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पाठ का सार upbhhokta bad ki sanskriti
पाठ का सार upbhhokta bad ki sanskriti
लेखक ने इस पाठ में उपभोक्तावाद के बारे में बताया है। उनके अनुसार सबकु छ बदल रहा
है। नई जीवनशैली आम व्यक्ति पर हावी होती जा रही है। अब उपभोग-भोग ही सुख बन
गया है। बाजार विलासिता की सामग्रियों से भरा पड़ा है।
एक से बढ़कर एक टू थपेस्ट बाजार में उपलब्ध हैं। कोई दाँतो को मोतियों जैसा बनाने वाले,
कोई मसूढ़ों को मजबूत रखता है तो कोई वनस्पति और खनिज तत्वों द्वारा निर्मित है। उन्ही
के अनुसार रंग और सफाई की क्षमता वाले ब्रश भी बाजार में मौजूद हैं। पल भर में मुह की
दुर्गन्ध दूर करने वाले माउथवाश भी उपस्थित है। सौंदर्य-प्रासधन में तो हर माह नए उत्पाद
जुड़ जाते हैं। अगर एक साबुन को ही देखे तो ऐसे साबुन उपलब्ध हैं जो तरोताजा कर दे, शुद्ध-
गंगाजल से निर्मित और कोई तो सिने-स्टार्स की खूबसूरती का राज भी है। संभ्रांत महिलओं
की ड्रेसिंग टेबल पर तीस-तीस हजार के आराम से मिल जाती है।
वस्तुओं और परिधानों की दुनिया से शहरों में जगह-जगह बुटीक खुल गए हैं। अलग-अलग
ब्रांडो के नई डिज़ाइन के कपडे आ गए हैं। घड़ियां अब सिर्फ समय देखने के लिए बल्कि
प्रतिष्ठा को बढ़ाने के रूप में पहनी जाती हैं। संगीत आये या न पर म्यूजिक सिस्टम बड़ा
होना चाहिए भले ही बजाने न आये। कं प्यूटर को दिखावे के लिए ख़रीदा जा रहा है। प्रतिष्ठा
के नाम पर शादी-विवाह पांच सितारा होटलों में बुक होते हैं। इलाज करवाने के लिए पांच
सितारा हॉस्पिटलों में जाया जाता है। शिक्षा के लिए पांच सितारा स्कू ल मौजूद हैं कु छ दिन में
कॉलेज और यूनिवर्सिटी भी बन जाएंगे। अमेरिका और यूरोप में मरने के पहले ही अंतिम
संस्कार के बाद का विश्राम का प्रबंध कर लिया जाता है। कब्र पर फू ल-फव्वारे, संगीत आदि
का इंतज़ाम कर लिया जाता है। यह भारत में तो नही होता पर भविष्य में होने लग जाएगा।
हमारी परम्पराओं का अवमूल्यन हुआ है, आस्थाओं का क्षरण हुआ है। हमारी मानसिकता में
गिरावट आ रही है। हमारी सिमित संसाधनों का घोर अप्व्यय हो रहा है। आलू चिप्स और
पिज़्ज़ा खाकर कोई भला स्वस्थ कै से रह सकता है? सामाजिक सरोकार में कमी आ रही है।
व्यक्तिगत के न्द्रता बढ़ रही है और स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है। गांधीजी के अनुसार
हमें अपने आदर्शों पर टिके रहते हुए स्वस्थ बदलावों को अपनाना है। उपभोक्ता संस्कृ ति
भविष्य के लिए एक बड़ा खतरा साबित होने वाली है।
लेखक परिचय
शयामचरण दुबे
इनका जन्म सन 1922 में मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में हुआ। उन्होंने नागपुर विश्वविधालय
से से मानव विज्ञान में पीएचडी की। वे भारत के अग्रणी समाज वैज्ञानिक रहे हैं। इनका देहांत
सन 1996 में हुआ।
प्रमुख कार्य
पुस्तकें – मानव और संस्कृ ति, परम्परा और इतिहास बोध, संस्कृ ति तथा शिक्षा, समाज और
भविष्य, भारतीय ग्राम, संक्रमण की पीड़ा, विकास का समाजशास्त्र और समय और संस्कृ ति।
• शैली – ढंग
• वर्चस्व – प्रधानता
• विज्ञापित – सूचित
• अनंत – जिसका अंत न हो
• सौंदर्य प्रसाधन – सुंदरता बढ़ाने वाली सामग्री
• परिधान – वस्त्र
• अस्मिता – पहचान
• अवमूल्यन – मूल्य में गिरावट
• क्षरण – नाश
• उपनिवेश – वह विजित देश जिसमे विजेता राष्ट्र के लोग आकर बस गए हों।
• प्रतिमान – मानदंड
• प्रतिस्पर्धा – होड़
• छद्म – बनावटी
• दिग्भ्रमित – दिशाहीन
• वशीकरण – वश में करना
• अपव्यय – फिजूलखर्ची
• तात्कालिक – उसी समय का
• परमार्थ – दूसरों की भलाई।