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Jurisprudence-Notes in Hindi
Jurisprudence-Notes in Hindi
‘न्यायशास्त्र’, जिसे अं गर् े ज़ी में ज्यूरिस्प्रूडें स कहते है , को लै टिन शब्द ज्यूरिसप्रुडें शिया से लिया गया
है , जिसका अर्थ है कानून का विज्ञान या ज्ञान। यह अध्ययन का एक बहुत बड़ा क्षे तर् है और इसमें कई
विचारधाराएं और सिद्धांत शामिल हैं जिससे पता चलता है कि कानून कैसे बनाया गया है । इसमें , इसके
अध्ययन के दायरे में व्यक्तियों और अन्य सामाजिक निकायओं के साथ कानून का सं बंध भी शामिल है ।
ऐसे कई स्रोत हैं जिनसे हम कानून प्राप्त करते हैं । कई न्यायविदों (ज्यूरिस्टस) और विद्वानों ने कानून के
स्रोतों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है । हालां कि, इन सभी वर्गीकरणों में सबसे आम स्रोत विधान
(ले जिसले शन), न्यायिक मिसालें और रीति-रिवाज हैं ।
भौतिक स्रोत
कानून के भौतिक स्रोत वे स्रोत हैं जिनसे कानून अपने विषय या सार प्राप्त करता है , ले किन इसकी
वै धता नहीं। भौतिक स्रोत दो प्रकार के होते हैं , जो कानूनी स्रोत और ऐतिहासिक स्रोत हैं ।
1. कानूनी स्रोत
कानूनी स्रोत, राज्य द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण (इं ट्रूमें ट) हैं जो कानूनी नियम बनाते हैं । वे
प्रकृति में आधिकारिक होते हैं और कानून की अदालतों द्वारा इनका पालन किया जाता है । ये ऐसे स्रोत
या उपकरण हैं जो नए कानूनी सिद्धांतों को बनाने की अनु मति दे ते हैं । सालमं ड के अनु सार अं गर् े जी कानून
के कानूनी स्रोतों को आगे चार श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है -
विधान,
मिसाल (प्रीसिडें ट),
प्रथागत कानून, और
पारं परिक कानून।
2. ऐतिहासिक स्रोत
ऐतिहासिक स्रोत ऐसे स्रोत होते हैं जो कानून की वै धता या अधिकार को प्रभावित किए बिना उसके
विकास को प्रभावित करते हैं । ये स्रोत अप्रत्यक्ष (इनडायरे क्ट) रूप से कानूनी नियमों को प्रभावित
करते हैं । कानूनी और ऐतिहासिक स्रोतों के बीच का अं तर यह है कि सभी कानूनों का एक ऐतिहासिक
स्रोत होता है ले किन उनके पास कानूनी स्रोत हो भी सकता है और नहीं भी। विदे शी अदालतों द्वारा दिए
गए निर्णय इस तरह के स्रोत के लिए एक उदाहरण के रूप में कार्य करते हैं ।
औपचारिक स्रोत
कानून के औपचारिक स्रोत वे उपकरण हैं जिनके माध्यम से राज्य अपनी इच्छा प्रकट करते है । सामान्य
तौर पर, क़ानून और न्यायिक मिसालें कानून के आधु निक औपचारिक स्रोत हैं । कानून अपने औपचारिक
स्रोतों से अपना शासन, अधिकार और वै धता प्राप्त करता है ।
कीटोन के अनु सार सालमं ड द्वारा दिया गया वर्गीकरण बहुत सारी त्रुटियों से भरा था। कीटोन ने कानून के
स्रोतों को निम्नलिखित में वर्गीकृत किया है :
बाध्यकारी स्रोत
न्यायाधीश मामलों में कानून के ऐसे स्रोतों को लागू करने के लिए बाध्य हैं । ऐसे स्रोतों के कुछ उदाहरण,
विधान या कानून, न्यायिक मिसालें और रीति-रिवाज हैं ।
1. केशवानं द भारती बनाम स्टे ट ऑफ़ केरल (1973) : इस मामले ने भारत में , भारतीय
सं विधान की मूल विशे षताओं को हटाए जाने से बचाते हुए बु नियादी सं रचना सिद्धांत (बे सिक
स्ट् रक्चर डॉक्ट्रिन) की अवधारणा को पे श किया था।
2. ज्ञान कौर बनाम स्टे ट ऑफ पं जाब (1996) : इस फैसले ने पु ष्टि की कि मरने का अधिकार
भारतीय सं विधान के अनु च्छे द 21 के दायरे में नहीं आता है । अदालत ने पु ष्टि की कि प्रत्ये क
व्यक्ति को सम्मान के साथ मरने का अधिकार है । अदालत ने यह भी कहा कि सम्मानजनक
तरीके से मरने का अधिकार अप्राकृतिक तरीके से मरने के अधिकार के समान नहीं है ।
3. मे नका गां धी बनाम यूनियन ऑफ इं डिया (1978) : अदालत ने पासपोर्ट अधिनियम,
1967 की धारा 10(3)(c) को अमान्य करार दिया क्योंकि इसने भारतीय सं विधान
के अनु च्छे द 14 और 21 का उल्लं घन किया था।
4. इं दिरा साहनी बनाम यूनियन ऑफ इं डिया (1992) : इस फैसले ने पिछड़े वर्गों के आरक्षण के
लिए 50% की सीमा निर्धारित की थी। इसने यह भी माना कि समूहों को पिछड़े वर्गों के रूप में
वर्गीकृत करने का मानदं ड (क् राइटे रिया) आर्थिक पिछड़े पन तक सीमित नहीं हो सकता है ।
भारत में , अधीनस्थ न्यायालय उच्च न्यायालयों की मिसालों से बाध्य होते हैं , और उच्च न्यायालय अपने
स्वयं की मिसालो से बाध्य होते हैं । ले किन जब उच्च न्यायालयों की बात आती है , तो एक उच्च न्यायालय
का निर्णय अन्य उच्च न्यायालयों पर बाध्यकारी नहीं होता है । उनके निर्णय अधीनस्थ न्यायालयों पर
बाध्यकारी होते हैं । उन मामलों में जहां एक ही अधिकार के न्यायालयों के फैसलों के बीच विवाद होता है ,
तो सबसे नवीनतम (ले टेस्ट) निर्णय का पालन किया जाता है । भारत के सं विधान के अनु च्छे द 141 के
अनु सार, सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय दे श भर के सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी होते हैं । हालां कि,
सर्वोच्च न्यायालय के फैसले अपने आप में बाध्यकारी नहीं हैं । बाद के मामलों में जहां पहले के फैसले को
बदलने के पर्याप्त कारण हैं , तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय ऐसा कर सकता है ।
मिसालों के प्रकार
आधिकारिक और प्रेरक
आधिकारिक मिसालें वे मिसालें हैं जिनका अधीनस्थ अदालतों को पालन करना चाहिए चाहे वे इसे स्वीकार
करें या नहीं। ये कानून के प्रत्यक्ष और निश्चित नियम बताते हैं । यह कानून के कानूनी स्रोतों की श्रेणी में
ू री ओर प्रेरक उदाहरण न्यायाधीशों पर बाध्यकारी दायित्व नहीं बनाते हैं । प्रेरक उदाहरण
आते हैं । दस
न्यायाधीश के विवे कानु सार लागू किए जा सकते हैं ।
मूल और घोषणात्मक
सालमं ड के अनु सार, एक घोषणात्मक मिसाल एक ऐसी मिसाल है जो किसी फैसले में पहले से मौजूद
कानून की घोषणा करती है । यह केवल कानून की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) है । एक मूल मिसाल एक
नया कानून बनाती और लागू करती है ।
विधान के प्रकार
सालमं ड के अनु सार, विधान को दो प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है - सर्वोच्च और अधीनस्थ।
1. सर्वोच्च विधान
कानून को सर्वोच्च कहा जाता है जब इसे सर्वोच्च या सं पर् भु (सोवरे न) कानून बनाने वाली निकाय द्वारा
अधिनियमित किया जाता है । एक निकाय को इस हद तक शक्तिशाली होना चाहिए कि उसके द्वारा बनाए
गए नियमों या कानूनों को किसी अन्य निकाय द्वारा रद्द या सं शोधित नहीं किया जा सकता है । भारतीय
सं सद को एक सं पर् भु कानून बनाने वाली निकाय नहीं कहा जा सकता क्योंकि सं सद द्वारा पारित कानूनों को
अदालतों में चु नौती दी जा सकती है । दस ू री ओर, ब्रिटिश सं सद को एक सं पर् भु कानून बनाने वाली
निकाय कहा जा सकता है क्योंकि इसके द्वारा पारित कानूनों की वै धता को किसी भी अदालत में चु नौती
नहीं दी जा सकती है ।
2. अधीनस्थ कानून
अधीनस्थ कानून बनाने वाली निकाय द्वारा अधिनियमित विधान को अधीनस्थ विधान कहा जाता है ।
अधीनस्थ निकाय ने अपना कानून बनाने का अधिकार एक सं पर् भु कानून बनाने वाली निकाय से प्राप्त
किया होता है । यह सर्वोच्च विधायी निकाय के नियं तर् ण के अधीन है । अधीनस्थ विधान के विभिन्न प्रकार
निम्नलिखित हैं :
एक वै ध प्रथा की आवश्यकताएँ
1. तर्क सं गतता (रीजने बिलिटी): प्रथा तर्क सं गत या व्यावहारिक होनी चाहिए और आधु निक
समाज में प्रचलित बु नियादी नै तिकता के अनु रूप होनी चाहिए।
2. पु रातनता: इसका पु रातन काल से अभ्यास किया होना चाहिए।
3. निश्चितता: प्रथा स्पष्ट होनी चाहिए कि इसका अभ्यास कैसे किया जाना चाहिए।
4. विधियों के अनु रूप: कोई भी प्रथा दे श के कानून के खिलाफ नहीं जाना चाहिए।
5. अभ्यास में निरं तरता: न केवल इस प्रथा का अनादि काल से अभ्यास किया जाना चाहिए,
बल्कि बिना किसी रुकावट के इसका अभ्यास किया जाना चाहिए।
6. सार्वजनिक नीति के विरोध में नहीं होनी चाहिए: प्रथा को राज्य की सार्वजनिक नीति का
पालन करना चाहिए।
7. सामान्य या सार्वभौमिक (यूनिवर्सल) होना चाहिए: जिस समु दाय या स्थान पर इसका
अभ्यास किया जाता है , उसकी राय में एकमत होना चाहिए। इसलिए, यह अपनी प्रयोज्यता
में सार्वभौमिक या सामान्य होना चाहिए।
प्रथा पर सर हेनरी मे न के विचार
सर हे नरी मे न के अनु सार, “प्रथा, थीमिस्ट या निर्णय के बाद की अवधारणा है ”। थीमिस्ट न्याय की
ग्रीक गॉडे स द्वारा राजा को निर्धारित न्यायिक पु रस्कारों को सं दर्भित करता है । हे नरी मे न के अनु सार
कानून के विकास के विभिन्न चरण निम्नलिखित हैं :
1. पहले चरण मे , कानून उन शासकों द्वारा बनाया जाता है जो परमात्मा से प्रेरित होते हैं ।
ू माना जाता था।
शासकों को ईश्वर का दत
ू रे चरण में , नियमों का पालन करना लोगों की आदत बन जाती है और यह प्रथागत कानून
2. दस
बन जाता है ।
3. तीसरे चरण में , प्रथाओं का ज्ञान लोगों के एक अल्पसं ख्यक (माइनॉरिटी) समूह के हाथों में
होता है जिसे पु रोहित वर्ग कहा जाता है । वे प्रथाओं को पहचानते हैं और औपचारिक रूप दे ते
हैं ।
4. अं तिम चरण प्रथा का सं हिताकरण (कोडिफिकेशन) है ।
प्रथाओं के प्रकार
कानूनी प्रथाएं : कानूनी प्रथाएं पूर्ण रूप से स्वीकृत होती हैं । ये प्रकृति में अनिवार्य हैं और
यदि उनका पालन नहीं किया गया तो कानूनी परिणाम भु गतने पड़ते हैं । दो प्रकार की कानूनी
प्रथाएं होती हैं , जो सामान्य प्रथाएं और स्थानीय प्रथाएं हैं । सामान्य प्रथाएं पूरे राज्य में
लागू होती हैं । दसू री ओर स्थानीय प्रथाएं केवल विशे ष इलाकों में ही लागू होती हैं ।
परम्परागत प्रथाएँ : परम्परागत प्रथाएं वे प्रथाएं हैं जो केवल एक समझौते के माध्यम से
उनकी स्वीकृति पर लागू होती हैं । ऐसी प्रथाएं केवल उन लोगों पर लागू करने योग्य है जो
इसे शामिल करने वाले समझौते के पक्ष हैं । दो प्रकार की पारं परिक प्रथाएं होती हैं जो
सामान्य पारं परिक प्रथाएं और स्थानीय पारं परिक प्रथाएं हैं । सामान्य पारं परिक प्रथाएं पूरे
ू री ओर स्थानीय पारं परिक प्रथाएं किसी विशे ष स्थान या किसी
क्षे तर् में प्रचलित हैं । दस
विशे ष व्यापार या ले नदे न तक ही सीमित है ।
निष्कर्ष
निष्कर्ष के लिए, न्यायशास्त्र में कानून के स्रोतों को कई आधारों पर वर्गीकृत किया जा सकता है । ले किन
सबसे उल्ले खनीय या सामान्य वर्गीकरण इसे कानून, मिसाल और प्रथा में विभाजित करता है । मिसाल
का मतलब पिछले न्यायिक फैसलों से है । विधान, विधायिका द्वारा अधिनियमित वै धानिक नियमों को
सं दर्भित करता है । प्रथा एक समु दाय की सदियों पु रानी प्रथाओं को सं दर्भित करती है जिसने अपनी
उपस्थिति को इतना मजबूत कर दिया है कि यह कानून बन गया है । हालां कि विधान वह एजें सी प्रतीत
होता है जिसके माध्यम से हमें कानून मिलते हैं , यह सिर्फ प्राथमिक स्रोत है । हमारे पास जो कई कानून
हैं , वे इस बात का प्रतिबिं ब (रिफ्ले क्शन) हैं कि एक समाज के रूप में हमने पीढ़ियों से क्या पालन किया
है । साथ ही, कई मामलों से पता चलता है कि कैसे कभी-कभी कानून अपर्याप्त होते है या यह अनु मान
लगाने में असमर्थ होते है कि बाद के विवादों में क्या मु द्दे उत्पन्न हो सकते हैं । यह न्यायपालिका को दे श के
कानून को विस्तृ त या व्याख्या करने के लिए कहता है ।
3.
4. उच्च न्यायालय के पिछले निर्णय के साथ असं गति।
5. समान रैं क के न्यायालय के पिछले निर्णयों के साथ असं गति।
6. पहले से मौजूद वै धानिक नियमों के साथ असं गति।
7. गलत फैसला।