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रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय.

टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय.

रहीम दास के दोहे  

Rahim Das Ke Dohe With Meaning in Hindi


–1–

  बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय.


रहिमन फाटे दध
ू को, मथे न माखन होय.

अर्थ: मनुष्य को सोचसमझ कर व्यवहार करना चाहिए,क्योंकि किसी कारणवश यदि बात बिगड़ जाती है
तो फिर उसे बनाना कठिन होता है , जैसे यदि एकबार दध
ू फट गया तो लाख कोशिश करने पर भी उसे मथ
कर मक्खन नहीं निकाला जा सकेगा.

–2–

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय.


टूटे पे फिर ना जुरे, जुरे गाँठ परी जाय.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि प्रेम का नाता नाज़ुक होता है . इसे झटका दे कर तोड़ना उचित नहीं होता. यदि यह
प्रेम का धागा एक बार टूट जाता है तो फिर इसे मिलाना कठिन होता है और यदि मिल भी जाए तो टूटे हुए
धागों के बीच में गाँठ पड़ जाती है .

–3–
रहिमन दे खि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि.
जहां काम आवे सई
ु , कहा करे तरवारि.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि बड़ी वस्तु को दे ख कर छोटी वस्तु को फेंक नहीं दे ना चाहिए. जहां छोटी सी सुई
काम आती है , वहां तलवार बेचारी क्या कर सकती है ?

–4–

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग.


चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भज
ु ग
ं .

अर्थ: रहीम कहते हैं कि जो अच्छे स्वभाव के मनुष्य होते हैं,उनको बुरी संगति भी बिगाड़ नहीं पाती.
जहरीले सांप चन्दन के वक्ष
ृ से लिपटे रहने पर भी उस पर कोई जहरीला प्रभाव नहीं डाल पाते.

–5–

रूठे सज
ु न मनाइए, जो रूठे सौ बार.
रहिमन फिरि फिरि पोइए, टूटे मक्
ु ता हार.

अर्थ: यदि आपका प्रिय सौ बार भी रूठे , तो भी रूठे हुए प्रिय को मनाना चाहिए,क्योंकि यदि मोतियों की
माला टूट जाए तो उन मोतियों को बार बार धागे में पिरो लेना चाहिए.

–6–

जो बड़ेन को लघु कहें , नहीं रहीम घटी जाहिं.


गिरधर मुरलीधर कहें , कछु दःु ख मानत नाहिं.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि बड़े को छोटा कहने से बड़े का बड़प्पन नहीं घटता, क्योंकि गिरिधर (कृष्ण) को
मुरलीधर कहने से उनकी महिमा में कमी नहीं होती.

–7–

जैसी परे सो सहि रहे , कहि रहीम यह दे ह.


धरती ही पर परत है , सीत घाम औ मेह.
अर्थ: रहीम कहते हैं कि जैसी इस दे ह पर पड़ती है – सहन करनी चाहिए, क्योंकि इस धरती पर ही सर्दी,
गर्मी और वर्षा पड़ती है . अर्थात जैसे धरती शीत, धप
ू और वर्षा सहन करती है , उसी प्रकार शरीर को सख
ु -
दःु ख सहन करना चाहिए.

–8–

 खीरा सिर ते काटि के, मलियत लौंन लगाय.


रहिमन करुए मुखन को, चाहिए यही सजाय.

अर्थ: खीरे का कडुवापन दरू करने के लिए उसके ऊपरी सिरे को काटने के बाद नमक लगा कर घिसा जाता
है . रहीम कहते हैं कि कड़ुवे मंह
ु वाले के लिए – कटु वचन बोलने वाले के लिए यही सजा ठीक है .

–9–

दोनों रहिमन एक से, जों लों बोलत नाहिं.


जान परत हैं काक पिक, रितु बसंत के माहिं.

अर्थ: कौआ और कोयल रं ग में एक समान होते हैं। जब तक ये बोलते नहीं तब तक इनकी पहचान नहीं हो
पाती।लेकिन जब वसंत ऋतु आती है तो कोयल की मधुर आवाज़ से दोनों का अंतर स्पष्ट हो जाता है .

–10–

रहिमन अंसुवा नयन ढरि, जिय दःु ख प्रगट करे इ,


जाहि निकारौ गेह ते, कस न भेद कहि दे इ.

अर्थ: रहीम कहते हैं की आंसू नयनों से बहकर मन का दःु ख प्रकट कर दे ते हैं। सत्य ही है कि जिसे घर से
निकाला जाएगा वह घर का भेद दस
ू रों से कह ही दे गा.

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–11–

रहिमन निज मन की बिथा, मन ही राखो गोय.


सन
ु ी इठलैहैं लोग सब, बांटी न लेंहैं कोय.
अर्थ: रहीम कहते हैं की अपने मन के दःु ख को मन के भीतर छिपा कर ही रखना चाहिए। दस
ू रे का दःु ख
सन
ु कर लोग इठला भले ही लें, उसे बाँट कर कम करने वाला कोई नहीं होता.

–12–

पावस दे खि रहीम मन, कोइल साधे मौन.


अब दादरु वक्ता भए, हमको पूछे कौन.

अर्थ: वर्षा ऋतु को दे खकर कोयल और रहीम के मन ने मौन साध लिया है . अब तो में ढक ही बोलने वाले हैं।
हमारी तो कोई बात ही नहीं पछ
ू ता. अभिप्राय यह है कि कुछ अवसर ऐसे आते हैं जब गण
ु वान को चप
ु रह
जाना पड़ता है . उनका कोई आदर नहीं करता और गण
ु हीन वाचाल व्यक्तियों का ही बोलबाला हो जाता है .

–13–

रहिमन विपदा हू भली, जो थोरे दिन होय.


हित अनहित या जगत में , जान परत सब कोय.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि विपत्ति कुछ समय की हो तो वह भी ठीक ही है , क्योंकि विपत्ति में ही सबके
विषय में जाना जा सकता है कि संसार में कौन हमारा हितैषी है और कौन नहीं।

–14–

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग.


बांटन वारे को लगे, ज्यों में हदी को रं ग.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि वे लोग धन्य हैं जिनका शरीर सदा सबका उपकार करता है . जिस प्रकार में हदी
बांटने वाले के अंग पर भी में हदी का रं ग लग जाता है , उसी प्रकार परोपकारी का शरीर भी सुशोभित रहता
है .

–15–

समय पाय फल होत है , समय पाय झरी जात.


सदा रहे नहिं एक सी, का रहीम पछितात.

अर्थ: रहीम कहते हैं कि उपयुक्त समय आने पर वक्ष


ृ में फल लगता है । झड़ने का समय आने पर वह झड़
जाता है . सदा किसी की अवस्था एक जैसी नहीं रहती, इसलिए दःु ख के समय पछताना व्यर्थ है .
–16–

ओछे को सतसंग रहिमन तजहु अंगार ज्यों.


तातो जारै अंग सीरै पै कारौ लगै.

अर्थ: ओछे मनुष्य का साथ छोड़ दे ना चाहिए. हर अवस्था में उससे हानि होती है – जैसे अंगार जब तक गर्म
रहता है तब तक शरीर को जलाता है और जब ठं डा कोयला हो जाता है तब भी शरीर को काला ही करता है .

–17–

वक्ष
ृ कबहूँ नहीं फल भखैं, नदी न संचै नीर
परमारथ के कारने, साधन
ु धरा सरीर !

अर्थ: वक्ष
ृ कभी अपने फल नहीं खाते, नदी जल को कभी अपने लिए संचित नहीं करती, उसी प्रकार सज्जन
परोपकार के लिए दे ह धारण करते हैं !

New Addition July 2018:

रहीम दास के दोहे  

Rahim Das Ke Dohe With Meaning in Hindi

–18–

लोहे की न लोहार की, रहिमन कही विचार जा


हनि मारे सीस पै, ताही की तलवार

अर्थ: रहीम विचार करके कहते हैं कि तलवार न तो लोहे की कही जाएगी न लोहार की, तलवार उस वीर की
कही जाएगी जो वीरता से शत्रु के सर पर मार कर उसके प्राणों का अंत कर दे ता है .

–19–

तासों ही कछु पाइए, कीजे जाकी आस


रीते सरवर पर गए, कैसे बुझे पियास

अर्थ: जिससे कुछ पा सकें, उससे ही किसी वस्तु की आशा करना उचित है , क्योंकि पानी से रिक्त तालाब से
प्यास बुझाने की आशा करना व्यर्थ है .
–20–

माह मास लहि टे सुआ मीन  परे थल और


त्यों रहीम जग जानिए, छुटे आपुने ठौर

अर्थ: माघ मास आने पर  टे सू का वक्ष


ृ और पानी से बाहर पथ्
ृ वी पर आ पड़ी मछली की दशा बदल जाती है .
इसी प्रकार संसार में अपने स्थान से छूट जाने पर  संसार की अन्य वस्तुओं की दशा भी बदल जाती है .
मछली जल से बाहर आकर मर जाती है वैसे ही संसार की अन्य वस्तुओं की भी हालत होती है .

–21–

रहिमन नीर पखान, बड़


ू े पै सीझै नहीं
तैसे मरू ख ज्ञान, बझ
ू ै पै सझ
ू ै नहीं

अर्थ: जिस प्रकार जल में पड़ा होने पर  भी पत्थर नरम नहीं होता उसी प्रकार मूर्ख व्यक्ति की अवस्था होती
है ज्ञान दिए जाने पर भी उसकी समझ में कुछ नहीं आता.

–22–

संपत्ति भरम गंवाई के हाथ रहत कछु नाहिं


ज्यों रहीम ससि रहत है दिवस अकासहि माहिं

अर्थ: जिस प्रकार दिन में चन्द्रमा आभाहीन हो जाता है उसी प्रकार जो व्यक्ति किसी व्यसन में फंस कर
अपना धन गँवा दे ता है वह निष्प्रभ हो जाता है .

–23–

साधु सराहै साधुता, जाती जोखिता जान


रहिमन सांचे सूर को बैरी कराइ बखान

अर्थ: रहीम  कहते हैं कि इस बात को जान लो कि साधु सज्जन की प्रशंसा करता है यति योगी और योग की
प्रशंसा करता है पर सच्चे वीर के शौर्य की प्रशंसा उसके शत्रु भी करते हैं.

–24–

वरू रहीम  कानन भल्यो वास करिय फल भोग


बंधू मध्य धनहीन ह्वै, बसिबो उचित न योग
अर्थ: रहीम कहते हैं कि निर्धन होकर बंधु-बांधवों के बीच रहना उचित नहीं  है इससे अच्छा तो यह है कि
वन मैं जाकर रहें और फलों का भोजन करें .

–25–

राम न जाते हरिन संग से न रावण साथ


जो रहीम भावी कतहूँ होत आपने हाथ

अर्थ: रहीम कहते हैं कि यदि होनहार अपने ही हाथ में होती, यदि  जो होना है उस पर हमारा बस होता तो
ऐसा क्यों होता कि राम हिरन के पीछे गए और सीता का हरण हुआ. क्योंकि होनी को होना था – उस पर
हमारा बस न था इसलिए तो   राम स्वर्ण मग
ृ के पीछे गए  और  सीता को रावण हर कर  लंका ले गया.

–26–

रहिमन रीति सराहिए, जो घट गुन सम होय


भीति आप पै डारि के, सबै पियावै तोय

अर्थ: रहीम कहते हैं कि उस व्यवहार की सराहणा की जानी चाहिए जो घड़े और रस्सी के व्यवहार के समान
हो घडा और रस्सी स्वयं जोखिम उठा कर दस
ू रों को जल पिलाते हैं जब घडा कुँए में जाता है तो रस्सी के
टूटने और घड़े के टूटने का खतरा तो रहता ही है .

–27–

निज कर क्रिया रहीम कहि सीधी भावी के हाथ


पांसे अपने हाथ में दांव न अपने हाथ

अर्थ: रहीम कहते हैं कि अपने हाथ में तो केवल कर्म करना ही होता है सिद्धि तो भाग्य से ही मिलती है जैसे
चौपड़ खेलते समय पांसे तो अपने हाथ में रहते हैं पर दांव क्या आएगा यह अपने हाथ में नहीं होता.
जी के दोहे / Kabir Ke Dohe
Contents [show]

संत कबीर दास के दोहे गागर में सागर के समान हैं। उनका गढ़
ू अर्थ समझ कर यदि कोई उन्हें अपने
जीवन में उतारता है तो उसे निश्चय ही मन की शांति के साथ-साथ ईश्वर की प्राप्ति होगी।

 Related:  संत कबीर दास जीवनी

Name Kabir Das / कबीर दास

Born ठीक से ज्ञात नहीं  (1398 या  1440) लहरतारा , निकट वाराणसी

Died ठीक से ज्ञात नहीं  (1448 या 1518) मगहर

Occupation कवि, भक्त, सूत कातकर कपड़ा बनाना

Nationality भारतीय
कबीर दास जी के प्रसिद्द दोहे हिंदी अर्थ सहित 

–1–

 बरु ा जो दे खन मैं चला, बरु ा न मिलिया कोय,


जो दिल खोजा आपना, मझ
ु से बरु ा न कोय।

अर्थ: जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झाँक कर
दे खा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है ।

–2–

 पोथी पढ़ि पढ़ि जग मआ


ु , पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मत्ृ यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो
सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार
का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

–3–

 साधु ऐसा चाहिए, जैसा सप


ू सभ
ु ाय,
सार-सार को गहि रहै , थोथा दे ई उड़ाय।

अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है । जो सार्थक को
बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा दें गे।

–4–

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय,


कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।
अर्थ: कबीर कहते हैं कि एक छोटे से तिनके की भी कभी निंदा न करो जो तुम्हारे  पांवों के नीचे दब जाता है ।
यदि कभी वह तिनका उड़कर आँख में आ गिरे तो कितनी गहरी पीड़ा होती है !

–5–

धीरे -धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,


माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

अर्थ: मन में धीरज रखने से सब कुछ होता है । अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से सींचने लगे
तब भी फल तो ऋतु  आने पर ही लगेगा !

 ये भी पढ़ें : कबीर दास जी के दोहे – भाग २ 

–6–

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,


कर का मनका डार दे , मन का मनका फेर।

अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है , पर उसके मन का भाव नहीं
बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला
को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।

–7–

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,


मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी
मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।

–8–

दोस पराए दे खि करि, चला हसन्त हसन्त,


अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।

अर्थ: यह मनुष्य का स्वभाव है कि जब वह  दस


ू रों के दोष दे ख कर हं सता है , तब उसे अपने दोष याद नहीं
आते जिनका न आदि है न अंत।
–9–

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,


मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

अर्थ: जो प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते  हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे
पानी में जाता है और कुछ ले कर आता है । लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से
किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पाते।

–10–

बोली एक अनमोल है , जो कोई बोलै जानि,


हिये तराजू तौलि के, तब मख
ु बाहर आनि।

अर्थ: यदि कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है । इसलिए वह
ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने दे ता है ।

–11–

अति का भला न बोलना, अति की भली न चप


ू ,
अति का भला न बरसना, अति की भली न धप
ू ।

अर्थ: न तो अधिक बोलना अच्छा है , न ही जरूरत से ज्यादा चुप रहना ही ठीक है । जैसे बहुत अधिक वर्षा
भी अच्छी नहीं और बहुत अधिक धूप भी अच्छी नहीं है ।

–12–
निंदक नियरे राखिए, ऑ ंगन कुटी छवाय,
बिन पानी, साबन
ु बिना, निर्मल करे सभ
ु ाय।

अर्थ: जो हमारी निंदा करता है , उसे अपने अधिकाधिक पास ही रखना चाहिए। वह तो बिना साबुन और
पानी के हमारी कमियां बता कर हमारे स्वभाव को साफ़ करता है ।

–13–

दर्ल
ु भ मानष
ु जन्म है , दे ह न बारम्बार,
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।

अर्थ: इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है । यह मानव शरीर उसी तरह बार-बार नहीं
मिलता जैसे वक्ष
ृ से पत्ता  झड़ जाए तो दोबारा डाल पर नहीं
लगता।

–14–

कबीरा खड़ा बाज़ार में , मांगे सबकी खैर,


ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।

अर्थ: इस संसार में आकर कबीर अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो और संसार में यदि
किसी से दोस्ती नहीं तो दश्ु मनी भी न हो !

–15–

हिन्द ू कहें मोहि राम पियारा, तर्क


ु कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि हिन्द ू राम के भक्त हैं और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है । इसी बात पर दोनों
लड़-लड़ कर मौत के मुंह में जा पहुंचे, तब भी दोनों में से कोई सच को न जान पाया।

–16–

कबीर दास जी के प्रसिद्द दोहे YouTube पे दे खें 


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New Kabir Ke Dohe Added

कहत सन
ु त सब दिन गए, उरझि न सरु झ्या मन।
कही कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन।

अर्थ: कहते सुनते सब दिन निकल गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया। कबीर कहते हैं कि अब
भी यह मन होश में नहीं आता। आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के समान ही है । 

–17–

कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई।


बगुला भेद न जानई, हं सा चुनी-चुनी खाई।

अर्थ:कबीर कहते हैं कि समुद्र की लहर में मोती आकर बिखर गए। बगुला उनका भेद नहीं जानता, परन्तु
हं स उन्हें चुन-चुन कर खा रहा है । इसका अर्थ यह है कि किसी भी वस्तु का महत्व जानकार ही जानता है ।

–18–

जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाई।


जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तो  गुण की कीमत होती है । पर
जब ऐसा गाहक नहीं मिलता, तब गुण कौड़ी के भाव चला जाता है ।

–19–

कबीर कहा गरबियो, काल गहे कर केस।


ना जाने कहाँ मारिसी, कै घर कै परदे स।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि हे मानव ! तू क्या गर्व करता है ? काल अपने हाथों में तेरे केश पकड़े हुए है । मालूम
नहीं, वह घर या परदे श में , कहाँ पर तुझे मार डाले।

–20–

पानी केरा बद
ु बद
ु ा, अस मानस
ु की जात।
एक दिना छिप जाएगा,ज्यों तारा परभात।
अर्थ: कबीर का कथन है कि जैसे पानी के बुलबल
ु े, इसी प्रकार मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है ।जैसे प्रभात
होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये दे ह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

–21–

हाड़ जलै ज्यूं लाकड़ी, केस जलै ज्यूं घास।


सब तन जलता दे खि करि, भया कबीर उदास।

अर्थ: यह नश्वर मानव दे ह अंत समय में लकड़ी की तरह जलती है और केश घास की तरह जल उठते हैं।
सम्पर्ण
ू शरीर को इस तरह जलता दे ख, इस अंत पर कबीर का मन उदासी से भर जाता है । —

–22–

जो उग्या सो अन्तबै, फूल्या सो कुमलाहीं।


जो चिनिया सो ढही पड़े, जो आया सो जाहीं।

अर्थ: इस संसार का नियम यही है कि जो उदय हुआ है ,वह अस्त होगा। जो विकसित हुआ है वह मरु झा
जाएगा। जो चिना गया है वह गिर पड़ेगा और जो आया है वह जाएगा।

–23–

झूठे सुख को सुख कहे , मानत है मन मोद।


खलक चबैना काल का, कुछ मुंह में कुछ गोद।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि अरे जीव ! तू झूठे सुख को सुख कहता है और मन में प्रसन्न होता है ? दे ख यह
सारा संसार मत्ृ यु के लिए उस भोजन के समान है , जो कुछ तो उसके मुंह में है और कुछ गोद में खाने के
लिए रखा है ।

–24–

ऐसा कोई ना मिले, हमको दे उपदे स।


भौ सागर में डूबता, कर गहि काढै केस।

अर्थ: कबीर संसारी जनों के लिए दखि


ु त होते हुए कहते हैं कि इन्हें  कोई ऐसा पथप्रदर्शक न  मिला जो
उपदे श दे ता और संसार सागर में डूबते हुए इन प्राणियों को अपने हाथों से केश पकड़ कर निकाल लेता।

–25–
संत ना छाडै संतई, जो कोटिक मिले असंत
चन्दन भव
ु ंगा बैठिया, तऊ सीतलता न तजंत।

अर्थ: सज्जन को चाहे करोड़ों दष्ु ट पुरुष मिलें फिर भी वह अपने भले स्वभाव को नहीं छोड़ता। चन्दन के
पेड़ से सांप लिपटे रहते हैं, पर वह अपनी शीतलता नहीं छोड़ता।

–26–

 कबीर तन पंछी भया, जहां मन तहां उडी जाइ।


जो जैसी संगती कर, सो तैसा ही फल पाइ।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसारी व्यक्ति का शरीर पक्षी बन गया है और जहां उसका मन होता है ,
शरीर उड़कर वहीं पहुँच जाता है । सच है कि जो जैसा साथ करता है , वह वैसा ही फल पाता है ।

–27–

तन को जोगी सब करें , मन को बिरला कोई।


सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ।

अर्थ: शरीर में भगवे वस्त्र धारण करना सरल है , पर मन को योगी बनाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है
य़दि मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं।

–28–

कबीर सो धन संचे, जो आगे को होय।


सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न दे ख्यो कोय।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम आए। सर पर धन की गठरी बाँध कर
ले जाते तो किसी को नहीं दे खा।

 –29–

माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर।


आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर ।

अर्थ: कबीर कहते हैं कि संसार में रहते हुए न माया मरती है न मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका पर
मनष्ु य की आशा और तष्ृ णा कभी नहीं मरती, कबीर ऐसा कई बार कह चक
ु े हैं।
  –30–

मन हीं मनोरथ छांड़ी दे , तेरा किया न होई।


पानी में घिव निकसे, तो रूखा खाए न कोई।

अर्थ: मनुष्य मात्र को समझाते हुए कबीर कहते हैं कि मन की इच्छाएं छोड़ दो , उन्हें तुम अपने बूते पर पूर्ण
नहीं कर सकते। यदि पानी से घी निकल आए, तो रूखी रोटी कोई न खाएगा।

 –31–

जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाही ।


सब अँधियारा मिट गया, दीपक दे खा माही ।।

अर्थ: जब मैं अपने अहं कार में डूबा था – तब प्रभु को न दे ख पाता था – लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक
मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अन्धकार मिट गया  – ज्ञान की ज्योति से अहं कार जाता
रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया।

 –32–

कबीर सत
ु ा क्या करे , जागी न जपे मरु ारी ।
एक दिन तू भी सोवेगा, लम्बे पाँव पसारी ।।

अर्थ: कबीर कहते हैं – अज्ञान की नींद में सोए क्यों रहते हो? ज्ञान की जागति
ृ को हासिल कर प्रभु का नाम
लो।सजग होकर प्रभु का ध्यान करो।वह दिन दरू नहीं जब तुम्हें गहन निद्रा में सो ही जाना है – जब तक
जाग सकते हो जागते क्यों नहीं? प्रभु का नाम स्मरण क्यों नहीं करते ?

 –33–

आछे / पाछे दिन पाछे गए हरी से किया न हे त ।


अब पछताए होत क्या, चिडिया चुग गई खेत ।।

अर्थ: दे खते ही दे खते सब भले दिन – अच्छा समय बीतता चला गया – तुमने प्रभु से लौ नहीं लगाई – प्यार
नहीं किया समय बीत जाने पर पछताने से क्या मिलेगा? पहले जागरूक न थे – ठीक उसी तरह जैसे कोई
किसान अपने खेत की रखवाली ही न करे और दे खते ही दे खते पंछी उसकी फसल बर्बाद कर जाएं।

 –34–
रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल सा, कोड़ी बदले जाय ॥

अर्थ: रात नींद में नष्ट कर दी – सोते रहे – दिन में भोजन से फुर्सत नहीं मिली यह मनुष्य जन्म हीरे के
सामान बहुमूल्य था जिसे तम
ु ने व्यर्थ कर दिया – कुछ सार्थक किया नहीं तो जीवन का क्या मूल्य बचा ?
एक कौड़ी –

–35–

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।


पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दरू ॥

अर्थ:  खजरू के पेड़ के समान बड़ा होने का क्या लाभ, जो ना ठीक से किसी को छाँव दे पाता है और न ही
उसके फल सल
ु भ होते हैं।  

–36–

हरिया जांणे रूखड़ा, उस पाणी का नेह।


सूका काठ न जानई, कबहूँ बरसा में ह॥

अर्थ: पानी के स्नेह को हरा वक्ष


ृ ही जानता है .सख
ू ा काठ – लकड़ी क्या जाने कि कब पानी बरसा? अर्थात
सहृदय ही प्रेम भाव को समझता है .      निर्मम मन इस भावना को क्या जाने ?
–37–

झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर में ह।


माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥

अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु
पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.

–38–

कहत सन
ु त सब दिन गए, उरझी न सरु झ्या मन।
कहि कबीर चेत्या नहीं, अजहूँ सो पहला दिन॥

अर्थ: कहते सुनते सब दिन बीत गए, पर यह मन उलझ कर न सुलझ पाया ! कबीर कहते हैं कि यह मन
अभी भी होश में नहीं आता. आज भी इसकी अवस्था पहले दिन के ही समान है .

–39–

कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण।


कबीर थोड़ा जीवना, मांड़े बहुत मंड़ाण॥

अर्थ: बादल पत्थर के ऊपर झिरमिर करके बरसने लगे. इससे मिट्टी तो भीग कर सजल हो गई किन्तु
पत्थर वैसा का वैसा बना रहा.

–40–

झिरमिर- झिरमिर बरसिया, पाहन ऊपर में ह।


माटी गलि सैजल भई, पांहन बोही तेह॥

अर्थ: थोड़ा सा जीवन है , उसके लिए मनुष्य अनेक प्रकार के प्रबंध करता है . चाहे राजा हो या निर्धन चाहे
बादशाह – सब खड़े खड़े ही नष्ट हो गए.

–41–

   इक दिन ऐसा होइगा, सब सूं पड़े बिछोह।


राजा राणा छत्रपति, सावधान किन होय॥
अर्थ: एक दिन ऐसा जरूर आएगा जब सबसे बिछुड़ना पडेगा. हे राजाओं ! हे छत्रपतियों ! तम
ु अभी से
सावधान क्यों नहीं हो जाते !

–42–

   कबीर प्रेम न चक्खिया,चक्खि न लिया साव।


सूने घर का पाहुना, ज्यूं आया त्यूं जाव॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिस व्यक्ति ने प्रेम को चखा नहीं, और चख कर स्वाद नहीं लिया, वह उसअतिथि
के समान है जो सन
ू े, निर्जन घर में जैसा आता है , वैसा ही चला भी जाता है , कुछ प्राप्त नहीं कर पाता.

–43–

मान, महातम, प्रेम रस, गरवा तण गुण नेह।


ए सबही अहला गया, जबहीं कह्या कुछ दे ह॥

अर्थ: मान, महत्त्व, प्रेम रस, गौरव गण


ु तथा स्नेह – सब बाढ़ में बह जाते हैं जब किसी मनष्ु य से कुछ दे ने
के लिए कहा जाता है .

–44–

जाता है सो जाण दे , तेरी दसा न जाइ।


खेवटिया की नांव ज्यूं, घने मिलेंगे आइ॥

अर्थ: जो जाता है उसे जाने दो. तम


ु अपनी स्थिति को, दशा को न जाने दो. यदि तम
ु अपने स्वरूप में बने
रहे तो केवट की नाव की तरह अनेक व्यक्ति आकर तम
ु से मिलेंगे.

–45–

मानुष जन्म दल
ु भ है , दे ह न बारम्बार।
तरवर थे फल झड़ी पड्या,बहुरि न लागे डारि॥

अर्थ: मानव जन्म पाना कठिन है . यह शरीर बार-बार नहीं मिलता. जो फल वक्ष
ृ से नीचे गिर पड़ता है वह
पुन: उसकी डाल पर नहीं लगता .
–46–

यह तन काचा कुम्भ है ,लिया फिरे था साथ।


ढबका लागा फूटिगा, कछू न आया हाथ॥

अर्थ: यह शरीर कच्चा घड़ा है जिसे तू साथ लिए घूमता फिरता था.जरा-सी चोट लगते ही यह फूट गया.
कुछ भी हाथ नहीं आया.

–47–

मैं मैं बड़ी बलाय है , सकै तो निकसी भागि।


कब लग राखौं हे सखी, रूई लपेटी आगि॥

अर्थ: अहं कार बहुत बुरी वस्तु है . हो सके तो इससे निकल कर भाग जाओ. मित्र, रूई में लिपटी इस अग्नि –
अहं कार – को मैं कब तक अपने पास रखूँ?

–48–

कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई ।


अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं – प्रेम का बादल मेरे ऊपर आकर बरस पडा  – जिससे अंतरात्मा  तक भीग गई, आस
पास पूरा परिवेश हरा-भरा हो गया – खश
ु हाल हो गया – यह प्रेम का अपर्व
ू प्रभाव है ! हम इसी प्रेम में क्यों
नहीं जीते ! 

–49–

जिहि घट प्रेम न प्रीति रस, पुनि रसना नहीं नाम।


ते नर या संसार में , उपजी भए बेकाम ॥

अर्थ: जिनके ह्रदय में न तो प्रीति है और न प्रेम का स्वाद, जिनकी जिह्वा पर राम का नाम नहीं रहता – वे
मनुष्य इस संसार में उत्पन्न हो कर भी व्यर्थ हैं. प्रेम जीवन की सार्थकता है . प्रेम रस में डूबे रहना जीवन
का सार है .

–50–
लंबा मारग दरि
ू घर, बिकट पंथ बहु मार।
कहौ संतों क्यंू पाइए, दर्ल
ु भ हरि दीदार॥

अर्थ: घर दरू है मार्ग लंबा है रास्ता भयंकर है और उसमें अनेक पातक चोर ठग हैं. हे सज्जनों ! कहो ,
भगवान ् का दर्ल
ु भ दर्शन कैसे प्राप्त हो?संसार में जीवन कठिन  है – अनेक बाधाएं हैं विपत्तियां हैं – उनमें
पड़कर हम भरमाए रहते हैं – बहुत से आकर्षण हमें अपनी ओर खींचते रहते हैं – हम अपना लक्ष्य भूलते
रहते हैं – अपनी पूंजी गंवाते रहते हैं

–51–

इस तन का दीवा करों, बाती मेल्यंू जीव।


लोही सींचौं तेल ज्यं,ू कब मख
ु दे खों पीव॥

अर्थ: इस शरीर को दीपक बना लूं, उसमें प्राणों की बत्ती डालँ ू और रक्त से तेल की तरह सींचूं – इस तरह
दीपक जला कर मैं अपने प्रिय के मुख का दर्शन कब कर पाऊंगा? ईश्वर  से लौ लगाना उसे पाने की चाह
करना उसकी भक्ति में तन-मन  को लगाना एक साधना है तपस्या है – जिसे कोई कोई विरला ही कर पाता
है !

–52–

नैना अंतर आव तू, ज्यूं हौं नैन झंपेउ।


ना हौं दे खूं और को न तझ
ु दे खन दे ऊँ॥

अर्थ: हे प्रिय ! ( प्रभु ) तम


ु इन दो नेत्रों की राह से मेरे भीतर आ जाओ और फिर मैं अपने इन नेत्रों को बंद
कर लूं ! फिर न तो मैं किसी दस
ू रे   को दे खूं और न ही किसी और को तुम्हें दे खने दं ू !

–53–

कबीर रे ख सिन्दरू की काजल दिया न जाई।


नैनूं रमैया रमि रहा  दज
ू ा कहाँ समाई ॥

अर्थ: कबीर  कहते हैं कि जहां सिन्दरू की रे खा है – वहां काजल नहीं दिया जा सकता. जब नेत्रों में राम
विराज रहे हैं तो वहां कोई अन्य कैसे निवास कर सकता है ?

–54–
कबीर सीप समंद की, रटे पियास पियास ।
समद
ु हि तिनका करि गिने, स्वाति बँद
ू की आस ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि समुद्र की सीपी प्यास प्यास रटती रहती है .  स्वाति नक्षत्र की बँद
ू की आशा लिए
हुए समुद्र की अपार जलराशि को तिनके के बराबर समझती है . हमारे मन में जो पाने की ललक है जिसे
पाने की लगन है , उसके बिना सब निस्सार है .

–55–

सातों सबद जू बाजते घरि घरि होते राग ।


ते मंदिर खाली परे बैसन लागे काग ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जिन घरों में सप्त स्वर गूंजते थे, पल पल उत्सव मनाए जाते थे, वे घर भी अब
खाली पड़े हैं – उनपर कौए बैठने लगे हैं. हमेशा एक सा समय तो नहीं रहता ! जहां खशि
ु याँ थी वहां गम छा
जाता है जहां हर्ष था वहां विषाद डेरा डाल सकता है – यह  इस संसार में होता है !.

–56–

कबीर कहा गरबियौ, ऊंचे दे खि अवास ।


काल्हि परयौ भू लेटना ऊपरि जामे घास॥

अर्थ: कबीर कहते है कि ऊंचे भवनों को दे ख कर क्या गर्व करते हो ? कल या परसों ये ऊंचाइयां और (आप
भी) धरती पर लेट जाएंगे ध्वस्त हो जाएंगे और ऊपर से घास उगने लगेगी ! वीरान सुनसान हो जाएगा जो
अभी हं सता खिलखिलाता घर आँगन है ! इसलिए कभी गर्व न करना चाहिए

–57–

जांमण मरण बिचारि करि कूड़े काम निबारि ।


जिनि पंथूं तझ
ु चालणा सोई पंथ संवारि ॥

अर्थ: जन्म और मरण का विचार करके , बुरे कर्मों को छोड़ दे . जिस मार्ग पर तुझे चलना है उसी मार्ग का
स्मरण  कर – उसे ही याद रख – उसे ही संवार सन्
ु दर बना –

–58–

बिन रखवाले बाहिरा चिड़िये खाया खेत ।


आधा परधा ऊबरै , चेती सकै तो चेत ॥
अर्थ: रखवाले के बिना बाहर से चिड़ियों ने खेत खा लिया. कुछ खेत अब भी बचा है – यदि सावधान हो
सकते हो तो हो जाओ – उसे बचा लो ! जीवन में   असावधानी के कारण  इंसान बहुत कुछ गँवा दे ता है – उसे
खबर भी नहीं लगती – नक्
ु सान हो चक
ु ा होता है – यदि हम सावधानी बरतें तो कितने नक्
ु सान से बच
सकते हैं !  इसलिए जागरूक होना है हर इंसान को -( जैसे पराली जलाने की सावधानी बरतते तो दिल्ली में
भयंकर वायु प्रदष
ू ण से बचते पर – अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चग
ु गई खेत !

–59–

कबीर दे वल ढहि पड्या ईंट भई सेंवार ।


करी चिजारा सौं प्रीतड़ी ज्यूं ढहे न दज
ू ी बार ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं शरीर रूपी दे वालय नष्ट हो गया – उसकी ईंट ईंट – (अर्थात शरीर का अंग अंग )-
शैवाल अर्थात काई में बदल गई. इस दे वालय को बनाने वाले प्रभु से प्रेम कर जिससे यह दे वालय दस
ू री बार
नष्ट न हो

–60–

कबीर मंदिर लाख का, जडियां हीरे लालि ।


दिवस चारि का पेषणा, बिनस जाएगा कालि ॥

अर्थ: यह शरीर लाख का बना  मंदिर है जिसमें हीरे और लाल जड़े हुए हैं.यह चार दिन का खिलौना है कल
ही नष्ट हो जाएगा. शरीर नश्वर है – जतन करके मेहनत  करके उसे सजाते हैं तब उसकी क्षण भंगुरता को
भूल जाते हैं किन्तु सत्य तो इतना ही है कि दे ह किसी कच्चे खिलौने की तरह टूट फूट जाती है – अचानक
ऐसे कि हम जान भी नहीं पाते !

–61–

कबीर यह तनु जात है सकै तो लेहू बहोरि ।


नंगे हाथूं ते गए जिनके लाख करोडि॥

अर्थ: यह शरीर नष्ट होने वाला है हो सके तो अब भी संभल जाओ – इसे संभाल लो !  जिनके पास लाखों
करोड़ों की संपत्ति थी वे भी यहाँ से खाली हाथ ही गए हैं – इसलिए जीते जी धन संपत्ति जोड़ने में ही न
लगे रहो – कुछ सार्थक भी कर लो ! जीवन को कोई दिशा दे लो – कुछ भले काम कर लो !

–62–
हू तन तो सब बन भया करम भए कुहांडि ।
आप आप कँू काटि है , कहै कबीर बिचारि॥

अर्थ: यह शरीर तो सब जंगल के समान है – हमारे कर्म ही कुल्हाड़ी के समान हैं. इस प्रकार हम खुद अपने
आपको काट रहे हैं – यह बात कबीर सोच विचार कर कहते हैं.

–63–

तेरा संगी कोई नहीं सब स्वारथ बंधी लोइ ।


मन परतीति न उपजै, जीव बेसास न होइ ॥

अर्थ: तेरा साथी कोई भी नहीं है . सब मनुष्य स्वार्थ में बंधे हुए हैं, जब तक इस बात की प्रतीति – भरोसा –
मन में उत्पन्न नहीं होता तब तक आत्मा के प्रति विशवास जाग्रत नहीं होता. अर्थात वास्तविकता का ज्ञान
न होने से मनुष्य संसार में रमा रहता है जब संसार के सच को जान लेता है – इस स्वार्थमय सष्टि
ृ को
समझ लेता है – तब ही अंतरात्मा की ओर उन्मुख होता है – भीतर झांकता है !

–64–

मैं मैं मेरी जिनी करै , मेरी सूल बिनास ।


मेरी पग का पैषणा मेरी  गल की पास ॥

अर्थ: ममता और अहं कार में मत फंसो और बंधो – यह मेरा है कि रट मत लगाओ – ये विनाश के मूल हैं –
जड़ हैं – कारण हैं – ममता पैरों की बेडी है और गले की फांसी है

–65–

कबीर नाव जर्जरी कूड़े खेवनहार ।


हलके हलके तिरि गए बूड़े तिनि सर भार !॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि जीवन की नौका टूटी फूटी है जर्जर है उसे खेने वाले मूर्ख हैं  जिनके सर पर ( विषय
वासनाओं ) का बोझ है वे तो संसार सागर में डूब जाते हैं – संसारी हो कर रह जाते हैं दनि
ु या के धंधों से उबर
नहीं पाते – उसी में उलझ कर रह जाते हैं पर जो इनसे मक्
ु त हैं – हलके हैं वे तर जाते हैं पार लग जाते हैं
भव सागर में डूबने से बच जाते हैं

–66–
मन जाणे सब बात जांणत ही औगुन करै  ।
काहे की कुसलात कर दीपक कंू वै पड़े ॥

अर्थ: मन सब बातों को जानता है जानता हुआ भी अवगुणों में फंस जाता है जो दीपक हाथ में पकडे हुए भी
कंु ए में गिर पड़े उसकी कुशल कैसी?

–67–

हिरदा भीतर आरसी मख


ु दे खा नहीं जाई ।
मख
ु तो तौ परि दे खिए जे मन की दवि
ु धा जाई ॥

अर्थ: ह्रदय के अंदर ही दर्पण है परन्तु – वासनाओं की मलिनता के कारण – मुख का स्वरूप दिखाई ही नहीं
दे ता मुख या अपना चेहरा या वास्तविक स्वरूप तो तभी दिखाई पड सकता  जब मन का संशय मिट जाए !

–68–

करता था तो क्यंू रहया, जब करि क्यंू पछिताय ।


बोये पेड़ बबल
ू का, अम्ब कहाँ ते खाय ॥

अर्थ: यदि तू अपने को कर्ता समझता था तो चुप क्यों बैठा रहा? और अब कर्म करके पश्चात्ताप  क्यों
करता है ? पेड़ तो बबूल का लगाया है – फिर आम खाने को कहाँ से मिलें ?

–69–

मनहिं मनोरथ छांडी दे , तेरा किया न होइ ।


पाणी मैं घीव नीकसै, तो रूखा खाई न कोइ ॥

अर्थ: मन की इच्छा छोड़ दो.उन्हें तम


ु अपने बल पर पूरा नहीं कर सकते. यदि जल से घी निकल आवे, तो
रूखी रोटी कोई भी न खाएगा!

–70–

माया मुई न मन मुवा, मरि मरि गया सरीर ।


आसा त्रिष्णा णा मुई यों कहि गया कबीर ॥

अर्थ: न माया मरती है न मन शरीर न जाने कितनी बार मर चुका. आशा, तष्ृ णा कभी नहीं मरती – ऐसा
कबीर कई बार कह चक
ु े हैं.
–71–

कबीर सो धन संचिए जो आगे कंू होइ।


सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न दे ख्या कोइ ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि उस धन को इकट्ठा करो जो भविष्य में काम दे . सर पर धन की गठरी बांधकर ले
जाते तो किसी को नहीं दे खा.

–72–

झठ
ू े को झठ
ू ा मिले, दं ण
ू ा बंधे सनेह

झूठे को साँचा मिले तब ही टूटे नेह ॥

अर्थ: जब झठ
ू े आदमी को दस
ू रा झठ
ू ा आदमी मिलता है तो दन
ू ा प्रेम बढ़ता है . पर जब झठ
ू े को एक सच्चा
आदमी मिलता है तभी प्रेम टूट जाता है .

–73–

करता केरे गुन बहुत औगुन कोई नाहिं।


जे दिल खोजों आपना, सब औगुन मुझ माहिं ॥

अर्थ: प्रभु में गण
ु बहुत हैं – अवगण
ु कोई नहीं है .जब हम अपने ह्रदय की खोज करते हैं तब समस्त अवगण

अपने ही भीतर पाते हैं.

–74–

बुरा जो दे खन मैं चला बुरा न मिलिया कोय ।


जो घर दे खा आपना मुझसे बुरा णा कोय॥

अर्थ: मैं इस संसार में बुरे व्यक्ति की खोज करने चला था लेकिन जब अपने घर – अपने मन में झाँक कर
दे खा तो खुद से बुरा कोई न पाया अर्थात हम दस
ू रे की बुराई पर नजर रखते हैं पर अपने आप को नहीं
निहारते !

–75–

कबीर चन्दन के निडै नींव भी चन्दन होइ।


बड
ू ा बंस बड़ाइता यों जिनी बड़
ू े कोइ ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि यदि चंदन के वक्ष
ृ के पास नीम  का वक्ष
ृ हो तो वह भी कुछ सुवास ले लेता है –
चंदन का कुछ प्रभाव पा लेता है . लेकिन बांस अपनी लम्बाई – बडेपन – बड़प्पन के कारण डूब जाता है .
इस तरह तो किसी को भी नहीं डूबना चाहिए. संगति का अच्छा प्रभाव ग्रहण करना चाहिए – आपने गर्व में
ही न रहना चाहिए .

–76–

क्काज्ल केरी कोठारी, मसि के कर्म कपाट।


पांहनि बोई पथ
ृ मीं,पंडित पाड़ी बात॥

अर्थ: यह संसार काजल की कोठरी है , इसके कर्म रूपी कपाट कालिमा के ही बने हुए हैं. पंडितों ने पथ्ृ वीपर
पत्थर की मर्ति
ू याँ स्थापित करके मार्ग का निर्माण किया है .

–77–

मूरख संग न कीजिए ,लोहा जल न तिराई।


कदली सीप भावनग मुख, एक बँद
ू तिहूँ भाई ॥

अर्थ: मूर्ख का साथ मत करो.मूर्ख लोहे के सामान है जो जल में तैर नहीं पाता  डूब जाता है . संगति का
प्रभाव इतना पड़ता है कि आकाश से एक बँद
ू केले के पत्ते पर गिर कर कपूर, सीप के अन्दर गिर कर मोती
और सांप के मुख में पड़कर विष बन जाती है .

–78–

ऊंचे कुल क्या जनमिया जे करनी ऊंच न होय।


सुबरन कलस सुरा भरा साधू निन्दै सोय ॥

अर्थ: यदि कार्य उच्च कोटि के नहीं हैं तो उच्च कुल में जन्म लेने से क्या लाभ? सोने का कलश यदि सुरा से
भरा है तो साधु उसकी निंदा ही करें गे. 

–79–

कबीर संगति साध की , कड़े न निर्फ ल होई ।


चन्दन होसी बावना , नीब न कहसी कोई ॥
अर्थ: कबीर कहते हैं कि साधु  की संगति कभी निष्फल नहीं होती. चन्दन का वक्ष
ृ यदि छोटा – (वामन –
बौना ) भी होगा तो भी उसे कोई नीम का वक्ष
ृ नहीं कहे गा. वह सव
ु ासित ही रहे गा  और अपने परिवेश को
सग
ु ंध ही दे गा. आपने आस-पास को खश
ु बू से ही भरे गा

–80–

जानि बझि
ू साँचहि तजै, करै झूठ सूं नेह ।
ताकी संगति रामजी, सपि
ु नै ही जिनि दे हु ॥

अर्थ: जो जानबझ
ू कर सत्य का साथ छोड़ दे ते हैं झठ
ू से प्रेम करते हैं हे भगवान ् ऐसे लोगों की संगति हमें
स्वप्न में भी न दे ना.

–81–

मन मरया ममता मुई, जहं गई सब छूटी।


जोगी था सो रमि गया, आसणि रही बिभूति ॥

अर्थ: मन को मार डाला ममता भी समाप्त हो गई अहं कार सब नष्ट हो गया जो योगी था वह तो यहाँ से
चला गया अब आसन पर उसकी भस्म – विभूति पड़ी रह गई अर्थात संसार में केवल उसका यश रह गया

–82–

तरवर तास बिलम्बिए, बारह मांस फलंत ।


सीतल छाया गहर फल, पंछी केलि करं त ॥

अर्थ: कबीर कहते हैं कि ऐसे वक्ष


ृ के नीचे विश्राम करो, जो बारहों महीने फल दे ता हो .जिसकी छाया शीतल
हो , फल सघन हों और जहां पक्षी क्रीडा करते हों !

–83–

काची काया मन अथिर थिर थिर  काम करं त ।


ज्यूं ज्यूं नर  निधड़क फिरै त्यूं त्यूं काल हसन्त ॥

अर्थ: शरीर कच्चा अर्थात नश्वर है मन चंचल है परन्तु तम


ु इन्हें स्थिर मान कर काम  करते हो – इन्हें
अनश्वर मानते हो मनुष्य जितना इस संसार में रमकर निडर घूमता है – मगन रहता है – उतना ही काल
(अर्थात मत्ृ यु )उस पर  हँसता है ! मत्ृ यु पास है यह जानकर भी इंसान अनजान बना रहता है ! कितनी
दख
ु भरी बात है .

–84–

जल में कुम्भ कुम्भ  में जल है बाहर भीतर पानी ।


फूटा कुम्भ जल जलहि समाना यह तथ कह्यौ गयानी ॥

अर्थ: जब पानी भरने जाएं तो घडा जल में रहता है और भरने पर जल घड़े के अन्दर आ जाता है इस तरह
दे खें तो – बाहर और भीतर पानी ही रहता है – पानी की ही सत्ता है . जब घडा फूट जाए तो उसका जल जल
में ही मिल जाता है – अलगाव नहीं रहता – ज्ञानी जन इस तथ्य को कह गए हैं !  आत्मा-परमात्मा दो नहीं
एक हैं – आत्मा परमात्मा में और परमात्मा आत्मा में विराजमान है . अंतत: परमात्मा की ही सत्ता है – 
जब दे ह विलीन होती है – वह परमात्मा का ही अंश हो जाती है – उसी में समा जाती है . एकाकार हो जाती है .

–85–

तू कहता कागद की लेखी मैं कहता आँखिन की दे खी ।


मैं कहता सुरझावन हारि, तू राख्यौ उरझाई रे  ॥

अर्थ: तुम कागज़ पर लिखी बात को सत्य  कहते हो – तुम्हारे लिए वह सत्य है जो कागज़ पर लिखा है .
किन्तु मैं आंखों दे खा सच ही कहता और लिखता हूँ. कबीर पढे -लिखे नहीं थे पर उनकी बातों में सचाई थी.
मैं सरलता से हर बात को सुलझाना चाहता हूँ – तुम उसे उलझा कर क्यों रख दे ते हो? जितने सरल बनोगे –
उलझन से उतने ही दरू हो पाओगे.

–86–
मन के हारे हार है मन के जीते जीत ।
कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत ॥

अर्थ: जीवन में जय पराजय केवल मन की भावनाएं हैं.यदि मनुष्य मन में हार गया – निराश हो गया तो 
पराजय है और यदि उसने मन को जीत लिया तो वह विजेता है . ईश्वर को भी मन के विश्वास से ही पा
सकते हैं – यदि प्राप्ति का भरोसा ही नहीं तो कैसे पाएंगे?

–87–

जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहीं ।


प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाहीं ॥

अर्थ:  जब तक मन में अहं कार था तब तक ईश्वर का साक्षात्कार न हुआ. जब अहम समाप्त हुआ तभी
प्रभु  मिले. जब ईश्वर का साक्षात्कार हुआ – तब अहम स्वत: नष्ट हो गया. ईश्वर की सत्ता का बोध तभी
हुआ जब अहं कार गया. प्रेम में द्वैत भाव नहीं हो सकता – प्रेम की संकरी – पतली गली में एक ही समा
सकता है – अहम ् या परम ! परम की प्राप्ति के लिए अहम ् का विसर्जन आवश्यक है .

–88–

पढ़ी पढ़ी के पत्थर भया लिख लिख भया जू ईंट ।


कहें कबीरा प्रेम की लगी न एको छींट॥
अर्थ: ज्ञान से बड़ा प्रेम है – बहुत ज्ञान हासिल करके यदि मनुष्य पत्थर सा कठोर हो जाए, ईंट जैसा निर्जीव
हो जाए – तो क्या पाया? यदि ज्ञान मनष्ु य को रूखा और कठोर बनाता है तो ऐसे ज्ञान का कोई लाभ नहीं.
जिस मानव मन को प्रेम  ने नहीं छुआ, वह प्रेम के अभाव में जड़ हो रहे गा. प्रेम की एक बँद
ू – एक छींटा भर
जड़ता को मिटाकर मनष्ु य को सजीव बना दे ता है .

–89–

जाति न पूछो साधू की पूछ लीजिए ज्ञान ।


मोल करो तरवार को पडा रहन दो म्यान ॥

अर्थ: सच्चा साधु सब प्रकार के भेदभावों से ऊपर उठ जाता है . उससे यह न पछ


ू ो की वह किस जाति का है
साधु कितना ज्ञानी है यह जानना महत्वपर्ण
ू है . साधु की जाति म्यान के समान है और उसका ज्ञान तलवार
की धार के समान है . तलवार की धार ही उसका मल्
ू य है – उसकी म्यान तलवार के मल्
ू य को नहीं बढाती.

–90–

साधु भूखा भाव का धन का भूखा नाहीं ।


धन का भूखा जो फिरै सो तो साधु नाहीं ॥

अर्थ: साधु का मन भाव को जानता है , भाव का भूखा होता है ,  वह धन का लोभी नहीं होता जो धन का लोभी
है वह तो साधु नहीं हो सकता !

–91–

पढ़े गुनै सीखै सुनै मिटी न संसै सूल।


कहै कबीर कासों कहूं ये ही दःु ख का मूल ॥

अर्थ : बहुत सी पुस्तकों को पढ़ा गुना सुना सीखा  पर फिर भी मन में गड़ा संशय का काँटा न निकला कबीर
कहते हैं कि किसे समझा कर यह कहूं कि यही तो सब दख
ु ों की जड़ है – ऐसे पठन मनन से क्या लाभ जो
मन का संशय न मिटा सके?

–92–

प्रेम न बाडी उपजे प्रेम न हाट बिकाई ।


राजा परजा जेहि रुचे सीस दे हि ले जाई ॥
अर्थ: प्रेम खेत में नहीं उपजता प्रेम बाज़ार में नहीं बिकता चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा – यदि प्यार
पाना चाहते हैं तो वह आत्म बलिदान से ही मिलेगा. त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा
सकता. प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं !

–93–

कबीर सोई पीर है जो जाने पर पीर ।


जो पर पीर न जानई  सो काफिर बेपीर ॥

अर्थ: कबीर  कहते हैं कि सच्चा पीर – संत वही है जो दस


ू रे की पीड़ा को जानता है जो दस
ू रे के दःु ख को नहीं
जानते वे बेदर्द हैं – निष्ठुर हैं और काफिर हैं.

–94–

हाड जले लकड़ी जले जले जलावन हार ।


कौतिकहारा भी  जले कासों करूं पुकार ॥

अर्थ: दाह क्रिया में हड्डियां जलती हैं उन्हें जलाने वाली लकड़ी जलती है उनमें आग लगाने वाला भी एक
दिन जल जाता है . समय आने पर उस दृश्य को दे खने वाला दर्शक भी जल जाता है . जब सब का अंत यही
हो तो पनी पुकार किसको द?ू किससे  गुहार करूं – विनती या कोई आग्रह करूं? सभी तो एक नियति से बंधे
हैं ! सभी का अंत एक है !

–95–

रात गंवाई सोय कर दिवस गंवायो खाय ।


हीरा जनम अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥

अर्थ: रात सो कर बिता दी,  दिन खाकर बिता दिया हीरे के समान कीमती जीवन को संसार के निर्मूल्य
विषयों की – कामनाओं और वासनाओं की भें ट चढ़ा दिया – इससे दख
ु द क्या हो सकता है ?

–96–

मन मैला तन ऊजला बगुला कपटी अंग ।


तासों तो कौआ भला तन मन एकही रं ग ॥

अर्थ: बगुले का शरीर तो उज्जवल है पर मन काला – कपट से भरा है – उससे  तो कौआ भला है जिसका
तन मन एक जैसा है और वह किसी को छलता भी नहीं है .
–97–

कबीर हमारा कोई नहीं हम काहू के नाहिं ।


पारै पहुंचे नाव ज्यौं मिलिके बिछुरी जाहिं ॥

अर्थ: इस जगत में न कोई हमारा अपना है और न ही हम किसी के ! जैसे नांव के नदी पार पहुँचने पर उसमें
मिलकर बैठे हुए सब यात्री बिछुड़ जाते हैं वैसे ही हम सब मिलकर बिछुड़ने वाले हैं. सब सांसारिक सम्बन्ध
यहीं छूट जाने वाले हैं

–98–

दे ह धरे का दं ड है सब काहू को होय ।


ज्ञानी भग
ु ते ज्ञान से अज्ञानी भग
ु ते रोय॥

अर्थ: दे ह धारण करने का दं ड – भोग या प्रारब्ध निश्चित है जो सब को भुगतना होता है . अंतर इतना ही है
कि ज्ञानी या समझदार व्यक्ति इस भोग को या दःु ख को समझदारी से भोगता है निभाता है संतुष्ट रहता है
जबकि अज्ञानी रोते हुए – दख
ु ी मन से सब कुछ झेलता है !

–99–

हीरा परखै जौहरी शब्दहि परखै साध ।


कबीर परखै साध को ताका मता अगाध ॥

अर्थ: हीरे की परख जौहरी जानता है – शब्द के सार– असार को परखने वाला विवेकी साधु – सज्जन होता
है . कबीर कहते हैं कि जो साधु–असाधु को परख लेता है उसका मत – अधिक गहन गंभीर है  !

–100–

एकही बार परखिये ना वा बारम्बार ।


बालू तो हू किरकिरी जो छानै सौ बार॥

अर्थ: किसी व्यक्ति को बस ठीक ठीक एक बार ही परख लो तो उसे बार बार परखने की आवश्यकता न
होगी. रे त को अगर सौ बार भी छाना जाए तो भी उसकी किरकिराहट दरू न होगी – इसी प्रकार मूढ़ दर्ज
ु न
को बार बार भी परखो तब भी वह अपनी मूढ़ता दष्ु टता से भरा वैसा ही मिलेगा. किन्तु सही व्यक्ति की
परख एक बार में ही हो जाती है !

–101–

पतिबरता मैली भली गले कांच की पोत ।


सब सखियाँ में यों दिपै ज्यों सूरज की जोत ॥

अर्थ: पतिव्रता स्त्री यदि तन से मैली भी हो भी अच्छी है . चाहे उसके गले में केवल कांच के मोती की माला
ही क्यों न हो. फिर भी वह अपनी सब सखियों के बीच सर्य
ू के तेज के समान चमकती है  !
संत कबीर दास जयंती पर जानें उनके महान जीवन के बारे में

Last Updated: June 28, 2018 By Gopal Mishra 63 Comments

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जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ,


मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।

कबीर एक ऐसी शख्शियत जिसने कभी शास्त्र नही पढा फिर भी ज्ञानियों की श्रेणीं में सर्वोपरी। कबीर, एक
ऐसा नाम जिसे फकीर भी कह सकते हैं और समाज सुधारक भी ।

मित्रों, कबीर भले ही छोटा सा एक नाम हो पर ये भारत की वो आत्मा है जिसने रूढियों और कर्मकाडों से
मुक्त भारत की रचना की है । कबीर वो पहचान है जिन्होने, जाति-वर्ग की दिवार को गिराकर एक अद्भत

संसार की कल्पना की।
मानवतावादी व्यवहारिक धर्म को बढावा दे ने वाले कबीर दास जी का इस दनि
ु या में प्रवेश भी अदभुत प्रसंग
के साथ हुआ।माना जाता है कि उनका जन्म  सन ् 1398 में ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन वाराणसी के निकट
लहराता नामक स्थान पर हुआ था ।उस दिन नीमा नीरू संग ब्याह कर डोली में बनारस जा रही थीं, बनारस
के पास एक सरोवर पर कुछ विश्राम के लिये वो लोग रुके थे। अचानक नीमा को किसी बच्चे के रोने की
आवाज आई वो आवाज की दिशा में आगे बढी। नीमा ने सरोवर में दे खा कि एक बालक कमल पुष्प में
लिपटा हुआ रो रहा है । निमा ने जैसे ही बच्चा गोद में लिया वो चुप हो गया।

नीरू ने उसे साथ घर ले चलने को कहा किन्तु नीमा के मन में ये प्रश्न उठा कि परिजनों को क्या जवाब
दें गे। परन्तु बच्चे के स्पर्श से धर्म, अर्थात कर्तव्य बोध जीता और बच्चे पर गहराया संकट टल गया। बच्चा
बकरी का दध
ू पी कर बङा हुआ। छः माह का समय बीतने के बाद बच्चे का नामकरण संस्कार हुआ। नीरू ने
बच्चे का नाम कबीर रखा किन्तु कई लोगों को इस नाम पर एतराज था क्योंकि उनका कहना था कि, कबीर
का मतलब होता है महान तो एक जल
ु ाहे का बेटा महान कैसे हो सकता है ? नीरू पर इसका कोई असर न
हुआ और बच्चे का नाम कबीर ही रहने दिया। ये कहना अतिश्योक्ति न होगी कि अनजाने में ही सही
बचपन में दिया नाम बालक के बङे होने पर सार्थक हो गया। बच्चे की किलकारियाँ नीरू और नीमा के मन
को मोह लेतीं। अभावों के बावजूद नीरू और नीमा बहुत खश
ु ी-खश
ु ी जीवन यापन करने लगे।

कबीर को बचपन से ही साधु संगति बहुत प्रिय थी। कपङा बुनने का पैतक
ृ व्यवसाय वो आजीवन करते रहे ।
बाह्य आडम्बरों के विरोधी कबीर निराकार ब्रह्म की उपासना पर जोर दे ते हैं। बाल्यकाल से ही कबीर के
चमत्कारिक व्यक्तित्व की आभा हर तरफ फैलने लगी थी। कहते हैं- उनके बालपन में काशी में एकबार
जलन रोग फैल गया था। उन्होने रास्ते से गुजर रही बुढी महिला की दे ह पर धूल डालकर उसकी जलन दरू
कर दी थी।
कबीर का बचपन बहुत सी जङताओं एवं रूढीयों से जूझते हुए बीत रहा था। उस दौरान ये सोच प्रबल थी कि
इंसान अमीर है तो अच्छा है । बङे रसख
ू वाला है तो बेहतर है । कोई गरीब है तो उसे इंसान ही न माना जाये।
आदमी और आदमी के बीच फर्क साफ नजर आता था। कानन
ू और धर्म की आङ में रसख
ू ों द्वारा गरीबों
एवं निम्नजाती के लोगों का शोषण होता था। वे सदै व सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध थे और इसे कैसे दरू
किया जाये इसी विचार में रहते थे।

एक बार किसी ने बताया कि संत रामानंद स्वामी ने सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लङाई छे ङ रखी है ।
कबीर उनसे मिलने निकल पङे किन्तु उनके आश्रम पहुँचकर पता चला कि वे मुसलमानों से नही मिलते।
कबीर ने हार नही मानी और पंचगंगा घाट पर रात के अंतिम पहर पर पहुँच गये और सीढी पर लेट गये।
उन्हे पता था कि संत रामानंद प्रातः गंगा स्नान को आते हैं। प्रातः जब स्वामी जी जैसे ही स्नान के लिये
सीढी उतर रहे थे उनका पैर कबीर के सीने से टकरा गया। राम-राम कहकर स्वामी जी अपना पैर पीछे खींच
लिये तब कबीर खङे होकर उन्हे प्रणाम किये। संत ने पूछा आप कौन? कबीर ने उत्तर दिया आपका शिष्य
कबीर। संत ने पुनः प्रश्न किया कि मैने कब शिष्य बनाया? कबीर ने विनम्रता से उत्तर दिया कि अभी-
अभी जब आपने राम-राम कहा मैने उसे अपना गुरुमंत्र बना लिया। संत रामदास कबीर की विनम्रता से
बहुत प्रभावित हुए और उन्हे अपना शिष्य बना लिये। कबीर को स्वामी जी ने सभी संस्कारों का बोध
कराया और ज्ञान की गंगा में डुबकी लगवा दी।

कबीर पर गुरू का रं ग इस तरह चढा कि उन्होने गुरू के सम्मान में कहा है ,

सब धरती कागज करू, लेखनी सब वनराज।


सात समंद्र
ु की मसि करु, गरु
ु गंण
ु लिखा न जाए।।
यह तन विष की बेलरी, गरु
ु अमत
ृ की खान।
शीश दियो जो गरु
ु मिले, तो भी सस्ता जान।।

ये कहना अतिश्योक्ति नही है कि जीवन में गुरू के महत्व का वर्णन कबीर दास जी ने अपने दोहों में पूरी
आत्मियता से किया है । कबीर मुसलमान होते हुए भी कभी मांस को हाँथ नही लगाया । कबीर जाँति-पाँति
और ऊँच-नीच के बंधनो से परे फक्कङ, अलमस्त और क्रांतिदर्शी थे। उन्होने रमता जोगी और बहता पानी
की कल्पना को साकार किया।
कबीर का व्यक्तित्व अनुकरणीय है । वे हर तरह की कुरीतियों का विरोध करते हैं। वे साधु-संतो और सूफी-
फकीरों की संगत तो करते हैं लेकिन धर्म के ठे केदारों से दरू रहते हैं। उनका कहना है कि-

हिंद ू बरत एकादशी साधे दध


ू सिंघाङा सेती।
अन्न को त्यागे मन को न हटके पारण करे सगौती।।
दिन को रोजा रहत है , राति हनत है गाय।
यहां खन
ू वै वंदगी, क्यों कर खश
ु ी खोदाय।।

जीव हिंसा न करने और मांसाहार के पीछे कबीर का तर्क बहुत महत्वपूर्ण है । वे मानते हैं कि दया, हिंसा
और प्रेम का मार्ग एक है । यदि हम किसी भी तरह की तष्ृ णां और लालसा पूरी करने के लिये हिंसा करें गे तो,
घण
ृ ां और हिंसा का ही जन्म होगा। बेजुबान जानवर के प्रति या मानव का शोषण करने वाले व्यक्ति कबीर
के लिये सदै व निंदनीय थे।

कबीर सांसारिक जिम्मेवारियों से कभी दरू नही हुए। उनकी पत्नी का नाम लोई था, पत्र
ु कमाल और पत्र
ु ी
कमाली। वे पारिवारिक रिश्तों को भी भलीभाँति निभाए। जीवन-यापन हे तु ताउम्र अपना पैतकृ कार्य
अर्थात जल
ु ाहे का काम करते रहे ।

कबीर घुमक्ङ संत थे अतः उनकी भाषा सधुक्कङी कहलाती है । कबीर की वांणी बहुरंगी है । कबीर ने किसी
ग्रन्थ की रचना नही की। अपने को कवि घोषित करना उनका उद्देश्य भी न था। उनकी मत्ृ यु के पश्चात
उनके शिष्यों ने उनके उपदे शों का संकलन किया जो ‘बीजक’ नाम से जाना जाता है । इस ग्रन्थ के तीन
भाग हैं, ‘साखी’, ‘सबद’ और ‘रमैनी’। कबीर के उपदे शों में जीवन की दार्शनिकता की झलक दिखती है ।
गुरू-महिमा, ईश्वर महिमा, सतसंग महिमा और माया का फेर आदि का सुन्दर वर्णन मिलता है । उनके
काव्य में यमक, उत्प्रेक्षा, रूपक, अनप्र
ु ास आदि अलंकारों का सन्
ु दर समावेश दिखता है । भाषा में सभी
आवश्यक सत्र
ू होने के कारण हजारी प्रसाद दिव्वेदी कबीर को “भाषा का डिक्टे टर” कहते हैं। कबीर का मल

मंत्र था,

“मैं कहता आँखन दे खी, तू कहता कागद की लेखिन”।

कबीर की साखियों में सच्चे गरू


ु का ज्ञान मिलता है । संक्षेप में कहा जा सकता है कि कबीर के काव्य का
सर्वाधिक महत्व धार्मिक एवं सामाजिक एकता और भक्ती का संदेश दे ने में है ।

कबीर दास जी का अवसान भी जन्म की तरह रहस्यवादी है । आजीवन काशी में रहने के बावजूद अन्त
समय सन ् 1518 के करीब मगहर चले गये थे क्योंकि वे कुछ भ्रान्तियों को दरू करना चाहते थे। काशी के
लिये कहा जाता था कि यहाँ पर मरने से स्वर्ग मिलता है तथा मगहर में मत्ृ यु पर नरक। उनकी मत्ृ यु के
पश्चात हिन्द ु अपने धर्म के अनुसार उनका अंतिम संस्कार करना चाहते थे और मुसलमान अपने
धर्मानुसार विवाद की स्थिती में एक अजीब घटना घटी उनके पार्थिव शरीर पर से चादर हट गई और वहाँ
कुछ फूल पङे थे जिसे दोनों समुदायों ने आपस में बाँट लिया। कबीर की अहमियत और उनके महत्व को
जायसी ने अपनी रचना में बहुत ही आतमियता से परिलाक्षित किया है ।
ना नारद तब रोई पुकारा एक जल
ु ाहे सौ मैं हारा।
प्रेम तन्तु नित ताना तनाई, जप तप साधि सैकरा भराई।।

मित्रों, ये कहना अतिश्योक्ति न होगी की कबीर विचित्र नहीं हैं सामान्य हैं किन्तु इसी साघारणपन में अति
विशिष्ट हैं। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व कोई नही है

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