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न्याय वैशेषिक दर्शन का परिचय
न्याय वैशेषिक दर्शन का परिचय
अ.वैशेिषक
आ. ाय।
3. ाय, वैशेिषक की दाशिनक पर रा अित ाचीन पम ीकार ली जाती है । ऐसा माना जाता
है िक तक तथा शा ाथ का युग ाय-वै शेिषक दशन की पर रा से ही माना जाता है । न केवल
आषदशनॊ ं अिपतु जै न और बौ दशनॊ ं म भी तक ाय के भाव से िवकिसत ए ह। आगे चलकर
अ ै त वेदा तथा उसके उ रवत आवायॊ ने भी ायदशन का ख न उसी तक के आधार पर िकया।
आ यः सवधमाणां िव ो े शॆ कीितता।
(I have made a departure from the time honoured classification of Indian Logic into
ancient and modern and have added an intermediate stage, thus dividing it into three
periods- Vidyabhushan, HIL, Intro.,p. XII) -
१. ाचीन काल,
२. म काल,
३.अवाचीन काल।
ाचीन काल- उनका िवचार है िक ाचीन काल म िह दू ाय का समावे श होता है ; अतः ाचीन कहने
पर भी इसम वे चौदहवी ं-प हवी ं शता ी के कारों को भी ले ले ते ह।
ास काल- तृतीय काल म वरदराज, व भाचाय एवं ीधर के अित र गंगेशोपा ाय तथा उनके
अनुयायी एवं साथ ही तं करण- ों के रचियता आते ह।
(ख) बौ ान ( िणक िव ान) को ही वा िवक मानता है तथा ाता एवं े य दोनों को ही उससे पृथक्
नही ं मानता।
(ग) सां भी ाता और ान को पृथक्-पृ थक् नही ं मानता। य िप ेय ( कृित) की पृ थक् स ा वह
ीकार करता है , िक ु उसे ाता की अपे ा है , ऐसी भी उसकी मा ता है ।
इस कार, केवल ाय वैशेिषक दशन ही व ु तः व ु वादी कहा जा सकता है , ोंिक वह अनु भव ारा
ुत जगत् के त ों की व ु गत स ा ीकार करता है ।
ाय दशन का इितहास
ाय श की अथ तथा योग
6. नैयाियक का अथ है - ायशा को जानने वाले। उसके तनय अथात् तनय के समान िश गण,
उनके ारा।
ाय दशन की पृ भूिम
मनन के िबना आ ा के िवषय म अस ावना की िनवृ ि नही हो पाती है । “नै षा तकण मितरापनेया”
इ ािद कथन का ता य से कुतक से है , न िक सतक से। अतः आ ान के िलये तक परमाव क है ।
िव ानॊ ं के अनु सार, रामायण म की गयी आ ीि की िव ा की िन ा को भी आ ीि ाभास से ही
स समझना चािहये। रामायण की वह पं इस कार है -
ाय दशन म ाय/आ ीि की श का अथ
1. ायिव ा के िलये भी ाचीनकाल से ायश का योग होता रहा है । ायभा कार वा ायन
ने बतलाया है िक ायिव ा िवशेष प से अनु मान का िववे चन करती है । “ और आगम के आि त
अनुमान होता है , वही अ ी ा कहलाती है , ोंिक वह और आगम के ारा ईि त का अ ी ण
होता है । उस अ ी ा म जो वृि होती है , वह अ ीि की ाय िव ा या ाय शा है -
ाचीन ाय तथा न ाय
अ. पर रागत ाय
आ. न ाय।
इन दोनों म भेद का एक मुख आधार इनकी ानमीमां सा भी है । इसी को दू सरे कार से भी कह सकते
ह-
अ. मेय धान ाचीन ाय-गौतम से ग े शॊप ाय के पू व तक के ायिवद् िव ानॊ ं की कृितयां ।
आ. माण धान न ाय- ग े शॊपा ाय की त िच ामिण तथा उसपर आधा रत परवत
िव ानों की सम कृितयां ।
मेय धान ाचीन ाय- ायदशन म मेय के ितपादन की धानता है , माण के ितपादन की
धानता नही है , ोंिक ५ अ ायों के ायदशन के थोडॆ ही सू ७० म ही माण के ितपादन ह।
जबिक अ सू ॊ ं म आ ा आिद १२ मेय तथा उनके िकसी भेद म अ भूत होने वाले पदाथ का
ितपादन है । ायसू से गंगेशॊपा ाय के पूव तक के ायः सभी या तो ायसू के म से रिचत
है , या िकसी मेयिवशेष का धान प से ितपादन है । अतः वे सभी मेय धान है और मेय धान
होने से ाचीन ाय है ।
ाचीन ाय-न ाय म भे द
1. इनदोनो थानॊ ं की िभ ता का आधार है , ितपा िवषय का गौण धानभाव तथा भाषा और
शैली की िभ ता। िक ु दोनो थानॊ ं का मूल ोत एक ही है और वह है - ायदशन/ ायसू ।
2. इनम जो भेद है , वह मु तया उनकी भाषा और शै ली पर आधा रत है । उनदोनो के ॊ ं की
भाषा और शैली म इतना पया और अ र है ।
3. ाचीन ाय के ॊ ं म जहां कारता, िवशे ता, संसगता, ितयोिगता, अनु योिगता,
अव े दकता, अव े ता, िन पकता, िन ता आिद श किठनाई से ा होता है यही न ाय
के ों म इनकी भरमार रहती है ।दोनो की शै ली म भी महान् भेद है ।
4. ाचीन ाय की भाषा सरल और िनराड र होने पर भी योिगक शै ली के कारण संि एवं
सां केितक होती है िक उसका ितपा िवषय अनेक शी ता से ु ट नही हो पाता है । ब त से अनु मान
ऐसे यु होते ह शै ली की दु ः शीलता के कारण ही िजसका अनु मान नही हो पाता है । प , हे तु
और सा की िवशद ितपि नही हो पाती है । िक ु न ाय की भाषा किठन होने पर भी शै ली की
शालीनता के कारण अथतः अ होती है ।
ाचीन ाय के आचाय
वा ायन का ायभा -
1. ाय सू ों पर ाचीनतम भा के रचियता वा ायन को पि ल ामी के नाम से भी जाना जाता
है ।
2. वा ायन श पाद से पू ववत ह या परवत -इस स म िव ानों म मतै नही ं है , िक ु
अिधकां श िव ान् उ पूववत ही मानते ह, इसिलए यहाँ उ श पाद से पहले रखा गया है । केवल
बोडास ने श पाद को वा ायन से पूववत माना है । श पाद से उनके पौवापय की भां ित ही उनके
काल के िवषय म भी िविभ िव ानों के िभ -िभ मत ह।
3. ाय भा म स ूण ायसू ों की न केवल शा क अिपतु गहन. भावपूण ा ा की गई है .
एवं सभी सम ाओं पर िव ारपूवक िवचार िकया गया है । अतः यह भा ाय-दशन के अ यन म
तो अ सहायक है ।
4. इसम वैशेिषक पदाथ का भी िनदश आ है , एक दो थलों पर कणाद के सू भी उद्धृत िकए
गए ह तथा वैशेिषक को समानतं दशन घोिषत िकया गया है । इससे िस हो जाता है िक गौतम ारा
' ितत िस ा ' नाम से कहा गया दशन वै शेिषक ही है , वह िन य ही ाय-दशन से पू ववत भी है
तथा आर से ही ये दोनों दशन-स दाय एक दू सरे के पू रक रहे ह।
ायवाितक उ ोतकर
ायसूचीिनब वाच ित िम
ासू ो ार वाच ित िम
ायम री जय भ
ायसार भासव
ायभूषण
ायलीलावती ीव भाचाय
मानमनोहर वािदवागी र
तािकक र ा वरदराज
भाषाप र े द िव नाथ
तककौमुदी लौगाि भा र
तकसं ह अ भ
त िच ामिण गंगेशोपा ाय
तकभाषा केशविम
वैशेिषक दशन (RADHAKRISHNAN-INDIAN PHILOSOPHY)
सव थम इस दशन को वै शेिषक नाम िकसने िदया, इस िवषय म कोई माण नही है । कणाद ने
केवल एक बार यह श अपने सू ॊ ं म योग िकया है -
“संयु समवायद ेवशेिषकम्”- वैशेिषकसू , १०.२७,
यहां इसका अथ ’पृथक’ करने वाला या ’िवशे षता’ है । पािणनी के अनुसार यह नाम िवशे ष श से बना
है तथा इसका अथ िवशेष परक है - अिधकृ ’कृते े’। अ ा ायी ४.३.११६
कोश ों के अनु सार ’िवशेष’ पद के अनेक अथ हो सकते ह- भे द, कार, वै िश य एवम् उ ष आिद।
वैशेिषक नाम के स भ म िवपि तों म कई तरह के िच न उपल होते ह।
यथा-यिददं वैशेिषकं नाम शा मार म्, तत् खलु त ा रात् िवशे ष ाथ ािभधानात्
(च का भा ) ।
वैशेिषक दशन की इस िविश ता पर िविभ िच कॊ ं के िभ -िभ िच न ह-
क. कुछ की ि म सां और वे दा से िविश होने के कारण इसका नाम 'वै शेिषक' पड़ा;
ोंिक पदाथ का िजतना सू िव े षण इसम उपल उतना अिधक अ कही ं नही ं है ।
वेदा केवल एक ही की स ा म सम पदाथ का सि वेश करता है ।
ख. सां दशन कृित और पु ष—इन दो त ों म सभी त ों का समावेश करता है ; िक ु
वैशेिषक दशन इनसे िभ एक िविश स ा को ीकार करता है । इसका ि कोण िव ु ल ही
सं ेषणा क है । अपनी इस िवशेषता के कारण ही इसे वै शेिषक दशन कहा जाता है :
ि े च पाकजो ौ िवभागे च िवभागजे ।
य न िलता बु ं वै वैशेिषकं िवदु ः ।।
अथात् वा िवक िभ ताओं को ि म रखते ए सू िव े षण म िजसकी बु िलत न हो,
वही वैशेिषक दशन है ।
ग. षड् दशन की वृि म िलखा गया है िक नैयाियकों की अपे ा , गुण आिद िवशे ष त ों
की ा ा होने के कारण इसे वैशेिषक कहते ह—नै याियके ो गुणािदसाम ा िविश िमित
वैशेिषकम् (षड् दशनसमु यवृि )।
महिष गौतम- ितपािदत ायदशन के सोलह पदाथ म धम और धम का िववे चन न होने के कारण
उनका पर र साध और वैध िदखाते ए सु व थत प से -गुण आिद स पदाथ का
िववेचन इसमे िमलता है । इस िवशेष उ े को आगे बढ़ाने के िलए ही इनका नाम वैशेिषक पड़ा
(सवदशनसं ह)।
3. सवमा मत यह है िक अ दशनों की अपे ा िवल ण 'िवशेष' नामक पदाथ की ा ा करने
के कारण इसका नाम वैशेिषक पड़ा-
िवशेषं पदाथमिधकृ कृतं शा म् वैशेिषकम् ( ायकोशः )।
वैशेिषक-सू -
१. कृषक जब अपनी खेत की खडी फसल काटते थे, तब िज अ /कण खॆत म पडॆ रह जाते थे ,
उसकॊ बीनकर यह रषी इक ा कर लेते थे और उसी से अपना जीवन िनवाह करते थे। अतः उनका
नाम कणाद पडा।
कणाद के अित र इनके अ दो नामॊ ं का उ ेख िमलता है - का प और उलूक। पहले नाम का
उ ेख श पादभा के बु गुण के सं ग के अ गत अनु मान के करण म-
“िव ािस स मिल ं का पोऽ वीत” ा होता है । तथा िकरणावली म-
“क पा जः कणादीऽ वीत” म िमलता है ।
दू सरे नाम के आधार पर इस शा को औलू दशन नाम से व त होता है । माधव के सवदशनसं ह
म भी वैशेिषक दशन को औलू दशन कहा गया है । ोमिशव ने श पादभा की टीका ोमवती
म सू कार के िलये उलूक नाम का िनदश है । य िप ऐसा तीत होता है िक यह नाम दे ते ए सू कार
का उपाल के साथ उपहास िकया गया है ।
इसके साथ ही इनका पहला नाम “का प” नाम गो नाम है अथवा िकरणावली के अनु सार कणाद के
िपता का नाम क प रहा होगा। िक ु उलूक नाम का आधार के िवषय म कहना मु ल है । डा. उई
के अनुसार उलूक नाम इसिलये पडा ोंिक सू कार िदन म रचना का काय करते थे और राि म
उलूक के समान जीिवकासाधन जुटाने का य करते थे। िक ु यह तक उिचत नही जान पडता है ,
ोिक राि मानव ारा चोरी, त री इ ािद काय ही िकये जाते ह। इसके नाम के पीछे एक कारण
यह भी हो सकता है िक बा काल म स वतः वह जडबु रह हों, उसी के आधार पर इनका यह नाम
पड गया हो। कथा है िक शं कर भगवान ने घॊर तप ा से स होकर कणाद को इस शा का रह
कट िकया था। उलूक नाम के एक रिष का महाभारत, शा पव ४७.११ मे उ े ख िमलता है । भी
के मृ ु के अवसर पर इनका आगमन आ था। अनु शासन पव ४.५१ म िव ािम के वं शजॊ ं म उलूक
के नाम का उ ेख है । उ ोग पव १८६.२६ के अनु सार व दे श म उलू क ऋिष का आ म था, जहां
कािशराज क ा अ ा ने भी ारा अप त एवम् उपे ि त िकये जाने पर कुछ काल के िलये आ य
ा िकया था। उ ोगपव के अनुसार, शकुिन के पु का नाम भी उलूक था। एकबार दु य धन का दू त
बनकर यु ार होने से पहले पा व िशिवर म वह गया था। इस कार महाभारत के संगॊ ं म उलूक
रिष का वणन तो है , िक ु वैशेिषकरचना स ी कोई सं केत उपल नही है ।
वैशेिषकसू पर ा ा -
अ. आजकल सू ॊ ं के आधार पर वै सेिशक के पठन-पाठन ममु प से शं करिम के उप ार
नामक ा ा का अिधक उपयोग होता है । य िप सू और उप ार म काल म अ राल
ब त ल ा है ।
आ. वैशेिषक पर अ ाचीन श दे व अथवा श पाद की है , जो कार के नाम पर
श पादभा के नाम से िस है । इसका एक अ नाम पदाथधमसं ह भी है । कार ने
वैशेिषक सु से इतर इस का िवषयव ु इस कार से रखा िक वै शेिषक के अ यन का
म ही बदल गया। एवम् सू म से पठनपाठन धीरे धीरे िशिथल होता गया। इसी रीित के
आधार पर अनेक् छोटे -छोटे ि या ॊ ं की रचना होती रही। पदाथधमसं ह पर भी अने क
ा ा िलखॆ गये, जो इस कार है -
१ ोमवती ा ा- ोमिशवाचाय ( अ म शती िव म)
१. िकरणावली- उदयनाचाय- १०४१ िव. सं वत्
२. ाय ली- ीधराआय-१०४८ िव. सं वत्
कितपय संभािवत एवम् उपल -अनुपल ा ा-
३. का नाम अ ात- शािलकनाथ
४. पदाथ वेशिनणय-अिभनवगु
५. कणादरह - शं करिम
६. भा िनकष-म नाथ
७. सेतु-प मनाथ िम
८. सू -जगदीश तकालंकार
९. ायलीलावती- ीव / ीव भ
अ एवं आचाय िन िल खत प से ह:
दशपदाथ
ोमवती ोमिशवा
चाय
ायक ली ीधराचाय
स पदाथ िशवािद
माणमंजरी
िकरणावली
ल णावली उदयनाचा
य
पदाथर मंजूषा कृ िम
पदाथ िद च ुः उमापित
उपा ाय
जगदीशी जगदीश
भ ाचाय
सू
तकामृत
शंकरिम
वैशेिषक सू
उप ारवृि
शंकरिम
ायलीलावतीक ाभरण
शंकरिम
त िच ामिण 'मूयख'
शंकरिम
आ त िववेक-
'क लता' "
शंकरिम
कणादरह
वेणीद
पदाथम नम्
1. वैशेिषक म पदाथ सात ह- , गुण, कम, सामा , िवशेष, समवाय, अभाव ह। जबिक
ाय म पदाथ सोलह ह- माण, मेय, सं शय, योजन, ा , िस ा , अवयव, तक, िनणय,
वाद, ज , िवत ा, हे ाभास, छल, जाित, िन ह थान।
2. वैशेिषक िवशेष को पदाथ के प म ीकार करते ह। िक ु ाय िवशे ष को पदाथ नही मानते
ह।
3. वैशेिषक के अनुसार समवाय is अती य ह अतः मा अनु मेय ह.। ाय के अनुसार समवाय
का इ याथसि ष से होता है ।
4. वैशेिषक- पीलुपाक (पीलवः परमाणव एव त ाप े।) को ीकार करते ह। ाय
ाय-वैशेिशक दशन के मु ख िस ा -
आिद।