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विशिष्ट उद्धरण सं.

- 2023:AHC-LKO:36696

ए.एफ.आर. (प्रकाशन हेतु स्वीकृ त)

न्यायालय सं. - 28

वाद:- आपराधिक अपील सं.- 842 वर्ष 2023

अपीलार्थी:- इंद्रमणि यादव व 6 अन्य

प्रतिवादी :- उत्तर प्रदेश राज्य- प्रमुख सचिव, गृह मामलों के विभाग, के माध्यम

से- व अन्य।

अपीलार्थी के अधिवक्ता:- समीर सिंह, पवन कु मार पांडेय, शशांक सिंह

प्रतिवादी के अधिवक्ता:- शासकीय अधिवक्ता, विकास वर्मा

माननीय न्यायमूर्ति श्री प्रकाश सिंह

(1.) श्री समीर सिंह, अधिवक्ता एवं उनके सहायक श्री शशांक सिंह, अपीलार्थी के

विद्वान अधिवक्ता एवं श्री अनिरुद्ध कु मार सिंह, राज्य की ओर से उपस्थित

विद्वान अपर शासकीय अधिवक्ता- प्रथम, को सुना।


(2.) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम,

1989 की धारा 14 A (1) के अन्तर्गत यह आपराधिक अपील परिवाद सं. 118

वर्ष 2019 (जगन्नाथ बनाम सीताराम एवं अन्य), जो विद्वान विशेष न्यायाधीश,

अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम, अम्बेडकर नगर के समक्ष लंबित है, के प्रकरण

में जारी सम्मन आदेश दिनांक 04.02.2023, अन्तर्गत धारा 147, 323, 326-A,

504 भा. द. सं. एवं धारा 3 (1) X अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम, 1989 एवं

उपरोक्त परिवाद के प्रकरण में योजित संपूर्ण आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने

की प्रार्थना के साथ दायर की गई है।

(3.) अपीलार्थी की ओर से उपस्थित विद्वान अधिवक्ता का कथन है कि अपीलार्थी

निर्दोष हैं तथा उन्हें इस मामले में झूठा फं साया गया है। उनका कथन है कि प्रथम

सूचना रिपोर्ट दिनांक 09.01.2017 को दर्ज की गई थी, तत्पश्चात् विवेचक ने

विवेचना की और जहां तक प्रथम सूचना रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों का संबंध है

अपीलार्थियों के विरुद्ध कोई साक्ष्य नहीं पाए गए और इस प्रकार दिनांक

05.07.2017 को अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इस अंतिम रिपोर्ट के विरुद्ध,


शिकायतकर्ता ने दिनांक 06.06.2018 को प्रतिवेदन दायर किया जिसे परिवाद के

रूप में दर्ज किया गया तथा मजिस्ट्रेट एवं विद्वान विचारण न्यायालय ने द. प्र.

सं. की धारा 200 एवं 202 के अन्तर्गत शिकायतकर्ता एवं गवाहों के बयान दर्ज

किए। अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने इस न्यायालय का ध्यान उस प्रतिवेदन की

ओर आकर्षित किया जिसके अवलोकन से स्पष्ट होता है कि आरोप इस तथ्य के

बारे में है कि आरोपी व्यक्तियों ने घायलों के साथ-साथ परिवार के अन्य सदस्यों

पर भी हमला किया तथा उसके बाद वे शिकायतकर्ता के घर में घुस गए और

शिकायतकर्ता के बेटे को पीटा और उसके ऊपर कु छ ज्वलनशील पदार्थ डाल दिया

जिसके परिणामस्वरूप वह जल गया।

(4.) अपीलार्थियों के अधिवक्ता का तर्क यह है कि भा. द. सं. की अन्य धाराओं

के साथ-साथ, मजिस्ट्रेट ने अपीलार्थियों को अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की

धारा 3 (1) X के अन्तर्गत तलब किया है। उन्होंने इस न्यायालय का ध्यान

शिकायतकर्ता के बयान की ओर भी आकर्षित किया है, जो पृष्ठ सं. 100 पर

संलग्न है, एवं उल्लेख किया है कि शिकायतकर्ता ने स्वयं विचारण न्यायालय के


समक्ष कहा है कि घटना घर के अंदर हुई थी और शिकायतकर्ता के शोर मचाने पर

गांव के लोग वहां आए और अपीलार्थियों को बचाया गया। अपीलार्थियों के

अधिवक्ता का आगे कथन है कि विद्वान विचारण न्यायालय ने इस तथ्य को

अनदेखा कर दिया कि घटना घर के बाहर सबके सामने नहीं हुई थी अतएव अ.

जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की धारा 3 (1) X के अन्तर्गत अपीलार्थियों के विरुद्ध

सम्मन जारी नहीं किया जा सकता था।

(5.) अपने तर्क के समर्थन में, अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने हितेश वर्मा बनाम

उत्तराखंड राज्य और अन्य; (2020) 10 एस सी सी 710 के निर्णय का

अवलम्बन लेते हुए उक्त मामले के परिच्छे द 14, 17 व 18 का उल्लेख किया।

निर्णय के परिच्छे द 14, 17 और 18 को नीचे उद्धृत किया गया है:-

"14. प्रावधान का एक अन्य प्रमुख घटक “सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान" पर कारित अपमान या धमकी

है। किसे “सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान” के रूप में माना जाए, यह स्वर्ण सिंह बनाम राज्य के मामले में

प्रतिपादित निर्णय में इस न्यायालय के समक्ष विचार हेतु आया था। न्यायालय ने अभिव्यक्ति

"सार्वजनिक स्थान" और “सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान" के बीच अंतर स्पष्ट किया था। इसमें यह
अवधारित किया गया कि यदि कोई अपराध भवन के बाहर किया जाता है जैसे कि घर के बाहर लॉन में ,

तथा उस लॉन को सड़क या चारदीवारी के बाहर गली से किसी के द्वारा देखा जा सकता है , तो लॉन को

निश्चित रूप से सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान माना जाएगा। इसके विपरीत, यदि टिप्पणी किसी भवन के

भीतर की जाती है , किन्तु जनता के कु छ सदस्य वहां हैं (के वल संबंधी अथवा मित्रगण ही नहीं) तो यह

अपराध नहीं होगा क्योंकि यह सार्वजनिक रूप से दृष्टिगोचर नहीं है। न्यायालय ने निम्नानुसार अवधारित

किया था:

"28. प्रथम सूचना रिपोर्ट में यह आरोप लगाया गया है कि प्रथम सूचनाकर्ता विनोद नागर जब परिसर

के बाहरी द्वार पर खड़ी कार के निकट खड़ा था तब अपीलार्थी सं . 2 व 3 के द्वारा (उसे "चमार"

कहकर) अपमानित किया गया था । हमारी राय में , यह निश्चित रूप से सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान

था, क्योंकि एक घर का बाहरी द्वार निश्चित रूप से सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान है। यदि कथित

अपराध किसी भवन के भीतर किया गया होता, और सार्वजनिक दृष्टिगोचर भी नहीं होता, तब यह एक

अलग मामला हो सकता था। हालांकि, यदि अपराध भवन के बाहर किया जाता है , जैसे कि घर के बाहर

लॉन में , और लॉन को चारदीवारी के बाहर सड़क या गली से किसी के द्वारा देखा जा सकता है , तो लॉन

निश्चित रूप से सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान होगा। साथ ही, टिप्पणी भले ही किसी भवन के भीतर की

गई हो, किन्तु जनता के कु छ सदस्य वहां हैं (के वल संबंधी अथवा मित्रगण ही नहीं) तो भी यह अपराध

होगा क्योंकि यह सार्वजनिक दृष्टिगोचर है। अतः, हमें अभिव्यक्ति “सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान” को

भ्रमवश "सार्वजनिक स्थान" नहीं समझना चाहिए। कोई स्थान निजी स्थान होते हुए भी सार्वजनिक
दृष्टिगोचर हो सकता है। दूसरी ओर, एक सार्वजनिक स्थान सामान्य अर्थ में एक ऐसा स्थान होगा जो

सरकार अथवा नगरपालिका (अथवा अन्य स्थानीय निकाय) अथवा गांव सभा अथवा राज्य के किसी

प्राक्रम्य के स्वामित्व में है अथवा उनके द्वारा पट्टे पर दिया गया है , न कि निजी व्यक्तियों अथवा निजी

निकायों द्वारा।”

17. खुमान सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य नामक एक अन्य निर्णय में , इस न्यायालय ने अवधारित

किया कि अधिनियम की धारा 3 (2) (v) की प्रयोज्यता के मामले में , यह तथ्य कि मृतक अनुसूचित

जाति का था, सजा में वृद्धि के लिए पर्याप्त नहीं होगा। इस न्यायालय ने अवधारित किया कि ऐसा कोई

साक्ष्य आदि उपलब्ध नहीं था जिससे ऐसा प्रतीत हो कि अपीलार्थी द्वारा अपराध मात्र इस उद्देश्य से

किया गया था कि मृतक अनुसूचित जाति का था। न्यायालय ने निम्नानुसार अवधारित किया: -

"15. जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अवधारित किया गया है , अपराध ऐसा होना चाहिए कि वह

अधिनियम की धारा 3 (2) (v) के अंतर्गत आ सके । व्यक्ति के विरुद्ध अपराध इस आधार पर किया गया

होना चाहिए कि ऐसा व्यक्ति अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का सदस्य है। वर्तमान मामले

में , यह तथ्य विवादित नहीं है कि मृतक "खंगर" अनुसूचित जाति से संबंधित था। यह दर्शाने के लिए

कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है कि अपराध के वल इस आधार पर किया गया था कि पीड़ित अनुसूचित जाति

का सदस्य था अतएव अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम की

धारा 3 (2) (v) के अन्तर्गत अपीलार्थी-अभियुक्त की दोषसिद्धि धारणीय नहीं है।


18. अतः, अधिनियम के अंतर्गत अपराध के वल इस तथ्य के आधार पर योजित नहीं होता है कि

सूचनाकर्ता अनुसूचित जाति का सदस्य है , जब तक कि अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के

सदस्य को इस कारण अपमानित करने का आशय न हो कि पीड़ित ऐसी किसी जाति से संबंधित है।

वर्तमान मामले में , पक्षकारों के मध्य भूमि के स्वामित्व पर वाद चालित है। गालियां देने का आरोप उस

व्यक्ति के विरुद्ध है जो उक्त संपत्ति पर स्वामित्व का दावा करता है। यदि ऐसा व्यक्ति अनुसूचित

जाति का हो, तो अधिनियम की धारा 3 (1) (r) के अन्तर्गत अपराध नहीं बनता है।

(6.) उपरोक्त निर्णय का अवलम्बन लेते हुए, अपीलार्थियों के अधिवक्ता का कथन

है कि सर्वोच्च न्यायालय ने "सार्वजनिक स्थान" एवं "सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान"

के बीच अंतर स्पष्ट किया है और यह अवधारित किया है कि यदि कोई अपराध

भवन आदि के बाहर अथवा लॉन में, घर के बाहर किया जाता है और लॉन को

सड़क या चारदीवारी के बाहर गली से किसी के द्वारा देखा जा सकता है, तब लॉन

निश्चित रूप से सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान होगा और इस प्रकार पूर्वोक्त निर्णय

के तुलनात्मक अवलोकन से यह निष्कर्ष निकलता है कि जहां तक अ. जा./ अ.

ज. जा. अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले अपराधों का संबंध है, उनकी पूर्वोक्त

निर्णय के आलोक में समीक्षा की जानी चाहिए।


(7.) अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने रिट याचिका (आपराधिक) सं. 1593 वर्ष

2006 व आपराधिक प्र. आ. सं. 6859 वर्ष 2006; अश्वनी कु मार बनाम राज्य व

अन्य; में प्रतिपादित निर्णय का अवलम्बन लेते हुए निर्णय के परिच्छे द 9 और 17

का उल्लेख किया है। उक्त निर्णय के परिच्छे द 9 और 17 को नीचे उद्धृत किया

गया है: -

“9. इस प्रकार विधि की प्रतिपादना स्पष्ट है। मात्र प्रथम सूचना रिपोर्ट में अ . जा./ अ. ज. जा.

अधिनियम की धारा 3 (1) X का उल्लेख होना इस निष्कर्ष का आधार नहीं हो सकता है कि प्रथम

दृष्टया अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की उक्त धारा के अन्तर्गत अपराध बनता है। ऐसे मामलों में

अभिलेखों की न्यायिक जांच की अनुमति है जिससे यह मूल्यांकन किया जा सके कि अभियोजन पक्ष

द्वारा अवलम्बित सामग्री से ऐसे अपराध के मूल अवयवों का अस्तित्व प्रकट होता है अथवा नहीं। इस

सीमित उद्देश्य हेतु, न्यायालय इस प्रश्न का परीक्षण करने से पहले अपने समक्ष प्रस्तुत सामग्री की

छानबीन कर सकता है कि क्या प्रथम सूचना रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों के आधार पर, प्रथम दृष्टया,

अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की धारा 3 (1) X के अन्तर्गत कोई अपराध बनता है।

.... 17. अभिव्यक्ति "पब्लिक” (सर्वजन/सार्वजनिक) एक पोली-मॉर्फ स(बहुअर्थी) शब्द है जिसके अलग-

अलग अर्थ हैं। इसका प्रयोग संज्ञा अथवा विशेषण के रूप में किया जाता है। संज्ञा के रूप में , “पब्लिक”

(सर्वजन अथवा जनता) का अर्थ है - सामान्यतया व्यक्तियों के समूह; समुदाय, किसी भी निगम जैसे
नगर, महानगर अथवा देश की भौगोलिक सीमाओं से इतर, जनसमुदाय; समग्र राजव्यवस्था अथवा राज्य

के सभी नागरिक। दूसरे शब्दों में , पब्लिक (सर्वजन अथवा जनता) शब्द का आशय समस्त लोगों अथवा

अधिकांश लोगों से नहीं है , न ही किसी स्थान के बहुत लोगों से है बल्कि , थोडे से लोगों के विलोमतः

बहुत से लोगों से है। इस प्रकार, पब्लिक (सर्वजन अथवा जनता) का अर्थ है किसी स्थान विशेष के

निवासी, जिसमें सभी लोग भी हो सकते हैं या दो-चार लोग हो सकते हैं या फ़िर आस-पड़ोस के लोग हो

सकते हैं। विशेषण के रूप में , ‘पब्लिक’ (सार्वजनिक) का अर्थ उन विषयों के सम्बन्ध में होगा जिनके

लिए इसका प्रयोग हुआ है। अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम को इसी अधिनियम की धारा 3 में

उल्लिखित अपराध के रूप में वर्णित विभिन्न प्रकार के अत्याचारों से समाज के कमजोर वर्ग की रक्षा

करने की दृष्टि से अधिनियमित किया गया है। न्यायालय को यह भी ध्यान में रखना होगा कि अ . जा./

अ. ज. जा. अधिनियम के अन्तर्गत आने वाले अपराध काफी गंभीर होते हैं जिनके लिए कठोर सजा का

प्रावधान है अतएव ऐसे मामलों में ठोस साक्ष्य की आवश्यकता है। न्यायालय को एक ऐसी व्याख्या

अपनानी होगी जो प्रावधान की आड़ लेकर चली गई किसी भी चाल को नाकाम करके अधिनियम के

वास्तविक उद्देश्य को पूर्ण करे। अतः, अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की धारा 3 (1) X में उल्लिखित

सार्वजनिक दृष्टिगोचर का अर्थ सार्वजनिक व्यक्तियों (जनता) की उपस्थिति से माना जाए, भले ही वे

कितनी भी कम संख्या में हो, साथ ही वे व्यक्ति स्वतंत्र और निष्पक्ष हों एवं किसी भी पक्ष में रुचि न

रखते हों। दूसरे शब्दों में , शिकायतकर्ता के साथ किसी भी प्रकार का घनिष्ठ संबंध या जुड़ाव रखने वाले

व्यक्तियों को ‘सार्वजनिक दृष्टिगोचर’ की परिभाषा से बाहर रखा जाना चाहिए।”


(8.) पूर्वोक्त निर्णय का उल्लेख करते हुए, अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने आगे कहा

कि मात्र अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की धारा का उल्लेख प्रथम सूचना रिपोर्ट

में होना इस निष्कर्ष तक पहुंचने का आधार नहीं हो सकता कि, प्रथम दृष्टया,

उक्त धारा के अन्तर्गत अपराध बनता है, बल्कि ऐसे मामलों में अभिलेखों की

न्यायिक जांच की जानी चाहिए जिससे यह मूल्यांकन किया जा सके कि

अभियोजन पक्ष द्वारा अवलंबित सामग्री से अपराध के मूल अवयवों का अस्तित्व

प्रकट होता है अथवा नहीं?

(9.) अपीलार्थियों के अधिवक्ता का यह भी तर्क है कि विचारण न्यायालय द्वारा

पारित आदेश, जिसे इस अपील में आक्षेपित किया गया है, के पठन से ही यह

स्पष्ट हो जाता है कि मात्र अभिकथन के आधार पर एवं साक्ष्यों की जांच किए

बिना ही इसे पारित कर दिया गया है। शिकायतकर्ता ने स्वयं कहा है कि कु छ

लोगों ने घर पर हमला किया और परिवार के सदस्यों के शोर मचाने के बाद गांव

के लोग वहां आए, इस प्रकार, धारा 3 (1) X के अवयव आकर्षित नहीं होते हैं।

अपनी दलीलों को विराम देते हुए, अपीलार्थियों के अधिवक्ता ने कहा कि


शिकायतकर्ता के बयान से भी यह स्पष्ट है कि घटना घर के भीतर हुई, जो न तो

सार्वजनिक स्थान है और न ही सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान है अतएव दिनांक

04.02.2023 का आदेश न्यायिक विचार प्रक्रिया से रहित है तथा सर्वोच्च

न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधि को विचार में रखते हुए इसे निरस्त किया जाना

उचित होगा।

(10.) दूसरी ओर, शिकायतकर्ता की ओर से उपस्थित विद्वान अधिवक्ता ने

उपरोक्त तर्कों का पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि विचारण न्यायालय द्वारा द.

प्र. सं. की धारा 200 और 202 के अन्तर्गत बयान दर्ज किए गए हैं जिससे स्पष्ट

होता है कि अपराध अपीलार्थियों द्वारा किया गया है एवं विचारण न्यायालय ने

इसको विचार में रखते हुए ही धारा 147, 323, 326-A व 504 भा. द. सं. एवं

धारा 3 (1) X अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम के अन्तर्गत आरोपियों के विरुद्ध

सम्मन जारी किया है। विद्वान अधिवक्ता ने इस न्यायालय का ध्यान आक्षेपित

आदेश की ओर आकर्षित करते हुए कहा कि विचारण न्यायालय ने क्रमशः द. प्र.

सं. की धारा 200 एवं 202 के अन्तर्गत दर्ज शिकायतकर्ता तथा गवाहों के बयानों
को विचार में रखते हुए अपना निष्कर्ष दिया है, इस प्रकार, अपीलकर्ताओं के विरुद्ध

जारी सम्मन आदेश में किसी भी प्रकार की दुर्बलता एवं त्रुटि परिलक्षित नहीं होती

है, अतएव, वर्तमान अपील बलहीन होने के कारण निरस्त किए जाने योग्य है।

(11.) प्रति विरोध में, राज्य की ओर से उपस्थित विद्वान अपर शासकीय

अधिवक्ता ने भी अपीलार्थियों के अधिवक्ता के तर्क का खंडन करते हुए कहा कि

शिकायतकर्ता और गवाहों के बयान दर्ज करने के बाद ही, स्पष्ट कारणों का

उल्लेख करते हुए उक्त आदेश पारित किया गया है, अतएव, इसमें माननीय

न्यायालय के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।

(12.) पक्षकारों के विद्वान अधिवक्ताओं के तर्कों को सुनने एवं अभिलेख पर

प्रस्तुत सामग्री के अवलोकन के पश्चात, यह विदित होता है कि प्रारंभ में

अपीलार्थियों के विरुद्ध दिनांक 09.01.2017 को प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराई गई

थी। विवेचना के पश्चात, जब विवेचक ने पाया कि अपीलार्थियों के विरुद्ध कोई

ठोस सामग्री अथवा साक्ष्य नहीं है, तब अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। इसके
पश्चात्, जब दिनांक 06.06.2018 को विरोध आवेदन दायर किया गया, तब

मजिस्ट्रेट ने इसे परिवाद के रूप में दर्ज करते हुए शिकायतकर्ता तथा गवाहों के

बयान दर्ज कराए तथा भा. द. सं की अन्य धाराओं सहित धारा 3 (1) X, अ. जा./

अ. ज. जा. अधिनियम के अंतर्गत सम्मन जारी किए।

(13.) इस न्यायालय द्वारा शिकायतकर्ता के बयान की जांच करने पर यह पता

चलता है कि शिकायतकर्ता ने स्वयं स्वीकार किया था कि घटना घर के अंदर हुई

थी तथा आगे कहा गया है कि आरोपी व्यक्तियों ने आकर घर पर हमला कर

दिया और घर में घुसकर मारपीट शुरू कर दी और परिवार के सदस्यों के शोर

मचाने पर गांव के लोग वहां आए। इस प्रकार, प्रथम दृष्टया, इस तथ्य के संबंध

में कोई साक्ष्य नहीं जान पड़ता है कि परिवार के सदस्यों के अलावा वहां कु छ

अन्य व्यक्ति भी थे जिन्होंने घटना को देखा अथवा सुना। इस प्रकार, प्रथम

दृष्टया यह नहीं कहा जा सकता कि कथित घटना सार्वजनिक स्थान अथवा

सार्वजनिक दृष्टि गोचर स्थान पर हुई है।


(14.) इस न्यायालय ने हितेश वर्मा (पूर्वोक्त) के मामले में दिए गए सर्वोच्च

न्यायालय के निर्णय के परिप्रेक्ष्य में भी विचार किया है, जिसमें स्पष्ट रूप से कहा

गया है कि यदि घटना घर के क्षेत्र के बाहर अथवा लॉन में हुई है, किन्तु वह

जनता की पहुंच के भीतर नहीं है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह घटना

सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान अथवा सार्वजनिक स्थान पर हुई है। यहां अश्वनी

कु मार (पूर्वोक्त) के मामले में दिए गए एक निर्णय का भी अवलंब लिया गया है,

जिसमें अवधारित किया गया है कि के वल अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की

धाराओं का उल्लेख कर देना इस निष्कर्ष का आधार नहीं हो सकता कि अपराध

उक्त अधिनियम अन्तर्गत किया गया है, जब तक कि इस बात की न्यायिक जांच

नहीं कर ली जाती।

(15.) उपरोक्त अभिकथनों एवं परिकथनों के पश्चात्, यह स्पष्ट होता है कि

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने बहुत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि सार्वजनिक स्थान

पर अथवा सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करना ही

अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम के अन्तर्गत अपराध होगा एवं जब तक ऐसा सिद्ध


नहीं हो जाता, ऐसे मामलों में कोई आपराधिक कार्यवाही नहीं चल सकती एवं इस

निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए विचारण न्यायालय को इस तथ्य की न्यायिक जांच

करनी होगी कि जातिसूचक शब्दों का प्रयोग सार्वजनिक दृष्टिगोचर स्थान अथवा

सार्वजनिक स्थान पर हुआ है या नहीं। जहां तक वर्तमान मामले का संबंध है,

शिकायतकर्ता के परिवार के सदस्यों के शोर मचाने पर गांव के लोग वहां पहुंचे

और देखा कि आरोपी व्यक्ति परिवार के सदस्यों को पीट रहे हैं, परन्तु गालियां

घर के अंदर दी गई थीं जो कि निश्चित रूप से सार्वजनिक स्थान नहीं है।

(16.) उपरोक्त अभिकथनों एवं परिकथनों पर विचार करने के उपरांत यह संज्ञान

में आता है कि विद्वान विचारण न्यायालय ने अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की

धारा 3 (1) X के अन्तर्गत अपीलार्थियों के विरुद्ध सम्मन जारी करते समय

न्यायिक विचार प्रक्रिया को नहीं अपनाया। परिणामत:, सम्मन आदेश दिनांक

04.02.2023 को अ. जा./ अ. ज. जा. अधिनियम की धारा 3 (1) X के अन्तर्गत

जारी सम्मन की सीमा तक निरस्त किया जाता है।


(17.) यह आदेश दिया जाता है कि विचारण न्यायालय तदनुसार कार्यवाही करेगा।

(18.) उपरोक्त टिप्पणियों के साथ अपील को आंशिक रूप से अनुमति दी जाती


है।

आदेश दिनांक :- 27.4.2023


लोके श कु मार

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