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हजारी साद ि वे दी :: :: :: िशरीष के फूल :: िनबं ध https://www.hindisamay.com/content/6779/1/हजारी- साद-ि वेदी--िनबंध-...

मुखपृ उप यास कहानी क वता यं य नाटक िनबंध आलोचना वमश

बाल सा ह य सं मरण या ा वृ ांत िसने मा व वध कोश सम -संचयन आ डयो/वी डयो अनुवाद

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िनबंध

िनबंध
िशर ष के फूल अंधकार से जूझना है

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हजार साद वेद अशोक के फूल
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आम फर बौरा गए

जहाँ बैठके यह लेख िलख रहा हूँ उसके आगे पीछे , दाएँ-बाएँ, िशर ष के अनेक पेड़ ह। जेठ क जलती धूप म, कुटज
घर जोड़ने क माया
जब क ध र ी िनधूम अ नकुंड बनी हु ई थी, िशर ष नीचे से ऊपर तक फूल से लद गया था। कम फूल इस कार
दे वदा
क गम म फूल सकने क ह मत करते ह। क णकार और आर वध (अमलतास) क बात म भूल नह ं रहा हूँ ।
नाखून य बढ़ते ह?
वे भी आसपास बहु त ह। ले कन िशर ष के साथ आर वध क तुलना नह ं क जा सकती। वह पं ह बीस दन के
भी म को मा नह ं
िलए फूलता है , वसंत ऋतु के पलाश क भाँित। कबीरदास को इस तरह पं ह दन के िलए लहक उठना पसंद
कया गया
नह ं था। यह भी या क दस दन फूले और फर खंखड़-के-खंखड़ - ' दन दस फूला फूिलके खंखड़ भया पलास'।
वषा : घनपित से
ऐसे दुमदार से तो लँडूरे भरे । फूल है िशर ष। वसंत के आगमन के साथ लहक उठता है , आषाढ़ तक तो िन त
घन यागम तक
प से म त बना रहता है । मन रम गया तो भरे वाद म भी िनघात फूलता रहता है । जब उमस से ाण उबलता
िशर ष के फूल
रहता है और लू से दय सूखता रहता है , एकमा िशर ष कालजयी अवधूत क भाँित जीवन क अजेयता का अ य
मं चार करता रहता है । य प क वय क भाँित हर फूल प ते को दे खकर मु ध होने लायक दय वधाता ने नाखून य बढ़ते ह?
नह ं दया है , पर िनतांत ठूँ ठ भी नह ं हँू । िशर ष के पु प मेरे मानस म थोड़ा ह लोल ज र पैदा करते ह।

िशर ष के वृ बड़े और छायादार होते ह। पुराने भारत का रईस? जन मंगल जनक वृ को अपनी वृ
वा टका क चहारद वार के पास लगाया करता था, उनम एक िशर ष भी है (वृह सं हता, 55। 3)। अशोक,
अ र ट, पु नाग और िशर ष के छायादार और धनमसृण हर ितमा से प रवे त वृ -वा टका ज र बड़ मनोहर
दखती होगी। वा यायन ने 'कामसू ' म बताया है क वा टका के सघन छायादार वृ क छाया म ह झूला
( खा दोला) लगाया जाना चा हए। य प पुराने क व बकुल के पेड़ म ऐसी दोलाओं को लगा दे खना चाहते थे, पर
िशर ष भी या बुरा है । डाल इसक अपे ाकृ त कमजोर ज र होती है , पर उसम झूलनेवािलय का वजन भी तो
बहु त यादा नह ं होता। क वय क यह तो बुर आदत है क वजन का एकदम याल नह ं करते। म तुं दल
नरपितय क बात नह ं कर रहा हूँ , वे चाह तो लोहे का पेड़ बनवा ल।

िशर ष का फूल सं कृ त-सा ह य म बहुत कोमल माना गया है । मेरा अनुमान है क कािलदास ने यह बात
शु -शु म चार क होगी। उनका इस पु प पर कुछ प पात था (मेरा भी है )। कह गए ह, िशर ष पु प केवल
भौर के पद का कोमल दबाव सहन कर सकता है , प य का ब कुल नह ं - 'पदं सहे त मर य पेलवं िशर ष
पु पं न पुनः पत णाम ्।' अब म इतने बड़े क व क बात का वरोध कैसे क ँ ? िसफ वरोध करने क ह मत न
होती तो भी कुछ कम बुरा नह ं था, यहाँ तो इ छा भी नह ं है । खैर, म दूसर बात कह रहा था। िशर ष के फूल
क कोमलता दे खकर परवत क वय ने समझा क उसका सब-कुछ कोमल है । यह भूल है । इसके फल इतने
मजबूत होते ह क नए फूल के िनकल आने पर भी थान नह ं छोड़ते। जब तक नए फल-प े िमलकर
ध कयाकर उ ह बाहर नह ं कर दे ते तब तक वे डटे रहते ह। वसंत के आगमन के समय जब सार वन थली पु प
प न से मम रत होती रहती है , िशर ष के पुराने फल बुर तरह खड़खड़ाते रहते है । मुझे इनको दे खकर उन नेताओं
क बात याद आती है , जो कसी कार जमाने का ख नह ं पहचानते और जब तक नई पौध के लोग उ ह
ध का मारकर िनकाल नह ं दे ते तब तक जमे रहते ह।

म सोचता हूँ क पुराने क यह अिधकार िल सा य नह ं समय रहते सावधान हो जाती? जरा और मृ यु,
ये दोन ह जगत ् के अितप रिचत और अित ामा णक स य ह। तुलसीदास ने अफसोस के साथ इनक सचाई पर
मुहर लगाई थी - 'धरा को मान यह तुलसी जो फरा सो झरा, जो बरा सो बुताना।' म िशर ष के फल को
शीष पर
जाएँ

1 of 3 06-10-2020, 12:21 pm
हजारी साद ि वे दी :: :: :: िशरीष के फूल :: िनबं ध https://www.hindisamay.com/content/6779/1/हजारी- साद-ि वेदी--िनबंध-...

सपासाप कोड़े चला रहे ह, जीण और दुबल झड़ रहे ह, जनम ाणकण थोड़ा भी ऊ वमुखी है , वे टक जाते है ।
दुरंत ाणधारा और सव यापक काला न का संघष िनरं तर चल रहा है । मूख समझते ह क जहाँ बने ह वह ं दे र
तक बने रह तो कालदे वता क आँख बचा जाएँगे। भोले ह वे। हलते-बुलते रहो, थान बदलते रहो, आगे क और
मुँह कए रहो तो कोड़े क मार से बच भी सकते हो। जमे क मरे ।

एक-एक बार मुझे मालूम होता है क यह िशर ष एक अ त ु हो या सुख, वह हार नह ं


ु अवधूत है । दख
मानता। न ऊधो का लेना, न माधो का दे ना। जब धरती और आसमान जलते रहते ह, तब भी वह हजरत न जाने
कहाँ से अपना रस खींचते रहते ह। मौज म आठ याम म त रहते ह। एक वन पितशा ी ने मुझे बताया है क
यह उस ण
े ी का पेड़ है जो वायुमंडल से अपना रस खींचता है । ज र खींचता होगा। नह ं तो भयंकर लू के समय
इतने कोमल तंतुजाल और ऐसे सुकुमार केसर को कैसे उगा सकता था? अवधूत के मुँह से ह संसार क सबसे
सरस रचनाएँ िनकली है । कबीर बहुत कुछ इस िशर ष के समान ह थे, म त और बेपरवा, पर सरस और मादक।
कािलदास भी ज र अनास त योगी रहे ह गे। िशर ष के फूल फ कड़ाना म ती से ह उपज सकते ह और 'मेघदूत'
का का य उसी कार के अनास त अना वल उ मु त दय म उमड़ सकता है । जो क व अनास त नह ं रहा
सका, जो फ कड़ नह ं बन सका, जो कए-कराए का लेखा-जोखा िमलाने म उलझ गया, वह भी या क व है ?
कहते ह कणाट राज क या व जका दे वी ने गवपूवक कहा था क एक क व ा थे, दस
ू रे बा मी क और
तीसरे यास। एक ने वेद को दया, दस
ू रे ने रामायण को और तीसरे ने महाभारत को। इनके अित र त और कोई
य द क व होने का दावा करे तो म कणाट राज क यार रानी उनके िसर पर अपना बायाँ चरण रखती हूँ -
''तेषां मू न ददािम वामचरणं कणाट राज या।'' म जानता हूँ क इस उपालंभ से दुिनया का कोई क व हारा नह ं
है , पर इसका मतलब यह नह ं क कोई लजाए नह ं तो उसे डाँटा भी न जाय। म कहता हूँ क क व बनना है मेरे
दो त , तो फ कड़ बनो। िशर ष क म ती क ओर दे खो। ले कन अनुभव ने मुझे बताया है क कोई कसी क
सुनता नह ं। मरने दो।

कािलदास वजन ठ क रख सकते थे, य क वे अनास त योगी क थर ता और वद ध ेमी का दय


पा चुके थे। क व होने से या होता है ? म भी छं द बना लेता हूँ , तुक जोड़ लेता हूँ और कािलदास भी छं द बना
लेते थे - तुक भी जोड़ ह सकते ह गे -इसिलए हम दोन एक ण
े ी के नह ं हो जाते। पुराने स दय ने कसी ऐसे
ह दावेदार को फटकारते हुए कहा था - 'वयम प कवयः कवयः कवय ते कािलदासा ा।' म तो मु ध और व मय-
वमूढ़ होकर कािलदास के एक-एक लोक को दे खकर है रान हो जाता हूँ। अब इस िशर ष के फूल का ह एक
उदाहरण ली जए। शकुंतला बहु त सुंदर थी। सुंदर या होने से कोई हो जाता है ? दे खना चा हए क कतने सुंदर
दय से वह स दय डु बक लगातार िनकला है । शकुंतला कािलदास के दय से िनकली थी। वधाता क और से
कोई काप य नह ं था, क व क ओर से भी नह ं। राजा दु यंत भी अ छे भले ेमी थे। उ ह ने शकुंतला का एक
िच बनाया था, ले कन रह-रहकर उनका मन खीझ उठता था। उहूँ, कह ं-न-कह ं कुछ छूट गया है । बड़ दे र के
बाद उ ह समझ म आया क शकुंतला के कान म वे उस िशर ष पु प को दे ना भूल गए है , जसके केसर
गंड थल तक लटके हु ए थे, और रह गया है शर चं क करण के समान कोमल और शु मृणाल का हार।

कृ तं न कणा पतब धनं सखे

िशर षमागंड वलं बकेसरम ्।

न वा शर चं मर िचकोमलं

मृणालसू ं रिचतं तना तरे ।।

कािलदास ने यह लोक न िलख दया होता तो म समझता क वे भी बस और क वय क भाँित क व थे,


स दय पर मु ध, दख
ु से अिभभूत, सुख से ग द।। पर कािलदास स दय के बा आवरण को भेदकर उसके भीतर
तक पहुँ च सकते थे। दुख हो क सुख, वे अपना भाव-रस उस अनास त कृ षीवल क भाँित खींच लेते थे जो
िनदिलत ई ुदंड से रस िनकाल लेता है । कािलदास महान ् थे। य क वे अनास त रह सके थे। कुछ इसी ण
े ी
क अनास आधुिनक हं द क व सुिम ानंदन पंत म है । क ववर रवीं नाथ म यह अनास थी। एक जगह
उ ह ने िलखा है - 'राजो ान का िसंह ार कतना ह अ भेद य न ह , उसक िश पकला कतनी ह सुंदर य
न हो, वह यह नह ं कहता क हमम आकर ह सारा स ता समा त हो गया। असल गंत य थान उसे अित म
करने के बाद ह है , यह बताना उसका कत य है ।' फूल हो या पेड़, वह अपने-आपम समा त नह ं है । वह कसी
अ य व तु को दखाने के िलए उठ हु ई अँगुली है । वह इशारा है ।

िशर षत सचमुच प के अवधूत क भाँित मेरे मन म ऐसी तरं ग जगा दे ता है जो ऊपर क ओर उठती
रहती ह। इस िचलकती धूप म इतना सरस वह कैसे बना रहता है ? या ये बा प रवतन धूप, वषा, आँधी, लू -
अपने आपम स य नह ं ह? हमारे दे श के ऊपर से जो यह मार-काट, अ नदाह, लूट पाट, खून-ख चर का बवंडर
बह गया है , उसके भीतर भी या थर रहा जा सकता है ? िशर ष रह सका है । अपने दे श का एक बूढ़ा रह सका
था। य मेरा मन पूछता है क ऐसा य संभव हु आ? य क िशर ष भी अवधूत है । िशर ष वायुमंडल से रस
खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर है । गांधी भी वायुमंडल से रस खींचकर इतना कोमल और इतना कठोर
हो सका था। म जब-जब िशर ष क ओर दे खता हूँ तब तब हूक उठती है 'हाय, वह अवधूत आज कहाँ है ।

शीष पर
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2 of 3 06-10-2020, 12:21 pm
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बाल सा ह य व वध सम -संचयन अनुवाद हमारे रचनाकार हं द लेखक पुरानी व वशे षांक खोज

संपक व व ालय

शीष पर
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3 of 3 06-10-2020, 12:21 pm

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