You are on page 1of 43

स्थानीय स्वशासन : ग्रामीण छत्तीसगढ़

के विशेष संदर्भ में

एम.ए. अंतिम वर्ष (राजनीति


विज्ञान) में प्रायोगिक कार्य हे तु
प्रस्तत
ु – लघु-शोध प्रतिवेदन

सत्र – 2020-21

शोधकर्ता
विभागाध्यक्ष निर्देशक

प्रो. खेमप्रभा घोषणा -पत्र


डॉ.दीपाली राव मूलचंद
घत
ृ लहरे & प्रो. खिलावन साहू
विभागाध्यक्ष,राजनीति शास. घनश्याम सिंह गुप्त स्नातकोत्तर एम.ए. अंतिमवर्ष

विज्ञान विभाग शास. महाविद्यालय, बालोद (राजनीति विज्ञान)


घनश्याम सिंह गप्ु त शोध केंद्र – शास. घनश्याम सिंह गुप्त शास. घनश्याम सिंह गप्त

स्नातकोत्तर स्नातकोत्तर महाविद्यालय – बालोद स्नातकोत्तर
महाविद्यालय, बालोद महाविद्यालय, बालोद
जिला बालोद, छ.ग.
मैं घोषणा करता हूं कि ‘स्थानीय स्वशासन : छत्तीसगढ़ के विशेष संदर्भ
में ' मेरी स्वयं की रचना है , यह किसी अन्य लघु शोध से संबधि
ं त नहीं
है ।

दिनांक – ________

शोधार्थी

मूलचंद

प्रमाण-पत्र

2
प्रमाणित किया जाता है कि मल
ू चंद द्वारा मेरे
मार्गदर्शन में एम.ए. अंतिम वर्ष राजनीति विज्ञान के नियमित छात्र के
रूप में परीक्षा-2020-21 शासकीय घनश्याम सिंह गुप्त स्नातकोत्तर
महाविद्यालय बालोद में सम्मिलित होगा।

लघु शोध प्रतिवेदन के अंतर्गत ग्रामीण छत्तीसगढ़ के


विशेष संदर्भ में स्थानीय स्वशासन की संरचना एवं कार्य प्रणाली पर
विशेष शोध कार्य किया गया।

प्रस्तत
ु लघु शोध प्रबंध मूलचंद द्वारा संकलित सामग्री के आधार पर
विश्लेषण है ।

डॉ. दीपाली राव


डॉ. जे.के. खलको
विभागाध्यक्ष (राजनीति
प्राचार्य
विज्ञान)
शास.घनश्याम सिंह गुप्त
शास.घनश्याम सिंह गुप्त
महाविद्यालय, बालोद
महाविद्यालय, बालोद
जिला – बालोद
जिला – बालोद

आभार-प्रदर्शन

3
प्रस्तत
ु लघु शोध अध्ययन ‘ग्रामीण छत्तीसगढ़ के विशेष
संदर्भ में स्थानीय स्वशासन’ के अध्ययन में डॉ. दीपाली राव विभागाध्यक्ष
राजनीति विज्ञान, का आभारी हूं।

मैं प्रो. खेमप्रभा घृतलहरें एवं प्रो. खिलावन साहू का आभारी हूं जिनके के
मार्गदर्शन में यह शोध सफलतापूर्वक हुआ।

मैं अपने माता-पिता एवं भाई-बहन का आभारी हूं जिन्होंने अपना


अमूल्य समय दिया।

मैं हाई टे क कंप्यूटर बालोद का आभारी हूं जिन्होंने मुझे मेरे शोध कार्य के
मुद्रण में विशेष सहयोग किया।

मैं अपने सभी मित्रों, अन्य सहयोगियों एवं ग्राम पंचायत नेवारी कला का
भी आभारी हूं जिन्होंने समय-समय पर विषय से संबंधित विशेष सुझाव
एवं मार्गदर्शन दिया।

शोधार्थी

मूलचंद

एम.ए. अंतिम वर्ष

(राजनीति विज्ञान)

अनुक्रमणिका

4
अध्याय विषयवस्तु

अध्याय - 1 प्रस्तावना

अध्याय - 2 अध्ययन के उद्देश एवं

अध्याय - 3 स्थानीय स्वशासन से अभिप्राय

अध्याय - 4 भारत मे स्थानीय स्वशासन का इतिहास

अध्याय - 5 स्थानीय स्वशासन के लिए संवध


ै ानिक प्रावधान

छ.ग. में स्थानीय स्वशासन : स्वरूप, संरचना एवं


अध्याय - 6
कार्यप्रणाली

अध्याय - 7 ग्राम पंचायत नेवारीकला : एक दृष्टि में

अध्याय - 8 चुनौतियाँ एवं समाधान

अध्याय - 9 निष्कर्ष

अध्याय - 10 संदर्भ ग्रंथ सूची

अध्याय - 1

प्रस्तावना

5
लोकतंत्र वास्तविक अर्थों में तभी सफल होता है जब
राजनीतिक शक्ति आम आदमी के हाथों में पहुंचती है । इसका आदर्श
रूप यह होता है कि आम आदमी के पास स्थानीय मुद्दों जैसे – पानी,
सड़क, सफाई आदि के प्रशासन में निर्णायक भूमिका हो तथा व्यापक
स्तर के मद्द
ु ों के लिए उसे अपने प्रतिनिधि चन
ु ने, संवाद व सवाल-जवाब
करने का हक हो। आजकल इस आदर्श को सहभागिता-मूलक लोकतंत्र
(Participatory Democracy) कहा जाता है ।

आजकल दनि
ु या भर में सहभागिता -मूलक
लोकतंत्र की बयार चल रही है और वह हर दे श के सत्ताधारियों को
बाध्य कर रही है कि वे शक्ति का अधिकाधिक विकेंद्रीकरण करें । एक
सामान्य राय यह बनती जा रही है कि स्थानीय महत्व के मद्द
ु ों पर
निर्णय की शक्ति उसी स्तर की लोकतांत्रिक संस्थाओं को सौंपी जानी
चाहिए, जो नीचे के स्तरों पर न किये जा सकते हों। भारत में भी
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण और स्थानीय स्वशासन (Local self
government) की धारणा नई नहीं है । ग्रामीण क्षेत्रों में यही धारणा
‘पंचायतीराज’ कहलाती है , जबकि शहरी क्षेत्रों में ‘नगरपालिका’ या ‘नगर-
निगम’।

सदै व यही मल
ू धारणा रही है कि हमारे गांव, जो वर्षों से अपना शासन
स्वयं चलाते रहे है। जिनकी अपनी एक न्याय व्यवस्था रही है , वे ही

6
अपने विकास की दिशा तय करें । आज भी हमारे कई गांवों में
परम्परागत रूप में स्थानीय स्वशासन की न्याय व्यवस्था विद्यमान है ।

अध्याय - 2

अध्ययन के उद्देश्य
7
प्रस्तुत शोध के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास करें गे कि किस
प्रकार हमारी संघीय तथा संसदीय शासन व्यवस्था में केंद्र तथा राज्य के
दोनों स्तरों के बाद लोकतंत्र के सबसे लोकप्रिय और विकेन्द्रीकृत स्वरूप
अर्थात पंचायतीराज व्यवस्था स्थापित हुई तथा किस प्रकार इसकी
संरचना तथा कार्यप्रणाली है ।

इस लघु शोध प्रविधि के माध्यम से हम यह भी


जानने का प्रयास करें गे कि किस प्रकार छत्तीसगढ़ में राज्य निर्माण के
बाद पंचायती राज संस्थानों की स्थापना हुई तथा यह किस प्रकार
लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के ढांचे के अनरू
ु प कार्य कर रही है ।

अध्याय - 3
8 स्थानीय-स्वशासन से अभिप्राय
स्थानीय स्वशासन लोगों की अपनी स्वयं की
शासन व्यवस्था का नाम है अर्थात स्थानीय लोगों द्वारा मिलजुल कर
स्थानीय समस्याओं के निदान एवं विकास हे तु बनाई गई ऐसी व्यवस्था
जो संविधान और राज्य सरकार द्वारा बनाया गया एवं कानन
ू ों के
अनुरूप हो दस
ू रे शब्दों में प्रशासन गांव के समचि
ु त प्रबंधन में समुदाय
की भागीदारी है ।

सर्वप्रथम कुटुम्ब से कुनबे बने और कुनबों से समह


ू । ये समूह
ही बाद में ग्राम कहलाये। इन समूहों की व्यवस्था प्रबन्धन के लिये
लोगों ने कुछ नियम, कायदे कानन
ू बनाये। इन नियमों का पालन करना
प्रत्येक व्यक्ति का धर्म माना जाता था। ये नियम समह
ू अथवा गांव में
शांति व्यवस्था बनाये रखने, सहभागिता से कार्य करने व गांव में किसी
प्रकार की समस्या होने पर उसके समाधान करने, तथा सामाजिक न्याय
दिलाने में महत्वपर्ण
ू भमि
ू का निभाते थे। गांव का संम्पर्ण
ू प्रबन्धन तथा
व्यवस्था इन्हीं नियमों के अनस
ु ार होती थी। इन्हें समह
ू के लोग स्वयं
बनाते थे व उसका क्रियान्वयन भी वही लोग करते थे। 

कहने का तात्पर्य है कि स्थानीय स्वशासन में


लोगों के पास वे सारे अधिकार हों जिससे वे विकास की प्रक्रिया को
अपनी जरूरत और अपनी प्राथमिकता के आधार पर मनचाही दिशा दे

9
सकें। वे स्वयं ही अपने लिये प्राथमिकता के आधार पर योजना बनायें
और स्वयं ही उसका क्रियान्वयन भी करें । प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल,
जंगल और जमीन पर भी उन्हीं का नियन्त्रण हो ताकि उसके संवर्द्धन
और संरक्षण की चिन्ता भी वे स्वयं ही करें ।

इस प्रकार स्थानीय-स्वशासन को हम संक्षिप्त में निम्न बिन्दओ


ु के
माध्यम से सरल शब्दों में समझ सकते है :-

1. गांव के लोगों की गांव में अपनी शासन व्यवस्था हो व गांव स्तर


पर स्वयं की न्याय प्रक्रिया हो।
2. ग्रामस्तरीय नियोजन, क्रियान्वयन व निगरानी में गांव के हर
महिला परू
ु ष की सक्रिय भागीदारी हो।
3. किस प्रकार का विकास चाहिये या किस प्रकार के निर्माण कार्य हों
या गांव के संसाधनों का प्रबन्धन व संरक्षण कैसे होगा ये सभी
बातें गांव वाले तय करें गे।
4. गांव की सब तरह की समस्याओं का समाधान गांव के लोगों की
भागेदारी से ही हो। 
5. ऐसा शासन जहां लोग स्थानीय मुद्दों, गतिविधियों में अपनी सक्रिय
भागीदारी निभा सकें।
6. स्थानीय स्तर पर स्वशासन को लागू करने का माध्यम गांव के
लोगों द्वारा, मान्यता प्राप्त लोगों का समूह हो जिन्होने सम्पूर्ण
गांव का विकास, व्यवस्था व प्रबन्धन करना है । ऐसा समह
ू जिसका
निर्णय सभी को मान्य हो।

10
भारत में स्थानीय-स्वशासन शब्द से अभिप्राय
‘पंचायतीराज’ पद्धति से है । यह भारत के सभी राज्यों में जमीनी स्तर
पर लोकतंत्र के निर्माण हे तु राज्य विधान- सभाओं द्वारा स्थापित किया
गया है । इसे ग्रामीण विकास का दायित्व सौंपा गया है ।

स्थानीय शासन को ऐसा शासन भी कहा गया है जो अपने सीमित क्षेत्र


में प्रदत्त अधिकारों का उपयोग करता है , किन्तु वे स्थानीय स्वशासन
सर्वोच्च नहीं होते, इन पर राज्य या केन्द्र सरकारों का नियंत्रण होता हे ।
इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भारत की स्थानीय संस्थाओं का निर्माण राज्य
सरकारों द्वारा किया जाना है । ये संस्थायें राज्य द्वारा प्रदत्त अधिकारों
का प्रयोग करती हैं तथा राज्य विधान मण्डल द्वारा निम्रित कानन
ू ों को
मूर्तरूप प्रदान करती है ।

अध्याय - 4

भारत मे स्थानीय-स्वशासन का इतिहास


11
प्राचीन तथा मध्यकालीन भारत मे पंचायतों/सभा/समितियों
आदि के रूप में स्थानीय-स्वशासन की लंबी परं परा रही है , जिसके स्वरूप
में ब्रिटिशों के आगमन के पश्चात परिवर्तन दे खने को मिलता है । प्राचीन
समय में गाँवों का जैसे-जैसे विकास होता गया, गाँव का प्रशासन चलाने के लिए लोगों
को प्रशासन की जरुरत महसूस हुई।  इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिए गाँवों में
स्वतंत्र शासन-व्यवस्था की स्थापना की गई। जिसे आज 'स्वशासन' कहा जाता है।
प्राचीन समय से ही ग्रामवासियों की आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिए स्वशासन एक स्वतन्त्र प्रणाली के रूप में विकसित होने लगा था। इन स्वतंत्र
प्रणाली के मुखिया को प्राचीन भारत में विभिन्न नामों जैसे- ग्रामणी, ग्रामधिपति, रेड्डी
और पंचमंडली से जाना जाता था। मनुस्मृति के अनुसार मनु ने शासन व्यवस्था के
सुचारू रूप से संचालन के लिए एक गाँव, दस गाँव, सौ गाँव और एक हजार गाँवों के
अलग-अलग संगठन बनाए, जिन्हें आज के संदर्भ में क्रमशः ग्राम, ब्लॉक, तहसील और
जिला स्तर के समकक्ष माना जा सकता है।
 वैदिक काल :- ऋग्वेद में स्थानीय स्व-इकाइयों के रूप में सभा,समिति व विदथ का उल्लेख मिलता
हैं। ये स्थानीय स्तर के लोकतांत्रिक निकाय थे। राजा कु छ कार्यो एवं निर्णयों के संबंध में इन निकायों से
परामर्श मांगते थे।
 बौध्द काल :- बौद्ध काल में गांव के शासक को ग्राम-योजक कहते थे जिसका चुनाव ग्राम वासी ही
करते थे। राजा की सभा में ग्राम योजक की गांव का प्रतिनिधित्व करता था।
 मौर्य काल :- मौर्य काल में सभी गांव अपने आप में स्वतंत्र गणराज्य जैसे था। ग्राम सभा के प्रमुख को
ग्रामीण कहा जाता था जो कि साधारण विवादों के लिए न्याय सभा का भी कार्य करती थी।
 गुप्त काल :- इस काल में गांव के मुखिया को ग्राम-पति, ग्रामिक, ग्राम-महत्तर इत्यादि कहा जाता था।
ग्रामिक के विरुध्द राजा के पास अपील कीज सकती थी।
 मुग़ल काल :- मुगल काल में स्थानीय स्वशासन पर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। इस काल में जमीदारी
प्रथा और नगरों के विकास में अधिक ध्यान दिया गया तथा यह काल ग्राम पंचायतों के पतन के लिए
जाना जाता हैं।

12
 ब्रिटिश काल :- ब्रिटिश काल के शुरुआती दौर में स्थानीय स्वशासन अत्यंत बुरी स्थिति में था।
1972 के रेगुलेटिंग एक्ट के तहत गांव के लिए जो जमीदार नियुक्त किए गए थे वे पंचायतों से स्वतंत्र
थी हर सरकार के प्रति जवाब देते आगे चलकर सिविल तथा अपराधिक न्यायालय के गठन के साथ
पंचायतों की भूमिका और कमजोर होती गई।
1857 की क्रांति के बाद सरकार को समझ में आने लगा कि स्थानीय
स्वशासन की संस्थाओं के बिना इतने बड़े देश का शासन चलाना उनके लिए संभव नहीं है। इसके पश्चात विभिन्न
अधिनियमो के माध्यम से इसमें क्रमिक रूप सुधार होती चली गयी।
1882 में लार्ड रिपन ने स्थानीय स्वशासन संबंधी प्रस्ताव दिया
जिसे भारत में स्थानीय-स्वशासन संस्थाओं के इतिहास मैं मैग्नाकार्टा कहा जाता है इस प्रस्ताव के तहत लॉर्ड
रिपन ने नगरीय स्थानीय संस्थाओं के साथ-साथ ग्राम पंचायतों न्याय पंचायतों तथा जिला स्तर पर जिला बोर्ड
के गठन का प्रस्ताव रखा इस प्रकार रिपन ने भारत में आधुनिक पंचायती राज व्यवस्था की नींव रखी इसलिए
लॉर्ड रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक कहा जाता है।
1919 मैं मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधारों के रूप में भारत सरकार अधिनियम 1919 पारित
हुआ इसके तहत प्रांतों में दोहरे शासन या द्वैध शासन की व्यवस्था के तहत विधायक विषयों को दो भागों में बांटा
गया सुरक्षित तथा हस्तांतरित स्थानीय स्वशासन को हस्तांतरित विषयों में रखा गया था अर्थात इसके संबंध में
कानून बनाने की शक्ति प्रांतीय विधायकों को दे दी गई थी। 1919 और 1935 के दौरान लगभग सभी ब्रिटिश
भारतीय प्रांतों ने स्थानीय स्वशासन संबंधी अधिनियम पारित किए सबसे पहले बंगाल में 1919 में अधिनियम
पारित किया फिर 1920 में मद्रास मुंबई संयुक्त प्रांत बिहार मध्य प्रांत ने 1922 में पंजाब ने 1925 में असम
ने 1928 में मैच होने तथा 1935 में जम्मू कश्मीर में ऐसे अधिनियम पारित किया।

13
अध्याय - 5

स्थानीय-स्वशासन का संवैधानिक विकास

किसी भी देश की शासन प्रणाली का स्वरूप ममता दो रूपों में होता है


अध्यक्षात्मक व संघात्मक। सामान्यता जो देश संघात्मक व्यवस्था अपनाते हैं उनके संविधान तथा शासन प्रणाली
में दो स्तर होते हैं संघ तथा राज्य अमेरिका ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों में यही व्यवस्था कार्य करती है भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 1 में साफ तौर पर कहा गया है की इंडिया अर्थात भारत राज्यों का संघ होगा। जिसमें
निहित है कि शक्ति का वितरण राज्यों एवं संघ के बीच किया जाएगा संघात्मक देशों में स्थानीय स्वशासन का
ढांचा तय करने की शक्ति सामान्यता राज्यों के हाथों में होती है और इसमें कें द्र का भी हस्तक्षेप नहीं होता भारत
में भी संविधान लागू होने के समय से 1993 तक की यही व्यवस्था थी किं तु इसमें नहीं कमजोरियों को देखते
हुए आम जनता की सीधी भागीदारी का महत्व समझते हुए हमारी सरकार ने अधिकांश राज्यों के विधान मंडलों
के सहयोग से 1992-93 के दौरान दो महत्वपूर्ण संविधान संशोधन किए जिन्हें 73 वा तथा 74 वा संशोधन
कहा जाता हैं। इन संशोधनों ने हमारे संविधान में सत्ता का एक तीसरा स्तर भी निर्धारित कर दिया जिसे गांव के
लिए पंचायत और शहरों के लिए नगर पालिका कहा गया। उन्ही संशोधनों ने हमारे राज्य व्यवस्था को संघात्मक
ढांचे से एक कदम और बढ़ा दिया क्योंकि अब हमारे संविधान में सत्ता के तीन स्तर निर्धारित हैं संघ राज्य तथा
स्थानीय स्वशासन सत्ता के विकें द्रीकरण को लक्षित इन प्रयासों की कु छ सीमाएं हैं किं तु लोकतंत्र की जड़ों तक
पहुंचने की इन्हें मौन क्रांति की संज्ञा देना गलत ना होगा।
संविधान सभा में विभिन्न विचारधाराओं के सदस्य थे स्वाभाविक परिणाम था
कि सभा में पंचायती राज को लेकर आम सहमति नहीं थी एक और डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद और टी. प्रकाशम जैसे
नेता महात्मा गांधी के इस विचार के पक्षधर थे कि ग्राम स्वराज ही भारत की शासन प्रणाली का आधार बनना
चाहिए। तो दूसरी ओर डॉक्टर अंबेडकर जैसे नेता पंचायती राज की स्थापना के घोर विरोधी थे।
इसी असहमति के कारण संविधान सभा में इस मुद्दे पर व्यापक
विचार विमर्श हुआ तथा अंतिम रूप से श्री के संथानम के प्रस्ताव पर सहमति कायम हुई उनका प्रस्ताव था कि
पंचायती राज को अनिवार्य रूप देने की बजाय नीति निदेशक तत्व में शामिल कर लिया जाए इसी सहमति के
आधार पर अनुच्छेद 40 की रचना हुई। इसमें कहा गया है राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम
उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां तथा प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में
कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।

14
संविधान सभा ने स्थानीय स्वशासन को राज्य सूची में शामिल
किया इसका अर्थ है- अनुच्छेद 40 में दिए गए निर्देश का पालन करने की नैतिक जिम्मेदारी कें द्र कि नहीं राज्य
को सौंपी गई थी राज्य सूची के प्रविष्टि संख्या 5 स्थानीय स्वशासन का उपबंध करती हैं जो इस प्रकार हैं
स्थानीय शासन अर्थात नगर निगमों सुधारने आस्थाओं जिला बोर्ड या ग्राम प्रशासन के प्रयोजनों के लिए अन्य
स्थानीय प्राधिकारी के गठन एवं शक्तियां।

संविधान लागू होने के बाद की विकास यात्रा


1950 में संविधान लागू होने से 1993 में पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा मिलने के बीच की यात्रा कई
उतार-चढ़ाव से गुजरी है इस यात्रा के प्रमुख चरण इस प्रकार हैं –
1951 में फोर्ड फाउंडेशन के सहयोग से सामुदायिक विकास कार्यक्रम के कु छ प्रयोग संचारित हुए जो कु छ हद
तक सफल रहे इन प्रयोगों का निष्कर्ष था कि जनता की सीधी भागीदारी के बिना विकास की कोई भी योजना
सफल नहीं हो सकती। इसी प्रकार 2 अक्टू बर 1952 को देश के 55 विकास खंडों में सामुदायिक विकास
कार्यक्रम की शुरुआत की गई इन कार्यक्रमों को पंचायती राज कार्यक्रम के अंतर्गत तो नहीं रखा जा सकता किं तु
पंचायती राज की पृष्ठभूमि में इसका विशेष महत्व रहा है। इसके पश्चात इसकी सफलता असफलता का
मूल्यांकन करने तथा भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप इसे स्थापित करने के लिए अनेक समितियां गठित हुई
जिनमें कु छ प्रमुख समितियां निम्नलिखित हैं –

 1. बलवंत राय मेहता समिति :-- यह समिति पंचायती राज कार्यक्रम के इतिहास में विशेष महत्व
रखती हैं। वस्तुतः यह समिति योजना आयोग द्वारा 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में गठित
की गई थी जिनकी रिपोर्ट में कु छ प्रमुख सिफारिशें शामिल :
 सामुदायिक विकास कार्यक्रमों में अपेक्षित सफलता नहीं मिल पाने का मूल कारण जन
सहभागिता की उपेक्षा है जन सहभागिता सुनिश्चित करने का सबसे ठोस तरीका पंचायती राज
भी हो सकता है।
 पंचायतों का त्रिस्तरीय ढांचा बनाना चाहिए :-
1. ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत का गठन होना चाहिए जिसके सदस्य और अध्यक्ष जनता द्वारा
प्रत्यक्ष चुनाव पद्धति से निर्वाचित हों।
2. खंड/ब्लॉक के स्तर पर पंचायत समिति का गठन किया जाना चाहिए जो विकास योजनाओं के
क्रियान्वयन की मुख्य अधिकारी बने।

15
3. जिला स्तर पर जिला परिषद का गठन किया जाना चाहिए जिसकी अध्यक्षता जिलाधीश के
पास हो।
 सरकार का काम सिर्फ मार्गदर्शन निरीक्षण तथा उच्च स्तर की योजना बनाएं तक सीमित रहना चाहिए
योजनाओं के क्रियान्वयन व कार्य स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं को सौंप दिया जाना चाहिए।

पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ :- 1959 में केंद्र सरकार ने बलवंत राय
मेहता समिति की सिफारिशें स्वीकार कर ली तथा राज्यों को यह व्यवस्था अपनाने
के लिए प्रेरित किया सबसे पहले राजस्थान विधानसभा ने सितंबर उन्नीस सौ 59 में
उपयुक्त अधिनियम पारित किया जिसके आधार पर 2 अक्टू बर 1959 को नागौर
(राजस्थान) में नेहरु जी ने दे श की पहली त्रिस्तरीय पंचायत का उद्घाटन किया
इसके पश्चात कई अन्य राज्यों ने भी इस व्यवस्था को अपनाया इस प्रकार 1965 तक
नागालैंड सर लक्ष्यदीप जैसे कुछ क्षेत्रों को छोड़कर लगभग पूरे दे श में पंचायती राज
की स्थापना हो चुकी थी। गौरतलब है कि पंचायती राज राज्य सूची का विषय है
इसलिए स्वाभाविक ही है कि इस दौर में विभिन्न राज्यों के पंचायती राज कार्यक्रमों
में अंतर बना रहा उदाहरण के लिए केरल, जम्मू कश्मीर में सिर्फ 1 स्तरीय पंचायतें
गठित की। तमिलनाडु हरियाणा दिल्ली पंजाब उड़ीसा में त्रिस्तरीय पंचायती
राजस्थान आंध्र प्रदे श तथा कुल कुछ अन्य राज्यों ने त्रिस्तरीय पंचायती तो पश्चिम
बंगाल में चार स्तरीय के साथ स्थानीय स्वशासन की उपयोगिता पर भी विचार
किया। आयोग ने सुझाव दिया कि विकास संबंधी कार्य जिलाधीश से लेकर जिला
परिषद को सौंप दिए जाने चाहिए।

2. अशोक मेहता समिति (1977) :-- 1970 में जनता पार्टी के शासन में आते ही स्थानीय
प्रशासन को मजबूत किए जाने की मांग उठने लगी परिणाम स्वरूप मोरारजी देसाई ने कि सरकार ने
अशोक मेहता समिति का गठन किया समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जिनमें निवेश सुझाव दिए
गए थे:-

16
 पंचायत व्यवस्था द्विस्तरीय होनी चाहिए पहले स्तर पर मंडल पंचायत जिसमें 15 देशों शामिल हो तथा
दूसरे स्तर पर जिला परिषद हो पंचायतों का कार्यकाल 4 वर्ष का होना चाहिए।
 न्याय पंचायतों का भी गठन किया जाना चाहिए।
 अनुसूचित जातियों और जनजातियों को अपनी संख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए।
 पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
 इसके लिए अलग से वित्त आयोग की व्यवस्था होनी चाहिए।
 पंचायतों के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए सामाजिक अंकेक्षण की
व्यवस्था होनी चाहिए।

3. जी.वी.के. राव समिति (1985) :- इस समिति का गठन श्री राजीव गांधी के सरकार
ने स्थानीय स्तर पर ग्रामीण विकास एवं निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रमों से संबंधित प्रशासनिक ढांचे की
समीक्षा करने के लिए किया था इस समिति को सामान्यता कार्ड समिति के संक्षिप्त नाम से भी जाना
जाता है। समिति ने निम्नलिखित सिफारिशें दी :
 योजना प्रक्रिया में कें द्रीकरण की प्रवृत्ति घातक हैं जहां तक हो सके इस प्रक्रिया को विकें द्रीकृ त
बनाया जाना चाहिए।
 पंचायती राज 4 स्तरीय होना चाहिए इनमें तीन स्तर तो गांव खंड तथा जिला के एवं चौथे स्तर
के रूप में राज्य विकास परिषद का गठन किया जाना चाहिए जिसकी अध्यक्षता मुख्यमंत्री के
पास वो तथा सभी मंत्री व जिला अध्यक्ष इसके सदस्य हो।
 जिला परिषद में अनुसूचित जातियों और जनजातियों महिलाओं तथा अन्य पिछड़े वर्गों को
उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।
 जिला स्तर पर जिला आयुक्त का पद सृजित किया जाना चाहिए।

4.लक्ष्मीमल सिंधवी समिति :- श्री राजीव गांधी की सरकार विकेंद्रीकरण के मुद्दे


पर काफी सक्रिय थी जून 1986 में ग्रामीण विकास मंत्रालय ने श्री लक्ष्मी मल सिंधी
की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया इसे पंचायती राज व्यवस्था के पुनर्जीवन
के लिए एक अवधारणा पत्र प्रस्तुत करना था समिति ने अपनी रिपोर्ट दी जिसमें नियमों
की सिफारिशें की गई :-

17
 पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
 प्रत्येक प्रशासनिक अधिकारी को ग्रामीण विकास प्रशासन में कार्य करने का मौका अनिवार्य रूप
से दिया जाना चाहिए ।
 पंचायती चुनाव में दलगत व्यवस्था को नहीं अपनाया जाना चाहिए।
 पंचायती राज से जुड़े विवादों के निपटारे के लिए प्रत्येक राज्य में पंचायती राज अधिकरण की
स्थापना की जानी चाहिए।
 कें द्र सरकार द्वारा प्रत्येक राज्य के लिए राज्य वित्त आयोग का गठन किया जाना चाहिए जो
पंचायतों के लिए पर्याप्त वित्त को सुनिश्चित कर सके।
 राज्य के मुख्य निर्वाचन अधिकारी को यह जिम्मेदारी दी जानी चाहिए कि
पंचायतों के चुनाव नियमित अंतराल पर तथा निष्पक्ष रुप से संचालित हो।
 न्याय पंचायतों या ग्रामीण न्यायालयों की पर्याप्त व्यवस्था की जानी
चाहिए। न्याय करने की शक्ति उन्हीं व्यक्तियों को दी जानी चाहिए जिनके
पास इससे जुड़ी शैक्षिक योग्यता व प्रशिक्षण हो।

5. पी.के . थुंगन समिति :- सिंधी समिति की रिपोर्ट आने के बाद से ही पंचायती राज से संबंधित संवैधानिक
संशोधन की पृष्ठभूमि तैयार होने लगी थी इसी समय 1988 में कार्मिक मंत्रालय से जिला योजना प्रक्रिया पर
विचार करने के लिए पी.के . थुंगन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिनकी सिफारिशें निम्नलिखित थी:-
 पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया जाना चाहिए।
 जिला परिषद को विकास कार्यों तथा योजना निर्माण की प्रमुख संस्था के तौर पर विकसित किया जाना
चाहिए।
 जिलाधीश को जिला परिषद का मुख्य कार्यकारी अधिकारी बनाया जाना चाहिए।
 पंचायतों के लिए 5 साल का कार्यकाल निर्धारित किया जाना चाहिए तथा निर्धारित समय पर चुनाव की
व्यवस्था अनिवार्य रूप से लागू की जानी चाहिए।
 पंचायतों की वित्तीय स्थिति पर ध्यान देने के लिए राज्य वित्त आयोग के गठन की व्यवस्था की जानी
चाहिए।

18
73 वां संविधान संशोधन अधिनियम-1992 :- पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिलाने के
लिए अलग-अलग समय में गठित विभिन्न समितियों की सिफारिशों पर व्यापक विचार विमर्श करने के पश्चात
अंततः तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री पी वी नरसिम्हा राव ने सितंबर 1991 में 73 व संविधान संशोधन विधेयक
लोकसभा में प्रस्तुत किया इसके पश्चात दिसंबर 1996 में यह लोकसभा तथा राज्यसभा से पारित हो गया।
इसके बाद कु छ महीनों में ही 17 राज्यों के विधान मंडलों ने इस पर अपनी अपनी स्वीकृ ति दे दी 20 अप्रैल
1993 को इस विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृ ति प्राप्त हुई तथा 24 अप्रैल 1993 को यह 73 वें संविधान
संशोधन अधिनियम के रूप में लागू हुआ इसके लागू होने की तिथि के आधार पर ही 24 अप्रैल के दिन राष्ट्रीय
पंचायत दिवस के रूप में मनाया जाता है।
73 वा संशोधन द्वारा पंचायती राज व्यवस्था को
संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया इसके तहत संविधान ने एक नया भाग पुनः जोड़ा गया जिसे सातवें संविधान
संशोधन 1956 द्वारा हटा दिया गया था जो कि मूल संविधान में भावनाओं के अंतर्गत एक ही अनुच्छेद 243
था। इसलिए पंचायती राज से जुड़े उपबंध इसी अनुच्छेद के विभिन्न खंडों के रूप में स्थापित किए गए। नए भाग-
9 का शीर्षक हैं ‘पंचायतें’ तथा इसमें अनुच्छेद 243 (A) से 243(O) तक कु ल 15 अनुच्छेद शामिल है।
इन सबके अलावा इस संशोधन द्वारा संविधान में 11 वीं अनुसूची भी जोड़ी गई जिसमें पंचायतों के लिए निर्दिष्ट
29 विषयों को समाहित किया गया।
74 वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 द्वारा नगरीय क्षेत्रों में स्थानीय
स्वशासन को भी संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया इसके तहत अनुच्छेद 243(P) से अनुच्छेद-243 (ZG)
जोड़ा गया तथा अनुसूची 12 जोड़कर नगरीय निकायों के लिए 18 विषय प्रदान किए गए।

अनुच्छेद 243 (A) से अनुच्छेद 243 (O) तक के विभिन्न प्रावधान संक्षिप्त में निम्नलिखित है :-
 अनु. 243 (A) - ग्राम सभा।
 अनु. 243 (B) - पंचायतों का गठन।
 अनु. 243 (C) - पंचायतों की संरचना।
 अनु. 243 (D) - सीटों पर आरक्षण का प्रावधान।
 अनु. 243 (E) - पंचायतों का कार्यकाल।
 अनु. 243 (F) - सदस्यता के लिए योग्यता।
 अनु. 243 (G) - 29 विषयों पर पंचायतों के शक्तियां प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व।

19
 अनु. 243 (H) - पंचायतों के द्वारा कर आरोपित करने की शक्ति और पंचायत की निधियां।
 अनु. 243 (I) - राज्य वित्त आयोग का गठन।
 अनु. 243 (J) - पंचायतों के लेखाओं की सम परीक्षा।
 अनु. 243 (K) - पंचायतों के लिए निर्वाचन एवं राज्य निर्वाचन आयोग।
 अनु. 243 (L) - पंचायती राज का लागू ना होना।
 अनु. 243 (M) - पंचायती राज का लागू होना।
 अनु. 243 (N) - पंचायती राज कब बना रहना।
 अनु. 243 (O) - संबंधित मामलों में न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन।

अध्याय - 6

छत्तीसगढ़ में स्थानीय-स्वशासन :


स्वरूप, संरचना एवं कार्यप्रणाली

राज्य निर्माण से पूर्व छत्तीसगढ़ मध्य प्रदे श


राज्य का हिस्सा था मध्यप्रदे श में 73 वा संविधान संशोधन अधिनियम

20
1992 के अनरू
ु प मध्यप्रदे श विधानसभा द्वारा पारित मध्य प्रदे श
पंचायती राज अधिनियम 1993 के प्रावधान अनुसार पंचायती राज
व्यवस्था लागू थी इसी के साथ छत्तीसगढ़ में भी यह व्यवस्था लागू थी
परं तु 1 नवंबर 2000 को छत्तीसगढ़ राज्य अलग होने के पश्चात इसी
दिन से ही संपूर्ण छत्तीसगढ़ राज्य में पंचायती राज व्यवस्था लागू की
गई परन्तु इसे अधिसचि
ू त नहीं किया गया।

बाद में छत्तीसगढ़ में राजपत्र (असाधारण प्राधिकार)


क्रमांक 134 दिनांक 18 जून 2001 द्वारा यथावत विधियों का अनुकूलन
आदे श प्रकाशित किया गया इसके अनुसार समस्त विधियों में जहां-जहां
भी मध्यप्रदे श शब्द आया था उसके स्थान पर छत्तीसगढ़ शब्द स्थापित
किया गया यह आदे श संपूर्ण छत्तीसगढ़ में 1 नवंबर 2001 से प्रभावी
होने के साथ ही नवीन छत्तीसगढ़ राज्य में यख व्यवस्था बनी रही। इस
प्रकार यहां छत्तीसगढ़ पंचायती राज अधिनियम 1993 के अनुसार
पंचायती राज व्यवस्था लागू है ।

इस प्रकार छत्तीसगढ़ में स्थानीय स्वशासन व्यवस्था ग्रामीण तथा


नगरीय प्रशासन के लिए त्रिस्तरीय व्यवस्था के रूप में विद्यमान है-

 ग्रामीण क्षेत्र में :-


1. 1 से 5 हज़ार तक कि जनसंख्या के लिए – ग्राम पंचायत

21
2. 5 से 50 हज़ार तक की जनसंख्या के लिए – जनपद पंचायत
3. 50 हज़ार से अधिक की जनसंख्या के लिए – जिला पंचायत
 शहरी/नगरीय क्षेत्र के लिए :-
1. 5 से 20 हज़ार तक की जनसंख्या के लिए - नगर पंचायत
2. 20 हज़ार से 1 लाख तक की जनसंख्या के लिए – नगर पालिका
3. 1 लाख से अधिक की जनसंख्या के लिए – नगर निगम

73 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के प्रावधान अनुसार छत्तीसगढ़ में


भी पंचायती राज संस्थानों के लिए निम्नलिखित व्यवस्थाएं की गई है :-

1. ग्राम सभा
2. पंचायतों का गठन
3. पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान
4. पंचायत का कार्यकाल
5. पंचायत में सदस्यता के लिए योग्यताएं
6. पंचायतों की शक्तियां प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व
7. पंचायतों की नदियां कर आरोपित करने की शक्ति
8. राज्य वित्त आयोग का गठन
9. राज्य निर्वाचन आयोग
10. पंचायत अधिकारियों की पद मुक्ति

22
ग्राम सभा [अनच्
ु छे द- 243 (A)] :-
ग्राम सभा पंचायती राज व्यवस्था की बुनियादी इकाई होती है । ग्राम
सभा के गठन और पंचायतों की सीमा में परिवर्तन की अधिसच
ू ना
राज्यपाल द्वारा जारी की जाती है । ग्राम पंचायत मतदाता सूची में नाम
शामिल समस्त व्यक्ति ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। इसके अलावा गांव
में रहने वाला व्यक्ति जो विधानसभा निर्वाचन नामावली में पंजीकृत
किए जाने के लिए योग्य होते हैं वह भी ग्राम सभा के सदस्य होते हैं।

ग्राम सभा के सम्मेलन के लिए तिथि,


स्थान, समय का निर्धारण तथा अध्यक्षता करने का अधिकार सरपंच का
होता है । सरपंच की अनुपस्थिति में उपर्युक्त कार्य उप-सरपंच, तथा दोनों की
अनुपस्थिति में ग्राम पंचायत सचिव द्वारा किया जाता है । इसका
सम्मेलन प्रत्येक तीन माह में एक बार अथवा 1 साल में 6 बार होना
अनिवार्य है। ग्राम सभा के कुल सदस्य संख्या के एक तिहाई सदस्यों
द्वारा लिखित में मांग किए जाने पर अथवा जनपद या जिला पंचायत
या कलेक्टर द्वारा आदे श किए जाने पर 30 दिनों के भीतर ग्राम सभा
का सम्मेलन करना अनिवार्य है ।

सभा के कार्य ग्राम :- सभा के निम्नलिखित कार्य होते हैं :-


 लेखाओं के वार्षिक विवरण पर चर्चा।
 पूर्व वित्तीय वर्ष का प्रशासनिक रिपोर्ट।
 आगामी वित्तीय वर्षों के लिए प्रस्तावित विकास एवं अन्य कार्य ।

23
 ग्राम पंचायत का वार्षिक बजट और अगले वित्तीय वर्ष का वार्षिक
योजना तैयार करना।
 पंचायतों के कार्यों का विवरण।
 सामाजिक और अंकेक्षण का कार्य।

पंचायतों का गठन :-
 ग्राम पंचायत :- भारतीय संविधान के भागने के अनुच्छे द 243 (B) में प्रत्येक
1000 तक की जनसंख्या पर ग्राम पंचायत के गठन का प्रावधान है, जो की
निर्वाचित पंच सरपंच से मिलकर होता है। 1 ग्राम पंचायत में वार्डो की न्यूनतम
संख्या 10 एवं अधिकतम संख्या 20 हो सकती है। वार्ड गठन के समय का ध्यान
रखा जाता है कि प्रत्येक वार्ड की जनसंख्या समान होनी चाहिए।

 जनपद पंचायत :- प्रत्येक 50 हज़ार की जनसंख्या पर एक जनपद पंचायत के


गठन का प्रावधान है जो कि निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बना होगा:-
1) निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित सदस्य अथवा जनपद पंचायत सदस्य से। एक जनपद
पंचायत क्षेत्र में सदस्यों की न्यूनतम संख्या 10 यहां अधिकतम संख्या 25 हो
सकती हैं।
2) राज्य विधानसभा के ऐसे समस्त सदस्य जो उस निर्वाचन क्षेत्र के भीतर
पूर्णतः/अंशतः पड़ते हैं।
3) जनपद पंचायत क्षेत्र के सरपंचों का 20% चक्रानुक्रम में 1 वर्ष की अवधि के लिए
जनपद पंचायत सदस्य बनते हैं।

 जिला पंचायत का गठन :- प्रत्येक जिला की जनसंख्या पर एक जिला पंचायत


का गठन किया जाता है जो निम्नलिखित सदस्यों से मिलकर बनता है:-

24
1) निर्वाचन क्षेत्रों से निर्वाचित सदस्य या जिला पंचायत सदस्य। जिस की न्यूनतम
संख्या 10 तथा अधिकतम संख्या 35 हो सकती है।
2) लोकसभा व राज्यसभा के सदस्य जिनका निर्वाचन क्षेत्र पूर्णता या अंशतः
शामिल हो।
3) विधानसभा के सभी सदस्य जो उस जिले से निर्वाचित एवं नामित हुए है।
4) जिले के सभी जनपद पंचायतों के अध्यक्ष जिला पंचायत के नामित सदस्य होते
हैं।

पंचायतों में आरक्षण का प्रावधान अनुच्छे द 243 (D)


छत्तीसगढ़ पंचायती राज अधिनियम 1993 के इस प्रावधान के अनुसार प्रत्येक ग्राम
पंचायत में अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए स्थान आरक्षित रखे जाएंगे।
आरक्षण का अनुपात उस वर्ग की कुल जनसंख्या के अनुपात के आधार पर होगा
प्रत्येक ग्राम पंचायत में महिलाओं के लिए 33% स्थान आरक्षित होगा। यदि किसी
ग्राम पंचायत में अनुसूचित जनजाति या जाति वर्ग के लिए 50% या 50% से कम स्थान
आरक्षित किए गए हैं तो वहां कुल स्थान का 25% अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित
होगा।

पंचायतों का कार्यकाल, अनुच्छे द 243 (E)


प्रत्येक ग्राम/जनपद/जिला पंचायत अपने प्रथम सम्मेलन के नियत तारीख से 5 वर्ष
तक बनी रहेगी। किसी भी पंचायत के लिए निर्वाचन 5 साल की अवधि समाप्त होने के
लिए 6 माह पूर्व करा लिया जाएगा। सरपंच की मृत्यु होने या त्याग पत्र दे ने पर 6 माह के
भीतर चुनाव होना आवश्यक होता है। तब तक कार्यवाहक सरपंच द्वारा कार्यवाही की
जाएगी जो कि निर्वाचित पंच में से कोई एक होगा। उपचुनाव से निर्वाचित अधिकारी का
कार्यकाल शेष कार्यकाल के लिए होता है।

25
सदस्यता के लिए योग्यताएं/अयोग्यताएं, अनुच्छे द 243 (F)
ग्राम/जनपद/जिला पंचायत के सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित अर्हता है होनी
चाहिए:-
 सरकारी नौकरी या लाभ के पद में नहीं होना चाहिए।
 21 वर्ष की आयु पूरी होनी चाहिए।
 पंचायत की ओर से किसी विधि व्यवसाय में नियोजित ना किया हो
 यदि किसी व्यक्ति को न्यायालय द्वारा अपराधी ठहराया गया है और उसकी सजा
6 माह से अधिक है तो उस व्यक्ति द्वारा सजा पूर्ण होने की तारीख से 5 वर्ष
तक चुनाव नहीं लड़ा जा सकता ।

पंचायतों की शक्तियां प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व, अनुच्छे द 243 (G)


 सड़कों नालियों शौचालय तालाबों को एवं अन्य सार्वजनिक स्थलों की साफ-
सफाई और अनुरक्षण।
 जन्म एवं मृत्यु और विवाह संबंधी प्रमाण पत्रों एवं अभिलेखों को रखना।
 निशक्त जनों तथा निराश्रित की सहायता करना।
 युवा कल्याण परिवार कल्याण खेलकूद को बढ़ावा दे ना।
 आवागमन सुविधा हेतु ग्रामीण सड़कों पोलियो पूर्व एवं अन्य भवनों का निर्माण
एवं अनुरक्षण।
 गांव के वार्डों-गलियों में और सार्वजनिक स्थानों पर प्रकाश की व्यवस्था करना।
 आवारा पशु के लिए कांजी हाउस का निर्माण एवं प्रबंध साथ ही पशुओं से
संबधि
ं त अभिलेख रखना।
 स्वच्छता, स्वास्थ्य एवं साफ सफाई पर विशेष ध्यान।

जनपद पंचायतों के कार्य एवं शक्तियां


 एकीकृत ग्रामीण विकास

26
 प्रौढ़ शिक्षा संस्कार
 सामाजिक वानिकी एवं कुटीर उद्योग।
 महिला, युवा तथा बाल कल्याण।
 प्राकृतिक आपदाओं जैसे आगजनी बाढ़, सूखा, भूकंप, दुर्भिक्ष, टिड्डी दल,
महामारी और अन्य आपदाओं में आर्थिक सहायता की व्यवस्था करना।
 स्थानीय त्यौहार तथा तीर्थ यात्राओं के संबंध में व्यवस्थाएं करना।

पंचायतों की निधियाँ और पंचायतों के द्वारा कर आरोपित करने की


शक्ति अनुच्छे द 243 (H)
पंचायती राज के प्रत्येक स्तर में एक निधि होगी जो पंचायत निधि के नाम से जानी
जाएगी। जिसमें पंचायत के समस्त प्राप्तियों एवं राशियों को रखा जाएगा। यह पंचायत
निधि निकटतम सरकारी खजाने, डाकघर, सरकारी बैंक, अनुसूचित बैंक या उसकी
शाखा में रखे जाएंगे। पंचायत निधि रकम आहरित करने के लिए निम्नलिखित व्यक्ति
प्राधिकृत होंगे :-
 ग्राम पंचायत निधि के लिए सरपंच एवं सचिव के संयुक्त हस्ताक्षर
 जनपद पंचायत निधि के लिए जनपद पंचायत सीईओ (मुख्य कार्यकारी
अधिकारी) के हस्ताक्षर।
 जिला पंचायत निधि के लिए जिला पंचायत सीईओ या मुख्य कार्यकारी
अधिकारी के हस्ताक्षर।
 ग्राम पंचायतों में सचिव की अनुपस्थिति में जनपद पंचायत का मुख्य कार्यकारी
अधिकारी विहितअधिकारी नियुक्त कर सकेगा।
 जनपद एवं जिला पंचायत में पंचायत निधि से रकम आहरित करने से पूर्व
सामान्य प्रशासन समिति से अनुमोदन लेना आवश्यक है।
 पंचायत निधि की समस्त प्राप्तियां और उससे आहरण की जानकारी पंचायत के
आगामी सम्मेलन में रखी जाती हैं।

27
छत्तीसगढ़ में पंचायत द्वारा कर आरोपित करने की शक्ति
पंचायतों द्वारा पर लगाने एकत्र करने और हिस्सा बांटने संबंधित नियम छ ग पंचायती
राज अधिनियम 1993 में विहित है जिसके अनुसार, पंचायत निम्न दो प्रकार के कर
आरोपित कर सकती हैं :-
 अनिवार्य कर : निम्न 6 मदों को पंचायत के अनिवार्य कर श्रेणी के अंतर्गत
रखा गया है जिस पर पंचायत अनिवार्य रूप से कर लगाएगी -
1) बाजार कर
2) व्यापार या आजीविका चलाने वाले पर कर
3) भूमि कर
4) पशुधन के रजिस्ट्रीकरण पर कर
5) बिजली या प्रकाश कर
6) सार्वजनिक किया निजी शौचालयों पर कर
 ऐच्छिक कर : उपर्युक्त करो के अलावा पंचायत जल, स्वच्छता, जल निकासी,
पेयजल आपूर्ति, कूड़ा कचरा हटाने, साफ सफाई कर बैलगाड़ी वा टांगा स्टैं ड
पर कर इत्यादि मदों पर आरोपित कर सकती हैं।

राज्य वित्त आयोग का गठन अनुच्छे द 243 (I)


भारतीय संविधान में 73 वें संशोधन के द्वारा नगरीय निकाय व पंचायती राज को
वित्तीय रूप से सक्षम बनाने प्रत्येक 5 वर्ष के लिए राज्य वित्त आयोग के गठन का
प्रावधान किया गया है जिसके अध्यक्ष की नियुक्ति मंत्रिपरिषद की सलाह पर
राज्यपाल द्वारा किया जाता है। इस आयोग का कार्य निम्नलिखित होगा -
 राज्य की अर्थव्यवस्था की समीक्षा करना।
 राज्य सरकार और स्थानीय निकायों के बीच करो या अनुदान का
बंटवारा।
 राज्यपाल द्वारा सौपे गए सारे कार्य।

28
राज्य निर्वाचन आयोग अनुच्छे द 243 (K)
अनुच्छे द 243 (K) ग्रामीण निकायों (जिला/जनपद/ग्राम पंचायतों) तथा शहरी
निकायों (नगर पंचायत/नगर पालिका/नगर निगम) के सदस्यों के निष्पक्ष निर्वाचन के
लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का प्रावधान करता है। राज्य निर्वाचन आयोग के
कार्य एवं शक्तियां निम्नलिखित है –
 पंचायती राज चुनाव के समय सारणी तैयार करना।
 पंचायतों के लिए कराए जाने वाले समस्त निर्वाचन के लिए निर्वाचन नामावली
तैयार करना।
 समस्त निर्वाचन क्षेत्रों में नियंत्रण, निर्देशन एवं आचार संहिता जारी करना।
 रिटर्निंग ऑफिसरो के माध्यम से चुनाव के लिए चुनाव चिन्ह का निर्धारण एवं
आवंटन।

पंचायत पदाधिकारियों की पद मुक्ति


पंचायत के विभिन्न स्तरों में निर्वाचित सदस्यों को हटाए जाने या पद मुक्ति के संबंध में
प्रावधान छत्तीसगढ़ पंचायती राज अधिनियम 1993 की विभिन्न धाराओं में की गई
है, जो निम्नानुसार है -
 अविश्वास प्रस्ताव : नियम की धारा 21 द्वारा ग्राम पंचायत में सरपंच एवं उप
सरपंच के खिलाफ, जनपद पंचायत में अध्यक्ष, उपाध्यक्ष के खिलाफ तथा
जिला पंचायत में जिला पंचायत अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष के खिलाफ क्रमशः पंचों,
निर्वाचित जनपद पंचायत सदस्य एवं निर्वाचित जिला पंचायत सदस्यों द्वारा
विभिन्न परिस्थितियों में अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। अविश्वास
प्रस्ताव पास होने के लिए उपस्थित तथा मतदान दे ने वाले पंचों या सदस्यों का
तीन चौथाई बहुमत होना चाहिए, जो कुल सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से
अधिक होना अनिवार्य है।

29
 पंचायत के सदस्यों को वापस बुलाया जाना या प्रत्यावर्तन या रिकॉल :
नियम की धारा 21 (क) के अनुसार ग्राम पंचायत के सरपंच एवं पंच के
खिलाफ स्थानीय मतदाताओं द्वारा विभिन्न परिस्थितियों (ग्राम सभा के निर्देश
की अवमानना अथवा मनमानी) में ग्राम सभा गुप्त मतदान द्वारा सरपंच व
पंचों को वापस बुला सकते हैं।

 स्वयं त्यागपत्र दे ना : पंचायत का कोई भी अधिकारी अगर अपने पद से खुद


हटना चाहें तो अपना त्यागपत्र लिखित रूप में निम्न प्राधिकृत अधिकारियों को
दे कर अपना पद छोड़ सकता है -

 सरपंच, जिला उप संचालक पंचायत को।


 जनपद पंचायत अध्यक्ष, कलेक्टर/अतिरिक्त कलेक्टर को।
 जिला पंचायत अध्यक्ष, संभागीय आयुक्त या अतिरिक्त आयुक्त को।
 पद से हटाना : धारा 40 के अनुसार राज्य शासन द्वारा विहित प्राधिकारी के
माध्यम से सभी पंचायत अधिकारी को तत्काल पद से हटाया जाएगा यदि वह
जांच में निम्न बातों का दोषी पाया गया है -
 कोई भारत की एकता संप्रभुता व अखंडता को नुकसान पहुंचाता है।
 लिंग, जाति, वर्ग धर्म आदि के आधार पर भेदभाव या स्त्रियों के सम्मान
में बाधा पहुंचाता है।
 पंचायत के विरुद्ध विधि व्यवसाय के रूप में उसने नियोजन स्वीकार कर
लिया हो।
 किसी शासकीय भूमि पर अतिक्रमण करने पर।
 पंचायतों के विरुद्ध विधि व्यवसाय के रूप में वह नियोजन स्वीकार कर
लिया है।
 पंचायत के काम में भागना लेने पर।

30
 पंचायत का कोई पदाधिकारी ग्राम पंचायत की अनुमति के बिना 6 माह
के काम के दौरान आधे से अधिक बैठकों में अथवा तीन लगातार बैठकों
में अनुपस्थित रहता है।

पंचायती राज व्यवस्था के विभिन्न स्तर की स्थाई समितियां


पंचायती राज व्यवस्था में त्रिस्तरीय पंचायतों को कर्तव्य एवं कार्य निर्वहन हेतु स्थाई
समितियां गठित करने का अधिकार है।
पंचायत के लिए समितियां छत्तीसगढ़ पंचायती राज अधिनियम 1993 की धारा
46 के अंतर्गत ग्राम पंचायत स्तर में 3 से 5 समितियों को गठित करने के लिए
प्राधिकृत किया गया है।
1) सामान्य प्रशासन समिति
2) शिक्षा स्वास्थ्य तथा समाज कल्याण समिति
3) निर्माण एवं विकास समिति
4) कृषि, पशुपालन, मत्स्य पालन समिति
5) राजस्व एवं वन समिति।
उपर्युक्त के अलावा जिला कलेक्टर की अनुमति से इन समितियों के अलावा और भी
समिति गठित की जा सकती है। सामान्य प्रशासन समिति को छोड़कर सभी
समितियों में सदस्यों की संख्या चार होती है जिनका कार्यकाल अधिकतम 5 वर्ष
तक होता है इन समितियों के सदस्य ग्राम पंचायत के प्रत्यक्ष निर्वाचित पंच तथा
संबधि
ं त क्षेत्र में विशेष ज्ञान रखने वाले व्यक्ति को सदस्य के रूप में नामित किया जाता
है जिसे समिति के बैठक में किसी विषय वस्तु पर मत दे ने का अधिकार नहीं होगा।

जनपद एवं जिला पंचायत स्तर पर पांच से सात समितियां गठित करने के लिए
प्राधिकृत किया गया है -
1) सामान्य प्रशासन समिति
2) शिक्षा समिति

31
3) कृषि समिति
4) वन समिति
5) सहकारिता एवं उद्योग समिति
6) स्वास्थ्य महिला एवं बाल कल्याण समिति
7) संचार एवं संकर्म समिति।

अध्याय - 7

ग्राम पंचायत नेवारीकला : एक दृष्टि में

ग्राम पंचायत की संरचना :-


इसकी प्रशासनिक संरचना इस प्रकार है कि संपूर्ण गांव को 20 वार्डों में बांटा गया है।
राज्य निर्वाचन आयोग द्वारा जनवरी फरवरी 2019 में छत्तीसगढ़ में त्रिस्तरीय पंचायती
चुनाव हुए इसी के अनुरूप ग्राम पंचायत नेवारी कला में भी चुनाव संपन्न हुवे जिसमें
अनुसूचित जनजाति तथा महिला प्रत्याशी के लिए आरक्षित सरपंच पद के रूप
मे सरपंच श्रीमती यामिनी तुमरेकी निर्वाचित हुई।

32
20 अलग-अलग वार्ड से निर्वाचित हुए पंचो ने श्रीमान मुकेश शर्मा को उपसरपंच के
रूप में चयनित किया। 20 में से 13 महिला पंचों की उपस्थिति गाँव मे राजनीतिक
रूप से सशक्त होती महिला वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जो गाँव के विकास में
अपनी भागीदारी सुनिश्चित कर रही है।
ग्राम पंचायत नेवारी कला के लिए नवीन भवन के समीप
ही एक क्लस्टर के रूप में प्राथमिक शाला एवं माध्यमिक शाला, जिला चिकित्सालय,
डाकघर, साप्ताहिक बाजार, उचित मूल्य की राशन दुकान इत्यादि एक ही जगह पर
स्थित है जिससे ग्राम वासियों को अधिकांश सुविधाएं एक ही स्थान पर उपलब्ध हो
जाती है। गांव के विभिन्न क्षेत्रों में विकास हेतु विभिन्न प्रकार की समितियों का भी
गठन किया गया है।

ग्राम पंचायत की वित्तीय संरचना :-


ग्राम पंचायत के आय के स्रोतों में पंचायत द्वारा दिए जाने वाले विभिन्न सुविधाओं में
लगाया जाने वाला कर होता है। यहां भी निम्नलिखित स्रोतों से आय प्राप्ति होती है -
 राज्य वित्त आयोग द्वारा प्राप्त होने वाले अनुदान,
 नलजल कर,
 तालाबो व साप्ताहिक बाजार की नीलामी से मिलने वाली राशि,
 मवेशियों की खरीद-बिक्री के समय पंजीकरण द्वारा लगने वाला कर,
 भूमि कर इत्यादि
उपर्युक्त मदों का प्रयोग स्थानीय सुविधाओं में वृध्दि व
विकास कार्यो जैसे नालियों-गलियों की साफ-सफाई, सड़क निर्माण, समतलीकरण,

33
उद्यान निर्माण, कुछ स्थानीय संस्थाओं जैसे विद्यालय, चिकित्सालय में अतिरिक्त
सुविधाओ हेतु, मोहल्ले में प्रकाश की व्यवस्था इत्यादि में किया जाता है।

विकास कार्य :-
गांव में सभी प्रकार के विकास कार्य प्रगति पर है शासन की विभिन्न योजनाओं
मुख्यमंत्री शुभम सड़क योजना, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना
(मनरेगा), प्रधानमंत्री आवास योजना (ग्रामीण), स्वच्छता अभियान के तहत प्रत्येक
घर में शौचालय निर्माण, निशक्त व्यक्तियों एवं विधवा एवं परित्यक्त महिलाओं के लिए
सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना, विभिन्न डिजिटल पहलों, एकीकृत ग्रामीण विकास
योजनाओं, डॉ खूबचंद बघेल स्वास्थ्य सहायता योजना के तहत पंजीयन एवं स्मार्ट
कार्ड वितरण, सार्वभौमिक पीडीएस योजना के तहत गरीबी रेखा से नीचे के व्यक्तियों,
निराश्रित, अंत्योदय इत्यादि कार्ड धारियों को उचित मूल्य पर राशन (चावल, शक्कर,
नमक मिट्टी तेल इत्यादि) का प्रतिमाह निरंतर वितरण, मुख्यमंत्री हाट बाजार क्लिनिक
इत्यादि योजनाओ का क्रियान्वयन धीमे ही सही पर हो रहे हैं।

कोविड-19 महामारी के कारण 11 मार्च 2020 से लागू दे शव्यापी लॉकडाउन के


दौरान ग्राम पंचायत द्वारा केंद्र व राज्य शासन के दिशा-निर्देशों के अनुरूप
निम्नलिखित कार्य किये गए –
 सार्वजनिक व निजी कार्य स्थलों में सामाजिक दूरी का पालन।
 अभी निजी व सार्वजनिक स्थानों के साथ साथ डोर-डोर सैनीटाइजेशन।
 महामारी के बारे में मुनादी इत्यादि के माध्यम से जनजागरूकता।
 वार्ड के पंचों द्वारा डोर टू डोर मास्क वितरित किए गए।
 साप्ताहिक बाजारों को स्थगित किया गया।
 स्थानीय शिक्षकों द्वारा ग्राम पंचायत के मार्गदर्शन में प्राथमिक तथा माध्यमिक
विद्यालय के छात्रों के घर जाकर डोर टू डोर सूखा अनाजों का वितरण किया

34
गया ताकि मिड-डे-मील योजना तथा सरकार के कुपोषण अभियान के लक्ष्यों
के क्रियान्वयन न टू टे।

मूल्यांकन :-
यद्यपि पंचायत द्वारा शासन की सभी नीतियों कार्यक्रमों, योजनाओं इत्यादि का
क्रियान्वयन सुचारू रूप से तो चल रहा तथा गाव के विकास में सकारात्मक भूमिका
निभा रही है, तथापि शासन की योजनाओं एवं विभिन्न प्रकार की शासकीय सूचनाओं
को गांव में प्रचार प्रसार कराने के लिए एक तरफ जहां ग्राम वासियों में जागरूकता की
कमी नजर आती हैं तो वहीं दूसरी तरफ उचित तंत्र का अभाव दिखाई दे ता है।
स्पष्ट है कि ग्राम पंचायत नेवारी कला शासन की विभिन्न
योजनाओं नीतियों कार्यक्रमों अभियानों को प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचा कर लोकतांत्रिक
विकेंद्रीकरण मूल उद्दे श्यों तथा एकीकृत एवं डिजिलीकृत ग्रामीण विकास की दिशा में
अग्रसर दिखाई दे ता है। उचित सूचना तंत्र विकसित कर तथा ग्राम वासियों में
अधिकाधिक जनजागरूकता के माध्यम से यह समाज, राज्य तथा राष्ट्र के विकास में
अपनी अधिकाधिक भागीदारी सुनिश्चित कर सकता है।

35
ग्राम पंचायत नेवारी-कला

36
अध्याय - 8

चुनौतियाँ एवं समाधान

इसमें कोई संदेह नहीं की 73 वें संशोधन द्वारा स्थापित हुई पंचायती राज प्रणाली
आम जनता के हाथ में ताकत सौपने की दृष्टि से पहले के सभी प्रयोगों की तुलना में
ज्यादा ठोस और कारगर रही है किंतु सच यह भी है कि यह प्रणाली समस्याओं से पूरी
तरह मुक्त नहीं है इनकी कुछ उपलब्धियां तो कुछ सीमाएं हैं उनके मूल्यांकन के संदर्भ
में निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण है –
समस्याएं/चुनौतियाँ
 छ ग में पंचायतों को आमतौर पर प्रभावी शक्ति नहीं दी गई है।
 पंचायतों के लिए कृत्यों या उत्तरदायित्वों का वर्गीकरण स्पष्ट रूप से नहीं
किया है जिसके कारण यह अनिश्चितता अभी भी है कि पंचायतें कौन से कार्य
कर सकती है और कौन से नहीं।
 वित्तीय संसाधनों की कमी पंचायती संस्थाओं की बड़ी समस्या है, छत्तीसगढ़
में पंचायतों को कुछ कर लगाने की शक्ति दी हैं किंतु वे आमतौर पर नाकाफी ही
साबित हो रहे हैं।
 पंचायतों की सामान्य मांग है कि उसके अधिकारी व कर्मचारी उसके नियंत्रण में
होने चाहिए किंतु अधिकांश कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर पंचायत का काम
संभालते हैं जिसे कारण उनमें प्रतिबद्धता का विकास नहीं हो पाता।
 अनुसूचित जातियों-जनजातियों के आरक्षण के परिणाम स्वरुप कुछ गांव में
जातीय ध्रुवीकरण की घटनाएं सामने आई हैं।
 महिला आरक्षण के विरोधियों का तर्क है कि जो महिलाएं पंचायतों के लिए चुनी
जाती है वह निरक्षर होने के कारण अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वाह नहीं कर
पाती उसके पति ही वास्तविक तौर पर पंचायत का काम दे खते हैं।

37
 पंचायतों की एक बड़ी समस्या भ्रष्टाचार की हैं क्योंकि अभी भी गांव में बहुत से
लोग निरक्षर हैं जिसके कारण अपने राजनीतिक अधिकारों से परिचित नहीं हो
पाए है, इसलिए वे भ्रष्टाचार को रोक नही पाते।

समाधान/सुझाव
 द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की छठी रिपोर्ट में सिफारिश की गई थी कि
सरकार के प्रत्येक इस तरह कार्यों का स्पष्ट रूप से सीमांकन होना चाहिए।
 पंचायतों के लिए एक अलग नौकरशाही संवर या कैडर का निर्माण ताकि
अधिकारियों की प्रतिनियुक्ति की व्यवस्था से मुक्ति पाई जा सके।
 पंचायत चुनाव के प्रत्याशियों के लिए न्यूनतम योग्यता मानक तय किए जाने
चाहिए ताकि यह शासन तंत्र की प्रभावशीलता में सुधार लाने में सहायक हो
सके।
 ग्रामीण समुदायों को शासन की योजनाओं नीतियों तथा भ्रष्टाचार इत्यादि के बारे
में जन जागरूकता के प्रसार के लिए व्यापक संरचनात्मक तथा संस्थागत
उपाय अपनाने चाहिए।
 महिला प्रतिनिधियों के लिए विशेष प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए।
 केंद्र और राज्य सरकारों की तरह पंचायतों का भी अपना बजट होना चाहिए,
जिससे वित्तीय मामलों में पंचायतें आत्मनिर्भर हो सके।
 बजट के साथ-साथ पंचायतों के कार्यों का सामाजिक ऑडिट भी किया जाना
चाहिए, जिससे उनका उत्तरदायित्व सुनिश्चित हो सके।
 पंचायतों के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के
अनुक्रम में पारदर्शिता होनी चाहिए जिससे उनके बीच सामंजस्य की समस्या
उत्पन्न ना हो।
 महिलाएं मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक से अधिक सशक्त बने जिससे
निर्णय लेने के मामले में आत्मनिर्भर बन सकें।
 पंचायतों का निर्वाचन नियत समय पर राज्य निर्वाचन आयोग के मानदं डों पर
बिना क्षेत्रीय संगठनों के हस्तक्षेप से होना चाहिए।

38
अध्याय - 9

निष्कर्ष

39
पंचायती राज व्यवस्था भारतीय शासन व्यवस्था का अद्भुत
अभिलक्षण है। भारत में प्राचीन काल से अधुनातन युग तक पंचायती राज्य व्यवस्था
का विशिष्ट स्वरूप प्रकट होता है। जन-जन को शासन की गतिविधियों में सक्रिय
संभागी बनाए जाने के दृष्टिकोण पर आधारित पंचायती राज्य व्यवस्था का शुभारंभ 2
अक्टू बर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले में हुआ इसके पश्चात 73 वे
संविधान संशोधन अधिनियम 1993 द्वारा इसे संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया।
निश्चित रूप से इस संशोधन के पश्चात
पंचायती राज का लगभग एक समान ढांचा, नियमित चुनाव, महिलाओं को एक तिहाई
आरक्षण, अनुसूचित जाति-जनजाति वर्गों को जनसंख्या अनुसार आरक्षण, सीटों का
चक्रानुक्रम रूप से आरक्षण, राज्य निर्वाचन आयोग का गठन, राज्य वित्त आयोग का
प्रति 5 वर्ष पर गठन, इन प्रयासों ने इसे एक नई दिशा दी है। सरकारी संस्थाएं लोकतंत्र
की भावना पैदा करने में सहायक सिद्ध हुई है। इसमें नौकरशाही और लोगों के बीच
की दूरी को काम करने में सेतु का काम किया है पंचायतों ने एक ऐसा नया नेतृत्व
प्रदान किया है जो उत्साही और आधुनिकता वादी हैं लोगों में विकास की भावना भी
उत्पन्न हुई है। विकास कार्यक्रमों को शुरू करने और कार्यान्वित करने में सकारात्मक
भूमिका अदा की है।
इन सभी के बावजूद यह कहना ही पड़ेगा कि
पिछले वर्षों का अनुभव विशेष उत्साहवर्धक नहीं रहा है यह संस्था ग्रामीण जनता में
नई आशा और विश्वास पैदा करने में सफल रही है। या पर्याप्त दुख का विषय है कि
पंचायती राज को उन लोगों से समुचित व्यवहार नहीं मिला है जिसके हाथ में दे श की
राजनीतिक शक्ति की बागडोर है। वस्तुतः जब तक ग्रामीणों में चेतना नहीं आती तब
तक यह संस्थाएं सफल नहीं हो सकती किंतु इसका तात्पर्य कदापि नहीं है कि
पंचायती राज संस्थाएं पूर्णता असफल हो गई है। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में इन संस्थाओं ने
सराहनीय कार्य किया है।
अगर समग्रता से दे खें तो उपरोक्त समस्याओं के
बावजूद हमें पंचायती राज के फायदे ज्यादा मिले हैं। इसने विकास तथा योजना

40
प्रक्रिया में आम आदमी को भागीदारी दे कर लोकतंत्र को जमीनी स्तर तक पहुंचाया है।
अनुसूचित जातियों जनजातियों में तथा महिलाओं को आरक्षण दे कर पंचायती
व्यवस्था ने समाज के बुनियादी विषमताओं को कड़ी चुनौती दी है। जैसे-जैसे ग्रामीण
क्षेत्रों में साक्षरता तथा सूचना तकनीक की पहुंच का स्तर बढ़े गा वैसे-वैसे लोग अपने
राजनीतिक अधिकारों तथा कर्तव्य के प्रति जागरूक होते जाएंगे और स्थानीय
स्वशासन बेहतर से बेहतर होता जाएगा।

"यदि हम पंचायत राज यानी सच्चे लोकतंत्र के अपने सपने को साकार होते दे खेंगे तो
हम सबसे दीन और सबसे निम्नतम भारतीय को भी भूमि के सबसे प्रभावशाली
भारतीय के ही समान भारत के शासक के रूप में दे खेंगे।" ~महात्मा गांधी

अध्याय - 10

संदर्भ ग्रंथ सूची

41
क्र. पुस्तक/स्रोत लेखक/प्रकाशक

1. भारत मे लोकप्रशासन डॉ. बी.एल.फड़िया & डॉ. कु लदीप फाड़िया

2. भारत की राज्यव्यवस्था डॉ. एम. लक्ष्मीकान्त

3. समग्र छत्तीसगढ़ छ.ग. राज्य हिंदी ग्रंथ अकादमी

4. छत्तीसगढ़ वृहद सन्दर्भ डॉ.संजय त्रिपाठी (उपकार पब्लिके शन)

5. लोकप्रशासन डॉ. एम. लक्ष्मीकांत एवं डॉ. विद्या लक्ष्मी- कांत

6. कु रुक्षेत्र जुलाई, 2019

7. https://dpcg.cgstate.gov.in पंचायत संचालनालय, छ.ग. (आधिकारिक वेबसाइट)


पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग,
8. http://prd.cg.gov.in/
छत्तीसगढ़ (आधिकारिक वेबसाइट)

42
43

You might also like