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Panchayatiraj
Panchayatiraj
सत्र – 2020-21
शोधकर्ता
विभागाध्यक्ष निर्देशक
दिनांक – ________
शोधार्थी
मूलचंद
प्रमाण-पत्र
2
प्रमाणित किया जाता है कि मल
ू चंद द्वारा मेरे
मार्गदर्शन में एम.ए. अंतिम वर्ष राजनीति विज्ञान के नियमित छात्र के
रूप में परीक्षा-2020-21 शासकीय घनश्याम सिंह गुप्त स्नातकोत्तर
महाविद्यालय बालोद में सम्मिलित होगा।
प्रस्तत
ु लघु शोध प्रबंध मूलचंद द्वारा संकलित सामग्री के आधार पर
विश्लेषण है ।
आभार-प्रदर्शन
3
प्रस्तत
ु लघु शोध अध्ययन ‘ग्रामीण छत्तीसगढ़ के विशेष
संदर्भ में स्थानीय स्वशासन’ के अध्ययन में डॉ. दीपाली राव विभागाध्यक्ष
राजनीति विज्ञान, का आभारी हूं।
मैं प्रो. खेमप्रभा घृतलहरें एवं प्रो. खिलावन साहू का आभारी हूं जिनके के
मार्गदर्शन में यह शोध सफलतापूर्वक हुआ।
मैं हाई टे क कंप्यूटर बालोद का आभारी हूं जिन्होंने मुझे मेरे शोध कार्य के
मुद्रण में विशेष सहयोग किया।
मैं अपने सभी मित्रों, अन्य सहयोगियों एवं ग्राम पंचायत नेवारी कला का
भी आभारी हूं जिन्होंने समय-समय पर विषय से संबंधित विशेष सुझाव
एवं मार्गदर्शन दिया।
शोधार्थी
मूलचंद
(राजनीति विज्ञान)
अनुक्रमणिका
4
अध्याय विषयवस्तु
अध्याय - 1 प्रस्तावना
अध्याय - 9 निष्कर्ष
अध्याय - 1
प्रस्तावना
5
लोकतंत्र वास्तविक अर्थों में तभी सफल होता है जब
राजनीतिक शक्ति आम आदमी के हाथों में पहुंचती है । इसका आदर्श
रूप यह होता है कि आम आदमी के पास स्थानीय मुद्दों जैसे – पानी,
सड़क, सफाई आदि के प्रशासन में निर्णायक भूमिका हो तथा व्यापक
स्तर के मद्द
ु ों के लिए उसे अपने प्रतिनिधि चन
ु ने, संवाद व सवाल-जवाब
करने का हक हो। आजकल इस आदर्श को सहभागिता-मूलक लोकतंत्र
(Participatory Democracy) कहा जाता है ।
आजकल दनि
ु या भर में सहभागिता -मूलक
लोकतंत्र की बयार चल रही है और वह हर दे श के सत्ताधारियों को
बाध्य कर रही है कि वे शक्ति का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण करें । एक
सामान्य राय यह बनती जा रही है कि स्थानीय महत्व के मद्द
ु ों पर
निर्णय की शक्ति उसी स्तर की लोकतांत्रिक संस्थाओं को सौंपी जानी
चाहिए, जो नीचे के स्तरों पर न किये जा सकते हों। भारत में भी
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन (Local self
government) की धारणा नई नहीं है । ग्रामीण क्षेत्रों में यही धारणा
‘पंचायतीराज’ कहलाती है , जबकि शहरी क्षेत्रों में ‘नगरपालिका’ या ‘नगर-
निगम’।
सदै व यही मल
ू धारणा रही है कि हमारे गांव, जो वर्षों से अपना शासन
स्वयं चलाते रहे है। जिनकी अपनी एक न्याय व्यवस्था रही है , वे ही
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अपने विकास की दिशा तय करें । आज भी हमारे कई गांवों में
परम्परागत रूप में स्थानीय स्वशासन की न्याय व्यवस्था विद्यमान है ।
अध्याय - 2
अध्ययन के उद्देश्य
7
प्रस्तुत शोध के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास करें गे कि किस
प्रकार हमारी संघीय तथा संसदीय शासन व्यवस्था में केंद्र तथा राज्य के
दोनों स्तरों के बाद लोकतंत्र के सबसे लोकप्रिय और विकेन्द्रीकृत स्वरूप
अर्थात पंचायतीराज व्यवस्था स्थापित हुई तथा किस प्रकार इसकी
संरचना तथा कार्यप्रणाली है ।
अध्याय - 3
8 स्थानीय-स्वशासन से अभिप्राय
स्थानीय स्वशासन लोगों की अपनी स्वयं की
शासन व्यवस्था का नाम है अर्थात स्थानीय लोगों द्वारा मिलजुल कर
स्थानीय समस्याओं के निदान एवं विकास हे तु बनाई गई ऐसी व्यवस्था
जो संविधान और राज्य सरकार द्वारा बनाया गया एवं कानन
ू ों के
अनुरूप हो दस
ू रे शब्दों में प्रशासन गांव के समचि
ु त प्रबंधन में समुदाय
की भागीदारी है ।
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सकें। वे स्वयं ही अपने लिये प्राथमिकता के आधार पर योजना बनायें
और स्वयं ही उसका क्रियान्वयन भी करें । प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल,
जंगल और जमीन पर भी उन्हीं का नियन्त्रण हो ताकि उसके संवर्द्धन
और संरक्षण की चिन्ता भी वे स्वयं ही करें ।
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भारत में स्थानीय-स्वशासन शब्द से अभिप्राय
‘पंचायतीराज’ पद्धति से है । यह भारत के सभी राज्यों में जमीनी स्तर
पर लोकतंत्र के निर्माण हे तु राज्य विधान- सभाओं द्वारा स्थापित किया
गया है । इसे ग्रामीण विकास का दायित्व सौंपा गया है ।
अध्याय - 4
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ब्रिटिश काल :- ब्रिटिश काल के शुरुआती दौर में स्थानीय स्वशासन अत्यंत बुरी स्थिति में था।
1972 के रेगुलेटिंग एक्ट के तहत गांव के लिए जो जमीदार नियुक्त किए गए थे वे पंचायतों से स्वतंत्र
थी हर सरकार के प्रति जवाब देते आगे चलकर सिविल तथा अपराधिक न्यायालय के गठन के साथ
पंचायतों की भूमिका और कमजोर होती गई।
1857 की क्रांति के बाद सरकार को समझ में आने लगा कि स्थानीय
स्वशासन की संस्थाओं के बिना इतने बड़े देश का शासन चलाना उनके लिए संभव नहीं है। इसके पश्चात विभिन्न
अधिनियमो के माध्यम से इसमें क्रमिक रूप सुधार होती चली गयी।
1882 में लार्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया
जिसे भारत में स्थानीय-स्वशासन संस्थाओं के इतिहास मैं मैग्नाकार्टा कहा जाता है इस प्रस्ताव के तहत लॉर्ड
रिपन ने नगरीय स्थानीय संस्थाओं के साथ-साथ ग्राम पंचायतों न्याय पंचायतों तथा जिला स्तर पर जिला बोर्ड
के गठन का प्रस्ताव रखा इस प्रकार रिपन ने भारत में आधुनिक पंचायती राज व्यवस्था की नींव रखी इसलिए
लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है।
1919 मैं मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के रूप में भारत सरकार अधिनियम 1919 पारित
हुआ इसके तहत प्रांतों में दोहरे शासन या द्वैध शासन की व्यवस्था के तहत विधायक विषयों को दो भागों में बांटा
गया सुरक्षित तथा हस्तांतरित स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों में रखा गया था अर्थात इसके संबंध में
कानून बनाने की शक्ति प्रांतीय विधायकों को दे दी गई थी। 1919 और 1935 के दौरान लगभग सभी ब्रिटिश
भारतीय प्रांतों ने स्थानीय स्वशासन संबंधी अधिनियम पारित किए सबसे पहले बंगाल में 1919 में अधिनियम
पारित किया फिर 1920 में मद्रास मुंबई संयुक्त प्रांत बिहार मध्य प्रांत ने 1922 में पंजाब ने 1925 में असम
ने 1928 में मैच होने तथा 1935 में जम्मू कश्मीर में ऐसे अधिनियम पारित किया।
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अध्याय - 5
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संविधान सभा ने स्थानीय स्वशासन को राज्य सूची में शामिल
किया इसका अर्थ है- अनुच्छेद 40 में दिए गए निर्देश का पालन करने की नैतिक जिम्मेदारी कें द्र कि नहीं राज्य
को सौंपी गई थी राज्य सूची के प्रविष्टि संख्या 5 स्थानीय स्वशासन का उपबंध करती हैं जो इस प्रकार हैं
स्थानीय शासन अर्थात नगर निगमों सुधारने आस्थाओं जिला बोर्ड या ग्राम प्रशासन के प्रयोजनों के लिए अन्य
स्थानीय प्राधिकारी के गठन एवं शक्तियां।
1. बलवंत राय मेहता समिति :-- यह समिति पंचायती राज कार्यक्रम के इतिहास में विशेष महत्व
रखती हैं। वस्तुतः यह समिति योजना आयोग द्वारा 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में गठित
की गई थी जिनकी रिपोर्ट में कु छ प्रमुख सिफारिशें शामिल :
सामुदायिक विकास कार्यक्रमों में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने का मूल कारण जन
सहभागिता की उपेक्षा है जन सहभागिता सुनिश्चित करने का सबसे ठोस तरीका पंचायती राज
भी हो सकता है।
पंचायतों का त्रिस्तरीय ढांचा बनाना चाहिए :-
1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत का गठन होना चाहिए जिसके सदस्य और अध्यक्ष जनता द्वारा
प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति से निर्वाचित हों।
2. खंड/ब्लॉक के स्तर पर पंचायत समिति का गठन किया जाना चाहिए जो विकास योजनाओं के
क्रियान्वयन की मुख्य अधिकारी बने।
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3. जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया जाना चाहिए जिसकी अध्यक्षता जिलाधीश के
पास हो।
सरकार का काम सिर्फ मार्गदर्शन निरीक्षण तथा उच्च स्तर की योजना बनाएं तक सीमित रहना चाहिए
योजनाओं के क्रियान्वयन व कार्य स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को सौंप दिया जाना चाहिए।
पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ :- 1959 में केंद्र सरकार ने बलवंत राय
मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार कर ली तथा राज्यों को यह व्यवस्था अपनाने
के लिए प्रेरित किया सबसे पहले राजस्थान विधानसभा ने सितंबर उन्नीस सौ 59 में
उपयुक्त अधिनियम पारित किया जिसके आधार पर 2 अक्टू बर 1959 को नागौर
(राजस्थान) में नेहरु जी ने दे श की पहली त्रिस्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया
इसके पश्चात कई अन्य राज्यों ने भी इस व्यवस्था को अपनाया इस प्रकार 1965 तक
नागालैंड सर लक्ष्यदीप जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़कर लगभग पूरे दे श में पंचायती राज
की स्थापना हो चुकी थी। गौरतलब है कि पंचायती राज राज्य सूची का विषय है
इसलिए स्वाभाविक ही है कि इस दौर में विभिन्न राज्यों के पंचायती राज कार्यक्रमों
में अंतर बना रहा उदाहरण के लिए केरल, जम्मू कश्मीर में सिर्फ 1 स्तरीय पंचायतें
गठित की। तमिलनाडु हरियाणा दिल्ली पंजाब उड़ीसा में त्रिस्तरीय पंचायती
राजस्थान आंध्र प्रदे श तथा कुल कुछ अन्य राज्यों ने त्रिस्तरीय पंचायती तो पश्चिम
बंगाल में चार स्तरीय के साथ स्थानीय स्वशासन की उपयोगिता पर भी विचार
किया। आयोग ने सुझाव दिया कि विकास संबंधी कार्य जिलाधीश से लेकर जिला
परिषद को सौंप दिए जाने चाहिए।
2. अशोक मेहता समिति (1977) :-- 1970 में जनता पार्टी के शासन में आते ही स्थानीय
प्रशासन को मजबूत किए जाने की मांग उठने लगी परिणाम स्वरूप मोरारजी देसाई ने कि सरकार ने
अशोक मेहता समिति का गठन किया समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिनमें निवेश सुझाव दिए
गए थे:-
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पंचायत व्यवस्था द्विस्तरीय होनी चाहिए पहले स्तर पर मंडल पंचायत जिसमें 15 देशों शामिल हो तथा
दूसरे स्तर पर जिला परिषद हो पंचायतों का कार्यकाल 4 वर्ष का होना चाहिए।
न्याय पंचायतों का भी गठन किया जाना चाहिए।
अनुसूचित जातियों और जनजातियों को अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
इसके लिए अलग से वित्त आयोग की व्यवस्था होनी चाहिए।
पंचायतों के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए सामाजिक अंकेक्षण की
व्यवस्था होनी चाहिए।
3. जी.वी.के. राव समिति (1985) :- इस समिति का गठन श्री राजीव गांधी के सरकार
ने स्थानीय स्तर पर ग्रामीण विकास एवं निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों से संबंधित प्रशासनिक ढांचे की
समीक्षा करने के लिए किया था इस समिति को सामान्यता कार्ड समिति के संक्षिप्त नाम से भी जाना
जाता है। समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें दी :
योजना प्रक्रिया में कें द्रीकरण की प्रवृत्ति घातक हैं जहां तक हो सके इस प्रक्रिया को विकें द्रीकृ त
बनाया जाना चाहिए।
पंचायती राज 4 स्तरीय होना चाहिए इनमें तीन स्तर तो गांव खंड तथा जिला के एवं चौथे स्तर
के रूप में राज्य विकास परिषद का गठन किया जाना चाहिए जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री के
पास वो तथा सभी मंत्री व जिला अध्यक्ष इसके सदस्य हो।
जिला परिषद में अनुसूचित जातियों और जनजातियों महिलाओं तथा अन्य पिछड़े वर्गों को
उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।
जिला स्तर पर जिला आयुक्त का पद सृजित किया जाना चाहिए।
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पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
प्रत्येक प्रशासनिक अधिकारी को ग्रामीण विकास प्रशासन में कार्य करने का मौका अनिवार्य रूप
से दिया जाना चाहिए ।
पंचायती चुनाव में दलगत व्यवस्था को नहीं अपनाया जाना चाहिए।
पंचायती राज से जुड़े विवादों के निपटारे के लिए प्रत्येक राज्य में पंचायती राज अधिकरण की
स्थापना की जानी चाहिए।
कें द्र सरकार द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाना चाहिए जो
पंचायतों के लिए पर्याप्त वित्त को सुनिश्चित कर सके।
राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि
पंचायतों के चुनाव नियमित अंतराल पर तथा निष्पक्ष रुप से संचालित हो।
न्याय पंचायतों या ग्रामीण न्यायालयों की पर्याप्त व्यवस्था की जानी
चाहिए। न्याय करने की शक्ति उन्हीं व्यक्तियों को दी जानी चाहिए जिनके
पास इससे जुड़ी शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण हो।
5. पी.के . थुंगन समिति :- सिंधी समिति की रिपोर्ट आने के बाद से ही पंचायती राज से संबंधित संवैधानिक
संशोधन की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी इसी समय 1988 में कार्मिक मंत्रालय से जिला योजना प्रक्रिया पर
विचार करने के लिए पी.के . थुंगन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिनकी सिफारिशें निम्नलिखित थी:-
पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
जिला परिषद को विकास कार्यों तथा योजना निर्माण की प्रमुख संस्था के तौर पर विकसित किया जाना
चाहिए।
जिलाधीश को जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया जाना चाहिए।
पंचायतों के लिए 5 साल का कार्यकाल निर्धारित किया जाना चाहिए तथा निर्धारित समय पर चुनाव की
व्यवस्था अनिवार्य रूप से लागू की जानी चाहिए।
पंचायतों की वित्तीय स्थिति पर ध्यान देने के लिए राज्य वित्त आयोग के गठन की व्यवस्था की जानी
चाहिए।
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73 वां संविधान संशोधन अधिनियम-1992 :- पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिलाने के
लिए अलग-अलग समय में गठित विभिन्न समितियों की सिफारिशों पर व्यापक विचार विमर्श करने के पश्चात
अंततः तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी वी नरसिम्हा राव ने सितंबर 1991 में 73 व संविधान संशोधन विधेयक
लोकसभा में प्रस्तुत किया इसके पश्चात दिसंबर 1996 में यह लोकसभा तथा राज्यसभा से पारित हो गया।
इसके बाद कु छ महीनों में ही 17 राज्यों के विधान मंडलों ने इस पर अपनी अपनी स्वीकृ ति दे दी 20 अप्रैल
1993 को इस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृ ति प्राप्त हुई तथा 24 अप्रैल 1993 को यह 73 वें संविधान
संशोधन अधिनियम के रूप में लागू हुआ इसके लागू होने की तिथि के आधार पर ही 24 अप्रैल के दिन राष्ट्रीय
पंचायत दिवस के रूप में मनाया जाता है।
73 वा संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को
संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया इसके तहत संविधान ने एक नया भाग पुनः जोड़ा गया जिसे सातवें संविधान
संशोधन 1956 द्वारा हटा दिया गया था जो कि मूल संविधान में भावनाओं के अंतर्गत एक ही अनुच्छेद 243
था। इसलिए पंचायती राज से जुड़े उपबंध इसी अनुच्छेद के विभिन्न खंडों के रूप में स्थापित किए गए। नए भाग-
9 का शीर्षक हैं ‘पंचायतें’ तथा इसमें अनुच्छेद 243 (A) से 243(O) तक कु ल 15 अनुच्छेद शामिल है।
इन सबके अलावा इस संशोधन द्वारा संविधान में 11 वीं अनुसूची भी जोड़ी गई जिसमें पंचायतों के लिए निर्दिष्ट
29 विषयों को समाहित किया गया।
74 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय
स्वशासन को भी संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया इसके तहत अनुच्छेद 243(P) से अनुच्छेद-243 (ZG)
जोड़ा गया तथा अनुसूची 12 जोड़कर नगरीय निकायों के लिए 18 विषय प्रदान किए गए।
अनुच्छेद 243 (A) से अनुच्छेद 243 (O) तक के विभिन्न प्रावधान संक्षिप्त में निम्नलिखित है :-
अनु. 243 (A) - ग्राम सभा।
अनु. 243 (B) - पंचायतों का गठन।
अनु. 243 (C) - पंचायतों की संरचना।
अनु. 243 (D) - सीटों पर आरक्षण का प्रावधान।
अनु. 243 (E) - पंचायतों का कार्यकाल।
अनु. 243 (F) - सदस्यता के लिए योग्यता।
अनु. 243 (G) - 29 विषयों पर पंचायतों के शक्तियां प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व।
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अनु. 243 (H) - पंचायतों के द्वारा कर आरोपित करने की शक्ति और पंचायत की निधियां।
अनु. 243 (I) - राज्य वित्त आयोग का गठन।
अनु. 243 (J) - पंचायतों के लेखाओं की सम परीक्षा।
अनु. 243 (K) - पंचायतों के लिए निर्वाचन एवं राज्य निर्वाचन आयोग।
अनु. 243 (L) - पंचायती राज का लागू ना होना।
अनु. 243 (M) - पंचायती राज का लागू होना।
अनु. 243 (N) - पंचायती राज कब बना रहना।
अनु. 243 (O) - संबंधित मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन।
अध्याय - 6
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1992 के अनरू
ु प मध्यप्रदे श विधानसभा द्वारा पारित मध्य प्रदे श
पंचायती राज अधिनियम 1993 के प्रावधान अनुसार पंचायती राज
व्यवस्था लागू थी इसी के साथ छत्तीसगढ़ में भी यह व्यवस्था लागू थी
परं तु 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के पश्चात इसी
दिन से ही संपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में पंचायती राज व्यवस्था लागू की
गई परन्तु इसे अधिसचि
ू त नहीं किया गया।
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2. 5 से 50 हज़ार तक की जनसंख्या के लिए – जनपद पंचायत
3. 50 हज़ार से अधिक की जनसंख्या के लिए – जिला पंचायत
शहरी/नगरीय क्षेत्र के लिए :-
1. 5 से 20 हज़ार तक की जनसंख्या के लिए - नगर पंचायत
2. 20 हज़ार से 1 लाख तक की जनसंख्या के लिए – नगर पालिका
3. 1 लाख से अधिक की जनसंख्या के लिए – नगर निगम
1. ग्राम सभा
2. पंचायतों का गठन
3. पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान
4. पंचायत का कार्यकाल
5. पंचायत में सदस्यता के लिए योग्यताएं
6. पंचायतों की शक्तियां प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व
7. पंचायतों की नदियां कर आरोपित करने की शक्ति
8. राज्य वित्त आयोग का गठन
9. राज्य निर्वाचन आयोग
10. पंचायत अधिकारियों की पद मुक्ति
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ग्राम सभा [अनच्
ु छे द- 243 (A)] :-
ग्राम सभा पंचायती राज व्यवस्था की बुनियादी इकाई होती है । ग्राम
सभा के गठन और पंचायतों की सीमा में परिवर्तन की अधिसच
ू ना
राज्यपाल द्वारा जारी की जाती है । ग्राम पंचायत मतदाता सूची में नाम
शामिल समस्त व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। इसके अलावा गांव
में रहने वाला व्यक्ति जो विधानसभा निर्वाचन नामावली में पंजीकृत
किए जाने के लिए योग्य होते हैं वह भी ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।
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ग्राम पंचायत का वार्षिक बजट और अगले वित्तीय वर्ष का वार्षिक
योजना तैयार करना।
पंचायतों के कार्यों का विवरण।
सामाजिक और अंकेक्षण का कार्य।
पंचायतों का गठन :-
ग्राम पंचायत :- भारतीय संविधान के भागने के अनुच्छे द 243 (B) में प्रत्येक
1000 तक की जनसंख्या पर ग्राम पंचायत के गठन का प्रावधान है, जो की
निर्वाचित पंच सरपंच से मिलकर होता है। 1 ग्राम पंचायत में वार्डो की न्यूनतम
संख्या 10 एवं अधिकतम संख्या 20 हो सकती है। वार्ड गठन के समय का ध्यान
रखा जाता है कि प्रत्येक वार्ड की जनसंख्या समान होनी चाहिए।
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1) निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्य या जिला पंचायत सदस्य। जिस की न्यूनतम
संख्या 10 तथा अधिकतम संख्या 35 हो सकती है।
2) लोकसभा व राज्यसभा के सदस्य जिनका निर्वाचन क्षेत्र पूर्णता या अंशतः
शामिल हो।
3) विधानसभा के सभी सदस्य जो उस जिले से निर्वाचित एवं नामित हुए है।
4) जिले के सभी जनपद पंचायतों के अध्यक्ष जिला पंचायत के नामित सदस्य होते
हैं।
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सदस्यता के लिए योग्यताएं/अयोग्यताएं, अनुच्छे द 243 (F)
ग्राम/जनपद/जिला पंचायत के सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित अर्हता है होनी
चाहिए:-
सरकारी नौकरी या लाभ के पद में नहीं होना चाहिए।
21 वर्ष की आयु पूरी होनी चाहिए।
पंचायत की ओर से किसी विधि व्यवसाय में नियोजित ना किया हो
यदि किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा अपराधी ठहराया गया है और उसकी सजा
6 माह से अधिक है तो उस व्यक्ति द्वारा सजा पूर्ण होने की तारीख से 5 वर्ष
तक चुनाव नहीं लड़ा जा सकता ।
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प्रौढ़ शिक्षा संस्कार
सामाजिक वानिकी एवं कुटीर उद्योग।
महिला, युवा तथा बाल कल्याण।
प्राकृतिक आपदाओं जैसे आगजनी बाढ़, सूखा, भूकंप, दुर्भिक्ष, टिड्डी दल,
महामारी और अन्य आपदाओं में आर्थिक सहायता की व्यवस्था करना।
स्थानीय त्यौहार तथा तीर्थ यात्राओं के संबंध में व्यवस्थाएं करना।
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छत्तीसगढ़ में पंचायत द्वारा कर आरोपित करने की शक्ति
पंचायतों द्वारा पर लगाने एकत्र करने और हिस्सा बांटने संबंधित नियम छ ग पंचायती
राज अधिनियम 1993 में विहित है जिसके अनुसार, पंचायत निम्न दो प्रकार के कर
आरोपित कर सकती हैं :-
अनिवार्य कर : निम्न 6 मदों को पंचायत के अनिवार्य कर श्रेणी के अंतर्गत
रखा गया है जिस पर पंचायत अनिवार्य रूप से कर लगाएगी -
1) बाजार कर
2) व्यापार या आजीविका चलाने वाले पर कर
3) भूमि कर
4) पशुधन के रजिस्ट्रीकरण पर कर
5) बिजली या प्रकाश कर
6) सार्वजनिक किया निजी शौचालयों पर कर
ऐच्छिक कर : उपर्युक्त करो के अलावा पंचायत जल, स्वच्छता, जल निकासी,
पेयजल आपूर्ति, कूड़ा कचरा हटाने, साफ सफाई कर बैलगाड़ी वा टांगा स्टैं ड
पर कर इत्यादि मदों पर आरोपित कर सकती हैं।
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राज्य निर्वाचन आयोग अनुच्छे द 243 (K)
अनुच्छे द 243 (K) ग्रामीण निकायों (जिला/जनपद/ग्राम पंचायतों) तथा शहरी
निकायों (नगर पंचायत/नगर पालिका/नगर निगम) के सदस्यों के निष्पक्ष निर्वाचन के
लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का प्रावधान करता है। राज्य निर्वाचन आयोग के
कार्य एवं शक्तियां निम्नलिखित है –
पंचायती राज चुनाव के समय सारणी तैयार करना।
पंचायतों के लिए कराए जाने वाले समस्त निर्वाचन के लिए निर्वाचन नामावली
तैयार करना।
समस्त निर्वाचन क्षेत्रों में नियंत्रण, निर्देशन एवं आचार संहिता जारी करना।
रिटर्निंग ऑफिसरो के माध्यम से चुनाव के लिए चुनाव चिन्ह का निर्धारण एवं
आवंटन।
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पंचायत के सदस्यों को वापस बुलाया जाना या प्रत्यावर्तन या रिकॉल :
नियम की धारा 21 (क) के अनुसार ग्राम पंचायत के सरपंच एवं पंच के
खिलाफ स्थानीय मतदाताओं द्वारा विभिन्न परिस्थितियों (ग्राम सभा के निर्देश
की अवमानना अथवा मनमानी) में ग्राम सभा गुप्त मतदान द्वारा सरपंच व
पंचों को वापस बुला सकते हैं।
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पंचायत का कोई पदाधिकारी ग्राम पंचायत की अनुमति के बिना 6 माह
के काम के दौरान आधे से अधिक बैठकों में अथवा तीन लगातार बैठकों
में अनुपस्थित रहता है।
जनपद एवं जिला पंचायत स्तर पर पांच से सात समितियां गठित करने के लिए
प्राधिकृत किया गया है -
1) सामान्य प्रशासन समिति
2) शिक्षा समिति
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3) कृषि समिति
4) वन समिति
5) सहकारिता एवं उद्योग समिति
6) स्वास्थ्य महिला एवं बाल कल्याण समिति
7) संचार एवं संकर्म समिति।
अध्याय - 7
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20 अलग-अलग वार्ड से निर्वाचित हुए पंचो ने श्रीमान मुकेश शर्मा को उपसरपंच के
रूप में चयनित किया। 20 में से 13 महिला पंचों की उपस्थिति गाँव मे राजनीतिक
रूप से सशक्त होती महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जो गाँव के विकास में
अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही है।
ग्राम पंचायत नेवारी कला के लिए नवीन भवन के समीप
ही एक क्लस्टर के रूप में प्राथमिक शाला एवं माध्यमिक शाला, जिला चिकित्सालय,
डाकघर, साप्ताहिक बाजार, उचित मूल्य की राशन दुकान इत्यादि एक ही जगह पर
स्थित है जिससे ग्राम वासियों को अधिकांश सुविधाएं एक ही स्थान पर उपलब्ध हो
जाती है। गांव के विभिन्न क्षेत्रों में विकास हेतु विभिन्न प्रकार की समितियों का भी
गठन किया गया है।
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उद्यान निर्माण, कुछ स्थानीय संस्थाओं जैसे विद्यालय, चिकित्सालय में अतिरिक्त
सुविधाओ हेतु, मोहल्ले में प्रकाश की व्यवस्था इत्यादि में किया जाता है।
विकास कार्य :-
गांव में सभी प्रकार के विकास कार्य प्रगति पर है शासन की विभिन्न योजनाओं
मुख्यमंत्री शुभम सड़क योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना
(मनरेगा), प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण), स्वच्छता अभियान के तहत प्रत्येक
घर में शौचालय निर्माण, निशक्त व्यक्तियों एवं विधवा एवं परित्यक्त महिलाओं के लिए
सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना, विभिन्न डिजिटल पहलों, एकीकृत ग्रामीण विकास
योजनाओं, डॉ खूबचंद बघेल स्वास्थ्य सहायता योजना के तहत पंजीयन एवं स्मार्ट
कार्ड वितरण, सार्वभौमिक पीडीएस योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे के व्यक्तियों,
निराश्रित, अंत्योदय इत्यादि कार्ड धारियों को उचित मूल्य पर राशन (चावल, शक्कर,
नमक मिट्टी तेल इत्यादि) का प्रतिमाह निरंतर वितरण, मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक
इत्यादि योजनाओ का क्रियान्वयन धीमे ही सही पर हो रहे हैं।
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गया ताकि मिड-डे-मील योजना तथा सरकार के कुपोषण अभियान के लक्ष्यों
के क्रियान्वयन न टू टे।
मूल्यांकन :-
यद्यपि पंचायत द्वारा शासन की सभी नीतियों कार्यक्रमों, योजनाओं इत्यादि का
क्रियान्वयन सुचारू रूप से तो चल रहा तथा गाव के विकास में सकारात्मक भूमिका
निभा रही है, तथापि शासन की योजनाओं एवं विभिन्न प्रकार की शासकीय सूचनाओं
को गांव में प्रचार प्रसार कराने के लिए एक तरफ जहां ग्राम वासियों में जागरूकता की
कमी नजर आती हैं तो वहीं दूसरी तरफ उचित तंत्र का अभाव दिखाई दे ता है।
स्पष्ट है कि ग्राम पंचायत नेवारी कला शासन की विभिन्न
योजनाओं नीतियों कार्यक्रमों अभियानों को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचा कर लोकतांत्रिक
विकेंद्रीकरण मूल उद्दे श्यों तथा एकीकृत एवं डिजिलीकृत ग्रामीण विकास की दिशा में
अग्रसर दिखाई दे ता है। उचित सूचना तंत्र विकसित कर तथा ग्राम वासियों में
अधिकाधिक जनजागरूकता के माध्यम से यह समाज, राज्य तथा राष्ट्र के विकास में
अपनी अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है।
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ग्राम पंचायत नेवारी-कला
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अध्याय - 8
इसमें कोई संदेह नहीं की 73 वें संशोधन द्वारा स्थापित हुई पंचायती राज प्रणाली
आम जनता के हाथ में ताकत सौपने की दृष्टि से पहले के सभी प्रयोगों की तुलना में
ज्यादा ठोस और कारगर रही है किंतु सच यह भी है कि यह प्रणाली समस्याओं से पूरी
तरह मुक्त नहीं है इनकी कुछ उपलब्धियां तो कुछ सीमाएं हैं उनके मूल्यांकन के संदर्भ
में निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण है –
समस्याएं/चुनौतियाँ
छ ग में पंचायतों को आमतौर पर प्रभावी शक्ति नहीं दी गई है।
पंचायतों के लिए कृत्यों या उत्तरदायित्वों का वर्गीकरण स्पष्ट रूप से नहीं
किया है जिसके कारण यह अनिश्चितता अभी भी है कि पंचायतें कौन से कार्य
कर सकती है और कौन से नहीं।
वित्तीय संसाधनों की कमी पंचायती संस्थाओं की बड़ी समस्या है, छत्तीसगढ़
में पंचायतों को कुछ कर लगाने की शक्ति दी हैं किंतु वे आमतौर पर नाकाफी ही
साबित हो रहे हैं।
पंचायतों की सामान्य मांग है कि उसके अधिकारी व कर्मचारी उसके नियंत्रण में
होने चाहिए किंतु अधिकांश कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर पंचायत का काम
संभालते हैं जिसे कारण उनमें प्रतिबद्धता का विकास नहीं हो पाता।
अनुसूचित जातियों-जनजातियों के आरक्षण के परिणाम स्वरुप कुछ गांव में
जातीय ध्रुवीकरण की घटनाएं सामने आई हैं।
महिला आरक्षण के विरोधियों का तर्क है कि जो महिलाएं पंचायतों के लिए चुनी
जाती है वह निरक्षर होने के कारण अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वाह नहीं कर
पाती उसके पति ही वास्तविक तौर पर पंचायत का काम दे खते हैं।
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पंचायतों की एक बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की हैं क्योंकि अभी भी गांव में बहुत से
लोग निरक्षर हैं जिसके कारण अपने राजनीतिक अधिकारों से परिचित नहीं हो
पाए है, इसलिए वे भ्रष्टाचार को रोक नही पाते।
समाधान/सुझाव
द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की छठी रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि
सरकार के प्रत्येक इस तरह कार्यों का स्पष्ट रूप से सीमांकन होना चाहिए।
पंचायतों के लिए एक अलग नौकरशाही संवर या कैडर का निर्माण ताकि
अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति की व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सके।
पंचायत चुनाव के प्रत्याशियों के लिए न्यूनतम योग्यता मानक तय किए जाने
चाहिए ताकि यह शासन तंत्र की प्रभावशीलता में सुधार लाने में सहायक हो
सके।
ग्रामीण समुदायों को शासन की योजनाओं नीतियों तथा भ्रष्टाचार इत्यादि के बारे
में जन जागरूकता के प्रसार के लिए व्यापक संरचनात्मक तथा संस्थागत
उपाय अपनाने चाहिए।
महिला प्रतिनिधियों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
केंद्र और राज्य सरकारों की तरह पंचायतों का भी अपना बजट होना चाहिए,
जिससे वित्तीय मामलों में पंचायतें आत्मनिर्भर हो सके।
बजट के साथ-साथ पंचायतों के कार्यों का सामाजिक ऑडिट भी किया जाना
चाहिए, जिससे उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित हो सके।
पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के
अनुक्रम में पारदर्शिता होनी चाहिए जिससे उनके बीच सामंजस्य की समस्या
उत्पन्न ना हो।
महिलाएं मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक से अधिक सशक्त बने जिससे
निर्णय लेने के मामले में आत्मनिर्भर बन सकें।
पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदं डों पर
बिना क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप से होना चाहिए।
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अध्याय - 9
निष्कर्ष
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पंचायती राज व्यवस्था भारतीय शासन व्यवस्था का अद्भुत
अभिलक्षण है। भारत में प्राचीन काल से अधुनातन युग तक पंचायती राज्य व्यवस्था
का विशिष्ट स्वरूप प्रकट होता है। जन-जन को शासन की गतिविधियों में सक्रिय
संभागी बनाए जाने के दृष्टिकोण पर आधारित पंचायती राज्य व्यवस्था का शुभारंभ 2
अक्टू बर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में हुआ इसके पश्चात 73 वे
संविधान संशोधन अधिनियम 1993 द्वारा इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
निश्चित रूप से इस संशोधन के पश्चात
पंचायती राज का लगभग एक समान ढांचा, नियमित चुनाव, महिलाओं को एक तिहाई
आरक्षण, अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों को जनसंख्या अनुसार आरक्षण, सीटों का
चक्रानुक्रम रूप से आरक्षण, राज्य निर्वाचन आयोग का गठन, राज्य वित्त आयोग का
प्रति 5 वर्ष पर गठन, इन प्रयासों ने इसे एक नई दिशा दी है। सरकारी संस्थाएं लोकतंत्र
की भावना पैदा करने में सहायक सिद्ध हुई है। इसमें नौकरशाही और लोगों के बीच
की दूरी को काम करने में सेतु का काम किया है पंचायतों ने एक ऐसा नया नेतृत्व
प्रदान किया है जो उत्साही और आधुनिकता वादी हैं लोगों में विकास की भावना भी
उत्पन्न हुई है। विकास कार्यक्रमों को शुरू करने और कार्यान्वित करने में सकारात्मक
भूमिका अदा की है।
इन सभी के बावजूद यह कहना ही पड़ेगा कि
पिछले वर्षों का अनुभव विशेष उत्साहवर्धक नहीं रहा है यह संस्था ग्रामीण जनता में
नई आशा और विश्वास पैदा करने में सफल रही है। या पर्याप्त दुख का विषय है कि
पंचायती राज को उन लोगों से समुचित व्यवहार नहीं मिला है जिसके हाथ में दे श की
राजनीतिक शक्ति की बागडोर है। वस्तुतः जब तक ग्रामीणों में चेतना नहीं आती तब
तक यह संस्थाएं सफल नहीं हो सकती किंतु इसका तात्पर्य कदापि नहीं है कि
पंचायती राज संस्थाएं पूर्णता असफल हो गई है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में इन संस्थाओं ने
सराहनीय कार्य किया है।
अगर समग्रता से दे खें तो उपरोक्त समस्याओं के
बावजूद हमें पंचायती राज के फायदे ज्यादा मिले हैं। इसने विकास तथा योजना
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प्रक्रिया में आम आदमी को भागीदारी दे कर लोकतंत्र को जमीनी स्तर तक पहुंचाया है।
अनुसूचित जातियों जनजातियों में तथा महिलाओं को आरक्षण दे कर पंचायती
व्यवस्था ने समाज के बुनियादी विषमताओं को कड़ी चुनौती दी है। जैसे-जैसे ग्रामीण
क्षेत्रों में साक्षरता तथा सूचना तकनीक की पहुंच का स्तर बढ़े गा वैसे-वैसे लोग अपने
राजनीतिक अधिकारों तथा कर्तव्य के प्रति जागरूक होते जाएंगे और स्थानीय
स्वशासन बेहतर से बेहतर होता जाएगा।
"यदि हम पंचायत राज यानी सच्चे लोकतंत्र के अपने सपने को साकार होते दे खेंगे तो
हम सबसे दीन और सबसे निम्नतम भारतीय को भी भूमि के सबसे प्रभावशाली
भारतीय के ही समान भारत के शासक के रूप में दे खेंगे।" ~महात्मा गांधी
अध्याय - 10
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क्र. पुस्तक/स्रोत लेखक/प्रकाशक
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