमुद ंद्रा ार्ष िी ने मलखा है मक-
“र्स्मामत्क्रर्ाः प्रमतफलमन्त न भाव शून्र्ाः”. आ ार्ष भगवन् 108 श्री उमास्वामी महाराि ने
उमास्वामी श्रावका ार में इसी संबंध में उद्धृत मकर्ा है मक - खमडडते गमलते मछन्ने ममलने ैव वासमस
। दान पि ू ा िपो होमः स्वाध्र्ार्ो मवफलं भवेत् ॥ 139 ॥ अथष : खमडडत वस्त्र, गला हुआ, फटा हुआ,
मैला वस्त्र पहनकर दान, पूिा, िप, होम, स्वाध्र्ार् नहीं करना ामहए। ऐसे वस्त्र पहनकर उपर्षक्त ु
मक्रर्ार्ें करने से सब मक्रर्ाएाँ मनष्ट्फल हो िाती हैं।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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गृहस्थ के मनत्र् कमष व कतषव्र् : मिनागम में मवमभन्न आ ार्ों ने गृहस्थों को मवमभन्न प्रकार
के कतषव्र्ों के मनवाषह का मनदेश मकर्ा है , परन्तु मवशेर् बात र्े है मक मिनेन्द्र पूिा सभी आ ार्ों ने
अमनवार्ष रप से कही है। मिनेन्द्रपूिा गुरुपर्षपु ामस्त सत्र्ानुकम्पा शुभपात्रदानम् । गुणानुरागः
श्रतु रागमस्र् नृिन्म-वृक्षस्र् फलान्र्ममू न ॥ अथष : मिनेन्द्रदेव की पि ू ा, गरुु की उपासना, सभी
प्रामणर्ों पर दर्ा, शुभ पात्रों को दान, मुमनर्ों से अनुराग और शास्त्रों का श्रवण र्े मनुष्ट्र् िन्म रपी
वृक्ष के फल हैं, इसमलए गृहस्थों को घर में रहते हुए र्ट्कमों को मनत्र् करना ामहए. आ ार्ष भगवन्
108 श्री रमवसेन स्वामी ने भी पद्म पुराण में मलखा है मक- कनीर्ांस्तस्र् धमो र्मुक्तो र्ं गृमहणां मिनैः
। अप्रमादी भवेिमस्ममन्नरतो बोधदामर्मन ॥ अथष : गृहस्थों के धमष को मिनेन्द्र भगवान् ने मुमनधमष का
छोटा भाई कहा है, सो बोमध को प्रदान करनेवाले इस धमष में भी प्रमादरमहत होकर लीन रहना ामहए.
मतरुवल्लुवरा ार्ष श्री ने कुरल काव्र् में गृहस्थाश्रम के मलए मलखा है मक- “पूवषिों की कीमतष
की रक्षा, देवपूिन, अमतमथ सत्कार, बन्धु बान्धवों की सहार्ता और आत्मोन्नमत र्े गृहस्थों के पााँ
कमष हैं।” कमलकाल सवषज्ञ, आ ार्ष रत्न 108 श्री वीरसेन स्वामी ने 'िर् धवला टीका में श्रावक धमष
के संबंध में मलखा है मक- “तं िहा दाणं पूर्ा सीलमुववासो ेमद उमव्वहो सावर् धम्मो” दान, पूिा,
शील और उपवास ार प्रकार का श्रावक धमष है। देव पि ू ा गरु पामस्तः स्वाध्र्ार्: सर्ं मस्तपः । दानं
ेमत गृहस्थाणां र्ट्कमाषमण मदने मदने । प. मव. ।। अथष : मिनपूिा, गुरु की सेवा, स्वाध्र्ार्, संर्म,
तप और दान र्े छहकमष गृहस्थों के मलए प्रमतमदन करने र्ोग्र् आवश्र्क कार्ष हैं।
आ ार्ष भगवन् श्री मिनसेन स्वामी ने भी कहा है मक पि ू ा, दान, स्वाध्र्ार्, सर्ं म, तप, र्ह
कुल धमष है िैनों का । प्राकृत वाङ्मर् के परम पुरोधा आ ार्ष भगवन् श्री कुन्दकुन्द देव ने र्ग्ंथ रत्न
'रर्णसार' िी में मलखा है मक- “दानपं र्ू ा मक्ु खं” अथाष त् श्रावक धमष में दान व पि ू ा दो मख्
ु र् कतषव्र्
हैं, िैन पूिा काव्र् उद्भव एवं मवकास र्ग्ंथ में र्ग्ंथकार ने कहा है मक- देव पूिा दर्ादानं तीथषर्ात्रा
िपस्तपः । शास्त्रं परोपकारत्वं मत्र्ष िन्म फलाष्टकम् ॥ अथष : दर्ा, देव पूिा, दान, तीथषर्ात्रा, िप,
तप, शास्त्र अध्र्र्न, परोपकार र्े मनष्ट्ु र् िन्म के उिम फल हैं।
पूिन का फल : प्रपश्र्ंमत मिन भक्तर्ा पूिर्ंमत स्तवु ंमत र्े। ते दृश्र्ाश्च पूज्र्ाश्च भुवनत्रर्े ॥ प.
मव. ॥ अथष : िो भव्र् प्राणी भमक्त से मिन भगवान का पूिन, दशषन, स्तुमत-वंदना करता है, वह तीनों
लोकों में स्वर्ं ही दशषन, पि ू न और स्तमु त के र्ोग्र् हो िाता है। ‘पर्ू ाफलेण सव्वं पामवज्िइ णमत्थ
संदेहो ।’ अथष : पूिा के फल से सब कुछ प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं. भमक्तः श्रेर्ो नु- बंमधनी ।
(आमदपुराण) अथष : भमक्त कल्र्ाण का करने वाली है. आराहणा- पारंपरेण हु मोक्खस्स कारणं हवइ
। (आराधनासार) अथष : आराधना परम्परा से मोक्ष का कारण होती है . द्वेधामप कुवषतः पूिां मिनानां
मित-िन्मनाम् । न मवद्यते द्वर्े लोके दुलषभं वस्तु पूमितम् ॥ (अममतगमत श्रावका ार/15) अथष :
मिन्होंने सस ं ार िीता है, ऐसे मिनदेव की द्रव्र् और भाव दोनों ही प्रकार से िो परुु र् पि ू ा करता है,
उसे इस लोक और पर लोक में कोई भी उिम वस्तु दुलषभ नहीं होती. ‘भाव पूिा मनसा तद्गुणानुस्मरण’
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख ु दाई है.
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अथष : मन से अहषन्तामद के गण ु ों का म ंतन करना भाव पि ू ा है. पज्ू र्ो मिनपमतः पि ू ा
पुडर्हेतुमिषना षना । फल स्वाभ्र्ुदर्ा मुमक्तभषव्र्ात्मा पूिकः स्मृतः ॥ आ ार्षश्री उमास्वामी महाराि
ने 'उमास्वामी श्रावका ार' में पूज्र्, पूिा और पूिक की व्र्ाख्र्ा करते हुए मलखा है मक- “मिनदेव,
मिनेन्द्र-प्रभु पूज्र् हैं, पूिा के र्ोग्र् हैं, मिनदेव की अ षना करना पूिा है। पूिा से पुडर्, संसाररक
अभ्र्ुदर् एवं ममु क्त प्राप्त होती है, र्ही पूिा का फल है और भव्र् िीव पूिक है।”
मिन मबम्ब ममहमा : मबम्बादल समे ैत्र्े र्वमानं तु मबम्बकम् । र्ः करोमत मह तस्र्ैव
मुमक्तभषवमतसमन्नमधः ॥ अथष : िो पुरुर् मबम्बाफल के पिे के समान बहुत छोटा ैत्र्ालर् बनाता है,
उसमें िौं के समान छोटी-सी प्रमतमा मवरािमान करता है, इस प्रकार िो भगवान् की पूिा करता है,
समझना ामहए मक ममु क्त उसके अत्र्तं समीप है. अंगष्टु मात्र मबम्बं र्त् र्ः कृत्वा मनत्र्म षर्ेत् ।
तत्फलं न वक्तुं मह शक्र्ते संख्र् पुडर्र्ुक् ॥ अथष : िो भव्र् िीव एक अंगुल प्रमाण प्रमतमा की
प्रमतष्ठा कराकर मनत्र् पूिा करता है, उस प्रमतमा के मवरािमान करने एवं पूिा करने के फल को कोई
कह नहीं सकता है, वह असंख्र्ात पुडर् कमों का सं र् करता है. र्ग्ंथरत्न ‘पद्मनमन्द पं मवंशमतः’
के 'देश-व्रतोदद्यतन अमधकार में आ ार्ष रत्न 108 श्री पद्मनमन्द स्वामी ने मिन प्रमतमा एवं मिनालर्
की ममहमा को उद्घामटत करते हुए कहा है मक- मबबं दलोन्नमतर्वोन्नमत मेव भक्त्र्ा, र्े कारर्मन्त
मिनसद्य मिनाकृमतं । पुडर्ं तदीर् ममह वागमप नैव शक्ता, स्तोतुं परस्र् मकमु कारमर्तुद्दषर्स्र् ॥ िो
िीव भमक्त से कुन्दर के पिे के बराबर मिनालर् तथा िौं के बराबर मिन प्रमतमा का मनमाषण कराते
हैं, उनके पडु र् का वणषन करने के मलए र्ह वाणी सरस्वती भी समथष नहीं है, मफर िो भव्र्िीव उन
दोनों मिनालर् एवं मिन प्रमतमा का ही मनमाषण कराता है, उसके मवर्र् में क्र्ा कहा िार्े? अथाषत्
वह तो अमतशर् पडु र्शाली ही है. इस र्गु के महान् महाकमव, आ ार्ष रत्न 108 श्री रमवसेन स्वामी
ने र्ग्ंथ “पद्म- पुराण” पवष 32” में मलखा है मक- व्रतज्ञान तपोदानैर्ाषन्र्ुपािामन देमहनः । सवेमस्त्रष्ट्वमप
कालेर्ु पुडर्ामन भुवनत्रर्े ॥ एकस्मादमप िैनेन्द्र मबम्बाद् भावेन काररतात् । र्त्पुडर्ं िार्ते तस्र् न
समं ान्त्र्मत मात्रतः ॥ अथष :तीनों कालों और तीनों लोकों में व्रत, ज्ञान, तप और दान के द्वारा मनष्ट्ु र्
के िो पुडर्- कमष संम त होते हैं, वे भावपूवषक एक प्रमतमा के बनवाने से उत्पन्न हुए पुडर् की बराबरी
नहीं कर सकते हैं. मिनेन्द्रपूिा के अमधकारी र्ा पात्र के सम्बन्ध में कहा गर्ा है मक- 'पमवत्र, प्रसन्न,
गुरु व देवभक्त, दृढ़व्रती, सत्र्वक्ता, दर्ालु, तुर, कुशल, ज्ञानी, मवनर्शील ही पूिा करने का
अमधकारी होता है।' शुम ः प्रसन्नो गुरु देवभक्तो दृढ़व्रती सत्र्- दर्ा-समेतः । दक्षः पटुबीिपदावधारी
मिनेन्द्रपिू ासु सवे प्रशस्तः ॥ अथष : मिस गहृ र्ा भवन में मिनभगवान की प्रमतमा मवरािमान करते
हैं उसे मंमदर कहते हैं। िैन मंमदर मवश्व के अनमोल, दशषनीर्, पुरातत्त्वीर् संपदा के वैभव हैं एवं
आन्तररक भावों के प्रमतमबम्ब हैं. मंमदरों में मवरामित मिन प्रमतमाएाँ हमारी आस्था के प्रतीक हैं.
अब पढ़ते हैं आगे..... नए रहस्र् और रोमां से भरपूर िानकारी.....

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 74 of 151
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
मिन मंमदर ममहमा : मिनगेह समं पडु र्ं न स्र्ात् सद्गृमहणां क्वम त् ।
स्वगष-सोपान भादौ मुमक्त स्त्री दार्कं क्रमात् ॥
अथष : सद्गृहस्थों को मिनममं दर में िो पडु र् होता है, उसके समान कहीं अन्र्त्र नहीं होता, उनका वह
पुडर् आमद में स्वगष का सोपान होता है और मफर क्रम से मुमक्त स्त्री को देने वाला होता है। आ ार्षश्री
सकल न्द्र महाराि ने ' ैत्र्ालर्ाष्टक स्तोत्र' में मलखा है मक- मिनेन्द्र प्रभु के ममं दर को देखने मात्र
से भाव का ताप शांत होता है।
दृष्टं मिनेन्द्र भवनं भव-ताप- हारर,
भव्र्ात्मनां मवभव-सम्भव-भरू र-हेतु ।
दुग्धामब्ध फे न- धवलोज्िवल कूट-कोटी,
नद्ध-ध्वि-प्रकर-रामि - मवरािमानम् ॥
अथष : प्राणी भमक्त से मिनेन्द्र भगवान का न दशषन करते हैं , न पूिा करते हैं और न स्तुमत करते हैं,
उनका िीवन मनष्ट्फल है, उनके गृहस्थाश्रम को मधक्कार है।
र्े मिनेन्द्रं न पश्र्मन्त, पि
ू र्मन्त स्तवु मन्त न ।
मनष्ट्फलं िीमवतं तेर्ां मधक् गृहाश्रमम् ॥ पं मवंशमतका ॥
मिनभमक्त/ वदं ना का फल :
ददामत पररमनवाषण सुखं र्ा समुपामसता ।
मिननत्र्ा तर्ा तुल्र्ं न भूतं न भमवष्ट्र्मत ॥
आ ार्ष भगवन् महाकमव रमवसेन स्वामी ने शास्त्र रत्न पद्म पुराण के नौवे सगष में मलखा है
मक- 'िो मिन भमक्त अच्छी तरह उपासना करने पर मनवाषण सख ु प्रदान करती है उसके तल्ु र् दूसरी
वस्तु न तो हुई है और न होगी।' -
पादद्वर्ं मिनेन्द्राणां भव मनगषम कारणम् ।
प्रणम्र् कथमन्र्स्र् मक्रर्ते प्रणमतमषर्ा ॥
अथष :भव-समुद्र से पार पाने में कारण-भूत मिनेन्द्र भगवान् के रण-र्ुगल को नमस्कार कर अब मैं
अन्र् परुु र् के मलए नमस्कार कै से कर सकता हाँ?
अध्र्ात्म- मशरोममण, ौरासी पाहुड-कताष, आ ार्ष भगवन् 108 श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने
'र्ग्ंथराि 'पवर्णसार' में भी भगवत् श्रद्धान् व परमात्म-भमक्त का सुफल समझाते हुए कहा है मक-
तं सव्वतटठंवररटठं इटठं अमरासरु प्र्हाणेमहं ।
र्े सद्दहंमत िीवा, तेमसं दुक्खामण खीर्मत ॥
अथष :िो भव्र् िीव, स्वगषवासी देव तथा भवनमत्रक के इन्द्रों से मननीर् उस सवष पदाथों में श्रेष्ठ
परमात्मा का श्रद्धान करते हैं उनके सब दुःख नाश को प्राप्त हो िाते हैं।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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तं देवदेव देवं िमदवरवसहं गरुु ं मतलोर्स्स ।
पणममत िे मणुस्सा ते सोक्खं अक्खर्ं िंमत ॥
अथष :िो कोई भव्र् - आत्मा, देवों के देव सौधमष इद्रं ामद के द्वारा भी वन्दनीर् हैं, इमन्द्रर्ों के मवर्र्ों
को िीतकर अपने शुद्धात्मा में र्त्न करने वाले र्मतर्ों में श्रेष्ठ िो गणधरामदक उनमें भी प्रधान है, िो
तीन लोक का भी गुरु है, उसे प्रणाम करते हैं वे अमवनाशी-अतीमन्द्रर् सुख को प्राप्त करते हैं।
रणानर्ु ोग, आ ारांग सत्रू मल ू ा ार िी र्ग्थ
ं में कहा है मक-
अरहंत णमोक्कारं भावेण र् िो करेमद पर्दमदी।
सो सव्वदुक्खमोक्खं पावमद अम रेण कालेण ॥
अथष :िो प्रर्त्नपूवषक प्रर्त्नशील भाव से अहषन्त प्रभु को नमस्कार करता है, वह अमतशीघ्र ही सम्पूणष
दुःखों से छुटकारा प्राप्त कर लेता है।
"अरहतं णमोक्कारो सपं महर्-बध ं ादो असख ं ेज्ि-गणु -कम्मक्खर्-कारओमि ।" (क.पा.) अरहतं
नमस्कार तत्कालीन बन्ध की अपेक्षा असंख्र्ात गुणी कमष-मनिषरा का कारण है।
'भाव पाहुड' में भी कहा है मक-
मिणवर- रणंबरुु हं णममत िे परमभमक्तराएण।
ते िम्म - वेमल्लमूल,ं खर्ंमत वरभावसत्थेण ॥
अथष :िो भव्र्ात्मन् परम भमक्त रपी अनरु ागपवू षक, मिनेन्द्र भगवान के रण-कमलों में नत रहते हैं,
वे िन्म-मरणरपी संसार बेमल का उत्कृष्ट भमक्त रप शस्त्र द्वारा समूल उच्छे द कर देते हैं अथाषत् मोक्ष
प्राप्त कर लेते हैं।
नन्दीसघं के प्रधान आ ार्ष, आलौमकक र्ोगी, मिनेन्द्र-बमु द्ध, वैय्र्ाकरण, दाशषमनक, लेखक,
महाकमव, र्ुग-प्रधान, कमवर्ों में तीथषकर, पूज्र्पाद आ ार्ष रत्न 108 श्री देवनमन्द स्वामी ने मलखा
है मक-
िन्म िन्म कृतं पाप,ं िन्म कोमट समामिषतम् ।
िन्म मृत्र्ु िरामूलं हन्र्ते मिनवंदनात् ॥
अथष : मिनेन्द्रदेव की वन्दना करने से करोड़ों िन्मों में समं त मकर्ा गर्ा तथा िन्म-मत्ृ र्ु एवं
वृद्धावस्था का मूल कारण ऐसा अनेक िन्मों में मकर्ा हुआ पाप नष्ट हो िाता है।
एकामप समथेर्ं, मिनभमक्त-दुगषमतं मनवारमर्तुम् ।
पुडर्ामन पूरमर्तुं दातुं ममु क्तमश्रर्ं कृमतनः ॥
अथष : कतषव्र्परार्ण, मिनभक्त की एक मात्र मिनभमक्त नरकामद दुगषमतर्ों का मनवारण करने के मलए,
पडु र्ों को पणू ष करने के मलए और ममु क्त लक्ष्मी को देने के मलए समथष है।
अनन्तानन्त संसार, संतमतच्छे द कारणम् ।
मिनरािपदाम्भोि, स्मरणं शरणं मम ॥
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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अथष :मिनेन्द्रदेव के रण-कमलों का स्मरण, स्तवन, वन्दन ही पञ् परावतषन रप अनन्त सस ं ार की
अनामदकालीन परम्परा का मवच्छे द करने में समथष है।
नमहत्राता नमहत्राता नमहत्राता िगत्त्रर्े ।
वीतरागात्परो देवो न भतू ो न भमवष्ट्र्मत ।।
अथष : हे प्रभु! तीनों लोकों में आपको छोड़कर अन्र् कोई भी मेरा रक्षक नहीं है नहीं है, नहीं है, वीतराग
देव ही महादेव हैं, देवामधदेव हैं, इनसे बढ़कर अन्र् कोई देव न भतू काल में हुआ, न वतषमान में कोई
है और न ही भमवष्ट्र् काल में कोई होगा।
दशषनेन मिनेन्द्राणां पाप-संघात - कुंिरम् । शत-धा भेदमा- र्ामत मगररर् वज्र- हतो र्था ॥ धवला ॥
अथष :मिनेन्द्रदेव के दशषन से पाप संघात रपी कुंिर के सौ टुकड़े हो िाते हैं, मिस प्रकार मक वज्र के
आघात से पवषत के सौ टुकड़े हो िाते हैं।
िन-मबबं -दस ं णेण मणधि-मणकाम दस्स मव।ममच्छिा-मद-कम्म-कलावस्स खर्-दस ं णा दो॥धवला ॥
अथष : मिनमबम्ब के दशषन से मनधत व मनकाम त रप भी ममथ्र्ात्वामद कमष -कलाप का क्षर् देखा
िाता है।
मवर्घनौघाः प्रलर्ं र्ामन्त, शामकनी भतू पन्नगाः ।
मवर्ो मनमवषर्तां र्ामत स्तूर्माने मिनेश्वरे ॥
अथष : मिनेश्वर की स्तमु त करने से मवर्घनों का िाल समाप्त हो िाता है, शामकनी, भतू , सपष आमद की
बाधाएाँ क्षर् को प्राप्त हो िाती हैं तथा मवर् मनमवषर्ता को प्राप्त हो िाता है ।
मिनेन्द्र स्तुमत मिन वन्दना की ममहमा तुरानुर्ोग में सवषत्र ही वमणषत है, क्र्ोंमक अरहन्त प्रभु ही
मङ्गल हैं और महामङ्गल हैं। अरहतं की भमक्त से मनत मनकाम त कमष भी क्षर् को प्राप्त हो िाते हैं।
आ ार्ष भगवन् श्री समन्तभद्र स्वामी ने 'रत्नकरडडक श्रावका ार' में मिनेन्द्र-भमक्त की महिा
स्वीकारते हुए मलखा है मक-
देवामधदेव रणं परर रणं सवषदुःखमनहषरणम् ।
कामदुमह कामदामहमन, पररम नुर्ादादृतो मनत्र्म् ॥
मिन - स्तवन की ममहमा आगम अपार है मिसे स्तमु तकारों ने सवषत्र ही मलखा है । स्तमु त मवद्या
में भी कहा है मक-
िन्मरणमशखी स्तवःस्मृमतरमप क्लेशाम्बुधे नौःपदे।भक्तानां परमोमनमधःप्रमतकृमतःसवाषथषमसमद्ध परा ॥
मिनेन्द्र भगवान का स्तवन रप शुभ- भाव सस ं ार रपी अटवी (िगं ल) को नष्ट करने के मलए अमग्न
के समान है। मिस प्रकार अमग्न अटवी को नष्ट करती है , उसी प्रकार मिनेन्द्र का स्तवन रप शुभ भाव
भी सस ं ार के भ्रमण को नष्ट कर देता है और मोक्ष को प्राप्त करा देता है।
उपासकाध्र्र्न एवं समामध-भमक्त में भी कहा गर्ा है मक मिन भमक्त ही मात्र ज्ञानी की दुगषमत
का मनवारण करने में, पुडर् का सं र्न करने में और मुमक्त रपी लक्ष्मी को देने में समथष है।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
एका मप समथेर्ं मिनभमक्तदुगषमतं मनवारमर्तमु ् ।
पुडर्ामन पूरमर्तुं दातुं ममु क्तमश्रर्ं कृमतिनम् ॥
संत मशरोममण आ ार्ष रत्न 108 श्री मवद्यासागर िी महाराि के परम प्रभावक
मशष्ट्र्,मनभावन प्रव नों के प्रस्तोता, सामहत्र्कार, समामधस्थ मुमन श्रेष्ठ क्षमासागर िी ने भी अपने
प्रव नों में कहा था मक "पूिा हमारी आन्तररक पमवत्रता के मलए है, इसमलए पूिा के समर् एवं पूिा
उपरान्त अहोरात्र पररणामों में पमवत्रता बनी रहे ऐसा प्रर्ास मनरंतर करना ामहए। पि ू ा और अमभर्ेक
मिनत्व के अत्र्न्त सामीप्र् का अवसर है,इसमलए मनरंतर इमन्द्रर् और मन को िीतने का प्रर्ास करना
तथा मिनत्व के समीप पहुाँ ना हमारा किषव्र् है । द्रव्र् पि ू ा का अथष मात्र इतना नहीं है मक अष्ट द्रव्र्
अमपषत कर मदए और न ही भाव - पूिा का र्ह अथष है मक पुस्तक में मलखी पूिा को पढ़ लो। पूिा
तो गहरी आत्मीर्ता के क्षण हैं। वीतरागता से अनुराग और गहरी तल्लीनता का श्रेष्ठ द्रव्र्ों को सममपषत
करना अपने अहक ं ार और ममत्व-भाव को मवसमिषत करते िाना ही सच् ी पि ू ा है। "
उपरोक्त सम्पूणष आ ार्ों, ममु नर्ों, मनीर्ी मवद्वानों के मन्तव्र् को िानकर सारांश और संक्षेप
में हम कह सकते हैं मक 'मिनपूिा से इन्द्र तीथंकर, नारार्ण और क्रवमतषर्ों की समस्त सम्पदाएाँ
शीघ्र ही प्राप्त होती हैं। धन, धान्र्, महाभाग्र्, सौभाग्र्, सम्पदा, पत्रु - ममत्र, स्त्री, उिम कुल, उच् गोत्र,
दीघषआर्ु, अभीष्ट फल की प्रामप्त तथा संसार भ्रमण का नाश करने वाला सम्र्ग्दशषन, सम्र्ग्ज्ञान,
सम्र्क- ाररत्र तथा स्वगष-मोक्ष का सख ु मिनपि ू ा से प्राप्त होता है।' पूज्र् की पि ू ा से भव्र्- आत्मा
की िो मवशुमद्ध बनती है, उसे शब्दों में कह पाना असम्भव है। कहा भी है मक-
र्ः करोमत मिनेन्द्राणां पूिनं स्नपनं वा ।
सः पि ू ामाप्र् मनःशेर्ां, लभते शाश्वतीं मश्रर्म् ॥
नोट : िैसा मक प्रारंभ में ही आपने पढ़ा था... र्ह उपर्ुक्त मव ार एक नई म ंतन धारा को
बल देते है मक हम सभी ने अब तक मकतनी बार अमभर्ेक, पूिन, आरती सभी मक्रर्ाएं तो की परन्तु
मफर भी र्ही कह देते हैं मक हे भगवन् र्ह सब मेरे साथ क्र्ों हो रहा हैं ? ऐसा क्र्ों हो रहा हैं. र्ही सब
मदगम्बरा ार्ष श्रमण श्री मवशुद्ध सागरिी महाराि के सर्ु ोग्र् मशष्ट्र्- श्रुतसंवेगी श्रमण मुमन श्री सुव्रत
सागर िी महाराि द्वारा हमें समझार्ा िा रहा हैं महान् म ंतनीर् र्ग्न्थ सनु र्नपथगामी के सम्पादकीर्
में. र्ह मूल र्ग्न्थ मदगम्बरा ार्ष श्रमण श्री मवशुद्ध सागर िी महाराि के ही सु-मशष्ट्र् श्रुत संवेगी श्रमण
मुमन श्री सुप्रभ सागर िी महाराि द्वारा महावीराष्टक स्तोत्र पर आधाररत देशना सुनर्नपथ गामी से
उद्धृत हैं. श्रावकों को समझने हेतु और पूणष लाभ लेने हेतु बहुत ही सूक्ष्म और सहि सरल रप से ही
पूिा क्र्ों ? कै से ? मकसकी ? और इन सभी मक्रर्ार्ों का फल क्र्ा होता हैं ? हमारे परम उपकारी
गरुु देव बता रहें है. आइर्े आगे िानते हैं, हम भी कै से बने भगवान् ......

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श्रमण मुमन श्री १०८ सप्रु भ सागरिी महाराि


अब तक आपने पढ़ा था और िाना था तत्त्व (उपार् और उपेर्) के साथ साधन से साध्र् की
प्रामप्त कै से हो ? कौन नहीं ाहता मक मैं परमात्मा नहीं बनूाँ ? हर कोई ाहता है, र्ह मवधान क्र्ों र ा
? हम भी उस ाररत्र के 84 लाख उिर गुणों को प्राप्त कर, उन शीलों के 18 हिार गुणों की पूणषता
हो िाए, इसमलए उस ाररत्र शुमद्ध के मवधान को र कर हम अपने मवधान को बदलने का प्रर्ास कर
रहे हैं। क्र्ों कर रहे मवधान? क्र्ोंमक भगवान का मवधान नहीं है, अपना-अपना मवधान, मवमध का
मवधान कमों का मवधान बदलने के मलए भगवान का मवधान, ाररत्र शुमद्ध मवधान हम सब कर रहे
हैं। उपार् को समझना है, उपेर् एक है, साध्र् एक है पहुाँ ना सब को वहीं है, िहााँ वह भगवान पहुाँ े
हैं। लक्ष्र् तो वही है, िो आपका लक्ष्र् है, पर मागष अनेक हो सकते हैं। साध्र् एक है, साधन अनेक हो
सकते हैं। मकतना दुलषभ है र्ोग्र् साधन और र्ोग्र् मागष को प्राप्त करना। मकतने सारे मागष होते हैं, एक
रािमागष होता है पर पहुाँ ना हमें उस लक्ष्र् तक ही है। साध्र् एक है वह है मोक्ष, उस मोक्ष को प्राप्त
करना है तो हमें मोक्षमागष को समझना होगा । पहले अपनी सो को ठीक करना होगा। कई सारे मागष
हैं, पर साक्षात् मागष तो मोक्षमागष है 'सम्र्क् दशषनज्ञान ाररत्रामण मोक्षमागषः वहााँ तक पहुाँ ने के मलए
िो सम्र्गदशषन की भमू मका है, उस सम्र्गदशषन की भमू मका को पहले समझना होगा। अपने िीवन
को ऊाँ ाई तक पहुाँ ाना िीवन को अच्छा करना है तो सबसे पहले अपने सो को अच्छा करना

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ु दाई है.
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होगा। कै से बनें भगवान ? भगवान बनने से पहले भक्त भी तो बनना पड़ेगा, लेमकन आि कोई भी
भक्त नहीं बनना ाहता। उस भक्त और भगवान के संबंध को समझना होगा। कौन भक्त? भगवान को
नहीं मानते? पर भगवान को मानने से काम नहीं होगा कभी भगवान की भी माननी पड़ेगी। गुरु को
मानते हो, पर गुरु की बात मकतनी मानी ? गुरु की और भगवान की बात मान लेते तो ? कमठन क्र्ा
है? सब से कमठन र्ोग्र् साधन, र्ोग्र् समर् पर प्राप्त करना, र्े सबसे बड़ी कमठनाई है। एक थाली से
द्रव्र् उठाई, ढ़ा दी दूसरी थाली में, क्र्ा हो गर्ी भगवान की भमक्त ? समझना वास्तमवक भगवान
की भमक्त क्र्ा है? पूज्र्पाद स्वामी- सवाषथषमसमद्ध र्ग्ंथ में कह रहे हैं मक भमक्त क्र्ा है? "पूज्र्ेर्ु गुणेर्ु
अनुरागो भमक्तः" अररहंत, मसद्ध, आ ार्ष, उपाध्र्ार्, सवष साधु उन सभी पं परमेष्ठी, नवदेवता- िो
पूज्र् हैं उन पूज्र्ों में िो अनुराग है, वह अनुराग ही तुम्हारे मलए भमक्त है। ताल पीटना, ना -गान करना,
पानी फूल ढ़ाना, पर क्र्ा पानी, फूल ढ़ाने से तुम भगवान बन िाओगे? भगवान के पास पहुाँ
िाओगे क्र्ा? कभी नहीं बनोगे? भगवान को िैसे मानते हो, ऐसी भगवान की मानना। उनके गण ु ों
में अनुराग करना र्ह भमक्त है। महावीराष्टक स्तोत्र में भाग न्द्र कमव ने िो महावीर भगवान की स्तुमत
की है उस स्तुमत को ही हमें समझना है। एक-एक छंद, एक-एक अक्षर के माध्र्म से उन्होंने उस भमक्त
की व्र्ाख्र्ा की है। मिसमें िैन मसद्धांतों का ही नाश हो, वह मकंम त् भी भमक्त नहीं है। मााँ! आप
भिन में क्र्ा कहते हो- महावीर बनके ले आना, पाश्वषनाथ बनके ले आना, क्र्ा गुरु में तुम्हें गुरु
नहीं मदखता? कै सी दुदषशा है? देखना। साक्षात् गरुु बैठे हैं, मफर भी कहते हो गरुु नहीं, तमु भगवान
बन के आओगे तो ही पूिेंगे, गुरु को नहीं मानेंगे। आ ार्ष, उपाध्र्ार्, साधु गुरु में नहीं आते क्र्ा?
क्र्ा पं परमेष्ठी में नहीं आते? मफर भी भगवान को उतार रहे हो, अरे! वह तो मसद्धालर् में बैठ गर्े,
अब िो भी आर्ेगा वह दूसरा ही आर्ेगा, िो िीव बन गर्ा भगवान वह कभी भी तीन काल में नी े
आने वाला है ही नहीं, मफर भी कहते हो ले आना। कौन आर्ेगा? कोई भी नहीं आने वाला हमें ही
परमात्मा तक पहुाँ ना है। हमें उस परमात्मा बनने की शमक्त, िो मुझमें है उस शमक्त को ही उद्घामटत
करना है। परंपरा से संसार को पार करने का एकमात्र साधन अररहंत, मसद्ध भगवान की भमक्त ही है
और कुछ भी नहीं है। अध्र्ात्म के भिन सुना देना अध्र्ात्म की बातें करना भी अध्र्ात्म नहीं है।
वास्तमवक अध्र्ात्म में िीना ही अध्र्ात्म की बातें हैं , वही अद्वैत भमक्त है। अद्वैत और द्वैत, द्वैत र्ाने
दो। दो हो गर्े, एक परमात्मा और तुम्हारी आत्मा र्ह द्वैत भमक्त है और िहााँ मेरी आत्मा ही परमात्मा
बनने की शमक्त रखती है, वह िो ध्र्ान आमद की मक्रर्ा है, वह तुम्हारी अद्वैत भमक्त है। वह अद्वैत भमक्त
साक्षात् साधन है, 'साधकतम् करणं'। वह साक्षात् साधन अगर उस मोक्ष का, साध्र् का कोई है, तो
अद्वैत भमक्त है। परंपरा से र्ह द्वैत भमक्त भी हमारे मलए साधन का कार्ष करेगी। कभी श्रीफल देखा?
एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं, दस बार िब पटकते हो तो ग्र्ारवीं बार में फूटता है, तो िो दस बार
पटका था व्र्थष ला गर्ा? फूटा तो ग्र्ारवीं बार में था । तो पहले दस व्र्थष नहीं गर्े, उस कारण के
मलए पहले कारण थे ऐसे ही भगवान की द्वैत भमक्त भी, अद्वैत भमक्त तक पहुाँ ाने के मलए कारण है।
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
वह कारण का कारण होने से वह भी परंपरा से मोक्ष का ही मागष कहलाएगा। क्र्ा आपने आि तक
भगवान की भमक्त नहीं की? भमक्त तो की। 2-2 घडटे प्रमतमदन भगवान की भमक्त करते हैं , शांमतधारा
भी पढ़ते हैं, हो गई भगवान की भमक्त ? अरे! अनामद से हम भमक्त करते आ रहे हैं पर एक छोटी सी
भमक्त की थी, अड़तालीस ताले कै से टूटे ? उन मानतुंग स्वामी ने एक, दो, तीन, ार नहीं अड़तालीस
ताले उन्होंने भगवान की भमक्त से तोड़ मदर्े थे और तुम अपना सरददष भी ठीक नहीं कर पाते। क्र्ा
भगवान बदल गए ? भक्तामर बदल गर्ा? न भगवान बदले न भक्तामर बदला, वही आमदनाथ हैं,
वही भक्तामर है पर उनकी िो भमक्त थी, उनकी िो शमक्त थी, उनका िो मवश्वास था, िो श्रद्धा थी वो
तुम्हारे पास नहीं है, इसमलए तुम कट में हो। हमने भी भमक्त की सबकुछ मकर्ा, अरे अम ंत्र् शमक्त है
उस भमक्त में आ ार्ों ने ऐसे ही नहीं मलखा - मिनेभमक्त मिनेभषमक्त मिनेभषमक्त: मदने मदने । सदामे स्तु
सदामे स्तु सदामे स्तु भवे भवे ॥ दे.द.स्तु. । इस भव से पार होने के मलए अगर कोई साधन है, तो वह
एकमात्र “मिनेभमक्त मिनेभषमक्त मिनेभषमक्त: मदने मदने ।” अरे! मिनेन्द्र भगवान की ऐसी भमक्त करो मक
िो काम नहीं होते, वह काम भी हो िार्ें । मंत्रों में अगर कोई सबसे महान् मंत्र है, तो वह णमोकार
मंत्र है। देखना मकसी भगवान का नाम नहीं मलर्ा वहााँ पर, न भगवान का, न गुरु का नाम मलर्ा, क्र्ा
मलखा? मिन्होंने गण ु ों को प्राप्त मकर्ा है, अररहतं ों के 46 गण
ु ों को मिसने प्राप्त मकर्ा है उन सभी
अररहंतों को, मितने भी अररहंत हुए । िो मसद्ध हैं, मिन्होंने आठों कमों का नाश कर मलर्ा हो, आठ
मलू गण ु ों के धारक हैं, ऐसे सभी मसद्धों को नमस्कार हो । 36 मूलगण ु मिनके पास हैं, ाहे आि प्राप्त
मकर्े हों र्ा प ास साल पहले मकर्े हों उन सभी आ ार्ों को मेरा नमस्कार। मितने उपाध्र्ार्,
परमेष्ठी हैं, उन सब को नमस्कार। मिन्होंने साधु पद को प्राप्त मकर्ा है उन सब को नमस्कार । भगवान
की भमक्त को ही समझना है, क्र्ोंमक महावीराष्टक में िो मसद्धांत की बात भाग न्द्र कमव ने मलखी
है- उन मसद्धांतों की बातों को हमें समझना है। भगवान की भमक्त तो हमने अनामद से की है, लेमकन
आि तक फल क्र्ों नहीं ममला? हमने िो आि तक भमक्त की थी वह मिबूरी में की थी। सबका
पुडर् एक-सा नहीं होता। सबके हाथ का स्वाद भी एक सा नहीं होता। तुम्हारी मााँ भी भोिन बनाती
है और तुम्हारे बेटे की मााँ भी भोिन बनाती है, पर स्वाद तो मााँ के ही भोिन में होता है। अरे! र्े मााँ
का ही भोिन ल रहा है, बाहर का तमु मकतना भी सनु ना, र्े मिनवाणी मााँ का ही भोिन ल रहा
है। वही भक्तामर था, वही आमदनाथ थे, वही तुम्हारी भमक्त थी, पर मवमध क्र्ा थी? हमने भगवान की
भमक्त की, मवधान मकर्ा, धमष मकर्ा, सब कुछ मकर्ा पर हमारे भीतर कर्ार् की मडब्बी थी, इसीमलए
स्वाद वह कर्ार् का ही आर्ा । भगवान की भमक्त में हम कभी भी सफल नहीं हो पार्ेंगे। हमें भगवान
की भमक्त मिबूरी में नहीं करना, मिदूरी में भी नहीं करना है। कोई पुिारी हैं। पैसे ममल रहे हैं, मिदूरी
ममल रही है, दृमष्ट कहााँ है? मंमदर, ैत्र्ालर् बना रहे हैं तो अपने ही हाथ से भगवान की पि ू ा करना ।
उन आ ार्ष भगवंतों ने स्पष्ट मलखा है- अररहंत की पूिा, मनर्ग्ंथों को दान हमेशा स्वर्ं ही करना
ामहए। आप बहुत व्र्स्त थे, इसमलए पूिा करने के मलए आपने नौकर लगा मदए, मुमनराि को आहार
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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देने के मलए भी नौकर लगा मदए, वह भमक्त का फल मकसे ममलेगा? ऐसे तमु मिबरू ी के उस मिदूर
से काम करा रहे हो, भमक्त मकसकी कहलाएगी? फल मकसे ममलेगा? पुडर् मकसका ? पुडर्-फल
मकसे ममलेगा? तम्ु हें रिी मात्र भी पुडर् ममलने वाला नहीं है, वह उस नौकर को ही ममलेगा।
समझना, हमने अनामद से भमक्त की, पर कभी मिबूरी में की, कभी मिदूरी में की, पर आि
तक हमने मिबूती के साथ भगवान की भमक्त नहीं की, इसमलए हमारा आि-तक कल्र्ाण नहीं हुआ।
मिबतू ी के साथ अगर भमक्त की होती तो तीन काल में अकल्र्ाण होता ही नहीं। िबरदस्ती की िगह
अगर िबरदस्त होकर भगवान की भमक्त करोगे, तो तुम्हारा भी कल्र्ाण हो िाएगा। अरे! िबरदस्त
भावों को बनाओ, तब िाकर दो- ार भव में हमारा भी कल्र्ाण हो पार्ेगा। आओ करते हैं प्रभु की
भमक्त, समझना है हमें उसकी अम ंत्र् शमक्त । क्र्ोंमक र्ही है एक श्रेष्ठ महान् र्मु क्त । िो देगी तुम्हें
संसार में भुमक्त और सस ं ार से मुमक्त । समर् हो गर्ा है, मवराम का नहीं, म ंतन के साथ करेंगे पुनः आगे
की ाष क्र्ोंमक समर् पर मकर्ा गर्ा काम समर् को मदलाता है :-

र्दीर्े ैतन्र्े मक ु ु र इव भावामश्चदम तः,


समं भ्रामन्त धौव्र्-व्र्र्-िमनलसतं ो न्तरमहताः ।
िगत्साक्षीमागष - प्रकटनपरो भानरु रव र्ो,
महावीरस्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥ 1 ॥
अन्वर्ाथष : (र्दीर्े) मिनके ( ैतन्र्े) ैतन्र् रप ज्ञान में (ध्रौव्र्-व्र्र्-िमन) ध्रौव्र्, व्र्र् और उत्पाद
से (लसन्तः) र्ुक्त (अन्तरमहता:) अनंत (म द्-अम तः) ेतन और अ ेतन (भावाः) पदाथष (मुकुर)
दपषण के (इव) समान (समं) एक साथ (भ्रामन्त) प्रमतमबमम्बत होते हैं (िगत्साक्षी) िगत् साक्षात्कार
करने वाले (भानःु इव) सर्ू ष के समान (र्ः) िो (मागष प्रकटनपरः) मोक्षमागष को बताने में तत्पर हैं ऐसे
(महावीरस्वामी) वे महावीरस्वामी (मे) मेरे अथवा हम सभी के (नर्नपथगामी) नेत्रों के मागषगामी
प्रत्र्क्ष (भवतु) होवें।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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भावाथष: दपषण की भााँमत मिनके ज्ञान में िीव- अिीव सभी द्रव्र् र्गु पत् उत्पाद - व्र्र् - ध्रौव्र् समहत
प्रमतभामसत होते हैं, िो तीनों लोकों के प्रत्र्क्ष ज्ञाता-दृष्टा हैं, िो मुमक्तपथ बताने के मलए सूर्ष के
समान हैं, वे महावीर स्वामी मेरे नर्नों में रहें ।
अब तक आपने पढ़ा था : इस उपार् को प्राप्त करने के मलए कौन-सा उपार् करुाँ? मिससे
मक मकस प्रकार उस लक्ष्र् को प्राप्त कराँ ? ऐसे ही िो मेरा साध्र् है, वह भगविा का साध्र्, वह
अररहतं , मसद्ध िो मेरे साध्र्भतू थे, िो मेरे मलए आदशषभतू हैं. वही एकमात्र ऐसा उपार् है िो मझ ु े
इस संसार से पार कराने वाला है. हमने भेर् बदल मदर्ा, क्र्ोंमक भगवान की आराधना करनी है,
पमडडत िी ने कहा है मक - धोती-दुप्पट्टा में आ िाओ तो आप उस धोती दुप्पट्टे में आ गर्े, क्र्ा बदला
? हमें अपनी वही सो को बदलना है, उस कर्ार् के भरे अपनी सो को मनकालकर अपनी सो
को बदलना है, हमनें र्ही समझा मक हमें बदलना है, उस भेर् को बदलने से हमारा कल्र्ाण होने
वाला नहीं है. तमु ने पीली धोती पहन ली,तमु ने सफे द धोती पहन ली, अरे! उस पररधान बदलने से
कल्र्ाण नहीं होगा. पररधान के साथ पररणाम बदल दोगे तो ही तम्ु हारा कल्र्ाण हो सकता है. गुरु
के पास आते हो तो कै से आते हो ? ममत्रों के साथ िाते हो तो कै से िाते हो ? उस भेर् और पररधान
बदलने के साथ हमें उन पररणामों को भी बदलना है,क्र्ोंमक उस भगवान की भमक्त को हमें समझना
है।
महावीराष्टक का मात्र आलबं न है. अरे! तम्ु हारे धवल वस्र,तमु से अमधक धवल वह बगल ु ा
होता है, कै सा होता है ? धवल बगुला होता है, पर पररणाम ? वह एक टांग पर खड़ा होकर ध्र्ान भी
करता है। राम, लक्ष्मण, सीतािी पथ पर िा रहे थे, लक्ष्मण कहता है, देखना श्रीराम तुम्हारा भक्त कै से
खड़ा है, एक टांग पर तम्ु हारा ध्र्ान करने के मलए खड़ा है, भगवान के ध्र्ान में लीन है। हम र्ही भल ू
कर बैठते है, तुरंत व्र्मक्त से प्रभामवत हो िाते है, श्रीराम कहते है भूल मत करना, एक टांग से खड़ा है,
धवल वणष है, पानी में ध्र्ान कर रहा है, ध्र्ान मेरा नहीं कर रहा िैसे ही मछली मदखी, तो उस ों
से मकसे ुना ? उस मछली को ही ुना िैसे ही मछली उसने ों में पकड़ी राम कहते है, देखो कौन
भक्त है ? कौन कमबख़्त है ? अरे ! भक्त नहीं वो तो कमबख़्त था, मछली पकड़ने के मलए मार्ा ारी
कर रहा था, मात्र भेर् धारण मकर्े था। पर पररणाम उसके धवल नहीं थे उन धवल पररणामों को प्राप्त
करना है। उस भक्त को ही समझना है,अपनी-अपनी भमक्त को ही समझना है। सुबह भी हम समझ रहे
थे "पूज्र्ेर्ु गुणेर्ु अनुरागो भमक्तः।" पूज्र्ों के गुणों में अनुराग करना वही भमक्त है। साधन की ाष
कर ही रहे है,पर साधन समझने से काम नहीं होगा, साध्र् भी बनना होगा,साधन का उपर्ोग भी हमें
करना होगा। साध्र् हमारा िो भगवान है,अररहंत है, मसद्ध है वहााँ तक पहुाँ ना है। िो तुम्हारे मलए
फे वरेट होता है,तमु भी उसके िैसा बनना ाहते हो। ऐसे ही हम सब का अगर कोई आदशष है,तो वह
अररहंत भगवान है, हमें भी उनके िैसा बनना है। उस आदशष पर हमें आि ाष करनी है।
कौन मेरे मलए आदशष ? िो मुझे पसंद है,मै मिसके िैसा बनना ाहता हाँ.
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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अरे! उस साध्र् को प्राप्त करना है,हमें भगवान बनना है,अररहतं बनना है,मसद्ध बनना है,तो
पहले उनके िैसे,उनके गुणों को समझकर,गुणों में अनुराग करना और अनुसरण करना होगा।भगवान
क्र्ा है ? िो हमारे मलए आदशषभूत है,मिसके िैसा मै बनना ाहता हाँ,वहााँ तक पहुाँ ना है,उस आदशष
को समझना है,कौन-सा आदशष? अरे! मात्र Idol/ममू तष नहीं भगवान को भी आदशष कहते है। हााँ
भगवान की भमक्त करना है। अरे ! उस को इतना भी मववेक नहीं रहता, मैं कहााँ हाँ? क्र्ा कर रहा हाँ?
मात्र अपनी धनु में लता है. ठीक अपने आप को करना है । अरे! भगवान का अमभर्ेक भी भगवान
के मलए मत करना, भगवान को िररत नहीं है। लोग कहते हैं, हम अमभर्ेक नहीं करेंगे तो भगवान
बासे रह िार्ेंगे। उन्हें नहाने की, अमभर्ेक की आवश्र्कता नहीं है। अमभर्ेक उनका करना है , पर
पापमल अपने धोने है। देखना उनको है, पर साफ अपने आप को करना है। नहीं तो भगवान को मघसते
रहे सुबह से शाम तक मेरे पाप क्र्ों नहीं धुल रहे? अरे! उनको देखकर, उनके िैसे बनने का प्रर्ास
करना है, तो अपने भीतर लगे उस कमषकामलमा को दूर करना है । उसको दूर करने के मलए हमारे मलए
िो साध्र्, आदशष, दपषणभूत बने थे उनके गुणों का अनुराग करो और अनुसरण करना ही वास्तमवक
भमक्त है। आि तक भमक्त को क्र्ों नहीं समझे? अरे! मकतना मवश्वास है? िब तुम्हें भख ू लगती है, तो
तमु रोटी खाते हो, मकसने बतार्ा तम्ु हें की रोटी खाने से पेट भरता है? मााँ ने बतार्ा, मकतना मवश्वास
है मक मैं अगर 2 रोटी के टुकड़े खा लूाँगा तो मेरे पेट की भूख ममट िाएगी। अरे! िैसे रोटी पर तुम्हारी
श्रद्धा है, मवश्वास है, िैसे मााँ के शब्दों पर मवश्वास है ऐसा मेरी मिनवाणी मााँ के व नों पर मवश्वास हो
िाए तो तुम्हारी भव भव की भूख ममट िाएगी। ऐसा श्रद्धान, ऐसा मवश्वास कभी उस भगवान पर
भगवान की भमक्त पर नहीं हुआ। हुआ? नहीं। मात्र शब्दों में हुआ वैसी भमक्त अगर हम करते तो मवश्वास
मानना। अरे! 48 ताले उन्होंने एक भक्तामर पढ़ने से तोड़ मदए थे अरे हमें 148 ताले तोड़ने हैं कौन से
148 ताले? कमों की मकतनी प्रकृमतर्ााँ? 148 हमें उनको तोड़ना है। हमें मकतनी और कै से भमक्त करनी
पड़ेगी? र्ह हमें समझना है। भमक्त के मबना मुमक्त संभव नहीं है। ाहे वह अद्वैत हो र्ा द्वैत भैर्ा!
पं मकाल में मुमक्त का छठे काल से ब ने का कोई साधन है, तो वह एक मात्र द्वैत भमक्त ही है।
अनामदकाल से हमारी आत्मा में िन्म - िरा और मृत्र्ु रपी रोग लगे हैं, उनका उपशमन
करने वाली- अगर कोई और्मध है तो वह एकमात्र मिनवाणी ही है , हम सभी के मलए परम उपकारी
है । भव्र्ात्माओ ! उस अद्वैत भमक्त को प्राप्त होने के मलए पहले हमें उस द्वैत भमक्त का आलबं न लेना
होगा, इसमलए उस द्वैत भमक्त को हम समझने का प्रर्ास कर रहे थे। उस कारण को, उस भमक्त को प्राप्त
करने के पहले-पहले हमें उस कारण को ही समझना होगा मक मिससे उस भमक्त के कारण तक, भमक्त
के साधन तक हम पहुाँ सकें । कै से पहुाँ ेंगे? भावों की शमु द्ध द्वारा ही हम वहााँ तक पहुाँ सकते हैं।
िब तक भावों में शुमद्ध नहीं है, मव ारों में शुमद्ध नहीं है, तब तक हम अपने लक्ष्र् तक भी नहीं पहुाँ
सकते। कै से शुमद्ध को प्राप्त करें? द्रव्र् शुमद्ध से मात्र काम नहीं होगा, भाव की शुमद्ध करनी है, अपने-
अपने मव ारों को शुद्ध करना है कारण तो हमारे मलए भगवान की भमक्त है, पर भगवान की भमक्त
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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कौन करेगा? अरे! िब तक कर्ार् तम्ु हारे भीतर है तब तक तमु सच् े भगवान की सच् ी भमक्त कर
ही नहीं सकते। िब तक कर्ार् तुम्हारे पास है, तब-तक भगवान की भी भमक्त नहीं कर सकते। मकतनी
प्रकार की कर्ार्? एक प्रशस्त और दूसरी अप्रशस्त। िो प्रशस्त कर्ार्, राग है, अनुराग है वही तो
भमक्त थी, अगर भीतर तुम्हारे भगवान के प्रमत समपषण नहीं होगा, राग नहीं होगा, अनुराग नहीं होगा
तो मकंम त् भी तुम भगवान की भमक्त नहीं कर सकते और कर्ार् है, राग है, द्वेर् है संसार के प्राणीर्ों
के प्रमत, अगर वह हींग की मडब्बी साफ नहीं की है तो कभी भी के सर की खश ु बू आने वाली नहीं है
मडब्बी भी नहीं है तो? मडब्बी भी िररी है, मबना मडब्बी के भी के सर नहीं रख सकते , पर हींग की
मडब्बी में के सर, के सर भी नहीं ब ी थी। भगवान की भमक्त को समझना है और भावों की शुमद्ध नहीं
तो भगवान की भमक्त साथषक होने वाली नहीं है। भावों शुमद्ध तो िरुरी है,पर भावों के साथ-साथ द्रव्र्
की शुमद्ध भी िररी है। शटष -पेन्ट पहन के क्र्ों नहीं बैठते मवधान में ? क्र्ोंमक िैसे पररणामों की शुमद्ध
ामहए वैसे पररधानों की भी शमु द्ध ामहए। भावों के साथ द्रव्र् की और द्रव्र् के साथ भावों की शमु द्ध
ामहए। शुद्ध भाव, शुद्ध द्रव्र् नहीं करोगे तो मकंम त् भी फल फमलत होनेवाला नहीं है। ध्र्ान रखना
िीवन में मकतने भी भले बरु े-मदन आ िार्ें, ाहे ऊाँ ाई तक पहाँ ो, ाहे नी े मदन भी देखने ममल
िार्ें, पर कभी भी भगवान के प्रमत, अपने प्रमत आत्ममवश्वास को डगमग होते नहीं देखना। कभी धपू
होती है, कभी छाव होती है। सबके मदन एकसे नहीं होते, सब मदन भी एक से नहीं होते। िब कमठन
मदन आर्े तभी तो तम्ु हारी समता की परीक्षा है, तभी तो तम्ु हारी और भगवान की भमक्त की परीक्षा
है। मकतने लोग देखे, िब खुश थे, सब कुछ था, धन संपमि थी तो रोि भगवान की पूिा कर रहे थे
और थोड़ा-सा संकट आ गर्ा तो भगवान को गाली देने लग गर्े, भगवान ने मेरे साथ धोखा कर
मदर्ा। मैं इतनी पि ू ा करता था, इतना धमष करता था, पर भगवान ने मेरा सब कुछ छीन मलर्ा। कौन
होते हैं भगवान देने वाले ? भगवान नहीं देते। "कमषप्रधान मवश्वकर राखा, िो िस करहीं सो तस फल
ाखा िो िैसा करता है उसको वैसा ही फल ममलता है। भगवान, गुरु, तुम्हारी भमक्त, मात्र मनममि
है कारण का कारण है। उस कारण के कारण को ही समझना होगा। अपने कमों को अगर सुधारना है,
तो पहले अपनी करतूती को भी सुधारना होगा। मााँ! आस्रव िारी है। प्रमत समर् आस्रव िारी है,
मनणषर् मझ ु े करना है मक मैं मकन भावों से भगवान की भमक्त कर रहा हाँ। गमणत के सत्रू मकतने होते हैं?
अरे एक सत्रू होता है, पर वह सूत्र मात्र एक गमणत में नहीं लता, मितने उसके िैसे गमणत होते हैं उन
सभी में वो सत्रू लता है ऐसे ही हमारी मिनवाणी के भी सूत्र हैं। भगवान की भमक्त करने की भी
मवमध मलखी है। अरे! दान देने में मवशेर्ता,भगवान की भमक्त करने में मवशेर्ता कब आर्ेगी ? हम
खड़े हैं, भगवान का अमभर्ेक कर मलर्ा और कह रहे हैं - 'इह मवमध ठाड़ो होर् के ' कभी द्रव्र् धोने
गए, कभी पस्ु तक उठाने गए, कहीं बैठे हैं और कह रहे 'इह मवमध ठाडो होर् के ' क्र्ा अथष होता है?
ठाड़ो मतलब तुम्हें एक िगह पर खड़े होकर भगवान की मवनर् करनी थी, मवनर्पाठ ल रहा है और
द्रव्र् धो रहे और क्र्ा कह रहे? 'इह मवमध ठाड़ो होर् के ' इस प्रकार भगवान की पूिा कर रहे । खड़े हैं
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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नहीं, घमू रहे र्हााँ से वहााँ, वहााँ से र्हााँ मकस बात की मवमध ? क्र्ों नहीं ममल रहा मझ
ु े आि तक
फल? भगवान की भमक्त क्र्ा आि तक नहीं की? की है, की है मााँ सबने भमक्त की है, पर भमक्त करते-
करते िो बी -बी में कर्ार् के द्वारा मार्ा ारी की है उसी का र्ह फल है। कम-से-कम भावों की
शुमद्ध रहती तो पुडर् ही ममलता, मार्ा ारी करके ममला क्र्ा? भगवान के पास आकर भी मार्ा ारी
नहीं छोड़ेंगे तो क्र्ा होगा ? क्र्ों नहीं फल ममला? हम मक्रर्ा इतनी सी करते हैं, भमक्त इतनी सी करते
हैं और इतनी सारी मार्ा ारी कर बैठते हैं, फल तम्ु हें इतनी भमक्त का नहीं, इतनी सारी मार्ा ारी का
मनर्म से ममलेगा। पर नहीं अंतरंग में कर्ार् थी, कर्ार् के कारण हमने िो भगवान की भमक्त की वह
आि तक सफल नहीं हो पाई।
र्दीर्े ैतन्र्े मुकुर इव भावामश्चदम तः,
समं भामन्त धौव्र्-व्र्र्-िमन लसतं ो न्तरमहताः ।
िगत्साक्षीमागष प्रकटनपरो भानरु रव र्ो,
महावीर स्वामी नर्नपथगामी भवतु मे ॥1॥
'महावीर स्वामी नर्नपथगामी भवतु मे।' ऐसे महावीर स्वामी मेरे मलए नर्न के पथगामी बनें।
पूरा सारांश इतना ही है मक पहले छंद में क्र्ा मलखा? भगवान के उस के वलज्ञान की ममहमा बताई।
भगवान महावीर स्वामी की भागेंदु कमव ने स्तमु त की, मक भगवान आप महान् क्र्ों हो ?
आपकी मैं स्तुमत क्र्ों कर रहा हाँ? क्र्ोंमक आपका िो के वलज्ञान है, उस के वलज्ञान में दपषण की तरह
प्रत्र्ेक पदाथष तटस्थ भाव से झलकते िाते हैं , साक्षी भाव से मदखते हैं, आप झलकाते नहीं हो, आप
िानने का प्रर्ास भी नहीं करते हो, पर मफर भी अपने आप उसमें झलक िाते हैं। आपके के वलज्ञान
में आप कुछ भी नहीं करते, अपने आप सबकुछ पदाथष, लोक, आलोक, प्रत्र्ेक वस्तु, उसके द्रव्र्,
गुण, पर्ाषर्, उत्पाद, व्र्र्, धौव्र् से समहत, अंत से रमहत उनके के वलज्ञान में झलकती रहती हैं ऐसे
महावीर स्वामी िो हमें भानु की तरह, आमदत्र् की तरह मागषदशषन करने वाले हैं , मेरे मलए नर्न
पथगामी बनें ऐसे महावीर स्वामी की स्तुमत करके उन्होंने आने वाले छंदो में तो और भी अच्छी बातें
मलखीं। उसे भी सनु ना है। पर मफर भी सनू ा-का-सनू ा ही रह गर्ा मकतना सनु ा मकतना सनु ा? गनु ने और
ुनने के मलए समर् देना पड़ेगा, पर समर् तो हो गर्ा आि का। सुनते- सुनते पता ही नहीं ला होगा
? शेर् ाष कल करते हैं। कल आओगे क्र्ा? सुनने की गुनने की ुनने? सुनोगे नहीं तो ुनोगे कै से?
इसमलए सुनने मिनवाणी पनु ः ममलते हैं समर् पर, क्र्ोंमक समर् पर मकर्ा गर्ा काम समर् को
मदलाता है।
अब इसके आगे और अमधक िानते है मक श्रतु सवं ेगी श्रमण ममु न श्री १०८ सप्रु भ सागरिी महाराि
हमारी मवशुमद्ध को वधषमान करने हेतु क्र्ा-क्र्ा और कै से-कै से सरलीकृत उपार् बता रहें हैं मिससे
हम सभी का िीवन सुखमर् और शांमतमर् हो सके . तो लें और िाने ... सुखी होने का उपार् ....
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
अंमतम मतथेश वद्धषमान स्वामी के शासन में हम सभी मवरािते हैं और उनकी र्ह पावन,पीर्र्ू
देशना हम सभी के मलए परम उपकारी हैं।अनामदकाल से हमारी आत्मा में िन्म-िरा और मृत्र्ु रुपी
िो रोग लगे हैं उनका उपशमन करने वाली- अगर कोई और्मध है तो वह एकमात्र मिनवाणी ही है ।
भव्र्ात्माओ! हम उस ढंग को समझने के मलए और ढोंग के िीवन से दूर होने के मलए हम
सभी र्हााँ एकमत्रत हुए हैं। िो आि तक हमने ढोंग का िीवन मिर्ा था उस ढोंग के िीवन को छोड़कर
उस ढगं से िीवन में िीने के मल,िीने के ढगं को समझने के मलए हम सभी एकमत्रत हुए हैं। हम उस
भगवान की भमक्त को समझने का प्रर्ास कर रहे थे मक कौन भगवान ? कौन अघवान ? कौन भक्त
? और क्र्ा है भमक्त ? क्र्ा आि तक कभी भमक्त नहीं की ? क्र्ा आि तक कभी भगवान के पास
नहीं गए ? गए...गए,खूब भगवान के पास गए खूब भगवान की भमक्त की, पर आि तक हमने ढंग से
कोई कार्ष नहीं मकर्ा।िो कुछ भी मकर्ा वह मात्र ढोंग की मक्रर्ा रप करते रहे,इसमलए आि तक
हमें कोई फल नहीं ममला ।अब अपने उस ढोंग को छोड़कर वास्तमवक ढोंग को समझने के मलए, उस
वास्तमवक भगवान की भमक्त समझने के मलए हम सभी र्हां बैठे हैं ।
कौन सा धमष ? कौन सा पथ ं ? र्े पंथ, र्े संप्रदार्, र्े संत मात्र तुमने अपने अहंकार के पीछे
बना के रखे हैं ,वास्तमवकता में धमष की व्र्ाख्र्ा पथ ं ों में है ही नहीं पर मफर भी हमने अपने अहक ं ार
के पीछे उस धमष को पंथों में, संतों में, संप्रदार्ों में बांट के रखा। कोई भी सही संत होगा, कोई भी धमष
होगा, कभी भी पथ ं ों मक बात करता ही नहीं है। कब मसखार्ा तम्ु हें मक तमु पथ ं ो में बट िाओ ?
मकसी ने नहीं मसखार्ा। वास्तमवकता में भगवान का एक ही रप है। िो मेरे भीतर आत्मा है वही
परमात्मा का स्वरुप है, मिसने उसे िान मलर्ा इससे बड़ा अध्र्ात्म क्र्ा होता है। कौन सा परमात्मा
? अरे! क्र्ा मात्र पत्थर के भगवान को तमु ने पि ू ना प्रारंभ कर मदर्ा, वह भगवान नहीं है, भगवान
तुम्हारे भीतर है, भगवान हमारे भीतर है,अपने उस शरीर की उस शमक्त को समझना,उस भगवान को
प्रकट करना ही वास्तमवकता में भमक्त है। भक्त र्ामन िुड़ना है और मवभक्त र्ामन दूर होना है। मिसने
अपने आपको परमात्मा से िोड़ मलर्ा,अपने आप में िोड़ मलर्ा उनकी वीतरागता को मिसने प्राप्त
कर मलर्ा भगवान िैसे बनना ही उसकी भमक्त है उनके गुणों को प्राप्त करना ही उनकी भमक्त है क्र्ों
कहा था 'वदं े तदगण ु लब्धर्े?' सार एक ही है, तमु ने श्मे बदल कर रखे हैं। लाल श्मा हो तो सामने
की वस्तु लाल मदखेगी, पीला हो तो पीली मदखेगी और नीला हो तो नीली मदखेंगी, दोर् वस्तु में नहीं
था, न दोर् आंखों में था ,तुमने आंखों के सामने मिस पंथ का श्मा लगार्ा था वैसे ही तुम्हें परमात्मा
और वैसे ही तुम्हें भगवान मदख रहे थे। भगवान में, परमात्मा में अंतर नहीं है, अपन-अपनी समि में
और अपने-अपने उस श्मे के नंबर में अंतर है ।ऐसे ही हम सबने अपने-अपने भेर्, अपनी- अपनी
व्र्वस्था, अपने-अपने रप बनाकर रखे हैं, पर वास्तमवकता में परमात्मा कोई वस्तु, कोई स्थान नहीं
है। वास्तमवकता में तो परमात्मा िो मेरे भीतर की आंतररक शमक्त हैं,वही परमात्मा शमक्त है।िो मेरी
आत्मा की अंमतम अवस्था है वही सबसे बड़ा परमात्मा है, उससे बड़ा कोई परमात्मा होता ही नहीं
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है। कौन है परमात्मा? कोई पत्थर के मात्र परमात्मा है? कोई कागि में रखे परमात्मा है? दैमवक शमक्त
बाहर नहीं है, दैमवक शमक्त िो मेरे भीतर है, उसे ही िार्ग्त कर लो,तुम दूसरे देवों को नहीं अपने आप
को ही देव मानकर पूिने लग िाओगे। भगवान की भमक्त करना है, िो आि तक हमने ढोंग मकर्ा
था उस ढोंग से िो हमने प्रदशषन मकर्ा था, उस प्रदशषन में मकंम त् भी धमष नहीं है। हम क्र्ा करते हैं ?
मकतना ढंग से करते हैं दशषन और मकतने ढोंग से प्रदशषन करते हैं, पहुं गए श्रीफल लेकर, प्रव न
ल रहा था, गरुु के रणों में ढ़ाना था, पर शांमत से िहां बैठे थे, वहां भी ढ़ा सकते थे, पर नहीं
गुरु के पास िाकर ही ढ़ार्ा। दुमनर्ा को कै से पता लेगा मक तुम आए हो? र्े था ढोंग,र्े था
प्रदशषन। िब-तक प्रदशषन करते रहेंगे, िब-तक ढोंग करते रहेंगे, तब तक ढंग से मवमध प्रारंभ होने वाली
नहीं है।
'मवमध द्रव्र् दातृ-पात्र मवशेर्ािमद्वशेर्ः।।06/39/त.स.ु ।।
कै से मवमध करनी है? कै से द्रव्र्ों को हमें संिोना है। देखना, घर में खाने के मलए तो बासमती
ावल लाते हो और भगवान को ढानेे़ के मलए कंट्रोल की दुकान से लाईन में खडेे़ होकर लार्ेंगे।
घर में खाने के मलए तो बड़े से बड़ा श्रीफल, पानी भरा हुआ ले आर्ेंगे और भगवान को ढ़ाने के
मलए बिा-बिा कर सूखा सा ढार्ेंे़ गे, मोक्ष का फल सख ू ा ही रहा। क्र्ों ? आि तक भमक्त का फल
नहीं ममला,उस मवमध को नहीं समझा,द्रव्र् को नहीं समझा। अरे! क्रवती भी पूिा करता है, भगवान
की भमक्त करता है, पर तुम्हारे िैसे नहीं मक ुटकी भर ावल लेकर अर्घर्ष मनवषपामीमत स्वाहा। ौके
में मााँ इतनी कंिस ू , इतनी सी ुटकी भर ावल ढ़ाती हैं और कहती है 'अक्षर्पदप्राप्तर्े अक्षतान्
मनवषपामीमत स्वाहा'। धुल- धुल के अक्षत के टुकड़े- टुकड़े हो गए, कै से तुम्हें अक्षर्फल ममलेगा? बाद
में देखना वही पूरी थाली घुमाके ढ़ा देंगे,अरे! तभी ढ़ाते मुट्ठी भर के । आगम में मलखा है, पुराणों
में मलखा है, तुम पूिा भी करो, भगवान की भमक्त भी करो तो ऐसी भमक्त करो, ऐसी पूिा करो, ऐसे
द्रव्र् ढ़ाओ की पड़ोस में बैठे व्र्मक्त को भी लगे अरे! र्ह मकतने सुंदर द्रव्र् ढ़ा रहे हैं। करना है तो
ऐसी भगवान की भमक्त करना सीखो। द्रव्र् भी ढ़ाना है तो ावल, बादाम भी ामहर्े,मााँ कौन सी
बादाम? मंमदर में ढ़ी ढ़ाई बादाम कहां िाएगी? वह माली के घर िाएगी। घर िाकर वह बािार
में बे ता है और ₹150 में ममलने वाली बदाम 100 रुपए में ममलती है , तुम पहुं िाओगे लेने, लो
ममल गर्ा तम्ु हें फल। मकस का फल ममलेगा? फल तम्ु हें आि तक क्र्ों नहीं ममला, क्र्ोंमक सब कुछ
मवमध की, द्रव्र् भी ढ़ार्ा था, पात्र भी था, दाता भी था, पर भावों की शुमद्ध नहीं थी। िो भीतर की
अमभव्र्मक्त थी वही तुम्हारी बाहर व्र्क्त होती है। िो-िो हम अंदर सो ते हैं वह सबकुछ मक्रर्ा में
मदखता है। हम सो ते हैं, हम िो भीतर करें वह बाहर पता नहीं लता । अरे !िानवर भी तुम्हारी आंखें
पढ़ना िानता है,मफर तुम्हारे माता-मपता, वह भाई-बंधु तुम्हारी आंखें नहीं पढ़ पाए ऐसा हो ही नहीं
सकता। देखना, िब तमु बहतु गस्ु से में हो तो िानवर के सामने िाना, िानवर भी रास्ता काट के ला

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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िाएगा। तम्ु हारा ेहरा, तम्ु हारी आख ं ें, तम्ु हारी नाक,तम्ु हारा प्रत्र्ेक मवर्र्, वह तम्ु हारे अंतरंग की
अमभव्र्मक्त करने के मलए है।
भगवान की हमें भमक्त करना है, वह िो साधन ममला है उस साधन का उपर्ोग करना सीखना
है। भक्त क्र्ा था? कौन था? नाम का भक्त नहीं । भेर् बदलने से भी कोई भक्त नहीं होता। बगुला ने
भी सफे द कपड़े पहने थे, कौन बनेगा भक्त? भक्त वही है िो भगवान के गुणों से िड़ु ता है। भमक्त के
ार सोपान है। पहला सोपान िो हमारे मलए इष्ट है ,पहले उनके गण ु ों को समझना होगा। उनके गण ु ों
को देखना पड़ेगा। वो रोमहत शमाष कै से बल्ला पकड़ता है, कै से बल्ला घुमाता है, कौन से गुण उसके
पास है ? उन गुणों में अनुराग करना पहली सीढी थी। े़ मफर उन गुणों को प्राप्त करने के बाद िब तुम
खेलने खड़े होते है तो क्र्ा सो ते हो ? तुम वह नहीं सो ते मक मै कै सा खेल रहा हाँ,तुम वही सो ते
हो मक ऐसा बॉल आने पर रोमहत शमाष कै सा मारता है। देखना हम भगवान की भमक्त कर रहे हैं, पर
दृष्टांत बाहर का है । िब तमु खेलने खड़े होते हो तब उनके गण ु ों का स्मरण करते हो मक कै से उन्होंने
उन गुणों को प्राप्त कर मलर्ा, मफर उन गुणों का स्मरण करने के बाद म ंतन करते हो मक मुझे क्र्ा
करना है? र्े सो कर मफर वैसा प्रर्त्न भी करते हो। इस प्रकार ार सोपान है। पहले उन गुणवान के
गणु ों से िड़ु ना, गण ु वान के गणु ों से अनरु ाग करना, मफर उन गण ु वान के गण ु ों का स्मरण करना और
उनका मेरे मलए म ंतन करना। मैं कै से वहां तक पहुं सकता हाँ और साक्षात उसके मलए प्रर्त्न करना
र्ह वास्तमवकता में भमक्त के ार सोपान है।
दृष्टांत बाहर के इसमलए मदए िाते हैं क्र्ोंमक िो िहां का होता है उसकी बात उसे कह दो तो
उसके िल्दी समझ में आती है। हमें भगवान की भमक्त करनी थी, हमें भगवान से िुड़ना था, उस पमवत्र
भावों से िड़ु ना था। मकतने गद् गद् भाव होते हैं िब हम भगवान की भमक्त के मवर्र् में सो ते हैं। वह
िो पमवत्र भाव हमें भगवान तक, गुणवान तक पहुं ाने का एक सेतु (Bridge) है। संसार सागर से
अगर पार होना है तो तुम मोक्षमागष रपी, रत्नत्रर् रपी नौका में बैठकर र्ा उसमें तैरकर पार कर सकते
हो र्ा मफर भगवान की भमक्त का िो पुल है, िो तुम्हें इस पार से उस पार िो परमात्मा है वहां तक
पहुं ा सकता है। उस भमक्त को ही हमें समझना है।आि तक उस ढंग को ही नहीं समझा, र्ही तो भूल
होती रही। मााँ भल ू मकसकी थी? भल ू कोई दूसरे की नहीं थी,अपनी-अपनी स्वर्ं की ही थी। उस भल ू
के कारण ही हम भूलते रहे, इस भूल के कारण ही हम संसार में घूमते रहे। अब संसार से पार होने के
मलए उस भगवान की भमक्त को समझ रहे थे। धमष कभी भी मतभेद नहीं मसखाता, मतभेद तो तुम्हारे-
हमारे िैसे िीवों के द्वारा अहक ं ार से बनाए हुए पथ ं हैं । देखना पथ और पथ ं मकतना अंतर? पथ तो
एक ही है ाहे कहीं भी पहुं ना हो। सबको परमात्मा तक पहुं ना है। पथ वही है, पर िो अहंकार
की, अहम् की िो मबदं ी थी, क्र्ा था? पथ पर एक मबदं ी लगा दो, मात्र एक मबदं ी का ही अंतर है,पथ
एक था, सब का पथ एक ही था, पर अहंकार की मबदं ी लगा देने से पथ का पथ ं बन गर्ा। अरे!
सत(् सत्र्)को समझना है,तो संत बनो और अगर पथ पर लना है तो पंथ को छोड़ दो तब िाकर तुम
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परमात्मा बन सकते हो। महावीराष्टक का मात्र आलबं न था। बाहर हमें िो-िो सस ं ार में मदखता है वह
सब कुछ हमारे भीतर की अमभव्र्मक्त है। हम िैसा- िैसा सो ते है वैसा-वैसा ही हमें मदखता है। तुमने
लाल श्मा लगार्ा है तो वस्तु लाल मदखेगी, नीला लगार्ा है,तो नीली मदखेंगी, दोर् वस्तु में नहीं
था दोर् हमारी दृमष्ट में था। दृमष्ट के कारण ही हमें वस्तु में दोर् मदखने लग गर्ा। सो -सो का अंतर
है अपनी-अपनी दृमष्ट का अंतर है।
दूसरे छंद में महावीर भगवान की स्तमु त की है, पर देखना मात्र उनके गण ु ों का ही वणषन मकर्ा
है मक भगवान के गुण कै से होने ामहए? के वलज्ञान में वह रा र पदाथष छलकते हैं। उत्पाद,
व्र्र्,ध्रौव्र्। सभी मसद्धांतों की बात कहकर दूसरे छंद तक पहुं ना है। आि तक सब कुछ करने के
बाद भी हमें कुछ क्र्ों नहीं ममला? सब कुछ मकर्ा। सब कुछ मकर्ा, पर कुछ भी नहीं ममला। क्र्ों
? िैसी श्रद्धा, िैसा मवश्वास रोटी के दो टुकड़ों पर था वैसा तुम्हें अपने भगवान पर और अपने भगवान-
आत्मा पर मवश्वास नहीं था। क्र्ों कर रहे हैं भगवान की भमक्त? अरे! वह श्रद्धा-श्रद्धेर् सबं ध ं होता है।
कौन सा? श्रद्धेर् र्ानी भगवान, परमात्मा, गुरु। िो हमारे मलए श्रद्धा के कारणभतू है वह श्रद्धेर् है
और मेरी श्रद्धा,व कोई माता-मपता िैसा ररश्ता नहीं है भगवान का। भगवान मेरी माता बन िाए, मपता
बन िाए वह तो मात्र मवश्वास का और श्रद्धा-श्रद्धेर् का सबं ध ं है। मितनी तम्ु हारी तगड़ी श्रद्धा होगी
उतना तुम्हारा तगड़ा काम हो िाएगा। अरे! ऐसे ही काम नहीं बनते। कै से बनेंगे? कभी सर ददष हुआ
है? िब सर ददष होता है तब क्र्ा करते हो? गोली खाते हो? क्र्ों खाते हो? मफर से सरददष हो िाए
इसमलए मक वापस से सर ददष न हो इसमलए? डॉक्टर ने मप्रमस्क्रप्शन मलख मदर्ा और तमु ने मप्रमस्क्रप्शन
को घर में रख मदर्ा और रोि सुबह-शाम वह Prescription पढ़ते रहे और रोि तमकर्ा के नी े रखे
रहे तम्ु हारी बीमारी ठीक हो िाएगी क्र्ा ? मात्र पढ़ने से, सनु ने से, समझने से क्र्ा तम्ु हारी बीमारी
ठीक होगी? उस दवाई को दुकान में िाकर खरीदना होगा,वह खरीदने के बाद भी काम लेगा?
खरीद लो और रोि देखते रहो। समझना,मिनवाणी में क्र्ा मलखा ? संतों ने, साधु ने, आ ार्ों ने,
भगवंतों ने क्र्ा बतार्ा ? वह मात्र मप्रमस्क्रप्शन देकर रखा है। उन्होंने र्ह र्ग्ंथ मलख के रखे है। मााँ!
मात्र पढ़ने से,सुनने से कुछ नहीं होगा। सुनते तो रहे,पर मफर भी सूने-के -सूने ही रह गए। हमें सुनने के
साथ गनु ना होगा, अरे! मप्रमस्क्रप्शन रखा है,वह सनु ा और देख भी मलर्ा सनु ने के साथ गनु ना होगा।
िाकर दवाई भी ले आए, पर गुनने से भी काम नहीं होगा। पड़ोसी को मखला देना दवाई, क्र्ा तमु
ठीक हो िाओगे? तुम मकस मकंम त् भी ठीक नहीं होंगे। सुनने के साथ गुनना भी होगा, गुनने के साथ
ुनना भी होगा वही सम्र्क् दशषन ज्ञान ाररत्र है । उसके अभाव से कभी भी मुमक्त होने वाली नहीं
है। दवाई को हम इसमलए खाते हैं मक पुनः दवाई खाना ही न पड़े, भगवान की भमक्त भी हमें इसमलए
करनी है मक पनु ः भमक्त न करनी पड़े, मैं भी स्वर्ं भगवान बन िाऊाँ ।
महावीराष्टक को हम समझ रहे थे। िो भीतर की बात है वह सब कुछ तुम्हारे ेहरे पर
झलकती है। अरे! िो-िो तुम्हारे भीतर है,मकतने सारे पररणाम होते है, सबु ह कुछ सो ते हो, शाम को
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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कुछ, दोपहर को कुछ। िैसे समर् बदलता है,वैसे अपने भीतर के पररणाम, मव ार भी बदलते है। िो-
िो तुम्हारे भीतर लता है, क्र्ा वह सब कुछ बातें अपने माता-मपता को बताते हो? नहीं बता सकते।
अरे! आप भी अपने बारे में मकसी और के बारे में िो-िो सो ते हो,वह सब बातें कोई भी मकसी को
नहीं बता सकता। कै से-कै से मव ार हम कर बैठते है, कै से-कै से पररणाम हम कर बैठते हैं देखना वह
सब कुछ भीतर होता है, पर िैसे भीतर होता है वह क्र्ा बाहर नहीं मदखता? तुम्हारे अंदर की प्रत्र्ेक
अमभव्र्मक्त तम्ु हें मनर्म से बाहर मदखाई देगी,तो िो श्रद्धा थी वह बाहर से भी मदखाई देती है।
अरे! काले बादल हो, मौसम ठंडा हो और पानी न मगरे ऐसा हो ही नहीं सकता और तुम्हारे
भीतर श्रद्धा है और तुम्हारा काम न बने ऐसा भी नहीं हो सकता। क्र्ों नहीं लाते इतनी श्रद्धान? तुमने
इतनी अकाट्र् श्रद्धा की ही नहीं। मैंने दवाई खाई है, तो मेरा आधा सर ददष मात्र मकससे ठीक हो
िाएगा? दवाई से। तो मात्र 20-25% आराम ममलता है, 70-80% तुम्हारी मानमसकता होती है। मैंने
दवाई खाई, मै डॉक्टर के पास गर्ा था, डॉक्टर क्र्ा करता है? भले ही लोगों को ऐसी आदत रहती
है मक-डॉक्टर के पास िाकर इि ं ेक्शन लगवा लूं इिं ेक्शन से तो मैं ठीक हो िाऊंगा,भले ही डॉक्टर
उस Syringe में पानी का इि ं ेक्शन क्र्ों न लगा दे, पर खुश, मानमसकता मक मै ठीक हो गर्ा। ऐसे
ही हमें मानमसकता बनानी है मक अरे! मैं भगवान की भमक्त कराँगा तो मैं भी भगवान बन सकता हाँ।
ऐसी श्रद्धा हमें भीतर लानी होगी। अरे! मिस भगवान की भमक्त करने से मैं भगविा को प्राप्त कर
सकता हाँ, तो इस सस ं ार के सखु कौन-सी बड़ी बात है? मकसान खेती करता है,वह मकसमलए खेती
करता है? इसमलए नहीं करता मक िो खेती के बाद में भूसा ब ा रहता है उस भस ू े के मलए खेती नहीं
करता। वह तो अनाि के मलए ही खेती करता है , पर अनार्ास ही भूसा ममल िाता है। ऐसे भगवान
की भमक्त करने से भगविा ममल िाती है। सस ं ार का सख ु तो भसू े के समान है।
मकतना श्रद्धान, मकतना श्रद्धान रखने की आवश्र्कता है। देखना एक ग्वामलन थी, उसे
भगवान पता नहीं थे, एक सेठ िी थे, वह रोि व मनका करते थे। मिनवाणी के पाठ को वह ग्वामलन
रोि सुनती थी,उसे सुन-सुन के इतना मवश्वास हो गर्ा,भगवान पर नहीं, उस सेठ िी पर। एक मदन ऐसा
प्रकरण आर्ा मक सेठ िी ने बतार्ा "भगवान की भमक्त करने से संसार सागर पार हो िाता है"। र्ह
वाक्र् उस ग्वामलन के िीवन का सत्रू बन गर्ा। एक मदन वर्ाष काल में बरसात का समर् आर्ा। वह
ग्वामलन एक गांव में रह के नदी के उस पार दूसरे नगर में सेठ िी को दूध देने िाती थी। एक मदन नदी
पानी से भर गई, पथ मागष भी पानी से डूब गर्ा। वह ग्वामलन सो रही थी मक सेठिी को दूध कै से
देवें ? देना िररी भी है। वह सो ने लगी मक, मैं नहीं पहुाँ ी तो सेठिी को दूध कौन पहुाँ ाएगा? इतना
पानी था मक नदी भर ुकी थी। पूरी नदी उफान पर थी। उसने सो ा मैं िाऊाँ ,तो िाऊाँ कै से? नौका
वाले ने भी मना कर मदर्ा, पर उस ग्वामलन को इतना मवश्वास था,उस सेठ िी के वाक्र् पर मक
भगवान की भमक्त करने से संसार सागर से पार हो सकते हैं। उसने सो ा अरे! संसार सागर तो बहुत
बड़ी बात है, मुझे संसार सागर से नहीं उस नदी से ही पार होना है। नाम मलर्ा उसने भगवान का और
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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ल पड़ी। भगवान ने मत्कार नहीं मदखार्ा, भगवान नहीं आएगं े तम्ु हारे मलए मत्कार मदखाने,
तुम्हारा श्रद्धान, तुम्हारी भमक्त और तुम्हारा मवश्वास ही मत्कार मदखाता है। अरे! द्रोपदी ने भी भगवान
को र्ह नहीं कहा था मक भगवान तुम आ िाओ मेरी रक्षा करने,आप नहीं हो तो मेरा कौन? उसने
भी इतना ही कहा था-
एक गांवपमत िो होवे सो भी दुखीर्ा दुःख खोवै।
तुम तीनभवु न के स्वामी, दुःख मेटहु अंतरर्ामी।।आ.पा.।।
उसने नहीं कहा था मक मेरी लाि रख दो,उसने मात्र इतना ही कहा था मक मेरा दुःख मेट दो।
क्र्ा हुआ? पहुाँ गई वह ग्वामलन नदी के मकनारे पर,अरे! िैसे िमीन पर लते है वैसे पानी के ऊपर
लते- लते उस नदी के पार पहुाँ ी। सेठिी कहते है मक नदी इतनी बह रही है,इतना तूफान ल रहा
है,तू आर्ी कै से? कौन से नौका वाले ने तम्ु हें छोड़ा? उसने कहा सस ं ार का खेवैर्ा नहीं था, मेरे पास
तो वह भगवान रपी संसार को पार करने वाला खेवैर्ा था ।आपकी बातों पर मझ ु े इतना मवश्वास
था, आपने ही तो कहा है मक भगवान की भमक्त करने से सस ं ार सागर पार हो सकता है, तो मैंने सो ा
भवसागर अगर पार हो सकता है, तो नदी कोई बड़ी बात नहीं है। मैं तो नदी को लते- लते पार
करके आपके द्वार तक पहुाँ गई ।सेठ िी कहते हैं, क्र्ा बात कर रही है? मकतना झूठ बोल रही है?
ऐसे कोई पानी में ल कर आ सकता है क्र्ा? हो ही नहीं सकता। सेठ िी कहते हैं मक मैं ल के
देखता हं, मैंने तुम्हें बतार्ा, मैं गुरु तुम्हारा और मशष्ट्र् पार हो गर्ा और गुरु वहीं के वहीं बैठा है, ऐसा
कै से हो सकता? ऐसा भी होता है बे ारा गुरु बैठा है और मशष्ट्र् मोक्ष पहुाँ गर्ा, श्रद्धा मिसके पास
है वही भवसागर के पार होगा। पहुाँ गए सेठ िी नदी के मकनारे पर, िैसे ही एक पैर उठाके , उन्होंने
पानी पर रखा, उधर से मफर से िोर से हवा आई,मफर पीछे आ गए, मफर एक कदम रखे मफर पीछे
आर्े वो कहते हैं मक ऐसा हो ही नहीं सकता। मसखार्ा मकसने था?सेठिी ने ही पर वह मात्र परव न
थे, प्रव न मकंम त् भी नहीं थे। वह ग्वामलन कहती है,देखना देखना सेठ िी मैं िैसे आई थी वैसे ही
लौट िाऊाँ गी। उसने भगवान का नाम मलर्ा और िैसे तेि ाल से लती आई थी वैसे ही वापस से
वह दूसरे मकनारे पर पहुाँ गई। सेठ िी देखते ही रहे । क्र्ा था? मवमध तमु ने ही बताई थी वह द्रव्र् भी
तुम्हारे पास था,पर तुम्हारे पास भाव नहीं थे, वह श्रद्धा नहीं थी, इसमलए उस नदी के पार तुम नहीं हो
पाए। िब उस नदी के पार तुम नहीं हो पाए, तो भवसागर से कै से पार होंगे? भवसागर तो नहीं पर एक
घटं ा पार हो गर्ा देखो घड़ी को। समर् तो हो गर्ा। कल करेंगे मफर से महावीराष्टक पर ाष। समर्
को समझने ममलेंगे कल पुनः समर् पर, क्र्ोंमक समर् पर मकर्ा गर्ा काम समर् को मदलाता है ।

“भगवान महावीर स्वामी की िर्”


म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
Web site: www.vishuddhasagar.com Page 92 of 151
प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
...क्रमश आगामी अंकों में ........ इस र्ग्न्थ की प्रासमं गकता समर् के अनर
ु प और समर् पर ही है.
इस सुनर्नपथगामी के आगामी अंकों में आप महावीराष्टक के सभी श्लोकों का क्रमशः समवस्तार
रप पढ़ पार्ेंगे िो मक आपके , हम सभी के आध्र्ामत्मक िीवन में आमुल- ुल पररवतषन कर देगा.
बस थोड़ा सी प्रतीक्षा करे...

“समर् पर मकर्ा गर्ा काम


समर् को प्राप्त कराता है”

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

श्री वज्रनामभ क्रवती ररत्र

भार्ाकार : कमवश्री भूधरदास


(दोहा)
बीि राख फल भोगवे, ज्र्ों मकसान िग-मााँमहं |
त्र्ों क्री-नृप सख
ु करे, धमष मवसारे नामहं ||१||
(िोगीरासा व नरेन्द्र छन्द)
इहमवमध राि करे नरनार्क, भोगे पुडर्-मवशालो |
सुख-सागर में रमत मनरंतर, िात न िान्र्ो कालो ||
एक मदवस शुभ कमष-संिोगे, क्षेमंकर मुमन वंदे |
देमख श्रीगुरु के पदपंकि, लो न-अमल आनंदे ||२||
तीन-प्रदमक्षण दे मसर नार्ो, कर पिू ा थमु त कीनी |
साधु-समीप मवनर् कर बैठ्र्ो, रनन-दृमष्ट दीनी ||
गुरु उपदेश्र्ो धमष-मशरोममण, सुमन रािा वैरागे |
राि-रमा वमनतामदक िे रस, ते रस बेरस लागे ||३||
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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ममु न-सरू ि-कथनी-मकरणावमल, लगत भरम-बमु ध भागी |
भव-तन-भोग-स्वरप मव ार्ो, परम-धरम-अनुरागी ||
इह संसार-महावन भीतर, भरमत ओर न आवे |
िामन-मरन-िरा दव-दाहे, िीव महादु:ख पावे ||४||
कबहाँ िार् नरक-मथमत भुंिे, छे दन-भेदन भारी |
कबहाँ पश-ु परर्ार् धरे तहाँ, वध-बध ं न भर्कारी ||
सुरगमत में पर-संपमत देखे, राग-उदर् दु:ख होई |
मानुर्-र्ोमन अनेक-मवपमतमर्, सवषसुखी नमहं कोई ||५||
कोई इष्ट-मवर्ोगी मवलखे, कोई अमनष्ट-संर्ोगी |
कोई दीन-दररद्री मवलखे, कोई तन के रोगी ||
मकस ही घर कमलहारी नारी, कै बैरी-सम भाई |
मकस ही के दु:ख बाहर दीखें, मकस ही उर दुम ताई ||६||
कोई पुत्र मबना मनत झूरे, होर् मरे तब रोवे |
खोटी-सतं मत सों दु:ख उपिे, क्र्ों प्रानी सख ु सोवे ||
पुडर्-उदर् मिनके मतनके भी, नामहं सदा सुख-साता |
र्ह िगवास िथारथ देखे, सब दीखे दु:खदाता ||७||
िो संसार-मवर्े सुख होता, तीथंकर क्र्ों त्र्ागे |
काहे को मशवसाधन करते, संिम-सों अनुरागे ||
देह अपावन-अमथर-मघनावन, र्ा में सार न कोई |
सागर के िल सों शुम कीिे, तो भी शुद्ध न होई ||८||
सात-कुधातु भरी मल-मूरत, मष लपेटी सोहे |
अंतर देखत र्ा-सम िग में, अवर अपावन को है ||
नव-मलद्वार स्रवें मनमश-वासर, नाम मलर्े मघन आवे |
व्र्ामध-उपामध अनेक िहााँ तहाँ, कौन सध ु ी सख
ु पावे ||९||
पोर्त तो दु:ख दोर् करे अमत, सोर्त सुख उपिावे |
दुिषन-देह स्वभाव बराबर, मरू ख प्रीमत बढ़ावे ||
रा न-र्ोग्र् स्वरप न र्ाको, मवर न-िोग सही है |
र्ह तन पार् महातप कीिे, र्ा में सार र्ही है ||१०||
भोग बरु े भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं िग-िी के |
बेरस होंर् मवपाक-समर् अमत, सेवत लागें नीके ||

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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वज्र अमगमन मवर् से मवर्धर से, र्े अमधके दु:खदाई |
धमष-रतन के ोर पल अमत, दुगषमत-पंथ सहाई ||११||
मोह-उदर् र्ह िीव अज्ञानी, भोग भले कर िाने |
ज्र्ों कोई िन खार् धतूरा, सो सब कं न माने ||
ज्र्ों-ज्र्ों भोग-संिोग मनोहर, मन-वााँमछत िन पावे |
तष्ट्ृ णा-नामगन त्र्ों-त्र्ों डक
ं े , लहर-िहर की आवे ||१२||
मैं क्री-पद पार् मनरंतर, भोगे भोग-घनेरे |
तो भी तनक भर्े नमहं पूरन, भोग-मनोरथ मेरे ||
राि-समाि महा-अघ-कारण, बैर-बढ़ावन-हारा |
वेश्र्ा-सम लछमी अमत ं ल, र्ाका कौन पत्र्ारा ||१३||
मोह-महाररपु बैरी मव ारो, िग-मिर् सक ं ट डारे |
घर-कारागृह वमनता-बेड़ी, पररिन-िन रखवारे ||
सम्र्क्-दशषन-ज्ञान- रण-तप, र्े मिर् के महतकारी |
र्े ही सार असार और सब, र्ह क्री म तधारी ||१४||
छोड़े ौदह-रत्न नवों मनमध, अरु छोड़े संग-साथी |
कोमट-अठारह घोड़े छोड़े, ौरासी-लख हाथी ||
इत्र्ामदक संपमत बहुतेरी, िीरण-तृण-सम त्र्ागी |
नीमत-मव ार मनर्ोगी-सुत को, राि मदर्ो बड़भागी ||१५||
होर् मन:शल्र् अनेक नपृ मत-सगं , भर्ू ण-वसन उतारे |
श्रीगुरु- रण धरी मिन-मुद्रा, पं -महाव्रत धारे ||
धमन र्ह समझ सुबुमद्ध िगोिम, धमन र्ह धीरि-धारी |
ऐसी संपमत छोड़ बसे वन, मतन-पद धोक हमारी ||१६||
(दोहा)
पररर्ग्ह-पोट उतार सब, लीनों ाररत-पथ ं |
मनि-स्वभाव में मथर भर्े, वज्रनामभ मनरर्ग्ंथ ||

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ु दाई है.
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ु दाई है.
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रमणीर् तीथष “मवरागोदर्”


अनौखी अमवस्मणीर् र ना
कमलाकार मंमदर
इसकी मवशेर्ता र्ह है मक ट्रेन में बैठे-बैठे
दशषन हो िाते हैं .
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प्रेरक कहानी : ावल का दाना

एक मभखारी एक मदन सुबह अपने घर के बाहर मनकला। त्र्ौहार का मदन है। आि गााँव में
बहुत मभक्षा ममलने की सभ ं ावना है। वो अपनी झोली में थोड़े से ावल दाने डाल कर, बाहर आर्ा।
ावल के दाने उसने डाल मलर्े हैं अपनी झोली में, क्र्ोंमक झोली अगर भरी मदखाई पड़े तो देने वाले
को आसानी होती है, उसे लगता है मक मकसी और ने भी मदर्ा है। सूरि मनकलने के क़रीब है। रास्ता
सुना-सुना सा ही है। अभी लोग िाग ही रहे हैं।
मागष पर आते ही सामने से रािा का रथ आता हुआ निर आता है। सो ता है आि रािा से
अच्छी भीख ममल िार्ेगी, रािा का रथ उसके पास आकर रक िाता है। उसने सो ा, “धन्र् हैं
मेरा भाग्र् ! आि तक कभी रािा से मभक्षा नहीं मााँग पार्ा, क्र्ोंमक द्वारपाल बाहर से ही लौटा देते
हैं। आि रािा स्वर्ं ही मेरे सामने आकर रक गर्ा है।
मभखारी र्े सो ही रहा होता है अ ानक रािा उसके सामने एक र्ा क की भााँमत खड़ा
होकर उससे मभक्षा देने की मांग करने लगता है। रािा कहता है मक आि देश पर बहुत बड़ा संकट
आर्ा हुआ है, ज्र्ोमतमर्र्ों ने कहा है इस संकट से उबरने के मलए र्मद मैं अपना सब कुछ त्र्ाग कर
एक र्ा क की भााँमत मभक्षा र्ग्हण करके लाऊाँ गा तभी इसका उपार् संभव है। तुम आि मुझे पहले
आदमी ममले हो इसमलए मैं तुमसे मभक्षा मांग रहा हाँ। र्मद तुमने मना कर मदर्ा तो देश का संकट टल
नहीं पार्ेगा इसमलए तमु मझ ु े मभक्षा में कुछ भी दे दो।
मभखारी तो सारा िीवन मााँगता ही आर्ा था कभी देने के मलए उसका हाथ उठा ही नहीं था।
सो में पड़ गर्ा की र्े आि कै सा समर् आ गर्ा है, एक मभखारी से मभक्षा मााँगी िा रही है, और
मना भी नहीं कर सकता। बड़ी मुशमकल से एक ावल का दाना मनकाल कर उसने रािा को मदर्ा।
रािा वही एक ावल का दाना ले खुश होकर आगे मभक्षा लेने ला गर्ा। सबने उस रािा को बढ़-
बढ़कर मभक्षा दी। परन्तु मभखारी को ावल के दाने के िाने का भी गम सताने लगा।

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
िैसे-तैसे शाम को वह घर आर्ा। मभखारी की पत्नी ने मभखारी की झोली पलटी तो उसमें
उसे भीख के अन्दर एक सोने का ावल का दाना भी निर आर्ा। मभखारी की पत्नी ने उसे िब उस
सोने के दाने के बारे में बतार्ा तो वो मभखारी छाती पीट-पीट के रोने लगा।
िब उसकी पत्नी ने रोने का कारण पूछा तो उसने सारी बात उसे बताई। उसकी पत्नी ने कहा,
“तुम्हें पता नहीं, मक िो दान हम देते हैं, वही हमारे मलए स्वणष है। िो हम इकट्ठा कर लेते हैं , वो सदा
के मलए ममट्टी का हो िाता है।"
उस मदन से उस मभखारी ने मभक्षा मााँगनी छोड़ दी, और मेहनत करके अपना तथा पररवार का
भरण-पोर्ण करने लगा। मिसने सदा दुसरों के आगे हाथ फै लाकर भीख मााँगी थी अब खुले हाथ से
दान-पुडर् करने लगा। धीरे-धीरे उसके मदन भी बदलने लगे। िो लोग सदा उससे दूरी बनार्ा करते थे
अब उसके समीप आने लगे। वो एक मभखारी की िगह दानी के नाम से िाना िाने लगा।
मशक्षा : यह सिर्फ कहानी ही नहीं हैं एक िच्ची घटना हैं. इि घटना को ध्यान िे पढ़े तो
बहुत िी बातों का खल ु ािा स्वमेव हो जाता हैं. सजि इि ं ान की प्रवृसत देने की होती है
उिे कभी सकिी चीज की कमी नहीं होती और जो हमेशा लेने की सनयत रखता है उिका
कभी पूरा नहीं पड़ता..!!
ठीक इिी तरह हमारे आचायफ, गरुु देव िभी हमें सदशा बोध कराते हैं और मााँ
सजनवाणी सदशा को प्रकासशत करके हमारे जीवन को िरल िहज अव्याबासधत िख ु िे
भर देती हैं और मोक्ष-पद को प्राप्त करा देती हैं.
आगामी 3 जुलाई 2023 को गुरु पूसणफमा और 4 तारीख को वीर शािन जयंती पवफ
आ रहे हैं और यह सदवि भी हमारे सलए महत्वपूणफ हैं. िबिे पहले तो सजनदेव के श्री
मख ु ारसवदं िे सनकले सपयषू वचनों का आस्वादन आचायों की महानता के कारण ही समल
रहा हैं. उनके हम पर अनेकानेक उपकारों की वजह िे आज हमारे बीच में यह मााँ
सजनवाणी ‘श्रुत’ के रूप में है सजिे हम आत्मिात करके अपने जीवन को धन्य बना िकते
हैं.
संकलन एवं प्रस्तुमत :
श्रीमती मंिू पी. के . िैन
न्र्ास सदस्र् ( ट्रस्टी )
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.) मुंबई.
ठाणे, मुंबई, भारत.

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

पज्ू र् श्रमण श्री सुव्रत सागर िी महाराि की मंगल प्रेरणा


से शोध अनुसंधान की प्रगमत हेतु अन्तराषष्ट्ट्रीर् नमोस्तु शासन
समममत के अंतगषत अंतराषष्ट्ट्रीर् िैन मवद्वत् पररर्द् का गठन
मकर्ा गर्ा | मिसमें श्री पी. के . िैन ‘प्रदीप’ अध्र्क्ष, नमोस्तु
शासन सेवा समममत (रमि.); डॉक्टर नरेंद्र कुमार िैन
गामिर्ाबाद (वतषमान में टीकमगढ़); बाल ब्रह्म ारी अक्षर्
भैर्ा महामंत्री नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.); डॉ सनत
कुमार िी िर्पुर, डॉ मनमषल िैन शास्त्री टीकमगढ़, श्री
लोके श शास्त्री गनोडा, डॉ ऋर्भ कुमार िी फौिदार, प्रो. टीकम ंद्र मदल्ली, डॉ मवमल कुमार िी
गढ़ु ा, पं सनु ील शास्त्री प्रसन्न हटा, श्री र्तीश कुमार िी िबलपरु आमद के मख् ु र् सर्ं ोिकत्व में
मवशुद्ध शोध पीठ स्थामपत करने का मनणषर् मलर्ा | मिससे महाकमव मदगम्बरा ार्ष श्री मवशुद्ध सागर
िी महाराि के मवमभन्न र्ग्थ ं ों पर शोधाथी शोध कार्ष कर मवद्या वाररमध की उपामध प्राप्त कर सकें
साथ ही मिन श्रतु के रहस्र्ों से मानवीर् दृमष्टकोण को मवकमसत करते हुए प्राणी सरं क्षण, प्रकृमत
संरक्षण, पर्ाषवरण संरक्षण और मवश्व शांमत के उपार्ों को खोिा िा सके | साथ ही मवश्वमवद्यालर्ों
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में शोध मनदेशक, शोधामथषर्ों और मवद्वानों के मलए शोध सामर्ग्ी की उपलब्धता हो सके | अत: िैन
दशषन के रहस्र् को समझ कर व्र्मक्त मनि पर कल्र्ाण में अर्ग्सर बना रहे |
इस कार्ष में मध्र् प्रदेश मस्थत एकलव्र् मवश्वमवद्यालर्, दमोह की कुलामधपमत उदारमना
समाि रत्न डॉ. सुधा िी मलैर्ा एवं
कुलपमत डॉ. पवन कुमार िी िैन का
मवमशष्ट सहर्ोग प्राप्त हो रहा हैं. इस
कार्ष का मक्रर्ान्वर्न डॉ. आशीर् िैन बम्होरी के सहर्ोग के मबना पूणषता को प्राप्त नहीं हो सकता
हैं. इस अमभनव धमष-प्र ार के सहर्ोग हेतु धमष-मनष्ठ श्रावक श्रेष्ठी भी स्व-स्फूतष होकर आगे आर्े और
अपने मनोभावों के साथ-साथ अपनी ं ला लक्ष्मी का भी सदुपर्ोग कर हमें प्रोत्सामहत मकर्ा हैं.
ऐसे हैं हमारे संरक्षक स्तम्भ सदस्र्. हमारे देश मवदेश के सम्माननीर्, आदरणीर् संरक्षक सदस्र्ों के
कुछ मवशेर् नामों में श्रीमान् अमनल िी िैन कनाडा, वतषमान में मदल्ली-भारत, श्रीमान् अर्न िी िैन
मेलबोनष, ऑस्ट्रेमलर्ा, श्रीमान् अमवनाश िी िैन मेलबोनष, ऑस्ट्रेमलर्ा, श्रीमान् मिगर िी शाह िैन
मेलबोनष, ऑस्ट्रेमलर्ा, श्रीमान् सौरभ िी संघानी िैन मेलबोनष, ऑस्ट्रे मलर्ा, श्रीमान् नवीन िी िैन
मेलबोनष, ऑस्ट्रेमलर्ा, श्रीमान् पदम ंद िी अिमेरा िैन मेलबोनष, ऑस्ट्रेमलर्ा, श्रीमान् अमभर्ेकिी
िी िैन-श्रीमती आरती िी िैन पररवार बंगलुरु, भारत, श्रीमान् मर्ंक िी िैन ममसौरी, सैंट लुइस,
अमेररका, नाम समम्ममलत हैं. देश ही नहीं मवदेशों में भी रहकर अपनी मातभ ृ मू म, अपने धमष से िड़ु े
रहते हुए मन-व न-कार् मत्रर्ोग से कृत-काररत -अनुमोदना से धमष प्र ार हेतु कार्ष-रत हैं, अतः ऐसे
सभी प्रत्र्क्ष और अप्रत्र्क्ष सहर्ोमगर्ों का हम अमभनन्दन करते हैं, स्वागत करते हैं और आशा करते
हैं मक आप सभी सदैव हमें ऐसा ही सहर्ोग प्रदान करते रहेंगे.
वतषमान में र्ह मलखे िाने तक 5 शोधाथी श्रावकों/श्रामवकाओ ं के द्वारा Ph. D. हेतु सहार्ता
प्रदान की िा रही हैं एवं अन्र् आवेदन भी वैधामनक िां -पड़ताल के पश्चात् स्वीकृत हो सकते हैं.
र्ह सभी कार्ष आ ार्ष परंपरा से गुरु भगवंतों के आशीवाषद से ही एवं आप सभी मिनवाणी के ज्ञान-
मपपासुओ ं की पमवत्र भावना की पूमतष हेतु संपन्न हो रहे हैं |
आप सभी से मवनम्र आर्ग्ह है मक मवश्व सामहत्र् को समद्ध ृ करनेवाली मााँ भारती के प्रमत
अपने समपषण को िरुर बनार्े रखें | मिससे हम अज्रस ज्ञान की पमवत्र गंगा में िनसामान्र् को
अवगामहत करवा सकें |
डॉ. श्री मनमषल िैन शास्त्री, टीकमगढ़, मध्र् प्रदेश.
प्रशासमनक मंत्री : अंतराषष्ट्ट्रीर् िैन शोध मवद्वत पररर्द्
अनन्र् मुमन भक्त एवं िैन दशषन के मूधषन्र् मवद्वान,्
कमव एवं दाशषमनक लेखक व म न्तक.
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ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

पी के िैन ‘प्रदीप’ प्रधान संपादक, नमोस्तु म ंतन,


अध्र्क्ष नमोस्तु शासन सेवा समममत(रमि.)मुंबई.
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ु दाई है.
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म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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सम्र्क् मव ार :
प्रभु की स्र्ाद्वाद शैली वा मनक
अमहंसा के मलए हैं.
िैन दशषन में वा मनक, शारीररक एवं
मानमसक अमहस ं ा की व्र्ाख्र्ा है.
मदगम्बरा ार्ष श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि

सम्र्क् मव ार :
“उपदेश की कुशलता के साथ आ रण की कुशलता भी लाना
ामहए. तभी उपदेश की कुशलता सत्र्ाथष-बोध का कारण बन
पार्ेगी. कोरा ज्ञान आत्ममहत का साधन नहीं बन सकता हैं”

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ु दाई है.
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मवशुद्ध व न :
“भाव मवशुमद्ध आत्म मसमद्ध का मूल मंत्र है”
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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प्रकाशक:नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.), प्रधान संपादक:पी.के .िैन ‘प्रदीप’ अंक:58, वर्ष 6 िुलाई 2023
परम पूज्र् अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोमणी, समर्सारोपासक, आगम उपदेष्टा,
श्रतु सवं धषक, स्वाध्र्ार् प्रभावक, अध्र्ात्म रसार्न के मनपण
ु तंत्रज्ञ एवं वैज्ञामनक,
आ ार्ष रत्न, मदगम्बरा ार्ष श्री १०८ मवशुद्ध सागर िी महाराि की प्रेरणा से ओतप्रोत
होकर ज्ञान मपपासु , स्वाध्र्ार् रमसकों के मलए मवशेर् आर्ोिन

अभी भी लोगों के पत्र प्राप्त हो रहे हैं “मवशुद्ध स्वाध्र्ार् दीघाष” का शुभारम्भ करने
हेतु. अतः आप सभी मिनवाणी के मपपासओ ु ं को ज्ञानरस का अमतृ पान करने हेतु
श्री मिनवाणी को भेिा िा रहा हैं. स्वाध्र्ार् परम तप हैं.

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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हमारे प्रेरणा स्रोत :


SOURCE OF
INSPIRATION:
परम पूज्र् प्रमतपल स्मरणीर्
अध्र्ात्म र्ोगी, र्ाष मशरोमणी,
स्वाध्र्ार् प्रभावक, आगम उपदेष्टा,
समर्सारोपासक, आ ार्ष रत्न,
मदगम्बरा ार्ष श्री १०८ मवशुद्ध सागर
िी महाराि, ससंघ का आशीवाषद

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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मप्रर् ममत्रों,
मुझे बेहद ख़ुशी के साथ आप सभी को र्ह बताते हुए हर्ोल्लास हो रहा है मक मेरी पाठशाला
के कई बच् ें अपने-अपने क्षेत्र में धमष को साथ लेकर लते हुए कई नए पार्दान पर आरोहण कर
िैन धमष की प्रभावना कर रहे हैं. कई बच् ों ने अपने स्कूल में भी प्रथम /मद्वतीर् स्थान को प्राप्त मकर्ा
हैं. सभी को बहुत बहुत बधाईर्ााँ. साथ ही साथ उनके माता-मपता एवं अमभभावकों को भी साधुवाद
एवं बधाईर्ााँ.
अभी हाल ही में एक मशक्षामथषनी, सुश्री समन्वी िैन (अवलक्की) ने कनाषटक राज्र् स्तर पर
आर्ोमित गोताखोरी (DIVING) खेल में मद्वतीर् स्थान प्राप्त कर अपनी पह ान बनाई हैं. आप
सभी को स्मरण भी होगा मक सश्र ु ी समन्वी, सपु त्रु ी श्रीमती अ षना िी एवं श्री सत्र्ेन्द्र िी िैन
(अवलक्की) पाठशाला में भी मनर्ममत रप से उपमस्थत रहती थी और िो भी कार्ष मदर्ा िाता था
उसे समर् रहते पूणष कर लेती थी. र्ह सब उसका धमष के प्रमत रुझान एवं देव, शास्त्र, गुरुओ ं के प्रमत
सम्मान, मवनर्भाव का ही पररणमन हैं.
र्ह तो उसके िीवन का पहला पड़ाव हैं. अभी उसे बहुत से पड़ाव पार करने हैं. उसकी अपनी
लौमकक मशक्षा के साथ आध्र्ामत्मक मशक्षा और बहुरंगी प्रमतर्ोमगताओ ं में मनमश्चत रप से उसे अभी
बहुत आगे िाना हैं.
नमो स्तु शासन सेवा समममत (रमि.) मुंबई एवं हेन्नुर बाल पाठशाला, िैन शासन सेवा
समममत, बगं लरुु की तरफ से बहुत बहुत बधाईर्ााँ एवं आशीवाषद. हमारा स्वास्थ्र् ठीक होने पर पनु ः
पाठशाला मनर्ममत प्रारंभ करेंगे. आप हमसे कभी भी फोन पर संपकष कर सकते हैं.
आप सभी को शुभकामनाओ ं समहत आपके ममत्र -
पी. के . िैन ‘प्रदीप., मुंबई
श्रीमती आरती अमभर्ेक िैन, बंगलुरु
श्रीमती रबी िैन, बगं लरुु
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Namostu Shasan Seva Samiti (Regd.),
Mumbai,
Conducts
Face to Face
On-line Pathshala
in association with
Jain Shasan Seva Samiti,
Hennur, Bangluru,
From 24-4-2020
every Saturday
& Sunday.
To enhance
the Intellectual Power
of

Next Generation.
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ु दाई है.
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A Letter to Friends
Dear Friends,
Jai Jinendra. Excellent! I am very very happy to note that you have fulfilled
your commitments towards yourselves. BRAVO!
You all have won my heart and in turn
I am feeling proud of you all for the various
Oaths (Niyams) taken by you, my little friends,
and your parents along with other family
members too! They had provided the support
to fulfil your Oaths. It is still continued and this
resulted in the DAILY NIYAM, as you have
developed strong will power. It is a well defined
self control towards the path of liberation viz. MOKSHA.
“Aacharya Bhagwan 108 Shri Vishuddha Sagar ji Maharaj always says that
– “DHARM TO KIYA NAHI JAATA, VAH TO APNE AAP HO JATA HAIN.” It
just happens. So, we should continue and follow the instructions given by
ARIHANT Bhagwaan. by just having a small concentration/focus on our daily
routine work, how the DHARM is fulfilled without doing any extra efforts.
Yours Friend
P. K. JAIN ‘PRADEEP’
You can reach me: - EDITOR-NAMOSTU CHINTAN
+91 9324358035

E-MAIL:
pkjainwater@gmail.com
namostushasangh@gmail.com
WEBSITE : WWW.VISHUDDHASAGAR.COM

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Activites by Champion of Champions:


Samanvi Avalakki (jain) 12 years old studying on 6th
standard on rashtrothana vidya kendra bengalore , elder
daughter of Smt. Archana Avalakki and Sri Satyendra
Avalakki is a multitalented girl who is involved in
religious activities, bharatnatyam, singing, swimming,
keyboard and recently in diving..
She stood second on state diving championship for group
3 category. wish her all the best for the future activities
and involment.

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भावना
(िीवन को सफल बनाने का मंत्र)
मैत्री भाव िगत् में मेरा सब िीवों से मनत्र् रहे,
दीन-दुःखी िीवों पर मेरे उर से करुणा स्रोत बहे ।
दुिषन-क्रूर कुमागषरतों पर क्षोभ नहीं मुझको आवे,
साम्र् भाव रक्खूाँ मैं उन पर ऐसी पररणमत हो िावे ॥1।।
गण ु ी िनों को देख हृदर् में मेरे प्रेम उमड़ आवे,
बने िहााँ तक उनकी सेवा करके र्ह मन सुख पावे ।
होऊाँ नहीं कृतर्घन कभी मैं द्रोह न मेरे उर आवे,
गुण-र्ग्हण का भाव रहे मनत दृमष्ट न दोर्ों पर िावे ।।2।।

सरस्वती मंत्र
(सरस्वती – मवद्या प्रामप्त के मलए मंत्र)
ॐ ह्रीं अहषन् - मख ु - कमल मनवामसनी पाप मल क्षर्क ं रर श्रतु ज्वाला सहस्त्र प्रज्वमलते
सरस्वती तव भमक्त प्रसादात् मम पाप मवनाशनं भवतु क्षां क्षीं क्षंू क्षौं क्षः क्षीरवर धवले अमृत सम्भवे
वं वं ह्रौं ह्रौं स्वाहा । सरस्वती भमक्त प्रसादात् सुज्ञान भवतु ।
“वागीश्वरर प्रमतमदनं मम रक्ष देमव”
ॐ ह्रीं सरस्वती देव्र्ैः नमः
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प्रेरक कहानी
आज्ञा पालन

रेमगस्तान के मकनारे मस्थत एक गााँव में एक व्र्ापारी रहता था। वह ऊाँ टों का व्र्ापार करता
था। वह ऊाँ टों के बच् ों को खरीदकर उन्हें शमक्तशाली बनाकर बे ा करता था। इससे वह ढेर सारा
लाभ कमाता था। व्र्ापारी ऊाँ टों को पास के िंगल में घास रने के मलए भेि देता था। मिससे उनके
ारे का ख ष ब ता था। उनमें से एक ऊाँ ट का बच् ा बहुत शैतान था।
उसकी हरकतें पूरे समूह की म ंता का मवर्र् था। वह प्रार्: समूह से दूर लता था और इस
कारण पीछे रह िाता था। बड़े ऊाँ ट हरदम उसे समझाते थे पर वह नहीं सुनता था इसमलए उन सब ने
उसकी परवाह करना छोड़ मदर्ा था।
व्र्ापारी को उस छोटे ऊाँ ट से बहुत प्रेम था इसमलए उसने उसके गले में घंटी बााँध रखी थी।
िब भी वह मसर महलाता तो उसकी घंटी बिती थी मिससे उसकी ाल एवं मस्थमत का पता ल
िाता था। एक बार उस स्थान से एक शेर गुिरा िहााँ ऊाँ ट र रहे थे।
उसे ऊाँ ट की घंटी के द्वारा उनके होने का पता ल गर्ा था। उसने फसल में से झांककर देखा
तो उसे ज्ञात हुआ मक ऊाँ ट का बड़ा समूह है लेमकन वह ऊाँ टों पर हमला नहीं कर सकता था क्र्ोंमक
समूह में ऊाँ ट उससे बलशाली थे। इस कारण वह मौके की तलाश में वहााँ छुपकर खड़ा हो गर्ा।

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समहू के एक बड़े ऊाँ ट को खतरे का आभास हो गर्ा। उसने समहू को गााँव वापस लने की
ेवातानी दी और उन्हें पास पास लने को कहा। ऊाँ टों ने एक मंडली बनाकर िंगल से बाहर
मनकलना आरम्भ कर मदर्ा। शेर ने मौके की तलाश में उनका पीछा करना शुर कर मदर्ा। बड़े ऊाँ ट
ने मवशेर्कर छोटे ऊाँ ट को सावधान मकर्ा था। कही वह कोई परेशानी न खड़ी कर दे। पर छोटे ऊाँ ट ने
ध्र्ान नहीं मदर्ा और वह लापरवाही से लता रहा। छोटा ऊाँ ट अपनी मस्ती में अन्र् ऊाँ टों से पीछे रह
गर्ा।
िब शेर ने उसको देखा तो वह उस पर झपट पड़ा। छोटा ऊाँ ट अपनी िान ब ाने के मलए इधर
– उधर भागा, पर वह अपने आप को उस शेर से ब ा नहीं पार्ा।
उसका अंत बुरा हुआ क्र्ोंमक उसने अपने बड़ों की आज्ञा का पालन नहीं मकर्ा था।

सशक्षा:– हमें अपनी भलाई के सलए अपने माता – सपता एवं बड़ों
की आज्ञा का पालन करना चासहए।

प्रस्तुमत :
श्रीमती मंिू पी. के . िैन,
न्र्ास सदस्र् ( ट्रस्टी )
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.) मुंबई.
ठाणे, मुंबई, भारत.
मवशुद्ध व न:
“राग हटाओ, कष्ट ममटाओ”
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मााँ मिनवाणी क्र्ा कहती हैं ?


मिनवाणी िो कहती है, सनु लो िी |
उिम सर्ं म िीवन में पालो िी
कभी िीव महस ं ा नहीं करना
इमं द्रर् भोग में मन न रमाना
िैनी बन कर धमष मनभाना िी
सदा छानकर पानी पीना,
भोिन शुद्ध सदा ही करना
उिम संर्म सदा ही पालो िी
मिनवाणी मां हमें िगाए,
सभी िीव भगवान बतार्े
मन में अपने करुणा धारो िी

मवशद्ध
ु व न:
हमें मनि घर में कै से रहना हैं
र्ह मााँ मिनवाणी हमें बतलाती हैं

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आ ार्ष श्री मवशद्ध


ु सागरिी महाराि की देशना (मिनवाणी
के मवमवध रंगों की सरल सहि देशना) को प्राप्त करने के
मलए देमखर्े प्रमतमदन

पुडर्ािषक बनने के मलए, अमधक िानकारी के मलए सपं कष करें :-


अनुराग मसहोरा : +91 96305 55001
वैभव बड़ामलहरा : +91 99774 34343

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िन-िन की शंका का सम्र्क् समाधान !


मदगम्बरा ार्ष, आगम उपदेष्टा श्रमण श्री 108 मवशद्ध ु सागर िी महाराि के परम प्रभावक
मशष्ट्र् मुमन श्री सुप्रभ सागर िी महाराि द्वारा मदर्ा िा रहा हैं आपके समी ीन मवकल्पों का
सम्र्क् समाधान.

समी ीन मवकल्पों का सम्र्क्

समाधान सप्रु भ उवा र्टू ् र्बू


ैनल पर ऑनलाइन कार्षक्रम में शाम को श्रमण १०८ श्री सुप्रभ
सागर िी मुमन महाराि ऑनलाइन प्रश्नों का आगम प्रमाण के साथ सम्र्क् समाधान प्रदान
कर रहे हैं । प्रश्नों को ममु न श्री प्रणत सागर िी द्वारा रखा िाता है । मनदेशन ब्र. साके त भैर्ा कर
रहे हैं. इस ऑनलाइन कार्षक्रम (मवमदशा में हो रहे ातुमाषससे सीधा प्रसारण) में भारत के
मवमभन्न स्थानों से ऑनलाइन प्रश्न मनरंतर ममल रहे हैं ।
आपके समी ीन मवकल्पों के सम्र्क् समाधान प्राप्त करने के मलए इन नबं र 87075 48811,
07415306441 पर अपने प्रश्न व्हाट्सएप पर मेसेि, ऑमडर्ो मेसेि र्ा ईमेल के माध्र्म
samyak.samadhana@gmail.com से मेल भी कर सकते हैं।
अब आमदनाथ टीव्ही ेनल पर भी प्रसाररत हो रहा हैं.
प्रमतमदन मध्र्ान्ह 4.00 बिे
YouTube Channel : www.youtube.in/c/SsUvach

https://www.facebook.com/सुप्रभ-उवा -Shraman-shree-Suprabh-
Sagar-Ji-105864617551473/

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वतषमान के कुछ मलंक


महन्दुओ ं के बी णमोकार का मंगला रण-रामकथा से पूवष https://youtu.be/xJPQ5O4dBJA
मदल्ली में घमासान, मशखरिी के मलए मकसने क्र्ा कहा ? https://youtu.be/r7ccXOObBMs
हवा में उड़ते भगवान् ! कै द में क्र्ों मत्कारी पारसनाथ ? https://youtu.be/tGOixK0exeo
कुलपमत वािपेर्ीने क्र्ा कहा आ. मवशुद्धसागरिी के मलए https://youtu.be/xRhMUuj7BQM
मबमम्बसार का खिाना, प्रा ीन िैन प्रमतमाएं गफ ु ा में https://youtu.be/O2oooohMs8M
िैन मंमदर को बदलकर बुद्ध ममं दर बनार्ा गर्ा, कहााँ ? https://youtu.be/U6taq2t5F_I
पं. श्री प्रदीप ममश्रा ने सम्मेद मशखरिी के मलए क्र्ा कहा? https://youtu.be/TiNKiYRu6sQ

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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आपके अपने विचार


श्री पी के िैन साहब,

परम आदरणीर्

सादर िर् मिनेद्र ।

महोदर् ,
आप इस मडमिटल र्गु में इटं रनेट के माध्र्म से 'नमोस्तु म ंतन मामसक पमत्रका' का सपं ादन
व संर्ोिन कर, आप िीव, समस्त िीवत्व के महत म न्तक 'िैन दशषन' के तत्वों को सभी मानस
तक पहुं ाने का बड़ा महत्वपण
ू ष , प्रशस
ं नीर् एवं सराहनीर् कार्ष कर रहे हैं. बहुत बहुत आभार.

मपछले माह पमत्रका नहीं ममली. सो भेिने का पुनः कष्ट करें.

इस पमत्रका का हमें हमेशा इतं जार रहता हैं.

मडमिटल र्ुग में र्ह पमत्रका वतषमान एवं भमवष्ट्र् के मलए मील का पत्थर सामबत होगी ।

बहुत-बहुत धन्र्वाद.

भवदीर्
सी. के . हुक्के री
बेलगााँव.

म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
ु दाई है.
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आपकी सेवा में सदैव िारी, धमष प्रभावना हो सदैव भारी


नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार की एक आश
कभी न छूटे िन्म –िन्म में सभी गुरुवरों का साथ
हे मानव ! नहीं बन पा रहा भगवान्
उसके पहले तो बन िा नेक इस ं ान;
गवष से कहो हम िैन हैं ‘िर् महावीर’
करें प्रर्ास तो, हरे िनमानस की पीर;
लो ! करे कुछ इस ं ामनर्त के काम
मफर भले ही हो इस िीवन की शाम;
है सबकी िरुरत आि; अखंड हो अपना िैन समाि.

स्वाध्र्ार् भी परम तप हैं.


यसद आप भी घर बैठें र्ोन िे सनयसमत स्वाध्याय करना चाहते हैं तो नमोस्तु शािन िेवा िसमसत
पाठशाला िे जुड़े. बच्चों के सलए बंगलोर और वयस्कों एवं बुजुगों के सलए सदल्ली िे पाठशाला का
िंचालन होता हैं. अतः स्वाध्याय िे आत्म कल्याण करे. असधक जानकारी के सलए िंपकफ करें :-
हमिे जुड़ने के सलए तथा इि पसिका को अपने र्ोन पर सनशुल्क प्राप्त करने के सलए िंपकफ करें.
पी. के . जैन ‘प्रदीप’: +91 9324358035.
बा.ब्र. अक्षय जैन : +91 9892279205.

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ु दाई है.
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नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)


ट्रस्ट मंडल :
रामष्ट्ट्रर्/अंतराषष्ट्ट्रीर् अध्र्क्ष: श्री पी. के . िैन ‘प्रदीप’ उपाध्र्क्षा: श्रीमती प्रमतष्ठा िैन
महामंत्री : बा.ब्र.अक्षर्कुमार िैन सह मंत्री : श्री अमित िैन
कोर्ाध्र्क्ष : श्री प्रदीप सैतवाल िैन
सदस्र् : श्रीमती मंिू पी.के . िैन सदस्र् : श्री सुशांत कुमार िैन

-: कार्षकाररणी मडं ल:-


प्रदेश प्रदेशाध्र्क्ष/ :
मदल्ली. श्रीमती कीती पवनिी िैन, मदल्ली.
मध्र् प्रदेश. श्री नंदन कुमार िैन, मछंदवाडा,
छिीसगढ़ श्री सि ं र् रािु िैन, रामिम,
कनाषटक (१) श्री गौरव िैन
कनाषटक(२) मवदुर्ी तेिमस्वनी डी, मैसूर,
रािस्थान पंमडत लोके श िैन शास्त्री, गनोड़ा, बांसवाडा
हररर्ाणा पंमडता ार्ष मुकेश ‘मवनम्र’, प्रमत., वास्तुमवद, गुरुर्ग्ाम
कनाषटक प्रदेश सम व (१) श्रीमती आरती अमभर्ेक िी िैन, बंगलुरु.
कनाषटक प्रदेश सम व (२) श्री प्रवीण न्द्र िैन, मुड़मबद्री,
मध्र् प्रदेश प्रदेश सम व श्री तरुण िैन, मशवनी,
छिीसगढ़ प्रदेश सम व श्री सिल िैन, दुगष,
प्र ार प्रसार मत्रं ी (बाह्य) : श्री रमवन्द्र बाकलीवाल, मालेगांव, महाराष्ट्ट्र.
प्र ार प्रसार मंत्री (अंतरंग) : श्री राहुल िैन, मवमदशा, श्री अनुराग पटे ल, मवमदशा
नैमतक ज्ञान प्रकोष्ठ मत्रं ी: श्री रािेश िैन, झााँसी, उिर प्रदेश
मवशेर् सदस्र् : महेश िैन, हैदराबाद;
पाठशाला सं ामलका: श्रीमती कीती िैन, मदल्ली,
पाठशाला सह-सं ामलका: श्रीमती मकरण िैन, हांसी, हररर्ाणा.
बाल-पाठशाला सह-सं ामलका श्रीमती आरती िैन, श्रीमती रबी िैन, बंगलुरु.

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व्हाट्सएप/टेलीर्ग्ाम र्ग्प्ु स : कुल 50 र्ग्प्ु स के सभी एडममन/सं ालक
आगरा : शुभम िैन, अलदंगडी : ममत्रसेन िैन
आगरा : अतुल िैन, अशोक नगर : अतुल िैन,
अशोक नगर : श्रीमती अनीता िैन बड़ामलहरा : अक्षर् पाटनी,
बड़ामलहरा : श्रीमती रिनी िैन बानपुर: नमवन िैन
बैतल ू : अमवनाश िैन बगं लरुु : श्री सन्देश िैन
बंगलुरु : श्री गौरव िैन बंगलुरु : श्रीमती आरती िैन
बगं लरुु : श्रीमती प्रमतष्ठा िैन बरार्ठा: प्रीतेश िैन
भोपाल: पं. रािेश िी ‘राि’ मछंदवाडा: श्रीमती मीनू िैन
हासन: प्रवीन HR हैदराबाद : डॉ. प्रदीप िैन
होसदुगाष : सुममतकुमार िैन हुबली : श्रीमती नदं ारानी पामटल
इदं ौर: श्री मदनेशिी गोधा इदं ौर: श्रीमती रमश्म गंगवाल
इदं ौर: श्री टी. के . वेद इदं ौर: श्री नमवन िैन
िबलपुर: म राग िैन िर्पुर : डॉ. रंिना िैन
कलबगु ी : मकशोर कुमार कोलकाता : रािेश काला
कोलकाता : कुसुम छाबड़ा कोटा : नमवन लुहामडर्ा
कोटा : श्रीमती प्रममला िैन मड़ु मबद्री : श्रीमती लक्ष्मी िैन
मदल्ली : श्रीमती ररतु िैन दावनगेरे : भरथ पंमडत
मबुं ई : दीपक िैन धमषस्थल : डॉ. िर्कीमतष िैन
मुंबई : प्रकाश मसंघवी मुंबई : गौरव िैन
मौरेना : गौरव िैन मदुरै : िी. भरथराि
मशवनी : श्री न्दन िैन मौरेना : मिम्मी िैन
रार्परु : ममतेश बाकलीवाल पुणे : प्रािक्ता ौगुले
रानीपरु : सौरभ िैन मशवनी : पवन मदवाकर िैन
रतलाम : मांगीलाल िैन रानीपरु : प्रा ी िैन
सांगली : रािकुमार ौगल ु े सांगली : राहुल नांद्रे
उज्िैन : रािकुमार बाकलीवा. सोलापुर : कुमारी श्रद्धा व्र्वहारे
उज्िैन : नमवन िैन िर्परु ,मानसरोवर श्री प्रमोद िैन
ऑस्ट्रे मलर्ा, पथष श्रीमती भमक्त हले व्र्वहारे एवं सभी कार्षकिाष
अमेररका: श्री डॉ प्रेम ंद िी गडा एवं सभी कार्षकिाष

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नमोस्तु म तं न के प्रकाशन के सहर्ोग में मनरंतर कार्षरत:-

डॉ. श्री मनमषल िैन शास्त्री, श्रीमती कीमतष पवन िैन, पमं डता ार्ष मुकेश ‘मवनम्र’,
सलाहकार, टीकमगढ़, म.प्र. सहसंपामदका, मदल्ली, प्रमतष्ठा ार्ष,वास्तुमवद,गुरुर्ग्ाम.

प.ं श्री लोके श िी िैन शास्त्री, श्रीमती प्रमतष्ठा सौरभ िैन, श्री सुभार् िैन,
गनोड़ा, रािस्थान. (कलाकृमत) बंगलूर. धुमलर्ा, महाराष्ट्ट्र.

बढ़ता कारवां
श्री सुभार् िी िैन, धुमलर्ा, िलगााँव, महाराष्ट्ट्र सह संपादक के
के नवीन पदभार के साथ कार्षरत होकर अपनी सेवाएं
मााँ मिनवाणी को सादर सममपषत कर रहे हैं.
अतः उनके इस नए पद के मलए
नमोस्तु शासन सेवा समममत (रमि.)पररवार
की ओर से ढेरों शुभकामनार्ें.
र्मद आप भी स्व-कल्र्ाण के साथ साथ मााँ मिनवाणी की सेवा, धमष प्रभावना,
प्र ार और प्रसार हेतु िुड़ना ाहते हैं तो हमसे शीघ्र ही सपं कष कीमिर्े.
प्रधान संपादक : पी. के . िैन ‘प्रदीप’.
व्हात्सप नंबर : +91 9324358035.
E-mail. ID: PKJAINWATER@GMAIL.COM
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पुनः पुनः ईमानदारी पूवषक सच् ी मनष्ठा से कार्ष करने के कारण
नमोस्तु शासन सेवा समममत, (रमि.)
आपकी अपनी संस्था, को
भारत सरकार के द्वारा सम्मामनत मकर्ा गर्ा हैं.

अभी हाल में ही प्राप्त र्ह तीसरा प्रमाणपत्र (समटषमफके ट) मदखाई दे रहा
हैं. आर्कर अमधमनर्म की धारा 80 G के अंतगषत दातार को ममलने
वाली छुट का प्रमाण पत्र. इससे अब कार्ों में तेिी भी आएगी.
र्ह सब आ ार्ष श्री मवशद्ध ु सागर िी महाराि की प्रेरणा,
कृपा दृमष्ट एवं उनके द्वारा दी िाने वाली मशक्षाएं
और आपके सभी के मवश्वास और संस्था के
सभी कार्षकताषओ ं द्वारा अथक लगन
और सत्र्ता के कारण संभव
एवं संपन्न हुआ हैं. आप सभी
नमोस्तु शासन सेवा समममत
को इसी तरह अपना
सहर्ोग प्रदान
करते
रहें.
म ंता कभी न करना भाई, म ंता तो दुखदाई हैं ; आत्म शांमत न कभी ममलेगी, म ंतन ही सख
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नमो स्तु शासन सेवा समममत (रमि.)


मािीवाडा, ठाणे (पमश्चम) मुंबई 400 601.
सपं कष सत्रू :-
E-mail :
NAMOSTUSHASANGH@GMAIL.COM
PKJAINWATER@GMAIL.COM
WWW.VISHUDDHASAGAR.COM
मोबाइल : +91 93243 58035
आप सभी का आभार
नमोस्तु शासन सेवा समममत पररवार
“िर् मिनेन्द्र”
मडमिटल धाममषक आध्र्ामत्मक पमत्रका
मनःशुल्क मवतरण के मलए
(सवष अमधकार संपादक और प्रकाशक के अधीन)
(प्रकामशत लेख, र नाओ ं के मलए संपादक एवं प्रकाशक मिम्मेदार नहीं हैं.
लेख, र ना आमद लेखक/प्रेर्क के स्वर्ं के मव ार हैं)
आत्मं स्वभावं पर भाव मभन्न,ं
आत्मं स्वभावं पर भाव मभन्नं.
(प्रकाश

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