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माननीय उच्च न्यायलय के समक्ष

[अपिल नम्बर (1998) 2 आर. एल. डब्ल्य.ू 1403]

यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम गिरधारी लाल


बेंच: एस के शर्मा
सच
ू ी

संकेताक्षर की सच
ू ी 3

अधिकारीयो के सूचकांका 4

पुस्तके संदर्भ 5

विधियो संदर्भ 6

वेबसाइट संदर्भ 7

शब्दकोश संदर्भ 8

मामले की सूची 9

भमि
ू का 10

तथ्य 11

निर्णय 12

विधि के सिद्धान्त 13
12
संक्षिप्त की सच
ू ी
क्र. स. शब्द संक्षिप्त
1I ए.आई.आर. अखिल भारतीय रिपोर्टर

2I कला लेख

3I ANRI एक और

4I एस सी सी सुप्रीम कोर्ट के मामले

5I आईईए भारतीय साक्ष्य अधिनियम

6I एस सी सुप्रीम कोर्ट

7I नहीI संख्या

8I पैराI अनुच्छे द

9I पी पेज

10I सेक I अनुभाग

11I कोर्ट उच्च न्यायलय

12I प्राथमिकि प्रथम सूचना रिपोर्ट

13I आई पी सी भारतीय दण्ड संहिता

14I ईडी संस्करण

15I अन्य बनाम I अन्य

16I यु ओ आई भारत संघ


पुस्तक संदर्भ

1. लॉ ऑफ़ आर्बिट्रे शन एंड कॉसिलिएशन :- सराफ,एस एम झुनझुनवाला


2. लॉ ऑफ़ आर्बिट्रे शन एंड कॉसिलिएशन एंड अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रे सोलुशन (ए डी आर) सिस्टम्स :- सौरभ बिंदल

3. द आर्बिट्रे शन एक्ट,1940:- मुरलीधर चतुर्वेदी


मध्यस्थता अधिनियम, 1940

4. कमें टरी ऑन द आर्बिट्रे शन एंड कॉसिलिएशन एक्ट, 1996 :-कौस्तव गोगोई

मध्यस्थता अधिनियम, 1940 में धारा 11



5. कमें टरी ऑन द आर्बिट्रे शन एंड कॉसिलिएशन एक्ट, 1996 :-सशि
ु ल द्विवेदी

मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996

मध्यस्थता अधिनियम, 1940 में धारा 37

विधिया संदर्भ
1. www.indiankanoon.com

2. www.westlaw.com

3. www. lawctopus.com

4. www.lawgyan.com

5. www.legalsutra.com

6. www. indianreality.com

7.www.lawfirmstes.com

वेबसाइट संदर्भ
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी

काले कानून का शब्दकोश

मरीयन पश्चिम कानून शब्दकोश

शब्दकोश संदर्भ
1. यूनियन ऑफ इंडिया बनाम किशनो 10 नवंबर 2009

2 यूनियन ऑफ इंडिया बनाम बूटा राम का गुरा राम 10 नवंबर, 2009

3. यूनियन ऑफ इंडिया बनाम रतन चंद 10 नवंबर, 2009

4. यूनियन ऑफ इंडिया बनाम पूरन चंद और अन्य 10 नवंबर, 2009

5. राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड... बनाम सूरज सिंह, 23 नवंबर, 2001

मामले की सच
ू ी
यह प्रकरण माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) से सम्बन्धित है। इसमें मुख्य रूप से विचारणीय बिन्दु यह था
कि क्या इस अधिनियम की धारा 11(6) के अन्तर्गत कार्यवाही करने हेतु मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्राधिकारी के रूप में नाम निर्दिष्ट जिला
न्यायाधीश उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है ?

भमि
ू का
धारा 11(6) के अन्तर्गत कार्यवाही करने हेतु मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्राधिकारी के रूप में नाम निर्दिष्ट जिला न्यायाधीश उच्च न्यायालय के
अधीनस्थ है ? तथ्य

प्रकरण के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं- अपीलार्थी यूनियन ऑफ इण्डिया तथा प्रत्यर्थी गिरधारी लाल के मध्य ठेके के कार्यों को लेकर
विवाद उत्पन्न हो गया जिसे अन्ततः मध्यस्थ को निर्देशित किया गया। माध्यस्थम की कार्यवाही के दौरान प्रत्यर्थी द्वारा माध्यस्थम एवं सुलह
अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अन्तर्गत जिला न्यायालय, जोधपुर के समक्ष एक आवेदन पत्र प्रस्तुत किया गया। आवेदन पत्र में
यह माँग की गई कि उसके सभी दावों को मध्यस्थम को निर्देशित किया जावे। इस पर जिला न्यायाधीश जोधपुर द्वारा तदनुसार आदेश देते
हुए मध्यस्थम को चार माह में पंचाट देने का निदेश दिया गया।

जिला न्यायाधीश के उक्त आदेश के विरुद्ध यूनियन ऑफ इण्डिया (भारत संघ) द्वारा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 115
के अन्तर्गत उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत की गई जिस पर विपक्षी द्वारा निम्नांकित आपत्तियाँ उठाई गई

(क) माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) के अन्तर्गत नियुक्त किया गया जिला न्यायाधीश एक नामनिर्दिष्ट
व्यक्ति है, जिसके आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका संधारण योग्य नहीं है।

तथ्य
(ख) जिला न्यायाधीश उच्च न्यायालय द्वारा प्राधिकारी के रूप में नामनिर्दिष्ट व्यक्ति होने से वह उच्च न्यायालय के अधीनस्थ नहीं है ।

(ग) अधिनियम की धारा 5 के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि उसके प्रथम भाग में वर्णित परिस्थितियों को दोड़कर, न्यायिक
प्राधिकारी द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है।

(घ) अधिनियम में माध्यस्थम कार्यवाहियों में न्यायालयों की नगण्य भूमिका मानी गई है।

(ङ) अधिनियम की धारा 5, 19, 29 एवं 37 के अन्तर्गत विवादों को माध्यस्थम के माध्यम से निपटाने की प्रेरणा एवं स्वतंत्रता
प्रदान की गई है।

भारत का संविधान अनुच्छेद 21 के माध्यम से अपने सभी नागरिकों को जीवन का अधिकार प्रदान करता है। हालांकि पश्चिमी देशों में
इच्छामृत्यु की अवधारणा बहुत लोकप्रिय है, भारत में इसे मिश्रित प्रतिक्रिया मिली है। इसके अलावा, यदि जीवन का अधिकार एक मौलिक
अधिकार है तो क्या मरने के अधिकार को भी इसके दायरे में शामिल नहीं किया जा सकता है, यह एक चिरस्थायी बहस है।

भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय, वर्तमान मामले में, अरुणा रामचंद्र शानबाग के जीवन की समाप्ति पर विचार करने के लिए भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक याचिका के साथ सामना किया गया था, जो एक स्थायी वानस्पतिक अवस्था में था। याचिका उनकी
'अगली दोस्त' सुश्री पिंकी विरानी ने दायर की थी।

न्यायालय ने पूर्व के सभी मामलों में स्पष्ट रूप से मृत्यु के अधिकार से इनकार किया है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने स्थिति की गंभीरता को
नोटिस किया और भारत में इच्छामृत्यु के रुख पर फै सला करने वाली याचिका को स्वीकार कर लिया।
उपरोक्त आपत्तियों का पिटिश्नर की ओर से निम्नांकित उत्तर दिया गया-

1. माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की सम्पूर्ण योजना का अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि मुख्य न्यायाधीश द्वारा
नामनिर्दिष्ट प्राधिकारी एक सिविल न्यायालय है ।

2. उक्त अधिनियम की धारा 2( 1 ) (ङ), 34, 36 व 77 में इस बात की पुष्टि मिलती है कि प्राधिकारी के रूप में नियक्
ु त जिला न्यायाधीश
सिविल न्यायालय के तौर पर उच्च न्यायालय के अधीनस्थ है ।

3. जिला न्यायालय एक अधीनस्थ सिविल न्यायालय होने से उसके आदे श के विरुद्ध उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण किया जा सकता है।
न्यायालय द्वारा पुनरीक्षण याचिका पर दोनों पक्षों के तर्कों पर गम्भीरता से विचार किया गया। न्यायालय द्वारा यह
कहा गया कि उच्च न्यायालय में पन
निर्णय
ु रीक्षण के लिए यह आवश्यक है कि आलोच्य आदे श उसके अधीनस्थ किसी सिविल
न्यायालय का हो ।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 3 के अनस


ु ार किसी भी जिले का जिला न्यायालय उच्च न्यायालय के अधीनस्थ
होता है । अतः यह जानने के लिए कि क्या किसी जिले का जिला न्यायाधीश न्यायालय के रूप में कार्य करता है अथवा
नामनिर्दिष्ट व्यक्ति के रूप में कार्य करता है , माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम की सम्पूर्ण स्कीम को समझना आवश्यक
है ।

माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 में मध्यस्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में न्यायालय को कोई विशेष शक्तियों
प्रदान नहीं की गई है जबकि परु ाने अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत मध्यस्थों की नियक्ति
ु के सम्बन्ध में न्यायालय
को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई थी ।

माध्यस्थम एवं सल
ु ह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (10) के अन्तर्गत मख्
ु य न्यायाधीश को एक ऐसी स्कीम बनाने की
शक्तियाँ प्रदान की गई है जिससे वह धारा 11 की उपधारा (4), (5) व (6) के अन्तर्गत सौंपे गये कार्यों का भलीभाँति
निर्वहन कर सकें । फलस्वरूप मुख्य न्यायाधीश द्वारा एक स्कीम तैयार कर मध्यस्थों की एक योजना बनाते हुए
विभिन्न अधिकारियों को नामनिर्दिष्ट किया गया है ।

विषय-वस्तु का मूल्य ₹50,000 से अधिक होने पर जिला एवं अतिरिक्त जिला न्यायाधीश तथा ₹ 50,000 से कम होने पर
सिविल न्यायाधीश (वरिष्ठ खण्ड) को नामनिर्दिष्ट किया गया है ।

राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11
(6) के अन्तर्गत मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट व्यक्ति, चाहे वह न्यायिक अधिकारी ही क्यों न हों, उच्च न्यायालय
का अधीनस्थ न्यायालय नहीं है । मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट व्यक्ति न तो जिला न्यायालय है और न ही
अधीनस्थ अन्य सिविल न्यायालय । जहाँ कोई व्यक्ति न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करता है , वहाँ
वह न्यायालय माना जायेगा और जहाँ वह गैर
राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 (6) के अन्तर्गत मुख्य न्यायाधीश द्वारा
नामनिर्दिष्ट व्यक्ति, चाहे वह न्यायिक अधिकारी ही क्यों न हों, उच्च न्यायालय का अधीनस्थ न्यायालय नहीं है। मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट व्यक्ति न तो जिला
न्यायालय है और न ही अधीनस्थ अन्य सिविल न्यायालय । जहाँ कोई व्यक्ति न्यायालय के पीठासीन अधिकारी के रूप में कार्य करता है, वहाँ वह न्यायालय माना
जायेगा और जहाँ वह गैर न्यायिक अधिकारी के रूप में कार्य करता है, वहाँ वह सिविल न्यायालय के तुल्य नहीं माना जायेगा।

अतः मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट जिला न्यायाधीश इस अधिनियम के प्रयोजनार्थ अधीनस्थ सिविल न्यायालय नहीं है। उसके लिए न्यायालय द्वारा अपनाई जाने वाली
प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना आवश्यक नहीं है। परिणामस्वरूप जिला न्यायाधीश के आदेश के विरुद्ध सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 115 के अन्तर्गत
पुनरीक्षण याचिका संधारण योग्य नहीं है। पिटिश्नर की पुनरीक्षण याचिका को तदनुसार निरस्त किया गया।
विधि के सिद्धान्त
इस प्रकरण में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा विधि के निम्नांकित सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये -

(1) माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 के अन्तर्गत मध्यस्थों की नियुक्ति के सम्बन्ध में न्यायालयों को कोई विशेष शक्तियाँ
नहीं है।
(2) अधिनियम की धारा 11 के अन्तर्गत मुख्य न्यायाधीश द्वारा ऐसी स्कीम तैयार की जा सकती है जिससे वह उपधारा (4),
(5) व (6) के अन्तर्गत अपने कर्त्तव्यों का निर्वहन कर सकें ।

(3) अधिनियम की धारा 11 (6) के अन्तर्गत मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट जिला न्यायाधीश या अन्य न्यायिक अधिकारी उच्च
न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालय नहीं है।

(4) मुख्य न्यायाधीश द्वारा नामनिर्दिष्ट जिला न्यायाधीश का आदेश सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 115 के अन्तर्गत
पुनरीक्षण योग्य नहीं है।

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