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र कर -

ावकाचार

- सम भ ाचाय
nikkyjain@gmail.com
Date : 24-Jul-2019
Index
गाथा / सू िवषय गाथा / सू िवषय

001) मंगलाचरण 002) आचाय की ित ा


003) धम का ल ण

स शन-अिधकार

004) स शन
005) आ का ल ण 006) वीतराग का ल ण
007) िहतोपदे शी का ल ण 008) आगम का ल ण
009) शा का ल ण 010) गु का ल ण
011) िन:शंिकत अंग 012) िन:कां ि त अंग
013) िनिविचिक ा अंग 014) अमूढ़ ि अंग
015) उपगूहन अंग 016) थितकरण अंग
017) वा अंग 018) भावना अंग
019-020) आठ अंगधारी के नाम 021) अंगहीन स थ है
022) लोक मूढ़ता 023) दे व मूढ़ता
024) गु मूढ़ता 025) आठमद के नाम
026) मद करने से हािन 027) पाप ाग का उपदे श
028) स शन की मिहमा 029) धम और अधम का फल
030) स ि कुदे वािदक को नमन ना करे 031) स शन की े ता
032) स शन के िबना ान चा र की अस वता 033) मोही मुिन की अपे ा िनम ही गृह थ े
034) ेय और अ ेय का कथन 035) स ि के अनु ि के थान
036) स ि जीव े मनु होते ह 037) स ि जीव इं पद पाते ह
038) स ि ही च वत होते ह 039) स ि ही तीथकर होते ह
040) स ि ही मो -पद ा करते ह 041) उपसंहार

स ान-अिधकार

042) स ान का ल ण 043) थमानुयोग


044) करणानुयोग 045) चरणानुयोग
046) ानुयोग

स क-चा र -अिधकार

047) चा र की आव कता
048) चा र कब होता है ? 049) चा र का ल ण
050) चा र के भेद और उपासक 051) िवकल चा र के भेद
अणु त-अिधकार

052) अणु त का ल ण 053) अिहं सा अणु त


054) अिहं सा अणु त के अितचार 055) स ाणु त
056) स ाणु त के अितचार 057) अचौयाणु त
058) अचौयाणु त के अितचार 059) चय अणु त
060) चयाणु त के अितचार 061) प र ह प रमाण अणु त
062) प र ह प रमाण अणु त के अितचार 063) पंचाणु त का फल
064) पंचाणु त म िस नाम 065) पां च पाप म िस नाम
066) ावक के आठ मूलगुण

गुण त-अिधकार

067) गुण तों के नाम


068) िद त का ल ण 069) मयादा की िविध
070) िद ती के महा तपना 071) सो कैसे ? उसका समाधान
072) महा त का ल ण 073) िद त के अितचार
074) अनथद त 075) अनथद के भेद
076) पापोपदे श का ल ण 077) िहं सादान अनथद
078) अप ान अनथद 079) दु : ुित अनथद
080) मादचया अनथद 081) अनथद त के अितचार
082) भोगोपभोग प रमाण गुण त 083) भोग-उपभोग के ल ण
084) सवथा ा पदाथ 085) अ ा पदाथ
086) त का प 087) यम और िनयम
088-89) भोगोपभोग साम ी 090) भोगोपभोग प रमाण त के अितचार

िश ा त-अिधकार

091) िश ा त 092) दे शावकािशक िश ा त


093) दे श त म मयादा की िविध 094) दे श त म काल मयादा
095) यह त भी उपचार से महा त है 096) दे शावकािशक त के अितचार
097) सामाियक िश ा त 098) समय श की ु ि
099) सामाियक यो थान 100) त के िदन सामाियक का उपदे श
101) ाितिदन सामाियक का उपदे श 102) सामाियक के समय मुिनतु ता
103) परीषह—उपसग सहन का उपदे श 104) सामाियक के समय चतन
105) सामाियक के अितचार 106) ोषधोपवास िश ा त
107) उपवास के िदन ा ा काय 108) उपवास के िदन कत
109) ोषध और उपवास का ल ण 110) ोषधोपवास त के अितचार
111) वैयावृ का ल ण 112) वैयावृ का दू सरा ल ण
113) दान का ल ण 114) दान का फल
115) नवधा भ का फल 116) अ दान से महाफल
117) दान के भेद 118) वैयावृ म अहत पूजा
119) दानों म िस नाम 120) पूजा का माहा
121) वैयावृ के अितचार

स ेखना-अिधकार

122) स ेखना का ल ण
123) स ेखना की आव कता 124-125) स ेखना की िविध और महा त धारण का उपदे श
126) ा ाय का उपदे श 127) भोजन के ाग का म
128) स ेखना म शेष आहार ाग का म 129) स ेखना के पां च अितचार
130) स ेखना का फल 131) मो का ल ण
132) मु जीवों का ल ण 133) िवकार का अभाव
134) मु जीव कहाँ रहते ह ? 135) स म का फल

ावकपद-अिधकार

136) ारह ितमा 137) दशन ितमा


138) त ितमा 139) सामाियक ितमा
140) ोषध ितमा 141) सिच ाग ितमा
142) राि भु ाग ितमा 143) चय ितमा
144) आर ाग ितमा 145) पर ह ाग ितमा
146) अनुमित ाग ितमा 147) उि ाग ितमा
148) े ाता कौन है ? 149) र य का फल
150) इ ाथना

!! ीसव वीतरागाय नम: !!

ीमद् -भगव म भ ाचाय-दे व- णीत

र कर ावकाचार
मूल सं ृ त गाथा,
भाचं ाचाय कृत सं ृ त टीका और आिदमती माताजी कृत
िहं दी टीका सिहत

आभार :

!! नम: ीसव वीतरागाय !!

ओंकारं िब दुसंयु ं िन ं ाय योिगनः


कामदं मो दं चैव ॐकाराय नमो नम: ॥१॥

अिवरलश घनौघ ािलतसकलभूतलकलंका


मुिनिभ पािसततीथा सर ती हरतु नो दु रतान् ॥२॥

अ ानितिमरा ानां ाना नशलाकया


च ु ीिलतं येन त ै ीगुरवे नम: ॥३॥

॥ ीपरमगु वे नम:, पर राचायगु वे नम: ॥

सकलकलुषिव ंसकं, ेयसां प रवधकं, धमस कं, भ जीवमन: ितबोधकारकं,


पु काशकं, पाप णाशकिमदं शा ं ी र कर ावकाचार नामधेयं, अ मूला कतार:
ीसव दे वा दु र कतार: ीगणधरदे वा: ितगणधरदे वा ेषां वचनानुसारमासा आचाय
ीसम भ ाचायदे व िवरिचतं
॥ ोतार: सावधानतया णव ु ॥

मंगलं भगवान् वीरो मंगलं गौतमो गणी


मंगलं कु कु ाय जैनधम ऽ ु मंगलम् ॥
सवमंगलमांग ं सवक ाणकारकं
धानं सवधमाणां जैनं जयतु शासनम् ॥

आचाय ी सम भ ामी
अ याथ : र कर ावकाचार के क ा आचाय ी सम भ ामी ह । ितभाशाली
आचाय , समथ िव ानों एवं पू महा ाओं म आपका थान ब त ऊँचा है । आप
सम ातभ थे - बाहर भीतर सब ओर से भ प थे । आप ब त बडे योगी, ागी, तप ी
एवं त ानी थे । आप जैन धम एव िस ा ों के मम होने के साथ ही साथ तक ाकरण
छ अलंकार और का -कोषािद ों म पूरी तरह िन ात थे । आपको ामी पद से खास
तौर पर िवभूिषत िकया गया है । आप वा व म िव ानों योिगयों ागी-तप यों के ामी थे ।

जीवनकाल : आपने िकस समय इस धरा को सुशोिभत िकया इसका कोई उ ेख नहीं
िमलता है । कोई िव ान आपको ईसा की तीसरी शता ी के बाद का बताते ह तो कोई ईसा
की सातवीं आठवीं शता ी का बताते ह । इस स म सु िस इितहास ग य पंिडत
जुगल कशोर जी मु ार ने अपने िव ृत लेखों म अनेकों माण दे कर यह िकया है िक
ामी सम भ त ाथ सू के कता आचाय उमा ामी के प ात् एवं पू पाद ामी के पूव
ए है । अत: आप अस प से िव म की दू सरी-तीसरी शता ी के महान िव ान थे ।
अभी आपके स म यही िवचार सवमा माना जा रहा है ।

ज थान : िपतृ कुल गु कुल - संसार की मोह ममता से दू र रहने वाले अिधकां श जैनाचाय
के माता-िपता तथा ज थान आिद का कुछ भी मािणक इितहास उपल नहीं है ।
सम भ ामी भी इसके अपवाद नहीं ह । वणबेलगोला के िव ान ी दोबिलिजनदास
शा ी के शा भंडार म सुरि त आ मीमां सा की एक ाचीन ताडप ीय ित के िन ां िकत
पु का वा ''इित ी फिणमंडलालंकार ोरगपुरािधपसूनो: ी ामी सम भ मुने: कुतौ
आ मीमां सायाम्'' से है िक सम भ फिणमडला गत उरगपुर के राजा के पु थे ।
इसके आधार पर उरगपुर आपकी ज भूिम अथवा बाल ीडा भूिम होती है । यह उरगपुर
ही वतमान का ''उरै यूर'' जान पडता है । उरगपुर चोल राजाओं की ाचीन राजधानी रही है ।
पुरानी ि चनाप ी भी इसी को कहते ह । आपके माता-िपता के नाम के बारे म कोई पता नहीं
चलता है । आपका ारं िभक नाम शा वमा था । दी ा के पिहले आपकी िश ा या तो उरै यूर
म ही ई अथवा कां ची या मदु रा म ई जान पडती है ोंिक ये तीनो ही थान उस समय
दि ण भारत म िव ा के मु के थे । इन सब थानों म उस समय जैिनयों के अ े -अ े
मठ भी मौजूद थे । आपकी दी ा का थान कां ची या उसके आसपास कोई गां व होना चािहये ।
आप कां ची के िदग र साधु थे ''कां ां न ाटकोअहं " ।

िपतृ कुल की तरह सम भ ामी के गु कुल का भी कोई लेख नहीं िमलता है । और न


ही आपके दी ा के नाम का ही पता चल पाया है । आप मूलसंघ के धान आचाय थे ।
वणबेलगोल के कुछ िशलालेखों से इतना पता चलता है िक आप ी भ बा ुतकेवली,
उनके िश च गु मुिन के वंशज प न अपर नाम को कु मुिनराज उनके वशंज
उमा ाित की वंश पर रा म ये थे (िशलालेख न र ४०)

मुिन जीवन और आपत् काल : बड़े ही उ ाह के साथ मुिन धम का पालन करते ए जब


'मुउवकह ी' ाम म धम ान सिहत मुिन जीवन तीत कर रहे थे और अनेक दु र
तप रण ारा आ ो ित के पथ पर बढ़ रहे थे उस समय असाता वेदनीय कम के बल उदय
से आपको 'भ क’ नाम का महारोग हो गया था । मुिन चया म इस रोग का शमन होना
असंभव जान कर आप अपने गु के पास प ं चे और उनसे रोग का हाल कहा तथा स ेखना
धारण करने की आ ा चाही । गु महाराज ने सब प र थित जानकर उ कहा िक स ेखना
का समय नहीं आया है और आप ारा वीर शासन काय के उ ार की आशा है । अत: जहाँ पर
िजस भेष म रहकर रोगशमन के यो तृ भोजन ा हो वहाँ जाकर उसी वेष को धारण
कर लो । रोग उपशा होने पर िफर से जैन दी ा धारण करके सब काय को संभाल लेना ।
गु की आ ा लेकर आपने िदग र वेष का ाग िकया । आप वहाँ से चलकर कां ची प ँ चे
और वहाँ के राजा के पास जाकर िशवभोग की िवशाल अ रािश को िशविप ी को खला
सकने की बात कही । पाषाण िनिमत िशवजी की िप ी सा ात् भोग हण करे इससे बढ़कर
राजा को और ा चािहये था । वहां के म र के व थापक ने आपको म र जी म रहने
की ीकृित दे दी । म र के िकवाड ब करके वे यं िवशाल अ रािश को खाने लगे और
लोगों को बता दे ते थे िक िशवजी ने भोग हण कर िलया । िशव भोग से उनकी ािध धीरे -धीरे
ठिक होने लगी और भोजन बचने लगा । अ म गु चरों से पता लगा िक ये िशव भ नहीं है
। इससे राजा ब त ोिधत आ और इ यथाथता बताने को कहा । उस समय सम भ ने
िन ोक म अपना प रचय िदया ।

कां ां न ाटकोअहं मलमिलनतनुलाबुशे पा ु िप


पु ो े शा िभ ु: दशपुरनगरे िम भोजी प र ाट ।
वाराण ामभूवं भुवं शशधरधवल: पा ु रां ग प ी
राजन् य ाअ श :स वदतु-पुरतो जैनिन वादी ॥
कां ची म मिलन वेषधारी िदग र रहा, ला ुस नगर म भ रमाकर शरीर को ेत िकया,
पु ो म जाकर बौ िभ ु बना, दशपुर नगर म िम भोजन करने वाला स ासी बना,
वाराणसी मे ेत व धारी तप ी बना । राजन् आपके सामने िदग र जैनवादी खड़ा है ,
िजसकी श हो मुझ से शा ाथ कर ले ।

राजा ने िशव मूित को नम ार करने का आ ह िकया । सम भ किव थे । उ ोने चौबीस


तीथकरों का वन शु िकया । जब वे आठव तीथकर च भु का वन कर रहे थे, तब
च भु भगवान की मूित कट हो गई । वन पूण आ । यह वन यंभू ो के नाम से
िस है । यह कथा नेिमद कथा कोष के आधार पर है ।

िजनशासन के अलौिकक दै दी मान सूय : दे श म िजस समय बौ ािदकों का बल आतंक


छाया आ था और लोग उनके नैरा वाद, शू वाद, िणकवादािद िस ा ों से सं थे,
उस समय दि ण भारत म आपने उदय होकर जो अनेका एवं ा ाद का डं का बजाया वह
बड़े ही मह का है एवं िचर रणीय है । आपको िजनशासन का णेता तक िलखा गया है ।
आपके प रचय के स म िन प है ।

''आचाय अहं किवरहमहं वािदराट प तोअहं


दै व ोअहं िभषगहमहं मा क ा ककोअहम ।
राज ां जलिधवलया मे खलायािमलाया
मा ािस : िकिमित ब ना िस सार तोअहम् ॥

म आचाय ँ , किव ँ , शा ािथयों म े ँ , प त ँ , ोितष ँ , वै ँ , किव ँ , मा क ँ ,


ता क ँ , हे राजन् इस स ूण पृ ी म म आ ािस ँ । अिधक ा क ँ , िस सार त ँ

शुभच ाचाय ने आपको 'भारत भूषण ' िलखा है आप ब त ही उ मो म गुणों के ामी थे


िफर भी किव गमक वािद और वा नामक चार गुण आप म असाधारण कोिट की
यो ता वाले थे जैसा िक आज से ारह सौ वष पिहले के िव ान भगव नसेनाचाय ने िन
वा से आिदपुराण म रण िकया है ।

कवीनां गमकानां च वािदनां वा नामिप ।


यश: साम भ ीयं मूि चूडामणीयते ॥४४॥

यशोधर च र के क ा महाकिव वािदराज सू र ने आपको उ ृ का मािण ों का रोहण


(पवत)सूिचत िकया है । अलंकर िच ा मिण म अिजत सेनाचाय ने आपको किव कुंजर मुिन
व और िनजान ' िलखा है । वरां ग च र म ी वधमान सू र ने आपको ’महाकवी र' और
'सुतक शा ामृत सागर' बताया है । अिजत ने हनुम र म आपको भ प कुमुदों
को कु त करने वाला च मा िलखा है तथा साथ म यह भी कट िकया है िक वे 'दु वािदयों'
की वाद पी खाज (खुजली) को िमटाने के िलये अि तीय महौषिध थे । इसके अलावा भी
वणबेलगोल के िशलालेखों म आपकों 'वादीभव ां कुश सु जाल फ़ुटर दीप' वािदिसंह,
अनेका जयपताका आिद आिद अनेकों िवशेषणों से रण िकया गया है ।

आपका वाद े संकुिचत नही था । आपने उसी दे श म अपने वाद की िवजय दुं दुिभ नहीं
बजाई िजसम वे उ ये थे ब सारे भारत वष को अपने वाद का लीला थल बनाया था ।
करहाटक नगर म प ं चने पर वहां के राजा के ारा पूँछे जाने पर आपने अपना िपछला
प रचय इस कार िदया है ।

पूव पािटलपु म नगरे भे र मयातािडता


प ा ालविस ु टु िवषये कां ऽचीपुरे वैिदशे ।
ा ोऽहं करहाटकं ब भटं िव ो टं संकटं
वादाथ िवचरा हं नरपते शादू लिव ीिडतम ॥

हे राजन् सबसे पिहले मने पाटलीपु नगर म शा ाथ के िलये भेरी बजवाई िफर मालव, िस ु,
ढ , कां ची आिद थानों पर जाकर भेरी तािडत की । अब बडे -बड़े िद ज िव ानों से
प रपूण इस करहाटक नगर म आया ँ । म तो शा ाथ की इ ा रखता आ िसंह के समान
घूमता िफरता ँ । 'िह ी ऑफ क डीज िलटरे चर' के लेखक िम र एडवड पी. राइस ने
सम भ को तेजपूण भावशाली वादी िलखा है और बताया है िक वे सारे भारत वष म
जैनधम का चार करने वाले महान चारक थे । उ ोंने वाद भेरी बजने का द ूर का पूरा
लाभ उठाया और वे बड़ी श के साथ जैन धम के ा ाद िस ा को पु करने म समथ
ये ह । उपरो िववेचन से यह होता है िक आपने अनेकों थानों पर वाद भेरी बजबाई
थी और िकसी ने उसका िवरोध नही िकया । इस स म ग य पंिडत ी जुगलिकशोर जी
मु ार िलखते ह िक 'इस सारी सफलता का कारण उनके अ ःकरण की शु ता, चा र की
िनमलता एवं अनेका ा क वाणी का ही मह था उनके वचन ा ाद ाय की तुला म तुले
होते थे और इसीिलए उन पर प पात का भूत सवार नहीं होता था । वे परी ा धानी थे ।

ब मू रचनाएँ -
ामी सम भ ारा िवरिचत िन िल खत ग उपल ह-

१. ुित िव ा (िजनशतक)
२. यु नुशासन
३. यंभू ो
४. दे वागम (आ मीमांसा) ो
५. र कर ावकाचार

अहदगुणों की ितपादक सु र-सु र ुितयाँ रचने की उनकी बड़ी िच थी । उ ोंने अपने


ुित िव ा म ''सु ु ां सनं'' वा ारा अपने आपको ुितयां रचने का सन
बतलाया है । यंभू ो , दे वागम और यु नुशासन आपके मुख ुित ंथ ह । इन
ुितयों म उ ोंने जैनागम का सार एवं त ान को कूट-कूट कर भर िदया है । दे वागम
ो म िसफ आपने ११४ ोक िलखे ह । इस ो पर अकलंकदे व ने अ शती नामक आठ
सौ ोक माण वृि िलखी जो ब त ही गूढ़ सू ों म है । इस वृि को साथ लेकर ी
िव ान ाचाय ने 'अ सह ी' टीका िलखी जो आठ हजार ोक प रमाण है । इससे यह
होता है िक यह िकतने अिधक अथ गौरव को िलये ए है । इसी ंथ म आचाय ने
एका वािदयों को पर बैरी बताया है । ''एका ह र ेषुनाथ परवै रषु ॥८॥

इन ों का िह ी अथ सिहत काशन हो चुका है । उपरो ों के अलावा आपके ारा


रिचत िन ों के उ ेख िमलते ह जो उपल नहीं हो पाये ह -

१. जीविस २. त ानुशासन ३. ाकृत ाकरण ४. माणपदाथ ५. कम ाभृत टीका और ६.


ग ह महाभा ।

महावीर ामी के प ात् सैकडों ही महा ा-आचाय हमारे यहाँ ये है उनम से िकसी भी
आचाय एवं मुिनराजों के िवषय म यह उ ेख नहीं िमलता है िक वे भिव म इसी भारत वष म
तीथकर होंगे । ामी सम भ के स म यह उ ेख अनेक शा ों म िमलता है । इससे
इन के चा र का गौरव और भी बढ़ जाता है ।

+ मंगलाचरण -

नम: ी वधमानाय िनधूत किलला ने


सालोकानां ि लोकानां यि ा दपणायते ॥१॥
अ याथ : िज ोंने [िनधूत किलला ने] स ूण कम कलंक को धोकर अपनी आ ा को
शु कर िलया है । [यि ा] िजनके केवल ान पी [दपणायते] दपण म [सालोकानां
ि लोकानां] तीनों लोक और आलोक झलकते ह उन [नम: ी वधमानाय] तीथकर ी
वधमान ामी को म नम ार करता ँ ॥१॥
भाच ाचाय :

ीसम भ ामी र ानां र णोपायभूतर कर क ं स शनािद-र ानां


पालनोपायभूतं र कर का ं शा ं कतुकामो िनिव तः शा प रसमा ािदकं
फलमिभलषि दे वतािवशेषं नम ु व ाह --

नमो नम ारोऽ ु । क ै ? ीवधमानाय अ मतीथकराय तीथकरसमुदायाय वा । कथं ?


अव--सम ा ं परमाितशय ा ं मानं केवल ानं य ासौ वधमानः । अवा ोर ोपः
इ वश ाकारलोपः । ि या बिहरं गयाऽ रं गया च समवसरणान चतु यल णयोपलि तो
वधमानः ीवधमान इित ु ेः, त ै । कथंभूताय ? िनधूतकिलला ने िनधूतं ोिटतं
किललं ानावरणािद पं पापमा न आ ानां वा भ जीवानां येनासौ िनधूतकिलला ा त ै ।
य िव ा केवल ानल णा । िकं करोित ? दपणायते दपण इवा ानमाचरित । केषां ?
ि लोकानां ि भुवनानां । कथंभूतानां ? सालोकानाम् अलोकाकाशसिहतानाम् । अयमथः-
यथा दपणो िनजे यगोचर मुखादे ः काशक था सालोकि लोकानां तथािवधानां ति ा
कािशकेित । अ च पूवा न भगवतः सव तोपायः, उ राधन च सव तो ा ॥१॥
आिदमित :

यहाँ वधमान श के दो अथ िकये ह -- एक तो अ म तीथकर वधमान ामी और दू सरा


वृषभािद चौबीस तीथकरों का समुदाय । थम अथ तो वधमान अ म तीथकर िस ही है
और िद् वतीय अथ म वधमान श की ा ा इस कार है - 'अव सम ाद् ऋ ं
परमाितशय ा मानं केवल ानं य ासौ' िजनका केवल ान सब ओर से परम अितशय को
ा है । इस कार इस अथ म वधमान श िस होता है । िक ु 'अवा ोर ोपः' इस सू
से अव और अिप उपसग के अकार का िवक से लोप होता है - ाकरण के इस िनयमानुसार
'अव' उपसग के अकार का लोप हो जाने से वधमान श िस हो जाता है । ि या- ी का अथ
ल ी होता है । ल ी भी अ रं ग ल ी और बिहरं ग ल ी, इस कार दो भेद प है ।
समवसरण प ल ी बिहरं ग ल ी है और अन चतु य प अ रं ग ल ी कहलाती है ।
इस कार ी वधमान श का अथ वृषभािद चौबीस तीथकर होता है , उनके िलये म नम ार
करता ँ ।

िजन अ म तीथकर वधमान ामी अथवा वृषभतीथकरािद चौबीस तीथकरों को नम ार


िकया है , उनम ा िवशेषता है इस बात को बतलाते ए कहा है -- िनधूतकिलला ने अथात्
िजनकी आ ा से ानावरणािद कम प किललपापों का समूह न हो गया है , अथवा िज ोंने
अ भ ा ाओं के कम-कलंक को न कर िदया है । जब यह जीव अपने दोषों का नाश कर
दे ता है , तभी उसम सव ता कट होती है और तभी वह िहतोपदे श दे ने का अिधकारी होता है
। इसिलये दू सरी िवशेषता बतलाते ए कहा है िक -- यि ा सालोकानां ि लोकानां
दपणायते अथात् िजनकी केवल ान प िव ा अलोकाकाश सिहत तीनों लोकों को कािशत
करने के िलये दपण के समान है । यथा -- मनु को अपना मुख अपनी च ु इ य से नहीं
िदखता उसी कार जो पदाथ इ य गोचर नहीं ह उ केवल ान िदखा दे ता है अथात्
केवल ान म ि कालवत सभी पदाथ झलकते ह ।
यहां ोक के पूवाध म भगवान् की सव ता का उपाय बतलाया है और उ राध म सव ता का
िन पण िकया गया है ।

+ आचाय की ित ा -

दे शयािम समीचीनं, धम कम-िनबहणम्


संसारदु:खत: स ान्, यो धर ु मे सुखे ॥२॥
अ याथ : म [कम-िनवहणम्] कम का िवनाश करने वाले उस [समीचीनं] े धम को
[दे शयािम] कहता ँ [यो] जो [स ान्] जीवों को [संसारदु :खत:] संसार के दु ःखों से
िनकालकर [उ मे सुखे] ग-मो ािदक के उ म सुख म [धरित] धारण करता है - प ँ चा
दे ता है ॥२॥
भाच ाचाय :

अथ त म ारकरणान रं िकं कतु ल ो भवािन ाह --

दे शयािम कथयािम । कं ? धम । कथंभूतं ? समीचीनम् अबािधतं तदनु ातॄणािमह परलोके


चोपकारकम् । कथं तं तथा िनि तव ो भव इ ाह कमिनबहणं यतो धमः
संसारदु ःखस ादककमणां िनबहणो िवनाशक तो यथो िवशेषणिविश ः । अमुमेवाथ
ु ि ारे णा समथयमानः संसारे या ाह संसारे चतुगितके दु ःखािन शरीरमानसादीिन
ते ः स वान् ािणन उद् धृ यो धरित थापयित । ? उ मे सुखे गापवगािद भवे
सुखे स धम इ ु ते ॥२॥
आिदमित :

क ा ी सम भ ामी ित ावा कहते ह िक म उस अबािधत े धम का कथन


करता ँ जो जीवों का इस लोक म और परलोक म उपकार करने वाला है तथा संसार के
सम दु ःख दे ने वाले कम का नाशक है । इन िवशेषणों से िविश यह धम है । इसी अथ का
ु ि ारा समथन करते ए कहते ह- जो जीवों को चतुगित प संसार म होने वाले
शारी रक, मानिसक एवं आग ुक आिद दु ःखों से िनकालकर ग और मो के उ म सुख म
धारण करता है उस समीचीन धम का कथन करता ँ ।
सदासुखदास :

संसार म 'धम' ऐसा नाम तो सम लोक कहता है , पर ु 'धम' श का अथ तो इस कार है -


जो नरक-ितयचािद गितयों म प र मण- प दु :खों से आ ा को छु डाकर उ म, आ ीक,
अिवनाशी, अती य, मो सुख म धर दे , वह धम है । ऐसा धम मोल (पैसा के बदले म) नहीं
आता है , जो धन खच करके दान-स ानािद ारा हण कर ले; िकसी का िदया नहीं िमलता है ,
जो सेवा-उपासना ारा स करके ले िलया जाय; मंिदर, पवत, जल, अि , दे वमूित,
तीथ े ािद म नहीं रखा है , जो वहाँ जाकर ले आय; उपवास, त, काय ेशािद तप से भी नहीं
िमलता तथा शरीरािद कृश करने से भी नहीं िमलता है । दे वािधदे व के मंिदर म उपकरण-दान,
म ल-पूजन आिद करके; घर छोड़कर वन- शान आिद म िनवास करने से तथा परमे र
के नाम-जाप आिद करके भी धम नहीं िमलता है ।

'धम' तो आ ा का भाव है । पर- ों म आ बु छोड़कर अपने ाता ा प भाव


का ान, अनुभव ( ान) और ायक भाव म ही वतन प जो आचरण है , वह धम है ।
जब उ म- मािद दशल ण- प अपने आ ा का प रपालन तथा र य- प और जीवों की
दया- प अपने आ ा की प रणित होगी, तब अपना आ ा आप ही घम- प हो जायगा ।
पर , े , कालािदक तो िनिम मा ह । िजस समय यह आ ा रागािद प प रणित
छोड़कर वीतराग- प आ िदखाई दे ता है तभी मंिदर, ितमा, तीथ, दान, तप, जप सम ही
धम प ह; और यिद अपना आ ा उ म मािद प, वीतरागता- प , स ान- प नहीं
होता है ; तो बाहर कहीं भी धम नहीं होगा । यिद शुभराग होगा तो पु बंध होगा; और यिद
अशुभ राग े ष, मोह होगा तो पापब होगा । जहाँ शु ान- ान-आचरण प धम है
वहाँ बंध का अभाव है । बंध का अभाव होने पर ही उ म सुख होता है ।

+ धम का ल ण -

सद् - ि ानवृ ािन, धम धम रा िवदु:


यदीय- नी-कािन, भव भवप ित: ॥३॥
अ याथ : [धम रा:] धम के ामी िजने दे व [सद् - ि ानवृ ािन] स शन,
स ान और स क् चा र को [धम] धम [िवदु ः] कहते है और [यदीय] उसके
[ नीकािन] िवपरीत िम ा ान, िम दशन, िम ा चा र [भवप ित] संसार माग
[भव ] होते है ।
भाच ाचाय :

अथैवंिवधधम पतां कािन ितप इ ाह --

ि त ाथ ानं, ानं च त ाथ ितपि :, वृ ं चा र ं पापि यािनवृि ल णम् । स


समीचीनािन च तािन ि ानवृ ािन च । धम उ पम् । िवदु : वद ितपादय े । के
ते ? धम रा: र यल णधम ई रा: अनु ातृ ेन ितपादक ेन च ािमनो िजननाथा: ।
कुत ा ेव धम न पुनिम ादशनादी पी ाह-यदीये ािद । येषां सद् ादीनां स ीिन
यदीयािन तािन च तािन नीकािन च ितकूलािन िम ादशनादीिन भव स े । का ?
भवप ित: संसारमाग: । अयमथ :- यत: स शनािद ितप भूतािन िम ादशनादीिन
संसारमागभूतािन । अत: स शनादीिन गापवगसुखसाधक ा म पािण िस य ीित
॥३॥
आिदमित :

त ाथ ा प दशन, त ों की याथा ितपि प ान और पापि यािनवृि प


चा र इस र य प धम के यं आराधक तथा दू सरे जीवों को उसका उपदे श दे ने वाले
होने से िजने भगवान् धम के ई र कहलाते ह । उ ोंने स शन, स ान और
स ा र को ही धम कहा है ोंिक इन तीनों की एकता ही जीवों को संसार के दु :खों से
िनकालकर मो के उ म सुख म प ँ चा दे ती है । इन स शनािद तीनों से िवपरीत
िम ादशन, िम ा ान और िम ाचा र ये तीनों संसार- मण के माग ह । ता य यह है िक
स शनािद के ितप ी िम ादशनािद संसार के ही माग ह। इससे यह िस आ िक
र य ही ग और मो का साधक होने से धम प है ।
सदासुखदास :

जो अपना और अ ों का स ाथ ान, ान, आचरण है वह संसार प र मण से


छु डाकर उ म-सुख म धरनेवाला धम है ; और अपना व अ ों का अस ाथ ान, ान,
आचरण है वे संसार के घोर अन -दु खों म डु बोनेवाले ह -- ऐसा वीतराग भगवान कहते ह; हम
अपनी िच से क त नहीं कह रहे ह ।

स शन-अिधकार

+स शन -

ानं परमाथाना-मा ागमतपोभृताम्


ि मूढ़ापोढ-म ा ं , स शन-म यम् ॥४॥
अ याथ : [परमाथानाम्] परमाथभूत [आ ागमतपोभृताम्] आ , आगम और मुिन का
[ि मूढ़ापोढम्] तीन मूढ़ता रिहत [अ ा ं ] आठ अंग से सिहत, [अ यम्] आठ कार के
मदों से रिहत [ ानं] ान करना, स शन कहलाता है ।
भाच ाचाय :

त स शन पं ा ातुमाह --

स शनं भवित । िकम् ? ानं िच: । केषां ? आ ागमतपोभृतां व माण पाणाम्


। न चैवं षड् स त नवपदाथानां ानमसङ् गृहीतिम ाशङ् कनीयम् आगम ानादे व
त ानसङ् ह िस े : । अबािधताथ ितपादकमा वचनं ागम: । त ाने तेषां ानं
िस मेव । िकंिविश नां तेषाम् ? परमाथानां परमाथभूतानां न पुनब मत इव क तानाम् ।
कथ ूतं ानम् ? अ यं न िव ते व माणो ानदपा कार: यो गव य तत्।
पुनरिप िकंिविश म् ? ि मूढापोढं ि िभमूढै व माणल णैरपोढं रिहतं यत् । अ ा ं अ ौ
व माणािन िन:शि त ादी ािन पािण य ॥४॥
आिदमित :

आ -दे व, आगम-शा , तपोभृत-गु का जो आगम म प बतलाया है , उन आ , आगम


और तपोभृत का उसी प से ढ़ ान करना सो स शन है । आ , आगम, साधु का
ल ण आगे कहा जाएगा ।

यहाँ कोई श ा करे िक अ शा ों म तो छह , सात त तथा नौ पदाथ के ान को


स शन कहा है , पर ु यहाँ आचाय ने दे व-शा -गु की तीित को स शन कहकर
अ शा ों म किथत ल ण का सं ह नहीं िकया है , तो इसका समाधान यह है िक आगम के
ान से ही छह , सात त और नौ पदाथ के ान प ल ण का सं ह हो जाता है ।
ोंिक अबािधताथ ितपादकमा वचनं ागम: अबािधत अथ का कथन करने वाले जो
आ के वचन ह वे ही आगम ह । इसिलए आगम के ान से ही छह ािदक का ान
संगृहीत हो जाता है । वे आ , आगम, गु परमाथभूत ह िक ु बौ मत के ारा क त
िस ा परमाथभूत नहीं है । वा व म ान, पूजा, जाित, बल, ऋ , तप और शरीर इन आठ
मदों से रिहत लोकमूढ़ता, दे वमूढ़ता और गु मूढ़ता से रिहत और िन:शि त, िन:काि त,
िनिविचिक ा, अमूढ ि , उपगूहन, थितकरण, वा और भावना इन आठ अ ों से
सिहत ान ही स शन कहलाता है । आठ अ ों, आठ मदों और तीन मूढताओं का
ल ण आगे कहगे ।
सदासुखदास :

स ाथ आ , आगम व गु का ितन मूढ़ता रिहत, िन:शंिकत आिद अ अंग सिहत और


अ मद रिहत ान करना स शन है ।

यहाँ कोई करता है - आगम म तो स त , नव पदाथ के ान को स शन कहा है ,


यहाँ पर वह ों नहीं कहा ?
उसका समाधान – िनद ष बाधा रिहत आगम के उपदे श िबना स त ों का ान कैसे होगा
? िनद ष आ के िबना स ाथ आगम कैसे गट होगा ? इसिलए त ों के भी ान का मूल-
कारण स ाथ आ ही है ।

+आ का ल ण -

आ ेनो दोषेण, सव ेनागमेिशना


भिवत ं िनयोगेन, ना था ा ता भवेत् ॥५॥
अ याथ : जो [दोषेण] दोष [उ ] रिहत होने से वीतराग, [सव ेन] सव के ाता होने से
सव और िहत के उपदे शक होने से िहतोपदे शी ह, अत: [आगमेन] आगम के [ईिशना] ई र
ह, वे ही [िनयोगेन] िनयम से [आ ेन] आ [भिवत ं] होते ह । [ना था] अ कार से /
इन गुणों से रिहत [ ा ता] आ नहीं [भवेत्] हो सकते ह ॥५॥
भाच ाचाय :

त स शनिवषयतयो ा पं ािच ासुराह --

आ ेन भिवत ं िनयोगेन िन येन िनयमेन वा । िकं िविश ेन ? उ दोषेण न दोषेण ।


तथा सव ेन सव िवषयेऽशेषिवशेषत: प र ु टप र ानवता िनयोगेन भिवत म् । तथा
आगमेिशना भ जनानां हे योपादे यत ितपि हे तुभूतागम ितपादकेन िनयमेन भिवत म् ।
कुत एतिद ाह -- ना था ा ता भवेत् िह य ात् अ था उ िवपरीत कारे ण, आ ता
न भवेत् ॥५॥
आिदमित :

िजनके ुधा-तृषािद शारी रक तथा राग े षािदक दोष न हो गये ह तथा जो सम पदाथ को
उनकी िवशेषताओं सिहत जानते ह तथा जो आगम के ईश ह अथात् िजनकी िद िन
सुनकर गणधर ादशां ग प शा की रचना करते ह, इस कार जो भ जीवों को हे य-
उपादे य त ों का ान कराने वाले आगम के मूलकता ह वे ही आ -स े दे व हो सकते ह, यह
िनि त है , ोंिक िजनम ये िवशेषताएँ नहीं ह, वे स े दे व नहीं हो सकते ।
सदासुखदास :

जो यं ही दोषों सिहत हो वह अ जीवों को िनराकूल, सुखी, िनद ष कैसे करे गा ? जो ुधा


की बाधा, तृषा की बाधा, काम, ोधािदक दोषों सिहत हो वह तो महादु खी है , उसके ई रपना
कैसे होगा ? जो िनर र भयवान होकर श आिद हण िकये रहे उसके श ु िव मान ह, वह
िनराकुल कैसे होगा ? िजसके े ष, िचंता, खेदािद िनरं तर रह वह सुखी नहीं होता । जो कामी,
रागी हो वह तो िनरं तर अ के वश रहता है ; उसे ाधीनता नहीं ह; पराधीनता से स ा
व ापना बनता नहीं है । जो मद के वशीभूत हो, िन ा के वशीभूत हो, उसके स ा ातापना
नहीं हो सकता है । जो ज -मरण सिहत है उसके संसार प र मण का अभाव नहीं आ,
संसारी ही है ; उसके भी स ा आ पना नहीं बनता । इसिलये जो िनद ष हो उसी को स ाथ-
पने ारा आ -पना बनता है । रागी- े षी तो अपना और पर का राग- े ष पु करने- प वचन
ही कहता है । यथाथ व ा-पना तो वीतरागी को ही स व है ।

यिद सव नहीं होते तो इं ि यों के आधीन ानवाला पहले हो गए राम, रावण, आिद उ कैसे
जानेगा ? दू रवत जो मे पवत, ग, नरक परलोकािद को कैसे जानेगा ? और सू परमाणु
इ ािद को कैसे जानेगा ?

इ यजिनत ान तो थूल, िव मान, अपने स ुख पदाथ ही को नहीं जानता है । इस


संसार म पदाथ तो जीव, पु ल, धम, अधम, आकाश, काल आिद अन ह और एक ही समय
म सभी अपनी िभ -िम प रणित- प प रणमते ह । इसिलये एक समयवत अन पदाथ
की िभ -िम अनंत ही पयाय होती ह । इं ि य-जिनत ान तो मवत थूल पु ल की अनेक
समयों म ई जो एक रथूल पयाय है , उसे जानने-वाला है । अनेक पदाथ की अनेक पयाय
ित-समय हो रही ह । जो एक समय-वत सभी पयायों को हो जानने म समथ नहीं है , तो जो
अन -काल बीत गया और अन -काल आयेगा, उसकी अनंतान पयायों को वह इ य-
जिनत ान कैसे जान सकेगा ? इसिलये सव ि कालवत सम ों की सम पयायों को
युगपत् (एक-साथ) जानने म समथ ऐसे सव ही के आ -पना स व है ; और जो परम
िहतोपदे शक हो वही आ है । ये तीन गुण िजसम हो वही ँ दे व है ।

य िप अह दे व मनु पयाय को धारण िकये मनु ह, तो भी ानावरणािद चार घाितया कम


के नाश से गट आ जो अन - ान, अन -दशन, अन -वीय, अन -सुख- प िनज
भाव, उसम रमण करने से, कम को जीतने से, अ माण (अतुल) शरीर की कां ित गट होने
से, अन आन और सुख म म होने से तथा इं ािद सम दे वों ारा ुित यो होने से,
अनंत ान-दशन भाव ारा सम लोकालोक म ा होने से, अन श गट होने से
अ दे वों और मनु ों से िभ असाधारण आ ा के प ारा शोभायमान है । इसिलये मनु
पयाय म ही अपने अन - ान, दशन, वीय, सुख आिद गुणों के गट होने के कारण इ
दे वािध-दे व कहते ह ।

यहाँ कोई करता है - आ के तीन ल ण (गुण) ों कहे ? एक िनद ष कहने से ही उसम


सम गुण (ल ण) आ जाते ?

उससे कहते ह - िनद षपना तो पुदगल (परमाणु), धम, अधम, आकाश और कालािद म भी है
। इनके अचेतनपना होने से ुधा, तृषा, राग- े षािद भी नहीं है । अत: िनद षपना कहने से
इनके आ पना का संग आ जाता । आ िनद ष तो होता ही है , सव भी होता है । यिद
िनद ष और सव -- ये दो ही आ के गुण कह तो भगवान िस ों के भी आ पना का संग
आ जाता, तब स े उपदे श का अभाव आ जाता । इसिलये िनद ष, सव और परम
िहतोपदे शकता इन तीन गुणों सिहत दे वािधदे व परम औदा रक शरीर म थत भगवान सव
वीतराग अरह को ही आ पना है , ऐसा िन य करना यो है ।

+ वीतराग का ल ण -

ु पासाजरात -ज ा क-भय याः


न राग े षमोहा य ा ः स की ते ॥६॥
अ याथ : [ ुत्] भूख, [िपपासा] ास, [जरा] बुढ़ापा, [आतंक] रोग/ ािध, ज , [अ क]
मरण, भय, [ या:] मद, राग, े ष, मोह, रोग, [च] िचंता, िन ा, आ य, अरित, पसीना और
खेद ये अठारह दोष [य ा] िजनम [न] नहीं ह [स] उसे ही [आ :] आ [ की ते] कहते
ह ॥६॥
भाच ाचाय :

अथ के पुन े दोषा ये त ो ा इ ाशङ् ाह --

ु बुभु ा । िपपासा च तृषा । जरा च वृ म् । आत ािध: । ज च


कमवशा तुगितषू ि : । अ क मृ ु: । भयं
चेहपरलोका ाणागु मरणवेदनाऽऽक कल णम् । य जाितकुलािददप: राग े षमोहा:
िस ा: । च श ा ाऽरितिन ािव यमद ेदखेदा गृ े । एतेऽ ादशदोषा य न
स स आ : की यते ितपा ते । ननु चा भवेत् ुत्, ुदभावे आहारादौ
वृ भावा े ह थितन ात् । अ चासौ, त ादाहारिस : । तथािह भगवतो
दे ह थितराहारपूिवका, दे ह थित ाद दािददे ह थितवत् । जैनेनो ते -- अ िकमाहारमा ं
सा ते कवलाहारो वा ? थमप े िस साधनता आसयोगकेविलन आहा रणो जीवा
इ ागमा ुपगमात् । िद् वतीयप े तु दे वदे ह थ ा िभचार: । दे वानां सवदा
कवलाहाराभावेऽ ा: स वात् । अथ मानसाहारा तेषां त थित तिह केविलनां
कमनोकमाहारा सा तु । अथ मनु दे ह थित ाद दािदव ाततपूिवका इ ते तिह त दे व
त े हे सवदा िन: ेद ा भाव: ात् । अ दादावनुपल ािप तदितशय त स वे
भु भावल णोऽ ितशय: िकं न ात् । िकं च अ दादौ धम भगवित स साधने
त ान े यजिनत स : । तथािह भगवतो ानिम यजं ान ात् अ दािद ानवत् ।
अतो भगवत: केवल ानल णाती य ानास वात् सव ाय द ो जला िल: ।
ान ािवशेषेऽिप त ान ाती य े दे ह थित ाऽिवशेषेऽिप त े ह थतेरकवलाहारपूव ं
िकं न ात् । वेदनीयस ावा बुभु ो ेभ जनादौ वृि र ु रनुपप ा
मोहनीयकमसहाय ैव वेदनीय बुभु ो ादने साम यात् । भो ुिम ा बुभु ा सा
मोहनीयकमकाय ात् कथं ीणमोहे भगवित ात् ? अ था ररं साया अिप त स ात्
कमनीयकािम ािदसेवा स ेरी रादे ािवशेषा ीतरागता न ात् ।
िवप भावनावशा ागादीनां हा ितशयदशनात् केविलिन त रम कष िस े व तरागतास भवे
भोजनाभावपरम कष िप त िकं न ात्, त ावनातो भोजनादाविप
हा ितशयदशनािवशेषात् । तथािह एक न् िदने योऽनेकवारान् भुङ् े, कदािचत्
िवप भावनावशात् स एव पुनरे कवारं भुङ् े । कि त् पुनरे किदना रतभोजन:, अ : पुन:
प माससंव रा रतभोजन इित । िकं च बुभु ापीडािनवृि भ जनरसा ादना वेत्
तदा ादनं चा रसने यात् केवल ाना ा ? रसने या ेत् मित ान स ात्
केवल ानाभाव: ात् । केवल ाना ेत् िकं भोजनेन ? दू र थ ािप ैलो ोदरवितनोरस
प र ु टं तेनानुभवस वात् । कथं चा केवल ानस वो भु जान ेणीत: पितत ं
म गुण थानवित ात् । अ म ो िह साधुराहार कथामा ेणािप म ो भवित ।
नाह भु ानोऽपीित मह म् । अ ु ताव ानस व: तथा सौ केवल ानेन ।
िपिशता शु ािण प न् कथं भु जीत अ राय स ात्। गृह था अ स ा ािन
प ोऽ रायं कुव , िकं पुनभगवानन वीय कुयात् । तदकरणे वा त ते ोऽिप
हीनस स ात् । ु ीडास वे चा कथमन सौ ं ात् यतोऽन चतु य ािमताऽ
। निह सा राय ान ता यु ा ानवत् । न च बुभु ा पीडै व न भवती िभधात म्
ुधासमा ना शरीरवेदना इ िभधानात् । तदलमित स े न मेयकमलमात े
ायकुमुदच े च प त: पणात् ॥६॥
आिदमित :

ुधा-भूख, िपपासा- ास, जरा-बुढ़ापा, वात-िप -कफ के िवकार से उ रोग, कम के उदय


से चारों गितयों म उ ि का होना ज है । अ क-मृ ु, इहलोक-भय, परलोक-भय,
अ ाणभय, अगु भय, मरणभय, वेदनाभय और आक क् भय ये सात भय ह। जाित
कुलािद के गव को य-अहं कार कहते ह । इ व ु के ित ीित राग है , अिन व ु म
अ ीित का होना े ष है , शरीरािदक पर-व ुओं म ममकार बु का होना मोह कहलाता है ।
ोक म आये ए च श से िच ा, अरित, िन ा, िव य, मद, ेद और खेद इन सात दोषों
का हण होता है । इ व ु का िवयोग होने पर उसे ा करने के िलए मन म जो िवकलता
होती है , उसे िच ा कहते ह । अि य व ु का समागम होने पर जो अ स ता होती है , वह
अरित है । िन ा का अथ िस है । इसके पाँ च भेद ह- िन ा, िन ािन ा, चला, चला-
चला, ानगृ । आ य प प रणाम को िव य कहते ह । नशा को मद कहते ह, पसीना
को ेद कहते ह और थकावट को खेद कहते ह, ये सब िमलकर अठारह दोष कहलाते ह। ये
दोष िजनम नहीं पाये जाते ह, वे ही आ कहलाते ह ।

यहाँ श ाकार कहता है िक आ के ुधा की बाधा होती है , ोंिक भूख के अभाव म


आहारािदक म वृि नहीं होगी और आहारािदक म वृि न होने से शरीर की थित नहीं रह
सकेगी । िक ु आ के शरीर की थित रहती है । अत: उससे आहार की भी िस हो जाती
है । यहाँ पर िन कार का अनुमान होता है -- केवली भगवान् की शरीर- थित आहारपूवक
होती है ोंिक वह शरीर थित है , हमारी शरीर- थित के समान । िजस कार हम छ थों
का शरीर आहार के िबना थर नहीं रहता, उसी कार आ भगवान् का शरीर भी आहार के
िबना थर नहीं रह सकता । अत: उनके आहार अव होता है और जब आहार है तो ुधा
का मानना भी अिनवाय होगा ?

इस शंका के उ र म जैनाचाय कहते ह िक आप आ भगवान् के आहार मा िस कर रहे


हो या कवलाहार ? थम प म िस -साधनता दोष आता है , ोंिक सयोग केवली पय तक
के सभी जीव आहारक ह ऐसा आगम म ीकार िकया है । और दू सरे प म दे वों की
शरीर थित के साथ िभचार आता है ोंिक दे वों के सवदा कवलाहार का अभाव होने पर
भी शरीर की थित दे खी जाती है । यिद कोई यह कहे िक दे वों के मानिसक आहार होता है
उससे उनके शरीर की थित दे खी जाती है तो उसका उ र यह है िक केवली भगवान् के भी
कम तथा नोकम आहार होता है , उससे उनके शरीर की थित रह सकती है । यिद यहाँ यह
कहा जावे िक आ का शरीर हमारे शरीर के समान ही तो मनु का शरीर है इसिलए िजस
कार हमारा शरीर आहार के िबना नहीं िटक सकता उसी कार आ का शरीर भी आहार
के िबना नहीं ठहर सकता । इसका उ र यह है िक यिद आहार की अपे ा आ भगवान् के
शरीर से हमारे शरीर की तुलना की जाती है , तो िजस कार केवली भगवान् के शरीर म
पसीना आिद का अभाव है उसी कार हम छ थों के शरीर म भी पसीना आिद का अभाव
होना चािहए, ोंिक मनु शरीर प हे तु दोनों म िव मान है । इसके उ र म यिद यह
कहा जाए िक हमारे शरीर म वह अितशय नहीं पाया जाता, िजससे िक पसीना आिद का
अभाव हो, पर ु केवली भगवान् के तो वह अितशय पाया जाता है िजसके कारण उनके शरीर
म पसीना आिद नहीं होता, तो इसका उ र यह है िक जब केवली भगवान् के पसीना आिद के
अभाव का अितशय माना जाता है , तब भोजन के अभाव का अितशय ों नहीं हो सकता ?

दू सरी बात यह है िक जो धम हम छ थों म दे खा जाता है , वह यिद भगवान् म भी िस िकया


जाता है तो िजस कार हम लोगों का ान इ यजिनत है उसी कार भगवान् का ान भी
इ यजिनत मानना चािहए। इसके िलए िन कार का अनुमान िकया जाता है - 'भगवते
ानिम यजं ान ात् अ दािद ानवत्' भगवान् का ान इ यजिनत है , ोंिक वह ान
है हमारे ान के समान । इस अनुमान से अरह भगवान् के केवल ान प अती य ान
अस व हो जाएगा और तब सव ता के िलए जला िल दे नी पड़े गी । यिद यह कहा जाए िक
हमारे और उनके ान म ान की अपे ा समानता होने पर भी उनका ान अती य है तो
इसका उ र यह है िक हमारे और उनके शरीर थित की समानता होने पर भी उनकी
शरीर थित िबना कवलाहार के ों नहीं हो सकती ?

अरह भगवान् के असातावेदनीय का उदय रहने से बुभु ा-भोजन करने की इ ा उ


होती है , इसिलए भोजनािद म उनकी वृि होती है , यह कहना ठीक नहीं है । ोंिक िजस
वेदनीय के साथ मोहनीय कम सहायक रहता है , वही बुभु ा के उ करने म समथ होता है ।
भोजन करने की इ ा को बुभु ा कहते ह। वह बुभु ा मोहनीय कम का काय है । अत:
िजनके मोह का सवथा य हो चुका है , ऐसे अरह भगवान् के वह कैसे हो सकती है ? यिद
ऐसा न माना जाएगा तो िफर ररं सा-रमण करने की इ ा भी उनके होनी चािहए । और उसके
होने पर सु र ी आिद के सेवन का स भी आ जाएगा । उसके आने पर अरह भगवान्
की वीतरागता की समा हो जाएगी। यिद यह कहा जाए िक िवपरीत भावनाओं के वश से
रागािदक की हीनता का अितशय दे खा जाता है अथात् रागािदक के िव भावना करने से
रागािदक म ास दे खा जाता है । केवली भगवान् के रागािदक की हािन अपनी चरम सीमा को
ा है , इसिलए उनकी वीतरागता म बाधा नहीं आती ? इसका उ र यह है िक यिद ऐसा है
तो उनके भोजनाभाव की परम कषता ों नहीं हो सकती, ोंिक भोजनाभाव की भावना से
भोजनािदक म भी ास का अितशय दे खा जाता है । जैसे जो पु ष एक िदन म अनेक बार
भोजन करता है , वही पु ष कभी िवपरीत भावना के वश से एक बार भोजन करता है । कोई
पु ष एक िदन के अ र से भोजन करता है और कोई पु ष प , मास तथा वष आिद के
अ र से भोजन करता है ।

दू सरी बात यह भी है िक अरह भगवान् के जो बुभु ा-स ी पीड़ा होती है और उसकी


िनवृि भोजन के रसा ादन से होती है , तो यहाँ पूछना यह है िक वह रसा ादन उनके रसना
इ य से होता है या केवल ान से ? यिद रसना इ य से होता है , ऐसा माना जाए तो मित ान
का स आने से केवल ान का अभाव हो जाएगा । इस दोष से बचने के िलए यिद केवल ान
से रसा ाद माना जाए तो िफर भोजन की आव कता ही ा है , ोंिक केवल ान के ारा
तो तीन लोक के म म रहनेवाले दू रवत रस का भी अ ी तरह अनुभव हो सकता है । एक
बात यह भी है िक भोजन करने वाले अरह के केवल ान हो भी कैसे सकता है , ोंिक
भोजन करते समय वे ेणी से पितत होकर म संयत गुण थानवत हो जायगे । जब
अ म िवरत साधु आहार की कथा करने मा से म हो जाता है , तब अरह भगवान्
भोजन करते ए भी म न हों, यह बड़ा आ य है । अथवा केवल ान मान भी िलया जाय तो
भी केवल ान के ारा मां स आिद अशु ों को दे खते ए वे कैसे भोजन कर सकते ह ?
ोंिक अ राय का स आता है । अ श के धारक गृह थ भी जब मां सािदक को
दे खते ए अ राय करते ह तब अन वीय के धारक अरह भगवान् ा अ राय नहीं
करगे ? यिद नहीं करते ह तो उनम भी हीनश का स आता है । यिद अरह भगवान् के
ुधा स ी पीड़ा होती है तो उनके अन सुख िकस कार हो सकता है ? जबिक वे िनयम
से अन -चतु य के ामी होते ह । जो अ राय से सिहत है , उसके ान के समान सुख की
अन ता नहीं हो सकती। अथात् िजस कार अ राय सिहत ान म अन ता नहीं होती, उसी
कार अ राय सिहत अरह के सुख म अन ता नहीं हो सकती।

' ुधा पीड़ा ही नहीं है ' ऐसा नहीं कहा जा सकता, ोंिक लोक म यह उ िस है िक
' ुधासमा ना शरीरवेदना' ुधा के समान दू सरी कोई शरीर पीड़ा नहीं है । इस िवषय को
यहाँ इतना ही कहना पया है ोंिक मेयकमलमात और ायकुमुदच म िव ार से
इसका िन पण िकया गया है ।

+ िहतोपदे शी का ल ण -

परमे ी परं ोित: िवरागो िवमल: कृती


सव ोऽनािदम ा :, साव: शा ोपला ते ॥७॥
अ याथ : वह आ परमे ी, [परं ोित:] केवल ानी, [िवराग:] वीतराग, िवमल, [कृती]
कृतकृ , सव , [अनािदम ा :] आिद, म तथा अ से रिहत, [साव:] सविहतकता
और [शा ा] िहतोपदे शक [उपला ते] कहा जाता है -- ये सब आ के नाम ह ।
सदासुखदास :

परमे ी अथात् परमइ । इ ािदकों के ारा वंदनीय जो परामा - प म ठहरा है वह


परमे ी है । परमे ी और कैसा होता है ? अ रं ग तो घाितया कम के नाश से गट आ है ।
अन - ान, दशन, सुख, वीय- प अपना जो िनिवकार, अिवनाशी,

परमा प उसम थत है ; और बा म इ ािदक असं ात दे वों ारा व -मान,


समोशरण सभा के बीच म तीन पीिठकाओं के ऊपर, िद िसंहासन म चार अंगुल अधर,
चौंसठ चमरों सिहत िवराजमान, तीन छ आिद िद संपि से िवभूिषत, इं ािदक दे व और
मन ों आिद िनकट-भ ों को धम पदे श- प अमृत का पान कराता आ, ज -जरा-मरण
के दु खों का िनराकरण करता आ िवराजमान ह; ऐसे भगवान आ को परमे ी कहते ह ।

जो कम की आधीनता से इं ि यों के काम-भोग आिद िवषयों म तथा िवनाशीक संपदा- प


रा -संपदा म म होकर यों के आधीन होकर िवषयों की तपन सिहत रह रहे ह उनको
परमे ी-पना संभव ही नहीं है ।

जो परं ोित ह; िजसके परं अथात् आवरण रिहत, ोित अथात् अती य अन - ान म
लोक-अलोकवत सम पदाथ अपने ि कालवत अन -गुण पयायों के साथ युगपत्
ितिब त हो रहे ह; ऐसे भगवान परम ोित- प आ ह । अ जो इ य-जिनत ान
से अ - े वत वतमान थूल पदाथ को म- म से जानता है उसे परं - ोित कैसे कहा जा
सकता है ?

िजसे मोहनीय कम का नाश होने से सम पर- ों म राग- े ष का अभाव होने से वां छारिहत
परम वीतरागता गट ई है , वह वा ु का स ा प जान लेने पर िकसम राग करे गा और
िकसम े ष करे गा ? जैसा वा ु का भाव है कैसा राग े ष रिहत जानता है ; ऐसा िवराग नाम
सिहत अरह ही आ है । जो कामी-िवषयों म आस , गीत-नृ -वा ों म आस , जगत
की यों को लुभाने म, बै रयों को मारकर लोगों म अपना शुरपना गट करने की इ ा
सिहत है उसको िवराग-पना स व नहीं है ।

िजनका काम, ोध, मान, माया, लोभािद भावमल न हो गया है ; ानावरणािद कममल न हो
गया है ; मू , पुरीष, पसेव, वात, िप ािद शरीरमल न हो गया है ; िनगोिदया जीवों से रिहत,
छाया रिहत, कां ित यु , ुधा, तृषा, रोग, िन ा, भय, िव य आिद रिहत परम ओदा रक
शरीर म िवराजमान वे भगवान आ अरह ही िवमल ह । अ जो काम, ोध आिद मलों
सिहत ह वे िवमल नहीं ह।
िज कूछ करना बाकी नहीं रहा, जो शु अन ानािदमय अपने प को ा होकर
ािध-उपािध रिहत कृत-कृ ए वे भगवान आ ही कृती ह; अ तो ज -मरण आिद
सिहत; च , आयुध, ि शूल, गदा आिद सिहत; कनक-कािमनी म आस ; भोजन-पान, काम-
भोगािदक की लालसा सिहत; श ुओं को मारने की आकुलता सिहत ह वे कृती नहीं ह ।

जो इं ि यािद पर ों की सहायता रिहत, युगपत् सम -गुण-पयायों को, मरिहत,


जानते ह, वे भगवान आ ही सव ह; अ जो इं ि याधीन- ान सिहत ह, वे सव नहीं
ह।

िजनका जीव, की अपे ा तथा ान-दशन-सुख-वीय गुणों की अपे ा आिद, म , अ


नहीं है इसिलये अनािदम ा ह । दू सरे अथ म - भगवान आ अनािदकाल से ह और कभी
अ को ा नहीं होंगे इसिलये अनािदम ा ह । िजनके मत म आ का ज -मरण, जीव
का नवीन उ होना तथा जीव के ानािद गुण नवीन उ होना मानने ह, उनम
अनािदम ा नहीं बनता है ।

िजनके वचन व काय की वृि सम जीवों के िहत के िलये ही होती है , वे भगवान आ साव
कहलाते ह । अ जो काम, ोध, सं ाम आिद िहं सा धान सम पापों ारा पर के अिहत
म वतन करते ह, कराते ह, उनको ऐसा नाम ही संभव नहीं है ।

इस कार आठ िवशेषण सिहत साथक नामों ारा शा ा जो आ उसका असाधारण प


कहा है । 'शा ीित शा ा' इसका िन अथ ऐसा है -- जो िनकट भ िश ह उ जो
िहत की िश ा दे वे वह शा ा कहलाता है ।

+ आगम का ल ण -

अना ाथ िवना रागै:, शा ा शा सतो िहतम्


नन् िश कर शा- ुरज: िकमपे ते ॥८॥
अ याथ : [शा ा] आ भगवान् [िवना रागै:] राग के िबना [अना ाथ] अपना योजन न
होने पर भी [सतो] समीचीन-भ जीवों को [िहतं] िहत का उपदे श दे ते ह ोंिक [िश ी]
बजाने वाले के [कर] हाथ के [ शान्] श से श करता आ [मुरज:] मृदंग [िकं] ा
[अपे ते] अपे ा रखता है ? कुछ भी नहीं ॥८॥
भाच ाचाय :

स शनिवषयभूता पमिभधायेदानी ति षयभूतागम पमिभधातुमाह --

शा ा आ : । शा िश यित । कान् ? सत: अिवपयय ािद ेन समीचीना भ ान् । िकं


शा ? िहतं गािदत ाधनं च स शनािदकम् । िकमा न:
िक च लमिभलष सौशा ी ाह -- अना ाथ न िव ते आ नोऽथ: योजनं
य शासनकमिण परोपकारमेवासौ ता शा । परोपकाराय सतां िह चेि तम्
इ िभधानात् । स तथा शा ी ेत ु तोऽवगतिम ाह िवनारागै: यतो लाभ-पूजा-
ा िभलाषाल णपरै रागैिवनाशा ततोऽना ाथ शा ी वसीयते ।
अ ैवाथ समथनाथमाह- नि ािद । िश कर शा ादककरािभ-
घाता ुरजोनदतो न मा ाथिङ् कि दपे ते ? नैवापे ते । अयमथ :- यथामुरज:
परोपकाराथमेविविच ा श ा रोिततथासव : शा णयनिमित ॥८॥
आिदमित :

अरह भगवान् िवपययािद दोषों से रिहत े भ जीवों को िद िन के ारा गािदक


तथा उनके साधन प स शनािदक का उपदे श दे ते ह, िक ु वे अपने िलए िकंिचत् भी
फलािभलाषा- प राग नहीं रखते ह तथा उस उपदे श म उनका यं का भी कोई योजन
नहीं रहता । मा परोपकार के िलए उनकी िद वाणी की वृि होती है । कहा भी है --
'परोपकाराय सतां िह चेि तम्' अथात् सत् पु षों की चे ा परोपकार के िलए ही होती है । राग
तथा िनजी योजन के िबना आ कैसे उपदे श दे ते ह ? इसका ा ारा समथन करते ए
कहते ह िक जैसे िश ी के हाथ के श से बजनेवाला, मनु के हाथ की चे ा से श करता
आ मृदंग ा कुछ चाहता है ? कुछ नहीं चाहता । ता य यह है िक िजस कार मृदंग
परोपकार के िलए अनेक कार के श करता है , उसी कार आ भगवान् भी परोपकार के
िलए ही िद िन के मा म से उपदे श दे ते ह ।

+ शा का ल ण -

आ ोप मनु ं म्- े -िवरोधकम्


त ोपदे श-कृ ाव-शा ं-कापथ-घ नम् ॥९॥
अ याथ : [शा ं] वह शा सव थम [आ ोप म] आ भगवान् के ारा कहा आ है ,
[अनु ं म्] अ वािदयों के ारा जो अख नीय है , [अ े िवरोधकम्] तथा
अनुमानािद के िवरोध से रिहत है , [त ोपदे शकृत्] त ों का उपदे श करने वाला है , [साव]
सबका िहतकारी है और [कापथघ नम्] िम ामाग का िनराकरण करनेवाला है ।
भाच ाचाय :

की श त ा ंय ेन णीतिम ाह --

आ ोप ं सव थमो : । अनु ङ् ं य ा दा ोप ं
त ािद ादीनामनु ङ् मादे यं । क ात् ? तदु प ेन तेषामनु ङ् ं यत: ।
अ े िवरोधकं ं ं, इ मनुमानािद, न िव ते े ा ां िवरोधो य । तथािवधमिप
कुत िम ाह- त ोपदे शकृत् यत च स िवध जीवािदव ुनो
यथाव थत प वा उपदे शकृ थाव ितदे शकं ततो े िवरोधकं ।
एवंिवधमिपक ादवगतम् ? यत: साव सव ो िहतं सावमु ते त थं
यथाव प पणम रे णघटते । एतद कुतो िनि तिम ाह -- कापथघ नं यत:
कापथ कु तमाग िम ादशनादे घ नंिनराकारकं सव णीतं शा ं तत ाविमित ॥
९॥
आिदमित :

'आ ोप ं' वह शा सव थम आ के ारा जाना गया है एवं आ के ारा ही कहा गया है


। इसिलए इ ािदक दे व उसका उ ंघन नहीं करते, िक ु ा से उसे हण करते ह । कुछ
ितयों म 'त ािदतरवािदनामनु ं ' यह पाठ भी है । इसके अनुसार अ वािदयों के ारा
उ ंघन करने यो नहीं है । 'अ े िवरोधकम्' इ का अथ तथा अ का अथ
अनुमानािद परो माणों को हण िकया है । (यहां अथ सही तीत नहीं हो रहा है । -िशखर)
आ के ारा णीत शा इन और परो माणों के िवरोध से रिहत है । तथा जीव
अजीवािद सात कार के त ों का उपदे श करने वाला है । अथवा अपने-अपने यथाथ प
से सिहत छह ों का उपदे श करने वाला है । 'सव ो िहतं साव' इस ु ि के अनुसार
सब जीवों का िहत करने वाला है , यह यथावत् प के िबना घिटत नहीं हो सकता । और
कु त-खोटा माग जो िक िम ादशनािदक ह उनका िनराकरण करने वाला है । शा की ये
सभी िवशेषताएँ आ णीत होने पर ही िस हो सकती ह ॥९॥

+ गु का ल ण -

िवषयाशावशातीतो िनरार ोऽप र हः


ान ानतपोर : तप ी स श ते ॥१०॥
अ याथ : [िवषयाशावशातीत:] जो पंचि य के िवषयों की आशा से रिहत ह, [िनरार :]
स ूण आर और [अप र हः] प र ह से रिहत िन ्र िदग र ह, [ ान ानतपोर :]
सदा ही ान, ान और तप म अनुरागी ह [स:] वे ही [तप ी] तप ी साधु [ श ते]
शंसनीय / स े गु ह ॥१०॥
भाच ाचाय :

अथेदानीं ानगोचर तभोभृत: प पय ाह --

िवषयेषु िनतािद ाशाआकाङ् ात ावशमधीनता । तदतीतोिवषयाकाङ् ारिहत: ।


िनरार : प र कृ ािद ापार: । अप र हो बा ा रप र हरिहत: ।
ान ानतपोर ान ानतपां ेवर ािनय एतद् गुणिविश ोय: स तप ी गु : श ते
ा ते ॥१०॥
आिदमित :

िजनके शनािदक प े य के िवषयभूत माला तथा ी आिद िवषयों की आका ा स ी


अधीनता न हो गई है अथात् जो पूण पेण इ य-िवजयी ह। तथा िज ोंने खेती आिद
ापार का प र ाग कर िदया है और जो बा और आ र प र ह से रिहत ह, तथा ान
ान और तप ही िजनके े र ह, उ ीं म जो सदै व लीन रहते ह वे तप ी-गु शंसनीय
होते ह ।
सदासुखदास :

जो रसना इं ि य का ल टी हो, अनेक कार के रसों के ाद की इ ा के वशीभूत हो रहा


हो, कण-इ य के वशीभूत हो, अपना यश- शंसा सुनने का इ ु क हो, अिभमानी हो; ने ों
ारा सु र प, महल, म र, बाग, वन, ाम, आभूषण व ािद दे खने का इ ु क हो;
कोमल-श ा--कोमल उ ासन के ऊपर सोने-बैठने का इ ु क हो, सुग आिद हण करने
का इ ु क हो, िवषयों का ल टी हो सो ऐसा गु दू सरों को िवषयों से छु डाकर वीतराग माग
म नहीं लगा सकता; वह तो सराग माग म ही लगाकर संसार समु म डु बो दे गा ।

इसिलये जो िवषयों की आशा के वशीभूत नहीं ऐसा गु ही आराधन, वंदन यो है । िजसे


िवषयों म अनुराग हो वह तो आ ान रिहत बिहरा ा है , गु कैसे होगा ? िजसके स- थावर
जीवों के धात का आरं भ होता हो, उसे पाप का भय नहीं है , पापी के गु पना कैसे स व है ?

जो चौदह कार के अंतरं ग प र ह तथा दस कार के बिहरं ग प र ह सिहत हो, वह गु कैसे


हो सकता है ? प र ही तो यं ही संसार मे ँ फंस रहा है , वह अ जीवों का उ ार करनेवाला
गु कैसे होगा ?

+ िन:शंिकत अंग -

इदमेवे- शमेव, त ं ना चा था
इ क ायसा ोवत्, स ागऽसंशया िच: ॥११॥
अ याथ : [त वं] त [इदम्] यह [एव] ही है , [ई शम्] ऐसा [एव] ही है , [अ त्] अ
[न] नहीं है और [अ था] अ कार भी [न] नहीं है [इित] इस तरह आ , आगम, गु के
िवषय म [आयसा ोवत्] तलवार की धार पर रखे ए जल के स श [अक ा] अचिलत
[ िच:] ान करना और [स ाग] मो —माग म संशय रिहत िच का होना [असंशया]
िन:शंिकत अंग है ॥११॥
भाच ाचाय :

इदानीमु ल णदे वागमगु िवषय स शन िन:शिङ् कत गुण प पय ाह --


िच: स शनम्। अस या (यहां असंशया श द होना चािहये ।) िनशि त धम पेता ।
िकंिविश ा सती ? अक ा िन ला । िकंवत् ? आयसा ोवत् अयिस भवमायसं त तद
पानीयं तिदव त ड् गािदगतपानीयविद थ: साक े याह -- स ाग संसारसमु ो रणाथ
स मृ ते अ े त इित स ागम् आ ागमगु वाह े नो ेखेने ाह-
इदमेवा ागमतप ल णं त म् । ई शमेव उ कारे णैव ल णेन लि तम् । ना त्
एत ा ं न । न चा था उ त णाद था परप रक तल णेन लि तं, न च नैव
तद् घटते इ ेवमु ेखेन ॥११॥

आिदमित :

िच का अथ स शन अथवा ा है । ा, िच, श, तीित ये सब स शन के


नामा र ह। िजस कार तलवार आिद पर चढ़ाया गया लोहे का पानी-धार िन ल-अक
होती है , उसी कार स ाग म 'संसारसमु ो रणाथ स मृ ते अ ते इित स ाग:
आ ागमगु वाह: त न्' इस ु ि के अनुसार संसार प समु के पार होने के िलए
स ु षों के ारा िजसकी खोज की जाय वह स ाग कहलाता है , इस तरह स ाग का अथ
आ -आगम और गु पर रा का वाह है एवं स शन, स ान, स ा र है । उस
स ाग के िवषय म आ , आगम, तप ी अथवा जीवािद पदाथ का प यही है , ऐसा ही
है , अ नहीं है , अ कार भी नहीं है ऐसी जो िन ल-अक तीित है , ा है , वह
स शन का िन:शि त अंग कहलाता है । उ ल ण से अ परवािदयों के ारा क त
ल ण स क् नहीं है ोंिक अ वािदयों के ारा माने गये आ -आगम-गु म समीचीन
ल ण नहीं पाये जाते ह ।

+ िन:कांि त अंग -

कमपरवशे सा े, दुखैर रतोदये


पापबीजे सुखेऽना था, ानाका णा ृता ॥१२॥
अ याथ : [कमपरवशे] कम के आधीन, [सा े] अ -सिहत / न र, [दु :खै:] दु :खों से
[अंत रतोदये] बािधत, [च] और [पापबीजे] पाप के कारण ऐसे [सूखे] सां सा रक-सुखों म
[अना था] अ िचपूण [ ानं] ान को [अनाका णा] िन:कां ि त अंग [ ृता] कहते ह
॥१२॥
भाच ाचाय :

इदानींिन ािङ् त गुणंस शनेदशय ाह --

अनाका णा ृता िन ाि त ंिनि तम् । कासौ ? ा । कथ ूता ? अना था


निव तेआ थाशा तबु य ाम् । अथवानआ थाअना थात ।
ा तयावा ाअना था ासाचा नाका णेित ृता । अना थाऽ िच: ? सुखे वैषियके ।
कथ ूते ? कमपरवशे कमाय े । तथा सा े अ ेनिवनाशेनसहवतमानेतथा
दु :खैर रतोदये दु :खैमानसशारीरै र रतउदय: ादु भावोय । तथा पापबीजे
पापो ि कारणे ॥१२॥
आिदमित :

अना था- ा की ा ा दो कार से की है । न िव ते आ था शा तबु य ां सा


अना था िजसम िन पने की बु नहीं है इस कार अना था को ा का िवशेषण बनाया है
। इस प म अना था और ा इन दोनों पदों को समास रिहत हण िकया है । दू सरे प म
न आ था अना था त ां वा ा अना था ा अ िच र थ: अ िच म अथवा अ िच
के ारा होने वाली ा । प े य िवषय स ी सुख कम के अधीन ह,िवनाश से सिहत ह,
इनका उदय मानिसक तथा शारी रक दु :खों से िमला आ है तथा पाप का कारण है , अशुभ
कम का ब कराने म िनिम है , ऐसे सुख म शा त बु से रिहत ा करना वह
स शन का िन:कां ि त अ कहलाता है ।

+ िनिविचिक ा अंग -

भावतोऽशुचौ काये, र यपिवि ते


िनजुगु ा गुण ीित-मता िनिविचिक ता ॥१३॥
अ याथ : [ भावत:] भाव से [अशुचौ] अपिव िक ु [र य पिवि ते] र य से
पिव [काये] शरीर म [िनजुगु ा] ािन रिहत [गुण ीित:] गुणों से ेम करना
िनिविचिक ा अंग [मता] माना गया है ॥१३॥
भाच ाचाय :

स ितिनिविचिक ागुणंस शन पय ाह --

िनिविचिक तामता अ ुपगता । कासौ ? िनजुगु ा िविचिक ाभाव: । ? काये ।


िकंिविश े ? भावतोऽशुचौ पेणापिवि ते । इ ूतेऽिपकाये र यपिवि ते
र येणपिवि तेपू तां नीते । कुत थाभूतेिनजुगु ाभवती ाह - गुण ीित: यतोगुणेन-
र याधारभूत-मु साधक ल णेन- ीितमनु -शरीरमेवेदं-मो साधकंना े वािद-शरीर-
िम नुराग: । तत िनजुगु ेित ॥१३॥
आिदमित :

िनगता िविचिक ा य ात् स: िनिविचिक :, त भावो िनिविचिक ा िविचिक ा


ािन को कहते ह । जो ािन से रिहत है वह िनिविचिक है । उसका जो भाव है , वह
िनिविचिक ता है । मानव का यह शरीर भाव से ही अपिव है । ोंिक माता-िपता के रज-
वीय- प अशु धातु से िनिमत होने के कारण अपिव है । िक ु यह अपिव शरीर भी
स शन, स ान और स ा र - प र य के ारा पिव ता, पू ता को ा
कराया जाता है । ऐसे शरीर म र य- प गुण के कारण ीित होती है । ोंिक यह मनु
का शरीर ही र य की आधार-भूत मु का साधक बनता है । अ दे वतािदक का शरीर
मो का साधक नहीं हो सकता । इस िविश गुण के कारण गुणों म जो ािन रिहत ीित
होती है , वह िनिविचिक ा नामक अंग है ।

+ अमूढ़ ि अंग -

कापथे पिथ दु:खानां, कापथ थे स ित:


अस ृ -रनु ीित-रमूढ़ा- ि ते ॥१४॥
अ याथ : [दु :खानां] दु :खों के [पिथ] माग प [कापथे] िम ा-दशनािद- प कुमाग म
[कापथ थेsिप] और कुमाग म थत जीव म [अस ित:] मानिसक स ित से रिहत
[अनु ीित:] वाचिनक शंसा से रिहत और [अस ृ :] शारी रक संपक से रिहत है , वह
(स ि का) [अमू ढ़ा ि :] अमू ढ़ ि अं ग [उ ते ] कहा जाता है ॥१४॥

भाच ाचाय :

अधुनास शन ामूढ ि गुण काशय ाह --

अमूढा ि रपमूढ गुणिविश ंस शनम् । का ? अस ित: निव तेमनसास ित: ेय:


साधनतयास ननंय ौ । ? कापथे कु तमागिम ादशनादौ । कथ ूते ? पिथ माग ।
केषां ? दु :खानाम् । नकेवल त ैवास ितरिपतु कापथ थेऽिप िम ादशना ाधारे ऽिपजीवे ।
तथा अस ृ : निव तेस ृ :
कायेननख ोिटकािदनाअङ् गुिलचालनेनिशरोधूननेनवा शंसाय । अनु ीित:
निव तेउ ीित ीतनंवाचासं वनंय ।
मनोवा ायैिम ादशनादीना त ता चा शंसाकरणमूढंस शनिम थ:॥१४॥
आिदमित :

कु त: प ा कापथ: त न् कापथे कापथ का अथ खोटा माग-कुमाग होता है ।


िम ादशनािद संसार- मण के माग होने से कु तमाग कहलाते ह । ऐसे कुमाग म अथवा
कुमाग म थत िम ादशनािद के आधार-भूत जीव के िवषय म मन से ऐसी स ित नहीं करना
िक यह क ाण का माग है । तथा शरीर से / नखों से चुटकी बजाकर, अङ् गुिलयाँ चलाकर
अथवा म क िहलाकर उसकी शंसा नहीं करना, तथा वचन से भी उसका सं वन नहीं
करना, इस कार मन-वचन-काय के ारा िम ादशनािद की और उसके धारण करने वाले
की शंसा नहीं करना स शन का अमूढ ि गुण है ।
+ उपगूहन अंग -

यं शु माग , बालाश जना याम्


वा तां य माज , त द ुपगूहनम् ॥१५॥
अ याथ : [ यं शु ] भाव से पिव [माग ] र य प माग की
[बालाश जना याम्] अ ानी तथा असमथ जनों के आ य से होने वाली [वा तां] िन ा
को [यत्] जो [ माज ] परमािजत / दू र करते ह, [तत्] उनके उपगूहन अंग [वद ] कहते
ह ॥१५॥
भाच ाचाय :

अथोपगूहनगुण त ितपादय ाह-

तदु पगूहनंवद य माज िनराकुव ादय ी थ: । काम् ? वा ता दोषम् । क ?


माग र यल ण । िकंिविश ? यंशु भावतोिनमल । कथ ूताम् ?
बालाश जना यां बालोऽ : अश ो ता नु ानेऽसमथ: सचासौजन सआ योय ा: ।
अयमथ:-
िहतािहतिववेकिवकलं ता नु ानेऽसमथजनमाि ागत र येत ितवादोष य ादन तदु पगूह
१५॥

आिदमित :

र य प मो का माग भाव से ही िनमल-पिव है । पर ु कदािचत् अ ानी अथवा


ताचरण करने म असमथ मनु ों के ारा यिद कोई दोष उ होता है या अपवाद होता है
तो स ि उसका िनराकरण करते ह, उसके दोषों को िछपाते ह, कट नहीं करते। उनके
इस कार के वहार को उपगूहन अ कहते ह । ता य यह है िक जो िहत और अिहत के
िववेक से रिहत है ऐसे अ ानी जीव को बाल कहते ह तथा बा ाव था, वृ ाव था या
तावश िनद ष त-अनु ानािद के प रपालन म असमथ है उसे अश कहते ह। ऐसे बाल
और अश मनु ों के आ य से र य और उसके धारक पु षों म उ दोषों का ादन
करना स ि का परम कत य है ।

+ थितकरण अंग -

दशना रणा ािप, चलतां धमव लै:


व थापनं ा ै:, थितकरणमु ते ॥१६॥
अ याथ : [धमव लै:] धम- ेही जनों के ारा [दशनात्] स शन से [वा] अथवा
स क् चा र से [अिप] भी [चलताम्] िवचिलत होते ए पु षों का [ व थापनम्] िफर से
पहले की तरह थत िकया जाना [ ा ै:] िव ानों के ारा [ थितकरणम्] थितकरण अंग
[उ ते] कहा जाता है ॥१६॥
भाच ाचाय :

अथ थतीकरणगुणंस शन दशय ाह --

थतीकरणम् अ थत दशनादे िलत थतकरणं थतीकरणमु ते । कै: ?


ा ै ि च णै: । िक तत् ? व थापनं दशनादौपूवव ुनर व थापनम् । केषाम् ?
चलताम् । क ात् ? दशना रणा ािप । कै ेषा व थापनम् ? धमव लै:
धमवा यु ै: ॥१६॥
आिदमित :

थतीकरण म जो ' ' य आ है वह 'अभूतत ाव' अथ म आ है । इसिलए 'अ थत


दशनादे िलत थितकरणं थतीकरणं' अथात् दशनािद से चलायमान होते ए पु ष को
िफर से उसी त म थत कर दे ना थतीकरण अ है । कोई जीव बा आचरण का
यथायो पालन करता आ भी ा से हो जाता है तथा कोई ढ़ ानी होता आ भी
शारी रक अश ता या मादािद के कारण बा आचरण से है । कोई जीव ती पाप के
कारण ान-आचरण दोनों से है । धम म ेम रखने वाले जनों को चािहए िक वे उ िफर
से उसी तािद म थत कर । यह स शन का थतीकरण अंग है ।

+ वा अंग -

यू ा ित स ाव-सनाथापेतकैतवा
ितपि -यथायो ं, वा मिभल ते ॥१७॥
अ याथ : [ यू ा ित] सहधम जनों के ित जो हमेशा ही [अपेतकैतवा] छल कपट
रिहत होकर [स ाव-सनाथा] स ावना रखते ए ीित करना और [यथायो ं] यथा यो
उनके ित [ ितपि :] िवनय भ आिद भी करना [वा म्] वा अंग [अिभल ते]
कहा जाता है ॥१७॥
भाच ाचाय :

अथवा यगुण प दशने कटय ाह-

वा ंसधिमिण ेह: । अिभल ते ितपा ते । कासौ ? ितपि : पूजा शंसािद पा ।


कथम् ? यथायो ं यो ानित मेण-अ िलकरणािभमुख-गमन- शंसा-वचनोपकरण-
स दानािद-ल णा । का ित ? यू ान् जैना ित । कथ ूता ? स ावसनाथा
स ावेनाव तया-सिहतािच -पूिवके थ: । अतएव अपेतकैतवा
अपेतंिवन ङ् कैतवंमायाय ा: ॥१७॥
आिदमित :

यूथ: यूथ: त न् भवा: यू ा ान् अपने सहधम ब ुओं के समूह म रहने


वालों को यू कहते ह । इन सहधिमयों के ित स ावना सिहत अथात् सरलभाव से
मायाचार रिहत, यथायो - हाथ-जोडऩा, स ुख-जाना, शंसा के वचन कहना तथा यो
उपकरण आिद दे कर जो आदर स ार िकया जाता है , वह वा -गुण कहलाता है ।
व ल भाव: कम वा वा म् वा का अथ सहधम भाइयों के ित धािमक ेह का
होना ।

+ भावना अंग -

अ ानितिमर ा -मपाकृ यथायथम्


िजनशासनमाहा - काश: ा भावना ॥१८॥
अ याथ : [अ ान] अ ान पी [ितिमर] अंधकार के [ ा म्] िव ार को [अपाकृ ]
दू र कर [यथायथम्] अपनी श के अनुसार [िजनशासनमाहा ] िजनशासन के माहा
का [ काश:] काश फैलाना [ भावना] भावना-अंग [ ात्] है ॥१८॥
भाच ाचाय :

अथ भावनागुण प दशन िन पय ाह-

भावना ात् । कासौ ? िजनशासनमाहा काश: । िजनशासन -माहा -


काश ुतपो ाना ितशय कटीकरणम् । कथम् ? यथायथं पन-दान-पूजा-िवधान-
तपोम -त ािदिवषये-आ श नित मेण । िकङ् कृ ा ? अपाकृ िनराकृ । काम् ?
अ ानितिमर ा ं
िजनमता रे षां य पनदानािदिवषयेऽ ानमेवितिमरम कार त ा सरम् ॥१८॥
आिदमित :

जैनशासन के माहा का काशन एवं उसके तप- ानािद का अितशय कट करना चािहये
तथा जैनधम के अित र अ धमावल यों म अिभषेक, दान, पूजा, िवधान, तप, म -
त ािद के िवषय म अपनी आ श को न िछपाकर इनके िवषय म जो अ ान प
अ कार फैल रहा है , उसको दू र करते ए तप- ानािद का अितशय कट करना भावना
अ कहलाता है ।
+ आठ अंगधारी के नाम -

तावद नचौरोऽ े ततोऽन मितः ृता


उ ायन ृतीयेऽिप तुरीये रे वती मता ॥१९॥
ततो िजने भ ोऽ ो वा रषेण तः परः
िव ु व नामा च शेषयोल तां गताः ॥२०॥
अ याथ : [तावत्] म से [ थमे] थम अ म [अ नचौर:] अ न चोर, [तत:] तदन र
ि तीय अंग म [अन मती:] अन मती [ ृता] ृत है , [तृतीये] तृतीय अ म [उ ायन:]
उ ायन नाम का राजा, [तुरीये] चतुथ अ म रे वती रानी [मता] मानी गई है । तदन र प म
अ म िजने भ सेठ, उसके बाद छठे अ म वा रषेण राजकुमार, उसके बाद स म और
अ म अ म िव ुकुमार मुिन और व कुमार मुिन [ल ताम्] िस को [गाता:] ा ए
ह।
भाच ाचाय :

इदानीमु िन:शि त ा गुणानां म े क: केन गुणेन धानतया किटत इित दशयन्


ोक यमाह --

मवाची, स शन िह िन:शि त ादी ा ा ु ािन तेषु म े थमे


िन:शि त ेऽ पे ताव तां ा तां गतोऽ चोर: ृतो िनि त: । ि तीयेऽ े
िन ाि त े ततोऽ नचोराद ान मितल तां गता मता । तृतीयेऽ े िनिविचिक े
उ ायनो ल तां गतो मत: । तुरीये चतुथऽ े अमूढ ि े रे वती ल तां गता मता ।
तत े तु य ऽ ो िजने भ े ी उपगूहने ल तां गतो मत: । ततो िजने भ ात् परो
वा रषेण: थतीकरणे ल तां गतो मत: । िव ु िव ुकुमारो जनामा च व कुमार:
शेषयोवा - भावनयोल तां गतौ मतौ । गता इित ब वचनिनदशो
ा भूतो ा ब ापे या ॥१९-२०॥

त िन:शि त ेऽ नचोरो ा तां गतोऽ कथा-

यथा- ध रिव लोमौ सुकृत कमवशादिमत भिवद् यु भदे वौ संजातौ चा ो


धमपरी णाथम ायातौ। ततो यमदि ा ां तपस ािलत:। मगधदे शे राजगृहनगरे
िजनद े ी कृतोपवास: कृ चतुद ां रा ौ शाने कायो गण थतो :।
ततोऽिमत भदे वेनो ं दू रे ित ु मदीया मुनयोऽमुं गृह थं ाना ालयेित, ततो
िवद् यु भदे वेनानेकधा कृतोपसग िप न चिलतो ानात्। तत: भाते मायामुपसं श
चाकाशगािमनी िव ा द ा त ै, किथतं च तवेयं िस ाऽ च
प नम ाराचनाराधनिविधना से तीित। सोमद पु वटु केन चैकदा िजनद े ी पृ :-
भवान् ातरे वो ाय जतीित। तेनो मकृि मचै ालयव नाभ ं कतु जािम। ममे ं
िव ालाभ: संजात इित किथते तेनो ं मम िव ां दे िह येन या सह पु ािदकं गृही ा
व नाभ ं करोमीित। तत: ेि ना त ोपदे शो द :। तेन च कृ चतुद ां शाने
वटवृ पूवशाखायाम ो रशतपादं दभिश ं ब िय ा त तले ती णसवश ा ू वमुखािन
धृ ा ग पु ािदकं द ा िश म े िव ष ोपवासेन प नम ारानु ाय छु रकयैकैकं
पादं िछ ताऽधो जा मान हरणसमूहमालो भीतेन तेन सि तं- यिद ेि नो
वचनमस ं भवित तदा मरणं भवतीित शि तमना वारं वारं चटनो रणं करोित। एत न्
ावे जापाल रा : कनकारा ीहारं ा नसु या िवलािस ा रा ावागतो नचोरो
भिणत:। यिद मे कनकारा ाहारं ददािस तदा भता ं, ना थेित। ततो ग ा रा ौ हारं
चोरिय ाऽ नचोर आग न् हारो ोतेन ातोऽ र ै: को पालै ि यमाणो हारं ा
ण गत: वटतले वटु कं ात ा ं गृही ा िन:शि तेन तेन िविधनैकवारे ण सविश ं
िछ ं श ोप र पितत: िस ा िव या भिणतं- ममादे शं दे हीित। तेनो ं- िजनद ेि पा वे मां
नयेित। तत: सुदशनमे चै ालये िजनद ा े नी ा थत:। पूववृ ा ं कथिय ा तेन भिणतं-
यथेयं िस ा भवदु पदे शेन तथा परलोकिस ाव ुपदे हीित। तत ारणमुिनसि धौ तपो गृही ा
कैलासे केवलमु ा मो ं गत:॥ १॥

िन:कां ि त ेऽन मती ा ोऽ ा: कथा।

अ दे शे च ानगया राजा वसुवधनो रा ी ल ीमती े ी ि यद ाया अ वती


पु न मती। न ी रा ां ेि ना धमकी ाचायपादमूलेऽ िदनािन चय गृहीतम्।
ीडयाऽन मती च ािहता। अ दा स दानकालेऽन म ो ं- तात! मम या चय
दािपतमत: िकं िववाहे न? ेि नो ं ीडया मया ते चय दािपतम्। ननु तात! धम ते का
ीडा? ननु पुि ! न ी रा िदना ेव तं तव न सवदा द म्। सोवाच ननु तात! तथा
भ ारकैरिववि त ािदित। इह ज िन प रणयने मम िनवृि र ी ु ा
सकलकलािव ानिश ां कुव ी थता। यौवनभरे चै े िनजो ाने आ ोलय ी िवजयाध
दि ण ेिणिक रपुरिव ाधरराजेन कु लम तना ा सुकेशीिनजभायया सह गगनतले
ग ता ा। िकमनया िवना जीिवतेनेित संिच भाया गृहे धृ ा शी माग िवलप ी तेन सा
नीता। आकाशे ग ता भाया ा भीतेन पणलघुिव ा: सम ्य महाट ां मु ा। त च तां
द ीमालो भीमना ा िभ राजेन िनजप कायां नी ा धानरा ीपदं तव ददािम
मािम े ित भिण ा रा ाविन तीं भो ुमार ा। तमाहा ेन वनदे वतया त
ताडनाद् युपसग: कृत:। दे वता कािचिदयिमित भीतेन तेनावािसतसाथपु कना : साथवाह
समिपता। साथवाहो लोभं दशिय ा प रणेतुकामो न तया वा त:। तेन चानीयायो ाया
कामसेनाकुि ा: समिपता, कथमिप वे ा न जाता। तत या िसंहराज रा ो दिशता तेन च
रा ौ हठात् सेिवतुमार । नगरदे वतया त तमाहा ेन त ोपसग: कृत:। तेन च भीतेन
गृहाि :सा रता। दती सखेदं सा कमल ी ां ितकया ािवकेित म ाऽितगौरवेण धृता।
अथान मतीशोकिव रणाथ ि यद े ी ब सहायो व नाभ ं कुव यो ायां गतो
िनज ालकिजनद ेि नो गृहे सं ासमये िव ो रा ौ पु ी हरणवाता किथतवान्। भाते
त न् व नाभ ं कतु गते अितगौरिवत ाघूणकिनिम ं रसवतीं कतु गृहे चतु ं दातुं
कुशला कमल ी ा का ािवका िजनद भायया आका रता। सा च सव कृ ा वसितकां
गता। व नाभ ं कृ ा आगतेन ि यद ेि ना चतु मालो ान मतीं ृ ा
ग रत दयेन ग िदतवचनेना ुपातं कुवता भिणतं- यया गृहम नं कृतं तां मे दशयेित। तत:
सा आनीता तयो मेलापके जाते िजनद ेि ना च महो व: कृत:। अन म ा चो ं तात!
इदानीं मे तपो दापय, मेक ेव भवे संसारवैिच िमित। तत: कमल ी ां ितकापा वे तपो
गृही ा ब ना कालेन िविधना मृ ा तदा ा सह ारक े दे वो जात: ॥२॥

िनिविचिक ते उ ायनो ा ोऽ कथा-

एकदा सौधम े ण िनजसभायां स गुणं ावणयता भरते व दे शे रौरकपुरे


उ ायनमहाराज िनिविचिक तगुण: शंिसत ं परीि तुं वासवदे व उदु रकु कुिथतं
मुिन पं िवकृ त ैव ह ेन िविधना थ ा सवमाहारं जलं च मायया भ िय ाितदु ग ं
ब वमनं कृतवान्। दु ग भया े प रजने ती तो रा े ा भाव ा उप र छिदतं,
हाहा! िव आहारो द ो मये ा ानं िन यत ं च ालयतो मायां प र कटीकृ
पूववृ ा ं कथिय ा श च तं ग गत:। उ ायनमहाराजो वधमान ािमपादमूले तपो
गृही ा मु ं गत:। भावती च तपसा ग दे वो बभूव ॥३॥

अमूढ ि े रे वती ा ोऽ कथा-

िवजयाधदि ण े ां मेघकूटे नगरे राजा च भ:। च शेखरपु ाय रा ं द ा परोपकाराथ


व नाभ थ च िकयतीिव ा दधानो दि णमथुरायां ग ा गु ाचायसमीपे ु को जात:।
तेनैकदा व नाभ थमु रमथुरायां चिलतेन गु ाचाय: पृ : िकं क क ते? भगवतो ं
सु तमुनेव ना व णराजमहारा ीरे व ा आशीवाद कथनीय:। ि पृ े नािप तेन एतावदे वो ं।
तत: ु केनो ं। भ सेनाचाय ैकादशां गधा रणोऽ ेषां च नामािप भगवन् न गृö◌ाित त
िकंिच ारणं भिव तीित स धाय त ग ा सु तमुनेभ ारकीयां व नां कथिय ा तदीयं च
िविश ं वा ं ा भ सेनवसितकां गत:। त गत च भ सेनेन स ाषणमिप न कृतम्।
कु कां गृही ा भ सेनेन सह बिहभूिमं ग ा िवकुवणया ह रतकोमलतृणाङ् कुर ो
माग ऽ े दिशत:। तं ा ‘आगमे िकलैते जीवा: क े’ इित भिण ा त ा िचं कृ ा तृणोप र
गत: शौचसमये कु कायां जलं ना तथा िवकृित ािप न तेऽतोऽ सरोवरे
श मृि कया शौचं कृतवान्। तत ं िम ा ि ं ा ा भ सेन ाभ सेननाम कृतम्।
ततोऽ न् िदने पूव ां िदिश प ासन थं चतुमुखं य ोपवीताद् युपेतं दे वासुरव मानं
पं दिशतम्। त राजादयो भ सेनादय जना गता:। रै वती तु कोऽयं नाम दे व इित
भिण ा लोकै: ेयमाणािप न गता। एवं दि ण ां िदिश ग डा ढं चतुभुजं च
गदाशङ् खािदधारकं वासुदेव पम्। पि मायां िदिश वृषभा ढं साधच जटाजूटगौरीगणोपेतं
श र पम्। उ र ां िदिश समवसरणम े ाितहाया कोपेतं
सुरनरिव ाधरमुिनवृ व मानं पय थतं तीथ रदे व पं दिशतम्। त च सवलोका गता:।
रे वती तु लोकै: ेयमाणािप न गता नवैव वासुदेवा:, एकादशैव ा:, चतुिवशितरे व तीथ रा
िजनागमे किथता:। ते चातीता: कोऽ यं मायावी ु ा थता। अ िदने चयावेलायां
ािध ीणशरीर ु क पेण रे वतीगृह तोलीसमीपमाग मायामू ्छया पितत:। रे व ा
तमाक ्य भ ो ाय नी ोपचारं कृ ा प ं कारियतुमार :। तेन च सवमाहारं भु ा
दु ग वमनं कृतम्। तदपनीय हा! िव पकं मयाऽप ं द िमित रे व ा वचनमाक ्य
तोषा ायामुपसं तां दे वीं व िय ा गुरोराशीवादं पूववृ ा ं कथिय ा लोकम े तु
अमूढ ि ं त ा उ ै: श थाने गत:। व णो राजा िशवकीितपु ाय रा ं द ा तपो
गृही ा माहे ग दे वो जात:। रे व िप तप: कृ ा ग दे वो बभूव ॥४॥

उपगूहने िजने भ ो ा ोऽ कथा-

सुरा दे शे पाटिलपु नगरे राजा यशोधरो रा ी सुसीमा पु : सुवीर:


स सनािभभूत थाभूतत रपु षसेिवत:। पूवदे शे गौडिवषये ता िल नगया
िजने भ ेि न: स तल ासादोप र ब र कोपयु पा वनाथ ितमाछ योप र
िविश तरान ्यवैडूयमिणं पार यणाक ्य लोभा ेन सुवीरे ण िनजपु षा: पृ ा: तं मिणं िकं
कोऽ ानेतुं श ोऽ ीित। इ मुकुटमिणम हमानयामीित गलगिजतं कृ ा सूयनामा चौर:
कपटे न ु को भू ा अितकाय ेशेन ामनगर ोभं कुवाण: मेण ता िल नगरीं गत:।
तमाक ्य ग ाऽलो व ा स ा श च ुिभतेन िजने भ ेि ना नी ा
पा वनाथदे वं दशिय ा मायया अिन िप स त मिणर को धृत:। एकदा ु कं पृ ा े ी
समु या ायां चिलतो नगरा िहिनग थत:। स चौर ु को गृहजनमुपकरणनयन ं ा ा
अधरा े तं मिणं गृही ा चिलत:। मिणतेजसा माग को पालै ो धतुमार :। ते :
पलाियतुमसमथ: ेि न एव शरणं िव ो मां र र ेित चो वान्। को पालानां
कलकलमाक ्य पयालो तं चौरं ा ा दशनोपहास ादनाथ भिणतं ेि ना म चनेन
र मनेनानीतिमित िव पकभव : कृतं यद महातप न ौरोद् घोषणा कृता। तत े त
वचनं माणं कृ ा गता:। स च ेि ना रा ौ िनघािटत:। एवम ेनािप स ि ना
असमथा ानपु षादागतदशनदोष ादनं क त म् ॥५॥

थितकरणे वा रषेणो ा ोऽ कथा-

मगधदे शे राजगृहनगरे राजा ेिणको रा ी चेिलनी पु ी वा रषेण: उ म ावक: चतुद ां रा ौ


कृतोपवास: साने कायो गण थत:। त ेव िदने उ ािनकायां गतया
मगधसु रीिवलािस ा ीकीित ेि ा प रिहतो िद ो हारो :। तत ं ा
िकमनेनाल ारे ण िवना जीिवतेनेित सि श ायां पित ा सा थता। रा ौ समागतेन
तदास ेन िवद् यु रे णो ं ि ये! िकमेवं थतासीित। तयो ं ीकीित ेि ा हारं यिद मे
ददािस तदा जीवािम ं च मे भता ना थेित ु ा तां समुदीय अधरा े ग ा िनजकौशलेन तं
हारं चोरिय ा िनगत:। तदु ोतेन चौरोऽयिमित ा ा गृहर कै: को पालै ि यमाणो
पलाियतुमसमथ वा रषेणकुमार ा े तं हारं धृ ाऽ ो भू ा थत: को पालै तं तथालो
ेिणक किथतं दे व! वा रषेण चौर इित। तं ु ा तेनो ं मूख ा म कं गृ तािमित।
मात े न योऽिस: िशरो हणाथ बािहत: स कठे त पु माला बभूव। तमितशयमाक ्य
ेिणकेन ग ा वा रषेण: मां का रत:। ल ाभय दानेन िवद् यु रचौरे ण रा ो िनजवृ ा े
किथते वा रषेणो गृहे नेतुमार :। तेन चो ं मया पािणपा े भो िमित। ततोऽसौ
सूरसेनमुिनसमीपे मुिनरभूत। एकदा राजगृहसमीपे पलाशकूट ामे चयायां स िव :। त
ेिणक योऽि भूितमं ी त ु ेण पु डालेन थािपतं, चया कारिय ा स सोिम ां िनजभाया
पृ ा भुपु ाद् बालस ख ा ोकं मागानु जनं कतु वा रषेणेन सह िनगत:। आ नो
ाघुटनाथ ीरवृ ािदकं दशयन् मु मु व नां कुवन् ह े धृ ा नीतो िविश धम वणं कृ ा
वैरा ं नी ा तपो ािहतोऽिप सोिम ां न िव रित। तौ ाविप ादशवषािण तीथया ायां
कृ ा वधमान ािमसमवसरणं गतौ। त वधमान ािमन: पृिथ ा स गीतं दे वैग यमानं
पु डालेन ुतम्। यथा-

'मइलकुचेली दु नी निहं पिविसएण

कह जीवेसइ धिणय, घर उ ंते िहयएण॥'

एतदा न: सोिम ाया संयो उ त िलत:। स वा रषेणेन ा ा थरीकरणाथ


िनजनगरं नीतम्। चेिल ा तौ ा वा रषेण: िकं चा र ा िलत: आग तीित सि
परी णाथ सरागवीतरागे े आसने द े। वीतरागासने वा रषेणेनोपिव ो ं
मदीयम :पुरमानीयताम्। तत ेिल ा महादे ा ाि ंश ाया: साल ारा आनीता:। तत:
पु डालो वा रषेणेन भिणत: यो मदीयं युवराजपदं च ं गृहाण। त ु ा पु डालो अतीव
ल त: परं वैरा ं गत:। परमाथन तप: कतु ल इित ॥६॥

वा े िव ुकुमारो ा ोऽ कथा-

अव दे शे उ िय ां ीवमा राजा, त बिलबृह ित: ादो नमुिच ेित च ारो म ण:।


त ैकदा सम ुताधारो िद ानी स शतमुिनसम तोऽक नाचाय आग ो ानके
थत:। सम संघ वा रत: राजािदकेऽ ागते केनािप ज नं न कत म था सम संघ
नाशो भिव तीित। रा ा च धवलगृहा थतेन पूजाह ं नगरीजनं ग ं ा म ण: पृ ा:
ायं लोकोऽकालया ायां ग तीित। तै ं पणका बहवो बिह ाने आयाता ायं जनो
याित। वयमिप तान् टुं ग ाम इित भिण ा राजािप त म सम तो गत:। ेके सव
व ता:। न च केनािप आशीवादो द :। िद ानु ानेनाितिन ृहा ीित सि ाघुिटते
राि म िभदु ािभ ायै पहास: कृत:। बलीवदा एते न िकि दिप जान , मूखा: द मौनेन
थता:। एवं ुवाणैग र े चया कृ ा ुतसागरमुिनमाग मालो ो ं ‘अयं
त णबलीवद: पूणकुि राग ित’। एतदाक ्य तेन ते राजागे्रऽनेका वादे न िजता:।
अक नाचाय चाग वाता किथता। तेनो ं सवसंघ या मा रत: यिद वाद थाने ग ा रा ौ
ेकाकी ित िस तदा संघ जीिवत ं, तव शु भवित। ततोऽसौ त ग ा कायो गण
थत:। म िभ ाितल तै: ु ै : रा ौ संघं मारियतुं ग मेकं मुिनमालो येन
प रभव: कृत: स एव ह इित पयालो त धाथ युगप तुिभ: खड् गा उद् गूणा।
क तनगरदे वतया तथैव ते कीिलता:। भाते तथैव ते सवलोकै ा:। ेन रा ा मागता
इित न मा रता गदभारोहणािदकं कारिय ा दे शाि घािटता। अथ कु जा लदे शे ह नागपुरे
राजा महाप ो रा ी ल ीमती पु ौ प ो िव ु । स एकदा प ाय रा ं द ा महाप ो
िव ुना सह ुतसागर च ाचाय समीपे मुिनजात:। ते च बिल भृतय आग प राज
म णो जाता:। कु पुरदु ग च िसंहबलो राजा दु गबलात् प म ल ोप वं करोित।
त हणिच या प ं दु बलमालो बिलनो ं िकं दे व! दौब े कारणिमित। किथतं च रा ा।
त ा आदे शं याचिय ा त ग ा बु माहा ेन दु ग भं ा िसंहबलं गृही ा ाघु ागत:।
तेन प ासौ समिपत:। दे व! सोऽयं िसंहबल इित। तु ेन तेनो ं वा तं वरं ाथयेित।
बिलनो ं यदा ाथिय ािम तदा दीयतािमित। अथ कितपयिदनेषु िवहर ेऽक नाचायादय:
स शतयतय ागता:। पुर ोभाद् बिल भृितिभ ान् प र ाय राजा एत इित पयालो
भया ारणाथ प : पूववरं ािथत: स िदना ाकं रा ं दे हीित। ततोऽसौ स िदनािन
रा ं द ाऽ :पुरे िव थत:। बिलना च आतापनिगरौ कायो गण थतान् मुनीन्
वृ ावे म पं कृ ा य : कतुमार :। उ सराब ागािदजीवकलेवरै धूमै मुनीनां
मारणाथमुपसग: कृत:। मुनय ि िवधसं ासेन थता:। अथ िमिथलानगयामधरा े
बिहिविनगत ुतसागरच ाचायण आकाशे वणन ं क मानमालो ाविध ानेन ा ा
भिणतं महामुनीनां महानुपसग वतते। त ा पु धरना ा िव ाधर ु केन पृ ं भगवन्!
केषां मुनीनां महानुपसग वतते? ह नागपुरे अक नाचायादीनां स शतयतीनाम् उपसग:
कथं न ित? धरिणभूषणिगरौ िव ुकुमारमुिनिवि य ् िधस ित स नाशयित।
एतदाक ्य त मीपे ग ा ु केन िव ुकुमार सव न् वृ ा े किथते मम िकं िवि या
ऋ र ीित सि त री ाथ ह : सा रत:। स िग रं िभ ा दू रे गत:। तत ां िनण य त
ग ा प राजो भिणत:। िकं या मुिननामुपसग: का रत:। भव ु ले केनापी शं न कृतम्।
तेनो ं िकं करोिम मया पूवम वरो द इित। ततो िव ुकुमारमुिनना वामन ा ण पं धृ ा
िद िनना ा यनं कृतम्। बिलनो ं िकं तु ं दीयते। तेनो ं भूमे: पाद यं दे िह।
िहल ा ण ब तरम त् ाथयेित वारं वारं लोकैभ मानोऽिप तावदे व याचते। तता
ह ोदकािदिविधना भूिमपाद ये द े तेनैकपादो मेरौ द ो ि तीयो मानुषो रिगरौ तृतीयपादे न
दे विवमानादीनां ोभं कृ ा बिलपृ े तं पादं द ा बिलं बद् ा मुनीनामुपसग िनवा रत:। तत े
च ारोऽिप म ण: प भयादाग िव ुकुमारमुनेरक नाचायादीनां च पादे षु ल ा:। ते
म ण: ावका जाता इित ॥७॥

भावनायां व कुमारो ा ोऽ कथा-

ह नागपुरे बलराज पुरोिहतो ग ड ु : सोमद : तेन सकलशा ािण पिठ ा


अिह पुरे िनजमामसुभूितपा वे ग ा भिणतं- माम! मां दु मुखराज दशयेत्। न च गिवतेन
तेन दिशत:। ततो िहलो भू ा सभायां यमेव तं ा आशीवादं द ा सवशा कुशल ं
का म पदं ल वान्। तं तथाभूतमालो सुभूितमामो य द ां पु ीं प रणेतुं द वान्।
एकदा त ा गिभ ा वषाकाले आ फलभ णे दोहलको जात:। तत: सोमद ेन ता ु ानवने
अ ेषयता य ा वृ े सुिम ाचाय योगं गृहीतवां ं नानाफलै: फिलतं ा त ा ा ादाय
पु षह े ेिषतवान्। यं च धम ु ा िनिव पो गृही ा आगममधी प रणतो भू ा
नािभिगरौ आतपनेन थत:। य द ा च पु ं सूता तं वृ ा ं ु ा बंधुसमीपगता। त शु ं
ा ा धृ ा दु वचनािन द ा गृहं गता। अ ावे िदवाकरदे वनामा िव ाधरोऽमरावतीपुया:
पुर रना ा लघु ा ा रा ाि घािटत:। सकल ो मुिनं व तुमायात:। तं बालं गृही ा
िनजभायाया: सम ्य व कुमार इित नाम कृ ा गत:। स च व कुमार: कनकनगरे
िवमलवाहनिनजमैथुिनकसमीपे सविव ापारगो युवा च मेण जात:। अथ ग डवेगा व ो:
पु ी पवनवेगा हे म पवते ं िव ां महा मेण साधय ी पवनाक त बदरीव क केन
लोचने िव ा। तत ीडया चलिच ाया िव ा न िस यित। ततो व कुमारे ण च तां तथा ा
िव ानेन क क उद् धृत:। तत: थरिच ाया ा िव ा िस ा। उ ं च तया भव सादे न एव
िव ा िस ा, मेव मे भ ते ु ा प रणीत:। व कुमारे णो ं तात! अहं क पु इित स ं
कथय, त न् किथते मे भोजनादौ वृि रित। तत ेन पूववृ ा : सव: स एव किथत:।
तमाक ्य िनजगु ं टुं ब ुिभ: सह मथुरायां ि यगुहायां गत:। त च
सोमद गुरोिदवाकरदे वेन व नां कृ ा वृ ा : किथत:। सम ब ून महता क ेन िवसृ
व कुमारो मुिनजात:। अ ा रे मथुरायाम ा कथा- राजा पूितग ो रा ी उिवला। सा च
स ि रतीव िजनधम भावनायां रता। न ी रा िदनािन ितवष िजने रथया ां ीन् वारान्
कारयित। त ैव नगया े ी सागरद : ेि नी समु द ा पु ी द र ा। मृते सागरद े द र ा
परगृहे िनि िस ािन भ य ी चया िव ेन मुिन येन ा ततो लघुमुिननो ं ‘हा! वराकी
महता क ेन जीवतीित।’ तदाक ्य े मुिननो ं अ ैवा रा : प रा ी व भा
भिव तीित। िभ ां मता धम ी व केन त चनमाक ्य ना था मुिनभािषतिमित सि
िवहारे तां नी ा मृ ाहारै : पोिषता। एकदा यौवनभरे चै मासे आ ोलय ीं तां ा राजा
अतीव िवरहाव थां गत:। ततो म िभ ां तदथ व को यािचत:। तेनो ं यिद मदीयं धम राजा
गृित तदा ददामीित। त व कृ ा प रणीता। प महादे वी त साितव भा जाता।
फा ुनन ी र या ायामुिवला रथया ा महारोपं ा तया भिणतं दे व! मदीयो बु रथोऽधुना
पुया थमं मतु। रा ा चो मेवं भव ित। तत उिवला वदित ‘मदीयो रथो यिद थमं मित
तदाहारे मम वृि र था िनवृि रित’ ित ां गृही ा ि यगुहायां सोमद ाचायपा वे गता।
त न् ावे व कुमारमुनेव नाभ थमायाता िदवाकरदे वादयो िव ाधरा दीयवृ ा ं च
ु ा व कुमारमुिनना ते भिणता:। उिवलाया: ित ा ढाया रथया ा भव : कत ेित।
तत ैबु दासी रथं भं ा नानािवभू ा उिवलाया रथया ा का रता। तमितशयं ा ितबु ा
बु दासी अ े च जना िजनधमरता जाता इित ॥२०॥
आिदमित :

स शन िन:शि तािद आठ अ ों से यु ह, उन आठ अ ों म से पहले िन:शि त अ म


अ नचोर का ा िनि त िकया गया है । दू सरे िन:काि त अ म अन मती रानी, तीसरे
िनिविचिक ाअ म उ ायनराजा, चौथे अमूढ ि अ म रे वती रानी, पाँ चव उपगूहनअ म
िजने भ सेठ, छठे थतीकरणअ म वा रषेण, सातव वा अ म िव ुकुमारमुिन
और आठव भावनाअ म व कुमार मुिन िस को ा ए ह।

अ न चोर की कथा

ध र और िव लोमा पु कम के भाव से अिमत भ और िवद् यु भ नाम के दे व ए और


एक-दू सरे के धम की परी ा करने हे तु पृिथवीलोक पर आये। तदन र उ ोंने यमदि ऋिष
को तप से िवचिलत िकया। मगधदे श के राजगृह नगर म िजनद नाम का सेठ उपवास का
िनयम लेकर कृ प की चतुदशी की राि को शान म कायो ग से थत था। उसे
दे खकर अिमत भ दे व ने िवद् यु भ से कहा िक हमारे मुिन तो दू र रह, इस गृह थ को ही तुम
ान से िवचिलत कर दो। तदन र िवद् यु भ दे व ने उस पर अनेक कार के उपसग िकये,
िफर भी वह ान से िवचिलत नहीं आ। तदन र ात:काल अपनी माया को समेटकर
िवद् यु भ ने उसकी ब त शंसा की और उसे आकाशगािमनी िव ा दी। िव ा दान करते
समय उससे कहा िक तु यह िव ा िस हो चुकी है , दू सरे के िलए प नम ार म की
अचना और आराधना िविध से िस होगी। िजनद के यहाँ सोमद नाम का एक चारी वटु
रहता था, जो िजनद के िलए फूल लाकर दे ता था। एक िदन उसने िजनद सेठ से पूछा िक
आप ात:काल ही उठकर कहाँ जाते ह? सेठ ने कहा िक म अकृि म चै ालयों की व ना
भ करने के िलए जाता ँ । मुझे इस कार से आकाशगािमनी िव ा का लाभ आ है , सेठ
के ऐसा कहने पर सोमद वटु ने कहा िक मुझे भी यह िव ा दो, िजससे म भी तु ारे साथ
पु ािदक लेकर व ना भ क ं गा। तदन र सेठ ने उसके िलए िव ा िस करने की
िविध बतलाई।

सोमद वटु ने कृ प की चतुदशी की राि को सान म वटवृ की पूव िदशा वाली


शाखा पर एक सौ आठ र यों का मूंज का एक सींका बां धा। उसके नीचे सब कार के पैने
श ऊपर की ओर मुख कर रखे। प ात् ग , पु आिद लेकर सींके के बीच िव हो उसने
बेला (दो िदन के उपवास) का िनयम िलया। िफर प नम ार म का उ ारण कर छु री से
सींके की एक-एक र ी को काटने के िलए तैयार आ। पर ु नीचे चमकते ए श ों के
समूह को दे खकर वह डर गया तथा िवचार करने लगा िक यिद सेठ के वचन अस ए तो
मरण हो जाएगा। इस कार शंिकत िच होकर वह सींके पर बार-बार चढऩे और उतरने
लगा।

उसी समय, राजगृही नगरी म एक अ नसु री नाम की वे ा रहती थी। एक िदन उसने
कनक भ राजा की की कनका रानी का हार दे खा। राि को जब अ न चोर उस वे ा के
यहाँ गया तब उसने कहा िक यिद तुम मुझे कनका रानी का हार लाकर दे सकते हो तो मेरे
भ ता बन सकते हो, अ था नहीं। तदन र अ न चोर राि म हार चुराकर आ रहा था िक
हार के काश से वह जान िलया गया। अ र कों और कोटपाल ने उसे पकडऩा चाहा, पर ु
वह हार छोडक़र भाग गया। वटवृ के नीचे सोमद वटु क को दे खकर उसने उससे सब
समाचार पूछे तथा उससे म लेकर वह सींके पर चढ़ गया। उसने िन:शंिकत होकर उस िविध
से एक ही बार म सींके की सब र याँ काट दीं। ों ही वह श ों के ऊपर िगरने लगा ों
ही िव ा िस हो गई। िस ई िव ा ने उससे कहा िक मुझे आ ा दो। अ न चोर ने कहा िक
मुझे िजनद सेठ के पास ले चलो। उस समय िजनद सेठ सुदशन-मे के चै ालय म थत
था। िव ा ने अ न चोर को ले जाकर सेठ के आगे खड़ा कर िदया। अपना िपछला वृ ा
कहकर अ न चोर ने सेठ से कहा िक आपके उपदे श से मुझे िजस कार यह िव ा िस ई
है , उसी कार परलोक की िस के िलए भी आप मुझे उपदे श दीिजए। तदन र चारण
ऋ धारी मुिनराज के पास दी ा लेकर उसने कैलाश पवत पर तप िकया और केवल ान
ा कर वहीं से मो ा िकया।

अन मती की कथा

अ दे श की च ानगरी म राजा वसुवधन रहते थे। उनकी रानी का नाम ल ीमती था।
ि यद नाम का सेठ था, उसकी ी का नाम अ वती था और दोनों के अन मती नाम की
एक पु ी थी। एक बार न ी र-अ ाि का पव की अ मी के िदन सेठ ने धमकीित आचाय के
पादमूल म आठ िदन तक का चय त िलया। सेठ ने ीडावश अन मती को भी चय
त िदला िदया।

अ समय जब अन मती के िववाह का अवसर आया, तब उसने कहा िक िपताजी! आपने


तो मुझे चय त िदलाया था, इसिलए िववाह से ा योजन है ? सेठ ने कहा- मने तो तुझे
ीडावश चय िदलाया था। अन मती ने कहा िक त प धम के िवषय म ीड़ा ा
व ु है ? सेठ ने कहा- पुि ! न ी र पव के आठ िदन के िलए ही तुझे चय त िदलाया था,
न िक सदा के िलए। अन मती ने कहा िक िपताजी! भ ारक महाराज ने तो वैसा नहीं कहा
था। इस ज म मेरे िववाह करने का ाग है । ऐसा कहकर वह सम कलाओं के िव ान की
िश ा लेती ई रहने लगी।

एक बार जब वह पूण यौवनवती हो गई तब चै मास म अपने घर के उ ान म झूला झूल रही


थी। उसी समय िवजयाध पवत की दि ण ेणी म थत िक रपुर नगर म रहने वाला
कु लम त नामक िव ाधरों का राजा अपनी सुकेशी नामक ी के साथ आकाश म जा
रहा था। उसने अन मती को दे खा। दे खते ही वह िवचार करने लगा िक इसके िबना जीिवत
रहने से ा योजन है ? ऐसा िवचार कर वह अपनी ी को तो घर छोड़ आया और शी ही
आकर िवलाप करती ई अन मती को हरण करके ले गया। जब वह आकाश म जा रहा था
तब उसने अपनी ी सुकेशी को वापस आते दे खा। दे खते ही वह भयभीत हो गया और उसने
पणलघु िव ा दे कर अन मती को महाअटवी म छोड़ िदया। वहाँ उसे रोती दे ख भीम नाम
भीलों का राजा अपनी वसितका म ले गया और 'म तु े धान रानी का पद दे ता ँ , तुम मुझे
चाहो' ऐसा कहकर राि के समय उसके न चाहने पर भी उपभोग करने को उ त आ। त
के माहा से वनदे वता ने भीलों के उस राजा की अ ी िपटाई की। यह कोई दे वी है , ऐसा
समझकर भीलों का राजा डर गया और उसने वह अन मती ब त से बिनजारों के साथ ठहरे
ए पु क नामक मुख बिनजारे के िलए दे दी। मुख बिनजारे ने लोभ िदखाकर िववाह करने
की इ ा की, पर ु अन मती ने उसे ीकृत नहीं िकया। तदन र वह बिनजारा उसे लाकर
अयो ा की कामसेना नाम की वे ा को सौंप गया। कामसेना ने उसे वे ा बनाना चाहा, पर
वह िकसी भी तरह वे ा नहीं ई। तदन र उस वे ा ने िसंहाराज नामक राजा के िलए वह
अन मती िदखाई और वह राजा राि म उसे बलपूवक सेवन करने के िलए उ त आ, पर ु
उसके त के माहा से नगरदे वता ने राजा पर उपवास िकया, िजससे डरकर उसने उसे घर
से िनकाल िदया।
खेद के कारण अन मती रोती ई बैठी थी िक कमल ी नाम की आियका ने 'यह ािवका है '
ऐसा मानकर बड़े स ान के साथ उसे अपने पास रख िलख। तदन र अन मती का शोक
भुलाने के िलए ि यद सेठ ब त से लोगों के साथ व नाभ करता आ अयो ा गया और
अपने साले िजनद सेठ के घर सं ा के समय प ँ चा। वहाँ उसने राि के समय पु ी के हरण
का समाचार कहा। ात:काल होने पर सेठ ि यद तो व ना-भ करने के िलए गये। इधर
िजनद सेठ की ी ने अ गौरवशाली पा ने के िनिम उ म भोजन बनाने और घर म
चौक पूरने के िलए कमल ी आियका की ािवका बुलाया। वह ािवका सब काम करके
अपनी वसितका म चली गई। व ना-भ करके जब ि यद सेठ वािपस आये, तब चौक
दे खकर उ अन मती का रण हो आया। उनके दय पर गहरी चोट लगी। ग द वचनों से
अ ुपात करते ए उ ोंने कहा िक िजसने यह चौक पूरा है , उसे मुझे िदखलाओ। तदन र
वह ािवका बुलायी गई। िपता और पु ी का मेल होने पर िजनद सेठ ने ब त भारी उ व
िकया। अन मती ने कहा िक िपताजी! अब मुझे तप िदला दो। मने एक ही भव म संसार की
िविच ता दे ख ली है । तदन र कमल ी आियका के पास दी ा लेकर उसने ब त काल तप
िकया। अ म सं ासपूवक मरण कर उसकी आ ा सह ार ग म दे व ई।

उ ायन राजा की कथा

एक बार अपनी सभा म स शन के गुणों का वणन करते ए सौधम ने व दे श के


रौरकपुर नगर के राजा उ ायन महाराज के िनिविचिक त गुण की ब त शंसा की। उसकी
परी ा करने के िलए एक वासव नाम का दे व आया। उसने िवि या से एक ऐसे मुिन का प
बनाया, िजसका शरीर उदु र कु से गिलत हो रहा था। उस मुिन ने िविधपूवक खड़े होकर
उसी राजा उ ायन के हाथ से िदया आ सम आहार और जल माया से हण िकया। प ात्
अ दु ग त वमन कर िदया। दु ग के भय से प रवार के सब लोग भाग गये, पर ु राजा
उ ायन अपनी रानी भावती के साथ मुिन की प रचया करता रहा। मुिन ने उन दोनों पर भी
वमन कर िदया। 'हाय! हाय! मेरे ारा िव आहार िदया गया है , इस कार अपनी िन ा
करते ए राजा ने मुिन का ालन िकया। अ म, दे व अपनी माया को समेटकर असली प
म कट आ और पहले का सब समाचार कहकर तथा राजा की शंसा कर ग चला गया।
उ ायन महाराज वधमान ामी के पादमूल म तप हण कर मो गये और रानी भावती तप
के भाव से ग म दे व ई।

रे वती रानी की कथा

िवजयाध पवत की दि ण ेिणस ी मेघकूट नगर का राजा च भ अपने च शेखर पु


के िलए रा दे कर, परोपकार तथा व ना भ के िलए कुछ िव ाओं को धारण करता आ
दि ण मथुरा गया और वहाँ गु ाचाय के समीप ु क हो गया। एक समय वह ु क,
व ना-भ के िलए उ र मथुरा की ओर जाने लगा। जाते समय उसने गु ाचाय से पूछा िक
ा िकसी से कुछ कहना है ? भगवान् गु ाचाय ने कहा िक सु तमुिन को व ना और
व णराजा की महारानी के िलए आशीवाद कहना। ु क ने तीन बार पूछा िफर भी उ ोंने
इतना ही कहा। तदन र ु क ने कहा िक वहाँ ारह अंग के धारक भ सेनाचाय तथा
अ धमा ा लोग भी रहते ह, उनका आप नाम भी नहीं लेते ह। उसम कुछ कारण अव
होगा, ऐसा िवचार कर ु क उ र मथुरा गया। वहाँ जाकर उसने सु तमुिन के िलए भ ारक
की व ना कही। सु तमुिन ने परम वा भाव िदखलाया। उसे दे खकर वह भ सेन की
वसितका म गया। ु क के वहाँ प ँ चने पर भ सेन ने उससे स ाषण भी नहीं िकया।
भ सेन शौच के िलए बाहर जा रहे थे, सो ु क उनका कम लु लेकर उनके साथ
बा भूिम गया और िवि या से उसने आगे ऐसा माग िदखाया जो िक हरे -हरे कोमल तृणों के
अङ् कुरों से आ ािदत था। उस माग को दे खकर ु क ने कहा भी िक आगम म ये सब
जीव कहे गये ह। भ सेन आगम पर अ िच-अ ा िदखाते ए तृणों पर चले गये। ु क ने
िवि या से कम लु का पानी सुखा िदया। जब शु का समय आया, तब कम लु म पानी
नहीं है तथा कहीं कोई िवि या भी नहीं िदखाई दे ती है , यह दे ख वे आ य म पड़ गये।
तदन र उ ोंने सरोवर म उ म िम ी से शु की। इन सब ि याओं से उ
िम ा ि जानकर ु क ने भ सेन का अभ सेन नाम रख िदया ।

तदन र दू सरे िदन ु क ने पूव िदशा म प ासन पर थत चार मुखों सिहत य ोपवीत
आिद से यु तथा दे व और दानवों से व त ा का प िदखाया। राजा तथा भ सेन आिद
लोग वहाँ गये, पर ु रे वती रानी लोगों से े रत होने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती रही िक
यह नाम का दे व कौन है ? इसी कार दि ण िदशा म उसने ग ड़ के ऊपर आ ढ़, चार
भुजाओं सिहत तथा गदा शंख आिद के धारक नारायण का प िदखाया। पि म िदशा म
उसने बैल पर आ ढ़ तथा अधच जटाजूट पावती और गणों से सिहत श र का प
िदखाया। उ र िदशा म उसने समवसरण के म म आठ ाितहाय सिहत सुरनर, िव ाधर
और मुिनयों के समूह से व मान पय ासन सिहत तीथ र दे व का प िदखाया। वहाँ सब
लोग गये, पर ु रे वती रानी लोगों के ारा ेरणा की जाने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती
रही िक नारायण नौ होते हं ◌ै, ारह ही होते ह और तीथ र चौबीस ही होते ह, ऐसा
िजनागम म कहा गया है । और वे सब हो चुके ह। यह तो कोई मायावी है । दू सरे िदन चया के
समय उसने एक ऐसे ु क का प बनाया, िजसका शरीर बीमारी से ीण हो गया था।
रे वती रानी ने जब यह समाचार सुना, तब वह भ पूवक उसे उठाकर ले गयी। उसका
उपचार िकया और प कराने के िलए उ त ई। उस ु क ने सब आहार कर दु ग से
यु वमन िकया। रानी ने वमन को दू र कर कहा िक 'हाय मने कृित के िव अप
आहार िदया।' रे वती रानी के उ वचन सुनकर ु क ने स ोष से सब माया को संकोच
कर उसे गु ाचाय को परो व ना कराकर, उनका आशीवाद कहा और लोगों के बीच
उसकी अमूढ ि ता की खूब शंसा की। यह सब कर ु क अपने थान पर चला गया।
राजा व ण िशवकीित पु के िलए रा दे कर तथा तप हण कर माहे ग म दे व आ
तथा रे वती रानी भी तप कर ग म दे व ई।

िजने भ सेठ की कथा


सुरा दे श के पाटिलपु नगर म राजा यशोधर रहता था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था।
उन दोनों के सुवीर नाम का पु था। सुवीर स सनों से अिभभूत था तथा ऐसे ही चोर पु ष
उसकी सेवा करते थे। उसने कानों कान सुना िक पूव गौड दे श की ता िल नगरी म
िजने भ सेठ के सात ख वाले महल के ऊपर अनेक र कों से यु ी पा वनाथ
भगवान् की ितमा पर जो छ य लगा है , उस पर एक िवशेष कार की अमू वैडूयमिण
लगा आ है । लोभवश उस सुवीर ने अपने सािथयों से पूछा िक ा कोई उस मिण को लाने म
समथ है ? सूय नामक चोर ने गला फाडक़र कहा िक यह तो ा है , म इ के मुकुट का मिण
भी ला सकता ँ । इतना कहकर वह कपट से ु क बन गया और अ िधक काय ेश से
ाम तथा नगरों म ोभ करता आ म से ता िल नगरी प ँ च गया। शंसा से ोभ को
ा ए िजने भ सेठ ने जब सुना तब वह जाकर दशन कर व ना कर तथा वातालाप
कर उस ु क को अपने घर ले आया। उसने पा वनाथ दे व के उसे दशन कराये और माया
से न चाहते ए भी उसे मिण का र क बनाकर वहीं रख िलया।

एक िदन ु क से पूछकर सेठ समु या ा के िलए चला और नगर से बाहर िनकलकर ठहर
गया। वह चोर ु क घर के लोगों को सामान ले जाने म जानकर आधी रात के समय
उस मिण को लेकर चलता बना। मिण के तेज से माग म कोतवालों ने उसे दे ख िलया और
पकडऩे के िलए उसका पीछा िकया। कोतवालों से बचकर भागने म असमथ आ वह चोर
ु क सेठ की ही शरण म जाकर कहने लगा िक मेरी र ा करो, र ा करो। कोतवालों का
कलकल श सुनकर तथा पूवापर िवचार कर सेठ ने जान िलया िक यह चोर है , पर ु धम को
उपहास से बचाने के िलए उसने कहा िक यह मेरे कहने से ही र लाया है , आप लोगों ने अ ा
नहीं िकया, जो इस महातप ी को चोर घोिषत िकया। तदन र सेठ के वचन को माण
मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे राि के समय िनकाल िदया। इसी कार अ
स ि को भी असमथ और अ ानी जनों से आये ए धम के दोष का आ ादन करना
चािहए।

वा रषेण की कथा

मगधदे श के राजगृह नगर म राजा ेिणक रहता था। उसकी रानी का नाम चेिलनी था। उन
दोनों के वा रषेण नाम का पु था। वा रषेण उ म ावक था। एक बार वह उपवास धारण कर
चतुदशी की राि म सान म कायो ग से खड़ा था। उसी िदन बगीचे म गयी ई
मगधसु री नामक वे ा ने ीकीित सेठानी के ारा पहना आ हार दे खा। तदन र उस हार
को दे खकर 'इस आभूषण के िबना मुझे जीवन से ा योजन है ' ऐसा िवचार कर वह श ा
पर पड़ गयी। उस वे ा म आस िवद् यु र चोर जब राि के समय उसके घर आया तब
उसे श ा पर पड़ी दे ख बोला िक ि य तरह ों पड़ी हो? वे ा ने कहा िक 'यिद ीकीित
सेठानी का हार मुझे दे ते हो तो म जीिवत र ं गी और तुम मेरे पित होओगे अ था नहीं।' वे ा
के ऐसे वचन सुनकर तथा उसे आ ासन दे कर िवद् यु र चोर आधी रात के समय ीकीित
सेठानी के घर गया और अपनी चतुराई से हार चुराकर बाहर िनकल आया। हार के काश से
'यह चोर है ' ऐसा जानकर गृह के र कों तथा कोतवालों ने उसे पकडऩा चाहा। जब वह चोर
भागने म असमथ हो गया तब वा रषेणकुमार के आगे उस हार को डालकर िछपकर बैठ गया।
कोतवाल ने उस हार को वा रषेण के आगे पड़ा दे खकर राजा ेिणक से कह िदया िक 'राजन्!
वा रषेण चोर है ।' यह सुनकर राजा ने कहा िक इस मूख का म क छे दकर लाओ। चा ाल ने
वा रषेण का म क काटने के िलए जो तलवार चलाई तो वह उसके गले म फूलों की माला बन
गयी। उस अितशय को सुनकर राजा ेिणक ने जाकर वा रषेण से मा मां गी। िवद् यु र चोर
ने अभयदान पाकर राजा से जब अपना सब वृ ा कहा तब वह वा रषेण को घर ले जाने के
िलए उ त आ। पर ु वा रषेण ने कहा िक अब तो म पािणपा म भोजन क ं गा अथात्
िदग र मुिन बनूंगा। तदन र वह सूरसेन गु के समीप मुिन हो गया। एक समय वा रषेण
मुिन राजगृह के समीपवत पलाशकूट ाम म चया के िलए िव ए। वहाँ राजा ेिणक के
अि भूित म ी के पु पु डाल ने उ पडग़ाहा। चया कराने के बाद वह अपनी सोिम ा
नामक ी से पूछकर ामी का पु तथा बा काल का िम होने के कारण कुछ दू र भेजने
के िलए वा रषेण के साथ चला गया। अपने लौटने के अिभ ाय से वह ीरवृ आिद को
िदखाता तथ बार-बार मुिन को व ना करता था। पर ु मुिन हाथ पकडक़र उसे साथ ले गये
और धम का िविश उपदे श सुनाकर तथा वैरा उपजाकर उ ोंने उसे तप हण करा िदया।
तप धारण करने पर भी वह सोिम ा ी को नहीं भूलता था।

पु डाल और वा रषेण दोनों ही मुिन बारह वष तक तीथया ा कर भगवान् वधमान ामी के


समवसरण म प ँ चे। वहाँ वधमान ामी और पृ ी से स रखने वाला एक गीत दे वों के
ारा गाया जा रहा था। उसे पु डाल ने सुना। गीत का भाव यह था िक जब पित वास को
जाता है तब ी ख िच होकर मैली कुचैली रहती है । पर ु जब वह घर छोडक़र ही चल
दे ता है , तब वह कैसे जीिवत रह सकती है ?

पु डाल ने यह गीत अपने तथा सोिम ा के स म लगा िलया इसिलए वह उ त


होकर चलने लगा। वा रषेण मुिन यह जानकर उसका थतीकरण करने के िलए उसे अपने
नगर ले गये। चेिलनी ने उन दोनों मुिनयों को दे खकर िवचार िकया िक वा रषेण ा चा र से
िवचिलत होकर आ रहा है ? परी ा करने के िलए उसने दो आसन िदये- एक सराग और दू सरा
वीतराग। वा रषेण ने वीतराग आसन पर बैठते ए कहा िक हमारा अ :पुर बुलाया जावे।
महारानी चेिलनी ने आभूषणों से सजी ई उसकी ब ीस याँ बुलाकर खड़ी कर दीं।
तदन र वा रषेण ने पु डाल से कहा िक 'ये याँ और मेरा युवराज पद तुम हण करो।'
यह सुनकर पु डाल अ ल त होता आ उ ृ वैरा को ा आ तथा परमाथ से
तप करने लगा।

िव ुकुमार मुिन की कथा

अव दे श की उ ियनी नगरी म ीवमा राजा रा करता था। उसके बिल, बृह ित, ाद
और नमुिच ये चार म ी थे। यहाँ एक समय शा ों के आधार, िद ानी तथा सात सौ मुिनयों
से सिहत अक नाचाय आकर उ ान म ठहर गये। अक नाचाय ने सम संघ को मना कर
िदया था िक राजािदक के आने पर िकसी के साथ वातालाप न िकया जावे, अ था सम संघ
का नाश हो जावेगा।

राजा अपने धवलगृह म बैठा था। वहाँ से उसने पूजा की साम ी हाथ म लेकर जाते ए
नाग रकों को दे खकर म यों से पूछा िक ये लोग कहाँ जा रहे ह, यह या ा का समय तो है
नहीं? म यों ने कहा िक नगर के बाहर उ ान म ब त से न साधु आये ह, ये लोग वहीं जा
रहे ह। राजा ने कहा िक हम भी उ दे खने के िलए चलते ह। ऐसा कहकर राजा म यों
सिहत वहाँ गया। एक-एक कर सम मुिनयों की व ना राजा ने की, पर ु िकसी ने भी
आशीवाद नहीं िदया। िद अनु ान के कारण ये साधु अ िन: ृह ह, ऐसा िवचार कर जब
राजा लौटा तो खोटा अिभ ाय रखने वाले म यों ने यह कहकर उन मुिनयों का उपहास िकया
िक ये बैल ह, कुछ भी नहीं जानते ह, मूख ह, इसिलए छल से मौन लेकर बैठे ह। ऐसा कहते
ए म ी राजा के साथ जा रहे थे िक उ ोंने आगे चया कर आते ए ुतसागर मुिन को दे खा।
दे खकर कहा िक 'यह त ण बैल पेट भरकर आ रहा है ।' यह सुनकर उन मुिन ने राजा के
म यों से शा ाथ कर उ हरा िदया। वािपस आकर मुिन ने ये सब समाचार अक नाचाय
से कहे । अक नाचाय ने कहा िक तुमने सम संघ को मरवा िदया। यिद शा ाथ के थान
पर जाकर तुम राि को अकेले खड़े रहते हो तो संघ जीिवत रह सकता है और तु ारे अपराध
की शु हो सकती है । तदन र ुतसागर मुिन वहाँ जाकर कायो ग से थत हो गये।

अ ल त और ोध से भरे ए म ी राजा म सम संघ को मारने के िलए जा रहे थे िक


उ ोंने माग म कायो ग से खड़े ए उन मुिन को दे खकर िवचार िकया िक िजसने हम लोगों
का पराभव िकया है , वही मारने के यो है । ऐसा िवचार कर चारों म यों ने मुिन को मारने के
िलए एक साथ खड् ग ऊपर उठाये, पर ु िजसका आसन क त आ था, ऐसे नगर दे वता ने
आकर उन सबको उसी अव था म कील िदया। ात:काल सब लोगों ने उन म यों को उसी
कार कीिलत दे खा। म यों की इस कुचे ा से राजा ब त ु आ, पर ु 'ये म ी
वंशपर रा से चले आ रहे ह' यह िवचार कर उ मारा तो नहीं, िसफ गदभारोहण आिद
कराकर िनकाल िदया।

तदन र, कु जां गलदे श के ह नागपुर नगर म राजा महाप रा करते थे। उनकी रानी
का नाम ल ीमती था। उनके दो पु थे- प और िव ु। एक समय राजा महाप प नामक
पु को रा दे कर िव ु नामक पु के साथ ुतसागरच नामक आचाय के पास मुिन हो
गये। वे बिल आिदक आकर प राजा के म ी बन गये। उसी समय कु पुर के दु ग म राजा
िसहं बल रहता था। वह अपने दु ग के बल से राजा प के दे श म उप व करता था। राजा प
उसे पकडऩे की िच ा म दु बल होता जाता था। उसे दु बल दे ख एक िदन बिल ने कहा िक दे व!
दु बलता का ा कारण है ? राजा ने उसे दु बलता का कारण बताया। उसे सुनकर तथा आ ा
ा कर बिल वहाँ गया और अपनी बु के माहा से दु ग को तोडक़र तथा िसंहबल को
लेकर वापस आ गया। उसने राजा प को यह कहकर िसंहबल को सौंप िदया िक यह वही
िसंहबल है । राजा प ने स ु होकर कहा िक तुम अपना वा त वर मां गो। बिल ने कहा
िक जब मां गूगा, तब िदया जावे।
तदन र कुछ िदनों म िवहार करते ए वे अक नाचाय आिद सातसौ मुिन उसी ह नागपुर
म आये। उनके आते ही नगर म हलचल मच गयी। बिल आिद म यों ने उ पहचान कर
िवचार िकया िक राजा इनका भ है । इस भय से उ ोंने उन मुिनयों को मारने के िलए राजा
प से अपना पहले का वर मां गा िक हम लोगों को सात िदन का रा िदया जावे। तदन र
राजा प उ सात िदन का रा दे कर अ :पुर म चला गया। इधर बिल ने आतापनिग र पर
कायो ग से खड़े ए मुिनयों को बाड़ी से वेि त कर म प लगा य करना शु िकया। झूठे
सकौरे , बकरा आिद जीवों के कलेवर तथा धूम आिद के ारा मुिनयों को मारने के िलए ब त
भारी उपसग िकया। मुिन दोनों कार का सं ास लेकर थतर हो गये।

तदन र िमिथला नगरी म आधी रात के समय बाहर िनकले ए ुतसागरच आचाय ने
आकाश म काँ पते ए वण न को दे खकर अविध ान से जानकर कहा िक महामुिनयों पर
महान् उपसग हो रहा है । यह सुनकर पु धर नामक िव ाधर ु क ने पूछा िक 'कहाँ िकन
पर महान् उपसग हो रहा है ?' उ ोंने कहा िक ह नागपुर म अक नाचाय आिद सात सौ
मुिनयों पर। उपसग कैसे दू र हो सकता है ? ऐसा ु क ारा पूछे जाने पर उ ोंने कहा िक
'धरणीभूषण पवत पर िवि या ऋ के धारक िव ुकुमार मुिन थत ह। वे उपसग को न
कर सकते ह।' यह सुन ु क ने उनके पास जाकर सब समाचार कहे । 'मुझे िवि या ऋ
है ा?' ऐसा िवचारकर िव ुकुमार मुिन ने अपना हाथ पसारा तो वह पवत को भेदकर दू र
तक चला गया। प ात् िवि या का िनणय कर उ ोंने ह नागपुर जाकर राजा प से कहा
िक तुमने मुिनयों पर उपसग ों कराया? आपके कुल म ऐसा काय िकसी ने नहीं िकया। राजा
प ने कहा िक ा क ँ मने पहले इसे वर दे िदया था।

अन र िव ुकुमार मुिन ने एक बौने ा ण का प बनाकर उ म श ों ारा वेद पाठ


करना शु िकया। बिल ने कहा िक तु ा िदया जावे? बौने ा ण ने कहा िक तीन डग
भूिम दे दो। 'पगले ा ण! दे ने को तो ब त है और कुछ मां ग' इस कार बार-बार लोगों के
कहे जाने पर भी वह तीन डग भूिम ही मां गता रहा। त ात् हाथ म संक का जल लेकर
जब उसे िविधपूवक तीन डग भूिम दे दी गई, तब उसने एक पैर तो मे पर रखा, दू सरा पैर
मानुषो र पवत पर रखा और तीसरे पैर के ारा दे व िवमानों म ोभ उ कर उसे बिल की
पीठ पर रखा तथा बिल को बां धकर मुिनयों का उपसग दू र िकया। तदन र वे चारों म ी
राजा प के भय से आकर िव ुकुमार मुिन तथा अक नाचाय आिद मुिनयों के चरणों म
संल ए- चरणों म िगरकर मा मां गने लगे। वे म ी ावक बन गये।

जकुमार मुिन की कथा

ह नापुर म बल नामक राजा रहता था। उसके पुरोिहत का नाम ग ड़ था। ग ड़ के एक


सोमद नाम का पु था। उसने सम शा ों का अ यन कर अिह पुर म रहने वाले
अपने मामा सुभूित के पास जाकर कहा िक मामाजी! मुझे दु मुख राजा के दशन करा दो।
पर ु गव से भरे ए सुभूित ने उसे राजा के दशन नहीं कराये। तदन र हठधम होकर वह
यं ही राजसभा म चला गया। वहाँ उसने राजा के दशन कर आशीवाद िदया और सम
शा ों की िनपुणता को कट कर म ी पद ा कर िलया। उसे वैसा दे ख सुभूित माता ने
अपनी य द ा नाम की पु ी िववाह के िलए दे दी।

एक समय वह य द ा जब गिभणी ई तब उसे वषाकाल म आ फल खाने का दोहला आ।


प ात् बाग-बगीचों म आ फलों को खोजते ए सोमद ने दे खा िक िजस आ वृ के नीचे
सुिम ाचाय ने योग हण िकया है , वह वृ नाना फलों से फला आ है । उसने उस वृ से फल
लेकर आदमी के हाथ घर भेद िदये और यं धम वण कर संसार से िवर हो गया तथा तप
धारण कर आगम का अ यन करने लगा। जब वह अ यन कर प रप हो गया तब
नािभिग र पवत पर आतापन योग से थत हो गया।

इधर य द ा ने पु को ज िदया। पित के मुिन होने का समाचार सुनकर वह अपने भाई के


पास चली गई। पु की शु को जानकर वह अपने भाइयों के साथ नािभिग र पवत पर गयी।
वहाँ आतापन योग म थत सोमद मुिन को दे खकर अ िधक ोध के कारण उसने वह
बालक उनके पैरों म रख िदया और गािलयाँ दे कर यं घर चली गयी।

उसी समय अमरावती नगरी का रहने वाला िदवाकर दे व नाम का िव ाधर जो िक अपने
पुर र नामक छोटे भाई के ारा रा से िनकाल िदया गया था, अपनी ी के साथ मुिन की
व ना करने के िलए आया था। उसने उस बालक को उठाकर अपनी ी को सौंप िदया तथा
उसका नाम व कुमार रखकर चला गया। वह व कुमार कनक नगर म िवमल वाहन नामक
अपने मामा के समीप सम िव ाओं म पारगामी होकर म- म से त ण हो गया।

त ात् ग ड़वेग और अंगवती की पु ी पवनवेगा हे म पवत पर बड़े म से नाम की


िव ा िस कर रही थी। उसी समय वायु से क त बेरी का एक पैना कां टा उसकी आँ ख म
जा लगा। उसकी पीड़ा से िच च ल हो जाने से उसे िव ा िस नहीं हो रही थी। अन र
व कुमार ने उसे उस अव था म दे ख कुशलतापूवक वह काँ टा िनकाल िदया। काँ टा िनकल
जाने से उसका िच थर हो गया तथा िव ा िस हो गयी। िव ा िस होने पर उसने कहा
िक आपके साद से यह िव ा िस ई है इसिलए आप ही मेरे भ ता हो। ऐसा कर उसने
व कुमार के साथ िववाह कर िलया।

एक िदन व कुमार ने िदवाकर दे व िव ाधर से कहा 'तात! म िकसका पु ँ , स किहये।


उसके कहने पर ही मेरी भोजनािद म वृि होगी।' िदवाकर दे व ने पहले का सब वृ ा सच-
सच कह िदया। उसे सुनकर वह अपने िपता के दशन के करने के िलए भाइयों के साथ मथुरा
नगरी की दि ण गुहा म गया। वहाँ िदवाकर दे व ने व ना कर व कुमार से िपता सोमद को
सब समाचार कह िदया। सम भाइयों को बड़े क से िवदा कर व कुमार मुिन हो गया।

इसी बीच म मथुरा म एक अ कथा घटी। वहाँ पूितग राजा रा करता था। उसकी ी
का नाम उिवला था। उिवला स ि तथा िजनधम की भावना म अ लीन थी। वह
ितवष अ ाि क पव म तीन बार िजने दे व की रथया ा करती थी। उसी नगरी म एक
सागरद सेठ रहता था, उसकी सेठानी का नाम समु द ा था। उन दोनों के एक द र ा नाम
की पु ी ई।

सागरद के मर जाने पर एक िदन द र ा दू सरे के घर म फके ए भात के साथ खा रही थी।


उसी समय चया के िलए िव ए दो मुिनयों ने उसे वैसा करते ए दे खा। तदन र छोटे मुिन
ने बड़े मुिन से कहा िक 'हाय बेचारी बड़े क से जीवन िबता रही है ।' यह सुनकर बड़े मुिन ने
कहा िक 'यह इसी नगरी म राजा की ि य प रानी होगी।' िभ ा के िलए मण करते ए एक
बौ साधु ने मुिनराज के वचन सुनकर िवचार िकया िक मुिन का कथन अ था नहीं होगा,
इसिलए वह उसे अपने िवहार म ले गया और वहाँ अ े आहार से उसका पालन-पोषण करने
लगा।

एक िदन भरी जवानी म वह चै मास के समय झूला झूल रही थी िक उसे दे खकर राजा अ
िवरहाव था को ा हो गया। अन र म यों ने उसके िलए बौ साधु से याचना की। उसने
कहा िक यिद राजा हमारे धम को हण करे तो म इसे दे दू ं गा। राजा ने वह सब ीकृत कर
उसके साथ िववाह कर िलया। और वह उसकी अ ि य प रानी बन गयी।

फा ुन मास की न ी र या ा म उिवला ने रथया ा की। उसे दे ख उस प रानी ने राजा से


कहा िक 'दे व! मेरे बु भगवान् का रथ इस समय नगर म पहले घूमे।' राजा ने कह िदया िक
'ऐसा ही होगा।' तदन र उिवला ने कहा िक 'यिद मेरा रथ पहले घूमता है तो मेरी आहार म
वृि होगी, अ था नहीं।' ऐसी ित ा कर वह ि य गुहा म सोमद आचाय के पास गयी।
उसी समय व कुमार मुिन की व ना-भ के िलये िदवाकर दे व आिद िव ाधर आये थे।
व कुमार मुिन ने यह सब वृ ा सुनकर उनसे कहा िक आप लोगों को ित ा पर आ ढ़
उिवला की रथया ा करानी चािहए। तदन र उ ोंने बु दासी का रथ तोडक़र बड़ी िवभूित के
साथ उिवला की रथया ा कराई। उस अितशय को दे खकर ितबोध को ा ई बु दासी
तथा अ लोग जैनधम म लीन हो गये ॥२०॥

+ अंगहीन स थ है -

ना हीनमलं छे ुं दशनं ज स ितम्


न िह म ोऽ र ूनो िनह िवषवेदनाम् ॥२१॥
अ याथ : [अ हीनम्] अंगों से हीन [दशनम्] स शन [ज स ितम्] संसार की
स ित को [छे ुम्] न करने के िलए [अलं न] समथ नहीं है , [िह] ोंिक [अ र ून:] एक
अ र से भी हीन [मं :] म [िवषवेदानाम्] िवष की पीड़ा को [न िनह ] न नहीं करता ॥
२१॥
भाच ाचाय :
ननु स शन ा िभर ै िपतै: िकं योजनम्? ति कल ा
संसारो े दनसाम यस वािद ाशङ् ाह-

'दशनं="" कतृ'। ज स ितं संसार ब म् । छे ुम् उ े दियतुं 'नालं' न समथम् । कथ ूतं


सत् अ हीनम् अ ै िन:शि त ािद पैह नं िवकलम् । अ ैवाथ समथनाथ
ा माह- न िह इ ािद । सपािदद सृतसवा िवषवेदन तदपहरणाथ यु ो
म ोऽ रे णािप ूनो हीनो न ही नैव िनह ोटयित िवषवेदनाम् । तत: स शन
संसारो े दसाधनेऽ ा ोपेत ं यु मेव ि मूढापोढ वत् ॥२१॥
आिदमित :

िजन िन:शंिकतािद अंगों का वणन ऊपर िकया है , उन अंगों से रिहत िवकलां ग स शन


संसार पर रा का ज -मरण की स ित का नाश करने म समथ नहीं हो सकता । इसी अथ
का समथन करते ए म का ा दे ते ह -- िजस कार िकसी मनु को सप ने काट िलया
और िवष की वेदना सारे शरीर म ा हो गई तो उस िवष वेदना को दू र करने के िलए अथात्
िवष उतारने के िलए मा क म का योग करता है । यिद उस म म एक अ र भी कम
हो जाय तो िजस कार उस म से िवष की वेदना शिमत-दू र नहीं हो सकती, उसी कार
संसार-प रपाटी का उ े द करने के िलए आठ अंगों से प रपूण स शन ही समथ है , एक
दो आिद अंगों से रिहत िवकलां ग स शन नहीं ।

+ लोक मूढ़ता -

आपगा-सागर- ान-मु य: िसकता नाम्


िग रपातोऽि पात लोकमूढं िनग ते ॥२२॥
अ याथ : [आपगा] नदी, [सागर] सागर म [ ानम्] ान करना, [िसकता नाम्] बालू
प र के [उ य:] ढे र लगाना, [िग रपात:] पवत से िगरकर मरने से [च] और [अि पात:]
अि म जलकर मरने म धम मानना वह [लोकमूढं] लोक मूढ़ता [िनग ते] कहा जाता है ॥
२२॥
भाच ाचाय :

कािन पुन ािन ीिण मूढािन यदमूढ ं त संसारो े दसाधनं ािदित चेदु ते,
लोकदे वतापाख मूढभेदात् ीिण मूढािन भव । त लोकमूढं ताव शय ाह-

लोकमूढं लोकमूढ म् ? िकम् ? आपगासागर ानम् आपगा नदी सागर: समु : त ेय:
साधनािभ ायेण य ानं न पुन: शरीर ालनािभ ायेण । तथा उ य: ूपिवधानम् । केषाम् ?
िसकता नां िसकता वालुका, अ ान: पाषाण ेषां । तथा िग रपातो भृगुपातािद: ।
अि पात अि वेश: । एवमािद सव लोकमूढं िनग ते ितपा ते ॥२२॥
आिदमित :

नदी, सागरािद म धमबु क ाण का साधन समझकर, ान करना लोकमूढ़ता कही गई है ,


िक ु शरीर ालन के अिभ ाय से ान करना लोकमूढता नहीं है । तथा बालू और प रों के
ऊँचे ढे र लगाकर ूप बनाना, पवतों से भृगुपात करना अथात् पवतों की चोटी से िगरकर
आ घात करना, अि म िव हो जाना, इ ािद काय के करने म धम मानना वह
लोकमूढ़ता है ।

+ दे व मूढ़ता -

वरोपिल याशावान् राग े षमलीमसाः


दे वता यदुपासीत दे वतामूढमु ते ॥२३॥
अ याथ : [वरोपिल या] वरदान ा करने की इ ा से [आशावान] आशा से यु हो
[राग े षमलीमसाः] राग े ष से मिलन [दे वता:] दे वों की [यत्] जो [उपासीत] आराधना की
जाती है , [तत्] वह [दे वतामूढम्] दे वमूढता [उ ते] कही जाती है ।
भाच ाचाय :

दे वतामूढं ा ातुमाह -

दे वतामूढं='तदु ते'। यदु पासीत आराधयेत् । का: दे वता: । कथ ूता: राग े षमलीमसा:
राग े षा ां मलीमसा: मिलना: । िकंिविश ा: ? आशावान् ऐिहकफलािभलाषी । कया ?
वरोपिल या वर वा तफल , उपिल या ा ुिम या । न ेवं ावकादीनां
शासनदे वतापूजािवधानािदकं स शन ानताहे तु: ा नोतीित चेत् एवमेतत् यिद
वरोपिल या कुयात् । यदा तु शासनस दे वता ेन तासां त रोित तदा न त ानताहे तु: ।
तत् कुवत दशनप पाता रमयािचतमिप ता: य ेव । तदकरणे चे दे वता िवशेषात्
फल ा िव तो झिटित न िस यित । न िह च वितप रवारापूजने सेवकानां च वितन:
सकाशात् तथा फल ा ा ॥२३॥
आिदमित :

जो पु ष इ त फल को ा करने की अिभलाषा से राग- े ष से मिलन दे वोंकी उपासना


करता है , उसकी इस उपासना को दे वमूढ़ता कहते ह।यहाँ कोई करता है िक यिद ऐसा है
तो ावक आिद का शासन दे वों के पूजािवधान आिद करना स शन की मिलनता को ा
करने का कारण होता है । इसका उ र यह है िक यिद धन, पु ािद वा त फल ा करने
की इ ा से िकया जाता है , तो अव ही स शन की मिलनता का कारण है । िक ु यिद
जैनशासन के संर ण एवं संवधन के िनिम िनरत उन दे वों की उपासना की जाती है , अथात्
उनका यथायो आदर-स ार िकया जाता है , तब वह स शन की मिलनता का कारण
नहीं होता। ऐसा करने वाले पु ष को स शन का प होने के कारण दे वता िबना याचना
िकये भी वा त फल दान कर दे ते ह । यिद ऐसा नहीं िकया जाता है तो इ दे वता िवशेष से
वा त फल की ा िनिव न प से शी नहीं होती, ोंिक च वत के प रवार (प रकर)
की पूजा के िबना सेवकों को च वत से फल की ा नहीं दे खी जाती है ।

+ गु मूढ़ता -

स ार िहं सानां संसारावतवितनाम्


पाष नां पुर ारो ेयं पाष मोहनम् ॥२४॥
अ याथ : [स ार िहं सानां] प र ह, आर और िहं सा से सिहत तथा
[संसारावतवितनाम्] संसार मण के कारणभूत काय म लीन [पाष नां] अ कुिलि यों
को [पुर ारो] अ सर करना, [पाष मोहनम्] पाष मूढ़ता-गु मूढ़ता [ ेयं] जाननी
चािहये ।
भाच ाचाय :

इदानीं स शन पे पाष मूढ पं दशय ाह-

पाष मोहनं । ेयं ात म् । कोऽसौ ? पुर ार: शंसा । केषाम् ? पाष नां
िम ा ि िलि नाम् । िकंिविश ानाम् ? स ार िहं सानां ा दासीदासादय:,
आर ा कृ ादय: िहं सा अनेकिवधा: ािणिवधा: सह तािभवत इ ेवं ये तेषां । तथा
संसारावतवितनां संसारे आवत मणं ये ो िववाहािदकम ेषु वतते इ ेवं शीला ेषां ,
एतै िभमूढै रपोढ स ंस शनं संसारो ि कारणम् अ य स वत् ॥२४॥

आिदमित :

जो दासी-दास आिद प र ह, खेती आिद आर और अनेक कार की ािणवध प िहं सा से


सिहत ह तथा जो संसार- मण कराने वाले , ऐसे साधुओं की शंसा करना, उ धािमक काय
म अ सर करना पाख मूढ़ता जाननी चािहये। पाख ी का अथ िम ा वेषधारी गु होता है
।मूढ़ता अिववेक को कहते ह। इस कार गु के िवषय म जो अिववेक है , वह पाख मूढ़ता
है । उपयु तीन मूढ़ताओं से रिहत स शन ही संसार के उ े दन का कारण है । जैसा िक
आठ मदों से रिहत स शन संसार के नाश का कारण है ।

+ आठमद के नाम -
ानं पूजां कुलं जाितं, बलमृ ं तपो वपु:
अ ावाि मािन ं, यमा गत या: ॥२५॥
अ याथ : अपने [ ानं] ान, [पूजां] पूजा, [कुलं] कुल, [जाितं] जाित, [बलाम्] बल,
[ऋ म्] वैभव, [तप] तप [च] और [वपु:] प इन [अ ौ] आठों का [आि ] आ य
लेकर [मािन म्] गिवत होने को [ग मया:] गव से रिहत गणधर आिदक [ यम्] गव / मद
[आ :] कहते ह ॥२५॥
भाच ाचाय :

क: पुनरयं य: कित कार े ाह-

आ ुव । कम् ? यम् । के ते ? गत या: न मदा: िजना: । िकं तत् ? मािन ं


गिव म् । िकं कृ ा ? अ ावाि । तथा िह ानमाि ानमदो भवित एवं पूजां कुलं जाितं
बलम् ऋ मै य तपो वपु: शरीरसौ यमाि पूजािदमदो भवित । ननु िश मद नवम
स ेर ािवित सङ् ानुपप ा इ यु ं त ाने एवा भावात् ॥२५॥
आिदमित :

िजनका मद न हो गया है , ऐसे िजने दे व ानािदक आठ व ुओं के आ य से जो गव उ


होता है , उसे मद कहते ह । अपने ायोपशिमक ान का घम करना ानमद कहलाता है ।
अपनी पूजा- ित ा-स ान आिद का गव करना पूजामद है । िपता के वंश को कुल कहते ह ।
इसका अहं कार करना कुल मद है । माता के वंश को जाित कहते ह, जाित का गव करना
जाितमद है । शारी रक श का गव करना बलमद है । बु या धन-वैभव का गव करना
ऋ मद है । अनशनािद तपों का अहं कार करना तपमद है । थ-सु र शरीर को पाकर
उसका घम करना शरीरमद है ।

यहाँ कोई शंका करता है िक कला-कौशल का भी तो मद होता है , इसिलए नौ मद होग ये ।


अत: आपके ारा बतायी गयी मदों की आठ सं ा िस नहीं होती ? इसके उ र म
टीकाकार का कहना है िक िश का मद ानमद म ही गिभत हो जाता है । इसिलए नौवाँ मद
मानने की कोई आव कता नहीं है ।

+ मद करने से हािन -

येन योऽ ान ेित धम थान् गिवताशयः


सोऽ ेित धममा ीयं, न धम धािमकैिवना ॥२६॥
अ याथ : [ येन] उपयु मद से [गिवताशय:] गव-िच होता आ [य:] जो पु ष
[धम थान्] र य प धम म थत [अ ान्] अ जीवों को [अ ेित] ितर ृ त करता है
[स:] वह [आ ीयं] अपने [धमम्] धम को [अ ेित] ितर ृ त करता है [यत:] ोंिक
[धािमकै: िवना] धमा ाओं के िबना [धम:] धम [न] नहीं होता है ॥२६॥
भाच ाचाय :

अनेना िवधमदे न चे मान दोषं दशय ाह -

येन] उ कारे ण । गिवताशयो दिपतिच : । यो जीव: । धम थान र योपेतान ान् ।


अ ेित अवधीरयित अव याित ामती थ: । सोऽ ेित अवधीरयित । कम् ? धम र यम् ।
कथ ूतम् ? आ ीयं िजनपित णीतम् । यतो धम धािमकै: र यानु ाियिभिवना न िव ते ॥
२६॥
आिदमित :

िजन आठ-मदों का पहले वणन िकया गया है , उनके िवषय म अह ार को करता आ जो


पु ष र य- प धम म थत अ धमा ाओं का ितर ार करता है , अव ा के ारा उनका
उ न करता है , वह िजने णीत अपने ही र य धम का ितर ार करता है , ोंिक
र य का प रपालन करने वाले धमा ाओं के िबना धम नहीं रह सकता ।

+ पाप ाग का उपदे श -

यिद पापिनरोधोऽ स दा िकं योजनम्


अथ पापा वोऽ स दा िकं योजनम् ॥२७॥
अ याथ : यिद [पापिनरोध:] पाप का आ व क जाता है तो [अ स दा] अ स ित से
[िकं] ा [ योजनम्] योजन है ? और [अथ] यिद [पापा वो] पाप का आ व होता रहता
[अ ] है तो [अ स दा] अ स ि से ा योजन है ? ॥२७॥
भाच ाचाय :

ननु कुलै यािदस ै: य: कथं िनषेद्धुं श इ ाह --

‘पापं ानावरणा शुभं कम िन ते येनासौ’ पापिनरोधो र यस ाव: स य तदा


अ स दा अ कुलै यादे : स दा स ा िकं योजनम् ? न िकमिप योजनं
ति रोधेऽतोऽ िधकाया िविश तराया द: स ावमवबु मान
ति ब न य ानु े: । अथ पापा वोऽ पाप ाशुभकमण: आ वो
िम ा ािवर ािदर तथा स दा िकं योजनम् । अ े दु गितगमनािदकम्
अवबु मान त दा योजनाभावत मय कतुमनुिचत ात् ॥२७॥
आिदमित :

यह है िक कुल-ऐ य आिद स ि से सिहत मनु मद को कैसे रोके ? उ र प


बतलाया है िक िववेकी जनों को ऐसा िवचार करना चािहये िक यिद मेरे ानावरणािद अशुभ
कम के आ व को रोकने वाले र य-धम का स ाव है , तो मुझे कुल-ऐ य आिद अ
स दा से ा योजन है ? ोंिक उससे भी े तम स ि - प र यधम मेरे पास
िव मान है । इस कार का िववेक होने से उन कुल ऐ यािद के िनिम से अह ार नहीं होता
। इसके िवपरीत यिद ानावरणािद अशुभ कम प पाप का आ व हो रहा है -- िम ा ,
अिवरित आिद आ वभाव िव मान ह तो अ स दा से ा योजन है ? ोंिक उस
पापा व से दु गित गमन आिद फल की ा िनयम से होगी, ऐसा िवचार करने से कुल ऐ य
आिद का गव दू र हो जाता है ।

+स शन की मिहमा -

स शनस मिप मातङ् गदे हजम्


दे वा दे वं िवदुभ गूढाङ् गारा रौजसम् ॥२८॥
अ याथ : [दे व:] िजने -दे व [स शनस म्] स शन से यु [मात -दे हजम्]
चां डाल दे हधारी मनु को [अिप] भी [भ गूढा ारा रौजसम्] राख के भीतर ढं के ए
अंगारे के भीतरी काश के समान [दे वम्] पू कहते ह ॥२८॥
भाच ाचाय :

अमुमेवाथ दशय ाह --

दे वम् आरा म् । िवदु म े । के ते ? दे वा दे वा िव त पणम त ज ध े सया मणो


इ िभधानात् । कमिप ? मात दे हजमिप चा ालमिप । कथ ूतम् ? स शनस ं
स शनेन स ं यु म् । अतएव भ गूढा ारा रौजसं भ ना गूढ: ािदत: स
चासाव ार त अ रं म ं त ैव ओज: काशो िनमलता य ॥२८॥
आिदमित :

चा ाल कुल म उ होने पर भी यिद कोई पु ष स शन से स है तो वह आदर


स ार के यो है , ऐसा गणधरािदक दे व कहते ह । ोंिक 'दे वा िव त पणम ज ध े
सया मणो' िजसका मन सदा धम म लगा रहता है उसे दे व भी नम ार करते ह, ऐसा कहा
गया है । अतएव ऐसे का तेज भ से ािदत अंगारे के भीतरी तेज के समान
िनमलता से यु है ।
+ धम और अधम का फल -

ािप दे वोऽिप दे वः ा जायते धमिक षात्


कािप नाम भवेद ा स मा ररीणाम् ॥२९॥
अ याथ : [धमिक षात्] धम और पाप से [ ा] कु ा [अिप] भी [दे व:] दे व [च] और
[दे व:] दे व [अिप] भी [ ा] कु ा [जायते] हो जाता है । [शरी रणां] जीवों को [धमात्] धम से
[अ ा] अ और [अिप] भी [का] अिनवचनीय [स त्] स दा [भवेत्] ा होती है ॥
२९॥
भाच ाचाय :

एक धम िविवधं फलं का ेदानीमुभयोधमाधमयोयथा मं फलं दशय ाह --

ािप कु ु रोऽिप दे वो जायते । दे वोऽिप दे व: ा जायते । क ात् ? धमिक षात्


धममाहा ात् खलु ािप दे वो भवित । िक षात् पापोदयात् पुनदवोऽिप ा भवित यत एवं,
तत: कािप वाचामगोचरा । नाम ु टम् । अ ा अपूवाऽि तीया । स द् िवभूितिवशेषो ।
भवेत् । क ात्? धमात् । केषाम्? शरी रणां संसा रणां यत एवं ततो धम एव े ावतानु ात :
॥२९॥
आिदमित :

स शनािद प धम के माहा से कु ा भी दे वपयाय को ा कर लेता है और


िम ा ािद अधम-पाप के उदय से दे व भी कु ा हो जाता है । इस तरह धम का अि तीय
माहा है िक िजससे संसारी ािणयों को ऐसी स दा की ा होती है जो वचनों के ारा
कही नहीं जा सकती, इसिलए े ावानों को धम का ही अनु ान करना चािहए ।

+स ि कुदे वािदक को नमन ना करे -

भयाशा ेहलोभा कुदे वागमिलिङ् गनाम्


णामं िवनयं चैव न कु ुः शु यः ॥३०॥
अ याथ : [शु :] स ी जीव [भयाशा- ेह-लोभा ] भय से, आशा से, ेम से
अथवा लोभ से [कुदे वागमिलि नाम्] कुदे व, कुशा और कुगु ओं को [ णामम्] णाम
[च] और [िवनयम्] िवनय [एव] भी [न कु ु:] नहीं करे ॥३०॥
भाच ाचाय :

तथानुित ता दशन ानता मूलतोऽिप न कत े ाह --

शु यो िनमलस ा: न कुयु: । कम् ? णामम् उ मा े नोपनितम् । िवनयं चैव


करमुकुल शंसािदल णम् । केषाम् ? कुदे वागमिलि नाम् । क ादिप ?
भयाशा ेहलोभा भयं राजािदजिनतम्, आशा च भािवनोऽथ ा ाका ा, ेह
िम ानुराग:, लोभ वतमानकालेऽथ ा गृ : भयाशा ेहलोभं त ादिप। च श ोऽ थ: ॥
३०॥
आिदमित :

राजा आिद से उ होने वाले आतंक को भय कहते ह । भिव म धनािदक- ा की वां छा


आशा कहलाती है । िम के अनुराग को ेह कहते ह । वतमानकाल म धन ा की जो
गृ ता अथात् आस होती है , उसे लोभ कहते ह । िजसका स िनमल है ऐसा शु
स ि जीव इन चारों कारणों से अथात् भय, आशा, ेह, लोभ के वश से कुदे व, कुशा
और कुगु को न तो णाम करे , म क झुकाकर नम ार करे और न उनकी िवनय करे -
हाथ जोड़े तथा न शंसा आिद के वचन कहे ।

+स शन की े ता -

दशनं ानचा र ा ािधमानमुपा ुते


दशनं कणधारं त ो माग च ते ॥३१॥
अ याथ : [यत्] िजस कारण [ ानचा र ात्] ान और चा र की अपे ा [दशनम्]
स शन [सािधमानम्] े ता या उ ता को [उपा ुते] ा होता है [तत्] उस कारण से
[दशनम्] स शन को [मो माग] मो माग के िवषय म [कणधारम्] खेविटया [ च ते]
कहते ह ॥३१॥
भाच ाचाय :

ननु मो माग र य प ात् क ा शन ैव थमत: पािभधानं कृतिम ाह-

दशनं कतृ उपा ुते ा ोित कम् ? सािधमानं साधु मु ृ ं वा । क ात् ? ानचा र ात् ।
यत सािधमानं त ा शनमुपा ुते । तत् त ात् । मो माग र या के दशनं कणधारं
धानं च ते । यथैव िह कणधार नौखेवटक कैवतक ाधीना समु परतीरगमने नाव:
वृि : तथा संसारसमु पय गमने स शनकणधाराधीना मो मागनाव: वृि : ॥३१॥
आिदमित :

िजस कार समु के उस पार जाने के िलए नाव को उस पार प ँ चाने म खेविटया-म ाह की
धानता होती है , उसी कार संसार-समु से पार होने के िलए मो माग पी नाव की वृि
स शन प कणधार के अधीन होती है । इसी कारण मो माग म ान और चा र की
अपे ा स शन को े ता या उ ृ ता ा होती है ।
+स शन के िबना ान चा र की अस वता -

िव ावृ स ूित- थितवृ फलोदया:


न स सित स े, बीजाभावे तरो रव ॥३२॥
अ याथ : [िबजाभावे] बीज के अभाव म [तरो:इव] वृ की तरह [स े असित]
स शन के न होने पर [िव ावृ ] ान और च र की [स ूित-
थितवृ फलोदया:] उ ि , थित, वृ और फल ा [न स ] नहीं होती ॥३२॥
भाच ाचाय :

ननु चा ो ृ े िस े कणधार ं िस ित त कुत: िस िम ाह-

स ेऽसित अिव माने। न स । के ते ? स ूित थितवृ फलोदया: । क ?


िव ावृ । अयमथ:- िव ाया मित ानािद पाया: वृ च सामाियकािदचा र या
स ूित: ादु भाव:, थितयथाव दाथप र े दक ेन कमिनजरािदहे तु ेन चाव थानं,
वृ परतर उ ष: फलोदयो दे वािदपूजाया गापवगादे फल ो ि : ।
क ाभावे क ेव ते न ु र ाह- बीजाभावे तरो रव बीज मूलकारण ाभावे यथा तरो े न
स तथा स ािप मूलकारणभूत ाभावे िव ावृ ािप ते न स ीित ॥३२॥
आिदमित :

िव ा-मित ानािद और वृ -सामाियकािद चा र इनका ादु भाव, थित-जैसा व ु का प


है वैसा जानना, तथा कम िनजरा के हे तु प से अव थान होना, वृ -उ होकर आगे-आगे
बढ़ते जाना फलोदय-दे वािदक की पूजा से ग-मो फल की ा होना है । िजस कार
'बीजाभावे तरो रव' मूल कारण प बीज के अभाव म वृ की उ ि , थित, वृ और फल
की ा नहीं होती, उसी कार मूल कारणभूत स शन के अभाव म ान तथा चा र की
न उ ि होती है , न थित होती है , न वृ होती है और न फल की ा ही होती है ।

+ मोही मुिन की अपे ा िनम ही गृह थ े -

गृह थो मो माग थो िनम हो नैव मोहवान्


अनगारो गृही ेयान् िनम हो मोिहनो मुनेः ॥३३॥
अ याथ : [िनम ह:] मोह-िम ा से रिहत [गृह थ:] गृह थ [मो माग थ:] मो माग म
थत है पर ु [मोहवान्] मोह-िम ा से सिहत [अनगार:] मुिन [नैव] मो माग म थत
नहीं है [मोिहन:] मोही िम ा ि [मुने:] मुिन की अपे ा [िनम ह:] मोह-रिहत स ि
[गृही] गृह थ [ ेयान्] े [अ ] है ।
भाच ाचाय :

यत स शनस ो गृह थोऽिप तदस ा ुने ृ तर तोऽिप


स शनमेवो ृ िम ाह-

िनम हो दशन ितब कमोहनीयकमरिहत: स शनप रणत इ थ: इ ूतो गृह थो


मो माग थो भवित । अनगारो यित:। पुन: नैव मो माग थो भवित । िकंिविश : ? मोहवान्
दशनमोहोपेत: । िम ा प रणत इ थ: । यह एवं ततो गृही गृह थो । यो िनम ह: स ेयान्
उ ृ : । क ात् ? मुने: । कथ ूतात् ? मोिहनो दशनमोहयु ात् ॥३३॥
आिदमित :

जो गृह थ स शन का घात करने वाले मोहनीय कम से रिहत होने के कारण


स शन प प रणत है वह तो मो माग म थत है , िक ु जो यित दशनमोह-िम ा से
सिहत है वह मो माग म थत नहीं है । इस कार िम ा यु मुिन की अपे ा स
सिहत गृह थ े है ।

+ ेय और अ ेय का कथन -

नस समं िकि त्, ैका े ि जग िप


ेयोऽ ेय िम ा -समं ना नूभृताम् ॥३४॥
अ याथ : [तनूभृताम्] ािणयों के [ ैका े] तीनों कालों और [ि जग िप] तीनों लोकों म
भी [स समं] स शन के समान [ ेय:] क ाण प और िम ादशन के समान
[अ ेय:] अक ाण प [िकंिचत] िकंिचत [अ त्] दू सरा [न] नहीं है ।
भाच ाचाय :

यत एवं तत:-

तनुभृतां संसा रणाम् । स समं स ेन समं तु म् । ेया े मु मोपकारकम् ।


िकि त् अ व ु ना । यत न् सित गृह थोऽिप यतेर ु ृ तां ितप ते । कदा
त ा ? ैका े अतीतानागतवतमानकाल ये । त न् त ा ? ि जग िप आ ां
तावि यत े ादौ त ा अिपतु ि जग िप ि भुवनेऽिप । तथा अ ेयो अनुपकारकम् ।
िम ा समं िकि द ा । यत ावे यितरिप तसंयमस ो गृह थादिप
ति परीतादपकृ तां जतीित ॥३४॥
आिदमित :

संसारी जीवों के िलए भूत, भिव त् और वतमान प तीनों कालों म और अधोलोक, म लोक
और ऊ वलोक के भेद से तीनों लोकों म स शन के समान े उ म क ाणकारक कोई
दू सरी व ु नहीं है । ोंिक स के रहने से गृह थ भी मुिन से अिधक उ ृ ता को ा
हो जाता है । तथा तीनों कालों और तीनों लोकों म िम ा के समान कोई भी अनुपकारक-
अक ाण द नहीं है , ोंिक उसके स ाव म त और संयम से स मुिन भी गृह थ की
अपे ा हीनता को ा होता है ।

+स ि के अनु ि के थान -

स शनशु ा नारकितयङ् नपुंसक ी ािन


दु ु लिवकृता ायुद र तां च ज ना ितकाः ॥३५॥
अ याथ : [स शनशु ा] स शन से शु जीव [अ ितका:] तरिहत होने पर
[अिप] भी [नारकितयङ् नपुंसक ी ािन] नारक, ितय , नपुंसक और ीपने को [च]
तथा [दु ु लिवकृता ायुद र तां] नीचकुल, िवकलां ग अव था, अ आयु और द र ता को
[न ज ] ा नहीं होते ।
भाच ाचाय :

इतोऽिप स शनमेव ानचा र ा ामु ृ िम ाह-

स शनशु ा स शनं शु ं िनमलं येषां ते । स शनलाभा ूव ब ायु ान् िवहाय


अ े न ज न ा ुव । कािन । नारकितयङ् नपुंसक ी ािन । श :
ेकमिभस ते नारक ं ितय ं नपुंसक ं ी िमित । न केवलमेता ेव न ज
िक ु दु ु लिवकृता ायुद र तां च । अ ािप ताश : ेकमिभस ते ये
िनमलस ा: ते न भवा रे दु ु लतां दु ु ले उ ि ं िवकृततां काणकु ािद पिवकारम्
अ ायु ताम मु ता ायु ो ि ं, द र तां दा र ोपेतकुलो ि म् । कथ ूता अिप
एत व ज ? अ ितका अिप अणु तरिहता अिप ॥३५॥
आिदमित :

'स शनेन शु ा: स शनशु ा:' अथवा 'स शनं शु ं िनमलं येषां ते


स शनशु ा:' इस समास के अनुसार जो स शन से शु है अथवा िजनका स शन
शु -िनमल है ऐसे जीव, िज ोंने स शन होने के पहले आयु बां ध ली है उन ब ायु ों को
छोडक़र नारक , ितयच , नपुंसक और ी को ा नहीं होते तथा नीचकुलता,
दु ु लता-दु ु ल म उ ि , िवकृतता-काणा, लूला आिद िवकृत प वाला, अ ायु ता-
अ मु तािद अ आयु वाला, द र ता-द र कुल म भी उ ि नहीं होती है । जब तरिहत
अ तस ि का इतना माहा है तब स ि ती तो साितशय पु का ब करते ही
ह, उनकी मिहमा का तो कहना ही ा है ?
+स ि जीव े मनु होते ह -

ओज ेजोिव ा-वीययशोवृ िवजयिवभवसनाथाः


माहाकुला महाथा मानवितलकाः भव दशनपूताः ॥३६॥
अ याथ : [दशनपूताः] स शन से पिव जीव [ओज: तेजो:] उ ाह, ताप / का ,
[िव ा] िव ा, [वीय] परा म, [यशो:] यश, [वृ ] उ ित, िवजय, [िवभवसनाथा] वैभव से
सिहत [माहाकुला:] उ कुलो , [महाथा:] पु षाथयु तथा [मानवितलकाः] मनु ों म
े [भव ] होते ह ।
भाच ाचाय :

य ेत व न ज तिह भवा रे की शा े भव ी ाह-

दशनपूता दशनेन पूता: पिवि ता: । दशनं वा पूतं पिव ं येषां ते । भव । मानवितलका:
मानवानां मनु ाणां ितलका म नीभूता मनु धाना इ थ: । पुनरिप कथ ूता इ ाह ओज
इ ािद ओज उ ाह: तेज: ताप: का वा, िव ा सहजा अहाया च बु :, वीय िविश ं साम यं
यशोिविश ा ाित: वृ : कल -पु पौ ािदस ि :, िवजय: परािभभवेना नो गुणो ष:,
िवभवो धनधा ािदस ि : एतै: सनाथा सिहता । तथा माहाकुला मह तत् कुलं च
माहाकुलं त भवा: महाथा महा ोऽथा धमाथकाममो ल णा येषाम् ॥३६॥
आिदमित :

दशनेन पूता: पिवि ता: अथवा दशनं पूतं पिव ं येषां ते इस समास के अनुसार जो
स शन से पिव ह अथवा िजनका स शन पिव है , वे जीव स शनपूत कहलाते ह
। ओज का अथ-उ ाह, तेज का अथ ताप या का है । ाभािवक अथवा िजसका हरण न
िकया जा सके ऐसी बु को िव ा कहते ह । ी, पु -पौ आिद की ा को वृ कहते ह।
दू सरे के ितर ार से अपने गुणों का उ ष करना िवजय है । धन-धा ािदक की ा
होना िवभव है । उ म कुल म उ ि होना महाकुल और धम, अथ, काम, मो प
पु षाथयु होना महाथ है । जो मनु ों म े - धान होते ह, वे मानवितलक कहलाते ह ।
इस कार पिव स ि जीव ओज आिद सिहत, उ कुलो चारों पु षाथ के साधक
तथा मनु ों म िशरोमिण होते ह ।

+स ि जीव इं पद पाते ह -

अ गुणपुि तु ा ि िविश ाः कृ शोभाजु ाः


अमरा रसां प रषिद िचरं रम े िजने भ ाः ग ॥३७॥
अ याथ : [ ि िविश ाः] स शन से सिहत [िजने भ ाः] िजने भगवान के भ
पु ष [ ग] ग म [अमरा रसां] दे व-दे िवयों की [प रषिद] सभा म [अ गुणपुि तु ा]
अिणमा आिद आठ गुण तथा शारी रक पुि अथवा अिणमा आिद आठ गुणों की पुि से स ु
और [ कृ शोभाजु ा] ब त भारी शोभा से यु होते ए [िचरं ] िचरकाल तक [रम े]
ीड़ा करते ह ।
भाच ाचाय :

तथा इ पदमिप स शनशु ा एव ा ुव ी ाह-

ये ि िविश ा: स शनोपेता । िजने भ ा: ािणन े ग । अमरा रसां प रषिद


दे वदे वीनां सभायाम् । िचरं ब तरं कालं । रम े ीड । कथ ूता: ? अ गुणपुि तु ा:
अ गुणा अिणमा, मिहमा, लिघमा, ा :, ाका म्, ईिश ं, विश ं,
काम िप िम ेत णा े च पुि : शरीरावयवानां सवदोषिचत ं तेषां वा पुि :
प रपूण ं तया तु ा: सवदा मुिदता: । तथा कृ शोभाजु ा इतरदे वे : कृ ा उ मा शोभा
तया जु ा सेिवता: इ ा: स इ थ: ॥३७॥
आिदमित :

िजने भ स ि जीव यिद ग जाते ह तो वहाँ इ बनकर दे व और दे िवयों की सभा म


िचरकाल तक-सागरों पय रमण करते ह- ीड़ा करते ह । वहाँ पर वे अिणमा, मिहमा,
लिघमा, ा , ाका , ईिश , विश और काम िप इन आठ ऋ यों से स होते ह
और अपने शरीर स ी अवयवों की पुि -प रपूणता सिहत सवदा हिषत रहते ह तथा अ
दे वों म नहीं पायी जाने वाली उ म शोभा यु होते ह ।

+स ि ही च वत होते ह -

नविनिधस यर ा-धीशा: सव-भूिम-पतय म्


वतियतुं भव श:, मौिलशेखरचरणा: ॥३८॥
अ याथ : [ श:] िनमल स शन के धारक मनु ही [नविनिध] नौ िनिधयों
[स य] और चौदह [र ा-धीशा:] र ों के ामी तथा [ ] राजाओं के [मौिल] मुकुटों
स ी [शेखर] कलिगयों पर िजनके [चरणा:] चरण ह ऐसे [सव-भूिम-पतय] छ: खंड का
अिधपित -- च वत होते ए [च म्] च र को [वतियतुं] वताने के िलए [ भव ] समथ
होते ह ।
भाच ाचाय :

तथा च वित मिप त एव ा ुव ी ाह-


ये शो िनमलस ा: । त एव च ं च र म् । वतियतुम् आ ाधीनतया
त ा िन खलकायषु वतियतुम्। भव ते समथा भव । कथ ूता: ? सवभूिमपतय:
सवा चासौ भूिम षट् ख पृ ी त ा: पतय: च वितन: । पुनरिप कथ ूता: ?
नविनिधस यर ाधीशा नविनधय स यर ािन स ानां य तेन सङ् ातािन र ािन
चतुदश तेषामधीशा: ािमन: । मौिलशेखरचरणा: ता ोषात् ाय े र ािणनो ये ते
ा राजान ेषां मौलयो मुकुटािन तेषु शेखरा आपीठा ेषु चरणािन येषाम् ॥३८॥
आिदमित :

िनमल स शन के धारक मनु ही च र को चलाने म समथ होते ह अथात् अपने अधीन


होने से उसे उसके ारा सा सम काय म वताने के िलए समथ होते ह। तथा वे सवभूिम-
षट् ख के अिधपित च वत होते ह । नौ िनिधयों और चौदह र ों के ामी होते ह, जो दोषों
से ािणयों की र ा करते ह ऐसे राजाओं के मुकुटों की कलिगयों पर उन च वत के चरण
रहते ह अथात् सम पृ ी के मुकुटब राजा म क झुकाकर च वत के चरणों म
नम ार करते ह ।

+स ि ही तीथकर होते ह -

अमरासुरनरपितिभयमधरपितिभ नूतपादा ोजाः


ा सुिनि ताथा वृषच धरा भव लोकशर ाः ॥३९॥
अ याथ : [ ा] स शन के माहा से जीव [अमरपतय:] उ लोक का ामी --
दे वे , [असुरपतय:] अधोलोक का ामी -- धरणे [नरपितिभ:] मनु ों के ामी --
च वित और [च] तथा [यमधर] मुिनयों के [पितिभ:] ामी -- गणधरों के ारा िजनके
[पादा] चरण [अ ोजा:] कमलों की [नूत] ुित की जाती है , [सुिनि ताथा:] िज ोंने पदाथ
का अ ी तरह िन य िकया है तथा जो [लोकशर ाः] तीनों लोकों के शरणभूत ह, ऐसे [वृष]
धम [च धरा:] च के धारक तीथकर [भव ] होते ह ।
भाच ाचाय :

तथा धमचि णोऽिप स शनमाहा ाद् भव ी ाह-

ास शनमाहा ेन । वृषच धरा भव वृषो धम: त च ं वृषच ं त र ये ते


वृषच धरा ीथ रा: । िकंिविश ा: ? नूतपादा ोजा: पादादे वा ोजे, नूते ुते पादा ोजे
येषाम् । कै: ? अमरासुरनरपितिभ: अमरपतय: ऊ वलोक ािमन: सौधमादय:,
असुरपतयोऽधोलोक ािमनो धरणे ादय:, नरपतय: ितय ोक ािमन वितन: । न
केवलमेतैरेव नूतपादा ोजा:, िक ु यमधरपितिभ यमं तं धर ये ते यमधरा मुनय ेषां
पतयो गणधरा ै । पुनरिप कथ ूता े ? सुिनि ताथा शोभनो िनि त: प रसमा ं गतोऽथ
धमािदल णो येषाम् । तथा लोकशर ा: अनेकिवधदु :खदाियिभ: कमाराितिभ प ु तानां
लोकानां शरणे साधव: ॥३९॥
आिदमित :

स शन के माहा से जीव धमच को वताने वाले तीथ र होते ह । उ लोक के ामी


सौधम ािद अमरपित होते ह । अधोलोक के ामी धरणे आिद असुरपित होते ह,
ितय ोक के ामी च वत तथा यमधरपित-मुिनयों के ामी गणधरदे व उन तीथ रों के
चरण कमलों की ुित िकया करते ह । वे धमािद पदाथ को अ ी तरह िन य- प से जान
चुके ह और अनेक कार के दु :ख दे ने वाले कम पी श ुओं से पीि़डत जीवों को शरण दे ने म
साधु होते ह ।

+स ि ही मो -पद ा करते ह -

िशवमजरम जम यम ाबाधं िवशोकभयशङ् कम्


का ागतसुखिव ािवभवं िवमलं भज दशनशरणाः ॥४०॥
अ याथ : [दशनशरणाः] स ि जीव [अजरम्] वृ ाव था से रिहत, [अ जम्] रोग से
रिहत, [अ यम्] य से रिहत, [अ ाबाधाम्] बाधाओं से रिहत, [िवशोकभयशङ् कम्]
शोक, भय और शंका से रिहत [का ागतसुखिव ािवभवं] सव ृ सुख और ान के वैभव
से सिहत तथा [िवमलं] -भाव-नोकम- प मल से रिहत [िशवम्] मो को [भज ] ा
होते ह ।
भाच ाचाय :

तथा मो ा रिप स शनशु ानामेव भवती ाह-

दशनशरणा: दशनं शरणं संसारापायप रर कं येषां , दशन वा शरणं र णं य ते । िशवं


मो म् । भज नुभव । कथ ूतम् ? अजरं न िव ते जरा वृ ं य । अ जं न िव ते
ािधय । अ यं न िव ते ल ान चतु य यो य । अ ाबाधं न िव ते दु :खकारणेन
केनिचि िवधा िवशेषेण वा आबाधा य । िवशोकभयश ं िवगता शोकभयश ा य ।
का ागतसुखिव ािवभवं का ा परम कष गत: ा : सुखिव योिवभवो िवभूितय । िवमलं
िवगतं मलं भाव पकम य ॥४०॥
आिदमित :

'दशनं शरणं संसारापायप रर कं येषां ते' स शन ही िजनके शरण है यानी संसार के दु :खों
से र ा करने वाला है । अथवा 'दशन शरणं र णं य ते' िजनम स शन की र ा होती है
वे दशन शरण कहे जाते ह । ऐसे दशन के शरणभूत स ि जीव ही िशव-मो का अनुभव
करते ह । वह मो अजरवृ ाव था से रिहत है , अ ज-रोग रिहत है , अ य-िजसका कभी भी
य नहीं होता ऐसे अन चतु य के य से रिहत है । अ ाबाध है -- जो अनेक कार की
बाधा-दु :ख के कारणों से रिहत ह । िवशोकभयाशंक है -- शोक, भय तथा शंका से रिहत है ,
का ागत सुख िव ा िवभव है । जो परम कषता को ा ए सुख और ान के वैभव से
सिहत है तथा िवमल है -- -कम, भाव-कम- प मल से रिहत है ।

+ उपसंहार -

दे वे च मिहमानममेयमानम्,
राजे च मवनी िशरोचनीयम् ।
धम च मधरीकृतसवलोकम्,
ल ा िशवं च िजनभ पैित भ ः ॥४१॥
अ याथ : [िजनभ ] िजने भगवान का भ [भ ः] स ि पु ष [अमेयमानम्]
अप रिमत ित ा अथवा ान से सिहत [दे वे च मिहमानम्] इ समूह की मिहमा को
[अवनी िशरोचनीयम्] मुकुटब राजाओं के म कों से पूजनीय [राजे च म] च वत
के च -र को [च] और [अधरीकृतसवलोकम्] सम -लोक को नीचा करने वाले
[धम च म] तीथकर के धम-च को [ल ा] ा कर [िशवं] मो को [उपैित] ा
होता है ।
भाच ाचाय :

यत् ाक् ेकं लोकै: स शन फलमु ं त शनािधकार समा ौ


सङ् हवृ ेनोपसं ितपादय ाह-

िशवं मो म् । उपैित ा ोित । कोऽसौ ? भ : स ि : । कथ ूत: ? िजनभ : िजने


भ य । िकं कृ ा ? ल ा । कम् ? दे वे च मिहमानं दे वानािम ा दे वे ा ेषां च ं
स ात त वा मिहमानं िवभूित माहा म् । कथ ूतम् ? अमेयमानम् अमेयोऽपय ं
मानं पूजा ानं वा य तममेयमानम् । तथा राजे च ं ल ा रा ािम ा वितन ेषां च ं
च र म् । िकं िविश म् ? अवनी िशरोऽचनीयम् अव ां िनज-िनजपृिथ ाम् इ ा:
मुकुटब ा: राजान ेषां िशरोिभरचनीयम् । तथा धम च ं ल ा
धम ो म मािदल ण चा र ल ण वा इ ा अनु ातार: णेतारो वा
तीथ रादय ेषां च ं स ातं धम ाणां वा तीथकृतां सूचकं च ं धमच म् । कथ ूतम् ?
अधरीकृतसवलोकम् अधरीकृतो भृ तां नीत: सवलोक भुवनं येन तत् । एत व ल ा
प ा वं चोपैित भ इित ॥४१॥

इित भाच िवरिचतायां सम भ ािमिवरिचतोपासका यनटीकायां थम: प र े द: ॥१॥


आिदमित :

िजने भगवान् म साितशय भ रखने वाला भ स ि जीव ग के इ समूह


िवभूित प उस माहा को ा करता है , िजसका मान- ान अप रिमत होता है । वह
राजे च -च वत के उस सुदशन च को ा करता है , जो अपनी-अपनी पृ ी के
मुकुटब राजाओं के ारा अचनीय होता है । तथा उ म मािद अथवा चा र ल ण वाले धम
के जो अनु ाता णेता ऐसे तीथ रों के समूह को अथवा तीथ रों के सूचक उस धमच को
ा होता है । जो अपने माहा से तीनों लोकों को अपना सेवक बना लेता है । इन सभी पदों
को ा करने के प ात् अ म वह मो को ा होता है ।

स ान-अिधकार

+स ान का ल ण -

अ ूनमनित र ं याथात ं िवना च िवपरीतात्


िनःस े हं वेद यदा ानमागिमनः ॥१॥
अ याथ : [यत्] जो ान, पदाथ को [अ ुनम्] ूनता रिहत, [अनित र ं] अिधकता
रिहत, [याथात ं] ों का ों, [िवपरीतात िवना] िवपरीतता रिहत [च] और [िन:संदेहं]
स े ह रिहत [वेद] जानता है , [तत्] उस ान को [आगिमन:] गणधर / ुतकेवली, [ ान]
स ान [आ :] कहते ह ।
भाच ाचाय :

अथ दशन पं धम ा ाय ान पं तं ा ातुमाह-

वेद वेि । य दा बु्रवते । ानं भाव ुत पम् । के ते ? आगिमन: आगम ा: । कथं वेद ?
िन:स े हं िन:संशयं यथा भवित तथा । िवना च िवपरीतात् िवपरीताि पययाि नैव
िवपयय व े दे ने थ: । तथा अ ूनं प रपूण सकलं व ु पं य े द तद् ानं न ूनं
िवकलं त पं य े द। तिह जीवािदव ु पेऽिव मानमिप सवथा
िन िणक ा ै तािद पं क िय ा य े ि तदिधकाथवेिद ात् ानं भिव ती ाह-
अनित र ं व ु पादनित र मनिधकं य े द त ानं न पुन ु पादिधकं
क नािश क तं य े द। एवं चैति शेषणचतु यसाम या थाभूताथवेदक ं त स वित
त शयित- याथात ं यथाव थतव ु पं य े द तद् ानं भाव ुतम्। त ू प ैव ान
जीवा शेषाथानामशेषिवशेषत: केवल ानवत् साक ेन प काशनसाम यस वात् ।
तदु म्-

ा ादकेवल ाने सवत काशने।

भेद: सा ादसा ा व तमं भवेत् ॥१॥ इित

अत दे वा धम ेनािभ ेतं मु तो मूलकारणभूततया गापवगसाधनसाम यस वात् ॥१॥


आिदमित :

ान श से यहाँ भाव ुत ान िववि त है । सव जानने को ान कहते ह। स ान पदाथ


को स े ह रिहत जानता है और व ु का जैसा प है , वैसा ही जानता है , िवपरीतता रिहत
जानता है , ूनता रिहत सम व ु- प को जानता है अथात् पर र िवरोधी
िन ािन ािद दो धम म से िकसी एक को छोडक़र नहीं जानता, िक ु उभय धम से यु
पूण व ु को जानता है , अिधकता रिहत जानता है अथात् व ु म िन -एका अथवा िणक-
एका आिद जो धम अिव -मान ह, उनको क त करके नहीं जानता, यिद क त करके
जानेगा तो अिधक अथ को जानने वाला हो जायेगा ।

अत: इन चार िवशेषणों से सिहत ान यथावत् व ु-त को जानता है । इस तरह ा ाद-


प ुत- ान भी जीवािद सम पदाथ को उनकी सब िवशेषताओं सिहत जानता है , ोंिक
उसम भी केवल ान के समान पूण प से व ु- प को कािशत करने का साम है ।
कहा भी है -

ा ाद प ुत ान और केवल ान ये दोनों ही सम त ों को कािशत करने वाले ह ।


इनम भेद केवल और परो की अपे ा है अथात् केवल ान - प से जानता है
और ुत- ान परो - प से जानता है । जो ुत- ान व ु के एक धम को ही हण करता है ,
वह अव ु अथात् िम ा होता है ।

इस कार यहाँ भाव ुत- ान प स ान ही धम श से अिभ ेत है , ोंिक वही


मूलकारण होने से ग और मो ा कराने का साम य रखता है ।

+ थमानुयोग -
थमानुयोगमथा ानं च रतं पुराणमिप पु म्
बोिधसमािधिनधानं बोधित बोधः समीचीनः ॥२॥
अ याथ : [समीचीनः बोधः] स क् ुत ान [अथा ानं] परमाथ िवषय का कथन करने
वाले [च रतं] एक पु षाि त कथा और [पुराणम्] ेशठशलाका पु ष-स कथा प
[अिप] और [पु म्] पु वधक तथा [बोिध] ान और [समािध] समता के [िनधानं] खजाने
[ थमानुयोगम्] थमानुयोग को [बोधित] जानता है ।
भाच ाचाय :

त िवषयभेदाद् भेदान् पय ाह -

बोध: समीचीन: स ं ुत ानम् । बोधित जानाित । कम् ? थमानुयोगम् । िकं पुन:


थमानुयोगश े नािभधीयते इ ाह- च रतं पुराणमिप एकपु षाि ता कथा च रतं
ि षि शलाकापु षाि ता कथा पुराणं, तदु भयमिप थमानुयोगश ािभधेयम्। त
क त व े दाथमथा ानिमित िवशेषणम्, अथ परमाथ िवषय ा ानं
ितपादनं य येन वा तम् । तथा पु ं थमानुयोगं िह तां पु मु ते इित
पु हे तु ा ु ं तदनुयोगम् । तथा बोिधसमािधिनधानम् अ ा ानां िह स शनादीनां
ा ब िध:, ा ानां तु पय ापणं समािध: ानं वा ध ्यं शु ं च समािध: तयोिनधानम् ।
तदनुयोगं िह तां स शनादे : ा ािदकं ध ्य ानािदकं च भवित ॥२॥
आिदमित :

स ुत ान थमानुयोग को जानता है । िजसम एक पु ष से स त कथा होती है , वह


च र कहलाता है और िजसम ेशठ शलाका पु षों से स रखने वाली कथा होती है , उसे
पुराण कहते ह । च र और पुराण ये दोनों ही थमानुयोग श से कहे जाते ह । यह
थमानुयोग क त अथ का वणन नहीं करता, िक ु परमाथ-भूत िवषय का ितपादन करता
है । इसिलए इसे अथा ान कहते ह । इसको पढऩे और सुनने वालों को पु का ब होता
है , इसिलए इसे पु कहा है । तथा यह थमानुयोग बोिध अथात् स शनािद प र य
की ा और समािध अथात् ध और शु ान की ा का िनधान-खजाना है । इस
कार इस अनुयोग को सुनने से स शनािद की ा और ध य ानािदक होते ह ।

+ करणानुयोग -

लोकालोकिवभ ेयुगप रवृ े तुगतीनां च


आदशिमव तथामितरवैित करणानुयोगं च ॥३॥
अ याथ : [तथा] थमानुयोग की तरह [मित:] मनन प ुत ान, [लोकालोकिवभ े:]
लोक और अलोक के िवभाग को, [युगप रवृ े:] युगों के प रवतन [च] और [चतुगतीनां] चारों
गितयों के िलये [आदशम्] दपण के [इव] समान करणनुयोग को भी [अवैित] जानता है ।
भाच ाचाय :

तथा -

तथा तेन थमानुयोग कारे ण । मितमननं ुत ानम् । अवैित जानाित । कम् ? करणानुयोगं
लोकालोकिवभागं प सङ् हािदल णम् । कथ ूतिमव ? आदशिमव यथा आदश दपणो
मुखादे यथाव प काशक था करणानुयोगोऽिप िवषय ायं काशक: ।
लोकालोकिवभ े: लो े जीवादय: पदाथा य ासौ
लोक च ा रं शदिधकशत यप रिमतर ुप रमाण:, ति परीतोऽलोकोऽन मानाव
शु ाकाश प: तयोिवभ िवभागो भेद ा: आदशिमव । तथा युगप रवृ े: युग
काल ो िप ादे : प रवृि : परावतनं त ा आदशिमव। तथा चतुगतीनां च
नरकितय नु दे वल णानामादशिमव ॥३॥
आिदमित :

िजस कार स ुत ान थमानुयोग को जानता है , उसी कार करणानुयोग को भी जानता


है । करणानुयोग म लोक-अलोक का िवभाग तथा पंचसं ह आिद भी समािव ह । यह
करणानुयोग दपण के समान है । अथात् िजस कार दपण मुख आिद के यथाथ प का
दशक है , उसी कार करणानुयोग भी -िवषय का काशक होता है । िजसम जीवािद पदाथ
दे खे जाते ह, उसे लोक कहते ह । यह लोक तीन सौ ततालीस राजू माण है । इसके िवपरीत
अन माण प जो शु -पर ों के संसग से रिहत आकाश है , वह अलोक कहलाता है ।

उ िपण-अवसिपणी आिद काल के भेदों को युग कहते ह । इनम सुखमािद छह काल का


प रवतन होता है , वह युग-प रवतन है । नरक, ितयच, मनु , दे वािद ल ण वाली चार गितयाँ
ह । करणानुयोग इन सबका िवशद् वणन करने के िलए दपण के समान है ।

+ चरणानुयोग -

गृहमे नगाराणां चा र ो ि वृ र ाङ् गम्


चरणानुयोगसमयं स ानं िवजानाित ॥४॥
अ याथ : [स ानं] भाव ुत प स ान [गृहमे ] गृह थ और [अनगाराणां] मुिनयों
के [चा र ] च र की [उ ित] उ ि , [वृ ] वृ और [र ाङ् गम्] र ा के कारणभूत
[चरणानुयोग] चरणानुयोग [समयं] शा को [िवजानाित] जानता है ।
भाच ाचाय :

तथा-
स ानं भाव ुत पम् । िवजानाित िवशेषेण जानाित । कम् ? चरणानुयोगसमयं
चा र ितपादकं शा माचारा ािद । कथ ूतम् ? चा र ो ि वृ र ा ं
चा र ो ि वृ र ा च तासाम ं कारणम् अ ािन वा कारणािन े य । केषां
तद म्? गृहमे नगाराणां गृहमेिधन: ावका: अनगारा मुनय ेषाम् ॥४॥
आिदमित :

स ान चरणानुयोग को भी जानता है । चा र का ितपादन करने वाले आचारां ग आिद


शा चरणानुयोग शा कहलाते ह । इन शा ों म गृह थ- ावक और मुिनयों के चा र की
उ ि , वृ और र ा के कारणों का िवशद वणन है । समीचीन ुत ान इन सब शा ों को
िवशेष प से जानता है ।

+ ानुयोग -

जीवाजीवसुत े पु ापु े च ब मो ौ च
ानुयोगदीपः ुतिव ालोकमातनुते ॥५॥
अ याथ : [ ानुयोगदीपः] ानुयोग पी दीपक [जीवाजीवसुत े] जीव, अजीव,
मुख त ों को [पु ापु े] पु और पाप को [ब मो ौ] ब और मो को तथा चकार से
आ व संवर और िनजरा को [ ुतिव ालोकम्] भाव- ुत ान- प काश को फैलाता आ
[आतनुते] िव ृत करता है ।
भाच ाचाय :

ानुयोगदीपो ानुयोगिस ा सू ं त ाथसू ािद पो ागम: स एव दीप: स ।


आतनुते िव ारयित अशेषिवशेषत: पयित । के ? जीवाजीवसुत े उपयोगल णो जीव:
ति परीततोऽऽजीव: तावेव शोभने अबािधते त े व ु पे आतनुते । तथा पु ापु े
स े शुभायुनामगो ािण िह पु ं ततोऽ मापु मु ते, ते च
मूलो र कृितभेदेनािवशेषिवशेषतो ानुयोगदीप आतनुते । तथा ब मो ौ च
िम ा ािवरित मादकषाययोगल णहे तुवशादु पािजतेन कमणा सहा न: संश£◌े षो ब :
ब हे भाविनजरा ां कृ कमिव मो ल णो मो ाव शेषत: ानुयोगदीप आतनुते।
कथम्? ुतिव ालोकं ुतिव ा भाव ुतं सैवालोक: काशो य कमिण त थाभव ेवं
जीवादीिन स काशयतीित ॥५॥

इित भाच िवरिचतायां सम भ ािमिवरिचतोपसाक यनटीकायां ि तीय: प र े द: ॥


२॥
आिदमित :
' ानुयोग दीपो' ानुयोग िस ा सू त ाथसू ािद प ागम प दीपक है ।
उपयोग ल ण वाला जीव कहलाता है , इससे िवपरीत उपयोग ल ण से रिहत अजीव
है । सातावेदनीय, शुभायु, शुभ नाम और शुभ गो ये पु कम कहलाते ह, इससे िवपरीत
असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और अशुभ गो ये पाप कम कहलाते ह । इन सबके
मूल कृित और उ र कृित के भेद से अनेक भेद ह । िम ा , अिवरित, माद, कषाय और
योग प हे तुओं से आ ा और कम का जो पर र सं ेष होता है , उसे ब कहते ह । ब
के हे तुओं के अभाव प संवर और िनजरा के ारा सम कम का आ ा से पृथक् हो जाना
मो कहलाता है । ोक म आये ए 'च' श से आ व, संवर, िनजरा का भी हण होता है ।
इस कार ानुयोग पी दीपक नौ पदाथ को ुतिव ा-भाव ुत ान पी काश कािशत
करता है अथात् जानता है ।

स क-चा र -अिधकार

+ चा र की आव कता -

मोहितिमरापहरणे दशनलाभादवा सं ानः


राग े षिनवृ ै चरणं ितप ते साधुः ॥४७॥
अ याथ : [मोह] दशन-मोह पी [ितिमर] अंधकार के [अपहरणे] दू र होने पर [दशन]
स शन की [लाभात्] ा से िजसे [सं ानः] स ान [अवा ] ा आ है ऐसा
[साधुः] भ जीव [राग े षिनवृ ै] राग े ष की िनवृि के िलए [चरणं] चा र को [ ितप ते]
धारण करते है ।
भाच ाचाय :

'चरणं' िहं सािदिनवृि ल णं चा र म् । ' ितप ते' ीकरोित । कोऽसौ ? 'साधु' - भ : ।


कथ ूत: ? 'अवा सं ान:' । क ात्? 'दशनलाभात्' । त ाभोऽिप त क न् सित
स ात: ? 'मोहितिमरापहरणे' मोहो दशनमोह: स एव ितिमरं त ापहरणे यथास वमुपशमे
ये योपशमे वा। अथवा मोहो दशनचा र मोह िमरं ानावरणािद तयोरपहणे । अयमथ:-
दशनमोहापहरणे दशनलाभ: । ितिमरापहरणे सित दशनलाभादवा सं ान: भव ा ा ।
ानावरणापगमे िह ानमु मानं स शन सादात् स पदे शं लभते, तथाभूत ा ा
चा र मोहापगमे चरणं ितप ते । िकमथम् ? 'राग े षिनवृ ै' राग े षिनवृि िनिम म् ॥४७॥
आिदमित :

'चरणं' िहं सािद पापों से िनवृि होने को चा र कहते ह । भ जीव ऐसे चा र को कब और


ों धारण करता है ? इस का उ र दे ते ए कहते ह िक मोह-दशनमोह-िम ा पी
अ कार का अपहरण-यथास व उपशम, य, अथवा योपशम हो जाने पर िजसे स
की ा ई है और स की ा होने से िजसे स ान ा आ है , ऐसा भ पु ष
राग े ष की िनवृि के िलए चा र धारण करता है । अथवा, 'मोहो दशनचारि मोह िमरं
ानावरणािदतयोरपहरणे' अथात् मोह का अथ दशनमोह तथा चा र मोह इन दो भेदों से
उपलि त मोहकम और ितिमर श का अथ ानावरणािद कम है , जब इन दोनों का अभाव
हो जाता है तभी जीव को स शन और स ान की ा होती है । ता य यह है िक
दशनमोह का अभाव हो जाने से स शन का लाभ होता है और ानावरणािद के अभाव-
योपशम होने से ान ा होता है । स शन के साद से ान म समीचीनपने का वहार
होता है । इस कार स शन और स ान को िजस भ ा ा ने ा कर िलया है , वह
चा र मोह प राग- े ष को दू र करने के िलए चा र को ा करता है ।

+ चा र कब होता है ? -

राग े षिनवृ ेिहसािदिनवतना कृता भवित


अनपेि ताथवृि ः कः पु षः सेवते नृपतीन् ॥४८॥
अ याथ : [राग े षिनवृ ेः] राग े ष की िनवृि से [िहसािद िनव नः] िहं सािद पापो की
िनवृि [कृता भवित] यं हो जाती है [अनपेि ताथवृि ः] िजसे िकसी योजन- प फल
की ा अिभलिषत न हो [कः पु षः] कौन पु ष [नृपतीन् सेवते] राजाओं की सेवा करता
है ।
भाच ाचाय :

िहं सादे : िनवतना ावृि : कृता भवित । कुत: ? राग े षिनवृ े: । अयम ता याथ:-
वृ रागािद योपशमादे : िहं सािदिनवृि ल णं चा र ं भवित । ततो भािवरागािदिनवृ ेरेव
कृ तर कृ तम ात् िहं सािद िनवतते । दे शसंयतािदगुण थाने
रागािदिहं सािदिनवृि ाव तते यावि :शेषरागािद य: त ा िन:शेषिहं सािदिनवृि ल णं
परमोदासीनता पं परमो ृ चा र ं भवतीित । अ ैवाथ समथनाथमथा र ासमाह-
अनपेि ताथवृि : क: पु ष: सेवते नृपतीन् अनपेि ताऽनिभलिषता अथ योजन
फल वृि : ा यन स तथािवध: पु ष: को, न कोऽिप े ापूवकारी, सेवते नृपतीन् ॥४८॥
आिदमित :

राग े ष की िनवृि से िहं सािद पापों की िनवृि त: हो जाती है । ता य यह है िक वतमान म


िजन रागािद भावों की वृि है उनका योपशमािद होने पर िहं सािद पापों का ाग प
चा र होता है । तदन र आगामी काल म उ होने वाले रागािद भावों की िनवृि भी हो
जाती है , इसी कार आगे-आगे कृ से कृ तर और कृ तम िनवृि होती जाती है । तथा
ऐसा होने पर िहं सािद पापों की यं िनवृि हो जाती है । दे शसंयतािद गुण थानों म रागािदभाव
और िहं सािद पापों की िनवृि वहाँ तक होती जाती है , जहाँ तक िक पूण प से रागािद का य
और उससे होने वाली सम िहं सािद पापों के ाग प ल ण वाला परम उदासीनता प
परमो ृ चा र होता है । इसी अथ का समथन करने के िलए अथा र ास ारा ा दे ते
ह िक 'अनपेि ताथवृि : क: पु : सेवते नृपतीन्' अथात् िजसे िकसी भी अिभलिषत फल की
चाह नहीं है , ऐसा कौनसा पु ष राजाओं की सेवा करता है ? अथात् कोई बु मान् मनु नहीं
करता ।

+ चा र का ल ण -

िहं सानृतचौय ो, मैथुनसेवाप र हा ां च


पाप णािलका ो, िवरित: सं चा र म् ॥४९॥
अ याथ : िहं सा, [नृत] झूठ, चोरी, [मैथुन] कुशील और प र ह ये पां च [पाप णािलका ो]
पाप की नाली के समान पापों के आने के कारण ह, इनसे िवरित का [सं ] नाम ही चा र
है ।
भाच ाचाय :

'चा र ं' भवित । कासौ ? 'िवरित' ्यावृि : । के : 'िहं सानृतचौय :' ? िहं सादीनां
पकथनं यमेवा े कार: क र ित । न केवलमेते एव िवरित :- अिप तु
'मैथुनसेवाप र हा ाम्' । एते : कथ ूते :? 'पाप णािलका :' पाप णािलका इव
पाप णािलका आ व ारािण ता : । क ते ो िवरित: ? 'सं ' स ानातीित स :
त हे योपादे यत प र ानवत: ॥४९॥
आिदमित :

िहं सािद पापों के ाग से चा र होता है । िहं सा, अस , चोरी, मैथुनसेवन और प र ह इनके


प का कथन कार आगे करगे, ोंिक ये पाप प ग े पानी को बहाने के िलए ग े
नालों के समान ह, इसिलए हे य और उपादे य त ों के ाता इन पापों से िवर होते ह ।

+ चा र के भेद और उपासक -
सकलं िवकलं चरणं, त कलं सवस िवरतानाम्
अनगाराणां िवकलं, सागाराणां सस ानाम् ॥५०॥
अ याथ : [चरणं] चा र दो कार का कहा है -- [सकलं िवकलं] सकल-चा र और
िवकल-चा र । [तत्] इनम सकल चा र तो [सव] स ूण [स ] प र ह से [िवरतानाम्]
िवर , ऐसे [अनगाराणां] मुिन को कहा है और िवकल-चा र को [सस ानाम्] प र ह
सिहत [सागाराणां] गृह थ धारण करते ह ।
भाच ाचाय :

िहं सािदिवरितल णं य रणं ा िपतं तत् सकलं िवकलं च भवित । त सकलं प रपूण
महा त पम् । केषां त वित ? अनगाराणां मुनीनाम् । िकंिविश ानां सवस िवरतानां
बा ा रप र हरिहतानाम् । िवकलं प रपूणम् अणु त पम् । केषां त वित सागाराणां
गृह थानाम् । कथ ूतानाम् । कथ ूतानाम् ? सस ानां स ानाम् ॥
आिदमित :

िहं सािद पापों के ाग- प ल ण से यु िजस चा र का पहले वणन िकया है वह चा र


सकल और िवकल के भेद से दो कार का होता है । उनम सकल-चा र प रपूण महा- त-
प कहा है , जो बा और आ र सम प र ह के ागी मुिनयों के होता है । िवकल-
चा र दे श-चा र - प है , जो पंच अणु- त के धारक प र ह से सिहत गृह थों के होता है ।

+ िवकल चा र के भेद -

गृिहणां ेधा ित णु-गुण िश ा ता कं चरणं


प -ि -चतुभदं यं यथासं मा ातम् ॥५१॥
अ याथ : [गृिहणां] गृह थों का [चरणं] िवकल-चा र [अणु-गुण-िश ा ता कं] अणु त,
गुण त, िश ा त के भेद से [ ेधा] तीन कार का [ित ित] है उन [ यं] तीनों मे [यथासं ं]
ेक के मश: [प -ि -चतुभदं ] प , तीन व चार भेद [अ ातं] कहे गए ह
भाच ाचाय :

गृिहणां स ी यत् िवकलं चरणं तत् ेधा ि कारम् । ित ित भवित । िकं िविश ं सत् ?
अणुगुणिश ा ता कं सत् अणु त पं गुण त पं िश ा त पं सत् । यमेव ।
त ेकम् । यथासङ् म् । प ि चतुभदमा ातं ितपािदतम् । तथािह- अणु तं प भेदं
गुण तं ि भेदं िश ा तं चतुभदिमित ॥
आिदमित :
गृह थों का जो िवकल-चा र है , वह अणु- त, गुण- त और िश ा- त के भेद से तीन कार
का है । उन तीनों म ेक के म से पाँ च भेद, तीन भेद और चार भेद कहे गये ह । अथात्
पाँ च अणु- त, तीन गुण- त और चार िश ा- त- प भेद जानने चािहए ।

अणु त-अिधकार

+ अणु त का ल ण -

ाणाितपातिवतथ ाहार ेय काम मू ा ः


थूले : पापे ो ुपरमणमणु तं भवित ॥५२॥
अ याथ : [ ाणाितपात] िहं सा, [िवतथ ाहार] झूठ, [ ेय] चोरी, [काम] कुशील और
[मू ा] प र ह [ थूले ः] थूल प से [पापे ः] पापों से [ ुपरमणं] िवरत होना
[अणु तं] अणु त [भवित] है ।
भाच ाचाय :

अणु तं िवकल तम् । िकं तत् ? यपुरमणं यावतनं यत् । के य: इ याह- ाणे यािद
ाणानािम यादीनामितपात चाितपतनं िवयोगकरणं िवनाशनम् । िवतथ याहारा च िवतथो
अस य: स चासौ याहार च श द:। तेयं च चौयम्। काम च मैथुनम्। मू छा च प र ह: मू छा
च मू ते लोभावेशात् प र ते इित मू छा इित यु प ते: । ते य: । कथ भूते य: ? थूले य: ।
अणु तधा रणो िह सवसाव िवरतेरस भवात् थूले य एव िहं सािद यो यपुरमणं भवित । स िह
स ाणाितपाता स ाणाितपाताि तो न थावर ाणाितपातात् । तथा पापािदभयात्
परपीडािदकारणिमित म वा थूलादस यवचनिन तो न तिद् वपरीतात् । तथा उपा ताया
अनुपा ताया च पराङ् गनाया: पापाभयािदना िन तो ना यथा इित थूल पात् प र हाि ि :
। कथ भूते य: ाणाितपातािद य: ? पापे य: पापा ण ारे य: ॥५२॥
आिदमित :

इ यािद ाणों का िवयोग करना ाणाितपात है । अस वचन बोलना िवतथ- वहार है ।


ामी की आ ा के िबना िकसी व ु को हण करना चोरी है । मैथुन-सेवन काम है और लोभ
के वशीभूत होकर बा प र ह को हण करना प र ह-मू ्छा है । ये पाँ च पाप थूल और
सू की अपे ा दो कार के ह । इनम थूल पापों से िवर होना अणु त कहलाता है ।
अणु तधारी जीवों के सू स ूण पापों का ाग होना अस व है । इसिलए वे थूल िहं सािद
पापों का ही ाग कर अणु त धारण कर सकते ह । अिहं साणु तधारी पु ष सिहं सा से तो
िवर होता है , पर ु थावर िहं सा से िनवृ नहीं होता । स ाणु त का धारक पापािदक के
भय से पर-पीड़ाकारकािद थूल अस वचन से िनवृ होता है , िक ु सू अस वचन से
नहीं । अचौयाणु त का धारी पु ष राजािदक के भय से दू सरे के ारा छोड़ी गई अद व ु का
थूल प से ागी होता है , सू प से नहीं । चयाणु त का धारक पाप के भय से दू सरे
की गृहीत अथवा अगृहीत ी से िवर होता है , ी से नहीं । इसी कार प र ह
प रमाणाणु त का धारी पु ष धन-धा तथा खेत आिद प र ह का अपनी इ ानुसार
प रमाण करता है , इसिलए थूल प र ह का ही ागी होता है , सू का नहीं । ये िहं सािद काय
पाप प ह, ोंिक पाप कम के आ व के ारा ह। इनके िनिम से जीव के सदा पापकम
का आ व होता रहता है ।

+ अिहं सा अणु त -

सङ् क ा ृ तका रतमनना ोग य चरस ान्


न िहन य दा ः थूलवधाि रमणं िनपुणाः ॥५३॥
अ याथ : [यत्] जो [योग य ] मन-वचन-काय के [कृतका रतमननात्] कृत, का रत,
अनुमोदना प [सङ् क ात्] संक से [चर] स [स ान्] जीवों को [न िहन ] नहीं
मारता है [तत्] उसे, [िनपुणा:] गणधर आिदक [ थूलवधात्] थूल-िहं सा से [िवरमणम्]
िवर होना अथात् अिहं साणु त [आ ] कहते ह ।
भाच ाचाय :

चरस ान् सजीवान् । य िहन । तदा : थूलवधाि रमणम् । के ते ? िनपुणा:


िहं सािद-िवरित तिवचारद ा: । क ा िहन ?स ात् स ं िहं सािभस धमाि ।
कथ ूतात् स ात् ? कृतका रतानुमननात् कृतका रतानुमनन पात् । क स न: ?
योग य मनोवा ाय य । अ कृतवचनं कतु: ात ितप थम् । का रतानुिवधानं
पर योगो मनुवचनम् । अनुमननवचनं योजक मानसप रणाम दशनाथम् । तथा िह --
मनसा चरस िहं सां यं न करोिम, चरस ान् िहन ीित मन: स ं न करोमी थ: । मनसा
चरस िहं साम ं न कारयािम, चरस ान् िहं सय-िहं सयेित मनसा योजको न भवामी थ: ।
तथा अ ं चरस िहं सां कुव ं मनसा नानुम े, सु रमनेन कृतिमित मन: स ं न
करोमी थ: । एवं वचसा यं चरस िहं सां न करोिम चरस ान् िहन ीित यं वचनं
नो ारयामी थ: । वचसा चरस िहं सां न करोिम चरस ान् िहन ीित यं वचनं
नो ारयामी थ: । वचसा चरस िहं सां न कारयािम चरस ान् िहं सय िहं सयेित वचनं
नो ारयामी थ: । तथा वचसा चरस िहं सां कुव ं नानुम े, साधुकृतं येित वचनं
नो ारयामी थ: । तथा कायेन चरस िहं सा न करोिम, चरस िहं सने ि मुि स ाने यं
काय ापारं न करोमी थ: । तथा कायेन चरस िहं सां न कारयािम, चरस िहं सने
कायस या परं न ेरयामी थ: । तथा चरस िहं सां कुव म ं नरव ोिटकािदना कायेन
नानुम े । इ ु मिहं साणु तम् ॥५३॥
आिदमित :

'म इस जीव को मा ँ ' इस अिभ ाय से जो िहं सा की जाती है , उसे संक कहते ह । यह


संक मन, वचन और काय इन तीनों योगों की कृत, का रत तथा अनुमोदना प प रणित से
होता है । िकसी काय को त प से यं करना कृत है । दू सरे से कराना का रत है और
कराने वाले के िलए अपने मानिसक प रणामों को कट करते ए अनुमित के वचन कहना
अनुमोदना है । इस कार यह कृत-का रत-अनुमोदना मन, वचन व काय प तीनों योगों से
कट होती है । यथा-

1. म मन से स जीवों की िहं सा यं नहीं करता ँ अथात् म स जीवों को मा ँ ऐसा मन से


संक नहीं करता ँ ।
2. दू सरों से स िहं सा नहीं कराता ँ अथात् 'तुम स जीवों को मारो' ऐसा मन से संक नहीं
करता ँ ।
3. स जीवों की िहं सा करते ए िकसी जीव की मन से अनुमोदना नहीं करता ँ अथात् 'इसने
यह काय अ ा िकया' ऐसा मन से संक नहीं करता ँ ।
4. इसी कार वचन से म यं स जीवों की िहं सा नहीं करता ँ अथात् 'म स जीवों को
मा ँ ' ऐसे वचन नहीं बोलता ँ ।
5. वचन से दू सरों के ारा स जीवों की िहं सा नहीं कराता ँ अथात् 'तुम स जीवों को मारो'
ऐसे वचनों का योग नहीं करता ँ ।
6. तथा स जीवों को िहं सा करते ए अ पु ष की वचन से अनुमोदना नहीं करता ँ अथात्
'तुमने ब त अ ा िकया' ऐसा वचनों से उ ारण नहीं करता ँ ।
7. काय से स जीवों की यं िहं सा नहीं करता ँ अथात् यं आँ ख से संकेत करना मुी
बाँ धना आिद शारी रक ापार नहीं करता ँ ।
8. शरीर से दू सरे के ारा स जीवों की िहं सा नहीं कराता ँ अथात् शरीर के संकेत से दू सरे
को े रत नहीं करता ँ ।
9. स जीवों की िहं सा करते ए िकसी अ पु ष को चुटकी बजाना आिद शरीर के अ
िकसी ापार से अनुमित नहीं दे ता ँ ।

इन नौ कोिट से स िहं सा का ाग करना अिहं साणु त है ॥५३॥

+ अिहं सा अणु त के अितचार -


छे दनब नपीडनमितभारारोपणं तीचाराः
आहारवारणािप च थूलवधाद् ुपरतेः प ॥५४॥
अ याथ : [ थूलवधाद् ुपरतेः] थूल-वध से िवरत (अिहं साणु त) के, [छे दनब नपीडनम्]
छे दना, बां धना, पीड़ा दे ना, [अितभारारोपणम्] अिधक भार लादना [अिप] और
[आहारवारणा] आहर का रोकना [एते] ये पाँ च [ तीचाराः] अितचार ह ।
भाच ाचाय :

तीचारा िविवधा िव पका वा अतीचारा दोषा: । कित ? प । क ? थूलवधाद् ुपरते:


। कथिम ाह छे दने ािद कणनािसकादीनामवयवानामपनयनं छे दनं, अिभमतदे शे
गितिनरोधहे तुब नं, पीडाद कशा िभघात:, अितभारारोपणं ा भारादिधकभारारोपणम्
। न केवलमेत तु यमेव िक ु आहारवारणािप च आहार अ पानल ण वारणा िनषेधो
धारणा वा िनरोध: ॥
आिदमित :

'िविवधा िव पका वा अितचारा दोषा: ितचारा:' इस समास के अनुसार तीचार का अथ है -


नाना कार के अथवा त को िवकृत करने वाले दोष । ये अितचार-दोष पाँ च ह । दु भावना से
नाक, कानािद अवयवों को छे दना, इ त थान पर जाने से रोकने के िलए र ी आिद से बाँ ध
दे ना, ड े कोड़े आिद से पीटना, उिचत भार से अिधक भार लादना तथा अ पानािद प
आहार का िनषेध करना अथवा थोड़ा दे ना -- अिहं साणु त के ये पाँ च अितचार ह ॥५४॥

+ स ाणु त -

थूलमलीकं न वदित न परान् वादयित स मिप िवपदे


य द स ः थूलमृषावादवैरमणम् ॥५५॥
अ याथ : [यत्] जो [ थुलम्] थूल [अलीकम्] झूठ को [न वदित] न यं बोलता है [च]
और न [परान्] दू सरों से [वादयित] बुलवाता है और [िवपदे ] ऐसा [स म्] स [अिप] भी न
यं बोलता है न दू सरों से बुलवाता है जो दू सरे के ाणघात के िलये हो [तत्] उसे [संत:]
स ु ष [ थूलमृषावादवैरमणम्] थूल झूठ का ाग अथात् स ाणु त [वद ] कहते ह ।
भाच ाचाय :

थूलमृषावादवैरमणं थूल ासौ मृषावाद त ा ै रमणं िवरमणमेव वैरमणम् । त द । के


ते ? स : स ु षा: गणधरदे वादय: । त म्, स ो य वद । अलीकम् अस म् ।
कथ ूतम् ? थूलम् य ु े परयोवधब ािदकं राजािद ो भवित त यं ताव वदित ।
तथा परान् अ ान् तथािवधमलीकं न वादयित । न केवलमलीकं िक ु स मिप
चोरोऽयिम ािद पं न यं वदित न परान् वादयित । िकं िविश ं यदु ं स मिप पर
िवपदे ऽपकाराय भवित ॥
आिदमित :

'िवरमणमेव वैरमणम्' इस ु ि के अनुसार वैरमण श म ाथ म अण् य आ है ।


इसिलए जो अथ िवरमण श का होता है , वही वैरमण श का अथ है । ' थूलं' का अथ यह
है िक िजसके कहने से और पर के िलए रा ािदक से वध ब नािदक ा हों ऐसे थूल
अस को जो न तो यं बोलता है और न दू सरों को े रत कर बुलवाता है तथा ऐसा स भी
जैसे 'यह चोर है ' इ ािद न यं बोलता है , न दू सरों से बुलवाता है , उसे स ाणु त कहते ह ।

+ स ाणु त के अितचार -

प रवाद-रहो ा ा-पैशू ं कूटलेखकरणं च


ासापहा रतािप च, ित मा: प स ॥५६॥
अ याथ : [प रवाद] झूठा उपदे श दे ना, [रहो ा ा] अ ों की एकां त की गु ि याओं
को गट करना, [पैशु ] पर की चुगली िन ा करना, [कूटलेखकरण] झूठे लेख द ावेज
आिद िलखना और [ ासापहार] यिद कोई धरोहर की सं ा को भूल जावे तो उसे उतनी ही
कहकर बाकी हड़प लेना, स ाणु त के ये [प ] पां च [ ित म] अितचार ह ।
भाच ाचाय :

अकृशचौयात् थूलचौयात् । उपारमणं तत् । यत् न हरित न गृ ाित । िकं तत् ? पर ं पर म्


। कथ ूतम् ? िनिहतं वा धृतम् । तथा पिततं वा । तथा सुिव ृतं वा अितशयेन िव ृतम् । वा
श : सव पर रसमु ये । इ ूतं पर म् अिवसृ म् अद ं य यं न हरित न
द ेऽ ै तदकृशचौयादु पारमणं ितप म् ॥
आिदमित :

प रवाद का अथ िम ोपदे श है अथात् अ ुदय और मो की योजनभूत ि याओं म


दू सरे को अ था वृि कराना प रवाद या िम ोपदे श है ।
ी-पु षों की एका म की ई िविश ि या को कट करना रहो ा ान है ।
अंगिवकार तथा भौंहों का चलाना आिद के ारा दू सरे के अिभ ाय को जानकर इषावश
उसे कट करना पैशु है । इसे साकारम भेद कहते ह ।
दू सरे के ारा अनु अथवा अकृत िकसी काय के िवषय म ऐसे कहना िक यह उसने कहा
है या िकया है , इस कार धोखा दे ने के अिभ ाय से कपटपूण लेख िलखना कूटलेखकरण
है ।
तथा धरोहर रखनेवाला यिद अपनी व ु की सं ा को भूलकर अ सं ा म ही
व ु को मां ग रहा है तो कह दे ना हाँ , इतनी ही तु ारी व ु है , ले लो, इसे ासापहा रता
कहते ह ।

इस कार प रवादािदक चार और ासापहार िमलकर स ाणु त के पाँ च अितचार होते ह ।

+ अचौयाणु त -

िनिहतं वा पिततं वा सुिव ृतं वा पर मिवसृ ं


न हरित य च द े तदकृशचौ ादुपारमणम् ॥५७॥
अ याथ : [िनिहतं] रखे ए [वा] या [पिततं] पड़े ए अथवा [सुिव ृतं] िब ु ल भूले ए
[अिवसृ ं] िबना िदये ए [पर म] दू सरे के धन को [न हरित] न यं लेता है और [न च
द े] न िकिस दू सरे को दे ता है वह [अकृशचौ ात्] थूलचोरी का [उपारमणम्] प र ाग
अथात् अचौयाणु त है ।
भाच ाचाय :

अधुना चौयिवर णु त पं पय ाह --

अकृशचौयात् थूलचौयात् । उपारमणं तत् । यत् न हरित न गृ ाित । िकं तत् ? पर ं पर म्


। कथ ूतम् ? िनिहतं वा धृतम् । तथा पिततं वा । तथा सुिव ृतं वा अितशयेन िव ृतम् । वा
श : सव पर रसमु ये । इ ूतं पर म् अिवसृ म् अद ं य यं न हरित न
द ेऽ ै तदकृशचौयादु पारमणं ितप म् ॥
आिदमित :

अकृशचौय का अथ थूल चोरी है । दू सरे का रखा आ हो, पड़ा हो, भूला आ हो, वा
श सव पर र स ुचय के िलए है ऐसे धन को िबना िदये न यं लेता है और न उठाकर
अ को दे दे ता है । इस थूल चोरी से उपारमणं- िनवृ होना यह अचौयाणु त है ।

+ अचौयाणु त के अितचार -

चौर योगचौराथादानिवलोपस शस ाः
हीनािधकिविनमानं प ा ेये तीपाताः ॥५८॥
अ याथ : [चौर योग] चोरी म सहयोग दे ना, [चौराथादान] चोरी का माल खरीदना,
[िवलोप] रा -िव / गैर-कानूनी काय करना, [स शस ] अनुिचत लाभ के िलए
असली व ु म नकली व ु िमलाकर बेचना और [हीनािधक-िविनमान] नाप-तोल म हे रा-
फेरी करना, ये पाँ च [अ ेये] अचौयाणु त के [ तीपाताः] अितचार ह ।
भाच ाचाय :

त ैदानीमितचारानाह --

अ ेये चौयिवरमणे । तीपाता अतीचारा: प भव । तथा िह । चौर योग: चोरयत:


यमेवा ेन वा पे्ररणं े रत वा अ ेनानुमोदनम् । चौराथादानं च अ े रतेनानुमतेन च
चौरे णानीत ाथ हणम् । िवलोप उिचत ायाद ेन कारे णाथ ादानं
िव रा ाित म इ थ: । िव रा े मू ािन महाघािण ाणीित कृ ा
तरे णाथन गृाित । स शस ित पक वहार इ थ: स शेन तैलािदना स ं
घृतािदकं करोित । कृि मै िहर ािदिभव नापूवकं वहारं करोित । हीनािधकिविनमानं
िविवधं िनयमेन मानं िविनमानं मानो ानिम थ: । मानं िह थािद, उ ानं तुलािद, त
हीनािधकं, हीनेन अ ै ददाित, अिधकेन यं गृ ातीित ॥
आिदमित :

अचौयाणु त के पाँ च अितचार ह, त था --

चोरी करने वाले चोर को यं ेरणा दे ना, दू सरे से ेरणा िदलाना और िकसी ने ेरणा दी
हो तो उसकी अनुमोदना करना चौर- योग है ।
चौराथादान िजसे अपने ारा ेरणा नहीं दी गई है तथा िजसकी अनुमोदना भी नहीं की गई
है , ऐसे चोर के ारा चुराकर लायी ई व ु को हण करना चौराथादान है । ोंिक चोरी
के माल को खरीदने से चोर को चोरी करने की ेरणा िमलती है ।
िवलोप उिचत ाय को छोडक़र अ कार के पदाथ का हण करना इसे िवलोप कहते
ह, इसे ही िव रा ाित म कहते ह । िजस रा म अ रा की व ुओं का आना-
जाना िनिष िकया गया है , उसे िव रा कहते ह । िव रा म महँ गी व ुएँ
अ मू म िमलती ह, ऐसा समझकर वहाँ मू म व ुओं को खरीदना और अपने
रा म अिधक मू म बेचना िव रा ाित म कहलाता है ।
स शस समान प रं ग वाली नकली व ु को असली व ु म िमलाकर असली व ु
के भाव से बेचना, जैसे घी म तैल आिद िमि त करके बेचना, कृि म-बनावटी सोना-चाँ दी
आिद के ारा दू सरों को धोखा दे ते ए ापार करना स शस कहलाता है ।
हीनािधकिविनमान िजससे व ुओं का लेन-दे न होता है इसको िविनमान कहते ह,
मानो ान भी कहते ह । िजसम भरकर या तौलकर व ु दी जाती है , उसे 'मान' कहते ह ।
जैसे- थ, तराजू आिद । और िजससे नापकर व ु ली या दी जाती है , उसे उ ान कहते
ह । जैसे -- गज, फुट आिद । िकसी व ु को दे ते समय कम दे ना हीन है और खरीदते
समय अिधक लेना हीनािधक मानो ान कहलाता है ।
अचौयाणु त का धारी मनु इन सब अितचारों से दू र रहकर अपने तों की सुर ा करता है ।

+ चय अणु त -

न तु परदारान् ग ित न परान् गमयित च पापभीतेयत्


सा परदारिनवृि ः दारस ोषनामािप ॥५९॥
अ याथ : [यत्] जो [पापभीते:] पाप के भय से [परदारान्] पर यों के ित [न तु] न तो
[ग ित] यं गमन करता है [च] और [न परान्] न दू सरों को [गमयित] गमन कराता है
[सा] वह [परदारिनवृि :] पर ी- ाग [अिप] तथा [ दारस ोषनाम] दारस ोष नाम
का अणु त है ।
भाच ाचाय :

सा परदारिनवृि : यत् परदारान् प रगृहीतानप रगृहीतां । यं न च नैव । तथा परान ान्


परदारल टान् न गमयित परदारे षु ग ती य योजनािन न च । कुत: ? पापभीते:
पापोपाजनभयात् न पुन: नृप ािदभयात् । न केवलं सा परदारिनवृि रे वो ते िक ु
दारस ोषनामािप दारे षु स ोष: दारस ोष ाम य ा: ॥
आिदमित :

परदार श का समास -- 'पर दारा: परदारा ान्' अथात् पर की ी, अथवा 'परा ते


दारा परदारा ान्' अथात् पर याँ । यहाँ पर पहले समास म पर के ारा गृहीत ी को
हण िकया है और दू सरे म पर के ारा जो हण नहीं की गई है , ऐसी क ा अथवा वे ा का
हण होता है । इस कार प रगृहीत और अप रगृहीत दोनों कार की पर यों के साथ
पापोपाजन के भय से, न िक राजािदक के भय से, न यं संगम करता है और न पर ी ल ट
अ पु षों को गमन कराता है , वह पर ी- ाग अणु त अथवा दारस ोष त कहलाता है

+ चयाणु त के अितचार -

अ िववाहाकरणानङ् ग ीडािवट िवपुलतृषः


इ रकागमनं चा र प तीचाराः ॥६०॥
अ याथ : [अ ािववाहाकरण] अपने व आि त िक संतान को छोड़कर अ का िववाह
कराना, [अनंग ीडा] कामसेवन के िनि त अंगो को छोड़कर अ अंगो से सेवन करना,
[िवट ] शरीर से कुचे ा करना, मुख से अ ील श बोलना [िवपुलतृषः] कामसेवन की
ती अिभलाषा होना [इ रकागमनं] ािभचा रणी ी / वे ािद के पास आना जाना, ये
पां च [अ र ] चय अणु त के अितचार ह ।
भाच ाचाय :

अ र ा िनवृ णु त । प तीचारा: । कथिम ाह- अ े ािद- क ादानं


िववाहोऽ िववाहोऽ िववाह: त आ सम ात् करणं, त अन ीडा च अ ं िल ं
योिन तयोर मुखािद दे शे ीडा अन ीडा । िवट ं भ मा धानकायवा योग: ।
िवपुलतृट् च कामती ािभिनवेश: । इ रकागमनं च परपु षानेित ग ती ेवंशीला इ री
पुं ली कु ायां के कृते इ रका भवित त गमनं चेित ॥
आिदमित :

चयाणु त के पाँ च अितचार ह --

अ िववाहाकरण क ादान को िववाह कहते ह । अपनी या अपने आि त ब ुजनों की


स ान को छोडक़र अ लोगों की स ान का िववाह मुख बनकर करना, वह अ
िववाहाकरण है । िक ु सहधम भाई के नाते उनके िववाह म स िलत होने म कोई िनषेध
नहीं है ।
अनंग ीडा कामसेवन के िनि त अंगों को छोडक़र अ अंगों से ीड़ा करना ।
िवट शरीर से कुचे ा करना और मुख से अ लील भ े श ों का योग करना िवट है

िवपुलतृषा कामसेवन की ती अिभलाषा रखना िवपुलतृषा है ।
इ रकागमन परपु षरत िभचा रणी ी को इ रका कहते ह । ऐसी यों के यहाँ
आना-जाना, उनके साथ उठना-बैठना तथा ापा रक स क बढ़ाना आिद इ रका गमन
है ।

+ प र ह प रमाण अणु त -

धनधा ािद ं प रमाय ततोऽिधकेषु िनः ृहता


प रिमतप र हः ािद ाप रमाणनामािप ॥६१॥
अ याथ : [धनधा ािद ं] धन, धा ािद का प र ह [प रमाय] प रमाण कर [तत्
अिधकेषु] उससे अिधक मे [िनः ृहता] वां छा रिहत होना [प रिमतप र हः] प रिमत
प र ह या [इ ाप रमाणनामािप] इ ाप रमाण नामक अणु त है ॥
भाच ाचाय :

प रिमतप र हो दे शत: प र हिवरितरणु तं ात् । कासौ ? या ततोऽिधकेषु िन ृहता


तत े इ ावशात् कृतप रसङ् ाते ोऽथ ोऽिधके थषु या िन ृहता वा ा ावृि : ।
िकं कृ ा ? प रमाय दे वगु पादा े प रिमतं कृ ा । कम् ? धनधा ािद ं धनं गवािद,
धा ं ी ािद । आिदश ाद् दासीदासभायागृह े सुवण ाभरणव ािदसङ् ह: । स
चासौ तं प रमाय । स च प रिमतप र ह: इ ाप रमाण नामािप ात्, इ ाया:
प रमाणं य स इ ाप रमाण ाम य स तथो : ॥
आिदमित :

प र ह का प रमाण करने वाला प र ह-प रमाणाणु ती कहलाता है । ोंिक माण से


अिधक म होने वाली इ ा का िनरोध हो गया । अपनी इ ा से धन-गाय-भस आिद । धा -
चावल आिद । तथा आिद श से दासी-दास, ी, मकान, नकद, , सोना, चाँ दी आिद के
आभूषण तथा व ािद के सं ह- प प र ह की सं ा का प रमाण कर उससे अिधक व ु म
वा ा-इ ा नहीं रखना, इसिलए इसका दू सरा नाम इ ा-प रमाण- त भी है ।

+ प र ह प रमाण अणु त के अितचार -

अितवाहनाितसङ् ह-िव यलोभाितभारवहनािन


प रिमतप र ह च, िव ेपा: प ल े ॥६२॥
अ याथ : [अितवाहन] लोभवश पशु आिद को उनकी मता से अिधक चलाना,
[अितसं ह] लोभवश अिधक धा िद संगृहीत करना, [अितिव य] अिधक मू ा करने
के िलए व ु को कुछ समय रोक कर बेचना [अितलोभ] अिधकलाभ की आकां ा रखना
[अितभारवाहन] लोभ वश अिधक भार लादना [प रिमतप र ह च] प र ह-
प रमाणाणु त के भी [प ] पां च [िव ेपाः] अितचार [ल ते] िनि त िकये जाते है ॥
भाच ाचाय :

िव ेपा: अितचारा: । प ल े िन ीय े । क ? प रिमतप र ह न


केवलमिहं सा णु त प ाितचारा िन ीय े अिप तु प रिमतप र ह ािप । च
श ोऽ ािपश ाथ । के त ाितचारा इ ाह- अितवाहने ािद । लोभाितगृ िनवृ थ
प र हप रमाणे कृते पुनल भवेशवशादितवाहनं करोित । याव ं िह माग बलीवदादय: सुखेन
ग ततोऽ ितरे केण वाहनमितवाहनम् । अितश : ेकं लोभा ानां स ते । इदं
धा ािदकम े िविश ं लाभं दा तीित लोभावेशादितशयेन त ङ् हं करोित ।
त ितप लाभेन िव ीते त न् मूलतोऽ सङ् गृही ािधकेऽथ ल े लोभावेशादितिव यं
िवषादं करोित । िविश ेऽथ ल ेऽ िधकलाभाका ावशादितलोभं करोित ।
लोभावेशादितधकभारारोपणमितभारवाहनम् । ते िव ेपा: प ॥
आिदमित :

िव ेप का अथ अितचार है । िजस कार अिहं सािद अणु तों के पाँ च-पाँ च अितचार बतलाये
गये ह, उसी कार प र ह-प रमाणाणु त के भी पाँ च अितचार िनि त िकये गये ह। ोक म
आया आ च श 'अिप' अथ म यु आ है । वे अितचार इस कार ह --

अितवाहन लोभ की ती ता को कम करने के िलए प र ह का प रमाण कर लेने पर भी


लोभ के आवेश से अिधक वाहन करता है अथात् बैल आिद पशु िजतने माग को सुखपूवक
पार कर सकते ह, उससे अिधक दू र तक उ चलाना अितवाहन कहलाता है । अित श
ेक म लगाना चािहए ।
अितसं ह यह धा ािदक आगे जाकर ब त लाभ दे गा, इस लोभ के वश से जो अिधक
सं ह करता है , उसका यह काय अितसं ह नामक अितचार है ।
अितिव य संगृहीत व ु को वतमान भाव से बेच दे ने पर िकसी का मूल भी वसूल नहीं
आ और दू सरा कुछ ठहर कर बेचता है तो उसके अिधक लाभ होता है , यह दे खकर लोभ
के आवेश से जो अ खेद एवं अितिव य करता है । यह अितिव य नामक अितचार
है ।
अितलोभ िविश अथलाभ होने पर भी और भी अिधक लाभ की आका ा करता है , वह
अितलोभ नाम का अितचार है ।
अितभारारोपण लोभ के आवेश से अिधक भार लादना अितभारारोपण अितचार है ।
अितभारारोपण अितचार अिहं साणु त के अितचारों म आया है । पर ु वहाँ पर क दे ने
का भाव है और यहाँ पर अिधक लाभ- ा की भावना है ।

इस कार प र ह-प रमाण त के ये पाँ च अितचार कहे गये ह ।

+ पंचाणु त का फल -

प ाणु तिनधयो, िनरित मणा: फल सुरलोकम्


य ाविधर गुणा, िद शरीरं च ल े ॥६३॥
अ याथ : [िनरित मणाः] अितचार रिहत [पं ] पां च [अणु तिनधयः] अणु त पी
िनिधयां [तं सुरलोकं फल ] उसे ग-लोक का फल दे ती है [च] और [य ाविधर गुणा]
िजसमे अविध ान अिणमा-मिहम आिद ८ गुण [च िद शरीरं ] और ७ धातुओं से रिहत
वैि ियक-शरीर [ल े] ा होता है ।
भाच ाचाय :

फल फलं य । के ते ? प ाणु तिनधय: प ाणु ता ेव िनधयो िनधानािन ।


कथ ूतािन ? िनरित मणा िनरितचारा: । िकं फल ? सुरलोकम् । य सुरलोके ल े
। कािन ? अविधरविध ानं । अ टुणा अिणमामिहमे ादय: । िद शरीरं च
स धातुिवविजतं शरीरम् । एतािन सवािण य ल े॥
आिदमित :

िनरितचार पंच अणु त िनिधयों के समान ह । इस कार जो इनका अितचार रिहत प रपालन
करता है , वह िनयम से ग जाता है । ग म भव य अविध ान की ा होती है और
अिणमा, मिहमा, ग रमा, लिघमा, ा , ाका , ईिश और विश ये आठ ऋ याँ ा
होती ह तथा स धातु से रिहत िद वैि ियक शरीर ा होता है ।

+ पंचाणु त म िस नाम -

मातङ् गो धनदे व वा रषेण तः परः


नीली जय स ा ाः पूजाितशयमु मम् ॥६४॥
अ याथ : [मात :] अिहं सा अणु त म यमपाल चां डाल, [घनदे व:] स अणु त म घनदे व,
[वा रषेण:] अचौय अणु त म वा रषेण, [नीली] चय अणु त म विणक-पु ी नीलीसती और
[जय:] जयकुमार ने प र ह का प रमाण करके पूजा के अितशय को [सं ा ा] ा एह॥
६४॥
भाच ाचाय :

इह लोके िकं न क ा िहं सा णु तानु ानफल ा ा ये न परलोकाथ तदनु ीयते


इ ाशङ् ाह --

िहं सा िवर णु तात् मात े न चा ालेन उ म: पूजाितशय: ा : ।

अ कथा

सुर दे शे पोदनपुरे राजा महाबल: । न ी रा ां रा ा अ िदनािन जीवामारणघोषणायां


कृतायां बलकुमारे ण चा मां सास ेन कि दिप पु षमप ता राजो ाने राजकीयमे क:
नेन मा रय ा सं ाय भि त: । रा ा च मे कमारणवातामाक ्य ेन मे कमारको
गवेषियतुं ार : । तदु ानमालाकारे ण च वृ ोप र चिटतेन स त ारणं कुवाणो : । रा ौ च
िनजभायाया: किथतम् । तत: चरपु षेणाक ्य रा : किथतम् । भाते
मालाकारोऽ ाका रत: । तेनैव पुन: किथतम् । मदीयामा ां मम पु : ख यतीित ेन रा ा
को पालो भिणतो बलकुमारं नवख ं कारयेित । तत ं कुमारं मारण थानं नी ा
मात मानेतुं ये गता: पु षा ान् िवलो मात े नो ं ि ये! मात ो ामं गत इित
कथय ेतेषािम ु ा गृहकोणे ो भू ा थत: । तलारै ाका रते मात े किथतं
मातङ् ा सोऽ ामं गत: । भिणतं च तलारै : स कुमारमारणा ब सुवणर ािदलाभो भवेत
। तेषां वचनमाक ्य लु या तथा ह स या स दिशतो ामं गत इित पुन: पुनभण ा ।
तत ै ं गृहाि :साय त मारणाथ स कुमार: समिपत: । तेनो ं नाहम चतुदशीिदने
जीवघातं करोिम । तत लारै : स नी ा रा : किथत:, दे व! अयं राजकुमारं न मारयित । तेन च
रा : किथतं सपद ो मृत: शाने िनि : सव षिधमुिनशरीर वायुना पुनजीिवतोऽहं
त ा वे चतुदशीिदवसे मया जीवािहं सा तं गृहीतमतोऽ न मारयािम दे वो य ानाित त रोतु
। अ ृ चा ाल तिमित सि ेन रा ा ाविप गाढं ब िय ा सुमार हे िन ेिपतौ
। त मात ाणा येऽ िहं सा तमप र जतो तमाहा ा लदे वतया जलम े
िसंहासनमिणम िपका-दु दुिभसाधुकारािद ाितहायािदकं कृतम् । महाबलराजेन चैतदाक ्य
भीतेन पूजिय ा िनज तले ापिय ा स ृ ो िविव कृत इित थमाणु त ।

अनृतिवर णु ता नदे व ेि ना पूजाितशय: ा : ।

अ कथा

ज ू ीपे पूविवदे हे पु लावतीिवषये पु रीिक ां पुया विणजौ िजनदे वधनदे वौ ौ।


त धनदे व: स वादी । लाभं ाव धमध ही ाव इित िन:साि कां व थां कृ ा
दू रदे शं गतौ ब मुपा ्य ाघु कुशलेन पु रीिक ामायातौ । त िजनदे वो लाभाध
धनदे वाय न ददाित । ोक मौिच ेन ददाित ततो झकटके ाये च सित
जनमहाजनराजा तो िन:साि क वहारबला नदे वो वदित न मयाऽ लाभाध
भिणतमुिचतमेव भिणतम् । धनदे व स मेव वदित योरधमेव ततो राजिनयमा योिद ं द ं
धनदे व: शु ो नेतर: । तत: सव ं धनदे व समिपतं तथा सव: पूिजत: साधुका रत ेित
ि तीयाणु त ।

चौयिवर णु ता ा रषेणेन पूजाितशय: ा : ।

अ कथा थतीकरणगुण ा ान घ के किथतेह ेित तृतीयाणु त ।

तत: परं नीली जय । तत े : परं यथा भव ेवं पूजाितशयं ा ौ ।


त ा िवर णु ता ीली विण ु ी पूजाितशयं ा ा ।

अ ा: कथा

लाटदे शे भृगुक प ने राजा वसुपाल: । विण नद ो भाया िजनद ा पु ी नीली अितशयेन


पवती । त ैवापर: े ी समु द ो भाया सागरद ा पु : सागरद : । एकता महापूजायां
वस ौ कायो गण सं थतां सवाभरणिवभूिषतां नीलीमालो सागरद ेनो ं िकमेषािप
दे वता कािचदे तदाक ्य त ेण ि यद ेन भिणतं- िजनद ेि न इयं पु ी नीली ।
त ू पालोकनादतीवास ो भू ा कथिमयं ा त इित त रणयनिच या दु बलो जात: ।
समु द ेन चैतदाक ्य भिणत:- हे पु ! जैनं मु ा ना िजनद ो ददातीमां पुि कां
प रणेतुम् । तत ौ कपट ावकौ जातौ प रणीता च सा, तत: पुन ौ बु भ ौ जातौ, नी ा
िपतृगृहे गमनमिप िनिष म्, एवं व ने जाते भिणत िजनद ेन- इयं मम न जाता कूपादौ वा
पितता यमेन वा नीता इित । नीली च सुरगृहे भतु: व भा िभ गृहे िजनधममनुित ी ित ित
। दशनात् संसगाद् धमवचनाकणना ा कालेनेयं बु भ ा भिव तीित पयालो समु द ेन
भिणता नीली पु ी! ािननां व कानाम दथ भोजनं दे िह । तत या व कानामाम ा य च
तेषामेकैका ाणिहताितिप ा सं ाय तेषामेव भो ुं द ा । तैभ जनं भु ा ग : ं-
ाणिहता:? तयो ं भव ं एव ानेन जान ु य ता , यिद पुन ्ञानं ना तदा वमनं
कुव ु भवतामुदरे ाणिहता ीित । एवं वमने कृते ािन ाणिहताख ािन । ततो
सुरप जन: । तत: सागरद भिग ा कोपा ा अस परपु षदोषो ावना कृता । त न्
िस ं गते सा नीली दे वा े सं ासं गृही ा कायो गण थता, ‘दोषो ारे भोजनादौ वृि मम
ना थेित’ तत: ुिभतनगरदे वतया आग रा ौ सा भिणता- हे महासित! मा ाण ागमेवं कु ,
अहं रा : धानानां पुरजन ं ददािम । ल ा यथा नगर ती : कीिलता
महासतीवामचरणेन सं पृ उद् घिट इित । ता भाते भव रणं ृ ा एवं वा
उद् घिट ीित पादे न तोली श कुया िमित भिण ा राजादीनां तथा ं दशिय ा
प न तीली: थता सा नगरदे वता । भाते कीिलता: तीली ा राजािदिभ ं ं ृ ा
नगर ीचरणताडनं तीलीनां का रतम् । न चैकािप तोली कयािचद ुद्घािटता । सवासां
प ात् नीली त ो नीता । त रण शात् सवा अ ुद्घिटता: तो :, िनद षा
राजािदपूिजता च नीली जाता चतुथाणु त ।

प र हिवर णु ता य: पूजाितशयं ा : ।

अ कथा

कु जा लदे शे ह नागपुरे कु वंशे राजा सोम भ:, पु ो जय: प रिमतप र हो


भायासुलोचनायामेव वृि : । एकदा पूविव ाधरभव कथनान रं समायात पूवज िव ौ
िहर धम भावतीिव ाधर पमादाय च मेवादौ व नाभ ं कृ ा कैलासिगरौ
भरत ित ािपतचतुिवशितिजनालयान् व तुमायातौ सुलोचनाजयौ । त ावे च सौधम ् े रण
जय ग प र हप रमाण त शंसा कृता । तां परीि तुं रित भदे व: समायात: । तत:
ी पमादाय चतसृिभिवलािसनीिभ: सह जयसमीपं ग ा भिणतो जय: । सुलोचना यंवरे येन
या सह सङ् ाम: कृत: त निमिव ाधरपते रा ीं सु पामिभनवयौवनां सविव ाधा रणीं
ति र िच ािम , यिद त रा मा जीिवतं च वा सीित । एतदाक ्य जयेनो ं- हे
सु र! मैवं ूिह, पर ी मम जननीसमानेित । तत या जय ोपसग महित कृतेऽिप िच ं न
चिलतम् । ततो मायामुपसं पूववृ ं कथिय ा श व ािदिभ: पूजिय ा ग गत इित
प माणु त ॥ १८॥
आिदमित :

िहं सािवरित नामक अणु त से यमपाल चा ाल ने उ म ित ा ा की । इसकी कथा इस


कार है -

यमपाल चा ाल की कथा सुर दे श पोदनपुर म राजा महाबल रहता था । न ी र पव की


अ मी के िदन राजा ने यह घोषण की िक आठ िदन तक नगर म जीवघात नहीं िकया जावेगा ।
राजा का बल नाम का एक पु था, जो मां स खाने म आस था । उसने यह िवचार कर िक
यहाँ कोई पु ष िदखाई नहीं दे रहा है , इसिलए िछपकर राजा के बगीचे म राजा के मढा को
मारकर तथा पकाकर खा िलया । राजा ने जब मढा मारे जाने का समाचार सुना, तब वह ब त
ु आ । उसने मढा मारने वाले की खोज शु कर दी । उस बगीचे का माली पेड़ के ऊपर
चढ़ा था । उसने राजकुमार को मढा मारते ए दे ख िलया था । माली ने रात म यह बात अपनी
ी से कही । तदन र िछपे ए गु चर पु ष ने राजा से यह समाचार कह िदया । ात:काल
माली को बुलाया गया । उसने भी यह समाचार िफर कह िदया । मेरी आ ा को मेरा पु ही
ख त करता है , इससे होकर राजा ने कोटपाल से कहा िक बलकुमार के नौ टु कड़े कर
दो अथात् उसे मरवा दो ।

तदन र उस कुमार को मारने के थान पर ले जाकर चा ाल को लाने के िलए जो आदमी


गये थे, उ दे खकर चा ाल ने अपनी ी से कहा िक हे ि ये! तुम इन लोगों से कह दो िक
चा ाल गाँ व गया है । ऐसा कहकर वह घर के कोने म िछपकर बैठ गया । जब िसपािहयों ने
चा ाल को बुलाया तब चा ाली ने कह िदया िक वे आज गाँ व गये है । िसपािहयों ने कहा िक
वह पापी अभागा आज गाँ व चला गया । राजकुमार को मारने से उसे ब त भारी सुवण और
र ािदक का लाभ होता । उनके वचन सुनकर चा ाली को धन का लोभ आ गया । अत: वह
मुख से तो बार-बार यही कहती रही िक वे गाँ व गये ह, पर ु हाथ के स े त से उसे िदखा िदया
। तदन र िसपािहयों ने उसे घर से िनकलकर मारने के िलए वह राजकुमार सौंप िदया ।
चा ाल ने कहा िक म आज चतुदशी के िदन जीवघात नहीं करता ँ । तब िसपािहयों ने उसे
ले जाकर राजा से कहा िक दे व! यह राजकुमार को नहीं मार रहा है । उसने राजा से कहा िक
एक बार मुझे साँ प ने डस िलया था, िजससे मृत समझकर मुझे शान म डाल िदया गया था ।
वहाँ सव षिध-ऋ के धारक मुिनराज के शरीर की वायु से म पुन: जीिवतहो गया । उस समय
मने उन मुिनराज के पास चतुदशी के िदन जीव घात न करने का त िलया था, इसिलए आज
म नहीं मार रहा ँ , आप जो जान सो कर 'अ ृ चा ाल के भी त होता है ' यह िवचार कर
राजा ब त आ और उसने दोनों को मजबूत बंधवाकर सुमार (िशशुमार) नामक तालाब
म डलवा िदया । उन दोनों म चा ाल ने ाणघात होने पर भी अिहं सा त को नहीं छोड़ा था,
इसिलए उसके त के माहा से जल-दे वता ने उसके िलए जल के म िसहां सन, मिणमय
म प, दु दुिभ बाजों का श तथा साधुकार- अ ा िकया, अ ा िकया आिद श ों का
उ ारण, यह सब मिहमा की । महाबल राजा ने जब यह समाचार सुना तब भयभीत होकर
उसने चा ाल का स ान िकया तथा अपने छ के नीचे उसका अिभषेक कराकर उसे श
करने यो िविश पु ष घोिषत कर िदया ।

यह थम अिहं साणु- त की कथा पूण ई ।

स ाणु त से धनदे व सेठ ने पूजाितशय को ा िकया था । उसकी कथा इस कार है --

धनदे व की कथा
ज ू ीप के पूव-िवदे ह े स ी पु लावती दे श म एक पु रीिकणी नामक नगरी है ।
उसम िजनदे व और धनदे व नामके दो अ पूँजीवाले ापारी रहते थे । उन दोनों म धनदे व
स वादी था । एक बार वे दोनों 'जो लाभ होगा, उसे आधा-आधा ले लगे' ऐसी िबना गवाह की
व था कर दू र-दे श गये । वहाँ ब त-सा धन कमाकर लौटे और कुशल-पूवक पु रीिकणी
नगरी आ गये । उनम िजनदे व, धनदे व के िलए लाभ का आधा भाग नहीं दे ता था । वह उिचत
समझकर थोड़ा-सा उसे दे ता था । तदन र झगड़ा होने पर ाय होने लगा । पहले
कुटु ीजनों के सामने, िफर महाजनों के सामने और अ म राजा के आगे मामला उप थत
िकया गया । पर ु िबना गवाही का वहार होने से िजनदे व कह दे ता िक मने इसके िलए लाभ
का आधा भाग दे ना नहीं कहा था । उिचत भाग ही दे ना कहा था । धनदे व स ही कहता था
िक दोनों का आधा-आधा भाग ही िनि त आ था । तदन र राजकीय िनयम के अनुसार उन
दोनों को िद ाय िदया गया । अथात् उनके हाथों पर जलते ए अ ारे रखे गये । इस िद
ाय से धनदे व िनद ष िस आ, दू सरा नहीं । तदन र सब धन धनदे व के िलए िदया गया
और धनदे व सब लोगों के ारा पूिजत आ तथा ध वाद को ा आ।

इस कार ि तीय अणु त की कथा है ।

चौयिवरित अणु त से वा रषेण ने पूजा का अितशय ा िकया था । इसकी कथा थतीकरण


गुण के ा ान के करण म कही गयी है । वह इस करण म भी दे खनी चािहए । इस
कार तृतीय अणु त की कथा है ।

मात , धनदे व और वा रषेण के आगे नीली और जयकुमार पूजाितशय को ा ए ह । उनम


अ -िवरित अणु त चयाणु त से नीली नाम की विण ु ी पूजाितशय को ा ई है ।

उसकी कथा इस कार है --

नीली की कथा

लाटदे श के भृगुक नगर म राजा वसुपाल रहता था । वहीं एक िजनद नामका सेठ रहता
था । उसकी ी का नाम िजनद ा था । उनके नीली नाम की एक पु ी थी, जो अ
पवती थी । उसी नगर म समु द नाम का एक सेठ रहता था, उसकी ी का नाम
सागरद ा था और उन दोनों के एक सागरद नाम का पु था । एक बार महापूजा के अवसर
पर म र म कायो ग से खड़ी ई तथा सम आभूषणों से सु र नीली को दे खकर
सागरद ने कहा िक ा यह भी कोई दे वी है ? यह सुनकर उसके िम ि यद ने कहा िक
यह िजनद सेठ की पु ी नीली है । नीली का प दे खने से सागरद उसम अ आस
हो गया और यह िकस तरह ा हो सकती है , इस कार उससे िववाह की िच ा से दु बल हो
गया । समु द ने यह सुनकर उससे कहा िक हे पु ! जैन को छोडक़र अ िकसी के िलए
िजनद इस पु ी को िववाहने के िलए नहीं दे ता है ।
तदन र वे दोनों िपता-पु कपट से जैन हो गये और नीली को िववाह िलया ।िववाह के प ात
वे िफर बु भ हो गये । उ ोंने नीली का िपता के घर जाना भी ब कर िदया । इस कार
धोखा होने पर िजनद ने यह कहकर स ोष कर िलया िक यह पु ी मेरे ई ही नहीं है अथवा
कुआ आिद म िगर गयी है अथवा मर गयी है । नीली अपने पित को ि य थी, अत: वह ससुराल
म िजनधम का पालन करती ई एक िभ घर म रहने लगी । समु द यह िवचारकर िक बौ
साधुओं के दशन से, उनके धम और दे व का नाम सुनने से काल पाकर यह बु की भ हो
जायेगी, एक िदन समु द ने कहा िक नीली बेटी! बौ साधु ब त ानी होते ह, उ दे ने के
िलए हम भोजन बनाकर दो । तदन र नीली ने बौ साधुओं को िनम त कर बुलाया और
उनकी एक-एक ाणिहता जूती को अ ी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसं ृ त कर उ
खाने के िलए दे िदया । वे बौ साधु भोजन कर जब जाने लगे तो उ ोंने पूछा िक हमारी
जूितयाँ कहाँ ह ? नीली ने कहा िक आप ही अपने ान से जािनये, जहाँ वे थत ह । यिद ान
नहीं है , तो वमन कीिजये । आपकी जूितयाँ आपके ही पेट म थत ह । इस कार वमन िकये
जाने पर उनम जूितयों के टु कड़े िदखाई िदये । इस घटना से नीली के सुरप के लोग ब त
हो गये ।

तदन र सागरद की बहन ने ोधवश उसे पर पु ष के संसग का झूठा दोष लगाया । जब


इस दोष की िस सब ओर फैल गयी, तब नीली भगवा जने के आगे सं ास लेकर
कायो ग से खड़ी हो गयी और उसने िनयम ले िलया िक इस दोष से पार होने पर ही मेरी
भोजन आिद म वृि होगी, अ कार से नहीं । तदन र ोभ को ा ई नगरदे वता ने
आकर राि म उससे कहा िक हे महासती! इस तरह ाण- ाग मत करो, म राजा को तथा
नगर के धान पु षों को दे ती ँ िक नगर के सब धान ारा कीिलत हो गये ह । वे
महापित ता ी के बाय चरण के श से खुलगे । वे धान ार ात:काल आपके पैर का
शकर ही खुलगे, ऐसा कहकर वह नगर दे वता राजा आिद को वैसा िदखाकर तथा
नगर के धान ारों को ब कर बैठ गयी । ात:काल नगर के धान ारों को कीिलत
दे खकर राजा आिद ने पूव का रण कर नगर की सब यों के पैरों से ारों की
ताडऩा करायी । पर ु िकसी भी ी के ारा एक भी धान ार नहीं खुला । सब यों के
बाद नीली को भी वहाँ उठाकर ले जाया गया । उसके चरणों के श से सभी धान ार खुल
गये । इस कार नीली िनद ष घोिषत ई और राजा आिद के ारा स ान को ा ई । यह
चतुथ अणु त की कथा पूण ई ।

प र ह-िवरित-अणु त से जयकुमार पूजाितशय को ा आ था । उसकी कथा इस कार


है -

जयकुमार की कथा

कु जां गल दे श के ह नागपुर नगर म कु वंशी राजा सोम भ रहते थे । उनके जयकुमार


नामका पु था ।वह जयकुमार प र ह-प रमाण- त का धारी था तथा अपनी ी सुलोचना से
ही स रखता था । एक समय, िव ाधर अव था के पूवभवों की कथा के बाद िज अपने
पूवभवों का ान हो गया था, ऐसे जयकुमार और सुलोचना िहर धमा और भावती नामक
िव ाधर पु ल का प रखकर मे आिद पर व ना-भ करके कैलास पवत पर भरत
च वत के ारा ित ािपत चौबीस िजनालयों की व ना करने के िलए आये । उसी अवसर
पर सौधम ने ग म जयकुमार के प र ह-प रमाण- त की शंसा की । उसकी परी ा
करने के िलए रित भ नामका दे व आया । उसने ी का प रख चार यों के साथ
जयकुमार के समीप जाकर कहा िक सुलोचना के यंवर के समय िजसने तु ारे साथ यु
िकया था, उस निम िव ाधर राजा की रानी को, जो िक अ पवती, नवयौवनवती, सम
िव ाओं को धारण करने वाली और उससे िवर -िच है , ीकृत करो, यिद उसका रा
और अपना जीवन चाहते हो तो । तदन र उस ी ने जयकुमार पर ब त उपसग िकया,
पर ु उसका िच िवचिलत नहीं आ । अन र वह रित भ दे व माया को संकुिचत कर पहले
का सब समाचार कहकर शंसा कर और व आिद से पूजा कर ग चला गया । इस कार
प म अणु त की कथा पूण ई ॥१८॥

+ पांच पाप म िस नाम -

धन ीस घोषौ च, तापसार काविप


उपा ेया था ु-नवनीतो यथा मम् ॥६५॥
अ याथ : [धन ीस घोषौ च] धन ी और स घोष [तापसार कौ] तापस और कोतवाल
[अिप] और [ ु-नवनीत:] ुनवनीत ये पाँ च [यथा मम्] म से िहं सािद पापों म
[उपा ेया:] उपा ान करने ( ा दे ने) के यो ह ।
भाच ाचाय :

एवं प ानामिहं सािद तानां ेकं गुणं ितपा ेदानीं ति प भूतानां िहं सा तानां दोषं
दशय ाह --

धन ी ेि ा िहं सातो ब कारं दु :खफलमनुभूतम्। स घोषपुरोिहतेनानृतात्। तापसेन


चौयात्। आर केन को पालेन िण वृ भावात्। ततो त भवदु :खादु भवने उपा ेया
ा ेन ितपा ा:। के ते? धन ीस घोषौ च। न केवलम् एतौ एव िक ु तापसार काविप।
तथा तेनैव कारे ण ुनवनीतो विणक् यत ेनािप प र हिनवृ भावतो
ब तरदु :खमनुभूतम्। यथा मं उ मानित मेण िहं सािदिवर भावे एते उपा ेया:
ितपा ा:। त धन ी िहं सातो ब दु :खं ा ा।

अ ा: कथा

लाटदे शे भृगुक प ने राजा लोकपाल:। विण नपालो भाया धन ी मनागिप जीववधेऽिवरता।


त ु ी सु री पु ो गुणपाल:। अपु काले धनि या य: पु बु ा कु लो नाम बालक: पोिषत:,
धनपाले मृते तेन सह धन ी: कुकमरता जाता। गुणपाले च गुणदोषप र ानके जाते धनि या
त ि तया भिणत: कु ल: सरे गोधनं चा रयतुमट ां गुणपालं ेषयािम, ल ं त तं
मारय येनावयोिनरङ् कुशमव थानं भवतीित बुरवाणां
् मातरमाक ्य सु या गुणपाल
किथतं- अ रा ौ गोधनं गृही ा सरे ामट ां ेषिय ा कु लह ेन माता मारिय त:
सावधानो भवे िमित। धनि या च राि पि म हरे गुणपालो भिणतो हे पु कु ल शरीरं
िव पकं वतते अत: सरे गोधनं गृही ा ं जेित। स च गोधनमट ां नी ा का ं च व ेण
िपधाय ितरोिहतो भू ा थत:। कु लेन चाग गुणपालोऽयिमित म ा
व ािदतका े घात: कृतो गुणपालेन च स खड् गेन ह ा मा रत:। गृहे आगतो गुणपालो
धनि या पृ : ‘ रे कु ल:’ तेनो ं कु लवातामयं खड् गोऽिभजानाित। ततो र िल ं
बा मालो स तेनैव खड् गेन मा रत:। तं च मारय ीं धनि यं ा सु या मुशलेन सा हता।
कोलाहले जाते को पालैधन ीधृ ा रा ोऽ े नीता। रा ा च गदभारोहणे
कणनािसकाछे दनािदिन हे का रते मृ ा दु गितं गतेित थमा त ।

स घोषोऽनृता दु :खं ा :।

इ कथा

ज ू ीपे भरत े े िसंहपुरे राजा िसंहसेनो रा ी रामद ा, पुरोिहत: ीभूित:। स सू े कितकां


ब ा मित। वदित च य स ं वीिम तदाऽनया कितकया िनजिज ा े दं करोिम। एवं
कपटे न वतमान त स घोष इित ि तीयं नाम स ातम्। लोका िव ा ा वे ं
धर च। तद् ं िकि ेषां सम ्य यं गृö◌ाित। पू तु िबभेित लोक:। न च पू ृ तं राजा
णोित। अथैकदा प ख पुरादाग समु द ो विण ु स घोषपा वेऽनघािण
प मािण ािन धृ ा परतीरे मुपाजियतुं गत:। त च तदु पा ्य ाघुिटत: ु िटत वहण
एकफलकेनो ीय समु ं धृतमािण वा या िसंहपुरे स घोषसमीपमायात:। तं च
र समानमाग मालो त ािण हरणािथना स घोषेण यपूरणाथ
समीपोपिव पु षाणां किथतम्। अयं पु ष: ु िटत वहण: ततो िहलो जातोऽ ाग
मािण ािन यािच तीित। तेनाग ण चो ं भो स घोषपुरोिहत! ममाथ पाजनाथ
गत ोपािजताथ महाननथ जात इित म ा यािन मया तव र ािन धतु समिपतािन तानीदानीं
सादं कृ ा दे िह, येना ानं ु िटत वहणात् गत ं समु रािम। त चनमाक ्य कपटे न
स घोषेण समीपोपिव ा जना भिणता मया थमं यद् भिणतं तद् भवतां स ं जातम्। तै ं
भव एव जान यं िहलोऽ ात् थानाि :सायतािम ु ा तै: समु द ो गृहाि :सा रत:
िहल इित भ मान:। प ने पू ारं कुवन् ममान ्यप मािण ािन स घोषेण गृहीतािन।
तथा राजगृहसमीपे िच ावृ मा पि मरा े पू ारं कुवन् ष ासान् थत:। तां
पू ृ ितमाक ्य रामद या भिणत:। िसंहसेन:- दे व! नायं पु ष: िहल:। रा ािप भिणतं िकं
स घोष चौय स ा ते? पुन ं रा ा दे व! स ा ते त चौय यतोऽयमेता शमेव
सवदा वचनं वीित। एतदाक ्य भिणतं रा ा यिद स घोष ैतत् स ा ते तदा ं
परी येित। ल ादे शया रामद या स घोषो राजसेवाथमाग ाकाय :- िकं
बृह े लायामागतोऽिस? तेनो ं- मम ा णी ाता ाघूणक: समायात ं भोजयतो बृह े ला
ल ेित। पुनर ु ं तया- णमेकम ोपिवश। ममाितकौतुकं जातम्। अ ीडां कुम:। राजािप
त ैवागत ेना ेवं कुिव ु म्। ततोऽ द् यूते ीडया स ाते रामद या िनपुणमितिवलािसनी
कण लिग ा भिणता स घोष: पुरोिहतो रा ीपा वे ित ित तेनाहं िहलमािण ािन यािचतुं
ेिषतेित त ा े भिण ा तािन याचिय ा च शी माग े ित। तत या ग ा यािचतािन।
त ा ा च पूव सुतरां िनिष या न द ािन। ति लािस ा चाग दे वीकण किथतं सा न
ददातीित। ततो िजतमुि कां त सािभ ानं द ा पुन: ेिषता तथािप तया न द ािन। तत
कितकाय ोपवीतं िजतं सािभ ानं द ं दिशतं च तया। ा ा त शना ु या भीतया च
समिपतािन मािण ािन ति लािस ा:। तया च रामद ाया: समिपतािन। तया न रा ो
दिशतािन। तेन च ब मािण म े िन े ाकाय च िहलो भिणत: रे िनजमािण ािन प र ाय
गृहाण। तेन च तथैव गृहीतेषु तेषु रा ा रामद या च विण ु : ितप :। ततो रा ा स घोष:
पृ :- इदं कम या कृतिमित। तेनो ं दे व! न करोिम, िकं ममे शं कतु यु ते? ततोऽित ेन
तेन रा ा त द यं कृतम्। गोमयभृतं भाजन यं भ य, म मुि घात यं वा सह , ं
वा सव दे िह। तेन च पयालो गोमयं खािदतुमार म्। तदश ेन मुि घात: सिहतुमार :।
तदश ेन ं दातुमार म्। एवं द यमनुभूय मृ ाितलोभवशा ाजकीयभा ागारे
अग नसप जात:। त ािप मृ ा दीघसंसारी जात इित ि तीया त ।

तापस ौया दु :खं ा :।

इ कथा

व दे शे कौशा ीपुरे राजा िसंहरथो रा ी िवजया। त ैक ौर: कोिट ेन तापसो भू ा


परभूिमम ृशदवल मान िश थो िदवसे प ाि साधनं करोित। रा ौ च कौशा ीं मुिष ा
ित ित। एकदा महाजना ु ं नगरमाक ्य रा ा को पालो भिणतो रे स रा म े चौरं
िनजिशरो वाऽऽनय। तत ौरमलभमानि ापर: तलारोऽपरा े बुभुि त ा णेन केनिचदाग
भोजनं ािथत:। तेनो ं- हे ा ण! अ ा सोऽिस मम ाणस े हो वतते ं च भोजनं
ाथयसे। एत चनमाक ्य पृ ं ा णेन कुत े ाणस े ह:? किथतं च तेन। तदाक ्य पुन:
पृ ं ा णेन- अ िकं कोऽ ितिन ृहवृि पु षोऽ ? उ ं तलारे ण- अ
िविश प ी, न च त ैतत् स ा ते। भिणतं ा णेन- स एव चौरो भिवषित
अितिन ृह ात्। ूयताम मदीया कथा- मम ा णी महासती परपु षशरीरं न ृशतीित
िनजपु ा ितकु ु टात् कपटे न सव शरीरं ा नं ददाित। रा ौ तु गृहिप ारे ण सह
कुकम करोित। त शनात् स ातवैरा ोऽहं संवलाथ सुवणशलाकां वंशयि म े िनि
तीथया ायां िनगत:। अ े ग त ममैकबटु को िमिलतो न त िव ासं ग ा हं यि र ां
य त: करोिम। तेनाकिलता सा यि : सगभित। एकदा रा ौ कु कारगृहे िन ां कृ ा दू रा ा
तेन िनजम के ल ं कुिथतं तृणमालो ाितकु ु टे न ममा तो, हा हा मया परतृणमद ं
िसतिम ु ा ाघु तृणं त ैव कु कारगृहे िनि िदवसावसाने कृतभोजन ममाग
िमिलत:। िभ ाथ ग त ाितशुिचरयिमित म ा िव िसतेन मया यि :
कु ु रािदिनवारणाथ समिपता। तां गृही ा स गत:। ततो मया महाट ां
ग ताितवृ पि णोऽितकुकुटं म्। यथा एक न् महित वृ े िमिलता: पि गणो
रा ावेकेनाितवृ पि णा िनजभाषया भिणतो रे रे पु ा:! अहं अतीव ग ुं न श ोिम।
बुभुि तमना: कदािच व ु ाणां भ णं करोिम िच चाप ादतो मम मुखं भाते ब ा
सवऽिप ग ु। तै ं हा हा तात! िपतामह ं िकं तवैतत् स ा ते? तेनो ं- ‘‘बुभुि त:
िकं न करोित पापम्’’इित। एवं भाते त पुनवचनात् त ुखं बद् ा ते गता:। स च ब ो गतेषु
चरणा ां ब नं मुखे संयो ाितकुकुटे न ीणोदरो भू ा थत:। ततो नगरगतेन
चतुथमितकुकुटं ं मया। यथा त नगरे एक ौर प वं धृ ा बृह लां च
म क ोप र ह ा ामू वं गृही ा नगरम े ित ित िदवा रा ौ चाितकुकुटे न ‘अपसर जीव
पादं ददािम, अपसर जीव पादं ददामीित’ भणन् मित। ‘अपसर जीवेित’ चासी
भ सवजनैभ ते। स च गतािदिवजन थाने िदगवलोकनं कृ ा सुवणभूिषतमेकािकनं
णम ं तया िशलया मारिय ा त ं गृö◌ाित। इ ितकुकुटचतु यमालो मया
श£◌ोकोऽयं कृत:-

अबाल शका नारी ा णोऽतृणिहं सक:।

वने का मुख: प ी पुरेऽपसरजीवक:॥ इित

इित कथिय ा तलारं धीरिय ा स ायां ा ण: िश तप समीपं ग ा


तप ितचारकैिनघा मानोऽिप रा ो भू ा त पित ैकदे शे थत:। ते च ितचारका:
रा परी णाथ तृणकि काङ् गु ािदकं त ाि समीपं नय । स च प िप न प ित।
बृह ा ौ गुहायाम कूपे ि यमाणमालो तेषां खादनपानािदकं वालो भाते रा ा
मायमाण लारो रि त: तेन राि मावे । स िश थ प ी चौर ेन ब कदथनािदिभ:
कद यमानो मृ ा दु गितं गत ृतीया त ।

आरि णाऽ िनवृ भावाद् दु :खं ा म्।

अ कथा

आहीरदे शे नािस नगरे राजा कनकरथो रा ी कनकमाला, तलारो यमद माता


ब सु री त णर ा पुं ली। सा एकदा ब ा धतु समिपताभरणं गृही ा रा ौ
स े िततजारपा वे ग ो यमद े न ा सेिवता चैका े। तदाभरणं चानीय तेन िनजभायाया
द म्। तया च ा भिणतं- ‘मदीयिमदमाभरणं, मया ूह े धृतम्। त चनमाक ्य तेन
िच तं या मया सेिवता सा मे जननी भिव तीित। तत ा जारस े तगृहं ग ा तां सेिव ा
त ामास ो गृढवृ ा तया सह कुकमरत: थत:। एकदा त ाययाऽसहनादित या
रज ा: किथतम्। मम भता िनजमा ा सह ित ित। रज ा च मालाका र ा: किथतम्।
अितिव ा मालाका रणी च कनकमालारा ीिनिम ं पु ािण गृही ा गता। तया च पृ ा सा
कुतूहलेन, जानािस हे काम पूवा वाताम्। तया च तलारि तया किथतं रा ा:, दे िव!
यमद तलारो िनजजन ा सह ित ित। कनकमालया च रा : किथतम्। रा ा च
गूढपु ष ारे ण त कुकम िनि तलारो गृहीतो दु गितं गत तुथा त ।
प र हिनवृ भावात् ुनवनीतेन ब तरं दु :खं ा म्।

अ कथा

अ ो ायां े ी भवद ो भाया धनद ा पु ो ल द : वािण ेन दू रं गत:। त मुपािजतं


त चौरै न तम्। ततोऽितिनधनेन तेन माग आग ता त ैकदा गोदु ह: त ं पातुं यािचतम्। त े
पीते ोकं नवनीतं कूच ल मालो गृही ा िच तं तेन वािण ं भिव नेन मे, एवं च
त ि त ुनवनी इित नाम जातम्। एवमेकदा थ माणे धृते जाते धृत भाजनं
पादा े धृ ा शीतकाले तृणकुटीरक ारे अि ं च पादा े कृ ा रा ौ सं रे पितत:
सि य , अनेन घृतेन ब तरमथमुपा ्य साथवाहो भू ा साम महासाम राजािधराजपदं
ा मेण सकलच वत भिव ािम यदा, तदा च मे स तल ासादे श ागत पादा े
समुपिव ं ीर ं पादौ मु ा ही ित न जानािस पादमदनं कतुिमित ेहेन भिण ा
ीर मेवं पादे न ताडिय ािम, एवं िच िय ा तेन च वित पािव ेन पादे न ह ा पािततं
तद् घृतभाजनं तेन च घृतेन ारे संधुि तोऽि : सुतरां िलत:। ततो ारे िलते
िन:सतुमश ो द ो मृतो दु गितं गत: इ ा माणरिहतप मा त ॥ १९॥

आिदमित :

धन ी नाम की सेठानी ने िहं सा से ब त कार का दु :खदायक फल भोगा है । स घोष पुरोिहत


ने अस बोलने से, तापस ने चोरी से और कोतवाल ने चय का अभाव होने से ब त दु :ख
भोगा है । इसी कार ुनवनीत नाम के विणक् ने प र ह पाप के कारण ब त दु :ख भोगा
है । अत: ये सब ऊपर बताये ए म से ा दे ने के यो ह। उनम धन ी िहं सा पाप के
फल से दु गित को ा ई थी। इसकी कथा इस कार है -

धन ी की कथा

लाटदे शकेभृगुक नगरमराजालोकपालरहताथा।वहींपरएकधनपालनामकासेठरहताथा।


उसकी ीकानामधन ीथा।
धन ीजीविहं सासेकुछभीिवरतनहींथीअथाि र रजीविहं सामत ररहतीथी।
उसकीसु रीनामकीपु ीऔरगुणपालनामकापु था।जबधन ीकेपु नहीं आथा,
तबउसनेकु लनामकएकबालककापु बु सेपालन-पोषणिकयाथा।
समयपाकरजबधनपालकीमृ ुहोगयी, तबधन ीउसकु लकेसाथकुक करनेलगी।
इधरधन ीकापु गुणपालजबगुणऔरदोषोंकोजाननेलगातबउससेशंिकतहोकरधन ीनेकु लसेकहाि
सोतुमउसकेपीछे लगकरउसेवहाँ मारडालो, िजससेहमदोनोंका रहनाहोजायेगा-
कोईरोक-टोकनहींरहे गी।यहसबकहते एमाताकोसु रीनेसुनिलया,
इसिलएउसनेअपनेभाईगुणपालसेकहिदयािकआजराि मगोधनलेकरगोखरममातातु जंगलभेजेगीऔ
इसिलयेतु सावधानरहनाचािहए।
धन ीनेराि केिपछलेपहरमगुणपालसेकहाहे पु ! कु लकाशरीरठीकनहींह,ै
इसिलएआजतुमगोखरमगोधनलेकरजाओ।
गुणपालगोधनकोलेकरजंगलगयाऔरवहाँ एकका कोकपड़े सेढककरिछपकरबैठगया।
कु लनेआकर‘यहगुणपालहै ’ऐसासमझकरव सेढके एका पर हारिकया।
उसीसमयगुणपालनेतलवारसेउसेमारडाला।जबगुणपालघरआया,
तबधन ीनेपूछािकरे गुणपाल! कु लकहाँ है?
गुणपालनेकहािककु लकीबातकोयहतलवारजानतीहै ।
तदन रखूनसेिल बा कोदे खकरधन ीनेउसीतलवारसेगुणपालकोमारिदया।
भाईकोमारतेदेखसु रीनेउसेमूसलसेमारनाशु िकया।
इसीबीचकोलाहलहोनेसेकोतवालनेधन ीकोपकडक़रराजाकेआगेउप थतिकया।
राजानेउसेगधेपरचढ़ायातथाकान, नाकआिदकटवाकरद तिकया,
िजससेमरकरवहदु गितको ा ई।इसतरह थमअ तसेस कथापूण ई।

स घोषअस बोलनेसेब तदु :खको ा आथा।इसकीकथाइस कारहै -

स घोषकीकथा

ज ू ीपकेभरत े स ीिसंहपुरनगरमराजािसंहसेनरहताथा।
उसकीरानीकानामरामद ाथा।उसीराजाकाएक ीभूितनामकापुरोिहतथा।
वहजनेऊमकचीबां धकरघूमाकरताथाऔरकहताथािकयिदमअस बोलूं,
तोइसकचीसेअपनीिज ाकाछे दकरलूं।
इसतरहकपटसेरहते एउसपुरोिहतकानामस घोषपड़गया।
लोगिव ासको ा होकरउसकेपासअपनाधनरखनेलगे।
वहउसधनमसेकुछतोरखनेवालोंकोदे देताथा, औरबाकी यं हणकरलेताथा।
लोगरोनेसेडरतेथेऔरकोईरोताभीथातोराजाउसकीसुनताहीनहींथा।

तदन रएकसमयप ख नगरसेएकसमु द नामकासेठआया।


वहवहाँ स घोषकेपासअपनेपाँ चब मू र रखकरधनउपािजतकरनेकेिलएदू सरे पारचलागयाऔरवह
तबउसकाजहाजफटगया।
काठकेएकपािटयेसेवहसमु कोपारकररखे एमिणयोंको ा करनेकीइ ासेिसंहपुरमस घोषकेपास
र केसमानआते एउसेदेखकरउसकेमिणयोंकोहरनेकेिलएस घोषनेिव ासकीपूितकेिलएसमीपबैठे
उससेठनेआकरउसी कारकहािकहे स घोषपुरोिहत! मधनकमानेकेिलएगयाथा।
धनोपाजनकरनेकेबादमेरेऊपरबड़ासंकटआपड़ाहै , इसिलएमनेजोर तु रखनेकेिलएिदयेथे,
वेर कृपाकरमुझेदेदीिजये।
िजससेजहाजफटजानेकेकारणिनधनताको ा मअपनाउ ारकरसकूँ।
उसकेवचनसुनकरकपटीस घोषनेपासमबैठे एलोगोंसेकहािकदे खो,
मनेपहलेआपलोगोंसेबातकहीथी, वहस िनकली।लोगोंनेकहािकआपहीजानतेह,
इसपागलकोइस थानसेिनकालिदयाजावे।
ऐसाकहकरउ ोंनेसमु द कोघरसेिनकालिदया।‘वहपागलहै ’ऐसाकहाजानेलगा।‘स घोषनेमेरेपाँ च
राजभवनकेपासइमलीकेएकवृ परचढक़रवहिपछलीरातमरोता आयहीकहताथा।
यहकरते एउसेछहमाहिनकलआये।

एकिदनउसकारोनासुनकररामद ारानीनेराजािसंहसेनसेकहािकदे व! यहपु षपागलनहींहै।


राजानेभीकहािकतो ास घोषसेचोरीकीस ावनाकीजासकतीहै ? रानीनेिफरकहािकदे व!
उसकेचोरीकीस ावनाहोसकतीहै , ोंिकयहसदायहीबातकहताहै ।
यहसुनकरराजानेकहािकयिदस घोषपरचोरीकीस ावनाहै , तोतुमपरी ाकरो।
आ ापाकररामद ानेएकिदनराजाकीसेवाकेिलएआते एस घोषकोबुलाकरपूछािकआजब तदे रसे
स घोषनेकहािकआजमेरी ा णीकाभाईपा नाबनकरआयाथा,
उसेभोजनकराते एब तदे रलगगई।रानीनेिफरकहा- अ ा! यहाँ थोड़ीदे रबैठो,
मुझेब तशौकहै ।आजअ ीड़ाकर, जुआखेल।
राजाभीवहींआगयेऔरउ ोंनेकहिदयािकऐसाहीकरो।

तदन रजबजुएकाखेलशु होगया,


तबरामद ारानीनेिनपुणमितनामकी ीसेउसकेकानमलगकरकहािकतुम‘स घोषपुरोिहतजोिकरानी
उ ोंनेमुझेपागलकेर मां गनेकेिलएभेजाहै ’ऐसाउसकी ा णीकेआगेकहकरवेर मां गकरशी लाओ।
तदन रिनपुणमितनेजाकरवेर मां गे, पर ु ा णीनेनहींिदये,
ोंिकस घोषनेउसेपहलेहीमनाकररखाथािकिकसीकेमां गनेपरर नहींदेना।
िनपुणमितनेआकररानीकेकानमकहािकवहनहींदेतीहै ।अन ररानीनेपुरोिहतकीअंगूठीजीतली।
उसेपिहचानके पमदेकरिनपुणमितकोिफरसेभेजा, पर ुउसनेिफरभीनहींिदये।
अबकीबाररानीनेपुरोिहतकाकचीसिहतजनेऊजीतिलया।
िनपुणमितनेउसेपिहचानके पमिदयाऔरिदखाया।
उसेदेखकरउसेिव ास आतथा‘यिदर नहींदूंगीतोवेकुिपतहोंगे,
इस कारभयभीतहोकर ा णीनेपंचर िनपुणमितकोदे िदयेऔरउसनेलाकररानीरामद ाकोसौंपिदये
रामद ानेराजाकोिदखाये।
राजानेउनर ोंकोऔरब तसेर ोंमिमलाकरउसपागलसेकहािकअपनेर पिहचानकरउठालो।
उसनेअपनेसबर छाँ टकरउठािलये, तबराजाऔररानीनेउसेविण ु -
सेठमानिलयािकवा वमयहपागलनहींहै, यहतोविण ुत है ।

तदन रराजानेस घोषसेपूछािकतुमनेयहकायिकयाहै ? उसनेकहािकदे व!


मयहकामनहींकरता ँ ।मुझेऐसाकरना ायु है ?
तदन रअ कुिपत एराजानेउसकेिलएतीनद िनधा रतिकये- १. तीनथालीगोबरखाओ, २.
पहलवानोंकेतीनमु े खाओअथवा३. सम धनदे दो।
उसनेिवचारकरपहलेगोबरखाना ार िकया,
परजबगोबरखानेमअसमथरहातबपहलवानोंकेमु े सहनकरनाशु िकया।
िक ुजबउसमभीअसमथरहातबसबधनदे ना ार िकया।
इस कारतीनोंद ोंकोभोगकरवहमराऔरती लोभकेकारणराजाकेखजानेमअग नजाितकासां प आ
वहाँ भीमरकरदीघसंसारी आ।इस कारि तीयअ तकीकथापूण ई।

चोरीसेतापसब तदु :खको ा आ, इसकीकथाइस कारहै -

तापसकीकथा

व दे शकीकौशा ीनगरीमराजािसंहरथरहताथा।उसकीरानीकानामिवजयाथा।
वहाँ एकचोरकपटसेतापसहोकररहताथा।
वहदू सरे कीभूिमका शनकरता आलटकते एसींकेपरबैठकरिदनमप ाि तपकरताथाऔरराि मक
एकसमय‘नगरलुटगयाहै ’इसतरहमहाजनसेसुनकरराजानेको पालसेकहा- ‘रे को पाल!
सातराि केभीतरचोरकोपकड़लाओयािफरअपनािसरलाओ।’तदन रचोरकोनपाता आको पालिच
को पालनेकहा- ‘हे ा ण! तुमअिभ ायकोनहींजानते।
मुझेतो ाणोंकास े हहोरहाहै औरतुमभोजनमां गरहे हो?’
यहवचनसुनकर ा णनेपूछािकतु ाणोंकास े हिकसकारणहोरहाहै ?
को पालनेकारणकहा।
उसेसुनकर ा णनेिफरपूछा‘यहाँ ाकोईअ िन ृहवृि वालापु षरहताहै ?’
कोटपालनेकहािकिविश तप ीरहताहै , पर ुयहकायउसकाहो, ऐसास वनहींहै।
ा णनेकहािकवहीचोरहोगा, ोंिकवहअ िन: ृहहै ।इसिवषयममेरीकहानीसुिनये (१)
मेरी ा णीअपनेआपकोमहासतीकहतीहै औरकहतीहै िकमपर-
पु षकेशरीरका शनहींकरती।
यहकहकरती कपटसेसम शरीरकोकपड़े सेआ ािदतकरअपनेपु को नदे तीहै -
दू धिपलातीहै , पर ुराि मगृहकेवरे दीकेसाथकुकमकरतीहै ।

(२)
यहदे खमुझेवैरा उ होगयाऔरममागमिहतकारीभोजनकेिलएसुवणशलाकाकोबां सकीलाठीकेबीच
आगेचलनेपरमुझेएक चारीबालकिमलगया।वहहमारे साथहोगया।
मउसकािव ासनहींकरताथा, इसिलएउसलाठीकीबड़े य सेर ाकरताथा।
उसबालकनेताड़िलयाअथात्उसनेसमझिलयािकयहलाठीसगभाहै अथात्इसकेभीतरकुछधनअव है
एकिदनवहबालकराि मकु कारकेघरसोया। ात: वहाँ सेचलकरजबदू रआगया,
तबम कमलगे एसड़े तृणकोदे खकरकपटवशउसनेमेरेआगेकहािकहाय! हाय!
मदू सरे केतृणकोलेआया।
ऐसाकहकरवहलौटाऔरउसतृणकोउसीकु कारकेघरपरडालकरसायंकालकेसमयमुझसेआिमला,
जबिकमभोजनकरचुकाथा।वहबालकजबिभ ाकेिलएजानेलगा,
तबमनेसोचािकयहतोब तपिव है ,
इसतरहउसपरिव ासकरकु ेआिदकोभगानेकेिलएमनेवहलाठीउसकोदे दी।
उसेलेकरवहचलागया।
(३) तदन रमहाअटवीमजाते एमनेएकवृ प ीकाबड़ाकपटदे खा।
एकबड़े वृ परराि केसमयब तपि योंकासमूहएक आ।
उसमअ वृ प ीनेराि केसमयअपनीभाषामदू सरे पि योंसेकहािकहे पु ों!
अबमअिधकचलनहींसकता।कदािच भूखसेपीि़डतहोकरआपलोगोंकेपु ोंकाभ णकरनेलगं◌ू,
इसिलए ात:कालआपलोगहमारे मुखकोबाँ धकरजाइये।पि योंनेकहािकहायिपताजी!
आपतोहमारे बाबाह, आपमइसकीस ावनाकैसेकीजासकतीहै ? वृ प ीनेकहािक‘बुभुि त:
िकंनकरोितपापम्’भूख ाणी ापापनहींकरता?
इसतरह ात:कालसबप ीउसवृ केकहनेसेउसकेमुखकोबाँ धकरचलेगये।
वहबँध आवृ प ी,
सबपि योंकेचलेजानेपरअपनेपैरोंसेमुखबाब नदू रकरउनपि योंकेब ोंकोखागयाऔरजबउनकेआ

(४) अन रमएकनगरमप ँ चा।वहाँ मनेचौटाकपटदे खा।


वहइस कारहै िकउसनगरमएकचोरतप ीका परखकरतथादोनोंहाथोंसेम ककेऊपरएकबड़ीिशल
हे जीवहटोमपैररखरहा ँ ’इस कारकहता आ मणकरताथा।
सम भ जनउसे‘अपसरजीव’इसनामसेकहनेलगेथे।
वहचोरजबकोईग ाआिदएका थानिमलतातोसबओरदे खकरसुवणसेिवभूिषत णामकरते एएकाक
इनचारती कपटोंकोदे खकरमनेयहश£◌ोकबनायाथा।

अबालेित- पु का शनकरनेवाली ी, तृणकाघातनकरनेवाला ा ण,


वनमका मुखप ीऔरनगरमअपसरजीवकयेचारमहाकपटमनेदेखेह।

ऐसाकहकरतथाको पालकोधीरजबँधाकरवह ा णसींकेमरहनेवालेतप ीकेपासगया।


तप ीकेसेवकोंनेउसेवहाँ सेिनकालनाभीचाहा,
पर ुवहरा बनकरवहींपड़ारहाऔरएककोनेमबैठगया।
तप ीकेउनसेवकोंने‘यहसचमुचमहीरा है यानहीं’इसकीपरी ाकरनेकेिलएतृणकीकाड़ीतथाअंगुल
पर ुवहदे खता आभीनहींदेखतारहा।
जबरातकाफीहोगईतबउसनेगुहा पअ कूपमरखेजाते एनगरकेधनकोदे खाऔरउनलोगोंकेखान-
पानआिदकोदे खा। ात:कालउसनेजोकुछराि मदेखाथा,
उसेकहकरराजाके ारामारे जानेवालेको पालकीर ाकी।
सींकेमबैठनेवालावहतप ीउसको पालके ारापकड़ागयाऔरब तभारीयातनाओंसेदु:खीहोता आम
इस कारतृतीयअ तकीकथापूण ई।

कुशीलसेवनसेिनवृि नहोनेकेकारणयमद कोतवालनेदु:ख ा िकया।


इसकीकथाइस कारहै -

यमद कोतवालकीकथा

आहीरदे शकेनािस नगरमराजाकनकरथरहतेथे।उनकीरानीकानामकनकमालाथा।


उनकाएकयमद नामकाकोतवालथा।उसकीमाताअ सु रीथी।
वहयौवनअव थामहीिवधवाहोगईथीतथा िभचा रणीबनगईथी।
एकिदनउसकीपु वधूनेउसेरखनेकेिलएएकआभूषणिदया।
उसआभूषणकोपहनकरवहराि मअपनेपहलेसेसंकेिततजारकेपासजारहीथी।
यमद नेउसेदेखाऔरएका मउसकासेवनिकया।
यमद नेउसकाआभूषणलाकरअपनी ीकोदे िदया।
ीनेउसेदेखकरकहािकयहआभूषणतोमेराहै , मनेरखनेकेिलएसासकेहाथमिदयाथा।
ीकेवचनसुनकरयमद कोतवालनेिवचारिकयािकमनेिजसकाउपभोगिकयाहै ,
वहमेरीमाताहोगी।तदन रयमद नेमाताकेजारकेसंकेतगृह (िमलनेके थान)
परजाकरउसकापुन:
सेवनिकयाऔरउसमआस होकरगूढरीितसेउसकेसाथकुकमकरनेलगा।

एकिदनउसकी ीकोजबयहसहननहीं आतबउसनेअ कुिपतहोकरधोिबनसेकहािकहमारापितअ


धोिबननेमािलनसेकहा, मािलनकनकमालारानीकीअ िव ासपा थी।
वहउसकेिनिम फूललेकरगयी।रानीनेकुतूहलवशउससेपूछािककोईअपूवबातजानतीहो?
मािलनकोतवालसे े षरखतीथी, अत: उसनेरानीसेकहिदयािकदे िव!
यमद कोतवालअपनीमाताकेसाथरमणकरताहै ।
कनकमालानेयहसमाचारराजासेकहाऔरराजानेगु चरके ाराउसकेकुकमकािन यकरकोतवालकोप
द तहोनेपरवहदु गितको ा आ।

इस कारचतुथअ तकीकथापूण ई।

प र हपापसेिनवृि नहोनेकेकारण ुनवनीतनेब तदु :ख ा िकया।इसकीकथाइस कारहै -

ुनवनीतकीकथा

अयो ानगरीमभवद नामकासेठरहताथा।


उसकी ीकानामधनद ाथाऔरपु कानामलु द था।
एकबारवहलु द ापारकेिनिम दू रगया।वहाँ उसनेजोधनकमायाथा,
वहसबचोरोंनेचुरािलया।तदन रअ िनधनहोकरवहिकसीमागसेआरहाथा।
वहाँ उसनेिकसीसमयएकगोपालसेपीनेकेिलएछाछमां गी।
छाछपीचुकनेपरउसकाकुछम नमूछोंमलगगया।उसेदेखउसने‘अरे !
यहतोम नहै ’यहिवचारकरउसेिनकालिलयािकइससे ापारहोगा।
इसतरहवह ितिदनम नकासंचयकरनेलगा।
िजससेउसका ुनवनीतयहनाम िस होगया।

इस कारउसकेपासजबएक थ माणघीहोगया,
तबवहघीकेबतनकोअपनेपैरोंकेसमीपरखकरतथाशीतकालहोनेसेझोंपड़ीके ारपरपैरोंकेसमीपअि रख
वहिब रपरपड़ा-पड़ािवचारकरताहै िकइसघीसेब तधनकमाकरमसेठहोजाऊँगा, िफरधीरे -
धीरे साम -महासाम , राजाऔरअिधराजाकापद ा कर मसेसबकाच वत बनजाऊँगा।
उससमयमसातख केमहलमश ातलपरपड़ार ँ गा।
चरणोंकेसमीपबैठी ईसु र ीमु ीसेमेरेपैरदाबेगीऔरम ेहवशउससेक ँ गािकतुझेपैरदबानाभीनही
ऐसाकहकरमपैरसेउसेताि़डतक ँ गा।
ऐसािवचारकरउसनेअपनेआपकोसचमुचहीच वत समझिलयाऔरपैरसेताि़डतकरघीकाबतनिगरािदय
उसघीसे ारपररखी ईअि ब तजोरसे िलतहोगयी। ारजलनेलगा,
िजससेइ ाओंकेप रमाणसेरिहतवहिनकलनेमअसमथहोवहींजलकरमरगयाऔरदु गितको ा आ।

इस कारप मअ तकीकथापूण ई ॥१९॥

+ ावक के आठ मूलगुण -

म मांसमधु ागैः सहाणु तप कम्


अ ौ मूलगुणाना गृिहणां मणो माः ॥६६॥
अ याथ : [ मणो माः] मुिनयों म उ म गणधरािदक दे व [म मांसमधु ागैः] म ाग,
मां स ाग और मधु ाग [सह] के साथ [अणु तप कम्] पाँ च अणु तों को [गृिहणां] गृह थों
के [अ ौ] आठ [मूलगुणान्] मूलगुण [आ :] कहते ह ।
भाच ाचाय :

गृिहणाम ौ मूलगुणाना : । के ते ? मणो मा िजना: । िकं तत् ? अणु तप कम् । कै: सह


? म मांसमधु ागै: म ं च मां सं च मधु च तेषां ागा ै: ॥
आिदमित :

मण मुिनयों को कहते ह । इनम जो उ म े गणधरािदक दे व ह, वे मणो म कहलाते ह ।


उ ोंने गृह थों के आठ मूलगुण इस तरह कहे ह- १. म ाग, २. मां स ाग, ३. मधु ाग, ४.
अिहं साणु त, ५. स ाणु त, ६. अचौयाणु त, ७. चयाणु त, ८. प र हप रमाणाणु त ।

गुण त-अिधकार
+ गुण तों के नाम -

िद तमनथद , तं च भोगोपभोग-प रमाणं


अनुवृंहणाद् गुणाना-मा ा गुण ता ाया: ॥६७॥
अ याथ : [आया:] तीथ र दे व आिद उ म पु ष, [गुणानाम्] आठ मूलगुणों की
[अनुवृंहणाद् ] वृ करने के कारण [िद तम] िद त, [अनथद तम्] अनथद त
और [भोगोपभोग-प रमाणं] भोगोपभोग-प रमाण- त को [गुण तािन] गुण त [आ ा ]
कहते ह ।
भाच ाचाय :

एवं प कारमणु तं ितपा ेदानीं ि कारं गुण तं ितपादय ाह --

आ ा ितपादय । कािन ? गुण तािन । के ते ? आया: गुणैगुणव वा जय े


ा इ ाया ीथ रदे वादय: । िकं तद् गुण तम् ? िद तं िद रित । न केवलमेतदे व
िक ु अनथद तं चानथद िवरितम् । तथा भोगोपभोगप रमाणम् सकृद् भु त इित
भागोऽशनपानग मा ािद: पुन: पुन पभृ त इ ुपभोगो व ाभरणयानशयनािद यो:
प रमाणं कालिनयमेन याव ीवनं वा । एतािन ीिण क ाद् गुण ता ु े ? अनुबृंहणात्
वृ ं नयनात् । केषाम् ? गुणानाम् अ मूलगुणानाम् ॥
आिदमित :

'गुणैगुणव वा अय े ा इ ाया ीथ रे दे वादय:' जो गुणों अथवा गुणवान मनु ों के


ारा ा िकये जाव, उ आय कहते ह । वे आय तीथ रदे व, गणधर, ितगणधर तथा
आचाय कहलाते ह । गुण के िलए जो त ह, उ गुण त कहते ह ।

िद त -- दशों िदशाओं म आने-जाने की सीमा बाँ धना िद त कहलाता है ।

अनथद त -- मन, वचन, काय की िन योजन वृि के प र ाग को अनथद त कहते


ह।

भोगोपभोगप रमाण त -- भोग और उपभोग की व ुओं का कुछ समय अथवा जीवन पय


के िलए प रमाण करना भोगोपभोगप रमाण त है । जो व ु एक बार भोगने म आती है , वह
भोग है । जैसे- भोजन, पेय पदाथ तथा ग माला आिद । और जो बार-बार भोगने म आवे, उसे
उपभोग कहते ह । जैसे- व , आभूषण, पालकी, वाहन, श ा आिद । इन सभी व ुओं का
कुछ काल के िलए या जीवनपय के िलए दोनों कार का ाग होता है । इस कार
उप रतन ोक म कहे गये आठ मूलगुणों की वृ म सहायक होने से िद त, अनथद त
और भोगोपभोगप रमाण त इन तीनों को आय पु षों ने गुण तों म प रगिणत िकया है ।

+ िद त का ल ण -

िद लयं प रगिणतं कृ ातोऽहं बिहन या ािम


इित स ो िद तमामृ णुपापिविनवृ ै ॥६८॥
अ याथ : [आमृित] मरणपय [अणुपापिविनवृ ै] सू पापों की िनवृि के िलए
[िद लयं] िदशाओं के समूह को [प रगिणतं] मयादा सिहत [कृ ा] करके [अहम्] म
[अत:] इससे [बिह:] बाहर [न] नहीं [या ािम] जाऊँगा, [इित] ऐसा [संक :] संक
करना िद त होता है ।
भाच ाचाय :

त िद त पं पय ाह --

िद तं भवित । कोऽसौ ? स : । कथ ूतम् ? अतोऽहं बिहन या ामी ेवं प: । िकं


कृ ा ? िद लयं प रगिणतं कृ ा समयादं कृ ा । कथम् ? आमृित मरणपय ं यावत् ।
िकमथम् ? अणुपापिविनवृ ै सू ािप पाप िविनवृ थम् ॥
आिदमित :

दसों िदशाओं म सीमा िनधा रत करके ऐसा संक करना िक म इस सीमा से बाहर नहीं
जाऊंगा, इसे िद त कहते ह । िद त मरणपय के िलए धारण िकया जाता है । िद त का
योजन सू पापों से िनवृ होता है । अथात् मयादा के बाहर सवथा जाना-आना ब हो जाने
से वहाँ सू पाप की भी िनवृि हो जाती है ।

+ मयादा की िविध -

मकराकरस रदटवीिग रजनपदयोजनािन मयादाः


ा िदशां दशानां ितसंहारे िस ािन ॥६९॥
अ याथ : [दशानां] दसों [िदशाम्] िदशाओं के [ ितसंहारे ] प रमाण करने म [ िस ािन]
िस [मकराकर] समु , [स रत्] नदी, [अटवी] जंगल, [िगरी] पवत, [जनपद] दे श और
[योजनािन] योजन को मयादा [ ा :] कहते ह ।
भाच ाचाय :

त िद लय प रगिणत े कािन मयादा इ ाह --


ा मयादा: । कानी ाह -- मकराकरे ािद-मकराकर समु :, स रत न ो ग ा ा:,
अटवी द कार ािदका, िग र पवत: स िव ािद:, जनपदो दे शो वराटवापीतटािद:,
योजनािन िवंशिति ंशदािदसङ् ािन । िकंिविश ा ेतािन ? िस ािन िद रितमयादानां
दातुगृहीतु िस ािन । कासां मयादा: ? िदशाम् । कितसङ् ाव ानां दशानाम् ।
क न् क त े सित मयादा: ? ितसंहारे इत: परतो न या ामीित ावृ ौ ॥
आिदमित :

मकराकर समु को कहते ह । स रत्- गंगा, िस ु आिद निदयाँ । अटवी- द कवन आिद
सघन जंगल को कहते ह । िग र का अथ पवत है , जैसे स ाचल, िव ाचल आिद । जनपद का
अथ दे श है , जैसे- वराट, वापीतट आिद दे श । और योजन का अथ बीस योजन, तीस योजन
आिद। त दे ने वाले और त लेने वालों को िजसका प रचय हो, उ िस कहते ह । पूवािद
दशों िदशाओं स ी सीमा िनि त करने के िलए समु , नदी, जंगल, दे श और योजन आिद
को मयादा प से ीकार िकया है ।

+ िद ती के महा तपना -

अवधे-बिहरणुपाप- ितिवरतेिद तािन धारयतां


प महा तप रणित-मणु तािन प े ॥७०॥
अ याथ : [िद तािन धारयताम्] िद तों के धारक [अणु तािन अबधेःबिहः] अणु त की
मयादा के बाहर [अणुपाप ित िवरतेः] सू पापो की भी िनवृित हो जाने से [प महा त
प रणित] प -महा त प प रणित को [ प े] ा होते ह ।
भाच ाचाय :

एवं िद रित तं धारयतां मयादात: परत: िकं भवती ाह --

अणु तािन प े । काम् ? प महा तप रणितम् । केषाम् ? धारयताम् । कािन ?


िद तािन । कुत रणितं प े ? अणुपाप ितिवरते: सू मिप पापं ितिवरते:
ावृ े: । ? बिह: । क ात् ? अवधे: कृतमयादाया: ॥
आिदमित :

जो मनु दसों िदशाओं म आने-जाने की मयादा करके मयादा के बाहर नहीं आता-जाता,
इसिलए थूल और सू दोनों ही कार के पाप छूट जाते ह । अतएव मयादा के बाहर अणु त
भी महा तपने को ा हो जाते ह ।
+ सो कैसे ? उसका समाधान -

ा ानतनु ान्, म तरा रणमोहप रणामा:


स ेन दुरवधारा, महा ताय क े ॥७१॥
अ याथ : [ ा ानतनु ात्] ा ानावरण ोध, मान, माया, लोभ का म उदय
होने से [म तारा:] अ म अव था को ा ए, यहाँ तक िक [स ेन दु रवधारा:]
िजनके अ का िनधारण करना भी किठन है ऐसे [चरणमोहप रणामा:] चा र मोह के
प रणाम [महा ताय] महा त के वहार के िलए [ क े] उपच रत होते ह- क ना
िकये जाते ह ।
भाच ाचाय :

तथा तेषां त रणतावपरमिप हे तुमाह --

चरणमोहप रणामा: भाव पा ा र मोहप रणतय: । क े उपचय े । िकमथम् ?


महा तिनिम म् । कथ ूता: स : ? स ेन दु रवधारा अ ेन महता क ेनावधायमाणा:
स ोऽिप तेऽ ेन ल ियतुं न श इ थ: । कुत े दु रवधारा: ? म दरा
अितशयेनानु टा: । म तर म ेषां कुत: ? ा ानतनु ात् ा ानश े न िह
ा ानावरणा: ोधमानमायालोभा गृ े । नामैकदे शे िह वृ ा: श ा ना िप
वत े भीमािदवत् । ा ानं िह सिवक ेन िहं सािदिवरितल ण: संयम दावृ ये ते
ा ानावरणा ोधादय:, यदु दये ा ा का ्या ि रितं कतु न श ोित, अतो
पाणां ोधादीनां तदु ा ोदय ा ाव पाणामेषां म तर ं िस म् ॥७१॥
आिदमित :

चरणमोहप रणाम अथात् भाव प जो चा र मोह प रणित है , जो महा त के िलए क त की


गयी है । यहाँ पर ा ान श से ा ानावरण ोध, मान, माया, लोभ का हण
होता है , ोंिक नाम के एकदे श से सवदे श का हण होता है । िजस कार ‘भीम’ पद से
भीमसेन का बोध होता है , उसी कार ा ान श का अथ सिवक पूवक िहं सािद पापों
का ाग प संयम होता है । उस संयम को जो आवृत करे अथात् िजसके उदय से यह जीव
िहं सािद पापों का पूण प से ाग करने म समथ नहीं हो पाता है , वे ा ान ोध, मान,
माया, लोभ कहलाते ह । यह कषाय और भाव के भेद से दो कार की है , पौ िलक
कम कृित कषाय है और उसके उदय से होने वाले प रणाम भावकषाय ह । जब गृह थ
के इन प ोधािद का इतना म उदय हो जाता है िक चा र मोह के प रणाम का
अ भी बड़ी किठनता से समझा जाता है , तब उसके उपचार से महा त जैसी अव था हो
जाती है । िद तधारी के मयादा के बाहर े म थूल और सू दोनों कार के िहं सािद पापों
की पूण प से िनवृि हो जाती है । इसिलए उसके अणु त भी उपचार से महा त सरीखे जान
पड़ते ह, परमाथ से नहीं । अत: ोधािदक का म ोदय होने से भाव ोधािद का भी
म तर िस होता है ।
+ महा त का ल ण -

प ानां पापानां िहं सादीनां मनोवचःकायैः


कृतका रतानुमोदै ाग ु महा तं महताम् ॥७२॥
अ याथ : [िहं सादीनां] िहं सा आिदक [प ानां] पाँ च [पापानां] पापों का [मनोवचःकायैः]
मन-वचन-काय और [कृतका रतानुमोदै :] कृत-का रत-अनुमोदना से [ ाग:] ाग करना
[महतां] म िवरत आिद गुण थानवत महापु षों का [महा तं] महा त [भवित] होता है ।
भाच ाचाय :

ननु कुत े महा ताय क े न पुन: सा ा हा त पा भव ी ाह --

ाग ु पुनमहा तं भवित। केषां ाग: िहं सादीनां प ानाम् । कथ ूतानां पापानां


पापोपाजनहे तुभूतानाम् । कै ेषां ाग: मनोवच:कायै: । तैरिप कै: कृ ा ाग: ?
कृतका रतानुमोदै : । अयमथ:- िहं सादीनां मनसा कृतका रतानुमोदै ाग: । तथा वचसा
कायेन चेित । केषां तै ागो महा तम् ? महतां म ािदगुण थानवितनां िविश ा नाम् ॥
आिदमित :

िहं सा, अस , चोरी, अ और प र ह ये पाँ च पाप पापोपाजन के हे तु ह । इसिलए इनका


मन-वचन-काय और कृत-का रत-अनुमोदना इन नौ कोिट से ाग करना महा त कहलाता है
। यह महा त म संयतािद गुण थानवत िविश मुिनयों के ही होता है , अ के नहीं ।

+ िद त के अितचार -

ऊ ाध ाि य ितपाताः े वृ रवधीनाम्
िव रणं िद रतेर ाशाः प म े ॥७३॥
अ याथ : अ ान अथवा माद से [ऊ ] ऊपर, [अध ात्] नीचे [ितयग्] और समान
धरातल की [ ितपाताः] सीमा का उ ंघन करना, [ े वृ ] े की मयादा को बढ़ा लेना
और [अवधीनाम्] की ई मयादा को [िव रणम्] भूल जाना, ये [प ] पाँ च [िद रते:]
िद रित त के [अ ाशा:] अितचार [म े] माने जाते ह ।
भाच ाचाय :

इदानीं िद रित त ाितचारानाह --

िद रतेर ाशा अतीचारा: प म ेऽ ुपग े । तथा िह । अ ानात् मादा ा


ऊ विदशोऽध ाि श य श तीपाता िवशेषेणाित मणािन य:। तथाऽ ानात्
मादा ा े वृ : े ािध ावधारणम् । तथाऽवधीनां िद रते: कृतमयादानां िव रण
िमित ॥
आिदमित :

िद त के पाँ च अितचार है । अ ान अथवा माद के ऊपर पवतािद पर चढ़ते समय, नीचे कुए
आिद म उतरते समय और ितयग् अथात् समतल पृ ी पर चलते समय की ई मयादा को
भूलकर सीमा का उ ंघन करना । माद अथवा अ ानता से िकसी िदशा का े बढ़ा लेना
और त लेते समय दसों िदशाओं की जो मयादा की थी, उसे भूल जाना । ये पाँ च अितचार
िद त के ह ।

+ अनथद त-

अ रं िदगवधेरपािथके ः सपापयोगे ः
िवरमणमनथद तं िवदु तधरा ः ॥७४॥
अ याथ : [ तधरा ः] त धारण करने वाले मुिनयों म धान तीथ र-दे वािद [िदगवधे:]
िद त की सीमा के [अ रं ] भीतर [अपािथके ः] योजन रिहत [सपापयोगे ः]
पापसिहत योगों से [िवरमणमन] िनवृ होने को [अनथद तं] अनथद त [िवदु :]
कहते ह ।
भाच ाचाय :

इदानीमनथद िवरितल णं ि तीयं वृण तं ा ातुमाह --

अनथद तं िवदु जान । के ते ? तधरा : तधराणां यतीनां म ेऽ :


धानभूता ीथ रदे वादय: । िवरमणं ावृि : । के : ? सपापयोगे : पापेन सह योग:
स : पापयोग ेन सह वतमाने : पापोपदे शा नथद े : । िकंिविश े : ?
अपाथके : िन योजने : । कथं ते ो िवरमणम् ? अ रं िदगवधे: िदगवधेर रं
यथा भवे ेवं ते ो िवरमणम् । अतएव िद रित ताद भेद: । त ते िह मयादातो बिह:
पापोपदे शािदिवरमणम् अनथद िवरित ते तु ततोऽ रे ति रमणम् ॥
आिदमित :

तधर का अथ पंचमहा तों को धारण करने वाले यित, मुिन, उनम जो धानभूत तीथ र-
दे वािद वे तधरा णी कहलाते ह । इस तरह तधा रयों म अ णी तीथ र-दे व ने अनथद -
त का ल ण इस कार बतलाया है िक िद त की मयादा के भीतर िन योजन, पाप प
मन-वचन-काय की िनवृि होती है और अनथद त म िद त की सीमा के भीतर होने वाले
पापपूण थ के काय से िनवृि होती है । यही इन दोनों म अ र है ।
+ अनथद के भेद -

पापोपदे शिहं सादानाप ानदुः ुतीः प


ा ः मादचयामनथद ानद धराः ॥७५॥
अ याथ : [अद धराः] गणधरदे वािदक [पापोपदे शिहं सादानाप ानदु ः ुतीः]
पापोपदे श, िहं सादान, अप ान, दु : ुित और [ मादचयाम्] मादचया [पंच] इन पाँ च को
[अनथद ान्] अनथद [ ा :] कहते ह ।
भाच ाचाय :

अथ के ते अनथद ा यतो िवरमणं ािद ाह --

द ा इव द ा अशुभमनोवा ाया: परपीडाकर ात्, ता धर ी द धरा


गणधरदे वादय े ा : । कान् ? अनथद ान् । कित ? ‘प ’ । कथिम ाह पापे ािद ।
पापोपदे श िहं सादानं च अप ानं च दु : ुित एता त : मादचया चेित प चामी ॥
आिदमित :

द -मन, वचन, काय के अशुभ ापार को द कहते ह । ोंिक ये द ों के समान


परपीड़ाकारक होते ह । उन द ों को नहीं धारण करने वाले गणधरािद दे वों ने पापोपदे श,
िहं सादान, अप ान, दु : ुित और मादचया इन पाँ च को अनथद कहा है । इन पाँ चों से
िनवृ होना ही पाँ च कार का अनथद त है ।

+ पापोपदे श का ल ण -

ितय ेशविण ािहं सार ल नादीनाम्


कथा सङ् गः सवः ः पाप उपदे शः ॥७६॥
अ याथ : [ितय ेशविण ा] पशुओं को ेश प ँ चाने वाली ि याएँ , ऐसा ापार,
[िहं सार ] िहं सा, आर तथा [ ल नादीनाम्] ठगई आिद की [कथा सङ् गः] कथाओं
के स [ सव:] उ करना [पाप उपदे श:] पापोपदे श नाम का अनथद [ ः]
रण करना चािहए ।
भाच ाचाय :

त पापोदे श तावत् पं पय ाह --

त ो ात : । क: ? पापोपदे श: पाप: पापोपाजनहे तु पदे श: । कथ ूत: ? कथा स :


कथानां ितय ेशािदवातानां स : पुन: पुन: वृि : । िकंिविश : ? सव: सूत इित भव:
उ ादक: । केषािम ाह -- ितयिग ािद, ितय ेश ह दमनािद:, विण ा च विणजां
कम यिव यािद, िहं सा च ािणवध:, आर कृ ािद:, ल नं च व नं तािन आिदयषां
मनु ेशादीनां तािन तथो ािन तेषाम् ॥
आिदमित :

जो उपदे श पाप को उ करने म कारण हो, उसे पापोपदे श कहते ह । उसके ितय ेशािद
भेद कहते ह, अथात् ितय ों को वश म करने की ि या ितय ेश है । जैसे -- हाथी आिद
को वश म करने की ि या । लेन-दे न आिद का ापार वािण है । ािणयों का वध करना
िहं सा है । खेती आिद का काय आर कहलाता है । तथा दू सरों को ठगने आिद की कला
ल न है । ितय ेश के समान मनु ेश भी होता है , अथात् मनु ों के साथ इस कार
की ि या करना िजनसे उनको दु :ख- ेश हो । इन सभी कार की कथा-वाताओं का स
उप थत करना अथात् बार-बार इनका उपदे श दे ना वह पापोपदे श नामक अनथद है ।
इनके प र ाग करने से पापोपदे श अनथद त होता है ।

+ िहं सादान अनथद -

परशुकृपाणखिन - लनायुध- ृिङ् ग ृङ्खलादीनाम्


वधहे तूनां दानं िहं सादानं ुव बुधाः ॥७७॥
अ याथ : [बुधाः] गणधरदे वािदक िव पु ष [परशु] फरसा, [कृपाण] तलवार, [खिन ]
कुदारी, [ लनायुध] अि , श , [ ृिङ् ग] िवष तथा [ ृङ्खलादीनाम्] सां कल आिदक
[वधहे तूनां] िहं सा के कारणों के [दानं] दान को [िहं सादानं] िहं सादान नाम का अनथद
[ ुव ] कहते ह ।
भाच ाचाय :

अथ िहं सादानं िकिम ाह --

िहं सादानं बुरव


् । के ते ? बुधा गणधरदे वादय: िकं तत् ? दानं । य े षाम् ? वधहे तूनां
िहं साकारणानाम् । केषां त ारणानािम ाह- परि इ ािद । परशु कृपाण खिन ं च
लन ाऽऽयुधािन च ु रकालकुटादीिन ि च िवषसामा ं ङ् खला च ता आदयो येषां ते
तथो ा ेषाम् ॥
आिदमित :

िहं सा के उपकरण दू सरों को दे ना, इसे गणधरदे वािदकों ने िहं सादान कहा है । फरसा आिद
को परशु कहते ह । तलवार कृपाण है । पृ ी को खोदने के साधन कुदाली, फावड़ा आिद
खिन कहे जाते ह । अि को लन कहते ह। छु री, लाठी आिद आयुध ह । िवषसामा को
ी कहते ह और ब न का साधन सां कल है । ये सब िहं सा के कारण ह । इनको दू सरों के
िलए दे ना िहं सादान अनथद है , इसका ाग करना िहं सादान अनथद त है ।

+ अप ान अनथद -

वधब े दादे षा ागा परकल ादे ः


आ ानमप ानं शासित िजनशासने िवशदा: ॥७८॥
अ याथ : [िजनशासने िवशदा:] िजनागम म िनपुण पु ष [ ् वेषात्] े ष के कारण िकसी
के [वधब े दादे ] नाश होने, बां धे जाने और छे दे जाने आिद का [च] तथा [रागात्] राग के
कारण [परकल ादे :] पर ी आिद का [आ ानम्] िच न करने को [अप ा ्] अप ान
नाम का अनथ-द [शासित] कहते ह ।
भाच ाचाय :

इदानीमप ान पं ा ातुमाह --

अप ानं शासित ितपादय । के ते ? िवशदा िवच णा: । ? िजनशासने । िकं तत् ?


आ ानं िच नम् । क ? वधब े दादे : । क ात् ? े षात् । न केवलं े षादिप रागा ा
ानम् । क ? परकल ादे : ॥
आिदमित :

े ष के वश िकसी के मर जाने, ब न ा होने का अथव अंग-उपां गािद िछद जाने का और


राग के कारण पर ी आिद का आ ान बार-बार िच न करना सो अप ान नामक
अनथद है । ऐसा िजनशासन के ाता पु ष कहते ह ।

+ दु : ुित अनथद -

आर स साहस - िम ा े षरागमदमदनै:
चेत: कलुषयतां ुित-रवधीनां दु: ुितभवित ॥७९॥
अ याथ : आरं भ, [संग] प र ह, साहस, िम ा , राग, े ष, [मदमदनै:] मद और कामभोग
लोभ आिद से [चेत:] मन को [कलुशयताम्] मिलन करने वाले ऐसे [अवधीनाम्] शा ों /
पु कों का [ ुित] सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु : ुित नाम का अनथद [भवित]
है ॥
भाच ाचाय :

सा तं दु : ुित पं पय ाह --
दु : ुितभवित । कासौ ? ुित: वणं । केषाम् ? अवधीनां शा ाणाम् । िकं कुवताम् ?
कलुषयतां मिलनयताम् । िकं तत् ? चेत: ोधमानमायालोभा ािव ं िच ं कुवतािम थ: । कै:
कृ े ाह -- आर े ािद आर कृ ािद: स प र ह: तयो: ितपादनं वातानीतौ
िवधीयते । 'कृिष: पशुपा ं वािण ं च वाता' इ िभधानात्, साहसं चा द् भुतं कम वीरकथायां
ितपा ते, िम ा ं चा ै त िणकिम ािद, माणिव ाथ ितपादकशा ेण ि यते, े ष
िव े षीकरणािदशा ेणािभधीयते राग वशीकरणािदशा ेण िवधीयते, मद 'वणानां ा णो
गु ' र ािद ा ायते, मदन रितगुणिवलासपताकािदशा ादु टो भवित तै: एतै: कृ ा
चेत: कलुषयतां शा ाणां ुितदु : ुितभवित ॥३३॥
आिदमित :

खेती आिद करना आर है और संग-प र ह है । इन दोनों का ितपादन वातानीित म िकया


जाता है । 'कृिष: पशुपा ं-वािण ं च वाता' इित अिभधानात् अथात् खेती, पशुपालन और
ापार यह सब वाता है , ऐसा कहा गया है । अथशा को वाता कहते ह । साहस का अथ
अ आ यजनक काय है । िजसका वणन वीर पु षों की कथाओं म िकया जाता है ।
अ ै तवाद तथा िणकवाद िम ा ह। इनका वणन माणिव अथ के ितपादक शा ों
के ारा िकया जाता है । े ष- े षीकरण े ष को उ करने वाले शा ों के ारा कहा जाता है
। वशीकरण आिद शा ों के ारा राग उ िकया जाता है । मद-अहं कार है । इसकी उ ि
'वणानां ा णो गु :' वण का गु ा ण है इ ािद ों से जानी जाती है । मदन का अथ
काम है । यह रितगुण िवलासपताका आिद शा ों से उ ट होता है । इस कार आर ािद
के ारा िच को कलुिषत करने वाले शा ों का वण करना दु : ुित नामक अनथद है ।
इसका ाग करना दु : ुित अनथद त है ।

+ मादचया अनथद -

ि ितसिललदहनपवनार ं िवफलं वन ित े दम्


सरणं सारणमिप च मादचया भाष े ॥८०॥
अ याथ : [िवफलं] िन योजन [ि ित] पृिथवी, [सिलल] पानी, [दहन] अि और [पवन]
वायु स ी पाप करना, [वन ित े दम्] वन ित का छे दना, [सरणं] यं घूमना [च]
और [सारणम्] दू सरों को घुमाना [अिप] भी, इस सबको मादचया नाम का अनथद
[ भाष े] कहते ह ।
भाच ाचाय :

अधुना मादचया पं िन पय ाह --

भाष े ितपादय । काम् ? मादचयाम् । िकं तिद ाह -- ि ती ािद । ि ित सिललं


च दहन तेषामार ं ि ितखननसिलल ेपणदहन लनपवनकरणल णम् । िकंिविश म्
? िवफलं िन योजनम् । तथा वन ित े दं िवफलम् । न केवलमेतदे व िक ु सरणं
सारणमिप च सरणं यं िन योजनं पयटनं सारणम िन योजनं गमन ेरणम् ॥
आिदमित :

मादचया का ितपादन करते ह, त था -- िन योजन पृ ी को खोदना, पानी िछडक़ना,


अि जलाना, हवा करना, िन ारण फल-फूलािद वन ित को तोडऩा, इतना ही नहीं िक ु
िन योजन यं घूमना और दू सरों को घुमाना, यह सब मादचया नामक अनथद है ।
इससे िनवृ होना मादचया अनथद तह।

+ अनथद त के अितचार -

क प कौ ु ं मौखयमित साधनं प
असमी चािधकरणं तीतयोऽनथद कृि रतेः ॥८१॥
अ याथ : [क प] हं सी करते ए अिश वचन बोलना, [कौ ु ं] शरीर की कुचे ा
करना, [मौखयम्] बकवास करना, [अित साधनं] भोगोपभोग की साम ी का अिधक सं ह
करना [च] और [असमी अिधकरणं] िबना योजन के ही िकसी काय का अिधक आर
करना ये [प ] पाँ च अनथद -िवरित- त के [ तीतय:] अितचार ह ।
भाच ाचाय :

एवमनथद िवरित तं ितपा ेदानीं त ातीचारानाह --

तीतयो ऽतीचारा भव । क ? अनथद कृि रते: अनथ िन योजनं द ं दोषं


कुव ी नथद कृत: पापोपदे शादय ेषां िवरितय त । कित ? प । कथिम ाह --
क प ािद, रागो े का हासिम ो भ मा धानो वचन योग: क प:, हासो
भ मावचनं भ मोपेतकाय ापार यु ं कौ ु ं, धा ◌र्् य ायं ब लािप ं मौखय,
यावताथनोपभोगप रभोगौ भवत तोऽिधक करणमित साधनम्, एतािन च ा र,
असमी ािधकरणं प मम् असमी योजनमपयालो आिध ेन काय
करणमसमी ािधकरणम् ॥
आिदमित :

िन योजन दोषा करने को अनथद कहते ह । इनके ाग को अनथद त कहते ह ।


इसके पाँ च अितचार ह । यथा -- य िप क प का अथ काम है , िक ु यहाँ पर राग के उ े क
से हा िमि त, काम को उ ेिजत करने वाले अ लील भ े वचन बोलना क प कहा गया है ।
भ े वचन बोलते ए हाथ आिद अ ों से शरीर की कुचे ा करना कौ ु कहलाता है ।
धृ ता से िन योजन ब त बोलना मौखय कहलाता है । िजतने पदाथ से अपने भोगोपभोग की
पूित होती है , उससे अिधक सं ह करना अित साधन कहलाता है तथा िबना योजन ही
अिधक काय करना असमी ािधकरण कहलाता है । ये पाँ च अनथद त के अितचार ह ।

+ भोगोपभोग प रमाण गुण त -

अ ाथानां प रसं ानं भोगोपभोगप रमाणम्


अथवताम वधौ रागरतीनां तनूकृतये ॥८२॥
अ याथ : [अथवताम्] योजनभूत [अिप] भी [अवधौ] िवषयों के प रणाम के भीतर
[रागरतीनां] िवषय संबंधी राग से होने वाली आस यों को [तनूकृतये] कृश करने के िलए
[अ ाथानां] इं ि य िवषयों का [प रसं ानं] प रगणन करना / सीमा िनधा रत करना
[भोगोपभोगप रमाणम्]- भोगोपभोगप रमाण गुण त है
भाच ाचाय :

सा तं भोगोपभोगप रमाणल णं गुण तमा ातुमाह --

भोगोपभोगप रमाणं भवित । िकं तत् ? य रसङ् ानं प रगणनम् । केषाम् ? अ ाथाना
िम यिवषयाणां कथ ूतानामिप तेषाम् ? अथवतामिप सुखािदल ण योजनसपादकानामिप
अथवाऽथवतां स ामिप ावकाणाम् । तेषां प रसङ् ानम् । िकमथम् ? तनूकृतये
कृशतर करणाथम् । कासाम् ? रागरतीनां रागेण िवषयेषु रागो े केण रतय:
आस य ासाम् । क न् सित ? अवधौ िवषयप रमाणे ॥
आिदमित :

प र ह प रमाण त म प र ह की जो सीमा िनधा रत की थी, उसम भी इ य-िवषयों का जो


प रसं ान / िनयम िकया जाता है , वह भोगोपभोग प रमाण त है । यहाँ पर टीकाकार ने
'अथवतां ' का अथ ऐसा भी िकया है िक अथ-प र ह रिहत मुिन तो सुखािद ल ण प
आव क योजनक व ुओं का प रगणन करते ही ह, िक ु अथवान् गृह थ ावक भी राग
के ती उ े क से होने वाली इ यिवषयों म ती आस को अ कृश करने के िलए भोग
साम ी की िनयम प प रगणना करते ह। यह भोगोपभोग प रमाण नामक गुण त है ।

+ भोग-उपभोग के ल ण -

भु ा प रहात ो भोगो भु ा पुन भो ः


उपभोगोऽशनवसन भृितः प े यो िवषयः ॥८३॥
अ याथ : [अशन] भोजन [वसन] व [ भृितः] आिदक [प े य: िवषय:] पाँ चों इ य
स ी जो िवषय [भु ा] भोगकर के [प रहात :] छोड़ दी जाती है वह [भोग:] भोग है
[च] और [भु ा] भोगकर [पुन:] वापस [भो :] भोगने म आती है वह [उपभोग:]
उपभोग है ।
भाच ाचाय :

अथ को भोग: क ोपभोगो य रमाणं ि यते इ ाशङ् ाह --

प े याणामयं पा े यो िवषय: । भु ा प रहात ा : स 'भोगो'


ऽशनपु ग िवलेपन भृित: । य: पूव भु ा पुन भो : स 'उपभोगो' वसनाभरण भृित:
वसनं व म् ॥
आिदमित :

जो पदाथ एक बार भोगकर छोड़ िदये जाते ह, वे पुन: काम म नहीं आते, ऐसी भोजन, पु ,
ग और िवलेपन आिद व ुएँ भोग कहलाती ह तथा जो पहले भोगी ई व ु बार-बार भोगने
म आवे, वह उपभोग है । जैसे -- व , आभूषण आिद। इन भोग और उपभोग की व ुओं का
िनयम करना भोगोपभोग प रमाण त कहलाता है ।

+ सवथा ा पदाथ -

सहितप रहरणाथ ौ ं िपिशतं मादप र तये


म ं च वजनीयं िजनचरणौ शरणमुपयातैः ॥८४॥
अ याथ : [िजनचरणौ] िजने भगवान् के चरणों की [शरणम्] शरण को [उपयातै:] ा
ए पु षों के ारा [ सहितप रहरणाथ] स जीवों की िहं सा प रहार करने के िलए [ ौ ं ]
मधु और [िपिशतं] मां स [च] तथा [ मादप र तये] माद का प रहार करने के िलए [म ं]
मिदरा [वजनीयं] छोडऩे यो है ।
भाच ाचाय :

म ािदभ ग पोऽिप सज ुवधहे तु ादणु तधा रिभ ा इ ाह --

वजनीयम् । िकं तत् ? ौ ं मधु । तथा िपिशतं । िकमथम् ? सहितप रहरणाथ सानां
ी यादीनां हितवध रहरणाथम् । तथा म ं च वजनीयम् । िकमथम् ? मादप र तये
माता भायित िववेकाभाव: माद प र तये प रहाराथम् । कैरे त जनीयम् ?
शरणमुपयातै: शरणमुपगतै: । कौ ? िजनचरणौ ावकै ा िम थ: ॥
आिदमित :

िजने भगवान् के चरणों की शरण लेने वाले ावक को ी यािद स जीवों की िहं सा से
बचने के िलए मधु और मां स का ाग करना चािहए तथा माद से बचने के िलए मिदरा-शराब
का ाग करना चािहए । यह माता है या ी इस कार के िववेक के अभाव को माद कहते
ह।

+अ ा पदाथ -

अ फलब िवघातान् मूलकमा ािण ङ् गवेरािण


नवनीतिन कुसुमं कैतकिम ेवमवहे यम् ॥८५॥
अ याथ : [अ फल] फल थोड़ा और [ब िवघातात्] ब त स जीवों का िवघात होने से
[आ ािण] सिच [मुलकम्] जमीकंद, [ ङ् गवेरािण] जहरीले / काँ टों वाले बेर, [नवनीत]
म न, [िन कुसुमं] नीम के फूल और [कैतकम्] केतकी-केवड़ा के फूल [इित] इ ािद
[एवं] इसी कार के अ पदाथ [अवहे यम्] छोडऩे यो ह ।
भाच ाचाय :

तथैतदिप तै ा िम ाह --

अवहे यं ा म् । िकं तत् ? मूलकम् । तथा वेरािण आ ् रकािण । िकं िविश ािन ?
आ ् रािण अशु ािण । तथा नवनीतं च । िन कुसुमिम ुपल णं सकलकुसुमिवशेषाणां
तेषाम् । तथा कैतकं केत ा इदं कैतकं गुधरा इ ेवम्, इ ािद सवमवहे यम् । क ात्
अ फलब िवघातात् । अ ं फलं य ासाव फल:, ब नां सजीवानां िवघातो िवनाशो
ब िवघात: अ फल ासौ ब िवघात त ात् ॥३९॥

आिदमित :

मूली, गीला अथात् िबना सूखा अदरक तथा उपल ण से आलू, सकरक , गाजर, अरबी
इ ािद म न, नीम के फूल, उपल ण से सभी कार के फूल तथा केवड़ा के फूल, इसी
कार और भी अ ऐसे पदाथ िजनके सेवन से फल तो अ हो और ब त जीवों का घात हो,
वे छोडऩे यो ह ।

+ त का प-

यदिन ं त तये ानुपसे मेतदिप ज ात्


अिभस कृता िवरितिवषया ो ा तं भवित ॥८६॥
अ याथ : [यत्] जो व ु [अिन म्] अिन / अिहतकर हो [तद् ] उसे [ तयेत्] छोड़ [च]
और [यत्] जो [अनुपसे म्] सेवन करने यो न हो, [एतदिप] वह भी [ज ात्] ाग कर
[यत:] ोंिक [यो ात्] यो [िवषयात्] िवषय से [अिभस कृता] अिभ ाय-पूवक की ई
[िवरित:] िनवृि [ तम्] त [भवित] होती है ।
भाच ाचाय :

ासुकमिप यदे वंिवधं त ा िम ाह --

यदिन म् उदरशूलािदहे तुतया कृितसा कं य भवित त तयेत् तिनवृि ं कुयात्


जेिद थ: । न केवलमेतदे व तयेदिपतु य ानुपसे मेतदिप ज ात् । य यदिप गोमू -
करभदु -शङ् खचूण-ता ूलो ाललाला-मू -पुरीष-शले ािदकमनुपसे ं ासुकमिप
िश लोकानामा ादनायो म् एतदिप ज ात् तं कुयात् । कुत एतिद ाह- अिभस ी ािद-
अिन तया अनुपसे तया च ावृ ेय िवषयादिभस कृताऽिभ ायपूिवका या िवरित: सा
यतो तं भवित ॥
आिदमित :

जो व ु भ होने पर भी अिन , अिहतकर हो, कृितिव हो अथात् उदरशूल आिद का


कारण हो, उसे छोड़ दे ना चािहए। इतना ही नहीं िक ु गोमू , ऊंटनी का दू ध, शंखचूण, पान
का उगाल, लार, मू , पुरीष तथा े ािद व ुएँ अनुपसे ह । िश पु षों के सेवन करने
यो नहीं ह, इसिलए इनका भी ाग करना चािहए । ोंिक अिन पने और अनुपसे पने के
कारण छोडऩे यो िवषय से अिभ ायपूवक िनवृि होने को त कहते ह ।

+ यम और िनयम -

िनयमो यम िविहतौ, े धा भोगोपभोगसंहारात्


िनयमः प रिमतकालो, याव ीवं यमो ि यते ॥८७॥
अ याथ : [भोगोपभोगसंहारात्] भोग और उपभोग के प रमाण का आ य कर [िनयम:]
िनयम [च] और [यम:] यम [ े षा] दो कार से [िविहतौ] व थािपत ह / ितपािदत ह, उनम
[प रिमतकाल:] जो काल के प रमाण से सिहत है वह [िनयम:] िनयम है और जो [याव ीवं]
जीवन-पय के िलए [ि यते] धारण िकया जाता है , वह [यम:] यम कहलाता है ।
भाच ाचाय :

त ि धा िभ त इित --

भोगोपभोगसंहारात् भोगोपभोगयो: संहारात् प रमाणात् तमाि । े धा िविहतौ ा ां


कारा ां े धा व थािपतौ । कौ ? िनयमो यम े ेतौ । त को िनयम: क यम इ ाह --
िनयम: प रिमतकालो व माण: प रिमत: कालो य भोगोपगोभसंहार स िनयम: । यम
याव ीवं ि यते ॥
आिदमित :

भोग और उपभोग का प रमाण यम और िनयम के भेद से दो कार का कहा गया है । जो


प रमाण प रिमतकाल के िलए अथात् समय की मयादा लेकर िकया जाता है , वह िनयम
कहलाता है तथा जो जीवनपय के िलए धारण िकया जाता है वह यम कहलाता है ।

+ भोगोपभोग साम ी -

भोजनवाहनशयन ानपिव ाङ् गरागकुसुमेषु


ता ूलवसनभूषणम थसङ् गीतगीतेषु ॥८८॥
अ िदवा रजनी वा प ो मास थतुरयनं वा
इित कालप र ा ा ानं भवेि यमः ॥८९॥
अ याथ : भोजन, [वाहन] सवारी, [शयन] श ा, ान, [पिव ाङ् गरागकुसुमेषु] पिव
अंग म सुग पु ािदक धारण करना, [ता ूल] पान, [वसन] व , [भूषण] आभूषण,
[म थ] काम-सेवन, [सङ् गीतगीतेषु] संगीत और गीत के िवषय म, [अ ] आज, [िदवा]
एक िदन, [रजनी] एक रात, [वा] अथवा [प ो] एक प , [मास:] एक माह, [ऋतू:] एक ऋतु
/ दो माह [वा] अथवा [अयनम्] एक अयन / छह माह [इित] इस कार [कालप र ा]
समय के िवभागपूवक [ ा ानं] ाग करना [िनयम:] िनयम [भवेत्] होता है ।
भाच ाचाय :

त प रिमतकाले त ंहारल णिनयमं दशय ाह --

युगलम् । िनयमो भवेत् । िकं तत् ? ा ानम् । कया ? कालप र ा । तामेव


कालप र ि ं दशय ाह- अ े ािद, अ ेि वतमानघिटका हरािदल णकालप र ा
ा ानम्। तथा िदवेित । रजनी राि रित वा । मास इित वा । ऋतु रित वा मास यम्।
अयनिमित वा ष ासा । इ ेवं कालप र ा ा ानम् । के ाह- भोजने ािद
भोजनं च वाहनं च घोटकािद, शयनं च प ािद, थानं च पिव ा राग पिव ासाव राग
कुङ् कुमािदिवलेपनम् । उपल णमेतद नितलकादीनां पिव िवशेषणं दोषापनयनाथ
तेनौषधा रागो िनर : । कुसुमािन च तेषु िवषयभूतेषु । तया ता ूलं च वसनं च व ं भूषणं
च कटकािद म थ कामसेवा स ीतं च गीतनृ वािद यं गीतं च केवलं नृ वा रिहतं तेषु
च िवषयेषु अ े ािद पं कालप र ाय ा ानं स िनयम इित ा ातम् ॥
आिदमित :

काल की मयादा लेकर जो ा ान- ाग िकया जाता है , वह िनयम है । भोजन का अथ तो


िस है ही । घोड़ा आिद को वाहन कहते ह । पलंग आिद शयन ह । ान का अथ भी िस
ही है । केशर आिद के िवलेपन को पिव ां गराग कहते ह । यह अंगराग अ नितलक आिद का
उपल ण है । अंगराग के साथ जो पिव िवशेषण है , वह दोषों को दू र करने के िलए िदया है ।
इससे सदोष औषिध और अंगराग का िनराकरण हो जाता है । कुसुम-फूल । ता ूल-पान ।
वसन-व । कटक-आभूषण को कहते ह । कामसेवन को म थ कहते ह । िजसम गीत नृ
वािद तीनों हों, वह संगीत कहलाता है । िजसम मा गीत ही हो, नृ वािद न हो, वह गीत
कहलाता है । इन सभी के िवषय म समय की मयादा लेकर जो ाग िकया जाता है , वह िनयम
कहलाता है । वतमान समय म एक घड़ी, एक पहर आिद काल की मयादा लेकर ाग
करना, जैसे आज का ाग है । िदन-रात तो िस है । प ह िदन को प कहते ह । तीस
िदन को महीना कहते ह । दो महीने की एक ऋतु होती है । छह मास को अयन कहते ह । इस
कार समय की अविध रखकर भोजन आिद का ाग करना िनयम कहलाता है ।

+ भोगोपभोग प रमाण त के अितचार -

िवषयिवषतोऽनुपे ानु ृितरितलौ मिततृषाऽनुभवौ


भोगोपभोगप रमा ित माः प क े ॥९०॥
अ याथ : [िवषयिवषत:] िवषय पी िवष से [अनुपे ा] उपे ा नहीं होना अथात् उसम
आदर रखना, [अनु ृित:] भोगे ए िवषयों का बार-बार रण करना, [अितलौ म्]
वतमान िवषयों म अिधक ल टता रखना, [अिततृषाऽनुभवौ] आगामी िवषयों की अिधक
तृ ा रखना और वतमान िवषय का अ आस से अनुभव करना [प ] ये पाँ च
[भोगोपभोगप रमा ित माः] भोगोपभोग-प रमाण- त के अितचार कहे गए ह ।
भाच ाचाय :

भोगोपभोगप रमाण ेदानीमतीचारानाह --

भोगोपभोगप रमाणं त ित मा अतीचारा: प क े । के ते इ ाह िवषये ािद- िवषय


एव िवषं ािणना दाहस तापािदिवधािय ात् तेषु ततोऽनुपे ा उपे ाया ाग ाभावोऽनुपे ा
आदर इ थ: । िवषयवेदना ितकाराथ िह िवषयानुभव ा तीकारे जातेऽिप
पुनय ाषणािल ना ादर: सोऽ ास साधन ादनुचार: । अनु ृित दनुभवा तीकारे
जातेऽिप पुनिवषयाणां सौ यसुखसाधन ादनु रणम ास हे तु ादतीचार: ।
अितलौ मितगृ तीकारजातेऽिप पुन: पुन दनुभवाका े थ: । अिततृषा
भािवभोगोपभोगादे रितगृ ा ा ाका ा । अ नुभवो िनयतकालेऽिप यदा भोगोपभोगावनु
भवित तदाऽ ास ानु भवित न पुनवदना तीकारतयाऽतोऽतीचार: ॥

इित भाच िवरिचतायां सम भ ािमिवरिचतोपासका यनटीकायां तृतीय: प र े द: ॥


िश ा तािधकार तुथः
आिदमित :

भोगोपभोगप रमाण त के पाँ च अितचारों का कथन करते ह । इ यिवषय िवष के समान ह ।


ोंिक िजस कार िवष ािणयों को दाह स ाप आिद उ करता है , उसी कार िवषय भी
करते ह । इस िवषय प िवष की उपे ा नहीं करना, उनके ित आदर बनाये रखना, अनुपे ा
नामक अितचार है । िवषयों का उपभोग िवषयस ी वेदना के ितकार के िलए िकया जाता
है । िवषयों का उपभोग कर लेने पर, वेदना का ितकार हो जाने पर भी पुन: संभाषण,
आिलंगन आिद म जो आदर होता है , वह अ आस का जनक होने से अितचार माना
जाता है । िवषय अनुभव से वेदना का ितकार हो जाने पर भी सौ य जिनत सुख का साधन
होने से िवषयों का बार-बार रण करना यह अनु ृित नाम का अितचार है । यह अ
आस का कारण होने से अितचार है । िवषयों म अ गृ ता रखना, िवषयों का ितकार
हो जाने पर भी बार-बार उसके अनुभव की आकां ा रखना अितलौ नाम का अितचार है ।
आगामी भोगों की ा की अ िधक गृ ता रखना अिततृषा नाम का अितचार है ।
िनयतकाल म भी जब भोगोपभोग का अनुभव करता है , तब अ आस से करता है ।
वेदना के ितकार की भावना से नहीं, अत: यह अितअनुभव नाम का अितचार है ।

इस कार सम भ ािमिवरिचत उपासका यन की भाच ाचायिवरिचत टीका म तृतीय


प र े द पूण आ ।

िश ा त-अिधकार

+ िश ा त -

दे शावकािशकं वा सामाियकं ोषधोपवासो वा


वैयावृ ं िश ा तािन च ा र िश ािन ॥९१॥
अ याथ : [दे शावकािशकं] दे श त और [सामाियकं] सामाियक, [ ोषधोपवास:]
ोषधोपवास [वा] और [वैयावृ ं] वैयावृ ये [च ा र] चार [िश ा तािन] िश ा त
[िश ािन] कहे गये ह ।
भाच ाचाय :

सा तं िश ा त पणाथमाह --

िश ािन ितपािदतािन । कािन ? िश ा तािन । कित ? च ा र । क ात् ?


दे शावकािशकिम ािदचतु: कारस ावात् । वाश ोऽ पर र कारसमु ये ।
दे शावकािशकादीनां ल णं यमेवा े कार: क र ित ॥
आिदमित :

िश ा त के चार भेद ह । १. दे शावकािशक, २. सामाियक, ३. ोषधोपवास, ४. वैयावृ । इन


सबका ल ण कार यं आगे कहगे । ोक म जो वा श है , वह पर र समु य के
िलए यु िकया है ।

+ दे शावकािशक िश ा त -

दे शावकािशकं ा ालप र े दनेन दे श


हमणु तानां ितसंहारो िवशाल ॥९२॥
अ याथ : [िवशाल ] िद त म जो दशों िदशाओं की ल ी चौड़ी [दे श ] े की मयादा
का थी [कालप र े दनेन] काल के िवभाग से [ हम्] ाितिदन [ ितसंहार:] ाग करना
[अणु तानां] अणु त पालक ावकों का दे शावकािशक त [ ात्] कहलाता है ।
भाच ाचाय :

त दे शावकािशक ताव णम् --

दे शावकािशकं दे शे मयादीकृतदे शम ेऽिप ोक दे शेऽवकाशो िनयतकालमव थानं


सोऽ ा ीित दे शावकािशकं िश ा तं ात् । कोऽसौ ? ितसंहारो ावृि : । क ? दे श
। कथ ूत ? िवशाल बहो: । केन ? कालप र े दनेन िदवसािदकालमयादया । कथम्?
हं ितिदनम् । केषाम् ? अणु तानाम् अणूिन सू ािण तािन तेषां केषां ावकाणािम थ:

आिदमित :

मयािदत दे श म भी िनयतकाल तक ोक थान म रहना दे शावकाश है । यह दे शावकाश िजस


त का योजन है , वह दे शावकािशक िश ा त है । िद त म जीवनपय के िलए जो िवशाल
े की सीमा बां धी थी, उसम भी एक िदन, एक पहर आिद काल की मयादा लेकर और भी
कम करना वह दे शावकािशक िश ा त कहलाता है । यह त अणु ती ावकों के होता है ।
'अणूिन सू ािण तािन येषां ते अणु ता:, तेषाम्' इस कार समास करने से अणु तधारी
ावक ही होते ह ।

+ दे श त म मयादा की िविध -

गृहहा र ामाणां े नदीदावयोजनानां च


दे शावकािशक र सी ां तपोवृ ाः ॥९३॥
अ याथ : [तपोवृ ाः] गणधरदे वािदक [दे शावकािशक ] दे शावकािशक िश ा त के
शे की [गृह] घर, [हा र] गली, [ ाम] गाँ व [च] और [ े ] खेत, नदी, [दाव] वन तथा योजनों
की [सी ां] सीमा [ र ] रण करते ह ।
भाच ाचाय :

अथ दे शावकािशक का मयादा इ ाह --

तपोवृ ाि र नाचाया गणधरदे वादय: । सी ां र मयादा: ितपा े । सी ािम


' ृ थदयीशां कम' इ नेन ष ी । केषां सोमाभूतानाम् ? गृहहा र ामाणां हा र: कटकम् ।
तथा े नदीदावयोजनानां च दावो वनम् । क ैतेषां सीमाभूतानाम् ? दे शावकािशक
दे शिनवृि त ॥
आिदमित :

'तपोिभ: वृ ा: तपोवृ ा:' इस िन के अनुसार तप से वृ िचरकालीन आचाय गणधर


दे वािदक का हण होता है । उ ोंने दे शावकािशक त की सीमा िनधा रत करते ए घर,
छावनी, गाँ व, खेत, नदी, वन और योजनों की सीमा प से मयािदत करना कहा है । यहाँ कम
अथ म ' ृ थदयीशां कम' इस सू से ष ी िवभ का योग आ है । इस सू का अथ है
ृ थक धातुएँ तथा दय और ईश धातु के कम म ष ी िवभ होती है ।

+ दे श त म काल मयादा -

संव रमृतुरयनं मासचतुमासप मृ ं च


दे शावकािशक ा ः कालाविधं ा ाः ॥९४॥
अ याथ : [ ा ाः] गणधरदे व / आचाय [दे शावकािशक ] दे शावकािशक- त की
[कालाविधं] काल-मयादा [संव रम्] एक वष, [अयनम्] छह मास, [ऋतु] दो मास, [मास]
एक माह, [चातुमास] चार माह, [प ] पं ह िदन [च] और [ऋ म] एक न को [ ा :]
कहते ह ।
भाच ाचाय :

एवं ाविधं योजनाविधं चा ितपा कालाविधं ितपादय ाह --

दे शावकािशक कालाविधं कालमयादां ा : । के ते ? ा ा: गणधरदे वादय: । िकं तिद ाह


संव रिम ािदॠ- संव रं यावदे ताव ेव दे शे मयाऽव थात म् । तथा ऋतुमयनं वा यावत् ।
मासचतुमासप ं यावत् । ऋ ं च च भु ा आिद भु ा वा इदं न ं यावत् ॥
आिदमित :

दे शावकािशक त म काल की मयादा बतलाते ए गणधरदे वािदक ने एक वष, एक ऋतु, एक


अयन, एक मास, चार मास, एक प अथवा एक न को काल की अविध कहा है अथात् इस
कार दे शावकािशक त म आने-जाने की कालमयादा की जाती है , ऐसा कहा है ।

+ यह त भी उपचार से महा त है -

सीमा ानां परतः थूलेतर प पापसं ागात्


दे शावकािशकेन च महा तािन सा े ॥९५॥
अ याथ : [सीमा ानां] सीमाओं के अ भाग के [परतः] आगे [ थूल] थूल और [इतर]
सू [प पाप] पाँ चों पापों का [सं ागात्] स क् कार ाग हो जाने से
[दे शावकािशकेन] दे शावकािशक- त के ारा [महा तािन] महा त [ सा े] िस िकये
जाते ह ।
भाच ाचाय :

एवं दे शावकािशक ते कृते सित तत: परत: िकं ािद ाह --

सा े व था े । कािन ? महा तािन । केन ? दे शावकािशकेन च न केवलं


िद र ािपतु दे शावकािशकेनािप । कुत: ? थूलेतरप पापस ागात् थूलेतरािण च तािन
िहं सािदल णप पापािन च तेषां स क् ागात् । ? सीमा ानां परत: दे शावकािशक त
सीमाभूता ये 'अ ाधमा' गृहादय: संव रािदिवशेषा: तेषां वा अ ा: पय ा ेषां परत: प र न्
भागे ॥
आिदमित :

दे शावकािशक त म गृह आिद और वष, मास आिद काल की अपे ा जो सीमा िनधा रत की
थी, उसके आगे थूल और सू दोनों कार से िहं सािद पंच पापों का पूण प से ाग हो जाने
से सीमा के बाहर िद त के समान दे शावकािश त म महा त की िस होती है ।

+ दे शावकािशक त के अितचार -

ेषणश ानयनं पािभ पु ल ेपौ


दे शावकािशक पिद ेऽ याः प ॥९६॥
अ याथ : दे शावकािशक त म की ई मयादा के बाहर [ ेषण] िकसी मनु को भेज दे ना,
[श ] मयादा के बाहर काम करने वाले के ित ताली, चुटकी, ं कार आिद श से संकेत
करना, [आनयनम्] मयादा के बाहर से कोई व ु मंगाना, [ पािभ ] मयादा के बाहर
वाले को अपना शरीर आिद िदखाना और [पु ल ेपौ] मयादा के बाहर काम करने वाले का
इशारा करने हे तु कंकड़ आिद फकना इस कार से ेषण, श , आनयन, पािभ
और पु ल ेप ये पाँ च [अ ाया:] अितचार [दे शावकािशक ] दे शावकािशक त के
[ पिद े] कहे जाते ह ॥
भाच ाचाय :

इदानीं तदितचारान् दशय ाह --

अ या अितचारा: । प पिद ेक े । के ते ? इ ाह -- ेषणे ािदमयादीकृते दे शे


यं थत ततो बिह रदं कुिवित िविनयोग: ेषणम् । मयादीकृतदे शा िह ्यापारं कुवत:
कमकरान् ित खा रणािद: श : । त े शा िह: योजनवशािददमानये ा ापनमानयनम् ।
मयादीकृतदे शे थत बिहदशे कम कुवतां कमकरणां िव ह दशनं पािभ : ।
तेषामेव लो ािदिनपात: पु ल ेप: ॥
आिदमित :

दे शावकािशक त के पाँ च अितचार कहते ह -- यं मयािदत े म थत रहकर 'तुम यह


काम करो', इस कार मयादा के बाहर भेजना ेषण नाम का अितचार है । मयादा के बाहर
काय करने वालों के ित खां सी आिद श करना श नाम का अितचार है । मयादा के बाहर
रहने वाले से योजनवश आ ा दे ना िक 'तुम अमुक व ु लाओ' यह आनयन नाम का
अितचार है । यं मयािदत े म थत होकर मयादा से बाहर काम करने वालों को अपना
शरीर िदखाना पािभ नाम का अितचार है और उ ीं लोगों को ल करके कंकर,
प र आिद फकना पु ल ेप नाम का अितचार है । इस कार ये दे शावकािशक त के पाँ च
अितचार ह ।

+ सामाियक िश ा त -
आसमयमु मु ं प ाघानामशेषभावेन
सव च सामियकाः सामियकं नाम शंस ॥९७॥
अ याथ : [सामियकाः] सामाियक के ाता गणधरदे वािदक [अशेषभावेन] मन-वचन-काय
और कृत-का रत-अनुमोदना से [सव ] सब जगह [आसमयमु ] सामाियक के िलए िनि त
समय तक [प ाघानाम] पाँ च पापों के [मु ं] ाग करने को [सामियकं] सामाियक नाम
का िश ा त [शंस ] कहते ह ।
भाच ाचाय :

एवं दे शावकािशक पं िश ा तं ा ायेदानीं सामाियक पं त ा ातुमाह --

सामियकं नाम ु टं शंस ितपादय । के ते ? सामियक: समयमागमं िव ये ते


सामियका गणधरदे वादय: । िकं तत् ? मु ं मोचनं प रहरणं यत् तत् सामियकम् । केषां
मोचनम् ? प ाघानां िहं सािदप पापानाम् । कथम् ? आसमयमु व माणल णसमयमोचनं
आ-सम ा ा गृहीतिनयमकालमु ं याविद थ: । कथं तेषां मोचनम्? अशेषभावेन
साम ेन न पुनदशत: । सव च अवधे: परभागे च । अनेन दे शावकािशकाद भेद:
ितपािदत: ॥
आिदमित :

िनि त समय की अविध तक पंच पापों का पूण प से ाग करने को गणधरदे वािद ने


सामाियक नामक िश ा त कहा है । दे शावकािशक त म मयादा के बाहर े म पंच पापों
का पूण प से ाग होता है । िक ु सामाियक िश ा त म मयादा के भीतर-बाहर दोनों ही
े ों म पंच पापों का पूण ाग होता है , इस कार से दे शावकािशक की अपे ा सामाियक
िश ा त म कहा गया है ।

+ समय श की ु ि -

मूध हमुि वासोब ं प कब नं चािप


थानमुपवेशनं वा समयं जान समय ाः ॥९८॥
अ याथ : [समय ाः] आगम के ाता पु ष [मूध हब ं] सर के केश के बंध, [मुि ब ं]
मुि के बंध (fist) और [वासोब ं] व के ब के काल को [च] और [प कब नं] पालथी
बां धने के काल को [वा] अथवा [उपवेशनं] खड़े होने के काल को और [ थानं] बैठने के काल
को [समयं] सामाियक का समय [जान ] जानते ह ।
भाच ाचाय :
आसमयमु ी य: समयश : ितपािदत दथ ा ातुमाह --

समय ा आगम ा: । समयं जान । िकं तत् ? मूध हमुि वासोब ं, ब श :


ेकमिभस ते मूध हाणां केशानां ब ं ब कालं समयं जान । तथा मुि ब ं
वासोब ं व पय ब नं चािप उपिव कायो गमिप च थानमू वकायो ग उपवेशनं
वा सामा ेनोपिव ाव थानमिप समयं जान ॥
आिदमित :

मूध ह, मुि और वासस् इन तीन श ों का समास आ है । यहाँ पर ब श का


ेक के साथ स होता है । अत: मूध हब , मुि ब और वासोब ये तीन श बने ह
। ब का अथ ब का काल है । जैसे -- जब तक चोटी म गां ठ लगी है , मु ी बंधी है , व म
गां ठ लगी है , आसन लगाकर बैठा ँ , कायो ग मु ा म खड़ा ँ अथवा प ासन से बैठा ँ , तब
तक सामाियक क ं गा । इनम जो काल लगता है , वह सब सामाियक का काल कहलाता है ।
तथा इसको सामाियक का काल जानते ह ।

+ सामाियक यो थान -

एका े सामियकं िन ा ेपे वनेषु वा ुषु च


चै ालयेषु वािप च प रचेत ं स िधया ॥९९॥
अ याथ : [िन ा ेपे] उप व-रिहत [एका े] एकां त थान म, [वनेषु] वन म, [वा ुषु] घर
/ धमशाला म, [च] और [चै ालयेषु] चै ालयों म [अिप] और [वािप च] पवत पर गुफा म,
शान म जहाँ कहीं भी [ स िधया] िच को स करके [सामियकं] सामाियक
[प रचेत ं] बढ़ाना चािहये ।
भाच ाचाय :

एवंिवधे समये भवत् य ामाियकं प कारपापात् साक ेन ावृि पं त ो रो रा


वृ : कत े ाह --

प रचेत ं वृ ं नेत म् । िकं तत् ? सामाियकम् । ? एका े ीपशुपा ु िकिवविजते


दे शे । कथ ूते ? िन ्या ेपे िच ाकुलतारिहते शीतवातदं शमशकािदबाधाविजत: इ थ:
इ ूते एका े । ? वनेषु अटवीषु, वा ुषु च गृहेषु, चै ालयेषु च अिपश ाद्
िग रग रािदप र ह: । केन चेत म् ? स िधया स ा अिवि ा धीय ा न ेन अथवा
स ासै धी तया कृ ा आ ना प रचेत िमित ॥
आिदमित :

सामाियक के िलए एका थान होना चािहए । एका का अथ है , िजस थान म ी, पशु
और नपुंसक आिद का आवागमन न हो । िन ्या ेप अथात् िच को ाकुल करने वाले शीत,
वायु तथा डां स म र आिद की बाधा से रिहत हो, एका थान चाहे अटवी हो या घर,
दे व थान अथवा अिप श से पवत, गुफा आिद कोई भी थान हो, वहाँ पर स िच होकर
सामाियक करना चािहए । स िधया श का ' स ा-अिवि ा धीय स स धी ेन' इस
कार ब ीिह समास और ' स ा चासौ धी इित स धी या' इस कार कमधारय समास
भी होता है । इस िवशे और हे तु को बतलाया है ।

+ त के िदन सामाियक का उपदे श -

ापारवैमन ाि िनवृ ाम रा िविनवृ ा


सामाियकं ब ीयादुपवासे चैकभु े वा ॥१००॥
अ याथ : [उपवासे] उपवास के िदन [वा] अथवा [एक भु े] एकाशन के िदन
[ ापारवैमन ात्] शरीरािदक की चे ा और मन की ता अथवा कलुषता से
[िविनवृ ाम्] िनवृि होने पर [अ रा िविनवृ ा] मानिसक िवक ों की िविश
िनवृि पूवक [सामियकम्] सामाियक को [ब ीयात्] बढ़ाना चािहए।
भाच ाचाय :

इ ूतेषु थानेषु कथं त रचेत िम ाह --

ब ीयादनुित े त् । िकं तत् ? सामाियकम् । क ां स ाम् ? िविनवृ ाम् । क ात् ?


ापारवैमन ात् ापार: कायािदचे ा वैमन ं मनो ता िच कालु ं वा
त ाि िनवृ ामिप स ाम् अ रा िविनवृ ा कृ ा त ीयात् अ रा नो मनोिवक
िवशेषेण िनवृ ा।क न् सित त ां तया त ीयात् ? उपवासे चैकभु े वा ॥
आिदमित :

सामाियक की वृ िकन भावों से करे ? इसके उ र प म बतलाते ह िक ापार-शरीर


की चे ा और वैमन - मन की ता अथवा िच की कलुषता से रिहत होकर मानिसक
िवक ों को िवशेष प से हटाते ए उपवास अथवा एकाशन के िदन िवशेष प से सामाियक
को बढ़ाना चािहए । यहाँ पर चकार से उससे अ समय का भी हण होता है अथात् उपवास
और एकाशन के िसवाय अ िदनों म भी सामाियक को बढ़ानी चािहए ।

+ ाितिदन सामाियक का उपदे श -

सामियकं ितिदवसं यथावद नलसेन चेत म्


तप कप रपूरणकारणमवधानयु ेन ॥१०१॥
अ याथ : [ तप क] िहं सा ाग आिद पाँ च तों की [प रपूरण] पूित का [कारणम्] कारण
[सामाियकं] सामाियक [अनलसेन] आल से रिहत और [अवधानयु ेन] िच की
एका ता से यु पु ष के ारा [ ितिदवसं] ितिदन [यथावत्] शा ो िविध के अनुसार
[चेत म्] बढ़ाया जाना चािहए ।
भाच ाचाय :

इ ूतं त ं कदािच रचेत म था वे ाह --

चेत ं वृ ं नेत म् । िकं ? सामाियकम् । कदा ? ितिदवसमिप न पुन: कदािचत् पविदवस


एव । कथम् ? यथावदिप ितपािदत पानित मेणैव । कथ ूतेन ?
अनलसेनाऽऽल रिहतेन उ तेने थ: । तथाऽवधानयु ेनैका चेतसा । कुत िद ं
प रचेत म् ? तप कप रपूरणकारणं यत: तानां िहं सािवर ादीनां प कं त प रपूरण ं
महा त प ं त कारणम् । यथो सामाियकानु ानकाले िह अणु ता िप महा त ं
ितप ेऽत ारणम् ॥
आिदमित :

यहाँ पर बतला रहे ह िक कोई यह न समझ ले िक उपवास अथवा एकाशन के िदन ही


सामाियक करनी चािहए, अ िदनों म नहीं । इसी का िनराकरण करते ए कहते ह िक
शा ो िविध का अित मण नहीं करते ए ितिदन सामाियक करनी चािहए । सामाियक
करने वाला पु ष आल रिहत तथा िच की एका ता से यु होना चािहए । ोंिक
सामाियक म िहं सािद पंच पापों की िनवृि हो जाती है , इसिलए पाँ चों तों की प रपूणता
प सामाियक के काल म अणु त भी महा त पता के कारण ह ।

+ सामाियक के समय मुिनतु ता -

सामियके सार ाः प र हा नैव स सवऽिप


चेलोपसृ मुिन रव गृही तदा याित यितभावम् ॥१०२॥
अ याथ : [सामियके] सामाियक के काल म [सार ाः] आर सिहत [सवऽिप] सभी
(अ रं ग-बिहरं ग) [प र हा] प र ह [नै व] नहीं [स ] होते ह, इसिलए [तदा] उस समय [गृही]
गृह थ [चेलोपसृ ] उपसग के कारण व से वेि त [मुिन रव] मुिन के समान [यितभावम्]
मुिनपने को [आयाित] ा होता है ।
भाच ाचाय :

एतदे व समथयमान: ाह --

सामियके सामाियकाव थायाम् । नैव स न िव े । के ? प र हा: स ा: । कथ ूता: ?


सार ा: कृ ा ार सिहता: । कित ? सवऽिप बा ा रा ेतनेतरािद पा वा । यत एवं
ततो याित ितप ते । कम् ? यितभावं यित म् । कोऽसौ ? गृही ावक: । कदा ?
सामाियकाव थायाम् । क इव ? चेलोपसृ मुिन रव चेलेन व ेण उपसृ : उपसगवशा े ि त: स
चासौ मुिन स इव त त् ॥
आिदमित :

िजस समय गृह थ सामाियक करता है , उस काल म उसके खेती आिद के आर से सिहत
सभी बिहरं ग-अ रं ग तथा चेतन-अचेतन प र ह नहीं होते ह । इसिलए वह गृह थ सामाियक
अव था म उपसग से व ा ािदत मुिन के समान मुिनपने को ा होता है ।

+ परीषह—उपसग सहन का उपदे श -

शीतो दं शमशकपरीषहमुपसगमिप च मौनधराः


सामियकं ितप ा अिधकुव र चलयोगाः ॥१०३॥
अ याथ : [सामाियकं] सामाियक को [ ितप ा] धारण करने वाले [मौनधरा:] मौनधारी
[च] और [अचलयोगाः] योगों की चंचलता रिहत गृह थ [शीतो दं शमशकपरीषहम्] शीत,
उ तथा दं शमशक परीषह को [च] और [उपसगम्] उपसग को [अिप] भी [अिधकुव रन्]
सहन कर ।
भाच ाचाय :

तथा सामाियकं ीकृतव ो ये तेऽपरमिप िकं कुव ी ाह --

अिधकुव रन् सहे रि थ: । के ते ? सामियकं ितप ा: सामाियकं ीकृतव : । िकं िविश ा:


स : ? अचलयोगा: थरसमाधय: ित ानु ानाप र ािगनो वा । तथा मौनधरा ीडायां
स ामिप ीबािदवचनानु ारका: दै ािदवचनानु ारका: । कमिधकुव रि ाह-
शी े ािद-शीतो दं शमशकानां पीडाका रणां त रसम ात् सहनं त रीषह ं, न केवलं
तमेव अिप तु उपसगमिप च दे वमनु ितय ृ तम् ॥
आिदमित :

िज ोंने सामाियक को ीकार िकया है , ऐसे गृह थ ान म थर होकर ान करने की


ित ा से चलायमान नहीं होते ए तथा मौन तधारी बनकर शीत-उ , डां स-म र आिद की
पीड़ाकारक परीषह को तथा दे व-मनु एवं ितय ों के ारा िकये गये उपसग को दीनतापूवक
श ों का उ ारण नहीं करते ए सहन कर ।

+ सामाियक के समय चतन -


अशरणमशुभमिन ं दुःखमना ानमावसािम भवम्
मो ि परीता ेित ाय ु सामियके ॥१०४॥
अ याथ : [सामियके] सामाियक म [अशरणम्] अशरण- प, [अशुभम्] अशुभ- प,
[अिन म्] अिन - प, [दु :खम्] दु :ख- प और [अना ानम्] अना - प [भवम्]
संसार म [आवसािम] िनवास करता ँ और [मो :] मो [ति परीता ा] उससे िवपरीत
प वाला है [इित] इस कार [ ाय ु] िवचार ।
भाच ाचाय :

तं चािधकुवाणा: सामाियके थता एवंिवधं संसारमो यो: पं िच येयु र ाह --

तथा सामाियके थता ाय ु । कम् ? भवं ोपा कमवशा तुगितपयटनम् । कथ ूतम् ?


अशरणं न िव ते शरणमपायप रर कं य ।
अशुभमशुभकारण भव ादशुभकायका र ा ाशुभम् । तथाऽिन ं चतसृ िप गितषु
पयटन िनयतकाललयाऽिन ादिन म् । तथा दु :खहे तु ाद् दु :खम् ।
तथाना ानमा पं न भवित । एवंिवधं भवमावसािम एवंिवधे भवे ित ामी थ: ।
य ेवंिवध: संसार िह मो : की श इ ाह- मो ि परीता ा
त ादु भव पाि परीत पत: शरणशुभािद प: इ ेवं ाय ु िच य ु
सामाियके थता: ॥
आिदमित :

सामाियक म थत गृह थ इस कार िवचार करे - अपने उपािजत कम के ारा जीव चारों
गितयों म मण करता है , वह भव कहलाता है । इस भव-संसार म मृ ु से बचाने वाला कोई
भी र क नहीं है । अशुभ कारणों से उ होने तथा अशुभ काय को करने के कारण अशुभ
है । चारों गितयों म प र मण करने का काल िनयत होने से अिन है । दु :ख का कारण होने
से दु :ख प है और आ प से िभ होने के कारण अना ा है । ऐसी संसार की थित है
तथा म इस संसार म थत ँ , इस कार का िवचार सामाियक म थत ावक करे । तथा मो
इस संसार के िवपरीत है अथात् शरण प है , शुभ है , िन ािद प है । इस कार मो के
प का भी िवचार करे ।

+ सामाियक के अितचार -

वा ायमानसानां दुः िणधाना नादरा रणे


सामियक ाितगमा े प भावेन ॥१०५॥
अ याथ : [वा ायमानसानाम] वचन काय और मन की [दु ः िणधानािन] खोटी वृि
[अनादरा रणे] अनादर और अ रण ये [प ] पाँ च [भावेन] परमाथ से [सामियक ]
सामाियक के [अितगमा:] अितचार [ े] कट िकये जाते ह ।
भाच ाचाय :

सा तं सामाियक ातीचारानाह --

ेक े । के ते ? अितगमा: अितचारा । क ? सामियक । कित ? प । कथम् ?


भावेन परमाथन । तथा िह । वा ायमानसानां दु िणधानिम ेतािन ीिण । अनादरोऽनु ाह:
। अ रणमनैका म् ॥
आिदमित :

सामाियक के पाँ च अितचार कहते ह, यथा- मनदु िणधान, वचनदु िणधान, कायदु िणधान
इन तीन योगों की खोटी वृि प तीन अितचार और अनादक तथा अ रण-एका ता का
अभाव ये सब िमलकर सामाियक के पाँ च अितचार ह ।

+ ोषधोपवास िश ा त -

पव ां च ात ः ोषधोपवास ु
चतुर वहा ाणां ा ानं सदे ािभः ॥१०६॥
अ याथ : [पविण] चतुदशी [च] और [अ ां] अ मी के िदन [सदा] हमेशा के िलए
[इ ािभः] तिवधान की वा ा से [चतुर वहा ाणां] चार कार के आहारों का
[ ा ानं] ाग करना [ ोषधोपवास:] ोषधोपवास [ ात ः] जानना चािहए ।
भाच ाचाय :

अथेदानीं ोषधोपवासल णं िश ा तं ाच ाण: ाह --

ोषधोपवास: पुन ्ञात : । कदा ? पविण चतुद ाम् । न केवलं पविण, अ ां च । िकं
पुन: ोषधोपवासश ािभधेयम् ? ा ानम् । केषाम् ? चतुर वहायाणां च ा र
अशनपानखा ले ल णािन तािन चा वहायािण च भ णीयािन तेषाम् । िकं
क ाि दे वा ां चतुद ां च तेषां ा ानिम ाह- सदा सवकालम् । कािभ:
इ ािभ तिवधानवा ािभ ेषां ा ानं न पुन ्यवहार कृतधरणकािदिभ: ॥
आिदमित :

ेक अ मी और चतुदशी-पव के िदनों म अ , पान, खा और ले इन चार कार के


आहार का ाग करना ोषधोपवास कहलाता है । यहाँ पर जो 'सदा' श िदया है , उससे यह
िस होता है िक चार कार के आहार का ाग सदा के िलए अथात् जीवनपय की ेक
अ मी, चतुदशी के िलए होना अिनवाय है । यह ाग त की भावना से होना चािहए, न िक
लोक वहार म िकये गये धरणा आिद की भावना से अथात् अपनी िकसी मां ग को ीकार
करने के िलए ाग आिद करना धरणा है । ऐसे ाग को ोषधोपवास नहीं कहते ह ।

+ उपवास के िदन ा ा काय -

प ानां पापानामलङ् ि यार ग पु ाणाम्


ाना नन ानामुपवासे प र ितं कु ात् ॥१०७॥
अ याथ : [उपवासे] उपवास के िदन [प ानां] पाँ च [पापानाम्] पापों का तथा
[अलङ् ि या] अलंकार धारण करना, [आर ] खेती आिद का आर करना,
[ग पु ाणाम्] च न आिद सुग त पदाथ का लेप करना, पु मालाएँ धारण करना या
पु ों को सूंघना, [ ान] ान करना, [अ न] काजल / सुरमा आिद लगाना तथा [न ा] नाक
से न आिद का सूंघना इन सबका [प र ितं] प र ाग [कु ात्] करना चािहए ।
भाच ाचाय :

उपवासिदने चोपोिषतेन िकं कत िम ाह --

उपवासिदने प र ितं प र ागं कुयात् । केषाम् ? प ानां िहं सादीनाम् । तथा


अलङ् ि यार ग पु ाणाम् अलङ् ि याम नं आर ो वािण ािद ापार:
ग पु ाणािम ुपल णं रागहे तूनां गीतनृ ादीनाम् । तथा ाना नन ानां ानं च अ नं च
न तेषाम् ॥
आिदमित :

उपवास करने वाले को उपवास के िदन िहं सा, झूठ, चोरी, कुशील और प र ह इन पाँ च
पापों का ाग करना चािहए । तथा शरीर-स ा, वािण ािद ापार, ग पु आिद के योग
का और ान, अ न, न ािद के सेवन का ाग करना चािहए । यह सब उपल ण ह, अत:
इसम गीत, नृ ािद राग के सभी कारणों का ाग भी आ जाता है ।

+ उपवास के िदन कत -

धमामृतं सतृ ः वणा ां िपबतु पायये ा ान्


ान ानपरो वा भवतूपवस त ालूः ॥१०८॥
अ याथ : [उपवसन] उपवास करने वाला [अत ालूः] आल -रिहत होता
[सतृ ः] उ ं िठत होता आ [ वणा ां] कानों से [धमामृतं] धम पी अमृत को [िपबतु]
यं पीवे [वा] अथवा [अ ान्] दू सरों को [पाययेत्] िपलावे अथवा आल रिहत होता आ
[ ान ानपरो] ान और ान म त र [भवतु] होवे ।
भाच ाचाय :

एतेषां प रहारं कृ ा िकं ति नेऽनु ात िम ाह --

उपवस ुपवासं कुवन् । धमामृतं िपबतु धमम् एवामृतं सकलपािणनामा ायक ात् तत् िपबतु ।
का ाम् ? वणा ाम् । कथ ूत: ? सतृ : सािभलाष: िपबन् न पुन परोधािदवशात् ।
पाययेद् वा ान् मेवावगतधम प ु अ तो धमामृतं िपबन् अ ानिविदतत पान्
पाययेत् तत् । ान ानपरो भवतु, ानपरो ादशानु े ाद् युपयोगिन : ।

अधुरवाशरणे
् चैव भव एक मेव च

अ मशुिच ं च तथैवा वसंवरौ ॥१॥

िनजरा च तथा लोकबोधदु लभधमता

ादशैता अनु े ा भािषता िजनपु वै: ॥२॥

ानपर: आ ापायिवपाकसं थानिवचयल णधम ानिन ो वा भवतु । िकंिविश : ? अत ालु:


िन ाल रिहत: ॥
आिदमित :

उपवास करने वाला धम पी अमृत को कानों से पीवे । धम को अमृत कहा है , ोंिक यह


सम ािणयों के स ोष का कारण है । यिद उपवास करने वाला व ु प का
ाता नहीं है , तो उ ुकतापूवक अ िविश जनों से धम के उपदे श को अपने कानों से सुने ।
यिद यं त वे ा है तो दू सरों को धम पदे श सुनावे तथा आल - माद को छोडक़र ान-
ा ाय म लीन होते ए अिन , अशरण, संसार, एक , अ , अशुिच, आ व, संवर,
िनजरा, लोक, बोिधदु लभ और धम इन बारह भावनाओं के िच न म उपयोग को लगावे अथवा
आ ािवचय, अपायिवचय, िवपाकिवचय, सं थानिवचय ल ण प धम ान म त र रहे ।

+ ोषध और उपवास का ल ण -

चतुराहारिवसजनमुपवासः ोषधः सकृद् भु ः


स ोषधोपवासो यदुपो ार माचरित ॥१०९॥
अ याथ : [चतुराहार] चार कार के आहार का [िवसजनम्] ाग करना [उपवासः]
उपवास है । [सकृद् ] एक बार [भु ] भोजन करना [ ोषधः] ोषध / एकासन है और [यत्]
इस कार [उपो ] उपवास करने के बाद [आर ं] एकाशन को [आचरित] करना [स:] वह
[ ोषधोपवास:] ोषधोपवास है ।
भाच ाचाय :

अधुना ोषधोपवास ल णं कुव ाह --

च ार ते आहारा ाशनपानखा े ल णा: । अशनं िह भ मु ािद, पानं िह पेयमिथतािद,


खा ं मोदकािद, ले ं र ािद, तेषां िवसजनं प र जनमुपवासोऽिभधीयते । ोषध: पुन:
सकृद् भु धारणकिदने एकभ िवधानम् । य ुन पो उपवासं कृ ा पारणकिदने आर ं
सकृद् भु माचर नुित ित स ोषधोपवासोऽिभधीयते इित ॥
आिदमित :

आहार चार कार का है - अशन, पान, खा , ले । भात, मूंग आिद अशन कहलाते ह । छाछ
आिद पीने यो व ु पेय कहलाती है । लड् डू आिद खा ह । रबड़ी आिद चाटने यो पदाथ
ले ह । इन चारों कार के आहार का ाग करना उपवास कहलाता है । एक बार भोजन
करने को ोषध कहते ह । धारणा के िदन एकाशन और पव के िदन उपवास करना पुन:
पारणा के िदन एकाशन करना ोषधोपवास कहलाता है ।

+ ोषधोपवास त के अितचार -

हणिवसगा रणा मृ ा नादरा रणे


य ोषधोपवास ितलंघनपंचकं तिददम् ॥११०॥
अ याथ : [यत्] जो [अ मृ ािन] िबना दे खे तथा िबना शोधे [ हणिवसगा रणािन] पूजा
आिद के उपकरणों को हण करना, मलमू ािद को छोडऩा और सं र आिद को िबछाना
तथा [अनादरा रणे] आव क आिद म अनादर और यो ि याओं को भूल जाना,
[तिददं ] वे ये [षधोपवास ितलंघनपंचकं] ोषधोपवास त के पाँ च अितचार ह ।
भाच ाचाय :

अथ केऽ ातीचारा इ ाह --

ोषधोपवास ाितल नप कमितचारप कम् । तिददं पूवाध ितपािदत कारम् । तथा िह


। हणिवसगा रणािन ीिण । कथ ूतािन ? अ मृ ािन ं दशनं ज त: स न स ीित
वा च ुषावलोकनं मृ ं मदु नोपकरणेन माजनं तदु भौ न िव ेते येषु हणािदषु तािन तथो ािन
त बुभु ापीिडत ा मृ ाहदािदपूजोपकरण ा प रधाना थ च हणं भवित । तथा
अ मृ ायां भूमौ मू पुरीषादे ग भवित । तथा अ मृ े दे शे आ रणं सं रोप मो
भवती ेतािन ीिण । अनादरा रणे च े । तथा आव कादौ िह बुभु ा
पीिडत ादनादरोऽनैका ताल णम रणं च भवित ॥
आिदमित :

यहाँ पर जीव ज ु ह िक नहीं ? इस कार च ु से अवलोकन करना कहलाता है और


कोमल उपकरण से प रमाजन करना मृ कहलाता है । िजसम ये दोनों न हों, वह अ मृ
कहलाता है । अ मृ का स हण, िवसग, आ रण इन तीनों के साथ है । इसिलए
अ मृ हण, अ मृ िवसग, अ मृ ा रण ये तीन अितचार ह। अ मृ हण अितचार
उसके होता है जो भूख से पीि़डत होकर अह ािद की पूजा के उपकरण तथा अपने व ािद
को िबना दे खे और िबना शोधे हण करता है । अ मृ िवसग जो भूख से पीि़डत होने के
कारण िबना दे खी, िबना शोधी भूिम पर मलमू ािद िवसिजत करते ह । अ मृ ा रण भूख से
पीि़डत होकर िबना दे खी, िबना शोधी भूिम पर िब र आिद िबछाना । इन तीन के िसवाय
अनादर और अ रण ये दो अितचार और ह । यथा- भूख से पीि़डत होने के कारण आव क
काय म आदर नहीं करना, उपे ा का होना अनादर नाम का अितचार है और िच िवि
होना एका ता नहीं होना अ रण नाम का अितचार है ।

+ वैयावृ का ल ण -

दानं वैयावृ ं धमाय तपोधनाय गुणिनधये


अनपेि तोपचारोपि यमगृहाय िवभवेन ॥१११॥
अ याथ : [तपोधनाय] तप प धन से यु तथा [गुणिनधये] स शनािद गुणों के
भ ार [अगृहाय] गृह ागी-मुनी र के िलए [िवभवेन] िविध, आिद स ि के अनुसार
[अनपेि तोपचारोपि यम] ितदान और ुपकार की अपे ा से रिहत [धमाय] -पर के
धम की वृ के िलए जो [दानम्] दान िदया जाता है , वह [वैयावृ ं] वैयावृ कहलाता है ।
भाच ाचाय :

इदानीं वैयावृ ल णिश ा त पं पय ाह --

भोजनािददानमिप वैयावृ मु ते । क ै दानम् ? तपोधनाय तप एव धनं य त ै ।


िकंिविश ाय ? गुणिनधये गुणानां स शनादीनां िनिधरा य ै । तथाऽगृहाय
भाव ागाररिहताय िकमथम् ? धमाय धमिनिम म् । िकंिविश ं त ानम् ?
अनपेि तोपचारोपि यम् उपचार: ितदानम् उपि या म त ािदना ुपकरणं ते न
अपेि ते येन । कथं त ानम् ? िविध ािदस दा ॥
आिदमित :

तप ही िजनका धन है तथा स शनािद गुण प िनिध िजनके आि त है , ऐसे भाव आगार


और आगार से रिहत मुनी रों के िलए धम के िनिम ितदान और म त ािद ित
उपकार की भावना की अपे ा से रिहत आहारािद का दान दे ना वैयावृ कहलाता है ।

+ वैयावृ का दू सरा ल ण -

ापि पनोदः पदयोः संवाहनं च गुणरागात्


वैयावृ ं यावानुप होऽ ोऽिप संयिमनाम् ॥११२॥
अ याथ : [गुणरागात्] स शनािद गुणों की ीित से [संयिमनाम्] दे श त और सकल त
के धारक संयमीजनों को [ ापि पनोदः] आई ई नाना कार की आपि को दू र करना
[पदयोः] पैरों का, उपल ण से ह ािदक अ ों का [संवाहनं] दाबना [च] और [अ ोऽिप]
अ भी [यावान्] िजतना [उप ह:] उपकार है , वह वैयावृ कहा जाता है ।
भाच ाचाय :

न केवलं दानमेव वैयावृ मु तेऽिप तु --

ाप यो िविवधा ा ािदजिनता आपद ासां पनोदो िवशेषेणोपनोद: े टनं


य ै यावृ मेव । तथा पदयो: संवाहनं पादयोमदनम् । क ात् ? गुणरागात् भ वशािद थ:-
न पुन ्यवहारात् फलापे णा ा । न केवलमेतावदे व वैयावृ ं िक ु अ ोऽिप संयिमनां
दे शसकल तानां स ी यावान् य रमाण उप ह उपकार: स सव वैयावृ मेवो ते ॥
आिदमित :

संयमी दो कार के ह, दे श ती और सकल ती । इन संयमीजनों पर ािध आिद अनेक


कार की आयी ई आपि यों को गुणानुराग-भ से े रत होकर दू र करना, उसके पैर
आिद अंगों का मदन करना-दबाना तथा अ भी अनुकूल सेवा वैयावृि करना यह वैयावृ
नामक िश ा त है । यह वैयावृि केवल वहार अथवा िकसी फल की अपे ा से न करके
भ के वशीभूत होकर की जाती है ।

+ दान का ल ण -

नवपु ैः ितपि ः स गुणसमािहतेन शु े न


अपसूनार ाणामायाणािम ते दानम् ॥११३॥
अ याथ : [स गुणसमािहतेन] सात गुणों से सिहत और [शु े न] कौिलक, आचा रक तथा
शारी रक शु से सिहत दाता के ारा [अपसूनार ाणाम्] गृहस ी काय तथा खेती
आिद के आर से रिहत [आयाणां] स शनािद गुणों से सिहत मुिनयों का [नवपु ैः]
नवधाभ पूवक [ ितपि ः] आहारािद के ारा गौरव िकया जाता है , वह दान [इ ते] माना
जाता है ।
भाच ाचाय :

अथ िकं दानमु त इ त आह --

दानिम ते । कासौ ? ितपि : गौरवा आदर पा । केषाम् ? आयाणां


स शनािदगुणोपेतमुनीनाम् । िकंिविश ानाम् ? अपसूनार ाणां सूना: प जीवघात थानािन ।
यदु म् --

ख नी पेषणी चु ी उदकु : माजनी

प सूना गृह थ तेन मो ं न ग ित ॥

ख नी उ लं, पेषणी घर :, चु ी चुलूक:, उदकु : उदकघट:, माजनी बोहा रका।


सूना ार ा कृ ादय ेऽपगता येषां तेषाम्। केन ितपि : क त ा? स गुणसमािहतेन ।
तदु म् --

ा तुि भ िव ानमलु ता मा स म्

य ैते स गुणा ं दातारं शंस ॥

इ ेतै: स िभगुणै: समािहतेन सिहतेन तु दा ा दानं दात म्। कै कृ ा? नवपु ै: । तदु म् -


-

पिडगहमु ाणं पादोदयम णं च पणमं च

मणवयणकायसु ी एसणसु ी य णविवहं पु ं॥

एतैनविभ: पु ै: पु ोपाजनहे तुिभ: ॥


आिदमित :

स शनािद गुण से सिहत मुिनयों का आहार आिद दान के ारा जो गौरव और आदर िकया
जाता है , वह दान कहलाता है । जीवघात के थान को सूना कहते ह । सूना के पाँ च भेद ह ।
जैसे िक कहा है -- ख नी-ऊखली से कूटना, पेषणी-च ी से पीसना, चु ी-चू ा जलाना,
उदकु -पानी भरना और मािजनी-बुहारी से जमीन झाडऩा । गृह थ के पाँ च िहं सा के काय
होते ह, इसिलए गृह थ मो को ा नहीं कर सकता । खेती आिद ापार स ी काय
आर कहलाते ह । जो पंचसूना और आर से रिहत ह, वे साधु ह । ऐसे साधुओं को सात
गुणों से सिहत दाता के ारा दान िदया जाता है । जैसा िक कहा है -- ा, स ोष, भ ,
िव ान, अलु ता, मा, स ये सात गुण िजस दाता के होते ह, वह दाता शंसनीय कहलाता
है । इन सात गुणों के िसवाय दाता की शु होना भी आव क है । दाता की शु ता तीन
कार से बतलाई है , कुल से, आचार से और शरीर से । िजसकी वंश पर रा शु है , वह
कुलशु कही जाती है । िजसका आचरण शु है , वह आचार शु है । िजसने ानािद कर
शु व पहने ह, जो हीनां ग, िवकलां ग नहीं है तथा िजसके शरीर से खून पीपािद नहीं झरते
हों, वह कायशु है । दान, नवधाभ पूवक िदया जाता है । कहा भी है -- पडग़ाहन,
उ थान, पाद ालन, पूजन, णाम, मनशु , वचनशु , कायशु और आहारशु
पु ोपाजन के इन नौ कारणों के साथ आहारदान िदया जाता है । यही नवधाभ कहलाती है

+ दान का फल -

गृहकमणािप िनिचतं कमिवमाि खलु गृहिवमु ानाम्


अितथीनां ितपूजा िधरमलं धावते वा र ॥११४॥
अ याथ : िजस कार [वा र] जल [ िधरमलं] खून को [धावते] धो दे ता है , [िनिचतं] िन य
से उसी कार [गृहिवमु ानाम्] गृहरिहत िन ्र मुिनयों के िलए िदया आ [ ितपूजा]
दान [खलु] वा व म [गृहकमणािप] गृह थी स ी [कम] काय से उपािजत अथवा सु ढ़
भी [कमिवमाि ] कम को न कर दे ता है ।
भाच ाचाय :

इ ं दीयमान फलं दशय ाह --

िवमा ्िट े टयित । खलु ु टम् । िकं तत् ? कम पाप पम् । कथ ूतम् ? िनिचतमिप
उपािजतमिप पु मिप वा । केन ? गृहकमणा साव ापारे ण । कासौ क ्री ? ितपूजा दानम्
। केषाम् ? अितथीनां न िव ते ितिथयषां तेषाम् । िकंिविश ानाम् ? गृहिवमु ानां
गृहरिहतानाम् । अ ैवाथ समथनाथ ा माह -- िधरमलं धावते वा र । अलंश ो यथाथ
। अयमथ िधरं यथा मिलनमपिव ं च वा र कतृ िनमलं पिव ं च धावते ालयित तथा दानं
पापं िवमाि ॥
आिदमित :

िजनके सभी ितिथयाँ एक समान ह, ऐसे गृह ागी अितिथयों को दान दे ने से पाप प
ापारािद काय से उपािजत िकये ए घोर पाप भी न कर िदये जाते ह । इसी अथ का
समथन करने के िलए ा दे ते ह -- िजस तरह मिलन र को पिव जल धो डालता है ,
उसी कार दान दे ने से पापकम न हो जाते ह ।
+ नवधा भ का फल -

उ ैग ं णतेभ गो, दानादुपासना ूजा


भ ेः सु र पं वना ीित पोिनिधषु ॥११५॥
अ याथ : [तपोिनिधषु] तप के खजाने प मुिनयों को [ णते:] नम ार करने से
[उ ैग ं] उ गो , [दानात्] आहारािद दान दे ने से [भोग:] भोग, [उपासनात्] उपासना
आिद करने से [पूजा] स ान, [भ े:] भ करने से [सु र पं] सु र प और
[ वनात्] ुित करने से [कीित:] सुयश [ ा ते] ा िकया जाता है ।
भाच ाचाय :

सा तं नव कारे षु ित हािदषु ि यमाणेषु क ात् िकं फलं स त इ ाह --

तपोिनिधषु यितषु । णते: णामकरणादु ैग ं भवित । तथा दानादशनशु ल णा ोगो


भवित । उपासनात् ित हणािद पात् सव पूजा भवित । भ ेगुणानुरागजिनता :
ािवशेषल णाया: सु र पं भवित । वनात् ुतजलधी ािद ुितिवधानात् सव
कीितभवित ॥
आिदमित :

यितयों को णाम करने से उ गो का बंध होता है । भोजन की शु पूवक दान दे ने से भोगों


की ा होती है । पडग़ाहनािद करने से सव पूजा- भावना होती है । भ -- उनके
गुणानुराग से उ अ र म ािवशेष से सु र प और ुित अथात् 'आप ान के
सागर प ह' इ ािद ुित करने से कीित ा होती है ।

+अ दान से महाफल -

ि ितगतिमव वटबीजं पा गतं दानम मिप काले


फलित ायािवभवं ब फलिम ं शरीरभृताम् ॥११६॥
अ याथ : [काले] उिचत समय म [पा गतं] यो पा के िलए िदया आ [अ मिप] थोड़ा
भी [दानं] दान [ि ितगतं] उ म पृ ी म पड़े ए [वटबीजिमव] वटवृ के बीज के समान
[शरीरभृताम्] ािणयों के िलए [छायािवभवं] माहा और वैभव से यु , प म छाया की
चुरता से सिहत [ब ] ब त भारी [इ ं] अिभलिषत [फलं] फल को [फलती] फलता है ।
भाच ाचाय :

न ेवंिवधं िविश ं फलं ं दानं कथं स ादयती ाश ाऽपनोदाथमाह --


अ मिप दानमुिचतकाले । पा गतं स ा े द म् । शरीरभृतां संसा रणाम् । इ ं फलं
ब नेक कारं सु र पभोगोपभोगािदल णं फलित । कथ ूतम् ? छायािवभवं छाया
माहा ं िवभव: स त् तौ िव ेते य । अ ैवाथ समथनाथ ि ती ािद ा माह ।
ि ितगतं सु े े िन ् िष ं यथा अ मित वटबीजं ब फलं फलित । कथम्? छायािवभवं छाया
आतपिनरोिधनी त ा िवभव: ाचुय यथा भव ेवं फलित ॥

आिदमित :

स ा को िदया गया अ भी दान संसारी ािणयों को सु र प तथा भोगोपभोगािद अनेक


कार के इ फल दान करता है । दान के प म छाया िवभवं का समास - 'छाया माहा ं
िवभव: स त् तौ िव ेते य ' यह फल का िवशेषण है । छाया का अथ माहा होता है और
िवभव का अथ स ि होता है । छाया और माहा ये दोनों िजस फल म िव मान ह, उस
फल की ा दान दे ने से होती है । िजस कार उ म भूिम म बोया गया छोटा-सा वट का
बीज ािणयों को ब त भारी छाया और ब त अिधक प म फल दान करता है । 'छाया-
आतपिनरोिधनी त ा िवभव: ाचुय यथाभव ेवं' इस कार वटबीज प म छाया का अथ धूप
का अभाव और िवभव का अथ ाचुय-अिधकता िलया गया है ।

+ दान के भेद -

आहारौषधयोर ुपकरणावासयो दानेन


वैयावृ ं ुवते चतुरा ेन चतुर ाः ॥११७॥
अ याथ : [चतुर ाः] चार ान-धारी (गणधर-दे व) [आहारौषधयो:] आहार, औषध [च] और
[उपकरणावासयो:अिप] उपकरण तथा आवास के भी [दानेन] दान से [वैयावृ ं] वैयावृ
को [चतुरा ेन] चार कार का [ ुवते] कहते ह ।
भाच ाचाय :

त ैवंिवधफलस ादकं दानं चतुभदं भवती ाह --

वैयावृ ं दानं बुरवते


् ितपादयित । कथम् ? चतुरा ेन चतु: कार ेन । के ते ? चतुर ा:
प ता: । तानेव चतु कारान् दशय ाहारे ा ाह- आहार भ पानािद: औषधं च
ािध ोटकं ं तयो ् वयोरिप दानेन । न केवलं तयोरे व अिप तु उपकरणावासयो
उपकरणं ानोपकरणािद: आवासो वसितकािद: ॥
आिदमित :

प तों ने दान का चार कार से िन पण िकया है । यथा -- आहार-भ -पानािद को आहार


कहते ह । रोग दू र करने वाले को औषिध कहते ह । ानोपकरणािद को उपकरण कहते
ह । वसित आिद को आवास कहते ह । इन चारों कार की व ुओं की दे ने से वैयावृि के चार
कार होते ह ।

+ वैयावृ म अहत पूजा -

ीषेणवृषभसेने कौ े शः सूकर ा ाः
वैयावृ ैते चतुिवक म ाः ॥११८॥
अ याथ : ीषेण राजा आहार दान के फल से ी शां ितनाथ तीथकर ये ह। वृषभसेना ने
औषिधदान के भाव से अपने शरीर के िशत जल से ब तों के दु :ख दू र िकये ह। कोंडेश ने
मुिन को शा दान दे कर अपने ुत ान को पूण कर िस पाई है और सूकर ने मुिन को
अभयदान दे ने के पु से दे वगित को ा िकया है ।
भाच ाचाय :

त तु कारं दानं िकं केन द िम ाह --

चतुिवक चतुिवधवैयावृ दान ैते ीषेणादयो ा ाम ा: ।

त ाहारदाने ीषेणो ा :।अ कथा --

मलयदे शे र स यपुरे ीषेणो रा ो िसंहन ता ि तीया अिन ता च । पु ौ मेण


तयो र ोपे ौ । त ैव ा ण: सा िकनामा, ा णी ज ू, पु ी स भामा । पाटिलपु नगरे
ा णो भ ो वटु कान् वेदं पाठयित । तदीयचेिटकापु किपलनामा ती णमित ात् छ ना
वेदं न् त ारगो जातो। भ े न च कुिपतेन पाटिलपु ाि घािटत: । सो रीयं य ोपवीतं
प रधाय ा णो भू ा र स यपुरे गत: । सा िकना च तं वेदपारगं सु पं च ा
स भामया यो ोऽयिमित म ा सा त ै द ा। स भामा च रितसमये िवटचे ां त ा
कुलजोऽयं न भिव तीित सा स धाय िच े िवषादं वह ी ित ित । एत न् ावे
भ ीथया ां कुवाणो र स यपुरे समायात: । किपलेन ण िनजधवलगृहे नी ा
भोजनप रधानािदकं कारिय ा स भामाया: सकललोकानां च मदीयोऽयं िपतेित किथतम् ।
स भामया चैकदा ीभ िविश ं भोजनं ब सुवण च द ा पादयोलिग ा पृ ं- तात ! तव
शील लेशोऽिप किपले ना , तत: िकमयं तव पु ो भवित न वेित स ं मे कथय । तत ेन
किथतं, पुि ! मदीयचेिटकापु इित । एतदाक ्य तदु प र िवर ा सा हठादयं
मामिभगिम तीित म ा िसंहन ता महादे ा: शरणं िव ा, तया च सा पु ी ाता ।
एवमेकदा ीषेणराजेन परमभ ा िविधपूवककमकी ािमतगितचारणमुिन ां दानं द म् ।
त लेन रा ा सह भोगभूमावु ा । तदनुमोदनात् स भामािप त ैवो ा । स राजा ीषेणो
दान थमकारणात् पार यण शा नाथतीथ रो जात: । आहारदानफलम् ।

औषधदाने वृषभसेनाया ा :।अ ा: कथा-


जनपददे शे कावेरीप ने राजो सेन:, े ी धनपित:, भाया धन ी:, पु ी वृषभसेना, त ा धा ी
पवती नाम । एकदा वृषभसेना ानजलगतायां रोगगृहीतं कु ु रं पिततलुिठतोऽ तं
रोगरिहतमालो िच तं धा ा- पु ी ानजलमेवा ारो े कारणम्। तत या धा ा
िनजजन ा ादशवािषकाि रोगगृहीता: किथते तया लोचने तेन जलेन परी ाथमेकिदने
धौत े च शोभने जाते । तत: सवरोगापनयने सा धा ी िस ा त नगरे स ाता ।
एकदो सेनेन रणिपङ् गलम ी ब सै पेतो मेघिप लोप र ेिषत: । स तं दे शं िव ो
िवषोदकसेवनात् रे ण गृहीत: । स च ाघु ागत: पव ा च तेन जलेन नीरोगीकृत: ।
उ सेनोऽिप कोपा गत: तथा रतो ाघु ाघातो रणिप ला लवृ ा माक ्य त लं
यािचतवान् । तो म ी उ ो धनि या भो: ेि न् ! कथं नरपते: िशरिस पु ी ानजलं ि ते ?
धनपितनो ं यिद पृ ित राजा जल भावं तदा स ं क ते न दोष: । एवं भिणते पव ा
तेने जलेन नीरोगीकृत उ सेन:। ततो नीरोगेण, रा ा पृ ा पवती जल माहा म्। तया च
स मेव किथतम् । ततो रा ा ा त: े ी, स च भीत: रा : समीपमायात:। रा ा च गौरवं
कृ ा वृषभसेनां प रणेतुं स यािचत:। तत: ेि ना भिणतं दे व ! य ाि कां पूजां िजन ितमानां
करोिष तथा प र थान् पि गणान् मु िस तथा गु षु सवमनु ां मु िस तदा ददािम ।
उ सेनेन च तत् सव कृ ा प रणीता वृषभसेना प रानी च कृता । अितव भया तथैव च सह
िवमु ा काय ीडां करोित । एत न् ावे यो वाराण ा: पृिथवीच ो नाम राजा धृत
आ े सोऽित च ा ि वाहकालेऽिप न मु : । तत या रा ी नारायणद ा तया
म िभ: सह म िय ा पृिथवीच मोचनाथ वाराण ां सव ावा रतस ारा
वृषभसेनारा ीना ा का रता ेषु भोजनं कृ ा कावेरीप नं ये गता े ो ा णािद ं
वृ ा माक ्य या पव ा भिणता वृषभसेने ! ं मामपृ ी वाराण ां कथं स ारान्
कारयिस ? तया भिणतमहं न कारयािम िक ु मम ना ा केनिच ारणेन केनािप का रता: ।
तेषां शु ं कु िमित चरपु षै: कृ ा यथाथ ा ा तया वृषभसेनाया: सव किथतम्। तया च
राजानं िव ा मोिचत: पृ ीच :। तेन च िच फलके वृषभसेनो सेनयो पे का रते ।
तयोरधो िनज पं स णामं का रतम्। स फलक ोदिशत: भिणता च वृषभसेना रा ी- दे िव! ं
मम मातािस सादािददं ज सफलं मे जातम्। तत उ सेन: स ानं द ा भिणतवान् या
मेघिप ल ोप र ग िम ु ा स च ता ां वाराण ां ेिषत: । मेघिप लोऽ ेतदाक ्य
ममायं पृ ीच ो ममभेदीित पयालो ाग चो सेन ाित सािदत: साम ो जात:। उ सेनेन
चा थान थत य े ाभृतमाग ित त ाध मेघिप ल दा ािम अध च वृषभसेनाया इित
व था कृता। एवमेकदा र क ल यमागतमेकैकं सनामा ं कृ ा तयोद म्। एकदा
मेघिप ल रा ी िवजया ा मेघिप लक लं ावृ योजनेन पवतीपा वे गता । त
क लप रवत जात:। एकदा वृषभेसनाक लं ावृ मेघिप ल: सेवायामु सेनसभायामागत:
राजा च तमालो ाितकोपा ा ो बभूव । मेघिप ल तं तथाभूतमालो ममोप र
कुिपतोऽयं राजेित ा ा दू रं न : । वृषभसेना च ेनो सेनेन मारणाथ समु जले िनि ा।
तया च ित ा गृहीता यिद एत ादु पसगादु र ािम तदा तप: क र ामीित । ततो
तमाहा ा लदे वतया त ा: िसंहासनािद ाितहाय कृतम् । त ा प ा ापं कृ ा राजा
तमानेतुं गत: । आग ता वनम े गुणधरनामाऽविध ानी मुिन : । स च वृषभसेनया ण
िनजपूवभव चेि तं पृ : । किथतं च भगवता । यथा- पूवभवे म ैव, ा णपु ी नाग ीनामा
जातािस । राजकीयदे वकुले स ाजनं करोिष त दे वकुले चैकदाऽपरा े ाकारा रे
िनवातगतायां मुिन: द नामा मुिन: पय कायो गण थत: । या च या भिणत:
कटका ाजा समायातोऽ ागिम ती ुि ोि स ाजनं करोिम ल ेित बुरवाणाया
् मुिन:
कायो ग िवधाय मौनेन थत: । तत या कचवारे ण पूरिय ोप र स ाजनं कृतम् । भाते
त ागतेन रा ा त दे शे ीडता उ िसतन: िसत दे शं ाउ िन:सा रत स मुिन: ।
तत या िन ां कृ ा धम िच: कृता । परमादरे ण च त मुने या त ीडोपशमनाथ
िविश मौपषदानं वैयावृ ं च कृतम् । तेन िनदानेन मृ ेह धनपितधनि यो: पु ी वृषभसेना नाम
जातािस । औषधदानफलात् सव षध ् िधफलं जातम् । कचवारपूरणात् कलि ता च । इित
ु ा ानं मोचिय ा वृषभसेना त मीपे आियका जाता । औषधदान फलम् ।

ुतदाने कौ े शो ा :।अ कथा --

कु मिण ामे गोपालो गोिव नामा। तेन च कोटरादु द्धृ िचर नपु कं पू भ ा
प न मुनये द म् । तेन पु केन त ाट ां पूवभ ारका: केिचत् िकल पूजां कृ ा कारिय ा
च ा ानं कृतव : कोटरे च गतव । गोिव े न च वा ा भृित तं ा िन मेव पूजा
कृता वृ कोटर ािप । एष स गोिव ो िनदानेन मृ ा त ैव ामकूट पु ोऽभूत् । तमेव
प न मुिनमालो जाित रो जात: । तपो गृही ा को े शनामा महामुिन: ुतधरोऽभूत्।
इित ुतदान फलम् ।

वसितदाने सूकरो ा :।अ कथा --

मालवदे शे घट ामे कु कारो दे िवलनामा नािपत धिम नामा । ता ां पिथकजनानां


वसितिनिम ं दे वकुलं का रतम् । एकदा दे िवलेन मुनये त थमं वसितद ा धिम ेन च प ात्
प र ाजक ानीय धृत: । ता ां च धिम प र ाजका ां िन:सा रत: स मुिनवृ मूले रा ौ
दं शमशकशीतािदकं सहमान: थत: । भाते दे िवलधिम ौ त ारणेन पर रं यु ं कृ ा
मृ ा िव े मेण सुकर ा ौ ौढौ जातौ । य च गुहायां स सूकर ित त ैव च
गुहायामेकदा समािधगु ि गु मुनी आग थतौ । तौ च ा जाित रो भू ा
दे िवलचरसूकरो धममाक ्य तं गृहीतवान् । त ावे मनु ग मा ाय मुिनभ णाथ स
ा ोऽिप त ायात: । सूकर तयो र ािनिम ं गुहा ारे थत: । त ािप तौ पर रं यु ा मृतौ ।
सूकरो मुिनर णािभ ायेण शुभािभस ात् मृ ा सौधम मह ् िधको दे वो जात: । ा ु
मुिनभ णािभ ायेणाितरौ ािभ ाय ा ृ ा नरकं गत: । वसितदान फलम् ॥
आिदमित :

ीषेण राजा आहारदान म, वृषभसेना औषधदान म, कौ े श उपकरणदान म और शूकर


आवासदान म ा ह, ऐसा जानना चािहए ।

आहारदान म ीषेण राजा का ा है । इसकी कथा इस कार है --


ीषेण राजा की कथा

यहाँ कथाएँ टाइप करनी ह ।

+ दानों म िस नाम -

दे वािधदे वचरणे प रचरणं सवदुःखिनहरणम्


कामदुिह कामदािहिन प रिचनुयादा तो िन म् ॥११९॥
अ याथ : [आ त:] ावक को आदर से यु होकर [िन म्] ितिदन [दे वािधदे वचरणे]
अरह भगवान् के चरणों म [कामदु िह] मनोरथों को पूण करने वाली और [कामदािहिन]
काम को भ करने वाली [सवदु ःखिनहरणम्] सम दु :खों को दू र करने वाली [प रचरणं]
पूजा [प रिचनुयात्] अव करनी चािहए ।
भाच ाचाय :

यथा वैयावृ ं िवदधता चतुिवधं दानं दात ं तथा पूजािदिवधानमिप कत िम ाह --

आ त: आदरयु : िन ं प रिचनुयात् पु ं कुयात् । िकम् ? प रचरणं पूजाम् । िकंिविश म् ?


सवदु :खिनहरणं िन:शेषदु :खिवनाशकम् । ? दे वािधदे वचरणे दे वानािम ादीनामिधको व ो
दे वो दे वािधदे व चरण: पाद: त न् । कथ ूते ? कामदु िह वा त दे । तथा
कामदािहिन कामिव ंसके ॥
आिदमित :

इ ािदक दे वों के ारा व नीय अरह भगवान् दे वािधदे व कहलाते ह । उनके चरणकमल
वा त फल दे ने वाले ह और कामदे व को िव ंस करने वाले ह । इसिलए गृह थों को चािहए
िक वे आदरपूवक ितिदन अरह दे व की पूजा कर, ोंिक उनकी पूजा सम दु :खों का
नाश करने वाली है ।

+ पूजा का माहा -

अह रणसपयामहानुभावं महा नामवदत्


भेकः मोदम ः कुसुमेनैकेन राजगृहे ॥१२०॥
अ याथ : [राजगृहे] राजगृही म [भेकः] मेढ़क [ मोदम ः] मोद से िहषत आ
[कुसुमेनैकेन] एक पु के ारा [महा नाम्] भ जीवों के आगे
[अह रणसपयामहानुभावं] अहत पूजा के महा को [अवदत्] कट िकया था ।
भाच ाचाय :

पूजामाहा ं िकं ािप केन किटतिम ाशङ् ाह --

भेको म ू क: । मोदम ो िविश धमानुरागेण : । अवदत् किथतवान् । िकिम ाह --


अहिद ािद । अहत रणौ अह रणौ तयो: सपया पूजा त ा: महानुभावं िविश ं माहा म् ।
केषामवदत्? महा नां भ जीवानाम् । केन कृ ा ? कुसुमेनैकेन । ? राजगृहे ।

अ कथा

मगधदे शे राजगृहनगरे राजा ेिणक:, े ी नागद :, ेि नी भवद ा । स नागद : े ी सवदा


मायायु ा ृ ा िनज ा णवा ां भेको जात: । त चागतामेकदा भवद ा ेि नीमालो
जाित रो भू ा त ा: समीपे आग उपयु ु चिटत: । तया च पुन: पुनिनघािटतो रटित,
पुनराग चटित च । तत या कोऽ यं मदीयो इ ो भिव तीित स धायाविध ानी
सु तमुिन: पृ : । तेन च तद् वृ ा े किथते गृहे नी ा परमगौरवेणासौ धृत:।
ेिणकमहाराज ैकदा वधमान ािमनं वैभारपवते समागतमाक ्य आन भेरीं दापिय ा
महता िवभवेन तं व तुं गत: । ेि ादौ च गृहजने व नाभ थ गते स भेक:
ा णवापीकमलं पूजािनिम ं गृही ा ग न् ह न: पादे न चूणिय ा मृत: ।
पूजानुरागवशेनोपािजतपु भावात् सौधम मह ् िधकदे वो जात: । अविध ानेन पूवभववृ ा ं
ा ा िनजमुकुटा े भेकिच ं कृ ा समाग वधमान ािमनं व मान: ेिणकेन : ।
तत ेन गौतम ामी भेकिच े ऽ िकं कारणिमित पृ : तेन च पूववृ ा : किथत:। त ा
सव जना: पूजाितशयिवधाने उ ता: स ाता इित ॥
आिदमित :

िविश धमानुराग से हिषत मढक ने राजगृही नगरी म भ जीवों को यह बतलाया िक एक


फूल से अह भगव के चरणों की पूजा करने वालों को ा फल होता है । इसकी कथा इस
कार है --

मढक की कथा

यहाँ कथा टाइप करनी है ।

+ वैयावृ के अितचार -

ह रतिपधानिनधाने, नादरा रणम र ािन


वैयावृ ैते, ित मा: प क े ॥१२१॥
अ याथ : िन य से [ह रतिपधानिनधाने] दे ने यो व ु को ह रतप आिद से ढकना तथा
ह रतप आिद पर दे ने यो व ु को रखना, अनादर, अ रण और [म र ािन] इ ा ये
पाँ च वैयावृ के [ ित मा:] अितचार [क े] कहे जाते ह ।
भाच ाचाय :

इदानीमु कार वैयावृ ातीचाराना --

प ैते आयापूवाधकिथता । वैयावृ ित मा: क े । तथािह । ह रतिपधानिनधाने


ह रतेन प प ािदना िपधानं झ नमाहार । तथा ह रते त न् िनधानं थापनम् । त
अनादर: य तोऽ ादराभाव: । अ रणमाहारािददानमेत ां वेलामेवंिवधपा ाय
दात िमित आहायव ु दं द मद िमित वा ृतेरभाव: ।
म र म दातृदानगुणासिह ु िमित ॥

इित भाच िवरिचतायां सम भ ािमिवरिचतोपासका यनटीकायां चतुथ: प र े द: ।

आिदमित :

वैयावृ िश ा त के पाँ च अितचार कहते ह, त था -- हरे कमल प आिद से आहार को


ढकना 'ह रतिपधान' नाम का अितचार है । हरे कमल प आिद पर आहार को रखना
'ह रतिनधान' नाम का अितचार है । दे ते ए भी आदर भाव नहीं होना 'अनादर' नाम का
अितचार है । आहारदान इस समय ऐसे पा के िलये दे ना चािहए अथवा आहार म यह व ु दी
है िक नहीं दी है , इस कार की ृित का अभाव होना 'अ रण' नाम का अितचार है । अ
दाता के दान तथा गुणों को सहन नहीं करना 'मा य' कहलाता है । इस कार वैयावृ के ये
पाँ च अितचार कहे गये ह ।

इस कार सम भ ामी ारा रिचत उपासका यन की भाच िवरिचत टीका म चतुथ


प र े द पूण आ ।

स ेखना-अिधकार
+स ेखना का ल ण -

उपसग दुिभ े जरिस जायां च िनः ितकारे


धमाय तनुिवमोचनमा ः स ेखनामायाः ॥१२२॥
अ याथ : [आया:] गणधरािदक दे व [िन: तीकारे ] ितकार रिहत [उपसग] उपसग,
[दु िभ े] दु ाल, [जरिस] बुढ़ापा [च] और [ जायां] रोग के उप थ होने पर [धमाय] धम
के िलए [तनुिवमोचनं] शरीर के छोड़ने को [स ेखना] स ेखना [आ :] कहते ह ।
भाच ाचाय :

अथ सागोरणाणु तािदवत् स ेखना नु ात ा। सा च िकं पा कदा चानु ात े ाह-

आया गणधरदे वादय: स ेखनामा : । िकं तत् ? तनुिवमोचनं शरीर ाग: । क न् सित ?
उपसग ितय नु दे वाचेतनकृते । िन: तीकारे तीकारागोचरे । एत िवशेषणं
दु िभ जरा जानां ेकं स नीयम् । िकमथ ति मोचनम् ? धमाय र याराधनाथ न पुन:
पर ह ा थम् ॥

आिदमित :

उप व को उपसग कहते ह । वह ितयच, मनु , दे व और अचेतनकृत इस कार चार कार


का है । जब अ की एकदम कमी हो जाती है , सभी जीव-ज ु भूख से पीि़डत होने लगते ह,
वह दु िभ -अकाल कहलाता है । वृ ाव था के कारण शरीर अ जीण हो जाता है , उसे
जरा कहते ह । रोग की उद् भूित को जा कहते ह । ये चारों इस प म उप थत हो जाय िक
िजनका ितकार नहीं हो सके, तब र यधम की आराधना करने के िलए शरीर छोडऩे को
स ेखना कहते ह । िक ु और पर के ाणघात के िलए जो शरीर का ाग िकया जाता है ,
वह स ेखना नहीं है ।

+स ेखना की आव कता -

अ :ि यािधकरणं, तप: फलं सकलदिशन: ुवते


त ा ावि भवं समािधमरणे यितत म् ॥१२३॥
अ याथ : [सकलदिशनः] सव दे व [अ : ि यािधकरणं] अ समय समािधमरण प
स ेखना को [तपः फलं] तप का फल [ ुवते] कहते ह [त ात्] इसिलए [यावि भवं]
यथाश [समािधमरणे] समािधमरण के िवषय म [ यितत म्] य करना चािहए ।

भाच ाचाय :

स ेखनायां भ ैिनयमेन य : क त :, यत :-

सकलदिशन: ुवते शस । िकं तत् ? तप:फलं तपस: फलं तप:फलं सफलं तप इ थ: ।


कथ ूतं सत् ? अ :ि यािधकरणं अ े ि यां सं ास: त ा अिधकरणं समा यो
य प लम् । यत एवं, त ा ावि भवं यथाश । समािधमरणे यितत ं कृ ो य :
कत : ॥

आिदमित :

अ म समय म यानी जीवन के अ म सं ास धारण करना ही तप का फल है , तप की


सफलता है , ऐसा सव दे व कहते ह । अथवा सवदश उसी तप के फल की शंसा करते ह, जो
अ समय सं ास का आ य लेता है । अत: समािधमरण के िलए पूण प से य करना
चािहए ।

+स ेखना की िविध और महा त धारण का उपदे श -

ेहं वैरं स ं , प र हं चापहाय-शु मना:


जनं प रजनमिप च, ा ा मये यैवचनै: ॥१२४॥
आलो सवमेन:, कृतका रतमनुमतं च िन ाजम्
आरोपये हा त-मामरण थािय िन:शेषम् ॥१२५॥
अ याथ : स ेखनाधारी [ ेहं] राग को [वैरं] बैर को [सङ् गं] मम भाव को [च] और
[प र हं ] प र ह को [अपहाय] छोड़कर [शु मनाः सन्] दय होता आ
[ि यै:वचनैः] मधुर वचनों से [ जनं] अपने कुटु ी जन तथा [प रजनमिप] प रकर के
लोगों को [ ा ा] मा कराकर [ मयेत्] यं मा करे । स ेखनाधारी [कृतका रतम्]
कृत, का रत [च] और [अनुमतं] अनुमोिदत [सवम्] सम [एनः] पापों को [िन ाजम्] छल
कपट रिहत या आलोचना के दोषों से रिहत [आलो ] आलोचना करके [आमरण थािय]
जीवनपय रहने वाले [िन:शेषम् ] सम /पाँ चो [महा तम्] महा तों को [आरोपयेत्] धारण
करे ।
भाच ाचाय :

त य ं कुवाण एवं कृ ेदं कुयािद ाह -


यं ा ा । ि यैवचनै: जनं प रजनमिप मयेत् । िकं कृ ा ? अपहाय ा । कम् ?
ेहमुपकारके व ुिन ी नुब म् । वैरमनुपकारकं े षानुब म् । स ं पु ािदकम् ।
ममेदमहम े ािदस ं प र हं बा ा रम् । एत वमपहाय शु मना िनमलिच : सन्
मयेत् । तथा आरोपयेत् थापयेदा िन । िकं तत् ? महा तं कथ ूतम् ।
आमरण थाियमरणपय ं िन:शेषं च प कारमिप । िकं कृ ा ? आलो । िकं तत् ? एनो
दोषम् । िकं तत् ? सव कृतका रतानुमतं च । यं िह कृतं िहं सािददोषं, का रतं हे तुभावेन,
अनुमतम ेन ि यमाणं मनसा श£◌ािघतम् । एत वमेनो िन ्याजं दशालोचनादोषविजतं यथा
भव ेवमालोचयेत् । दश िह आलोचनादोषा भव । तदु म् -;;आक य अणुमािणय जं
िद_◌ं बादरं च सुहमं च;;छ ं स ाउलयं ब जणम त ेवी ॥ इित

आिदमित :

उपकारक व ु म जो ीित उ होती है , उसे ेह कहते ह । अनुपकारक व ु म जो े ष के


भाव होते ह, उसे वैर कहते ह । पु , ी आिद मेरे ह और म उनका ँ , इस कार 'ममेदं' भाव
को संग-प र ह कहते ह । वह दो कार का है - बा प र ह और आ रप र ह ।
स ेखना धारण करने वाला पु ष इन सब प र हों को छोडक़र िनमलिच होता आ जन
और प रजनों को ि य वचनों के ारा मा करे और उनसे अपने आपको मा करावे । जो
िहं सािद पाप यं िकया जाता है , वह कृत है । जो दू सरों के ारा कराया जाता है , उसे का रत
कहते ह तथा दू सरे के ारा िकये ए पाप को जो मन से अ ा समझा जाता है , उसे अनुमत
कहते ह । इन सभी पापों की िन ल भाव से आलोचना कर मरणपय थर रहने वाले
अिहं सािद महा तों को धारण कर तथा आलोचना के दस दोषों से रिहत होकर आलोचना करे
। आलोचना के दस दोष इस कार ह- १. आक त, २. अनुमािनत, ३. , ४. बादर, ५.
सू , ६. छ , ७. श ाकुिलत, ८. ब जन, ९. अ और १०. त ेवी ।

+ ा ाय का उपदे श -

शोकं भयमवसादं , ेदं कालु मरितमिप िह ा


स ो ाहमुदीय च, मन: सा ं ुतैरमृतै: ॥१२६॥
अ याथ : [शोकं] शोक, [भयं] डर, [अवसादं ] िवषाद, [ ेदं] ेह, [कालु म्] राग े ष
और [अरितम्] अ ीती को [अिप] भी [िह ा] छोड़कर [च] और [स ो ाहम्] बल और
उ ाह को [उदीय] कट करके [अमृतैः] अमृत के समान [ ुतै:] शा ों से [मनः] मन को
[ सा म] स करना चािहये ।
भाच ाचाय :

एवंिवधमालोचनां कृ ा महा तमारो ैतत् कुयािद ाह-


सा ं स ं कायम् । िकं तत् ? मन: । कै: ? ुतैरागमवा ै: । कथ ूतै: ? अमृतै: अमृतोपमै:
संसारदु :खस ापापनोदकै र थ: । िकं कृ ा ? िह ा । िकं तिद ाह- शोकिम ािद ।
शोकम्- इ िवयोगे तद् गुणशोचनं, भयं- ु पासािदपीडािनिम िमहलोकािदभयं वा, अवसादं
िवषादं खेदं वा, ेदं ेहं, कालु ं िचि षये राग े षप रणितम् । न केवलं ागु मेव अिप तु
अरितमिप अ सि मिप । न केवलमेतदे व कृ ा िक ु उदीय च का च । कम् ?
स ो ाहं स ेखनाकरणेऽकातर म् ॥

आिदमित :

इ का िवयोग होने पर उसके गुणों का बार-बार िच न करना शोक कहलाता है । ुधा-तृषा


आिद की पीड़ा के िनिम से जो डर लगता है , वह भय कहलाता है अथवा इहलोकभय,
परलोकभय ( ािध, मरण, असंयम, अर ण, आक क) आिद के भेद से भय सात कार का
है । िवषाद अथवा खेद को अवसाद कहते ह । ेह को ेद कहते ह । िकसी के िवषय म
राग- े ष की जो प रणित होती है , उसे कालु कहते ह । अ स ता को अरित कहते ह ।
स ेखना करने म जो कायरता का अभाव है , उसे स ो ाह कहते ह । स ेखना करने वाला
इन शोकािद को छोडक़र शा पी अमृत के ारा मन को स करे । यहाँ पर संसार के
दु :खों से उ ए स ाप को दू र करने के िलए शा को अमृत कहा गया है । अत:
स ेखना धारण करने वाला मनु अपने मन को शा के पठन- वण म लगावे ।

+ भोजन के ाग का म-

आहारं प रहा , मश: ि ं-िवव ये ानम्


ि ं च हापिय ा, खरपानं पूरये मश: ॥१२७॥
अ याथ : स ेखनाधारी को [ मशः] म से [आहारं ] अ के भोजन को [प रहा ]
छोड़कर [ि ं पानम् ] दू ध आिद ि पेय को [िवव येत्] बढ़ाना चािहए [च] प ात्
[ि ं] दू ध आिद ि पेय को [हापिय ा] छोड़कर [खरपानं] गम जल को [पूरयेत्]
बढ़ाना चािहए ।
भाच ाचाय :

इदानीं स ेखनां कुवाण ाहार ागे मं दशय ाह-

ि ं दु ािद पं पानम् । िववधयेत् प रपूण दापयेत् । िकं कृ ा ? प रहा प र ा । कम्


? आहारं कवलाहार पम् । कथम् ? मश: ागशनािद मेण प ात् खरपानं कंिजकािद,
शु पानीय पं वा । िकं कृ ा ? हापिय ा । िकम् ? ि ंचि मिप पानकम् । कथम् ?
मश: । ि ं िह प रहा कि कािद पं खरपानं पूरयेत् िववधयेत् । प ा दिप प रहा
शु पानीय पं खरपानं पूरयेिदित ॥

आिदमित :

स ेखना को हण करने वाला आहारािद को इस म से छोड़े - पहले कवलाहार प दाल-


भात, रोटी आिद आहार को छोड़े और दू ध आिद ि प पेय पदाथ को हण करे । प ात्
उसे भी छोडक़र खरपान-िचकनाई से रिहत पेय पदाथ कां जी, छाछ आिद को हण करे ।
िफर उसे भी छोडक़र केवल गम जल हण करे ।

+स ेखना म शेष आहार ाग का म-

खरपानहापनामिप, कृ ा कृ ोपवासमिप श ा
प नम ारमना नुं जे व-य ेन ॥१२८॥
अ याथ : [खरपानहापनामिप] गम जल का भी ाग [कृ ा] करके [श ा] श के
अनुसार [उपवासमिप] उपवास भी [कृ ा] करके [सवय ेन] पूण त रता से
[प नम ारमना:] प नम ार मं म मन लगाता आ [तनुं] शरीर को [ जेत्] छोड़े ।
भाच ाचाय :

खरपानहापनामिप कृ ा । कथम् ? श ा श मनित मेण ोक ोकतरािद पम् ।


प ादु पवासं कृ ा तनुमिप जेत् । कथम् ? सवय ेन सव न् तसंयमचा र ानधारणादौ
य ा य तेन । िकंिविश : सन् ? प नम ारमना: प नम ारािहतिच : ॥

आिदमित :

त ात् उस गम जल का भी ागकर अपनी श का अित मण नहीं करके कुछ उपवास


भी करे । और अ म य पूवक त-संयम-चा र , ान-धारणािद सभी काय म त र रहते
ए पंचनम ार मं म अपने िच को लगाते ए शरीर को भी छोड़ दे वे ।

+स ेखना के पांच अितचार -

जीिवतमरणाशंसे, भयिम - ृितिनदाननामान:


स ेखनाितचारा:, प िजने ै : समािद ा: ॥१२९॥
अ याथ : [जीिवतमरणाशंसे] जीिवतशंसा, मरणाशंसा [भयिम ृितिनदाननामानः]
भय, िम ृित और िनदान नाम से यु [प ] पाँ च [स ेखनाितचाराः] स ेखना के
अितचार [िजने ै ः] िजने भगवान् के ारा [समािद ाः] कहे गये ह ।
भाच ाचाय :

अधुना स ेखनाया अितचारानाह -

जीिवतं च मरणं च तयोराशंसे आका े । भयिमहपरलोकभयम् । इहलोकभयं िह


ु पासापीडािदिवषयं परलोकभयं- एवंिवधदु धरानु ानाि िश ं फलं परलोके भिव ित न
वेित । िम ृित: बा ा व थायां सह ीिडतिम ानु रणम् । िनदानं भािवभोगा ाका णम् ।
एतािन प नामािन येषां ते त ामान: स ेखनाया: प ाितचारा: । िजने ै ीथ रै : । समािद ा
आगमे ितपािदता: ॥

आिदमित :

अब स ेखना के अितचार कहते ह- स ेखना धारण कर ऐसी इ ा करना िक म कुछ समय


के िलए और जीिवत र ँ , तो अ ा है । यह जीिवताशंसा नाम का अितचार है । भूख, ास की
वेदना होने पर ऐसी इ ा होना िक म ज ी मर जाऊँ तो अ ा है , यह मरणाशंसा नाम का
अितचार है । इहलोकभय और परलोकभय की अपे ा भय दो कार का है । 'मने स ेखना
धारण तो की है , िक ु अिधक समय तक मुझे भूख- ास की वेदना सहन नहीं करनी पड़े ' इस
कार का भय होना इहलोकभय कहलाता है । तथा 'इस कार के दु धर अनु ान का परलोक
म िविश फल ा होगा िक नहीं' ऐसा भय उ होना परलोकभय है । बा ािद अव था म
िम ों के साथ जो ीड़ा की थी, उन िम ों का रण करना िम ृित नामक अितचार है और
आगामी भोगों की आकां ा रखना िनदान नामक अितचार है । इस कार िजने दे व ने
स ेखना के पाँ च अितचार आगम म ितपािदत िकये ह ।

+स ेखना का फल -

िन: ेयसम ुदयं, िन ीरं दु रं सुखा ुिनिधम्


िन: िपबित पीतधमा, सवदु:खैरनालीढ: ॥१३०॥
अ याथ : [पीतधमा] धम पी अमृत का पान करने वाला कोई पक [सव:] सम
[दु ःखै:] दु :खों से [अनालीढः] रिहत होता आ [िन ीरं ] अ रिहत तथा [सुखा ुिनिधम्]
सुख के समु प [िनः ेयसम्] मो का [िनःिपबित] अनुभव करता है और कोई पक
[दु रं ] ब त समय म समा होने वाले [अ ुदयं] अहिम आिद की सुख पर रा का
अनुभव करता है ।
भाच ाचाय :

एवंिवधैरितचारै रिहतां स ेखनाम् अनुित न् की शं फलं ा ो ाह-


िन बित आ ादयित अनुभवित वा कि त् स ेखनानु ाता । िकं तत् ? िन: ेयसं िनवाणम् ।
िकंिविश म् ? सुखा ुिनिधं सुखसमु पम्। तिह सपय ं त िव ती ाह- िन ीरं
तीरा य ाि ा म् । कि ुन दनु ाता अ ुदयमहिम ािदसुखपर रा िन बित ।
कथ ूतम् ? दु रं महता कालेन ा पय म् । िकंिविश : सन् ? सवदु :खैरनालीढ: सव:
शारीरमानसािदिभदु :खैरनालीढोऽसं ृ : । की श: स ेत यं िन बित ? पीतधमा
पीतोऽनुि तो धम उ म मािद प: चा र पो वा येन ॥
आिदमित :

स ेखना धारण करने का फल मो और गािदक के सुखों की ा है । िन: ेयस-िनवाण


को कहते ह । वह सुख के समु प है । िन: ेयस- मो िन ीर है अथात् आ ो सुख अ
से रिहत है । अहिम ािदक के पद को अ ुदय कहते ह । यह दु र है अथात् सागरों पय
काल तक अहिम ािदक के सुखों का पान करते ह । और शारी रक, मानिसक आिद सभी
दु :खों से अछूते रहते ह, इस कार दोनों ही पद सुख के समु प ह । स ेखना लेने वाला
दोनों फलों को ा करता आ पीतधमा होता है अथात् वह उ म मािद प अथवा
चा र प धम का पान करने वाला होता है ।

+ मो का ल ण -

ज जरामयमरणै: शोकैदु:खैभयै प रमु म्


िनवाणं शु सुखं, िन: ेयसिम ते िन म् ॥१३१॥
अ याथ : [ज जरामयमरणैः] ज , बुढापा, रोग, मरण, [शोकै:] शोक, [दु ःखै:] दु ःख [च]
और [भयै:] भयों से [प रमु म्] रिहत [शु सुखं] शु सुख से सिहत [िन म्] िन -
अिवनाशी [िनवाणं] िनवाण [िनः ेयसम्] िनः ेयस [इ ते] माना जाता है ।
भाच ाचाय :

िकं पुनिन: ेयसश े नो त इ ाह-

िन: ेयसिम ते । िकम् ? िनवाणम् । कथ ूतं शु सुखं शु ं ित रिहतं सुखं य । तथा


िन म् अिवन र पम् । तथा प रमु ं रिहतम् । कै: ? ज जरामयमरणै:, ज च
पयाया र ादु भाव:, जरा च वा ् ध म्, आमया रोगा:, मरणं च शरीरािद ुित:। तथा
शोकैदु :खैभयै प रमु म् ॥

आिदमित :

िनवाण / मो को िन: ेयस कहते ह । वहाँ पर शु सुख ा होता है , ोंिक ितप ी कम


का अभाव है । वह सुख िन अिवन र प है तथा ज , बुढ़ापा, रोग और मरण से, शोक
—दु :ख भयों से सवथा रिहत है । एक पयाय से दू सरी पयाय की ा को ज कहते ह ।
बुढ़ापा को जरा कहते ह । रोग को आमय कहते ह । शरीर का छूटना मरण कहा जाता है ।
शोक, दु :ख, भय का अथ ही है ।

+ मु जीवों का ल ण -

िव ादशन-श - ा ादतृ शु युज:


िनरितशया िनरवधयो, िन: ेयसमावस सुखम् ॥१३२॥
अ याथ : [िव ादशनश ] केवल ान, केवलदशन, अन वीय [ ा ाद] परम
उदासीनता, अनंतसुख [तृ शु युजः] तृ और शु को ा [िनरितशया:]
िहनािधकता रिहत और [िनरवधय:] अविध से रिहत जीव [सुखम्] सुख प [िनः ेयसम्]
मो प िनः ेयस म [आवस ] िनवास करते ह ।
भाच ाचाय :

इ ूते च िन: ेयसे की शा: पु षा: ित ी ाह-

िन: ेयसमावस िन: ेयसे ित । के ते इ ाह- िव े ािद । िव ा केवल ानं, दशनं


केवलदशनं, श रन वीय, ा ं परमोदासीनता, ादोऽन सौ ं,
तृ िवषयानाका ा, शु ् र भाव पकममलरिहतता, एता यु आ स ा:
कुव ये ते तथो ा: । तथा िनरितशया अितशयाि ािदगुणहीनािधकभावाि ा ा: । तथा
िनरवधयो िनयतकालाविधरिहता: । इ ूता ये ते िन: ेयसमावस । सुखं सुख पं
िन: ेयसम् । अथवा सुखं यथा भव ेवं ते त ावस ॥
आिदमित :

िन: ेयस—मो म वे जीव रहते ह, जो िव ा—केवल ान, दशन—केवलदशन, श —


अन वीय, ा —परम उदसीनता, ाद—अन सुख, तृ —िवषयों की आका ा का
अभाव, शु — कम-भावकम-नोकम से रिहतपना, इन सभी से यु ह । िनरितशय—
िव ा आिद गुणों की हीनािधकता से रिहत ह और िनरविध—काल की अविध से रिहत ह । जो
इन सब िवशेषणों से यु ह, वे जीव िन: ेयस म सुख से िनवास करते ह ।

+ िवकार का अभाव -

काले क शतेऽिप च, गते िशवानां न िवि या ल ा


उ ातोऽिप यिद ात्, ि लोकस ा करणपटु : ॥१३३॥
अ याथ : [क शते काले] सकड़ो क कालों के काल के [गते] बीतने पर [अिप] भी
[यिद] अगर [ि लोकस ा करणपटु ः] तीनों लोकों म खलबली पैदा करने वाला
[उ ात:] उप व [अिप] भी [ ात्] हो [तथािप] तो भी [िप च िशवानां] िस ों म [िवि या]
िवकार [न ल ा] ि गोचर नहीं होता ।
भाच ाचाय :

अन े काले ग ित कदािचत् िस ानां िव ा थाभावो भिव त: कथं िनरितशया


िनरवधय े ाश ायामाह -

न ल ा न माणप र े ा । कासौ ? िवि या िवकार: पा थाभाव: । केषाम् ? िशवानां


िस ानाम् । कदा ? क शतेऽिप गते काले । तिह उ ातवशा ेषां िवि या ािद ाह-
उ ातोऽिप यिद ात् तथािप न तेषां िवि या ल ा । कथा ूत: उ ात: ?
ि लोकस ा करणपटु : ि लोक स ा राव त रणे पटु : समथ: ॥
आिदमित :

बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक क काल होता है । ऐसे सकड़ों क कालों के बीत जाने पर
भी िस जीवों म कोई िवकार लि त नहीं होता । तथा तीनों लोकों म ोभ उ करने म
समथ ऐसा भी उ ात यिद हो जावे, तो भी िस ों म कोई िवकार नहीं होता, इस कार की
िस जीवों की अव था होती है ।

+ मु जीव कहाँ रहते ह ? -

िन: ेयसमिधप ा- ैलो िशखामिणि यं दधते


िन ि कािलका िव-चामीकरभासुरा ान: ॥१३४॥
अ याथ : [िन ि कािलकात्] कीट और कािलमा से रिहत [छिवचामीकर] का वाले
सुवण के समान [भासुरा ानः] िजसका प काशवान हो रहा है ऐसे
[िनः ेयसमिधप ा:] मो को ा ए िस परमे ी [ ैलो ] तीन लोक के
[िशखामिणि यं] अ भाग पर चूड़ामिण की शोभा को [दधते] धारण करते ह ।
भाच ाचाय :

ते त ािवकृता ान: सदा थता: िकं कुव ी ाह-

िन: ेयसमिधप ा: ा ा े दधते धर । काम् ? ैलो िशखामिणि यं ैलो िशखा


चूडाऽ भाग मिण ी: चूडामिण ी: ताम् । िकंिविश ा: स इ ाह- िन े ािद । िक ं
च कािलका च ता ां िन ा ा सा छिवय त ामीकरं च सुवण त ेव भासुरो िनमलतया
काशमान आ ा पं येषाम् ॥

आिदमित :

िजस कार कीट-कािलमा से रिहत होकर सुवण का को धारण करता आ अितशय


दी मान होता है , उसी कार कम-भावकम पी कािलमा का अभाव हो जाने से यह
आ ा पूण प से िनमल होता आ काशमान रहता है । ऐसे िस परमे ी लोक के िशखर
पर चूड़ामिण की शोभा को धारण करते ह ।

+ स म का फल -

पूजाथा ै य:, बलप रजनकामभोगभूिय ै:


अितशियतभुवनमद् भुत-म ुदयं फलित स म: ॥१३५॥
अ याथ : [स मः] स ेखना के ारा समुपािजत समीचीन धम [बलप रजनकामभोग
भूिय ैः] बल, प रवार तथा काम और भोगों से प रपूण [पूजाथा ै य:] ित ा, धन और आ ा
के ऐ य तथा [अितशियतभुवनं] संसार को आ ययु करने वाले तथा यं [अद् भुतं]
आ यकारी [अ ुदयं] गािद प अ ुदय को [फलित] फलता है ।
भाच ाचाय :

एवं स ेखनामनुित तां िन: ेयसल णं फलं ितपा अ ुदयल णं फलं ितपादय ाह-

अ ुदयम् इ ािदपदावा ल णम् । फलित अ ुदयफलं ददाित । कोऽसौ ?


स मस ेखनानु ानोपािजतं िविश ं पु म् । कथ ूतम ुदयम् ? अद् भुतं सा यम् ।
कथ ूतं तदद् भुतम् ? अितशियतभुवनं यत: । कै: कृ ा ? पूजाथा ै य: ऐ यश :
पूजाथा ानां ेकं स ते । िकंिविश ैरेतै र ाह- बले ािद । बलं साम यं प रजन: प रवार:
कामभोगौ िस ौ । एतद् भूिय ा अितशयेन बहवो येषु । एतै पलि तै:
पूजािदिभरितशियतभुवनिम थ: ॥
आिदमित :

स ेखना धारण करने से उपािजत आ िविश पु प समीचीन धम उस आ यकारी


अ ुदय-इ ािदक प फल को दे ता है , जो बल, प रजन, काम तथा भोगों से प रपूण पूजा,
अथ, आ ा प ऐ य के ारा सम लोक को अिभभूत करता है ।
ावकपद-अिधकार

+ ारह ितमा -

ावकपदािन दे वै-रे कादश दे िशतािन येषु खलु


गुणा: पूवगुणै: सह, स े मिववृ ा: ॥१३६॥
अ याथ : [दे वै:] तीथ र भगवान् के ारा [एकादश] ारह [ ावकपदािन] ावक की
ितमाएँ [दे िशतािन] कही गई ह [येशु] िजनम [खलू] वा व म [ गुणा:] अपनी-अपनी
ितमा स ी गुण [पूवगुणै:सह] पूवपूव ितमा स ी गुणों के साथ [ मिववृ ा:] म
से वृ को ा होते ए [स े] थत होते ह ।
भाच ाचाय :

सा तं योऽसौ स ेखनानु ाता ावक कित ितमा भव ी ाशङ् ाह --

दे िशतािन ितपािदतािन। कािन? ावकपदािन ावकगुण थानािन ावक ितमा इ थ: । कित


? एकादश । कै: ? दे वै ीथ रै : । येषु ावकपदे षु खलु ु टं स ेऽव थितं कुव । के
ते ? गुणा: कीयगुण थानस ा: गुणा: । कै: सह ? पूवगुणै: पूवगुण थानवितगुणै: सह ।
कथ ूता: ? मिववृ ा: स शनमािदं कृ ा एकादशपय मेको रवृ ा मेण िवशेषेण
वधमाना: ॥
आिदमित :

ावक के जो पद— थान ह, वे ावक की ितमा कहलाती ह । तीथ र ने ावक की ारह


ितमाएँ कही ह, उन ितमाओं म अपनी-अपनी ितमाओं से स त गुण िपछली ितमाओं
से स रखकर म से वृ को ा होते ए (स शन को आिद लेकर ारह ितमा
तक) िवशेष प से बढ़ जाते ह । अथात् अगली ितमाओं म थत पु ष को पूव की ितमा से
स त गुणों का प रपालन करना अिनवाय है ।

+ दशन ितमा -
स शनशु :, संसारशरीर-भोगिनिव :
प गु चरणशरणो, दशिनक पथगृ : ॥१३७॥
अ याथ : [स शनशु :] जो स शन से शु है , [संसारशरीर-भोगिनिव :]
संसार शरीर और भोगों से िवर है , [प गु चरणशरणो] प परमेि यों के चरणों की शरण
िजसे ा ई है तथा [त पथगृ :] त -पथ की ओर जो आकिषत है , [दशिनक:] वह
दाशिनक ावक है ।
भाच ाचाय :

एतदे व दशय ाह --

दशनम ा ीित दशिनको दशिनक ावको भवित । िकंिविश :? स शनशु : स शनं


शु ं िनरितचारं य असंयतस े: । कोऽ िवशेष इ ाह- संसारशरीरभोगिनिव
इ नेना लेशतो तां शस वा तो िवशेष: ितपािदत: । एतदे वाह- त पथगृ ा: त ानां
तानां प ानो मागा म ािदिनवृि ल णा अ मूलगुणा े गृ : प ा य । प गु चरणशरण:
प गुरव: प परमेि न ेषां चरणा: शरणमपायप रर णोपायो य ॥

आिदमित :

'स शनं शु ं िनरितचारं य स:' इस ु ि के अनुसार िजसका स शन शंकािद


दोषों से रिहत होने के कारण शु है , अितचार रिहत है । जो संसार, शरीर और भोगों से
उदासीन है । 'त ानां तानां प ा माग म ािदिनवृि ल णा अ मूलगुणा े गृ ा: प ा य '
तों के माग प म ािद के ाग प आठ मूलगुणों को िजसने हण िकया है तथा प
परमेि यों के चरणों की िजसने शरण हण की है , जो दु :खों से र ा करने के उपायभूत ह, ऐसा
ालु दाशिनक ावक कहलाता है ।

+ त ितमा -

िनरित मणमणु त-प कमिप शीलस कं चािप


धारयते िन:श ो, योऽसौ ितनां मतो ितक: ॥१३८॥
अ याथ : [य:] जो [िन:श ो] श रिहत होता आ [िनरित मणम] अितचार रिहत
[अणु त-प कम्] पाँ चों अणु तों को [च] और [शीलस कं] सातों शीलों को [धारयते]
धारण करता है , [असौ] वह [ ितनां] गणधर-दे वािदक ितयों के म म ितक ावक [मत:]
माना गया है ।
भाच ाचाय :
त ेदानीं प रपूणदे श तगुणस माह --

तािन य स ीित ितको मत: । केषाम् ? ितनां गणधरदे वादीनाम् । कोऽसौ ? िन:श ो,
माया-िम ा-िनदानश े ो िन ा ो िन:श : सन् योऽसौ धारयते। िकं तत् ?
िनरित मणमणु तप कमिप प ा णु तािन िनरितचारािण धारयते इ थ: । न केवलमेतदे व
धारयते अिप तु शीलस कं चािप ि : कारगुण तचतु: कारिश ा तल णं शीलम् ॥
आिदमित :

' तािन य स ीित ती' िजसके त होते ह, वह ती कहलाता है , ऐसा गणधरदे वािदकों ने
कहा है । ती श से ाथ म 'क' य होकर ितक श बना है । माया-िम ा-िनदान ये
तीन श ह । इन तीनों श ों के िनकलने पर ही ती हो सकता है , इन तीन श ों से रिहत
होता आ जो अितचार रिहत पाँ च अणु तों को धारण करता है तथा तीन गुण त और चार
िश ा त के भेद से सात शीलों को भी जो धारण करता है , वह ितक ावक कहलाता है ।

+ सामाियक ितमा -

चतुरावति तय- तु: णाम: थतो यथाजात:


सामियको ि िनष - योगशु स मिभव ी ॥१३९॥
अ याथ : जो [चतुरावति तय:] चार बार तीन-तीन आवत करता है , [चतु: णाम:] चार
णाम करता है , [ थत:] कायो ग से खड़ा होता है , [यथाजात:] बा ा र प र ह का
ागी होता है , [ि िनष :] दो बार बैठकर नम ार करता है , [ि योगशु :] तीनों योगों को
शु रखता है और [ि स म] तीनों सं ाओं म [अिभव ी] व ना करता है , वह
[सामियक:] सामाियक ितमाधारी है ।
भाच ाचाय :

अधुना सामाियकगुणस ं ावक पय ाह --

सामियक: समयेन ा ितपािदत कारे ण चरतीित सामियकगुणोपेत: । िकंिविश : ?


चतुरावति तय: चतुरो वारानावति तयं य । एकैक िह कायो ग

आिदमित :

सामाियक का ल ण पहले बता चुके ह । उस कार जो आचरण करता है , वह सामाियक गुण


सिहत कहलाता है । यहाँ पर सामाियक ितमा का ल ण बतलाते ए उसकी िविध का भी
िनदश िकया गया है । सामाियक करने वाला एक-एक कायो ग के बाद चार बार
तीन-तीन आवत करता है । अथात् एक कायो ग िवधान म 'णमो अरहं ताणं' इस आ
सामाियक द क और 'थो ािम हं ' इस अ म व द क के तीन-तीन आवत और एक-
एक णाम इस तरह बारह आवत और चार णाम करता है । सामाियक करने वाला ावक
इस ि या को खड़े होकर कायो ग मु ा म करता है । सामाियक काल म न मु ाधारी के
समान बा और आ र प र ह की िच ा से प रमु रहता है । दे वव ना करने वाले को
ार म और अ म बैठकर णाम करना चािहए । इस िविध के अनुसार वह दो बार बैठकर
णाम करता है - मन-वचन-काय इन तीनों योगों को शु रखता है और स ूण साव ापार
का ाग करता आ तीनों सं ाकालों म दे वव ना करता है ।

+ ोषध ितमा -

पविदनेषु चतु िप, मासे मासे श मिनगु


ोषधिनयमिवधायी, णिधपर: ोषधानशन: ॥१४०॥
अ याथ : जो [मासेमासे] ेक मास म [चतुषु] चारों [अिप] ही [पविदनेषु] पव के िदनों म
[ श म्] अपनी श को [अिनगु ] न िछपाकर [ ोषधिनयमिवधायी] ोषध स ी
िनयम को करता आ [ णिधपर:] एका ता म त र रहता है , वह [ ोषधानशन:]
ोषधोपवास ितमाधारी है ।
भाच ाचाय :

सा तं ोषधोपवासगुणं ावक ितपादय ाह-

ोषधेनानशनमुपवासोय ासौ ोषधानगशन: । िकमिनयमेनािपय:


ोषधोपकारीसोऽिप ोषधानशन तस इ ाह-
ोषधिनयमिवधायी ोषध िनयमोऽव ंभाव ंिवदधाती ेवंशील: । ति यमिवधायी ?
पविदनेषुचतु ्विप यो तुद ो ् वयो ा ो रित । िकंचातुमास ादौति धायी ाह -
मासेमासे । िकंकृ ा ? श मिनगु ति धानेआ साम यम ा । िकंिविश : ?
िणिधपर: एका तां गत: शुभ ानरतइ थ: ॥

आिदमित :

' ोषधेनानशनमुपवासो य ासौ ोषधानशन:' इस िव ह के अनुसार धारण-पारणा के िदन


एकाशन और पव के िदन जो उपवास करता है , वह ोषधिनयमिवधायी कहलाता है । जो िबना
िनयम के ोषध-उपवास करता है , वह भी ोषध त स कहलाता है । इसके उ र प
कहते ह िक ोषधोपवास के िनयम का प रपालन करने वाला तो अव ही िनयमपूवक पव के
िदनों म अथात् दो अ मी और दो चतुदशी के िदनों म ोषधोपवास त का प रपालन करता है
। तो ा चातुमास के ार से इस त का पालन िकया जाता है ? उ र दे ते ह िक ेक माह
की दो अ मी और दो चतुदशी इस कार पव के चारों िदनों म अपनी श को न िछपाकर
उपवास करना होता है । इस ितमा का धारक एका ता से शुभ ान म त र रहता है ।

+ सिच ाग ितमा -

मूलफलशाकशाखा - करीरक सूनबीजािन


नामािन योऽि सोऽयं, सिच िवरतो दयामूित: ॥१४१॥
अ याथ : [य:] जो [दयामूित:] दया की मूित होता आ [आमािन] अप / क े मूल, फल,
शाक, [शाक] डाली, [शाखा] कोंपलों, करीर, क , [ सून] फूल और बीज को [न अि ]
नहीं खाता है , वह यह [सिच िवरतो] सिच ागी है ।
भाच ाचाय :

इदानीं ावक सिच िवरित पं पय ाह-

सोऽयं ावक: सिच िवरितगुणस : । योनाि नभ यित । कानी ाह- मूले ािद-
मूलंचफलंचशाक शाखा कोपला: करीरा वंशिकरणा:
क ा सूनािनचपु ािणबीजािनचता ेतािनआमािनअप ािनयोनाि । कथ ूत: सन् ?
दयामूित: दया प: सक णिच इ थ: ॥

आिदमित :

गाजर, मूली आिद मूल कहलाते ह । आम, अम द आिद फल ह, प ी वाले शाक भाजी
कहलाते ह । वृ की नई कोंपल शाखा कहलाती है । बाँ स के अंकुर को करीर कहते ह,
जमीन म रहने वाले अंगीठा आिद को क कहते ह । गोभी आिद के फूल को सून कहते ह
और गे ँ आिद को बीज कहा जाता है । ये सब अप अव था म सिच सजीव रहते ह, अत:
दयामूित-दया का धारक ावक इ नहीं खाता है ।

+ राि भु ाग ितमा -

अ ं पानं खा ं ले ं ना ाित यो िवभावयाम्


स च राि भु िवरत: स े नुक मानमना: ॥१४२॥
अ याथ : [य:] जो [स ेषु] जीवों पर [अनुक मानमना:] दयालुिच होता आ
[िवभावयाम्] राि म अ , [पानं] पेय, खा और [ले म्] चाटने यो पदाथ को [ण
अ ाित] नहीं खाता है , [स:] वह राि भु ाग ितमाधारी ावक [क ते] कहलाता है ।
भाच ाचाय :

अधुनाराि भु िवरितगुणं ावक ाच ाण: ाह-

सच ावको । राि भु िवरतोऽिभधीयते । योिवभावयारा ौ । ना ाितनभुं े । िकंतिद ाह -


अ िम ािद - अ ंभ मु ािद, पानं ा ािदपानकं, खा ंमोदकािद, ले ंर ािद । िकंिविश : ?
अनुक मानमना: सक ण दय: । केषु ? स ेषु ािणषु ॥

आिदमित :

वह ावक राि भोजन ाग ितमाधारी कहलाता है , जो अ , भात, दाल आिद, पान-दाख


आिद का रस, खा —लड् डू आिद और ले -रबड़ी आिद पदाथ को जीवों पर अनुक ा दया
करता आ राि म नहीं खाता है ।

+ चय ितमा -

मलबीजं मलयोिनं, गल लं पूितग बीभ ं


प मन ा-ि रमित यो चारी स: ॥१४३॥
अ याथ : [मलबीजं] शु -शोिणत- प मल से उ , [मलयोिनं] मिलनता का कारण,
[गल लं] मलमू ािद को झराने वाले [पूितग ] दु ग से सिहत [च] और [बीभ ं] ािन
को उ करने वाले शरीर को [प न] दे खता आ [य:] जो [अन ात्] कामसेवन से
[िवरमित] िवरत होता है , [स:] वह चारी अथात् चय ितमा का धारक [क ते]
कहलाता है ।
भाच ाचाय :

सा तं िवरत गुणं ावक दशय ाह-

अन ा ामा ोिवरमित ावततेस चारी । िकंकुवन् ? प न् । िकंतत् ? अ ं शरीरम् ।


कथ ूतिम ाह-मले ािदमलंशु शोिणतंबीजंकारणंय । मलयोिनंमल मिलनताया:
अपिव योिन: कारणम् । गल लंगल व लोमू पुरीष ेदािदल णेय ात् ।
पूितग दु ग ोपेतम् । बीभ ंसवावयेषुप तां बीभ भावो ादकम् ॥

आिदमित :

जो ी-पु ष एक-दू सरे के शरीर को दे खकर कामािदक से िवर होते ह, वे चारी ह। यह


शरीर कैसा है ? मल / शु / शोिणत प मल का कारण है । मलयोिन / अपिव ता का कारण
है । इस शरीर से मल, मू , पसीना आिद झरते रहते ह। यह दु ग से सिहत है । इसके सभी
अ ों को दे खकर ािन ही उ होती है ।

+ आर ाग ितमा -

सेवाकृिषवािण - मुखादार तो ुपरमित


ाणाितपातहे तोय ऽसावार -िविनवृ : ॥१४४॥
अ याथ : [य:] जो [ ाणाितपातहे तो:] जीव-िहं सा के कारण सेवा, [कृिष] खेती तथा
[वािण ] ापार आिद आर से [ ुपरमित] िनवृ होता है , [असौ] वह [आर -
िविनवृ :] आर ाग ितमा का धारक है ।
भाच ाचाय :

इदानीमार िविनवृि गुणं ावक ितपादय ाह --

यो ुपारमितिवशेषेणउपरत: ापारे : आसम ा जायतेअसावार िविनवृ ोभवित ।


क ात् ? आर त: । कथ ूतात् ? सेवाकृिषवािण ा: मुखाआ ाय त ात् । कथ ूतात्
? ाणाितपातहे तो: ाणानामितपातोिवयोजनंत हे तो: कारणभूतात् ।
अनेन पनदानपूजािदिवधाना ारभादु परितिनराकृतात ाणाितपातहे तु ाभावा ािणपीडाप रहारे ण

वािण ा ार ादिपतथास व िहिविनवृि न ािद िप ािणपीडाहे तोरे वतदार ाि वृ ावक

आिदमित :

जो आर ािद से सब ओर से िनवृ होता है , वह आर िनवृ कहलाता है । आर म नौकरी


खेती तथा ापार आिद मुख ह । आर ािद का ाग ों िकया जाता है ? इसके समाधान
म ' ाणाितपातहे तो:' यह हे थक िवशेषण िदया है िक जो आर ाणघात का कारण है ,
इसिलए इससे िनवृ होना चािहए । इस िवशेषण के दे ने से यह िस हो जाता है िक
आर ाग ितमाधारी ावक अिभषेक, दान-पूजन आिद के िलए आर कर सकता है ।
उससे िनवृ नहीं हो सकता, ोंिक यह ाणघात का कारण नहीं है , यह काय ािणिहं सा को
बचाकर ही िकया जाता है । यहाँ पर हो सकता है िक िजस ापारािद म िहं सा नहीं होती,
उसे वह कर सकता है ा ? इसके उ र म कहा है िक ऐसे आर से उसकी िनवृि न हो,
यह हम अिन नहीं है , ोंिक जो आर ािणपीड़ा का हे तु है , उससे िनवृ होने वाले ावक
के यह आर ाग ितमा होती है ।
+पर ह ाग ितमा -

बा ेषु दशसु व ुषु, मम मु ृ िनमम रत:


थ: स ोषपर:, प रिचतप र हाि रत: ॥१४५॥
अ याथ : [दशसु] दश [बा ेषु] बा [व ुषु] व ुओं म [मम म्] ममताभाव को
[उ ृ ] छोडक़र [िनमम रत:] िनम ही होता आ [य:] जो [ थ:] आ प म
थत [च] तथा [संतोशपर:] स ोष म त र रहता है , [स:] वह [प रिचतप र हात्] सब
ओर से िच म थत प र ह से [िवरत:] िवरत होता है ।
भाच ाचाय :

अधुनाप र हिनवृि गुणं ावक पय ाह-

प रसम ात्, िच थ: प र होिहप रिच प र ह ाि रत: ावकोभवित।िकंिविश : सन् ?


थोमायािदरिहत: । तथास ोषपर: प र हाका ा ावृ ास ु : तथा।िनमम रत: ।
िकंकृ ा ? उ ृ प र । िकंतत् ? मम ंमू ्छा । ? बा ेषुदशसुव ुषु ।
एतदे वदशधाप रगणनंबा व ूनां द ते
।;; े ंवा ुधनंधा ंि पदं चचतु दम्;;शयनासनेचयानंकु ंभा िमितदश॥;; े ंस ािधकरणंचडोह
।वा ुगृहािद । धनंसुवणािद । धा ं ी ािद । ि पदं दासीदासािद । चतु दं गवािद ।
शयनंख ािद । आसनंिव रािद । यानंडोिलकािद । कु ं ौमकापिसकौशेयािद ।
भा ं ीख मंिज ाकां ता ािद ॥

आिदमित :

'प रसम ात् िच थ: प र हो िह प रिच प र ह:' इस ु ि के अनुसार जो प र ह


िनर र िच म थत रहता है , ऐसा ममकार प प र ह प रिच प र ह कहलाता है । ऐसे
प र ह से िवरत वही ावक हो सकता है , जो थ—मायाचारािद से रिहत हो तथा स ोष
धारण म त र हो, प र ह की आका ा से िनवृ हो, िनमम हो अथात् िजसने दश कार के
बा प र ह के मम का ाग कर िदया है ।

अब दस कार का बा प र ह बतलाते ह --

े - धा की उ ि का थान, ऐसे डोहिलका आिद थानों को खेत कहते ह । (िजस खेत म


चारों ओर से बां ध बाँ धकर पानी रोक लेते ह, ऐसे धा के छोटे -छोटे खेतों को डोहिलका कहते
ह ।) वा ु—मकान आिद । धन—सोना-चाँ दी आिद । धा —चावलािद । ि पद—दासी-
दासािद । चतु द—गाय आिद । शयन—पलंगािद और आसन—िब र आिद । यान—
पालकी आिद । कु —रे शमी-सूती कोशािद के व । भा - च न, मजीठ, कां सा तथा तां बे
आिद के बतन । यह दस कार का प र ह है । इसका ागी प र ह ाग ितमाधारी होता है

+ अनुमित ाग ितमा -

अनुमितरार े वा, प र हे ऐिहकेषु कमसु वा


ना खलु य समधी-रनुमितिवरत: स म : ॥१४६॥
अ याथ : िन य से [आरार े] आर के काय म अथवा [प र हे ] प र ह म [वा] अथवा
[ऐिहकेषु] इस लोक स ी [कमसु] काय म [य ] िजसके [अनुमित] अनुमोदना [न]
नहीं है , [स:] वह [समधी:] समान बु का धारक [अनुमितिवरत:] अनुमित ाग ितमाधारी
[म त :] माना जाना चािहए ।
भाच ाचाय :

सा तमनुमितिवरितगुणं ावक पय ाह -

सोऽनुमितिवरतोम : य खलु ु टं ना । काऽसौ ? अनुमितर ुपगम: । ?


आर ेकृ ादौ । वाश : सव पर रसमु याथ: । प र हे वाधा दासीदासादौ ।
ऐिहकेषु मसुवािववाहािदषु । िकंिविश : समधी: रागािदरिहतबु : मम रिहतबु वा ॥

आिदमित :

जो खेती आिद आर और धन-धा -दासी-दास आिद प र ह तथा इस लोक स ी िववाह


आिद काय म अनुमित नहीं दे ता है तथा इ , अिन पदाथ म समभाव रखता आ रागािद
रिहत होता है , उसे अनुमित ाग ितमा का धारक जानना चािहए ।

+ उि ाग ितमा -

गृहतो मुिनवनिम ा, गु पक े तािन प रगृ


भै ाशन प - ु ृ ेलख धर: ॥१४७॥
अ याथ : जो [गृहतो] घर से [मुिनवनम्] मुिनयों के वन को [इ ा] जाकर [गु पक े ]
गु के पास [ तािनप रगृ ] त हण कर [भै ाशन:] िभ ा भोजन करता आ
[तप न्] तप रण करता है , [चेलख धर:] तथा एक व ख को धारण करता है , वह
उ ृ ावक [क ते] कहलाता है ।
भाच ाचाय :
इदानीमुि िवरितल णगुणयु ं ावक दशय ाह-

उ ृ उि िवरितरल णैकादशगुण थानयु : ावकोभवित।कथ ूत: ? चेलख धर:


कौपीनमा व ख धारक: आयिल धारी थ: ।
तथाभै ाशनोिभ ाणां समूहोभै ंतद ातीितभै ाशन: । िकंकुवन्? तप प: कुवन् ।
िकंकृ ा ? प रगृ गृही ा । कािन ? तािन । ? गु पक े गु समीपे । िकंकृ ा ?
इ ाग ा । िकंतत् ? मुिनवनंमु ा मं । क ात् ? गृहत:॥२६॥

आिदमित :

उि ाग नामक ारहवीं ितमा का धारी ावक उ ृ कहलाता है । यह कौपीन / लंगोट,


मा ख व का धारक होता है । 'िभ ाणां समहो भै ं' इस कार समूह अथ म अण् य
होने से भै श बना है । इस ितमा का धारी िभ ा से भोजन करता है । अथात् मुिनयों की
तरह गोचरी के िलए िनकलता है । अथवा िकसी पा म गृह थों के घरों से उदरपूित के यो
भोजन एक करता है और अ म एक ावक के घर म जलािद लेकर भोजन करता है । इस
ितमा का धारक घर छोडक़र मुिनयों के पास मुिन आ म म चला जाता है और तों को धारण
करता है ।

+ े ाता कौन है ? -

पाप-मराितधम , ब ुज व चेित िनि न्


समयं यिद जानीते, ेयो ाता ुवं भवित ॥१४८॥
अ याथ : [पापम्] पाप ही [जीव ] जीव का [अराित:] श ु है [च] और [धम:] धम ही
जीव का [बंधु] िहतकारी है , [इित] इस कार [िनि न्] िन य करता आ वह ावक
[समयम्] आगम / आ ा को [जानीते] जानता है , [तिह] तो वह [ ुवं] िन य से [ ेयो ाता]
े ाता अथवा क ाण का ाता [भवित] होता है ।
भाच ाचाय :

तप: कुव िपयो ागम : स ेवंम तेतदा ेयो ाताभवती ाह --

यिदसमयम्आगमंजानीतेआगम ोयिदभविततदाधुरवं
् िन येन ेयो ाताउ ृ ातासभवित ।
िकंकुवन् ? िनि न् । कथिम ाह - पापिम ािद - पापमधम ऽराित:
श ुज व ानेकापकारक ा धम ब ुज व ानेकोपकारक ािद ेवंिनि न् ॥

आिदमित :
यिद ावक आगम को जानने वाला है तो उसको यह िन य है िक पाप / अधम / िम ादशन,
िम ा ान और िम ाचा र जीव का श ु है , ोंिक यह अनेक कार से अपकार करने वाला
है और धम-स शन, स ान, स ार प प रणित अनेक उपकार का कारण होने
से जीव की ब ु है । तब वह े ाता होता है ।

+र य का फल -

येन यं वीतकलंकिव ा- ि ि या-र कर भावम्


नीत मायाित-पती येव, सवाथिस षु-िव पेषु ॥१४९॥
अ याथ : [येन] िजसने [ यं] अपने आ ा को [वीतकलंक] िनद ष [िव ा] ान, [ ि ]
दशन और [ि या] चा र प [र कर भावम्] र ों के कर भाव-िपटारापने को [नीत:]
ा कराया है , [तं] उसे [ि षुिव पेषु] तीनों लोकों म [पती येव] पित की इ ा से ही मानों
[सवाथिस :] धम, अथ, काम और मो प चारों पु षाथ की िस [आयाित] ा होती
है ।
भाच ाचाय :

इदानींशा ाथानु ातु: फलंदशय ाह --

येनभ ेन यम्आ ा यंश ोऽ ा वाचक: नीत: ािपत: । किम ाह- वीते ािद,
िवशेषेणइतोगतोन :
कल ोदोषोयासां ता तािव ा ि ि या ानदशनचा र ािणतासां कर भावंतंभ म्आयाितआग ि
। कासौ ? सवाथिस : धमाथकाममो ल णाथानां िस िन ि : क ्री । कयेवायाित ?
पती येव य रिवधाने येव । ? ि षुिव पेषुि भुनवेषु ॥

आिदमित :

यहाँ पर यं श आ ा का वाचक है । िजसके कलंकदोष िवशेष प से न हो गये ह, उसे


वीतकलंक कहते ह । यह वीतकल िवशेषण िव ा / ान, ि / दशन और ि या / चा र
इन तीनों के साथ लगता है । िजस भ ने अपनी आ ा को स शन, स ान,
स ार पी र ों का कर -िपटारा बनाया है अथात् िजसकी आ ा म ये कट हो गये
ह, उसे सव अथ –- धम, अथ, काम और मो प सम अथ की िस उस कार हो जाती
है , िजस कार पित की इ ा रखने वाली क ा यंवर िवधान म अपनी इ ा से पित को
ा करती है ।

+इ ाथना -
सुखयतु सुखभूिम: कािमनं कािमनीव,
सुतिमव जननी मां शु शीला भुन ु
कुलिमव गुणभूषा, क का स ुनीतात्-
िजनपितपदप - ेि णी ि ल ी: ॥१५०॥
अ याथ : [िजनपितपदप ेि णी] िजने दे व के चरण-कमलों का अवलोकन करने वाली
ऐसी यह [ ि ल ी:] स शन पी ल ी [सुखभूिम:] सुख की भूिम ऐसी कािमनी के
स श [मां] मुझे [सुखयतु ] सुखी करे जैसे [कािमनी] ी [कािमनिमव] कामी पु ष को,
[भुन ु] रि त करे , िजस तरह की [शु शीला जननी] शु शीलवती माता जैसे [सुतिमव]
अपने पु का [स ुनीतात्] पालन करती है तथा [गुणभूषाक का] गुणों से भूिषत क ा
जैसे अपने [कुलम्] कुल को पिव करती है वैसे ही वह मुझे पिव करे ॥
भाच ाचाय :

र कर कंकुवत ममयासौस स ि वृ ं गतासाएतदे वकुयािद ाह --

मां सुखयतुसु खनंकरोतु । कासौ ? ि ल ी: स शनस ी । िकंिविश े ाह --


िजने ािदिजनानां देशत:
कम ूलकानां गणधरदे वादीनां पतय ीथ रा ेषां पदािनसुब ितङ ािनपदावाता ेवप ािनतािन े
। अयमथ :- ल ी: प ावलोकनशीलाभवित, ि ल ी ुिजनो पदपदाथ े णशीलेित ।
कथ ूतासा ? सुखभूिम: । सुखो ि थानम् । केवकम् ?
कािमनंकािमनीवयथाकािमनीकामभूिम: कािमनंसुखयिततथामां ि ल ी: सुखयतु ।
तथासामां भुन ुर तु । केव ? सुतिमवजननी । िकंिविश ा ?
शु शीलाजननीिहशु शीलासुतंर ितनाशु शीलादु ा रणी ।
ि ल ी ुगुण तिश ा तल णशु -स शीलसम तामां भुन ु ।
तथासामां स ुनीता कलदोषकल ं िनराकृ पिव यतु । िकिमव ? कुलिमवगुणभूषाक का ।
अयमथ:
कुलंयथागुणभूषागुणाऽल ारोपेताक ापिव यितश£◌ा तां नयिततथा ि ल ीरिपगुणभूषाअ मूलग
॥२९॥;;येना ानतमोिवना िन खलंभ ा चेतोगतम्,;;स ानमहां शुिभ: किटत:
सागारमाग ऽ खल:;;स ीर कर कामलरिव: संसृ र ोषको,;;जीयादे षसम भ मुिनय:
ीमा भे दुिजन: ॥१॥

इित भाच िवरिचतायां सम भ ामीिवरिचतोपासका यनटीकायां प म: प र े द:।

आिदमित :

'िजनपितपदप पे्रि णी' इस श म जो पद श है , उसके दो अथ ह -- एक सुब ,


ितङ प पद श समूह और दू सरा चरणकमल । वह अथ इस कार है - तीथ रभगव
के श प कमलों का ान करने वाली, अथवा तीथ र भगवान् के चरणकमलों का
अवलोकन करने वाली अथात् उनके ित पूण ा रखने वाली स शन पी ल ी मुझे
सुखी करे । िजस कार िवषयसुख की भूिम कािमनी कामी पु ष को सुखी करती है , उसी
कार आ ो सुख की भूिम स शन पी ल ी मुझे सुखी करे । िजस कार शु शीला-
िनद ष सदाचा रणी माता अपने िनद ष पु की र ा करती है , िक ु दु राचा रणी माता नहीं ।
उसी कार शु शीला / िनरितचार गुण त और िश ा त प स शील से यु
स शन पी ल ी मेरी र ा करे । तथा िजस कार गुणभूषा—शील, अलंकारों आिद से
िवभूिषत क ा अपने कुल को पिव एवं शंसनीय बनाती है , उसी कार गुणभूषा-अ ां ग
आिद से यु स शन पी ल ी मुझे अ ी तरह पिव करे , मुझे कमकलंक से रिहत
करे ।

येना ानतमो इित- िज ोंने भ जीवों के िच म थत सम अ ान पी अ कार को न


कर िदया है तथा स ान पी िकरणों के ारा सम गृह थ धम प माग को कट िकया
है , जो ी र य प िपटारे को कािशत करने के िलए सूय ह, प म भाव से कता होने के
कारण र कर नामक को कािशत करने के िलए सूय ह । संसार पी नदी को सुखाने
वाले ह । सम भ -क ाणों से प रपूण मुिनयों की र ा करने वाले ह । प म इस के
क ता सम भ ामी के र क ह । अन चतु य प ी से सिहत ह तथा भा-का से जो
च मा ह, ऐसे िजने दे व जयव रह ।

इस कार भाच ाचाय ारा िवरिचत, सम भ ामी ारा िवरिचत उपासका यन की


टीका म प म प र े द स ेखना ितमािधकार पूण आ॥ ५॥

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