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★व्याकरणलेख-1 to 104★
★व्याकरणलेख-1 to 104★
लकार-सिद्धिः।
मित्रों!
संस्कृ त हमारी सम्पत्ति है। उसका रक्षण हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा? आज १५ अगस्त है। हम आजाद हैं। जब गुलाम थे, तब तो कु छ नहीं कर सकते थे। लेकिन
आजाद होने के बाद भी हमने क्या कर लिया संस्कृ त और संस्कृ ति के लिए?
आज संकल्प लेते हैं कि अगले पन्द्रह दिनमे कम से कम ५० पाणिनीय सूत्र पढेंगे। अर्थात् रोज का सिर्फ तीन सूत्र पढ़ना है हमें।
उसके लिए हम किसी शब्द कि सिद्धि से शुरुआत करेंगे। जिससे दो फायदे होंगे, शब्दसिद्धि होगी और सूत्र का उपयोग कै से हुआ, यह भी पता चलेगा।
तो यहाँ जो तीन भाग दिखाये उनको एक-एक कर के देखते हैं। और यहां प्रयुक्त सूत्रों का भी मनन करते हैं।
★व्याकरणलेख-2★
अब पांच छोटे सूत्र कर लेते है जो लिखति की सिद्धि-अन्तर्गत ही है।
लिख् + शप् + तिप् इसमे-
लिख् धातु है
शप् विकरण-प्रत्यय है
तिप् तिङ् -प्रत्यय है
अर्थात् एक धातु और दो प्रत्यय।
लेकिन लिख् की धातुसंज्ञा कै से हुई? इस सूत्र से,
★व्याकरणलेख-3★
अभी तक 8 सूत्र किये।
हम लिखति कि सिद्धि कर रहे थे।
लिखँ+ शप् + तिप्
लिख् + अ + ति
लिखँ का लिख् कै से हुआ यह हमने देखा।
शप् उपदेश-अवस्थामे भी है
शप् प्रत्यय भी है
शप् मे शकार आदि-पहले भी है
तिनो शरते पुरी हुई, अतः शप् के शकार कि इत्-संज्ञा हो गई। फिर " तस्य लोपः " सूत्र से उसका लोप हो ही जायेगा। अडवाणी का पत्ता कट ही जायेगा।
आज दो सूत्र हो गये।
क्रमशः.....
★व्याकरणलेख-4★
इससे पहले लिखँ का लिख् / शप् का अ / तिप् का ति कै से हुआ वो देखा। वैसे तो लिखति सिद्ध हो ही गया ऐसा लगता है। लेकिन इससे भी अधिक सूत्र लगते है।
कौन से?
लिख् + शप् + तिप्
यहा जो तिप् है वो सीधा हि वहा नही आया। पहले तो वहा " लट् " था। उसका ही " तिप् " हुआ? कै से? आगे देखते है....
रामः लिखति। इस वाक्यका अर्थ होता है, _राम लिखता है_ अर्थात् यह वर्तमानकाल कि बात हो रही है। संस्कृ त मे अलग-अलग काल मे भिन्न-भिन्न प्रत्यय होते
है। वर्तमानकालमे कौनसा प्रत्यय होता है? उसके लिये स्वतन्त्र सूत्र ही है...
*11) वर्तमाने लट् । (३।२।१२३)*
अर्थात् कोइ क्रिया को वर्तमानमे दिखानी हो तो लट् प्रत्यय होता है।
यदि लिख् धातु का वर्तमानकालका रुप बनाना हो तो लट् प्रत्यय होगा।
लिख् + लँट्
अब यहा टकार हल् [ व्यंजन ] भी है, अन्तमे भी। तो _हलन्त्यम्_ सूत्रसे उसकी इतसंज्ञा और _तस्य लोपः_ सूत्रसे लोप भी हो गया। शेष क्या रहा?
लँ। अर्थात् ल् + अँ
यहा जो अँ है वो अच् [ स्वर ] भी है, अनुनासिक भी। तो _उपदेशेऽजनुनासिक इत्_ सूत्र से इतसंज्ञा और _तस्य लोपः_ से लोप भी हो गया। अब क्या बचा
शेष? ल्।
लेकिन हमे तो तिप् तक पहुचना है। यहा तो ल् है। अर्थात् मंजिल अभी दूर है.....
एक और सूत्र देखते है....
*12) लस्य। (३।४।७७)*
अर्थात् " ल् के स्थानमें "ऐसा अर्थ होगा। लेकिन ल् के स्थानमे क्या? एक और सूत्र देखते है...
*13) तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्ताताञ्झथासाथाम्ध्वमिड्वहिमहिङ् । (३।४।७८)*
इतने बडे सुत्र से डरने की जरुरत नही है क्योकि उसका उपयोग हम संस्कृ तमे रोज करते है। ये कु ल 18 प्रत्ययोका समूह है जो एक ही सूत्रमे लिखे है। अर्थात् ल् के
स्थान मे ये 18 प्रत्यय होते है। उनमेसे जो पहले 9 प्रत्यय है वे परस्मैपद के लिये और बाकीके 9 आत्मनेपदके लिये. सुविधा के लिये प्रथम/मध्यम/उत्तमपुरुष और
एक/द्वि/बहुवचन के रूपमे लिखते है....
परस्मैपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम तिप् तस् झि
मध्यम सिप् थस् थ
उत्तम मिप् वस् मस्
आत्मनेपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम त आताम् झ
मध्यम थास् आथाम् ध्वम्
उत्तम इट् वहि महिङ्
अर्थात् पहले तो सबको परस्मैपदसंज्ञक कह दिया, बादमे पीछेवाले 9 को आत्मनेपदसंज्ञक कह दिया। तो पहलेवाले 9 तो परस्मैपदसंज्ञक हि रहेंगे।
★व्याकरणलेख-5★
हम लिखति कि सिद्धि कर रहे थे। हमे ल् के स्थान मे तिप् लाना है। पीछले लेख मे देखा कि ल् के स्थान मे 18 प्रत्यय होते है। उनके भाग कर दिये नौ नौ के । और
परस्मैपद और आत्मनेपद संज्ञा करदी।
लेकिन फिर उनके प्रथमपुरुष / मध्यमपुरुष / उत्तमपुतरुष और एकवचन / द्विवचन / बहुवचन ऐसे जो विभाग हमने पीछे किये वे बिना सुत्र के कै से हो गये? नहि…
उनके लिये ये दो सूत्र है..
अब प्रथमादि संज्ञा तो हो गई लेकिन ये कै से तय करे कि अस्मद्(मेरी)-युष्मद्(आपकी)-तत्(उसकी)कौनसी संज्ञा होगी? अंग्रेजी भाषा मे तो प्रथमपुरुष कि अस्मद्
( जो बोल रहा है वह स्वयं )संज्ञा होती है। संस्कृ त मे क्या होता है? तो उनके लिये तिन सूत्र है….
*18) अस्मद्युत्तमः। (१।४।१०७)*
अस्मद् अर्थात् मे। इस सूत्र से अस्मद् के स्थानमे उत्तमपुरुष के प्रत्यय होते है। यानेकि मिप्-वस्-मस्।
अब हम _रामः लिखति_ कि सिद्धि कर रहे थे। रामः क्या है? अस्मद् भी नही, युष्मद् भी नही। अर्थात् शेष है। शेष मे कौन से प्रत्यय होते है? तिप्-तस्-झि।
लेकिन् यहा राम के लिये इन तिनो मे से कौनसा प्रत्यय लगेगा? इसके लिये दो सूत्र है…
यहा कितने राम कि बात हो रही है? एक राम की। तो एकवचनका जो प्रत्यय है, अर्थात् तिप्, वह होगा, क्योकि तिप् कि एकवचनसंज्ञा हमने पूर्व हि करदी है।
अर्थात् रामः लिख् + शप् + तिप् ऐसा होगा। जिसके लिये हम कब से प्रयन कर रहे थे वो ल् के स्थान मे तिप् हो गया।
एकबार संक्षेपमे फीरसे देखले…
लिखँ+ लँट्
लिख् + ल्
लिख् + तिप्तस्झि……
लिख् + तिप्
लिख् + शप् + तिप्
लिख् + अ + ति
लिखति यह सिद्ध हो गया.
आज हमने 6 सूत्र किये..
आगे क्या देखेंगे?
यहा लिख् + शप् + तिप् मे श-विकरण प्रत्यय होता है, फिर शप् क्यो लिखा?
क्रमशः…….
आज 6 सूत्र किये.
_(यहा सूत्र 18 और 19 थोडे बडे है लेकिन लिखति कि सिद्धि के लिये आवश्यक था उतना तो दे दिया है)_
★व्याकरणलेख-6★
हमने लिखति कि सिद्धि कि। लेकिन लिख् तो तुदादि गण कि धातु है, फिर वहा शप्-विकरण प्रत्यय क्यो?
पहले ये जानले कि संस्कृ तमें जो धातु है उनको 10 गण मे बांटा गया है और सभी गण का एक एक विकरण प्रत्यय भी निश्चित किया गया है। जैसे, भ्वादिगण और
चुरादिगण मे शप् प्रत्यय है, दिवादिगण का श्यन् है इत्यादि।
यहा लिख् धातु तो तुदादिगणमे है जिसका विकरण-प्रत्यय तो श है, फिर हमने लिखति कि सिद्धि करते समय शप् क्यो लिखा? उसके लिये सूत्र है......
*23) तुदादिभ्यः शः। (३।१।७७)*
अर्थात् लिख् + तिप् इस स्थिति मे _कर्तरि शप्_ इस सूत्र से शप् हि होता है लेकिन उपरोक्त सूत्र से वहा श-प्रत्यय आ जाता है क्योकि _तुदादिभ्यः शः_ ये
सुत्र _कर्तरि शप्_ सूत्रका अपवाद है। पाणिनियव्याकरण मे अपवादसूत्र सबसे बलवान होता है, इसलिये वहि सूत्र का राज चलता है और वहि सूत्र सिंहासन पर बेठ
जाता है।
लिख् + तिप् इस स्थिति मे _कर्तरि शप्_ और _तुदादिभ्यः शः_ ये दोनो सूत्रो के बिच जब संघर्ष होता है तो अपवादसूत्र बलवान होने के कारण वहि जितता है,
अर्थात् _तुदादिभ्यः शः_ इस सूत्र कि जित होती है। अर्थात्
अब पचति ( पकाता है ) मे कौनसी धातु है? उत्तरः पच्। पाणिनिजी ने तो उपदेश-अवस्थामे जो धातु लिखि वह तो _डु पचँष्_ है। इसका पच् कै से हो गया?
लेकिन आगे जो डु है उसको कै से हटाये? पीछे जो हमने एक सूत्र देखा था _लशक्वतद्धिते_ वह भी यहा काम नहि करेगा क्योकि ल/श/कवर्ग इन तिनो मे डु नहि
आता। फिर उसको कै से हटाये? एक और सूत्र देखे जो डु कि इत् संज्ञा करता है.....
तस् प्रत्यय विभक्ति-अन्तर्गत भी है, अन्त्य-हल् स् भी है। तो उपरोक्त सूत्र से उसकि इत् संज्ञा नही होती और उसका लोप भी नहि होता। तस् ऐसा ही शेष रहता है।
★व्याकरणलेख-7★
अब तक हमने लिखत: की सिद्धि की। और 22 सूत्र किये। हमे कमसे कम 50 सूत्र करने है। आज लिखन्ति इसकी सिद्धि करते है।
लिख् + श + झि
अब हमे ये ज्ञात है कि शप् की जगह श आ जाता है तो आगे शप् न लिखकर श ही लिखेंगे।
हम देख सकते है कि लिखन्ति में पीछे न्ति है। जबकि सुत्ररूप में तो लिख् + श + झि है। अर्थात झि का ही आगे न्ति होनेवाला है।
झि = झ् + इ
इस स्थिति में एक सूत्र देखे,
यहा एक और प्रश्न होगा की उपरोक्त स्थिति में तो " लिखाति " ऐसा बन रहा है। न की लिखति।
अर्थात् पीछे जो (अ + अन्ति ) है उसमें से कोई एक अ ही बचता है। कौन से सूत्र से ?
अब लिखसि को देखे।
लिख् + श + सिप्
यहा कोई अलग सूत्र की जरूरत नही है क्योंकि पीछे जो सूत्र किये उनकी सहायता से ही सिद्ध हो जाएगा।
» श का _लशक्वतद्धिते_ से इत् और _तस्य लोपः_ से लोपः होकर अ शेष रहा।
» सिप् मे _हलन्त्यम्_ सूत्रसे इत् और _तस्य लोपः_ से लोप होकर सि बचा।
लिख् + अ + सि
लिखसि सिद्ध हो गया।
उसि तरह
लिख् + श + थ » लिखथ
अब यहा तो लिखमि हो रहा है, लिखामि ऐसा नही। अर्थात् बिचमें अ के स्थानमें आकार हो रहा है। किस सूत्र से ?
हमने आज 3 सूत्र किये। यहा हमने लिखथः की सिद्धि को क्यो छोड दी ? क्योकि उसमे अधिक दो सूत्र लगते है। इसलिये आगे के लेख मे उसकी सिद्धि करेंगे।
उसकी सहायता से ही लिखावः / लिखामः सिद्ध हो जायेगा।
क्रमशः......
★व्याकरणलेख-8★
आज हमें लिखथ: /लिखाव: /लिखाम: की सिद्धि करना है।
लिखथ: = लिख् + श + थस्
थस् में जो स् है वो हल् ( व्यंजन ) भी है और अन्तमे भी है। तो फिर _हलन्त्यम्_ सूत्र से इत्-संज्ञा होकर _तस्य लोपः_ सूत्र से स् का लोप होना चाहिए। क्यों
नही हुआ? इसका कारण पीछे के लेख में देख ही आये है कि _न विभक्तौ तुस्मा:_ सूत्र से इसका निषेध हो जाता है।
अर्थात् थस् ही रहेगा।
लिखथ: = लिख् + अ + थस्
यहा देख सकते है कि थस् के स्थान में थ: हो रहा है। या कहे की स् के स्थान में विसर्ग हो रहा है। कै से? दो सूत्र से......
★व्याकरणलेख-9★
अब तक हमने लिख् धातु के वर्तमानकाल के रूप किये। वैसे तो लिख-धातुके सभी काल के रूप कर सकते है लेकिन पहले ये जो वर्तमानादि काल है वो संस्कृ त में
कितने है और क्या उनके लिए भी पाणिनिमुनि ने सूत्र बनाये है? उत्तर है हां. 10 काल होते है संस्कृ त में। जैसे की, लट् लिट् लुट् लृट् लेट् लोट् लङ् लिङ्
लुङ् लृङ् .
यहा देखे तो सभी की शुरुआत ल से होती है। उसलिए उनको " लकार " ऐसा भी कहते है।
दूसरी बात यदि ध्यान में आयी हो तो वह ये की यहा उस ल् को " अ इ उ ऋ ए ओ " इन स्वरों के साथ ही जोड़ा गया है। इससे उनको याद रखने में भी सुलभता
होगी। जैसे,
ल् + अ » ल
ल् + इ » लि
ल् + उ » लु
ल् + ऋ » लृ
ल् + ए » ले
ल् + ओ » लो
यहा जो लेट् -लकार है वह सिर्फ वेदों में होता है। और जो लिङ् -लकार है उसके दो प्रकार है : विधिलिङ् और आशिर्लिङ् । अर्थात् लेट् -लकार की लौकिक
व्याकरण में गणना न करे तो भी लकारे तो 10 ही रहेंगे।
लट् लिट् लुट् लृट् लोट्
लङ् विधिलिङ् आशिर्लिङ् लृङ् लुङ्
★व्याकरणलेख-10★
कल वर्तमान और भूतकाल के सूत्र देखे। आज भविष्यकाल के सूत्रों को देखते है। संस्कृ त में भविष्यके लिए दो लकार है।
अब
अ) राम जीवनभर व्याकरण पढ़ेगा।
ब) अगले रविवार में गाँव जाऊँ गा।
इन दोनों वाक्यो को देखिये। दोनों क्रिया आज के भविष्य की नही है , तो इसमें सामान्य भविष्य ( लृट् ) न होकर लुट् ही होना चाहिए । सही न? लेकिन ऐसा नहीं
है। तो फिर कौनसा लकार होगा? उसके लिये ये सूत्र देखले....
" राम जीवनभर व्याकरण पढ़ेगा। " यह वाक्यमे पढ़ने की क्रिया सतत होगी। तो उसमें ' पठिता '
ऐसा न होकर " रामः यावत् जीवं व्याकरणम् पठिष्यति " ऐसे सामान्य भविष्य ही होगा।
ये सूत्र भूत और भविष्य दोनों के लिए है तो भूतकाल का उदाहरण देखले।
" राम जब तक जिया तबतक व्याकरण पढता रहा। "
ये क्रिया वैसे तो आज के भूतकाल की नही है इसलिए अपठत् ऐसा ही होना चाहिए लेकिन यहां क्रिया की सातत्यता है इसलिए सामान्य भूतकाल ( लुङ् ) ही
होगा।
" यावत् जीवं रामः व्याकरणम् अपाठीत्। "
क्रमशः......
★व्याकरणलेख-11★
आज हम लिङ् और लोट् लकार के सूत्र करेंगे।
★व्याकरणलेख-12★
कल हमने विधिलिङ् और लोट् -लकार देखे।
आज आशिर्लिङ् देखते है।
एक दूसरा सूत्र देखे जिसके बारे में हम जानते ही है , उपयोग भी करते है लेकिन सूत्र पता नही है।
★व्याकरणलेख-13★
आज हम लृङ् -लकार करेंगे। " यदि राम पढ़ेगा/पढता तो वो विद्वान् बनेगा/बनता " - ऐसी वाक्य-रचना से हम सुपरिचित है ही। यह लृङ् -लकार है। लेकिन उसको
समझने की लिए पहले एक और सूत्र देखना पड़ेगा।
तो सूत्रार्थ हुआ, _हेतु और हेतुमान् निमित्त हो तो वहां लिङ् -लकार होता है_
यदि रामः पठेत् तर्हि सः
विद्वान् भवेत्।
यह सूत्र समझने के बाद अब यदि हम लृङ् -लकार देखे तो समझनमें में सरलता होगी।
अब उपरोक्त वाक्य में " पढ़ेगा तो विद्वान् बनेगा " ऐसा कारण-कार्य सम्बन्ध है। तो इसमें क्रिया-अतिपत्ति कै से होगी? जब हमें पता चले की राम पढ़नेवाला है ही
नही, इसलिए वो विद्वान् बनेगा ही नही। अर्थात् " न पढ़ने के कारण विद्वान् न बनना ही क्रिया की असिद्धि ( क्रिया-अतिपत्ति ) " है। तो इस क्रिया-असिद्धि में लृङ् -
लकार होगा।
यदि रामः अपठिष्यत् तर्हि विद्वान् अभविष्यत् = यदि राम पढेगा तो विद्वान् बनेगा ( वो पढेगा ही नही, इसलिए विद्वान् बनेगा ही नही यह भावार्थ )
लेकिन,
राम ने पढा ही नही इसलिए विद्वान् न बन पाया। इस प्रकार का भूतकाल-वाक्य हो तो? उसके लिए अगला सूत्र है।
सूत्र-42 में भविष्य में होनेवाली क्रिया-अतिपत्ति में ही लृङ् -लकार था, इस सूत्रसे भूतकाल में भी कह दिया।
यदि रामः अपठिष्यत् तर्हि सः विद्वान् अभविष्यत् = यदि राम पढता तो विद्वान् बनता = राम पढा नही इसलिए विद्वान् न बन सका।
हम देख सकते है कि भूत और वर्तमान दोनों में वाक्यरचना तो समान ही है, अपठिष्यत्-अभविष्यत्। इसलिए सन्दर्भ-अनुसार वाक्य का अर्थ समझना चाहिए।
★व्याकरणलेख-14★
कल हमने लकार किये। आज कु छ विशेष सूत्र करते है।
सः च यः = यौ
यः च कः = कौ
★व्याकरणलेख-15★
आज के लेख में कु छ संज्ञा-सूत्र करते है। संज्ञा अर्थात् क्या? तो व्यवहार में पुत्रजन्म के बाद उसका नामकरण करते है जिससे की उसके साथ जीवनपर्यन्त व्यवहार
किया जाए। यदि नामकरण ही किसीका न किया जाय तो सोचिये कितनी समस्या आयेगी!!!!! उसके साथ व्यवहार ही नही कर सकते।
व्याकरण में भी नामकरण-विधि पहले अध्याय में ही की जाती है जिससे बाकीके अध्याय तक अच्छा व्यवहार किया जा सके । नामकरण-विधि को ही संज्ञा कहते है।
गजेन्द्र-शब्दमे देखे तो "ग् और ज्" ये दो व्यंजन के मध्यमे "अ" स्वर आ गया। जिसको व्यवधान कहते है। इस व्यवधान से "ग् ज्" इन दोनों व्यंजनो के बीच
अन्तर(distance) हो गया।
लेकिन "न् द् र्" इन तीनो व्यंजन के मध्य में कोई भी स्वर नही है। अर्थात् व्यवधान नही है। जिससे तीनो के बीच कोई अन्तर(distance) नही रहा (न अन्तर
= अनन्तर)।
तो इन तीनो की "संयोग" संज्ञा(नामकरण) हुई।
जबभी "संयोग" ऐसा कहा जाए तो ये समझना की व्यंजनो के बीच कोई स्वर का व्यवधान नही है।
राष्ट्र = र् आ ष् ट् र् अ
यहा "ष् ट् र्" की संयोग-संज्ञा होगी।
वैसे ही,
पचति = पच् + शप् + तिप्
पचति = पच + तिप्
यहा पच-शब्द धातु है। तिप्-शब्द तिङ् -प्रत्यय है।
अर्थात् पचति-शब्द तिङन्त है क्योंकि तिङ् -प्रत्यय पच-धातु के अन्तमे है। तो उपरोक्त सूत्र से "पचति" की पद संज्ञा हुई।
अर्थात्,
राम-शब्द के जो " राम: रामौ रामा:" इत्यादि 21 रूप बनते है उन सबकी पद-संज्ञा होगी।
पच्-धातु के 10 लकार के जो "पचति/पचते, पक्ष्यति/पक्ष्यते, अपचत्/अपचत, पचतु/पचताम्, पचेत्/पचेत" इत्यादि रूप बनेंगे उन सबकी पद-संज्ञा होगी।
परस्मैपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम तिप् तस् झि
मध्यम सिप् थस् थ
उत्तम मिप् वस् मस्
आत्मनेपदके 9 प्रत्यय
एक द्वि बहु
प्रथम त आताम् झ
मध्यम थास् आथाम् ध्वम्
उत्तम इट् वहि महिङ्
शप् एक प्रत्यय है, जिसका उपयोग के समय सिर्फ "अ" बचता है।
रसोई बनाते समय सब्जी को ऐसे ही नही पकाते। पहले त्वचा को छीलते-काटते है। फिर उपयोग में लेते है। वैसे ही, शप्-प्रत्यय को उपयोग में लेने से पहले आगे-
पीछे छीलते-काटते है। अर्थात् शप् में आगे-स्थित श् की और पीछे-स्थित प् की इत्-संज्ञा करके " तस्य लोपः " सूत्र से लोप कर देते है, और सिर्फ "अ" शेष
रहता है।
तो शप्-प्रत्यय शित् ( श् यस्य इत् अस्ति सः ) हुआ।
शतृ, शानच्, शस्, श्यन्, श्ना, श्नम् इत्यादि शित् है क्योंकि सभीके श् की इत्-संज्ञा होती है।
इसलिए उपरोक्त सूत्र से शित्-शब्दो की "सार्वधातुक" संज्ञा होती है।
यहा "शेष:" अर्थात् तिङ् -शित् दोनों से जो शेष रह गए उन सभीकी "आर्धधातुक" संज्ञा होगी।
अर्थात्,
क्त, क्तवतु, तव्य, तव्यत्, अनीयर्, ण्वुल्, तृच्, ल्युट् , इत्यादि की आर्धधातुक संज्ञा होगी।
मित्रो! जैसा की हमने 50 सूत्र करने के लिए यह लेखमाला शुरू की थी। वह पूर्ण हुआ। अत: यह लेखमाला पूर्ण करते है। कु छ विराम के बाद अगले 50 सूत्रों के
लिए फिर लेखमाला शुरू करेंगे। तब तक इन सूत्रों को याद रखने का प्रयत्न जरूर कीजियेगा।
【 किसीको इस लेखमाला-अन्तर्गत सभी सूत्रोंकी pdf file चाहिए तो मेरे व्यक्तिगत नम्बर पे अपना Email-ID भेज सकते है। 】
★व्याकरणलेख-16★
मित्रो!
इससे पहले की लेखमाला में हमने 55 सूत्र किये थे। इस दूसरी लेखमाला में हम वहाँ से आगे बढ़ते है।
English भाषा में better और best ये दो शब्द सबने सुने ही है। ये तुलना करने के अर्थ में उपयोग किये जाते है। जैसे,
Ram is better than Shyam.
राम श्याम से अच्छा है।
Ram is the best among the class.
राम पुरे वर्ग से अच्छा है।
तो संस्कृ त में क्या व्यवस्था है वह देखते है।
लेकिन यदि सिर्फ दो पात्रो की तुलना करना हो तो? उसके लिए यह सूत्र है,
*60) द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ। (५।३।५७)*
द्विवचन और विभज्य इन दोनों से तरप् और ईयसुन् ये दो प्रत्यय होते है।
A)द्विवचन :-
राम और कु ष्ण में राम अधिक धनवान है।
आढ्य + तरप् = आढ्यतरः
आढ्य + ईयसुन् = आढ्यीयान्
B)विभज्य :-
अर्थात् दो समूह में तुलना हो रही हो तब भी ये दो प्रत्यय होते है।
यहा आढ्य पटु बल लघु गुरु, ये सभी गुणवाची शब्द है। सारांश यह हुआ की इन गुणवाची शब्दो से चार प्रत्यय होते है :-
1) तरप् 2) तमप् 3) इष्ठन् 4) ईयसुन्।
लेकिन हमने " श्रीकृ ष्ण विजयतेतराम् " ऐसे शब्द सुने ही होंगे। वैसे शब्द कै से बनते है?
विजयतेतराम् = विजयते + तरप्
विजयतेतमाम् = विजयते + तमप्
यहा हम देख सकते है कि उपरके शब्दो में भी " पटुतर:/पटुतम: " की तरह ही "तरप्/तमप्" प्रत्यय हो रहे है।
लेकिन "पटुतर: और विजयतेतराम्" इन दोनों में जो भिन्न बात है वो यह की "पटु"शब्द गुणवाची है, जबकि "विजयते" तो तिङन्त(धातु+तिङ् )-शब्द है जो
क्रियावाची है।
उपरके दो सूत्र से तो तिङन्त से ये प्रत्यय नही हो सकते। इसके लिए पाणिनिजी ने अलग सूत्र ही बना दिया, वह है,
यहा "तरप् और तमप्" ये दो प्रत्ययो की प्रक्रिया तो दिखाई , लेकिन बाकीके दो प्रत्यय ( इष्ठन् और ईयसुन् ) से कै से शब्द बनते है? उसके लिए अगला सूत्र है,
B) तिङन्त से :-
यदि कोई अच्छी रसोई करता हो तो हम कहेंगे, " सः सम्यक् पचति। "
इस सूत्रसे इस तरह भी कह सकते है,
" सः पचतिरूपम्। "
वह प्रशंसा की जाय इतना अच्छा पकाता है।
यहा "पचतिरूपम्" ऐसा नपुंसकलिंग ही रहेगा और इसके इस तरह रूप बनेंगे,
पचतिरूपम् पचतोरूपम् पचन्तिरूपम्।
राम: लिखतिरूपम्।
कृ ष्ण: नृत्यतिरूपम्।
व्यवहारमें हम किसी के विषय में बात करते समय उसको उपमा देते है। जैसे,
ये ऋत्विक की तरह dance करता है।
उपमा देने में थोड़ी न्यूनता तो रहती ही है। उपमेय पूर्ण रूपसे उपमान जैसा नही हो सकता। अर्थात् यहा वो ऋत्विक की अपेक्षा थोड़ा ही कम अच्छा नाचता है। इस
तरह की वाक्यरचना के लिए संस्कृ त में कु छ विशिष्ट शब्दप्रयोग किये जा सकते है। जैसे,
B) तिङन्त से :-
वह थोड़ा सा ही कम अच्छा पकाता है।
" सः पचतिकल्पम्। "
" सः पचतिदेश्यम्। "
" सः पचतिदेशीयम्। "
यहा भी नपुसंकलिङ्ग ही होता है। और रूप इस तरह बनते है,
पचतिकल्पम् पचत:कल्पम् पचन्तिकल्पम्।
पचतिदेश्यम् पचतोदेश्यम् पचन्तिदेश्यम्।
पचतिदेशीयम् पचतोदेशीयम् पचन्तिदेशीयम्।
अब इसी अर्थमें (ईषद-असमाप्ति अर्थमें) के वल सुबन्त से ही एक और ( बहुच् नामका ) प्रत्यय होता है,
★व्याकरणलेख-18★
"कितने लोग थे?"
" इतने सारे लोग थे"
" जितने लोग थे उतने ही घर थे"
उदाहराणानि :-
- यावन्त: जना: भारते तावन्त: सर्वे संस्कृ तम् जानियु: इति अस्माकम् प्रयत्नम् भवेत्।
- यावती: नद्य: अशुद्धा: राष्ट्रे तावती: सर्वा: शुद्धा: करणीया:।
- यावत् धनम् दरिद्र: मासान्तरे अर्जति तावत् तु आढ्यैः एकस्मिन् दिने व्ययीक्रियते।
उदाहरणानि :-
- कियन्त: ब्राह्मणा: आगमिष्यन्ति?
- इयन्त: ब्राह्मणा: आयान्ति।
- कियत्य: ब्राह्मण्यः सन्ति?
- इयत्य: सन्ति।
- कियत् धनम् दीयते?
- इयत् धनम् दास्यामि।
*70) किमः सङ्ख्यापरिमाणे डति च। (५।२।४१)*
यदि संख्या का परिमाण विवक्षित हो तो किम्-शब्द से डति(अति)-प्रत्यय भी होता है जो तीनों लिङ्गो में समान ही होगा और नित्य-बहुवचन में होगा। और पक्ष में
पिछले सूत्र से वतुप् भी होगा जिसके 'व' को 'घ' और 'घ' को 'इय' आदेश होगा।
★व्याकरणलेख-19★
" क्लै ब्यम् मा स्म गम: " = नपुंसकता की और मत जाओ। -भगवद्गीता
ये वाक्य हमने सूना ही है जिसमे "मा" शब्द निषेध-करने अर्थमें उपयुक्त हुआ है। लेकिन प्रश्न ये की 'गमः' ये कौनसा रूप है? वास्तवमे वहा 'अगमः' ऐसा ( लुङ् -
लकार का मध्यम पुरुष-एकवचन का) रूप है जिसमे 'मा'शब्द उपपद में होने के कारण 'अ' हट गया है। तो ये 'अ' किस सूत्रसे आता है, कब जाता है, इस पर सूत्र-
सहित विचार आज करेंगे।
पहले देखते है कि 'अ ' कौनसे सूत्र से कहा कहा आता है।
यहा देख सकते है तीनो लकारो में 'अ ' आता है।
★व्याकरणलेख-20★
" गुणवान् "
" शक्तिमान् "
ये दो शब्दों का अर्थ है, " गुणवाला और शक्तिवाला "। अर्थात् कोई व्यक्ति है जिसमे गुण है या शक्ति है। यदि अर्थ समान ही है तो फिर गुण-शब्द से 'वान्' और
शक्ति-शब्द से 'मान्' क्यों? कहा 'वान्' और कहा 'मान्' लगाये? उसके लिए कु छ सूत्र है अष्टाध्यायी में। आज वो देखेंगे।
अब हम देख सकते है कि 'शक्ति'-शब्द ना तो अकार/मकार उपधावाला है, नाही अकारान्त/मकारान्त है। इसलिए उसमे 'मान्' ही रहा। शक्तिमान् = शक्तिवाला
वायुमान् = वायुवाला
अब 'अग्निचित्' शब्द में क्या होगा? वैसे तो उसमें भी 'मान्' ही होना चाहिए। लेकिन एक और सूत्र है जिससे उसमे 'वान्' होता है।
क् ख् ग् घ्
च् छ् ज् झ्
ट् ठ् ड् ढ्
त् थ् द् ध्
प् फ् ब् भ्
ये सभी वर्ण जिसके पीछे हो उन सभी वर्णो से 'वान्' होता है। जैसे,
अग्निचित् = अग्निचित्वान् -अग्नि-आधान
करनेवाला
दृशद् = दृशद्वान् - पत्थरवाला
विद्युत् = विद्युत्वान् - विद्युतवाला
★व्याकरणलेख-21★
" पहले मेरा चहेरा साँवला था। जबसे fair & lovely लगाना शुरू किया, मेरा चहेरा एकदम गौरा हो गया "। इस तरह की add न चाहते भी रोज देखते है।
इसको व्याकरण के साथ जोड़े तो यहां दो घटनाएं होती है।
> चहेरे का श्याम होना ( अर्थात् गोरा न होना)।
> बादमे चहेरा गोरा हो जाता है।
अर्थात् जो पहले नही था, वो हो जाता है। इस तरह के व्याक्य-भाव संस्कृ त में प्रकट करने के लिए 'च्वि' का प्रयोग होता है। सूत्र देखे...
*>*धवलीकरोति इस शब्द में धवल+कृ धातु है। लेकिन उक्त सूत्र से तीन धातु का उपयोग कर सकते है :-
- धवलीकरोति (धवल करता है)
- धवलीभवति (धवल होता है)
- धवलीस्यात् (धवल हो)
*>* भूतकाल के प्रयोग में आगे 'अ' आता है। जैसे, अकरोत्, अभवत्, जिससे च्वि-रूप में थोड़ी बाधा ना आये इसलिए भूतकाल में क्त-क्तवतु का प्रयोग कर
सकते है :-
- शुक्लीकृ तः, श्यामीकृ तवान्
- दुखीभूता, सुखीभूतवान्
- घटीभूतम्, घटीकृ तवान्
*>* लेकिन यदि अकरोत्, अभवत् इत्यादि का प्रयोग करना हो तो सन्धि अवश्य करनी होगी।
- शुक्ल्यकरोत् ( शुक्ली-अकरोत्)
- साध्वभूत् (साधू-अभूत्)
> लेकिन यहां एक अपवाद है। ऋकारान्त शब्दो से उपर्युक्त सूत्र से 'ॠ' ऐसा दीर्घ होना चाहिए था लेकिन एक और सूत्र से वहाँ दीर्घ न होकर ऋकारान्त शब्दो से
'री' होता है। सूत्र देखते है।
*>* एजन्त(ए/ऐ/ओ/औ जिसके अन्तमे है) शब्दो में कोई परिवर्तन या विकृ ति नही होती है :-
- से - सेभूत् ( वह कामदेव हो गया)
- रै - रैकरोति (धनवान करता है)
- गो - गोभवति ( बछडी गाय होती है)
- ग्लौ - ग्लौभूत् ( वह चन्द्रमा हो गया)
>>> >> अयोध्यायाम् दशरथो नाम राजा। पौरा: *सुखीभवेयु:* इत्येव तस्य इच्छा। सः सर्ववेदान् *कण्ठस्थीकृ तवान्*। *पित्रीभवितुं* तेन ईश्वर:
*प्रार्थनीकृ तः*। तेन चत्वारः पुत्रा: अभवन्। यज्ञम् *निर्विघ्नीकर्तुम्* विश्वामित्र: रामलक्ष्मणौ नितवान्। तत: धनु: *भङ्गीकृ त्य* सीताम् पत्नीरूपेण *अङ्गीकरोति*
स्म। सीता अपि *प्रसन्नीभूता*। कै के य्या याचितेन वरेण रामः *तापसीभूय* वनम् गतवान्। सीता-लक्ष्मणौ च अनुगच्छत: स्म। भरत: " *मात्रीभूय* एवं कृ तवती"
इति उक्त्वा कु पित: अभवत्। वने मारीचि: रावणस्य आदेशेन *मृगीभवति* स्म। रावण: *साधूभूय:* सीतायाः अपहरणम् कृ तवान्। भयेन सा *कातरीभूता*।
कपिसेना रामस्य साहाय्यम् कृ तवती। रामः तेन *प्रसन्न्यभवत्*(प्रसन्नी-अभवत्)। सीता *दुःखीस्यात्* इति मत्वा रामः लङ्काया उपरि आक्रमणम् कृ तवान्। रावणम्
*भस्मीकृ त्य* सितां *मुक्तीकरोति* स्म । अनेन "सत्यमेव जयते" इति सिद्धान्त: *स्पष्टीभवति*।
★व्याकरणलेख-22★
भू > भवति
अस् > अस्ति
नश् > नश्यति
आप् > आप्नोति
कृ > करोति
अश् > अश्नाति
ये सब प्रथम-पुरुष-एकवचन के रूप है। इनको देखके लगता है कि संस्कृ त में क्रियापद के कोई नियम है कि नही?!!!! अलग अलग रूप क्यों बनाये? यदि एक जैसे
रूप बनाये होते ( जैसे, गच्छति, करति, नशति, असति) तो याद रखने में कितना सरल होता। ऐसी फरियाद शुरुआत में सबको होती ही है।
लेकिन ये भिन्न भिन्न दिखने वाले रूपो के पीछे पूरा एक विज्ञान है। इसलिए ये अलग अलग दीखते है। आज उसके विषय में देखेंगे।
ये भिन्नता दिखती है उसका कारण है "विकरण"। अर्थात्? ये विकरण एक प्रत्यय है। जैसे लट्, लुट् इत्यादि प्रत्यय है वैसे ही। और इस विकरण-प्रत्यय के कारण ही
संस्कृ त में सभी धातु (जो लगभग 2000 है) दश गण में विभाजित हुए है। और सभी गण के भिन्न भिन्न विकरण-प्रत्यय है। इसलिए ही धातुओं से भिन्न भिन्न
क्रियापद बनते है। आइये, सूत्रों के साथ देखते है दश गणो के नाम, और सभी के विकरण-प्रत्यय को।
◆◆◆>प्रथम गण में शप् होता है। प्रथम-गण का नाम है :- भ्वादि: गण:। गण के नाम किस प्रकार से हुए? तो गण की जो प्रथम धातु हो उसके नाम से ही उस
गण का नामकरण होता है। जैसे, प्रथमगण की धातुं 'भू' है। जिससे प्रथमगण का नाम हुआ 'भ्वादि: गण: (भू जिसके आदि में है वह) तो इस भ्वादिगण में शप् होता
है।
- भू + शप् + तिप् = भवति
- पठ् + शप् + तिप् = पठति
- खाद् + शप् + तिप् = खादति
◆◆◆> दशम गण में भी शप् विकरण-प्रत्यय होता है। दशमगण में प्रथम धातुं है :- चुर्। इसलिए गण का नाम हुआ 'चुरादि: गण:'।
लेकिन चुरादिगण में एक विशिष्ट बात ये है कि उसमें विकरण-प्रत्यय लगने से पहले 'णिच्' प्रत्यय भी होता है और उसके बाद शप्-प्रत्यय होता है।
- चुर् + णिच् + शप् +तिप् = चोरयति
- कथ् + णिच् + शप् + तिप् = कथयति
- चिन्त् + णिच् + शप् + तिप् = चिन्तयति
★व्याकरणलेख-23★
पिछले लेख में हमने विकरण-प्रत्यय के विषय में देखा की :-
◆◆◆> प्रथमगण-भ्वादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्
◆◆◆> द्वितीयगण-अदादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्, जिसका बाद में लुक् हो जाता है।
◆◆◆> तृतीयगण-जुहोत्यादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्, जिसके स्थान में श्लु होता है।
◆◆◆> दशमगण-चुरादिगण का विकरण-प्रत्यय = शप्
अब आगे देखते है :-
★व्याकरणलेख-24★
पिछले लेख में हमने सप्तमगण तक विकरण-प्रत्यय किये थे। आज आगे बढ़ते है।
लेकिन यहां यह बात याद रखनी जरूरी है कि विकरण-प्रत्यय अपने मूल स्वरूप में उपयोग में नही आता। जैसे गन्ने को खाने से पहले उसके छिलके को निकाल ने
के बाद में खाया जाता है वैसे ही व्याकरण में कोई भी प्रत्यय को काट-झाट के ही उपयोग में लिया जाता है।
यहा फिर से मूल विकरण-प्रत्यय और उसका उपयोग में आनेवाले रूप को फिर से देखते है।
*गण* *मूल-विकरण* *उपयोगी-विकरण*
प्रथम शप् अ
द्वितीय शप् लुक् होने से कोई विकरण नही
तृतीय शप् श्लु होने से कोई विकरण नही
चतुर्थ श्यन् य
पञ्चम श्नु नु
षष्ठ श अ
सप्तम श्नम् न
अष्टम उ उ
नवम श्ना ना
दशम शप् अ
यहा सर्वत्र पहले तो विविध सूत्रों से इत्-संज्ञा होती है और बादमे 'तस्य लोपः' इस सूत्र से लोप (काट-झाट) होती है। फिर बचे हुए विकरण-प्रत्यय का ही उपयोग
होता है।
अष्टमगण का विकरण-प्रत्यय 'उ' है जिसमे किसी की इत्-संज्ञा शक्य न होने से किसीका लोप भी नही होता जिससे 'उ' ही रहता है।
★व्याकरणलेख-25★
राम: लिखन् अस्ति। कृ ष्ण: लिखन्तम् रामं पश्यति। लिखता रामेण उक्तं यत् कथं अस्ति कृ ष्ण इति। कृ ष्ण: लिखते रामाय पुष्पम् दत्तवान्। लिखत: हस्तात् पुष्पम्
पतितम्। लिखत: रामस्य नेत्राभ्याम् अश्रु अपतत्। लिखति रामे कृ ष्ण: स्निह्यति।
यहा लिख्-धातु के शतृ-प्रत्ययान्त रूप दिए गए है। लेकिन स्त्रीलिंग में तो कहि पर 'गच्छन्ती' होता है और कहि पर 'कु र्वती' होता है अर्थात् कहि पर 'न' होता है कहि
पर 'न' नहीं होता।
तो उसके नियम क्या है? हमे कै से पता चले की कहा 'न' लगाये और कहा नहीं। पिछले लेख में हमने दश-गण के नाम और उनके विकरण-प्रत्यय कर लिए है
इसलिए यह विषय समजने में आसानी होगी।
लेकिन उसके पहले दो संज्ञा सूत्र देख लेते है :-
अब आगे देखते है। शप् में श् और प् की इत्-संज्ञा होकर दोनों का _तस्य लोप:_ इस सूत्र से लोप होकर सिर्फ 'अ' बचता है ये भी पिछले लेख में हमने देखा।
और तिप् में भी प् की इत्-संज्ञा और फिर लोप हो गया अर्थात्
"पठ् +अ+ति" ऐसा रहा। तो यहा 'अ' की दृष्टि में 'पठ् ' की अङ्ग-संज्ञा हुई और 'ति'की दृष्टि में 'पठ' ( पठ् + अ ) की अङ्ग-संज्ञा हुई।
अब दूसरी संज्ञा देखते है : नदी। व्यवहार में हम जिसको नदी बोलते है उसकी बात यहा नही हो रही बल्कि नदी एक व्याकरण संज्ञा है सूत्र है :-
लेकिन 'गच्छन्ती' 'कु र्वती' इत्यादि ईकारान्त शब्द ही है, ऊकारान्त नहीं। इसलिए यहा नदी अर्थात 'गच्छन्ती, वदन्ती, कु र्वती, खादन्ती' ये सब शब्द नदी-संज्ञक है।
अर्थात् इन सब शब्दों को नदी कहते है। ये दो सूत्र करने के बाद अब इस विषय को अच्छी तरह समज सकें गे।
★व्याकरणलेख-26★
पिछले लेख में हमने 'अङ्ग' और 'नदी' क्या है वह देखा। अब जब 'अङ्ग' क्या है ये समझ गये है तो एकबार फिर दश-गण के धातुं और उनके विकरण-प्रत्यय के
संयोग को देखते है :-
गण मूल-विकरण उपयोगी-विकरण
प्रथम शप् अ
द्वितीय शप् लुक् होने से कोई विकरण नही
तृतीय शप् श्लु होने से कोई विकरण नही
चतुर्थ श्यन् य
पञ्चम श्नु नु
षष्ठ श अ
सप्तम श्नम् न
अष्टम उ उ
नवम श्ना ना
दशम शप् अ
अब यहा 'अ' की दृष्टि में 'भू' अङ्ग है जिसको गुण होकर 'भो' होता है।
भो + अ + ति
अब ये 'भव' जो अङ्ग है वह कै सा है? वह अकारान्त है। जैसे राम, कृ ष्ण, देव इत्यादि शब्द अकारान्त है वैसे ही 'भव' अङ्ग अकारान्त है।
अब गण तो दश है। तो प्रश्न ये होगा की कितने गण में अकारान्त अङ्ग होता है? एक-एक करके देखते है।
द्वितीयगण और तृतीयगण में विकरण-प्रत्यय होते ही नही है इसलिए उसमे धातु+विकरण-प्रत्यय के मिलन का प्रसङ्ग ही नही आता।
चतुर्थगण :- दिवादिगण
दिव् + श्यन् + तिप्
दिव् + य + ति
दीव्य + ति
यहा दिव्-धातुं और श्यन्-विकरण-प्रत्यय के मिलन से जो अङ्ग बनता है, दिव्य, वह भी अकारान्त है।
पञ्चमगण :- स्वादिगण
सु + श्नु + तिप्
सु + नु + ति
सुनु + ति
यहा उकारान्त अङ्ग है।
षष्ठगण :- तुदादिगण
तुद् + श + तिप्
तुद् + अ + ति
तुद + ति
यहा अकारान्त अङ्ग है।
सप्तमगण :- रुधादिगण
रुध् + श्नम् + तिप्
यहा श्नम्-विकरण धातु और तिङ् -प्रत्यय के बीचमे न होकर धातुं के मध्य में होता है।
रु श्नम् ध् + ति
रुन्ध् + ति
सप्तमगण में सभी धातुं हलन्त(व्यञ्जन जिसके अन्त में हो) है इसलिए अङ्ग भी हलन्त ही होगा।
अष्टमगण :- तनादिगण
तन् + उ + तिप्
तनु + ति
यहा उकारान्त अङ्ग है।
नवमगण :- क्र्यादिगण
क्री + श्ना + तिप्
क्री + ना + ति
क्रीणा + ति
यहा जो 'ना' है उसमें एक सूत्र से 'आ' का लोप होकर 'न्' बचता है। अर्थात् इस गण में हलन्त-अङ्ग बनता है।
दशमगण :- चुरादिगण
चुर् + णिच् + शप् + तिप्
चुर् + इ + अ + ति
चोरय् + अ + ति
चोरय + ति
यहा अकारान्त अङ्ग है।
(२) दिवादिगण-तुदादिगण का जोडा :- इन दोनों में क्रमशः 'श्यन्' और 'श' अर्थात् 'य' और 'अ' विकरण होता है। दोनों विकरण में समानता ये की दोनों शित् तो
है लेकिन पित् नही। इसलिए दोनों गणो में गुण नही होगा। जैसे,
★व्याकरणलेख-27★
पिछले लेख में हम देख रहे थे की गच्छन्ती और कु र्वती में भेद क्यों है? इसके लीये हमने अब तक देखा की :-
A) दश गण है
B) सबके भिन्न विकरण-प्रत्यय है
C) नदी क्या है
D) अङ्ग क्या है
E) धातु और विकरण प्रत्यय के संयोग से जो अङ्ग बनता है उससे दश गण के दो विभाजन हुए :-
*- >* अदन्त ( प्रथमगण = भ्वादिगण, चतुर्थगण = दिवादिगण, षष्ठगण = तुदादिगण, दशमगण = चुरादिगण ये चार गण )
*- >* अनदन्त ( बाकी के छे गण )
- राम की जगह पे भरत को गादी मिली, अर्थात् भरत का राम के स्थान में आदेश हुआ।
- राम के साथ लक्ष्मण भी वन में गए, अर्थात् लक्ष्मण का आगम हुआ।
इसलिए ही आदेश शत्रुवत् होता है, क्योकि खुदका स्थान बनाने के लिए वो दुसरो को हटाता है और आगम मित्रवत् होता है क्योकि वो साथ में रहता है।
ध्यान देने वाली बात यहा उपर के सूत्र में है वो ये है की ये अकारान्त-अङ्ग से ही नुमागम होता है। जैसे की उपर हमने देखा की चार गण ही अकारांत-अङ्ग वाले है :-
भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण और चुरादिगण।
- तुदादिगण
तुद् + श + शतृ + ङीप्
तुद् + अ + अत् + ई
तुद् + अ + अ नुम् त् + ई
तुदन्ती हो गया।
- चुरादिगण
चुर् + णिच् + शप् + शतृ + ङीप्
चोरय् + अ + अत् + ई
चोरय् + अ + अ नुम् त् + ई
चोरयन्ती सिद्ध हुआ।
दूसरी बात यहा ध्यान देने योग्य है वो यह की इस सूत्र में “वा” की अनुवृति आती है अर्थात् नुमागम विकल्प से होगा।
इसका अर्थ ये हुआ की जब नुमागम होगा तब “गच्छन्ती, दीव्यन्ती, तुदन्ती, चोरयन्ती” ऐसे रूप बनेगे और जब नुमागम नहीं होगा तब “ गच्छती, दीव्यती, तुदती,
चोरयती” रूप बनेंगे।
लेकिन हमने "गच्छन्ती, दीव्यन्ती, चोरयन्ती” ऐसा ही सूना है, "गच्छती, दीव्यती, चोरयती" ऐसा तो नही सूना।
लेकिन सूत्र से तो यही अर्थ निकलता है की ये सब रूप विक्ल्प से हो शकते है फिर ऐसे रूप क्यों नही बन सकते ? जरुर कोई और सूत्र भी होगा जो इसका
निषेध कर रहा है। अगले लेख में देखेंगे।
★व्याकरणलेख-28★
पिछले लेख में हम देख रहे थे की _आच्छीनद्योर्नुम्_ इस सूत्र से चार गणो में नुमागम विकल्प से होता है :- भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण, और चुरादिगण।
और इस सूत्र से गच्छती/गच्छन्ती, दीव्यती/दीव्यन्ती/, तुदती/तुदन्ती, चोरयती/चोरयन्ती ऐसे दो-दो रूप बनेंगे। इसमें से तुदती/तुदन्ती ऐसे रूप तो देखे है, लेकिन
"गच्छती, दीव्यती, चोरयती” ऐसे रूप तो नहीं सुने। इसका अर्थ है की इन तीनो गणो में विकल्प से नहीं अपितु नित्य नुमागम होगा। ये रहा पाणिनीय सूत्र :-
- भ्वादीगण :-
भू + शप् + शतृ+ ङीप्
भो + अ + अत् + ई
भव + अ + अ नुम् त् + ई
भवन्ती होगा।
- दिवादीगण :-
दिव् + श्यन् + शतृ+ ङीप्
दिव् + य + अत् + ई
दिव् + य + अ नुम् त् + ई
दीव्यन्ती हो गया।
- चुरादीगण :-
चुर् + णिच् + शप् + शतृ + ङीप्
चोरय् + अ + अत् + ई
चोरय् + अ + अ नु + त् + ई
चोरयन्ती सिद्ध हुआ।
अर्थात् भ्वादिगण और चुरादिगण में शप्-विकरण-प्रत्यय है इसलिए उसमे नुमागम नित्य होगा और दिव्यादिगण में श्यन-विकरण-प्रत्यय है इसलिए उसमे भी नुमागम
नित्य होगा, न की विकल्प से।
अर्थात् "गच्छती, दीव्यती, चोरयती" ऐसे रूप नहीं बनेंगे।
लेकिन सूत्र में तुदादीगण का उल्लेख नहीं है ( जिसमे श-विकरण-प्रत्यय है ) इसलिए उसमे जब नुमागम होगा तब 'तुदन्ती' ऐसा रूप बनेगा और जब नुमागम नहीं
होगा तब 'तुदती' ऐसा रूप बनेगा। अर्थात् तुदादिगण में दोनों प्रकार के रूप बनेगे।
यहा स्मरण में रखने योग्य अत्यावश्यक बात यह है कि भ्वादिगण, दिवादिगण और चुरादिगण में जो नुमागम हो रहा है वह उपरोक्त "शप्श्यनोर्नित्यम्" इस सूत्र से हो
रहा है, 'आच्छीनद्योर्नुम्' इस सूत्र से नही।
अब रही दुसरे 6 गणो की बात। जैसा की पहले हमने देखा था की “आच्छीनद्योर्नुम् " इस सूत्र में अकारान्त/आकारान्त-अङ्ग से ही नुमागम होने की शर्त रखी है,
और दशो गण में चार गण ही ऐसे है ( भ्वादिगण, दिवादिगण, तुदादिगण, चुरादिगण) जिसमे विकरण-प्रत्यय अकारान्त है।
इसलिए उसमे अङ्ग भी अकारान्त ही बनता है। दूसरे गणो में विकरण-प्रत्यय प्रायश: अकारान्त नहीं है। इसलिए उसमे नुमागम होता ही नहीं है। तो उसमे 'कु र्वती'
इत्यादि रूप बनते है।
यहा 'प्रायश:' इसलिए लिखा है क्योकि कु छ गण में अकारान्त अङ्ग की संभावना है फिर भी दुसरे सूत्रों से उसमे नुमागम नहीं होता है। (अदादी गण की कु छ धातु को
छोड़ कर)। कै से? सूत्रों के साथ देखते है :-
अब तीसरे गण की और आगे बढे इससे पहले “अभ्यास” और "अभ्यस्त" किसको कहते है वह देख लेते है। उसके लिए दो सूत्र है :-
यहा देख सकते है की दा-धातु को द्वित्व होकर "दा+दा" ऐसा बना। तो इसमें जो पहला "दा" है उसको 'अभ्यास' कहते है।
यहा "दा+दा" ऐसा आकारान्त-अङ्ग है। लेकिन एक सूत्र के कारण जुहोत्यादिगण में नुमागम का निषेध किया गया है :-
★व्याकरणलेख-29★
आज स्त्रीलिंगवाची शत्रान्त-शब्दों में नुमागम-व्यवस्था का प्रकरण पूरा हुआ। यदि फिर एक बार सक्षिप्त में देखे तो :-
>> भ्वादिगण, चुरादिगण और दिवादिगण में नुमागम नित्य होता है।
>> तुदादिगण में नुमागम विकल्प से होता है।
>> अदादिगण में १४ आकारान्त-धातुओ से नुमागम विकल्प से होता है।
>> बाकी के सभी गणो में नुमागम नहीं होता है।
★व्याकरणलेख-30★
हम बार बार सुनते है की संस्कृ त कं प्यूटर के लिए उत्तम भाषा है, लेकिन क्यों? उसका उत्तर है अष्टाध्यायी के सूत्र। ऐसी क्या विशेषता है इन सूत्रों में?
विशेषता यह है की ये सूत्र छोटे छोटे होते हुए भी बड़े बड़े अर्थ को सचोट तरीके से व्यक्त करते है। आज कु छ सूत्र देखेंगे। लेकिन पहले एक कल्पना खड़ी करते है
हमारे मनमे।
सोचो की श्रीराम सायंकाल में संध्या के समय पश्चिमदिशा की और मुखारविंद करके खड़े है। अब उसके पीछे लक्ष्मण और उसके पीछे भरत खड़े है। अर्थात तीनो के
चहेरे पश्चिम की और है और तीनो एकदूसरे के पीछे एक ही पंक्ति में खड़े है।
अब “ लक्ष्मण कहा है?” इस प्रश्न के उत्तर में क्या कहेंगे ? यही की “लक्ष्मण श्रीराम के पीछे खड़े है” या फिर “ लक्ष्मण भरत के आगे खड़े है”।
लेकिन यही प्रश्न यदि पाणिनि को पूछा जाय तो उनका उत्तर कै सा होगा? वह कहेंगे “ रामात् लक्ष्मण भरते “
विचित्र दिखने वाला ये जवाब वास्तवमे अष्टाध्यायी की ही शैली है। पाणिनि ने अष्टाध्यायी को इसी तरह बनाया है। आइये देखते है इस विषय के सूत्र :-
अब उपरोक्त सूत्र के अनुसार जहाँ सप्तमी विभक्ति हो वहा उससे पूर्व/आगे/परस्मिन् का निर्देश होगा। अर्थात् यहा लक्ष्मण भरत के पूर्व/आगे है ऐसा समजना चाहिए।
उसी तरह “ राम: लक्ष्मणे अस्ति” ऐसा कहने पर “ राम लक्ष्मण के पूर्व/आगे है “ यह अर्थ निष्पन्न होगा।
लेकिन "लक्ष्मण राम के पीछे है" इस प्रश्न का उत्तर पाणिनि कै से देंगे? उनका उत्तर होगा “ लक्ष्मण: रामात् अस्ति “ कै से? आइये सूत्र देखते है :-
तो “ रामात् लक्ष्मण: भरते “ इस वाक्य का अर्थ होगा “ लक्ष्मण राम के पीछे और भरत के आगे है। "
उसी तरह वाक्य बना सकते है की :-
>> रामात् लक्ष्मणभरतौ स्त:।
>> लक्ष्मणात् भरत: अस्ति।
>> लक्ष्मण: भरते अस्ति।
>> राम: लक्ष्मणभारतयो: अस्ति।
अब पीछे जो हमने सूत्र किया था _आच्छीनद्योर्नुम्_ उसको फिरसे विभक्ति के साथ देखते है। यहा "शतु:" की अनुवृत्ति भी आती है।
अर्थ हुआ _तुद-अकारान्त-अङ्ग के पीछे/उत्तर, ई-नदी के पहले/पूर्व, शतु: के स्थान में, नुमागम होता है।_
यहा देख सकते है की, " तुद + शतृ + ङीप् " इस स्थिति में 'शतृ' का स्थान लक्ष्मण की ही तरह है। अर्थात् " शतृ तुदात् ङिपि "।
अब शतृ के स्थान में नुमागम होता है इसलिए शतृ की षष्ठी-विभक्ति 'शतु:' ऐसा दर्शाया है।
यहा जो नुम् है वह 'आगम' है, अर्थात् उसके लक्षण मित्रवत् होंगे। इसलिए शतृ के साथ में रहेगा।
यदि नुम् 'आदेश' होता तो लक्षण शत्रुवत् होकर पुरे शतृ को हटाकर उसके स्थान में होता। " तुद + नुम् + ङिप् " इस तरह।
तो आज हमने देखा की अष्टाध्यायी में विभक्ति के अर्थ किस प्रकार होते है।
【इस लेखमाला को यही समाप्त करते है। अगले 50 सूत्रों की लेखमाला कु छ समय के बाद फिरसे प्रस्तुत करेंगे। किसीको यदि 1 से 104 तक के सूत्रों की pdf
चाहिए तो मेरे व्यक्तिगत नम्बर में अपना नाम और ईमेल भेज शकते है।】