सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति

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सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति

संसार के किसी भी कला की कोई भी सुंदर कलाकृ ति को जब हम देखते हैं तो


मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। संगीत जैसी कलाओं में हम सुनते हुए भी इसी स्थिति में
होते हैं। सामान्य प्रेक्षक तो आनंदोपलब्धि तक ही सीमित रहता है लेकिन
विचारशील प्रेक्षक के मन में यह प्रश्न जरूर कौंधता है की आखिर इतनी अच्छी
कलाकृ ति या रचना का निर्माण हुआ कै से? इसी प्रश्न के उत्तर में छिपा होता है
सृजन की प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यनुभूति।

सृजन की प्रक्रिया पर विभिन्न पश्चिमी और भारतीय विद्वानों ने विचार किया है।


कु छ प्रख्यात बहिर्मुखी कलाकारों ने भी अपनी आत्मकथा आदि में सृजन की
प्रक्रिया के दौरान मानसिक और बाह्य स्थितियों संतुलन और द्वंदों का वर्णन
किया है। कल्पना विभिन्न चरणों से गुजरकर और भौतिक आधार प्राप्त कर
कलाकृ ति के रूप में परिणत होती है। कल्पना पूरी तरह से मन का विषय है
इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने भी सृजन की प्रक्रिया पर विचार किया है। इन्हीं आधारों
पर सृजन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जाता है।

दर्शनिकों, कलाकारों और मनोवैज्ञानिकों में से किसी एक की बातों को ही तथ्यरूप


में स्वीकार करना एकांगी हो जाएगा इसलिए तीनों के मतों पर समग्रता से विचार
करके ही सृजन की प्रक्रिया पर ठोस धारणा बनती है। वर्तमान में सृजन प्रक्रिया के
वर्णन विश्लेषण के लिए ‘सृजनशास्त्र’ के नाम से एक अलग शास्त्र ही विकसित हो
चुका है। अंग्रेजी में इसे ‘साइनेटिक्स’ कहते हैं। ‘साइनेटिक्स’ ने सौंदर्यशास्त्र के
अध्ययन में युगांतकारी पहल किया है।
सृजन की प्रक्रिया में कृ ति या कर्ता के अंतर्मुखी चरण और बहिर्मुखी चरण का
संयोग पर्यावरण की भूमिका के साथ निवेशित होकर कलाकृ ति के रूप में
प्रतिफलित होती है। यह कलाकृ ति एक भौतिक वस्तु होती है। कृ ति निर्माण के
लिए रूपावदान में माध्यम अंतर्मुखी चरण बहिर्मुखी चरण के रूप में रूपांतरित कर
देता है। कला से एक ऐसी प्रक्रिया का बोध होता है जो कलाकृ ति को अपने लक्ष्य,
भावोद्भावना की ओर अग्रसर करती है। कलाकृ ति एक अभिव्यंजनात्मक और कु छ
अंशो में भावात्मक रूप है जो करने तथा रचने से प्राप्त होता है। यहाँ करना नाटक
और नृत्य जैसी कलाओं से संबन्धित है तो रचना चित्र, मूर्ति और काव्यकलाओं से।
कलाकृ ति का रूप मानवीय प्रत्यक्षीकरण के आनंदमूलक क्षेत्र से भी जुड़ा होता है
जिसका भोग मन द्वारा होता है। इसप्रकार कलाकृ ति में एक भौतिक वस्तु,
मानवीय क्रिया मानवीय आशंसा तीनों का मेल होता है। यह मेल ही कलाकृ ति को
सामाजिक और सांस्कृ तिक मूल्य देता है।

प्रत्येक कला का किसी न किसी भौतिक वस्तु से वास्ता रहता है। वह भौतिक
वस्तु चाहे शरीर हो या शरीर से परे अन्य वस्तु। चाहे कोई उपकरण का इस्तेमाल
हो या नहीं निर्माण अवश्य होता है। यह निर्माण एक ओर वास्तविक जगत का
होकर भी उससे स्वतंत्र होता है तो दूसरी ओर कलात्मक एवं सांस्कृ तिक परंपरा से
संघटित होकर भी स्वकीय होता है। इसलिए सृजन प्रक्रिया में मौलिकता एवं
परंपरा, वैयक्तिकता एवं सामूहिकता द्वंदात्मक रूप से साथ-साथ होता है। यह भी
माना जाता है की सृजन प्रक्रिया अवचेतन का आवेश मात्र होता होता है जिसमें
संवेग ही प्रमुख होते हैं। वास्तव में पूरा सृजनात्मक कार्य अचेतन के क्षेत्र से
गुजरकर ही चेतना में साकार होती है। यह कार्य चिंतन के द्वारा सम्पन्न होता है।
इस तरह यह सिर्फ मानसिक कार्य कहा जा सकता है लेकिन वास्तव में शरीर और
मस्तिष्क का उचित समन्वय इसे जीवंत और पूर्ण बनाता है।
सृजन प्रक्रिया चाहे करने से संबन्धित हो या फिर रचने से इसमें आंतरिक तथा
बाह्य संप्रेषणीयता और पर्यावरण की भूमिका संतुलित करके प्रत्यक्षीकरण का कर्ता
कलाकार होता है। कलाकार किसी प्रयोजन के लिए पदार्थ को जिस ढंग से आकृ ति
देने की कोशिश करता है वह कोशिश उसके कौशल पर आश्रित होता है। कौशल के
माध्यम से ही पदार्थ को आकृ ति देने में सृजनात्मक व्यवस्था का निवेश करता है।
यह सृजनात्मक व्यवस्था परम्परावर्ती न होकर मौलिक होती है।

कलाकार जब प्रकृ ति के कोई दृश्य या भावना से प्रेरित होता है तो वह उसका हू-ब-


हू अनुकृ ति का निर्माण नहीं कर डालता है। कलाकार की प्रेरणा के साथ-साथ उसके
अवचेतन में छिपे संस्कार और कल्पना का संयोग होता है। इस संयोग से एक
मानस मूर्ति उसके मन में बनती है। इस मानस मूर्ति का आधार बिम्ब और प्रतीक
होते हैं। कलाकार के मन में बनी मूर्ति का सौन्दर्य उसे प्रयाप्त आनंद प्रदान करता
है। लेकिन दूसरे लोग भी आनंद प्राप्त कर सकें इसलिए और सृजन के क्षणों का
विलक्षण आनंद प्राप्त करने के लिए वह अपने कौशल से संबन्धित भौतिक
माध्यम का सहारा लेकर मानस मूर्ति को ठोस रूपाकार प्रदान करता है। अब प्रश्न
उठता है कि क्या कलाकृ ति हू-ब-हू कलाकार कि मानस मूर्ति जैसी होती है?

कलाकार कि मानस मूर्ति और कलाकृ ति का साम्य कई बातों पर निर्भर करता है।


कलाकार जिस किसी भी माध्यम का उपयोग करता है उस माध्यम की एक सीमा
होती है। वह सीमा मानस मूर्ति के प्रत्यक्षीकरण में प्रतिरोध उत्पन्न करता है।
प्रतिरोध के अन्य तत्व होते हैं वातावरण, कलाकार की प्रवणता और अर्थ। इन
प्रतिरोधों की जटिलता जितनी कम होती है, मानस मूर्ति से कलाकृ ति का साम्य
उतना ही अधिक होता है। इसके अतिरिक्त कलाकार की मानसिक संचरणशीलता
भी सृजन को प्रभावित करती है। वास्तव मे कलाकार की मानस मूर्ति संवेगों,
चिंतन, कल्पना, संस्कारों का घनीभूत रूप होता है। मनुष्य के मन का स्वभाव ही
ऐसा है की वह चिंतन और कल्पना को रूढ़ नहीं होने देता है। इसलिए उनमें
संचरणशीलता होती है। चिंतन की संचरणशीलता सृजन के क्षणों में भी बरकरार
रहती है। इस कारण से मानस मूर्ति का रूप भौतिक मूर्ति की तरह स्थिर नहीं रह
पाता है बल्कि सृजन के दौरान भी इसके रूप मे कामोबेश परिवर्तन होता रहता है।
इसलिए यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कलाकृ ति ठीक वैसी नहीं
होती है जैसी कलाकार कि मानस मूर्ति होती है। लेकिन वह मानस मूर्ति से ज्यादा
भिन्न भी नहीं होती है। इसलिए कलकृ ति अपने सौन्दर्य के बल पर प्रेक्षकों को
लगभग वैसा ही आनंद प्रदान करने में सक्षम होती है जैसा कलाकार को प्राप्त
हुआ रहता है। यह सौंदर्यबोध और संगत आनंद की आदर्श स्थिति है जो आदर्श
प्रेक्षकों के संदर्भ में ही सत्य होती है। क्योकि कलाकृ ति के सौन्दर्य से मिलनेवाले
आनंद का नियामक कलाकार की योग्यता, माध्यम, वातावरण के अतिरिक्त प्रेक्षकों
की सहृदयता भी होती है।

संदर्भ :

1. अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा – रमेश कुं तल मेघ।

2. सौन्दर्य शास्त्र – डॉ॰ ममता चतुर्वेदी।

3. कक्षा व्याख्यान – डॉ॰ प्रभात त्रिपाठी

भारतीय लोककलाओं के बीच आदिवासी कला


मनुष्य की प्रमुख प्रवृतियाँ होती है, आनंद प्राप्त करना, मनोरंजन को संजोना तथा
स्थितियों का अनुकरण करना। इन्हीं प्रवृतियों के कारण किसी भी सभ्यता में कला
का विकास होता है। जब कला की शुद्धता को बनाए रखने के लिए उसे शास्त्र के
नियमों में आबद्ध किया जाता है तो कला संस्कारित होती है और उसे शास्त्रीय
कला कहा जाता है और यह साधारणतया प्रबुध्द वर्ग में लोकप्रिय होती है। इसके
विपरीत कला का प्रारम्भिक रूप जनसामान्य के बीच प्रचलित रहता है और उसके
विकास में नियमों से ज्यादा परंपरा का योगदान रहता है। कला का यही रूप
लोककला कहलाती है। अगर हम कला को फू ल मान लें तो तुलनात्मक रूप से
विचार करने पर हम कह सकते हैं कि गुलदस्ते में फू लों का संयोजन शास्त्रीय रूप
है, तो घाटी में बेतरतीब खिले फू ल लोक रूप। लेकिन सौन्दर्य दोनों में होता है
इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता। अगर गुलदस्ते में सजे फू ल हमें
सम्मोहित करते हैं, तो घाटी में सजे फू ल सम्मोहन के साथ-साथ अन्य प्रभावों से
मिलकर मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं।

कला के किसी भी प्रकार में शास्त्रीय और लोक दोनों स्वरूप होते हैं। लोक-
कलाओं की अपनी विशेषताएँ होती है। इसमें शास्त्रीय नियमों की बाध्यता नहीं होने
से नवीनता के समावेश का पर्याप्त अवसर होता है। लोक-कला जन-समान्य के
जीवन से जुड़ी होती है और मूल संस्कृ ति का प्रतिनिधित्व करती है। जन-समुदाय
का रंग-ढंग और रहन-सहन, देश-काल और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार अलग-
अलग होता है। इसलिए लोक-कलाओं में भी क्षेत्रीयता होती है। किसी भी सभ्यता
में कला का प्रारम्भिक विकास के बाद ही उसे शास्त्र में आबध्द किया जाता है।
इस आधार पर लोक-कला को शास्त्रीय कला की जननी भी कहा जा सकता है।
भारत में हमेशा से ही कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृ तिक और
परंपरागत प्रभाव को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। यहाँ के हर राज्य
और संघक्षेत्रों में विभिन्न कला रूपों के अंतर्गत लोक-कलाओं की बहुत अधिक
संख्यां है। सभी लोककलाओं के स्वरूपों की जानकारी, वर्णन और विश्लेषण एक बड़े
प्रबंध की अपेक्षा रखता है। लेकिन मोटे तौर पर उन्हें चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य,
नाट्य, संगीत, साहित्य आदि में बांटकर विचार किया जा सकता है.

चित्रकला : भारत के सभी प्रदेशों के विभिन्न अंचलों में चित्रकला की विभिन्न


लोक-शैलियों का प्रचलन है। चित्रकला की सभी लोक-शैलियाँ किसी न किसी रूप में
एक दूसरे से अलग हैं। इनमें से अधिकांश शैलियों का आनुष्ठानिक महत्व रहा है।
इसलिए इनमें धार्मिक-आध्यात्मिक चित्रों और प्रतीकों को उभारा जाता है। इन
लोक-शैलियों में प्रमुख है- बिहार की मधुबनी चित्रकारी, ओड़ीसा राज्य की पत्ता
चित्रकारी, सीमांध्र और तेलंगाना की निर्मल चित्रकारी, तंजौर कला, महाराष्ट्र की वर्ली
चित्रकारी, दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित कालमेजुयु, बंगाल में अल्पना, छोटा
नागपुर प्रक्षेत्र के आदिवासियों में प्रचलित सोहराई कला आदि। इन सभी कलाओं
की शुरुआत के कें द्र में अनुष्ठान या धार्मिक मान्यता रही है। अधिकांश शैलियों के
चित्र पहले घर की दीवारों पर या जमीन पर गोबर या मिट्टी से लीपकर विभिन्न
प्रकार के प्राकृ तिक चटख-रंगों से बनाये जाते थे। सिर्फ वर्ली चित्रकला अत्यंत सादी
होती है, लेकिन उसकी भी प्रभावोत्पादकता अन्य शैलियों से कम नहीं होती है।
आधुनिक समय में ये शैलियाँ बहुप्रचारित होकर प्रबुद्ध शहरी वर्ग के फै शनेबल
कपड़ों तक पर दिखाई पड़ने लगी है।

मूर्तिकला : मूर्तिकला की भारतीय लोकशैली की झलक विभिन्न त्योहारों के अवसर


पर बनाए जाने वाले देवी-देवताओं की मूर्तियों में मिलती है। इन मूर्तियों को अंग-
प्रत्यंगो की सही नाप-तौल के अनुसार न बनाकर अपनी सुविधा या क्षेत्रिय चलन
के अनुसार बनाई जाती है। बंगाल की मूर्तिकला में बड़ी-बड़ी तिरछी आँखें, छोटी
नुकीली नाक के साथ सुंदर छोटे ओंठ का संयोजन दुर्गा और काली की मूर्ति में
स्पष्टत: दिखाई पड़ता है। इसी तरह महाराष्ट्र की मूर्तियों, दक्षिण भारत की मूर्तियों
और हिंदी क्षेत्र की मूर्तियों को बनावट और रूप-श्रृंगार के आधार पर तुरंत पहचाना
जा सकता है।

नाटक : भारत के सभी प्रदेशों में लोक-नाटकों के विभिन्न रूप हैं। कश्मीर में
भांडजशन और भांडपथर, हिमाचल प्रदेश में करियाल, हरियाणा में स्वांग, उत्तर प्रदेश
में नौटंकी, बंगाल में जात्रा, असम में अंकिया, मणिपुर में थंगटा, मध्य प्रदेश में माच,
महाराष्ट्र में तमाशा, आंध्रप्रदेश में भागवतमेल, उड़ीसा में पाला, के रल में थैयम,
कर्नाटक में यक्षगान, गुजरात में गरबा आदि। इसके अतिरिक्त रामलीला और
रासलीला किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है।

नृत्य : लोक नृत्य सहज उल्लास की अभिव्यक्ति होते हैं. भारत के सभी राज्यों में
लोकनृत्यों की संख्यां को मिला दिया जाए तो इनकी संख्यां सैकड़ों होंगी. ये
लोकनृत्य कृ षि कार्य की समाप्ति, जन्म, विवाह और त्योहार आदि के अवसर पर
किए जाते हैं। इनमे से अधिकांश अब मृतप्राय हो गई हैं. आज प्रचलित लोकनृत्य
हैं− छऊ, बिहू, पंथी, भांगड़ा, गिद्धा, लौंडानाच, डांडिया, सरहुल, कर्मा, गरबा, घूमर,
कलबेलिया आदि।

लोकगीत : भारतीय जनमानस का संगीत से जुड़ाव विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ जन्म से


लेकर मरने तक के अवसर पर गीत गाए जाते हैं। पर्व त्यौहार की तो बात ही
निराली है। भारतीय अंचलों में विभिन्न अवसरों पर गाए जानेवाले लोकगीत हैं,
चैता, होली, कजरी, बरहमासा, झूमर, सोहर, बधाई, बटगवनि, बिरहा, विवाह गीत,
समदाऊन (विदाई गीत), परिछन (स्वागत गीत), आदि। इन गीतों में कु छ गीत
पुरुषों के द्वारा तो कु छ गीत महिलाओं के द्वारा गाए जाते हैं। विवाह गीत, जन्म
उत्सव पर गाए जाने वाले गीत, झूमर आदि सामान्यत: महिलाएं ही गाती हैं। इसके
अतिरिक्त कु छ धार्मिक लोकगीत भी होते है जैसे- नचारी, विद्यापति के पद, देवी
गीत, प्रातकाली आदि। ऐसे गीत स्त्री और पुरुष दोनों गाते हैं। कु छ लोकगीत साज-
वाज के साथ गाए जाते हैं, तो कु छ उसके बिना भी। लेकिन सामूहिकता उसका
प्रधान गुण होता है। ढोल पर थाप और मजीरे के ताल पर गायक ऐसा समा बांधते
हैं कि श्रोता सहज ही थिरकने लगता है।

लोकसाहित्य : भारत में लोकसाहित्य का स्वरूप प्रारम्भ में लिखित न होकर


मौखिक ही था। प्राय: हर प्रदेश में पशु-पक्षी की प्रेरणास्पद कथा, राजा-महाराजाओं
की गाथा और प्रेमाख्यानों की लोक-परंपरा रही है। आधुनिक काल में इन आख्यानो
को लिपिबद्ध किया गया है। कई दन्त कथाओं को आधार बनाकर उच्च कोटी के
साहित्य की रचना की गई है।

हस्तशिल्प : उपरोक्त लोक-कला रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप हस्तशिल्प भी


है। इसमें भी प्रदेश के अनुसार अंतर और विविधता पायी जाती है। भारत के प्रमुख
हस्तशिल्प में, दस्तकारी, फु लकारी, कढ़ाई के विभिन्न प्रकार, एप्लिक, मंजूषा,
चिकनकारी, कठपुतली निर्माण, गुड़िया निर्माण, काठ के विभिन्न प्रकार के खिलौने,
बांस की सजावटी और उपयोगी सामग्रियाँ आदि को माना जाता है।

भारतीय लोककलाओं को दो प्रकार से विभेदित कर सकते हैं − समाज की


मूलधारा में प्रचलित कला और वन-प्रांतर में रहनेवाली जनजातियों के बीच प्रचलित
कला। वन-प्रांतर में रहने वाली जनजातियों को आदिवासी कहा जाता है। अत: उनके
बीच में प्रचलित कला को आदिवासी कला के रूप में मान्यता दी जाती है। चूंकि
लोककलाएँ लोगों के जीवन, परिवेश और प्रकृ ति के बेहद करीब होती हैं और उनके
द्वारा उद्भाषित सौन्दर्य का मानक संबन्धित समाज के सापेक्ष होता है। इसलिए
आदिवासी कला में भी आदिवासीयों के जीवन दृष्टि के अनुसार एक अनगढ़पन
होता है, लेकिन उसकी प्रभावोत्पादकता समाज की मुख्य-धाराओं की कला से किसी
मायने में कम नहीं होती है, बल्कि उनका अनगढ़पन ही अनूठे सौन्दर्य की सृष्टि
करता है।

असम से लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्र-


प्रदेश की जन-जतियों में भी विविधता है। उनके रहन-सहन रंग-ढंग में थोड़ा-बहुत
अंतर होता है, फलत: आदिवासी कलाओं में भी विविधता दिखाई पड़ती है। मुंडा,
उड़ाव, भील, बिरहोर, भुईयां आदि की कलाकृ तियां सर्वथा एक जैसी नहीं होती है।
समग्रता से विचार करने पर हम आदिवासी कला को छ: प्रकार में बाँट सकते है। वे
हैं, काष्ठ कला, बांसकला, मिट्टी की कला, चित्र-कला और नृत्य-कला।

बाँस-कला : आदिवासी कला में बाँसकला का महत्वपूर्ण स्थान है। बाँस के द्वारा
उपयोगी सामग्री जैसे- टोकरी आदि के अतिरिक्त सजावटी सामान जैसे कलम स्टैंड,
फू लदान, नाव के आकार की टोकरियाँ, चटाईयाँ, रंगारंग बक्से, मंजूषा आदि का
निर्माण किया जाता है। बाँस से उपयोगी सामग्री का निर्माण आदिवासियों की
जीविका से सीधे जुड़ा है। साप्ताहिक हाट में उन्हें बेचकर कमाए गए पैसे उनके
जीवन का आधार है। सजावटी सामान आदिवासी कला को प्रसिद्ध बनाती है। फै शन
के बदले प्रारूप ने आदिवासी कला को सजावटी सामान के कारण, अंतर्राष्ट्रीय
प्रसिद्धि दिलाया है।

काष्ठ-कला : आदिवासी काष्ठ से दैनिक उपयोग की छोटी-मोटी वस्तुएँ खिलौना


और महिलाओं के लिए गहने का निर्माण करते हैं।

मिट्टी-कला : आज भी आदिवासी समाज में मिट्टी के बर्तनो का प्रयोग बहुतायत से


होता है। इसलिए आदिवासी मिट्टी से उपयोग के लिए छोटे-बड़े बर्तन घड़े-सकोरे
आदि के साथ-साथ खिलौने आदि का निर्माण करते है। आधुनिक समय में बाहरी
दुनियाँ के संपर्क में आने से वे मिट्टी के सजावटी सामानो का भी निर्माण करने
लगे हैं।

चित्रकला : समाज जैसा भी हो चित्र उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता ही है।


आदिवासी समाज भी इससे अछू ता नही है। वे भी पर्व-त्योहारों, उत्सवों आदि पर
अपने मानसिक भावों की अभिव्यक्ति या अनुष्ठानिक महत्व के कारण, चित्र बनाते
हैं। आदिवासियों में चित्रकला के दो प्रकार पिथौरा चित्रकला और सोहराई चित्रकला
बहुत प्रचिलित है। पिथौरा चित्रकला मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में
प्रचलित है। इस कला में आदिवासी अपने घर की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के
रंगों से देवताओं की आकृ ति के साथ-साथ पशु-पक्षियों की आकृ ति का निर्माण
करते हैं। आदिवासियों में यह मान्यता है, कि देवता जब उसके घर पर अपनी
तस्वीर देखेंगे तो खुश होंगे और उन्हें विपत्तियों से बचाते रहेंगे।

सोहराई कला झारखंड के आदिवासियों में प्रचलित है। खासकर हजारीबाग के


बादाम क्षेत्र में यह कला अत्याधिक प्रचलित है। इस क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं
पुराने समय में दूधी मिट्टी से दीवार को लीपकर विभिन्न रंगों से चित्र बनाती थी।
अब दूधी मिट्टी कि जगह चूने से लीपकर चित्र बनाया जाता है। सोहराई कला को
बादाम क्षेत्र के राजाओं ने भी प्रश्रय दिया। जब राज परिवार के सदस्यों का विवाह
होता था तो उनके दाम्पत्य का प्रथम क्षण जिस कमरे में बीतता था, वहाँ की
दीवारों पर वे संके त चिन्हों का निर्माण करवाते थे। इस प्रकार सोहराई कला
मधुबनी चित्रकारी की कोहबर चित्र से साम्य रखता है।

नृत्य : मनोरंजन मनुष्य की आदिम प्रवृति है और नृत्य उसका मूलाधार।


आदिवासियों में भी मनोरंजन के चलते नृत्य का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त
देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भी वे नृत्य करते हैं। आदिवासियों के प्रमुख
नृत्य हैं- लांगी, मुन्दडी, करमा, घूर्मा, सुआ, सैसा आदि। इन नृत्यों में महिला और
पुरुष वनस्पतियों से श्रंगार करके मिलजुलकर नृत्य करते हैं। अधिकांश नृत्य ढोल
की थाप पर, चाँदनी रात में, खुले में होता है।

उपयोगी कला की बात करें तो आदिवासियों द्वारा आजीविका के लिए


सखुए के पत्ते से पत्तलों का निर्माण महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

भारत का सभ्य और जनजातीय, दोनों समाज लोककलाओं के मायने में


बहुत ही समृद्ध है। ये लोककलाएँ भारतीय संस्कृ ति को मजबूत आधार और बहुरंगी
छटा प्रदान करती हैं। निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि अतुलनीय भारत की
अवधारणा को मूर्त करने में लोककलाएँ महत्वपूर्ण नियामक के रूप में स्थापित हैं

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