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रत्नकरण्ड श्रावकाचार
रत्नकरण्ड श्रावकाचार
ावकाचार
- सम भ ाचाय
nikkyjain@gmail.com
Date : 24-Jul-2019
Index
गाथा / सू िवषय गाथा / सू िवषय
स शन-अिधकार
004) स शन
005) आ का ल ण 006) वीतराग का ल ण
007) िहतोपदे शी का ल ण 008) आगम का ल ण
009) शा का ल ण 010) गु का ल ण
011) िन:शंिकत अंग 012) िन:कां ि त अंग
013) िनिविचिक ा अंग 014) अमूढ़ ि अंग
015) उपगूहन अंग 016) थितकरण अंग
017) वा अंग 018) भावना अंग
019-020) आठ अंगधारी के नाम 021) अंगहीन स थ है
022) लोक मूढ़ता 023) दे व मूढ़ता
024) गु मूढ़ता 025) आठमद के नाम
026) मद करने से हािन 027) पाप ाग का उपदे श
028) स शन की मिहमा 029) धम और अधम का फल
030) स ि कुदे वािदक को नमन ना करे 031) स शन की े ता
032) स शन के िबना ान चा र की अस वता 033) मोही मुिन की अपे ा िनम ही गृह थ े
034) ेय और अ ेय का कथन 035) स ि के अनु ि के थान
036) स ि जीव े मनु होते ह 037) स ि जीव इं पद पाते ह
038) स ि ही च वत होते ह 039) स ि ही तीथकर होते ह
040) स ि ही मो -पद ा करते ह 041) उपसंहार
स ान-अिधकार
स क-चा र -अिधकार
047) चा र की आव कता
048) चा र कब होता है ? 049) चा र का ल ण
050) चा र के भेद और उपासक 051) िवकल चा र के भेद
अणु त-अिधकार
गुण त-अिधकार
िश ा त-अिधकार
स ेखना-अिधकार
122) स ेखना का ल ण
123) स ेखना की आव कता 124-125) स ेखना की िविध और महा त धारण का उपदे श
126) ा ाय का उपदे श 127) भोजन के ाग का म
128) स ेखना म शेष आहार ाग का म 129) स ेखना के पां च अितचार
130) स ेखना का फल 131) मो का ल ण
132) मु जीवों का ल ण 133) िवकार का अभाव
134) मु जीव कहाँ रहते ह ? 135) स म का फल
ावकपद-अिधकार
र कर ावकाचार
मूल सं ृ त गाथा,
भाचं ाचाय कृत सं ृ त टीका और आिदमती माताजी कृत
िहं दी टीका सिहत
आभार :
आचाय ी सम भ ामी
अ याथ : र कर ावकाचार के क ा आचाय ी सम भ ामी ह । ितभाशाली
आचाय , समथ िव ानों एवं पू महा ाओं म आपका थान ब त ऊँचा है । आप
सम ातभ थे - बाहर भीतर सब ओर से भ प थे । आप ब त बडे योगी, ागी, तप ी
एवं त ानी थे । आप जैन धम एव िस ा ों के मम होने के साथ ही साथ तक ाकरण
छ अलंकार और का -कोषािद ों म पूरी तरह िन ात थे । आपको ामी पद से खास
तौर पर िवभूिषत िकया गया है । आप वा व म िव ानों योिगयों ागी-तप यों के ामी थे ।
जीवनकाल : आपने िकस समय इस धरा को सुशोिभत िकया इसका कोई उ ेख नहीं
िमलता है । कोई िव ान आपको ईसा की तीसरी शता ी के बाद का बताते ह तो कोई ईसा
की सातवीं आठवीं शता ी का बताते ह । इस स म सु िस इितहास ग य पंिडत
जुगल कशोर जी मु ार ने अपने िव ृत लेखों म अनेकों माण दे कर यह िकया है िक
ामी सम भ त ाथ सू के कता आचाय उमा ामी के प ात् एवं पू पाद ामी के पूव
ए है । अत: आप अस प से िव म की दू सरी-तीसरी शता ी के महान िव ान थे ।
अभी आपके स म यही िवचार सवमा माना जा रहा है ।
ज थान : िपतृ कुल गु कुल - संसार की मोह ममता से दू र रहने वाले अिधकां श जैनाचाय
के माता-िपता तथा ज थान आिद का कुछ भी मािणक इितहास उपल नहीं है ।
सम भ ामी भी इसके अपवाद नहीं ह । वणबेलगोला के िव ान ी दोबिलिजनदास
शा ी के शा भंडार म सुरि त आ मीमां सा की एक ाचीन ताडप ीय ित के िन ां िकत
पु का वा ''इित ी फिणमंडलालंकार ोरगपुरािधपसूनो: ी ामी सम भ मुने: कुतौ
आ मीमां सायाम्'' से है िक सम भ फिणमडला गत उरगपुर के राजा के पु थे ।
इसके आधार पर उरगपुर आपकी ज भूिम अथवा बाल ीडा भूिम होती है । यह उरगपुर
ही वतमान का ''उरै यूर'' जान पडता है । उरगपुर चोल राजाओं की ाचीन राजधानी रही है ।
पुरानी ि चनाप ी भी इसी को कहते ह । आपके माता-िपता के नाम के बारे म कोई पता नहीं
चलता है । आपका ारं िभक नाम शा वमा था । दी ा के पिहले आपकी िश ा या तो उरै यूर
म ही ई अथवा कां ची या मदु रा म ई जान पडती है ोंिक ये तीनो ही थान उस समय
दि ण भारत म िव ा के मु के थे । इन सब थानों म उस समय जैिनयों के अ े -अ े
मठ भी मौजूद थे । आपकी दी ा का थान कां ची या उसके आसपास कोई गां व होना चािहये ।
आप कां ची के िदग र साधु थे ''कां ां न ाटकोअहं " ।
आपका वाद े संकुिचत नही था । आपने उसी दे श म अपने वाद की िवजय दुं दुिभ नहीं
बजाई िजसम वे उ ये थे ब सारे भारत वष को अपने वाद का लीला थल बनाया था ।
करहाटक नगर म प ं चने पर वहां के राजा के ारा पूँछे जाने पर आपने अपना िपछला
प रचय इस कार िदया है ।
हे राजन् सबसे पिहले मने पाटलीपु नगर म शा ाथ के िलये भेरी बजवाई िफर मालव, िस ु,
ढ , कां ची आिद थानों पर जाकर भेरी तािडत की । अब बडे -बड़े िद ज िव ानों से
प रपूण इस करहाटक नगर म आया ँ । म तो शा ाथ की इ ा रखता आ िसंह के समान
घूमता िफरता ँ । 'िह ी ऑफ क डीज िलटरे चर' के लेखक िम र एडवड पी. राइस ने
सम भ को तेजपूण भावशाली वादी िलखा है और बताया है िक वे सारे भारत वष म
जैनधम का चार करने वाले महान चारक थे । उ ोंने वाद भेरी बजने का द ूर का पूरा
लाभ उठाया और वे बड़ी श के साथ जैन धम के ा ाद िस ा को पु करने म समथ
ये ह । उपरो िववेचन से यह होता है िक आपने अनेकों थानों पर वाद भेरी बजबाई
थी और िकसी ने उसका िवरोध नही िकया । इस स म ग य पंिडत ी जुगलिकशोर जी
मु ार िलखते ह िक 'इस सारी सफलता का कारण उनके अ ःकरण की शु ता, चा र की
िनमलता एवं अनेका ा क वाणी का ही मह था उनके वचन ा ाद ाय की तुला म तुले
होते थे और इसीिलए उन पर प पात का भूत सवार नहीं होता था । वे परी ा धानी थे ।
ब मू रचनाएँ -
ामी सम भ ारा िवरिचत िन िल खत ग उपल ह-
१. ुित िव ा (िजनशतक)
२. यु नुशासन
३. यंभू ो
४. दे वागम (आ मीमांसा) ो
५. र कर ावकाचार
महावीर ामी के प ात् सैकडों ही महा ा-आचाय हमारे यहाँ ये है उनम से िकसी भी
आचाय एवं मुिनराजों के िवषय म यह उ ेख नहीं िमलता है िक वे भिव म इसी भारत वष म
तीथकर होंगे । ामी सम भ के स म यह उ ेख अनेक शा ों म िमलता है । इससे
इन के चा र का गौरव और भी बढ़ जाता है ।
+ मंगलाचरण -
+ आचाय की ित ा -
+ धम का ल ण -
स शन-अिधकार
+स शन -
त स शन पं ा ातुमाह --
+आ का ल ण -
िजनके ुधा-तृषािद शारी रक तथा राग े षािदक दोष न हो गये ह तथा जो सम पदाथ को
उनकी िवशेषताओं सिहत जानते ह तथा जो आगम के ईश ह अथात् िजनकी िद िन
सुनकर गणधर ादशां ग प शा की रचना करते ह, इस कार जो भ जीवों को हे य-
उपादे य त ों का ान कराने वाले आगम के मूलकता ह वे ही आ -स े दे व हो सकते ह, यह
िनि त है , ोंिक िजनम ये िवशेषताएँ नहीं ह, वे स े दे व नहीं हो सकते ।
सदासुखदास :
यिद सव नहीं होते तो इं ि यों के आधीन ानवाला पहले हो गए राम, रावण, आिद उ कैसे
जानेगा ? दू रवत जो मे पवत, ग, नरक परलोकािद को कैसे जानेगा ? और सू परमाणु
इ ािद को कैसे जानेगा ?
उससे कहते ह - िनद षपना तो पुदगल (परमाणु), धम, अधम, आकाश और कालािद म भी है
। इनके अचेतनपना होने से ुधा, तृषा, राग- े षािद भी नहीं है । अत: िनद षपना कहने से
इनके आ पना का संग आ जाता । आ िनद ष तो होता ही है , सव भी होता है । यिद
िनद ष और सव -- ये दो ही आ के गुण कह तो भगवान िस ों के भी आ पना का संग
आ जाता, तब स े उपदे श का अभाव आ जाता । इसिलये िनद ष, सव और परम
िहतोपदे शकता इन तीन गुणों सिहत दे वािधदे व परम औदा रक शरीर म थत भगवान सव
वीतराग अरह को ही आ पना है , ऐसा िन य करना यो है ।
+ वीतराग का ल ण -
' ुधा पीड़ा ही नहीं है ' ऐसा नहीं कहा जा सकता, ोंिक लोक म यह उ िस है िक
' ुधासमा ना शरीरवेदना' ुधा के समान दू सरी कोई शरीर पीड़ा नहीं है । इस िवषय को
यहाँ इतना ही कहना पया है ोंिक मेयकमलमात और ायकुमुदच म िव ार से
इसका िन पण िकया गया है ।
+ िहतोपदे शी का ल ण -
जो परं ोित ह; िजसके परं अथात् आवरण रिहत, ोित अथात् अती य अन - ान म
लोक-अलोकवत सम पदाथ अपने ि कालवत अन -गुण पयायों के साथ युगपत्
ितिब त हो रहे ह; ऐसे भगवान परम ोित- प आ ह । अ जो इ य-जिनत ान
से अ - े वत वतमान थूल पदाथ को म- म से जानता है उसे परं - ोित कैसे कहा जा
सकता है ?
िजसे मोहनीय कम का नाश होने से सम पर- ों म राग- े ष का अभाव होने से वां छारिहत
परम वीतरागता गट ई है , वह वा ु का स ा प जान लेने पर िकसम राग करे गा और
िकसम े ष करे गा ? जैसा वा ु का भाव है कैसा राग े ष रिहत जानता है ; ऐसा िवराग नाम
सिहत अरह ही आ है । जो कामी-िवषयों म आस , गीत-नृ -वा ों म आस , जगत
की यों को लुभाने म, बै रयों को मारकर लोगों म अपना शुरपना गट करने की इ ा
सिहत है उसको िवराग-पना स व नहीं है ।
िजनका काम, ोध, मान, माया, लोभािद भावमल न हो गया है ; ानावरणािद कममल न हो
गया है ; मू , पुरीष, पसेव, वात, िप ािद शरीरमल न हो गया है ; िनगोिदया जीवों से रिहत,
छाया रिहत, कां ित यु , ुधा, तृषा, रोग, िन ा, भय, िव य आिद रिहत परम ओदा रक
शरीर म िवराजमान वे भगवान आ अरह ही िवमल ह । अ जो काम, ोध आिद मलों
सिहत ह वे िवमल नहीं ह।
िज कूछ करना बाकी नहीं रहा, जो शु अन ानािदमय अपने प को ा होकर
ािध-उपािध रिहत कृत-कृ ए वे भगवान आ ही कृती ह; अ तो ज -मरण आिद
सिहत; च , आयुध, ि शूल, गदा आिद सिहत; कनक-कािमनी म आस ; भोजन-पान, काम-
भोगािदक की लालसा सिहत; श ुओं को मारने की आकुलता सिहत ह वे कृती नहीं ह ।
िजनके वचन व काय की वृि सम जीवों के िहत के िलये ही होती है , वे भगवान आ साव
कहलाते ह । अ जो काम, ोध, सं ाम आिद िहं सा धान सम पापों ारा पर के अिहत
म वतन करते ह, कराते ह, उनको ऐसा नाम ही संभव नहीं है ।
+ आगम का ल ण -
+ शा का ल ण -
की श त ा ंय ेन णीतिम ाह --
आ ोप ं सव थमो : । अनु ङ् ं य ा दा ोप ं
त ािद ादीनामनु ङ् मादे यं । क ात् ? तदु प ेन तेषामनु ङ् ं यत: ।
अ े िवरोधकं ं ं, इ मनुमानािद, न िव ते े ा ां िवरोधो य । तथािवधमिप
कुत िम ाह- त ोपदे शकृत् यत च स िवध जीवािदव ुनो
यथाव थत प वा उपदे शकृ थाव ितदे शकं ततो े िवरोधकं ।
एवंिवधमिपक ादवगतम् ? यत: साव सव ो िहतं सावमु ते त थं
यथाव प पणम रे णघटते । एतद कुतो िनि तिम ाह -- कापथघ नं यत:
कापथ कु तमाग िम ादशनादे घ नंिनराकारकं सव णीतं शा ं तत ाविमित ॥
९॥
आिदमित :
+ गु का ल ण -
+ िन:शंिकत अंग -
इदमेवे- शमेव, त ं ना चा था
इ क ायसा ोवत्, स ागऽसंशया िच: ॥११॥
अ याथ : [त वं] त [इदम्] यह [एव] ही है , [ई शम्] ऐसा [एव] ही है , [अ त्] अ
[न] नहीं है और [अ था] अ कार भी [न] नहीं है [इित] इस तरह आ , आगम, गु के
िवषय म [आयसा ोवत्] तलवार की धार पर रखे ए जल के स श [अक ा] अचिलत
[ िच:] ान करना और [स ाग] मो —माग म संशय रिहत िच का होना [असंशया]
िन:शंिकत अंग है ॥११॥
भाच ाचाय :
आिदमित :
+ िन:कांि त अंग -
+ िनिविचिक ा अंग -
स ितिनिविचिक ागुणंस शन पय ाह --
+ अमूढ़ ि अंग -
भाच ाचाय :
आिदमित :
+ थितकरण अंग -
अथ थतीकरणगुणंस शन दशय ाह --
+ वा अंग -
यू ा ित स ाव-सनाथापेतकैतवा
ितपि -यथायो ं, वा मिभल ते ॥१७॥
अ याथ : [ यू ा ित] सहधम जनों के ित जो हमेशा ही [अपेतकैतवा] छल कपट
रिहत होकर [स ाव-सनाथा] स ावना रखते ए ीित करना और [यथायो ं] यथा यो
उनके ित [ ितपि :] िवनय भ आिद भी करना [वा म्] वा अंग [अिभल ते]
कहा जाता है ॥१७॥
भाच ाचाय :
+ भावना अंग -
जैनशासन के माहा का काशन एवं उसके तप- ानािद का अितशय कट करना चािहये
तथा जैनधम के अित र अ धमावल यों म अिभषेक, दान, पूजा, िवधान, तप, म -
त ािद के िवषय म अपनी आ श को न िछपाकर इनके िवषय म जो अ ान प
अ कार फैल रहा है , उसको दू र करते ए तप- ानािद का अितशय कट करना भावना
अ कहलाता है ।
+ आठ अंगधारी के नाम -
वा े िव ुकुमारो ा ोऽ कथा-
अ न चोर की कथा
उसी समय, राजगृही नगरी म एक अ नसु री नाम की वे ा रहती थी। एक िदन उसने
कनक भ राजा की की कनका रानी का हार दे खा। राि को जब अ न चोर उस वे ा के
यहाँ गया तब उसने कहा िक यिद तुम मुझे कनका रानी का हार लाकर दे सकते हो तो मेरे
भ ता बन सकते हो, अ था नहीं। तदन र अ न चोर राि म हार चुराकर आ रहा था िक
हार के काश से वह जान िलया गया। अ र कों और कोटपाल ने उसे पकडऩा चाहा, पर ु
वह हार छोडक़र भाग गया। वटवृ के नीचे सोमद वटु क को दे खकर उसने उससे सब
समाचार पूछे तथा उससे म लेकर वह सींके पर चढ़ गया। उसने िन:शंिकत होकर उस िविध
से एक ही बार म सींके की सब र याँ काट दीं। ों ही वह श ों के ऊपर िगरने लगा ों
ही िव ा िस हो गई। िस ई िव ा ने उससे कहा िक मुझे आ ा दो। अ न चोर ने कहा िक
मुझे िजनद सेठ के पास ले चलो। उस समय िजनद सेठ सुदशन-मे के चै ालय म थत
था। िव ा ने अ न चोर को ले जाकर सेठ के आगे खड़ा कर िदया। अपना िपछला वृ ा
कहकर अ न चोर ने सेठ से कहा िक आपके उपदे श से मुझे िजस कार यह िव ा िस ई
है , उसी कार परलोक की िस के िलए भी आप मुझे उपदे श दीिजए। तदन र चारण
ऋ धारी मुिनराज के पास दी ा लेकर उसने कैलाश पवत पर तप िकया और केवल ान
ा कर वहीं से मो ा िकया।
अन मती की कथा
अ दे श की च ानगरी म राजा वसुवधन रहते थे। उनकी रानी का नाम ल ीमती था।
ि यद नाम का सेठ था, उसकी ी का नाम अ वती था और दोनों के अन मती नाम की
एक पु ी थी। एक बार न ी र-अ ाि का पव की अ मी के िदन सेठ ने धमकीित आचाय के
पादमूल म आठ िदन तक का चय त िलया। सेठ ने ीडावश अन मती को भी चय
त िदला िदया।
तदन र दू सरे िदन ु क ने पूव िदशा म प ासन पर थत चार मुखों सिहत य ोपवीत
आिद से यु तथा दे व और दानवों से व त ा का प िदखाया। राजा तथा भ सेन आिद
लोग वहाँ गये, पर ु रे वती रानी लोगों से े रत होने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती रही िक
यह नाम का दे व कौन है ? इसी कार दि ण िदशा म उसने ग ड़ के ऊपर आ ढ़, चार
भुजाओं सिहत तथा गदा शंख आिद के धारक नारायण का प िदखाया। पि म िदशा म
उसने बैल पर आ ढ़ तथा अधच जटाजूट पावती और गणों से सिहत श र का प
िदखाया। उ र िदशा म उसने समवसरण के म म आठ ाितहाय सिहत सुरनर, िव ाधर
और मुिनयों के समूह से व मान पय ासन सिहत तीथ र दे व का प िदखाया। वहाँ सब
लोग गये, पर ु रे वती रानी लोगों के ारा ेरणा की जाने पर भी नहीं गयी। वह यही कहती
रही िक नारायण नौ होते हं ◌ै, ारह ही होते ह और तीथ र चौबीस ही होते ह, ऐसा
िजनागम म कहा गया है । और वे सब हो चुके ह। यह तो कोई मायावी है । दू सरे िदन चया के
समय उसने एक ऐसे ु क का प बनाया, िजसका शरीर बीमारी से ीण हो गया था।
रे वती रानी ने जब यह समाचार सुना, तब वह भ पूवक उसे उठाकर ले गयी। उसका
उपचार िकया और प कराने के िलए उ त ई। उस ु क ने सब आहार कर दु ग से
यु वमन िकया। रानी ने वमन को दू र कर कहा िक 'हाय मने कृित के िव अप
आहार िदया।' रे वती रानी के उ वचन सुनकर ु क ने स ोष से सब माया को संकोच
कर उसे गु ाचाय को परो व ना कराकर, उनका आशीवाद कहा और लोगों के बीच
उसकी अमूढ ि ता की खूब शंसा की। यह सब कर ु क अपने थान पर चला गया।
राजा व ण िशवकीित पु के िलए रा दे कर तथा तप हण कर माहे ग म दे व आ
तथा रे वती रानी भी तप कर ग म दे व ई।
एक िदन ु क से पूछकर सेठ समु या ा के िलए चला और नगर से बाहर िनकलकर ठहर
गया। वह चोर ु क घर के लोगों को सामान ले जाने म जानकर आधी रात के समय
उस मिण को लेकर चलता बना। मिण के तेज से माग म कोतवालों ने उसे दे ख िलया और
पकडऩे के िलए उसका पीछा िकया। कोतवालों से बचकर भागने म असमथ आ वह चोर
ु क सेठ की ही शरण म जाकर कहने लगा िक मेरी र ा करो, र ा करो। कोतवालों का
कलकल श सुनकर तथा पूवापर िवचार कर सेठ ने जान िलया िक यह चोर है , पर ु धम को
उपहास से बचाने के िलए उसने कहा िक यह मेरे कहने से ही र लाया है , आप लोगों ने अ ा
नहीं िकया, जो इस महातप ी को चोर घोिषत िकया। तदन र सेठ के वचन को माण
मानकर कोतवाल चले गये और सेठ ने उसे राि के समय िनकाल िदया। इसी कार अ
स ि को भी असमथ और अ ानी जनों से आये ए धम के दोष का आ ादन करना
चािहए।
वा रषेण की कथा
मगधदे श के राजगृह नगर म राजा ेिणक रहता था। उसकी रानी का नाम चेिलनी था। उन
दोनों के वा रषेण नाम का पु था। वा रषेण उ म ावक था। एक बार वह उपवास धारण कर
चतुदशी की राि म सान म कायो ग से खड़ा था। उसी िदन बगीचे म गयी ई
मगधसु री नामक वे ा ने ीकीित सेठानी के ारा पहना आ हार दे खा। तदन र उस हार
को दे खकर 'इस आभूषण के िबना मुझे जीवन से ा योजन है ' ऐसा िवचार कर वह श ा
पर पड़ गयी। उस वे ा म आस िवद् यु र चोर जब राि के समय उसके घर आया तब
उसे श ा पर पड़ी दे ख बोला िक ि य तरह ों पड़ी हो? वे ा ने कहा िक 'यिद ीकीित
सेठानी का हार मुझे दे ते हो तो म जीिवत र ं गी और तुम मेरे पित होओगे अ था नहीं।' वे ा
के ऐसे वचन सुनकर तथा उसे आ ासन दे कर िवद् यु र चोर आधी रात के समय ीकीित
सेठानी के घर गया और अपनी चतुराई से हार चुराकर बाहर िनकल आया। हार के काश से
'यह चोर है ' ऐसा जानकर गृह के र कों तथा कोतवालों ने उसे पकडऩा चाहा। जब वह चोर
भागने म असमथ हो गया तब वा रषेणकुमार के आगे उस हार को डालकर िछपकर बैठ गया।
कोतवाल ने उस हार को वा रषेण के आगे पड़ा दे खकर राजा ेिणक से कह िदया िक 'राजन्!
वा रषेण चोर है ।' यह सुनकर राजा ने कहा िक इस मूख का म क छे दकर लाओ। चा ाल ने
वा रषेण का म क काटने के िलए जो तलवार चलाई तो वह उसके गले म फूलों की माला बन
गयी। उस अितशय को सुनकर राजा ेिणक ने जाकर वा रषेण से मा मां गी। िवद् यु र चोर
ने अभयदान पाकर राजा से जब अपना सब वृ ा कहा तब वह वा रषेण को घर ले जाने के
िलए उ त आ। पर ु वा रषेण ने कहा िक अब तो म पािणपा म भोजन क ं गा अथात्
िदग र मुिन बनूंगा। तदन र वह सूरसेन गु के समीप मुिन हो गया। एक समय वा रषेण
मुिन राजगृह के समीपवत पलाशकूट ाम म चया के िलए िव ए। वहाँ राजा ेिणक के
अि भूित म ी के पु पु डाल ने उ पडग़ाहा। चया कराने के बाद वह अपनी सोिम ा
नामक ी से पूछकर ामी का पु तथा बा काल का िम होने के कारण कुछ दू र भेजने
के िलए वा रषेण के साथ चला गया। अपने लौटने के अिभ ाय से वह ीरवृ आिद को
िदखाता तथ बार-बार मुिन को व ना करता था। पर ु मुिन हाथ पकडक़र उसे साथ ले गये
और धम का िविश उपदे श सुनाकर तथा वैरा उपजाकर उ ोंने उसे तप हण करा िदया।
तप धारण करने पर भी वह सोिम ा ी को नहीं भूलता था।
अव दे श की उ ियनी नगरी म ीवमा राजा रा करता था। उसके बिल, बृह ित, ाद
और नमुिच ये चार म ी थे। यहाँ एक समय शा ों के आधार, िद ानी तथा सात सौ मुिनयों
से सिहत अक नाचाय आकर उ ान म ठहर गये। अक नाचाय ने सम संघ को मना कर
िदया था िक राजािदक के आने पर िकसी के साथ वातालाप न िकया जावे, अ था सम संघ
का नाश हो जावेगा।
राजा अपने धवलगृह म बैठा था। वहाँ से उसने पूजा की साम ी हाथ म लेकर जाते ए
नाग रकों को दे खकर म यों से पूछा िक ये लोग कहाँ जा रहे ह, यह या ा का समय तो है
नहीं? म यों ने कहा िक नगर के बाहर उ ान म ब त से न साधु आये ह, ये लोग वहीं जा
रहे ह। राजा ने कहा िक हम भी उ दे खने के िलए चलते ह। ऐसा कहकर राजा म यों
सिहत वहाँ गया। एक-एक कर सम मुिनयों की व ना राजा ने की, पर ु िकसी ने भी
आशीवाद नहीं िदया। िद अनु ान के कारण ये साधु अ िन: ृह ह, ऐसा िवचार कर जब
राजा लौटा तो खोटा अिभ ाय रखने वाले म यों ने यह कहकर उन मुिनयों का उपहास िकया
िक ये बैल ह, कुछ भी नहीं जानते ह, मूख ह, इसिलए छल से मौन लेकर बैठे ह। ऐसा कहते
ए म ी राजा के साथ जा रहे थे िक उ ोंने आगे चया कर आते ए ुतसागर मुिन को दे खा।
दे खकर कहा िक 'यह त ण बैल पेट भरकर आ रहा है ।' यह सुनकर उन मुिन ने राजा के
म यों से शा ाथ कर उ हरा िदया। वािपस आकर मुिन ने ये सब समाचार अक नाचाय
से कहे । अक नाचाय ने कहा िक तुमने सम संघ को मरवा िदया। यिद शा ाथ के थान
पर जाकर तुम राि को अकेले खड़े रहते हो तो संघ जीिवत रह सकता है और तु ारे अपराध
की शु हो सकती है । तदन र ुतसागर मुिन वहाँ जाकर कायो ग से थत हो गये।
तदन र, कु जां गलदे श के ह नागपुर नगर म राजा महाप रा करते थे। उनकी रानी
का नाम ल ीमती था। उनके दो पु थे- प और िव ु। एक समय राजा महाप प नामक
पु को रा दे कर िव ु नामक पु के साथ ुतसागरच नामक आचाय के पास मुिन हो
गये। वे बिल आिदक आकर प राजा के म ी बन गये। उसी समय कु पुर के दु ग म राजा
िसहं बल रहता था। वह अपने दु ग के बल से राजा प के दे श म उप व करता था। राजा प
उसे पकडऩे की िच ा म दु बल होता जाता था। उसे दु बल दे ख एक िदन बिल ने कहा िक दे व!
दु बलता का ा कारण है ? राजा ने उसे दु बलता का कारण बताया। उसे सुनकर तथा आ ा
ा कर बिल वहाँ गया और अपनी बु के माहा से दु ग को तोडक़र तथा िसंहबल को
लेकर वापस आ गया। उसने राजा प को यह कहकर िसंहबल को सौंप िदया िक यह वही
िसंहबल है । राजा प ने स ु होकर कहा िक तुम अपना वा त वर मां गो। बिल ने कहा
िक जब मां गूगा, तब िदया जावे।
तदन र कुछ िदनों म िवहार करते ए वे अक नाचाय आिद सातसौ मुिन उसी ह नागपुर
म आये। उनके आते ही नगर म हलचल मच गयी। बिल आिद म यों ने उ पहचान कर
िवचार िकया िक राजा इनका भ है । इस भय से उ ोंने उन मुिनयों को मारने के िलए राजा
प से अपना पहले का वर मां गा िक हम लोगों को सात िदन का रा िदया जावे। तदन र
राजा प उ सात िदन का रा दे कर अ :पुर म चला गया। इधर बिल ने आतापनिग र पर
कायो ग से खड़े ए मुिनयों को बाड़ी से वेि त कर म प लगा य करना शु िकया। झूठे
सकौरे , बकरा आिद जीवों के कलेवर तथा धूम आिद के ारा मुिनयों को मारने के िलए ब त
भारी उपसग िकया। मुिन दोनों कार का सं ास लेकर थतर हो गये।
तदन र िमिथला नगरी म आधी रात के समय बाहर िनकले ए ुतसागरच आचाय ने
आकाश म काँ पते ए वण न को दे खकर अविध ान से जानकर कहा िक महामुिनयों पर
महान् उपसग हो रहा है । यह सुनकर पु धर नामक िव ाधर ु क ने पूछा िक 'कहाँ िकन
पर महान् उपसग हो रहा है ?' उ ोंने कहा िक ह नागपुर म अक नाचाय आिद सात सौ
मुिनयों पर। उपसग कैसे दू र हो सकता है ? ऐसा ु क ारा पूछे जाने पर उ ोंने कहा िक
'धरणीभूषण पवत पर िवि या ऋ के धारक िव ुकुमार मुिन थत ह। वे उपसग को न
कर सकते ह।' यह सुन ु क ने उनके पास जाकर सब समाचार कहे । 'मुझे िवि या ऋ
है ा?' ऐसा िवचारकर िव ुकुमार मुिन ने अपना हाथ पसारा तो वह पवत को भेदकर दू र
तक चला गया। प ात् िवि या का िनणय कर उ ोंने ह नागपुर जाकर राजा प से कहा
िक तुमने मुिनयों पर उपसग ों कराया? आपके कुल म ऐसा काय िकसी ने नहीं िकया। राजा
प ने कहा िक ा क ँ मने पहले इसे वर दे िदया था।
उसी समय अमरावती नगरी का रहने वाला िदवाकर दे व नाम का िव ाधर जो िक अपने
पुर र नामक छोटे भाई के ारा रा से िनकाल िदया गया था, अपनी ी के साथ मुिन की
व ना करने के िलए आया था। उसने उस बालक को उठाकर अपनी ी को सौंप िदया तथा
उसका नाम व कुमार रखकर चला गया। वह व कुमार कनक नगर म िवमल वाहन नामक
अपने मामा के समीप सम िव ाओं म पारगामी होकर म- म से त ण हो गया।
इसी बीच म मथुरा म एक अ कथा घटी। वहाँ पूितग राजा रा करता था। उसकी ी
का नाम उिवला था। उिवला स ि तथा िजनधम की भावना म अ लीन थी। वह
ितवष अ ाि क पव म तीन बार िजने दे व की रथया ा करती थी। उसी नगरी म एक
सागरद सेठ रहता था, उसकी सेठानी का नाम समु द ा था। उन दोनों के एक द र ा नाम
की पु ी ई।
एक िदन भरी जवानी म वह चै मास के समय झूला झूल रही थी िक उसे दे खकर राजा अ
िवरहाव था को ा हो गया। अन र म यों ने उसके िलए बौ साधु से याचना की। उसने
कहा िक यिद राजा हमारे धम को हण करे तो म इसे दे दू ं गा। राजा ने वह सब ीकृत कर
उसके साथ िववाह कर िलया। और वह उसकी अ ि य प रानी बन गयी।
+ अंगहीन स थ है -
+ लोक मूढ़ता -
कािन पुन ािन ीिण मूढािन यदमूढ ं त संसारो े दसाधनं ािदित चेदु ते,
लोकदे वतापाख मूढभेदात् ीिण मूढािन भव । त लोकमूढं ताव शय ाह-
लोकमूढं लोकमूढ म् ? िकम् ? आपगासागर ानम् आपगा नदी सागर: समु : त ेय:
साधनािभ ायेण य ानं न पुन: शरीर ालनािभ ायेण । तथा उ य: ूपिवधानम् । केषाम् ?
िसकता नां िसकता वालुका, अ ान: पाषाण ेषां । तथा िग रपातो भृगुपातािद: ।
अि पात अि वेश: । एवमािद सव लोकमूढं िनग ते ितपा ते ॥२२॥
आिदमित :
+ दे व मूढ़ता -
दे वतामूढं ा ातुमाह -
दे वतामूढं='तदु ते'। यदु पासीत आराधयेत् । का: दे वता: । कथ ूता: राग े षमलीमसा:
राग े षा ां मलीमसा: मिलना: । िकंिविश ा: ? आशावान् ऐिहकफलािभलाषी । कया ?
वरोपिल या वर वा तफल , उपिल या ा ुिम या । न ेवं ावकादीनां
शासनदे वतापूजािवधानािदकं स शन ानताहे तु: ा नोतीित चेत् एवमेतत् यिद
वरोपिल या कुयात् । यदा तु शासनस दे वता ेन तासां त रोित तदा न त ानताहे तु: ।
तत् कुवत दशनप पाता रमयािचतमिप ता: य ेव । तदकरणे चे दे वता िवशेषात्
फल ा िव तो झिटित न िस यित । न िह च वितप रवारापूजने सेवकानां च वितन:
सकाशात् तथा फल ा ा ॥२३॥
आिदमित :
+ गु मूढ़ता -
पाष मोहनं । ेयं ात म् । कोऽसौ ? पुर ार: शंसा । केषाम् ? पाष नां
िम ा ि िलि नाम् । िकंिविश ानाम् ? स ार िहं सानां ा दासीदासादय:,
आर ा कृ ादय: िहं सा अनेकिवधा: ािणिवधा: सह तािभवत इ ेवं ये तेषां । तथा
संसारावतवितनां संसारे आवत मणं ये ो िववाहािदकम ेषु वतते इ ेवं शीला ेषां ,
एतै िभमूढै रपोढ स ंस शनं संसारो ि कारणम् अ य स वत् ॥२४॥
आिदमित :
+ आठमद के नाम -
ानं पूजां कुलं जाितं, बलमृ ं तपो वपु:
अ ावाि मािन ं, यमा गत या: ॥२५॥
अ याथ : अपने [ ानं] ान, [पूजां] पूजा, [कुलं] कुल, [जाितं] जाित, [बलाम्] बल,
[ऋ म्] वैभव, [तप] तप [च] और [वपु:] प इन [अ ौ] आठों का [आि ] आ य
लेकर [मािन म्] गिवत होने को [ग मया:] गव से रिहत गणधर आिदक [ यम्] गव / मद
[आ :] कहते ह ॥२५॥
भाच ाचाय :
+ मद करने से हािन -
+ पाप ाग का उपदे श -
+स शन की मिहमा -
अमुमेवाथ दशय ाह --
+स शन की े ता -
दशनं कतृ उपा ुते ा ोित कम् ? सािधमानं साधु मु ृ ं वा । क ात् ? ानचा र ात् ।
यत सािधमानं त ा शनमुपा ुते । तत् त ात् । मो माग र या के दशनं कणधारं
धानं च ते । यथैव िह कणधार नौखेवटक कैवतक ाधीना समु परतीरगमने नाव:
वृि : तथा संसारसमु पय गमने स शनकणधाराधीना मो मागनाव: वृि : ॥३१॥
आिदमित :
िजस कार समु के उस पार जाने के िलए नाव को उस पार प ँ चाने म खेविटया-म ाह की
धानता होती है , उसी कार संसार-समु से पार होने के िलए मो माग पी नाव की वृि
स शन प कणधार के अधीन होती है । इसी कारण मो माग म ान और चा र की
अपे ा स शन को े ता या उ ृ ता ा होती है ।
+स शन के िबना ान चा र की अस वता -
+ ेय और अ ेय का कथन -
यत एवं तत:-
संसारी जीवों के िलए भूत, भिव त् और वतमान प तीनों कालों म और अधोलोक, म लोक
और ऊ वलोक के भेद से तीनों लोकों म स शन के समान े उ म क ाणकारक कोई
दू सरी व ु नहीं है । ोंिक स के रहने से गृह थ भी मुिन से अिधक उ ृ ता को ा
हो जाता है । तथा तीनों कालों और तीनों लोकों म िम ा के समान कोई भी अनुपकारक-
अक ाण द नहीं है , ोंिक उसके स ाव म त और संयम से स मुिन भी गृह थ की
अपे ा हीनता को ा होता है ।
+स ि के अनु ि के थान -
दशनपूता दशनेन पूता: पिवि ता: । दशनं वा पूतं पिव ं येषां ते । भव । मानवितलका:
मानवानां मनु ाणां ितलका म नीभूता मनु धाना इ थ: । पुनरिप कथ ूता इ ाह ओज
इ ािद ओज उ ाह: तेज: ताप: का वा, िव ा सहजा अहाया च बु :, वीय िविश ं साम यं
यशोिविश ा ाित: वृ : कल -पु पौ ािदस ि :, िवजय: परािभभवेना नो गुणो ष:,
िवभवो धनधा ािदस ि : एतै: सनाथा सिहता । तथा माहाकुला मह तत् कुलं च
माहाकुलं त भवा: महाथा महा ोऽथा धमाथकाममो ल णा येषाम् ॥३६॥
आिदमित :
दशनेन पूता: पिवि ता: अथवा दशनं पूतं पिव ं येषां ते इस समास के अनुसार जो
स शन से पिव ह अथवा िजनका स शन पिव है , वे जीव स शनपूत कहलाते ह
। ओज का अथ-उ ाह, तेज का अथ ताप या का है । ाभािवक अथवा िजसका हरण न
िकया जा सके ऐसी बु को िव ा कहते ह । ी, पु -पौ आिद की ा को वृ कहते ह।
दू सरे के ितर ार से अपने गुणों का उ ष करना िवजय है । धन-धा ािदक की ा
होना िवभव है । उ म कुल म उ ि होना महाकुल और धम, अथ, काम, मो प
पु षाथयु होना महाथ है । जो मनु ों म े - धान होते ह, वे मानवितलक कहलाते ह ।
इस कार पिव स ि जीव ओज आिद सिहत, उ कुलो चारों पु षाथ के साधक
तथा मनु ों म िशरोमिण होते ह ।
+स ि जीव इं पद पाते ह -
+स ि ही च वत होते ह -
+स ि ही तीथकर होते ह -
+स ि ही मो -पद ा करते ह -
'दशनं शरणं संसारापायप रर कं येषां ते' स शन ही िजनके शरण है यानी संसार के दु :खों
से र ा करने वाला है । अथवा 'दशन शरणं र णं य ते' िजनम स शन की र ा होती है
वे दशन शरण कहे जाते ह । ऐसे दशन के शरणभूत स ि जीव ही िशव-मो का अनुभव
करते ह । वह मो अजरवृ ाव था से रिहत है , अ ज-रोग रिहत है , अ य-िजसका कभी भी
य नहीं होता ऐसे अन चतु य के य से रिहत है । अ ाबाध है -- जो अनेक कार की
बाधा-दु :ख के कारणों से रिहत ह । िवशोकभयाशंक है -- शोक, भय तथा शंका से रिहत है ,
का ागत सुख िव ा िवभव है । जो परम कषता को ा ए सुख और ान के वैभव से
सिहत है तथा िवमल है -- -कम, भाव-कम- प मल से रिहत है ।
+ उपसंहार -
दे वे च मिहमानममेयमानम्,
राजे च मवनी िशरोचनीयम् ।
धम च मधरीकृतसवलोकम्,
ल ा िशवं च िजनभ पैित भ ः ॥४१॥
अ याथ : [िजनभ ] िजने भगवान का भ [भ ः] स ि पु ष [अमेयमानम्]
अप रिमत ित ा अथवा ान से सिहत [दे वे च मिहमानम्] इ समूह की मिहमा को
[अवनी िशरोचनीयम्] मुकुटब राजाओं के म कों से पूजनीय [राजे च म] च वत
के च -र को [च] और [अधरीकृतसवलोकम्] सम -लोक को नीचा करने वाले
[धम च म] तीथकर के धम-च को [ल ा] ा कर [िशवं] मो को [उपैित] ा
होता है ।
भाच ाचाय :
स ान-अिधकार
+स ान का ल ण -
अथ दशन पं धम ा ाय ान पं तं ा ातुमाह-
वेद वेि । य दा बु्रवते । ानं भाव ुत पम् । के ते ? आगिमन: आगम ा: । कथं वेद ?
िन:स े हं िन:संशयं यथा भवित तथा । िवना च िवपरीतात् िवपरीताि पययाि नैव
िवपयय व े दे ने थ: । तथा अ ूनं प रपूण सकलं व ु पं य े द तद् ानं न ूनं
िवकलं त पं य े द। तिह जीवािदव ु पेऽिव मानमिप सवथा
िन िणक ा ै तािद पं क िय ा य े ि तदिधकाथवेिद ात् ानं भिव ती ाह-
अनित र ं व ु पादनित र मनिधकं य े द त ानं न पुन ु पादिधकं
क नािश क तं य े द। एवं चैति शेषणचतु यसाम या थाभूताथवेदक ं त स वित
त शयित- याथात ं यथाव थतव ु पं य े द तद् ानं भाव ुतम्। त ू प ैव ान
जीवा शेषाथानामशेषिवशेषत: केवल ानवत् साक ेन प काशनसाम यस वात् ।
तदु म्-
+ थमानुयोग -
थमानुयोगमथा ानं च रतं पुराणमिप पु म्
बोिधसमािधिनधानं बोधित बोधः समीचीनः ॥२॥
अ याथ : [समीचीनः बोधः] स क् ुत ान [अथा ानं] परमाथ िवषय का कथन करने
वाले [च रतं] एक पु षाि त कथा और [पुराणम्] ेशठशलाका पु ष-स कथा प
[अिप] और [पु म्] पु वधक तथा [बोिध] ान और [समािध] समता के [िनधानं] खजाने
[ थमानुयोगम्] थमानुयोग को [बोधित] जानता है ।
भाच ाचाय :
त िवषयभेदाद् भेदान् पय ाह -
+ करणानुयोग -
तथा -
तथा तेन थमानुयोग कारे ण । मितमननं ुत ानम् । अवैित जानाित । कम् ? करणानुयोगं
लोकालोकिवभागं प सङ् हािदल णम् । कथ ूतिमव ? आदशिमव यथा आदश दपणो
मुखादे यथाव प काशक था करणानुयोगोऽिप िवषय ायं काशक: ।
लोकालोकिवभ े: लो े जीवादय: पदाथा य ासौ
लोक च ा रं शदिधकशत यप रिमतर ुप रमाण:, ति परीतोऽलोकोऽन मानाव
शु ाकाश प: तयोिवभ िवभागो भेद ा: आदशिमव । तथा युगप रवृ े: युग
काल ो िप ादे : प रवृि : परावतनं त ा आदशिमव। तथा चतुगतीनां च
नरकितय नु दे वल णानामादशिमव ॥३॥
आिदमित :
+ चरणानुयोग -
तथा-
स ानं भाव ुत पम् । िवजानाित िवशेषेण जानाित । कम् ? चरणानुयोगसमयं
चा र ितपादकं शा माचारा ािद । कथ ूतम् ? चा र ो ि वृ र ा ं
चा र ो ि वृ र ा च तासाम ं कारणम् अ ािन वा कारणािन े य । केषां
तद म्? गृहमे नगाराणां गृहमेिधन: ावका: अनगारा मुनय ेषाम् ॥४॥
आिदमित :
+ ानुयोग -
जीवाजीवसुत े पु ापु े च ब मो ौ च
ानुयोगदीपः ुतिव ालोकमातनुते ॥५॥
अ याथ : [ ानुयोगदीपः] ानुयोग पी दीपक [जीवाजीवसुत े] जीव, अजीव,
मुख त ों को [पु ापु े] पु और पाप को [ब मो ौ] ब और मो को तथा चकार से
आ व संवर और िनजरा को [ ुतिव ालोकम्] भाव- ुत ान- प काश को फैलाता आ
[आतनुते] िव ृत करता है ।
भाच ाचाय :
स क-चा र -अिधकार
+ चा र की आव कता -
+ चा र कब होता है ? -
िहं सादे : िनवतना ावृि : कृता भवित । कुत: ? राग े षिनवृ े: । अयम ता याथ:-
वृ रागािद योपशमादे : िहं सािदिनवृि ल णं चा र ं भवित । ततो भािवरागािदिनवृ ेरेव
कृ तर कृ तम ात् िहं सािद िनवतते । दे शसंयतािदगुण थाने
रागािदिहं सािदिनवृि ाव तते यावि :शेषरागािद य: त ा िन:शेषिहं सािदिनवृि ल णं
परमोदासीनता पं परमो ृ चा र ं भवतीित । अ ैवाथ समथनाथमथा र ासमाह-
अनपेि ताथवृि : क: पु ष: सेवते नृपतीन् अनपेि ताऽनिभलिषता अथ योजन
फल वृि : ा यन स तथािवध: पु ष: को, न कोऽिप े ापूवकारी, सेवते नृपतीन् ॥४८॥
आिदमित :
+ चा र का ल ण -
'चा र ं' भवित । कासौ ? 'िवरित' ्यावृि : । के : 'िहं सानृतचौय :' ? िहं सादीनां
पकथनं यमेवा े कार: क र ित । न केवलमेते एव िवरित :- अिप तु
'मैथुनसेवाप र हा ाम्' । एते : कथ ूते :? 'पाप णािलका :' पाप णािलका इव
पाप णािलका आ व ारािण ता : । क ते ो िवरित: ? 'सं ' स ानातीित स :
त हे योपादे यत प र ानवत: ॥४९॥
आिदमित :
+ चा र के भेद और उपासक -
सकलं िवकलं चरणं, त कलं सवस िवरतानाम्
अनगाराणां िवकलं, सागाराणां सस ानाम् ॥५०॥
अ याथ : [चरणं] चा र दो कार का कहा है -- [सकलं िवकलं] सकल-चा र और
िवकल-चा र । [तत्] इनम सकल चा र तो [सव] स ूण [स ] प र ह से [िवरतानाम्]
िवर , ऐसे [अनगाराणां] मुिन को कहा है और िवकल-चा र को [सस ानाम्] प र ह
सिहत [सागाराणां] गृह थ धारण करते ह ।
भाच ाचाय :
िहं सािदिवरितल णं य रणं ा िपतं तत् सकलं िवकलं च भवित । त सकलं प रपूण
महा त पम् । केषां त वित ? अनगाराणां मुनीनाम् । िकंिविश ानां सवस िवरतानां
बा ा रप र हरिहतानाम् । िवकलं प रपूणम् अणु त पम् । केषां त वित सागाराणां
गृह थानाम् । कथ ूतानाम् । कथ ूतानाम् ? सस ानां स ानाम् ॥
आिदमित :
+ िवकल चा र के भेद -
गृिहणां स ी यत् िवकलं चरणं तत् ेधा ि कारम् । ित ित भवित । िकं िविश ं सत् ?
अणुगुणिश ा ता कं सत् अणु त पं गुण त पं िश ा त पं सत् । यमेव ।
त ेकम् । यथासङ् म् । प ि चतुभदमा ातं ितपािदतम् । तथािह- अणु तं प भेदं
गुण तं ि भेदं िश ा तं चतुभदिमित ॥
आिदमित :
गृह थों का जो िवकल-चा र है , वह अणु- त, गुण- त और िश ा- त के भेद से तीन कार
का है । उन तीनों म ेक के म से पाँ च भेद, तीन भेद और चार भेद कहे गये ह । अथात्
पाँ च अणु- त, तीन गुण- त और चार िश ा- त- प भेद जानने चािहए ।
अणु त-अिधकार
+ अणु त का ल ण -
अणु तं िवकल तम् । िकं तत् ? यपुरमणं यावतनं यत् । के य: इ याह- ाणे यािद
ाणानािम यादीनामितपात चाितपतनं िवयोगकरणं िवनाशनम् । िवतथ याहारा च िवतथो
अस य: स चासौ याहार च श द:। तेयं च चौयम्। काम च मैथुनम्। मू छा च प र ह: मू छा
च मू ते लोभावेशात् प र ते इित मू छा इित यु प ते: । ते य: । कथ भूते य: ? थूले य: ।
अणु तधा रणो िह सवसाव िवरतेरस भवात् थूले य एव िहं सािद यो यपुरमणं भवित । स िह
स ाणाितपाता स ाणाितपाताि तो न थावर ाणाितपातात् । तथा पापािदभयात्
परपीडािदकारणिमित म वा थूलादस यवचनिन तो न तिद् वपरीतात् । तथा उपा ताया
अनुपा ताया च पराङ् गनाया: पापाभयािदना िन तो ना यथा इित थूल पात् प र हाि ि :
। कथ भूते य: ाणाितपातािद य: ? पापे य: पापा ण ारे य: ॥५२॥
आिदमित :
+ अिहं सा अणु त -
+ स ाणु त -
+ स ाणु त के अितचार -
+ अचौयाणु त -
अधुना चौयिवर णु त पं पय ाह --
अकृशचौय का अथ थूल चोरी है । दू सरे का रखा आ हो, पड़ा हो, भूला आ हो, वा
श सव पर र स ुचय के िलए है ऐसे धन को िबना िदये न यं लेता है और न उठाकर
अ को दे दे ता है । इस थूल चोरी से उपारमणं- िनवृ होना यह अचौयाणु त है ।
+ अचौयाणु त के अितचार -
चौर योगचौराथादानिवलोपस शस ाः
हीनािधकिविनमानं प ा ेये तीपाताः ॥५८॥
अ याथ : [चौर योग] चोरी म सहयोग दे ना, [चौराथादान] चोरी का माल खरीदना,
[िवलोप] रा -िव / गैर-कानूनी काय करना, [स शस ] अनुिचत लाभ के िलए
असली व ु म नकली व ु िमलाकर बेचना और [हीनािधक-िविनमान] नाप-तोल म हे रा-
फेरी करना, ये पाँ च [अ ेये] अचौयाणु त के [ तीपाताः] अितचार ह ।
भाच ाचाय :
त ैदानीमितचारानाह --
चोरी करने वाले चोर को यं ेरणा दे ना, दू सरे से ेरणा िदलाना और िकसी ने ेरणा दी
हो तो उसकी अनुमोदना करना चौर- योग है ।
चौराथादान िजसे अपने ारा ेरणा नहीं दी गई है तथा िजसकी अनुमोदना भी नहीं की गई
है , ऐसे चोर के ारा चुराकर लायी ई व ु को हण करना चौराथादान है । ोंिक चोरी
के माल को खरीदने से चोर को चोरी करने की ेरणा िमलती है ।
िवलोप उिचत ाय को छोडक़र अ कार के पदाथ का हण करना इसे िवलोप कहते
ह, इसे ही िव रा ाित म कहते ह । िजस रा म अ रा की व ुओं का आना-
जाना िनिष िकया गया है , उसे िव रा कहते ह । िव रा म महँ गी व ुएँ
अ मू म िमलती ह, ऐसा समझकर वहाँ मू म व ुओं को खरीदना और अपने
रा म अिधक मू म बेचना िव रा ाित म कहलाता है ।
स शस समान प रं ग वाली नकली व ु को असली व ु म िमलाकर असली व ु
के भाव से बेचना, जैसे घी म तैल आिद िमि त करके बेचना, कृि म-बनावटी सोना-चाँ दी
आिद के ारा दू सरों को धोखा दे ते ए ापार करना स शस कहलाता है ।
हीनािधकिविनमान िजससे व ुओं का लेन-दे न होता है इसको िविनमान कहते ह,
मानो ान भी कहते ह । िजसम भरकर या तौलकर व ु दी जाती है , उसे 'मान' कहते ह ।
जैसे- थ, तराजू आिद । और िजससे नापकर व ु ली या दी जाती है , उसे उ ान कहते
ह । जैसे -- गज, फुट आिद । िकसी व ु को दे ते समय कम दे ना हीन है और खरीदते
समय अिधक लेना हीनािधक मानो ान कहलाता है ।
अचौयाणु त का धारी मनु इन सब अितचारों से दू र रहकर अपने तों की सुर ा करता है ।
+ चय अणु त -
+ चयाणु त के अितचार -
+ प र ह प रमाण अणु त -
िव ेप का अथ अितचार है । िजस कार अिहं सािद अणु तों के पाँ च-पाँ च अितचार बतलाये
गये ह, उसी कार प र ह-प रमाणाणु त के भी पाँ च अितचार िनि त िकये गये ह। ोक म
आया आ च श 'अिप' अथ म यु आ है । वे अितचार इस कार ह --
+ पंचाणु त का फल -
िनरितचार पंच अणु त िनिधयों के समान ह । इस कार जो इनका अितचार रिहत प रपालन
करता है , वह िनयम से ग जाता है । ग म भव य अविध ान की ा होती है और
अिणमा, मिहमा, ग रमा, लिघमा, ा , ाका , ईिश और विश ये आठ ऋ याँ ा
होती ह तथा स धातु से रिहत िद वैि ियक शरीर ा होता है ।
+ पंचाणु त म िस नाम -
अ कथा
अ कथा
अ ा: कथा
प र हिवर णु ता य: पूजाितशयं ा : ।
अ कथा
धनदे व की कथा
ज ू ीप के पूव-िवदे ह े स ी पु लावती दे श म एक पु रीिकणी नामक नगरी है ।
उसम िजनदे व और धनदे व नामके दो अ पूँजीवाले ापारी रहते थे । उन दोनों म धनदे व
स वादी था । एक बार वे दोनों 'जो लाभ होगा, उसे आधा-आधा ले लगे' ऐसी िबना गवाह की
व था कर दू र-दे श गये । वहाँ ब त-सा धन कमाकर लौटे और कुशल-पूवक पु रीिकणी
नगरी आ गये । उनम िजनदे व, धनदे व के िलए लाभ का आधा भाग नहीं दे ता था । वह उिचत
समझकर थोड़ा-सा उसे दे ता था । तदन र झगड़ा होने पर ाय होने लगा । पहले
कुटु ीजनों के सामने, िफर महाजनों के सामने और अ म राजा के आगे मामला उप थत
िकया गया । पर ु िबना गवाही का वहार होने से िजनदे व कह दे ता िक मने इसके िलए लाभ
का आधा भाग दे ना नहीं कहा था । उिचत भाग ही दे ना कहा था । धनदे व स ही कहता था
िक दोनों का आधा-आधा भाग ही िनि त आ था । तदन र राजकीय िनयम के अनुसार उन
दोनों को िद ाय िदया गया । अथात् उनके हाथों पर जलते ए अ ारे रखे गये । इस िद
ाय से धनदे व िनद ष िस आ, दू सरा नहीं । तदन र सब धन धनदे व के िलए िदया गया
और धनदे व सब लोगों के ारा पूिजत आ तथा ध वाद को ा आ।
नीली की कथा
लाटदे श के भृगुक नगर म राजा वसुपाल रहता था । वहीं एक िजनद नामका सेठ रहता
था । उसकी ी का नाम िजनद ा था । उनके नीली नाम की एक पु ी थी, जो अ
पवती थी । उसी नगर म समु द नाम का एक सेठ रहता था, उसकी ी का नाम
सागरद ा था और उन दोनों के एक सागरद नाम का पु था । एक बार महापूजा के अवसर
पर म र म कायो ग से खड़ी ई तथा सम आभूषणों से सु र नीली को दे खकर
सागरद ने कहा िक ा यह भी कोई दे वी है ? यह सुनकर उसके िम ि यद ने कहा िक
यह िजनद सेठ की पु ी नीली है । नीली का प दे खने से सागरद उसम अ आस
हो गया और यह िकस तरह ा हो सकती है , इस कार उससे िववाह की िच ा से दु बल हो
गया । समु द ने यह सुनकर उससे कहा िक हे पु ! जैन को छोडक़र अ िकसी के िलए
िजनद इस पु ी को िववाहने के िलए नहीं दे ता है ।
तदन र वे दोनों िपता-पु कपट से जैन हो गये और नीली को िववाह िलया ।िववाह के प ात
वे िफर बु भ हो गये । उ ोंने नीली का िपता के घर जाना भी ब कर िदया । इस कार
धोखा होने पर िजनद ने यह कहकर स ोष कर िलया िक यह पु ी मेरे ई ही नहीं है अथवा
कुआ आिद म िगर गयी है अथवा मर गयी है । नीली अपने पित को ि य थी, अत: वह ससुराल
म िजनधम का पालन करती ई एक िभ घर म रहने लगी । समु द यह िवचारकर िक बौ
साधुओं के दशन से, उनके धम और दे व का नाम सुनने से काल पाकर यह बु की भ हो
जायेगी, एक िदन समु द ने कहा िक नीली बेटी! बौ साधु ब त ानी होते ह, उ दे ने के
िलए हम भोजन बनाकर दो । तदन र नीली ने बौ साधुओं को िनम त कर बुलाया और
उनकी एक-एक ाणिहता जूती को अ ी तरह पीसकर तथा मसालों से सुसं ृ त कर उ
खाने के िलए दे िदया । वे बौ साधु भोजन कर जब जाने लगे तो उ ोंने पूछा िक हमारी
जूितयाँ कहाँ ह ? नीली ने कहा िक आप ही अपने ान से जािनये, जहाँ वे थत ह । यिद ान
नहीं है , तो वमन कीिजये । आपकी जूितयाँ आपके ही पेट म थत ह । इस कार वमन िकये
जाने पर उनम जूितयों के टु कड़े िदखाई िदये । इस घटना से नीली के सुरप के लोग ब त
हो गये ।
जयकुमार की कथा
एवं प ानामिहं सािद तानां ेकं गुणं ितपा ेदानीं ति प भूतानां िहं सा तानां दोषं
दशय ाह --
अ ा: कथा
स घोषोऽनृता दु :खं ा :।
इ कथा
इ कथा
अ कथा
अ कथा
आिदमित :
धन ी की कथा
स घोषकीकथा
ज ू ीपकेभरत े स ीिसंहपुरनगरमराजािसंहसेनरहताथा।
उसकीरानीकानामरामद ाथा।उसीराजाकाएक ीभूितनामकापुरोिहतथा।
वहजनेऊमकचीबां धकरघूमाकरताथाऔरकहताथािकयिदमअस बोलूं,
तोइसकचीसेअपनीिज ाकाछे दकरलूं।
इसतरहकपटसेरहते एउसपुरोिहतकानामस घोषपड़गया।
लोगिव ासको ा होकरउसकेपासअपनाधनरखनेलगे।
वहउसधनमसेकुछतोरखनेवालोंकोदे देताथा, औरबाकी यं हणकरलेताथा।
लोगरोनेसेडरतेथेऔरकोईरोताभीथातोराजाउसकीसुनताहीनहींथा।
तापसकीकथा
व दे शकीकौशा ीनगरीमराजािसंहरथरहताथा।उसकीरानीकानामिवजयाथा।
वहाँ एकचोरकपटसेतापसहोकररहताथा।
वहदू सरे कीभूिमका शनकरता आलटकते एसींकेपरबैठकरिदनमप ाि तपकरताथाऔरराि मक
एकसमय‘नगरलुटगयाहै ’इसतरहमहाजनसेसुनकरराजानेको पालसेकहा- ‘रे को पाल!
सातराि केभीतरचोरकोपकड़लाओयािफरअपनािसरलाओ।’तदन रचोरकोनपाता आको पालिच
को पालनेकहा- ‘हे ा ण! तुमअिभ ायकोनहींजानते।
मुझेतो ाणोंकास े हहोरहाहै औरतुमभोजनमां गरहे हो?’
यहवचनसुनकर ा णनेपूछािकतु ाणोंकास े हिकसकारणहोरहाहै ?
को पालनेकारणकहा।
उसेसुनकर ा णनेिफरपूछा‘यहाँ ाकोईअ िन ृहवृि वालापु षरहताहै ?’
कोटपालनेकहािकिविश तप ीरहताहै , पर ुयहकायउसकाहो, ऐसास वनहींहै।
ा णनेकहािकवहीचोरहोगा, ोंिकवहअ िन: ृहहै ।इसिवषयममेरीकहानीसुिनये (१)
मेरी ा णीअपनेआपकोमहासतीकहतीहै औरकहतीहै िकमपर-
पु षकेशरीरका शनहींकरती।
यहकहकरती कपटसेसम शरीरकोकपड़े सेआ ािदतकरअपनेपु को नदे तीहै -
दू धिपलातीहै , पर ुराि मगृहकेवरे दीकेसाथकुकमकरतीहै ।
(२)
यहदे खमुझेवैरा उ होगयाऔरममागमिहतकारीभोजनकेिलएसुवणशलाकाकोबां सकीलाठीकेबीच
आगेचलनेपरमुझेएक चारीबालकिमलगया।वहहमारे साथहोगया।
मउसकािव ासनहींकरताथा, इसिलएउसलाठीकीबड़े य सेर ाकरताथा।
उसबालकनेताड़िलयाअथात्उसनेसमझिलयािकयहलाठीसगभाहै अथात्इसकेभीतरकुछधनअव है
एकिदनवहबालकराि मकु कारकेघरसोया। ात: वहाँ सेचलकरजबदू रआगया,
तबम कमलगे एसड़े तृणकोदे खकरकपटवशउसनेमेरेआगेकहािकहाय! हाय!
मदू सरे केतृणकोलेआया।
ऐसाकहकरवहलौटाऔरउसतृणकोउसीकु कारकेघरपरडालकरसायंकालकेसमयमुझसेआिमला,
जबिकमभोजनकरचुकाथा।वहबालकजबिभ ाकेिलएजानेलगा,
तबमनेसोचािकयहतोब तपिव है ,
इसतरहउसपरिव ासकरकु ेआिदकोभगानेकेिलएमनेवहलाठीउसकोदे दी।
उसेलेकरवहचलागया।
(३) तदन रमहाअटवीमजाते एमनेएकवृ प ीकाबड़ाकपटदे खा।
एकबड़े वृ परराि केसमयब तपि योंकासमूहएक आ।
उसमअ वृ प ीनेराि केसमयअपनीभाषामदू सरे पि योंसेकहािकहे पु ों!
अबमअिधकचलनहींसकता।कदािच भूखसेपीि़डतहोकरआपलोगोंकेपु ोंकाभ णकरनेलगं◌ू,
इसिलए ात:कालआपलोगहमारे मुखकोबाँ धकरजाइये।पि योंनेकहािकहायिपताजी!
आपतोहमारे बाबाह, आपमइसकीस ावनाकैसेकीजासकतीहै ? वृ प ीनेकहािक‘बुभुि त:
िकंनकरोितपापम्’भूख ाणी ापापनहींकरता?
इसतरह ात:कालसबप ीउसवृ केकहनेसेउसकेमुखकोबाँ धकरचलेगये।
वहबँध आवृ प ी,
सबपि योंकेचलेजानेपरअपनेपैरोंसेमुखबाब नदू रकरउनपि योंकेब ोंकोखागयाऔरजबउनकेआ
यमद कोतवालकीकथा
इस कारचतुथअ तकीकथापूण ई।
ुनवनीतकीकथा
इस कारउसकेपासजबएक थ माणघीहोगया,
तबवहघीकेबतनकोअपनेपैरोंकेसमीपरखकरतथाशीतकालहोनेसेझोंपड़ीके ारपरपैरोंकेसमीपअि रख
वहिब रपरपड़ा-पड़ािवचारकरताहै िकइसघीसेब तधनकमाकरमसेठहोजाऊँगा, िफरधीरे -
धीरे साम -महासाम , राजाऔरअिधराजाकापद ा कर मसेसबकाच वत बनजाऊँगा।
उससमयमसातख केमहलमश ातलपरपड़ार ँ गा।
चरणोंकेसमीपबैठी ईसु र ीमु ीसेमेरेपैरदाबेगीऔरम ेहवशउससेक ँ गािकतुझेपैरदबानाभीनही
ऐसाकहकरमपैरसेउसेताि़डतक ँ गा।
ऐसािवचारकरउसनेअपनेआपकोसचमुचहीच वत समझिलयाऔरपैरसेताि़डतकरघीकाबतनिगरािदय
उसघीसे ारपररखी ईअि ब तजोरसे िलतहोगयी। ारजलनेलगा,
िजससेइ ाओंकेप रमाणसेरिहतवहिनकलनेमअसमथहोवहींजलकरमरगयाऔरदु गितको ा आ।
+ ावक के आठ मूलगुण -
गुण त-अिधकार
+ गुण तों के नाम -
+ िद त का ल ण -
त िद त पं पय ाह --
दसों िदशाओं म सीमा िनधा रत करके ऐसा संक करना िक म इस सीमा से बाहर नहीं
जाऊंगा, इसे िद त कहते ह । िद त मरणपय के िलए धारण िकया जाता है । िद त का
योजन सू पापों से िनवृ होता है । अथात् मयादा के बाहर सवथा जाना-आना ब हो जाने
से वहाँ सू पाप की भी िनवृि हो जाती है ।
+ मयादा की िविध -
मकराकर समु को कहते ह । स रत्- गंगा, िस ु आिद निदयाँ । अटवी- द कवन आिद
सघन जंगल को कहते ह । िग र का अथ पवत है , जैसे स ाचल, िव ाचल आिद । जनपद का
अथ दे श है , जैसे- वराट, वापीतट आिद दे श । और योजन का अथ बीस योजन, तीस योजन
आिद। त दे ने वाले और त लेने वालों को िजसका प रचय हो, उ िस कहते ह । पूवािद
दशों िदशाओं स ी सीमा िनि त करने के िलए समु , नदी, जंगल, दे श और योजन आिद
को मयादा प से ीकार िकया है ।
+ िद ती के महा तपना -
जो मनु दसों िदशाओं म आने-जाने की मयादा करके मयादा के बाहर नहीं आता-जाता,
इसिलए थूल और सू दोनों ही कार के पाप छूट जाते ह । अतएव मयादा के बाहर अणु त
भी महा तपने को ा हो जाते ह ।
+ सो कैसे ? उसका समाधान -
+ िद त के अितचार -
ऊ ाध ाि य ितपाताः े वृ रवधीनाम्
िव रणं िद रतेर ाशाः प म े ॥७३॥
अ याथ : अ ान अथवा माद से [ऊ ] ऊपर, [अध ात्] नीचे [ितयग्] और समान
धरातल की [ ितपाताः] सीमा का उ ंघन करना, [ े वृ ] े की मयादा को बढ़ा लेना
और [अवधीनाम्] की ई मयादा को [िव रणम्] भूल जाना, ये [प ] पाँ च [िद रते:]
िद रित त के [अ ाशा:] अितचार [म े] माने जाते ह ।
भाच ाचाय :
िद त के पाँ च अितचार है । अ ान अथवा माद के ऊपर पवतािद पर चढ़ते समय, नीचे कुए
आिद म उतरते समय और ितयग् अथात् समतल पृ ी पर चलते समय की ई मयादा को
भूलकर सीमा का उ ंघन करना । माद अथवा अ ानता से िकसी िदशा का े बढ़ा लेना
और त लेते समय दसों िदशाओं की जो मयादा की थी, उसे भूल जाना । ये पाँ च अितचार
िद त के ह ।
+ अनथद त-
अ रं िदगवधेरपािथके ः सपापयोगे ः
िवरमणमनथद तं िवदु तधरा ः ॥७४॥
अ याथ : [ तधरा ः] त धारण करने वाले मुिनयों म धान तीथ र-दे वािद [िदगवधे:]
िद त की सीमा के [अ रं ] भीतर [अपािथके ः] योजन रिहत [सपापयोगे ः]
पापसिहत योगों से [िवरमणमन] िनवृ होने को [अनथद तं] अनथद त [िवदु :]
कहते ह ।
भाच ाचाय :
तधर का अथ पंचमहा तों को धारण करने वाले यित, मुिन, उनम जो धानभूत तीथ र-
दे वािद वे तधरा णी कहलाते ह । इस तरह तधा रयों म अ णी तीथ र-दे व ने अनथद -
त का ल ण इस कार बतलाया है िक िद त की मयादा के भीतर िन योजन, पाप प
मन-वचन-काय की िनवृि होती है और अनथद त म िद त की सीमा के भीतर होने वाले
पापपूण थ के काय से िनवृि होती है । यही इन दोनों म अ र है ।
+ अनथद के भेद -
+ पापोपदे श का ल ण -
त पापोदे श तावत् पं पय ाह --
जो उपदे श पाप को उ करने म कारण हो, उसे पापोपदे श कहते ह । उसके ितय ेशािद
भेद कहते ह, अथात् ितय ों को वश म करने की ि या ितय ेश है । जैसे -- हाथी आिद
को वश म करने की ि या । लेन-दे न आिद का ापार वािण है । ािणयों का वध करना
िहं सा है । खेती आिद का काय आर कहलाता है । तथा दू सरों को ठगने आिद की कला
ल न है । ितय ेश के समान मनु ेश भी होता है , अथात् मनु ों के साथ इस कार
की ि या करना िजनसे उनको दु :ख- ेश हो । इन सभी कार की कथा-वाताओं का स
उप थत करना अथात् बार-बार इनका उपदे श दे ना वह पापोपदे श नामक अनथद है ।
इनके प र ाग करने से पापोपदे श अनथद त होता है ।
िहं सा के उपकरण दू सरों को दे ना, इसे गणधरदे वािदकों ने िहं सादान कहा है । फरसा आिद
को परशु कहते ह । तलवार कृपाण है । पृ ी को खोदने के साधन कुदाली, फावड़ा आिद
खिन कहे जाते ह । अि को लन कहते ह। छु री, लाठी आिद आयुध ह । िवषसामा को
ी कहते ह और ब न का साधन सां कल है । ये सब िहं सा के कारण ह । इनको दू सरों के
िलए दे ना िहं सादान अनथद है , इसका ाग करना िहं सादान अनथद त है ।
+ अप ान अनथद -
इदानीमप ान पं ा ातुमाह --
+ दु : ुित अनथद -
आर स साहस - िम ा े षरागमदमदनै:
चेत: कलुषयतां ुित-रवधीनां दु: ुितभवित ॥७९॥
अ याथ : आरं भ, [संग] प र ह, साहस, िम ा , राग, े ष, [मदमदनै:] मद और कामभोग
लोभ आिद से [चेत:] मन को [कलुशयताम्] मिलन करने वाले ऐसे [अवधीनाम्] शा ों /
पु कों का [ ुित] सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु : ुित नाम का अनथद [भवित]
है ॥
भाच ाचाय :
सा तं दु : ुित पं पय ाह --
दु : ुितभवित । कासौ ? ुित: वणं । केषाम् ? अवधीनां शा ाणाम् । िकं कुवताम् ?
कलुषयतां मिलनयताम् । िकं तत् ? चेत: ोधमानमायालोभा ािव ं िच ं कुवतािम थ: । कै:
कृ े ाह -- आर े ािद आर कृ ािद: स प र ह: तयो: ितपादनं वातानीतौ
िवधीयते । 'कृिष: पशुपा ं वािण ं च वाता' इ िभधानात्, साहसं चा द् भुतं कम वीरकथायां
ितपा ते, िम ा ं चा ै त िणकिम ािद, माणिव ाथ ितपादकशा ेण ि यते, े ष
िव े षीकरणािदशा ेणािभधीयते राग वशीकरणािदशा ेण िवधीयते, मद 'वणानां ा णो
गु ' र ािद ा ायते, मदन रितगुणिवलासपताकािदशा ादु टो भवित तै: एतै: कृ ा
चेत: कलुषयतां शा ाणां ुितदु : ुितभवित ॥३३॥
आिदमित :
+ मादचया अनथद -
अधुना मादचया पं िन पय ाह --
+ अनथद त के अितचार -
क प कौ ु ं मौखयमित साधनं प
असमी चािधकरणं तीतयोऽनथद कृि रतेः ॥८१॥
अ याथ : [क प] हं सी करते ए अिश वचन बोलना, [कौ ु ं] शरीर की कुचे ा
करना, [मौखयम्] बकवास करना, [अित साधनं] भोगोपभोग की साम ी का अिधक सं ह
करना [च] और [असमी अिधकरणं] िबना योजन के ही िकसी काय का अिधक आर
करना ये [प ] पाँ च अनथद -िवरित- त के [ तीतय:] अितचार ह ।
भाच ाचाय :
भोगोपभोगप रमाणं भवित । िकं तत् ? य रसङ् ानं प रगणनम् । केषाम् ? अ ाथाना
िम यिवषयाणां कथ ूतानामिप तेषाम् ? अथवतामिप सुखािदल ण योजनसपादकानामिप
अथवाऽथवतां स ामिप ावकाणाम् । तेषां प रसङ् ानम् । िकमथम् ? तनूकृतये
कृशतर करणाथम् । कासाम् ? रागरतीनां रागेण िवषयेषु रागो े केण रतय:
आस य ासाम् । क न् सित ? अवधौ िवषयप रमाणे ॥
आिदमित :
+ भोग-उपभोग के ल ण -
जो पदाथ एक बार भोगकर छोड़ िदये जाते ह, वे पुन: काम म नहीं आते, ऐसी भोजन, पु ,
ग और िवलेपन आिद व ुएँ भोग कहलाती ह तथा जो पहले भोगी ई व ु बार-बार भोगने
म आवे, वह उपभोग है । जैसे -- व , आभूषण आिद। इन भोग और उपभोग की व ुओं का
िनयम करना भोगोपभोग प रमाण त कहलाता है ।
+ सवथा ा पदाथ -
वजनीयम् । िकं तत् ? ौ ं मधु । तथा िपिशतं । िकमथम् ? सहितप रहरणाथ सानां
ी यादीनां हितवध रहरणाथम् । तथा म ं च वजनीयम् । िकमथम् ? मादप र तये
माता भायित िववेकाभाव: माद प र तये प रहाराथम् । कैरे त जनीयम् ?
शरणमुपयातै: शरणमुपगतै: । कौ ? िजनचरणौ ावकै ा िम थ: ॥
आिदमित :
िजने भगवान् के चरणों की शरण लेने वाले ावक को ी यािद स जीवों की िहं सा से
बचने के िलए मधु और मां स का ाग करना चािहए तथा माद से बचने के िलए मिदरा-शराब
का ाग करना चािहए । यह माता है या ी इस कार के िववेक के अभाव को माद कहते
ह।
+अ ा पदाथ -
तथैतदिप तै ा िम ाह --
अवहे यं ा म् । िकं तत् ? मूलकम् । तथा वेरािण आ ् रकािण । िकं िविश ािन ?
आ ् रािण अशु ािण । तथा नवनीतं च । िन कुसुमिम ुपल णं सकलकुसुमिवशेषाणां
तेषाम् । तथा कैतकं केत ा इदं कैतकं गुधरा इ ेवम्, इ ािद सवमवहे यम् । क ात्
अ फलब िवघातात् । अ ं फलं य ासाव फल:, ब नां सजीवानां िवघातो िवनाशो
ब िवघात: अ फल ासौ ब िवघात त ात् ॥३९॥
आिदमित :
मूली, गीला अथात् िबना सूखा अदरक तथा उपल ण से आलू, सकरक , गाजर, अरबी
इ ािद म न, नीम के फूल, उपल ण से सभी कार के फूल तथा केवड़ा के फूल, इसी
कार और भी अ ऐसे पदाथ िजनके सेवन से फल तो अ हो और ब त जीवों का घात हो,
वे छोडऩे यो ह ।
+ त का प-
+ यम और िनयम -
त ि धा िभ त इित --
+ भोगोपभोग साम ी -
िश ा त-अिधकार
+ िश ा त -
सा तं िश ा त पणाथमाह --
+ दे शावकािशक िश ा त -
+ दे श त म मयादा की िविध -
अथ दे शावकािशक का मयादा इ ाह --
+ दे श त म काल मयादा -
+ यह त भी उपचार से महा त है -
दे शावकािशक त म गृह आिद और वष, मास आिद काल की अपे ा जो सीमा िनधा रत की
थी, उसके आगे थूल और सू दोनों कार से िहं सािद पंच पापों का पूण प से ाग हो जाने
से सीमा के बाहर िद त के समान दे शावकािश त म महा त की िस होती है ।
+ दे शावकािशक त के अितचार -
+ सामाियक िश ा त -
आसमयमु मु ं प ाघानामशेषभावेन
सव च सामियकाः सामियकं नाम शंस ॥९७॥
अ याथ : [सामियकाः] सामाियक के ाता गणधरदे वािदक [अशेषभावेन] मन-वचन-काय
और कृत-का रत-अनुमोदना से [सव ] सब जगह [आसमयमु ] सामाियक के िलए िनि त
समय तक [प ाघानाम] पाँ च पापों के [मु ं] ाग करने को [सामियकं] सामाियक नाम
का िश ा त [शंस ] कहते ह ।
भाच ाचाय :
+ समय श की ु ि -
+ सामाियक यो थान -
सामाियक के िलए एका थान होना चािहए । एका का अथ है , िजस थान म ी, पशु
और नपुंसक आिद का आवागमन न हो । िन ्या ेप अथात् िच को ाकुल करने वाले शीत,
वायु तथा डां स म र आिद की बाधा से रिहत हो, एका थान चाहे अटवी हो या घर,
दे व थान अथवा अिप श से पवत, गुफा आिद कोई भी थान हो, वहाँ पर स िच होकर
सामाियक करना चािहए । स िधया श का ' स ा-अिवि ा धीय स स धी ेन' इस
कार ब ीिह समास और ' स ा चासौ धी इित स धी या' इस कार कमधारय समास
भी होता है । इस िवशे और हे तु को बतलाया है ।
एतदे व समथयमान: ाह --
िजस समय गृह थ सामाियक करता है , उस काल म उसके खेती आिद के आर से सिहत
सभी बिहरं ग-अ रं ग तथा चेतन-अचेतन प र ह नहीं होते ह । इसिलए वह गृह थ सामाियक
अव था म उपसग से व ा ािदत मुिन के समान मुिनपने को ा होता है ।
सामाियक म थत गृह थ इस कार िवचार करे - अपने उपािजत कम के ारा जीव चारों
गितयों म मण करता है , वह भव कहलाता है । इस भव-संसार म मृ ु से बचाने वाला कोई
भी र क नहीं है । अशुभ कारणों से उ होने तथा अशुभ काय को करने के कारण अशुभ
है । चारों गितयों म प र मण करने का काल िनयत होने से अिन है । दु :ख का कारण होने
से दु :ख प है और आ प से िभ होने के कारण अना ा है । ऐसी संसार की थित है
तथा म इस संसार म थत ँ , इस कार का िवचार सामाियक म थत ावक करे । तथा मो
इस संसार के िवपरीत है अथात् शरण प है , शुभ है , िन ािद प है । इस कार मो के
प का भी िवचार करे ।
+ सामाियक के अितचार -
सा तं सामाियक ातीचारानाह --
सामाियक के पाँ च अितचार कहते ह, यथा- मनदु िणधान, वचनदु िणधान, कायदु िणधान
इन तीन योगों की खोटी वृि प तीन अितचार और अनादक तथा अ रण-एका ता का
अभाव ये सब िमलकर सामाियक के पाँ च अितचार ह ।
+ ोषधोपवास िश ा त -
पव ां च ात ः ोषधोपवास ु
चतुर वहा ाणां ा ानं सदे ािभः ॥१०६॥
अ याथ : [पविण] चतुदशी [च] और [अ ां] अ मी के िदन [सदा] हमेशा के िलए
[इ ािभः] तिवधान की वा ा से [चतुर वहा ाणां] चार कार के आहारों का
[ ा ानं] ाग करना [ ोषधोपवास:] ोषधोपवास [ ात ः] जानना चािहए ।
भाच ाचाय :
ोषधोपवास: पुन ्ञात : । कदा ? पविण चतुद ाम् । न केवलं पविण, अ ां च । िकं
पुन: ोषधोपवासश ािभधेयम् ? ा ानम् । केषाम् ? चतुर वहायाणां च ा र
अशनपानखा ले ल णािन तािन चा वहायािण च भ णीयािन तेषाम् । िकं
क ाि दे वा ां चतुद ां च तेषां ा ानिम ाह- सदा सवकालम् । कािभ:
इ ािभ तिवधानवा ािभ ेषां ा ानं न पुन ्यवहार कृतधरणकािदिभ: ॥
आिदमित :
उपवास करने वाले को उपवास के िदन िहं सा, झूठ, चोरी, कुशील और प र ह इन पाँ च
पापों का ाग करना चािहए । तथा शरीर-स ा, वािण ािद ापार, ग पु आिद के योग
का और ान, अ न, न ािद के सेवन का ाग करना चािहए । यह सब उपल ण ह, अत:
इसम गीत, नृ ािद राग के सभी कारणों का ाग भी आ जाता है ।
+ उपवास के िदन कत -
उपवस ुपवासं कुवन् । धमामृतं िपबतु धमम् एवामृतं सकलपािणनामा ायक ात् तत् िपबतु ।
का ाम् ? वणा ाम् । कथ ूत: ? सतृ : सािभलाष: िपबन् न पुन परोधािदवशात् ।
पाययेद् वा ान् मेवावगतधम प ु अ तो धमामृतं िपबन् अ ानिविदतत पान्
पाययेत् तत् । ान ानपरो भवतु, ानपरो ादशानु े ाद् युपयोगिन : ।
अधुरवाशरणे
् चैव भव एक मेव च
+ ोषध और उपवास का ल ण -
आहार चार कार का है - अशन, पान, खा , ले । भात, मूंग आिद अशन कहलाते ह । छाछ
आिद पीने यो व ु पेय कहलाती है । लड् डू आिद खा ह । रबड़ी आिद चाटने यो पदाथ
ले ह । इन चारों कार के आहार का ाग करना उपवास कहलाता है । एक बार भोजन
करने को ोषध कहते ह । धारणा के िदन एकाशन और पव के िदन उपवास करना पुन:
पारणा के िदन एकाशन करना ोषधोपवास कहलाता है ।
+ ोषधोपवास त के अितचार -
अथ केऽ ातीचारा इ ाह --
+ वैयावृ का ल ण -
+ वैयावृ का दू सरा ल ण -
+ दान का ल ण -
अथ िकं दानमु त इ त आह --
ा तुि भ िव ानमलु ता मा स म्
स शनािद गुण से सिहत मुिनयों का आहार आिद दान के ारा जो गौरव और आदर िकया
जाता है , वह दान कहलाता है । जीवघात के थान को सूना कहते ह । सूना के पाँ च भेद ह ।
जैसे िक कहा है -- ख नी-ऊखली से कूटना, पेषणी-च ी से पीसना, चु ी-चू ा जलाना,
उदकु -पानी भरना और मािजनी-बुहारी से जमीन झाडऩा । गृह थ के पाँ च िहं सा के काय
होते ह, इसिलए गृह थ मो को ा नहीं कर सकता । खेती आिद ापार स ी काय
आर कहलाते ह । जो पंचसूना और आर से रिहत ह, वे साधु ह । ऐसे साधुओं को सात
गुणों से सिहत दाता के ारा दान िदया जाता है । जैसा िक कहा है -- ा, स ोष, भ ,
िव ान, अलु ता, मा, स ये सात गुण िजस दाता के होते ह, वह दाता शंसनीय कहलाता
है । इन सात गुणों के िसवाय दाता की शु होना भी आव क है । दाता की शु ता तीन
कार से बतलाई है , कुल से, आचार से और शरीर से । िजसकी वंश पर रा शु है , वह
कुलशु कही जाती है । िजसका आचरण शु है , वह आचार शु है । िजसने ानािद कर
शु व पहने ह, जो हीनां ग, िवकलां ग नहीं है तथा िजसके शरीर से खून पीपािद नहीं झरते
हों, वह कायशु है । दान, नवधाभ पूवक िदया जाता है । कहा भी है -- पडग़ाहन,
उ थान, पाद ालन, पूजन, णाम, मनशु , वचनशु , कायशु और आहारशु
पु ोपाजन के इन नौ कारणों के साथ आहारदान िदया जाता है । यही नवधाभ कहलाती है
।
+ दान का फल -
िवमा ्िट े टयित । खलु ु टम् । िकं तत् ? कम पाप पम् । कथ ूतम् ? िनिचतमिप
उपािजतमिप पु मिप वा । केन ? गृहकमणा साव ापारे ण । कासौ क ्री ? ितपूजा दानम्
। केषाम् ? अितथीनां न िव ते ितिथयषां तेषाम् । िकंिविश ानाम् ? गृहिवमु ानां
गृहरिहतानाम् । अ ैवाथ समथनाथ ा माह -- िधरमलं धावते वा र । अलंश ो यथाथ
। अयमथ िधरं यथा मिलनमपिव ं च वा र कतृ िनमलं पिव ं च धावते ालयित तथा दानं
पापं िवमाि ॥
आिदमित :
िजनके सभी ितिथयाँ एक समान ह, ऐसे गृह ागी अितिथयों को दान दे ने से पाप प
ापारािद काय से उपािजत िकये ए घोर पाप भी न कर िदये जाते ह । इसी अथ का
समथन करने के िलए ा दे ते ह -- िजस तरह मिलन र को पिव जल धो डालता है ,
उसी कार दान दे ने से पापकम न हो जाते ह ।
+ नवधा भ का फल -
+अ दान से महाफल -
आिदमित :
+ दान के भेद -
ीषेणवृषभसेने कौ े शः सूकर ा ाः
वैयावृ ैते चतुिवक म ाः ॥११८॥
अ याथ : ीषेण राजा आहार दान के फल से ी शां ितनाथ तीथकर ये ह। वृषभसेना ने
औषिधदान के भाव से अपने शरीर के िशत जल से ब तों के दु :ख दू र िकये ह। कोंडेश ने
मुिन को शा दान दे कर अपने ुत ान को पूण कर िस पाई है और सूकर ने मुिन को
अभयदान दे ने के पु से दे वगित को ा िकया है ।
भाच ाचाय :
कु मिण ामे गोपालो गोिव नामा। तेन च कोटरादु द्धृ िचर नपु कं पू भ ा
प न मुनये द म् । तेन पु केन त ाट ां पूवभ ारका: केिचत् िकल पूजां कृ ा कारिय ा
च ा ानं कृतव : कोटरे च गतव । गोिव े न च वा ा भृित तं ा िन मेव पूजा
कृता वृ कोटर ािप । एष स गोिव ो िनदानेन मृ ा त ैव ामकूट पु ोऽभूत् । तमेव
प न मुिनमालो जाित रो जात: । तपो गृही ा को े शनामा महामुिन: ुतधरोऽभूत्।
इित ुतदान फलम् ।
+ दानों म िस नाम -
इ ािदक दे वों के ारा व नीय अरह भगवान् दे वािधदे व कहलाते ह । उनके चरणकमल
वा त फल दे ने वाले ह और कामदे व को िव ंस करने वाले ह । इसिलए गृह थों को चािहए
िक वे आदरपूवक ितिदन अरह दे व की पूजा कर, ोंिक उनकी पूजा सम दु :खों का
नाश करने वाली है ।
+ पूजा का माहा -
अ कथा
मढक की कथा
+ वैयावृ के अितचार -
आिदमित :
स ेखना-अिधकार
+स ेखना का ल ण -
आया गणधरदे वादय: स ेखनामा : । िकं तत् ? तनुिवमोचनं शरीर ाग: । क न् सित ?
उपसग ितय नु दे वाचेतनकृते । िन: तीकारे तीकारागोचरे । एत िवशेषणं
दु िभ जरा जानां ेकं स नीयम् । िकमथ ति मोचनम् ? धमाय र याराधनाथ न पुन:
पर ह ा थम् ॥
आिदमित :
+स ेखना की आव कता -
भाच ाचाय :
स ेखनायां भ ैिनयमेन य : क त :, यत :-
आिदमित :
आिदमित :
+ ा ाय का उपदे श -
आिदमित :
+ भोजन के ाग का म-
आिदमित :
खरपानहापनामिप, कृ ा कृ ोपवासमिप श ा
प नम ारमना नुं जे व-य ेन ॥१२८॥
अ याथ : [खरपानहापनामिप] गम जल का भी ाग [कृ ा] करके [श ा] श के
अनुसार [उपवासमिप] उपवास भी [कृ ा] करके [सवय ेन] पूण त रता से
[प नम ारमना:] प नम ार मं म मन लगाता आ [तनुं] शरीर को [ जेत्] छोड़े ।
भाच ाचाय :
आिदमित :
आिदमित :
+स ेखना का फल -
+ मो का ल ण -
आिदमित :
+ मु जीवों का ल ण -
+ िवकार का अभाव -
बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक क काल होता है । ऐसे सकड़ों क कालों के बीत जाने पर
भी िस जीवों म कोई िवकार लि त नहीं होता । तथा तीनों लोकों म ोभ उ करने म
समथ ऐसा भी उ ात यिद हो जावे, तो भी िस ों म कोई िवकार नहीं होता, इस कार की
िस जीवों की अव था होती है ।
आिदमित :
+ स म का फल -
एवं स ेखनामनुित तां िन: ेयसल णं फलं ितपा अ ुदयल णं फलं ितपादय ाह-
+ ारह ितमा -
+ दशन ितमा -
स शनशु :, संसारशरीर-भोगिनिव :
प गु चरणशरणो, दशिनक पथगृ : ॥१३७॥
अ याथ : [स शनशु :] जो स शन से शु है , [संसारशरीर-भोगिनिव :]
संसार शरीर और भोगों से िवर है , [प गु चरणशरणो] प परमेि यों के चरणों की शरण
िजसे ा ई है तथा [त पथगृ :] त -पथ की ओर जो आकिषत है , [दशिनक:] वह
दाशिनक ावक है ।
भाच ाचाय :
एतदे व दशय ाह --
आिदमित :
+ त ितमा -
तािन य स ीित ितको मत: । केषाम् ? ितनां गणधरदे वादीनाम् । कोऽसौ ? िन:श ो,
माया-िम ा-िनदानश े ो िन ा ो िन:श : सन् योऽसौ धारयते। िकं तत् ?
िनरित मणमणु तप कमिप प ा णु तािन िनरितचारािण धारयते इ थ: । न केवलमेतदे व
धारयते अिप तु शीलस कं चािप ि : कारगुण तचतु: कारिश ा तल णं शीलम् ॥
आिदमित :
' तािन य स ीित ती' िजसके त होते ह, वह ती कहलाता है , ऐसा गणधरदे वािदकों ने
कहा है । ती श से ाथ म 'क' य होकर ितक श बना है । माया-िम ा-िनदान ये
तीन श ह । इन तीनों श ों के िनकलने पर ही ती हो सकता है , इन तीन श ों से रिहत
होता आ जो अितचार रिहत पाँ च अणु तों को धारण करता है तथा तीन गुण त और चार
िश ा त के भेद से सात शीलों को भी जो धारण करता है , वह ितक ावक कहलाता है ।
+ सामाियक ितमा -
आिदमित :
+ ोषध ितमा -
आिदमित :
+ सिच ाग ितमा -
सोऽयं ावक: सिच िवरितगुणस : । योनाि नभ यित । कानी ाह- मूले ािद-
मूलंचफलंचशाक शाखा कोपला: करीरा वंशिकरणा:
क ा सूनािनचपु ािणबीजािनचता ेतािनआमािनअप ािनयोनाि । कथ ूत: सन् ?
दयामूित: दया प: सक णिच इ थ: ॥
आिदमित :
गाजर, मूली आिद मूल कहलाते ह । आम, अम द आिद फल ह, प ी वाले शाक भाजी
कहलाते ह । वृ की नई कोंपल शाखा कहलाती है । बाँ स के अंकुर को करीर कहते ह,
जमीन म रहने वाले अंगीठा आिद को क कहते ह । गोभी आिद के फूल को सून कहते ह
और गे ँ आिद को बीज कहा जाता है । ये सब अप अव था म सिच सजीव रहते ह, अत:
दयामूित-दया का धारक ावक इ नहीं खाता है ।
+ राि भु ाग ितमा -
आिदमित :
+ चय ितमा -
आिदमित :
+ आर ाग ितमा -
आिदमित :
आिदमित :
अब दस कार का बा प र ह बतलाते ह --
+ अनुमित ाग ितमा -
सा तमनुमितिवरितगुणं ावक पय ाह -
आिदमित :
+ उि ाग ितमा -
आिदमित :
+ े ाता कौन है ? -
यिदसमयम्आगमंजानीतेआगम ोयिदभविततदाधुरवं
् िन येन ेयो ाताउ ृ ातासभवित ।
िकंकुवन् ? िनि न् । कथिम ाह - पापिम ािद - पापमधम ऽराित:
श ुज व ानेकापकारक ा धम ब ुज व ानेकोपकारक ािद ेवंिनि न् ॥
आिदमित :
यिद ावक आगम को जानने वाला है तो उसको यह िन य है िक पाप / अधम / िम ादशन,
िम ा ान और िम ाचा र जीव का श ु है , ोंिक यह अनेक कार से अपकार करने वाला
है और धम-स शन, स ान, स ार प प रणित अनेक उपकार का कारण होने
से जीव की ब ु है । तब वह े ाता होता है ।
+र य का फल -
येनभ ेन यम्आ ा यंश ोऽ ा वाचक: नीत: ािपत: । किम ाह- वीते ािद,
िवशेषेणइतोगतोन :
कल ोदोषोयासां ता तािव ा ि ि या ानदशनचा र ािणतासां कर भावंतंभ म्आयाितआग ि
। कासौ ? सवाथिस : धमाथकाममो ल णाथानां िस िन ि : क ्री । कयेवायाित ?
पती येव य रिवधाने येव । ? ि षुिव पेषुि भुनवेषु ॥
आिदमित :
+इ ाथना -
सुखयतु सुखभूिम: कािमनं कािमनीव,
सुतिमव जननी मां शु शीला भुन ु
कुलिमव गुणभूषा, क का स ुनीतात्-
िजनपितपदप - ेि णी ि ल ी: ॥१५०॥
अ याथ : [िजनपितपदप ेि णी] िजने दे व के चरण-कमलों का अवलोकन करने वाली
ऐसी यह [ ि ल ी:] स शन पी ल ी [सुखभूिम:] सुख की भूिम ऐसी कािमनी के
स श [मां] मुझे [सुखयतु ] सुखी करे जैसे [कािमनी] ी [कािमनिमव] कामी पु ष को,
[भुन ु] रि त करे , िजस तरह की [शु शीला जननी] शु शीलवती माता जैसे [सुतिमव]
अपने पु का [स ुनीतात्] पालन करती है तथा [गुणभूषाक का] गुणों से भूिषत क ा
जैसे अपने [कुलम्] कुल को पिव करती है वैसे ही वह मुझे पिव करे ॥
भाच ाचाय :
आिदमित :