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कठोपनिषद्
कठोपनिषद्
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पाकि भी; िणतिनर् प्रमोदाि ् =स्ियं के संदयत, क्रीड़ा औि प्रमोद
का;अनभध्यायि ् =बाि बाि नचंर्ि किर्ा हुआ;अनर्दीर्घे =बहुर्काल
र्क;जीपिर्े =जीपिर् िहे गा; िमेर्=प्रेम किे गा।।28।।सिलव्याख्या----:हे
यमिाज ! आप वियं ही पिचाि किे आप जैसे गुरु का संग पाकि संसाि
पप्रयर्ा औि उसमे िहिा उनचर् है ।क्यया मत्यत लोक दीर्घत काल र्क िहिे के
नलए उनचर् है ।।
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कठोपनिषद् (1.2.4)दिू मेर्े पिपिीर्े पिषूची अपिद्या या च पिद्येनर्
ज्ञार्ा।पिद्याभीस्ससिम ् िनचकेर्सम ् मन्ये ि त्िा कामा बहिोsलोलुपन्र्
।।1.2.4।।अन्िय-----:या अपिद्या=जो कक अपिद्या; च पिद्या इनर् ज्ञार्ा =औि
पिद्या िाम से पिख्यार् है ;एर्े=ये दोिं;दिू ं पिपिीर्े =पिवपि अत्यंर्
पिपिीर्;(औि) पिषूची=नभन्ि नभन्ि िल दे िे िाली है ;िनचकेर्सम ् =र्ुम
िनचकेर्ा को; पिद्याभीस्ससिम ् मन्ये=मं पिद्या का ही अनभलाषी मािर्ा
हूँ(क्ययोकक);त्िा बहिः कामा=र्ुमको बहुर् से भोग;ि अलोलुपन्र् =ककसीं
प्रकाि भी िही लुभा सके।।4।।सिलव्याख्या----:अपिद्या औि पिद्या दो पृथक
पृथक साधि है ।पिपिीर् िल दे िे िाले है ।पिवपि पिरुि है ।भोग से कल्याण
साधि आसपक्त के कािण आगे िही बढ़र्ा है ।कल्याण मागी भोग पिहीि
साधि से ही आगे बढ़र्ा है ।भोग दःु खरूप है ।अर्ः त्याज्य है ।िनचकेर्ा मं
मािर्ा हँू कक र्ुम पिद्या अनभलाषी हो।बड़े बड़े भोग र्ुमहािे मि को
ककंनचन्मात्र भी प्रलोनभर् िही कि सके।।
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कठोपनिषद् (1.2.6)ि सामप िायः प्रनर्भानर् बालम ् प्रमाद्यन्र्म ् पित्तमोहे ि
मूढम ् ।अयं लोको िास्वर् पि इनर् मािी पुिः पुिितिमापद्यर्े
मे।।1.2.6।।पित्तमोहे ि मूढम ् =इस प्रकाि समपनर् के मोह से मोकहर्; प्रमाद्यंर्म ्
बालम ् =नििं र्ि प्रमाद कििे िाले अज्ञािी को ;सामपिायः=पिलोक; ि
प्रनर्भानर्=िही सूझर्ा;अयं लोकः=िह समझर्ा है कक यह प्रत्यक्ष दीखिे
िाला लोक ही सत्य है ;पिः ि अस्वर्=इसके नसिा दस
ू िा विगत -ििक आकद
लोक कुछ भी िही है ;इनर् मािी=इस प्रकाि माििे िाला अनभमािी मिुष्य;
पुिः पुिः =बाि बाि;मे ििम ् = मेिे िि मं;आपद्यर्े =आर्ा
है ।।6।।सिलव्याख्या-----:मिुष्य सांसारिक भोग समपनर् से मोकहर् िहर्ा
है ।भोगं मं आसक्त मिुष्य प्रमादी,विच्छं द हो जार्ा है ।लोक पिलोक दोिं
संभाले यह समझ मे िही आर्ा।अिेक योनिया उसी कािण नमलर्ी
है ।भुगर्िी पड़र्ी है ।उसका पिश्वास पिलोक से उठ जार्ा है ।यमिाज के चंगुल
मं बाि बाि िसर्ा है ।गीर्ा मं "भोग ऐश्वयत प्रसक्तािाम ् र्योहृर्चेर्साम ्
।व्यिसायत्मका बुपि समाधौ ि पिधीयर्े "।।
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लािा ककठि है ।कोई दल
ु भ
त मिुष्य ही समझर्ा है औि यथाथत रूप मं िणति
किर्ा है ।अिुभिी आचायत द्वािा उपदे िं प्राप्त किके मिि नचंर्ि निकदध्यासि
कििे िाले साक्षात्कािी पुरुष कोई कोई लाखो मं एक होर्ा है ।सितत्र दल
ु भ
त है ।
कठोपनिषद् (1.2.12)र्ं दद
ु त ित गूढ़मिुप्रपिष्टम ् गुह्य कहर्ं गह्विे ष्ठम ्
पुिाणम ्।अध्यात्मयो गानधगमेि दे िं मत्िा धीिो हषतिोकौ
जहानर्।।1.2.12।।अन्िय:-----:गूढम ् = जो योग माया के पदे मं नछपा हुआ
;अिुप्रपिष्टम ् =सित व्यापी ;गुहा कहर्म ् =सबके हृदय रूप गुिा मं स्वथर्
(अर्एि);गह्विे ष्ठं= संसाि रूप गहि िि मं िहिे िाला;पुिाणं =सिार्ि है ,ऐसे;
र्ं दद
ु त िम
त ् दे िं =उस ककठिर्ा से दे खे जािे िाले पिमात्मदे ि को;धीिः=िुि
बुपियुक्त साधक ; अध्यात्म योगानधगमेि =अध्यात्म योग की प्रानप्त के
द्वािा;मत्िा=समझकि ;हषत िोकौ जहानर् =हषत औि िोक़ को त्याग दे र्ा
है ।।12।।सिलव्याख्या------:यह समपूणत जगर् अत्यन्र् दग
ु म
त गहि िि के
समाि है ।पिं र्ु यह पिब्रह्म पिमेश्वि से परिपूणत है ,िह सित व्यापी इसमं सितत्र
प्रपिष्ट है (गीर्ा 9।4)।िह सबके हृदय रूपी गुिा मं स्वथर् है (गीर्ा 13/17
,15/15,18/61)।इसप्रकाि नित्य साथ िहिे िाला किि भी सहज कदखर्ा िही
है ।क्ययंकक योगमाया मं नछपा िहर्ा है (गीर्ा 7/25),इसनलए अत्यन्र् गुप्त
है ।इसके दिति बहुर् ही ककठि औि दल
ु भ
त है ।जो िुि मि से औि बुपि से
नििं र्ि लंबे काल र्क ध्याि साधिा किर्ा है ।उसको पिमात्मा के दिति हो
जार्े है ।सुख दख
ु से मुक्त हो जार्ा है ।।
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होकि किि होिे िाला ही है ;क्ययोकक यह अजन्मा,नित्य,सिार्ि औि पुिार्ि
है ,ििीि के मािे जािे पि भी यह िही मािा जार्ा।।गीर्ा 2.20।।
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है ;यम ् =स्जसको ; एषः=यह;िृणर्े =विीकाि कि लेर्ा है ;र्ेि एि लभ्यः
=उसके द्वािा ही प्राप्त ककया जा सकर्ा है क्ययंकक ;एषः आत्मा = यह
पिमात्मा ;र्वय =उसके नलए ;विाम ् र्िूम ् =अपिे यथाथत विरूप को;िीिृणुर्े
=प्रगट कि दे र्ा है ।।23।।सिलव्याख्या------:िाि अध्यि, सुििे,र्कतिपक्त या
र्कत िािीय अध्ययि,िुपिमाि मिुष्य भी प्रभु को प्राप्त िही कि सकर्े
है ।प्रभु स्जसको विीकाि किर्े है िही प्रभु को प्राप्त किर्े है ।जो उत्कट इच्छा
से प्रभु को चाहर्े है ।जो प्रभु कृ पा के सहािे ही साधिा,िाि अध्ययि किर्ा
है ।प्रभु को ककर्िा समय लगर्ा है कक योगमाया का पदात हटािे मं र्था
पिमेश्वि को अपिा विरूप प्रगट कििे मं।।
कठोपनिषद् (1.2.24)िापििर्ो दि
ु रिर्ान्िािांर्ो िा समाकहर्ः।िािांर्मािसो
िापप प्रज्ञािेिि
ै मासिुयार्।।1.2.24।।अन्िय:-------:प्रज्ञािेि=सूक्ष्म बुपि के
द्वािा;अपप =भी; एिम ् =इस पिमात्मा को; ि दि
ु रिर्ार् ् अपििर्ः आसिुयार्
=ि र्ो िह मिुष्य प्राप्त कि सकर्ा है ,जो बुिे आचिणं से नििृर् िही हुआ
है ;ि अिान्र्ः=ि िह प्राप्त कि सकर्ा है ,जो अिांर् है ;ि असमाकहर्: =ि िह
स्जसके मि ,इस्न्रय संयर् िही है ;िा=औि ,अिांर् मािसः आसिुयार्=ि िही
प्राप्त किर्ा है ,स्जसका मि िांर् िही है ।।24।।सिलव्याख्या------:जो मिुष्य
बुिे आचिणं से पििक्त होकि उिका त्याग िही कि दे र्ा ,स्जसका मि
पिमात्मा को छोड़कि कदि िार् सांसारिक भोगं मं भटकर्ा िहर्ा
है ,प्रमात्मपि पिश्वास ि होिे के कािण जो सदा अिांर् िहर्ा है ,स्जसका मि
,बुपि,औि इं करया िि मं की हुई िही है ,ऐसा मिुष्य सूक्ष्म बुपि द्वािा
आत्मपिचाि किर्े िहिे पि भी पिमात्मा को िही पा सकर्ा,क्ययोकक िह
पिमात्मा की असीम कृ पा का आदि िही किर्ा,उसकी अिहे लिा किर्ा
िहर्ा है ,अर्ः उिकी कृ पा का अनधकािी िही होर्ा।।24।।
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चलिे िाला);पिपि=समझो; र्ु=औि;ििीिम ् एि =ििीि को ही;िथं =िथ
(समझो);र्ु बुपिम ् =र्था बुपि को;सानथतम ् =सािथी अथातर् िथ को चलािे
िाला;पिपि =समझो;च मिः एि =औि मि को ही;प्रग्रहम ् =लगाम
(समझो)।।3।।सिलव्याख्या----पिमात्मा िे सितसाधि समपन्ि ििीि रूपी िथ
कदया।इस्न्रय रूपी र्घोड़े कदए।मि रूपी लगाम औि बुपि रूपी सािथी के हाथं
मं सौप कदया औि जीिात्मा इस िार् मं बैठकि उसका विामी बिकि बुपि
को प्रेिणा दे र्ा िहे ।गंर्व्य पिमात्मा है ।उसके िाम,रूप,लीला,धाम आकद के
श्रिण, कीर्ति,मिि आकद के द्वािा उिके धाम पहुचिे की चेष्टा किे ।
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होर्ा;र्ु सूक्ष्मदनितनभ:=केिल सूक्ष्म र्त्िो को समझिेिाले पुरुषं द्वािा
ही;सूक्ष्मया अग्रयया बुिया=अनर् सूक्ष्म र्ीक्ष्ण बुपि से;दृश्यर्े =दे खा जार्ा
है ।।12।।सिलव्याख्या-----:ये पिब्रह्म पिमात्मा अनर् सूक्ष्म से भी सूक्ष्म
है ।सभी प्रास्णयं मं परिव्याप्त है ।माया के पदे से ढका िहर्ा है ।उि पुरुषं द्वािा
जो सूक्ष्म र्त्िो को समझर्े है ,िे अनर् सूक्ष्म औि र्ीक्ष्ण बुपि से ही दे ख
सकर्े है ।
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यमिाज का उपदे ि है ,यह पिं पिागर् सिार्ि उपदे ि है ।बुपिमाि मिुष्य इसे
सुिकि ब्रह्मलोक औि इसलोक मं प्रनर्ष्ठािाला होर्ा है ।।
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ही;अमृर्त्िं=अमि पद को;इच्छि ् =पािे की इच्छा किके;आिृत्त चक्षु:=चक्षु
आकद इं करयं को बाह्य पिषयो की ओि से लौटाकि; प्रत्यगात्मािं=अंर्िात्मा
को;ऐक्षर् ्=दे खा है ।।2.1.1।।सिलव्याख्या-----:िब्द,वपित,रूप,िस, गंधः--इं करयं
के सभी वथूल पिषय बाहि है ।इसका यथाथत ज्ञाि किािे के नलए इं करयं की
िचिा हुई है ;क्ययोकक इसका ज्ञाि हुए पििा ि र्ो मिुष्य ककसीं पिषय के
विरूप औि गुण को ही जाि सकर्ा है औि ि यथा योग्य त्याग एिम ्
ग्रहण किके भगिाि ् के इस्न्रय निमातण के उद्दे श्य को नसि कििे के नलए
उिके द्वािा ििीि िुभकमत संपाकदर् हो सकर्े है ।िुि सुखमय ईश्वि पिायण
जीिि जी सकर्े है ।बकहमुख
त ी है इं करया।पििेकिील ही जाि सकर्ा
है ।दख
ु ,िािकीय,प्रभु पिमुख जीिि अज्ञाि के कािण है ।सत्संग,विाध्याय,
भगिर् कृ पा पििेक प्रदाि किर्ी है ।जो प्रत्याहिी है िही पिमात्मा का दिति
किर्ा है ।
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कठोपनिषद्(2.1.14)यथोदकं दग
ु े िृष्टम ् पितर्ेषु पिधािनर्।एिम ् धमाति ् पृथक्
पश्यमवर्ािेिािुपिधिानर्।।2.1.14।।अन्िय------:यथा=स्जस प्रकाि;दग
ु े=ऊंचे
निखिपि;िृष्टम ्=ििसा हुआ;उदकं =जल;पितर्ेषु =पहाड़ के िािा वथलं
मं;पिधािनर्=चािो ओि चला जार्ा है ;एिम ् =उसी प्रकाि;धमाति ् =नभन्ि नभन्ि
धमो से युक्त दे ि,असुि,मिुष्य आकद को;पृथक =पिमात्मा से पृथक,पश्यि ्
=दे खकि (उिका सेिि कििे िाला मिुष्य);र्ाि ् एि =उन्ही
के;अिुपिधािनर्=पीछे दौड़र्ा िहर्ा है (उन्ही के िुभािुभ लोको मं औि िािा
उच्च िीच योनियो मं भटकर्ा िहर्ा है )।।14।।सिलव्याख्या-----:ििसार् का
जल एक ही जल सितत्र समाि रूप से बिसर्ा है ।ऊंचे िीचे वथलं से बहकि
उन्ही का आकाि लेलर्
े ा है ।पितर्ं पि ठहिर्ा िही है ।अिेक जगहं के िणत
,गंध भी उसमे समा जार्े है ।उसी प्रकाि ये दे ि,असुि,मिुष्य एक ही
पिमात्मा िे पैदा ककये लेककि पृथक उपासिा,पूजा आकद किर्ा है ।औि
पृथक मािर्े हुए अिेक लोको मं औि योनियो मं भटकर्े है ।िह ब्रह्म को
प्राप्त िही हो सकर्ा है ।।
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कठोपनिषद् (2.2.2)हं सः िुनचषद् िसुिंर्रिक्षसिोर्ा िेकदषदनर्नथदत िू ोणसर् ्
।िृषद् ििसदृर् सद् व्योमसदब्जा गोजा ऋर्जा अकरजा ऋर्ं बृहर् ्
।।2.2.2।।अन्िय---:िुनचषर् ् =जो पििुि पिं धाम मं िहिे िाला;हं सः=वियं
प्रकाि (पुरुषोत्तम) है (िही);अंर्रिक्ष सर् ् =अंर्रिक्ष मे नििास कििे
िाला;दिू ोण सर् ् =र्घिं मं उपस्वथर् होिे िाला;अनर्नथ:=अनर्नथ है
,औि;िेकदषर् ् होर्ा =यज्ञ की िेदी पि सर्ापपर् अस्ग्िविरूप र्था उसमे
आहुनर् िालिे िाला 'होर्ा' है ,र्था;िृसर् ्=समवर् मिुष्यो मं िहिे
िाला;ििसर् ् =दे िर्ाओं मं िहिे िाला;ऋर्सर् ् =सत्य मं िहिे िाला
औि;व्योमसर् ् =आकाि मं िहिे िाला है ,र्था;अब्जा:=जलो मं िािा रूपो मं
प्रगट होिे िाला;गोजा=पृर्थिी मं िािा प्रकाि से पैदा होिे
िाला;ऋर्जा:=सत्कमो मं पैदा होिे िाला;अरीजा :=पितर्ं मं िािा रूप से
प्रगट होिे िाला है ;बृहर् ऋर्ं =िही सबसे बड़ा पिं सत्य
है ।।2।।सिलव्याख्या----:जो गुणार्ीर् कदव्य पििुि वियं प्रकानिर् पिमधाम
मं पििास्जर् है ।िे ही िसु ,अनर्नथ,यज्ञ अस्ग्ि होर्ा,मिुष्य रूप मं
स्वथर्,दे िर्ा, पपर्ृ रूप मं है ।सत्य मं, सत्कमो मं जल चि, िभचि,थलचि सभी
मे है । िदी पितर्रूप मं िे ही है ।िे सभी दृपष्टयं से सभी की अपेक्षा
श्रेष्ठ,महाि औि पिम सत्य र्त्ि है ।।
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प्रसन्िर्ा के नलए सािधािी के साथ समवर् कायो को याथा पिनध संपादि
किर्े िहर्े है ।।
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कठोपनिषद् (2.2.9)अस्ग्ि यतथक
ै ो भुििं प्रपिष्टो रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो बभूि।
एकवर्था सितभर्
ू ान्र्िात्मा रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो बकहि।।2.2.9।।अन्िय------
--:यथा=स्जस प्रकाि;भुििं =समवर् ब्रह्मांि मं;प्रपिष्ट: =प्रपिष्ट ;एकः
अस्ग्ि:=एक ही अस्ग्ि;रूपम ् रूपम ् =िािा रूपो मं; प्रनर्रूपः=उिके समाि
रुपिाला सा; बभूि=हो िहा है ;र्था =िैस;े सितभर्
ू ान्र्िात्मा =समवर् प्रास्णयं
की अंर्िात्मा पिब्रह्म;एकः=एक होर्े हुए भी;रूपम ् रूपम ् = िािा रूपो मं;
प्रनर्रूपः=उन्ही के जैसे रूप िाला;च बकह:=औि उिके बाहि भी
है ।।9।।सिलव्याख्या------:एक ही अस्ग्ि नििाकाि रूप मं सािे ब्रह्मांि मं
व्याप्त है ,उसमे कोई भेद िही है ।साकाि रूप मं प्रज्िनलर् िािा रूपो आकािं
मं कदखर्ी है ।िैसे ही पिमात्मा एक है ।समभाि से व्याप्त है ।उिमं कोई भेद
िही है ।पिं र्ु प्रास्णयं के विरूप मं नभन्ि कदखर्े है ।पिमेश्वि की महत्ता बहुर्
अनधक औि पिलक्षण है ।।
कठोपनिषद् (2.2.10)िायुयथ
त क
ै ो भुििं प्रपिष्टो रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो
बभूि।एकवर्था सितभर्
ू ान्र् िात्मा रूपम ् रूपम ् प्रनर्रूपो
बकहि।।2.2.10।।अन्िय------:यथा=स्जस प्रकाि;भुििं =समवर् ब्रह्मांि मं
;प्रपिष्ट एकः िायु:=एक ही िायु व्याप्त है ;रूपम ् रूपम ् =िािा रूपो मं; प्रनर्रूपः
=समाि रुपिाला सा; बभूि=होिहा है ;र्था=िैसे ही;सितभर्
ू ान्र्िात्मा=सब
प्रास्णयं की अंर्िात्मा पिब्रह्म;एकः=एक होर्े हुए भी;रूपम ् रूपम ् = िािा
रूपो मं; प्रनर्रूपः=उिके समाि रुपिाला हो िहा है ;च बकह :=औि उिके बाहि
भी है ।।10।।सिलव्याख्या---:एक ही िायु समपूणत ब्रह्मांि मं परिव्याप्त है ।िािा
रूपो मं उिके आकािं मं भी कदखर्ा है ।उसी प्रकाि समवर् प्रास्णयं मं एक
ब्रह्म परिव्याप्त है ।िािा प्रास्णयं के रूपो मं भी औि बाहि भी व्याप्त है ।असीम
है ।पिलक्षण है ।।
Anjani Kumar Singh भािाथत : स्जस प्रकाि िायु समवर् भुििं मं अलग-
अलग रूपं मं व्याप्त होर्े हुए भी एक है , उसी प्रकाि हमािा अन्र्िात्मा
अलग-अलग रूपं मं परिव्याप्त होर्े हुए भी सबमं एक है अथातर् सबमँ
समाि रूप से व्याप्त है ।
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*भाग्यक्षये चाश्रयो।*
*धेिःु कामदध
ु ा िनर्ि पििहे *
*िेत्रं र्ृर्ीयं च सा॥*
*सत्कािायर्िं कुलवय मकहमा**
*ित्नैपितिा भूषणम ्।*
*र्वमादन्यमुपेक्ष्य सितपिषयं*
*पिद्यानधकािं कुरु॥*
दग
ु त नसंह चौहाि समयक रूप से।समाि रूप से िही।
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अच्छे बुिे कमत किर्े है ।पिमात्मा कमो से नलप्त िही होर्े है ।ि उिके सुख
दख
ु से जो कमो के िल है ।िे पृथकत्िेि असंग है ।।
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कठोपनिषद् (2.2.15)ि र्त्र सुयो भानर् ि चंरर्ािकं ,िेमा पिद्युर्ो भांनर्
कुर्ोsयमस्ग्ि :।र्मेि भांर् मिुभानर् सित र्वय भासा सितनमदं
पिभानर्।।2.2.15।।अन्िय-----:र्त्र=िहाँ ; ि सूय:त भानर् =ि र्ो सूयत
प्रकानिर् होर्ा है ;ि चंरर्ािकं =ि चंरमा औि र्ािो का समुदाय (ही
प्रकानिर् होर्ा है );ि इमाः पिद्युर् : भांनर् =ि यह पबस्जली प्रकानिर् होर्ी
है ;अयं अस्ग्ि: कुर्ः=अस्ग्ि कैसे प्रकानिर् होगी;र्ं=उसके ;भांर्म एि
=प्रकानिर् होिे पि ,उसी के प्रकाि से;सिं =सब;अिुभानर् =प्रकानिर् होर्े
है ;र्वय भासा=उसी के प्रकाि से;इदं सिं =यह समपूणत जगर्
;पिभानर्=प्रकानिर् होर्ा है ।।15।।सिलव्याख्या------:सूय,त चंर,र्ािे ,अस्ग्ि,पिद्युर्
सभी पिमेश्वि के समीप प्रकाि हीि हो जार्े है ।क्ययंकक इिके प्रकाि उसी के
प्रकाि के अंि है ।यह सत्य है कक समपूणत जगर् ब्रह्मप्रकाि से प्रकानिर् हो
िहा है ।।कद्वर्ीय िल्ली समाप्त।।2।।
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कठोपनिषद् (2.3.4)इह चेदिकद् बोिम ् प्राक् ििीिवय पििस:।र्र्ः सगेषु
लोकेषु ििीित्िाय कल्पर्े।।2.3.4।।अन्िय-----:चेर् ् =यकद;ििीिवय =ििीि
का;पििस:=पर्ि होिे से;प्राक् =पहले-पहले;इह=इस मिुष्य ििीि मे ही
(साधक);बोिम ् =पिमात्मा को साक्षार्;अिकर् ् =कि सका (र्ब र्ो ठीक
है );र्र्ः=िही र्ो किि;सगेषु =अिेक कल्पो र्क;लोकेषु=िािा लोक औि
योनियो मं; ििीित्िाय कल्पर्े=ििीि धािण कििे को पििि होर्ा
है ।।4।।सिलव्याख्या-----:मििे से पूित साक्षात्काि उस जगर् िासक नियंर्ा
का किले अन्यथा कल्पो र्क अिेक लोको औि योनियो मं ििीि धािण
कििे के नलए पििि हंगे।।4।।
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कठोपनिषद्(2.3.9)ि सन्दृिे नर्ष्ठनर् रूपमवय ि चक्षुषा पश्यनर् कि िैिम ्
।हृदा मिीषा मिसानभ क्यलृप्तो य एर्कद्वदिु मृर्ावर्े भिस्न्र्।।2.3.9।।अथत-----
:इस आत्मा का रूप दृपष्ट मं िही ठहिर्ा।इसे िेत्र से कोई भी आत्मा को
िही दे ख सकर्ा है ।यह आत्मा र्ो मिका नियमि कििेिाली हृदय स्वथर्ा
बुपि द्वािा मििरूप समयग्दिति से प्रकानिर्(हुआ ही जािा जा सकर्ा)है ।जो
इसे(ब्रह्मरूप से)जािर्े है िे अमि हो जार्े है ।।9।।सिलव्याख्या-----:प्राकृ र्
िेत्रो से आत्मा को िही दे ख सकर्े।प्रकानिर् मि औि प्रज्िनलर् बुपि द्वािा
आत्मा को जािा जा सकर्ा है ।आत्मा ब्रह्म है इर्िा जाििा ही ब्रह्म को
जाििा है ।औि जाििे िाला जाििे के बाद अमि हो जार्ा है ।संसाि से मुक्त
हो जार्ा है ।।
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नश्रर्ाः=हृदय मं स्वथर् ;ये कामा:=जो कामिाये है ;सिे यदा =िे सब की सब
जब ; प्रमुच्यन्र्े=समूल िष्ट हो जार्ी है ;अथ=र्ब; मत्यतः=मिणधमात मिुष्य
;अमृर्ः =अमि;भिनर्=हो जार्ा है ,औि;अत्र=िह यही;ब्रह्म समश्नुर्े=ब्रह्म का
भलीभांनर् अिुभि कि लेर्ा है ।।14।।सिलव्याख्या-----:मिुष्य का हृदय विगत
औि मृत्यु लोक की कामिाओ से भिा िहर्ा है ।ब्रह्म की कामिा िही किर्ा
है कक उन्हं प्राप्त करू।आसपक्त संसाि की ब्रह्म से दिु ् िखर्ी है ।साधक की
कामिाये ब्रह्म को पािे की होर्ी है ।र्ब अिश्य प्राप्त कि लेर्ा है ।।
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सुषमिा से निकलकि जीि पिमधाम जा सकर्ा है अन्यथा अन्य योनियो मं
ही जायेगा।।
दग
ु त नसंह चौहाि
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आज आपके प्रेम से कठोपनिषद् पूणत हुआ।।
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