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★व्याकरणलेख-1★

लकार-सिद्धिः।
मित्रों!
संस्कृ त हमारी सम्पत्ति है। उसका रक्षण हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? आज १५ अगस्त है। हम आजाद हैं। जब गुलाम थे, तब तो कु छ नहीं कर सकते थे। लेकिन
आजाद होने के बाद भी हमने क्या कर लिया संस्कृ त और संस्कृ ति के लिए?
आज संकल्प लेते हैं कि अगले पन्द्रह दिनमे कम से कम ५० पाणिनीय सूत्र पढेंगे। अर्थात् रोज का सिर्फ तीन सूत्र पढ़ना है हमें।

उसके लिए हम किसी शब्द कि सिद्धि से शुरुआत करेंगे। जिससे दो फायदे होंगे, शब्दसिद्धि होगी और सूत्र का उपयोग कै से हुआ, यह भी पता चलेगा।

पहले " लिखति " इस शब्द की सिद्धि करते हैं।


लिखति में तीन भाग हैं -
लिख् जो धातु है,
शप् जो विकरण प्रत्यय है,
तिप् जो तिङ् प्रत्यय है,

अर्थात् लिख् + शप् + तिप् का ही लिखति हुआ. लेकिन कै से?


लिखति कि सिद्धि से ही हम कम से कम बीस सूत्र सीख लेंगे।

तो यहाँ जो तीन भाग दिखाये उनको एक-एक कर के देखते हैं। और यहां प्रयुक्त सूत्रों का भी मनन करते हैं।

पहला भाग है लिख्।


ये कहां से आया? तो पाणिनिजी ने जो धातुपाठ लिखा है, वहां से। लेकिन धातुपाठ में तो लिखँ ऐसा है। यहां तो लिख् है। अर्थात् लिखँ का ही लिख् हुआ है। कै से?

लिखँ क्या है? ल् इ ख् अँ


लिख् क्या है? ल् इ ख्
अर्थात् इतना तो ज्ञात होता है कि पीछे का जो अँ है वह गायब हो गया। कै से?
जैसे आडवाणी को निकालना हो तो सीधे-सीधे नहीं निकाल सकते न। मोदी ने कहा कि आपने बहुत काम किया है, आप वृद्ध हो गये। आप को आराम करने का
समय ही नहीं मिला, अब आप आराम कीजिए तथा आप जिम्मेदारी को हमें दे दीजिये। और ऐसे उसका पत्ता काट दिया।
ऐसे ही यहा अँ हो हटाना हो तो ऐसे ही नहीं हटा सकते न, फिर कै से? उसको इत् ( वृद्ध ) कह दो फिर निकाल दो।
तो पहला सूत्र जो इत् संज्ञा करता है,
*1) उपदेशेऽजनुनासिक इत्। (१।३।२)*
उपदेशे अर्थात्? तो पाणिनिजी ने धातुपाठ में जो मूल धातु कही है, उसको उपदेश कहेंगे। लिख् कि मूल धातु लिखँ है।
अजनुनासिक अर्थात् अच् ( सभी स्वर ) + अनुनासिक ( ँ )
लिखँ [ ल् इ ख् अँ] में जो अँ है, वह अच् भी है और अनुनासिक भी है. तो उक्त सूत्र से उसकी इत्-संज्ञा हो गई। आडवाणी को कह दिया गया कि आप वृद्ध हो गये।
अब उसको हटाना आसान हो गया। कै से? दूसरे सूत्र से,

*2) तस्य लोपः। (१।३।९)*


किसका लोप? जो इत् हुआ उसका। लिखँ में कौन इत् हुआ? अँ
लेकिन लोपः अर्थात्? उसके लिए तीसरा सूत्,

*3) अदर्शनं लोपः। (१।१।६०)*


जिसका अदर्शन हो जाये, जो गायब हो जाये, आडवाणी की तरह हट जाये उसको लोप कहते हैं. अर्थात् लिखँ में जो अँ है, वह हट जाये तो उसको लोप कहते है।
तो हमने क्या किया? लिखँ को लिख् बना दिया। कै से? तीन सूत्रों से
*1) उपदेशेऽजनुनासिक इत्*
*2) तस्य लोपः*
*3) अदर्शनं लोपः*

तो आज के तीन सूत्र हो गये।


आगे क्या देखना है?
लिख् + शप् + तिप्
लिख् + अ + ति » लिखति
यहा शप् का अ और तिप् का ति कै से हुआ?
क्रमशः......

★व्याकरणलेख-2★
अब पांच छोटे सूत्र कर लेते है जो लिखति की सिद्धि-अन्तर्गत ही है।
लिख् + शप् + तिप् इसमे-
लिख् धातु है
शप् विकरण-प्रत्यय है
तिप् तिङ् -प्रत्यय है
अर्थात् एक धातु और दो प्रत्यय।
लेकिन लिख् की धातुसंज्ञा कै से हुई? इस सूत्र से,

*4) भूवादयो धातवः। (१।३।१)*


अर्थात् भू आदि जो है उनको धातु कहते है।
अब दुसरा प्रश्नः शप् और तिप्, ये दोनो प्रत्यय धातु के पिछे हि क्यो? _शप् + तिङ् + लिख्_
ऐसे आगे क्यो नही? उसके लिये तिन सूत्र है
*5)धातोः। (३।१।९१)*
*6) प्रत्ययः। (३।१।१)*
*7) परश्च। (३।१।२)*
तिनो सूत्रो को मिलाये तो अर्थ होगाः
_जो प्रत्यय है वह धातु के पर (पिछे) हि होगा, न की आगे।_
अब ये प्रश्न होगा कि शप् और तिप् मे भी तो तिप् आगे और शप् पीछे आ सकता है न!
_लिख् + तिप् + शप्_ ऐसा भी तो हो सकता है!
उसका उत्तर इस सूत्र से मीलेगा..
*8) कर्तरि शप्। (३।१।६८)*
इस सूत्रमे " धातोः" और " सार्वधातुके " इन दोनो कि अनुवृति आकर पूर्ण सूत्र इस तरह बनेगाः " धातोः सार्वधातुके कर्तरि शप् "।
अर्थात् _कर्तरि-वाक्यरचनामे लिख्-धातु के बाद, तिप्-सार्वधातुकप्रत्यय से पूर्व, शप्-विकरणप्रत्ययः होता है।_
अर्थात्
पहले धातु
अन्तमे तिप्
बिच मे शप्
आज पांच सूत्र हो गये।
क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-3★
अभी तक 8 सूत्र किये।
हम लिखति कि सिद्धि कर रहे थे।
लिखँ+ शप् + तिप्
लिख् + अ + ति
लिखँ का लिख् कै से हुआ यह हमने देखा।

आज शप् का अ कै से हुआ वह देखते है।


शप् » श् अ प्
ये तो ज्ञात होता ही है कि श् और प् गायब हो जाते है. लेकिन कै से? दो सूत्र से.....
*9) लशक्वतद्धिते। (१।३।८)*
यहा " उपदेशे, प्रत्यय, आदिः, इत् " इन चारो कि अनुवृति आ रही है। सूत्र का अर्थ हुआ...
_मुलप्रत्यय के आदिमे यदि ल्, श्, या कवर्ग( क् ख् ग् घ् ङ् ) हो तो उसकी इत् संज्ञा होती है_ अडवाणी को कहा गया कि आप वृद्ध हो गये।

शप् उपदेश-अवस्थामे भी है
शप् प्रत्यय भी है
शप् मे शकार आदि-पहले भी है

तिनो शरते पुरी हुई, अतः शप् के शकार कि इत्-संज्ञा हो गई। फिर " तस्य लोपः " सूत्र से उसका लोप हो ही जायेगा। अडवाणी का पत्ता कट ही जायेगा।

तो शप् मे अब क्या बचा? अप्।


लेकिन हमे तो अ तक पहुचना है। तो फिर पकार को भी हटाना होगा। तो पहले इत् संज्ञा करनी पडेगी न। उपरोक्त सूत्र से तो नहि होगी क्योकि प् तो अन्त मे है और
वह सूत्र तो आदि-वर्ण कि इत् संज्ञा करता है। अर्थात् कोइ और सूत्र होना चाहिये जो अन्तमे रहनेवाले वर्णकी इत् संज्ञा करता हो। ये रहा....
*10) हलन्त्यम्। (१।३।३)*
हल् + अन्त्यम्
यहा " उपदेशे, इत् " इन दोनो कि अनुवृति आती है। पूर्णसूत्र हुआ " उपदेशे अन्त्यम् हल् इत् "
अर्थात् _उपदेश-अवस्थामे जो हल् अन्तमे हो उसकि इत् संज्ञा होती है_
अब अप् मे पकार अन्त मे भी है और हल् (व्यंजन) भी है, तो उसकि इत् संज्ञा होकर " तस्य लोपः " सूत्र से गायब भी हो गया।
शेष क्या रहा? अ।
अब रही बारी तिप् कि। तो तिप् का ति कै से होगा? पकार का यदि लोप हो जाये तो। तिप् मे जो प् है वो हल् भी है और अन्तमे भी है। अर्थात् यहा भी शप् कि तरह
ही प का लोप होगा, हलन्त्यम् इस सूत्रसे। तो हो गया तिप् का ति।
अर्थात्
लिखँ + शप् + तिप् »»»» लिख् + अ + ति
लिखति सिद्ध हो गया।

आज दो सूत्र हो गये।
क्रमशः.....

★व्याकरणलेख-4★
इससे पहले लिखँ का लिख् / शप् का अ / तिप् का ति कै से हुआ वो देखा। वैसे तो लिखति सिद्ध हो ही गया ऐसा लगता है। लेकिन इससे भी अधिक सूत्र लगते है।
कौन से?
लिख् + शप् + तिप्
यहा जो तिप् है वो सीधा हि वहा नही आया। पहले तो वहा " लट् " था। उसका ही " तिप् " हुआ? कै से? आगे देखते है....

रामः लिखति। इस वाक्यका अर्थ होता है, _राम लिखता है_ अर्थात् यह वर्तमानकाल कि बात हो रही है। संस्कृ त मे अलग-अलग काल मे भिन्न-भिन्न प्रत्यय होते
है। वर्तमानकालमे कौनसा प्रत्यय होता है? उसके लिये स्वतन्त्र सूत्र ही है...
*11) वर्तमाने लट् । (३।२।१२३)*
अर्थात् कोइ क्रिया को वर्तमानमे दिखानी हो तो लट् प्रत्यय होता है।
यदि लिख् धातु का वर्तमानकालका रुप बनाना हो तो लट् प्रत्यय होगा।
लिख् + लँट्
अब यहा टकार हल् [ व्यंजन ] भी है, अन्तमे भी। तो _हलन्त्यम्_ सूत्रसे उसकी इतसंज्ञा और _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप भी हो गया। शेष क्या रहा?
लँ। अर्थात् ल् + अँ
यहा जो अँ है वो अच् [ स्वर ] भी है, अनुनासिक भी। तो _उपदेशेऽजनुनासिक इत्_ सूत्र से इतसंज्ञा और _तस्य लोपः_ से लोप भी हो गया। अब क्या बचा
शेष? ल्।
लेकिन हमे तो तिप् तक पहुचना है। यहा तो ल् है। अर्थात् मंजिल अभी दूर है.....
एक और सूत्र देखते है....
*12) लस्य। (३।४।७७)*
अर्थात् " ल् के स्थानमें "ऐसा अर्थ होगा। लेकिन ल् के स्थानमे क्या? एक और सूत्र देखते है...
*13) तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्ताताञ्झथासाथाम्ध्वमिड्वहिमहिङ् । (३।४।७८)*

इतने बडे सुत्र से डरने की जरुरत नही है क्योकि उसका उपयोग हम संस्कृ तमे रोज करते है। ये कु ल 18 प्रत्ययोका समूह है जो एक ही सूत्रमे लिखे है। अर्थात् ल् के
स्थान मे ये 18 प्रत्यय होते है। उनमेसे जो पहले 9 प्रत्यय है वे परस्मैपद के लिये और बाकीके 9 आत्मनेपदके लिये. सुविधा के लिये प्रथम/मध्यम/उत्तमपुरुष और
एक/द्वि/बहुवचन के रूपमे लिखते है....

परस्मैपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम तिप् तस् झि
मध्यम सिप् थस् थ
उत्तम मिप् वस् मस्

आत्मनेपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम त आताम् झ
मध्यम थास् आथाम् ध्वम्
उत्तम इट् वहि महिङ्

(याद रहे : हमे ल् के स्थानमे तिप् लाना है.)


किन्तु उपरोक्त विभाग ( परस्मैपद और आत्मनेपद ) बिना सूत्रके हो ही नहि सकता न।
उसके लिये दो सूत्रकी जरुरत पडेगी।

*14) लः परस्मैपदम्। (१।४।९९)*


अर्थात् ल् के स्थानमे जो 18 प्रत्यय होते है वे परस्मैसंज्ञक होते है। यदि सभी 18 प्रत्ययो की परस्मैपदसंज्ञा होगी तो आत्मनेपद कहा जायेगा? उसके लिये दूसरा
सूत्र है...

*15) तङानावात्मनेपदम्। (१।४।१००)*


अर्थात् तङ् कि आत्मनेपदसंज्ञा होती है। तङ् क्या है? उपरोक्त 18 प्रत्ययमे 10 से लेकर 18 तक जो भी प्रत्यय है, यानि पीछले 9 प्रत्यय, उनकी आत्मनेपदसंज्ञा
होती है।

अर्थात् पहले तो सबको परस्मैपदसंज्ञक कह दिया, बादमे पीछेवाले 9 को आत्मनेपदसंज्ञक कह दिया। तो पहलेवाले 9 तो परस्मैपदसंज्ञक हि रहेंगे।

आज हमने 5 सूत्र किये।


क्रमशः....

★व्याकरणलेख-5★
हम लिखति कि सिद्धि कर रहे थे। हमे ल् के स्थान मे तिप् लाना है। पीछले लेख मे देखा कि ल् के स्थान मे 18 प्रत्यय होते है। उनके भाग कर दिये नौ नौ के । और
परस्मैपद और आत्मनेपद संज्ञा करदी।
लेकिन फिर उनके प्रथमपुरुष / मध्यमपुरुष / उत्तमपुतरुष और एकवचन / द्विवचन / बहुवचन ऐसे जो विभाग हमने पीछे किये वे बिना सुत्र के कै से हो गये? नहि…
उनके लिये ये दो सूत्र है..

*16) तिङस्त्रीणि त्रीणि प्रथममध्यमौत्तमाः। (१।४।१०१)*


अर्थात् तिङमें 18 प्रत्यय जो थे उनके क्रम से यदि तिन तिन जोडे बनादे तो कितने जोडे बनेंगे? 6।
_1) तिप् तस् झि_
_2) सिप् थस् थ_
_3) मिप् वस् मस्_
_4) त आताम् झ_
_5) थास् आथाम् ध्वम्_
_6) इड् वहि महिङ् _
फिर उनको क्रम से _ प्रथम / मध्यम / उत्तम ऐसा नाम दे दे। अर्थात्,
_1) तिप् तस् झि_ = प्रथम
_2) सिप् थस् थ_ = मध्यम
_3) मिप् वस् मस्_ = उत्तम
_4) त आताम् झ_ = प्रथम
_5) थास् आथाम् ध्वम्_ = मध्यम
_6) इड् वहि महिङ् _ = उत्तम
अब प्रथमादि संज्ञा तो हो गइ। लेकिन एकवचनादि संज्ञा का क्या? उनके लिये ये सूत्र है..

*17) तान्येकवचनाद्विवचनबहुवचनान्येकशः। (१।४।१०२)*


यहा “ तिङः त्रीणि त्रीणि “ कि भी अनुवृति आ रही है। अर्थ हुआ _हमने जो तिन तिन के छे जोडे बनाये उन प्रत्येक मे जो तिन तिन प्रत्यय है उनकि एकै क के क्रम
से एकवचन / द्विवचन / बहुवचन ऐसी संज्ञा होती है।_
अर्थात् यदि पहला जोडा हम ले तो वह है _( तिप् तस् झि )।_ उनमे प्रत्येक कि एक एक करके क्रम से एकवचन ( तिप् ) / द्विवचन ( तस् ) / बहुवचन ( झि )
ऐसी संज्ञा होती है. ऐसा ही बाकि के जोडे के बारे मे जाने। ( हमे ल् के स्थान मे तिप् लाना है )

अब प्रथमादि संज्ञा तो हो गई लेकिन ये कै से तय करे कि अस्मद्(मेरी)-युष्मद्(आपकी)-तत्(उसकी)कौनसी संज्ञा होगी? अंग्रेजी भाषा मे तो प्रथमपुरुष कि अस्मद्
( जो बोल रहा है वह स्वयं )संज्ञा होती है। संस्कृ त मे क्या होता है? तो उनके लिये तिन सूत्र है….
*18) अस्मद्युत्तमः। (१।४।१०७)*
अस्मद् अर्थात् मे। इस सूत्र से अस्मद् के स्थानमे उत्तमपुरुष के प्रत्यय होते है। यानेकि मिप्-वस्-मस्।

*19) युष्मदि मध्यमः। (१।४।१०५)*


युष्मद् अर्थात् तु। इस सूत्र से युष्मद् के स्थान मे मध्यमपुरुष के प्रत्यय होते है। यानेकि सिप्-थस्-थ।

*20) शेषे प्रथमः। (१।४।१०८)*


शेषे अर्थात् वह। इस सूत्र से शेष ( वह ) के स्थान मे प्रथमपुरुष के प्रत्यय होते है। यानेकि तिप्-तस्-झि।

अब हम _रामः लिखति_ कि सिद्धि कर रहे थे। रामः क्या है? अस्मद् भी नही, युष्मद् भी नही। अर्थात् शेष है। शेष मे कौन से प्रत्यय होते है? तिप्-तस्-झि।
लेकिन् यहा राम के लिये इन तिनो मे से कौनसा प्रत्यय लगेगा? इसके लिये दो सूत्र है…

*21) द्व्येकयोर्द्विवचनैकवचने। (१।४।२२)*


अर्थात् दो कि बात हो रही हो तो द्विवचन होगा और एक की बात हो रही हो तो एकवचन होगा।

*22) बहुषु बहुवचनम्। (१।४।२१)*


अर्थात् बहुत लोगो की बात हो रही हो तो बहुवचन होआ।

यहा कितने राम कि बात हो रही है? एक राम की। तो एकवचनका जो प्रत्यय है, अर्थात् तिप्, वह होगा, क्योकि तिप् कि एकवचनसंज्ञा हमने पूर्व हि करदी है।
अर्थात् रामः लिख् + शप् + तिप् ऐसा होगा। जिसके लिये हम कब से प्रयन कर रहे थे वो ल् के स्थान मे तिप् हो गया।
एकबार संक्षेपमे फीरसे देखले…
लिखँ+ लँट्
लिख् + ल्
लिख् + तिप्तस्झि……
लिख् + तिप्
लिख् + शप् + तिप्
लिख् + अ + ति
लिखति यह सिद्ध हो गया.
आज हमने 6 सूत्र किये..
आगे क्या देखेंगे?
यहा लिख् + शप् + तिप् मे श-विकरण प्रत्यय होता है, फिर शप् क्यो लिखा?
क्रमशः…….
आज 6 सूत्र किये.
_(यहा सूत्र 18 और 19 थोडे बडे है लेकिन लिखति कि सिद्धि के लिये आवश्यक था उतना तो दे दिया है)_

★व्याकरणलेख-6★
हमने लिखति कि सिद्धि कि। लेकिन लिख् तो तुदादि गण कि धातु है, फिर वहा शप्-विकरण प्रत्यय क्यो?
पहले ये जानले कि संस्कृ तमें जो धातु है उनको 10 गण मे बांटा गया है और सभी गण का एक एक विकरण प्रत्यय भी निश्चित किया गया है। जैसे, भ्वादिगण और
चुरादिगण मे शप् प्रत्यय है, दिवादिगण का श्यन् है इत्यादि।

यहा लिख् धातु तो तुदादिगणमे है जिसका विकरण-प्रत्यय तो श है, फिर हमने लिखति कि सिद्धि करते समय शप् क्यो लिखा? उसके लिये सूत्र है......
*23) तुदादिभ्यः शः। (३।१।७७)*
अर्थात् लिख् + तिप् इस स्थिति मे _कर्तरि शप्_ इस सूत्र से शप् हि होता है लेकिन उपरोक्त सूत्र से वहा श-प्रत्यय आ जाता है क्योकि _तुदादिभ्यः शः_ ये
सुत्र _कर्तरि शप्_ सूत्रका अपवाद है। पाणिनियव्याकरण मे अपवादसूत्र सबसे बलवान होता है, इसलिये वहि सूत्र का राज चलता है और वहि सूत्र सिंहासन पर बेठ
जाता है।
लिख् + तिप् इस स्थिति मे _कर्तरि शप्_ और _तुदादिभ्यः शः_ ये दोनो सूत्रो के बिच जब संघर्ष होता है तो अपवादसूत्र बलवान होने के कारण वहि जितता है,
अर्थात् _तुदादिभ्यः शः_ इस सूत्र कि जित होती है। अर्थात्

लिख् + शप् + तिप्


लिख् + श + तिप् होता है।
फिर पीछली प्रक्रियानुसार ही श मे श् का _लशक्वतद्धिते_ इस सुत्र से इत् संज्ञा होती है, _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप होकर अ शेष रहता है, फिर
लिख् + अ + ति » लिखति सिद्ध हो जाता है।

अब पचति ( पकाता है ) मे कौनसी धातु है? उत्तरः पच्। पाणिनिजी ने तो उपदेश-अवस्थामे जो धातु लिखि वह तो _डु पचँष्_ है। इसका पच् कै से हो गया?

ये तो अनुमान कर सकते है कि यहा डु / अँ / ष् ये तिनो गायब हो जाते है। कै से?


» ष् का तो पीछे दिये गये सूत्र _हलन्त्यम्_ से इत् संज्ञा और _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप होता है।

» चँ के अँ कि _उपदेशेऽजनुनासिक इत्_ सूत्र से इत् संज्ञा और _तस्य लोपः_ सूत्र से लोप।

लेकिन आगे जो डु है उसको कै से हटाये? पीछे जो हमने एक सूत्र देखा था _लशक्वतद्धिते_ वह भी यहा काम नहि करेगा क्योकि ल/श/कवर्ग इन तिनो मे डु नहि
आता। फिर उसको कै से हटाये? एक और सूत्र देखे जो डु कि इत् संज्ञा करता है.....

*24) आदिर्ञिटुडवः। (१।३।५)*


यहा " उपदेशे " कि अनुवृति आकर पुर्ण सूत्र बना " उपदेश-अवस्थामे धातु के आगे यदि टु/डु /ञि इन तिनो में से कोइ एक हो तो उसकि उपरोक्त सूत्रसे इत् संज्ञा
हो जाती है। " डु पचँष् मे आगे जो डु है उसकि इस सूत्रसे इत् संज्ञा होकर _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप होकर पच् शेष बचता है।

अब रामौ लिखतः ( दो राम लिखते है ) इसमे लिखतः » लिख् + श + तस् है।


पीछे जो तस् है उसमे सकार अन्तमे भी है और हल् ( व्यंजन ) भी है। तो उसकि _हलन्त्यम्_ से इत् संज्ञा होकर _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप हो जाना चाहिये न।
लेकिन ऐसा नहि होता है। क्यो? तस् मे स् कि इत् संज्ञा न हो इसलिये एक निषेधात्मक सूत्र है.....

*25) न विभक्तौ तुस्माः। (१।३।४)*


इसमे " हलन्त्यम् , इत् " इन दोनो कि अनुवृति आकर सूत्र का अर्थ हुआ " विभक्ति मे ( विभक्ति अर्थात् तिप्-इत्यादि 18 प्रत्यय और सुप्-इत्यादि 21 प्रत्यय )
इन 39 प्रत्ययो मे अन्त्य-हल् (व्यंजन) के रुप मे यदि तवर्ग/स्/म् इन तिनो में से कोइ हो तो उसकि इत् संज्ञा नहि होती " फिर उसका लोप तो होगा ही नही।

तस् प्रत्यय विभक्ति-अन्तर्गत भी है, अन्त्य-हल् स् भी है। तो उपरोक्त सूत्र से उसकि इत् संज्ञा नही होती और उसका लोप भी नहि होता। तस् ऐसा ही शेष रहता है।

आज हमने तिन सूत्र किये।


क्रमशः.....

★व्याकरणलेख-7★
अब तक हमने लिखत: की सिद्धि की। और 22 सूत्र किये। हमे कमसे कम 50 सूत्र करने है। आज लिखन्ति इसकी सिद्धि करते है।
लिख् + श + झि
अब हमे ये ज्ञात है कि शप् की जगह श आ जाता है तो आगे शप् न लिखकर श ही लिखेंगे।

हम देख सकते है कि लिखन्ति में पीछे न्ति है। जबकि सुत्ररूप में तो लिख् + श + झि है। अर्थात झि का ही आगे न्ति होनेवाला है।
झि = झ् + इ
इस स्थिति में एक सूत्र देखे,

*26) झोऽन्तः। (७।१।३)*


अर्थात् झ् के स्थान् मे अन्त् ऐसा हो जाये।
झ् + इ
अन्त् + इ
अन्ति
तो हो गया झि के स्थानमे अन्ति।
लिख् + श + झि
लिख् + श + अन्ति
लिख् + अ + अन्ति

यहा एक और प्रश्न होगा की उपरोक्त स्थिति में तो " लिखाति " ऐसा बन रहा है। न की लिखति।
अर्थात् पीछे जो (अ + अन्ति ) है उसमें से कोई एक अ ही बचता है। कौन से सूत्र से ?

*27) अतो गुणे। (६।१।९७)*


अर्थात् ऐसी स्थिति में पिछेवाला अ ही बचे ।
लिख् + अन्ति
लिखन्ति हो गया।

अब लिखसि को देखे।
लिख् + श + सिप्
यहा कोई अलग सूत्र की जरूरत नही है क्योंकि पीछे जो सूत्र किये उनकी सहायता से ही सिद्ध हो जाएगा।
» श का _लशक्वतद्धिते_ से इत् और _तस्य लोपः_ से लोपः होकर अ शेष रहा।
» सिप् मे _हलन्त्यम्_ सूत्रसे इत् और _तस्य लोपः_ से लोप होकर सि बचा।

लिख् + अ + सि
लिखसि सिद्ध हो गया।

उसि तरह
लिख् + श + थ » लिखथ

अब लिखामि सिद्ध करते है।


लिख् + श + मिप्
लिख् + अ + मि ( पीछे की तरह इत् और लोप होकर )

अब यहा तो लिखमि हो रहा है, लिखामि ऐसा नही। अर्थात् बिचमें अ के स्थानमें आकार हो रहा है। किस सूत्र से ?

*28) अतो दीर्घो यञि। (७।३।१०१)*


अर्थात् मि के आगे का जो अ है उसको दीर्घ हो।
लिख् + अ + मि
लिख् + आ + मि
लिखामि सिद्ध हो गया।

हमने आज 3 सूत्र किये। यहा हमने लिखथः की सिद्धि को क्यो छोड दी ? क्योकि उसमे अधिक दो सूत्र लगते है। इसलिये आगे के लेख मे उसकी सिद्धि करेंगे।
उसकी सहायता से ही लिखावः / लिखामः सिद्ध हो जायेगा।
क्रमशः......

★व्याकरणलेख-8★
आज हमें लिखथ: /लिखाव: /लिखाम: की सिद्धि करना है।
लिखथ: = लिख् + श + थस्
थस् में जो स् है वो हल् ( व्यंजन ) भी है और अन्तमे भी है। तो फिर _हलन्त्यम्_ सूत्र से इत्-संज्ञा होकर _तस्य लोपः_ सूत्र से स् का लोप होना चाहिए। क्यों
नही हुआ? इसका कारण पीछे के लेख में देख ही आये है कि _न विभक्तौ तुस्मा:_ सूत्र से इसका निषेध हो जाता है।
अर्थात् थस् ही रहेगा।
लिखथ: = लिख् + अ + थस्

यहा देख सकते है कि थस् के स्थान में थ: हो रहा है। या कहे की स् के स्थान में विसर्ग हो रहा है। कै से? दो सूत्र से......

*29) ससजुषो रुः। (८।२।६६)*


अर्थात् थस्-पद में जो स् हैं उसके स्थानमें रु हो जाये।
अब बना थरु। लेकिन हमें तो विसर्ग तक पहुँचना है न। उसके लिए दूसरा सूत्र....

*30) खरवसानयोर्विसर्जनीयः। (८।३।१५)*


यहाँ " रो:, पदस्य " इन दोनों की अनुवृत्ति आ रही है, तो अर्थ होगा _थरु में अन्तमे जो रु है उसके स्थानमें विसर्ग (:) हो जाये।_
अर्थात् थरु >> थ:
फिरसे देखे तो,
लिख् + अ + थस्
लिख् + अ + थरु
लिख् + अ + थ:
वैसे ही लिखाव: और लिखाम: सिद्ध हो जाएगा। सिर्फ एक भेद रहेगा की लिखामि की तरह _अतो दीर्घो यञि_ सूत्र से लिख् का लिखा होकर लिखाव: / लिखाम:
हो जाएगा।

आज हमने दो सूत्र किये।


8 दिनमे 27 सूत्र किये।
क्रमशः ........

★व्याकरणलेख-9★
अब तक हमने लिख् धातु के वर्तमानकाल के रूप किये। वैसे तो लिख-धातुके सभी काल के रूप कर सकते है लेकिन पहले ये जो वर्तमानादि काल है वो संस्कृ त में
कितने है और क्या उनके लिए भी पाणिनिमुनि ने सूत्र बनाये है? उत्तर है हां. 10 काल होते है संस्कृ त में। जैसे की, लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ्
लुङ् लृङ् .

यहा देखे तो सभी की शुरुआत ल से होती है। उसलिए उनको " लकार " ऐसा भी कहते है।
दूसरी बात यदि ध्यान में आयी हो तो वह ये की यहा उस ल् को " अ इ उ ऋ ए ओ " इन स्वरों के साथ ही जोड़ा गया है। इससे उनको याद रखने में भी सुलभता
होगी। जैसे,

ल् + अ » ल
ल् + इ » लि
ल् + उ » लु
ल् + ऋ » लृ
ल् + ए » ले
ल् + ओ » लो

यहा जो लेट् -लकार है वह सिर्फ वेदों में होता है। और जो लिङ् -लकार है उसके दो प्रकार है : विधिलिङ् और आशिर्लिङ् । अर्थात् लेट् -लकार की लौकिक
व्याकरण में गणना न करे तो भी लकारे तो 10 ही रहेंगे।
लट् लिट् लुट् लृट् लोट्
लङ् विधिलिङ् आशिर्लिङ् लृङ् लुङ्

अब इन लकारो के लिए प्रयुक्त सूत्रों को एकै क करके देखते है।

*31) वर्तमाने लट् । (३।२।१२३)*


वैसे तो इस सूत्र को हम पीछे देख ही आये है ( सूत्र-11) । वर्तमान किसको कहेंगे? _प्रारब्ध: अपरिसमाप्तश्च इति वर्तमान:_ अर्थात् आरम्भ किया हुआ कार्य
जब तक समाप्त ना हो तब तक उस काल को वर्तमान कहेंगे।। जैसे राम यदि भोजन बना रहा हो तो भले ही बनाने में दो घण्टा लगे, फिरभी उस पुरे काल को
वर्तमान ही कहेंगे। अर्थात् _रामः पचति_ ही रहेगा।

संस्कृ त में तीन भूतकाल होते है: सामान्य(अद्यतन), ह्यस्तन(अनद्यतन), परोक्ष।


ये तीनो भूतकाल एक सूत्र के अन्तर्गत आते है, वह है,

*32) भूते। (३।२।८४)*


अर्थात् इस सूत्र की अनुवृत्ति आगे के तीनों भूतकाल-निर्दिष्ट सूत्रों में जायेगी।

पहले सामान्य भूतकाल के लिए जो सूत्र है उसको देखते है:

*33) लुङ् । (३।२।११०)*


यह सामान्य भूतकाल को कहते है। अर्थात् अद्यतन भूतकाल। आज का जो भूतकाल है वह। जैसे की आज सुबह में मन्दिर गया। _अद्य अहं मन्दिरम् अगमम्।_

*34) अनद्यतने लङ् । (३।२।१११)*


अर्थात् (अन + अद्यतन ) जो आजका नही है वह, ह्यस्तन भूतकाल। उसको लङ् कहते है।
कल राम मंदिर गया था। _ह्य: राम: मन्दिरम् अगच्छत्।_

*35) परोक्षे लिट् । (३।२।११५)*


परोक्ष अर्थात् जो इन्द्रियों से पर हो। जैसे की राम वन में गये। इस वाक्यको बोलने वाला तब वहा हाजर नही जा जब राम वन में गये। इसलिए ये घटना उसके लिए
परोक्ष हुई। तो उस काल में लिट् -लकार होता है। जैसे
_राम: वनं जगाम।_
आज हमने चार सूत्र किये।
क्रमशः.........

★व्याकरणलेख-10★
कल वर्तमान और भूतकाल के सूत्र देखे। आज भविष्यकाल के सूत्रों को देखते है। संस्कृ त में भविष्यके लिए दो लकार है।

*36) लृट् शेषे च। (३।३।१३)*


इस सूत्रमें " भविष्यति " की अनुवृत्ति आकर सूत्रार्थ हुआ _भविष्य अर्थ में लृट् -लकार होता है।_ लेकिन ये लकार सामान्य भविष्य के लिए
है। अर्थात् आज के दिन का जो भविष्य है वह। जैसे,
_सायङ्काले रामः मन्दिरम् गमिष्यति।_

*37) अनद्यतने लुट् । (३।३।१५)*


यह लकार लृट् -लकार का अपवाद है। अर्थात् आज को छोडकर बाकी के भविष्यकाल में लुट् होता है। जैसे,
_श्व: रामः ग्रामं गन्ता_
_परश्व: अहं पुस्तकं पठितास्मि_

अब
अ) राम जीवनभर व्याकरण पढ़ेगा।
ब) अगले रविवार में गाँव जाऊँ गा।
इन दोनों वाक्यो को देखिये। दोनों क्रिया आज के भविष्य की नही है , तो इसमें सामान्य भविष्य ( लृट् ) न होकर लुट् ही होना चाहिए । सही न? लेकिन ऐसा नहीं
है। तो फिर कौनसा लकार होगा? उसके लिये ये सूत्र देखले....

*38) नानद्यतनवत्क्रियाप्रबन्धसामीप्ययोः। (३।३।१३५)*


इस सूत्र में कहा गया कि इन दो प्रसंगों में अनद्यतन नहीं होगा। अनद्यतन अर्थात् (अन + अद्यतन ) जो आजका नही है। अर्थात् इन दो प्रसंगों में अनद्यतन न होके
अद्यतन ( आज का ) ही हो। कौन से दो प्रसङ्ग?
A) क्रियाप्रबन्ध: अर्थात् क्रिया का सातत्य। कोई क्रिया सतत हो रही हो तो उसमें आजके कालवाची लकारे हो यह अर्थ।
जैसे उपरोक्त उदाहरण देखे तो....

" राम जीवनभर व्याकरण पढ़ेगा। " यह वाक्यमे पढ़ने की क्रिया सतत होगी। तो उसमें ' पठिता '
ऐसा न होकर " रामः यावत् जीवं व्याकरणम् पठिष्यति " ऐसे सामान्य भविष्य ही होगा।
ये सूत्र भूत और भविष्य दोनों के लिए है तो भूतकाल का उदाहरण देखले।
" राम जब तक जिया तबतक व्याकरण पढता रहा। "
ये क्रिया वैसे तो आज के भूतकाल की नही है इसलिए अपठत् ऐसा ही होना चाहिए लेकिन यहां क्रिया की सातत्यता है इसलिए सामान्य भूतकाल ( लुङ् ) ही
होगा।
" यावत् जीवं रामः व्याकरणम् अपाठीत्। "

B) सामीप्य: अर्थात् समीपता।


वर्ष में अनेक रविवार आते है, लेकिन उनमेंसे जो आगामी रविवार है वह सबसे समीप है। तो वैसे तो उसमे सामान्य-भविष्य ( लृट् ) न होकर लुट् ( गन्तास्मि ) ही
होना चाहिए। लेकिन सब रविवारों में उनकी अत्यन्त-सामीप्यता होने से सामान्य-भविष्य ही होगा। जैसे,
" आगामी रविवासरे अहं ग्रामं गमिष्यामि। "
ये बात भूतकाल में भी लागू होती है। जैसे,
" राम पिछले रविवार को ही गाँव गया। "
इसमें भी " अगच्छत् " होना चाहिए। लेकिन पिछला रविवार बीते हुए सभी रविवारों में अत्यन्त-समीप है तो उसमें सामान्य-भूत ही होगा,
" रामः अतिक्रान्ते रविवासरे ग्रामं अगमत्। "
आज तिन सूत्र हुये।

क्रमशः......

★व्याकरणलेख-11★
आज हम लिङ् और लोट् लकार के सूत्र करेंगे।

*39) विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु लिङ् (३।३।१६१)*

इस सूत्र से विधिलिङ् -लकार कहा कहाँ कहाँ हो यह दिया है।


A) विधि: - आज्ञापनम्-प्रेरणम् = आज्ञा देना या प्रेरणा देना।
रामः ग्रामं गच्छेत् - राम गाँव जाए। यहा आज्ञा दी गई है।

B) निमन्त्रणम् - नियतरूपेण आह्वानम् = अवश्य निमन्त्रित करना।


मम गृहे भवान् आगच्छेत् - मेरे घर आपको आना ही पड़ेगा। यहा आग्रहपूर्वक बुलाना है।

C) आमन्त्रणम् - कामचारेण आह्वानम् = मात्र formality के लिए बुलाना, आये या न आये।


मम जन्मदिनप्रसङ्गे भवान् आगच्छेत् - यदि समय मिले तो आप मेरे जन्मदिन-प्रसङ्ग में आना।

D) अधीष्ट: - सत्कारपूर्वकम् आह्वानम् = किसी ज्येष्ठ वा पूजनीय व्यक्ति को सत्कारपूर्वक बुलाना।


मम पुत्रम् भवान् उपनयेत् - मेरे पुत्र का उपनयन आप कराये।

E) सम्प्रश्न: - सम्यक् प्रश्नः = अच्छी तरह प्रश्न पूछना।


किम् अहम् आगच्छेयम् ? - क्या में आ सकता हु?

F) प्रार्थनम् - याच्ञा = प्रार्थना


भवति मे प्रार्थना भवान् आगच्छेत् - मेरी आपसे विनंती है कि आप आये।

*40) लोट् च (३।३।१६२)*


यह सूत्र लोट् -लकार के लिए है। इस सूत्र में सूत्र-36 से " _विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु_ " की अनुवृत्ति आती है। अर्थात् जिस जिस अर्थ में लिङ्
होता है वहा लोट् भी होता है।
इसलिए यहां उपरोक्त उदाहरण ही लोट् -लकार में देते है।

A) रामः ग्रामं गच्छतु।


B) मम गृहे भवान् आगच्छतु।
C) मम जन्मदिनप्रसङ्गे भवान् आगच्छतु।
D) मम पुत्रम् भवान् उपनयतु।
E) किम् अहम् आगच्छानि?
F) भवति मे प्रार्थना भवान् आगच्छतु।

आज हमने दो सूत्र किये।


क्रमशः.........

★व्याकरणलेख-12★
कल हमने विधिलिङ् और लोट् -लकार देखे।
आज आशिर्लिङ् देखते है।

*41) आशिषि लिङ्लोटौ। (३।३।१७३)*


इस सूत्र से किसीको आशीर्वचन देना हो तो आशिर्लिङ् होता है। आशीष अर्थात् कोई इष्ट वस्तु प्राप्त हो उसकी कामना करना। जैसे,

चिरं जीव्यात् भवान्। आप की उम्र लम्बी हो।

यहा उपरोक्त सूत्र से इसी अर्थ में लोट् भी हो सकता है।


चिरं जीवतु भवान् । आप की उम्र लम्बी हो।

एक दूसरा सूत्र देखे जिसके बारे में हम जानते ही है , उपयोग भी करते है लेकिन सूत्र पता नही है।

देवदत्त: ह्य: मन्दिरम् गच्छति स्म।


इसी प्रकार के वाक्यका हम उपयोग करते ही है। जब भूतकाल की क्रिया कहनी हो तब लट् -लकार(वर्तमान काल) का उपयोग करके भी भूतकाल का निर्देश कर
सकते है। कै से? स्म-शब्द का उपयोग करके । "उसका सूत्र है......

*42) अपरोक्षे च। (३।२।११९)*


इस सूत्र में " भूत, अनद्यतन, लट् , स्मे " इन चारों की अनुवृत्ति आती है। अर्थ हुआ _अनद्यतन-भूतकाल में स्म-शब्द उपपद होने पर लट्-लकार होता है।_
देवदत्त: ह्य: मन्दिरम् गच्छति स्म। इस वाक्य में "गच्छति" यह पद लट् (वर्तमानकाल) का है लेकिन वाक्यमे "स्म-शब्द" उपपद होने पर अर्थ तो भूतकाल का ही
निकलेगा।
" देवदत्त कल मन्दिर गया था " ऐसा।

एक तीसरा सूत्र देखे जिसमे भी स्म-शब्द उपपद में हो तो क्या होगा।

*43) लट् स्मे। (३।२।११८)*


इस सूत्र में "भूते, परोक्षे " इन दोनों की अनुवृत्ति आती है। तो अर्थ हुआ _अपरोक्षे अर्थात् लिट् -लकार में भी लट् -लकार होगा, यदि "स्म-शब्द" उपपद हो तो।_
जैसे,

_रामः वनं जगाम। राम वनमे गये।_


ये वाक्य लिट् -लकार का है किन्तु यदि हम यहां भी लट् -लकार का उपयोग करना चाहे तो सिर्फ "स्म-शब्द" के उपयोग से ही कर सकते है और फिरभी अर्थ तो
वही रहेगा।
_रामः वनं गच्छति स्म। राम वनमे गये।_

आज तीन सूत्र किये।


क्रमशः......

★व्याकरणलेख-13★
आज हम लृङ् -लकार करेंगे। " यदि राम पढ़ेगा/पढता तो वो विद्वान् बनेगा/बनता " - ऐसी वाक्य-रचना से हम सुपरिचित है ही। यह लृङ् -लकार है। लेकिन उसको
समझने की लिए पहले एक और सूत्र देखना पड़ेगा।

*44) हेतुहेतुमतोर्लिङ् ( ३/३/१५६)*


हेतु = कारण
हेतुमान् = फल/क्रिया
हेतु-हेतुमान् = कारण-कार्य का सम्बन्ध
वाक्य में 'पढ़ना' कारण है, और 'विद्वान् बनना' कार्य/फलश्रुति है।

तो सूत्रार्थ हुआ, _हेतु और हेतुमान् निमित्त हो तो वहां लिङ् -लकार होता है_
यदि रामः पठेत् तर्हि सः
विद्वान् भवेत्।

यह सूत्र समझने के बाद अब यदि हम लृङ् -लकार देखे तो समझनमें में सरलता होगी।

*45) लिङ् -निमित्ते लृङ् क्रिया-अतिपत्तौ (३/३/१३९)*


क्रिया-अतिपत्ती = क्रिया का सिद्ध न होना।
लिङ् का निमित्त क्या है? तो सूत्र-41 अनुसार होतु और हेतुमान का संयोग याने कारण-क्रिया का सम्बन्ध।

अब उपरोक्त वाक्य में " पढ़ेगा तो विद्वान् बनेगा " ऐसा कारण-कार्य सम्बन्ध है। तो इसमें क्रिया-अतिपत्ति कै से होगी? जब हमें पता चले की राम पढ़नेवाला है ही
नही, इसलिए वो विद्वान् बनेगा ही नही। अर्थात् " न पढ़ने के कारण विद्वान् न बनना ही क्रिया की असिद्धि ( क्रिया-अतिपत्ति ) " है। तो इस क्रिया-असिद्धि में लृङ् -
लकार होगा।

यदि रामः अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् अभविष्यत् = यदि राम पढेगा तो विद्वान् बनेगा ( वो पढेगा ही नही, इसलिए विद्वान् बनेगा ही नही यह भावार्थ )

लेकिन,
राम ने पढा ही नही इसलिए विद्वान् न बन पाया। इस प्रकार का भूतकाल-वाक्य हो तो? उसके लिए अगला सूत्र है।

*46) भूते च ( ३/३/१४०)*


यहा सूत्र-42 से पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति आकर अर्थ बना _हेतु-हेतुमान निमित्तक जो लिङ् है उसमें यदि क्रिया की सिद्धि न ( क्रिया-अतिपत्ति ) हो तो भूतकाल में
भी लृङ् -लकार होता है।_

सूत्र-42 में भविष्य में होनेवाली क्रिया-अतिपत्ति में ही लृङ् -लकार था, इस सूत्रसे भूतकाल में भी कह दिया।

यदि रामः अपठिष्यत् तर्हि सः विद्वान् अभविष्यत् = यदि राम पढता तो विद्वान् बनता = राम पढा नही इसलिए विद्वान् न बन सका।

हम देख सकते है कि भूत और वर्तमान दोनों में वाक्यरचना तो समान ही है, अपठिष्यत्-अभविष्यत्। इसलिए सन्दर्भ-अनुसार वाक्य का अर्थ समझना चाहिए।

आज तीन सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-14★
कल हमने लकार किये। आज कु छ विशेष सूत्र करते है।

*47) अस्मदो द्वयोश्च। (१।२।५९)*


इस सूत्र में " एक्समिन्, बहुवचनम्, अन्यतरस्याम् " इन तीनो की अनुवृत्ति आकर अर्थ हुआ _उत्तम-पुरुष में एकवचन और द्विवचन में विकल्पसे बहुवचन होता
है_
जैसे,
अहं पठामि। = में पढता हु।
इस वाक्य को इस तरह भी बोला जा सकता है....

वयं पठाम: = हम पढते है। ( में पढता हु ऐसा अर्थ )

द्विवचन में भी इसी तरह....


आवां गच्छाव:। = हम दोनों जाते है।
इसको इस तरह लिख सकते है...
वयं गच्छाम:। = हम जाते है। ( हम दोनों जाते है इस अर्थमें )

ये विकल्प से होता है। इसलिए पक्षमे मूल वाक्य तो होंगे ही...


अहं पठामि।
आवां गच्छाव:।

लेकिन विशेषण के रूपमे तो ऐसा नही होगा। जैसे,


अहं रामः पठामि।
आवां रामलक्ष्मणौ गच्छाव:।

इसको इस तरह नही लिख सकते की.....


वयं रामः पठाम:।
वयं रामलक्ष्मणौ गच्छामः।

*48) पुमान् स्त्रिया। (१।२।६७)*


यहा " तल्लक्षण: चेदेव विशेष, शेष: " की अनुवृत्ति आकर अर्थ बना _पुल्लिंग-शब्द स्त्रीलिंग-शब्द के साथ हो तो मात्र पुल्लिंग-शब्द शेष रहता है, यदि वहा मात्र
लिङ्गभेद ही विशेष हो, बाकी सब प्रकृ त्यादि समान हो।_
जैसे,
ब्राह्मण और ब्राह्मणी = ब्राह्मणौ
यहा ब्राह्मण = पुल्लिंग
ब्राह्मणी = स्त्रीलिंग
यहा पे सिर्फ लिङ्ग-भेद ही है तो यहां पुल्लिंग-शब्द शेष रहेगा और उसका ही द्विवचन होगा " ब्राह्मणौ " ऐसा।। अर्थात् " ब्राह्मणौ " इस शब्दसे " ब्राह्मण और ब्राह्मणी
" दोनों का ग्रहण हो जाएगा।
*49) भ्रातृपुत्रौ स्वसृदुहितृभ्याम्। (१।२।६८)*
यहा भी,
भ्रातृ और स्वसृ में भ्रातृ शेष रहेगा।
पुत्र और दुहितृ में पुत्र शेष रहेगा।
भ्राता च स्वसा = भ्रातरौ
पुत्र: च दुहिता = पुत्रौ
अर्थात् " भ्रातरौ " शब्द से " भाई और बहन " दोनों का ग्रहण हो जाएगा और " पुत्रौ " शब्द से " पुत्र और पुत्री " दोनों का ग्रहण हो जाएगा।

मम भ्रातरौ आगच्छत:। मेरे भाई-बहन आ रहे है।


मम पुत्रौ पठत:। मेरे पुत्र और पुत्री पढ रहे है।

*50) पिता मात्रा। (१।२।७०)*


अर्थात् पितृ-शब्द के साथ यदि मातृ-शब्द हो तो पिता-शब्द विकल्पसे शेष रहेगा।
अर्थात् " पितरौ " शब्द से " माता और पिता " दोनों का ग्रहण हो जाएगा।
विकल्पमे " मातापितरौ " शब्द भी बनेगा।

एतौ मम पितरौ/मातापितरौ। = ये मेरे माता-पिता है।

*51) श्वशुरः श्वस्रवा। (१।२।७१)*


श्वसुर-शब्द श्वश्रू के साथ विकल्पसे शेष रहता है।

एतौ मम श्वशुरौ/श्वश्रूश्वशुरौ। ये मेरे सास-ससुर है।

*52) त्यदादीनि सर्वैर्नित्यम्। (१।२।७२)*


अर्थात् _त्यदादि-शब्द सबके साथ ( त्यदादि के साथ, त्यदादि-भिन्न के साथ भी ) नित्य रूपसे शेष रहता है, अर्थात् यहा विकल्प से वाक्य नही हो सकता।_
सः च रामः। = तौ
यः च कृ ष्ण:। = यौ

लेकिन यदि दो त्यदादि-शब्द हो तो कौन शेष रहेगा? जैसे,


सः च यः = ?
त्यदादि-गण : त्यद्, तद्, यद्, एतद्, इदम्, अदस्, एक, द्वि, युष्मद्, अस्मद्, भवतु, किम्।
" _त्यदादीनां मिथो यत् यत् परं तत् शिष्यते_ " इस वार्तिक से जो पर है ( बादमे आनेवाला ) वो शेष रहेगा।
सः और यः में यः बादमे आता है। तो वही शेष रहेगा।

सः च यः = यौ
यः च कः = कौ

आज हमने 6 सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-15★
आज के लेख में कु छ संज्ञा-सूत्र करते है। संज्ञा अर्थात् क्या? तो व्यवहार में पुत्रजन्म के बाद उसका नामकरण करते है जिससे की उसके साथ जीवनपर्यन्त व्यवहार
किया जाए। यदि नामकरण ही किसीका न किया जाय तो सोचिये कितनी समस्या आयेगी!!!!! उसके साथ व्यवहार ही नही कर सकते।
व्याकरण में भी नामकरण-विधि पहले अध्याय में ही की जाती है जिससे बाकीके अध्याय तक अच्छा व्यवहार किया जा सके । नामकरण-विधि को ही संज्ञा कहते है।

*53) वृद्धिरादैच्। (१।१।१)*


अन्वय - वृद्धि: आत् ऐच्
अर्थः - वृद्धि: = आ ऐ औ ( यहा ऐच् प्रत्याहार है, जिसमे 'ऐ औ' ये दो वर्ण आते है। )
यह सूत्र "वृद्धि" ऐसा नामकरण करती है। किसका? तीन वर्णो का : आ ऐ औ
अर्थात् जब भी " वृद्धि हो " ऐसा कहा जाए तो ये तीन वर्ण उपस्थित हो जायेंगे।

*54) अदेङ् गुणः। (१।१।२)*


अन्वय - अत् एङ् गुण:
अर्थः - गुण: = अ ए ओ ( यहा एङ् प्रत्याहार है जिसमे 'ए ओ' ये दो वर्ण आते है। )
यह सूत्र "गुण" ऐसा नामकरण करती है। किसका? अ ए। ओ
अर्थात् " गुण हो " ऐसा कहने पर ये तीनो उपस्थित हो जायेंगे।

*55) हलोऽनन्तराः संयोगः। (१।१।७)*


गजेन्द्र शब्द किन किन वर्णो से बना है?
गजेन्द्र = ग् अ ज् ए न् द् र् अ
यहा - अ ए अ तीनो स्वर है।
यहा - ग् ज् न् द् र् पाँचो व्यंजन है।

गजेन्द्र-शब्दमे देखे तो "ग् और ज्" ये दो व्यंजन के मध्यमे "अ" स्वर आ गया। जिसको व्यवधान कहते है। इस व्यवधान से "ग् ज्" इन दोनों व्यंजनो के बीच
अन्तर(distance) हो गया।
लेकिन "न् द् र्" इन तीनो व्यंजन के मध्य में कोई भी स्वर नही है। अर्थात् व्यवधान नही है। जिससे तीनो के बीच कोई अन्तर(distance) नही रहा (न अन्तर
= अनन्तर)।
तो इन तीनो की "संयोग" संज्ञा(नामकरण) हुई।
जबभी "संयोग" ऐसा कहा जाए तो ये समझना की व्यंजनो के बीच कोई स्वर का व्यवधान नही है।
राष्ट्र = र् आ ष् ट् र् अ
यहा "ष् ट् र्" की संयोग-संज्ञा होगी।

*56) सुप्तिङन्तं पदम्। (१।४।१४)&


अर्थः - सुबन्त और तिङन्त शब्दो की पद-संज्ञा(नामकरण) होती है।
रामौ = राम + औ
यहा राम-शब्द प्रातिपदिक है। औ-शब्द सुप-प्रत्यय है।
अर्थात् रामौ-शब्द सुबन्त है क्योंकि सुप्-प्रत्यय राम-शब्द के अन्तमे है। तो उपरोक्त सूत्र से "रामौ" की पद संज्ञा हुई।

वैसे ही,
पचति = पच् + शप् + तिप्
पचति = पच + तिप्
यहा पच-शब्द धातु है। तिप्-शब्द तिङ् -प्रत्यय है।
अर्थात् पचति-शब्द तिङन्त है क्योंकि तिङ् -प्रत्यय पच-धातु के अन्तमे है। तो उपरोक्त सूत्र से "पचति" की पद संज्ञा हुई।

अर्थात्,
राम-शब्द के जो " राम: रामौ रामा:" इत्यादि 21 रूप बनते है उन सबकी पद-संज्ञा होगी।
पच्-धातु के 10 लकार के जो "पचति/पचते, पक्ष्यति/पक्ष्यते, अपचत्/अपचत, पचतु/पचताम्, पचेत्/पचेत" इत्यादि रूप बनेंगे उन सबकी पद-संज्ञा होगी।

*57) तिङ्शित्सार्वधातुकम्। (३।४।११३)*


ये सूत्र "सार्वधातुक" संज्ञा करता है।
A) तिङ् अर्थात् नीचे दिए गए जो 18 प्रत्यय है वे.......

परस्मैपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम तिप् तस् झि
मध्यम सिप् थस् थ
उत्तम मिप् वस् मस्

आत्मनेपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम त आताम् झ
मध्यम थास् आथाम् ध्वम्
उत्तम इट् वहि महिङ्

इन 18 प्रत्ययो की सार्वधातुक-संज्ञा होती है।

B) शित् = श् यस्य इत् सः (श् + इत् = शित्)


पीछे के लेखो 'लिखति' की सिद्धि समय इत्-संज्ञा पढ गये है। फिर पुनरावर्तन कर लेते है।

शप् एक प्रत्यय है, जिसका उपयोग के समय सिर्फ "अ" बचता है।
रसोई बनाते समय सब्जी को ऐसे ही नही पकाते। पहले त्वचा को छीलते-काटते है। फिर उपयोग में लेते है। वैसे ही, शप्-प्रत्यय को उपयोग में लेने से पहले आगे-
पीछे छीलते-काटते है। अर्थात् शप् में आगे-स्थित श् की और पीछे-स्थित प् की इत्-संज्ञा करके " तस्य लोपः " सूत्र से लोप कर देते है, और सिर्फ "अ" शेष
रहता है।
तो शप्-प्रत्यय शित् ( श् यस्य इत् अस्ति सः ) हुआ।
शतृ, शानच्, शस्, श्यन्, श्ना, श्नम् इत्यादि शित् है क्योंकि सभीके श् की इत्-संज्ञा होती है।
इसलिए उपरोक्त सूत्र से शित्-शब्दो की "सार्वधातुक" संज्ञा होती है।

*58) आर्धधातुकं शेषः। (३।४।११४)*


यह सूत्र "आर्धधातुक" संज्ञा करता है।

यहा "शेष:" अर्थात् तिङ् -शित् दोनों से जो शेष रह गए उन सभीकी "आर्धधातुक" संज्ञा होगी।
अर्थात्,
क्त, क्तवतु, तव्य, तव्यत्, अनीयर्, ण्वुल्, तृच्, ल्युट् , इत्यादि की आर्धधातुक संज्ञा होगी।

आज हमने 6 सूत्र किये।

मित्रो! जैसा की हमने 50 सूत्र करने के लिए यह लेखमाला शुरू की थी। वह पूर्ण हुआ। अत: यह लेखमाला पूर्ण करते है। कु छ विराम के बाद अगले 50 सूत्रों के
लिए फिर लेखमाला शुरू करेंगे। तब तक इन सूत्रों को याद रखने का प्रयत्न जरूर कीजियेगा।

【 किसीको इस लेखमाला-अन्तर्गत सभी सूत्रोंकी pdf file चाहिए तो मेरे व्यक्तिगत नम्बर पे अपना Email-ID भेज सकते है। 】

★व्याकरणलेख-16★
मित्रो!
इससे पहले की लेखमाला में हमने 55 सूत्र किये थे। इस दूसरी लेखमाला में हम वहाँ से आगे बढ़ते है।

English भाषा में better और best ये दो शब्द सबने सुने ही है। ये तुलना करने के अर्थ में उपयोग किये जाते है। जैसे,
Ram is better than Shyam.
राम श्याम से अच्छा है।
Ram is the best among the class.
राम पुरे वर्ग से अच्छा है।
तो संस्कृ त में क्या व्यवस्था है वह देखते है।

*59) अतिशायने तमबिष्ठनौ। (५।३।५५)*


ये सूत्र best अर्थ के लिए है। अर्थात् कोई एक पात्र दूसरे बहोत पात्रो की तुलना में अच्छा हो तब।
अतिशायन = प्रकर्ष/सर्वश्रेष्ठ/ the best.
तमबिष्ठनौ = तमप् + इष्ठन् ये दो प्रत्यय होते है।
जैसे,
राम औरों से सबसे ज्यादा धनवान (आढ्य ) है।
आढ्य + तमप् = आढ्यतम:
आढ्य + इष्ठन् = आढ्यिष्ठः
फिर इसके रूप "राम"शब्दवत् बनते है।
आढ्यतमः आढ्यतमौ आढ्यतमा: इत्यादि।
आढ्यिष्ठः आढ्यिष्ठौ आढ्यिष्ठाः इत्यादि।

कृ ष्ण बाकी सभीसे ज्यादा चतुर ( पटु ) है।


पटु + तमप् = पटुतम:
पटु + इष्ठन् = पटिष्ठ:
पटुतम: पटुतमौ पटुतमा:
पटिष्ठ: पटिष्ठौ पटिष्ठाः

ऐसे ही बहोत से शब्द बनाये जा सकते है,


बलिष्ठ: बलतम:
दृढिष्ठ: दृढतम:
गरिष्ठ: गुरुतम:
लघिष्ठ: लघुतम: इत्यादि।

लेकिन यदि सिर्फ दो पात्रो की तुलना करना हो तो? उसके लिए यह सूत्र है,
*60) द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ। (५।३।५७)*
द्विवचन और विभज्य इन दोनों से तरप् और ईयसुन् ये दो प्रत्यय होते है।

A)द्विवचन :-
राम और कु ष्ण में राम अधिक धनवान है।
आढ्य + तरप् = आढ्यतरः
आढ्य + ईयसुन् = आढ्यीयान्

तरप्-प्रत्ययान्त के रूप रामवत् होंगे।


आढ्यतरः आढ्यतरौ आढ्यतराः इत्यादि।
ईयसुन्-प्रत्ययान्त के रूप श्रेयस्-वत् होंगे।
आढ्यीयान् आढ्यीयांसौ आढ्यीयांसः

लव और कु श में लव अधिक चतुर है।


पटु + तरप् = पटुतर:
पटु + ईयसुन् = पटीयान्
पटुतर: पटुतरौ पटुतरा:
पटीयान् पटीयांसौ पटीयांसः इत्यादि।

ऐसे ही बहोत से शब्द बनाये जा सकते है,


बलीयान् बलतर:
दृढीयान् दृढतर:
गरीयान् गुरुतर:
लघीयान् लघुतर: इत्यादि।

B)विभज्य :-
अर्थात् दो समूह में तुलना हो रही हो तब भी ये दो प्रत्यय होते है।

मथुरावासी पाटलिपुत्रवासियों से ज्यादा चतुर है।


माथुरा: पाटलीपुत्रेभ्य: पटुतरा: / पटीयांसः।
पाण्डवा: कौरवेभ्य: बलतरा: / बलीयांस:।

यहा आढ्य पटु बल लघु गुरु, ये सभी गुणवाची शब्द है। सारांश यह हुआ की इन गुणवाची शब्दो से चार प्रत्यय होते है :-
1) तरप् 2) तमप् 3) इष्ठन् 4) ईयसुन्।

लेकिन हमने " श्रीकृ ष्ण विजयतेतराम् " ऐसे शब्द सुने ही होंगे। वैसे शब्द कै से बनते है?
विजयतेतराम् = विजयते + तरप्
विजयतेतमाम् = विजयते + तमप्

यहा हम देख सकते है कि उपरके शब्दो में भी " पटुतर:/पटुतम: " की तरह ही "तरप्/तमप्" प्रत्यय हो रहे है।
लेकिन "पटुतर: और विजयतेतराम्" इन दोनों में जो भिन्न बात है वो यह की "पटु"शब्द गुणवाची है, जबकि "विजयते" तो तिङन्त(धातु+तिङ् )-शब्द है जो
क्रियावाची है।
उपरके दो सूत्र से तो तिङन्त से ये प्रत्यय नही हो सकते। इसके लिए पाणिनिजी ने अलग सूत्र ही बना दिया, वह है,

*61) तिङश्च। (५।३।५६)*


इस सूत्र में उपरके दोनों सूत्रों की अनुवृत्ति आती है, जिससे तिङन्त से भी इस प्रकार शब्द बनेंगे।
राम और श्याम में राम अच्छी रसोई बनाता है।
राम: पचतितराम्।
पचतितराम् = पचति + तरप् + आम्।
यहा तिङन्त-शब्द से "आम्" शब्द भी होता है।

राम पुरे गाँव से अच्छी रसोई बनाता है।


रामः पचतितमाम्।
पचतितमाम् = पचति + तमप् + आम्।

यहा "तरप् और तमप्" ये दो प्रत्ययो की प्रक्रिया तो दिखाई , लेकिन बाकीके दो प्रत्यय ( इष्ठन् और ईयसुन् ) से कै से शब्द बनते है? उसके लिए अगला सूत्र है,

*62) अजादि गुणवचनादेव। (५।३।५८)*


अजादी = जिसके आगे अच्(स्वर) है वे प्रत्यय, अर्थात् इष्ठन् और ईयसुन्।
गुणवचन = गुणवाची शब्द
इस सूत्रका अर्थ ये की _अजादी-प्रत्यय(इष्ठन् और ईयसुन्) सिर्फ गुणवाची शब्दो से ही होते है।_ चुकि तिङन्त-शब्द तो क्रियावाची होने के कारण उसमे अजादी-
प्रत्यय नही लगेंगे।

तो सारांश इस तरह हुआ :


>> गुणवाची शब्दो से चारो प्रत्यय होंगे।
- पटुतर: (तरप्)
- पटुतम: (तमप्)
- पटीयान् (ईयसुन्)
- पटिष्ठ: (इष्ठन्)

>> जबकि तिङन्त-क्रियावाची-शब्द से दो ही प्रत्यय होंगे।


- पचतितराम् (तरप्)
- पचतितमाम् (तमप्)

अब यहां प्रसङ्ग आया है तो एक और सूत्र कर लेते है।


यहा चार प्रत्यय में से जो "तरप् और तमप्" ये दो प्रत्यय है उनकी संयुक्तरूप से "घ" संज्ञा(नामकरण) होती है। किस सूत्रसे? इससे....

*63) तरप्तमपौ घः। (१।१।२२)*


अर्थात् अष्टाध्यायी में जहाँ भी "घ" संज्ञा का उल्लेख हो वहाँ इन दो प्रत्ययोकी बात हो रही है ऐसा समझना चाहिए।

आज पाँच सूत्र किये।


क्रमशः......
★व्याकरणलेख-17★
हम दिनप्रतिदिन बहार की दुनिया के सानिध्य में आते है तो कु छ ऐसा देखते है जिसकी प्रशंसा करने की इच्छा होती है। सामान्यतया तो संस्कृ त में " शोभनम्,
उत्तमम्, रुचिकरम्" इत्यादि शब्दो का उपयोग करते है। लेकिन कु छ और भी शब्द है जिसका उपयोग करने से संस्कृ तभाषा और मधुर लगने लगती है। उनके कु छ
सूत्र आज करेंगे।

*64) प्रशंसायां रूपप्। (५।३।६६)*


यहा "तिङश्च" की अनुवृत्ति आकर अर्थ होता है, _प्रातिपदिक और तिङ् से प्रशंसा अर्थ में रूपप् प्रत्यय होता है।_
A) प्रातिपदिक से :-
यदि कोई चतुर हो तो हम कहते है, " सः अतीव पटु: अस्ति।" इस सूत्र से हम ऐसा भी कह सकते है,
" सः पटुरूप: अस्ति। "
अर्थात् वह प्रशंसा करने योग्य इतना चतुर है।
पटुरूप: पटुरूपौ पटुरूपा:।
पटुरूपा पटुरूपे पटुरूपा:।
पटुरूपम् पटुरूपे पटुरूपाणि।
इस तरह राम/सीता/वन-शब्दावत् रूप बनते है।
पाणिनि वैयाकरणरूप: अस्ति।
पाणिनि प्रशंसनीय वैयाकरण है।

B) तिङन्त से :-
यदि कोई अच्छी रसोई करता हो तो हम कहेंगे, " सः सम्यक् पचति। "
इस सूत्रसे इस तरह भी कह सकते है,
" सः पचतिरूपम्। "
वह प्रशंसा की जाय इतना अच्छा पकाता है।
यहा "पचतिरूपम्" ऐसा नपुंसकलिंग ही रहेगा और इसके इस तरह रूप बनेंगे,
पचतिरूपम् पचतोरूपम् पचन्तिरूपम्।
राम: लिखतिरूपम्।
कृ ष्ण: नृत्यतिरूपम्।

व्यवहारमें हम किसी के विषय में बात करते समय उसको उपमा देते है। जैसे,
ये ऋत्विक की तरह dance करता है।
उपमा देने में थोड़ी न्यूनता तो रहती ही है। उपमेय पूर्ण रूपसे उपमान जैसा नही हो सकता। अर्थात् यहा वो ऋत्विक की अपेक्षा थोड़ा ही कम अच्छा नाचता है। इस
तरह की वाक्यरचना के लिए संस्कृ त में कु छ विशिष्ट शब्दप्रयोग किये जा सकते है। जैसे,

*65) ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः। (५।३।६७)*


ईषद-असमाप्ति = जो थोड़ा सा ही अपूर्ण हो।
कल्पप्, देश्य, देशीयर् = ये तीन प्रत्यय होते है।
और ये "प्रातिपदिक और तिङन्त" दोनों से होते है।
A) प्रातिपदिक से :-
वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। "

वह थोड़ा सा ही कम विद्वान् है।


" सः विद्वत्कल्प:/ विद्वद्देश्य:/ विद्वद्देशीय: अस्ति।
पटुकल्प: पटुकल्पौ पटुकल्पा:।
पटुकल्पा पटुकल्पे पटुकल्पा:।
पटुकल्पम् पटुकल्पे पटुकल्पानि।
इस प्रकार पटुदेश्य/पटुदेशीय के भी तीनो लिङ्गो में रूप बनते है।

B) तिङन्त से :-
वह थोड़ा सा ही कम अच्छा पकाता है।
" सः पचतिकल्पम्। "
" सः पचतिदेश्यम्। "
" सः पचतिदेशीयम्। "
यहा भी नपुसंकलिङ्ग ही होता है। और रूप इस तरह बनते है,
पचतिकल्पम् पचत:कल्पम् पचन्तिकल्पम्।
पचतिदेश्यम् पचतोदेश्यम् पचन्तिदेश्यम्।
पचतिदेशीयम् पचतोदेशीयम् पचन्तिदेशीयम्।

अब इसी अर्थमें (ईषद-असमाप्ति अर्थमें) के वल सुबन्त से ही एक और ( बहुच् नामका ) प्रत्यय होता है,

*66) विभाषा सुपो बहुच् पुरस्तात् तु। (५।३।६८)*


इस सूत्रमें भी " ईषद-असमाप्ति:" की अनुवृत्ति आती है। लेकिन इस सूत्रमें तीन बातें विशेष है,
- यह बहुच्-प्रत्यय सिर्फ सुबन्त से ही होता है, तिङन्त से नही।
- यह बहुच्-प्रत्यय विकल्प से होता है। अर्थात् पक्ष में कल्पप्/देश्य/देशीयर् ये तीनो प्रत्यय तो होंगे ही।
- यह बहुच्-प्रत्यय सुबन्त से आगे लगता है, नही की पीछे।

" सः बहुपटु: अस्ति। "


वह थोड़ा सा ही कम चतुर है।
पक्ष में,
" सः पटुकल्प: अस्ति। "
" सः पटुदेश्य: अस्ति। "
" सः पटुदेशीय: अस्ति। " ये तीनो भी होते है।
यहा देख सकते है कि,
'पटुकल्प:' में कल्पप्-प्रत्यय पीछे लगा है। जबकि 'बहुपटु:' में बहुच्-प्रत्यय आगे लगा है।

" सः बहुपण्डित: अस्ति। "


वह थोड़ा सा ही कम पण्डित है।
बहुपण्डित: बहुपण्डितौ बहुपण्डिताः।
इस तरह लिंगानुसार रूप बनते है।
एक और प्रत्यय भी होता है।

*67) प्रकारवचने जातीयर्। (५।३।६९)*


यहा भी " सुप: " की अनुवृत्ति आकर अर्थ बना _सुबन्त से प्रकारवचन अर्थ में जातीयर्-प्रत्यय होता है।_
पण्डितजातीय:।
पटुजातीय:।
मृदुजातीय:। इत्यादि रूप बनते है।
सारांश यह हुआ की,
>> प्रातिपदिक और तिङन्त से चार प्रत्यय होते है,
- रूपप् ( प्रशंसा )
- कल्पप्/देश्य/देशीयर् ( ईषद-असमाप्ति)

>> सुबन्त से दो प्रत्यय होते है,


- बहुच् ( ईषद-असमाप्ति)
- जातीयर् ( प्रकार )

आज हमने चार सूत्र किये।


क्रमशः.........

★व्याकरणलेख-18★
"कितने लोग थे?"
" इतने सारे लोग थे"
" जितने लोग थे उतने ही घर थे"

ये सभी वाक्यो के लिए अष्टाध्यायी में कौन से सूत्र है वह आज हम देखेंगे।

*68) यत्तदेतेभ्यः परिमाणे वतुप्। (५।२।३९)*


अर्थात् _यद्, तद्, एतद् इन तीनो से परिणाम-मापने के अर्थमें वतुप्-प्रत्यय होता है।_
A)यद्
> यावान् - पुलिंग में
यावान् यावन्तौ यावन्त: इस प्रकार भगवत-वत् रूप बनते है।
> यावती - स्त्रीलिंग में
यावती यावत्यौ यावत्य: इस प्रकार नदी-वत् रूप बनते है।
> यावत् - नपुंसकलिंगमें
यावत् यावती यावन्ति इस प्रका जगत-वत् रूप बनते है।
B) तद्
> तावान् - पुलिंग में
तावान् तावन्तौ तावन्त:
> तावती - स्त्रीलिंग में
तावती तावत्यौ तावत्य:
> तावत् - नपुंसकलिंग में
तावत् तावती तावन्ति
C) एतत्
> एतावान् - पुलिंग में
एतावान् एतावन्तौ एतावन्त:
> एतावती - स्त्रीलिंग में
एतावती एतावत्यौ एतावत्य:
> एतावत् - नपुंसकलिंग में
एतावत् एतावती एतावन्ति

उदाहराणानि :-
- यावन्त: जना: भारते तावन्त: सर्वे संस्कृ तम् जानियु: इति अस्माकम् प्रयत्नम् भवेत्।
- यावती: नद्य: अशुद्धा: राष्ट्रे तावती: सर्वा: शुद्धा: करणीया:।
- यावत् धनम् दरिद्र: मासान्तरे अर्जति तावत् तु आढ्यैः एकस्मिन् दिने व्ययीक्रियते।

*69) किमिदम्भ्यां वो घः। (५।२।४०)


इस सूत्रमें 'वतुप् और परिमाणे' इन दो शब्दो की अनुवृत्ति आकर सूत्रार्थ हुआ _किम् और इदम् इस दो शब्दों से भी वतुप्-प्रत्यय होता है और उस 'व' का 'घ' हो
जाता है।_
फिर उस 'घ' के स्थानमें 'इय' हो जाता है।
A) किम्
> कियान् - पुलिंग मे
कियान् कियन्तौ कियन्त:
> कियती - स्त्रीलिंग में
कियती कियत्यौ कियत्य:
> कियत् - नपुंसकलिंग में
कियत् कियती कियन्ति
B) इदम्
> इयान् - पुलिंग में
इयान् इयन्तौ इयन्त:
> इयती - स्त्रीलिंग में
इयती इयत्यौ इयत्य:
> इयत् - नपुंसकलिंग में
इयत् इयती इयन्ति

उदाहरणानि :-
- कियन्त: ब्राह्मणा: आगमिष्यन्ति?
- इयन्त: ब्राह्मणा: आयान्ति।
- कियत्य: ब्राह्मण्यः सन्ति?
- इयत्य: सन्ति।
- कियत् धनम् दीयते?
- इयत् धनम् दास्यामि।
*70) किमः सङ्ख्यापरिमाणे डति च। (५।२।४१)*

यदि संख्या का परिमाण विवक्षित हो तो किम्-शब्द से डति(अति)-प्रत्यय भी होता है जो तीनों लिङ्गो में समान ही होगा और नित्य-बहुवचन में होगा। और पक्ष में
पिछले सूत्र से वतुप् भी होगा जिसके 'व' को 'घ' और 'घ' को 'इय' आदेश होगा।

- कति ब्राह्मणा: आगमिष्यन्ति?


पक्ष में पिछले सूत्र की ही तरह,
- कियन्त: ब्राह्मणा: आगमिष्यन्ति?

*71) सङ्ख्याया अवयवे तयप्। (५।२।४२)*


सङ्ख्या के अवयव को दर्शाने के लिए तयप्-प्रत्यय होता है।
अवयव अर्थात् भाग। जैसे,
' वृतयः पञ्चतय्य: क्लिष्टाक्लिष्टा: ' - योगसूत्र
' वृति के पांच अवयव/भाग होते है ' - योगसूत्र
> पञ्चतय: / दशतय: - पुलिंग में
> पञ्चतयी / दशतयी - स्त्रीलिंग में
> पञ्चतयम् / दशतयम् - नपुंसकलिंग में

आज चार सूत्र किये।


क्रमशः........

★व्याकरणलेख-19★
" क्लै ब्यम् मा स्म गम: " = नपुंसकता की और मत जाओ। -भगवद्गीता
ये वाक्य हमने सूना ही है जिसमे "मा" शब्द निषेध-करने अर्थमें उपयुक्त हुआ है। लेकिन प्रश्न ये की 'गमः' ये कौनसा रूप है? वास्तवमे वहा 'अगमः' ऐसा ( लुङ् -
लकार का मध्यम पुरुष-एकवचन का) रूप है जिसमे 'मा'शब्द उपपद में होने के कारण 'अ' हट गया है। तो ये 'अ' किस सूत्रसे आता है, कब जाता है, इस पर सूत्र-
सहित विचार आज करेंगे।
पहले देखते है कि 'अ ' कौनसे सूत्र से कहा कहा आता है।

*72) लुङ्लङ्लृङ्क्ष्वडु दात्तः। (६।४।७१)*


हमने देखा था की 10 लकारे होते है संस्कृ त में।
उनमे से तीन लकार " लुङ् / लङ् / लृङ् " इन तीनो में आगे 'अट् ' आता है। फिर 'ट्' तो _हलन्त्यम्_ सूत्र से इत्-संज्ञा पाकर _तस्य लोपः_ सूत्र से हट जाता
है और के वल 'अ ' बचता है।
लुङ् (अद्यतन-भूत) = रामः अगमत् = राम गया।
लङ् (अन-अद्यतन-भूत) = रामः अगच्छत् = राम गया।
लृङ् = यदि रामः अगमिष्यत् = यदि राम जाता

यहा देख सकते है तीनो लकारो में 'अ ' आता है।

अब ये देखे की ये 'अ ' कहा नही होता है।

*73) न माङ्योगे। (६।४।७४)*


अर्थात् निषेधात्मक 'माङ् '-शब्द उपपद में हो तो 'अट् ' नही होता है। जैसा की ऊपर के गीता-वाक्य में देखा की 'मा'-शब्द के उपपद रहने पर 'अगमः' का 'अ ' हट
जाता है और के वल 'गमः' शेष रहता है। 'माङ् ' में 'ङ् ' की इत्-संज्ञा, फिर लोप होकर 'मा' शेष रहता है।

अब 'माङ् ' विषयक सूत्रों को देखते है।

*74) माङि लुङ् । (३।३।१७५)*


अर्थात् 'माङ् ' उपपद हो तो लङ् -लकार होता है।
- मा कार्षीत् = वह मत करे
- मा हार्षीत् = वह हरण मत करे
- मा गमत् = वह न जाए
यहा तीनो उदाहरण में 'न माङ्योगे' इस सूत्र से 'अ ' हट गया है।

*75) स्मोत्तरे लङ् च। (३।३।१७६)*


इस सूत्र में ' माङि लुङ् ' की अनुवृत्ति आकर अर्थ बनेगा _माङ् के साथ 'स्म' भी हो तो लङ् -लकार भी होता है, लुङ् -लकार तो होता ही है।_
- मा स्म करोत् = वह मत करे
- मा स्म हरत् = वह हरण मत करे
- मा स्म गच्छत् = वह न जाए
यहा भी 'न माङ्योगे' सूत्रसे 'अ' हट गया है।

आज हमने चार सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-20★
" गुणवान् "
" शक्तिमान् "

ये दो शब्दों का अर्थ है, " गुणवाला और शक्तिवाला "। अर्थात् कोई व्यक्ति है जिसमे गुण है या शक्ति है। यदि अर्थ समान ही है तो फिर गुण-शब्द से 'वान्' और
शक्ति-शब्द से 'मान्' क्यों? कहा 'वान्' और कहा 'मान्' लगाये? उसके लिए कु छ सूत्र है अष्टाध्यायी में। आज वो देखेंगे।

*76) तदस्य अस्त्यस्मिन्निति मतुप्। (५।२।९४)*


यदि कोई वस्तु किसीकी (अस्य) हो या किसीमें ( अस्मिन् ) हो तो मतुप् प्रत्यय होता है।
जैसे,
गुण इसमें/इसके है वह - गुणवान्
शक्ति इसमें/इसकी है वह - शक्तिमान्

लेकिन कहा 'वान्' और कहा 'मान्' ?

*77) मादुपधायाश्च मतोर्वोऽयवाऽदिभ्यः। (८।२।९)*


इस सूत्र से चार जगह पर मकार का वकार होता है।
A) मकारान्तशब्द(मकार जिसके अन्तमे है) -
- किम् + मतुम्
- किम् + वतुप्
- किम् + वत्
- किम् + वान्
यहा 'किम्'शब्द मकारान्त है इसलिए उक्त सूत्र से मकार के स्थान में वकार होकर 'किं वान्' हो गया। जो किम्-किम् करता है वह नौकर = किं वान्
- शंवान् = शान्तिवाला

B) मकारोपधात्(मकार जिसकी उपधा में है) -


उपधा अर्थात् कोई शब्द में सबसे पीछे जो वर्ण हो उसके आगे का वर्ण 'उपधा' कहलाता है, जैसे,
- शमी-शब्द में ( श् अ म् ई ) यह चार वर्ण है। सबसे पीछे 'ई' है। तो उसके आगे जो वर्ण है याने की 'म्' उसको (मकार को) उपधा कहते है। उस मकार-उपधा
वाले शब्दो से भी 'मान्' का 'वान्' होता है।
शमीवान् = शमी वृक्ष वाला
दाडिमीवान् = छोटी इलायची वाला

C) अकारान्त(अ जिसके अन्तमे है) -


- वृक्षशब्द अकारान्त है। तो वहाँ भी 'मान्' की जगह 'वान्' होगा।
- वृक्षवान् = वृक्ष वाला
- मालावान् = माला वाला ( यहा अकार से आकारान्त का भी ग्रहण होता है)

D) अकारोपधात्(अकार जिसकी उपधामे है) -


- यशस् इस शब्द में ( य् अ श् अ स् ) सबसे पीछे स्-वर्ण है जिसके आगे 'अ ' है। अर्थात् यशस्-शब्द अकार उपधावाला है तो उसमें भी 'मान्' की जगह 'वान्'
होगा।
- यशस्वान् = यश वाला
- पयस्वान् = दूधवाला

अब हम देख सकते है कि 'शक्ति'-शब्द ना तो अकार/मकार उपधावाला है, नाही अकारान्त/मकारान्त है। इसलिए उसमे 'मान्' ही रहा। शक्तिमान् = शक्तिवाला
वायुमान् = वायुवाला

अब 'अग्निचित्' शब्द में क्या होगा? वैसे तो उसमें भी 'मान्' ही होना चाहिए। लेकिन एक और सूत्र है जिससे उसमे 'वान्' होता है।

*78) झयः। (८।२।१०)*


यहा झय् एक प्रत्याहार है। प्रत्याहार अर्थात् कु छ निश्चित वर्णो का समूह।
झय् = झ् भ् घ् ढ् ध् ज् ब् ग् ड् द् ख् फ् छ् ठ् थ् च् ट् त् क् प् इतने वर्ण होते है।
दूसरे शब्दों में कहे तो वर्गों के प्रथम-प्रथम चार वर्ण। अर्थात्

क् ख् ग् घ्
च् छ् ज् झ्
ट् ठ् ड् ढ्
त् थ् द् ध्
प् फ् ब् भ्
ये सभी वर्ण जिसके पीछे हो उन सभी वर्णो से 'वान्' होता है। जैसे,
अग्निचित् = अग्निचित्वान् -अग्नि-आधान
करनेवाला
दृशद् = दृशद्वान् - पत्थरवाला
विद्युत् = विद्युत्वान् - विद्युतवाला

आज हमने तीन सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-21★
" पहले मेरा चहेरा साँवला था। जबसे fair & lovely लगाना शुरू किया, मेरा चहेरा एकदम गौरा हो गया "। इस तरह की add न चाहते भी रोज देखते है।
इसको व्याकरण के साथ जोड़े तो यहां दो घटनाएं होती है।
> चहेरे का श्याम होना ( अर्थात् गोरा न होना)।
> बादमे चहेरा गोरा हो जाता है।
अर्थात् जो पहले नही था, वो हो जाता है। इस तरह के व्याक्य-भाव संस्कृ त में प्रकट करने के लिए 'च्वि' का प्रयोग होता है। सूत्र देखे...

*79) अभूततद्भावे कृ भ्वस्तियोगे सम्पद्यकर्तरि च्विः। (५।४।५०)*


अभूत् = न भूत = जो नही था
तत्भाव = तस्य भाव = जो होता है
यहा,
Fair & lovely मुखम् धवलीकरोति।
जो मुख धवल नही था उसको धवल करता है। इस अर्थ में संस्कृ तमे 'च्वि-प्रयोग' होता है।
कु छ नियम देखते है।

*>*धवलीकरोति इस शब्द में धवल+कृ धातु है। लेकिन उक्त सूत्र से तीन धातु का उपयोग कर सकते है :-
- धवलीकरोति (धवल करता है)
- धवलीभवति (धवल होता है)
- धवलीस्यात् (धवल हो)

*>* यहा कृ /भू/अस्ति तीनो के कोई भी रूप उपयोग में ला सकते है :-


- धवलीकरोति, धवलीकरोतु, धवलीकरिष्यति, धवलीकृ तः, धवलीकृ तवान्, धवलीकर्तुम्, धवलीकृ त्य, इत्यादि।
उसी तरह भू और अस्ति में भी समजे।

*>* भूतकाल के प्रयोग में आगे 'अ' आता है। जैसे, अकरोत्, अभवत्, जिससे च्वि-रूप में थोड़ी बाधा ना आये इसलिए भूतकाल में क्त-क्तवतु का प्रयोग कर
सकते है :-
- शुक्लीकृ तः, श्यामीकृ तवान्
- दुखीभूता, सुखीभूतवान्
- घटीभूतम्, घटीकृ तवान्

*>* लेकिन यदि अकरोत्, अभवत् इत्यादि का प्रयोग करना हो तो सन्धि अवश्य करनी होगी।
- शुक्ल्यकरोत् ( शुक्ली-अकरोत्)
- साध्वभूत् (साधू-अभूत्)

*>* क्त्वा-प्रत्यय के स्थान में ल्यप्-प्रत्यय होता है :-


- दुखीकृ त्य, श्यामीकृ त्य
- शुक्लीभूय, श्यामीभूय

*>* अकारान्त/आकारान्त शब्दो के स्थान में 'ई' होता है :-


- ग्राम - ग्रामीकरोति।
- खट्वा - खट्वीभवति
इसके लिए जो सूत्र है वह देखते है।

*80) अस्य च्वौ। (७।४।३२)*


यहा 'ई' की अनुवृत्ति आकर सूत्रार्थ हुआ _अकारान्त/आकारान्त से च्वि-प्रयोग में 'ई' होता है।_

> इकारान्त/उकारान्त शब्दो में दीर्घ होता है :-


- शुचि - शुचीकरोति,
- अग्नि -अग्नीभवति
- साधु - साधूकरोति
- पटु - पटू भवति
इसके लिए जो सूत्र है वह देखते है।

*81) च्वौ च। (७।४।२६)*


यहा 'दीर्घ' की अनुवृत्ति आकर सूत्रार्थ बना _अजन्त अङ्ग को च्वि-प्रयोग में दीर्घ होता है।_

> लेकिन यहां एक अपवाद है। ऋकारान्त शब्दो से उपर्युक्त सूत्र से 'ॠ' ऐसा दीर्घ होना चाहिए था लेकिन एक और सूत्र से वहाँ दीर्घ न होकर ऋकारान्त शब्दो से
'री' होता है। सूत्र देखते है।

*82) रीङ् ऋतः। (७।४।२७)*


यहा 'च्वि' की अनुवृत्ति आकर सूत्रार्थ हुआ _ऋकारान्त शब्दो में 'ऋ' के स्थान में च्वि-प्रयोग में 'री' होता है।
- मातृ - मात्रीकरोति
- पितृ - पित्रीभूत:
- कर्तृ - कर्त्रीभूता

*>* एजन्त(ए/ऐ/ओ/औ जिसके अन्तमे है) शब्दो में कोई परिवर्तन या विकृ ति नही होती है :-
- से - सेभूत् ( वह कामदेव हो गया)
- रै - रैकरोति (धनवान करता है)
- गो - गोभवति ( बछडी गाय होती है)
- ग्लौ - ग्लौभूत् ( वह चन्द्रमा हो गया)

>>> >> अयोध्यायाम् दशरथो नाम राजा। पौरा: *सुखीभवेयु:* इत्येव तस्य इच्छा। सः सर्ववेदान् *कण्ठस्थीकृ तवान्*। *पित्रीभवितुं* तेन ईश्वर:
*प्रार्थनीकृ तः*। तेन चत्वारः पुत्रा: अभवन्। यज्ञम् *निर्विघ्नीकर्तुम्* विश्वामित्र: रामलक्ष्मणौ नितवान्। तत: धनु: *भङ्गीकृ त्य* सीताम् पत्नीरूपेण *अङ्गीकरोति*
स्म। सीता अपि *प्रसन्नीभूता*। कै के य्या याचितेन वरेण रामः *तापसीभूय* वनम् गतवान्। सीता-लक्ष्मणौ च अनुगच्छत: स्म। भरत: " *मात्रीभूय* एवं कृ तवती"
इति उक्त्वा कु पित: अभवत्। वने मारीचि: रावणस्य आदेशेन *मृगीभवति* स्म। रावण: *साधूभूय:* सीतायाः अपहरणम् कृ तवान्। भयेन सा *कातरीभूता*।
कपिसेना रामस्य साहाय्यम् कृ तवती। रामः तेन *प्रसन्न्यभवत्*(प्रसन्नी-अभवत्)। सीता *दुःखीस्यात्* इति मत्वा रामः लङ्काया उपरि आक्रमणम् कृ तवान्। रावणम्
*भस्मीकृ त्य* सितां *मुक्तीकरोति* स्म । अनेन "सत्यमेव जयते" इति सिद्धान्त: *स्पष्टीभवति*।

आज हमने चार सूत्र किये।


क्रमशः........

★व्याकरणलेख-22★
भू > भवति
अस् > अस्ति
नश् > नश्यति
आप् > आप्नोति
कृ > करोति
अश् > अश्नाति

ये सब प्रथम-पुरुष-एकवचन के रूप है। इनको देखके लगता है कि संस्कृ त में क्रियापद के कोई नियम है कि नही?!!!! अलग अलग रूप क्यों बनाये? यदि एक जैसे
रूप बनाये होते ( जैसे, गच्छति, करति, नशति, असति) तो याद रखने में कितना सरल होता। ऐसी फरियाद शुरुआत में सबको होती ही है।
लेकिन ये भिन्न भिन्न दिखने वाले रूपो के पीछे पूरा एक विज्ञान है। इसलिए ये अलग अलग दीखते है। आज उसके विषय में देखेंगे।

ये भिन्नता दिखती है उसका कारण है "विकरण"। अर्थात्? ये विकरण एक प्रत्यय है। जैसे लट्, लुट् इत्यादि प्रत्यय है वैसे ही। और इस विकरण-प्रत्यय के कारण ही
संस्कृ त में सभी धातु (जो लगभग 2000 है) दश गण में विभाजित हुए है। और सभी गण के भिन्न भिन्न विकरण-प्रत्यय है। इसलिए ही धातुओं से भिन्न भिन्न
क्रियापद बनते है। आइये, सूत्रों के साथ देखते है दश गणो के नाम, और सभी के विकरण-प्रत्यय को।

*83) कर्तरि शप्। (३।१।६८)*


यहा जो 'शप्' है वो विकरण-प्रत्यय है। वैसे तो इस सूत्र से सभी गणो में शप्-विकरण-प्रत्यय ही होते है। लेकिन फिर अलग अलग सूत्रों से शप् के अपवाद-रूप भिन्न
भिन्न विकरण होते है। इसलिए दो ही गण में शप्-प्रत्यय होता है :-

◆◆◆>प्रथम गण में शप् होता है। प्रथम-गण का नाम है :- भ्वादि: गण:। गण के नाम किस प्रकार से हुए? तो गण की जो प्रथम धातु हो उसके नाम से ही उस
गण का नामकरण होता है। जैसे, प्रथमगण की धातुं 'भू' है। जिससे प्रथमगण का नाम हुआ 'भ्वादि: गण: (भू जिसके आदि में है वह) तो इस भ्वादिगण में शप् होता
है।
- भू + शप् + तिप् = भवति
- पठ् + शप् + तिप् = पठति
- खाद् + शप् + तिप् = खादति

◆◆◆> दशम गण में भी शप् विकरण-प्रत्यय होता है। दशमगण में प्रथम धातुं है :- चुर्। इसलिए गण का नाम हुआ 'चुरादि: गण:'।
लेकिन चुरादिगण में एक विशिष्ट बात ये है कि उसमें विकरण-प्रत्यय लगने से पहले 'णिच्' प्रत्यय भी होता है और उसके बाद शप्-प्रत्यय होता है।
- चुर् + णिच् + शप् +तिप् = चोरयति
- कथ् + णिच् + शप् + तिप् = कथयति
- चिन्त् + णिच् + शप् + तिप् = चिन्तयति

यहा किस सूत्र से चुरादिगण में णिच्-प्रत्यय होता है वह देखते है :-

*84) सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्णचुरादिभ्यो णिच्। (३।१।२५)*

◆◆◆> दुसरा गण है :- अदादि: गण:।


इस गण में भी पहले तो शप् ही होता है लेकिन एक विशिष्ट सूत्र से उसका लुक् हो जाता है। लुक् अर्थात् अदृश्य हो जाना।

*85) अदिप्रभृतिभ्यः शपः। (२।४।७२)*


- अद् + शप् + तिप्
अद् + 0 + तिप् = अत्ति
- अस् + शप् + तिप्
अस् + 0 + तिप् = अस्ति
- हन् + शप् + तिप्
हन् + शप् +तिप् = हन्ति

◆◆◆> तीसरा गण है :- जुहोत्यादि: गण:।


इस गण में भी पहले शप् होकर फिर एक सूत्र से उसके स्थान में 'श्लु' हो जाता है।

*86) जुहोत्यादिभ्यः श्लुः। (२।४।७५)*


यहा 'श्लु' होने के बाद धातुं का द्वित्व हो जाता है यही आशय है श्लु करने का।
- हु + शप् + तिप्
हु + श्लु + तिप
हु + हु + तिप्
जु + हु + तिप् = जुहोति
- दा + शप् + तिप्
दा + श्लु + तिप्
दा + दा + तिप् = ददाति
- भी + शप् + तिप्
भी + श्लु + तिप्
भी + भी +तिप् = बिभेति
यहा किस सूत्र से द्वित्व होता है वह देखते है :-

*87) श्लौ। (६।१।१०)*


यहा पर " एकाचः द्वे प्रथमस्य अजादेः द्वितीयस्य धातोः अनभ्यासस्य " इन सबकी अनुवृत्ति आती है। सामान्य अर्थ यह की _श्लौ जहा हो (जुहोत्यादि गण में ही
होता है) वहां धातुं को द्वित्व होता है।_

आज हमने पाँच सूत्र किये।


क्रमशः.....

★व्याकरणलेख-23★
पिछले लेख में हमने विकरण-प्रत्यय के विषय में देखा की :-
◆◆◆> प्रथमगण-भ्वादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्
◆◆◆> द्वितीयगण-अदादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्, जिसका बाद में लुक् हो जाता है।
◆◆◆> तृतीयगण-जुहोत्यादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्, जिसके स्थान में श्लु होता है।
◆◆◆> दशमगण-चुरादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्

अब आगे देखते है :-

◆◆◆> चतुर्थगण है :- दिवादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*88) दिवादिभ्यः श्यन्। (३।१।६९)*


यहा 'श्यन्' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है।
- दिव् + शप् + तिप्
दिव् + श्यन् + तिप् = दीव्यति
- सिव् + शप् + तिप्
सिव् + श्यन् + तिप् = सीव्यति
- नृत् + शप् + तिप्
नृत् + श्यन् + तिप् = नृत्यति

◆◆◆> पञ्चमगण है :- स्वादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*89) स्वादिभ्यः श्नुः। (३।१।७३)*


यहा 'श्नु' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है।
- सु + शप् + तिप्
सु + श्नु + तिप् = सुनोति
- आप् + शप् + तिप्
आप् + श्नु + तिप् = आप्नोति
- शक् + शप् + तिप्
शक् + श्नु + तिप् = शक्नोति

◆◆◆> षष्ठगण है :- तुदादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*90) तुदादिभ्यः शः। (३।१।७७)*


यहा 'श' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है।
- तुद् + शप् + तिप्
तुद् + श + तिप् = तुदति
- मिल् + शप् +तिप्
मिल् + श + तिप् = मिलति
- लिख् + शप् + तिप्
लिख् + श + तिप् = लिखति

◆◆◆> सप्तमगण है :- रुधादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*91) रुधादिभ्यः श्नम्। (३।१।७८)*


यहा 'श्नम्' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है। लेकिन इस श्नम्-विकरण-प्रत्यय की विशेषता यह है कि वह धातु के बाद में न होकर धातु के बीच में
होता है। कै से और कहा होता है वह आगे के लेखों में देखेंगे।
- रुध् + शप् + तिप्
रुध् + श्नम् + तिप्
रु श्नम् ध् + तिप् = रुणद्धि
- भिद् + शप् + तिप्
भिद् + श्नम् + तिप्
भि श्नम् द् + तिप् = भिनत्ति
- छिद् + शप् + तिप्
छिद् + श्नम् + तिप्
छि श्नम् द् + तिप् = छिनत्ति

आज हमने चार सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-24★
पिछले लेख में हमने सप्तमगण तक विकरण-प्रत्यय किये थे। आज आगे बढ़ते है।

◆◆◆> अष्टमगण है :- तनादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*92) तनादिकृ ञ्भ्यः उः। (३।१।७९)*


यहा 'उ' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है।
- तन् + शप् + तिप्
तन् + उ + तिप् = तनोति
- कृ + शप् + तिप्
कृ + उ + तिप् = करोति
- तृण् + शप् + तिप्
तृण् + उ + तिप् = तृणोति

◆◆◆> नवमगण है :- क्र्यादि: गण:।


इस गण का विकरण-प्रत्यय इस सूत्र से होता है :-

*93) क्र्यादिभ्यः श्ना। (३।१।८१)*


यहा 'श्ना' विकरण-प्रत्यय है जो शप् के स्थान में होता है।
- क्री + शप् + तिप्
क्री + श्ना + तिप् = क्रीणाति
- अश् + शप् + तिप्
अश् + श्ना + तिप् = अश्नाति
- वृ + शप् + तिप्
वृ + श्ना + तिप् = वृणाति

दशमगण के बारे में पहले ही दिखाया गया है।

लेकिन यहां यह बात याद रखनी जरूरी है कि विकरण-प्रत्यय अपने मूल स्वरूप में उपयोग में नही आता। जैसे गन्ने को खाने से पहले उसके छिलके को निकाल ने
के बाद में खाया जाता है वैसे ही व्याकरण में कोई भी प्रत्यय को काट-झाट के ही उपयोग में लिया जाता है।
यहा फिर से मूल विकरण-प्रत्यय और उसका उपयोग में आनेवाले रूप को फिर से देखते है।
*गण* *मूल-विकरण* *उपयोगी-विकरण*
प्रथम शप् अ
द्वितीय शप् लुक् होने से कोई विकरण नही
तृतीय शप् श्लु होने से कोई विकरण नही
चतुर्थ श्यन् य
पञ्चम श्नु नु
षष्ठ श अ
सप्तम श्नम् न
अष्टम उ उ
नवम श्ना ना
दशम शप् अ

यहा सर्वत्र पहले तो विविध सूत्रों से इत्-संज्ञा होती है और बादमे 'तस्य लोपः' इस सूत्र से लोप (काट-झाट) होती है। फिर बचे हुए विकरण-प्रत्यय का ही उपयोग
होता है।
अष्टमगण का विकरण-प्रत्यय 'उ' है जिसमे किसी की इत्-संज्ञा शक्य न होने से किसीका लोप भी नही होता जिससे 'उ' ही रहता है।

आज हमने दो सूत्र किये।


क्रमशः.......

★व्याकरणलेख-25★
राम: लिखन् अस्ति। कृ ष्ण: लिखन्तम् रामं पश्यति। लिखता रामेण उक्तं यत् कथं अस्ति कृ ष्ण इति। कृ ष्ण: लिखते रामाय पुष्पम् दत्तवान्। लिखत: हस्तात् पुष्पम्
पतितम्। लिखत: रामस्य नेत्राभ्याम् अश्रु अपतत्। लिखति रामे कृ ष्ण: स्निह्यति।

यहा लिख्-धातु के शतृ-प्रत्ययान्त रूप दिए गए है। लेकिन स्त्रीलिंग में तो कहि पर 'गच्छन्ती' होता है और कहि पर 'कु र्वती' होता है अर्थात् कहि पर 'न' होता है कहि
पर 'न' नहीं होता।
तो उसके नियम क्या है? हमे कै से पता चले की कहा 'न' लगाये और कहा नहीं। पिछले लेख में हमने दश-गण के नाम और उनके विकरण-प्रत्यय कर लिए है
इसलिए यह विषय समजने में आसानी होगी।
लेकिन उसके पहले दो संज्ञा सूत्र देख लेते है :-

*94) यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादि प्रत्ययेऽङ्गम्। (१।४।१३)*


यह 'अङ्ग' किसको कहते है उसके लिए संज्ञा सूत्र है। हम उदाहरण सहित इस सूत्र को समजते है।
पठति = पठ् +शप्+तिप्
यहा पठ् -धातु से दो प्रत्यय हुए :- शप् और तिप्
तो पठ् से प्रत्यय हुआ इसलिए पठ् की 'अङ्ग' ऐसी संज्ञा हुई। अर्थात 'शप्' की दृष्टि में 'पठ् ' का नाम 'अङ्ग' है। और 'तिप्' की दृष्टि में पठ् + शप् ये दोनों है अङ्ग हुए।

अब आगे देखते है। शप् में श् और प् की इत्-संज्ञा होकर दोनों का _तस्य लोप:_ इस सूत्र से लोप होकर सिर्फ 'अ' बचता है ये भी पिछले लेख में हमने देखा।
और तिप् में भी प् की इत्-संज्ञा और फिर लोप हो गया अर्थात्
"पठ् +अ+ति" ऐसा रहा। तो यहा 'अ' की दृष्टि में 'पठ् ' की अङ्ग-संज्ञा हुई और 'ति'की दृष्टि में 'पठ' ( पठ् + अ ) की अङ्ग-संज्ञा हुई।

अब दूसरी संज्ञा देखते है : नदी। व्यवहार में हम जिसको नदी बोलते है उसकी बात यहा नही हो रही बल्कि नदी एक व्याकरण संज्ञा है सूत्र है :-

*95) यू स्त्र्याख्यौ नदी। (१।४।३)*


यहा यू = ई + ऊ
फिर संधि होकर 'यू' बना।
सूत्र का सामान्य अर्थ हुआ _ईकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीवाची शब्दों की नदी संज्ञा होती है_ जैसे,
ईकारान्त = कु मारी, गौरी, शार्ङ्गरवी
ऊकारान्त = ब्रह्मवन्धूः, यवागूः

लेकिन 'गच्छन्ती' 'कु र्वती' इत्यादि ईकारान्त शब्द ही है, ऊकारान्त नहीं। इसलिए यहा नदी अर्थात 'गच्छन्ती, वदन्ती, कु र्वती, खादन्ती' ये सब शब्द नदी-संज्ञक है।
अर्थात् इन सब शब्दों को नदी कहते है। ये दो सूत्र करने के बाद अब इस विषय को अच्छी तरह समज सकें गे।

आज हमने दो सूत्र किये।


क्रमशः…..….....

★व्याकरणलेख-26★

पिछले लेख में हमने 'अङ्ग' और 'नदी' क्या है वह देखा। अब जब 'अङ्ग' क्या है ये समझ गये है तो एकबार फिर दश-गण के धातुं और उनके विकरण-प्रत्यय के
संयोग को देखते है :-

गण मूल-विकरण उपयोगी-विकरण
प्रथम शप् अ
द्वितीय शप् लुक् होने से कोई विकरण नही
तृतीय शप् श्लु होने से कोई विकरण नही
चतुर्थ श्यन् य
पञ्चम श्नु नु
षष्ठ श अ
सप्तम श्नम् न
अष्टम उ उ
नवम श्ना ना
दशम शप् अ

यहा जो उपयोग में आनेवाला विकरणप्रत्यय है उनको देखे। अ, य, नु, अ, न, उ, ना, अ।

पहले गण 'भ्वादिगण' के एक उदाहरण को देखते है :-


भू + शप् + तिप्
भू + अ + ति

अब यहा 'अ' की दृष्टि में 'भू' अङ्ग है जिसको गुण होकर 'भो' होता है।
भो + अ + ति

फिर 'भो' के स्थान में 'भव्' होता है।


भव् + अ + ति
फिर 'भव्' का मिलन 'अ' विकरण-प्रत्यय के साथ हो जाता है।
'भव + ति' ऐसा रहता है। जहाँ 'ति' की दृष्टि में 'भव' की अङ्ग-संज्ञा होती है।
अर्थात् 'भू' धातुं जब अपने विकरण-प्रत्यय 'अ' (शप्) के साथ जुड़ता है तो 'भव' होता है।

अब ये 'भव' जो अङ्ग है वह कै सा है? वह अकारान्त है। जैसे राम, कृ ष्ण, देव इत्यादि शब्द अकारान्त है वैसे ही 'भव' अङ्ग अकारान्त है।

अब गण तो दश है। तो प्रश्न ये होगा की कितने गण में अकारान्त अङ्ग होता है? एक-एक करके देखते है।

द्वितीयगण और तृतीयगण में विकरण-प्रत्यय होते ही नही है इसलिए उसमे धातु+विकरण-प्रत्यय के मिलन का प्रसङ्ग ही नही आता।

चतुर्थगण :- दिवादिगण
दिव् + श्यन् + तिप्
दिव् + य + ति
दीव्य + ति
यहा दिव्-धातुं और श्यन्-विकरण-प्रत्यय के मिलन से जो अङ्ग बनता है, दिव्य, वह भी अकारान्त है।

पञ्चमगण :- स्वादिगण
सु + श्नु + तिप्
सु + नु + ति
सुनु + ति
यहा उकारान्त अङ्ग है।

षष्ठगण :- तुदादिगण
तुद् + श + तिप्
तुद् + अ + ति
तुद + ति
यहा अकारान्त अङ्ग है।

सप्तमगण :- रुधादिगण
रुध् + श्नम् + तिप्
यहा श्नम्-विकरण धातु और तिङ् -प्रत्यय के बीचमे न होकर धातुं के मध्य में होता है।
रु श्नम् ध् + ति
रुन्ध् + ति
सप्तमगण में सभी धातुं हलन्त(व्यञ्जन जिसके अन्त में हो) है इसलिए अङ्ग भी हलन्त ही होगा।

अष्टमगण :- तनादिगण
तन् + उ + तिप्
तनु + ति
यहा उकारान्त अङ्ग है।

नवमगण :- क्र्यादिगण
क्री + श्ना + तिप्
क्री + ना + ति
क्रीणा + ति
यहा जो 'ना' है उसमें एक सूत्र से 'आ' का लोप होकर 'न्' बचता है। अर्थात् इस गण में हलन्त-अङ्ग बनता है।
दशमगण :- चुरादिगण
चुर् + णिच् + शप् + तिप्
चुर् + इ + अ + ति
चोरय् + अ + ति
चोरय + ति
यहा अकारान्त अङ्ग है।

अर्थात् चार गण है जिसमे अकारान्त अङ्ग होता है :-


प्रथम भ्वादिगण
चतुर्थ दिवादिगण
षष्ठम तुदादिगण
दशम चुरादिगण

इस चारो को अदन्त(अ जिसके अन्त में है) अङ्गवाले गण भी कह सकते है।


और बाकी के 6 गणो को अनदन्त(अ जिसके अन्तमे न हो) अङ्गवाले गण भी कह सकते है।

अब इन गणो को यदि सरलता से याद करना हो तो दश गण को दो भागों में बांट दे।

●●> A) अदन्तगण (चार गण)


इस को भी दो-दो के जोडे में बाट दो।
(१) भ्वादिगण-चुरादिगण का जोडा :- इन दोनों गणो में जो सामान्य बात है वह ये की दोनों में शप्-विकरण होता है। ये जो शप् है वो शित्{श् जिसका इत् है}
भी है और पित्{प् जिसका इत् है} भी है। इस कारण इन् दोनों गणों में गुण होता है। जैसे,

भ्वादीगण में 'भू' को 'भो' ऐसा गुण होता है।


चुरादिगण में 'चोरि' को 'चोरे' ऐसा गुण होता है।

(२) दिवादिगण-तुदादिगण का जोडा :- इन दोनों में क्रमशः 'श्यन्' और 'श' अर्थात् 'य' और 'अ' विकरण होता है। दोनों विकरण में समानता ये की दोनों शित् तो
है लेकिन पित् नही। इसलिए दोनों गणो में गुण नही होगा। जैसे,

दिवादिगण में 'दिव्' को 'देव्' ऐसा गुण नही हुआ।


तुदादिगण में 'लिख्' को 'लेख्' ऐसा गुण नही हुआ।

●●> B) अनदन्तगण ( छे गण)


इन छे गणो को भी दो-दो के जोडे में बाट दो।

(१) अदादिगण-जुहोत्यादिगण का जोडा :-


दोनों गणो में समानता ये की दोनों में विकरण-प्रत्यय नही है।

(२) स्वादिगण-तनादिगण का जोडा :-


दोनों गणो में क्रमशः 'श्नु' और 'उ' अर्थात् 'नु' और 'उ' विकरण होता है। दोनों गणो में समानता ये की दोनों में उकारान्त-अङ्ग बनता है।
(३) रुधादिगण-क्र्यादिगण का जोडा :- दोनों में क्रमशः 'श्नम्' और 'श्ना' अर्थात् 'न' और 'ना' विकरण होते है। दोनों गणो में समान बात ये की दोनों में हलन्त-
अङ्ग बनता है।

इस तरह सरलता ये सभी गणो को याद रख सकते है।

आज हम एक भी सूत्र नही कर पाए।


क्रमशः.........

★व्याकरणलेख-27★
पिछले लेख में हम देख रहे थे की गच्छन्ती और कु र्वती में भेद क्यों है? इसके लीये हमने अब तक देखा की :-
A) दश गण है
B) सबके भिन्न विकरण-प्रत्यय है
C) नदी क्या है
D) अङ्ग क्या है
E) धातु और विकरण प्रत्यय के संयोग से जो अङ्ग बनता है उससे दश गण के दो विभाजन हुए :-
*- >* अदन्त ( प्रथमगण = भ्वादिगण, चतुर्थगण = दिवादिगण, षष्ठगण = तुदादिगण, दशमगण = चुरादिगण ये चार गण )
*- >* अनदन्त ( बाकी के छे गण )

अब आगे बढ़ते है।


इससे पहले आगम और आदेश किसको कहते है वो देखते है।

- राम की जगह पे भरत को गादी मिली, अर्थात् भरत का राम के स्थान में आदेश हुआ।
- राम के साथ लक्ष्मण भी वन में गए, अर्थात् लक्ष्मण का आगम हुआ।

इसलिए ही आदेश शत्रुवत् होता है, क्योकि खुदका स्थान बनाने के लिए वो दुसरो को हटाता है और आगम मित्रवत् होता है क्योकि वो साथ में रहता है।

अब उस सूत्र को देखते है जिससे गच्छन्ती और कु र्वती का भेद स्पष्ट होता है।

*96) आच्छीनद्योर्नुम्। (७।१।८०)*


यहा ‘शतु: और वा’ इन दोनों की अनुवृति आ रही है :-
अ) आत् = अकारान्त अङ्ग
आ) नदी = नदी-संज्ञक ईकारान्त-शब्द
इ) नुम् = आगम
ई) शतु:= शत्रान्त (शतृ-प्रत्यय जिसके अन्तमे है ) शब्द
उ) वा = विकल्प
सूत्र का सामान्य अर्थ हुआ _अकारान्त अङ्ग के बाद में जो शत्रान्त-शब्द है उसको नुमागम होता है यदि वहा नदी संज्ञक ईकारान्त स्त्रीलिंग शब्द का प्रसंग हो तो _
उदाहरण के साथ देखते है ;-
गच्छन्ती = गच्छ् + शप् + शतृ + ङिप्
अब यहा इत्-संज्ञा और फिर लोप होकर, गच्छन्ती = गच्छ् + अ + अत् + ई
= गच्छ + अत् + ई ( धातु और विकरण-प्रत्यय का मिलन )

यहा उपर के सूत्र की सभी शर्तो का पालन हो रहा है :-


अ) गच्छ ये अकारान्त अङ्ग है।
आ) ई ( ङीप्) नदी-संज्ञक ईकारान्त स्त्रिलिंगवाची शब्द है।
इ) गच्छत ( गच्छ् + अत्) शत्रान्त-शब्द है।

इन शर्तो का पालन होने से यहा नुमागम होगा :-


गच्छ + अत् + ई
गच्छ + अ नुम् त् + ई
इत्-संज्ञा और फिर लोप होकर,
गच्छ अ न् त्+ ई
गच्छन्त्+ ई
गच्छन्ती सिद्ध हो गया।

ध्यान देने वाली बात यहा उपर के सूत्र में है वो ये है की ये अकारान्त-अङ्ग से ही नुमागम होता है। जैसे की उपर हमने देखा की चार गण ही अकारांत-अङ्ग वाले है :-
भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण और चुरादिगण।

अर्थात् इन चारो गणो में नुमागम होगा :-


- भ्वादिगण
भू + शप् + शतृ + ङीप्
भो + अ + अत् + ई
भव् + अ + अ नुम् त् + ई
भवन्ती होगा।
- दिवादिगण
दिव् + श्यन्+ शतृ + ङीप्
दिव् + य + अत् + ई
दिव् + य + अ नुम् त् + ई
दीव्यन्ती हो गया।

- तुदादिगण
तुद् + श + शतृ + ङीप्
तुद् + अ + अत् + ई
तुद् + अ + अ नुम् त् + ई
तुदन्ती हो गया।

- चुरादिगण
चुर् + णिच् + शप् + शतृ + ङीप्
चोरय् + अ + अत् + ई
चोरय् + अ + अ नुम् त् + ई
चोरयन्ती सिद्ध हुआ।

दूसरी बात यहा ध्यान देने योग्य है वो यह की इस सूत्र में “वा” की अनुवृति आती है अर्थात् नुमागम विकल्प से होगा।
इसका अर्थ ये हुआ की जब नुमागम होगा तब “गच्छन्ती, दीव्यन्ती, तुदन्ती, चोरयन्ती” ऐसे रूप बनेगे और जब नुमागम नहीं होगा तब “ गच्छती, दीव्यती, तुदती,
चोरयती” रूप बनेंगे।
लेकिन हमने "गच्छन्ती, दीव्यन्ती, चोरयन्ती” ऐसा ही सूना है, "गच्छती, दीव्यती, चोरयती" ऐसा तो नही सूना।
लेकिन सूत्र से तो यही अर्थ निकलता है की ये सब रूप विक्ल्प से हो शकते है फिर ऐसे रूप क्यों नही बन सकते ? जरुर कोई और सूत्र भी होगा जो इसका
निषेध कर रहा है। अगले लेख में देखेंगे।

आज हमने एक ही सूत्र किया।


क्रमशः.........

★व्याकरणलेख-28★
पिछले लेख में हम देख रहे थे की _आच्छीनद्योर्नुम्_ इस सूत्र से चार गणो में नुमागम विकल्प से होता है :- भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण, और चुरादिगण।

और इस सूत्र से गच्छती/गच्छन्ती, दीव्यती/दीव्यन्ती/, तुदती/तुदन्ती, चोरयती/चोरयन्ती ऐसे दो-दो रूप बनेंगे। इसमें से तुदती/तुदन्ती ऐसे रूप तो देखे है, लेकिन
"गच्छती, दीव्यती, चोरयती” ऐसे रूप तो नहीं सुने। इसका अर्थ है की इन तीनो गणो में विकल्प से नहीं अपितु नित्य नुमागम होगा। ये रहा पाणिनीय सूत्र :-

*97) शप्श्यनोर्नित्यम्। (७।१।८१)*


इस सूत्र में “आच्छीनद्योर्नुम् ” इस सूत्र की अनुवृति आकर सामान्य सुत्रार्थ हुआ _जिस गण में शप् और श्यन-विकरण-प्रत्यय हो उसके अकारान्त/आकारान्त अङ्ग
के उतर में शत्रान्त-शब्दों को नित्य ही नुमागम होता है यदि नदी-संज्ञक ईकारान्तवाची-स्त्रीलिंग शब्दों का प्रसङ्ग हो तो।_
इससे,

- भ्वादीगण :-
भू + शप् + शतृ+ ङीप्
भो + अ + अत् + ई
भव + अ + अ नुम् त् + ई
भवन्ती होगा।

- दिवादीगण :-
दिव् + श्यन् + शतृ+ ङीप्
दिव् + य + अत् + ई
दिव् + य + अ नुम् त् + ई
दीव्यन्ती हो गया।

- चुरादीगण :-
चुर् + णिच् + शप् + शतृ + ङीप्
चोरय् + अ + अत् + ई
चोरय् + अ + अ नु + त् + ई
चोरयन्ती सिद्ध हुआ।

अर्थात् भ्वादिगण और चुरादिगण में शप्-विकरण-प्रत्यय है इसलिए उसमे नुमागम नित्य होगा और दिव्यादिगण में श्यन-विकरण-प्रत्यय है इसलिए उसमे भी नुमागम
नित्य होगा, न की विकल्प से।
अर्थात् "गच्छती, दीव्यती, चोरयती" ऐसे रूप नहीं बनेंगे।

लेकिन सूत्र में तुदादीगण का उल्लेख नहीं है ( जिसमे श-विकरण-प्रत्यय है ) इसलिए उसमे जब नुमागम होगा तब 'तुदन्ती' ऐसा रूप बनेगा और जब नुमागम नहीं
होगा तब 'तुदती' ऐसा रूप बनेगा। अर्थात् तुदादिगण में दोनों प्रकार के रूप बनेगे।

यहा स्मरण में रखने योग्य अत्यावश्यक बात यह है कि भ्वादिगण, दिवादिगण और चुरादिगण में जो नुमागम हो रहा है वह उपरोक्त "शप्श्यनोर्नित्यम्" इस सूत्र से हो
रहा है, 'आच्छीनद्योर्नुम्' इस सूत्र से नही।

अब रही दुसरे 6 गणो की बात। जैसा की पहले हमने देखा था की “आच्छीनद्योर्नुम् " इस सूत्र में अकारान्त/आकारान्त-अङ्ग से ही नुमागम होने की शर्त रखी है,
और दशो गण में चार गण ही ऐसे है ( भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण, चुरादिगण) जिसमे विकरण-प्रत्यय अकारान्त है।

इसलिए उसमे अङ्ग भी अकारान्त ही बनता है। दूसरे गणो में विकरण-प्रत्यय प्रायश: अकारान्त नहीं है। इसलिए उसमे नुमागम होता ही नहीं है। तो उसमे 'कु र्वती'
इत्यादि रूप बनते है।

यहा 'प्रायश:' इसलिए लिखा है क्योकि कु छ गण में अकारान्त अङ्ग की संभावना है फिर भी दुसरे सूत्रों से उसमे नुमागम नहीं होता है। (अदादी गण की कु छ धातु को
छोड़ कर)। कै से? सूत्रों के साथ देखते है :-

==> दुसरा गण :- अदादिगण


इस गण में विकरण-प्रत्यय न होने के कारण आकारान्त धातु है उनमे नुमागम विकल्प से होता है :-
या + शप् + शतृ + ङीप्
या + 0 + शतृ + ङीप्
यहा शप्-प्रत्यय का लुक् हो जाने से 'या' ऐसा आकारान्त अङ्ग बन गया। इसलिए उसमे “ आच्छीनद्योर्नुम् ” इस सूत्र से नुमागम शक्य है, वो भी विकल्प से....
या + नुम् +शतृ + ई
या + न् + अत् + ई
यान्ती सिद्ध होगा।
और विकल्प में 'याती' ऐसा भी रूप बनेगा।
यान्ती यान्त्यौ यान्त्यः
याती यात्यौ यात्यः

बाकी की १३ आकारान्त-धातु इस प्रमाण है :-


वा भा ष्णा श्रा द्रा प्सा पा रा ला दा ख्या प्रा मा

अब तीसरे गण की और आगे बढे इससे पहले “अभ्यास” और "अभ्यस्त" किसको कहते है वह देख लेते है। उसके लिए दो सूत्र है :-

*98) पूर्वोऽभ्यासः। (६।१।४)*


जहा द्वित्व होता हो वहा जो पूर्व में हो अर्थात् पहले हो उसको अभ्यास बोलते है ( अभ्यास एक संज्ञा है, नामकरण है )।
जैसे ददाति। इसमें डु दाञ्-धातु है, जो जुहोत्यादी गण में है।
दा + शप् + तिप्
दा + 0 + तिप्
दा + दा + तिप्

यहा देख सकते है की दा-धातु को द्वित्व होकर "दा+दा" ऐसा बना। तो इसमें जो पहला "दा" है उसको 'अभ्यास' कहते है।

*99) उभेऽभ्यस्तम्। (६।१।५)*


"दा+दा" ये दोनों साथ में 'अभ्यस्त' कहलाते है।
==> तीसरा गण :- जुहोत्यादिगण
इस गण में भी शप् नही रहता है। इसलिए इस गण में जो आकारान्त-धातु है उससे भी नुमागम शक्य है। जैसे,
दा + शप् + शतृ + ङीप्
दा + 0 + अत् + ई
दा + दा + अत् + ई

यहा "दा+दा" ऐसा आकारान्त-अङ्ग है। लेकिन एक सूत्र के कारण जुहोत्यादिगण में नुमागम का निषेध किया गया है :-

*100) नाभ्यस्तच्छतुः। (७।१।७८)*


इस सूत्र का सामान्य अर्थ ये हुआ _जहा 'अभ्यस्त' हो वहा नदी-संज्ञक-शब्दों के प्रसङ्ग में शत्रान्त-शब्दों को नुमागम नहीं होता है।_
जैसा की हमने देखा "दा+दा" दोनों को साथ में 'अभ्यस्त' कहते है, तो ये 'अभ्यस्त' के वल जुहोत्यादिगण में ही होता है, अन्य किसी गण में नही।

इसलिए ददती ऐसा ही रूप बनेगा, न की ददन्ती।

आज हमने चार सूत्र किये।


क्रमशः.............

★व्याकरणलेख-29★

पिछले लेख में हमने तीन बाते देखी :-


1】अदन्त-अङ्ग जिसमे है उन चार गण ( भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण, चुरादिगण) में नुमागम की क्या प्रक्रिया है वह देखा।
2】अदादिगण में आकारान्त 14 धातु से नुमागम विकल्प से होता है यह भी देखा।
3】जुहोत्यादीगण में नुमागम का निषेध किस सूत्र से हुआ वह भी देखा।

आज आगे के गणो में नुमागम की क्या स्थिति है वह देखते है :-


अब चार गण बाकी रह गए। क्रमश देखते है :-

==> पञ्चम गण :- स्वादिगण


इस गण में विकरण्-प्रत्यय 'नु' है। इसलिए अङ्ग भी उकारान्त ही बनेगा। जब की हमने तो देखा था की “आच्छीनद्योर्नुम्” इस सूत्रे से तो अकारान्त/आकारान्त अङ्ग
से ही नुमागम होता है। लेकिन यहा तो उकारान्त अङ्ग बन रहा है। अर्थात् इस गण में भी नुमागम नहीं होगा।

==> सप्तम गण :- रुधाधिगण


इस गण में विकरण-प्रत्यय धातु के मध्य में होता है इसलिए इसमें भी अकारान्त/आकारान्त अङ्ग बनने की संभावना तो है ही। यदि ऐसा होता है तो नुमागम भी
शक्य है
लेकिन रुधाधिगण में सभी धातु हलन्त (व्यञ्जन जिसके अंत में है)ही है। इसलिए न तो अकारान्त/ आकारान्त अङ्ग बनेगा और न ही नुमागम होगा।

==> अष्टम गण :- तनादिगण


इस गण का विकार प्रत्यय 'उ' है। इसलिए इसमें भी जो अङ्ग बनेगा वो उकारान्त ही बनेगा, न की अकारान्त/आकारान्त। इसलिए इसमें भी नुमागम नहीं होगा। अर्थात्
कु र्वती कु र्वत्यौ कु र्वत्य: इस प्रकार रूप बनेंगे।
==> नवम गण :- क्र्यादिगण
इस गण का विकरण-प्रत्यय 'श्ना' है। अर्थात् आकारान्त। इसका अर्थ ये हुआ की जो अङ्ग बनेगा वो भी आकारान्त बनेगा। अर्थात् इसमें नुमागम हो शकता है।
लेकिन एक सूत्र है जिसके आकारान्त श्ना-विकरण-प्रत्यय में जो 'आ' है उसका लोप हो जाता है।

*101) श्नाऽभ्यस्तयोरातः। (६।४।११२)*


अर्थात् 'ना' में 'आ' का लोप होकर 'न्' एसा ही बचता है। अब चुकी 'न' तो हलन्त है, न की अकारान्त/ आकारान्त। इसलिए इस गण में भी नुमागम नही होगा।
क्रीणती क्रीणत्यौ क्रीणत्य: ऐसे रूप बनेंगे।

आज स्त्रीलिंगवाची शत्रान्त-शब्दों में नुमागम-व्यवस्था का प्रकरण पूरा हुआ। यदि फिर एक बार सक्षिप्त में देखे तो :-
>> भ्वादिगण, चुरादिगण और दिवादिगण में नुमागम नित्य होता है।
>> तुदादिगण में नुमागम विकल्प से होता है।
>> अदादिगण में १४ आकारान्त-धातुओ से नुमागम विकल्प से होता है।
>> बाकी के सभी गणो में नुमागम नहीं होता है।

आज हमने एक ही सूत्र किया।


क्रमश ....

★व्याकरणलेख-30★
हम बार बार सुनते है की संस्कृ त कं प्यूटर के लिए उत्तम भाषा है, लेकिन क्यों? उसका उत्तर है अष्टाध्यायी के सूत्र। ऐसी क्या विशेषता है इन सूत्रों में?

विशेषता यह है की ये सूत्र छोटे छोटे होते हुए भी बड़े बड़े अर्थ को सचोट तरीके से व्यक्त करते है। आज कु छ सूत्र देखेंगे। लेकिन पहले एक कल्पना खड़ी करते है
हमारे मनमे।

सोचो की श्रीराम सायंकाल में संध्या के समय पश्चिमदिशा की और मुखारविंद करके खड़े है। अब उसके पीछे लक्ष्मण और उसके पीछे भरत खड़े है। अर्थात तीनो के
चहेरे पश्चिम की और है और तीनो एकदूसरे के पीछे एक ही पंक्ति में खड़े है।
अब “ लक्ष्मण कहा है?” इस प्रश्न के उत्तर में क्या कहेंगे ? यही की “लक्ष्मण श्रीराम के पीछे खड़े है” या फिर “ लक्ष्मण भरत के आगे खड़े है”।
लेकिन यही प्रश्न यदि पाणिनि को पूछा जाय तो उनका उत्तर कै सा होगा? वह कहेंगे “ रामात् लक्ष्मण भरते “
विचित्र दिखने वाला ये जवाब वास्तवमे अष्टाध्यायी की ही शैली है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी को इसी तरह बनाया है। आइये देखते है इस विषय के सूत्र :-

*102) तस्मिन्निति निर्दिष्टे पूर्वस्य। (१।१।६६)*


यहा “तस्मिन्” यह सप्तमी विभक्ति है सुत्रका सामान्य अर्थ ये हुआ की _जहा सप्तमी विभक्ति हो वहा उसके पूर्व/आगे/परस्मिन् का निर्देश समजना चाहिए।_

यहा “ लक्ष्मण: भरते अस्ति “ इस वाक्य में लक्ष्मण: = प्रथामा विभक्ति


भरते = सप्तमी विभक्ति

अब उपरोक्त सूत्र के अनुसार जहाँ सप्तमी विभक्ति हो वहा उससे पूर्व/आगे/परस्मिन् का निर्देश होगा। अर्थात् यहा लक्ष्मण भरत के पूर्व/आगे है ऐसा समजना चाहिए।

उसी तरह “ राम: लक्ष्मणे अस्ति” ऐसा कहने पर “ राम लक्ष्मण के पूर्व/आगे है “ यह अर्थ निष्पन्न होगा।

लेकिन "लक्ष्मण राम के पीछे है" इस प्रश्न का उत्तर पाणिनि कै से देंगे? उनका उत्तर होगा “ लक्ष्मण: रामात् अस्ति “ कै से? आइये सूत्र देखते है :-

*103) तस्मादित्युत्तरस्य। (१।१।६७)*


सूत्र का सामान्य अर्थ यह हुआ की _जहा पञ्चमी-विभक्ति हो वहा उसके पीछे/पश्चात्/अनन्तरम्/उत्तर/पर का निर्देश होगा। अर्थात् यहा 'लक्ष्मण राम के
पीछे/पश्चात/अनन्तरम्/उत्तर/पर है' ऐसा समजना चाहिए।_

तो “ रामात् लक्ष्मण: भरते “ इस वाक्य का अर्थ होगा “ लक्ष्मण राम के पीछे और भरत के आगे है। "
उसी तरह वाक्य बना सकते है की :-
>> रामात् लक्ष्मणभरतौ स्त:।
>> लक्ष्मणात् भरत: अस्ति।
>> लक्ष्मण: भरते अस्ति।
>> राम: लक्ष्मणभारतयो: अस्ति।

अब सोचो की शत्रुघ्न भी आता है और वह लक्ष्मण के स्थान में आता है।


यहा पाणिनि शत्रुघ्न का स्थान कै से बतायेंगे? उनका उत्तर होगा “ शत्रुघ्न: लक्ष्मणस्य “
इस वाक्य का अर्थ क्या होगा ?
सूत्र देखते है :-

*104) षष्ठी स्थानेयोगा। (१।१।४९)*


सूत्रका सामान्य अर्थ होगा _जहा षष्ठी विभक्ति हो वहाँ उसके स्थान का निर्देश समझना चाहिए।_
अर्थात् यहा "लक्ष्मणस्य" इस षष्ठी-विभक्ति का अर्थ होगा "लक्ष्मण के स्थान में"।
" लक्ष्मणस्य शत्रुघ्न: " इस वाक्य का अर्थ होगा " लक्ष्मण के स्थान में शत्रुघ्न आता है "

जहाँ प्रथमा-विभक्ति हो वहाँ आदेश/आगम का निर्देश समझना चाहिए।

अब पीछे जो हमने सूत्र किया था _आच्छीनद्योर्नुम्_ उसको फिरसे विभक्ति के साथ देखते है। यहा "शतु:" की अनुवृत्ति भी आती है।

आत् = पञ्चमी = आत् के पीछे/उत्तर


शीनद्यो: = सप्तमी = नदी के आगे/पूर्व
नुम् = प्रथमा = आगम
शतु: = षष्ठी = शतु: के स्थान मे

अब इस स्थिति में साथ में एक उदाहरण भी देखके समझते है :-


पचन्ती = तुद्+ श+ शतृ + ङीप्
= तुद् + अ + अत् + ई
= तुद + अत् + ई
= तुद + अ नुम् त् + ई
तुदात् = पञ्चमी
ई = सप्तमी
शतु: = षष्ठी
नुम् = प्रथमा

अर्थ हुआ _तुद-अकारान्त-अङ्ग के पीछे/उत्तर, ई-नदी के पहले/पूर्व, शतु: के स्थान में, नुमागम होता है।_

यहा देख सकते है की, " तुद + शतृ + ङीप् " इस स्थिति में 'शतृ' का स्थान लक्ष्मण की ही तरह है। अर्थात् " शतृ तुदात् ङिपि "।
अब शतृ के स्थान में नुमागम होता है इसलिए शतृ की षष्ठी-विभक्ति 'शतु:' ऐसा दर्शाया है।

यहा जो नुम् है वह 'आगम' है, अर्थात् उसके लक्षण मित्रवत् होंगे। इसलिए शतृ के साथ में रहेगा।
यदि नुम् 'आदेश' होता तो लक्षण शत्रुवत् होकर पुरे शतृ को हटाकर उसके स्थान में होता। " तुद + नुम् + ङिप् " इस तरह।

तो आज हमने देखा की अष्टाध्यायी में विभक्ति के अर्थ किस प्रकार होते है।

आज हमने तीन सूत्र किये।

【इस लेखमाला को यही समाप्त करते है। अगले 50 सूत्रों की लेखमाला कु छ समय के बाद फिरसे प्रस्तुत करेंगे। किसीको यदि 1 से 104 तक के सूत्रों की pdf
चाहिए तो मेरे व्यक्तिगत नम्बर में अपना नाम और ईमेल भेज शकते है।】

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