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परिचय 

‘न्यायशास्त्र’, जिसे अं गर् े ज़ी में ज्यूरिस्प्रूडें स कहते है , को लै टिन शब्द ज्यूरिसप्रुडें शिया से लिया गया
है , जिसका अर्थ है कानून का विज्ञान या ज्ञान। यह अध्ययन का एक बहुत बड़ा क्षे तर् है और इसमें कई
विचारधाराएं और सिद्धांत शामिल हैं जिससे पता चलता है कि कानून कैसे बनाया गया है । इसमें , इसके
अध्ययन के दायरे में व्यक्तियों और अन्य सामाजिक निकायओं के साथ कानून का सं बंध भी शामिल है ।
ऐसे कई स्रोत हैं जिनसे हम कानून प्राप्त करते हैं । कई न्यायविदों (ज्यूरिस्टस) और विद्वानों ने कानून के
स्रोतों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है । हालां कि, इन सभी वर्गीकरणों में सबसे आम स्रोत विधान
(ले जिसले शन), न्यायिक मिसालें और रीति-रिवाज हैं । 

कानून और कानून के स्रोत


जॉन चिपमै न ग्रे, जो हार्वर्ड लॉ स्कू ल के प्रोफेसर थे , के अनु सार, “राज्य का कानून या पु रुषों का कोई
भी सं गठित निकाय उन नियमों से बना है जो अदालतें , यानी उस निकाय का न्यायिक अं ग, कानूनी
अधिकारों और कर्तव्यों को तय करने के लिए निर्धारित करती हैं ।” हालां कि ग्रे की परिभाषा की आलोचना
की गई क्योंकि यह सं कीर्ण (नै रो) थी, उन्होंने कानून को कानून के स्रोतों से अलग किया था। उनके
अनु सार, कानून निर्णय विधि (केस लॉ) के माध्यम से विकसित हुआ है और कानून के स्रोत वे हैं जहां से
हमें कानून के विषय और वै धता मिलती है । अनिवार्य रूप से , कानून नियमों या आचार सं हिता (कोड ऑफ
कंडक्ट) को सं दर्भित करता है और इसके स्रोत उन भौतिक तथ्यों को सं दर्भित करते हैं जिनसे इसकी
सामग्री प्राप्त होती है । 

कानून के स्रोतों के प्रकार


न्यायशास्त्र के क्षे तर् में कानून पर अपनी विचारधाराओं के लिए प्रसिद्ध एक कानूनी विद्वान जॉन सालमं ड
ने कानून के स्रोतों को मु ख्य रूप से दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया था, अर्थात भौतिक (मै टेरियल) स्रोत
और औपचारिक (फॉर्मल) स्रोत। 

 भौतिक स्रोत
कानून के भौतिक स्रोत वे स्रोत हैं जिनसे कानून अपने विषय या सार प्राप्त करता है , ले किन इसकी
वै धता नहीं। भौतिक स्रोत दो प्रकार के होते हैं , जो कानूनी स्रोत और ऐतिहासिक स्रोत हैं । 

1. कानूनी स्रोत 
कानूनी स्रोत, राज्य द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण (इं ट्रूमें ट) हैं जो कानूनी नियम बनाते हैं । वे
प्रकृति में आधिकारिक होते हैं और कानून की अदालतों द्वारा इनका पालन किया जाता है । ये ऐसे स्रोत
या उपकरण हैं जो नए कानूनी सिद्धांतों को बनाने की अनु मति दे ते हैं । सालमं ड के अनु सार अं गर् े जी कानून
के कानूनी स्रोतों को आगे चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है - 

 विधान, 
 मिसाल (प्रीसिडें ट), 
 प्रथागत कानून, और
 पारं परिक कानून। 

2. ऐतिहासिक स्रोत
ऐतिहासिक स्रोत ऐसे स्रोत होते हैं जो कानून की वै धता या अधिकार को प्रभावित किए बिना उसके
विकास को प्रभावित करते हैं । ये स्रोत अप्रत्यक्ष (इनडायरे क्ट) रूप से कानूनी नियमों को प्रभावित
करते हैं । कानूनी और ऐतिहासिक स्रोतों के बीच का अं तर यह है कि सभी कानूनों का एक ऐतिहासिक
स्रोत होता है ले किन उनके पास कानूनी स्रोत हो भी सकता है और नहीं भी। विदे शी अदालतों द्वारा दिए
गए निर्णय इस तरह के स्रोत के लिए एक उदाहरण के रूप में कार्य करते हैं ।  

 औपचारिक स्रोत 
कानून के औपचारिक स्रोत वे उपकरण हैं जिनके माध्यम से राज्य अपनी इच्छा प्रकट करते है । सामान्य
तौर पर, क़ानून और न्यायिक मिसालें कानून के आधु निक औपचारिक स्रोत हैं । कानून अपने औपचारिक
स्रोतों से अपना शासन, अधिकार और वै धता प्राप्त करता है । 

कीटोन के अनु सार सालमं ड द्वारा दिया गया वर्गीकरण बहुत सारी त्रुटियों से भरा था। कीटोन ने कानून के
स्रोतों को निम्नलिखित में वर्गीकृत किया है : 

 बाध्यकारी स्रोत 
न्यायाधीश मामलों में कानून के ऐसे स्रोतों को लागू करने के लिए बाध्य हैं । ऐसे स्रोतों के कुछ उदाहरण,
विधान या कानून, न्यायिक मिसालें और रीति-रिवाज हैं । 

 प्रेरक (पर्सुएसिव) स्रोत


प्रेरक स्रोत बाध्यकारी नहीं होते हैं , ले किन जब किसी विशे ष विषय पर निर्णय ले ने के लिए बाध्यकारी
स्रोत उपलब्ध नहीं होते हैं , तो उन्हें ध्यान में रखा जाता है । ऐसे स्रोतों के उदाहरण विदे शी निर्णय,
नै तिकता (मॉरलिटी) के सिद्धांत, समानता, न्याय, पे शेवरो की राय (प्रोफेशनल ओपिनियन) आदि हैं । 

कानून के स्रोत के रूप में मिसाल


न्यायिक मिसालें विभिन्न मामलों में अदालतों द्वारा दिए गए फैसलों को सं दर्भित करती हैं । न्यायिक
निर्णय का एक कानूनी सिद्धांत होता है जो अधीनस्थ (सबोर्डिने ट) न्यायालयों पर बाध्यकारी होता है । एक
बार जब कोई अदालत किसी विशे ष मामले पर निर्णय दे दे ती है , तो उसके अधीनस्थ न्यायालयों को समान
तथ्यों के साथ समान मामलों पर निर्णय ले ते समय इस मिसाल का पालन करना होता है । भारत में कुछ
सबसे प्रभावशाली न्यायिक मिसालें निम्नलिखित हैं : 

1. केशवानं द भारती बनाम स्टे ट ऑफ़ केरल (1973) : इस मामले ने भारत में , भारतीय
सं विधान की मूल विशे षताओं को हटाए जाने से बचाते हुए बु नियादी सं रचना सिद्धांत (बे सिक
स्ट् रक्चर डॉक्ट्रिन) की अवधारणा को पे श किया था। 
2. ज्ञान कौर बनाम स्टे ट ऑफ पं जाब (1996) : इस फैसले ने पु ष्टि की कि मरने का अधिकार
भारतीय सं विधान के अनु च्छे द 21 के दायरे में नहीं आता है । अदालत ने पु ष्टि की कि प्रत्ये क
व्यक्ति को सम्मान के साथ मरने का अधिकार है । अदालत ने यह भी कहा कि सम्मानजनक
तरीके से मरने का अधिकार अप्राकृतिक तरीके से मरने के अधिकार के समान नहीं है । 
3. मे नका गां धी बनाम यूनियन ऑफ इं डिया (1978) : अदालत ने  पासपोर्ट अधिनियम,
1967 की धारा 10(3)(c) को अमान्य करार दिया क्योंकि इसने भारतीय सं विधान
के अनु च्छे द 14 और 21 का उल्लं घन किया था। 
4. इं दिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इं डिया (1992) : इस फैसले ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के
लिए 50% की सीमा निर्धारित की थी। इसने यह भी माना कि समूहों को पिछड़े वर्गों के रूप में
वर्गीकृत करने का मानदं ड (क् राइटे रिया) आर्थिक पिछड़े पन तक सीमित नहीं हो सकता है । 

निर्णीत अनुसरण का सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ स्टे यर


डिसाइसिस)
न्यायिक मिसालो का अधिकार निर्णीत अनु सरण के सिद्धांत पर आधारित है । निर्णीत अनु सरण यानी की
ू रे शब्दों में , जो
स्टे यर डिसाइसिस शब्द का अर्थ है , अबाधित (अनडिस्टर्ब्ड) को परे शान न करना। दस
मिसालें लं बे समय से मान्य हैं , उन्हें भं ग नहीं किया जाना चाहिए। 

भारत में , अधीनस्थ न्यायालय उच्च न्यायालयों की मिसालों से बाध्य होते हैं , और उच्च न्यायालय अपने
स्वयं की मिसालो से बाध्य होते हैं । ले किन जब उच्च न्यायालयों की बात आती है , तो एक उच्च न्यायालय
का निर्णय अन्य उच्च न्यायालयों पर बाध्यकारी नहीं होता है । उनके निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर
बाध्यकारी होते हैं । उन मामलों में जहां एक ही अधिकार के न्यायालयों के फैसलों के बीच विवाद होता है ,
तो सबसे नवीनतम (ले टेस्ट) निर्णय का पालन किया जाता है । भारत के सं विधान के अनु च्छे द 141 के
अनु सार, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय दे श भर के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं । हालां कि,
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले अपने आप में बाध्यकारी नहीं हैं । बाद के मामलों में जहां पहले के फैसले को
बदलने के पर्याप्त कारण हैं , तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ऐसा कर सकता है । 

विधि पूर्व न्याय (रे स जु डिकाटा) का सिद्धांत 


विधि पूर्वन्याय यानी की रे स ज्यूडिकाटा शब्द का अर्थ है निर्णय की गई विषय वस्तु । इस सिद्धांत के
अनु सार, एक बार मु कदमे का फैसला हो जाने के बाद, पक्षों को फिर से अदालतों में एक ही मु द्दे को उठाने
से रोक दिया जाता है , जब तक कि उसी मामले में नए भौतिक तथ्यों की खोज न हो जाए। वे उसी दावे से
उत्पन्न होने वाले किसी अन्य मु द्दे को नहीं उठा सकते क्योंकि वे पिछले मु कदमे में उन्हे उठा सकते थे । 

निर्णय का औचित्य (रे श्यो डिसीडें डी)


सालमं ड के अनु सार, एक मिसाल एक न्यायिक निर्णय है जिसमें एक कानूनी सिद्धांत होता है , जिसमें एक
आधिकारिक तत्व होता है जिसे निर्णय का औचित्य कहा जाता है । निर्णय के औचित्य का अर्थ निर्णय का
कारण है । जब भी किसी न्यायाधीश को निर्णय ले ने के लिए कोई मामला मिलता है , तो उन्हे उस पर निर्णय
ले ना होता है , भले ही इससे सं बंधित कोई क़ानून या मिसाल न हो। इस तरह के निर्णय को नियं त्रित करने
वाला सिद्धांत निर्णय का कारण है जिसे निर्णय का औचित्य भी कहा जाता है । 
आनु षंगिक उक् ‍ति (ऑबिटर डिक्टा) 
आनु षंगिक उक्‍ति यानी की ऑबिटर डिक्टम शब्द का अर्थ केवल कहना है । इस शब्द का उपयोग कानून के
उन कथनों को सं दर्भित करने के लिए किया जाता है जो मामले के लिए आवश्यक नहीं हैं । एक न्यायाधीश
किसी मामले के फैसले में कुछ कानूनी सिद्धांतों को एक काल्पनिक स्थिति में लागू करने की घोषणा कर
सकता है । इसका अधिक प्रभाव या अधिकार नहीं है । हालां कि, अधीनस्थ न्यायालय सिद्धांतों को लागू
करने के लिए बाध्य हैं । 

मिसालों के प्रकार 

 आधिकारिक और प्रेरक
आधिकारिक मिसालें वे मिसालें हैं जिनका अधीनस्थ अदालतों को पालन करना चाहिए चाहे वे इसे स्वीकार
करें या नहीं। ये कानून के प्रत्यक्ष और निश्चित नियम बताते हैं । यह कानून के कानूनी स्रोतों की श्रेणी में
ू री ओर प्रेरक उदाहरण न्यायाधीशों पर बाध्यकारी दायित्व नहीं बनाते हैं । प्रेरक उदाहरण
आते हैं । दस
न्यायाधीश के विवे कानु सार लागू किए जा सकते हैं । 

आधिकारिक उदाहरणों को निम्नलिखित दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है : 

1. पूर्ण (एब्सोल्यूट) आधिकारिक


आधिकारिक मिसाल अधीनस्थ अदालतों पर पूर्ण रूप से बाध्यकारी होती है और गलत होने पर भी इसकी
अवहे लना नहीं की जा सकती है । 

2. सशर्त (कं डीशनल) आधिकारिक


सशर्त रूप से आधिकारिक मिसाल अन्य न्यायाधीशों पर बाध्यकारी होती है , ले किन कुछ विशे ष
परिस्थितियों में इसकी अवहे लना की जा सकती है , जब तक कि न्यायाधीश ऐसा करने का कारण दिखाता
है । 

 मूल और घोषणात्मक 
सालमं ड के अनु सार, एक घोषणात्मक मिसाल एक ऐसी मिसाल है जो किसी फैसले में पहले से मौजूद
कानून की घोषणा करती है । यह केवल कानून की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) है । एक मूल मिसाल एक
नया कानून बनाती और लागू करती है । 

एक मिसाल के अधिकार को बढ़ाने वाले कारक 


1. निर्णय ले ने वाली पीठ का गठन करने वाले न्यायाधीशों की सं ख्या। 
2. एक सर्वसम्मत (यूनेनिमस) निर्णय का अधिक प्रभाव होता है । 
3. अन्य न्यायालयों, विशे षकर उच्च न्यायालयों द्वारा अनु मोदन (अप्रूवल)। 
4. एक क़ानून का अधिनियमन जो बाद में उसी कानून को लागू करता है । 

एक मिसाल के अधिकार को कम करने वाले कारक 


1. किसी उच्च न्यायालय द्वारा मिसाल को उलटने या अवहे लना द्वारा निर्णय का निरसन
(एब्रोगे शन) करना। 
2. बाद में अधिनियमित एक वै धानिक नियम द्वारा निर्णय का निरसन होना। 

एक अलग आधार पर निर्णय की पु ष्टि।  कानून के स्रोत के रूप में


विधान
विधान, सरकार के विधायी अं ग द्वारा अधिनियमित नियमों या कानूनों को सं दर्भित करता है । यह
न्यायशास्त्र में कानून के सबसे महत्वपूर्ण स्रोतों में से एक है । विधान यानी की ले जिस्ले शन शब्द ले गिस
और लै टम शब्दों से बना है , जहां ले गिस का अर्थ है कानून और लै टम का अर्थ है बनाना। 

विधान के प्रकार 
सालमं ड के अनु सार, विधान को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है - सर्वोच्च और अधीनस्थ। 

1. सर्वोच्च विधान 
कानून को सर्वोच्च कहा जाता है जब इसे सर्वोच्च या सं पर् भु (सोवरे न) कानून बनाने वाली निकाय द्वारा
अधिनियमित किया जाता है । एक निकाय को इस हद तक शक्तिशाली होना चाहिए कि उसके द्वारा बनाए
गए नियमों या कानूनों को किसी अन्य निकाय द्वारा रद्द या सं शोधित नहीं किया जा सकता है । भारतीय
सं सद को एक सं पर् भु कानून बनाने वाली निकाय नहीं कहा जा सकता क्योंकि सं सद द्वारा पारित कानूनों को
अदालतों में चु नौती दी जा सकती है । दस ू री ओर, ब्रिटिश सं सद को एक सं पर् भु कानून बनाने वाली
निकाय कहा जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा पारित कानूनों की वै धता को किसी भी अदालत में चु नौती
नहीं दी जा सकती है । 

2. अधीनस्थ कानून 
अधीनस्थ कानून बनाने वाली निकाय द्वारा अधिनियमित विधान को अधीनस्थ विधान कहा जाता है ।
अधीनस्थ निकाय ने अपना कानून बनाने का अधिकार एक सं पर् भु कानून बनाने वाली निकाय से प्राप्त
किया होता है । यह सर्वोच्च विधायी निकाय के नियं तर् ण के अधीन है । अधीनस्थ विधान के विभिन्न प्रकार
निम्नलिखित हैं : 

 कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) विधान: यह अधीनस्थ विधान का एक रूप है जहाँ कार्यपालिका


को विधायिका के इरादों को पूरा करने के लिए कुछ नियम बनाने की शक्तियाँ प्रदान की जाती
हैं । 
 औपनिवे शिक (कॉलोनियल) विधान: दुनिया भर में कई क्षे तर् ों को ब्रिटे न द्वारा उपनिवे शित
किया गया था और ऐसे क्षे तर् ों को उपनिवे श कहा जाता था। ऐसे उपनिवे शों की विधायिका
द्वारा पारित विधान ब्रिटिश सं सद के नियं तर् ण के अधीन था। 
 न्यायिक विधान: अदालते भी कानून बनाने का कर्त्तव्य निभा सकती हैं , जो की उनके आं तरिक
(इं टर्नल) मामलों और कामकाज को विनियमित करने में सहायता करता है । 
 नगरपालिका विधान: नगरपालिका के अधिकारियों के पास कानून बनाने की शक्ति होती है
क्योंकि वे उप-नियम बनाते हैं । 
 स्वायत्त (ऑटोनोमस) विधान: एक अन्य प्रकार का विधान स्वायत्त विधान है , जो
विश्वविद्यालयों, निगमों, क्लबों आदि जै से निकायों से सं बंधित है । 
 प्रत्यायोजित (डे लिगे टेड) विधान: कभी-कभी सं सद द्वारा प्रमु ख विधान के माध्यम से कुछ
निकायों को विधायी शक्तियां प्रत्यायोजित की जा सकती हैं । एक प्रमु ख अधिनियम,
सहायक विधान बना सकता है जो प्रमु ख कानून में प्रदान किए गए कानून हो सकते है । 

कानून के स्रोत के रूप में प्रथाएं (कस्टम)


प्रथाएं उस आचार सं हिता को सं दर्भित करती है जिसे उस समु दाय की स्पष्ट स्वीकृति प्राप्त होती है , जो
इसका पालन करते है । आदिम (प्रिमिटिव) समाजों में , ऐसी कोई निकाय नहीं थी जो लोगों पर अधिकार
के रूप में कार्य करती हो। इसने लोगों को, निष्पक्ष, समान और स्वतं तर् बनाए रखने के लिए खु द को
सं गठित समूह बनाने के लिए प्रेरित किया है । उन्होंने निर्णय ले ने के लिए समन्वित (कोऑर्डिने टेड)
प्रयासों के साथ नियम विकसित करना शु रू कर दिया। उन्होंने अं ततः समु दाय द्वारा नियमित रूप से
प्रचलित परं पराओं और रिवाजों को पहचानना शु रू कर दिया और सामाजिक विनियमन (रे गु लेशन) का
एक व्यवस्थित रूप बनाया। भारत में , विवाह और तलाक से सं बंधित कानून ज्यादातर विभिन्न धार्मिक
समु दायों द्वारा पालन किए जाने वाली प्रथाओं से विकसित होते हैं । इसके अतिरिक्त, अनु सचि ू त
जनजाति वर्ग से सं बंधित कई समु दायों के विवाह से सं बंधित अपने स्वयं की प्रथाएं हैं । हिं द ू विवाह
अधिनियम, 1955 की धारा 2(2) के परिणामस्वरूप, अनु सचि ू त जनजातियों को इस अधिनियम के लागू
होने से छटू दी गई है । 

एक वै ध प्रथा की आवश्यकताएँ
1. तर्क सं गतता (रीजने बिलिटी): प्रथा तर्क सं गत या व्यावहारिक होनी चाहिए और आधु निक
समाज में प्रचलित बु नियादी नै तिकता के अनु रूप होनी चाहिए। 
2. पु रातनता: इसका पु रातन काल से अभ्यास किया होना चाहिए। 
3. निश्चितता: प्रथा स्पष्ट होनी चाहिए कि इसका अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए।  
4. विधियों के अनु रूप: कोई भी प्रथा दे श के कानून के खिलाफ नहीं जाना चाहिए।
5. अभ्यास में निरं तरता: न केवल इस प्रथा का अनादि काल से अभ्यास किया जाना चाहिए,
बल्कि बिना किसी रुकावट के इसका अभ्यास किया जाना चाहिए। 
6. सार्वजनिक नीति के विरोध में नहीं होनी चाहिए: प्रथा को राज्य की सार्वजनिक नीति का
पालन करना चाहिए। 
7. सामान्य या सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) होना चाहिए: जिस समु दाय या स्थान पर इसका
अभ्यास किया जाता है , उसकी राय में एकमत होना चाहिए। इसलिए, यह अपनी प्रयोज्यता
में सार्वभौमिक या सामान्य होना चाहिए। 
प्रथा पर सर हेनरी मे न के विचार
सर हे नरी मे न के अनु सार, “प्रथा, थीमिस्ट या निर्णय के बाद की अवधारणा है ”। थीमिस्ट न्याय की
ग्रीक गॉडे स द्वारा राजा को निर्धारित न्यायिक पु रस्कारों को सं दर्भित करता है । हे नरी मे न के अनु सार
कानून के विकास के विभिन्न चरण निम्नलिखित हैं : 

1. पहले चरण मे , कानून उन शासकों द्वारा बनाया जाता है जो परमात्मा से प्रेरित होते हैं ।
ू माना जाता था। 
शासकों को ईश्वर का दत
ू रे चरण में , नियमों का पालन करना लोगों की आदत बन जाती है और यह प्रथागत कानून
2. दस
बन जाता है । 
3. तीसरे चरण में , प्रथाओं का ज्ञान लोगों के एक अल्पसं ख्यक (माइनॉरिटी) समूह के हाथों में
होता है जिसे पु रोहित वर्ग कहा जाता है । वे प्रथाओं को पहचानते हैं और औपचारिक रूप दे ते
हैं । 
4. अं तिम चरण प्रथा का सं हिताकरण (कोडिफिकेशन) है । 

प्रथाओं के प्रकार 

1. बाध्यकारी दायित्व के बिना प्रथाएं  


समाज में ऐसी प्रथाएं हैं जिनका पालन करने के लिए कोई कानूनी बाध्यता नहीं है । इस तरह की प्रथा
कपड़े , शादी आदि से सं बंधित हैं । ऐसी प्रथाओं का पालन न करने से केवल सामाजिक बहिष्कार हो
सकता है न कि कानूनी परिणाम। 

2. बाध्यकारी दायित्व के साथ प्रथाएं


प्रथाएं , जो कानून द्वारा पालन किए जाने के लिए होती हैं , उन्हें बाध्यकारी दायित्व वाली प्रथाएं कहा
जाता हैं । ये सामाजिक परं पराओं या रिवाजों से सं बंधित नहीं हैं । बाध्यकारी दायित्वों के साथ मु ख्य रूप से
दो प्रकार की प्रथाएं हैं - कानूनी प्रथाएं और पारं परिक प्रथाएं । 

 कानूनी प्रथाएं : कानूनी प्रथाएं पूर्ण रूप से स्वीकृत होती हैं । ये प्रकृति में अनिवार्य हैं और
यदि उनका पालन नहीं किया गया तो कानूनी परिणाम भु गतने पड़ते हैं । दो प्रकार की कानूनी
प्रथाएं होती हैं , जो सामान्य प्रथाएं और स्थानीय प्रथाएं हैं । सामान्य प्रथाएं पूरे राज्य में
लागू होती हैं । दसू री ओर स्थानीय प्रथाएं केवल विशे ष इलाकों में ही लागू होती हैं । 
 परम्परागत प्रथाएँ : परम्परागत प्रथाएं वे प्रथाएं हैं जो केवल एक समझौते के माध्यम से
उनकी स्वीकृति पर लागू होती हैं । ऐसी प्रथाएं केवल उन लोगों पर लागू करने योग्य है जो
इसे शामिल करने वाले समझौते के पक्ष हैं । दो प्रकार की पारं परिक प्रथाएं होती हैं जो
सामान्य पारं परिक प्रथाएं और स्थानीय पारं परिक प्रथाएं हैं । सामान्य पारं परिक प्रथाएं पूरे
ू री ओर स्थानीय पारं परिक प्रथाएं किसी विशे ष स्थान या किसी
क्षे तर् में प्रचलित हैं । दस
विशे ष व्यापार या ले नदे न तक ही सीमित है । 

प्रथाएं और निर्धारण के बीच अं तर 


दोनों के बीच मु ख्य अं तर यह है कि प्रथा कानून को जन्म दे ती है और निर्धारण एक अधिकार को जन्म दे ता
है । प्रथा को आम तौर पर आचरण के एक पाठ्यक् रम के रूप में दे खा जाता है और यह कानूनी रूप से लागू
करने योग्य है । निर्धारण एक अधिकार या शीर्षक के अधिग्रहण (एक्विजिशन) को सं दर्भित करता है । जब
स्थानीय प्रथा समाज पर लागू होती है , तो निर्धारण केवल एक व्यक्ति विशे ष पर लागू होता है । उदाहरण
के लिए, जब एक व्यक्ति X के पूर्वज अपने मवे शियों को किसी विशे ष भूमि पर वर्षों से बिना किसी
प्रतिबं ध के चरा रहे हैं , तो X को भूमि पर अपने मवे शियों को चराने का समान अधिकार प्राप्त होता है । X
द्वारा प्राप्त अधिकार को निर्धारण कहा जाता है । एक निर्धारण के वै ध होने के लिए, इसका अभ्यास पु रातन
काल से किया जाना चाहिए। भारत में , भारतीय सु गमता (एजमें ट) अधिनियम, 1882 के अनु सार
प्रकाश और वायु का अधिकार प्राप्त करने के लिए 20 वर्षों तक निर्बाध (अनइं टररप्ट) आनं द आवश्यक
है । 

निष्कर्ष 
निष्कर्ष के लिए, न्यायशास्त्र में कानून के स्रोतों को कई आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है । ले किन
सबसे उल्ले खनीय या सामान्य वर्गीकरण इसे कानून, मिसाल और प्रथा में विभाजित करता है । मिसाल
का मतलब पिछले न्यायिक फैसलों से है । विधान, विधायिका द्वारा अधिनियमित वै धानिक नियमों को
सं दर्भित करता है । प्रथा एक समु दाय की सदियों पु रानी प्रथाओं को सं दर्भित करती है जिसने अपनी
उपस्थिति को इतना मजबूत कर दिया है कि यह कानून बन गया है । हालां कि विधान वह एजें सी प्रतीत
होता है जिसके माध्यम से हमें कानून मिलते हैं , यह सिर्फ प्राथमिक स्रोत है । हमारे पास जो कई कानून
हैं , वे इस बात का प्रतिबिं ब (रिफ्ले क्शन) हैं कि एक समाज के रूप में हमने पीढ़ियों से क्या पालन किया
है । साथ ही, कई मामलों से पता चलता है कि कैसे कभी-कभी कानून अपर्याप्त होते है या यह अनु मान
लगाने में असमर्थ होते है कि बाद के विवादों में क्या मु द्दे उत्पन्न हो सकते हैं । यह न्यायपालिका को दे श के
कानून को विस्तृ त या व्याख्या करने के लिए कहता है । 

3.
4. उच्च न्यायालय के पिछले निर्णय के साथ असं गति। 
5. समान रैं क के न्यायालय के पिछले निर्णयों के साथ असं गति।
6. पहले से मौजूद वै धानिक नियमों के साथ असं गति। 
7. गलत फैसला। 

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