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॥ शरल ग्रह शान्ति पध्यति:॥

॥ प्रयोगह: ॥

शरल ग्रह शान्ति पध्यति में पञ्चाङ्ग पूजा विधि दी गई है। प्रायः प्रत्येक संस्कार, व्रतोद्यापन, हवन आदि यज्ञ यज्ञादि में पञ्चाङ्ग पूजन का
विधान है। षोडशोपचार या पञ्चोपचार अर्चन का क्रम सामान्यतः प्रचलित है। अतः तत्सबंधी मंत्र दे दिये गये हैं। पुरुषसूक्त के षोडश मंत्र और रूद्रसूक्त
के नमस्ते रुद्र. आदि षोडश मंत्रों से भी सभी देव पूजन में अर्चन करने की सामान्य विधि है।
ध्यातव्य है कि पूजन के इस प्रकरण के अभ्यास से संकल्प विशेष का परिवर्तन करके विविध पूजा के आयोजन सामान्य रूप से कराये जा सकते हैं।
प्रत्येक पूजारंभ के पूर्व निम्नांकित आचार-अवश्य करने चाहिये-आत्मशुद्धि, आसन शुद्धि, पवित्र धारण, पृथ्वी पूजन, संकल्प, दीप पूजन, शंख
पूजन, घंटा पूजन और स्वस्तिवाचन तत्पश्चात् ही देव पूजन प्रारम्भ करना चाहिए।
शुभ मूहूर्त में शुद्ध वस्त्र धारण करके यजमान पूजा के लिए मण्डप में आये। दक्षिण ओर पत्नी को ग्रंथिबन्धन करके बैठाया जाय। यथासंभव शुद्ध श्वेत वस्त्र धारण
करना उत्तम होता है। तदनन्तर आत्म शुद्धि के लिए आचमन करें।
ॐ के शवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः।  तीन बार आचमन कर आगे दिये मंत्र पढ़कर हाथ धो लें। ॐ विष्णवे नमः।।
पुनः बायें हाथ में जल लेकर दाहिने हाथ से अपने ऊपर और पूजा सामग्री पर निम्न श्लोक पढ़ते हुए छिड़कें ।
ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तरः शुचिः।।
ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु, ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु ॐ पुण्डरीकाक्षः पुनातु।
विनियोग- आसन पवित्र करने के मंत्र का विनियोग पढ़कर जल गिराए –

ॐ पथ्ृ वीति मन्त्रस्य मेरुपष्ठ


ृ ऋषिः, सुतलं छन्दः, कूर्मो दे वता, आसन पवित्रकरणे विनियोगः।
आसन शुद्धि -नीचे लिखा मंत्र पढ़कर आसन पर जल छिड़के -
ॐ पृथ्वि! त्वया धृता लोका देवि ! त्वं विष्णुना धृता।
त्वं च  धारय  मां  देवि !  पवित्रां   कु रु  चासनम्।।
शिखाबन्धन-
ॐ मानस्तोके तनये मानऽआयुषि मानो गोषु मानोऽअश्वेषुरीरिषः। मानोव्वीरान् रुद्रभामिनो व्वधीर्हविष्मन्तः सदमित्त्वा हवामहे | ॐ चिद्रूपिणि महामाये
दिव्यतेजः समन्विते। तिष्ठ देवि शिखाबद्धे तेजोवृद्धिं कु रुष्व मे।।
कु श धारण- निम्न मंत्र से बायें हाथ में तीन कु श तथा दाहिने हाथ में दो कु श धारण करें।
ॐ पवित्रोस्थो वैष्णव्यौ सवितुर्व्वः प्रसवऽउत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रोण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य                    ते पवित्रपते पवित्रपूतस्य यत्कामः पुनेतच्छके यम्।
पुनः दायें हाथ को पृथ्वी पर उलटा रखकर ॐ पृथिव्यै नमः |
इससे भूमि की पञ्चोपचार पूजा का आसन शुद्धि करें।
पुनः ब्राह्मण यजमान के ललाट पर कुं कु म तिलक करें।
यजमान तिलक- स्वस्तिस्तु या विनाशाख्या पुन्यकल्यांणव्बृद्धिदा ।
विनायकप्रिया नित्यं ताम च स्वस्तिम ब्रुवंतु न:॥
ॐ आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवा मरुद्गणाः।
तिलकन्ते     प्रयच्छन्तु    धर्मकामार्थसिद्धये।
घृतदीप-(ज्योति) पूजन-
वद्दिदैवत्याय दीपपात्रय नमः-से पात्र की पूजा कर ईशान दिशा में घी का दीपक जलाकर अक्षत के ऊपर रखकर ॐ अग्निर्ज्ज्योतिज्ज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो
ज्ज्योतिज्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा । अग्निर्व्वर्च्चो ज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा सूर्योव्वर्चोज्ज्योतिर्व्वर्च्चः स्वाहा ।। ज्ज्योतिः सूर्य्यः सूर्य्यो ज्ज्योतिः स्वाहा।
भो दीप देवरूपस्त्वं कर्मसाक्षी ह्यविघ्नकृ त्।
यावत्पूजासमाप्तिः स्यात्तावदत्रा स्थिरो भव।।

ॐ भूर्भुवः स्वः दीपस्थदेवतायै नमः आवाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि नमस्करोमि।


शभ
ु ं कुरु तु कल्याणं आरोग्यं धनसंपदा | शत्रब
ु ुद्धि-विनाशाय दीपज्योती नमोऽस्तुते ||

शंखपूजन
शंख को चन्दन से लेपकर देवता के वायीं ओर पुष्प पर रखकर
ॐ शंखं चन्द्रार्क दैवत्यं वरुणं चाधिदैवतम्।
पृष्ठे प्रजापतिं विद्यादग्रे गङ्गासरस्वती।।
त्रौलोक्ये यानि तीर्थानि वासुदेवस्य चाज्ञया।
शंखे तिष्ठन्ति वै नित्यं तस्माच्छंखं प्रपूजयेत्।।
त्वं पुरा सागरोत्पन्नो विष्णुना विधृतः करे।
नमितः सर्वदेवैश्च पाझ्जन्य! नमोऽस्तुते।।
पाञ्चजन्याय विद्महे पावमानाय धीमहि तन्नः शंखः प्रचोदयात्। ॐ भूर्भवः स्वः शंखस्थदेवतायै नमः शंखस्थदेवतामावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धपुष्पाणि समर्पयामि
नमस्करोमि। शंख मुद्रा करें।
घण्टा पूजन-ॐ सर्ववाद्यमयीघण्टायै नमः,
आगमार्थन्तु देवानां गमनार्थन्तु रक्षसाम्।
कु रु घण्टे वरं नादं देवतास्थानसन्निधौ।।
ॐ भूर्भुवः स्वः घण्टास्थाय गरुडाय नमः गरुडमावाहयामि सर्वोपचारार्थे गन्धाक्षतपुष्पाणि समर्पयामि। गरुडमुद्रा दिखाकर घण्टा बजाऐं। दीपक के दाहिनी ओर
स्थापित कर दें। ॐ गन्धर्वदैवत्याय धूपपात्राय नमः इस प्रकार धूपपात्र की पूजा कर स्थापना कर दें।
स्वस्तिवाचन-
उसके बाद यजमान आचार्य एवं अन्य ऋत्विजों के साथ हाथ में पुष्पाक्षत लेकर स्वत्ययन पढ़े।
ॐ आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतोऽदब्धासोऽ परीतास उद्भिदः।
देवा नो यथा सदमिद् वृधे असन्नप्रायुवो रक्षितारो दिवे दिवे।।
देवानां भद्रा सुमतिर्ऋ जूयतां देवाना ँ रातिरभि नो निवर्तताम्।
देवाना ँ सख्यमुपसेदिमा व्वयं देवा न आयुः प्रतिरन्तु जीवसे।।
तान्पूर्वया निविदा हूमहे वयं भगं मित्रामदितिं दक्षमश्रिधम्।
अर्यमणं वरुण ँ सोममश्विना सरस्वती नः सुभगा मयस्करत्।।
तन्नो व्वातो मयोभु वातु भेषजं तन्माता पृथिवी तत्पिता द्यौः।
तद् ग्रावाणः सोमसुतो मयोभुवस्तदश्विना शृणुतं धिष्ण्या युवम्।।
तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम्।
पूषा नो यथा वेदसामसद् वृधे रक्षिता पायुरदब्धः स्वस्तये।।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः।
स्वस्ति नस्ताक्ष्र्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु।।
पृषदश्वा मरुतः पृश्निमातरः शुभं यावानो विदथेषु जग्मयः।
अग्निर्जिह्ना मनवः सूरचक्षसो  विश्वे नो देवा अवसागमन्निह।।
भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टु वा ँ सस्तनुभिर्व्यशेमहि देवहितं यदायुः।।
शतमिन्नु शरदो अन्ति देवा यत्रा नश्चक्रा जरसं तनूनाम्।
पुत्रसो यत्रा पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः।।
अदितिर्द्यौरदितिरन्तरिक्षमदितिर्माता स पिता स पुत्राः।
विश्वे देवा अदितिः पञ्चजना अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम्।।
ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष Ủ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिर्व्वनस्पतयः शान्तिर्विश्वेदेवाः शान्तिर्ब्रह्मशान्तिः सर्वं Ü शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः
सामा शान्तिरेधि।।
यतो यतः समीहसे ततो नोऽअभयं कुरू।
शं नः कुरु प्रजाभ्योऽभयं नः पशब्ु भ्यः।।
ॐ सर्वेषां स्वस्तिं भवतु, सर्वेषां शान्तिर्भवतु।
सर्वेषां पूर्णं भवतु, सर्वेषां मङ्गलं भवतु।।
सश ु ान्तिर्भवत।ु ।
पुनः हाथ हाथ में लिए पुष्प और अक्षत गणेश एवं गौरी पर चढ़ा दें। में पुष्प अक्षत आदि लेकर मंगल श्लोक पढ़े।
श्रीमन्महागणाधिपतये नमः। लक्ष्मीनारायणाभ्यां नमः। उमामहेश्वराभ्यां नमः। वाणीहिरण्यगर्भाभ्यां नमः। शचीपुरन्दराभ्यां नमः। मातापितृचरणकमलेभ्यो नमः।
इष्टदेवताभ्यो नमः। कु लदेवताभ्यो नमः। ग्रामदेवताभ्यो नमः। वास्तुदेवताभ्यो नमः। स्थानदेवताभ्यो नमः। सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो नमः।
सुमुखश्चैकदन्तश्च     कपिलो     गजकर्णकः  ।
लम्बोदरश्च   विकटो  विघ्ननाशो    विनायकः          ।।
धूम्रके तुर्गणाध्यक्षो    भालचन्द्रो       गजाननः          ।
द्वादशैतानि   नामानि   यः     पठेच्छृ णुयादपि          ।।
विद्यारम्भे   विवाहे   च   प्रवेशे   निर्गमे  तथा         ।
सङ्ग्रामे  सङ्कटे  चैव  विघ्नस्तस्य  न  जायते          ।।
शुक्लाम्बरधरं     देवं   शशिवर्णं    चतुर्भुजम्           ।
प्रसन्नवदनं     ध्यायेत्       सर्वविघ्नोपशान्तये           ।।
अभीप्सितार्थ-सिद्ध î र्थं   पूजितो  यः  सुराऽसुरैः         ।
सर्वविघ्नहरस्तस्मै      गणाधिपतये       नमः            ।।
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये   शिवे    सर्वार्थसाधिके !         ।
शरण्ये त्रयम्बके    गौरि   नारायणि ! नमोऽस्तु ते      ।।
सर्वदा   सर्वकार्येषु   नास्ति    तेषाममङ्गलम्          ।
येषां    हृदिस्थो   भगवान्   मङ्गलायतनो   हरिः    ।।
तदेव  लग्नं   सुदिनं  तदेव ताराबलं चन्द्रबलं तदेव      ।
विद्यावलं दैवबलं तदेव लक्ष्मीपते तेऽङ्घ्रियुगं स्मरामि।।
लाभस्तेषां    जयस्तेषां    कु तस्तेषां      पराजयः      ।
येषामिन्दीवरश्यामो        हृदयस्थो      जनार्दनः     ।।
यत्र   योगेश्वरः   कृ ष्णो   यत्र   पार्थो   धनुर्धरः      ।
तत्र     श्रीर्विजयो         भूतिध्र्रुवा   नीतिर्मतिर्मम  ।।
अनन्याश्चिन्तयन्तो    मां    ये    जनाः  पर्युपासते      ।
तेषां     नित्याभियुक्तानां    योगक्षेमं    वहाम्यहम्    ।।
स्मृतेः   सकलकल्याणं    भाजनं    यत्र   जायते       ।
पुरुषं   तमजं    नित्यं   ब्रजामि    शरणं   हरिम्        ।।
सर्वेष्वारम्भकार्येषु               त्रयस्त्रिभुवनेश्वराः     ।
देवा    दिशन्तु    नः   सिद्धिं   ब्रह्मेशानजनार्दनाः      ।।
विश्वेशं माधवं  ढु ण्ढिं  दण्डपाणिं  च  भैरवम्        ।
वन्दे काशीं गुहां  गङ्गां भवानीं मणिकर्णिकाम्      ।।
वक्रतुण्ड !    महाकाय !    कोटिसूर्यसमप्रभ !         ।
निर्विघ्नं   कु रु   मे  देव !  सर्वकार्येषु  सर्वदा           ।।
विनायकं गुरुं भानुं ब्रह्मा विष्णु महेश्वरान ।
सरस्वतीं च प्रणंयादौ सर्वकामार्थ सिद्ध्ये ।।
हाथ में लिये अक्षत-पुष्प को गणेशाम्बिका पर चढ़ा दें।
संकल्प
दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्प,कु शा और द्रव्य लेकर संकल्प करे।
हरिः ॐ तत् सत् विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः आद्यः ॐ नमः परमात्मने श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य श्री ब्रह्मणोऽन्हि द्वितीय परार्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे –
वैवस्वतमन्वन्तरे अष्टाविंशति तमे युगे कलियुगे कलिप्रथमचरणे जम्बूद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत-ब्रःन्वर्तैक देशे पुण्यक्षेत्रे विक्रमशके बौद्धावतारे वर्तमाने यथानाम संवत्सरे
यथायन सूर्ये यथाॠतौ च महामांगल्य प्रदे अमुक मासे अमुक पक्षे अमुक तिथौ अमुक वासरे यथा नक्षत्रे यथाराषिषिस्थिते सूर्ये यथाराषिषिस्थिते चंद्रे यथाराषिषिस्थिते देवगुरु
यथा-यथा राशि स्थितेषु शेषेषु ग्रहेषु सत्सु यथा लगन्मुहुर्त योग करणान्वितायाम्-एवं ग्रहगुण विशेषण विशिष्टायां शुभ पुण्य तिथौ श्रुति स्मृति पुराणोक्त फ़लप्राप्तिकामः अमुक
गोत्रः अमुक नामोऽहम् .....(शर्मा / वर्मा / गुप्तोऽहं जो हो सपत्नीकः ) ममाऽत्मनः सकु टुम्बस्यजन्मलग्नतो वा दुःस्थानगत ग्रहजन्यसकलारिष्ट निवृत्यर्थम्-उत्पन्न-उत्पत्स्यमान-
अखिलारिष्टनिवृत्तये-दीर्घायुष्य सततारोग्यतावाप्तये धन-धान्य संरिद्ध्यर्थम् च- कायिक वाचिक मानसिक सांसर्गिक चतुर्विध पुरुषार्थ प्राप्त्यर्थम् च,धन-धान्य-पुत्र-पौत्रादि
अनवच्छिन्न सत्संगति लाभार्थम् , शत्रु पराजय पूर्वकं बहु कीर्त्यादि अनेकानेक अभ्युदय फ़लप्राप्त्यर्थम् च सर्वाभीष्ट सिद्धये श्रीपरमेश्वर प्रित्यर्थम च ग्रह शान्तिमह करिश्ये ॥
तदं गत्वें न स्वस्ति पुण्याहवाचन मातक
ृ ा पूजनं वसोर्ध्दारा पूजनम ् आयुश्यमंत्रजपं सांकल्पिकेन विधिना
नान्दीश्राद्धमाचार्यादिवरणानि च करिष्ये तत्रादौ निर्विघ्नता सिध्यर्थं गणेशाम्विकयो: पज
ू नं करिष्ये ।

इसके बाद कर्मपात्र में थोड़ा गंगाजल छोड़कर गन्धाक्षत, पुष्प से पूजा कर प्रार्थना करें।
ॐ गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि! सरस्वति!।
नर्म्मदे! सिन्धु कावेरि! जलेऽस्मिन् सन्निधिं कु रु।।
अस्मिन् कलशे सर्वाणि तीर्थान्यावाहयामि नमस्करोमि।
कर्मपात्र का पूजन करके उसके जल से सभी पूजा वस्तुओं को सींचे।
गणेश गौरी पूजन
हाथ में अक्षत लेकर-भगवान् गणेश का ध्यान-
गजाननं   भूतगणादिसेवितं  कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।।
गौरी का ध्यान -
नमो देव्यै   महादेव्यै  शिवायै  सततं  नमः।
नमः प्रकृ त्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।
श्री गणेशाम्बिकाभ्यां  नमः, ध्यानं समर्पयामि।
गणेश का आवाहन-
हाथ में अक्षत लेकर ॐ गणानां त्वा गणपति ँ हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ँ हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ँ हवामहे वसो मम। आहमजानि गर्भधमा
त्वमजासि गर्भधम्।।
एह्येहि हेरम्ब महेशपुत्र !   समस्तविघ्नौघविनाशदक्ष !।
माङ्गल्यपूजाप्रथमप्रधान गृहाण पूजां भगवन् ! नमस्ते।।
ॐ भूर्भुवः स्वः सिद्धिबुद्धिसहिताय गणपतये नमः, गणपतिमावाहयामि, स्थापयामि, पूजयामि च।
हाथ के अक्षत को गणेश जी पर चढ़ा दें। पुनः अक्षत लेकर गणेशजी की दाहिनी ओर गौरी जी का आवाहन करें।
गौरी का आवाहन -
ॐ अम्बे अम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश्चन।
ससस्त्यश्वकः   सुभद्रिकां   काम्पीलवासिनीम्।।
हेमाद्रितनयां देवीं वरदां शङ्करप्रियाम्।
लम्बोदरस्य जननीं गौरीमावाहयाम्यहम्।।
ॐभूर्भुवः स्वः गौर्यै नमः, गौरीमावाहयामि, स्थापयामि,
पूजयामि च।
प्रतिष्ठा-
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ँ समिमं दधातु।
विश्वे देवास इह  मादयन्तामो 3 म्प्रतिष्ठ।।
अस्यै प्राणाः प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणाः क्षरन्तु च।
अस्यै    देवत्वमर्चायै  मामहेति  च  कश्चन।।
गणेशाम्बिके !   सुप्रतिष्ठिते   वरदे भवेताम्।
प्रतिष्ठापूर्वकम् आसनार्थे अक्षतान् समर्पयामि गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।
(आसन के लिए अक्षत समर्पित करे)।
पाद्य, अर्ध्य, आचमनीय, स्नानीय और पुनराचमनीय हेतु जल
ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।।
एतानि पाद्याघ्र्याचमनीयस्नानीयपुनराचमनीयानि समर्पयामि गणेशाम्बिकाभ्यां नमः।
दुग्धस्नान-ॐ पय: पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः पयस्वतीः। प्रदिशः सन्तु मह्यम्।।
कामधेनुसमुद्भूतं सर्वेषां जीवनं परम्।
पावनं यज्ञहेतुश्च पयः स्नानार्थमर्पितम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पयः स्नानं समर्पयामि।
दधिस्नान - ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखाकरत्प्रण आयू ँ षि तारिषत्।।
पयसस्तु समुद्भूतं मधुराम्लं शशिप्रभम्।
दध्यानीतं मया देव! स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दधिस्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)
घृत स्नान - ॐ घृतं मिमिक्षे घृतमस्य योनिर्घृते श्रितो घृतम्वस्य धाम।
अनुष्वधमा वह मादयस्व स्वाहाकृ तं वृषभ वक्षि हव्यम्।।
नवनीतसमुत्पन्नं  सर्वसंतोषकारकम्।
घृतं तुभ्यं प्रदास्यामि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, घृतस्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)
मधुस्नान -ॐ मधुव्वाताऽऋतायते मधुक्षरन्ति सिन्धवः। माध्वीर्नः
सन्त्वोषधीः मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिव ँ रजः।
मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो व्वनस्पतिर्म्मधुमाँऽ 2 अस्तु सूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः।।
पुष्परेणुसमुद्भूतं   सुस्वादु   मधुरं  मधु।
तेजः पुष्टिकरं दिव्यं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, मधुस्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)
शर्क रास्नान - ॐ अपा ँ रसमुद्वयस Ü सूर्ये सन्त ँ समाहितम्।
अपा Ủ रसस्य यो रसस्तं वो गृह्णाम्युत्तममुपयामगृहीतोऽसीन्द्राय त्वा जुष्टं गृह्णाम्येष ते                             योनिरिन्द्राय त्वा जुष्टतमम्।।
इक्षुरससमुद्भूतां  शर्क रां पुष्टिदां  शुभाम्।
मलापहारिकां दिव्यां स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शर्क रास्नानं समर्पयामि।
(पुनः जल स्नान करायें।)
पञ्चामृतस्नान - ॐ पञ्चनद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सश्रोतसः।
सरस्वती तु पञ्चधा सोदेशेऽभवत्सरित्।।
पञ्चामृतं मयानीतं पयो दधि घृतं मधु।
शर्क रया समायुक्तं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पञ्चामृतस्नानं समर्पयामि।
शुद्धोदकस्नान-ॐ शुद्धवालः सर्वशुद्धवालो मणिवालस्तऽआश्विनाः श्येतः श्येताक्षोऽरुणस्ते रुद्राय पशुपतये                         कर्णायामा अवलिप्तारौद्रा
नभोरूपाः पार्जन्याः।।
गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धुकावेरि स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, शुद्धोकस्नानं समर्पयामि।
आचमन - शुद्धोकदकस्नानान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
(आचमन के लिए जल दें।)
वस्त्र-ॐ युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उ श्रेयान् भवति जायमानः।
तं धीरासः कवय उन्नयन्ति स्वाध्यो3 मनसा देवयन्तः।।
शीतवातोष्णसंत्राणं लज्जाया रक्षणं परम्।
देहालङ्करणं वस्त्रामतः शान्तिं प्रयच्छ मे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, वस्त्रां समर्पयामि।
वस्त्रान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
वस्त्र के बाद आचमन के लिए जल दे।
उपवस्त्र-ॐ सुजातो ज्योतिषा सह शर्म वरूथमाऽसदत्स्वः।
वासो अग्ने विश्वरूप ँ सं व्ययस्व विभावसो।।
यस्याभावेन शास्त्रोक्तं कर्म किञ्चिन्न सिध्यति।
उपवस्त्रं   प्रयच्छामि    सर्वकर्मापकारकम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, उपवस्त्रं  समर्पयामि।
उपवस्त्र न हो तो रक्त सूत्र अर्पित करे।
आचमन -उपवस्त्र के बाद आचमन के लिये जल दें।
यज्ञोपवीत -ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रां प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्यंर् प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।
यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य त्वा यज्ञोपवीततेनोपनह्यामि।
नवभिस्तन्तुभिर्युक्तं त्रिगुणं देवतामयम्।
उपवीतं मया दत्तं गृहाण परमेश्वर !।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, यज्ञोपवीतं समर्पयामि।
आचमन -यज्ञोपवीत के बाद आचमन के लिये जल दें।
चन्दन -ॐ त्वां गन्धर्वा अखनँस्त्वामिन्द्रस्त्वां बृहस्पतिः।
त्वामोषधे सोमो राजा विद्वान् यक्ष्मादमुच्यत।।
श्रीखण्डं चन्दनं दिव्यं  गंधाढ्यं  सुमनोहरम्।
विलेपनं  सुरश्रेष्ठ !   चन्दनं   प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, चन्दनानुलेपनं समर्पयामि।
अक्षत -ॐ अक्षन्नमीमदन्त ह्यव प्रिया अधूषत।
अस्तोषत स्वभानवो विप्रा नविष्ठया मती योजान्विन्द्र ते हरी।।
अक्षताश्च सुरश्रेष्ठ कु ङ्कु माक्ताः सुशोभिताः।
मया  निवेदिता   भक्त्या  गृहाण  परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, अक्षतान् समर्पयामि।
पुष्पमाला -ॐ ओषधीः  प्रति  मोदध्वं  पुष्पवतीः प्रसूवरीः।
अश्वा इव सजित्वरीर्वीरुधः पारयिष्णवः।।
माल्यादीनि सुगन्धीनि मालत्यादीनि वै प्रभो।
मयाहृतानि पुष्पाणि पूजार्थं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पुष्पमालां समर्पयामि।
दूर्वा -ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि।
एवा नो दूर्वे प्रतनुसहश्रेण शतेन च।।
दूर्वाङ्कु रान् सुहरितानमृतान् मङ्गलप्रदान्।
आनीतांस्तव पूजार्थं गृहाण गणनायक !।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दूर्वाङ्कु रान् समर्पयामि।
सिन्दूर-ॐ सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः।
घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः।।
सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम्।
शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, सिन्दूरं समर्पयामि।
अबीर गुलाल आदि नाना परिमल द्रव्य-
ॐ अहिरिव भोगैः पर्येति बाहुं ज्याया हेतिं परिबाधमानः।
हस्तघ्नो विश्वा वयुनानि विद्वान् पुमान् पुमा ँ सं परि पातु विश्वतः।।
अबीरं च गुलालं च हरिद्रादिसमन्वितम्।
नाना परिमलं द्रव्यं गृहाण  परमेश्वर!।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, नानापरिमलद्रव्याणि समर्पयामि।
सुगन्धिद्रव्य-ॐ अहिरिव 0 इस पूर्वोक्त मंत्र से चढ़ाये
दिव्यगन्धसमायुक्तं महापरिमलाद्भुतम्।
गन्धद्रव्यमिदं भक्त्या दत्तं वै परिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, सुगन्धिद्रव्यं समर्पयामि।
धूप- ॐ धूरसि धूर्व्व धूर्व्वन्तं धूर्व्वतं योऽस्मान् धूर्व्वति तं धूर्व्वयं वयं धूर्व्वामः। देवानामसि वद्दितम ँ                     सस्नितमं पप्रितमं जुष्टतमं देवहूतमम्।।
ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत् बाहु राजन्यः कृ तः । उरू तदस्य यद्र्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ।।
वनस्पतिरसोद्भूतो गन्धाढ्यो गन्ध उत्तमः।
आघ्रेयः सर्वदेवानां धूपोऽयं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, धूपमाघ्रापयामि।
दीप- ॐ अग्निर्ज्योतिज्योतिरग्निः स्वाहा सूर्यो ज्योतिर्ज्योतिः सूर्यः स्वाहा।
अग्निर्वर्चो ज्योतिर्वर्चः स्वाहा सूर्यो वर्चो ज्योतिर्वर्च स्वाहा।।
ज्योर्ति सूर्यः सूर्यो ज्योतिः स्वाहा।।
चन्द्रमा मनसो जातः चक्षोः सूयो अजायत । श्रोत्राद्वायुश्च प्रनाश्च मुखादग्निरजायत ।।
साज्यं च वर्तिसंयुक्तं वद्दिना योजितं मया।
दीपं गृहाण देवेश त्रौलौक्यतिमिरापहम्।।
भक्त्या दीपं प्रयच्छामि देवाय परमात्मने।
त्राहि मां निरयाद् घोराद् दीपज्योतिर्नमोऽस्तु ते।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, दीपं दर्शयामि।
हस्तप्रक्षालन -‘ॐ हृषीके शाय नमः’ कहकर हाथ धो ले।
नैवेद्य-पुष्प चढ़ाकर बायीं हाथ से पूजित घण्टा बजाते हुए।
ॐ नाभ्या आसीदन्तरिक्ष Ủ शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत।
पद्भ्यां भूमिर्दिशः श्रोत्राँत्तथा लोकाँ2 अकल्पयन्।।
अन्नपतेन्नस्य नो देह्यानमिवस्य शुष्मिण: प्र प्र दातारं तारिष s ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे ||
ॐ प्राणाय स्वाहा। ॐ अपानाय स्वाहा। ॐ समानाय स्वाहा।
ॐ उदानाय स्वाहा। ॐ व्यानाय स्वाहा।
शर्क राखण्डखाद्यानि  दधिक्षीरघृतानि  च।
आहारं भक्ष्यभोज्यं च नैवेद्यं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, नैवेद्यं निवेदयामि।
नैवेद्यान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि।
ऋतुफल - ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पा याश्च पुष्पिणीः।
बृहस्पतिप्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व ँ हसः।।
इदं फलं मया देव स्थापितं पुरतस्तव।
तेन मे सफलावाप्तिर्भवेज्जन्मनि जन्मनि।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, ऋतुफलानि समर्पयामि।
फलान्ते आचमनीयं जलं समर्पयामि। जल अर्पित करे। ॐ मध्ये-मध्ये पानीयं समर्पयामि। उत्तरापोशनं समर्पयामि हस्तप्रक्षालनं समर्पयामि मुखप्रक्षालनं समर्पयामि।
करोद्वर्तन-ॐ अ ँ शुना ते अ ँ शुः पृच्यतां परुषा परुः।
गन्धस्ते सोममवतु मदाय रसो अच्युतः।।
चन्दनं मलयोद्भुतं कस्तूर्यादिसमन्वितम्।
करोद्वर्तनकं देव गृहाण परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, करोद्वर्तनकं चन्दनं समर्पयामि।
ताम्बूल -ॐ यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तोऽस्यासीदाज्यं ग्रीष्म इध्मः शरद्धविः।।
पूगीफलं महद्दिव्यं नागवल्लीदलैर्युतम्।
एलादिचूर्णसंयुक्तं ताम्बूलं प्रतिगृह्यताम्।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, मुखवासार्थम् एलालवंगपूगीफलसहितं ताम्बूलं समर्पयामि।
(इलायची, लौंग-सुपारी के साथ ताम्बूल अर्पित करे।)
दक्षिणा-ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
हिरण्यगर्भगर्भस्थं हेमबीजं विभावसोः।
अनन्तपुण्यफलदमतः शान्तिं प्रयच्छ मे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, कृ तायाः पूजायाः साद्गुण्यार्थे द्रव्यदक्षिणां समर्पयामि। (द्रव्य दक्षिणा समर्पित करे।)
विशेषार्घ्य-ताम्रपात्र में जल, चन्दन, अक्षत, फल, फू ल, दूर्वा और दक्षिणा रखकर अर्घ्यपात्र को हाथ में लेकर निम्नलिखित मन्त्र पढ़ेंः-
ॐ रक्ष रक्ष गणाध्यक्ष रक्ष त्रौलोक्यरक्षक।
भक्तानामभयं कर्ता त्राता भव भवार्णवात्।।
द्वैमातुर कृ पासिन्धो षाण्मातुराग्रज प्रभो!।
वरदस्त्वं वरं देहि वाञ्िछतं वाञ्छितार्थद।।
गृहाणाघ्र्यमिमं देव सर्वदेवनमस्कृ तम्।
अनेन सफलाघ्र्येण फलदोऽस्तु सदा मम।
अम्बिका को भी विशेषार्घ दे ---ॐ रूपं देहि जयं देहि सौभाग्यं देहि देवि मे | पुत्रान् देहि धनं देहि सर्वान् कामास्च देहि मे ||

ॐ गणेशाम्बिकायै नमः, विशेषार्घ्यं समर्पयामि ||

आरती-ॐ इद ँ हविः प्रजननं मे अस्तु दशवीर ँ सर्वगण ँ स्वस्तये।


आत्मसनि प्रजासनि पशुसनि लोकसन्यभयसनि।
अग्निः प्रजां बहुलां मे करोत्वन्नं पयो रेतो अस्मासु धत्त।।
ॐ आ रात्रि पार्थिव ँ रजः पितुरप्रायि धामभिः।
दिवः सदा ँ सि बृहती वि तिष्ठस आ त्वेषं वर्तते तमः।।
कदलीगर्भसम्भूतं कर्पूरं तु प्रदीपितम्।
आरार्तिकमहं कु र्वे पश्य मे वरदो भव।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, अरार्तिकं समर्पयामि।
(कर्पूर की आरती करें, आरती के बाद जल गिरा दें।)
मन्त्र पुष्पांजलि-अंजली में पुष्प लेकर खड़े हो जायें।
ॐ यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्रा पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।
ॐ राजाधिराजाय प्रसह्ये साहिने | नमो वयं वैश्रवणाय कुर्महे
स मे कामान्कामकामाय मह्यम ्| कामेश्वरो वैश्रवणो ददातु|
कुबेराय वैश्रवणाय | महाराजाय नम: ॐ स्वस्ति
साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यं माहाराज्यमाधिपत्यमयं समंतपर्यायी
स्यात्सार्वभौम: सार्वायष
ु आंतादापरार्धात्पथि
ृ व्यै समद्र
ु पर्यंता या एकराळिति
तदप्येष श्लोकोऽभिगीतो मरुत: परिवेष्टारो मरुत्तस्यावसन्गहृ े
आविक्षितस्य कामप्रेर्विश्वेदेवा: सभासद इति
ॐ विश्वताश्चक्षुरुत विश्वतोमख ु ो विश्वतोबाहुरुत विश्वतस्पात |
सं बाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावा भम
ू ी जनयन ् दे व एकः ||
ॐ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात ्।
ॐ गिरिजायै विद्महे शिवप्रियायै धीमहि। तन्नो गौरी प्रचोदयात ्।
गजाननं   भूतगणादिसेवितं  कपित्थजम्बूफलचारुभक्षणम्।
उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्।।
दे वि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी दे वि चराचरस्य ॥
नानासुगन्धिपुष्पाणि यथाकालोद्भवानि च।
पुष्पाञ्जलिर्मया दत्तं गृहाण परमेश्वर।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, पुष्पाञ्जलिं समर्पयामि। (पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।)
प्रदक्षिणा -ॐ ये तीर्थानि प्रचरन्ति सृकाहस्ता निषङ्गिणः।
तेषा ँ सहस्रयोजनेऽव  धन्वानि   तन्मसि।
यानि कानि च पापानि जन्मान्तरकृ तानि च।
तानि सर्वाणि  नश्यन्तु  प्रदक्षिणपदे  पदे।।
ॐ भूर्भुवः स्वः गणेशाम्बिकाभ्यां नमः, प्रदक्षिणां समर्पयामि।
(प्रदक्षिणा करे।)
प्रार्थना।।
विघ्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय लम्बोदराय सकलाय जगद्धिताय।
नागाननाय श्रुतियज्ञविभूषिताय गौरीसुताय गणनाथ नमो नमस्ते।।
भक्तार्तिनाशनपराय गणेश्‍वराय सर्वेश्‍वराय शभ
ु दाय सुरेश्‍वराय ।

विद्याधराय विकटाय च वामनाय भक्तप्रसन्नवरदाय नमो नमस्ते ॥

नमस्ते ब्रह्मरूपायविष्णुरूपाय ते नमः नमस्ते रुद्ररूपाय करिरूपाय ते नमः ।

विश्‍वरूपस्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मचारिणे भक्तप्रियाय दे वाय नमस्तभ्


ु यंविनायक ॥

त्वां विघ्नशत्रद
ु लनेति च सुन्दरे ति भक्तप्रियेति सुखदे ति फलप्रदे ति ।

विद्याप्रदे त्यघहरे ति च ये स्तव


ु न्ति तेभ्यो गणेश वरदो भव नित्यमेव ॥
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया |

सम्मोहितं देवि समस्तमेतत् त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ||

लम्बोदर नमस्तुभ्यं सततं मोदकप्रिय। निर्विविघ्नं कु रु मे देव सर्वकार्येषु सर्वदा।।


अनया पूजया सिद्धि-बुद्धि-सहितः श्री गणेशाम्बिका साङ्गः परिवारः प्रीयताम् नमम ।। श्रीविघ्नराजप्रसादात्कर्तव्यामुककर्मनिर्विघ्नसमाप्तिश्चास्तु।

वरुणकलशस्थापन

हाथ में गन्ध, अक्षत और पुष्प लेकर पृथ्वी की पूजा करें-


ॐ भूरसि भूमिरस्यदितिरसि विश्वधाया विश्वस्य भुवनस्य धर्त्री। पृथिवीं यच्छ पृथिवीं दृ Ủ ह पृथिवीं माहि Ủ सीः।
कलश स्थापित किये जाने वाली भूमि पर रोली से अष्टदल कमल बनाकर उत्तान हाथों से भूमि का स्पर्श करें-
 ॐ महीद्यौः पृथिवी चन इमं यज्ञं मिमिक्षताम्। पिपृतान्नो भरीमभिः।।
पुनः धान्यमसि मंत्र से जौ रखें-ॐ धान्यमसि धिनुहि देवान्प्राणायत्त्वोदानायत्वा व्यानायत्वा दीर्घानुप्रसितिमायुषेधान्देवो वः सविता हिरण्यपाणिः प्रतिगृभ्णात्वच्छिदे्रेण पाणिना
चक्षुषे त्वां महीनां पयोसि।।
कलश में स्वस्तिक का चिह्न बनाकर तीन धागेवाली मौली को उसमें लपेंटे। पुनः धातु या मिट्टी के कलश को जौ के ऊपर ‘आ जिघ्र’ इस मंत्र को पढ़कर स्थापित करें।-
ॐ आजिघ्र कलशं मह्या त्वा विशत्विंदवः। पुनरूज्र्जा निवर्तस्वसानः। सहश्रन्धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनम्र्मा विशताद्रयिः।।
कलश में जल-ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनीस्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमासीद।
गन्ध प्रक्षेप-ॐ गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्नये श्रियम्।
चन्दन लेपकर सर्वौषधि डालें। ॐ या ओषधीः पूर्वा जाता देवेभ्यस्त्रिायुगं पुरा। मनै नु बभ्रूणामहं शतं धामानि सप्त च।।
धान्य प्रक्षेप-ॐ धान्यमसि धिनुहि। इस पूर्वोक्त मंत्र से।
दूर्वा प्रक्षेप-ॐ काण्डात्काण्डात्प्ररोहन्ती परुषः परुषस्परि। एवानो दूर्वे प्रतनु सहश्रेण शतेन च।।
पंचपल्लव प्रक्षेप-ॐ अश्वत्थे वो निषदनं पर्णे वो वसतिष्कृ ता गोभाज इत्किला सथ यत्सनवथ पूरुषम्।।
सप्तमृत्तिका प्रक्षेप-ॐ स्योना पृथिविनो भवानृक्षरा निवेशनी। यच्छा नः शम्र्म सप्रथाः।
पूगीफल प्रक्षेप-ॐ याः फलिनीर्या अफला अपुष्पायाश्च पुष्पिणीः। बृहस्पति प्रसूतास्ता नो मुञ्चन्त्व Ủ हसः।।
पंचरत्न प्रक्षेप-ॐ परिवाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् दधद्रत्नानि दाशुषे।।
दक्षिणा प्रक्षेप-ॐ हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। सदाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
कु शपवित्र प्रक्षेप-ॐ पवित्रोस्थो वैष्णव्यौ सविर्तुर्वः प्रसव उत्पुनाम्यच्छिद्रेण पवित्रोण सूर्यस्य रश्मिभिः। तस्य ते पवित्रापते पवित्रापूतस्य यत्कामः पुने तच्छके यम्।
मौन रहकर पुष्प डालें। लाल वस्त्र या मौली कण्ठ में लपेटें-ॐ युवा सुवासाः परिवीत आगात् स उश्रेयान् भवति जायमानः। तं धीरासः कवय उन्नयन्ति साध्यो मनसा देवयन्तः।।
चावल से भरा पूर्ण पात्र कलश के ऊपर रखें 
               ॐ पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत। 
                 वस्नेव विक्रीणावहा इषमूर्ज र्ठ. शतक्रतो।।
रक्त वस्त्र से लिपटा नारियल-ॐ श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च पत्न्यावहो रात्रो पाश्र्वे नक्षत्राणि रुपमश्विनौ व्यात्तम्। इष्णन्निषाणामुम्म इषाण सर्वलोकम्म इषाण।।
वरुणावाहन-ॐ तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भिः। अहेडमानो वरुणेह बोद्ध î रुश कृ समान आयुः प्रमोषीः।। ॐ भूर्भुवः स्वः अस्मिन् कलशे वरुणं साङ्ं
सपरिवारं सायुधं सशक्तिकम् आवाहयामि स्थापयामि। ध्यानम्-वरुणः पाशभूत्सौम्यः प्रतीच्यां मकराश्रयः। पाशहस्तात्मको देवो जलराश्यधिपो महान्।।
हाथ में अक्षत पुष्प लेकर प्रतिष्ठा-ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ र्ठ. समिमं दधातु। विश्वेदेवा स इह मादयन्तामों प्रतिष्ठ। ॐ वरुणाय नमः
सुप्रतिष्ठितो वरदो भव
पुनः ॐ भूर्भुवः स्वः अपां पतये वरुणाय नमः इस मंत्र से पञ्चोपचार या षोडशोपचार पूजन कर ॐ तत्त्वायामि इस पूर्वोक्त मन्त्रा से पुष्पाञ्जलि अर्पित करे।  ॐ अनेन पूजनेन
वरुणः प्रीयताम् जल छोड़ दें।
गङ्गाद्यावाहन-ॐ सर्वे समुद्राः सरितस्तीर्थानि जलदा नदाः। आयान्तु मम शान्त्यर्थं दुरितक्षयकारकाः।।
पुनः कलश पर अक्षत छींटें।-ॐ ऋग्वेदाय नमः। ॐ यजुर्वेदाय नमः। ॐ सामवेदाय नमः। ॐ अथर्ववेदाय नमः। ॐ कलशाय नमः। ॐ रुद्राय नमः। ॐ समुद्राय नमः। ॐ गङ्गायै
नमः। ॐ यमुनायै नमः। ॐ सरस्वत्यै नमः। ॐ कलशकु म्भाय नमः।
अनामिका से कलश का स्पर्श कर पढ़ें।
ॐ कलशस्य मुखे विष्णुः कण्ठे रुद्रः समाश्रितः।
मूले त्वस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः।।
कु क्षौ तु सागराः सप्त सप्तद्वीपा वसुन्धरा।
ऋग्वेदोऽथ यजुर्वेदः सामवेदो ह्यथर्वणः।।
अंगैश्च सहिताः सर्वे कलशन्तु समाश्रिताः।
अत्रा गायत्री सावित्री शान्तिः पुष्टिकरी तथा।
आयान्तु यजमानस्य दुरितक्षयकारकाः।।
ततः गायत्रयादिभ्यो नमः इस मंत्र से पञ्चोपचार पूजन करें।
कलश प्रार्थना-
ॐ देवदानवसम्वादे मध्यमाने महोदधौ।
उत्पन्नोसि तदा कु म्भ विघृतो विष्णुना स्वयम्।।
त्वत्तोये सर्वतीर्थानि देवाः सर्वे त्वयि स्थिताः।
त्वयि तिष्ठन्ति भूतानि त्वयि प्राणाः प्रतिष्ठिताः।।
शिवः स्वयं त्वमेवासि विष्णुस्त्वं च प्रजापतिः।
आदित्या वसवो रुद्रा विश्वेदेवाः सपैतृकाः।।
त्वयि तिष्ठन्ति सर्वेऽपि यतः कामफलप्रदः।
त्वत्प्रसादादिदं कर्म कर्तुमीहे जलोद्भव।
सान्निध्यं कु रु मे देव प्रसन्नो भव सर्वदा।।
नमो नमस्ते स्फटिकप्रभाय सुश्वेतहाराय सुमङ्लाय।
सुपाशहस्ताय झषासनाय जलाधिनाथाय नमो नमस्ते।।

जल लेकर-ॐ अनया पूजया कलशे वरुणाद्यावाहितदेवताः प्रीयन्ताम् यह पढ़कर जल छोड़ दें। इति कलशपूजाविधि।

पुण्याहवाचन

पुण्याहवाचन के दिन आरम्भें वरुण-कलशके पास जलसे भरा एक पात्र (कलश) भी रख दे । वरुण-कलशके
पज
ू नके साथ-साथ

इसका भी पज
ू न कर लेना चाहिए । पुण्याहवाचनका कर्म इसीसे किया जाता है । सबसे पहले वरुणकी प्रार्थना
करे ।

वरुण प्रार्थना -

ॐ पाशपाणे नमस्तुभ्यं पद्मिनीजीवनायक ।

पण्
ु यावाचनं यावत ् तावत ् त्वं सस्थि
ु रो भव ॥

यजमान अपनी दाहिनी ओर पण्


ु याहवाचन-कर्मके लिए वरण किये हुए युग्म ब्राह्मणोंको, जिनका मुख उत्तरकी ओर
हो, बैठा ले ।

इसके बाद यजमान घट


ु ने टे ककर कमलकी कोंढ़ीकी तरह अञ्जलि बनाकर सिरसे लगाकर तीन बार प्रणाम करे
। तब आचार्य

अपने दाहिने हाथसे स्वर्णयुक्त उस जलपात्र (लोटे ) को यजमानकी अञ्जलिमे रख दे । यजमान उसे सिरसे
लगाकर

निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर ब्राह्मणोंसे अपनी दीर्घ आयक


ु ा आशीर्वाद मांगे -

यजमान - ॐ दीर्घा नागा नद्यो गिरयस्त्रीणि विष्णुपदानि च ।

तेनायःु प्रमाणेन पण्


ु यं पण्
ु याहं दीर्घमायरु स्तु ॥

यजमानकी इस प्रार्थनापर ब्राह्मण निम्नलिखित आशीर्वचन बोले-

ब्राह्मण - अस्तु दीर्घमायःु ।

अब यजमान ब्राह्मणोंसे फिर आशीर्वाद मांगे -

यजमान -

ॐ त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । अतो धर्माणि धारयन ् ॥

तेनायःु प्रमाणेन पण्


ु यं पण्
ु याहं दीर्घमायरु स्तु इत भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - पण्
ु यं पण्
ु याहं दीर्घमायुरस्तु ।

यजमान और ब्राह्मणोंका यह संवाद इसी आनप


ु र्वी
ू से दो बार और होना चाहिये । अर्थात ् आशीर्वाद मिलनेके बाद
यजमान

कलशकोसिरसे हटाकर कलशके स्थानपर रख दे । फिर इस कलशको सिरसे लगाकर-

'ॐ दीर्घा नागा नद्यो.... रस्त'ु

बोले इसके बाद ब्राह्मण

'दीर्घमायरु स्तु' बोलें ।

इसके बाद यजमान पहलेकी तरह कलशको कलश-स्थानपर रखकर फिर सिरसे लगाकर

'ॐ दीर्घा नागा....रस्त'ु

कहकर आशीर्वाद मांगे और ब्राह्मण

'दीर्घमयरु स्तु'

यह कहकर आशीर्वाद दें ।

यजमान - ॐ अपां मध्ये स्थिता दे वाः सर्वमप्सु प्रतिष्ठितम ् ।

ब्राह्मणानां करे न्यस्ताः शिवा आपो भवन्तु नः ॥

ॐ शिवा आपः सन्तु ।

ऐसा कहकर यजमान ब्राह्मणोंके हाथोंमें जल दे ।

ब्राह्मण - सन्तु शिवा आपः ।

अब यजमान निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर ब्राह्मणोंके हाथोंमें पुष्प दे -

यजमान - लक्ष्मीर्वसति पुष्पेषु लक्ष्मीर्वसति पुष्करे ।

सा मे वसतु वै नित्यं सौमनस्यं सदास्तु मे ॥ सौमनस्यमस्तु ।

ब्राह्मण - 'अस्तु सौमनस्यम ्'

ऐसा कहकर ब्राह्मण पुष्पको स्वीकार करें ।

अब यजमान निम्नलिखित मन्त्र पढ़कर ब्राह्मणोंके हाथमें अक्षत दे -


यजमान - अक्षतं चास्तु मे पण्
ु यं दीर्घमायर्य
ु शोबलम ् ।

यद्यच्छ्रे यस्करं लोके तत्तदस्तु सदा मम ॥ अक्षतं चारिष्टं चास्तु ।

ब्राह्मण - 'अस्त्वक्षतमरिष्टं चं' । -

ऐसा बोलकर ब्राह्मण अक्षतको स्वीकार करें । इसी प्रकार आगे यजमान ब्राह्मणोंके हाथोंमें चन्दन, अक्षत, पुष्प
आदि दे ता जाय

और ब्राह्मण इन्हें स्वीकार करते हुए यजमानकी मङ्गल कामना करें ।

यजमान - (चन्दन) गन्धाः पान्तु ।

ब्राह्मण - सौमङ्गल्यं चास्तु ।

यजमान - (अक्षत) अक्षताः पान्तु ।

ब्राह्मण - आयष्ु यमस्तु ।

यजमान - (पुष्प) पुष्पाणि पान्तु ।

ब्राह्मण - सौश्रियमस्तु ।

यजमान - (सुपारी-पान) सफलताम्बूलानि पान्तु ।

ब्राह्मण - ऐश्‍वर्यमस्तु ।

यजमान - (दक्षिणा) दक्षिणाः पान्तु ।

ब्राह्मण - बहुदेयं चास्तु ।

यजमान - (जल) आपः पान्तु ।

ब्राह्मण - स्वर्चितमस्तु ।

यजमान - (हाथ जोड़कर) दिर्घमायुः शान्तिः पुष्टिस्तष्टि


ु ः श्रीर्यशो विद्या विनयो वित्तं बहुपुत्रं बहुधनं चायुष्यं चास्तु ।

ब्राह्मण - 'तथास्तु' -

ऐसा कहकर ब्राह्मण यजमानके सिरपर कलशका जल छिड़ककर निम्नलिखित वचन बोलकर आशीर्वाद दें -
ॐ दीर्घमायःु शान्तिः पष्टि
ु स्तष्टि
ु चास्तु ।

यजमान - (अक्षत लेकर) यं कृत्वा सर्ववेदयज्ञक्रियाकरणकर्मारम्भाः शभ


ु ाः शोभनाः प्रवर्तन्ते, तमहमोङ्कारमादिं

कृत्वा यजरु ाशीर्वचनं बहुऋषिमतं समनज्ञ


ु ातं भवद्भिरनज्ञ
ु ातः पण्
ु यं पण्
ु याहं वाचयिष्ये ।

ब्राह्मण - 'वाच्यताम ्' -

ऐसा कहकर निम्न मन्त्रोंका पाठ करे -।

ॐ द्रविणोदाः पिपीषति जह
ु ोत प्र च तिष्ठत । नेष्ट्रादृतुभिरिष्यत ॥

सविता त्वा सवाना सव


ु तामग्निर्गृहपतीना सोमो वनस्पतीनाम ् ।

बहृ स्पतिर्वाच इन्द्रो ज्यैष्ठ्याय रुद्रः पशुभ्यो मित्रः सत्यो वरुणो धर्मपतीनाम ् ।

न तद्रक्षा सि न पिशाचास्तरन्ति दे वानामोजः प्रथमज ह्येतत ् ।

यो बिभर्ति दाक्षायण हिरण्य स दे वेषु कृणुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृणुते दीर्घमायुः ।

उच्चा ते जातमन्धसो दिवि सद्भम्


ू या ददे । उग्र शर्म महि श्रवः ॥

उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे । अभि दे वॉ२ं इयक्षते ।

यजमान - व्रतजपनियमतपः स्वाध्यायक्रतश


ु मदमदयादानविशिष्टानांसर्वेषां ब्राह्मणानां मनः समाधीयताम ्‌।

ब्राह्मण - समाहितमनसः स्मः ।

यजमान - प्रसीदन्तु भवन्तः ।

ब्राह्मण - प्रसन्नाः स्मः ।

इसके बाद यजमान पहलेसे रखे गये दो सकोरोंमेसे पहले सकोरे में आमके पल्लव या दब
ू से थोड़ा जल कलशसे
डाले और

ब्राह्मण बोलते जाय -

पहले पात्र (सकोरे ) में - ॐ शान्तिरस्तु । ॐ पष्टि


ु रस्तु । ॐ तष्टि
ु रस्तु । ॐ वद्धि
ृ रस्तु । ॐ अविघ्नमस्तु । ॐ

आयुष्यमस्तु । ॐ आरोग्यमस्तु ॐ शिवमस्तु । ॐ शिवं कर्मास्तु । ॐ कर्म समद्धि


ृ रस्तु । ॐ धर्म
समद्धि
ृ रस्तु । ॐ वेद समद्धि
ृ रस्तु । ॐ शास्त्रसमद्धि
ृ रस्तु । धनधान्य समद्धि
ृ रस्तु । ॐ पत्र
ु पौत्रसमद्धि
ृ रस्तु । ॐ

इष्टसंपदस्तु ।

दस
ू रे पात्र (सकोरे ) - मे- ॐ अरिष्टनिरसनमस्तु । ॐ यत्पापं रोगोऽशभ
ु मकल्याणं तद् दरू े प्रतिहतमस्तु ।

पुनः पहले पात्रमें -

ॐ यच्छ्रे यस्तदस्तु । ॐ उत्तरे कर्मणि विघ्नमस्तु । ॐ उत्तरोत्तरमहरहरभिवद्धि


ृ रस्तु । ॐ उत्तरोत्तराः क्रियाः

शुभाः शोभनाः संपद्यंताम ् । ॐ तिथिकरणमुहुर्तनक्षत्रसंपदस्तु । ॐ तिथिकरणमह


ु ु र्तनक्षत्रग्रहलग्नादिदे वताः

प्रीयंताम ् । ॐ तिथिकरणेमह
ु ु र्तनक्षत्रे सग्रहे सलग्ने साधिदै वते प्रीयेताम ् । ॐ दर्गा
ु पांचाल्यौ प्रीयेताम ् । ॐ

अग्निपुरोगा विश्वेदेवाः प्रीयंताम ् । ॐ इंद्रपुरोगा मरुद्‌गणाः प्रीयंताम ् । ॐ वसिष्ठ पुरोगा ऋषिगणाः प्रीयेताम ् ।
ॐ माहे श्वरी पुरोगा उमा मातरः प्रीयेताम ् । ॐ अरुं धति पुरोगा एकपत्‍
न्यः प्रीयंताम ् । ॐ ब्रह्म पुरोगा सर्वे

वेदाः प्रीयंताम ् । ॐ विष्णु परु ोगा सर्वे दे वाः प्रीयंताम ् । ॐ ऋषयश्छं दास्याचार्या वेदा दे वा यज्ञाश्च प्रीयंताम ् ।

ॐ ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च प्रीयंताम ् । ॐ श्रीसरस्वत्यौ प्रीयेताम ् । ॐ श्रद्धामेधे प्रीयेताम ् । ॐ भगवती कात्यायनी

प्रीयेताम ् । ॐ भगवती माहे श्वरी प्रीयेताम ् । ॐ भगवती पष्टि


ु करी प्रीयेताम ् । ॐ भगवती तष्टि
ु करी प्रीयेताम ् ।

भगवती ॐ ऋद्धिकरी प्रीयेताम ् । भगवती वद्धि


ृ करी प्रीयेताम ् । ॐ भगवंतौ विघ्नविनायकौ प्रीयेताम ् । सर्वाः

कुलदे वताः प्रीयंताम ् । सर्वा ग्रामदे वताः प्रीयंताम ् । ॐ सर्वा इष्टदे वताः प्रीयन्ताम ् ।

दस
ू रे पात्रमें -

ॐ हताश्‍च ब्रह्मद्विषः । ॐ हताश्‍च परिपंथिनः । ॐ हताश्‍च कर्मणो विघ्नकर्तारः । ॐ शत्रवः पराभवं यांतु ।

ॐ शाम्यंतु घोराणि । ॐ शाम्यंतु पापानि । ॐ शाम्यंत्वीतय । ॐ शाम्यन्तूपद्रवाः ॥

पहले पात्रामें - ॐ शभ
ु ानि वर्धंताम ् । ॐ शिवा आपः संतु । ॐ शिवा ऋतवः संतु । ॐ शिवा अग्नयः संतु ।

शिवा आहुतयः संतु । शिवा ओषधयः संतु । शिवा वनस्पतयः संतु । शिवा अतिथयः संतु । अहोरात्रे

शिवेस्त्याताम ् ।

ॐ निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम ् ॥


ॐ शक्र
ु ांगारकबध
ु बह
ृ स्पतिशनैश्चरराहुकेतस
ु ोमसहिता आदित्य परु ोगा सर्वे ग्रहाः प्रीयंताम ् । ॐ भगवान ् नारायणः

प्रीयताम ् । ॐ भगवान पर्जन्यः प्रीयताम ् । ॐ भगवान स्वामी महासेनः प्रीयताम ्। ॐ पुरोऽनुवाक्यया यत्पण्
ु यं

तदस्तु । ॐ याज्यया यत्पण्


ु यं तदस्तु । ॐ वषट्‌कारे ण यत्पण्
ु यं तदस्तु । ॐ प्रातः सर्यो
ू दये यत्पण्
ु यं तदस्तु ।

इसके बाद यजमान कलशको कलशके स्थानपर रखकर पहले पात्रमें गिराये गये जलसे मार्जन करे । परिवारके
लोग भी मार्जन
करें । इसके बाद इस जलको घरमें चारों तरफ छिड़क दे । द्वितीय पात्रमें जो जल गिराया गया है , उसको घरसे
बाहर एकान्त

स्थानमें गिरा दे ।

अब यजमान हाथ जोड़कर ब्राह्मणोंसे प्रार्थना करे -

यजमान - ॐ एतत्कल्याणयक्त
ु ं पण्
ु यं पण्
ु याहं वाचयिष्ये ।

ब्राह्मण - वाच्यताम ् ।

इसके बाद यजमान फिरसे हाथ जोड़कर प्रार्थना करे -

यजमान - ॐ ब्राह्मं पुण्यमहर्यच्च सष्ट्


ृ युत्पादनकारकम ् ।

(पहली बार) वेदवक्ष


ृ ोद्भवं नित्यं तत्पण्
ु याहं ब्रव
ु न्तु नः ॥

भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े करिष्यमाणस्य अमुककर्मणः पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ पण्
ु याहम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम ...करिष्यमाणस्य अमक


ु कर्मणः

(दस
ू री बार) पण्
ु याहं भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ पण्
ु याहम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम ...करिष्यमाणस्य अमक


ु कर्मणः

(तीसरी बार) पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ पण्
ु याहम ् ।
ॐ पन
ु न्तु मा दे वजनाः पन
ु न्तु मनसा धियः ।

पुनन्तु विश्‍वा भूतानि जातवेदः पुनीहि मा ॥

यजमान - पथि
ृ व्यामद्ध
ु ृतायां तु यत्कल्याणं परु ा कृतम ् ।

(पहली बार) ऋषिभिः सिद्धगन्धर्वैस्तत्कल्याणं ब्रुवन्तु नः ॥

भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े करिष्यमाणस्य अमक
ु कर्मणः कल्याणं भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ कल्याणम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(दस
ू री बार) करिष्यमाणस्य अमुककर्मणः कल्याणं भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ कल्याणम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(तीसरी बार) करिष्यमाणस्य अमक


ु कर्मणः कल्याणं भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ कल्याणम ् ।
ॐ यथेमां वाचं कल्याणीमावदानि जनेभ्यः ।

ब्रह्मराजन्याभ्या शद्र
ू ाय चार्याय च स्वाय चारणाय च ।

प्रियो दे वानां दक्षिणायै दातुरिह भूयासमयं मे कामः समद्


ृ ध्यतामुप मादो नमतु ।

यजमान - ॐ सागरस्य तु या ऋद्धिर्महालक्ष्म्यादिभिः कृताः ।

(पहली बार) सम्पूर्णा सुप्रभावा च तामद्धि


ृ ं प्रबुवन्तु नः ॥

भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

करिष्यमाणस्य अमक
ु कर्मणः ऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ ऋद्ध्यताम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े
(दस
ू री बार) करिष्यमाणस्य अमक
ु कर्मणः ऋद्धिं भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ ऋद्ध्यताम ् ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(तीसरी बार) करिष्यमाणस्य अमुककर्मणः ऋद्धिं भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ ऋद्ध्यताम ् ।

ॐ सत्रस्य ऋद्धिरस्यगन्म ज्योतिरमत


ृ ा अभम
ू ।

दिवं पथि
ृ व्या अध्याऽरुहामाविदाम दे वान्त्स्वर्ज्योतिः ॥

यजमान - ॐ स्वस्तिस्तु याऽविनाशाख्या पुण्यकल्याणवद्धि


ृ दा ।

(पहिली बार) विनायकप्रिया नित्यं तां च स्वस्तिं ब्रव


ु न्तु नः ॥

भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

करिष्यमाणाय अमक
ु कर्मणे स्वस्ति भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ आयुष्मते स्वस्ति ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(दस
ू री बार) करिष्यमाणाय अमुककर्मणे स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ आयष्ु मते स्वस्ति ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(तीसरी बार) करिष्यमाणाय अमुककर्मणे स्वस्ति भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ आयुष्मते स्वस्ति ।

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वद्ध


ृ श्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्‍ववेदाः ।

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बह


ृ स्पतिर्दधातु ।

यजमान - ॐ समुद्रमथनाज्जाता जगदानन्दकारिका ।


(पहली बार) हरिप्रिया च माङ्गल्या तां श्रियं च ब्रव
ु न्तु नः ॥

भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

करिष्यमाणस्य अमक
ु कर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ अस्तु श्रीः ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(दस
ू री बार ) करिष्यमाणस्य अमुककर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रुवन्तु ।

ब्राह्मण - ॐ अस्तु श्रीः ।

यजमान - भो ब्राह्मणाः । मम सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य गह


ृ े

(तीसरी बार ) करिष्यमाणस्य अमक


ु कर्मणः श्रीरस्तु इति भवन्तो ब्रव
ु न्तु ।

ब्राह्मण - ॐ अस्तु श्रीः ।

ॐ श्रीश्‍च ते लक्ष्मीश्‍च पत्‍


न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्‍विनौ व्यात्तम ् ।

इष्णन्निषानामुं म इषाण सर्वलोकं म इषाण ॥

यजमान - ॐ मक
ृ ण्डुनोरायर्य
ु द्‌ध्रव
ु लोमशयोस्तथा ।

आयुषा तेन संयुक्ता जीवेम शरदः शतम ् ॥

ब्राह्मण - ॐ शतं जीवन्तु भवन्तः ।

ॐ शतमिन्नु शरदो अन्ति दे वा यत्रा नश्‍चक्रा जरसं तनूनाम ् ।

पत्र
ु ासो यत्र पितरो भवन्ति मा नो मध्या रीरिषतायुर्गन्तोः ॥

यजमान - ॐ शिवगौरीविवाहे या या श्रीरामे नप


ृ ात्मजे ।

धनदस्य गह
ृ े या श्रीरस्माकं सास्तु सद्मनि ॥

ब्राह्मण - ॐ अस्तु श्रीः ।

ॐ मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीय ।


पशन
ू ा रूपमन्नस्य रसो यशः श्रीः श्रयतां मयि स्वाहा ॥

यजमान - प्रजापतिर्लोकपालो धाता ब्रह्मा च दे वराट् ।

भगवाञ्छाश्‍वतो नित्यं नो वै रक्षतु सर्वतः ॥

ब्राह्मण - ॐ भगवान ् प्रजापतिः प्रीयताम ् ।

ॐ प्रजापते न त्वदे तान्यन्यो विश्‍वा रूपाणि परि ता बभव


ू ।

यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वय स्याम पतयो रयीणाम ् ॥

यजमान - आयष्ु मते स्वस्तिमते यजमानाय दाशष


ु े ।

श्रिये दत्ताशिषः सन्तु ऋत्विग्भिर्वेदपारगैः ॥

दे वेन्द्रस्य यथा स्वस्ति यथा स्वस्तिगरु ोर्गृहे ।

एकलिङ्गेः यथा स्वस्ति तथा स्वस्ति सदा मम ॥

ब्राह्मण - ॐ आयष्ु मते स्वस्ति ।

ॐ प्रति पन्थामपद्महि स्वस्तिगामनेहसम ् ।

येन विश्‍वाः परि द्विषो वण


ृ क्ति विन्दते वसु ॥

ॐ पुण्याहवाचनसमद्धि
ृ रस्तु ॥

यजमान - अस्मिन ् पण्


ु याहवाचने न्यन
ू ातिरिक्तो यो विधिरुपविष्टब्राह्मणानां वचनात ्

श्रीमहागणपतिप्रसादाच्च परिपूर्णोऽस्तु ।

दक्षिणाका संकल्प - कृतस्य पण्


ु याहवाचनकर्मणः समद्
ृ ध्यर्थं

पण्
ु याहवाचकेभ्यो ब्राह्मणेभ्य इमां दक्षिणां विभज्य अहं दास्ये ।

ब्राह्मण - ॐ स्वस्ति ।

इति पुण्याह वाचन


अभिषेक
पुण्याहवाचनोपरान्त कलश के जल को पहले पात्र में गिरा लें। अब अविधुर (जिसकी धर्मपत्नी जीवित हो) ब्राह्मण उत्तर या पश्चिम मुख होकर दूब और पल्लव के द्वारा इस जल
से यजमान का अभिषेक करे। अभिषेक के समय यजमान अपनी पत्नी केा बायीं तरफ कर ले। परिवार भी वहाँ बैठ जाय। अभिषेक के मन्त्रा निम्नलिखित हैं-
ॐ पयः पृथिव्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयो धाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्।। ॐ पञ्च नद्यः सरस्वतीमपि यन्ति सश्रोतसः। सरस्वती तु पञ्चधा सो
देशेऽभवत्सरित्।। ॐ वरुणस्योत्तम्भनमसि वरुणस्य स्कम्भसर्जनी स्थो वरुणस्य ऋतसदन्यसि वरुणस्य ऋतसदनमसि वरुणस्य ऋतसदनमा सीद।। ॐ पुनन्तु मा देवजनाः
पुनन्तु मनसा धियः। पुनन्तु विश्वा भूतानि जातवेदः पुनीहि माम्।। ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्। सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रिाये दधामि
बृहस्पतेष्ट्वा साम्राज्येनाभिषिञ्चाम्यसौ। ॐ देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।  सरस्वत्यै वाचो यन्तुर्यन्त्रोणाग्नेः साम्राज्येनाभिषिञ्चामि।। ॐ देवस्य त्वा
सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम्।  अश्विनोर्भैषज्येन तेजसे ब्रह्मवर्चसायाभिषिञ्चामि सरस्वत्यै भैषज्येन वीर्यायान्नाद्यायाभिषिञ्चामीन्द्रस्येन्द्रियेण बलाय श्रियै
यशसेऽभिषिञ्चामि।। ॐ विश्वानि देव सवितुर्दुरितानि परा सुव। यद्भद्रं तन्न आ सुव।।
ॐ धामच्छदग्निरिन्द्रो ब्रह्मा देवो बृहस्पतिः। सचेतसो विश्वे देवा यज्ञं प्रावन्तु नः शुभे।। ॐ त्वं यविष्ठ दाशुषो नँ¤ः पाहि शृणुधी गिरः। रक्षा तोकमुत त्मना।  ॐ अन्नपतेऽन्नस्य
नो देह्यनमीवस्य शुष्मिणः। ँ प्रदातारं तारिष ऊर्जं नो धेहि द्विपदे चतुष्पदे।। ॐ द्यौः शान्तिरन्तरिक्ष Ủ शान्तिः पृथिवी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः। वनस्पतयः
शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिब्र्रह्म शान्तिः सर्व Ủ शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।। यतो यतः समीहसे ततो नो अभयं कु रु। शं नः कु रु प्रजाभ्योऽभयं नः पशुभ्यः।।
सुशान्तिर्भवतु। सरितः सागराः शैलास्तीर्थानि जलदा नदाः। एते त्वामभिषिञ्चन्तु सर्वकामार्थसिद्धये।। शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्चास्तु। अमृताभिषेकोऽस्तु।।

दक्षिणादान-ॐ अद्य.. कृ तैतत्पुण्याहवाचनकर्मणः साङ्गता-सिद्धयर्थं तत्सम्पूर्णफलप्राप्त्यर्थं च पुण्याहवाचके भ्यो ब्राह्मणेभ्यो यथाशक्ति मनसोद्दिष्टां दक्षिणां विभज्य
दातुमहमुत्सृजे।

षोडशमातक
ृ ा आदि-पज
ू न

षोडश मातक
ृ ा :-

गौरी पद्मा शची मेधा, सावित्री विजया जया ।


दे वसेना स्वधा स्वाहा, मातरो लोकमातरः॥

धति
ृ ः पष्टि
ु स्तथा तुष्टिः, आत्मनः कुलदे वता ।
गणेशेनाधिका ह्येता, वद्ध
ृ ौ पूज्याश्च षोडश॥

चित्रानुसार सोलह कोष्ठक बनायें। पश्चिम से पूर्व की ओर मातृकाओं का आवाहन और स्थापन करे। कोष्ठकों में रक्त चावल, गेहूँ या जौ रख दे एवं निम्नाङ्कित मन्त्रा पढ़ते हुए
आवाहन करें।
षोडशमातृका-चक्र
पूर्व
आत्मनः कु लदेवता          लोकमातारः       देवसेना        मेधा
16                                12                  8                   4
तुष्टिः                          मातरः               जया               शची
15                                11                   7                3
पुष्टिः                          स्वाहा            विजया              पद्मा
14                                10                   6               2
धृतिः                         स्वधा            सावित्री         गौरी गणेश
13                               9                      4               1
ॐ गौर्ये नमः गौरीमावाहयामि स्थापयामि। ॐ पर्ािंयै नमः पर्मिंा.। ॐ शच्यै नमः शचीमा.। ॐ मेधायै नमः मेधामा0। ॐ सावित्रयै नमः सावित्रिमा.। ॐ विजयायै नमः
विजयामा.। ॐ जयायै नमः जयामा.।
ॐ देवसेनायै नमः देवसेनामा। ॐ स्वधायै नमः स्वधामा। ॐ स्वाहायै नमः स्वाहामा। ॐ मातृभ्यो नमः मातृरावा.। ॐ लोकमातृभ्यो नमः लोकमातृरावा.। पुष्ट्यै नमः पुष्टिमा.।
ॐ तुष्ट्यै नमः तुष्टिमा.। ॐ आत्मकु लदेवतायै नमः आत्मकु लदेवतामा.। प्राण प्रतिष्ठा-ॐ मनोजूतिर्जुषतामाज्यस्य बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञं  Ủ समिमं दधातु विश्वेदेवा
स इह मादयन्नतामो3 म्प्रतिष्ठ। ॐ भूर्भुवः स्वः श्रीगौर्यादिषोडशमातरः सुप्रतिष्ठिता वरदा भवन्तु। इस मन्त्रा से प्रतिष्ठा कर ओं गौर्यै नमः इत्यादि नाम-मन्त्रों से अथवा पृथक् .
पृथक् ॐ गौर्यादिषोडशमातृभ्यो नमः इससे षोडशोपचार अथवा यथालब्धोपचार पूजन समाप्त कर, ॐ आयुरारोग्यमैश्वर्यं ददध्वं मातरो मम। निर्विध्नं सर्वकार्येषु कु रुध्वं
सगणाधिपाः पढ़कर नारियल चढ़ायें। पुनः हाथ जोड़कर श्रीगौर्यादिषोडशमात¤णां पूजनकर्मणो यन्न्यूनमतिरिक्तं वा तत्सर्वं मात¤णां प्रसादात्परिपूर्णमस्तु ”गृहे वृद्धिशतानि
भवन्तु“ उत्तरे कर्मण्यविघ्नमस्तु। यह बोले
इति मातृकापूजन।।
चतुःषष्टियोगिनीपूजन
(अग्निकोण में)-ओं आवाहयाम्यहं देवीं योगिनीं परमेश्वरीम्। योगाभ्यासेन संतुष्टा परं ध्यानसमन्विता।। दिव्यकु ण्डलसंकाशा दिव्यज्वाला त्रिलोचना। मूर्तिमती ह्यमूत्र्ता च उग्रा
चैवोग्ररूपिणी।। अनेक भावसंयुक्ता संसारार्णवतारिणी।। यज्ञे कु र्वन्तु निर्विध्नं श्रेयो यच्छन्तु मातरः।। दिव्ययोगी-महायोगी-सिद्धयोगी गणेश्वरी। प्रेताशी डाकिनी काली कालरात्राी
निशाचरी।। हुङ्कारी सिद्धवेताली खर्परी भूतगामिनी।।
उध्र्वके शी विरूपाक्षी शुष्कांगी मांसभोजिनी। फू त्कारी वीरभद्राक्षी धूम्राक्षी कलहप्रिया।। रक्ता च घोररक्ताक्षी विरूपाक्षी भयंकरी। चैरिका भारिका चण्डी वाराही मुण्डधारिणी। भैरवी
चक्रिणी क्रोधा दुर्मुखी प्रेतवासिनी। कालाक्षी मोहिनी चक्री कं काली भुवनेश्वरी। कु ण्डला तालकौमारी यमदूती करालिनी।। कौशिकी यक्षिणी यक्षी कौमारी यन्त्रावाहिनी।। दुर्घटा
विकटा घोरा कपाला विषलङ्घना। चतुःषष्टिः समाख्याता योगिन्यो हि वरप्रदाः।। त्रौलोक्यपूजिता नित्यं देवमानुषयोगिभिः।। इस प्रकार आवाहन कर ॐ चतुःषष्टियोगिनीभ्यो नमः
इससे चन्दन पुष्प आदि द्वारा पूजन करें।
इति योगिनीपूजन
सप्तघृतमातृका (वसोद्र्धारा) पूजन
आग्नेयकोण में किसी वेदी अथवा काष्ठपीठ (पाटा) पर प्रादेशमात्रा स्थान में पहले रोली या सिन्दूर से स्वस्तिक बनाकर ‘श्रीः’ लिखे। इसके नीचे एक बिन्दु और इसके नीचे दो
बिन्दु दक्षिण से करके उत्तर की ओर दे। इसी प्रकार सात बिन्दु क्रम से बनाना चाहिये।
इसके बाद नीचे वाले सात बिन्दुओं पर घी या दूध से प्रादेश मात्रा सात धाराएँ निम्नलिखित मन्त्रा से दें-
ॐ वसोः पवित्रामसि शतधारं वसोः पवित्रामसि सहश्रधारं देवस्त्वा सविता पुनातु। वसोः पवित्रोण शतधारेण सुप्वा कामधुक्षः। उस पर दही छोड़कर लाल सूत्रा लपेट दें। पुनः
उपर्युक्त वसोः इस मंत्र को पढ़कर गुड़ के द्वारा बिन्दुओं की रेखाओं को क्रमशः ऊपर से परस्पर मिला दें। पुनः उन सात बिन्दुओं में क्रमशः देवता का आवाहन करें। ॐ भूर्भुवः
स्वः श्रियै नमः श्रियमावाहयामि स्थापयामि। ॐ भूर्भुवः स्वः लक्ष्म्यै नमः लक्ष्मीमा0 स्था.। ॐ भूर्भुवः स्वः
धृत्यै नमः घृतिमा. स्था.। ॐ भूर्भुवः स्वः मेधायै नमः मेधामा0 स्था.।
ॐ भूर्भुवः स्वः स्वाहायै नमः स्वाहामा. स्था.। ॐ भूर्भुव. स्व. प्रज्ञायै नमः प्रज्ञामा. स्था.। ॐ भूर्भुवः स्वः सरस्वत्यै नमः सरस्वतीमा. स्था.।
ॐ मनोजूतिः. यह मंत्र एक बार पढ़कर वसोर्धारादेवताः सुप्रतिष्ठिताः वरदा भवन्तु। इस मंत्र से प्रतिष्ठा करें। तदनन्तर-ॐ वसोर्धारादेवताभ्यो नमः गन्धं समर्पयामि। पुष्पाणि
समर्पयामि। धूपं समर्पयामि। दीपं सम.। नैवेद्य स.। प्रार्थना-यदङ्गत्वेन भो देव्यः पूजिता विधिमार्गतः। कु र्वन्तु कार्यमखिलं निर्विघ्नेन क्रतूद्भवम्।।
आयुष्य मंत्र जप
यजमान अञ्जलि में पुष्प रखें तथा ब्राह्मण आयुष्य मन्त्रा का पाठ करें। ॐ आयुष्यं वर्चस्य Ủ रायस्पोषमौद्भिदम्। इद Ủ हिरण्यं वर्चस्वज्जैत्राया विशतादुमाम्।।1।। नतद्रक्षा Ủ सि
न पिशाचास्तरन्ति देवानामोजः प्रथमज Ủ ह्येतत्। यो विभत्र्ति दाक्षायण ँ हिरण्य ँ स देवेषु कृ णुते दीर्घमायुः स मनुष्येषु कृ णुते दीर्घमायुः।।2।। यदाबध्नन्दाक्षायणा हिरण्य
ँ शतानीकाय समनस्यमानाः। यन्म आबध्नामि शतशारदायायुष्मान् जरदष्टिर्यथासम्।।3।।
पौराणिक श्लोक-यदायुष्यं चिरं देवाः सप्तकल्पान्तजीविषु। ददुस्तेनायुषा सम्यक् जीवन्तु शरदः शतम्।। दीर्घा नागा नगा नद्योऽन्तस्सप्तार्णवा दिशः। अनन्तेनायुषा तेन जीवन्तु
शरदः शतम्।। सत्यानि पञ्च भूतानि विनाशरहितानि च। अविनाश्यायुषा तद्वज्जीवन्तु शरदः शतम्।।
(इति आयुष्यमन्त्र जप)

नान्दीश्राद्ध प्रयोग

आचमन, प्राणायाम कर सङ्कल्प ॐ अद्येत्यादि देशकालौ संकीत्र्य कर्तव्यामुककर्माङ्गत्वेन साङ्कल्पिके न विधिना ब्राह्मणयुग्म-भोजन-पर्याप्तान्न निष्क्रयीभूत-यथाशक्ति-हिरण्येन
नान्दीमुखश्राद्धमहं करिष्ये। हाथ जोड़कर तीन बार निम्नोक्त का पाठ करें-ॐ देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च। नमः स्वाहायै स्वधायै नित्यमेव नमो नमः। श्राद्धकाले
गयां ध्यात्वा ध्यात्वा देवं गदाधरम्। मनसा च पितृन्ध्यात्वा नान्दीश्राद्धं समारभे।
एक पत्तल पर पूर्व से दक्षिण, प्रदक्षिण क्रमानुसार सीधे कु शाओं को बिछाकर उन पर सव्य होकर सर्वप्रथम हाथ में जल लेकर ‘ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः
भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।’ तक वाक्य पढ़कर अपने हाथ से लिये जल को अंगूठे से पत्तल पर रखे गये आसन रूप कु श पर विश्वेदेव के
पादप्रक्षालन के लिए जल को गिरा दें। इसी प्रकार प्रदक्षिण क्रम से मातृ-पितामहि-प्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः।’ तक
उच्चारण कर ‘मातामह-प्रमातामह-वृद्धाप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं वः पाद्यं पादावनेजनं पादप्रक्षालनं वृद्धिः’ ‘मातृ-पितामही और प्रपितामही, पितृ
पितामह तथा प्रपितामह एवं सपत्नीक मातामह, प्रमातामह एवं वृद्धप्रमातामह’ को पादप्रक्षालन के लिए अध्र्य जल दे। पुनः
ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः। मातृ-पितामहि-प्रपितामह्यः नान्दी मुख्यः भूर्भुवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः। पितृ-पितामह
प्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इमे आसने वो नमो नमः। द्वितीयगोत्राः-मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इमें आसने वो नमो नमः।
पढ़कर विश्वेदेव को कु शरूप आसन प्रदान करे।
गन्धादिदान-तत्पश्चात् उन चारों स्थानों पर क्रम से ‘ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं गन्धाद्यर्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। मातृ-पितामहि-
प्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भुवः स्वः इदं गन्धाद्यर्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। पितृ-पितामह-प्रतिपतामहाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं गन्धाद्यर्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः।
द्वितीयगोत्राः-मातामह-प्रमातामह- वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं गन्धाद्यर्चनं स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। तक वाक्य पढ़कर विश्वेदेव से लेकर सपत्नीक
मातामह-प्रमातामह एवं वृद्धप्रमातामह तक के लिए जल, वस्त्र, यज्ञोपवीत चन्दन (रोरी), अक्षत, पुष्प, दीप, नैवेद्य, ऋतुफल, पान तथा सुपारी आदि से पूजन करे।
भोजन निष्क्रयदान-तदनन्तर क्रमशः चारों स्थान पर ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं युग्मब्राह्मण-भोजन- पर्याप्तमामान्न-निष्क्रयभूतं द्रव्यममृतरूपेण
स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। मातृ- पितामहि-प्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भुवः स्व इदं युग्म-ब्राह्मणभोजन- पर्याप्तमामान्न-निष्क्रयभूतं द्रव्यममृतरूपेण स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। पितृ-
पितामह-प्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं युग्म-ब्राह्मण- भोजन-पर्याप्तमामान्ननिष्क्रयभूतं द्रव्यममृतरूपेण स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। द्वितीयगोत्राः-मातामह प्रमातामह-
वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः इदं युग्मब्राह्मण- भोजनपर्याप्तमामान्न-निष्क्रयभूतं द्रव्यममृतरूपेण स्वाहा सम्पद्यतां वृद्धिः। विश्वेदेव के निमित्त दो ब्राह्मण,
जितना आमान्न भोजन कर सकें , उसका निष्क्रय (मूल्य) भूत दक्षिणा दे। इसी प्रकार माता, पितामही एवं प्रपितामही तथा पिता, पितामह, एवं प्रपितामह और द्वितीयगोत्र वाले
सपत्नीक मातामह, प्रमातामह और वृद्धप्रमातामह को भी विश्वेदेव की भांति दक्षिणा प्रदान करे।
दुग्ध-मिश्रित जलादिदान-तत्पश्चात् चारों स्थान पर क्रम से दूध, यव और जल को एक में मिलाकर दाहिने हाथ में लेकर अंगूठे से ॐ सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः
प्रीयन्ताम्। मातृपितामहि-प्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः प्रीयन्ताम्। पितृ-पितामह-प्रपिता महाः नान्दीमुखाः प्रीयन्ताम्। (द्वितीयगोत्राः) मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहाः
सपत्नीकाः नान्दीमुखाः प्रीयन्ताम्। वाक्य उच्चारण कर विश्वेदेव के साथ सपत्नीक पिता, पितामह, प्रपितामह एवं सपत्नीक मातामह, प्रमातामह तथा वृद्धप्रमातामह के निमित्त
अलग-अलग देवे।
जल-पुष्प-अक्षत प्रदान-पुनःचारों स्थानों पर ‘ॐ शिव आपः सन्तु’ पढ़कर दाहिने हाथ के अंगूठे से जल, ‘ॐ सौमनस्यमस्तु’ इससे पुष्प, ‘ॐ अक्षतं चारिष्टं चास्तु’ से
अक्षत, विश्वेदेव से सपत्नीक-पिता, पितामह एवं प्रपितामह तथा मातामह, प्रमातामह एवं वृद्ध्रप्रमातामह पर क्रमशः पृथक् -पृथक् चढ़ावें।
जलधारा दान-पुनः अंजलि में जल लेकर अघोराः पितरः सन्तु यह वाक्य पढ़कर चारों स्थानों पर क्रमशः सभी पितरों के लिए अंगूठे कीओर से पूर्वाग्र जलधारा प्रदान करे।
आशीग्र्रहणम्-यजमान-ॐ गोत्रां नो वर्द्धताम् ब्राह्मणाः-ॐ वर्द्धतां वो गोत्रम्। यज. ॐ दातारो नोभिवर्द्धन्ताम्, ब्रा0-ॐ वर्द्धन्तां वो दातारः। यज 0-ॐ वेदाश्च नोऽभिवर्द्धन्ताम्,
ब्रा-ॐ वर्द्धन्तां वो वेदाः। यज-ॐ सन्ततिर्नोऽभिवर्द्धन्तां। ब्रा.-ॐ वर्द्धतां वः सन्ततिः। यज.-ॐ श्रद्धा च नो मा व्यपगमत्, ब्रा.-ॐ मा व्यपगमद्वः श्रद्धा। यज.-ॐ बहु देयं च
नोऽस्तु, ब्रा.-ॐ अस्तु वो बहु देयम्। यज. अन्नं च नो बहु भवेत्, ब्रा.-ॐ बहु भवेद्वोऽन्नम्। यज.-ॐ अतिथींश्च लभामहै, ब्रा.-ॐ लभन्तां वोऽतिथयः। यज-ॐ याचितारश्च नः
सन्तु, ब्रा.-ॐ सन्तु वो याचितारः। यज. ॐ एता आशिषः सत्याः सन्तु, ब्रा. ॐ सन्त्वेताः सत्या आशिषः।
दक्षिणा दान-पुनः सत्यवसुसंज्ञकाः विश्वेदेवाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः कृ तैतन्नान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठासिद्ध î र्थं द्राक्षामलक-यवमूल-निष्क्रयिणीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे। पढ़कर
मुनक्का आवंला, यव एवं अदरक आदि क्रमशः संकल्प करके चारों स्थानों पर विश्वेदेव सहित सपत्नीक पितृ, पितामह, प्रपितामह तथा सपत्नीक मातामहादि के निमित्त देव
और इन वस्तुओं के अभाव में निष्क्रयभूत द्रव्य-दक्षिणा दान करे। ‘मातृ-पितामहि-प्रपितामह्यः नान्दीमुख्यः भूर्भुवः स्वः कृ तैतन्नान्दी श्राद्धस्य फलप्रतिष्ठासिद्ध î र्थं
द्राक्षाऽऽमलक-यवमूल-निष्क्रयिणीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे। पितृ-पितामह-प्रपितामहाः नान्दीमुखाः भूर्भूवः स्वः कृ तैतन्नान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं द्राक्षा-ऽऽमलक-
यवमूल-निष्क्रयिणीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे। (द्वितीयगोत्राः) मातामह-प्रमातामह-वृद्धप्रमातामहाः सपत्नीकाः नान्दीमुखाः भूर्भुवः स्वः कृ तैतन्नान्दीश्राद्धस्य फलप्रतिष्ठासिद्ध्यर्थं
द्राक्षाऽऽमलकयवमूल-निष्क्रयिणीं दक्षिणां दातुमहमुत्सृजे।
इसके बाद यव, पीली सरसों, ऋतुफल, दूर्वा, दुग्ध, जल, कु श, चन्दन एवं पुष्प सहित अर्घ्यपात्र को दाहिने हाथ में लेकर ‘ॐ उपास्मै गायता नरः पवमानायेन्दवे। अभि देवाँ
2 इयक्षते।।1।। ॐ इडामग्ने पुरुद Ủ स Ủ सनिङ्गोंः शश्वम र्ठ हवमानाय साध। स्यान्नः सूनुस्तनयो विजावाऽग्ने सा ते सुमतिर्भूत्वस्मे’ इन दो मन्त्रों से चारों स्थानों पर अर्घ्य
प्रदान करे।
तत्पश्चात् यजमान हाथ में जल लेकर नान्दीश्राद्ध की सम्पन्नता के लिए प्रार्थना करते हुए ‘अनेन नान्दीश्राद्धं सम्पन्नम्’ कहकर भूमि पर जल छोड़ दे। ब्राह्मणगण ‘सुसम्पन्नं
नान्दीश्राद्धम्’ ऐसा कह दें।
पुनः यजमान ‘ॐ वाजे वाजे वत वाजिनो नो धनेषु विप्रा अमृताऽऋतज्ञाः। अस्य मध्वः पिबत मादयध्वं तृप्ता यात पथिभिर्देवयानैः।। आ मा वाजस्य प्रसवो जगम्यादेमे
द्यावापृथिवी विश्वरूपे। आ मा गन्तां पितरा मातरा चामा सोमोऽमृतत्वेन गम्यात्।’ तक दो मन्त्रा तथा ‘विश्वेदेवाः प्रीयन्ताम्’ ऐसा वाक्य कहकर विसर्जन करे। हाथ में जल
लेकर ॐ मयाचरितेऽस्मिन् सांकल्पिकनान्दीश्राद्धे न्यूनातिरिक्तो यो विधिः स उपविष्ट-ब्राह्मणानां वचनाच्छीनान्दीमुख- पितृप्रसादाच्च सर्वः परिपूर्णोऽस्तु। अस्तु परिपूर्णः ऐसा
ब्राह्मण कहे। उसके बाद प्रमादात्0 पढकर ॐ विष्णवे नमो विष्णवे नमो विष्णवे नमः इति प्रणमेत्।
सांकल्पिक नान्दी-श्राद्ध समाप्त।

आचार्यादिवरण
हाथ में जल लेकर ॐ तत्स. तिथौ आचार्यादिऋत्विजां वरणमहं करिष्ये, आचार्य को पूर्वाभिमुख बैठाकर पाँव धोवें तथा गन्धाक्षत से पञ्चोपचार पूजन कर हाथ में वरण द्रव्य,
जल और अक्षत लेकर दाहिने घुटने का स्पर्श करते हुए आचार्य वरण का संकल्प करें। 
 ॐ तत्सत् अमुकगोत्र प्रवरशाखान्वितयजमानोऽहम् अमुकगोत्रप्रवरशाखाध्यायिनममुकनामाचार्यम् अस्मिन् ग्रह शान्ति अमुकयागाख्ये कर्मणि दास्यमानैः एभिर्वरणद्रव्यैः
आचार्यत्वेन त्वामहं वृणे। वृतोऽस्मि।
ऐसा आचार्य कहे। पुनः आचार्य के हाथ में निम्नलिखित मंत्र पढ़कर वरण हेतु मंगल सूत्र बांधे।
                 ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्।
                दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते।।
पुनः वरण द्रव्य लेकर निम्न संकल्प पूर्वक ऋत्विक् का वरण करें। ॐ तत्स. अस्मिन् अमुककर्मणि ऋत्विग्त्वेन त्वामहं वृणे। ऋत्विक् कहे-वृत्तोऽस्मि। 
पुनः प्रार्थना-
              अस्य यागस्य निष्पत्तौ भवन्तोऽभ्यर्चिता मया।
              सुप्रसन्नैः प्रकर्तव्यं कर्मेदं विधिपूर्वकम्।।
पुनः ऋत्विक् के साथ आचार्य अपने आसन पर बैठकर आचमन, प्राणायाम कर सङ्कल्प करें। ॐ तत्स. अस्मिन् कर्मणि यजमानेन वृतोऽहं आचार्य-(ऋत्विक् )-कर्म करिष्ये।
दिग् रक्षण
बायें हाथ में श्वेत सरसों अथवा अक्षत लेकर दिग्रक्षण करे।
ॐ पूर्वे रक्षतु गोविन्द आग्नेय्यां गरुडध्वजः।
याम्ये रक्षतु वाराहो नारसिंहस्तु नैऋते।।
के शवो वारुणीं रक्षेद् वायव्यां मधुसूदनः।
उत्तरे श्रीधरोरक्षेदीशाने च गदाधरः।।
ऊध्र्वं गोवर्द्धनो रक्षेदधस्तात्तु त्रिविक्रमः।
एवं दश दिशो रक्षेद्वासुदेवो जनार्दनः।।
यज्ञाग्रे पातु मा शंखः पृष्ठे पद्मन्तु रक्षतु।
वामपाश्र्वे गदा रक्षेद्दक्षिणे च सुदर्शनः।।
उपेन्द्रः पातु ब्राह्मणमाचार्यं पातुवामनः।
अच्युतः पातु ऋग्वेदं यजुर्वेदमधोक्षजः।।
कृ ष्णो रक्षतु सामाख्यमथर्वाणन्तु माधवः।
विप्रा ये चोपदेष्टारस्तांश्च दामोदरोऽवतु।।
यजमानं सपत्नीक पुण्डरीकविलोचनः।
रक्षाहीनन्तु यत्स्थानं तत्सर्वं रक्षताद्धरिः।।
सरसों या अक्षत सभी दिशाओं में छींट दें।
भूतोत्सारण
ॐ अपसर्पन्तु ते भूता ये भूृता भूमि संस्थिताः।
ये भूता विध्नकर्तारस्ते नश्यन्तु शिवाज्ञया।।
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचाः सर्वतो दिशम्।
सर्वेषामविरोधेन शान्तिकर्म समारभेत्।।
उपर्युक्त श्लोक पढ़कर बायें हाथ, पाँव को तीन बार भूमि पर पटकें ।
रक्षाबन्धन
यजमान तीन धागा वाला लाल सूत्रा एवं थोड़ा द्रव्य बायें हाथ में लेकर एवं दाहिने हाथ से ढककर ‘ॐ हुं फट् ’ यह मंत्र तीन बार करके उस सूत्रा को गणपति के चरणों में
निवेदित करें। पुनः गन्ध पुष्प से उसकी पूजा करें। फिर यह सूत्रा गणपति के अनुग्रह से प्राप्त हुआ ऐसा समझते हुए अन्य देवों को भी निवेदित करें। पुनः आचार्य सहित अन्य
विप्रों के सीधे दाहिने हाथ में निम्न मंत्र से बांधे -
ॐ व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाऽऽप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा  श्रद्धामाप्नोति  श्रद्धया    सत्यमाप्यते।।
उसके बाद आचार्य भी यजमान के दाहिने हाथ में और यजमान पत्नी के बांयें हाथ में निम्न मंत्र पढ़ते हुए अभिमन्त्रिात रक्षा सूत्र बांधें।
मन्त्र- ॐ यदाबध्नं दाक्षायणा हिरण्य Ủ शतानीकाय सुमनस्यमाना। तन्म आवध्नामि शतशारदायायुष्मांजरदष्टिर्यथासम्।।
ॐ येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे  मा  चल  मा  चल।।

अथ पञ्चगव्यादिकरणम्

गव्यं पवित्रं च रसायनं च , पथ्यं च हृदयं बलबुद्धिम |


आयुः प्रदं रक्तविकारहारि, त्रिदोषहृद्रोगविषापहं स्यात ||

एक पात्र में पञ्चगव्य का सम्पादन करे

गोमूत्र

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् |

गोमय -स्नानम्
ॐ मा नस्तोके तनये मा नऽ आयुषि मा नो गोषु मा नो अश्वेषु रीरिषः।
मा नो वीरान् रुद्र भामिनो वधीर्हविष्मन्तः सदमित् त्वा हवामहे।

दूध

ॐ पयः पृथिव्यां पयऽओषधीषु, पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधाः। पयस्वतीः प्रदिशः सन्तु मह्यम्॥

दही मिलाने का मन्त्र


ॐ दधिक्राव्णो अकारिषं जिष्णोरश्वस्य वाजिनः।
सुरभि नो मुखा करत्प्र णऽ आयू U षि तारिषत्।
घृत

ॐ घृतं घृतपावानः पिबत वसां वसापावानः पिबतान्तरिक्षस्य हविरसि स्वाहा।


दिशः प्रदिशऽआदिशो विदिशऽ उद्दिशो दिग्भ्यः स्वाहा॥

कु श

ॐ देवस्य त्वा सवितु: प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्या पूष्णो हस्ताब्याम्

ॐ’ इस प्रणव द्वारा किसी यज्ञिय प्रदेश मात्र लम्बी लकड़ी से मिला कर इन तीन मंत्रो से कु शाओ द्वारा कर्म भूमि का प्रोक्षण करे

ओ३म् आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन |


महे रणाय चक्षसे ||
यो व: शिवतमो रसस्तस्य भाजय्स्तेह न: |
उशतीरिव मातर: ||
तस्मा अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ |
आपो जनयथा च न: ||

पञ्चगव्यप्राशन

यत्त्वस्थिगतं पापं देहे तिष्ठति मामके ।


प्राशनात् पंचगव्यस्य दहग्निरिवेन्धनम्।

॥ सर्वतोभद्र दे वता पज
ू नम ् ॥

अद्य पूर्वोच्चारित शभ
ु पुण्य तिथौ अमक
ु दे वता प्रतिष्ठा , अनुष्ठानं कर्मणि सर्वतोभद्र दे वताऽऽवाहनम ् प्रतिष्ठा पूजनं
च करिष्ये ।

१ . ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं परु स्ताद्वि सीमत : सरु


ु चो वेन आव : ।

स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठा : सतश्च योनिमसतश्च व्विव : ।

ॐ भू : ब्रह्मणे नम : । ब्रह्मणे आवाहयामि स्थापयामि ।

२ . उत्तरे परिधि समीते सोमम ् । ॐ वय सोमव्रते तय मनस्तनुषु बिभ्रत : । प्रजावन्त : सचेमहि । ॐ भू :


सोमाय नमः । सोममावाहयामि स्थापयामि ।
३ . ईशान्यां खण्डेन्दौं - ॐ तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पति धियं जिन्वमवसे हूमहे वयम ् । पूषा नो यथा वेद
सामसदवध ृ े रक्षिता पायरु दब्ध , स्वस्तये ॥ ॐ भू : ईशानाय नमः । ईशानमावाहयामि स्थापयामि ।

४ . पूर्वे इन्द्रम ् - ॐ त्रातारमिन्द्रम ् वितारमिन्द्र हवे हवे । सुहव शूरमिन्द्रम । ह्वयामि शक्रं पुरुहूतमिंन्द्र स्वस्ति नो
मधवा धात्विन्द्र : ।

ॐ भू : इन्द्राय नम : । इन्द्रमावाहयामि ।

५ . आग्नेय्यामग्निम ् - ॐ त्वन्नो अग्ने तब दे व पायुभिर्मघोनो रक्ष तन्वश्च वंद्य । त्रातातोकस्य तनये गवामस्य
निमेष रक्षमाणस्तव व्रते ॥ ॐ भू : अग्निम ् नमः । अग्निमावाहयामि स्थापयामि ।

६ . दक्षिणेयम ् - ॐ यमाय त्वाङ्गिरस्वते पितम


ृ ते स्वाहा । स्वाहा धर्माय स्वाहा धर्मं : पित्रै ॥ ॐ भू : यमाय
नमः । यमायमावाहयामि स्थापयामि ।

७ . नैऋत्यां निऋतिम । ॐ असुन्वन्तमय जमानमिच्छ स्तेनस्ये त्यामान्विहि तस्करस्य । अन्यमस्मदिच्छ सात


इत्या नमोदे वि निऋते तुभ्यमस्तु ॥ ॐ भू : निऋतिम ् नमः । निऋतिमावाहयामि स्थापयामि ।

८ . पश्चिमे वरुणम ् - ॐ तत्वायामि ब्रह्मणा वंदमानस्तदाशास्ते यजमानो हविर्भि : ।

अहे डमानो वरुणेह बोध्युरुश समान आयु : प्रमोषी ॥ ॐ भू वरुणाय नम : । वरुणामावाहयामि स्थापयामि ।

९ . वायव्यां वायुम - ॐ आनो नियुद्भि : शतनीभिरध्वर सहस्त्रिणी भिरूप याहि यज्ञम ् । वायो अस्मिंत्सवने
मादयस्व यूयं पात स्वस्तिभि : सदा न : । ॐ भू : वायवे नमः । वायुमावाहयामि स्थापयामि ।

१० . वायु सोमयोर्मध्ये वसन


ू ् - ॐ सग
ु ा वो दे वा : सदना ऽअकर्मयऽआजग्मे दन्सवनं जष
ु ाणा : । भरमाणा वहमाना
हवी ष्यस्मे धत्त : वसवो वसनि
ू स्वाहा । ॐ भू : वसन
ू ् नम : । वसन
ू मावाहयामि स्थापयामि ।

११ . ॐ रुद्रा स सज्
ृ य पथि
ृ वीं बहृ ज्जोति : समीधिरे । तेषां भानुरजस्त्र ऽइच्छुक्रो दे वष
े ु रोंचते । ॐ भू : रुद्राय नमः
। रुद्रमावाहयामि स्थापयामि ।

१२ . यज्ञो दे वानां प्रत्येति सम्


ु नमादित्यासो भवता मड
ृ यन्त : । आवोऽर्वाची सम
ु तिर्ववत्ृ याद होश्चिछा वरिवो
वित्तरासदादित्येभ्यस्त्वा । ॐ भू : आदित्यानाम ् नमः । आदित्यानामावाहयामि स्थापयामि ।

१३ . ॐ या वाङ्कशा मधुमत्याश्विना सूनत


ृ ावती । तया यज्ञ मिमिक्षतम ् । ॐ भू : अश्विने नमः ।
अश्विनावाहयामि स्थापयामि ।

१४ . ओमासश्चर्षणी धत
ृ ो विश्वे दे वास ऽआगत । दाश्वा सो दाशुष : सुतम ् । उपयाम गह
ृ ीतोऽसि विश्वेभ्यस्त्वा
दे वेभ्य : एष ते योनि र्विश्वेभ्यस्त्वा दे वेभ्य : ॥ ॐ भू : विश्वेदेवाय नमः । विश्वेदेवामावाहयामि स्थापयामि ।
१५ . ॐ अचित्यं दे व सवितारमोण्यो : कविक्रतम
ु र्चामि सत्यसव रत्नधामभिप्रियं मतिं कविम ् । उर्ध्वा यस्यामतिर्भा
अदिद्यत
ु त्सवीमनि हिरण्य पाणि रमिमीत : सक्र
ु तु : कृपा स्व : । प्रजाभ्यस्त्वा प्रजास्त्वाऽनप्र
ु ाणन्तु
प्रजास्त्वमनप्र
ु ाणिहि । ॐ भू : यक्षानाय नम : । सप्त यक्षानावाहयामि स्थापयामि ।

१६ . ॐ नमोऽस्तु सर्पेब्भ्यो ये के च पथि


ृ वी मनु । येऽअन्तरिक्षे ये दिवि तेब्भ्य : सर्प्पेब्भ्यो नमः ॥ ॐ भू :
नागेभ्यो नमः । अष्ट कुल नागेभ्यो आबाहयामि स्थापयामि ।

१७ . ॐ ऋताषाड्‌
ऋत धामाग्रिर्गन्धर्वस्तस्योषधयोप्सरसो मद
ु ो नाम । स न इदं ब्रह्म क्षत्रं पातु तस्मै स्वाहा वाट्
ताभ्य : स्वाहा । ॐ भू : गर्न्धवादीनां नमः । गन्धर्वादीनां वाहयामि स्थापयामि ।

१८ . ॐ यदक्रन्द्र : प्रथमं जायमान उधन्त्समुद्रादत ु वापुरीषात ् । श्येनस्य पक्षा हर्रिणस्य बाहू उपस्तुत्यं महि जातं
ते अर्वंन ॥ ॐ भू : रुद्रम ् नमः । रुद्रमावाहयामि स्थापयामि ।

१९ . ॐ आशु : शिशानो वष
ृ भो न भीमो घनाघन : क्षोभणश्चर्षणीनाम । संक्रन्दनो निमिष एकवीर : शत सेना
अजयत्साकमिन्द्र : ॥ ॐ भू : स्कन्दाय नमः । स्कन्दमावाहयामि स्थापयामि ।

२० . ॐ कार्षिरसि समुद्रस्य त्त्वाक्षित्या ऽउन्नयामि । समापोऽअद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधी : ॥ ॐ भू : शूलाय


नमः । शूलमावाहयामि स्थापयामि ।

२१ . ॐ कार्षिरसि समुद्रस्य त्त्वाक्षित्या ऽउन्नयामि । समापोऽअद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधी : ॥ ॐ भू महाकालाय


नमः । महाकालमावाहयामि स्थापयामि ।

२२ . ॐ शक्
ु क्रज्ज्योतिश्च चित्रज्ज्योतिश्च सत्यज्जोतिश्च ज्ज्योतिष्माँश्च । शक्र
ु श्च ऽऋतपाश्चात्य हा : ॥ ॐ भू :
दक्षादि सप्त गणेभ्यो नम : । दक्षादि सप्तगणानामावाहयामि स्थापयामि ।

२३ . ॐ अम्बे ऽअम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश्चन । ससस्त्यश्वक : सुभद्रिकां काम्पील वासिनीम ् । ॐ भू :


दर्गा
ु यै नमः । दर्गा
ु मावाहयामि स्थापयामि ।

२४ . ॐ इदं व्विष्णर्व्वि
ु चक्रमे त्रेधा निदधे पदम ् । समढ
ू मस्य पा सरु े स्वाहा । ॐ भू विष्णवे नमः ।
विष्णम
ु ावाहयामि स्थापयामि ।

२५ . ॐ पितब्ृ भ्य : स्वधायिब्भ्य : स्वधा नम : । पितामहे ब्भ्य : स्वधायिब्भ्य : स्वधा नम : प्प्रपितामहे ब्भ्य :
स्वधायिब्भ्य : स्वधा नमः ।

अक्षन्न्पितरो मीमदन्त पितरोतीतप


ृ न्त पितर : पितर : शुन्धद्‌ध्वम ् । ॐ भू : स्वधायै नम : । स्वधामावाहयामि
स्थापयामि ।

२६ . ॐ परं मत्ृ यो ऽअनु परे हि पन्थां यस्ते ऽअन्य ऽइतरो दे वयानात ् । चक्षुष्ष्मते श्र्श्रण्ृ पते ते ब्ब्रवीमि मा न :
प्प्रजा रीरिषो मोत व्वीरान ् । ॐ भू : मत्ृ युरोगेभ्यो नमः । मत्ृ युरोगानां मावाहयामि स्थापयामि ।
२७ . ॐ गणानां त्वा गणपति हवामहे प्रियाणान्त्वा प्रियपति हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति हवामहे वसो मम
आहमजानिगर्भ - धमात्वमजासि गर्भधम ् । ॐ भू : गणेशाय नम : । गणेशमावाहयामि स्थापयामि ।

२८ . ॐ आपो हिष्ठा मयो भव


ु स्तान ऽऊर्ज्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे । ॐ भू : अद्भयो नमः । अद्भयो
आवाहयामि स्थापयामि ।

२९ . ॐ मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो व्विमहस : । स सग


ु ोपातमो जन : । ॐ भू : मरुद्भयो नमः । मरुत :
मावाहयामि स्थापयामि ।

३० . ॐ स्योना पथि
ृ वी नो भवा नक्ष
ृ रानिवेशनी । यच्छा : न : शर्म्म सप्प्रथा : । ॐ भू पथि
ृ व्यै नम : ।
पथि
ृ वीमावाहयामि स्थापयामि ।

३१ . ॐ इमम्मे व्वरूण श्र्श्रुधी हवमधा च मड


ृ य । त्वामवस्यु रा च के । ॐ भू : गङ्गादिनदीभ्यो नमः ।
गङ्गादिनदी : आवाहयामि स्थापयामि ।

३२ . ब्राह्मण : समन्तात सप्तसागरान ् । ॐ इमं मे वरुण श्रुचि हवमधा च मड


ृ या । त्वामवस्युराचके । ॐ भू : सप्त
सागरान ् नमः । सप्तसागरानावाहयामि स्थापयामि ।

३३ . ॐ प्र पर्व्वतस्य व्वष


ृ भस्य पष्ठ
ृ ान्नावश्चरन्ति स्वसिच ऽइयाना : । ता ऽ आववत्र
ृ न्नधरागुदक्ता ऽअहिम्बुध्न्यमनु
रीयमाणा : व्विष्णोर्व्विक्रमणमसि व्विष्णोर्व्विकान्तमसि व्विष्णो : क्रान्तमसि । ॐ भू : मेरवे नमः ।
मेरुमावाहयामि स्थापयामि ।

३४ . ॐ गणानान्त्वा गणपति हवामहे , प्रियाणान्त्वा प्रियपति हवामहे निधीनान्त्वा निधिपति हवामहे वसो मम
आहमजानि गर्भधमात्वमजासि गर्भधम ् । ॐ भू गदायैनम : । गदामावाहयामि स्थापयामि ।

३५ . ॐ त्रि शद्धाम व्विराजति व्वाक्पतङ्गाय धीयते । प्रतिवस्तोरहधुभि : । ॐ भू : त्रिशल


ू ाय नम : ।
त्रिशल
ू मावाहयामि स्थापयामि ।

३६ . ॐ महाँ २। ऽइन्द्रो व्वज्रहस्त : षोडशी शर्म्म यच्छतु । हन्तप


ु ाप्मानं य्योस्मान ् द्वे ष्ट्टि । उपयामगह
ृ ीतोसि
महे न्द्राय त्त्वैषते योनिर्म्महे न्द्राय त्त्वा । ॐ भू : वज्राय नम : । वज्रमावाहयामि स्थापयामि ।

३७ . ॐ व्वसु च में व्वसतिश्च मे कर्म्म च में शक्तिश्श्च में र्थश्च्च म ऽ एमश्च्चम ऽइत्या च मे गतिश्च में यज्ञेन
कल्प्प्पन्ताम ् ॥

ॐ भू : शक्तयै नमः । शक्तिमावाहयामि स्थापयामि ।

३८ . ॐ इह ऽ एह्यदित ऽएहि काम्या ऽएत । मयि व कामधरणं भूयात ् । ॐ भू दण्डाय नम : । दण्डमावाहयामि


स्थापयामि ।
३९ . ॐ खड्‌गो व्वैश्वदे व : शश्वा कृष्ण : कर्ण्णोगद्‌र्दभस्तरक्षुस्ते रक्षसामिन्द्राय सूकर : सि हो मारुत : कृकलास :
पिप्पका शकुनिस्ते शरव्यायै व्विश्श्र्वेषांदेवानां पष
ृ त : । ॐ भू : खड्‌
गाय नम : । खड्‌गमावाहयामि स्थापयामि ।

४० . ॐ उदत्त
ु मं व्वरुण पाशमस्म्मदवाधमं व्वि मध्यम श्र्श्रथाय । अथा व्वयमादित्य व्व्रते तवानागसो ऽअदितये
स्याम । ॐ भू : पाशाय नम : । पशमावाहयामि स्थापयामि ।

४१ . ॐ अ शरु श्च में रश्मिश्च्च में दाब्भ्यश्च मेधिपतिश्च्चम मऽ उपा शश्च्


ु च मेन्तर्य्यामश्च्च ऽऐन्द्र वायवश्च्च में मैत्र
वरुणश्च्च म ऽ आश्विनश्च्च में प्प्रतिप्रस्थानश्श्च्च में शक्र
ु श्च में मन्थी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम ् ॥ ॐ भू : अङ्कुशाय
नमः । अङ्कुशमावाहयामि स्थापयामि ।

४२ . ॐ आयं गौ : पश्नि
ृ रक्रमीद सदन्नमातरं पुर : पितरञ्च प्रयन्त्स्व : ॐ भू : गौतमाय नम : ।
गौतमायावाहयामि स्थापयामि ।

४३ . ॐ अयन्दक्षिणा व्विश्श्वकर्म्मा तस्य मनो व्वैश्श्वकर्म्मण : ग्रीष्मो मानसस्त्रिष्टुव्यैष्म्मी त्रिष्टुभ : स्वार


र्दन्तर्य्यामोत्तर्य्यामात्पञ्चदश : पञ्चदशाद् बह
ृ द्भरद्‌द्वाज ऽऋषि । प्प्रजापतिगह
ृ ीतया त्वया मनो गह
ृ णामि प्प्रजाब्भ्य
: । ॐ भू : भरद्वाजाय नमः । भरद्वाजमावाहयामि स्थापयामि ।

४४ . ॐ इदमुत्तरान्तस्वस्तस्य श्र्श्रोत्त्र सौव शरच्छोत्र्यनुष्टुप ् शारद्यनुष्टुभ ऽएडमैडान्न्मन्थी मन्थिन ऽएकवि शद्


द्वै राजं व्विश्वामित्र ऽऋषि : प्प्रजापति गह
ृ ीतया त्वया श्र्श्रोत्रं गह्य
ृ ामि प्प्रजाब्भ्य : । ॐ भू : विश्वामित्राय नमः ।
विश्वामित्रमावाहयामि स्थापयामि ।

४५ . ॐ त्र्यायुषं जमदग्ने : कश्यपश्च त्र्यायुषम ् । यद्‌देवेषु त्र्यायुषं तन्नो ऽअस्तु त्र्यायुषम ् । ॐ भू : कश्यपाय
नमः । कश्यपमावाहयामि स्थापयामि ।

४६ . ॐ अयं पश्च्चा द्विश्वव्व्यचास्तस्य चाक्षुर्व्वैश्श्वव्व्यचसं व्वर्षाश्च्चाक्षुष्यो जगती व्वार्षी जगत्त्या


ऽऋक्स्सममक्
ृ स्सामाच्छुक्क्र : शक्
ु क्रात्सप्प्तदश : सप्तदशाद् द्वै रुपं जमदग्निऋषि : प्प्रजापति गह
ृ ीतया त्वया
चक्षुर्गृह्‌णामि प्प्रजाब्भ्य : । ॐ भू : जमदग्नये नमः । जमदग्निमावाहयामि स्थापयामि ।

४७ . ॐ अयं पुरो भुवस्तस्य प्प्राणो भौवायनो व्वसन्त : प्प्राणाय नो गायत्री व्वासन्ती गायत्र्यै गायत्रं गायत्रादप
ु ा
शुरुपा शोस्त्रिवत्रि
ृ वत ृ ो रथन्तरं व्वसिष्ठिठ ऽऋषि : प्प्रजापतिगह
ृ ीतया त्वया प्प्राणं गह्
ृ ‌णामि प्प्रजाब्भ्य : ॥ ॐ भू :
वसिष्ठाय : नमः । वसिष्ठ आवाहयामि स्थापयामि ।

४८ . ॐ अत्र पितरो मादयद्धवं य्यथाभागमावष


ृ ा यद्धवम ् । अमीमदन्त पितरो यथाभागमा वष
ृ ायिषत । ॐ भू
अत्रये नमः । अत्रिमावाहयामि स्थापयामि ।

४९ . ॐ तं पत्नीभिरनुगच्छे म दे वा : पुत्रर्ब्भ्रा
ै तभि ृ रुत ना हिरण्ण्यै : नाकं गब्ृ भ्णाना : सुकृतस्य लोके तत
ृ ीये पष्ट
ृ ेठ
ऽअधिरोचने दिवा : । ॐ भू : अरुन्धत्यै नमः । अरुन्धतीमावाहयामि स्थापयामि ।
५० . ॐ अदित्यै रास्न्नासीन्द्राण्या ऽउष्णीष : । पूषासि धर्म्माय दीष्ष्व । ॐ भू : ऐन्द्रयै नमः । ऐन्द्रीमावाहयामि
स्थापयामि ॥

५१ . ॐ अम्बे आम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश्चन । ससस्त्यश्वक : सुभद्रिकां काम्पील वासिनीम ् । ॐ भू :


कौमार्य्यै नमः । कौमारीमावाहयामि स्थापयामि ।

५२ . ॐ इन्द्रायाहि धियेषितो व्विप्प्रजत


ू : सत
ु ावत : । उप व्ब्रह्याणि व्वाग्ग्घत : । ॐ भू : ब्राह्मम्यै नम : ।
ब्राह्मीमावाहयामि स्थापयामि ।

५३ . ॐ आयङ्गौ : पश्नि
ृ रक्रमीदसदन्मातरं पुन : । पितरञ्च प्प्रयन्त्स्व : । ॐ भू : वाराह्यै नमः ।
वाराहीमावाहयामि स्थापयामि ।

५४ . ॐ अम्बे अम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश्चन । ससस्त्यश्वक : सुभद्रिकां काम्पील वासिनीम ् । ॐ भू :


चामुण्डायै नमः । चामुण्डामावाहयामि स्थापयामि ।

५५ . ॐ आप्यायस्व समेतु ते व्विश्वत : सोमव्वष्ृ ष्ण्यम ् । भवा व्वाजस्य सङ्गथे । ॐ भू : वैष्णव्यै नम : ।


वैष्णवीमावाहयामि स्थापयामि ।

५६ . ॐ या ते रुद्र शिवा तनूरघोरा पाप - काशिनी । तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन्ताभिचाकशीहि । ॐ भू :


माहे श्वयै नम : । माहे श्वरीमावाहयामि स्थापयामि ।

५७ . ॐ समख्ये दे व्या धिया सन्दक्षिणयोरुचक्षसा । मा म ऽआयु : प्रमोषीर्म्मो ऽअहं तव व्वीरं व्विदे य तव दे हि


सन्दृशि । ॐ भू : वैनायक्यै नमः । वैनायकी मावाहयामि स्थापयामि ।

प्रधानदेव यज्ञेश्वर कलश स्थापन

प्रधान पीठ या सर्वतोभद्र पर अष्ट दल कमल बनाकर तांबे के कलश को वरुण कलशवत् स्थापित कर ॐ देवदानवसंवादे0 इत्यादि मन्त्रों से पूजन करें। सोने-चाँदी की मूर्ति
को स्थापित करके नीचे लिखे क्रम अग्न्युत्तारण और प्राण प्रतिष्ठा करके पूजन करे-
अग्न्युत्तारण प्राणप्रतिष्ठा विधि
आचमन प्राणायाम कर हाथ में अक्षत, जल और द्रव्य लेकर-ॐ तत्सत् ॐ अद्येत्यादिदेशकालौ सङ्कीत्र्य, ममात्मनः श्रुतिस्मृतिपुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थं श्रीअमुकदेवप्रीतिद्वारा-
सकलाभीष्टसिद्ध î र्थम् अस्यां नूतनस्वर्णमय्य- मुकदेवप्रतिमाया घटनकालिकस्वर्णकारकृ तटंकाद्याघातदोषपरिहा-
रार्थमग्न्युत्तारणपूर्वकममुकदेवसारूप्यादिलाभयोग्यत्वसम्पादनाय प्राणप्रतिष्ठां करिष्ये। इस प्रकार संकल्प कर मूर्ति या यन्त्रा को नये कांस्यादि पात्र में रखकर घृत से स्नान
कराकर उसके ऊपर दूध की जलधारा छोड़े। मन्त्र-ॐ समुद्रस्य त्वा वकयाग्ने परिव्ययामसि। पावकोऽअस्मभ्य Ủ शिवो भव।। 1 ।। हिमस्य त्वा जरायुणाऽग्ने परिव्ययामसि
पावकोऽअस्मभ्य Ủ शिवो भव ।। 2।। उपज्मनुपवेतसे वतरनदीष्ण्वा अग्ने पित्तमपामसि मण्डू किताभिरागहि- सेमन्नोयज्ञम्पावकवर्ण Ủ शिवङ्कृ धि ।। 3।। अपामिदन्न्ययन
Ủ समुद्रस्य निवेशनम्। अन्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभ्य ँ शिवो भव ।।4।। अग्ने पावक रोचिषा मन्द्रया देवजिह्नया। आदेवान्वक्षि यक्षि च ।।5।। सनः पावक
दीदिवोऽग्ने देवाँ इहावह। उपयज्ञ ँ् हविश्वनः ।।6।। पावकया यश्चिन्त्या कृ पाक्षामन् रुरुच  उषसो न भानुना। तूर्वन्नयामन्नेताशस्य नूरण आयो घृणेन ततृषाणोऽजरः।। 7।।
नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्ते अस्त्वर्चिषे अन्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावको अस्मभ्य  ँ् शिवो भव।।8।। नृषदेवेडप्सुदेवेड् वर्हिषदेवेड् वनसदेवेड् स्वर्विदेवेड् ।।9।। ये देवा
देवानां यज्ञियाना Ủ सँव्वत्सरीणमुपभागमासते आहुतादो हविषा यज्ञे अस्मित्स्वयं पिबन्तु मधुनो
घृतस्य ।। 10।। ये देवा देवेष्वधिदेवत्वमायन्न्ये ब्रह्मणः पुर एतारो अस्य। येभ्यो न ऋते पवते धाम किञ्चन न ते दिवो न पृथिव्या अधिस्नुषु।। 11।। प्राणदा अपानदा व्यानदा
व्वर्चोदा व्वरिवोदाः। अन्न्यांस्ते अस्मत्तपन्तु हेतयः पावकोऽअस्मभ्य  ँॅ् शिवो भव ।। 12।।
।। इति अग्न्युत्तारण।।
प्राण आवाहन-

ॐ प्राणमाहुर्मातरिश्वानं, वातो ह प्राण उच्यते।


प्राणे ह भूतं भव्यं च प्राणे सर्वं प्रतिष्ठितम ्॥ -अथर्व० ११.४.१५

ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं हं सः। अस्याः गायत्रीेदेवीप्रतिमायाः प्राणाः इह प्राणाः।


ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं सः।
अस्याः प्रतिमायाः जीव इह स्थितः। ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं लं क्षं सः।
अस्याः प्रतिमायाः सर्वेन्द्रियाणि, वाङ् मनस्त्वक् चक्षुः श्रोत्रजिह्वा घ्राणपाणिपादपायप
ू स्थानि, इहै वागत्य सख
ु ं चिरं
तिष्ठन्तु स्वाहा।

अर्थात ्- हम उपर्युक्त तन्त्रोक्त मन्त्रों के द्वारा इस प्रतिमा में आपके प्राणों की, जीव की तथा समस्त इन्द्रियों की
प्रतिष्ठा करते हैं। आप यहाँ उपस्थित होकर चिरकाल तक सुखपूर्वक निवास करें । हम आपका यजन करते हैं।
पंच भू संस्कार

इन्द्र ने बृत्तासुर नामक दैत्य का बध किया उसके मांस और चर्वि से पुरी पृथ्वी व्याप्त हो गयी इसी लिये उपलेपन आदि संस्कार किया जाता है |

१ – परिसमुहन – सर्व प्रथम बेदी या कु ण्ड को नाप ले ये २४ अङ्गुल की होनी चाहिये वेदि मे कोई कीटआदि न रह जाय इसके निवारन के लिये
तीन कु शोके द्वारा दक्षिण से उत्तर की तरफ़ वेदि को साफ़् करे और उन कु शोको ईशान् कोण मे फ़े कदे | ( त्रिभिर्दभैः परिसमुह्य तान् कु शानैशान्यां
परित्यज्य )

मन्त्र

कृ ष्णो ऽ स्याखरेष्ठो ऽग्नये त्वा जुष्टं प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टां प्रोक्षामि बर्हिरसि स्त्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टं प्रोक्षामि || य० २ – १ ||

२ – उपलेपन – गाय के गोवर मिश्रित जल से वेदि को दक्षिण से उत्तर की तरफ़् लिप दे | ( गोमयोदके नो पलिप्य )

मन्त्र

पृथिवि देव यजन्योषध्यास्ते मूलं माहि गुंग सिषं व्रजं गच्छ गोष्ठानं वर्षतु ते द्यौर्बधान देव | सवितः परमस्यां पृथिव्या गुंग शतेन पाशैर्यो ऽ स्मान्द्वेष्टि यं च
वयं द्विष्मस्तमतो मा मौक् ||य० १ – २५ ||

३ – रेखाकरण – स्रुवा या तीन कु शो द्वारा वेदि या कु ण्ड मे ६ – ६ अङ्गुल पर अन्गुठे और तर्जनी के सहारे प्रदेश मात्र (एक बित्ता ६ – ७ इन्च की
दुरी को प्रदेश मात्र की दुरी कहते है | ) तीन रेखाये पश्चिम से पुरव या द० से उ० की तरफ़् खिचे |( स्फ़येन् , स्त्रुवमुलेन , कु शमुलेन वा
त्रिरुल्लिख्य |)

मन्त्र

गायत्रेण त्वा छन्दसा परिगृह्णामि त्रैष्टु भेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि जागतेन त्वा छन्दसा परिगृह्णामि |

सूक्ष्मा चासि शिवा चासि स्योना चासि सुषदा चास्यु र्जस्वती चासि पयस्वीती च || य० १ – २७ ||
४ – उध्दरण – उन खिची गयी ३ रेखाओ से क्रम से अनामिका और अन्गुठे द्वारा १ – १ बार मिटटी निकाल कर बावे हाथ मे रखते जाये बाद मे
दाहिने हाथ पर रख कर ईशानकोण मे फ़े कदे |( अनामिकाङ्गुष्ठाभ्यां मृदमुद्धृत्य )

,मन्त्र -

५ – अभ्युक्षण या सेचन – गंगा आदि पवित्र नदिओ के जल से वेदि को पवित्र किया जाता है ( वेदि पर जल छिडके ) ( जलेना भ्युक्ष्य )

मन्त्र

यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह नः | उशतीरिव मातरः || य० ३६ – १५ ||

तस्मा ऽ अरं गमाम वो यस्य क्षयाय जिन्वथ | आपो जनयथा च नः ||य० ३६ – १६ ||

ये वेदी के पञ्चभू संस्कार है |

अग्नि – स्थापन

किसी कासे , ताबे या मिट्टी के पात्र मे पवित्र अग्नि को वेदि या कु ण्ड के अग्नि कोण मे रखे अग्नि मे से क्रव्यादांश निकाल कर नैऋत्य कोण मे डाल दे
तदन्तर अग्निपात्र को स्वाभिमुख करते हुए वेदी मे स्थापित करे –

मन्त्र

ॐ अग्नि दूतं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे | देवाँ२ आ सादयादिह ||

जिस पात्र मे अग्नि लाई गई हो उसमे अछत – जल छिडकदे अग्नि की सुरक्षाके लिये लकडी , गोइठा आदि रखे यदि अग्नि को जलाने के लिये फ़ु कना
हो तो बास की नली या काष्ठ का व्यवधान ( मुख और अग्नि के बीच मे दुरी के लिये ) कर ले | अग्नि का ५ उपचारो से यथाविधि पूजन कर ले |

नवग्रह-स्थापन एवं पज
ू न

वेदी पर श्वेत वस्त्र बिछाकर उसके ऊपर ग्रहों की स्थापना के लिये ईशानकोण में चार खड़ी पाइयों और चार पड़ी पाइयों का चैकोर मण्डल बनाये। इस प्रकार नौ कोष्ठक बन
जायेंगे। बीच वाले कोष्ठक में सूर्य, अग्निकोण में चन्द्र, दक्षिण में मङ्गल, ईशानकोण में बुध, उत्तर में बृहस्पति, पूर्व में शुक्र, पश्चिम में शनि, नैर्ऋ त्यकोण में राहु और वायव्यकोण
में के तु की स्थापना करनी चाहिए। इसके बाद हाथ में जल, अक्षत, पुष्प लेकर संकल्प करें। देशकाल का संकीर्तन कर ‘‘अमुककर्मणः निर्विघ्नसमाप्तये सदङ्गतया
सूर्यादिनवग्रहणामधिदेवता प्रत्यधिदेवता पञ्चलोकपालानां चावाहनं स्थापनं पूजनं च करिष्ये।’’
तदनन्तर नीचे लिखे मन्त्रा बोलते हुए उपरिलिखित क्रम से दाहिने हाथ से अक्षत छोड़कर ग्रहों का आवाहन एवं स्थापन करे।
1. सूर्य (मध्य में गोलाकर, लाल) सूर्य का आवाहन (लाल अक्षत-पुष्प लेकर)-  ॐ आ कृ ष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यं च। हिरण्येन सविता रथेना देवो याति
भुवनानि पश्यन्।। जपाकु सुमसंकाशं काश्यपेयं महाद्युतिम्। तमोऽरिं सर्वपापघ्नं सूर्यमावाहयाम्यहम् ।। ॐ भूर्भुवः स्वः कलिङ्गदेशोद्भव काश्यपगोत्र-रक्तवर्ण-भो सूर्य! इच्छागच्छ,
इह तिष्ठ ॐ सूर्याय नमः, श्रीसूर्यमावाहयामि, स्थापयामि।
2. चन्द्र (अग्निकोण में, अर्धचन्द्र, श्वेत) चन्द्रका आवाहन (श्वेत अक्षत-पुष्प से)- ॐ इमं देवा असपत्न ँ सुवध्वं महते क्षत्राय महते ज्यैष्ठ्याय महते
जानराज्यायेन्द्रस्येन्द्रियाय। इमममुष्य पुत्रममुष्यै पुत्रमस्यै विश एष वोऽमी राजा सोमोऽस्माकं ब्राह्मणानां Ủ राजा।। दधिशङ्खतुषाराभं क्षीरोदार्णवसम्भवम्। ज्योत्स्नापतिं निशानाथं
सोममावाहयाम्यहम् ।। ॐ भूर्भुवः स्वः यमुनातीरोद्भव आत्रोयगोत्र शुक्लवर्ण भो सोम ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ सोमाय नमः, सोममावाहयामि, स्थापयामि।
3. मंगल (दक्षिण में, त्रिकोण, लाल) मङ्गल का आवाहन (लाल फू ल और अक्षत लेकर) ॐ अग्निर्मूर्धा दिवः ककु त्पतिः पृथिव्या अयम्। अपा Ủ रेता Ủ सि जिन्वति।।
धरणीगर्भसम्भूतं विद्युत्तेजस्समप्रभम्। कु मारं शक्तिहस्तं च भौममावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः अवन्तिदेशोद्भव भारद्वाजगोत्र रक्तवर्ण भो भौम ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ भौमाय
नमः, भौममावाहयामि, स्थापयामि।
4. बुध (ईशानकोण में, हरा, धनुष) बुध का आवाहन (पीले, हरे, अक्षत-पुष्प लेकर)-ॐ उदबुध्यस्वाग्ने प्रति जागृहि त्वमिष्टापूर्ते स Ủ सृजेथामयं च। अस्मिन्त्सधस्थे
अध्युत्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्च सीदत।। प्रियङ्गुकलिकाभासं रूपेणाप्रतिं बुधम्। सौम्यं सौम्यगुणोपेतं
बुधमावाहयाम्यहम्। ॐ भूर्भुवः स्वः मगधदेशोद्भव आत्रोयगोत्र पीतवर्ण भो बुध! इहागच्छ इह तिष्ठ ॐ बुधाय नमः, बुधमावाहयामि, स्थापयामि।
5. बृहस्पति (उत्तर में पीला, अष्टदल) बृहस्पति का आवाहन (पीले अक्षत-पुष्प से)-ॐ बृहस्पते अति यदर्यो अर्हाद् द्युमद्विभाति क्रतुमज्जनेषु। यद्दीदयच्छवस ऋतप्रजात
तदस्मासु द्रविणं धेहि चित्राम्। उपयामगृहीतोऽसि बृहस्पतये त्वैष ते योनिर्बृहस्पतये त्वा।। देवानां च मुनीनां च गुरुं काञ्चनसन्निभम्। वन्द्यभूतं त्रिलोकानां गुरुमावाहयाम्यहम्।। ॐ
भूर्भुवः स्वः सिन्धुदेशोद्भव आङ्गिरसगोत्र पीतवर्ण भो गुरो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ बृहस्पतये नमः, बृहस्पतिमावाहयामि, स्थापयामि।
6. शुक्र (पूर्व में श्वेत, पञ्चकोण) शुक्र का आवाहन (श्वेत अक्षत-पुष्प से)-
ॐ अन्नात्परिश्रुतो रसं ब्रह्मणा व्यपिबत्क्षत्रंा पयः सोमं प्रजापतिः। ऋतेन सत्यमिन्द्रियं विपान Ủ शुक्रमन्धस इन्द्रस्येन्द्रियमिदं पयोऽमृतं मधु।। हिमकु न्दमृणालाभं दैत्यानां परमं
गुरुम्। सर्वशास्त्राप्रवक्तारं शुक्रमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः भोजकटदेशोद्भव भार्गवगोत्र शुक्लवर्ण भो  शुक्र ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ शुक्राय नमः, शुक्रमावाहयामि, स्थापयामि।
7. शनि (पश्चिम में, काला मनुष्य) शनि का आवाहन (काले अक्षत पुष्प से)
ॐ शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि श्रवन्तु नः।। नीलाम्बुजसमाभासं रविपुत्रां यमाग्रजम्। छायामार्तण्डसम्भूतं शनिमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुव स्वः सौराष्ट्रदेशोद्भव
काश्यपगोत्र कृ ष्णवर्ण भो शनैश्चर ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ शनैश्चराय नमः, शनैश्चरमावाहयामि, स्थापयामि।
8. राहु (नैर्ऋ त्यकोण में काला मकर) राहु का आवाहन (काले पुष्प से)-ॐ कया नश्चित्रा आ भुवदूती सदावृधः सखा। कया शचिष्ठया वृता। अर्धकायं महावीर्यं
चन्द्रादित्यविमर्दनम्। सिंहिकागर्भसम्भूतं राहुमावाहयाम्यहम्।।
ॐ भूर्भुव स्वः राठिनपुरोद्भव पैठीनसगोत्र कृ ष्णवर्ण भो राहो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ राहवे नमः, राहुमावाहयामि, स्थापयामि।
9. के तु (वायव्यकोण में, कृ ष्ण खड्ग) के तु का आवाहन (धूमिल अक्षत पुष्प लेकर)-ॐ के तुं कृ ण्वन्न्के तवे पेशो मर्या अपेशसे। समुषद्भिरजायथाः।। पलाशधूम्रसङ्काशं
तारकाग्रहमस्तकम्। रौद्रं रौद्रात्मकं घोरं के तुमावाहयाम्यहम्।। ॐ भूर्भुवः स्वः अन्तर्वेदिसमुद्भव जैमिनिगोत्र धूमवर्ण भो के तो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ॐ के तवे नमः,
के तुमावाहयामि, स्थापयामि।

नोटः-के वल नवग्रह पूजन कराना हो तो दिक्पाल आवाहन के बाद इसकी शेष विधियाँ दी गयी है। इससे नवग्रह पृथक् कर पूजन करा लें।

अधिदे वताओंकी स्थापना

अधिदे वताओंकी स्थापना

(हाथमें अक्षत-पुष्प लेकर निम्न मन्त्रोंको पढ़ते हुए चित्रानुसार नियत स्थानोंपर अधिदे वताओंके आवाहन-
स्थापनपूर्वक अक्षत-

पुष्पोंको छोड़ता जाय ।)

१-

ईश्‍वर (सूर्यके दायें भागमें ) आवाहन-स्थापन-

ॐ त्र्यम्बकं यजाम्हे सुगन्धिं पष्टि


ु वर्धनम ् ।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मत्ृ योर्मूक्षीय मामत


ृ ात ् ॥

एह्येहि विश्‍वश्व
े र नस्त्रिशूलकपालखट्‌वाङ्गधरे ण सार्धम ् ।

लोकेश यक्षेश्‍वर यज्ञसिद्ध्यै गह


ृ ाण पूजां भगवन ् नमस्ते ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः ईश्‍वराय नमः, ईश्‍वरमावाहयामि, स्थापयामि ।

२-

उमा (चन्द्रमाके दायें भागमें ) आवाहन स्थापन-


ॐ श्रीश्‍च ते लक्ष्मीश्‍च पत्‍न्यावहोरात्रे पार्श्वे नक्षत्राणि रूपमश्‍विनौ व्यात्तम ् । इष्णन्निषाणामुं म इषाण सर्वलोकं म
इषाण ।

हे माद्रितनया दे वीं वरदां शङ्करप्रियाम ् ।

लम्बोदरस्य जननीमुमामावाहयाम्याहम ् ॥

ॐ भर्भु
ू वः स्वः उमायै नमः, उमामावाहयामि, स्थापयामि ।

३-

स्कन्द (मङ्गलके दायें भागमें ) आवाहन-स्थापन-

ॐ यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्रादत


ु वा पुरीषात ् ।

श्येनस्य पक्षा हरिणस्य बाहू उपस्तत्ु यं महि जातं ते अर्वन ् ॥

रुद्रतेजःसमुत्पन्नं दे वसेनाग्रगं विभुम ् ।

षण्मख
ु ं कृत्तिकासन
ू ंु स्कन्दमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः स्कन्दाय नमः, स्कन्दमावाहयामि, स्थापयामि ।

४-

विष्णु (बुधके दायें भागमें ) आवाहन - स्थापन-

ॐ विष्णो रराटमसि विष्णोः श्‍नप्त्रे स्थो विष्णोः स्यरू सि विष्णोर्ध्रुवोऽसि । वैष्णवमसि विष्णवे त्वा ॥

दे वदे वं जगन्नाथं भक्तानुग्रहकारकम ् ।

चतुर्भुजं रमानाथं विष्णुमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः विष्णवे नमः, विष्णुमावाहयामि, स्थापयामि ।

५-

ब्रह्मा (बहृ स्पति के दायें भागमें ) आवाहन- स्थापन-

ॐ आ ब्रह्मन ् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायतामा राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायतां दोग्ध्री
धेनर्वो
ु ढानड्‌वानाशःु सप्तिः परु न्धिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो यव
ु ास्य यजमानस्य वीरो जायतां निकामे निकामे

नः पर्जन्यो वर्षतु फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्तां योगक्षेमो नः कल्पताम ् ॥

कृष्णाजिनाम्बरधरं पद्मसंस्थं चतर्मु


ु खम ् ।

वेदाधारं निरालम्बं विधिमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भर्भु
ू वः स्वः ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि, स्थापयामि ।

६-

इन्द्र (शक्र
ु के दायें भागमें ) आवाहन -स्थापन-

ॐ सजोषा इन्द्र सगणो मरुद्भिः सोमं पिब वत्र


ृ हा शूर विद्वान ् ।

जहि शत्र२
ू रप मध
ृ ो नद
ु स्वाथाभयं कृणहि
ु विश्‍वतो नः ।

दे वराजं गजारूढं शुनासीरं शतक्रतुम ् ।

वज्रहस्तं महाबाहुमिन्द्रवाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि, स्थापयामि ।

७-

यम (शनिके दायें भागमें ) आवाहन- स्थापन-

ॐ यमाय त्वाऽङ्गिरस्वते पितम


ृ ते स्वाहा ।

स्वाहा घर्माय स्वाहा घर्मः पित्रे ॥

धर्मराजं महावीर्यं दक्षिणादिक्पतिं प्रभुम ् ।

रक्‍तेक्षणं महाबाहुं यममावाहयाम्यहम ् ।

ॐ भूर्भुवः स्वः यमाय नमः, यममावाहयामि, स्थापयामि ।

८-

काल (राहुके दायें भागमें ) आवाहन स्थापन-


ॐ कार्षिरसि समद्र
ु स्य त्वा क्षित्या उन्नयामि ।

समापो अद्भिरग्मत समोषधीभिरोषधीः ॥

अनाकारमनन्ताख्यं वर्तमानं दिने दिने ।

कलाकाष्ठादिरूपेण कालमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भर्भु
ू वः स्वः कालाय नमः, कालमावाहयामि, स्थापयामि ।

९-

चित्रगप्त
ु (केतक
ु े दायें भागमें ) आवाहन-स्थापन-

ॐ चित्रावसो स्वस्ति ते पारमशीय ।

धर्मराजसभासंस्थं कृताकृतविवेकिनम ् ।

आवाहये चित्रगुप्तं लेखनीपत्रहस्तकम ् ॥

ॐ भर्भु
ू वः स्वः चित्रगप्त
ु ाय नमः, चित्रगप्त
ु मावाहयामि, स्थापयामि ।

प्रत्यधि दे वताओंकी स्थापना

प्रत्यधि दे वताओंका स्थापन


बायें हाथमें अक्षत लेकर दाहिने हाथसे नवग्रहोंके बायें भागमें मन्त्रको उच्चारण करते हुए नियत स्थानोंपर
अक्षत छोड़ते हुए

एक-एक प्रत्यधिदे वताका आवाहन-स्थापन करे -


१-
अग्नि (सूर्यके बायें भागमें ) आवाहन-स्थापन
ू ं पुरोदधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । दे वॉ ं २ आ सादयादिह ॥
ॐ अग्निं दत
रक्तमाल्याम्बरधरं रक्तपद्मासनस्थितम ् ।
वरदाभयदं दे वमग्निमावाहयाम्यहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः अग्नये नमः, अग्निमावाहयामि, स्थापयामि ।
२-
अप ् (जल) चन्द्रमाके बायें भागमें ) आवाहन - स्थापन-
ॐ आपो हि ष्ठा मयोभव
ु स्ता न ऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे ॥
आदिदे वसमद्भ
ु त ू जगच्छुद्धिकराः शभ
ु ाः ।
ओषध्याप्यायनकरा अप आवाहयाम्यहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः अद्‌
भ्यो नमः, अप आवाहयामि, स्थापयामि ।
३-
पथ्ृ वी (मंगलके बायें भागमें ) आवाहन - स्थापन -
ॐ स्योना पथि
ृ वि नो भवानक्ष
ृ रा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथाः ॥
शुक्लवर्णां विशालाक्षीं कूर्मपष्ठ
ृ ोपरिस्थिताम ् ।
सर्वशस्याश्रयां दे वीं धरामावाहयाम्यहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः पथि
ृ व्यै नमः, पथि
ृ वीमावाहयामि, स्थापयामि ।
४-
विष्णु (बुधके बाये भागमें ) आवाहन - स्थापन-
ॐ इदं विष्णुर्वि चक्रमे त्रेधा नि दधे पदम ् । समढ
ू मस्य पा सुरे स्वाहा ॥
शङ्खचक्रगदापद्महस्तं गरुडवाहनम ् ।
किरीटकुण्डलधरं विष्णम
ु ावाहयाम्यहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः विष्णवे नमः, विष्णुमावाहयामि, स्थापयामि ।
५-
इन्द्र (बह
ृ स्पतिके बायें भागमें ) आवाहन स्थापन-
ॐ इन्द्र आसां नेता बह
ृ स्पतिर्दक्षिना यज्ञः पुर एतु सोमः ।
दे वसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम ् ॥
ऐरावतगजारूढं सहस्त्राक्षं शचीपतिम ् ।
वज्रहस्तं सुराधीशमिन्द्रमावाहयाम्यहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि, स्थापयामि ।
६-
इन्द्राणी (शक्र
ु के बायें भागमें ) आवाहन स्थापन-
ॐ अदित्यै रास्नाऽसीन्द्राण्या उष्णीषः । पष
ू ाऽसि घर्माय दीष्व ॥
प्रसन्नवदनां दे वीं दे वराजस्य वल्लभाम ् ।
नानालङ्कारसंयक्त
ु ां शचीमावाहयाम्यहम ् ।
ॐ भर्भु
ू वः स्वः इन्द्राण्यै नमः, इन्द्राणीमावाहयामि, स्थापयामि ।
७-
प्रजापति (शनिके बायें भागमें ) आवाहन - स्थापन-
ॐ प्रजापते न त्वदे तान्यन्यो विश्‍वा रूपाणि परि ता बभूव ।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वय स्याम पतयो रयीणाम ् ॥
आवाहयाम्यहं दे वदे वेशं च प्रजापतिम ् ।
अनेकव्रतकर्तारं सर्वेषां च पितामहम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः प्रजापतये नमः, प्रजापतिमावाहयामि, स्थापयामि ।
८-
सर्प (राहुके बायें भागमें ) आवाहन- स्थापन-
ॐ नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पथि ृ वीमनु ।
ये अन्तरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः ॥
अनन्ताद्यान ् महाकायान ् नानामणिविराजितान ् ।
आवाहयाम्यहं सर्पान ् फणासप्तकमण्डितान ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः सर्पेभ्यो नमः, सर्पानामावाहयामि, स्थापयामि ।
९-
ब्रह्मा (केतुके बायें भागमें ) आवाहन- स्थापन-
ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः ।
स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्‍चः योनिमसतश्‍च विवः ॥
हं सपष्ठ
ृ समारूढं दे वं ब्रह्माणं कमलासनम ् ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि, स्थापयामि ।
नवग्रहोंके समान ही अधिदे वता तथा प्रत्यधिदे वताओंका भी प्रतिष्ठापूर्वक पाद्यादि उपचारोंसे पूजन करना चाहिये ।

क्षेत्रपालका आवाहन-स्थापन
ॐ नहि स्पशमविदन्नन्यमस्माद्वै श्‍वानरात्परु एतारमग्नेः ।
एमेनमवध
ृ न्नमत
ृ ा अमर्त्यं वैश्‍वानरं क्षैत्रजित्याय दे वाः ॥
भूतप्रेतपिशाचाद्यैरावत
ृ ं शूलपाणिनम ् ।
आवाहये क्षेत्रपालं कर्मण्यस्मिन ् सुखाय नः ॥
ॐ भूर्भुवः स्वः क्षेत्राधिपते । इहागच्छ, इह तिष्ठ क्षेत्राधिपतये नमः, क्षेत्राधिपतिमावाहयामि, स्थापयामि ।

दिक्पाल दे वताओंकी स्थापना

नवग्रह मण्डलमें परिधिके बाहर पूर्वादि दसों दिशाओंके अधिपति दे वताओं (दिक्पाल दे वताओं) का अक्षत छोड़ते
हुए आवाहन एवं
स्थापन करे ।

(पूर्वमें ) इन्द्रका आवाहन और स्थापन -

ॐ त्रातारमिन्द्रमवितारमिन्द्र हवे हवे सुहव शूरमिन्द्रम ् ।

ह्रयामि शक्रं परु


ु हूतमिन्द्र स्वस्ति नो मघवा धात्विन्द्रः ॥

इन्द्रं सुरपतिश्रेष्ठं वज्रहस्तं महाबलम ् ।

आवाहये यज्ञसिद्ध्यै शतयज्ञाधिपं प्रभम


ु ्॥
ॐ भूर्भुवः स्वः इन्द्र ! इहागच्छ, इह तिष्ठ इन्द्राय नमः, इन्द्रमावाहयामि, स्थापयामि ।

(अग्निकोणमें ) अग्निका आवाहन और स्थापन -

ू ं पुरो दधे हव्यवाहमुप ब्रुवे । दे वॉ२ं आ सादयादिह ॥


ॐ अग्निं दत

त्रिपादं सप्तहस्तं च द्विमूर्धानं द्विनासिकम ् ।

षण्नेत्रं च चतुःश्रोत्रमग्निमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः अग्ने ! इहागच्छ, इह तिष्ठ अग्नये नमः, अग्निमावाहयामि, स्थापयामि ।

(दक्षिणमें ) यमका आवाहन और स्थापन-

ॐ यमाय त्वाऽङ्गिरस्वते पितम


ृ ते स्वाहा । स्वाहा घर्माय स्वाहा घर्मः पित्रे ॥

महामहिषमारूढं दण्डहस्ते महाबलम ् ।

यज्ञसंरक्षणार्थाय यममावहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः यम ! इहागच्छ इह तिष्ठ यमाय नमः, यममावाहयामि, स्थापयामि ।

(नैऋत्यकोणमें ) निऋतिका आवाहन और स्थापन-

ॐ असन्
ु वन्तमयजमानमिच्छ स्तेनस्येत्यामन्विहि तस्करस्य ।

अन्यमस्मदिच्छ सा त इत्या नमो दे वि निऋते तभ्


ु यमस्तु ॥

सर्वप्रेताधिपं दे वं निऋतिं नीलविग्रहम ् ।

आवाहये यज्ञसिद्ध्यै नरारूढं वरप्रदम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः निऋते ! इहागच्छ, इह तिष्ठ निऋतये नमः, निऋतिमावाहयामि, स्थापयामि ।

(पश्‍चिममें ) वरुणका आवाहन और स्थापन-

ॐ तत्त्वा यामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदा शास्ते यजमानो हविर्भिः ।

अहे डमानो वरुणेह बोध्यरु


ु श स मान आयःु प्रमोषीः ॥

शुद्धस्फटिकसंकाशं जलेशं यादसां पतिम ् ।


आवाहये प्रतीचीशं वरुणं सर्वकामदम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः वरुण ! इहागच्छ, इह तिष्ठ वरुणाय नमः, वरुणमावाहयामि, स्थापयामि ।

(वायव्यकोणमें ) वायुका आवाहन और स्थापन-

ॐ आ नो नियुद्भिः शतिनीभिरध्वर सहस्त्रिणीभिरुप याहि यज्ञम ् ।

वायो अस्मिन्त्सवने मादयस्व सर्वतश्‍चारिणं शुभम ् ।

यज्ञसंरक्षणार्थाय वायुमावाहयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः वायो ! इहागच्छ, इह तिष्ठ वायवे नमः, वायुमावाहयामि, स्थापयामि ।

(उत्तरमें ) कुबेरका आवाहन और स्थापन-

ॐ कुविदङ्ग यवमन्तो यवं चिद्यथा दान्त्यनुपूर्वं वियूय ।

इहे हैषां कृणहि


ु भोजनानि ने बर्हिषो नम उक्तिं यजन्ति ॥

उपयामगह
ृ ीतोऽस्यश्‍विभ्यां त्वा सरस्वत्यै त्वेन्द्राय त्वा सुत्राम्ण ।

एष ते योनिस्तेजसे त्वा वीर्याय त्वा बलाय त्वा ॥

आवहयामि दे वेशं धनदं यक्षपजि


ू तम ् ।

महाबलं दिव्यदे हं नरयानगतिं विभम


ु ्॥

ॐ भूर्भुवः स्वः कुबेर ! इहागच्छ, इह तिष्ठ कुबेराय नमः, कुबेरमावाहयामि, स्थापयामि ।

(ईशानकोणमें ) ईशानका आवाहन और स्थापन -

ॐ तमीशानं जगतस्तस्थुषस्पतिं धियञ्जिन्वमवसे हूमहे वयम ् ।

पष
ू ा नो यथा वेदसाम्सद् वध
ृ े रक्षिता पायरु दब्धः स्वस्तये ॥

सर्वाधिपं महादे वं भूतानां पतिमव्ययम ् ।

आवाहये तमीशानं लोकानामभयप्रदम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः ईशान ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ईशानाय नमः, ईशानमावाहयामि, स्थापयामि ।


(ईशान-पूर्वके मध्यमें ) ब्रह्माका आवाहन और स्थापन-

ॐ ब्रह्म जज्ञानं प्रथमं पुरस्ताद्वि सीमतः सुरुचो वेन आवः ।

स बुध्न्या उपमा अस्य विष्ठाः सतश्‍च योनिमसतश्‍च वि वः ॥

पद्मयोनिं चतुर्मूर्तिं वेदगर्भं पितामहम ् ।

आवाहयामि ब्रह्माणं यज्ञसंसिद्धिहे तवे ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः ब्रह्मन ् ! इहागच्छ, इह तिष्ठ ब्रह्मणे नमः, ब्रह्माणमावाहयामि, स्थापयामि ।

(नैऋत्य-पश्‍चिमके मध्यमें ) अनन्तका आवाहन और स्थापन-

ॐ स्योना पथि
ृ वि नो भवानक्ष
ृ रा निवेशनी । यच्छा नः शर्म सप्रथाः ।

अनन्तं सर्वनागानामधिपं विश्‍वरूपिणम ् ।

जगतां शान्तिकर्तारं मण्डले स्थापयाम्यहम ् ॥

ॐ भूर्भुवः स्वः अनन्त ! इहागच्छ, इह तिष्ठ अनन्ताय नमः, अनन्तमावाहयामि, स्थापयामि ।

प्रतिष्ठा - इस प्रकार आवाहन कर

'ॐ मनो०'

इस मन्त्रसे अक्षत छोड़ते हुए प्रतिष्ठा करे । तदनन्तर निम्नलिखित नाम-मन्त्रसे यथालब्धोपचार पज
ू न करे -

'ॐ इन्द्रादिदशदिक्पालेभ्यो नमः ।'

इसके बाद

'अनया पूजया इन्द्रादिदशदिक्पालाः प्रीयन्ताम ्, न मम'

ऐसा उच्चारण कर अक्षत मण्डलपर छोड़ दे ।

कु शकण्डिका प्रारंभ

आचार्य तथा ब्रह्माका वरण


अग्नि के दक्षिण दिशा मे प्रदेश मात्र दुरी पर ब्रह्मा के लिये कु श का आसन रखे अग्नि के उत्तर मे प्रदेश मात्र दुरी पर प्रणीता और प्रोक्षणी पात्र के लिये
कु श का दो आसन रखे जिसका अग्र भाग पूर्व की तरफ़ हो | यज्ञ की रक्षा करने वाले ब्राह्मण को ब्रह्मा कहा जाता है | यदि प्रत्यक्ष ब्राह्मन का वरन न
करना हो तो ५० कु शो से निर्मित ब्रह्मा को संकल्पपुर्वक वरण करके उत्तरा भिमुख ब्रह्मा के आसन पर स्थापित करे | कहे – हे ब्रह्मन्, जब तक
कर्म की समाप्ति नहो तब तक आप ब्रह्मपद पर आसीन हो ( यावत्कर्म समाप्यते तावत्त्वं ब्रह्मा भव ) ब्रह्मा बोले – (भवामि ) मै होता हूँ- यो कह कर
आसन पर बैठे | तदनन्तर - ब्रह्मा मौन हो जाय | हवन के लिये पृथक् आचार्य हो तो पहले उनका संकल्पपुर्वक वरण करले और वरण- सामग्री
प्रदान करे |

प्रणीतापात्र – स्थापन

प्रणीतापात्र को बायें हाथ मे रख कर दाहिने हाथ से ग्रहन किये हुए जल पात्र से उस प्रणीतापात्र मे जल भर कर पहले से बिछी हुइ कु शा पर दाहिने
हाथ के रखकर उस पात्र को स्पर्श कर ब्रह्मदेव के मुख को देख कर ईक्षण मात्र से ब्रह्मा की आज्ञा ले कर दुसरी उत्तर की तरफ़ बिछि हुइ कु शाओ पर
रखदे |

परिस्तरण

यह ८१ कु शो का होता है | कु छ विद्वानो की मान्यता १६ और १२ है परन्तु हमारे गुरुजी की मान्यता ८१ है और गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा प्रकाशित
पुस्तको मे भी ८१ ही मिला | सर्व प्रथम इसका चार भाग कर ले ( २१ + २० + २० + २० ) कु श बिछाते समय हाथ खाली नहि होना चाहिये |
इसलीये पहले २१ कु शो को ले कर अग्निकोण से ईशानकोण तक उत्तराग्र बिछावे फ़िर् दुसरे भाग को ब्रम्हासनसे अग्निकोण तक पूर्वाग्र बिछाये |
तदनन्तर तीसरे भाग को नैऋत्यकोण से वायव्यकोण तक उत्तराग्र बिछाये और चोथे भाग को वायव्यकोण से ईशानकोण तक पूर्वाग्र बिछाये | पुनः
दाहिने खाली हाथ से वेदी के ईशानकोण के प्रारम्भकर वामवर्त ईशानपर्यन्त प्रदक्षिणा करे |

पात्रासादन

३ कु श उत्तराग्र ( पवित्रक बनाने वाली पत्तिओ को काटने के लिये ) साग्र २ कु शपत्त्र ( बिचवाली सिंक निकाल कर पवित्रक बनाने के लिये )
प्रोक्षणीपात्र ( अभाव मे मिट्टी का कसोरा ) आज्यस्थाली ( घी रखने का पात्र ) चरुपात्र के रूप मे मिट्टी के दो पात्र ( यदि एक ही पात्र मे बनाना हो तो
बडा रहना चाहिये ) ५ सम्मार्जन कु श , ७ उपयमन कु श , ३ समिधाये ( प्रदेश मात्र लम्बी ) स्रुवा , आज्य ( घी ) , यज्ञीय काष्ठ ( पलाश आदि की
लकडी ) , २५६ मुठ्टी चावल से भरा पूर्णपात्र पूर्णाहुति के लिये नारिके ल आदि हवन सामग्री मगा कर पश्चिम से पूर्व तक उत्तराग्र अथवा अग्नि के
उत्तर की ओर पूर्वाग्र रख ले |

पवित्रक निर्माण

२ कु श के पत्रो को बाये हाथ मे पूर्वाग्र रख कर इनके उपर उत्तराग्र ३ कु शो को दाये हाथ से प्रदेश मात्र दुरी छोडकर मूल की तरफ़ रखदे | तदनन्तर
२ कु शो के मूल को पकड कु शत्रयको बीचमे लेते हुए दोकु श पत्रो को प्रदक्षिण क्रम से लपेटले, फ़िर दाये हाथ से ३ कु शो को मोडकर बाये हाथ मे
पकडले तथा दाहिने हाथ से कु शपत्रद्वय पकडकर जोरसे खीच ले | जब २ पत्तो वाला कु श कट जाय तब उनके अग्रभाग वाला प्रादेशमात्र दाहिनी
ओरसे घुमाकर गाँठ दे दे ताकि दो पत्र अलग –अलग न हो | इस तरह पवित्रक बन गया | शेष सबको ( २ पत्रो के कटे भाग तथा काटने वाले ३
कु शोको ) उत्तर दिशा मे फ़े क दे |

प्रोक्षणीपात्र का संस्कार

प्रोक्षणी पात्र को पूर्वाग्र अपने सामने रखे | प्रणीता पात्र मे रखे हुए जल का आधा भाग आचमनि आदि किसी पात्र से ३ बार प्रोक्षणी पात्र मे डाले |
अब पवित्री के अग्र भाग को बाये हाथ की अनामिका तथा अन्गुठे से पकड कर इसके मध्य भाग के द्वारा प्रोक्षणी के जल को ३ बार प्रदेश मात्र ( एक
बित्ता ) उछाले ( उत्प्लवन ) | तथा प्रणीत के जल से प्रोक्षणी का प्रोक्षण करे और उक्त प्रोक्षणी के जल से वेदी के पास स्थापित सभी वस्तुओ का
सिंचन करे ( अर्थवत्प्रोक्ष्य ) फ़िर अग्नि और प्रणीता के मध्य ( असंचरदेश ) मे प्रोक्षणी पात्र को रख दे | फ़िर घी के कटोरे मे निकाल कर उस पात्र
को वेदी के दक्षिण भाग मे अग्नि पर रखे दे |

चरुनिर्माण

अग्नि के पस्चिम दिशा मे चरु स्थाली रख सपवित्र वाली उसमे ३ बार धोवे हुए चावलो को छोड प्रणीता के जल से आसेचन कर उपयुक्त जल को
उसमे छोड कर वेदी के उत्तर दिशा मे अग्नि पर रखे ( वेदि के दक्षिण घी और उत्तर चारु ) |

पर्यग्निकरण

कु श या किसी लकडी को अग्नि मे जलाकर दाहिने हाथ से पकड कर चरुपात्र तथा घी के ईशान भाग से प्रारम्भ कर ईशान भाग तक दाहिनी ओर से
घुमाये | उस जलति हुइ लकडी को अग्नि मे छोड दे | फ़िर खाली हाथ बायीं ओर से ईशान भाग से घुमाना प्रारम्भ कर ईशान भाग तक ले आये |

स्रुवाका सम्मार्जन

जब घी अधा पिघल जाय तब दाये हाथ मे स्रुवाको पूर्वाग्र तथा अधोमुख लेकर आगपर तपाये | पुनः स्रुवाको बाये हाथ मे पूर्वाग्र ऊर्ध्वमुख रख कर
दाये हाथ से सम्मार्जन कु शा ( ५ कु श जो अग्नि के उत्तर रखा गया है ) के अग्रभाग से स्रुवाके अग्रभाग का , कु शके मध्यभाग से स्रुवा के मध्यभाग का
और कु शके मूल भाग से स्रुवाके मूल भाग का स्पर्श करे अर्थात स्रुवा का सम्मार्जन करे | प्रणीता के जल के स्रुवा का प्रोक्षण करे | इसके बाद
सम्मार्जन कु शाको अग्निमे डाल दे | फ़िर अधोमुख स्रुवा को पुनः अग्नि मे तपाकर अपनी दाहिनी ओर किसी पात्र या कु शोंपर पूर्वाग्र रख दे |

घृत पात्र तथा चरुपात्र का स्थापन

घी के पात्र को अग्नि से उतार कर चरुपात्र के पश्चिम भाग से होते हुए पूर्व की ओरसे परिक्रमा करके अग्नि – के पश्चिम भाग मे उत्तरकी ओर रख दे
तदनन्तर चरुपात्र को भी अग्नि से उतार कर वेदी के उत्तर रखे हुए आज्यस्थाली के पश्चिम से ले जा कर उत्तरभाग मे रख दे |

घृत का उत्प्लवन

प्रोक्षणी पात्र मे रखि हुई पवित्री को ले कर उसके मूल भाग को दाहिने हाथ के अंगुठे तथा अनामिका से पवित्री के अग्रभाग को पकड कर कटोरे के घृत
को तीन बार उपर उछाले | घृत का अवलोकन करे और यदि घृत मे कोइ विजातीय वस्तु हो तो निकाल कर फ़े क दे | तदनन्तर प्रोक्षणी के जलको
तीन बार उछाले और पवित्री को पुनः प्रोक्षणी पात्र मे रख दे | स्रुवासे थोडा घृत चरु मे डाल दे |

तीन समिधाओंकी आहुति

ब्रह्मा से कु शा द्वारा संबन्ध बना ले बायें हाथ मे उपयमन कु शा को ले कर ( ७ कु श जो उत्तर मे रखा है |) हृदयमें बाये हाथ से सटाकर तीन
समिधाओंको घीमें डु बोकर मनमे प्रजापतिदेवता का ध्यान करते हुए खडेहोकर मौन हो अग्निमें डाल दे | अब बैठ जाय |

पर्युक्षण ( जलधर देना )

पवित्रक सहित प्रोक्षणी पात्र के जल को दाये हाथ की अञ्जलि ( चुल्लु ) मे ले कर अग्नि के ईशान कोण से ईशान कोण तक प्रदक्षिण क्रम से जलधारा दे
| पवित्रक को बाये हातः मे ले कर फ़िर् दाहिने खाली हाथको उलटे अर्थात ईशान कोण से उत्तर होते हुए ईशान कोण तक ले आये ( इतरवृत्तिः )
और पवित्रक को दाये हाथ से लेकर प्रणीता मे पूर्वाग्र रख दे | उपयमन कु शा को हृदय से स्पर्स किये हुए दाहिने हाथ से स्रुवा के मूल से चार अंगुल
छोड कर ‘ संखमुद्रा ‘ से स्रुवा को पकड कर प्रदीप्त अग्नि मे हवन करे |
हवन विधि

दाहिना घुटना मोड कर ( दाहिने घुटने को पृथ्वी पर लगाले ) वायव्य कोण से प्रारम्भ कर अग्निकोण पर्यन्त या पूर्व दिशा की तरफ़ निरन्तर घी कि
धारा द्वारा प्रजापति देवता का मन मे ध्यान करते हुए स्रुवा से चुप चाप शेष के सहित हवन करे | इसमे स्वाहाकार नही है |

( १ ) ॐ प्रजापतये स्वाहा , इदं प्रजापतये न मम ‘ इस वाक्य का यजमान त्याग करे | होम त्याग के बाद स्रुवा मे बचा घी प्रोक्षणी पात्र मे प्रक्षेप (
छोड दे ) करे |

आगे की तीन आहुतियाँ इस प्रकार बोल कर दे |

( २ ) ॐ इन्द्राय स्वाहा , इदं इन्द्राय न मम , निर्ऋ तिकोण से आरम्भ कर ईशान कोण पर्यन्त या पूर्व ओर आहुति दे | (स्रुवा मे बचा घी प्रोक्षणी पात्र
मे प्रक्षेप ( छोड दे ) करे|)

( ३ ) ॐ अग्नये स्वाहा , इदं अग्नये न मम , कहकर वेदी या कु ण्ड उत्तरपूर्वार्ध मे आहुति दे | (स्रुवा मे बचा घी प्रोक्षणी पात्र मे प्रक्षेप ( छोड दे ) करे
|)

( ४ ) ॐ सोमाय स्वाहा , इदं सोमाय न मम ,कहकर वेदी या कु ण्ड के दक्षिणपूर्वार्धभाग मे आहुति दे |( स्रुवा मे बचा घी प्रोक्षणी पात्र मे प्रक्षेप ( छोड
दे ) करे | )

द्रव्यत्याग

हाथ मे जल लेकर यजमान त्याग करे | क्योकि बहुकर्तृक हवन मे यथा समय प्रति आहुति के बाद प्रोक्षणी पात्र मे त्याग करना असम्भव है | अतः
सब हवनीय द्रव्य तथा देवताओ को मन से ध्यान कर , इदमुपकल्पितं समित्तिलादिद्रव्यं या या यक्ष्यमाणदेवतास्ताभ्यस्ताभ्यो मया परित्यक्त न मम ,
इस वाक्य को पढकर जल को भूमि पर गिरा दे | ‘यथादैवतमस्तु ‘ ये कहे | तदनन्तर गन्ध , अछत , पुष्प आदि उपचारोंसे अग्निका पूजन करे –

वराहुति

गणपति और अम्बिका को दी गयी आहुति ‘ वराहुति ‘ कहलाति है –

गणपति के लिये

ॐ गणानां त्वा गणपति ग्वं हवामहे प्रियाणां त्वा प्रियपति ग्वं हवामहे निधीनां त्वा निधिपति ग्वं हवामहे वसो मम | आहमजानि गर्भधमा त्वमजासि
गर्भधम् ||

अम्बिका के लिये

ॐ अम्बे अम्बिके ऽम्बालिके न मा नयति कश्चन | ससस्त्यश्व्कः सुभद्रिकां काम्पिलवासिनीम् ||

अथ क्षेत्रपाल बलि

एक मिट्टी का बडा दीपक ( सराई ) लेकर उसमें चार मुंह की ज्योत लगावें । दीपक में सरसों का तेल डालें .
उसमें सिन्दरू , उडद , पापड , दही , गुड , सुपारी आदिरखकर दीप प्रज्वलित करें और क्षेत्रपाल का आवाहन करें ।
ॐ क्षेत्रपालाय शाकिनी डाकिनी भूतप्रेत बेताल पिशाच सहिताय इमं बलिं समर्पयामि । भो क्षेत्रपाल : दिशो रक्ष
बलिं भक्ष मम यजमानस्य सकुटुम्बस्य सपरिवारस्य आयु : कर्ता शांतिकर्ता तष्टि
ु कर्ता पष्टि
ु कर्ता वरदो भव : ।

ॐ ह्नीं बटुकाय आपदद्ध


ु ारणाय कुरु कुरु बटुकाय ह्नीं ॐ ।

ॐ क्षेत्रपालाय नम : । इति पंचोपचारै : संपज्


ू य । प्राथयेत ्

ॐ नमो वै क्षेत्रपालस्त्वं भत
ू प्रेत , गणै : सह । पूजाबलिं गह
ृ ाणेमं सौम्यो भवतु सर्वदा ॥

पत्र
ु ान ् दे हि धनं दे हि सर्वान ् कामांश्च दे हि में । दे हि में आयरु ारोग्यं निर्विघ्नं कुरु सर्वदा न : ॥

अब इस दीपक को उठाकर यजमान की तरफ आवत


ृ कर बिना पीछे मुडे बाहर दीपक को चौराहे पर रखावें ।
ब्राह्मण शांतिपाठ करें । ब्रह्मा जी द्वार तक जल छोडें दीपक को रखकर आने वाला व्यक्ति नहाकर या हाथ पैर
धोकर आवे ।

पूर्णाहुति

स्त्रुवे से नारियल के गोले में घी भरकर रोली , मोली लगाकर उस पर एक सुपारी रख दे वे । नारियल के मुख को
सम्मुख करके पूर्णाहुति दे वें ।

पहले " पूर्वाहुत्यां मड


ृ नाम्ने वैश्वानराय " इदं गन्द्य , पुष्पं , धूपं नैवेद्यं आचमनीय से पंचोपचार पूजन करें ।

पीछे " एकोनपंचाशद् मरुद्‌गणेभ्यो नम : " से नारियल पर मरुद्‌गणों की पूजा करें । फिर विनियोग करके
पूर्णाहुति मन्त्रों से पूर्णाहुति करें ।

विनियोग

ॐ मूर्द्धान मिति मन्त्रस्य भारद्वाज ऋषि : वैश्वानरोदे वता त्रिष्टुप ् छन्द : पूर्णाहुति होमे विनियोग : ।

ॐ मर्द्धा
ू नं दिवो अरतिं पथि ृ आ जातमग्रिम ् । कवि र्ठ साम्राज्यमतिथि ं जनानामासन्ना पात्रं
ृ व्या वैश्वानरमत
जनयन्त दे व : ॥१॥

पूर्णादर्वि परापत सुपूर्णा पुनरापत ॥ वस्नेव विक्रीणा वहाऽइषमूज ् शतक्रतो ॥२॥

चित्तिं जह
ु ोमि मनसा घत
ृ ेन यथा दे वाऽइहा गमन्वीतिहोत्राऽऋतावध
ृ : ॥ पत्ये विश्वस्यभम
ू नो जह
ु ोमि विश्वकर्मणे
व्विश्वाहादाभ्यं हवि : ॥३॥
सप्तते अग्ने समिध : सप्त जिह्वा : सप्तऋषय : सप्त धाम प्रियाणि । सप्तहोत्रा : त्वा यजंति सप्त योनिरापण
ृ स्व घत
ृ ेन
स्वाहा ॥४॥

शुक्र ज्योतिश्च चित्र ज्योतिश्च सत्यज्योतिश्च ज्योतिष्माँश्च शुक्रश्च ऋतपाश्चात्य स्वाहा : ॥५॥

ईद्दड् चान्यादृड च दद्दड् प्रतिसद्दड् च । मितश्च संमितश्च सभरा : ॥६॥

ऋतश्च सत्यश्च , ध्रुवश्च , धरुणश्च । धर्ता च विधर्ता च व्विधारय : ॥७॥

ऋतजिच्च सत्यजिच्च सेनजिच्च सष


ु ेणश्च । अन्तिमित्रश्च दरू े अमित्रश्च गण : ॥८॥

ईदृक्षास ऽएतादृक्षास ऽउ षु ण : सदृक्षास : प्रतिसदृक्षास ऽएतन । मितासश्च सम्मितासो नोऽअद्य सभरसो मरुतो
यज्ञेऽअस्मिन ् ॥९॥

स्वतवांश्च प्रघासी च सांतपनश्च गहृ मेधी च । क्रीडी च शाकी चोज्जेषी ॥१०॥

उग्रश्च , भीमश्च ध्वांतश्य धुनिश्च । सासह्यांश्चाभि युग्वा च विक्षिप : स्वाहा ॥११॥

पुनस्त्वादित्या रुद्रा वसव : समिंधतां पुनर्ब्रंह्माणो , वसुनीथ यज्ञै : घत


ृ ेन त्वं तन्वं व्वर्द्धयस्व सत्या : संतु
यजमानस्य कामा : ॥१२॥ पूर्णांहुति ं कुर्यात ् ॥

वसोर्द्धारा होम

इसी प्रकार पूर्णांहुति करके घत


ृ ( घी ) की धारा दे वें ।

ॐ वसो : पवित्रमसि शतधारं वसो पवित्रमसि सहस्त्रधारं । दे वस्त्वा सविता पन


ु ातु वसो : पवित्रेण शतधारे ण सप्ु वा
कामधक्ष
ु : स्वाहा ॥

ॐ सप्तते अग्ने समिध : सप्तजिह्वा : सप्तऋषय : सप्तधाम - प्प्रियाणि सप्तहोत्रा : सप्तधात्व यजन्ति सप्तयोनि
रापण
ृ स्व घत
ृ ेन स्वाहा ॥

स्त्रक
ु ् शेषं पश्चात ् रुद्र कलशे त्यजेत ् । इममिन्द्राय न मम ् ।

अग्नि की प्रदक्षिणा करें । फिर प्रार्थना करें ।

प्रार्थना

त्राहिमाम ् पुण्डरीकाक्ष न जाने परमं पदम ् । कालेष्वपि च सर्वेषु दिक्षु सर्वासु चाच्युत ॥१॥ अकाल कलुषं चित्तं
मम ते पादयो : स्थितम ् । कामये विष्णुपादौ तु सर्व जन्म सुकेवलम ् ॥२॥
ॐ श्रद्ध
ृ ां मेधां यश : प्रज्ञां विद्यां पुष्टि ं श्रियं बलम ् । तेज आयुष्म मारोग्यं दे हि में हव्यवाहन ॥

भोभो अग्ने ! महाशक्ते सर्वकर्म प्रसाधन । कर्मान्तरे ऽपि सम्प्राप्ते सानिध्यं कुरु सर्वदा ॥

भस्मधारण

ललाट , गले , बाहु , ह्रदय में लगानी चाहिए ।

ॐ त्रय
्‌ ायष
ु ं जमदग्नेरिति ललाटे ।

ॐ कश्यपस्य त्रय
्‌ ायुषमिति ग्रीवायाम ।

ॐ यद्देवेषु त्रयायष
ु मिति बाहुमल
ू े ।

ॐ तन्नो अस्तु त्रयायुषमिति हृदि ।

ततोऽग्न्युपस्थानम ्

यस्य स्मत्ृ या च नामोक्त्या तपोयज्ञ क्रियादिषु । न्यूनं सश्पूर्णतां याति सधो वन्दे तमच्युतम ् ॥

कायेन वाचा मन्सेन्द्रियैर्वा बुद्धयात्मना वानुसत


ृ स्वभावात ् । करोमि यद्यत्सकलं परस्मै नारायणा येति समर्पयामि

प्रमादात कुर्वतां कर्मं प्रच्यवेताध्वरे षु यत ् । स्मरणा दे व तद्विष्णो : सम्मूर्ण स्यादिति श्रुत्ति : ॥

ॐ यज्ञपुरुषाय नम : ।

इसके बाद आरती , पष्ु पाञ्जली प्रदक्षिणा , नमस्कार करें ।

स्त्रवप्रशनम ् । वह घी जिसका प्रोक्षणी में त्याग किया था उसको सूघें ।

पर्ण
ू पात्रदानम ्

चार पूर्णपात्र एक घी का पात्र , दस


ू रा शक्कर का पात्र , तीसरा चावल का पात्र , चौथा तिल का पात्र इन सब में
दक्षिणा व यज्ञोपवीत रखकर संकल्प करके एक पात्र ब्रह्माजी को , दस
ू रा आचार्य महोदय को , तीसरा व चौथा
अन्य ब्राह्मणों को दें ।

सब दे वताओं का उत्तर पज
ू न कर । फिर ब्रह्माजी की गाँठ खोल दे वें ।

दर्भा से प्रणितापात्र के जल से शिर मार्जन करें ।


तत : सर्वेषामुत्तरपूजनं कुर्यांता ततो ब्रह्मग्रन्थिका - विमोक : तया दर्भया प्रणिता पात्र जलेन निम्न मन्त्रे
शिरोमार्जनम ् ।

यथा - " ॐ समि


ु त्रिया न आप ओषधय : सन्तु "

प्रणिता को ओंधा करने का मंत्र

ॐ दर्मि
ु त्रियास्तस्मै सन्तु योऽस्मान ् द्वे ष्टियं यं च वयं द्विष्म : ॥ ईशान्यां प्रणीतायां द्विष्म : ॥ ईशान्यां प्रणीतायां
न्युब्जीकरणम ् ॥

पवित्रेऽग्नौ क्षिपेत ् ॥ अग्नेऽर्घ्यत्रयं तेन नयन स्पर्श : ।

यह मन्त्र बोलकर ईशान कोण में प्रणितापात्र को ओंधा कर दें । और पवित्रियों को अग्नि में डाल दें । अग्नि को
तीन बार अर्घ्य दे कर उस जल से नेत्र स्पर्श करें ।

बर्हिहोम :

तत ् आस्तरण क्रमेण बर्हिरुत्थाप्य आज्ययुक्तं कृत्वा हस्तेनैव निम्न मन्त्रेण जुहूयात ् ।

जिस प्रकार वेदी के चारों ओर बर्हि ( कुशाएं ) बिछाई थी उन्हें उस क्रम से उठाकर घत
ृ में भिगोकर मन्त्र द्वारा
हाथ से ही होम दे वें ।

ॐ दे वा गातवि
ु दो गातुं वित्वा गतमि
ु त । मनसस्पत इमं दे वयज्ञ स्वाहा वातेधा : स्वाहा ॥

पश्चात ् आचार्यादि ब्राह्मणों को दक्षिणा दे वे ऐतदर्थं संकल्प पढें ।

पर्वो
ू क्त गण
ु विशेषण विशिष्टे अमक
ु संवत्सरे ऽमक
ु मासे ऽमक
ु पक्षे ऽमक
ु तिथौ च ऽमक
ु गोत्रोत्पन्नो ऽमक
ु नामाहं
अमक
ु शान्ति ..........

कर्मणि सफलता प्राप्त्यर्थं आचार्याय , ब्रह्मकर्म कर्त्रे अन्येभ्यश्चापि विप्रेभ्य : ससम्मान दक्षिणां दक्षिणां , भूयसीं च
सम्प्रददे ॥

इसके पश्चात ् ब्राह्मणों को भोजन करावें । आशीर्वाद प्राप्त करें ।

पश्चात ् यजमानस्य पत्नी तस्य वांमागे उपविशेत ् । प्रधान कलश रुद्र कलश जलेन तयोरभिषेकं कुर्यात ् ।

अभिषेक : मन्त्रा :

ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वद्ध


ृ श्रवा : स्वस्ति न : पूषा विश्व वेदा : । स्वस्ति नस्तार्क्षो ऽअरिष्टनेमि स्वस्ति नो
बहृ स्पतिर्दधातु : ॥१॥
ॐ पय : पथि
ृ व्यां पय ओषधीषु पयो दिव्यन्तरिक्षे पयोधा : । पयस्वती प्रदिश : सन्तु मह्यम ॥२॥

ॐ विष्णो रराटमसि विष्णो : श्नप्त्रेस्थो विष्णो : स्यूरसि विष्णो ध्रुवो‍ऽसि वैष्णव मसि विष्णवे त्वा ॥३॥

ॐ अग्निर्देवता व्वातो दे वता सर्य्यो


ू दे वता चन्द्रमा दे वता । वसवो दे वता रुद्रादे वता ऽदित्या दे वता मरुतो दे वता
विश्वे दे वा दे वता बह
ृ स्पति र्देवतेन्द्रो दे वता , वरुणो दे वता ॥४॥

ॐ धौ शान्तिरन्तरिक्ष शान्ति : पथि


ृ वी शान्तिराप : शान्तिरोषदय : शान्ति : वनस्पत्तय शान्ति र्विश्वेदेवा : शान्ति
र्ब्रह्म शान्ति : सर्व शान्ति : शान्तिरे व शान्ति : सा मा शान्तिरे धि ॥५॥

ॐ आपोहिष्ठा मयोभव
ु स्ता न ऽऊर्जे दधातन । महे रणाय चक्षसे । यो व : शिवतमो रसस्तस्य भाजयतेह न : ।
उशतीरिव मातर : । तस्मा अरं ङ्गमामवो यस्य क्षयाय जिन्वथ । आपो जनयथा च न : ॥ शान्तिरस्तु । पष्टि
ु रस्तु
। तष्टि
ु रस्तु । वद्धि
ृ रस्तु । अविघ्नमस्तु । आयुष्ममस्तु । शिवमस्तु । शिव कर्मास्तु । कर्मसमद्धि
ृ रस्तु । धर्म
समद्धि
ृ रस्तु । वेद समद्धि
ृ रस्तु । शास्त्र समद्धि
ृ रस्तु । पत्र
ु पौत्र समद्धि
ृ रस्तु । धन धान्य समद्धि
ृ रस्तु ।

( अब जमीन पर त्याग करें )

अनिष्ट निरसनमस्तु यत्पापं रोगं अशभ


ु ं अकल्याणं तत्पतिहतमस्तु ।

( फिर दोनों ( दम्पत्ति ) के हाथों पर छीटें दें )

राज्य द्वारे गह
ृ े सुख शांन्ति र्भवतु , श्रीरस्तु , कल्याणमस्तु । ॐ शान्ति : शान्ति : शान्ति : ।

इसके पश्चात ् दे वताओं का विसर्जन करें तत्पश्चात ् विद्वजन ् यजमान को आशीर्वाद दे वें ।

विसर्जन

गच्छन्तु च सरु श्रेष्ठा : स्वस्थाने स्वस्थाने परमेश्वरा : । यजमान हितार्थाय पन


ु रागमनाय च ॥

आशीर्वाद :

अक्षतान ् विप्र हस्तान्तु नित्यं गह


ृ णन्ति : ये नरा : । चत्वारि तेषां वर्धन्ते आयु कीर्ति यशो बलम ् ॥

श्री र्वर्चस्व मायुष्य मारोग्यं गावधात ् पवमानं महीयते । धन धान्यं पशुं बहुपुत्र लाभं शतसंवत्सरे दीर्घमायु ।

मन्त्रार्था : सफला सन्तु पर्णा


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