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शिक्षा नीति 2020 से हमारी अपेक्षाएँ

डॉ. शैलेन्द्र कुमार

शिक्षा नीति 2020 को हम पहली भारतीय शिक्षा नीति कह सकते हैं । इसके पर्वू की शिक्षा    नीतियों में भारतीयता का
घोर अभाव था । इस अर्थ में यह असाधारण और अभतू पर्वू नीति        है । इसलिए यदि कहा जाए कि नई शिक्षा नीति का
सर्वप्रधान तत्व प्रखर भारतीयता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । दसू री सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शिक्षा को
नियमों की जकड़बंदी से मक्त ु करने और छात्रों को अधिक-से-अधिक स्वतंत्रता देने की व्यवस्था की गई है । विषयों तथा
महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों को चनु ने की स्वतंत्रता देकर छात्रों के ज्ञानार्जन को सर्वोपरि माना गया है । अब छात्र
किसी एक विषय या एक महाविद्यालय या विश्वविद्यालय के दास नहीं होंगे । परंतु शिक्षा नीति के मल ू भतू सिद्धांतों में
सर्वाधिक महत्वपर्णू है भारतीय भाषाओ ं की शिक्षा के क्षेत्र में पनु र्प्रतिष्ठा । इससे न के वल शिक्षा सर्वसलु भ होगी, वरन
छात्रों की ज्ञानार्जन शक्ति उनकी क्षमतानसु ार बढ़ेगी । यह एक ऐसा क्रांतिकारी परिवर्तन है, जिससे छात्रों का मनोबल कई
गनु ा बढ़ेगा और अंततः राष्ट्र-प्रेम      बढ़ेगा । दसू रा सर्वाधिक महत्वपर्णू सिद्धांत है विद्यालयीय और विश्वविद्यालयीय
शिक्षा, दोनों ही स्तरों पर समतामल ू क तथा समावेशी शिक्षा पर बल देना । किसी भी राष्ट्र का यह परम कर्तव्य है कि उसके
सभी छात्र समान रूप से शिक्षा प्राप्त करें और कोई भी इससे वचि ं त न      रहे ।

नई शिक्षा नीति जल
ु ाई 2020 में आरंभ हुई और इस प्रकार अब यह तीसरे वर्ष में प्रवेश कर गई है । पिछले दो वर्षों में इस
नीति के अनेक अश ं क्रियान्वित भी हुए हैं । अब दसवीं और बारहवीं की परीक्षाओ ं का भतू पर्णू त: शातं हो चकु ा है । यह
अपने-आप में एक बड़ी उपलब्धि    है । इसी तरह उच्च शिक्षा में भी अनेक परिवर्तन हो चक ु े हैं । देश के अनेक राज्यों ने
इस नीति को लागू किया है । शिक्षा के विनियामकों के स्वरूप में भी परिवर्तन हो रहा है । वैसे नीति में इस बात का
उल्लेख किया गया है कि इसे चरणबद्ध रूप से ही लागू किया जाएगा । इसलिए ऐसा लगता है कि शिक्षा नीति का
क्रियान्वयन योजनानसु ार ही हो रहा है ।

इस आलेख में शिक्षा नीति के दो मल ू भतू सिद्धांतों — शिक्षा में भारतीय भाषाओ ं के व्यापक प्रयोग तथा समतामलू क एवं
समावेशी शिक्षा का विश्लेषण किया जाएगा । इन मल ू भतू सिद्धांतों के आलोक में इस बात पर भी विचार किया जाएगा कि
क्या शिक्षा नीति अपने निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त कर पाएगी ?
जैसा कि नीति में ही बताया गया है कि सारे संसार के शिक्षाविद इस बात पर एकमत हैं कि मातृभाषा में दी गई शिक्षा ही
सर्वाधिक सगु म्य होती है । शोधार्थी अपनी भाषा में ही सर्वोत्तम शोध कर पाते हैं । नई-नई खोज, नए-नए विचार, नवाचार,
नवोन्मेष आदि जितनी सरलता एवं सहजता से अपनी भाषा में संभव हो पाते हैं, उतनी उधार की भाषा में नहीं । यह तो इस
देश का और इसके करोड़ों छात्रों का दर्भा ु ग्य ही कहा जाएगा कि इस स्वयसि ं द्ध बात को समझने में लगभग सात दशक
बीत गए । अब तक शिक्षा और विशेषकर उच्च शिक्षा और उसमें भी तकनीकी शिक्षा पर अग्रं ेजी का आधिपत्य रहा है ।
इससे देश की अपरू णीय क्षति हुई है । एक तो विदेशी भाषा में विषय पर पकड़ नहीं बन पाती और दसू रा, मौलिक चितं न
बाधित होता है । यह अकारण नहीं है कि अग्रं ेजी भाषा में इतना लिखने पर भी इस भाषा में भारत ने कोई नया विचार,
चिंतन, दर्शन, खोज आदि नहीं की है । यदि की भी है, तो वह अत्यल्प ही होगी, जबकि अपनी भाषा में अब तक भरमार
हो चक ु ी होती ।

स्वभाषा के उत्तरोत्तर प्रयोग पर नीति विस्तार से विचार करती है । नीति के अनसु ार, जहाँ तक संभव हो, कम-से-कम कक्षा
5 तक, किंतु और भी अच्छा होगा कि यह कक्षा 8 और उससे आगे तक भी हो, शिक्षा का माध्यम, घर की भाषा /
मातृभाषा / स्थानीय भाषा / क्षेत्रीय भाषा होगी । इसके बाद, घर या स्थानीय भाषा को जहाँ भी संभव हो भाषा के रूप में
पढ़ाया जाता रहेगा । सार्वजनिक और निजी दोनों तरह के विद्यालय इसकी अनपु ालना करें गे । विज्ञान सहित सभी विषयों
में उच्चतर गणु वत्ता वाली पाठ्यपस्ु तकों को घरे लू भाषा या मातृभाषा में उपलब्ध कराया जाएगा । यह सनि
ु श्चित करने के
लिए सभी प्रयास शीघ्र किए जाएँगे कि बच्चे द्वारा बोली जाने वाली भाषा और शिक्षण के माध्यम के बीच, यदि कोई
अतं र हो, तो उसे समाप्त किया जाए । जहाँ घर की भाषा में पाठ्य-सामग्री उपलब्ध नहीं है, शिक्षकों और छात्रों के बीच
सवं ाद की भाषा भी जहाँ संभव हो, वहाँ घर की भाषा बनी रहेगी । शिक्षकों को उन छात्रों के साथ जिनके घर की भाषा या
मातृभाषा शिक्षा के माध्यम से भिन्न है, द्विभाषी शिक्षण-अधिगम सामग्री सहित द्विभाषी व्यवस्था का उपयोग करने के
लिए प्रोत्साहित किया जाएगा । सभी भाषाओ ं को सभी छात्रों को उच्चतम गणु वत्ता के साथ पढ़ाया जाएगा; एक भाषा को
अच्छी तरह से सिखाने और सीखने के लिए इसे शिक्षा का माध्यम होने की आवश्यकता नहीं है ।

आरंभिक कक्षा से ही विद्यार्थियों का विभिन्न भाषाओ ं से परिचय कराया जाएगा । सभी भाषाओ ं को एक मनोरंजक और
सवं ादात्मक शैली में पढ़ाया जाएगा । आरंभिक वर्षों में पढ़ने और बाद में मातृभाषा में लिखने के साथ कक्षा 3 और आगे
की कक्षाओ ं में अन्य भाषाओ ं में पढ़ने और लिखने के लिए कौशल विकसित किए जाएँगे । कें द्र और राज्य, दोनों सरकारों
की ओर से देश भर की सभी भाषाओ,ं विशेष रूप से सवि ं धान की आठवीं अनसु चू ी में दी गई सभी भाषाओ ं में बड़ी
सख्ं या में भाषा-शिक्षकों में निवेश का एक बड़ा प्रयास होगा ।

नीति आगे बताती है कि त्रि-भाषा सत्रू के अतं र्गत छात्रों से अपेक्षा की गई है कि तीन में से कम-से-कम दो भारतीय भाषाएँ
ही हों ।    विशेष रूप से जो छात्र तीन में से एक या अधिक भाषाओ ं को बदलना चाहते हैं, वे ऐसा कक्षा 6 या 7 में कर
सकते हैं । परंतु ऐसा करने के लिए उन्हें तीन भाषाओ ं में से एक भारतीय भाषा का साहित्य के स्तर तक अध्ययन करके यह
सिद्ध करना होगा कि उक्त भाषा में उन्हें प्रवीणता प्राप्त हो चक
ु ी है । भारत की भाषाएँ विश्व की सर्वाधिक समृद्ध , सर्वाधिक
वैज्ञानिक, सर्वाधिक संदु र और सर्वाधिक अभिव्यंजक भाषाओ ं में से हैं, जिनमें प्राचीन और आधनि ु क साहित्य — गद्य
एवं पद्य दोनों के विशाल भंडार हैं । सांस्कृ तिक और राष्ट्रीय एकीकारण की दृष्टि से सभी छात्रों को अपने देश की भाषाओ ं
के विशाल और समृद्ध भंडार और इसके साहित्य के विपल ु भंडार से परिचित होना चाहिए ।

इसमें कोई संदहे नहीं कि शिक्षा नीति में आरंभिक शिक्षा से ही मातृभाषा के प्रयोग पर बल दिया गया है । परंतु , इसमें एक
चरण आगे बढ़कर यहाँ तक प्रावधान किया गया है कि प्रारंभिक शिक्षा छात्रों की स्थानीय बोली में दी जाएगी । सबसे
अधिक प्रभावकारी प्रावधान यह है कि इजं ीनियरिंग और मेडिकल जैसी तकनीकी शिक्षा भी अपनी भाषाओ ं में दी जाएगी
। स्वभाषा के प्रयोग को कितना महत्व दिया गया है इसका अनमु ान इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री ने
स्वयं अनेकानेक सार्वजनिक सभाओ ं में न के वल इसका उल्लेख किया है, वरन इससे होने वाले लाभों को विस्तार से
समझाया भी है । अतः हमें आश्वस्त होना चाहिए कि स्वभाषा का प्रयोग योजनानसु ार होगा । परंतु फिर भी ऐसी कई बातें
हैं जिनका उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है । पहली बात तो यह है कि क्या हमारे पास इतने शिक्षक हैं , जो न के वल
सविं धान-सम्मत भाषाओ ं में, वरन बोलियों में भी पढ़ाने में निष्णात हैं ? यदि नहीं, तो कितने समय में ये शिक्षक तैयार
किए जाएँगे । दसू री बात यह कि क्या सारी-की-सारी पस्ु तकें सभी भाषा-बोलियों में उपलब्ध कराई जा चक ु ी हैं । यदि
बोलियों में न भी हों, तो कम-से-कम सभी भाषाओ ं में तो अवश्य होनी चाहिएँ ।

सबसे बड़ी चनु ौती नीति के क्रियान्वयन की है । इसमें कें द्र सरकार के अतिरिक्त राज्य सरकार और निजी क्षेत्र के ऊपर भी
क्रियान्वयन का दायित्व है । सभी पक्ष अपना दायित्व निभाएँगे इसको सनि ु श्चित करना अत्यंत कठिन कार्य है । नीति के
क्रियान्वयन को लेकर जो जानकरी मिल रही है,    उससे ज्ञात होता है कि सभी भाषाओ ं में पस्ु तकें तैयार करने का काम
चल रहा      है । साथ ही, स्वभाषा में पढ़ाई भी आरंभ हो चक ु ी है । विशेष रूप से कुछ इजं ीनियरिंग और मेडिकल
महाविद्यालयों में भी हिन्दी आदि में पढ़ाई आरंभ हो चक ु ी है । परंतु समाचारपत्रों में प्रकाशित एक समाचार के अनसु ार,
कुछ छात्रों ने यह कहते हुए इजं ीनियरिंग की पढ़ाई के लिए हिन्दी को माध्यम के रूप में नहीं चनु ा, क्योंकि उन्हें आशकं ा थी
कि इससे प्राइवेट क्षेत्र में नौकरी पाने में कठिनाई होगी ।   

उपरोक्त समस्या पर विचार करना आवश्यक है, क्योंकि यह देशव्यापी समस्या हो सकती है । वस्ततु ः इसके लिए थोड़ा
प्रचार-प्रसार करना पड़ेगा । साथ ही, निजी क्षेत्र को भी विश्वास में लेना पड़ेगा । हमारे देश में जितने लोग भी नौकरी करते
हैं उनका अधिकांश काम देश की भाषाओ ं में संभव है । अत्यल्प काम का संबंध ही विदेशी भाषाओ ं से है । विदेशी
भाषाओ ं में भी के वल एक अंग्रेजी ही नहीं, वरन अनेक अन्य भाषाएँ हो सकती हैं । सच तो यह है कि के वल अंग्रेजी तक
सीमित रहने के कारण हम विश्व के अनेक देशों से नहीं जड़ु पाते और जिसके फलस्वरूप व्यापार आदि में हम अपेक्षित
लाभ नहीं उठा पाते । इस प्रकार अंग्रेजी पर अत्यधिक निर्भरता हमारे लिए हानिकारक हो सकती है । कुल मिलाकर हमारी
भाषाओ ं में पढ़ाई होनी ही चाहिए और नौकरी भी मिलनी चाहिए । अतः आवश्यकता इस बात की है कि देश के जो शीर्ष
शैक्षणिक संस्थान हैं उन्हें यह भी बोध कराया जाए कि उनके लिए भारतीय भाषाओ ं का ज्ञान लाभकारी होगा । इसको
सनिु श्चित करने के लिए ऐसी व्यवस्था की जाए कि इन सस्ं थानों के छात्रों को भारतीय भाषा का अपेक्षित ज्ञान हो ।
उदाहरण के लिए, हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी का ज्ञान आवश्यक माना जा सकता है । इसी प्रकार अन्य भाषाओ ं के ज्ञान की
व्यवस्था की जाए । अपनी भाषा में लिखने-पढ़ने और बोलने की सामर्थ्य होनी ही चाहिए, तभी इन छात्रों से समाज को
अपेक्षित लाभ मिल पाएगा । इस प्रकार यह सदं श े नहीं जाना चाहिए कि जो छात्र सामाजिक या आर्थिक रूप से पिछड़े हैं,
भारतीय भाषाएँ के वल उन्हीं के लिए हैं ।

अग्रं ेजी माध्यम से पढ़े छात्र के वल दसवीं कक्षा तक ही मात्र एक विषय के रूप में अपनी भाषा पढ़ते हैं , जिसका परिणाम
यह होता है कि उस भाषा पर उनकी पकड़ नहीं बन पाती है । अतः अपनी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाकर ही उस पर
अधिकार जमाया जा सकता है । इसलिए आवश्यक है कि जिन विद्यालयों में अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा दी जा रही है , उन्हें
भी माध्यम के रूप में भारतीय भाषा को अपनाने की योजना बनाई जाए । अन्यथा कालांतर में होगा यह कि भारतीय
भाषाओ ं के माध्यम से पढ़े छात्र अपने को उतना श्रेष्ठ नहीं मानेंगे ।

भाषा के बाद जो दसू रा विषय वह है समतामल ू क और समावेशी शिक्षा का । हम पाते हैं कि चाहे वह विद्यालयीय शिक्षा
हो या विश्वविद्यालयीय यह समतामल ू क नहीं है । अनेक कारणों से इस शिक्षा में अनेक अंतर हैं और इन अंतरों को समाप्त
या कम करना शिक्षा नीति का एक उद्देश्य है । जैसा कि शिक्षा नीति स्वयं मानती है कि हमारे समाज के कई ऐसे अगं हैं,
जिनका शिक्षा में प्रतिनिधित्व उनके अनपु ात में नहीं है । शिक्षा नीति के अनसु ार, आरंभ से लेकर 12 वीं तक की
विद्यालयी शिक्षा के माध्यम से 18 वर्ष की आयु तक सभी छात्रों को समान गणु वत्ता वाली शिक्षा प्रदान करने के लिए
आधारभतू सवि ु धा उपलब्ध कराई जाएगी । शिक्षा नीति के जो मल ू भतू सिद्धातं हैं, उनमें ये सिद्धातं आते हैं :

1. बहु-भाषिकता और अध्ययन-अध्यापन के कार्य में भाषा की शक्ति को प्रोत्साहन,


2. सभी शैक्षणिक निर्णयों की आधारशिला के रूप में पर्णू समता और समावेशन,
3. भारतीय जड़ों और गौरव से बँधे रहना और जहाँ प्रासंगिक लगे वहाँ भारत की समृद्ध और विविध प्राचीन और
आधनि
ु क संस्कृ ति और ज्ञान प्रणालियों और परंपराओ ं को शामिल करना और उससे प्रेरणा पाना ।

इस दृष्टि से बीच में ही पढ़ाई छोड़ रहे बच्चों की सख्ं या को कम करना और सभी स्तरों पर शिक्षा की सार्वभौमिक पहुचँ
सनिु श्चित करना नीति आवश्यक मानती है । सर्व शिक्षा अभियान ( अब समग्र शिक्षा ) और शिक्षा का अधिकार
अधिनियम जैसी पहल के माध्यम से हाल के वर्षों में प्राथमिक शिक्षा में लगभग सभी बच्चों का नामाक ं न सनि
ु श्चित करने
में उल्लेखनीय प्रगति हुई है । इसलिए अब प्रयास किया जाएगा कि जो छात्र विद्यालय में प्रवेश पाते हैं, वे वहाँ टिकें और
अपनी विद्यालयीय शिक्षा परू ी करें ।    विद्याथियों के समग्र विकास को नीति के कें द्र में रखा गया है ।

परंतु समावेशी शिक्षा कै से सनि


ु श्चित कराई जाएगी, जब देश के दसू रे सबसे बड़े बहुसंख्यक समदु ाय का एक हिस्सा मदरसों
में बदं है ? इसके बाद देश का तीसरा सबसे बड़ा बहुसख्ं यक समदु ाय ईसाई विद्यालयों के माध्यम से शिक्षा देता है , जो
सामान्य शिक्षा से अनेक अर्थों में भिन्न है ।

वर्ष 2018-19 में देश के सभी छात्रों में जहाँ प्राथमिक शिक्षा में मसु लमान छात्र 14.6 प्रतिशत थे, वहीं विद्यालयीय शिक्षा
परू ी करने का प्रतिशत मात्र 8.86 प्रतिशत ही रहा ।      तात्पर्य यह कि बड़ी सख्ं या में मसु लमान छात्र विद्यालय छोड़कर
निकल गए । जबकि इसी अवधि में अन्य पिछड़ा वर्ग जिसका प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा में 44.66 था, वह विद्यालयीय
शिक्षा परू ी करने तक लगभग उतना ही अर्थात 44.62 प्रतिशत रहा । इन आँकड़ों से स्पष्ट है कि मसु लमान विद्यालयीय
शिक्षा में अन्य पिछड़ा वर्ग से भी बहुत पीछे हैं । अब देखिए कि उच्च शिक्षा में मसु लमानों की क्या स्थिति है । 2019-20
में उच्च शिक्षा ( 18-23 वर्ष आयु ) में सामान्य, अनसु चि ू त जाति, अनसु चि ू त जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग — चारों
सामाजिक समहू ों में अनसु चि ू त जनजाति का सकल नामाक ं न अनपु ात मात्र 5.6 प्रतिशत था, जबकि मसु लमानों का
प्रतिशत इससे भी कम अर्थात 5.5 ही था । दसू री ओर, देश का औसत सकल नामांकन अनपु ात 27.1 प्रतिशत था । इस
प्रकार शिक्षा के क्षेत्र में मसु लमान देश के सभी सामाजिक समहू ों में सबसे पीछे हैं । उच्च शिक्षा में जितने शिक्षक हैं उनमें
अनसु चिू त जाति, अनसु चि ू त जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और मसु लमानों का जो अनपु ात है, उनमें सबसे कम अनपु ात (
के रल को छोड़कर ) मसु लमानों का ही है । यह मसु लमानों में शिक्षा के अभाव का प्रतिबिम्ब है ।

प्रश्न उठता है कि मसु लमान, जो कि देश की जनसंख्या का लगभग 15 प्रतिशत हैं, के शिक्षा में पिछड़ने से समावेशी शिक्षा
कै से सनिु श्चित की जा सकती है ? जबकि आश्चर्य की बात यह है कि भारत में मसु लमान अपेक्षाकृ त अधिक नगरीय हैं ।
इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि ये दरू स्थ गावों में रहते हैं । अतः कहीं-न-कहीं इनके पिछड़ने के पीछे इनका
मजहब, इनका जीवन के प्रति दृष्टिकोण आदि हैं । अन्यथा क्या कारण है कि भौगोलिक और आर्थिक रूप से अत्यंत
पिछड़ा वनवासी समाज भी मसु लमानों से आगे है । मसु लमान अपने मजहब को अनावश्यक रूप से कितना अधिक
महत्व देते हैं कि इनका एक हिस्सा अभी भी मदरसों में पढ़ना चाहता है ।

एजाज वानी और रशीद किदवई लिखते हैं कि 2018-19 के सरकारी आँकड़ों के अनसु ार, परू े देश में 24,010 मदरसे थे,
जिनमें से 4,878 मदरसों को मान्यता नहीं थी । वैसे के वल चार राज्यों — उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और त्रिपरा
में 10,680 मदरसे और 20,20,816 छात्र थे । दसू री ओर, फै सल अहमद लिखते हैं कि आज लगभग 20,000 मदरसे
प्रतिवर्ष 15 लाख छात्रों को शिक्षा देते    हैं । इस प्रकार कहाँ तो के वल चार राज्यों में ही बीस लाख छात्र मदरसों में पढ़ते
हैं और कहाँ सारे देश में मात्र 15 लाख छात्र । स्पष्ट है कि ये आँकड़े सहीं नहीं हो सकते । इसके अतिरिक्त हमें बताया
जाता है कि के वल बिहार में 4000 से अधिक मदरसे हैं, जिनमें से 1942 को सरकारी सहायता प्राप्त है । बिहार के मदरसों
में 15 लाख छात्र पढ़ते हैं । उत्तर प्रदेश के विषय में कहा जाता है कि यहाँ 16,500 मान्यता प्राप्त मदरसे हैं, जिनमें 20
लाख छात्र हैं । इनके अतिरिक्त राज्य में 40 से 50 हजार मदरसे निजी क्षेत्र हैं । जब के वल उत्तर प्रदेश और बिहार अर्थात
दो राज्यों में ही 35 लाख छात्र मदरसों में पढ़ते हैं, तो स्पष्ट है कि सारे देश में बहुत अधिक होंगे ।

देशव्यापी आँकड़ों के अभाव में सटीक सख्ं या बताना बहुत कठिन है कि देश में कितने मदरसे हैं और उनमें कितने छात्र
पढ़ रहे हैं । फिर भी, जैसा कि एजाज वानी और रशीद किदवई बताते हैं कि बगं ाल में जहाँ मसु लमानों की सख्ं या वहाँ की
परू ी जनसंख्या का 25 प्रतिशत से अधिक है, वहाँ मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों की सख्ं या के वल 3,41,000 है, जो कि
राज्य के छात्रों का 4 प्रतिशत है । सच्चर समिति ने 2006 में माना था कि सामान्यतः मदरसों में पढ़ रहे छात्रों की जितनी
सख्ं या बताई जाती है,    वास्तव में उससे कम है । सच्चर समिति का आकलन था कि लगभग 4 प्रतिशत मसु लमान बच्चे
मदरसों में जाते हैं । एजाज वानी और रशीद किदवई यह भी लिखते हैं कि अनौपचारिक रूप से कहा जाता है कि के वल
एक संगठन जमीयत उलेमाए हिन्द उत्तर भारत में 20,000 से अधिक देवबंदी मदरसे चलाता है । सामान्यतया मदरसे
मजहबी समाज के निजी हाथों में होते हैं । देश के छह राज्यों — उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बंगाल और
असम में बड़ी संख्या में मदरसों को राज्य सरकारों से अनदु ान प्राप्त है । ये मदरसे सामान्य विद्यालयों की तरह ही माने जाते
हैं और इनके प्रमाणपत्रों को राज्यों के विद्यालय बोर्डों के समकक्ष माना जाता है, जिससे इनके छात्रों को नौकरी पाने में
सविु धा होती है ।

उपरोक्त आँकड़ों से स्पष्ट है कि यदि सरकारी और निजी, दोनों क्षेत्रों को जोड़ दिया जाए, तो सभं वत: कुल मिलाकर सारे
देश में मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों की सख्ं या 50 लाख से बहुत अधिक होगी । देश में विद्यालयों में पढ़ने योग्य लगभग 4
करोड़ मसु लमान छात्र हैं । इस प्रकार अनमु ान लगाया जा सकता है कि लगभग 12 प्रतिशत मसु लमान छात्र मदरसों में
पढ़ते होंगे । इससे यह भी स्पष्ट होता है कि सच्चर समिति ने सायास मदरसों में पढ़नवाले छात्रों की संख्या कम करके
बताई    थी । यही काम मसु लमान विद्वान भी करते हैं ।

प्रश्न किया जा सकता है कि इन पचास लाख छात्रों को लेकर नई शिक्षा नीति क्या सोचती है ?    क्या इनका सामान्य
विद्यालयों से बाहर रहना राष्ट्र-हित में हैं ? दख
ु द और निराशाजनक बात यह है कि इस बारे में नीति बिल्कुल चपु है ।
जबकि हम जानते हैं कि तब तक समावेशी शिक्षा सनि ु श्चित नहीं की जा सकती, जब तक कि ये पचास लाख छात्र सामान्य
शिक्षा धारा से बाहर हैं । वैसे यह बात अवश्य है    कि उत्तर प्रदेश में, जहाँ मदरसों में पढ़ने वालों की संख्या सर्वाधिक है,
मदरसों के छात्रों की संख्या में लगातार कमी देखी जा रही है । साथ ही, असम में मदरसों को सामान्य विद्यालयों में
परिवर्तित कर दिया गया है । परंतु अन्यत्र स्थिति लगभग यथावत है और कहीं-कहीं तो मदरसों की संख्या में बढ़ोतरी की
संभावना है । उदाहरणस्वरूप, बिहार में 10,000 से अधिक मदरसा खोले जाने की योजना है । सरकार इस पर
गभं ीरतापर्वू क विचार कर रही है । अतः इस समस्या का सामना करना ही होगा । अन्यथा, नई शिक्षा नीति अपने निर्धारित
उद्देश्य को परू ा करने में असफल रहेगी ।

हमें जानना होगा कि मदरसा क्या है और इससे क्या हानि है ? वास्तव में मदरसा विद्यालय, महाविद्यालय और
विश्वविद्यालय तीनों का पर्याय है । इसे मसु लमानों को शिक्षा देने की संस्था कहा जा सकता है । मदरसा का अर्थ यह है कि
इसमें इस्लामी शिक्षा के साथ-साथ सामान्य शिक्षा दी जा सकती है ।    अतः इस्लामी शिक्षा देना अनिवार्य है । इसका
परिणाम यह होता है कि एकाध अपवाद छोड़कर इसमें के वल और के वल मसु लमान ही पढ़ते हैं और मसु लमान ही पढ़ाते
हैं । उर्दू, अरबी और कहीं-कहीं फारसी की शिक्षा देना मदरसा व्यवस्था का अभिन्न अंग है । दक्षिण में उर्दू का उतना
प्रयोग नहीं होता, किंतु अरबी निरपवाद रूप से पढ़ाई जाती है ।    कुल मिलाकर इस्लामी शिक्षा और उर्दू, अरबी तथा
फारसी का कोई लाभ देश को नहीं मिल पाता । उर्दू बोलने में तो हिन्दी जैसी होती है , लेकिन पढ़ने में शेष समाज के लिए
काला अक्षर भैंस बराबर होती है ।    इस प्रकार के वल मसु लमान ही अरबी, फारसी और उर्दू को आपस में समझ सकते हैं
। ऐसी पढ़ाई से स्पष्ट है कि नौकरी नहीं मिलती । अनमु ान लगाया जाता है कि मदरसों से निकले प्रत्येक चार छात्रों में से
के वल एक को ही नौकरी मिल पाती है । कोई आश्चर्य नहीं कि मदरसों से निकले छात्र मदरसों में शिक्षक, मस्जिद में
मअ ु ज्जिन ( अजान देने वाले ), इमाम, काजी, मफ्ु ती, मल्ु ला-मौलवी आदि ही बनकर जीवन बिताते हैं । ऐसी नौकरियों में
बहुत कम वेतन मिलता है और इनका जीवन निम्न स्तर का ही बना रहता है ।

इतना ही नहीं, बल्कि मदरसों के बारे में सईद मोहम्मद लिखते हैं कि मदरसे सदा विवादों में भी रहते हैं । तेलंगाना के
आसिफनगर मदरसे में एक मौलवी पर छोटे-छोटे बच्चों के लैंगिक शोषण का आरोप लगा । दसू री ओर, मदरसों में वित्तीय
अनियमितता के मामले भी प्रकाश में आए । सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत 16 मदरसों में वित्तीय अनियमितता के
मामले सामने आए । सरकार पोषित मदरसा बोर्ड अंग्रेजी और गणित जैसे विषयों को पढ़ने पर बल देते हैं, वहीं आंध्र और
तेलंगाना के मजहबी नेता इसका मखु र विरोध करते हैं ।

इस प्रकार मदरसों में पढ़ने वालों का देश के व्यापक समाज से पृथक होना अवश्यंभावी है । इस पृथकतावाद का समाज
और राष्ट्र पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है । ये छात्र एक ऐसी दनि
ु या का निर्माण करते हैं, जिसमें के वल और के वल इस्लाम
होता है ।

प्रश्न उठता है कि समाधान क्या है ? समाधान यह है कि एक समय सीमा के अदं र मदरसा शिक्षा को परू ी तरह समाप्त कर
देना चाहिए । मदरसा शिक्षा से मसु लमानों को भी कोई लाभ नहीं है । जब देश के लगभग 19 करोड़ छात्रों को शिक्षा दी
जा सकती है, तो इसके सामने पचास लाख कोई बड़ी संख्या नहीं है । इसलिए विद्यालयों का अभाव इसके अस्तित्व का
कोई कारण नहीं हो सकता । अतः चरण-बद्ध रूप से सभी मदरसों को समाप्त करना ही एकमात्र समाधान है । मदरसों को
समाप्त करने के बाद किसी भी मदरसे की शिक्षा को मान्यता न दी जाए । वैसे भी इस्लामी शिक्षा के लिए जगह-जगह
मकतब होते हैं । यदि किसी छात्र को इस्लामी शिक्षा दी जानी है, तो वह मकतब में जा सकता है ।

मदरसों के बाद दसू री समस्या है ईसाई विद्यालयों की । मदरसों की तरह अल्पसंख्यक के नाम पर देश भर में ईसाई
विद्यालय खल ु े हुए हैं । ईसाई विद्यालयों में 74 प्रतिशत ऐसे छात्र पढ़ते हैं, जो ईसाई नहीं होते हैं । स्पष्ट है कि इन छात्रों में
सर्वाधिक हिन्दू ही होते हैं । ऐसे में कोई भी प्रश्न उठा सकता है कि यदि किसी विद्यालय के तीन-चौथाई छात्र बहुसंख्यक
हों, तो ऐसे विद्यालय को अल्पसंख्यक विद्यालय कै से कहा जा सकता है ? देश की जनसंख्या में ईसाइयों का हिस्सा मात्र
2.3 प्रतिशत है, जिसकी सख्ं या बनती है लगभग 3 करोड़ । अब देखिए कि ईसाइयों के अनेक उपपथं ों में से एक —
के वल कै थोलिक के पास ही लगभग 55 हजार शैक्षणिक सस्ं थान हैं, जिनमें लगभग 5 करोड़ 20 लाख छात्र पढ़ते हैं ।
स्पष्ट है कि इन छात्रों में से अधिकतर छात्र हिन्दू ही होंगे । परंतु इन सस्ं थानों में कार्यरत लगभग 27 लाख शिक्षकों में
सभं वतः सभी-के -सभी ईसाई ही होते हैं । इस प्रकार ये विद्यालय ईसाइयों को रोजगार देने का सबसे बड़ा माध्यम हैं । अतः
इन विद्यालयों से ईसाई समाज रोजागार तो पाता ही है, पर्याप्त धन भी कमाता है । परंतु सबसे बड़ी बात यह है कि इन
विद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा उन मल ू भतू सिद्धातों के अनक
ु ू ल नहीं है, जिनका उल्लेख नई शिक्षा नीति करती है । इन
विद्यालयों में ऐसी पढ़ाई कराई जाती है, जिससे राष्ट्रीयता की भावना को बल नहीं मिलता । प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से
ईसावाद या बाइबिल की शिक्षा भी दी जाती है, जो संयोगवश भारतीय संस्कृ ति के साथ मेल नहीं खाती । बाइबिल की
शिक्षा का अभिन्न अंग है मतांतरण और कोई आश्चर्य नहीं कि ईसाई विद्यालय मतांतरण के अड्डे होते हैं । यहाँ तक कि
जिनका मतांतरण नहीं होता, उनका भी मन से झक ु ाव ईसावाद की ओर हो जाता है । इस प्रकार जो हिन्दू ऐसे विद्यालयों से
पढ़कर निकलता है, वह अहिन्दू हो जाता है । इसे हम राष्ट्र का सास्ं कृ तिक क्षरण भी कह सकते हैं । ये विद्यालय
अल्पसख्ं यक के नाम पर इतने स्वायत्त और स्वच्छंद होते हैं कि सामान्य विद्यालयों पर लागू होने वाले नियमों को नहीं
मानते ।

अतः हम मदरसों और ईसाई विद्यालयों को मनमानी करने वाली संस्था कह सकते हैं । शिक्षा नीति में कहा गया है कि, “
सांस्कृ तिक और राष्ट्रीय एकीकारण की दृष्टि से सभी छात्रों को अपने देश की भाषाओ ं के विशाल और समृद्ध भंडार और
इसके साहित्य के भडं ार से परिचित होना चाहिए ।”    परंतु मदरसों और ईसाई विद्यालयों का आचरण इसके प्रतिकूल है ।
इसी तरह शिक्षा नीति कहती है कि, “ भारतीय जड़ों और गौरव से बँधे रहना और जहाँ प्रासंगिक लगे वहाँ भारत की
समृद्ध और विविध प्राचीन और आधनि ु क संस्कृ ति और ज्ञान प्रणालियों और परंपराओ ं को शामिल करना और उससे
प्रेरणा पाना चाहिए ।” परंतु मदरसे और ईसाई विद्यालय भारतीय जड़ों और गौरव से बँधना नहीं चाहते ।

मसु लमानों और ईसाइयों ने सवि ं धान के प्रावधानों का दरुु पयोग करके अपने लिए उद्दडं संस्थाओ ं का निर्माण किया है ।
सविं धान के अनच्ु छे द 29 में वर्णित है कि, “भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी
अनभु ाग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृ ति है, उसे बनाए रखने का अधिकार होगा ।”    यहाँ विशेष
भाषा, लिपि या सस्ं कृ ति की बात की गई है । अब देखिए कि मसु लमानों या ईसाइयों की कौन-सी विशेष भाषा, लिपि या
संस्कृ ति है ? मसु लमान यहीं के हैं, इसलिए उनकी वही भाषा है, जो यहाँ के लोगों की है । यदि अरबी उनकी मजहबी
भाषा है, तो उसके अध्ययन-अध्यापन से उन्हें कोई नहीं रोकता । और जहाँ तक संस्कृ ति की बात है, तो वह तो भौगोलिक
क्षेत्र पर निर्भर करती है, न कि किसी सप्रं दाय विशेष पर । कश्मीर के मसु लमान का पहनावा तमिलनाडु के मसु लमान से
बिल्कुल भिन्न होना स्वाभाविक है । यही हाल ईसाइयों का भी है ।

सविं धान के अनच्ु छे द 30 में वर्णित है कि, “ धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसख्ं यक-वर्गों को अपनी रुचि की
शिक्षा संस्थाओ ं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा ।” इस अनच्ु छे द से ऐसा नहीं लगता कि यह सामान्य शिक्षा
की बात कर रहा है । यह तो धार्मिक या मजहबी शिक्षा प्रदान करने वाली सस्ं थाओ ं की बात कर रहा है । इस तरह
मसु लमान चाहें, तो इस्लामी शिक्षा देने के लिए मकतब और मस्जिदों में शिक्षा की व्यवस्था कर सकते हैं और ईसाई, चर्च
या अन्यत्र बाइबिल की शिक्षा दे सकते हैं । परंतु ऐसे विद्यालय नहीं बना सकते, जिनमें तीन-चौथाई छात्र हिन्दू या गैर-
ईसाई पढ़ रहे हों और उन्हें बाइबिल की शिक्षा दी जा रही हो ।

नई शिक्षा नीति हमें एक ऐसा अवसर देती है, जब उपरोक्त प्रश्नों पर विचार करके देश की शिक्षा को सचमचु समावेशी
शिक्षा बनाया जा सके ।

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आलेख में व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं । 9 अगस्त 2022

सदं र्भ :

अखिल भारतीय उच्च्तर शिक्षा सर्वेक्षण, 2019-20, उच्च्तर शिक्षा विभाग, शिक्षा मत्रं ालय, भारत सरकार, 2020
“ बिहार में मदरसा शिक्षा पर हगं ामा क्यों ?” ईटीवी, 29 जनू 2022

Ayjaz Wani and Rasheed Kidwai, “Locating the Madrasa in 21st-Century India, Issue Briefs and
Special Report, ORF, 1 April 2021.

“Muslim minority schools account for 22.75 pc of religious minority schools, Christian
community schools at 72 pc: NCPCR,” The Times of India, 10 April 2021.

Namita Bajpei, “Uttar Pradesh madrasas see steady fall in number of students,” The New Indian
Express, 14 March 2021.

Report on Unified District Information System for Education Plus (UDIS+), 2018-19,
Department of School Education and Literacy, Ministry of Education, Government of India.

Syed Mohammad, “Enrolment of madrasa students from U.P., Bihar sees a dip,” The Hindu,
Hyderabad, 5 May 2018.

The Contribution of the Indian Catholic Church in the Field of Education, CBCI Office for
Education & Culture, CBCI Centre, New Delhi.   

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