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Independence of supreme court (उच्चतम न्यायालय की

स्वतंत्रता)
P B Chaudhary
इस लेख में हम उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता (Independence of supreme court) पर सरल और सहज
चर्चा करेंगे और इसके विभिन्न पहलुओं को समझने की कोशिश करेंगे।

इस लेख को पढ़ने से पहले आप सुप्रीम कोर्ट के बेसिक्स को जरूर समझ लें ताकि आपके मन-मस्तिष्क में इसका
एक आधार तैयार हो जाये और आप इसे अच्छे से समझ पाये…

न्यायिक स्वतंत्रता की अवधारणा (Concept of judicial independence)

हम न्यायालय पर भरोसा इसीलिए तो कर पाते हैं क्योंकि हमें विश्वास होता है कि न्यायालय किसी का पक्ष नहीं लेगा, किसी
के दबाव में नहीं आएगा और फै सले बगैर किसी पूर्वाग्रह के करेगा।

न्यायालय की इस प्रकृ ति को कायम रखने में जो सबसे बड़ी भूमिका निभाती है वो न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धांत
(Doctrine of judicial independence)। न्यायिक स्वतंत्रता का सीधा सा मतलब यही है कि न्यायपालिका
को सरकार की अन्य शाखाओं से, सरकार के निजी या पक्षपातपूर्ण हितों से स्वतंत्र होना चाहिए।

शक्तियों के पृथक्करण के विचार को साकार करने के लिए न्यायिक स्वतंत्रता बहुत ही महत्वपूर्ण है। नहीं तो पता चला कि
न्यायालय के फै सले भी सरकार के मुताबिक हो रहे है और अगर ऐसा होता है तो ये कल्याणकारी लोकतंत्र की अवधारणा
को पूरी तरह से ध्वस्त कर देगी।

इसे दूसरे शब्दों में इस तरह से कह सकते हैं कि न्यायिक स्वतंत्रता का सिद्धांत (Doctrine of judicial
independence) इसीलिए अपनाया जाता है ताकि न्यायाधीश अपने पूरे कार्यकाल के दौरान संविधान की सर्वोच्चता को
बचाते हुए अपने न्यायिक विवेक से निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र रहे। भले ही वे निर्णय राजनीतिक रूप से कितने ही
अलोकप्रिय हों या शक्तिशाली हितों द्वारा विरोध करता हो।

निर्णय में निष्पक्षता, स्वतंत्रता और तर्क शीलता न्यायपालिका की पहचान है। कहा जाता है कि यदि “निष्पक्षता”
न्यायपालिका की आत्मा है, तो “स्वतंत्रता” इसकी जीवनदायिनी है। स्वतंत्रता के बिना निष्पक्षता नहीं पनप सकती। इससे
आप समझ सकते हैं कि न्यायिक विचार की स्वतंत्रता कितना अहम है।
इन्ही कु छ विचारों और सिद्धांतों को ध्यान में रखकर संविधान ने उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता और निष्पक्ष कार्यकरण
सुनिश्चित करने के लिए निम्नलिखित उपबंध किए हैं, आइये इसे समझते हैं।

उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता (Independence of supreme court)

1. नियुक्ति का तरीका

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भले ही राष्ट्रपति करता है लेकिन इसमें सबसे बड़ा रोल होता है कॉलेजियम
सिस्टम का जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त चार अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश होते हैं। ये व्यवस्था अपने आप में सुप्रीम कोर्ट
की बहुत बड़ी स्वतंत्रता है जो कि यह सुनिश्चित करती है कि न्यायिक नियुक्त राजनीति पर आधारित नहीं है।

2. कार्यकाल की सुरक्षा

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को कार्यकाल की सुरक्षा प्रदान की जाती है। यानी कि एक बार नियुक्त होने के बाद उसे
राष्ट्रपति अपने मन से नहीं हटा सकता, उन्हे संविधान में उल्लिखित प्रावधानों के जरिये ही हटाया जा सकता है। इसका
तात्पर्य है कि यद्यपि उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, लेकिन उनका कार्यकाल उसकी दया पर निर्भर नहीं है। ये
व्यवस्था कितना कारगर है इसका अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि अब तक उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को
हटाया नहीं गया है।

3. निश्चित सेवा शर्तें

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते, अवकाश, विशेषाधिकार, पेंशन का निर्धारण समय-समय पर संसद द्वारा
किया जाता है। और सिवाय वित्तीय आपातकाल के इसमें कोई अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इस तरह उनको
प्राप्त सुविधाएं पूरे कार्यकाल तक रहती है।

4. संचित निधि से व्यय

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों का वेतन एवं कार्यालयीन व्यय, भत्ते एवं पेंशन एवं अन्य प्रशासनिक खर्च भारत की संचित
निधि पर भारित होते हैं। इसका मतलब ये है कि संसद द्वारा इन पर चर्चा तो की जा सकती है लेकिन मतदान नहीं किया जा
सकता।

5. न्यायाधीशों के आचरण पर बहस नहीं हो सकती

महाहभियोग के अतिरिक्त संविधान में न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में या राज्य विधानमण्डल में बहस पर प्रतिबंध
लगाया गया है। यानी कि न्यायालय में न्यायाधीश किस तरह व्यवहार करता है, किस तरह मामलों को डील करता है, ये सब
उसके मसले है इस पर संसद में बहस नहीं की जा सकती है।

6. सेवानिवृति के बाद वकालत पर रोक

सेवानिवृत न्यायधीशों को भारत में कहीं भी किसी न्यायालय या प्राधिकरण में कार्य करने की स्वतंत्रता नहीं है। ऐसा यह
सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि वह निर्णय देते समय भविष्य में होने वाले लाभ का ध्यान वह न रखें। लेकिन
व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। इसके लिए आप हाल ही मामले को देख सकते हैं जहां जस्टिस रंजन गोगोई ने सेवानिवृत्ति के
बाद सरकारी लाभ को स्वीकार किया।
7. अपनी अवमानना पर दंड देने की शक्ति

उच्चतम न्यायालय उस व्यक्ति को दंडित कर सकता है जो उसकी अवमानना करे। इसके लिए उच्चतम न्यायालय
Contempt of Courts Act 1971 का सहारा लेता है जिसमें सारी बातें लिखी हुई है जैसे कि सिविल और
क्रिमिनल अवमानना मामले में कितनी सजा होगी, इत्यादि। कु ल मिलाकर इसका तात्पर्य ये है कि इसके कार्यों एवं फै सलों
की किसी इकाई द्वारा आलोचना नहीं की जा सकती। कम से कम गलत तरीके और साक्ष्यों आदि के हवाले से तो बिलकु ल
नहीं।

8. अपना स्टाफ नियुक्त करने की स्वतंत्रता

भारत के मुख्य न्यायाधीश को बिना कार्यकारी के हस्तक्षेप के अधिकारियों एवं कर्मचारियों को नियुक्त करने का अधिकार है।
वह उनकी सेवा शर्तों को भी तय कर सकता है।

9. इसके न्यायक्षेत्र में कटौती नहीं की जा सकती

संसद उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र में वृद्धि तो कर सकती है लेकिन संसद को उच्चतम न्यायालय के न्याय क्षेत्र एवं शक्तियों
में कटौती का अधिकार नहीं है। उच्चतम न्यायालय का न्यायक्षेत्र है क्या? इसकी चर्चा हम अगले लेख में करने वाले है जहां
से आपको बहुत ज्यादा क्लारिटी मिलेगी।

10. कार्यपालिका से पृथक

शक्तियों के बँटवारे के आधार पर लोकतन्त्र के तीन स्तम्भ का जिक्र किया जाता है जिसमें तीनों एक-दूसरे पर थोड़ा-बहुत
डिपेंड रहते हुए एक-दूसरे से अलग होता है। इसीलिए कार्यकारिणी को न्यायिक शक्तियाँ नहीं दी गई है और न्यायपालिका को
कार्यकारी शक्ति। लेकिन चूंकि उच्चतम न्यायालय अनुच्छेद 142 के तहत अपने दिये गए आदेशों का पालन भी करवाना
पड़ता है इसीलिए कभी-कभी वे कार्यकारी काम करते हुए भी नजर आ जाते हैं।

समापन टिप्पणी (Closing Remarks)

तो कु ल मिलाकर न्यायिक स्वतंत्रता संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों और विशेषाधिकारों के लिए एक सुरक्षा के रूप
में कार्य करती है और उन अधिकारों पर कार्यकारी और विधायी अतिक्रमण को रोकती है। अति स्वतंत्रता हानिकारक भी हो
सकती है क्योंकि ऐसी स्थिति में न्यायाधीशों द्वारा शक्तियों का दुरुपयोग हो सकता है। इसीलिए आप एक चीज़ गौर करेंगे कि
न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच निर्भरता और अंतर-निर्भरता की एक जटिल श्रृंखला है जो एक-दूसरे का प्रति-
परीक्षण करते हैं और एक दूसरे को संतुलित रखते हैं।

इसके अलावा, एक और दोष इस व्यवस्था में नजर आता है वो ये है कि अत्यंत स्वतंत्र न्यायपालिका में न्यायिक जवाबदेही
का अभाव होता है, यानी कि वे अपने निर्णयों के पीछे उनके औचित्य की पूरी जानकारी नहीं देते हैं उसे कानूनी नतीजों से
संरक्षित कर दिया जाता है। तो अगर न्यायिक जवाबदेही को सुनिश्चित कर दिया जाये तो इससे न्यायिक स्वतंत्रता सुदृढ़ हो
सकती है।

तो ये रही उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता (Independence of supreme court) और इसी के साथ इस लेख
को खत्म करते हैं। इससे आगे के लेख का लिंक नीचे दिया हुआ है, बेहतर समझ के लिए आप उसे भी जरूर पढ़ें।

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