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का तक कृ ण चतद
ु शी अ यंग नान
नणय स धु म इसका व तत
ृ वणन मलता है िजसके अनस
ु ार :
हे मा और नणयामत
ृ म भ व यो र परु ाण के वा य से लखा है :
का तके कृ णप े तु चतद
ु या मनोदये । अव यमेव कत यं नानं नरकभी भः ।।
का तक के कृ ण प चतद
ु शी को इन (चं ) के उदय म नरक से डरते हुये मनु य को अव य नान
करना चा हए। यहाँ नान से ता पय अ यंग नान से है ।
कालदश म लखा है :
“कत यं मंगल नानं नरै नरयभी भ ”
नरक से भय मानता पु ष म गल नान करे ।
चतद
ु शी कौन सी हण कर?
चं ोदय या पनी चतद
ु शी
अगर चं ोदय म चतद
ु शी न हो तो अ णोदय म चतद
ु शी
अगर दो दन चं ोदय म चतद
ु शी हो तो थम दन य क पव
ू व धा चतद
ु शी म करने का नदश
है ।
जब तक चतद
ु शी का य न हो और योदशी वाती यु त न हो, योदशी म अ यंग न कर
य क कालदश ने योदशी का नषेध कहा है
“मग
ृ ांकोदयवेलायां योद यां यदा भवेत ्। दश वा मंगल नानं दःु खशोकभय दं ”
योदशी को म गल नान कर तो यह नान दःु ख, शोक, भय को दे ता है ।
सव ानारायण म लखा है
“तथा कृ णचतद
ु यामाि वनेाऽक दया परु ा। या म याः पि चमे यामे तैला य गो व श यते”
आि वन कृ ण चतद
ु शी को सय
ू दय से पहले तैल मलना े ठ है ।
न कष यह नकलता है क का तक कृ ण चतद
ु शी को ातःकाल सय
ू दय से पव
ू अ यंग नान
ज र करना चा हए। इसम वा त न का संयोग अ तउ म है । चतद
ु शी य क ि थत म
वा तन यु त अमाव या म ातःकाल अ यंग नान कर।
अ यंग नान या है ?
शर र पर तेल, उबटन लगाकर मा लश करके नान करना अ यंग नान है । ाकृ तक च क सा
के अंतगत यह एक व तत
ृ वषय है । कुछ लोग केवल तेल मा लश को भी अ यंग कहते ह और
उबटन उनके लए अलग या है ।
नान पव
ू दे ह को तेल लगाने से को शकाएँ, नायु एवं दे ह क रि तयां जागत
ृ ाव था म आकर पंच
ाण को स य करती ह। पंच ाण क जाग ृ त के कारण दे ह से उ सजन यो य वायु डकार,
उबासी इ या द के वारा बाहर नकलती है । इससे दे ह क को शकाएँ, नायु एवं अंतगत रि तयाँ
चैत य हण करने म संवेदनशील बनती ह। यह उ सिजत वायु अथवा दे ह म घनी भत
ू उ ण
उ सजन यो य ऊजा भी आँख, नाक, कान एवं वचा के रं से बाहर नकलती है । इस लए तेल
लगाने के उपरांत ने एवं मख
ु अ सर लाल हो जाते ह। तेल से वचा पर घषणा मक मदन से दे ह
क सय
ू नाडी जागत
ृ होती है तथा पंड क चेतना को भी सतेज बनाती है । यह सतेजता दे ह क
रज-तमा मक तरं ग का वघटन करती है । यह एक कार से शु धीकरण क ह या है । चैत य
के तर पर हुई शु धीकरण या से पंड क चेतना का वाह अखं डत रहता है तथा जीव का
येक कम साधना व प हो जाता है ।
ाकृ तक सग
ु ं धत तेल अथवा उबटन, ये व तए
ु ं साि वक होती ह। उनक सग
ु ंध भी साि वक होती
है । उनम वायु म डल क साि वक और दै वीय ऊजा हण करने क मता होती है । सग
ु ं धत तेल
अथवा उबटन लगाकर नान करने से शर र क रज-तम ऊजा कम होती ह, उसी कार थल
ू एवं
सू म दे ह पर आया हुआ काला आवरण न ट हो कर शर र शु ध एवं साि वक बनाने म सहायता
होती ह।
अथववेद म आया है “अ य जनं सरु भ सा सम ृ धः” तैल मा लश करना, अंजन लगाना तथा
सग
ु ि धत य का योग करना सम ृ ध का कारण है ।
सु त
ु के च क सा- थान म लखा है
जल स त य व ध ते यथा मल
ू ऽकुरा तरोः।
तथा धातु वव ृ ध ह नेह स त य जायते ।।
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