You are on page 1of 15

“तुम हमारा ज़िक्र इज़तहास ों में

नह ों पाओगे
और न उस कराह का
ज तुमने आज रात सु न
क् ज़ों क हमने अपने क
इज़तहास ों के ज़िरुद्ध दे ज़दया है :
लेज़कन जहााँ तुम्हें इज़तहास ों में
छूट हुई जगहें ज़दखें
और दब हुई च ख़ का एहसास ह
समझना हम िहााँ मौजूद थे ।”

- विजयदे ि नारायण साही


ISSN 2455-5169

पररवर्तन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

‘पररवर्तन : िासित्य, िं स्कृसर् एवं सिनेमा की वैचाररकी’ विमर्श केंवित (Peer-reviewed) त्रैमाविक ई-पवत्रका है।

पवत्रका का उद्दे श्य िावहत्य, िंस्कृवत और विने मा के क्षेत्र में विमर्श ि र्ोध को प्रोत्सावहत करना है। कला जगत की विधागत
विविधताओं को ध्यान में रखते हुए पवत्रका में कई िैचाररक स्तंभों का प्रािधान वकया गया है जो इि प्रकार हैं- भाषा, िावहत्य
और िंस्कृवत (आलेख), मीवडया और विने मा (आलेख), िमकालीन विमर्श (दवलत विमर्श, आवदिािी विमर्श, स्त्री विमर्श
इत्यावद), र्ोध पत्र, कविता, कहानी, लोक िावहत्य, रं गमंच, प्रिािी िावहत्य, पुस्तक िमीक्षा, िाक्षात्कार, अनु िाद इत्यावद।

कला जगत के प्रमुख हस्ताक्षरों, िृजनकवमशयों और पाठकों का पररितशन पवत्रका में स्वागत है। हम उम्मीद करते हैं वक आप
िभी अपने िार्शक लेखन और महत्वपूर्श िुझाि के ज़ररये पवत्रका को एक िर्क्त िैचाररक मंच के रूप में स्र्ावपत करने
हेतु िहायता करें गे। यह पवत्रका जनिरी, अप्रैल, जुलाई और अक्तूबर महीने में वनयवमत रूप िे प्रकावर्त की जाएगी।

पत्राचार स्थायी पर्ा


मिे श सिं ि
ग्राम – भलुआ, पोस्ट – परविया, वज़ला - दे िररया
वहंदी विभाग उत्तर प्रदे र् – 274 501
पां वडचेरी विश्वविद्यालय
पुद्दु चेरी – 605014 उद् घोर्णा

parivartanpatrika@gmail.com
पवत्रका के िभी पद अिैतवनक हैं। पवत्रका में प्रकावर्त
gguhindi@gmail.com
रचनाओं में व्यक्त विचार रचनाकार के अपने हैं, वजििे
www.parivartanpatrika.in
िंपादक की िहमवत अवनिायश नहीं है। रचना की
Mob. # +91 9489 246095
मौवलकता िे िम्बंवधत वकिी भी वििाद के वलए
रचनाकार स्वयं उत्तरदायी होगा। रचना चयन का अंवतम
अवधकार िंपादक के पाि िुरवक्षत है। पवत्रका िे
िम्बंवधत वकिी भी वििाद का न्यावयक क्षेत्र चेन्नई
(Chennai) होगा।

© Parivartanpatrika 2016
All Right Reserved.

वर्त 5, अं क 19, जु लाई -सिर्म्बर 2020 ((i) मीणी भार्ा और िासित्य सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169

पररवर्तन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

िम्पादक डॉ. धीरज कुमार, िहायक प्राध्यापक, आई.आई एम्. टी. यूवनिविशटी,
मिेश सिंि , वहंदी विभाग, पां वडचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी ग्रेटर नोएडा, उत्तर-प्रदे र्
सटकेश्वर प्रिाद जं घेल (र्ोधार्ी), इं वदरा कला िंगीत विश्वविद्यालय,
असर्सथ िंपादक खैरागढ़, छतीिगढ़
डॉ. सपंटू कुमार, र्ेखपुरा, टोडाभीम, करौली, राजस्र्ान डॉ. लसलर् कुमार (र्ोधार्ी), पत्रकाररता एिं जनिं चार विभाग,
र्ान्तिवनकेतन, कोलकाता, पविम बंगाल
िि िम्पादक डॉ. िंजय प्रर्ाप सिंि (र्ोधार्ी), पां वडचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी
िंर्ोर् कुमार (र्ोधार्ी) गुरु घािीदाि विश्वविद्यालय, वबलािपुर, जगदीश नारायण सर्वारी (र्ोधार्ी), वहंदी विभाग, पां वडचेरी
छतीिगढ़ विश्वविद्यालय, पुदुचेरी
अखिले श गुप्त ा (र्ोधार्ी), वहंदी विभाग, डॉ हरीविंह गौर विश्वविद्यालय भारर्ी कोरी (र्ोधार्ी), वहंदी विभाग, डॉ. हरीविंह गौर विश्िविद्यालय,
िागर, मध्य प्रदे र् िागर म.प्र.
मनीर् कुमार (र्ोधार्ी), नाट्य कला विभाग, पां वडचेरी विश्वविद्यालय,
उप िम्पादक पुदुचेरी
रामधन मीणा (र्ोधार्ी), वहंदी विभाग, पां वडचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी नीरज उपाध्याय (र्ोधार्ी), नाट्य कला विभाग, पां वडचेरी
विश्वविद्यालय, पुदुचेरी
परामशत मंडल सप्रयंका शमात (र्ोधार्ी), नाट्य कला विभाग, पां वडचेरी विश्वविद्यालय,
पुदुचेरी
प्रोफेिर वीरे न्द्र मोिन (वहंदी विभाग पूिश अवधष्ठाता), भाषा िररनाथ कुमार (र्ोधार्ी), बी. आर. अम्बेड कर विश्वविद्यालय,
अध्ययनर्ाला डॉ हरीविंह गौर विश्वविद्यालय, िागर, म.प्र लखनऊ, उत्तर प्रदे र्
वैभव सिंि (आलोचक), वदल्री विश्वविद्यालय, वदल्री सवनीर् गुप्त ा (र्ोधार्ी), बनारि वहन्दू विश्वविद्यालय, िारार्िी, उत्तर
डॉ प्रमोद मीणा, एिोवर्एट प्रोफ़ेिर, वहंदी विभाग, महात्मा गााँ धी प्रदे र्
केंिीय विश्वविद्यालय मोवतहारी, वबहार ऋसर् गुप्ता (र्ोधार्ी), दवक्षर् एवर्या अध्ययन केंि, जे.एन.यू. , नई
पुनीर् सबिाररया, एिोवर्एट प्रोफेिर,वहंदी विभाग, बुंदेलखंड वदल्री
विश्वविद्यालय, झााँ िी, उ.प्र. अनुराग वमात , बाबािाहेब भीमराि अंबेडकर विश्वविद्यालय (केंिीय
प्रो. चंद ा बैन , विभागाध्यक्षा, वहन्दी एिं भाषा विज्ञान विभाग, डॉ विश्वविद्यालय), लखनऊ
हरीविंह गौर विश्वविद्यालय, िागर, म.प्र. पंकज शमात , र्ोधार्ी, वहंदी विभाग, जावमया वमवलया इस्लावमया, नई
डॉ सिद्धाथत शंकर राय (िहायक प्राध्यापक), वहंदी विभाग, हररयार्ा वदल्री
केंिीय विश्वविद्यालय, हररयार्ा रसव सिंि , र्ोधार्ी, पत्रकाररता एिं जनिं चार विभाग, बीबीएयू,
डॉ असमर् सिंि परमार (िहायक प्राध्यापक), र्ािकीय महाविद्यालय लखनऊ
फस्तरपुर मुंगेली, छत्तीिगढ़ प्रसर्मा, र्ोधार्ी, पत्रकाररता एिं जनिं चार विभाग, बीबीएयू, लखनऊ
श्री मुरली मनोिर सिं ि (िहायक प्राध्यापक), वहंदी विभाग, गुरु सिर्ेश िवाई (विद्यार्ी), इं वदरा कला िंगीत विश्वविद्यालय, खैरागढ़,
घािीदाि विश्वविद्यालय वबलािपुर छ.ग. छतीिगढ़
डॉ रमेश गोिे (िहायक प्राध्यापक), वहंदी विभाग, गुरु घािीदाि
विश्वविद्यालय वबलािपुर छ.ग. प्रूफरीडर
उद्भव समश्र (िावहत्यकार), दे िररया उ.प्र. रामलखन राजौररया (र्ोधार्ी) वहंदी विभाग, पां वडचेरी यूवनिविशटी,
डॉ राजेश समश्र (अवतवर् िहायक प्राध्यापक), वहंदी विभाग, गुरु पां वडचेरी
घािीदाि विश्वविद्यालय वबलािपुर छ.ग.
सदलीप िान (पत्रकार), राज्य िभा टे लीविज़न, वदल्री आवरण सचत्र
धीरे न्द्र राय (िहायक प्राध्यापक), पत्रकाररता एिं जनिं चार विभाग, डॉ. मदन मीना
कार्ी वहन्दू विश्वविद्यालय, िारार्िी
जयराम कुमार पािवान , िहायक प्राध्यापक, वत्रिे र्ी दे िी भालोवटया कला िम्पादक
कॉलेज, रानीगंज, िधश मान, प.ब. अनूप कुमार, र्ोधार्ी इलेक्ट्रॉवनक मीवडया एिं जन िंचार विभाग,
डॉ. िुनील कुमार, िहायक प्राध्यापक, वहंदी विभाग, गुरु नानक दे ि पां वडचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी
विश्वविद्यालय, अमृतिर
र्कनीकी टीम
िम्पादक मंडल नवीन भारर्ी (र्ोधार्ी) कंप्यूटर िाइं ि & इं जीवनयररं ग कंप्यूटर
िाइं ि विभाग, पां वडचेरी यूवनिविशटी, पां वडचेरी
डॉ. अनूप कुमार (र्ोधार्ी), इलेक्ट्रॉवनक मीवडया एिं जन िंचार अंशुमन नाट्यकला विभाग, पां वडचेरी यूवनिविशटी, पां वडचेरी
विभाग, पां वडचेरी विश्वविद्यालय, पुदुचेरी
सवक्ांर् कुमार, स्वतं त्र लेखन, िेगुिराय, वबहार सवशेर् िियोग
राकेश कुमार उपाध्याय, वहंदी टीजीटी अध्यापक, चंडीगढ़ राजेर् कुमार, अवभषेक कुमार विंह , चंिकां त वत्रपाठी, श्री प्रकार्
पाण्डे य

वर्त 5, अं क 19, जु लाई -सिर्म्बर 2020 ((ii) मीणी भार्ा और िासित्य सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169

पररवर्तन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

दो र्ब्द महेर् विंह 1-2


िंपादकीय डॉ. वपंटू कुमार 3-7

िंड-1 : मीणी भार्ा


मीर्ा आवदम िमुदाय : आवदकाल िे अब तक हररराम मीर्ा 9-16
अब तक के भाषाई ििेक्ष र् डॉ. पुखराज जााँ वगड़ 17-26
मीर्ी भाषा का उद्भि और विकाि डॉ. वपंटू कुमार 27-67
बािन हाड़ौती मीर्ी : एक पररचय चन्दा लाल चकिाला 68-72
नागरचाळी मीर्ी का विषय-िैविध्य राम कल्यार् मीर्ा 73-77
आं तरी मीर्ी का पररचयात्मक अध्ययन ख्यालीराम मीना 78-82
‘माड़ी’ के कलात्मक-रूप डॉ. भीम विंह, डॉ. िुर्ीला मीर्ा 83-87
दे र्ज-भाषा में लोकजीिन डॉ. भीम विंह 88-91
िंिार के पयाश िरर् की रक्षक धराड़ी प्रर्ा पी.एन.बैफलाित 92-99
पुरखौती गीतों में मीर्ी मातृभाषा, िंस्कृवत और इवतहाि डॉ. हीरा मीर्ा 100-128
मीर्ी भाषा और उिमें अवभव्यक्त लोक िां स्कृवतक विराित ख्यालीराम मीर्ा 129-138
आवदिािी जीिन केन्तित कहावनयों पर ‘मीर्ी भाषा’ का प्रभाि रविि कुमार मीना 139-148

िंड – 2 : मीणी भार्ा का िासित्य


किानी
बड़द की मौत्य हररराम मीर्ा 150-153
लाडो ठे का पै चन्दा लाल चकिाला 154-159
ज्यब बवदया वबकी डॉ. वपंटू कुमार 160-162

िंस्मरण
झूपडा को जूर्ो बळीन्डो चन्दा लाल चकिाला 163-166
जुल्मी विजय विंह 167-171

कसवर्ा
विंधुघाटी की मोट्याररन डॉ. हीरा मीर्ा 172-177
म्ां की पचार् छ: न्यारी दीवपका मीर्ा 178-179
खेतां की रूखाळी/ मायड चन्दा लाल चकिाला 180-181
हां , मं भूल्यो कोवन विजय विंह 182-183
गैबी कोरोना / बोट की लाज राख ज्यो कैलार् चि ‘कैलार्’ 184-185
बालापर् िूं गौर्ा त्यक िुमेर राजौली 186-187

लोक रं ग
हेला ख्याल : एक लोकवप्रय गायकी हर िहाय मीना 188-190
फैर्ी को फळ रामकेर् मीर्ा 191-197
मीर्ी के कलात्मक रूप : आवदिावियत रामकरर् ( लोक गायक) 198-204
या वबवगत की बेम्यारी विष्णु मै नाित (लोक गायक) 205-208
खोळ कपाड़ी की आं ख्य चेतराम गु रूजी (पद मेवडया) 209-211
पचिारां का फळ रामू मास्टर (लोक गायक) 212-213

वर्त 5, अं क 19, जु लाई -सिर्म्बर 2020 ((iii) मीणी भार्ा और िासित्य सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

डॉ. पुखराज जााँसगड़

त्रहंदी त्रवभाग,
राजकीय महात्रवद्यालय, दमण,
भैंसलोर-कुंता रोा, नानी दमण, दमण-396210
pukhraj.jnu@gmail.com

अब तक के भार्ाई िवेक्षण

भारत में भाषाई सवेक्षणों के रूप में दो अध्ययन सवात त्रधक महत्त्वपूणत हैं। पहला अध्ययन दे श की
आजादी से पहले (लेत्रकन सन् 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम के बाद और उसके प्रभाव के रूप में)
अंग्रेज प्रशासक और भाषात्रवद् जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन के नेतृत्व में संपन्न रॅआ तो दू सरा अध्ययन आजादी
के बाद गणेश नारायणदास दे वी के ने तृत्त्व में संपन्न रॅआ। इस बीच और इससे पहले संपन्न रॅए तमाम
भाषाई सवेक्षण शब्भंडार व भाषा त्रवशेष के अध्ययन के दृत्रष्ट्कोण से तो महत्त्वपूणत हैं , लेत्रकन उन्ें
भारतीय भाषा-सवेक्षण कहना ज्ुादती होगी। इसत्रलए यहाँ त्रसफत दो ही भाषा-सवेक्षणों की चचात की गई
है और कोत्रशश की गई है त्रक नामानु रेमत्रणका त्रगनाए बगैर उनके दे य को रे खां त्रकत त्रकया जा सके।

आजादी से पहले के भारत के भाषायी सवेक्षणों की दृत्रष्ट् त्रवशुद्ध औपत्रनवेत्रशक रही है , हालां त्रक
आजादी के बाद के भाषायी सवेक्षण भी इससे अछूते नहीं हैं, लेत्रकन उन्ें करने वाले और उनकी त्रचंताएँ
भारतीय है, इसत्रलए उनका महत्त्व अत्रधक है। मौजूदा दौर के बाे संकटों में से एक संकट भाषाओं की
त्रवलुल्कप्त का है। यह खतरा न केवल हमें उपत्रनवेत्रशक दौर की याद त्रदलाता है बल्कम्ऻ उिर-औपत्रनवेत्रशक
षायंिों से जूझने की हमारी तैयारी और क्षमताओं पर सवात्रलया त्रनशान भी खाा करता है।
औपत्रनवेत्रशक और उिर-औपत्रनवेत्रशक सात्रजशों से लाते-लाते कब हमारे अपने ही भीतर एक नयी
आं तररक उपत्रनवेशीकरण की प्रवृत्रि घर कर गई, हमें पता ही नहीं चला। असल में यह एक साधनसंपन्न
मनु ष्य द्वारा दू सरे साधनहीन मनुष्य पर जबरन थोपा गया खतरा भी है।

भारत के भाषा सवेक्षणों पर बात करते रॅए अक्सर मुअनजोदाों के साक्ष्य याद आते हैं, त्रजन्ें
अब तक पिा न जा सका है। मुअनजोदाों के साक्ष्य हमें अपनी भाषाओं के प्रत्रत अत्रधक चौकस और
सचेत रहने के त्रलए प्रेररत करते हैं। उस दौर की भाषा को भुला त्रदए जाने के चलते हम उस पूरे दौर को
कल्पना के सहारे अपने जेहन में जीत्रवत रखने की अनथक कोत्रशशें करते हैं। ऐसी कई कोत्रशशें हमारे
इत्रतहासकारों, भाषात्रवदों, कलाकारों, त्रशल्कल्पयों, सात्रहत्यकारों और त्रफल्मकारों ने की है और उनकी भाषा
को न पि पाने के चलते सबके अपने -अपने मुअनजोदाो हैं। अपनी त्रलत्रप और अपनी रचनात्मकता के
बूते मुअनजोदाो आज भी हमारे जेहन में त्रजंदा है और अपनी त्रजंदा होने की चुनौती हमारे समक्ष रखे रॅए
हैं। इससे इतर आप सोचकर दे खें त्रक वे सभ्यताएँ जो त्रसफत वात्रचक परं परा के बूते लंबें समय तक जीत्रवत
तो रहीं, लेत्रकन त्रजनकी अपनी कोई त्रलत्रप नहीं रही, अपने कोई पत्थरां त्रकत साक्ष्य नहीं रहे, उनके वजूद
का क्ा रॅआ? त्रलत्रप को पाकर भाषाएँ अमर हो जाती है। भीमबेटक के गुफात्रचि हमें हमारे पुरखों के

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (17) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

अल्कस्तत्व की थाह दे ते हैं तो मुअनजोदाों के साक्ष्य हमें अपने पुरखों की त्रवरासत को सहेजने के त्रलए
पुकारते हैं।

इसी रेम में प्राचीनकाल में सम्राट अशोक द्वारा तत्कालीन भारत की लोकप्रचत्रलत भाषाओं में
उत्कीणत त्रशलालेख भी याद आते हैं। ये त्रशलालेख भारतीय भाषाओं के वे शुरूआती त्रलत्रपबद्ध रूप हैं,
त्रजन्ें आधुत्रनक मनुष्य द्वारा पि त्रलया गया है। ईरानी त्रशलालेखों से प्रेरणा पाते रॅए त्रवकत्रसत रॅई भारतीय
त्रशलालेखों की इस नयी परं परा ने भारतीय संस्कृत्रत को प्रामात्रणक आधार प्रदान त्रकया। लगभग 300
ईसा पूवत ब्राह्मी, खरोष्ठी व आमेइक-ग्रीक त्रलत्रपयों में उत्कीणत ये त्रशलालेख अशोककालीन भारतीय
भाषाओं में संरत्रक्षत भारतीय जीवन-दशतन के जीवंत साक्ष्य हैं। अशोक के ये त्रशलालेख प्रकृत्रत और मनुष्य
के सहभाव पर आधाररत भारतीय जीवनचयात को सवात त्रधक प्रामात्रणक ढं ग से दु त्रनया के समक्ष प्रस्तुत
करते हैं। इसी तरह वात्रचक परं परा से आई संस्कृत की महान् ज्ञान-परं परा के त्रशलालेखीय रूपों को दे खें
तो 150 ईस्वी में शक राजा रूद्रदामन द्वारा जूनागि (त्रगरनार) में उत्कीत्रणतत त्रशलालेख को पहला उिर
भारतीय संस्कृत त्रशलालेख माना जाता है तो 207 ईस्वी में सातवाहन राजा त्रवजय द्वारा गुंटूर त्रऽले के
चेब्रोलू गाँव में उत्कीत्रणतत त्रशलालेख को पहला दत्रक्षण भारतीय त्रशलालेख माना जाता है।

हजारों साल पूराने ये त्रशलालेख त्रवश्वभर में प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृत्रत की प्रामात्रणक
उपल्कथथत्रत को दशातते हैं। प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इत्रतहास की सबसे बाी त्रदित प्रामात्रणक
स्रोतों का अभाव रहा है , ऐसे में ये त्रशलालेख प्रकाशपूंज की तरह हमारे सामने आ खाे होते हैं। इनकी
मौजूदगी हमें उस दौर के जीवन से जुाने के त्रलए प्रेररत करती है। यह सब संभव रॅआ, भाषा को
त्रलत्रपबद्ध करने से , उसे पत्थरों पर उत्कीणत करने से। प्राचीन भारत में भाषायी सवेक्षणों का कोई स्पष्ट्
उल्रेख नहीं त्रमलता। प्राचीन त्रशलालेखों, संस्कृत, तत्रमल, पात्रल, प्राकृत, अपभ्रंश और उनकी अन्य
समानधमात भाषाओं की सात्रहल्कत्यक कृत्रतयों के त्रवत्रभन्न चररिों के माध्यम से हमें तत्कालीन भाषाओं के
त्रवत्रवध नमूने दे खने को त्रमलते हैं। ये नमूने असल में तत्कालीन सामात्रजकी और उसके पदानु रेम को
दशात ते हैं। मध्यकालीन कृत्रत ‘प्राकृत पैंगलम्’ में त्रहंदी प्रदे श की त्रवत्रभन्न बोत्रलयों के त्रवत्रवध रूप दे खने को
त्रमलते हैं। इससे पहले एक साथ इतनी भाषाओं या बोत्रलयों के रूप दे खने को नहीं त्रमलते। इसका एक
बाा कारण गद्य की अनु पल्कथथत्रत भी रहा है और इस दृत्रष्ट् से पत्रश्चमी समाज यकीनन अत्रधक समृद्ध रहा
है।

दु त्रनया में अपनी दाशतत्रनक ज्ञान-मीमां सा और व्यापार-कौशल के त्रलए ख्यात रहा भारत हमेशा
से बरॅभात्रषक रहा है और दु त्रनयाभर के बाजारों में भारतीयों की गररमामयी उपल्कथथत्रत इसे प्रमात्रणत
करती है। गणेश नारायणदार दे वी का ‘भारतीय लोक भाषा सवेक्षण’ का एक त्रनष्कषत , त्रजसमें लगभग
125 त्रवदे शी भाषाओं में भारतीयों की मातृभाषा सरीखी त्रनपुणता की बात की गई है , भी इसे प्रमात्रणत
करता है। मध्यकालीन संतों ने अपनी बरॅभात्रषकता की प्रवृत्रि का त्रवस्तार आमजन तक करने में
सफलता पाई, त्रजसे हम सधु िाी या पंचमेल ल्कखचाी के रूप में जानते हैं। संतो के दे शाटन ने उनकी
रचनाओं में भारत की त्रवत्रभन्न भाषाओं का रं ग भर त्रदया है , लेत्रकन उन्ोंने भाषा को मनुष्य से मनु ष्य को
जोाने के एक अहम सूि के रूप में दे खा। यही भाषाओं का असल काम भी है। एक दृत्रष्ट् से वे भारत के
चलते-त्रफरते भाषाकोश थे। मध्यकाल में भाषाएँ एक-दू सरे को जोाने का माध्यम बनी तो आधु त्रनककाल

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (18) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

में भाषाएँ कूटनीत्रत का माध्यम बनने लगी। बरॅभात्रषकता को एक औजार के रूप में इस्तेमाल त्रकया जाने
लगा।

दु त्रनयाभर के बाजारों पर कब्जा करने की औपत्रनवेत्रशक ताकतों की दानवी चाह और उससे


पैदा रॅई अंधी प्रत्रतस्पधात ओं तथा येन-केन-प्रकारे ण उनमें जीतने की उनकी अमानवीय वृत्रि ने
बरॅभात्रषकता को एक औजार के रूप में प्रयुि त्रकया। बरॅभात्रषकता की इसी प्रवृत्रि ने भाषा-सवेक्षणों
को जन्म त्रदया। संचार के साधनों के अभाव में वैसे भी साधारण मनुष्य के त्रलए बरॅतेरी भौत्रतक दू ररयों को
लां घ पाना आसान न था। औद्योत्रगक रेां त्रत के दौर में सामने आई औपत्रनवेत्रशक ताकतों के आगाज के
साथ ही भाषायी सवेक्षण की शुरुआत होती है। भाषायी सवेक्षणों पूरी तरह से औपत्रनवेत्रशक समाज की
दे न है। औद्योगीकरण की गत्रत को बनाए रखने और लगातार युद्धों की त्रवभीत्रषका से जूझती
औपत्रनवेत्रशक ताकतों के त्रलए नये-नये उपत्रनवेशों की खोज और त्रफर उन पर शासन करने की उनकी
महत्त्वाकां क्षाओं ने उन्ें त्रवत्रजतों की भाषाओं के बारे में जानने -समझने के त्रलए प्रेररत त्रकया। भाषाजतन की
इस प्रेरणा के मूल में मनुष्यता नहीं बल्कम्ऻ उनका श्रेष्ठता-दं भ और लालच था।

हमलावर जात्रतयाँ त्रवत्रजत जात्रतयों पर हमेशा अपनी भाषा और अपनी संस्कृत्रत की छाप छोाना
चाहती है, थोपना चाहती है। इसे हम समय-दर-समय बदलती भारत की राजभाषाओं के रेम में आसानी
से दे ख सकते हैं। हालां त्रक भारत आई कई हमलावर जात्रतयों (यूनानी, यवन, शक, कुशाण, रॆण, अरब,
तुकत, मुगल, आत्रद) में से अत्रधकां श यहीं की होकर रह गईं और उनकी भात्रषक संरचनाएँ व उनके
शब्भंडार भी कुतात -पाजामा की तरह यहां की भाषा में घुल-त्रमल गईं। इस मायने में यूरोपीय जात्रतयाँ
थोाा अलग रही हैं, प्रबोधकालीन ज्ञान-वैभव को त्रबसराते रॅए औद्योत्रगक रेां त्रत से उत्पन्न समृल्कद्ध ने उनमें
अत्रतशय श्रेष्ठताबोध और भयावह लालच भर त्रदया था।आधु त्रनकतम आयूध तकनीत्रक के बूते खु द को
दु त्रनया को सभ्यता का पाठ पिाने वाली जात्रतयों के रूप में थथात्रपत करना कोई नयी बात न थी। कुछे क
अपवादों को छोाकर अपने -अपने प्रभुत्व के दौर में दु त्रनया की सारी शल्किशाली जात्रतयाँ यही करती
आई हैं।

जॉजत अब्रािम सियित न का ‘भारत का भार्ा िवेक्षण’:

यूरोपीय ताकतों के भारत आने और यहाँ पैर जमाने के रेम में उनके समक्ष सबसे बाी दु त्रवधा
भाषायी त्रवत्रवधता थी। अरब सागर के तटवती इलाकों से लेकर बंगाल की खााी के तटवती इलाकों तक
की व्यापाररक गत्रतत्रवत्रधयों के दौरान उन्ें सैकाों बोत्रलयों से होकर गुजरना होता था। इस भाषायी संकट
से त्रनपटने के त्रलए सबसे पहले उन्ोंने त्रमशनररयों और भाषात्रवदों को भारत में काम के त्रलए आमंत्रित
त्रकया। बरॅभात्रषकता को भारत आने वाले अत्रधकाररयों की पहली शतत बनाया गया। भारत आने वाले
यूरोपीय त्रवद्वानों द्वारा भारतीय भाषाओं में त्रकये जाने वाले शोधपरक कामों का मूल भी यही था। गवनत र -
जनरल वैलेजली के काल में भारतीय भाषाओं के अध्ययन को सां थथात्रनक रूप दे ने के रेम में ‘फोटत
त्रवत्रलयम कॉलेज’ सामने आया, जहाँ यूरोप से आने वाले अंग्रेज अत्रधकाररयों को भारतीयों पर शासन
करने के त्रलए भारतीय भाषाओं की त्रशक्षा दी जाने लगी। इस दौर तक उन्ोंने त्रहंदी को अल्कखल भारतीय
संपकतभाषा के रूप में त्रचत्रित त्रकया गया। त्रसत्रवल सेवा परीक्षा में कानून, राजनीत्रत और गत्रणत के साथ-
साथ भारतीय भाषाओं के ज्ञान को अत्रनवायत बनाया गया। पदोन्नत्रत के त्रलए कम-से-कम दो भारतीय

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (19) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

भाषाओं की परीक्षा में उिीणत होना अत्रनवायत बनाया गया। भारत के पहले भाषा सवेक्षक जॉजत अब्राहम
त्रग्रयसतन ने पदोन्नत्रत के त्रलए त्रहंदी और बां ग्ला की परीक्षाएँ उिीणत की थी।

आधु त्रनक महायुद्धों के दौरान दु त्रनयाभर में भाषा सवेक्षणों में तेजी आई। अत्रधकांशतः इसे
जनगणना का अत्रनवायत त्रहस्ा बना त्रदया गया था। लगभग 30 वषों तक चला जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन का
भाषा सवेक्षण भी पहली बार सन् 1921 की जनगणना की भूत्रमका के रूप में सामने आया। स्वतंि
पुस्तक के रूप में वह सन् 1927 में प्रकात्रशत रॅआ, हालां त्रक उनके अध्ययन के कुछे नमूने अन्यि
प्रकात्रशत हो चुके थे, लेत्रकन समग्रता में वह सन् 1921 और 1927 में ही सामने आया और उनके इस
प्रकाशन के मूल में औपत्रनवेत्रशक त्रहतों का संधान था। त्रवश्वयुद्धों में भारतीय की भागीदारों की सुत्रनत्रश्चतगी
के त्रजन क्षेिों को चुना गया, उनके चुनाव में इस सवेक्षण की भूत्रमका खासी अहम् है। भारत की
खानाबदोश आत्रदवासी जात्रतयाँ त्रब्रतानी सिा के त्रलए हमेशा संकट का सबब रही है , इसत्रलए इस सवेक्षण
में उनकी भाषाओं पर त्रवशेष बल त्रदया गया है। इस संदभत में अवगीकृत भाषाओं के रूप में त्रचत्रित
भाषाओं को पिना-समझना बेहद महत्त्वपूणत हैं। इन जात्रतयों के आं दोलनों को दबाने में इस अध्ययन का
महत्त्व त्रनत्रवतवाद है।

जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन ने अपने भाषा सवेक्षण में 179 भाषाओं की सूची पेश की है और सन्
1921 की जनगणना के आँ काों में 188 भाषाओं का उल्रेख त्रमलता है। यह अंतराल उनके अध्ययन के
अद्यतनीकरण का भी पररणाम है। अपने सवेक्षण में उन्ोंने भात्रषक व्याकरण को आधार बनाया और
प्राप्त नमूने में लोक प्रचत्रलत व्यवहारों को तरजीह दी। जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन के भाषाई सवेक्षण में
मौजूदा पात्रकस्तान, बां ग्लादे श, त्रतब्बत और म्यानमार की भाषाएँ भी शात्रमल हैं और उनमें शात्रमल कई
भाषाओं के ग्रामोफोन ररकॉडत स् आज भी लंदन और पेररस के संग्रहालयों में सुरत्रक्षत रखे हैं। भाषाओं के
बदलाव को समझने के त्रलहाज से यह कम बाी उपलल्कब्ध नहीं है।

अत्रधकां श यूरोपीय त्रवद्वानों के त्रलए उनका भारत त्रवषयक काम भारतीय समाज और भारतीय
भाषाओं पर यूरोपीय समाज और यूरोपीय भाषाओं की श्रेष्ठता को त्रसद्ध करना रहा है , लेत्रकन उनके ये
काम बरॅतेरे भारतीय त्रवद्वानों के त्रलए जागरणकारी त्रसद्ध रॅए। यूरोपीय त्रवद्वानों से संवाद के रेम में शुरू
रॅए भारतीय त्रवद्वानों के अत्रधकां श शुरूआती काम औपत्रनवेत्रशक छद्म से अछूते न रह सके, लेत्रकन इसने
पुनजात गरण की, नवजागरण की एक लहर पैदा करने में अवश्य सफलता प्राप्त की। त्रग्रयसतन के भाषा
त्रवषयक कामों ने भी त्रहंदी में गंभीर भाषापरक शोध की एक त्रवकत्रसत परं परा को जन्म त्रदया। अपने
शोधपरक कामों से त्रग्रयसतन ने भारतीय ज्ञानपरं परा को सीधी चुनौती दी। आप गौर करें गे तो पाएं गे त्रक
त्रहंदी का अत्रधकां श महत्त्वपूणत भाषापरक शोध उनके कामों के बाद संपन्न रॅए हैं। भले ही वह उनका
भाषापरक काम हो या आलोचनापरक काम या त्रफर सात्रहत्ये त्रतहास लेखन, उन्ोंने तत्कालीन भारतीय
मनीषा को प्रभात्रवत त्रकया। त्रग्रयसतन के बाद या उनके प्रभाव में त्रवकत्रसत रॅई नयी भारतीय ज्ञान-परं परा
से कई भारतीय भाषाओं और बोत्रलयों के अध्ययन सामने आएं , हालां त्रक ऐसे अत्रधकांश अध्ययनों की
भाषा अंग्रेजी ही रही है और उनके त्रनष्कषत भी त्रग्रयसतन से बरॅत जुदा नहीं थे , लेत्रकन इसने भारत में
भाषापरक अध्ययनों की एक परं परा को तो जन्म त्रदया ही।

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (20) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

अपने पूवतवत्रततयों से त्रग्रयसतन ने भारतीय भाषा-सात्रहत्य की त्रवरासत की अवज्ञा करना भली-भां त्रत
सीख त्रलया था। त्रहंदी की बात करते समय वे इनके प्राचीनतम स्रोतों की अवज्ञा करना नहीं भूलते। लोक
में खु सरो की त्रहंदी का व्यापक प्रभाव रहा पर लोकसात्रहत्य के संग्राहक त्रग्रयसतन उस पर ज्यादा बात नहीं
करते, क्ोंत्रक ऐसा करने से अंग्रेजी की श्रेष्ठता के दं भ को चोट परॅंचती है। ऐसा करने के पीछे की मंशा
भारतीय भाषाओं के बीच की सां स्कृत्रतक संवाद की त्रनरं तरता को तोाना था। चूंत्रक त्रहंदी सभी भारतीय
भाषाओं के बीच सांस्कृत्रतक संवाद का मूल स्रोत थी, इसत्रलए सबसे बाा हमला त्रहंदी पर ही त्रकया। त्रजन
इलाकों में वे पदथथ रहे, वहाँ भी उन्ोंने त्रहंदी को संवाद की भाषा के रूप में थथात्रपत होने से रोकने की
ही कोत्रशशें की। त्रबहार में त्रहंदी के प्रयोग के त्रवरोध के चलते उन्ोंने खासी कुख्यात्रत भी अत्रजतत कर ली
थी, लेत्रकन जो हो, औपत्रनवेत्रशक त्रहतों को लेकर वे बेहद सचेत और स्पष्ट् थे। त्रग्रयसतन और उनके पूवतवती
अत्रधकाररयों में एक बाा अंतर त्रहंदी की ल्कथथत्रत को लेकर था। त्रग्रयसतन त्रहंदी को एक सामान्य भाषा के
रूप में स्वीकारते हैं, जबत्रक उनके पूवतवती त्रहंदी को अल्कखल भारतीय संपकतभाषा के रूप में स्वीकारते
हैं। त्रहंदी के प्रत्रत इस कट्टरता के मूल में सन् 1857 के संग्राम के बाद की वे औपत्रनवेत्रशक नीत्रतयाँ हैं,
त्रजसमें उन्ोंने यह त्रचत्रित कर त्रलया था त्रक यत्रद भारत पर शासन करना है तो त्रवद्रोह और रेां त्रत की
जनभाषा त्रहंदी को दू सरी भाषाओं से दू र करना होगा और त्रग्रयसतन ने इसे बखू बी अंजाम त्रदया।

आप ध्यान दें गे तो पाएं गे त्रक त्रब्रत्रटश शासन की सवातत्रधक कोत्रशशें रेां त्रत और त्रवद्रोह की भाषा
रही त्रहंदी में उपलब्ध तब के साक्ष्यों को इतने भयावह ढं ग से खत्म त्रकया गया त्रक लोकगीतों तक में
उनकी अनु गूंजें त्रमलना बंद सी हो गयी थी। 1857 की 150वीं वषतगां ठ पर सामने आए शोधों में इस बात
को स्पष्ट्ता से दे खा जा सकता है। यह एक ऐत्रतहात्रसक तथ्य है त्रक सन् 1857 के महान स्वतंिता संग्राम
की असफलता के बाद सन् 1858 में शुरू रॅई भारतीय त्रसत्रवल सेवा परीक्षा में सवात त्रधक बल भाषा और
गत्रणत पर ही त्रदया गया था। (शोध बताते हैं त्रक भाषा और गत्रणत का संयोग मनुष्य की बरॅभात्रषकता को
त्रवस्तार दे ती है, उसकी संकल्पनात्मक क्षमताओं को बिाता है।) यह एक बाा कारण था त्रक उस दौर में
भारतीय त्रसत्रवल सेवा के जररए आए अत्रधकाररयों में बरॅतों ने भारतीय भाषाओं में गंभीर काम त्रकए, इनमें
सबसे महत्त्वपूणत काम जॉजत त्रग्रयसतन का ग्यारह त्रजल्दों में बंटा भाषा सवेक्षण है।

उस दौर में तमाम त्रसत्रवल सेवा अत्रधकाररयों की पदोन्नत्रत हेतु कम-से-कम दो भारतीय भाषाओं
की परीक्षाओं में उिीणत होना एक अत्रनवायत शतत रॅआ करती थी। ध्यान रल्कखएगा त्रक दो त्रभन्न भाषा
पररवारों की भाषाओं को सीखना आसान काम न था, लेत्रकन उन्ोंने उसे सीखा और उनकी इसी सीख
की बदौलत, तमाम औपत्रनवेत्रशक षायंिों के हमें उस दौर के कई दु लतभ अध्ययन नसीब रॅए। बहरहाल,
आज के भारत में आला अत्रधकाररयों को पदोन्नत्रत के त्रलए दो भारतीय भाषाओं की परीक्षाएँ पास करना
अत्रनवायत बना त्रदया जाए तो दे श में बवाल मच जाए। त्रकतना अबूझ है हमारा भारत प्रेम और हमारी
भारतीयता। अपने सवेक्षणों की भूत्रमकाओं में जॉजत त्रग्रयसतन त्रजन अत्रधकाररयों को याद करते हैं , वे सभी
उन्ीं की तरह भारतीय त्रसत्रवल सेवा से आए थे और भाषाओं की उनकी समझ कमाल की थी। आज की
त्रसत्रवल सेवा में भारतीय भाषाएँ हात्रशए पर है ही, त्रवश्वत्रवद्यालयों में उनकी दु गतत्रत त्रकसी से त्रछपी नहीं है।
सच्चे भाषात्रवद् ढू ं ढे नहीं त्रमलते।

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (21) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

अंग्रेजों के त्रलए भारत को समझने के त्रलए भारत के लोगों को समझना जरूरी था और भारत
के लोगों को समझने के त्रलए भारतीय भाषाओं को समझना जरूरी था। सन् 1857 के संग्राम में भारतीयों
और भारतीय भाषाओं की एकता के महत्त्व को वे भली भां त्रत समझ चुके थे , इसत्रलए बाद में आने वाले
अत्रधकाररयों ने त्रसलत्रसलेवार िं ग से भारतीय भाषाओं के अध्ययन पर बल त्रदया और यह सारा काम
त्रवदे शी भाषाओं में, त्रवशेषकर अंग्रेजी में सम्पन्न रॅआ। इसके दो लाभ थे, सबसे पहला तो यह त्रक इन
अध्ययनों से भारतीयों को दू र रखना और दू सरा भारत पर रॅक्मरानी के त्रलए उसे समझने की भाषायी
ल्कखात्रकयां खोलना।

आज के हमारे त्रसत्रवल सेवा अत्रधकारी भारतीय भाषाओं में संवाद को अपनी हेठी समझते हैं।
बरॅत कम अत्रधकारी हैं, जो भारतीय भाषाओं के अध्ययन में मन रमाते हैं और उसमें अध्ययन-अध्यापन
करने वालों को प्रेररत-प्रोत्सात्रहत करते हैं। इस संदभत में एक त्रदलचस्प तथ्ययह भी है त्रक अंग्रेजी भाषा में
प्रस्तुत त्रकए जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन के भाषा सवेक्षण के लगभग सौ सालों बाद भारत में गणेश
नारायणदास दे वी ने भी अपने सवेक्षण के त्रलए त्रजस भाषा को चुना, वह अंग्रेजी ही है। सौ साल पहले एक
अंग्रेज ने अपनी भाषा अंग्रेजी में भारतीय भाषा सवेक्षण तैयार त्रकया तो उसके सौ साल बाद एक भारतीय
ने त्रवदे शी भाषा में भारतीय भाषा सवेक्षण तैयार त्रकया। दोनों सवेक्षणों की भाषाएँ एक हैं , लेत्रकन दोनों की
त्रचंताएँ अलग है। जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन का भाषा सवेक्षण भारतीयों पर शासन को सुगम बनाने के
उद्दे श्य से त्रकया गया था और इसीत्रलए उसे त्रकसी भारतीय भाषा में प्रस्तुत नहीं त्रकया गया। भारतीय
भाषा में उसकी प्रस्तुत्रत से उनके उद्दे श्य में बाधा परॅँचती थी। इस के त्रवपरीत गणेश नारायणदास दे वी
और उनके हमरात्रहयों का अध्ययन बताता है त्रक यत्रद भारत की आत्मा को जानना है तो आपको यहाँ के
आत्रदवात्रसयों और उनकी भाषाओं को जानना-समझना होगा। एक का उद्दे श्य भारतीयता को तोाना है
तो दू सरे का मंतव्य भारतीयता के सूिों की खोज है।

औपत्रनवेत्रशक नीत्रतयों के तहत संपन्न इन भाषा सवेक्षणों ने अनायास ही भारतीय भाषाओं के


बीच एक नकारात्मक प्रत्रतस्पद्धात खाी कर दी। बोत्रलयों और भाषाओं के नामकरण भी इससे अछूते न
रहे। उनके द्वारा त्रनत्रमतत उपभाषाओं के एक नये और बनावटी िांचे ने इसे और अत्रधक गहरा कर त्रदया।
जब हम त्रबहारी त्रहंदी या राजथथानी त्रहंदी कहते हैं तो अनायास ही त्रबहार और राजथथान में बोली जाने
वाली उन बोत्रलयों को त्रहंदी से दू र कर उन्ें अपने एक क्षेि त्रवशेष तक सीत्रमत कर दे ते हैं। यही कारण है
त्रक राजथथानी और त्रहंदुई, त्रहंदी या त्रहंदुस्तानी कहने से त्रसंधु नदी के पार रहने वाले लोगों की भाषा के
एक समुच्चय का बोध होता था, वही बोध औपत्रनवेत्रशक भाषात्रवदों के भाषा-वगीकरणों या नामकरणों से
नहीं होता। बां ग्ला त्रसफत बंगाल की ही नहीं, बल्कम्ऻ बां ग्लादे श की भी प्रमुख भाषा है। इसी तरह राजथथानी
की कुछे क बोत्रलयों को दरद सरीखे अन्य भाषा पररवारों से जोाने की उनकी संकल्पना ने भी खासी
कुक्ात्रत अत्रजतत की।

मध्यकाल में त्रजस त्रहंदी ने पूरे दे श को जोाने का अभूतपूवत काम त्रकया, उसी त्रहंदी ने
आधु त्रनककाल के सन् 1857 और सन् 1947 के स्वाधीनता संग्राम और आंदोलनों के दौरान एक बार
त्रफर से दे श को एकता के सूि में त्रपरोने का महत्त्वपूणत काम त्रकया। राष्ट्रत्रपता महात्मा गाँधी त्रजसे
‘त्रहंदुस्तानी’ कहते थे, वह प्रायः बरॅतेरी लोकबोत्रलयों और सहोदर प्रादे त्रशक भाषाओं के खू बसूरत त्रमश्रण

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (22) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

पर आधाररत थी, लेत्रकन त्रब्रतानी ताकतों ने सबसे बाा हमला उसी ‘त्रहंदुस्तानी’ को सबसे पहले तो त्रलत्रप
के आधार पर अलगाकर उसे संस्कृतत्रनष्ठ ‘त्रहंदी’ और अरबी-फारसी त्रमत्रश्रत उदू त के रूप में रे खां त्रकत
कर उसे अपनी बोत्रलयों और सहोदरी प्रादे त्रशक भाषाओं से काटने का काम त्रकया और मौजूदा ल्कथथत्रतयाँ
बताती हैं त्रक वे इसमें पूणततः सफल रहे हैं।

गणेश नारायणदाि दे वी और उनका ‘भारतीय लोक भार्ा िवेक्षण’:

गणेश नारायणदास दे वी भाषा अनु संधान एवं प्रकाशन केंद्र (बाोदरा) व आत्रदवासी अकादमी
(तेजगि) के संथथापक त्रनदे शक हैं। महाराज सयाजीराव त्रवश्वत्रवद्यालय (बाोदरा) में अंग्रेजी के आचायत
रहे हैं। अंग्रेजी भाषा में रचनात्मक लेखन के त्रलए वे गररमामयी सात्रहत्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त कर
चुके हैं। सन् 1997-98 में गुजरात के आत्रदवात्रसयों और उनकी भाषाओं को जानने -समझने के रेम में
शुरू रॅई उनकी यािा कब अल्कखल भारतीय हो गयी, पता ही न चला। पत्रत-पत्नी के संग-साथ से भारतीय
भाषाओं की मौजूदा ल्कथथत्रत-अवल्कथथत्रत को जानने -समझने के त्रलए शुरू रॅई इस भारतीय-भाषा-यािा में
कई नये हमराही भी आ जुाे और पररणामतः ‘भारतीय लोक भाषा सवेक्षण’ सामने आया। अब तक के
दू सरे भाषा-सवेक्षण से यह इस मायने में अलग है त्रक इसे भारत सरकार या उसकी त्रकसी राज्य सरकार
ने नहीं बल्कम्ऻ गणेश नारायणदास दे वी के प्रभावशाली नेतृत्व में इसी दे श के लगभग 3500 भाषा प्रेत्रमयों
ने त्रमलकर संपन्न त्रकया और साथ त्रमलकर दे शभर की 780 भाषाओं के सवेक्षण में सफलता पाई।
‘भारतीय लोक भाषा सवेक्षण’ की सफलता के बाद गणेश नारायणदास दे वी ‘वैत्रश्वक भाषा सवेक्षण’ के
तहत दु त्रनयाभर में बोले जाने वाली 6000 भाषाओं के सवेक्षण की योजना के त्ररेयान्रयन में जुटे रॅए हैं,
त्रजनमें से 4000 भाषाएँ त्रवलुल्कप्त की ओर अग्रसर है। संभव है त्रक इसी दशक में हमें उसके भी नतीजे
दे खने को त्रमल जाएँ ।

बहरहाल, सन् 1917 में अंग्रेजी के प्रत्रसद्ध प्रकाशन संथथान ‘ओररएं ट ब्लैकस्वान’ द्वारा
प्रकात्रशत ‘पीपल्स सलंग्विग्विक िवे ऑफ इग्विया’ का लोकापतण कत्रपला वात्स्यायन और मनमोहन
त्रसंह ने त्रकया था। लोकापतण के दौरान जब इसने अपना एक महत्त्वपूणत त्रनष्कषत —‚भारत की 780
भाषाओं में से 400 भाषाओं पर त्रवलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है ‛—दे श के साथ साझा त्रकया तो लोग
सकते में आ गए त्रक ऐसा कैसे हो सकता है ? यह जानते रॅए भी त्रक भाषाओं की मृत्यु त्रसफत भारत में ही
नहीं, बल्कम्ऻ दु त्रनयाभर में धाल्रे से जारी है। अंग्रेजी और आठवीं अनु सूची में शात्रमल मुट्ठीभर भाषाओं
(22) की दु त्रनया को ही भाषायी दु त्रनया समझने वालों के त्रलए यह त्रकसी अजूबे से कम न था। शोध बताते
हैं त्रक दु त्रनया की लगभग 6,000 भाषाओं में से लगभग 4,000 भाषाएँ जीवन और मृत्यु के संकट से जूझ
रही हैं और इनमें से 400 भारतीय भाषाएँ है। दु त्रनया की प्रत्ये क 10 भाषाओं में से लगभग 7 भाषाएँ
अल्कस्तत्व के संकट से जूझ रही हैं। ये त्रनष्कषत न केवल डराने वाले हैं , बल्कम्ऻ मनुष्य और मनु ष्यता के रूप
में हमारे अब तक के हात्रसल को सहजने की हमारी कात्रबत्रलयत को प्रश्नां त्रकत करते हैं।

भारतीय लोक भाषा सवेक्षण का तात्कात्रलक प्रभाव यह रहा त्रक इसके लोकापतण के बाद
सरकार ने भारतीय भाषाओं के संबंध में उदारता का पररचय दे ते रॅए 10,000 से कम लोगों द्वारा बोली
जाने वाली भाषाओं को ILLL के अध्ययन में शात्रमल कर उनके संरक्षण की बात की हैं। भारत के

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (23) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

लोकतंि की असली जीत तो इन भाषाओं के अल्कस्तत्व और अल्कस्भता में त्रनत्रहत है। ‘भारतीय लोक भाषा
सवेक्षण’ के आँ काे बताते हैं त्रक—

1. इसमें भारत के 3500 भाषाप्रेत्रमयों के अथक पररश्रम के बूते दे श की 780 भाषाओं का सवेक्षण
संपन्न रॅआ।
2. सन् 2050 तक त्रवश्वभर की 4000 भाषाएँ त्रवलुप्त हो सकती हैं , त्रजनमें 400 अथातत् 10%
भारतीय भाषाएँ होंगी।
3. तत्रमल, तेलुगू, मलयालम, कन्ना, मराठी, गुजराती, त्रहंदी, पंजाबी और बांग्ला सरीखी सभी बाी
भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी से कोई खतरा नहीं है क्ोंत्रक 1000 साल से अत्रधक पुरानी ये
भाषाएं , दु त्रनया की उन 30 भाषाओं में शात्रमल हैं, त्रजन्ें बोलने वालों की संख्या लगभग दो
करोा है और त्रशक्षा, संगीत, त्रफल्म और मीत्रडया जगत में इनकी गहरी पैठ है।
4. त्रवलुल्कप्त का सवात त्रधक खतरा भारत के तटीय क्षेिों में बोली जाने वाली भाषाओं पर मंडरा रहा है ,
क्ोंत्रक इन इलाकों के मूल त्रनवात्रसयों की पारं पररक आजीत्रवका (मछलीपालन) खतरे में आ
गयी है (मछलीपालन अब उनके हाथ से त्रछटककर औद्योत्रगक घरानों के हाथों में आ गया है)
और आजीत्रवका के चलते बनने वाले सामात्रजक संबंधों में बेतहाशा कमी आई है और नतीजतन
अपना थथान छोा अन्यि प्रवासन से उनका अपनी भाषाओं से संबंध खत्म हो रहा है।
5. प्रौद्योत्रगकी से सीधे जुााव और अपनी वात्रचक त्रवरासत को त्रलप्यंतररत कर उसे सहेजने की
उनकी कोत्रशशों तथा रचनात्मक सात्रहत्य-लेखन के चलते कई आत्रदवासी भाषाओं में अभूतपूवत
त्रवकास दे खने को त्रमला है।
6. सवेक्षण बताता है त्रक दे श के कुछे क इलाकों में अभी भी पुततगाली, जापानी और कारे न सरीखी
त्रवदे शी भाषाएँ प्रचलन में हैं। साथ ही साथ लगभग 125 त्रवदे शी भाषाओं में भारतीयों की
मातृभाषा सरीखी त्रनपुणता आश्चयत में डालने वाली है।
7. 780 भाषाओं और 68 त्रलत्रपयों वाले दे श की संसद में भारतीय भाषाओं का प्रत्रतत्रनत्रधत्व केवल
4% है और यहाँ केवल 35 भाषाओं में अखबारों का प्रकाशन और 120 भाषाओं में
आकाशवाणी कायतरेमों का प्रसारण होता है।
8. अरूणाचल को सवात त्रधक मातृभाषाओं वाला राज्य और भोजपुरी को दे श की तेजी से त्रवकत्रसत
होने वाली भाषा बताया गया है।

गणेश नारायणदास दे वी के ने तृत्त्व में संपन्न रॅए ‘भारतीय लोक भाषा सवेक्षण’ को मानव इत्रतहास का
सबसे बाा भाषायी सवेक्षण माना जाता है। इससे पहले जॉजत अब्राहम त्रग्रयसतन के नेतृत्त्व में संपन्न रॅआ
‘भारत का भाषा सवेक्षण’ भी अपने समय के मानव इत्रतहास का सबसे बाा भाषायी सवेक्षण था। यह सच
है त्रक भारत की जनसंख्या का आकार गंभीरतापूवतक त्रकए गए त्रकसी भी बाे काम को मानव इत्रतहास
का दु लतभ क्षण बना दे ता है, लेत्रकन ऐसा कहकर हम दोनों भाषात्रवदों के दे य को कम नहीं कर सकते। दो
अलग-अलग शताल्कब्यों में संपन्न रॅए इन दोनों भाषायी सवेक्षणों का ने तृत्व अंग्रेजी भाषात्रवदों ने त्रकया है
और दोनों भाषात्रवद् इस बात को लेकर सहमत हैं त्रक प्रायः अंग्रेजी से भारतीय भाषाओं को कोई खतरा
नहीं है। यह तथ्य डराने वाला है त्रक सरकारी स्तर पर होने वाले कामों के साथ-साथ अब गैर-सरकारी या
वैयल्किक स्तर पर होने वाला कोई भी अल्कखल भारतीय काम अंग्रेजी में ही संपन्न हो रहा है। कम-से-कम

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (24) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

यह सवेक्षण तो यही बताता है त्रक त्रहंदी ने अब संपकत भाषा की अपनी ल्कथथत्रत को, त्रवत्रभन्न भाषाओं के बीच
सां स्कृत्रतक पुल होने की पदवी को खो त्रदया है और उसका थथान अब अंग्रेजी ने ले त्रलया है।

जॉजत त्रग्रयसतन का समग्र अध्ययन अंग्रेजी भाषा में संपन्न रॅआ और उसने अंग्रेजी भाषा को
समृद्ध त्रकया। बां ग्ला, उत्राया, असत्रमया, त्रहंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में गजब की पका होने के
बावजूद उन्ोंने अपने अध्ययन का भारतीय भाषाओं में प्रकाशन का कोई प्रयास नहीं त्रकया, त्रजसका
सबसे बाा और एकमाि कारण त्रब्रतानी औपत्रनवेशक त्रहतों का संरक्षण था। इस मायने में गणेश
नारायणदास दे वी का भाषा सवेक्षण अलग रहा है त्रक उन्ोंने शुरू से ही इसके अंग्रेजी के साथ-साथ
भारतीय भाषाओं में प्रकाशन को सुत्रनत्रश्चत त्रकया। भारतीय भाषाओं से उनका जुााव कात्रबलेतारीफ है,
लेत्रकन अंग्रेजी से उनका अत्रतररि मोह भी बहसतलब है। आप सोचकर दे खें त्रक यत्रद यही अध्ययन
त्रकसी भी भारतीय भाषा में संपन्न होता। मराठी उनकी मातृभाषा है और गुजराती उनकी महत्त्वपूणत
कायतभाषा है। इन दोनों में से त्रकसी भी एक भारतीय भारतीय भाषा में संपन्न होता तो उस भारतीय भाषा
के कद में तो बिोतरी होती ही, अन्य भारतीय भाषाओं में संपन्न होने वाला उसका अनू त्रदत रूप भी
अत्रधक भारतीय और अत्रधक जनोपयोगी होता, लेत्रकन रॅआ इसके उलट, इसने भी जॉजत त्रग्रयसतन की ही
तरह अंग्रेजी को समृद्ध त्रकया। पूरे सवेक्षण का मूल खाका अंग्रेजी में तैयार रॅआ और त्रफर इसे अन्य
भारतीय भाषाओं में उल्था त्रकया। ऐसे में अंग्रेजी और अंग्रेत्रजयत से बच पाना इसके त्रलए संभव नहीं था।
ध्यान दे ने वाली बात यह भी है त्रक संयुि राष्ट्र के हवाले से आने वाली सवेक्षण रपटों और गणेश
नारायणदास दे वी के त्रनष्कषों में अंतर बरॅत अत्रधक नहीं है। एक तथ्य तो स्पष्ट् है त्रक एक साथ लोकल
और ग्लोबल होने की हमारी चाह हमें हमारी अपनी भाषाओं में नवाचारी ज्ञान के सृजन के संदभत
हतोत्सात्रहत ही अत्रधक करती है। यह एक सामात्रजक तथ्य है त्रक हमारी त्रशक्षा पद्धत्रत की अंग्रेजीपरस्ती ने
भारतीय भाषाओं में अध्ययन-अध्यापन और त्रचन्तन-मनन को हात्रशये पर धकेल त्रदया है। रोजगारों के
अवसरों को अंग्रेजी और अंग्रेत्रजयत से जोा दे ने का खात्रमयाजा तो भारतीय भाषाएँ उठाती ही हैं, इसके
चलते वे हमारे पुरखों के भारतीयता के स्वप्न को भी धू त्रमल करती हैं और इस संदभत में यह सवेक्षण एक
अलग ही राह पर चल पाा है।

कुलत्रमलाकर भाषाई सवेक्षण हमारा ध्यान हमारे अपने भाषाई लोकतंि की ओर आकृष्ट् करते
हैं और भाषाई लोकतंि के अभाव में त्रकसी भी तरह के लोकतंि की उम्मीद बेमानी है। सच्चा लोकतंि
बेहतरी की उम्मीद के त्रजंदा रहने और उसे त्रजंदा रखने का नाम है। इस संदभत में गणेश नारायणदास
दे वी का यह कथन त्रक ‚भाषा को जीत्रवत रखने के त्रलए एक व्यल्कि पयातप्त है‛ बेहद साथतक है। अपनी
भाषाओं और अपनी त्रलत्रपयों को त्रजंदा रखने की कोत्रशशें, हमारे भीतर के आल्कखरी मनु ष्य को, हमारी
मनु ष्यता को बचाने का नाम है और भाषाई सवेक्षणों का श्रेय इस संदभत में बेहद महत्त्वपूणत हैं। 780
भाषाओं वाले मौजूदा भारत में 22 भाषाओं वाली आठवीं सूची और उनमें शात्रमल होने की शते त्रकसी
मखौल से कम नहीं है। संत्रवधान की आठवीं अनु सूत्रचयों में शात्रमल होने भर से कोई भाषा जीत्रवत रह
जाएगी, ऐसा सोचने वाले अक्सर भाषाओं को सरकारों के हवाले कर दे ते हैं। वे यह भूल जाते हैं त्रक
भाषाएँ आपसी संवाद से त्रजंदा रहती हैं और त्रलत्रपयों के बूते हम अपनी त्रवरासत आने वाली पीिी को सौंप
सकते हैं और भात्रषक त्रवकास का यह रेम अनवरत जारी रहता है।

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (25) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक
ISSN 2455-5169
पररवततन
त्रै मासिक ई-पसत्रका

भाषाओं के संरक्षण के संबंध में त्रलत्रप का संरक्षण बेहद जरूरी है। त्रलत्रप के संरक्षण के त्रलए
उसमें त्रनरं तर अभ्यास व लेखन जरूरी है। यत्रद त्रकसी भाषा की अपनी कोई त्रलत्रप नहीं तो वह अपनी
त्रनकटवती त्रलत्रप को अपनाकर अपनी त्रवरासत को सहेज सकती है। मौजूदा प्रौद्योत्रगकी इसमें हमारी
खासी मदद करती है। आधु त्रनक दौर की भाषाओं के त्रवकास के मायने बदल गए हैं और 2010 के भाषा-
सवेक्षण में गहराई से त्रचत्रित त्रकया गया हैं। नयी पीिी सोशल मीत्रडया के साथ रम गई है और तुरंतापन
की ओट में सोशल मीत्रडया ने त्रजस ‘एरेोत्रनम’ को जन्म त्रदया है, उसमें परं परागत शब्ों के स्वरूप को
ही बदलकर रख त्रदया है। नयी पीिी त्रकसी एक भाषा में बात नहीं करती, वह कई-कई भाषाओं में एक
साथ संवाद करती है। कई बार तो लगता है त्रक हमारी नयी पीिी एक भी भाषा ढं ग से नहीं जानती।
बावजूद इसके माइरेोसॉफ्ट और गूगल द्वारा यूनीकोड संस्करणों पर अनवरत त्रकए जा रहे नवाचारों ने
इं टरनेट पर भारतीय भाषाओं की उपल्कथथत्रत को खासा आसान बना त्रदया है। टे क्स्ट-टू -स्पीच ने वात्रचक
को भी त्रलत्रपबद्ध कर त्रदया है। त्रमश्र भाषाओं के इस दौर ने न केवल दु त्रनयाभर की भाषाओं को प्रभात्रवत
त्रकया है, बल्कम्ऻ भारतीय भाषाएँ भी इनके प्रभाव से अछूती नहीं रही है। त्रहंदी और अंग्रेजी के त्रमश्रण से
त्रहंल्कग्लश, पंजाबी और अंग्रेजी के त्रमश्रण से त्रपंल्कग्लश और तत्रमल और अंग्रेजी के त्रमश्रण से त्रटंल्कग्लश सरीखे
नये भाषायी रूप सामने आये है। इसने नयी संवात्रदकी को जन्म त्रदया है। जैम्स कैमरुन की ‘अवतार’ के
बाद से आत्रटतत्रफत्रशयल इं टेलीजेंस के रूप में भाषा का गठन, हमारे समक्ष भाषा की एक नयी ही दु त्रनया
और नयी ही चुनौती सामने ला रही है। ऐसे में आगे आने वाले भाषा-सवेक्षणों की चुनौत्रतयाँ बि जाती है
क्ोंत्रक आज का मनुष्य एक साथ कई-कई भाषाएँ और कई-कई भाषा रूप बोल रहा है और ऐसे भाषा
रूप जब प्रौद्योत्रगकी का साथ पाते हैं तो ल्कथथत्रतयाँ बाी भयावह हो उठती है। त्रफर मनु ष्य और मशीन के
गठजोा से त्रनत्रमतत नये भाषारूपों की त्रशनाख्तगी अपने आप में एक नयी शोध प्रत्रवत्रध की माँ ग करती है।

*****

वर्त 5 , अंक 19, जुलाई - सितम्बर 2020 (26) ‘मीणी भार्ा और िासित्य’ सवशेर्ांक

You might also like