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धार्मिक तथा प्रेरणादायक कहानियााँ

(स्वस्थ, धिवाि और बद्


ु धधमाि बििे के लिए)
Devotional & Motivational Stories
(for Making Healthy, Wealthy and Wise)

ॐ सवे भवन्तु सुखििः। (Om Sarve Bhavantu Sukhinaha)

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Contents
Title Page No
1. सार और संसार की उत्पत्ति (ब्रह्मा, त्तिष्ण,ु महे श कार्तिक जी ि गणेश जी की जन्म) 3
2. ु ाि चालीसा श्री िैष्णि दे िी चालीसा, 12 ज्योर्तर्लिगों का इर्तहास और जानकारी
श्री दग 13-15
3. माता तुलसी की कथा/ जन्म 28
4. र्शि रात्रि का फल 30
5. ब्रह्मा के मानस पि
ु भग
ृ ु 32
6. ऋत्ति श्रंग
ृ ी की कहानी एिं उनका आश्रम 34
7. िैष्णो दे िी की कथा, कहानी 37
8. शक्ति पीठशक्तत पीठ - त्तिककपीडिया (wikipedia.org) 43
(प्रथम कुलदे िी हहंगलाज माता)
9. तारा दे िी की कथा, कहानी तारामती नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हररश्चन्र के
साथ त्तििाह /माता का पज
ू न-जागरण. 45
10. भतत ध्रि
ु की कथा / कहानी 50
11. ऋत्ति पराशर 54
12. शांतनु Shantanu और गंगा Ganga 57
13. महत्तिि िर्शष्ठ, कामधेनु और महत्तिि त्तिश्िार्मि 63
(राजा कौर्शक) इक्ष्िाकु, त्रिशंकु राजा
14. त्तपप्लाद का जन्म 69
15. शर्न दे ि जी का जन्म 70
16. शर्न र्शंगणापुर 71
17. ऋत्ति दि
ु ािसा, Rishi Durvasa 72
18. भगिान त्तिश्िकमाि द्िारा बनाये गये प्रमुख भिन और िस्तुयें, िाहन 77
Famous Buildings and Tools Created By God Vishwakarma
19. उिर रामायण: लि और कुश का जीिन पररचय 78
20. श्री कृष्ण श्याम रं ग के तयों? 81
21. सुदामा जी गरीब तयों? 82
22. भारद्िाज ऋत्ति 83
23. हनम
ु ान चालीसा का इर्तहास /History of Hanuman Chalisa 84
24. मदनमोहन / सूरदास से जुिी कहार्नयााँ 85
25. श्रिण कुमार, दशरथ जी को पुि रत्न की प्राक्प्त, श्री राम का िनिास, 87
यह सत्य हैं की कमि का फल सबको भोगना ही हैं
26. कैसे हुआ नाररयल का जन्म 93
27. सत्यिान सात्तििी की कथा 95
28. श्री कृष्णा जी के मार्मिक त्तिचार, और कणि जी का जन्म 98
29. निराि 102
30. भैया दज
ू , धितेरस, अक्षय तत
ृ ीया, धित्रिेिा 103

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सार

इस िेि में दी गई जािकाररयाां धालमिक आस्थाओां और िौककक मान्यताओां पर आधाररत हैं, जजसे
मात्र सामान्य जिरुधि को ध्याि में रिकर प्रस्तुत ककया गया है

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ओम = अ + उ + म +(ँाँ) चन्र त्रबन्द ु

(Ref. Shiv Puran)

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कानतिक जी का जन्म

Kartikeya is known by numerous names in ancient and medieval texts of the


Indian culture. Most common among these are Murugan, Kumara, Skanda, and
Subrahmanya. Others include Aaiyyan, Cheyyon, Senthil, Vēlaṇ, Swaminatha
("ruler of the gods", from -natha king), śaravaṇabhava ("born amongst the
reeds"), Arumugam or Saṇmukha ("six-faced"), Dandapani ("wielder of the
mace", from -pani hand), Guha (cave, secret) or Guruguha (cave-teacher),
Kadhirvelan, Kandhan, Vishakha and Mahasena. In ancient coins where the
inscription has survived along with his images, his names appear as Kumara,
Brahmanya or Brahmanyadeva. On some ancient Indo-Scythian coins, his
names appear in Greek script as Skanda, Kumara and Vishaka. In ancient
statues, he appears as Mahasena, Skanda and Vishakha.
For more details: Murugan by Raja Ravi Varma - Kartikeya - Wikipedia

गणेश जी की जन्म

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Ancestors of Lord Rama and Krishna

geocities.com/silicon valley/screen/3299/history

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Ancestors of Lord Rama Tree - Bing images Kuru Dynasty (aumamen.com)

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2. ज्योनतलििगों का इनतहास और जािकारी – 12 Jyotirling

हहन्द ू ककं िदं र्तयों के अनुसार ज्योर्तर्लिंग का अथि “सििशक्ततमान र्शिजी के उज्ज्िल संकेत” से है।
द्िादश ज्योर्तर्लिंग स्तोिम ् – Dwadasa Jyotirlinga Stotram
सौराष्ट्रे सोमिाथां ि श्रीशैिे मजलिकाजुि
ि म ्। उज्जनयन्याां महाकािमोङ्कारममिेश्वरम ्॥ परलयाां
वैद्यिाथां ि डाककन्याां भीमशङ्करम ्। सेतुबन्धे तु रामेशां िागेशां दारुकाविे॥ वाराणस्याां तु ववश्वेशां
त्र्यम्बकां गौतमीतटे । हहमािये तु केदारां घुश्मेशां ि लशवािये॥एतानि ज्योनतलििङ्गानि सायां प्रातः
पठे न्िरः। सप्तजन्मकृतांपापां स्मरणेि वविश्यनत॥एतेशाां दशििादे व पातकां िैव नतष्ट्ठनत। कमिक्षयो
भवेत्तस्य यस्य तुष्ट्टो महे श्वराः॥: द्वादश ज्योनतलििंग स्तोत्रम ्
1. श्री सोमिाथ : गुजरात के सौराष्र क्षेि में क्स्थत यह ज्योर्तर्लिंग ऐर्तहार्सक महत्ि रखता है। यहां रे ल
और बस से जा सकते हैं। रे ल िेरािल तक जाती है। सोमनाथ के ितिमान मंहदर का उद्घाटन दे श के
प्रथम राष्रपर्त राजेन्र प्रसाद द्िारा ककया गया था। Web: Somnath – Gujarat, Saurashtra

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2. श्री मजलिकाजि
ुि : यह ज्योर्तर्लिंग आंध्रप्रदे श के कृष्णा क्जले में श्रीशैल पिित पर क्स्थत है। इस पिित
को दक्षक्षण का कैलास भी कहते हैं। त्रबनूगोिा-मकरपरु रोि तक रे ल से जा सकते हैं। यह स्थान कृष्णा
नदी के तट पर है। Web: Mallikarjuna – Srisailam, Andhra Pradesh

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3. श्री महाकािेश्वर : मध्यप्रदे श के उज्जैन में यह ज्योर्तर्लिंग क्स्थत है । नागदा, भोपाल
एिं इंदौर से यहां तक रे ल है । ये तीनों स्थान दे श के सभी महानगरों से रे ल से जुडे हुए हैं।
ये र्शप्रा नदी के तट पर है ।Web: Mahakaleswar – Ujjain, Madhya Pradesh

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4. श्री ओांकारे श्वर :यह ज्योर्तर्लिंग भी मध्यप्रदे श में नमिदा ककनारे क्स्थत है। इंदौर-खंििा रे लमागि पर
ओंकारे श्िर रोि स्टे शन है। यहां से ओंकारे श्िर 12 ककमी है। यहां पर त्तिंध्य पिित ने र्शिजी की आराधना
की थी। Web: Omkareshwar – Omkareshwar, Madhya Pradesh

5. श्री रामेश्वरम ् : इस ज्योर्तर्लिंग का संबंध भगिान राम से है। राम िानर सेना सहहत लंका आक्रमण
हे तु दे श के दक्षक्षणी छोर पर आ पहुंचे। यहां पर श्रीराम ने बालू का र्लंग बनाकर र्शि की आराधना की
और रािण पर त्तिजय हेतु र्शि से िरदान मांगा। रामेश्िरम ् तर्मलनािु में क्स्थत है। यहां बस और रे ल
दोनों से जा सकते हैं। web Rameshwaram – Rameswaram, Tamil Nadu

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6. श्री वैद्यिाथ : यह ज्योर्तर्लिंग झारखंि के दे िघर में क्स्थत है। कहते हैं- रािण ने घोर तपस्या कर र्शि
से एक र्लंग प्राप्त ककया क्जसे िह लंका में स्थात्तपत करना चाहता था, परं तु ईश्िर लीला से िह र्लंग
िैद्यनाथ में ही स्थात्तपत हो गया। Web Baidyanath – Deoghar, Jharkhand

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7. श्री िागेश्वर : महाराष्र के मराठिाडा क्षेि में हहंगोली नामक स्थान से 27 ककमी दरू यह ज्योर्तर्लिंग है।
यहां दारूक िन में र्निास करने िाले दारूक राक्षस का नाश सुत्तप्रय नामक िैश्य ने र्शि द्िारा हदए
पाशुपतास्ि से ककया था। Web: Nageshvara Jyotirlinga Gujarat

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3. 4.
8. श्री भीमाशांकर : महाराष्र की सह्यारी पिितमाला में भीमा नदी के तट पर यह ज्योर्तर्लिंग क्स्थत है।
नार्सक से यह स्थान 180 ककलोमीटर पडता है। यहां पर भगिान र्शि ने भीमासुर राक्षस का िध ककया
था। पुणे के पास तलेगांि से भी यहां जा सकते हैं। Web Bhimashankar – Bhimashankar,
Maharashtra

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9. श्री ववश्विाथ : यह ज्योर्तर्लिंग उिरप्रदे श के िाराणसी में है। यह स्थान रे ल से दे श के लगभग सभी
भागों से जुडा है। इसे बनारस या काशी भी कहते हैं। यह गंगा के तट पर है। कहते हैं- िाराणसी की सीमा
में जो व्यक्तत अपने प्राण त्यागता है , िह इस संसार के जंजाल से मुतत हो जाता है , तयोंकक भगिान
त्तिश्िनाथ स्ियं उसे मरते समय तारक मंि सुनाते हैं। Web: Kashi Vishwanath – Uttar Pradesh,
Varanasi

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10. श्री त्र्यांबकेश्वर : यह ज्योर्तर्लिंग महाराष्र के नार्सक से 25 ककमी दरू गोदािरी
नदी के तट पर है। यह स्थान महत्तिि गौतम और उनकी पत्नी गौतमी से जुडा है। Web:
Trimbakeshwar – Trimbakeshwar, Maharashtra

11. श्री केदारिाथ : भगिान र्शि यह यह अितार उिराखंि के हहमालय में लगभग
12 हजार फुट की ऊंचाई पर है । ऋत्तिकेश तक रे ल से जा सकते हैं। इसके बाद गौरीकंु ि
तक बस से जाना पडता है , कफर पहाडी मागि से पैदल या टट्टू पर। हहमालय को र्शिजी
की क्रीडास्थली माना गया है। Kedarnath, Uttarakhand

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12. श्री घष्ट्ृ णेश्वर : महाराष्र के औरं गाबाद क्जले में दौलताबाद के पास त्तिश्िप्रर्सद्ध अजंता-एलोरा
की गफ
ु ाएं हैं। यहीं पर ज्योर्तर्लिंग क्स्थत है। कहते हैं- 'घष्ृ णेश्िर ज्योर्तर्लिंग के दशिन करने से िंशिद्
ृ धध
होकर मोक्ष की प्राक्प्त होती है।' Web Grishneshwar – Ellora caves, Maharashtra.

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3. भागवत परु ाण के अिुसार माता तुिसी की कथा

तुलसी से जुडी एक कथा बहुत प्रचर्लत है। श्रीमद दे िी भागित पुराण में इनके अितरण की हदव्य लीला
कथा भी बनाई गई है। एक बार र्शि ने अपने तेज को समुर में फैंक हदया था। उससे एक महातेजस्िी
बालक ने जन्म र्लया। यह बालक आगे चलकर जालंधर के नाम से पराक्रमी दै त्य राजा बना। इसकी
राजधानी का नाम जालंधर नगरी था।

दै त्यराज कालनेमी की कन्या िंद


ृ ा का त्तििाह जालंधर से हुआ। जालंधर महाराक्षस था। अपनी सिा के
मद में चूर उसने माता लक्ष्मी को पाने की कामना से युद्ध ककया, परं तु समुर से ही उत्पन्न होने के
कारण माता लक्ष्मी ने उसे अपने भाई के रूप में स्िीकार ककया। िहां से पराक्जत होकर िह दे िी पाििती
को पाने की लालसा से कैलाश पिित पर गया।

भगिान दे िाधधदे ि र्शि का ही रूप धर कर माता पाििती के समीप गया, परं तु मां ने अपने योगबल से
उसे तुरंत पहचान र्लया तथा िहां से अंतध्यािन हो गईं। दे िी पाििती ने क्रुद्ध होकर सारा ित
ृ ांत भगिान
त्तिष्णु को सुनाया। जालंधर की पत्नी िंद
ृ ा अत्यन्त पर्तव्रता स्िी थी। उसी के पर्तव्रत धमि की शक्तत
से जालंधर न तो मारा जाता था और न ही पराक्जत होता था। इसीर्लए जालंधर का नाश करने के र्लए
िंद
ृ ा के पर्तव्रत धमि को भंग करना बहुत ज़रूरी था।

इसी कारण भगिान त्तिष्णु ऋत्ति का िेश धारण कर िन में जा पहुंचे, जहां िंद
ृ ा अकेली भ्रमण कर रही
थीं। भगिान के साथ दो मायािी राक्षस भी थे, क्जन्हें दे खकर िंद
ृ ा भयभीत हो गईं। ऋत्ति ने िंद
ृ ा के
सामने पल में दोनों को भस्म कर हदया। उनकी शक्तत दे खकर िंद
ृ ा ने कैलाश पिित पर महादे ि के साथ
युद्ध कर रहे अपने पर्त जालंधर के बारे में पूछा। ऋत्ति ने अपने माया जाल से दो िानर प्रकट ककए।
एक िानर के हाथ में जालंधर का र्सर था तथा दस
ू रे के हाथ में धड। अपने पर्त की यह दशा दे खकर
िंद
ृ ा मूर्छित हो कर धगर पडीं। होश में आने पर उन्होंने ऋत्ति रूपी भगिान से त्तिनती की कक िह उसके
पर्त को जीत्तित करें ।

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भगिान ने अपनी माया से पुन: जालंधर का र्सर धड से जोड हदया, परं तु स्ियं भी िह उसी शरीर में
प्रिेश कर गए। िंद
ृ ा को इस छल का ज़रा आभास न हुआ। जालंधर बने भगिान के साथ िंद
ृ ा पर्तव्रता
का व्यिहार करने लगी, क्जससे उसका सतीत्ि भंग हो गया। ऐसा होते ही िंद
ृ ा का पर्त जालंधर युद्ध
में हार गया।

इस सारी लीला का जब िंद


ृ ा को पता चला, तो उसने क्रुद्ध होकर भगिान त्तिष्णु को र्शला होने का श्राप
दे हदया तथा स्ियं सती हो गईं। जहां िंद
ृ ा भस्म हुईं, िहां तुलसी का पौधा उगा। भगिान त्तिष्णु ने िंद
ृ ा
से कहा, ‘हे िंद
ृ ा। तुम अपने सतीत्ि के कारण मुझे लक्ष्मी से भी अधधक त्तप्रय हो गई हो। अब तुम तुलसी
के रूप में सदा मेरे साथ रहोगी। जो मनुष्य भी मेरे शार्लग्राम रूप के साथ तुलसी का त्तििाह करे गा उसे
इस लोक और परलोक में त्तिपल
ु यश प्राप्त होगा।’

क्जस घर में तुलसी होती हैं, िहां यम के दत


ू भी असमय नहीं जा सकते। गंगा ि नमिदा के जल में स्नान
तथा तल
ु सी का पज
ू न बराबर माना जाता है। चाहे मनष्ु य ककतना भी पापी तयों न हो, मत्ृ यु के समय
क्जसके प्राण मंजरी रहहत तल
ु सी और गंगा जल मुख में रखकर र्नकल जाते हैं, िह पापों से मुतत होकर
िैकंु ठ धाम को प्राप्त होता है। जो मनुष्य तुलसी ि आंिलों की छाया में अपने त्तपतरों का श्राद्ध करता
है, उसके त्तपतर मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। उसी दै त्य जालंधर की यह भूर्म जलंधर नाम से त्तिख्यात है।
सती िंद
ृ ा का मंहदर मोहल्ला कोट ककशनचंद में क्स्थत है। कहते हैं इस स्थान पर एक प्राचीन गुफा थी,
जो सीधी हररद्िार तक जाती थी। सच्चे मन से 40 हदन तक सती िंद
ृ ा दे िी के मंहदर में पज
ू ा करने से
सभी मनोरथ पूणि होते हैं।भागित पुराण के अनुसार यह है माता तुलसी की संपण
ू ि कथा | Webdunia

महािीर हनुमान को भगिान र्शि का 11िां रूर अितार कहा जाता है और िे प्रभु श्री राम के अनन्य
भतत हैं। हनुमान जी ने िानर जार्त में जन्म र्लया। उनकी माता का नाम अंजना (अंजनी) और उनके
त्तपता िानरराज केशरी हैं। इसी कारण इन्हें आंजनाय और केसरीनंदन आहद नामों से पुकारा जाता है।
िहीं दस
ू री मान्यता के अनस
ु ार हनुमान जी को पिन पुि भी कहते हैं। हनुमान जी के जन्म के पीछे
पिन दे ि का भी योगदान था। एक बार अयोध्या के राजा दशरथ अपनी पक्त्नयों के साथ पुिेक्ष्ट हिन
कर रहे थे। यह हिन पुि प्राक्प्त के र्लए ककया जा रहा था। हिन समाक्प्त के बाद गुरुदे ि ने प्रसाद की
खीर तीनों रार्नयों में थोडी थोडी बांट दी।

खीर का एक भाग एक कौआ अपने साथ एक जगह ले गया जहा अंजनी मां तपस्या कर रही थी। यह
सब भगिान र्शि और िायु दे ि के इच्छा अनस
ु ार हो रहा था। तपस्या करती अंजना के हाथ में जब खीर
आई तो उन्होंने उसे र्शिजी का प्रसाद समझ कर ग्रहण कर र्लया। इसी प्रसाद की िजह से हनम
ु ान का
जन्म हुआ।

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4. लशव रात्रत्र का फि

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5. ब्रह्मा के मािस पुत्र भग
ृ ु

यहद हम ब्रह्मा के मानस पि


ु भग
ृ ु की बात करें तो िे आज से लगभग 9,400 ििि पूिि हुए थे। इनके बडे
भाई का नाम अंधगरा था। अत्रि, मरीधच, दक्ष, िर्शष्ठ, पुलस्त्य, नारद, कदिम, स्िायंभुि मनु, कृतु,
पुलह, सनकाहद ऋत्ति इनके भाई हैं। ये त्तिष्णु के श्िसुर और र्शि के साढू थे। महत्तिि भग
ृ ु को भी सप्तत्तिि
मंिल में स्थान र्मला है।
वपता : ब्रह्मा
पत्िी : ख्यार्त
भग
ृ ु के पुत्र : धाता और त्तिधाता
पुत्री : लक्ष्मी (भागििी)

महत्तिि भग
ृ ु की पहली पत्नी का नाम ख्यार्त था, जो उनके भाई दक्ष की कन्या थी। इसका मतलब
ख्यार्त उनकी भतीजी थी। दक्ष की दस
ू री कन्या सती से भगिान शंकर ने त्तििाह ककया था। ख्यार्त से
भग
ृ ु को दो पुि दाता और त्तिधाता र्मले और एक बेटी लक्ष्मी का जन्म हुआ। लक्ष्मी का त्तििाह उन्होंने
भगिान त्तिष्णु से कर हदया था।

भग
ृ ु पुि धाता के आयती नाम की स्िी से प्राण, प्राण के धोर्तमान और धोर्तमान के ितिमान नामक
पि
ु हुए। त्तिधाता के नीर्त नाम की स्िी से मक
ृ ं ि, मक
ृ ं ि के माकिण्िेय और उनसे िेद श्री नाम के पि
ु हुए।
पुराणों में कहा गया है कक इनसे भग
ृ ु िंश बढा। भग
ृ ु की पुत्री िक्ष्मी का वववाह भगवाि ववष्ट्णु से हुआ।

भग
ृ ु िे ही भग
ृ ु सांहहता की रििा की। उसी काि में उिके भाई स्वायांभुव मिु िे मिु स्मनृ त की रििा
की थी। भग
ृ ु के और भी पुि थे जैसे उशना, च्यिन आहद। ऋग्िेद में भग
ृ ुिंशी ऋत्तियों द्िारा रधचत अनेक
मंिों का िणिन र्मलता है क्जसमें िेन, सोमाहुर्त, स्यूमरक्श्म, भागिि, आत्तिि आहद का नाम आता है।
भागििों को अक्ग्नपूजक माना गया है। दाशराज्ञ युद्ध के समय भग
ृ ु मौजूद थे।

दे िी भागित के चतुथि स्कंध त्तिष्णु पुराण, अक्ग्न पुराण, श्रीमद् भागित में खंिों में त्रबखरे िणि के
अनस
ु ार महत्तिि भग
ृ ु प्रचेता-ब्रह्मा के पि
ु हैं, इनका त्तििाह दक्ष प्रजापर्त की पि
ु ी ख्यार्त से हुआ था
क्जनसे इनके दो पुि काव्य शुक्र और त्िष्टा तथा एक पुिी श्रीलक्ष्मी का जन्म हुआ। इनकी पुिी श्रीलक्ष्मी
का त्तििाह श्रीहरर त्तिष्णु से हुआ।

दै त्यों के साथ हो रहे दे िासुर संग्राम में महत्तिि भग


ृ ु की पत्नी ख्यार्त, जो योगशक्तत संपन्न तेजस्िी
महहला थीं, दै त्यों की सेना के मत
ृ क सैर्नकों को जीत्तित कर दे ती थीं क्जससे नाराज होकर श्रीहरर त्तिष्णु
ने शुक्राचायि की माता ि भग
ृ ुजी की पत्नी ख्यार्त का र्सर अपने सुदशिन चक्र से काट हदया।

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अपनी पत्नी की हत्या होने की जानकारी होने पर महत्तिि भग
ृ ु भगिान त्तिष्णु को शाप दे ते हैं कक तुम्हें
स्िी के पेट से बार-बार जन्म लेना पडेगा। उसके बाद महत्तिि अपनी पत्नी ख्यार्त को अपने योगबल से
जीत्तित कर गंगा तट पर आ जाते हैं, तमसा नदी की सक्ृ ष्ट करते हैं।

धरती पर पहली बार महत्तिि भग


ृ ु ने ही अक्ग्न का उत्पादन करना र्सखाया था। उन्होंने ही बताया था कक
ककस तरह अक्ग्न प्रज्िर्लत ककया जा सकता है और ककस तरह हम अक्ग्न का उपयोग कर सकते हैं।
इसीर्लए उन्हें अक्ग्न से उत्पन्न ऋत्ति मान र्लया गया। जबकक िे प्रथम व्यक्तत थे क्जन्होंने पथ्
ृ िी पर
अक्ग्न को प्रदीप्त ककया था। ऋग्िेद में िणिन है कक उन्होंने मातररश्िन ् से अक्ग्न ली और उसको पथ्
ृ िी
पर लाए। इसी कारण सििप्रथम भग
ृ ु कुल के लोगों ने ही अक्ग्न की आराधना करना शरू
ु ककया था। आज
भी पारसी लोग ऋत्ति भग
ृ ु की अथिन ् के रूप में पूजा करते हैं। पारसी धमि के लोग भी अक्ग्नपूजक हैं।

भग
ृ ु ने संजीिनी त्तिद्या की भी खोज की थी। उन्होंने संजीिनी-बूटी खोजी थी अथाित मत
ृ प्राणी को
क्जन्दा करने का उन्होंने ही उपाय खोजा था। परम्परागत रूप से यह त्तिद्या उनके पुि शुक्राचायि को
प्राप्त हुई।

महत्तिि भग
ृ ु का आयि
ु ेद से भी घर्नष्ठ संबंध था। अथिििेद एिं आयि
ु ेद संबंधी प्राचीन ग्रंथों में स्थल-
स्थल पर इनको प्रामाणणक आचायि की भांर्त उल्लेणखत ककया गया है। आयुिेद में प्राकृर्तक धचककत्सा
का भी महत्ि है। भग
ृ ु ऋत्ति ने सय
ू ि की ककरणों द्िारा रोगों के उपशमन की चचाि की है। ििाि रूपी जल
सूयि की ककरणों से प्रेररत होकर आता है। िह शल्य के समान पीडा दे ने िाले रोगों को दरू करने में समथि
है।

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6. ऋवि श्रांग
ृ ी की कहािी एवां उिका आश्रम
(ऋत्ति श्रंग
ृ ी की कहानी एिं उनका आश्रम - Pravakta.Com | प्रितता.कॉम)

उन हदनों दे िता ि अप्सरायें पथ्


ृ िी लोक में आते-जाते रहते थे। बस्ती मण्िल में हहमालय का जंगल दरू -
दरू तक फैला हुआ करता था। जहां ऋत्तियों ि मुर्नयों के आश्रम हुआ करते थे। परम त्तपता ब्रहमा के
मानस पुि महत्तिि कश्यप थे। उनके पुि महत्तिि त्तिभाण्िक थे। िे उच्च कोहट के र्सद्ध सन्त थे। परू े
आयाििति में उनको बडे श्रद्धा ि सम्मान की दृक्ष्ट से दे खा जाता था। उनके तप से दे ितागण भयभीत
हो गये थे। इन्र को अपना र्संहासन िगमगाता हुआ हदखाई हदया था। महत्तिि की तपस्या भंग करने के
र्लए उन्होंने अपने त्तप्रय अप्सरा उििशी को भेजा था और दोनों के संयोग से बालक श्रंग
ृ ी का जन्म हुआ।

पुराण में श्रंग


ृ ी को इन दोनों का संतान कहा गया है। बालक के मस्तक पर एक सींग था। अतः उनका
नाम श्रंग
ृ ी पडा । बालक को जन्म दे ने के बाद उििशी का काम पूरा हो गया और िह स्िगिलोक िापस
लौट गई। इस धोखे से त्तिभाण्िक इतने आहत हुए कक उन्हें नारी जार्त से ही घण
ृ ा हो गई।

अंगदे श के राजा रोमपाद तथा दशरथ दोनों र्मि थे। महत्तिि त्तिभाण्िक के शाप से बचने के र्लए रोमपाद
ने राजा दशरथ की कन्या शान्ता को अपनी पोश्या पुिी का दजाि प्रदान करते हुए जल्दी से श्रंग
ृ ी ऋत्ति से
उसकी शादी कर हदये। महत्तिि त्तिभाण्िक को दे खकर एक योजना के तहत अंगदे श के िार्सयों ने जोर-
जोर से शोर मचाना शुरू ककया कक ’इस दे श के राजा महत्तिि श्रंग
ृ ी है।’ पुि को पुििधू के साथ दे खने पर
महत्तिि त्तिभाण्िक का क्रोध दरू हो गया और उन्होंने अपना त्तिचार बदलते हुए बर िधू के साथ राजा
रोमपाद को भी आशीिािद हदया।

पुि ि पुििधू को साथ लेकर महत्तिि त्तिभाण्िक अपने आश्रम लौट आये और शाक्न्त पूिक
ि रहने लगे।
अयोध्या के राजा दशरथ के कोई सन्तान नहीं हो रही थी। उन्होने अपनी धचन्ता महत्तिि िर्शष्ठ से कह
सुनाई। महत्तिि िर्शष्ठ ने श्रंग
ृ ी ऋत्ति के द्िारा अश्िमेध तथा पुिेष्ठीकामना यज्ञ करिाने का सुझाि
हदया। दशरथ नंगे पैर उस आश्रम में गयें थे। तरह-तरह से उन्होंने महत्तिि श्रंग
ृ ी की बन्दना की। ऋत्ति को
उन पर तरस आ गया। महत्तिि िर्शष्ठ की सलाह को मानते हुए िह यज्ञ का पुरोहहताई करने को तैयार
हो गये। उन्होने एक यज्ञ कुण्ि का र्नमािण कराया । इस स्थान को मखौडा कहा जाता है। रूरायामक
अयोध्याकाण्ि 28 में मख स्थानकी महहमा है ।महाभारत के बनपिि में यह आश्रम चम्पा नदी के ककनारे
बताया है। उिर प्रदे श के पि
ू ोिर क्षेि के पयिटन त्तिभाग के बेिसाइट पर इस आश्रम को फैजाबाद क्जले

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में होना बताया है। परन्तु अयोध्या से इस स्थान की र्नकटता तथा परम्परागत रूप से 84 कोस की
पररक्रमा मागि इसे सम्मर्लत होने कारण इसकी सत्यता स्िमेि प्रमाणणत हो जाती है।

ऋत्ति श्रंग
ृ ी के यज्ञ के पररणाम स्िरूप राजा दशरथ को राम ,लक्ष्मण , भरत तथा शिुघ्न नामक चार
सन्तानें हुई थी। क्जस स्थान पर उन्होंने यह यज्ञ करिाये थे िहां एक प्राचीन मंहदर बना हुआ है। यहां
श्रंग
ृ ी ऋत्ति ि माता शान्ता का मंहदर बना हुआ है। इनकी समाधधयां भी यहीं बनी हुई है। यह स्थान
अयोध्या से परू ब में क्स्थत है। आिाढ माह के अक्न्तम मंगलिार को बढ
ु िा मंगल का मेला लगता है।
माताजी को पूडी ि हलिा का भोग लगाया जाता है। इसी हदन िेतायुग में यज्ञ का समापन हुआ था।
यहां पर शान्ता माता ने 45 हदनों तक अराधना ककया था। यज्ञ के बाद ऋत्ति श्रंग
ृ ी अपनी पत्नी शान्ता
को अपने साथ र्लिा जाना चाहते थे जो िहां नहीं गई और ितिमान मंहदर में त्तपण्िी बनकर समां गयी ।
पुरातत्ित्तिदों के सिेक्षणों में इस स्थान के ऊपरी सतह पर लाल मद
ृ भाण्िों, भिन संरचना के अिशेि
तथा ईंटों के टुकडे प्राप्त हुए हैं। Bhringi Rishi (Nataraja with Bhringi and Parvati - Bhringi
- Wikipedia)

Bhringi was an ancient sage (rishi), and a great devotee of Shiva, the Hindu God.
According to epics, all the rishis paid homage to both Shiva and Parvati, consort of
Shiva, but Bhringi would not worship Parvati and dedicated himself solely to Shiva.
The story goes that Bhringi one day, came to Mount Kailash, the abode of Shiva, and
expressed his desire to go around Shiva. As he was going around, Shiva 's consort,
Shakti, said, “You cannot just go around him. You have to go around me too. We are
two halves of the same truth.”
Bhringi, however, was so focussed on Shiva that he had no desire to go around Shakti.
Seeing this, Shakti sat on Shiva's lap making it difficult for Bhringi to go around Shiva
alone. Bhringi, determined to go around Shiva took the form of a Bhring (Black Bee)
and tried to slip in between the two.
Amused by this, Shiva made Shakti one half of his body – the
famous Ardhanarishvara form of Shiva. This was God whose one half is the Goddess.
But Bhringi was adamant. He would go around Shiva alone. So he took the form of a
rat, some say a bee, and tried to gnaw his way between the two.

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This annoyed the Goddess so much that she said, “May Bhringi lose all parts of the
body that come from the mother.” In Tantra, the Indian school of alchemy, it is believed
that the tough and rigid parts of the body such as nerves and bones come from the
father while the soft and fluid parts of the body such as flesh and blood come from the
mother. Instantly, Bhringi lost all flesh and blood and he became a bag of bones. He
collapsed on the floor, unable to get up.
Bhringi realized his folly. Shiva and Shakti make up the whole. They are not
independent entities. One cannot exist without the other. Without either there is
neither. He apologized.
So the world never forgets this lesson. Bhringi was denied flesh and blood forever. To
enable him to stand upright he was given a third leg, so that his legs served as a tripod.

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7. वैष्ट्णो दे वी की कथा, कहािी

एक प्रर्सद्ध प्राचीन मान्यता के अनुसार एक बार पहाडों िाली माता ने अपने एक परम भततपंडित
श्रीधर की भक्तत से प्रसन्न होकर उसकी लाज बचाई और पूरे सक्ृ ष्ट को अपने अक्स्तत्ि का प्रमाण
हदया। ितिमान कटरा कस्बे से 2 कक.मी. की दरू ी पर क्स्थत हंसाली गांि में मां िैष्णिी के परम भतत
श्रीधर रहते थे। िह र्न:संतान होने से द:ु खी रहते थे। वह बहुि गरीब था एक हदन उन्होंने निरात्रि
पूजन के र्लए कुाँिारी कन्याओं को बुलिाया। मााँ िैष्णो कन्या िेश में उन्हीं के बीच आ बैठीं। पूजन के
बाद सभी कन्याएं तो चली गई पर मााँ िैष्णो दे िी िहीं रहीं और श्रीधर से बोलीं- ‘सबको अपने घर भंिारे
का र्नमंिण दे आओ।’ श्रीधर ने उस हदव्य कन्या की बात मान ली और आस – पास के गााँिों में भंिारे
का संदेश पहुाँचा हदया। िहााँ से लौटकर आते समय गुरु गोरखनाथ ि उनके र्शष्य बाबा भैरिनाथ जी के
साथ उनके दस
ू रे र्शष्यों को भी भोजन का र्नमंिण हदया। भोजन का र्नमंिण पाकर सभी गांििासी
अचंर्भत थे कक िह कौन सी कन्या है जो इतने सारे लोगों को भोजन करिाना चाहती है? इसके बाद
श्रीधर के घर में अनेक गांििासी आकर भोजन के र्लए एकत्रित हुए। तब कन्या रुपी मााँ िैष्णो दे िी ने
एक त्तिधचि पाि से सभी को भोजन परोसना शुरू ककया।

भोजन परोसते हुए जब िह कन्या भैरिनाथ के पास गई। तब उसने कहा कक मैं तो खीर – पूडी की जगह
मांस भक्षण और महदरापान करुं गा। तब कन्या रुपी मााँ ने उसे समझाया कक यह ब्राह्मण के यहां का
भोजन है , इसमें मांसाहार नहीं ककया जाता। ककं तु भैरिनाथ ने जान – बुझकर अपनी बात पर अडा रहा।
जब भैरिनाथ ने उस कन्या को पकिऩा चाहा, तब मााँ ने उसके कपट को जान र्लया। मााँ ने िायु रूप में
बदलकरत्रिकूट पिित की ओर उड चली। भैरिनाथ भी उनके पीछे गया। माना जाता है कक मााँ की रक्षा
के र्लए पिनपुि हनुमान भी थे। मान्यता के अनुसार उस िक़्त भी हनुमानजी माता की रक्षा के र्लए
उनके साथ ही थे। हनुमानजी को प्यास लगने पर माता ने उनके आग्रह पर धनि
ु से पहाड पर बाण
चलाकर एक जलधारा र्नकाला और उस जल में अपने केश धोए। आज यह पत्तिि जलधारा बाणगंगा
के नाम से जानी जाती है, क्जसके पत्तिि जल का पान करने या इससे स्नान करने से श्रद्धालओ
ु ं की
सारी थकािट और तकलीफें दरू हो जाती हैं।

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इस दौरान माता ने एक गुफा में प्रिेश कर नौ माह तक तपस्या की। भैरिनाथ भी उनके पीछे िहां तक
आ गया। तब एक साधु ने भैरिनाथ से कहा कक तू क्जसे एक कन्या समझ रहा है , िह आहदशक्तत
जगदम्बा है। इसर्लए उस महाशक्तत का पीछा छोड दे । भैरिनाथ साधु की बात नहीं मानी। तब माता
गफ
ु ा की दस
ू री ओर से मागि बनाकर बाहर र्नकल गईं। यह गफ
ु ा आज भी अधिकुमारी या आहदकुमारी
या गभिजन
ू के नाम से प्रर्सद्ध है। अधितिााँरी के पहले माता की चरण पादक
ु ा भी है। यह िह स्थान है,
जहााँ माता ने भागते – भागते मड
ु कर भैरिनाथ को दे खा था। गफ
ु ा से बाहर र्नकल कर कन्या ने दे िी
का रूप धारण ककया। माता ने भैरिनाथ को चेताया और िापस जाने को कहा। कफर भी िह नहीं माना।
माता गुफा के भीतर चली गई। तब माता की रक्षा के र्लए हनुमानजी ने गुफा के बाहर भैरि से युद्ध
ककया।

भैरि ने कफर भी हार नहीं मानी जब िीर हनम


ु ान र्नढाल होने लगे, तब माता िैष्णिी ने महाकाली का
रूप लेकर भैरिनाथ का संहार कर हदया। भैरिनाथ का र्सर कटकर भिन से 8 ककमी दरू त्रिकूट पिित
की भैरि घाटी में धगरा। उस स्थान को भैरोनाथ के मंहदर के नाम से जाना जाता है। क्जस स्थान पर मााँ
िैष्णो दे िी ने हठी भैरिनाथ का िध ककया, िह स्थान पत्तिि गुफा’ अथिा ‘भिन के नाम से प्रर्सद्ध है।
इसी स्थान पर मााँ काली (दाएाँ), मााँ सरस्िती (मध्य) और मााँ लक्ष्मी (बाएाँ) त्तपंिी के रूप में गुफा में
त्तिराक्जत हैं। इन तीनों के सक्म्मलत रूप को ही मााँ िैष्णो दे िी का रूप कहा जाता है। इन तीन भव्य
त्तपक्ण्ियों के साथ कुछ श्रद्धालु भततों एि जम्मू कश्मीर के भूतपूिि नरे शों द्िारा स्थात्तपत मूर्तियााँ एिं
यन्ि इत्यादी है। कहा जाता है कक अपने िध के बाद भैरिनाथ को अपनी भूल का पश्चाताप हुआ और
उसने मााँ से क्षमादान की भीख मााँगी।

माता िैष्णो दे िी जानती थीं कक उन पर हमला करने के पीछे भैरि की प्रमुख मंशा मोक्ष प्राप्त करने की
थी, उन्होंने न केिल भैरि को पुनजिन्म के चक्र से मुक्तत प्रदान की, बक्ल्क उसे िरदान दे ते हुए कहा कक
मेरे दशिन तब तक पूरे नहीं माने जाएाँगे, जब तक कोई भतत मेरे बाद तुम्हारे दशिन नहीं करे गा। उसी
मान्यता के अनुसार आज भी भतत माता िैष्णो दे िी के दशिन करने के बाद 8 ककलोमीटर की खडी
चढाई चढकर भैरिनाथ के दशिन करने को जाते हैं। इस बीच िैष्णो दे िी ने तीन त्तपंि (र्सर) सहहत एक
चट्टान का आकार ग्रहण ककया और सदा के र्लए ध्यानमग्न हो गईं। इस बीच पंडित श्रीधर अधीर हो
गए। िे त्रिकुटा पिित की ओर उसी रास्ते आगे बढे , जो उन्होंने सपने में दे खा था, अंततः िे गुफा के द्िार
पर पहुंच,े उन्होंने कई त्तिधधयों से ‘त्तपंिों’ की पूजा को अपनी हदनचयाि बना ली, दे िी उनकी पूजा से प्रसन्न
हुईं, िे उनके सामने प्रकट हुईं और उन्हें आशीिािद हदया। तब से, श्रीधर और उनके िंशज दे िी मां िैष्णो
दे िी की पूजा करते आ रहे हैं

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ज्वािामुिी दे वी हहमािि प्रदे श, काांगड़ा

ज्िालामुखी दे िी हहमाचल प्रदे श में कांगडा से 30 ककलो मीटर दरू क्स्तथ है। ज्िालामुखी मंहदर को जोता
िाली का मंहदर और नगरकोट भी कहा जाता है। कालीधर पिित की शांत तलहटी में बसे इस मंहदर की
त्तिशेिता यह है कक यहााँ दे िी की कोई मूर्ति नहीं है। ज्िालामुखी मंहदर को खोजने का श्रेय पांििो को
जाता है। इसकी धगनती माता के प्रमुख शक्तत पीठों में होती है।

मान्यता है यहााँ दे िी सती की जीभ धगरी थी। यहााँ पर पथ्


ृ िी के गभि से नौ अलग अलग जगह से ज्िाला
र्नकल रही है क्जसके ऊपर ही मंहदर बना हदया गया हैं। इन नौ ज्योर्तयां को महाकाली, अन्नपूणाि,
चंिी, हहंगलाज, त्तिंध्यािासनी, महालक्ष्मी, सरस्िती, अक्म्बका, अंजीदे िी के नाम से जाना जाता है।

इस मंहदर का प्राथर्मक र्नमाणि राजा भूर्म चंद के करिाया था। बाद में महाराजा रणजीत र्संह और
राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंहदर का पूणि र्नमाणि कराया। यहााँ धधकती ज्िाला त्रबना घी, तेल
दीया और बाती के लगातार जलती रहती है। यह ज्िाला पत्थर को चीरकर बाहर र्नकलती आती है।
ज्िाला दे िी की उत्पत्ति से संबंधधत कई कथाएं लोगों के बीच बहुत प्रचर्लत हैं।

मुगल बादशाह अकबर और दे िी मां के परम भतत ध्यानु भगत से जुडी कथा खासा प्रचर्लत है। हहमाचल
र्निासी ध्यानु भगत काफी संख्या में श्रद्धालुओं के साथ माता के दशिन के र्लए जा रहा था। एंटनी बडी
संख्या दे खकर र्सपाहहयों ने चांदनी चौक (हदल्ली) पर उन्हें रोक र्लया और बंदी बनाकर अकबर के
दरबार में पेश ककया।

बादशाह ने पूछा, तुम इतने आदर्मयों को साथ लेकर कहां जा रहे हो? ध्यानू ने उिर हदया, मैं ज्िाला
माई के दशिन के र्लए जा रहा हूं। मेरे साथ जो लोग हैं, िह भी माताजी के भतत हैं और यािा पर जा रहे
हैं। संसार का पालन करने िाली मां- अकबर ने कहा यह ज्िाला माई कौन है, िहां जाने से तया होगा।
ध्यानूने कहा कक ज्िाला माई संसार का पालन करने िाली माता हैं। उनका प्रताप ऐसा है उनके स्थान
पर त्रबना तेल-बिी के ज्योर्त जलती रहती है। हम लोग प्रर्तििि उनके दशिन जाते हैं।

इस पर अकबर ने कहा, अगर तुम्हारी बंदगी पाक है तो दे िी माता अिश्य तुम्हारी इज्जत रखेगी।
इम्तहान के र्लए हम तुम्हारे घोडे की गदिन अलग कर दे ते हैं, तुम अपनी दे िी से कहकर उसे दोबारा
क्जंदा करिा लेना।

इस प्रकार, घोडे की गदिन काट दी गई। ध्यानू ने बादशाह से एक माह की अिधध तक घोडे के र्सर ि धड
को सुरक्षक्षत रखने की प्राथिना की। अकबर ध्यानू की बात मानते हुए उसे आगे की यािा की अनुमर्त दे
दी। ध्यानु साधथयों के साथ माता के दरबार में पहुंचा। उसने प्राथिना की कक मातेश्िरी आप अन्तयािमी

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हैं। बादशाह मेरी भतती की परीक्षा ले रहा है , मेरी लाज रखना, मेरे घोडे को अपनी कृपा ि शक्तत से
जीत्तित कर दे ना।

माना जाता है कक अपने भतत की लाज रखते हुए मां ने घोडे को कफर से क्जंदा कर हदया। यह सब कुछ
दे खकर बादशाह अकबर हैरान हो गया। अकबर को मां के आगे झुकाया र्सर- अकबर ने अपनी सेना के
साथ मंहदर की तरफ चल पडा। मंहदर पहुंचने पर सेना से मंहदर में पानी िलिाया, लेककन माता की
ज्िाला बुझी नहीं। तब जाकर उसे मां की महहमा का यकीन हुआ।

उसने माता के आगे र्सर झुकाया और सोने का छि चढाया, लेककन माता ने िह छि कबूल नहीं ककया।
कहा जाता है कक िह छि धगर कर ककसी अन्य पदाथि में पररिर्तित हो गया। क्जसे आज भी मंहदर में
दे खा जा सकता है।

ज्िाला माता से संबंधधत गोरखनाथ की कथा इस क्षेि में काफी प्रर्सद्ध है। कथा है कक भतत गोरखनाथ
यहां माता की आरधाना ककया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कक
आप आग जलाकर पानी गमि करें , मैं र्भक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और
गोरखनाथ र्भक्षा मांगने चले गये।

इसी बीच समय पररितिन हुआ और कर्लयुग आ गया। र्भक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये।
तब ये माता अक्ग्न जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कक सतयुग आने पर बाबा
गोरखनाथ लौटकर आएंगे, तब-तक यह ज्िाला यूं ही जलती रहे गी।

मंहदर में त्तिशालकाय चााँदी के दरिाज़े हैं। इसका गुंबद सोने की तरह चमकने िाले पदाथि की प्लेटों से
बना है। मुख्य द्िार से पहले एक बडा घंटा है, इसे नेपाल के राजा ने प्रदान ककया था। पूजा के र्लए
मंहदर का आंतररक हहस्सा चौकोर बनाया गया है। प्रांगण में एक चट्टान है, जो दे िी महाकाली के उग्र
मुख का प्रतीक है। द्िार पर दो र्संह त्तिराजमान है। रात को सोने से पहले की जाने िाली आरती का
त्तिशेि महत्त्ि है। यह आरती बेहद अलग होती है।

ज्िाला दिी शक्ततपीठ में माता की ज्िाला के अलािा एक अन्य चमत्कार दे खने को र्मलता है। मंहदर
के पास ही ‘गोरख डिब्बी’ है । यहां एक कुण्ि में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकक छूने पर कंु ि का
पानी ठं िा लगता है

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माता वैष्ट्णो दे वी

हहन्द ू पौराणणक मान्यताओं में जगत में धमि की हार्न होने और अधमि की शक्ततयों के बढऩे पर
आहदशक्तत के सत, रज और तम तीन रूप महासरस्िती, महालक्ष्मी और महादग
ु ाि ने अपनी सामूहहक
बल से धमि की रक्षा के र्लए एक कन्या प्रकट की।

यह कन्या िेतायुग में भारत के दक्षक्षणी समुरी तट रामेश्िर में पक्ण्ित रत्नाकर की पुिी के रूप में
अितररत हुई। कई सालों से संतानहीन रत्नाकर ने बच्ची को त्रिकुता नाम हदया,

परन्तु भगिान त्तिष्णु के अंश रूप में प्रकट होने के कारण िैष्णिी नाम से त्तिख्यात हुई। लगभग 9 ििि
की होने पर उस कन्या को जब यह मालूम हुआ है भगिान त्तिष्णु ने भी इस भू-लोक में भगिान श्रीराम
के रूप में अितार र्लया है। तब िह भगिान श्रीराम को पर्त मानकर उनको पाने के र्लए कठोर तप
करने लगी।

जब श्रीराम सीता हरण के बाद सीता की खोज करते हुए रामेश्िर पहुंचे। तब समुर तट पर ध्यानमग्र
कन्या को दे खा। उस कन्या ने भगिान श्रीराम से उसे पत्नी के रूप में स्िीकार करने को कहा।

भगिान श्रीराम ने उस कन्या से कहा कक उन्होंने इस जन्म में सीता से त्तििाह कर एक पत्नीव्रत का
प्रण र्लया है। ककं तुकर्लयुग में मैं कक्ल्क अितार लूंगा और तुम्हें अपनी पत्नी रूप में स्िीकार करुं गा।
उस समय तक तुम हहमालय क्स्थत त्रिकूट पिित की श्रेणी में जाकर तप करो और भततों के कष्ट और
द:ु खों का नाश कर जगत कल्याण करती रहो।

जब श्री राम ने रािण के त्तिरुद्ध त्तिजय प्राप्त ककया तब मां ने निरािमनाने का र्नणिय र्लया। इसर्लए
उतत संदभि में लोग, निराि के 9 हदनों की अिधध में रामायण का पाठ करते हैं।

श्री राम ने िचन हदया था कक समस्त संसार द्िारा मां िैष्णो दे िी की स्तुर्त गाई जाएगी, त्रिकुटा, िैष्णो
दे िी के रूप में प्रर्सद्ध होंगी और सदा के र्लए अमर हो जाएंगी।

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हहंद ू धमि में तैंतीस करोड दे िी-दे िताओं की मान्यता है , जबकक रामायण के अरण्यकांि के चौदहिे सगि
के चौदहिे श्लोक में र्सफि तैंतीस दे िता ही बताए गए हैं। उसके अनस
ु ार बारह आहदत्य, आठ िसु, ग्यारह
रुर और दो अक्श्िनी कुमार, ये ही कुल तैंतीस दे िता हैं।
िाल्मीकक रामायण की कुछ रोचक और अनसन
ु ी बातें - Ajab Gajab (ajabgjab.com)

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8. शक्ति पीठशजतत पीठ - ववककपीडडया (wikipedia.org)
(प्रथम कुलदे िी हहंगलाज माता)

परु ाणों के अनस


ु ार सती के शि के त्तिर्भन्न अंगों से बािन शक्ततपीठों का र्नमािण हुआ था। इसके पीछे
यह अंतकिथा है कक दक्ष प्रजापर्त ने कनखल (हररद्िार) में 'बह
ृ स्पर्त सिि' नामक यज्ञ रचाया। उस यज्ञ
में ब्रह्मा, त्तिष्णु, इंर और अन्य दे िी-दे िताओं को आमंत्रित ककया गया, लेककन जान-बूझकर अपने
जमाता भगिान शंकर को नहीं बुलाया। शंकरजी की पत्नी और दक्ष की पुिी सती त्तपता द्िारा न बुलाए
जाने पर और शंकरजी के रोकने पर भी यज्ञ में भाग लेने गईं। यज्ञ-स्थल पर सती ने अपने त्तपता दक्ष
से शंकर जी को आमंत्रित न करने का कारण पूछा और त्तपता से उग्र त्तिरोध प्रकट ककया। इस पर दक्ष
प्रजापर्त ने भगिान शंकर को अपशब्द कहे । इस अपमान से पीडडत हुई सती ने यज्ञ-अक्ग्न कंु ि में
कूदकर अपनी प्राणाहुर्त दे दी। भगिान शंकर को जब इस दघ
ु ट
ि ना का पता चला तो क्रोध से उनका
तीसरा नेि खुल गया। भगिान शंकर के आदे श पर उनके गणों के उग्र कोप से भयभीत सारे दे िता
ऋत्तिगण यज्ञस्थल से भाग गये। भगिान शंकर ने यज्ञकंु ि से सती के पाधथिि शरीर को र्नकाल कंधे
पर उठा र्लया और दःु खी हुए इधर-उधर घूमने लगे। तदनंतर सम्पूणि त्तिश्ि को प्रलय से बचाने के र्लए
जगत के पालनकिाि भगिान त्तिष्णु ने चक्र से सती के शरीर को काट हदया। तदनंतर िे टुकडे 52 जगहों
पर धगरे । िे ५२ स्थान शक्ततपीठ कहलाए। सती ने दस
ू रे जन्म में हहमालयपुिी पाििती के रूप में शंकर
जी से त्तििाह ककया।

यह िोडिया राजपूत की प्रथम कुलदे िी हहंगलाज माता पूजनीय है। एक लोक


गाथानुसार चारणों तथा राजपुरोहहत की कुलदे िी हहंगलाज थी, क्जसका र्निास स्थान पाककस्तान के
बलुधचस्थान प्रान्त में था। हहंगलाज नाम के अर्तररतत हहंगलाज दे िी का चररि या इसका इर्तहास
अभी तक अप्राप्य है। हहंगलाज दे िी से सम्बक्न्धत छं द गीत अिश्य र्मलती है।

सातो द्वीप शजतत सब रात को रिात रास।


प्रात:आप नतहु मात हहांगिाज धगर में॥

अथाित: सातो द्िीपों में सब शक्ततयां रात्रि में रास रचाती है और प्रात:काल सब शक्ततयां भगिती
हहंगलाज के धगर में आ जाती है।

उत्पत्ति की एक और कथा के अनुसार सती के त्तियोग मे क्षुब्ध र्शि जब सती की पाधथिि दे ह को लेकर
तीनों लोको का भ्रमण करने लगे तो भगिान त्तिष्णु ने सती के शरीर को 51 खंिों मे त्तिभतत कर हदया
जहााँ जहााँ सती के अंग- प्रत्यंग धगरे स्थान शक्ततपीठ कहलाये । केश धगरने से महाकाली,नैन धगरने से
नैना दे िी, कुरूक्षेि मे गुल्फ धगरने से भरकाली,सहारनपुर के पास र्शिार्लक पिित पर शीश धगरने
से शाकम्भरीआहद शक्ततपीठ बन गये सती माता के शि को भगिान त्तिष्णु के सुदशिन चक्र से काटे
जाने पर यहां उनका ब्रह्मरं ध्र (र्सर) धगरा था।

43
हहांगिाज माता मांहदर की वावििक 'तीथियात्रा'

हहंगलाज माता को एक शक्ततशाली दे िी माना जाता है जो अपने सभी भततों के र्लए मनोकामना पण
ू ि
करती है। जबकक हहंगलाज उनका मख्
ु य मंहदर है, मंहदरों के पडोसी भारतीय
राज्य गजु रात और राजस्थान में भी उनके र्लए समत्तपित मंहदर बने हुए हैं।[7] मंहदर को त्तिशेि रूप से
संस्कृत में हहंद ू शास्िों में हहंगल
ु ा, हहंगलाजा, हहंगलाजा और हहंगल
ु ता के नाम से जाना जाता है।[दे िी
को हहंगलाज माता (मां हहंगलाज), हहंगलाज दे िी (दे िी हहंगलाज), हहंगल
ु ा दे िी (लाल दे िी या हहंगल
ु ा
की दे िी)[4] और कोट्टारी या कोटिी के रूप में भी जाना जाता है .

44
9. तारा दे वी की कथा, कहािी /तारामती िाम से अयोध्‍
या के प्रतापी राजा हररश्‍िन्‍र के
साथ वववाह/ माता का पूजि-जागरण /

राजा स्पशि मााँ भगिती के पज


ु ारी थे और रात-हदन महामाई की पज
ू ा ककया करते थे। मााँ ने भी उन्हें
राजपाट, धन-दौलत, ऐशो-आराम के सभी साधन हदये थे, कमी थी तो र्सफि यह कक उनके घर में कोई
संतान नही थी। यह गम उन्हें हदन-रात सताता था। िो मााँ से यही प्राथिना करते थे कक मााँ उन्हें एक
लाल बख्श दें , ताकक िे भी संतान का सुख भोग सकें। उनके पीछे भी उनका नाम लेने िाला हो, उनका
िंश चलता रहे । मााँ ने उसकी पुकार सुन ली। एक हदन मााँ ने आकर राजा को स्िप्न में दशिन हदये और
कहा कक िे उसकी तेरी भक्तत से बहुत प्रसन्न हैं। उन्होंने राजा को दो पुत्रियााँ प्राप्त होने का िरदान
हदया।

कुछ समय के बाद राजा के घर में एक कन्या ने जन्म र्लया, राजा ने अपने राज दरबाररयों को बुलाया,
पक्ण्ितों ि ज्योर्तिों को बल
ु ाया और बच्ची की जन्म कुण्िली तैयार करने का आदे श हदया।पक्ण्ित तथा
ज्योर्तत्तियों ने उस बच्ची की जन्म कुण्िली तैयार की और कहा कक िो कन्या तो साक्षात दे िी है। यह
कन्या जहााँ भी कदम रखेगी, िहााँ खुर्शयां ही खुर्शयां होंगी। कन्या भी भगिती की पुजाररन होगी। उस
कन्या का नाम तारा रखा गया। थोडे समय बाद राजा के घर िरदान के अनुसार एक और कन्या ने
जन्म र्लया। मंगलिार का हदन था।

पक्ण्ितों और ज्योर्तत्तियों ने जब जन्म कुण्िली तैयार की तो उदास हो गये। राजा ने उदासी का कारण
पूछा तो िे कहने लगे की िह कन्या राजा के र्लये शुभ नहीं है। राजा ने उदास होकर ज्योर्तत्तियों से पूछा
कक उन्होंने ऐसे कौन से बुरे कमि ककये हैं जो कक इस कन्या ने उनके घर में जन्म र्लया ? उस समय
ज्योर्तत्तियों ने ज्योर्ति से अनुमान लगाकर बताया कक िे दोनो कन्याएं क्जन्होंने उनके घर में जन्म
र्लया था, पूिि जन्म में दे िराज इन्र के दरबार की अप्सराएं थीं। उन्होंने सोचा कक िे भी मत्ृ युलोक में
भ्रमण करें तथा दे खें कक मत्ृ युलोक में लोग ककस तरह रहते हैं। दोनो ने मत्ृ युलोक पर आकर एकादशी
का व्रत रखा। बडी बहन का नाम तारा था तथा छोटी बहन का नाम रूतमन। बडी बहन तारा ने अपनी
छोटी बहन से कहा कक रूतमन आज एकादशी का व्रत है , हम लोगों ने आज भोजन नहीं करना।अतः िो
बाजार जाकर फल कुछ ले आये। रूतमन बाजार फल लेने के र्लये गई। िहां उसने मछली के पकोडे
बनते दे खे। उसने अपने पैसों के तो पकोडे खा र्लये तथा तारा के र्लये फल लेकर िापस आ गई और
फल उसने तारा को दे हदये। तारा के पूछने पर उसने बताया कक उसने मछली के पकोडे खा र्लये हैं।

तारा ने उसको एकादशी के हदन मााँस खाने के कारण शाप हदया कक िो र्नम्न योर्नयों में धगरे । र्छपकली
बनकर सारी उम्र ही कीडे-मकोडे खाती रहे ।

उसी दे श में एक ऋत्ति गुरू गोरख अपने र्शष्यों के साथ रहते थे। उनके र्शष्यों में एक र्शष्य तेज स्िभाि
का तथा घमण्िी था। एक हदन िो घमण्िी र्शष्य पानी का कमण्िल भरकर खुले स्थान में , एकान्त में ,

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जाकर तपस्या पर बैठ गया। िो अपनी तपस्या में लीन था, उसी समय उधर से एक प्यासी कत्तपला
गाय आ गई। उस ऋत्ति के पास पडे कमण्िल में पानी पीने के र्लए उसने माँह
ु िाला और सारा पानी पी
गई। जब कत्तपता गाय ने मह
ाँु बाहर र्नकाला तो खाली कमण्िल की आिाज सन
ु कर उस ऋत्ति की समाधध
टूटी। उसने दे खा कक गाय ने सारा पानी पी र्लया था।

ऋत्ति ने गुस्से में आ उस कत्तपला गाय को बहुत बुरी तरह धचमटे से मारा; क्जससे िह गाय लहुलुहान हो
गई। यह खबर गुरू गोरख को र्मली तो उन्होंने कत्तपला गाय की हालत दे खी। उन्होंने अपने उस र्शष्य
को बहुत बरु ा-भला कहा और उसी ितत आश्रम से र्नकाल हदया। गरू
ु गोरख ने गौ माता पर ककये गये
पाप से छुटकारा पाने के र्लए कुछ समय बाद एक यज्ञ रचाया। इस यज्ञ का पता उस र्शष्य को भी चल
गया, क्जसने कत्तपला गाय को मारा था। उसने सोचा कक िह अपने अपमान का बदला जरूर लेगा। यज्ञ
शरू
ु होने उस र्शष्य ने एक पक्षी का रूप धारण ककया और चोंच में सपि लेकर भण्िारे में फेंक हदया;
क्जसका ककसी को पता न चला। िह र्छपकली जो त्तपछले जन्म में तारा दे िी की छोटी बहन थी तथा
बहन के शाप को स्िीकार कर र्छपकली बनी थी, सपि का भण्िारे में धगरना दे ख रही थी।

उसे त्याग ि परोपकार की र्शक्षा अब तक याद थी। िह भण्िारा होने तक घर की दीिार पर धचपकी
समय की प्रतीक्षा करती रही। कई लोगो के प्राण बचाने हे तु उसने अपने प्राण न्योछािर कर लेने का मन
ही मन र्नश्चय ककया। जब खीर भण्िारे में दी जाने िाली थी, बााँटने िालों की आाँखों के सामने ही िह
र्छपकली दीिार से कूदकर कढाई में जा धगरी। लोग र्छपकली को बरु ा-भला कहते हुये खीर की कढाई
को खाली करने लगेतो उन्होंने उसमें मरे हुये सांप को दे खा। तब जाकर सबको मालम
ू हुआ कक र्छपकली
ने अपने प्राण दे कर उन सबके प्राणों की रक्षा की थी। उपक्स्थत सभी सज्जनों और दे िताओं ने उस
र्छपकली के र्लए प्राथिना की कक उसे सब योर्नयों में उत्तम मनुष्य जन्म प्राप्त हो तथा अन्त में िह
मोक्ष को प्राप्त करे ।

तीसरे जन्म में िह र्छपकली राजा स्पशि के घर कन्या के रूप में जन्मी। दस
ू री बहन तारा दे िी ने कफर
मनुष्य जन्म लेकर तारामती नाम से अयोध्या के प्रतापी राजा हररश्चन्र के साथ त्तििाह ककया।

राजा स्पशि ने ज्योर्तत्तियों से कन्या की कुण्िली बनिाई ज्योर्तत्तियों ने राजा को बताया कक कन्या
आपके र्लये हार्नकारक र्सद्ध होगी, शकुन ठीक नहीं है। अत: िे उसे मरिा दें । राजा बोले कक लडकी
को मारने का पाप बहुत बडा है। िे उस पाप का भागी नहीं बन सकते।
तब ज्योर्तत्तियों ने त्तिचार करके राय दी कक राजा उसे एक लकडी के सन्दक
ू में बन्द करके ऊपर से
सोना-चांदी आहद जडिा दें और कफर उस सन्दक
ू के भीतर लडकी को बन्द करके नदी में प्रिाहहत करिा
दें । सोने चांदी से जडा हुआ सन्दक
ू अिश्य ही कोई लालच में आकर र्नकाल लेगा और राजा को कन्या
िध का पाप भी नहीं लगेगा। ऐसा ही ककया गया और नदी में बहता हुआ सन्दक
ू काशी के समीप एक
भंगी को हदखाई हदया तो िह सन्दक
ू को नदी से बाहर र्नकाल लाया।

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उसने जब सन्दक
ू खोला तो सोने-चांदी के अर्तररतत अत्यन्त रूपिान कन्या हदखाई दी। उस भंगी के
कोई संतान नहीं थी। उसने अपनी पत्नी को िह कन्या लाकर दी तो पत्नी की प्रसन्नता का हठकाना न
रहा। उसने अपनी संतान के समान ही बच्ची को छाती से लगा र्लया। भगिती की कृपा से उसके स्तनो
में दध
ू उतर आया, पर्त-पत्नी दोनो ने प्रेम से कन्या का नाम रूतको रख हदया। रूतको बडी हुई तो
उसका त्तििाह हुआ। रूतको की सास महाराजा हररश्चन्र के घर सफाई आहद का काम करने जाया करती
थी। एक हदन िह बीमार पड गई तो तो रूतको महाराजा हररश्चन्र के घर काम करने के र्लये पहुाँच गई।
महाराज की पत्नी तारामती ने जब रूतको को दे खा तो िह अपने पि
ू ि जन्म के पण्
ु य से उसे पहचान गई।
तारामती ने रूतको से कहा की िो उसके पास आकर बैठे। महारानी की बात सुनकर रूतको बोली कक िो
एक नीधच जार्त की भंधगन है, भला िह रानी के पास कैसे बैठ सकती थी ?

तब तारामती ने उसे बताया कक िह उसके पि


ू ि जन्म के सगी बहन थी। एकादशी का व्रत खंडित करने
के कारण उसे र्छपकली की योर्न में जाना पडा जो होना था। जो होना था िो तो हो चक
ु ा। अब उसे अपने
ितिमान जन्म को सध
ु ारने का उपाय करना चाहहये और भगिती िैष्णों माता की सेिा करके अपना
जन्म सफल बनाना चाहहये। यह सुनकर रूतको को बडी प्रसन्नता हुई और जब उसने उपाय पूछा तो
रानी ने बताया कक िैष्णों माता सब मनोरथों को परू ा करने िाली हैं। जो लोग श्रद्धापूिक
ि माता का
पूजन ि जागरण करते हैं, उनकी सब मनोकाना पूणि होती हैं।

रूतको ने प्रसन्न होकर माता की मनौती मानते हुये कहा कक यहद माता की कृपा से उसे एक पि
ु प्राप्त
हो गया तो िो माता का पज
ू न ि जागरण करायेगी। माता ने प्राथिना को स्िीकार कर र्लया। फलस्िरूप
दसिें महीने उसके गभि से एक अत्यन्त सुन्दर बालक ने जन्म र्लया; परन्तु दभ
ु ािग्यिश रूतको को
माता का पूजन-जागरण कराने का ध्यान न रहा। जब िह बालक पांच ििि का हुआ तो एक हदन उसे
माता (-चेचक) र्नकल आई। रूतको द:ु खी होकर अपने पूिज
ि न्म की बहन तारामती के पास आई और
बच्चे की बीमारी का सब ित
ृ ान्त कह सुनाया। तब तारामती ने पूछा कक उससे माता के पूजन में कोई
भूल तो नहीं हुई । इस पर रूतको को छह ििि पहले की बात याद आ गई। उसने अपराध स्िीकार कर
र्लया। उसने कफर मन में र्नश्चय ककया कक बच्चे को आराम आने पर जागरण अिश्य करिायेगी।

सत्यवादी राजा हररश्िांर की कथा, कहािी

राजा हररश्चंर जी अयोध्या के एक प्रर्सद्ध सय


ु ि
ि ंशी राजा थे। ये इक्ष्िाकुिंशी राजा थे। इनके त्तपता राजा
सत्यव्रत थे। राजा हररश्चंर अपनी सत्यर्नष्ठा के र्लए बहुत ही प्रर्सद्ध थे।
क्जसके कारण इनको अपनी जीिन में बहुत से कष्टो को सहना पडा लेककन कफर भी इन्होने
अपनी सत्यर्नष्ठा को बनाये रखा। राजा हररश्चंर की पत्नी तारामती थी, तारामती को कुछ लोग शैव्या
भी कहते थे। इनके पुि का नाम रोहहतश्ि था।

त्तिश्िार्मि ने उनकी परीक्षा लेने का र्नणिय ककया। एक रात्रि को राजा हररश्चंर को एक स्िप्न आया
और क्जसमे उन्होंने दे खा उनके दरबार में एक तेजस्िी ब्राम्हाण आया और राजा हररश्चंर ने उनको

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आदर और सत्कार से बैठाया। और उनकी इच्छा को पूछा, और उनकी इच्छा के अनुसार राजा हररश्चंर
ने उनको परू ा राज्य दान दे हदया। सब
ु ह उठाने के बाद राजा हररश्चंर ने उसे एक स्िप्न समझ कर भल

गये।

दस
ु रे हदन महत्तिि त्तिश्िार्मि उनके दरबार में आये और हररश्चंर को उस सपने के बारे में याद हदलाया।
कुछ समय ध्यान लगाने के बाद राजा हररश्चंर ने अपने सपने को स्िीकार कर र्लया। त्तिश्िार्मि ने
राजा से दक्षक्षणा मााँगी तयोंकक यह धार्मिक परम्परा के अनुसार दान से बाद दक्षक्षणा दे ने को कहा, राजा
हररश्चंर ने अपने मंिी और र्सपाही से राजकोि से पैसे लाने को कहा।

इस बात पर त्तिश्िार्मि ने राजा से कहा – आप ने तो अपना परू ा राज्य पहले ही मझ


ु े दान दे हदया और
आप राजकोि से पैसे नही र्नकाल सकते है। महाराजा हररश्चन्र सोचने लगे कक त्तिश्िार्मि की बात में
सच्चाई है ककन्तु उन्हें दक्षक्षणा दे ना भी आिश्यक है।

िे यह सोच ही रहे थे कक त्तिश्िार्मि ने कहा – तुम हमारा समय व्यथि ही नष्ट कर रहे हो। यहद तुम्हे
दक्षक्षणा नहीं दे ना है तो साफ – साफ कह दो, मैं दक्षक्षणा नहीं दे सकता। मेरा समय तयों बबािद कर रहे
हो।

कुछ दे र बाद राजा हररश्चंर ने कहा – मैं क्षमा चाहता हूाँ, अभी मेरे पास कुछ भी नही है आप को दे ने को
लेककन अगर मुझे थोिा समय दे तो मैं आप को दक्षक्षणा दे सकता हूाँ। राजा हररश्चंर भगिान को मानते
थे और िो अधमि से िरते थे त्तिश्िार्मि ने समय तो हदया ककं तु चेतािनी भी दी, यहद समय पर दक्षक्षणा
ना र्मला तो मैं तुमको श्राप दे दं ग
ू ा और भस्म कर दं ग
ू ा।

राजा हररश्चंर के पास एक ही उपाय था कक िह स्ियं को बेचकर दक्षक्षणा चक


ु ा सकें। राजा हररश्चंर ने
पशओु ं की भांर्त स्ियं को बेच हदया। लेककन बहुत प्रयास करने के बाद भी िो खद ु को बेंच नही सके।
उन्होंने स्ियं को काशी के एक व्यक्तत में खद
ु को बेचने के र्लए राज्य को छोड कर अपनी पत्नी और
बच्चे को लेकर काशी चले गए।

राजा हररश्चंर ने खुद को बेचने की बहुत कोर्शश की लेककन कोई भी इनको खरीदने को तैयार नही था।
बहुत से जगहों पर जाने के बाद ये एक शमशान घाट गए िहां के मार्लक ने हररश्चंर को खरीद र्लया।
क्जससे उनको अपनी पत्नी और पुि से अलग होना पडा। रानी तारामती को एक साहूकार के यहााँ घरे लु
काम कर र्लया। राजा हररश्चंर ने शमशान घाट में काम करके र्मले पैसे से दक्षक्षणा चूका हदया।

रानी तारामती महारानी थी, क्जसके पास बहुत सी दास – दार्सयााँ थी, अब बतिन माजने और चौका
लगाने का कम करने लगी। राजा हररश्चंर जो अपनी सोने की र्संघासन पर बैठते थो िो शमशान घाट
में काम करने लगे थे। अपने मार्लक की िांट – फटकार सहते हुए भी र्नयम ि ईमानदारी से अपना
कायि करते रहे ।

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एक हदन रोहहतश्ि खेल रहा रहा था और उसको साप ने िंस र्लया, क्जससे उसकी मत्ृ यु हो गई। रानी
तारामती को नही पता था कक इनके पर्त राजा हररश्चंर कहा काम करते है और इस त्तिपत्ति को अकेले
ही झेलते रही थी। उनके पास कफन के पैसे भी नही थे। िो रोती त्रबलखती ककसी तरह से अपने पुि के
शि को गोद में लेकर शमशान घाट पहुंची।

रात का समय था त्रबलकुल सन्नाटा था और दो लाशे जल रही थी, हररश्चंर ने तारामती से से शमशान
कर मााँगा, रात के अाँधेरे में राजा हररश्चंर ने अपनी पत्नी और पुि को पहचान र्लया लेककन कफर भी
उन्होंने अपने र्नयमो को ढील नही दी। तयोकक िो अपने मार्लक के साथ त्तिश्िास घात नही करना
चाहते थे।

तारामती ने उनसे कहा – मेरे पास कुछ भी नही है शमशान कर दे ने के रूप में। हररश्चंर ने कहा – अगर
तुम्हारे पास कुछ भी नही है तो तुम अपनी साडी का आधा भाग फाड कर दे दो। मैं उसे ही शमशान कर
समझ लाँ ग
ू ा

तारामती त्तििश थी, उन्होंने ज्यो ही अपनी साडी को फाडना आरम्भ ककया, आकाश में गंभीर गजिना
हुआ और आकाशिाणी हुई और स्ियं त्तिश्िार्मि प्रकट हो गये। उन्होंने रोहहताश्ि को भी जीत्तित कर
हदया। त्तिश्िार्मि ने हररश्चन्र को आशीिािद दे ते हुए कहा- मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था मैं दे खना चाहता
था कक तुम ककस सीमा तक सत्य एिं धमि का पालन कर सकते हो। यह कहते हुए त्तिश्िार्मि ने उन्हें
उनका राज्य ज्यो का त्यों लौटा हदया।

महाराजा हररश्चन्र ने स्ियं को बेचकर भी सत्यव्रत का पालन ककया। यह सत्य एिं धमि के पालन का
एक बेर्मसाल उदाहरण है। इसी कारण आज भी सत्यिादी राजा हररश्चन्र का नाम बहुत आदर के साथ
र्लया जाता है।

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10. भतत ध्रुव की कथा / कहािी

ध्रुव त्रत्रिोकी में सबसे उत्कृष्ट्ट है, समस्त ग्रहों और तारामांडि का आश्रय।

निश्िि (ध्रव
ु ) जो सूय,ि िांर आहद ग्रहों, सभी िक्षत्रों और सप्तविियों से भी ऊपर: ध्रव

का मतिब होता है जस्थर, दृढ़ , अपिे स्थाि से वविलित ि होिे वािा जजसे भतत ध्रुव
िे सत्य सात्रबत कर हदया।

स्िायम्भुि मनु और शतरूपा के पुि उिानपाद मनु के बाद र्संहासन पर त्तिराजमान हुए। उिानपाद
अपने त्तपता मनु के समान ही न्यायत्तप्रय और प्रजापालक राजा थे। उिानपाद की दो रार्नयां थी। बडी
का नाम सुनीर्त और छोटी का नाम सुरुधच था। सुनीर्त को एक पुि ध्रुि और सुरुधच को भी एक पुि था
क्जसका नाम उिम था।

Bhakt Dhruv

ध्रुि बडा होने के कारण राजगद्दी का स्िाभात्तिक उिराधधकारी था पर सुरुधच अपने पुि उिम को त्तपता
के बाद राजा बनते दे खना चाहती थी।

इस कारण िो ध्रुि और उसकी मााँ सुनीर्त से ईष्याि करने लगी और धीरे धीरे उिानपाद को अपने
मोहमाया के जाल में बांधने लगी।

इस प्रकार सुरुधच ने ध्रुि और सुनीर्त को उिानपाद से दरू कर हदया। उिानपाद भी सुरुधच के रूप पर
मोहहत होकर अपने पाररिाररक कतिव्यों से त्तिमुख हो गए और सुनीर्त की उपेक्षा करने लगे।

एक हदन बालक ध्रुि त्तपता से र्मलने की क्जद करने लगा, माता ने र्तरस्कार के भय से और बालक के
कोमल मन को ठे स ना लगे इसर्लए ध्रुि को बहलाने लगी पर ध्रुि अपनी क्जद पर अडा रहा। अंत में
माता ने हारकर उसे त्तपता के पास जाने की आज्ञा दे दी।

50
जब ध्रुि त्तपता के पास पहुाँचा तो दे खा कक उसके त्तपता राजर्संघासन पर बैठे हैं और िहीीँ पास में उसकी
त्तिमाता सरुु धच भी बैठी है। अपने भाई उिम को त्तपता की गोद में बैठा दे खकर ध्रिु की इक्षा भी त्तपता की
गोद में बैठने की हुई।

पर उिानपाद ने अपनी त्तप्रय पत्नी सुरुधच के सामने गोद में चढने को लालार्यत प्रेमिश आये हुए अपने
पुि का आदर नहीं ककया।

अपनी सौत के पुि ध्रुि को त्तपता की गोद में चढने को उत्सुक दे खकर सुरुधच को क्रोध आ गया और कहा
– ” अरे लल्ला, त्रबना मेरे पेट से जन्म र्लए ककसी अन्य स्िी का पुि होकर तू तयों इतनी बडी इक्षा
करता है।

तू अज्ञानी है इसीर्लए ऐसी अलभ्य िस्तु की इक्षा करता है। चक्रिती राजाओं के बैठने के र्लए बना यह
राजर्संहासन तो र्सफि मेरे पुि उिम के ही योग्य है तू इस व्यथि की इक्षा को अपने मन से र्नकाल दे । “

अपनी त्तिमाता का ऐसा कथन सुनकर ध्रुि कुत्तपत होकर त्तपता को छोडकर अपनी माता के महल को
चल हदया। उस समय क्रोध से ध्रुि के होंठ कांप रहे थे और िो जोरों से र्ससककयााँ ले रहा था।

अपने पुि को इस प्रकार अत्यंत क्रोधधत और णखन्न दे खकर सुनीर्त ने ध्रुि को प्रेमपूिक
ि अपनी गोद में
त्रबठाकर पूछा – ” बेटा, तेरे क्रोध का तया कारण है। ककसने तेरा र्नरादर करके तेरे त्तपता का अपमान
करने का साहस ककया है। ”

ये सुनकर ध्रुि ने अपनी माता को रोते हुए िह सब बात बताई जो उसकी त्तिमाता ने त्तपता के सामने
कही थी। अपने पुि से सारी बात सुनकर सुनीर्त अत्यंत दख
ु ी होकर बोली –

” बेटा, सुरुधच ने ठीक ही कहा है, तू अिश्य ही मन्दभाग्य है जो मेरे गभि से जन्म र्लया। पुण्यिानों से
उसके त्तिपक्षी भी ऐसी बात नहीं कह सकते। पूिज
ि न्मों में तूने जो कुछ भी ककया है उसे कौन दरू कर
सकता है और जो नहीं ककया है उसे तुझे कौन हदला सकता है।

इसर्लए तुझे अपनी त्तिमाता की बातों को भूल जाना चाहहए। हे ित्स, पुण्यिानों को ही राजपद, घोडे,
हाथी आहद प्राप्त होते हैं, ऐसा जानकर तू शांत हो जा।

यहद सरु
ु धच के िातयों से तझ
ु े अत्यंत दःु ख हुआ है तो सििफलदायी पण्
ु य के संग्रह करने का प्रयत्न कर।

तू सश
ु ील, पण्
ु यात्मा और समस्त प्राणणयों का हहतैिी बन तयोंकक क्जस प्रकार नीची भर्ू म की ओर
ढलकता हुआ जल अपने आप ही जलाशयों में एकि हो जाता है।

उसी प्रकार सत्पाि मनुष्य के पास समस्त सम्पत्तियााँ अपने आप ही आ जाती हैं। “

51
माता की बात सुनकर ध्रुि ने कहा – ” मााँ, अब मैं िही प्रयत्न करूाँगा क्जससे सम्पूणि लोकों में आदरणीय
सििश्रेष्ठ पद को प्राप्त कर सकाँू । अब मझ
ु े त्तपता का र्संघासन नहीं चाहहए िह मेरे भाई उिम को ही
र्मले।

मैं ककसी दस
ु रे के हदए हुए पद का इक्षुक नहीं हूाँ, मैं तो अपने पुरुिाथि से ही उस परम पद को पाना चाहता
हूाँ क्जसको त्तपताजी ने भी नहीं प्राप्त ककया है। ”

अपनी माता से इस प्रकार कहकर ध्रुि सुनीर्त के महल से र्नकल पडा और नगर से बाहर िन में पहुाँचा।
िहााँ ध्रुि ने पहले से ही आये हुए सात मुिीश्वरों ( सप्तविियों ) को मग
ृ चमि के आसन पर बैठे दे खा। ध्रुि
ने उन सबको प्रणाम करके उनका उधचत अर्भिादन ककया और नम्रतापूिक
ि कहा – ” हे महात्माओं, मैं
सुनीर्त और राजा उत्तािपाद का पुत्र ध्रुव हूाँ। मैं आत्मग्लार्न के कारण आपके पास आया हूाँ। “

यह सुनकर ऋत्ति बोले – ” राजकुमार, अभी तो तू र्सफि चार-पााँच ििि का बालक जान पडता है।

तेरे धचंता का कोई कारण भी हदखाई नहीं दे ता है तयोंकक अभी तो तेरे त्तपता जीत्तित हैं कफर तेरी ग्लार्न
का तया कारण है ? ”

तब ध्रि
ु ने ऋत्तियों को िह सब बात बताई जो सरु
ु धच ने उसे कहे थे। ये सन
ु कर ऋत्तिगण आपस में कहने
लगे – ” अहो, क्षाितेज कैसा प्रबल है, क्जससे इस नन्हे बालक के ह्रदय से भी अपनी त्तिमाता के दि
ु च
ि न
नहीं टलते। “

ऋत्ति बोले – ” हे क्षत्रियकुमार, तन


ू े जरूर कुछ र्नश्चय ककया है, अगर तेरा मन करे तो िह हमें बता। हे
तेजस्िी, हमें यह भी बता कक हम तेरी तया सहायता करें । “

ध्रुि ने कहा – ” हे मुर्नगण, मुझे न तो धन की इक्षा है और ना ही राज्य की। मैं तो केिल एक उसी
स्थान को चाहता हूाँ क्जसको पहले ककसी ने न भोगा हो।

हे मुर्नश्रेष्ठ, आप लोग बस मुझे यह बता दें कक तया करने से मुझे िह श्रेष्ठ स्थान प्राप्त हो सकता है।

ध्रि
ु के इस प्रकार से पछ
ू ने पर सभी ऋत्तिगण एक एक करके ध्रि
ु को उपदे श दे ने लगे।

▪ मरीधि बोले – ” हे राजपि


ु , त्रबना नारायण की आराधना ककये मनष्ु य को िह श्रेष्ठ स्थान नहीं
र्मल सकता अतः तू उनकी ही आराधना कर। “
▪ अत्रत्र बोले – ” जो परा प्रकृर्त से भी परे हैं िे परमपरु
ु ि नारायण क्जससे संतष्ु ट होते हैं उसी को
िह अक्षय पद प्राप्त होता है, यह मैं एकदम सच कहता हूाँ। “
▪ अांधगरा बोले – ” यहद तू अग्रस्थान का इक्षुक है तो क्जस सििव्यापक नारायण से यह सारा जगत
व्याप्त है , तू उसी नारायण की आराधना कर। “

52
▪ पुिस्त्य बोले – ” जो परब्रह्म, परमधाम और परस्िरूप हैं उन नारायण की आराधना करने से
मनष्ु य अर्त दल
ु भ
ि मोक्षपद को भी प्राप्त कर लेता है। “
▪ पि
ु ह बोले – ” हे सव्र
ु त, क्जन जगत्पर्त की आराधना से इन्र ने इन्रपद प्राप्त ककया है तू उन
यज्ञपर्त भगिान त्तिष्णु की आराधना कर। “
▪ क्रतु बोले – ” जो परमपरु
ु ि यज्ञपरु
ु ि, यज्ञ और योगेश्िर हैं, उन जनादिन के संतष्ु ट होने पर
कौन सी िस्तु दल
ु भ
ि रह जाती है। “
वलसष्ट्ठ बोले – ” हे ित्स, त्तिष्णु भगिान की आराधना करने पर तू अपने मन से जो कुछ चाहे गा िही
प्राप्त कर लेगा, कफर त्रिलोकी के श्रेष्ठ स्थान की तो बात ही तया है। “
ध्रुि ने कहा – ” हे महत्तििगण, आपलोगों ने मुझे आराध्यदे ि तो बता हदया। अब कृपा करके मुझे यह भी
बता दीक्जये कक मैं ककस प्रकार उनकी आराधना करूाँ। “

ऋत्तिगण बोले – ” हे राजकुमार, तू समस्त बाह्य त्तिियों से धचि को हटा कर उस एकमाि नारायण में
अपने मन को लगा दे और एकाग्रधचि होकर :
‘ ॐ िमो भगवते वासुदेवाय ‘
इस मंि का र्नरं तर जाप करते हुए उनको प्रसन्न कर।“ क्जस स्वायम्भुव मिु के कुल में ककसी को
स्थान र्मलना अर्त दलु भ
ि है उन्हीं के घर में तन
ू े उिानपाद के यहााँ जन्म र्लया।

जजसिे मुझे (िारायण ) सांतुष्ट्ट ककया है उसके लिए इस सांसार में कुछ भी असांभव िहीां है। मेरी कृपा से
तू र्नश्चय ही उस स्थान को प्राप्त करे गा जो त्रिलोकी में सबसे उत्कृष्ट है और समस्त ग्रहों और
तारामंिल का आश्रय है।

मेरे त्तप्रय भतत ध्रुि, मैं तझ


ु े िह र्नश्चल (ध्रुव) स्थान दे ता हूाँ जो सय
ू ,ि चंर आहद ग्रहों, सभी नक्षिों
और सप्तत्तिियों से भी ऊपर है।
तेरी माता सुनीर्त भी िहााँ तेरे साथ र्निास करे गी और जो लोग प्रातःकाल और संध्याकाल तेरा गुणगान
करें गे उन्हें महान पुण्य प्राप्त होगा। “

धन्य है ध्रुि की माता सुनीर्त क्जसने अपने हहतकर िचनों से ध्रुि के साथ साथ स्ियं भी उस सििश्रेष्ठ
स्थान को प्राप्त कर र्लया।

ध्रुि के नाम से ही उस हदव्य लोक को संसार में ध्रुव तारा के नाम से जाना जाता है।
ध्रुि का मतलब होता है क्स्थर, दृढ , अपने स्थान से त्तिचर्लत न होने िाला क्जसे भतत ध्रुि ने सत्य
सात्रबत कर हदया।

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11. ऋवि पराशर

ऋग्िेद के मंिदृष्टा और गायिी मंि के महान साधक सप्त ऋत्तियों में से एक महत्तिि िर्शष्ठ के पौि
महान िेदज्ञ, ज्योर्तिाचायि, स्मर्ृ तकार एिं ब्रह्मज्ञानी ऋत्ति पराशर के त्तपता का नाम शक्ततमुर्न और
माता का नाम अद्यश्यंती था। ऋत्ति पराशर ने र्निादाज की कन्या सत्यिती के साथ उसकी कंु आरी
अिस्था में समागम ककया था क्जसके चलते 'महाभारत' के लेखक िेदव्यास का जन्म हुआ। सत्यिती
ने बाद में राजा शांतनु से त्तििाह ककया था।

परशुराम िेता यग
ु (रामायण काल) में एक ब्राह्मण ऋत्ति के यहां जन्मे थे। जो त्तिष्णु के छठा
अितार हैं[1]। पौरोणणक िि
ृ ान्तों के अनुसार उनका जन्म महत्तिि भग
ृ ु के पुि महत्तिि जमदक्ग्न द्िारा
सम्पन्न पुिेक्ष्ट यज्ञ से प्रसन्न दे िराज इन्र के िरदान स्िरूप पत्नी रे णुका के गभि से िैशाख शुतल
तत
ृ ीया को मध्यप्रदे श के इंदौर क्जला में ग्राम मानपुर के जानापाि पिित में हुआ। िे भगिान त्तिष्णु के
आिेशाितार हैं। त्तपतामह भग ृ ु द्िारा सम्पन्न नामकरण संस्कार के अनन्तर राम कहलाए। िे
जमदक्ग्न का पुि होने के कारण जामदग्न्य और र्शिजी द्िारा प्रदि परशु धारण ककये रहने के कारण
िे परशुराम कहलाये। आरक्म्भक र्शक्षा महत्तिि त्तिश्िार्मि एिं ऋचीक के आश्रम में प्राप्त होने के साथ
ही महत्तिि ऋचीक से शार्ङिग नामक हदव्य िैष्णि धनुि और ब्रह्मत्तिि कश्यप से त्तिधधित अत्तिनाशी िैष्णि
मन्ि प्राप्त हुआ। तदनन्तर कैलाश धगररश्रंग ृ पर क्स्थत भगिान शंकर के आश्रम में त्तिद्या प्राप्त कर
त्तिर्शष्ट हदव्यास्ि त्तिद्युदर्भ नामक परशु प्राप्त ककया। र्शिजी से उन्हें श्रीकृष्ण का िैलोतय त्तिजय
किच, स्तिराज स्तोि एिं मन्ि कल्पतरु भी प्राप्त हुए। चक्रतीथि में ककये कहठन तप से प्रसन्न हो
भगिान त्तिष्णु ने उन्हें िेता में रामाितार होने पर तेजोहरण के उपरान्त कल्पान्त पयिन्त तपस्यारत
भूलोक पर रहने का िर हदया।

िे शस्ित्तिद्या के महान गुरु थे। उन्होंने भीष्म, रोण ि कणि को शस्ित्तिद्या प्रदान की थी। उन्होनें कणि
को श्राप भी हदया था। उन्होंने एकादश छन्दयुतत "र्शि पंचत्िाररंशनाम स्तोि" भी र्लखा। इक्च्छत
फल-प्रदाता परशुराम गायिी है-"ॐ जामदग्न्याय त्तिद्महे महािीराय धीमहह, तन्नः परशुराम:
प्रचोदयात ्।" िे पुरुिों के र्लये आजीिन एक पत्नीव्रत के पक्षधर थे। उन्होंने अत्रि की
पत्नी अनसूया, अगस्त्य की पत्नी लोपामुरा ि अपने त्तप्रय र्शष्य अकृतिण के सहयोग से त्तिराट नारी-
जागर्ृ त-अर्भयान का संचालन भी ककया था। अिशेि कायो में कक्ल्क अितार होने पर उनका गुरुपद
ग्रहण कर उन्हें शस्ित्तिद्या प्रदान करना भी बताया गया है।

ब्रह्मिैिति पुराण में कथानक र्मलता है कक कैलाश क्स्थत भगिान शंकर के अन्त:पुर में प्रिेश करते
समय गणेश जी द्िारा रोके जाने पर परशरु ाम ने बलपि
ू क
ि अन्दर जाने की चेष्ठा की। तब गणपर्त ने
उन्हें स्तक्म्भत कर अपनी सूाँि में लपेटकर समस्त लोकों का भ्रमण कराते हुए गोलोक में भगिान
श्रीकृष्ण का दशिन कराके भूतल पर पटक हदया। चेतनािस्था में आने पर कुत्तपत परशुरामजी द्िारा
ककए गए फरसे के प्रहार से गणेश जी का एक दााँत टूट गया, क्जससे िे एकदन्त कहलाये।[5]

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उन्होंने िेतायुग में रामाितार के समय र्शिजी का धनि
ु भंग होने पर आकाश-मागि द्िारा र्मधथलापुरी
पहुाँच कर प्रथम तो स्ियं को "त्तिश्ि-त्तिहदत क्षत्रिय कुल रोही" बताते हुए "बहुत भााँर्त र्तन्ह आाँख
हदखाये" और क्रोधान्ध हो "सन
ु हु राम जेहह र्शिधनु तोरा, सहसबाहु सम सो ररपु मोरा" तक कह िाला।
तदप
ु रान्त अपनी शक्तत का संशय र्मटते ही िैष्णि धनि
ु श्रीराम को सौंप हदया और क्षमा याचना करते
हुए "अनधु चत बहुत कहे उ अज्ञाता, क्षमहु क्षमामक्न्दर दोउ भ्राता" तपस्या के र्नर्मि िन को लौट गये।
रामचररत मानस की ये पंक्ततयााँ साक्षी हैं- "कह जय जय जय रघक ु ु लकेतू, भगृ प
ु र्त गये िनहहं तप
हे त"ू । िाल्मीकक रामायण में िणणित कथा के अनस
ु ार दशरथनन्दन श्रीराम ने जमदक्ग्न कुमार परशरु ाम
का पूजन ककया और परशुराम ने रामचन्र की पररक्रमा कर आश्रम की ओर प्रस्थान ककया।

जाते जाते भी उन्होंने श्रीराम से उनके भततों का सतत साक्न्नध्य एिं चरणारत्तिन्दों के प्रर्त सुदृढ भक्तत
की ही याचना की थी।

भीष्म द्िारा स्िीकार न ककये जाने के कारण अंबा प्रर्तशोध िश सहायता मााँगने के र्लये परशुराम के
पास आयी। तब सहायता का आश्िासन दे ते हुए उन्होंने भीष्म को युद्ध के र्लये ललकारा। उन दोनों
के बीच २३ हदनों तक घमासान युद्ध चला। ककन्तु अपने त्तपता द्िारा इच्छा मत्ृ यु के िरदान स्िरुप
परशुराम उन्हें हरा न सके।

परशरु ाम अपने जीिन भर की कमाई ब्राह्मणों को दान कर रहे थे, तब रोणाचायि उनके पास पहुाँच।े
ककन्तु दभ
ु ािग्यिश िे तब तक सब कुछ दान कर चुके थे। तब परशरु ाम ने दयाभाि से रोणचायि से कोई
भी अस्ि-शस्ि चन
ु ने के र्लये कहा। तब चतरु रोणाचायि ने कहा कक मैं आपके सभी अस्ि शस्ि उनके
मन्िों सहहत चाहता हूाँ ताकक जब भी उनकी आिश्यकता हो, प्रयोग ककया जा सके। परशरु ामजी ने कहा-
"एिमस्त!ु " अथाित ् ऐसा ही हो। इससे रोणाचायि शस्ि त्तिद्या में र्नपण
ु हो गये।

परशुराम कणि के भी गुरु थे। उन्होने कणि को भी त्तिर्भन्न प्रकार कक अस्ि र्शक्षा दी थी और ब्रह्मास्ि
चलाना भी र्सखाया था। लेककन कणि एक सूत का पुि था, कफर भी यह जानते हुए कक परशुराम केिल
ब्राह्मणों को ही अपनी त्तिधा दान करते हैं, कणि ने छल करके परशुराम से त्तिधा लेने का प्रयास ककया।
परशुराम ने उसे ब्राह्मण समझ कर बहुत सी त्तिद्यायें र्सखायीं, लेककन एक हदन जब परशरु ाम एक
िक्ष
ृ के नीचे कणि की गोदी में सर रखके सो रहे थे, तब एक भौंरा आकर कणि के पैर पर काटने लगा,
अपने गुरुजी की नींद में कोई अिरोध न आये इसर्लये कणि भौंरे को सेहता रहा, भौंरा कणि के पैर को
बुरी तरह काटे जा रहा था, भौरे के काटने के कारण कणि का खून बहने लगा। िो खून बहता हुआ परशुराम
के पैरों तक जा पहुाँचा। परशुराम की नींद खुल गयी और िे इस खून को तुरन्त पहचान गये कक यह खून
तो ककसी क्षत्रिय का ही हो सकता है जो इतनी दे र तक बगैर उफ ककये बहता रहा। इस घटना के कारण
कणि को अपनी अस्ि त्तिद्या का लाभ नहीं र्मल पाया।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार गुरु परशुराम कणि की एक जंघा पर र्सर रखकर सो रहे थे। तभी
एक त्रबच्छू कहीं से आया और कणि की जंघा पर घाि बनाने लगा। ककन्तु गुरु का त्तिश्राम भंग ना हो,
इसर्लये कणि त्रबच्छू के दं श को सहता रहा। अचानक परशुराम की र्नरा टूटी और ये जानकर की एक
ब्राम्हण पुि में इतनी सहनशीलता नहीं हो सकती कक िो त्रबच्छू के दं श को सहन कर ले। कणि के

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र्मथ्याभािण पर उन्होंने उसे ये श्राप दे हदया कक जब उसे अपनी त्तिद्या की सिािधधक आिश्यकता
होगी, तब िह उसके काम नहीं आयेगी.

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12. शाांतिु Shantanu और गांगा Ganga,
राजा हस्ती के हक्स्तनापुर नगर के र्नमािण पश्चात उनकी अगली पीहढयों में एक के बाद एक शािन
करते गये | उनमे से एक राजा कुरु हुए क्जसके नाम से कुरु िंश की शुरुिात हुयी थी | महभारत की
शरु िात कुरु िंश के राजा शांतनु Shantanu से प्रारं भ होती है | राजा शांतनु बडे बद्
ु धधमता और बहादरु ी
से हक्स्तनापुर का शािन चलाया | शांतनु को आखेट का बहुत शौक था और राजपाट से समय र्नकालकर
िो आखेट पर जाते थे | एक बार Shantanu शांतनु को िन में एक हहरण हदखा और उन्होंने हहरण को
अपना र्नशाना बनाने का प्रयास ककया | िो हहरण एकदम शांत था और शांतनु Shantanu उसके ओर
शांत होने का इंतजार कर रहे थे | जैसे ही उन्होंने तीर लगाने का सही समयदे खा उन्होंने हहरन की तरफ
तीर छोड हदया लेककन अंर्तम समय पर हहरण के थोिा सरक जाने से उनका तीर चुक गया |
अब Shantanu शांतनु िापस घोडे पर बैठकर िापस हहरण का पीछा करने लगे और घने िन के अंदर
पहुच गये | आखेट उनका शौक होने के कारण िो सदै ि आखेट के र्लए अकेले आते थे तयोंकक अगर िो
अपने दरबाररयों या मत्रियो को साथ लाते तो उनकी आिाज से र्शकार भाग जाता था | शांतनु सदै ि
शांत रहते थे इसर्लय उनका नाम शांतनु था और बहुत एकाग्रधचत होकर र्शकार करते थे |शांतनु उस
हहरण के पीछे पीछे िन के अंत तक चले गये लेककन उनको हहरण नही र्मला | िन के अंत में उनको
गंगा नदी बहती हुयी हदखी | अब शांतनु अब िहा अपने घोडे से उतरकर गंगा नदी के नजदीक बैठ गये
| उन्होंने नदी के पानी से अपना मख
ु धोया और कफर से हहरण का पीछा करने के र्लए तैयार हुए |

जैसे ही िो घोडे पर बैठने के र्लए उठे शांतनु ने अपने समक्ष एक सुंदर महहला को दे खा | उन्होंने ऐसी
महहला अपने जीिन एम ् कभी नही दे खी और उसे दे खकर मंिमग्ु ध हो गये | शांतनु उस महहला के पास
दौिकर गये और उससे नाम पूछा | उस महहला ने शांतनु के प्रश्न का कोई उिर नही हदया और चलने
लग गयी | शांतनु उसके पीछे भागकर गये और उससे अपना नाम बताने की प्राथिना की | अब शांतनु
ने अपना पररचय हदया कक िो हक्स्तनापुर के राजा है | अब उस महहला ने मुस्कुराते हुए पूछा “राजन ,
आप मेरा नाम तयों जानना चाहते है ” |

शांतनु ने अब खुद को संभाला और र्नभीकता से कहा “मै आपसे त्तििाह करना चाहता हु ” | अब उस
महहला ने कहा कक “मैंने तो आपसे ये प्रश्न नही पछ
ू ा था मै तो आपसे ये पछ
ू रही थी कक आप मेरा नाम
तयों जानना चाहते हो “| अब शांतनु ने कहा कक “मै जीिन भर आपको कल्पना में दे खता रहा हु ” | अब
उस महहला ने कहा “मै आपसे शादी कर सकती हु अगर आप मुझसे िादा करे कक ना तो आप मेरा नाम
पूछेंगे और ना ही मेरे द्िारा ककये जाने िाले ककसी कायि पर प्रश्न करें गे “| राजा शांतनु ने हामी भर दी |
अब शांतनु ने कहा “िचन के अनस
ु ार मै आपका नाम तो नही पछ
ू सकता हु लेककन आप मझ
ु े गंगा नदी
के समीप र्मली इसर्लए मै आपको गंगा कहकर पुकारूाँगा ” | अब िो महहला हसने लगी तयोंकक शांतनु
ने अनजाने में उनका असली नाम बता हदया था |

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शांतनु गंगा को हक्स्तनापरु ले गये और उन्हें अपनी रानी घोत्तित कर हदया | राजा ने अब गंगा से त्तििाह
ककय और सुखद िैिाहहक जीिन व्यतीत करने लगे | गंगा एक अच्छी रानी थी जो प्रजा के साथ साथ
शांतनु का भी ध्यान रखती थी | कुछ समय बाद गंगा गभििती हुयी तो राजा शांतनु बहुत प्रस्सन हुए |
जब उनको ये सुचना र्मली की उनको पुि हुआ है तो िो दौडते हुए रानी के महल में प्रिेश ककया तो महल
को खाली पाया | राजा शांतनु ने दर्सयों को गंगा के बारे में पछ
ू ा तो दर्सयों ने णझझकते हुए कहा कक
रानी बच्चे को लेकर बाहर गयी है और उन्होंने उनका पीछा नही करने का आदे श हदया है | शांतनु अब
गंगा के बारे में त्तिचार करने लगा तभी गंगा लौटी लेककन उसके हाथ में कोई बच्चा नही था |

शांतनु ने गंगा की तरफ आश्चयि से दे खते हुए कहा “गंगा , मेरा पुि कहा है “| गंगा ने शांतनु को तुरंत
उिर हदया “महाराज , आपने मुझसे कोई प्रश्न ना करने का िचन हदया था , आपने मुझसे त्रबना इस
बारे में जाने प्रश्न पूछ.इसर्लए इस बार आपको क्षमा कर दे ती हु लेककन कुपा करके आगे कोई प्रश्न मत
पछ
ू ना ” | शांतनु अब मानकर उदास हो गया लेककन िो िचनों में बंधे होने के कारण कुछ ना बोल सका
|

इस तरह गंगा के 6 पि
ु ओर हुए लेककन शांतनु को कभी उनके बारे में पता नही चला | शांतनु गंगा से
बहुत नाराज हो गया था | अंत में जब गंगा ने आठिे पुि को जन्म हदया तब शांतनु ने त्रबना उसको
बताये गंगा का पीछा ककया | उसने दे खा कक गंगा , नदी की समीप जा रही थी अब शांतनु से रहा नही
गया और दौडता हुआ गंगा के पास गया और धचल्लाता हुआ बुला “ये आप तया कर रही हो और आप
कौन हो ?” | गंगा ने बच्चे को अपनी बाहों में लेकर रोते हुए शांतनु से कहा “राजन , आपने मेरा िचन
तोिा है इसर्लए अब हम दोनों को अलग होना होगा ” | उसने बच्चे को शांतनु को हदया और सारे प्रश्नों
का उिर हदया | अब शांतनु को बहुत पछतािा हुआ |

अब गंगा अदृश्य हो गयी और उसके स्थान पर एक दे िी खिी थी तब उन्हें एहसास हुआ कक क्जसे उन्होंने
गंगा नाम हदया था िो िास्तत्तिकता में िो नदी दे िी गंगा ही है | दे िी गंगा ने अब कहा “राजन , त्तपछले
जन्म में आप राजा महार्भिेक थे और हम पहली बार इन्रदे ि के बुलािे पर स्िगि में र्मले थे और आप
मझ
ु े सभा में घरु घरु कर दे ख रहे थे और इंरदे ि आपके इस कृत्य को दे खकर बहुत नाराज हुए और
उन्होंने आपको श्राप हदया था कक आप मनुष्य रूप में जन्म लेकर प्यार और त्तिरह का अनुभि करें गे
उसके पररणामस्िरुप ये सब घहटत हुआ | ”

शांतनु ने अब अपने पुि के त्तििय में गंगा से प्रश्न ककया | गंगा ने हाँसते हुए कहा “राजन आपको एक
श्राप ओर र्मला था क्जसके बारे में मै आपको बताती हु, ऋत्ति िर्शस्ठ के पास नंहदनी नामक गाय थी
और उसको िो बहुत प्यार करते थे | उसके बछिी को जन्म हदया था क्जसको िो अपनी बेटी की तरह
मानते थे | उस समय स्िगि के 8 दे िो को िासु कहते थे |िासओ
ु ने जब नंहदनी को दे खा तो िो नंहदनी

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को ले जाना चाहते थे और िासओ
ु ने अपने भाई प्रभासा को उकसाकर गाय और बछिी को चरु ा र्लया ,
ऋत्ति िर्शस्थ ने क्रोधधत होकर िासु को मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दे हदया था लेककन िासु के
माफी मांगने पर श्राप में कमी कर दी क्जसके अनुसार 7 िासु जन्म लेते ही स्िगि में चले जायंगे और
आठिा िासु प्रभासा इस धरती पर ही रहे गा क्जसने उस गाय और बछिी को चुराया था और उसको पथ्
ृ िी
पर लम्बा जीिन व्यतीत करना होगा | मै धरती पर पहले ही आ चक
ु ी थी इसर्लए िासओ
ु ने मझ
ु े उनकी
मााँ बनने को कहा इसर्लए 6 िासुओ को जन्म लेते ही मेंने स्िगि में पंहुचा हदया ” |

शांतनु परु ी कहानी सन


ु कर त्तिलाप करने लग गया और उनको अपने त्तपछले जन्म की गलर्तयों पर
पछतािा हुआ | अब शांतनु ने गंगा को रोकने का प्रयास ककया लेककन गंगा ने कहा कक अब िो इस जन्म
में कभी नही र्मल सकते है | अब शांतनु ने अपने पुि के र्लए रुकने को कहा तो गंगा ने कहा “राजन ,
हमारा पुि अपने माता त्तपता के साथ सदै ि नही रहे गा ” | अब शांतनु ओर भी ज्यादा दख
ु ी हो गया और
गंगा ने कहा “राजन , हमारा पि
ु इसी समय से परु े हक्स्तनापरु का उिराधधकारी बनता ही और ये बहुत
दीघाियु और मुक्श्कल जीिन व्यतीत करे गा और यही उसका भाग्य है ”

गंगा ने कहा कक िो स्िगि में उसका पालन पोिण करे गी और सब कुछ सीख जाने पर उसे िापस आप
तक भेज दे गी | ये कहकर िो उनके पुि को लेकर अदृश्य हो गयी और शांतनु एक ही हदन में अपने पत्नी
और पुि को खोकर बहुत दख
ु ी हुआ | लेककन सारा सच जानने से उसे राहत र्मली कक उनका पुि स्िगि
में पलेगा और कफर धरती पर आएगा | इस तरह Shantanu शांतनु के जीिन से गंगा चली गयी |

राजा शांतनु गंगा के जाने के बाद प्रर्तहदन अपने घोडे पर बैठकर जंगल आते थे | िो अब र्शकार करना
भूल गये थे और उन्होंने कभी ककसी जीि को नही मारा | अब िो जंगल से होते हुए नदी तक आते और
घंटो तक नदी के ककनारे बैठकर गंगा की यादो में खोये रहते थे | शांतनु ने उस हदन के बाद कभी गंगा
को नही दे खा लेककन उससे र्मलने की आस में हमेशा उस तट पर आते थे | उन्हें सब कुछ शांर्तपूणि
लगता था |

शांतनु को इस तरह गंगा को दे खे 16 ििि हो गये थे और अभी तक िो अपने पहले प्यार को भूल नही पा
रहे थे | एक हदन शांतनु को दत
ू ने आकर सुचना दी कक ककसी योधा ने हक्स्तनापुर के र्नकट गंगा का
प्रिाह रोकने का प्रयास ककया है | उस योद्धा ने अपने तीरों से एक बााँध बना हदया है क्जससे पानी का
प्रिाह रुक गया है | शांतनु तरु ं त नदी के तट पर पंहुचा और िहा के दृश्य को दे खकर स्तब्ध रह गया |
उसने दे खा कक एक नौजिान गंगा नदी पर अपनी तीरं दाजी कौशल का अभ्यास कर रहा था लेककन
उसने ककसी इन्सान को नुकसान नही पहुचाया था | शांतनु ने अपना धैयि खोते हुए अपना धनुि उठाया
और उस नौजिान को युद्ध की चुनौती दी |

59
तभी उसी िक़्त गंगा के पाने में एक भंिर आया और इंसानी रूप में गंगा शांतनु के सामने आ गयी और
कहा “महाराज , क्जस नौजिान को आपने शिु के रूप में चुनौती दी है िो आपका अपना पुि है क्जसे 16
ििि पहले मै स्िगि लेकर गयी थी , िो केिल परशुराम द्िारा र्सखाये गये तीरं दाजी कला का अभ्यास
कर रहा था और उसका नाम दे िव्रत Devavratha है ” | शांतनु ने खुशी से रोते हुए कहा “मेरा पुि , 16
ििि बाद अपने पि
ु से दरू रहकर आज मै अपने पि
ु को दे ख रहा हु , ककतना शभ
ु हदन है ” |अब गंगा ने
शांतनु को कहा “हां महाराज , ये िही पुि है क्जसके र्लए आपने अपना िचन तोिा था , आज मै इसे
लौटाकर अपन कतिव्य से र्निुटि होना चाहती हु , अब इस जम्बुद्िीप पर दे िव्रत से ज्यादा शक्ततशाली
और कुशल योद्धा कोई ओर नही होगा , उसने शाश्िो की र्शक्षा ऋत्ति िर्शष्ठसे ली : ऋत्ति बहृ स्पर्त
और ऋत्ति शक्र
ु ाचायि से राजनीर्तशास्ि की र्शक्षा ली : ऋत्ति माकिण्िेय उनके आध्याक्त्मक गरु
ु है , मेरे
आग्रह करने पर परशुरामजी ने आपके पुि को युद्ध कला और तीरं दाजी भी र्सखाई , मै अब अपने इस
पुि को आपको सौंपती हु ”

अब गंगा ने अपने पुि की और मुडते हुए उससे कहा “तुम्हारे त्तपता ने जीिन में बहुत कुछ दे खा है उनका
ध्यान रखना कक िो कभी उदास ना रहे , तुम अब अपने त्तपता एक साथ रहकर धमि का पालन करो ,
अब मुझे तुम्हे छोडने का समय आ गया है , जब भी तम्
ु हे मुझसे र्मलने की इच्छा हो , नदी के तट पर
आकर मझ
ु े पक
ु ार लेना और तम्
ु हारी मााँ सदै ि तम्
ु हारे पथप्रदशिन के र्लए तैयार रहे गी ” | इस तरह गंगा
ने ये कहते हुए गंगा िापस पाने में अदृश्य हो गयी |

अब शांतनु के जीिन की शन्


ु यता को उसके समथि पि
ु ने भर हदया | हालांकक उनका प्यार उनके साथ
नही है लेककन उनके प्यार की र्नशानी को हक्स्तनापुर के र्संहासन के र्लए छोड हदया | अब पुि त्तपता
साथ साथ ररश्तेदारी, राजनीर्त, रणनीर्त, िेद और पूिज
ि ों और महान राजाओं और योद्धाओं के
इर्तहास पर त्रबचार त्तिमशि करने लगे | कम उम्र में ही युिा राजकुमार ने हक्स्तनापुर के लोगो के बीच
प्रर्सधी पा ली थी | अब शांतनु ने दे िव्रत Devavratha को अपना उिराधधकारी घोत्तित कर हदया | अब
दे िव्रत को दे खकर जनता ने अपने पुराने राजा की तरह आशा की ककरन दे खी कक िो भी साम्राज्य
त्तिस्तार करे गा और अपनी जनता को खुश रखेगा |लेककन त्तिधाता को कुछ ओर ही मंजूर था और दे िव्रत
के जीिन में नया मोड आने िाला था | ऋत्ति िर्सष्ठ का श्राप उन पर जल्द ही प्रभािी होने िाला था |

दे िव्रत के उिराधधकारी घोत्तित ककये जाने के पश्चात उसने बहुत अच्छी तरह से राजपाट संभाला |
दे िव्रत सदै ि जनता की भलाई के र्लए अग्रसर रहता था और ककसी से ज्यादा िातािलाप नही करता था
| दे िव्रत अपने त्तपता को हरसंभि खश
ु रखने का प्रयास करता था | शांतनु ने ये भी महसस
ू ककया कक
दे िव्रत ने कभी गंगा को याद नही ककया और राजधमि का पालन करता रहा | इस तरह हक्स्तनापुर का
साम्राज्य में खुशी की लहर छाई | इस तरह चार ििि बीत गये |

60
एक हदन राजा शांतनु यमन
ु ा तट पर घम
ु ने आये तो उन्हें एक अप्सरा जैसी सुन्दरी हदखी क्जसका नाम
सत्यिती था | गंगा के त्तियोग के बाद ये पहली युिती थी क्जसे दे खकर राजा शांतनु का मन प्रफुक्ल्लत
हो गया था | राजा शांतनु ने उस सुन्दरी सत्यिती से त्तििाह करने का प्रस्ताि रखा | इस पर सत्यिती
ने कहा कक यहद मेरे त्तपता राजी हो जाते है तो मुझे कोई आपत्ति नही है | राजा शांतनु अब सत्यिती के
त्तपता केिटराज से र्मलने पहुचे और उनसे उनकी पि
ु ी से त्तििाह करने का आग्रह ककया |

अब केिटराज ने कहा “मै अपनी पुिी का त्तििाह आपसे करा द ू यहद आप मुझे एक िचन दे िे ” | राजा
शांतनु पहले भी िचनों में बंधकर काफी दःु ख पाया था लेककन कफर भी त्तििाह की तीव्र इच्छा के आगे
उन्होंने केिटराज को िचन दे ने का र्नणिय ककया | अब केिटराज ने कहा “मै अपनी पुिी सत्यिती का
त्तििाह आपसे तभी करा सकता हु यहद आप मुझे ये िचन दे िे कक आपके पश्चात राज र्संहासन का
उिराधधकारी मेरी पुिी की सन्तान बैठेगी

राजा शांतनु एक बार तो उनके इस िचन को सुनकर त्तिचार में पड गया तयोंकक िो गंगापुि दे िव्रत के
अलािा ककसी और को उिराधधकारी के रूप में नही दे ख सकता था | उन्होंने र्नराश होकर उन्हें मना कर
हदया और िापस नगर लौट आये | राजा शांतनु के नगर में लौटने के पश्चात भी उनका मन उद्हदग्न
था | जब दे िव्रत ने राजा शांतनु को उदास दे खा तो उनकी उदासी का कारण पूछा | राजा शांतनु दे िव्रत
को सत्य नही बताना चाहता था इसर्लए धचंता का कारण कोई ओर बता हदया |

कफर भी दे िव्रत से रहा नही गया और बुद्धधमान दे िव्रत ने राजा शांतनु के सारथी से पूछताछ की |
सारथी ने दे िव्रत को सारी घटना सुना दी कक ककस तरह िो सत्यिती को हदल दे बैठे और उनसे त्तििाह
करने का प्रस्ताि लेकर सत्यिती के त्तपता के पास गये और केिटराज के िचन सुनकर उन्होंने मना कर
हदया था | दे िव्रत अब अपने त्तपता की व्याकुलता को समझते हुए केिटराज के पास गये और उनसे
उनकी पुिी का त्तििाह राजा शांतनु से कराने की प्राथिना की | लेककन केिटराज ने िही शति इस बार भी
दोहराई जो उन्होंने राजा शांतनु से कही थी |

अब दे िव्रत ने कहा कक “अगर आपकी त्तििाह के र्लए मना करने का कारण यही है तो मै िचन दे ता हु
कक र्संहासन का लोभ त्यागकर सत्यिती के पुि को ही राजर्संहासन पर त्रबठाऊंगा ” | दे िव्रत के इस
र्संहासन के बर्लदान के बािजूद केिटराज संतुष्ट नही हुए और कहा “मै आपके िचन का सम्मान
करता हु और मझ
ु े परू ा त्तिश्िास है कक कुरु िंश िचन के र्लए प्राण भी दे सकता है ककन्तु मै आपकी
सन्तान पर कैसे त्तिश्िास कर सकता हु , अगर िो भी आपकी तरह शक्ततशाली हुआ तो मेरे नाती से
र्संहासन छीन सकता है आप इसके र्लए तया कर सकते है ” |

61
दे िव्रत को केिटराज की बात उधचत लगी और उनका कहने का तात्पयि यही था कक यहद दे िव्रत यहद
अपने भत्तिष्य का बर्लदान कर दे तो उनका िचन पूरा हो सकता है | अब दे िव्रत ने कुछ समय सोचने
के पश्चात एक भीिण प्रर्तज्ञा ली “मै ,गंगा पुि दे िव्रत , आज ये िचन दे ता हु कक मै आजीिन त्तििाह
नही करूंगा और आजीिन ब्रह्मचयि का पालन करूंगा, ना मेरी सन्तान होगी और ना ही आपके नाती
को कोई र्संहासन से उठाएगा “| उनके इस उद्घोि के साथ ही दे िो ने स्िगि से दे िव्रत पर फूलो की बाररश
करी | इस तरह दे िव्रत ने केिटराज को संतुष्ट करने के र्लए भीिण प्रर्तज्ञा ली क्जसके बाद से उनका
नाम भीष्म पड गया |अब केिटराज भीष्म की भीिण प्रर्तज्ञा सुनकर संतुष्ट हो गये और अपनी पुिी
का त्तििाह दे िव्रत से करा हदया |

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13. ऋवि वलशष्ट्ठ‍कामधेिु महविि ववश्वालमत्र (राजा कौलशक)
इक्ष्वाकु और‍त्रत्रशांकु राजा

ऋत्ति िर्शष्ठ महान सप्तऋत्तियों में से एक हैं. महत्तिि िर्शष्ठ सातिें और अंर्तम ऋत्ति थे. िे श्री राम के
गुरु भी थे और सुयि
ि ंश के राजपुरोहहत भी थे. उन्हें ब्रह्माजी का मानस पुि भी कहा जाता है . उनके
पास कामधेनु गाय और नंहदनी नाम की बेटी थी. ये दोनों ही मायािी थी. कामधेनु और नंहदनी उन्हें
सब कुछ दे सकती थी. महत्तिि िर्शष्ठ की पत्नी का नाम अरुं धती था.

ऋत्ति िर्शष्ठ, मयािदा परु


ु िोिम भगिान श्री राम के गरु
ु और इक्ष्िाकु ररयासत के राज परु ोहहत थे. ऋत्ति
िर्शष्ठ शांर्त त्तप्रय, महान और परमज्ञानी थे. ऋत्ति िर्शष्ठ ने सरस्िती नदी के ककनारे गरु
ु कुल की
स्थापना की थी. गरु
ु कुल में हजारों राजकुमार और अन्य सामान्य छाि गरु
ु िर्शष्ठ से र्शक्षा लेते थे.
यहााँ पर महत्तिि िर्शष्ठ और उनकी पत्नी अरुं धती त्तिद्याधथियों को र्शक्षा दे ते थे. त्तिद्याथी गरु
ु कुल में
ही रहते थे. ऋत्ति िर्शष्ठ गरु
ु कुल के प्रधानाचायि थे.

िर्शष्ठ ऋत्ति अपने समय में सतगुरु रह चुके है . गुरुकुल में िे र्शष्यों को 20 से अधधक कलाओं का
ज्ञान दे ते थे. ऋत्ति िर्शष्ठ के पास पूरे ब्रह्माण्ि और भगिानों से जुडा सारा ज्ञान था.

महत्तिि िर्शष्ठ के पास कामधेनु गाय थी जो कक एक पूरी सेना के र्लए खाना या ककसी भी चीज़ का
उत्पादन कर सकती थी. महत्तिि त्तिश्िार्मि (राजा कौर्शक) एक बार महत्तिि िर्शष्ठ के आश्रम आये,
उन्होंने कामधेनु की माया दे खी िे कामधेनु से बहुत प्रभात्तित हुए िे कामधेनु को पाना चाहते थे. उन्होंने
कामधेनु को ज़बरदस्ती बंधी बनाना चाहा पर कामधेनु की शक्ततयां कौर्शक राजा से अधधक थी. राजा
कामधेनु को हार्सल नहीं कर पाए तयोंकक राजा कौर्शक की शक्ततयां कामधेनु से कम थी. िे महत्तिि
िर्शष्ठ के समान सन्यासी बनने चले गए. आगे जाकर महाराजा कौर्शक को लोग त्तिश्िार्मि कहने
लगे.

महत्तिि त्तिश्िार्मि ने तप करके भगिान र्शि से कई शस्ि और आशीिािद प्राप्त ककये. उन अस्ि-शस्ि
और आशीिािद को प्राप्त करने के बाद महत्तिि त्तिश्िार्मि एक बार कफर कामधेनु को हार्सल करने के
र्लए गए. उनकी दस
ू री कोर्शश भी नाकाम रही उनके पास जो अस्ि-शस्ि थे िो भी कामधेनु को हार्सल
करने के र्लए पयािप्त नहीं थे. जब त्तिश्िार्मि दस
ू री बार असफल हुए तब उन्होंने कामधेनु को हार्सल
करने का ख्याल अपने मन से र्नकाल हदया और पण ू ि ब्रह्मऋत्ति बनने के र्लए िन चले गए.
त्तिश्िार्मि ने परू े राज्य और संपत्ति का त्याग कर हदया था. त्याग करने के बाद त्तिश्िार्मि अपना बचा
हुआ जीिन िन में त्रबताने चले गये.

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महविि वलशष्ट्ठ आश्रम

अयोध्या में 40 एकड की ज़मीन पर महत्तिि िर्शष्ठ का आश्रम था. आज के समय का िर्शष्ठ आश्रम
पुराने आश्रम का र्सफि एक चौथाई हहस्सा ही रह गया है. ऐसा माना जाता है की आश्रम में एक कुआाँ है
जहां से सरयु नदी र्नकलती है. उस समय इक्ष्िाकू अयोध्या के राजा थे. िे शांर्त त्तप्रय राजा थे और
जनता की भलाई के र्लए ही शासन करते थे.

एक समय अयोध्या में सख


ू ा पड गया. राजा इक्ष्वाकू ने महत्तिि िर्शष्ठ से कहा कक आप ही इसका कुछ
उपाय र्नकार्लए. तब महत्तिि िर्शष्ठ ने त्तिशेि यज्ञ ककया और यज्ञ के संपन्न होते ही सरयू नदी आश्रम
के कुएाँ से बहने लगी. आज के समय में सरयू नदी को िार्शष्ठी और इतश्िाकी के नाम से भी जाना
जाता है.
ऐसा कहा जाता है की आश्रम के अन्दर का कुआाँ नदी से जुडा हुआ है. जो यािी तीथि यािा के र्लए जाते
है िे यहााँ पर इस कुएाँ को दे खने के र्लए भी आते है . महत्तिि िर्शष्ठ के इस आश्रम को एक संपन्न तीथि
स्थल माना जाता है.

ववश्वालमत्र जी

प्रजापर्त के पुि कुश, कुश के पुि कुशनाभ और कुशनाभ के पुि राजा गाधध थे। त्तिश्िार्मि जी उन्हीं
गाधध के पुि थे। त्तिश्िार्मि शब्द त्तिश्ि और र्मि से बना है क्जसका अथि है - सबके साथ मैिी अथिा
प्रेम। एक हदन राजा त्तिश्िार्मि अपनी सेना को लेकर िर्शष्ठ ऋत्ति के आश्रम में गये। त्तिश्िार्मि जी
उन्हें प्रणाम करके िहीं बैठ गये। िर्शष्ठ जी ने त्तिश्िार्मि जी का यथोधचत आदर सत्कार ककया और
उनसे कुछ हदन आश्रम में ही रह कर आर्तथ्य ग्रहण करने का अनरु ोध ककया। इस पर यह त्तिचार करके
कक मेरे साथ त्तिशाल सेना है और सेना सहहत मेरा आर्तथ्य करने में िर्शष्ठ जी को कष्ट होगा,
त्तिश्िार्मि जी ने नम्रतापि
ू िक अपने जाने की अनम
ु र्त मााँगी ककन्तु िर्शष्ठ जी के अत्यधधक अनरु ोध
करने पर थोडे हदनों के र्लये उनका आर्तथ्य स्िीकार कर र्लया।

िर्शष्ठ जी ने नंहदनी गौ का आह्िान करके त्तिश्िार्मि तथा उनकी सेना के र्लये छः प्रकार के व्यंजन
तथा समस्त प्रकार के सुख सुत्तिधा की व्यिस्था कर हदया। िर्शष्ठ जी के आर्तथ्य से त्तिश्िार्मि और
उनके साथ आये सभी लोग बहुत प्रसन्न हुये।

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नंहदनी गौ का चमत्कार दे खकर त्तिश्िार्मि ने उस गौ को िर्शष्ठ जी से मााँगा पर िर्शष्ठ जी बोले
राजन! यह गौ मेरा जीिन है और इसे मैं ककसी भी कीमत पर ककसी को नहीं दे सकता।

िर्शष्ठ जी के इस प्रकार कहने पर त्तिश्िार्मि ने बलात ् उस गौ को पकड लेने का आदे श दे हदया और


उसके सैर्नक उस गौ को िण्िे से मार मार कर हााँकने लगे। नंहदनी गौ ने क्रोधधत होकर उन सैर्नकों से
अपना बन्धन छुडा र्लया और िर्शष्ठ जी के पास आकर त्तिलाप करने लगी। िर्शष्ठ जी बोले कक हे
नंहदनी! यह राजा मेरा अर्तधथ है इसर्लये मैं इसको शाप भी नहीं दे सकता और इसके पास त्तिशाल सेना
होने के कारण इससे युद्ध में भी त्तिजय प्राप्त नहीं कर सकता। मैं स्ियं को त्तििश अनुभि कर रहा हूाँ।
उनके इन िचनोंको सुन कर नंहदनी ने कहा कक हे ब्रह्मत्तिि! आप मुझे आज्ञा दीक्जये, मैं एक क्षण में इस
क्षत्रिय राजा को उसकी त्तिशाल सेनासहहत नष्ट कर दाँ ग
ू ी। और कोई उपाय न दे ख कर िर्शष्ठ जी ने
नंहदनी को अनुमर्त दे दी।

आज्ञा पाते ही नंहदनी ने योगबल से अत्यंत पराक्रमी मारक शस्िास्िों से युतत पराक्रमी योद्धाओं को
उत्पन्न ककया क्जन्होंने शीघ्र ही शिु सेना को गाजर मूली की भााँर्त काटना आरम्भ कर हदया। अपनी
सेना का नाश होते दे ख त्तिश्िार्मि के सौ पुि अत्यन्त कुत्तपत हो िर्शष्ठ जी को मारने दौडे। िर्शष्ठ जी
ने उनमें से एक पुि को छोड कर शेि सभी को भस्म कर हदया।

अपनी सेना तथा पि


ु ों के नष्ट हो जाने से त्तिश्िार्मि बडे दःु खी हुये। अपने बचे हुये पि
ु को राज र्संहासन
सौंप कर िे तपस्या करने के र्लये हहमालय की कन्दराओं में चले गये। कठोर तपस्या करके त्तिश्िार्मि
जी ने महादे ि जी को प्रसन्न कर र्लया ओर उनसे हदव्य शक्ततयों के साथ सम्पण
ू ि धनत्तु ििद्या के ज्ञान
का िरदान प्राप्त कर र्लया। Vishva Mitra hindi - Bing

महविि वलशष्ट्ठ से प्रनतशोध

इस प्रकार सम्पूणि धनुत्तििद्या का ज्ञान प्राप्त करके त्तिश्िार्मि बदला लेने के र्लये िर्शष्ठ जी के आश्रम
में पहुाँचे। उन्हें ललकार कर त्तिश्िार्मि ने अक्ग्नबाण चला हदया। िर्शष्ठ जी ने भी अपना धनुि संभाल
र्लया और बोले कक मैं तेरे सामने खडा हूाँ, तू मुझ पर िार कर। क्रुद्ध होकर त्तिश्िार्मि ने एक के बाद
एक आग्नेयास्ि, िरुणास्ि, रुरास्ि, इन्रास्ि तथा पाशुपतास्ि एक साथ छोड हदया क्जन्हें िर्शष्ठ जी
ने अपने मारक अस्िों से मागि में ही नष्ट कर हदया। इस पर त्तिश्िार्मि ने और भी अधधक क्रोधधत होकर
मानिास्ि, मोहनास्ि, गान्धिािस्ि, जंभ
ू णास्ि, दारणास्ि, िज्र, ब्रह्मपाश, कालपाश, िरुणपाश, त्तपनाक
धनि
ु , दण्िास्ि, पैशाचास्ि , क्रौंचास्ि, धमिचक्र, कालचक्र, त्तिष्णच
ु क्र, िायव्यास्ि, मंथनास्ि , कंकाल,
मस
ू ल, त्तिद्याधर, कालास्ि आहद सभी अस्िों का प्रयोग कर िाला। िर्शष्ठ जी ने उन सबको नष्ट करके
उन पर ब्रह्माण्ि अस्ि छोड हदया। ब्रह्माण्ि अस्ि के भयंकर ज्योर्त और गगनभेदी नाद से सारा संसार
पीडा से तडपने लगा। सब ऋत्ति-मर्ु न उनसे प्राथिना करने लगे कक आपने त्तिश्िार्मि को परास्त कर
हदया है। अब आप ब्रह्माण्ि अस्ि से उत्पन्न हुई ज्िाला को शान्त करें । इस प्राथािना से रत्तित होकर
उन्होंने ब्रह्माण्ि अस्ि को िापस बुलाया और मन्िों से उसे शान्त ककया।

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इस प्रकार त्तिचार करके िे अपनी पत्नी सहहत दक्षक्षण हदशा की और चल हदये। उन्होंने तपस्या करते
हुये अन्न का त्याग कर केिल फलों पर जीिनयापन करना आरम्भ कर हदया। उनकी तपस्या से प्रसन्न
होकर ब्रह्मा जी ने उन्हें राजत्तिि का पद प्रदान ककया। इस पद को प्राप्त करके भी, यह सोचकर कक ब्रह्मा
जी ने मझ
ु े केिल राजत्तिि का ही पद हदया महत्तिि-दे ित्तिि आहद का नहीीँ, िे दःु खी ही हुये। िे त्तिचार करने
लगे कक मेरी तपस्या अब भी अपण ू ि है। मझ
ु े एक बार कफर से घोर तपस्या करना चाहहये।" त्तिश्िार्मि
- त्तिककपीडिया

त्रिशंकु की स्िगियािा

Indra prevents Trisanku from ascending to Heaven in physical form

इस बीच इक्ष्िाकु िंश में त्रिशंकु नाम के एक राजा हुये। त्रिशंकु सशरीर स्िगि जाना चाहते थे अतः इसके
र्लये उन्होंने िर्शष्ठ जी अनुरोध ककया ककन्तु िर्शष्ठ जी ने इस कायि के र्लये अपनी असमथिता जताई।
त्रिशंकु ने यही प्राथिना िर्शष्ठ जी के पुिों से भी की,जो दक्षक्षण प्रान्त में घोर तपस्या कर रहे थे। िर्शष्ठ
जी के पुिों ने कहा कक क्जस काम को हमारे त्तपता नहीं कर सके तू उसे हम से कराना चाहता है। ऐसा
प्रतीत होता है कक तू हमारे त्तपता का अपमान करने के र्लये यहााँ आया है। उनके इस प्रकार कहने से
त्रिशंकु ने क्रोधधत होकर िर्शष्ठ जी के पुिों को अपशब्द कहे । िर्शष्ठ जी के पुिों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु
को चाण्िाल हो जाने का शाप दे हदया।

शाप के कारण त्रिशंकु चाण्िाल बन गये तथा उनके मन्िी तथा दरबारी उनका साथ छोडकर चले गये।
कफर भी उन्होंने सशरीर स्िगि जाने की इच्छा का पररत्याग नहीं ककया। िे त्तिश्िार्मि के पास जाकर
बोले अपनी इच्छा को पूणि करने का अनुरोध ककया। त्तिश्िार्मि ने कहा तुम मेरी शरण में आये हो। मैं
तुम्हारी इच्छा अिश्य पूणि करूाँगा। इतना कहकर त्तिश्िार्मि ने अपने उन चारों पुिों को बुलाया जो
दक्षक्षण प्रान्त में अपनी पत्नी के साथ तपस्या करते हुये उन्हें प्राप्त हुये थे और उनसे यज्ञ की सामग्री
एकत्रित करने के र्लये कहा। कफर उन्होंने अपने र्शष्यों को बुलाकर आज्ञा दी कक िर्शष्ठ के पुिों सहहत
िन में रहने िाले सब ऋत्ति-मुर्नयों को यज्ञ में सक्म्मर्लत होने के र्लये र्नमन्िण दे आओ।

सभी ऋत्ति-मर्ु नयों ने उनके र्नमन्िण को स्िीकार कर र्लया ककन्तु िर्शष्ठ जी के पि


ु ों ने यह कहकर
उस र्नमन्िण को अस्िीकार कर हदया कक क्जस यज्ञ में यजमान चाण्िाल और परु ोहहत क्षत्रिय हो उस
यज्ञ का भाग हम स्िीकार नहीं कर सकते। यह सन
ु कर त्तिश्िार्मि जी ने क्रुद्ध होकर उन्हें कालपाश में

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बाँध कर यमलोक जाने और सात सौ ििों तक चाण्िाल योर्न में त्तिचरण करने का शाप दे हदया और
यज्ञ की तैयारी में लग गये।

त्तिश्िार्मि के शाप से िर्शष्ठ जी के पुि यमलोक चले गये। िर्शष्ठ जी के पुिों के पररणाम से भयभीत
सभी ऋत्ति मुर्नयों ने यज्ञ में त्तिश्िार्मि का साथ हदया। यज्ञ की समाक्प्त पर त्तिश्िार्मि ने सब दे िताओं
को नाम ले लेकर अपने यज्ञ भाग ग्रहण करने के र्लये आह्िान ककया ककन्तु कोई भी दे िता अपना भाग
लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर त्तिश्िार्मि ने अध्यि हाथ में लेकर कहा कक हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी
तपस्या के बल से स्िगि भेजता हूाँ। इतना कह कर त्तिश्िार्मि ने मन्ि पढते हुये आकाश में जल र्छडका
और राजा त्रिशंकु शरीर सहहत आकाश में चढते हुये स्िगि जा पहुाँचे। त्रिशंकु को स्िगि में आया
दे ख इन्र ने क्रोध से कहा कक रे मूख!ि तुझे तेरे गुरु ने शाप हदया है इसर्लये तू स्िगि में रहने योग्य नहीं
है। इन्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु र्सर के बल पथ्
ृ िी पर धगरने लगे और त्तिश्िार्मि से अपनी रक्षा की
प्राथिना करने लगे। त्तिश्िार्मि ने उन्हें िहीं ठहरने का आदे श हदया और िे अधर में ही र्सर के बल लटक
गये। त्रत्रशांकु की पीड़ा की कलपिा करके ववश्वालमत्र िे उसी स्थाि पर अपिी तपस्या के बि से स्वगि
की सजृ ष्ट्ट कर दी और िये तारे तथा दक्षक्षण हदशा में सप्तविि मण्डि बिा हदया। इसके बाद उन्होंने नये
इन्र की सक्ृ ष्ट करने का त्तिचार ककया क्जससे इन्र सहहत सभी दे िता भयभीत होकर त्तिश्िार्मि से
अनन
ु य त्तिनय करने लगे। िे बोले कक हमने त्रिशंकु को केिल इसर्लये लौटा हदया था कक िे गरु
ु के शाप
के कारण स्िगि में नहीं रह सकते थे।

इन्र की बात सन
ु कर त्तिश्िार्मि जी बोले कक मैंने इसे स्िगि भेजने का िचन हदया है इसर्लये मेरे द्वारा
बिाया गया यह स्वगि मण्डि हमेशा रहे गा और त्रत्रशांकु सदा इस िक्षत्र मण्डि में अमर होकर राज्य
करे गा। इससे सन्तुष्ट होकर इन्राहद दे िता अपने अपने स्थानों को िापस चले गये।

ववश्वालमत्र को ब्राह्मणत्व की प्राजप्त

दे िताओं के चले जाने के बाद त्तिश्िार्मि भी ब्राह्मण का पद प्राप्त करने के र्लये पूिि हदशा में जाकर
कठोर तपस्या करने लगे। इस तपस्या को भंग करने के र्लए नाना प्रकार के त्तिघ्न उपक्स्थत हुए ककन्तु
उन्होंने त्रबना क्रोध ककये ही उन सबका र्निारण ककया। तपस्या की अिधध समाप्त होने पर जब िे अन्न
ग्रहण करने के र्लए बैठे, तभी ब्राह्मण र्भक्षुक के रूप में आकर इन्र ने भोजन की याचना की।
त्तिश्िार्मि ने सम्पूणि भोजन उस याचक को दे हदया और स्ियं र्नराहार रह गये। इन्र को भोजन दे ने
के पश्चात त्तिश्िार्मि के मन में त्तिचार आया कक सम्भित: अभी मेरे भोजन ग्रहण करने का समय नहीं
आया है इसीर्लये याचक के रूप में यह त्तिप्र उपक्स्थत हो गया,मुझे अभी और तपस्या करना चाहहये।
अतएि िे मौन रहकर कफर दीघिकालीन तपस्या में लीन हो गये। इस बार उन्होंने प्राणायाम से श्िास
रोक कर महादारुण तप ककया। इस तप से प्रभात्तित दे िताओं ने ब्रह्माजी से र्निेदन ककया कक भगिन ्!
त्तिश्िार्मि की तपस्या अब पराकाष्ठा को पहुाँच गई है। अब िे क्रोध और मोह की सीमाओं को पार कर
गये हैं। अब इनके तेज से सारा संसार प्रकार्शत हो उठा है। सय
ू ि और चन्रमा का तेज भी इनके तेज के
सामने फीका पड गया है। अतएि आप प्रसन्न होकर इनकी अर्भलािा पण
ू ि कीक्जये।

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दे िताओं के इन िचनों को सुनकर ब्रह्मा जी उन्हें ब्राह्मण की उपाधध प्रदाि की ककन्तु त्तिश्िार्मि ने
कहा कक हे भगिन ्! जब आपने मझ
ु े यह िरदान हदया है तो मझ
ु े ओंकार, िट्कार तथा चारों िेद भी
प्रदान कीक्जये। प्रभो! अपनी तपस्या को मैं तभी सफल समझाँग
ू ा जब िर्शष्ठ जी मझ
ु े ब्राह्मण और
ब्रह्मत्तिि मान लेंगे।

महविि वलशष्ट्ठ द्वारा मान्यता

त्तिश्िार्मि की बात सुन कर सब दे िताओं ने िर्शष्ठ जी का पास जाकर उन्हें सारा िि


ृ ान्त सुनाया।
उनकी तपस्या की कथा सुनकर िर्शष्ठ जी त्तिश्िार्मि के पास पहुाँचे और उन्हें अपने हृदय से लगा कर
बोले कक त्तिश्िार्मि जी! आप िास्ति में ब्रह्मत्तिि हैं। मैं आज से आपको ब्राह्मण स्िीकार करता हूाँ.

68
14. वपप्िाद‍का जन्म

69
15.

70
16. ां णापुर
शनि लशग

71
17. ऋवि दव
ु ािसा, Rishi Durvasa

हहन्द ू पुराणों के अनुसार ऋत्ति दि


ु ािसा, क्जन्हें दि
ु ािसस भी कहते है, एक महान ऋत्ति हुआ करते थे. पुराणों
में ऋत्ति दि
ु ािसा का नाम मुख्य ऋत्ति मुर्नयों के साथ र्लया जाता है . ऋत्ति दि
ु ािसा को युगों युगों तक
याद ककया गया है, ये महान ऋत्ति ने सतयग
ु , द्िापर और िेता युग में भी मानि जार्त को ज्ञान की
र्शक्षा दी है. ऋत्ति दि
ु ािसा र्शि जी का रूप माने जाते है, िे खुद भी र्शि जी के बहुत बडे भतत थे. ऋत्ति
दि
ु ािसा अत्याधधक गुस्से िाले थे, क्जस तरह र्शि जी का गुस्सा जल्दी शांत नहीं होता था, उसी तरह
इनका भी गुस्सा बहुत खतरनाक था. ऋत्ति दि
ु ािसा को दे िी दे िता एिं समस्त मानि जार्त द्िारा बहुत
सम्मान प्राप्त था, िे जहााँ जाते थे उनको सम्मान र्मलता था.

72
ऋत्ति दि
ु ािसा र्शि के पुि थे, लेककन उनसे त्रबलकुल अलग थे. भगिान ् र्शि को मनाना क्जतना आसान
था, ऋत्ति दि
ु ािसा को मनाना, प्रसन्न करना उतना ही मक्ु श्कल काम था. लेककन दोनों का गस्
ु सा एक
समान था. ऋत्ति दि
ु ािसा का क्रोध इतना तेज था, जो कई बार उनके र्लए भी घातक हो जाता था. क्रोध
के चलते दि
ु ािसा ककसी भी को दं ि, श्राप दे हदया करते थे, उनके क्रोध से राजा, दे िी-दे िता, दै त्य, असरु
कोई भी अछुता नहीं था.

ऋत्ति दि
ु ािसा के जन्म से जुडी बहुत सी कथाएं है . इनके त्तपता अिी और माता अनसुइया थी. ब्रह्मानंद
पुराण के अध्याय 44 के अनुसार ब्रह्मा और र्शि जी एक बार झगडा हो जाता है. इस झगडे में र्शि जी
अत्यंत क्रोध में आ जाते है. इनके क्रोध के िर से सभी दे िी दे िता यहााँ िहां र्छप जाते है . इस बात से
परे शान पाििती जी र्शि जी से कहती है, उनके इस गुस्से के कारण अब उनका साथ में रहना मुक्श्कल
है. र्शि जी को गलती का एहसास होता है, और िे तय करते है कक िे अपने गुस्से को ऋत्ति अिी की
पत्नी अनसुइया के अंदर संधचत कर दें गें. दे िी अनसुइया के अंदर र्शि के इस भाग से एक बच्चे का
जन्म होता है , क्जसका नाम दि
ु ािसा होता है . र्शि के गुस्से से जन्मे ऋत्ति दि
ु ािसा का स्िाभाि उन्ही की
तरह बहुत गुस्से िाला और धचडधचडा था.

इसके अलािा एक और कथा ऋत्ति दि


ु ािसा के जन्म के र्लए कही जाती है. ऋत्ति दि
ु ािसा के त्तपता महह्रिी
अिी ब्रह्मा जी के मांस पुि कहे जाते है . महह्रिी अिी की पत्नी अनसुइया एक पर्तव्रता पत्नी थी. इनकी
पर्तव्रता के चचे दे िलोक तक थे. तब एक बार त्रिदे ि ब्रह्मा, त्तिष्णु, महे श की पक्त्नयााँ सरस्िती, लक्ष्मी
और पाििती जी ने अनसइ
ु या के पर्तव्रता धमि की परीक्षा लेने का र्नणिय र्लया. तीनों दे त्तियों ने अपने
पर्तयों को दे िी अनसुइया के सतीत्ि की परीक्षा लेने के र्लए उनके आश्रम भेजा. त्रिदे ि माता अनसुइया
के तपोबल के आगे जीत न सके, और हार मान कर उनके साथ र्शशु रूप में रहने लगे. तीनों दे त्तियों को
अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने माता अनसुइया से अपने अपने पर्तयों को मुतत करने के
र्लए प्राथना की. अनसुइया ने उनकी बात का मान रखा. तब त्रिदे ि जाते समय दे िी अनसुइया को
िरदान दे ते है कक िे तीनों उनके पुि के रूप में जन्म लेंगें. कुछ समय बाद दे िी अनसुइया को तीन पुि
चंरमा (ब्रह्मा जी का रूप), दिािेय (त्तिष्णु जी का रूप) और दि
ु ािसा (र्शि जी का रूप) प्राप्त होते है .

एक अन्य कथा के अनस


ु ार महत्तिि अिी और उनकी पत्नी अनसइ
ु या को कोई संतान नहीं होती है . तब
ब्रह्मा जी कहते पर संतान प्राक्प्त के र्लए िे दोनों ऋक्षकुल पिित पर त्रिदे ि की कडी तपस्या करते है .
इनकी तपस्या से खुश होकर तीनों उन्हें िरदान दे ते है कक िे उनके पुि के रूप में उन्हें प्राप्त होंगें . तब
कफर ब्रह्मा जी के रूप में सोम, त्तिष्णु जी के रूप में दि और र्शि जी के रूप में दि
ु ािसा जी होते है.

73
ऋवि दव
ु ािसा के जीवि से जुड़ी कथाएां –

दव
ु ािसा और शकांु तिा

– कार्लदास द्िारा र्लणखत अर्भज्ञानशाकुन्तलम ् के अनुसार ऋत्ति दि


ु ािसा शकंु तला से कहते है कक िे
उनका स्िागत सत्कार करे , लेककन शकंु तला जो अपने प्रेमी दष्ु यंत का इंतजार कर रही होती है, ऋत्ति
दि
ु ािसा ने मना कर दे ती है. तब ऋत्ति क्रोध में आकर उसे श्राप दे ते है कक उसका प्रेमी उसे भल
ू जाये. इस
श्राप से भयभीत शकुन्तला ऋत्ति दि ु ािसा से माफी मांगती है, तब ऋत्ति श्राप को थोिा कम करते हुए
कहते है कक दष्ु यंत उन्हें तब पहचानेगा जब िो अपनी दी हुई अंगठ ू ी दे खेगा. ऋत्ति दि
ु ािसा ने जैसा कहा
था िैसा ही होता है. शकंु तला और दष्ु यंत र्मल जाते है , और सख
ु से अपना जीिन व्यतीत करने लगते
है, उनका एक बेटा भी होता है, भारत.

दव
ु ािसा और कांु ती –

कंु ती एक जिान लडकी थी, क्जसे राजा कंु तीभोज ने गोद र्लया हुआ था. राजा अपनी बेटी को एक
राजकुमारी की तरह रखते थे. दि
ु ािसा एक बार राजा कुक्न्तभोज के यहााँ मेहमान बनकर गए. िहां कंु ती
पुरे मन से ऋत्ति की सेिा और आि भगत की. कंु ती ने ऋत्ति के गुस्से को जानते हुए, उन्हें समझदारी
के साथ खुश ककया. ऋत्ति दिु ािसा कंु ती की इस सेिा से बहुत खुश हुए, और जाते ितत उन्होंने कंु ती को
अथिििेद मन्ि के बारे में बताया, क्जससे कंु ती अपने मनचाहे दे ि से प्राथना कर संतान प्राप्त कर सकती
थी. मन्ि कैसे काम करता है, ये दे खने के र्लए कंु ती शादी से पहले सूयि दे ि का आह्िान करती है , तब
उन्हें कणि प्राप्त होता है, क्जसे िे नदी में बहा दे ती है. कफर इसके बाद उनकी शादी पांिू से होती है, आगे
चलकर इन्ही मन्िों का प्रयोग करके पांिि का जन्म हुआ था.

दव
ु ािसा, राम एवां िक्षमण –

िाल्मीकक रामायण के अनुसार उिर कांि के समय एक बार ऋत्ति दि


ु ािसा राम के पास जाते है. िहां
लक्षमण राम जी के दरबारी बन कर खडे रहते है , तब ऋत्ति उनसे अंदर जाने की इच्छा प्रकट करते है .
उस समय राम मत्ृ यु के दे िता यम के साथ ककसी त्तििय में गहन बात कर रहे होते है. बात शुरू होने से
पहले यम राम को कहते है कक उनके बीच में जो भी बातचीत होगी िो ककसी को नहीं पता चलनी चाहए,
और बात के बीच में अगर कोई कमरे में आकर दे खता या सुनता है तो मार हदया जायेगा. राम इस बात
की हामी भर, िचन दे ते है और अपने भरोसेमंद भाई को दरिाजे के बाहर खडा कर दे ते है .

दि
ु ािसा जब राम से र्मलने की क्जद करते है, तब लक्षमण उनसे प्यार से बोलते है कक िे राम की बात
ख़त्म होने का इंतजार यहीं करें . ऋत्ति इस बात से क्रोधधत हो जाते है और कहते है कक अगर लक्ष्मण
राम से उनके आगमन के बारे में नहीं बताते है तो िे परू ी अयोध्या को श्राप दे दें गें. लक्ष्मण धमि संकट
में पड जाते है तब िे सोचते है कक परू ी अयोध्या के लोगों को बचाने के र्लए उनका अकेला मरना सही

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है. तब बे राम जी के पास अंदर जाकर ऋत्ति दि
ु ािसा के आगमन की बात बताते है . राम यम के साथ
अपनी िातािलाप ख़त्म करते है, और तरु ं त ऋत्ति के पास उनकी सेिा के र्लए चले जाते है. राम ऋत्ति
दि
ु ािसा की आि भगत करते है, क्जसके बाद ऋत्ति अपने रस्ते चले जाते है . इसके बाद राम को अपनी
बात याद आती है, िे अपने पि
ु जैसे भाई लक्ष्मण को नहीं मारना चाहते है. लेककन यम को हदए िचन
के चलते िे मक्ु श्कल में रहते है. तब राम इस दत्तु िधा के हल के र्लए गरु
ु िर्शष्ठ को बल
ु ाते है. िर्शष्ठ,
लक्ष्मण को आदे श दे ते है कक िे राम को छोड चले जाएाँ, इस तरह का त्रबछडना मत्ृ यु के समान ही है.
इसके बाद लक्ष्मण अपने त्तपता समान भाई को छोड, सरायु नदी के तट पर चले जाते है.

ऋवि दव
ु ािसा और अम्बरीि

– भगित पुराण के अनुसार अम्बरीि, त्तिष्णु जी के एक बडे भतत थे. एक बार ऋत्ति दि
ु ािसा राजा
अम्बरीि के भिन में आये. उस समय राजा का र्नजिला एकादशी का व्रत चल रहा होता है , िे उसे
द्िादशी के हदन पारण के समय तोडते िाले थे.

ऋत्ति दि
ु ािसा के आने पर उन्होंने पहले प्रसाद ऋत्ति को दे ना चाह, लेककन ऋत्ति जी पहले यमुना नदी में
स्नान करना चाहते थे. तो िे ये बोलकर कक स्नान के बाद िे प्रसाद ग्रहण करें गें, चले गए. ऋत्ति को िहां
अधधक समय लग गया, इस दौरान पारण का समय भी र्नकल रहा था. अम्बरीि को इस बात की धचंता
होने लगी, उन्हें समझ नहीं आ रहा था तया करें . घर आये ऋत्ति मुर्न को त्रबना णखलाये खाना भी धमि
के णखलाफ था. तब अम्बरीि राजा ने अपने अन्य गरु
ु ओं के कहने पर प्रसाद ग्रहण कर र्लया, ताकक
उनका व्रत समय पर समाप्त हो सके. कुछ दे र बाद जब ऋत्ति आते है और इन्हें इस बात का बोध होता
है तो िे क्रोध में आ जाते है . क्रोध से भरकर ऋत्ति अम्बरीि को मरने के र्लए अपनी जटाओं से एक
राक्षसी को उत्पन्न करते है.

राजा अम्बरीि इस बात से घबराते नहीं है, बक्ल्क िे त्तिष्णु जी के उपासना करने लगते है. जैसे ही िो
राक्षसी राजा के र्नकट जाती है, त्तिष्णु जी के सुदशिन चक्र से उसका अंत हो जाता है. इसके बाद सुदशिन
चक्र ऋत्ति दि
ु ािसा को मरने के र्लए उनके पीछे सक्रीय हो जाता है . ऋत्ति को प्रथ्िी में कही शरण नहीं
र्मलती, कफर िे अपने त्तपता र्शि के पास जाते है . र्शि जी उन्हें त्तिष्णु के पास जाने बोलते है . त्तिष्णु जी
ऋत्ति से बोलते है कक िे अम्बरीि से माफी मांगेंगे तब ही ये सुदशिन चक्र शांत होगा. ऋत्ति तुरंत अम्बरीि
के पास जाते है और उनसे क्षमा मांगते है. तब अम्बरीि उन्हें माफ कर, त्तिष्णु जी से प्राथना कर सुदशिन
चक्र िापस लेने को बोलते है .

ऋवि दव
ु ािसा, दय
ु ोधि और पाांडव

– एक बार ऋत्ति दि
ु ािसा हक्स्तनापुर में राजकुमार दय
ु ोधन के महल में गए. दय
ु ोधन ऋत्ति के बारे में
बहुत अच्छे से जनता था, उसे ऋत्ति मुर्नयों को खुश करना बखूबी आता था. ये सब िो इसर्लए करता

75
था ताकक ऋत्ति उसे खुश होकर िरदान दें . उसे ऋत्ति दि
ु ािसा के बारे में ये भी पता था कक िे अगर नाराज
हो जाते है, तो ककसी को भी भयंकर श्राप दे दे ते है . दय
ु ोधन ने इस बात के चलते अपने दश्ु मन भाइयों
से बदला लेने के र्लए एक योजना बनाई.

पांिि उस समय अपना िनिास काट रहे थे. दय


ु ोधन ने ऋत्ति को अपने बडे भाई यधु धक्ष्ठर की कुहटया
में जाने को बोला, उसे पता था क्जस समय िे जायेंगें उस समय रोपदी भोजन कर चक
ु ी होगी, और
पांिि के पास ऋत्ति को णखलाने के र्लए कुछ नहीं होगा. ऋत्ति दि
ु ािसा, दय
ु ोधन के कहने पर पांिि से
र्मलने िन में जाते है, िनिास की इस अिधध के दौरान पांििों अक्षय पाि के माध्यम से भोजन प्राप्त
करते थे. पांििों को णखलाकर रौपदी भी अपना भोजन खा लेती है .

रौपदी के पास सूयि दे ि एक िरदान होता है , अक्षय पाि में रौपदी अपने खाने से पहले ककतने भी लोगों
को खाना णखला सकती है . लेककन उस हदन ऋत्ति के पहुाँचने के पहले, रौपदी खा लेती है तो उसके पास
उस समय परोसने के र्लए कुछ भी नहीं होता है. पांिि ये सोच कर घबरा जाते है कक इतने बडे महान
ऋत्ति को तया णखलायेंगें, ऋत्ति मुर्न को भूखे पेट भेजना धमि के णखलाफ है. उन्हें ये भी पता था ऋत्ति
दि
ु ािसा धमि के बहुत पतके है, उन्हें इस बात पर गुस्सा आ सकता है , क्जसके बाद िे श्राप भी दे सकते है .

इस दौरान जब ऋत्ति दि
ु ािसा अपने साथी ऋत्ति के साथ स्नान के र्लए नदी जाते है , तब रोपदी अपने
भाई समान र्मि कृष्ट्णा से मदद के र्लए प्राथना करती है. कृष्ट्णा तुरंत रौपदी की मदद के र्लए प्रकट
हो जाते है, तब िे उनसे ऋत्ति दि
ु ािसा को णखलाने के र्लए भोजन की मांग करती है . कृष्णा रौपदी से
अक्षय पाि सामने लाने को बोलते है , रौपदी अक्षय पाि सामने लाती है, तो उसमें चािल और सब्जी के
कुछ कण होते है. कृष्ण ये भोजन के अंश को ग्रहण कर लेते है, और भीम से ऋत्ति लोगों को बल
ु ाने को
बोलते है . भीम ऋत्ति दि
ु ािसा के पास जाकर उन्हें भोजन के र्लए आमंत्रित करता है. ऋत्ति दि
ु ािसा को इस
दौरान आभास हो जाता है कक कृष्ण ने अपनी माया से पांिि की कुहटया में भोजन प्रकट कर हदया है.
ऋत्ति दि
ु ािसा और उनके अनय
ु ार्ययों को उस समय भख
ू नहीं होती है, िे तो दय
ु ोधन के कहने पर पांिि
की परीक्षा लेने आते है . पांिि कुहटया में 56 तरह के भोजन ऋत्ति के र्लए तैयार हो जाते है. ऋत्ति को
इस बात का आभास हो जाता है, िे नहीं चाहते भोजन का अपमान हो, इसर्लए िे नदी के ककनारे से ही
अपने रास्ते आगे बढ जाते है.

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18. भगवाि ववश्वकमाि द्वारा बिाये गये प्रमुि भवि और वस्तुयें, वाहि FAMOUS
BUILDINGS AND TOOLS CREATED BY GOD VISHWAKARMA

सभी दे िताओ में भगिान त्तिश्िकमाि का महत्िपण


ू ि स्थान है। इन्होने अनेक प्रर्सद्ध भिनों और िस्तओ

की रचना की। रािण के र्लए सोने की लंका बनाई तो स्िगि में इंर का र्संघासन आपने बनाया।
जब असुर दे िताओं को सताने लगे तो इन्होने ऋत्ति दधीची की हड्डियों से इंर का िज्र बनाकर असुरो
का नाश ककया। रािण के अंत के बाद राम, लक्ष्मण, सीता ि अन्य साथी पुष्पक त्तिमान पर बैठकर
अयोध्या नगरी लौटे थे।
पुष्पक त्तिमान का र्नमािण भी भगिान त्तिश्िकमाि ने ककया था। कणि का कंु िल इन्होने ही बनाया था।
इसके अर्तररतत भगिान र्शि का त्रिशूल, त्तिष्णु का सुदशिन चक्र, यमराज का कालदं ि बनाया था।
पांड्िो के र्लए शानदार इंरप्रस्थ नगरी का र्नमािण ककया जो कौरि चककत रह गये। हक्स्तनापुर को भी
इन्होने ही बनाया था। जगन्नाथ पूरी में “जगन्नाथ” मंहदर का र्नमािण ककया। इस तरह अनेक प्रर्सद्ध
भिनों का इन्होने र्नमािण ककया था।

Vishwakarma (Sanskrit: ववश्वकर्ाा, Viśvakarma; lit. "Maker of all") is the divine


architecture god in contemporary Hinduism. He is described to be extremely talented,
who created miracles like Lanka, Dwarka, Indraprastha, Vajra, Sudarshan
chakra and Tilottama. According to the Rigveda, Vishvakarma was the personification
of ultimate reality, the abstract creative power inherent in deities, living and nonliving
being in this universe.[1]

He is considered to be the first monotheistic God concept, an architect, and divine


engineer of universe from before the advent of time

Consort Virochanā

Children Saranyu and her shadow Chhaya, Maya and Trisiras

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19. उत्तर रामायण : िव और कुश का जीवि पररिय

िाल्मीकक रामायण में प्रभु श्रीराम के पुि लि और कुश की गाथा कर िणिन ककया गया है। रामानंद
सागर ने मूल रामायण से अलग उिर कांि पर आधाररत उिर रामायण नामक सीररयल बनाया है। िव
और कुश का जन्म : सीता जब गभििती थीं तब उन्होंने एक हदन राम से एक बार तपोिन घूमने की
इच्छा व्यतत की। ककं तु राम ने िंश को कलंक से बचाने के र्लए लक्ष्मण से कहा कक िे सीता को तपोिन
में छोड आएं। हालांकक कुछ जगह उल्लेख है कक श्रीराम का सम्मान उनकी प्रजा के बीच बना रहे इसके
र्लए उन्होंने अयोध्या का महल छोड हदया और िन में जाकर िे िाल्मीकक आश्रम में रहने लगीं। िे
गभििती थीं और इसी अिस्था में उन्होंने अपना घर छोडा था। िाल्मीकक आश्रम से सीता ने लि और
कुश नामक 2 जुडिां बच्चों को जन्म हदया।

लशक्षा दीक्षा : लि और कुश की पढाई-र्लखाई से लेकर त्तिर्भन्न कलाओं में र्नपुण होने के पीछे महत्तिि
िाल्मीकक का ही हाथ था। उन्होंने ही दोनों राजकुमारों को हर तरह की र्शक्षा और त्तिद्या में परं गत
ककया।

वालमीकक िे पढ़ाई रामायण : महत्तिि िाल्मीकक ने लि और कुश को रामायण भी पढाई थी। कहते हैं कक
लि और कुश को बहुत समय तक यह ज्ञात नहीं था कक उनके त्तपता प्रभु श्रीराम हैं।
राम से िड़ाई : कहते हैं कक एक बार श्रीराम अश्िमेध यज्ञ ककया और यज्ञ को श्िेत अश्ि (घोडा) छोड
हदया। घोडा जहां जहां जाता था िहां के राजा अयोध्या की अधधनता स्िीकार कर लेते या युद्ध करके
पराक्जत हो जाते थे। यह घोडा घोडा भटकते हुए जंगल में आ गया। िहां लि और कुश ने इसे पकड
र्लया। घोडा पकडने का अथि है अयोध्या के राजा को चन
ु ौती दे ना।

राम को जब यह पता चला कक ककन्हीं सुकुमारों ने घोडा पकड र्लया तो पहले उसका आशय जानने के
र्लए दत
ू भेजे। जब यह पता चला कक लि और कुश घोडा छोडने को तैयार नहीं है और िे चन
ु ौती दे रहे
हैं तो श्रीराम के भाइयों भरत, शिुघ्न और लक्ष्मण के साथ लि-कुश का युद्ध हुआ लेककन सभी भाई
पराक्जत होकर लौट आए। यह दे खकर श्रीराम को खुद ही युद्ध करने आना पडा लेककन युद्ध का कोई

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पररणाम नहीं र्नकला। तब राम ने दोनों बालकों की योग्यता दे खते हुए उन्हें यज्ञ में शार्मल होने का
र्नमंिण हदया।

नगर में पहुंचकर लि और कुश ने राम की गाथा का गण


ु गाण ककया और दरबार में उन्होंने माता सीता
की व्यथा कथा गाकर सन
ु ाई। यह सन
ु और दे खकर प्रभु श्रीराम को ये पता चला गया कक लि और कुश
उनके ही बेटे हैं। उन्हें तब बहुत दख
ु हुआ और िे सीता को पुन: राज महल ले आए।

िव और कुश का राज्यालभिेक : भरत के दो पुि थे- ताक्षि और पुष्कर। लक्ष्मण के पुि- धचिांगद और
चन्रकेतु और शिुघ्न के पुि सुबाहु और शूरसेन थे। मथरु ा का नाम पहले शूरसेन था। लि और कुश राम
तथा सीता के जड
ु िां बेटे थे। जब राम ने िानप्रस्थ लेने का र्नश्चय कर भरत का राज्यार्भिेक करना
चाहा तो भरत नहीं माने। अत: दक्षक्षण कोसल प्रदे श (छिीसगढ) में कुश और उिर कोसल में लि का
अर्भिेक ककया गया।

राम के काल में भी कोशल राज्य उिर कोशल और दक्षक्षण कोसल में त्तिभाक्जत था। कार्लदास के रघुिंश
अनुसार राम ने अपने पुि लि को शरािती का और कुश को कुशािती का राज्य हदया था। शरािती को
श्रािस्ती मानें तो र्नश्चय ही लि का राज्य उिर भारत में था और कुश का राज्य दक्षक्षण कोसल में।
कुश की राजधानी कुशािती आज के त्रबलासपुर क्जले में थी। कोसला को राम की माता कौशल्या की
जन्मभर्ू म माना जाता है। रघि
ु ंश के अनस
ु ार कुश को अयोध्या जाने के र्लए त्तिंध्याचल को पार करना
पडता था इससे भी र्सद्ध होता है कक उनका राज्य दक्षक्षण कोसल में ही था।

िव और कुश के वांशज : राजा लि से राघि राजपूतों का जन्म हुआ क्जनमें बगज


ुि र, जयास और
र्सकरिारों का िंश चला। इसकी दस
ू री शाखा थी र्ससोहदया राजपूत िंश की क्जनमें बैछला (बैसला)
और गैहलोत (गुहहल) िंश के राजा हुए। कुश से कुशिाह (कछिाह) राजपूतों का िंश चला।
ऐर्तहार्सक तथ्यों के अनस
ु ार लि ने लिपरु ी नगर की स्थापना की थी, जो ितिमान में पाककस्तान
क्स्थत शहर लाहौर है। यहां के एक ककले में लि का एक मंहदर भी बना हुआ है। लिपुरी को बाद में
लौहपरु ी कहा जाने लगा। दक्षक्षण-पि
ू ि एर्शयाई दे श लाओस, थाई नगर लोबपरु ी, दोनों ही उनके नाम पर
रखे गए स्थान हैं।

राम के दोनों पि
ु ों में कुश का िंश आगे बढा तो कुश से अर्तधथ और अर्तधथ से, र्निधन से, नभ से,
पुण्िरीक से, क्षेमन्धिा से, दे िानीक से, अहीनक से, रुरु से, पाररयाि से, दल से, छल से, उतथ से,
िज्रनाभ से, गण से, व्युत्तिताश्ि से, त्तिश्िसह से, हहरण्यनाभ से, पुष्य से, ध्रुिसंधध से, सुदशिन से,

79
अधग्रिणि से, पद्मिणि से, शीघ्र से, मरु से, प्रयुश्रुत से, उदािसु से, नंहदिधिन से, सकेतु से, दे िरात से,
बह
ृ दत
ु थ से, महािीयि से, सध
ु र्ृ त से, धष्ृ टकेतु से, हयिि से, मरु से, प्रतीन्धक से, कुर्तरथ से, दे िमीढ से,
त्तिबुध से, महाधर्ृ त से, कीर्तिरात से, महारोमा से, स्िणिरोमा से और ह्रस्िरोमा से सीरध्िज का जन्म
हुआ।

कुश िंश के राजा सीरध्िज को सीता नाम की एक पुिी हुई। सूयि


ि ंश इसके आगे भी बढा क्जसमें कृर्त
नामक राजा का पुि जनक हुआ क्जसने योग मागि का रास्ता अपनाया था। कुश िंश से ही कुशिाह,
मौयि, सैनी, शातय संप्रदाय की स्थापना मानी जाती है।

एक शोधानस
ु ार लि और कुश की 50िीं पीढी में शल्य हुए, जो महाभारत यद्
ु ध में कौरिों की ओर से
लडे थे। यह इसकी गणना की जाए तो लि और कुश महाभारतकाल के 2500 ििि पूिि से 3000 ििि पूिि
हुए थे। इसके अलािा शल्य के बाद बहत्क्षय, ऊरुक्षय, बत्सरोह, प्रर्तव्योम, हदिाकर, सहदे ि, ध्रुिाश्च,
भानरु थ, प्रतीताश्ि, सप्र
ु तीप, मरुदे ि, सन
ु क्षि, ककन्नराश्रि, अन्तररक्ष, सि
ु ेण, सर्ु मि, बह
ृ रज, धमि,
कृतज्जय, व्रात, रणज्जय, संजय, शातय, शुद्धोधन, र्सद्धाथि, राहुल, प्रसेनक्जत, क्षुरक, कुलक, सुरथ,
सुर्मि हुए।

भगिान श्रीराम के बाद बाद लि ने श्रािस्ती बसाई और इसका स्ितंि उल्लेख अगले 800 ििों तक
र्मलता है। कहते हैं कक भगिान श्रीराम के पि
ु कुश ने एक बार पन
ु : राजधानी अयोध्या का पन
ु र्निमािण
कराया था। इसके बाद सूयि
ि ंश की अगली 44 पीहढयों तक इसका अक्स्तत्ि बरकरार रहा। रामचंर से
लेकर द्िापरकालीन महाभारत और उसके बहुत बाद तक हमें अयोध्या के सय
ू ि
ि ंशी इक्ष्िाकुओं के
उल्लेख र्मलते हैं। इस िंश का बह
ृ रथ, अर्भमन्यु के हाथों 'महाभारत' के युद्ध में मारा गया था।
महाभारत के युद्ध के बाद अयोध्या उजड-सी गई लेककन उस दौर में भी श्रीराम जन्मभूर्म का अक्स्तत्ि
सुरक्षक्षत था जो लगभग 14िीं सदी तक बरकरार रहा

80
20. श्री कृष्ट्ण श्याम रां ग के तयों?

1. भगिान त्तिष्णु समुर में शेिनाग पर त्तिराजमान हैं और उनका सम्बन्ध पानी से भी हैं इसर्लए श्री
कृष्ण त्तिष्णु के अितार हैं इसर्लए उनका भी रं ग नीला हैं.
2. जब श्री कृष्ण ने आम जनमानस की रक्षा के पूतना का िध ककया था. पूतना राजा कंस के कहने पर
गोकुल के बच्चो को स्तनपान के बहाने त्तििपान करा रही थी लेककन श्री कृष्णा पूतना की सच्चाई
जान चुके थे और उन्होंने पूतना को मारने के र्लए उसका स्तनपान ककया था. इसी त्तिि को पीने से
श्री कृष्ण का रं ग नीला पड गया था.
3. यमुना नदी में एक कार्लया नाम का सपि रहता था. उस कार्लया नाग के पांच मुख थे. क्जसने अपने
त्तिि से पूरी नदी का जल त्तििैला कर हदया था. कोई भी गांि िाला जब नदी में जाता था तो िह
कार्लया के त्तिि का र्शकार हो जाता था. जब श्री कृष्ण ने इस सांप से लडाई की तो उस सांप से
र्नकले नीले रं ग के त्तिि ने श्री कृष्ण के शरीर का रं ग पूरा नीला कर हदया था.
4. भगिान श्री कृष्ण प्रकृर्त के रं ग को प्रस्तत
ु करते हैं. यह मनुष्य को मन की शांर्त और क्स्थरता का
आभास कराता हैं. यह श्याम रं ग भगिान श्री कृष्ण के चररि की त्तिशालता का प्रतीक हैं इसर्लए
भगिान श्री कृष्ण का रं ग भी श्याम और नीला हैं.
5. हहन्द ू पौराणणक कथाओं में हर उस व्यक्तत को नीले रं ग का हदखाया गया हैं जो बुराई का संहार
करते थे
6. भगिान त्तिष्णु ने दे िकी के गभि में दो बाल स्थात्तपत ककये थे. क्जनका रं ग काला और सफेद था.
काले रं ग के बाल से श्याम िणि के कृष्ण का जन्म हुआ था. जबकक सफेद बाल से बलराम का जन्म
हुआ था.
7. कृष्ण का संस्कृत भािा में अथि काला या श्याम होता हैं. इसर्लए सभी स्थानों पर भगिान श्री कृष्णा
को श्याम और नीले रं ग का प्रदर्शित ककया गया हैं.

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21. सुदामा जी गरीब तयों?

ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के र्लए उसकी कुहटया मे आ गये-
इधर उधर बहुत ढूाँढा चोरों को िह चनों की बाँधी पुटकी र्मल गयी चोरों ने समझा इसमे सोने के र्सतके
हैं इतने मे ब्राह्मणी जग गयी और शोर मचाने लगी. गााँि के सारे लोग चोरों को पकिने के र्लए दौिे.
चोर िह पुटकी लेकर भगे. पकिे जाने के िर से सारे चोर संदीपन मुर्न के आश्रम में र्छप गये. संदीपन
मुर्न का आश्रम गााँि के र्नकट था जहााँ भगिान श्री कृष्ण और सुदामा र्शक्षा ग्रहण कर रहे थे.

गुरुमाता को लगा की कोई आश्रम के अन्दर आया है गरु


ु माता दे खने के र्लए आगे बढीं चोर समझ गये
कोई आ रहा है चोर िर गये और आश्रम से भागे. भागते समय चोरों से िह पुटकी िहीं छूट गयी. और
सारे चोर भाग गये.

इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना! कक उसकी चने की पोटली चोर उठा ले गये. तो ब्राह्मणी
ने श्राप दे हदया की ”मुझ दीनहीन असहाय के जो भी चने खायेगा िह दररर हो जायेगा”.

उधर प्रात:काल गरु


ु माता आश्रम मे झािू लगाने लगी झािू लगाते समय गरु
ु माता को िही चने की
पोटली र्मली गरु
ु माता ने पोटली खोल के दे खी तो उसमे चने थे. सद
ु ामा जी और कृष्ण भगिान रोज
की तरह जंगल से लकिी लाने जा रहे थे.)

गुरु माता ने िह चने की पोटली सुदामा जी को दे दी और की कहा बेटा जब िन मे भूख लगे तो दोनो
लोग यह चने खा लेना. सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे. जैसे ही चने की पोटली सुदामा जी ने हाथ
मे र्लया िैसे ही उन्हे सारा रहस्य मालुम हो गया.

सुदामा जी ने सोंचा! गुरु माता ने कहा है यह चने दोनो लोग बराबर बााँट के खाना. लेककन ये चने अगर
मैने त्रिभुिनपर्त श्री कृष्ण को णखला हदये तो सारी सक्ृ ष्ट दररर हो जायेगी. नही-नही मै ऐसा नही करुाँ गा
मेरे जीत्तित रहते मेरे प्रभु दररर हो जायें मै ऐसा कदात्तप नही करुाँ गा. मै ये चने स्ियं खा जाऊाँगा लेककन
कृष्ण को नही खाने दाँ ग
ू ा.

और सद
ु ामा जी ने सारे चने खद
ु खा र्लए. दरररता का श्राप सद
ु ामा जी ने स्ियं ले र्लया. चने खाकर
लेककन अपने र्मि श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नही हदया.

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22. भारद्वाज ऋवि

भारद्िाज गोि आपको सभी जार्त, िणि और समाज में र्मल जाएगा। प्राचीन काल में भारद्िाज नाम
से कई ऋत्ति हो गए हैं। लेककन हम बात कर रहे हैं ऋग्िेद के छठे मंिल के दृष्टा क्जन्होंने 765 मंि र्लखे
हैं। िैहदक ऋत्तियों में भारद्िाज ऋत्ति का अर्त उच्च स्थान है।
अंधगरािंशी भारद्िाज के त्तपता बह
ृ स्पर्त और माता ममता थीं। बह
ृ स्पर्त ऋत्ति का अंधगरा के पुि होने
के कारण ये िंश भी अंधगरा का िंश कहलाएगा। ऋत्ति भारद्िाज ने अनेक ग्रंथों की रचना की उनमें से
यंि सििस्ि और त्तिमानशास्ि की आज भी चचाि होती है।

चरक ऋत्ति ने भारद्िाज को 'अपररर्मत' आयु िाला कहा है। भारद्िाज ऋत्ति काशीराज हदिोदास के
परु ोहहत थे। िे हदिोदास के पि
ु प्रतदिन के भी परु ोहहत थे और कफर प्रतदिन के पि
ु क्षि का भी उन्हीं ने
यज्ञ संपन्न कराया था। िनिास के समय प्रभु श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐर्तहार्सक दृक्ष्ट से
िेता-द्िापर का संधधकाल था। उतत प्रमाणों से भारद्िाज ऋत्ति को अपररर्मत िाला कहा गया है।

भारद्वाज के वपता दे वगुरु बह


ृ स्पनत और माता ममता थीां। ऋत्ति भारद्िाज के प्रमुख पुिों के नाम हैं-
ऋक्जष्िा, गगि, नर, पायु, िसु, शास, र्शराक्म्बठ, शुनहोि, सप्रथ और सुहोि। उनकी 2 पुत्रियां थी रात्रि
और कर्शपा। इस प्रकार ऋत्ति भारद्िाज की 12 संतानें थीं। सभी के नाम से अलग-अलग िंश चले।
बहुत से ब्राह्मण, क्षत्रिय, िैश्य एिं दर्लत समाज के लोग भारद्िाज कुल के हैं

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23. हिुमाि िािीसा का इनतहास /History of Hanuman Chalisa

Hanuman Chalisa was composed by Tulsidas, a 15th-century poet-saint who was also
philosopher and reformer. Tulsidas is also renowned for his devotion to Shri Rama.
Goswami Tulasidas composed Hanumaan Chalisa in 40 days in Jail of Third Mughal
Emperor Jalaluddin Muhammad Akbar.

At the age of 63 years, Goswami Tulasidasji was captured by Third Mughal Emperor
Jalaluddin Mahummad Akabar in 1560 A.D. Tulsidas has written this to inspire spiritual
aspirants to become devotees of Lord Rama so that they are blessed and protected
by Hanuman, and are spiritually progressing.

The Miracle of Chanting Hanuman Chalisa

Akbar had summoned Sant Tulsi Das, who was later brought in front of the tyrant
Akbar. He was asked to perform a miracle to which Tulsi Das declined by saying: “It’s
a lie, all I know is Sri Rama”. So, Akbar imprisoned Tulsi Das at Fatehpur Sikri saying,
”We will see this Rama”.

However, Tulsi Das refused to bow down to Akbar and wrote the Hanuman Chalisa in
praise of Sri Hanuman. He chanted this for forty days and on the 40th day, suddenly
an army of giant monkeys descended upon Fatehpur Sikri, unleashing havoc in all
corners of the town, entering each home as well as Akbar’s harem, scratching people
and throwing bricks.

An old Hafiz told Akbar that this was the miracle of the Hindu fakir. Akbar immediately
fell at the feet of Tulsi Das, apologized and freed him. Tulsi Das stopped the menace
of the monkeys and told Akbar to leave the place.

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24. मदिमोहि / सूरदास से जुडी कहानियााँ

मदिमोहि िे दो जिती हुए लसिाया माांगी तथा उसे अपिी आाँि में डाि दी. उस हदि
महाि कवव सूरदास का जन्म हुआ.
“मदनमोहन नाम का एक बहुत ही सुन्दर और तेज बद्
ु धध का नियुिक था. िह हर हदन नदी के ककनारे
जाकर बैठ जाता और गीत र्लखता. एक हदन उस नियुिक ने एक सुन्दर नियुिती को नदी ककनारे
कपिे धोते हुए दे खा. मदनमोहन का ध्यान उसकी तरफ चला गया उस युिती ने मदनमोहन को ऐसा
आकत्तिित ककया कक िह कत्तिता र्लखने से रुक गया तथा पूरे ध्यान से उस युिती को दे खने लगा.

उसको ऐसा लगा मानो यमुना ककनारे राधधका स्नान करके बैठी हो. उस नियुिती ने भी मदनमोहन
की तरफ दे खा. दे खते ही दे खते बातों का र्सलर्सला चल पडा. जब यह बात मदन मोहन के त्तपता को
पता चली तो उनको बहुत क्रोध आया. जमकर त्तििाद हुआ और मदन मोहन ने घर छोड हदया लेककन
उस सुन्दर युिती का चेहरा उनके सामने से नहीं जा रहा था एक हदन िह मंहदर मे बैठे थे तभी एक
शादीशुदा महहला मंहदर में आई. मदनमोहन उसी के पीछे चल हदया.

जब िह उसके घर पहुंचा तो उसके पर्त ने दरिाजा खोला तथा पूरे आदर समान के साथ उन्हें अंदर
त्रबठाया. कफर मदनमोहन ने दो जलती हुए र्सलाया मांगी तथा उसे अपनी आाँख में िाल दी. उस हदन
महान कत्ति सरू दास का जन्म हुआ.

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25. श्रवण कुमार, दशरथ जी को पुत्र रत्ि की प्राजप्त, श्री राम
का विवास,
यह सत्य हैं की कमि का फि सबको भोगिा ही हैं
(श्रवण कुमार : मझ
ु े अपिी मत्ृ यु का कोई दःु ि िहीां. दःु ि है कक मैं अपिे माता-वपता की इच्छा पण
ू ि
ि कर सका. मैं उन्हें समस्त तीथों की यात्रा ि करा सका. इस समय वे प्यास से व्याकुि है. कृपा कर
आप इस किश में पािी भरकर उिकी प्यास बुझा दीजजये.”

जब मयािदा परू
ु िोत्तम श्रीराम १४ विि के विवास के लिए वि ििे गए. पत्र
ु ववयोग में तड़पते हुये ही
राजा दशरथ िे अपिे प्राण त्यागे.)

श्रवण कुमार शांतनु नामक एक साधु के पुि थे. उनकी माता का नाम ज्ञानिती था, जो एक धमिपरायण
स्िी थी. उनके माता-त्तपता नेिहीन थे. बडे कष्ट सहकर उन्होंने उनका पालन-पोिण ककया था. इसर्लए
माता-त्तपता के प्रर्त उनके मन में अथाह प्रेम और श्रद्धा थी.

जब िे कुछ बडे हुए, तो अपने माता-त्तपता की सेिा में लग गए. िे नदी से पानी भरकर लाते, जंगल से
लकडडयााँ चन
ु कर लाते, भोजन तैयार करते और घर के समस्त कायि करते. माता-त्तपता की सेिा करना
िे अपना परम धमि मानते थे.

त्तििाह योग्य होने पर माता-त्तपता द्िारा उनका त्तििाह करिा हदया गया. ककं तु क्जस स्िी से उनका त्तििाह
हुआ, िह श्रिण कुमार के नेिहीन माता-त्तपता को बोझ स्िरुप मानती थी. िह हदखािे माि के र्लए
श्रिण कुमार के समक्ष माता-त्तपता की सेिा करती और पीठ पीछे उनसे बुरा व्यिहार करती थी.

जब श्रिण कुमार को इस त्तििय में ज्ञात हुआ, तो उन्होंने अपनी पक्त्न को फटकार लगाईं. तब रूठकर
िह अपने मायके चली गई और कभी िापस नहीं आई. पक्त्न के जाने के बाद श्रिण कुमार ने अपने
माता-त्तपता को कभी कोई दःु ख नहीं पहुाँचने हदया.

समय के साथ श्रिण कुमार के माता-त्तपता िद्


ृ ध हो चले थे. उनकी इच्छा मत्ृ यु पि
ू ि तीथि यािा पर जाने
की थी. एक हदन उन्होंने अपनी इच्छा श्रिण कुमार को बताई, तो श्रिण कुमार उनकी इस इच्छा की
पूर्ति की तैयाररयों में लग गए.

दो बडी टोकररयों को एक मजबूत लकडी के दोनों छोर पर बंधकर उन्होंने कांिर तैयार ककया. एक टोकरी
में अपने त्तपता को बैठाया और एक में माता को. कफर उस कांिर को अपने कंधों में लादकर िे त्तिर्भन्न
तीथों की यािा पर र्नकल गए.

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िे अपने माता-त्तपता को काशी, गया, प्रयागराज जैसे कई तीथों पर ले गए. तीथि स्थानों का िणिन कर
िे अपने माता-त्तपता को सन
ु ाया करते थे. इस तरह उनके नेिहीन माता-त्तपता उनकी आाँखों से तीथि दशिन
करने लगे.

एक संध्या श्रिण कुमार कांिर लेकर एक िन से प्रस्थान कर रहे थे. उनके माता-त्तपता बहुत दे र से प्यासे
थे. उन्होंने श्रिण कुमार से पानी लाने को कहा. श्रिण कुमार ने एक पेड के नीचे कांिर नीचे रखा और
कलश लेकर जल की खोज में र्नकल पडे. पास ही उन्हें एक नदी हदखाई पडी और िे नदी तट पर पहुाँच
गए.

उस हदन अयोध्या के राजा दशरथ उसी िन में आखेट कर रहे थे. हदन भर िन में भटकने के उपरांत भी
उन्हें कोई आखेट न प्राप्त हो सका. िे िापस लौटने का मन बना ही रहे थे कक उन्हें नदी तट पर आहट
सन
ु ाई पडी. उन्होंने सोचा कक अिश्य ही कोई िन्य जीि नदी तट पर प्यास बझ
ु ाने आया है. (सतयग
ु में
अयोध्या नामक एक अपराक्जत राज्य था. क्जस के राजा का नाम महाराज दशरथ था. महाराज दशरथ
महान सत्यिादी राजा हहरश्चंर और माता गंगा को पथ्ृ िी पर अपने कहठन पररश्रम से लाने िाले राजा
भगीरथ के िंशज थे. अपने पूिज
ि ों की तरह ही राजा दशरथ बहुत ही न्याय त्तप्रय धार्मिक प्रिर्ृ त के थे.)

शब्दभेदी बाण चलाने में पारं गत राजा दशरथ ने आहट की हदशा में बाण छोड हदया. ककं तु िह कोई िन्य
प्राणी नहीं अत्तपतु श्रिण कुमार थे, जो अपने माता-त्तपता के र्लए कलश में जल भर रहे थे. बाण उनके
सीने में जा घुसा और िे पीडा से कराह उठे . यह कराह सुनकर राजा दशरथ को अपनी िुटी का भान हुआ
और िे नदी के तट पर पहुाँच.े

Shravan Kumar

घायल अिस्था में श्रिण िहााँ पडे हुए थे. राजा दशरथ प्रायक्श्चत से भर उठे . िे श्रिण से क्षमा याचना
करने लगे. तब श्रिण कुमार ने कहा, “राजन! मुझे अपनी मत्ृ यु का कोई दःु ख नहीं. दःु ख है कक मैं अपने
माता-त्तपता की इच्छा पूणि न कर सका. मैं उन्हें समस्त तीथों की यािा न करा सका. इस समय िे प्यास

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से व्याकुल है. कृपा कर आप इस कलश में पानी भरकर उनकी प्यास बुझा दीक्जये.” इतना कहकर श्रिण
ने प्राण त्याग हदए.

अनजाने में स्ियं से हुए अपराध से द;ु खी राजा दशरथ श्रिण के माता-त्तपता के पास पहुाँचे. श्रिण कुमार
के माता-त्तपता कदमों की आहत से जान गए कक िह उनका पुि नहीं है. पूछने पर दशरथ ने पूरा ित
ृ ांत
सुना हदया. अपने पुि की मत्ृ यु का समाचार सुन माता-त्तपता त्तिलाप करने लगे और उन्होंने दशरथ को
श्राप हदया कक पुि त्तियोग में तडप-तडप कर िह भी अपने प्राण त्यागेगा.
राजा दशरथ ने पुरे आदर भाि के साथ तीनो का अंर्तम संस्कार ककया। राजा इस श्राप से दख
ु ी रहने
लगे।

इस श्राप के कारण राजा दशरथ को तब पि


ु त्तियोग भोगना पडा, जब मयािदा परू
ु िोिम श्रीराम १४ ििि
के िनिास के र्लए िन चले गए. पि
ु त्तियोग में तडपते हुये ही राजा दशरथ ने अपने प्राण त्यागे.

दशरथ जी को पुत्र रत्ि की प्राजप्त

समय बीतता गया कई बसंत बीत गए राजा दशरथ ने पुि प्राक्प्त हे तु सभी बडे-बडे और ज्ञानी र्सद्ध
,ऋत्तिओं और महत्तिियों को आदर पूिक
ि बुला कर उनसे त्तिनती कर अपने कामना की पूर्ति करने की
प्राथिना की. महाऋत्तियों के आदे शानुसार एक यज्ञ का आयोजन ककया गया.

पुरे अयोध्या नगरी को स्िगि की तरह सजाया गया जगह-जगह भंिारे और दान सभागार की स्थापना
की गई यज्ञ हे तु भव्य और त्तिशाल हिन कंु ि का र्नमािण ककया गया. िेद शास्िों के र्नयमानुसार सभी
सभी त्तिधध-त्तिधान से यज्ञ संपन्न हुआ. उस यज्ञ से प्राप्त खीर को प्रसाद रूप में तीनो रार्नयों को णखला
हदया गया.

कुछ समय पश्चात ही तीनो रार्नयों ने चार सूयि समान तेजस्िी राजकुमारों को जन्म हदया। उनका नाम
क्रमशः राम, लक्षम्ण, भरत और सबसे छोटे शिुधन था. राजा दशरथ पुि सुख प्राप्त करके फुले नहीं
समा रहे थे. िे अपने सभी चार राजकुमारों को अत्यंत प्रेम करने लगे. दशरथ जी को पुि रत्न की प्राक्प्त

त्तिशेिकर उनका प्रेम सबसे बडे पुि श्री राम से कुछ अधधक था. श्री राम बचपन से ही हदव्य प्रत्तिती के
थे िे करुणा, दया के सागर थे उनको दे खते ही सभी उन पर मोहहत हो जाते थे. राजा दशरथ अपने पुिो
को एक पल भी अपने से दरू नहीं रखना चाहते थे.

कठोर हृदय से उन्होंने अपने सभी चारो पुिो को िैन में गुरुकुल में र्शक्षा और यद्
ु ध कौशल में र्नपुण
होने के र्लए भेजा। िहााँ सभी भाइयों ने कहठन पररश्रम से िेद-उपर्निद शास्ि-शास्ि आहद की र्शक्षा
ग्रहण की चारो भाइयों में राम और लक्षमण सबसे ज्यादा र्नपुण और साहसी थे.

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त्तिद्या ग्रहण के दौरान और यज्ञ की रक्षा करते हुिे श्री राम और लक्षमण ने अनेक राक्षसों का िध
ककया। कफर अपने गुरु की आज्ञा से र्शि धनुि को तोड कर सीता जी से त्तििाह ककया। श्री राम और
सीता के साथ-साथ सभी भाइयों का त्तििाह सीताजी की अन्य तीन बहन से हुआ क्जनमे से मांििी जी
का त्तििाह लक्षमण जी के साथ हुआ.

पुिों के त्तििाह के बाद राजा दशरथ ने सोचा की अब मैं भी िद्


ृ ध हो रहा हूाँ अब राम को राजा बनाने का
अिसर आ गया हैं. ऐसा त्तिचार करके राजा दशरथ ने पुरे राज्य में श्री राम जी का राजयर्भिेक करने
की घोिणा कर दी.

पुरे राज्य में अपने चाहते राजकुमार को राजा बनाने की तैयारी परु े जोर-शोर से होने लगी पुरे नगर को
सजाया जाने लगा जगह लोग ख़ुशी के गीत गाने और नाचने लगे. हर जगह ख़ुशी का माहौल व्याप्त
था राजा दशरथ सबसे ज्यादा खुश थे.

श्री राम का विवास

िेककि इतिी ख़ुशी समय को मांजूर िहीां थी. राजा दशरथ की एक रािी का िाम कैकयी था राजा उन्हें
बहुत प्रेम करते थे तथा राजा ने कैकयी माता से प्रेम त्तििाह ककया था. कैकयी आजकि के रूस प्रान्त
के ककसी राजा की राजकुमारी थी क्जन्होंने युद्ध में राजा दशरथ की सहायत की थी क्जससे राजा दशरथ
ने उनसे त्तििाह ककया था. कैकयी ने राजा दशरथ से तीन िचन र्लए और तब त्तििाह ककया?

माता कैकयी की एक दासी थी क्जसका नाम मंथरा था िह एक कुबडी थी हदखने में भी बहुत बदसूरत
थी उसने रानी कैकयी के मक्स्तष्क में पुि मोह को उत्पन्न कर उनके मक्स्तष्क में बुरी बुरी बाते भरने
लगी उसने रानी का मन दत्तू ित करने के र्लए कहा की-

"जब राम राजा बनेंगे तब तुम और तुम्हारा पुि भरत एक नौकर से बढकर और कुछ नहीं रह जाओगे
तुम राजा की पुिी हो तुम्हारा पुि भी राजा बनना चाहहए लेककन भरत का जीिन राम की जीहजूरी करते
ही बीतेगा"

मंथरा ने रानी कैकयी को िह तीन िचन भी याद हदलाये क्जसको रानी ने त्तििाह से पूिि मााँगा था. मंथरा
ने कहा की अब समय आ गया हैं राम को िनिास भेजो और भरत को राजा बनाने का िचन दशरथ से
मााँग लो यही सही अिसर हैं"

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माता कैकयी भी मंथरा बातो के प्रभाि में आ गयी तथा उन्होंने इस ख़ुशी के माहौल में कुत्तपत चेहरा
बना कर अपने सभी बाल खोलकर कोप भिन में चली कई और त्तिलाप करने लगी.

इस समाचार से पुरे राजभिन के साथ-साथ पुरे नगर में शोक का लहर छा गया. राजा दशरथ बाकी की
दो रानी राम लक्षमण शिध
ु न सभी आनन्फा-नन में कोप भिन की तरफ चल पडे. भरत उस समय
अयोध्या में नहीं थे िे अपने मामा के घर गए हुिे थे.

राजा दशरथ ने रानी कैकयी के पास जाकर उनके परे शानी का कारण पूछा तो माता कैकयी ने अपने
तीन िचन का हदलाते हुिे राम को चौदह ििि की िनिास तथा भरत को अयोध्या का राजा बनाने का
िचन मााँगा।

राजा दशरथ को अपने सबसे त्तप्रये पुि राम को राजयर्भिेक की जगह १४ ििि का िनिास की मांग
सुनकर उनको बहुत बडा आघात पहुाँचा उन्होंने कैकयी से बहुत अनुनय-त्तिनय ककया उन्होंने कहााँ कोई
भी िस्तु मांगलो पूरी दर्ु नया के ककसी भी कोने से मैं लाकर दं ग
ू ा बस राम को िनिास की मांग मत
करो.

कैकयी जी अपने मांग से त्रबलकुल भी पीछे नहीं हटी राजा दशरथ त्तिलाप करने लगे उन्होंने कभी नहीं
सोचा था की ऐसा हदन दे खना पडेगा।

जब श्री राम को अपने त्तपता के िचन की बात और िनिास की बात पता चली तो उन्होंने िचन की
मयािदा की रक्षा हे तु 14 िनिास जाने का र्नणिय र्लया।

अपने पत्नी धमि का र्नििहन करते हुिे उन्होंने भी अपने पर्त श्री राम के साथ जाने का र्नणिय र्लया
अपने बडे भाई को पत्नी संग अकेले जाता दे ख लक्षमण भी त्रबना ककसी की सुने श्री राम के साथ जाने
के र्लए तैयार हो गए.

पुरे अयोध्या में क्जतना ख़ुशी का माहौल था उससे ज्यादा दःु ख का माहौल बन गया सभी प्रजा में
हाहाकार मच गया पूरी प्रजा अपने त्तप्रये राजकुमार राम और नित्तििाहहता माता सीता को लक्षमण जी
के साथ िनिास पर जाने को दे खने के र्लए राजभिन की तरफ दौड पडे. श्री राम, माता सीता और श्री
िक्षमण विवास की तरफ एक सन्यासी के भेि में राजभवि को छोड़ कर निकि पड़े राजा दशरथ
अपिा सध
ु -बध
ु िो बैठे िो त्तिलाप करते-करते धरती पर बैठ गए.

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इधर आधी प्रजा अपने राजा राम के साथ व्यकुलहोकर उनके पीछे -पीछे िन में जाने लगी. राम जी ने
ककसी तरह रात में सोते हुिे छोडकर िनिास गए. इधर श्रवण कुमार के माता वपता द्वारा हदए गए श्राप
के पनू ति होिे का समय आ गया था.

राजा दशरथ इस दःु ख को सह नहीं पाए तथा िो हदन प्रर्तहदन बीमार होते गए और अंत में श्रिण कुमार
के माता-त्तपता की तरह पुि त्तियोग में प्राण त्याग हदए. राजा दशरथ के प्राण चले जाने के साथ ही श्रिण
कुमार के माता-त्तपता का श्राप परू ा हुआ.

यह सत्य हैं की कमि का फि सबको भोगिा ही हैं र्नष्काम कमि द्िारा ही कमि-फल के बंधन से मत
ु त
हुआ जा सकता हैं. यह त्तिधध का त्तिधान हैं क्जसे त्तिधध बनाने िाला भी नहीं तोडता हैं.

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26. कैसे हुआ िाररयि. का जन्म (motivationalstoryinhindi.com)

नाररयल के जन्म की कहानी प्रतापी राजा सत्यव्रत से जुडी हुई है. ईश्िर पर अटूट त्तिश्िास रखने िाले
राजा सत्यव्रत को स्िगिलोक का अलौककक सौंदयि सदा आकत्तिित करता था.
ििों से पथ्
ृ िीलोक से स्िगिलोक जाने की कामना उनके ह्रदय में दबी हुई थी. ककं तु ज्ञान के अभाि में िे
उसे यथाथि रूप में पररणणत नहीं कर पा रहे थे.

एक बार राजा सत्यव्रत के राज्य में भयंकर सूखा पडा. इन क्स्थर्त में राजा ने धन-धान्य से अपनी प्रजा
की भरपूर सहायता की.

राजा की सहायता प्राप्त करने िालों में ऋत्ति त्तिश्िार्मि का पररिार भी सक्म्मर्लत था, जो त्तिश्िार्मि
के तपस्या के र्लए िन चले जाने के पश्चात ् भूखा-प्यासा भटक रहा था.

जब त्तिश्िार्मि तपस्या से िापस आये, तब राजा सत्यव्रत की भूरर-भूरर प्रशंिा करते हुए उनकी पक्त्न
ने उन्हें बताया कक कैसे उनकी अनुपक्स्थर्त में उपजी त्तििम पररक्स्थर्तयों में राजा सत्यव्रत ने उनके
पररिार की सहायता की?

यह सुनकर ऋत्ति ववश्वालमत्र (Vishwamitra) आभार व्यतत करने राजा सत्यव्रत के दरबार पहुाँचे.
राजा सत्यव्रत ने उनका स्िागत और आदर-सत्कार ककया और उनके आने का कारण पूछा.

ऋत्ति त्तिश्िार्मि (Vishwamitra) ने अपने पररिार की सहायता के र्लए राजा का आभार व्यतत करते
हुए उन्हें िरदान मांगने को कहा.
राजा सत्यव्रत ने अपने ह्रदय में दबी स्िगि जाने की कामना का िणिन कर ऋत्ति त्तिश्िार्मि से र्निेदन
ककया कक यहद उन्हें िरदान दे ना ही है, तो िरदान स्िरुप उन्हें स्िगि जाने का मागि बता दें .

राजा को िरदान दे ते हुए त्तिश्िार्मि ने अपने तेज और शक्तत से एक ऐसे मागि का र्नमािण ककया, जो
सीधा स्िगि को जाता था. सत्यव्रत उस मागि से स्िगि के द्िार तक पहुाँच गए. ककं तु जैसे ही उन्होंने स्िगि
के भीतर प्रिेश ककया, दे िराज इंर ने उन्हें धतका दे हदया.

सत्यव्रत पथ्ृ िीलोक पर आ धगरे . उन्होंने दे िराज इंर (Indra) की धष्ृ टता का िणिन जब त्तिश्िार्मि से
ककया, तो िे अत्यंत क्रोधधत हुए और दे िताओं के पास पहुाँचे.

दे ितागण त्तिश्िार्मि (Vishwamitra) का बहुत सम्मान करते थे, ककं तु ककसी मनुष्य को स्िगिलोक
में प्रिेश दे ने िे तैयार नहीं हुए. अंततः इस समस्या का एक हल र्नकाला गया.

93
ऋत्ति त्तिश्िार्मि ने पथ्
ृ िीलोक और स्िगिलोक के मध्य एक क्षद्म स्िगिलोक का र्नमािण करिाया, जो
राजा सत्यव्रत के र्लए था. दे िताओं को इसमें कोई आपत्ति नहीं थी. राजा सत्यव्रत भी प्रसन्न थे.

ककं तु नए स्िगिलोक के संबंध में ऋत्ति त्तिश्िार्मि धचंर्तत थे. उन्हें िर था कक कहीं तेज हिा के झोंके से
उनका बनाया स्िगिलोक िगमगा ना जाये. ऐसे में राजा सत्यव्रत पुनः पथ्
ृ िी पर धगर पडेंगे.

इस समस्या का र्नदान करते हुए उन्होंने निीन स्िगिलोक को सहारा दे ने पथ्ृ िीलोक से निीन स्िगिलोक
तक एक मजबत
ू खंबे का र्नमािण ककया.

माना जाता है कक इस खंबे का तना बाद में एक पेड में पररिर्तित हो गया और राजा सत्यव्रत का र्सर
इसका फल बन गया. इस पेड को ही नाररयल का पेड और राजा के र्सर को ‘नाररयल’ (Coconut) का
फल माना जाता है.nयही कारण है कक नाररयल (Coconut) के पेड बहुत ऊाँचे होते हैं और उसके फल
बहुत ऊंचाई पर लगते हैं. कथानस
ु ार पथ्
ृ िीलोक और स्िगिलोक के मध्य लटके होने के कारण राजा
सत्यव्रत को ‘ना इधर का का ना उधर का’ उपाधध दी गई.

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27. सत्यवाि साववत्री की कथा |
(ophindistory.org)

यह कहानी एक ऐसी भारतीय नारी Savitri की है, जो अपने पर्त के प्राण बचाने के र्लए यमराज से
लड जाती है और अपने पर्त की जान बचाने में सफल भी हो जाती है।

भारत के दक्षक्षण कश्मीर में अश्िपर्त नाम का राजा राज्य करता था। िह बहुत धमाित्मा न्यायकारी
और दयालु राजा था। उसके कोई संतान न थी ज्यों-ज्यों राजा की अिस्था बीत रही थी, उसे संतान होने
से धचंता बढ रही थी। ज्योर्तत्तियों ने उसकी जन्म कंु िली दे खकर बताया कक- "आपके ग्रह बता रहे हैं कक
आपको संतान होगी"। इसके र्लए आप सात्तििी दे िी की पूजा कीक्जए। राजा अश्िपर्त राज्य छोडकर
िन चले गए 18 ििि तक उन्होंने तपस्या की। तब उन्हें िरदान र्मला और उनके घर एक कन्या हुई।
उसका नाम उन्होंने सात्तििी रखा।

त्तपता को उसके त्तििाह की धचंता होने लगी। अश्िपर्त चाहते थे कक उसी के अनरू
ु प सात्तििी को पर्त भी
र्मले ककं तु कोई र्मलता ना था। सात्तििी का मन बहलाने के र्लए अश्िपर्त ने उसे तीथियािा के र्लए
भेज हदया, और उसे आज्ञा दी कक- 'तझु े पर्त चन
ु लेने की पणू ि स्ितंिता दे ता हूं"। सात्तििी का रथ जा
रहा था, कक उसे एक अद्भुत स्थान हदखाई हदया। अनेक संद ु र िक्ष
ृ के चारों ओर हररयाली थी।

िहीं एक यि
ु क घोडे के बच्चे के साथ खेल रहा था। उसके र्सर पर जटा बनी थी, िह छाल पहने हुए था।
उसके मख
ु पर तेज था। सात्तििी ने दे खा और मंिी से कहा कक-- "आज यही त्तिश्राम करना चाहहए"। रथ
जब ठहरा िह यि
ु क पररचय पाने के र्लए उनके पास आया। उसे जब पता चला कक िह राजकुमारी है
तो िह उन्हें बडे सम्मान से अपने त्तपता के आश्रम में ले गया। उसने यह भी बताया कक मेरे माता-त्तपता
दृक्ष्टहीन है। मेरे त्तपता ककसी समय सालिा दे श के राजा थे। िह इस समय यहां तपस्या कर रहे है और
मेरा नाम सत्यिान है।

दस
ू रे हदन सात्तििी घर लौट गई और बडी लज्जा तथा शालीनता से उसने सत्यिान से त्तििाह करने की
अनम ु र्त मांगी। राजा अश्िपर्त बहुत प्रसन्न हुए कक-- "सात्तििी को उसके अनरूु प िर र्मल गया है "।
ककं तु बाद में ज्योर्तत्तियों से पता चला कक सत्यिान की आयु बहुत कम है। िह 1 साल से अधधक जीत्तित

95
नहीं रहे गा। यह जानने के बाद सात्तििी के त्तपता को बहुत दख
ु हुआ। उन्होंने सात्तििी को सब प्रकार से
समझाया कक-- "ऐसा त्तििाह करना जन्म भर के र्लए दख ु मोल लेना है "।

सात्तििी ने कहा-- "त्तपताजी! मुझे इस संबंध में आपसे कुछ कहते हुए संकोच तथा लज्जा का अनुभि हो
रहा है। मैं त्तिनम्रता के साथ यह र्निेदन करना चाहती हूं कक- आपने मुझे िर चुनने की स्ितंिता दी
थी। मैंने सत्यिान को चुन र्लया। अब अपनी बात से हटना आपके आदशि का अपमान हुआ और युग-
युग के र्लए अपने तथा अपने पररिार के ऊपर कलंक लगाना हुआ"। अश्िपर्त सात्तििी की बात सुनकर
र्नरुिर हो गए। उन्होंने त्तिद्िानों को बल
ु ाकर त्तिचार त्तिमशि ककया।

अंत में राजा अश्िपर्त ने सात्तििी को तथा और लोगों के साथ लेकर सत्यिान के त्तपता के आश्रम में
त्तििाह करने के र्लए चले हदए। जब आश्रम र्नकट आया तब अश्िपर्त सब को छोडकर आश्रम में गए
और सत्यिान के त्तपता घुमंत्सेन से सात्तििी का सत्यिान के साथ त्तििाह करने का त्तिचार प्रकट ककया।
घुमंत्सेन ने पहले तो अस्िीकार कर हदया। िह बोले- "महाराज मैं दररर हूं। तपस्या कर रहा हूं, ककसी
समय में राजा था , ककं तु अब तो कंगाल हूं। राजकुमारी को ककस प्रकार अपनी यहां रखंग
ू ा"?

तब अश्िपर्त ने उन्हें सारी क्स्थर्त बता दी और त्तििाह कर लेने के र्लए आग्रह ककया। अंत में सत्यिान
के त्तपता मान गए और िहीं िन में दोनों का त्तििाह हो गया। अश्िपर्त त्तििाह में बहुत साधन अलंकार
आहद दे रहे थे। घुमत्सेन ने कुछ भी नहीं र्लया। उन्होंने कहा-- "मुझे इससे तया काम? त्तििाह के पश्चात
सात्तििी िहीं आश्रम में रहने लगी। उसने अपने सास-ससुर तथा पर्त सत्यिान की सेिा में अपना मन
लगा हदया। सत्यिान और सात्तििी सदा लोक-कल्याण तथा उपकार की बात करते थे।

सात्तििी हदन भर घर का काम काज करती थी। जब कभी उसे अिकाश र्मलता था तो िह भगिान से
अपने पर्त की लंबी आयु की प्राथिना करती थी। जैस-े जैसे समय र्नकट आता गया उनकी धचंता बढती
गई। जब सत्यिान के जीिन के 3 हदन शेि रह गए तो सात्तििी ने भोजन छोड हदया और हदन-रात
प्राथिना करने लगी। लोग उसे भोजन करने के र्लए समझाते ककं तु िह सबका अनुरोध टालती रही।
तीसरे हदन जब सत्यिान जंगल में लकडी काटने जा रहे थे, सात्तििी भी उनके साथ चली।

सत्यिान ने समझाया कक-- "तुमने 3 हदन से कुछ खाया नहीं है , तुम मेरे साथ मत जाओ"। ककं त!ु िह
नहीं मानी और सत्यिान के साथ िन को चली गई।सत्यिान एक पेड पर लकडी काटने के र्लए चढ
गया। थोडी दे र में उसने लकडी काटकर धगरा दी। सात्तििी ने कहा-- "लकडी बहुत है उतर आइए"।
सत्यिान पेड से उतरा। सत्यिान ने कहा-- "मेरे र्सर में चतकर आ रहा है "। धीरे -धीरे र्सर में चतकर
बढने लगा। सत्यिान धीरे -धीरे बेहोश होने लगा और कुछ क्षण में उसके प्राण पखेरू उड गए।

यह सब सात्तििी पहले से जानती थी। कफर भी उसने अपने पर्त को र्नष्प्राण दे खा और िह रोने लगी।
इसी समय उसे ऐसा जान पडा कक कोई भयानक तेज पण
ू ि परछाई उसके सामने खडी है। उसे दे खकर

96
सात्तििी भयभीत हो गई। कफर अचानक न जाने कहां से उसमें बोलने का साहस आ गया। उसने कहा--
"प्रभ!ु आप कौन हैं"। उस छाया ने कहा-- "मैं यमराज हूं। मझ
ु े लोग धमिराज भी कहते हैं, मैं तम्
ु हारे पर्त
के प्राण लेने आया हूं। तम्
ु हारे पर्त की आयु परू ी हो गई है , मैं उसके प्राण लेकर जा रहा हूं"। इतना कहकर
यमराज सत्यिान के प्राण लेकर चलने लगे।

सत्यिान का शरीर धरती पर पडा रहा। सात्तििी भी यमराज के पीछे पीछे चलने लगी। थोडी दे र बाद
यमराज ने मड
ु कर पीछे दे खा तो सात्तििी भी चली आ रही थी। यमराज ने कहा-- "सात्तििी! तम
ु कहां
चली आ रही हो, तम्
ु हारी आयु बाकी है। तम
ु हमारे साथ नहीं आ सकती लौट जाओ"!! इतना कहकर
यमराज आगे बढे कुछ दे र बाद यमराज ने कफर मड
ु कर दे खा तो सात्तििी चली आ रही थी। यमराज ने
कफर कहा-- "तुम तयों मेरे पीछे आ रही हो"। सात्तििी बोली-- "महाराज! मैं अपने पर्त को कैसे छोड
सकती हूं"।

यमराज ने कहा-- "जो ईश्िर का र्नयम है , िह नहीं बदला जा सकता, तुम चाहो तो कोई िरदान मुझसे
मांग लो। केिल सत्यिान का जीिन छोडकर जो मांगना है मांग लो और चली जाओ। सात्तििी ने बहुत
सोच कर कहा-- "मेरे सास और ससुर दे खने लगे और उनका राज्य िापस र्मल जाए यमराज ने कहा
ऐसा ही होगा"। थोडी दे र बाद यमराज ने दे खा कक सात्तििी कफर पीछे -पीछे आ रही है। यमराज ने सात्तििी
को बहुत समझाया और कहा-- "अच्छा एक िरदान और मांग लो। सात्तििी ने कहा-- "मेरे त्तपता को
संतान प्राप्त हो जाए। यमराज ने िरदान दे हदया और आगे बढ गए।

कुछ दरू जाने के बाद उन्होंने पीछे गदिन घुमाकर दे खा सात्तििी चली आ रही है। उन्होंने कहा-- "सात्तििी
तुम तयों चली आ रही हो ऐसा कभी नहीं हुआ कोई जीत्तित शरीर मेरे साथ नहीं जा सकता। इसीर्लए
तुम लौट जाओ। सात्तििी ने कहा अपने पर्त को छोड कर नहीं जा सकती। शरीर का त्याग कर सकती
हूाँ"। यमराज चकराया कक यह एक कैसी स्िी है। इतनी दे र से कोई बात नहीं मानती पता नहीं तया करना
चाहती है। उन्होंने कहा-- "अच्छा! एक िरदान मुझसे और मांग लो। मेरा कहना मानो भगिान की जो
इच्छा है उसके त्तिरुद्ध लडना बेकार है।

सात्तििी ने कहा-- "महाराज! आप यहद िरदान ही दे ना चाहते हैं। तो यह िरदान दीक्जए कक मुझे संतान
प्राप्त हो जाए। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा यमराज आगे बढे ककं तु कुछ ही दरू ी पर उन्हें ऐसा लगा
कक िह लौटी नहीं यमराज को क्रोध आ गया। यमराज ने कहा- "तुम मेरा कहना नहीं मानती हो। सात्तििी
ने कहा धमिराज आप मुझे संतान प्राक्प्त का आशीिािद दे चुके हैं। और मेरे पर्त को अपने साथ र्लए जा
रहे हैं यह कैसे संभि है"। यमराज को अब ध्यान आया। उन्होंने सत्यिान के प्राण छोड हदया और
सात्तििी की दृढता और धमि की प्रशंसा करते हुए चले गए।

इधर सात्तििी उस पेड के पास पहुंची जहां सत्यिान जीत्तित पडा था। सात्तििी ने अपनी धमि तथा तपस्या
के बल से असंभि को संभि बना हदया। तप और दृढता में इतना बल होता है कक उसके आगे दे िता भी
झक
ु जाते है। इसी कारण सात्तििी हमारे दे श की नाररयों में सििश्रेष्ठ हो गई और आज तक िह हमारे
दे श का आदशि बनी हुई है।

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28. श्री कृष्ट्णा जी के मालमिक वविार, धित्र कूट की कथा‍और कणि जन्म

“सदै व सांदेह करिेवािे व्यजतत के लिए प्रसन्िता िा इस िोक में हैं िा ही कही और।

“जो मि को नियांत्रत्रत िहीां करते उिके लिए वह शत्रु के समाि कायि करता हैं।

“अत्याधधक क्रोध से भ्रम पैदा होता है, भ्रम से बुद्धध िष्ट्ट होती है और जब बुद्धध िष्ट्ट होती है , तब
तकि ही िष्ट्ट हो जाता है, जब तकि िष्ट्ट होता है तब व्यजतत का पूरी तरह पति हो जाता है।“

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99
धित्र कूट की कथा

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कणि के जन्म

यह कहानी ऐसे योद्धा की क्जसे लोग दानिीर कणि के नाम से जानते हैं । करनाल नगर उन्हीं के
नाम से है ! कणि पां ि िों में सबसे बडे थे और इस बात का पता र्सफि माता कुं ती को ही था। कणि
का जन्म कुं ती के त्तििाह से पहले ही हो गया था। इसर्लए, लाँे कलाज के िर से कुं ती ने कणि
को छोड हदया था, ले क कन कणि का जन्म कुं ती के त्तििाह से पहले कै से हो गया, इसके पीछे भी
एक कहानी है । बात उस समय की है जब कुं ती का त्तििाह नहीं हु आ था और िह र्सफि राजकु मारी
थीं । उसी दौरान ऋत्ति द ि
ु ािस ा प ूरे एक ििि के र्लए राजकु मारी कुं ती के त्तपता के महल में अर्तधथ
के रूप में ठहरे । कुं ती ने एक ििि तक उनकी ख ू ब से ि ा की। राजकु मारी की से ि ा से ऋत्ति द ि
ु ाि स ा
प्रसन्न हो गए और उन्होंने कुं ती को िरदान हदया कक िो ककसी भी दे िता को ब ु ल ाकर उनसे
संत ान की प्राप्ती कर सकती हैं ।

एक हदन कुं ती के मन में आया कक तयों न िरदान की परीक्षा की जाए। ऐसा सोचकर उन्होंने सू य ि
दे ि की प्राथिन ा करके उन्हें ब ु ल ा र्लया।

सूय ि दे ि के आने और िरदान के प्रभाि से कुं ती त्तििाह के प ू ि ि ही गभििती हो गईं। कु छ समय


बाद उन्होंने एक प ु ि को जन्म हदया, जो स ू य ि दे ि के समान ही प्रभािशाली था। साथ ही जन्म के
समय से ही उस र्शश ु के शरीर पर किच और कुं िल थे

101
29. िवरात्र

102
30. भैया दज
ू , धितेरस, अक्षय तत
ृ ीया, धित्रिेिा

सूयदि े व की पत्िी छाया के गभि से यमराज तथा यमुिा का जन्म हुआ। यमुना अपने भाई यमराज से
स्नेहिश र्निेदन करती थी कक िे उसके घर आकर भोजन करें । लेककन यमराज व्यस्त रहने के कारण
यमन
ु ा की बात को टाल जाते थे।

कार्तिक शुतल द्त्तितीया को यमुना अपने द्िार पर अचानक यमराज को खडा दे खकर हिि-त्तिभोर हो
गई। प्रसन्नधचि हो भाई का स्िागत-सत्कार ककया तथा भोजन करिाया। इससे प्रसन्न होकर यमराज
ने बहन से िर मांगने को कहा।

तब बहन यमन
ु ा ने भाई से कहा कक आप प्रर्तििि इस हदन मेरे यहां भोजन करने आया करें गे तथा इस
हदन जो बहि अपिे भाई को टीका करके भोजि खििाए उसे आपका भय न रहे । यमराज 'तथास्तु'
कहकर यमपरु ी चले गए।

इसीर्लए ऐसी मान्यता प्रचर्लत हुई कक जो भाई आज के हदन यमुना में स्नान करके पूरी श्रद्धा से
बहिों के आनतथ्य को स्वीकार करते हैं उन्हें तथा उिकी बहि को यम का भय िहीां रहता। कहते हैं कक
इस हदन जो भाई-बहन इस रस्म को र्नभाकर यमुनाजी में स्नान करते हैं, उनको यमराजजी यमलोक
की यातना नहीं दे ते हैं। इस हदन मत्ृ यु के दे िता यमराज और उनकी बहन यमुना का पूजन ककया जाता
है। भाई दज
ू पर भाई को भोजन के बाद भाई को पान णखलाने का ज्यादा महत्ि माना जाता है। मान्यता
है कक पाि भेंट करिे से बहिों का सौभाग्य अिण्ड रहता है।

तयों मिाया जाता है धितेरस का त्योहार -

कार्तिक मास की कृष्ण ियोदशी को धनतेरस कहते हैं। यह त्योहार दीपािली आने की पूिि सूचना दे ता
है। इस हदन नए बतिन खरीदना शुभ माना जाता है। धनतेरस के हदन मत्ृ यु के दे िता यमराज और
भगिान धन्िंतरर की पूजा का महत्ि है।

भारतीय संस्कृर्त में स्िास्थ्य का स्थान धन से ऊपर माना जाता रहा है। यह कहाित आज भी प्रचर्लत
है कक 'पहला सुख र्नरोगी काया, दज
ू ा सुख घर में माया' इसर्लए दीपािली में सबसे पहले धनतेरस को
महत्ि हदया जाता है। जो भारतीय संस्कृर्त के हहसाब से त्रबल्कुल अनुकूल है।

शास्िों में िणणित कथाओं के अनस


ु ार समर
ु मंथन के दौरान कार्तिक कृष्ण ियोदशी के हदन भगिान
धन्िंतरर अपने हाथों में अमत ृ कलश लेकर प्रकट हुए। मान्यता है कक भगिान धन्िंतरर त्तिष्णु के
अंशाितार हैं। संसार में धचककत्सा त्तिज्ञान के त्तिस्तार और प्रसार के र्लए ही भगिान त्तिष्णु ने धन्िंतरर
का अितार र्लया था। भगिान धन्िंतरर के प्रकट होने के उपलक्ष्य में ही धनतेरस का त्योहार मनाया
जाता है।

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धितेरस की पौराखणक एवां प्रामाखणक कथा

धनतेरस से जड
ु ी कथा है कक कार्तिक कृष्ण ियोदशी के हदन दे िताओं के कायि में बाधा िालने के कारण
भगिान त्तिष्णु ने असरु ों के गरु
ु शक्र
ु ाचायि की एक आंख फोड दी थी।

कथा के अनुसार, दे िताओं को राजा बर्ल के भय से मुक्तत हदलाने के र्लए भगिान त्तिष्णु ने िामन
अितार र्लया और राजा बर्ल के यज्ञ स्थल पर पहुंच गए। शुक्राचायि ने िामन रूप में भी भगिान त्तिष्णु
को पहचान र्लया और राजा बर्ल से आग्रह ककया कक िामन कुछ भी मांगे उन्हें इंकार कर दे ना। िामन
साक्षात भगिान त्तिष्णु हैं जो दे िताओं की सहायता के र्लए तुमसे सब कुछ छीनने आए हैं।

बर्ल ने शुक्राचायि की बात नहीं मानी। िामन भगिान द्िारा मांगी गई तीन पग भूर्म, दान करने के
र्लए कमंिल से जल लेकर संकल्प लेने लगे। बर्ल को दान करने से रोकने के र्लए शुक्राचायि राजा बर्ल
के कमंिल में लघु रूप धारण करके प्रिेश कर गए। इससे कमंिल से जल र्नकलने का मागि बंद हो गया।
िामन भगिान शुक्रचायि की चाल को समझ गए। भगिान िामन ने अपने हाथ में रखे हुए कुशा को
कमण्िल में ऐसे रखा कक शुक्राचायि की एक आंख फूट गई। शुक्राचायि छटपटाकर कमण्िल से र्नकल
आए।

इसके बाद बर्ल ने तीन पग भर्ू म दान करने का संकल्प ले र्लया। तब भगिान िामन ने अपने एक पैर
से संपण
ू ि पथ्
ृ िी को नाप र्लया और दस
ू रे पग से अंतररक्ष को। तीसरा पग रखने के र्लए कोई स्थान नहीं
होने पर बर्ल ने अपना र्सर िामन भगिान के चरणों में रख हदया। बर्ल दान में अपना सब कुछ गंिा
बैठा। इस तरह बर्ल के भय से दे िताओं को मक्ु तत र्मली और बर्ल ने जो धन-संपत्ति दे िताओं से छीन
ली थी उससे कई गन
ु ा धन-संपत्ति दे िताओं को र्मल गई। इस उपलक्ष्य में भी धनतेरस का त्योहार
मनाया जाता है।

अक्षय तत
ृ ीया
अखाती तीज के पीछे कई हहन्द ू मान्यताएाँ हैं. कुछ इसे भगिान त्तिष्णु के जन्म से जोडती हैं, तो कुछ
इसे भगिान कृष्ण की लीला से. सभी मान्यताएाँ आस्था से जुडी होने के साथ साथ बहूत रोचक भी हैं.

1. यह हदन पथ्
ृ िी के रक्षक श्री त्तिष्णज
ु ी को समत्तपित है. हहन्द ू धमि की मान्यता के अनस
ु ार
त्तिष्णज
ु ी ने श्री परशरु ाम के रूप में धरती पर अितार र्लया था. इस हदन परशरु ाम के रूप में
त्तिष्णज
ु ी छटिी बार धरती पर अितररत हुए थे, और इसीर्लए यह हदन परशरु ाम के
जन्महदिस के रूप में भी मनाया जाता है . धार्मिक मान्यता के अनस
ु ार त्तिष्णज
ु ी िेता एिं
द्िापरयग
ु तक पथ्
ृ िी पर धचरं जीिी (अमर) रहे . परशरु ाम सप्तऋत्ति में से एक ऋत्ति

104
जमदगनीतथा रे णुका के पुि थे. यह ब्राह्मण कुल में जन्मे और इसीर्लए अक्षय तत
ृ ीय
तथा परशरु ाम जयांती को सभी हहन्द ू बडे धम
ू धाम से मनाते हैं.
2. दस
ू री मान्यता के अनस
ु ार िेता यग
ु के शरू
ु होने पर धरती की सबसे पािन माने जानी
िाली गंगा नदी इसी हदन स्िगि से धरती पर आई. गंगा नदी को भागीरथ धरती पर लाये थे.
इस पत्तिि नदी के धरती पर आने से इस हदन की पत्तििता और बढ जाती है और इसीर्लए
यह हदन हहंदओ
ु ं के पािन पिि में शार्मल है . इस हदन पववत्र गांगा िदी में िुबकी लगाने से
मनष्ु य के पाप नष्ट हो जाते हैं.
3. यह हदन रसोई एिं पाक (भोजन) की दे िी मााँ अन्िपूणाि का जन्महदि भी माना जाता है .
अक्षय तत
ृ ीया के हदन मााँ अन्नपूणाि का भी पूजन ककया जाता है और मााँ से भंिारे भरपूर
रखने का िरदान मांगा जाता है. अन्नपूणाि के पूजन से रसोई तथा भोजन में स्िाद बढ जाता
है .
4. दक्षक्षण प्रांत में इस हदन की अलग ही मान्यता है. उनके अनुसार इस हदन कुबेर (भगिान
के दरबार का खजांची) ने र्शिपुरम नामक जगह पर लशव की आराधिा कर उन्हें प्रसन्न
ककया था. कुबेर की तपस्या से प्रसन्न हो कर र्शिजी ने कुबेर से िर मांगने को कहा. कुबेर
ने अपना धन एिं संपत्ति लक्ष्मीजी से पुनः प्राप्त करने का िरदान मांगा. तभी शंकरजी ने
कुबेर को लक्ष्मीजी का पूजन करने की सलाह दी. इसीर्लए तब से ले कर आजतक अक्षय
तत
ृ ीया पर लक्ष्मीजी का पूजन ककया जाता है . लक्ष्मी त्तिष्णुपत्नी हैं, इसीर्लए लक्ष्मीजी के
पूजन के पहले भगिान त्तिष्णु की पूजा की जाती है . दक्षक्षण में इस हदन लक्ष्मी यंिम की पूजा
की जाती है , क्जसमें त्तिष्णु, लक्ष्मीजी के साथ – साथ कुबेर का भी धचि रहता है .
5. अक्षय तत
ृ ीया के हदन ही महत्तिि िेदव्यास ने महाभारत र्लखना आरं भ की थी. इसी हदन
महाभारत के युधधक्ष्ठर को “अक्षय पाि” की प्राक्प्त हुई थी. इस अक्षय पाि की त्तिशेिता थी,
कक इसमें से कभी भोजन समाप्त नहीं होता था. इस पाि के द्िारा युधधक्ष्ठर अपने राज्य के
र्नधिन एिं भूखे लोगों को भोजन दे कर उनकी सहायता करते थे. इसी मान्यता के आधार
पर इस हदन ककए जाने िाले दान का पुण्य भी अक्षय माना जाता है, अथाित इस हदन र्मलने
िाला पुण्य कभी खत्म नहीं होता. यह मनुष्य के भाग्य को सालों साल बढाता है .
6. महाभारत में अक्षय तत
ृ ीया की एक और कथा प्रचर्लत है. इसी हदन दश
ु ासन ने रौपदी का
चीरहरण ककया था. रौपदी को इस चीरहरण से बचाने के र्लए श्री कृष्ण ने कभी न खत्म होने
िाली साडी का दान ककया था.
7. अक्षय तत
ृ ीया के पीछे हहंदओ
ु ं की एक और रोचक मान्यता है . जब श्री कृष्ण ने धरती पर
जन्म र्लया, तब अक्षय तत ृ ीया के हदन उनके र्नधिन र्मि सुदामा, कृष्ण से र्मलने पहुंचे.
सद
ु ामा के पास कृष्ण को दे ने के र्लए र्सफि चार चािल के दाने थे, िही सद
ु ामा ने कृष्ण के
चरणों में अत्तपत
ि कर हदये. परं तु अपने र्मि एिं सबके हृदय की जानने िाले अंतयािमी भगिान
सब कुछ समझ गए और उन्होने सुदामा की र्नधिनता को दरू करते हुए उसकी झोपडी को

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महल में पररिर्तित कर हदया और उसे सब सुत्तिधाओं से सम्पन्न बना हदया. तब से अक्षय
तत
ृ ीया पर ककए गए दान का महत्ि बढ गया.
8. भारत के उडीसा में अक्षय तत
ृ ीया का हदन ककसानों के र्लए शभ
ु माना जाता है . इस हदन से
ही यहााँ के ककसान अपने खेत को जोतना शरू
ु करते हैं. इस हदन उड़ीसा के जगन्िाथपरू ी से
रथयात्रा भी र्नकाली जाती है.
9. अलग अलग प्रांत में इस हदन का अपना अलग ही महत्ि है. बंगाल में इस हदन गणेशजी
तथा लक्ष्मीजी का पज
ू न कर सभी व्यापारी द्िारा अपनी लेखा जोखा (ऑडिट बक
ू ) की ककताब
शुरू करने की प्रथा है. इसे यहााँ “हलखता” कहते हैं.
10. पंजाब में भी इस हदन का बहूत महत्ि है . इस हदन को नए मौसम के आगाज का सूचक
माना जाता है. इस अक्षय तत
ृ ीया के हदन जाट पररिार का पुरुि सदस्य ब्रह्म मह
ु ू ति में अपने
खेत की ओर जाते हैं. उस रास्ते में क्जतने अधधक जानिर एिं पक्षी र्मलते हैं, उतना ही फसल
तथा बरसात के र्लए शुभ शगुन माना जाता है .

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107
Chitralekha
hitralekha (धचिलेखा) (Assamese language: চিত্ৰলেখা) was a friend of Usha and
daughter of minister of Banasura who ruled the present-day central Assam with his
capital at Sonitpur (present-day Tezpur, Assam).
Chitralekha was a talented lady who helped Usha to identify the young man seen in
the dream of Usha. Usha was daughter of Banasura, a thousand-armed asura and
son of Bali. Banasur was a powerful and terrible asura. When Usha was young,
number of proposals came for her hand in marriage but Banasur accepted none and
kept her inside Agnigarh located in Tezpur, Assam with fire burning around the place.
One day, Usha saw a young man in her dream and fell in love with him. He
was Aniruddha, the grandson of Lord Krishna. Chitralekha, through supernatural
powers abducted Aniruddha from the palace of Krishna and brought him to Usha.
When Krishna got to know about it, he came with a huge army and attacked Banasura.
There was a severe battle. Banasura received a powerful boon from Lord Shiva that
he will always protect him in any circumstances. When Banasura came to know that
he will be defeated by the enormous powers of Lord Krishna he asked Lord Shiva to
come in battlefield and help him. So, Shiva reluctantly helped Banasura by infecting
the army of Krishna, thereby incapacitating Krishna's soldiers with fever. Krishna, in
turn, restored his army by curing Shiva's disease.

satander50@gmail.com

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