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धनायविक्रमसन्दर्शनम्
भग प्रणेतर्भग सत्यराधो भगेमां धियमुदवा ददन्नः।
भग प्रणो जनय गोभिरश्वैर्भग प्र नृभिर्नुवन्तः स्याम ॥

अथर्ववेद

सब ऐश्वर्यों व भोगों का मूल कारण और श्री, धन, कोष और महत्त्वाकांक्षाओं का उत्पत्तिस्थान भग देवता ही स्वयं हमारा प्रेरक,
कर्णधार व उन्नायक है। यही हमारे भाग्य के उत्तम स्वास्थ्य का हेतु है। इसी की कृ पा से सच्ची धनाढ्यता आती है। वह हमारी बुद्धि व
विचारों को समयानुसार कल्याणकारक मंगलमार्ग पर चलाए। वह हमारे लिए अनुकू ल रहते हुए, धन, सम्पदा, वाहन आदि सुख हमें
देता है। उसी की महिमा से हम विशाल परिवार वाले बनें।
द्वितीय भाव के विचारणीय विषय

कोषं विद्या व वाणीं नयनमुखभवं भाग्यभोग्यं समस्तं


वेषं भूषां च वाहात् सुखमशनधृती प्रातिवेश्यं च हार्दम्।
वैराग्योद्भूतिमाहुर्निजकु लविषयं नासिकां सत्यवाचं
कार्पण्यं कीर्तिहानिं वणिजविधिकृ तिं वित्तभावान्मुनीन्द्राः ॥ 1 ॥
दूसरे स्थान से मुख्यत: इन बातों का विचार किया जाता है-

• स्नातक, स्नातकोत्तर डिग्री कोर्सी के अतिरिक्त कोई, हुनर, व्यावसायिक शिक्षा, विशेषज्ञता हेतु शिक्षा आदि;
• जुबान, जीभ, बोलने की शक्ति, भाषण कला, प्रस्तुतिकरण, व्याख्यान,वाणी के विभिन्न व्यावसायिक प्रयोग यथा गायन आदि;
• मुंह और इसकी भीतरी संरचना;
• भाग्य से प्राप्त समस्त फलों के उपभोग के अवसर व क्षमता;
• वेशभूषा, पहनने ओढ़ने की अभिरुचि:
• सजने संवरने के शौक, लोगों से अलग दिखने वाला वेश;
• वाहन से होने वाला सुख और वाहन का लाभ;
• भोजन की इच्छा, खाने पीने की मात्रा, खान पान में पसन्दगी;
• वाणी व मन पर नियन्त्रण;
• पड़ौसियों के साथ सम्बन्ध व उनसे सुख;
• वैराग्य व त्याग की भावना का उदय;
• अपना कु ल, खानदान, वंश, कु टुम्ब;
• नाक (कान) की सुघड़ता, बनावट व शक्ति;
• झूठ बोलने की आदत;
• कं जूसी का व्यवहार;
• साख या नाम बिगड़ने के अवसर;
• किसी चीज के खरीदने बेचने की कु शलता।
कु ण्डली के छठे भाव की शुभ स्थिति जिस तरह से व्यक्ति के अच्छे स्वास्थ्य की प्रतिनिधि है, उसी प्रकार से हमारे भाग्य या नवें
स्थान के स्वास्थ्य की शुभाशुभता दूसरे स्थान (नवें से छठा) में निहित है।

संस्कृ त शब्द 'भग' का अर्थ ही श्री, शोभा, धन, ऐश्वर्य, वैभव, विलास, प्रतिष्ठा आदि है। भग से उत्पन्न होने वाला पदार्थ या भाव
ही भाग्य है। भाग्य के भोग की क्षमता का निवास दूसरे स्थान में है। प्रश्न के सन्दर्भ में द्वितीय स्थान का अपना खास महत्त्व है।
धनसंग्रह, बचत, खानदान की परम्परा से प्राप्त होने वाली सम्पदा, मान, पारिवारिक परिवेश, सभ्य वाणी, विषय को प्रिय ढंग से
पेश कर पाना, उच्च शिक्षा, विशेषज्ञता, कु लीनता, सुखों का भोग, अर्थात् भाग्य से प्राप्त होने वाले समस्त सांसारिक सुखों की
उपभोग क्षमता का आधार दूसरा स्थान है।
तृतीय भाव से विचारणीय

अशनधनविभागौ युद्धकण्ठस्वभृत्यान्
करणगुणविनोदान् स्थैर्यधैर्ये प्रयत्नान्।
रुचिबलकु लजन्मश्रेष्ठसिद्धीः समृद्धि
सुहृदनुजकृ तं च वाददोषास्तृतीयात् ॥ 2 ॥
तृतीय भाव से मुख्यतया इन बातों को देखना चाहिए-

• साथ बैठकर खाना पीना, संयुक्त परिवार, धन सम्पत्ति का बंटवारा;


• किसी भी प्रकार का संघर्ष, विरोध का सामना करने की शक्ति, जुझारूपन;
• गले से सम्बन्धित बातें;
• अपने निजी नौकर, सेवक;
• हाथों पैरों की क्रियाशीलता, कर्मेन्द्रियों की सक्रियता;
• धीरज, मन का सन्तुलन, विचारों की स्थिरता;
• अपनी उन्नति या जीवन के लिए किए जाने वाले प्रयत्न;
• रुचि, पसन्द, व्यवहार में कु लीनता;
• ताकत, सामर्थ्य:
• अपने परिवार में आगे जाने, सर्वाधिक उन्नति करने या कु ल में श्रेष्ठ होने के योग;
• अच्छी सफलता व समृद्धि;
• मित्रों व बन्धुओं द्वारा पैदा की गई रुकावटें, विवाद, बाधाएं आदि।
ग्यारहवें स्थान के विषय

सर्वलाभगुरुसोत्थसंग्रहाद् दासता च निजजातसन्ततिः।


स्वर्णधान्यनरयानकन्यकाः वामकर्णगलदोषसम्भवः ॥3॥

जानुसेव्यवसु दत्तमर्पितं गुप्तकान्तपरितोषणाय वा।


पाटवं लिखनपाककर्मसु कान्ततातधनलब्धिमागमात् ॥ 4 ॥
ग्यारहवें भाव से इन बातों का विचार करना चाहिए-

• सब तरह के लाभ, प्राप्ति, उपलब्धि;


• गुरुजनों, पूर्वजों या अग्रजों से मिलने वाले लाभ;
• सभी प्रकार के संग्रह, जुड़ाव, लगाव, मनोयोग, भण्डारण से होने वाला लाभ:
• किसी की गुलामी या अधीनता;
• स्वयं से पैदा होने वाली सन्तान की आयु;
• सोना, कीमती सामान, धन धान्य का संग्रह;
• चालक समेत गाड़ी की प्राप्ति;
• कन्या सन्तान;
• बांया कान, गले में होने वाली गांठें;
• घुटने, पिंडली;
• अपनी देखरेख में रहने वाला मालिक का धन;
• अपने प्रेमी को भेंट किए गए गहने कपड़े
• लेखन;
• किसी काम को कु शलता व सुघड़ता से करने की शक्ति, मौके का फायदा उठाने का गुण;
• ससुराल से होने वाला लाभ या सम्पत्ति आदि की प्राप्ति।
क्या मैं धनी हो पाऊं गा?

शुभे भवे श्रेष्ठबले तदीशे तथाधिकै र्बन्धगतेऽपि नूनम्।


त्रिके तरे वर्गबली भवेशो गुरुं विना वेतरदृष्टियोगे ॥ 5 ॥

एकोऽपि खेटो रसवर्गशुद्धः


सुभावनाथो भवगो भवेद्वा।
जनो धनाढ्यो भविता ग्रहाणां
शुभाशुभत्वं न विचिन्तनीयम् ॥ 6 ॥
लाभ स्थान के ये योग व्यक्ति को धनी बनाने में सक्षम हैं। इनमें ग्रहों की स्वाभाविक शुभता या. अशुभता का विचार निरर्थक है-
• ग्यारहवें स्थान में निसर्ग शुभग्रह की राशि व वर्ग हों और उस स्थान को किसी बली शुभपंचकगत ग्रह की दृष्टि या योग प्राप्त हो;
• ग्यारहवें भाव का स्वामी उत्तम राशि नवांश में हो और उसे बली ग्रहों का दृग्योग मिलता हो;
• एकादश भाव को कई ग्रहों का सम्पर्क प्राप्त हो;
• एकादश का स्वामी 6, 8, 12 भावों के अतिरिक्त किसी स्थान में उत्तम राशि व वर्गों में गया हो;
• लाभ स्थान पर बृहस्पति को छोड़कर किसी अन्य बलवान् ग्रह का योग या दृष्टि हो;
• षड्वर्गों में से अधिकांश में श्रेष्ठ वर्गों में गया कोई ग्रह, चाहे अके ला ही क्यों न हो, एकादश स्थान में स्थित हो;
• त्रिके श के अलावा कोई ग्रह एकादश में स्थित हो।
विहाय चन्द्रं सुबली च लब्धौ रवेर्द्वितीये शुभखेटयुक्ते ।
तनौ च वर्गोत्तमभागयाते स्थिरेतरे देवनुते शनौ च ॥ 7 ॥
धनायपौ लग्नपतेश्च मित्रे धने सितेन्दू निधनेऽथ सौम्ये।
नृपादियोगे सति वित्तप्राप्तिपती मिथो बन्धगतौ च सुस्थौ ॥ 8 ॥
• लाभ स्थान में चन्द्रमा के अतिरिक्त कोई बलवान् ग्रह हो;
• सूर्य से दूसरे स्थान में कोई शुभ ग्रह हो;
• लग्न में वर्गोत्तम नवांश हो और गुरु शनि स्थिर राशियों में न हों;
• धनेश व लाभेश दोनों ही लग्नेश के मित्र या अधिमित्र हों;
• द्वितीय स्थान में शुक्र व चन्द्रमा हों;
• अष्टम में कोई बली शुभग्रह हो;
• प्रश्न के समय कोई राजयोग बनता हो;
• धनेश व लाभेश का आपस में कोई सम्बन्ध बनता हो।
क्या अमीरों में गिनती होगी?

अथो परे वित्तबहुत्वयोगाः सिते सुते मन्दविलोकिते स्वे।


रवौ सुते सिंहगते च लाभे गुरुः स्वभे वा सुतगो निशेशः ॥9॥

बुधे च कर्के शनिराप्तिगामी गुरूदये चन्द्रकु जेज्ययोगे।


तथा बुधांगे बुधशुक्रमन्दाः हरौ रवीज्यारयुतेऽथ कर्के ॥10॥

कु जेन्दुदेवेन्द्रनुताश्च भौमे कु जाच्छसौम्याः क्षितिजाच्छमन्दाः।


सौम्यैनदृग्योगगतः सितश्च शौके गुमन्दारसिताश्च नार्याम् ॥ 11 ॥

बुधेक्षितो वित्तगतः शनिश्च स्वायाखभाग्येषु बलान्वितेषु।


बलाढ्य इन्दौ धनगो गुरुश्चेच्छु भेक्षणे भूरिधनर्धिरुक्ता ॥ 12 ॥
यदि 2, 9, 10, 11 भावों में से अधिकांश भाव बली हों तो इन योगों में से कोई योग बनने पर पृच्छक को अपने जीवन काल में
अमीर होने का सुख मिलता है-

• अपनी राशि या उच्च राशि का शुक्र पंचम में हो और शनि ग्यारहवें स्थान में हो;
• लाभ में बृहस्पति और सिंह में सूर्य पंचम में हो;
• स्वराशि में गुरु कहीं हो और चन्द्रमा पंचम में गया हो;
• लाभ स्थान में शनि और कर्क राशि में बुध हो;
• धनु या मीन लग्न में चन्द्र, मंगल व बृहस्पति का योग या परस्पर दृष्टि सम्बन्ध बने;
• मिथुन कन्या लग्न में बुध, शुक्र व शनि आपस में दृग्योग करें;
• सिंह लग्न में सूर्य, मंगल, बृहस्पति का दृग्योग बनता हो;
• कर्क लग्न में चन्द्र, मंगल, बृहस्पति का दृग्योग बने;
• मेष या वृश्चिक लग्न में मंगल, बुध, शुक्र या मंगल, बुध, शनि का दृग्योग बने;
• वृष या तुला लग्न में बुध, शुक्र व शनि का दृग्योग हो;
• मंगल, शुक्र, शनि या राहु का कन्या राशि में कहीं भी योग बने;
• धन स्थान में शनि को बुध देखता हो;
• धन स्थान में शुभदृष्ट बृहस्पति हो और चन्द्रमा बली हो।
उसका खानदान कै सा है ?

के न्द्र धनेशे नवमेशबन्धे धनेऽथवा भाग्यपतौ शुभाट्ये।


लग्नांशनाथेक्षणयोगयाते धनााधिपे सज्जनवंशजातः ॥ 13 ॥
प्रश्नगत व्यक्ति और उसके घर वाले सज्जन होते हैं और परिवार से अच्छे
संस्कार मिलते हैं,

यदि:

• द्वितीयेश के न्द्र में शुभयुक्त या दृष्ट हो;


• नवमेश द्वितीय में गया हो और शुभयुक्तदृष्ट हो;
• द्वितीयेश पर लग्न में पड़ने वाले नवांश के स्वामी की दृष्टि या योग हो।

धनेशतन्नाथनवांशनाथौ धनेशलग्नाधिपती शुभाशे।


स्वतुंगमित्रादिशुभास्पदेषु नरो भवेत्सज्जनवंशजातः ॥ 14 ॥

• धनेश और धनेश का नवांशेश एक राशि या एक नवांश में हों;


• धनेश व लग्नेश का परस्पर योग या दृष्टि हो;
• धनेश व लग्नेश या धनेश व धनेश का नवांशेश किसी शुभ राशि, उच्च, अधिमित्र या मित्रादि की राशि या नवांश में हों।
इन योगों में भी व्यक्ति को अपने कु ल से उत्तम संस्कार मिलते हैं।
क्या मेरे परिवार में बिखराव होगा?

धने शुभाढ्येऽपि मदोदयान्त्ये


खलग्रहाढ्ये प्रथमे गुरुः स्यात्।
धने मदे पापखगाः कु लान्त
विवादविश्लेषकराः प्रदिष्टाः ॥ 15 ॥

द्वितीय में शुभग्रह होते हुए भी, 1, 7, 12 भावों में पापग्रह हों। लग्न में बृहस्पति, द्वितीय में शनि और सप्तम में पापग्रह
हो। व्यक्ति के परिवार में विवाद, वियोग, बिखराव होता है।
क्या आंखों में विकार सम्भव है ?

शुक्रात् त्रिके नेत्रपतौ सशुक्रे धनाधिपे वांगपतौ बुधः।


कु जेभगे वा कु जसौम्यदृष्टे धनव्यये सूर्यविधू विशेषात् ॥ 16 ॥

कर्कोदये सूर्ययुतेक्षिते वा सिंहे तथा चन्द्रयुतेक्षितेऽपि।


त्रिके विधावंशुधरो लयास्ते कोणे शनिर्नेत्रविकारयोगाः ॥ 17 ॥
ऐसा प्रश्न होने पर अधोलिखित योगों में से कोई योग बने तो नेत्रविकार होना
सम्भव है-

• नेत्रपति अर्थात् 2, 12 भावों के स्वामी शुक्र से त्रिक (6, 8, 12) में गए हों;
• द्वितीयेश शुक्र के साथ हो;
• लग्नेश मेष, मिथुन, कन्या, वृश्चिक में हो और मंगल या बुध उसे देखे;
• द्वादश या द्वितीय में सूर्य या चन्द्रमा हो; (इन पर मंगल या बुध की दृष्टि होने से विशेष विकार होता है)
• कर्क लग्न को सूर्य देखे या योग करे;
• सिंह लग्न को चन्द्रमा देखे या योग करे;
• चन्द्रमा त्रिक में हो और सूर्य 7, 8 भावों में हो;
• त्रिकोण में शनि के साथ सूर्य 7, 8 में हो।
क्या भाषण कला या वाक् सिद्धि हो सके गी?

धने सपापका ग्रहाः प्रभूतभाषिणं जनम्।


बुधारतारकाधिपा बलान्विताः प्रशंसितम् ॥ 18 ॥
धने शुभा लवाः शुभः शुभेक्षितः खगस्तथा।
करोति तं गिरां पतिं यथोक्तसत्यभाषिणम् ॥ 19 ॥

• द्वितीय में कई शुभ पाप ग्रह हों तो व्यक्ति अधिक बोलकर ही बात का खुलासा कर सकता है। अर्थात् उसे थोड़े वचनों से सन्तोष
नहीं होता है।
• प्रश्न समय में बुध, चन्द्रमा व मंगल बलवान् व सुस्थित हों तो व्यक्ति की भाषण कला की प्रशंसा होती है।
• द्वितीय में शुभग्रहों के अधिक वर्ग हों, धन स्थान में शुभग्रह शुभदृष्ट भी हो तो मनुष्य को वाक् सिद्धि होती है। अर्थात् उसकी कही
हुई बातें सच्ची हो जाती हैं। साथ ही वह भाषा व शब्दों का प्रभावशाली इस्तेमाल करता है।
क्या मुंह में बड़ा रोग सम्भव है?

मदे शुभैरनन्विताः खलाः शनीन्दुजौ युतौ।


त्रिके धनाधिपोऽगुतत्पयुक् कु जङ्ख्गोंगपे ॥ 20 ॥
बुधेक्षणे रिपौ बुधाकराधिपौ सपातको।
बुधार्क जौ धने तथा मुखे गदार्तिसम्भवः ॥ 21 ॥

इन योगों में मुंह, तालु, जीभ आदि में कोई जटिल रोग सम्भव होता है-

• सप्तम में पापग्रह हों और उनका शुभग्रहों से कोई सम्बध न हो;


• शनि व बुध बहुत निकट युति में हों और शुभदृग्योग से रहित हों;
• द्वितीयेश राहु या राहु की आश्रित राशि के स्वामी से युक्त होकर त्रिक में हो;
• लग्नेश मंगल की राशि में गया हो और बुध उसे देखे;
• द्वितीयेश व बुध दोनों ही छठे स्थान में राहु या राहु के अधिष्ठित राशीश से युक्तदृष्ट हों;
• द्वितीय में बुध व शनि निकट युति में हों।
क्या भाईयों से बनी रहेगी ?

मन्दसमेत: सहजो जसितदृष्टौ तथानुजे पापे।


षष्ठे सौम्यः कु रुते सोत्थानां च मनोमलीमसताम् ॥ 22 ॥
भौमात् सोत्थे चैवं फलं तथा पापसंयोगे।
सक्षितिजे सहजेशे द्वयोस्त्रिके ऽथ पापर्खदृग्योगे ॥ 23 ॥

इन योगों में भाई बहनों का आपसी प्यार व सहयोग तो कम होता ही है,


साथ ही उनमें वैर विरोध भी सम्भावित होता है-

• तृतीय में शनि को बुध या शुक्र देखे;


• तृतीय में पापग्रह और षष्ठ में शुभ ग्रह हो;
• मंगल से तीसरे स्थान में पापग्रह हों;
• तृतीयेश के साथ मंगल हो;
• तृतीयेश व मंगल त्रिक स्थानों में पापदृष्टयुक्त हों।

शनिरिह मंगलदृष्टो नीचास्तशत्रुभस्थयुतः सहजः।


रविविधुपापा: पापैर्दृष्टा च सहजसपत्नतां कु र्युः ॥ 24 ॥

• तृतीय में शनि पर मंगल की दृष्टि या योग हो;


• तृतीय में नीच, अस्त या शत्रु क्षेत्री ग्रह हों;
• तृतीय में सूर्य, चन्द्रमा या कोई भी पापग्रह पापदृष्ट हो तो भाईयों से
वैर विरोध होता है।
पड़ौसी कै से मिलेंगे?

यथा तृतीये खलखेटयोगात्


सहोदरोत्थं फलमत्रमुक्तम्।
तथा धनान्त्यस्मरभाद् विचार्य
शुभाशुभाय प्रतिवेशजाय ॥ 25 ॥

जिस तरह तीसरे स्थान से भाईयों के साथ सम्बन्धों का विचार करना बताया गया है, वैसे ही दूसरे, सातवें व बारहवें स्थानों से
पड़ौसी घरों का विचार करें। अर्थात् इन स्थानों में सूर्य, चन्द्र या पापग्रह हों तो साधारण सम्बन्ध और उनपर पाप दृष्टि भी हो तो
खराब सम्बन्ध कहें।

सातवां स्थान बिल्कु ल सामने वाले घर का, दूसरा दांयी ओर वाले का और बारहवां बांयी ओर वाले घर का होता है। अधिक सूक्ष्म
विचार के लिए इन स्थानों के स्वामियों की स्थिति से के न्द्रों में उसी दिशा में थोड़ी दूर के , पणफर में थोड़ा और दूर के और
आपोक्लिम में स्थित ग्रहों से काफी दूर लेकिन मुहल्ले में स्थित घरों और उनमें रहने वालों के साथ सम्बन्धों का विचार करना चाहिए।
क्या नौकर मिलेगा?

लाभेशलाभास्पदयोगमाप्ते मन्दे तथा वीर्ययुताढ्यलाभे।


शुभेक्षिते लग्नमदेशबन्धे मदेऽथवा लग्नपतौ तदाप्तिः ॥ 26 ॥

वक्रास्तपापैर्विधुलग्ननाथौ पूर्वोक्तयोगेषु खलस्य योगे।


लाभे रवौ वा रविणा युतेषु प्रोक्ते षु नो भृत्यजनाप्तिमाहुः ॥ 27 ॥

इन योगों में नया या गया हुआ पुराना नौकर मिल जाता है-

• लाभेश या लाभ भाव से शनि का सम्बन्ध बने;


• लाभ स्थान में कोई बलवान् ग्रह स्थित हो और शुभग्रह की एकादश पर दृष्टि हो;
• सप्तमेश व लग्नेश का सम्बन्ध बनता हो;
• लग्नेश सप्तम में स्थित हो;

इन स्थितियों में पूर्वोक्त योग निष्फल हो जाते हैं। अर्थात् नौकर नहीं मिलता है-

• इन पूर्वोक्त योगों में यदि सूर्य ही योग बनाने वाला हो;


• लाभ स्थान पर सूर्य का योग हो;
• पूर्वोक्त ग्रहों में से कोई ग्रह या उनके साथ सम्बन्ध रखने वाले ग्रहों में से कोई वक्री, अस्तंगत हो;
• लग्नेश व चन्द्रमा वक्री या अस्तंगत ग्रहों के साथ सम्बन्ध करें।
क्या बीमा कम्पनी या सरकार से धन मिलेगा?

वित्तेशे यदि चन्द्रलग्नपयुते सौम्येक्षिते स्वोच्चभे


वा चैतेषु धनायकोणनिहितेष्वालोकयोगे मिथः।
कोणे के न्द्रधनाप्तिभे शुभखगा लाभे विशेषात् सितश्
चन्द्रो वा निजतुंगभे शुभखगालोके न राज्याधनम् ॥ 28 ॥

इन स्थितियों में बीमा कम्पनी या सरकारी विभाग से विवादित धन मिल


जाता है-

• लग्नेश या चन्द्रमा के साथ धनेश का योग या पूर्ण दृष्टि हो;


• उच्चगत धनेश को शुभ ग्रहों का दृग्योग प्राप्त हो;
• धनेश, लग्नेश व चन्द्रमा किसी भी क्रम में 2, 5, 9, 11 भावों में हों।
इनमें परस्पर दृष्टि या सम्बन्ध बनने पर और श्रेष्ठ योग होगा;
• के न्द्र, त्रिकोण व धनस्थान में शुभ ग्रहों कर स्थिति या दृष्टि हो;
• लाभ स्थान में बलवान् शुक्र या चन्द्रमा हो;
• शुक्र या चन्द्रमा उच्चगत होकर किसी भी भाव में शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हों।
क्या अपने परिवार में श्रेष्ठ हो सकूँ गा ?

खेटो विक्रमपुत्रविलग्ने श्रेष्ठबली कश्चित् तिष्ठेच्चेत्।


भाग्यं पश्यन् वा भाग्येशो भाग्ये सहजे वै सहजेशः ॥ 29 ॥
सोत्थे पुत्रे भाग्ये लाभे स्वोच्चमूलनिजभं यातश्च।
नरपतियोगभवः पुरुषो वा कु लविश्रुतचरितः संजातः ॥ 30 ॥

पृच्छक अपने सभी परिवारजनों में अधिक भाग्यवान्, अनुकरणीय व माननीय होगा, यदिः
• कोई बलवान् ग्रह 3, 5, 1 स्थानों में कहीं हो और वह नवम स्थान
को देखे;
• तृतीयेश तृतीय में एवं नवमेश नवम में हो;
• कोई भी शुभ या अशुभ ग्रह उच्चगत, मूलत्रिकोणी, स्वराशिगत (कारक
ग्रहों से युक्त दृष्ट होकर) 3, 5, 9, 11 भावों में कहीं हो;
• प्रश्न लग्न में स्पष्ट राजयोग बनता हो।
क्या अचानक लाभ या पदोन्नति होगी?

बुधं यदा विलग्नगं विधुर्विलोकते धनम्।


तदाशु प्राप्यते खलोऽथवा पदं न शान्तिदम् ॥ 31 ॥
भवं तपोऽथवा शुभो विलोकते समश्नुते।
शुभं जनैरनीप्सितं तथेप्सितं च लभ्यते ॥ 32 ॥

• प्रश्न लग्न में स्थित बुध को यदि चन्द्रमा या कोई क्रू र ग्रह देखे तो व्यक्ति को अचानक ही कोई अधिकार या धन मिल जाता है।
लेकिन इस प्राप्ति से कु छ तनाव भी होता है।

• किसी प्रकार से प्रश्न में सफलता न दिखे तो नवम एवं लाभ स्थान देखें। इनमें से कोई एक भी भाव यदि शुभ या बली ग्रह से
युक्त या दृष्ट हो तो पृच्छक को कभी मनचाहा और कभी कोई अन्य शुभ फल मिल जाया करता है।
क्या फर्नीचर या पत्थर का काम अनुकू ल है ?

बलवान् षष्ठाधीशस्तृतीयगो दृषद्दारूभिः श्रेयः।


बलवन्मन्दालोकात् तस्मिंश्च संकीर्तनं याति ॥ 33 ॥

तृतीय भाव में बलवान् षष्ठेश हो तो पृच्छक को इमारती लकड़ी, फर्नीचर, शिला, पत्थर, टायल आदि का काम शुभ होता है।

तब तृतीय भाव पर बली शनि की दृष्टि भी हो तो इस काम में पृच्छक का नाम विश्वसनीय व प्रसिद्ध भी हो जाता है।
क्या ससुराल से सम्पदा मिलेगी?

धनाधिपः सितेन वा स्मराधिपेन संयुतः।


बली भवास्पदेऽपि सन् धनं स्वदारताततः ॥ 34 ॥

धने शुभर्खगाः शुभा अवाप्तिभेशसंयुताः।


धनेशभाग्यपौ युतौ सुखे रविर्यदा भवेत् ॥ 35 ॥

रवीक्षितो धनाधिपश्चतुर्थभे विधोः रविः ।


सुखेशदृष्टयुक्तदा तथैव स्याद्धनागमः ॥ 36 ॥

इन योगों में ससुराल से सम्पत्ति आदि का लाभ होता है-

• बली द्वितीयेश का शुक्र या सप्तमेश से दृग्योग बने;


• द्वितीयेश व सप्तमेश का लाभ स्थान से कोई रिश्ता बनता हो;
• धन स्थान में शुभ राशि में कई शुभ ग्रह हों और लाभेश से दृग्योग करें;
• धनेश व भाग्येश का योग या दृष्टि हो;
• चतुर्थ में बलवान् सूर्य हो;
• धनेश को सूर्य देखता हो;
• चन्द्रमा से चतुर्थ स्थान के साथ सूर्य का सम्बन्ध बने;
• लग्न या चन्द्र से चतुर्थेश की दृष्टि या योग सूर्य से हो जाए।
क्या कार आदि का सुख होगा ?

भाग्येशे वित्तयाते सुखसदनगता: पुण्यखायाधिपाश्च


सदृष्टे वाहनाथे बलिनि च गुरुणा युक्तदृष्टे सुखेशे।
पुण्येशाल्लाभभावे तनुपतिसहिते लग्नसंस्थाः शुभा वा
अन्त्ये चन्द्रे च चन्द्रात् सहजभवनगे भाग्यपे वाहनाथः ॥ 37 ॥

इन स्थितियों में कार आदि वाहन का सुख होता है-

• धन स्थान में नवमेश हो;


• लाभेश, दशमेश और नवमेश में से किसी का सम्बध चतुर्थ स्थान से बने;
• बलवान् चतुर्थेश को शुभग्रह देखें या योग करें;
• चतुर्थेश को बृहस्पति का दृग्योग प्राप्त हो;
• नवमेश से ग्यारहवें भाव में लग्नेश गया हो;
• लग्न में शुभयोग हो;
• चन्द्रमा द्वादश स्थान में स्थित हो;
• चन्द्रमा से तीसरे स्थान में भाग्येश हो।

गुरौ शुभर्खभे शुभे शुभः सुखाधिपो यदि।


नरो नरेण वाहितं समाप्नुयाच्च वाहनम् ॥ 38 ॥

त्रिके श के अतिरिक्त किसी ग्रह की राशि में बृहस्पति हो और नवम में कोई शुभ ग्रह चतुर्थेश होकर स्थित हो तो मनुष्य को ड्राइवर
सहित गाड़ी
का सुख मिलता है।
क्या अमानत संभाल सकूँ गा ?

सशुभे वित्तभावेऽम्बुनाथयोगेक्षणाज्जनः।
परन्यासस्य भोगाद् वै विरतो गीयते व्रती ॥ 39 ॥

धन स्थान में शुभ ग्रह, खास तौर से बृहस्पति हो। धनस्थान पर चतुर्थेश का योग या दृष्टि हो। इन दो स्थिीतयों में मनुष्य दूसरों की
अमानत को संभाल कर रखता है। दोनों स्थितियां साथ बन जाएं तो लोग उसकी ईमानदारी की मिसाल देते हैं।
क्या मेरा लेखन पसन्द आएगा?

भाग्येशसौख्याधिपयोगदृष्टी
लाभेशभाग्येशसमन्वयश्च।
गुरोस्त्रिकोणे सुतपे युते वा
प्रसिद्धलेखः प्रभवेन्मनुष्यः ॥ 40 ॥

चतुर्थेश व नवमेश का आपस में योग या दृष्टि सम्बन्ध बने। लाभेश व भाग्येश का परस्पर योग या दृष्टि हो। बृहस्पति से त्रिकोण में
पंचमेश हो। बृहस्पति व पंचमेश का परस्पर दृग्योग बने। इन चार स्थितियों में लेखन के कारण व्यक्ति को यश मिलता है।
क्या प्रेमी अच्छी भेंट देगा?

राहुर्यदा भाग्यभवेशयोगे धनेऽथवागुः शनिरस्ति बौधे।


शौक्रे तदासीनभनाथबन्धे महर्घचेयानि विभूषणानि ॥ 41 ॥

प्रश्न लग्न में ये स्थितियां बनने पर अपने प्रियतम या चाहने वाले से कीमती
भेंट मिलती है-

• राहु नवम या लाभ में हो या नवमेश, लाभेश के साथ सम्बन्ध करे;


• द्वितीय स्थान में राहु अके ला हो;
• वृष, तुला, मिथुन या कन्या में शनि हो और अपने राशीश के साथ
सम्बन्ध बनाए।
क्या उस भेंट का राज खुलेगा ?

ग्रहा अमी त्रिके श्वरान्वये स्मरारिपौ युतौ ।


विभूषणं प्रियार्पितं जनापवादमाप्नुयात् ॥ 42 ॥

इन योगों में दी गई भेंट का राज खुल जाता है-


• पिछले श्लोक में बताए गए भेंटदायक ग्रहों का यदि किसी त्रिके श के साथ सम्बन्ध बने।
• सप्तमेश व षष्ठेश का आपस में दृग्योग बनता हो।
क्या लॉटरी शेयर आदि से लाभ होगा?
कर्मेशाध्युषितांशपेन सहिते लाभाधिपे वेन्दुतः
सर्वे सौम्यखगाश्च वृद्धिसदनेष्वाश्रित्य वीर्यान्विताः।
के न्द्रे वित्तपतौ तथा बलयुते लाभाधिपे वित्तगे
सौम्ये सौम्ययुतेक्षिते शशधरं त्यक्त्वा धनं लीलया ॥ 43 ॥

इन योगों में आसानी से बिना अधिक मेहनत किए या सट्टा, लॉटरी आदि
से लाभ होता है-
• दशमेश का नवांशेश यदि लाभेश के साथ हो या उससे दृष्ट हो;
• चन्द्रमा से 3, 6, 10, 11 स्थानों में के वल बलवान् शुभग्रह हों;
• धनेश के न्द्र में हो और लाभेश बलवान् हो;
• धन स्थान में बुध को चन्द्रमा के बिना किसी अन्य शुभग्रह का योग या दृष्टि प्राप्त हो।

स्वोच्चादौ च खला अवाप्तिभवने वा वित्तपे तादृशि


भाग्याकाशभवेषु खे शशधरो मन्दो भवे स्वे कु जः।
सौम्याढ्यश्च सुखे दिनेशसहितः शुक्रोऽथ शुक्रे न्दुजौ
लाभस्वान्वयगौ जनो धनगणं प्राप्नोत्ययत्नेन च ॥ 44 ॥
इन सब स्थितियों में भी सरलता से धनागम होता है-
• लाभ स्थान में कई पापग्रह अपने, उच्च, मूलत्रिकोण या स्वराशि आदि में हों;
• अपने उच्चादि में स्थित धनेश 9, 10, 11 स्थानों में कहीं हो;
• चन्द्रमा दशम में, शनि एकादश में, मंगल और बुध द्वितीय में, सूर्य एवं
शुक्र चतुर्थ में, इनमें से यथासम्भव कम से कम दो स्थितियां बनें;
• शुक्र और बुध का कोई सम्बन्ध 2, 11 स्थानों से बनता हो।
लाभ भाव की विशेषता

लाभे लाभाधिपे वापि शुभराशौ शुभांशके ।


शुभेक्षितयुते सोले धनभाग्यात्मजैर्युते ॥ 45 ॥
दौर्बल्यं प्रश्नलग्नस्य लीयतेऽथ फलं शुभम्।
जिज्ञासितस्य सर्वं तत् पृच्छको लभते ध्रुवम् ॥ 46 ॥

लाभ स्थान में कोई भी बलवान् ग्रह अपनी उच्चादि अच्छी राशि, नवांश में हो या लाभ स्थान को ऐसे ग्रह देखें।

अथवा स्वयं लाभेश उच्चादि राशि, नवांश में स्थित हो।

अथवा लाभेश के साथ धनेश, पंचमेश और नवमेश में से किसी का सम्बन्ध बनता हो।
अथवा 2, 5, 9 भावेशों में से काई लाभ स्थान में हो।

उक्त चारों स्थितियों में प्रश्नलग्न की अन्य कमजोरियां या प्रश्न की सफलता के विषय में दिखने वाला सन्देह दूर होता है। तब प्रश्न के
सन्दर्भ में पृच्छक को मनोनुकू ल सफलता का योग बनता है।
धनायविक्रम का अन्योन्य सम्बन्ध

कर्मणि यत्नात् सिद्धिः सिद्धेश्च निधिकोषसंग्रहाद्याश्च।


तस्मात् प्रश्ने लाभे सोर्जे लाभो घनस्तथा सधने ॥ 47 ॥
अनयोर्बलवत्वे चाध्यवसायश्च पराक्रमभे सबले।
शेमुषीभाग्यभावौ बलयोगे सदाऽमन्दरमणीयौ ॥ 48 ॥

किसी भी काम में सफलता, सिद्धि, उपलब्धि या प्राप्ति का सीधा सम्बन्ध हमारे पराक्रम, परिश्रम और प्रयत्न से ही होता है। अत: प्रश्न
के सन्दर्भ में:

• एकादश स्थान की सबलता का सौन्दर्य और अधिक निखर जाता है,यदि तृतीय स्थान (विक्रम) भी सबल हो।
• यदि इनके साथ ही धन स्थान (बचत) भी बली हो तो सफलता की मात्रा वक्त और तात्कालिक जरूरत से कु छ अधिक हो जाया
करती है।
• पंचम (बुद्धि) और नवम (भाग्य) स्थानों की बलवत्ता तो सदैव अतुल
आनन्द ही देती है।
• प्रश्न में 2, 3, 11, 5, 9 स्थान सफलता के स्तम्भ और धुरी हैं। इन स्थानों को लग्न से और विचारणीय भाव से भी देखें। इनमें
से अधिकाधिक तत्त्वों की सबलता और आपसी सम्बन्ध पृच्छक के मनोरथ पूर्ण होने की अधिकाधिक गारंटी जैसे ही हैं।
क्या भाईयों की उन्नति होगी?

सुखे सुखेशसोत्थपौ कु जं विना परेण तौ।


युतौ सहोदरास्तदा समृद्धिमाप्नुयुः कथम् ॥ 49 ॥

चतुर्थेश और तृतीयेश चतुर्थ में हों। या सुखेश व तृतीयेश मंगल के बिना किसी अन्य ग्रह से युक्त हों। इनमें से कोई योग बने तो
प्रश्नकर्ता के भाई तरक्की नहीं कर पाते हैं।
क्या कानों में कोई कमी होगी?

सहजलाभपती बलिनौ यदा भवनगाश्च खगा बलिनस्तथा।


श्रवणसौख्यमथो विकृ तिर्भवेदपरथा विहगस्थितिरस्ति चेत् ॥ 50 ॥

तृतीय व एकादश स्थान शुभपंचक में स्थित ग्रहों से युक्त हों और इनके स्वामी ग्रह भी शुभपंचक में ही हों। इन स्थानों पर कोई पाप
प्रभाव न हो तो व्यक्ति को कानों का सुख, समुचित श्रवण शक्ति बनी रहती है।

इसके विपरीत, अशुभपंचक में स्थित ग्रहों का दृग्योग इन स्थानों में हो और इनके स्वामी भी अशुभपंचक में गए हों तो श्रवण शक्ति की
कमी, कानों में रोग, कर्णेन्द्रिय की हानि होती है।
क्या मेरा कोई सौतेला भाई है?

बली धनाधिपोऽष्टमे तथा तृतीयपः खलैः।


कु जोऽथवान्वितः सितेन वेन्दुना सपत्नजः ॥ 51 ॥

इन योगों में सौतेले भाई या बहन का होना सम्भव है-


• द्वितीयेश बलवान् होकर अष्टम में हो और तृतीयेश के साथ पापग्रह हो;
• द्वितीयेश त्रिक में गया हो और तृतीय में पापग्रह हों;
• द्वितीयेश त्रिक में हो और मंगल पापयुक्त हो;
• मंगल के साथ शुक्र या चन्द्रमा का गहरा सम्बन्ध बनता हो।
क्या गाने में सुर सुधरेगा ?

बुधार्यलोकान्वयगे तृतीये चतुष्टये वा च ततो बुधायौँ।


कु जस्तृतीयाधिपयोगमाप्तः स्वरं सुरम्यं भवितेति गाने ॥ 52 ॥

गायन आदि में अच्छा सुर आवाज हो जाती है, यदिः

• तृतीय स्थान से बुध या गुरु या दोनों का कोई ताल्लुक बनता हो;


• तृतीय से के न्द्रों (6, 9, 12) में बुध, गुरु स्थित हों;
• तृतीयेश व मंगल का कोई सम्बन्ध बने।
सर्वविध लाभ के योग

के न्द्रे कोणे च सौम्याः सकलखलखगाः के न्द्ररन्ध्राद् बहिःस्थाः


स्वोच्चे सौम्योऽथ कश्चित् प्रथमभवनगः खे रविः सौम्ययुक्ते ।
बौधे शुक्रज्ययोगे दशमभवनगे भूमिजे कश्चिदेकः
सिंहांगात् स्वोच्चभादिं गतममलखगं सर्वसिद्धिः प्रपश्यन् ॥ 53 ॥

यहां बताए जा रहे योगों में से कोई एक भी बनता हो तो पूछने वाले को इच्छित वस्तु, धन, पद, जमीन, वर (दूल्हा), सफलता आदि,
जहां जैसा प्रश्न हो, मिल जाती है-

• के न्द्र व त्रिकोणों में सब शुभग्रह हों और पापग्रह के न्द्र व अष्टम में न हों;
• लग्न में कोई उच्चगत या स्वराशि आदि में स्थित ग्रह हो और दशम में सूर्य हो;
• शुभग्रह से युक्त लग्न में बुध की राशियों में गुरु व शुक्र हों और दशम में मंगल हो;
• सिंह लग्न में स्थित कोई ग्रह अपने उच्च या स्वक्षेत्र में बैठे शुभग्रह को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो।
विलग्नकार्याधिपती सचन्द्रौ
निजोच्चभस्थौ शुभदृष्टयुक्तौ।
शुभाः सचन्द्रा बलिनो भवेयु
स्त्रयः समस्तार्थफलाश्च योगाः ॥ 54 ॥

इन तीनों को भी सकल सिद्धिदायक योग समझें-

• लग्नेश, चन्द्रमा व जिस भाव से सम्बन्धित प्रश्न हो उसका स्वामी (कार्येश), ये तीन यदि आपस में सम्बन्ध, दृष्टि या योग करें;
• लग्नेश व कार्येश में कोई एक या दोनों उच्चादिगत हों और शुभग्रह इनसे दृष्टि या योग करें;
• चन्द्रमा सहित सभी शुभग्रह प्रश्न के समय बलवान् हों।
शुभः स्वोच्चादिग: खेट: शुभदृग्योगसंस्थितः।
लग्नाम्बुपुत्रलाभस्थः सर्वसिद्धिं च शंसति ॥ 55 ॥

कोई एक भी ग्रह अपने उच्चादि शुभपंचक में स्थित होकर शुभग्रह से युक्त या दृष्ट हो और 1, 4, 5, 11 भावों में कहीं हो तो यह भी
वांछित कार्य में सफलता का पुष्ट योग है।

स्वस्मात् त्रिकस्थितिं हित्वा मिथोऽन्योन्यर्भसंस्थिताः।


मिथः पूर्णं प्रपश्यन्तो लाभगाः सिद्धिदाः स्मृताः ॥ 56 ॥

प्रश्न के समय जो भावेश अपनी राशि से 6, 8, 12 में गया हो, वह उस भाव से सम्बन्धित प्रश्नकी असफलता या हीनता को
द्योतित करता है।

विचारणीय भावेश सहित कई ग्रह यदि आपस में पूर्ण दृष्टि रखते हों या एक दूसरे की राशियों में त्रिकरहित भावों में स्थित हों तो पूर्ण
कार्यसिद्धि को बताते हैं।

यदि परस्पर दृष्टि या राशि परिवर्तन वाले ग्रह विचारणीय भाव या प्रश्न लग्न से त्रिक में हों तो भी आंशिक या काफी प्रयत्नों से
सफलता का संके त देते हैं।
विचारणीय भाव या लग्न से एकादश में स्थित ग्रह कार्य में सफलता को ही प्रकट करता है।
त्रिकस्थिति का अपवाद

लग्नसोत्थसुखवित्तभवेशा अन्त्यभेषु निजभाच्छु भदाः स्युः।


के न्द्रकोणपतयस्त्रिकपाश्चेल्लग्न भावपतयोऽपि तथा स्युः ॥ 57 ॥

• लग्नेश द्वादश में, द्वितीयेश लग्न में, तृतीयेश द्वितीय में, चतुर्थेश तृतीय में और लाभेश दशम में स्थित हों तो इन्हें त्रिक में होने का
दोष नहीं लगता है।
• इसी तरह से पंचमेश चतुर्थ में, दशमेश नवम में हो या कोई के न्द्रेश व त्रिकोणेश आपस में अदल बदल करके किसी के न्द्र या
त्रिकोण में ही हों तो भी त्रिक स्थिति का दोष नहीं लगता है।
• यदि कोई एक ही ग्रह लग्नेश या विचारणीय भावेश होकर साथ ही किसी त्रिकभाव का भी पति हो तो भी त्रिकस्थिति का दोष नहीं
लगेगा। उदाहरणार्थ, मेष में मंगल, वृष में शुक्र, मकर में शनि हो तो अपनी दूसरी राशि वाले भावों को नुकसान नहीं पंहुचाएंगे।
ग्रहों के हर्ष स्थान

स्वोच्चमूलनिजभांशमुपेता उत्तमांशमथवा लवशुद्धाः।


स्वाश्रयेशयुतिलोकनमाप्ता हर्षिताः शुभफलाः खचरेन्द्राः ॥ 58 ॥
सोत्थवित्तदशमेषु निशेशो भाग्यसंस्थ इनजो जलगो ज्ञः।
लग्नमेत्य रविरस्तगतश्च भूमिभूर्भवगताश्च समस्ताः ॥ 59 ॥

प्रश्न के समय इन स्थितियों में ग्रह हर्षबली अर्थात् प्रसन्न रहकर अच्छा फल देने वाले कहे गए हैं। कई ग्रह हर्षित हों तो प्रश्न का फल
अनुकू ल और मनभावन होता है।
• अपने उच्च, मूलत्रिकोण राशि, स्वराशि (अधिमित्र या मित्र की राशि अर्थात् शुभपंचक में) स्थित ग्रह;
• इन्हीं राशियों के नवांश में या वर्गोत्तम नवांश में स्थित ग्रह;
• षड्वर्गों में अधिकांश स्थानों में उक्त राशियों में स्थित ग्रह;
• अपनी स्थित राशि के स्वामी के साथ बैठे या उससे दृष्ट ग्रह;
• द्वितीय, तृतीय और दशम में चन्द्रमा;
• नवम स्थान में शनि;
• चतुर्थ में बुध,
• लग्न में सूर्य;
• सप्तम में मंगल;
• लाभ स्थान में सभी ग्रह।
प्रश्नसन्दर्शनाख्ये ग्रन्थे दिल्ल्यां सुरेशमिश्रोक्ते ।
धनायविक्रमपूर्वं सन्दर्शनसंज्ञमवसितं षष्ठम् ॥ 60 ॥

दिल्लीवासी डॉ. सुरेश चन्द्र मिश्र द्वारा कहे जा रहे इस प्रश्नसन्दर्शन नामक ग्रन्थ में, द्वितीय, तृतीय और एकादश स्थानों से विचार करने
योग्य विविध प्रश्नों का विवेचन करने वाला, यह धनायविक्रमसन्दर्शन नामक छठा अध्याय सम्पन्न होता है।

॥ एवमादितः श्लोकाः 415 ॥

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