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History of Cinema PDF
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डॉ. विजय श द
4. भारतीय शिनेमा के इततहाि का विहिं गािलोकन
Vol III Issue 2 February 2016
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The South Asian Academic Research Chronicle
A Peer Reviewed International Inter-disciplinary Open Access Monthly e-Journal
ISSN 2454 - 1109
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इस बीच ‘पीठाचे पंजे’ दस
ू री फिल्म वे बना चक
ु े थे। इनके प्रभाव और सिलता से प्रेररत
होकर उन्होंने 1917 में ‘लंका दहन’ फिल्म का ननमागण फकया। इस फिल्म के प्रद न
ग से
दादासाहब िालके को बहुत आगथगक लाभ हुआ। शसतकों को बोरों में भरकर बैलिाड़ी पर लादकर
ले जाना पड़ा। इन आगथगक सिलताओं के चलते मंब
ु ई में अन्य लोि भी फिल्में बनाने को लेकर
सजि हो िए। कला महविग बाबरू ाव पें टर, आदे श र ईरानी जैसे ननमागता भी इसी काल में अपने
पैर जमाने में सिल हो चक
ु े थे। दादासाहब ने अपने जीवन में 20 कथा फिल्में और 180 लघु
फिल्मों का ननमागण फकया। उनकी बोलती फिल्म केवल ‘िंिावतरण’ (1937) रही। बाबरू ाव पें टर
ने पहली फिल्म ‘सीता स्वयंवर’ (1918) बनाकर फिल्मी दनु नया में कदम रखे। आिे ‘सैरंध्री’
(1920) से उन्हें कािी प्रशसद्धी शमली। बाबरू ाव पें टर ने फिल्मी तकनीक को कॅमरा, इनडोअर
हू टंि, जनरे टर, ररफ्लेतटसग आहद से आधनु नक करते हुए जनमानस के सामने रखा। वी.
ांताराम की खोज भी बाबूराव पें टर की ही मानी िई। इस दौरान ववश्व शसनेमा में सवाक
फिल्मों का दौरुरू हुआ था और अन्य भारतीय फिल्म ननमागता भी आदे श र ईरानी की इस
पहल से आिे और सिलता की सीहढ़यों पर चढ़ते िए।
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सवाक भारतीय फिल्मों के आरं शभक दौर में ननमागता, ननदे क, संिीतकार, नायक,
नानयका, तकनीश यन, कॅमरामन, लेखक तथा अन्य छोटे -बड़े कलाकर ननश्श्चत माशसक वेतन पर
काम करते थे। लेफकन यह आरं शभक दौर जैसे ही आिे बढ़ा फिल्मों में अन्य कई लोिों की रुगच
बढ़ने लिी और स्वतंत्र ननमागण करने लिे। स्वतंत्र ननमागताओं ने स्टूड़ड़यो को फकराए पर लेना
रू
ु फकया वैसे ही कलाकारों और अन्य लोिों को भी ठे के पर शलया जाने लिा। इस तरह की
पद्धनत आज भी भारतीय शसनेमा और ववश्व शसनेमा में प्रचशलत है। हां इसका स्वरूप बदलकर
इसे कानन ु ंधों के दायरे में शलया िया है । सवाक फिल्मों के दौर में प्रभात, बॉबें
ू और अनब
टॉकीज और न्यू गथएटसग प्रमख
ु स्टूड़ड़यो थे। इस यि
ु में िंभीर, संदे दे नव
े ाली फिल्में मनोरं जन
के साथ बनाई जा रही थी श्जसे द क ग ों ने बहुत पसंद फकया। अन्याय के ववरुद्ध ववद्रोह
करनेवाली, धाशमगक, पौराणणक, ऐनतहाशसक, दे प्रेम से संबंगधत फिल्मों का ननमागण फकया जा रहा
था। इस युि में वी. ांताराम ‘दनु नया ना माने’, ‘डॉ. कोटनीस की ‘अमर कहानी’, फ्रँज ओस्टन
की ‘अछूत कन्या’, दामले और ितेहलाल की ‘संत तुकाराम’, महबूब खान की ‘वतन’, ‘एक ही
रास्ता’, ‘औरत’, ‘रोटी’, अदे श र ईरानी की ‘फकसान कन्या,’ चेतन आनंद की ‘नीचा निर’,
उदय ंकर की ‘कल्पना’, ख्वाजा अहमद अब्बास की ‘धरती के लाल’ सोहराब मोदी की ‘शसकंदर’,
‘पुकार’, ‘पथ्
ृ वी वल्लभ’, जे. बी. एच. वाड़ड़या की ‘कोटग डांसर’, एस. एस. वासन की ‘चंद्रलेखा’,
ववजय भट्ट की ‘भरत शमलाप’, ‘राम राज्य’, राजकपूर की ‘बरसात’, ‘आि’ जैसी फिल्में कािी
लोकवप्रय हो िई और शसनेमा के इनतहास में शमल के पत्थर साबबत हो िई।
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8. कन्नड़ – ‘सती सुलोचना’ (1934) कन्नड़ भािा की पहली फिल्म बनी। बंिलूरु इसका
केंद्र है और इसे संदलवुड़ के नाम से पहचाना जाता है ।
9. अिशमया – ‘ज्यामती’ (1935) असमीया भािा की पहली फिल्म बनी। िुवाहटी इसका
केंद्र है ।
10. उड़ड़या – ‘शसता वववाह’ (1936) उड़ड़या भािा की पहली फिल्म बनी। भुवनेश्वर इसका
केंद्र है और इसे वॉलीवुड़ के नाम से पहचाना जाता है ।
11. पिंजाबी – ‘ ीला’ (1936) पंजाबी भािा की पहली फिल्म बनी। पहली फिल्म का
ननमागण स्वतंत्रतापूवग लाहौर में हुआ था, अब यह हर पाफकस्तान में है । अब चंदीिढ़
इसका केंद्र है ।
12. कोंकणी – ‘मिाचो अनवड़ो’ (1950) कोंकणी भािा की पहली फिल्म बनी। िोवा की
राजधानी पणजी इसका केंद्र है ।
13. भोजपरु ी – ‘हे िंिा मैया तोहे वपयरी चढ़ाइबो’ (1963) भोजपरु ी भािा की पहली फिल्म
बनी। इस भािा की फिल्मों का क्षेत्र बबहार, उत्तर प्रदे , नेपाल और उत्तरी भारत है । पटना
इसका केंद्र है और इसे पॉलीवुड़ के नाम से पहचाना जाता है ।
14. तल
ु ु – ‘एन्ना थंिड़ी’ (1971) तल
ु ु भािा की पहली फिल्म बनी। चेन्नई इसका केंद्र है ।
15. बड़गा – ‘काला थवपटा पयीलु’ (1979) बड़िा भािा की पहली फिल्म बनी। उदिमंदलम ्
(तशमलनाडू) इसका केंद्र है ।
16. कोिली – ‘भूखा’ (1989) कोसली भािा की पहली फिल्म बनी। संबलपुर (उड़ीसा)
इसका केंद्र है ।
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उतारने की कोश भी जी-जान से करते थे। आिे चलकर उन्होंने कला भवन बड़ौदा से
िोटोग्रािी का पाठ्यिम भी पूरा फकया। िोटो केशमकल वप्रहटंि में उन्होंने कई प्रयोि भी फकए,
श्जस साझेदार के साथ जुड़कर वप्रहटंि प्रेस में उतरे थे, उससे अचानक साझेदारी वापस लेना और
आगथगक सहयोि को बंद करना उनके शलए बहुत बड़ा झटका था। उस समय उनकी उम्र 40 थी,
व्यवसाय में ननशमगत िंभीर हालातों से उनका स्वभाव गचड़गचड़ा हुआ और बात-बात पर िस् ु सा
करने लिे। इसी दौरान उन्होंने मंब
ु ई में ‘िाइस्ट ऑि लाईि’ (ईसामसीहा की श्जंदिी) फिल्म
दे खी और इस फिल्म ने उनके आहत श्स्थनतयों को मानो चावी दी। उनके अंदर कई कल्पनाओं
ने संभावनाओं को तौला और पत्नी सरस्वती दे वी ने पनत के साहस को अपने पलकों में सजाकर
उनके हां में हां भरी। दोस्तों ने कुछ ंका-आ ंकाओं के चलते स्वीकृनत दी और धड़ंु ड़राज िोववंद
िालके जी के जवान मन और आंखों को पंख लिे।
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से पररचय नहीं था। केवल ‘बायस्कोप’ पबत्रका को और उसके संपादक को इसीशलए जानते थे फक
यह पबत्रका वे ननयशमत मंिाकर पढ़ा करते थे। लंदन में दादासाहब ‘बायस्कोप’ पबत्रका के
संपादक कॅबोिग को शमले और वह इंसान भी हदल से अच्छा ननकला और दादासाहब का उत्साह
दि
ु न
ु ा हो िया। कॅबोिग उन्हें ववशभन्न स्टूड़ड़यो, शसनेमा के ववशभन्न उपकरणों और केशमकल्स की
दक
ु ानों पर लेकर िए। शसनेमा ननमागण के शलए आवश्यक सामान दादासाहब ने खरीदा और वे 1
अपैल, 1912 में मंब ु ई वापस लौटे । सारी दनु नया में संघिग करके अपने मकाम पर पहुंचनेवाला
प्रत्येक इंसान दादासाहब के 1912 में फकए इस साहस, संघिग, आवाहन और कहठनाइयों की
कल्पना कर सकता है । वापसी के बाद ‘राजा हररश्चंद्र’ की पटकथा तैयार हो िई और तमाम
कलाकार शमले परं तु महारानी ताराराणी की भशू मका के शलए कोई महहला तैयार नहीं हो पाई।
बॉलीवड़
ु और दनु नया के अन्य शसनेमाओं में अशभनय के मौके की तला करती कतार में खड़ी
लड़फकयों को दे खकर आज दादासाहब को महहला अशभनेत्री खोजने पर भी नहीं शमली इससे
आश्चयग होता है । दादासाहब वेश्याओं के बाजार और कोठों पर भी िए और हाथ जोड़कर
महाराणी तारामती के भूशमका के शलए नम्र ननवेदन फकया। (इस दौर में दादासाहब िालके के
वररष्ट्ठ दोस्त गचत्रकार राजा रवववमाग के जीवन से जुड़े प्रसंि की याद आ रही है , उनके दे वी-
दे वताओं के गचत्रों की और अन्य गचत्रों की प्रेरणा, चेहरा, नानयका की। उस प्रेरणा ने राजा
रवववमाग के ववरोध में दे वताओं के ठे केदारों से चलाए मुकदमें के दौरान कहे वातय की याद दे ती
है , वकील और उच्चभ्रू समाज की ओर मुखानतब होकर वह कहती है फक ‘इस आदमी ने एक
मुझ जैसी औरत को दे वी बनाया और आप जैसों ने उसे वेश्या!’ ायद दादासाहब के हाथों से
फकसी स्त्री को शसनेमाई दनु नया के ताज पहनने की ताकत का अंदाजा उस समय तक नहीं आया
था।) वेश्याओं ने दादासाहब की बात को हवा में उड़ाते हुए बड़ी बेरुखाई से जवाब हदया फक
"उनका पे ा फिल्मों में काम करनेवाली बाई से ज्यादा बेहतर है ।’ रास्ते में सड़क फकनारे एक
ढाबे पर दादासाहब रुके और चाय का ऑडगर हदया। वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने
दे खा फक उसकी उं िशलयां बड़ी नाजुक है और चाल-ढाल में थोड़ा जनानापन है । उसने दादा के
तारामती के प्रस्ताव को मान शलया। इस तरह भारत की पहली फिल्म ‘राजा हररश्चंद्र’ की
नानयका कोई महहला न होकर पुरुि थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके।" (हहंदी शसनेमा : दनु नया
से अलि दनु नया, प.ृ 17)
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मुंबई के दादर में पहली फिल्म का ूहटंि ुरू हुआ। सूरज की रो नी में हदन को ूहटंि
और रात में उसी जिह पर पूरी यूननट के शलए खाना बनता था। सरस्वती दे वी के साथ शमलकर
सारी हटम खाना बनाने में योिदान करती थी। फकचन और खाना खत्म होने के बाद दादासाहब
और उनकी पत्नी सरस्वती दे वी फिल्म की डेवलवपंि-वप्रहटंि का काम करते थे। अपैल 1913 में
फिल्म परू ी हो िई और 21 अप्रैल, 1913 को मंब
ु ई के ऑलंवपया गथएटर में चनु नंदा लोिों के
शलए पहले ो का आयोजन फकया। चनु नंदा द क
ग ों ने इस फिल्म को पश्श्चमी शसनेमा के तजग पर
दे खा और प्रेसवालों ने भी इसकी उपेक्षा की। परं तु दादासाहब इन आलोचनाओं के बावजद
ू अपनी
ननशमगनत से उत्साहहत थे, आश्वस्त थे और उनको यह भी भरौसा था फक आम जनता और द क
ग
इस फिल्म को सर पर बबठाएंिे। आिे 3 मई, 1913 कॉरोने न शसनेमा गथएटर में जब इसे
आम जनता के शलए प्रदश त
ग फकया तो उसने दादासाहब के भरौसे को सच साबबत फकया। इसके
बाद वे रुके नहीं और तुरंत नाशसक में उन्होंने कथा फिल्म ‘मोहहनी भस्मासूर’ को बनाया।
रं िमंच पर काम करनेवाली अशभनेत्री कमलाबाई को फिल्म के भीतर मौका हदया। अथागत ्
दादासाहब की बदौलत ‘राजा हररश्चंद्र’ में न सही अिली फिल्म में एक स्त्री ने फकरदार ननभाया
और वह भारतीय शसनेमा की पहली स्त्री अशभनेत्री भी बनी। ‘पीठाचे पंजे’ (1914), ‘लंका दहन’
(1914), ‘िंिावतरण’ (1937) आहद हहट फिल्में के साथ कई कलाकारों को इस इंडस्री में
स्थावपत करने का कायग उन्होंने फकया है ।
दादासाहब अपने अंनतम हदनों में घोर आगथगक तंिी का सामना कर चुके थे। चारों ओर से
नघर चक
ु े और बाजार से उठाए पैसों के कई मुकदमें भी ुरू हो िए। 16 िरवरी, 1944 को
मुिशलसी के चलते नाशसक में उन्होंने आणखरी सांस ली। उनके मौत के पश्चात ् भारतीय फिल्म
इंडस्री बड़ी बेपरवाही से और संवेदनहीनता के साथ पे आई। दादासाहब िालके जी का 1970
जन्म ताब्दी विग था और भारत सरकार ने इनके योिदान को ध्यान में रखकर फिल्म इंडस्री
में अतुलनीय योिदान दे नेवाले व्यश्तत को ‘दादासहाब िालके’ जी के नाम से पुरस्कार दे ना ुरू
फकया। इस पुरस्कार की एक ही कसौटी मानी िई है फक उस व्यश्तत का भारतीय शसनेमा के
शलए आजीवन योिदान हो।
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कथाओं मे सत्य-असत्य, अच्छे -बुरे के कई संघिग मौजूद थे और इन्हीं बातों की प्रासंगिकता तथा
मूल कथाओं को बनाए रखते द क ग ों तक पहुंचाना जरूरी था। द कग ों ने इन फिल्मों को स्वीकारा,
पसंद फकया और बार-बार दे खा तो ननमागताओं का भी ऐसी फिल्में बनाने का साहस बढ़ता िया।
‘पंड़
ु शलक’ और ‘राजा हररश्चंद्र’ के बाद ‘कीचक वध’, ‘सैरंध्री’, ‘काशलया मदग न’, ‘ कंु तला’,
‘पांड़व ननमागण’, ‘बबल्वा मंिल’ जैसी फिल्में पौराणणक, धाशमगक ववियों को लेकर बनाई िई और
लोिों की रुगच के हहसाब से कथा को संवारते हुए सामाश्जक आवश्यकता को ध्यान में रखकर
संदे भी हदए िए। भारतीय वाङ्मय, कथा, कववताओं और कहाननयों में सालों से रचे -बसे
पौराणणक पात्र कल्पना और पत्थरों में तरा े थे वह अचानक परदे पर साकार हो िए तो मानो
जनमानस के आद ों को जीवंत कर उनके सामने ला खड़ा करने जैसा था। अतः लोिों ने ऐसी
फिल्मों को सर-आंखों पर शलया। इस सिलता से प्रेररत होकर केवल हहंदी ही नहीं तो भारत की
अन्य भािाओं में भी इसी वविय की फिल्में बनी।
श्जन हदनों भारत में फिल्में बनना ुरू हुआ था तब भारत अंग्रेजों की िुलामी कर रहा
था। समाज की मांि यह भी थी फक दे प्रेम को बढ़ावा दे नेवाली और अंग्रेजी हुकूमत को आवाहन
दे नेवाली फिल्में बनाई जाए परं तु यह मुमफकन नहीं था। उसका कारण यह है फक अंग्रेज शसनेमा
की ताकत जानते थे और शसनेमा के माध्यम से यह वविय उठाए जाएंिे ऐसी आ ंका भी उन्हें
थी। तत्कालीन साहहत्यकारों ने इस बात को उठाया था और शसनेमा भी साहहत्य के नजदीक
पहुंचने वाली ववधा है , अंग्रेज यह भलीभांनत जानते थे। ये वविय भी फिल्मों में आएंिे तो
हहंदस्
ू तान में आि लि जाएिी, अतः भारत में बनती फिल्मों पर उनकी कड़ी नजर बनी रही।
पौराणणक-धाशमगक फिल्मों के बाद द क
ग ों की चाहना बढ़ने लिी तो धीरे से ननमागताओं ने
ऐनतहाशसक फिल्मों का रूख फकया। इस पररवतगन का भी द क
ग ों ने बड़े उत्साह के साथ स्वाित
फकया। आरं शभक दौर के बाद ऐनतहाशसक ववियों को उठाते हुए ‘शसंकदर-ए-आजम’, ‘बैजू-बावरा’,
‘झांसी की रानी’, ‘पथ्
ृ वी-वल्लभ’, ‘पुकार’ जैसी फिल्में बनी। ऐनतहाशसक ववियों के शलए कई
ववकल्प थे और उसके माध्यम से भारत के आजादी को हवा दे दी जा सकती थी। अंग्रेजों की
कड़ी नजर और ासन के दबाव के तहत ऐसी फिल्में नहीं बनी और बाद में बनना ुरू हो िया
तब अंग्रेजों के हाथों से भारतीय जनमानस की पकड़ पूरी तरह से छूट चक
ु ी थी। चारों तरि
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असंतोि का माहौल था और आंखों के सामने दस
ू रा महायुद्ध तांड़व कर रहा था तो इन फिल्मों
पर नजर रखने का समय उन्हें नहीं शमला।
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भारतीय जनमानस पर अपनी पकड़ मजबूत कर चक
ु ा था। इस युि में शसनेमा का पररदृश्य
कािी मनोरं जक, ग्लॅ मरस और समकालीन समाज के अत्यंत ननकट भी पहुंचा था। केवल हर
ही नहीं तो िांवों का भी युवा विग शसनेमा का द क
ग बन रहा था और फिल्मी सपनों को
वास्तववक दनु नया के साथ जोड़कर दे ख रहा था। इस यि
ु के अशभनेताओं के समक्ष अशभनेबत्रयां
भी भारतीय शसनेमा में अपने कदम मजबत
ू ी से उठा रही थी। आरं शभक फिल्मों में काम करने के
शलए नकारनेवाला स्त्री मानस इस दनु नया में सहिग प्रवे करने के शलए लालानयत था। उतना
सम्मान और प्रनतष्ट्ठा फिल्मी दनु नया और कलाकारों को शमल चक
ु ी थी। जुबैदा ीला, दि
ु ाग खोटे ,
ननरूपा रॉय, लीला गचटणीस, नरगिस, सरु ै या, काशमनी कौ ल, ननम्मी, नशलनी जयवंत, नरू जहां,
मधब
ु ाला, मीना कुमारी, बीना राय, साधना, वैजंयती माला, सगु चत्रा सेन, नत
ू न, आ ा पारे ख,
वहीदा रहमान, पद्शमनी आहद अशभनेबत्रयों की िौज भारतीय शसनेमा के मख्
ु य धारा में चमकती
नजर आ रही थी। इन अदाकारों के स्टार रूप धारण करने से भारतीय शसनेमा ननमागताओं,
हदग्द क
ग और परदे के पीछे की दनु नया को थोड़ा धध ुं ला करते हुए कलाकारों की पहचान बनता
िया। यहां से आिे फिल्में कलाकारों के नाम से जानी जाने लिी। फिल्मी बॅनर और कलाकारों
के बीच में इसी युि से स्पधाग ुरू हो िई जो भारतीय शसनेमा के उज्ज्वल भववष्ट्य का संकेत
दे ती है । आज ऐसी श्स्थनतयां है फक अच्छे बॅनर तले काम करने की प्रत्येक कलाकार की मं ा
होती है और इधर अच्छे कलाकारों को लेने के शलए प्रत्येक बॅनर कोश भी करता है । ऐसी
श्स्थनतयों का होना शसनेमा जित ् के सुनहर भववष्ट्य के शलए अच्छे संकेत है ।
भारतीय शसनेमा के आरं भ की मांि कुछ अलि थी, अतः उस काल के अनुरूप फिल्में
बनी। " ुरुआत में जैसे धाशमगक-पौराणणक फिल्में अश्स्तत्व में आई और फिर ऐनतहाशसक ववियों
ने अपनी जिह बनाई, वैसे ही हदलीप कुमार, वी. ांताराम, दे व आनंद, राज कपूर और िुरुदत्त
जैसे अदाकारों तक आते-आते भारत की मुख्यधारा का शसनेमा अथागत ् हहंदी शसनेमा कािी हद
ु ा था।" (कहां-कहां से िुजर िया शसनेमा - सशलल
तक समकालीन सच्चाइयों के ननकट आ चक
सुधाकर – ई-संदभग) भारतीय शसनेमा की मुख्य धारा में बोलती फिल्म के आिमन से मानो
ववकास की िनत को पंख लि जाते हैं। तकनीकी ज्ञान, संवाद-संिीत के माध्यम से कहानी का
प्रकट होना द क
ग ों पर अद्भुत प्रभाव डालते िया। समाज की मांि और शसनेमाई भूख बढ़ती िई
तो फिल्म इंडस्री ने फिल्में बनाने की िनत बढ़ाई, नए रोजिार ननमागण हो िए और इस दनु नया
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के ननमागण तथा अशभनय के क्षेत्र में युवाओं ने प्रवे फकया। ‘आलम आरा’ से ‘दे वदास’ तक
भारतीय शसनेमा का जित ् बड़ी तेजी के साथ पररवनतगत हो िया। हहंदी ‘दे वदास’ के पहले बांग्ला
भािा में इस पर फिल्म बनाई जा चक ु ी थी। ‘मोहब्बत के आंस’ू , ‘शसतारा’, ‘श्जंदा ला ’, ‘यहूदी
की लड़की’, ‘चंड़ीदास’, ‘रूपलेखा’, ‘दे वदास’, ‘अनमोल घड़ी’, ‘ववद्या’, ‘जीत’, ‘शमजाग िाशलब’,
‘ज्वारा भाटा’, ‘आि’, ‘हम एक है ’ आहद फिल्मों ने समकालीन समाज के अगधक ननकट जाने की
कोश की।
इस यि
ु के उत्तराधग में नए नायक और नानयकाओं का भारतीय फिल्म इंडस्री में प्रवे हो
रहा था। राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार, जॉय मुखजी, राज कुमार, सन
ु ील दत्त, श्जतें द्र, धमेंद्र,
म्मी कपरू , श कपरू , राजे खन्ना, ववनोद खन्ना, त्रघ्
ु न शसन्हा, शमथन
ु चिवती से लेकर
अमीताभ बच्चन तक के नाम भारतीय शसनेमा में खद
ु -ब-खद
ु जड़
ु ते िए। इन अशभनेताओं के
अिमन के साथ ही अशभनेबत्रयों के नए चेहरे भी फिल्मों में अपनी पहचान बना चक
ु े थे। उसमें
बबीता, तनूजा, माला शसन्हा, श्स्मता पाहटल, हे मामाशलनी, रे खा, राखी, जया बहादरु ी, जयाप्रदा,
पद्शमनी, हे लन, श कला, बबंद,ु शमगला टै िोर, मुमताज, जीनत अमान, परवीन बॉबी, मीनाक्षी
ि
े ाहद्र, श्रीदे वी, ड़डंपल कपाड़ड़या, माधरु ी दीक्षक्षत... आहदयों का समावे होता है । इन कलाकारों के
साथ बनी कई फिल्मों ने भारतीय शसनेमा जित ् में अववस्मरणीय फिल्मों का णखताब पाया है ।
‘आनंदमठ’, ‘बैजू बावरा’, ‘बंसत बहार’, ‘पनतता’, ‘नया दौर’, ‘ हीद’, ‘कानून’, ‘हावड़ा बब्रज’,
‘जािते रहो’, ‘समागध’, ‘संिम’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘बंहदनी’, ‘मेरी सूरत तेरी आंखें’, ‘डॉ. कोटणीस
की अमर कहानी’, ‘बरसात’, ‘आवारा’, ‘श्री 420’, ‘श्जस दे में िंिा बहती है ’, ‘मदर इंड़ड़या’,
‘मेरा नाम जोकर’, ‘मुझे जीने दो’, ‘िंिा-जमूना’, ‘वतत’, ‘हमराज’, ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘नीचा
निर’, ‘पूरब-पश्श्चम’, ‘खानदान’, ‘हाथी मेरे साथी’, ‘णखलौना’, ‘नमक हराम’, ‘बावची’, ‘आराधना’,
‘मेरे अपने’, ‘कालीचरण’, ‘ज्वेल थीप’, ‘कािज के िूल’, ‘साहहब, बीबी और िुलाम’, ‘ ोले’...
जैसी ढे रों फिल्में द क
ग ों की मनोरं जनवाली मांि को पूरा कर रही थी और सामाश्जक सरोकारों
को भी अंजाम तक पहुंचा रही थी।
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मनोरं जन की फिल्मों के साथ न्यू वेव का दौर भी भारतीय शसनेमा में चलता रहा
और इसे आिे चलकर समांतर शसनेमा का नाम भी हदया िया। सत्यजीत राय के ‘पाथेर पांचाली’
से इसका आिाज होता है और आिे चलकर बबमल राय, िुरुदत्त, हृविके मुखजी, ख्वाजा
अहमद अब्बास, श्याम बेनेिल, िोववंद ननहलानी, प्रका झा, िौतम घोि, मण
ृ ाल सेन, अडूर
िोपालकृष्ट्णन, महे भट्ट, भीमसेन, बासु चटजी आहद ननदे कों ने समांतर फिल्में बनाई और
इससे भारतीय शसनेमा पष्ट्ु ट भी हुआ। ‘पाथेर पांचाली’ के बाद ‘आवारा’, ‘श्री. 420’, ‘जािते रहो’,
‘सद्िनत’, ‘सात हहंदस्
ु तानी’, ‘ हर और सपना’, ‘अंकुर’, ‘आिो ’, ‘अधगसत्य’, ‘सारां ’, ‘अथग’,
‘घरौंदा’, ‘सारा आका ’ आहद फिल्मों का ननमागण संमातर शसनेमा के ठोस कदमों को द ागता है।
इन फिल्मों में अशभनय का चरम उत्किग और सादिी दे खी जा सकती है । बबना फकसी प्रद गन के
यथाथग को सामाश्जक मल्
ू यों को द ागना फिल्मों का उद्दे श्य रहा है ।
शसनेमा बनाना कला का काम है । लेफकन यह कला की दनु नया पैसों के बलबूते पर खड़ी
होती है । शसनेमा के साथ आरं भ से रुपए-पैसों के मुनािे की बात जुड़ चक
ु ी है । इसके पहले ही
शलख चुके हैं फक आज ववश्व और भारत की इतनी आबादी है फक आप कोई भी शसनेमा जरा से
मसाले के साथ बनाए करोड़ों रुपए कमा सकते हैं, यह करोड़ों रुपए आपको रोटी दे सकते हैं
लेफकन शसनेमा के साथ ईमानदारी बरतने का सकून और ांनत कभी नहीं दें िे। शसनेमा एक
दायरे तक मनोरं जन है परं तु उस दायरे के आिे सामाश्जक दानयत्व, कलात्मकता, तलाशसकता,
तपस्या, साधना... है ।
श्स्मता पाहटल एक साक्षात्कार के दौरान व्यावसानयक और समांतर शसनेमा को लेकर
कलाकारों की मानशसकता को बयान करती है , उसके अं को यहां पर दे रहा हूं। उन्हें पूछा
जाता है , "जब संमातर शसनेमा से आपको नाम और पुरस्कार शमलता है तो व्यावसायी फिल्में
स्वीकार ही तयों करती हैं?"
"व्यवसाय के शलए। कमाने के शलए। आणखर मैं कोई साधु-सन्यासी तो हूं नहीं।"
"यानी अिर कोई साहहश्त्यक कहानी पर फिल्म बनाने आए और उसके पास पयागप्त
रुपया न हो तो मना कर दें िी?"
"अब तक तो नहीं फकया। हां , व्यवसायी शसनेमा के कई प्रस्ताव छोड़ चुकी हूं।"
(साहहश्त्यक फिल्मों से अशभनय में ननखार आता है – साररका, माचग 1985, प.ृ 35 ) श्स्मता
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पाहटल द्वारा कहा यह वातय शसनेमाई जित ् के प्रत्येक कलाकार के शलए लािु पड़ता है ।
कलाकार की मं ा हमे ा अपने अशभनय को तरा ने और समाधान पाने की होती है । पैसा उसके
शलए िौन होता है ।
8. अर्िपण
ू ि और यर्ार्ििादी शिनेमा
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सन ् 1975 के बाद भारतीय शसनेमा के ववववध भािाओ में अथगपूणग और यथाथगवादी
शसनेमा ने अपने कदम रखे और यह समांतर शसनेमा के भीतर से उपजता िया। नव-नवीन
प्रयोिों के साथ समाज की वास्तववकता परदे पर द ागने का कायग
ुरू हुआ। 1990 तक आते-
आते यह धारा भारतीय शसनेमा की मख्
ु यधारा बनती िई और द क
ग ों के साथ फिल्म समीक्षकों
ने भी इन फिल्मों की सराहना की। यह फिल्में यथाथगवादी तो थी ही साथ ही समाज को एक
ताकतवर संदे दे ने में भी सक्षम थी। यह संदे समाज तक सीशमत न रहकर वह फकसी
सामाश्जक समस्या, वपछड़ापन, िरीबी, पाररवाररक घट
ु न, स्त्री ोिण, जानतवाहदता, संघिग, तनाव,
दबाव... को परू ी ताकत के साथ परदे पर लेकर आ रही थी। "नब्बे के द क तक अथगपण
ू ग एवं
यथाथगवादी शसनेमा कािी स तत हुआ था और इसने भी दे को कािी अच्छे अदाकार, ननदे क
हदए। नसीरूद्दीन ाह, ओम परु ी, श्स्मता पाहटल, बाना आजमी, अमरी परु ी, कुलभि ू ण
खरबंदा, मोहन आिा ,े अमोल पालेकर आहद कई अशभनेता इसी धारा से प्रका में आए।
फिल्मों में भी 'भुवन ोम', 'मि
ृ या', 'एक अधरू ी कहानी', 'िणणअम्मा', 'घट श्राद्ध', ‘पार',
'अयांबत्रक', 'सुवणग रे खा', 'पाटी', 'प्रनतद्वंद्वी', 'पोस्टर', ' ंकराभरणं', 'ये वो मंश्जल तो नहीं',
'नन ांत', 'संस्कार', 'वं वक्ष
ृ ', 'चि', 'नािररक', 'इंटरव्यू', 'औरत', 'उसकी रोटी', 'चश्मे बद्दर',
'कथा', 'दामुल', 'जाने भी दो यारों' आहद की एक लंबी सूची है , श्जसने भारतीय शसनेमा में सोच
और रचनात्मकता को एक साथगक ऊंचाई और अथगवत्ता प्रदान की।" (कहां-कहां से िुजर िया
शसनेमा - सशलल सुधाकर – ई-संदभग)
9. बाजारिादी शिनेमा
वपछले बीस एक विों में भारतीय शसनेमा में पैसा कमाने की होड़-सी लिी है । ‘बॉतस
ऑफिस पर हहट होना’, ‘सौ करोड़ी तलब’, ‘नंबर वन का णखताब’, ‘स्टार और सप
ु र स्टार कौन?’
आहद बातें स्पधाग केंहद्रत हो िई है और यह स्पधाग कलात्मक स्तरीयता की न होकर रुपए केंहद्रत
हो िई है । आज ररशलज होनेवाली प्रत्येक फिल्म बॉतस ऑफिस पर फकतने हदन धमाका मचाती
है और फकतना पैसा कमाती है इसकी चचाग परू ा भारतीय शसनेमा करता है , मीड़ड़या करता है और
उसके बहाने द क
ग भी करते हैं। फकस फिल्म ने पहले दो-चार हदनों में फकतने पैसे कमाए,
मीड़ड़या में तया शलखा जा रहा है , उसको लेकर द क
ग फिल्में दे खना या नहीं दे खना तय करता है
जो भारतीय शसनेमा के शलए अच्छा नहीं है । फकस अशभनेता के िॅन िॉलोअसग फकतने हैं उस पर
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उस फिल्म की कमाई ननभगर होती है । अच्छे िॅन िॉलोअसग के भरौसे बकवास फिल्में भी बॉतस
ऑफिस पर हहट होती है । उसका कारण यह होता है फक द क
ग ों की संख्या ज्यादा है और फिल्मों
का प्रमो न मीड़ड़या, अखबारों और टी. वी. चॅ नलों पर इतनी धम
ू धाम से होता है फक उसके
कौतह
ु ल से द क
ग एक बार दे खने के शलए जाए तो भी फिल्म हहट होती है । केवल पैसा कमाने
के शलए फिल्मों में मसाला भरा जाता है , बकवास-अथगहहन ऍटम सॉिं को जोरजबरदस्ती डाला
जाता है और केवल संिीतिार के बलबत
ू े पर द क
ग ों को लभ
ु ाने की कोश होती है । ऐसी फिल्मों
में कोई अथगवत्ता, यथाथगवाहदता, सादिी, सामाश्जक मल्
ू य की स्थापना, प्रयोि, कलात्मकता,
शमठास, सौंदयागत्मकता... नहीं होती है । इसका उद्दे श्य मनोरं जन को आधार बनाकर केवल और
केवल पैसा कमाना ही होता है , उसमें आज भारतीय शसनेमा सिल हो रहा है ।
इधर इतका-दत
ु का फिल्में सामाश्जक मूल्य, प्रेरणा, आद ,ग पाररवाररक पववत्रता, लिन
और कलात्मकता के साथ शसनेमाई बाजार में आती है । बाजारवादी नघनौनी स्पधाग के बावजूद भी
भारतीय शसनेमा के पन्ने पर अपने ठोस कदमों की छाप छोड़ दे ती है। हाल ही में प्रदश त
ग ‘मांजी
- द मॉऊंटन मॅन’ (2015), ‘भाि शमल्खा भाि’ (2013), बँड़डड श्तवन’ (1994), ‘श्तवन’ (2015),
‘तनु ववडस ् मन’ु , (2011 व 2015), ‘मेरी कोम’ (2014), ‘पानशसंि तोमर’ (2012) जैसी फिल्मों
का नामोल्लेख फकया जा सकता है श्जनमें भारतीय शसनेमा के मूल्यों को संवारा है । मूल्यों को
संवारते हुए यह फिल्में बॉतस ऑफिस पर सिलता के झंड़े भी िाड़ चक
ु ी है ।
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पैसा कमाऊ फिल्मों पर प्रका डालते हुए सशलल सुधाकार शलखते हैं फक " अशमताभ के
नायक वाले दौर के समानांतर मुख्यधारा के हहंदी शसनेमा में नए नायकों का उदय होता रहा और
शसनेमा-ननमागण इन अदाकारों की छवव के इदग -गिदग घूमने लिा। सनी दे ओल, संजय दत्त, ाहरुख
खान, आशमर खान, अजय दे विन, सलमान खान, सैि अली खान, ऋनतक रो न जैसे नायकों
के आिमन ने हहंदी शसनेमा का चेहरा बेहद आधनु नक और ग्लैमरस बना हदया लेफकन फिल्में
श्जंदिी (आम आदमी की) से बहुत दरू हो िईं, श्जनका मख्
ु य उद्दे श्य शसिग पैसा कमाना रह
िया कभी-कभी आशमर खान जैसे अशभनेताओं ने इतका-दत ु का अथगपणू ग एवं साथगक फिल्में बनाई,
पर बेहद कमश यग ल फिल्मों की संख्या के मक
ु ाबले वे 'ऊंट के मंुह में जीरा' साबबत हुई। फिर भी
भल
ू े-भटके कुछ समानांतर टाइप की फिल्में कभी कभार दे खने को शमल जाती हैं। आज मल ू
शसनेमा का रें ड शसिग 'पैसा कमाऊ शसनेमा' बनकर रह िया है , 'वांटेड', 'द डॉन', 'एक था टाइिर',
'दबंि', 'िोलमाल', 'शसंघम', 'राउड़ी राठौर' आहद तमाम हहट होने वाली मौजूदा फिल्मों को शसिग
मनोरं जन के शलए ही दे खा जा सकता है , फकसी िहरी चेतना के शलए नहीं हालांफक ये फिल्में
समाज की ववसंिनतयों पर चोट करती भी हैं , पर इतने 'लाइट' तरीके से फक वे यथाथग से कटकर
नाटकबाजी ज्यादा लिती हैं। फिल्मों का चलना ही उसके बनने की मुख्य वजह बनता है ,
इसशलए नवधनाढ्य विग श्जन फिल्मों को प्रश्रय दे ता है , ननमागता वही बनाता है और सारा दे
वही दे खने को बाध्य होता है । अच्छी कही जाने वाली 'थ्री इड़डयट्स' जैसी फिल्म भी घोर िंतासी
की श कार अववश्वसनीय मसाला फिल्म है , श्जसके प्रयोि गथएटर में बस दे खे जा सकते हैं, फकए
या आजमाए नहीं जा सकते। कभी-कभार 'मुन्नाभाई एमबीबीएस.' जैसी फिल्म अपने मजाफकया
श ल्प के जररए कुछ जरूरी सवाल खड़ा कर जाती हैं, पर हमे ा नहीं। वविय ून्यता की श्स्थनत
तो ऐसी है फक पुरानी हहट फिल्मों के लिातार 'ररमेक' बन रहे हैं, तो जाहहर है फक वैचाररक
हदवाशलयापन श खर पर है ।" (कहां कहां से िुजर िया शसनेमा – ई-संदभग) वतगमान में जो
भारतीय शसनेमा के हालात है वह ज्यादा हदनों तक रहें िे नहीं उसका कारण यह है फक भारत में
तेजी से समाज और द गक सजि हो रहा है । मनोरं जनात्मक शमठापन तत्काल आपकी मांि को
पूरा करता है परं तु उससे भी लंबे समय तक चलनेवाली सामाश्जक मांि तलाशसकता की है । या
हो सकता है बाजारवाहदता के चलते श्जन फिल्मों ने कलात्मकता होकर भी व्यावसानयक सिलता
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पाई ऐसी फिल्में बनाई जाएिी। अथागत ् कलात्मकता और व्यावसानयकता के शमलाप से जो फिल्में
बनेंिी वह भारतीय शसनेमा में अपना योिदान दे सकती है ।
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भारत में िबिे पुराना जीवित स्टूड़ड़यो ए. िी. एम. स्टुड़ड़यो चेन्नई
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भारतीय फिल्म उद्योि के शलए 2009 खु खबरी लेकर आया। 2008 में बनी ‘स्लम डॉि
शमशलननअर’ बेस्ट फिल्म के नाते चन
ु ी िई और इस फिल्म के ‘जय हो...’ िीत के शलए िुलजार
और संिीत के शलए ए. आर. रहमान को ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त हो िया। इसी फिल्म के शलए
साउं ड शमश्तसंि के शलए केरल के साउं ड ररकॉड़डंि, शमश्तसंि और ड़डझायननंि करनेवाले रसूल
पुकुट्टी को शमला। टाइम्स पबत्रका ने रहमान के शलए ‘मोजाटग ऑि मद्रास’ की उपागध दी है ।
रहमान िोल्डन ग्लोब ऍवाडग से सन्माननत होनेवाले पहले भारतीय हैं। भारतीय शसनेमा का ववश्व
शसनेमा में भववष्ट्य उज्ज्वल है । श्जस िनत के साथ वह ववश्व शसनेमा के आका में प्रिनत कर
रहा है उससे आकविगत होकर कई कलाकार और तकनीश यन भारतीय शसनेमा में अपना योिदान
दे ने के शलए तैयार हो रहे हैं।
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है । सन ् 2000 के बाद ननमागण होनेवाली फिल्मों की कमाई में अचानक उछाल आया और हदनों-
हदन यह आंकड़े आसमान छुने लिे।
सबसे पहले सौ करोड़ के आंकड़े को छुनेवाली फिल्म रही आशमर खान की ‘िजनी’
(2008)। यह मल
ू तः दक्षक्षण की एक फिल्म का रीमेक था। यहां से आिे फिल्म स्टारों के बीच
मानो स्पधाग ही रू
ु हो िई और सौ करोड़ी तलब में ाशमल होने के शलए होड़-सी लिी। केवल
अशभनेता ही नहीं तो नानयकाओं का भी सौ करोड़ी तलब में समावे हुआ। सोनाक्षी शसन्हा,
दीवपका पादक
ु ोन, वप्रयंका चोप्रा, कॅटररना कैि, करीना कपरू , जॅ कलीन िनागड़डस, श्रद्धा कपरू ,
आशलया भट्ट, कंिना रनोट आहद नानयकाओं का सौ करोड़ी तलब में समावे हुआ है । इन
नानयकाओं में केवल कंिना रनोट एक ऐसी नानयका है श्जसने अकेले के बलबत
ू े पर सौ करोड़ी
तलब को छुआ है । ‘श्तवन’ (2014) और ‘तनु ववड्स मनु’ (2015) इन फिल्मों में नायक का
कोई स्टार कास्ट नहीं था, केवल कंिना रनोट के अशभनय कौ ल के बलबूते पर यह फिल्में सौ
करोड़ी तलब में पहुंची है । सलमान खान, आशमर खान, ाहरूख खान, अजय दे विन, अक्षय
कुमार, ररते दे मुख, ररनतक रो न, रणबीर कपूर, जॉन अब्राहम, सैि अली खान, रणवीर शसंह,
शसद्धाथग मल्होत्रा, अजुन
ग कपूर, िरहान अख्तर आहद अशभनेताओं की फिल्में सौ करोड़ी तलब में
समाववष्ट्ट हो चुकी है ।
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रामोजी फिल्म शिटी दतु नया का िबिे बड़ा फिल्म स्टुड़ड़यो
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का एहसास होता है । खैर ववश्व शसनेमा और भारतीय शसनेमा के इनतहास का ववहं िावलोकन
पाठकों को फिल्मी दनु नया के सवा सौ विों का सिर जरूर करवा सकता है । कई प्रवाहों, कई
दे ों और कई भािाओं में चल रही इस दनु नया में बेरोजिारों को रोजिार दे ने की बहुत अगधक
क्षमता है । केवल इसके दरवाजे पर कुछ कौ लों के साथ दस्तक दे ने की आवश्यकता है । यव ु कों
को यह उद्योि अपने हाथों में उठाकर चमकता शसतारा बना सकता है । मेहनत, लिन, पररश्रम,
कु लता, तपस्या के बलबत
ू े पर इस दनु नया में अपने-आपको स्थावपत फकया जा सकता है ।
शसनेमाई जित ् से फकसी भी दे की अथगव्यवस्था बल ाली बन जाती है । बहुत अगधक
संभावनाएं और रोजिार ननशमगनत का क्षेत्र होने के कारण इसे इंडस्री भी कहा जाता है ।
भारतीय शसनेमा दादासाहब िालके जी के ‘राजा हररश्चंद्र’ (1913) से आरं भ होता है और
उसके अब तक के सौ विों के छोटे परं तु अगधक व्यापक दनु नया में कई प्रकार की फिल्में बनी।
दनु नया की सबसे ज्यादा फिल्में बनानेवाली इंडस्री के नाते दनु नया भारतीय शसनेमा जित ् को
दे खती है । समय आिे बढ़ता िया। ननमागता, ननदे क, कलाकार और तकनीकें बदलती रही और
उसके साथ भारतीय शसनेमा भी बदलता िया। आज उसकी सौ करोड़ों की छलांिे दे खकर आंखें
चौंगधयाती है । धशमगक और पौराणणक कथाओं से ुरुआत करनेवाला भारतीय शसनेमा बाजारवादी
शसनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चक ु ा है । यथाथगवादी समांतर शसनेमा के काल में
भारतीय शसनेमा जित ् वैचाररक चोटी पर पहुंचा था। इस युि या ऐसे शसनेमाओं को सुवणगकालीन
शसनेमा कहा जा सकता है । ऐसा नहीं फक वह युि खत्म हुआ, उसका काल बहुत लंबा है और
वैसी फिल्में समांतर शसनेमा के दौरान बनती तो थी ही, उसके पहले तथा बाद में और आज भी
बन रही है । बाजारवाद के प्रभाव में आया शसनेमा पैसे कमाए कोई िकग नहीं पड़ता परं तु बाजारू
न बने तो उसका भववष्ट्य तेजोमय होिा। हम कुछ भी कहे , ंकाओं को जताए भारतीय शसनेमा
और ववश्व शसनेमा अपने ही धन
ू में ववकशसत होता रहे िा और आिे बढ़े िा। हां कोई नया
कलाकार, कोई नया ननमागता, कोई तकनीश यन और कोई प्रयोिवादी इसके रूख को बदल सकता
है । कान फिल्मोत्सव में जािर पनाहहने के ‘टॅ तसी’ (2015) का पुरुस्कृत होना इसकी ओर संकेत
करता है । वतगमान युि में भारतीय शसनेमा में बॉलीवुड़ की फिल्में और अन्य प्रादे श क भािाओं
की फिल्में दनु नया की फकसी भी उत्कृष्ट्ट फिल्म को टतकर दे ने की क्षमता रखती है ।
ििंदभि ग्रिंर् िच
ू ी
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1. फिल्मक्षेत्रे-रं िक्षेत्रे – अमत
ृ लाल नािर (सं.डॉ. रद नािर), वाणी प्रका न, नई हदल्ली,
2003.
2. फिल्मों का सौंदयग ास्त्र और भारतीय शसनेमा – (सं) कमला प्रसाद, श ल्पायन
प्रका न, हदल्ली, 2010.
3. बॉलीवड़
ु पाठ : ववम ग के संदभग – लशलत जो ी, वाणी प्रका न, नई हदल्ली, 2012.
4. साररका (माशसक पबत्रका) – अंक 375, नई हदल्ली, िरवरी 1985.
5. शसनेमा : कल, आज, कल – ववनोद भारद्वाज, वाणी प्रका न, नई हदल्ली, 2006.
6. शसनेमा की सोच – अजय ब्रह्मात्मज, वाणी प्रका न, नई हदल्ली, 2006, आववृ त्त
2013.
7. शसनेमा के चार अध्याय – डॉ. टी. श धरन ्, वाणी प्रका न, नई हदल्ली, 2014.
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डॉ. विजय श द
4. भारतीय शिनेमा के इततहाि का विहिं गािलोकन
Vol III Issue 2 February 2016
www.thesaarc.com 56