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भर्ृृ हरि-नीतर्शर्कम् के वचन – असंभव है मूर्ृ जन को संर्ुष्ट कि पाना

अज्ञः सु खमाराध्यः सु खतरमाराध्यते विशे षज्ञः ।


ज्ञानलिदु विि दग्धं ब्रह्मावि तं नरं न रञ्जयवत ॥
(भतृि हरर विरवित नीवतशतकम् , श्लोक 3)
अज्ञः सु खम् आराध्यः, सु खतरम् आराध्यते विशे षज्ञः, ज्ञान-लि-दु ः-विदग्धं ब्रह्मा अवि तं नरं न रञ्जयवत

अर्ि ः गै रजानकार मनु ष्य को समझाना सामान्यतः सरल होता है । उससे भी आसान होता है
जानकार या विशे षज्ञ अर्ाि त् ििाि में वनवहत विषय को जानने िाले को समझाना । वकंतु जो व्यक्ति
अल्पज्ञ होता है , वजसकी जानकारी आधी-अधू री होती है , उसे समझाना तो स्वयं सृ विकताि ब्रह्मा के
भी िश से बाहर होता है ।

“अधजल गगिी छलकर् जार्” की उक्ति अल्पज्ञ जनों के वलए ही प्रयोग में ली जाती है । ऐसे लोगों
को अक्सर अिने ज्ञान के बारे में भ्रम रहता है । गैरजानकार या अज्ञ व्यक्ति मु झे नहीं मालू म कहने में
नहीं वहिकता है और जानकार की बात स्वीकारने में नहीं वहिकता है । विशेषज्ञ भी आिने ज्ञान की
सीमाओं को समझता है , अतः उनके सार् तावकिक विमषि संभि हो िाता है , िरं तु अल्पज्ञ अपनी तजद
पि अडा िहर्ा है ।

अगले छं द में कवि भतृि हरर मू खि को समझाने के प्रयास की तु लना कविनाई से साध्य कायों से करते हैं ,
और इस प्रयास को सिाि वधक दु रूह कायि बताते हैं ।

प्रसह्य मविमु द्धरे न्मकरदं िरान्तरात्


समु द्रमवि सन्तरे त् प्रिलदु वमि मालाकुलाम् ।
भु जङ्गमवि कोवितं वशरवस िु ष्पिद्धारये त्
न तु प्रवतवनवििमू खिजनवित्तमाराधये त् ॥ 4

प्रसह्य मविम् उद्धरे त् मकर-दं िर-अन्तरात् , समु द्रम् अवि सन्तरे त् प्रिलत् -उवमि -माला-आकुलाम् ,
भु जङ्गम् अवि कोवितं वशरवस िु ष्पित् धारये त् , न तु प्रवत-वनविि-मू खि-जन-वित्तम् आराधये त् ।

अर्ि ः मनु ष्य कविन प्रयास करते हुए मगरमच्छ की दं तिं क्ति के बीि से मवि बाहर ला सकता है ,
िह उिती-वगरती लहरों से व्याप्त समु द्र को तै रकर िार कर सकता है , क्रुद्ध सिि को फूलों की भां वत
वसर िर धारि कर सकता है , वकंतु दु राग्रह से ग्रस्त मू खि व्यक्ति को अिनी बातों से सं तुि नहीं कर
सकता है ।

वजन कायों की बात की गयी है उन्हें सामान्यतः कोई नहीं कर सकता है ; कोई भी उन्हें करने का
दु स्साहस नहीं करना िाहे गा । वफर भी उन्हें करने में सफलता की आशा की जा सकती है , िरं तु
तु लनया दे खें तो मू खि का िक्ष जीतना उनसे भी कविनतर होता है ।
इसके आगे राजा भतृि हरर यह कहने में भी नहीं िू कते हैं वक असंभि माना जाने िाला कायि कदावित्
संभि हो जाए, ले वकन मू खि को संतुि कर िाना वफर भी संभि नहीं है ।

लभे त् वसकतासु तै लमवि यत्नतः िीडयन्


विबे च्च मृ गतृ क्तिकासु सवललं वििासावदि तः ।
कदाविदवि ियि टञ्छशविषािमासादये त्
न तु प्रवतवनवििमू खिजनवित्तमाराधये त् ॥ 5

लभे त् वसकतासु तै लम् अवि यत्नतः िीडयन् , विबे त् ि मृ ग-तृ क्तिकासु सवललं वििासा-आवदि तः,
कदावित् अवि ियि टन् शश-विषािम् आसादये त् , न तु प्रवतवनवििमू खिजनवित्तमाराधये त् ॥

अर्ि ः कविन प्रयास करने से सं भि है वक कोई बालू से भी ते ल वनकाल सके, िू िितः जलहीन
मरुस्र्लीय क्षे त्र में दृश्यमान मृ गमरीविका में भी उसके वलए जल िाकर प्यास बु झाना मु मवकन हो
जािे , और घू मते -खोजने अं ततः उसे खरगोश के वसर िर सींग भी वमल जािे , िरं तु दु राग्रह-ग्रस्त
मू खि को सं तुि कर िाना उसके वलए सं भि नहीं ।

उि छं द में अतर्िं जना का अं लकाि प्रयुि है । यह सभी जानते हैं वक बालू से ते ल वलकालना, जल
का भ्रम िैदा करने िाली मृ गतृ िा में िास्तविक जल िाकर प्यास बुझाना, और खरगोश के वसर िर
सींग खोज ले ना जैसी बातें िस्तु तः असंभि हैं । कवि का मत है वक मू खि को सहमत कर िाना इन सभी
असंभि कायों से भी अवधक कविन है ।

एक प्रश्न है वजसका उत्तर दे ना मु झे कविन लगता है । मू र्ृ तकसे कहा जाए इसका वनधाि रि कौन
करे , वकसे वनििय ले ने का अवधकार वमले ? स्वयं को मू खि कौन कहे गा ? मे रे मत में िह व्यक्ति जो
अिने वििारों एिं कमों को सं भि विकल्पों के सािे क्ष तौलने को तै यार नहीं होता, खु ले वदमाग से
अन्य सं भािनाओं िर ध्यान नहीं दे ता, आिश्यकतानु सार अिने वििार नहीं बदलता, अिने आिरि
का मू ल्ां कन करते हुए उसे नहीं सु धारता और सिि ज्ञ होने या दू सरों से अवधक जानकार होने के
भ्रम में जीता है िही मू खि है ।

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