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विषयसूची

 परिचय
 अर्थ
 ऐतिहासिक विकास
 शक्तियों के पथ
ृ क्करण के उद्देश्य
 शक्तियों के पथ
ृ क्करण के तत्व
o विधायी
o कार्यपालिका 
o न्यायपालिका 
 व्यवहार में शक्तियों का पथ
ृ क्करण
o यू.के. संविधान
o अमेरिकी संविधान
o ऑस्ट्रे लियाई संविधान
 भारतीय संविधान और शक्ति का पथ
ृ क्करण
 प्रावधान जो शक्ति के पथ
ृ क्करण की पुष्टि करते हैं
 अतिव्यापी (ओवरलैपिग
ं ) प्रावधान
 भारत में शक्ति के पथ
ृ क्करण की दिशा में न्यायिक दृष्टिकोण
 शक्तियों का पथ
ृ क्करण: प्रशासनिक कानन
ू के लिए एक बाधा
 आधनि
ु क यग
ु में शक्तियों के पथ
ृ क्करण की प्रासंगिकता
 आलोचना
 निष्कर्ष
 संदर्भ
शक्तियों का पथ
ृ क्करण और इसकी प्रासंगिकता

परिचय

शक्तियों के पथ
ृ क्करण की अवधारणा एक लोकतांत्रिक दे श के शासन के लिए प्राथमिक तत्व है । यह
सिद्धांत सरकार के कामकाज में निष्पक्षता और ईमानदारी की पुष्टि करता है । यद्यपि अभी तक इसका
कड़ाई से पालन नहीं किया गया है , अधिकांश लोकतांत्रिक दे शों ने अपने-अपने संविधानों के तहत इसका
संस्करण (वर्जन) अपनाया है ।

अर्थ

शक्तियों के पथ
ृ क्करण की अवधारणा सरकार की एक प्रणाली को संदर्भित करती है जिसमें सरकार की
कई शाखाओं के बीच शक्तियों को विभाजित किया जाता है , प्रत्येक शाखा सरकार के विभिन्न पहलओ
ु ं को
नियंत्रित करती है । अधिकांश लोकतांत्रिक दे शों में , यह स्वीकार किया जाता है कि विधायिका, कार्यपालिका
(एग्जिक्यटि
ू व) और न्यायपालिका तीन शाखाएँ हैं। इस सिद्धांत के अनस
ु ार, स्वतंत्र लोकतंत्र में इन शाखाओं
की शक्तियाँ और कार्य अलग-अलग होने चाहिए। किसी भी प्रकार के विवाद से बचने के लिए ये अंग
एक दस
ू रे के हस्तक्षेप के बिना स्वतंत्र रूप से अपने काम करते हैं। इसका अर्थ है कि कार्यपालिका,
विधायी और न्यायिक शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती है , विधायिका, कार्यपालिका और न्यायिक
शक्तियों का प्रयोग नहीं कर सकती है और न्यायपालिका, विधायी और कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग
नहीं कर सकती है ।

ऐतिहासिक विकास

शक्तियों के पथ
ृ क्करण का सिद्धांत प्राचीन काल में उभरा है । एरिस्टोटल ने अपनी पस्
ु तक ‘पॉलिटिक्स’ में
शक्तियों के पथ
ृ क्करण की अवधारणा पर चर्चा करते हुए कहा कि प्रत्येक संविधान में सरकार का एक
विषम रूप होना चाहिए जिसमें मुख्य रूप से तीन शाखाएँ विचारशील (डेलीबेरेटिव), सार्वजनिक अधिकारी
और न्यायपालिका हो। सरकार की एक समान संरचना दे श में नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को
स्थापित करते हुए रोमन गणराज्य में दे खी गई थी।

आगे, 17 वीं शताब्दी में इंग्लैंड में संसद के आगमन के दौरान, सरकार की तीन शाखाओं के इस सिद्धांत
को एक ब्रिटिश राजनीतिज्ञ जॉन लोके ने अपनी पुस्तक ‘टू ट्रीटीज ऑफ गवर्नमें ट’ में दोहराया लेकिन
कुछ अलग दृष्टिकोण के साथ। उनके अनुसार तीनों शाखाओं में न तो समान शक्तियाँ होनी चाहिए और
न ही स्वतंत्र रूप से कार्य करना चाहिए। उनकी राय में , विधायी शाखा तीनों में से सर्वोच्च होनी चाहिए
और अन्य शाखाओं को सम्राट (मोनार्क ) द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए। उनका सिद्धांत उस समय
इंग्लैंड में प्रचलित सरकार यानि लोकतांत्रिक और निरं कुश (ऑटोक्रेटिक) सरकार दोनों का सह-अस्तित्व की
व्यवस्था पर आधारित था।

वेड और फिलिप्स के अनुसार, शक्तियों के पथ


ृ क्करण के सिद्धांत का मतलब तीन चीजें थीं:

1. एक व्यक्ति को सरकार की एक से अधिक शाखाओं का हिस्सा नहीं बनाया जाना चाहिए।


2. सरकार के किसी अंग पर दस
ू रे का कोई हस्तक्षेप और नियंत्रण नहीं होना चाहिए।
3. सरकार के किसी भी अंग को दस
ू रे अंग के कार्यों और शक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

हालाँकि, 18 वीं शताब्दी में , ‘ट्रायस पॉलिटिका’ शब्द या शक्तियों के पथ


ृ क्करण के सिद्धांत को एक फ्रांसीसी
विधिवेत्ता (ज्यूरिस्ट), बैरन डी मोंटे स्क्यू द्वारा सावधानीपूर्वक सिद्धांतित किया गया था। उन्होंने न्यायिक
शाखा की स्वतंत्रता पर अधिक जोर दिया था। उन्होंने वर्णन किया कि न्यायपालिका को प्रकृति में प्रत्यक्ष
होने के बजाय, प्रामाणिक होना चाहिए। उनके विचार में , एक अंग या एक व्यक्ति को अन्य सभी अंगों के
कार्यों का निर्वहन (डिस्चार्ज) नहीं करना चाहिए और इसका कारण व्यक्तियों की स्वतंत्रता की रक्षा करना
और अत्याचारी शासन से बचना था। अपनी पुस्तक डी ल’एस्प्रिट डेस लोइस (द स्पिरिट ऑफ लॉज,
1748) में , उन्होंने प्रतिपादित (प्रोपाउं ड) किया कि: –

 कार्यपालिका को विधायी या न्यायिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे
व्यक्तियों की स्वतंत्रता को खतरा हो सकता है ।
 विधायिका को कभी भी कार्यपालिका या न्यायिक शक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि
इससे मनमानी हो सकती है और इसलिए, स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है ।
 न्यायपालिका को कार्यपालिका या विधायी शक्तियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि तब एक
न्यायाधीश एक तानाशाह की तरह व्यवहार करे गा।

शक्तियों के पथ
ृ क्करण के उद्देश्य

1. शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत के मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं: –
2. सबसे पहले, इसका उद्देश्य मनमानी, अधिनायकवाद (टोटे लीटे रियनिज्म) और अत्याचार को खत्म करना
और सरकार के एक जवाबदे ह और लोकतांत्रिक रूप को बढ़ावा दे ना है ।
3. दस
ू रे , यह सरकार के विभिन्न अंगों के भीतर शक्तियों के दरु
ु पयोग को रोकता है । भारतीय संविधान
सरकार के प्रत्येक क्षेत्र के लिए कुछ सीमाएँ प्रदान करता है और उनसे ऐसी सीमाओं के भीतर अपना
कार्य करने की अपेक्षा की जाती है । भारत में , संविधान परम संप्रभु (सोवरे न) है और यदि कुछ भी
संविधान के प्रावधानों से परे जाता है , तो इसे स्वतः ही शून्य और असंवैधानिक माना जाएगा।
4. तीसरा, यह सरकार की सभी शाखाओं को अपने लिए जवाबदे ह बनाकर उन पर नज़र रखता है ।
5. चौथा, शक्तियों का पथ
ृ क्करण सरकार के तीन अंगों के बीच शक्तियों को विभाजित करके संतुलन
बनाए रखता है ताकि शक्तियां मनमानी की ओर ले जाने वाली किसी एक शाखा पर ध्यान केंद्रित न
करें ।
6. पांचवां, यह सिद्धांत सभी शाखाओं को सरकार की दक्षता (एफिशिएंसी) बढ़ाने और सुधारने के इरादे से
अपने-अपने क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने की अनुमति दे ता है ।

शक्तियों के पथ
ृ क्करण के तत्व

विधायी

सरकार के विधायी अंग को नियम बनाने वाली संस्था के रूप में भी जाना जाता है । विधायिका का
प्राथमिक कार्य राज्य के सुशासन के लिए कानून बनाना है । इसके पास मौजूदा नियमों और विनियमों
(रे गुलेशन) में भी संशोधन करने का अधिकार है । आम तौर पर, संसद के पास नियम और कानून बनाने
की शक्ति होती है ।

कार्यपालिका

सरकार की यह शाखा राज्य को संचालित करने के लिए जिम्मेदार है । कार्यपालिका मुख्य रूप से
विधायिका द्वारा बनाए गए कानूनों को लागू करती हैं। राष्ट्रपति और नौकरशाह (ब्यरू ोक्रेट्स) सरकार की
कार्यपालिका शाखा बनाते हैं।

न्यायपालिका

न्यायपालिका किसी भी राज्य में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है । यह विधायिका द्वारा बनाए गए
कानन
ू ों की व्याख्या और लागू करती है और व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा करती है । यह राज्य के
भीतर या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विवादों को भी हल करती है ।

व्यवहार में शक्तियों का पथ


ृ क्करण

यू.के. संविधान

यन
ू ाइटे ड किं गडम एकात्मक संसदीय संवैधानिक राजतंत्र (यूनिटरी पार्लियामें ट्री कांस्टीट्यूशनल मोनार्ची) का
अभ्यास करता है । शक्तियों के पथ
ृ क्करण की अवधारणा यूके में लागू होती है , लेकिन इसके कठोर अर्थों
में नहीं क्योंकि यूके में एक अलिखित संविधान है । क्राउन राज्य का मुखिया होता है जबकि प्रधानमंत्री
को सरकार के प्रमुख के रूप में मान्यता दी जाती है । कार्यपालिका और विधायिका किसी न किसी तरह
एक दस
ू रे से जुड़ी हुई हैं।
क्राउन द्वारा अपनी सरकार के माध्यम से कार्यपालिका शक्तियों का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार,
क्राउन नाममात्र का मुखिया होता है और वास्तविक कार्यपालिका शक्तियाँ प्रधान मंत्री और अन्य कैबिनेट
मंत्रियों में निहित होती हैं। यूके की संसद द्विसदनीय (बाईकेमरल) है और दो सदनों – हाउस ऑफ
कॉमन्स और हाउस ऑफ लॉर्ड्स में विभाजित है । ब्रिटे न में संसद संप्रभु नियम बनाने वाली संस्था है ।
प्रधान मंत्री और अन्य कैबिनेट मंत्री भी हाउस ऑफ कॉमन्स का हिस्सा हैं। सरकार संसद के प्रति
जवाबदे ह है । व्यावहारिक रूप से, कार्यपालिका को हाउस ऑफ कॉमन्स द्वारा नियंत्रित किया जाता है ।
न्यायपालिका, कार्यपालिका के नियंत्रण से स्वतंत्र है । लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को
भ्रष्टाचार के किसी भी आरोप के साथ दोनों सदनों की सहमति पर हटाया जा सकता है ।

इस प्रकार, हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यूके के संविधान ने सरकार के तीन अंगों के बीच
नियंत्रण और संतुलन बनाए रखने के लिए शक्तियों के पथ
ृ क्करण को शामिल किया है , लेकिन एक अंग
का दस
ू रे में किसी प्रकार का हस्तक्षेप मौजूद है ।

अमेरिकी संविधान

अमेरिका का एक लिखित संविधान है और सरकार के राष्ट्रपति स्वरूप द्वारा शासित है । अमेरिका के


संविधान की आधारशिला (कोरस्टोन) शक्तियों के पथ
ृ क्करण का सिद्धांत है । यह अवधारणा अमेरिकी
संविधान के तहत अच्छी तरह से परिभाषित और स्पष्ट है ।

 अनुच्छे द I – अमेरिकी संविधान की धारा 1 में कहा गया है कि –

“सभी विधायी शक्तियां कांग्रेस में निहित हैं।”

 अनुच्छे द II – अमेरिकी संविधान की धारा 1 में कहा गया है कि –

“सभी कार्यकारी शक्तियाँ राष्ट्रपति में निहित हैं।”

 अनुच्छे द III – अमेरिकी संविधान की धारा 1 में कहा गया है कि –

“सभी न्यायिक शक्तियां संघीय अदालतों और सर्वोच्च न्यायालय में निहित हैं।”

राष्ट्रपति और उनके मंत्री कार्यकारी प्राधिकारी (अथॉरिटी) हैं और वे कांग्रेस के सदस्य नहीं हैं। मंत्री केवल
राष्ट्रपति के प्रति जवाबदे ह होते हैं न कि कांग्रेस के प्रति। राष्ट्रपति का कार्यकाल निश्चित होता है और
कांग्रेस में बहुमत से स्वतंत्र होता है ।
कांग्रेस संप्रभु विधायी प्राधिकरण है । इसमें दो सदन- सीनेट और प्रतिनिधि सभा होते हैं। राष्ट्रपति का
महाभियोग (इंपीचमें ट) कांग्रेस द्वारा किया जा सकता है । राष्ट्रपति द्वारा की गई संधियों को सीनेट द्वारा
अनुमोदित (अप्रूव) किया जाता है । संयक्
ु त राज्य अमेरिका का सर्वोच्च न्यायालय स्वतंत्र है । यदि ऐसा
पाया जाता है तो यह कार्यपालिका और विधायिका की किसी भी कार्रवाई को असंवैधानिक घोषित कर
सकता है । इस प्रकार, ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों अंगों की शक्तियाँ एक जलरोधक (वाटरटाइट) डिब्बे में
मौजूद हैं लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है ।

1. राष्ट्रपति अपनी वीटो शक्ति का प्रयोग करके कांग्रेस के कामकाज में हस्तक्षेप करते हैं। वह
न्यायिक शक्तियों में हस्तक्षेप करते हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति भी करते है ।
2. इसी तरह, कांग्रेस प्रक्रियात्मक कानन
ू पारित करके, विशेष अदालतें बनाकर और न्यायाधीशों की
नियुक्ति को मंजूरी दे कर न्यायालयों की शक्तियों में हस्तक्षेप करती है ।
3. न्यायपालिका, न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करके कांग्रेस और राष्ट्रपति की शक्तियों में
हस्तक्षेप करती है ।

पनामा रिफाइनिंग कंपनी बनाम रयान में , न्यायमर्ति


ू कार्डोज़ो ने दे खा कि: –

“शक्ति के पथ
ृ क्करण का सिद्धांत एक सिद्धांतवादी (डोग्मेटिक) अवधारणा नहीं है । इसे सख्ती के साथ लागू
नहीं किया जा सकता है । सरकार की जरूरतों के संबंध में इसके आवेदन में लचीलापन होना चाहिए।
इसलिए, इस सिद्धांत के लिए एक व्यावहारिक (प्रैक्टिकल) दृष्टिकोण की आवश्यकता है ।”

ऑस्ट्रे लियाई संविधान

ऑस्ट्रे लिया एक संघीय संसदीय संवैधानिक राजतंत्र प्रणाली द्वारा शासित है । ऑस्ट्रे लियाई संविधान ने
अमेरिकी संविधान से शक्ति के पथ
ृ क्करण की अवधारणा को उधार लिया था। ऑस्ट्रे लियाई संविधान के
पहले तीन अध्याय सरकार के तीन अलग-अलग अंगों को परिभाषित करते हैं- विधायी, कार्यपालिका और
न्यायपालिका। विधायी शाखा में ऑस्ट्रे लिया की संसद शामिल है , कार्यपालिका में रानी, गवर्नर-जनरल,
प्रधान मंत्री और अन्य मंत्री शामिल हैं।

ऑस्ट्रे लिया में एक द्विसदनीय संसद है जिसमें रानी (गवर्नर-जनरल द्वारा प्रतिनिधित्व), सीनेट और
प्रतिनिधि सभा शामिल हैं। कार्यकारी शक्तियाँ गवर्नर-जनरल में निहित होती हैं जिन्हें संघीय कार्यपालिका
परिषद द्वारा सलाह दी जाती है । न्यायिक शक्ति संघीय अदालतों और ऑस्ट्रे लिया के उच्च न्यायालय के
हाथों में है जो सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण है ।
अमेरिका और यू.के. की तरह, ऑस्ट्रे लिया के पास भी शक्तियों का पूर्ण पथ
ृ क्करण नहीं है । हालांकि,
नियंत्रण और संतुलन की एक प्रणाली विकसित की गई है । तीन अंगों की कुछ भूमिकाएँ और शक्तियाँ
ओवरलैप करती हैं-

 न्यायाधीशों, प्रधान मंत्री और अन्य मंत्रियों की नियुक्ति गवर्नर-जनरल द्वारा की जाती है ।


 प्रधान मंत्री और अन्य मंत्री संसद के साथ-साथ कार्यपालिका के सदस्य होते हैं।

यह ऑस्ट्रे लिया के उच्च न्यायालय द्वारा विक्टोरियन स्टीवडोरिंग बनाम डिग्नन के मामले में आयोजित
किया गया था, कि-

“सरकार के अंगों के सख्त वर्गीकरण की ब्रिटिश परं परा की निरं तरता को बनाए रखना बिल्कुल भी संभव
नहीं था। विधायी और कार्यपालिका शाखा स्वतंत्र रूप से काम नहीं कर सकती है । विधायिका और
कार्यपालिका के सख्त अलगाव से एक जिम्मेदार सरकार की स्थापना नहीं की जा सकती। विधायिका जब
भी आवश्यक हो, अपनी कानन
ू बनाने की शक्ति कार्यपालिका को सौंप सकती है ।”

भारतीय संविधान और शक्ति का पथ


ृ क्करण

यन
ू ाइटे ड किं गडम की तरह, भारत भी सरकार के संसदीय स्वरूप का अभ्यास करता है जिसमें
कार्यपालिका और विधायिका एक दस
ू रे से जुड़े होते हैं। इसलिए, शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत को
उसके सख्त अर्थों में लागू नहीं किया जाता है । हालाँकि, हमारे संविधान की संरचना में कोई संदेह नहीं है
कि भारतीय संविधान शक्तियों के पथ
ृ क्करण से बंधा है । भारतीय संविधान के तहत विभिन्न प्रावधान हैं
जो स्पष्ट रूप से शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत के अस्तित्व को प्रदर्शित करते हैं। केंद्र और राज्य
दोनों स्तरों पर इस सिद्धांत का पालन किया जाता है ।

प्रावधान जो शक्ति के पथ
ृ क्करण की पुष्टि करते हैं

 भारतीय संविधान के अनच्


ु छे द 53(1) और अनच्
ु छे द 154 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि संघ और
राज्यों की कार्यपालिका शक्तियाँ क्रमशः राष्ट्रपति और राज्यपाल में निहित हैं और केवल उनके
द्वारा या उनके अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से ही इसका प्रयोग किया जाएगा।
 भारतीय संविधान के अनच्
ु छे द 122 और अनच्
ु छे द 212 में कहा गया है कि अदालतें संसद और राज्य
विधानमंडल की कार्यवाही की जांच नहीं कर सकती हैं। यह सनि
ु श्चित करता है कि विधायिका में
न्यायपालिका का हस्तक्षेप नहीं होगा।
 भारतीय संविधान के अनच्
ु छे द 105 और अनच्
ु छे द 194 में निर्दिष्ट है कि सांसद और विधायक सत्र में
जो कुछ भी बोलते हैं, उसके लिए अदालत उन्हें नहीं बल
ु ा सकती है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 50 राज्यों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करने को
प्रोत्साहित करता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 245 संसद और राज्य विधानमंडल को क्रमशः परू े दे श और राज्यों के
लिए कानून बनाने का अधिकार दे ता है ।
 भारतीय संविधान के अनुच्छे द 121 और अनुच्छे द 211 में कहा गया है कि सर्वोच्च न्यायालय या उच्च
न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश के न्यायिक आचरण पर संसद या राज्य विधानमंडल में चर्चा नहीं
की जाएगी।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 361 निर्दिष्ट करता है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपनी शक्तियों का
प्रयोग करने और अपने कार्यालय में कर्तव्यों के प्रदर्शन के लिए किसी भी अदालत के प्रति जवाबदे ह
नहीं हैं।

अतिव्यापी (ओवरलैपिग
ं ) प्रावधान

 भारतीय संविधान का अनच्


ु छे द 123 राष्ट्रपति को अध्यादे श (ऑर्डिनेंस) जारी करने की अनम
ु ति दे ता है
जब दोनों सदन सत्र में नहीं होते हैं।
 भारतीय संविधान का अनच्
ु छे द 213 राज्यपाल को उस स्थिति में अध्यादे श जारी करने की शक्ति
दे ता है जब राज्य विधानसभा का सत्र नहीं चल रहा हो।
 भारतीय संविधान का अनच्
ु छे द 356 राज्य में आपातकाल की स्थिति में राष्ट्रपति शासन का प्रावधान
करता है ।
 भारतीय संविधान का अनच्
ु छे द 73 निर्दिष्ट करता है कि कार्यपालिका की शक्तियाँ विधायिका के साथ
सह-विस्तत
ृ (को-एक्सटें सिव) होंगी।
 भारतीय संविधान के अनच्
ु छे द 74 में कहा गया है कि मंत्रिपरिषद राष्ट्रपति को उसके कार्यकारी कार्यों
के अभ्यास में सहायता करे गी।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 75(3) मंत्रिपरिषद को सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी
बनाता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 61 राष्ट्रपति को हटाने के लिए दोनों सदनों से एक प्रस्ताव पारित
करके राष्ट्रपति के महाभियोग का प्रावधान करता है ।
 भारतीय संविधान के अनुच्छे द 66 में कहा गया है कि उपराष्ट्रपति का चुनाव दोनों सदनों के निर्वाचक
(इलेक्टोरल) सदस्यों द्वारा किया जाता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 145 सर्वोच्च न्यायालय को अदालती कार्यवाही और प्रथाओं के लिए
राष्ट्रपति के अनुमोदन से कानून बनाने की अनुमति दे ता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 146 राष्ट्रपति और संघ लोक सेवा आयोग के परामर्श से भारत के
मुख्य न्यायाधीश द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के कर्मचारियों और अधिकारियों की नियुक्ति के लिए
प्रावधान करता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 229 राज्यपाल और राज्य लोक सेवा आयोग के परामर्श से उच्च
न्यायालयों के सेवकों और अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान करता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 124 राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति करने
की शक्ति दे ता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 72 राष्ट्रपति को भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए
किसी भी व्यक्ति की सजा को माफ करने या निलंबित करने का अधिकार दे ता है ।
 भारतीय संविधान का अनुच्छे द 32, अनुच्छे द 226 और अनुच्छे द 136 संसद द्वारा बनाए गए किसी भी
कानन
ू जो असंवैधानिक पाया जाता या किसी भी प्रशासनिक कार्रवाई को रद्द करने के लिए सर्वोच्च
न्यायालय को न्यायिक समीक्षा की शक्ति प्रदान करता है ।

भारत में शक्ति के पथ


ृ क्करण की दिशा में न्यायिक दृष्टिकोण

अदालत ने कई मामलों में भारत में शक्ति के पथ


ृ क्करण के सिद्धांत की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) की
व्याख्या की है ।

 ृ क्करण के संबंध में पहला निर्णय न्यायमूर्ति मुखर्जी द्वारा राम जवाया कपूर बनाम
शक्तियों के पथ
पंजाब राज्य के मामले में दिया गया था। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि-

“भारत के संविधान ने शक्ति के पथ


ृ क्करण के सिद्धांत को सशक्त रूप से स्वीकार नहीं किया है , लेकिन
सभी अंगों के कार्यों और शक्तियों को पर्याप्त रूप से अलग अलग किया गया है । इस प्रकार यह कहना
गलत नहीं होगा कि भारतीय संविधान मान्यताओं को नहीं मानता बल्कि दे श की जरूरतों को दे खते हुए
लचीले ढं ग से काम करता है । इसलिए, कार्यपालिका केवल विधायिका द्वारा प्रत्यायोजित (डेलीगेट) होने पर
ही कानन
ू बनाने की शक्ति का प्रयोग कर सकती है और उसे सीमा के भीतर न्यायिक शक्तियों का
प्रयोग करने का भी अधिकार है । लेकिन कुल मिलाकर किसी भी अंग को अपनी शक्ति का प्रयोग
संविधान के प्रावधान से परे नहीं करना चाहिए।”

 इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राज नारायण, के मामले में मुख्य न्यायमूर्ति ने कहा कि:-

“शक्तियों के पथ
ृ क्करण की कठोर भावना जो अमेरिकी और ऑस्ट्रे लियाई संविधान के तहत दी गई है ,
भारत पर लागू नहीं होती है ।”

आगे न्यायमूर्ति बेग ने कहा कि:-


“शक्ति का पथ
ृ क्करण संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है । इसलिए, भारतीय संविधान के
अनुच्छे द 368 को बहाल करने के बाद भी संविधान की योजनाओं को नहीं बदला जा सकता है ।”

 गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य में , मुख्य न्यायमूर्ति सुब्बा राव द्वारा दे खा गया कि: –

“सरकार के तीनों अंगों को संविधान द्वारा सौंपे गए कुछ अतिक्रमणों को ध्यान में रखते हुए अपने कार्यों
का प्रयोग करना चाहिए। संविधान तीनों अंगों के अधिकार क्षेत्र का सूक्ष्म रूप से सीमांकन (डिमार्के ट)
करता है और उम्मीद करता है कि उनकी सीमाओं को पार किए बिना उनकी संबंधित शक्तियों के भीतर
प्रयोग किया जाएगा। सभी अंगों को संविधान द्वारा उन्हें आवंटित क्षेत्रों के भीतर कार्य करना चाहिए।
कोई भी अधिकार जो संविधान द्वारा बनाया गया है वह सर्वोच्च नहीं है । भारत का संविधान संप्रभु है
और सभी अधिकारियों को दे श के सर्वोच्च कानन
ू यानी संविधान के तहत काम करना चाहिए।

 न्यायमूर्ति दास ने ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य के मामले में शक्तियों के पथ
ृ क्करण की
बात की कि:-

“हालांकि संविधान ने सरकार के तीन अंगों पर कुछ सीमाएं लगाई हैं , लेकिन इसने हमारी संसद और
राज्य विधायिका को अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोच्च छोड़ दिया है । मुख्य रूप से , सीमाओं के अधीन, हमारे
संविधान ने न्यायपालिका की तुलना में विधायिका की सर्वोच्चता को प्राथमिकता दी है और न्यायालय को
उचित विधायिका द्वारा विधिवत बनाए गए कानन
ू की बुद्धि या नीति पर सवाल उठाने का कोई अधिकार
नहीं है ।”

 आसिफ हमीद बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य में , सर्वोच्च न्यायालय ने दे खा कि: –

“हालांकि संविधान ने पूर्ण कठोरता में शक्तियों के पथ


ृ क्करण के सिद्धांत को मान्यता नहीं दी है , संविधान
के प्रारूपकारों (ड्राफ्टर) ने विभिन्न अंगों की शक्तियों और कार्यों को परिश्रमपूर्वक परिभाषित किया है ।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को संविधान द्वारा निर्धारित अपने क्षेत्र में कार्य करना होता
है । कोई भी अंग किसी अन्य को आवंटित कार्यों का अधिकार नहीं दे सकता है ।”

शक्तियों का पथ
ृ क्करण: प्रशासनिक कानन
ू के लिए एक बाधा

प्रशासनिक कानून सार्वजनिक कानून की एक शाखा है जो प्रशासनिक अधिकारियों के संगठन, शक्तियों


और कर्तव्यों को निर्धारित करती है । शक्ति के पथ
ृ क्करण का सिद्धांत सरकार के तीन अंगों के बीच एक
सीमांकन बनाता है । लेकिन वर्तमान परिदृश्य में , प्रशासनिक कानून इस सिद्धांत के विपरीत है । वैश्वीकृत
अन्योन्याश्रयता (ग्लोबलाइज्ड इंटरडिपें डेंस) के उभरते हुए पैटर्न के साथ, प्रशासनिक एजेंसियां न केवल
प्रशासनिक कार्यों का प्रयोग कर रही हैं, बल्कि अर्ध-विधायी (क्वासी लेजिस्लेटिव) और अर्ध-न्यायिक (क्वासी
ज्यूडिशियल) शक्तियों का भी अभ्यास कर रही हैं, इस प्रकार, शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत का
उल्लंघन करती हैं।

समकालीन (कंटें परे रिली) रूप से, कुशल शासन स्थापित करने और कानूनों के उचित प्रवर्तन को सुनिश्चित
करने के लिए अतिरिक्त विधायी और न्यायिक शक्तियों को प्रशासनिक एजेंसियों को सौंपना एक
अनिवार्य आवश्यकता है । प्रशासनिक न्यायाधिकरण और प्रतिनिधिमंडल कानन
ू का निर्माण कानन
ू और
न्यायपालिका के भार को कम करने और विशेषज्ञता के साथ कानन
ू बनाने और न्याय दे ने की प्रक्रिया में
तेजी लाने के उद्देश्य से हुआ। यह शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत के सख्त कार्यान्वयन (इंप्लीमें टेशन)
के साथ प्राप्त नहीं किया जा सकता है । इसलिए, शक्तियों का पथ
ृ क्करण प्रशासनिक कानून पर एक सीमा
के रूप में कार्य करता है ।

आधनि
ु क यग
ु में शक्तियों के पथ
ृ क्करण की प्रासंगिकता

हालांकि, शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत में कठोर प्रयोज्यता नहीं है जिसका अर्थ यह नहीं है कि
वर्तमान परिदृश्य में इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है । शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत का मुख्य उद्देश्य
सरकार के तीन अंगों के बीच नियंत्रण और संतुलन रखना है जो सरकार को गतिशील रूप से चलाने के
लिए एक आवश्यक कारक है । इस सिद्धांत के पीछे तर्क सख्त वर्गीकरण नहीं है बल्कि यह किसी विशिष्ट
व्यक्ति या शरीर को शक्तियों की एकाग्रता (कंसंट्रेशन) से बचाव है । यह सिद्धांत अपने पूर्ण अर्थों में कार्य
नहीं करता है , लेकिन हाँ, यह बहुत लाभप्रद है यदि इसे आपेक्षिक (कोरिलेटिबली) रूप से लागू किया जाए।
इस प्रकार, अभेद्य (इंपेनीटरे बल) बाधाएं और अपरिवर्तनीय सीमाएं नहीं बल्कि राज्य के तीन अंगों द्वारा
शक्तियों के प्रयोग में पारस्परिक कटौती शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत की भावना है ।

आलोचना

हर सिद्धांत के कुछ प्रभाव और दोष होते हैं। शक्तियों का पथ


ृ क्करण सैद्धांतिक (थिऑर्टिकली) रूप से
त्रटि
ु पर्ण
ू साबित हो सकता है लेकिन इसे वास्तविक जीवन स्थितियों में व्यापक रूप से लागू नहीं किया
जा सकता है । इसमें कुछ कमियां और सीमाएं हैं।

विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों में सटीक रूप से अंतर करना असाधारण रूप से
कठिन है । एक स्थिर सरकार तभी हो सकती है जब तीनों अंगों के बीच सहयोग हो। इन अंगों को
जलरोधी डिब्बों में अलग करने का कोई भी प्रयास सरकार में विफलता और अक्षमता का कारण बन
सकता है ।
यदि इस अवधारणा को इसकी समग्रता में अपनाया जाता है , तो कुछ भी करना असंभव हो जाएगा।
नतीजतन, न तो विधायिका कानून बनाने की शक्ति उस कार्यपालिका को सौंप सकती है जिसके पास
विषय वस्तु में विशेषज्ञता हो, और न ही अदालतें अदालतों के कामकाज और कार्यवाही से संबंधित कानन

बना सकती हैं।

वर्तमान परिदृश्य में , एक राज्य लोगों के कल्याण और समद्धि


ृ के लिए काम करता है । इसे समाज के
जटिल मुद्दों को हल करना होगा। ऐसी परिस्थितियों में शक्ति पथ
ृ क्करण का सिद्धांत असंभव प्रतीत होता
है । इस सिद्धांत को इसकी कठोर अवधारणा में थोपने से आधुनिक राज्य के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होगी।
इस प्रकार, शक्ति का पथ
ृ क्करण सैद्धांतिक रूप से असंभव और व्यावहारिक रूप से असंभव है ।

मोंटे स्क्यू ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित करके व्यक्तियों की स्वतंत्रता की रक्षा करने का लक्ष्य रखा, जो
शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सख्त प्रवर्तन द्वारा असंभव है ।

निष्कर्ष

शक्तियों के पथ
ृ क्करण के सिद्धांत की व्याख्या सापेक्ष रूप में की जानी चाहिए। उदारीकरण
(लिबरे लाइजेशन), निजीकरण (प्राइवेटाइजेशन) और वैश्वीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के युग में शक्ति के
पथ
ृ क्करण को व्यापक परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित (एक्सपाउं ड) करना होगा। यह केवल संयम (रिस्ट्रें ट) या
सख्त वर्गीकरण के सिद्धांत पर नहीं बल्कि सहयोग, समन्वय की भावना और राज्य के कल्याण के हित
में प्रयोग की जाने वाली एक समूह शक्ति पर अंकुश लगाना चाहिए। यद्यपि यह सिद्धांत अपनी कठोर
धारणा में अक्षम्य है , फिर भी इसकी प्रभावशीलता उन नियंत्रणों और संतुलनों पर प्रमुखता से निहित है
जो कुटिल सरकार को रोकने और सरकार के विभिन्न अंगों द्वारा शक्तियों के दरु
ु पयोग को रोकने के
लिए आवश्यक हैं।

संदर्भ

 293 यू.एस 388 (1935)

 (1931) एचसीए 34

 एआईआर 1955 एससी 549

 एआईआर 1975 एससी 2299

 एआईआर 1967 एससी 1643


 1950 एआईआर 27

 एआईआर 1989 एससी 1899

 आई. पी. मैसी द्वारा प्रशासनिक कानून

 पी एम बख्शी द्वारा भारत का संविधान


 http://www.legalservicesindia.com/article/1878/Administrative-Law-
Separation-of-Powers.html
 https://www.lawctopus.com/academike/doctrine-of-separation-of-
power/

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