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क्या है विजयादशमी में छुपा संदेश ?

- अतल
ु चतर्वे
ु दी

वस्तुतः दे खें तो विजयादशमी का त्योहार शक्ति पूजा का पर्व है । इस पर्व पर शस्त्र पूजा का
भी विधान है । लेकिन महात्म बद्ध
ु , महावीर और गांधी के दे श में आपको यह बात थोड़ी
अटपटी भी लग सकती है और विरोधाभासी भी । परन्तु हमारा दे श है ही विविधताओं का
दे श । यहां सैकड़ों पंथ और मत मतान्तर हैं यही इसकी खूबी भी है । परन्तु आत्म गौरव ,
दे श की अस्मिता के लिए शस्त्र उठाना भी पड़ता है । राम और कृष्ण का जीवन स्वयं इसका
उदाहरण है । कहा गया है – शस्त्रेण रक्षिते राष्ट्रे शास्त्र चर्चा प्रवर्त्तत – जिस राष्ट्र में शौर्य ,
पराक्रम और वीरता का पूजन होता है , धर्म ग्रन्थों का पारायण होता है वही इस पर्व की
महत्ता भी स्थापित होती है । विजयादशमी पर राम ने न केवल रावण पर विजय प्राप्त की
बल्कि यह भी संदेश दिया था कि अन्यायी कितना भी संसाधन संपन्न हो , शक्तिशाली हो
लेकिन यदि जन शक्ति और प्रकृति सब मिल जाते हैं तो उसका विनाश निश्चित है ।
प्राकृतिक शक्तियां वक्ष
ृ , पर्वत , समद्र
ु और आम जन जटायु , बंदर , भालू सब राम के साथ
हो जाते हैं और यह जन प्रतिरोध ही रावण जैसे तानाशाह , अहं कारी , अत्याचारी के विनाश
की रूपरे खा बनता है । राम के मार्ग में वन , पशु-पक्षी सब आते हैं वे उन सबसे मानवीय ,
संवेदनशील व्यवहार करते हैं । भाव विह्वल होकर पूछते हैं – हे खग हे मग
ृ हे मधुकर श्रेणी
, तुम दे खी सीता मग
ृ नैनी । राम का यह मानवी रूप हो सकता है तुलसी के अवतारी राम से
भिन्न हो परन्तु जनमानस के करीब है । उसे इसको ह्रदयंगम करने में मश्कि
ु ल नहीं आती ।
शायद यही संदेश अपने महाकाव्य साकेत में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त दे ते हैं , जब उनके
राम कहते हैं - संदेश यहां मैं नहीं स्वर्ग का लाया , इस भत
ू ल को ही स्वर्ग बनाने आया ।

आखिर क्या है राम का स्वप्न ? राम का उद्देश्य था समतामूलक समाज की


स्थापना । वो चाहते हैं कि दारिद्रय का अभाव हो , आर्थिक असमानता मिट जाए , सबको
शिक्षा और सुरक्षा मुहैया हो । लेकिन आज राम राज्य के शोर के तले विसंगतियों , वैमनस्य
और भ्रष्टाचार का बोलबाला बढ़ रहा है । भावनात्मक एकता कमजोर हो रही है । जबकि
तुलसी के राम कहते हैं – नहिं दरिद्र कोउ दख
ु ी न दीना , नहिं कोऊ अबुध न लच्छन हीना ।
इससे भी आगे बढ़कर वो लिखते हैं कि – दै हिक , दै विक , भौतिक तापा , राम राज्य नहिं
काहुहिं व्यापा । जबकि कोरोना काल में थोड़े बहुत सध
ु ार को छोड़कर आज भी दे श के
आखिरी आदमी तक बेहतर स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध नहीं है । 845 लोगों पर एक डाक्टर दे श
में उपलब्ध है । इलाज न केवल दर्ल
ु भ है बल्कि महं गा भी बहुत है । बाढ़ और सख
ू े से
प्रतिवर्ष तमाम सेलेलाइटस के उपरांत भी लाखो लोग प्रतिवर्ष बेघरबार हो जाते हैं ।
अतः इन त्रितापों का कोई अंत नहीं है । रावण जंगल के कानून का
प्रतिनिधित्व करता था । उसने अपने भाई कुबेर से सोने की लंका छीन ली थी । उसके
रनिवास में कई रानियां थीं जिससे उसने दरु ाचार किया । वो विधर्मी था । ऋषियों , मुनियों
के जप तप में बाधा पैदा करता था । क्या आज के गली गली में घूमते रावण इन
कुआचरणों से मुक्त हैं ? क्या वे बाहुबल और धनबल का दरू
ु पयोग नहीं कर रहे ? राम
सीता ही नहीं अपने वचनों के प्रति ईमानदार हैं । दे वदत्त पटनायक एक जगह लिखते हैं कि
लक्ष्मण की रे खा प्रकृति और संस्कृति की विभाजक रे खा है । रावण मत्स्य न्याय में यकीन
रखता था जबकि राम सामाजिक न्याय में । वे शबरी , निषादराज सबको गले लगाते हैं ।
वहां जाति धर्म की श्रेष्ठता नहीं है । वहां तो एक ही सिद्धान्त है निर्मल मन सोहिं जन मोहिं
भावा । यही अन्तर राम राज्य और स्वार्थ केन्द्रित , सत्ता लोलुप समाज में है । जहां प्रवर्तक
गांधी की तरह त्याग का उदाहरण खुद प्रस्तत
ु करता है । सुविधाओं के त्याग की सामर्थ्य
रखता है । बिना इस संकल्प के राम राज्य की कल्पना अधूरी है । राम की विजय का अर्थ
भी अपर्ण
ू रह जाएगा । गांधी इसी राम राज्य के हिमायती थे । वो सच्चे लोकतंत्र की तलाश
में थे जहां सबसे आखिरी आदमी के भी त्वरित और सही न्याय मिल सके । लेकिन अफसोस
है कि न्याय न केवल महं गा है वरन ् दरू भी हुआ है ।

विजयादशमी नवरात्रि की नौ दै वियों की उपासना के बाद शक्ति संचयन


और त्रिगुणों पर विजय प्राप्ति का पर्व है । शक्ति का उपयोग कमजोर की रक्षार्थ हो , राष्ट्र
के रक्षार्थ हो न कि बल प्रदर्शन और आतंक स्थापित कर संसाधनों के दोहन करने में । डंडे
का शासन वर्षों तक नहीं चलता , वही शासक याद किए जाते हैं जो लोगों के ह्रदय पर राज
करते हैं । इसलिए सदियों बाद भी राम राज्य प्रासंगिक है , लोकप्रिय है । विजयादशमी हमें
काम , क्रोध , लोभ , हिंसा , आलस्य , चोरी जैसे दस कुविकारों से बचने का संदेश दे ती है
ताकि इन सिरों को मार कर हम अपना उद्धार भी कर सकें । रावण के पत
ु ले के साथ हमें
अपने पापों का भी दहन करना होगा । अपने अंदर के अहं कार के रावण का विगलन करना
होगा । तभी इस पर्व की सार्थकता है । संभवतः अपने अंतस ् की चेतना और ऊर्जा को तब
ही हम सही दिशा दे सकेंगे । हम राम के जीवन मूल्यों का दशमांश भी अपने जीवन में
उतार सकें तो ही इन पर्वों की मनाने की सार्थकता है सिर्फ मौज मस्ती और आतिशबाजी ही
इसका अंतिम लक्ष्य नहीं ।

अतुल चतुर्वेदी , 380- शास्त्री नगर , दादाबाड़ी – कोटा ( राज।) मो. 94141 78745

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