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आत्माभिव्यक्ति मानव की प्राकृ तिक प्रवृत्ति है। अपने अंदर के भाव प्रकट किए बिना वह रह नहीं सकता। और,

भावों का आधार
होता है, मनुष्य का परिवेश। विद्वानों की मान्यता है कि आदिम काल में जब भाषा और लिपि-चिह्नों का आविर्भाव नहीं हुआ था,
रेखाओं के संके त से ही व्यक्ति स्वयं को अभिव्यक्त करता था। गुफाओं के अंदर आज जो शिलाचित्र मिलते हैं, वे ही चित्रकला के
आदि प्रमाण हैं। तब का मानवजीवन पशुओं आदि के अधिक निकट था, जीवन के अन्य पक्ष अभी विकसित होने थे, इसलिए
तत्कालीन भारतीय चित्रांकन भी इतने तक ही सीमित मिलता है।

भारत की चित्रकला

 सभ्यता के विकास के साथ परिस्थितियाँ बदलती गई। भारत धर्म और आध्यात्म की ओर आकृ ष्ट हुआ। यहाँ बाह्य सौंदर्य
की अपेक्षा आंतरिक भावों को प्रधानता दी गई। इसलिए भारत की चित्रकला में भाव-भंगिमा, मुद्रा तथा अंगप्रत्यंगों के
आकर्षण के अंदर से भावपक्ष अधिक स्पष्ट उभरकर सामने आया।
 कालांतर में राजनीतिक कारणों से भारत की चित्रकला पर ग्रीक कला का प्रभाव पड़ा। फिर आया भारतीय संस्कृ ति का
स्वर्ण युग। इस युग की चित्रकला की सर्वोत्तम कृ तियाँ हैं- अजंता के चित्र, देवी-देवताओं की मूर्तियाँ आदि जिनको देखकर
लोग आश्चर्यचकित रह जाते हैं।
 इस्लाम धर्म चित्रकला के प्रति उदासीन ही नहीं वरन् वर्जना-भाववाला रहा है। इसलिए मुस्लिम शासन के आरंभिक काल में
भारतीय चित्रकला का विकास रुक सा गया। किं तु अकबर के समय में इसमें परिवर्तन हुआ। धर्मग्रंथों के अलंकरण के रूप में
चित्रकला फिर पनपने लगी। साथ ही फ़ारसी शैली का भी उस पर प्रभाव पड़ा। मुग़ल शासन के अवसान के बाद यह
चित्रकला देशी राज्यों तक सीमित रह गई। इसी बीच राजस्थानी शैली, कांगड़ा या पहाड़ी शैली के चित्र बने। राग-रागनियों
के चित्रों के निर्माण का भी यही समय है।
 अंग्रेज़ यथार्थवादी भौतिक संस्कृ ति लेकर भारत आए। उनकी चित्रकला बाह्य को ही यथावत उतारती है। इसका प्रभाव
भारत के चित्रकारों पर भी पड़ा। रवि वर्मा (1848-1905 ई.) के चित्र इसके प्रमाण हैं।

इतिहास

 भारतीय चित्रकला का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। यद्यपि आधुनिक शैली की चित्रकला को अधिक पुरानी घटना नहीं माना
जाता, परंतु भारत में चित्रकला के बीज तो आदिमानव ने ही डाल दिये थे। पाषाण काल में ही मानव ने गुफ़ा चित्रण करना
प्रारम्भ कर दिया था, जिसके प्रमाण होशंगाबाद और भीमवेतका आदि स्थानों की कं दराओं और गुफ़ाओं में मिले हैं। इन
चित्रों में शिकार, स्त्रियों तथा पशु-पक्षियों आदि के दृश्य चित्रित हैं।

 सिंधु घाटी सभ्यता में भवनों के ध्वस्त हो जाने के कारण चित्रकला के प्रमाण स्पष्ट नहीं हैं। तत्पश्चात् प्रथम सदी ईसा
पूर्व से चित्रकला के अधिक स्पष्ट प्रमाण मिलना शुरू हो गये। अजंता की गुफ़ाओं में की गई चित्रकारी कई शताब्दियों में तैयार
हुई थी, परंतु इसकी सबसे प्राचीन चित्रकला ई. पू. प्रथम शताब्दी की है। इन चित्रों की विषय वस्तु भगवान बुद्ध के विभिन्न
जन्मों की कथाओं अर्थात् जातक को बनाया गया है।
 छठी शताब्दी में चालुक्यों द्वारा बादामी में, सातवीं शताब्दी में पल्लवों द्वारा पनमलै में, नवीं शताब्दी में पांड्यों द्वारा
सित्तन्नवासल में बारहवीं बारहवीं शताब्दी में चोलों द्वारा तंजौर में तथा सोलहवीं शताब्दी के विजयनगर साम्राज्य के शासकों
द्वारा लेपाक्षी में भित्ति चित्रकारी के उत्कृ ष्ट नमूने तैयार करवाये गये। इसी प्रकार के रल में भी इस कला के कई उत्कृ ष्ट
उदाहरण मिलते हैं। बंगाल के पाल शासकों के काल दसवीं और बारहवीं शताब्दी में ताड़ के पत्तों तथा बाद में काग़ज़ पर
लघु चित्रकारी का प्रचलन बढ़ा।

चित्रकार

परंतु ब्रिटिश काल में चित्रकला के विकास में कु छ मंदी आ गयी। इसके बाद भारत के नवजागरण से प्रभावित चित्रकला का नया
रूप सामने आया। इसके मुख्य प्रवर्तक रहे हैं- रविवर्मा, अवनीन्द्रनाथ ठाकु र, नंदलाल बोस, रवीन्द्रनाथ ठाकु र, यामिनी राय,
असित हालदार, अमृता शेरगिल आदि ने धीरे-धीरे इस कला को पुन: प्रगति की लीक पर लाने का प्रयास किया।

भारतीय चित्रकला शैलियाँ

जैन चित्रकला
मुख्य लेख : जैन चित्रकला

 7 वीं से 12 वीं शताब्दी तक सम्पूर्ण भारत को प्रभावित करने वाली शैलियों में जैन शैली का प्रमुख स्थान है।
 जैन चित्रकला शैली में जैन तीर्थंकरों-पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिक प्राचीन हैं।
पाल चित्रकला
मुख्य लेख : पाल चित्रकला

 9 वीं से 12 वीं शताब्दी तक बंगाल में पाल वंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासन में विशेष रूप से विकसित
होने वाली पाल शैली की चित्रकला की विषयवस्तु बौद्ध धर्म से प्रभावित रही है।
 प्रारम्भ में ताड़ पत्र और बाद में काग़ज़ पर बनाये जाने वाले चित्रों में वज्रयान बौद्ध धर्म के दृश्य चित्रित हैं।
अपभ्रंश चित्रकला
मुख्य लेख : अपभ्रंश चित्रकला

 अपभ्रंश शैली 11 वीं से 15 वीं शताब्दी के बीच प्रारम्भ में ताड़ पत्रों पर और बाद में काग़ज़ पर चित्रित हुई।
मुग़ल चित्रकला
मुख्य लेख : मुग़ल चित्रकला

 मुग़ल बादशाहों बाबर और हुमायूँ के काल में मुग़लकालीन चित्रकला फ़ारसी चित्रकला शैली से पूर्णतया प्रभावित थी।
 अकबर के काल में एक नवीन शैली का विकास हुआ, जो भारतीय और फारसी चित्रकलाओं का संगम थी।
पटना या कम्पनी चित्रकला
मुख्य लेख : पटना चित्रकला

 जनसामान्य के आम पहलुओं के चित्रण के लिए प्रसिद्ध पटना या कम्पनी चित्रकला शैली का विकास मुग़ल साम्राज्य के
पतन के बाद हुआ जब चित्रकारों ने पटना एवं उसके समीपवर्ती क्षेत्र को अपना कार्य-क्षेत्र बनाया।

भारतीय मूर्तिकला
भारत की एक दीर्घ मूर्तिकला-परम्परा है जिसकी खोज नवपाषाणिक संस्कृ तियों में की जा सकती है, हालांकि पुरातात्तिवक
दृष्टि से विकास के निरन्तर लम्बे प्रक्षेप पथ को तीसरी शताब्दी र्इसापूर्व से आगे खोजा जा सकता है।
भारतीय उपमहाद्वीप में कला को र्इश्वर की रचना माना जाता है और इसलिए कोर्इ भी कला एक-दूसरे से श्रेष्ठ नहीं है। जिस
प्रकार शिव से नृत्य एवं संगीत का उद्भव हुआ, विष्णु से चित्रकला एवं मूर्तिकला उत्पन्न हुर्इ और रूद्र विश्वकर्मन
से वास्तुकला उत्पन्न हुर्इ। यह कोर्इ आश्चर्य की बात नहीं है कि अधिकांश प्राचीन एवं मध्यकालीन कला सामाजिक-धार्मिक
संदर्भ के अन्तर्गत उत्पन्न हुर्इ।
देवताओं की विशेषताओं का आरंभिक उल्लेख वैदिक काल से मिलता है जहाँ हमें श्री सुक्त में श्री जैसे विभिन्न देवताओं के शब्द-
चित्र मिले हैं, यद्यपि पुरातात्तिवक दृषिट से यह सिद्ध नहीं हुआ है। हालांकि छठी शताब्दी र्इसा पूर्व के व्याकरणाचार्य पाणिनि ने
उनके असितत्त्व और किसी प्रकृ ति अथवा मूर्ति के इर्द-गिर्द अनुष्ठान का उल्लेख किया है। उसी प्रकार सौनक अपने सार-संग्रह
वृहत देवता में दस आवश्यक तत्त्वों का उल्लेख करते है जो हमें किसी देवता को पहचानने, यथा रूप, सम्बन्ध, प्रतीक, वाहन,
गुण, संके त आदि में मदद करता है।

भारतीय संगीत
भारतीय संगीत प्राचीन काल से भारत मे सुना और विकसित होता संगीत है। इस संगीत का प्रारंभ वैदिक काल से भी पूर्व का है।
इस संगीत का मूल स्रोत वेदों को माना जाता है। हिंदु परंपरा मे ऐसा मानना है कि ब्रह्मा ने नारद मुनि को संगीत वरदान में दिया
था।
वैदिक काल में सामवेद के मंत्रों का उच्चारण उस समय के वैदिक सप्तक या सामगान के अनुसार सातों स्वरों के प्रयोग के साथ
किया जाता था। गुरू-शिष्य परंपरा के अनुसार, शिष्य को गुरू से वेदों का ज्ञान मौखिक ही प्राप्त होता था व उन में किसी प्रकार
के परिवर्तन की संभावना से मनाही थी। इस तरह प्राचीन समय में वेदों व संगीत का कोई लिखित रूप न होने के कारण उनका
मूल स्वरूप लुप्त होता गया।

भारतीय संगीत के सात स्वर[संपादित करें]


भारतीय संगीत में सात शुद्ध स्वर है।

 षड्ज (सा)
 ऋषभ (रे)
 गंधार (ग)
 मध्यम (म)
 पंचम (प)
 धैवत (ध)
 निषाद (नी)

भारतीय संगीत के प्रकार[संपादित करें]


भारतीय संगीत को सामान्यत: ३ भागों में बाँटा जा सकता है:

 शास्त्रीय संगीत - इसको 'मार्गी' भी कहते हैं।


 उपशास्त्रीय संगीत
 सुगम संगीत

भारतीय स्थापत्यकला
भारत के स्थापत्य की जड़ें यहाँ के इतिहास, दर्शन एवं संस्कृ ति में निहित हैं। भारत की वास्तुकला यहाँ की परम्परागत एवं
बाहरी प्रभावों का मिश्रण है।
भारतीय वास्तु की विशेषता यहाँ की दीवारों के उत्कृ ष्ट और प्रचुर अलंकरण में है। भित्तिचित्रों और मूर्तियों की योजना, जिसमें
अलंकरण के अतिरिक्त अपने विषय के गंभीर भाव भी व्यक्त होते हैं, भवन को बाहर से कभी कभी पूर्णतया लपेट लेती है। इनमें
वास्तु का जीवन से संबंध क्या, वास्तव में आध्यात्मिक जीवन ही अंकित है। न्यूनाधिक उभार में उत्कीर्ण अपने अलौकिक कृ त्यों
में लगे हुए देश भर के देवी देवता, तथा युगों पुराना पौराणिक गाथाएँ, मूर्तिकला को प्रतीक बनाकर दर्शकों के सम्मुख अत्यंत
रोचक कथाओं और मनोहर चित्रों की एक पुस्तक सी खोल देती हैं।
'वास्तु' शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृ त के 'वस्' धातु से हुई है जिसका अर्थ 'बसना' होता है। चूंकि बसने के लिये भवन की
आवश्यकता होती है अतः 'वास्तु' का अर्थ 'रहने हेतु भवन' है। 'वस्' धातु से ही वास, आवास, निवास, बसति, बस्ती आदि
शब्द बने हैं।
सिन्धुघाटी का स्थापत्य
दो-तीन हजार वर्ष ई. पू. विकसित सिंधु घाटी सभ्यता की खोज से एक आश्चर्यजनक तथ्य प्रकाश में आया है कि भारत की
प्राचीनतम कला सौंदर्य की दृष्टि से ऐसी ही शून्य थी, जैसी आजकल की कोई भी सभ्यता। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की
खुदाइयों से प्राप्त अवशेष तत्कालीन भौतिक समृद्धि के सूचक हैं और उनमें किसी मंदिर, देवालय आदि के अभाव से यह अनुमान
होता है कि वहाँ धार्मिक विचारों का कु छ विशेष स्थान न था, अथवा यदि था तो वह निराकार शक्ति में आस्था के रूप में ही था।

प्राचीन भारतीय स्थापत्य

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