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ससं ्मरण

बाबूजी महाराज
प्रकाशकः
श्रीमती रीता माहेश्वरी,
एन.ई.-10, स्वामीबाग़,
आगरा - 282 005
ई-मेल : rsfaithsoamibaghagra@gmail.com
वेबसाईट : www.radhasoamifaith.org

सर्वाधिकार प्रकाशक द्वारा सरु क्षित

प्रथम ससं ्करण - जनवरी 2019


प्रतियाँ - 500

न्यौछावर : ` 20 /-
प्रस्तावना
संत, साध और ऊंचे दर्ज़े के महात्मा वगै़रा ने बाहर में
करामात और पर्चा देना रवां नहीं रखा है । अगर अपने खास भक्तों के
लिए ज़रूरत हो तो उनकी तकलीफ़ और दिक़्क़त को दया से ऐसे तौर
से रफ़ा कर देते हैं या उनमें सहूलियत पैदा कर देते हैं कि उसको देख
कर सबको अचरज तो ज़रूर होता है मगर वह करामात और पर्चे के
रूप में नहीं होता । जैसे अचानक पाँव फिसल गया और गिर गए, या
कोई चीज़ गिरी, मगर उसी वक़्त कोई रुकावट पैदा हो गई और वह
चीज़ बच गई । इस तरह से दया से भक्तों की मदद और रक्षा होती है
जिसको देखकर सब अचरज करते हैं कि यह मदद और रक्षा और
सम्हाल किधर से और कै से हुई । अगर गहरा भक्त हो तो वह समझ
सक्ता है कि यह मालिक की दया और मौज से हुआ । दनि ु यादार नहीं
समझ सकते हैं ।
(बचन बाबजू ी महाराज, दिनांकः 25.12.1938, पैरा-728/8)
बाबजू ी महाराज व उनके सतसंग का हाल “जीवन चरित्र
बाबजू ी महाराज” में समाविष्ट है । फिर भी बाबजू ी महाराज से
सम्बंधित, प्रेमी सतसगि
ं यों के अनेकों तज़रुबे, अतं री प्रेरणाएँ व
संस्मरण और उनकी दया के पर्चे, सतसंग के साहित्य में कई और
जगहों पर प्रकाशित हुए हैं । उनको पढ़ने से नई उमगं , प्रेम व प्रतीत
का प्रवाह होता है व थोड़ी-बहुत परमार्थी समझ भी बढ़ती है । इन्हीं
को एक जगह संकलित करने के इरादे से इस पस्ति ु का का सजृ न हुआ
है ।
सन् 2018 में, परम परुु ष परू न धनी स्वामीजी महाराज की
द्वितीय जन्म शताब्दी का अवसर, सभी सतसगं ी भाई व बहिनों के
लिए खास दया से परिपर्णू है । इस अवसर के कुछ समय पहले व बाद
में निम्न नई पसु ्तकें प्रकाशित हुई हैं :
1. परम परुु ष परू न धनी स्वामीजी महाराज की द्वितीय जन्म शताब्दी
2. राधास्वामी मत : एक संक्षिप्त परिचय
3. गढ़त
4. भक्ति और प्रेम

यह, हिदं ी व अग्ं रेज़ी भाषा दोनों में उपलब्ध हैं । इसी
सिलसिले में यह पांचवी पसु ्तक है । आशा है कि इन को पढ़ने व
मनन करने से सतसगिं यों में प्रेम व भक्ति और मालिक के चरनों में
अधिक विश्वास जागतृ होगा ।

नतू न वर्ष, 1 जनवरी 2019 रीता माहेश्वरी


स्वामीजी महाराज की द्वितीय
जन्म शताब्दी समारोह वर्ष
के स-ु सम्पन्न होने पर
स्वामी बाग़, आगरा
राधास्वामी सवं त् - 141
जगत जीव कहा समझे लीला ।
देख देख हंसन चित सीला ।।
अब के दाव पड़ा मेरा सजनी ।
जब आयो राधास्वामी की सरनी ।।
(सार बचन छंद बंद राधास्वामी, भाग-1, बचन-1, शब्द-1, कड़ी-20, 21)
राधास्वामी दयाल की दया राधास्वामी सहाय
1) बहुत अर्से तक बाबजू ी महाराज को सब लोग ‘बाबजू ी
साहब’ कहा करते थे । सबसे पहले ताऊजी साहब ने “महाराज” का
लफ़्ज़ आहिस्ते आहिस्ते कहना शरू ु किया । बाबजू ी महाराज फ़ौरन
टोकते कि यह क्या आप घड़ी घड़ी महाराज-महाराज कहने लगते
हैं । ताऊजी साहब जवाब देते, परु ाना ख़्याल अक़सर आ जाता है ।
ग़लती से महाराज का लफ़्ज़ निकल जाता है । क्या करूँ अहतियात
करता हू,ँ फिर भी ज़बान पर आ जाता है । आप इस लफ़्ज़ से चौंकते
क्यों हैं? अगर मैंने ‘बाबजू ी साहब’ कह दिया तो क्या और ‘बाबजू ी
महाराज’ कह दिया तो क्या? इसमें ज़्यादा फ़र्क़ या हर्ज़ ही क्या है?
फिर और सब लोग भी आहिस्ता आहिस्ता ‘महाराज’ कहने लगे ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-33, पृष्ठ-175)

2) बआ ु जी साहिबा ने ज़बानी और तहरीरी हुक़्म पडं ित जगन्नाथ


मेहता के मारफ़त बाबजू ी महाराज को भेजा कि अब सतसंग का
काम जारी करो । बहुत देर हो गई । इसके बाद बाबजू ी महाराज ने
खलु कर सतसंग कराना शरू ु किया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-29, पृष्ठ-155)

3) बाबजू ी महाराज के वक़्त में जब सतसगं बढ़ने लगा और


बचन भी गहरे होने लगे और मेहताजी साहब (पडं ित जगन्नाथ मेहता)
को भी बाबजू ी महाराज में गरुु भाव आ गया, तब बाबजू ी महाराज
से बड़े आग्रह के साथ अर्ज़ किया कि देखो यार, हमारे गजु रात को
और गजु रातियों को ज़रूर सतसगं में खींचना और लगाना, हम
तमु ्हारी दोस्ती के निहायत अहसानमदं होंगे । चनु ाँचे उसके बाद
बहुत गजु राती सतसगं में शामिल हुए ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-29, पृष्ठ-155)

4) बाबू प्रेमसरनजी का चोला छूटने के कुछ अर्से बाद मास्टर


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बल ू चन्द का देहान्त हुआ । मास्टर बल ू चन्द की रहनी-गहनी बहुत
श्रेष्ठ थी । महाराज साहब ने फ़रमाया कि इनका नाम बल ू चन्द नहीं
मलू चन्द था यानी मल ू धार (सनु ्न, दसवें द्वार) का । इस पर बाबू
गरुु मौज सरन ने बातचीत के सिलसिले में बाबजू ी महाराज से पछू ा
कि ‘प्रेमसरन’ और ‘मास्टर बल ू चन्द’ में क्या फ़र्क़ था? ‘प्रेमसरन’ में
ज़ाहिरा कोई ख़ास बात नहीं मालमू होती थी मगर उनकी बहुत तारीफ़
सनु ने में आई है । बाबजू ी महाराज ने जवाब दिया कि ‘प्रेमसरन’ उधर
से यानी ऊपर से आए थे और जो करते थे — हँसना, बोलना, खाना,
पीना - सब परमार्थ था । ‘मास्टर बल ू चन्द’ इधर से यानी नीचे से गए
और करनी के बल पर उनकी चाल चली ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-14, पृष्ठ-73/74)

5) एक बार महर्षी गरुु देवदासजी ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़


किया कि महाराज साहब जब पंडित हरदयाल दबु े से पाठ कराना
चाहते थे तो फ़रमाते थे कि दबु ेजी चमेली का हार पहनाइये । महाराज
साहब को दबु ेजी का पाठ ऐसा अच्छा लगता था, मानो चमेली
का हार पहना दिया हो । इस पर बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि
“तमु हमसे क्या कहते हो, हम बरसों उनके साथ उठे बैठे हैं । उनको
इलहाम (मन में मालिक की ओर से कोई बात प्रकट होना) था । जिस
घाट का जो शब्द होता था, उसका उसी घाट से पाठ करते थे । ऐसे
कायर न थे जैसे आज कल देखने में आते हैं ।”
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-15, पृष्ठ-76/77)

6) महाराज के पत्रु सरनो बाबू का देहांत सन् 1909 ई. में


हुआ । बनारस बैंक मज़ु फ़्फ़रपरु में मल
ु ाज़िम थे । वहाँ से बख़
ु ार में
बीमार होकर इलाहाबाद आए और तीन माह बीमार रहकर चोला
छूटा । बीमारी की हालत में अतं री तजरुबे बहुत हुए । राधास्वामी
मत की महिमा बहुत गाते थे । अतं र में स्वामीजी महाराज, हुज़रू
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महाराज और महाराज साहब के दर्शन होते थे । प्रतिदिन अतं र की
अजीबोग़रीब क़ै फ़ियतों और तजरुबों का ज़िक्र महाराज से किया
करते थे । कोई 15-20 दिन पहले महाराज ने मैयाजी से कह दिया
था कि यह लड़का तो ज़रूर जायेगा । इसको बल ु ावा आ गया है ।
ख़बू सरू ती इसमें है कि मालिक की मौज समझकर कुछ अफ़सोस
और रंज न किया जाय । चोला छूटने पर घाट पर चिता जलाने
के बाद ख़बू पाठ हुआ और बधाई के शब्द पढ़े गए । महाराज ने
फ़रमाया कि एक सरनो के चोला छोड़ने से सैंकड़ों जीवों का उपकार
होगा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-3, पृष्ठ-20)

7) सन् 1935 के अपने इदं ौर दौरे के दौरान महाराज डाक्टर


द्वारकानाथ की मोटर पर हर रोज़ शाम को हवाख़ोरी के लिये जाया
करते थे । मोटर ड्राइवर ने महाराज से सरटीफ़िके ट माँगा । इस
पर बहनजी प्रेम सँवारी बहुत ख़फ़ा हुई ं और कहा कि महाराज से
सरटीफ़िके ट का क्या माँगना, महाराज से तो कोई ऊँचे दरजे की वस्तु
माँगनी चाहिये । महाराज ने अपनी चादर उतार कर उसको दे दी और
सरटीफ़िके ट भी दिया । बाद में ड्राइवर गऊशाला के काम से हज़ार
रुपया महीना कमाने लगा था ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-55, पृष्ठ-339)

8) बाबू तल ु सीरामजी अक़्सर इलाहाबाद सतसगं में जाते रहे ।


नौकरी के सिलसिले में यह जोधपरु चले गये जहाँ रे लवे के ऑडिट
आफ़िस में हैड क्लर्क थे । अगर यह जोधपरु में रहते तो बहुत तरक़्क़ी
कर जाते । मगर महाराज साहब के धाम सिधारने के छः महीने पहले
कुछ ऐसा चक्कर आया कि जिससे इनको नौकरी से अलग होना
पड़ा और जोधपरु छोड़कर अपने वतन अजमेर शरीफ़ जाना पड़ा
जहाँ रे लवे के ऑडिट आफ़िस में नौकरी मिल गई मगर जोधपरु में
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जो ओहदा और तनख़्वाह और आइन्दा तरक़्क़ी की उम्मीद थी,
वह बात अजमेर में नहीं थी । इसका इनको बहुत अफ़सोस रहा
मगर इसकी मसलहत बहुत अर्से बाद समझ में आई ।
महाराज साहब के अतं र्ध्यान होने के बाद जोधपरु के सब
सतसंगी बाबू कामताप्रसाद उर्फ़ सरकार साहब के यहाँ और बाद
को दयाल बाग़ में बाबू आनन्द स्वरूप उर्फ़ साहबजी महाराज के
यहाँ चले गए । एक भी सतसंगी जोधपरु में ऐसा नहीं निकला जिसने
बाबजू ी महाराज की सरन अख़्तियार की हो । अगर यह भी जोधपरु
में रहते तो शायद सबके साथ ग़लत रास्ते पर चले जाते । महाराज
साहब की इस ख़ास दया का लाख-लाख शक ु राना किया कि किस
प्रकार बाला-बाला डूबने से बचा लिया । दनिु यावी दौलत बेशक़
नहीं मिली, मगर बाबजू ी महाराज की चरन सरन और परमार्थ की
दौलत तो मिली !
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-47, पृष्ठ-251/254)

9) बापजू ी हुरमसु जी कूपर प्रथम पारसी थे जो सतसंगी हुए । सन्


1890 के क़रीब हुज़रू महाराज से उपदेश लिया । इस पर इनके पिता
बहुत नाराज़ हुए । परन्तु इन्होंने कुछ परवाह नहीं की । कभी कभी
अपने माता पिता से मिलने जाते थे । पर जब एक दफ़ा अपनी माँ को
अपने साथ इलाहाबाद लाए और उसको महाराज साहब से उपदेश
दिला दिया तो इनके पिता बहुत दख ु ी हुए और समझ गए कि अब
बेटा मेरे काम का बिल्कुल न रहा । बाप ने नाराज़ होकर अपनी सारी
जायदाद का ख़ैरात के लिए एक ट्रस्ट बनाया और सारी जायदाद
उसके हवाले कर दी । इनके गज़ु ारे के लिए सिर्फ़ दो सौ रुपया महीना
बाँध दिया ।
कूपर साहब ने महाराज साहब और बआ ु जी साहबा की बड़ी
सेवा की । बआ ु जी साहिबा के अन्तर्ध्यान होने के पश्चात् इलाहाबाद
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में आकर स्थाई रूप से रहने लगे । माँ के देहान्त के बाद इनको पचास
हज़ार रुपया मिला । पर इन्होंने इस रुपये को तथा जो दो सौ रुपया
माहवार मिलता था उसकी बचत को, यहाँ तक कि अपने तन को भी
चरनों में भेंट कर दिया ।
सर फ़ीरोज़ सेठना ने जो इनके पिता के ट्रस्ट के ट्रस्टी थे, दो
पारसियों को इलाहाबाद भेजा । उन्होंने बाबजू ी महाराज से कूपर
साहब को ले जाने के लिए अर्ज़ किया । महाराज ने फ़रमाया अगर
खश ु ी से जावें तो ले जा सकते हो । ज़बरदस्ती नहीं करने दगँू ा ।
फिर उन पारसियों ने कहा कि देहांत के बाद इनका शव हम लोगों
को दिया जावे ताकि पारसियों की रीति के अनसु ार इनकी अन्त्येष्टि
क्रिया की जावे । महाराज ने फ़रमाया कि कूपर साहब मेरे मित्र हैं ।
इनकी इच्छा परू ी करना मेरा कर्तव्य है । इन्होंने मझु े यह लिख कर
दे दिया है कि मतृ ्यु के पश्चात् दाह कर्म किया जावे । इसलिए इसके
प्रतिकूल नहीं हो सकता । इस पर सर फ़ीरोज़ सेठना ने दो सौ रुपये
भी भेजना बंद कर दिया । महाराज ने इसकी कुछ परवाह नहीं की ।
इनकी मतृ ्यु सन् 1935 ईसवी में इलाहाबाद में 70 वर्ष की आयु में
हुई ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-45, पृष्ठ-232/234)

10) लाला तोताराम भी महाराज के ख़ास दयापात्रों में थे । वह हर


साल पितृ पक्ष में अपने माँ बाप के श्राद्ध के बहाने महाराज के यहाँ
खाना भेजा करते थे और महाराज मज़ं रू करते थे । लाला तोताराम
अके ले थे । वह किस प्रसंग या कारज से महाराज के यहाँ खाना
भेजते? उन्होंने श्राद्ध का बहाना ढूँढ निकाला । सतसंगियों को श्राद्ध
से क्या मतलब? सतसंगियों को श्राद्ध करने की ज़रूरत नहीं । और
यदि कोई सतसंगी, परु ानी आदत की वजह से, श्राद्ध करे तो महाराज
वह खाना कभी खावें ही नहीं, छूएँ तक नहीं । लाला तोताराम की
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बात और थी और फिर वह श्राद्ध, कोई श्राद्ध थोड़े ही था । एक
बहाना था । उसके उपरान्त उन्होंने सब कुछ भेंट कर दिया था । जो
कुछ था, महाराज ही का था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-494)

11) बाबू तल ु सी राम जी का एक पत्र जो उन्होंने 5 अगस्त सन्


1931 में बाबजू ी महाराज को लिखा था —
परम परुु ष परू न धनी हुज़रू बाबजू ी महाराज साहब को दासानदु ास
तलु सी का सकुटुम्ब सपरिवार भक्तप्यारी सहित हाथ जोड़ मत्था टेक
राधास्वामी राधास्वामी मालमू हो ।
अर्ज़ हाल यह है कि तारीख़ दो को जो प्रार्थना पत्र भेजा था,
उसी रोज़ संतदास की बहू को आठ दौरे हुए और तारीख़ तीन सोमवार
को दिन में दस दौरे हए । भाई दामोदर प्रसाद की व उनके समधी ने
होमयोपैथिक दवा दी और दिन में दो दफ़ा घर पर आकर संतदास की
बहू को दौरे के वक्त भी देखा । शाम को साढ़े सात बजे जो दौरा हुआ,
वह इतना serious (गंभीर) हुआ कि फिर बाद में ठीक होश में न आई।
और फिर वही दौरा रात को नौ बजे बहुत ज़्यादा serious भयंकर हो
गया यानी तमक (एक क़िस्म की दमे की बिमारी) स्वाँस जारी हो गया।
बाँयटे (तशन्नुज), तशन्नुज (अकड़न, ऐठं न) और तड़पना ज़्यादती से
जारी हो गया है । हम लोग सब ना-उम्मीद व मायसू हो गये । दांती भिचं
गई जिससे हलक़ में दवा चरनामृत भी नहीं उतर सकता था । पाठ सनु ना
रात दस बजे से शरू ु कर दिया । जब हलक़ खल ु ने का मौक़ा मिला तब
सिवा चरनामृत के और कुछ नहीं दिया । एक दो दफ़ा दवाउलमश्ु क़ व
लोबान का तेल दधू में दिया । रात को पौने चार बजे कुछ बड़बड़ाई और
अपनी सास को आवाज़ दी कि दर्शन कराओ, दर्शन कराओ । ‘फिर
कहा कि मैं बाबजू ी महाराज के पास गई थी, मैं ख़ूब रोई । फिर महाराज
ने मझु े गोद में बिठा लिया, चरनामृत पिलाया और फ़रमाया कि अब
तू जा, बस आज तक का कष्ट था सो तू भगु त चक ु ी, तेरे घरवाले फ़िक्र
कर रहे हैं और कह रहें हैं कि यह तो अब हो चक ु ी । जा, तू अब जा ।’ पछू ने

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पर कहा कि महाराज सफ़े द क़मीज़ पहने हुए थे, सफ़े द चद्दर ओढ़े हुए
थे और पलंग पर बिराजे हुए थे । पछू ने पर यह भी कहा कि इलाहाबाद
वाले महाराज थे जिनके दर्शन एक दफ़ा अजमेर में और तीन दफ़ा
भडं ारों के सअु वसर पर आगरा में किए थे । उसके पीछे अभी तक तो
तबियत ठीक है । न अब तक कोई दौरे वग़ैरा हुए और न कोई क़िस्म
की तक़लीफ़ है । हिम्मत व कड़क (तेज़ी) पहले की तरह क़ायम है और
सही सलामत है ।
अब तो ऐसी दया हुज़रू के चरन कँ वलों से चाहते हैं कि इसके
delivery बच्चा सगु मता से हो जावे । लड़की बहुत सश ु ील, सास की
आज्ञाकारी और हितचितं क है । रोज़ रात को सास के पाँव दबाती है ।
जब से अजमेर में हुज़रू से उपदेश लिया, तभी से सबु ह शाम समि ु रन व
ध्यान करती है और कर्म भर्म, मरू त पजू ा, उपवास, व्रत वग़ैरा कुछ भी
नहीं करती । सिर्फ़ हुज़रू के चरन कँ वलों का ही आसरा व भरोसा रखती
है । ज़्यादा हाथ जोड़ मत्था टेक राधास्वामी, राधास्वामी ।

दासानदु ास
तलु सी
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-272)

12) इसी प्रकार के एक पत्र के कुछ अश ं , जो कि बाबू संतदास


जी ने तारीख़ 6 अगस्त सन् 1931 को कालेज में क्लास में बैठे हुए
प्रभाशक
ं र जी को लिखे थे, दिये जाते हैं —
शायद मैंने आपसे इलाहाबाद में कहा था कि मेरी बहू बहुत
बीमार है । मेरे इलाहाबाद से आने के बाद और अब तक बहुत सख़्त
बीमार रही । दिन में आठ आठ दस दस दौरे होने लगे। हर बार आध
आध घटं े बेहोश रहने लगी । तारीख़ 28 जल ु ाई मगं लवार को शाम को
जब बाबजू ी महाराज के फ़ोटो के सामने बैठी हुई थी, तब उसे नाक की
जड़ के स्थान पर दर्शन हुए । महाराज ने फ़रमाया कि आठ रोज़ के अदं र
जो कुछ तेरे होना होगा, हो जायगा और फिर तू मर जायगी । उस दिन के
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बाद से उसको तक़लीफ़ बढ़ती गई, बहुत दख ु ी हो गई और दिन गिना
करती थी कि आज चार दिन हो गये, आज पाँच दिन हो गये । और दिन
भर तक़लीफ़ के मारे रोती और कहती थी कि हे मालिक, मझु े जल्दी
बलु ा ले, मैं अत्यन्त दख
ु ी हो गई । मझु े जल्दी से मौत दे दे ।
तारीख़ दो को हमने बाबजू ी महाराज को चिट्ठी लिखी थी और
तारीख़ तीन को शाम के साढ़े सात बजे बेहोश हो गई सो उसके बाद
तमाम रात भर होश में न आई । रात नौ बजे से उल्टा साँस जारी हो गया।
हम लोग समझ गये कि अब घटं े दो घटं ें में मर जायगी । कभी-कभी
बीच-बीच में ऐ ं ऐ ं करती थी मगर दो बजे रात के बाद बिल्कुल बेहोश
रही । तमाम शरीर ठंडा हो गया और नाड़ी खिचं गयी । रात पौने चार
बजे ज़ोर से एक स्वांस आया और वह उठ बैठी और कहा कि दर्शन
कराओ । हमारी मां ने बाबजू ी महाराज का फोटो सामने करके कहा ले,
दर्शन कर ले । कुछ देर बाद उसने कहा “मैं इतनी देर बाबजू ी महाराज के
पास थी । मझु े दो आदमी लेने आये थे । एक तो काला सा आदमी था
और दसू रे बाबजू ी महाराज थे । काले आदमी ने कहा, इसे मैं ले जाऊंगा ।
बाबजू ी महाराज ने कहा नहीं, मैं ले जाऊँगा । फिर महाराज मझु े ले गये
और एक बड़े कमरे में ले जाकर मझु े बिठा दिया । फिर महाराज ने कपड़े
उतारे । तब तक मैं वहाँ बैठी बैठी रोती रही । महाराज फिर पलंग पर
बैठ गये और मझु े रोते देखकर गोद में बिठा लिया और मझु े चरनामृत
पिलाया और कहा तू अब जा, आज तक का कष्ट था सो तू भगु त चक ु ी।
मेरी बहु ने कहा कि मैं नहीं जाऊँगी । महाराज ने फ़रमाया जा, तू जा ।
तेरे घर वाले कह रहे हैं कि यह तो मर चक ु ी और फ़िक्र कर रहे हैं । सो
तू अब जा” ।
उस वक्त से अब तक बहुत ठीक है । और जैसी पहले थी वैसी ही
है । कोई तक़लीफ़ नहीं है ।
महाराज ऐसी दया करें कि मैं इम्तिहान में पास हो जाऊँ और फिर
महाराज की दया से इलाहाबाद में ही बल ु ा लें, बस यही ख़्वाहिश है ।
ज़्यादा हाथ जोड़ राधास्वामी ।
आपका
संतदास माहेश्वरी
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-273)

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13) इगं लैंड से श्री वज़ीरचदं आये हुए थे । उन्होंने बतलाया कि
स्वामीजी महाराज के भडं ारे के दिन रात बारह बजे समाध में जो
सतसंग हुआ करता है, उसमें एक वर्ष ऐसा हुआ कि ठीक सतसंग के
वक़्त मसू लाधार वर्षा हुई । मैं और मेरे बहनोई श्री रामरतन दोनों छाते
लगाकर गये । समाध पर पहुचँ ते पहुचँ ते तरबतर हो गये । सतसंग में
मश्क़िल
ु से बीस आदमी होंगे । दसू रे दिन सबु ह सतसंग में बाबजू ी
महाराज तख़्त पर विराजमान हुए कि फ़रमाया, रात कौन कौन सतसंग
में आया था? सब हक्के बक्के रह गए । क्या जवाब दें? जैसा कि
ऊपर लिखा गया है, मश्क़िलु से बीस आदमी रात सतसंग में आए
होंगे । महाराज ने फ़रमाया कि जो लोग रात के सतसंग में आए थे,
वह आज दिन में हमारे यहाँ खाना खावेंगे । महाराज ने गरुु मौज सरन
से सख़्ती से कह दिया था कि जो रात समाध के सतसंग में नहीं गया
था, उसे खाना न खिलाया जावे । वज़ीरचदं कहते हैं कि मैं और मेरे
बहनोई श्री रामरतन ने बड़े मज़े से महाराज के घर पर खाना खाया
और चार बजे चाय का प्रशाद भी मिला । वह कहते हैं कि जब
बाबजू ी महाराज विराजमान थे तो कोई टोकने वाला और झटका देने
वाला तो था । अब कौन है? कोई किसी से कुछ पछू ने वाला या कहने
वाला नहीं है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-499)

14) एक मर्तबा सबु ह के सतसंग में महाराज ने बचन में फ़रमाया,


“जो impulse (आध्यात्मिक प्रेरणा) स्वामीजी महाराज, हुज़रू
महाराज, महाराज साहब और बआ ु जी साहिबा में कारकुन थी, वही
impulse (आध्यात्मिक प्रेरणा) आज भी कारकुन है ।”

(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1875/छ)

15) मद्रास में एक मसु लमान था जो बीड़ी का कारख़ाना रखे हुए


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था । उसका नाम मजीद था । सिंधी सतसंगी श्री मोतीराम गल्लरमल
सिंध में उसके एजेंट थे । इस प्रकार दोनों की सोहबत हुई । एक बार
जब मद्रासी मसु लमान सिंध गया, श्री मोतीराम गल्लरमल वहाँ नहीं
थे । पछू ताछ से पता चला कि वे अमक ु काम से आगरा गये हैं ।
उसके बाद मौक़ा मिलने पर वह मद्रासी मसु लमान श्री मोतीराम के
साथ आगरे आया । बाबजू ी महाराज के प्रथम दर्शन में ही वह बहुत
प्रभावित हो गया । बात यों हुई कि उसने सोचा था कि महाराज पछू ें गे,
कहाँ से आये हो, क्या करते हो, यहाँ किस मतलब से आये हो?
इत्यादि । मगर महाराज ने पहली मल ु ाक़ात में ही फ़रमाया “जो ज़िक्र
(यानी समि ु रन अभ्यास) तमु कर रहे हो, उससे आख़िरी मज़िल ं पर
नहीं पहुचँ सकते ।” उठते उठते वह मसु लमान आया था । यह एक
वाक्य कह कर महाराज उठ गये और अदं र चले गये । मजीद ने सोचा
कि महाराज ने मेरे दिल की बात कह दी । यही तो मैं जानना चाहता
था कि जो अभ्यास मैं कर रहा हूँ वह ठीक है या नहीं ।
उसने उपदेश के लिये अर्ज़ किया । महाराज ने फ़र्माया, कल
उपदेश दगँू ा । उसी दिन शाम को बँगले वाली (प्रेम सँवारी) का चोला
छूट गया । लोगों ने कहा, कल तमु को उपदेश नहीं हो सकता । दोपहर
को तो महाराज अगमबाग़ से लौटेंगे और थके हुए होंगे । मजीद ने
कहा कि जब फ़रमाया है कि कल उपदेश दगँू ा तो ज़रूर देंगे । ऐसा
ही हुआ । दोपहर को अगमबाग़ से लौटे । तीन बजे महाराज ने उसे
बल ु ाया और एक ख़ासा लम्बा सा बचन फ़रमा कर उपदेश दिया
यानी विधि अभ्यास समझाई । महाराज ने भडं ार घर में खाना खाने
का हुक़्म दिया ।
मजीद अभ्यास बहुत करता था । अतं र में क़ाफ़ी तजरुबे हुए ।
दिन भर में सिर्फ़ एक रोटी खाना और दो बार चाय पीना, इस पर आ
गया था । क़ाफ़ी दबु ला हो गया था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1920/1921)

16
16) दसौंधीराम बोगरे का धनबाद माइनिंग कॉलेज में दाख़ला
हो गया था । वहाँ के रास्ते में इलाहाबाद पड़ता है । इसलिए आते
जाते अक़्सर यह इलाहाबाद ठहरा करते थे । श्री रोड़ाराम, जो इनकी
बहन के ससरु थे, की मार्फ़ त सतसंग में लगे और बाबजू ी महाराज से
उपदेश लिया । इजं ीनियर बन जाने पर अर्से तक इनकी नौकरी नहीं
लगी । बाबजू ी महाराज को अर्ज़ मारूज़ करते रहते थे । उचित समय
पर फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! अब इसका भाग्य जागेगा । इतने दिनों
किसी परु ाने कर्म की वजह से रुकावट पैदा हो रही थी ।” उसके बाद
फ़ौरन ही यह पब्लिक सर्विस कमीशन के इम्तिहान में प्रथम आये
और इनको नौकरी मिल गई । तरक़्क़ी करते करते चीफ़ माइनिंग
इजं ीनियर के पद पर पहुचँ े ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-6, गरुु साखी-210)

17) गया निवासी श्री गरुु देव शरन ने संतदासजी को कुछ संस्मरण
इस प्रकार लिख कर भेजे थे —
सन् 1919 में हम लोग इलाहाबाद में थे । मेरी तन्दुरुस्ती
ख़राब थी । Angina Pectoris (दर्द सीना, जो हृदय की दर्बल ु ता
में ज़्यादा काम करने से होता है) का शक़ था। बारह साल के लड़के
के लिए यह बहुत चिन्ताजनक बात थी । डाक्टर सरकार और डाक्टर
मलिक, दोनों इलाज करते थे । फ़ायदा नहीं हुआ । आख़िर डाक्टर
मलिक ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि कौन सी दवा दी जाय।
बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि महाराज साहब ने जो दवा फ़रमाई
थी, वही दो । डाक्टर साहब ने चरनामतृ भेज दिया । मैं दवा समझ
कर पी गया । उस रात ख़बू नींद आई। सबु ह डाक्टर साहब से कहा
कि दवा से फ़ायदा हुआ । डाक्टर साहब ने कहा, अच्छा! आज एक
बोतल भेज देंगे, दिन भर में पी जाना । मैंने वैसा ही किया । दो चार
दिन के बाद बाबजू ी महाराज ने डाक्टर साहब से पछू ा कि कौन दवा
17
दी थी जो दो दिन में ही ठीक हो गया । डाक्टर साहब चपु रहे । फिर
अर्ज़ किया, “महाराज साहब का मख ु ामतृ ।” बाबजू ी महाराज ने हँस
कर फ़रमाया, “अगर तमु पानी भी देते तो अच्छा हो जाता । महाराज
साहब का बचन थोड़े ही ग़लत होता ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-52/छ)

18) भवतारण मक ु र्जी का घर का लाड़ प्यार का नाम भोंदू है ।


अब तक इसी नाम से मशहूर है । जब यह छोटा बच्चा था, इलाहाबाद
में छत से गिर गया । सिर फट गया और बेहोश हो गया । दिमाग़ का
white matter व्हाइट मैटर (सफ़े द माद्दा या द्रव्य) निकल आया ।
डाक्टर साहब उपचार करने लगे । बाबजू ी महाराज को ख़बर भेजी
कि भोंदू बेहोश पड़ा है । महाराज ऊपर से उतर कर आये । डाक्टर
आत्माराम के हस्पताल में गये । बड़े ज़ोर से तीन बार पक ु ारा, भोंद!ू
भोंद!ू भोंद!ू तब इसने आँख खोली। एक मानी में इसका पनु र्जन्म
हुआ । बाबजू ी महाराज दया से भोंदू भोंदू भोंदू पक
ु ार कर इसे मौत के
महँु में से छुड़ा लाये ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-6, गरुु साखी-416)

19) अपनी गजु रात यात्रा में बड़ौदा के आर्य कन्या महाविद्यालय
में जाने का प्रोग्राम था । फ़र्श पर दरी चाँदनी बिछाकर सब लोगों के
बैठने का इतं ज़ाम था और महाराज के लिए गद्दा और मसनद लगाए
गये थे । महाराज के सन्मुख लड़कियों ने भाँति भाँति की क़सरतें,
लाठी तलवार आदि हथियारों के क़रतब, तीर, क़मान चलाना वग़ैरा
वग़ैरा बहुत सी चीज़ें दिखलाई ं । गाना भी गाया, बाजा भी बजाया
और नाच भी किया । इस ख़ास क़िस्म के नाच को जो गजु रात में
होता है, ‘गरबा’ कहते हैं । सबसे अतं का प्रोग्राम यह था कि एक
फूल माला महाराज के सिर पर पतले धागे से लटकाई गई । तब एक
लड़की ने निशाना ताककर तीर चलाया, जो उस धागे को काटता
18
हुआ निकल गया और फूल माला महाराज के गले में पड़ गई ।
चलते समय लड़कियों की तरफ़ से महाराज को अर्ज़ किया गया कि
आशीर्वाद दें । महाराज ने फ़रमाया, “सत्य सख
ु प्राप्त हो ।”

(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-21, पृष्ठ-106/107)

20) मौजदू ा समाध का हॉल सन् 1925 ईसवी में बना । यह हॉल
उसी नींव या बनि
ु याद पर बना हुआ है जो महाराज साहब ने समाध
के लिए सन् 1904 ईसवी में डाली थी । जब पहले पहल इस हॉल
में सतसंग हुआ, तो लड्डुओ ं का प्रसाद बँटा था । लाला तोताराम
इजं ीनियर साहब को बाबजू ी महाराज ने दस लड्डू दिए और हँसकर
फ़रमाया — ­­ “दस मक़ु ाम को ले पहुचँ ावे”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-35, पृष्ठ-198/199)

21) आख़िरी ज़माने में महाराज दृष्टि नहीं डालते थे । इसी से एक


सतसंगी ने महाराज से पछू ा कि “जिस पर दृष्टि पड़ी मेरे गरुु की, सोई
पार गई”, तो दृष्टि नहीं पड़ेगी तो काम कै से बनेगा? महाराज ने जवाब
में फ़रमाया, “जब हम आँखें खोलें, हमारी आँखों में देखो । वही
फ़ायदा होगा ।” मगर यह बात भी न थी कि किसी पर दृष्टि न डालते
हों । जिसके लिये मौज थी, उस पर दृष्टि डालते थे और ख़बू डालते
थे । दृष्टि से भर दिया । आँख वालों ने इस बात को देखा ।

(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -2, अध्याय-1, पृष्ठ-455)

22) अन्तर्ध्यान होने से कुछ मिनट पहले महाराज के चेहरे में बड़ा
ज़बरदस्त आकर्शण था । उस समय की छबि देखने योग्य थी । बड़े
भाग्य उनके जिन्होंने उस छबि के दर्शन किये । चेहरे पर नरू बरस रहा
था । देखने वालों पर खिचं ाव का भारी असर था और मालमू होता

19
था कि वह भी खिचं रहे हैं । इस खिचं ाव की हालत में जिसने जितनी
ज़्यादा तवज्जह से दर्शन किया, उसने ज़रूर उतना ही ज़्यादा रूहानी
फ़ायदा उठाया । सतसंगियों के खिचं ाव की हालत देखने से भी किसी
क़दर रूहानी फ़ायदा होता है जैसा कि हुज़रू महाराज ने महाराज
साहब को उनकी माता के बारे में लिखा था । फिर संतों के खिचं ाव
की हालत में दर्शन से जो फ़ायदा हासिल होता है, वह तो बयान से
बाहर है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -2, अध्याय-2, पृष्ठ-458/459)

23) मैनेजर बलदेव सहाय के अतं में बीमारी ने जब बहुत घेरा


और जीने की आशा नहीं रही तो अपनी करनी करततू पर अतं र में
बहुत अफ़सोस और पछतावा किया करते थे और मालिक से माफ़ी
मांगा करते थे और इनको माफ़ी मिली जिसका हाल नीचे लिखा
जाता है ।
जब चोला छूटने का वक्त क़रीब आया तो इनको शहर से
स्वामी बाग़ में लाकर हुज़रू ी बाग़ नं.1 यानी लाड़ो बाग़ में रक्खा।
उस वक्त बाबजू ी महाराज स्वामीजी महाराज के भडं ारे पर आये हुए
थे । इनकी लाचारी, बेबसी और ग़रीबी और अतं र में झरु ने और
पछताने पर बाबजू ी महाराज ने इन पर एक रात ख़ास दया फ़रमाई
और मआ ु फ़ी बख़्शी जिसकी ख़बर इनको ख़दु को पड़ी । दसू रे दिन
जब बाबजू ी महाराज इनको देखने के लिए गए तो बहुत से सतसंगी
भी साथ थे । उस वक्त बाबजू ी महाराज ने बड़ी दया और मेहर के
शब्दों में लाला बलदेव सहाय से कहा कि “कल रात को तमु ्हारी
तरफ़ से राधास्वामी दयाल को ख़ास दया के वास्ते दरख़्वास्त की गई
थी । वह दरख़्वास्त मज़ं रू हो गई और तमु को भी रात को मालमू हो
गया होगा । अब तमु किसी बात का ख़्याल मत करो । तमु ्हारे क़सरू
सब मआ ु फ़ हो गए । अब चरनों में सरु त को लगाओ ।”
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बाबजू ी महाराज ने यह सब बात बहुत ज़ोर से कही थी क्योंकि
लाला बलदेव सहाय उस वक्त बोल नहीं सकते थे । मगर बाहोश परू े
थे । सब बात सनु कर क़बल ू व मज़ं रू किया । दोनों हाथ जोड़ कर
बन्दगी और राधास्वामी अर्ज़ की और चोला छूट गया । बाबजू ी
महाराज ने खोल कर साफ़ साफ़ मआ ु फ़ी इन्हीं को दी ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-43, पृष्ठ-220/221)

24) कक्को बाबू (चरन अधार टंडन) जो कि जाइटं सेक्रे टरी


थे, उनके पिता का नाम परुु षोत्तम दास था । वे बाबजू ी महाराज के
बहनोई थे । बाबजू ी महाराज उन्हें परुु षोत्तमजी कहते थे । उनका
चोला छूटने से कुछ पहले महाराज उन्हें देखने गये । उनके कान के
पास महँु ले जाकर महाराज ने पछू ा, क्या हाल है? परुु षोत्तमजी ने
जवाब दिया, “बड़ा मज़ा है, बड़ा मज़ा है, बतलाऊँ, बतलाऊँ?”
महाराज ने फ़रमाया, नहीं । अतं र में हज़म करो ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1573)

25) जब डाक्टर मलिक की अर्थी उनके बंगले से उठाई गई, कुछ


अजीब दृश्य था कि सड़क पर इस क़दर भीड़ थी कि हर क़ौम और
मिल्लत के आदमी पैदल और इक्के , बग्घी, मोटर वग़ैरा पर सवार
होकर साथ चले । फूल और हार की सजावट और के वड़े की बौछार
शरू
ु से अख़ीर तक रही और राधास्वामी नाम की धनु बराबर जारी
रही ।
जब अर्थी चौक में कोतवाली के पास पहुचँ ी तो ठहरा दी
गई और हुज़रू बाबजू ी महाराज ने घोड़ा गाड़ी से उतर कर कंधा दिया
और कई क़दम चले । लोगों के अर्ज़ करने पर, महाराज फिर गाड़ी
पर सवार हो गए । सब लोग अर्थी के साथ गगं ा के घाट पर नागबासू
पहुचँ े । अदं ाज़न एक बजा था । महाराज ने ख़बू दृष्टि डाली । और मतृ
शरीर को चिता पर रख दिया ।
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बरसात के दिन थे । गंगा भी ख़बू बाढ़ पर थी । उस
जगह कंकड़ ही कंकड़ थे । महाराज भी कंकड़ों पर ही बैठ
गए । पाठ बराबर जारी रहा । जब अग्नि संस्कार हो गया,
तब महाराज उठे ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-37, पृष्ठ-195/196)

26) बाबजू ी महाराज ने महर्षि गरुु देवदासजी को बआ ु जी साहिबा


की सेवा में नियक्त
ु किया था । यह बनारस में बआ ु जी साहिबा के
मकान पर रहने लगे और उनकी सेवा दत्त चित्त होकर करने लगे ।
बाद में बाबजू ी महाराज ने दोनों बाप बेटी को अपने यहाँ
बल
ु ा कर रख लिया । मगर आने से पहले गरुु देवदासजी महर्षि ने
बाबजू ी महाराज से कहा “आप बल ु ाते तो हो, पर अख़ीर वक्त
तक निभा भी दोगे?” बाबजू ी महाराज ने कहा, “हाँ! निभा देंगे ।”
इतना बचन लेकर तब बाबजू ी महाराज के यहाँ आए ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-38, पृष्ठ-199)

27) बाबू तल ु सीराम जी को दया से बाबजू ी महाराज ने अतं तक


दर्शन दिये । इस अनठू ी दया का शक्रिु या जाने वाली सरु त ने भी किया
होगा और घर वालों ने भी ज़रूर किया । घर वालों को इस बात का
बड़ा कलक था कि इनकी हालत ख़राब है । महाराज आगरे चले
जावेंगे । कहीं ऐसे वक्त चोला न छूटे कि महाराज के अतं िम दर्शन
और दृष्टि न मिल सकें । महाराज ने उनकी प्रार्थना सनु ली ।
ता. 26 दिसम्बर सन् 1935 को सबु ह सतसगं के बाद महाराज
इनको दर्शन देने के लिए तशरीफ़ ले गए । यह कहना तो यह चाहते थे
कि ‘अब जल्दी चरनों में लगा लीजिये’, मगर इनकी ज़बान से “अब
जल्दी” इतना ही निकलने पाया था कि महाराज ने फ़रमा दिया, “जब
तक कष्ट भोगना लिखा है, भोगना पड़ेगा । फिर चरनों में ले जावेंगे ।”
दसू रे रोज़ हुज़रू महाराज के भडं ारे के दिन जब कि महाराज ऊपर भोग
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लगाने बैठे थे और नीचे सतसंगियो की पंगत लगी थी, इनका चोला
छूट गया ।
(राधास्वामी की भक्तमाल, अध्याय-47, पृष्ठ-269)

28) कई बार महाराज ने फ़रमाया कि जो जगह लाला


तोताराम के जाने से ख़ाली हुई है, उसे दसू रा कोई नहीं भर
सकता । यह भी फ़रमाया कि लाला तोताराम सतसंग के
स्थंभ थे ।
(राधास्वामी की भक्तमाल, अध्याय-56, पृष्ठ-360)

29) एक रोज़ डाक्टर द्वारकानाथ और डाक्टर बैजनाथ के पश्तै ु नी


मकान वाक़ै कूचा घासीराम में महाराज तशरीफ़ ले गए जहाँ सतसंग
में मोहल्ले वाले ग़ैर-सतसंगी भी बड़ी तादाद में आए थे । सतसंग के
बाद गाना बजाना हुआ । गाने वालों में पीरबख़्श नाम का एक शख़्स
था जिसको महाराज ने दस रुपये दिए । उसने ले लिये और अर्ज़
किया कि मैं महाराज से रुपये नहीं चाहता बल्कि रूहानी न्यामत का
ख़्वास्तगार हूँ । महाराज ने फ़रमाया, दो महीने में मिलेगी । दो महीने
बाद वह मर गया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-55, पृष्ठ-339)

30) डाक्टर बैजनाथ के सब से छोटे लड़के डाक्टर कै लाशनाथ


ने लखनऊ में जो मकान बनाया था, उसमें संगमरमर का ग़सु ्लख़ाना
और हौज़, ख़ास तौर से तैयार कराया था और बड़ी ख़्वाहिश थी
कि गहृ प्रवेश के समय बाबजू ी महाराज पधारें और इस गसु ्लख़ाने
में स्नान करें । महाराज ने मज़ं रू भी कर लिया था मगर बाद में किसी
कारण से ना जा सके । डाक्टर कै लाशनाथ के ख़त के जवाब में
बाबजू ी महाराज न लिखा कि गो हम शरीर से वहां न होंगे, सरु त रुप
से मौजदू रहेंगे ।

23
उसी ग़सु ्लख़ाने में पाँव फिसल कर गिर जाने से हड्डी टूट
गई और डाक्टर कै लाशनाथ का तारीख़ 26.06.1948 को चोला
छूट गया । एक सतसंगी को उसकी चिट्ठी के जवाब में महाराज
ने लिखाया कि कै लाश ऊँचे मक़ ु ाम से आया था और फिर ऊँचे
देश में बासा पाया है । इसलिये रंज या अफ़सोस करने की ज़रूरत
नहीं । किसी मौक़े पर बाबजू ी महाराज ने डाक्टर कै लाशनाथ के
लिये फ़रमाया था कि यह इनके ख़ानदान में हीरा है ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-55, पृष्ठ-340)

31) लाला बसंतलाल की लड़की सश ु ीला के जेठ हक़ीम


रतनलाल गोयल व जेठानी ने भी बाबजू ी महाराज से उपदेश लिया
था । सशु ीला की जेठानी को कैं सर हो गया था । कैं सर की पीड़ा से
बड़े कष्ट भोगे पर बाबजू ी महाराज के दर्शन बराबर होते रहे । उसने
महाराज से एक बार अर्ज़ किया कि मझु े उठा लें, अब बर्दाश्त नहीं
होती । महाराज ने फ़रमाया कि अभी ऊपर तमु ्हारा घर नहीं बना है,
जब बन जाएगा, तब ले जायेंगे । एक दिन मेरठ में सश ु ीला की जेठानी
एक दम चिल्लाई कि महाराज आए हैं । महाराज ने दर्शन दिए और
कहा कि अब तेरा घर बन गया है, कल ले जावेंगे । दसू रे दिन उसका
चोला छूट गया । (प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-546)

32) डाक्टर आनन्द बिहारीलाल एडल ं ा का चोला तारीख़


04.09.1949 को स्वामीबाग़ में छूटा । वकील कै लाशचन्द्र मीतल
इन्हें देखने गये । वकील साहब को ऐसा समझ में आया कि डाक्टर
साहब बड़ी तक़लीफ़ में हैं, बल्कि वकील साहब से इनकी तक़लीफ़
देखी नहीं गई । वकील साहब बाबजू ी महाराज के पास आये और
पाँच रुपया भेंट किये । महाराज ने पछ
ू ा क्या बात है? वकील साहब ने
अर्ज़ किया कि डाक्टर आनन्द बिहारीलाल एडल ं ा को बड़ी तक़लीफ़
है, अगर इनको रखना मज़ं रू हो तो तक़लीफ़ कम वा दरू कर दीजिए
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और अगर इनको विदा करने की मौज हो तो चोला छुड़ा दीजिए ।
महाराज ने फ़रमाया, अच्छा । उसी वक़्त डाक्टर साहब का चोला
छूट गया । वकील साहब घर पर गये । घर वालों ने कहा कि अभी
अभी बड़ी शान्ति से चोला छूटा है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1918)

33) बाबू अभय चरन चटर्जी (अभय बाब)ू की बड़ी लड़की


स्नेहलता एक प्रतिष्ठित एवं ससु म्पन्न घराने में ब्याही थीं, मगर वह
सब ग़ैर सतसंगी और कट्टर देवी देवता काली वग़ैरा के पजू ने वाले
और मछली खाने वाले थे जिस वजह से श्रीमती स्नेहलता शादी के
बाद मतृ ्यु तक (47 वर्ष) बड़ी यातना में रहीं । घर के सभी लोग, सास
ससरु ननदें वग़ैरा, यहाँ तक कि उनकी ख़दु की पतोहुओ ं ने भी सदा
दख ु ही दिया । 13 वर्ष की उमर में शादी हुई और 60 वर्ष की उमर
में चोला छूटा । उन्होंने बाबजू ी महाराज से अपने ससरु के विशय
में अर्ज़ किया कि वह किस प्रकार तंग करता है । इस पर महाराज
ने फ़रमाया कि उस कम-बख़्त को मैं सम्हालँगू ा । महाराज ने किस
प्रकार सम्हाला, वह नीचे पढ़िये ।
स्नेहलता के ससरु मरने से पहले आख़िरी बीमारी के ज़माने
में अलग एक कमरे में अके ले पड़े रहते थे । घर वालों में से किसी
को अपने पास नहीं आने देते थे । के वल स्नेहलता को बल ु ाते व
अपने पास बैठाते थे । वह कहते थे कि तमु ्हारे बैठे रहने से मझु े चैन
व आराम मिलता है । तमु ्हारे चले जाने अथवा किसी अन्य व्यक्ति
के आने से मझु े तक़लीफ़ होती है । स्नेहलता हमेशा मन ही मन
राधास्वामी राधास्वामी करती थीं ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-324/325)

34) शादी के बाद एक दफ़ा स्नेहलता ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़


किया कि हम तो रात दिन ग़ैर सतसगि
ं यों के बीच रहती हैं, हमारा
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क्या होगा? महाराज ने फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! यह काल के पेट से
निकलना चाहती है, इसकी मदद करना चाहिये ।” बाबू गरुु मौज सरन
ने अपने ख़ास लहज़े में अर्ज़ किया, हाँ महाराज! महाराज ने किस
प्रकार मदद की, वह पढ़िये ।
श्रीमती स्नेहलता को गले में कैं सर हो गया था जिस वजह
से वह कुछ खा नहीं सकती थीं । क़ै हो जाती थी । चोला छूटने से
बहुत मद्दु त पहले खाना बंद कर दिया था वा बंद हो गया था । इलाज
भी कोई ख़ास नहीं था । पड़ी पड़ी राधास्वामी राधास्वामी करती
थीं । एक दिन अपने सबसे छोटे भाई को बल ु ा कर कहा कि बाबजू ी
महाराज लेने आ गये हैं, कल शाम को पाँच बजे जाने का वक़्त है,
अब हम चली जायेंगी, तमु ्हें कहने को बल ु ाया है । घर वाले सनु रहे
थे । दसू रे दिन शाम के पाँच बजे चोला छूट गया । 15 अप्रेल, सन्
1969 ईसवी का दिन था । घर वाले बड़े प्रभावित हुए । उन्होंने कहा
कि हम नहीं जानते थे कि सतसंगियों की इच्छा मतृ ्यु होती है वा इस
प्रकार मतृ ्यु होती है कि गरुु महाराज दर्शन देते हैं ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-326/327)

35) सन् 1918 ईसवी में महाराज मसरू ी गए । देहरादनू भी क़याम


रहा । सतसंग में दीवान बहादरु राय विश्वेश्वरनाथ बराबर आते थे।
यह कई रियासतों में दीवान रह चक ु े थे । इनके पिता, स्त्री, पत्रु , पौत्र
इत्यादि सभी सतसंगी थे । पर इनका न तो सतसंग में भाव था और
न खान-पान का परहेज़ था । यह कृष्ण और गीता के क़ायल थे और
हज़ारों रुपये इसी निमित्त ख़र्च करते थे । इनमें एक गणु यह ज़रूर था
कि सतसंग से अरुचि होने पर भी अपने कुटुम्बियों को सतसंग में
जाने से रोकते न थे बल्कि ख़श ु ी से सतसंग व परमार्थ के लिए रुपया
देते थे । इनकी स्त्री ने जब हुज़रू महाराज से अर्ज़ किया तो फ़रमाया
कि इनकी सम्हाल आख़िरी वक़्त पर होगी । आख़िरी बीमारी में
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इनके सिरहाने गीता का अखडं पाठ जारी था । बाबजू ी महाराज ने
इनके लड़के डाक्टर द्वारकानाथजी को लिखा कि इन्हें उपदेश दे दो ।
पहले तो यह झिझके , पर सोच विचार के बाद उपदेश ले लिया ।
उपदेश लेने के बाद इन्होंने खाना पीना, दवा, गीता का पाठ, सब बंद
कर दिया । ऐसे चरनों में लगे कि जब कोई इनसे हाल पछू ता तो कहते
मझु े मत छे ड़ो ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-70/71)

36) सन् 1921 ईसवी के शरू ु में महाराज की माता का देहांत


हुआ । न आँख से दिखलाई देता था, न कान से सनु ाई देता था। बदन
में चोट लग जावे या ख़नू निकल आवे, कुछ ख़बर नहीं होती थी ।
खाना-पीना क़तई बंद था । साँस भी बहुत कम आती थी । कहना भी
मश्क़िल
ु था कि ज़िन्दा हैं या मर्दा
ु । इसी हालत में बरसों पड़ी रहीं ।
कभी कभी कहतीं, देखो स्वामीजी महाराज, हुज़रू महाराज, महाराज
साहब बैठे हैं । कभी कभी बहुत तक़लीफ़ की हालत में बाबजू ी
महाराज को बल ु ाकर कहतीं, “राजा! तेरे रहते मैं कष्ट पा रही हूँ ।”
महाराज जवाब देते, “भाभी! स्वामीजी महाराज की बातें याद करो ।
क्या फ़रमाया था कि तमु को अब यहाँ फिर नहीं आना है ।” जब वह
चपु हो जाती थीं ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-72/73)

37) लखनऊ के नामी गिरामी बैरिस्टर नबीउल्ला ने, जो


आक्सफर्ड यनिवर्सि
ू टी के ट्राइपास (Tripos) थे और बड़े टर्रे व
सख़्त आदमी थे, महाराज से बहुत ख़तो क़िताबत की । महाराज ने
फ़रमाया कि जिस तरह का तमु ्हारा जीवन है, उसमें निर्मल परमार्थ
की गँजु ाइश नहीं है । नबीउल्ला कुछ दिनों बाद बैरिस्टरी छोड़कर
अपने वतन कड़ा में लौट आए और महाराज से उपदेश लेने के बाद
गगं ा के किनारे झोपड़ा डालकर घर वालों से अलग रहने लगे । एक
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दिन नबीउल्ला बोले कि उपदेश लेना और हर तरह का संयम परहेज़
वग़ैरा करना तो आसान था, मगर जब महाराज यह फ़रमाते थे कि
पैग़म्बर साहब का मरतबा बहुत नीचा है तो मेरे दिल को बड़ी चोट
लगती थी । बहुत दिनों में समझते समझते यह बात समझ में आई
कि ब-मक़ ु ाबले इस्लाम के , राधास्वामी मत कितना ऊँचा है और
असली इस्लाम क्या है । महाराज से अर्ज़ किया कि मेरा चोला जल्द
से जल्द छूट जावे । लोगों ने पछू ा कि ऐसी ख़्वाहिश आपने क्यों
की? जवाब दिया कि मैंने 70 वर्ष तक यह तन अज़ीज़ रखा, पर अब
मालमू होता है कि इससे ज़्यादा मेरा और कोई दसू रा दशु ्मन नहीं
है । आदतें बिगड़ गई हैं । आठ-नौ बजे सोकर उठता हूँ । सिर्फ़ सतसंग
की ग़रज़ से इलाहाबाद आता हूँ पर सबेरे सतसंग में हाज़िर नहीं हो
सकता । मेरी ख़ातिर महाराज को शाम को देर तक सतसंग करना
पड़ता है । बचन भी फ़रमाते हैं । यह तन मेरा परमार्थ कमाने के लिए
बिल्कुल बेकार है । इसके बाद नबीउल्ला सतसंग में न आ सके ।
उनकी मतृ ्यु हो गई ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-74/75)

38) 16 अक्टूबर सन् 1940 ईसवी शरद पर्णिम ू ा को शाम के


वक़्त बहनजी (प्रेमसँवारी जी) का चोला छूटा । महाराज ने कहा,
हम सतसंग में जावें? बहनजी ने जवाब दिया, जैसी आपकी मौज।
महाराज कपड़े पहन कर तैयार हुए और छड़ी हाथ में लेकर चलने लगे ।
इतने में ही डाक्टर ने कहा, “जा रही हैं ।” महाराज रुक गए । इनकी
आँखें फाड़कर देखीं और कहा, “थोड़ी रोशनी बाक़ी है ।” फिर माथे
पर हाथ रखकर मलने लगे । इतने में ही इन्होंने बड़ी कोशिश करके
हाथ महाराज के आगे किया और बस चली गई ं। मरते मरते भी रुख़
महाराज ही की तरफ़ रहा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-39, पृष्ठ-244)

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39) एक समय गरुु देवदासजी महर्षि को कोई शारीरिक व्याधि
हुई । बाबजू ी महाराज ने इनको डाक्टर मलिक के पास भेजा जो कि
सतसंगियों को दवा मफ़ु ्त दिया करते थे । डाक्टर साहब ने नसु ख़ा लिख
दिया । यह कम्पाउन्डर के पास गए । उसने दवा देने में आनाकानी
की । बहुत ढील ढाल के बाद बड़बड़ा कर दवा दी । महर्षिजी ने
महाराज से अर्ज़ किया । दसू रे या तीसरे दिन जब डाक्टर साहब
सतसंग में आए तब बाबजू ी महाराज ने उनसे कहा, “जब सतसंग
का कोई आदमी दवा लेने जाता है तो तमु ्हारा कम्पाउन्डर काटता
और ग़रु ्राता है । Take the first chance to turn him out (जल्द
से जल्द कोई मौक़ा आते ही उसे निकाल बाहर करो) ।” ऐसी मौज
हुई कि तीन दिन बाद उस कम्पाउन्डर का इन्तक़ाल हो गया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-38, पृष्ठ-203/204)

40) एक समय इलाहाबाद में किसी भोग भडं ारे के अवसर


पर बाबजू ी महाराज ने एक सतसंगी को हुक़ुम दिया कि जब बाबू
गरुु मौजसरन खाने को बैठें तो उनको गरम गरम कचौरियाँ पहुचँ ाना ।
उस सतसंगी ने इस बात को विषेश महत्त्व नहीं दिया और सटर पटर
कचैरियाँ ले जाने लगा । महाराज ने कहा, इधर आओ, ज़रा हमको
दिखाओ । कचैरियाँ देख कर हाथ से छू कर महाराज ने उनसे कहा
कि ऐसी कचैरियाँ ले जाने को हमने कहा था? तमु ्हें क्या मालमू ? नन्हे
नन्हे बच्चों को छोड़ कर यहां आए हैं । अगर हम उनका ख़याल न
रक्खें तो कौन रक्खेगा?
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-400/401)

41) जब बाबू गरुु मौजसरन के लड़कों की शादी का वक्त


आया, इधर तो इन्होंने महाराज से अर्ज़ किया कि यदि आप
तशरीफ़ ले चलेंगे तो मैं जाऊँगा, और उधर लड़कों ने भी अर्ज़
किया कि अगर महाराज पधारें गे तो शादी करें गे, वरना नहीं ।
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चनु ांचे सन् 1920 ईसवी में ज़ाहिरा महज़ इसी काम के लिए
महाराज सिधं तशरीफ़ ले गये थे ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-403)

42) इलाहाबाद से बाबजू ी महाराज और सतसंग का सदा के लिए


आगरे आ जाना मौज से था क्योंकि स्वयं महाराज ने कहा कि मझु े
हुज़रू महाराज ने फ़रमाया था कि अख़ीर वक्त में आगरे में रहना और
पेश्तर भी कई मौक़ों पर वक्तन फ़वक्तन ऐसे इशारे हुए थे जिनसे जानने
वाले जानते थे कि महाराज सतसंग आगरे ले जावेंगे। मगर इस बड़े
काम का बीड़ा बहनजी प्रेमसंवारी जी ने उठाया । इन्होंने महाराज से
अर्ज़ किया कि अब इलाहाबाद में तबियत नहीं लगती, आगरे चल
कर रहने को जी चाहता है । महाराज ने इनकी अर्ज़ मज़ं रू फ़रमाई और
जब अपना विचार प्रकट किया तो लोगों ने बड़ा शोर गल ु मचाया
और महाराज पर बहुत ज़ोर डाला कि हरग़िज़ इलाहाबाद न छोड़ें ।
मगर बहनजी ने भी बड़ी ज़बर हठ पकड़ी और यहाँ तक कह दिया
कि चाहे आप न जावें, हम आगरे में जाकर रहेंगी । इसलिए किसी
की बात न मान कर महाराज ने इनकी बात रक्खी और बिल आख़िर
आगरे तशरीफ़ ले ही आए ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-51, पृष्ठ-297)

43) एक बार मैयांजी साहबा (बाबजू ी महाराज की अर्धांगिनी)


के भडं ारे के मौक़े पर बाबू तलु सीरामजी इलाहाबाद में थे । उससे
पहले वह कई महीने बीमार रह चक ु े थे । तबियत सम्हलने पर वह
इलाहाबाद गये थे । उनकी पत्नी प साथ गई ं थीं । मैयांजी साहबा
के भडं ारे के दिन बाबजू ी महाराज ने खिचड़ी बनाने का हुक़्म दिया।
दोपहर को भोग लगाने के लिए जब रसोई में गये, महाराज ने खिचड़ी
के सकोरे लगवाये और मर्दों में बाँटने के लिये नीचे बाबू गरुु मौज
सरन के पास भेजे व नाम भी लिखा कर भेजे कि अमक ु सतसगि ं यों
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को देना । नाम लिखाने में महाराज याद कर कर के नाम बढ़ाते गये ।
आनन्द प्यारी (महर्षि गरुु देवदासजी की पत्ु री) रसोई बनाया करती थी ।
बहुत देर बाद उसने संकोच और डर के साथ महाराज से अर्ज़ किया
कि तल ु सीरामजी के लिये............. । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया,
“अरे हाँ हाँ! उसी के लिये तो मैंने खिचड़ी बनवाई है । वह बिमार
है । भडं ारे का खाना कै से खा सकता है?” महाराज ने तल ु सीरामजी
के लिए कटोरे में खिचड़ी भेजी और किसी क़दर अधिक मात्रा में ।
तल ु सीरामजी ने कचौरी परू ी वग़ैरा चीज़ें तो के वल एक एक ग्रास
प्रशाद के तौर पर खाया, बाक़ी खिचड़ी ही खाई । फिर भी कुछ बच
गई जिसे उनकी पत्नी ने खाई ।
(अनक
ु ू लित: अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-117)

44) सतसगं ी भाई श्री शिवदत्त त्यागी ने यह लिख कर दिया है—


गुरु की अंतर्यामता की एक झलक:- मैं सन् 1936 ई.
में लखनऊ विश्व विद्यालय में बी. एस. सी. फाइनल में पढ़ता था ।
परम परुु ष परू न धनी बाबजू ी महाराज का शिष्य हो चक ु ा था । मेरी
बहन मेरठ ज़िले में एक समद्ध ृ ज़मींदार परिवार में ब्याही थी । ज़मीन
उन्हें वसीअत द्वारा प्राप्त हुई थी । हिस्सेदारों ने जाली वसीयतनामें का
आरोप लगा कर मक़ ु दमा खड़ा कर दिया । मैंने अभ्यास के पश्चात्
बाबजू ी महाराज से प्रार्थना की कि मेरी बहन मक़ ु दमा जीत जाये । इस
प्रार्थना के छः महीने बाद मैं इलाहाबाद महाराज के दर्शन सतसंग के
लिये गया । दोनों तरफ़ खड़े हुये सतसंगियों पर दृष्टि डालते हुये व भेंट
क़बल ू फ़रमाते हुये महाराज गज़ु रे , मगर मेरे निकट आये तो रुके नहीं,
सीधे निकल गये और मेरी भेंट भी क़बल ू नहीं फ़रमाई । बाद को मैं
महाराज के सम्मुख हाज़िर हुआ और गिड़गिड़ा कर महाराज से पछू ा
कि मेरी भेंट किस कारण से क़बल ू नहीं की? महाराज ने फ़रमाया
कि छः माह हुये तमु ने बहन के मक़ ु दमें के बारे में प्रार्थना की थी ।
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ऐसी स्वार्थ की प्रार्थना न किया करो । मगर उस बार भेंट क़बल ू नहीं
फ़रमाई । बहन मक़ ु दमा हार गई । इस वाक़ए से मझु े महाराज के चरनों
में अटूट विश्वास हो गया कि हमारी प्रार्थना महाराज तक पहुचँ ती है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1424)

45) हुज़रू महाराज के समय के सतसंगी ‘हुरमसु जी रुस्तमजी


मिस्त्री’ और जिनका चोला सन् 1910 ईसवी में छूटा था, इनके पत्रु
हीरजीभाई के नाम बाबजू ी महाराज के एक पत्र का अनवु ाद यहाँ
दिया जाता है । —
राधास्वामी
इलाहाबाद
22 फरवरी, 1914
प्रिय हीरजी!
तमु ्हारा ख़त मिला । बहुत ख़शु ी हुई कि तमु ने मैट्रिक
पास कर लिया है और कमरशियल क़्लास में दाख़िल हो गए हो ।
जीवन में सफलता प्राप्त करने की ख़बर सनु कर मझु े सदैव ख़श ु ी होगी
। मझु े उम्मीद है कि तमु अपने हाल चाल से अक्सर इत्तिला देते रहोगे
। अपने पिता की मधरु स्मृति को बनाये रखना तमु ्हीं पर निर्भर है और
मझु े यक़ीन है कि तमु लायक़ पिता के लायक़ बेटे साबित होगे और
मझु से और सतसंग से जिसके कि तमु ्हारे पिता एक अनरु ागी भक्त थे,
अपना सम्बन्ध क़ायम रक्खोगे ।
..................................................................
तमु ्हारा सच्चा हितकारी
माधव प्रसाद
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-27, पृष्ठ-147)

46) एक दफ़ा सतसंग में प्रेमबानी के पाठ में यह कड़ी निकली,


“हिम्मत बाँध गिरो चरनन में, राधास्वामी दया करें छिन छिन में”
और बड़े जोश के साथ पढ़ी गई । सतसंग के बाद पांडेजी (सतसंगी

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महावीर पांडे) ने हिम्मत बाँध कर बाबजू ी महाराज के चरनों में मत्था
टेक दिया । महाराज ने डांट कर कहा, “क्या ख़रु ाफ़ात करते हो?
अतं र में चरनों पर गिरना चाहिये ।”
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-42, पृष्ठ-218)

47) तारीख़ 15 दिसम्बर सन् 1922 को एक साधू आया और


बाबू गरुु मौज सरन से कहा कि महाराज से कुछ अर्ज़ करना चाहता
हूँ । महाराज ऊपर जाने के लिये सीढ़ी पर चढ़ रहे थे । फ़रमाया कि
हमको फ़ुरसत नहीं है । जल्दी जो कुछ कहना हो, कहो । उसने कहा
कि मेरा अतं र खल ु े । महाराज ने जवाब दिया कि यहाँ कोई जादू है
क्या, जो एक चटु की दे दी जावे और तमु ्हारा अतं र खल ु जावे? बाबू
गरुु मौज सरन की तरफ़ हाथ से इशारा करते हुए फ़रमाया कि यह
यहाँ बीस वर्ष से पड़ा है । इसके विकार दरू नहीं हुए है और न अतं र
खल ु ा है । तमु चाहते हो कि तमु ्हारा अतं र छिन में खल ु जावे । यह
दरख़्वास्त तमु ्हारी फ़िज़ल ू है । क्या तमु ्हीं एक मालिक के जीव हो?
और मालिक के जीव नहीं हैं? औरों ने क़सरू किया है जो उनका
अन्तर नहीं खल ु ा और तमु ्हारा खलु जावे? सब चीज़ें क़ायदे से होंगी ।
बे-क़ायदा कुछ नहीं होगा । जब तन तोड़ कर कुछ दिन सतसंग और
अभ्यास करोगे, तब कुछ कुछ अतं र में रस आने लगेगा । क्या यह
कोई तमाशा है कि एक मिनट में अतं र का पट खल ु जावे?
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-415)

48) नारि पराई आपनी, भोगे नरकै जाय ।


आग आग सब एकसी, हाथ दिये जर जाय ।।
बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया था कि अक़्सर लोग कबीर
साहब का ऊपर वाली कड़ी की आड़ अपने भोग विलास के लिये
लेते हैं । यह कहना कि ख़्वाह अपनी स्त्री हो या पराई, भोग के लिये
तो एक ही घाट पर उतरना होता है, फिर अपनी पराई में क्या फ़र्क़ है,
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सरासर गनु ाह है । धन का जमा करना ना-जायज़ नहीं है और अपने
धन को फ़िज़ल ू ख़र्च करना भी जर्मु और गनु ाह नहीं है । लेकिन दसू रे
का धन किसी ना-जायज़ तरीक़े से लेना, गनु ाह और अज़ाब (पापों
का वह दडं जो यमलोक में मिलता है, पीड़ा, दख ु , तक़लीफ़) में
दाख़िल है । ऐसे ही अपनी स्त्री के साथ भोग करना जर्मु में दाख़िल
नहीं है । हाँ, ज़्यादती नक़
ु सान देह है । मगर पराई नारी के साथ भोग
करना, नीचे उतार होने के अलावा साधना में विघ्न डालता है और
सख़्त घणि ृ त कार्य व गनु ाह है । जब आन (अहद) टूटने से बे-हया
हो जाता है, फिर उससे परमार्थ नहीं बन पड़ता । परमार्थी तरक़्क़ी
बिलकुल रुक नहीं जाती तो एक अर्से के लिये बंद और मलु ्तवी
हो जाती है । ऐसी ग़लती हो गई हो तो अतं र में मालिक के चरनों में
फ़ौरन माफ़ी के लिये प्रार्थना करना चाहिये और आगे के लिये सच्चे
दिल से तोबा करना चाहिये । उम्मीद है कि दया से वह माफ़ करें गे ।
मगर इस आदत का छूटना इतना मश्क़िल ु है जैसा अपना जीता माँस
नोच डालना । कबीर साहब की यह कड़ी ख़ास कर अपने साधकों
के लिये थी जो साधना कर रहे थे । आम लोगों के लिये नहीं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1422/6)

49) इलाहाबाद में एक बार किसी मौक़े पर महाराज ने फ़रमाया


था कि हम-बिस्तरी (स्त्री संभोग) सम्ताह में दो बार से अधिक नहीं
करना चाहिये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1771)

50) बालाघाट (मध्य प्रदेश) में एक सतसगं ी कुटुम्ब था । माँ थी


और दो लड़के थे । माँ को ज़मींदारनी कहते थे । पैसा बहुत था ।
लड़कों की आदतें बिगड़ गई ं। फ़र्क़ सिर्फ़ इतना था कि बड़ा लड़का
ज़्यादा कुकर्म करता था, छोटा कम । सन 1940 के आस पास बड़ा
लड़का यहाँ स्वामी बाग़ आया था । दिन में सतसगि ं यों की तरह
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रहता था । रात को ख़रु ाफ़ात करने शहर जाता था । सब हाल मालमू
हो गया । बाबजू ी महाराज ने उसे बल ु ा कर ख़बू डाँटा फ़टकारा, ऐसे
गसु ्से हुए कि कुछ कहा नहीं जा सकता । महाराज ने कहा, रंडीबाज़ी
करता है? उसने जवाब दिया हाँ । महाराज ने कहा, शराब पीता है?
गांजा पीता है? चरस पीता है? वह शख़्स मज़ं रू करता रहा और हाँ हाँ
करता रहा । और कुछ नहीं बोला । बाबजू ी महाराज ने कहा, “निकल
जाओ यहाँ से, चले जाओ, फिर कभी यहाँ मत आना ।” आख़ीर में
महाराज ने फ़रमाया:—
इतने पाप कर्म किये हैं कि भजन करते करते पसीने पसीने हो
जायँ तो शायद माफ़ हो ।
उस शख़्स को यहाँ दो साथी भी मिल गए थे, एक तो सनु ्दर
पहलवान जो पीपलमडी ं में झाड़ू बहु ारी के काम पर नौकर था और
दसू रा एक यहाँ हलवाई था । इन दोंनो ने कहा कि हम तो वेश्या के
यहाँ पहले कभी नहीं गए । यह शख़्स (बालाघाट वाला) हमको ले
गया । गाँजा चरस पीने की अलबत्ता आदत है । सनु ्दर पहलवान से
बाबजू ी महाराज ने कहा, “ऐसा दाग़ लगा कर आए हो कि कभी धल ु
नहीं सकता ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1619/1620)

51) एक सतसंगी की पत्नी मर गई थी । वह सतसंगी नौजवान


थे, घर के आसदू ा (धनवान, समद्धृ , ख़शु हाल), वकील थे । उनकी
सगाई करने के लिये बहुत लोग आते थे मगर उन्होंने दसू री शादी
करने को मनै कर दिया । एक साहब लखनऊ से इलाहाबाद आये
और महाराज से कहा कि अमक ु व्यक्ति आपके शिष्य हैं, आप कह
दें तो वह हमारी लड़की से शादी करना मज़ं रू कर लें । आपकी बड़ी
दया होगी । महाराज ने फ़रमाया, “यह बात उनके यार दोस्तों से कहो ।
हमारे यहाँ का तो उसलू है कि अमतृ भी पिलाना हो तो ज़बरदस्ती
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नहीं पिलाया जावेगा । जब वह महँु खोले और माँगे, तब पिलाया
जावेगा । अगर ज़बरदस्ती पिलाया जावेगा तो क़ै कर देगा ।” पाँच
सात वर्ष पश्चात् उन सतसंगी वकील साहब का चोला छूट गया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-202)

52) सन् 1937 ईसवी में महाराज दबु ारा इदं ौर पधारे थे । अन्य
सतसंगियों में एक सिंधी सतसंगी हकीम बिशनदास भी गए थे ।
महाराज के बड़े पत्रु छुट्टन बाबू को कुछ खजु ली की शिकायत थी ।
उन्होंने हकीम बिशनदास से परचा लिखाया । छुट्टन बाबू ने मज़ं रू ी
के लिए उस परचे को महाराज को दिखलाया । महाराज ने हकीम
बिशनदास को बल ु ाया और कहा कि ये नसु ्ख़ा तमु ने लिखा है? इसमें
पारा है? अर्ज़ किया, जी महाराज । इस पर महाराज ने फ़रमाया कि
पारा सतसगिं यों के प्रयोग की चीज़ नहीं है, पारा नहीं मिलाया जायगा । फिर
महाराज ने हकीम बिशनदास से पछ ू ा कि गंधक शद्ध ु करना जानते
हो? जवाब में हाँ कहने पर फ़रमाया कि थोड़ी गंधक शद्ध ु कर दो और
संतदास को साथ ले लो जिससे वह भी सीख जाय ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1574)

53) छुट्टन बाबू की शादी में बहुत बिलास हुआ था । साठोद


(गजु रात) के एक सतसगं ी बापभू ाई पाँवों में घघंु रू बाँध कर नाचे थे ।
उनके दिल में ख़्याल उठा कि “गरुु प्यारे नज़र करो मेहर भरी” शब्द
भी नाच के साथ गाऊँ । मगर महँु से आवाज़ निकलने ही वाली थी
(आवाज़ निकली नहीं थी) कि बाबजू ी महाराज ने हाथ से इशारा
करते हुए फ़रमाया, “यह नहीं, गरुु प्यारे चरन से लिपट रहूँ यह शब्द
पढ़ो ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1712)

54) शरबत या चाय के प्रशाद में एक थाली में मटकने लगा कर

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सतसगं ख़तम होने पर बाबजू ी महाराज के सामने लाये जाते थे ।
महाराज मटकने से एक घटँू पी लिया करते थे । इलाहाबाद का ज़िक्र
है कि एक रोज़ महाराज हाथ में मटकना लेकर तख़्त से उठ गये और
बाहर आकर, जहाँ सब सतसंगी खड़े होते थे और प्रशाद की चाय
या शर्बत पीया करते थे, वहाँ एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर महाराज
ने शर्बत पीया और मटकना वहीं फें क दिया जैसा कि अन्य सतसंगी
किया करते थे । महाराज ने फ़रमाया कि किसी को यह ख़्याल न हो
कि लाइन में खड़े होकर मटकने में चाय या शर्बत लेकर सबके साथ
पीने में मान हानि होती है । इसलिए हमने सब की तरह मटकने में
शर्बत पीया है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1914)

55) वकील कै लासचद्रं मीतल पहले इलाहाबाद शहर में हीवट


रोड पर रहा करते थे । बाद में हाई कोर्ट के सामने एक बँगला किराये
पर लेकर रहने लगे थे । मवक़्क़िल
ु घेरे रहते थे । जब फ़ुरसत मिलती,
शाम को किसी वक़्त सतसगं आते मगर महाराज के दर्शन न हो पाते ।
या तो इतने जल्दी आते कि महाराज हवाख़ोरी से लौट कर न आते
और वकील साहब ठहर नहीं सकते थे क्योंकि बँगले पर मवक़्क़िल ु
इकट्ठे हो जाते थे । कभी वकील साहब मवक़्क़िलों
ु से छुट्टी पाकर
इतनी देर में आते थे कि महाराज, हवाख़ारी से लौट कर, ऊपर चले
जाते और वकील साहब को दर्शन नहीं हो पाते । वकील साहब
ने सोचा, दर्शन तो होते ही नहीं, जाने से क्या फ़ायदा। रविवार के
रविवार सबु ह सतसंग में आने लगे । एक रोज़ शाम को हवाख़ोरी
से लौटने पर जबकि दोनों ओर सतसंगी पंक्तियों में खड़े थे, बाबजू ी
महाराज सब पर दृष्टि डालते हुए वकील कै लासचद्रं के पास आकर
रुके और कहा, “जनाब! अब तो आपकी हाज़री बड़ी गंडेदार होने
लगी है ।” वकील कै लासचद्रं ने वही बात कही कि देर सबेर आने
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से दर्शन तो होते नहीं, इसलिए मैंने सोचा कि आने से क्या फ़ायदा ।
महाराज ने फ़रमाया, “जी नहीं जनाब! मझु से आपकी मल ु ाक़ात हो
या न हो, मगर आप चैबीस घटं े में एक मर्तबा ज़रूर सतसंग के अहाते
के एक दरवाज़े से आकर दसू रे दरवाज़े से निकल जाया करें और यहाँ
की हवा ज़रा खा जाया करें ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-31)

56) बाबू गरुु मौज सरन जी की नोटबक ु से लिया गया एक


वाकया —
एक सतसंगी (जिनको मिस्टर एम. के नाम से बल ु ाते थे)
बहुत अर्से के बाद सतसंग में आया । उसकी औरत मर गई थी ।
बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया, इतने दिन कहाँ थे? उसने सिर झक ु ा
लिया, आँखें नीची कर लीं । महाराज ने मसु ्कराते हुए फ़रमाया, तो
तमु ्हारी औरत को वापस बल ु ा दें! जो सतसंग में तो आने लगो ।
दसू रे दिन शाम को वह फिर आया । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि
सतसंग में आने का क्या बंदोबस्त किया है? मिस्टर एम. ने कहा कि
मैं अब नज़दीक़ आ रहा हूँ । पहले दरू रहता था । बाबजू ी महाराज ने
फ़रमाया कि नज़दीक़ और दरू की बात नहीं है । मेरे अहाते में रहते हुए
भी सतसंग में न आवे और दो मील की दरू ी पर रहते हुए भी सतसंग
में आ सकता है । आओ तो तमु ्हारी मर्ज़ी, न आओ तो तमु ्हारी मर्ज़ी ।
लेकिन तमु ्हारे से इस क़िस्म का ताल्लुक़ है कि मैं तमु से कह सकता
हूँ । दसू रा होय तो मैं उससे हरगिज़ न कहूँ । ऐसे तो कबीर साहब ने
फ़रमाया है—
दर्शन कीजे साध का, दिन में कइ एक बार ।
आसोजा का मेंह ज्यों, बहुत करे उपकार ।।
कइ इक बेर न कर सके , तो दोय बेर कर लेय ।
कबीर साधू दरश तें, काल दग़ा नहिं देय ।
दोय बख़त ना कर सके , तो दिन में इक बार ।

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कबीर साधू दरश तें, उतरे भौजल पार ।।
एक दिना नहिं कर सके , तो दजू े दिन कर लेय ।
कबीर साधू दरश तें, पावे उत्तम देह ।।
दजू े दिन ना कर सके , तीजे दिन कर जाय ।
कबीर साधू दरश तें, मोक्ष मक्ति ु फल पाय ।।
तीजे चैथे ना करे तो, वार वार कर जाय ।
या में विलम्ब न कीजिये, कहें कबीर समझु ाय ।।
वार वार नहिं कर सके , तो पक्ष पक्ष कर लेय ।
कहें कबीर सो भक्त जन, जनम सफल ु कर लेय ।।
पक्ष पक्ष नहिं कर सके , तो मास मास कर जाय ।
या में देर न लाइये, कहें कबीर समझु ाय ।।
मास मास नहिं कर सके , तो छठे मास अलबत्त ।
या में ढील न कीजिये, कहें कबीर अवगत्त ।।
छठे मास नहिं कर सके , बरस दिना कर लेय ।
कहें कबीर सो भक्त जन, जमै चिनौती देय ।।
बरस दिना नहिं कर सके , ता को लागे दोष ।
कहें कबीरा जीव सों, कबहुँ न पावे मोश ।।
जो लोग बाहर रहते हैं उनके लिए बारह महीना कहा है । जो
लोग इलाहाबाद में ही रहते हैं, उनके लिए नहीं । मिस्टर एम. ने कहा
कि नहीं महाराज! मैं शाम को रोज़ आ सकँू गा । महाराज ने फ़रमाया
कि दिल की तड़प पर मनु हसर है । दनिु यावी मतलब से दिन में सैंकड़ों
जगह इन्सान जाता है । लेकिन सतसंग में नहीं आ सकता । अब तमु ्हें
प्रण करना चाहिये कि अगर सात दिन तक सतसंग में न आओ या
न आ सको तो आठवें दिन खाना न खाओ, जब तक कि सतसंग
में न आओ । अगर सतसंग में सतगरुु विराजमान न हों तो भी जहाँ
सतसंग होता है, वहाँ राधास्वामी दयाल की छाया है, वहाँ जाने और
सतसंग करने से दिल को शांति मिलती है । सतसंग करना तो क्या,
जिस मकान में सतसंग होता है उसके पास से निकल जाने पर भी
शांति प्राप्त होती है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-60)
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57) एक दफ़ा हुज़रू महाराज के दामाद लाला राजनरायणजी
बाबजू ी महाराज के सतसंग में आए और बोले कि मैं बल ु बल
ु हज़ार
दास्तान (बाबजू ी महाराज) की शीरीं कलामी (मीठी आवाज़) सनु ने
आया हूँ । महाराज ने जवाब दिया कि वह बल ु बल
ु हज़ार दास्तान
(अच्छी और बढ़िया बातें करने वाली) यहाँ नहीं बोलती । वह तो
ऊँचे घाट पर बोलती है । जिसको सनु ने का शौक हो, अतं र में बैठकर
सनु े ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-70)

58) बाबजू ी महाराज की गजु रात यात्रा के दौरान अजमेर शहर


में मक़
ु ाम के दौरान कई वैद्य और हक़ीम सतसंग में आये । महाराज
ने आयर्वेु द के सिद्धान्तों, चद्ं रोदय आदि औषधियों तथा अन्य रसों
और भस्मों आदि पर चर्चा फ़रमाई और बतलाया कि योगाभ्यासियों
ने शरीर को मथकर इन चीज़ों के बनाने की विधियां और गणु और
प्रयोग इत्यादि मालमू किये थे । फ़रमाया कि चद्ं रोदय वह औषधि है
कि जो यदि किसी योगाभ्यासी द्वारा, जिसने अपने घट में चद्रं उदय
कर लिया हो, बनाई जावे, तो मतृ ्यु के समय तीसरे तिल का अस्त
होता हुआ चद्रमं ा एक बार उदय हो जाय । इस तरह की बातें सनु कर
लोग चकित रह गए ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-15, पृष्ठ-82)

59) सन् 1933 की अपनी सोलन व अमतृ सर की यात्रा के दौरान


सोलन में महाराज के दामाद एक नामी डाक्टर के ज़ेर-इलाज थे। वह
कह रहा था कि मांस खाओ तो तन्दरुस्ती बहुत अच्छी हो जायगी ।
महाराज के सोलन पहुचँ ते ही कोई आध-पौन घटं े बाद वह डाक्टर
महाराज की कोठी पर मल ु ाक़ात के लिए आया । बातचीत जो शरू ु
हुई तो गो सफ़र की थकान थी, महाराज ने क़रीब आधे घटं े तक चर्चा
की जिसको सनु कर वह दगं रह गया । चर्चा के दौरान में साइसं और
40
डाक्टरी और आयर्वेु द की ऐसी बीसियों बातें महाराज बयान कर
गए जिनको उसने कभी सनु ा नहीं था । महाराज ने यह भी फ़रमाया
कि जिस शख़्स का दिल मांस खाना गवारा न करे और जो कहता
है कि मैं मांस नहीं खाऊँगा, उसको हरग़िज़ मांस खाने की सलाह न
देनी चाहिये और न किसी प्रकार का दबाव या ज़ोर डालना चाहिये ।
वनस्पतियों में सैंकड़ों ऐसी चीज़ें हैं जिनमें बहुत ताक़त हैं और जिनके
प्रयोग से शरीर बहुत तन्दरुस्त रह सकता है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-18, पृष्ठ-88/89)

60) एक शख़्स ने ख़त में पछ ू ा था कि संतों पर तो कोई कर्म नहीं


होते, फिर उनको बीमारी क्यों आती है? यह सत्य है कि उनको कोई
तक़लीफ़ नहीं होती होगी मगर देखने में तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि
शरीर को तक़लीफ़ हो रही है । इसमें क्या मौज मसलहत है? महाराज
ने फ़रमाया, “रचना के कर्म काटते हैं ।”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-44, पृष्ठ-263)

61) एक और ख़त के जवाब में फ़रमाया कि संत सोते नहीं हैं ।


उनका शरीर आराम करता है । संतों के लिए सोने का लफ़्ज़ इस्तेमाल
नहीं करना चाहिए ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-44, पृष्ठ-264)

62) एक बार सन् मई 1920 में दयालबाग़ से एक पत्र आया


जिसमें बाबजू ी महाराज से दयालबाग़ तशरीफ़ लाने की प्रार्थना
की गई थी । चनु ांचे एक रोज़ शाम को बाबजू ी महाराज दयालबाग़
तशरीफ़ ले गए । सतसगं ी भी सब गए । बाबू आनंदस्वरूप साहब
ने कहा कि जब हम एक बाप के बच्चे हैं, हमको एक साथ रहना
चाहिये । महाराज ने फ़रमाया कि अगर एक बाप के बेटे सल ु ह से
एक साथ न रह सकें तो उनको चाहिये कि अलग अलग दो अच्छे
41
पड़ोसियों की तरह रहें । चाहिए कि हम लोग ऐसी कोशिश करें कि
जो चीज़ें तफ़रक़ा (अलग अलग होना, एक दसू रे से जदु ा होना) डाले
हुए हैं, वह एक एक करके निकाल दी जाएँ । फिर हम लोग एक हो
जावेंगे ।
बाबू आनंदस्वरूप साहब ने कहा, “मेरी तरफ़ कोई ऐसी
चीज़ या वजह नहीं है जो तफ़रक़ा डाले ।” महाराज ने फ़रमाया,
“ममक़ि
ु न है मेरी तरफ़ से ऐसा हो । मैं तो दोनों को कहता हूँ ।” इस पर
बाबू आनंदस्वरूप ने कहा, “आपकी तरफ़ भी कोई चीज़ ऐसी नहीं
है । मैं मालिक को हाज़िर-नाज़िर जानकर क़सम खाकर कहता हूँ कि
कभी ऐसा ख़्याल नहीं करता कि आपमें कोई ऐसी चीज़ है ।”
यह सनु कर महाराज बहुत ख़फ़ा हुए और कहा कि परमार्थी
के लिए क़सम खाना निहायत ना-मनु ासिब है । क़सम तो रंडी, भडुए,
कँु जड़े, इक़्क़ेवाले, जआ
ु री, भँगेड़ी, गँजेड़ी, चडं ू बाज़ खाते हैं । इसके
क्या मानी कि परमार्थी होकर क़सम खाए?
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-48, पृष्ठ-301/302

63) राधाबाग़ की ऐतिहासिक कुइया, जो अब टूट गई है, मिट्टी


भर कर उसको पाट दिया गया है । क़रीब 1934 ईसवी में इस कुइया
के पास ही दसू रा कुआँ बना दिया गया था क्योंकि परु ानी कुइया
बेकार सी हो गई थी मगर थोड़ा बहुत काम लिया जाता रहा । नया
कुआँ जब बन कर तैयार हुआ तो एक रोज़ बाबजू ी महाराज हवाख़ोरी
के लिए वहाँ गये थे । कुएँ का ताज़ा पानी निकाल गिलास भर कर
महाराज को पेश किया । महाराज ने पानी पिया, गिलास का बाक़ी
पानी बाबू गरुु मौज सरन और लाला तोताराम ने नए कुएँ में डाल
दिया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-25, पृष्ठ-129)

64) बाबू सतं दास माहेश्वरी जी के लड़के का मक़तब (पट्टी पढ़ाई)


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का कारज महाराज के हाथ से कराया । हार टीका और प्रशाद तीन
चीज़ों का आयोजन किया था । ग्यारह बजे के वक़्त ऊपर अपने
कमरे में महाराज ने हार टीका प्रशाद बाँट दिया । फिर नीचे आफ़िस
में आकर उन्हें टीका लगाया, हार और प्रशाद दिया । तब महाराज
ने उनसे कहा कि अपने दोस्तों को बल ु ा लो तो उन्हें हम अपने हाथ
से हार टीका परसाद दे दें । यही दस्तूर था । जिसका कारज होता था,
उसके मेली मल ु ाक़ातियों दस बीस आदमियों को महाराज अपने
हाथ से देकर बाक़ी प्रशाद डाक्टर उमराव राजालाल को दे देते थे कि
उस वक़्त जो सतसंगी मौजदू हों, उन्हें बाँट दें । उनसे जब महाराज
ने कहा कि अपने दोस्तों को बल ु ा लो तो उनके दिमाग़ में एक अन्य
प्रकार का ख़्याल पैदा हुआ कि रोज़ तो बचन बानी में पढ़ते और
सनु ते हैं कि कोई किसी का दोस्त नहीं है, सब मतलब के यार हैं,
सच्चे दोस्त तो के वल संत सतगरुु हैं । उन्होंने महाराज को जवाब
दिया कि कोई नहीं । महाराज ने ताज्जुब से फ़रमाया, “क्या! कोई
दोस्त नहीं है?” उन्होंने अर्ज़ किया कि कोई नहीं । महाराज ने फिर
कहा कि अपने दोस्तों को बल ु ा लो, हम उन्हें हार टीका प्रशाद दे देंगे,
वरना फिर हम जिसको चाहेंगे उसको देंगे । उन्होंने अर्ज़ किया कि
“कोई दोस्त नहीं है, किसी को नहीं बल ु ाना है । जिसके लिये महाराज
की मर्ज़ी हो, उसे महाराज हार टीका प्रशाद दें ।” इस पर महाराज ने
फ़रमाया, बंगालियों को बल ु ाओ । आवाज़ पड़ी कि बंगाली, बंगाली
आओ । समस्त बंगालियों को महाराज ने टीके लगाये और हार व
प्रशाद दिया । तत्पश्चात् प्रशाद की टोकरी डाक्टर उमराव राजालाल
को दे दी गई कि बाक़ी हाज़रीन को बाँट दें ।
(अनक
ु ू लित: अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-459)

65) लालाजी साहब के चोला छूटने से पहले की बात है कि


बाबजू ी महाराज इलाहाबाद से आगरा स्वामीजी महाराज के भडं ारे
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पर पधारे थे और स्वामीजी महाराज की समाध पर मत्था टेकने
गये। बहुत सतसंगी भी उस समय वहाँ पहुचँ गये थे । लौटते वक़्त
बाबजू ी महाराज लालाजी साहब से मिलने गए । लालाजी साहब का
कमरा व बरामदा सतसंगियों से खचाखच भर गया । मिज़ाज-पर्सी ु व
इसी क़िस्म की बातचीत बहुत हँस हँस के हुई । बाबजू ी महाराज व
लालाजी साहब दोनों ही प्रसन्न मद्ु रा में थे । बातचीत में कोई फ़िक़रा
ऐसा निकल जाता कि सब सतसंगी भी ख़बू हँसते । चाँदी के वर्क़
लगे हुए पान की तश्तरी आई और महाराज को पान पेश किये गये ।
महाराज ने व लालाजी साहब ने पान लिये । महाराज ने फ़रमाया,
“आदमी बहुत हैं, सबको तो नहीं दीये जा सकते । गरुु मौज सरन
सेक्रे टरी हैं, सब सतसंगियों के एवज़ में उनको पान दे देते हैं ।” और
महाराज ने गरुु मौज सरन को पान दिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-489)

66) श्री सीतल साह को एक बार बहुत बढ़िया साड़ी बाबजू ी


महाराज को भेंट करने की इच्छा हुई । जब साड़ी ख़रीद कर घर लाये,
उनकी पत्नी की उस पर तबियत आ गई और उसे माँगा । सीतल साह
ने कहा, यह क्या कहती हो? साड़ी तो महाराज को भेंट करने के लिये
लाया हूँ । इलाहाबाद आकर सीतल साह ने साड़ी पेश की । बाबजू ी
महाराज ने ले ली । दसू रे दिन महाराज ने सीतल साह की पत्नी को
बलु ा कर वह साड़ी उन्हें दे दी । वह बड़े संकोच में पड़ गई ं। महाराज
ने फ़रमाया “तमु ने जो साड़ी दी, वह मैंने ले ली । अब मैं अपनी तरफ़
से तमु को यह साड़ी देता हू।ँ कुछ संकोच मत करो ।” सीतल साह को
याद आया कि इसने साड़ी माँगी थी, इसलिये महाराज ने इसको दे दी ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1667)

67) सन् 1937 ईसवी में जब महाराज दबु ारा इदं ौर गये, खडव
ं ा
जक
ं शन पर स्टेशन के खोमचे वाले से ख़रीद कर कलाकंद महाराज
44
ने खाया और बहुत मिक़दार में खाया । सोचने की बात है कि स्टेशन
का कलाकंद कै सा होगा और वह भी ज़्यादा मिक़दार में महाराज ने
खाया । उस कलाकंद के ज़रिये न मालमू कितने जीवों पर महाराज ने
अपनी क़शिश का असर पहुचँ ाया होगा ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-498)

68) अपनी बिमारी के कारण महाराज चपु चाप लेटे रहते थे,
इसका अर्थ चदं नादानों ने कुछ का कुछ लगाया । एक बार का ज़िक्र
है कि एक महिला ने अपने ख़ास तर्ज़ से कहा “अरे , महाराज तो
बे-होश पड़े हैं, महाराज को क्या ख़बर कि बाग़ में क्या हो रहा है ।”
महाराज बिना सहारे के अपने आप सिर और छाती नहीं उठा सकते
थे । मगर उस महिला ने जो यह बात कही तो महाराज उचक गये और
बड़ी ज़ोर से कहा, “महाराज को सब ख़बर है ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-831)

69) शरू ु शरूु में बाबजू ी महाराज अपने को बहुत छिपाते और


गप्तु रखते थे । जो कोई उनके पास जाता, उसे कहते कि ग़ाज़ीपरु
जाओ । सनु ा है वहाँ सतं प्रकट हुये हैं । जब यही बात मास्टर गिरधारी
लाल से कही तो उन्होंने जवाब दिया, “मैं आपकी बातों में आकर
ग़ाज़ीपरु या अन्यत्र कहीं जाने वाला नहीं । आप ही सतं सतगरुु हैं ।
अब यह आपकी मर्ज़ी कि अपने को प्रकट करें या न करें । मगर मैं
आपको छोड़ कर कहीं जाऊँगा नहीं ।” मास्टर गिरधारी लाल कहते
थे कि महाराज कोई चीज़ मज़ं रू नहीं करते थे । एक दिन आप ही आप
कहा कि मास्टर साहब थोड़ी खोये की बरफ़ी ले आना । तब से धीरे
धीरे मज़ं रू करने लगे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-911)

70) सन् 1937 ईसवी में दसू री इदं ौर यात्रा में डाक्टर उमराव

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राजालाल के पत्रु जर्मनी से जर्मन पत्नी को लेकर आये थे । महाराज
उनसे अग्ं रेज़ी में बोलते थे मगर फिर हिन्दी शरू
ु कर देते थे । महाराज
ने डाक्टर साहब की जर्मन पतोहू से कहा कि हिन्दी में बचन कहने
से आप कुछ न समझ सकती होंगी । पर, इसकी परवाह नहीं । आप
सनु े जाइये । यह सब शब्द आपके मनाकाश में अकि ं त होते हैं और
उचित समय पर काम देंगे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1575)

71) कृश्नगर (नदिया, बंगाल) के रहने वाले डाक्टर अमलू ्य चन्द्र


दत्त दाँत और चश्में बनाने का काम करते थे । इलाहाबाद और आगरे
बाबजू ी महाराज के दरबार में जल्द जल्द आते रहे व महाराज से पत्र
व्यवहार भी क़ाफ़ी होता रहा । मसु ्तक़िल तौर पर आगरा आ जाने पर
उस ज़माने का ज़िक्र है कि जब बहिनजी के आग्रह पर महाराज बाग़
में सब जगह पैदल घमू ने निकला करते थे । डाक्टर अमलू ्य चन्द्र दत्त
स्वामीबाग़ आये हुए थे । बंगाली क्वार्टर में हॉल में ठहरे थे । इच्छा
उठी कि कुछ पका कर महाराज को खिलाना चाहिये, पर ख़्याल
आया कि यह “छोटा महँु बड़ी बात” वाली बात है । कहाँ राजा भोज
और कहाँ गंगू तेली! कुछ पका कर महाराज को खिलाने की इच्छा
बलवती होती गई और एक दिन तीन सेर (किलो) आलू ख़रीद कर
ले आए और स्टोव पर चढ़ा दिये । बाद में ख़्याल आया कि तीन सेर
आलू का क्या होगा? अतः थोड़े से आलू का रसा बनाया । संयोग
से महाराज उस दिन और उस वक़्त उस तरफ़ घमू ने को आए । दरू से
देख कर, शर्म और डर के मारे , कमरे का दरवाज़ा अदं र से बंद कर
लिया । महाराज वहीं आकर रुके और पछू ा, इसमें कौन रहता है?
बाबू गरुु मौज सरन ने जवाब दिया, वही पगला! दरवाज़ा खटखटाया ।
महाराज अदं र आकर बैठ गये । डा. अमलू ्य चन्द्र दत्त शर्म और डर से
दरू भाग गये । आवाज़ देकर बल ु ाया और फ़रमाया कि क्या पकाया
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है, हमको भी दो । टूटा हुआ चम्मच था, उसी में आलू का एक टुकड़ा
और रसा दिया । महाराज ने खाया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1668)

72) बनारस के एक सतसंगी श्री मनिन्द्र ु नाथ दास हैं । सन् 1904
ईसवी में जन्म हुआ था । डेढ़ वर्ष की उम्र में माँ बाप दोनों चले गये ।
बड़े होने पर इस बात का बड़ा क़लक़ (अफ़सोस, व्याकुलता, बेचनै ी,
दखु , कष्ट) रहता था कि स्कूल में सब लड़कों के बाप हैं, हमारे बाप
नहीं हैं । हमारा बाप कै सा होगा, हमने बाप को नहीं देखा । जब यह
13 वर्ष के थे, एक दिन स्वप्न देखा कि इनके घर के सामने सड़क
पर दो घोड़ों की एक गाड़ी आकर रुकी । किसी ने इनको बल ु ाया,
“लड़के , इधर आओ ।” पास जाने पर इनसे कहा, “तमु अपने बाप
को नहीं जानते? देखो गाड़ी में तमु ्हारे बाप बैठे हैं ।” गाड़ी में बाबजू ी
महाराज और गरुु मौज सरन थे ।
इस स्वप्न के नौ वर्ष पश्चात् यानी सन् 1926 ई. में इन्होंने
नैयांजी साहबा से उपदेश लिया । जब इलाहाबाद किसी काम से
जाना हुआ, सतसंग में भी गये । वहाँ पहले पहल बाबजू ी महाराज के
दर्शन जो किये तो यह अचम्भे में रह गये कि यही तो गाड़ी में बैठे थे
और इन्हीं को बतलाया था कि यह मेरे बाप हैं । स्वप्न में जो बाबजू ी
महाराज के दर्शन हुए थे, वह दर्शन आज भी इनको उसी प्रकार याद
हैं ।
उसके बाद जब इलाहाबाद आते, बाबजू ी महाराज का
सतसंग करते, दर्शन करते, भेंट करते और प्रशाद लेते । बाबजू ी
महाराज इन से हाल चाल पछू ते । बनारस भडं ारे पर बाबजू ी महाराज
पधारते, तब भी भेंट करते, प्रशाद लेते और उनके निवास स्थान
पर सतसंग में शरीक़ होते । मगर इनको कभी यह ख़्याल नहीं पैदा
हुआ कि नैयांजी साहबा का उपदेश क़ाफ़ी नहीं है, संत सतगरुु वक़्त
47
बाबजू ी महाराज से उपदेश लेना चाहिए ।
मोज़े बनियान (होज़ियरी) का काम यह खबू जानते थे बल्कि
इस काम में माहिर थे । लधि ु याना वग़ैरा कई जगहों पर काम सीखा
था । दयाल बाग़ में होज़ियरी डिपार्टमेंट के मैनेजर एक मिस्टर सियाल
थे । वह अपनी बिज़नेस के सिलसिले में बनारस गये थे । उन्होंने
कहा कि तमु सतसंगी हो, दयाल बाग़ आकर कुछ सेवा करो । यह
दयाल बाग़ चले आये और वहाँ नौकरी कर ली । उन्हीं दिनों बाबजू ी
महाराज मसु ्तक़िल तौर पर आगरा आये थे । चनु ाँचे श्री मनिन्द्र
ु नाथ
दास स्वामीबाग़ बाबजू ी महाराज के पास आया करते थे । इनसे पछू ा
कि दयाल बाग़ वालों को मालमू था कि आप स्वामीबाग़ के सतसंगी
हैं? इन्होंने कहा कि हाँ । फिर पछू ा कि आपको निकाल नहीं दिया?
इन्होंने जवाब दिया मझु े निकाल नहीं सकते थे । मैं होज़ियरी की
मशीन का मिके निक था और मेरे बराबर कोई होशियार आदमी उन्हें
नहीं मिल सकता था ।
लेकिन कुछ दिनों बाद इनकी तबियत दयाल बाग़ से उचट
गई । होते होते एक दिन इनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि बस,
अब यहाँ नहीं रहना है । अपना सामान लेकर दयाल बाग़ से चल
दिये । उस वक़्त इनके पास के वल छः सात रुपये थे जिसमें आगरा
से बनारस तक का रे ल टिकट ख़रीदा जा सकता था । इनके दिल में
संकल्प विकल्प उठने लगे कि बाबजू ी महाराज को एक रुपया तो
भेंट करना ही चाहिए । बिना भेंट किये तो नहीं जाना चाहिए । मगर
एक रुपया भेंट में चला गया तो बनारस का टिकट नहीं ख़रीदा जा
सके गा । क्या करना चाहिए? इन्होंने निष्चय किया कि आगरे से
कानपरु बिना टिकिट के यानी चोरी से चला जाय । कानपरु से बनारस
का टिकट ख़रीद लिया जाय । चनु ांचे दयाल बाग़ से निकल कर यह
स्वामीबाग़ आये और हथेली पर एक रुपया रख कर बाबजू ी महाराज
को भेंट पेश की । पछ ू ा क्या बात है? जवाब दिया कि मैं बनारस जा
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रहा हूँ । महाराज ने फ़रमाया, हाँ! महाराज ने इनकी हथेली में रुपये छू
कर छोड़ दिया । भेंट का रुपया लिया नहीं । इससे इनके दिल में बड़ी
हलचल मच गई कि आज तक मेरी भेंट ना-मज़ं रू नहीं की । आज
महाराज ने मेरी भेंट नहीं ली, क्या हुआ? ज़मीन फट जाय तो उसमें
धँस जाऊँ । बड़ा अफ़सोस हुआ । ख़ैर, स्टेशन पर पहुचँ कर ख़्याल
आया कि महाराज ने रुपया इसलिये नहीं लिया कि टिकिट की चोरी
करनी पड़ती । इन्होंने सोचा कि अब कानपरु तक बिना टिकिट के ,
चोरी से क्यों जाऊँ? इन्होंने परू ा आगरे से बनारस का टिकट ले लिया ।
इस अतं र्यामता के परचे से इनको ख़्याल पैदा हुआ कि संत सतगंरु
वक़्त बाबजू ी महाराज हैं । अभी तक उनसे उपदेश नहीं लिया, बड़ी
ग़लती हुई । थोड़े दिनों बाद बनारस से आगरा आकर सन् 1938 ई.
में बाबजू ी महाराज से उपदेश लिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1732से1736)

73) स्कूल के पीछे जो कुआँ है, उसे कुआँ नम्बर 3 कहते हैं । इस
पर टंकी डाक्टर एण्डला ने बनाई थी । एक दिन बाबू गरुु मौज सरन
ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि हर तीसरे , चौथे, पांचवे दिन
डाक्टर एण्डला आता है और टंकी के लिए पांच हज़ार, दस हज़ार
माँगता और ले जाता है, तो क्या करें ? दिए जावें? बाबजू ी महाराज
मसु ्कराये और एक मिनट चपु रह कर फ़रमाया “भाई, आजकल जो
पैसा आ रहा है, वह ब्लैक मनी (काला धन) है, दिए जाओ ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-230)

74) बाबजू ी महाराज के दफ़्तर में चीफ़ सपु रिन्टेन्डेन्ट की


कुल एक ही जगह थी जिस पर सन् 1912 ई. में ख़ाली होने पर
अकाउन्टेन्ट जनरल ने एक अग्ं रेज़ को नियक्त
ु कर दिया और इस बात
की सचू ना आडिटर जनरल को भेज दी । लोगों ने बाबजू ी महाराज से
अनरु ोध किया कि अकाउन्टेन्ट जनरल के हुक़्म के ख़िलाफ़ अपील
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कीजिए । मगर बाबजू ी महाराज ने ऐसा नहीं किया । मालिक की
मौज पर रहे । आडिटर जनरल ने ख़दु दरियाफ़्त किया कि बाबजू ी
महाराज की हक़तलफ़ी क्यों की गई? अकाउन्टेन्ट जनरल ने इसके
जवाब में उस अग्ं रेज़ के काम की बहुत तारीफ़ की । पर साथ में
बाबजू ी महाराज के कार्य की भी प्रशसं ा की क्योंकि महाराज के
विरुद्ध कुछ नहीं कह सकता था । अग्ं रेज़ को चीफ़ सपु रिन्टेन्डेन्ट
के पद पर नियक्त ु करने का ख़ास कारण यह था कि वह ‘अग्ं रेज़’
था । आडिटर जनरल ने लिखा कि तमु को पता नहीं कि दोनों की
योग्यता में क्या अतं र है । और हुक़्म दिया कि जिस दिन से चीफ़
सपु रिन्टेन्डेन्ट की जगह ख़ाली हुई, उसी दिन से उस ओहदे पर
बाबजू ी महाराज की नियक्तिु समझी जावे । सबको बड़ा ताज्जुब हुआ
क्योंकि इससे पहले किसी के लिए ऐसा हुक़्म नहीं हुआ था ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-6, पृष्ठ-40/41)

75) छुट्टन बाबू ने महाराज के समय का एक मज़ेदार anecdote


(क़िस्सा) बतलाया कि एक बार महाराज का दाँत गिर गया । महाराज
ने काग़ज़ की पड़ि ु या बना कर उसे अपनी जेब में रख लिया । छुट्टन
बाबू देखते रहे । थोड़ी देर बाद महाराज घमू ने गये । जब क़ाफ़ी दरू
चले गये तो महाराज ने जेब में हाथ डाल कर पड़ि ु या निकाल कर
फें क दी । छुट्टन बाबू ने बयान किया कि मैं ध्यान से देखता रहा कि
किस जगह महाराज ने पड़ि ु या फें की । विचार किया कि दबु ारा वहाँ
जा कर पड़ि ु या उठा लाऊं ताकि महाराज के दाँत जैसी नियामत मझु े
मिले । घर लौटने के बाद छुट्टन बाबू ने महाराज से अर्ज़ किया कि
ज़रा बाहर घमू ने जाता हूँ । महाराज ने पछू ा, क्यों? अभी तो घमू कर
आये हैं । इस पर छुट्टन बाबू कुछ बोल नहीं सके । महाराज ने जेब में
हाथ डाल कर दाँत की पड़ि ु या निकाली और छुट्टन बाबू को दे दी ।
छुट्टन बाबू हैरत में रह गये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1422/7)
50
76) गाँव का रहने वाला एक गजु राती नया-नया सतसगं ी बना था ।
एक दो बार यहाँ स्वामीबाग़ आगरा आ चक ु ा था । इस दफ़ा अपनी
स्त्री को भी साथ लाया । उसे बाबजू ी महाराज के कमरे तक पहुचँ ा
दिया । वापसी पर भडं ारघर के सामने वाले चैराहे पर दवि
ु धा में पड़
गई कि किधर जावे । रास्ता भल
ू गई । फाटक की तरफ़ क़दम बढ़ाये ।
अगर उधर जाती तो फ़ाटक से बाहर बाज़ार में निकल जाती और खो
जाती । ठीक उसी समय बाबजू ी महाराज प्रकट हुए और कहा कि
बेटी! इधर कहाँ जाती है? उस रास्ते से जाओ । उस रास्ते से चलकर
गजु राती कोठी पहुचँ गई ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-293)

77) महाराष्ट्र में तमु ्मनवार नाम का एक सतसंगी है । नौकरी


करता है । उसका तबादला तमु सर हो गया । श्री बाल स्वरूप कोचर
के यहाँ सतसंग में जाया करता था । उसकी औरत सतसंगिन नहीं
थी पर कभी कभी सतसंग में जाती थी । श्री बाल स्वरूप कोचर ने
तमु ्मनवार से कहा कि अपनी स्त्री को उपदेश दिला दो । उसने जवाब
दिया कि मैं नहीं कहूगँ ा । वह ख़दु उपदेश लेना चाहेगी तब दिलवा
दगंू ा । जन्माष्टमी के दिन नागपरु में सतसंग था । वहाँ सब लोग गये ।
तमु ्मनवार व उसकी औरत भी गई । रात भर सतसंग होता रहा । सबु ह
चार बजे के वक़्त उस औरत का जी घबराने लगा और उसने लेटना
चाहा । अन्य सतसगि ं नों ने कहा कि हाँ, लेट जाओ । आँख लग गई ।
स्वप्न में बाबजू ी महाराज के दर्शन हुए, फ़रमाया कि बहुत सो लीं ।
अब जागो । उस औरत ने उपदेश ले लिया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-294)

78) हक़ीम वज़ीरचदं प्रभाकर एक बार स्वामीबाग़ आगरा


सतसगं दर्शन को आये थे । बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि सतं
साध महात्माओ ं की बानी में लिखा है कि अकाल मतृ ्यु होने से
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जीव पिशाच जनू में जाता है । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया, “तो फिर
क्या? संतों ने जो कहा है वह ठीक है ।” वज़ीरचदं ने अर्ज़ किया कि
महाराज! सतसंगी तो पिशाच जनू में नहीं जावेंगे? मझु े किसी सिद्धि
शक्ति वाले ने कहा है कि जब तमु चालीस वर्ष के हो जाओगे, तब
तमु ्हारी पत्नी को गर्भपात होगा और वह मर जायेगी, तो महाराज वह
पिशाच जनू में तो नहीं जावेगी? “मगर इतने में महाराज ध्यान में हो
गये ।” 5-7 दिन तक जितना इनको रहना था, रहकर जाते समय फिर
बाबजू ी महाराज के पास भेंट करने व रुख़सत होने को गये । महाराज
ने अपने आप फ़रमाया, “इसको ऐसा नहीं होगा ।” जब वज़ीरचदं
चालीस वर्ष के हुए, ठीक उसी दिन इनकी पत्नी को गर्भपात हुआ
और वह बेहोश हो गई व मरने जैसी हालत हो गई । रात का वक़्त था ।
डाक्टर को फ़ोन किया । उसने कहा कि सवेरे आऊँगा । तब इन्होंने
पलु िस को फ़ोन किया कि इसको सम्हालो । अगर यह मर जाये तो
मझु पर दोष मत लगाना कि तमु ने हत्या की है । पलु िस वालों ने कहा
पाँच मिनट रुको । पाँच मिनट में दो-तीन डाक्टर और नर्सें और कई
लोग इनके घर पर आये और इनकी बेहोश पत्नी को गाड़ी में डालकर
अस्पताल ले गये । दसू रे दिन वज़ीरचदं सबु ह अस्पताल गये । डाक्टर
ने कहा कि देखना चाहो तो अदं र जाकर देख लो, मगर बेहोश है ।
उस को ख़नू की बहुत कमी हो गई थी, ख़नू चढ़ा दिया है और शाम
को सात बजे होश में आवेगी । वज़ीरचदं शाम को अस्पताल में गये
और वह सात बजे होश में आ गई व चेहरे पर मसु ्कराहट भी थी ।
अच्छी होकर जब घर आई ं तो वज़ीरचदं से सब हाल पछू ा । उसने
मतृ ्यु के बाद का सब हाल सनु ाया कि कहाँ कहाँ किस रास्ते से गई
और क्या देखा व सनु ा । वह लम्बा किस्सा है । मतलब की बात यह है
कि धर्मराय के सामने गई ।ं धर्मराय का रूप बड़ा प्रकाशवान था और
शान शौक़त से बैठा हुआ था । ऐसा लगता था मानो कोई बहुत बड़ा
आदमी या महाराजा है । इतने में बाबजू ी महाराज वहाँ आ गये । उनके
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स्वरूप के प्रकाश का कुछ वर्णन नहीं हो सकता । बाबजू ी महाराज
के प्रकाश के सामने धर्मराय का कुछ भी नहीं था । बाबजू ी महाराज
ने कहा, “इसे किसलिये बलु ाया है? यह वापस जाने को है ।” धर्मराज ने
कहा, “जी महाराज ।” जब वज़ीरचदं की पत्नी वहाँ लौटीं तो बाबजू ी
महाराज साथ आये और कहा कि अब तमु जाओ, तमु ्हारा एक जन्म
कट गया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-345)

79) श्री भाईलालभाई पटेल ने बाबू संतदास जी से कहा था कि


हमारे पिता ने बाबजू ी महाराज से सरु मा माँगा है । तमु अर्ज़ करो ।
उन्होंने उन्हीं के सामने महाराज से अर्ज़ किया । फ़रमाया “इसको
सरु मा हरग़िज़ मत देना” । वो भी ज़रा चौंके और भाईलालभाई भी ।
उन्होंने समझा कि ऐसी ही मौज है । अपने पिता से कह दिया कि सरु मा
महाराज के पास नहीं है । कुछ समय पश्चात् भईलालभाई के पिता का
मोतियाबिंद का आपरे शन हुआ। डाक्टर ने कहा कि तमु ने आँखों में
सरु मा नहीं लगाया, इसलिये आपरे शन हो गया । अगर सरु मा लगाये
होते तो आपरे शन नहीं हो सकता था । तब भाईलालभाई की समझ
में आया कि क्या दया हुई ।
(अनक
ु ू लित: प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-486)

80) लाला बसतं लाल अग्रवाल वैश्य थे जो इलाहाबाद में


महाजनी टोला महु ल्ले में रहते थे । सर्राफ़े का काम करते थे और
इनके पास क़ाफ़ी पैसा था । धीरे धीरे सब धन दौलत ख़त्म हो गया
और हालत पतली हो गई । हालत पतली होने पर इन्होंने इलाहाबाद
में लक
ू रगजं मोहल्ले में एक आटा मैदा की मिल में नौकरी शरूु कर
दी । पजू ा पाठ आदि क़ाफ़ी करते थे, साधु सतं ों के पास आया जाया
करते थे । रोज़ सबु ह गगं ा स्नान करने जाया करते थे ।
मिल का मालिक इनसे काम बहुत लेता था और तनख़्वाह
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कम देता था । यह बढ़ू े हो चले थे । काम ज़्यादा नहीं कर सकते थे ।
हालत पतली और ऊपर से काम ज़्यादा । यह हमेशा दख ु ी रहते
थे । लक ू रगंज की मिल में काम करते हुए इनका सम्पर्क बहनजी
प्रेम सँवारी जी के भाई नारायण बाबू से हुआ जिनको यह अपनी
तक़लीफ़ें सनु ाते थे । इनको राधास्वामी मत और बाबजू ी महाराज के
बाबत जानकारी मिली । लाला बसंतलाल रोज़ सबु ह गंगा स्नान का
बहाना करके चोरी छिपे अतरसइु या मोहल्ले में सतसंग में जाने लगे
और बाबजू ी महाराज के दर्शन और सतसंग का लाभ प्राप्त करते रहे
और परु ानी पक्ष छोड़कर उपदेश ले लिया ।
सतसंग से सिलसिला जड़ु जाने पर एक बार लाला बसंतलाल
ने महाराज से अर्ज़ किया कि मिल मालिक कस कर काम लेता है
मगर तनख़्वाह नहीं बढ़ाता है, और डांट डपट ज़्यादा करता है ।
महाराज ने फ़रमाया, आग लगे ऐसी मिल में । लाला बसंतलाल ने
मिल की नौकरी छोड़ दी और सतसंग में रहने लगे और महाराज द्वारा
बताया काम करने लगे । इन्हें सतसगं से कुछ रुपया मिल जाता था ।
कुछ दिन बाद उस मिल में वाक़ई आग लग गई । इतनी
भयंकर और तेज़ आग लगी थी कि छः रात और छः दिन बा-वजदू
कोशिश के , बझु ही नहीं पाई । मिल का मालिक घबरा गया । लाला
बसंतलाल ने महाराज से अर्ज़ किया । महाराज ने फ़रमाया कि शाम
को हवाख़ोरी पर जाते समय हम मिल देखने आयेंगे । जैसे ही महाराज
मिल पर पहुचँ े और अदं र प्रवेश किया कि आग शान्त होती गई और
महाराज की मौजदू गी में आग बिल्कुल बझु गई ।
महाराज की अपार लीला देखकर मिल का मालिक और
आसपास के लोग चकित हो गए और अब तो मिल मालिक लाला
बसंतलाल से बहुत खश ु हो गया और दबु ारा मिल में ज़्यादा तनख़्वाह
पर रखने को तैयार हो गया और इनकी क़ाफ़ी खश ु ामद की, पर यह
महाराज को छोड़कर किसी प्रकार दबु ारा मिल में जाने को तैयार नहीं
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हुए ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-532 से 537)

81) बड़ोदा में श्री वल्लभदास चिम्मनलाल शाह नाम के एक


सतसंगी थे । इन्होंने सन् 1945 ई. में स्वामीबाग़ आगरा में उपदेश
लिया जब कि बाबजू ी महाराज विराजमान थे । इन्होंने डाक्टर रॉय से
राधास्वामी मत के बारे में सनु ा । उनके यहाँ सतसंग में भी जाते रहे ।
मगर उपदेश नहीं लिया था । एक बार कानपरु जाने का मौक़ा आया ।
वहाँ से लौटते समय स्वामीबाग़ आगरा आने का विचार था । टूँडले
पर गाड़ी बदलती थी । मगर यह और इनके चार पाँच साथी सो रहे
थे । टूँडला जंकशन पर बाबजू ी महाराज ने इन लोगों को जगाया कि
उठो, गाड़ी बदलो । इन्होंने पहचान लिया कि यह बाबजू ी महाराज ही
हैं क्योंकि डाक्टर रॉय के यहाँ तस्वीर देखी थी । मगर इनके साथियों ने
कहा कि एक बडु ् ढ़ा आदमी, एक बाबा, आकर उठा गया । इस परचे
को पाकर आगरा स्वामीबाग़ आकर इन्होंने फ़ौरन उपदेश ले लिया ।
पहले उपदेश लेने का इरादा नहीं था । डाक्टर रॉय से कह दिया था
कि मेरी समझ में आवेगा तो उपदेश लँगू ा, वरना नहीं । इनके साथियों
ने दर्शन सतसंग तो किया परन्तु उपदेश नहीं लिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1748)

82) सन् ठीक याद नहीं, लेकिन बात 1935 से 37 तक की है ।


स्वामीजी महाराज का भडं ारा था । सतसगं के बाद ख़रबजू े के बीज
और सख ू े मेवों की पगी हुई कतरियों का प्रशाद बँटा था । जब प्रशाद
बँटना आरम्भ ही हुआ था तो महाराज किसी कारणवश कोठी पर
तशरीफ़ ले आये । समाध से उठते समय महाराज ने आदेश दिया था,
“गरुु मौज सरन! सब से कह दो कि प्रशाद लेकर आवें । बग़ैर प्रशाद
लिये कोई न आवे ।”
सतसगि ं यों को कोठी पर जाने की जल्दी थी । जितनी जल्दी
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हो सके , कोठी पहुचँ ना चाहते थे । कमरे में बैठे ही थे कि महाराज
ने फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! जो प्रशाद लेकर नहीं आए हैं, उनसे
कह दो कि पहले समाध से प्रशाद ले आवें ।” बाबू गरुु मौज सरन
ने सतसंगियों की ओर देख कर महाराज का आदेश दोहरा दिया,
लेकिन कोई सतसंगी कमरे से उठ कर बाहर नहीं गया । कुछ देर बाद
महाराज ने फिर फ़रमाया, “जो सतसंगी प्रशाद नहीं लाए हैं, अगर
प्रशाद लेकर नहीं आयेंगे तो हम अदं र चले जायेंगे ।” अब बाबू
गरुु मौज सरन ने सतसंगियों से अलग अलग पछू ा । जिनके हाथ में
प्रशाद था, उन्होंने दिखाया । जो खा चक
ु े थे, उन्होंने महँु खोल कर
दिखाया । जब बाबू गरुु मौज सरन लौट कर अपनी जगह बैठ गये तो
महाराज ने एक परु ाने सतसंगी का नाम लेकर फ़रमाया, “तमु प्रशाद
नहीं लाए । जाओ, प्रशाद लेकर आओ ।” वह सतसंगी फ़ौरन हाथ
जोड़ कर खड़ा हुआ और समाध की ओर चला गया। उसके जाने
के बाद महाराज ने हँस कर फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! देखा, कै सा
पकड़ा!” फिर कुछ देर ठहर कर फ़रमाया–

संत न देखें बोल और चाल
वे कह दें अतं र का हाल

यद्यपि बानी में दसू री कड़ी यों है—


वे परखें अतं र का हाल

महाराज ने दो बार इस कड़ी को दोहराया और दोनों बार


“कह दें” फ़रमाया और इस पर विषेश ज़ोर दिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1875/क)

83) पजं ाब से एक शख़्स आया था । उसने बाबजू ी महाराज से


अर्ज़ किया कि मैं हुज़रू महाराज का उपदेशी सतसगं ी हूँ मगर हुज़रू
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महाराज के अन्तर्ध्यान होने के बाद मैं सतसंग में नहीं आया, मैं
चैरासी में तो नहीं जाऊँगा? महाराज ने फ़रमाया, नहीं । उस शख़्स
ने चार पाँच बार बड़े भय और दकु ्ख के साथ पछू ा कि मैं चैरासी में
तो नहीं जाऊँगा? हर मर्तबा महाराज ने आश्वासन देने के लहज़े में
फ़रमाया, नहीं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1919)

84) भतू ों से सेवा लेना - बाबू सोहनलाल सक्सेना ने बयान


किया कि सन् 1932 ई. में अक्टूबर के महीने में शाम के सतसंग में
बाबजू ी महाराज को बहुत खाँसी आई । खाँसते खाँसते फ़रमाने लगे,
“गरुु मौज सरन! बड़ी खाँसी आ रही है, रात कै से कटेगी? अगर बबल ू
की छाल मिल जाय तो शायद आराम मिल जाय ।”
घर से बसल
ू ा और लालटेन लेकर मैं 6 बजे शाम को बबल ू
के पेड़ की खोज में निकला । किसी ने बतलाया कि चौधरी साहब
के बाग़ की चहार दिवारे के बाहर एक पेड़ बबल ू का है । जगह बहुत
ऊबड़ खाबड़ थी, खेत थे, बड़ा नाला था जिसे काट कर सिंचाई
होती थी, जा-ब-जा झाड़ियें और नालियें और कांटों की मेड़ें थी ।
अधं रे े में बाग़ तक पहुचँ ना और उसके चारों तरफ़ पेड़ ढ़ूँढ़ना एक बड़ी
मसु ीबत का काम था । बहुत हैरान परे शान होने पर किसी से मालमू
हुआ कि यहाँ कोई बबल ू का पेड़ नहीं है । ककरहा घाट (श्मशान)
पर एक पेड़ है मगर वहाँ पहुचँ नहीं सकते क्योंकि रास्ता ही नहीं है ।
बजाये निराश होने के , मेरे दिल में ख़्याल आया कि मालिक आज
इम्तिहान ले रहा है । मैं बग़ैर छाल लिये वापस न जाऊँगा । खेतों को
लांघते फांदते, क़बरिस्तान पार करते हुए ककरहा घाट (श्मशान) रोड़
पर पहुचँ ा । उस वक़्त वहाँ एक पान वाले की दक ु ान खलीु थी । उसने
कहा कि ककरहा घाट (श्मशान) पर एक बबल ू का पेड़ है, पर आप
वहाँ जाइये नहीं । उस पेड़ पर घटं बँधते हैं यानी पानी की मटकियां
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लटकाई जाती हैं और सैंकड़ों भतू रहते हैं । मगर मेरे जी में छाल
लाने की लगन लगी थी । साढ़े ग्यारह बजे रात का समय था । चारों
ओर अधं रे ा था । बहुत ढूँढने पर भी कहीं पता नहीं चला । मजबरू न,
टीन के नीचे इस इतं ज़ार में बैठ गया कि कोई आदमी आवे तो उससे
पछू ू ँ । आध घटं े बाद मझु े तीन आदमी मेरी ओर आते हुए नज़र पड़े ।
तीनों के हाथों में एक एक बसल ू ा और एक एक लालटेन थी । जब
थोड़ी दरू पर आ गए तो उनमें से एक ने बड़ी बद-तमीज़ी से आवाज़
लगाई “के बैठा है?” मैंने कहा ज़रा पास आओ तो बताऊँ, तमु ्हारे ही
इन्तज़ार में घटं े भर से बैठा हूँ । वह पास आए और मैं उठ कर खड़ा
हो गया । उनमें से एक ने पछ ू ा, “के है, काहे बैठे हो यहाँ?” मैंने कहा
कि देखो, हमें बबल ू के पेड़ की छाल की सख़्त ज़रूरत है, दया करके
आप बता दीजिये कि बबल ू का पेड़ कहाँ पर है? उन तीनों ने बड़े
ज़ोर से कहकहा लगाया और शराब की बदबू से मैं परे शान हो गया ।
वह बोले, “जाओ, जाओ, घर जाओ, जो ख़ैरियत चाहते हो तो ।
बबल ू की छाल लेवे आए हैं! उस पेड़ पर बड़े बड़े जिन्नात रहत हैं ।
“मैंने कहा, “कोई भी रहते हों, हमसे क्या मतलब, हमको तो ज़रा सी
छाल चाहिये । फिर हम आपसे तो नहीं कहते कि आप काट दें । आप
हमें पेड़ बता दीजिए । हम छाल काट कर ले जायेंगे । “इस पर उनमें
से एक ने कहा, “देखो! इत्ती जनू तमु सीधे सीधे घर चले जाओ, कोई
उस पेड़ की छाल नहीं काट सकता । “मैंने कहा कि जब बारह बजे
रात को हम ककरहा घाट (श्मशान) पर पेड़ की छाल लेने आए हैं तो
किसी बतू े पर आए हैं, हमें डर नहीं है । तमु हमें पेड़ भर बता दो । इस
पर एक आदमी ने कहा कि अच्छा अच्छा, आप इस क़िसम की बोल
न बोलिये, हम आपको छाल काट कर दिये देत हैं । वह आगे आगे
चला और हम सब नाला पार करके बबल ू के पेड़ के पास पहुचँ े और
उसने कहा, “काहे में छाल लोगे?” हमने अगं ोछा फै ला दिया और
उसने मिनटों में दो ढाई सेर (किलो) छाल काट कर रख दी । छाल
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लेकर लौटने लगा, तब उन्होंने पछू ा, आपको डर तो नहीं लगेगा?
आपको पहुचँ ा दें? मैंने कहा, नहीं । हमें डर नहीं लगेगा । आपको बहुत
बहुत धन्यवाद । हम छाल लेकर सीधे बाबू गरुु मौज सरन के पास
पहुचँ े । उन्होंने छाल देखी और कहा, है तो हरी । अच्छा । मैंने कहा,
तो मैं जाऊँ? उन्होंने कहा, हाँ । महाराज की खांसी का रात का हाल
तो नहीं मालमू , मगर फिर महाराज सतसंग में नहीं खांसे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1931)

85) श्री ख़ानचन्द परसराम मदनानी ने अपने जीवन के चन्द


तजरुबे लिख कर भेजे - जनू या जलु ाई सन् 1943 ई. में मैं करांची से
आगरा आया । दसू रे दिन तार मिला कि तमु ्हारी औरत सख़्त बीमार
है, फ़ौरन लौट आओ । मैं बहुत परे शान हुआ । बाबजू ी महाराज से
अर्ज़ किया । पछू ा, “कब आये? इससे पहले कब आये थे?” उत्तर
दिया कि कल ही आया हूँ । पिछली दफ़ा आठ वर्ष पहले आया था ।
महाराज ने बड़ी तेज़ी से फ़रमाया, “क्या काल यहाँ भी नहीं छोड़ता?
मत जाओ ।” दसू रे दिन फिर तार आया कि तबियत अच्छी है, आने
की ज़रूरत नहीं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1965/3)

86) गजु रात के एक सतसगं ी को एक बार स्वप्न में शिवजी


दिखलाई दिये । शिवजी ने कहा, “कुछ लेना चाहो तो ले लो, जो
चाहो सो माँग लो ।” उस सतसगं ी ने जवाब दिया, “राधास्वामी
दयाल ने बहुत दिया है, और नहीं चाहिए, कुछ नहीं माँगना या लेना
है ।” शिवजी ने नाराज़ होकर उसकी जाँघ पर चोट मारी जिससे दर्द
रहने लगा । वह सतसगं ी एक मास बाद स्वामीबाग़ आगरा आया
और बाबजू ी महाराज से हाल अर्ज़ किया । महाराज ने उसकी जाँघ
पर हाथ फे र दिया और दर्द चला गया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-180)

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87) इलाहाबाद में एक दिन बाबजू ी महाराज ने मास्टर दयाराम
लेखराज किरपालानी से कहा कि यहाँ बैठे बैठे क्या करते हो, आगरे
क्यों नहीं जाते? जाओ, अभी आगरे जाओ । मास्टर साहब ने सोचा
कि कोई काम तो नहीं है । किसलिये आगरे जाऊँ? मगर हुक़्म था,
रवाना हो गये । उनका दस्तूर था कि स्टेशन से पीपलमडी ं जाते और
हुज़रू महाराज की समाध पर मत्था टेकते, फिर पन्नी गली जाते, वहीं
ठहरते थे । उस मर्तबा आगरा फोर्ट स्टेशन पर उतरे तो दिमाग़ में कुछ
लहर सी आई, सीधे स्वामीबाग़ गये । वहाँ भाई साहब सेठ सदु र्शन
सिंह बड़ी घबराहट में थे । पहले दिन उनके पास दयालबाग़ के 5-7
आदमी आये थे और किसी जशन या उत्सव के नोटिस पर दस्तख़त
करने के लिये उनसे कहा था और बहुत ज़ोर डाला था । भाई साहब
तय न कर सके कि दस्तख़त करें या न करें । ख़ैर, यह कह कर जान
छुड़ाई कि कल आना । भाई साहब ने मास्टर साहब से सब हाल
कहा । मास्टर साहब ने मशवरा दिया कि हरग़िज़ दस्तख़त नहीं करने
चाहिये । मक़ ु दमा चल रहा है । यह उनकी चाल है । चनु ांचे जब
दयालबाग़ वाले आए, भाई साहब ने दस्तख़त करने से इनकार कर
दिया । दयालबाग़ियों में से किसी ने फ़िक़रा कसा कि क्या दयाराम
मास्टर पहुचँ गये हैं? उनसे दयालबाग़ वाले घबराते थे ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-272)

88) श्री चनु ्नीलाल जी, रिटायर्ड असिस्टेंट डाइरे क्टर इडस्ट्
ं रीज़,
झज्झर (हरियाणा) ने संतदाजी को लिखा था —
सन् 1941 की बात है । देहली के एक कायस्थ पेशकार
साहब, उनका नाम विश्वम्भर दयाल था, बढू े और बहुत कमज़ोर हो
गये थे । समाध में दर्शनों के लिये भी न जा सकते थे । चबतू रे को
काट कर, एक टेढ़ा, बग़ैर पैड़ियों का, ज़रा लम्बा ढाल देकर, रास्ता
बनाया था कि जिससे महाराज सहूलियत से चल कर समाध के अदं र
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जा सकें । पेशकार साहब इस रास्ते पर चबतू रे से लग कर खड़े हो
जाया करते थे कि महाराज जिस वक़्त सतसंग में जायें और वापिस
आयें, दर्शन और दृष्टि मिल सके । एक रोज़ शाम के सतसंग के बाद
महाराज दाता छुट्टन बाबू के कंधे पर बायाँ हाथ रक्खे और दायें हाथ
में छड़ी लिये हुऐ आहिस्ता-आहिस्ता ढालू रास्ते से समाध के चबतू रे
से निकले और दोनों तरफ़ खड़े हुए सतसंगियों पर दृष्टि डालते हुए
चलने लगे । मैं भी महाराज के पीछे -पीछे था । मेरे और महाराज के
बीच में चार पाँच सतसंगी और थे । जिस वक़्त महाराज पेशकार
साहब के पास से गज़ु रे तो मौज से दृष्टि उन पर नहीं पड़ी । महाराज
की दृष्टि दसू री तरफ़ थी । जब महाराज पेशकार साहब से पाँच सात
क़दम आगे चले गये तो पेशकार साहब ने बड़ी दर्द भरी चीख़ मारी
“दाता”, मगर होठों में ही रही । बहुत अतं र से पक ु ार थी । मैं उनके
नज़दीक था, मैंने सनु ी थी। मगर मेरा ख़्याल है कि छुट्टन बाबू या
महाराज के साथ उस वक़्त जो सतसंगी थे, उन्होंने नहीं सनु ी । लेकिन
पकु ार होते ही महाराज एक दम चौंके और बड़े ज़ोर से बोले “कौन”?
उसी वक़्त महाराज ने हाथ छुट्टन बाबू के कंधे से हटाया और बग़ैर
सहारे के वापिस आये । मैंने और अन्य सतसंगियों ने जो बीच में थे,
महाराज के लिये रास्ता छोड़ दिया । महाराज सीधे पेशकार साहब के
सामने आकर खड़े हुए । उन पर देर तक दया भरी दृष्टि डाली जिससे
उनका अगं अगं शीतल हो गया । महाराज फिर छुट्टन बाबू के कंधे पर
हाथ रखे हुए आहिस्ता-आहिस्ता कोठी पर आ गये । महाराज दाता
ने परचा दिया कि वह अतं र्यामी हैं, सच्चे दीन दयाल हैं और अतं र के
अतं र से निकली हुई सरु त की पकु ार को बर्दाश्त नहीं कर सकते ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-195/ऐ)

89) सन् 1933 ईसवी में बाबजू ी महाराज सोलन गये थे । उन


दिनों वकील छोटाभाई पटेल बीमार थे । सोलन के लिए रवाना होने
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से पहले बाबजू ी महाराज ने मास्टर दयाराम लेखराज किरपालानी से
फ़रमाया कि मक़ ु दमें के बारे में छोटभाई से कुछ पछू ना हो तो पछू
लो और काग़ज पत्र जो लेने हों, ले लो । बाद में यह मत कहना कि
अमक ु बात पछ ू ने से रह गई या फ़लां काग़ज लेने से रह गया । मास्टर
दयाराम व अन्य कोई भी न समझ पाया कि किस बात का इशारा है ।
बाबजू ी महाराज सोलन गए । वकील छोटाभाई पटेल गजु रात गए
जहाँ थोड़े दिनों बाद उनका चोला छूट गया । सोलन में तार आया,
तब समझ में आया कि बाबजू ी महाराज के फ़रमाने का क्या अर्थ था ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-273)

90) सन् 1937 में रे ल द्वारा अपनी द्वितीय इदं ौर यात्रा में इन्दौर
से पहले एक स्टेशन बढ़वाहा आता है । स्टेशन पर बहुत से सतसंगी
आए थे । प्लेटफ़ार्म खल ु ा था और धपू बड़ी सख़्त पड़ रही थी । सब
लोग धपू में खड़े खड़े दर्शन करने लगे । महाराज ने फ़रमाया कि
खिड़कियाँ बंद कर दो और इन लोगों से कहो कि जायँ । ऐसी सख़्त
धपू में खड़े रहेंगे तो बीमार पड़ जावेंगे । सब सतसंगियों ने घबराकर
अर्ज़ किया, कि महाराज! खिड़कियाँ न बंद कराइये, दर्शन करने
दीजिये । हम लोग तो गाँव के रहने वाले किसान हैं। हम तो धपू ही में
काम किया करते हैं । मौज ऐसी हुई कि इतने में ही धपू ग़ायब हो गई
और बदली छा गई । गाड़ी बहुत देर तक स्टेशन पर खड़ी रही । सब
लोगों ने ख़बू दर्शन किए ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-26, पृष्ठ-137)

91) अक्सर महाराज बाग़ में पैदल घमू ने निकल जाया करते थे।
कभी तो सिर्फ़ बहनजी और दो-चार ख़ास ख़ास शख़्स साथ होते,
कभी सब सतसगं ी पीछे पीछे चलते । फुलवारी में, चमन में, खेतों में,
जिधर मौज हुई, निकल जाते । महाराज न जाते तो बहनजी हठ कर
के ले जातीं । खेतों में से तरकारी या फल उसी वक़्त तोड़ कर पेश
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किए जाते । एक दफ़ा हरी मिर्चें पेश की गई ।ं महाराज ने एक किनका
खाकर बाक़ी पास खड़े वालों को दे दीं । थीं तो मिर्चें, मगर महाराज
की चखी हुई औरं प्रसादी की हुई थीं
ं । सब ने खाई ।ं ग़ज़ब की तीक्ष्ण
थीं । खाते ही महँु जल गया । बड़ा मज़ा रहा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-38, पृष्ठ-237/238)

92) एक दफ़ा समाध के पास जहाँ पत्थर चीरे जाते हैं, जाना हुआ ।
बहनजी ने अर्ज़ किया, महाराज! स्वामीजी महाराज की समाध के
लिए पत्थर बन रहे हैं, ज़रा आप भी आरा चलाइये । मज़दरू को
हटाकर एक पत्थर पर महाराज बैठ गए और दो-तीन मिनट तक आरा
चलाया ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-38, पृष्ठ-238)

93) महाराज क़रीब क़रीब रोज़ बाबू पवित्ररंजन से पछू ते थे कि


“आज राधाबाग़ गए थे ? क्या किया ?” वहाँ की सब बातें सनु ते
थे । उस वक़्त समझ में नहीं आता था कि महाराज रोज़ रोज़ राधाबाग़
की बात क्यों करते हैं । जब महाराज के शरीर का वहाँ दाह ससं ्कार
हुआ, तब समझ में आया कि शायद महाराज इसीलिए राधाबाग़ को
याद किया करते थे ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -2, अध्याय-1, पृष्ठ-453/454)

94) बाबजू ी महाराज का अपने गजु रात दौरे के दौरान अहमदाबाद


में एलिस ब्रिज के निकट इज़्ज़तराय के बंगले में ठहरने का प्रबन्ध
किया गया था । वहाँ महाराज आठ रोज़ विराजमान रहे। अहमदाबाद
में साबरमती नदी के किनारे गाँधी आश्रम में तशरीफ़ ले जाने के
लिये बहुत सतसंगियों ने महाराज से अर्ज़ किया । पहले तो महाराज
ने मज़ं रू नहीं किया । मगर आग्रह करने पर फिर महाराज ने फ़रमाया,
“अच्छा, चलो ।” उस वक्त अहमदाबाद में बारिश हो चक ु ी थी ।

63
महाराज मोटर में बैठ कर साबरमती आश्रम की ओर रवाना हुए ।
मगर मौज ऐसी हुई कि रास्ते में एक गड्ढे में मोटर के पहिये कीचड़
में फँ स गए । सतसंग का वक्त हो गया था । मोटर वापिस आ गई और
इस प्रकार साबरमती आश्रम में महाराज का पधारना नहीं हुआ ।
(राधास्वामी की भक्तमाल, अध्याय-44, पृष्ठ-228/229)

95) बाबू परुु षोत्तमदास टंडन ने महाराज से एक मर्तबा अर्ज़ किया


कि गाँधीजी सतसंग में आना चाहते हैं और कहा है कि आइन्दा
जब मैं इलाहाबाद आऊँ तो याद दिलाना व सतसंग में ले चलना ।
महाराज ने फ़रमाया कि तमु अपनी तरफ़ से याद मत दिलाना । हाँ,
अगर वह ख़दु -ब-ख़दु याद करें और आने को कहें तो ले आना । पर
गाँधीजी जब इलाहाबाद आए, सतसंग की याद न आई । इस प्रकार
दोनों मौक़े ख़ाली गए ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-44, पृष्ठ-229)

96) सन् 1930 ईसवी में कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह आदं ोलन
किया था । अग्ं रेज़ सरकार सत्याग्रहियों को पकड़ कर जेलख़ाने में
बंद कर रही थी । तारीख़ 11 अप्रेल सन् 1930 ईसवी को बाबू
परुु षोत्तम दास टंडन व अन्य कांग्रेसियों ने इलाहाबाद शहर में नमक
बना कर नमक क़ाननू तोड़ा था । दसू रे दिन सबु ह बाबू परुु षोत्तम
दास टंडन सतसगं में आये । गिरफ़्तार हो जाने की सम्भावना थी ।
उनका क़ायदा था कि गिरफ़्तार होने से पहले और छूटने पर बाबजू ी
महाराज के दर्शन व भेंट करने को आया करते थे । महाराज ने हँस कर
पछू ा, नमक तो नहीं लाए हो! दस पन्द्रह मिनट बातचीत हुई । उन्होंने
भेंट की । महाराज ने फिर हँसते हुए फ़रमाया कि नमक बेच कर तो
पैसा नहीं लाये हो! बातचीत के सिलसिले में महाराज ने पछू ा कि
गांधी, नेहरू इत्यादि नेताओ ं में से कौन गिरफ़्तार हुआ व किसके कब
गिरफ़्तार किए जाने की संभावना है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1689)
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97) तारीख़ 14 अप्रेल सन् 1930 ईसवी को बाबू परुु षोत्तम दास
टंडन फिर सतसंग में आये । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि जब हम
छोटे थे, हमारे गाँव में ख़बू नमक बनता था और बहुत सस्ता मिलता
था । अभी तो अग्ं रेज़ सरकार ने बंद कर दिया है ।
महाराज ने पछ ू ा कि क्या खाते हो? बाबू परुु षोत्तम दास टंडन
ने अर्ज़ किया कि कच्ची तरकारियां और फल । महाराज ने फ़रमाया
ऊट पटाँग चीज़ें खा खाकर अपनी सेहत बिगाड़ रहे हो । आज हमारे
यहाँ का खाना खाओ, और तमु ्हारा तो हक़ है, क्योंकि हमारे यहाँ
खाये हुये बहुत दिन हो गये हैं । साढ़े ग्यारह बजे आ सकोगे? बाबू
परुु षोत्तम दास टंडन ने कहा कि आ जाऊँगा ।
मगर मालमू हुआ कि नैनी में जवाहर लाल नेहरू गिरफ़्तार
हो गये । महाराज के यहाँ खाना खाने को टंडनजी न आ सके । शहर
में हड़ताल हुई । शाम को परुु षोत्तम दास पार्क में एक बड़ी मीटिंग हुई
जिसमें बाबू परुु षोत्तम दास टंडन ने भाषण दिया था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1689)

98) गया निवासी श्री गरुु देव शरन के कुछ संस्मरण जो उन्होंने
संतदासजी को लिख कर भेजे थे —
मैंने बारहा (प्रायः, बहुधा, अक़्सर) तजरुबा किया कि यदि
कोई बात छिपाना चाहा तो बाबजू ी महाराज वही पछू ते थे । मैंने
सन् 1942 ई. के आदं ोलन में वकालत छोड़ दी थी और आदं ोलन
में बड़े ज़ोर शोर से काम कर रहा था । महाराज साहब के भडं ारे पर
आगरे आना हुआ । दिल में विचार किया कि बाबजू ी महाराज से
आदं ोलन के बारे में न कहूगँ ा । परन्तु भेंट पेश करते ही महाराज ने
पछू ा, वकालत कै सी चल रही है? मैं क्या जवाब देता, अर्ज़ किया
कि suspend (स्थगित) कर दी है। आदं ोलन में काम कर रहा हूँ ।
महाराज थोड़ी देर ख़ामोश रहे, फिर फ़रमाया, अच्छा! तजरुबा कर
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लो । गया लौटने पर, बहुत serious charges (गंभीर आरोपों) के
होते हुए भी सिर्फ़ एक वर्ष की सज़ा हुई । जेलख़ाने में क़रीब आठ
नौ महीने रहा, परन्तु अस्पताल में ही । ख़बू गढ़त हुई । राजनीति से
नफ़रत हो गई ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-52/ठ)

99) बाबजू ी महाराज ने महर्षि गरुु देवदासजी को बआ


ु जी साहिबा
की सेवा में नियक्त
ु किया था । यह बनारस में बआ
ु जी साहिबा के
मकान पर रहने लगे और उनकी सेवा दत्त चित्त होकर करने लगे ।
बिमारी की वजह से बआ ु जी साहिबा का मिज़ाज़ ज़रा चिड़चिड़ा हो
गया था । वह इनको डाट डपट बहुत करती थीं । यह तंग आ गये और
एक दिन गसु ्से में आकर कुछ जवाब देना चाहते थे कि इतने में क्या
देखते हैं कि बआ ु जी साहिबा और इनके बीच में बाबजू ी महाराज
खड़ें हैं । हाथ जोड़ कर सिर नवाया और कहा, “धन्य हो महाराज ।”
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-38, पृष्ठ-199)

100) श्री गरुु देवशरन ने यह भी लिख कर भेजा—


बाबजू ी महाराज ने हमें नास्तिक होने से बचाया । बी.ए.
में पहुचँ ने पर हमारा सम्पर्क कुछ ऐसे लोगों से हुआ जो कम्युनिस्ट
विचार के थे और अवैध साहित्य पढ़ते व पढ़ाते थे । इनके सम्पर्क
में हमने क़ाफ़ी कम्युनिस्ट साहित्य का अध्ययन किया जिससे हमारे
विचार कुछ नास्तिक से हो गये । पिताजी ने बाबजू ी महाराज को
ख़बर दी । सन् 1929 में हम लोग क़रीब 20 छात्र सरकारी ख़र्च पर
मोहन-जो-दड़ो, हड़प्पा इत्यादि देखने के लिये गये । नास्तिकवाद
की ओर झक ु ाव होने पर भी हर साल किसी न किसी मौक़े पर
इलाहाबाद ज़रूर पहुचँ ते थे और दर्शन सतसंग कर लेते थे । इस
बार जब इलाहाबाद महाराज का दर्शन किया तो पछू ा कि कब तक
ठहरोगे? हमने कहा कि अभी तो पेशावर तक जाना है और अजन्ता
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ऐलोरा होकर दिवाली तक लौटेंगे । महाराज ने भेंट लेकर कहा,
अच्छा लौटते समय मिल लेना ।
अपने ट्रिप से लौटते समय कुछ अजीब सी हालत हुई ।
प्रोग्राम में सीधे पटना जाना था । हमने इलाहाबाद में गाड़ी छोड़ दी ।
बारह बजने के बाद सतसंग में पहुचँ े । बाबजू ी महाराज ऊपर जा चक ुे
थे । फिर ऊपर ही से खड़े होकर पछ ू ा “गरुु मौज सरन, कौन आया है?”
जी! गया वाले जगदीश सहाय का लड़का । “ऊपर भेज दो ।” हम
ऊपर गए । महाराज ने बड़े प्यार से पढ़ने लिखने के बारे में पछू ा । जब
मैंने कहा कि Economics (अर्थ शास्त्र) में Honours (विशिष्टता)
प्राप्त की है तो फिर Economics (अर्थ शास्त्र) पर महाराज बोलने
लगे । बात वहाँ से Socialism (समाजवाद) पर आई तो पछ ू ा कि
हमें बताओ Socialist Order (समाजवादी व्यवस्था) किसे कहते
हैं? मैंने कहा, जिसमें Everybody should get according to
his necesssity and ability (समाजवादी व्यवस्था वह है जिसमें
प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ज़रूरत और लियाक़त के हिसाब से वस्तु
प्राप्त हो) । इस पर महाराज ने जो बचन कहा उसको परू ा क्या लिख!ंू
सारांश यह कि नास्तिकता का भतू या ख़्ब्त ख़तम हो गया और
महाराज ने जो Social Order (समाजवादी व्यवस्था) का ज़िक्र
किया, उसका जो असर हमारे दिमाग़ पर पड़ा वह आज तक मौजदू
है । जब भी कभी कम्यूनिस्टों से चर्चा हुई है, महाराज के कथन के
ऊपर ही हमने उन्हें निरुत्तर किया है ।
महाराज ने उस दिन अपार दया की । अपने यहाँ से ही खाना
भिजवाया और बाबू गरुु मौज सरन के कमरे में ही हमने खाना खाया।
शाम को बाबजू ी महाराज ने पछू ा । जवाब दिया सब लोग चले गये
हैं । हमें तो अब टिकट कटा कर गया जाना होगा । दो तीन दिन तक
रहे । चलते वक़्त बाबजू ी महाराज ने पिताजी के लिये प्रशाद दिया ।
दिवाली के दिन टीका हार और रुपया के अलावा 50 रुपया पान
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भेजने के लिये भी दिया । बाबू गरुु मौज सरन ने पछू ा कि अभी भी
atheist (नास्तिक) हो? हमने कहा कि जिस पर कुल्ल मालिक की
दया है, जिसने सतसंग में ही जन्म लिया, जिसका पालन पोषण आप
लोग कर रहे हैं, अगर वह atheist (नास्तिक) हो तो आप फिर क्या
रहेंगे? हम ढकोसलेबाजी के विरोधी हैं और इस मानी में दनिु यादारों
के ख़दु ा से ज़रूर विरोध है, परन्तु अपने मालिक से नहीं । बाबू
गरुु मौज सरन ने हँसकर पीठ ठोक दिया । आने के समय हमनें भेंट
की तो महाराज ने कहा, “देखो सब कुछ हो, मगर राधास्वामी नाम
कभी न छोड़ना । अगर कम्यूनिस्ट भी हो जाओ, फिर भी राधास्वामी
नाम में पर्णू विश्वास और निष्ठा रक्खो । यह नाम हर समय, हर काम
में मदद करे गा ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-60/3)

101) बाबू सोहनलाल सक्सेना सन् 1920 ई. में बनारस में इटं र में
पढ़ते थे । आर्य समाजी थे । अनेक समाजों मसलन ब्रह्मू समाज, धर्म
समाज इत्यादि में भटक आए और कई गरुु धारण किये । मगर सबको
छोड़ दिया । कहीं संतोष प्राप्त नहीं हुआ । एक रोज़ का ज़िक्र है कि
अपने घर की बैठक में बैठे थे और पाँच-सात लड़के (सहपाठी) बैठे
थे । शाम का वक़्त था । गपशप कर रहे थे । इतने ही में एक रोबदार
और शानदार लड़का अदं र आया । ललाट चौड़ा था । चेहरे पर तेज
था । सब लड़के रोब में आ गए । खड़े होकर ताज़ीम दी और बैठने
को कुर्सी खाली की । उस लड़के ने कहा, अपना हाथ दिखाओ ।
सब लड़कों ने अपने अपने हाथ दिखाये । सोहनलाल से भी अपना
हाथ दिखाने को कहा । यह आर्य समाजी थे । कहा कि मैं इन बातों
में विश्वास नहीं करता, मैं अपना हाथ नहीं दिखाता । इस पर उस
तेजवान लड़के ने कहा, “वाह! सबने दिखाया, तमु नहीं दिखाते!
इसमें क्या है? दिखाओ अपना हाथ । “अन्य सब लड़कों ने भी आग्रह
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किया । चनु ांचे हाथ दिखाया । उस तेजवान् लड़के ने कहा, “अरे !
तमु ्हारी आयु तो के वल 29 वर्ष की है ।” यह कह कर वह चला गया
और अन्य लड़के भी चले गये ।
रात भर नींद नहीं आई । बीस वर्ष तो उम्र के ख़तम हो गये ।
अब के वल नौ वर्ष शेष हैं । जो चीज़ मिलनी चाहिए, वह नहीं मिली । कहाँ
जाऊँ? किसके पास जाऊँ? वह चीज़ कै से मिले? सबु ह पाँच बजे के
क़रीब ख़्याल आया कि राधास्वामी सतसंग में परलोक प्राप्ति का
अभ्यास कहा जाता है । वहाँ भी हो आऊँ । अगर कोई अभ्यासी नहीं
मिला तो उनकी धर्म पसु ्तकों में अभ्यास की विधि तो होगी । उसे भी
करके देख लँू ।
अपनी माँ से दो रुपये लेकर बनारस से रवाना हो गये । रात
बारह बजे इलाहाबाद छोटी लाइन के स्टेशन (रामबाग़ स्टेशन)
पर गाड़ी पहुचँ ी । प्लेटफार्म पर उतर कर यह उलझन पैदा हुई कि
राधास्वामी सतसंग का पता तो मालमू नहीं है, कहाँ जाऊँ? प्लेटफार्म
पर बैंच पड़ी थी । उसी पर लेट गये । सो गये । सबु ह साढ़े चार बजे
आँख खली ु । एक इक्का खड़ा था । पछू ने पर उसने कहा कि हाँ मैं
राधास्वामी सतसंग जानता हू,ँ दो आने भाड़ा होगा । सोहनलाल ने
कहा, ठीक है, मैं ज़रा निबट लंू और नहा लंू । इक्के वाले ने धोबी
गली पर उतार दिया और कहा कि सामने चले जाइये । लोगों ने
सोहनलाल को बाबू गरुु मौज सरन से मिलाया । इन्होंने कहा कि
बनारस से आया हू,ँ आज ही चला जाऊँगा । दीक्षा लेने आया हू,ँ
आज ही मिल जानी चाहिये ।
सात बजे महाराज पधारे । सोहनलाल सामने आए । महाराज
ने पछ ू ा, कौन है? मगर गरुु मौज सरन ने कुछ जवाब नहीं दिया ।
सोहनलाल बड़े असमजं स में पड़ गये । लाइन में खड़े हुए सतसंगियों
के बीच में से निकल कर फिर महाराज के सामने आए । महाराज ने
पछू ा कौन है? फिर गरुु मौज सरन ने जवाब नहीं दिया । तब सोहनलाल
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ने सब हाल अर्ज़ किया । महाराज ने फ़रमाया, “अरे ! चार रोज में तो
हम बनारस जाने वाले हैं । वहीं उपदेश ले लेते । यहाँ क्यों आए?”
सोहनलाल ने जवाब दिया, “मझु े क्या मालमू था कि आप आने वाले
हैं! उपदेश में हफ़्ते आठ रोज़ की भी देर क्यों हो? मझु े तो आज ही
उपदेश दे दीजिये । शाम की गाड़ी से वापस बनारस चला जाऊँगा ।
“महाराज ने उपदेश के लिए ग्यारह बजे का वक़्त मक़ ु र्र र किया ।
महाराज ने सोहनलाल को समि ु रन ध्यान का उपदेश दिया ।
ध्यान के निस्बत यह फ़रमाया, “ध्यान कुल मालिक के स्वरूप का
करना चाहिए मगर वह दिखाई नहीं देता । लेकिन स्वामीजी महाराज,
हुज़रू महाराज और महाराज साहब ने उसे देखा था । इसलिये इन
साहबों में से किसी के स्वरूप का ध्यान करना चाहिये । “सोहनलाल
ने अर्ज़ किया “महाराज! यह लोग मतंु ही (पर्णू परुु ष) थे, मैं तो मबु ्तदी
(शरू ु करने वाला, नोसिखिया) हूँ । फिर मैंने इनको देखा नहीं । आप
इनका ध्यान करने को कहते हैं । “महाराज ने तेज़ी से फ़रमाया, “जो
हम कहते हैं, वह करना पड़ेगा । मदद तमु ्हारी, जो उनके प्यारे और
भक्त हैं, वह करें गे, लेकिन ध्यान इन स्वरूपों में जो सबसे ज़्यादा
प्यारा लगे, उसका करो ।” फिर महाराज ने फ़रमाया, “गरुु मौज सरन!
इसे भजन का उपदेश भी दे दिया जाय ।” और महाराज ने भजन का
उपदेश भी दे दिया । उपदेश के लिए फूल माला व शीरीनी लाते हैं,
यह सोहनलाल को मालमू न था । कुछ नहीं लाए थे । उपदेश के बाद
भेंट करने को कुछ था भी नहीं । बाबू गरुु मौज सरन से मँगवा कर
महाराज ने प्रशाद दिया और कहा कि भडं ार घर में खाना खा लेना ।
सोहनलाल ने जवाब दिया कि खाना तो मैं साथ लाया हू,ँ वही खा
लँगू ा और शाम को चला ही जाऊँगा । महाराज ने फ़रमाया, “नहीं!
अभी खाना भडं ार घर में खाओ । शाम को तमु ्हारे जाने के वक़्त तक
खाना तैयार नहीं होगा । अपने साथ जो खाना लाये हो उसे शाम को
जब भख ू लगे, खा लेना ।”
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संत सतगरुु का बचन सत्य साबित हुआ - बाबू सोहनलाल
की पहली स्त्री का देहांत हो जाने के बाद इनकी दसू री शादी के जितने
पैग़ाम आए, उन्हें यह टालते रहे मगर किसी से यह नहीं बतलाया
कि मेरी उम्र 29 वर्ष की है, इसलिये मैं शादी नहीं करता । लेकिन
एक चक्कर ऐसा आया कि उसमें यह फँ स गये । अगर्चे लड़की और
इनकी जन्म पत्री नहीं मिली यानी ज्योतिषी ने कहा कि लड़की के
भाग्य में विधवा होना लिखा है और बाबू सोहनलाल की पत्री में उम्र
है ही नहीं, पर फलदान आ गया और इनकी माँ ने बाबजू ी महाराज से
अर्ज़ किया कि क्या करें । महाराज ने फ़रमाया कि ख़ैर, फलदान आ
गया है तो मज़ं रू कर लो, पत्री नहीं मिलती तो कोई बात नहीं, कुछ
हर्ज़ नहीं होगा । महाराज के यह फ़रमाने पर कि कुछ हर्ज़ नहीं होगा,
सोहनलाल शादी को तैयार हो गये । सोचा कि हिदं सु ्तान में लाखों
बेवाएं हैं, एक और सही । इस समय इन ही उम्र 67 वर्ष है । पति पत्नी
दोनों ज़िन्दा हैं (इस क़िस्से को लिखते लिखते) । महाराज ने फ़रमाया
कि कुछ हर्ज़ नहीं होगा, सो वाक़ई कुछ हर्ज़ नहीं हुआ ।
उस तेजवान लड़के ने बाबू सोहनलाल की उम्र 29 वर्ष
बतलाई थी और ज्योतिषी ने भी ऐसा ही कहा था । पर दसू री शादी
के सिलसिले में बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया था कि कुछ हर्ज़ नहीं
होगा । 29 वर्ष की उम्र में यह घटना घटी कि एक रात सोहनलाल
पेशाब करने को मोरी पर गये । वहाँ एक काला साँप था । उसके फन
पर इनका पाँव पड़ा । जब तक पेशाब करते रहे, साँप का फन इनके
पाँव के नीचे दबा रहा । इन्होंने महससू किया कि पाँव के नीचे कुछ
गदु गदु ी सी चीज़ है । पेशाब करके ज्योंही यह हटे कि साँप तड़फड़ा
कर ऊँचा उठा और पछाड़ खाकर दसू री ओर बड़ी तेज़ी से गिरा ।
सोहनलाल भी दौड़ कर अपनी खाट पर आ गए। लालटेन की बत्ती
तेज़ करके देखा । आधा साँप मोरी के अन्दर चला गया था, आधा
बाहर था । दो तीन रोज़ बाद घर में बदबू आने लगी । सब लोग कहने
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लगे, कहाँ से बदबू आती है । इन्होंने मेहतर से नाली खलव ु ाई तो
मरा हुआ काला साँप निकला । 29 वर्ष पर जो घात आई, वह इस
प्रकार टली । बाबजू ी महाराज का फ़रमाना सत्य सिद्ध हुआ कि कुछ
हर्ज़ नहीं होगा । बाबू सोहनलाल ने कहा कि हमारे औरत है, लड़के
लड़कियाँ हैं, पोते पोतियाँ हैं, नाती नतनियाँ हैं, सब कुछ है । मगर
हमारे लिए होना, न होना, बराबर है । आप तो जानते हैं । पर महाराज
की दया बहुत है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1878 से 84)

102) दयालबाग़ के मक़ ु दमें की कार्रवाई ख़तम होने पर वकील


परसराम वाराणसी से हैदराबाद (सिंध) लौट रहे थे । रात के साढ़े
ग्यारह बजे थे । उनके पास सेकंड क्लास (आजकल के फ़स्र्ट क्लास)
का टिकट था । एक जगह गाड़ी बदलनी थी । सेकंड क्लास में एक
योरोपियन मिलिटरी आफ़ीसर बैठा हुआ था । उसने परसराम को
डिब्बे में अदं र नहीं आने दिया । स्टेशन मास्टर वग़ैरा ने मिलिटरी
आफ़ीसर को बहुत समझाया, पर वह नशे में चरू था, नहीं माना ।
आख़िर स्टेशन मास्टर ने परसराम वकील को फ़स्र्ट क्लास के डिब्बे
में बैठा दिया । रात दो बजे वकील परसराम की आँख खली ु तो देखा
कि गाड़ी जंगल में खड़ी थी, उनकी गाड़ी एक अन्य गाड़ी से टकरा
गई, इनकी गाड़ी का इजं न और साथ के चार डिब्बे पटरी से उतर
गए थे । मिलिटरी आफ़ीसर वाला डिब्बा भी टूट गया था और वह
मिलिटरी आफ़ीसर मर गया था और अन्य बहुत से लोग घायल हुए
थे । वकील परसराम ने मालिक का शक्रि ु या अदा किया कि उसने
मझु े साथ न बैठने दिया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-95)

103) एक दफ़ा किसी के यहाँ से कुछ मिठाई आई । उस वक़्त


महाराज हवाख़ोरी को गये हुए थे । जब लौट कर आये तो महर्षिजी
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ने वह मिठाई पेश की और सब हाल अर्ज़ किया । महाराज ने कुछ
बे-रुख़ाई से ना-पसंदीदगी का इज़हार किया । इन्होंने पछ ू ा, “तो फिर
ऊपर भेज द?ँू ” महाराज ने फ़रमाया, नहीं । इस पर इन्होंने फिर पछू ा,
तो क्या करूँ ? महाराज ने फ़माया, तमु खाओ । तब तो इन्होंने बिगड़
कर महाराज से कहा, “वाह! आप जिस चीज़ को नहीं खाते उसे मझु े
खाने को कहते हैं ।” इस पर महाराज ने हँस कर फ़रमाया कि, “हम
हुकुम देंगे तो गू खाना पड़ेगा ।” फिर तो महर्षिजी बड़े मगन और ख़श ु
हुए ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-38, पृष्ठ-201)

104) महाराज साहब के अन्तर्ध्यान होने के बाद कुछ लोग बाबू


तेजसिहं जी को बाबजू ी महाराज का गरुु मख ु ख़्याल करते थे । एक
रोज़ सतसगं के बाद बाबजू ी महाराज बआ ु जी साहिबा से प्रशाद
बँटवा रहे थे यानी बाबजू ी महाराज बआ ु जी साहिबा के हाथ में मठरी
रखते और बआ ु जी साहिबा, सतसगं ी जो हाथ फै लाते, उनके हाथ
में दे देती थीं । एक एक मठरी बँट रही थी । जब बाबू तेजसिहं जी
का नम्बर प्रशाद लेने का आया तब बाबजू ी महाराज ने बआ ु जी
साहिबा के हाथ में दो मठरी रक्खीं और कहा कि बआ ु जी! तेजसिहं
को दो मठरी दीजियेगा, इनके दोनों हाथों में एक एक मठरी दीजियेगा ।
बाहर आकर ताऊजी साहब व गरुु मौज सरन व अन्य लोगों ने कहा,
“कहो यार! अब तो बात पक्की हो गई कि तमु ्हीं गरुु मख ु हो । प्रशाद
देओ । “इस पर बाबू तेजसिहं ने अपनी दो मठरियों में से एक, इसरार
करने पर, दे दी या इन लोगों ने उनसे एक मठरी छीन ली । दसू रे
दिन बाबजू ी महाराज ने ताऊजी साहब वग़ैरा सबकी चटु की ली ।
फ़रमाया, “तेजसिहं ! तमु ने अपने प्रशाद में से किसी को दिया तो
नहीं है? अगर दे दिया तो तमु गरुु मख
ु नहीं हो सकते क्योंकि गरुु मख

अपना प्रशाद किसी को नहीं देता ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-401)
73
105) सम्भवतः सन् 1933 ईसवी हुज़रू महाराज के भडं ारे की बात
है । एक पंजाबी एक छोटे से डंडे पर लिखा हुआ एक पोस्टर लटकाए
हुए आया और प्रेम बिलास के आगं न में इधर उधर फिरने लगा ।
एक तमाशा सा हो गया । जगह जगह सतसंगी उसे घेर कर पोस्टर
पढ़ते थे । पोस्टर पर हिदं ी और उर्दू में दस दस सवाल लिखे थे और
अतं में लिखा था कि जो इनका सही जवाब दे सके , वही सतं सतगरुु
है । जब महाराज के तशरीफ़ लाने का समय हुआ तो सतसंगी सिमट
कर आमने सामने दो पंक्तियों में हो गये । वह पंजाबी भी एक जगह
अपना पोस्टर लटकाये खड़ा हो गया । महाराज ने एक बार उस
पंजाबी को देखा, मगर कुछ फ़रमाया नहीं, आगे बढ़ गये । तब वह
पंजाबी भी आगे बढ़ कर सीढ़ियों के पास जा खड़ा हुआ । सीढ़ियाँ
के पास महाराज जतू े उतारने के लिये रुके और उस पंजाबी की ओर
देख कर फ़रमाया, “यह तो भडं ारे का मौक़ा है । बाहर से बहुत से
सतसंगी आये हुए हैं । यहाँ तो मझु े बातचीत करने की फ़ुर्सत होगी
नहीं । अगर आप इलाहाबाद आयें तो इन सवालों के मतु ाल्लिक़ जो
कुछ मैं जानता हू,ँ बताने की कोशिश करूँ गा । “फिर ज़रा रुक कर
फ़रमाया, “मगर आप क्योंकर जानेंगे कि जो कुछ मैं कह रहा हू,ँ वह
सही है?” पंजाबी ने कहा, “मैं जान लँगू ा ।” महाराज ने फ़रमाया, “तो
आप इन सवालों के जवाब जानते हैं?” पंजाबी ने कहा, “जी हाँ ।”
तब तक महाराज एक सीढ़ी चढ़ चक ु े थे । वहीं से मड़ु कर पंजाबी की
ओर देखा और फ़रमाया, “तब आप क्यों परे शान हैं? अपनी शर्त के
मतु ाबिक़ आप अपने आप को ही संत सतगरुु मान लीजिए । “यह
कहते हुए महाराज समाध के हॉल में दाख़िल हो गये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1875/औ)

106) एक बार बाबजू ी महाराज, ताऊजी साहब, गरुु मौज सरन


और मेहता जी साहब या अन्य कोई एक और व्यक्ति व तेजसिंह,
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रे लगाड़ी में सेकंड क्लास में (जो आजकल का फ़स्र्ट क्लास है) सफ़र
कर रहे थे । तीन सीटें थीं । एक पर बाबजू ी महाराज लेटे हुए थे ।
कपड़े उतार दिये थे । क़मीज़ व जाँघिया पहने, घटु ने पर पाँव रखे,
लेटे हुए थे और हुक़्क़ा पी रहे थे । दसू री सीट पर ताऊजी साहब,
गरुु मौज सरन और अन्य कोई, यह तीन आदमी बैठे हुए थे । तीसरी
सीट पर अके ले बाबू तेजसिंह बैठे थे । बिना किसी प्रसंग के , बाबजू ी
महाराज ने अपनी मौज में फ़रमाया, “तेजसिंह! First row will
always be occupied by donkeys. (पहली पक्ति ं में हमेशा गधे
रहेंग)े ।” ताऊजी साहब का महँु निकल आया । महाराज जब दिशा
को पाख़ाने के अदं र चले गये, सबने तेजसिंह जी से कहा, “क्यों यार!
हमें तो गधा बना दिया! हम तो गधे हो गये ।”
कुछ सतसंगी ऐसे होते हैं जो हमेशा पहली पंक्ति या लाइन में
बैठने की कोशिश करें गे । पीछे बैठने में वे अपनी मान हानि समझते
हैं । चाहे बचन का एक लफ़्ज़ समझ में न आवे, या नींद लें या ऊंघें,
मगर बैठेंगे हमेशा सबसे आगे । उनसे ज़रा पीछे हटने को कहा जावे
तो नाराज़ हो जाते हैं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-402/403)

107) एक सिधं ी सतसगं ी दयाराम रें जर थे । सफ़े द दाढ़ी थी ।


मसख़रे थे । बाबजू ी महाराज गर्मी के मौसम में पख ं े और सरु ाहियाँ
बाँटा करते थे । एक दफ़ा श्री दयाराम रें जर को जो सरु ाही मिली, वह
फूटी निकली । दोनों तरफ़ सतसगि ं यों की लाइन लगी थी । महाराज
सब पर दृष्टि डालते हुए जा रहे थे । श्री दयाराम रें जर ने सरु ाही को हाथ
में लिये हुए ऊपर उठा कर दिखाया । महाराज ने पछू ा, क्या है? बाबू
गरुु मौज सरन ने अर्ज़ किया कि इसकी सरु ाही फूटी निकली, दसू री
माँगता है । महाराज ने हँसते हुए फ़रमाया “करम फूटा” और दसू री
सरु ाही दे दी ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1762)
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108) स्वामीजी महाराज के भडं ारे की बात है । सम्भवतः सन्
1933 ईसवी था । भडं ारे से पर्वू भजन घर में ग्रास बाँटने का आयोजन
था । भजन घर में वैसे ही स्थान की कमी है । फिर भडं ारे का अवसर ।
बाहर से बहुत संख्या में सतसंगी आए हुए थे । भजन घर के कमरे में,
बरामदे और बाहर की सड़क, सब पर सतसंगी एकत्रित थे । भोग का
थाल स्वामीजी महाराज की पलंगड़ी पर रक्खा था । महाराज ने भाई
साहब से भोग लगाने को कहा । उन्होंने कहा कि आप ही लगाइये।
महाराज भोग लगाने खड़े हुए । महाराज के साथ भाई साहब और
सब सतसंगी खड़े हो गये । महाराज मसु ्कराये और फ़रमाया, “तभी
तो मैं कहता था । मैं खड़ा होऊँगा तो सब खड़े हो जावेंगे ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1875/ओ)

109) कराँची में क़्लिफ़टन पर एक कोठी में महाराज साहब ठहरे थे


जिसके दरवाज़े पर एक जानिब निर्मलबाबू (बाबू निर्मलचद्रं बनर्जी)
और दसू री जानिब कूपर साहब ठहरे थे । एक रोज़ महाराज साहब
ने पछू ा कि बाबजू ी साहब कहाँ ठहरे हैं? सिर्फ़ दो एक मर्तबा दिखाई
पड़ते हैं । उनको यहाँ हमारी कोठी में क्यों नहीं ठहराया? उस वक़्त
महाराज साहब के एक ओर निर्मल बाबू और दसू री ओर कूपर साहब
बैठे थे । बाबजू ी महाराज ने महाराज साहब के सवाल का जवाब हाथ
से दोनों तरफ़ इशारा करके कहा कि हमारा गज़ु ारा कहाँ हो सकता है
जबकि दोनों तरफ़ नाग और सिंह की चैकी लगी है । महाराज साहब
बड़े ज़ोर से हँसे । तमाम सतसंगी भी हँस पड़े । निर्मल बाबू और कूपर
साहब दोनों का महँु गसु ्से से लाल हो गया, मगर कुछ बोले नहीं ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-10, पृष्ठ-60/61)

110) एक दिन चाय का प्रसाद था । महाराज ने बचन ख़त्म करते


हुए फ़रमाया, “जाओ, अब चाय पीओ और ऐसी चाय पीयो कि
अचाह हो जाओ ।”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-23, पृष्ठ-117)
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111) राधाजी साहिबा बाबजू ी महाराज को बहुत प्यार करती थीं ।
एक दफ़ा जबकि बाबजू ी महाराज की तबीयत बहुत ना-साज़ हो गई
थी और राधाजी साहिबा उनको देखने गई ं थीं, उस वक़्त बाबजू ी
महाराज कुछ नहीं लेते थे, मगर जब राधाजी साहिबा अपने हाथ से
दधू पिलातीं या कोई चीज़ देतीं तो महाराज ले लेते थे । उसी परु ाने
प्रेम का प्रदर्शन महाराज ने अपनी देह के दाह संस्कार के रूप में भी
किया जान पड़ता है । (बाबजू ी महाराज के अन्तर्ध्यान होने के बाद
महाराज के शरीर का दाह संस्कार राधाबाग़ में हुआ था । राधाजी
महाराज की रज के कुछ अश ं राधाबाग़ में रक्खे हैं । बाकी कुल
रज स्वामीजी महाराज की महा पवित्र समाध स्वामीबाग़ आगरा में
स्वामीजी महाराज की रज के साथ रक्खी है ।)
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -2, अध्याय-1, पृष्ठ-454)

112) सन् 1920 ईसवी में अपनी सिंध यात्रा के दौरान अजमेर
शहर में दौलतबाग़ और ख़्वाजा साहब की दरगाह देखने को महाराज
तशरीफ़ ले गए । दरगाह में महाराज ने कुछ रक़म चढ़ाई । मजु ावर
(किसी दरगाह आदि के ख़िदमती) लोग दआ ु देने लगे । महाराज ने
फ़ौरन दआ ु देने से रोका और फ़रमाया कि हमको दआ ु नहीं चाहिये ।
और फ़रमाया कि हमको ख़्वाजा साहब की जो ताज़ीम है, शायद यहाँ
किसी को नहीं होगी । मैं उनकी दरगाह में ज़ियारत (दर्शन, दीदार,
तीर्थाटन) करने आया हूँ और ज़ाहिरी (बाहरी) व बातनी (अतं री)
दोनों ज़ियारत की क़दर करता हूँ । और भी कुछ देर तक मजु ावर से
बातचीत हुई । मजु ावर भी समझ गया कि कोई फ़क़ीर सिफ़तरसीदा
हैं ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-404)

113) एक शाम को महाराज के पैर का नाप लेने और जतू ा बनाने


को एक शख़्स आया । महाराज ने समझा कि यह मसु लमान है ।
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फ़रमाया आज तो ईद का चांद है । लेकिन ऐसी ईद मनानी चाहिये
जो हमेशा ईद रहे । मालमू हुआ कि वह शख़्स हिन्दू है। फिर फ़रमाया
कि हिन्दु और मसु लमान से क्या है, मालिक के यहाँ सब बराबर हैं ।
तीसरे तिल पर चाँद है कि जिसको हज़रत मोहम्मद ने शक़्क़ु र क़मर
किया । इसी चाँद का दर्शन करने से रोज़े ईद हो सकती है, वरना ईद
हराम है ।
‘मनम बईद ज़े यारम् , मरा ब ईद चे कार”
(मैं अपने मालिक से दरू हू,ँ मझु े ईद से क्या मतलब?)
उस कारीगर ने मत्था टेका और बड़े प्यार और श्रद्वा से सब
बातें सनु ी और वापस गया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-407)

114) बाबजू ी महाराज ने फे ल्प्स साहब से फ़रमाया कि


सार बचन बार्तिक दसू रा भाग के 81वें बचन में जो लिखा
है कि “कोई सतसंगी से पछ ू े कि तमु को कै से निश्चय आया,
तो जवाब यह है कि पिछले संजोग से”, वही आपका जवाब
बआ ु जी साहिबा को होना चाहिये।
इस पर फे ल्प्स साहब ने अर्ज़ किया कि मैं यह नहीं कह
सकता । आपकी ज़िम्मेदारी है । (I cannot give that assurance.
You take the responsibility.)
बाबजू ी महाराज ने मसु ्करा कर कहा, “But Mr. Phelps,
I am doing the interpreting. I must charge you fees.
You know what my fees are. I want no money. Don’t
be charry about it. My fees are participation in the
grace that is being bestowed upon you. I want a share”.
(लेकिन मिस्टर फे ल्प्स, मैं तमु ्हें समझाने का काम कर रहा हूँ । मैं
तमु से फ़ीस लेने का मसु ्तहक़ हूँ । लेकिन मैं रुपया पैसा नहीं चाहता ।
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फ़ीस देने में कंजसू ी मत करना । मेरी फ़ीस यह है कि तमु पर जो दया
की वर्षा हो रही है उसमें मझु े भी साझीदार बनाओ । तमु ्हें जो दात
मिल रही है, उसमें मझु भी हिस्सा मिले।)
बाबू गरुु मौज सरन ने अर्ज़ किया कि हम लोगों को भी एक
क़िनका मिलना चाहिये । इस पर बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया—

“शब्द रस पीओ और दो बाँट”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1549)

115) राधाबाग़ में स्वामीजी महाराज के समय में के वल ऊँचा टीला


था । वहाँ आकर स्वामीजी महाराज बैठते थे व भजन भी करते थे ।
उनके अन्तर्ध्यान होने के बाद इस टीले पर चबतू रा व कोठरी बनाई
गई थी जिस सेवा में अन्य सतसंगियों के अतिरिक्त महाराज साहब व
बाबजू ी महाराज ने भी भाग लिया था यानी मिट्टी की टोकरियाँ वग़ैरा
उठाई थीं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1792)

116) स्वामीजी महाराज के समय का एक साधू चेतनदास बीमार


पड़ा था । 70 वर्ष की उम्र थी । उसने महाराज के दर्शनों की ख़्वाहिश
ज़ाहिर की । महाराज उसकी कोठरी में पधारे । साधू चेतनदास की
खाट के पास एक स्टूल पर बैठ गए । चेतनदास को आँख से दिखाई
नहीं देता था । उससे कहा गया कि महाराज पधारे हैं । उसने अपना
सिर उठाया और महाराज को राधास्वामी अर्ज़ किया ।
महाराजः कै सी तबियत है?
चेतनदासः बहुत कमज़ोरी है । उठ बैठ नहीं सकता ।
महाराजः अब तो मालमू होता है,
तमु ्हारे चलने का वक़्त आ गया है ।
चेतनदासः जी हाँ । अब तो मेरी यही प्रार्थना है कि
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राधास्वामी दयाल यह चोला छुड़ा दें तो अच्छा
हो ।
महाराजः हाँ । यह चाह अच्छी है । लेकिन जब तक परू ी
सफ़ाई नहीं होगी, चोला नहीं छूट सकता । जब वक्त
आवेगा, तब देर नहीं लगेगी । अब जहाँ
तक हो सके , इस चोले के बंधन से अपने को
अलेहदा करने की कोशिश करो और चरनों में अपने
चित्त को इस क़दर जमाओ
कि इस चोले की सधु न रहे । फ़रमाया हैः—
चरन न भल ू े देह भलु ानी
वाह मेरे प्यारे राधास्वामी ।
चेतनदासः आप ठीक फ़रमाते हैं । बकु ्कीजी की तबियत इस
क़दर ख़राब हो गई थी कि बहुत प्रार्थना
स्वामीजी महाराज से की कि चोला छुड़ा
दीजिए, मझु े अब बर्दाश्त नहीं होती । लेकिन उनका
चोला नहीं छूटा बल्कि स्वामीजी
महाराज के बाद भी कुछ वक्त ज़िन्दा रहीं ।
इसके बाद थोड़ी देर साधू चेतनदास की तीमारदारी और
खाने पीने वग़ैरा की बाबत बातचीत करके बाबजू ी महाराज ने साधू
की खाट पर मत्था टेका और राधास्वामी कहा और फ़रमाया कि तमु
मत्था टेकने के लायक़ हो । तमु स्वामीजी महाराज के वक्त के हो ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-413/414)

117) कक्को बाबू ने कहा कि मसरू ी में हमारी दक ु ान पर बाबजू ी


महाराज पधारे थे । वहाँ खाना खाया था । कमरे में दीवारों पर संत
सतगरुु ओ ं की तस्वीरें क्रम से टँगी हुई न देखकर महाराज ने जरा
नाराज़गी ज़ाहिर की । फ़रमाया कि तस्वीरें अदब और क्रम के

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अनसु ार न टाँगना बे-अदबी है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-68)

118) हुज़र महाराज ने फ़रमाया कि तमु दोनों (महाराज साहब और


बाबजू ी महाराज) को ऐसे दफ़्तर में जाना चाहिये जहाँ तबादला न
होता हो और एक ही जगह रह सको । थोड़े दिनों बाद क्वीन्स कालेज
के प्रिन्सिपल डाक्टर टीबो ने महाराज साहब और बाबजू ी महाराज
दोनों को बल ु ाकर कहा कि अकाउन्टेन्ट जनरल इलाहाबाद अपने
दफ़्तर में अग्ं रेज़ी के अच्छे विद्वान चाहते हैं । मैं आप लोगों के नाम
लिखकर भेजता हूँ और सिफ़ारिश करता हूँ ।
उस ज़माने में अकाउन्टेन्ट जनरल के दफ़्तर में बाबू लोग बहुत
कम तनख़्वाह पर लिये जाते थे । अकाउन्टेन्ट जनरल ट्रप साहब ने
महाराज साहब और बाबजू ी महाराज की शक़्ल सरू त, बातचीत और
लियाक़त पर मगु ्ध होकर कहा कि एक जगह 90 रुपये की ख़ाली है,
आप दोनों में से एक को रख सकता हूँ । जवाब दिया कि हम साथ
साथ रहेंगे । इस पर ट्रप साहब ने कहा कि दसू री जगह 60 रुपये की है ।
आपस में तय करके एक ही दिन 26 अप्रेल सन् 1886 ईसवी को
महाराज साहब 90 रुपये और बाबजू ी महाराज 60 रुपये की जगह
पर नियक्तु हुए ।
इस अवसर पर राधाजी साहब ने फ़रमाया था, “राजा! इसे
मज़ं रू कर लो । साठ के छः सौ हो जाएँगे ।” ऐसा ही हुआ । महाराज
छः सौ ही पर रिटायर हुए ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-5, पृष्ठ-36/37)

119) महाराज साहब सन् 1906 ई. में छुट्टी लेकर सतसगं


इलाहाबाद से बनारस ले गए । बाबजू ी महाराज ने भी साथ साथ ही
छुट्टी ले ली । इस वजह से चीफ़ सपु रिन्टेन्डेन्ट के पद पर एक दसू रे
व्यक्ति को बाहर से बल
ु ाकर नियक्त
ु किया गया । बाबजू ी महाराज को
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नमक रोटी खाना, ग़रीबी से रहना या ज़रूरत पड़ने पर कोई छोटा-
मोटा काम कर लेना मज़ं रू था, पर महाराज साहब से जदु ा होकर चीफ़
सपु रिन्टेन्डेन्ट के पर पर रहना कदापि गवारा नहीं था ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-6, पृष्ठ-40)

120) जो काम महाराज साहब ख़दु करना चाहते थे, वह बाबजू ी


महाराज के सपु र्दु कर देते थे । बाबजू ी महाराज की नज़र हमेशा चरणों
में रहती । बहुत कम बोलते थे । किसी काम में दख़ल नहीं देते थे । जो
कुछ कहते या बोलते, तो जो महाराज साहब की मर्ज़ी होती, उसी में
‘हाँ’ कहते ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-8, पृष्ठ-52)

121) बाबजू ी महाराज जो कपड़ा अपने वास्ते लाते, महाराज


साहब के वास्ते भी लाते । जब तक महाराज साहब गरुु मख ु अवस्था
में थे, बाबजू ी महाराज ने मित्र भाव में सेवा की और बाद को गरुु होने
पर गरुु ही करके माना । उनकी हर तरह की सेवा- जैसे पानी भरना,
पेड़ से काटकर दाँतन लाना, वग़ैरा वग़ैरा महाराज ने बराबर की ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-8, पृष्ठ-52)

122) पंडित आनन्द शक ं र बआु जी साहिबा के सबसे बड़े लड़के


फतेहपरु में तहसीलदार थे । बआ ु जी साहिबा कुछ दिनों के लिए
उनके पास फतेहपरु तशरीफ़ ले गई ं थीं । फतेहपरु से जब लौटीं, तो
रास्ते में इलाहाबाद ठहरीं । बाबजू ी महाराज उनको स्टेशन पर लेने
गए । उनको गाड़ी के अदं र बैठाया और ख़दु ऊपर कोच बक्स पर
कोचवान के बराबर बैठे और स्टेशन से घर आए । नई खाट, नए
गद्दे-तक़िये, सब चीज़ें नई बनवाई ं। कई रोज़ सतसंग हुआ । फिर वह
बनारस तशरीफ़ ले गई ं।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-12, पृष्ठ-65)

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123) एक मर्तबा किसी ने हुज़रू महाराज के साहबज़ादे लालाजी
साहब के ख़िलाफ़ कोई मक़ ु द्दमा दायर कर दिया जिसमें बहुत कुछ
बे-आबरूई होने का डर था । बाबजू ी महाराज ने एक बड़ी रक़म देकर
ताऊजी साहब को आगरा भेजा और कह दिया कि चाहे जो ख़र्च हो,
हम लोगों के जिस्म की खाल बिक जाये, मगर लालाजी साहब पर
हरफ़ न आने पावे । चनु ांच,े ताऊजी साहब आये और राधास्वामी
दयाल की दया से मामला रफ़ा दफ़ा हो गया । रक्षा हो गई ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-76)

124) किसी ने महाराज से बयान किया था कि दयालबाग़ के


प्रधान बाबू आनन्द स्वरूप उर्फ़ साहबजी ने यों कहा है कि अगर मैं
विलायत की अपील हार गया तो सड़क पर से गज़ु रते हुए स्वामीबाग़
की तरफ़ महँु न करूँ गा । बाबजू ी महाराज ने इस पर फ़रमाया था
कि अगर हम हार गए तो आगरा में दीवानी अदालत तक जाकर
स्वामीबाग़ की तरफ़ महँु करके खड़े हो सिर झक ु ा कर चले आयेंगे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-271)

125) जो मक़ ु द्दमा सन् 1923 ईसवी से स्वामीबाग़ और दयालबाग़


के बीच चल रहा था, उसमें प्रीवी कौंन्सिल के लॉर्ड महाशयों,
न्यायाधीशों के मशवरे से सम्राट जार्ज पंचम द्वारा निर्णय दे दिया गया
था जिसके अनसु ार स्वामीबाग़ के हक़ में फै सला हुआ । जब महाराज
दफ़्तर के कमरे से बाहर निकले तो एक वद्ध ृ दाना बज़ु र्गु सतसंगी ने
दोनों हाथ उठाकर बड़े ज़ोर से कहा, “हुज़रू !” इससे अधिक कुछ न
कह सके । गदगद हो गए । महाराज ने फ़रमाया, “राधास्वामी दयाल
की दया का बहुत बहुत शक्र ु है कि हम लोग अपने घर में बैठकर
अमन और चैन से सतसंग कर सकते हैं । अगर मक़ ु द्दमें की अपील
का फ़ै सला हमारे ख़िलाफ़ होता तो डंडे मारकर लोग निकाल दिए
जाते ।”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-19, पृष्ठ-93/94)
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126) एक शख़्स ने तीसरी शादी की थी । तीनों औरतों से संतान
नहीं हुई । महाराज ने पछ ू ा, इस बीवी से बच्चे होने की उम्मीद है?
उम्मीद तो तमु ्हें होगी! इस सिलसिले में महाराज ने फ़रमाया कि
शादी करो तो मसु ीबत और न करो तो ज़्यादा मसु ीबत । शादी की
उम्र हो जाने पर शादी कर लेनी चाहिये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1690)

127) फ़तेहपरु के वक़ील बाबू दर्गा ु प्रसाद ने भेंट की । महाराज ने


पछू ा, भेंट क्यों कर रहे हो? वक़ील साहब ने जवाब दिया, अमक ु
रिश्तेदार के अमक ु रिश्तेदार के अमकु लड़के या लड़की की शादी
या गौना है, उसमें अमक ु जगह जा रहा हूँ । महाराज ने फ़रमाया, “इस
बेचारे के अपने ख़दु के कोई लड़का या लड़की नहीं है, मगर फिर भी
ब्याह शादियों में लटका रहता है । औरत के दबाव से करना पड़ता है ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1691)

128) एक बार महाराज और घरवाले डाक्टर वलीराम के मकान


पर खाना खाने गये । डाक्टर वलीराम सतसगं ी नहीं थे । लेकिन प्यार
और भाव ज़्यादा था । इसलिए उनकी दावत क़बल ू फ़रमाई । वापिस
आने पर पडं ित शामलाल ने अर्ज़ की कि डाक्टर वलीराम ने क्या
उपदेश ले लिया है? महाराज ने फ़रमाया, क्यों? शायद तमु को यह
एतराज़ है कि ग़ैर सतसगं ी के घर कै से खा आए । मगर तमु यह नहीं
जानते कि ग़ैर सतसगं ी के घर फ़ज़ीहत तो नहीं होती । सतसगं ी तो
हमारी फ़ज़ीहत कर डालते हैं । इसलिये किसी तरह जान छुड़ाना
पड़ता है । ‘जो पत्थर उठाए और न उठे तो उसको चमू ”े फ़रमाते हुए
अदं र चले गये ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-408)

129) माह अप्रेल सन् 1923 में एक रोज़ महाराज ने सोहराबजी

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को बल ु ा कर पछू ा कि कोई काम करते हो या ख़ाली बैठे रहते हो?
सोहराबजी ने अर्ज़ की कि कुछ काम करता हूँ । महाराज ने फ़रमाया
कि “कुछ काम” काफ़ी नहीं है । सतसंग में रह कर हरग़िज़ बेकार
नहीं रहना चाहिये । बेकार रहने से मन उत्पात उठावेगा । हमेशा
मन को किसी न किसी काम में इस क़दर लगाए रखना चाहिए कि
थक जावे और मन को बोझ मालमू होवे, वरना आलसी हो जावेगा
और परमार्थ का बहुत हर्ज़ होगा । जितना मन आलसी होगा उसका
चौगनु ा परमार्थ का नक़ु सान होगा । इसलिए सतसंग की किसी न
किसी सेवा में मन को लगाए रखना ज़रूरी और लाज़मी है ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-414)

130) तारीख़ 1 अक्टूबर सन् 1918 ईसवी के बचन में फ़रमाया कि


बड़ी बानी के “सतगरुु सरन गहो मेरे प्यारे , कर्म जगात चक ु ाय” और
प्रेम बानी के “आज तजो सरु त निज मन का मान”, इन दो शब्दों में
राधास्वामी मत का निचोड़ है । अगर इन दो शब्दों का समझ समझ
कर असली मतलब पर नज़र रख पाठ करे तो ऐसा मालमू होगा कि
अमतृ की धार में स्नान कर रहे हैं । वाक़ई अमतृ की धार में नहाना
जैसा अनभु व होगा । जिस घाट से अमतृ की धार की वर्षा होती है,
उस घाट से ये शब्द कहे गये हैं । बाबजू ी महाराज ने और भी फ़रमाया
कि रात के सतसंग में जब यह शब्द “आज तजो सरु त निज मन का
मान” पढ़ा गया और मैं ऊपर खाट पर लेटा हुआ सनु रहा था तो मझु े
मालमू हुआ कि अमतृ की धार आ रही है । बचन फ़रमाते हुए बाबजू ी
महाराज ने ताऊजी साहब की ओर मख़ ु ातिब होते हुए पछू ा कि “यहाँ
मान का क्या मतलब है?” और फिर इसके मतलब समझाए । (चकि ंू
इस शब्द के अर्थ पर एक बचन छप चक ु ा है, इसलिये इसके अर्थ
यहाँ दोहराये नहीं जाते हैं) ।
मान अगं की मिसाल देते हुए महाराज ने फ़रमाया कि बैरिस्टर
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के मश ंु ी को घमडं रहता है कि मैं बैरिस्टर से भी ज़्यादा क़ाननू जानता
हूँ । मन का यह अगं है कि वह अपने बराबर किसी दसू रे को नहीं
गरदानता । (अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1702)

131) उस ज़माने में श्री गणेशानन्द ने दो तीन लाख की जायदाद


पैदा कर ली थी । श्री गोकुलचन्द उनके पास रहते और वैद्यक सीखते
थे । सारी जायदाद उन्हें मिली । आख़िरी वक़्त में श्री गणेशानन्द
पागल हो गये थे । इधर उधर पागलों की तरह घमू ते थे । उस समय
श्री गोकुलचन्द ने उनकी सम्हाल, जैसी की चाहिये, नहीं की । बल्कि
उनको ला-वारिसों की तरह छोड़ दिया और उनकी बड़ी ख़राब हालत
हो गई । सन् 1936 ई. में हुज़रू महाराज के भडं ारे पर बाबजू ी महाराज
इलाहाबाद से आगरा पधारे थे । उस वक़्त श्री गणेशनन्द पागलों की
सी हालत में महाराज के पास आये और अर्ज़ किया कि मेरी सारी
जायदाद गोकुलचन्द ने हथिया ली । इस पर बाबजू ी महाराज ने यह
शब्द फ़रमाये “जो कुछ हुआ मौज से हुआ । धल ु कर साफ़ हो गए ।
“उसके थोड़े दिनों बाद श्री गणेशानन्द का चोला छूट गया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-79)

132) सवाल-5 तीसरे तिल के अलावा और भी कहीं


ध्यान करना चाहिये?
जवाबः अगर वहाँ मन ठहरने लगे और ऐसा मालमू
हो कि हम वहाँ पहुचँ गये तो अगले मक़ ु ाम
पर ध्यान लगा सकते हो ।
सवाल-6 अगर सहसदल कँ वल में ध्यान लगने लगे
तो त्रिकुटी में ध्यान करना चाहिये या नहीं?
जवाबः अगर वहाँ बा-होश पहुचँ जाओ,
वहाँ टिकने लगो, वहाँ के रूप की झलक
दिखलाई दे और शब्द सनु ाई दे तो त्रिकुटी
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में ध्यान कर सकते हो ।
सवाल-7 सहसदल कँ वल त्रिकुटी वग़ैरा में
ध्यान किया जाये तो तीसरे तिल पर ध्यान
करने की ज़रूरत है या नहीं?
जवाबः अगर वहाँ टिक जाओ तो कोई ज़रूरत नहीं ।
पर फिर भी एक दम वहाँ ध्यान मत जमाओ।
पहले तीसरे तिल पर, फिर सहसदल कँ वल
पर, तब त्रिकुटी पर ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1423)

133) इलाहाबाद में बाबू तेजसिहं जी का मकान सतसगं के अहाते


में ही था । एक बार वह इदं ौर से आये थे । महाराज जब दफ़्तर में
विराजमान थे, बाबू तेजसिहं को बलव ु ाया । उनके आने में देर हुई,
इसलिये महाराज ने फिर बल ु ावा भेजा । जब वह आये, महाराज ने
पछू ा कि इतनी देर कै से लगी? बाबू तजसिहं जी ने जवाब दिया कि
रास्ते में सज्जन सरन मिला था, वह बग़लगीर हुआ, उसमें देर लग
गई । महाराज ने फ़रमाया, “क्या? सज्जन सरन तमु से बग़लगीर हो!
सतसगं में आ जाने से social status (समाज सबं ंधी छोटे बड़े का
फ़र्क़ ) नहीं चला जाता ।” बाबू तेजसिहं जी इदं ौर रियासत के दिवान
बख़्शी खमु ानसिहं जी के पोते थे । सज्जन सरन महज़ एक मामली ू
चपरासी साधू था । दोनों के social status (समाज सबं ंधी रुतबे
या दर्जे) में बड़ा फ़र्क़ था । अगर कभी कोई राजा सतसगं ी बन जावे
और सतसगं में आवे तो उसके उठने बैठने खिलाने पिलाने का उसी
हिसाब से इतं ज़ाम किया जावेगा । राजा को राजा की तरह बर्ता
जावेगा और आदर सत्कार किया जावेगा ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-782)

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134) बाबजू ी महाराज के एक पत्र जो उन्होंने बाबू गरुु मौज सरन
जी को 27 सितम्बर, 1915 को दयालबाग़ के सम्बन्ध में लिखा था,
कुछ अश ं यहाँ लिखे जाते हैं-
......“वैसे तो आनन्द स्वरूप को भेजे गए भाई साहब के
जवाब में सही तथ्यों का ही विवरण था, किन्तु इससे कम संहारक
अस्त्र से भी काम चल जाता और कँु डली मारे बैठा साँप भी नहीं
भिन्नाता, मसलन अगर यह लिख देते कि ब-वजह अलालत
(बिमारी) अपनी व दीगर (दोबारा) बजहू ात के आपकी मेज़बानी से
फ़ै ज़ (लाभ, उपकार, यश, भलाई) उठाने को माज़रू (लाचार, विवश)
हूँ । ख़ैर, अब इस मामले में और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं । हमारे
सम्बन्ध इतने ज़्यादा तनावपर्णू हो चक ु े हैं कि उनके ठीक होने की
गँजु ायश नहीं है ।”
मेरे ख़्याल से लालाजी साहब की गरुु वाई एवं आनन्द स्वरूप
की गरुु वाई की तल ु ना करने में कोई तक़ ु नहीं है । आनन्द स्वरूप
की गरुवाई एक सनि ु योजित डाके ज़नी के समान है जबकि लालाजी
साहब का कार्य एक क्धषु ाग्रस्त दर्बल ु मज़दरू द्वारा अनाज की कुछ
बालों की छोटी सी चोरी के समान है । इसके अलावा आनन्द स्वरूप
एवं उनके अनयु ायियों का उद्देश्य हमेशा कौंसिल एवं उसके द्वारा
स्थापित व्यवस्था को ख़त्म कर देना ही रहा है जब कि लालाजी ने
आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया चाहे अन्य मामलों में उनके
मन में कुछ भी रहा हो । इसके अलावा उन्होंने कभी ऐसा प्रस्ताव पेश
नहीं किया कि जिसके मज़ं रू कर लेने पर उन व्यक्तियों को भी उनकी
गरुु वाई माननी पड़े जो उन्हें गरुु नहीं मानते । उनकी गरुु वाई उनके
तथा उनके अनयु ायियों के बीच एक निजी (प्राइवेट) मामला है, जो
उन्हें गरुु मानते हैं । इससे सतसंग के आम इन्तज़ाम में कोई दख़ल
वाक़ै नहीं होता और न ही कभी यह खल ु े विद्रोह का रूप लेता है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-27)

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135) कई वर्ष पहले की बात है, कलकत्ते में दो भाई थे । बड़े भाई ने
छोटे भाई का हक़ नहीं दिया, दबा लिया । मद्दु त तक यह घरे लू झगड़े
चलते रहे । अतं में यह हुआ कि बड़े भाई ने कुछ ऐसी हरक़तें कीं कि
गिरफ़्तार होने की नौबत आ पहुचँ ी । छोटे भाई ने बाबजू ी महाराज से
अर्ज़ किया कि अब गिरफ़्तारी का वारंट निकलवाता हू,ँ सिवा इसके
कोई चारा नहीं । महाराज ने फ़रमाया “गिरफ़्तार मत कराना । बाक़ी
कार्रवाई जो तमु मनु ासिब समझो और करना चाहो, करो ।” छोटे भाई
ने बाबजू ी महाराज की बात मान ली । गिरफ़्तार व जेल भेजने की
कोई कार्रवाई नहीं की । बड़े भाई ने कुछ नहीं दिया । छोटे भाई ने सब्र
किया कि मालिक की यही मौज है? अगले पिछले कर्मों के लेन देन
का भगु तान हो गया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-526)

136) सतसंगी को नरमी से बर्तना चाहिये -- बाबू सोहनलाल ने


बताया कि मैं कॉलेज से सीधा सतसंग आया करता था और सतसंग
के बाद महर्षिजी (गरुु देवदास जी, काकाजी) के साथ जाया करता था ।
एक दिन का ज़िक्र है कि सतसंग के बाद बहुत सी औरतें सतसंग के
अहाते से निकलीं और गली भर गई । वे बातें करती हुई, धीरे धीरे बढ़
रही थीं । उनके पीछे मैं और काकाजी बातें करते चले जा रहे थे । इतने
में एक पंडा पीछे से आया । साइकिल से उतर कर हम लोगों के बीच
से गज़ु र के , औरतों के बीच से भी होकर आगे निकल जाना चाहा ।
मैंने उसको रोका और कहा कि औरतों को निकल जाने दो, ऐसी क्या
जल्दी है, यह कौन शराफ़त की बात है कि औरतों के बीच साइकिल
लिये हुए घसु े चले जा रहे हो, रास्ता साफ़ हो जाने दो । इस पर वह
रुका और वाद विवाद शरू ु हुआ । काकाजी भी बोलने लगे । इतने
में औरतें निकल गई ं और वह पंडा ख़ामोश हो गया और साइकिल
पर चढ़ कर चला गया । लेकिन आगे जाकर खेमामाई के चैराहे पर
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साइकिल खड़ी करके और हाथ में जतू ा निकाल कर छुप कर खड़ा
हो गया । जैसे ही हम लोग खेमामाई के मदि ं र के पास पहुचँ ,े वैसे ही
उसने एक झपाटे के साथ सामने आकर जतू ा चलाया । वह मेरी भौं
के ऊपर आकर बैठा और ख़नू बहने लगा । काकाजी ने जो देखा,
बहुत गसु ्सा किया । हालाकि
ं 80 वर्ष के थे, दौड़ कर उसे पकड़ लिया ।
और भी तमाम लोग दौड़ पड़े, उसको मारा और खैंच कर ले गए ।
काकाजी ने पान की दक ु ान से चनू ा लेकर मेरी भौंहों पर लगा दिया ।
महाराज जब हवाखोरी से लौटे, काकाजी ने सब वाक़आ अर्ज़ किया ।
सबु ह सतसंग के बाद महाराज ने मझु से फ़रमाया, “तमु तो सतसंगी
हो, तमु ्हें हाथ जोड़ कर कहना चाहिये था कि एक मिनट ठहर जाओ,
अभी औरतें निकली जाती हैं, रास्ता साफ़ हुआ जाता है । तमु ने वाद
विवाद में सख़्ती से बात क्यों की? और जतू े का नाम क्यों लिया?”
पंडा जैसे ही घर पहुचँ ा, उसे बख़ ु ार हो आया जो बढ़ता ही गया ।
सन्निपात हो गया । दसू रे दिन रात को मर गया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1930)

137) एक बार किसी महीने में वकील कै लासचद्रं मीतल को


ज़्यादा आमदनी हुई । बहुत ख़श ु हुए । मगर दसू रे महीने सख
ू ा पड़
गया । एक दिन ज्यों ही बाबजू ी महाराज के सामने पहुचँ ,े बाबजू ी
महाराज ने कहा, “आइये एडवोके ट साहब! गरुु मौज सरन, आजकल
इनको बहुत आमदनी होने लगी है, इनकी क़दर व मज़ल ं त (आदर,
सत्कार, इज़्ज़त) करनी चाहिए । “वकील कै लासचद्रं ने अर्ज़ किया,
“महाराज! पिछले महीने में तो बेशक़ ग़ैर-मामली ू ज़्यादा आमदनी
हुई थी, मगर इस महीने में एक पैसा भी नहीं आया । “इस पर बाबजू ी
महाराज ने दया से फ़रमाया, “हाँ! कै लास, मैं तमु से कहता हूँ कि
अगर तमु पर राधास्वामी दयाल की दया होगी तो कभी तमु ्हारे पास
ज़रूरत से ज़्यादा पैसा इकट्ठा न होवेगा । घड़े को ख़बू साफ़ करके ,
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उसमें कितना ही साफ़ पानी भरा जावे और उसका महँु भी होशियारी
से बंद कर दिया जावे कि जिससे धल ू गर्द वग़ैरा अदं र न जाने पावे,
फिर भी कुछ समय पश्चात् उसमें कीड़े पड़ जाते हैं । उसी प्रकार जिस
शख़्स के पास पैसा इकट्ठा हुआ और ठहर गया तो उसमें सब बरु ाइयाँ
पैदा हो जावेंगी और ताज्जुब नहीं कि मरने के बाद साँप बने । अच्छा
यही है कि पैसा आवे और ख़र्च होता जावे, असाधरण रूप से इकट्ठा
न होवे और न ठहरे ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-30)

138) जाइटं सेक्रे टरी श्री चरन अधार टंडन (कक्को बाब)ू जब बैंक
की नौकरी पर इलाहाबाद से कलकत्ते जाने लगे, बाबजू ी महाराज
उनसे बग़ल-गीर हुए और तीन नसीहतें कीं । (1) बिना काम, महज़
सैर के लिये, स्टेशन पर मत जाना । (2) मेलों तमाशों भीड़ भाड़ की
जगहों पर मत जाना । (3) स्त्री संग मत करना ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-64)

139) बाबू गरुु मौज सरन जी की नोटबक ु से लिया गया --- एक


बार आगरे से ख़बर आई कि लाला तोताराम को पीटने के लिए
निहालचदं ने चैनसख ु को मक़ ु र्र र किया है कि जब कभी और कहीं
भी तोताराम अके ले मिलें, उन्हें पीटा जाय । लाला तोताराम ने
कहला भेजा कि मैं पहले हाथ में लकड़ी लेकर चलता था, अब
लकड़ी नहीं रक्खूँगा, जिसको पीटना हो, पीटे । बाबजू ी महाराज ने
फ़रमाया कि यह कार्रवाई tempting the Providence (मालिक
को आज़माने) में दाख़िल है । यह ठीक नहीं है । ऐसे तो जो होना
है, वह होगी ही । लेकिन जान बझू कर कुएँ में नहीं गिरना चाहिये,
इस उम्मीद पर कि मालिक को बचाना होगा तो बचावेगा ही । यह
tempting the Providence (मालिक की आज़मायश) करना है ।
ससं ार की कार्रवाई ऐसे नहीं चलती है । ज़रूरी उपाय और जतन जीव
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को करना चाहिये और मालिक की मौज पर रहना चाहिये । बाबजू ी
महाराज ने हुक़्म दिया कि उनको लिखो कि बाहर न निकलें, अगर
निकलें तो बचाव के लिए हाथ में लकड़ी रक्खें और दो तीन आदमी
बराबर अपने साथ रक्खें । उसके बाद भी अगर मौज से कुछ हो तो
उसे सब्र से बर्दाश्त करें ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-73)

140) मास्टर दयाराम लेखराज किरपालानी के बड़े लड़के का नाम


नेणमल
ू था । बड़ा खश ु -मिजाज़, हँसमख ु और मज़ाक़िया था । एक
बार इलाहाबाद में बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि मेरे पास पचास
हज़ार रुपया है, दया हो और एक लाख हो जावे तो बेहतर हो ।
बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया, “दया तो माया छुड़ावेगी ।” इस पर नेणू
ने कहा, “बस बस, ज़्यादा नहीं चाहिए । पर ऐसा न हो कि यह भी
चला जाय ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-101)

141) जब बाबजू ी महाराज कलकत्ते पधारे थे, सतसगं में कुछ


मारवाड़ी भी आते थे जो बहुत पैसे वाले थे । उन्होंने महाराज से अपने
घर चरन पधारने की बिनती की । महाराज ने फ़रमाया कि चला तो
चलँगू ा, पर माया पधार जायेगी । इसके बाद वह मारवाड़ी सतसगं में
नहीं आये ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-102)

142) तारीख़ 19.12.1939 की शाम को दयालबाग़ से श्री


मिसरीलाल, सखिु याजी व एक अन्य कोई आये और बाबजू ी
महाराज से दयालबाग़ नमु ाइश खोलने के लिए चलने को अर्ज़ किया ।
फ़रमाया, आप लोग देख रहे हैं कि मैं ज़ईफ़ (वयोवद्ध
ृ , बढ़ू ा, निर्बल,
कमज़ोर) हू,ँ चलने फिरने में बड़ी तक़लीफ़ होती है, इससे माफ़ी

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चाहता हूँ । कुछ बातचीत के बाद दयालबाग़ वालों में से एक ने कहा
कि Blessings (आशीर्वाद) दीजिये । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया
कि Blessings (आशीर्वाद) तो उससे माँगना चाहिये जो इस काम
में मदद दे । जिस काम का जो धनी होगा, उस काम में तरक़्क़ी के
लिए उसी की धार आवेगी । संतों के Blessings (आशीर्वाद) से तो
चौपट हो जावेगा और अगर मज़ं रू भी होगा तो ख़दु नहीं करें गे, उसी
के ज़रिये करावेंगे । यह जो हुआ मौज से हुआ मगर अब आप लोगों
को परमार्थ का भी ख़्याल रखना चाहिये । संसार में वैसे तो ये चीज़ें
ज़रूरी हैं मगर अपने काम से काम रख कर परमार्थ की ओर तवज्जह
लानी चाहिये ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/ट)

143) बाबजू ी महाराज ने जब भेंट लेना शरू ु किया तो पहले पहल


बाबू गरुु मौज सरन से भेंट ली थी । बसंत पंचमी के दिन “चलो री
सखी मिल आरत गावें, ऋतु बसंत आए परुु ष परु ाने” यह आरती
पढ़ी गई थी और बाबू गरुु मौज सरन ने पाँच रुपये भेंट किए थे । इसके
बाद फिर और सतसंगियों ने भेंट की और तब से बाबजू ी महाराज भेंट
मज़ं रू करने लगे ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-412/413)
144) एक बार बाबू तल ु सीरामजी को महाराज ने पक ु ारा । यह
बहुत घबराये कि फिर डाँट फटकार मिलेगी (क्योंकि कुछ दिन पहले
ही इनको महाराज ने किसी बात को लेकर ख़बू डाँटा और फ़टकारा
था) । महाराज ने अपने पास बल ु ा कर बैठाया और फ़रमाया, “तमु
हमारे मित्र हो, तमु हमारे दोस्त हो ।” इनके दिल में भेंट करने की उमगं
उठी मगर उस वक्त पास में रुपया नहीं था । महाराज ने आप ही आप
फ़रमाया, “भेंट करने की ज़रूरत नहीं है ।”
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-47, पृष्ठ-267)

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145) महाराज साहब के गप्तु होने के बाद सतसंग पर कुछ क़र्ज़ा
था जिसको चक ु ाने के लिए बाबजू ी महाराज की सलाह से ताऊजी
साहब (बालेश्वर प्रसाद जी) ने एक गश्ती चिट्ठी निकाली थी जिसमें
सतसंगियों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया था । इस गश्ती
चिट्ठी में अतं में ताऊजी साहब ने यह लिखा था—
मर जाऊँ माँगँू नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने, मोंहिं न आवे लाज ।।
इसके बाद सतसगिं यों ने माहवारी भेंट भेजना शरू
ु किया ।
वरना इससे पहिले माहवारी भेंट का सिसिला नहीं था ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-33, पृष्ठ-175)

146) सन् 1928 ईसवी में अपने गजु रात दौरे के दौरान बाबजू ी
महाराज रास्ते में अजमेर रुके । वहाँ से महाराज पषु ्कर महर्षिजी
गरुु देवदास जी के मकान पर पहुचँ े और चाय पी । घर पर एक पडं ा
चला आया था । वह कुछ श्लोक वग़ैरा पढ़ने लगा । मतलब उसका
यह था कि कुछ रुपया मिले । उसी वक़्त महर्षिजी के घर वालों ने
महाराज को भेंट पेश की थी । महाराज ने हँसते हुए फ़रमाया कि हम
यहाँ देने नहीं आए हैं, लेने आए हैं । ख़ैर, उस पडं े को भी कुछ दिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-188)

147) एक बार इलाहाबाद में सब नौकरों ने उपदेश लिया । रुपया


रुपया दो दो रुपये भेंट करने को लाये थे । भेंट करने का जब वक़्त
आया, महाराज ने फ़रमाया, गरुु मौजसरन! इनसे दो दो आने भेंट लेना
क़ाफ़ी है । इससे ज़्यादा यह लोग नहीं दे सकते । नौकरों ने आग्रह
करके रुपया रुपया दो दो रुपये भेंट किये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-611)

148) ममदाबाद (गजु रात) में एक सतसगं ी श्री चनु ्नीलाल पडं ्या थे ।

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उन्होंने सन् 1916 ई. में इलाहाबाद में बाबजू ी महाराज से उपदेश
लिया । एक बार उनके साथ पाँच सात सतसंगी इलाहाबाद दर्शन
सतसंग को गये । सबने दस दस रुपये भेंट किये । श्री चनु ्नीलाल ने
विचार किया कि मैं पाँच रुपये भेंट करूँ गा तो अच्छा नहीं लगेगा । दस
रुपये भेंट करूँ । मगर दस तो ज़्यादा हैं । ऐसे सोच विचार में उन्होंने
अतं में दस रुपये ही भेंट में पेश किये । मगर महाराज ने पाँच रुपये
मज़ं रू किए और फ़रमाया कि देखा देखी भेंट नहीं करनी चाहिए ।
जितनी उमगं हो, उतना रुपया भेंट करना चाहिए ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1740)

149) भेंट करने से कमी या तंगी नहीं होगीः— बाबू सोहनलाल


ने बतलाया कि सन् 1927-28 ईसवी तब मेरी तनख़्वाह बहुत कम
थी और ख़र्च ज़्यादा था । भेंट निकल नहीं पाती थी । और जब कुछ
निकलती तो मझु े तचु ्छ दिखाई पड़ती थी और यह ख़्याल होता
था कि यह क्या महाराज की भेंट करें ! सन् 1928 ई. में एक बार
लखनऊ से इलाहाबाद आया और आने की भेंट पेश की । महाराज
ने भेंट लेते हुए फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! इनकी monthly Bhent
(महावारी भेंट) का जो arrears (बक़ाया) है, उसे write-off (ना-
क़ाबिल-वसली ू ) कर दो” सतसंग के बाद मेरे पछ
ू ने पर बाबू गरुु मौज
सरन ने बतलाया कि क़रीब नब्बे रुपये बाक़ी हैं । मैंने कहा कि मैंने
इस तरफ़ कभी गंभीरतापर्वू क ध्यान नहीं दिया, मझु े एक मौक़ा दिया
जाय, मैं सब बक़ाया अदा करने की भरसक कोशिश करूँ गा । अगर
न दे सकंू तो फिर (बट्टे खाते) कर देना । अगले महीने की पहली
तारीख़ से तनख़्वाह मिलते ही मैंने मनी आर्डर रवाना करना शरू ु
किया, बग़ैर ख़र्च का ख़्याल रक्खे हुए । मनी आर्डर कर देने के बाद
ख़र्च का बजट बनाने लगा । जो तंगी तर्शी ु और हाय हाय ख़र्च की
बराबर महीने भर रहा करती थी, पहले महीने में वह नहीं रही और
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बड़े आराम से महीना ख़तम हो गया । अगले महीने में मैंने भेंट
थोड़ी सी और बढ़ा दी और चार पाँच महीने में आराम के साथ सब
बक़ाया अदा हो गया, यहाँ तक कि मेरे पास इतना पैसा बच गया कि
आख़िरी क़िश्त देकर लखनऊ से इलाहाबाद आकर ख़दु महाराज
को भेंट की । महाराज ने भेंट लेते हुए कुछ ताज्जुब सा ज़ाहिर करते
हुए फ़रमाया “अरे , इसने तो बड़ी जल्दी सब चक ु ा दिया ।” उस दिन
से आज तक कभी पैसे की तंगी नहीं रही न कभी किसी ख़र्च को
उठाने की परे शानी होती ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1929)

150) अक्टूबर सन् 1942 ई. में श्री गणेशप्रसादजी (महाराज के


चचा-ज़ाद भाई) स्वामीबाग़ आगरा आये थे । चलते समय डाक्टर
गोविंदप्रसादजी (महाराज के दसू रे चचा-ज़ाद भाई) ने कहा कि
भेंट करिये । मगर रुपया श्री गणेशप्रसादजी के पोते ऋशिकुमार के
पास था और वह बाग़ में कहीं घमू रहे थे । श्री गणेशप्रसादजी के
पास रुपया नहीं था । वह रुपया रखते ही नहीं थे । मगर जब डाक्टर
गोविंदप्रसादजी ने कहा कि भेंट करिये तो बाबजू ी महाराज ने भेंट लेने
को हाथ बढ़ाया । श्रीगणेशप्रसादजी ने अपना हाथ बाबजू ी महाराज
के हाथ में दे दिया । डाक्टर गोविंदप्रसादजी ने फिर कहा, भाई साहब
भेंट करिये । इस पर बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया, “अब यह क्या भेंट
देगा । अपने को ही भेंट दे चक ु ा ।” यहाँ से जाने पर तीन महीने बाद
दिसम्बर सन् 1942 में श्री गणेशप्रसादजी का चोला छूट गया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-185)

151) भेंट ग़ैर सतसगं ी से नहीं ली जाती है लेकिन ली भी जाती है ।


गया से श्री गरुु देवशरण ने बाबू सतं दासजी को लिख कर भेजा था कि
सन् 1925 ईसवी में जब बाबजू ी महाराज गया पधारे थे, हमारे ससरु
ने, जो उदासी नानकपथं ी थे, भेंट पेश की । इस पर बाबजू ी महाराज ने
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फ़रमाया कि हम ग़ैर सतसंगियों से भेंट नहीं लेते लेकिन चकि
ँू आपसे
रिश्ता है, हम क़बल
ू कर रहे हैं । फिर मसु करा कर फ़रमाया कि हम
लड़के वाले हैं और आप लड़की वाले । आप जो भी देंगे, हमें मज़ं रू
है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-6, गरुु साखी-207)158)

152) महाराज सतसंगियों को न चरन छूने देते थे और न मत्था


टिकाते थे । दामन तक कोई न छू सकता था । अगर किसी ने कोशिश
की तो ऐसी डाँट बतलाते कि फिर आइन्दा किसी की हिम्मत न होती
थी । मगर दृष्टि से भर देते थे ।
अगं न छूने दगँू ी । दृष्टि से भर दगँू ी ।।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-25, पृष्ठ-132)

153) पहले महाराज अगं नहीं छूने देते थे । कपड़ा तक कोई नहीं
छू सकता था । मत्था टेकने की कौन कहे? अब तो महाराज ने धीरे
धीरे ऐसी मौज की है कि सबको चरनों में मत्था टेकने को भी मिलता
है और महाराज के आगे सिर कर देने से महाराज सिर पर हाथ भी
रख देते हैं । सत्संगियों के दिलों में बड़ी ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि
चरनों में मत्था टेकें और सिर पर हाथ धरावें । दया से यह ख़्वाहिश परू ी
हुई । महाराज की तरफ़ से रोक-टोक नहीं है । चैबीसों घटं े चाहे जब
भी कोई अपना दःु ख दर्द अर्ज़ करने को आ सकता है । महाराज की
ऐसी ही मौज है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-43, पृष्ठ-260)

154) नवम्बर सन् 1938 ई. में बहनजी प्रेमसँवारी जी, एक तो


आबो-हवा बदलने के ख़्याल से और दसू रे इनकी सबसे छोटी बहन
की शादी थी, यह सिसौली गई ।ं महाराज स्टेशन पर पहुचँ ाने को गए ।
रे ल के डिब्बे में सब सामान रख दिया गया और यह अन्दर चली गई ।ं
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मगर फिर बाहर प्लेटफार्म पर उतर आई ं। जब महाराज ने कहा गाड़ी
रवाना होती है बैठो, तो फिर चढ़ गई ।ं मगर फ़ौरन ही फिर उतर आई ।ं
इस तरह दो चार मर्तबा किया । समझ में नहीं आता था कि यह क्या
चाहती थीं । आख़िर यह कहते हुए कि यह ऐसे नहीं मानेगी, महाराज
ने अपना पाँव बढ़ाया । इन्होंने मत्था टेका और बहुत देर तक चरनों
पर सिर रक्खे रहीं । तब रे ल पर सवार हुई और
ं फ़ौरन गाड़ी चल दी । उन
दिनों महाराज आम तौर पर सतसंगियों से मत्था नहीं टिकाते थे मगर
वह दृश्य देख कर उपस्थित लोगों को मत्था टेकने का सा आनन्द आ
गया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-51, पृष्ठ-301)

155) एक दफ़ा बाबू तल ु सीरामजी का ऐसे वक्त इलाहाबाद जाना


हुआ जब कि महाराज की तबियत बहुत कमज़ोर थी । न सतसंग में
पधारते थे और न सतसंगी पास जा सकते थे । दरू से भेंट रख कर और
दर्शन करके चले जाने का हुक़ुम था । चनु ांचे जब बाबू तलु सीरामजी
गए तो इनको भी रोक दिया गया और कहा गया कि दरू से दर्शन
करके चले जाओ । इस पर बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि इनको
तो आने दो, यह तो वैद्य हैं । चनु ांचे यह महाराज के पास गए और
नाड़ी, पेट, फें फड़ा इत्यादि सब चीज़ें देखीं । तब महाराज ने फ़रमाया
कि देख लिया सब? और तो कुछ नहीं देखना है? अगर कुछ देखना
बाक़ी हो तो हम दिखा दें । बाबू तल ु सीरामजी ने कहा “महाराज! पाँव
की नाड़ी और देखनी है ।” शरीर में तीन स्थानों पर नाड़ी देखी जाती
है, एक कान के पास, दसू रे हाथ में कलाई के पास, और तीसरे पाँव में
टख़ने के पास । बाबू तल ु सीरामजी ने सोचा कि स्वयं महाराज इशारा
कर रहे हैं, चरन छूने का ऐसा मौक़ा कब आवेगा, ज़िन्दगी में कम
से कम एक बार तो महाराज के चरन स्पर्श किये जावें । चनु ांचे बड़ी
देर तक महाराज के पाँव की नाड़ी देखते रहे । दया से इनके इलाज
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से महाराज की तबियत अच्छी होती गई और इनके इलाहाबाद से
वापिस जाने से पहले महाराज सतसंग में पधारने लगे ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-47, पृष्ठ-265/266)

156) पंडित रामसख ु ने बाबजू ी महाराज से इटं रव्यू करने यानी


अके ले में बात चीत करने के मौक़े के लिए दरख़्वास्त की जो मज़ं रू
हो गई । बाबू तल ु सीराम जी चकि ँू इनके साथ थे, उनको भी इटं रव्यू
मज़ं रू हो गई, अगर्चे उनको कुछ कहना नहीं था । पंडित रामसख ु ने
15-20 मिनट तक बाबजू ी महाराज से बातचीत की । उनके बाद बाबू
तल ु सीराम जी को आवाज़ पड़ी । यह भी कमरे में गए और एक मिनट
बाद ही कमरे से बाहर निकल आये । पंडित रामसख ु ने कहा, “अरे
तमु ने बात नहीं की, अभी अदं र गये और अभी फ़ौरन बाहर निकल
आये । मैंने तो पन्द्रह बीस मिनट तक बात की । “बाबू तल ु सीराम
जी ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया था कि “महाराज! आपने दया
से चरनों में खींचा है, अब चरनों में ही रखना, चरनों से जदु ा मत करना ।
“महाराज ने गर्दन हिलाई और हाथ के इशारे से आश्वासन देते हुए
राधास्वामी कहा । बाबू तल ु सीरामजी राधास्वामी अर्ज़ करके आ गये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-74)

157) महाराज साहब फ़रमाया करते थे, “स्वामीजी महाराज पिता


थे, हुज़रू महाराज माता थे, मैं भी उस्ताद हूँ ।” यह भी फ़रमाया करते
थे कि अब जो सतं होंगे, छँ टौनी कर लेंगे और निर्मल सतसगं थोड़ा
सा रह जायगा ।
चनु ांचे बाबजू ी महाराज के समय में ख़बू छँ टौनी हुई । इस
वक़्त तक बच्चे में समझ-बझू भी आ गई । बाबजू ी महाराज ने हमेशा
सिर्फ़ एक हितकारी बज़ु र्गु मित्र का बर्ताव रखा । हर काम या चीज़ के
उसल ू और परमार्थी नफ़ा नक़ ु सान बयान फ़रमा दिया करते हैं, चाहे
कोई माने या न माने । हुक़्म के तौर पर जहाँ तक ममक़ि ु न हो, कोई
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बात नहीं फ़रमाते । वरना हुक़्म उदली
ू का पाप और सिर पर चढ़े ।
इसमें बड़ी दया है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-46, पृष्ठ-277/278)

158) चाचा दौलतराम अजमेर और जैपरु के बीच के स्टेशन फुलेरा


जक ं शन पर मसु ाफ़िरों को साग पड़ी
ू बेचने का खोमचा लगाता था ।
हुज़रू महाराज के समय में सतसंग में आया था । ऐसा बद-तमीज़
था कि एक रोज़ महाराज साहब पर डंडा लेकर दौड़ा था । महाराज
साहब ने एक घड़ु की दी कि भाग गया । बाद में मआ ु फ़ी माँग ली । इस
तरह की हरकतें अक़्सर सतसंग में किया करता था और जब पकड़ा
जाता तो मआ ु फ़ी माँग लेता और वायदा करता कि आइदं ा ऐसा नहीं
करूँ गा । कौंसिल के जल्सों की कार्रवाइयों में कई एक रे ज़ोल्यूशन
(प्रस्ताव) इस क़िस्म के मिलते हैं कि इस शख़्स को फ़लां हरकत के
लिए सतसंग से मोअत्तल किया जाय या निकाला जाय मगर फिर
मआ ु फ़ी भी दे दी जाती थी । मालिक के दरबार में सबको मआ ु फ़ी
मिलती है । राजस्थानी होने से राजस्थान के सतसंगियों के पास आता
जाता रहता था और उनसे ख़बू पैसा इकट्ठा करके लाता था । बाबजू ी
महाराज जब स्वामीजी महाराज के भडं ारे पर स्वामीबाग़ आगरा
पधारते, समाध पर सतसंग होता था, उसमें मगं लाचरण और बिनती
का पाठ करने में प्रत्येक लाइन का या प्रत्येक कड़ी की पहली लाइन
का पहला लफ़्ज़ चाचा दौलतराम बड़ा चिल्ला कर बोलता था,
यह दिखलाने को कि मैं सबका नेततृ ्व करता हूँ । बाबजू ी महाराज
इसे कतई ना-पसंद करते थे । बल्कि एक बार इलाहाबाद सतसंग
में फ़रमाया था कि जो लोग उसके साथ राग मिला कर नहीं बोल
सकते, उन्हें चाहिये कि मगं लाचरण और बिनती का आवाज़ के साथ
पाठ न करें , मन ही मन पाठ करें या बोलें । आख़िर चाचा दौलतराम
दयालबाग़ चला गया जहाँ उसकी बड़ी ख़ातिर की जाती थी । कोट
100
पतलनू पहनने लगा था । मगर जब हुज़रू ी बाग़ नम्बर दो का मक़ ु दमा
कौंसिल जीत गई, दयालबाग़ में चाचा दौलतराम की ख़ातिर बंद हो
गई और फिर उसकी बड़ी दर्गु ति हई । दयालबाग़ वाले पहले मक़ ु दमें,
Suit No. 50 of 1924, वाराणसी की सनु वाई सन् 1929 ई. में
हाई कोर्ट में जस्टिस सल
ु ेमान और जस्टिस पलु न के सामने हुई थी ।
उस वक़्त चाचा दौलतराम कोट पतलनू पहन कर वहाँ जाता था और
वकीलों के पीछे सबसे आगे दयालबाग़ियों के साथ बैठता था और
दोनों कानों पर हाथ लगाये रहता था मानो ख़बू सनु ता और समझता
हो, जब कि वास्तव में पढ़ा लिखा कुछ नहीं था, अग्ं रेज़ी क्या, हिन्दी
भी नहीं लिख पढ़ सकता था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-110)

159) तारीख़ 30.10.1931 को बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि


सतसंग में तीन हिस्से गड़बड़ औरतें करती हैं और एक हिस्सा मर्दों
की तरफ़ से होता है । मर्दों में आजकल चदं ऐसे निठल्ले आ गए हैं
जिनकी गंदगी हटाने के लिये छँ टौनी की ज़रूरत होगी ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1766)

160) गौरी बाबू की भेंट से बने मकान में जब सतसगं हुआ, बाबजू ी
महाराज ने फ़रमाया कि बहुत सतसगं ी हो गये हैं । उन्हें परमार्थ से
कुछ मतलब नहीं । दस हज़ार की जगह दस अच्छे हैं । फिर से एक
बार और छँ टौनी करने की ज़रूरत है । अपने निज के लोगों को पास
रक्खा जायगा ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/क)

161) सबु ह समाध में सतसंग शरू ु होने से पहले बाबजू ी महाराज
ने फ़रमाया कि न जानें कहाँ के कूड़े करकट आकर सतसंग में भर गये
हैं । इनमे से कुछ ऐसे हैं जो सतसंगी कहलाने लायक़ नहीं हैं ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/घ)

101
162) एक दफ़ा एक साहब ने जो महाराज के क़रीबी रिश्ते दार थे,
स्वामी बाग़ में आकर रहने के लिए एक महीने की इजाज़त माँगी ।
मगर आठ महीने हो गये, वह जावें ही नहीं । बड़ा पाखडं करते थे ।
महाराज के पोर्टी को में खाट बि छा कर उस पर बैठ कर भजन करते
थे । भला वह कोई भजन करने की जगह थी! या तो अपने घर में
भजन करना चाहि ये या भजन घर में । एक रोज़ महाराज ने अपने एक
क़रीबी सतसंगी से कहलव ाया कि फ़ल ां शख़्स यहाँ क्यों पड़ा हुआ
है? उसे रवाना करो । उन सतसंगी ने उन साहब को आड़े हाथों लिया
और दो चार खरी खरी बातें सनु ाई व यह भी कहा कि स्वामी बाग़
खत्रियों की धर्म शाला नहीं है कि के वल खत्री होने की वजह से कोई
यहाँ आकर पड़ जाय । आप फ़ौ रन बि स्तर बाँध कर चले जाइये । वह
चले तो गये मगर उन सतसंगी साहब से बहुत नाराज़ हो गये । अपने
साथि यों से कहा कि वह सतसंगी बड़ा वैसा आदमी है, मेरे साथ
गसु ताख़ी से पेश आया, भला मेरे यहाँ रहने से उसे क्या तक़लीफ़
होती थी । दसू रे साहब ने हाँ में हाँ मिल ाई और कहा, अरे साहब!
आज कल तो ‘उन सतसंगी’ का हुक़्म चलता है । “उन्हें क्या मालमू
कि यह शब्द महाराज ने फ़रमाये थे कि कह दो उससे कि स्वामी
बाग़ खत्रियों की धर्मशाला नहीं है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-106)

163) अपनी रुचि के अधिकतर विरुद्ध होते हुए भी बाबजू ी महाराज


ने एक पारंपरिक हिदं ू जीवन अपनाया । पर इस वजह से उन्हें उस
समय में प्रचलित अनेक प्रकार की धार्मिक रीतियों, रस्मों व त्योहारों
की, जो कि पंडितों और ब्राह्मण वर्ण के उच्च सदस्यों के निरीक्षण में
कराए जाते थे, बारीक परख हुई ।
यद्यपि निज अश ं ो को इन सब चीज़ों को परखने
की आवश्यकता नहीं होती है, पर यह सर्वोच्च मौज थी
102
कि यह सब गरु मख ु को जनाया जाए, जिससे पंडितो द्वारा
प्रचलित शिक्षाओ ं व रितियों में, जो बहुत ज़ोर पकड़ चक ु ीं थीं,
गरु मख
ु द्वारा सबसे ऊँचे स्तर की रुहानी व आतं रिक आकर्षण शक्ति
का प्रवाह कर, थकाव व नियंत्रण आए ।
इस उद्देश्य से महाराज साहब और बाबजू ी महाराज अक़्सर,
बनारस की लगभग सभी स्थानों पर जाया करते थे जिनमें जएू खाने,
शराबखाने अफ़ीमखाने, जो जर्मु के अड्डे थे, भी शामिल थे ।
164) एक बार एक सतसंगी इलाहाबाद से लौट रहे थे । परिवार
के अन्य सदस्यों के साथ तीसरे पहर बाबजू ी महाराज के पास भेंट
करने के लिए गये । महाराज ने मैयांजी साहबा से फ़रमाया कि इन
लोगों के लिए कुछ प्रशाद लाओ । मैयांजी ने एक काग़ज़ में मिठाई
नमकीन रख कर महाराज को दिया । महाराज वह काग़ज़ बाएं हाथ
की हथेली में रख कर, दाहिने हाथ की उंगलियों से मिठाई नमकीन
को मलने लगे । फ़रमाया, “कुछ और । “मैयांजी उठीं और अलमारी
में कोई अन्य डिब्बा खोल कर उसमें से कुछ निकाल कर, महाराज
के हाथ में जो काग़ज़ था, उसमें डाल दिया । महाराज उंगलियों से
मिठाई नमकीन बराबर मिलाते रहे । फिर फ़रमाया “कुछ और । “फिर
मैयांजी उठीं और अन्य डिब्बे में से कुछ निकाल कर महाराज के हाथ
में जो काग़ज़ था, उसमें डाल दिया । इस प्रकार महाराज ने चार बार
“कुछ और” फ़रमाया और चारों बार मैयांजी साहबा कोई न कोई नई
चीज़ देती गई ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-118)

165) जब बाबजू ी महाराज सन् 1930 ईसवी में करांची तशरीफ़


ले गए थे, पहले इलाहाबाद से आगरा पधारे और स्वामीबाग़ में 5-7
दिन रहे । एक सतसगं ी जो आगरे साथ गये थे, उनके फादर की चिट्ठी आई
कि तमु इटं र की परीक्षा में प्रथम श्णरे ी में उत्तीर्ण हो गये हो व के मिस्ट्री
103
(रसायन शास्त्र) में डिस्टक
िं शन (विषेश योग्यता) प्राप्त हुई है । उन्हें बहुत
खशु ी हुई । दो रुपये तो भेंट करते ही, उन्होंने सोचा कि दो रुपये भोग के
लिए यानी फल मिठाई के लिए भी भेंट कर देने चाहिए । अतः वह चार
रुपये लेकर गये । महाराज उस समय अपनी कोठी के बाहर वाले
कमरे में ऑफिस में विराजमान थे, फ़र्श पर गद्दी पर, तकिये के सहारे । वह
अन्दर जाकर महाराज के सामने बैठ गये और अर्ज़ किया कि इटं र में
फ़स्र्ट डिवीज़न में पास हो गया और के मिस्ट्री में डिस्टिंकशन आयी
है और हथेली पर चार रुपये रख कर कहा कि भोग के लिये । हाथ
का झटका देते हुए और झल्लाते हुए महाराज बोले, “बड़े भोग वाले
आए, जाओ यहाँ से । “वे बाहर आ गये । सोचा कि भोग के चक्कर
में भेंट भी रह गई । मगर अब क्या हो । महाराज के सामने फिर जाने
की हिम्मत न थी ।
दसू रे दिन उनके फ़ादर की चिट्ठी आई कि कल जो ख़बर
भेजी थी, वह ग़लत निकली । फ़स्र्ट डिवीज़न (प्रथम श्रेणी) तो आई,
पर डिस्टिंकशन (विषेश योग्यता) नहीं आई है । तब कुछ समझ में
आया कि महाराज का मतलब था कि जितनी खश ु ी आज हो रही है,
कल आधी हो जायगी । ख़ैर, महाराज को अर्ज़ कर दिया कि फ़स्र्ट
डिविज़न तो आयी है, पर के मिस्ट्री में डिस्टिंकशन (विषेश योग्यता)
नहीं आयी है । दो रुपये भेंट किए जो महाराज ने ले लिये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-203/204)

166) लाला जैदवे दयाल साहब जो कि कासगंज के रहने वाले


अग्रवाल वैष्य थे तथा 1915 में कौंसिल के मेम्बर थे और अजमेर में
रे लवे के ऑडिट ऑफिस में किसी उच्च पद पर नियक्त ु थे, न मालमू
क्या झक सवार हुई कि उन्होंने कहा कि मैं इलाहाबाद जाकर सतसंग
के हिसाब किताब ऑडिट (जाँच) करूँ गा और यह करूँ गा और वह
करूँ गा । चनु ांचे यह साहब अजमेर से रे लगाड़ी में सवार होकर रवाना

104
हुए । रे लवे मल
ु ाज़िम होने से सैकिंड क्लास का पास मिलता था । उस
समय का सैकिंड क्लास आजकल का फ़स्र्ट क्लास है । इलाहाबाद
तो दरू था, यह साहब आगरा भी न पहुचँ पाये, बीच में ही हृदय की
गति रुक जाने से रे लगाड़ी में ही मर गये । अजमेर वापिस लाश आई ।
”सतं ों की जो स्तुति करता है या निन्दा करता है, दोनों का
उद्धार होगा । पर जो सेवक होकर निन्दा करे गा, उसका
अकाज होगा । उसकी निन्दा की बर्दाश्त नहीं है ।”
(सार बचन राधास्वामी बार्तिक, भाग-2, बचन-160)
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-208-210)

167) महाराज साहब ने लालाजी साहब का साध का दर्जा होने


की तरफ़ सक ं े त किया था । इसी बात पर किसी ने बाबजू ी महाराज
से पछू ा था कि वह साध का दर्जा लेकर आए थे या अभ्यास करके
साध गति को प्राप्त हुए । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि सतं ों के पत्रु
होने के नाते वह सनु ्न में पहुचँ ा दिये गए । इसी प्रकार कँु वरजी साहब
के निस्बत भी बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया था कि हुज़रू महाराज के
पोते हैं, त्रिकुटी में तो पहुचँ ा ही दिये जावेंगे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-306)

168) एक वद्ध ृ मसु लमान भाई सतसंगी बन गये । उनके पंद्रह


सोलह वर्ष की एक पत्ु री थी जिसका नाम ‘हुस्न बानो’ था । उन्होंने
बाबजू ी महाराज से उसका नाम रखने को अर्ज़ किया । महाराज ने
फ़रमाया “सनु ्दरी यानी ख़श ु नमु ा ख़ातनू , चाहे सनु ्दरी नाम से पक
ु ारो
चाहे ख़श ु नमु ा ख़ातनू । “(ख़श ु नमु ा= प्रिय दर्शन, मनोरम, सनु ्दर ।
ख़ातनू = सभ्य और शिष्ट स्त्री, महिला । हुस्न= सौदय्ं र्य, सनु ्दरता ।
बानो= भले घर की स्त्री, भद्र महिला ।) एक अन्य मसु लमान सतसंगी
का नाम रुस्तम था । महाराज ने उसका नाम सरू मा रक्खा ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1651)

105
169) गजु राती लोग तरकारी और पकौड़ी तिल के तेल की बनाया
करते हैं । घी की तरकारी और पकौड़ी वह जानते और समझते ही
नहीं । इलाहाबाद का ज़िक्र है कि वकील छोटाभाई चतरु भाई पटेल
की पत्नी एक रोज़ तेल की पकौड़ियाँ बना कर महाराज के लिए
अपने भोलेभालेपन में ले गई ं और समझ रही होंगी कि महाराज के
लिए बहुत उत्तम पदार्थ ले जा रही हैं । उस वक़्त महाराज का गला
ख़राब था और खाँसी हो रही थी । सबने कहा कि इस हालत में
कहीं महाराज पकौड़ियाँ खावेंगे और वह भी तेल की? मगर जब
महाराज को अर्ज़ किया और इजाज़त मिलने पर पकौड़ियाँ पेश कीं
तो महाराज ने दया से एक दो पकौड़ी चख ली ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-499)
170) एक सतसंगी की लड़की का पति आगरे में प्रोफ़ेसर था ।
लड़की और लड़की के मैके वाले, सब सतसंगी थे । लड़की के
ससरु ाल वाले सतसंगी न थे, पर महाराज से मलु ाक़ात थी । दोनों पक्ष
स-ु सम्पन्न थे । एक रोज़ लड़की महाराज को एक चिट्ठी देकर चली
गई । बाद में महाराज ने उस चिट्ठी को एक सतसंगी से पढ़वाया ।
उसमें लिखा था कि मालिक की दया से सर्व सख ु प्राप्त है, अब ऐसी
दया हो कि परमार्थ बने । कुछ दिनों बाद वह लड़की विधवा हो गई ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-606)

171) अतीत की स्मृतियाँ, भाग1 में सतं दास जी ने लिखा


है:—
तारीख 16th अक्टूबर 1940 को बहनजी का चोला छूट गया
था । उसके बाद सन् 1941 के सर्दी के मौसम में एक दिन महाराज ने
फ़रमाया, गरुु मौज सरन के लिये एक गरम क़मीज़ लाओ । मैं सबसे बढ़िया
छाँट कर लाया । कुछ दिनों बाद किसी अन्य सतसगं ी को महाराज
ने गरम क़मीज़ बख़्शा । इस प्रकार पांच सात गरम क़मीज़ बाँट देने

106
पर एक दिन महाराज ने फ़रमाया कि तमु ्हें भी एक गरम क़मीज़ देंगे,
ले आओ । उस समय के वल एक क़मीज़ बची थी । थी तो गरम
क़मीज़ और महाराज की पहनी हुई, मगर कपड़ा बढ़िया नहीं था ।
वही महाराज ने मझु े दिया । मैंने ख़्याल किया कि ग़लती हो गई ।
अगले साल जब महाराज बाँटने को गरम क़मीज़ मांगेंगे तो सबसे
घटिया पहले लाऊँगा ताकि बाद में मझु े देने का जब वक़्त आवे तब
बहुत बढ़िया गरम क़मीज़ मिले । अगले साल सन् 1942 ईसवी में
सर्दी के मौसम में महाराज ने फ़रमाया कि गरुु मौज सरन के लिये एक
गरम क़मीज़ लाओ । मैंने छाँट कर सबसे घटिया क़मीज़ महाराज के
हाथ में दी । महाराज ने उसे बाबू गरुु मौज सरन को दे दी । उसके बाद
महाराज ने किसी को गरम क़मीज़ दी ही नहीं । मझु े भी नहीं दी । मझु े
बड़ी शर्म महससू हुई कि संतों के दरबार में भी चालाकी! क्या नतीजा
हुआ!
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-699)

172) इलाहाबाद की बात है कि महाराज ने एक क़रीबी रिश्तेदार


को अपना जतू ा दिया था । उसके पाँव में ठीक आ गया और वह
खश ु हुआ । कुछ अर्से बाद उसने महाराज से जतू ा माँगा । महाराज
ने फ़रमाया कि कभी मांगना मत, अगर मांगोगे तो कोई चीज़ नहीं
मिलेगी ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-701)

173) अकाउंटेंट जनरल हैरीसन बाबजू ी महाराज की निर्णय शक्ति


का इस क़दर क़ायल था कि अपने घर के मामले बाबजू ी महाराज
के आगे पेश करके पछू ता था कि क्या करना चाहिये । हैरीसन कहा
करता था कि अगर मझु े अधिकार मिले तो मैं भारत का गवरनर
जनरल बाबजू ी महाराज को बनाऊँ । बाबजू ी महाराज के Sound
107
Judgement (सही समझ) की बड़ी तारीफ़ करता था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-725)

174) एक बार महाराज ने फ़रमाया कि गरुु मौज सरन से


Benevolent Fund (दया दान कोश) में से इतना रुपया ले आओ ।
राजा साहब को मदद करने के लिये यह Benevolent Fund (दया
दान कोश) क़ायम किया गया था । राजा साहब के बारे में “साध
संग्रह अथवा राधास्वामी की भक्तमाल” पढ़िये । राजा साहब बहुत
बड़े ज़मींदार थे । उच्च कोटि के सतसंगी और भक्त थे । हज़ारों रुपया
भेंट किया था । मौज और दया से जब उनकी हालत पतली पड़ गई
तब उनकी मदद के लिये Benevolent Fund (दया दान कोश)
पहले पहल ताऊजी साहब के पैसे से क़ायम हुआ ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-810)

175) दो सतसगि ं नें आपस में बात कर रही थीं । बाबजू ी महाराज
सनु रहे थे । एक दसू री से अपने दख ु दर्द की कहानी कही । दसू री ने
कहा, “चरनों में पड़े हैं, यह कितनी बड़ी दया है । “बाबजू ी महाराज
ने फ़रमाया:—
गरुु तारें गे हम जानी
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1657)

176) जब बहनजी शादी होकर ताऊजी साहब के घर में पतोहू बन


कर आई,ं उन्हें बाबजू ी महाराज के पास ले गये और ताऊजी साहब
ने उनका इस तरह परिचय कराया कि यह नई दलहि ु न है । तत्क्षण
बहनजी ने बाबजू ी महाराज से कहा, “आप क्या पहचानते नहीं?
आप और हम तो साथ साथ खेले हैं ।”
कहा जाता है कि पर्वू जन्म में बहनजी, लाला सचु ते सिंह सेठ
की पत्ु री यानी चाचाजी साहब की पोती थीं । और बाबजू ी महाराज
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स्वामीजी महाराज की बड़ी बहन के पोते थे । इस प्रकार दोनों पन्नी
गली में स्वामीजी महाराज के यहाँ बचपन में खेले होंगे ।
कहा जाता है कि उससे भी पहले किसी जन्म में बहनजी एक
ग्वालिन थीं जो कबीर साहब को दधू देती थीं ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-759/760/761)

177) श्री रामसिहं दफ़ादार ने चाहा कि बाबजू ी महाराज नगला


सबसख ु ा में पधार कर गाँव में सतसगं करें । महाराज ने फ़रमाया कि
किस रास्ते से जाना होगा, हम दयालबाग़ के स्वामी नगर में होकर
जाना नहीं चाहते । रामसिहं ने अर्ज़ किया कि स्वामी बाग़ की चहार
दीवारी में खिड़की है । उधर से गाँव में चलें । रामसिहं , महाराज के
लिए एक पालकी सजा कर लाए थे । महाराज ने फ़रमाया, क्या स्वांग
बना कर मझु े ले चलोगे? फिर फ़रमाया कि हम पैदल चलेंगे । मगर एक
आदमी कुर्सी ले चले । जहाँ हम थकान महससू करें गे, वहीं थोड़ी
देर कुर्सी पर बैठ जावेंगे । महाराज सारा रास्ता पैदल चले गये । जब
चमारों के मोहल्ले में पहुचँ े तब वहाँ कुर्सी पर बैठे । सब चमार घरों से
निकल कर दर्शनों को आये और कहा कि महाराज! गाँव वाले हमें
कुएँ से पानी नहीं भरने देते । महाराज चपु रहे, कुछ बोले नहीं । चौपाल
पर सतसगं हुआ और प्रशाद बँटा । गाँव वाले सब आये । प्रशाद
बाँट कर महाराज ने फ़रमाया, रामसिहं ! अब क्या है? अर्ज़ किया
कि महाराज! औरतें चौपाल पर नहीं आतीं, ऐसा दस्तूर है । महाराज
चौपाल से नीचे उतर कर कुर्सी पर विराजमान हुए । गाँव की सब
औरतों को प्रशाद मिला । तब महराज ने पीने के लिये पानी लाने को
कहा । रामसिहं गिलास भर कर लाए । महाराज ने कहा, तमु ्हारे हाथ
से पानी नहीं पीवेंगे । किसी सतसगं ी चमार से मँगाओ । तब सिब्बा
ने (जो कि जाति का चमार था और स्वामीजी महाराज के दर्शन किये
हुए था), पानी का गिलास महाराज को पेश किया और महाराज ने

109
पानी पीया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-93)

178) सिनेमा देखने महाराज नहीं गये । इलाहाबाद में


महाराज के पत्रों
ु ने बहुत आग्रह किया और ज़ोर दिया कि
एक बार देख तो आइये कि सिनेमा क्या होता है । चनु ांचे
के वल एक बार महाराज सिनेमा गये । पाँच सात मिनट
बैठ कर चले आये ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1770)

179) बाबजू ी महाराज के बटवे में भी पैसे नये और


चमकदार रहते थे व घर में ख़र्च के लिए जो रे ज़गारी व पैसे
देते थे, वह भी नए होते थे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1859)

180) एक कायस्थ सतसंगी थे । एक दिन का ज़िक्र है कि बाबजू ी


महाराज चबतू रे पर विरामान थे । चिट्टी पत्री और हिसाब देख रहे थे ।
लिखने या हस्ताक्षर करने के लिये फ़ाउंटेन पेन की ज़रूरत हुई ।
चारों ओर सतसगं ी खड़े थे । बाबू गरुु मौज सरन ने उनकी ओर देखा ।
कई लोगों ने जेब से फ़ाउंटेन पेन निकाल कर पेश किये । इत्तिफ़ाक़
से उन कायस्थ साहब का पेन महाराज के हाथ में पहुचँ ा । दस आने
की क़ीमत का फ़ाउंटेन पेन था । कुछ देर महाराज पेन को लिये रहे ।
फिर जब लिखने लगे तो उसमें रोशनाई ही नहीं निकली । कई झटके
भी दिये । वापस कर दिया । गरुु मौज सरन ने किसी दसू रे सतसंगी से
लेकर पेन दिया जिससे महाराज ने लिखा । इस घटना से उन कायस्थ
साहब पर बहुत असर हुआ । ऐसा लगा कि पेन रूप से वह ख़दु
ही महाराज के हाथ में पहुचँ े किन्तु शष्क़
ु और नीरस पाये जाने पर
ख़ारिज कर दिये गये । काम नहीं आ सके , नकारा रहे । बड़ा पछतावा
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और दख ु रहा । तब से स्वामीबाग़ को रवाना होते समय पेन में ज़रूर
रोशनाई भर लिया करते थे मगर वैसा अवसर फिर कभी नहीं आया ।
यही सोच कर संतोष कर लिया कि अतं र की सरसता तो महाराज
बख़्शेंगे, तब प्राप्त होगी । पेन महारज के हाथ मे रहा । प्रसाद तो हो
ही गया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1940)

181) एक बार का ज़िक्र है कि सतसंग समाप्त होने पर बाबजू ी


महाराज समाध से बाहर आये । दोनों ओर सतसंगी पंक्ति में खड़े थे ।
सियालकोट से एक सतसंगी आया हुआ था । उसने बाबजू ी महाराज
से तबियत का हाल पछू ा । महाराज ख़ामोश रहे, कोई जवाब नहीं
दिया । सतसंगियों पर दृष्टि डालते हुए आगे बढ़ गए । दसू रे दिन
महाराज ने सियालकोट के उस सतसंगी को अपने कमरे में बल ु ाया
और कहा कि तमु ने मेरी तबियत का हाल पछ ू ा था, मैंने जवाब नहीं
दिया । अगर सभी सतसंगी पछू ने लगें तो मैं कहाँ तक जवाब दे
सकता हूँ और क्या हालत पैदा होगी, उसका अनमु ान किया जा
सकता है । अब मैं तमु ्हें जवाब देता हूँ कि तबियत अच्छी है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-150)

182) महाराज के पिता के देहांत के बाद उनका कारोबार उनके


दोस्त नन्हे बाबू के हाथ में रहा । नन्हे बाबू महाराज को सिर्फ़ 90
रुपया महावार देते थे । किन्तु सन् 1889 ई. में जब नन्हे बाबू का
दिवाला निकल गया, ये 90 रुपये भी बंद हो गए । हज़ारों रुपये का
माल था । दक ु ान की बहुत आमदनी थी । महाराज ने कभी उनसे
हिसाब न माँगा । महाराज के चाचा ने बहुत ज़ोर दिया, मगर महाराज
ने यही फ़रमाया कि वह मेरे पिता के दोस्त हैं, उनसे क्या हिसाब
किताब करूं । वह जानें उनका इमान जाने । सब छोड़ दिया ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-2, पृष्ठ-12)

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183) जो ग्रास और प्रसाद हुज़रू महाराज देते थे, उसी को खाकर
महाराज साहब और बाबजू ी महाराज रह जाते थे । इसके सिवा और
कुछ नहीं खाते थे, चाहे कम मिले या ज़्यादा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-7, पृष्ठ-47)

184) महाराज तो समर्थ परुु ष और मसु ्तग़नी हैं । उनको किसी


चीज़ या बात की हाज़त नहीं । पर जीवों का भाग जगाने के लिए जो
जैसा है, उसके लिए वैसी ही सेवा निकालते हैं । इन्दौर से इलाहाबाद
लौटते समय हरडा स्टेशन पर एक शख़्स को लोटा देते हुए महाराज
ने कहा, एक लोटा पानी तो ला दो । धन्य भाग उसके जिससे महाराज
ने एक लोटा पानी मँगवाया ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-26, पृष्ठ-137/138)

राधास्वामी राधास्वामी राधास्वामी

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