Professional Documents
Culture Documents
Sansmaran Babuji Maharaj
Sansmaran Babuji Maharaj
बाबूजी महाराज
प्रकाशकः
श्रीमती रीता माहेश्वरी,
एन.ई.-10, स्वामीबाग़,
आगरा - 282 005
ई-मेल : rsfaithsoamibaghagra@gmail.com
वेबसाईट : www.radhasoamifaith.org
न्यौछावर : ` 20 /-
प्रस्तावना
संत, साध और ऊंचे दर्ज़े के महात्मा वगै़रा ने बाहर में
करामात और पर्चा देना रवां नहीं रखा है । अगर अपने खास भक्तों के
लिए ज़रूरत हो तो उनकी तकलीफ़ और दिक़्क़त को दया से ऐसे तौर
से रफ़ा कर देते हैं या उनमें सहूलियत पैदा कर देते हैं कि उसको देख
कर सबको अचरज तो ज़रूर होता है मगर वह करामात और पर्चे के
रूप में नहीं होता । जैसे अचानक पाँव फिसल गया और गिर गए, या
कोई चीज़ गिरी, मगर उसी वक़्त कोई रुकावट पैदा हो गई और वह
चीज़ बच गई । इस तरह से दया से भक्तों की मदद और रक्षा होती है
जिसको देखकर सब अचरज करते हैं कि यह मदद और रक्षा और
सम्हाल किधर से और कै से हुई । अगर गहरा भक्त हो तो वह समझ
सक्ता है कि यह मालिक की दया और मौज से हुआ । दनि ु यादार नहीं
समझ सकते हैं ।
(बचन बाबजू ी महाराज, दिनांकः 25.12.1938, पैरा-728/8)
बाबजू ी महाराज व उनके सतसंग का हाल “जीवन चरित्र
बाबजू ी महाराज” में समाविष्ट है । फिर भी बाबजू ी महाराज से
सम्बंधित, प्रेमी सतसगि
ं यों के अनेकों तज़रुबे, अतं री प्रेरणाएँ व
संस्मरण और उनकी दया के पर्चे, सतसंग के साहित्य में कई और
जगहों पर प्रकाशित हुए हैं । उनको पढ़ने से नई उमगं , प्रेम व प्रतीत
का प्रवाह होता है व थोड़ी-बहुत परमार्थी समझ भी बढ़ती है । इन्हीं
को एक जगह संकलित करने के इरादे से इस पस्ति ु का का सजृ न हुआ
है ।
सन् 2018 में, परम परुु ष परू न धनी स्वामीजी महाराज की
द्वितीय जन्म शताब्दी का अवसर, सभी सतसगं ी भाई व बहिनों के
लिए खास दया से परिपर्णू है । इस अवसर के कुछ समय पहले व बाद
में निम्न नई पसु ्तकें प्रकाशित हुई हैं :
1. परम परुु ष परू न धनी स्वामीजी महाराज की द्वितीय जन्म शताब्दी
2. राधास्वामी मत : एक संक्षिप्त परिचय
3. गढ़त
4. भक्ति और प्रेम
यह, हिदं ी व अग्ं रेज़ी भाषा दोनों में उपलब्ध हैं । इसी
सिलसिले में यह पांचवी पसु ्तक है । आशा है कि इन को पढ़ने व
मनन करने से सतसगिं यों में प्रेम व भक्ति और मालिक के चरनों में
अधिक विश्वास जागतृ होगा ।
12
पर कहा कि महाराज सफ़े द क़मीज़ पहने हुए थे, सफ़े द चद्दर ओढ़े हुए
थे और पलंग पर बिराजे हुए थे । पछू ने पर यह भी कहा कि इलाहाबाद
वाले महाराज थे जिनके दर्शन एक दफ़ा अजमेर में और तीन दफ़ा
भडं ारों के सअु वसर पर आगरा में किए थे । उसके पीछे अभी तक तो
तबियत ठीक है । न अब तक कोई दौरे वग़ैरा हुए और न कोई क़िस्म
की तक़लीफ़ है । हिम्मत व कड़क (तेज़ी) पहले की तरह क़ायम है और
सही सलामत है ।
अब तो ऐसी दया हुज़रू के चरन कँ वलों से चाहते हैं कि इसके
delivery बच्चा सगु मता से हो जावे । लड़की बहुत सश ु ील, सास की
आज्ञाकारी और हितचितं क है । रोज़ रात को सास के पाँव दबाती है ।
जब से अजमेर में हुज़रू से उपदेश लिया, तभी से सबु ह शाम समि ु रन व
ध्यान करती है और कर्म भर्म, मरू त पजू ा, उपवास, व्रत वग़ैरा कुछ भी
नहीं करती । सिर्फ़ हुज़रू के चरन कँ वलों का ही आसरा व भरोसा रखती
है । ज़्यादा हाथ जोड़ मत्था टेक राधास्वामी, राधास्वामी ।
दासानदु ास
तलु सी
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-272)
14
13) इगं लैंड से श्री वज़ीरचदं आये हुए थे । उन्होंने बतलाया कि
स्वामीजी महाराज के भडं ारे के दिन रात बारह बजे समाध में जो
सतसंग हुआ करता है, उसमें एक वर्ष ऐसा हुआ कि ठीक सतसंग के
वक़्त मसू लाधार वर्षा हुई । मैं और मेरे बहनोई श्री रामरतन दोनों छाते
लगाकर गये । समाध पर पहुचँ ते पहुचँ ते तरबतर हो गये । सतसंग में
मश्क़िल
ु से बीस आदमी होंगे । दसू रे दिन सबु ह सतसंग में बाबजू ी
महाराज तख़्त पर विराजमान हुए कि फ़रमाया, रात कौन कौन सतसंग
में आया था? सब हक्के बक्के रह गए । क्या जवाब दें? जैसा कि
ऊपर लिखा गया है, मश्क़िलु से बीस आदमी रात सतसंग में आए
होंगे । महाराज ने फ़रमाया कि जो लोग रात के सतसंग में आए थे,
वह आज दिन में हमारे यहाँ खाना खावेंगे । महाराज ने गरुु मौज सरन
से सख़्ती से कह दिया था कि जो रात समाध के सतसंग में नहीं गया
था, उसे खाना न खिलाया जावे । वज़ीरचदं कहते हैं कि मैं और मेरे
बहनोई श्री रामरतन ने बड़े मज़े से महाराज के घर पर खाना खाया
और चार बजे चाय का प्रशाद भी मिला । वह कहते हैं कि जब
बाबजू ी महाराज विराजमान थे तो कोई टोकने वाला और झटका देने
वाला तो था । अब कौन है? कोई किसी से कुछ पछू ने वाला या कहने
वाला नहीं है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-499)
16
16) दसौंधीराम बोगरे का धनबाद माइनिंग कॉलेज में दाख़ला
हो गया था । वहाँ के रास्ते में इलाहाबाद पड़ता है । इसलिए आते
जाते अक़्सर यह इलाहाबाद ठहरा करते थे । श्री रोड़ाराम, जो इनकी
बहन के ससरु थे, की मार्फ़ त सतसंग में लगे और बाबजू ी महाराज से
उपदेश लिया । इजं ीनियर बन जाने पर अर्से तक इनकी नौकरी नहीं
लगी । बाबजू ी महाराज को अर्ज़ मारूज़ करते रहते थे । उचित समय
पर फ़रमाया, “गरुु मौज सरन! अब इसका भाग्य जागेगा । इतने दिनों
किसी परु ाने कर्म की वजह से रुकावट पैदा हो रही थी ।” उसके बाद
फ़ौरन ही यह पब्लिक सर्विस कमीशन के इम्तिहान में प्रथम आये
और इनको नौकरी मिल गई । तरक़्क़ी करते करते चीफ़ माइनिंग
इजं ीनियर के पद पर पहुचँ े ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-6, गरुु साखी-210)
17) गया निवासी श्री गरुु देव शरन ने संतदासजी को कुछ संस्मरण
इस प्रकार लिख कर भेजे थे —
सन् 1919 में हम लोग इलाहाबाद में थे । मेरी तन्दुरुस्ती
ख़राब थी । Angina Pectoris (दर्द सीना, जो हृदय की दर्बल ु ता
में ज़्यादा काम करने से होता है) का शक़ था। बारह साल के लड़के
के लिए यह बहुत चिन्ताजनक बात थी । डाक्टर सरकार और डाक्टर
मलिक, दोनों इलाज करते थे । फ़ायदा नहीं हुआ । आख़िर डाक्टर
मलिक ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि कौन सी दवा दी जाय।
बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि महाराज साहब ने जो दवा फ़रमाई
थी, वही दो । डाक्टर साहब ने चरनामतृ भेज दिया । मैं दवा समझ
कर पी गया । उस रात ख़बू नींद आई। सबु ह डाक्टर साहब से कहा
कि दवा से फ़ायदा हुआ । डाक्टर साहब ने कहा, अच्छा! आज एक
बोतल भेज देंगे, दिन भर में पी जाना । मैंने वैसा ही किया । दो चार
दिन के बाद बाबजू ी महाराज ने डाक्टर साहब से पछू ा कि कौन दवा
17
दी थी जो दो दिन में ही ठीक हो गया । डाक्टर साहब चपु रहे । फिर
अर्ज़ किया, “महाराज साहब का मख ु ामतृ ।” बाबजू ी महाराज ने हँस
कर फ़रमाया, “अगर तमु पानी भी देते तो अच्छा हो जाता । महाराज
साहब का बचन थोड़े ही ग़लत होता ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-52/छ)
19) अपनी गजु रात यात्रा में बड़ौदा के आर्य कन्या महाविद्यालय
में जाने का प्रोग्राम था । फ़र्श पर दरी चाँदनी बिछाकर सब लोगों के
बैठने का इतं ज़ाम था और महाराज के लिए गद्दा और मसनद लगाए
गये थे । महाराज के सन्मुख लड़कियों ने भाँति भाँति की क़सरतें,
लाठी तलवार आदि हथियारों के क़रतब, तीर, क़मान चलाना वग़ैरा
वग़ैरा बहुत सी चीज़ें दिखलाई ं । गाना भी गाया, बाजा भी बजाया
और नाच भी किया । इस ख़ास क़िस्म के नाच को जो गजु रात में
होता है, ‘गरबा’ कहते हैं । सबसे अतं का प्रोग्राम यह था कि एक
फूल माला महाराज के सिर पर पतले धागे से लटकाई गई । तब एक
लड़की ने निशाना ताककर तीर चलाया, जो उस धागे को काटता
18
हुआ निकल गया और फूल माला महाराज के गले में पड़ गई ।
चलते समय लड़कियों की तरफ़ से महाराज को अर्ज़ किया गया कि
आशीर्वाद दें । महाराज ने फ़रमाया, “सत्य सख
ु प्राप्त हो ।”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-21, पृष्ठ-106/107)
20) मौजदू ा समाध का हॉल सन् 1925 ईसवी में बना । यह हॉल
उसी नींव या बनि
ु याद पर बना हुआ है जो महाराज साहब ने समाध
के लिए सन् 1904 ईसवी में डाली थी । जब पहले पहल इस हॉल
में सतसंग हुआ, तो लड्डुओ ं का प्रसाद बँटा था । लाला तोताराम
इजं ीनियर साहब को बाबजू ी महाराज ने दस लड्डू दिए और हँसकर
फ़रमाया — “दस मक़ु ाम को ले पहुचँ ावे”
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-35, पृष्ठ-198/199)
22) अन्तर्ध्यान होने से कुछ मिनट पहले महाराज के चेहरे में बड़ा
ज़बरदस्त आकर्शण था । उस समय की छबि देखने योग्य थी । बड़े
भाग्य उनके जिन्होंने उस छबि के दर्शन किये । चेहरे पर नरू बरस रहा
था । देखने वालों पर खिचं ाव का भारी असर था और मालमू होता
19
था कि वह भी खिचं रहे हैं । इस खिचं ाव की हालत में जिसने जितनी
ज़्यादा तवज्जह से दर्शन किया, उसने ज़रूर उतना ही ज़्यादा रूहानी
फ़ायदा उठाया । सतसंगियों के खिचं ाव की हालत देखने से भी किसी
क़दर रूहानी फ़ायदा होता है जैसा कि हुज़रू महाराज ने महाराज
साहब को उनकी माता के बारे में लिखा था । फिर संतों के खिचं ाव
की हालत में दर्शन से जो फ़ायदा हासिल होता है, वह तो बयान से
बाहर है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -2, अध्याय-2, पृष्ठ-458/459)
23
उसी ग़सु ्लख़ाने में पाँव फिसल कर गिर जाने से हड्डी टूट
गई और डाक्टर कै लाशनाथ का तारीख़ 26.06.1948 को चोला
छूट गया । एक सतसंगी को उसकी चिट्ठी के जवाब में महाराज
ने लिखाया कि कै लाश ऊँचे मक़ ु ाम से आया था और फिर ऊँचे
देश में बासा पाया है । इसलिये रंज या अफ़सोस करने की ज़रूरत
नहीं । किसी मौक़े पर बाबजू ी महाराज ने डाक्टर कै लाशनाथ के
लिये फ़रमाया था कि यह इनके ख़ानदान में हीरा है ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-55, पृष्ठ-340)
28
39) एक समय गरुु देवदासजी महर्षि को कोई शारीरिक व्याधि
हुई । बाबजू ी महाराज ने इनको डाक्टर मलिक के पास भेजा जो कि
सतसंगियों को दवा मफ़ु ्त दिया करते थे । डाक्टर साहब ने नसु ख़ा लिख
दिया । यह कम्पाउन्डर के पास गए । उसने दवा देने में आनाकानी
की । बहुत ढील ढाल के बाद बड़बड़ा कर दवा दी । महर्षिजी ने
महाराज से अर्ज़ किया । दसू रे या तीसरे दिन जब डाक्टर साहब
सतसंग में आए तब बाबजू ी महाराज ने उनसे कहा, “जब सतसंग
का कोई आदमी दवा लेने जाता है तो तमु ्हारा कम्पाउन्डर काटता
और ग़रु ्राता है । Take the first chance to turn him out (जल्द
से जल्द कोई मौक़ा आते ही उसे निकाल बाहर करो) ।” ऐसी मौज
हुई कि तीन दिन बाद उस कम्पाउन्डर का इन्तक़ाल हो गया ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-38, पृष्ठ-203/204)
32
महावीर पांडे) ने हिम्मत बाँध कर बाबजू ी महाराज के चरनों में मत्था
टेक दिया । महाराज ने डांट कर कहा, “क्या ख़रु ाफ़ात करते हो?
अतं र में चरनों पर गिरना चाहिये ।”
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-42, पृष्ठ-218)
52) सन् 1937 ईसवी में महाराज दबु ारा इदं ौर पधारे थे । अन्य
सतसंगियों में एक सिंधी सतसंगी हकीम बिशनदास भी गए थे ।
महाराज के बड़े पत्रु छुट्टन बाबू को कुछ खजु ली की शिकायत थी ।
उन्होंने हकीम बिशनदास से परचा लिखाया । छुट्टन बाबू ने मज़ं रू ी
के लिए उस परचे को महाराज को दिखलाया । महाराज ने हकीम
बिशनदास को बल ु ाया और कहा कि ये नसु ्ख़ा तमु ने लिखा है? इसमें
पारा है? अर्ज़ किया, जी महाराज । इस पर महाराज ने फ़रमाया कि
पारा सतसगिं यों के प्रयोग की चीज़ नहीं है, पारा नहीं मिलाया जायगा । फिर
महाराज ने हकीम बिशनदास से पछ ू ा कि गंधक शद्ध ु करना जानते
हो? जवाब में हाँ कहने पर फ़रमाया कि थोड़ी गंधक शद्ध ु कर दो और
संतदास को साथ ले लो जिससे वह भी सीख जाय ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1574)
36
सतसगं ख़तम होने पर बाबजू ी महाराज के सामने लाये जाते थे ।
महाराज मटकने से एक घटँू पी लिया करते थे । इलाहाबाद का ज़िक्र
है कि एक रोज़ महाराज हाथ में मटकना लेकर तख़्त से उठ गये और
बाहर आकर, जहाँ सब सतसंगी खड़े होते थे और प्रशाद की चाय
या शर्बत पीया करते थे, वहाँ एक पेड़ के नीचे खड़े हो कर महाराज
ने शर्बत पीया और मटकना वहीं फें क दिया जैसा कि अन्य सतसंगी
किया करते थे । महाराज ने फ़रमाया कि किसी को यह ख़्याल न हो
कि लाइन में खड़े होकर मटकने में चाय या शर्बत लेकर सबके साथ
पीने में मान हानि होती है । इसलिए हमने सब की तरह मटकने में
शर्बत पीया है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1914)
38
कबीर साधू दरश तें, उतरे भौजल पार ।।
एक दिना नहिं कर सके , तो दजू े दिन कर लेय ।
कबीर साधू दरश तें, पावे उत्तम देह ।।
दजू े दिन ना कर सके , तीजे दिन कर जाय ।
कबीर साधू दरश तें, मोक्ष मक्ति ु फल पाय ।।
तीजे चैथे ना करे तो, वार वार कर जाय ।
या में विलम्ब न कीजिये, कहें कबीर समझु ाय ।।
वार वार नहिं कर सके , तो पक्ष पक्ष कर लेय ।
कहें कबीर सो भक्त जन, जनम सफल ु कर लेय ।।
पक्ष पक्ष नहिं कर सके , तो मास मास कर जाय ।
या में देर न लाइये, कहें कबीर समझु ाय ।।
मास मास नहिं कर सके , तो छठे मास अलबत्त ।
या में ढील न कीजिये, कहें कबीर अवगत्त ।।
छठे मास नहिं कर सके , बरस दिना कर लेय ।
कहें कबीर सो भक्त जन, जमै चिनौती देय ।।
बरस दिना नहिं कर सके , ता को लागे दोष ।
कहें कबीरा जीव सों, कबहुँ न पावे मोश ।।
जो लोग बाहर रहते हैं उनके लिए बारह महीना कहा है । जो
लोग इलाहाबाद में ही रहते हैं, उनके लिए नहीं । मिस्टर एम. ने कहा
कि नहीं महाराज! मैं शाम को रोज़ आ सकँू गा । महाराज ने फ़रमाया
कि दिल की तड़प पर मनु हसर है । दनिु यावी मतलब से दिन में सैंकड़ों
जगह इन्सान जाता है । लेकिन सतसंग में नहीं आ सकता । अब तमु ्हें
प्रण करना चाहिये कि अगर सात दिन तक सतसंग में न आओ या
न आ सको तो आठवें दिन खाना न खाओ, जब तक कि सतसंग
में न आओ । अगर सतसंग में सतगरुु विराजमान न हों तो भी जहाँ
सतसंग होता है, वहाँ राधास्वामी दयाल की छाया है, वहाँ जाने और
सतसंग करने से दिल को शांति मिलती है । सतसंग करना तो क्या,
जिस मकान में सतसंग होता है उसके पास से निकल जाने पर भी
शांति प्राप्त होती है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-60)
39
57) एक दफ़ा हुज़रू महाराज के दामाद लाला राजनरायणजी
बाबजू ी महाराज के सतसंग में आए और बोले कि मैं बल ु बल
ु हज़ार
दास्तान (बाबजू ी महाराज) की शीरीं कलामी (मीठी आवाज़) सनु ने
आया हूँ । महाराज ने जवाब दिया कि वह बल ु बल
ु हज़ार दास्तान
(अच्छी और बढ़िया बातें करने वाली) यहाँ नहीं बोलती । वह तो
ऊँचे घाट पर बोलती है । जिसको सनु ने का शौक हो, अतं र में बैठकर
सनु े ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-70)
67) सन् 1937 ईसवी में जब महाराज दबु ारा इदं ौर गये, खडव
ं ा
जक
ं शन पर स्टेशन के खोमचे वाले से ख़रीद कर कलाकंद महाराज
44
ने खाया और बहुत मिक़दार में खाया । सोचने की बात है कि स्टेशन
का कलाकंद कै सा होगा और वह भी ज़्यादा मिक़दार में महाराज ने
खाया । उस कलाकंद के ज़रिये न मालमू कितने जीवों पर महाराज ने
अपनी क़शिश का असर पहुचँ ाया होगा ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-498)
68) अपनी बिमारी के कारण महाराज चपु चाप लेटे रहते थे,
इसका अर्थ चदं नादानों ने कुछ का कुछ लगाया । एक बार का ज़िक्र
है कि एक महिला ने अपने ख़ास तर्ज़ से कहा “अरे , महाराज तो
बे-होश पड़े हैं, महाराज को क्या ख़बर कि बाग़ में क्या हो रहा है ।”
महाराज बिना सहारे के अपने आप सिर और छाती नहीं उठा सकते
थे । मगर उस महिला ने जो यह बात कही तो महाराज उचक गये और
बड़ी ज़ोर से कहा, “महाराज को सब ख़बर है ।”
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-831)
70) सन् 1937 ईसवी में दसू री इदं ौर यात्रा में डाक्टर उमराव
45
राजालाल के पत्रु जर्मनी से जर्मन पत्नी को लेकर आये थे । महाराज
उनसे अग्ं रेज़ी में बोलते थे मगर फिर हिन्दी शरू
ु कर देते थे । महाराज
ने डाक्टर साहब की जर्मन पतोहू से कहा कि हिन्दी में बचन कहने
से आप कुछ न समझ सकती होंगी । पर, इसकी परवाह नहीं । आप
सनु े जाइये । यह सब शब्द आपके मनाकाश में अकि ं त होते हैं और
उचित समय पर काम देंगे ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1575)
72) बनारस के एक सतसंगी श्री मनिन्द्र ु नाथ दास हैं । सन् 1904
ईसवी में जन्म हुआ था । डेढ़ वर्ष की उम्र में माँ बाप दोनों चले गये ।
बड़े होने पर इस बात का बड़ा क़लक़ (अफ़सोस, व्याकुलता, बेचनै ी,
दखु , कष्ट) रहता था कि स्कूल में सब लड़कों के बाप हैं, हमारे बाप
नहीं हैं । हमारा बाप कै सा होगा, हमने बाप को नहीं देखा । जब यह
13 वर्ष के थे, एक दिन स्वप्न देखा कि इनके घर के सामने सड़क
पर दो घोड़ों की एक गाड़ी आकर रुकी । किसी ने इनको बल ु ाया,
“लड़के , इधर आओ ।” पास जाने पर इनसे कहा, “तमु अपने बाप
को नहीं जानते? देखो गाड़ी में तमु ्हारे बाप बैठे हैं ।” गाड़ी में बाबजू ी
महाराज और गरुु मौज सरन थे ।
इस स्वप्न के नौ वर्ष पश्चात् यानी सन् 1926 ई. में इन्होंने
नैयांजी साहबा से उपदेश लिया । जब इलाहाबाद किसी काम से
जाना हुआ, सतसंग में भी गये । वहाँ पहले पहल बाबजू ी महाराज के
दर्शन जो किये तो यह अचम्भे में रह गये कि यही तो गाड़ी में बैठे थे
और इन्हीं को बतलाया था कि यह मेरे बाप हैं । स्वप्न में जो बाबजू ी
महाराज के दर्शन हुए थे, वह दर्शन आज भी इनको उसी प्रकार याद
हैं ।
उसके बाद जब इलाहाबाद आते, बाबजू ी महाराज का
सतसंग करते, दर्शन करते, भेंट करते और प्रशाद लेते । बाबजू ी
महाराज इन से हाल चाल पछू ते । बनारस भडं ारे पर बाबजू ी महाराज
पधारते, तब भी भेंट करते, प्रशाद लेते और उनके निवास स्थान
पर सतसंग में शरीक़ होते । मगर इनको कभी यह ख़्याल नहीं पैदा
हुआ कि नैयांजी साहबा का उपदेश क़ाफ़ी नहीं है, संत सतगरुु वक़्त
47
बाबजू ी महाराज से उपदेश लेना चाहिए ।
मोज़े बनियान (होज़ियरी) का काम यह खबू जानते थे बल्कि
इस काम में माहिर थे । लधि ु याना वग़ैरा कई जगहों पर काम सीखा
था । दयाल बाग़ में होज़ियरी डिपार्टमेंट के मैनेजर एक मिस्टर सियाल
थे । वह अपनी बिज़नेस के सिलसिले में बनारस गये थे । उन्होंने
कहा कि तमु सतसंगी हो, दयाल बाग़ आकर कुछ सेवा करो । यह
दयाल बाग़ चले आये और वहाँ नौकरी कर ली । उन्हीं दिनों बाबजू ी
महाराज मसु ्तक़िल तौर पर आगरा आये थे । चनु ाँचे श्री मनिन्द्र
ु नाथ
दास स्वामीबाग़ बाबजू ी महाराज के पास आया करते थे । इनसे पछू ा
कि दयाल बाग़ वालों को मालमू था कि आप स्वामीबाग़ के सतसंगी
हैं? इन्होंने कहा कि हाँ । फिर पछू ा कि आपको निकाल नहीं दिया?
इन्होंने जवाब दिया मझु े निकाल नहीं सकते थे । मैं होज़ियरी की
मशीन का मिके निक था और मेरे बराबर कोई होशियार आदमी उन्हें
नहीं मिल सकता था ।
लेकिन कुछ दिनों बाद इनकी तबियत दयाल बाग़ से उचट
गई । होते होते एक दिन इनके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि बस,
अब यहाँ नहीं रहना है । अपना सामान लेकर दयाल बाग़ से चल
दिये । उस वक़्त इनके पास के वल छः सात रुपये थे जिसमें आगरा
से बनारस तक का रे ल टिकट ख़रीदा जा सकता था । इनके दिल में
संकल्प विकल्प उठने लगे कि बाबजू ी महाराज को एक रुपया तो
भेंट करना ही चाहिए । बिना भेंट किये तो नहीं जाना चाहिए । मगर
एक रुपया भेंट में चला गया तो बनारस का टिकट नहीं ख़रीदा जा
सके गा । क्या करना चाहिए? इन्होंने निष्चय किया कि आगरे से
कानपरु बिना टिकिट के यानी चोरी से चला जाय । कानपरु से बनारस
का टिकट ख़रीद लिया जाय । चनु ांचे दयाल बाग़ से निकल कर यह
स्वामीबाग़ आये और हथेली पर एक रुपया रख कर बाबजू ी महाराज
को भेंट पेश की । पछ ू ा क्या बात है? जवाब दिया कि मैं बनारस जा
48
रहा हूँ । महाराज ने फ़रमाया, हाँ! महाराज ने इनकी हथेली में रुपये छू
कर छोड़ दिया । भेंट का रुपया लिया नहीं । इससे इनके दिल में बड़ी
हलचल मच गई कि आज तक मेरी भेंट ना-मज़ं रू नहीं की । आज
महाराज ने मेरी भेंट नहीं ली, क्या हुआ? ज़मीन फट जाय तो उसमें
धँस जाऊँ । बड़ा अफ़सोस हुआ । ख़ैर, स्टेशन पर पहुचँ कर ख़्याल
आया कि महाराज ने रुपया इसलिये नहीं लिया कि टिकिट की चोरी
करनी पड़ती । इन्होंने सोचा कि अब कानपरु तक बिना टिकिट के ,
चोरी से क्यों जाऊँ? इन्होंने परू ा आगरे से बनारस का टिकट ले लिया ।
इस अतं र्यामता के परचे से इनको ख़्याल पैदा हुआ कि संत सतगंरु
वक़्त बाबजू ी महाराज हैं । अभी तक उनसे उपदेश नहीं लिया, बड़ी
ग़लती हुई । थोड़े दिनों बाद बनारस से आगरा आकर सन् 1938 ई.
में बाबजू ी महाराज से उपदेश लिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1732से1736)
73) स्कूल के पीछे जो कुआँ है, उसे कुआँ नम्बर 3 कहते हैं । इस
पर टंकी डाक्टर एण्डला ने बनाई थी । एक दिन बाबू गरुु मौज सरन
ने बाबजू ी महाराज से अर्ज़ किया कि हर तीसरे , चौथे, पांचवे दिन
डाक्टर एण्डला आता है और टंकी के लिए पांच हज़ार, दस हज़ार
माँगता और ले जाता है, तो क्या करें ? दिए जावें? बाबजू ी महाराज
मसु ्कराये और एक मिनट चपु रह कर फ़रमाया “भाई, आजकल जो
पैसा आ रहा है, वह ब्लैक मनी (काला धन) है, दिए जाओ ।”
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-230)
59
87) इलाहाबाद में एक दिन बाबजू ी महाराज ने मास्टर दयाराम
लेखराज किरपालानी से कहा कि यहाँ बैठे बैठे क्या करते हो, आगरे
क्यों नहीं जाते? जाओ, अभी आगरे जाओ । मास्टर साहब ने सोचा
कि कोई काम तो नहीं है । किसलिये आगरे जाऊँ? मगर हुक़्म था,
रवाना हो गये । उनका दस्तूर था कि स्टेशन से पीपलमडी ं जाते और
हुज़रू महाराज की समाध पर मत्था टेकते, फिर पन्नी गली जाते, वहीं
ठहरते थे । उस मर्तबा आगरा फोर्ट स्टेशन पर उतरे तो दिमाग़ में कुछ
लहर सी आई, सीधे स्वामीबाग़ गये । वहाँ भाई साहब सेठ सदु र्शन
सिंह बड़ी घबराहट में थे । पहले दिन उनके पास दयालबाग़ के 5-7
आदमी आये थे और किसी जशन या उत्सव के नोटिस पर दस्तख़त
करने के लिये उनसे कहा था और बहुत ज़ोर डाला था । भाई साहब
तय न कर सके कि दस्तख़त करें या न करें । ख़ैर, यह कह कर जान
छुड़ाई कि कल आना । भाई साहब ने मास्टर साहब से सब हाल
कहा । मास्टर साहब ने मशवरा दिया कि हरग़िज़ दस्तख़त नहीं करने
चाहिये । मक़ ु दमा चल रहा है । यह उनकी चाल है । चनु ांचे जब
दयालबाग़ वाले आए, भाई साहब ने दस्तख़त करने से इनकार कर
दिया । दयालबाग़ियों में से किसी ने फ़िक़रा कसा कि क्या दयाराम
मास्टर पहुचँ गये हैं? उनसे दयालबाग़ वाले घबराते थे ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-272)
88) श्री चनु ्नीलाल जी, रिटायर्ड असिस्टेंट डाइरे क्टर इडस्ट्
ं रीज़,
झज्झर (हरियाणा) ने संतदाजी को लिखा था —
सन् 1941 की बात है । देहली के एक कायस्थ पेशकार
साहब, उनका नाम विश्वम्भर दयाल था, बढू े और बहुत कमज़ोर हो
गये थे । समाध में दर्शनों के लिये भी न जा सकते थे । चबतू रे को
काट कर, एक टेढ़ा, बग़ैर पैड़ियों का, ज़रा लम्बा ढाल देकर, रास्ता
बनाया था कि जिससे महाराज सहूलियत से चल कर समाध के अदं र
60
जा सकें । पेशकार साहब इस रास्ते पर चबतू रे से लग कर खड़े हो
जाया करते थे कि महाराज जिस वक़्त सतसंग में जायें और वापिस
आयें, दर्शन और दृष्टि मिल सके । एक रोज़ शाम के सतसंग के बाद
महाराज दाता छुट्टन बाबू के कंधे पर बायाँ हाथ रक्खे और दायें हाथ
में छड़ी लिये हुऐ आहिस्ता-आहिस्ता ढालू रास्ते से समाध के चबतू रे
से निकले और दोनों तरफ़ खड़े हुए सतसंगियों पर दृष्टि डालते हुए
चलने लगे । मैं भी महाराज के पीछे -पीछे था । मेरे और महाराज के
बीच में चार पाँच सतसंगी और थे । जिस वक़्त महाराज पेशकार
साहब के पास से गज़ु रे तो मौज से दृष्टि उन पर नहीं पड़ी । महाराज
की दृष्टि दसू री तरफ़ थी । जब महाराज पेशकार साहब से पाँच सात
क़दम आगे चले गये तो पेशकार साहब ने बड़ी दर्द भरी चीख़ मारी
“दाता”, मगर होठों में ही रही । बहुत अतं र से पक ु ार थी । मैं उनके
नज़दीक था, मैंने सनु ी थी। मगर मेरा ख़्याल है कि छुट्टन बाबू या
महाराज के साथ उस वक़्त जो सतसंगी थे, उन्होंने नहीं सनु ी । लेकिन
पकु ार होते ही महाराज एक दम चौंके और बड़े ज़ोर से बोले “कौन”?
उसी वक़्त महाराज ने हाथ छुट्टन बाबू के कंधे से हटाया और बग़ैर
सहारे के वापिस आये । मैंने और अन्य सतसंगियों ने जो बीच में थे,
महाराज के लिये रास्ता छोड़ दिया । महाराज सीधे पेशकार साहब के
सामने आकर खड़े हुए । उन पर देर तक दया भरी दृष्टि डाली जिससे
उनका अगं अगं शीतल हो गया । महाराज फिर छुट्टन बाबू के कंधे पर
हाथ रखे हुए आहिस्ता-आहिस्ता कोठी पर आ गये । महाराज दाता
ने परचा दिया कि वह अतं र्यामी हैं, सच्चे दीन दयाल हैं और अतं र के
अतं र से निकली हुई सरु त की पकु ार को बर्दाश्त नहीं कर सकते ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-195/ऐ)
90) सन् 1937 में रे ल द्वारा अपनी द्वितीय इदं ौर यात्रा में इन्दौर
से पहले एक स्टेशन बढ़वाहा आता है । स्टेशन पर बहुत से सतसंगी
आए थे । प्लेटफ़ार्म खल ु ा था और धपू बड़ी सख़्त पड़ रही थी । सब
लोग धपू में खड़े खड़े दर्शन करने लगे । महाराज ने फ़रमाया कि
खिड़कियाँ बंद कर दो और इन लोगों से कहो कि जायँ । ऐसी सख़्त
धपू में खड़े रहेंगे तो बीमार पड़ जावेंगे । सब सतसंगियों ने घबराकर
अर्ज़ किया, कि महाराज! खिड़कियाँ न बंद कराइये, दर्शन करने
दीजिये । हम लोग तो गाँव के रहने वाले किसान हैं। हम तो धपू ही में
काम किया करते हैं । मौज ऐसी हुई कि इतने में ही धपू ग़ायब हो गई
और बदली छा गई । गाड़ी बहुत देर तक स्टेशन पर खड़ी रही । सब
लोगों ने ख़बू दर्शन किए ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-26, पृष्ठ-137)
91) अक्सर महाराज बाग़ में पैदल घमू ने निकल जाया करते थे।
कभी तो सिर्फ़ बहनजी और दो-चार ख़ास ख़ास शख़्स साथ होते,
कभी सब सतसगं ी पीछे पीछे चलते । फुलवारी में, चमन में, खेतों में,
जिधर मौज हुई, निकल जाते । महाराज न जाते तो बहनजी हठ कर
के ले जातीं । खेतों में से तरकारी या फल उसी वक़्त तोड़ कर पेश
62
किए जाते । एक दफ़ा हरी मिर्चें पेश की गई ।ं महाराज ने एक किनका
खाकर बाक़ी पास खड़े वालों को दे दीं । थीं तो मिर्चें, मगर महाराज
की चखी हुई औरं प्रसादी की हुई थीं
ं । सब ने खाई ।ं ग़ज़ब की तीक्ष्ण
थीं । खाते ही महँु जल गया । बड़ा मज़ा रहा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-38, पृष्ठ-237/238)
92) एक दफ़ा समाध के पास जहाँ पत्थर चीरे जाते हैं, जाना हुआ ।
बहनजी ने अर्ज़ किया, महाराज! स्वामीजी महाराज की समाध के
लिए पत्थर बन रहे हैं, ज़रा आप भी आरा चलाइये । मज़दरू को
हटाकर एक पत्थर पर महाराज बैठ गए और दो-तीन मिनट तक आरा
चलाया ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-38, पृष्ठ-238)
63
महाराज मोटर में बैठ कर साबरमती आश्रम की ओर रवाना हुए ।
मगर मौज ऐसी हुई कि रास्ते में एक गड्ढे में मोटर के पहिये कीचड़
में फँ स गए । सतसंग का वक्त हो गया था । मोटर वापिस आ गई और
इस प्रकार साबरमती आश्रम में महाराज का पधारना नहीं हुआ ।
(राधास्वामी की भक्तमाल, अध्याय-44, पृष्ठ-228/229)
96) सन् 1930 ईसवी में कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह आदं ोलन
किया था । अग्ं रेज़ सरकार सत्याग्रहियों को पकड़ कर जेलख़ाने में
बंद कर रही थी । तारीख़ 11 अप्रेल सन् 1930 ईसवी को बाबू
परुु षोत्तम दास टंडन व अन्य कांग्रेसियों ने इलाहाबाद शहर में नमक
बना कर नमक क़ाननू तोड़ा था । दसू रे दिन सबु ह बाबू परुु षोत्तम
दास टंडन सतसगं में आये । गिरफ़्तार हो जाने की सम्भावना थी ।
उनका क़ायदा था कि गिरफ़्तार होने से पहले और छूटने पर बाबजू ी
महाराज के दर्शन व भेंट करने को आया करते थे । महाराज ने हँस कर
पछू ा, नमक तो नहीं लाए हो! दस पन्द्रह मिनट बातचीत हुई । उन्होंने
भेंट की । महाराज ने फिर हँसते हुए फ़रमाया कि नमक बेच कर तो
पैसा नहीं लाये हो! बातचीत के सिलसिले में महाराज ने पछू ा कि
गांधी, नेहरू इत्यादि नेताओ ं में से कौन गिरफ़्तार हुआ व किसके कब
गिरफ़्तार किए जाने की संभावना है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1689)
64
97) तारीख़ 14 अप्रेल सन् 1930 ईसवी को बाबू परुु षोत्तम दास
टंडन फिर सतसंग में आये । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया कि जब हम
छोटे थे, हमारे गाँव में ख़बू नमक बनता था और बहुत सस्ता मिलता
था । अभी तो अग्ं रेज़ सरकार ने बंद कर दिया है ।
महाराज ने पछ ू ा कि क्या खाते हो? बाबू परुु षोत्तम दास टंडन
ने अर्ज़ किया कि कच्ची तरकारियां और फल । महाराज ने फ़रमाया
ऊट पटाँग चीज़ें खा खाकर अपनी सेहत बिगाड़ रहे हो । आज हमारे
यहाँ का खाना खाओ, और तमु ्हारा तो हक़ है, क्योंकि हमारे यहाँ
खाये हुये बहुत दिन हो गये हैं । साढ़े ग्यारह बजे आ सकोगे? बाबू
परुु षोत्तम दास टंडन ने कहा कि आ जाऊँगा ।
मगर मालमू हुआ कि नैनी में जवाहर लाल नेहरू गिरफ़्तार
हो गये । महाराज के यहाँ खाना खाने को टंडनजी न आ सके । शहर
में हड़ताल हुई । शाम को परुु षोत्तम दास पार्क में एक बड़ी मीटिंग हुई
जिसमें बाबू परुु षोत्तम दास टंडन ने भाषण दिया था ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1689)
98) गया निवासी श्री गरुु देव शरन के कुछ संस्मरण जो उन्होंने
संतदासजी को लिख कर भेजे थे —
मैंने बारहा (प्रायः, बहुधा, अक़्सर) तजरुबा किया कि यदि
कोई बात छिपाना चाहा तो बाबजू ी महाराज वही पछू ते थे । मैंने
सन् 1942 ई. के आदं ोलन में वकालत छोड़ दी थी और आदं ोलन
में बड़े ज़ोर शोर से काम कर रहा था । महाराज साहब के भडं ारे पर
आगरे आना हुआ । दिल में विचार किया कि बाबजू ी महाराज से
आदं ोलन के बारे में न कहूगँ ा । परन्तु भेंट पेश करते ही महाराज ने
पछू ा, वकालत कै सी चल रही है? मैं क्या जवाब देता, अर्ज़ किया
कि suspend (स्थगित) कर दी है। आदं ोलन में काम कर रहा हूँ ।
महाराज थोड़ी देर ख़ामोश रहे, फिर फ़रमाया, अच्छा! तजरुबा कर
65
लो । गया लौटने पर, बहुत serious charges (गंभीर आरोपों) के
होते हुए भी सिर्फ़ एक वर्ष की सज़ा हुई । जेलख़ाने में क़रीब आठ
नौ महीने रहा, परन्तु अस्पताल में ही । ख़बू गढ़त हुई । राजनीति से
नफ़रत हो गई ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-52/ठ)
101) बाबू सोहनलाल सक्सेना सन् 1920 ई. में बनारस में इटं र में
पढ़ते थे । आर्य समाजी थे । अनेक समाजों मसलन ब्रह्मू समाज, धर्म
समाज इत्यादि में भटक आए और कई गरुु धारण किये । मगर सबको
छोड़ दिया । कहीं संतोष प्राप्त नहीं हुआ । एक रोज़ का ज़िक्र है कि
अपने घर की बैठक में बैठे थे और पाँच-सात लड़के (सहपाठी) बैठे
थे । शाम का वक़्त था । गपशप कर रहे थे । इतने ही में एक रोबदार
और शानदार लड़का अदं र आया । ललाट चौड़ा था । चेहरे पर तेज
था । सब लड़के रोब में आ गए । खड़े होकर ताज़ीम दी और बैठने
को कुर्सी खाली की । उस लड़के ने कहा, अपना हाथ दिखाओ ।
सब लड़कों ने अपने अपने हाथ दिखाये । सोहनलाल से भी अपना
हाथ दिखाने को कहा । यह आर्य समाजी थे । कहा कि मैं इन बातों
में विश्वास नहीं करता, मैं अपना हाथ नहीं दिखाता । इस पर उस
तेजवान लड़के ने कहा, “वाह! सबने दिखाया, तमु नहीं दिखाते!
इसमें क्या है? दिखाओ अपना हाथ । “अन्य सब लड़कों ने भी आग्रह
68
किया । चनु ांचे हाथ दिखाया । उस तेजवान् लड़के ने कहा, “अरे !
तमु ्हारी आयु तो के वल 29 वर्ष की है ।” यह कह कर वह चला गया
और अन्य लड़के भी चले गये ।
रात भर नींद नहीं आई । बीस वर्ष तो उम्र के ख़तम हो गये ।
अब के वल नौ वर्ष शेष हैं । जो चीज़ मिलनी चाहिए, वह नहीं मिली । कहाँ
जाऊँ? किसके पास जाऊँ? वह चीज़ कै से मिले? सबु ह पाँच बजे के
क़रीब ख़्याल आया कि राधास्वामी सतसंग में परलोक प्राप्ति का
अभ्यास कहा जाता है । वहाँ भी हो आऊँ । अगर कोई अभ्यासी नहीं
मिला तो उनकी धर्म पसु ्तकों में अभ्यास की विधि तो होगी । उसे भी
करके देख लँू ।
अपनी माँ से दो रुपये लेकर बनारस से रवाना हो गये । रात
बारह बजे इलाहाबाद छोटी लाइन के स्टेशन (रामबाग़ स्टेशन)
पर गाड़ी पहुचँ ी । प्लेटफार्म पर उतर कर यह उलझन पैदा हुई कि
राधास्वामी सतसंग का पता तो मालमू नहीं है, कहाँ जाऊँ? प्लेटफार्म
पर बैंच पड़ी थी । उसी पर लेट गये । सो गये । सबु ह साढ़े चार बजे
आँख खली ु । एक इक्का खड़ा था । पछू ने पर उसने कहा कि हाँ मैं
राधास्वामी सतसंग जानता हू,ँ दो आने भाड़ा होगा । सोहनलाल ने
कहा, ठीक है, मैं ज़रा निबट लंू और नहा लंू । इक्के वाले ने धोबी
गली पर उतार दिया और कहा कि सामने चले जाइये । लोगों ने
सोहनलाल को बाबू गरुु मौज सरन से मिलाया । इन्होंने कहा कि
बनारस से आया हू,ँ आज ही चला जाऊँगा । दीक्षा लेने आया हू,ँ
आज ही मिल जानी चाहिये ।
सात बजे महाराज पधारे । सोहनलाल सामने आए । महाराज
ने पछ ू ा, कौन है? मगर गरुु मौज सरन ने कुछ जवाब नहीं दिया ।
सोहनलाल बड़े असमजं स में पड़ गये । लाइन में खड़े हुए सतसंगियों
के बीच में से निकल कर फिर महाराज के सामने आए । महाराज ने
पछू ा कौन है? फिर गरुु मौज सरन ने जवाब नहीं दिया । तब सोहनलाल
69
ने सब हाल अर्ज़ किया । महाराज ने फ़रमाया, “अरे ! चार रोज में तो
हम बनारस जाने वाले हैं । वहीं उपदेश ले लेते । यहाँ क्यों आए?”
सोहनलाल ने जवाब दिया, “मझु े क्या मालमू था कि आप आने वाले
हैं! उपदेश में हफ़्ते आठ रोज़ की भी देर क्यों हो? मझु े तो आज ही
उपदेश दे दीजिये । शाम की गाड़ी से वापस बनारस चला जाऊँगा ।
“महाराज ने उपदेश के लिए ग्यारह बजे का वक़्त मक़ ु र्र र किया ।
महाराज ने सोहनलाल को समि ु रन ध्यान का उपदेश दिया ।
ध्यान के निस्बत यह फ़रमाया, “ध्यान कुल मालिक के स्वरूप का
करना चाहिए मगर वह दिखाई नहीं देता । लेकिन स्वामीजी महाराज,
हुज़रू महाराज और महाराज साहब ने उसे देखा था । इसलिये इन
साहबों में से किसी के स्वरूप का ध्यान करना चाहिये । “सोहनलाल
ने अर्ज़ किया “महाराज! यह लोग मतंु ही (पर्णू परुु ष) थे, मैं तो मबु ्तदी
(शरू ु करने वाला, नोसिखिया) हूँ । फिर मैंने इनको देखा नहीं । आप
इनका ध्यान करने को कहते हैं । “महाराज ने तेज़ी से फ़रमाया, “जो
हम कहते हैं, वह करना पड़ेगा । मदद तमु ्हारी, जो उनके प्यारे और
भक्त हैं, वह करें गे, लेकिन ध्यान इन स्वरूपों में जो सबसे ज़्यादा
प्यारा लगे, उसका करो ।” फिर महाराज ने फ़रमाया, “गरुु मौज सरन!
इसे भजन का उपदेश भी दे दिया जाय ।” और महाराज ने भजन का
उपदेश भी दे दिया । उपदेश के लिए फूल माला व शीरीनी लाते हैं,
यह सोहनलाल को मालमू न था । कुछ नहीं लाए थे । उपदेश के बाद
भेंट करने को कुछ था भी नहीं । बाबू गरुु मौज सरन से मँगवा कर
महाराज ने प्रशाद दिया और कहा कि भडं ार घर में खाना खा लेना ।
सोहनलाल ने जवाब दिया कि खाना तो मैं साथ लाया हू,ँ वही खा
लँगू ा और शाम को चला ही जाऊँगा । महाराज ने फ़रमाया, “नहीं!
अभी खाना भडं ार घर में खाओ । शाम को तमु ्हारे जाने के वक़्त तक
खाना तैयार नहीं होगा । अपने साथ जो खाना लाये हो उसे शाम को
जब भख ू लगे, खा लेना ।”
70
संत सतगरुु का बचन सत्य साबित हुआ - बाबू सोहनलाल
की पहली स्त्री का देहांत हो जाने के बाद इनकी दसू री शादी के जितने
पैग़ाम आए, उन्हें यह टालते रहे मगर किसी से यह नहीं बतलाया
कि मेरी उम्र 29 वर्ष की है, इसलिये मैं शादी नहीं करता । लेकिन
एक चक्कर ऐसा आया कि उसमें यह फँ स गये । अगर्चे लड़की और
इनकी जन्म पत्री नहीं मिली यानी ज्योतिषी ने कहा कि लड़की के
भाग्य में विधवा होना लिखा है और बाबू सोहनलाल की पत्री में उम्र
है ही नहीं, पर फलदान आ गया और इनकी माँ ने बाबजू ी महाराज से
अर्ज़ किया कि क्या करें । महाराज ने फ़रमाया कि ख़ैर, फलदान आ
गया है तो मज़ं रू कर लो, पत्री नहीं मिलती तो कोई बात नहीं, कुछ
हर्ज़ नहीं होगा । महाराज के यह फ़रमाने पर कि कुछ हर्ज़ नहीं होगा,
सोहनलाल शादी को तैयार हो गये । सोचा कि हिदं सु ्तान में लाखों
बेवाएं हैं, एक और सही । इस समय इन ही उम्र 67 वर्ष है । पति पत्नी
दोनों ज़िन्दा हैं (इस क़िस्से को लिखते लिखते) । महाराज ने फ़रमाया
कि कुछ हर्ज़ नहीं होगा, सो वाक़ई कुछ हर्ज़ नहीं हुआ ।
उस तेजवान लड़के ने बाबू सोहनलाल की उम्र 29 वर्ष
बतलाई थी और ज्योतिषी ने भी ऐसा ही कहा था । पर दसू री शादी
के सिलसिले में बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया था कि कुछ हर्ज़ नहीं
होगा । 29 वर्ष की उम्र में यह घटना घटी कि एक रात सोहनलाल
पेशाब करने को मोरी पर गये । वहाँ एक काला साँप था । उसके फन
पर इनका पाँव पड़ा । जब तक पेशाब करते रहे, साँप का फन इनके
पाँव के नीचे दबा रहा । इन्होंने महससू किया कि पाँव के नीचे कुछ
गदु गदु ी सी चीज़ है । पेशाब करके ज्योंही यह हटे कि साँप तड़फड़ा
कर ऊँचा उठा और पछाड़ खाकर दसू री ओर बड़ी तेज़ी से गिरा ।
सोहनलाल भी दौड़ कर अपनी खाट पर आ गए। लालटेन की बत्ती
तेज़ करके देखा । आधा साँप मोरी के अन्दर चला गया था, आधा
बाहर था । दो तीन रोज़ बाद घर में बदबू आने लगी । सब लोग कहने
71
लगे, कहाँ से बदबू आती है । इन्होंने मेहतर से नाली खलव ु ाई तो
मरा हुआ काला साँप निकला । 29 वर्ष पर जो घात आई, वह इस
प्रकार टली । बाबजू ी महाराज का फ़रमाना सत्य सिद्ध हुआ कि कुछ
हर्ज़ नहीं होगा । बाबू सोहनलाल ने कहा कि हमारे औरत है, लड़के
लड़कियाँ हैं, पोते पोतियाँ हैं, नाती नतनियाँ हैं, सब कुछ है । मगर
हमारे लिए होना, न होना, बराबर है । आप तो जानते हैं । पर महाराज
की दया बहुत है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1878 से 84)
112) सन् 1920 ईसवी में अपनी सिंध यात्रा के दौरान अजमेर
शहर में दौलतबाग़ और ख़्वाजा साहब की दरगाह देखने को महाराज
तशरीफ़ ले गए । दरगाह में महाराज ने कुछ रक़म चढ़ाई । मजु ावर
(किसी दरगाह आदि के ख़िदमती) लोग दआ ु देने लगे । महाराज ने
फ़ौरन दआ ु देने से रोका और फ़रमाया कि हमको दआ ु नहीं चाहिये ।
और फ़रमाया कि हमको ख़्वाजा साहब की जो ताज़ीम है, शायद यहाँ
किसी को नहीं होगी । मैं उनकी दरगाह में ज़ियारत (दर्शन, दीदार,
तीर्थाटन) करने आया हूँ और ज़ाहिरी (बाहरी) व बातनी (अतं री)
दोनों ज़ियारत की क़दर करता हूँ । और भी कुछ देर तक मजु ावर से
बातचीत हुई । मजु ावर भी समझ गया कि कोई फ़क़ीर सिफ़तरसीदा
हैं ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-404)
80
अनसु ार न टाँगना बे-अदबी है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-68)
82
123) एक मर्तबा किसी ने हुज़रू महाराज के साहबज़ादे लालाजी
साहब के ख़िलाफ़ कोई मक़ ु द्दमा दायर कर दिया जिसमें बहुत कुछ
बे-आबरूई होने का डर था । बाबजू ी महाराज ने एक बड़ी रक़म देकर
ताऊजी साहब को आगरा भेजा और कह दिया कि चाहे जो ख़र्च हो,
हम लोगों के जिस्म की खाल बिक जाये, मगर लालाजी साहब पर
हरफ़ न आने पावे । चनु ांच,े ताऊजी साहब आये और राधास्वामी
दयाल की दया से मामला रफ़ा दफ़ा हो गया । रक्षा हो गई ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-13, पृष्ठ-76)
84
को बल ु ा कर पछू ा कि कोई काम करते हो या ख़ाली बैठे रहते हो?
सोहराबजी ने अर्ज़ की कि कुछ काम करता हूँ । महाराज ने फ़रमाया
कि “कुछ काम” काफ़ी नहीं है । सतसंग में रह कर हरग़िज़ बेकार
नहीं रहना चाहिये । बेकार रहने से मन उत्पात उठावेगा । हमेशा
मन को किसी न किसी काम में इस क़दर लगाए रखना चाहिए कि
थक जावे और मन को बोझ मालमू होवे, वरना आलसी हो जावेगा
और परमार्थ का बहुत हर्ज़ होगा । जितना मन आलसी होगा उसका
चौगनु ा परमार्थ का नक़ु सान होगा । इसलिए सतसंग की किसी न
किसी सेवा में मन को लगाए रखना ज़रूरी और लाज़मी है ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-59, पृष्ठ-414)
87
134) बाबजू ी महाराज के एक पत्र जो उन्होंने बाबू गरुु मौज सरन
जी को 27 सितम्बर, 1915 को दयालबाग़ के सम्बन्ध में लिखा था,
कुछ अश ं यहाँ लिखे जाते हैं-
......“वैसे तो आनन्द स्वरूप को भेजे गए भाई साहब के
जवाब में सही तथ्यों का ही विवरण था, किन्तु इससे कम संहारक
अस्त्र से भी काम चल जाता और कँु डली मारे बैठा साँप भी नहीं
भिन्नाता, मसलन अगर यह लिख देते कि ब-वजह अलालत
(बिमारी) अपनी व दीगर (दोबारा) बजहू ात के आपकी मेज़बानी से
फ़ै ज़ (लाभ, उपकार, यश, भलाई) उठाने को माज़रू (लाचार, विवश)
हूँ । ख़ैर, अब इस मामले में और कुछ कहने की ज़रूरत नहीं । हमारे
सम्बन्ध इतने ज़्यादा तनावपर्णू हो चक ु े हैं कि उनके ठीक होने की
गँजु ायश नहीं है ।”
मेरे ख़्याल से लालाजी साहब की गरुु वाई एवं आनन्द स्वरूप
की गरुु वाई की तल ु ना करने में कोई तक़ ु नहीं है । आनन्द स्वरूप
की गरुवाई एक सनि ु योजित डाके ज़नी के समान है जबकि लालाजी
साहब का कार्य एक क्धषु ाग्रस्त दर्बल ु मज़दरू द्वारा अनाज की कुछ
बालों की छोटी सी चोरी के समान है । इसके अलावा आनन्द स्वरूप
एवं उनके अनयु ायियों का उद्देश्य हमेशा कौंसिल एवं उसके द्वारा
स्थापित व्यवस्था को ख़त्म कर देना ही रहा है जब कि लालाजी ने
आज तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया चाहे अन्य मामलों में उनके
मन में कुछ भी रहा हो । इसके अलावा उन्होंने कभी ऐसा प्रस्ताव पेश
नहीं किया कि जिसके मज़ं रू कर लेने पर उन व्यक्तियों को भी उनकी
गरुु वाई माननी पड़े जो उन्हें गरुु नहीं मानते । उनकी गरुु वाई उनके
तथा उनके अनयु ायियों के बीच एक निजी (प्राइवेट) मामला है, जो
उन्हें गरुु मानते हैं । इससे सतसंग के आम इन्तज़ाम में कोई दख़ल
वाक़ै नहीं होता और न ही कभी यह खल ु े विद्रोह का रूप लेता है ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-4, गरुु साखी-27)
88
135) कई वर्ष पहले की बात है, कलकत्ते में दो भाई थे । बड़े भाई ने
छोटे भाई का हक़ नहीं दिया, दबा लिया । मद्दु त तक यह घरे लू झगड़े
चलते रहे । अतं में यह हुआ कि बड़े भाई ने कुछ ऐसी हरक़तें कीं कि
गिरफ़्तार होने की नौबत आ पहुचँ ी । छोटे भाई ने बाबजू ी महाराज से
अर्ज़ किया कि अब गिरफ़्तारी का वारंट निकलवाता हू,ँ सिवा इसके
कोई चारा नहीं । महाराज ने फ़रमाया “गिरफ़्तार मत कराना । बाक़ी
कार्रवाई जो तमु मनु ासिब समझो और करना चाहो, करो ।” छोटे भाई
ने बाबजू ी महाराज की बात मान ली । गिरफ़्तार व जेल भेजने की
कोई कार्रवाई नहीं की । बड़े भाई ने कुछ नहीं दिया । छोटे भाई ने सब्र
किया कि मालिक की यही मौज है? अगले पिछले कर्मों के लेन देन
का भगु तान हो गया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-526)
138) जाइटं सेक्रे टरी श्री चरन अधार टंडन (कक्को बाब)ू जब बैंक
की नौकरी पर इलाहाबाद से कलकत्ते जाने लगे, बाबजू ी महाराज
उनसे बग़ल-गीर हुए और तीन नसीहतें कीं । (1) बिना काम, महज़
सैर के लिये, स्टेशन पर मत जाना । (2) मेलों तमाशों भीड़ भाड़ की
जगहों पर मत जाना । (3) स्त्री संग मत करना ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1 व 2, गरुु साखी-64)
92
चाहता हूँ । कुछ बातचीत के बाद दयालबाग़ वालों में से एक ने कहा
कि Blessings (आशीर्वाद) दीजिये । बाबजू ी महाराज ने फ़रमाया
कि Blessings (आशीर्वाद) तो उससे माँगना चाहिये जो इस काम
में मदद दे । जिस काम का जो धनी होगा, उस काम में तरक़्क़ी के
लिए उसी की धार आवेगी । संतों के Blessings (आशीर्वाद) से तो
चौपट हो जावेगा और अगर मज़ं रू भी होगा तो ख़दु नहीं करें गे, उसी
के ज़रिये करावेंगे । यह जो हुआ मौज से हुआ मगर अब आप लोगों
को परमार्थ का भी ख़्याल रखना चाहिये । संसार में वैसे तो ये चीज़ें
ज़रूरी हैं मगर अपने काम से काम रख कर परमार्थ की ओर तवज्जह
लानी चाहिये ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/ट)
93
145) महाराज साहब के गप्तु होने के बाद सतसंग पर कुछ क़र्ज़ा
था जिसको चक ु ाने के लिए बाबजू ी महाराज की सलाह से ताऊजी
साहब (बालेश्वर प्रसाद जी) ने एक गश्ती चिट्ठी निकाली थी जिसमें
सतसंगियों का ध्यान इस ओर आकर्षित किया गया था । इस गश्ती
चिट्ठी में अतं में ताऊजी साहब ने यह लिखा था—
मर जाऊँ माँगँू नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने, मोंहिं न आवे लाज ।।
इसके बाद सतसगिं यों ने माहवारी भेंट भेजना शरू
ु किया ।
वरना इससे पहिले माहवारी भेंट का सिसिला नहीं था ।
(राधास्वामी मत की भक्तमाल, अध्याय-33, पृष्ठ-175)
146) सन् 1928 ईसवी में अपने गजु रात दौरे के दौरान बाबजू ी
महाराज रास्ते में अजमेर रुके । वहाँ से महाराज पषु ्कर महर्षिजी
गरुु देवदास जी के मकान पर पहुचँ े और चाय पी । घर पर एक पडं ा
चला आया था । वह कुछ श्लोक वग़ैरा पढ़ने लगा । मतलब उसका
यह था कि कुछ रुपया मिले । उसी वक़्त महर्षिजी के घर वालों ने
महाराज को भेंट पेश की थी । महाराज ने हँसते हुए फ़रमाया कि हम
यहाँ देने नहीं आए हैं, लेने आए हैं । ख़ैर, उस पडं े को भी कुछ दिया ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-188)
148) ममदाबाद (गजु रात) में एक सतसगं ी श्री चनु ्नीलाल पडं ्या थे ।
94
उन्होंने सन् 1916 ई. में इलाहाबाद में बाबजू ी महाराज से उपदेश
लिया । एक बार उनके साथ पाँच सात सतसंगी इलाहाबाद दर्शन
सतसंग को गये । सबने दस दस रुपये भेंट किये । श्री चनु ्नीलाल ने
विचार किया कि मैं पाँच रुपये भेंट करूँ गा तो अच्छा नहीं लगेगा । दस
रुपये भेंट करूँ । मगर दस तो ज़्यादा हैं । ऐसे सोच विचार में उन्होंने
अतं में दस रुपये ही भेंट में पेश किये । मगर महाराज ने पाँच रुपये
मज़ं रू किए और फ़रमाया कि देखा देखी भेंट नहीं करनी चाहिए ।
जितनी उमगं हो, उतना रुपया भेंट करना चाहिए ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1740)
153) पहले महाराज अगं नहीं छूने देते थे । कपड़ा तक कोई नहीं
छू सकता था । मत्था टेकने की कौन कहे? अब तो महाराज ने धीरे
धीरे ऐसी मौज की है कि सबको चरनों में मत्था टेकने को भी मिलता
है और महाराज के आगे सिर कर देने से महाराज सिर पर हाथ भी
रख देते हैं । सत्संगियों के दिलों में बड़ी ज़बरदस्त ख़्वाहिश थी कि
चरनों में मत्था टेकें और सिर पर हाथ धरावें । दया से यह ख़्वाहिश परू ी
हुई । महाराज की तरफ़ से रोक-टोक नहीं है । चैबीसों घटं े चाहे जब
भी कोई अपना दःु ख दर्द अर्ज़ करने को आ सकता है । महाराज की
ऐसी ही मौज है ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-43, पृष्ठ-260)
160) गौरी बाबू की भेंट से बने मकान में जब सतसगं हुआ, बाबजू ी
महाराज ने फ़रमाया कि बहुत सतसगं ी हो गये हैं । उन्हें परमार्थ से
कुछ मतलब नहीं । दस हज़ार की जगह दस अच्छे हैं । फिर से एक
बार और छँ टौनी करने की ज़रूरत है । अपने निज के लोगों को पास
रक्खा जायगा ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/क)
161) सबु ह समाध में सतसंग शरू ु होने से पहले बाबजू ी महाराज
ने फ़रमाया कि न जानें कहाँ के कूड़े करकट आकर सतसंग में भर गये
हैं । इनमे से कुछ ऐसे हैं जो सतसंगी कहलाने लायक़ नहीं हैं ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-1व2, गरुु साखी-455/घ)
101
162) एक दफ़ा एक साहब ने जो महाराज के क़रीबी रिश्ते दार थे,
स्वामी बाग़ में आकर रहने के लिए एक महीने की इजाज़त माँगी ।
मगर आठ महीने हो गये, वह जावें ही नहीं । बड़ा पाखडं करते थे ।
महाराज के पोर्टी को में खाट बि छा कर उस पर बैठ कर भजन करते
थे । भला वह कोई भजन करने की जगह थी! या तो अपने घर में
भजन करना चाहि ये या भजन घर में । एक रोज़ महाराज ने अपने एक
क़रीबी सतसंगी से कहलव ाया कि फ़ल ां शख़्स यहाँ क्यों पड़ा हुआ
है? उसे रवाना करो । उन सतसंगी ने उन साहब को आड़े हाथों लिया
और दो चार खरी खरी बातें सनु ाई व यह भी कहा कि स्वामी बाग़
खत्रियों की धर्म शाला नहीं है कि के वल खत्री होने की वजह से कोई
यहाँ आकर पड़ जाय । आप फ़ौ रन बि स्तर बाँध कर चले जाइये । वह
चले तो गये मगर उन सतसंगी साहब से बहुत नाराज़ हो गये । अपने
साथि यों से कहा कि वह सतसंगी बड़ा वैसा आदमी है, मेरे साथ
गसु ताख़ी से पेश आया, भला मेरे यहाँ रहने से उसे क्या तक़लीफ़
होती थी । दसू रे साहब ने हाँ में हाँ मिल ाई और कहा, अरे साहब!
आज कल तो ‘उन सतसंगी’ का हुक़्म चलता है । “उन्हें क्या मालमू
कि यह शब्द महाराज ने फ़रमाये थे कि कह दो उससे कि स्वामी
बाग़ खत्रियों की धर्मशाला नहीं है ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-106)
104
हुए । रे लवे मल
ु ाज़िम होने से सैकिंड क्लास का पास मिलता था । उस
समय का सैकिंड क्लास आजकल का फ़स्र्ट क्लास है । इलाहाबाद
तो दरू था, यह साहब आगरा भी न पहुचँ पाये, बीच में ही हृदय की
गति रुक जाने से रे लगाड़ी में ही मर गये । अजमेर वापिस लाश आई ।
”सतं ों की जो स्तुति करता है या निन्दा करता है, दोनों का
उद्धार होगा । पर जो सेवक होकर निन्दा करे गा, उसका
अकाज होगा । उसकी निन्दा की बर्दाश्त नहीं है ।”
(सार बचन राधास्वामी बार्तिक, भाग-2, बचन-160)
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-208-210)
105
169) गजु राती लोग तरकारी और पकौड़ी तिल के तेल की बनाया
करते हैं । घी की तरकारी और पकौड़ी वह जानते और समझते ही
नहीं । इलाहाबाद का ज़िक्र है कि वकील छोटाभाई चतरु भाई पटेल
की पत्नी एक रोज़ तेल की पकौड़ियाँ बना कर महाराज के लिए
अपने भोलेभालेपन में ले गई ं और समझ रही होंगी कि महाराज के
लिए बहुत उत्तम पदार्थ ले जा रही हैं । उस वक़्त महाराज का गला
ख़राब था और खाँसी हो रही थी । सबने कहा कि इस हालत में
कहीं महाराज पकौड़ियाँ खावेंगे और वह भी तेल की? मगर जब
महाराज को अर्ज़ किया और इजाज़त मिलने पर पकौड़ियाँ पेश कीं
तो महाराज ने दया से एक दो पकौड़ी चख ली ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-499)
170) एक सतसंगी की लड़की का पति आगरे में प्रोफ़ेसर था ।
लड़की और लड़की के मैके वाले, सब सतसंगी थे । लड़की के
ससरु ाल वाले सतसंगी न थे, पर महाराज से मलु ाक़ात थी । दोनों पक्ष
स-ु सम्पन्न थे । एक रोज़ लड़की महाराज को एक चिट्ठी देकर चली
गई । बाद में महाराज ने उस चिट्ठी को एक सतसंगी से पढ़वाया ।
उसमें लिखा था कि मालिक की दया से सर्व सख ु प्राप्त है, अब ऐसी
दया हो कि परमार्थ बने । कुछ दिनों बाद वह लड़की विधवा हो गई ।
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-606)
106
पर एक दिन महाराज ने फ़रमाया कि तमु ्हें भी एक गरम क़मीज़ देंगे,
ले आओ । उस समय के वल एक क़मीज़ बची थी । थी तो गरम
क़मीज़ और महाराज की पहनी हुई, मगर कपड़ा बढ़िया नहीं था ।
वही महाराज ने मझु े दिया । मैंने ख़्याल किया कि ग़लती हो गई ।
अगले साल जब महाराज बाँटने को गरम क़मीज़ मांगेंगे तो सबसे
घटिया पहले लाऊँगा ताकि बाद में मझु े देने का जब वक़्त आवे तब
बहुत बढ़िया गरम क़मीज़ मिले । अगले साल सन् 1942 ईसवी में
सर्दी के मौसम में महाराज ने फ़रमाया कि गरुु मौज सरन के लिये एक
गरम क़मीज़ लाओ । मैंने छाँट कर सबसे घटिया क़मीज़ महाराज के
हाथ में दी । महाराज ने उसे बाबू गरुु मौज सरन को दे दी । उसके बाद
महाराज ने किसी को गरम क़मीज़ दी ही नहीं । मझु े भी नहीं दी । मझु े
बड़ी शर्म महससू हुई कि संतों के दरबार में भी चालाकी! क्या नतीजा
हुआ!
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-1, गरुु साखी-699)
175) दो सतसगि ं नें आपस में बात कर रही थीं । बाबजू ी महाराज
सनु रहे थे । एक दसू री से अपने दख ु दर्द की कहानी कही । दसू री ने
कहा, “चरनों में पड़े हैं, यह कितनी बड़ी दया है । “बाबजू ी महाराज
ने फ़रमाया:—
गरुु तारें गे हम जानी
(अतीत की स्मृतियाँ, भाग-2, गरुु साखी-1657)
109
पानी पीया ।
(प्रतीत की स्मृतियाँ, भाग-3, गरुु साखी-93)
111
183) जो ग्रास और प्रसाद हुज़रू महाराज देते थे, उसी को खाकर
महाराज साहब और बाबजू ी महाराज रह जाते थे । इसके सिवा और
कुछ नहीं खाते थे, चाहे कम मिले या ज़्यादा ।
(जीवन चरित्र बाबजू ी महाराज, खडं -1, अध्याय-7, पृष्ठ-47)
112