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कबीर
कबीर
सतगुरु मिल्या त का भया, जे िमि पाड़ी भोल । पामस बििंठा कप्पडा, क्या करै
बिचाऱी चोल |
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव कौ अंग' से
ल़ी गई है। इस साख़ी िें ज़ी भक्तक्त के मलए मििभल हृदय की आवश्यकता के बवषय िें
िताते हैं ।
व्याख्या- कि़ीर दास ज़ी कहते हैं बक सतगुरु के मसर्भ मिल जािे से कुछ िहीं हो
जाता। मिष्य के हृदय िें भक्तक्त-भाविा का होिा अत्यंत आवश्यक है। अथाभत् साधक
को बििा उसकी इच्छा के सतगुरु भ़ी साधिावस्था तक िहीं पहुँचा सकता। मिष्य
पर यदद सांसाररक वृक्तियों का ह़ी रंग चढा रहेगा तो दस
ू रा कोई रंग उस पर िहीं चढ
पाएगा मजस प्रकार यदद कपडा िैला है तो उस पर कोई भ़ी रंग िहीं चढ सकता इसिें
रंगरेज का कोई दोष िहीं होता ।
दोहा-2
दोहा-िूढे थे परर ऊिरे, गुरु की लहरर चिैबक । िेरा देख्या जरजरा ( ति ) ऊतरर पडे
र्रैबक
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत गुरुदैव अंग से ल़ी गई
है। इस साख़ी िें कि़ीरदासज़ी कहते हैं बक गुरु के ज्ञाि के िगैर भव-सागर को पार
करिा असंभव है।
व्याख्या- कि़ीरदास ज़ी कहते हैं बक व्यक्तक्त सोचता है - अज्ञािरूप़ी संसार िें रह कर
भवसागर को पार बकया जा सकता है, जिबक ऐसा िहीं है। भवसागर को पार करिे
के मलए गुरु की ज्ञािरूप़ी िौका िें िैठिा अत्यंत आवश्यक है। अथाभत् िैं भ़ी संसार
की वृक्तियों िें उलझा हआ था, परंतु अचािक िुझे सतगुरु की ज्ञाि रूप़ी िौका
मिल़ी। िैं संसार रूप़ी टूट़ी-र्ूट़ी िौका को छोडकर तुरत ं उसिें सवार हो गया अथाभत्
गुरु के िताये िागभ पर चल पडा। इस़ी िागभ से ज़ीव का कल्याण संभव है।
दोहा-3
संदभभ तथा प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव कौ
अंग से ल़ी गई है , इस साख़ी िें कि़ीर िे गुरु और ईश्वर की तुलिा की है।
व्याख्या- कि़ीर कहते हैं बक ईश्वर और गुरु दोिों एक ह़ी हैं , इििें अंतर मसर्भ
उिके िाह्य रूप औरआकार िें है। इि दोिों अंतरों को खत्म करके जो मिष्य
ईश्वर का सुमिरि करते हैं वह़ी ईश्वर को पासकते हैं। ितभ यह है बक मिष्य को
अपिे अहंकार अथाभत् अहि् को मिटािा होगा। जि व्यक्तक्त िाया सेदर ू होकर
अपिे को पूणभ रूप से ईश्वर को सिबपित कर देता है तभ़ी वह उस मिराकार ब्रह्म
िें सिा पाता है |
दोहा-4
कि़ीर सतगुरु िां मिल्या, रह़ी अधूऱी स़ीष ।स्ांग जत़ी का पहरर करर घरर घरर िांगे
भ़ीख
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव' अंग' से ल़ी
गई है। इस साख़ी िें कि़ीरदास ज़ी गुरु की िहिा िताते हैं ।
व्याख्या- कि़ीर कहते हैं बक मजि मिष्यों को सतगुरु से भक्तक्त रूप़ी ज्ञाि िहीं मिलता
उिकी मिक्षा अधूऱी ह़ी रह जात़ी है। वे ब्रह्म को पहचाि िहीं पाते। वे ऊपऱी तौर पर
साधु का रूप धारण करके घर-घर जाके भ़ीख िांगते रहते हैं।
दोहा-5
सतगुरु साुँचा सूररवां, तातै लोरहिं लुहार । कसणीं दे कंचि बकया, ताइ मलया
ततसार ।
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव कौ अंग'
से ल़ी गई है। इस साख़ी िें गुरु के द्वारा मिष्य को साधिा की अग्नि िें तपाकर
िुद्ध (मिखार) बकए जािे का वणभि है।
व्याख्या- कि़ीरदास कहते हैं , सच्चे िूरव़ीर की भांतत ह़ी सतगुरु होते हैं, जैसे
लुहार लोहे को अग्नि िें गिभ करके उसे िुद्ध कर ले ता है , उस़ी प्रकार सच्चा गुरु
अपिे मिष्य को साधिा की कसौट़ी पर कसकर सोिे की भाुँतत िुद्ध कर ले ता
है। सभ़ी बवषय बवकार, दव ु ृक्तियों को मिटाकर वह उसिें से सार-तत्त्व को प्राप्त
कर ले ता है।
दोहा-6
सतगुर हि सौं ऱीमझ करर, एक कहया प्रसंग | िरस्या िादल प्रेि का, भ़ीमज
गया सि अंग
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव कौ अंग'
साख़ी िें कि़ीरदास भक्तक्त के उपदेि के बवषय िें िताते हैं ।
व्याख्या- कि़ीर दास ज़ी कहते हैं बक एक ददि सतगुरु िे प्रसन्न होकर उपदेि
ददया बक िेरा पूरा िऱीर ज्ञाि के सागर िें डूि गया। अथाभत् गुरु िे प्रेि रूप़ी
भक्तक्त िरसात िेरे ऊपर की बक िेरा प्रत्येक अंग प्रभु की भक्तक्त िें ल़ीि हो गया
।
दोहा-7
कि़ीर िादल प्रेि का, हि परर िरष्या आइ । अंतरर भ़ीग़ी आतिां, हऱी भई
िणराइ ।
संदभभ एवं प्रसंग- उपयुभक्त साख़ी कि़ीर ग्रंथावल़ी िें संकमलत 'गुरुदैव कौ अंग'
से ल़ी गई है। इस साख़ी िें कि़ीरदास भक्तक्त व ज्ञाि की िरहिा के बवषय िें
िताते हैं ।
व्याख्या- कि़ीरदास ज़ी कहते हैं बक गुरु के उपदेिों से भक्तक्त ज्ञाि और प्रेि की
िरसात हिारे ऊपर हई। इस ज्ञाि रूप़ी िरसात िें हृदय के सभ़ी दग ु ुभण सिाप्त
हो गए। आत्मा भ़ीग कर िुद्ध हो गई है और भक्तक्त रूप़ी जल से भर कर हृदय
अि हरा-भरा हो गया है।
1. गुरु का गुणगाि बकया गया है |